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आआआआआ आआआ, आआआआआआआआआआआ, आआआआ – 395005, आआआआ 0261-2772201,2
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िसथित पकरण
पिसद िचत से जगदूप िचत की िवलकणता वणरनपूवरक साखय आिद के मतो का खणडन कर बहमातता का
साधन।
युिकतयो से सवरपभेदवश जगत की िसथित का खणडन करके अविशष पूणाननदसवरपमात का िसथित का
वणरन।
जगत की िववतररपता का सथापन करके बोधदृिष से उसके बाध का पदशरन तथा अज पुरष की दृिष मे
जगत की अननतता का वणरन।
इिनदययुकत मन ही जगत की िसथित का मूल है, उसका समूल उचछेद होने पर दृशय का असंभव देखने से
जगत शूनय हो जाता है, यह कथन।
भृगु ऋिष के समािधसथ होने पर पवरत पर खेल रहे शुकाचायर के अपसरा को देखने पर मोहवश पापत अपसरा
का वणरन।
शुकाचायर का मन से सवगर गमन, वहा पर इनद का उनहे सममान के साथ अपने समीप मे बैठाना।
सवगर मे शुक का पुनः अपनी िपया को देखना और परसपर के पेमािधकय से दोनो का संगम होना।
सवगीय िविवध सुखो के भोग के अननतर भूलोक मे आये हुए शुक का वासनावश अनेक जनमो का तथा
तपिसवता का वणरन।
भृगु ऋिष के समीप मे िसथत मृतपाय शुक शरीर के पतन और सूखने का वणरन।
पुत का शरीर देख भृगु जी का काल के पित कोध व काल का आतमिवदा से भृगु जो को बोिधत करना।
महिषर भृगु के योगदृिष से भलीभाित पुतवृतानत पदशरन से तथा काल के संवाद से जगत की िसथित मन का
खेल है, यह वणरन।
समुद और तरंग के दृषानत से पापत हुई आतमिवकािरता के वारणपूवरक मोह से उतपन हुई िविचतता की
िववतररपता का वणरन।
मन की शिकतयो का वणरन करके भृगु और काल का शुक के समीप मे जाने के िलए उठना।
समंगा नदी के िकनारे पर जाकर काल और भृगु ऋिष का शुकाचायर को समािध से जगाना, पूवर वृतानत का
समरण िदलाना और वहा से आने की इचछा का वणरन।
पूवरशरीर को देख शुक का िवलाप मे हेतु िवशेष कथनपूवरक शरीर के सवभाव का वणरन।
काल के चले जाने पर काल की आजानुसार शुकाचायर का अपने शरीर मे पवेश करना तथा उनकी दैतयो की
गुरता और जीवनमुिकत का वणरन।
शुद िचतो की सतयसंकलपता का वणरन।
मिलन िचतो का मिलन िचतो के साथ समबनध, जागत आिद अवसथाओं के शोधन से िचनमात पिरशेषरप शुिद
का लाभ और जानी की मोकपािपत का वणरन।
उपासनाओं के अनुसार फल की पािपत, जानोपाय से सतय आतमा मे अवसथान और जागत, सवप, सुषुिपत तथा
तुरीय अवसथा मे िसथित का वणरन।
संसार सतय आतमा का अवलमबन न करने वाली िचत की भािनत है, सतय आतमा का अवलमबन करने पर तो
िचत और संसार आतमा ही है, यह वणरन।
िवशुद पुरष मे कलपक का अभाव होने से मन की कलपना नही होती और अिवशुद मे मन की िसिद होने से
अनेक मत-मतानतरो की कलपनाएँ होती है, यह कथन।
दृढ बोध होने पर सब दोषो के नाश, मन की पसनता व िवशुद आतमतततव के साकातकार का वणरन।
जानी का शरीररपी नगर मे राजयवणरन, आसिकतरिहत सदभोगो से िवनोद और मनोजयरपी सुख के उदय का
वणरन।
इंिदयो की पबलता, उन पर िवजय पाने के उपाय न उनसे पसाद एवं बोध दारा वासनाकय का वणरन।
देवताओं दारा शमबर के सेनापितयो की हतया, दाम, वयाल और कट नामक सेनापितयो की उतपित और उनसे
देवताओं पर िवजय पाने की आशा का वणरन।
देवताओं के साथ पाताल से िनकले हुए दाम, वयाल और कट आिद के घोर संगाम का वणरन।
दाम, वयाल और कट से परािजत होकर शरण मे आये हुए देवताओं से बहाजी का िचरकाल तक वासना
वृिदरप दैतयवधोपाय कथन।
िवशाम को पापत हएु देवता और दानवो का, वासनोदय होने तक िचरकालीन युद का पुनः िवसतार से वणरन।
दाम आिद के, िजनहे देवताओँ के पयत से देहािभमान पापत हो गया था, युद मे िवषाद का, तदननतर पलायन
और पराजय का वणरन।
पाताल मे यमराज से जलाये गये दाम आिद की काशमीर देश मे मछली होने तक जनम परंपराओं का वणरन।
अहंकार से अथरहािन और अनथर पािपत कहकर दामािद की सता और असता का िनराकरण।
मछली और सारस के जनम की पािपत से िवयुकत हुए दाम आिद की राजमहल मे मचछर आिद के शरीरो मे जान
पापत कर मुिकत का वणरन।
शुभ उदम, साधु और सतशासत के माहातमय का वणरन तथा अहंकार की बनधकता और उसके तयाग से मुिकत
पािपत का वणरन।
भीम, भास और दृढ दारा िछन-िभन हुए देवताओं से पािथरत भगवान हिर का शमबर को मारना और वासनारिहत
उनका मुकत होना।
िचत की शािनत के उपाय का और भोगेचछा के तयाग का वणरन, जो िक सतसंगित, िववेक औऱ आतमबोध से
उतपन समािध से पापत होता है।
अपने -आप िसथत असकत ही िचत् की सवरत िसथित है तथा िचत की ही सवरत िसथित से संपूणर पदाथों की
िसथित है, उनकी पृथक िसथित नही है, यह वणरन।
अिवदा, काम और कमर से आतमा के अनातमभाव की पािपत, तदननतर जान का, मन का अभाव और िनषकमरता
से सवरपाविसथित का वणरन।
असंग आतमा को जो नही जानता, उसके मन के संग से कतृरतव तथा आतमतततवजानी के अकता और अभोकता
होने से बनध के अभाव का वणरन।
बह की सवरशिकतता, शीरामजी के मोह का िवसतार, उनके बोध के िलए शीवािसषजी के िवचार आिद का
वणरन।
िविवध जीवो की उपािधयो दारा उतपित, जीवो तथा उपािधयो के बहभाव का िवसतृत वणरन।
अिनववरचनीय, िचिकतसा के योगय, अिविचनतय और िमथया माया कलना आिद िवशेष धमों का मूल है, यह
वणरन।
अनंतशिकत बह के वासना की घनता के कम से, जीवभाव कम का वणरन।
जीवो की कमरगित का िवसतार से वणरन एवं िववेक आिद के अतयनत दुलरभ होने से िकनही-िकनही की मुिकत
होती है, यह वणरन।
मुिकत और पलय मे समानता होने पर भी इन दोनो मे िवलकणता का कथन एवं िवरंिचरप जीव के शरीर-गहण
कम का कथन
मन का कायर कभी सचचा नही होता, कारण िक मनोरथ आिद मे ऐसा देखा गया है, इसिलए मनोमय होने के
कारण जगत असत् है, सत् ही सत् है, यह वणरन।
िजन गुणो से संसार मे िवहार करता हुआ भी िनमगन नही होता और जो जीवनमुकत लोगो मे िसथत है, उन गुणो
का शीरामचनदजी के िलए उपदेश।
अतीत, भावी और वतरमान करोडो बहा और बहाणडो का तथा िनयत और अिनयत कमवाले देवता आिद का
वणरन।
भोग आिद की लालसा की िननदा, दाशूर की उतपित और पसन हुए अिगनदेव से उनको वर पािपत।
शाखा, पललव, पुषप, फल और पिकयो से मनोहर कदमब वृक का उतपेका आिद अलंकारो से वणरन।
उस कदंब-वृक की चोटी पर बैठे दाशूर दारा देखी गयी िदशारपी विनताओं का गुणो के साथ वणरन।
मानिसक यजो से दाशूर का आतमबोध, वनदेवी मे पुतोतपित और पुत के िलए जान पदान।
संकलप से किलपत िवश िमथया ही है यह सूिचत करने की इचछा से खोतथराजा चिरत की कलपना करके
वणरन।
जगत संकलप से किलपत है, इस अथर मे दृषातभूत खोतथ राजा के उपाखयान के तातपयर का वणरन।
संकलप की जैसे उतपित होती है, जैसे उसका सवरप है, जैसे वह घनता को पापत होता है और िजस उपाय से
उसका उचछेद होता है, इन सबका वणरन।
पूिजत शीविसषजी का दाशूर के साथ वातालाप, कदमब शोभा का दशरन और पातःकाल गमन।
जड की सता और असता का तथा शुद चेतन के कतृरतव, अकतृरतव का िवचार कर दृशय मे तादातमय
संसगाधयासरप आसथा का सवरथा िनवारण।
शीरामचंदजी के पश का अनवसर, वासना के तयाग का कम और एकमात वासनातयाग से पिसद हुए लोगो की
पशंसा।
पूणर पद मे आरढ हुए पुरष के सवातमतव का बोध कराने वाली कच गाथा का शीविसषजी दारा शीरामचंदजी
को उपदेश।
िवषयो की िनःसारता, बहा के संकलप से जगत की रचना, बहा की िनवेद से िवशािनत और शासत सृिष का
वणरन।
बहा से उतपन हुए जीवो के देह गहण के कम का और पधानरप से जान के भाजन सािततवक जीवो के देह
गहण के कम का वणरन।
मुिकत के योगय राजससािततवक लोगो की पशंसा और उनके िववेक वैरागय के कम का उपदेश।
शीरामचनदजी मे शासतोकत सब गुणो-सी समृिद का कथन और अधम पुरष की भी सतसंग औऱ पौरष से
उतम िसथित का पितपादन।
िसथित पकरण
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उपशम पकरण
मधयाह काल की शंखधविन से सभा के उतथान का वणरन तथा विसषजी का आिहककृतय और राित मे
िवशािमत जी के साथ िसथित।
आिहक कमानुषान, शीरामचनदजी का सुनी हुई वाताओं का िचनतन तथा सुने हुए पदाथों मे िसथरता के िलए
बुिद आिद की पशंसा करना।
पातःकाल सनानगृह मे आये हुए शीरामचनदजी आिद के साथ शीविसषजी का सभा-गृह मे जाना और सभा का
आरमभ।
राजा दशरथ का शीविसषजी के वाकयो की पशंसा करना तथा शीविसषजी के वचन से शीरामचनदजी दारा
िचिनतत पदाथों का अनुवाद।
अिववेक से बढी हुई मनोमातरपी जगत-सृिष की िनवृित के उपाय का कम।
पहले कमरगितयो को कहकर जीवनमुिकतरप अिनतम जनम वालो की जीवनमुिकत के िलए गुण पािपत मे साधारण
कम का कथन।
अपने िवचार से कुछ वयुतपन िचतवाले पुरषो की आकाश से फल पतन जैसे जान पािपत का वणरन।
वसनत ऋतु मे उपवन मे िवहार कर रहे शीजनकजी ने िसदो दारा गीत शुभ-शलोक सुने , यह वणरन।
यह सुनकर िनवेद से घर आये हुए राजा का अथों के मूल कारण के िवचार से मन का िनणरय कथन।
मधयाहकाल के कृतयो मे पवृत होने के िलए दारपाल दारा पाथरना करने पर भी राजा का मौन होकर िवचार
करना।
आिहक कायर को कर चुके राजा का राित के अंत मे अनेको िविचत िववेको से अपने िचत का पबोधन।
राजा जनक की जीवनमुिकतरप से िसथित व िवचार तथा पजा के िविचत महातमय का वणरन।
जनक के िवचार को उदाहरण बनाकर िचत के पशमन के उपायो का युिकतयो दारा िवसतृत वणरन।
िविवध योिनयो मे दुःख पा रहे, उपदेश के अयोगय लोगो की उपेका कर उपदेश के योगय लोगो के िलए मन के
माजरन के उपाय का वणरन।
िचतता को पापत हुआ आतमा िजससे संसार मे बँधता है, अनथरबीजो से पूणर उस तृषणा का वणरन।
धयेय-जेयभेद से वासना तयाग का वणरन, उससे जीवनमुकत और िवदेहो के लकण का कथन।
िजस पकार के िनशयो से युकत जीवनमुकत पुरष बनधन मे नही पडता और अज बंधन मे पडता है, उनके
िवभाग का पुनः वणरन।
िजस िसथित मे िसथत पुरष संसार मे दुःखी नही होता, उस िसथित का िवसतारपूवरक शीरामचनदजी के िलए
उपदेश।
पूवोकत कथन की िसिद के िलए पुणय और पावन के आखयान का वणरन, िजसमे पुणय ने िपतृशोकातर पावन को
जानोपदेश िदया।
पुणय दारा पावन के तथा अपने नाना योिनयो मे जनमो का शोक-मोह की िनवृित के िलए वणरन।
तृषणारपी पाश का कय ही मोक है, आशा से िचतवृितया होती है, िनराश और अपने से पूणर पुरष की सवतः
मुिकत होती है, यह वणरन।
बिल के आखयान के िसलिसले मे पाताल का वणरन तथा बली के राजय का और वैरागय से मेर के िशखर पर
िवचार का वणरन।
िचत जय कहने के िलए राजमनती के उपाखयान का और मनती के अपितदनद िवपुल बल का वणरन।
राजा के दशरन मे उपायभूत वैरागय आिद के साथ उस दुष मंती पर िवजय पािपत के उपाय का वणरन।
सनदेह की िनवृित के िलए शुकाचायर के िचनतन की इचछा से बिल के हृदय मे िववेकरपी चनदमा के शुभोदय
का वणरन।
समृित से बिल के समीप हुए शुकाचायर के बिल के पित तततवजानोपदेश का और तदननतर आकाशगमन का
वणरन।
शुकाचायर जी दारा उपिदषमागर मे िवचार कर रहे बिल की चैतनय पूणाननद मे िवशािनत से िचरकाल तक
िसथित का वणरन।
बिल को िनशेष देखकर दुःिखत हुए दानवो दारा शुकाचायर जी का समरण और उनका बिल की िसथित
कहकर दानवो का शोक दूर करना।
जीवनमुकत बिल की राजयसमपित और पाताल मे बनधन का वणरन एवं शीरामचनदजी के िलए बिल के समान
पूणरपद मे िसथित का उपदेश।
िहरणयकिशपु का पराकम, पहाद आिद पुतो की उतपित, नृिसंह दारा वध और शोकपूवरक औधवरदैिहक िकया।
पहाद का शीहिर के पराकम का िचनतन, आतमीयो के कलयाण का िवचार और भगवदभिकत से भगवदभाव का
वणरन।
पहाद का िवषणु की मानसपूजा और असुरो के साथ बाह पूजा करना और उसे सुनकर आशयर मे पडे हुए
देवताओं का भगवन िवषणु से पूछना।
हिरभिकत से पहाद के िववेग आिद गुणो का उदय व पसन हएु हिर को अपने आगे देखकर सतुित।
शीहिर के वर से सुिवचार को पापत कर तथा अनातमवगर का तयाग कर पहाद का अपने अिदतीय
सिचचदाननदसवरप का वणरन।
साकातकृत आतमा का मन मे िवचार कर और पणाम कर उसके बल से जीते गये बनधनो का अनुसनधान कर
पहाद का पसन होना।
दुलरभ आतमा को पापतकर बार-बार पणाम कर रहे पहाद का आतमा की सतुित, अिभननदन और जैसे िपया िपय
के साथ एकानत मे रमण करती है वैसे ही आतमा के साथ एकानत मे समरण करना।
पहाद के पुनः समािधसथ होने पर नायकरिहत, अतएव दसयुओं दारा कत-िवकत दानवनगर की दुदरशा का
वणरन।
जगत की वयवसथा की िसिद के हेतु दैतयकुल के रकाथर पहाद के पबोधन के िलए हिर की िचंता का वणरन।
पाताल मे जाकर शंखधविन से पबोिधत पहाद से भगवान का कलपपयरनत राजय करने के िलए कहना।
सदेह होता हुआ भी िवदेह और कमरपरायण होता हुआ भी कूटसथ जानी िजस कम से वयवहार करे, उस कम
का पितपादन।
भगवान का सवाजावती दैतयराज पहाद से सपिरवार पूजा गहण कर दैतयराजय मे अिभषेकपूवरक वर देना।
भगवान िवषणु का पुनः कीरसागर मे गमन, आखयान का उतम फल और समािध से जीवनमुकतो के वयुतथान मे
हेतु का वणरन।
यदिप जान ईशर के पसाद से लभय है तथािप ईशर पर भार देना ठीक नही। अपने पौरष दारा इिनदयो को
वश मे करने से जान पापत होता है, यह वणरन।
मन की िनराशता की िसिद हेतु दृशय की वयथर दुःखसवरपता का गािध के आखयान मे िवसतार से पदशरन।
गािध का िभलनी के गभर मे जनम, िकरात िसथित और कीरपुर मे राजय पािपत का वणरन।
उसे दूसरे चाणडाल से चाणडाल जानकर लोगो के अिगन मे पवेश करने पर उसका भी अिगन मे भसम होना और
गािध का पबुद होना।
अितिथ से अपना पूवोकत कीरराज वृतानत सुनकर, सवयं वहा जाकर, देखकर और पुनःपुनः पूछ कर गािध
का िविसमत होना।
गािध का कीरनगर मे जाकर आशयरपूवरक देखकर तपसया से भगवान िवषणु को पसन करना तथा िवषणु का
यह सब माया है, यह कहना।
गािध का भूतमणडल और कीर देश मे पुनः जाकर पुनः पुनः शीहिर से पूछ कर तथा यह सब माया है यह
िनशयकर कम से जीवनमुकत होना।
िचत के आकमण के उपायो का, उतम जान के माहातमय का तथा िचतरपी सपर के सथूलतारपी दोष के
हेतुओं का वणरन।
शात परम पद मे िवशाित की इचछा कर रहे उदालक मुिन के मन के िविवध दोषो से िवकेप का बहुत पकार से
वणरन।
गुहा मे आसन िसथत, समािध मे पवेश करने की इचछावाले मुिन दारा िचंितत िचत पबोधन के उपायो का
वणरन।
वासनाओं तथा अहंकार से आतमा की असपषता तथा शरीर और मन का वैर इतयािद का वणरन।
जलाने , जलपलावन आिद दारा अपने शरीर िवषणु शरीर की भावना कर रहे उदालक मुिन का िवकलपो को
हटाकर समािध मे िवशाम लेना।
सता सामानय का लकण, उदालक का युिकत से देहतयाग कम व तयकत देह से चामुणडा का सवभूषण िनमाण।
मायारपी तम से शूनय वासनारिहत पबुदपुरष वयवहारसत होने पर भी समािधसथ है, यह वणरन।
अजात सवसवरप चैतनय दषा होने के कारण िजस दृशय सवरपता को धारण करता है वह िचत् ही ही उससे
अनय नही है, यह वणरन।
िकरात देश के सुरघु के वैरागय का वणरन तथा उसके पित माडवय का उपदेश।
एकात मे बाह व आभयंतर दृशयो का तयाग कर रहे राजा सुरघु को िवचार से सवातमलाभ हुआ, यह कथन।
जीवनमुकत उस सुरघु के देह िवनाशपयरनत असंगरप से आचरण तथा देह िवनाश के बाद आकाश के समान
अवसथान का वणरन।
अिदतीय पर बह मे सवाभािवक िचतैकागयातमक समािध के जान के िलए सुरघु और पिरघ के संवाद का
वणरन।
अजानरपी आवरण के हट जाने पर िनतयिचत्-सफुरण की अवसथा से िवदानो की सदा सवरदा अिदतीय बह मे
ही समािध होती है, यह वणरन।
राजा पिरघ के दारा परीकण के अननतर िजसकी सतुित की गई है, ऐसे तततविवत् की सुरघु का अपनी सजग
िसथित का सिवसतार वणरन।
उपायो का पिरजान रखने वाला पुरष िजन उपायो दारा मानस दोषो से िवचिलत नही होता और अपनी आतमा
का संसार दुःख से उदार करता है, उन उपायो का कथन।
सहािद पवरत का, वहा िसथत अित ऋिष के आशम का तथा महिषर अित के आशम मे िसथत िवलास और भास
नाम के दो तपिसवयो के जनम, कमर और शोक का वणरन।
तततवजान से रिहत भास के वचनो से उसके दुःखसागर मे पयावतन का िवसतारपूवरक वणरन।
देह और आतमा का समबनध नही है, इसका समथरन करने के िलए बनधन अनतःकरण की आसिकत से होता है
और अनतःकरण की आसिकत के तयाग से उसका िवनाश हो जाता है, यह कथन।
संसिकत और असंसिकत के लकण, वनदा-वनदािवभाग तथा फल का वणरन।
समपूणर अथों मे आसिकत के तयाग से मन िचनमातसवरप मे सुिसथर तथा िचनमातशेष िजस कम से हो जाता
है, उस कम का कथन।
असंग सुख मे परम शािनत को पापत कर रहा पुरष वयवहार से उतपन दोषो से िजस पकार से दुःखी नही होता,
उस पकार सयुिकतक उपपादन।
पर िचत्-वसतु वयवहार िवषय न होने के कारण शरीर आिद के िनरास के दारा केवल तुयर का वणरन।
शरीर भौितक है, अतः वह शोक, मोह के योगय नही है, इसका तथा दृग-दृशय के समबनध और िवशुद साकी का
वणरन।
दो तरह की अहं भावना गहण करने के योगय है, तीसरी अहंभावना तयाग करने योगय है, तीनो अहंभावनाओं के
तयाग से मुिकत की इचछा नही होती, यह कथन।
पमाद से संसार-भािनत, पबोध से सदा पूणरता तथा जीवनमुकत के गुणो का वणरन।
बडे-बडे अिधकारो मे भी हषर, शोक आिद के साथ समबनध रखने वाले अनेक मुकत देवता, असुर, मनुषय आिद
का वणरन।
संसाररपी जलिध, सतीरप तरंग, उसके तरण का उपाय व तरने के बाद सुख से िवचरण का वणरन।
मंदारमाला की नाई िवदानो को मसतक और गले मे धारण करने योगय माला का जीवनमुकतो के गुणो से
विसषजी दारा गुमफन।
िचत के सपनदन से होने वाली जगत की भािनत, िचतसपनदन के सवरप और उसके िनरोध मे हेतु भूत योग का
भली पकार वणरन।
िचत के िवनाश के िलए िजन योग और जानरपी दो उपायो का उपकम िकया था, उनमे से पहले का पूवर सगर
मे पिरजान हो जाने से िदतीय का वणरन।
िजस िवचार के सुदृढ होने पर संमुख िसथत भी िदवय भोगो मे इचछा उतपन नही होती, उसका वणरन।
पूवर मे अनेक पयतो से देहरपी घर से िनवािसत हुए िचतरपी वेताल की असता का अनुभव और युिकत से
उपपादन।
आतमा की एकागता की िसिद के िलए िनरथरक चेषािद हेतुओं से देह, इंिदय और मन को वीतहवय के दारा
बोधन।
िचत और इिनदयो के रहते समसत दोषरपी अनथों की पािपत होती है और उनके अभाव मे समसत गुणरपी
सुख की पािपत होती है, यह वणरन।
वीतहवय महामुिन की समािध का, पृथवी के िववर मे िसथित का तथा उसके हृदय मे िवदाधरतव, इनदतव, गणतव
आिद के अनुभव का वणरन।
वीतहवय मुिन की सूयर के िपंगलनाशक गण मे पवेशकर अपनी देह की उदधृित, जीवनमुकत िसथित व अंत
समािध का वणरन।
मुिन वीतहवय की छः राित तक पुनः समािध, िचरकाल तक जीवनमुकत िसथित, राग आिद को ितलाजिल और
मुिकत मे समािध का वणरन।
ॐकार की अंितम माता का अवलमबन कर िजस कम से महामुिन वीतहवय िवदेहमुिकत को पापत हुए, उस कम
का वणरन।
वीतहवय के िवमुकत होने पर हृदय मे उनके पाणो का लय हुआ, कारण मे देह का लय और कलाओं का लय
हुआ, यह वणरन।
िजनका मोह शात हो चुका है, ऐसे महातमाओं को आकाशगमन आिद िसिदयो मे इचछा नही होती तथा उनके
शरीरो को वयाघ आिद िहंसक पाणी घिषरत नही कर सकते, यह कथन।
मैती आिद गुणो से उपेत तथा िनषफल भाव को पापत दो पकार के िचत-नाश का िवसतृत वणरन।
संसाररपी लता का कारण शरीर है, शरीर का कारण मन है तथा मन के कारण पाण सपनद और वासना ये दो
है, यह वणरन।
पूवोकत िसथित िवशेषो मे यत के गौरव और लाघव का तथा वासना आिद के पकयपूवरक जान के सहाभयास का
वणरन।
िवचार की पौढता, वैरागय एवं सदगुणो से तततवजान होने पर िवषयो से घिषरत न होने के कारण जानी की
एकरप िसथत होती है, यह वणरन।
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। आआआआ आआआआआआ आआआ ।।
आआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआ
आआआआ आआआआआआआआआआ आआआआआआआआआ
आआआआआआ आआआआआआआ आआआआ आआआआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआ
'आआआआआआआआआआआ आआआआआआआआआ' (आआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआ) आआ
आआआआआआ आआआआआआ
आआआआआआ आआआआआआ
आआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआ आआआआआआ
आआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआ।
उतपित पकरण मे 'यतो वा इमािन भूतािन जायनते' (िजससे ये भूत उतपन होते है) इतयािद सृिष पितपादक सब
शुितवाकयो का अिदतीय बह मे जगत के अधयारोप पदशरन दारा तटसथलकणरप से तातपयरदशरनपूवरक जगत और जीव
के भेद का खणडन कर पतयग् बहैकरसता का बोध कराया। अब 'येन जातािन जीविनत' (उतपन होकर िजससे जीिवत
रहते है), 'येन दौः पृिथवी दृढा' (हे गािगर, इसी अकर की आजा मे िनयिमत होकर सूयर और चनदमा अपना-अपना कायर
करते है), 'को हेवानयात् कः पाणयददेष आकाश आननदो न सयादेष हेवाननदयाित' (यिद यह सवर सािकभूत हृदयाकाश
मे िसथत बुिद गुहा मे िनिहत आननदरप आतमा न होता, तो कौन िनशास िकया करता औऱ कौन उचछवास िकया करता,
यही आतमा लोक को आनिनदत करता है) 'भीषासमादातः पवते' (इसके भय से वायु बहता है), 'एको दाधार भुवनािन
िवशा' (जो अकेले समपूणर भुवनो को धारण करते है), 'य एको जालवानीशत ईशनीिभः परमशिकतिभः' (जो अिदतीय
मायावी ईशनीनामक परमशिकतयो से इन लोको के ऊपर शासन करता है), 'अनुजाता हयमातमासय सवरसय सवातमानं
ददाित' (अनुजा करने वाला यह आतमा इस सब जगत को अपनी आतमा देता है यानी अपनी सता से सतावान करता
है।) इतयािद वतरमान जगत की िसथित के िनवाह का पितपादन करने वाली शुितयो का और 'सदेव सोमयेदमग आसीत्' (
हे सोमय, सृिष के पहले यह सत् ही था), 'आतमा वा इदमेक एवाग आसीत्' (यह जगत सृिष के पूवर मे अिदतीय आतमा
ही था) इतयािद पलयकाल मे जगत की सता के िनवाह का पितपादन करने वाली शुितयो का भी पुरषो की बुिद की
िविचतता से उतपन हुए िविवध तातपयों के उतपेकण से युकत भािनतजिनत वैिचतय के िनरास दारा सिचचदाननदैकरस बह
मे सिचचदूपता के उपपादन दारा और तटसथ लकण के तातपयर के पदशरन दारा िवसतारपूवरक उपपािदत बहैकयजान को
िसथर करने के िलए िसथित पकरण का आरमभ करते हुए भगवान शीविसषजी उतपित पकरण के साथ िसथित पकरण
की संगित को दशाते हुए कहते है-
हे शीरामचनदजी, उतपित पकरण के बाद आप इस िसथित पकरण को सुिनये। उतपित िसथित मे हेतु है,
इसिलए इन दोनो पकरणो की हेतु मदभाव संगित है। एककायरतवरप संगित भी दोनो की है, ऐसा कहते है। जो िसथित
पकरण जात होने पर िनवाणपद (मुिकत) देता है।।1।।
जगदुतपित मे िमथयातव दशाने के िलए पहले जो युिकत िदखलाई है वे िसथित पकरण मे समान है, ऐसा अितदेश
से दशाते है।
हे शीरामचनदजी, इस पकार जगतरप से िसथत इस समपूणर दृशय को और अहम् को आप आकाररिहत
भािनतमात और असनमय जािनये।।2।। साधारण अनय िचत का कोई कता होता है, वह रंग आिद उपकरणो के बनता
है, भीत आिद आधार मे बनाया जाता है, पर यह जगदूप िचत अनय िचतो से िवलकण है। न तो िकसी कूँची, रंग आिद
उपकरणो से युकत कोई िचतेरा है, न उपादानभूत रंजक पदाथर है, न कोई आधार है, यह िचत आकाश मे उिदत हुआ
है। िजसका अनुभव होता है, वह िचत अपने से िभन दषा के रहने पर ही अनुभूत होता है। इससे अितिरकत कोई
दषा नही है, इसिलए जगतरप िचत दषारिहत अनुभवरप है। िनदा होने पर ही सवप िदखाई देता है, पर यह जगदूप
िचत िनदारिहत सवपदशरन है।।3।। िचत मे िसथत भावी नगर के िनमाण की तरह यह उिदत हुआ है। बनदरो दारा
शीत की िनवृित के िलए किलपत गुंजाफल और गेर आिद के कंकरो के संचय रप अिगन के ताप के तुलय असद होता
हुआ भी कायरकारी है। उससे भी बनदरो की शीतिनवृित होती है, यह ऐितह पमाण से िसद है इस आशय से असद् होता
हुआ भी कायरकारी है, यह कहा।।4।। यह जगदूप िचत बह से अिभन है िफर भी जल मे आवतर के तुलय बह मे
अनय सा िसथत है। यह जगदूप होता हुआ भी आकाश मे सूयर के पकाश के समान सवरथा शूनय है।।5।। आकाश मे
िदखाई दे रहे रतो की कािनत के समूह के तुलय यह िभितरिहत है। गनधवों के नगर के समान िदखाई देता हुआ भी
सदा आधाररिहत है।।6।। मृगतृषणा के जल के समान असतय है, परनतु सतय के समान पतीित कराता है। मनोरथ
किलपत नगर के समान िवसतृत है, खूब अचछी तरह अनुभव मे आता है, िकनतु है असनमय।।7।। किवयो दारा
किलपत कथा के पदाथरभूत नगर, पवरत आिद अवयवो की पतीित के समान इसका सवरप है, यह िकसी देश या काल मे
िसथत नही रहता, इसिलए असत् है। यह सवप मे देखे गये पवरत के तुलय सारहीन होता हुआ भी अतयनत दृढ है।।
8।। यह जगदूप िचत उलटकर रखे हएु इनदनील मिण के बडे सामने रहता है तभी तक धूप के िनवारण आिद मे
समथर, काटने के अयोगय और अिविचछन है।।9।। यह जगदूपी िचत आकाशतल की नीिलमा के समान िदखाई देता
हुआ भी वासतिवक नही है। सवपागना के रित के तुलय भोगरप अथरिकयाकारी होता हुआ भी असतय है।।10।।
िचतिलिखत तेजरिहत सूयर और अिगन के तुलय पकाशमान िसथत है।।11।। अनुभव मे आरढ मनोराजय के समान
मकरनद, पराग और सुगिनध से रिहत है। आकाश मे सफुिरत हुए िविवध वणों से युकत, किलपत आकारवाले, मूितर से
रिहत, चारो ओर से शूनय इनदधनुष के समान यह जगदूप िचत उिदत हुआ है।।12-13।। परमातमा के थोडे से
िवचार से सूख रहा महाभूतरपी कोमल पललवो से बनाया गया, जड सारहीन यह जगदूपी िचत वायु, सूयर और मनुषयो
के थोडे से आघात से सूख रहे कोमल पतो से रिचत जलमय िनःसार केले के खमभे के तुलय है।।14।। नेत रोग से
(रतौधी से) देखे गये अनधकार के चक के तुलय िजसका रप अतयनत असमभािवत है, ऐसा यह जगतरपी िचत पतयक
के तुलय िसथत है। जल के बुदबुदो के समान इसने अपने आकार की कलपना कर रखी है। भीतर मे यह शूनय है।
इसका सवरप दैदीपयमान है। आपाततः रमणीय होता हुआ भी पिरणाम मे अतयनत कटु है। इसके जनम और मरण
अिविचछन है।।15,16।। कुहरे के समान यह िवसतार युकत है और गृहीत होने पर कुछ भी नही है। साखयवािदयो ने
केवल जडरप से इसकी कलपना कर रखी है। वेदािनतयो ने इसको अिवदारप माना है। माधयिमक इसे शूनय मानते
है। योगाचायर किणक होने के कारण कालतः उसे परमाणु तुलय मानते है। सौतािनतक और वैभािषको के मत मे
कालतः और देशतः परमाणु तुलय है। वैशेिषक और नैयाियक इसको केवल देशतः ही परमाणुवत् मानते है और जैिनयो
ने इसे अिनयत सवभाव परमाणु के तुलय माना है। इस पकार वािदयो ने इसकी िविवधरप से कलपना कर रखी है।।
17।।
बाह जगत मे उकत नयाय को आधयाितमक जगत मे भी िदखाते हुए कहते है।
मै िकंिचत भूतमय हँू, इस पकार शूनय और भौितकरप से िसथत, गहण िकया जाता हुआ भी असत् िनशाचर
के तुलय यह जगदूप िचत िसथत नही है।।18।।
यिद ऐसा है, तो जगत सवतः तो सता शूनय है, बह सता से जगत का कोई सपशर नही है, ऐसी अवसथा मे
'सदेव सोमयेदमग आसीत्' इतयािद सतकायरवाही शुितयो का और उकत शुितयो के अनुसारी वयास, किपल आिद के सूतो
का सामंजसय कैसे होगा ?
ऐसा समझते हुए शीरामचनदजी पूछते है- हे भगवन्, बीज मे अंकुर के समान महापलय होने पर दृशय पर (बह)
मे रहता है, िफर उसी से यह उतपन होता है, इस पकार जो वयास आिद ने कहा है, उसकी संगित कैसे होगी, यह आप
कृपाकर मुझसे किहए।।19।। भगवन्, पलय मे अपनी सता से कारण मे जगत है, इस पकार के बोधवाले किपल
आिद कया अजानी है अथवा जानी है? यह बात मुझसे सपषरप से सब संशयो की शािनत के िलए यथायोगय किहए।।
20।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, महापलय मे बीज अंकुर के तुलय यह दृशय रहता है ऐसी अजान भरी
बात जो कहता है, उसक यह जगत की सतयता मे दृढ िवशासरप बालकपन ही है।।21।। आगे कही जाने वाली मेरी
युिकतयो को सुिनये। उतपित के पहले कारण मे कायर है ऐसा जो कहता है, उससे पूछना चािहए िक वह सामानयसता से
अथवा बीजािद की सता से है या अंकुरािद की सता से है ? पथम पक मे उस अंकुरािद का िकससे समबनध नही होगा।
यािन सामानयसता सवरवसतु साधारण है, इसिलए उतपन होने वाले अंकुर आिद का सब वसतुओं से समबनध पापत हो
जायेगा। यिद कहो, हमे दृषापित है, तो खेत मे अथवा अंकुिरत बीज मे देखा गया ही अंकुरािद वासतिवक है और
कोिठला मे रखे गये बीज मे अथवा पतथर के टुकडे मे यह अवासतिवक है, यह कैसे होगा ? दूसरे पक मे भी बीज सता
से अंकुर समबनध का और घट, पटािद के समबनध का सवरपतः िवलकणता का िनरपण न होने से िजसके साथ बीज
का समबनध न हो ऐसी कौन सी वसतु न होगी यानी धान आिद के बीज मे समपूणर जगत की सता पापत होगी। यिद
किहए, इषापित है, तो अंकुिरत बीज मे अंकुर आिद ही वासतिवक है, घट, पट आिद वासतिवक नही है, यह कैसे होगा ?
तीसरे पक मे अंकुर की सवरप सता से बीजसमबनध का और घट आिद के समबनध का भेदिनरपण न होने से िजसके
साथ अंकुरसता का समबनध न हो, ऐसी कौन वसतु होगी अथात् सवरत अंकुर के सदभाव का पसंग होगा, यिद इषापित
मािनये, तो बीज आिद मे अंकुर आिद वासतिवक है अनयत नही है, यह कैसे होगा ? दूसरी बात यह भी है िक साधारण
सता से असाधारण अंकुर आिद है, कारण सता से कायर है और कायरसता से कारण है। इन तीनो पको मे भी पूवोकत
उिकत का समभव नही घटता, इसिलए यह बोध िवपरीत ही है। यह शोता और वकता दोनो को मोह मे डालने वाला
है।।22।।
बीज मे अंकुर के समान पलय मे जगत है, यह दृषानत िवषम है कयोिक कूटसथिचदेकरस आतमा मे बीजतव का
ही समभव नही है, इस आशय से कहते है।
बीज मे अंकुर के तुलय पलय मे जगत है, इस पकार की पलय मे जगत सता का दृषानत देने के िलए जो बुिद
है, वह भािनत है, कैसे भािनत है ? यह यिद किहए, तो सुिनये।।23।। सवयं दृशय बीज िचतािद इंिदयो का गोचर है,
इसिलए तुषसिहत जवािद धानयो मे अंकुर आिद की उतपित उिचत है। जो सवयमभू पदाथर पाच इिनदया और छठे मन का
अगोचर है और अतयनत अणु है, वह जगतो का बीज होने मे कैसे समथर हो सकता है। भाव यह है िक िजसमे बीजतव
ही दुघरट हो, उसमे जगत की सवसता से िसथित तो बहुत दूर की बात ठहरी।।24,25।। आकाश से भी सूकम समपूणर
नामो से रिहत परमातमा मे बीजता कैसी और कैसे हो सकती है ?।।26।।
इस पकार तततवदृिष से बीजतव का परमातमा मे असमभव कहते है।
वसतुतः सदेकरस भी वह सूकम होने के कारण नही िदखाई देने से असत् के तुलय पतीत होता है, इसिलए
असत् ही है। इस पकार के परमातमा मे बीजता कैसे और बीज के अभाव मे जगदंकुर की उतपित कैसे ? आकाश की
अपेका भी अतयनत सूकम शूनय उस परम पद मे जगत, मेर, समुद, आकाश आिद कैसे िसथत है ?।।27,28।। जो
वसतु कुछ भी नही है, उस वसतु मे कुछ भी कैसे रह सकता है ? यिद है तो वहा पर रहती हुई वह कयो नही िदखाई देती
? 'अथात् आदेशो नेित नेित' इस शुित से सबके िनषेधसवरप आतमा से कया वसतु, कैसे और कहा से उतपन होगी
शूनयरप घटाकाश से कहा, कैसे और कब पवरत उतपन हुआ यानी शूनयरप घटाकाश से जैसे पवरत का उतपन होना
असमभव है वैसे ही सवरिनषेधसवरप परमातमा से इसकी उतपित का समभव नही है।।29,30।
िचदेकरससता जड अनेकरससता की िवरोिधनी है, इसिलए भी िचदेकरससता मे जगतसता की समभावना
नही की जा सकती, ऐसा कहते है।
जैसे धूप मे छाया नही रह सकती, जैसे सूयर मे अनधकार नही रह सकता और जैसे अिगन मे िहम नही रह
सकता वैसे ही अपनी िवराधी िचदेकरससता मे जगत की सता कैसे रह सकती है ? यानी नही रह सकती है।।
31।।
भले ही भेद से परमातमा मे जगत की िसथित न हो, उसके साथ अभेद से तो उसकी िसथित होगी ही, ऐसा यिद
कोई कहे, तो उस पर कहते है।
अणु मे मेर कैसे रह सकता है ? िनराकार परमातमा मे यह जगत कैसे िसथत हो सकता है ? छाया और
पकाश के तुलय परसपर िभन रपो की एकता कहा हो सकती है ?।।32।। साकार वटबीज आिद मे अंकुर है, यह
बात तो युिकत युकत है, लेिकन आकार रिहत परमातमा मे यह िवशालकाय जगत है, यह कहना तो अनहोनी है।।33।।
यहा पर यह िवचार करना चािहए िक साखयवािदयो ने कारण मे जगत की सता की जो कलपना कर रखी है,
वह कया लौिकक पमाण के बल से कर रखी है अथवा 'सदेव सोमयेदमग आसीत्' इस शुित के बल से कर रखी है,
पहला पक ठीक नही है, ऐसा कहते है।
जो बुिद आिद समपूणर इिनदयो की शिकत से दृशय यानी अनुभव के योगय घट, पट आिद है, वे अपने अिधकरण
देश से अनय देश मे या अपने अिधकरण काल से अितिरकत काल मे सवयं दषा रहने या अनयपुरष के दषा रहने और
न रहने पर तत्-तत् पकार के पतयक, अनुमान आिद बुिदवृितरप बोध मे नही है यानी भािसत नही होते है। अतः उकत
दृशय के अदशरन आिद के योगय अनुपलिबध से कुछ भी नही है यानी असत ही है, ऐसा सब लौिकक पामािणक कहते है,
इसिलए पलय मे जगत के सदभाव की कलपना सब लौिकको की अनुपलिबध से िवरद है, यह भाव है।।34।।
दूसरा पक भी ठीक नही है, ऐसा कहते है। 'सदेव सोमयेदमग आसीत्' इतयािद शुितवाकय से िवरोध होगा। यहा
पर यह िवचार करना चािहए िक कया कायर ही सत् है, कायर की सता ही कारणता मे आरोिपत है, ऐसा शुित कहती है या
कारण ही सत् है, कारण की सता ही कायर मे आरोिपत है, ऐसा शुित कहती है ? तीन पको मे साखय का बोध यिद पथम
पक के अनुसार हो, तो वह भम ही है, कयोिक उस पक मे 'वाचारमभणं िवकारो नामधेयम्' इतयािद कायर को असत् कहने
वाली शुित अनुकूल नही है और कारण को असत् कहने से अपने िसदानत का भी बाध होता है, ऐसा कहते है।
कारण के गुणो के असतय होने से वह महदािद कायर िकन कारणो से उतपन होगा। जब कारण ही नही है तब
कायर उतपन ही नही हो सकता। अतएव कारण ही सत् है कारण की सता ही कायर मे आरोिपत है, यह िदतीय पक भी
ठीक नही है, कयोिक कायर के अभाव मे तदघिटत तत्-तत् कारणता का िनरपण नही हो सकता। अतः पिरशेषात
तीसरा ही कलप उिचत है और युिकत युकत भी है, ऐसा उतर शलोक से कहते है।।35।। इसिलए यानी कायर और
कारण के भेद की सतयता शुितसममत नही है। अतः साखयवािदयो दारा किलपत कायरकारण भाव को उनके सहकारी
कारण, िनिमत, पयोजन आिद भेदो के साथ दूर करके (ये असत् है यो खणडन करके) जो कुछ अविशष आिद, मधय
और अनत से भेदो के साथ दूर करके (ये असत् है यो खणडन करके) जो कुछ अविशष आिद, मधय और अनत से
रिहत सनमात वसतु है, वही जगदूप से अब िसथत है उससे अितिरकत कुछ नही है, ऐसा जािनये।।36।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पहला सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआआआआआ
आआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे जािनयो मे शेष शीरामजी, पलयकाल मे इस जगत का पृथक अिसततव मानने मे दोषो
को कहता हूँ।
यिद कोई शंका करे िक यिद पलय मे जगत नही है, तो सृिष ही िसद नही हो सकती, कयोिक उतपित िकया
िकसी कता से होती है। कता भी नही है। यिद किहए बह ही सत् होने से कता है, तो वही उतपन होगा न िक जगत
उतपन होगा। कूटसथ बह का उतपित आिद िवकारो से समबनध नही हो सकता, इसिलए उतपित की िसिद के िलए
पलय मे जगत की सता अवशय माननी चािहए, इस आशंका का अनुवाद कर खणडन करते है।
सब कलपनाओं से रिहत िनमरल महािचदाकाश मे यिद जगदािद अंकुर है, तो पलय के बाद मे िकन सहकारी
कारणो से वह उिदत होता है, उनहे आप किहए। सहकारी कारणो के अभाव मे जगदूप अंकुर की उतपित वनधया की
कनया के समान िकसी ने कही पर नही देखी है।।1-3।। यिद सहकारी कारणो के अभाव मे भी रजजु मे सपािद के
समान जगदूपी अंकुर आिवभूरत हुआ है, ऐसा मानते है, तो हे शीरामचनदजी, मूलकारण ही भािनतवश जगतसवभावता को
पापत हुआ है, वसतुतः जगत की सृिष नही हुई है, इसिलए पलय मे जगत की कलपना वयथर है।।4।।
उकत अथर को ही सपष करते है।
सृिष के आरमभ मे सृिष रप से यथा िसथत िनराकार बह ही अपने सवरप मे िसथत होता है, इसिलए जनय-
जनक समबनध कहा ?।।5।।
यिद कोई कहे, पलय मे समपूणर जगत की सता का सवीकार करने से सहकारी कारणो की दुलरभता नही है,
कयोिक जगत के अनतगरत पृिथवी आिद से परसपर का उपकार हो सकता है, इस शंका का खणडन करते है।
यिद पृिथवी आिद अथवा अनय कोई जगत की उतपित मे उपकार करते है तो पृिथवी आिद की
सहकािरकारणता पृिथवी आिद की उतपित के बाद होगी, ऐसी अवसथा मे पृिथवी आिद की उतपित की िसिद होने पर
उनकी सहकािरता की िसिद होगी और सहकािरता की िसिद होने पर उतपित की िसिद होगी, इस पकार अनयोनयाशय
दोष यहा पर उपिसथत है।।6।।
इस पकार साखय आिद की कलपना बालक की कलपना के तुलय है, यो उपसंहार करते है।
इसिलए पलय काल मे पकृित सिहत पुरष मे जगत ितरोिहत रहता है और सहकारी कारणो दारा वह िचत से
आिवभूरत होता है, यह उिकत बालक की ही है, िवदान की नही।।7।।
अनय मत के खिणडत होने पर अब अविशष अपने िसदानत को िदखलाते है।
इसिलए हे शीरामचनदजी, जगत न तो था, न है और न होगा। िचदाकाश ही शीघ अपने मे इस पकार सफुिरत
हुआ है।।8।। हे शीरामचनदजी, जब इस जगत का अतयनत अभाव ही है, तब समपूणर जगत बह ही है, उससे
अितिरकत नही है, यही शुित का तातपयर है।।9।। शुित के िनषेध से पहले जगत के घट, पट आिद मुदगर पहार आिद
से नाश दारा और अनय वसतु के रप से अनयोनयाभाव दारा जो शानत होते है यानी 'यह इस समय नष हो गया, 'घट,
पटािद यह नही है' इस पकार गहण िकये जा रहे अभाव को पापत होते है, वे शानत नही होते यानी वह उपशम नही,
िकनतु ितरोिहत होने से चकु आिद दारा दृशयता का उपराममात है, कयोिक िचत मे वासनारप से वे शानत होते ही नही
है। इसी नयाय को पागभाव और अतयनत अभाव मे भी लगाना चािहए। अपनी सता से अथवा बहसता से सत् घट
आिद की बाध के िबना कही पर भी असता नही होती, कयोिक िमटी का िपणड, भूतल आिद मे घट के अदशरन की
ितरोधान से भी उपपित हो सकती है।।10।। जब दृशय काम, कमर, वासना आिद बीजो के साथ नष हो जाता है तब
इस जगत का आतयािनतक उचछेद होता है। िचत यिद रहे तो काम आिद भावनाओं का उचछेद न हो सकने के कारण
दृशय शानत होता ही नही, इसिलए जान के िबना दृशयता कहा शानत हो सकती है ? अथात् दृशय की शािनत दुलरभ ही
है।।11।। दृशय के उपशम मे अिधषान साकातकार से दृशय का सवरथा बाध होना ही एकमात युिकत है। इसके िसवा
दूसरी युिकत दृशयरप अनथर के कय मे यानी मोक मे है ही नही।।12।। जब जगत के तततव के साकातकार से
िचदाकाश का बोध हो जाता है यानी बोधैकरस िचदातमा ही है, अणुमात भी अिचदूप नही है, ऐसा पिरिनिषत जान हो
जाता है तब (देवदत नामक) िविशष माता-िपता से उतपन पतयिभजायमानदेह ही मै हूँ, परकीय देह दीवार आिद मै नही
हँू, इस पकार लोक मे पिसद पामर जनो का वयवहार िचतकथा के तुलय हो जाता है। अथात् जैसे दीवार मे िलखा गया
िचत सभी की दृिष मे परमाथररप से एकमात दीवाररप ही है तथा िचतगृह की दीवार मे यह दीवार है, ऐसा वयवहार
नही होता वैसे ही यह पूवोकत वयवहार है।।13।।
पृिथवी आिद मे भी िचतकथानयाय को ही दशाते है।
ये पवरत आिद, ये पृिथवी आिद, ये वषर आिद, यह कलप, यह कण, ये जनम-मरण, यह पलय का आडमबर, यह
महाकलपानत, पुराण आिद मे पिसद सृषवय आकाश आिद का सृिष कम, ये कलपो के लकण, ये वतरमान करोडो बहाणड,
ये अतीत करोडो बहाणड, ये पुनः उतपन हुए करोडो बहाणड, ये चौदह पकार से िभन देव, मनुषय आिद के िभन-िभन
लोक, ये सपत दीप आिद देशो की तथा कृत, तेता, दापर आिद कालो की कलपनाएँ अननत, अनावृत महािचदाकाश ही
है। इस पकार से विणरत िचतकथा के नयाय से परमाकाश ही अपने मे सवयं सफुिरत होता है। वह यथा पूवरिसथत और
शानत है। जैसे झरोखे के िछद से भीतर आये हुए परमाणुओं मे सूयर की पभा पिरिचछन है वैसे ही मन से िनकले हुए
करोडो बहाणडो मे पिरिचछन ये िचत की पभाएँ है। जैसे आकाश मे िवसतृत सूयर पकाश मे िविभन परमाणुओं के भमण
आिद नही िदखाई देते वैसे ही महािचतपरमाकाश मे इनका भमण नही िदखाई देता है।।14-18।।
ऐसी अवसथा मे मनरप पिरचछेद से पीिडत हुई िचित अपने अनतगरत जगत को मानो उगलती है, ऐसा कहते
है।
िचित सवयं ही अपने अनदर िवदमान जो जगदूप चमतकार है, उसको उगलती है। वही सृिषरप से पतीत
होती है। यह रपरिहत और िभित रिहत है।।19।।
सफिटक िशला के भीतर नेत-दोष से िदखाई दे रही रेखाओं के तुलय पदाथर भेद नही है, ऐसा कहते है।
जैसे महािशलाओं के अनदर रेखाओं के अिमट सवरप िदखाई देते है वैसे ही ये सृिषया िदखाई देती है। न तो
उतपन होती है और न नष होती है, न आती है और न जाती है।।20।। जैसे िनराकार आकाश मे िनराकार
आकाशगमन सफुिरत होते है, वैसे ही िनमरल आतमा मे ये सृिषया अपने -आप सफुिरत होती है। जैसे आकाश से आकाश
भाग की पृथक सता नही है वैसे ही आतमा की सता से इन सृिषयो की पृथक सता नही है, यह दशाने के िलए
'नभसीव' दृषानत िदया है।।21।। जल के दवतव के समान, वायु सपनद के समान, समुद के आवतों के समान, गुणी
के गुणो के समान, उतपित और िवनाश से युकत यह सारा जगत उकत दृषानतो के अनुसार सवरत वयापत शानत बह ही
िवसतृत है, भाव यह है िक जैसे दवतव जल से पृथक नही है, सपनद वायु से पृथक नही है, आवतर समुद से पृथक नही है
और गुण गुणी से पृथक नही है वैसे ही यह उतपित िवनाशशील जगत अननत, शानत बह ही है, उससे पृथक नही है।।
22,23।।
ऐसी अवसथा मे सहकारी कारणो के न रहने पर कता के िवदमान रहने पर भी उतपित आिद की िसिद नही
होती है, अतः साखयो की जो कलपना है, वह उनमत की चेषा के तुलय है, यो उपसंहार करते है।
उतपित के पहले पृथकरप से सवीकृत भी पदाथर सहकारी आिदकारणो के अभाव मे शूनयकलप पधान से
उतपन होता है, यह कथन उनमतपुरषो के फूतकार के तुलय है।।24।। िजनका समपूणर पदाथों की कलपनारपी
कलंक दूर हो गया है, सब पदाथों के सवपदशरन मे कारण होने से िवकलपरपी शयया िजनहोने छोड दी है तथा िजनहोने
िवकलपरपी शयया िबछाने वाली अिवदा को आतमतततव के साकातकार से हटा िदया है, ऐसे जानवान आप िनभरय तथा
बहवेताओं की सभा भूिम को भूिषत करने वाले होइये।।25।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
दूसरा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआ
आआआआआआआआ
आआआ आआआआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआआ आआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ।
यदिप बाह घट आिद पदाथों की उतपित मे उतपितकता से अितिरकत सहकारी कारणो की अपेका हो सकती
है, तथािप जगत को आपने िहरणयगभर के मनः संकलप से जनय उनकी समृित तथा मनोराजय के तुलय बतलाया है।
सवपराजय मे तो सहकारी कारण की अपेका कही नही देखी गई है। इस तरह पलयकाल मे अपनी सता मे िछपकर
िवदमान ही मनोरप पजापित समृितरप ही उतपन होता है, तो सहकारी कारणो के अभाव मे जगत की उतपित मे कया
िवरोध है ? इस गूढ अिभपाय से शीरामचनदजी पूछते है-
भगवन्, महापलय के अननतर सृिष के आरमभ मे सवरपथम यह पजापित समृितरप उतपन होता है। इसकी
उतपित मे सहकारी कारणो की अपेका नही है, यह भाव है।।1।।
यह ठीक है, परनतु पलयकाल मे जगत की सता िसद नही हो सकती, कयोिक सवप, मनोरथ और समृित के
िवषयो की अपने काल मे भी जब सता नही रहती है, तब समृित के बल से पलयकाल मे उसकी सता की कलपना नही
हो सकती, इस गूढ अिभपाय से ही शीविसषजी अभयुपगमपूवरक समाधान करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, महापलय के बाद सृिष के आरमभ मे इसी तरह (जैसा िक आप कहते है)
यह जगत समृितरप ही है, पहले-पहल सवरपथम पजापित समरणरप से ही उतपन होता है।।2।। इस कारण उसका
संकलपभूत यह जगत समृितरप ही है, पहले-पहल सवरपथम पजापित समरणरप से ही उतपन होता है।।2।। इस
कारण उसका संकलपभूत यह जगत समृितरप ही है, पजापित का पाथिमक संकलप को नगर ही इस जगतरप से
भािसत होता है।।3।।
असतु, मन से अितिरकत, बाहिवकार िवषयरप से यह जगत भले ही सतय न हो, परनतु मनोिवकाररप से तो
सतय ही है, जैसे िचतािकत घोडा मासिवकाररप से सतय नही है, परनतु रंग के िवकाररप से तो सतय ही है,
शीरामचनदजी की ऐसी शंका को लकणो से पहचान कर शीविसषजी कहते है।
सृिष के आरमभ मे परमातमा की समृित नही हो सकती है। भाव यह है िक समरणकता के रहने पर समृित आिद
मन के पिरणाम हो सकते है। साखयवािदयो दारा पिरकिलपत पधान समृितकता नही हो सकता, कयोिक वह िमटी आिद
की तरह अचेतन है। पुरषो मे भी समृितकतरवय का समभव नही है, कयोिक साखयवािदयो ने उनहे असंग, उदासीन एवं
िनिवरकार माना है। यिद पुरषो मे समृित का समभव नही है, तो परसपर भेदक धमर के न मानने के कारण भेद की िसिद
न होने से परमातमा के साथ उनका भेद होने से उनमे सुतरा समृित का समभव नही है। और 'अपाणो हमनाः शुभः'
इतयािद शुितयो ने परमातमा के मन का िनषेध िकया है। मन के िनषेध दारा समृितकतरवय का भी िनषेध िसद हुआ। चूँिक
समृित का जनम ही असमभव है और जनम के अभाव से जनममूलक उसके िवकार जगत का भी समभव नही है, इसिलए
आकाश मे महावृक के तुलय समृित के िवकारभूत जगत कहा और कैसे हो सकते है ?।।4।।
जैसे पितिदन की सुषुिपत है वैसे ही पलय भी है। सुषुिपत अवसथा मे लीन मन के जागतकाल मे आिवभाव के
तुलय पलयकाल मे लीन मन का सृिष के आरमभ मे आिवभाव होने से तदवयचछन पजापित अथवा अनय के समता होने मे
कया िवरोध है ? इस आशय से शीरामचनदजी पूछते है-
हे बहन, सृिष के आरमभ मे पूवरकलपीय समृित कयो नही हो सकती ? महापलय के पबल सममोह से
पूवरकलपीयसमृित कैसे नष हो जाती है ?।।5।।
शीरामचनदजी के अिभपाय का पकाशन करते हुए शीविसषजी समाधान करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, कया यह आपकी शंका िहरणयगभररप एक ही जीव अपने मन से अनेक
जीव-अपने उपभोग के योगय पपंच की कलपना करते हुए अपनी बुिद के अनुसार सबकी सृिष करने वाले िहरणयगभर
की भी कलपना करते है इस मत से है। इस दोनो कलपो मे से िदतीयकलप मे 'महाकलपानतसगादौ पथमोऽसौपजापितः'
इतयािद आपकी शंका के उपकम से िवरोध है तथा पथम कलप मे बहुत शुितयो की अनुकूलता है, अतः पथम कलप ही
उिचत होने से पिरिशष रहता है। इस पक मे जो पूवरकलपीय जीव तथा जगत महापलयकाल मे िहरणयगभर की मुिकत से
मुकत हो गये, वे सभी बहीभूत हो गये। यिद अनय कोई जीव अविशष रहा नही, तो हे सुवरत, बतलाइये, पूवोतपन कौन
समता है ? कयोिक समता के मुकत हो जाने से समृित िनमूरलता को पापत हो गई है। इसिलए कया समरणकता के अभाव
से िकसी तरह समृित उतपन हो सकती है ? महापलय मे सब लोग अवशय मोक के भागी हो गये, इसिलए इस सगर िक
िसिद नही हो सकती है।।6-8।। पूवरकलपीय सगर समृितरप ही है, वे भी िसद नही होगे, इसिलए अनुभूत या अननुभूत
सवतः िसद िचदाकाश मे िजसकी आपने समृितरप से आशंका की है, वह पौढ एवं दृशय जगतिसथतिचतपभा ही है और
वह सदा िसथत है। यही सतकायरवादी शुितयो का आशय है, यह भाव।।9।।
उकत अथर को ही सपष करते है।
जो यह जगतरप से और सवयंभूरप से (उतपित के पहले पृथकसता से माने गये पदाथररप से) िसथत है, वह
अनािद, अननत पकाशमान यह चेतन की पभा ही भािसत होती है।।10।।
अनािद काल से िसद जो बह के सवरप का भान है, वही बहाणड शरीर का उपादानकारण जगताकार सूकम
शरीर है, वह परमातमा ही है। इस तरह बह ही सूकम-सथूल भावो के आरोप के दारा जगदूप से भािसत होता है, यह
भाव है।।11।।
जगत का सवभाव अवयविसथत है, इसिलए भी जगत की सता जगदूप से नही है, िकनतु बहरप से ही है, इस
आशय से जगत के अवयविसथत सवभाव का उपपादन करते है।
जंगल, मेघ, आकाश आिद पदाथों के सिहत तथा देश, काल, िकया, दवय, िदन और राित के कम से युकत ये
तीनो जगत परमाणु मे भािसत होते है।।12।। उस पूवर परमाणु के अनतगरत अनय िवसमृत परमाणु है, वह भी पूवर
परमाणु के सदृश ही है तथा उसमे भी वैसा ही जंगल, मेघ, आकाश आिद के साथ पकाशमान पवरतसमूह आिद जगत
भािसत होता है। उस परमाणु के भीतर भी वैसा ही िवसतृत परमाणु है, उसमे भी उसी तरह जंगल, मेघ आकाशािद से
िवसतृत यह दृशय जगत् भािसत होता है। हे शीरामचनदजी, यह केवल भानरप ही है। सतय नही है।।13,14।।
तततवजो के पित सनमातदृिष जैसे सवतः अननत है वैसे ही अजो के पित असत्, अनृत जगत की दृिष संखया
से अननत है, यह कहते है।
हे िनषपाप शीरामचनदजी, इस तरह परम अभयुदय यानी आतमसाकातकार को पापत जानी के पित इस सददृिष
का अनत कही नही है और अज के पित इस असत् जगत् की दृिष का अनत कही नही है।।15।।
इसी िसदानत को सपष करके िदखलाते है।
यह जगत् जानी के पित केवल, शानत, अिवनाशी बह ही है और अजो के पित बुिदमात से भासमान नाना
लोको से युकत है।।16।। बहाणड मे वृिद को पापत यह भासमान जगत जैसे भािसत हो रहा है वैसे ही करोडो हजारो
अनयायनय जगत भी एक-एक अणु मे भािसत होते है।।17।। जैसे सतमभ के (खमभे के) अनदर पितमा रहती है, उस
पितमा के अंगो मे भी पितमा रहती है तथा उसके अंग मे भी पितमा रहती है, वैसे ही बहसतमभ मे अणु-अणु मे
तैलोकयरपी पितमा है।।18।। जैसे पवरत मे परमाणु पवरत से अिभन तथा असंखय है वैसे ही बहरपी महामेरपवरत मे
तैलोकयरपी परमाणु न तो उससे िभन है और न िगनने योगय है यानी असंखय तथा बह से अिभन है।।19।। यिद
सूयर आिद की िकरणो मे छोटे-छोटे परमाणुओं की गणना हो सके, िचदूप आिदतय मे जो देने वाले परमाणुओं की तरह
असंखय है।।20।।
जैसे सूयर की दीिपत मे, जल मे तथा धूिलपुंज मे परमाणु भमण करते है वैसे ही िचदाकाश मे तैलोकयरपी
परमाणु भमण करते है।।21।।
यिद कोई कहे िक िनषपपंच कूटसथ बह का सिवकार सृिष रप से भान कैसे होता है ? तो नीरप, अशूनय
आकाश का जैसे सवरपिवरद शूनयरप से या नीलरप से भान होता है वैसे ही कूटसथ बह का भी सगररप से भान
होता है, ऐसा कहते है।
जैसे वासतव मे पूणर (अशूनय) और नीरप इस भूताकाश का आवरणाभाव (शूनय) और असतय नीलरप से
अनुभव होता है वैसे ही िचदाकाश का सगररप से अनुभव होता है।।22।। सृिषरप मे समझी गई यह सृिष
अधोलोक को पािपत कराती है। शुित ने भी कहा हैः 'उदरमनतरं कुरते अथतसय भयं भवित' अथात् इस बह मे जो
जरा सा भी भेद करते है यानी' यह अनय है, मै अनय हूँ' ऐसा भेद देखता है, उस भेद के दशरन से उस अनातमदशी पुरष
को भय होता है। बहरप से समझी गई यह सृिष परम मंगलमय हो जाती है, कयोिक 'तरित शोकमातमिवत्' (आतमदशी
पुरष शोक को पापत नही होता है) ऐसी शुित है।।23।। जैसा िक नैयाियक परमातमा को तटसथरप (िनिमतमातरप)
मानते है वैसे तटसथ रप से जात बह कया मंगलमय नही है ? नही, ऐसा कहते है।
जो िवजानसवरप जीव है और जो इस िवश का परम कारण ईशर है, वे दोनो परमाथर दृिष से पिरशोधन करने
पर पूणर, चेतन, एकरस, िचदाकाश बह ही है। िजस बह से बाह तथा आनतर दोनो उपािधया उतपन है।
(तदननयतवमारमभण शबदािदभयः) इतयािद नयाय से जो िजससे उतपन है, वह तदूप ही है, इस तरह सभी वेद पपंच को
सवातमबोध होने पर शुद, समबोधसवरप िचनमात ही समझना चािहए। भाव यह िक परमाथरदृिष से जगनमात को बह
जानने से ही मोकपािपत हो सकती है, अनयथा नही, कयोिक 'उतरमनतरं कुरते' ऐसी शुित है।।24।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तीसरा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआ आआ आआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआ, आआआआ आआआआ आआआआआआ
आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआ
आआआआआ आआ आआआआ आआ, आआ आआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इिनदयसमूह के ऊपर िवजयपािपतरपी पुल से संसाररपी सागर तरा
जा सकता है, अनय िकसी भी कमर से इसका तरण नही हो सकता है।।1।।
इिनदयो पर िवजय पाने के िलए िववेक शेष उपाय है। िववेक की पािपत मे एकमात सजजन और शासतो मे
िनषा रखना उतम उपाय है, इस आशय से कहते है।
बार-बार शासतपयालोचन और सतसंगित करने से िववेकशील और िजतेिनदय हुआ पुरष इस दृशय का अतयनत
अभाव जानता है।।2।।
िकये गये इिनदय िवजय का पकृत मे समबनध कहने के िलए पूवोकत पदाथर का पुनः समरण करते है।
हे रपवान पुरषो मे सवरशेष शीरामचनदजी, ये संसार सागर की शेिणया जैसे पापत होती है और िवनष होती है,
वह सब सवरप मैने आपसे कहा।।3।। इस िवषय़ मे बहत ु कहने से कया मतलब है, मन ही कमररपी वृक का अंकुर
है। मन के नष होने पर भोकता के भोगय भोगाकार मे पिरणत िविहत और िनिषद कमररप शरीरवाला जगतरपी वृक
कट जाता है।।4।। हे शीरामचनदजी, यह सारा जगत मन ही है। मन का पतीकार होने पर सब जगजंजालरपी रोग
का पतीकार हो जाता है।।5।।
यिद कोई शंका करे िक मन की िचिकतसा होने पर भी देहाधीन सुख और दुःख होगे ही ? उस पर कहते है।
जैसे मन का मननरप ही सवप कायर मे समथर होता है वैसे ही मन का देह के आकार से मननरप ही देह, जो
िक कायर करने मे समथर है, उतपन होती है, भला बताइये तो सही, मन से िभनरप से देह कही िदखाई देती है ?।।
6।।
तो मन की िचिकतसा के िलए कौन औषिध उपयुकत है, ऐसी शंका होने पर कहते है।
दृशय की अतयनत असंभावना (बाध) के िसवा दूसरे िकसी भी उपाय से मनरपी िपशाच का िवनाश एक कलप
मे तो कया सैकडो कलपो मे भी नही हो सकता है।।7।।
यिद कोई शंका करे िक मनरपी रोग आभयंतर है, दृशय तो बाह है ऐसी अवसथा मे बाह पदाथर के अतयनत
बाध से आभयनतर मन की िचिकतसा कैसे हो सकती ? इस पर कहते है।
यह दृशय का अतयनत अभावरप सवोतम परम औषिध मनरपी वयािध की िचिकतसा मे अमोघ उपाय है।।
8।।
बाह दृशय का अतयनत अभाव मन की िचिकतसा मे कैसे उपाय होता है, इसे कहते है।
मन की आभयानतरता और पदाथों की बाहता वासतिवक नही है, िकनतु मन ही दैिवधय आिद की कलपना दारा
मोह को पापत होता है, मरता है, उतपन होता है यानी जनम, मृतयु, बनध, मोक आिद की कलपना करता है, अथात्
िवषयिचनतन के पभाव से बनधन मे पडता है औऱ आतमतततव के िवचार के पताप से मुकत होता है।।9।।
यह कैसे पतीत हुआ ? ऐसा पश होने पर अनवय-वयितरेक से हमने यह जाना है, यह कहते है।
जैसे िवशाल आकाश मे शूनय ही (असत् ही) गनधवों का नगर सफुिरत होता है, वैसे ही िवषयो के िचनतन से
वृिद को पापत मन मे यह समपूणर संसार सफुिरत होता है।।10।।
और िवचार करने पर जगत मन का धमर ही है, इसिलए धमी मन के िनवृत होने पर वह रह नही सकता है, इस
आशय से दृषानतो को कहते है।
जैसे फूलो के गुचछे मे सुगिनध सफुिरत होती है और उसमे रहती भी है वैसे ही मन मे यह िवशाल जगत
सफुिरत होता है और रहता भी है, धमों मे धमी का भेद वासतिवक मे नही है, यह दोतन करने के िलए अिनतम शलोक मे
इवकार है।।11।। जैसे ितलो मे तेल रहता है अथवा जैसे गुणी मे गुण रहता है या जैसे धमी मे धमर रहता है वैसे ही
यह जगत िचत मे िसथत। जैसे सूयर मे िकरणो का समूह है, जैसे तेज मे पकाश है और जैसे अिगन मे उषणता है वैसे ही
मन मे यह जगत है। जैसे बरफ मे ठणडक है, जैसे आकाश मे शूनयता है और जैसे वायु मे चंचलता है वैसे ही मन मे
यह जगत है।।12-14।।
मन और जगत का धमी और धमरभाव अभेद होने पर भी धमी मन का नाश होने से ही जगत का नाश हो जाता
है, िवपरीतता से नही होता यानी धमर जगत का नाश होने पर धमी मन का नाश नही होता, कयोिक ऐसा ही लोक मे देखा
जाता है, इस आशय से उपसंहार करते। मन ही समपूणर जगत है और समपूणर जगत ही मन है। वे दोनो सदा ही परसपर
अिवनाभूत है। उन दोनो मे से मन के अतयनत नष होने पर जगत नष हो जाता है, पर जगत के नष होने पर नष
नही होता है।।15।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौथा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआ आआआआआआआआआआआ आआ,
आआआआआआ आआ आआआआआ आआ, आआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीरामचनदजी ने कहाः भगवन्, आप सकल धमों के जाता है, पूवापर के जाताओं मे सवरशेष है, इसिलए कृपया
यह बतलाइये िक यह िवशाल संसार मन मे कैसे िसथत है ?।।1।। हे पुणयचिरत, पकाश हो रहा यह िवशाल संसार
जैसे मन मे सफुिरत होता है वैसे सपष दृषानत के पदशरन दारा आप मुझसे किहए।।2।।
पूवोकत ऐनदव आिद के जगत ही इसमे दृषानत है, ऐसा कहते हुए शीविसषजी उतर देते है।
शीविसषजी ने कहाः शीरामचनदजी, जैसे सथूल शरीर से रिहत ऐनदव बाहणो के मन मे दृढता को पापत
अनेक जगत िसथत थे वैसे ही यह जगत मन मे िसथत है।।3।। इनदजाल से वयाकुल िचतवाले राजा लवण को िजस
पकार चणडालतव पापत हुआ था वैसे ही यह जगत मन मे िसथत है।।4।।
शुकाचायर का उपाखयान का भी यहा पर दृषानतरप से उपकेप करते है।
जैसे शुकाचायर की िचरकाल तक सवगर के भोगो को भोगने की इचछा से अपसराओं के उपभोग मे सपृहा,
संसािरता (अपसराओं के भोग के िलए सवगािद गमनरप जनमानतर) एवं सवगर मे अपसराओं का भोग हुआ वैसे ही यह
जगत मन मे िसथत है। शीरामचनदजी ने कहाः भगवन, महिषर भृगु के पुत शुकाचायर को सवगीय भोगो को भोगने की
इचछा से अपसराओं के उपभोग मे सपृहा और सवगरगमनरप अनय जनम कैसे पापत हुआ ?
