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विभाजन और हिन्दी साहित्य - DW - 15.08.2017
विभाजन और हिन्दी साहित्य - DW - 15.08.2017
2017
संस्कृ ति
इस 15 अगस्त को अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से भारत की मुक्ति के 70 साल तो पूरे हो ही रहे हैं, लेकिन शायद इससे भी अधिक
महत्वपूर्ण बात यह है कि यह दिन भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की सत्तरवीं वर्षगांठ का दिन भी है.
यह विभाजन एक ऐसी त्रासदी था जिसके घाव अभी तक पूरी तरह भर नहीं पाए हैं. जैसा कि मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकर आयशा जलाल ने कहा है,
विभाजन "बीसवीं सदी के दक्षिण एशिया की के न्द्रीय ऐतिहासिक घटना” था, एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण था जिसने आने वाले अनेक दशकों को
परिभाषित कर डाला. मानव इतिहास में कभी भी इतने विराट पैमाने पर आबादी की अदला-बदली नहीं हुई जितनी विभाजन के कारण बने पाकिस्तान
और भारत के बीच हुई. इस त्रासदी के परिणामों के बारे में पक्के आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन आम राय यही है कि कम से कम डेढ़ करोड़ लोग
अपना घर-बार छोडने पर मजबूर हुए. इस दौरान हुई लूटपाट, बलात्कार और हिंसा में कम से कम पंद्रह लाख लोगों के मरने और अन्य लाखों लोगों के
घायल होने का अनुमान है. न सिर्फ देश बंटा बल्कि लोगों के दिल भी बंट गए.
इस विभीषिका ने संवेदनशील साहित्यकारों को झकझोर कर रख दिया. इन दिनों की स्मृतियां आज भी ताज़ा हैं, इसका प्रमाण कु छ ही माह पहले हिन्दी
की शीर्षस्थ कथाकार कृ ष्णा सोबती के उपन्यास "गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान” के रूप में सामने आया जिसमें उनके पाकिस्तान-स्थित पंजाब
के गुजरात से विस्थापित होकर पहले दिल्ली में शरणार्थी के रूप में आने और फिर भारत-स्थित गुजरात के सिरोही राज्य में वहां के राजकु मार की गवर्नेस
के रूप में नौकरी करने की कहानी है. अधिकांश उपन्यासों में लिखा रहता है कि इसके पात्र और वर्णित घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन इसमें इसके विपरीत
लिखा है कि इसके सभी पात्र और घटनाएं वास्तविक और ऐतिहासिक हैं. उपन्यासकार की टिप्पणी है कि "घरों को पागलखाना बना दिया सियासत ने”
और विभाजन का निष्कर्ष एक पात्र सिकं दरलाल के शब्दों में यूं व्यक्त होता है: "यह तवारीख का काला सिपारा सियासत पर यूं गालिब हुआ कि जिन्ना ने
दौड़ाए इस्लामी घोड़े और गांधी, जवाहर ने पोरसवाले हाथी.”
प्रख्यात उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास "झूठा सच” विभाजन की त्रासदी पर हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे
विराट ऐतिहासिक-राजनीतिक फलक पर प्रस्तुत करता है और विभाजन के बाद स्वाधीन भारत में शुरू होने वाली राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा स्वाधीनता
संघर्ष के मूल्यों में होने वाले क्षरण को यथार्थवादी ढंग से चित्रित करता है. इसका पहला खंड `वतन और देश'1958 में और दूसरा खंड ‘देश का
भविष्य'1960 में प्रकाशित हुआ था. पहले खंड की घटनाएं विभाजनपूर्व के लाहौर में घटित होती हैं और दूसरा खंड विभाजन के बाद के दिल्ली में
के न्द्रित है. उपन्यास 1942 से लेकर 1957 तक के कालखंड का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है.
https://www.dw.com/hi/विभाजन-और-हिन्दी-साहित्य/a-40092853 1/4
11/18/23, 11:45 AM विभाजन और हिन्दी साहित्य – DW – 15.08.2017
विभाजन को
लेकर लिखा
गया भीष्म
साहनी का
उपन्यास ‘तमस'
भी यशपाल के
‘झूठा सच' की
तरह ही
आधुनिक
क्लासिक की
श्रेणी में रखा
जाता है. लेखक
को इसे लिखने
की प्रेरणा
1970 में
भिवंडी, जलगांव
और महाड़ में
हुए सांप्रदायिक
दंगों से मिली थी
और वहां के दौरे
तस्वीर: Lokbharati Prakashan ने उनकी तस्वीर: Rajkamal Prakashan
रावलपिंडी की
यादों को ताजा
कर दिया था. इस उपन्यास का फ़लक ‘झूठा सच' जैसा विराट तो नहीं है लेकिन
सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने की तकनीक और विभिन्न समुदायों के बीच असुरक्षा
और दूसरे समुदायों के प्रति नफरत पैदा करने की प्रक्रियाओं का इसमें सूक्ष्म अध्ययन
पेश किया गया है. राही मासूम राजा का ‘आधा गांव' भी विभाजन से पहले की
घटनाओं और इसके कारण सामाजिक ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया को
पाठकों के सामने लाता है लेकिन इसका लोके ल पूर्वी उत्तर प्रदेश है. बदीउज्जमा का
‘छाको की वापसी' और कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान' भी विभाजन पर हिन्दी में
लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यासों में गिने जाते हैं. इस विषय पर अनेक कहानियां भी
लिखी गई हैं.
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