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पाचीन काल मे मनदराचल के िशखर पर, जो िक तमाल के वृको से
खूब हरा भरा था, महिषर भृगु और काल का जो संवाद हुआ था उसे आप सुिनये। पाचीन काल मे मनदराचल के िविवध
फूलो से वयापत िकसी एक िशखर पर भगवान शी भृगु जी कठोर तपसया करते थे। उनके पूणर चनदमा के तुलय सुनदर,
पकाश के समान देदीपयमान, तेजसवी, महामित पुत शी शुकाचायर, जो िक तब बालक ही थे उनकी सेवा-शुशुषा करते
थे। महिषर भृगु उस उतम वन मे वहा के पतथर को काट-छाटकर बनाई गई पसतरमूितर के सदृश िनशल हो सदा
समािध मे ही िसथत रहते थे। बालक शुकाचायर फूलो की शययाओं मे, चादी तथा सोने की वेिदयो पर और मनदराचल के
बडे बडे िहंडोलो पर खेलते थे। उस समय शुकाचायर जैसे राजा ितशंकु दुलोक और पृिथवी के मधय मे िसथत हुए थे
वैसे ही पारमािथरत आतमतततवदृिष और पामर आिद मे पिसद जगतसतयतादृिष इन दोनो के बीच मे िसथत थे, अतएव वे
राग आिद से वयाकुल रहते थे, िकसी समय जब िक उनके िपता शी भृगु जी िनिवरकलप समािध मे बैठे थे, िजसने अपने
शतुओं पर िवजय पापत कर ली हो, ऐसे राजा के तुलय वे अनय िवषयो से अिविकपत िचतवाले हुए। वहा पर उनहोने जैसे
भगवान ने कीरसागर के मधय से मनथन दारा उतपािदत शी लकमी जी को देखा था वैसे ही कीरसागर के मधय से
मंथनपूवरक उतपािदत आकाशमागर से जा रही एक अपसरा को देखा। वह मनदार की मालाओं से िवभूिषत थी, मनद-मनद
वायु से उसके अलक िहल रहे थे, हार से उसका गमन झंकार से पूणर था, उसने आकाश मे वायु को सुगिनधत कर
िदया था, वह ऐसी सुनदरी थी िक उसे यिद लावणयरपी वृक की लता कहा जाय, तो कोई अतयुिकत न होगी, मद से
उसके नेत चढे हुए थे तथा अपने शरीररपी चनदमा से उिदत हुई िकरणो के उसने उस पवेश को अमृतमय कर िदया
था। उस सुनदरी को देखकर शुकाचायर का मन, िजसने िनमरल पूणर चनदमा देखा है, ऐसे समुद के शरीर के तुलय
उललास को पापत हुआ और चंचल हुआ। वह अपसरा भी शुकाचायर का मुख देखकर वैसे ही परवश हुई (मोिहत
हुई)।।5-18।। शुकाचायर जी अपसरा को देखने के पशात कामदेव के बाणो से घायल हुए मन को यथाशिकत िववेक
दारा समझा-बुझाकर यानी पेयसी के अनुसरण आिद शारीिरक वयापारो को रोककर, एकागता को पापत कर के भी
एकमात अपसरा मे एकागिचत होने के कारण वे अपसरा के रप से अपसरामय हो गये।।19।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पाचवा सगर समापत
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आआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआ आआ आआ आआ आआआआआआ आआआ आआआ आआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
आआआआआआ
आआ आआआ आआआआ आआआ आआआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, वहा पर नेत बनद करके मन से उसी अपसरा का धयान कर रहे
अकेले शी शुकाचायर ने आगे कहे जाने वाले इस मनोराजय का आरमभ िकया।।1।।। यह आकाश मे मेरे आगे आगे
जा रही अपसरा इनदलोक जाती है। इसका अनुगमन कर रहा यह मै सवगर मे, जो िक इधर-उधर घूमने से कुछ चंचल
हुए देवताओं से बडा मनोहर है, आ पहुँचा हँू।।2।। कोमल मनदार के फूलो की िशरोमालाओं और कणरफूलो से
िवभूिषत ये देवता है, इनके शरीर बह रहे सुवणर के दव के समान सुनदर है।।3।। पतयक देखे गये नीलकमलो के
तुलय िजनकी दृिषया है, मनोहर हास से िवभूिषत लतारिहत शावाकी ये वे कानताएँ है।।4।। फूलो से बनाई गई
मालाओं से जगमगा रहे, परसपर एक दूसरे मे पितिबिमबत अतएव िवशरप सवाकार भगवान हिर के आकार के सदृश
तथा खूब सनतुष और दीिपतमान ये देववृनद है।।5।। ऐरावत के कपोलो के मदजल की अितसुगिनध मे भी
आसिकतरिहत हएु (मदजल तक का तयाग करके) भँवरो दारा सुने हुए, अतयनत मधुर और असपषधविन से गाये गये, ये
देवताओं के गीत है।।6।। यह मनदािकनी है, इसके सवणरमय कमलो पर बहाजी के हंस और सारस घूम रहे है, तीर
के उदानो मे मुखय-मुखय देवगण िवशाम ले रहे है।।7।। ये यम, चनद, इनद, सूयर, अिगन, जल और वायु लोकपाल है,
इनहोने अपने शरीर की कािनत से चारो ओर दीपत अिगन की जवालाएँ फैला रखी है।।8।। युदो मे शासतासतो के
पहारो से िजसका मुँह खुजलाया गया है ऐसा यह ऐरावत है, इसने संगाम मे अनेक दैतयो को अपने दातो से िपरो िदया
था।।9।। ये भूतल से आकाश मे तारे रप बने हुए िवमान से चलने वाले िसद लोग है, िजनके शरीर और िवमान की
कािनतया संचरणशील सुनदर सुवणरमय सी पतीत हो रही है।।10।। मनदार के फूल िजनमे वयापत है, ऐसी ये गंगा जल
की लहरे है, इनहोने मेरपवरत के पतथरो पर टकराने के कारण जल िबनदुओं से देवताओं को भर िदया है।।11।। ये
इनद के ननदनवन की वीिथया, िगरी हुई मनदारमंजरी के गुचछो से ये पीली हो गई है और अनेक अपसराएँ इनमे झूला
झूल रही है।।12।। चनदमा की िकरणो की नाई आननद देने वाले शीतलता और मनदता आिद से युकत, कुनद और
मनदार के मकरनद से सुगिनधत करने वाले परागो से जो एक दूसरे से परसपर ताडनरप संगाम है, उसमे आसकत
लताओं और अंगनाओं से वयापत यह ननदनवन है।।14।। सुनदर गान की धविन से आननदपूवरक देवागनाओं को नचाने
वाले वीणा के समान मधुर सवरवाले ये नारद और तुमबर ऋिष है।।15।। ये अनेक पुणयातमा पुरष है, जो िविवध
भूषणो से िवभूिषत होकर आकाश मे उड रहे िवमानो मे िसथत है।।16।। मद से उतपन कामदेव से मत अंगवाली ये
देवागनाएँ जैसे वनलताएँ वन की सेवा करती है वैसे ही देवराज इनद की सेवा कर रही है।।17।। इनदनील मिणया ही
िजनके फूल है, िचनतामिणया िजनके किलयो के गुचछे है तथा पके हुए फलो के गुचछो से लदे हुए ये कलपवृक है।।
18।। यहा पर िसंहासन पर िवराजमान इन देवराज इनद को, जो दूसरे ितलोकी सषा के (बहा) के तुलय है, मै
अिभवादन करता हूँ।।19।। यह सोचकर उन शुकाचायर ने मन से ही शचीपित इनद को आकाश मे िसथत दूसरे महिषर
भृगु के तुलय अिभवादन िकया।।20।। तदुपरानत इनद ने िसंहासन से उठकर शुकाचायर का आदरपूवरक पूजन िकया।
उनका हाथ पकडकर उनहे अपने समीप मे लाकर बैठाया।।21।।
हे शी शुकाचायर, यह सवगर आपके शुभागमन से धनय होकर सुशोिभत हो रहा है, हे पभो, आप िचरकाल तक
यहा िनवास कीिजए, - यो शुकाचायर से इनद ने सवगर मे रहने का अनुरोध िकया।।22।। तदुपरानत सुनदर मुखकमल
वाले शी शुकाचायर जी ने वहा पर बैठकर सोलहो कलाओं से युकत िनमरल चनदमा की शोभा को हर िलया।।23।। सब
देववृनदो से अिभविनदत एवं देवराज इनद के समीप मे बैठे हुए भी शुकाचायर को िचरकाल तक युकत सनतोष पापत हुआ
और वे नृपितयो मे सवरशेष देवराज इनद के पुत आिद के तुलय लालनीय हुए।।24।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छठा सगर समापत
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आआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ
आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ । आआ आआआआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, पूवोकत मनोराजय के पभाव से शुकाचायर देवलोक मे पहुँचकर
अपने पुणयपताप से मरण-दुःख के िबना ही अपने पाकतन भाव को (शुकाचायर को) भूल गये।।1।। इनद के समीप मे
एक मुहूतर भर िवशाम कर शी शुकाचायर सवगर मे चलने वाले देवताओं से उतसािहत होकर सवगर मे िवहार करने के िलए
उठ खडे हएु ।।2।। सवगर की शोभा को और अपनी सुनदरता को सतीजनो की अतयनत अभीष जानकर जैसे सारस
कमिलनी को बेधने के िलए जाता है वैसे ही वे अपसराओं के समूह को देखने के िलए गये।।3।। शी शुकाचायर जी ने
वन के मधय मे िसथत आमलता के समान वहा पर अपसराओं के मधय मे बैठी हुई मृगनयनी उस पूवरदृष अपसरा को
देखा।।4।।
हे शीरामचनदजी, यह अपसरा भी शी शुकाचायर को देखकर मोिहत हो गई और शुकाचायर भी सफुिरत हो रहे
चंचल हावभावरपी िवलासो से सराबोर आकारवाली उसको देखकर मोिहत हो गये। जैसे चादनी को देखकर
चनदकानतमिण के सब अवयव गलने लगते है वैसे ही उसे देखकर मारे पसीने के शुकाचायर के सब अवयव तर हो
गये।।5।। पसीने से सराबोर शरीर वाले शुकाचायर जी ने उस सुनदर अपसरा को ऐसे देखा, जैसे िक चनदकानतमिण
आकाश मे शोिभत होने वाली शीतल चादनी को देखती है।।6।। राित मे िवयोग होने के उपरानत रोदन करने वाली
चकवाकी जैसे पातःकाल मे चकवाक दारा देखी जाती है वैसे ही शुकाचायर के पित अनुरकत वह भी शुकाचायर से देखी
गई। अतयनत पेम होने के कारण उसकी शोभा का िठकाना न रहा। परसपर एक दूसरे पर अनुरकत हुए सूयर और
कमिलनी की पातः काल मे जो शोभा होती है, वही उन दोनो की हईु ।।7,8।। चूँिक सवगररप देश संकिलपत अथर को
देने वाला है, अतएव समपूणर अंग को िववश करके उसके दारा वह काम के िलए अिपरत हुई।।9।। जैसे कमिलनी के
पतो पर मेघो की धाराएँ िगरती है वैसे ही उसके कोमल अंगो पर काम के एक-आध नही अनेको बाण िगरे।।10।।
कामदेव से किमपत तथा भँवर के तुलय चंचलकंकणो से युकत वह मनद-मनद वायु से िहलाई गई भँवरो के वयापत मंजरी
के सदृश हुई।।11।। जैसे मदोनमत हाथी कमिलनी को रौद डालता है वैसे ही नीलकमल के सदृश नयनवाली तथा
हंस और सारस के समान चलने वाली उस सुनदरी को कामदेव ने कोिभत कर डाला।।12।। तदननतर सफल
संकलपवाले शुकाचायर ने उस सुनदरी की वैसी दशा देखकर जैसे रद पलयकाल मे अनधकार का संकलप करते है वैसे
ही अनधकार का संकलप िकया।।13।। जैसे भूलोक के अनधकार से लोकालोक पवरत का तट भर जाता है वैसे ही
शुकाचायर दारा संकिलपत अनधकार से सवगर का ननदनवनरपी पदेश भर गया।।14।। लजजारपी अनधकार के िलए
सूयरसवरप यानी लजजारपी अनधकार का िनवारण करने वाली उकत अनधकार रािश के ननदनवन मे सती पुरषो के
जोडे के तुलय िसथरता क पापत होने पर तथा उसकी सब सिखयो के सायंकाल के समय भूलोक मे िचिडयो की नाई
उस पदेश से अपने -अपने अिभमत सथानो मे चले जाने पर बडे-बडे और चंचल नेतपानतवाली तथा बढी-चढी
कामपीडावाली वह जैसे मयूरी मेघ के समीप जाती है वैसे ही भृगुपुत शीशुकाचायर के समीप मे आई।।15-17।। जैसे
शीिवषणु भगवान कीरसागर मे पवेश करते है वैसे ही शुभभवन के मधय मे िसथत सजे-सजाये पलंग पर भागरव ने पवेश
िकया।।18।। वह सुनदरी भी भृगुपुत के हाथो को पकडकर वहा पर पिवष हुई। मारे लजजा के नतवदन वह सुनदरी
ऐरावत के हृदय मे लगी हुई पिदनी के समान सुशोिभत हुई।।19।। पेम और सनेह से सराबोर वाणी से उसने यह
मधुर वचन कहा। उसके उस मधुर वचन मे पतयेक अकर आननद के िवलास के वयापत था।।20।। हे चनदवदन,
देिखये, यह कामदेव अपने धनुष को पूणररप से तानकर मुझ अबला को पशोपेश मे डाल रहा है।।21।। इसिलए हे
नाथ, आप मेरी रका कीिजय। मै अबला हूँ और दीन हूँ। आप ही यहा पर मेरे शरण है। हे सजजनिशरोमणे, दीनो को
आशासन देना सचचिरत लोगो का वरत है, ऐसा आप जािनये।।22।। हे महामते, सनेहदृिष को न जानने वाले मूढजन
ही अतयिधक पीित की अवहेलना हुए है, रसज लोग कदािप पीित की अवहेलना नही करते है।।23।। हे िपयतम, एक
दूसरे पर अनुरकत हुए सती-पुरषो का िवचछेद, अपराध गणना आिद की शंका से रिहत उतपन हुआ पेम, अमृत बरसाने
वाले आननददायक चनदमा से बढ-चढ कर है, िजलाने वाले और आननद देने वाले एक दो नही हजारो चनदमाओं से भी
चनदमाओं से भी िपयतम का पेम बढा-चढा यह भाव है।।24।। यह ितलोकी का ऐशयर िचत को वैसा आननद नही देता
जैसा िक पहले-पहल अनुकृत हुए िपयतमो का परसपर आननद देने वाला पेम सुख देता है।।25।। हे सममान करने
वाले शुकाचायर जी, जैसे राित मे चनदमा की िकरणो से संसपृष कमिलनी िवकास को पापत होती है वैसे ही आपके
चरणो से सपशर यह मै आशासन को पापत हुई हूँ।।26।। हे सुनदर, जैसे चपलकोरी चनदमा की िकरणो के रसपान से
जीिवत रहती है वैसे ही मे आपके सपशररपी अमृतपान से जीिवत हो रही हूँ।।27।। हे पाणनाथ, चरणो मे लीन हुई
इस भमरी रप मेरे हाथरपी पललवो से आिलंगन कर आप मुझे सनेह-दयारपी अमृत से भरे हुए अपने कमलरपी हृदय
मे धारण कीिजए।।28।। यह कहकर कलपवृक की मंजरी के तुलय िजसके नयनरपी भँवर मद से घूम रहे थे, तथा
फूलो के तुलय कोमल अंगवाली शुक के वकसथल पर िगर गई।।29।। जैसे केसर से पीले हुए वायु से किमपत
पिदनी मे परसपर अनुरकत भँवरी और भँवर पवेश करते है वैसे ही हावभाव आिद िवलासो से अिधक कािनतवाले वे
दमपित उन वनसथिलयो मे पिवष हुए।।30।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सातवा सगर समापत
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आआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआ आआआआआ आआआ आआआ आआआ आआआआआ आआ
आआआआआआआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआ । आआआआआआआआ आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, इस पकार िचत के िवलास से िचरकाल तक किलपत िपय पणयो से
अपसरा का सुनदर समागम शीशुकाचायरजी की मनसतुिष के िलए हुआ।।1।। मनदार के फूलो की मालाओं से लदी
हुई तथा देवताओं के उपभोग योगय अमृत या मिदरा से मसत हुई उस अपसरा के साथ दूसरे िनमरल चनदमा के तुलय
उकत शुकाचायर ने मनदािकनी के तटो पर, िजनमे मदोनमत हंस भमण करते थे और सोने के कमल िखले थे, चारण और
िकनरो के साथ िवहार िकया।।2,3।। चनदमा की कलाओं से िनिमरत शरीर वाले देवताओं के साथ उस िवलासी ने
पािरजात की लताओं के िनकु ंजो मे रसायन का पान िकया।।4।। झूला झूलने के िलए वयग हुई िवदािथरयो के साथ
कुबेर के मनोहर चैतरथ नामक उदान मे लीला के िलए लताओं से बने हुए सुनदर झूले से िचरकाल तक कीडा की।।
5।। जैसे मनदराचल समुद मे अवलोडन करता है वैसे ही उसने शी िशवजी के पाषरदो के साथ ननदनवन के एक छोर
से दूसरे छोर तक खूब पिरभमण िकया।।6।। नूतन-नूतन सुवणर की लताओं से वयापत सुमेर पवरत की निदयो और
भूिमयो मे उसने इस पकार भमण िकया िजस पकार िक उनमत हाथी कमलो से भरे हुए तालाब मे भमण करते है।।
7।। उस िवलासी ने उस अपसरा के साथ कैलासवन के कु ंजो मे शीिशवजी के मसतक पर िवराजमान चनदमा से सदा
(कृषणपक मे भी) चादनी राते िशवजी के गणो के गीतो के साथ िबताई।।8।। शी शुकाचायर ने गनधमादन पवरत के
ऊपर के िशखरो पर िवशाम लेकर उस सुनदरी को िसर से लेकर पैर तक सुवणर के कमलो से िवभूिषत िकया।।9।।
हे शीरामचनदजी, लोकालोक पवरत के तटो के आसपास की भूिमयो मे, जो िविवध आशयों से भरपूर थी, हँसते हुए उसने
उस अपसरा के साथ कीडा की।।10।। मनदराचल के मधयवती जलपाय शीतल पदेशो मे उसने मृगो के साथ अपने
मन से किलपत देवमिनदरो मे साठ वषों तक िनवास िकया।।11।। सती के साथ िनवास करने वाले शी शुकाचायर का
कीरसागर के तटो मे शेतदीप के लोगो के साथ आधा सतययुग बीत गया।।12।। गनधवरनगर के उदानो की कीडाओं
के िनमाण से एकमात मनोरथ दारा अननत संसारो की सृिष का सजरनहार होकर शुक काल की समता को पापत
हुआ।।13।।
तदननतर शी शुकाचायर ने उस मृगनयनी के साथ पुनः सवगर मे सुखपूवरक आठ चौकिडयो तक िनवास
िकया।।14।। तदुपरानत सवगर से पतन के समरण के भय से िजनका िदवय शरीर गल गया था, ऐसे शी शुकाचायर
पुणयकय से उस सुनदरी के ही साथ भूिम पर िगर पडे।।15।। िजनके सब िदवय अंग-पतयंग कट गये थे और िवमान,
ननदनवन तथा वसत, आभूषण आिद के उपभोग के साधन िजनसे छीने गये थे एवं िचनतागसत शी शुकाचायर युद मे मारे
गये योदा की नाई नीचे िगर गये।।16। दीघर िचनता के साथ भूमणडल पर िगरे हुए उनके शरीर के िशला के ऊपर
िगरे हुए झरने की धार के समान सौ टुकडे हो गये।।17।। उन दोनो के खणड-खणड हुए दो शरीरो के िलंग शरीर
दुःख से मिलन होकर िजनके घोसले नष हो गये हो, ऐसे पिकयो के तुलय आकाश मे घूमने लगे।।18।। आकाश मे
वे दो िलंग शरीर चनदमा की िकरणो मे पिवष हुए। तदननतर तुरनत ओस की बूँद बनकर धान के रप मे पिरणत हो
गये।।19।। पके हुए उन धानो को दशाणर देश िनवासी बाहण ने खाया। वह शुकाचायर वीयर बनकर उस भाया का
पुत हुआ।।20।। बाहण के घर जनम लेने के अननतर मुिनयो के साथ संगित होने से घोर तपसया मे िसथत हुआ वह
पुणयवान एक मनवनतर तक मेरपवरत के गहन वन मे रहा।।21।। वहा पर उसका शापवश मृगी बनी हुई उस अपसरा
से नराकर पुत उतपन हुआ। पुत के सनेह से वह िफर भी तुरनत अतयनत मोह को पापत हो गया।।22।। मेरे इस पुत
के धन हो, बडे उतम गुण हो, बडी आयु हो पुत के िलए भोगो की िचनता से धमर के िचनतन से िवमुख होने के कारण
कीणायु हुए उसको मृतयु ने ऐसे गसा जैसे की साप वायु को गसता है।।24।। एकमात भोगो की िचनता के साथ
उसके पाणपखेर उडे थे, अतएव वह मददेशािधपित का लडका बनकर समय आने पर मददेश का शासक बना।।
25।। मददेश मे िचरकाल तक िनषकणटक राजय करके जैसे कमल िहमरपी वज को पापत होता है वैसे ही वह बुढापे
को पापत हुआ।।26।। तप की वासना के यानी वानपसथ के धमरिचनतन के साथ उसने वह सुनदर मदराज का शरीर
छोडा था, इस कारण वह तपसवी का लडका और सवयं तपसवी हुआ।।27।। हे शीरामजी, शािनत आिद से राग
आिदसनतापो का िनरास कर चुके उस महापित तपसवी ने समंगा नाम वािसत होकर उन वासनाओं के अनुसार पापत होने
वाली िविवध जनम दशाओं को पापत कर, शरीर परमपराओं का भली भाित अनुभव कर भागयवश पापत हुई वैरागय आिद
की साधन समपित से समंगा नाम की बडी नदी के सुनदरतट पर िवकेपशूनय हो, दृढ वृक के समान यानी छेदन, भेदन
आिद हजारो िवकेप होने पर भी अचल रहने वाले वृक के तुलय िसथत रहा।।19।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
आठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआआआ आआआआआ आआआआ आआ आआआ
आआ आआआआआ आआ
। आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, इस पकार िपता के आगे मनोराजयो से कलपना कर रहे शी शुकाचायर
का अनेक वषर का लमबा समय बीतग गया।।1।। इसके अननतर अिधक समय बीतने के कारण वायु और धूप से
जजरिरत हुआ शुकाचायर का शरीर, िजसकी जड कट गई, ऐसे वृक के तुलय पृिथवी पर िगर पडा।।2।। िकनतु चंचल
शरीर वाले मन ने तो पुनः पुनः अपने से किलपत सवगरगमन आिद-आिद िविचत धाराओं मे जैसे अतयनत िविचत
वनशेिणयो मे मृग भमण करता है वैसे ही भमण िकया।।3।। उसके मन को, िजसने िविवध भोगो की कलपनाओं से
भमण िकया, जनम-मरण परमपराओं की कलपना से चक मे रखे हुए की तरह वयाकुलतापूवरक चारो ओर ऊपर नीचे चकर
काटा, समंगा नदी के तट पर िवशािनत िमली।।4।।
शुकाचायर अपने शरीर की कुछ भी परवाह न कर अननत वृतानतो से भरी हुई मन की कलपनामात होने के
कारण अतयनत कोमल तथा यह सतय है, इस भािनतवश पूवर देह के िवसमरण से अतयनत दृढ उस संसार दशा का
अनुभव करते रहे।।5।। उस धीमान का मनदराचल के िशखर पर िसथत वह सथूल शरीर ताप की अिधकता से
सूखकर बाहर केवल चमरशेष रहा और भीतर केवल हडडी ही उसमे रह गई।।6।। वह शरीर अिभमान दुःख के कय
से पापत आननद के कारण शरीर के िछदो मे बह रहे वायु से, बास के िछदो मे बह रहे वायु की वेणुधविन के तुलय
सीतकारो से हुई काकली से (मीठी महीन तान से) देह की ऐसी गित होती है, यो देह की चेषाओं को मानो गाता था।।
7।। वह शरीर ससार भूिमयो मे भोगाशारपी गडढे मे पूवोकत रीित से िगरे हुए बेचारे मन का सफेद मेघो के सदृश
सफेद दनतपंिकत से मानो उपहास करता था।।8।। वह शरीर मुखमणडलरपी अरणय मे पुराने अंधे कुओं के तुलय
नाक, आँख, मुँह आिद के गडढो की शोभा से जगत की सवाभािवक असदूपता को (शूनयता को) िववेकी पुरषो के
चमरचकुओं के सामने दशाता हुआ-सा िसथत था।।9।। पहले सूयर संताप से तपाया गया, ताप से तपने के बाद
वषाऋतु की मूसलाधार दृिष से सीचा गया वह शरीर मानो अपने बनधुरप पूवर पूवर शरीरो की परमपरा के समरण से
उतपन हुए दुःख से या आननद से बढने वाले बाषप को छोडता था।।10।।
चणडािलन के (तेज आँधी के) िवलास से वनभूिमयो मे इधर-उधर लुढकता था और वषाऋतु के आने पर दृिष
की धाराओं के िनपास से तािडत होता था, पवरत की नदी के तट पर वषाऋतु के झरने के तुलय गेर आिद धातुओं के
रंग से रंगा गया था, आँधी से उडी हुई धूिल से, जो पाप के सदृश थी, वह सना था। सूखे काठ के समान वह चंचल
था, वायु बहने पर आकाश मे भाजने से उतपन हुआ तलवार का सा शबद करता था, तेज वायु की साय-सायँ से भरे हुए
वन मे मानो वह तपसया करता था। वह शुकाचायर का शरीर टेढा हो गया था, उसके आँतरपी तनतु सूख गये थे, वह
पािणयो को डराने वाली भीषण धविन करता था, वह अलकमी के तुलय था, आहार से शूनय था, अतएव उसके पेट मे
केवल चमडा ही बच गया था।।11-14।। उस पिवत आशम मे राग-देष की कही गनध भी न थी और महिषर भृगु जी
महातपसवी थे, अतएव शुकाचायर के शरीर को मासाहारी पशु-पिकयो ने नही खाया।।15।।
शुकाचायर का िचत, िजसने िक यम और िनयमो से अपनी शरीरवयिष को कृश बना डाला था, तपसया करता
था और उनका वह पूवरशरीर, िजसके रिधर को वायु ने सुखा िदया था, बडी-बडी िशलाओं पर िचर काल तक बराबर
लुढकता रहा।।16।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
नौवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआआ
आआआ आआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआआआ आआआआ।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, तदननतर देवताओं के हजार वषर बीतने पर भगवान भृगु जी भगवान
का साकातकार कराने वाली समािध से उठे।।1।। उनहोने िवनय से अवनत, सैकडो सदगुणो के आकार, मूितरमान
पुणय के सदृश पुत भी शुक को अपने आगे नही देखा िकनतु उनहोने पुत के बदले अपने आगे देहधारी दुभागय के सदृश
तथा मूितरमान दािरदय के तुलय शुकाचायर का केवल महान देहपंजर (शव) देखा।।2,3।।
उकत नर कंकाल का ही वणरन करते है।
धूप से उसका शरीर सूख कर काटा हो गया था, उसके चमडे के छेदो मे तीतर फुदक रहे थे, उदररपी गुहा
की, िजसकी आँते सूख गई थी, छाया मे मेढक आराम कर रहे थे, आँखो के गडढो मे नये-नये कीडे सटे थे, बचचे देने
से उनकी संखया कही अिधक बढ गई थी और पसलीरपी िपंजडे मे मकिडयो के दल के दल गुँथे थे।।4,5।। वह
कंकाल वषा की धाराओं से धोई हुई अँतडी से और खूब सूखी हुई हिडडयो की माला से भला और बुरा फल देने वाली
पूवर काल की भोगवासना का अनुकरण करता था एवं सफेद, िचकने तथा चनदमा के समान पकाशमान िसररपी घडे से
कपूर से िलपत िशविलंग के िसर की शोभा का अनुकरण करता था।।6 स 7।। वह सीधी गदरन से, िजसकी नसे सूख
गई थी, एक मात हडडी शेष रह गई थी एवं जो वासना से वयापत आतमा का अनुसरण सा कर रही थी, अपने आकार
को ऊँचा कर रहा था।।8।। वह कमल की जड के तुलय सफेद नािसका के अगभाग की छोटी हडडी से िजसका
िक दृिष धाराओं से मास िगर गया था, मुँह मे सीमा जानने के िलए गाडे हएु पतथर आिद के आकार को धारण करता
था।।9।। वह कंकाल ऊँच गदरन से, िजसने उसके मुँह को ऊँचा िकया था, मानो आकाश मे उठे हुए पाणपखेरओं
को देख रहा था।।10।। दीघर परलोकमागर के पिरशम से उसे भय था, अतएव फूल कर दुगने हुए आठ अंगो से
जाघ, घुटनो, बाहुदणडो और उरओं से आठ िदशाओं के पित पसथान करता हुआ सा वह िसथत था। भाव यह िक उनसे
पृथक होकर वह भागना चाहता था।।11।। अतयनत िरकत, सूखे हुए एवं चमडा ही िजसमे शेष है,ऐसे उदर से
अजानी के हृदय की शूनयता को मानो वह दशा रहा था।।12।। अपने दुःखरपी हाथी के बनधनसतमभ के तुलय उस
सूखे हएु कंकाल को देखकर पूवापर का िवचार न करते हएु भृगु उठ खडे हुए।।13।। तदननतर पुत के कंकाल को
देखते ही भृगु के मन मे तुरनत यह िवतकर उतपन हुआ िक कया मेरे लडके के पाण पखेर िचरकाल से उड गये है !।।
14।। अवशयमभावी वसतु का िवचार का कर रहे महिषर भृगु को पुत को मरा देखकर तुरनत काल के पित बडा गुससा
आया।।15।।
हे कूर काल, अकाल मे ही तुमने मेरे पुत को कयो मारा ? यो कुिपत हएु भगवान भृगु काल को शाप देने के
िलए तैयार हुए।।16।। मुिनजी के शाप देने के िलए उदत होने पर लोगो को कविलत करने वाला रपरिहत भी यह
काल आिधभौितक शरीर धारण कर मुिन जी के पास आया।।17।। उसकी शोभा अदभुत थी, उसके हाथ मे खडग
और पाश था, वह कुणडलो से िवभूिषत था और कवच पहने था। पतयेक और उसकी छः भुजाएँ (बारह मासरप बारह
भुजाएँ ) थी, छः (ऋतुरपी) मुख थे, अपनी बडी भारी िकंकरो की सेना से वह िघरा था। उस समय उसके शरीर से
उतपन हुई और चारो ओर फैल रही जवालाओं से फूले हुए पलाश के वृको से पूणर पवरत की शोभा को आकाश धारण
करता था। उसके हाथ मे िसथत ितशूल के िशखरो से बाहर िनकल रही अिगन की जवालाओं से, जो सुवणर के कुणडलो
के तुलय पतीत होती थी, दसो िदशाएँ सुशोिभत हुई।।18-20।। उसके तेज शासवायु से िछन-िभन िशखरवाले हुए
पवरत झूले मे बैठे हुए की तरह इधर-उधर झूलते और चकर काटकर िगर पडते थे।।21।। उसके तलवार के
मणडल की चमक से काला हुआ सूयर का पितिबमब पलयकाल मे जले हुए जगतके धुएँ से वयाकुल हुआ सा मालूम पडता
था।।22।। हे महाबाहो शीरामचनदजी, वह काल कुिपत हुए भृगु जीके पास आकर पलयकाल मे कुबध हुए समुद के
तुलय गंभीर सवर से शािनतपूवरक बोला।।23।। हे मुिन जी, लोक का मयादा को जानने वाले एवं पूवापर वयवहारो को
देखे हुए उतम लोग दूसरे से अपराध होने पर भी मोह को पापत नही होते। अपराधरप हेतु के न रहने पर तो कहना ही
कया है ?।।24।। भगवन्, आप महातपसवी बाहण है। हम िनयम् का पालन करने वाले है, हे साधो, आप पूजय है,
इसिलए हम आपकी पूजा करते है। शाप के भय आिद से उतपन हुई इचछा से हम आपकी पूजा नही करते।।25।। हे
बुिदरिहत, (♦)मुिनजी, आप तप का नाश न कीिजए। जो मै पलयकालरपी महािगनयो से भी नही जलाया गया, उसको
आप अपने शाप से कया जलायेगे ?।।26।। हमने संसार की पंिकतयो की पंिकतया िनगल डाली है, करोडो रद चबा
डाले है, एक नही, हजारो िवषणुओं को गस डाला है। हे मुिनजी, िकस िवषय मे हम समथर नही है ? उसे जरा
उदाहरणरप से उपिसथत तो कीिजए।।27।। हे बहन, हम लोग भोकता है और आप लोग हमारे भोजन है, यह
सवाभािवक मयादा है। इचछा, देष आिद िकसी अनय िनिमत से हम लोगो का यह भोगय-भोकतृतव वयवहार नही है।।
28।। अिगन अपने आप ऊपर की ओर चलती है जल सवभावतत नीचे की ओर बहता है, भोजन सवभावतः भोकता के
पस आता है और िवनाशकाल भी िजतने जनय पदाथर है उनके पास सवभावतः आता है।।29।
♦ बुिद के जान से बािधत होने के कारण हे अबुदे यानी हे अिवदमान बुदे यो मुिन की पशंसा ही की है।
यिद कोई पश करे िक आपकी यह सवरभोकतृता कहा से आई और आपका कया सवरप है तो उस पर कहते
है।
यह मूतामूतर जगत परमातमारप मेरा यो भोजयरप से ही अपने मे किलपत रप है, कयोिक परमातमा अपने मे
सवयं ही जगतरप से िवकास को पापत होता है, अतः सवयं ही इसका उपसंहार करता है, यह भावाथर है।।30।।
यह भी औपिनषदवयवहार दृिष से कहा है, परमाथरदृिष से तो कहते है।
कलंकरिहत दृिष से (परमाथरदृिष से) न तो यहा कोई कता है और न कोई भोकता है, िकनतु कलंक युकत
दृिष से (कमरकािणडयो की दृिष से) यहा पर बहुत से कता है।।31।। हे बाहन्, कतृरतव और अकतृरतव और
अकतृरतव है ही नही।।32।।
'न कतृरतवं न कमािण लोकसय सृजित पभुः' (भगवान मनुषयो के कतृरतव और शुभाशुभ कमों की सृिष नही
करते है) इतयािद भगवान दारा पदिशरत पक का अवलमबन करके कहते है।
िविवध वृको मे रंग-िबरंगे फूलो की तरह इन भुवनो मे पाणी सवयं आते है और जाते है। इस िवषय मे कता
आिद शबदो से काल ही किलपत होता है।।33।। जैसे जल मे पितिबिमबत चनदमा के चलन मे कतृरता और अकतृरता
परमाथर दृिष से उसका अभाव होने के कारण सतय नही है और वयवहार दृिष से संवाद होने के कारण वे असतय भी
नही है वैसे ही सृिषयो मे कालरप परमातमा के कतृरतव और अकतृरत् परमाथरदृिष से सृिष का अभाव होने से सतय
नही है और वयवहार दृिष से असतय भी नही है।।34।। जैसे दूिषत दृिषवाला पुरष रससी मे सपरतव की कलपना
करता है वैसे ही मन ने िमथयाभम मे कतृरतव और अकतृरतव रप कलपना कर रखी है।।35।। हे मुिनजी, पूवोकत रीित
से मेरे अपराध का संभव न होने से आप वयाकुल होकर कोप न कीिजए। आपितयो का ऐसा ही कम है। जो जैसा है
वह वैसा होकर ही रहेगा, इसे आप सतय समिझये।।36।।
राग, अिभमान आिद के कारण यिद मैने आपके पुत का िवनाश िकया होता तो वैसी िसथित मे मुझमे अपरािधता
हो सकती थी, पर वे मुझमे है ही नही, ऐसा कहते है।
हे पूजय, भािनत से किलपत खयाित, पूजा आिद मे अनुराग रखने वाले हम लोग नही है और न अिभमान के ही
वशीभूत है। आपके समीप मे हमारा आगमन भी आपके कोध के भय से नही हुआ है िकनतु तपिसवयो का सममान करना
चािहए इस िनयम के कारण ही हुआ है, हे तात, हम सवयं भी अपने वश मे नही है केवल िनयित के वश मे िसथत है।।
37।।
मेरी िनयित की दशवितरता उिचत है, कयोिक सब पाज पुरष उसका अनुसरण करते है और आपको कोध,
अिभमान और अजान का वशवती होना उिचत नही है, इस आशय से कहते है।
सब पाज पुरष जगत की मयादा के पालक ईशर की इचछारप महािनयित के बल से आनतर
पकृतवयवहारेचछारप िनयित का अनुवतरन करते है, अिभमानरप महातम का अनुवतरन नही करते।।38।।
वयवहारचतुर पुरषो की अपनी-अपनी उिचत मयादा का अवशय पालन करना चािहए। आप तमोवृित का अवलमबन
करके कदािप उसका नाश न कीिजए।।39।। आपकी यह जानमयी दृिष कहा, वह महततव कहा, वह धैयर कहा ? सब
पाज पुरषो के पिरिचत मागर मे भी आप अनधे की नाई कयो मोह मे पडे है ?।।40।। हे मुिनजी, अपने कमर के फल
की पिरणामरप दशा का िवचार न करके हे सवरज, मूखर की नाई आप मुझे वयथर शाप देना चाहते है।।41।। हे
मुिनजी, आप कया नही जानते है िक यहा पर सब पािणयो के दो पकार के शरीर होते है। उनमे से एक सथूल शरीर है
और दूसरा मननामक सूकम शरीर है।।42।। उनमे से देह अतयनत जड और थोडे से भी िनिमत से नष होने वाला है
एवं मन मोक तक िसथर रहने वाला और पितभािसक है। वही आपका मनरप सूकम शरीर कोध आिद से पीिडत हो रहा
है।।43।। हे सजजनिशरोमणे, जैसे अिभमान से कुछ कर रहे चतुर सारिथ दारा रथ चलाया जाता है वैसे ही
अिभमान से 'इस पकार का' यो िवशेषरप जो नही कहा जा सकता, ऐसे आभयनतर वयापर को कर रहे मन दारा यह
शरीर चलाया जाता है। जैसे बचचा कचचे िमटी के िखलौने को, जो िवदमान नही है, बनाता है और पहले से बने हुए का
नाश करता है।।44,45।। इस लोक मे िचत ही पुरष है उसका िकया हुआ ही कृत कहा जाता है। वह िचत असत्
संकलपरप कलपना से बद है। कलपना का िवनाश होने पर िवमुकत हो जाता है। मन की देह कलपना इस पकारहैः यह
देह है, इसमे िसथत यह अंग है, यह िसर है, यो िविवध िवकारो से वह मन ही रपो मे कहा जाता है। मन ही पूवर जीव से
अनय जीव की संजावाला होता है। (एक ही मन जैसे पूवरपूवर जीव से अनय जीव की संजावाला होता है वैसा
जीवटोपाखयान मे कहा जायेगा।) उसके बाद मन से संकिलपत अथर मे िनशय होने से मन बुिद होता है। मन ही
अिभमान करने के कारण अहंकार होता है। इस पकार मन सवयं ही नानातव को पापत होता है। मन देह की वासना से
अनय या अपने पािथरव शरीरो को, जो िक िवदमान नही है, इचछा से देखता है।।46-49।।
मन की देह आिद कलपना आतम-साकातकार तक ही होती है, उसके बाद नही होती, ऐसा कहते है।
यिद मन सतय तततव का साकातकार करता है, तो उस समय असतय शरीर भावना का तयाग कर परम िनवृित
को पापत होता है।।50।।
इस पकार भृगु को जानोपदेश देकर एकमात मनोिवलास से िकये गये उनके पुत के वृतानत को कहते है।
आपके समािध मे िसथत होने पर आपके पुत का मन अपने मनोरथ के मागर से बहुत दूर चला गया। वह इस
भागरव शरीर का मनदराचल की कनदरा मे तयाग कर सवगर मे ऐसे चला गया जैसे की घोसले से जडा हुआ पकी आकाश
मे जाता है। हे मुिन जी, वहा पर मनदराचल के िनकु ंजो मे, पािरजात वृको के तले, ननदनवन के उदानो मे और
लोकपालो के नगरो मे महातेजसवी आपके पुत ने आठ चौकडी तक िवशाची नामक अपसराओं का ऐसे सेवन िकया जैसे
भमर पिदनी का सेवन करते है।।51-54।।
सवगर की तरह पुणय के कय से सवगर से पतन भी मन की कलपना से ही हुआ, इस आशय से कहते है।
तीवर वेग से उतपन अपनी कलपना से किलपत पुणयकय राित के कुहरे की तरह पापत होने पर उसके पुषपो की
िशरोमालाएँ मलान हो गयी। अंक के अवयवो का उललास धीमा पड गया। वह काल से पके हुए फल की नाई उस
अपसरा के साथ सवगर से िगरा। उस िदवय शरीर का आकाश मे ही पिरतयाग कर वह भूताकाश मे आया। तदुपरानत
पृथवी मे उतपन हुआ।।55-57।। पहले वह दशाणर देश मे बाहण हुआ। तदननतर कोसल देश मे वह राजा हुआ।
उसके बाद महाटवी मे वह धीवर हुआ। धीवरयोिन के उपरानत वह गंगाजी के तट पर हंस हुआ। तदननतर सूयरवश ं मे
पौड देश का राजा हुआ। सौरशालव देश मे दूसरो को उपदेश देने वाला मनत िसद हुआ। एक कलप तक वह सुनदर
िवदाधर हुआ। तदननतर वह सुनदर बुिदमान मुिनपात वासुदेव इस नाम से पिसद समंगा नामक नदी के तट पर िसथत
रहा। वासनावश और भी िविचत और िवषम अनयानय योिनयो मे आपका पुत भमण करता रहा।।58-61।। िफर
िवनधय पवरत मे वह िकरात हुआ, तदननतर कैकट नगर मे िकरात हुआ। िकरात योिन के बाद सौवीर देश मे सामनत
राजा हुआ। उस योिन मे िकये गये पापो से उसे ितयरक, सथावर आिद अनेक जनम भोगने पडे, सामनत होने के बाद
ितगतर देश मे गधा हुआ। िकरात देश मे बास की कोठी हुआ। चीन के जंगल मे हिरण हुआ, िफर ताड के वृक मे साप
हुआ। तमाल के वृक मे मृग हुआ।।62,63।। हे मुिनजी, आपके इस पुत ने मनतवेताओं मे सवरशेष होकर िवदाधर
हुआ, जो िक हार, केयूर आिद भूषणो से एवं िविवध लीलाओं से िसतयो को आहाद देने वाला हुआ।।64,65।। दूसरे
कामदेव की नाई नाियकारपी निलिनयो को पकािशत करने वाला िवदाधिरयो का अतयनत िपय एवं गनधवर नगर का
भूषण हुआ।।66।। कलपरपी अविध को पापत कर पलयकाल के एक साथ उिदत हुए बारह आिदतयो की जयोित मे
जैसे पतंगा अिगन मे भसमता को पापत होता है वैसे ही वह भसमशेष हो गया। तदननतर जैसे घोसले से रिहत िचिडया
आकाश मे घूमती है, वैसे ही उसकी वासना जगिनमाण रिहत िवशाल आकाश मे घूमती थी। तदननतर समय पाकर
िविचत-िविचत िविवध कमर करने वाले संसार की सृिष के आरमभ से युकत बहा का पातःकाल होने पर हे मुिन जी,
आपके पुत की वह वासना वायु से पिरचािलत होकर सतययुग मे बाहणता को पापत होकर इस भूमणडल मे उतपन
हुई।।67-70।। हे मुिनजी, वह बाहण का कुमार वासुदेवनाम से उतपन हुआ, िवदान लोगो के बीच मे उसने समसत
वेदो का अधययन िकया। हे महामुने , एक कलप तक िवदाधर होकर वह आपका पुत इस समय समंगा नदी के िकनारे
बैठ कर तप करता है।।71,72।। मुने , वह िजस जगत मे िविवध िवषयो की वासनाओं के अनुवतरिन से खैर और
करौदे के काटो से भीषण पवरत की गुफाओं के तुलय िविभन गभाशयो मे तथा घनी लता और झािडयो से अतयनत वयापत
वनसथिलयो मे भी भटका।।73।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
दसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआ आआआआआआआआ आआ
आआआ आआआ आआ आआआआआ
आआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआ आआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
काल ने कहाः हे मुिनजी, समंगा नदी के तट पर, जहा बडी-बडी तरंगो की पंिकतयो की गंभीर धविनयो से वायु
पितधविनत होते है, आपका पुत तपसया कर रहा है। उसने जटा धारण कर रखी है, रदाक की मालाओं से कंकण पहन
रखे है और सब इिनदयो के अपने -अपने िवषयो मे भमण को रोक िदया है। इस पकार की गितिविध से युकत वह आठ
सौ वषों से वहा पर अटल तपसया मे िसथत है।।1,2।। हे मुिनजी, यिद आप पुतचिरतरप पुत को मनोभम को, जो
सवप के तुलय है, देखना चाहते है, तो योगदृिष को भलीभाित खोल कर शीघ उसे देिखये।।3।।
शीवािसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, जगतो के एकमात अिधपित सवरत समदृिष काल के यो कहने पर
महिषर भृगु ने योगदृिष से पुत के चिरत का धयान िदया।।4।। उनहोने धयानवश एक कण मे बुिदरपी दपरण मे
पितिबिमबत पुत के वृतानत को आिद से लेकर अनत तक समपूणर देख िलया।।5।। िफर समंगा नदी के तट से आकर
मनदराचल के िशखर पर काल के आगे िसथत अपने सवसथ शरीर मे भृगु ने पवेश िकया (♣)।।6।। आशयर से
िवकिसत सुनदर दृिष से राग-देषशूनय काल को देखकर पुत के पित रागरिहत हुए मुिन भृगुजी ने यह वचन कहा।।
7।। हे भगवन, हे भूत और भिवषय के अिधपित, हम लोगो का िचत सनेह आिद से मिलन है, इसिलए हम लोग अजानी
है। हे देव, आप जैसे ितकालज पुरषो की ही बुिद भूत भिवषय और वतरमान तीनो कालो को साफ-साफ देखती है।।
8।। तरह-तरह के िवकारो से भरी हुई और असतय सवरपवाली यह जगत िसथित सतय सी पतीत होती हुई िवदान को
भी भमयुकत करती है।।9।।
♣ यहा पर भृगु अपने शरीर से िनकल कर उन-उन समंगातटपयरनत सब पदेशो मे कमशः पुत के वृतानत को
देखकर िफर वािपस आकर अपने शरीर मे पिवष हुए, ऐसी भािनत नही करनी चािहए कयोिक योगबल से अपने सथान मे
सब कुछ देखा जा सकता है और िनकल कर घूमने पर भूत और भिवषय वृतानत का दशरन योगदृिष के िबना नही हो
सकता। इसिलए 'समंगा नदी के तट से आकर अपने शरीर मे पिवष हुए' इस उिकत का तातपयर उसके िचनतन को
छोडकर उनहोने केवल शरीर का संधान िकया, इसमे समझना चािहए।
िवषयभूत जगत-िसथित की तरह कारणभूत मन का रप भी हम लोगो के िलए दुजेय है, ऐसा कहते है।
हे देव, इस मनोवृित का जो सवरप आपके अनदर रहता है और इनदजाल के तुलय माया और मोह की सृिष
करता है, उसे आप ही जानते है।।10।। भगवन्, मेरे इस पुत की महाकलप तक मृतयु नही है ऐसा मुझे जात था।
इसीिलए उसे मृत देखकर मुझे यह वयामोह हुआ है।।11।। हे देव, मेरे पुत की आयु अभी कीण नही हुई है िफर भी
काल उसे ले गया, इस पकार मेरी तुचछ इचछा भगविदचछा से उतपन हुई।।12।। हे िवभो, यदिप हम लोग संसार की
गित को भलीभाित जान चुके है तथािप भगविदचछाव हम आपितयो और समपितयो के हषर और कोध के वशीभूत होते
है।।13।। भगवन्, अपकार या अनुिचत कायर करने वाले वयिकत पर कोध करना चािहए और उिचत कमरकारी पर
पसनता पगट करनी चािहए, इस पकार का िनयम संसार मे िचरकाल से चला आ रहा है, इसिलए मैने आपके पित कोध
िकया है।।14।। जब तक यह अवशय करनी चािहए, यह नही करना चािहए यो इष और अिनष साधनो का फल
सतय है, ऐसी पतीित रहती है तभी तक जगत की भािनत है, हे जगतगुरो, इस समय उस भािनत का तततवजान से तयाग
हो चुका है, इसिलए कोध और पसनता करना चािहए, यह िनयम भी हेय हो गये है। इस समय आप पर कोध करना
अनुिचत ही है।।15।।
पूवर विणरत रीित से अपराध के रहते भी कोध करना उिचत नही है, यिद अपराध िबलकुल न हो, उसे अपराध
मानकर कोध िकया जाय, तो कोध करने वाले को ही दणड देना उिचत है, ऐसा कहते है।
भगवन्, केवल आपके एकमात िनयम पिरपालनरप कायर का िवचार न कर यानी आप केवल िनयम का
पिरपालन करते है िकसी के पित राग-देष के िकसी का हनन नही करते इसका िवचार न कर जब हम आपके िलए कुद
हुए तब हम ही आपके दणडनीय हो गये है।।16।। हे देवािधदेव, आपने इस समय मुझे मेरे पुत के चिरत का समरण
कराया है, इस कारण समंगा नदी के तीर पर योगदृिष से मैने अपने पुत को देखा है।।17।। इस जगत मे मन ही
भौितक शरीर की कलपना करता है, इसिलए सवरत जाने वाले मन ही पािणयो के सथूल और सूकम शरीर है। मन से इस
जगत की भावना होती है।।18।। इस तरह िवनयपूणर वातालाप से एवं अपने दारा उपिदष सूकमतततव के गहण से
काल सनतुष हुए थे, अतएव उनकी उिकत की पशंसा करते हुए काल ने कहाः बहन, आपने मन ही शरीर है, ऐसा जो
कहा है वह बहत ु ठीक कहा है, कयोिक जैसे कुमहार घडे को बनाता है, वैसे मन संकलप से देह का िनमाण करता है।।
19।। जैसे बालक अजानवश अिवदमान वेताल की कलपना करता है वैसे ही मन संकलप से पूवर मे नही बनाये गये
आकार का कणभर मे िनमाण करता है और पूवरकृत आकार का कणभर मे िवनाश करता है।।20।।
मन की असत् पदाथर के िनमाण की शिकत सब लोगो के अनुभव से िसद है, ऐसा कहते है।
देिखये न भम, सवप, िमथयाजान आिद से भासुर तथा गनधवरनगर के तुलय आकारवाली शिकतया मन मे देखी गई
है।।21।। हे महामुिनजी, इस सथूल दृिष की अवसथा का अवलमबन कर पुरष के मनरप सूकमशरीर और सथूल
शरीर दो देह है, ऐसा कहा जाता है।।22।।
तब सूकम दृिष कौन है ? इस शंका पर कहते है।
हे मुिनजी, एकमात मनन से बने हुए ये तीनो जगत है, कयोिक ये मन के सदृश ही न सत् है और न असत् है
यानी मन के सदृश ही सततव और असततव से अिनवरचनीय रप से बडे आटोप के साथ उिदत है, ये मन से अितिरकत
नही है।।23।। जैसे अजानवश आकाश मे िदचनदता का उदय होता है वैसे ही िचतरपी देह की अवयवभूत लता के
तुलय फैल रही बढी-चढी भेदवासना से यह जगतभेद उिदत हुआ है।।24।। मै दुबला-पतला हूँ, मै बडा दुःखी हूँ, मै
मूखर हूँ इन भावनाओं की तथा इनसे अितिरकत अनयानय अनेक भावनाओं की भावना कर रहा मन अपने ही िवकलप से
आिवभूरत हुई संसािरता को पापत होता है।।26।।
मन का संसार मे आने का कम दशा कर अब मन की संसार से िनवृित का उपाय कहते है।
मनन मेरा बनावटी रप है, कारण िक यह मै मन ही हूँ, इस पकार बनावटी रप के पिरतयाग से िचत शानत
सनातन बह ही है। कृितम मननरप का तयाग करने पर अकृितम सवरप िसथित सवयं अथरतः पापत है, यह तातपयर
है।।27।। जैसे फैली हुई अनेक लहरो से भरपूर, अनेक बडे-बडे कललोलो से शोिभत होने वाले तथा दूरगमनरप
सपनदन होने के कारण सपनदनरिहत िवशाल समुद मे, जो जलमय, सम, सवचछ, शुद, सवादु , शीतल, अिवनाशी
िवसतारयुकत महामिहमाशाली और पतयक है, छोटी तरंग अपने सवभाव के अनुसार अपने सवरप की भावना करती हुई
अपने िवकलप से मै छोटी हूँ, ऐसी भावना करती है। बडी तरंग अपने सवभाव से अपने अपने सवरप की भावना करती
हुई अपने िवकलप से मै बडी हँू, ऐसी भावना करती है, छोटी तरंग पाताल की भावना करती हुई मेरा सवरप पिरभष हो
रहा है, यो पतन के भय से अपनी उकत भावना वश तटभूिम को पापत होती है। उतपन होकर थोडे समय के बाद
भोगयोगय जनम को पापत हईु हँ,ू ऐसा अिभमान करती हईु भागयवंश पवरत की नाई उजजवल मिणयो की िकरणो से
िवभूिषत होकर दीपत कािनत से शोभा पाती है। मै भूिषत हूँ, यो समझकर पसन होती है, यह अथर है।।28-33।।
उसकी और भी अनेक हषर और भय की अवसथाओं को िदखलाते है।
चनदमा के पितिबमब मे उपािधरप से िसथत होकर उकत तरंग अपने को शीतल समझती है, तटवती पवरत की
वनािगन के पितिबमब से युकत वह जलते हएु सवरपवाली होकर मै जल गई हँू, यो समझकर भयभीत होती है और मौन
धारण कर कापती है। समुद के तटवती पवरत के तटो के परो के तुलय वनवृक िजसमे पितिबिमबत है, ऐसी वह तरंग
राजयपािपत रप फलवाले कायाडमबर से मै कृताथर हँू, यो सुशोिभत होती है। अपने सवरप मे घुस रहे चंचल वायु से
खूब तहस-नहस अतएव चंचल शरीरवाली वही तरंग मै टुकडे-टुकडे हो गई हूँ, यो रोती हुई सी धविनयुकत होती है।।
34-37।।
दृषानत मे पूवोकत रीित से आरोप कह कर अपवाद िदखलाते है।
जलसमूहरप सागर से वे तरंगे पृथक नही है, इनका न तो सनमय और न असनमय कोई एक रप है और न
हसव, दीघर आिद गुण उनमे है और न उन गुणो मे तरंगे ही है।।38।। तरंगे समुद मे िसथत नही है। 'समुद मे िसथत
नही है' ऐसा जो कहा गया है वह ठीक नही है, कयोिक अिधषानरप से समुद मे उनकी सता है, िववतररप से तो
पितयोगी की िसिद न होने से ही उनके अभाव की िसिद नही होती। तब वे तरंगे कया है ? इस शंका पर कहते है िक
केवल अपने सवभाव मे िसथत संकलप से कलप ली गई है यानी पिरचछेदकृत भेद से किलपत है।।39।। ये तरंगे नष
होकर िफर उतपन होती है, उतपन हो-होकर िफर-िफर समुद मे नष होती है, परसपर के सममेलन से अतयनत भेद को
पापत नही होती है। वे एकमात जलमय और िनिवरकार ही है। वैसे ही इस सवरवयापक, जयोितसवरप, शुद, िनिवरकार,
एकमात िनरंकुश बृहणसवभाव वाले अतएव 'बह' शबद से पुकारे जाने वाले पिरपूणररप सवरशिकतसमपन, जनम-नाशशूनय
परम तततव मे आशयरपूणर िविचत शिकतवाला बह ही अपने शरीर मे िभनता को पापत होता है।।40-43।। जैसे जल मे
अनेक लहरे वृिद को पापत होती है वैसे ही बह मे बह ही जगत रप से वृिद को पापत हुआ है। सती, पुरष और
नपुंसक रप से बह ही पिरवितरत होता है।।44।। बह से िभन जगत नाम की न तो कोई कलपना कभी थी, न है
और न होगी। जगत का बह से रतीभर भी भेद नही है।।45।। यह सब बह ही है, जगत एकमात बह ही है, ऐसी
भावना पयतपूवरक कीिजए और सबका पिरतयाग कीिजए।।46।।
अनय के पिरतयाग मे उपायरप से सबके अिधषान सनमात का बोध कराते है।
नानारपवाली होने पर भी एकरपवाली, अपने सैकडो िवकृतरप धारण करने वाली होने पर भी सदा सवरत
एकरपवाली सता पदाथों मे अिधषानरप से िवदमान है।।47।।
यिद कोई शंका करे िक जड और अजड पदाथों मे अिधषानरप से िवदमान सता सदा सवरत एकाकार कैसे
हो सकती है ? तो इस पर िचत दारा किलपत जड और अजड के िवकलपो से सनमात की एकरपता की कित नही हो
सकती, इस आशय से कहते है।
िचदाभास के िचत को पापत होने पर उससे वयापत अहंकार को ही आतमरप से तथा उससे अितिरकते को
अनातमरप से मान रहा मन अनाधयाितमक जड है और आधयाितमक अजड है, ऐसा भेद करता है। वह िचत की
भेदवासनारिपणी शिकत यिद अिधषानसनमात से अितिरकत मानी जाय, तो िमथया ही जायेगी, इसिलए वह आतमा का
सवरप ही है, इसिलए सता की एकरसता की हािन नही है।।48।।
इस पकार पूवरविणरत दृषानत और दाषािनतक की समता अकुणण रही, ऐसा कहते है।
हे िनषपाप मुिनजी, इससे िसद हुआ िक जैसे पूणर सागर ही भाित-भाित की लहरो, आवतों और बुदबुदो से
िवकिसत होता है, वैसे ही बह ही िवशाल आकारवाले इस जगत रप से िवकिसत होता है।।49।। जैसे समुद के
जल मे समुद का जल िविवध पकारकी गितिविधयो से अपने आप भेद को पापत करता है वैसे ही आतमा मे आतमा ही
अपने -आप ही नाना पकार के िवचरणो से नानातव (भेद) को धारण करता है।।50।। जैसे िविवध आकार-पकार की
लहरे जल से िभन नही है, वैसे ये समसत कलपनाएँ परमातमा से िभन नही है।।51।। जैसे एक बीज मे शाखा, फूल,
लता, पते, फल, कली की िसथित है, वैसे ही परमातमा मे सदा सवरशिकतता िवदमान है।।52।।
पिरणामवाद के दृषानतो से बह से जगत की अिभनता का उपपादन कर अब िववतरवाद मे पिसद दृषानत से
भी बह-जगत के अभेद का उपपादन करते है।
जैसे तेज धूप मे िविचत वणरता िदखाई देती है, वैसे ही परमातमा मे सदसनमयी िविचतशिकतता है।।53।।
जैसे एक रंग के मेघ से रंग-िबंरग के इनदधनुष की उतपित होती है वैसे ही िविचततारिहत, कलयाणमय परमातमा से
िविचतरपवाली यह जगितसथित उतपन होती है।।54।।
चेतन से अचेतन की उतपित मे भी पिरणामवाद और िववतरवाद इन दोनो वादो के अनुरप दो दृषानत कहते
है।
जैसे चेतन मकडी से अचेतन मकडी के जाले की उतपित होती है और जैसे चेतन पुरष से सवप के रथ आिद
उिदत होते है, वैसे ही अजड परमातमा से जडता की भावनावश जडता उिदत होती है।।55।।
यिद कोई शंका करे िक जब िचत् का एक रप है, तब उसके कायरभूत अिचत् मे भेद कैसे िसद हुआ ? इस
पर कहतेहै।
जैसे रेशम का कीडा अपने बनधन के िलए तनतुओं का लचछा फैलाता है, वैसे ही आतमा अपने बनधन के िलए
अपनी इचछानुसार अिचत् िचत की वासना की िविचतता का िवसतार करता है।।56।। हे बहन्, जैसे रेशम का
कीडा तनतुजाल की रचनाकर अपने किठन बनधन की सवयं रचना करता है, वैसे ही यह आतमा अपनी इचछा से अपने
सवरप की िवसमृित की भावना कर अपने किठन बनधन की सृिष करता है।।57।। जैसे हाथी अपने बनधनसतमभ से
छुटकारा पाता है वैसे ही आतमा अपनी इचछा से अपने पूणर सवरप का अनुभव कर संसार से मुकत होता है।।58।।
आतमा सदा जैसी भावना करता है, सवयं वैसा ही हो जाता है और महान होता हुआ भी मन की शिकत से वैसा पूणर हो
जाता है।।59।। जैसे वषा ऋतु का िवपुल कुहरा समपूणर आकाश को अपने रप मे रंग देता है वैसे ही भािवत शिकत
(वासना) वयापक आतमा को एक कण मे अपने रप को पापत कर देती है।।60।। जैसे छः ऋतुओं मे जो ऋतु िजस
समय रहती है, उस समय वृक तनमय हो जाता है, वैसे ही जो शिकत उिदत होती है आतमा शीघ तनमय बन जाता है।।
61।।
यह बनध और मोक की कलपना अज की दृिष से है, तततवदृिष से तो उनकी संभावना ही नही है, ऐसा कहते
है। जो लोक मे मोक कहा जाता है, वह परमातमा का मोक नही है और बनधन भी आतमा का बनधन नही है। न मालूम ये
बनधन-मोक दृिषया लोक मे कहा से टपकी ? अथात् बनधन मोक की कथा ही नही है।।62।। वासतव मे न तो मोक
है और न बनधन है, िफर भी यह आतमा बनधन-मोकरप िवकारो से युकत-सा भािनत से पतीत होता है, कयोिक इसका
िनतय, पूणर परमातमरप अिनतय अिवदाजिनत भोकता, भोगय आिद भाव से ितरोिहत है, वही मायामय जगत है।।63।।
इस अखणड आतमा ने जब भी िचत की कलपना की, उसी समय जैसे रेशम के कीडे को रेशम के तनतु लपेट लेते है
वैसे ही इसको िचत ने लपेट िलया यानी बाध िदया।।64।। परसपर िमलते-जुलते रपवाली, सवरथा िवकिलपत
आकारवाली ये करोडो मन की शिकतया इस परमातमा से ही उतपन हुई है।।65।। जैसे समुद से उतपन हुई और
समुद मे ही िवदमान तरंगे समुद से पृथक सी पतीत होती है और जैसे चनदमा से आिवभूरत और चनदमा मे िसथत िकरणे
चनदमा से पृथक सी िसथत रहती है, वैसे ही ये मन की शिकतरप सृिषया परमातमा से उतपन है और उसी मे िसथत है
िफर भी पृथक सी पतीत होती है।।66।।
कमेिनदय और जानेिनदयो के भेद अथवा तामस और सािततवक भेद से सृिष-िवभाग को कहने के िलये यहा पर
कमशः दो दृषानत िदये गये है, यह समझना चािहए।
मुखय और अमुखय बनधनरप उपािधवाले जीवरप संिवद् भेदो को ही नाम-रप-िकया के वैिचतय से
िवसतारपूवरक दशाने के िलए भूिमका रचते है।
इस सपनदमय, िवशाल, परमातमरप महासागर मे, िजसमे चैतनय ही जल है और िजसका िवशाल आकार है एवं
एकमात िचदस से जो सुशोिभत होता है, कोई िसथर जीवनामक संिवतभेद बहा, िवषणु हुए है, कोई रदतव को पापत हुए
है, कोई कोई पुरषतव को पापत हुए है और कोई देवतव को पापत हुए है।।67,68।।
(अपने सवभाव से िजनहोने अपने सवरप की कलपना की है, ऐसी कोई ये लहरे यम, महेनद, सूयर, अिगन, कुबेर
आिद रप से सफुिरत होती है। चंचल वृितवाली ये लहिरया आपस मे एक दूसरे का िवनाश करती है, सवोिचत वयवहार
करती है और अपना सवरप बनाये रखती है। िकनर, गनधवर, िवदाधर, देव आिद कोई लहिरया ऊपर को उठती है और
कोई नीचे िगरती है। कोई कुछ िसथर आकारवाली है जैसे िक बहा आिद और कुछ उतपन होते ही नष हो जाती है,
जैसे देवता, मनुषय आिद।।1-31∕2।।)
महासागर मे जल के बुदबुदो की तरह कृिम, कीट, पतंग, सपर, गाय, मचछर, अजगर आिद कोई जीवसंिवत इस
चैतनयरपी महासागर मे अतयलप समय के िलए सफुिरत होती है।।69।। पवरत के कु ंजो मे तथा समुद की तीर भूिम
के वन मे वृक, लता आिद के तुलय चंचल कोई मनुषय, मृग, गीध, िसयार आिद रपवाली जीवसंिवत कुछ समय के िलए
आिवभूरत होती है।।70।। इन जीवसंिवदो मे िकनही की आयु बहुत लमबी है, कोई बहुत थोडे िदनो तक जीिवत रहती
है, िकनही की शरीर कलपना िवशाल है, िकनही का शरीर अतयनत तुचछ है। इस संसाररपी सवप मे कोई अपने
िचरसथाियतव की भावना करती है, कोई दृढ िवकलपो से मोिहत होकर जगत को िसथर समझती है। कुछ दीनता आिद
दोषो से आकानत होकर अपने जीवन की अतयनत अलपता की भावना करती है। मै दुबला हँू, अतयनत दुःखी हँू और
अतयनत मूढ हूँ, इस तरह दुःखो से परवश होकर कोई जीव सथावरता को पापत हुए है कोई देवतव को पापत हुए है, कोई
पुरषता को पापत हएु है और कोई मोहसागरता को पापत हएु है।।71-74।। सागर से उतपन हईु लहरी के समान
चंचल कुछ जीव, िजनका िक मनन दूसरा नाम है, बहरपी सागर से उतपन हुए है। उनमे िवशाल शरीरवाले कुछ तो
सैकडो कलप तक जगत मे रहते है और कुछ जानरपी अमृत से पूणर होने के कारण चनदमा के तुलय सवचछ होकर
सवरपिसथितरप मोक को पापत होते है।।75।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
गयारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआ आआ
आआआआआआआआआआ
आआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ।
पहले सब जीवो की बहैकता और भेदक पपंच की असतयता का उपपादन करने के िलए कहते है।
काल ने कहाः हे मुिन जी, देव, असुर और नर के आकारवाले ये जीव बहरपी सागर से अिभन है, यही बात
सतय है, इससे अितिरकत िमथया है।।1।।
यिद उससे अिभन है, तो कयो वैसा (हम अिभन है यो) अनुभव नही करते? इस पर कहते है।
हे बहन्, अपने िवकलप से कलंिकत वे जीव देह मे आतमतव की भािनत से हम बह नही है, इस आनतिरिक
िनशय दारा शोचनीय दशा को पापत हुए है। यानी यद वे बहरपी सागर मे िसथत है, तथािप बह से अपनी िभनता की
(पिरिचछनता की) भावना करते हुए नरक के तुलय योिनयो मे घूमते है।।2,3।। जो ये बहसंिवदूपी जीव है, ये
एकमात देहातमभाव के पुनः पुनः अनुसनधान से कलंिकत है, वही देहािदभाव का अनुसनधान पाप और पुणय की पवृितयो
का बीज है। देहातमभाव के अनुसनधान से कलंिकत होने पर भी उन जीवो को आप िनिवरकार बह ही जािनये।।4।।
हे मुिन जी, संकलपरपी इस कलपना से ही, जो कराल िविवध कमररपी कंजो के बीजो की मुटी से तुलय है, जगत मे
िवसतीणर हुई ये शरीररपी लताओं की पंिकतया िसथत है, इधर-उधर चलती-िफरती है, रोती और हँसती है। जैसे वायु
अपने सपंदनो दारा उललास को पापत होती है और लीन हो जाती है, वैसे बहा से लेकर वृकपयरनत ये शरीर पंिकतया भी
उललास को पापत होती है, ितरोिहत हो जाती है, मलान हो जाती है और हँसती है।।5-7।। इनमे से कोई ये जीव
अतयनत िनमरल है, जैसे िवषणु, हर आिद। कोई जानािधकार की योगयता के पाने से अलप मोह मे िसथत है, जैसे नाग,
मनुषय और देवता आिद। कोई अतयनत मोह मे िसथत है, जैसे वृक, तृण आिद। कोई अजान से मोह युकत होकर कृिम
और कीडो की योिनयो को पापत हएु है। कृिम कीटो मे इष और अिनष मे पवृित और िनवृित की कमता होने से
सथावर योिनयो के तुलय अतयनत मोह नही है, यह भाव है।।8,9।।
कुछ जीव शासतपितकूल पवृित से बहरपी महासागर के यानी मुिकत से दूर बहाये जाते है, उनहे भूिमका पापत
नही होती है। वे है सपर, वृक आिद।।10।। इस संसार मे आने के कम से मनुषय आिद भाव को पापत हुए कुछ जीव
संसार मे आने से उतपन हएु पिरशम की िवशािनत मे हेतुभूत योगभूिमका के अिसततव को शासत से सुनकर योगसाधना
मे बार-बार उनमुख होकर भी कालरपी बूढे चूहे से पीिडत होते है।।11।। कुछ िवषणु, बहा, हर आिद जीव
बहतततवरप महोदिध से कुछ भेदक िवशुद जानोपािध को पाकर कायों के साथ बह महासागरता को पापत हएु है यानी
जीवनमुकत हो गये है।।12।। अलपमोहवाले कोई जीव, िजसकी सीमा नही है ऐसी पूणरतावाले, उसी बहरपी महासमुद
का समािध से अवलमबन करके िसथत है।।13।। कुछ जीव, अवशय भोगने योगय जनसमूहो से िजनहोने करोडो जनमो
का भोग कर िलया है िफर भी मोक की पािपत न होने से वनधय तथा अिधकारी देह की पािपत से पकाश मे भी राग आिद
से अनधे होने के कारण तामिसक वृितवाले होकर िसथत है। कोई जीव ऊपर से नीचे िगरते है जैसे हाथ से बडा भारी
फल िगरे, कोई ऊपर से और अिधक ऊपर चढते है और कोई नीचे से और नीचे िगरते है।।14,15।।
बहुत पकार से सुख-दुःख देने वाले जनमो की आकाररप, जान के िबना कभी कीण न होने वाली यह जीवता
परमपद का समरण न करने से संसािरता को पापत हुई है। जैसे भगवान िवषणु के समरण से गजेनद की पीडा नष हुई
थी वैसे ही परमपद के जान से वह नाश को पापत होती है।।16।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआआ आआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ
आआआ आआआआ आआ आआआ आआआआ।
पूवोकत जीवजाितयो मे से जीवनमुकत ही कृतकृतय है और नही, ऐसा कहते है।
काल ने कहाः हे भृगु जी, सागर से उतपन हुई लहरो की भाित और वसनत ऋतु मे उतपन हुई िविवध िविचत
लताओं के तुलय इन जीव-जाितयो मे िजनहोने मन के मोह पर िवजय पा ली है और लोक के ऊँच-नीच िविवध वयवहार
देख िलये है, ऐसे जीवनमुकत अतएव कृतकृतय यक, गनधवर, िकनर (▓) जगत मे भमण करते है।।1,2।। और उनसे
अितिरकत जो चराचर पाणी है, वे काठ और दीवार के तुलय मूढ है पुनः पुनः जनममरण को पापत होते है और दूसरे
कीणमोह (तततवजानी) है। साधनचतुषय से युकत अजानी ही शासतिवचार के अिधकारी है तततवजानी अिधकारी नही
है।।3।।
(▓) यहा पर यक आिद तीनो का गहण केवल उदाहरण के िलए है पिरगणन के िलए नही है, कयोिक मनुषय
आिद मे भी जीवनमुकतो का संभव है।
वे िकस िलए देहधारण करते है ? ऐसी यिद शंका हो तो उस पर शासत-रचना दारा अजािनयो के उदार के
िलए ही वे देहधारण करते है, इस आशय से कहते है।
लोक मे जो लोग आतमजान के िलए जागरक है, उन पािणयो की आतमजान की िसिद के िलए जानी महातमाओं
दारा रचे गये शासत इस संसार मे िवहार करते है, गरजते है।।4।।
पापकमर का कय होने पर पुरष को जानपािपत होती है, इस अथरवाले समृितवचन के बल के शासत भी िजनका
िचत शुद हो गया है, ऐसे पुरषो के पित ही फलदायक होते है, औरो के िलए नही, ऐसा कहते है।
पापो का िवनाश होने पर िजनका अनतःकरण शुद हो गया है, उनही की िनमरल बुिद शासतिवचार मे पवृत होती
है।।5।। जैसे सूयर के आकाश मे भमण करने से राित का अनधकार िमट जाता है वैसे ही आधयाितमक सतशासतो के
िवचार से मनरपी मैल नष हो जाता है।।6।। कीणता को पापत न होता हुआ मन मोह के िलए ही होता है, न िक
िसिद के िलए। यह कुहरे के समान ढककर बेताल के समान नाचता है यानी कुहरा जैसे आकाश को आवृत कर देता
है वैसे ही अकीयमाण मन तततव को आवृत कर देता है और जैसे वेतान नाच दारा िवकेप करता है वैसे ही वह िवकेप
करता है।।7।। मुिनजी, देहातमता को पापत हुए (देह मे आतमबुिद करने वाले) सभी जीवो का सुख-दुःख आिद का
भाजन मनोरप शरीर ही है, मासमय शरीर उकत सुख-दुःख आिद का भाजन नही है।।8।। जो यह मास और
हिडडयो का समूहरप पाचभौितक देह िदखाई देती है, यह एकमात मन की कलपना है। वह देह वासतिवक नही है।।
9।। हे मुिनजी, आपके पुत ने मनरपी शरीर से जो कुछ िकया, उसी को वह पापत हुआ है। इस िवषय मे हमारा
तिनक भी अपराध नही है।।10।। जो आदमी अपनी वासना से जो जो कमर करता है, वह वैसे ही उसको पापत होता
है, उसमे अनय िकसी की कतृरता नही है।।11।। पाणी अपनी केवलमनोवासना से (अनुसनधानमाता से) अपने मन मे
सोचे गये िजसका एक कण मे िनमाण करता है, कौन ऐसा भुवनो का अिधपित है, िजसे उसे करने की सामथयर है यानी
लोकािधपित हम लोग बडे पयत से िचरकाल से भी उसे नही कर सकते है, इसिलए हम लोगो का अपराध नही हो
सकता।।12।। जो सृिषया, जो नरको के िवसतार और जो जनम-मरण की इचछाएँ है, वे सब मन के सफुरण से है,
वह मन का िकंिचनमात सफुरण भी दुःखदायी है।।13।। इस िवषय मे केवल शबदो का शवण करने वाले ( न िक
तततवपदशरक) बहुत कथनो से कया लाभ है ? भगवन्, आप उिठये, वहा चले, जहा पर आपका लडका तपसया मे िसथत
है।।14।। सवगर के सब भोगो को िचतशरीर से एक कण मे भोग कर तदुपरानत आकाश आिद के कम से भूिम मे
अवतीणर हुआ आपका पुत शुक चनदमा की िकरणो के समबनध से औषिधयो मे पवेश कर अन आिद के रप मे
जनमपरमपरा को पाकर समंगा नदी के तट पर तपसवी बन कर बैठा है।।15।।
चनदमा की िकरणो के समबनध से, ऐसा जो कहा है, उसे सपष करते है।
शुक का पाणवायु चेतनशिकत से संमुिचछरत होकर नीहाररप से चनदमा की िकरणो के साथ समपकर होने से
चनदिकरण के तुलय होकर धान दारा उसका फल चावल आिद होकर पुरष मे पिवष हो वीयर बनकर सती के गभर मे
िसथत हुआ।।16।। यह कहकर जगत की िसथित पर हंस रहे भगवान काल ने हाथ फैलाकर अपने हाथ से भृगुजी
को ऐसे पकडा, जैसे सूयर चनदमा को पकडे।।17।। भगविदचछारप िनयित की वयवसथा बडी िविचत है, ऐसा धीरे-
धीरे कह रहे भगवान भृगु उदयाचल से सूयर के तुलय उठ खडे हएु ।।18।। तमाल के वृको के झुणड से युकत
मनदराचल मे एक ही साथ खडे हुए वे दोनो तेज के और सूयर के समान सुशोिभत हुए।।19।। शीवालमीिक जी ने
कहाः शीमुिनजी के इतना कह चुकने पर िदवस बीत गया, सूयर भगवान असताचल को चले गये, ऋिषयो की सभा
महामुिन को नमसकार करके सायंकालकी सनधयािविध आिद के िलए सनानाथर चली गई। दूसरे िदन रात बीतने पर सूयर
के उदय होने के साथ िफर आ गई।।20।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तेरहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआ आआआआ आआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ
आआआआआ
आआ आआआआआ, आआआआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआ
आआ आआआआआ आआ । आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इसके अननतर काल और भृगु ये दोनो देवता मनदराचल की कनदरा से
पृथवीतल मे उतरकर समंगा नदी के तट पर जाने के िलए ततपर हुए।।1।। पवरत से उतर रहे उन दोनो
महातेजिसवयो ने अिभनव, सुवणरमयी लताओं के समूहो के िनकु ंजो मे सोये हुए देवताओं और पिकयो को देखा जो
गगनागण मे लताओं से वेिषत झूलो के दारा कीडा कर रहे थे। वे हिरिणयो के तुलय मनोहर अपने कटाको से कमल
का समरण करा रहे थे।।2,3।। ऊँचे िशलाखणडरपी आसन पर बैठे हुए तथा लीला से तीनो जगतो को देखने वाले
िसदो को भी देखा जो शरीरधारी उतसाह के तुलय थे।।4।। िजनमे िनरनतर फूल िगर रहे थे, ऐसे धारा के पवाहो मे,
जो नहा चुके थे तथा ताल वृक की तरह लमबे, मोटे और ऊपर उठाये हुए सूँडवाले गज यूथपो को देखा, वे मद के
आिधकय के कारण आलसय से झपकी ले रहे थए, मूितरधारी मद के तुलय थे और फूलो के केसरो से रंिजत पवन से
उनकी पूँछ लाल हो गई थी।।5,6।। एवं चंचल और मनोहर चमरो को देखा जो पवरतराज के चँवर के तुलय पतीत
होते थे। िजनमे िनरनतर फूर िगर रहे थे, ऐसे धारा के पवाह मे िनमजजन िकये हुए िकनरो को, शाखापयरनत सीधे हुए
उतम जाित के खजूर वृको को और खजूर के फलो से परसपर ताडनरपी कीडा दारा बास को भी फलयुकत बनाने वाले
बनदरो को भी देखा िजनके िवरप मुख गेर के तुलय लाल थे और जो उछलने कूदने मे मसत थे। पवरक के िशखरभाग
के उपवन मे िजनके मिनदर लदाओं के िवसतार से ढके हुए थे, िजनहे रितकाल का सूचन करने के िलए देवागनाएँ मनदार
के फूलो से मार रही थी, ऐसे िसदो को भी देखा और उन पवरत के पपात देशो को भी देखा, जो गेर से लाल और
सघन बादल के समूहो से आचछन तथा मनुषयो के संचार से शूनय थे, उनकी बौदो संनयािसयो से तुलना की जा सकती
है, कयोिक वे भी गेर आिद से लाल और सघन वसत से आवृत रहते है और जन संसगर से शूनय होते है, कुनद और
मनदार के फूलो से िजनकी लहरे आचछन थी, ऐसी निदयो को, िजनहोने मानो समुदरपी कानत के पित अतयनत
उतसुकता के कारण मधुमाससमबनधी पुषप, पललव आिद अलंकार धारण िकये है तथा फूलो के भार से आचछन पवन से
िहलते हुए वृको को भी देखा, मानो वे वृक मधुमास के (वसनत के) पापत होने पर चंचल भमररपी नेतो से युकत थे,
अतएव मद पीने पर नशे मे चठे हएु नेतवाले पागल से लगते थे।।7-12।। इस तरह वे दोनो इधर-उधर बढी-चढी
पवरत की शोभा को देखते हुए गाव तथा शहरो से सुशोिभत पृथवीतल को पापत हुए।।13।। पृिथवी पर कणमात मे
फूलो से चंचल तरंगो से युकत पहुँचने के अननतर समंगा नदी के िकनारे कही पर भृगु ऋिष ने अपने पुत को देखा,
उसने दूसरी देह का पिरवतरन िकया था, अतएव वह शुकाचायर से िवलकण भाव को पापत हुआ था, उसकी इिनदया शानत
हो गई थी, समािधसथ होने से उसका मनरपी मृग िसथर हो गया था, मानो वह पुरष अनािद संसाराशम को दूर करने
के िलए बहुत िदनो से िवशाम ले रहा था तथा अनािदकाल से भुकत, थोडे ही िदनो से पिरतयकत और हषर, शोक से भरी
हुई संसार की गितओं का िवचार कर रहा था, मानो अवशय ही वह अननत जगदूपी आवतर मे अितशय भमण से जोर से
घुमाये हुए चक के तुलय िनशल हो गया था।।15-18।। वह एकानत मे अकेला िसथत था, शरीर कािनत से अतयनत
कमनीय था। उसकी सारी चेषाएँ शानत हो गई थी, अतएव उसके िचत के समभम का समागम नष हो गया था।।
19।। वह िनिवरकलप समािध मे िसथत था, अतएव शीत-उषण आिद दनद की वृितयो से शूनय था। मानो वह अपनी
शानत बुिद दारा समपूणर लोकवयवहार का उपहास कर रहा था।।20।। समपूणर पवृितया उससे पृथक हो गई थी,
समपूणर कमरफलो से वह शूनय था और उसने समपूणर कलपनाजाल का पिरतयाग कर िदया था, अतएव अपिरिचछन
आतमसुख से वह पूणर था।।21।। वह अननत सुखपूणर वयापक आतमतततव मे िवशानत था अतएव पितिबमब का गहण
नही कर रही सवचछ मिण के तुलय िसथत था।।22।। 'यह अगाह है' तथा 'यह गाह है' इस संकलप-िवकलप से
शूनय तथा आतमबोध को पापत हुए अपने धीर पुत को भृगुजी ने देखा।।23।। उस भृगु के पुत को देखकर काल ने
भृगु जी से समुद के िनघोष के तुलय गमभीर सवर से कहाः 'यही आपका पुत है'।।24।। जैसे मेघ के गमभीर सवर से
मोर जाग जाता है वैसे ही 'जागो' इस वाणी से भृगुपुत समािध से धीरे-धीरे जाग उठा।।25।। उसने आँखे खोलकर
समीप मे आये हएु एक साथ उिदत हुए सूयर और चनदमा तुलय काल और भृगु को देखा।।26।। कदमब लता के
आसन से उठकर उसने एक साथ आये हुए, िवपवेषधारी िवषणु िशव के तुलय समान कािनतवाले उन दोनो को पणाम
िकया।।27।। ततकालोिचत परसपर अिभननदन आिद वयवहार कर लेने पर वे लोग िशला पर सुमेर पीठ पर
जगतपूजय बहा-िवषणु-महेशर के तुलय बैठे।।28।।
तदननतर हे शीरामचनदजी, समंगा के तट मे समािध से िवरत उस बाहन ने इन दोनो से (काल और भृगु से)
अमृतिबनदु के तुलय सुनदर शानत वचन कहा।।29।। हे भगवन्, इस लोक मे एक साथ आये हुए चनदमा और सूयर के
समान आप लोगो के दशरन से आज मै परम सुख को पापत हुआ हँू।।30।। जो मनोमोह शासताभयास, तपशया,
उपासना तथा बहजान से नष नही हुआ था, वह मेरा मनोमोह आप लोगो के दशरन से दूर हो गया। (उन लोगो की
पशंसा के िलए यहा पर अितशयोकत है)।।31।। िनमरल अमृत की दृिष अनतरातमा को वैसा सुखी नही बनाती है
जैसा िक आप महातमाओं की केवल यह दृिष सुखी बना रही है।।32।। हे भगवन्, आकाश को चनदमा और सूयर के
तुलय इस हमारे देश को अपने चरणो से पिवत बनाने वाले महातेजसवी आप लोग कौन है ?।।33।।
हे शीरामचनदजी, शुक के यह कहने पर भृगुजी ने जनमानतर के अपने पुत से कहाः तुम अपना समरण करो,
कयोिक तुम जानी हो, मूढ नही हो।।34।। भृगु जी दारा बोध को पापत हुए उसने धयान से िदवय चकु खोलकर कणभर
अपनी जनमानतर की अवसथा का समरण िकया।।35।। तदननतर वकताओं मे शेष उसने आशयर के दशरन से
िवकिसत मुख होकर िवतकर से मनद वचन कहा। उस समय उसका मन अतयनत पसन था।।36।। इस संसार मे
कमरफल का िनयनतण करने वाली परमातमा की मायाशिकत का वयापार िकसी को जात नही है िजसके कारण यह
िवशाल जगदूपी चक चल रहा है।।37।। मेरे अननत जनम बीत गये है, िजनका मुझे जान भी नही है तथा पलयकाल
मे पापत वषर, वायु और धूप आिद से उतपन हुए दुःख, मोह आिद के तुलय मरण, मूछा आिद दुदरशाओं के फलभूत अनेक
दुःख, मोह आिद भी बीत गये।।38।। मैने किठन कोध और उदोग से भरे हुए राजाओं को देखा, धनोपाजरनाथर िविवध
भमणो का अनुभव िकया तथा बहुत िदनो तक शोक से शूनय सुमेरपवरत की भूिमयो मे िवहार िकया।।39।।
सुमेरपवरत के समीप की भूिमयो मे मनदार के फूलो के केसरो से रंिजत अतएव सुगनधपूणर तथा सनधयाकाल मे िखलने
वाले कमलो से युकत मनदािकनी के जल का मैने पान िकया।।40।। ऐसी कोई वसतु नही है, िजसका मैने भोग न
िकया हो, ऐसी कोई िकया नही है, जो मैने नही की हो और ऐसी कोई वसतु नही है, जो मैने अनुकूल या पितकूल दशा मे
न देखी हो यानी सब कुछ िकया, सबका भोग िकया और सब कुछ देखा।।42।।
एक आतमा के साकातकार से भी सबका जान दशाते है।
इस समय जानने योगय सारी बाते मैने जान ली है, देखने योगय समपूणर वसतुएँ अचछी तरह देख ली है, बहुत
िदनो से थका हुआ मै अब िवशाम ले रहा हूँ और मेरे समपूणर भम दूर हो गये है।।43।। हे िपता जी, उिठये चले, सूखी
हुई वनलता की नाई सूखे हुए मनदराचल पर िसथत उस शरीर को देखे।।44।।
यिद शंका हो िक उस शरीर से तुमहे कया करना है ? तो इस पर कहते है।
इस संसार मे न तो मेरा कुछ अभीष है और न अिनष है, केवल िनयित की रचना देखने के िलए मै इस
जगत मे िवहार कर रहा हूँ।।45।।
यिद कोई शंका करे िक िनयित की रचना देखने के िलए िवहार करते हुए आपकी उसमे आसिकत होने से पहले
की तरह अपसरा के मनोरथ दारा अनुगमनरप संसार की पािपत हो जायेगी ? तो इस पर दृढतर तततवजान से
अजानानुवृितमात का बाध हो जाने से अब पहले की तरह अिभिनवेश की पसिकत नही हो सकती, ऐसा कहते है।
चूँिक मै एकातमकता के दृढ िनशय से अतयनत शुभालय, जीवनमुकत महापुरषो से सेिवत चिरत का ही िसथरता
पूवरक अनुसरण करता हँू न िक मूढो के चिरतो का, इसिलए मेरी तथा आपकी अभीष जो पूवरदेह मे अविसथतरप बुिद
है, वह रहे, उससे कोई भी कित नही होगी उस बुिद से बचे हुए पारबध का भोग कराने वाले वयवहार का ही आचरण मै
करँगा, न िक मूढो की तरह आसिकत को पापत होऊँगा, यह अथर है।।46।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौदहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआआ आआआआ आआआआआ
आआआआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआ । आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः इस पकार के तततवजानी, िजनके पाण चंचल थे, संसार की गितिविध का िवचार करते
हुए उस समंगा नदी के तट से भृगुजी के आशम के पित चले (चंचल शबद, यह कथन पाणिकया से ही उनमे चलन
िकया हुई आतमा मे िकया नही है, यह सूचन के िलए है।)।।1।।
कमशः आकाश को आकानत कर मेघिचछदो से बाहर िनकलकर वे िसदमागर से कणभर मे मनदराचल की गुफा
मे पहुँच गये। उस पवरत की ऊँची भूिम मे शुक ने अपने पूवर जनम के सूखे शरीर को देखा जो िक हरे पतथरो से ढका
हुआ था।।2-3।।
शुक ने यह कहाः हे तात, वही यह कृश शरीर है, िजसका आपने सुखदायक भोगो से पहले लालन-पालन
िकया था।।4।। वह यह मेरा शरीर है, िजसके अवयवो मे सनेहमयी धाई ने कपूर, अगर, चनदन आिद से बहुत िदनो
तक लेप िकया था। वह यह मेरा शरीर है, िजसके िलए मेरपवरत की उदान भूिमयो मे मनदार के पुषपो से शीतल शयया
रची गई थी। देिखये, पहले मदोनमत देवागनाओं दारा लािलत मेरा यह शरीर है, जो इस समय साप, िबचछू आिद कीडो
के डँसने से िछदयुकत होकर पृिथवी पर िगरा हुआ है। मेरे िजस शरीर ने चनदन के उदानो मे िचरकाल तक कीडा की
थी, वही यह आज शुषक कंकालता को पापत हो गया है। अपसरा के संसगर से तीवर कामवेगवाली िचतवृित से रिहत मेरा
शरीर आज सूख रहा है, उन-उन देवोदान आिद पदेशो मे हुए िवलासो मे, उन-उन बालय, यौवन, आिद िविचत अवसथाओं
मे पूवर अनुभूत तत्-तत् सौनदयर, अलंकार, गीत, हासय आिद िवलास आिद भावनाओं के समबनध से युकत होकर भी हे
देह, आज तुम कैसे सवसथ हो ! यानी तुम कयो नही उसका शोक करते हो।।5-10।। हे शरीर, तुमहारा नाम शव पड
गया है, सूयर के सनताप से तुम शोषको पापत हो गये हो और कंगालता को पापत हो गये हो, हे दुभागय, तुम इस समय
मुझे डरा रहे हो, िजस देह से मै िविवध िवलासो के समय पसन हुआ था, इस समय कंकालता को पापत हुए उसी से मै
डर रहा हूँ। िजस शरीर मे पहले ताराओं के समूह के तुलय हार सुशोिभत हुआ था उसी मेरे शरीर के वकसथल मे इस
समय चीिटया घुस रही है, इसे आप देिखये।।11-13।। िजस िपघले हुए सुवणर के समान रमणीय मेरे शरीर से
सुनदर-सुनदर अंगनाएँ काम से मोिहत हुई थी, देिखये, वही इस समय कंकालता को धारण कर रहा है।।14।। ताप
से िजसका चमर सूख गया है एवं िजसका मुँह खुला है ऐसा मेरे कंकाल का िवकृत मुख वन मे मृगो को भयभीत कर रहा
है।।15।। मेरे शव की उदररपी गुहा सूख जाने के कारण भीतर पिवष हुई पकाशमान सूयर की िकरणो के समूह से
ऐसे शोिभत हो रही है मानो िववेक से शोिभत हो रही है, ऐसा मै देख रहा हूँ।।16।। मेरा यह सूखा शरीर पवरत की
िशला पर िचत पडा है। यह अपनी तुचछता से यानी िवकृतरस के पदशरन से सजजन पुरषो के हृदय मे वैरागय का मानो
उपदेश दे रहा है।।17।। शबद, रप, रस, सपशर और गनध की अिभलाषा से रिहत मेरा यह शरीर इतने समय तक मेरे
परोक मे और इस समय मेरे पतयक मे भी मानो िनिवरकलप समािध मे बैठकर पवरत मे सूख रहा है।।18।। यह
िचतरपी िपशाच से मुकत हो गया है, अतएव बडे सुख के साथ सवसथ सा िसथत है। देवताओं से रची गई िवपितयो से
अब तिनक भी इसे भय नही है।।19।। िचतरपी वेताल के शानत होने पर शरीर को जो आननद पापत होता है, वह
समपूणर जगत के राजय से भी पापत नही होता।।20।। यह शरीर, िजसके समपूणर सनदेह नष हो गये है और सब
कौतुक िजससे चले गये है, कलपनाओं का िजसने िनरास कर िदया है, वन मे कैसे सुख से सो रहा है, इसे आप
देिखय।।21।। िचतरपी बनदर की काम आिद चपलता से कुबध हुआ वह शरीररपी वृक िजस पकार अपने िववेक,
सदवासना आिद शाखा, पललवो का िवनाश हो, जैसे वेग से नही चलता, िकनतु जैसे जड के साथ उखड जाय वैसे
चलता है।
भाव यह है िक िजन सथावर आिद योिनयो मे िववेक का अिधकार नही है, उनही योिनयो मे जीव को िगराता है।
इस सुनदर पवरत मे मेरा यह शरीर िचतरपी अनथर से मुकत होकर आज गजघटाओं और िसंहो के गजरन,
तजरन आिदरप वैर को नही देखता, पहले कौतुक दशरनरप परमाननद मे िसथत हुआ सा यह जैसे बाहर के कौतुक
दशरन से पसन होता था वैसा आज नही होता(▲)।।22,23।। समपूणर आशारपी जवरो के कारणरप मोहरपी कुहरे
के िलए शरदगमनरप औिचतय के िसवा दूसरा शेय पािणयो मे मै नही देखता हूँ यानी िचतभाव समपूणर आशारपी जवरो
के हेतुभूत मोह का नाश कर देता है, अतएव वही सबकी अपेका शेष शेय है। वे ही बहा के आननदपयरनत िवषय सुखो
की परमाविधरप भूमाननद को पापत हुए है, जो शानतबुिद पुरष अपिरिचछन बहसाकातकाररप महाबुिद से मनोनाश को
पापत हुए है। मै अपने भागयोदय से सब दुःखदशाओं से रिहत और सनतापशूनय इस शरीर को संकलप-िवकलप से रिहत
जीवनमुकत के शरीर के तुलय वन मे मै देख रहा हँू।।24-26।।
▲ जैसे परमाननद मे िसथत पुरष, हाथी, मेघ, िसंह आिद के शरीर को नही देखता है वैसे ही िचतरप अनथर
से मुकत हुआ मेरा यह शरीर पवरत की सफिटक िशलाओं मे पितिबिमबत हाथी, मेघ और िसंहो की मूितर को नही देखता है,
ऐसा दूसरा अथर भी हो सकता है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवान, आप समपूणर धमों के तततवो को जानने वाले है, कृपया यह बतलाइये िक
शुकाचायर जी ने उस समय बारबार अनेक शरीरो का उपभोग िकया था जैसा िक आप पहले कह आये है, िफर उनहे भृगु
से उतपािदत उसी शरीर मे अतयनत सनेह कैसे हुआ ? और उसी के िलए उनहोने िवलाप कयो िकया ?।।27,28।।
शुक के आधुिनक बहपद मे अिधकार के कारणभूत पूवरकलप मे िकये गये कमर, जो िक पूवर शरीर से उतकािनत
के समय इस कलप मे होने वाले भृगु दारा उतपाद शरीराकार से पिरणत हुए थे, भृगु से उतपाद शरीर की वासना से ही
पलयो मे िचरकाल तक रहे थे, आकाश आिद के कम से इस कलप मे भृगु के शरीर की उतपित होने पर अन दारा
उनके शरीर मे पवेश कर वीयररप मे पिरणत होकर िचरकाल के अभयास से खूब दृढ हुए पूवर जनम के काम, कमर
वासनाओं के अनुसार ही शुकाचायर के शरीर की उतपित हुई थी। उस शरीर से कितपय कमों के भोग होने पर भी
अवशय भोकतवय बहुत से पारबध कमों के शेष रहने से उसमे उनका सनेहािदशय हुआ, अनय देहो मे नही हुआ, कयोिक
अनय देहो मे भोगने योगय कमर शेष नही थे, इस आशय से विसषजी उतर देते है।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, शुकाचायर की कमातमक जो वह वासना थी, वह जीवदशा को
पापत होकर भृगु से उतपाद भागरवरप से उतपन हुई।।29।। पलयकाल मे अविशष मायाशबिलत ईशर से इस कलप
के सवरपथम शरीररप से जल मे िभगोने से फूले हुए बीजो के अनदर अंकुर शिकत की नाई तिनक आिवभूरत होकर,
कमशः तत् तत् भूतो की समता को पापत होकर वायु से वृिष दारा अन आिद भाव से अनतभािवत हुई वही कमातमक
वासना पाण और अपान के पवाह से महिषर भृगु के हृदय मे पवेश कर कम से वीयर बनकर शुकाचायर की देह बनी है।।
30,31।। उस जनम मे उसके बाहण जनमोिचत गभाधान आिद सब संसकार िविधपूवरक िकये गये थे, वहा पर
समािधसथ िपता के आगे िवदमान वह शुकाचायर की देह एक लमबे अरसे से सूखे हएु कंकाल के रप मे पिरणत हो
गई।।32।। चूँिक यह शरीर बह से पूवोकत रीित के अनुसार पहले-पहल इसी शुकाचायर के रप मे आिवभूरत हुआ
था, इसिलए शुकाचायर ने इस शरीर के िलए िवलाप िकया।।33।। यदिप शुकाचायर वीतराग थे, उनहे िकसी पकार की
अिभलाषा भी न थी और समंगा नदी के तीर मे तपसया िनरत बाहण का रप उनहोने धारण कर रखा था िफर भी
उनहोने देह के िलए िवलाप िकया, कयोिक देह का ऐसा ही सवभाव है। भाव यह िक जानी भी पारबध कमर का उललंघन
नही कर सकते, उनहे भी उसका भोग करना ही पडता है।।34।। चाहे जानी की देह हो चाहे अजानी की देह हो, जब
तक जीवन रहेगा सदा यह िनयम चलेगा ही, इसमे रतीभर भी उलट-फेर नही हो सकता है। हा, इतना अनतर अवशय
है िक जानी का यह दैिहक लोकवयवहार अनासिकत से होता है और अजानी का आसिकत से काम होता है।।35।।
अतएव अनय वयवहारो मे उनकी समानता ही है, ऐसा कहते है।
िजन लोगो को तततवजान हो गया है और जो पशुओं के सदृश आचरणवाले अजानी है, वे दोनो की
लोकवयवहारो मे जैसा लोक का जाल है, उसी के अनुसार िसथत है यानी आचरण करते है।।36।। लोकवयवहार मे
अजानी जैसा आचरण करता है, पूणर जानी भी ठीक वैसा आचरण करता है।
शंकाः यिद लौिकक वयवहार मे जानी और अजानी दोनो की तुलयता ही है तो एक बनधन मे पडता है दूसरे को
मुिकत िमलती है, यह अनतर कैसे ?
समाधानः उनको बनध-मोक देने मे एकमात कारण वासना का भेद है।।37।।
िजसकी बुिद िवषय पर आसकत नही है, ऐसे िवदान तततवज पुरष जब तक शरीर रहता है तब तक दुःख के
िनिमत के पापत होने पर दुःख का और सुख हेतु के पापत होने पर सुख का अजानी के तुलय अिभनय करते है।।
38।। महातमा लोग सुख िनिमतो की पािपत होने पर सुखी की तरह और दुःखिनिमतो की पािपत होने पर दुःखी की
तरह केवल लौिकक वयवहार के िवषय मे ही अजानी के सदृश बताव करते है, आतमतततव मे तो वे सुिसथर रहते है,
अजानी के तुलय वयवहार नही करते है।।39।।
एक ही पुरष का एक समय िसथर और अिसथर वृितयो के िवरोध का िनवारण करने के िलए दृषानत देते है।
जैसे सूयर के जल मे पडे हुए पितिबमब शरीर ही चंचल होते है, िकनतु आकाश मे िसथत िबमबशरीर चंचल नही
होता, वैसे ही आतमजान मे िसथर तततवजानी भी लोकवयवहारो मे िसथर-अिसथर रप से िवदमान रहता है, वैसे ही िजसने
समपूणर लौिकक वयवहारो का तयाग कर िदया है, ऐसा जानी पुरष ही वयवहार िसथित मे अजानी होता है।।41।।
तब तो अज के समान िविहत और िनिषद कमों से उसका भी बनधन होगा, ऐसी आशंका करके जानेिनदयो से
आसिकतपूवरक िकये गये कमर ही बनधक होते है, अनय कमर नही, इस आशय से कहते है।
िजसकी जानेिनदयो ने संग छोड िदया है, उसकी कमेिनदयो के िवषयो मे आसकत होने पर भी वह मुकत है।
यिद कमेिनदय िवषयो मे आसिकत रिहत है और जानेिनदय िवषयो के अधीन है तो वह बद है।।42।। लोक मे सुख-
दुःख दृिष और बनधमोक दृिष की हेतु जानेिनदय ही है, जैसे िक िकसी वसतु के पकाशन मे तेज हेतु है। बाहर
लोकोिचत वयवहार वाले और भीतर लोकोिचत आचार से रिहत, समपूणर इचछाओं से शूनय और िवषमता रिहत होकर आप
िसथत होइये।।43,44।। बह मे िसथत, समपूणर कमरफलो की आसिकत से रिहत मन से आप कमर कीिजए कयोिक कमर
देह की िसथित है, सवभाव है। भगवान ने भी कहा है, 'निह देहभूता शकयं तयकतुं कमाणयशेषतः' अथात् देहधारी कमों
का िनःशेष तयाग नही कर सकता है।।45।। मानिसक दुःख, शारीिरक दुःख, जनममरणरपी गतों से भरे हुए संसार
के मागरभूत तथा अतयनत सनताप देने वाले इस ममतारपी भीषण अनधकूप मे आप मत िगिरये। न तो आप दृशय वसतु
देहािद मे िवदमान है और न आप मे ये देहािदभाव है। हे कमलनयन, शुद-बुद सवभाववाले आप अपने सवरप मे िसथत
होइये। आप िनमरल शुद बह है। आप सबका िनमाणकरने वाले और सवातमक है। सारा िवश शानत अज है, ऐसी
भावना करते हुए आप सुखी होइये।।46-48।। हे महातमन्, सकल इचछाओं की िनवृित करने वाले, पूणाननदरप,
अिवदािद दोषो से रिहत पद को समयक् जान से पापत कर ममतारपी महाअनधकार से रिहत हएु आप यिद िचत के
नाश मे समथर हुए, तो अपिरिमतबुिद, महान से महान, पिरपूणर परमाथर सतयबहरप आपको नमसकार है यानी आप हम
लोगो के भी सदा के िलए वनदनीय हो जायेगे।।49।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पनदहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआ आआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआआ
आआआआआआ
आआआआ आआआ आआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ। आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ
विसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, तदननतर भृगु तथा भृगुपुत शुकाचायर के िवलापवचन को बीच मे ही
रोककर गमभीर धविन से युकत भगवान काल ने वचन कहा।।1।।
काल ने कहाः हे परकायर साधक भृगुपुत, समंगा नदी के तट के इस तपसवी शरीर का पिरतयाग कर जैसे
राजा नगरी मे (राजधानी मे) पवेश करता है वैसे ही आप इस देह मे पवेश कीिजए।।2।। हे िनषपाप शुकाचायर जी,
गहािधकार को पापत कराने वाले पारबध के उदयकाल मे सवरपथम उतपन हुई उस देह से िफर तप करके आप दैतयराजो
का आचायरतव कीिजए।।3।। महाकलपरप बहा के िदन का (हजार चौकडी का) अनत होने पर आप भृगुजी से उतपन
देह का, पुनः अनय शरीर का गहण न करने के िलए, उपभुकत अतएव मुरझाये हुए फूल की नाई तयाग कीिजए।।4।।
हे महामते, पूवरकलप मे उपािजरत कमों से पापत शरीर दारा जीवनमुिकतरप पद पाकर बडे-बडे दैतयराजो का आचायरतव
करते हएु आप िसथत होइये।।5।। आप लोगो का कलयाण हो, मै अपनी अिभमत िदशा को जा रहा हँू।
(िदशा का 'अिभमत' जो िवशेषण है, वह अनिभमत की वयावृित के िलए नही है, कयोिक पूणर आतमा के िलए
अनिभमतवसतु ही पिसद नही है। िजसे 'यह अिभमत है' और 'यह अनिभमत है' यह िवकलप होता है अनिभमत का
तयागकर अिभमत को पापत कर रहा वह िचत अवासतिवक है, इसिलए 'अिभमत िदशा' इस वाकय का 'परमपेमासपद
आतमभाव मे अविसथत' यह अथर है, इस तरह के सवािभपाय का सूचन करने के िलए 'अिभमत' इस िवशेषण का
उपादान िकया गया है, यह दशाते हुए कहते है।)
िजसको अिभमत नही होता ऐसा जो िचत है, वह कुछ भी नही है, यानी अवासतिवक है।।6।। यह कहकर
भगवान काल जैसे सूयर सनतपत अंगवाले आकाश और पृथवी की उपेका कर अपनी िकरणो के साथ अनतिहरत हो जाते है
वैसे ही सनेह से आँसू बहा रहे भृगु और शुकाचायर की उपेका कर अनतिहरत हो गये।।7।। उस भगवान कृतानत के
चले जाने पर भृगुपुत शुकाचायर ने अवशयभािवनी कमरगित तथा अिनवायर ईशर की इचछा की गित का िवचार कर हेमनत
और िशिशर काल के कारण सूखी हुई भावी अभयुदय से युकत उस देह मे पवेश िकया।।8,9।। वासुदेव नामवाली
समंगातटवती तपसवी बाहण की देह, िजसका मुख तथा समपूणर अंग िवकृत वणरवाले हो गये थे, िजसकी जड कट गई
हो ऐसी लता की भाित काप कर शीघ ही िगर पडी।।10।। उस पुत के शरीर मे जीव के पवेश कर लेने पर महामुिन
शी भृगु ने कमणडलु के जल के साथ मनतो से उस शरीर की समपूणर नािडया ऐसे दीपत हो उठी जैसे वषा ऋतु मे जल
पवाह से पूिरत कोटरवाली निदया दीपत हो जाती है।।12।। जब वह शरीर वषा ऋतु मे कुमुिदनी की भाित तथा
वसनत ऋतु मे अिभनव लता की भाित पूणर हो गया, तब उसके अंगुली, नख, केश आिद पललव के तुलय उिदत होकर
सुशोिभत होने लगे।।13।। तदननतर शुकाचायर जल तथा वायु के संयोग से सवरतः पूणर मेघ के तुलय पाणवायु के
संचार से युकत होकर उठ खडे हएु ।।14।। सामने उपिसथत पिवतमूितर िपता का नामगोतोचचारणपूवरक ऐसे
अिभवादन िकया जैसे मानो नूतन मेघ अपने गजरन से पवरत का अिभवादन कर रहा हो।।15।।
तदननतर सनेह से आदर िचतवाले िपता ने (भृगु जी ने ) पुत शरीर की यौवन सौनदयर आिद से युकत पाकतन मूितर
का बहुत देर तक ऐसे आिलंगन िकया जैसे आदरवृितवाले मेघ पवरत के पानत का आिलंगन करता है।।16।। पहले की
भाित यौवन, सौनदयर आिद से युकत वह नूतन पुत की देह सनेह पूवरक महामित भृगुजी ने देखी तथा तततवदृषी से
अनुिचत जानकर हँस रहे भी उनहोने यह शरीर मुझसे उतपन है, ऐसी धारणा की।।17।। उस समय वह मेरा पुत है,
इस सनेह ने परमजानी भृगुजी का भी आकषरण कर िलया। देह मे अतयनत आतमीयता जीवनभर पबल पारबध के कारण
अवशय ही रहती है।।18।। तदननतर वे दोनो िपता-पुत राित के अनत मे पसन हुए सूयर और कमल समूह की भाित
परसपर सुशोिभत हएु ।।19।। िचरकाल के बाद हुए संगम से समबद (िमले हुए) चकवी-चकवा के जोडे के तुलय तथा
वषा ऋतु के समागम से सनेह युकत मयूर और मेघ के तुलय उन दोनो महामुिनयो ने िचरकाल के िवयोग से, िजनकी
समागम की उतकणठा दृढ हो गई थी, पूवोकत वणरन के अनुसार उस समान आननद की योगयता से वहा कण भर जड की
नाई िसथर होकर तदननतर उस समंगातटवती बाहण की देह का वहा दाह िकया। कौन ऐसा वयिकत है, जो संसार के
सदाचार का अनुिवधान नही करता है ? आचार का पालन मात ही यहा देहािद कृतयो का फल है, इतर फल नही है, यह
भाव है।।20-22।। इस तरह उस पिवत वन मे वे दोनो तपसवी भृगु तथा भृगुपुत शुकाचायर आकाश मे चनदमा और
सूयर की भाित दीपत होते हुए िसथत हो गये।।23।। तदननतर जगत के गुर वे दोनो जीवनमुकत होकर भमण करने
लगे। उनहोने िवजेय आतमतततव को जान िलया था तथा देश और काल की शुभ और अशुभ दशाओं मे वे समानभाव से
रहते थे, कयोिक वे अपने सवरप मे िसथर हो गये थे।।24।। तदननतर समय आने पर शुकाचायर जी ने दैतयो का
आचायरतव तथा गहपित का अिधकार पापत िकया। भृगुजी भी अपने योगय िनरामय आतमतततव मे िसथत हो गये।।
25।।
पूवोकत शुकाचायर की िसथित का संकेप से उपसंहार करते है।
यह उदार कीितरवाले शुकाचायर पहले उस सतयपरमातम तततव से पूवोकत आकाशािदकम से उतपन हुए।
तदननतर शीघ ही समरण मे आरढ अपसरा के िनिमत से उतपन अपने मनोराजय के िवभम से अनयानय िविवध िदशाओं
मे इनहोने भमण िकया।।26।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सोलहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआ । आआ आआआआआआ
शुकाचायर जी का अपसरा, सवगर, आिद मनोरथ िचरकाल के उपभोग से जैसे सफल सा हुआ था वैसे और लोगो
के मनोरथ सफल कयो नही होते ? ऐसी शीरामचनदजी शंका करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः भगवन्, भृगुपुत शुकाचायर के मनोरथ की पितभा जैसे सवगर आिद के अनुभव से सफल
हुई वैसे औरो की मनोरथ की पितभा कयो नही सफल होती ?।।1।।
पितभाओं से फलोपभोग दारा सफल होने मे दो कारण है, एक तो सतयसंकलपता के योगय िचतशुिद और दूसरा
उतकमणकाल मे उदबुद पिरपकव भावी जनम मे भोग देने वाले कमों की उतकटता। उनमे से मनोरथ की सफलता का
िचतशुिदरप पहला कारण शुकाचायर मे था, यह दशाते हएु समाधान करते है।
शुकाचायर जी के पथम कलप के सब दोषो को उस कलप के अिनतम जनम मे िकये गये कमर और उपासनाओं से
कय हो गया था, इस कलप मे उनका यह शरीर पहले-पहल उतपन हुआ था, इसिलए इस कलप के दोष भी उसमे न थे।
बहपद से ही अिधकार भोग के िलए बहा के संकलप से वह उतपन हुआ था, अतएव बहा के साकिलपक दोष भी उसमे
न थे। दोनो कुलो मे शुद बाहण जाित का था, अतएव बीज, गभर, जाित आिद के दोष भी 'उसमे न थे, यही सब कारण
है िक उनमे असतय संकलप की पािपत न थी, यही औरो से उनमे िवशेषता है।।2।।
अनय बहवेताओं के भी सतयसंकलपतव मे राग आिद दोषो के कय से होने वाली शुद िचित की
सतयातमभावापित ही हेतु है, इस आशय से कहते है।
समपूणर एषणआओं की (िवतेषण, पुतैषणा, लौकैषणा आिद की) िनवृित होने पर शुद िचत पुरष की जो िसथित
है, वही सतय आतमतततव कहा जाता है, वही िनमरल िचित कही गई है।।3।। िनमरल सततवरप मन िजस वसतु की
जैसी भावना करता है, जैसे जल आवतररप हो जाता है, वैसे ही शीघ वैसा हो जाता है।।4।।
और लोगो मे िचत की शुिद न होने से सतयसंकलपता की अिसिद से पथम कलप का समभव न होने पर भी
िदतीय कलप के अनुसार पूवर देह के मरण के समय उदभूत कमों की वासना आिद के अनुगुण सुख-दुःख के भोग के
अनुकूल जगत के पितभान मे शुकाचायर की समता है ही, इस आशय से कहते है।
जैसे शुकाचायर को अपने -आप भािनत हुई थी, पतयेक जीव मे वैसी भािनत है ही, इस िवषय मे शुकाचायर ही
दृषानत है।।5।। जैसे बीज के भीतर िसथत अंकुर, पते आिद अपने सवरप को पकट करते है यानी चमतकार को
पापत होते है, वैसे ही सब पािणयो के भािनत से उतपन दैतभेद अपने को पकट करते है।।6।। जो यह जगत हम
लोगो को दृिषगोचर हुआ है, वैसा ही सारा जगत पतयेक जीव मे िमथया ही उिदत है और िमथया ही असत को पापत होता
है। परमाथर दृिष से तो िकसी का कोई भी जगत मे असत को पापत होता है और न उिदत होता है। यह केवल भािनत
मात है, एकमात माया ही उनमत की नाई उललास को पापत होती है।।7,8।।
यिद पतयेक जीव के संसार पतयेक मे अलग अलग उिदत हएु है, तो वे पतीत कयो नही होते, इस पर पतीत
होते ही है, ऐसा कहते है।
जैसे हमारे सफुट अनुभव मे िसथत हमारा िमथया संसार है, वैसे ही अनय जीवो के िमथया हजारो संसार है
ही।।9।।
यिद कोई शंका करे िक सब लोग सब के संसारो को अलग-अलग कयो नही देखते, तो इस पर कहते है।
जैसे अनय के सवप और मनोरथ के नगरो के वयवहार अनय को दृिषगोचर नही होते, वैसे ही अनय के ये
संसाररपी भम भी पृथक-पृथक नही िदखाई देते। भाव यह िक जैसे अनय का सवप अनय पुरष को िदखाई नही देता,
वैसे ही अनय का संसार भी अनय को नही िदखाई देता।।10।। इसी पकार संकलपरपी आकाश मे अनेक जगदूपी
नगर है, पर वे जानदृिष के िबना िमथया पतीत नही होते।।11।। इसी पकार के संकलपमात शरीर वाले सुख-
दुःखमय िपशाच, यक, राकस भी है। भाव यह िक िपशाच आिद भाव केवल मात संकलप से किलपत है, िकनतु सुख-
दुःख देते है।।12।। हे रघुननदन, शुक के तुलय ही अपने संकलपवाले आकारवाले िमथया को सतय समझने वाले ये
तुम लोग भी उतपन हुए है। िहरणयगभर मे भी इसी पकार की यह सृिष परमपरा िवदमान है, यह वासतिवक नही है,
अवसतु मे वसतुता अनधपरमपरा के से ही िसथत है।।13,14।। जैसे एकमात परबह ही पतयेक मे िमथया िवशरप से
उिदत हुआ है। भाव यह है िक समपूणर जीवो के आकाररप से बह ही उिदत हुआ है।।15।।
अपना पाथिमक संकलप ही जगदाकार पतीित को पापत हुआ, यह कैसे जाना जा सकता है ? इस पर कहते
है।
पथम संकलप ही जगदाकार पतीित को पापत हुआ है, यह अतयनत परमाथरदृिष से ही जात होता है।।16।।
अपने अनािद अजान के मधय मे िसथत िचत ही इस पकार के िविवध वयापारो से युकत, पतयेक जीव मे उिदत यह जगत
है, यो जानता हुआ सवयं िवनष हो जाता है अथात् बहरप हो जाता है।।17।।
यह जगतसता पितभासकाल मे ही रहती है, वासतिवक अिधषान का दशरन होने पर यह रह नही सकती, ऐसा
कहते है।
भािनतवश इसकी सता है और अिधषान तततव के साकातकार से इसका अिसततव िमट जाता है। िचतरपी
हाथी का बनधनसतमभरप यह जगजजाल एक दीघर सवप ही तो है।।18।।
िचतरपी हाथी का बनधनसतमभ यह जगजजाल है, ऐसा जो पहले कहा था, उसी को सफुट करते है।
िचत की सता ही जगत है और जगत की सता ही िचत है। एक के अभाव से दोनो का ही नाश हो जाता है,
या सतय तततव के िवचार से नाश होता है।।19।।
िचत की सता कहा देखी गई है, ऐसा यिद किहये, तो सुिनये, शुद िचतवालो के सतय संकलप से उतपन वसतु
मे देखी गई है, ऐसा कहते है।
जैसे मुिकतपूवरक मिलन मिण को साफ करने से शुद पकाश िनकलता है, वैसे ही िचत का पितभास सतय होता
है। िचरकाल तक एकागता के दृढ अभयास से िचत की शुिद होती है। संकलपो से अनाकानत यानी शुद िचत से
सवचछता जिनत मिलन िचत मे अदैतातमजानरप एक दृिष िसथर नही होती।।22।।
आपने वासनानुसारी जगदभम होता है, ऐसा कहा है, उस वासनानुसार जगदभम मे पहले अननुभूत सवगर,
अपसरा और जनमपरमपरा आिद की िविचतता मे वासनारप बीज का संभव नही है, इसिलए शुक का उनमे आरोपकम
कैसे हुआ, इस आशय से शीरामचनदजी पूछते है-
भगवन्, शुक के िचत के पाितभािसक कलपनारप जगत मे ये उदय और असत से युकत काल-िकयाकम िकस
कारण हुए ? उदयअसतमय इससे पाितभािसक उदय और असत का पितभासकाल मे गहण नही हो सकता, पितभास से
िभनकाल मे उनका अनुभव ही नही है, इसिलए तिदषयक वासना िसद नही होती और वासना की िसिद न होने पर कम
की िसिद भी नही हो सकती, यह सूिचत िकया।।23।।
शीविसषजी ने कहाः शीरामचनदजी, िपता से उतपन चकु आिद से या िपता के वचन से और शासत से जैसे
उतपित-िवनाश िविशष यह जगत् है, ऐसा शुक ने जाना था, ऐिहक पारलौिकक समपूणर वृत उनके िचत मे वैसा ही
संसकाररप से िसथत हो गया, जैसे िक मयूर के अणडे मे मयूर रहता है। भाव यह िक िपता के वचन, शासत आिद
पमाण और पमाणाभासो से ही वासना का उदय शुक को था। उतपित-नाश के कम का संसकार साकी से ही िसद हो
जाता है।।24।। चैतनय से अिधिषत सजीव अिवदा मे िसथत यह सब िपता और शासत के कारण ही कम से ऐसे
उिदत हुआ, जैसे िक बीज से अंकुर, पत, लता, पुषप, फल आिद उिदत होते है।।25।। जीव िजस वासना से बद
रहता है, उसी को अपने अनदर देखता है, सवप मे अपने से किलपत शरीर इसमे दृषानत है, यह जगत भी तो दीघर सवप
ही है।।26।। हे शीरामचनदजी, यह संसारभेद राित मे सैिनक पुरष दारा सवप मे देखे गये सैिनको के समूह के तुलय
अपनी आतमा मे पतयेक जीव मे उदय हुआ है। भाव यह है िक जैसे िदन मे सैनयवासना से वािसत सैिनिक पुरष राित मे
सवप मे पतयेक सेना को अपनी-अपनी वासना से किलपत नाना सेनाओं के रप मे देखते हुए भी सैनयगत एकतव को
मानते ही है, वैसे ही पतयेक जीव मे ये संसारभेद उतपन हुए है।।27।।
यिद ऐसा है, तो मनुषय और उसके संसार को अनय लोग नही देख सकेगे, ऐसी अवसथा मे गुरजनो की िशषयो
के उदार के िलए पवृित और शासतरचना सवप मे िकये गये परोपकार के तुलय िशषयो को पापत न होगी, ऐसी अवसथा मे
उपदेश न िमलने के कारण िशषय को मोक की पािपत न होगी, इस पकार अिनमोक पसंग हो जायेगा, यो यह कलपना
मूलघाितनी ही हुई, इस आशय से रामचनदजी पूछते है-
हे भगवन्, उिदतु हुए ये संसार यिद सवयं परसपर नही िमलते, तो पूवोकत अिनमोकपसंगरप दोष पापत होता है।
यिद िमलते है, तो यह सवरसाधारण संसार अलग-अलग एक-एक के जान से बािधत नही हो सकेगा, इस पकार
उभयतःपाशारजजु पतीत होती है। कृपा कर आप मेरे इस सनदेह को यथाथर रीित से दूर कीिजए।।28।।
उकत दोनो दोष िजस पकार पापत न हो, उस पकार की वयवसथा से शीविसषजी उतर देते है।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, मिलन मन शुद मन मे परसपर समबनधरप मेल को पापत नही होता,
कयोिक वह शुद मन के साथ समबनध के योगय सूकमता से सवीयर (शुद मे िमलने योगय सूकमतारप सामथयर से युकत)
है। शुद िचत तततव परसपर एक दूसरे से ऐसे िमलते है जैसे एकरपवाले जल परसपर एकता को पापत होते है, िकनतु
अशुद िचत कलुिषत जलो के तुलय एकता को पापत नही होते। भाव यह िनकला की सवीयर होने के कारण ही देवताओं
का जैसे दूसरे के सवप मे पवेश करके वरदानरप अनुगह देखा जाता है, वैसे ही िशषय के मन से किलपत जगत मे पवेश
दारा गुर का मन उपदेश देने मे समथर है, इसिलए आपके दारा उदभािवत पथम दोष का खणडन हो गया। जगत की
सवरसाधारणता तो हम मानते नही, अतः दूसरा दोष भी न रहा।।29,30।।
िचतशुिद की चरम सीमा दशाते हुए उसकी पािपत से ही तततवजता और दृढ परमपािपत पितिषत होती है,
अनयथा नही, यो उपसंहार करते है।
वासना का आतयािनतक कय ही, जो एकरप है और संवेदन से रिहत है, िचत की परम शुिद है। िचत की
शुिद से पुरष शीघ पबुद हो जाता है। पबुदपुरष िचत की पूवोकत िचनमातपिरशेषरप शुिद की पािपत से परम
कैवलयरप मोक को पापत होता है।।31।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सतहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआ, आआआआआआ आआआ आआआआआआआआ
आआ आआआआ आआ
आआआआआआआआआआआआआआआआआआ आआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआ
आआआआआ।
शुद मनोराजय का शुद और मिलनो के साथ सममेलन पकार पहले कहा जा चुका है, अब मिलनो का मिलनो
के साथ मेलन पकार तथा जागदािद अवसथाओं और दषा, दृशय आिद के शोधन दारा पूवर सगर के अिनतम शलोक मे
कही गई िचत की िचनमातपिरशेषरप िसिद की पािपत और उसके दारा मुिकत पािपत बतलाने के िलए पूवोकत जागदािद
पपंचभेद को आतमा के असाधारण पितभास के अधीन पितभास से िसद कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, सब जीवो की अपने -अपने दारा किलपत संसाररप सृिष के टुकडो मे
सथूल, सूकम और कारणरप पपंच की पतयेक जीव मे जो िभनता कही गई है, वह सवयं पकाश िचदेकरस आतमा की
पितिनयताकार कलपना से ही है, वसतुतः नही है।।1।।
यह कैसे जाना जाता है ? ऐसी शंका पर कहते है।
चूँिक सकल जीव संघात की सुषुिपत के अननतर अवयविहत उतर काल मे अनािद दैतवयवहार के िलए जो
पवृती से जो िनवृित है, वह सभी िचदेकरसकी चारो ओर की वयािपत से ही होती है, यह सवानुभविसद है। इसिलए
पूवोकत पपंच की िभनता सवपकाश िचदेकरस आतमा के पितभास से है, यह जात होता है।।2।। पवृितमागर मे वयवहार
करने वाले जो जीव है, वे सबके सब िचनमात से ही पदाथों के पकाशवाले है िकसी अनय जयोित से नही। भले ही ऐसा
हो, तथािप अनय को अनय के मनोराजय की पदशरन िसिद कैसे हईु ? ऐसा यिद किहए, तो सुिनये, सवसवसाकी िचनमात
के उपािध संयोग से या बहैकयदाढयर से एकतव की पािपत होने के कारण जीव परसपर की सृिषयो को देखते है,
अनयथा नही देख सकते।।3।। िविचत सृिषरपी िविवध जलाशय पूवोकत िचनमातरपी एक मागर से परसपर एक
दूसरे से िमलते है और दूसरे वयवहार के संवाद आिद से सतयतव भािनत की दृढता होने के कारण चारो ओर से िनिबड
जडता को पापत होते है।।4।। कोई सृिषरपी जलाशय दूसरी सृिष मे िमले िबना ही पृथक िसथित को पापत है और
अनय सृिषयो मे िमले िबना ही लय को पापत हुए है। कोई परसपर संिमिलत है। इस पकार बहाणडरप गुज ं ाफल
अकुणण िसथत है।।5।।
िजसमे पतयेक अणु मे असंखय हजारो बहाणडरपी गुंजाफल एक दूसरे से िमले िबना िसथत है, वह बह
मायाशबल नाम का वन है। ये जगदूपी गुंजाफल परसपर िमलने से िनिबडता को (साधारण वयवहार योगयता को) पापत
हो गये है।
शंकाः कया सब पदाथर सबके दशरन योगय है ?
समाधानः नही सब पदाथर सबके दशरन योगय नही है। िजस पाणी का िजस पकार के कमों का भोगानुकूल
फल जहा पर जैसा रहता है, वहा पर उतना ही वह देखता है। अनय लोक मे िसथत अिधक का उसे दशरन नही
होता।।6,7।।
इसीिलए िचतो का भेद और िचतोपािधक जीवे का भेद िसद होता है, इस आशय से कहते है। िनषफलता को
पापत हुई जो िसथित है, उसी को आप मन के भेद मे हेतु जािनये। उसी से जीव भेद भी जािनये।।8।। इस पकार
तुलय कमर, वासना आिद वाली िविभन मनोराजयरप सृिषयो का एक साथ फलोनमुखता दारा समबनध होने से वयिष-
समिष सथूल देहो का अिसततव भी बदमूल है, ऐसा जािनये। उकत देहसता की िवसमृित होने पर तो देह का अभाव ही
सवाभािवक है।।9।।
सथूलदेहता के बदमूल होने पर जीव की सवाभािवक आतमिसथित िवसमृत हो जाती है और कालपिनक संसार
िसथित को वह सवीकार कर लेता है, ऐसा कहते है।
जैसे अपने सवरप की िवसमृितवाला सोना शुद कटकता को पापत होता है, वैसे ही अपने सवरप की
िवसमृितवाले चैतनयरपी सुवणर ने देहतव के बदमूल होने के कारण कटकतव के सदृश केवल संसाररप अिवदा का
िमथया ही अनुभव िकया है।।10।।
इस पकार कही पर अशुदो के भी परसपर समबनध की उतपित बतलाकर शुदो के अनय के मनोराजय के
पिरजान मे दृषानत कहते है।
जैसे हठयोग के अभयास से शुद हुआ पाणवायु दूसरे के शरीर मे पवेश दारा दूसरे के पाणो और देहेिनदयो मे
अपनी सवाधीनता के पिरजानवश उनसे जेय शबद आिद िवषयो को जानता है, वैसे ही शुद मन भी अनय सृिष के
मनोराजय को जानता है।।11।।
यिद मनोराजयो के परसपर संिमलन से ही सथूल देह की सता बदमूल हुई है, तो संिमलन न होने पर देह ही
नही रहेगी, अतः-
नेतसथं जागतं िवदात् कणठे सवपं समािदशेन।ं सुषुपतं हृदयसथं तु तुरीयं मूिघर ं संिसथतम्।।
अथात् जागदावसथा को नेत मे िसथत जाने, सवप को कणठदेश मे िसथत समझे, सुषुपत को हृदय मे िसथत
जाने और तुरीय अवसथा को मसतक मे िसथत समझे। इस पकार शुित दारा बोिधत देह के िविभन पदेशो मे अविसथित
के अधीन जागादािदअवसथा भी नही होगी, ऐसी आशंका करके कहते है।
समपूणर जीवो का आतमा जागत-सवप-सुषुिपत नामक दीन अवसथाओं को पापत है। देह के कारण उनकी कलपना
नही है, कयोिक जागत की कलपना के िबना देह की िसिद न होने से अनयोनयाशय दोष पापत होगा। शुित तो दूसरे की
दृिष से िसद देह के अनुवाद दारा उसके एक देश मे िदखाई देने के कारण हेतु है, यह तातपयर पकट नही करती।।
12।। इस पकार जागदािद तीन अवसथारप इस आतमा मे देहता जल मे लहर की तरफ सफुिरत नही होती। भाव यह
िक जैसे जल की तरंग आिद रप से पकट होता है, तततवदशरन होने पर तो जल से पृथक तरंग आिद कोई वसतु नही
है, वैसे ही जीव ही तीन अवसथावाला आतमा है, ऐसा िवचार होने पर जीव से अनय देहता कोई वसतु बाकी नही
रहती।।13।। इसी पकार तततववेता पुरष सुषुिपत अवसथा के अवसानभूत तुरीय पद मे, जो िक अपना सवरप है,
िसथत चैतनयैकरससवभाव को जान से पापत कर जीवभाव से िनवृत होता है, िकनतु जो तततवजानी नही है वही अपनी
कलपना से िफर देहािद की आकार कलपनारप सृिष मे पवृत होता है।।14।।
तो कया जानी और अजानी की सुषुिपत भी िभन है ? इस पर नही, ऐसा कहते है।
जानी और अजानी दोनो की सुषुिपत समान ही है, कयोिक अजानी की भी सुषुिपत शुित न िनरितशयाननदरप
मोक के दृषानतरप से कही गई है।
शंकाः तब वह सुषुिपत कयो एक ही सृिष की कारण होती है और अनय की नही होती ? उसमे अनतर कया
आया ?
समाधानः इन दोनो मे जो सुषुिपत-अवसथापन अजानी है, वह वासतव आतमजान से रिहतह और देहािद मे
आतमतततव भािनत की वासना से वािसत भी है। इसी भेद के कारण अजानी पुनः सृिष भाजन होता है।।15।।
सृिषयो मे और भी अवानतर भेद कहते है।
िचत के सवरवयापक होने के कारण कोई पुरष दूसरे सगर के भीतर पहुँचाया जाता है। पतयेक सगर मे और भी
दूसरे-दूसरे अलग-अलग िवदमान है।।16।। उनमे जैसे कदली के खमभो मे एक के बाद एक पतर रहते है, वैसे ही
भीतर िसथत बहुत से सगों के समूह है। िवसतारयुकत पतो से मानो बृहत् बाहर और अनतर के समपूणर सगों के समूह
है। उनसे रिहत बह केले के पतो के मणडप के तुलय सवभाव शीतल है।।17।। जैसे सैकडो पतो के होने पर भी
केले मे भेद नही है, वैसे ही सैकडो सृिषयो के रहते भी बहतततव मे भेद नही है।।18।।
इस पकार जगदभाव को पापत हुए बह की पुनः सवभाव की पािपत मे दृषानत कहते है।
जैसे वट आिद का बीज ही जल आिद के समपकर से वृक बनकर वृक के शाखा-पशाखाओं के िवसतार,
फलआिद दारा िफर पूवरतन बीज होता है, वैसे ही बह भी काम, कमर आिद रप जल के समपकर से मन बनकर जनम-
मरण आिदकलपना दारा अिधकारी देह की पािपत होने पर शवण, मनन आिद के कम से जानोतपित होने के कारम पाकतन
बहभाव से आिवभूरत होता है।।19।।
जल के समपकर से उकत बीज की भी जैसे पुनः वृकभावापित होती है, वैसे ही मुकत की भी पुनः जीवभावापित
होगी, इस पकार बीज को दृषानत न मानो, तो रस ही दृषानत है, ऐसा कहते है।
रसकारणवाला बीज फल रप से िवकास को पापत होता है और बहकारणवाला जीव जगदूप से िवकास को
पापत होता है।।20।।
ऐसा होने पर बह का कारण कया है, इस पकार की शंका का भी अवसर नही आता, ऐसा कहते है।
जैसे रस का कारण कया है, यह कहना उिचत नही है, वैसे ही बह का कारण कया है, यह भी कहना युकत नही
है।।21।।
यिद किहए जैसे पते, शाखा, फूल, फल आिद मे सरसता िदखाई देने के कारण उनका सवभावभूत रस उनका
कारण है, वैसे ही जगत का कारण बह भी जगदमरसवभाव ही होगा, ऐसी अवसथा मे बहकारणता सवभाव कारणतावाद
ही ठहरी, ऐसी शंका करके कहते है।
पर बह परमातमा िनिवरशेष होने के कारण सवभाव नही कहा जा सकता। भाव यह है िक कायर के साथ उतपन
होने वाले असाधारण कमरिवशेषरप कायरसवभाव का कारण मे समभव नही हो सकता।।22।।
तब तो चेतन बहमात कारण से जगत मे जाडयािदसवभावतव की अिसिद हो जायेगी, अतः बह मे जडता,
दुःखािद सवभाववाले जगत के अनय कारण का और जगत मे वैिचतय के हेतु अनय िनिमतो को सवीकार करना पडेगा,
यिद ऐसी कोई शंका करे, तो उस पर कहते है।
िनिवरकार, अिदतीय, असंग होने के कारण वसतुतः अकारण समपूणर पपंच के आरोप के आिद कारण बह मे
कारण, िनिमत आिदवसतु का भी संभव नही है। भाव यह िक बहसवभाव से िवरोध होने के कारण ही अकारणिववतररप
जगत िमथया ही है।
शंकाः जड, अनृत, दुःखरप जगत का जड, असतय दुःखरप ही आिद कारण होना उिचत है, उसी का िवचार
करना चािहए। जो जगत का कारण नही है, उस बह के िवचार से कया लाभ ?
समाधानः सार वसतु का (बह का) ही िवचार करना उिचत है, बह के अितिरकत असार वसतु के िवचारो से
कौन पुरषाथर िसद होगा ?।।23।।
बह िनिवरकलप, अिदतीय और असंग होने से कारण नही है और आिद कारण है, ऐसा जो कहा उसके अिभपाय
को सपष करने के िलए पूवोकत बीजरप दृषानत की अपेका बह मे जो भेद है, उसे कहते है।
लोक मे बीज अपने आकार का तयाग करके अंकुर आिदरप फल मे पिरणत देखा जाता है, बह वैसा नही है,
बह अपने आकार का तयाग िकये िबना ही जगदूप िववतर का कारण होता है, वहा पर फल और बीज दोनो उपिसथत
रहते है। इसिलए जगदिववतर के उपादान बह को अपनी तुलय सतावाले कायर के न होने से अकारण कहा, यह भाव
है।।24।।
बीज की अपेका बह मे और भी भेद दशाते हुए िनिवरशेष बह की बीज से जो समता िदखाई गई है, वह गौणी
वृित से है। वसतुतः बह और बीज की तुलना नही है ऐसा कहते है।
बीज के अवयव, गुण आिद सभी सवरप आकारयुकत अहं यानी अनय से वयावृित करने वाले जाित, िवशेष
पकार की गठन आिद से युकत है। इसिलए आकृितरिहत परमपदरप बह की बीज से तुलना नही की जा सकती।
वसतुतः कलयाणरप बह मे कोई उपमा है ही नही।।25।।
तब गौणी वृित से उपमा देने का कया फल है ? इस पर कहते है।
बह ही अनातमा के तुलय उतपन होता है, यह दशाने के िलए गौणवृित से उपमा दी गई है। वसतुतः बह अनय
की तरह उतपन नही होता, इसिलए न तो बह को उतपन हुआ जािनये और न अनुतपन ही जािनये, अतः जगत शूनय
है।।26।।
यिद अपने को ही जगत के तुलय देखता है, तो उसे अनथर की पािपत कैसे हुई, िजसिस िक उस अनथर के
पिरहार के िलए शासत सफल हो, इस शंका पर कहते है।
अपने को दृशयरप से देख रहा दृषा अपनी यथाथर आतमा को नही देखता। इसी से उसे अनथर की पािपत हुई
है। िजसकी बुिद पपंच से आकानत हो, ऐसे िकस पुरष को अपनी यथाथर िसथित जात होती है ?।।27।।
यदिप उसकी पूणाननद सवपकाशता सवाभािवक है, तथा िवभािनत पैदा होने पर अिभजता रह नही सकती।।
28।।
िनमरल सवपकाश, सवरगत होने से आतमा यदिप सदा सबके सपषरप से दशरन योगय है, तथािप कभी कोई भी
उसको यथाथररप से नही देख सकता, यह बिहमुरख लोगो की भािनत की पबलता पर महान आशयर है, ऐसा कहते है।
जैसे नेत बिहमुरख होने के कारण अपने सवरप को नही देख सकता, वैसे ही समपूणर अंगो से युकत आकाश की
तरह िनमरल दषा भी बिहमुरख होने के कारण साकात अपने सवरप को नही देख पाता, यह भम की बडी िवसमयकािरता
है।।29।।
यिद कोई शंका करे बिहमुरख पुरष भीतर अपने आतमा को भले ही न देखे, पर बाहर के और लोगो के आतमा
को उसे देखना चािहए, इस पर कहते है।
जैसे सवरथा भमशूनय मुकत पुरष दृशयता को पापत हुए दैत को नही देखता, वैसे ही सवागपूणर आकाश के तुलय
िनमरल दषा बिहमुरख होने के कारण अपने आतमा की तरह बाहर के सब लोगो के भी परमािथरक सवरप को नही देखता
है।।30।। आकाश के तुलय िनमरल बह यत से भी पापत नही होता। दृशय को दृशयरप से देखने पर तो उसका लाभ
बहुत दूर है, इसिलए दृशय को दृशय रप से नही देखना चािहए, िकनतु दृकमात रप से देखना चािहए, यह भाव है।।
31।।
यिद कोई शंका करे, दषा को अनतरातमा िवषयािभमुख दषा दारा भले ही न देखा जाय, िकनतु घटािद िवषयो
का अिधषानभूत आतमा तो बाहवृितवयािपत से िदखाई देना चािहए, कयोिक उसमे पतयंमुखता का कोई उपयोग नही है,
इस पर कहते है।
घटािद िवषय पदेश मे वृतयविचछन दषा की वृित के बाह घटािद के आकार मे पिरणत हो जाने से जहा दषा
की भी घटािदसवरप पािपत के िबना घटािद नही देखे जा सकते। वहा पर दषा की दृशयता दूरतः अपासत ही है, इसी
अथर को बतलाने के िलए 'सूकमसय' यह िवशेषण िदया है। भाव यह है िक िवषयाकारवृित के साथ तादातमयापनसवरप
से अितिरकत सूकम िचनमात का दशरन नही हो सकता है।।32।।
इसिलए हे शीरामचनदजी, दृशय ही िदखाई देता है, दषा िदखाई नही देता।
शंकाः यिद दषा सवरथा नही देखा जाता है, तो िचत की पूवोकत िचनमात पिरशेषरप शुिद के लाभ से मोक
पािपत कैसे होगी ?
समाधानः केवल एक मात दषा ही है, दृशय तो वहा कुछ है नही है। जो कुछ िदखाई देता है एकमात भािनत
का िवलास है। इसिलए िचनमातपिरशेषरप शुिद के लाभ से मोक की पािपत मे कौन बाधा है ?।।33।।
दषुता भी वासतिवक नही है, ऐसा कहते है।
यिद सवरसवरप दषा दृशय मे िसथत है तो दषता कहा रही ? भाव यह िक दृशय पदेश मे जो िसथत नही है,
उसकी दषता नही हो सकती और 'सवरभूतािधवासः साकी चेता' इतयािद शुित भी है, इससे दषा को सवातमा और दृशय
मे िसथत अवशय कहना चािहए। ऐसा यिद है, तो उसके आतमभूत समपूणर दृष मे, अपने मे िकया का िवरोध होने से
दषता कैसे होगी ? यिद किहए िक सवरशिकतमान होने के कारण राजा की तरह वह दृशय को उतपन कर उसका वैसा
अनुभव करता हुआ दषा होता है, तो अपने से अितिरकत उपकरण की अपेका होने पर शिकत संकोच मानना पडेगा,
अतः सवयं अिवकृत ही वह तत्-तत् दृशय रप से उिदत होता है, यही पर अविशष रहता है। इससे िसद हुआ िक
दषतारप अितिरकत वसतु की िसिद नही है, इस आशय से कहते है।
राजा के समान सवरशिकतमान दषा िजस िजस वसतु को जैसे पापत होता है, वैसे ही शीघ उसका अनुभव
करता है। सवरशिकतमान दषा ही दृशयरप मे उिदत होता है।।34।। जैसे वसनतरस का उललास अपनी रसता का
तयाग न करता हुआ ही फल, पुषप और लतारप से उनत दैदीपयमान वनखणड होता है, वैसे ही िचत का उललास भी
अपनी िचनमातता का तयाग िकये िबना ही जीव और तदननतर देह होता है। सवानुभवरप ही वह इकुिवकार रप रस
ईख के रस से िभन िविवध जगदूप से िनशय उिदत होता है।।35-38।। अपने मे अपने -आप सफुिरत हो रहे दृशयरप
सैकडो शाखाओं से युकत िचदरसउललास वृको का यहा पर अनत नही जाना जाता, कयोिक 'नानाखणडसहसतौधैः इससे
बहाणडो की अननतता दशाई गई है।।39।।
उन-उन बहाणडो मे भोग चमतकार भी अननत है, ऐसा कहते है।
यह बहाणडरप वन खणड जैस-े जैसे अपने रस के चमतकार का पतयेक को अनुभव कराता है, वैसे वैसे यह
चेतन अपनी पृथक िसथित को देखता है।।40।।
चमतकृित की िविचतता मे चमतकृित की कलपना करने वाले तत्-तत् जीवो के िविचत संसकार का उदबोध ही
कारण है ऐसा कहते है।
इस जीवशिकत को जो-जो अपनी सृिष जैसे उिदत होती है, वह आतमिचदूप उस-उस भुवन िसथित को वैसे ही
पापत होती है।।41।।
समान वासनाओं का आिवभाव होने पर अजानी जीवो की भी सृिषया परसपर िमलती है, ऐसा जीवसृिषयो का
िमलन हो पहले कहा गया, उसका उपसंहार करते है।
कोई जीवरप संसार परसपर िमलते है और इस संसार मे सवयं िवहार करके िचरकाल मे शानत हो जाते है।।
42।।
तब मेरे दूसरो की हजारो संसृितयो को देखने के िलए कया उपाय है ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
आप पूवोकत शुदिचत लोगो के दशरनोपाय से परमाणुओं के भीतर मे भी हजारो जगतपरमपराओं को देिखये।
जैसे सारे ितल मे तेल रहते है, वैसे ही िचत मे, आकाश मे, िशलाओं, जवाला मे, वायु मे तथा जल मे लाखो संसार
िवदमान है।।43,44।। जब िचत िसिद को पापत होता है, तब जीव िचत् हो जाता है, वह िचत् शुद और सवरगत है,
अतएव उसका परसपर अनयो से िमलन होता है।।45।।
िमलन की सवकीय परकीय सवपो के देवात् कही संवाद के तुलय अपने -अपने अनतःकरण का कलपनामात ही
है, इस आशय से कहते है।
बहा आिद सब का सवसता से किलपतभम का पितरप यह जगदूप बडा भारी सवप अनदर उिदत हुआ है।।
46।। कई भूतपरमपराएँ एक सवप से दूसरे सवप मे जाती है। सवप परमपरा मे भमण करने से दीवार आिद के तुलय
ठोस परमातमरप वसतु मे इस संसाररप दीघर सवप की पतीित होती है और संसाररपी सवप की वासना की दृढता से
वह दृढतर है।।47।। िचित जहा पर िजसकी भावना करती है, वहा पर वह शीघ ही उतपन होता है। उसने सवप मे
भी िजसको देखा, वह सवप के समय मे सतय ही है, इसिलए उसमे िचत् सता के संबनध का अनुभव होता है।।48।।
जैसे बीज के अनदर सूकमरप से पते, लता, फूल, फलरप अणु रहते है वैसे ही िचद् अणु के अनदर सब सूकम अनुभव
यानी जगत के आकार की वासनाएँ िवदमान है।।49।। परमाणुरप जगत के अनदर िचत् परमाणु िवदमान है, ऐसी
अवसथा मे िचत् और जगत् के समपूणर रप से परसपर अनदर पवेश को आशयर मानता हूँ, यह अथर है। अथवा यह
आशयर नही है, कयोिक िचदाकाश ही, जो िक जगदभमो के दारा भेद से गृहीत था, अपने मे लय हो जाता है, इसी आशय
से कहते है, आकाश आकाश मे लीन हो गये, अतः आप दैत या एकतव के भम का तयाग कीिजए।।50।।
पूवोकत का ही सपषीकरण करते है।
चेतन देश, काल और िकयारप अपने ही सूकम अंशो से आतमभूत अणुओं का ही अनय की तरह अपने अनदर
अनुभव करता है, वसतुतः अनयो का अनुभव नही करता है, अनयो का तो संभव ही नही है।।51।। बहा से लेकर
कीडे-मकोडे तक सवरसाधारण तत्-तत् अनतःकरणरप की उपािध के कारण पिरिचछन हुआ िचदणुखणड पलयकाल मे
यदिप असफुट रहता है तथािप सृिष का सवप पापत होने पर सफुट होकर तत्-तत् देहदृिष से अनुभव को पापत कराया
जाता है।।52।।
िजसका सबको अनुभव होता है वह कया है ? ऐसी यिद िकसी को िजजासा हो, तो उस पर कहते है।
यह जो सफुिरत हुआ है (दृिषगोचर हुआ है), यह अिनवरचनीय ही है।
शंकाः िफर वह है कया ?
समाधानः िचतपरमाणु (जीव) साकात् सतय आतमा को ही दैतरप से आसवादन करते है। भाव यह िक जैसे
कोई भानतपुरष सवयं अपने कनधे पर चढने की इचछा करता है, वैसे ही िचत् परमाणुरप जीव भी सतय आतमसवरप को
ही दैत मानते हुए भािनतवश उसका अनुभव करता है।।53।। िचदरपी परमाणु खूब िवकिसत शरीर होकर नेत
आिदरप पुषप दारो से संिवदरपी सुगिनध को िबखेरते हुए सवयं सफुिरत हुए है।।54।। कोई वयिषरप िचदघट (घडे
के सदृश सथूलदेह के पिरचछेद से चेतन ही मानो घट ठहरा यानी जीव) दृशय के हेतुभूत चेतन के सवरवयापक और
अिवनाशी होने के कारण देशतः और कालतः बाहरप से जगत को देखता है।।55।। कोई समिषरप (िवराट्)
जगत को साफ-साफ अपने अनदर ही देखता है। वहा पर िचरकाल के अभयास से तादातमय अिभमान होने से लीन
होता है और िफर आिवभूरत होता है।।56।। जगत मे एक सवपरप जगत से दूसरे सवपरप जगत को एक सवप से
दूसरे सवप के समान पुनः पुनः देख रहा वह पवरत की चोटी से िगरी हुई िशला के समान गतररप िमथया योिनयो मे
लुढकता है।।57।। सफुिरत हो रहे कोई शरीर परसपर सिममिलत है, कोई भमशूनय आतमा मे िसथत है, कोई
आतमजान के िवसतार मे मगन है।।58।।
जो अपने अनदर दृशय को देखने वाले है, उनका दैतिमथयातवजान िवशेष है, ऐसा कहते है।
जो जगदूपी जीवभम को सवयं अपने अनदर देखते है, उन थोडे-से महापुरषो ने चारो ओर वयापत दृशय को सवप
के समान असत् जान िलया है।।59।।
उन लोगो की दृिष मे भीतर ही िवश का उदय होने पर भीतर ही िवश की सता का हेतु है। िकनही की दृिष
मे बाहर उसका दशरन होने पर बाहर ही उसकी सता का हेतु है, ऐसी बीज की वयवसथा मन मे रखकर कहते है।
िचतसवभाव सवररप है, इसिलए वह दृशय आतमा मे आतमािभमान रप से सतय ही है। जहा सवरवयापी आतमा है,
वहा पर सब कुछ उिदत होता है।।60।।
जीव के अनदर दूसरे जीव का, दूसरे जीव के अनदर िफर दूसरे जीव का, िफर दूसरे जीव का यो अवयिसथत,
सतपपंच जीव के उदय मे भी उसमे िसथत चैतनय मे अजानसिहत तत्-तत् सता ही हेतु है। उसका जान होने पर कुछ
भी कही पर न अविशष था, न है और न रहेगा, इस आशय से कहते है।
जीव के अनतवरती समपूणर पितभास के अनदर जीवसमूह का उदय होता है, उसके अनदर पुनः दूसरा जीवसमूह
उिदत होता है, उसके अनदर िफर दूसरा जीव, जीव के अनदर िफर जीव, उसके अनदर भी जीव उतपन होता है केले के
पतो की तरह जीव के अनदर सवरत जीव ही है।।61,62।। बुिद के िवषयािभमुखता का तयागकर अनतमुरख होने पर
एक ही साथ आनतर और बाह दृशय पिरजात होकर िवनष हो जाता है, जैसे िक तततवतः पिरजान होने पर कटकतव
आिद सुवणर मे िवनष हो जाते है।।63।।
इस पकार तततवसाकातकाररप िचनमातपिरशेषलकण शुिदलाभ को दशाकर उसकी पािपत और िसथित के
इिनदयजनय आिद से लेकर िवचार पयरनत उपायो को आगे पीछे (िसलिसले के िबना) आरमभ करते है।
िजस पुरष के मन मे 'मै कौन हँ'ू 'यह जगत कया है', ऐसा दृढ िवचार नही उठता है, उसके अनदर यह बडा
भारी जीवजवरभम नही छू टता।।64।। िजस सदबुिद पुरष की िवचार करने से सासािरक िवषयभोगिलपसा िदन
पितिदन घटती जाती है, उसके िवचार को सफल जानना चािहए। भाव यह िक वैरागयपूवरक ही िवचार फलपद होता है।
यिद कोई रागी पुरष िवचार करे, तो उसे िवचारफल भोगवासना-तानव (कीणता) तिनक भी पापत नही हो सकता है।।
65।।
इिनदय िवजय मे अभयास करके यिद वैरागय हो, तो वही वैरागय िववेक का कारण होता है, अनय नही, ऐसा
कहते है।
जैसे पथय भोजन आिद िनयमो से सेिवत औषिध आरोगय करती है, वैसे ही इिनदयजय का अभयास हो जाने पर
िववेक फलीभूत होता है।।66।।
िववेक भी यिद वैरागय की मुमुका की उतकणठा होने से संनयास, शवण आिद फल मे पयरवसन ही, तो वही
तततवदशरन रप तनमातयुिकत की उतपित और िसथित के उपयोगी होता है, केवल वाणीमात से िवकिसत िववेक उकत
फल नही दे सकता है, ऐसा दशाते है।
िचत मे दैदीपयमान अिगन के समान िजसके वचन मे केवल िववेक है, मन मे नही है, उस पुरष के दारा
अिपतयकत अिववेिकता केवल दुःख के िलए ही है। यानी जैसे िचत मे िसथत पकाशमान अिगन से दाह आिद नही होते,
वैसे ही वचनमात िववेक से फल िसद नही होता है।।67।।
तब िववेक के मन मे िसथत होने की कया पहचान है ? इस शंका पर वैरागय ही एकमात उसकी पहचान है, ऐसा
कहते है।
जैसे सपशर से वायु सता को पापत होता है वाणी से नही, वैसे ही एकमात इचछा के दरू होने से यानी वैरागय से
ही िववेक जाना जाता है। जैसे पतयक सपशर वायु का लकण है, वचनमात सपशर उसका लकण नही है, यह भाव है।।
68।।
रागी पुरष दारा वाणीमात से पदिशरत िववेक अिववेक की शाखा-पशाखारप होने से अिववेक ही है, ऐसा दशाते
है।
शीरामचनदजी, िचत मे िलिखत अमृत या जल को आप अनमृत या अजल ही जािनये, िचत मे िलिखत अिगन
को आप अनिगन ही जािनये एवं िचत मे िलिखत सती सती नही है, इसी पकार वचन से पदिशरत िववेक भी अिववेक ही
है।।69।। पहले िववेक के राग (िवषयेचछा) घटता है, इसमे सनदेह नही है, राग के घटने से वैर समूल नष हो जाता,
तदननतर इष की पािपत और अिनष के पिरहार के अनुकूल पवृित, जान का उदय होने से मूलोचछेद होने के कारण,
अवशय नष हो जाती है। इसिलए िजसमे िववेिकता है, वही पुरष तततवदशरनरप तनमातयुिकत की िसथित का योगय
भाजन के यानी पिवत है।।70।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अठारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ
आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ, आआआआआआ, आआआआआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआ
आआआ आआआआआआ ।आआ आआआआआआ
यिद जीवो के अनदर जीवपरमपरा की कलपना की जायेगी, बाह जीव ही आनतरजीवो के अिधषान होगे। इस
तरह आनतर-आनतर जीवो की मुिकत सवािधषानभूत बाह-बाह जीवातम-भाविचनतन से बाह-बाह जीवातमभावपािपत दारा
बाह जीवो के अिधषानभूत बहातमभावबोध का उदय होने पर बाह जीवो की मुिकत से ही िसद हो सकती है, न िक
साकात् बहातमावबोध से उनकी मुिकत िसद हो सकती है, कयोिक जीवो के मधय मे बहसता के असिनधन से
अिधषानतवरप आनतरजगतबीजता का बह मे असमभव है। यिद आनतरजगतबीजता का बह मे समभ हो, तो सभी
आनतर-बाह जीव तुलय ही है। जीवो के आनतरतव की कलपना असमभव हो जायेगी, ऐसी आशंका करके जीवोदरवती
जगजजालो का भी बह ही अिधषान बीज है, यह िसद करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जीवो का अिधषानरप बीज बह ही सब जगह आकाश की भाित
िसथत है, सब जगह िसथर रहने के कारण ही जीवोदरवती जगत मे भी अनेक जीव िसथत है।।1।। जैसे केले के
पते एक के भीतर एक रहते है और जैसे धरातल के गभर मे नाना पकार के कीडे रहते है, वैसे ही आननदघन, एक
अवकाशरिहत आतमसवरप होने के कारण जीव के भीतर भी अनेक जीवजाितया रहती है। एक के भीतर एक उसके
भी भीतर एक इस परमपरा की कलपना मे दृषानत केले के पते िदये है। एक के भीतर अनेक की िसथित कलपना मे
दृषानत धरातल की कीडे िदये गये है।।2।।
यिद कोई कहे आनतर और बाह सभी जीवो का समान ही अिधषान है, ऐसी िसथित मे आनतरतव की कलपना
िनमूरल है, इसका कया पिरहार है ? इस पर कहते है।
जैसे गीषम काल मे शरीरानतवरती मल और पसीने के कारण जो-जो कृिम उतपन होते है, वे शरीर के मल या
पसीने के भीतर ही होते है। उसी दृषानत से शुदिचततव भी आनतर बाह जो-जो जहा पर दृशय होता है, उस-उस का
भोकता जीव वहा पर हो जाता है।।3।।
अथवा पुरष के पूवर जनम के पयतरप कमर से सब वयवसथाओं की िसिद होती है, इस आशय से कहते है।
वे जीव अपनी िसिद के िलए जैसे जैसे पयत करते है, शीघ ही िविवध पकार की उपासना के कम से वैसे ही
हो जाते है।।4।।
कमर और उपासना के तारतमय के अनुसार देवताओं के सायुजय मे भी तत्-तत् देवतारपी जीवो के भीतर ही
तारतमयरप से भोग की पिसिद शासतरप पमाण से िसद है, इस आशय से कहते है।
देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं को पापत होते है, वृको की पूजा करने वाले वको को पापत होते है और
िहरणयगभर और परबह की उपासना करने वाले िहरणयगभर और परबह को पापत होते है।
इनमे से िकसको पापत करना चािहए ? इस पर कहते है।
जो तुचछ न हो यानी सवोतम है, उसी का आशय करना चािहए।5।।
भागरवोपाखयान भी पूवोकत अथर मे दृषानत है, ऐसा कहते है।
जो पथम दृष अपसरारप दृशय से िचत के सवभाव वश शीघ बद हो गया था, वह भृगु-पुत अपनी संिवत के
(जान के) िनमरल हो जाने से मुकत हो गया।।6।।
इसी तरह यह वयुतपन मूढ संिवत जैसी वयुतपित से युकत की जाती है, वैसी ही हो जाती है, इसिलए इसे
वासतिवक बहरप से ही वयुतपन करना चािहए, िमथया जीवआिद भाव से नही, इस आशय से उपसंहार करते है।
यह बाल संिवत संसार के वयसन तथा संताप से जब तक मिलन न हुई हो, उसके पहले ही सवरपथम िजस
भाव को पापत होती है तदूप हो जाती है, कोई अनय वसतु नही होती।।7।।
संिवत कब बाल रहती है और कब पौढ होती है, यह िवशेषता जानने के िलए जागत और सवप दशाओं की
िवलकणता का हेतु शीरामचनदजी पूछते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, जागत और सवप दशाओं का भेद आप किहए और यह भी बतलाइये िक
पतयक के अवभास मे कोई िवशेषता न रहने पर भी जागत िकस कारण से सतय वयवहार का हेतु होता है और सवप
जागत के आकार का भम कहा जाता है।।8।।
बार-बार संवादयुकत पतीित से पापत िसथर पतीित की योगयता ही जागत के पदाथों मे सतयतववयवहार की हेतु
है, इस तरह शीविसषजी समाधान करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, जो िसथर पतीित से युकत होता है, उसे जागत कहते है और जो
अिसथर पतीित से युकत होता है, वह सवप कहा गया है।।9।। यिद सवप भी कालानतर मे िसथत है, तब तो जागतरप
होने से कणमात मे यह जागत ही है, यह पतयक अनुभव से ही दृष हो जायेगा। यिद जागत भी कालानतर मे िसथत नही
है, तो वह सवप ही है। इस तरह जागत सवपता को और सवप जागदभाव को पापत होता है।।10।। िसथरता और
अिसथरता के िबना जागत और सवप की दशाओं मे भेद नही है, कयोिक इन दोनो दशाओं मे समपूणर अनुभव सदा सब
जगह समान ही होता है।। 11।। सवप भी सवप के समय मे िसथर होने के कारण जागतभाव को पापत होता है और
जागत के मनोरथ भी जागत के समय मे अिसथर होने से सवप ही है, कयोिक वैसा बोध होता है।।12।। सवप भी,
हिरशनद के बारह वषरवाले सवप की भाित िजसकी िसथरता जागदबुिद से गहण करने योगय हो, वह जागदूप हो जाता
है।
तो वह सवप कैसे हुआ ? इस पर कहते है।
उसमे सवपता तो सवप बुिद से है, कयोिक सवपरप से ही उसका जान िसथर था।।13।।
जब तक जो वसतु िसथर समझी जाय तब तक वह जागत कही जाती है। कणमात मे उसका भंग होने पर वह
िजस पकार सवप हो जाता है, उसे सुिनये।।14।।
पितजात िवषय के वणरन की भूिमका के रप मे सवपदषा की जीव की सता को िसद करते है।
हे शीरामचनदजी, इस शरीर के भीतर जीव वसतु िवदमान है, िजससे लोगो का जीवन रहता है। 'येन जीवयते'
इससे दशाया िक जीिवत रहना ही जीव के अिसततव मे पमाण है। तेज यानी शरीर की गमाहट, वीयर यानी शरीर के
वयापार का कारण बल, जीवधातु यानी जीवन मे हेतु िनिवरशेष पेम और आिद पद से 'अहम्' इतयािद अिभमान का िनिमत
जान आिद िजसके नाम है, यानी तेज, बल, पेम और जान ये सब जीव की सता से ही है। इसिलए जीव के सदभाव मे
ये सब पमाण है।।15।।
यिद कोई कहे देह मे जीव रहे, पर उसकी रप आिद की दशा के िलए पवृित मे कया हेतु है ? इस पर कहते
है।
िजस समय यह शरीर मन, वचन और कमर से वयवहार करने वाला होता है, उस समय पाणवायु से पेिरत जीव
चेतन, तालाब से नाली आिद के दारा जल के सदृश, हृदय से िनकलकर बाहर संचार करता है, फैलता है।।16।।
जीव चेतन के भीतर सब नािडयो मे संचार करने पर सब संिवत (जान) उिदत होती है। पहले अनुभूत होने के कारण
संिवत् िजसमे जगतरप भम अनदर िछपा हो, ऐसे िचत को पापत होती है यानी उनमे वासनाओं की उतपित होने के
कारण सवप देखती है।।17।। नेत आिद िछदो मे संचार कर रही संिवत् नाना पकार के आकार और िवकारो से
समपन बाहरप को अपने मे देखती है वैसी ही वह िसथर होने के कारण जागत कही जाती है। भाव यह है िक यदिप
अनुभव के समय पतीित सवप के सदृश ही होती है, उससे िभन नही होती, िफर भी पितिदन के पतयिभजान के बाद
िसथरतव कलपना जागत है, यह जान होता है। जागत का कम इस पकार आपसे मैने कहा, अब आप सुषुिपत आिद के
कम को सुिनये।।18,19।।
वािचक और काियक िवकेप की िनवृित होने पर सवप का उदय होता है, मानिसक िवकेप की भी यिद िनवृित हो
जाय, तो सुषुिपत होती है, इस आशय से कहते है।
िजस समय शरीर, मन, वचन और कमर से कोभ को पापत नही होता है, उस समय यह जीव चेतन शानतसवरप
और सवसथ होकर रहता है।।20।। जैसे की िवकेपशूनय पकाश का एकमात िनिमत दीपक िनवात (वायुरिहत) घर मे
कोभ को पापत नही होता।।21।। उससे शरीर के भीतर िसथत नािडयो मे संिवत का संचार नही होता, अतः पुरष
िवकोभ को पापत नही होता है। इससे सवप के िनिमत का अभाव दशाया। और वह संिवत् इिनदया आिद िछदो मे भी
नही आती, अतएव इिनदयो दारा बाहर नही आती। इससे जागत के िनिमत का अभाव िदखलाया।।22।।
यिद कोई शंका करे िक 'सता सोमय तदा समपनो भवित सवमपीतोभवित' (हे सौमय, सुषुिपत के समय जीव
'सत' शबदवाचय बह से एकीभूत हो जाता है, अपने पारमािथरक रप को पापत होता है) इस शुित से सुषुिपत मे जीव का
बह मे लय सुना जाता है, िफर उस समय आप जीव की दीप के तुलय िसथित कैसे कहते है ? इस पर कहते है।
'मै जीव हूँ' इस संसकार से युकत ही वह ितल मे तैलसंिवत के तुलय, बफर मे शीतसंिवत् के तुलय और घृत मे
सनेह संिवत् के तुलय बहभाव को पापत होकर सफुिरत होता है।।23।।
यिद शंका हो िक तब 'तीणो ही तदा सवाछोकान् हृदयसव भवित
(हृदय मे िसथत बुिद से सब शोको को तर जाता है), 'सिलल एक दषाऽदैतो भवित' (उस समय सजातीय
भेदशूनय और िवजातीय भेदशूनय एकमात दषा होता है) इतयािद शुितयो दारा कहे गये आतयािनतक बहैकय की कया गित
होगी ? इस पर कहते है।
जीव के आकार की जो कोई िचित है, वह चेतन की कला उपािध का िवनाश होने से सवचछतावश बहातमा मे
पृथक चेतनशूनय, पाणवायु से िकये गये िवकेप से शूनय सुषुिपत दशा को पापत होती है, इस अंश को लेकर वे शुितया
पवृत हुई है, भेदवासना के िवलय के अिभपाय से पवृत नही हुई है, यह भाव है।।24।।
पसंगतः जीव की तुयावसथा िदखलाते है।
िचत के उपरत होने पर सकल वयवहारो के उपराम से युकत िचत मे शासत से अिवषमता का जान कर िवचार
और एकागता से साकातकार को पापत हुआ योगी पिसद जागत, सवप और सुषुिपतयो मे अथवा पूवोकत भूिमका हो तो
उसमे वयवहार करता हुआ और समािध मे िसथत रहता हुआ भी जान की दृढता से तुयर आतमसवभाव से चयुत न होकर
सदा ही तुयावसथान कहा जाता है।।25।।
पसतुत सुषुिपत का ही अनुवाद करके उससे पहले पूवोकत सवपावसथा का िवसतार करने के िलए िचत की
उतपित कहते है।
सौमयता को पापत हुए पाणो से युकत वह जीव चेतन जब भोग कराने वाले अदृष के पिरपाक से िवषमता को
पापत िकये गये पाणो दारा ही संचािरत होता है, तब वह जीव चेतन तत्-तत् भोगो के अनुकूल पूवरजनम के संसकारो के
उदबुद होने के कारण िचतरप से उिदत होता है।।26।।
उससे सवपदशरन को कहते है।
उस समय जैसे योगी बीज मे िसथत वृक को अपनी यौिगक शिकत से आगे होने वाले िवसतार से युकत देखता
है वैसे ही भाव और अभावरप किमक भमो से अपने हृदय मे िसथत जगजजाल को अपने भीतर ही तुरनत देखता है।।
27।। सुपत जीव चेतन जब पाण वायुओं से थोडा बहुत कुबध होता है तब मै हूँ, ऐसा अपने को अहंकारयुकत देखता है,
िकनतु जब अतयनत कोभ को पापत होता है तब आकाश मे अपना गमन देखता है।।28।। जैसे फूल अपनी सुगिनध
का अपने अनदर ही अनुभव करता है वैसे ही जब-जब नाडी के अनदर िसथत शलेषमा के जल से पलािवत होता है तब
अपने अनदर ही जलआिद के भम को देखता है।।29।। जब वह जीवचेतन नाडी के अनतगरत िपत से आकानत होता
है, तब बाहर की तरह समपूणर गीषम आिद के भम का अपने अनदर ही अनुभव करता है।।30।। नाडी के अनदर
िसथत रिधर से आपलािवत होकर गेर आिद धातुओं से वयापत पदेशो को और लाल बादलो से भरे हुए सनधया आिद
कालो को बाहर के सदृश अपने अनदर ही देखता है, अनुभवरप होने से उनही मे िनमगन हो जाता है।।31।। वह
जीवचेतन िजस-िजस वासना का सेवन करता है यानी िजस वासना से वािसत अनतःकरण वाला होता है, िनदावसथा मे
उसी वासना को पाणवायु से कुबध होकर नेत आिद िछदो से बाहर के पदाथों की तरह अपने अनदर देखता है।।32।।
त पाणवायु से भीतर ही कुबध हुआ, अतएव इिनदयिचछदो पर अपने आकमणो से रिहत जीव अपनी संिवत से आनतर
पदाथों का तुरनत अनुभव करता है, वही सवप कहा जाता है।।33।। जब वायु से कुबध हुआ जीव इिनदय िछदो का
आकमण करने वाला होकर बाहर शबद आिद को देखता है, तब वह दशरन जागत कहलाता है।।34।।
जागदािद भेदो से िवसतार को पापत हुए जगत मे सतयता बुिद ही आसिकत का कारण होने से अनथर है, इसिलए
उसी का तयाग करना चािहए, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, इस पकार जान को पापत हुए अतः पिथत महाबुिदवाले आपको भी इस असतय जगत मे सतय
की दृिष नही करना चािहए, कयोिक वह सतय दृिष आधयाितमक िनिमतो से मरण के हेतुभूत दोषो की जननी है।।
35।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आ आआआआ आआआआ आआआआआ
आआ आआआआआआआआ आआ, आआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआ आआ
आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआ, आआ आआआआआआ ।
पूवरविणरत जागदािदसवरप कथन का पाकृत मे समबनध िदखलाते है।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, मैने आपसे यह जागदािद सवरप का वणरन मन के यथाथर जान के
िलए िकया है, इसका और कोई दूसरा पयोजन नही है।।1।।
इस वणरन से मन का कैसा सवभाव जात हुआ, यिद यह कोई शंका करे, तो दृढरप से भािवत पदाथर के आकार
को धारण करना ही मन का सवभाव है, ऐसा कहते है।
जैसे अिगन के समबनध से लोहे का गोला आग बन जाता है, वैसे ही दृढ िनशयवाला िचत िजस वसतु की बार-
बार भावना करता है उसी के आकार को पापत हो जाता है।।2।।
इससे सत् और असतरप हेय और उपादेय पतीित के िवषय सभी पदाथर एकमात मन से किलपत होने के
कारण सत् और असत् से िवलकण (अिनवरचनीय) है, यह िसद हुआ, ऐसा कहते है।
भाव, अभाव, उपादान, तयाग आिद पतीितया चेतन मे किलपत है। न तो सतय है और न असतय है। मन की
चपलता ही इनकी जननी है।।3।।
वयिषरप से मन भािनतजनक है और समिषरप से भािनत के िवषय जगत का उपादान है, ऐसा भेद कहते है।
मन भािनत का तो कता है और जगत की िसथित का कारण है। समिषवयिषरप से मिलन मन ही इस जगत
का िवसतार करता है।।4।।
यिद कता-अंश शुभ मागर मे लगाया जाय, तो उपादानाश मे िसथत अिणमा आिद िवभूितया और तततवजान भी
वश मे हो जाते है, ऐसा कहते है।
मन ही पुरष है, उसको शुभमागर मे लगाकर एकमात उसकी जय से अवशय पापत होने वाली जगत मे िसथत
सब िवभूितया पापत होती है।।5।।
यिद कोई कहे िक देह ही पुरष हो, मन पुरष न हो, तो इस पर कहते है।
यिद शरीर पुरष होता, तो महामित शुकाचायर िविवध आकारवाले अनयानय सैकडो जनम रप भमो को कैसे पापत
होते ?।।6।।
इसिलए शरीर पुरष नही हो सकता, घडे, दीवार आिद के तुलय वह चेतय ही है, ऐसा कहते है।
इसिलए िचत ही पुरष है, शरीर तो िवषय है। िचत िजसकी भावना करता है, उसको िनशय ही पापत होता
है।।7।।
मन सब पदाथों की पािपत मे समथर हो, उससे मेरा कया काम ? ऐसी यिद शंका हो, तो उस पर कहते है।
जो वसतु अतुचछ है, आयास रिहत है, उपािधशूनय है और भमहीन है, पयत के साथ आप उसका अनुसनधान
कीिजए। उससे आप ततसवरपता को पापत होगे। भाव यह है िक मोक के िलए पयत करने पर आपको मोक की पािपत
होगी।।8।।
पहले कहे गये अथर का ही संकेप कर उपसंहार करते है।
मन के इिचछत सथान या िवषय को शरीर पापत होता है। शरीर से िकये गये सथान या िवषय को मन िनयमतः
पापत नही होता, इसिलए हे सुभग, मन की इिचछत िसिद होने पर देह, इिनदय आिद के िनयमन मे समथर होने के कारण
आपका भी मन परमाथरभूत आतमतततव को पापत हो, अनय असतय दैत भमो का तयाग करे।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआ आआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआआ
आआ आआआआआआआआ आआआ आआ आआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआआ आआ-आआआआआआआआआ
आआ आआआआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआ ।
जो तुचछ वसतु नही है, आयासरिहत है, उपािधशूनय है और भमरिहत है उसका यत से अनुसनधान करो, ऐसा
गुरजी के कहने पर अपने बुिद कौशल से उसका अनुसनधान कर उसमे मन की कलपना की योगयता को न देख रहे
शीरामचनदजी पूवोकत मन की कलपना मे िवशास न रखते हुए अधरिवकिसत बुिद होकर पूछने के िलए गुरजी को अपनी
ओर आकृष कर संशय िदखलाते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, हे समपूणर धमों के ममरज, सागर मे चंचल कललोल की तरह मेरे हृदय मे जो
यह बडा भारी संशय घूम रहा है, उसे आप कृपाकर दूर कीिजए। देशकृत पिरचछेद न होने के कारण सवरत वयापत,
कालकृत पिरचछेद न होने के कारण िनतय और वसतुकृत पिरचछेद न होने के कारण िनदोष परमातमा मे मन नाम की
िवषयाकार कलुिषत यह संिवत कौन है और कहा से आई है ? यिद किहए, अनािद अिवदावश यह उपिसथत हुई है, तो
उसकी भी संभावना नही है, कयोिक िजससे िभन दूसरी वसतु न तो है, न थी और न होगी, उसमे िकसी दूसरे िनिमत से
या सवतः अथवा दूसरे पकार से कलंक कैसे पापत हो सकता है ?।।1-3।।
इस तरह शीरामचनदजी के पूछने पर शीविसषजी तततवपदाथर के पिरचय से चमतकारयुकत शीरामचनदजी की
बुिद की पहले पशंसा करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, वाह आपने बहुत अचछा पश िकया। ननदनवन की मंजरी के समान
मकरनदिनसयनदरपी अनुभव चमतकारवाली आपकी बुिद मोकभािगनी हो गई है।।4।। आपकी बुिद पूवापर िवचार मे
ततपर है, इसिलए शंकर आिद देवताओं ने जो पद पापत िकया है, उस ऊँचे पद को आप पापत होगे।।5।।
शुद िचदातमा मे अिवदा का कलंक युकत नही है, यह पश जो पुरष शुदातमा का अनुभव कर चुका है, उसे
शोभा देता है, लेिकन उसके पित तो हम मन का िनरपण कर नही रहे है, िजससे िक उसे पूछने का अवसर िमले,
िकनतु िजसने शुद आतमा का अनुभव नही िकया है, जाता को ही आतमा समझता है, उसे अपने अनुभव से िवरद आतमा
की शुिद कैसे है ? यही शंका करनी चािहए, अनुभव से िवरद शुिद सवीकार कर शुद मे मािलनय कैसे है ? इस तरह
के पश का अज के उपदेश के समय मे िवज के समान अवसर नही है, ऐसा शीविसषजी कहते है।
हे शीरामचनदजी, इस समय आपके इस पश का अवसर ही नही है। िनवाण पकरण मे जबिक आतमदशरन
समािध की पितषा पापत हो जायगी, अनुभव मे आरढ इसी अथर को मै अपने अनुभव के संवाद के िलए कहँूगा, वहा पर
आपके इस पश का समाधान िदया जायेगा। िसदानत के समय आपको यह पश मुझसे पूछना चािहए। मुझसे समािहत
इस पश से िसदानत आपको हसतामलकवत् जायेगा।।6,7।। हे शीरामचनदजी, जैसे वषा ऋतु मे मयूर की वाणी
सुशोिभत होती है, शरत काल मे हंस की वाणी भली लगती है, मयूर की वाणी भली नही लगती, वैसे ही िसदानत काल मे
ही आपका यह वचन सुशोिभत होगा।।8।।
इस समय यह आपका पश वषा ऋतु मे आकाश की सवाभािवक नीिलमा के वणरन के तुलय है, ऐसा कहते है।
वषा ऋतु के बीत जाने पर आकाश की सवाभािवक नीिलमा सुशोिभत होती है, िकनतु वषा ऋतु मे तो उस पर
बडे िवशालकाय बादलो की घटा छाई रहती है।।9।।
इस पकार शीरामचनदजी के पश का समाधान कर पसतुत िवषय के शवण मे शीरामचनदजी को पवृत करते
है।
हे सुनदर वरतवाले शीरामचनदजी, पकृत मे इस उतम मनोिनणरय का मैने आरमभ िकया है, िजसके कारण लोगो
का जनम होता है, उस मन को आप सुिनये।।10।। पूवोकत रीित से चैतनय मे मिलनता अजािनयो के अनुभव से िसद
है। उस मािलनय से उपिहत वह चैतनय पकृितरप होता है, मनन धमरयुकत होकर मन होता है, सुनता हुआ कान और
देखता हुआ नेत होता है, कयोिक 'पशयरशकुः शृणवन् शोतं मनदानो मनः' इतयािद शुित है। तथा कमेिनदयो को पापत हुआ
यह चेषा से धमाधमररप कमर भी सवयं ही होता है, ऐसा मुमुकु लोगो ने शुित आिद पमाणो से िनणरय कर रखा है।।
11।।
बहुत से वादी अपने -अपने अिभमत नाम-रप और आकार से उसी की अनय-अनयरप से कलपना करते है, इस
आशय से कहते है।
वकताओं मे शेष वािदयो की भाित-भाित की शासतदृिषयो से वही उनके अिभमत आकृित को दशरन भेद से
पापत हुआ है, इसे आप सुिनये।।12।।
यिद एक ही मूल है तो वािदयो के िसदानतभेद कैसे हएु ? इस शंका के समाधान के बहाने 'वही कमर है, ऐसा
मुमुकुओं ने िनणरय िकया है' ऐसा जो पहले कहा था, उसी की वयाखया करते है।
मनन से चंचल हुआ मन िजस िजस भावना से उतपन हुए भाव को पापत होता है, जैसे सुगनध, दुगरनध, उतकट
गनधवाले फलो के भीतर िसथत वायु सुगनध, दुगरनध और उतकट गनध को पापत हो जाता है वैसे ही उकत मन भी
ततसवरपता को पापत होता है।।13।। इसिलए अपनी-अपनी वासना से किलपत का ही युिकत से िनणरय कर उसी का
पुनः पुनः िवकलप करते हुए, अपने दारा किलपत पदाथर से सवीयतारपी रंग से अपने अहंकार को रंगते हुए यानी उसके
आकार को पापत करते हुए उसके िनशय को पापत होकर वह मन उसी मे पुनः पुनः आसवादनरप चमतकार को पापत
होता है। शरीर मे जैसा मन होता है उसके बाद बुिद और इिनदयो मे भी वैसा ही हो जाता है।।14,15।। जैसे
सुगिनधत पदाथर के भीतर िसथत वायु सुगिनधता को पापत होता है, वैसे ही मन िजस पकार के भाव से युकत होता है,
उसके बाद उसका वशवती शरीर भी तनमय हो जाता है।।16।। जानेिनदयो के आिवभूरत होकर अपने -अपने िवषय मे
पवृत होने पर उनसे कमेिनदयसमूह सवतः ही ऐसे सफुिरत होता है, जैसे धूिलिमिशत वायु मे पृथवी (तदनतगर धूिलरप
पृिथवी) अपने आप आिवभूरत होती है।।17।। कुबध हुए कमेिनदय के अपनी िकयाशिकत को पकट करने पर वायु मे
धूिल समूह की तरह पचुर कमर की िनषपित होती हैत।।18।।
मन की कमररपता पािपत का उपसंहार करते हुए कमर और मन की परसपर बीजरपता और अिभनसता को
कहते है।
इस पकार मन से कमर की उतपित हुई है। मन का भी कमर ही बीज कहा गया है। इन दोनो की सता फूल
और सुगनध की सता से समान अिभन ही है।।19।।
इस पकार वासना, कमर और उसके फलरप अनुभवो की भी समान रप होने से एक ही सता है, ऐसा कहते
है।
दृढावसथा होने के कारण मन जैसे भाव का गहण करता है वैसे ही सपनदनाम की, कमरनाम की शाखाओं को
पैदा करता है, वैसे ही िकयारप उसके फल को बडे आदर से उतपन करता है, तदननतर उसी के सवाद का अनुभव
कर शीघ बनधन मे पडता है।।20-21।। मन िजस िजस भाव को पापत होता है, उसी उसी को वसतुरप से पापत
होता है, वही शेय है, उससे अितिरकत शेय नही है, ऐसे िनशय को पापत हो जाता है। भाव यह िक इसीिलए िनःसार
अपने -अपने अिभमत वसतु मे पािणयो और वािदयो का पकपात देखा जाता है।।22।। अपनी ही पतीित से अतयनत
अनुिवद हुए मन धमर, अथर, काम और मोक के िलए सदा ही पयत करते है। भाव यह िक अपने िनशयानुसार िजसका
मन िजस पकार के िनणरय से युकत होता है, वह उसी के अनुसार धमर, अथर, काम और मोक के िलए पयत करता है।।
23।। उन वािदयो मे किपल जी के अनुवािदयो का मन िववेकी होने से असंग, िचनमात तवंपदाथरिवषयक अपनी
पितपित से िनमरल ही है। ततपदाथर के िवषय मे वे शुित का अवलमबन नही करते, इसिलए मोह वश अपनी बुिद से ही
सुख-दुःख मोहरप जड जगत का सुख दुःख मोहरप जड ितगुणातमक पधान ही उपादान हो सकता है, ऐसा सवीकार
कर पुनः पुनः उसी के आसवादन से वही एकमात तततव है, ऐसा िकसी को भी मोक की पािपत नही हो सकती है, इस
पकार के िनशय से युकत िचतवाले लोग अपने किलपत िनयम रपी भमो से भम मे िसथत और अनय उपायरपी मतो से
िवमुख होकर गनथ रचना आिद दारा अपनी दृिष को औरो की बुिदयो मे संकानत करते है।।25।।
ऐसे ही वेदानतवादी भी है, ऐसा कहते है।
शुितरप पमाण से अधयारोप और अपवाद दारा यह जगत बह ही है, बह से अितिरकत अणुमात भी कुछ नही
है, यो बदमूल हईु बुिद से िनणरय करके सवानथरिनवृित और वासतिवक िनरितशयाननद अपिरिचछन बहातमभाव के
आिवभाव रप से अपने सथान मे ही पापत हुई, न िक अिचररािद मागर से दूरगमन दारा पापत हुई मुिकत है, यो वेदािनतयो ने
मुिकत का सवोतकृषता से समथरन िकया है।।26।। हमारे उपाय के िबना िकसी को भी मुिकत पापत नही हो सकती,
इस पकार के िनशय से युकत िचतवाले वे अपने दारा किलपत िनयमो से अपनी कलपना का वयाखयान करते है। िनयम
भम इससे यह सूिचत िकया िक वेदािनतयो का एकमात उपाय तततव ही वासतिवक है, उपाय आिद की पिकयाएँ तो
पािणनीजी की तरह किलपत ही है।।27।। िवजानवािदयो ने अपनी अतयनत भम के पवाह से पूणर बुिद से सावितरक
उपदव के उपशम और इिनदय दारो के संवरण से युकत मुिकत है, यो िनणरय करके मुिकत की कलपना कर रकखी है।।
28।। हममे पिरकिलपत उपाय के िबना िकसी की भी मुिकत की पािपत नही हो सकती, इस पकार के िनशय से युकत वे
अपने ही दारा किलपत िनयम भमो से यानी तपतिशलारोहण आिद साधन िनयमभमो से अपनी दृिष को पकािशत करते
है।।29।। आहरत (अिरहंत) आिद अनयानय लोगो ने भी अपनी अिभमत इचछा से (▼) जीव, अजीव, आसव, संवर,
िनजरर, बनध, मोकआिद पदाथों की कलपना दारा सयादिसत, सयानािसत, सयादिसत च नािसत च, सयादवकतवयः, सयादिसत
चावकतवयश, सयानािसत चावकतवयश, सयादिसत नािसत चावकतवयश इतयािद सपतभंगी नयाय की कलपनाओं से और नंगे
रहना, िभका करना आिद िविचत आचारो से िविचत शासत दृिषयो की कलपना कर रकखी है।।30।। िबना िकसी
िनिमत के उठे हुए िनमरल जल के बुदबुदो के समूहो की तरह उिदत हुए अपने िनशयो से ही ये नाना पकार की रीितया
पौढता को पापत हुई है। भाव यह िक सब िविचत िविचत कलपनाओं की जड पमाण या पमेय नही है िकनतु िचरकाल के
अभयास से दृढ मन की कलपना ही इनकी जड है।31।।
▼ जैनो के मत मे जीव से लेकर मोकपयरनत सात पदाथर है। उनमे जीव चेतन शरीर पिरमाण है। पतथर आिद
अजीव है, इिनदयवगर आसव कहलाता है, कोई लोग िववेक को संवर कहते है और कोई यम, िनयमािद को संवर कहते
है। केशलुंचन आिद तपसया िनजरर कहलाती है। बार-बार जनम-मरण बनधन है। बनधन के उचचेद से अलोकाकाश मे
सदा ऊधवरगमन मोक है। इन सात पदाथों का साधक सपतभंगी नयाय है। सदादी, असदादी, सदसदादी,
अिनवरचनीयवादी, इस पकार चार पकार के वादी है। अिनवरचनीयवाद मे भी सत् आिद के भेद से िफर तीन पकार के
वादी होते है, यो कुल िमलाकर सात पकार के वादी है सदादी यिद आहरत से पूछे, तुमहारे मत मे मोक आिद है ? तो वह
कहते है सयादिसत, 'सयात्' ितंत पितरपक अलपाथरक या कथंिचदथरक अवयय है असतवादी आिद के पित पूछने पर
कमशः 'सयानािसत' आिद उतर होते है। इससे पूछने वाले चुप हो जायेगे, यह आहरतो का मनोरथ है।
हे महाबाहो, इन सभी रीितयो का एक मात मन ही आगार है, जैसे िक मिणयो का सागर आगार है।।32।।
नीम और ईख ये दोनो कडुवे या मीठे नही है। चनदमा और अिगन शीत और गमर नही है। िजसका जैसा अभयास हुआ,
वैसा ही अनुभूत होता है अतएव चनदमणडल और सूयर, अिगन आिद के मणडलो मे िनवास करने वाले देवताओं को शीत
और उषण आिद की पीडा नही होती।।33।।
यिद इस पकार के तुचछ फल मे भी दृढ अभयास की अपेका है, तो अनािद सासािरक िवपरीत भावना से
ितरसकृत अकृितम आननदसवरप मोक के फल मे दृढ अभयास की अपेका है, इसमे कहना ही कया है ? इस आशय से
कहते है।
जो अकृितम आननद है, उसके िलए पयतशील हुए मनुषयो को अपना मन अकृितम आननदमयता को पापत कर
देना चािहए, िजससे िक वह पापत हो जाय।।34।।
मुिकत के िलए िकस वसतु का दृढ अभयास करना चािहए, ऐसी कोई यिद शंका करे, तो उस पर दृशयमाजरन का
ही अभयास करना चािहए, ऐसा कहते है।
भली-भाित आिलंगन करके बालक की तरह सनेह से दृशय को उतपन करने वाला अपना मन उस दृशय का
तयाग करता हुआ दृशय से उतपन होने वाले सुख और दुःखो से िकसी पकार आकृष नही होता।।35।। हे िनषपाप
शीरामचनदजी, अपिवत, असदूप, मोह मे डालने वाले, भय के कारण, पतीितमात िसद िवशाल आकार के दृशय को आप
अपना बनधन समिझये।।36।। यह दशय माया है, अिवदा है, भय देने वाली भावना है। मन की जो दृशयमयता है,
िवदान लग उसी को बनधन मे डालने वाला कमर कहते है।।37।। मन को एक मात दृशय मे ततपर देखकर आप दृशय
को मोह मे डालने वाला जािनये, उस अतयनत मिलन कदरमरप असतयदृशय का पिरमाजरन कीिजए।।38।।
यिद कोई शंका करे िक दृशय िबगाडा है, िजसके पिरमाजरन के िलए आप कहते है, तो इस पर कहते है।
सवभाव मे िसथत जो यह दृशयतनमयता अनुभूत होती है, वही संसार को मत करने वाली अिवदा कही जाती
है।।39।। जैसे पटल नामक रोग से अनध बना हुआ पुरष सूयर के दैदीपय आलोक को नही देखता, वैसे ही इस
अिवदा से उपहत लोग अपना कलयाण नही जानते।।40।। आकाश मे वृक की तरह संकलप से वह अिवदा सवयं
उतपन होती है। हे महामते, भावना के असंकलपमात से उस के समािध के अभयास से दृढ शवण, मननरप िवचार से
अपने -आप कीण होने पर सब पदाथों मे अनासिकत िसथर हो जाती है।।41,42।। सतयदृिष के पापत होने पर असतय
जगत के कीण होने पर िनमरलसवरप िनिवरकलप िचदूप परमाथर सतय वह आतमा पापत होता है।।43।। िजसकी न
वयकतता है, न अवयकतता है, न सुख है और न दुःिखता है, अपने हृदय मे िजसका केवल अदैतभाव अपने अनुभव से ही
पापत होता है।।44।। न तो अकलयाणकािरणी भावना से और न िचत, इिनदयवृिषयो से िजसकी उपलिबध होती है,
जैसे आकाश अननत मेघपंिकतयो से रिहत है, वैसे ही जो अपने से अपृथक अननत वासनाओं से रिहत है।।45।।
जैसे यह रससी है या नही, इस पकार रससी मे सनदेह होने पर सपरतवभम होता है वैसे ही बनधनरिहत िचदाकाशरप
आतमा ने अपने मे बनधन की कलपना कर रखी है।।46।। जैसे एक ही आकाश रात और िदन मे अनयसवरपता को
पापत होता है। वैसे ही किलपतवसतु मे समबनध होने से पतयेक वसतु मे बह ही नाना पकार की िविचतता को पापत हुआ
सा दुःखमय संसाररप से जात होता है।।47।। जो तुचछ नही है, कलेशशूनय है, उपािधरिहत है, भम से शूनय है और
तत्-तत् कलपनाओं से रिहत है, वह एकमात सुख के िलए ही है।।48।। जैसे कोिठले के िसंह आिद से रिहत रहने
पर भी इसमे िसंह है, ऐसा भय होता है, वैसे ही शूनय शरीर मे भी मै भीतर बद हँ,ू ऐसा भय होता है, जैसे खाली कोिठले
मे देखने पर िसंह नही िमलता, वैसे ही यह संसाररपी बनधन जब िवचारपूवरक देखा जाता है, तो पापत नही होता। 'यह
जगत है', 'यह देहसंघात मै हूँ', इस पकार का गाढ भम ऐसे ही उतपन हुआ है, जैसे बचचो को मनद-मनद अनधकार के
समय वेताल के आकार की छाया िदखाई देती है।।49-51।। जीव की कलपना के कारण धन-वैभव और दािरदरप
शुभ और अशुभ भाव एक कण मे ितरोभाव को पापत हो जाते है और िफर कण भर मे आिवभूरत हो जाते है।।52।।
माता ही यिद गृिहणी के भाव से गृहीत होकर गले लगती है, तो सुरतातननद देने वाली गृिहणी का कायर करती है। सती
ही मातृभाव से गृहीत होकर यिद गले लगती है, तो, मातृभाववश कामदेव को िनिशत भुला देती है।।53,54।। समसत
पदाथर जातो को भावानुरपी फल देने वाले जानकर इस संसार मे जानी पुरष पदाथों मे एक रप कभी नही कहता।।
55।। दृढभावना से िचत िजस पदाथर की जैसी खूब भावना करता है, उस समय तदाकार तत्-तत् कल को देखता
है।।56।। वह वसतु नही है, जो सतय न हो, ऐसी कोई वसतु नही है, जो िमथया न हो। िजसका िजसने िजस पकार
िनणरय िकया, वह उसको उस पकार िदखाई देता है। िजस मन ने अपने मे आकाशगज की भावना की है, वह
आकाशगज के रप से आकाश िसथत आकाशवन की हिथनी के पीछे कामातुर होकर चलता है। इसिलए हे
शीरामचनदजी, आप सुषुिपत मे िसथत होकर सब पदाथरमय संकलप का तयाग कीिजए, अपने पारमािथरक अिदतीयाननद
आतमरप से िसथत होइय। अपारमािथरक दुःखरप से िसथत न होइये।।57-59।।
यिद किहए, मैने संकलपो के साथ यदिप दैतभाव का तयाग कर िदया है तथािप जैसे शुद मिण मे पितिबमबो का
िनवारण नही िकया जा सकता, वैसे ही इचछा न होने पर भी उन दैतभावो का मुझ मे वारण नही िकया जा सकता, तो
इस पर कहते है।
मिण जड है, अतएव वह पितिबमबो का िनषेध नही कर सकती। हे शीरामचनदजी, आप तो चेतन है, इसिलए
आपकी जड मिण के साथ समानता नही हो सकती।।60।।
िचत का िनरोध करने पर यिद दैव योग से दैत का पितिबमब हो भी जाय, तो उसे िमथया समझकर
तदूपतानुरजं न का तयाग करना चािहए, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, आपके सवचछ आतमा मे जो जगत का पितिबमब पडता है, उसको अवसतु समझकर आप
उसके अनुरज ं न को पापत न होइये।।61।।
अथवा उसका िचदातमा के साथ एकता के अनुसनधान दारा पिवलापन करना चािहए, ऐसा कहते है।
हे राघवजी, वह सतय बह ही है अथवा परमातमा से अिभन ही है, ऐसा अपने हृदय मे िनशय कर आप जनम-
िवनाशरिहत आतमा की अपने से भावना कीिजए।।62।। हे शीरामचनदजी, आपके िचत मे िजन भावो का पितिबमब
पडता है, वे सफिटक की भाित आपको रंिजत न करे कयोिक आप आतमतततव मे संलगन है।।63।।
अथवा दैत की पतीित हो, तथािप िनिवरकार आतमा का बोध होने के कारण सफिटक के समान सवचछ आपका
सफिटक की तरह उनसे अनुरज ं न न हो, ऐसा कहते है।
जैसे पितिबिमबत पदाथों की पुनः पुनः पािपत होने पर भी उनके राग आिद के संसगर से रिहत सफिटक मे भाित-
भाित के रंग पकटरप से पिवष नही होते है, वैसे ही पितिबिमबत पदाथों का पुनः पुनः अनुसंधान होने पर भी राग आिद
की वासना के आधान से रिहत आप मे पारबध भोग के उिदत जगदवयवहार की इचछाएँ पकटरप से पिवष न हो।।
64।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकसीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ, आआ आआ आआआआआआआआआ
आआ आआआआआआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ।
जान की फलभूत जीवनमुकतावसथा के अनुभव का पकार बतलाने के िलए शवण, मनन आिद के वृिद कम से
जैस-े जैसे जान दृढ होता है वैस-े वैसे अिधकािधक दोषो का कय होता है, यह पहले दशाते है।
जो िनतय और अिनतय वसतु के िववेक से समपन है, िजसका िचत वृितयो को तयाग रहा है, जो समािध के
अभयास दारा जान पापतकर कम से बाह तथा आनतर मनन का तयाग कर रहा है, िजसका मन कुछ िवशुद
आतमाकाररप से पिरणत हो गया है, जो दृशय और अजान की भूिमकाओं का पिरतयाग कर रहा है, जो उपादेय यानी
जान की भूिमकाओं को पापत हो चुका है, जो दषा यानी पमाता क भी साकी िचत् से वेद यानी दृशयभूत देख रहा है, जो
भासक िचत से अितिरकत कोई वसतु नही देख रहा है, जो 'यसया जागित भूतािन सा िनशा पशयते मुनेः' इस भगवदाकय
के अनुसार जागरण के उिचत परम तततव मे ही जाग रहा है तथा िनिबड अजान के िवकारभूत संसार मागर मे सोया हुआ
है और जो समपूणर तुचछ सुखो से लेकर िहरणयगभर पद पयरनत सुखो मे अतयनत वैरागय होने के कारण किमक मोकरपी
सुख से युकत तथा उसकी हीन एवं भोगकालतक ही रमणीय ऐिहक भोग के साधन, माला, चनदन आिद मे िवरकत
अतएव लोकसंगह के िलए िकयमाण कमरफल तथा पारबध कमर से पापत भोगो मे िनसपृह है, ऐसे अिधकारी पुरष का
अनािद जड अजानरपी आकाश के परमातमरपी जल के साथ ऐकय को पापत होने पर, आसिकतहीन अजानाकाश के
नमक के टुकडे के समान रसावशेष होने पर नही, िकनतु धूप मे बफर समूह की भाित िनरवशेष गल जाने पर तथा जैसे
वषाकाल के वयतीत हो जाने पर बडी-बडी तरंगो से भरे हुए जल से चंचल मधयभागवाली तरंगयुकत निदया शानत हो
जाती है, वैसे ही बडी-बडी तरंगो से भरे हुए जल के तुलय चंचल सवरपवाली िविवध िवषयरपी तरंगो से युकत तृषणाओं
के शानत होने पर तथा जैसे चूहे के दारा िचिडयो के जाल काटे जाते है, वैसे ही वैरागय के आवेग से संसारवासनारपी
जाल के तोडने पर अतएव हृदय की गिनथ के ढीली पड जाने पर जैसे कतक के फल से (िनमरली से) जल सवचछ हो
जाता है, वैसे ही िवजान की दृढता से सवभाव यानी मन पसनता को (सवचछता को) पापत हो जाता है।।1-8।। जैसे
पकी िपंजडे से मुकत होता है, वैसे ही कामनाओं से रिहत, िवषयो मे आसकत करने वाले िवषय के गुणो के िचनतन से
शूनय, भाया आिद िपयजनो के समपकर से िवहीन और बार-बार भोग के लाभ की भूिम से रिहत मन मोह से िनमुरकत हो
जाता है। भाव यह िक मन पहले कामना आिद से छुटकारा पाता है, तदननतर अजान से छुटकारा पाता है।।9।।
अजान से िविनमुरकत मन की कैसी िसथित होती है, उसे कहते है।
संशयरपी दुषता के शानत होने पर कौतुकभम से िनमुरकत, पिरपूणर अनतभागवाला मन पूणर चनद के तुलय
पकाशमान हो जाता है।।10।। जैसे वायु के शानत होने पर समुद मे समता (िनशलता) उिदत होती है, वैसे ही मन के
शानत होने पर सब जगह सवोतम सुख पैदा करने वाली, अजानरपी मल से िवमुकत, उनत समदृिषता उिदत होती
है।।11।। जडता से जजरिरत सवरपवाली, अनधकारमयी, बोधजनक वाकय के वयवहार से शूनय यह संसार की
वासना सूयोदय होने पर राित के तुलय कीणता को पापत होती है।।12।। िचदूपी आिदतय का दशरन कर लेने पर
गुरसेवा, शवण, समािध का अभयास आिदरप पुणयपललववाली पजापिदनी हृदयरपी सरोवर मे ऐसे िखलती है जैसे िक
पातःकाल मे िनमरल पकाश से युकत अतएव सुनदर पकाश िखलता है।।13।। समपूणर लोको को आनिनदत करने मे
समथर, सततवगुण की वृिद से पापत हुई मनोहर पजाएँ पूणरचनदमा की िकरणो की भाित बढती है।।14।। अिधक कहने
से कया लाभ ? िजसने जातवय परमातमततव को जान िलया है, ऐसा महामित पुरष वायु आिद चारो भूतो से रहित आकाश
के तुलय न तो उललास को पापत होता है और न असत होता है।।15।।
उसके महापभाव का वणरन करते है।
िजसने िवचार से सवरप का जान पापत कर िलया है, िजसे आतमा का पकाश हो गया है, ऐसे महापुरष के इस
संसार मे बहा, िवषणु, इनद, शंकर भी अनुकमपनीय (करणा के पात) है, कयोिक उनमे भी अवतार धारण आिद अिधकार
के कलेश देखे जाते है।।16।।
पमादवश पहले की तरह पुनः पुनः पापत िवकेपपसिकत का वारण करते है।
आकारमात से पकट होने पर भी िजनका िचत भीतर अहंकार से शूनय है, उस पुरष को िवकलप ऐसे नही पाते
है, जैसे मृगतृषणा को मृग नही पाते है।।17।। िचत की वासना से ये लोक तरंगो की भाित उतपन होते है और नष
होते है, वे अज पािणयो को ही अपनाते है न िक तततवज को। मरण-जनम यानी आिवभाव-ितरोभावरपी संसार तततवज
पर अपना असर नही डालता, यह जानकर तततवजानी इस आिवभाव-ितरोभावो से माया से िनिमरत वयाघािद कौतुक के
दशरन के तुलय रमण (कीडा) करते है और अजानी उनसे बनधन मे पडते है।।18,19।। जैसे घट मे घटाकाश न
उतपन होता है और न मरता है, वैसे ही इस संसार मे शरीर के भूिषत या दूिषत होने पर भी आतमजानी भूिषत या दूिषत
नही होता यानी घटाकाश के तुलय अिवकृत ही रहता है।।20।। भमरपी मरसथल मे उतपन हुई िमथया संसारवासना
शीतल िववेक का उदय होने पर चनदमा के सिहत पदोषकाल के आने पर मरसथल मे उतपन हुई मृगतृषणा की भाित
नष हो जाती है।।21।। 'मै कौन हँ' ये शरीरािद कैसे पापत है,' यह जब तक िवचार नही िकया गया, तभी तक यह
अनधकार के तुलय संसार आडमबर िसथत है।।22।।
तो कैसी िसथित से संसाररपी अनधकार से शूनय, पूणर आतमा को पुरष देखता है ? इस पर उस िसथित को
कहते है।
िमथया भमसमूह से उतपन, आपितयो के आशयभूत इस शरीर को जो आतमभावना से 'नेद ं शरीरम्' (यह शरीर
नही है) इस तरह बािधत देखता है, वह पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।23।। देशवश उतपन जो आिधभौितक,
काल वश उतपन जो आिधदैिवक तथा शरीर मे उतपन जो आधयाितमक सुख-दःु ख है, ये मेरे नही है, इस तरह जो
भमरिहत दृिष से देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।24।। असीम जो आकाश, िदशा, काल आिद है
और उनमे वतरमान पिरिचछन उतपित, गित आिद िकयाओं से युकत वसतु है, उन सबमे, 'मै ही हँू' ऐसा जो देखता है वही
पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।25।। करोडो अंशो मे िवभकत जो बाल के अगभाग का लाखवा भाग है, मै उससे
भी सूकम और वयापक हूँ, ऐसा जो देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।26।। आतमरप से पिसद जीव
तथा उससे दृशय सकल पदाथर िचतपसादमात है, इस तरह िनतय ऐकयदृिष से जो देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को
देखता है।।27।। यह अिदतीय िचत् सवरशिकत, अननतातमरप तथा समपूणर पदाथों मे अनतः िसथत है, इस तरह जो
देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।28।। मनोवयथा, दैिहक वयथा और भय से उिदगन होने वाला जरा,
मरण और जनम से युकत देह मै हूँ, जो बुिदमान इस तरह नही देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।
29।। मेरी मिहमा ितरछे, ऊपर नीचे सवरत वयापत है, मुझसे अनय कोई नही है, इस तरह जो देखता है, वही पूवोकत
पूणर आतमा को देखता है।।30।। सूत मे मिणयो की भाित समपूणर जगत मुझमे ही गुँथा है और िचत भी मै नही हूँ, इस
तरह जो देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।31।।
'मै ही हूँ' इस तरह जो देखता है, ऐसा करने पर िचत् के पिरतयाग से अहंकार मात पिरगृहीत न हो, इसिलए
अहंकार के साथ जगत के िनषेध से िचदेकरस बह का ही पिरशेषकर दशरन करना चािहए, यह कहते है।
न मै हूँ और न अनय ही है, िकनतु एकमात िनरामय बह ही है, इस तरह वयकत तथा अवयकत पदाथों के मधय मे
जो देखता है, वही पूवोकतपूणर आतमा को देखता है।।32।।
जो कुछ भी यह तैलोकय है, वह समुद मे तरंग की भाित मेरे ही अवयव है, इस तरह जो अपने अनदर देखता
है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।33।। सवतः सताशूनय होने से शोचनीय यह ितलोकी मुझसे ही अपनी
सता के पदान दारा पालनीय है, यह मेरी छोटी बहन है, दृिषमात से पीिडत होने के कारण अतयनत सुकुमार है, इस
तरह जो देखता है, वही पूवोकतपूणर आतमा को देखता है।।34। आतमता-परता, तवता-भता ये िजस महातमा के देहािद
से िनिशतरप से िववेक तथा बोध दारा िनवृत हो गये, वही सुलोचन महापुरष पूवोकतपूणर आतमा को देखता है।।
35।। दृशय के समबनध से रिहत अतएव िनिवरघ सवभाव की सफूितर से जगजजाल को, अंधकार को पकाश की तरह,
वयापत करने वाले िवशाल िचनमय आतमशरीर को जो देखता है, वही पूवोकत पूणर आतमा को देखता है।।36।। सुख,
दुःख देह, उस देह मे िवदमान गुर, देवता तथा शासत मे शदा उसमे िनतय-अिनतय आिद का िववेक, उससे उतपन शवण
आिद के कम से आतमजान मे तारतमय के भेद, ये जो है, वो मै ही हूँ, इस तरह से जो िनशय के साथ देखता है, वह भी
आतमतततव से चयुत नही होता है।।37।। िनरितशय आननदघन आतमसता से आपूणर यानी आननदलवमात के अपरण से
तृपत, बहा से लेकर सतमबपयरनत जगत मे अंशमात से वतरमान ऐिहक, पारलौिक भोगय वसतु से मुझे कया दुःख है िक
िजससे वह हेय हो अथवा अनय कया सुख है िक िजससे वह उपादेय हो, इस तरह देखता हुआ पुरष सुदृक यानी
अभानतदृिष है।।38।। यह जगत पूणररप से तकर से अगमय, वृित के पिरणाम से रिहत यानी िनिवरशेष सनमात ही है,
यह जानकर िजस पुरष की हेय और उपादेयभावना नष हो गई है वही पुरष है।।39।। जो आकाश की भाित
एकातमा है और समपूणर पदाथों मे वयापत होता हुआ भी उन भावो मे अनुरकत नही होता है, वह महातमा पुरष िनरितशय
सवाननद के उपभोग मे समथर साकात िशव है।।40।। सुषुिपत, जागत, सवप इन अवसथाओं से मुकत, मृतयु का भी परम
आतमीय यानी मृतयु से भी उिदगन न होने वाला जो सौमय, समदृिष तथा तुरीयावसथा मे िसथत है उस परमातमपद को
पापत पुरष को मै नमसकार करता हूँ।।41।। समपूणर जगत मे एक बह ही है, इस बुिद से युकत िजस पुरष की
बहाकार दृिष संसार मे िसथत िविचत और सुनदर िवभवो से युकत सृिष, पलय और िसथित मे सदा ही अपिरिचछन है,
उस परम बोध से युकत जीवनमुकत शरीरवाले साकात िशव को नमसकार है।।42।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बाईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआ आआआ आआआआआआआआआआ, आआआआआआआआआआ आआआआआआआ आआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआ । आआ आआआ आआ आआआआआआ
जीवनमुकत के शरीररपी नगरी राजय का वणरन करने वाले शीविसषजी शीरामचनदजी के तदुपयोगी पश का
उतथान कराते है।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, जैसे घटोतपितरप कायर हो जाने पर भी कुमहार का चक जब तक
वेग रहता है तब तक घूमता रहता है वैसे ही जब तक पारबध का कय न हो जाय तब तक देह धारण-वयवहार मे िसथत
जीवनमुिकतरप उतम पद मे वतरमान जो जीवनमुकत पुरष शरीररपी नगरी मे राजय करता हुआ भी उसके फल से िलपत
नही होता। कीडािवनोद हेतु होने के कारण उपवन के सदृश यह शरीररपी महापुरी उस जानी के भोग और मोक के
िलए है। एकमात सुख ही इससे जात होता है, राजधानी मे रहने वाले राजा के तुलय दुःख नही होता।।1,2।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, यह शरीर नगरी कैसे है ? और इसमे रहने वाला योगी एकमात सुख का ही
भागी कैसे होता है ?।।3।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जानी की देहनगरी बडी मनोहर है। सब गुणो से युकत है, अननत
िवलासो से भरपूर है, आतमजयोितरपी सूयर से वह पकािशत है।।4।। इसमे नेतरपी झरोखो मे िसथत इिनदयरपी दो
दीपो से अनयानय भुवन पकाशमान है, भुजारपी सडको के िवसतार से पादरपी उपवन पापत है, रोमरािज ही लताओं की
झािडया है, तवचा मे िसथत िविवध नसो से यह वयापत है, इसमे एडी और पैर की अंगुिलयो मे जंघा और उररपी खमभे
खडे है, सामुिदक शासत मे कही गई रेखाओं से िवभकत पादतलरपी िशला की नीव से यह िनिमरत है। इसके बाहर
तवचारपी सीमा, भीतर ममरसथानरपी सीमा, बीच-बीच मे नसो की शाखारपी सीमा और हिडडयो मे सिनधरप सीमा है,
इन सीमाओं से यह मनोरम है।।5-7।। इसमे बडी-बडी जंघाओं और शरीर के मधयभाग की सिनध के अगभाग मे
उपसथेिनदय ही नगर मधय की नदी बनाई गई है। चमक रहे केशावलीरपी काच के तुलय नीले पतो से युकत कीडा शैल
के सदृश िसर, मूँछ, दाढी और काख के रोमो से यह वयापत है।।8।। नील पतो के तुलय भौहो से, सफेद नूतन पतो
के तुलय ललाट से और फूलो के तुलय ओठो से अतयनत सुनदर मुखरपी उदान से यह सुशोिभत है। इसमे कटाकरपी
कमलो से वयापत कपोलसथलरपी िवशाल दो िवहार सथिलया है।।9।। वकसथल रपी सरोवर मे सटे हुए सतनरपी
कमल की किलयो से यह युकत है। इसमे सकनधरपी कीडाशैलघन रोमावली से आचछन है।।10।। इसमे उदर रपी
गतर मे रकखे हुए अपने पारबध से पापत अन ही धन, अन, धानयआिद और वसन, आभरण आिद िपय वसतुएँ है। अिनिषद
उपभोग का िवसतार करने वाले िजहा, शोत आिद इसमे िसररपी महल के झरोखो मे बैठे हएु नागिरक है। िवशाल और
ऊपर को मुख िकया हुआ जो गले का िछद है, उसके दारा ऊपर को िनकलता हुआ जो पाणवायु है, उसके शबद से यह
मुखिरत है।।11।। हृदय मे िसथत िवचाररपी जौहिरयो दारा परीका करके खरीदे गये और चकु आिद दारा पापत जो
शबद आिद अथर है, वासनारपी उन िवकेय वसतुओं से यह भूिषत है। इसमे पाणरपी नागिरक नौ दरवाजो से िनरनतर
संचार कर रहे है।।12।। मुख मे हाथी के दात के एक भाग की तरह थोडे देखे गये दात रपी हडडी के टुकडो से
यह वयापत है। मुँह मे रहने वाली चारो ओर घूम रही िजहारपी काली ने इसमे भोजय, चोषय, लेह आिद चार पकार के
खादो का आसवाद िलया है।।13।। यह रोमरपी लमबे-लमबे तृणो से आचछािदत है। कान का गतर ही इसमे कुआँ है।
किटपृषभागरपी शृंखलापर पृषरपी िवसतीणर जंगल इसमे िसथत है।।14।। इसमे मूतसथानरपी घटीयनत के
पानतपदेश मे गुदादार से िनकलने वाला मलरपी कीचड बह रहा है। इसमे िचतरपी उदानभूिम मे सदा खेल रही
आतमिवचाररपी पुरसवािमनी िसथत है।।15।। इसमे बुिदरपी रससी से चपल इिनदयरपी बनदर बँधे है। बदनरपी
उदान के हासयरपी पुषपो के िवकास से यह मनोहर है। सकल सौभागयो से सुनदर यह देह तततवजानी के परमसुख
और उपदेश आिद दारा परोपकार के िलए है, दुःख के िलए नही है।।16-17।। अजानी की यह देह अननत दुःखो की
खान है, परनतु जानी की देह अननत सुखो की खान है।।18।।
यह शरीररपी महानगरी जानी के अननतसुख के िलए है, यह जो कहा था, उसी को िवशद करते है।
हे शतुतापन, उसके नष हो जाने पर जानी की एक नगणय तुचछ वसतु का नाश हुआ और इसके रहने पर सब
भोग-मोक सुख िसथत रहा, इसिलए यह जानी के िलए सुखावह है।।19।। जानी इसमे बैठकर संसार मे समपूणर भोग
और मोक के िलए खूब िवहार करता है, इसिलए यह जानीरथ कही गई है।।20।। शबद, रप, रस, सपशर, गनध आिद
िवषय, बनधु-बानधव और मोक इसी शरीररपी महानगरी से पापत होते है, इसिलए यह जानी को लाभ देने वाली कही गई
है।।21।। यह सुख-दुःखमय िकयाओं का जाल सवयं धारण करती है, इसिलए हे शीरामचनदजी, यह सवरज के भोग
और मोक के उपायभूत सब वसतुओं का संगह करने मे समथर कही गई है।।22।। जैसे इनद अपनी नगरी मे िनिशनत
होकर राजय करता है, वैसे ही उस शरीररपी नगरी मे राजय करता हुआ जानी िनिशनत और सवसथ रहता है।।23।।
वह योिनगतर मे ही पराकमवाले काम के िवषय मे मनरपी मत घोडे को पेिरत नही करता। लोभरपी िवषवृक को
शुलकरप से लेकर पजारपी पुती को मोह, धमर आिद दुषकुल मे उतपन हुए लोगो को नही देता।।24।। अजानरपी
परराषट उसके िछद को नही देखता और वह संसाररपी शतु के भय के मूल सनेहो को उखाड फेकता है।।25।।
काम-भोगरपी दुषगाह से युकत सुखलेश रपी दुःखो से रलाने वाले इस तृषणा नदी के पवाह के बडे भारी आवतर मे
बिहमुरख होकर वह िनमगन नही होता।।26।। वह मानस बहाकारवृित मे आरढ होकर बाहर और भीतर परमातमा के
दशरन से औिधभौितक और आधयाितमक निदयो के संगम तीथों मे सदा सनान करता है।
कहा भी हैः
आआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआआआआ ।आआआआआआआआ आआआआआआआआआआ
आआआआआआआआआआ आ आआआआ आआआआआआआआआआ ।। आआआआआआआ आआआआआआआआआआआआ
आआआआआआआआआ आआआआआआआआआ आआआआआआआआ। आआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआ
आआआआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआआ।।
(िजसका बहिवचार मे एक कण भी मन िसथर हुआ उसने सब तीथर जलो मे सनान कर िलया, समपूणर पृथवी का
दान कर िदया, हजारो यज कर डाले, दशो हजार देवताओं की पूजा की, संसार से अपने िपतरो का उदार कर िदया
और सबका पूजय बन गया)।।27।। इिनदयरपी सब लोगो से आपाततः देखे जाने वाले िवषयो मे सुख की दृिष से
िवमुख हुआ यह धयान नामक अनतःपुर के भीतर िनतय सुखपूवरक बैठा रहता है।।28।। जैसे इनद की अमरावती
नगरी सुखदायक और भोग-मोकपद है, वैसे ही तततववेता की यह देहरपी महानगरी िनतय सुख देने वाली और भोग-
मोकपद है।।29।। िजस बडी भारी देहरपी नगरी के रहने से सब यानी भोग-मोक िसथत रहता है और नष होने से
कुछ नष नही होता, वह सुख आिद की साधन कयो न होगी ?।।30।। जैसे घडे के नष होने पर िजसने घटाकाश
को अपने मे िमला िलया, ऐसे आकाश का कुछ भी नष नही होता, वैसे ही इस देहरपी नगरी के नष होने पर जानी का
कुछ भी नष नही हुआ।।31।।
िजस शरीररपी नगरी का िवदमान दशा मे भी भलीभाित सपशर नही होता, उसका नाश होने पर सपशर नही
होता, इसमे कहना ही कया है ? ऐसा दृषानत से कहते है।
जैसे वायु िवदमान घडे का कुछ सपशर करता है, अिवदमान घडे का सपशर कुछ नही करता, वैसे ही देही
िवदमान ही अपनी इस शरीर नगरी का कुछ सपशर करता है। उसके अिवदमान होने पर तो कुछ भी सपशर नही
करता।।32।। सवरवयापक होकर भी इस शरीररपी महानगरी मे िसथत हुआ आतमारपी पुरष िवश के दारा रचे गये
िविवध पारबध भोगो का भोग करके पहले से जात आतमरप परम पुरषाथर को पापत होता है।।33।। वयवहार दृिष से
कमर करता हुआ भी परमाथर दृिष से कुछ न करता हुआ समसत पदाथों की िकया मे उनमुख जानी कभी वयवहार पापत
समपूणर कायों को करता है।।34।।
उसकी देहनगरी मे कानतािदभोगरप फल कहते है
अवयाहतगित यह आतमा कभी भोगकौतुकवाले िनमरल अपने मन का िवनोद करने के िलए चंचल िवमान के
तुलय हृदयकमल मे आरढ होता है।।35।। उकत शरीररपी महानगरी मे िसथत हुआ वह हृदयकमल मे आरढ होकर
सदा शीतल शरीरवाली लोकमनोहर मैतीरपी िपया के साथ िनतय कीडा करता है।।36।। जैसे चनदमा के दोनो
बगलो मे दो िवशाखा ताराएँ िचत को पसन करने वाली िसथत रहती है, वैसे ही सतयता और एकता ये दो कानताएँ
उसके दोनो पाशों मे िसथत रहती है।।37।।
जैसे सवगीय लोग नारकीय लोगो के दुःख को देखते है वैसे ही जानी अजािनयो के दुःख को देखते है, ऐसा
कहते है।
जैसे आकाश मे उिदत हुआ सूयर वन बगैरह को देखता है वैसे ही वह लताओं से वन की तरह परसपर वेिषत
होकर िसथत हुए तथा दुःखरपी आरे से काटे हुए सब पीिडत लोगो को देखता है।।38।। िजसके समपूणर मनोरथ
िचरकाल तक पूणर हो गये है एवं सब समपितयो से सुनदर जानी पुरष पिरपूणर सवरपवाले चनदमा के समान पुनः कीण न
होने के िलए शोिभत होता है।।39।। िविवध भोगो का यदिप वह सेवन करता है, तथािप वे इसके पुनजरनम आिद
दुःख के िलए नही होते। देिखए न कालकूट (िवष) भगवान शीशंकर जी के कणठ मे कलेश देना तो दूर रहा, बिलक
शोभा ही करता है।।40।। यह नशर है, किणक है, यो पहले जात होकर उपभुकत हुआ भोग तृिपतदायक होता है,
शतुता को पापत नही होता।।41।। समाज का िवघटन होने पर दूर जाने वाले समाज के नरनारीरपी नटो के समूह
की याता के समान इस सुनदर भोगय पुत, धन आिद की शोभा को जानी देखता है।।42।। जैसे बटोही लोगो को
अवानतर गाम की याता अतिकरत पापत होती है, वैसे ही अजानी लोग भी वयवहारमय िकयाओं को अतिकरत पापत हुई
जानते है।।43।। जैसे िबना िकसी यत के बनाये हुए पवरत, वन, तालाब आिद मे िसथत पेड, झाडी, कमल आिद
पदाथों मे ममता न होने से उनका छेदन, भेदन, अपहरण आिद देखने पर भी दुःख न होने के कारण उनमे आँख पेम
रिहत ही िगरती है, वैसे ही िवदान पुरष की बुिद भी अपने पुत, िमत आिद के वयवहार कायों मे भी अनुराग रिहत ही
रहती है।।44।।
यिद ऐसा है, तो जानी पवृित मे कयो पडता है ? इस पर कहते है।
इिनदयो को पारबध से पापत हुए िवषय का ही कभी वरण नही करता और अपापत वसतु को पयत के साथ गहण
नही करता यानी यथा पापत के उपयोग से अपनी आजीिवका चलाता है, इस पकार जानी पिरपूणर होकर िसथत रहता
है।।45।।
कयो ऐसा करता है ? इस पर कहते है।
जैसे पवरत को चंचल मोरपंख के आघात नही कँपाते है, वैसे ही जानी पुरष को अपापतपािपत की िचनता और
पापत पदाथों की उपेका िवचिलत नही करती।।46।। समपूणर सनदेहो के कारण अजान के नष होने से ही िजसके
समपूणर सनदेह शानत हो गये है, सब भोगो मे िमथयादृिष होने के कारण भोग भोगने का सारा कौतुक िजससे चला गया
है, इस दोनो की कलपना के हेतु सथूल और सूकम शरीर िजसके कीण हो गये है, ऐसा जानी पुरष समाट की (राजसूय
यज के फल सवराजय को पापत हुए की) नाई िवराजमान होता है।।47।।
पामरो की दृिष से सवराजय दृषानत हो सकता है, तततवज की दृिष से तो वह दृषानत नही हो सकता, कयोिक
उसमे पिरचछेद नही है, इस आशय से कहते है।
जैसे अपार कीर सागर सागर मे ही वृिद को पापत होता है, वैसे ही पिरपूणर अपिरिचछन आतमजानी आतमा मे ही
नही समाता, आतमा मे आतमा से ही वृिद को पापत होता है।।48।। जैसे शानतपुरष मतो का उपहास करता है, वैसे
ही पशानतिचत जानी पुरष भोगे की इचछा से दीन-हीन जनतुओं की हँसी करता है और दयनीय इिनदयो की भी हँसी
करता है।।49।। जैसे अनय के दारा पिरतयकत सती का इचछा कर रहे पुरष की पवृित का अनय पुरष उपहास
करता है, ऐसे ही भोगो की इचछा कर रही इिनदयो की पवृित का तततवज पुरष उपहास करता है।।50।।
यिद कोई शंका करे िजसका जान पिरपकव नही हुआ, ऐसा पुरष िवषयो मे दौड रहे मन का िनगह कैसे करे ?
तो इस पर कहते है।
सौमय आतमसुख का तयाग कर िवषयो की ओर दौडे हुए मन को, गजराज को अंकुश की तरह िवचार से वश मे
लाये।।51।। जो भोगतृषणा मनोवृित का भोगो मे पसार करती है, जैसे िवष वृक के अंकुरोदम का ही िवनाश कर
िदया जाता है, वैसे ही उसका भी पहले नाशकर देना चािहए।।52।।
यिद कोई कहे दणड देने से पीिडत हुआ मन रठे हुए बालक की नाई आतमा मे भी अनुरकत नही होगा, तो उस
पर कहते है।
पहले खूब तािडत हुए मन का पीछे जो थोडा सा सनमान है, वह भी असीम हो जाता है। देिखये न, गीषम ऋतु
मे खूब सनतपत हुए धान के पाचो के िलए साधारण सा जल भी अमृत का काम कर देता है। भाव यह है िक िचरकाल
तक उनमाद से लािलत मन का एक बार िनगह करने पर िफर िनगह का तयाग करने पर ऐसा होता है, िचरकाल के
िनगह से िनराश िकये हुए मन का बालक की नाई रठना समभव नही है।।53।।
उकत भाव को ही पुनः िवशद करते है।
जैसे भरी हुई निदयो का वषाकाल का थोडा सा पवाह सुशोिभत नही होता, वैसे ही जब तक पुरष पीिडत न हो
तब तक उसको सममान या बहुमान पतीत नही होता।।54।। पिरपूणर हुआ भी पाकृत पुरष िफर भी अिधक की इचछा
करता है। संसार के भरने योगय जलवाला समुद और जल चाहता ही है।।55।। खूब िनगृहीत हुए मन की पीछे िभका
जलािद िवषयो के अपरण से थोडी बहुत जो लालना है, उसी थोडी बहत ु लालना को, कलेश मे होने के कारण, बहुत
मानता है।।56।।
उकत अथर मे दृषानत कहते है।
बनधन से युकत हुआ राजा एक कौर भोजन से भी सनतुष हो जाता है, िकनतु जो शतुओं दारा गृहीत नही है
और आकानत नही है, वह िवशालराजय को भी अपयापत मानता है।।57।।
इसिलए िचरकाल के िनगह से और तततवबोध से समूल मन की जय के िलए पहले इिनदय जय ही समपूणर पयत
से करना चािहए ऐसा कहते है।
हाथ को हाथ से दबाकर, दातो को दातो से पीसकर, अंगो से ही अंगो को तोड-मरोड कर इिनदयरपी शतुओं
पर िवजय पापत करे।।58।।
केवल मन पर िवजय पाने के िलए ही नही, बाह शतुओं के ऊपर जय पाने के िलए भी इिनदयो पर िवजय पाना
आवशयक है, ऐसा कहते है।
औरो पर िवजय पाने के िलए पोतसािहत हुए िवदान लोगो को पहले हृदय िसथत शतु होने के कारण इिनदयो पर
िवजय अवशय पापत करना चािहए।।59।।
िजसने मन पर िवजय पापत की है, उसकी पशंसा और वनदना दारा इिनदय िनगह के फलरप मनोिवजय की
पशंसा करते है।
इतने बडे भूमणडल पर वे ही साधु िचतवाले पुरष शूनय है, वे ही पुरषो के बनध-मोक कौशलो मे गणनीय है,
िजन पर उनके िचत ने िवजय नही पाई।।60।। हृदयरपी िबल मे की गई कुणडलाकार कलपना से गवीला हुआ मन
रपी अजगर िजस पुरष का शानत हो गया है, अपने सवरप से आिवभूरत अतयनत िनमरल उस तततववेता को मै पणाम
करता हूँ।।61।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तेईसवा सगर समापतत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ, आआ आआ आआआआ आआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआ आआआआआआ
आआ आआआ आआआआआआ आआआआआआआआआ । आआ आआआआआआ
इिनदयो की िवजय मे उपाय और पयत की अिधकता बतलाने के िलए उनकी दुजरयता कहते है।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, इिनदयरपी शतु बडे दुदानत है, वे तपन, अवीिच, महारौरव, रौरव,
संघात, कालसूत नामवाले महानरकरपी सामाजय पर एक-एक करके अिभिषकत है, मतवाले पापरपी हािथयो से युकत
है तथा तृषणारपी बाण की शलाकाओं से भरपूर है।।1।। जो कृतघ सवरपथम अपने आशयभूत शरीर का नाश करते
है, पापरपी धनरािश से समपन वे सवेिनदयरपी शतुगण अतयनत दुजरय है।।2।। अिनिषद तथा िनिषद कमररपी
पचणड पंखो से युकत, िवषयरपी मास के लोभी इिनदयरपी गीध शरीररपी घोसले को पाकर बडा पराकम िदखलाते
है।।3।। जैसे पाश (फनदा) गजघटा का िवनाश नही कर सकता वैसे ही िजस पुरष ने िववेकरपी सूत के जाल से
उन चालबाज इिनदयरपी शतुओं पर िवजय पा ली है, उसके शािनत आिदरपी अंगो का वे िवनाश नही करते।।4।।
उन शतुओँ पर िवजय पाने के िलए पहले िववेकरपी धन का संचय करना चािहए, इस आशय से कहते है।
जो पुरष िववेकरपी धन से युकत होकर इस शरीर रपी िनिनदत नगर मे आपात रमणीय िवषयो मे रमण करता
है, वह अनयसथ इिनदयरपी शतुओं से अवश होकर अिभभूत नही होता। उस पुरष के तुलय वह राजा भी सुखी नही है
जो िमटी से बनी हुई नगरी का सेवन करता है, जैसे की अपना शरीररपी नगरी का ईशर, िजसका मन अपने अधीन है,
वह सुखी होता है। मृनमय और उग ये जो पुरी के िवशेषण िदये गये है, वे शरीररपी पुरी उससे िवलकण है, अतएव
उतकृष है, यह बोधन करने के िलए है।।5,6।।
इिनदय आिद के िनगह का फल कहते है।
िजसने इिनदयरपी चाकरो को आकानत कर िलया है तथा मन रपी शतु का िनगह कर िलया है, उस पुरष की
िवशुद बुिद ऐसे बढती है, जैसे वसनत ऋतु मे फूलो के गुचछे बढते है।।7।। िजसके िचत का अिभमान कीण हो गया
है, िजसने इिनदयरपी शतुओं को िनगृहीत कर िलया है, उस पुरष की भोगवासनाएँ हेमनत ऋतु मे कमिलनी की भाित
नष हो जाती है।।8।। अजानानधकार के वेतालरपी ये वासनाएँ तभी तक पराकम िदखलाती है, जब तक
परमातमतततव के दृढाभयास दारा यह मन िविजत नही हुआ।।9।।
सवदेहरपी नगरी के सामाजय मे चाकर, मनती, सामनतािद के कायर का शुद मन ही समपादन करता है, ऐसा
कहते है।
िववेकी पुरष का मन ही अिभमत कायर करने से चाकर है, उतम कायर का समपादन करने से मनती है और
इिनदयो पर आकमण करने से सेनापित है, ऐसा मै समझता हूँ।।10।। मनीषी पुरषो का मन ही लालन (उपसेवन)
करने से सनेहयुकत ललना है, पालन करने से पिवत िपता है तथा उतम िवशास के कारण िमत है, ऐसा मै समझता
हूँ।।11।।
मन के िपता होने मे दूसरा हेतु भी कहते है।
शासत दारा िदखाई गई देवता की भावना से इनका शासन अनुललंघनीय है, यो देखा गया और सनेह बुिद से
अपने हृदय मे अनुभूत िपता जैसे सवरपभूत अपनी देह का तयाग कर सवोपािजरत धनरप िसिद देता है, वैसे ही शासत
के जान से िचनमात दृिष से देखा गया िववेकबुिद से अपने हृदय मे अनुभव िकया गया मन अपने सवरप का तयागकर
तततवजानरप िसिद देता है।।12।। भागयवश खान मे देखी गई, सान की खराद से सवचछ की गई, पकाशक रस से
पकालन दारा अचछी तरह चमकीली बनाई गई, हजारो घनो के भी आघात से अभेद, सुनदर सूतवाले सुवणर के हार आिद
मे लगाई गई मनोहर मिण जैसे हृदय मे शोिभत होती है, वैसे ही शासतदिशरत परीका दारा अचछी तरह देखा गया, आचायर,
सहाधयािययो की सहायता से आतमानुभवपयरनत जात हुआ, िनिदधयासन से दृढ हुआ तथा पंचम आिद भूिमका भेदो मे
लगाया गया उतम मन भािसत होता है।।13।।
मिण के साथ मन के रपक पसताव के पसतुत रहते ही मधय मे शीरामचनदजी की 'मनती सतकायरकारणात्'
ऐसा पहले जो कहा था उसमे यह सतकायर कौन है ? ऐसी िवशेष िजजासा को ताडकर शीविसषजी कहते है।
मनरप मनती शासतिविहत कमों मे पवृत पुरष के अनथर परमपरारप जनम वृको का छेदक तथा िनरितशय
आननद के आिवभाव के साधनभूत साधन चतुषय से लेकर साकातकार पयरनत कमों का उपदेश करता है।।14।।
इस तरह रामचनदजी का समाधान करके पसतुत मिणरपक कह उपसंहार करते है।
इस तरह हे शीरामचनदजी, असंखयवासनारपी पंक से मिलन मनोमिण को िसिद पािपत के िलए िववेकजल से
धोकर आतमपकाश से युकत होइये।।15।।
इस तरह िववेक को िनरितशय उतम फल देने वाला बतलाकर अतयनत अनथर पिरमाणवाले िववेक-पमाद से
शीरामचनदजी को िनवृत करते है।
नीचे िगराने वाले राग आिद अनथों से पिरपूणर, भीषण भवभूिमयो मे िववेकहीन होकर िनवास करते हुए आप
साधारण पाणी की भाित िववश होकर नीचे न िगिरये।।16।। सैकडो अनथों से वयापत, महामोहरपी कुहरे से पूणर,
उिदत हुई इस संसार माया की महारोग की भाित आप उपेका न कीिजए अथात् उससे सावधान हो जाइये।।17।।
पसतुत इिनदय रपी शतुओं के जयोपाय के उपदेश का उपसंहार करते है।
परम िववेक को पापत, बुिद से सतय का अवलोकन कर तथा इिनदयरपी शतुओं को अचछी तरह जीतकर आप
संसार सागर से पार हो जाइये।।18।।
यिद कहे िक उतपित पकरण मे तो इिनदयो की असतयता बतलाई है। तो कयो यहा उसकी जय के उपाय का
उपदेश करते है, उस पर शीविसषजी कहते है।
हे शीरामचनदजी, असतय इस शरीर मे तथा असतय सुख-दुःखो मे आपको दाम-वयाल-कट नयाय की पािपत न
हो।।19।।
तततवदृिष से यदिप ये असतय है, तथािप मोहदृिष से उनकी सतयता अनुभव िसद है, इसिलए उनकी
िचिकतसा के िबना वासना की दृढता से दाम, वयाल और कट के नयाय से अनथर की पािपत दुवार है। िववेक आिद के
अभयास से उनकी िचिकतसा हो जाने पर तो भीम, भास और दृढ की िसथित से अनथर की पािपत नही होगी, ऐसा कहते
है।
भीम-भास-दृढ िसथित से आप िवशोकता को पापत हो जायेगे।।20।। हे महामते, यह दृशयभूत देह आिद मै
हूँ, इस िमथया अिभमान को सवतततविनशय के दारा अचछी तरह दूर और जो दृशयभूत वसतु से अितिरकत पतयक् एकरस
आतम वसतु है, उसी का अवलमबन कर ततसवभाव होने के कारण मनोरिहत होकर गमन कीिजए, पान कीिजए, भोजन
कीिजये, यो आप बद नही होगे। गमनािद वयवहार करते हुए भी मुकत ही है, यह भाव है।।21।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौबीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ, आआ, आआआआआ आआ आआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआ
आआआ आआ आआआआआ।
वासनारिहत पुरष मे भी धीरे धीरे वासनाओं का संचय होने से देहािद का अिभमान होने पर जनम-मरण परमपरा
होती है, िफर िववेक से कुछ कीण वासनावाले पुरष की होती है, इसमे तो कहना ही कया ? इस कैमुितक नयाय के
पदशरन दारा िजनमे थोडा सा आतमजान पापत हुआ है, िजनहे पूणरिनषा पापत नही हुई है, उन मनद और मधयम
अिधकािरयो को वासना के उचछेद के िलए अवशय दृढ पयत करना चािहए, यह दशाने वाली दाम-वयाल-कट की
आखयाियका को कहने वाले शीविसषजी शीरामचनदजी मे उकत आखयाियका को सुनने की इचछा उतपन करने के िलए
पूवोकत का ही पुनः अनुवाद करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, आप मे लोग िवशाम लेते है, आप बुिदमानो मे सवरशेष है, कलयाण के
िलए पयत कर रहे है शम, दम आिद उतम पदाथों को अपने मे पकािशत करने का आपका सवभाव है, इस लोक मे
िवहार कर रहे आपका दाम-वयाल-कट-नयाय न हो और भीम-भास-दृढ िसथित से आप शोकरिहत होइये।।1,2।।
शीरामचनदजी ने कहाः भगवन्, संसार के ताप को दूर करने वाले आपने ऐसा जो कहा िक तुमहारा दाम-वयाल-कट नयाय
न हो, वह कया है ? हे पभो, संसार ताप को दूर करने वाले आपने भीम-भास दृढ िसथित से आप शोकरिहत होइये, यह
कया कहा ? जैसे मेघ वषा ऋतु मे मयूर को उललािसत करता है वैसे ही इन दो कथाओं का वणरन करने वाली तथा
भवताप को दूर करने वाली अपनी उदार वाणी से शुद तततव का बोध मुझे कराइये।।3-5।। शीविसषजी ने कहाः हे
शीरामचनदजी, दाम-वयाल-कट नयाय को और भीम-भास दृढ िसथित को आप सुिनये, उनहे सुनकर जो आपको अिभमत
हो, उसे कीिजए।।6।। समपूणर आशयर वसतुओं से मनोहर पातालगतर मे शमब नामक दैतयराज था। उसे मायारपी
मिणयो का यिद महाणरव कहे, तो कोई अतयुिकत न होगी।।7।। उसने आकाश मे किलपत नगरो के उदानो मे राकसो
से मिनदर बना रखे थे, बनावटी उतम चनदमा और सूयर से उसने अपने पदेश को िवभूिषत कर रखा था, पतथर के
टुकडो की नाई सवरत सुलभ पदराग आिद मिणयो से वह देवपवरत मेर के तुलय हो गया था। असीम धनसमपितयो के
िनमाण से उसने सब दानवो को मालामाल कर िदया था। घर मे िसथत रतरप िसतयो के गान से उसने अपसराओं की
गानधविन को जीत िलया था। उसके कीडा के घर को कािमयो के िलए भयंकर बना िदया था। रतभूत हंसो की धविन
से सवणरकमल के सारसो का आहान िकया था। सवणरवृको की शाखाओं के अगभाग मे कमल की किलया गुँथ रखी
थी। कु ंजो के वृको के ऊपर से मनदार के फूल िगरते थे। कैची के तुलय अननत दैतयो से उसने इनद पर िवजय पापत
की थी। बफर से समान ठंडी अिगन की जवालाओं से उसने अपना उदानमणडप बना रखा था, सवरज बने हुए फूलो के
बगीचो से आननददायी ननदनवन को उसने जीत िलया था। वह अपनी माया से मलयाचल के सब चनदन के वृको को
सापो के साथ हर िलया था। उसके अनतःपुर की अंगनाएँ सवणर की कािनत और सब लोगो की सुनदरता को नीचा
िदखाने वाली थी। िविवध पुषपो की रािशयो से उसके घर का आँगन घुटनो तक भरा था। कीडा के िलए बनाये गये
िमटी के शंकरजी ने भगवान शीकृषण को जीत िलया था। सदा ऊपर को िछटक रही जुगनू की तरह घूम री रतरािशये
की पभा रपी तारो से उसके नगर का मधयभाग भरपूर था। सब राितयो मे सारे पाताल मे आकाश सौ चनदमाओं से
युकत रहता था। उसका युद पराकम ऐसा था िक उससे रचे गये पितमारपी लोग उसके पबनध का गुणगान करते थे।
माया से रिचत ऐरावत आिद गजराजो से देवताओं के ऐरावत आिद का उसने मानमदरन कर िदया था। तीनो लोको मे
सती, हाथी, घोडे आिद मे सवोतकृष रतरप सतीरत आिद से उसने अनतःपुर को पिरपूणर कर िदया था।।11-18।।
वह सफल समपितयो से महासौभागयशाली था और ऐशयर उसे पणाम करते थे उसके उग शासन को सब दैतय
सामनत नतमसतक होकर गहण करते थे। उसकी महाभुजाओं के वन की छाया मे सब असुर आराम से रहते थे। वह
सब बुिदयो का आधार था और समसत रतो के मणडल से िवभूिषत था। दुःसह और भीषण आकृितवाले उस दैतय की,
िजसने देवताओं को नष-भष कर डाला था, देवताओं का िवनाश करने वाली िवशाल वािहनी थी।।19-21।।
मायाबलवाले उस दैतय के सो जाने पर और देशानतर चले जाने पर अवसर पाकर देवताओं ने उसकी सेना को बडे वेग
से मार डाला।।22।। देवताओं के दारा उसी सेना का िवनाश होने पर शमबरासुर ने मुणडी, कोध, दुम आिद सेनापितयो
को अपनी सेनाओं मे रका के िलए िनयुकत िकया।।23।। भयानक देवताओं ने अवसर पाकर जैसे आकाश मे िसथत
बाज पकी वयाकुल हुई गौरैयो को मार डालता है, वैसे ही उनको भी मार डाला।।24।। असुर शेष शमबर ने जैसे
सागर चंचल और उग शबद करने वाली तरंगो की सृिष करता है, वैसे ही चंचल और उग शबद करने वाले अनय
सेनापितयो को पुनः उतपन िकया।।25।। देवताओं ने उनहे भी जलदी ही मार डाला, इससे उसके कोप की सीमा न
रही। वह देवताओं से भरे सवगर मे देवताओं के नाश के िलए गया।।26।। शमबरासुर की माया से भयभीत हुए देवता
देवी जी के वाहन िसंह से भयभीत हुए मृगो की नाई सवगर से भागकर सुमेर पवरत की झािडयो मे िछप गये।।27।।
शमबरासुर ने सवगर मे जाकर सवगर को, िजसमे कुद-कुद देवगण रो रहे थे और अपसराओं के मुखमणडल आँसुओं
से लथपथ थे, पलयकाल मे नष-भष हुए जगत के तुलय शूनय देखा।।28।। कुद हुए शमबरासुर ने वहा पर इधर-
उधर भमण िकया, जो रत आिद सुनदर वसतुएँ थी, उनहे हर कर और लोकपालो की नगरी को जलाकर वह अपने सथान
को चला गया।।29।। इस पकार देवता और दानवो के मनोमािलनय के दृढ होने पर देवता सवगर का पिरतयाग कर
इधर-उधर िदशाओं मे िछप गये।।30।। िकनतु शमबरासुर िजन-िजन को अपनी सेनाओं के अिधपित बनाता था, उनहे
देवता पयतपूवरक मार डालते थे।।31।। देवता बराबर तब तक ऐसा करते जब तक िक कुिपत शमबरासुर अतयनत
उदेग को पापत होकर तृणािगन के समान उचछवास लेता हुआ अतयनत पजविलत नही हुआ।।32।। जैसे पापी पुरष
िनिध को नही पा सकता, वैसे ही बडे पयत से तीनो लोको को खोजकर भी वह देवताओं को न महाबली बडे भीषण तीन
असुरो की माया से सृिष की।।34।। माया से बने हएु अतएव बडे मायावी, बलरपी वृको को धारण करने वाले वे
भयंकर सेनापित अपने परो से कुबध हुए सेना की तरह वृको को धारण करने वाले बडे भयानक पवरतो की तरह उतपन
हुए।।35।। दाम (शतुओं का दमन करने वाला), वयाल (साप की तरह शतुओं को लपेटने वाला) और कट (शतुओं
के शसतो से अपनी सेना को सुरिकत रखने वाला) इन नामो से युकत वे जो पापत हो जाय, उसे करने वाले एकमात
चेतना धमरवाले थे।।36।। पाकतन कमों का अभाव होने से वे पाकतन (पूवरिसद जीव) न थे और न उनकी वासनाएँ
थी, वे भय, शंका, पलायन आिद िवकलपो से रिहत िचनमात के सिनधान के कारण देह िकयावाले थे।।37।।
यिद कोई शंका करे िक यिद उनके कमर, काम और वासनाएँ नही थी, तो उनका जनम ही नही होना चािहए था,
कयोिक जनम के हेतुओं का अभाव था। यिद किहए, बीज न होने पर भी जनम होगा, तब तो मुकतो का भी पुनजरनम
होगा। आगे सवयं कहेगे भी 'िवदतेवासना यत तत सा यािद पीनताम्' (जहा पर वासना रहती है वही पर वह सथूलता
को पापत होती है) इसिलए उनके कमर आिद का अभाव कहना संगत पतीत नही होता इस पर कहते है।
ये दाम, वयाल और कट सवतनत जीव न थे, िकनतु िनिमतभूत अनतयामी चैतनय से कमरजीवरप शमबर की
कौशलरप, कमर, वासना आिद से वृिद को पापत न हुई, माया कलपनारप अतएव भोगसाररिहत थोडी सी सृिष
संकलपवृित को लेकर आिवभाव को पापत हुए थे। ऐनदजािलको दारा रचे गये अनय पुरषो की तरह सवतनत कमों का
अभाव होने पर भी आिवभाव रप जनम हो सकता है। यह भाव है।।38।। वासनाशूनय ये योदा काकतालीय नयाय
की तरह अनधपरमपरा से ही पसतुत िकया का अनुवतरन करते है। भाव यह है िक जब तक उनकी वासना वृिद नही
हुई, तब तक योिगयो की तरह उनका वयवहार हुआ।।39।।
यिद किहए, िजनकी वासना उदभूत नही हुई, उनका वयवहार कहा देखा गया है, तो सुिनये ऐसा कहते है।
जैसे आधे सोये हुए बालक अपने अंगो से चेषा करते है, वैसे ही वासना और आतमािभमान से रिहत उन लोगो
की केवल अंगो से चेषा हुई।।40।। न तो वे युद के समय शतुओं के अिभमुख आगमन को जानते थे, न िवशात
और िनःशंक शतुओं के अकसमात आकमण को जानते थे, न भागनी ही जानते थे, न जीवन जानते थे, न मरण जानते
थे, न युद जानते थे और न जय पराजय जानते थे।।41।।
यिद नही जानते थे, तो सवयं शतुओं के ऊपर आकमण कैसे करते थे ? इस पर कहते है।
अपने पहार से पवरतो को चूर-चूर करने वाले थे शसत पहार करने के िलए उदत अपने आगे देखे गये
शतुसैिनको पर केवल आकमण करते थे। भाव यह है िक जाकर पहार करना चािहए। इस पकार की शमबरासुर की
वासना ही उनका शरीर था। सामने शतु को देखने से उतना ही उनको जात होता था, इसिलए वे आकमण करते
थे।।42।। शमबरासुर ने अतयनत पसन होकर ऐसा िवचार िकया िक माया से िनिमरत दाम आिद असुरो से सुरिकत
मेरी सेना अवशय शतुओं पर िवजयी होगी।।43।। अतयनत बलशाली असुरो के बाहुरपी वृको से सुरिकत मेरी यह
सेना शतु का पहार होने पर भी िदगगजो के दातो का पहार होने पर भी जैसे मेर पवरत की सुवणर िशला िसथर है
िवचिलत नही होती, वैसे ही अतयनत िसथरता को पापत होगी।।44।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पचीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआ, आआआआआ आआ आआ आआआ आआ
आआआ आआआआआआआ।आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, दैतयराज शमबरासुर ने इस पकार िवचारकर दाम, वयाल और कट से
अिधिषत देव िवनािशनी अपनी सेना को भूलोक मे भेजा।।1।। भीषण िसंहनादवाले आयुधधारी दैतयसागर से, सागर
तट की झािडयो से, पवरतो की कनदराओं से आशय यह है िक जहा िजसे मागर िमला, पकधारी पवरतो के आटोप से ऊपर
आये।।2।। दाम, वयाल और कट से बलशाली हुए दानवो ने अनतिरक और पृिथवी के मधवती आकाश को ठसाठस
भर िदया, िजसमे उनके मुको के पहारो से सूयर िनसतेज हो गया था।।3।। इसके बाद मेरपवरत के िनकु ंजो से और
कनदराओं से पलयकाल की तरह कुबध और भयंकल देवताओं के गण युद के िलए उतर आये।।4।। उन देव और
असुर सेनाओं का वन के मधय मे वह युद अकाल मे हुए दुःसह पलय के समान भीषण हुआ।।5।। इसके बाद
कुणडलो की कािनतयो के तेज से अनधकार का नाश कर चुके मसतक, पलयकाल मे नष हो गये है आशयभूत चनदमा
और सूयर िजनके ऐसी दीिपतयो की तरह, घडो से िगरने लगे।।6।। पलयकाल के वायुओं के महापवाहो से पडी हुई
दराररपी हँसी से युकत तथा दुदानत योदाओं से छोडे गये िसंहनादो से मुखिरत पवरत कापने लगे।।7।। पवरत की
िशलाओं के तुलय शसतासतो के आघात से िजनकी दीवारे ढह गई थी। भयभीत िसंह िजनमे िवशाम ले रहे थे ऐसे
िहमालय आिद कुलपवरतो के तट गूँजने लगे।।8।। परसपर के पहारो से नष हुए शसतासतो से िनकली हुई चंचल
आग की िचनगािरया पलयकाल मे आकाश से टू टे हुए तारो की तरह उडने लगी।।9।। रकत-मास की रािश से पूणर
एकमात सागर के तट पर बैठे हुए, पलयकाल के उतपातभूत तालवृको के समान ऊँचे करताल बजाकर नाच रहे वेताल
इधर-उधर िवलास करते थे।।10।। इधर-उधर फैलती हुई रिधर की धाराओं से बादलो के समान धूिल िजसमे
शानत हो गई थी, ऐसे आकाश मे आयुधो के पहारो से चूर-चूर िकये गये मसतको के करोडो कुणडल सूयर के आकार से
युकत हो गये थे। अपने पहारो से िहमालय आिद पवरतराजाओं को िछन-िभन करने वाले, पहार करने के िलए उखाडे हुए
कलपवृको को धारण करने वाले, सूयर के आकार के सदृश आकारवाले दैतयो युकत िदशाएँ ऐसी पट गई, कही पर एक
िछद भी िदखाई न देता था।।11,12।। चल रही तलवार की धारो के वायु से िजनकी दीवारे िगरा दी गई थी अतएव
पलयकाल की अिगन से तहस-नहस िकये गये थे पवरत धूली के ढेर बन गये थे।।13।।
अशमेध यजो से वृिद को पापत हुए से देवता लोग भी असतो से रिहत हुए असुरो से पास ऐसे आये जैसे मेघो
के समीप वायु आते है।।14।। तदननतर जैसे िबिललया झपट कर बूढे चूहो को पकडती है, वैसे ही उनहोने राकसो के
ऊपर आकमण कर उनहे पकडा और राकसो ने भी देवताओं को ऐसे पकडा जैसे वृको पर चढे हुए उनमत आदिमयो को
भालू पकडते है।।15।। िजनके बाहूरपी वृको पर शसतासतरपी फूल िखल रहे थे और शसतरपी पललव शोिभत हो
रहे थे, ऐसे सुर और असुर वन मे िहल रहे फूले हुए वृको की तरह सुशोिभत हुए।।16।। जैसे वायु सुमेर पवरत पर
फूलो के समूहो से वनो को भर देता है वैसे ही परसपर के पित फेके गये शसत समूहो से उन लोगो ने दशो िदशाएँ भर
दी।।17।। अनतिरक और पृथवी के अवकाशरपी गूलर के फल के अनदर रहने वाले महामशको के संघ के तुलय
देवता और दानवो की सेनाओं का घोर युद हुआ।।18।।
िदगगज आिद दारा कुचले जा रहे लोगो के रथ कोलाहल का वणरन करते है।
इसके अननतर ऊँचे तालो के समान िवशालकाय लोकपालो के िदगगजो से पलयकाल मेघो से वृिद को पापत
हुए कोलाहल हुआ।।19।। वह कही पर आकाश मे अतयनत घन होने के कारण मानो गज बनाता हुआ सा, कही पर
मुटी मे पकडने योगय और कही पर जलभार से भरे हुए मेघो के उदर के समान गमभीर था।।20।। रथ के ऊपर
पडने से पीसे गये शसतो से पवरतो मे शबद करता हुआ वह कोलाहल नाचने वाले नट के समान ताल और लय के
अनुसार था, िजनके हृदय मारे भय के फट रहे थे, ऐसे बलहीन पुरषो के करण कनदन से उसमे घरघराहट हो रही
थी।।21।। वह पलयकाल के हेतूभूत अिगन, वायु आिद से उललिसत होने वाले, बहा के िदन-भूत सृिषकाल के
अनत मे होने वाले कोलाहल की पितधविन के तुलय था और बारह सूयों के सममेलन के िपघल रहे सुवणर पवरत के शबद
के तुलय था।।22।।
बहाणडरपी दीवार मे टकराकर लौटने से बढा हुआ और उदगम सथान से भी िनकलता हुआ वह कोलाहल
पािणयो से तािडत एवं पािणयो के आगारभूत महासोत के जलपवाह की धविन के तुलय था जो िकसी पवरत आिद से
टकरा कर रका हो और अपने उदगम सथान से भी िनकलता हो।।23।। इधर-उधर उड रहे पकधारी पवरतराजो के
पंखो के वायु से मानो उसमे धविन हो रही थी, उसने कणरकटु शबद पवाह से वयापत िहमालय आिद पवरते की कनदराओं
को फूट रहे कानो की तरह बना िदया था।।24।। मनदराचल से अमृतमनथन के समय अमृतोतपित होने पर अमृत के
पित आसिकत होने के कारण अमृतोतपित को सुन रहे देवता और असुरो का हषोतकषर होने पर घंघम् शबद के सदृश
ताल ठोकना आिद के शबदो से उसने सातो दीप रपी पाणी िनवासभूिम को वयापत कर रखा था।।25।। कुबध हुई
दोनो सेनाओं का ऐसा भीषण युद हुआ िक उनमे नगर, गाम, पवरत, वन और मनुषय पीसे गये थे, बडे-बडे उदत दानव
िवदमान थे, सैकडो बडे-बडे आयुधो काटे गये दानवरपी पवरतो से सब िदशाएँ भरी थी, परसपर तहस-नहस िकये गये
असत आिद के चूणों से आकाश का मधयभाग भरा था, भुशुणडी नामक असत समूह के शबदो से मेरपवरत के सैकडो
िशखर ढह रहे थे, बाणरपी आँधी से दैतय और देवताओं के मुखरप कमल कटे थे और दोनो सेनाओं के पहाररपी
कललोलो के संचार से आकाश वयापत था।।26-29।।
उस युद मे आयुदरपी आँधी से पीसे गये वैमािनको के समूह िगर रहे थे, असत से उतपन हएु समुदो के जल
के पवाह से आकाश मे िसथत अमरावती आिद नगर आपलािवत थे, महासतो के संपात से तलवार, शूल, शिकत आिद रप
सैकडे निदया बह रही थी, पवरतो के समीप मे घोर योदाओं के ताल ठोकने के शबदो से बहाणडरप मणडप काप रहा
था, दैतयो की एिडयो के पहारो से लोकपालो के लोक िगर रहे थे और िसतयो के हल-हल शबद के साथ मिनदरो मे
कंकण बज रहे थे।।30-32।। वह युद िगर रही दैतय सेना से उतपन हुई अथाह रकत-रािशरप जल से युकत था।
उसमे खून से लथ-पथ मनुषयो दारा छोडे गये घोर िसंहनाद से लोग इधर-उधर भाग रहे थे, वह लोकपालो के
सेनापितरपी कमलो मे भौरे के समान कभी मरते हएु लोगो के पाण हरने के िलए िछपे हुए और कभी युद के िलए पकट
यम से युकत था, सुर और असुरो दारा भागने के समय िकये गये पहारो से तािडत अतएव िफर लौटकर पहार कर रहे
सैनयसमूह से वयापत था, पंखवाले पवरतो के आकार के सदृश आकारवाले दानवरपी पवरतो के गमनागमन से हो रहे
साय-साय शबद की भनभनाहटो से भीषण तथा आयुधो के अगभागो से िछन-िभन भयंकर दैतयरपी पवरतो के झरने के
सदृश रकतपवाहो से समसत पृथवी, सागर और पवरत उससे लाल हो गये थे।।33-36।।
राषट, नगर, वन गाम और गुफाएँ सब के सब नष हो गये थे, असंखय असुर, हाथी, घोडे और मनुषयो के शवो
से सब मेर आिद पवरत पूणर हो गये थे, उसमे सुनदर ताल के समान ऊँचे बाणो की पंिकतयो से हाथी चमक रहे थे।
मुिटयो के पहारो से मत ऐरावत आिद गजराजो के कुमभसथल पीसे गये थे। पलयकाल के तुलय िवशाल मेघपटल की
मूसलाधार वृिषयो से पवरत िवदीणर हो गये थे और बडे भारी वज के िगरने से खूब पीसे गये कुलाचल (पवरत) उड गये
थे।।3739।। उसमे कुिपत हुई अिगन की जलती हुई िविवध जवालाओं से दानव जलाये गये थे, एक अंजिलपुट से
लाये गये समुद से देवताओं दारा जलाई गई अिगन राकसो दारा बुझाई गई थी, पचणड दैतयो दारा शैल, िशला आिद
बोझदार वसतुओं के फेकने से देवताओं दारा जलाई गई अिगन रोक दी गई थी, वनसमूहरप इनधनो से सुलगाई गई
अिगन की जवालाओं से िपघलाये गये पवरत जडमय हो गये थे उस युद मे कभी असतो से रिचत िनिबड अनधकार से
पलयकाल की राित हो गई थी, कभी माया के सूयर समूह के पकाशे से घोर अनधकार पटल नष कर िदया गया था,
माया की अिगन की वृिष से माया के कौशल से बनाये गये मेघो की वृिष नष कर दी गई थी, सीतकार के साथ अिगन
उगलने वाले शसतो के परसपर संघटन की वृिष हो रही थी। शैलवृिषरपी असतो से शैलवृिषरपी असतो का िवलास
नष िकया गया था, िनदासत और पबोधासतो के युद से वह पूणर था, शतु के अिभभवरपी अवगह (वणरपितबनधक वायु
िवशेष) से वह युकत था। उसमे ककचासत और वृकासत चल रहे थे, जल और अिगन के वयामोह से वह अनधकािरत
था, बहासत के युद से भीषण था एवं अंधकारासत और तैजसासत से कबुरिरत था।।40-45।।
असुर और िपशाचो के असतो से उतपन िकये गये तोमर, मुदगर, मुसल आिद असतो की परमपरा से सारे
आकाश मे ितल रखने की भी जगह न थी, िशलाओं की वृिष से वह िछन-िभन था, अिगन की वषा से पकाशमान था,
अपनी पताकाओं से िजनहोने चनदमा का सपशर कर रखा था, चको के िचतकाररपी गजरन से युकत रथो ने उसमे एक
मुहूतर मे उदयाचल और असताचल पवरत को लाघ िदय़ा था, वज के पहार से िनरनतर महा असुर मर रहे थे और
शुकाचायर जी की अमरनामक मृतसंजीवनी महािवदा से महा असुर पुनः जीवन पा रहे थे। कही पर देवताओं की सेना
भाग रही थी, कही पर िवजय से देवता लोग हषर मना रहे थे, कही पर इधर-उधर शुभगह और महाकेतु की पंिकतयो के
दशरन के िलए लोग ऊपर को गदरन िकये थे और कही पर उतपाते के और मंगलो के दशरन के िलए गदरन ऊपर िकये हुए
थे। पवरत, आकाश, पृथवी और दुलोक सिहत सारा जगत ही उसमे रिधर का समुद बन गया था, वह युद दुवार वैर से
समपूणर जगत को ही फूला हुआ एकमात पलाश का वन बना रहा था एवं पवरतो के सदृश असंखय शवो से भरा महासागर
था।।46-51।।
सब वृको की शाखाओं के अगभाग मे बडे-बडे चंचल शव झूल रहे थे।
बाणरािश के वन रप से िनरपण करने के िलए िवशेषण देते है।
उसमे सूयर की िकरणो के पितिबमबरपी पललवो से दैदीपयमान, अपने वेग के वायु से चंचल, कंक आिद पिकयो
के पंखरपी फूलो से युकत, लोहागभागरपी चमकीले फलवाले, तालो से भी अिधक ऊँचे बाणसमूहरपी वनो से सारा
आकाशमणडल वयापत था, पवरत के सदृश िवशाल, असंखय, नाच रही कबनधो की सैकडो बाहुओं से मेघ, िवमान, देवता
और तारे िगराये गये थे और बाण, शिकत, गदा, भाले, पिटश से पवरत आचछन हो गये।।52-54।। उसमे सातो लोको
से िगरे हुए दीवार के टुकडो सा सारा आकाश वयापत था, कलपकाल के भीषणमेघो के गजरन-तजरन तुलय िनरनतर दुनदुिभ
बज रही थी, इस पकार के सैकडो शबदो से पाताल मे रहने वाले हाथी पितगजरन कर रहे थे, िवनायको के दारा हाथो से
िवशाल दानवरपी पवरत खीचे जा रहे थे, िदशाओं का िवभाग करने वाले सूयर आिद के एक िदशा मे िमलने पर िसद,
साधय और मरदगण असुरे के भय से सनतसत अतएव िनशल थे तथा गनधवर, िकनर, देवता और चारण भाग रहे थे।।
55-57।।
अब औतपाितक आँधी का वणरन करते है।
वजो के िगरने से िजनके अंग खिणडत हो गये थे और िजनहोने पतथरो के टुकडो को चूर-चूर कर िदया था,
पलय के समय को सूिचत करने वाले तथा कलपवृक मे रहने वाले भमर, कोिकल आिद की धविनयो को िवलीन कर देने
वाले पचणड वायु (आँधी) िदशाओं मे बहे।।58।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छबबीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ, आआआआआ आआ आआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआ आआआ आआआ आआआ आआआआआआआ
आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआआआआ
आआआआआआआआआआआ । आआआआ
उस घोर संगाम के घटाटोप के चलने पर देवताओं तथा दैतयो के शरीरो पर हुए वरणो से जैसे आकाश के मेघो
के मधय मे गंगा के पवाह बहते है वैसे ही खूनो के नाले बहने पर, दाम नामक दैतय के देवताओं को वेिषतकर
िसंहनादरपी महाधविन करने पर, वयाल के अपने हाथो दारा आकषरण से सब देवताओं के िनवासो को चूरचूर कर देने
पर, कट के भीषण संगाम मे देवताओं को िछन-िभन करने पर ऐरावत के मूक होकर भागने पर जैसे मधयाह मे सूयर की
पखरता बढ जाती है, वैसे ही दानवो की सेना के वृिद को पापत होने पर, कटे हुए अंगो की वयथा से पीिडत, रिधर बहा
रही देवताओं की सेनाएँ , िजसका बाध टू ट गया हो ऐसी जलरािश के समान भागी। दाम, वयाल और कट ने िचरकाल
तक िछपी हुए देवसेनाओं का गजरन-तजरन के साथ ऐसे पीछा िकया, जैसे अिगन लकिडयो का पीछा करती है।।1-
6।। जैसे िसंह िनिबड लतािद जालो से भरे हुए वन मे दौडकर गये हुए हिरणो को नही पाते है, वैसे ही असुर बडे पयत
से खोजने पर भी देवताओं को न पा सके।।7।। देवताओं के न िमलने पर उस समय पसन हृदय हुए दाम, वयाल और
कट पाताल के मधय मे िसथत अपने पभु शमबरासुर के पास गये।।8।। तदुपरानत दैतयो से जीते गये अतएव उदास
हुए वे देवता कणभर आराम कर अिमत तेजसवी बहाजी के पास िवजय के उपाय पूछने के िलए गये।।9।। देवताओं
के, िजनकी मुखशोभा रिधर से लाल हुई थी, सनमुख जैसे सनधया के समय लाल बादलो से लाल जलवाले सागरो के
सनमुख चनदमा पादुभूरत होता है वैसे ही बहाजी आिवभूरत हुए।।10।। उन देवताओं ने बहाजी को पणाम करके दान,
वयाल और कट की सृिषरप शमबरासुर का अनथरकारी कायर भलीभाित उनसे कहा।।11।। िवचार करने मे कुशल
बहाजी ने वह सब वृतानत सुनकर और िवचार कर देव सेना से यह आशासनकारी वचन कहा।।12।।
शीबहाजी ने कहाः हे देव शेषो, एक लाख वषों के बाद संगाम के अिधपित शीहिर के हाथ से शमबर का मरना
बदा (िनिशत) है। आप लोग उस काल की पतीका कीिजए। आप लोग इस समय तो इन दाम, वयाल और कट नामक
दानवो को माया युद से लडाते हएु भािगये।।13,14।। युदाभयास के कारण इनके हृदय मे अहंकार का चमतकार ऐसे
पापत होगा, जैसे दपरणो के अनदर पितिबमब पापत होता है। हे देवताओं, जैसे जाल मे फँसे हुए पकी सरलता से पकडे जा
सकते है वैसे ही वासना युकत हएु ये दाम, वयाल और कट नामक असुर आप लोगो के सुजेय हो जायेगे।।15,16।।
सुख-दुःख से रिहत ये आज तो शमबर के संकलपानुसार वासना रिहत है, इसिलए हे देवताओं, धैयरपूवरक शतुओं के ऊपर
पहार कर रहे ये दुजरय हो गये है।।17।। जो लोग वासनातंतु से बँधे है और आशारपी पाश के वशीभूत है, वे रजजू
मे बँधे हुए पिकयो की तरह लोक मे औरो की पराधीनता को पापत होते है।।18।। िजन धीर पुरषो की वासनाएँ नष
हो गई है और िजनकी बुिद सभी जगह आसकत नही है, वे न तो कही हषर को पापत होते है और न कही पर शोक को
पापत होते है, उन महाबुिदयो पर िवजय पाना किठन है।।19।। िजस पुरष के भीतर वासनारपी रजजु की गाठ बँधी
है, वह महान कयो न हो, बहुज ही कयो न हो, उसे बालक भी जीत लेते है।।20।। यह देहािद ही मै हँू, यह जय-
पराजय, पूजा, जीवन आिद मेरा है इस पकार की कलपनाओं से युकत पुरष जैसे सागर जलो का आशय होता है, वैसे ही
आपितयो का आशय बनता है।।21।।
सब दुवासनाओं मे से आतमा की देहािदतादातमय से पिरिचछनतारप भानत वासना ही महामूखरता, कृपणता और
जनम-मरण आिद की बीज होने से सबसे महा अनथर है, ऐसा कहते है।
िजसने यह आतमा केवल देहमात पिरिचछन है, यह भावना की, वह सवरज कयो न हो, सवरत ही दीनता को पापत
होता है।।22।। िजसने अननत, अपमेय उस आतमा की सीमा की कलपना की, उसने अपने आतमा से ही अपने आतमा
को िववश कर िदया यानी संसाररपी अनथर से िवहल कर िदया।।23।। यिद तीनो जगतो मे आतमा से अितिरकत
कोई वसतु हो, तो उसमे गाहरप से गहण करने के िलए वासना होगी, पर वैसा तो कुछ है ही नही, यह भाव है।।
24।। जानी लोग आसिकत को अननत दुःखो की खान कहते है तथा सवरतः केवल अनासिकत को समपूणर सुखो की
खान कहते है।।25।। जब तक दाम, वयाल और कट इस संसार मे आसिकत रिहत है, तब तक जैसे मचछरो के िलए
अिगन अजेय होती है वैसे ही वे आपके अजेय होगे।।26।। देहािद के िवनाश दारा अपने नाश की संभावना से दीनता
को पापत हुई, भीतर िसथत देहािद मे अहंभाव गहण करने वाली वासना से जनतु जीता जा सकता है, अनयथा तो मचछर
भी अमर और अचल है।।27।। जहा पर वासना रहती है वही पर वह पीनता (सथूलता) को पापत होती है, कयोिक
धमी के रहने पर पीनतव नामक गुण होता है और उपचय के िबना पीनता की िसिद नही होती और उपचय भी दूसरे
अवयव की िसिद होने पर होता है। िदतीयता भी सत् ही पदाथर की होती है, असत् की नही है।।28।। हे इनद, िजस
उपाय से दाम, वयाल और कट अपने अंतःकरण की यह देह आिद ही पिसद मै हूँ और यह जय-पराजय, पूजा, जीवन
आिद मेरा है, इस पकार वासनायुकत समझे, उस उपाय को आप कीिजये।।29।।
मनुषय की जो-जो िवपितया है और जो भाव और अभाव दशाएँ है, वे सब तृषणारपी करंज लता के कडवे और
कोमल बौर है।।30।। वासनारपी रससी से बँधा हुआ जो पुरष आवागमन करता है, उस पुरष की वृिद को पापत हईु
वासना अितदुःखदायी होती है और नाश को पापत हुई वह सुख के िलए होती है।।31।। जैसे िसंह शृंखला से बाधा
जाता है वैसे ही अतयनत धीर, अतयनत बहुज, कुलीन और महान पुरष भी तृषणा से बाधा जाता है।।32।। यह तृषणा
कया है यह शरीररपी वृक पर बैठे हुए हृदयरपी अपने िनवास मे जाने वाले िचतरपी पकी का जाल बुना हुआ है।।
33।। वासना से दीन लोगो को यमराज इस पकार खीचता है जैसे बालक रजजु से िववश और खूब शास छोड रहे
पकी को खीचता है।।34।। आयुधो के समूह की कोई आवशयकता नही है एवं युद मे घूमने की भी कोई जररत नही
है, आप केवल दाम, वयाल और कट की वासना के (शमबर के संकलप से उतपन हुई िनरिभमान वासना के) िवपरीतता
यानी अिभमान की वृिद युिकतपूवरक पयत से कीिजए।।35।। हे देवराज, शतु के हृदय मे अकुिभत धैयर के रहने पर न
शसत जीत सकते है, न असत जीत सकते है और न शुकाचायर आिद दारा पणीतनीित शासत ही जीत सकते है।।
36।। वे मत दाम, वयाल और कट युदाभयास से ही अहंकारमयी वासना का गहण करेगे।।37।।
तततवजो की अपेका उनमे कौन सी कमी है ? िजससे वे वासना गहण करेगे ? इस पर कहते है।
शमबरासुर से िनिमरत वे अतयनत अज पुरष थे, अतः जब वे वासना का गहण करेगे, तब आप लोगो के सुजेय
हो जायेगे।।38।। इसिलए हे देवाताओं, आप लोग सवरपथम युकत युद से उनहे वयवहार कायों मे जागरक कीिजए,
वयवहार कायों मे अभयसत होने के कारण वे वासना युकत वे वासना युकत हो जायेगे। वासनाओं के बदमूल होने पर वे
आप लोगो के वशीभूत हो जायेगे, कोई भी पुरष यिद तृषणा से बद अंतःकरण वाले न हो, तो वे सहज मे सुजेय नही
होते।।39,40।। जैसे जलाशय के अनदर अतयनत चंचल तरह-तरह की लहिरयो की अिधकता जलरप से िसथत है,
वैसे ही अपनी वासना के मधय मे िसथत यह सम और िवषम समसत जगत पवाह से िनतयता को पापत हुआ िसथत है,
इसिलए एकमात सववासना की ही िचिकतसा करनी चािहए।।41।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सताईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ, आआआआआआआ आआआआ आआ
आआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जैसे समुद की तरंग तीर भूिम के तट पर शबद करके अनतिहरत हो
जाती है, वैसे ही भगवान बहा देवताओं को यह उपदेश देकर वही पर अनतिहरत हो गये।।1।। जैसे वायु कमलो की
सुगनध लेकर अपनी-अपनी अिभमत वनपंिकतयो को जाते है वैसे ही देवता लोग भी उनके वचन सुनकर अपनी अिभमत
िदशा को गये।।2।। जैसे भमर सुनदर कमलो पर िवशाम करते है, वैसे ही देवताओं ने िसथर कािनतवाले अपने सुनदर
मिनदरो मे कुछ िदन िवशाम िलया।।3।। अपना अभयुदय करने वाले िकसी शुभ अवसर को पाकर देवताओं ने
पलयकाल के मेघ की धविन के सदृश धविनवाला दुनदुिभघोष िकया।।4।। दुनदुिभघोष सुनकर दैतयो के ऊपर आने पर
अनतिरक मे पातालवासी उन दैतयो के साथ देवताओं का दीघर समय िबताने वाला घोर युद िफर शुर हुआ।।5।।
सगर की समािपत तक युद का ही वणरन करते है।
दोनो ओर से तलवार, बाण, शकत और मुदगरो के समूह, मूसल, गदा, कुलाडे, भीषण चक, शंखाकार शसत,
वज, पहाड, िशलाएँ , अिगन, वृक तथा साप, गरड आिद के सदृश मुखवाले अनेक आयुध आकाश मे चलने लगे।।6।।
माया से रचे गये आयुध ही िजसमे बडा भारी िनिबड जल पवाह था, शीघ बहने वाली, पतथर, पवरत लाखो साधारण वृक
और पधान वृको से कुबध हुए जल पवाह से घन शबद करने वाली नदी तुरनत चारो िदशाओं मे बहने लगी।।7।।
पूवोकत नदी का ही िफर वणरन करते है।
िजसके मधयपवाह मे उलमुक (अधजली लकिडया), ितशूल, पवरत, भाले, तलवार, बिछरया, बाण, तीर और
मदगरो की रािशया बह रही थी, ऐसी वह नदी िजसने जल की नाई देव मिनदरो को नष कर िदया था, ऐसे वज आिद
आयुधो की वृिष से हुए तटभंग से गंगा के सदृश थी यानी मेर आिद पवरतो पर बहने वाली गंगा के तुलय थी।।8।।
अब सुर और असुरो को परसपर मोह मे डालने के िलए िविचत माया िनमाण, पतीकारो से उसकी शािनत, िफर
उसके तुलय अनय मायाओं के िनमाण और उनके उपशम को कहते है।
पृिथवीमयी, जलमयी, तेजोमयी, वायुमयी, आकाशमयी सी (िजसमे जैसे पृथवी घूमती-सी थी, िगरती सी थी, तथा
िजसमे लोग जल मे डू बते से थे, अिगन से जलाये - से जाते थे, वायु से उडते-से थे, महागतररप आकाश मे िगरते-से
थे) माया और िपशाच आिद शरीरमयी-सी माया (जैसे िपशाचो के शरीर िगरते है, दौडते है, युद करते है, इस पकार की
दारण शरीरमयी माया), िजसमे दूसरे के पहारो का गहण करना और सवयं पहार करना बार बार होता था, ऐसी दूसरी
माया तथा शतुओं से दुदरमीय ढेर की तरह बहुतव को पापत हएु पतयेक योदा के शरीर से युकत, इस पकार की भी माया,
ये सब मायाएँ पयुकत हो, सुर, असुर और िसदो दारा पतीकारो से िवनष होकर शानत होती थी, िफर वैसी ही माया
उिदत होती थी, वह कया पहले उतपन हईु माया ही है अथवा वह नही है, िकनतु अनय ही है, यो यथाथररप से उसे
जानना किठन था।।9।।
उस युद मे िदशाओं के मुख शैलसदृश हिथयारो से तहस-नहस िकये पवरतो से पूणर, रकतरपी जल के पवाह से
भरे महासागरो से युकत एवं देव और असुरो मे शेष लोगो के शवरपी पवरतो पर गडे हुए भाले रपी ताड-वन वाले
हुए।।10।। लोहमय आयुधरपी िसहो की सृिष िगरी िजसमे चलाये हुए भाले, बाण, शिकत, गदा, तलवार और चको
दारा सुर और दानवो से छोडे गये पवरत के अनायास िनगले गये थे, कटने के कारण चमक रहे आरो के दात ही िजनकी
नखपंिकतया थी, दूसरे के जीव के हरण करने के कारण जो जीवयुकत थी।।11।। जवालाएँ उगल रही नेतो की
िवषािगनयो के सनताप समूह से उतपन िदशाओं के दाह से युगानत मे एक साथ उिदत हुए बारह सूयों की समानता िजसने
दशायी थी, ऐसी िवषधर सापो की पंिकत चारो ओर उड रहे सवरतः दीघर ऊँचाई मे बहुत बडे पवरतो से वयापत समुद के
तुलय सुशोिभत हुई।।12।। िविवध शसतासतो की नदी के पवाहो से, िजनहोने मेर पवरत को वेिषत कर रखा था, खूब
शबद कर रहे, वज आिद रतो से और मगरो के समूह से किठन तथा भीतर कुबध हुए समुद की लहरो से सारा-का-सारा
जगत पिरवतरनो दारा पीिडत हुआ।।13।। सुर और असुरो का युद भूिमरप आकाश शूलरपी असतो, शसतो,
मायारिचत गरडो से और उखाडकर फेकी गयी चटानो से पूवरविणरत दृिष िवषवाले नागो से रिहत होकर कणभर मे
समुदो से भर जाता था, कणभर मे अिगन की जवालाओं से पूणर हो जाता था, कणभर मे सूयों से सूयों से पट जाता था
और कणभर मे अनधकार पटलो से वयापत हो जाता था।।14।। गरडासत से उतपन हुए गरडो से और उनकी गुड
गुड धविनयो से वयापत आकाश मे फैले हुए आयुधरप अिगन के पवरतो के पवाहो से भी सारा-का-सारा जगत असह
पलयकाल की तरह िजसमे सवगर और भूतल का मधयभाग जला हो, ऐसा हो गया।।15।। जैसे पवरत के तट से पकी
ऊपर को उडते है, वैसे ही दैतय भूिमतल से आकाश की ओर ऊपर को उठते थे और पलयकाल मे वायु से चलाई गई
शैलिशलाओं के समान देवता बडे वेग से ऊपर से नीचे को िगरते थे।।16।। िजनके शरीर मे गडे हुए ऊँचे-ऊँचे
आयुधरपी वृको से बनी हुई वनपंिकतयो मे महान अिगनदाह हो रहा था, ऐसे असुरो ने आकाश के बीच पलयकाल मे वायु
से झकझोरे गये पवरत की शोभा पापत की।।17।।
हे शीरामचनदजी, मेर पवरत चारो ओर आकाश सुर और असुररपी उतम पवरतो के शरीरो से िनकले हुए, चारो
ओर घूम रहे, रकतपवाहो से पूणर सनधयारपी नाियका के नखकतो को धारण करता था अथवा पूवोकत रकतपवाहो से पूणर
गंगा को धारण करता था।।18।। वे देव और असुर एक ही साथ एक दूसरे पर पवरतो की वृिष, जल की वृिष,
िविवध भीषण आयुधो की वृिष, िवषम वजो की वृिष और अिगनवृिष करते थे, नीितमागर को जानने वाले वे देन और
असुर, िजनहोने सबल शेष पवरतो के िशखर तोड िदये थे, चारो और एक साथ हािथयो के कुमभसथलो पर िवशेष उतसव
मे कीडा के िलए िपचकारी आिद से कु ंकुम, चनदन आिद रस की वृिष के समान उपयुरकत वृिषयो की सृिष करते
थे।।19,20।।
परसपर युदोतसाह का तयाग न कर रहे देवता और असुर परसपर शरीरो को काटने के िलए वयग, असतो से
युकत हाथवाले होकर ऐरावत आिद िदगगजो की सनतितरप हािथयो की सेनाओं की बडी-बडी पीठो से सदृश िवशालपीठो
को पीसने की तरह पीडा करने वाले बडे भारी सामगी के साथ सवारी करने से शोभा को पापत होकर आकाश मे घूमते
थे।।21।। कटे हुए िसर, हाथ, भुजा और उरओं के समूहो से, जो आकाश और िदशाओं मे उतपातसूचक िटिडडयो
के तुलय घूम रहे थे, मेघो की घटाओं की तरह सारा जगत का मधयभाग, ऐसा हो गया िक उसमे सूयर, िदशाओं के तट
पर शैल समूह ये सब के सब आचछािदत हो गये।।22।। भली भाित छोडे गये, िसंहनाद कर रहे योदाओं के टकराने
से समर मे टू ट रहे तथा परसपर के टकराने से टुकडे-टुकडे होकर िगर रहे आयुधो से और केिपणी आिद यनतो दारा
फेके गये पतथर, पवरत आिद से समूहो के िछन-िभन हुई पृथवी चूर चूर हो गयी।।23।। परसपर आयुध िशला, पवरत,
वृको की वषा से तथा मेर के समान िवशाल किठन शरीरो के परसपर टकराने से उतपन हुए बडे भारी भीषण उग नादो
से िजसमे चटचट शबद से आकाश फूट रहा था, ऐसा वह रण पलय के समान हुआ।।24।। िजसमे पचणड आँधी से
नीचे जल और अिगन कुबध थे तथा ऊपर सूयर कुबध थे ऐसे दो कपालवाला, माया से बढे हएु सुर और असुरो के समूह से
पूणर, िजसके पानतभाग की दीवारो के कोने खिणडत हो गये थे, ऐसा बाहणड अकाल मे हुए पलय के समान भीषण
हुआ।।25।। अपने सदृश िवशाल और िनिबड आयुधो से आहत अतएव खूब घूम रहे, घूमने मे शबद कर रहे, िवशाल
गुहाओं के तेज वायु रपी पीडा से कराह रहे-से, दीघर हो रहे पापत िसंह के शबदो से रो रहे से िसथत हुए पवरतो के
िशखरो से िदशाओं के तट भर गये।।26।। वायु से वयापत वन के पते की नाई भीतर ही भीतर घूम रहे माया िनिमरत
नदी, समुद, योदा, िनिबड अिगनदाहो से, वृको से, देवता और असुरो के शवो से, पवरतो से, चटानो से तथा बाण, तलवार,
चोखी-चोखी शिकतया, गदाओं और शसतासतो से िदशाओं के तट भर गये।।27।। मेर पवरत के नीचे के पवरतो के
सदृश पिरमाणवाले अतएव मनुषयािद के संचार के िनरोधक होने से गमनागमन के अयोगय पूवोकत दुदानत हिसत सेनाओं
के शवो से िदशाओं के तट भर गये थे और िगर रहे योदाओं के शरीररपी पवरत और वायु से ढहे हुए देवनगरो से सब
िदकतटो के सागरो के समूह पूणर हो गये थे।।28।। उस समय बहाणड की उदरगुहा िनिबड घुंघुम धविन से पिरपूणर
आकाशवाली, खून से धोये हएु पवरत, पृथवी, पाताल आिद से युकत, खून का तालाब ही िजनका आहार है, ऐसे िपशाचािद
की तरह वृितवाली होकर आकुल हो गई।।29।। इनदयािद देवताओं के िवसतृत भय आिद का िवकार कराने वाली
(अिवदापक मे ितिवध पिरचछेद शूनय आतचैतनय मे फैले हुए जगदूप िवकार को कराने वाली कयोनमुख और उदयोनमुख
लोगो के िलए सुख और दुःख को कहने वाली, पिसद सूर और असुरो के (अिवदापक मे अशासतीय िचतवृित रप
असुरो के और शासतीय िचतवृितसवरप सुरो के) परसपर समागम से संकटाकीणर रणिकया अिवदािद संसार के सदृश
हुई।।30।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अटाईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआ आआ, आआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआआआआआ आआ
आआआ आआ,
आआआआआ आआआ आआआआआ आआ, आआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ । आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, इस पकार के वयगता बहुल रणारमभवाले अतयनत कोधयुकत पाणगाही
असुरो ने बडा भारी संगाम सहसा आरमभ िकया। उस युद को देवताओं ने िकसी समय एक मात वागयुद से, िकसी
समय दानािद उपाय दारा सिनध से, िकसी समय पलायन से, िकसी समय धैयर से, िछपकर अपने लोगो की रका करने
से, िकसी समय कृपण के सदृश शरणागित की याचना आिद से, िकसी समय असतयुद से और बार-बार अपने
अनतधानो से तीस वषर तक चलाया, दूसरा युद पाच वषर आठ महीने दस िदन चलाया और तीसरा युद बारह वषर तक
चलाया। तब तक लगातार दोनो सेनाओं मे पेडो, अिगनयो, आयुधो और मुखय-मुखय वजो और पवरतो की वृिषया
िगरी।।1-4।। इतने समय तक अहंकार का दृढ अभयास होने के कारण वासना से गसतिचत हुए दाम, वयाल और
कट ने 'अहम्' ऐसा अिभमान गहण कर िलया।।5।।
अिभमान क अभयास अहंकार की दृढता का हेतु है, इसे दृषानत दारा दशाते है।
जैसे अतयनत िनकटता होने के कारण दपरण िबमब से युकत हो जाता है वैसे ही कलपना का अभयास होने के
कारण वे अहंकार को पापत हुए।।6।। जैसे दूर िसथत वसतु दपरण मे पितिबिमबत नही होती वैसे ही अभयास का तयाग
करने के कारण पदाथर मे वासना उतपन नही होती।।7।। जब अहंकार ही आतमा है, ऐसी वासना वाले दाम आिद हुए,
तब मेरा जीवन रहे, मेरा धन हो, इस पकार के आशय वाले वे दीनता को पापत हुए।।8।।
तदननतर िविहत-िनिषद पवृित की वासना से वे गसत हुए। तदननतर मेरा शरीर नीरोग, दृढ और भोगसमथर
हो, इतयािद मोहवासना से गसत हुए। तदननतर आशारपी पाशो से बँधे हुए वे मुगधा के समान कृपणता को पापत हुए।
तदननतर जैसे रससी मे सपरतव की कलपना होती है ऐसे ही अहंकारशूनय दाम, वयाल और कट ने ममता की कलपना
की।।9-10।। पैर से लेकर मसतक मेरा सारा शरीर कैसे िसथत हो, 'मेरा' इस पकार की तृषणा से कृपण हुए वे
दीनता को पापत हुए।।11।। मेरा शरीर िसथर हो, मेरे सुख के िलए धन हो, इस पकार की बदमूल हुई बुिद से युकत
उन लोगो का धैयर िछप गया।।12।। दाम आिद दैतयो के वासनायुकत होने के कारण शरीर मे अलप सामथयर होने से
पहले जो पहार करने मे ततपरता थी, वह तुरनत िमटाई हुई िलिप के समान कायर मे असमथर हो गई।।13।। हम इस
जगत मे कैसे अमर हो, इस िचनता से िववश हुए वे जल से िनकाले गये कमलो की तरह दीनता को पापत हुए।।
14।। अपने अहंकार वाले दाम, वयाल और कट की सती, अन-पान से िवषयो की भावना मे िसथत अतएव संसार को
पापत कराने वाली भीषण आसिकत हुई।।15।। तदननतर जैसे मत हािथयो से खूब कुिपत हुए वन मे हिरण अपने
जीव के िवषय मे पयतशील होते है वैसे ही उस रण मे भय के कारण वे अपने जीवन मे पयतशील हुए।।16।। वे
लोग हमे मारेगे, हमे मारेगे, इस िचनता से आहत हृदय होकर कुिपत ऐरावतवाले रण मे धीरे-धीरे घूमने लगे।।17।।
मरण से भयभीत हुए एकमात शरीर को चाहने वाले उनके िसर पर अलप बल होने के कारण शतुओं ने पैर रख ही
िदया।।18।। जैसे लकिडयो के जल जाने पर अिगन चर को नही जला सकती वैसे ही कीण बल होने के कारण वे
अपने सनमुख आये हुए योदा को मारने मे समथर नही हएु ।।19।। पहार कर रहे देवताओं के सामने मचछररपता को
पापत हुए कत-िवकत शरीरवाले वे अनयानय साधारण योदाओं की नाई िसथत हुए।।20।। बहुत कया कहे, मरण से
भयभीत िचतवाले वे दाम आिद दैतय देवताओं के आकमण करने पर समरभूिम को छोडकर भाग िनकले।।21।। सवगर
मे खयाित पापत िकये हुए दाम-वयाल-कट नामक उन दैतयो के भयभीत होकर चारो ओर भागने पर भागी हुई सारी दैतय
सेना आकाश से इधर-उधर चारो ओर िगरता है।।22,23।। सुमेर पवरत के कु ंजो मे, पवरतो के िशखरो की चटानो
पर, समुदो के तटो पर, मेघो की घटाओं मे, सागर के भँवररप गतों मे, अनयानयगतों मे, बाढ से बढी हुई निदयो मे,
जंगलो मे, जलते हुए िदशा के पानत पदेशो मे, जलते हुए वनो मे, देवता और असुरो के बाणो से धवसत हुए देशो मे, गामो
और नगरो मे, िसंह, वयाघ आिद के िनवासभूत गहन अटिवयो मे, मरभूिमयो मे, लोकालोकपवरत के पानत देशो मे, पवरतो
मे, तालाबो मे, आनध, दिवड, कशमीर और पारसीक नगरो मे, नाना (►) समुदो मे िजनकी तरंगे िगरती है, ऐसे गंगाजल
के मुहानो मे, अनयानय दीपो मे, मछिलयो को पकडने के िलए फैलाये हुए जालो मे, जमबूखणडनामक देशो की लताओं मे,
मतलब यह िक सब ओर पवरत के आकार वाले वे दैतय िगरे।
► गंगा जी हजार मुँहो से समुद मे पवेश करती है, इसिलए एक भी समुद पदेशभेद से नाना कहा गया है।
उनमे िकसी के शरीर और पैर िछन-िभन थे तो िकसी के हाथ और भुजाएँ कट गई थी, िकनही के आँतडीरपी
ताते शाखाओं मे लगी थी, और वे सब के सब शरीर से खून की धारा की वषा कर रहे थे उनके मसतक के माला,
आभरण आिद असत-वयसत हो गये थे, उनके चरण अतयनत कट-फट गये थे, आँखो से कोध टपक रहा था।।24-
30।। वे लोग आयुधो से युकत थे, सेनाओं ने माया दारा और बाणो दारा उनके कवच और आयुध नष-भष कर िदये
थे, दूर भागने से असत-वयसत हएु एक पकार के उनके असत और वसतो की शेिणया िगर रही थी, गले मे लटके हएु
िशरसताणो के चटचट शबद से उनको बडा भय हो रहा था, सैकडो िशखाओं से, िजनके अगभाग मे गाठे थी, वे पवरत
की चोिटयो की िशलाओं मे गुँथे गये थे, अतएव उनके शरीर लटक रहे थे, काटेदार सेमल के पेडो मे जोर से िगरने पर
चुभ रहे काटो से वे बडे संकटाकीणर हो गये थे, बडी-बडी िशलारपी फलको मे टकराने से उनके मसतक के सैकडो
टुकडे हो गये थे।।31-33।। जैसे वषाऋतु मे जल मे धूिलकण नाश को पापत होते है, वैसे ही इस पकार सभी
असुरनायक सब शसतो के समापत होने के अननतर ही िदशाओं मे नाश को पापत हो गये।।34।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआ आआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआ
आआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ । आआ आआआआआआ
विसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इस तरह दानवो के नष हो जाने पर और देवताओं के सनतुष होने पर
अतयनत िखन हुए दाम, वयाल और कट शमबर के भय से वयाकुल हो गये।।1।। शमबरासुर की सारी सेना नष हो
गयी थी, अतएव जल रही पलयकाल की अिगन की तरह कुिपत हुआ 'वह कहा गये' यो दाम, वयाल और कट के पित
जल उठा।।2।। तदननतर दाम, वयाल और कट शमबर के भय से अपने देश को छोडकर सातवे पाताल मे चले
गये।।3।।
वहा पर भी कया उनहे शमबर का भय नही था ? इस शंका को दूर करने के िलए कहते है।
जहा पर नरकरपी समुद की रका करने वाले यमराज के सेवक सवेचछा से रहते थे। वे काल की तरह औरो
को भयभीत करने मे समथर थे, अतएव वहा पर शमबर का भय न था, यह भाव है।।4।। तदननतर भवरिहत यमराज
के सेवको ने शरण मे आये हुए उन तीनो को अभय देकर मूितरमती िचनताओं की तरह कम से तीन कनयाएँ दी।।5।।
अननत कुवासनाओं को पापत हुए उन दाम आिद ने वहा पर दस हजार वषर पयरनत शेष आयु यमराज के सेवको के साथ
िबताई।।6।।
उन कुवासनाओं को ही िवसतार से िदखलाते है।
यह मेरी सती है, यह मेरी कनया है और यह मेरी पभुता है, इस पकार दुरह सनेह बनधन से युकत उनका समय
बीता।।7।। तदुपरानत िकसी समय यमराज अपनी इचछा से महानरको के कायर का िवचार करने के िलए उस पदेश
मे आये।।8।। छत, चामर आिद िचहो को न देखने के कारण वे यमराज को नही पहचान सके, अतएव साधारण
सेवक के समान उन तीनो असुरो ने अपने िवनाश के िलए उनहे पणाम नही िकया।।9।। तदुपरानत यमराज ने अपने
एकमात भकुिट चढाने से ही उनहे जलती हुई रौरवािद भीषण नरक भूिमयो मे पहुँचा िदय।।10।। जैसे वनािगन दारा
छोटे-छोटे वृक जलाये जाते है, वैसे ही वहा पर करण कनदन करने वाले वे अपने इष िमत, सती, बनधु-बानधवो सिहत
रौरवािद नरको की अिगनजवालाओं से जलाये गये।।11।। तदननतर वध और बनधनकमर करने वालो के आकार के
राजिकंकर िकरात हएु ।।12।। िकरात जनम का तयाग करके गतों मे कौए हएु , कौओं के जनम के बाद उनहे गीध का
जनम िमला, उसके बाद वे सुगगे हुए, िफर ितगतर देश मे वे सूकर हुए और पवरतो मे मेघ हुए। तदननतर उन कुबुिदयो ने
मगध देश मे कीटता धारण की।।13,14।। हे शीरामचनदजी, अनय िविवध योिनपरमपराओं का भोग कर अब वे
काशमीर देश के जंगल की तलैया मे मछली बनकर िसथत है।।11।। सूखे हुए कीचड से लथ-पथ शरीरवाले और
वनािगन से खौलाया हुआ थोडा-थोडा कीचड के तुलय गनदा जल पीने वाले वे न तो मरते है और न जीते ही है।।
16।। जैसे समुद मे तरंगे हो होकर नष हो जाती है वैसे ही िविचत योिनयो मे भमण का अनुभव कर पुनः पुनः हो
होकर वे पुनः नष हुए।।17।। हे शीरामचनदजी, संसाररपी जलिध मे पडे हुए वे वासनारपी तंतुओं से पेिरत होकर
देहरप तरंगो से तृण की तरह िचरकाल तक िविवध पदेशो मे पहुँचाये गये। यहा भी वे अपिरचछेद फलरप शािनत को
पापत नही हुए है। वासना की भीषण महाअनथररपता को इसी दृषानत से आप सवरत देिखये।।18।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआआआ आआआआ आआआआआआ आआ
आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः इसिलए हे महामित शीरामचनदजी, आपको सरलता से समझाने के िलए दाम-वयाल-कट-
नयाय आपका न हो, ऐसा मै कहता हँू।।1।। िववेक का अनुसनधान न होने से िचत इस पकार की आपित को अननत
जनमरपी दुःख के िलए अनायास गहण करता है।।2।। कहा तो देवताओं का िवनाश करने वाली शमबरासुर की
सेनाओं का सेनापिततव और कहा वनािगन के ताप से तपी हईु कीचड रािश मे जीणर-शीणर मिलनता ? भाव यह िक पहले
की िनरिभमािनता से पीछे के अिभमान मे फलतः बडा अनतर है।।3।। कहा देवताओं की सेना को भगाने वाला वह
महान धैयर और कहा िकरात राज की कुद सेवकता ?।।4।। कहा िनरहंकार िचनमय सततव की उदार धीरता और
कहा िमथया वासना के आवेश से अहंकार की कुकलपना ?।।5।। शाखाओं के िवसतार से गहन, चारो ओर फैली हुई,
भौरो से भरी हईु संसार रपी यह िवषलता अहंकाररपी अंकुर से ही आिवभूरत होती है।।6।। इसिलए हे
शीरामचनदजी, आप अपने अनतःकरण से अहंकार को पयतपूवरक हटा दीिजए। मै कुछ भी नही हूँ, ऐसी भावना कर
सुखी होइये। भाव यह है िक जड दृशय मे सवरत िचनता का ही दशरन होता है, अतः उसमे अहनतव का योग नही है,
अहंकार आिद सबके साकी दषासवरप मे अिभमानरप धमर का समभव न होने से अहनतव हो नही सकता। दषा और
दृशय से अितिरकत कुछ भी नही है, इसिलए अहनतव का आशय कुछ भी नही है, ऐसी यथाथर रप से भावना कर सुखी
होइये।।7।।
अहंकार की अनथर हेतुता कह कर वह पुरषाथर का िवघात भी करती है, ऐसा कहते है।
अहंकाररपी मेघ से आचछािदत, आननदैकरस, तीनो तापो से रिहत पुरषाथररपी चनदमणडल अदृशय हो गये
है।।8।। माया के माहातमय से दानव बने हुए दाम, वयाल और कट ये तीनो यदिप जनम-मरण की सता से रिहत थे
तथािप अहंकाररपी िपशाच से पीिडत होकर जनम-मरण पवाह की सता को पापत हएु ।।9।। हे शीरामचनदजी, इस
समय वे काशमीर देश मे गहन वन की तलैया मे सेवार के टुकडो के अिभलाषी मतसयरप से िसथत है।।10।।
असनतोऽिप गताससताम् यह सुनकर शीरामचनदजी उसकी अनुपपित की शंका करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, असत् पदाथर की सता नही है और सत् का अभाव नही होता, वह पिसद है।
ऐसी िसथित मे असत् वे दाम आिद कैसे सता को पापत हुए, यह कृपाकर मुझसे किहये।।11।।
अपने िवशेष अिभपाय को कहने के िलए शीविसषजी पहले शीरामचनदजी की शंका का सवीकार कर उसका
पिरहार करते है।
शीविसषजी ने कहाः महाबाहो, जैसा आप कहते है वैसा ही है। सतय वसतु कही भी कुछ भी असत् नही हो
सकती, िकनतु सत् ही सूकम आिवभाव से बृहत् होता है, वही उसकी उतपित है। बृहत् ितरोभाव से सूकम हो जाता है,
वही उसका िवनाश है, यह भाव है।।12।।
भले ही ऐसा हो, पर ऐसी अवसथा मे अनातमवसतुओं मे सता और असता के िवभाग क िनरपण ही करना
किठन हो जायेगा, ऐसा कहने वाले शीविसषजी शीरामचनदजी से पूछते है।
हे शीरामचनदजी, कौन वसतु सत् है अथवा कौन असत् है, यह बतलाइये, मै भलीभात दृषानत से आपको
समझाऊँगा।।13।। शीरामचनदजी ने कहाः बहन्, ये हम लोग सत् होकर ही िसथत है। असत् भी दाम आिद सत् है,
ऐसा आप कहते है। भाव यह है िक हम लोगो की सता पतयक आिद पमाण से िसद है। माया मात होने से दाम आिद
की असता सवयं आपने ही कही है, िफर पूवापर िवरद उनकी सता आप कैसे कहते है, कृपया बतलाइये, आपका कया
अिभपाय है ?।।14।।
यिद वयावहािरक पमाणो के वयवहारयोगय होने के कारण हम लोगो के शरीरो की आप सता मानते है, तो दाम
आिद की वह सता समान ही है। यिद तततवजान से बाधय होने के कारण या दुिनररपणीय होने के कारण असता कहते
है, तो वह भी उनकी हमारे तुलय ही है, इसिलए मेरे कथन मे कुछ िवरोध नही है, इस आशय से विसषजी उतर कहते
है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जैसे दाम आिद मृगतृषणा के जल के पवाह के सदृश मायामय होने से
असतय होते हुए भी सतय के सदृश िसथत है वैसे ही देवता, असुर तथा दानवो के सिहत ये हम लोग भी असतय होते हुए
भी बोलते है, जाते है और आते है।।15,16।। सवप मे अनुभूत अपना मरना जैसे अलीक (अवासतिवक) है, वैसे ही
अनुभूत होता हुआ भी असदूप आपका भाव (राम शरीर भाव) अलीक ही है और मेरा भाव (विसष शरीर भाव) भी
अलीक ही है।।17।। जैसे मरा हुआ अपना बनधु सवप मे दृिषगोचर भी हो जाये, तो भी यह मर गया है, ऐसा यिद
जान हो, तो वह असनमय ही है वैसे ही अनुभूत यह जगत् भी असनमय ही है।।18।। िजसे जगत की सतयता का पूणर
िनशय है, वह अतयनत मूढ है, उसके पित यह जगत की असतयता का कथन सुशोिभत होता ही नही। परमाथर तततव के
िवचार के अभयास के िबना 'जगत सतय' है इस अनुभव का अपलाप उिदत नही होता।।19।।
इसी पकार पूवोतपन कुसंसकारो का नाश शासताथर तततव के अभयास के िबना उिदत नही होता, ऐसा कहते
है।
हृदय मे जो आरढ हुआ जो िनशय पापत हो गया, इस लोक मे कभी िकसी का भी वह िनशय शासताभयास के
िबना नष नही होता।।20।।
अतएव अनािधकारी पुरष मे उपदेशवचन उनमत के पलाफ के तुलय होने से अज और अिभज दोनो के उपहास
के योगय होता है, ऐसा कहते है।
यह जगत् असतय है, बह सतय है, ऐसा जो अनिधकारी के पित कहता है, उनमत और िवमूढ पुरष भी उसका
उनमत के तुलय उपहास करता है।।21।।
यिद अजो को उपदेश न दे और अजो के साथ अजचेषा से ही जानी भी वयवहार करे, तो वह भी अज ही हो
जायेगा, ऐसी अवसथा मे अज और जानी की एकता हो जायेगी, ऐसी आशंका पर कहते है।
जैसे मिदरा के नशे मे मत और नशे से रिहत पुरष की, अनधकार और पकाश की एवं छाया और पकाश की
एकता नही हो सकती वैसे ही बोध िवषय मे अज और जानी की भी एकता यहा नही हो सकती।।22।।
इसिलए भी अज को उपदेश नही देना चािहए, ऐसा कहते है।
जैसे शव अपने चरणो से भमण नही कर सकता वैसे ही अज पुरष को चाहे िकतने ही अिधक पयत से कयो न
समझाये, तथािप वह भीतर मन, बुिद आिद के भेद से और बाहर रप, रस आिद के भेद से अनुभूत दैतरप अथर का
सतय अिधषान मे 'नेित नेित' से बाध नही कर सकता और अधयसत पदाथर के बाध के िबना अिधषान तततव का बोध
नही िकया जा सकता, इसिलए उसको बोध का उपदेश देना वयथर है।।23।।
तमेतं वेदानुवचनेन बाहणा िविविदषिनत यजेन दानेन तपसा नाशकेन' इस शुित से जान मे अिधकार की िसिद
के िलए तप आिद का िवधान है, इसिलए भी तप, उपासना आिद से असंसकृत अज उपदेश के योगय नही, ऐसा कहते
है।
समपूणर जगत बह है ऐसा उपदेश देने के िलए अज योगय नही है, कयोिक तप, िवदा आिद का अनुभव न होने
पर यानी अनुभव पयुकत संसकार न होने पर इस अज ने संसारी देहातमभाव का ही अनािदकाल से अनुभव िकया है,
कभी भी अंससारी आतमभाव का अनुभव नही िकया।।24।।
तब कहा पर उपदेश वचन सुशोिभत होते है, इस पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, यह उपदेश वाणी अपने पबुद के िवषय मे ही सुशोिभत होती है। जो पुरष पूणर पबुद हो
गया। उसको तो 'अिसम' (मै हँू), इस पकार अहंकारसपदरप से परामशर करने के िलए कुछ भी नही है, इसिलए वह भी
उपदेश के योगय नही है।
इस गनथ के आरमभ मे कहा भी है। 'नाऽतयनतमजो नो तजजः सोऽिसमन् शासतेऽिधकारेवान्।' अथात् वह जो
न अतयनत अजानी है और न पूणर जानी है, वह इस शासत मे अिधकारी है।।25।।
'मै हँू,' यह बोध करने की शिकत न होने से जैसे 'अहं बहािसम' इस वाकयाथर बोध मे पूणर जानी का अिधकार
नही है वैसे ही िनषेधय वसतु के न होने से नेित नेित इस अपहव वाकयाथर बोध मे भी जानी का अिधकार नही है, ऐसा
कहते है।
यह सब शानत परम बह ही है, जानी इस पकार अनुभव करता है। उसकी अपनी अनुभूित का अपलाप कौन
कर सकता है ?।।26।।
यिद कोई शंका करे सुवणर मे अँगूठी के अपलाप की तरह अहंकार का ही बह मे अपलाप जानी कयो नही
करता है ? तो इस पर कहते है।
आतमा मे परबह से अितिरकत सवणर मे अँगूठी के आिद के समान पातीितक भी अहंपद वाचय जानी के िलए
कुछ नही है, कयोिक अिदतीय आतमा मे अज आदमी के समान िविशषता भािनत से भी नही है, िजसमे िवशेषण का
अपलाप िकया जाय।।27।।
जानी की दृिष से जगत की तरह अजानी की दृिष से परमाथर भी अतयनत असत् है, इसिलए उसे परमाथर
तततव का अिसततव समझना किठन ही नही, बिलक असंभव है ऐसा कहते है।
मूढ पुरष आतमा मे पंचभौितक कायरकारण मात से अितिरकत कुछ भी नही जानता, इसिलए अँगूठी की बुिद मे
सुवणर की तरह अजानी मे परमाथरता नही है।।28।।
उकत िवषय को ही संकेप से सपषतया कहते है।
मूढ िमथया अहंकारमय है और जानी एकमात सतयतततवमय है, इन दोनो के सवभाव का अपलाप कही पर कोई
भी नही कर सकता। िजसका जैसा सवभाव रहता है, उसमे उसका अपलाप कैसे हो सकता है ? पुरष का 'मै घट हूँ'
यह वाकय उनमत पलाप नही तो और कया है ?।।29,30।।
िजसे अनय आतमा का (संसारी देहातमा का) िनशय है उसे अनय आतमा का (असंसारी आतमा का) उपदेश तो
वयथर है, इसमे दृषानत देते है।
ये पतयक िदखलाई दे रहे विसष, राम आिद देहरप से पिसद हम लोग एवं दाम आिद शासत दृिष से भी सतय
नही है। हम लोगो का समभव है ही नही यानी यौिकततदृिष से ही हम लोग असतय है।।31।।
तब कया सतय है ? उसे कहते है।
शुद, सवरगत, शानत, िनिवरकार िचदाकाश जान के समान शासतदृिष से भी सतय है, िवदानो के अनुभव से भी
सतय है और यौिकतकदृिष से भी वही अनतरिहत उदय से युकत है।।32।।
सारा जगत उपरत हो गया।
शंकाः कया ऐसा उपरत हुआ िक शूनय ही शेष रह गया ?
समाधानः नही शूनयरिहत उपरत हुआ।
शंकाः तब उपरत कैसे हुआ ?
समाधानः सवरशूनय की तरह (न िक शूनय ही) सनमात पूणरभाव से िसथत है।
हे शीरामचनदजी, उस िचदाकाश मे ये अपनी अनयथा रप से पथारपी सृिषया शोिभत होती है।।33।। जैसे
ितिमर रोग से पीिडत आँखवाले पुरष की सवाभािवक ही दृिषया केशो के वतुरलाकार गोलो की तरह मालूम होती है वैसे
ही उसमे ये सृिषया शोिभत होती है।।34।। वह सतयातमा अपने आतमा को िजस-िजस पकार से जानता है ठीक
उसी पकार से एक कण मे अनुभव करता है। इसिलए सतयातमा के दृिषबल से असतय वसतु भी एक कण भर मे सतय
सी हो जाती है।।35।।
यिद सतयातमा के दृिष बल से असतय भी सतय हो जाता है, तो जगत का कया सवरप है इस पर कहते है।
इसिलए तीनो जगतो मे न कुछ सतय है न असतय है। चेतनरप आतमा िजसको जैसे जानता है, वह उस
पकार उिदत होता है। इसमे सनदेह नही।।36।। जैसे दाम आिद उतपन हुए है वैसे ही हम लोग भी उतपन हुए है।
उनही के पित सतय असतय की कलपना कयो ? यह अननत िचदाकाश सवरगामी सवरवयापक और िनराकार है। जो िचित
अनतःकरण मे जैसे उिदत होती है, वैसे ही वहा पर पतीत होती है। जहा पर संिवत् दामािद के रप से सवयं ही िवकास
को पापत हुई, वहा पर वह वैसे आकार के अनुभव से वैसी ही बन गई।।37-39।। जहा पर हम लोगो के सवरप से
संिवत् सवयं उिदत हुई, वहा पर वह पैसे आकार के अनुभव से वैसी ही बन गई।।40।। जैसे मरसथल की
सूयरिकरण के ताप की मृगतृषणारपता होती है वैसे ही अपने सवप के तुलय िचदाकाश के शूनय शरीर का िचदाकाश ने ही
जगत यह नाम रख छोडा है।।41।। जगत के िवषय मे जागरक 'बाहपदाथरजानरप' िचदाकाश है, उसका उसी ने
दृशय नाम रखा है, अिदतीय पकाशरप अपने आतमा मे सोया हुआ यानी बाह उपलिबधरिहत जो िचदाकाश है, उसका
उसी ने मोक नाम रखा है। शुित भी है, यत िह दैतिमव भवित तिदतर इतरं पशयित यत तवसय सवर मातमैवाऽभूत ततकेन
कं पशयेत'् (िजस अवसथा मे दैत-सा होता है, उस अवसथा मे अनय को अनय देखता है, जहा पर सब इसका सवरप ही
हो गया, उस अवसथा मे कौन िकसको िकससे देखे ?)।।42।।
वे तो दूसरे को समझाने के िलए दो अवसथाएँ सादृशय की कलपना से कही गई है, वासतिवक जो िसथित है,
उसे तो अब कहते है।
वह िचदाकाश न तो कभी सोया है और न कभी जाना है, िचदाकाश ही दृशय जगत है, ऐसा आप िनशय
जािनये।।43।।
िनवाण ही सृिष है तथा सृिष ही िनवाण है। घट, कलश पयाय शबदो के समान इन दोनो शबदो का अथर िभन
नही है।।44।। जैसे ितिमर रोग से पीिडत नेत केशो का वतुरलाकार गोला सा देखता है वैसे ही अजानोपिहत आतमा
सवयं अपने परमाथर और जगत यो दो रप जानता है।।45।। िकनतु वह केशो का वतुरलाकार गोला कुछ भी नही है,
वह दृिष ही वैसी िसथत है, इसी पकार यह दृशय कुछ नही है, यह िचदाकाश ही इस पकार इस रप से िसथत है।
अधयारोपदृिष मे सवरगामी िचदाकाश मे सबका आरोप हो सकने से सवरत यथानुभूत यह सब है। अपवाद दृिष मे तो
यह अनुभूत कही पर कुछ नही है। इस पकार पूवोकत दोनो पकारो मे यह जगत भेदरिहत अतएव अिदतीय सत् पूणर है,
इसिलए आप भी शोक, भय और भेद का तयाग कर पूणर होइये।।46,47।। सफिटक िशला के मधय भाग के समान
शूनयाकार पतीत होता हुआ भी घन, शानत, िनमरल महािचित का यह रप उसमे पितिबिमबत वन, नगर नदी आिद के
सवरप के समान है। नही है, इस दृिष मे तो कही नही है और जो पितभानमात से है, वह िचदूप ही सपषरप से वैसा
भािसत होता है।।48।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआ आआआ आआ
आआआआआआ आआआ आआआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआआ आआ
आआआआआआ आआ आआआआआ।
शीरामचनदजी ने कहाः हे मुिनवर, बालके के यक और िपशाच की नाई अजािनयो की दृिष से सत् होते हएु भी
वासतव मे असत् दाम, वयाल और कट के दुःख का अनत कब होगा ?।।1।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी ! दाम, वयाल और कट के बानधवरप उन यम िकंकरो ने उसी समय
यम से िवनती की। उनके िवनय करने पर यम ने यह कहा, उसे सुिनये।।2।। जब ये दाम आिद िवयोग को पापत
होगे और शमबर की माया से किलपत जीवभावरपता तथा वासनारिहत अिदतीय िचनमातरपता की अपनी कथा को
सुनेगे, तब ये अपने यथाथर तततव को जानकर मुकत हो जायेगे।।3।। शीरामचनदजी ने कहाः हे बहन्, वे अपने इस
वृतानत को कहा, कब कैसे और िकससे सुनेगे ? इसे आप कम से कहने की कृपा कीिजए।।4।। शीविसषजी ने
कहाः हे शीरामचनदजी, काशमीर देश मे बडे भारी कमलो के तालाब के तीर की तलैया मे बार-बार मछली की योिनयो
का भोग करके गीषम ऋतु मे भैस, सूअर आिद से िजनकी तलैया रौदी गई थी, अतएव चंचल तथा समय पाकर कल के
िशकार हुए वे उसी कमल के तालाब मे सारस होगे।।5,6।। वहा पर शेत कमल की पंिकतयो से युकत भाित-भाित के
कमलो की शेिणयो मे, सुनदर सेवाल की लताओं मे, तरंगो मे, िहल रहे फूल रपी झूलो से युकत नील कमल की लताओं
मे तथा शीतल आवतों मे िसथत अतएव जलिबनदुओं को बरसा रही मेघपंिकतयो मे िविवध सरस भोगो को भोग कर बहुत
िदनो तक खूब िवहार कर शुद हुए भुवनभूषण वे सारस जैसे िववेकदृिष से पयालोिचत होने पर सततव, रज और तम
मुिकत के िलए भेद को पापत होते है वैसे ही िवचारबुिद को पापत हो सवेचछा से मुिकत के िलए िववेक को पापत कर
िवमुकत होगे।।7-10।। उकत काशमीर देश के मधय मे पवरतो और वृको से सुशोिभत बडा सुनदर अिधषान नाम का
नगर होगा।।11।। जैसे कमल के बीच मे किणरका होती है वैसे ही उस नगर के मधय मे पदुम िशखर नाम का लाघन
योगय छोटा िशखर होगा, उस पवरत के िशखर पर अनय घरो के राजा के समान कोई घर होगा, उसकी आकाश को छू ने
वाली अटािलका होगी, अतएव वह पवरत के िशखर पर िसथत दूसरे िशखर के समान होगा। उस घर के ईशान कोण मे
ऊँची दीवार की दरार मे एक घोसला है, िनरनतर बह रहे वायु से उसके आस-पास के तृण िहलाये जाते है, ऐसे अपने
घोसले मे वयाल नाम दानव गौिरया बनेगा, िजसने पहले थोडा-सा शासत पढा हो, ऐसे बाहण के समान उसकी ची-ची
कूची आिद धविन अथर राजा होगा।।16।। दाम नाम का दानव उसी राजा के महल मे िवशाल सतमभ की पीठ के छेद
मे मृदु धविनवाला मचछर होगा।।17।। उसी अिधषान नाम के नगर के अनदर उस समय रतावली िवहार नाम का
िवहार (कीडागह) भी होगा।।18।। उसमे उस राजा का मनती रहेगा, जो नरिसंह नाम से िवखयात होगा और िजसे
बनध और मोक शुित, युिकत, गुर उपदेश और अपने अनुभव से करामलक के समान िनशय होगा।।19।। मायामय
असुर कट उस मनती के घर मे उसका कीडा साधन एक मैनारप होगा, चादी के िपंजडे मे उसका िनवास होगा।।
20।।
राजमनती वह नरिसंह शलोको से रची गई, दाम, वयाल और कट आिद की यह उतम कथा कहेगा।।21।।
उस मैनारपधारी कट का, िजसे उस कथा को सुनकर अपिरिचछन आतमा का समरण हो जायेगा, शमबर दारा किलपत
जीवरप बािधत हो जायेगा, इस तरह वह आवागमनशूनय परम िनवाण को पापत होगा।।22।। पदुम नामक िशखर के
एक पदेश मे रहने वाला गौिरया वहा पर रहने वाले लोगो के मुँह से उकत कथा को सुनकर परम िनवाण को पापत
होगा।।23।। राजमहल के सतमभरप लकडी की दरार मे रहने वाला मचछर भी पसंगवश लोगो दारा कही जा रही
अपने पूवरजनम के वृतानतो से युकत बहकथा को सुनकर शािनत को पापत होगा।।24।। इस पकार हे शीरामचनदजी,
पदुम िशखर से गौिरया, राजमहल से मचछर और रतावली िवहारनामक कीडागृह से मैना ये तीनो मुकत हो जायेगे।।
25।। हे शीरामचनदजी, मैने आपसे इस पकार यह दाम, वयाल और कट की कथा का कम समपूणर कहा। इस पकार
संसार से शूनय होती हुई भी संसाररप से अतयनत दैदीपयमान यह माया ही मृगतृषणा मे जलबुिद की तरह जानवश पुरषो
को चकर मे डालती है।।26।। हे शीरामचनदज, इससे मोिहत हुए मूढ लोग दाम, वयाल औ कट की नाई अजानवश
अनयानय पदो की अपेका उनत अपिरपकव अजानदशारपी पद से नीचे िगरते है।।27।।
िनवासिनकता से पापत पूवरजनम के उतकषर की अपेका पीछे के मचछर आिद जनम का बडा भारी अनतर
िदखलाते है।
कहा भुकुटी मात से मिनदर और मेर के घरो को चूर-चूर करना, कहा राजा के महल के सतमभ की दरार मे
मचछररप से रहना, कहा हाथ के थपपड से सूयर और चनदमा के िबमबो के िगराने की सामथयर, कहा पदुम नाम के
िशखर मे िसथत घर की दीवार की दरार मे गौिरया बन कर रहना, कहा फूल के समान चंचल हाथ से मेर को तोलना,
कहा पवरत के िशखर पर नरिसंह के घर मे मैना का बचचा बने रहना ?।।28-30।।
अब राजस अहंकार से िचदाकाश के देहािद के आकार का अिभमान पकार िदखाते है।
िचदाकाश 'मै' इस पकार रजोगुण से रंिजत होता है, रजोगुण से रंिजत होकर वह अपने सवाभािवक
सवपकाशता का तयाग न करता हुआ ही अहंकार, पाण, देह, इिनदय आिद को आतमा समझता है।।31।। असतय होती
हुई भी सतय की तरह पतीत हो रही अपनी ही वासना की भािनत से मृगतृषणा मे जलबुिद के तुलय जीव िचदूप से मानो
िभनता को पापत होता है।।32।।
इस समय उस भेद से पार पाने का उपाय कहते है।
जो लोग महावाकयरप शासत से दृशय 'आगनतुक है', इस पकार िनवाण मे िसथत है, वे पतयगातमा मे उनमुख
बुिद से ही संसार सागर को पार करते है।।33।। जैसे जल गडढे की ओर जाते है वैसे ही जो नाना दुःख देने वाले
शुषक तािकरक मतो की ओर जाते है, वे पारमाथरक आतमभाव मे िसथित रप परमपुरषाथर पािपत का िवनाश करते है।
इसिलए तकर से ही उसका िनरणय हो जायगा, महावाकयो के अवलमबन की कया आवशयकता है, ऐसी शंका नही करनी
चािहए, यह भाव है।।34।।
औपिनषद मागर के साथ अपने अनुभव का भी संवाद है, तािकरक मतो के साथ अनुभव का संवाद नही, ऐसा
कहते है।
हे शीरामचनदजी, अपने अनुभव से पिसद शुित के अनुसारी मागर से परम गित को जा रहे लोगो का िवनाश नही
होता।।35।।
िकससे तब पुरषाथर का िवनाश होता है ? इस पर कहते है।
हे महामते, यह मेरे हो, यह मुझे पापत हो, इस पकार की बुिदवाले पुरष का अपनी दुभागय पयुकत दीनता से
नष हएु पुरषाथर की भसम भी शेष नही रहती।।36।।
इस पकार अिभलाषी की अनथरकािरता कह कर वैरागय की सवरअनथरिनवतरकता कहते है।
जो उदार पुरष तैलोकय को भी िनतय तृण समझता है, उसे आपितया इस पकार छोड देती है िजस पकार की
साप पुरानी केचुल को छोड देते है।।37।।
िवरकत पुरष को यिद थोडी भी जान किणका पापत हो, तो उसकी आपितया तो दूर हईु , बिलक सब देवता
अपने आधारभूत बहाणड की तरह उसकी सदा रका करते है, ऐसा कहते है।
िजसके अनदर सदा सतयसवरप बह का चमतकार सफुिरत होता है, उसका लोकपाल अखणड बहाणड के
समान पालन करते है।।38।। घोर आपित मे भी कुमागर मे पैर रखना ही नही चािहए। देिखये न, अनुिचत रीित से
अमृतपान करता हुआ भी महाबली राहू मृतयु को पापत हुआ।।39।। जो पुरष उपिनषदािद सतशासत और उनके
अनुसार चलने वाले साधु सजजन पुरषो के समपकर रपी सूयर का, जो िक परमातमा के साकातकार का हेतु है, अवलमबन
करते है, वे मोहरपी गाढ अनधकार के वशवती नही होते।।40।। िजसने गुणो के दारा यश पापत िकया, वश मे न
आने वाले पाणी भी उसके वशीभूत हो जाते है, सब आपितया नष हो जाती है और अकय कलयाण पापत हो जाता है।
िजनका गुणो के िवषय मे सनतोष (अहंबुिद) नही है, िजनका शासत के पित अनुराग है और जो सतय के वयसनी है, वे ही
वसतुतः नर है, उनसे अितिरकत िनरे पशु है। िजनके यशरप चनदमा की चादनी से पािणयो का हृदयरपी सरोवर
पकािशत है, कीरसमुदरप उनके शरीर मे िनिशत भगवान हिर का िनवास है।।41-43।।
अब जगत के िहतैषी िपता-माता से भी बढकर आपत शीविसषजी अनािद संसार मे पुनः पुनः सब अनथर
परमपराओं के फलो के साथ अनुभूत िवषयो मे और दृशय कौतुको मे कुछ भी अपूवर वसतु अविशष नही है, यह दशाते
हुए एवं वैरागय और शासतीय आचार मे िनषा की ही पशंसा करते हुए उनकी ओर जनता को अिभमुख करते है।
भोकतवय सब वसतुओं को भोग कर िलया, दृषवय वसतुएँ देख ली। आगे होने वाले जनमो मे अपने िवनाश के
िलए िफर भी भोगो मे लालच करना कया ठीक है ?।।44।। अपने अिधकार के अनुसार, उकत अिधकारी की
िचतशुिद के अनुकूल शासत के अनुसार और पहले-पहले के आचायों से पवितरत समपदाय के अनुसार, एक-एक भूिमका
मे जब तक भूिमका का पिरपाक न हो तब तक िसथित का तयाग न कर सब लोगो को रहना चािहए। अवासतिवक भोग
समूह का अपने हृदय से तयाग करना चािहए।।45।। सवगर तक पिसद हुए गुणो से पापत हुई कीितर से साधु जनो के
मुख से वाहवाही लेना चािहए। ये कीितर और सजजनो की वाहवाही मृतयु की रका करती है, तुचछ भोग कभी भी मृतयु से
ताण नही देते।।46।। अपसराएँ िजनके चनदमा के समान शुभ यश का आकाश के समान सब देश और कालो मे
वयापत गीतो से गान करती है, वे लोग ही जीते है और सब मरे है।।47।।
िकस पकार यश का समपादन िकया जा सकता है ? इस पर कहते है।
परमपौरष-यत का अवलमबन कर, सुनदर उदोग का गहण कर उदेग के िबना शासतानुकूल आचरण करता
हुआ कौन पुरष िसिद पापत नही करता ?।।48।। शासतानुसार कायर कर रहे पुरष को िसिदयो के िलए तवरा नही
करना चािहए, कयोिक िचरकाल मे पिरपकव हुई िसिद उतम फल देती है।।49। शोक, भय और कलेश को तयाग कर
शीघता के आगह को छोडकर शासतानुसार वयवहार करना चािहए अपना िवनाश नही करना चािहए।।50।। पचुर
पदाथों मे आसिकतवाले आप लोगो का जीव इस समय इिनदयरपी रससी से मानो मृतयु को पापत होकर संसाररप अनधे
कुएँ मे िवनष न हो।।51।। इस समय से लेकर िफर नीचे से नीचे आप मत जाइये। सैकडो तीकण बाणो से िजसमे
हाथी काटे गये है, ऐसे युद मे शीघ पापत हुए महाभय, मृतयु आिद आपितयो का िनवारण करने वाले असतरप इस
मोकशासत का िवचार कीिजए।।52,53।। गीषम ऋतु मे उबले हुए तालाब के दुगरनधपूणर कीचड के सदृश संसार मे
पुनः पुनः मरकर जीिवत हुए बूढे मेढक के समान जीने की आशा कया है ! यानी अित तुचछ है, इसिलए हृदय से
भोगवासना हटा देना चािहए। भोग के उपायभूत धन का कया आवशयकता है, इसिलए हे शेष पुरषो, इन सबका तयाग
कर मोकशासत का ही अवलोकन कीिजए।।54।। िवषयाकार वृित मे पितिबिमबत िचदाभासो का अनतःकरण
अविचछन चैतनय िबमब है और अनतःकरणरप उपािध उपिहत िचदाभास का तो शुद बह चैतनय का भेद िमथया ही है।
इस पकार अखणड सतयपतयगिभन बह चैतनय ही अनत मे अविशष रहता है, ऐसा िवचार करना चािहए।
शंकाः साखय, पातंजल, गौतम बुद, अहरत आिद अनय वादी उकत पितिबमबता पिकया को नही मानते, िकनतु
अनयथा-अनयथा िनरपण करते है और उसी मे लोगो को पेिरत करते है। उनकी पेरणा भी कया उपादेय है या नही ?
समाधानः दूसरे की पेरणारप बुिद से पशुओं के समान मत चािलये। भाव यह है िक 'यथा हयं जयोितरातमा
िववसनापो िभना बहुधैकोऽनुगनछन' (जैसे यह जयोितमरय सूयर सवतः एक होता हुआ भी घटािदभेद से िभन जलो मे
अनुगमन कर रहा बहुतव को पापत होता है वैसे ही अिदतीय यह आतमा भी उपािधयो मे बहुतव को पापत होता है।)
इतयािद सवतनत शुितरप पमाणो का अनुसरण करने वाले लोगो को औरो की पेरणा से पशुओं के समान अनुगमन उिचत
नही है।।55।।
इस पकार शासताथर के िवचार का िवधान कर अब जीवन, धन, पशु, पुत आिद सासािरक िवचार की और अनय
दशरनो के िवचार की तयाग के िलए िननदा करते है।
पिरणाम मे दुभागय देने वाली, िवचार के समय कृपणता की हेतु होने के कारण िनवेश कराने के कारण गाढ
और दीघर महािनदारप धन, जीवन आिद की िवचारणा तथा अनय दशरनो की िवचारणा छोड देनी चािहए और बोधरप
आलोकपापत करना चािहए।।56।। जैसे बूढा कछुआ तालाब मे सोया रहता है, वैसे सोय रहना ठीक नही है। जरा,
मरण आिद दुःखो की िनवृित के िलए उदोग करना चािहए।।57।। धनसमपित अनथों की जननी है और िविवध भोग
संसाररपी रोग के हेतु है। आपितया ही सब समपितया है और सब वसतुओं की अवहेलना ही िवजय है।।58।।
लोकवयवहारी पुरषो के िवचार से लोकवयवहार के अिवरोधी तथा शासत और सदाचार के अनुकूल कमर से सतफल के
िलए सदा उतथान का अंगीकार करना चािहए।।59।। िजसका चिरत सदाचार से सुनदर, बुिद िववेकशील है और
संसार के सौखयफलरपी दुःखदशाओं मे िजसे लालच नही है, उस पुरष के यश, गुण और आयु ये तीनो लकमी के साथ
ही सतफल के िलए वसनत ऋतु की लताओं के समान िवकिसत होते है।।60।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआ, आआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ
आआ आआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ।
आगे कहे जाने वाले शुभ उदम आिद के अभयास दारा वृिद को पापत होने पर फल की अवशयमभािवता िदखाने
के िलए साधारण नयाय िदखलाते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, सब साधनो का अितशय अभयास सफल होता है, यह िनयम है। अतः
लोकदृिष कृिष, सेवा आिद साधनो मे तथा शासतीय मोक-साधन मे अपने -अपने अनुरप फल अवशय होता ही है, कदािप
वे िवफल नही जाते। इसिलए मोकलाभाथी आप भी शुभ उदम को कदािप न छोिडये।।1।।
शासत पितपािदत शुभ उदम का असाधय तो कुछ भी नही है, यह दशाने के िलए ननदीशररोपाखयान आिद का
संकेप से उललेख करते है।
इष-िमत और आतमीय बनधु-बानधवो को आननद देने वाले ननदी ने तालाब के िकनारे िशवजी को आराधना दारा
पापत करके मृतयु पर भी िवजय पापत की थी(▐)।।2।। सेना और धन-धानय से समपन बिल आिद दानवो दारा जैसे
हािथयो दारा कमल के सरोवर कुचले जाते है वैसे ही कुचले गये देवता अितशय पयत से सवोतकृष हो गये।।3।।
राजा मरत के यज मे संवतरनामक महिषर ने बहा की तरह सुर और असुरो से पूणर दूसरी सृिष की(═)।।4।।
▐ उकत कथा िलंग पुराण मे इस पकार विणरत हैः िशलाद नाम के एक मुिन थे। सवरज पुत की इचछा से
उनहोने भगवान शंकरजी को कठोर तपसया दारा पसन िकया। िचरकाल की तपसया से पसन हुए भगवान शंकरजी
उनहे वरदान देने के िलए बोले- 'मुझसे अनय तो कोई सवरज हो नही सकता, इसिलए मै ही अपने अंश से अवतार लेकर
आपका पुत होऊँगा, िकनतु मेरे अंश से उतपन हुआ वह आपका लडका सोलहवे वषर मे मर जायेगा। िशलाद ऋिष मे
भगवान के वचन को उलटने की शिकत तो थी नही, अतएव भगवान की शरण मे गये उनहोने 'ऐसा ही हो' यो भगवान के
वचन का अनुमोदन िकया। वरदान पाने के बाद िशलाद मुिन का ननदी नामक सवरज पुत हुआ। वह जब बालक ही था,
अपने िपता से अपनी भावी मृतयु को सुनकर तभी से उसने तपसया दारा भगवान शंकर की आराधना करना पारमभ कर
िदया। तदननतर सोलहवे वषर मे तालाब के िकनारे िशविलंग का पूजन करते समय मृतयु ने पाशो से उसे बाधा, वही पर
आिवभूरत हुए भगवान िशव ने मृतयु को लात मारकर तथा मृतयु के फनदे को काटकर उसे जरा-मृतयुरिहत अपना अनुचर
बना िलया।
═ यदिप महाभारत मे यह कथा यो पिसद है – मरत के यज मे िवघ डालने की इचछा कर रहे देवताओं की
सेना के साथ संवतर ने अपने संकलपमात से वशीभूत कर देवताओं के साथ यज का पिरचारक बना डाला, तथािप दूसरे
पुराणो मे उनकी देवता और असुरो की दूसरी सृिष भी सुनी जाती ही है, दूसरे कलप की कथा होने से महाभारत से
इसका िवरोध नही है।
शासतीय महान शुभ उदोग से युकत िवशािमत जी ने बार-बार की गई कठोर तपसया से दुषपापय बाहणता पापत
की।।5।। रोने िचललाने आिद पयत से पापत होने के कारण दुषपापय पानी मे घोले हुए आटे को रसायन की तरह पी
रहे, इस पकार के भागयहीन उपमनयु ने भी तपसया से पसन हुए भगवान शंकर के पसाद से कीरसागर पापत
िकया(इसकी कथा महाभारत मे पिसद है)।।6।। तीनो लोको मे महाबली रप से िवखयात िवषणु, बहा आिद
देवािधदेवो को भी तृण की नाई िनगल रहे काल को अतयनत दृढ भिकत से शेत ऋिष ने अपने वश मे कर िलया। (यह
भी िलंग पुराण मे पिसद है)।।7।। राजकुमारी सािवती ने पित के पाणो का अनुगमन तथा सतुित आिदरप से
पसनता के उपाय से यम को अपने वश मे कर 'सतयवान के पाणो को छोडकर और कोई वर मागो', इस पकार के यम
के वाकय का सतयवान से मेरे सौ लडके हो, इस वर पाथरना रप अपने वचन से सामंजसय सथािपत कर अपने पित
सतयवान को परलोक से लौटा िलया।।8।। इस लोक मे ऐसा कोई शासतीय सुउदोग का उतकषर नही है, िजसका
सफुट फल हो।
शंकाः िविवध उदोग आपने िदखलाये है, उसमे से मुझे िकसमे अिधक पयतवान होना चािहए।
समाधानः अिधकारी आपको मूढ की नाई कुद फलो की पाथरना से वयथर नही होना चािहए, िकनतु मन मे फल
के तारतमय का िवचार कर सबसे उतकृषफल की पािपत से सवोतकृष शुभ पयत से सुशोिभत होना चािहए।।9।।
आतम जान समपूणर सुख-दुःख, जनम-मरण आिद अवसथाओं की भमदृिषयो का मूलोचछेद करने वाला है, इसिलए
आतमजान मे ही आपको शुभोदोग का अभयास करना चािहए।।10।।
पहले भोग, राग आिद की दिषयो के िवनाश के िलए तत् तत् िवषयो मे तो, दृिषयो का अनवेषण करना
चािहए। ऐसा कहते है।
कुधा, पयास आिद आपित से युकत पुरषो का िवषय पदान दारा अनुगह करने वाली भोगदृिष के नाश के िलए
पहले उसकी िवरोिधनी िवषयदोष दृिषयो का अवशय अनवेषण करना चािहए।
शंकाः भोगदृिष की िवरोिधनी िवषयदोषदृिषयो का अनवेषण करने पर िवषय तयाग होने से तुरनत दुःख होगा ?
समाधानः वैरागय, अभयास आिद दुःख के िबना भूमाननदरप चैतनय कया नही पाया जा सकता है ? अथात्
भूमाननदसवरप िचत् की पािपत के िलए िवषयतयागरप दुःख उठाना ही पडेगा।।11।।
यिद कोई कहे, समपूणर िवषय के दुःखपूवरक तयाग का भी अंगीकार करके वैरागय से राग आिद दोष का शमन
अवशय समपादनीय होता, यिद पापत होने वाला बह शम के साथ ही पुरषाथर होता। ऐसा तो नही, कयोिक शम भी
सािततवक िचतवृित का भेद ही है, अतः अिदतीय बह मे उसका संभव नही हो सकता। एकमात सुखरप बह से
अितिरकत सब कुछ दृशय ही है, इसिलए शम परम पुरषाथर के अनतगरत भी नही आ सकता। इस शंका को आधा
सवीकार करके पिरहार करते हुए शम की आवशयकता िदखलाते है।
ठीक है, यदिप शमरिहत िचदातमा ही परम बह है, तथािप शम भी कारणसिहत संसार की िनवृितरप परम
पुरषाथर है ही। यदिप इस पकार दोनो तुलय है, यह पापत हुआ, तथािप इस पशम को भूमाननद बहसुख देने वाला
जािनये। िजसमे सुख की अिभवयिकत नही होती, वह पुरषाथर नही हो सकता, इसिलए इसमे पुरषाथर की उपयोिगता
अिधक है।।12।।
अब शम का उपाय कहते है।
अिभमान का तयाग कर, िसथर शम का अवलमबन कर और बुिद से मोक के योगय उतमकुल मे जनम आिदरप
अपनी शेषता का िवचार कर सजजनो की सेवा करे।।13।।
िचतशुिद के िलए िकये गये तप आिद भी संत-साधुओं की सेवा दारा ही जानोपयोगी होते है, सवतनतरप से
जानोपयोगी नही होते है, इस आशय से कहते है।
संसाररप सागर को पार करने के िलए सजजन की सेवा के िबना न तो तप जानपािपत के िलए समथर होते है,
न तीथरसेवन जानजनक होते है और न शासताभयास ही जान उतपन करा सकते है।।14।।
सजजन का लकण कहते है।
िजसके सेवन से पितिदन लोभ, मोह और कोध कीण होते है और जो अपने कमों मे शासतानुसार आचरण
करता है, वह सजजन है।।15।।
सदा सजजन की सेवा मे ततपर पुरष की कभी आतमजानी के साथ भी अवशय संगित हो जाती है, िजससे
जानपािपत होती है, ऐसा कहते है।
सजजनो की संगित से सजजनसेवी पुरष का आतमजानी के साथ संग होता है, िजससे इस दृशय का अतयनत
अभाव ही उसे िदखाई देता है।।16।।
उससे इसकी पुरषाथरिसिद भी होती है, ऐसा कहते है।
दृशय के अतयनत अभाव से एकमात परबह ही अविशष रहता है, अनय वसतुओं का अभाव की उपपित दारा
समथरन करते है।
न तो यह दृशय उतपन हुआ है, न पहले था ही और न आगे होगा ही, अतएव वतरमान मे भी यह नही है, एकमात
अखणड बह ही है।।18।।
जैसे इस जगत के उतपित आिद नही हो सकते वैसे उतपित पकरण मे भी अनेक युिकतयाओं दारा उपपादन
िकया जा चुका है और आगे भी उपपादन िकया जायेगा ऐसा कहते है।
इस पकार हजारो युिकतयो से जगत के जनम आिद का अभाव पहले िदखाया जा चुका है, और िदखा भी रहे
है। जैसे सब िवदानो ने उसका अनुभव िकया है वैसे मै इस ितजगत संिवदूपी िचदाकाश को इस समय आपके िलए
िदखाऊँगा। यह ितजगत शानत, िनमरल िचदाकाश ही है, यह िचत परमाथरसवरप है, इसमे माियक आकाश आिद का
समभव कहा से और कैसे हो सकता है ? पश उठता है आकाश आिद की उतपित सत् से है अथवा असत् से है ? माया
से है ? आिद के दो तो अिवकारी है, इसिलए उनसे जगत की उतपित का समभव नही है, यिद माया से जगत की
उतपित मानी जाय, तो भी िमथया ही होगी। इसिलए पिरशेष से जगत का हजारो घनो से भी उतपादन नही हो सकता,
भाव यह है।।19,20।।
यिद यह जगत उतपन नही हुआ तो जगत नाम से सबको इसका बोध कैसे होता है ? इस पर कहते है।
िनशल आतमा मे किलपत चंचलता से चंचल, माया मे पितिबिमबत तनमय जगत की जो सुनदर कलपना करता है,
उसी को वही जगत रप से जानता है।।21।।
यिद कोई शंका करे िक जगतबोधरपी चैतनय सिवकलप है और बहचैतनय िनिवरकलप है, इस तरह जगदूपी भेद
को िछपाने के िलए ततपर हएु आपका चैतनय मे भी भेद पापत हो गया। इस पर कहते है।
तीनो लोको मे िजतना दैत अनुभव है, वह सब बहचैतनय रप सूयर के िकरण समूह की तरह है, अतएव
वसतुतः उससे िभन नही है। िकरण समूह और िकरणवान का भेद कैसे हो सकता है ? िवकलपो के िमथया होने पर
तैलोकय मे जो दैत का अनुभव है, उसे भी िनिवरकलपक ही किहए।।22।। इस िनिवरकलपक िचद् वृित का यानी चरम
साकातकार का जो उनमेष है, वही जगत अनुभव का उदय है।।23।।
इसिलए िनमेष ही पतयगातमा का अिवदारपी मल है और उनमेष िनमरलतारपी मोक है, इस आशय से कहते है।
अपिरजात अहंकार िचदाकाश मे अिवदारपी मल है। पिरजात अहमथर तो िचदाकाश हो जाता है।।24।।
यिद कोई शंका करे िक अहमथर अहंकार है, वह पिरजात होकर भी कैसे िचदाकाश होगा ? तो इस पर कहते
है।
जब तक अहंकार का यथाथररप पिरजान नही होता, तभी तक वह अहंकार है। यथाथरभावरप से उसके
पिरजात होने पर तो वह िनशय अहंकार नही रहता। जैसे जल के साथ जल एकता को पापत हो जाता है वैसे ही वह
िचदाकाशरपी आतमा के साथ एकता को पापत हो जाता है।।25।।
दृशय अहमािद जगत वसतुतः है ही नही यानी बािधत है।
शंका पिरजात होने पर अहमािद जगत का बाध हो जाता है, तो कया रहता है ?
समाधानः यह अहं पदाथर कया है ? यो पमाणपूवरक िवचार करने से उतपन हुए जान से वह िचदाकाश अवशय ही
पिरिशष रहता है, उसका बाध नही होता।।26।।
िनमरल बुिदवाले पुरषो की अिपशाच मे िपशाच बुिद बािधत हो जाती है। िकनतु िजनकी बुिद थोडी बहुत मागर
मे आई हो, ऐसे बालको को तो हजारो बार यह िपशाच नही है, यह उपदेश देने पर भी संशय होता ही है। यह िपशाच
नही है, ऐसा बाध नही होता।।27।।
जैसे बालको का मोह जान का बाधक होता है वैसे ही पौढ पुरषो का अिभमान भी जान िनवतरक है, इस आशय
से कहते है।
जब तक अनतःकरण मे चैतनयरपी चादनी अहंकाररपी मेघ से आवृत रहती है तब तक वह परमाथररपी
कुमुिदनी को िवकिसत नही करती।।28।।
अहं इस अिभमान का िवनाश होने पर भय, राग और मुमुकु से होने वाले देष और राग के िवषयभूत नरक, सवगर
और मोक की तृषणा भी हट जाती है, ऐसा कहते है।
अहं पद तथा अहं पद के अथर के पिरमािजरत होने पर अहंकार के िबना नरक, सवगर और मोक की तृषणा की
कलपना ही कैसे हो सकती है ?।।29।। जब तक हृदय मे अनधकाररपी घनघटा आटोप के साथ िवराजमान रहती
है तभी तक तृषणारपी कुटज की मंजरी िवकास को पापत होती है।।30।। जान का आचरण कर अहंकाररपी मेघ
के सदा िसथत रहने पर अजान की ही जड जमती है, जानालोक कदािप िसथरता को पापत नही होता, बालक के भम से
किलपत यक के समान सवयं भािनत से किलपत अतएव असत् यह अहंकार दुःख के िलए ही है, इससे आननद कुछ भी
पापत नही होता।।31,32।। जैसे वयथर किलपत अहंभाव ने दाम, वयाल और कट मे असंखय जनम-मरण देने वाला मोह
उतपन िकया था वैसे ही वयथर ही किलपत हुआ अहंकार अिभमान से दूिषत अनतःकरण अननत जनम-मरण देने वाले मोह
को उतपन करता है।।33।।
यह देह मै हँू, इस पकार का भम समपूणर अनथों की जड है ऐसा कहते है।
यह देह मै हूँ, इस पकार के पबल अजान से बढकर अनथरकारी दूसरा अजान न इस संसार मे हुआ है और न
होगा।।34।। इस संसार मे जो कुछ भी सुख-दुःखरपी िवकार पापत होता है, वह अहंकाररपी चक का मुखय िवकार
है।।35।। िजस पुरष ने अहंकाररपी दुष वृक के अंकुर को िवचार से संसकृत मनरपी हल से जोत कर
उखाडकर फेक िदया, उसके आतमारपी खेत मे संसार का िवनाश करने वाला सैकडो शाखाओं से युकत अतएव
दुरचछेद जानरपी ससय (वृको का फल) वृिद को पापत होकर फलता है।।36।। अहंकार जानरपी कुठार के िबना
कभी नष न होने वाले जनमरपी वृको का अंकुर है और 'यह मेरा है', यह उनकी हजारो बडी-बडी शाखाएँ है।।37।।
वासना आिद पदाथर बडे धयान से सुनने योगय शबदवाले सेमल के पके हुए फलो के तुलय कौओं के थोडे उडने से भी
नष होने वाले और तरंगे की सुनदर पंिकतयो के तुलय कणभंगुर है।।38।। वसतुतः आतमा अहंभाव से विजरत ही है,
पर आतमा का ितरोभाव करने वाली अहंभावना से वह सवयं ही संसाररपी चक मे भमण को पापत हुआ-सा पतीत होता
है। जब तक जनमरपी अरणय मे अहंकाररपी अनधकार अपना िसका जमाये रहता है तब तक िचनतारपी मत
िपशािचकाएँ इधर उधर दौडती रहती है।।39,40।। िजस अधम पुरष को अहंकाररपी िपशाच ने चंगुल मे फँसा
िलया, उसके अहंकाररप िपशाच को िनवृत करने के िलए न शासतो मे सामथयर है और न मनतो मे ही।।41।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, िकस उपाय से अहंकार नही बढता ? हे बहन् संसाररपी भय की िनवृित
के िलए आप वह उपाय मुझसे कहने की कृपा कीिजए।।42।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पूवोकत
आतमसवभाव से सदा समरण से आतमा को िचनमात दपरण की तरह िनमरल रखने पर अहंकार नही बढता।।43।। यह
जगत रपी इनदजाल िमथया है मुझे इसमे सनेह और वैरागय से कया पयोजन है, ऐसा मन मे धयान करने से अहंकार
उतपन नही होता।।44।। िजन पुरष की आतमा मे अहंकार नही है और दृशय शोभाएँ भी नही है ऐसी िसथित से सवयं
ही िनवृत हुए वयवहार से अहंकार नही बढता।।45।। अनदर 'अहं' बाहर जो हेय-उपादेय की िनिमतभूत दृिषयो का
कय होने पर अिवषमतारप पसनता के पापत होने पर अहंभाव नही बढता।।46।। मै यानी दषा, िचत् यानी दशरन
और जगत यानी दृशय इस ितपुटी जान के, उसमे भी यह शतुभूत है यह िमतभूत है इस सृिष के, कीण होने पर
सवातमकतारप समता के िसद होने पर पर अहंभाव नही बढता।।47।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे पभो, इस अहंकार का कया आकार है और कैसे देहमात मे अहंभावरप तथा देह से
अितिरकत बुिदमातोपािधक अहंकाररप इसका तयाग होता है एवं इसका तयाग होने पर कया फल होता है।।48।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इस ितलोकी मे तीन पकार के अहंकार है, उनमे शासतीय दो अहंकार यानी
सूकमातमिवषयक और सवातमिवषयक शेष है और तीसरा अशासतीय अहंकार तयाजय है, आप सुिनये, मै उनहे आपसे
कहता हूँ।।49।। मै यह सब िवश हूँ, इस पकार कायरबहिवषयक तथा मै कभी चयुत न होने वाला परमातमा हूँ, इस
पकार कारणबहिवषयक अथवा ततपद के वाचयाथर और लकयाथर िवषयक अहं से अितिरकत जगत मे कुछ नही है, इस
पकार का जो अहंकार है, उसे आप परम अहंकार जािनये। ये अहंकार जीवनमुकतपुरष की मोकपािपत के िलए है, बनधन
के िलए नही है। बाल के अगभाग का सौवा िहससा बनाया गया यानी शोधन दारा िनरवयव िकया गया मै सबसे
अितिरकत हूँ, इस पकार की जो बुिद है, वह दूसरा शुभ अहंकार है। वह भी छठी भूिमका मे िसथत पुरष के मोक के
िलए ही है, बनधन के िलए नही है।।50-52।। जो लोग सपतम भूिमका मे िसथत है, उनमे अहंकार के िबना जीवन की
अनुपपित होने से अहंकार की केवल कलपना होती है, वसतुतः वह नही है, कयोिक कलपना करने वाले और जानने वाले
जीवनमुकत पुरषो दारा उसका पतयक अनुभव नही होता, इसिलए सवरथा असतय होने से अहंकार इस नाममात के शेष
रहने से वह अहंकारािभधान मात है।
तीसरे अहंकार को दशाते है।
यह हाथ – चरणािदरप देह मै ही हूँ, इस पकार का िमथयािभमान तीसरा अहंकार है, वह लौिकक एवं तुचछ ही
है। यह दुष अहंकार अवशय तयाग के योगय है, कयोिक वह पहले िसरे का शतु ही कहा गया है।।53,54।। िविवध
पकार की मानिसक दुिशनता आिद दुःख देने वाले इस बलवान शतु से आहत हुआ जीव अपिरिचछन सवभाव से िफर
आिवभूरत नही होता।।55।। सवभाव से ही िचरकाल से पीछे पडी हुई इस दुष अहंकृित से दुवासनाओं दारा दुषकमों मे
पवृत करने से पीिडत हुआ पुरष संकटो मे ही मगन रहता है।।56।।
िकससे िफर जनतु मुकत होता है ? इस पर कहते है।
अविशष पूवोकत शुद अहंकारो से युकत होकर जो पुरष ममता से उतपन हुए राग आिद दोषो को नष करता
हुआ इस सवातमभावरप अहंकार उसमे भी लोकपिसद देहातमभावरप अहंकार की तरह दृढ होकर िहरणयगभर या ईशर
मै हूँ, इस भावना से युकत होता है, वह देहाहंभाव से मुकत हो जाता है।।57।।
यही पणाली अनय बहिनष पुरषो के भी अिभमत है, ऐसा कहते है।
देहातमभावरप अहंकार की तरह बदमूल हुए पूवोकत दो अहंकारो को पहले सवीकार कर 'मै देह नही हूँ' यो
िवचार से भी िनशय कर देह मे आतमभावरप अहंकार का तयाग करना चािहए, ऐसा पाचीन महापुरष का मत है।।
58।।
उकत िसदानत का ही िफर अनुवाद कर उपसंहार करते है।
देहातमभावरप अहंकार की तरह बदमूल हुए आिद दो अहंकारो का पहले अंगीकार कर तीसरी लौिकक
अहंकृित का, जो अतयनत दुःखदाियनी है, तयाग कर देना चािहए।।59।।
उसमे पूवोकत उपाखयान का भी दृषानतरप से उललेख करते है।
हे शीरामचनदजी, इस दुरहंकार से ही दाम, वयाल और कट उस दशा को पापत हएु , िजसे कथा मे सुनकर दुःख
होता है।।60।। शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, इस तीसरे लौिकक अहंकार को िचत से हटाकर िकस पकार की
िसथितवाला पुरष अपने िहत परम तततव को पापत होता है ?।।61।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, यह
तीसरा अहंकार तयागने योगय है, दुःख देने वाले इस लौिकक अहंकार का तयाग कर सवाहंभाव से या शुदाहंभाव से
शवण, गुरसेवा आिद मे ततपरता से ये सात भूिमकाओं मे िजस िजस पकार से पुरष िसथत रह सकता है वैसे वैसे
सवरपसुख की अिभवयिकत के उतकषर पािपत से परम तततव को पापत होता है।।62।।
इसी बात को िवशद कहते है।
हे िनषपाप शीरामचनदजी, पूवोकत पथम इन दो अहंकार दृिषयो की भावना करता हुआ पुरष यिद िसथत रहे, तो
परमपुरषाथर पापत हो जाता है।।63।। तदननतर उन दो अहंकारो का भी तयाग करके सब अहंकारो से रिहत होकर
यिद िसथत रहे, तो वह अित उनत पद मे आरढ होता है।।64।।
पथय वचन सैकडो बार कहना चािहए, इस नयाय से िफर देहातमभावना के तयाग के गुणो को कहते हुए लौिकक
अहंकार के तयाग की आवशयकता दशाते है।
इस बुिद से तथा सदा सब पयतो से लौिकक दुष अहंकार का परमाननद के बोध के िलए तयाग करना
चािहए। शरीर मे आसिकतरप जो दुष अहंकार है, उसका तयाग अतयनत शेष कलयाण है और यही परमपद है।।
65,66।। िवचार से इस सथूल लौिकक अहंकार का तयाग करके पुरष चाहे चुपचाप बैठा रहे या लौिकक वयवहार
करे, िफर भी उसका अधःपतन नही होता।।67।। हे महामित शीरामचनदजी, पुरष को िवषिमिशत षडरस सवाद नही
देते।।68।। भोगो के सवाद ने देने पर परम कलयाण पुरष के सामने िसथत-सा हो जाता है, कयोिक पितबनधक की
िनवृित हो जाती है। अनधकार के तुलय अगहण और अनयथा गहण मे िनिमतभूत मन के अहंकार के नष होने पर और
कया पितबनधक शेष रह जाता है, िजससे परमपद की पािपत मे िवघ हो ?।।69।। हे शीरामचनदजी, अहंकार के
समरण के तयाग से, धैयर से और शवण आिद पयत से संसाररपी सागर पार िकया जाता है।।70।। महातमा पुरष
पहले सब मै ही हूँ, ये सभी मेरे है, ऐसा समझ कर तदननतर देहािद मै नही हूँ, देह के समबनधी कुछ भी मेरे नही है, ऐसा
िवचार कर उससे सब पितबनधको का नाश होने से पितषा को पापत हुए, परम शलाघनीय, पहले िवसतारपूवरक कहे गये
आतमजान को मन मे पापत होकर, कम से सात भूिमकाओं मे िसथत होकर, अपिरिचछन आतमा सवयं होकर िवदेह कैवलय
परमपद को पापत होता है।।71।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तैतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ, आआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआआआआ-आआआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ
आआआआआ
आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ । आआआआ आआआआआ आआआआआ
जान और िववेक के अभाव मे िवदमान िनवासिनकता भी दुरभयास से नष हो जाती है। जान और िववेक की
दृढता मे तो 'तसय ह न देवाश नाऽभूतया ईशते आतमा हेषा स भवित' (देवता उसके अकलयाण के िलए समथर नही होते,
वह उनका आतमा हो जाता है) इस शुित मे कही गई रीित से देवता भी बनधन मे नही डाल सकते, इस िवषय मे भीम,
भास और दृढ का नयाय दृषानत रप से दशाते है।
दाम आिद दानवो के चले जाने पर समपित से मेरपवरत के तुलय शमबर के नगर मे जो कुछ वृतानत हुआ, उस
िवषय मे मै आपसे कहूँगा, आप सुिनये।।1।। पूवोकत रीित से शमबर की सारी सेना िक िजसकी िसथित िबगड चुकी
थी, आकाश से िगर कर शरतकाल के मेघो की घटा के समान नष होने पर, देवताओं से िजसकी सेना जीती गई थी,
ऐसा वह दानव कुछ वषर िबताकर िफर देवताओं के वध के िलए उदमशील हो िवचार करने लगा। मैने माया दारा िजन
दाम आिद असुरो का िनमाण िकया था, उनहोने मूखरतावश युद मे वयथर ही दुष अहंकार की भावना की।।2-4।। अब
मै माया से रचे हुए दानवो की सृिष करता हूँ और उनहे अधयातमशासत के जाता और िववेकशील बनाता हूँ। तततवजानी
होने के कारण िमथयाभावना से रिहत वे अहंकार को पापत नही होगे और उन देवताओं पर िवजय पापत करेगे।।5,6।।
दैतयराज शमबर ने बुिद से ऐसा िवचार कर जैसे सागर बुदबुदो को उतपन करता है वैसे ही उस पकार के दानवो को
माया से उतपन िकया. वे सवरज थे, वेद आतमतततव उनहोने जान िलया था, वे िवरकत और िनषपाप थे, जो कुछ पभु का
आजा होती थी एकमात उसी को करते थे, सदा आतमिनष तीनो जगत को तृण के तुलय देखते थे।।7-9।। गरज
रहे और असत रपी िबजली से युकत उन दैतयो ने ऊपर के लोको मे आकर वषा ऋतु के मेघो की तरह आकाश को
ढक िदया।।10।। बहुत वषों तक उनके हृदय मे वह मेरे है, ऐसी वासना जब भी उिदत होती थी, तभी यह मै कौन हूँ,
इस पकार के िवचार से वह असतयता को पापत हो जाती थी।।12।।
िजनसे डरना चािहए और िजसके िलए डरना चािहए, वे दोनो ही िमथया है, इस पकार से उनमे भय का उदय
नही हुआ, ऐसा कहते है।
शरीर और देवता दोनो ही असत् है और मै कौन हूँ, इस िवचार से उनमे भय आिद की उतपित नही हुई।।
13।। असत् यह शरीर है ही नही, आतमा मे शुद िचत िसथर है, अहं नाम का कोई दूसरा पदाथर नही है, ऐसा िनशय
करके ही असुर लोग युदाथर गये।।14।। तदननतर अहंकाररिहत, जरा-मरण से िनभरय, जो वसतु पापत हो उसे करने
वाले, वतरमान का अनुसरण करने वाले, धैयरशाली, िनतय आसिकतरिहत बुिदवाले, दूसरे को मारकर भी हनतृतव का
अिभमान न करने से हनतृतव से िनमुरकत, अजानी अपने पभु शमबर की दृिष से यह कायर करना चािहए, यो युद मे सनद
हुए, राग-देषशूनय, खाद वसतुओं की शोभा नष होती है, उपभुकत होती है, वैसे ही उसके दारा देवताओं की सेना नष
हुई, उपभुकत हुई, हरी गयी और जलाई गई।।15-18।। भीम, भास और दृढ से नष की गई देवताओं से िछन-िभन
की गई मेघ पंिकत पवरत की शरण मे जाती है वैसे ही कीरसागरशायी भगवान िवषणु की शरण मे गई।।19,20।। जैसे
वयिभचारी पुरषे के उपभोग से आकानत अतएव भयभीत अकेली नाियका को नायक आशासन देता है वैसे ही भयभीत
हुई उस देवसेना को भगवान शीहिर ने आशासन िदया।।21।। तदननतर भगवान िवषणु और शमब का बडा दारण युद
हुआ, िजसमे पलय की तरह अकाल मे ही बडे-बडे कुलाचल (पवरत) उडे थे।।23।। उस युद मे शमबरासुर अपनी
सेना, सवारी आिद के साथ शानत (कालकवल) हो गया। नारायण के हाथ से मरा हुआ वह वैकुणठ को चला गया।।
24।। उस िवषम संगाम मे वे भीम, भास और दृढ तो जैसे वायु से दीपक शानत हो जाते है वैसे ही भगवान िवषणु दारा
ही शानत (िवदेहमुकत) िकये गये।।25।।
यिद कोई कहे िक शमबर की तरह भीम आिद का भी वैकुणठ आिद लोकानतर मे गमन कयो नही हुआ ? तो इस
पर उसका िनषेध करते है।
वासना रिहत वे शािनत को पापत हएु तब बुझ रहे दीपको की तरह उनकी गित िकसी को मालूम नही हुई।
वासना ही लोकानतरगमन का कारण है, 'तदैव सकतः सह कमरणैित िलंगं मनो यत िनषकतमसय' (इसिलए वासनायुकत
पुरष, जो कमरफल की आसिकत से िकया, उस कमर के साथ फल को पापत होता है, िजसमे िक इसका िलंगरप मन
पहले आसकत हुआ। ऐसी शुित है। वे वासनारिहत थे, अतएव उनकी गित िकसी को जात नही हुई, यह अथर है।।
26।।
हे शीरामचनदजी, वासना से युकत मन बनधन को पापत होता है और वासनारिहत मन मुिकत को पापत होता है,
इसिलए आप िववेकपूवरक िनवासिनकता का अवशय समपादन कीिजए।।27।।
िनवासिनकता की पािपत मे जो उपाय है, उसे बतलाते है।
जैसे यथाभूत वसतुिवषयक समयग् दशरन से रततततव का साकातकार होता है वैसे ही िचरकाल के िवचार और
समािध से जिनत सतय आतमतततव के साकातकार से वासना नष हो जाती हे। वासना के िवलीन होने पर िचत दीपक
की नाई नष हो जाता है।
अब समयग् दशरन का पकार दशाते है।
अतयनत पिरपूणर परमाथर सतय िचदातमा जो इस दृशय की भावना करता है, वह कुछ भी सतय नही है। इसिलए
उस दृशय का दशरन भी है ही नही। इसिलए पिरशेष से यह सवपकाश िचनमातदशरन ही समयग् दशरन है।।29।। यह
समपूणर जगत आतमा ही है, इसिलए कौन िकस वसतु की कहा पर भावना करे ? भावना भी है ही नही, इसिलए सवपकाश
िचनमात का ही दशरन समयग् दशरन है।।30।। वासना और िचत नाम के अथर युकत दो शबद जहा परमाथर सतय के
दशरन से िवलीन हो गये, वह परम पद है।।31।। वासना से युकत िचत यहा पर िचतरप से िसथित को पापत हुआ
है। वही वासना से मुकत होकर जीवनमुकत कहा जाता है। िविवध घट, पट के आकारो से िचत िसथित को (सता को)
पापत हुआ है। बालक के उिदत हुए यक के समान उसी का शीघ िवनाश कर देना चािहए।।32,33।।
हे शीरामचनदजी, देहातमजानवरजजानं देहातमजानबाधकम्। आतमनयेव भवेद् यसय से नेचछनिप मुचयते।। अथात्
जैसे देहातमजान अजािनयो मे बदमूल होता है वैसे ही बदमूल जान, जो िक देहातमजान का बाधक है, िजसकी आतमा मे
उतपन हो जाता है, वह मुिकत की इचछा न रहने पर भी मुकत हो जाता है। इस नयाय से जैसे दाम, वयाल और कट की
देहातमभावना से उनका िचत वासना से वािसत हुआ था वैसे ही बहातमभावना से भीम, भास और दृढ का नयाय आपके
हृदय मे अचल हो।।34।। हे रघुवर आपको दाम, वयाल और कट का नयाय पापत न हो। हे शीरामचनदजी, यह दाम
आिद का वृतानत मेरे िपता बहा जी ने पहले मुझसे कहा था। चूँिक आप मेरे िपय िशषय तथा अतयनत बुिदमान है, अतः
यह वृतानत मैने आपसे कहा है। इसिलए हे शीरामचनदजी, दाम, वयाल और कट की िसथित आपकी न हो। हे अनघ,
आपकी सदा भीम, भास और दृढ की िसथित हो।।35,36।। पूवोकत पकार से भीम, भास और दृढ की तरह वयवहार
कर रहे आपको समपूणर वयवहारो मे िनरनतर अनासिकत से ही तततव बोध पिरपाकरप ऐशयर की पािपत होने पर अिवरल
सुख और दुःखे से वयापत, जनम-मरण परमपराओं मे िविवध तापो के भोग के िलए आपकी यह भवपदवी मूलोचछेदपूवरक
नष हो रही है अनयथा नही।।37।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

चौतीसवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ,
आआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ
आआ।
उसमे मन का िनगह ही मुखय उपाय है और सब उपाय मन के िनगह के िलए है, इस आशय से पहले मनोिनगह
की ही पशंसा करते हुए सगर का आरमभ करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, वे साधुजन महाबली है और सबके वनदनीय है, िजनहोने अिवदा के के
िवपुल िवलासो से िवषयो की ओर अिभमुख हुआ अपना मन अपने वश मे कर िलया। िविवध उतपात देनेवाले दुःखरपी
इस संसार की अपने मन का िनगहरप एक ही िचिकतसा है।।1,2।।
मनोिनगह के उपायो मे भोगेचछा का तयाग ही मुखय उपाय है, ऐसा कहते है।
जानसवरसव का शवण कीिजए और शवण कर उसे हृदय मे धारण कीिजये। भोग की इचछा ही बनधन है और
भोग की इचछा का तयाग मोक कहा जाता है।।3।।
िवषयो मे दोषदशरन से घृणा भोगेचछा की भी िचिकतसा है, ऐसा कहते है।
अनय शासत िनबनधो से कया करना है, एकमात वही कीिजए। इस लोक मे जो-जो वसतु सवादु है, उन सबको
िवष अिगन के समान देिखये।।4।।
िवचार के िबना सहसा िवषयो का तयाग दुःखदायी होता है। िवचार कर गुर और शासत की आजा के अनुसार
िवषयो का तयाग आरमभ मे कटु होने पर भी पिरणाम मे महासुखदायी होता है, ऐसा कहते है।
िवचार के िबना िवषयो के तयाग दुःखदायी होते है, इसिलए पुनः पुनः िवचार कर सहन के अभयासकम से
भोगवासनाओं का तयागकर सेवन िकये जा रहे िवषय सुखदायक होते है।।5।।
भोगवासनाओं के रहने पर कया हािन होती है ? ऐसा यिद कोई पश करे, तो उस पर कहते है।
िजस भूिम मे काटे के बीज िबखरे है, वह भूिम जैसे काटो को उतपन करती है वैसे ही वासनाओं से युकत बुिद
बडे-बडे राग आिद दोषो को उतपन करती है।।6।। इसिलए िजस मित मे वासनाओं के समूह का समबनध नही है,
अतएव िजसमे राग और देष दृिष नही है, इसीिलए जो जंजाल से रिहत है, वह धीरे-धीरे परम शम को पापत होती है।।
7।। शुभ मित िजनसे दुःख नही होता ऐसे शम, दम आिद सदगुणो से युकत जान, समािध और िवशािनतरप मोक फल
देने वाले अंकुरो को समय पर ऐसे उतपन करती है, जैसे धरती धान आिद फलो को देने वाले अंकुरो को समय पर
उतपन करती है।।8।।
अब कम से दया, दािकणय, कमा आिद शुभ भावो के अभयास से लेकर समािधपयरनत मन की िवशािनत के
साधनो को कहते है।
शुभ भावो के अनुसनधान से मन के पसन होने पर, िमथया-जानरप घन मेघ के धीरे-धीरे शानत होने पर,
सौजनय के शुकलपक मे चनदमा के समान िदन-पर-िदन बढने पर, आकाश मे सूयर के तेज के समान पुनीत िववेक के
फैलने पर, अनतःकरण मे इंिदय िनगह से उतपन धैयर से बास मे मोितयो के समान बढने पर, हृदय मे आतमसुख की
पािपत से मन के बसनत ऋतु मे चनदमा के समान कृतकृतय होने पर शीतल छायावाले सतसंगरप फलदार वृक के फलने
पर और आननद से सुनदर रसवाले समािधरपी अनथर, शोक, मोह और भयरपी रोग शानत हो जाते है। शासताथर
िवषयक संदेह कट जाते है। सब कौतुक (िविचत वसतुओं को देखने की उतकणठा) नष हो जाते है। सब कलपनाएँ हट
जाती है। मोह नष हो जाता है। उसमे वासना का लेप नही रहता। वह आकाकारिहत, िननदारिहत, पवृतयुनमुख
अवसथा से रिहत, दुिशनताओं से शूनय, शोकरपी नीहार से रिहत, आसिकतरिहत और गिनथयो से िवहीन हो जाता है।।
9-15।।
इस पकार का मन कया करता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते है।
आतमा कौन है, िकस तरह का है, िकन साधनो से पापत हो सकता है, जान से अथवा कमर से, जान िकस
पकार का है, उसके साधन कौन है ? इस पकार िविवधवािदयो से अनयानय पकार से िनरपण करने के कारण बहुत
पकार के सनदेहरपी अिवनीत पुतवाला, शाखाओं के तुलय िविवध मनोरथो से युकत तथा तृषणारपी िसतयो और सथूल
देह से युकत मन अपने सवरप का िवनाश करके अपने ईशररप पतयगातमा से समबनध रखने वाले जीवनमुिकतरप
परमपुरषाथर को िसद करता है।।16।।
मन इस पकार अपने सवरप का िवनाश करता है ऐसा यिद कोई कहता हो तो इस पर कहते है।
पहले मन िवकलपो मे अपने उतपादन के समान अपने िवनाश मे भी अपनी सामथयर का िवचारकर अपनी पुिष
के हेतु शतु, िमत, साधु, असाधु आिद िवकलपो का तयाग करता है। तदननतर देहाकार अपने किलपतरप का तृण के
समान तयाग करता है। भाव यह है िक जब तक देह मे अहंभाव से वासना युकत मन देहाकार होता है तभी तक देह के
अनुकूल और पितकूल िवषयो मे राग और देष आिद से होने वाले हजारो िवकलपो से वृिद को पापत होता है। उसके
कीण होने पर कीण हो जाता है।।17।।
यिद कोई शंका करे, अपना नाश तो अभयुदय है नही, पतयुत वह अनथर ही है, उसमे मन की पवृित कैसे होगी
? तो उस पर कहते है।
मन का अभयुदय नाश है और नाश महान अभयुदय है। भाव यह है िक मन की सवतनतता से कोई अभयुदय
नही चाहता, िकनतु आतमरप से सब अभयुदय चाहते है। आतमभाव का मनोभाव अनथर रप ही है, मनोभाव का नाश तो
समपूणर अनथों की हािन रप होने से और िनरितशय आननदसवरप का पिरशेष होने से अभयुदय ही है। पतयगातमा का
सवरपलाभ से महान अभयुदय होता है। यह िनिवरवाद है।
शंकाः तो देहाहंकारमात का तयाग करना चािहए, बहातमताजान से कया पयोजन है ?
समाधानः िजसे बहातमैकयजान हो गया है, उसका मन नष हो जाता है और अजानी का मन अजानरप मल
के नष होने पर वृिद को पापत ही है यानी िफर िफर उगता ही, इसिलए बहातमैकयरप जान की आवशयकता है।।
18।।
िफर-िफर उगे, इसमे कया हािन है ? ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
मनोमात ही जगतो का समूह है, मन ही पवरतो का मणडल है, मन ही आकाश है, मन ही देवता है, मन ही िमत है
और मन ही शतु है। भाव यह िक मन के पुनः पुनः उगने पर उकत जगत की पािपत ही नही है।।19।।
इस मन का कया सवरप है िजसका िक अवशय उचछेद करना चािहए। इस पश पर कहते है।
िचतततव की िविवध िवकलपो से कलुिषत हुई जो सवरप िवसमृित है, वही मन शबद से कही जाती है। वही
िविवध जनम को देने वाली वासना है। भाव यह िक आतमसवरप की िवसमृित से होने वाली िविवध वासनाएँ ही मन का
सवरप है।।20।।
इस पकार का मन हो, पर उसके दारा बनधन मे डाले जाने वाले जीव का सवरप कया है ? ऐसा यिद कोई पूछे
तो उस पर कहते है।
मन मे िवषय का वासनारप से जो पवेश है, उससे पिरिचछन िचनमात मे िसथत अतएव िवकलपो की थोडी
वासना से कलुिषत िचतततव ही (बह ही) जीव कहा जाता है।।21।। िवषयो मे वासनारप से िगरा हुआ तथा
िचरकाल के अभयास से िवषयो मे ही दृढ आतमसवािभमान वाले सवरप िवसमरण को पापत हुआ जीवसवरप ही हजारो
िवकलपो से गाढ मोह मे पडने के कारण सारभूत सुखसवभाव के हट जाने से जब अिधक िनःसार होता है तब
जीवोपकरण मनरप से किलपत होता है।।22।।
इस पकार जीव और जीव की उपािध िदखलाकर उनसे रिहत शुद आतमसवरप को दशाते है। आतमा न तो
वसतुतः जीव सवभाव है, न शरीर है और न रिधर है। शरीर आिद सब जड है, िकनतु देही आकाश के समान िनलेप
है।।23।।
शरीर मे जडता आिद को ही सपषरप से िवशद करते है।
शरीर के टुकडे-टुकडे करने पर रिधर आिद से अनय कुछ भी नही है, जैसे िक केले के खमभे को काटने पर
पललवो से बनी हईु छाल के अितिरकत और कुछ चीज नही रहती।।24।। मन ही जीव है, वही जब साकार हो जाता
है, तब उसे नर जािनये। वह अपने िवकलपो से किलपत अपने सवरप का अपने आप गहण करता है।।25।। जैसे
रेशम का कीडा अपने बनधन के िलए जाल की रचना करता है वैसे ही जीव मन मे िवकलप वासनाओं को उतपन करके
अपने बनधन के िलए दृढ जाल की रचना करता है।।26।।
जीव की देहातमकता के अभाव मे युिकत कहते है।
जीव इस वतरमान देह भम का तयाग करके पुनः दूसरे देश और दूसरे काल मे अनय देह भाव को धारण करता
है, जैसे िक अंकुर पललवता को धारण करता है।।27।।
शरीर वासनामय है, इसमे युिकत कहते है।
यह मन जैसी भावनावाला होगा, वैसा ही शरीर उतपन होगा। िचत जैसा होकर सोता, रात के समय सवप मे
वही बनकर रहता है।।28।।
िवषयो के वासना सथापन मे दृषानत कहते है।
इमली का बीज शहद के रस से यिद सीचा जाय, तो अंकुर आिद के कम से वृक बनकर फलने के समय भी
शहद से अनुरिं जत होकर मधुर होता है, वही बीज िवष के पितिनिधभूत धतूर, कंच आिद के रस से सीचा जाय, तो
फलने के समय मे भी कडवा पैदा होता है, ऐसा लोक मे पिसद है।।29।। महती शुभवासना से िचत महान होता है।
मनुषय 'मै इनद हूँ' इस पकार का मनोरथ होने पर इनदतारपी सवप से युकत होता है।।30।। कुद वासना से िचत
तुचछ कुदता को देखता है। िपशाच की भािनत से मनुषय राित मे िपशाचो को देखता है।।31।।
िनमरलता का समपादन करने पर भी िफर वयुतथान होने पर दैत के दशरन से मिलनता की पािपत होगी, ऐसी यिद
कोई शंका करे, तो उस पर कहते है।
जैसे अतयनत िनमरल तालाब मे मिलनता को सथान नही िमलता, वैसे ही अतयनत मिलन तालाब मे सवचछता को
सथान नही िमलता। इस शलोक से उतराधर से थोडे िववेक आिद से िनमरलता की िसथित की पािपत का वारण िकया
गया है।।32।। मन यिद अतयनत कलुिषत हो, तो फल भी वैसा ही उतपन होता है, उसी पकार मन यिद अतयनत
िनमरल हो तो फल भी िनमरल ही होता है।।33।।
यिद कोई कहे िक दुिभरक आिद देशोपदव से समािध का भंग हो जाने पर िफर मिलनता की पािपत होगी ? तो
इस आशंका पर कहते है।
जैसे िवरत उदोगशील चनदमा पूणर होने की आशा को नही छोडता वैसे ही दिरदता आिद से पीिडत उदोगशील
उतम पुरष भी समािध आिद िचतपसनता की गित को कभी नही छोडता।।34।।
अथवा तततवजान से बािधत होने के कारण ही हजारो उपदवो के रहते भी कलुिषता की पािपत नही होती, इस
आशय से कहते है।
न तो यहा बनधन है, न मोक है, न बनधन का अभाव है और न बनधनवता है। यह माया इनदजाल की लता की
तरह िमथया ही उतपन हुई है।।35।। गनधवरनगर के समान, मृगतृषणा के तुलय एवं िदचनदभम के तुलय यह माया
उिदत हुई है। यह सब दैत और एकतवरिहत बहसता ही है, इस पकार की जो पतीती है, वह परमाथरता है। मै
असनमय अतएव िनःसार हूँ, मै अपिरिचछन नही हूँ अतएव कुद हूँ, इस पकार के दूिषत िनशय से उतपन हुआ यह संसार
पिरसफुिरत हो रहा है। मै अपिरिचछन हँू, अतएव सवरशिकतशाली हँू, इस िनशय से वह िवलीन हो जाता है।।36-
38।। सवरवयापक, सवचछ, आतमा मे 'मै यह देह मात हू' इस पकार की जो भावना है, यह लोक मे अपने िवकलपो से
किलपत उसका बनधन है।।39।। बनधन-मोक अवसथाओं से रिहत, िदतव-एकतव से शूनय यह सब बहसता ही है, इस
पकार की जो पतीती है, वह परमाथरता है।।40।। िनमरलता मे आसिकतरिहत मन इस अिधकारी शरीर मे ही बह का
दशरन करता है, अनयथा नही कर सकता है।।41।। समािध के अभयास से उतपन धमरवृिद रप जल से िनमरलता को
पापत हुआ मन इस पकार सवरत बहदशरन का गहण करता है, िजस पकार सफेद वसत रंग का गहण करता है।।
42।। हे िनषपाप, सब कुछ मेरी आतमा है, इस पकार की सवातमभावना से हेयोपादेयरपी बल के िवनष होने पर बनध
की अपेका रखने वाले मोक का भी आप तयाग कीिजए।।43।। शुद मन का उतम सफिटक मिण के तुलय अिधकारी-
अनिधकारी शरीररप का अिभमान होने से पहले शरीररप से, तदननतर सतशासतो से शवण का अिभमान होने से
शासतरप से तथा वैरागयरप , तदननतर आतमबोध होने से बोधरप से जो िविवध पकाश है, वही संसार है।।44।
दैतदशरन के समय ही बनधनपािपत को और आतमदशरन के कण मे तुरनत मोकपािपत को हाथ मे िसथत आँवले के
समान पृथक करके िदखलाते है।
बाह पदाथों क साथ एकता को पापत मन आतमा के साथ एकता को पापत नही होता। बाह पदाथों मे एकता
को आप कण मे िवनष होनेवाली असतय जानदृिष समिझये।।45।। बाह और आभयनतर पदाथों के साथ सब दृशय
दृिष का तयागकर जब मन िसथत होता है तब परम पद को पापत हो उसमे लीन होकर िसथत होता है।।46।। जो
यह सफुट दृशय दृिष है वह अवशय असनमयी है, मन के सवरप को भी आप उकत असत् दृशयमय ही जािनये। दृशय से
अितिरकत मन का कोई सवरप नही है।।47।।
दृशय और दृिष असनमय कैसे है ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
आिद और अनत मे असद् होने के कारण मधय मे भी वह असनमय ही है। इस पकार मन असद् है, ऐसा िजसने
नही जाना, उस पुरष की दुःिखता हाथ मे िसथत ही है, उसको खोजने के िलए दूर जाने की आवशयकता नही है, यह
भाव है।।48।।
यह जगत आतमा ही है, इस पकार के बोध के िबना यह दृशय शोभा दुःखदाियनी है। उकत बोध होने पर तो यह
भोग-मोक देने वाली है।।49।।
लोकवयवहार के समान ही शासत मे भी जािनता और अजािनता का बोध करना चािहए। वे कोई अपूवर नही है,
ऐसा कहते है।
जल पृथक है और तरंग पृथक है, इस पकार के नानातव से अजािनता होती है। जल ही तरंग है, इस पकार
के एकतव से जािनता होती है।।50।।
नानातव का कयो पिरतयाग करना चािहए और एकतव का कयो गहण करना चािहए ? इस पश पर कहते है।
हेयोपादेयरपी जो नानातव है, वह असत् है, इसीिलए वह जनम-मरण आिद दुःख की ओर ले जाता है, अतः वह
हेय है। नानातव के न रहने से आतमतततव का जान होने के कारण अपिरिचछन आतमतततव ही अविशष रहता है, अतः
एकतव उपादेय है, यह अथर है।।51।।
यिद कोई कहे, अतयनत िपय, मन बुिद आिद दैत के सतय होने से और आतमा के उपकरण होने से उनका नाश
होने पर धनािदनाश के समान शोक ही होगा ? तो इस पर कहते है।
मन का सवरप संकलप से किलपत है, इसिलए वह असनमय है। हे शीरामचनदजी, भला बतलाइये तो सही,
असनमयवसतु का नाश होने पर कया कभी िकसी को शोक हो सकता है ?।।52।।
राग और देष के रहने पर इष वसतु के िवयोग से और अिनष वसतु की पािपत से शोक होता है। राग और देष
का तयाग करके उदासीन दृिष से तीनो देहो को देख रहे पुरष को उनसे शोक पािपत नही हो सकती, इस आशय से भी
कहते है।
िजस बनधु मे सनेह नही है, वह बनधु जैसे राग देषरिहत बुिद से देखा जाता है वैसे ही आप पृिथवी आिद
भूततततवरप अपने ितिवध शरीर को राग-देषरिहत बुिद से देिखये।।53।। जैसे सनेह रिहत बनधु के िमलने से पुरष
को न तो सुख होता है और न उसके िवयोग से दुःख होता है वैसे ही यथाथररप से जान होने के कारण भूतसमूहमात
सवभाववाले अपने देह िपंजर से पुरष को न सुख होता है और न दुःख होता है।।54।।
िजस अिधषान मे मन का कय हो जाता है, उसका सवरप कहते है।
वह वसतु अनािद िनतय िनरितशयआननदरप दषा और दशय का मधय यानी दृगरप जान है। उस सतय मे मन
वायु के नष होने पर धूिल कणो के समान शानत हो जाता है।।55।।
मन के नष होने पर सथूल देह भी असत् हो जाती है, ऐसा कहते है।
मनरपी वायु के नष होने पर सथूलदेहरपी धूिल भी नष हो जाती है। िफर संसार के नगर के तुलय
अिधषानभूत परमातमा मे कुहरे के समान आवरण करने वाली अिवदा नष होने के कारण कदम नही रखती।।56।।
अिवदा के कय के पकार का ही शरतकाल के रपक से वणरन करते है।
वासनारपी वषा ऋतु का कय होने पर मन के सवरपिसथित मे िवहार को पापत होने पर हृदय को कँपाने वाली
अजािनता के हृदय को कँपानेवाले शैतय से युकत कीचड के समान नष होने पर, तृषणारपी गडढो के सूखने पर,
हृदयरपी जंगल के रागािदरपी झािडयो के छटने के कारण िवरल और शानत होने पर, इिनदयसमूहरपी कदमबवृको के
फलरिहत होने पर तथा िमथयाजानरपी मेघ के िछन-िभन होने पर मोहरपी कुहरा पभात होने पर राित के समान नष
हो जाता है। जैसे मनत से हटाया गया िवष न मालूम कहा चला जाता है वैसे ही वह जडता न मालूम कहा चली जाती
है। देहरपी पवरत पर भयरपी कुद निदया िबलकुल नही बहती। चमकीले पंखवाले संकलपरपी बडे-बडे मोर नही
नाचते। संिवदूपी आकाश अतयनत िनमरलता को पापत होता है। अतयनत सवचछ अतएव महान अभयुदय को पापत हुआ
जीवरपी आिदतय अतयनत सुशोिभत होता है, मेघरपी िनिबड अजान से छोडी गई अतएव परम शुदता को पापत हईु
तृषणारपी महािदशाएँ समािधरपी सूयोदयकाल मे धूिल से अदूिषत होकर पकािशत होती है। िनमरल पुणयफल का
अनुसरण करने वाली िचतवृित रप िचताकाश की मंजरी, िजसने िदगमणडलो को शीतल कर िदया, शरतकाल के
आकाश मे चादनी के समान खूब शोिभत होती है। खूब पिरशोिधत िववेकरपी भूिम सब िवषयाननदो को अपने मे
अनतभूरत करके परम आननद का पकाश करने वाले आतमरपी फल से खूब सफलता को पापत होती है।।47-64।।
पवरत और वनो की िवशालता से युकत भुवनानतर के तुलय शरीर आतमपकाशरपी सूयर-चनदमा से अतयनत सुनदर, ितिवध
ताप से शूनय, िचदाभास की छाया से युकत तथा अतयनत िनमरल हो जाता है।।65।। पिरचछेद के हट जाने से
िवसतािरत, िववेकरपी जल की वृिद से वृिद को पापत िकया गया, रजोगुणरहित हृदयरपी कमलकोशवाला, सफिटक की
आकृित के तुलय सवचछ हृदयरपी सरोवर सुनदर पुषपो से युकत हो जाता है यानी िखल जाता है। हृदयरपी पदाकाश से
मिलन और चंचल अपना अहंकाररपी भमर िफर दशरन न देने के िलए ही न मालूम कहा चला जाता है।।66,67।।
वासनारिहत और शानतिचत हुआ अपने देहरपी नगर का अिधपित यानी जीव संकोचरिहत, सवरवयापक और सबका
अिधपित हो जाता है।।68।।
वासनाकय के फलो को िवसतार से कहकर उनही से जीवनमुिकत की िसथित िदखलाते है।
िचत के सवरथा िवगिलत होने पर अपने दोषो का ितरसकार कर धीर हुई बुिद से युकत तथा मृतयु और जनमो
मे पारलौिकक और इहलौिकक गितयो को नीरस देख रहा पुरष िवचार दारा आतमरपी दीपक पाकर जीवनमुकत और
तापरिहत होकर देहरपी नगर मे िवराजमान होता है।।69।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पैतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआआ आआ आआआ
आआआआआ आआ आआ आआआआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ
आआ, आआआआ आआआआ आआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
अब जगत िसथितरप पकरण के मुखय अथर को जानने के िलए शीरामचनदजी पूछते है।
शीरामचनद ने कहाः हे बहन्, िवशातीत इस िचदातमा मे यह इस पकार िवश, िजसका िक पहले वणरन कर चुके
है, जैसे िसथत है, उसे जानवृिद के िलए पुनः मुझसे किहये।।1।।
बहसता से ही जगत की िसथित है, उसकी पृथक सता नही है। पािणयो को पृथक अपनी सता से जो जगत
की िसथित पतीत होती है, वह बहसवरप िसथित के जात न होने के कारण ही है, यो समाधान करने के िलए
शीविसषजी समाधाननुरप दृषानत कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जैसे होने वाली अनिभवयकत तरंगे जल मे अिभनरप से िसथत है,
िभनरप से उनकी सता नही है वैसे ही िचतततव मे ये सृिषया सदूप आतमा से पृथकरप से िसथत नही है, कयोिक
उनकी सवतः सता नही है। उसकी सता से ही िसथत है।।2।।
जब आतमिसथित से ही सबकी िसथित है, तो आतमा का सवरत दशरन कयो नही होता ? ऐसी शंका होने पर कहते
है।
जैसे सवरवयापक आकाश आिद भी सूकम होने के कारण दृिषगोचर नही होता वैसे ही िनरवयव शुद चेतन
सवरवयापक होने पर भी नही िदखाई देता।।3।। जैसे मिण के अनदर पितिबमब भली-भाित िसथत-सा चारो ओर पतीत
होता है, वह न तो सतय है और न असतय है, वैसे ही आतमा मे यह सृिष है।।4।। जैसे अपने आधारभूत और अपने
मे िसथत मेघो से आकाश सपृष नही होता वैसे ही िचत मे िसथत और अनयोनयधयासवश िचत की आधारभूत सृिषयो से
परम िचततव सपृष नही होता।।5।।
यिद कोई कहे ऐसी अवसथा मे सूकम िचित घट आिद की तरह देह मे भी नही िदखाई देनी चािहए, पर िदखाई
देती है, इसमे कया कारण है ? इस पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, जैसे जल मे संयुकत िकरण सपष नही िदखाई देती, पितिबमबरप से तो सपष िदखाई देती है
वैसे ही पुयरषकरप (►) देहो मे ही िचित िदखाई देती है, घटािद मे नही िदखाई देती।।6।।
► भूतेिनदय मनोबुिदवासनाकमरवायवः। अिवदा चाषकं पोकतं पुयरषमृिषशतमैः।। पुयरषकशबद से
शलोकोकत भूत आिद आठ कहे जाते है।
उस िचित की पितिबमबता पितिबमबाधीन काम, संकलप, नाम और रप से युकत होने के कारण वासतिवक नही
है, ऐसा कहते है।
वह िचित सब संकलपो से रिहत, सब नामो से शूनय और अिवनाशी सवरप है।
शंकाः तब उसकी जीवािद संजा िकसके कारण हुई।
समाधानः उसके आधीन चेतय तथा िचदाभास से ही उसकी जीवािद संजा हुई है।।7।।
िचित की सूकमता और सवचछता का िवचार करने पर आकाश भी उसकी अपेका सौगुना सथूल और सौगुना
मिलन पतीत होता है, इस पकार िवदानो के अनुभव से कहते है।
जािनयो के अनुभव मे तो सारे संसारसवरप को िनषफल बनाने वाला, ऐकातमयदशरनशील आकाश से भी सौगुना
सवचछ वह िचतततव िनषकलरपी ही है।।8।।
इसीिलए उसमे भािनत से देखे गये भावो के िवकार पृथक नही है, ऐसा कहते है।
जैसे जलरप सागर मे तरंगािदमयी पचुर िभनता जल से अितिरकत िवकारवाली नही है वैसे ही िचदूप सागर मे
तवता-अहनतामयी पचुर िभनता िचनमात से पृथक नही ही पकािशत होती है।।9,10।। िचित िवषय की अिभवृिद
करती है, ऐसा यिद मानते हो, तो िचित िचित की वृिद करती है, ऐसा समझो, कयोिक चेतय (िवषय) कोई अितिरकत
पदाथर नही है। इस पकार मनन करने से िचित का अपने मे वयापार न होने से यह िचतसवरप आतमा मे ही िसथत है
कुछ अिभवृिद नही करता, ऐसा िनषकषर िनकलता है, यह परमाथर दृिष है। जो अजानी होता हुआ भी अपने को जानी
समझता है, उसी की दृिष से सृिषयो मे िचत से अितिरकत पापत हुआ था और है, ऐसी कलपना है।।11।।
उसी िचित को जानी और अजानी की कलपना से िफर िवभाग करके कहते है।
अजािनयो मे यह िचित असतसवभाव भीषण जनम-मरणरप संसार परमपराओं को अपने गभर मे धारण करने
वाली है। जािनयो की दृिष मे तो सब की एक आतमा होकर पकाशरप ही है।।12।।
वही िचित जगत को पकाश, भोग और जनम देने वाली है, ऐसा कहते है।
उस िचतततव का दूसरा नाम अनुभूित है, उकत अनुभूित से ही वह सूयर चनदािद को पकािशत करता है, सब
पािणयो के िवषयभोग मे िनिमत है और संसार का भोग करने वाले जीवो के जनम आिद मे भी वही िनिमत है, कयोिक
'आननदादयेव खिलवमािन भूतािन जायनते' ऐसी शुित है।।13।।
अजािनयो की दृिष से जनम आिद की िनिमत होने पर जािनयो की दृिष से वह कूटसथ अपिरिचछन एकरप
ही है, ऐसा कहते है।
उकत िचतततव न तो नाश को पापत होता है, न उिदत होता है, न उतथान को पापत होता है, न िसथत होता है, न
आता है, न जाता है, न यहा पर है और न यहा पर नही है, िकनतु सवरत एक रप से िसथत है।।14।। यह िनमरल
िचित सवयं अपने सवरप मे िसथत है। हे शीरामचनदजी, इस पकार जगतनामक पपंच से िववतर रप मे िसथत है।।
15।।
िचित का िववतर भी परमाथरदृिष से िचदूप ही है, इस आशय से दो दृषानत कहते है।
जैसे तेज के पुंजो से तेज ही सफुिरत होता है और जैसे जल के पवाहो से जल ही सफुिरत होता है वैसे ही
अपने सपनदरप सगरभािनतयो से िचतततव ही सफुिरत होता है।।16।।
सवतः शुद का अिवदा दारा सगरभमरप से पिरसफुरण ही सृिष कतृरतव है, अनय पकार की सृिषकतृरता उसमे
नही है, यह दशाने के िलए उसके उपयोगी दो रप िदखलाते है।
वयवहारतः सवरवयापक, आतमरप से उिदत हुए अतएव परमाथरतः पकाशरप, मै नही जानता हूँ, इस पकार के
वयवहार से अपकाश एवं परमाथरतः िनरंश और वयवहारतः अंशधारी, अिवदा मे अपने पितिबमबरप कृितम वेष से अननत
(परम अपिरिचछन) सवरप का तयाग करते हुए 'यह मै हूँ' इस अिभमान से शनैः शनैः जीवपद को पापत हो रहे िचत
नामवाले अपने सवभाव से इस िविभनता के बदमूल होने पर संसार के साथ-साथ यह है, वह नही है, यह गाह है, यह
तयाजय है, इस पकार के इष और अिनषो के गहण और तयाग के सथानभूत देहातमभाव की िसथित को पापत होने पर
सैकडो शरीरो से िविहत और िनिषद कमों से भोगय जगत को वह िचतततव बनाता है और वसतुतः नही भी बनाता है।
वही चैतनय पृिथवी के अनदर िसथत अंकुरो के समूहरप से वृिद को पापत होता है।।17-20।।
पृथवी के अंकुररप से बढने मे अनय आकाशािद भूतो के रप से वही अनुकूलता का आचरण करता है, यह
बतलाते है।
यिद आकाश समपूणर मूतर पदाथों के अिवरोधी िछद को न दे, तो िनरवकाश होकर अंकुर बाहर न िनकले,
इसिलए आकाशरप से वह िछद देता है। सपनदातमक वायुरप से वह उसका आकषरण करता है िजससे अंकुर बाहर
िनकलता है। जलरप होकर रसरप से अंकुर को सनेह युकत करता है, दृढ पृिथवीरप से अपनी दृढता को देकर वह
अंकुर के ऊपर अनुगह करता है, तेजरप से अपना रप देकर अंकुर को पकट करता है, इसी पकार सकलजगतरप
से वह तत्-तत् कायों का िसथित और अिवदा दारा अनुगाहक है। हेमनतािद कालरप से भी वह जव आिद के अंकुरो
के िवरोधी दोषो की उतपित को रोकने और फल के अंकुरो की उतपित के अनुकूल होने से उनका अनुगाहक है।।
21,22।। पुषपो मे धीरे-धीरे केसर का संचय कर िचतततव ही गनधता को पापत होता है। िमटी के अनदर िसथत
रससवरपता को पापत हुआ िचतततव ही वृक की वृिद दारा वृक के मूल के तने के आकार को पापत होता है।।23।।
मूल मे िसथत सुनदर रसभाव को पापत हुआ िचतततव ही फलरपता को पापत होता है वैसे ही मूल मे िसथत रस पललवो
मे पिवष हो रेखा बनकर पत आिद के रप को पापत होते है।।24।। इनदधनुष के वृको मे नवीनता का समपादन
करता हुआ वह िचतततव ही अवयवो से और समूह से जो-जो भाव िनरनतर होते है उन पर अनुगह करता है।।25।।
ऋतु के रप से भी िचतततव ही कायों पर अनुगह करता है, ऐसा दशाते है।
फूल और पललवो की रािशया वसनत को पापत होती है यानी वसनत बन िचतततव ही फूल, पललव आिद की
रािशयो को उतपन करता है। सूयर के तेज की तापशिकतया गीषम ऋतु को पापत होती है यानी िचित ही गीषम ऋतु
बनकर सूयर की तापशिकतयो को उतपन करती है। ऐसा ही आगे भी समझना चािहए। नीली मेघघटाएँ वषा ऋतु चाहती
है तथा सब धान आिद की फलरािशया शरद् ऋतु का अनुसरण करती है। हेमनत ऋतु मे दशो िदशाएँ िहम यानी बफर
रपी हार से युकत होती है और िशिशर ऋतु मे शीतल वायु जल को पतथर बना देते है।।26,28।।
वषर, युग आिदरप से भी िचतततव ही सृिष आिद की मयादा रखता है, ऐसा कहते है।
वषर आिदरप कालरप से वही अपनी इस युगमयी मयादा को नही छोडता सृिषया निदयो की तरंगो के समूहो
की तरह जाती है।।29।।
िनयित आिदरप से भी वही (िचतततव ही) जगत की मयादा का सथापन करने वाला है, ऐसा कहते है।
िसथरता रप चतुरता को करने वाली िनयितरप से वही िसथित को पापत होता है। उसी के कारण सब जनो
की आधारभूत और धीर पृिथवी पलय तक िसथर रहती है।।30।। चौदह भुवनो के अनदर चौदह पकार के पाणी,
िजनके िविवध पकार के आचार-वयवहार है और िविवध रचनाएँ है, पुनः पुनः लीन होते है और पुनः पुनः उतपन होते है।
तततवजान से पािणयो की जनम-मरणपवाह परमपरा ऐसे दूर होती है, जैसे िक जल के िबना बुदबुद।।31,32।।
पूवोकत अथर का ही िवसतारपूवरक उपसंहार करते है।
पूवरजनम के संकलपो की वासनाओं के कारण उतपन हुई िविवध पकार की अिभलाषावाली अतएव मुगध इसिलए
काल से िववश करोडो बहाणडरप और उनके अनतगरत पाणीरप बेचारी जनता उनमत के समान इस लोक मे जनमो
दारा आती है, परलोक मे जाती है, सथावर आिद अनेक जनमो दारा यहा पर चारो ओर रहती है, भोगे की उतकणठा से
ऐिहक और पारलौिकक भोगो के उपायरप धन, धमर आिद सवाथों का उपाजरन करती है। इस पकार जनम और नाशो से
संसार मे वह घूमती है।।33।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ, आआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ,
आआआआआआआ आआआआआ आआ, आआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआ आआ
आआआआआ।
िचदूपिसथित ही जगत की िसथित है, कयोिक िचत का ही जगदूप से अवसथान है। यह कहने के िलए पूवोकत
िवषय का अनुवाद करते है।
इस पकार चारो ओर िसथत, िसथर आकारवाली, बह की सवभावभूत ये सब संसार पंिकतयो िफर आती और
जाती है।।1।। परसपर एक-दूसरे के पित कारणता को पापत हुआ यह सारा जगत अिधषान चैतनय से ही उतपन
हुआ है, इसी पकार एक-दूसरे से परसपर नष होता हुआ यह अिधषानचैतनय मे ही लीन हो जाता है। जैसे अगाध जल
के मधय मे जल से अवयापत पदेश के न होने के कारण जल का सपनदन भी सवतः असपनदन ही है वैसे ही असत् और
सत् यानी जड जगत और जीवरप से यह िचित ही पतीत होती है।।2,3।। जैसे िनराकार आकाश मे धूप से मृग
मिरिचका िदखाई देती है वैसे ही िनराकार िचतततव मे ये सृिषया िदखाई देती है। जैसे नशे के कारण चकर न खाता
हुआ भी अपना आतमा चकर खाता हुआ-सा पतीत होता है वैसे ही िचत होने के कारण िचनमय वही वसतु अिचत-सी
िसथत है।।4,5।।
पूवोकत अथर को हृदयंगम करने के िलए जगत की अिनवरचनीयसवभावता दशाते है।त
असत् से ही जगत अपना वेष धारण करता है, इसिलए उसकी असता नही कही जा सकती। उसका बाध
होता है, अतएव सता भी नही कही जा सकती, इसिलए यह जगत न तो सत् है, और न असत् है िकनतु अिनवरचनीय
है। जैसे िक कटक आिद मे सुवणरता उनसे अितिरकत नही है और उनसे अितिरकत भी है।।6।।
यिद कोई शंका करे िक जगत बह का िववतर है, ऐसा सुना जाता है। पतयक चैतनय का तो वह िववतर नही
सुना जाता, तो इस पर पतयक चैतनय ही बह है ऐसा दशाते है।
हे शीरामचनदजी, आपको िजस शबद, सपशर, रप, रस और गनध का जान होता है वही यह पतयगातमा परबह
सबको वयापत करके िसथत है।
येन रपंरसंगनधं शबदानसपशाशमैथुनान।
एतैनैव िवजानाित िकमत पिरिशषयते एतदै तत्।।
(िजस देहािद वयितिरकत अपरोक सािकभूत आतमा से रप, रस, गनध, शबद, सपशर और सतीसंसगरजनय
सुखिवशेष को सब लोग सपषरप से जानते है, देह आिद से वयितिरकत इसी आतमा से देहािद लकण रप आिद को भी
जानते है। इस लोक मे उस आतमा से अितिरकत कौन वसतु अविशष रहती है अथात् सभी वसतु को आतमरप से
समझना चािहए। िजस आतमा से अितिरकत कोई वसतु पिरिशष नही रहती, वही परमपद है) इस काठक शुित मे बह
ही पतयगातमा कहा गया है। यह भाव है।।7।।
यिद कोई शंका करे, पतयगातमा बहुत है, बह एक है, इसिलए उन दोनो की एकता कैसे ? तो इस पर नानातव
और एकतव िमथया है, इसिलए उकत शंका उिचत नही है, ऐसा कहते है।
बहुतव और एकतव से परे, सवरवयापक, िनमरल आतमा से अितिरकत कही कोई दूसरी कलपना नही है। भाव यह
िक नानातव और एकतव यिद सतय होते, तो उनकी एकता न हो सकती। वे माियक है, अतएव उकत दोष नही है।।
8।। हे शीरामचनदजी, अनय वसतु का अिसतततव और अभाव, शुभ और अशुभ सृिषया माियक दृिष से अनातमभूत
माया मे ही वासनावश किलपत है अथवा परमाथरदृिष से एकमात आतमा होने के कारण आतमा मे ही वासनावश किलपत
है।।9।।
पूवोकत पद मे 'अथवाऽऽतमिन' से जो दूसरा पक कहा गया है, उसकी युिकत और पयोजन दारा गदो से
उपपित करते है।
आतमा से अितिरकत वसतु के िसद होने पर उसमे इचछा होती है यानी जब आतमरप सृिष आतमा मे ही यह पक
है, तब आतमा से अनय सृिष नही है। इचछापूवरक ही सृिष होती है, कयोिक 'सोऽकामयत बहु सया पजायेय' इतयािद शुित
है। आतमा मे आतमा की इचछा का होना अिसद है, आतमा से पृथक कोई वसतु पिसद नही है, िजसकी इचछा से आतमा
सृिष करके भी िकस फल के िलए आतमा पयत करे और पयत करके भी कया फल पाये ?।।10।। इसिलए यह
अभीष है और यह अिनष है, इस पकार के िवकलप आतमा को सपशर नही करते। इसिलए इचछा न होने पर आतमा
कुछ भी नही करता। करे भी कैसे ? कता, करण और कमर सभी एक ही है और न कही पर िसथत होता है, कयोिक
आधार और आधेय एक ही है। नैषकमयर की िसिद भी कमर का फल नही हो सकता, कयोिक कमर की िसिद होने पर
नैषकमयर िसिदरप फल होता है। इचछारिहत मे कमर की िसिद ही नही है, इसिलए इचछारिहत आतमा का नैषकमयर भी
अभीष नही है, कयोिक कमर आिद दूसरी कलपना का अभाव है।।11।। हे शीरामचनदजी, पूवोकत पकारो से अनय
साफलय आिद की कलपना है ही नही। यही बह संिसथित है। यिद इसमे आप अनय कलपना को जानते है, तो सब दनदो
से रिहत और सब सनतापो से शूनय होते हुए भी आप कता (संसारी) बिनये, मै आपको रोकता नही हूँ, यह भाव है।।
12।।
अजािनतादशा मे भी भौितक शरीर गहण दारा कतृरतव होने पर भूतो से भूतो का िनमाण कर भौितक फल पापत
िकये जाते है, असंग उदासीन आतमरप नही। जान दशा मे तो कमर और उसके फल का असंभव है, इसमे तो कहना ही
कया है ? इसिलए कतृरतव मे आपकी आसथा होना उिचत नही है, इस आशय से गदो मे कहे गये अथर के समथरन के िलए
पद का अवतरण करते है।
हे रामचनदजी, और भी सुिनये, आपको कतृरतव के आगह से बार-बार कायर करके िवषयो दारा देहभूतो के उपाय
से अितिरकत कया फल पापतवय है ? जो फल िनतय िनरितशयाननदरप आपके िलए उिचत हो, उसे आप किहए। इसिलए
सब कतृरतवािभिनवेश का तयागकर सवरपोिचत अकतृरतव से ही शुित और गुर के वचनो से आतमजानी हुए तथा
अिधकारयुकत आपकी आसथा हो। इससे आप िनवात सागर की तरह िनशल और सवचछ हो आतमसवरप मे िसथत
होइये।।13।।
िवसतारपूवरक कहे गये अथर का ही संकेप से उपसंहार करते है।
िजस साधन से अपिरिचछन सुखलाभ दारा पूणरकामता पापत होती है, वह साधन बडे वेग से िदशाओं के अनत
तक भी घूमकर पचुर यत करने वाले पुरष को भी पापत नही होता। ऐसा िनशयकर आप मन से भी बाह पदाथों की
ओर कदम न उठाइये। इस पकार सब िकयाओं का तयागपत अपने सथान मे ही आपको परम पुरषाथर पापत हो जायेगा,
आप केवल परागूप से पृथक ही नही है वरन परमाथररप से दृष पूणाननद िचदातमा परम पुरष भी है।।14।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सैतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआ आआ आआ आआआआ आआआआआ, आआआआ आआ आआ आआआ आआ आआआआआआआआ
आआआ आआआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआ
आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ।
यिद कोई शंका करे िक तततवजािनयो की भी लौिकक और शासतीय कमों मे कतृरता देखी जाती है। वह
अवशय ही इष और अिनष के भोग को पापत करायेगी, ऐसी अवसथा मे अजानी से तततववेताओं मे कया अनतर है ? इस
पर कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, सुख-दुःख और भोग देने वाले कमों मे या समािध की अभयास
पिरपाकरप भूिमकाओं मे तततवजािनयो का यह कमर िदखाई देता है, वह असत् है, मगर मूखों का वह असत् नही है, यही
तततवजानी और मूखों मे अनतर है।।1।। पहले िवचार करना चािहए िक कतृरतव िकसे कहते है। शारीिरक िकया तो
कतृरतव है नही, कयोिक जो चेषा अबुिदपूवरक की जाती है उसमे 'मै करता हँू' ऐसी पतीती नही होती। िकनतु पूवर-पूवर
कतृरतव की वासना से अनुरकत मनोवृित से उतपन हुई, यह कायर है, इस पकार की िचतवृितरप से पिरणत मानिसक
िकया ही कतृरता है।।2।।
भोकतृतव भी उकत कतृरतव के अधीन चेषावश तत्-तत् वासनानुरप फलासवाद से उतपन वासना ही है, ऐसा
कहते है।
चेषावश वासनायुकत फलभोकतृतव होता है, कयोिक वासना के अनुसार ही पुरष चेषा करता है और चेषा के
अनुसार ही फल भोगता है। कतृरतव से फल भोकतृतव होता है, ऐसा िसदानत है।।3।।
उकत अथर मे शलोक को उदृत करते है।
कहा भी हैः पुरष चाहे कायर करे या न करे िफर भी उसका मन िजस पकार की वासना से युकत होता है,
उसका सवगर अथवा नरक मे अनुभव होता है।।4।।
भले ही वासना ही कतृरता और भोकतृता हो, िफर भी जानी और अजानी के अनतर की िसिद कैसे हुई, इस पर
कहते है।
इसिलए िजन पुरषो को तततवजान नही हुआ, वे चाहे कमर करे या न करे उनमे कतृरता होती है, िकनतु िजन
लोगो को तततव का पिरजान हो चुका, वासना रिहत होने के कारण वे चाहे करे या न करे, उनमे कतृरता नही होती।।
5।।
जानी मे जो िवशेषता पहले कही गई थी, उसी का उपपादन करते है।
िजस पुरष को तततव का पिरजान हो चुका, उसकी वासना िशिथल हो जाती है। अतएव वह कमर करता हुआ
भी कमर के फल की आकाका नही करता। आसिकत रिहत वह केवल चेषामात ही करता है। पापत हुए कमरफल को भी
यह सब आतमा ही है, यो अनुभव करता है। िकनतु भोग मे आसकत मन वाला अजानी कमर न करता हुआ भी कमर करता
है यानी कतृरतव से िलपत होता है।।6।। मन जो करता है, वही कृत होता है। जो नही करता, वह कृत नही होता,
इसिलए मन ही कता है, देह कता नही है।।7।। िचत से ही यह संसार पापत हुआ है, अतएव यह िचतमय ही है।
िचतमय कयो ? बिलक केवल िचतमात है तथा िचत मे ही िसथत है, ऐसा पहले िवचारपूवरक िनणरय िकया जा चुका है।
सब िवषय और सब िचतवृितया ये दोनो जब शानत होकर वासनारप हो जाते है, तब वासना से उपिहत जीव ही रहता
है।।8।। उन जीवो मे आतमजािनयो का वह मन वषा ऋतु मे मृग तृषणा के जल की तरह िवनष होकर एवं तेज धूप
मे बफर के सदृश िवलीन होकर तुरीय दशा को पापत हो तुरीयारप से िसथत रहता है, यह जानी मे अजानी की अपेका
िविशषता है।।9।।
पूवोकत मन की दशा का वणरन करने वाले शलोक को उदत ृ करते है।
िवदान लोग जािनयो के मन को न तो िवषयाननद मे आसकत जानते है न सवरपाननदशूनय, न चंचल, न पतथर
आिद के समान जड, न िसथर, न सत् न असत् और उकत आननद, िनराननद, चल, अचल, सत्, असत् की
सनधयासथारप ही जानते है, िकनतु उसे पिरशेष एकमात भूमा आतमसुखरप जानते है।।10।।
जानी और अजािनयो की दूसरी िवशेषता भी कहते है।
जानी पुरष जैसे हाथी छोटी तलैया मे नही डू बता वैसे ही वासनामय चेषा रस मे मगन नही होता। मूखर का
मन तो िवषय भोगो को ही देखता है, परमाथरतततव को नही देखता।।11।।
अजानी के मन के दुवासना दुःख मे मगन होने मे सवप दृषानत है, ऐसा कहकर उसका उपपादन करते है।
अजािनयो के दुवासना दुःख मे िनमगन होने का यह दूसरा दृषानत है। पुरष गडढे मे न िगरता हो, शययारप
आसन पर िसथत हो, िफर भी उसका िचत गतरपतन की वासना से वािसत हो, तो वह गडडे मे िगरने के दुःख का
अनुभव करता है, दूसरा पुरष भले ही गडढे मे िगर रहा हो, मगर उसका मन परमशािनत को पापत हो चुका हो, तो वह
शययारप आसन के सुख का अनुभव करता है। इसी पकार इन शयया और गतरपतनो मे एक पुरष गतरपतन का अकता
होता हुआ भी िचतवश कता बन गया और दूसरा पुरष गतरपात का कता होता हुआ भी अकता हो गया। इसिलए िजस
तरह का िचत होता है, वैसा ही पुरष हो जाता है, ऐसा िसदानत है।।12।। इसिलए चाहे आप कमर कीिजए या न
कीिजए। आपका िचत कमों मे सदा आसिकतरिहत हो। आतमतततव से अितिरकत कुछ भी नही है, िजसमे िक
तततवजानी आपकी आसिकत की संभावना हो। इस जगत मे यह जो कुछ भी है, वह सब शुदिचत होने के कारण केवल
िचत का आभास ही है। ऐसा आप जािनये।।13।। इस पकार िजस पुरष को जातवय वसतु का जान हो चुका, उस
पुरष का आतमा सुख और दुःखो का िवषय नही होता, ऐसा िनशय होने पर, आतमा से अितिरकत आधार और आधेय
दृिषया नही है, यह िनशय होने पर, अकता, अभोकता, सब पदाथों से अितिरकत बाल के अगभाग के हजारवे िहससे की
तरह सूकम मै हूँ। ऐसा िनशय होने पर अथवा जो कुछ यह सब है, वह सब मै ही हूँ, यह िनशय होने पर, मै सब पदाथों
का पकाशक सवरगामी िसथत ही रहता हूँ, ऐसा िनशय होने पर मै सुख-दुःखो का िवषय नही हूँ, यह िनशय होने पर इष
पािपत और अिनष पिरहार के िचनतारपी जवर से रिहत होने के कारण िचतवृित आतमा मे ही पारबध भोग के िलए लीला
पकट करती हुई वयवहारो मे िसथत रहती है।।14।।
इसिलए तततवजानी को संकटो मे भी दुःख नही पापत होता, पतयुत आननद ही रहता, ऐसा कहते है।
इसिलए तततवजानी की िचतवृित संकटो मे भी आनिनदत ही रहती है। केवल चादनी की तरह भुवनता को
अलंकृत करती है यानी जैसे चादनी भुवनता को अलंकृत करती है वैसे ही वह भी जीवभाव को अलंकृत करती है,
कयोिक िचत के िबना जानी कमर करता हुआ भी अकता है। वह मन के लेपक न होने के कारण हसत-पाद आिद के
िवकेपरप पयत से िकये गये कमर के फल का भी अनुभव नही करता।।15।।
सब कायर, मन, बुिद उनके िवषय और उनकी गितयो का मन ही बीज है, इसिलए मन का तयाग होने पर सब
संसार का तयाग िसद हो जाता है, ऐसा कहते है।
इस पकार मन सब कमों का, सब चेषाओं का, सब पदाथों का, सब लोको का और सब अवसथाओं का बीज
है। उसके चले जाने पर सब चेषाएँ चली जाती है। सब दुःख नष हो जाते है। सब पाप-पुणय कमर लीन हो जाते है।
मानिसक कमर से और शारीिरक कमर से भी जानी आकानत नही होता, न िववश होता है। उसमे शारीिरक या मानिसक
कमर का रंग नही चढता, कयोिक परमाथरतः उससे अितिरकत कुछ नही है।।16।।
कृत के भी अकृततव मे दृषानत कहते है।
जैसे बालक मन से नगर का िनमाण और िनिमरत नगर का पिरषकार करता हुआ भी मन से िकये गये नगर
िनमाण का लीला से अकृत की तरह अनुभव करता है, उपादेयरप से अनुभव नही करता। उनके सुख-दुःख का
अनुभव करता हुआ भी यह दुःख नही है, यो जानता है, इसी पकार जानी करता हुआ भी परमाथरतः िलपत होता ही नही
है।।17।।
इस पकार कतृरतव का िवचार करके दुःख के कारण का िवचार करते है।
जगत मे हेयता और उपादेयता दारा वयवहार के िवषय सब पदाथों मे दुःख का कारण कया है ? हेय तो दुःख
का कारण नही हो सकता, कयोिक तयाग उपादान पूवरक होता है, हेय के उपादेय न होने से ही उससे दुःख की पािपत
नही हो सकती इसिलए पिरशेष से उपादेय ही दुःख का हेतु है, ऐसा मानना पडेगा। िकनतु उपादेय भी दुःख का कारण
नही हो सकता। पहले यह बतलाइये, िवनाशी उपादेय से दुःख होता है, या अिवनाशी से ? पहला पक तो ठीक नही है,
कयोिक िवनाशी अपनी रका करने मे समथर नही है, ऐसी अवसथा मे वह िकसी का कारण हो, यह समभव नही है। दस ू रा
पक भी ठीक नही है, कयोिक उपादेय जगत मे ऐसी कोई भी वसतु नही है, जो आतमा से अितिरकत और अिवनाशी हो।
अतोऽनयदातरम् इतयाित शुित से आतमा से अितिरकत सब िवनाशी कहा गया है, भाव यह िक आतमा हािन और
उपादान के अयोगय है और आतमा से अितिरकत उपादेय नशर है। इस तरह भोगय दुःख के कारण िनरपण न होने से
आतमा अकता और अभोकता है। कतृरतव का अनुभव होता है, वह जीिवत पुरष मे कतृरतव अवशय रहेगा ही, कयोिकः
'निह देहभृता शकयं तयकतुं कमाणय शेषतः' ऐसा भगवदवाकय है। उकत कतृरतव समयग् जान के अभाव से है, वसतुतः
नही है। तततववसतु के िवचार से तो िनिमतभूत पुणय-पापरप अदृषो से िववश बुिदवाले अजािनयो के ही वे (कतृरतव-
भोकतृतव) देखे जाते है। इिनदयो के िवषयो मे देषय अिभलाषा आिद से तथा उनके िनिमतभूत पुणय-पापरप अदृष से
िजनकी बुिद िववश नही है, ऐसे जािनयो के वे नही िदखाई देते।।18,19।।
इसिलए तततवजािनयो की मोक कलपना भी नही है, ऐसा कहते है।
िजसका मन पूणर आतमा मे ही संलगन है, उस जािनयो की दृिष से संसार मे मोक नही है। आतमा मे िजनका
मन संलगन नही है, ऐसे देहाधयासदृिष को पापत लोगो की दृिष से तो वह बनध मोक आिद सब है ही।।20।।
जानी की दृिष तब कया है। इस पर कहते है।
जानी की दृिष मे केवल यथािसथत आतमतततव ही उललिसत होता है।
शंकाः यिद जानी की दृिष मे आतमतततव ही उिललिसत होता है, तो उसकी वयवहार िसिद कैसे होती है ?
समाधानः आतमतततव ही तततवजानी के जीवन आिद वयवहार की िसिद के िलए िदतव एकतववािदयो की दृिष से
िसद िदतव और एकतव को जीवन आिद के वयवहार के समय करता है। सततव और असततव भी करता है तथा शिकत
समूह से अिभन सवरशिकतता भी िदखाता है।।21।।
अब पद दारा फिलताथर कहते है।
न बनधन है, न मोक है, न बनधन का अभाव है और न बनधन के कारण काम-कमर आिद है। तततव के अजान
से ही यह दुःख है, जान से लीन हो जाता है।।22।।
उकत पूणातमिनषा का उपसंहार कर रहे शीविसषजी शीरामचनदजी के िलए उपदेश देते है।
जगत मे संकिलपत मोकबुिद असतय ही है, जगत मे संकिलपत बनधबुिद भी असतय ही है, इसिलए हे
शीरामचनदजी, आप बनध-मोक सबका तयागकर अहंकारशूनय, आतमिनष अतएव धीर बुिद से वयवहार करते हुए भूलोक
मे िसथत होइये।।23।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अडतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ, आआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआआ,
आआआआ आआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआआआ
। आआ आआआआआ आआआ आआ आआआआआआ
अजदृिष मे ही िसथत शीरामचनदजी गुरवचनो मे िवशास होने के कारण परोकरप से ही पूणरता िसथित का
आलोचन करके परसपर िवरोध का अनुभव करते हुए शंका करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः भगवन्, आपके कथनानुसार बनध-मोक आिद का असंभव रहने पर और एकमात परबह
के ही िवदमान रहने पर आधार के िबना ही िचतरप इस सृिष का आगमन कहा से हुआ ? हे महातमन्, उसे आप
कृपापूवरक मुझसे किहये।।1।।
कया ये अजदृिष मे रहकर शंका करते है, अथवा थोडी बहुत अिभजता को पापत होकर अजता-अिभजता के
मधयवती होकर शंका करते है, ऐसी परीका करने के िलए शीविसषजी सवरशिकततावाद के सवीकार दारा शीरामचनदजी
की शंका को दूर करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे राजकुमार, बहतततव का ही यह िववतर है, वह बह सवरशिकत है, कायर से ही बह मे
सवरशिकतता का अनुमान होता है।।2।।
िजनमे शिकत नही है, उनही मे िवरोध होता है, सवरशिकतशाली मे तो कोई िवरोध नही है, इस अिभपाय से कहते
है।
बह मे सततव-असततव, िदतव-एकतव, अनेकतव, आदतव और अनततव सब कुछ है, िकनतु वे उससे अितिरकत
नही है। जैसे समुद का जलपवाह चनदोदय आिद से हुए अपने उललास दारा िवकिसत होकर तरंग ही नृतय से अपने
नानाकारता को िदखलाता हुआ पकट होता है, वैसे ही िचदघन बह िचतोपािध जीवभाव का तथा उसके िचदाभासरप
से िचत होने के कारण कमर, वासनामयी, मनोमयी सब शिकतयो का एक-एक करके संचय करता है और संिचतो को
फल दारा पकट करता है, उपभोग दारा धारण करता है, पैदा करता है, ितरोभाव से िवनाश करता है।।3-5।।
उकत अथर मे शलोको को उदृत करते है।
सभी जीवो की, सभी चारो ओर की दृिषयो की, सभी पदाथों की बह से ही िनरनतर उतपित होती है।।6।।
सागर मे तरंगो के समान परमातमा से सब उतपन होते है, उसी मे लीन हो जाते है और िचत होने के कारण िनरनतर
तनमय ही है।।7।।
इस पकार शिकतवाद दारा शीरामचनदजी की शंका का समाधान करने पर भी शीरामचनदजी अिगन मे
शैतयशिकत की तरह, जल मे दाहशिकत की तरह िचदूप बह मे िवरद जाडयशिकत, अदृशय बह मे दृशय शिकत तथा
िनतयबह मे अिनतयशिकत की असमभावना करते हुए िफर शंका करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन् िवरद होने के कारण आपके वाकयाथर का समझ मे आना बडा किठन है।
अब तक भी मै आपके वाकयाथर को नही समझ सका हूँ।।8।। मन और इिनदयो की वृित से परे बहतततव कहा !
उससे उतपन हुई कणभंगुर पदाथर शोभा से युकत यह सृिष कहा ? यिद पदाथर सृिष बह से आई है, तो इसे बह के
सदृश ही होना चािहए, िवरद नही होना चािहए।।9।। लोक मे जो िजससे उतपन होता है, वह उसके सदृश ही होता
है, जैसे दीपक से दीपक, पुरष से पुरष तथा अन से अन। यिद यह बह से अितिरकत है, तो िनषकलंक परमेशर की
जो जगदावपित आपने कही है, यह कलंकापित की ही उिकत कही जायेगी। यह सुनकर भगवान शीविसषजी ने
कहा।।10-13।।
तततवदृिष से शीविसषजी जगत के िचदभाव को एवं अिवकारता को देखते हुए समाधान करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे िनषपाप शीरामचनदजी, यह बह ही है, यहा पर मल नही है। सागर मे तरंगसमूहरप से
जल ही सफुिरत होता है, धूिल तरंग समूहरप से सफुिरत नही होती। हे शीरामचनदजी, जैसे अिगन मे एकमात उषणता
के िसवा दूसरी कलपना नही है, वैसे ही एकमात बह के िसवा यहा पर दूसरी कलपना है ही नही।।14,15।।
अजदृिष मे ही िसथत शीरामचनदजी सवरथा एकमात आननदसवरप बह की आननद िवरद जगदूपता नही कही
जा सकती है, यो िजद करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे बहन्, बह दुःखरिहत तथा दनदरिहत है और उससे उतपन हुआ जगत दुःखमय है,
आपका यह असपषाथर वचन मेरी समझ मे नही आ रहा है।।16।।
इस पकार िनरतर हुए शीविसषजी का शीरामचनदजी को समझाने के िलए उपाय का िचनतन शीवालमीिक जी
कहते है।
वालमीिक जी ने कहाः हे वतस, शीरामचनदजी के ऐसा कहने पर मुिनशेष शीविसषजी शीरामचनदजी को
उपदेश देने के िलए मन से िवचार करने लगे िक अभी तक शीरामचनदजी की बुिद पूणर िवकास को पापत नही हुई है।
कुछ िनमरलता को पापत हुई यह परमतततव मे पापत कराई गई कही है।।17,18।। जो पुरष जगत की जडता का
पिरतयाग कर िचदेकरसता के देखने मे समथर है, उस धीमान और जातजेय (िजसने जातवय तततव जान िलया है) एवं
िववेक से जो मोक के उपायभूत वचनो का पार पा गया है, उसकी दृिष से िकसी वसतु का कुछ भी िवरोध नही है,
कयोिक िवरदरप जगत िवजानरप आतमा मे कही पर नही है, हम जब तक शीरामचनदजी को भली-भाित उपदेश नही
देगे, तब तक शीरामचनदजी िवशािनत को पापत नही ही होगे। इसिलए हमे इनको अवशय उपदेश देना चािहए, यह अथर
है।।19,20।। परनतु िजसकी मित पूणररप से वयुतपन नही हईु , उसको यह सब बह ही है, यह पूवोकत उपदेश नही
भाता, कयोिक यह अधरवयुतपन नही हुई, उसको यह सब बह ही है, यह पूवोकत उपदेश नही भाता, कयोिक यह
अधरवयुतपन पुरष दृशयो को उपिसथत करने वाली भोगदृिष से सदा ही दृशयो की भावना करता हुआ तततवबोध से चयुत
हो जाता है।।21।।
तो कौन उस पकार के उपदेश का उपयुकत पात है, ऐसी शंका होने पर कहते है।
तततवबोधरप परमदृिष को पापत हुए पुरष को भोगेचछा उतपन नही होती। उसी पुरष के िलए समय पर यह
सब बह ही है, ऐसा पिरिनिषत उपदेश उपयोगी होता है।।22।।
अधरवयुतपन पुरष को िकस पकार उपदेश देना चािहए, इस पर कहते है।
पहले शम, दम आिद गुणो से िशषय को िवशुद करे, तदननतर शुद तुम वह सवातमक बह हो, ऐसा जान
कराये।।23।। अज को या अधरपबुद को 'सवर बह' (यह सब बह है) ऐसा उपदेश दे, उसने उस अजानी को
महानरक जालो मे डाल िदया।।24।। िजसकी बुिद पबुद हो गई है, भोगेचछा कीण हो गई है और कामना िमट गई है,
उस महातमा मे अिवदारपी मल नही है, अतएव उसके िलए यह सब बह ही है, ऐसा उपदेश देना उिचत है।।25।।
िजसे तततवजान नही है, वही अनिधकारी को उपदेश देने के िलए पवृत होता है। िशषयो को ठगने वाले उस
अतततवजानी का नरकपतन उिचत है, इस आशय से कहते है।
जो अतयनत िवमूढबुिद (अतततवजानी) िशषय की परीका िकये िबना उपदेश देता है, वह पलयपयरनत नरक को
पापत होता है।।26।। ऐसा िवचार कर अजानरपी अनधकार का िवनाश करने वाले अतएव भूिम मे िसथत सूयर के
सदृश मुिनशेष भगवान शीविसषजी ने शीरामचनदजी से कहा।।27।। हे िनषपाप शीरामचनदजी, बह मे कलंक है,
अथवा नही, यह बात आप सवयं जान जायेगे। यिद सवयं न जान सकेगे, तो पिरिनिषत उपदेश के समय यह मै आपको
बतलाऊँगा इस समय नही।।28।।
इस समय अधरवयुतपन पुरष से कहने योगय बह की पूवोकत सवरशिकतसमपनता आिद और पतयगातमा के सबमे
अहंभाव के दशरन का पहले उपदेश देते है।
बह सवरशिकतसमपन, सवरवयापक और सवरगत है, पतयगातमा मै ही सब हूँ, यो जानना चािहए।।29।।
माया से ही बह की सवरशिकतता और पतयगातमा की सवातमकता है, इसका सपषीकरण करते है।
हे रामचनदजी, ऐनदजािलको को आप देखते है, जैसे वे माया दारा िविचत िकयाओं को उतपन करते हुए सत् को
असत् बना देते है और असत् को सत् बना देते है वैसे ही यह आतमा भी अमायामय होता हुआ भी परम ऐनदजािलक की
तरह मायामय होकर घट को पट बना देता है और पट को घट बना देता है। मेर के सुवणरमय तट पर ननदनवन की
तरह पतथर पर लता पैदा कर देता है, कलप वृको पर रत के गुचछो की तरह लता मे पतथरो को पैदा कर देता है।
आकाश मे वन का आरोप कर देता है।।30।।
वसतुवयतयय के समान देश-काल के वयतयय की भी माया शिकत से ही संभावना करना चािहए, इस आशय से
कहते है।
गनधवरनगर मे उदान की तरह गगन मे आगे होने वाले उस जगत मे कलपना से नगरता को उतपन करता है।
आकाश को, िजसकी छायारपी नीलता मानो नष हो गई, पृथवी तल बना देता है।।31।।
तो कया आकाश को नीचे रखने के िलए भूतल को कही दूसरी ओर ले जाता है, ऐसी कोई शंका करे, तो उस
पर नही ऐसा कहते है।
गनधवरनगर के राजमहल मे बहुत सी मिहलाओं की तरह भूतल मे ही आकाश की सथापना करता है।।32।।
जैसे पदराग मिण के महलो मे आकाश का पितिबमब आधार की लािलमा से ही लाल होता है, वैसे ही इस जगत मे जो
कुछ है, होगा और हुआ था, वह सब सवतः असत् होता हुआ भी बह की सता से सत्-सा है, यह अथर है।।33।।
कयोिक ईशर वयकतरप हो िविचतता को पापत होकर अपने सवरप को िदखलाता है।।34।।
इस पकार एक वसतु सब पकार से सब होती है, इसिलए इस िवषय मे असंभावना, हषर और कोध आिद ठीक
नही है, ऐसा कहते है।
चूँिक इस जगत मे एक ही वसतु सब जगह सब पकार से सब होती है, इसिलए हे शीरामचनदजी, हषर, कोध
और आशयर का अवसर ही कहा है ?।।35।।
इस पकार शीरामचनदजी की असंभावना का िनरास कर पूवोकत समता िसथित का ही िवधान करते है।
हे शीरामचनदजी, धैयरशाली पुरष को सदा समता से ही रहना चािहए।।36।।
तभी हषर, कोध, आशयर आिद का आतयािनतक िवनाश होता है, इस आशय से शलोक उदृत करते है।
समतारपी कवच से पिरवेिषत तततवजानी पुरष आशयर, गवर, मोह, हषर, कोध आिद िवकारो को कभी पापत नही
होता है।।37।। समता का पयरवसान होने पर देश और काल से युकत जगत मे ये िविचत दृशयरचनारप युिकतया
िदखाई देती है।।38।।
यह आतमा सामगीयुकत अवसथाओं से युकत सृिषरचना यत से करता है। उतपन हुई उन रचनाओं का, जैसे
सागर तरंगो का ितरसकार नही करता, वैसे ही ितरसकार नही करता।।39।। तो दूध मे घृत की तरह, िमटी मे घडे
की तरह, तनतुओं मे वसत की तरह और वट के बीज मे वटवृक की तरह आतमा मे ही िसथत पकटता को पापत हईु
शिकतयो का कथंिचत वयवहार होता है। यह वयवहार दृिष एकमात कलपना ही है। परमाथरतः तो जगत अिवरिचत ही
है।।40।। इस जगत मे न कोई कता है, न भोकता है, न यह जगत िवनाश को पापत होता है।।41।। साकी
िनिवरकार केवल आतमतततव के िनतय अपने मे समरप से कोभरिहत रहने पर ऐसा होता है।।42।।
वैसे परमाथर के रहने पर भी जगत पािपत मे दृषानत दशाने वाले दो शलोको का अवतरण िकया गया है।
जैसे दीप के रहने पर पकाश सवतः होता है और जैसे फूल के रहने पर सुगनध सवतः होती है वैसे ही जगत
सवतः ही उतपन होता है। वायु से सपनदन की तरह यह आभासमात ही िदखाई देता है, अतएव यह न सत् और न
असत् है यानी अिनवरचनीयरप से अविसथत है।।43,44।।
इस पकार केवल अपनी सिनिध से उतपन हो रहे जगत के दोषो से िलपत न हो रहा आतमा ही जगत का कता-
सा, हता-सा और िनयनता सा ऐसे पतीत होता है, जैसे िक आकाश तारारपी पुषपरािशयो का कता, हता और िनयनता
पतीत होता है, ऐसा कहते है।
परमाथररप से िनदोष के तुलय ही िसथत होकर भगवान िवनष हुई जगत की दृिषयो के पुनः कता होते है और
की गई जगत की दृिषयो के नाशक होते है। जैसे केवल आकाश मे तारारपी फूल रािशया कभी पकट और कभी
अपकट होती है, वैसे ही उसमे ये जगत की दृिषया कभी पकट होती है और कभी अपकट होती है।।45।।
इस पकार असत् जगत का असतातमक िवनाश सवतः ही होता है और सताितमका उतपित और िसथित
बहसता से ही है, यो िवभाग होने पर फिलताथर कहते है।
जो वसतु आतमा की आतमभूत नही है, वह वसतु यहा पर नष ही होती है। जो वसतु आतमा की सवरपभूत है,
वह कैसे नष हो सकती है ? जो वसतु आतमा की सवरपभूत नही है, वह उतपन होती ही नही है, जो वसतु आतमा की
सवरपभूत है, वही उतपन होती है और वही िसथत रहती है। 'जायते' यह िसथित का भी उपलकण है। जो वसतु आतमा
की आतमभूत है, वह उससे कैसे उतपन होगी इसिलए उसकी उतपित कलपनामात है।।46,48।।
आतमसता का जगत मे अधयास जगत का जनम है, आतमा का जनम नही है, कयोिक आतमा मे भेद नही है, इस
आशय से पूवोकत िवषय का उपसंहार करते है।
इसिलए परमाथरसतय िचतसवरप केवल बह के सब पदाथों की उतपित है।।49।। उतपन हुए उन पदाथों
की उतपित होते ही तुरनत अिवदा उतपन होती है, अिभमानलकण वह अजान समय आने पर दृढ हो जाता है। तदननतर
सैकडो, हजारो तनो से युकत, िविचत शुभ और अशुभरप फलो से लदा हुआ, पचुर शाखा और पशाखाओं से युकत
संसाररपी वृक िवशालता को पापत होता है।।50।।
संसाररपी वृक का ही वणरन करके उसके उचछेद का उपाय बतलाते है।
उकत संसाररपी वृक आशारपी मंजिरयो से युकत है, सुख-दुःख आिद िविवध फलो से लदा है, दारण दुःख
आिद भोगो से पललिवत है, बुढापारपी फूल से युकत है और तृषणारपी लता से दैदीपयमान है। अपने बनधनरप इस
संसार नामक वृक को िववेकरपी तलवार से काटकर सतमभ से खोले गये गजराज की तरह मुकत हुए आप इस संसार
मे िवहार कीिजए।।51।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआ, आआआआआ आआआ
आआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ । आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ
शीरामचनदजी ने कहाः हे पभो, बहपद से इन जीवो की उतपित कैसे हुई, वह िकतनी और कैसी है ? यह
िवसतारपूवरक मुझसे कहने की कृपा कीिजए।।1।।
यदिप जीवो की उतपित उतपित पकरण मे िवसतार से कही गई है, तथािप आगे िकये जाने वाले आकेप के
उतथान के िलए तथा िवशेष जान की इचछा से पुनः यह पश िकया है, ऐसा समझना चािहए।
शीविसषजी ने कहाः हे महाबाहो, भाित-भाित की भूतजाितया जैसे बह से उतपन होती है, जैसे नाश को पापत
होती है, जैसे मुकत होती है, जैसे वृिद को पापत होती है और जैसे बह मे ही अनतिहरत होकर िसथत रहती है, उसे मै
संकेपतः आपसे कहँूगा, हे अनघ, आप सुिनये।।2,3।। परबह की िनमरल िचतशिकत, जो सवरशिकतशािलनी है अपनी
इचछा से िविवध कलपना करती हुई सवयं भावी देहािद के आकार का सफुरणरप चेतय (िवषय) हो जाती है।।4।।
पूवोकत देहािद के आकार का ही अचछी तरह जो अहंभाव से सफुरण है, उसके दारा घनता को पापत हईु वह िचतशिकत
सवयं जो कुछ भी संकलप करती है, िफ उस भाव को पापत हो जाती है। वही िचतशिकत का घनीभाव मन तथा
जीवोपािध है।।5।। मन के संकलपमात से दृशय अहंकार आिद की कलपना दारा वासतिवक दृगरपता का तयागकर
रही सी िचतशिकत कणमात मे इस असतयभूत दृशय का गनधवर नगर की भाित िवसतार करती है।।6।।
इससे कया हुआ ? यह कहते है।
यदिप िचदूप आतमा सवपकाश है, तथािप वह सवरपथम अपने से िनिमरत अपने से पृथक शूनयाकार से पतीत
होता है। वही अवसथा सवरजन पिसद आकाश है।।7।।
उस आकाश मे बहा आिद की सथूल देह की और भुवनो की कलपना दशाते है।
वह िचतततव बहा का संकलप करके बहा के रप को देखता है। तदननतर दक आिद पजापित की कलपना
कर जगत की कलपना करता है।।8।। हे शीरामचनदजी, चौदह भुवनो मे रहने के कारण चौदह पकार के अननत भूत
समूहो के कोलाहल से युकत यह सृिष इस पकार िचत से िनमाण को पापत हईु है।।9।।
इस तरह उपािध की उतपित के िमथया होने से उपािध पयुकत जीवो की उतपित भी िमथया है, इस आशय से
कहते है।
एकमात िचत से बनी हुई एकमात आकाश शरीरवाली अतएव शूनय पतीत हो रही जीवसृिष एकमात संकलप
नारी के तुलय केवल भािनतसवरप है।।10।।
उसमे शासत के अिधकारी दुलरभ है, यह दशाने के िलए जीवो का तीन पकार से िवभाग करते है।
इन लोको मे कुछ भूतजाितया महामोह से युकत है, कुछ आतमजान को पापत है, जैसे सनकािद। मधय की
दशाओं मे िसथत कुछ जीवजाितया मोक के िलए पयत करती हुई भी दृढ वैरागय न होने के कारण बार-बार िवघो दारा
बहपद से पितत होती है।।11।।
शासत के अिधकार का पयोजक वैरागय कहा सुलभ है ? उसको कहते है।
पृिथवी मे समबनध रखने वाली सभी पाणजाितयो मे ये भारत वषर मे रहने वाली जो नर जाितया है, वे ही
आतमजान के उपदेश के योगय है।।12।।
उनके वैरागय होने मे हेतु बतलाते है।
उन नरजाितयो के मधय मे कुछ मनोवयथा से पीिडत, दुःखमय तथा मोह, देष और भय से आतुर है, अतः
तमोगुण पधान होने के कारण उनका शासत मे अिधकार नही है। उपदेश योगय रजोगुण और सततवगुणपधान जो
जाितया है, उनहे मै बयालीसवे सगर मे कहूँगा, यह अथर है।।13।। जो अमृत, सवरवयापक, िनरामय, भमसपशरशूनय,
अकारण और अननत नामवाला बह है, वह िजस तरह चंचलता की भाित सपनदनशूनय शरीरवाले उस परमातमा का जो
जीवभाव से सपनद है, वह िजस तरह घनता को पापत होता है, उसे भी उसी सगर मे कहूँगा।।15।।
'सपनदः सतैकदेशतः' यह जो कथन है, वह अयुकत है, कयोिक अखणड पूणरसतैकरस बह मे सतावयव
सपनदन की समभावना नही हो सकती, ऐसी शंका शीरामचनदजी करते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, अननत आतमतततव का एकदेश कया कहलाता है, उसमे िवकािरता कैसे होती
है अथवा उसमे िदतव की भािनत कैसे होती है ?।।16।।
जीव बह की एकता की वासतिवकता के वयुतपादन के िलए उतपित, सपनद और एकदेश आिद का वयवहार
शासत मे किलपत है, इसिलए वासतिवक वृित का आशय करके उसमे िवरोध का उदभावन उिचत नही है, इस आशय से
शीविसषजी उतर देते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, यह जगत उस िनिमत से उतपन है और उसी उपादान से पैदा हुआ है,
यह वाणी की रचना शासत के वयवहार से िलए है वसतुतः नही है।।17।।
वसतुतः कयो नही है ? इस पर कहते है।
पतयक उतपदमानरप से िदखाई दे रहे भी िवकािरता, अवयिवता, िदकसता, एकदेशता आिद कम सवेशर
परमातमा मे समभािवत नही है।।18।।
यिद उसमे इनका समभव नही है, तो जगत के िकसी अनय मूल की कलपना कीिजए। इस पर कहते है।
उसके िबना अनय कलपना ही नही है और न होगी। भाव यह िक िचतपकाश के िबना अनय कलपना भी अयुकत
है। कारण-कायर मे कम शबदाथर तथा वयवहार की उिकतया कहा सो हो सकती है ?।।19।। जो जो कलपनाएँ है, जो
पदाथर है, जो शबद है और जो वाकयाथर है, वे सत् से उतपन होने के कारण तथा सनमय होने के कारण सदवसतु की ही
तरह इष है।।20।।
इस तरह सता के भेद के अभाव से भेदपतीित िमथया ही है, ऐसा कहते है।
अिगन से उतपन हईु अिगन की भाित वही उससे जनय होता है। यह जगत जनय है, वह जनक है, यह भेद
कलपनामात है यानी िमथया है।।21।।
दीपक से दीपक की भाित यह जगत उतपन है, यह वयवहार कैसे है ? इस पर कहते है।
यह इससे उतपन है, यह जो जगत की िसथित है, वह एक दीपक की दो रपे के िनमाण की शिकत मे अितशय
की भाित माया से एक ही आतमा की दो रपो के िनमाण की शिकत मे अितशय है, वही जनय जनक दो रपो मे भािसत
होता है।।22।। यह जगत िभन है, यह बह िभन है, यह शबद और अथर का वयवहारशम वचनमात मे है, परमातमा मे
नही है, कारण िक 'वाचरमभरणं िवकारो नामधेयम्' ऐसी शुित है, कयोिक पिरचछेद होने पर ही तो भेद पतीत होगा।।
23।। पूवोकत िकयाशिकत से उतपन हुई मनः शिकत से ही सवभावतः शबदिवभाग पवृत होता है, तदननतर उससे
दृढभावना दारा अभीष अथर समपन होता है।।24।।
पूवोकत अथर को ही उदाहरण देकर दशाते है।
अिगन की एक िशखा की दूसरी िशखा जनक है, यह कथन वैिचतयमात है, इस कथन मे सतयता नही है।।
25।। परमातमा मे जनय-जनक आिद शबदवयवहार का समभव नही है। अननत होने के कारण जब वह एक ही है, तो
िकसे कैसे उतपन करेगा ?।।26।। यह उिकत का सवभाव है िक एक उिकत के अननतर दूसरी उिकत सवाशयिवरद
भेद, िदतव आिद अथर युकत हो जाती है।।27।। समुद मे तरंग-समूह की भाित परबह मे जो शबद और अथर की
कलपना का आकार है, वह बह ही है, ऐसा िवदानो ने अनुभव िकया है।।28।। बह ही पतयगातमा है, बह ही मन है,
िविवध पकार की बुिदवृितया भी बह ही है, बह ही पदाथर है, बह ही शबद, बह ही ईशर है या साकी चेतन है या
पदाथानुभूित है, सब िवषय भी बह ही है।।29।। सामने दीख रहा यह सब िवश बह ही है, वह बहपद िवश से परे
है। वसतुतः यह जगत है ही नही, सब कुछ केवल बह ही है।।30।। आतमाकाश मे यह िभन है, यह िभन है, यह
िवभाग िमथयाजान के िवकलप से कथनमात है। इस कथन मे कया सतयाथरता है ?।।31।। जैसे अिगन की िशखा से
दूसरी अिगन की िशखा उतपन हुई वैसे ही बह से मन की संजारपी िशखा उतपन हुई है। चंचलता से उतपन िवकलप
संपित िनतयिसद कूटसथ बह मे िसद नही होती है।।32।। तमस दृिष के कीण होने के कारण जैसे िदचनद
जानदोष िमथया है, वैसे ही सतय वसतु िवकलप से युकत है, यह िवकलप कथन िमथया ही है।।33।। सवरसवरप,
सवरवयापक उस अननत बहपद से अनय कुछ नही उतपन हो सकता, जो कुछ उतपन है, वह बह ही है।।34।। इस
जगत मे बहतततव से अितिरकत कुछ उतपन नही होता, इसिलए यह सब बह ही है, यही परमाथरता है।।35।। हे
मितमान शीरामचनदजी, जब आपका िसदानत पायः ऐसा ही होगा, तभी हम िसदानत अथर की उिकतयो के उदाहरणपूवरक
िनवाणपकरण मे उपपादन करेगे।।36।। इस परमाथरता मे अिवदा आिद कोई इतर पदाथर िवदमान नही है। तत्-तत्
वसतुिवषयक ततद् अजान का कय हो जाने पर आप समपूणर पदाथों को पूणर बह भाव से जानेगे।।37।।
पूवोकत अथर मे दृषानत कहते है।
जैसे अवसतु यानी मल का कय होने पर वसतु यथाथररप से पकट होती है और जैसे राित के अनधकार का
कय हने पर यह दृशय जगत दृिषगोचर होता है, वैसे ही अजान का कय होने पर जगत बहभाव से पतीयमान होता
है।।38।।
पूवर मे कहे गये सभी पदाथों का उपसंहार करते है।
हे शीरामचनदजी, आपकी अजानदूिषत दृिष से जो यह समपूणर जगत चारो ओर िवसतृत िदखाई देता है, अजान
के साथ उसका नाश होने पर िनमरल दपरण के तुलय, परमाथरभूत, िनमरल परमपद मे वही एकमात परम पद िसथत होगा,
इसमे कोई संशय नही है।।39।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ, आआआआआआआआ आआ आआआआआ, आआआआआआआआआ आआ
आआआआआआ आआआआ आआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, पूवर सगों मे सब जगह मन आिद दैत कलपना का मूल कलना ही है, यह कहा
गया है। अब िनिवरकार, अिदतीय आतमा मे कलना के िनिमत की भी असंभावना कर रहे शीरामचनदजी उसको पूछने की
इचछा से गुर शीविसषजी के सममानाथर पहले कहे हुए वचन की पशंसा करते हुए अपने वयामोह को पकट करते है।
कीरसागर के गभर के यानी चनदमा के तुलय अतएव शीतल, िनमरल कािनत से पूणर, िविचत तथा सब ओर से
गमभीर-सी आपकी उिकत से वषा ऋतु मे चंचल बादलो से युकत तथा शानत सूयरपकाशवाले िदन के समान मै कण भर मे
अनधकारता को (वयामोह को) तथा कण भर मे पकाशता को पापत हो रहा हूँ।।1,2।। अननत अतएव पमाण से
अपिरचछेद, पूणर, सदा सवतः भासमान आतमा को, िजसकी परमाथरसवरप पथा नष नही हो सकती, पिरिचछन
कलनातमक िवकार कैसे पापत हुआ ? भाव यह है िक सवयं पकाश, अिदतीय पूणरसवभाव आतमा मे पिरिचछन कलनारप
िवकार का वसतुतः अथवा कलपना से समभव नही है, इसिलए उसकी पािपत मे कया कारण है ? इसका पितपादन
कीिजए।।3।।
आपका यह वयामोह वाकय के दोष से नही है, िकनतु आपके तातपयर मे धयान न देने रप मेरे कथन दोष से ही है,
यह दशाते हुए शीविसषजी समाधान करते है
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, मेरे सभी वचन यथाभूत वाकयाथर से युकत है। वे पदो की आकाका
योगयता आसितरप सामथयर से हीन नही है। अवानतर वाकयाथर महावाकयाथर के अपयरवसायी नही है यानी अवनानतर
महावाकयाथर मे ही पयरविसत है और न तो उपकम और उपसंहार मे परसपर िवरोध ही है।।4।।
यिद शीरामचनदजी कहे िक कब मुझे तातपयरजान होगा ? तो इस पर कहते है।
जानदृिष के सवचछ होने पर और पबोध के उदय का िवसतार होने पर सवरप मे िसथत आप मेरे वचनो की
तथा उनसे पापत तततवदृिष की अनय के वचनो और ततपयुकत दृिष की अपेका पबलता यथाथररप से समझेगे।।5।।
यिद कोई कहे िक जौसे मेरी माता वनधया है, मेरे मुख मे िजहा नही है, मै गूँगा हूँ, ये वाकय बािधताथरक है, वैसे
ही 'नेह नानाऽिसत िकंचन' एकमेवाऽिदतीयम् इतयािद शुितया भी है, इसिलए कैसे िवरोध का पिरहार होगा ? इस पर
कहते है।
िशषयो के उपदेशाथर शासताथर के जान के िलए शबद, अथर तथा वाकय रचना का भम है। आप तनमय होइये।
भाव यह है िक असतय सवप आिद भी जैसे सतय वसतु के जान के उपाय होते है वैसे ही शबद, अथर और वाकयरचना का
भम भी सतय शासताथर का हेतु होता है, इसिलए वयामोहवश आप भममय न होइये।।6।।
तो कब तक शबद अथर और वाकयरचना के भम का अनुसरण करना चािहए, इस पर कहते है।
जब उस सतय, अतयनत िनमरल आतमा का जान कर लेगे, तब अवशय ही आप वाचय, वाचक और शबदाथर के भेद
का तयाग कर देगे। जब तक वाकयाथर का अपरोक नही होगा, तब तक शबद और अथर के भेद का अनुसरण करना
चािहए, यह अथर है।।7।।
यिद कहे िक वाकयाथरजान कैसे होगा ? तो इस पर कहते है।
उपदेश देने के योगय िशषयो के उपदेशाथर शासताथर के जान के िलए यह भेदकृतवाकपपंच उपदेश योगय िशषयो
मे किलपत है।।8।। यह शबदाथररप वाक् पपंच सद् उपदेश के िवषय मे अजो मे किलपत है, न िक वाकयाथर को
जानने वाले पुरषो मे पारमािथरकरप से िवदमान है।।9।। पूवोकत कलना, उसके िनिमतभूत पूवरसंसकार तथा
कमररपी मल एवं अिवदा आिद कुछ भी आतमा मे िवदमान नही है। वह परमबह रागहीन है और वही जगत रप से
िसथत है।।10।। हे िनषपाप शीरामचनदजी, िसदानत के अवसर पर असंभावना के नष हो जाने के बाद िनवाण
पकरण मे अनेक तरह की युिकतयो से बहुत बार िवसतारपूवरक मै यह आपसे कहूँगा।।11।।
तो इस समय मे आपका वाकपपंच िकसिलए है, इस पर कहते है।
वाकपपंच के िबना इस कारणीभूत अजान तथा मूलअजान का, जो परसपर की सहायता दारा भािनत की सैकडो
हजारो शाखा-पशाखाओं से उिदत है, मूलोचछेदन करने के िलए तथा उसके साधनो मे यत करने के िलए आप समथर
नही है।।12।।
उपदेशरप वाकपपंच और तजजनय जान अजान के कायर है। ऐसी अवसथा मे वे अजान के िवरोधी कैसे होगे
अथवा अजान सविवरोधी जान को कैसे चाहेगा ? यिद कोई ऐसा कहे, तो उस पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, बहुत जनमो से संिचत सुकृत से िवशुद अनतःकरण के आकार मे पिरणत हुई अिवदा ही
अपने नाश के उदम की इचछा से समपूणर दोषो को दूर करने वाली िवदा की इचछा करती है। जैसे अपने शरीर से
िवरोध होने पर भी सवातमिहत होने के कारण िववेिकनी पितवरता पितिचतारोहण करती है वैसे ही उसे िवदा की इचछा हो
सकती है, यह भाव है।।13।।
परसपर िवरोध का उपपादन करते है।
असत असत से शानत होता है, मल से (सजजी से) ही मल साफ होता है, िवष से ही िवष की शािनत होती है
तथा शतु से ही शतु मारा जाता है।।14।।
वह सवयं अपनी नाशक कैसे हो सकती है ? एक मे कतृरता कथा कमरता का समभव नही हो सकता, यिद कोई
ऐसी शंका करे, तो िकया मे कमरकतृरभाव का िवरोध होता है, न िक जान से अजान के बाध मे िवरोध है, इस आशय से
कहते है।
हे शीरामचनदजी, यह माया ऐसी है, जो अपने िवनाश से हषर देती है। इसका कुछ भी सवभाव लिकत नही होता
है, यह जानदृिष से िवचारिवषय होते ही नष हो जाती है।।15।।
उसके असमभािवत अननत कायर देखे जाते है, इसिलए भी िवरोध की समभावना नही है, इस आशय से कहते
है।
यह अिवदा िववेक का आवरण करती है, जगत को उतपन करती है, परनतु यह कौन है, इस तरह जात नही
होती। यह जगतरपी आशयर देिखये।।16।। यह जब तक िवचारगोचर नही होती, तभी तक सफुिरत होती है,
िवचािरत होने पर नष हो जाती है। जब तक इसके सवरप का पिरजान नही होता, तभी तक यह माया पराकम
िदखलाती है।।17।। ओह ! संसार को बाधने वाली यह माया सचमुच बडी िविचत है। यदिप वह असतय है, तथािप
इसने अतयनत सतय की भात अपना जान कराया है।।18।। िजस कारणवश संसार माया अतयनत भेदरिहत उस परम
पद मे िवसतृत भेद का िवसतार कर रही है, उसी कारणवश कर-अकर सवरप से अतीत यह आतमा पुरषोतम है।।
19।। यह माया वसतुतः नही है, इस भावना के आचायोपदेश, शुितवाकय, तकर और सवानुभव के अभयास दारा पदीपत
होने पर आप तततविवद् होकर आतमासवरप वासतिवक जेय तततव को िवसमृत-कणठगत-सवणाभरण की भाित पापत कर
इस मेरी उिकत के आशय को समझेगे।।20।।
अभी तो मेरे वचन के िवशास से परोक के तुलय मुख से कहे गये अथर का गहण कीिजए, ऐसा कहते है।
जब तक आप पबुद नही हुए है, तब तक आपको मेरे वचन से ही अिवदा नही है, ऐसा िनशल दृढ िनशय होना
चािहए।।21।।
पूवोकत िनशय को िनशल करने मे हेतु कहते है।
जो यह साकी से दृशयता को पापत मनोवृितरप समपूणर वयवहार का कारण होने से िवशाल मनन यानी अतीत
और अपापत अथर का अनुसंधान है, यह असनमात है, कयोिक केवल मन से ही वृिद को पापत हुआ है।।22।।
इस तरह मनन का िनरास होने पर मन काषरिहत अिगन की भाित सवयं शात हो जाता है, अतएव बह का
सनमातरप से पिरशेष होने पर पूवोकत िनशय के िनशल हो जाने से पुरषाथर की िसिद होती है, इस आशय से कहते
है।
वह बह सतय है, यह िनशय िजसके भीतर िवदमान है, वही मोकभागी है।
पूवोकत अथर को दृढ करने के िलए बाह अथर मनन दृिष की बनधहेतुता का वणरन करते हं।
भावनाओं से बँधी हुई चंचल तथा अचंचल आकृितवाली जो-जो दृिष है वह समपूणर जगत के पाणीरपी पिकयो
के बनधन के िलए जाल है।।23।। असत् यानी अतीत, सत् यानी वतरमान यो दो रपवाले मनन के िवषय मे 'यह
सतय ही या यह असतय ही है' इस एकरप दृढ िनशय से युकत होकर जो आसकतातमा अिधकारी पुरष जगत को सवप
की भूिम की भाित भािनतमात देखता है, वह दुःख मे िनमगन नही होता।।24।।
तो कौन िनमगन होता है, इस पर कहते है।
िमथयाभूत देहेिनदयािद दैतभावनाओं मे िजसकी अहंबुिद है, वही दुःख मे है, इस आशय से कहते है। उस
िमथयादशी पुरष का अिवदा यानी आिवदक दुःख मे िनमजजन ही दंड है, इस आशय से कहते है।
िमथयादशी उस पुरष के िलए एकमात अिवद ही िवदमान है, इस महातमा परमातमा मे िवकािरता आिद कोई दोष
जल मे धूल की भाित िवदमान नही है।।25,26।।
ऐसा होने पर तो तततववेता पुरषो की पूवापराथरिवषयक भावना के अभाव से वयवहार की िसिद नही होगी।
ऐसी आशंका करके कहते है।
जगत मे पापत यह भावना यानी शबद (नाम) और शबदाथों मे (पदाथों मे) सफिटक की भाित अनुरज ं ना केवल
वयवहार के िलए उतपन हुई है। यह आतमा से अितिरकत नही है।।27।। इस वयवहार के िबना ये शासतदृिषया
तनतुहीन पट की भाित िसथित को पापत नही होती।।28।।
यिद अिवदा है ही नही, तो शासत िकसिलये है ? इस पर कहते है।
अिवदारपी नदी बह रहा आतमा इस संसार मे आतमजान के िबना अनुभव गोचर नही होता। और वह
आतमजान शासत के तातपयाथर से ही पापत होता है।।29।। हे शीरामचनदजी, परमातमा की पािपत के िबना अिवदारपी
नदी का पार नही िमलता है। अिवदा नदी का पारभूत परमातमा का लाभ ही अकय परम पद है।।30।।
यिद कोई कहे िक यह अिवदा परमातमा मे कहा से आई ? इस पर कहते है।
यह मलदाियनी अिवदा चाहे कही से भी उतपन हुई हो, यह अवशय है तथा परमपद का अवलमबन कर िसथत
है।।31।। शीरामचनदजी, यह अिवदा कहा से पापत हईु , ऐसा िवचार आप मत कीिजये। इसका कैसे नाश करँ, यही
िवचार आप कीिजये।।32।।
तो कया यह अनािद है अथवा सािद है। यिद अनािद है, तो आतमा की तरह िनतय होगी। यिद सािद है, तो
इसका कारण कहना चािहए। इसी तरह यह सतय है, अथवा असतय है। यिद सतय है, तो जान से इसकी िनवृित नही
हो सकती। यिद असतय है, तो संवादी वयवहार का हेतुतव ही अनुपपन हो जायेगा। इस तरह की हजारो शंकाओं का
नाश उसके नाश से ही हो जायेगा, इस आशय से कहते है।
हे रघुकुलदीपक शीरामचनदजी, इस अिवदा के असत होने अतएव कीण होने पर आप यह जहा से आई और
जैसे नष हुई, यह सब अचछी तरह समझ जायेगे।।33।।
असतय का सतय के तुलय िवचार सवािपक पुरष के गोत की िचनता की भाित वयथर है, इस आशय से कहते
है।
वसतुतः यह है ही नही, िवचार न करने पर भी यह भािसत होती है। असत् की भािनत की सतयरपता कौन
कैसे जान सकता है ?।।34।। यह उतपन होकर पौढता को पापत हुई है, इसने दोष के िलए ही अपने आकार का
िवसतार िकया है, इसका बलपूवरक िवनाश कीिजए, तब आप इसे जानेगे।।35।।
तो सवािपक पुरष के वध के उदोग की भाित अिवदा की िनवृित मे यताितशय िनषफल है ? ऐसी आशंका
करके उससे िवलकण अनथरपबलता का वणरन करते है।
अतयनत बुिदमान तथा साथ ही साथ शूर भी ऐसे पुरष तीनो लोको मे नही है, जो अिवदा दारा िववश न िकये
गये हो।।36।। इसिलए रोग के तुलय सवभाववाली इस अिवदा के िवनाश के िलए पयत कीिजए। इससे यह अिवदा
िफर आपको जनमयातनाओं मे िनयुकत न करेगी।।37।। समपूणर आपितयो की मुखय सहचरी, अजानरपी वृक की
मंजरी तथा अनथरसमूहो की जननी इस अिवदा को उखाड फेिकये।।38।।
उकताथर उपसंहार करते है।
भय, िवषाद, दुष मनोवयथा तथा िवपितयो को देने वाली, हृदय मे िसथत आतमदृिष के मोहरपी अनधकार के
हेतु महापटलरप शरीर, इिनदय आिद की हेतुभूत इस अिवदा को बलपूवरक अचछी तरह हटाकर आप भवसागर के पार
को पापत होइये।।39।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआआआआआ आआ, आआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआ, आआआआआआ आआआआ आआ
आआआआआ।
इस पकार अिवदारप वयािध का वणरन कर उसकी िनवृित के उपाय को अिगम बहुत से सगों से कहने के
िलए शीविसषजी पितजा करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुवर, असत् अतएव िवचारमात से नष होने वाली इस अतयनत पकोप को पापत हुई
अिवदारपी िवसतृत वयािध की औषिध सुिनये।।1।।
अब उसके िलए जीव के अवतरणकम का वणरन करने के िलए चालीसवे सगर मे 'तासा समयक् पवकयािम
तावदाजसािततवकीः' इससे जो पितजा की है, उसके अविशष अंश के वणरन का यो समरण कराते है।
हे शीरामचनदजी, मन के पराकम के िवचाराथर िजस राजस, सािततवक जीव जाित का वणरन करने के िलए मै
यहा पर पसतुत हँू, उसे आप सुिनये।।2।। िजस भाित सवरवयापक, िनदोष, अनािद, अननत, भम कलंकरिहत, अमृत
बह जीवरप हुआ, उसे भी आप सुिनये।।3।। सपनदनरिहत उस बह का जीवरप िचदाभास िचद् ही है, जैसे सौमय
(िनशल) सागर ही चलन से तरंग आिदरप सथूलता को पापत होता है वैसे वह भी औपािधक एकदेश से घनता को पापत
होता है।।4।।
शिकतयो की िविचतता सततव आिद गुणो की वृिद तथा हास के परसपर िमशण के तारतमय से होती है और
उपचय आिद राजस िकयाशिकत से होते है, इसिलए पहले िकयाशिकत की उतपित िदखलाते है।
जैसे समुद के अनदर जल सपनद और असपनदरप से अविसथत देखा जाता है यानी िकसी सथान मे सपनद
(गितिविशष) और िकसी सथान मे असपनद (गितरिहत) देखा जाता है, वैसे ही सवरशिकत बह असपनद भाव होते हुए भी
िकसी एक अंश मे सपनदशिकतरप से आिवभूरत होता है।।5।।
यदिप बह सवतः कूटसथ है तथािप उसमे आधयाितमक चलन का अिवरोध िदखलाते है।
जैसे वायु आतमरप ही आकाश मे अपने से गमन करता है वैसे ही सवरशिकत बह अपने आतमा मे ही अपनी
शिकत से ही चंचलता को पापत होता है।।6।।
सपनदशिकत का सपनदरिहत पकाशशिकत से भी िवरोध नही है, इसमे दृषानत देते है।
जैसे िनशल दीपक जवाला की सपनदशिकत से ही ऊपर को पापत होता है, वैसे ही यह आतमा भी अपने सवरप
मे ही पकािशत होता है।।7।। जैसे सागर शरद् ऋतु की धूप के समबनध से चमक रहे जल पदेश मे ही चंचल सा
पतीत होता है, वैसे ही सवरशिकत आतमा अपने सवरप मे ही सपनदरप िवलास से युकत होता है।।8।।
परमाथरतः अनयरप होते हएु भी किलपत अनयरप से सफुरणो मे यही दृषानत है, इस आशय से कहते है।
जैसे शरद् ऋतु की धूप से चमक रहा िपघलाये हुए सोने के समान सागर सफुिरत होता है, वैसे ही चैतनयरपी
सागर इिनदयजनय पकाशो से आतमा मे ही सफुिरत होता है।।9।। जैसे अतीनदीय आकाश मे मोितयो की माला कभी-
कभी लहराती हुई-सी िदखाई देती है, वैसे ही िचनमहाकाश मे दैदीपयमान िचतशिकत भी पतीत होती है।।10।। जैसे
समुद मे िनमरल तरंग समुद ही है, वैसे ही िचदूपी महासागर मे कुछ कुिभत रपवाली उस जगतमयी िचतशिकत के रप से
िचित ही सफुिरत होती है।।11।।
ऐिनदयक िचतशिकत परमाथर िचित ही है, उसमे उतपित का आरोप केवल औपािधक है, इस आशय से कहते है।
जैसे आलोक कोटर मे (सूिच आिद के िछद मे) आलोक शी रहती है, वैसे ही उपािधपरवश होकर यह िचतशिकत
आतमा से अिभन होती हुई भी िभन-सी हो िसथत होती है।।12।।
इसिलए उसके कािलक पिरचछेद तथा उकत शिकतमता आिद रप भेदपतीित की उपपित होती है, ऐसा कहते
है।
वह दैदीपयमान िचतशिकत अपनी उस सवरशिकतता से एक कणभर मे सफुिरत होती है, जैसे चनदमा की कला
अपनी शीतलता का सवयं अनुभव करती है वैसे ही वह अपनी शिकत का सवयं अनुभव करती है।।13।।
अनयानय शिकतयो की पवृित िचतशिकत के उदय के अधीन ही है, सवतनतरप से उनकी पवृित नही हो सकती,
ऐसा कहते है।
परमातमा से उिदत हुई यह पकाशरप िचतशिकत अपनी सखीरप देशकाल िकयाशिकतयो का आकषरण करती
है यानी देशकालिकयाशिकत सखी के तुलय उसका अनुगमन करने वाली है।।14।। इस पकार अपने सवभाव को
जानकर यह अनािद, अननतपद मे िसथत होती है। अिवचािरत होती हुई पूवोकत किलपतरप को भमवश अपना सवरप
जानकर 'मै पिरिचछन हूँ', यो अपने सवरप की भावना करती है।।15।। जभी उस परमसता ने इस पकार के सवरप
की भावना की, तभी तुरनत नाम रप भेद आिद जगत की समपूणर कलपनाओं ने उसका पीछा िकया।।16।।
इस पकार िचत् मे किलपत सकल दृशय का िचनमाततव ही परमाथररप है, यो किलपत हुआ, ऐसा कहते है।
सदूप आतमा से पृथक कलपना अवसतु ही है, इसिलए जैसे महासागर से वयितिरकत लहरी महासागररप ही है,
वैसे ही शीघ परमातमा मे पापत हुई अननत कलपना िचत् ही है।।17।। जैसे कटक-केयुरो से सुवणर का भेद िवलकण
है वैसे ही अंशकलपना के अधीन समपूणर जगदूप अपने सवरप की भावना कर रहे चैतनय का भेद िवलकण है।।18।।
जैसे दीपक से उतपन हुए दीपको का देश, काल और िकया की शिकत से संदीिपत हुआ चैतनय संकलप का अनुसरण
करता हुआ कलपना को पापत होता है।।20।।
इसीिलए केतोपािधकलपना के अधीन चैतनय का केतजतव पिसद है, ऐसा कहते है।
हे महाबाहो, िवकलपो से िजसने आकार का गहण िकया है एवं देश, काल और िकया के अधीन जो चैतनय का
रप है, वह केतज कहलाता है।।21।।
शरीर केत कहलाता है, उसको भली भाित बाहर-भीतर सवरतोभावेन वह जानता है, इसिलए वह केतज कहलाता
है।।22।।
वासनाओं की कलपना करता हुआ वह केतज अहंकारता को पापत होता है।
िनशय करने वाला अतएव अनय कलपनारप कलंक से युकत अहंकार ही बुिद कहलाता है। संकलपयुकत बुिद
मन का सथान गहण करती है। पचुर िवकलपो से युकत मन धीरे-धीरे इिनदयता को पापत होता है, इिनदयो को ही िवदान
लोग, हसत, पाद आिद रप देह कहते है, यह शरीर लोक मे जाना जाता है, उतपन होता है और जीिवत रहता है।।23-
25।। इस पकार संकलपवासनारपी रससी से पिरवेिषत और िविवध दुःखो से वयापत जीव ही कम से बाह पदाथों के
िचनतन की सामथयर को पापत होता है।।26।। जैसे फल पाकवश कमशः रप, रस आिद गुणो के पिरवतरन से ही
अनयरपता को पापत होता है, आकृित से (आमफल आिद जाित से) अनयरपता को पापत नही होता वैसे ही केतज भी
अिवदारप मल के पिरपाकवश िवलकणता को पापत होता है। अपिरणामी िचतसवभाव से िवलकणता को पापत नही
होता।।27।।
इस पकार केत िसिद कह कर जीव का अहंकार आिद केत मे तादातमयसंगाधयासरप बनध कम से कहते है।
जीव अहंकारता को पापत होता है। अहंकार बुिदता को पापत होता है। बुिद संकलप-िवकलप जालो से पूणर
िचतता को पापत होती है। िचत सती, पुत आिद के शरीराकार के गहण मे यानी तदाकार वृित दारा संसकाररप से
धारण मे ततपर, संकलप-िवकलपमय एवं सफल और िवफल मनोरथो से पिरिचछन तुचछ िवषयो मे आसकत होता है।।
28,29।।
उकत िवषयो मे आसिकत होने पर उन िवषयो का पुनः पुनः समरण करता हुआ िचतभाव को पापत हुआ चैतनय
राग, देष आिद दोषो से अिभभूत होता है, ऐसा कहते है।
जैसे गोएँ मदोनमत साड के पीछे पीछे दौडती है और जैसे निदया सागर की दौडती है वैसे ही इचछा आिद
शिकतया दोष के िलए ही िचत का अनुगमन करती है।।30।। इस पकार राग, देष आिद शिकत समपन मन शाखा-
पशाखारप से अिभमान की वृिद होने के कारण घन अहंकारता को पापत होकर रेशम के कीडे के समान सवेचछा से
बनधन को पापत होता है।।31।। बंशी, जाल आिद फनदो से अपने शरीर को मृतयु के िलए पापत होकर मन इस लोक
मे पिरताप को पापत होता है, 'मै बँधा हूँ', इसे परमाथर सतय समझता हुआ, धीरे पारमािथरक आतमरप का तयाग करता
हुआ यानी सवप मे भी आतमरप का िवचार न करता हुआ वह जगदूपी जंगल की राकसी के तुलय जनम, मरण आिद रप
भािनतपरमपरा की उतपित करता है।।32,33।। सवयं संकिलपत शबद आिद िवषयरप इनधन से युकत राग आिद रप
जवालाओं के मधय मे िसथत मन शृंखलाओं से बँधे हुए िसंह के समान बडी िववशता को पापत होता है। वासनावश
िविहत-िनिषदरप िविवध कमों की कतृरता का बडे पयत से संपादन करता हुआ तथा नाना योिनरप नरक आिद
दुदरशाओं को और आगे कही जाने वाली एकमात अपनी इचछा से रिचत मनन आिद दशाओं को पापत हो रहा मन बडी
िववशता को पापत होता है।।34,35।।
वही मनन आिद वृितयो के भेद से मन आिद शबदो का भाजन होता है, अनय नही, ऐसा कहते है।
कही पर वह मन कहा गया है, कही पर बुिद, कही पर जान तथा कही पर िकया कहा गया है। कही कही पर
यह मल कहा गया है, कही पर माया नाम से उसकी कलपना हुई है। कही पर कमररप से िसथत है, कही पर बनधनाम
से पिसद है और कही पर िचत नाम से पुकारा गया है। कही पर अिवदा नाम से और कही पर इचछारप से अविसथत
है।।36-38।। हे शीरामचनदजी, इस लोक मे तृषणा और शोक से वयापत, राग का िवशाल आयतन, दुःिखत यह िचत
ही आबद है. आतमा आबद नही है। यही जरा, मरण, मोहरप मानिसक भावनाओं से वयापत है, इिहत और अनीिहतो से
गसत है, अिवदा-रपी रंग से रंगा है, सवेचछा से इसका आकार कोभ को पापत हुआ है, कमररपी वृकरािशयो का यह
अंकुर है, अपनी उतपित के िनिमतभूत परमातमतततव को भली भाित भूल चुका है, अनेक अनथरकारी कलपनाओं की
इसने कलपना कर रखी है, यह रेशम के कीडे की तरह अपने -आप बनधन को पापत हुआ है, और शोकमय पद को पापत
हुआ है, रप, रस आिद तनमाता के समूहो से रिचत है तथा अननत नरको दुःखो से वयापत है। यदिप यह अनातमरप से
देखने के योगय है तथािप दुिवरचारवश शाखाओं से भरपूर है एवं संसाररपी िवषमय फल का दुष वृक है। आशारप
पाशो का िनमाण करने वाले इस समसत संसार को जो पुरषाथों से हीन है, जैसे वट का बीज फल से रिहत वटवृक को
धारण करता है, वैसे ही अपने भीतर धारण कर रहे, दुिशनतारपी अिगनजवालाओं से झुलसे हुए, कोपरपी अजगर से
डँसे हुए, कामरपी समुद की बडी-बडी तरंगो से िवतािडत, अपने आतमसवरप मूल कारण को भूले हुए, यूथ से िबछडे
हुए मृग के समान शोक से अचेत हुए, िवषयरपी अिगन मे पतंगे के समान जवालाओं से जले हुए, िजसकी जड कट गई
हो, ऐसे कमल की तरह अतयनत मलानता को पापत हुए, अपने िनवासभूत देह से मृतयु दारा अपहरण करने पर तत् तत्
देहो के अिभमान के िवचछेद से िछन-िभन अंगवाले, अतएव तत्-तत् देहो मे आसिकत से अतयनत पीिडत एवं िवषय,
इिनदय, देह आिदरप भाित-भाित के रप धारण कर अपने िवनाश मे ततपर हुए शतुओं के मधय मे उन पर िवशास करने
के कारण िसथत, पहले कही गई संकटाकीणर इस अननत दशाओं मे भटके हुए, जैसे पकी सागर मे िगरा हो वैसे ही घोर
दुःख मे िगरे हुए, गनधवर नगर के तुलय शूनय इस जगजजाल मे अपने बनधन के हेतुभूत देह आिद पर अतयनत सनेह करने
वाले, तततवजान और उसके साधने के अनादररपी समुद मे तैर रहे एवं िवषय-वासना से पीिडत मन का हे देवतुलय
शीरामचनदजी, कीचड हाथी से समान, आप उदार कीिजए।।39-40।। हे शीरामचनदजी, कामरपी छोटी तलैया मे
बैल के समान खूब फँसे हुए तथा िचरकाल तक िवषयभोगो से पुणयकय होने पर परलोक जाने के साधनो का अभाव
होने से कटे हुए तथा िशिथल हसत, पाद आिद अवयववाले मन का आप पयत से उदार कीिजए।।51।।
पूवोकत तततवजान और उसके साधनो मे अनादर करने वाले पुरष की िननदा दारा इस सगर का उपसंहार करते
है।
मन के कामय शुभकमर और िनिषद कमों के आिधकय से मिलन सवरपवाले एवं खूब पजविलत हो रहे जरा, मृतयु
और िवषादो से मूिछरत होने पर िजसको इस जगत मे कलेश नही होता वह मनुषय नराकृित मे िछपा हुआ राकस है।।
52।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बयालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआआ आआ
आआआआआआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआ-आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआ, आआ
आआआआआ।
इस पकार मन की सवबनधकता का पकार कह कर उस मन से उपिहत िचदूप जीवो की जब तक मोक न हो
तब तक संसार िसथित के पकार की िविचतता का वणरन करने वाले शीविसषजी संगित पदशरन के िलए
पूवोकतजीवोतपित का दूसरे पकार से अनुवाद करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, इस पकार िचत् के औपािधक िवभावरप जीव संसारवासना से लाखो और
करोडो की संखया मे पवािहत है। पूवरवासना के अनुसार किलपत आकारवाले बह से पहले असंखय जीव उतपन हो चुके
है। आज भी उतपन हो रहे है और भिवषय मे भी उतपन होगे, उससे वे यो उतपन होते है जैसे झरने से जलिबनदुओं की
रािशया उतपन होती है।।1,2।। अपनी वासनामय दशा के आवेश से वे आशा के वशवती हुए है और इस अितिविचत
दशाओं मे सवयं आबद हुए है।।3।। िनरनतर हर एक िदशा मे, पतयेक देश मे, जल मे और सथल मे जल मे बुदबुदो
की तरह वे या तो उतपन होते है या मरते है।।4।। िकनही ने इस कलप मे एक ही जनम पापत िकया है और िकनही के
सौ से भी अिधक जनम हो गये है। िकनही के जनमो की संखया ही नही है, िकनही के दो या तीन जनमानतर हुए है, िकनही
के जनम आगे होने वाले है यानी इस कलप मे अभी उतपन ही नही हुए है, िकनही के जनम बीत चुके है यानी जीवनमुकत
है। िकनही के जनम हो रहे है और कोई िवदेहमुिकत को पापत हो गये है, कोई हजारो कलपो से बारबार उतपन हो रहे है,
कोई एक ही योिन मे िसथत है, कोई अनयानय योिनयो को पापत हो रहे है।।5-7।। कोई बडे-बडे कलेशो को(नरको
को) सहते है, कोई अलप सुखवाले (मनुषय) है, कोई अतयनत पसन (देवगण) है और कोई मानो सूयर से उिदत हुए है यानी
(सतयलोकवासी) है।।8।। कोई िकनर, गनधवर, िवदाधर तथा नागो की योिनयो मे है ओर कोई सूयर, इनद, वरण है
तथा कोई िशव, िवषणु, बहा है।।9।। कोई कूषमाणड, वेताल, यक, राकस िपशाचरप से िसथत है तथा कोई बाहण,
कितय, वैशय और शूदो के समूहरप से िसथत है।।10।। कोई मलेचछ, चाणडाल और िकरात की फल, मूल तथा
पतंगो के रप मे िसथत है, कोई तृण और औषिध के रप मे िवदमान है और कोई फल, मूल तथा पतंगो के रप मे
िसथत है।।11।। तो कोई भाित-भाित की लताओं, झािडयो, ितनको और पवरतो के रप मे चारो ओर िवदमान है एवं
कोई कदमब, नीबू, शाल, ताल और तमालरप से िसथत है।।12।। कोई अपने वैभव से संसार मे भमण करने वाले
मनती, सामनत और राजा के रप मे िवदमान है, कोई वसत न िमलने के कारण अथवा तपसया के िलए वलकल वसतो से
आचछन हो मुिनयो को मौन पापत है।।13।। कोई साप, अजगर, कीडे, मकोडे और चीिटयो के रप मे िसथत है, कोई
िसंह, भैस, मृग, बकरे, चमरी, गाय और खरगोश के रप मे है।।14।। कोई सारस, चकोर, बलाका, बतक, कोिकल
के रप मे है, तो कोई कमल, कहार (शेतकमल), कुमुद और उतपल के रप मे िसथत है।।15।। कोई हाथी के बचचे,
हाथी, वराह, बैल, गदहे के रप मे है, तो कोई भँवर, मचछर, डास की योिनयो मे उतपन हएु है।।16।। कोई बडी-बडी
आपितयो से आकानत है, तो कोई बडे समृदशाली है, कोई सवगर मे िवराजमान है, तो कोई नरको मे पडे है।।17।।
कोई तारा समूह मे िसथत है, तो दूसरे वृको के िछदो मे बैठे है, कोई आवह, पवाह आिद वायुओं के अिधकार को पापत है,
तो कोई आकाश मे अिधकार जमाये है।।18।। कोई सूयर की िकरणो मे (रस खीचने के अिधकार मे) िसथत है, तो
कोई चनदमा की िकरणो मे (औषिध आिद की वृिद करने मे) लगे है और कोई तृण, लता और झाडी का रस जहा पर
सवादू है, ऐसे पशु आिद के योगय िवषय लमपटता मे संलगन है।।19।। कोई मोक के समुिचत पात जीवनमुकत हो यहा
पर भमण करते है, कोई िचरकाल से मुकत होकर िसथत है और कोई परमातमभाव को पापत करते है यानी िवदेहमुकत
है।।20।। िकनही कलयाण भाजन जीवो की िचरकाल मे मुिकत होने वाली है, तो कोई जीव भोगलमपट होकर आतमा
के कैवलय का देष करते है।।21।। कोई िवशाल िदकपाल देवता है तो कोई महावेगवाली निदया है। कोई मनोहर
नेतवाली िसतया है, तो कोई नपुंसक है।।22।। िकनही लोगो की बुिद अतयनत पबुद है, तो िकनही का हृदय अतयनत
जड है। कोई जान का उपदेश देने वाले है, तो िकनही ने समािध ले रकखी है।।23।।
ये सभी जीव संसार की अनथरकािरणी वासना से ही हुए है, इसिलए वासना का ही समूल उचछेद करना चािहए,
इस आशय से उपसंहार करते है।
अपनी वासना के आवेश से िववश बुिदवाले जीव इन-इन उपरोकत सभी अवसथाओं मे बदभावनावाले होकर
िसथत है। इसमे कुछ तो पृिथवी मे िवहार करते है, कुछ नरक मे िगरते है और कुछ सवगर मे जाते है। सचमुच मृतयु से
िनरनतर आहत हुए इन लोगो की अवसथा हाथ से पुनः पुनः तािडत गेद की तरह है।।24,25।। सैकडो आशारप
फनदो से बँधे हुए, तथा वासनारप भावी देहो को धारण करने वाले जीव जैसे पकी एक वृक से दूसरे वृक पर जाते है
वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर मे जाते है।26।। अिवदा से, जो िक अननत िवषयो मे अननत संकलप-कलपनाओं की
उतपित मे हेतु है, इस जगदूप महान इनदजाल का िवसतार कर रहे ये मूढ जीव जल मे आवतों की तरह संसार मे तब
तक भटकते है, जब तक आनिनदत अपने सवरप का साकातकार नही कर लेते।।27,28।।
यिद कोई कहे, िववेकी पुरषो को आतमसाकातकार से कया लाभ होता है ? इस पर कहते है।
आतमसाकातकार के अननतर असत् का तयागकर सतय जान को पापतकर भूिमकाओं की दृढता के कम से परम
पद को पापत होकर िववेकी पुरष इस संसार मे िफर उतपन नही होते।।29।।
िववेक शूनय लोगो की जो गित होती है, उसे कहते है।
कोई अिववेकी लोग हजारो जनमो का भोगकर िववेक को पापत करके भी िफर इस संसाररपी संकट मे िगरते
है। कुछ लोग देव, गनधवर, बाहण आिद उतम जनम, उतम देश, उतम काल, उतम पितभा, िवनय, सतसंगित आिद
समपित को पापत करके भी तुचछ िवषयो मे लमपटतावश अपनी बुिद से ही िफर ितयरक् योिन को पापत होते है और
ितयरक् योिनयो से नरको को भी पापत होते है।।30,31।। कोई महामित सनक आिद महातमा पुरष बहपद से उतपन
होकर उसी कलप मे एक ही जनम दारा मोकरप बहपद मे ही शीघ पिवष हो जाते है।।32।। कोई जीवरािशया अपने
उतपितसथानरप बहाणडो से अनय बहाणडो मे पापत होती है, कोई अपने उतपितसथानरप बहाणडो मे ही उतपन होती
है, कोई िहरणयगभर सवरपता को पापत होती है और कोई शंकरसवरपता को पापत होती है।।33।। हे शीरामचनदजी,
कोई जीवरािशया ितयरक् योिन को पापत होती है, तो कोई देवतव को पापत होते है, कोई नागयोिन को पापत होती है, तो
कोई जैसे इस बहाणड मे थी वैसे ही दूसरे बहाणडो मे भी होती है।।34।। जैसे यह िवशाल बहाणड है वैसे ही और
िवशाल बहाणड भी बहुत से िवदमान है, पहले थे और आगे होगे।।35।। अनयानय िविचत कम से और अनयानय
िविचत हेतुओं से उनकी िविचत सृिषया आिवभूरत होती है और ितरोिहत होती है।।36।।
इस बहाणड की तरह अनयानय बहाणडो मे भी कमों की िविचतता से जीवो की गित िविचत ही है, इस आशय
से कहते है।
उन बहाणडो मे भी कोई गनधवर होता है, तो कोई पक योिन मे उतपन होता है, कोई देवतव को पापत होता है, तो
कोई दैतयता को पापत होता है।।37।। इस बहाणड मे लोग िजस मनुषय आिद के उिचत वयवहार से िसथत है, उसी
वयवहार से अनयानय बहाणडो मे भी वे िसथत है। केवल अनय दीपवासी लोगो के समान उनकी आकृित मे िवलकणता
है।।38।।
यिद कहे भले ही ऐसा हो, िफर उतमता, अधमता आिदरप से और परसपर सनेह, िवरोध आिदरप से उन जीवो
का सृिष पिरवतरन कैसे होता है, इस पर कहते है।
जैसे परसपर संघटन से नदी की लहरे पिरवितरत होती है वैसे ही सािततवक राजस, तामस आिद सवभाव के
कारण ततदनुकूल वयवहार मे आगह से पवृत हुए उन जीवो की िकसी एक िवषय मे सपधावश परसपर िवमदरन दारा
सृिषयो का पिरवतरन होता है।।39।। जैसे नदी की तरंगे आिवभाव और ितरोभाव दारा उनमजजन और िनमजजन से
पिरवितरत होती है वैसे ही रज का आिवभाव होने पर सृिष का उनमजजन और सततव तथा तम का िनमजजन होता है।
तम के आिवभाव से रज का ितरोभाव होने पर सृिष का िनमजजन और बीज मे सततव का आिवभाव होने पर पालन दारा
सृिष का पिरवतरन होता है।।40।।
सततव आिद गुणो के अधीन अनतःकरण आिद की सृिष से अनतःकरणोपािधकजीव के आिवभाव की पिसिद है,
इस आशय से कहते है।
उस परम पद से अिनदेशय और सवसंवेद जीवरािशया िनरनतर आिवभूरत होती है और उसी मे सपषरप से
वयवहार करती है।।41।।
इस िवषय मे शुित आिद मे पिसद दृषानत कहते है।
दीप से पकाश की तरह, सूयर से िकरणो की तरह, तपे हुए लोहे से लोह कणो की तरह, अिगन से िचनगािरयो
की तरह, समय से िविचत ऋतुओं की तरह, फूलो से सुगनध की तरह, वषा के परमाणुओं से तुषार की तरह और समुद
से लहरो की तरह जीवरािशया बार-बार उतपन हो-होकर िचरकालतक देह परमपरा को भोगकर पलयकाल मे बीजभूत
शानत पद मे अपने -आप ही िवलीन हो जाती है।।42-44।।
पूवोकत जीव-जगत की सृिष का संकेप से उपसंहार करते है।
यह ितभुवनरचना आिद की भािनतरप माया समुद मे लहरो की तरह परम पद मे िनरनतर वयथर ही िवसतृत है,
बढती है, पिरणाम को पापत होती है और नष होती है।।45।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तैतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआआआआ आआ
आआआ
आआआ आआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआ-आआआआआ आआआआ । आआ आआआआ
पलय मे अपने -आप शानत पद मे जीवरािशया िवलीन होती है, ऐसा जो कहा है, उसमे शीरामचनदजी शंका करते
है।
शीरामचनदजी ने कहाः भगवन्, 'उतपतयोतपतय कालेन भुकतवा देहपरमपराम्' इतयािद आपके दारा उकत कम से
िजस जीव ने पलय मे परम पद मे अपनी िसथित पापत कर ली, वह मुकत ही है, वह िफर अिसथिपंजररप देह को कैसे
गहण करता है ? भाव यह है िक परम पद को पापत पुरष को यिद पुनः संसारपािपत हो, तो मुिकत मे भी लोगो की
अनासथा हो जायेगी। यिद किहए की अजानावृत पाणी मे बीजता पयुकत िवशेषता हो सकती है, तो ऐसा संभव नही है,
कयोिक सवरथा बीजताशूनय वसतु अजान-आवरणमात से बीज नही हो सकती, अनयथा पतथर के टुकडे जो बीज नही है,
केवल अजान के आवरण से अंकुरािद के पित बीज होने लगेगे।।1।।
यदिप अजानावृत िशला के टुकडो मे सवसमान सतावाले (वयावहािरक सतावाले) अंकुर के पित बीजता नही
िदखाई देती है तथािप आवरणसमान सतावाले (पितभािसक सतावाले) सपर आिद के पित आवृत रजजु आिद मे कारणता
िदखाई देती है, अतएव िमथया बीजता केवलमात आवरण से की गई है, यह यदिप िवशेषरप से मैने नही कहा, तथािप
आपको अपनी बुिद से ही तकर दारा समझ लेना चािहए, इसके िलए पश की आवशयकता नही है, इस आशय से
शीविसषजी कहते है-
हे रामचनदजी, जो आपने मुझसे पूछा है, उसका उतर मै पहले ही कह चुका हँू। आपकी समझ मे कयो नही आ
रहा है, आपकी पूवापर के िवचार मे िनपुण बुिद कहा चली गई है ?।।2।। जो यह शरीर आिद रप सथावर-जंगम
जगत है, यह आभासमात ही (िववतरमात ही) है, अतएव असत् सवप के समान उिदत हुआ है।।3।।
यिद कोई कहे िक िचरकाल तक िसथर रहने वाले बहाणड, भुवन आिद आभासमात कैसे हो सकते है ? तो इस
पर कहते है।
हे िनषपाप शीरामचनदजी, यह पपंच दीघरकालीन सवप के समान, दो चनदमाओं की भािनत के समान एवं घूमने के
समय घूमते हुए पहाड के समान िमथया ही िदखाई देता है।।4।।
अजानी के बीज रहने के कारण पुनः संसारदशरन होने पर भी जानी को पुनः संसारदशरन की पािपत नही होती
है, ऐसा कहते है।
िजस पुरष की अजानरपी नीद नष हो गई और वासनाएँ शानत हो गई ऐसा पबुद िचतवाला पुरष जीवनमुकत
के वयवहार के योगय संसाररपी सवप को देखता हुआ भी परमाथर-दृिष से नही देखता है।।5।।
बीजभूत अजान मे भावी संसार मोक होने तक सूकमरप से रहता है, इस कारण भी बार बार जनम उपपित
होती है, इस आशय से कहते है।
हे शीरामचनदजी, जीवो के सवभाव से किलपत संसार अजानातमा के अनदर सदा ही िवदमान रहता है, िजसकी
मोक होने तक लगातार पािपत होती है।।6।।
जैसे जल के भीतर आवतर (भौरी) रहता है, बीज के अनदर अंकुर रहता है, अंकुर के अनदर िवशाल वृक रहता
है, वृक मे जैसे फूल रहता है और फूल के अनदर जैसे फल रहता है वैसे ही जीव के अनदर चंचल (िवनाशी) शरीर
रहता है।
शंकाः जीव के अनदर शरीर कैसे रहता है ?
समाधानः कारण िक मन के अनदर कलपनारप देह सदा िवदमान रहती है।।7,8।।
मन के अनदर देह की समभावना कैसे है, ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
मन की िविवध रपो से पिसद, देहरप की भी वासनारप से उसमे समभावना हो सकती है।
शंकाः यिद ऐसा है, तो बहुत से शरीर एक साथ कयो नही उतपन होते ?
समाधानः वासनारप से बहुत से शरीरो के मन मे िसथत होने पर भी जो एक ही शरीर पिरपकव हएु कमों से
अिभवयकत होता है, वही िववतररप शरीर इस जीव को पायः एक समय मे पापत होता है, सभी शरीर पापत नही होते।।
9।।
यह मन ही देह होता। उतम कमों का पिरपाक होने पर उतम देह होती है, यह बात आिद सगर से लेकर दशाते
है।
यह मन ही, जैसे िमटी का िपणड घट के रप मे पिरणत हो जाता है वैसे ही, शीघ शरीर बन जाता है। पहले
पूवर सृिष मे इसका पितभासरप उतम शरीर उतपन हुआ, कयोिक पदकोशरपी घर मे िसथत िवभु बहा यह हुआ,
तदननतर उसके संकलप के कम से ही घन माया से माया की तरह आर-पार-रिहत यह सृिष िसथित को पापत हुई है।।
10,11।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे बहन्, जीव मन पद को पापत करके िजस पकार िवरंिचपद को पापत हुआ, उस
पकार को आदोपानत िवसतारपूवरक शीघ मुझसे कहने की कृपा कीिजये।।12।। शीविसषजी ने कहाः हे महाबालो,
बहा के शरीर गहण मे जो कम है उसे आप मुझसे सुिनये, उसी को उदाहरण बनाकर आप जगत की सारी िसथित को
जान जायेगे।।13।। देश, काल आिद से अपिरिचछन आतमतततव जब भी अपनी शिकत से देश, काल से पिरिचछन
शरीर को धारण करता है, तभी वह जीवनामक, वासनाओं के आवेश मे ततपर, िविवध कलपनाएँ करने मे संलगन, चंचल
मन बन जाता है।।14,15।।
िविवध कलपना करने मे संलगन, ऐसा जो ऊपर कहा है, उसी को सपष करते है।
कलपना कर रही मन की शिकत पहले एक कण मे शबदतनमातरप शोतेिनदय मे उनमुख िनमरल आकाश भावना
की भावना करती है। पूवोकत आकाश भावन को पापत करके घनता को (वृिद को) पापत हुआ मन सपनदरप घनता के
कम से सपशर तनमातरप तविगिनदय मे उनमुख वायुरप से सपनद की भावना करता है।।16,17।। अपंचीकृत होने के
कारण अतयनत सूकम होने से मनोविचछन चैतनयरप जीव से न देखे गये शबद-सपशररप उन आकाश और वायु से बढने
और आघात होने के कारण रपतनमातरप अिगन उतपन होती है।।18।। तदननतर उनसे घनता को पापत हुआ मन
िनमरल आलोकवाली पकाशता की कण भर मे भावना करता है, उससे आलोक की अिभवृिद होती है।।19।। आकाश,
वायु और तेज से वृिद को पापत हुआ मन रसतनमातरप जल की शीतता को कणमात मे पापत करके जलनाम से पतीित
योगय होता है।।20।। तदननतर पूवोकत चारो के संघात को पापत हुआ मन कणभर मे गनधयुकत सथूल सवरप की
भावना करता है, िजससे पृथवी उतपन होती है।।21।। तदननतर इस पकार भूततनमाताओं से वेिषत अपने सूकम
शरीर का तयाग कर रहा मन आकाश मे दैदीपयमान आग की िचनगारी के तुलय अपने सवरप को देखता है।।22।।
िजस शरीर को देखता है, अहंकारकला से युकत, बुिदरप बीज से समपन, पंचभूतो के हृदयकमल का भमररप वह िलंग
शरीर पुयरषक कहा जाता है।।23।।
आगे कही जाने वाली देह की भावना से िलंग शरीर के ही पंचीकरण दारा घन होने पर सथूल देह की उतपित
होती है, ऐसा कहते है।
उसमे तीवर वासना से सथूल शरीर की भावना करता हुआ मन पाक से िबलवफल के समान सथूलता को पापत
होता है।।24।। साचे के अनदर रखे हुए िपघले सोने के समान बाहर सतूल भासवर और अनदर सूकम भासवर तेज
िनमरल आकाश मे सफुिरत होकर सथूल देह से युकत आगे कहे जाने वाले अवयवो की रचना को अपने सवभाव से गहण
करता है।।25।।
उसमे मन की िवशेष कलपनािभिनवेशरप शाखा-पशाखाओं की वृिद होती है, ऐसा कहते है।
तेजपुंजमय अपने अवयवसंिनवेशरप मे ऊपर िसर और पीठवाली नीचे पैरवाली दोनो बगलो मे हाथरप
अवयवो से युकत और बीच मे उदरयुकत आकाश को वयापत करने वाली िनिशत िवशाल भावना को धारण करता है।।
26,27।। तदननतर जवालाओं की पंिकत के समान िनमरल आकारवाला, पकट अवयववाला बालक यह (बहा)
मनोरथवश शरीर पापत कर िसथत होता है। इस पकार अपना वासनाओं के आवेश से शरीर धारण िकया हुआ मनरपी
मुिन (पूवोपासना के पकार के मनन करने वाला) जैसे ऋतु अपने सवभाव को बढाती है, वैसे ही अपने शरीर को बढाता
है।।28,29।। समय पाकर वह पकट होता है। िनमरल शरीरवाला िपघले हुए सुवणर के तुलय तथा परम बहा से
उतपन हुआ सब लोगो का िपतामह वही भगवान बहा बुिद, सततवगुण, बल, उतसाह, िवजान और ऐशयर से समपन होता
है।।30,31।। परमाकाशरप बह मे अनय रपवाला यह िजस पकार की अपनी सता से रहता है, उसी पकार की
वयवहार के योगय सता से अपने अजान को ही, जो िक आतमा मे िसथत है, पंचीकृत सथूल आकाश आिद के आगे कहे
जाने वाले रप से उतपन करता है।।32।।
समयभेद से उसकी नाना पकार की कलपनाओं को िदखलाते है।
कभी वह आर-पार-शूनय, आिद, मधय और अनतरिहत केवल िवशाल आकाश की कलपना करता है कभी
(पितिदन के पलय के समय) केवल िनमरल जल की ही कलपना करता है। कभी (कलप के अनत मे दाह के समय)
बहाणड को पलयकाल की अिगनजवालाओं से पदीपत करता है।।33।। कभी (पृथवी की सृषी के बाद और पािणयो
की सृिष के पूवर) हरे रंग के वन की यानी वृको से वयापत सारी पृथवी की कलपना करता है। कभी (पादकलप मे)
भगवान िवषणु की नािभ से उतपन हुए काले कमल की किलका की सृिष करता है।।34।। यह पभु बहा अपने हरेक
जनम मे और-और भुवन, समुद, जीव-जनतु आिदरप अनेक आकारो की कीडा से रचना करता हुआ िवषणु आिद के रप
से सवयं ही उनका पालन करता है।।35।।
पथम कलप से लेकर पितिदन सोकर उठे हुए उसके सवदेह कलपनाकम को िदखलाते है।
जब यह बह पद से इस पथमरप से (●) अवतीणर हुआ, तभी से लेकर अजानवश बहाणगभर मे सुषिपत सुख से
उपलिकत अपने पूवर वासतिवक सवरप के और देहवयवहार आिद के असमरणरप सुषुिपत को पापत हुआ।।36।।
गभरिनदा के हटने पर वह अपने पकाशमय सवरप को जो पाण, अपान, के पवाह से पिरपूणर था, जो पंचमहाभूतो के
सवचछ िहससो से मानो बना था उसे देखता है।।37।। उसका उकतसवरप करोडो रोमो से वयापत, बतीस दातो से
युकत, जंघाओं और रीढ की हिडडयो से तीन सतमभवाला, पाच पाणो से पाच देवतावाला, नीचे भाग मे पैरो से युकत, हाथ,
पैर, िसर, वकः सथल और पेटरप पाच भागवाला, नेत, कान, नािसका आिद नौ दारवाला, तवचारपी लेपवाला कोमल
अवयववाला, बीस अंगुिलयो से युकत, बीस नखो से िचिहत, दो बाहुवाला, दो सतनवाला, दो नेतवाला, कभी-कभी इचछा
से बहुत नेत और भुजावाला था। वह िचतरपी पकी का घोसला था, कामदेवरपी सपर का िबल था, तृषणारपी
िपशािचनी का आवास था, जीवरप िसंह की गुफा था, अिभमान रपी हाथी का बनधनसतमभ था और हृदयरपी कमल से
सुशोिभत था।।38-41।। तदननतर ितकालदशी भगवान बहा ने अपने उतम और मनोहर रप को देखकर िवचार
िकया।।42।।
● सब बहाणडो का और उनके अिभमानी िहरणयगभों का काल से अपिरिचछन परबहपद से ही आिवभाव हुआ
है, अतएव उनका पौवापयर नही है, इसिलए सभी पथम है, इस अिभपाय से इस पथम रप से कहा है।
िजसका आर-पार िकसी के दारा नही देखा गया है, भौरे के तुलय शयामलता से युकत इस िवशाल आकाश कुहर
मे मेरी उतपित के पहले कया था, ऐसा िवचार करने के उपरानत तुरनत बहा की दृिष िनमरल हो गई। उनहोने अनेक
अतीत सृिषया देखी।।43,44।। तदननतर कमशः सागोपाग सब धमों का उनहे समरण हुआ। जैसे वसनत अपने
पूवरपिरिचत फूलो को गहण करता है वैसे ही पूवरपिरिचत वेदो को गहण करे उनहोने िविचत संकलपो से उतपन हुई िविवध
पजाओं की गनधवरनगर मे िविवध आचार-िवचारो के तुलय लीला से कलपना की।।45,46।। उनके सवगर और मोक के
िलए धमर, अथर, और काम की िसिद के िलए अनेक पकार के अननत शासतो की कलपना की।।47।। हे
शीरामचनदजी, जैसे वसनत से पुषपशोभा का आिवभाव होता है, वैसे ही बहारपधारी मन से इस सृिष मे यह दृिष यो
िसथित को पापत हुई है।।48।। हे रघुकुलदीपक, िविवध पकार की रचनाओं से पूणर िकयािवलासो से बहा का रप
धारण करने वाले िचत ने ही अपनी कलपना दारा यह सृिष शोभा इस जगत मे सतय और तुचछ से िवलकण होने के
कारण अनुपम िसथित को पापत की है।।49।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौवालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआआआ आआआआ, आआआआ आआ आआआआआ आआआ
आआआ आआआ आआआआ आआआ आआ, आआआआआ आआआआआ आआआआ आआ आआआआ आआआ
आआआआ आआ, आआआ आआ आआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः यह जगत िसथत होता हुआ कुछ भी िसथत नही है, कयोिक मन का िवलासमात यह
समपूणरताय पितभासमात ही िसथत है, पितभास से अितिरकत यह शूनय ही है।।1।।
पितभास से अितिरकत वह शूनय कैसे है ? ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
इस पिरिचछन बहाणड से पितभासरप देश और काल वयापत नही है, कयोिक अतीत, भावी बाहर िसथत अनेक
बहाणड कोिटयो का जैसे धूप मे परमाणु घूमते है वैसे ही, पितभास के अनदर भमण िदखाई देता है। और तो और जो
आकाश परम महततवरप से पिसद है उससे भी वे वयापत नही है, कयोिक 'जयायानाकाशात्' ऐसी शुित है।।2।।
पूवर और उतर देश और काल से वयािपत तो दूर रही अपने आशयभूत (वतरमान) देश और काल मे भी अधयसत
दारा अिधषान का सपशर नही होता। इसिलए बहाणड दारा पितभासरप देश और काल की वयािपत नही हो सकती, इस
आशय से कहते है।
िजस देश और काल मे केवल संकलपसवरप सवप मे देखे गये नगर के तुलय यह जगत िचत मे भािसत होता
है, वही पर उसका अिधषानरप चैतनय है। जगत से शूनय केवल आकाश ही िसथत है।।3।।
अतएव यह गनधवरनगर के िचत तुलय है, ऐसा हमने पहले कहा है। ऐसा कहते है।
रंगो से रचा गया िफर भी िभितरिहत, देखा गया िफर भी असनमय, नही रचा गया िफर भी रचा हआ-सा यह
आकाश मे अदभु िचत है।।4।।
पतयेक समृित मे मन हेतु होता है। मन से रिचत यह जगत समृित के तुलय ही है। इिसलए अपने िसथित काल
मे भी यह सत् नही है, ऐसा कहते है।
सब देहािद तीनो भुवन मन से ही किलपत है। जैसे देखने मे चकु कारण है वैसे ही इनके समरण मे मन कारण
है।।5।।
दीवारआिदरप जगत सत् से अलग करके िदखलाया नही जा सकता। इसिलए भी सत् से पृथकरप से
उसकी असता है, ऐसा कहते है।
आभासरप यह जगत घट, पट, गतर के भमो से आवितरत होता है। दीवार आिद सदूप से पृथक नही है। जैसे
रेशम का कीडा अपने कोश की सवयं रचना करता है वैसे ही मन ने अपने िनवास के िलए इस शरीर की कलपना नही
की है।।6,7।।
िचत की संकलपमात से असत् रचना पापत करने की शिकत पिसद है, इसिलए भी पूवोकत अथर की उपपित
होती है, ऐसा कहते है।
वह वसतु नही है, िजस अथरशूनय संकलपरप वसतु क मन रचना नही करता। ऐसी दुगरम दुषकर वसतु भी नही
है, िजसे मन पापत नही करता।।8।। िजन शिकतयो से मन रपी गुहाएँ अनदर पापत नही होती, वे शिकतया
सवरशिकतशाली जगदीशर मे भी कोई हो सकती है ?।।9।।
यिद सदा ही यह जगत असत् है तथा बह सदा ही सत् है और उनका परसपर सपशर नही है, तो जगत मे सता
और असता कादािचतक (कभी होने वाली) कैसे हो सकती है, इस पर कहते है।
हे महाबाहो, सवरशिकत िवभू के रहते सब पदाथों की सता और असता सदा ही हो सकती है। भाव यह है िक
सता और असता कादािचतक (कभी होने वाली) नही है िकनतु सनातन है। उनकी परसपर आिवभाव दारा पारापारी से
आवेश कलपना ही अिचनतय मायाशिकत दारा की जाती है।।10।।
वह यह ईशर की सवरशिकत है, इसका अपने मन मे ही पतयक दशरन िकया जा सकता है, ऐसा कहते है।
मन ने अपने से उतपन हुआ शरीर भावना से पापत िकया है, इस बात को आप देिखये। इसिलए हे
शीरामचनदजी, उस मन की कलपना को जािनयो ने सवरशिकतसमपन बताया है। जगत मे िविचत पदाथर शिकतया भी
सवरशिकत मन की कलपना से ही है। यह भाव है।।11।।
इसिलए देवािदशिकतयो दारा भी मुिकत का पितरोध नही िकया जा सकता, ऐसा कहते है।
देवता, असुर, मनुषय आिद सब अपने अपने संकलप से िकये गये है। अपने संकलप की िनवृित होने पर
तैलरिहत दीप के समान वे शानत हो जाते है।।12।। हे महामते, इस समपूणर जगत को आकाश तुलय, अपनी
कलपनामात से िवकिसत, उतपन हुए दीघरसवप के तुलय आप देिखये। हे सुमते इस जगत मे कभी भी कुछ परमाथर दृिष
से न उतपन होता है और न मरता है। िमथयादृिष से तो सब कुछ होता है। जो वसतु कभी भी न कुछ वृिद को ही
पापत होती है और न हास को पापत होती है, उसमे खणडन से (काटने से) कया अपवयय होगा ? और उसका खणडन ही
कया है ?।।13-15।। अपने शरीर से मूँज से ईिषका की तरह पृथक िकये हुए भूमारप को परमाथरदृिष से अपने
अनतःकरण मे ने देखते हएु आप पिरिचछन आतमदशरन से अज की नाई कयो मोह को पापत हो रहे है ?।।16।। जैसे
मरभूिम मे सूयर की िकरणो से मृगजल िदखाई देता है वैसे ही मन के संकलप से असतय सब बहा आिद िदखाई देते
है।।17।।
मनोरथ की नाई तथा दो चनदमाओं के िवभम के तुलय िमथयाजान से पूणर ये सब दृशयाकार रािशया जगत मे
उतपन हुई है।।18।। जैसे नौका से याता कर रहे लोगो की िमथया ही सथाणु मे चलन पतीित होती है वैसे ही दृशय
आकारो की परमपरा िनतय असतय ही उिदत हुई है।।19।। माया से िजसका िपंजर रचा गया है, मन के मनन से ही
िजसका िनमाण हुआ है, ऐसे इस दृशय को आप इनदजाल जािनये। यह सत् नही है, िफर भी सतय के समान िसथत
है।।20।। यह समपूणर जगत बह ही है। इसिलए भेद का पसंग िकस पमाण से, िकसके पकार का, कौन और कहा
हो सकता है ?।।21।। यह पवरत है, यह सथाणु है और यह उनके अनतरालवती आडमबरो का िवलास है। ये सब मन
की भावना की दृढता से असत् होते हुए भी सत्-से पतीत होते है।।22।। िवचारहीन पुरष की काम तृषणा मननरप
यह जगत सवगर, नरक ितयरग आिद योिनयो मे पतन का आरमभक है। इसिलए हे शीरामचनदजी, आप िववेक से जगत
का तयाग करके िनषपपंच आतमा की भावना कीिजए।।23।। जैसे बडे-बडे आरमभो से पूणर सवप भम ही है, वासतिवक
नही है वैसे ही िचत दारा उतपािदत इस जगत को भी आप दीघर सवप समिझये।।24।। दृशयमान अवसथावाला बहुत
िवसतीणर अतएव रमणीय-सा वसतुतः तुचछ आशारपी सपों का िबलरप इस संसाराडमबर का तयाग कीिजये।।25।।
यह असत् है, यह जानकर इससे पेम न कीिजए। िवदान पुरष 'यह मृगजल है' यह जानकर उसके पीछे नही
दौडते।।26।। जो मूढ पुरष अपने संकलप से सवरपयुकत हईु मनोरथमयी राजलकमी के तुलय इस जगत का
अनुसरण करता है, वह एकमात दुःख का ही पात होता है।।27।।
इसके अनुगमन से केवल अनथर ही पापत नही होते, िकनतु पुरषाथर का नाश भी होता है, ऐसा कहते है।
यिद वसतु न हो, तो ये लोग भले ही अवसतु का अनुसरण करे, िकनतु जो वसतु का पिरतयाग कर अवसतु का
अनुगमन करता है, वह पुरषाथर से चयुत हो जाता है।।28।। जैसे रससी मे सपर का भय मन का वयामोह ही है वैसे ही
यह भी मन का वयामोह ही है। एकमात भावनाओं की िविचतता से यह जगत िचरकाल तक पापत होता है।।29।।
जल के भीतर चनदपितिबमब के तुलय कणभंगुर िमथया उिदत हुए पदाथों से इस लोक मे बालक ही ठगा जा सकता है,
आपके तुलय तततवजान पुरष नही ठगा जा सकता है।।30।। जो पुरष शबदािदगुणो के समूहरप इस देह आिद की
भावना करता हुआ अथात् देह आिद मे 'अहं, मम' ऐसा अिभमान करता हुआ सुखी होना चाहता है वह जड अपनी अिगन
की भावना से शीत को हटाता है।।31।। यह जड संघात देह आिदरप िवशाल जगत हृदय मे मन के संकलप से
िनिमरत िवशाल नगर के समान असत् ही है।।32।।
यिद यह ऐिचछक संकलप से उतपन हुआ है, तो ऐिचछक िनवृित के संकलप से कयो नही िनवृत हो जाता है, ऐसा
यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
यह दृशय पपंच मन की इचछा से उपजता है और मन की अिनचछा से राग का िवनाश होने से ही िवलीन हो
जाता है। इस तरह का यह िवशाल गनधवरनगर के तुलय झूठ-मूठ ही िदखाई देता है।।33।।
इसिलए इसके िवनाश या वृिद मे शोक और हषर करना उिचत नही है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, इस जगत के नष होने पर कुछ भी नष नही होता और इस जगत की समृिद होने पर कुछ
भी समृद नही होता।।34।। हृदय मे मन से किलपत िवशाल नगर के खणडहर हो जाने पर और वृिद को पापत होने
पर भला बतलाइये तो सही िकसका कया नष हुआ और कया बढा ?।।35।। जैसे खेल के िलए गुिडया आिद दारा
पुत, पशु, आिद वयवहाराभास की कलपना बालको के मन मे होती है वैसे ही यह जगत भी मन से ही िनरनतर उिदत होता
है, उसके िलए शोक करना उिचत नही है।।36।। जैसे इनदजाल के जल के नष-भष होने पर िकसी का कुछ भी
नष नही होता।।37।। जो असत् है, वह यिद अिवदामान ही हो जाय, तो िकसका कया िबगडा ? अथात् कुछ भी
नही। इसिलए संसार मे हषर और शोक का िवषय कुछ भी नही है।।38।।
इस पकार नाश के सवीकार दारा शोक की अयोगयता कहकर वसतुतः नाश ही िकसी का नही है, ऐसा कहते
है।
जो अतयनत असत् ही है, इसिलए उसका नाश ही कया होगा ? जब नाश नही है तब हे महामते, दुःख का कौन
अवसर है ?।।39।।
अधयसत दृिष से नाश के असंभव का उपपादन कर अिधषान दृिष से भी उसका उपपादन करते है।
अथवा जो अतयनत सत् ही है उसका कया नाश होता है ? यह सब जगत एकमात बह ही है, तो सुख और
दुःख िकसके कारण उिदत हो ! अथात् वे उिदत है ही नही।।40।।
उतपित का खणडन करने से वृिद आिद िवकारो का भी खणडन हो ही गया, इसिलए तिनिमतक हषर भी ठीक
नही है, ऐसा कहते है।
जो अतयनत असत् है उसकी वृिद कैसी ? वृिद का अभाव होने पर तो हे महाबुिद शीरामचनदजी, हषर का कौन
अवसर है ?।।41।।
इष पदाथर की पािपत मे हषर होता है। मायामय जगत मे इष पदाथर ही नही है, ऐसा कहते है।
सवरत असतयभूत, एकमात पपंचकारी इस संसार मे कया उपादेय है, िजसे िवदान पुरष चाहे।।42।।
इसी पकार जो पुरष सबको आननदरप से देखता है, उसको हेय भी कुछ नही है, ऐसा कहते है।
सवरत सतयरप, बहतवमय इस ितभुवन मे कौन पदाथर हेय है, िजसका िवदान लोग तयाग करे।।43।।
िजसकी दृिष मे जगत असतय है अथवा िजसकी दृिष मे जगत सतय है दोनो पको मे भी उसका िवनाश न हो सकने के
कारण वह पुरष सुख और दुःख का अगमय यही है। िकनतु मूखर तो पुत, िमत आिद के िवनाश से, जो िक अपनी भािनत
से किलपत है, दुःखी होता है।।44।।
असत् और सत् पको मे समान उपपित िदखलाते है।
आिद और अनत मे जो नही है, वतरमान मे भी उसकी असता ही है। हे शीरामचनदजी, जो यह असत् है, इस
पक की इचछा करता है, उसको असता ही िदखाई देती है।
भाव यह है िक 'असदा इदमग आसीत्' (सृिष से पहले यह असत् ही था) 'नैवेह िकंचनाऽग आसीत्' (यहा
पहले कुछ भी न था) इतयािद शुितयो से आकाश, वायु, भुवन आिद के आगे पीछे असता सुनी जाती है और घट आिद
की असता पतयक अनुभव से देखी जाती है। िचरकाल तक, आिद और अनत मे असता, थोडे काल के िलए एक बार
सता पतयेक वयिकत मे पिसद है। एक दूसरे का िवनाशक होने के कारण सततव और असततव-दोनो एकवसतु मे एक के
तयाग के िबना नही रह सकते, इसिलए दोनो मे से एक अवशय तयाजय है।
आिद और अनत मे िचरकाल तक असततव की पिसिद होने से वतरमान दशा मे भी सब वयिकतयो की असता ही
है यो असता के पक की इचछा करने वाले को शुित, युिकत और अनुभवो दारा असता ही िदखाई देती है।।45।।
आिद और अनत मे जो सतय है, वतरमान मे भी वह सत् ही है, िजसकी सब सत् ही है, ऐसी मित हो, उसकी दृिष मे सब
सत् ही है। भाव यह है िक 'सदेवसोमयेदमग आसीत्, कथमसतः सजजायेत् (हे सोमय, सृिष के पूवर यह सत् ही था,
असत् से सत् कैसे हो सकता है) इतयािद शुितयो से और पमाण की पवृित के समय सत्-सत् यो सब वसतुओं का
अनुभव होने से आिद और अनत काल मे सता की अनिभवयिकत अथवा ितरोभावमत कलपना से 'असदा इदमग आसीत'
इतयािद शुित और युिकतयो की उपपित होने से और सता की शुित और युिकतयो की अनयथा उपपित न हो सकने से
सब पदाथों की सवरकािलक और सावरितकी एक ही सता युकत है, कयोिक इसी मे लाघव है, यो सता की एकता के िसद
होने पर आिद और अनत मे कारणभूत बह की सता से ही सब के सतय होने से वतरमान काल मे भी वह सतय ही है, यो
सदवादी को अखणड बहसता ही सवरत िदखाई देती है।।46।।
देश और काल से पिरिचछन पदाथों की सतयता की कलपना, जो जगत को सत् और असत् माननेवाले पूवोकत
दोनो रपो से बिहषकृत है और सब शुित और युिकतयो से िवरद है। अनधपरमपरा दारा सहसो मूखों ने िजसकी कलपना
कर रकखी है और जो समपूणर अनथों की मूल है, उनही मूखों के योगय है। आपके योगय नही है, ऐसा कहते है।
जल के अनदर असतय सवरप चनदमा और आकाशतल आिद को अपने मन के मोह के िलए मूखर ही चाहते है,
आप जैसे उतम लोग नही चाहते।।47।। मूखर ही िवशाल आकारवाले, अथर शूनय सुखाभासो से अपने असीम दुःख
के िलए सनतुष होता है, न िक सुख के िलए।।48।। इसिलए हे कमलनयन शीरामचनदजी, आप मूखर मत बिनये।
िवचार करके अिवनाशी िनतय और सुिसथर पदाथर का अवलमबन कीिजये।।49।।
अब पूवरदिशरत सत् और असत् पको का दारभेद से एक पयोजन के अवसान मे फलतः समुचचय िदखलाते हुए
उपसंहार करते है।
माया से मूढ हुए लोगो दारा आतमरप से किलपत अहंकार के सिहत यह सब जगत असत ही है, यो शुित, गुर,
युिकत और अपने अनुभव से िनशय करके पुत, िमत, धन आिद का िवनाश होने पर आपको शोक नही हो और राग भी न
हो। शोक, राग आिद के िनरास दारा एकातमयदशरन मे पपंच असत् है 'यह पक उपयोगी होता है। इस पकार अनयाथर
असदाद के पसताव से जगत िनसतततव ही है, ऐसा आपको नही समझना चािहए, िकनतु समपूणर वह सत् है कयोिक सततव
की पिसिद न होने पर उसके िवरोधी असततव की भी पिसिद नही हो सकती। यिद सततव को पिसद मानो, तो उसका
िवरोधी होने से असत् अिसद ही हुआ। इस पकार सब जगह सता दारा िनरसत असता िनराधार ही है। कही पर
िकसी का वह पिरचछेद नही कर सकती। इसिलए एकमात अपिरिचछन सततव की िसिद होने पर घट, पट आिद
पिरचछेदक आकारो के पृथकरप से शेष न रहने के कारण शोिधत िचनमातैकरस पतयागातमा से युकत सत् ही मै हूँ, यह
िवचार कर अपने आतमा मे िसथत आपको पुनः पुनः सासािरक जनम-मरण आिद िवषाद की पािपत न हो।।50।।
शीवालमीिक जी ने कहाः मुिन के ऐसा कहने पर िदन बीत गया। सूयर असताचल को चले गये। सभा मुिनजी को
नमसकार करके सायंकाल की सनधया िविध के िलए सनानाथर चली गई। दूसरे िदन रात बीतने पर सूयोदय के साथ-
साथ िफर सभा लग गई।।51।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पैतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआआ आआ
आआ आआआआआआआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ, आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआआ आआ
आआआ आआआआआआ

सब वसतुओं मे अनासथा दारा नष की उपेका और पापत की अनाकाकूप गुणो का पहले उपदेश देने वाले
शीविसषजी पूवोकत पसताव का उसमे उपयोग दशाते है।
रमय धन और सती आिद के नष होने पर शोर का अवसर ही कया है ? इनदजाल से दृष वसतु के नष होने
पर िवलाप की बात ही कया है ?।।1।। गनधवरनगर के पदाथों के नष-भष या भूिषत होने प और अिवदाजिनत पुत
आिद के नष या सुशोिभत होने पर सुख और दुःख का पकार ही कया है ?।।2।। रमणीय धन और सती, पुत आिद
समृिद होने पर हषर का अवसर ही कया है ? मृगतृषणा के वृिद को पापत होने पर कया जल चाहने वाले पुरषो को आननद
होता है ?।।3।। धन और सती-पुत आिद के बढने पर दुःखी होना ही उिचत है और सनतुष होना उिचत नही है।
मोह-माया के बढने पर इस संसार मे कौन सवसथ रह सकता है ? धन, सती, पुत आिद की वृिद होने पर संसाररप रोग
की वृिद की संभावना से दुःख करना ही उिचत है, हषर करना ठीक नही, यह अथर है।।4।। वृिद को पापत िजन भोगो
से मूखर को राग होता है, वृिद को पापत उनही भोगो से िवदान पुरष को वैरागय होता है।।5।। नशर सवभाव वाले धन,
सती, पुत आिद के िवषय मे हषर का अवसर ही कया है ? जो साधु पुरष इसकी नशरता, नरक हेतुता आिद से पिरणाम मे
कटुता का अवलोकन करते है, वे उनसे वैरागय को पापत होते है।।6।। इसिलए हो शीरामचनदजी, संसार के वयवहारो
मे तततवज आप जो-जो वसतु नष हो, उसकी उपेका कीिजये और जो जो पापत हो उसका उपभोग कीिजये।।7।।
संसार मे भटकाने वाले, मारने के िलए गुपत िछपे हुए, िवष, शसत अिगन आिद दारा मारने के िलए समीप मे आने वाले
अतएव आततायी इस काम के पपंचरिहत बह मे िववेक, वैरागय, जान मे अपमाद आिदगुणो के अजरनकम से जो समयक
जानी है, वे इस संसाराडमबर को नही देख पाते। जो कुबुिद है यानी उकत गुणो से रिहत है, वे नष ही है।।10।।
िजस िकसी भी युिकत से िजस पुरष का दृशय से अनुराग चला गया, उसकी परमाथर मे अिभिनवेश रखने वाली िवमल
मित मोहरपी सागर मे नही डू बती।।11।। िजसकी 'यह सत् है' यो सब वसतुओं मे आसथा िनवृत हो गई, उस सवरज
को अवासतिवक अिवदा अपने वश (अंकगत) नही कर सकती।।12।। मै और यह समपूणर जगत एक ही है, ऐसी
िजनकी बुिद आसथा और अनासथा का तयाग करके िसथत है, वह पुरष िनमगन नही होता।।13।। सत् और असत् मे
अनुगत सतामात पतयगातमरप सत् का बुिद से अवलमबन करके बाह और आभयनतर दृशय का न तो गहण कीिजये
और न तयाग कीिजए।।14।। हे शीरामचनदजी, अतयनत वैरागययुकत, आतमिनष, सब पकार के िनवासो से रिहत आप
अपने कायर मे ततपर होकर भी रागरिहत होकर आकाश के समान असंग होकर िसथत होइये।।15।। कमर कर रहे
िजस जानी की कमर मे न तो इचछा है और न अिनचछा है उसकी बुिद जल से कमल के पते के समान सपशर को पापत
नही होती।।16।। बािधत वसतु मे अनुवृितशील होने से गौन इिनदयो से युकत आपका मन दशरन, सपशरन आिद करे
चाहे न करे, िकनतु आप आतमवान होकर इचछा रिहत होइये।।17।।
इिनदयाथों मे ममता तयागरप गुण का उपदेश देते हुए उसमे अनासथा का उपपादन करते है।
हे शीरामचनदजी, इिनदयाथों मे असतयभूत यह मेरा है, यो आपका मन िनमगन न हो, मगन न होकर चाहे वह कमर
न करे चाहे करे।।18।। हे रामचनदजी, जब आपके हृदय मे इिनदयाथर समपितया सवादु नही लगेगी, तब आप जातजेय
और संसार सागर से उतीणर हो जायेगे।।19।। िजनको ऐिहक और शूनय हो, आपके न चाहने पर भी मुिकत अनायास
पापत हो गई।।20।।
जीवनमुिकत मे वासनाओं से िचत को बाहर करना ही मुखय साधन है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, जीवनमुिकतरप उनत पद पािपत के िलए उतकृष बुिद दारा वासनाओं से िववेक, वैरागय आिद
से उतकृष िचत को फूल से सुगनध क नाई अलग कीिजये।।21।। वासनारपी जल से वयापत इस संसाररपी समुद
मे जो लोग पजारपी नाव मे चढे, वे पार हुए और जो पजारपी नाव मे नही चढे, वे डू ब गये।।22।।
वह पजारपी नाव कैसी है, ऐसा यिद कहे, तो उसे दशाते है।
िववेक, वैरागय आिद से तीकण की गई अतएव छुरे की धारा के तुलय, सुख, दुःख आिद दनदो को सहने मे
परमधीर बुिद से आतमतततव का िवचार कर उसके बाद आप अपने सवरप मे पवेश कीिजये।।23।। हे
शीरामचनदजी, जान से उदार िचत वाले तततवजानी पाज पुरष िजस पकार बताव करते है वैसे ही आपको वयवहार
करना चािहए, न िक मूढो की नाई।।24।। िनतयतृपत, महाबुिद, जीवनमुकत महातमाओं का सदाचार से अनुसरण करना
चािहए, भोगलमपट मूखों का अनुसरण नही करना चािहए।।25।। बहतततव और जगतततव को जानने वाले पुरष न
तो जगत के वयवहार का तयाग करते है और न उसकी इचछा करते है, िकनतु सबका ही अनुवतरन करते है।।26।।
यिद कोई कहे, जानवानो की भी कही पर फलिलपसा हो सकती है, तो इस पर नही, ऐसा कहते है।
िवदा, तप और पराकम आिद के उतकषररप पभाव के, अिभमान के, िनपुणता, कुल शील आिद गुणो के, यश
और समपित के िवषय मे लोक मे लोभ पिसद, तततवदशी महातमा पुरष तो पभाव आिद के िमथया होने से ही पर भी लोभ
नही करते।।27।। महातमा पुरषो को सूयर के समान सवरनाश होने पर भी खेद नही होता, समपूणर अिभलाषाओं से
पिरपूणर ननदनवन आिद मे भी वे आसकत नही होते और शासतमयादा का कभी तयाग नही करते। सूयर भी शूनय आकाश
मे िखन नही होते, ननदनवन मे आसकत नही होते और अपने मागर की मयादा का तयाग नही करते।।28।।
महातमा पुरष इचछारिहत, जो वयवहार पापत हो उसके अनुसार बताव करने वाले, देहरपी रथ मे बैठे हुए,
आतमिनष हो, 'िवजानसारिथयरसतु मनः पगहवानरः' (िवजानरपी सारिथवाला, मनरपी लगामवाला मनुषय) इतयािद शुित
मे कहे गये साधनो से सनद हो घूमते है।।29।।
मुझमे वे गुण है या नही, इस पकार संदेह मे पडे हुए शी रामचनदजी को ढाढस देते है।
हे सुनदर शीरामचनदजी आप भी इस िवशाल िववेक को पापत हो चुके है, इस पजा के बल से जान मे आप
सवसथ है।।30।। सपष दृिष का अवलमबन करके मानरिहत और मातसय़ररिहत आप इस पृथवी तल मे िवहार
कीिजये, आप अवशय ही परम िसिद को पापत होगे।।31।। हे िनषपात, अपने सवरप मे िसथत, सब इचछाओं के तयाग
से युकत वासना िवषयक कौतुक दशरन की इचछा िजसकी नष हो गई, ऐसे होकर आप अपने हृदय मे परम शीतलता का
गहण कर िवहार कीिजए।।32।।
उपिदष रहसयो के, शीरामचनदजी के हृदय मे उनमे, आिवभाव को दशाते है।
शीवालमीिक जी ने कहाः िनमरल आशयवाले मुिन शीविसषजी की इस पकार की िनमरल वाणी से शीरामचनदजी
साफ िकये हुए दपरण के समान तुरनत सुशोिभत अितमधुर जानामृत से िवराजमान अनतःकरण से युकत हुए वे चनदम की
तरह शीतलता को पापत हुए।।33।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
िछयालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ, आआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआ
आआआआ
आआ आआआआआ आआआआ आआआआ आआआआआ । आआआ आआ आआआआआआ
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, आप सब धमों के तततवज और सब वेद, वेदागो के पारदशी है। आपकी
सवचछ उपदेशवािणयो से िजसके िसर का बोझ हट गया, दूर मागर मे चलने का एवं भूख का पिरशम िनवृत हो गया, ऐसे
पुरष के समान मे बडे आराम से िसथत हँू।।1।। उपदेश दे रहे आपके उतम, िवपुल अथरवाले, वणर पद, वाकय और
पकरणो दारा सफुट, िविचत कथा, युिकत के पितपादन मे िनपुण, आतमतततव के पकाशक होने और हृदयकमल को
पकािशत करने के कारण सूयर आिद के समान उिदत हएु , मनोहर वचनो को सुनते हुए मुझे तृिपत नही होती।।2।।
इस पकार पशंसा दारा गुरजी को पोतसािहत कर पसंगपापत बहा आिद देवताओं के ऐशयर को जानने की इचछा
करने वाले शीरामचनदजी पूछते है-
राजस, सािततवक जीवजाितयो के उपदेश के समय आपने िविवध पकार की सृिषयो का पितपादन करने वाले
शुित, पुराण आिद के वचन रपी पमाणो से बहा की जो उतपित पसतुत की थी, उसका आप सपषरप से वणरन
कीिजये।।3।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, अनेक लाख बहा, अनेको सौ शंकर और इनद एवं अनेको
हजार नारायण बीत चुके है।।4।। अनय िविचत पकार के बहाणडो मे एवं इस बहाणड मे भी िविध आचार, िवहार के
हजारो देवता, असुर आिद के शरीर िवचरण करते है।।5।। इसी पकार अनयानय कालो मे उतपन हुए अननत जगतो
मे अनय बहत ु से सुर, असुर आिद के शरीर पचुर माता मे एक ही समय उतपन होगे।।6।। हे महाबाहो, बहा आिद
उन देवताओं की बहाणडो मे उतपितया इनदजाल मे उिदत हुई-सी है।।7।। कभी शंकरपूवरक सृिषया होती है, कभी
पथम उतपन हुए बहा से सृिषया होती है, कभी िवषणुपूवरक सृिषया होती है, कभी मुिन दारा िनिमरत (╦) सृिषया होती
है।।8।।
╦ यह अवानतर सृिष के अिभपाय से कहा गया है।
बहा आिद के आिवभाव सथान भी अिनयत है, ऐसा कहते है।
कभी (पादकलप मे) बहा कमल से उतपन होते है, िकसी कलप मे जल से उतपन होते है, कभी अणड से उतपन
होते है और कभी आकाश से उतपन होते है।।9।।
इसी पकार सूयर आिद पदािधकािरयो मे भी अिनयम है, ऐसा कहते है।
िकसी बहाणड मे शंकरजी मुखय पदािधकारी है तो िकसी मे सूयर मुखय पदािधकार है। िकसी मे इनद मुखय
पदािधकारी है तो िकसी मे नारायण मुखय पदािधकारी है एवं िकसी मे एकमात िशवजी ही देवताओं के अिधकार मे िसथत
है।।10।। िकसी सृिष मे पृथवी िनिबड पेडो से वयापत हुई, िकसी सृिष मे मनुषयो से िनिबड हुई और िकसी सृिष मे
पवरतो से वयापत थी।।11।। कोई भूिम मृणमयी हुई, तो कोई पतथरो से पूणर थी। कोई सवणरमयी थी, तो कोई ताममयी
थी।।12।। इस बहाणड मे ही िकतने आशयरमय जगत है और अनयानय बहाणड मे भी अनय पकारो से आशयरमय
जगत है िकनही जगतो मे केवलमात सूयर आिद के तुलय पकाश है, तो कोई पकाशरिहत भी है।।13।। इस बहतततव
महाकाश मे अननत जगत सागर की तरंगो के समान उतपन होते है और लीन होते है।।14।। जैसे सागर मे तरंग
उतपन होती है, जैसे मरभूिम मे मृगजल उतपन होता है, जैसे आम मे बौर उतपन होते है, वैसे ही परबह मे िवश की
समपितया उतपन होती है।।15।। भले ही सूयर की िकरणो मे चंचल तसरेणु िगने जा सकते है, पर बह मे चंचल
बहाणडो के समूह नही िगने जा सकते।।16।। जैसे वषा आिद ऋतुओं मे बहुत से मचछर आिद के समूह उतपन हो-
हो कर नष हो जाते है, वैसे ही ले लोक सृिषया उतपन हो-हो कर नष हो जाती है।।17।।
उन सृिषयो के पवाह की अनािदता को कहते है।
िकस समय से लेकर ये िनतय उतपन और िवनष होने वाली सृिष परमपराएँ पापत हईु , यह नही जाना जा
सकता।।18।। अनािद काल से सृिष परमपराएँ तरंगो के समान िनरनतर सफुिरत होती है, पूवर से पहले ये थी और
वैसे ही उससे भी पहले िवदमान थी।।19।।
देवता, असुर और मनुषयो से युकत ये सब भूत जाितया नदी की तरंगो की रीित से ही उतपन हो-होकर लीन हो
जाती है, जैसे यह बहाणड है वैसे ही जो हजारो बहाणड परमपराएँ है, वे जैसे वषों मे हजारो घिडया कीण हो जाती है वैसे
ही कीण हो गई है और अनय बहणड पंिकतया इस समय भी बहोपलिबध का सथान होने से बहपुरष शरीर के एक सथान
मे (हृदयकमल का रप एकदेश मे) िसथत अतयनत िवसतीणर बह मे वतरमान शरीरवाली िवदमान है, अतएव, 'अिसमन्
दावापृिथवी अनतरेव समािहते' (इस शरीर मे आकाश और पृिथवी भीतर ही समािहत है) इतयािद शुित है।। 20-22।।
बहपुर से उपलिकत हृदयाकाश की शोभारप बहिनिमरत अनय बहाणड परमपराएँ जैसे धविन के भेद आकाश मे हो-होकर
नष हो जाते है, वैसे ही हो-होकर के िफर बह मे नष हो जाती है।।23।। अनय सृिष परमपराएँ , जो िक आगे होगी,
जैसे िमटी की रािश मे घडे िसथत है, जैसे अंकुर मे पललव रहते है, वैसे ही बह मे िसथत है, जब तक तततवजान से
देखी जा रही ये कुछ भी नही है, ऐसा बाध होता है, उससे पहले तर िवपुल आकारवाले िवकारो से युकत ये
ितभुवनशोभाएँ िचदाकाश मे होगी।।24,25।। मूखों से अधयसत और िवसतार को पापत की जा रही आकाश लताओं
की तरह आिवभूरत और ितरोभूत होती हुई ये ितभुवनशोभाएँ न तो सतय है और न असतय ही है।।26।। सभी अपने
अनतगरत सृिष समिषरप बहाणडो की सृिषया तरंग के समान नशरतारप धमरवाली, देखते ही नष होने वाली और
िविचत आकारवाली पािणयो की चेषाओं से युकत है।।27।। हे शीरामचनदजी, सब बहाणडो की िविचत आकार-पकार
के िवकारो से युकत िविचत रपवाली सृिषया एवं सभी सृिष दिषया तततवज की दृिष मे जल से वृिषयो के समान
अितिरकत नहं है, और अतततवज की दृिष से तो मेघ से वृिष की तरह तटसथ ईशर से उतपन होती है।।28,29।।
परमाथर दृिष से तो अज व तततववेता सब की दृिष से सब सृिषया जैसे जडो दारा खीचे गये दवरप भूिम के जल को
धारण करने वाली नािडया, तवचा, पत, काटे आिद सेमर से अितिरकत नही है, वैसे ही बह से अितिरकत नही है।।
30।। हे शीरामचनदजी, सथूलभूतो से बनी हईु देहािद सृिषयो मे और सूकम भूतो से बनी हईु इिनदयािद सृिषयो मे
परमाकाश से उतपन हुए भूतसूकमनामक पंचतनमातरप मायामलरपी सूत की सफिटक, रदाक से गुँथी हुई – माला के
समान सब पदाथर है।।31।।
कभी पद से उतपन हुए बहा होते है ऐसा जो कहा उसमे यथा योगय पंचीकरण के अननतर होने वाले सथूल
आकाश आिद का पथम आिवभाव कम ही िनयामक है, ऐसा कहते है।
कभी आकाश पहले सथूलतारप से िसथित को पापत होता है, उससे बहा उतपन होते है, इसिलए आकाशज
पजापित कहे जाते है।।32।। कभी वायु पहले सथूलता से िसथित को पापत होता है, उससे बहा उतपन होते है,
इसिलए वे वायुज पजापित कहे जाते है।।33।। कभी तेज पहले सथूलतारप से िसथित को पापत होता है, उससे
सृिषकता बहा उतपन होते है, इिसलए वे तैजस पजापित कहे जाते है।।34।। कभी जल पहले सथूलतारप से
िसथित को पापत होता है, उससे बहा उतपन होते है, इसिलए वे जलज पजापित कहे जाते है।।35।। कभी पृथवी
पहले सथूलता को पापत होती है, उससे बहा उतपन होते है, इसिलए वे पािथरव बहा कहे जाते है।।36।।
अब उकत आकाश आिद के एक-एक करके पथम आिवभाव मे युिकत कहते है।
इन चारो भूतो को अपने अंश को बढाने से ितरोिहत-सा का पाचवा जो ही भूत जब बढता है, तब उससे उतपन
हुए ही ये बहा उसके अननतर होने वाली जगत की सृिष िकया को करते है।।37।।
सभी पंचभूतो के कायर है, इसिलए सब मे पंचातमकता होने पर उनसे उतपन हुए पजापित मे 'एक भूत से उतपन
हुए है' ऐसा वयवहार कैसे ? ऐसी यिद कोई शंका करे, तो उकत भूत का अिधक अंश होने से उसमे एकभूतजतव का
वयवपदेश होता है, ऐसा कहते है।
िकसी समय जल के अथवा वायु के या तेज के अिधक भागवाले होने पर तदुपािधक पजापित पूवर उपासना के
अनुसारी सवभाव से वािसत होकर जलज, वायुज, तैजस इतयािद आकार से अकसमात सवयं संपन हो जाता है।।
38।।
उसके देहावयवो से सृिष की पवृित िदखाते है।
इसके अननतर कभी उसके मुँह से, कभी चरण से, कभी उसके अगभाग से, कभी पीठ से, कभी नेतो से और
कभी बाहुओं से बाहण आिद शबद अपने अथों के साथ तथा योगय उतपन होते है, अतएव 'बाहणोऽसय मुखमासीत्' ऐसी
शुित है।।39।।
कभी नारायण नामक पुरष की नािभ मे कमल उतपन होता है, उसमे बहा वृिद को पापत होता है, कमल मे
जनम होने के कारण वह पदज कहा जाता है।।40।।
सदूप से िवदमान उसकी सत् से ही उतपित कैसे हो सकती है, यो पूछ रहे शीरामचनदजी के पित कहते है।
िमथया ही इस चक की रचना करने वाली, चंचल जल की भौरी के समान सुनदर यह भािनत के सवप और
मनोराजय के समान माया है।।41।। यिद सत् पुरष का अपने नािभकमल मे जनम नही हो सकता है, तो इस असंग
अिदतीय बह मे आपका यह जगदूप दैत कैसे हुआ, इसे आप बताइये, सदूप से िवदमान सत् का जनम कैसे हो सकता
है, आपका यह पश बालक के मनोराजय पश के समान ही है, भाव यह िक कया कही बालक का मनोराजय भी पश का
िवषय हो सकता है ?।।42।।
पदज की उतपित के समान वयोमज की उतपित भी मन की अिचनतय रचनाशिकत का अवलमबन करके ही
होती है, यो समथरन करते है।
िकसी समय शुद आकाश मे मन की शिकत से सुवणर का बहाणड अपने आप उतपन होता है, िजसके गभर मे
बह रहते है।।43।। कभी परम पुरष जल मे बीज की सृिष करता है। उससे पद (भूकमल) अथवा िवशाल
बहाणड उतपन होता है, उससे बहा उतपन होते है। कभी पहले कलप मे सूयर के अिधकार पर िसथत इस कलप मे बह
होते है, कभी पूवरकलप मे वरण के अिधकार पर िसथत इस कलप मे बहा होता है और कभी पूवरकलप मे वायु के
अिधकार पर िसथत इस कलप मे बहा होते है।।44,45।। हे शीरामचनदजी, इस पकार पतयगातमा मे अिवदमान इन
िविचत सृिषयो मे बहा की बहुत-सी िविचत उतपितया बीत चुकी है।।46।।
एक का यह वणरन सथालीपुलाक नयाय से अनयानय सृिषयो के भी दृषानत के िलए है, ऐसा कहते है।
एक पजापित की उतपित सृिष के दृषानत के िलए मैने आपसे कही, उसमे कही पर िनयम नही है।।47।।
यह संसार मन का िवलासमात है, यह िसदानत है। आपके समयग् जान के िलए मैने यह सृिष कम कहा है।।48।।
पूवरविणरत सािततवक, राजस आिद जीव जाित भेद भी दृषानताथर ही कहे है। ऐसा कहते है।
सािततवकी आिद जीवजाितया भी इस पकार उतपन हुई है, यह कहने के िलए ही यह सृिषकम आपसे कहा गया
है।49।।
जब तक इस मन का समूलोनमूलन नही िकया जाता, तब तक संसार परमपरा का कभी िवराम नही होता, यह
दशाते है।
िफर सृिष, िफर नाश, िफर दुःख, िफर सुख, िफर अजानी, िफर अजानी, िफर बनध और मोक की अिसततव
कलपना होती है। िफर वतरमान और आगामी िपयजनो मे तथा अतीत िपयजनो मे सनेह दृिषया, जो सृिष करने वाली है,
उजाला करने वाले दीपो के समान पुनः पुनः शानत होती है, पुनः पुनः उतपन होती है।।50,51।।
यिद कोई कहे अलपकालसथायी दीपक दो पराधर तक रहने वाले बहा आिद के शरीरो के उपमा कैसे हो सकते
है, इस पर कहते है।
दीपो के बहाओं के शरीरो की उतपित और िवनाश मे काल की अिधकता के अलावा इस िवनाश मे और कोई
भेद नही है।।52।। िफर कृत युग, िफर तेता, िफर दापर, िफर किल इस पकार सारा जगत चक के भमण की तरह
पुनः पुनः आता है।।53।। िफर मनवनतरो के आरमभ होते है, इस पर एक कलप के बाद अनेकानेक कलपो की
परमपराएँ िफर-िफर कायावसथाएँ ऐसे होती है, जैसे हर रोज पातःकाल के बाद िदन होते है।।54।। िदन-रात और
कलाओं से (तीस काषारप यानी मुहत ू र के दादशभागरप कण का तीसवा िहससारप कलाओं से), जो िक पािणयो के
आयुकाल की कलपनारप है, पिरिचछन सब पदाथों से युकत यह सब जगत पुनः पुनः होता है और पुनः पुनः कुछ भी
नही रहता है।।55।। जैसे पतथर आिद के आघात से रिहत, तपाये हएु लोह-िपणड मे आग की िचनगािरया िसथत
रहती है वैसे ही ये सब पदाथर िचदाकाश मे मायारप सवभाव से िनतय िसथत है।।56।। जैसे वृक मे िविभन ऋतुओं मे
होने वाले फल-फूल आिद कभी अनिभवयकत रहता है, कभी पकट हो जाता है। सवातमा रहता है, कभी पकट हो जाता
है।।57।। सवातमा िचद् िववतर ही सदा इस पकार की आकृितवाला होता है, कयोिक जैसे लोचनो से िदचनदतव उतपन
होता है वैसे ही इससे यह सृिष उतपन होती है।।58।। जैसे चनदमा से ही ये सब िकरणे आती है, उसमे िसथत होती
हुई भी उसमे अिसथत-सी पतीत होती है। ऐसे ये सब चारो ओर िवसतृत सृिषया चैतनय से ही पापत होती है और उसमे
िसथत होती हुई भी अिसथत-सी पतीत होती है।।59।। हे शीरामचनदजी, यह संसार कभी सत् नही है, कयोिक
सवरशिकत चैतनय मे असंसार सवभावता, (असंगािदतीयसवभावता) सदा परमाथरतः िवदमान है।।60।। हे
सजजनिशरोमणे शीरामचनदजी, यह जगत कभी भी असत् नही है, कयोिक सवरशिकत चैतनय मे जगद् बीज मयादा
िवदमान है।।61।। अिधषान चैतनय से दीपत संसािरता और काल से उपलिकत संसार महाकलप तक रहता है, आगे
नही रहेगा, यह वयवहार इस समय उिचत ही है।।62।।
यिद कोई शंका करे िक संसार की सता और असता परसपर िवरद है ? तो इस पर दृिषभेद होने से कोई
िवरोध नही है, ऐसा कहते है।
हे महामते शीरामचनदजी, जानी की दृिष से यह सब कुछ बह ही है, इसिलए यह संसार नही है, यह उपपन ही
है।।63।। अजानी की दृिष से िनरनतर अिविचछन संसार के रहने के कारण िमथया भी यह संसारमाया िनतय है, यह
उपपन ही है।।64।।
इसीिलए मीमासको का जगत कभी भी असत् नही है, इस पकार जगत पवाह िनतय है, यह वयवहार भी उपपन
होता है, ऐसा कहते है।
हे रघुननदन शीरामचनदजी, बार-बार होने के कारण यह जगत कभी भी असत् नही है, ऐसा जो मीमासको ने
कहा है, वह भी पूवोकत दृिष से असतय नही है, कयोिक वह 'उनके अभीष कमरकाणड के पमाणय का उपपादक है।।
65।।
अजािनयो की दृिषयो के िविचत होने के कारण बुद आिद दारा अपनी-अपनी पिकया के िनवाह के िलए
किलपत किणक, परमाणु आिद वयवहार भी उकत दृिष से उपपन होते ही है, ऐसा कहते है।
िदशाओं मे उिदत हुए िवनाशी िबजली आिद सदा कणभंगुर सवभाववाले देखे गये है, कयोिक वैसी ही सवरत लोगो
ने कलपना की है, उसी के अनुसार यह समपूणर जगत िवनाशी है, यह बात कया उपपन नही हो सकती !।।66।।
इसी पकार चनदमा और सूयर के तेज पकाश से युकत िदशाओं मे पवरत, भूिम, समुद आिद की िसथरता देखने से
जगत अपनी सता से सदा सत् ही है, इस पकार की साखयआिद की कलपना भी उपपन होती है, ऐसा कहते है।
सभी जगह िजनमे चनदमा और सूयर उिदत हुए है, ऐसी िदशाएँ सवरत िसथर और िनशल िदखाई देती है, इसिलए
सारा जगत अिवनाशी है, यह कथन भी सतय सा है।।67।। ऐसा कोई संकलपकलपनाओं का समूह नही है, जो
सवरवयापक, अिदतीय, नामरपरिहत, परमतततव मे उतपन न हो।।68।।
पसंगतः पापत सब पदाथों की उतपित की उपपित कर पसतुत सृिष के बार-बार होने का वणरन करते है।
यह सब दृशय पुनः पुनः होता है, जनम और मरण िफर िफर होते है, िफर सुख होता है, िफर दुःख होता है, िफर
कारण और कमर होते है, िफर िदशाएँ होती है, िफर आकाश होता है, िफर सागर और पवरत होते है। जैसे िखडकी वाले
घरो मे एक ही सूयर की पभा िफर िफर अनेको तरह से पापत होती है वैसे ही बार बार यह सृिष नानारप से होती है।।
69,70।। िफर दैतय होते है, इधर देवता होते है, पुनः अनयानय लोको का पसार होता है, पुनः सवगर और अपवगर पापत
करने की चेषाएँ होती है, पुनः इनद होते है, पुनः चनदमा होते है, नारायण देव का भी पुनः पादुभाव होता है अनेक दानव
भी पुनः उतपन होते है, िदशाएँ िफर चंचल और सुनदर चनदमा, सूयर, वरण और वायु के पसार से युकत होती है।।
71,72।। सुमेररप से भरी हईु अनतिरक और पृिथवीरपी केसर से सुशोिभत, पािणयो के पुणयरपी सुगनध से और
भोगरप मकरनद से भरी हुई अनतिरक और पृिथवीरप कमिलनी िफर उतपन होती है।।73।। सूय़ररपी िसहं वयोमरपी
वन मे आकमण कर िकरणरपी नखो से अनधकाररपी गजघटाओं को िछन-िभन करने के िलए िफर उिदत होता है।।
74।। चनद भी चंचल और सफेद मंजिरयो के समान सुनदर अपनी िकरणो से िदशारपी वधू के मुख को अलंकृत
करने वाले और सब पािणयो को सुख देने वाले अमृत का पुनः संचय करता है।।75।। पुणयनाशरपी वायु से उडाय
गये पुणयातमारपी पुषपसमूह कत-िवकत शरीर होकर सवगररपी वृक से िफर इस लोक मे िगरते है।।76।।
सृिषकालरपी किपंजल (पकी) िकयारपी पंखो से संसार िनमाणनामक कुछ घटपटरप कायर करके िफर चला जाता
है।।77।। पूवर इनदरप भमर के अपने अिधकार से िनवृत होने पर नवीन, तत् तत् मनवनतर के अिधकारी अनयानय
देवताओं से सनद ऐरावत मे बैठकर अपर देवेनदरपी भमर पूवर पदेशो से रिहत सवगररपी कमल मे पुनः पापत होता
है।।78।। जैसे पलयकाल का वायु अपने भीतर सो रहे भगवान िवषणु के साथ समुद को कलुिषत कर देता है वैसे
ही सतययुग से पिवत काल को किल (अधमर) पुनः दूिषत करता है।।79।। काल रपी कुमभहार से, िजससे पाणी
रपी सकोरे बनाये गये है, ऐसा कलपनामक चक िनरनतर वेग से घुमाया जाता है।।80।। शुभिसथित से रिहत जगत
िजसमे िजस िवषय मे पूवर अभयास है उस िवषय के अनुसार संकलप है, सूखे हुए वन के समान िफर नीरसता को
(धमररसहीनता को) पापत होता है।।81।। सूयर समूहो के उदय होने पर सूयर समूहरपी पदीपत अिगन से िजसमे अननत
शरीर जलाये गये है एवं सब पािणयो की हिडडयो से पिरपूणर जगत िफर शमशान बन जाता है।।82।। कुलाचल के
समान िवपुल आकारवाले पुषकरावतर नामक पलयकाल के मेघो की वृिषयो से जगत िफर िफर एकमात सागरता को,
िजसमे नाच रहे संहाररद ही सफेद होने के नाते िवशाल फेन के ढेर-से पतीत होते है।।83।। िफर िजसमे वायु और
जल िनशल हो गया है एवं सब वसतुओं के िरकत जगत अपूवर आकाश के समान शूनय़ता को पापत होता है।।84।।
समरस हृदवयवाले आिद देव िकतने ही वषों तक जीणर शरीर से जीवन का अनुभव कर िफर अपनी आतमा मे लीन हो
जाते है। िफर दूसरे समय मे मन शूनय मे गनधवरनगर के समान उसी पकार जगतो का िनमाण करता है।।85,86।।
िफर पलय होने के बाद सृिष समारमभरपी सबकी उतपित होती है, हे शीरामचनदजी, चक के समान िफर यह सब
घूमता है।।87।। दीघर भमरप इस महामाया के आडमबर मे 'यह सतय है, यह असतय है', इस पकार िनशय करने के
योगय कया कोई वसतु है जो यहा पर कही जाय ? दाशूर की आखयाियका के समान यह संसार चककलपना से रिचत
आकारवाले तथा वसतु शूनय है, वासतिवक नही है।।88,89।। जब िक यह जगत अजान से उतपन हुए अतएव दो
चनदमा के भम के तुलय िवकलपो से िनरनतर वयापत है, अिवदमान कता से ही इसकी रचना हुई है एवं अिधषानरप बह
का इसने अनुसरण कर रकखा है, तो यहा पर आपकी िवमूढता िकस कारण से उतपन हुई है। भाव यह िक िजस
िनिमत को आप देखते है, वह है ही नही और जो परमाथरतः है, वह अभय बह ही है, इसिलए आपको िबना िकसी िनिमत
के यह मोह होना उिचत नही है।।90।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सैतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ, आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ
आआआआआआआ आआआ आआआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआ।
यिद यह संसार चक एकमात मन की कलपना ही है, परमाथरतः यह बह ही है, तो बुिद, पितभा, िनपुणता आिद
से समपन महापुरषो मे कोई भी वैसा कयो नही देखता, इसमे कया कारण है ? ऐसी यिद कोई शंका करे, तो परमाथर
तततव की ओर धयान न देना और उसके िवरद भोग-ऐशयर आिद की आसिकत ही इसमे कारण है, ऐसा कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, भोग और ऐशयर से हतबुिद अतएव ऐिहक और पारलौिकक भोग, ऐशयर के
उपायभूत लौिकक और वैिदक िविवध कमों से बढी हुई अिभलाषावाले एवं सवयं अपनी आतमा और दूसरो की वंचना
करने वाले पुरष जब सतय तततव की ओर धयान नही देते, तब वे उसे नही देखते।।1।।
तब कौन देखते है, ऐसी आकाका होने पर कहते है।
जो पुरष िववेकबुिद की चरम सीमा को पहुँचे है एवं इिनदयो के वशीभूत नही है, वे इस जगत की माया एवं
सतय तततव को हाथ मे रकखे हुए बेल के समान भली भाित देखते है।।2।। जो िवचारवान जीव इस जगत की बाह
माया और अहंकारमयी आभयनतर माया को तुचछ जानकर जैसे साप केचुल को छोड देता है वैसे ही माया का तयाग
करता है तदननतर अनासिकत को पापत होकर जैसे अिगन से जला हुआ बीज िचरकाल तक खेतो मे रहता हुआ भी
उतपन नही होता वैसे ही वह भी िचरकाल तक देहो मे िसथत होता हुआ भी िफर उतपन नही होता।।3,4।। िकनतु
अजानी पुरष आिध-वयािध से िघरे हुए, पातःकाल या आज नष होने वाले शरीर के िहत के िलए पयत करते है, आतमा
के िहत के िलए पयत नही करते।।5।। हे शीरामचनदजी, आप भी अजािनयो की तरह जड शरीर के िहत का दुःख
के िलए समपादन न कीिजये, एकमात आतमिनष होइये।।6।।
पहले पसतुत दाशूर की आखयाियका को सुनने की इचछावाले शीरामचनदजी पूछते है-
हे पभो, यह िवषयसुख को देने वाला संसारचक दाशूर की आखयाियका के तुलय कलपना दारा रिचत
आकारवाला एवं अवासतिवक है, ऐसा जो आपने कहा, वह कैसे है ? वह आखयाियका िजस पकार की है, उसे वणरन
करने की कृपा कीिजये।।7।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जगत की माया के सवरप के उदाहरण रप से
मेरे दारा कही जा रही दाशूर की आखयाियका को आप सुिनये।।8।। इस पृिथवी तल मे िविचत फूलो के वृको से
पिरपूणर मगध नाम से पिसद बडा समृद देश है, उसमे कदमब वन के िवसतार ने अनायास सब जंगलो को वेिषत कर
रखा है। भाित-भाित के पिकयो के झुणडो और आशयरमय वसतुओं से वह बडा रमणीय है। उसकी गाम सीमा की भूिमया
धान आिद की खेती से वयापत है। नगर के उपवनो से वह सुशोिभत है। उसकी सब निदयो के तट कमल, उतपल और
कहलार से भरे है। उपवनो के झूलो मे झूल रही मिहलाओं के गानो से वह गुलजार है। िनशा से उपभुकत हुए-ये मुझाये
फूलो से वहा की सडके िनिबड रहती है। उस देश मे कनौल के वृको से वयापत, केले की झािडयो से िनिबड, कदमबो के
वृको से सुशोिभत एक पवरत तट था, जहा फूलो मे बहने से वायु शबद करता था, केसररपी लालधूिल से जो वयापत था,
िजस पर कलहंस तथा अनुरागयुकत सारस शबद करते थे। उस पुणय पवरत पर, िजसमे िविचत पकी और वृक थे, परम
धमातमा और महातपसवी कोई मुिन िनवास करते थे। उनका नाम दाशूर था। वे अतयनत किठन तपसया कर रहे थे।
कदमब वृक की चोटी पर वे रहते थे। उनहे संसार की िकसी वसतु से अनुराग न था और वे महाजानी थे।।9-16।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, वे महातपसवी वन मे कदमब के िवशालवृक की चोटी पर िकसके पभाव से
और कैसे रहते थे ?।।17।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, शरलोमा नाम से िवखयात उनके िपता थे, वे दूसरे बहा के सदृश थे,
उसी पवरत पर िनवास करते थे।।18।। देवगुर बृहसपित के पुत कच की तरह उनके यह एक पुत हुआ। उस पुत
के साथ उनहोने वन मे सारी आयु वयतीत की।।19।। तदुपरानत वे शरलोमा ऋिष यहा पर अनेक वषों का उपभोग
करके जैसे पकी घोसला छोड कर चला जाता है वैसे ही देह का तयाग कर सवगर को चले गये।।20।। दुभागय दारा
दाशूर के िपता दाशूर से पृथक िकये गये थे, अतएव एकाकी () वे कुरर पकी के सदृश करण िवलाप करने लगे।।
21।। माता और िपता के िवयोग से शोक सनतपत वे हेमनत मे कमल के समान अतयनत मलान हो गये। हे
शीरामचनदजी, अतयनत दीन उस बालक को वन देवता ने अदृशय होकर इस पकार आशसान िदया।।22,23।। 'हे
ऋिषपुत, हे महापाज, तुम अजानी के समान कयो रोते हो, तुम संसार के चंचल सवरप को कया नही जानते ?।।
24।। हे सजजन, संसार मे चंचल सृिष सदा ऐसी ही है, वह पहले तो उतपन होती है, जीिवत रहती है और पीछे
अवशय िवनष हो जाती है।।25।। हे मुने , वयवहार दृिष मे बहा आिद यह जो कुछ भी वसतु पिसद है, उसका
अवशय िवनाश हो जायेगा, इसमे कोई सनदेह नही है। इसिलए िपता के मरण के िलए तुम वयथर िवषाद मत करो। जैसे
उिदत हुए सूयर अवशय डू बते है वैसे ही उतपन हुए का िवनाश अवशयमभावी है।।26,27।।
दाशूर के नेत मारे िवलाप के लाल हो गय़े थे, वे ऐसी आकाशवाणी सुनकर जैसे मोर मेघ का गजरन सुनकर
धैयर को पापत होता है वैसे ही धैयर को पापत हुए।।28।। उठ कर अपने िपता का औधवरदैिहक कमर बडी आतुरता के
साथ करके उतम िसिद पापत करने के िलए उनहोने तपसया के िलए दृढ िनशय िकया।।29।। वन मे बहोिचत कमर
से तपसया कर रहे उनहोने अननत शुिद-अशुिद आिद कलपनाओं से युकत शोितयतव पापत िकया, िजससे जेय तततव का
जान नही हुआ, ऐसी बुिद वाले उस शोितय का िचत उन-उन शुिद और अशुिद की कलपनाओं से इस पिवत पृिथवी पर
िवशाम को पापत नही हुआ। यदिप यह सारा भूमणडल शुद था, तथािप इसे केवल अशुद सा देखते हुए वे कही पर
िवशािनत को पापत नही हुए।।30-32।। तदननतर अपनी कलपना से ही उनहोने िवचार िकया िक वृक की चोटी ही
पिवत है, उसी पर मेरा रहना ठीक है।।33।। इिसलए अब मै तपसया करँगा, िजस तपसया से वृको, शाखाओं और
पतो पर पिकयो की तरह रह सकूँ।।34।। ऐसा िवचार कर खूब धधकती हुई आग जलाकर उसमे अपने कनधो से
नोच नोच कर मास की आहुित देने लगे।।35।। तदुपरानत मै देवताओं का मुख हूँ, इसिलए देवताओं के कणठ बाहण
के मास से भसम न हो, ऐसा िवचार कर दैदीपयमान भगवान अिगनदेव उनके सामने , जैसे बृहसपित के सामने सूयर, पकट
हुए।।36, 37।। जब अिगनदेव ने ऐसा कहा, तब बाहणकुमार ने अघयर और पुषप से सुशोिभत सतुितयो दारा अिगन की
पूजा कर उनसे कहा।।39।।
भगवन्, पािणयो से चारो ओर ठसाठस भरी हुई पृिथवी पर पिवत पदेश मुझे कही नही िदखाई िदया। इसिलए
वृको के ऊपर मेरी िसथित हो।।40।। मुिनपुत के ऐसा कहने पर सब देवताओं के मुखरप अिगनदेव 'वृको के ऊपर
ही तुमहारी िसथित हो' ऐसा कहकर अनतिहरत हो गये।।41।। सायंकालीन कमल के समान अिगनदेव के कण भर मे
अनतिहरत होने पर पूणरकाम वह मुिनकुमार पूणर चनदमा के समान सुशोिभत हुआ।।42।। अतयनत सनतोष को पापत हुए
उस मुिनकुमार ने अभीष वर की पािपत दारा उतपन हुई मुख की कािनत से, जो मनद हासय से अिधक सुशोिभत हो रही
थी, समपूणर कला से युकत चनदमा को और िवकिसत कमल को फीका कर िदया।।43।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अडतालीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ, आआआआआ, आआआआआ, आआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, तदननतर उसने वन के मधय मे िसथत कदमब वृक को देखा। वह इतना
ऊँचा था िक मेघो को छू ता था, मधयाह के समय थके हुए सूयर के घोडे उसके सकनध-पदेश मे िवशाम लेते थे, वह
अपनी शाखारपी बाहुओं से िदशाओं के मधय भाग के समान िवशाल िवतान की रचना कर रहा था, फूले हुए फूलरपी
नेतो से मेरी शाखाओं के िवतान से अनावृत बचा हुआ और कोई पदेश है या नही ? यो मानो िदशाओं को देख रहा था,
तेज वायु बहने के कारण परागरिहत होकर घूम रहे पचुर भँवर ही उसके केश थे, वह अपने पललवरप हाथो से
िदशारपी कानताओं का मुख पोछ रहा था।।1-3।। गुडुचछ लताओं की दनत पंिकत के समान िसथत सवचछ मंजरी के
पुंजो से केसर युकत हुए, ओस के िबनदुओं की सीकररप मे पिरणत कर देने वाले पललवरपी तामबूलयुकत मुखो से
मानो वह वनरािज का पिरहास कर रहा था।।4। लताओं की अतयनत शोभा से उललिसत हो रहे फूलो के केसर मे
िसथत परागो से उसने मणडलाकार वेश बना रखा था। दीिपत से वह चनदमा की तरह पतीत होता था। शाखाओं की
परमपराओं से, िजनकी लताओं से आवृत पदेशो मे चकोर शबद करते थे, वह वयापत था। गह, नकत, तारा, िवमान आिद
से आवृत िसदमागर से उनतरप से आिशत बहाणड की तरह वह िसथत था, कनधे और चोटी पर बैठे हुए मयूरो के
लटक रहे मोरपंखो से और इनदधनुष से युकत मेघो से आकाश के समान सुशोिभत था।।5-7।। पतयेक सकनध पदेश
मे खोखलो मे रहने वाले, भीतर िसथत आधे शरीर से खोखले मे िनमगन और बाहर िनकले हुए आधे शरीर से उनमगन
तथा कण मे िदखाई देने और कण मे नष होने वाले सफेद चमर मृगो से वह ऐसे पूणर था, जैसे िक चनदमाओं से संवतसर
पूणर रहता है।।8।। किपंजल नामक पिकयो के जोर के चह-चहाने से, कोिकलो के मधुर गुंजन से और चकोरो की
दीघर धविनयो से मानो वह गा रहा था।।9।। अपने घोसले मे कीडा कर रहे कलहंसो के समूहो से वह ऐसे वयापत था
जैसे सवगररप कोटर मे िवशाम ले रहे िसदो से बहाणड आवृत रहता है।।10।। जैसे पललव के समान चंचल सुनदर
हाथवाली और भँवर के समान नेतवाली अपसराओं से सवगर चारो ओर वयापत रहता है, वैसे ही कोपलरपी चंचल
हाथवाली भँवररपी सुनदर नेतवाली मंजिरयो से वह चारो ओर वयापत था।।11।। इनदधनुष की सुनदरता वाले कुमुद,
नीलकमल, रकतकमल आिद के तुलय भाित-भाित के फूलो के परागो से युकत, मंजिरयो से पीला और पतो से चारो ओर
हरा वह वृक िबजलीवाले मेघ के समान िदखाई देता था।।12।। वह हजारो भुजाओंरपी शाखाओं से युकत और उसने
आकाश और पृथवी के मधयभाग को भर िदया था, अतएव वह उदत नृतयवाले, चनदमा और सूयररपी कुणडलो को धारण
करने वाले िवशरप भगवान के तुलय था।।13।। उसके तल पदेश मे गजराज बैठे रहते थे, आकाश मे वह तारागणो
से युकत था तथा मधयपदेश मे लता-पुषपमय था, अतएव िजसके तलपदेश (पाताल) मे शेष आिद नागराज िनवास करते
है, ऊपर तारागण रहते है और िजसके मधय मे लता-पुषपमयी पृथवी िवदमान है, ऐसे दूसरे आकाशमणडल के समान वह
था।।14।। पवरत के समसत वनो से शोिभत हो रहा वह कदमबवृक अपने दारा रचे गये सब पािणयो, पवरतो और वनो
से शोिभत हो रहे बहाजी के तुलय था, पृथवी मे फल, पललव और फूलो का वह एकमात िनधान-सा था।।15।।
पललवो मे फूलो के परागो से आचछािदत किलयो के समूहो को धारण कर रहा वह सूयर की िकरणो से आचछन तारागणो
से युकत आकाश के समान पतीत हो रहा थ।।16।। चंचल पिकयो से पूणर हजारो घोसलो से वयापत सकनधो से
पिरवेिषत वह लोगो से भरे हुए देशो से वेिषत भूतल के समान था।।17।। वह सब वनदेिवयो के उतम अनतःपुर के
सदृशय था, मंजिरया ही उसमे पताका थी, लताओं के मणडपो से वह अलंकृत था एवं वह फूलरपी मंकोल से (चूणर-
िवशेष से) सफेद, फूलो के समूहो से भरा हुआ, शबद कर रहे चकोर, भँवर, शुक, कोयल, मैना से युकत, इधर-उधर उड
रहे पिकयो से सुशोिभत तथा छाया के सेवन करने वाले मनुषयो से सेिवत (अनतःपुर के पक मे पिरचारक जनो से पूणर)
था।।18-20।। गुन गुना रहे भँवररपी तरंगसमूहो से युकत िगर रही पुषपो की केसर रािशयो से वह ऐसे िवराजमान
था, जैसे िक शबद कर रही तरंगो से और फूलो की केसर परमपराओं से युकत िगर रही निदयो से पवरत सुशोिभत होता
है।।21।। मनद-मनद वायु से िवलिसत होने वाले घूम रहे पत-पुषपो के समूहो से, जो िक िदन-पितिदन बढते थे उसका
सकनध-पदेश इस पकार आचछािदत था जैसे सफेद मेघो से पवरत आचछािदत होता है।।22।। वनगज के गणडसथल
से िघसे हएु अतएव अतयनत उनत ऊपर को जानू िकये हुए पुरष की जानू के समान िनशल, पीठ के समान चौडे
िवशाल मूल पदेश से वह ऐसे िसथत था जैसे िक नीचे की भूिम मे उगे हुए वृको से महापवरत िसथत रहता है।।23।।
जैसे पाषरदो के समूह से भगवान िवषणु आवृत रहते है वैसे ही िविचत रंग िबरंग के पंखवाले, कनधो के खोखलो मे रहने
वाले पिकयो के समूह से वह वयापत था।।24।। चंचल फूलो के गुचछरपी अंगुिलयो से वह वन वायु से नाच रही
लताओं को नृतयिकया का मानो उपदेश दे रहा था।।25।। मूल, कोटर, कनधा, शाखा, पत, पुषप आिद पदेशो मे से
मेरा कोई एक ही पदेश आशयपाथी मनुषय, मृग, पकी आिद का िनवास नही है, िकनतु और भी सभी अंग उनके िनवास के
उपयोगी है, अहा ! परोपकार मे मेरे सभी अंग सफल है, यो सनतोष के कारण पत-पुषपो से पूणर बहुत-सी लताओं की
चंचलता से मानो वह नाचता था।।26।। लतारपी कानताओं का एकमात िपय होने के कारण शृंगार-रस से पिरपूणर
वह मत भँवर के शबदरपी अवयकत अपने मधुर शबदो से मानो गा रहा था।।27।। आकाश मे चलने वाले िसदो का
वह आदरपूवरक पुषपवृिष कर कोयल और भमरो की धविनयो से मानो सवागत कर रहा था।।28।। समीप मे िसथत
वट, गूलर, पाकड, आम और पलाश नामक पाच पिवत वृको के या उतरपदेश मे (मेर मे) िसथत मनदार आिद पाच वृको
के लता-पुषप, फल आिद के उललास का अपने सवचछ फूलो की किलयो की कािनत से मानो उपहास कर रहा था।।।
29।। ऊपर उडने वाले पिकयो के झुणडो से मानो पािरजात को जीतने के िलए खूब ऊँची गदरन करके आकाश के
मधय मे मानो वह दौड रहा था।।30।। मधयभाग मे चमक रहे, भँवरो से युकत, बडी-बडी िनिबड पंिकतवाले पुषप गुचछो
से, िजनकी शोभा और संखया मे इनद नेतो से अिधक होने के कारण उनसे तुलन नही की जा सकती, सहसताकता को
पापत करके मानो इनद को जीतने के िलए वह उदत था।।31।। कही पर फूलो के गुचछेरप फणो मे िसथत िनमरल
मिणयो से आवृत वह आकाश को देखने की इचछा से पाताल से िनकले हुए शेषनाग के समान िसथत था।।32।।
पुषपराग से उसका सारा आकार धूसिरत था, अतएव वह धूिल धूसिरत िदतीय शंकर-सा था। भगवान शंकर तो केवल
भकतो का ही कलयाण करते है, िकनतु वह फल से सुशोिभत होने वाली छाया से सब लोगो का कलयाण करता था।।
33।। उस कदमबवृक को, जो घन पतो के समूहो मे िखली हुई किलयावाले, पुषपलताओं के नूतन मणडपो से युकत था
और पिकरािशरप नागिरकजनो से युकत था, आकाश मे िनिमरत नगर की भाित उसने देखा।।34।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनचासवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआआआआ आआआआआआआ आआ। आआआआआ आआ आआआ आआआआआआ
तदननतर भूिम मे अपिवत बुिदवाले, आननद से पफुिललतिचत दाशूल फल-पललवो से शोभायमान पुषपरपी पवरत
के सदृश, अनतिरक और पृथवी के सतमभरप उस कदमबवृक पर जैसे एकमात सागर मे िसथत ऊँचे वट वृक पर भगवान
िवषणु चढते है वैसे ही चढे।।1,2।। एकाग तप मे िसथत वे वहा पर आकाश से सटी हुई शाखा की चोटी के पललव
पर िनःशंक होकर बैठे।।3।। तदननतर कोमल नव नव पलवरपी आसन पर बैठकर कौतुकवश चंचल दृिष होकर
उनहोने एककण भर िदशाएँ देखी।।4।। वे नदी रपी एकावली से रमणीय थी, पवरतराज ही उनके सतन थे, िनमरल
आकाश ही उनकी केशरािश थी, चंचल नील मेघ ही उनके अलक थे, नीले (हरे-भरे) पललव ही उनके वसत थे,
पुषपरािशया ही उनके अवतंस (कणर का भूषण या िशरोमाला) थे। सागरपी भरे कलश उनहोने हाथ मे ले रखे थे और वे
अनेक आभूषणो से भूिषत थी।।5,6।। िखले हएु कमल के तालाब उनहोने धारण कर रखे थे, उनके मुख के िनःशास
वायु सुगिनधत थे। भँवर, कोिकल आिद धविनया ही उनके मधुर आलाप थे तथा झरनो के झझरर शबद ही उनके नुपुर
थे।।7।। दुलोक ही उनका मसतक था, पृिथवी उनकी चरणरप थी। वृक पंिकतया ही उनकी रोमरािशया थी, वन ही
उनके िवशाल िनतमब थे, चनदमा और सूयर को उनहोने अपने कुणडल बना रखा था।।8।। धान आिद के कमप से
चंचल हो रहे खेत ही उनके अंगिवलास थे, उनके ललाट चनदन से पूणर थे, पवरत िशखररपी सतनो मे चारो ओर सटी
हुई िहमरािश और सफेद मेघ ही उनके वसत थे।।9।।
महासागर की जलरािश ही नूतन अलंकारो को देखने के िलए उनके दपरण थे। नकतपंिकतया ही उनके
सवेदिबनदु थे, भुवन का मधय भाग ही उनका अनतःपुर था।।10।। तत् तत् ऋतुओं मे उतपन होने वाले फूल, पललव
आिद ही सतन वसत (चोली) थे, सूयरिकरणरपी कु ंकुम उनमे लगे थे, िविचत कुसुमो से वह युकत थी और चादनी ही
उनका सफेद चनदन था।।11।। आकाश मे फैली हईु शाखा के पतो पर बैठे हएु सनतुष दाशूर ने दस िदशाओं को
देखा। िवसतृत वन, पृथवी ओर मेघ ही िजनके कृितमाकार के भेदक अलंकार थे, जो तीनो भुवनो मे रहनेवाले लोगो की
उपभोगय होने के कारण ितभुवनविनता रप और फूलो से खूब सुशोिभत थी।।12।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पचासवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ, आआआआआआ आआआ
आआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, तपसवी के उस आशम मे घोर तपसया मे अिभमुख वे दाशूर तब से
लेकर कदमबदाशूर नाम से पखयात हुए।।1।। उस शाखा के पते पर बैठकर, कणभर िदशाओं को देखकर, दृढ
पदासन बाधकर िदशाओं से परावितरत, परमाथर जानरिहत केवल कमरकाणड मे अिभरिचवाले, फलािभलाषा से युकत मन
से उनहोने यज िकया।।2,3।। आकाश मे फैली हुई शाखा के पते पर बैठे हुए समािधसथ उनहोने कमशः सब यज
िकयाएँ अपने मन से कर डाली।।4।। वहा पर उनहोने दस वषों तक गोमेघ, नरमेघ, अशमेघ आिद िवपुल दिकणावाले
यजो से देवताओं की मन से ही आराधना की।।5।। समय आने पर रागािद दोषो से शूनय हुए उनके िवशाल िचत मे
पितबनध का कय होने पर पूवरजनम मे िकये गये शासतशवण आिद के संसकार के उदबुद होने से अनतःकरण की
िनमरलता से उतपन होने वाला जान उतपन हुआ।।6।। जान होने के बाद उनका अजानरप आवरण िछन-िभन हो गया
और वासना के हट जाने से वे िनमरल हो गये। उनहोने एक समय उस शाखा के अगभाग मे बैठी हुई, पकाशमान पुषपरप
वसतो से आवृत िवशालाकी वनदेवी को देखा। उसका मुख बडा सुनदर था, मद से उसके नेत घूम रहे थे, नीलकमलो
की सुगनध से वह सुगिनधत थी एवं उसका रप अतयनत मनोहर था। िनदोष अंगवाली कोिकला और फूलो के समूहो से
झुकी हुई वनलता के समान नममुखी उस कािमनी से मुिन ने कहाः हे कमलपताकी, अपनी कािनत से कामदेव को भी
कोिभत करने वाली तुम मृग के समान नेतवाली, गौर और िवशाल सतनवाली वनदेवी ने मुिन से कोमल अकरो से युकत
यह मनोहर वचन कहाः भगवन्, इस पृिथवीतल मे जो-जो दुषपापत वािछत है, वे सब महापुरषो की ही पाथरना से शीघ
पापत होते है। हे बहन्, लताओं से वयापत और आपके कदमबवृक से सुशोिभत इस वन मे रहने वाली मै वनदेवी हूँ। लता
िनकु ंज ही मेरे कीडागृह है। ननदनवन मे चैत शुकलपक की तयोदशी के िदन सव के अभयास के िलए पवितरत गाना,
बजाना, नाचना, भोज आिद के उतसव मे जो वनदेिवयो का सममेलन हुआ था। हे नाथ, वहा तैलोकय की मिहलाओं के
समाज मे मै गयी।।7-15।।
उस मदनोतसव मे पुतरिहत मैने सब सिखयो को पुतयुकत देखा, इससे मै अतयनत दुःिखत हूँ।।16।। सब
पुरषाथों के िवशाल कलपतरपरप आपके रहते हे नाथ, पुतरिहत मै अनाथ की नाई कयो शोक करँ ?।।17।। हे
भगवन्, मुझे पुत दीिजये, नही तो मै पुत के दुःखदाह की शािनत के िलए देह को अिगन के िलए आहूित कर देती हूँ।।
18।। उस देवी के ऐसा कहने पर दयायुकत मुिनशेष ने मुसकराकर अपने हाथ मे िसथत फूल उसको देकर कहा।।
19।। हे सुनदरी, तुम जाओ, एक महीने मे जैसे लता सुनदर फूल को पैदा करती है, वैसे ही तुम भी पूजा योगय, भँवरो
के समान नेतवाले, सुनदर पुत को पैदा करोगी। िकनतु पाण संकट को पापत करके आतमघात के संकलप से मेरे पास
आई हुई तुमने मुझसे यह पुत मागा, अतएव यह तततवजानी होगा, अनय वनदेिवयो के पुतो के समान यह भोगलमपट नही
होगा।।20,21।।
ऐसा कह कर उस मुिन ने वरदान पाने से पसन मुखमणडलवाली उस सुनदरी को, जो मै आपकी सेवा करँ, इस
पकार की पाथरना करने के िलए उतकिणठत थी, िवदा िकया।।22।। वह तो अपने घर चली गई और मुिन अकेले वहा
रह गये। ऋतु, वषर आिद के कम से काल बीतने लगा। दीघर समय के अननतर वही कमल के तुलय नेतवाली वनदेवी
बारहवषर के पुत को लेकर मुिन के समीप उपिसथत हुई।।23,24।। जैसे भँवरी आम के वृक के समीप जाकर मधुर
धविन से बोलती है, वैसे ही चनदमा के समान मुखवाले मुिन को पणाम कर और उनके आगे बैठकर उसने मधुरवाणी से
कहाः हे भगवन्, हम दोनो का पुत यह सुनदर कुमार है। इसको मैने सब कलाओं मे दक कर िदया है।।25,26।। हे
पभो, केवल इसने मंगलमयी बहिवदा, िजससे जीव इस संसारचक मे िफर पीिडत नही होते, पापत नही की। हे पभो,
कृपा करके इस समय इसे बहिवदा का उपदेश आप ही दीिजये। कौन ऐसा पुरष होगा जो अपने कुल मे उतपन हुए
पुत को मूखर रखेगा। भाव यह है िक अनय िवदाएँ तततविवषियणी नही है, अतएव वे अिवदा ही है, उनसे मूखरता की
िनवृित नही हो सकती है।।27,28।।
ऐसा कह रही उससे, 'हे अबले, उतम िशषय के गुणो से समपन इस पुत को तुम यही रहने दो।' – ऐसा
कहकर मुिन ने उसे िबदा कर िदया।।29।। उसके चले जाने पर गुरसेवारप वरत से िसथर िनयमवाला वह बुिदमान
बालक जैसे सूयर के सामने अरण रहता है वैसे ही अपने िपता के आगे िसथत रहा।।30।। शुशूषा की वरतचया आिद
कलेशो से पीिडत होकर उपायभूत शासतजनय परोक जान को पापत कर चुके उन मुिन ने िविवध पकार की उिकतयो से
िचरकाल तक अपरोकजान के िलए पुत को उपदेश िदया।।31।। सैकडो आखयाियका और आखयानो से,
समयकदशरन दारा सवयंकिलपत दृषानतो से महाभारत आिद इितहासो के वृतानतो से और वेद, वेदानतो के िनशयो से
पतयगातमा मे दृढ वयुतपित को िजस पकार पुत पापत होता था, वैसे ही अनुभव से पिसद कथा कमो से अनायास
िवसतारपूवरक पुत को िनतय उपदेश देते थे।।32,33।। आतमबोध के चमतकार से सब रसो से बढे हुए, परम
पुरषाथररप होने के कारण अवशय बोधयोगय अथरवाले वचनो से वह महातमा आगे िसथत पुत को वृक के अगभाग मे ऐसे
पबुद करते थे, जैसे िक शवणमात से मयूरो को आननद उतपन करने के कारण अनय रसो से बढी-चढी गजरनाओं दारा
मेघ आकाश मे आगे िसथत मयूर को पबुद करता है।।34।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकयावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआ आआ आआआआआ आआआआ आआ आआआआआ आआ
आआआआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआ। आआआआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, इसके बाद कभी आकाशमागर मे िसथत और अदृशयरप से मै उसी
मागर से िजसमे दाशूर का कदमब वृक पडता था, कैलासवािसनी मनदािकनी मे सनान करने के िलए गया।।1।। हे
सुबुदे, मै आकाश से, िजसका िक सपतिषरमणडल एक भाग है िनकलकर राित मे ऊँचे अनदर बैठे हुए भँवर की धविन के
समान समपूणर वचन सुना।।3।।
जो वचन सुना उसी को कहते है।
हे महामते, हे पुत, सुनो, इस संसार की उपमानरप इस एक आशयरमयी आखयाियका को मै आपसे कहता
हूँ।।4।। तीनो लोको मे िवखयात महापराकमी एक राजा है। उसका नाम खोतथ है, वह बडा समृिदशाली और तीनो
लोको पर आकमण करने मे समथर है।।5।। सब लोको मे बहा, िवषणु आिद सभी पभु जैसे धनी िशरोरत को िसर पर
धारण करते है वैसे ही इसकी आजा को िसर पर धारण करते है।।6।। जो बडे-बडे साहसपूणर कायर करने मे
एकमात रिसक है, िविवध पकार के आशयरमय सथलो मे िवहार करता है, उस महातमा को तीनो लोको मे िकसी ने भी
अपने वश मे नही िकया।।7।। िजसके सुख-दुःखपद हजारो कायों को सागर की तरंगो की तरह कौन िगन सकता
है ?।।8।।जैसे कोई पुरष मुटी से आकाश को परािजत नही कर सकता वैसे ही िजस महाबली के बल का न शसतो
से और न अिगन से कोई भी ितरसकार नही कर सका।।9।। िजसकी लीला का, जो पयोजन थोडा होने पर भी
हजारो कलपनाओं से पूणर होने के कारण िवशाल आरमभवाली है और सवप, मनोरथआिद के िनमाण से दैदीपयमान है, इनद,
िवषणु और शंकर तिनक भी अनुकरण नही कर सकते है।।10।।
हे महाबाहो, उसके सब वयवहाररपी कीडा करने मे सकम, उतम, मधयम और अधम, सािततवक, राजस और
तामस भेद से तीन पकार के शरीर जगत को आकानत करके िसथत है।।11।। तीन शरीरवाला यह पकी के तुलय
अतयनत िवशाल अवयाकृत आकाश मे ही उतपन हुआ है, वही पर रहता है, िविध-िनषेधरप शबद के अनुसार चलता है।
भाव यह है िक जैसे पकी आकाश मे ही अणडमय, िपणडमय और पकमय तीन शरीरवाला कम से उतपन होता है, सब ओर
से उसे जान जोिखम की शंका रहती है, असार पीपल आिद के फलासवाद मे लोलुप रहता है, शबदमात से उडता है,
वासतिवक बात का िवचार नही करता वैसे ही यह भी सथूल, सूकम और कारणरप तीन शरीरवाला है बहाकाश मे
उतपन होकर चारो ओर से भय की शंका करता है, तुचछ िवषयो मे आसकत हो िविध-िनषेधरप शबद के अनुसार चलता
हुआ घूमता है।।12।। उसी असीम आकाश मे उसने बहाणडरपी नगर की, चौदह भुवन ही िजसके बडे भारी रथो
का समूह है या चौदह िवदारपी रथयामागों से जो िवभकत है, रचना कर रखी है और वह ितलोकरप और वेदतयीरप
िवभाग से िवभूिषत है।।13।। ननदन आिद वन और उपवनो की पंिकतयो से वह पूणर है, मेर आिद कीडाशैलो से
सुशोिभत है, मोितयो की लताओं से वयापत समुदरपी सात बाविडयो से अलंकृत है, कभी न बुझने वाले शीतल और
उषणरप दो दीपको से िवराजमान है तथा शासतीय सत् कमों से ऊधवरगित और अशासतीय िनिनदत कमों से
अधोगितरप वयापारी मागों से वह भरा है।।14,15।। उसी अितिवशाल नगर मे उकत राजा ने िवषयो के मोह मे फँसे
हुए, अपवरक (मधयगृह) के समान आकाश के पिरचछेदक होने के कारण अपवरकरप संसारी देवता, मनुषय आिद देह
समूहो की सृिष की।।16।। कोई ऊपर रखे गये, कोई नीचे रखे गये और िकनही को उसने बीच मे िनयोिजत
िकया। कोई िचरकाल मे नाश को पापत होने वाले है, तो कोई शीघ िवनष होने वाले है। वे काले केशरपी तृणो से
आचछािदत और आँख, कान, नाक, मुँह आिद नौ दारो से अलंकृत है। उनमे िनरनतर वायु बहता रहता है, वे रोमकूपरपी
अनेक िखडिकयो से युकत है और पाच जानेिनदयरपी पाच दीपको से वे पकाशयुकत है। जाघ और रीढ ही उनके तीन
सतमभ है, सफेद हिडडयो भी बास के सथानापन है, िचकनी िमटी के सथानापन चमर से वे कोमल है, सडकरपी बाहुओं
से वे वयापत है। उस महातमा राजा ने उन देह समूहो मे अिभमान दारा उनके रकक और सवामीरप अहंकारो की सृिष
की। उकत अहंकार आतमिववेकरपी पकाश से सदा भयभीत रहते है, कयोिक उससे उनका िवनाश हो जाता है।।17-
20।। अहंकारो की सृिष करने के उपरानत उन देव, मनुषय आिद के देहसमूहो के वयवहार करने पर संकलपातमा
जीवरपी वह राजा जैसे घोसले मे िचिडया िविवध पकार की कीडाएँ करती है वैसे ही िविवध पकार की कीडाएँ करता
है।।21।।
हे पुत, तीन पकार के अननत शरीरो के अनदर उन यको के साथ लीलाओं दारा असवाधीनरप से िनवास कर
और िनकल कर िफर चला जाता है।।22।। हे वतस, चंचल िचतवाले उसकी कभी िनशल इचछा होती है िक
अिवदमान िकसी सवपािदजगदूप नगर मे जाऊँ।।23।। तदननतर वह भूतािवष की तरह िनदा आिद के आवेश से
जागद देहािद के अिभमान का तयाग कर दौडता है, तदुपरानत गनधवरनगर के समान िमथयाभूत उस नगर को पापत होता
है।।24।। हे पुत, चंचल िचतवाले उसकी कभी संकलप के लय की अवसथारप सुषिपत को पापत होऊँ, ऐसी इचछा
उतपन होती है, उससे वह शीघ िवनष हो जाता है।।25।। िफर वह जल से तरंग के समान पूणर सवभाव से ही तुरनत
िफर उतपन हो जाता है। (कयोिक वही मै हूँ, ऐसा सोकर उठे हुए पुरष को पतयिभजा होती है) और िफर िविवध आरमभो
से पिरपूणर वयवहार करता है।।26।। िफर अपने ही वयवहार से कभी उसका पराभव होता है, 'मै िकंकर हूँ', 'मै
अजानी हूँ', 'मै दुःखी हूँ', यो शोक करता है। कभी पूवानुभूत हषर का अितकमण कर वषा ऋतु की कला के उललास
के पवाह का अितकमण कर नदी के वेग के समान वह सवयं दीनता को पापत होता है।।27,28।। हे पुत, अनतगरत
आतमजयोित से दैदीपयमान अतएव महामिहमाशाली वह राजा आँधी के झोको से अशानत सागर के समान शतुओं का
ितरसकार करने की सामथयर रहते शतुओं की ओर चलता है, िवजय पापत करता है, शबद करता है, समपितयो को
पापतकर वृिद को पापत होता है, दमकता है, सवप और जागत मे पतीत होता है एवं सुषिपत, पलय, समािध और मुिकत मे
पतीत नही होता है।।29।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआआ आआ आआआआआआ आआ, आआ आआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआ
आआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, वहा जमबूदीप मे अधरराित के समय कदमब वृक की चोटी पर कदमब के
िशरोभूषण की तरह बैठे हुए पिवत अनतःकरणवाले िपता से पुत ने पूछा।।1।। हे तात्, खोतथनाम से पखयात उतम
आकृितवाला कौन-सा वह राजा है ? आपने मुझसे यह कया कहा ? इसे आप यथाथररप से किहये।।2।।
यथाशुत अथर मे तातपयर नही है, िकनतु अनय अथर मे तातपयर है, ऐसा तुमने कैसे जाना, ऐसा यिद कहे तो 'पुर ं
भिवषयिनमाणं िकंिचद् यामीित िनशला' इस उिकत मे भिवषयतव और वतरमानतव के यौगपद का िवरोध होने से उसका
अथर अिनवत नही िदखाई देता, यह कहते है।
कहा भिवषय मे नगर का िनमाण और कहा वतरमानकाल मे उसकी गमयता इन दोनो अथों के िवरद होने के
कारण आपका वचन मेरे मोह के िलए हो रहा है।।3।।
दाशूर ने कहाः हे पुत, सुनो, यथाथर यह मै तुमसे कहता हूँ, िजससे तुम इस संसारचक के तततव को जान
जाओगे।।4।। परमाथरसताशूनय अजान से उतपन अतएव मायामय िवसतृत इस संसार की इस िसथित का मैने इस
पकार परोकरप से वणरन िकया है।।5।। परमाकाश से उतपन हुआ संकलप खोतथ कहा जाता है, वह अपने संकलप
से उतपन पवृित की वासना के पादुभाव से ही उतपन होता है और कहा जाता है, वह अपने संकलप से उतपन पवृित की
वासना के पादुभाव से ही उतपन होता है और िनवृितवासना की दृढता से सवयं िवलीन हो जाता है।।6।। यह िवशाल
सारा जगत उसका पिरणाम है, कयोिक संकलप के उतपन होने पर उतपन होता है और संकलप के नष होने पर नष हो
जाता है।।7।।
यिद कोई शंका करे बहा, िवषणु आिद से जगत की उतपित हईु , ऐसा सुना जाता है, िफर कैसे आप अनय से
उसकी उतपित कहते है ? तो इस पर कहते है।
जैसे लोग शाखाओं को वृको के अवयव मानते है, जैसे िशखरो को पवरतो के अवयव मानते है, वैसे ही बहा,
िवषणु, इनद, रद आिद को संकलप के ही अवयव जानते है।।8।। तीनो कालो मे जगत के अभाव से युकत बह मे
उसने इस ितजगतरपी घर को बना रखा है अचेतन संकलप मे जगिनमाण शिकत कहा से आई, ऐसी शंका नही करनी
चािहए, कयोिक अिधषानभूत चैतनय के अनुगह से उसने चेतन िबरंिच के सवरप को पापत कर ितजगदरपी नगर को
बनाया है, िजस ितजगदूप नगर मे सूयर आिद के पकाश से युकत चौदह लोक है, जहा पर वन, उपवनो की मालाओं से
युकत उदान परमपराएँ है, जहा पर सह, मनदर, मेर कीडा शैल है, जहा पर अिगन के समान पकाशमान शीतल और
उषण कािनतवाले चनदमा-सूयररपी दीपक है।।9-11।। जहा पर सूयर की िकरणो से चमकती हुई चंचल तरंग ही बडी-
बडी मुकता है, जहा पर ओस की सुनदरमोितयो की मालारप चंचल निदया बहती है।।12।। जहा पर ईख के रस,
दूध आिदरप जलवाले, मिण, रतरपी भसीडे के अंकुरो से युकत, बडवानलरपी कमलो से भरे हुए सातमहासागर ही
सात बाविडया है।।13।।
'ऊधवाधोगितरपेण वािणंमागेण संकुलम्' (शासतीय कमों से ऊधवरगित होती है, अशासतीय कमों से अधोगित
होती है, इस पकार के वयापारी मागर से पिरपूणर) सा जो पहले कहा था, उसका अथर कहते है।
नीचे पृथवी पर तथा ऊपर आकाश मे पुणय और पाप ही िजनकी धन-समपित है, उन कमर और उपासना मे
अिधकारी शेष पुरषो, देवताओं और मलेचछ देश मे रहने वाले कमािधकार से रिहत पुरषो के कय, िवकय िजस पुर मे
होते है(╧)।।14।। पूवोकत इसी ितजगदूपी नगर मे संकलपरपी राजा ने अपनी कीडा के िलए भाित-भाित के देव,
नर, ितयरगािद के देहरपी मधयगृह बनाये है, कुछ देवनामवो को ऊपर ही रखा है। नर, नाग आिद कुछ को नीचे ही रखा
है।।15,16।। उसने पाणो के पवाह से चल रहे, मासरपी िमटी के बने हुए, सफेद अिसथरपी लकडी वाले, तेल,
उबटन आिद से िचकने और िनमरल िविवध पकार के जीव बनाये है। कोई िचरकाल मे नष होते है। कोई शीघ नष
होने वाले है, िकनही की केशरपी तृणो की वृिद से आचछादन शोभा बनाई गई है।
╧ मनुषय और देवताओं के 'देवान् भावयताऽनेन ते देवा भावयनतु वः' इस भगवदाकय से पुणय और उसके फल
से कय-िवकय होते है। मलेचछो के, जो कमािधकार से बिहषकृत है, पाप और उसके फल सथावर, ितयरगािद योिनयो से
कय िवकय होते है।
कान आँख, नािसका आिद नौ दारो से युकत है। िनरनतर बह रहे पाणवायु से वे उषण और शीतल है।।17-19
कान, नािसका, मुख, तालू, आिद बहुत-सी िखडिकयो से वे युकत है, भुजा आिद अंगरपी सडको से वे वयापत है और पाच
इिनदया ही उनमे कुितसत पाच दीपक है।।20।। हे महामते, उन देहरपी मधयगृहो मे संकलप ने माया से अहंकाररपी
महायको की रचना रच रखी है। वे परमातमा के दशरन से भयभीत होते है, तातपयर यह है िक परमातमा के दशरन से
हृदयगिनथरप अहंकार का िवनाश सुना जाता है, अतएव वे परमातमा के दशरन से डरते है।।21।। देहरपी मधयगृहो
मे संकलप ने माया से अहंकाररपी महायक, जो िक माया से उतपन हुए है उनके साथ वह सदा खूब कीडा करता है।।
22।।
यिद कोई कहे िक देह ही अहंकार है, अनय अहंकार नही है, तो इस पर नही, ऐसा कहते है।
जैसे कोिठले मे िबलली रहती है, जैसे धौकनी मे साप रहता है और जैसे बास मे मोती रहता है वैसे ही शरीर मे
अहंकार भी है।।23।। जैसे सागर मे तरंग कणभर मे उिदत होती है और कणभर मे िवलीन हो जाती है, वैसे ही
देहरपी घर मे संकलप की वृितया कणभर मे दीपक के समान उिदत होती है और कणभर मे नष हो जाती है।।24।।
'तसयेचछा जायते' इतयािद के तातपयर का पुत दारा उकत िवरोध के पिरहार से वणरन करते है।
जब वह संकिलपत वसतु को कण भर मे ही देखने लगता है तब िजसका िनमाण आगे होने वाला हो, ऐसे नगर
को (सवपजगत को) पापत होता है।।25।।
'तेनाऽऽशु स िवनशयित' इसके तातपयर कहते है।
अनेक करोडो जनमो मे दुःख का अनुभव करके भागयवश िनवेद को पापत होकर शासत, आचायर और समािध
के अभयास से आतमतततव का साकातकार होने पर संकलप के अभावमात से वह शीघ नष हो जाता है। संकलप की
वासनाकयपयुकत शूनयभाव से जो अिभिनषपित है, वह परम कलयाण के िलए होती है।26।।
पुनरतपदते इसका तातपयर कहते है।
बालक के दारा किलपत यक के समान संकलपमात सवरप वह सवयं अननत आतमदुःखो के िलए उतपन होता
है, आननद के िलए कभी उतपन नही होता।।27।। जैसे घन अनधकार अपनी सता से अंधतव का िवसतार करता है
और अपनी असता से उसका िवनाश करता है वैसे ही संकलप अपनी सता से ही िवशाल जगद् दुःख का िवसतार
करता है और अपनी असता से उसका िवनाश करता है।।28।।
'िकंकरोऽरमयहमजोऽिसम' इतयािद शोकोिकत का तातपयर कहते है।
काष के बीच मे िजसके अणडकोश दब गये, उस कील उखाडने वाले बनदर के समान दुःख देने वाली अपनी
करनी से ही वह रोता है।।29। जैसे गदहा अकसमात िगरे हुए शहद की बूँदो का सवाद लेता है, वैसे ही आननद लेश
का संकलप करने वाला वह मारे हषर के ऊँची गदरन करके िसथत रहता है। गदहा इस दृषानत से यह सूिचत िकया िक
जैसे गदहे के िलए शहद चाटना अतयनत दुलरभ है वैसे ही उसके िलए िवषयसुख भी अतयनत दुलरभ है, मोक सुख की तो
कौन कहे !।।30।। बालक के समान संकलप से ही वह सवयं एक कण मे िवरकत होता है, कणभर मे सवयं अनुराग
को पापत होता है और कणभर मे िवकार को पापत होता है।।31।।
खोतथ की आखयाियका के वणरन का पयोजन कहते है।
हे पुत, बुिद इस संकलप को सब बाह वसतुओं से लौटाकर, समािध के अभयास से और तततवजान से
िनवासिनक बनाकर, पतयमभूत बह का अवलमबन कर िजस पकार िवशानत हो, वैसा तुम करो।।32।।
पहले सगर मे जो तीन शरीर कहे गये थे, उनही का िवसतार करते है।
उस संकलपातमक मन के सततव, रज और तम नामक उतम, मधयम और अधम तीन शरीर इस जगत िसथित
के कारण है।।33।। तमोरप संकलप पाकृत चेषा से (सवाभािवक पवृित से) नरको मे पिसद परमदीनता को पापत
होकर कृिम-कीट योिन मे पापत होता है। यहा पर कृिम, कीट का गहण सथावर आिद योिनयो का भी उपलकक है।।
34।। सततवरप संकलप धमर और जान मे परायण होकर सवराजय को (िहरणयगभर भावपयरनत देवताभाव को) पापत होता
है, वह संसार मे पुत, सती आिद से अनुरिं जत होकर रहता है।।36।। हे महामते, तीन पकार के इस सवरप को तयाग
कर संकलपः आतयािनतक संकलपोचछेद होने पर मोकरप परम पद को पापत होता है।।37।।
संकलप के कय मे कौन उपाय है, ऐसा पश होने पर उसे कहते है।
हे पुत, सब बाह दृिषयो का तयाग करके, मन से मन का िनयमन करके तुम बाह और आभयनतर पदाथों के
साथ संकलपो का िवनाश करो।।38।।
यिद कोई शंका करे िक संकलप का िवनाश दुषकर है। अनय िकसी उपाय का मोक के िलए उपदेश दीिजए, तो
इस पर अनय उपाय नही है ऐसा कहते है।
यिद हजारो वषों तक तुम घोर तपसया करो, यिद अपने शरीर को िशला पर पटक कर चूर-चूर कर डालो,
यिद अिगन मे पवेश करो अथवा बडवानल मे पवेश करो, गडढे मे करो, गडढे मे िगरो, यिद खडगधारा के वेग मे पवेश
करो, यिद साकात् िशवजी तुमहे उपदेश देने वाले हो, अथवा साकात् िवषणु उपदेश कहे या भगवान बहा उपदेशक हो
अथवा अतयनत दयालू शीदतातेय उपदेशक हो, चाहे तुम पाताल मे रहो, चाहे पृथवी पर रहो, चाहे सवगर मे ही कयो न
रहो, तुमहारे िलए संकलप की शािनत के िसवा दूसरा उपाय नही है।।39-42।।
वह संकलप की िनवृित बहसवरप ही है, इस आशय से कहते है।
बाधरिहत, अिवकारी, परमपिवत, सुखरप संकलप की िनवृित के िलए साधनचतुषय समपित, शवण, मनन तथा
िनिदधयासन रप परम यत पौरष से करो।।43।।
यिद कोई शंका करे िक एकमात संकलप के नष होने पर संपूणर जगदूप बनधन की िनवृित कैसे होती है, तो
इस पर कहते है।
हे िनषपाप, समपूणर पदाथर संकलपरपी सूत मे गुँथे हुए है। संकलपरपी सूत के टू टने पर िछन-िभन हुए पदाथर
न मालूम कहा चले जाते है। भाव यह है िक आरोिपत पदाथों की अिधषान मे पतीित होती है, उनके अनयत गमन की
पिसिद नही है।।44।।
यिद कोई शंका करे िक यह संकलप आिद सब भावो की िनवृित असत् है या सत् है या सदसत् है। यिद
असत् है, तो मोक की अिसिद हो जायेगी। यिद सत् है, तो मोक होने पर भी दैत की आपित हो जायेगी। यिद सदसत्
है, तो बनध और दैत की पािकक अनुवृित होगी, इसिलए मोक मे अकुणणता की िसिद नही होगी, इतयािद दोषो का एक
उिकत से पिरहार करते है।
असत्, सत्, सदसत्-सब िवकलप संकलप से ही पदाथों के साथ उतपन हुए है, वे संकलप का ही सदसदूप से
िवकलप करने के िलए समथर नही है। परमाथर सतयसंकलप बह का वे सपशर भी नही कर सकते, इसमे कहना ही कया है
? कायर जहा पर अपने से समबनध रखने वाले आनतर कारण मे भी कुिणठत होते है। वहा पर असंग परमातमा मे तो
उनके कुणठीभाव का कया कहना है ?।।45।। िजस-िजसका जैसा संकलप िकया जाता है, वह कण भर मे वैसा हो
जाता है, इसिलए हे तततवज, तुम कभी भी िकसी भी वसतु का संकलप मत करो।।46।। संकलप से रिहत हुए तुम जो
वयवहार जैसे पापत हो, वैसे उसमे ततपर होओ, कयोिक संकलप का कय होने पर िचत् (जीव) चेतय की (बह की) ओर
आकृष हो जाता है।।47।।
मोक का समपादन यिद न िकया जाय, तो कया कित है, ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
सतय एकतव सवभाव बह असतय मायावश देवता, मनुषय, ितयरगािद चौरासी लाख योिनयो दारा तत् तत् पािणयो
के रप से उतपन होकर वयथर ही जगतदुःख का अनुभव करता है। यह उसके सवरपानुरप नही है।।48।। हे
िनषपाप, नाना योिनयो मे जनम के िलए दुःखाथर पुनः पुनः उस मरण से तुमहे कया लाभ है, जो दुःख के िलए नही होता,
िवदान लोग उसी का आशय ले लेते है, अनय का नही लेते है।।49।।
तो मुझे कया करना चािहए, यिद ऐसा पुत की ओर से पश हो, तो उस पर कहते है।
सुषुपत िचतवृितवाले होकर तततवजाता को पापत करके मूलोचछेदपूवरक समपूणर िवकलपो को दूर कर जो
अिदतीय मोक नामक पद है, उसे िनरितशय आननद की पािपत के िलए पयतपूवरक पापत करो।।50।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
ितरनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआ आआआआ आआ, आआआआ आआआआ आआआआआआ आआ,
आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआ आआ आआआ
आआआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआआआ आआ, आआ
आआआआ आआआआआआ

पुत ने कहाः हे तात्, यह संकलप कैसा है ? हे पभो यह कैसे उतपन होता है, कैसे वृिद को पापत होता है और
कैसे नष होता है ?।।1।। दाशूर ने कहाः हे पुत, अननत, सतासामानयरपी आतमतततवरप िचत् की जो
िवषयोनमुखता है, उसी को संकलपरपी वृक का अंकुर कहते है।।2।। सूकमरप से अिसततव को पापत हुआ वह
संकलप ही मेघ की नाई िचताकाश को चारो ओर से वयापत करके अिधषान चैतनय की िचतसवभावता के ितरोधान दारा
जड पपंचाकार की पािपत के िलए धीरे-धीरे घनता को पापत होता है।।3।।
इस पकार समिषसंकलप से जगत की उतपित कहकर उसी पकार बुिद, अहंकार, पाण, इिनदय, देह आिद के
आकारवाले वयिषसंकलप की उतपित कहते है।
िवषयो की अपने से अितिरकत की तरह भावना करता हुआ चेतन जैसे बीज अंकुरता को पापत होता है वैसे ही
संकलपरपता को पापत होता है।।4।।
उस मूल अंकुर से शाखा अंकुरो की तरह बाहिवषयाकार संकलप परमपराओं से संकलपो की दुःखदाियनी वृिद
कहते है।
संकलप से संकलप सवयं ही पैदा होता है और सवयं ही दुःख के िलए वृिद को पापत होता है, उसकी वृिद सुख
के िलए नही होती।।5।। जैसे समुद एकमात जलरप है वैसे ही सारा संसार संकलपमात ही है, संकलप को छोडकर
दूसरी वसतु संसारदुःख नही है, अथात् संकलप ही संसाररप दुःख है।।6।।
यिद कोई शंका करे, िनिवरकार अिदतीय वसतु मे िबना बीज के जगत की उतपित कैसे हुई, तो उस पर कहते
है।
काकतालीय नयाय से यह संसार िमथया ही उतपन हुआ है। िववतरवाद के आशय से उकत दोष का पिरहार
करना चािहए, इस आशय से कहते है – मृगजल और िदचनदतव के समान यह असतय ही वृिद को पापत होता है।।
7।।
पूवानुभूत िवषयवासनाओं के उदबुद होने से यह हेय जगदभािनत हुई है, ऐसा कहते है।
िजस पुरष ने मातुिलंग का फल (फलिवशेष, जो नेत के िपत को बढाता हुआ शुकल वसतु मे पीतभम उतपन
करता है) िनगल िलया, उसे जैसे सवरत कनक पतीित होती है वैसे ही असतय यह संकलप तुमहारे हृदय मे सवयं ही पापत
होता है।।8।। असतय ही तुम उतपन हुए हो और असतय ही िसथत हो, मेरे इस उपदेशरप शासत के जात होने पर
असतय का िवलय हो जाता है।।9।। यह जो वेदानतो मे पिसद पूणातमा है, वह मै ही हूँ, मेरे ये सुख-दुःखमय जनमािद
िवकार िमथया ही है, इस पकार की आसथा अजानवश नही होती, इसी से तुमहे अनतःकरण मे संताप होता है।।10।।
इस जनम आिद के समबनधी तुम कभी न होते हुए भी भािनत से उतपन हो। तो िववेक पूणरतारप आतमतततव के सफुरण
से जनम कहा ? संकलपवश तुम वयथर मूढ हुए हो।।11।।
तब इस भम की िनवृित के िलए कौन सा उपाय है, ऐसा पश होने पर भमिनवृित का उपाय कहते है।
संकलप का संकलप मत करो, पहले अनुभूत सुख-दुःखािद भाव का वतरमान िसथित मे समरण मत करो।
पूवरभाव का समरण करने पर उनके गहण औऱ तयाग के िलए संकलप का उदय होगा ही। केवल वतरमान िसथित मे
पूवानुभूत सुख-दुःखािद भावो की असमरणरपी भावना से ही भवय पुरष भूित के िलए उनमुख होता है।।12।।
संकलप के कय से सब भयो का नाश हो जाता है और पूवरभावो की भावना न करने से संकलप का नाश हो
जाता, यह कम िसद है, ऐसा कहते है।
संकलप के कय से सब भयो का नाश हो जाता है और पूवरभावो की भावना न करने से संकलप का नाश हो
जाता है, यह कम िसद है, ऐसा कहते है।
संकलप के िवनाश मे यत करने से मनुषय िविवध भयो को पापत नही होता। एकमात भावना के अभाव से
संकलप अपने आप कीण हो जाता है।।13।।
यह उपाय अतयनत सरल है, यो उसकी पशंसा करते है।
िशरीष आिद फूलो को और कोमल पललवो को मसलने मे थोडा बहुत पयत हो सकता है, िकनतु भावना न
करने मात से िसद होने वाले संकलपनाश मे उसकी भी संभावना नही है।।14।। हे पुत, फूल को मसलने के िलए
हाथ की चेषारप यत का उपयोग होता है, लेिकन इस संकलपिवनाश मे उतने भी यत का उपयोग नही है।।15।।
िजस पुरष को संकलप का िवनाश करना हो, वह भावना के असमरण से आधे पलक मे अनायास ही उसका िवनाश कर
डालता है।।16।।
संकलप का कय होने से दुःखकय होने पर भी िनरितशय आननद की पािपत िकस उपाय से हो सकती है ? ऐसा
पश होने पर कहते है।
िनरनतर अपनी पूणाननदातमता के िचनतनमात से पापत हईु सवातमा मे िसथित को (सवरपापचयुित को) पापत होने
पर जो वसतु असाधय है, वह भी साधय हो जाती है।
शंकाः जो वसतु असाधय है, वह साधय हो जाती है, यह कथन तो िवपरीत है ?
समाधानः वह सवरपिसथित सवतः िसद है, कभी नष नही होती, इस आशय से उसे असाधय कहा और वह
उतपन होती है, इस आशय से उसे साधय कहा। भावो की िनवृित दो पकार की है, दूसरे दारा अपहृत होने पर अथवा
नाश से दूसरे जनम की पािपत होने पर।
हे पुत तुमहारा आतमा अनय से अपहृत होता हुआ िकसका होगा, कयोिक अिदतीय आतमा से अितिरकत कोई
वसतु पिसद नही है, अथवा नष होता हुआ वह भला कया वसतु होगा ? घट तो नष होता हुआ कपाल बनता है, पर
आतमा कया होगा ? जो होगा वह नष हुए आतमा से देखा ही नही जा सकता। आतमा से अनय कोई दषा है ही नही,
इसिलए िनःसािकक आतमनाश िसद हो ही नही सकता। इसिलए आतमरप मोक सवतः िसद है न िक असत् ही उतपन
होता है।।17।। हे मननशील पुत, संकलप से ही संकलप का और मन से ही अपने मन का उचछेद करो यानी
असंकलपन के संकलप से ही सब पदाथों के संकलप का और आतमतततव मननरप मन से ही अपने मन का उचछेद
करके तुम सवातमिनष हो जाओ, ऐसा करने मे कौन-सी किठनाई है ?।।18।। हे महामते, संकलप के शानत होने पर
यह सारा संसारदुःखजड से उपशानत हो जाता है। भाव यह है िक पूवोकत दो उपायो से संकलप के मूलतः उपशानत
होने पर दुःख भी मूलतः उपशानत हो जाता है।।19।।
संकलप के शानत होने पर भी जीव, िचत, वासना आिद से दुःख होगा ही। ऐसी आशंका करके िचत आिद का
संकलप मे ही अनतभाव कहते है।
संकलप ही मन, जीव, िचत तथा वासनासिहत बुिद है। इनका नाम से ही भेद है। हे अथरवेताओं मे शेष,
अथरतः इनमे भेद नही है।।20।। संकलप के िसवा यहा कही पर कुछ भी नही है, इिसलए हृदय से संकलप को ही तुम
दूर करो। वयथर अनय का शोक कयो करते हो ?।।21।।
यिद कोई शंका करे, संकलप ही यिद जीव और जगदूप है, तो उसका नाश होने पर नैरातमयरप शूनयतापित हो
जायेगी, कयोिक जीव से अनय आतमा नाम की कोई वसतु नही है, इस पर कहते है।
जैसे ही यह आकाश शूनय है वैसे ही यह जगत भी शूनय है, कयोिक असनमय िवकलप से उतपन हुए ये दोनो
िवसतृत है। भाव यह िक मरमिरिचका का नाश होने पर भी मरभूिम जैसे शूनय नही कही जाती वैसे ही जीव, जगदूप
दृशय का बाध होने पर भी दृगप (दृषा) आतमा शूनय नही कहा जा सकता। मरमिरिचका और जगत ये दोनो समान ही
है।।2।। यिद कोई शंका करे िक एक बार बािधत होकर भी यह जगत भावना से पुनः होगा इस पर कहते है।
यह सारा जगत् असत् ही है, कयोिक असत् संकलप से ही इसका िनमाण हुआ है, इसिलए भावना कहा पर
रहेगी ? भाव यह है िक बािधत पदाथर मे भावना का अवतरण ही नही हो सकता है।।23।।
इसिलए भावना के उचछेद को चाहने वाले पुरष को सबसे पहले जगत िमथया है, ऐसा जान पापत करना चािहए,
यह कहते है।
(जगत मे 'यह सतय है' इस िवशास के न होने पर भावना िकसमे रहेगी ?) भावना के नाश से िसिद पापत होती
है। तदननतर पापतवय कुछ वसतु अविशष नही रहती है। इसिलए अभयासवश दृढ हुए दृशय के अनादर से इस समसत
जगत को असत् समझना चािहए।।24।। पुरष दृशय के अनादर से देह मे आतमतततव को अनुसनधानवश होने वाले
सुखदुःखो से िलपत नही होता। देहसमबनधी पुत, िमत आिद भी अवासतिवक है, यह जानकर उनमे सनेह से आदर नही
होता है।।25।। आदर का अभाव होने पर हषर, कोध तथा जनम-मरण आिद नही होते है, इसिलए सुख, दुःख आिद की
भािनतयो से युकत यह सब असत् ही है।।26।। मन ही िचत् के पितिबमब से जीव होकर मनोरथ से किलपत नगररपी
भूत, भिवषय और वतरमान जगत की रचना करता हुआ, वृिद करता हुआ और िवनाश करता हुआ खूब सफुिरत होता
है।।27।।
कैसे पूवोकत रीित से पिरवतरन करता हुआ सफुिरत होता है ? उस पर कहते है।
लोक मे मन िवषयो के समबनध से तत्-तत् िवषयवासनाओं से आवृत और अिधषानरप िचत के समबनध से
सफुरण शिकतवाला होकर िसथत है, इसिलए मिलन और चंचल होकर अपनी इचछा से पूवोकत रचना आिद की वयवसथा
करता है।।28।।
तब वह इष वसतु ही कयो नही करता है, अिनष वसतु को कयो करता है ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
हृदयरपी वन का बनदर जीव अपने सवभाव के अनुरप लीला करता है। बडे आकार को पापत कर कणमात मे
छोटा बन जाता है।।29।।
यह बडे और छोटे आकार का कैसे हो जाता है ? इस पर कहते है।
संकलपरपी जलतरंगो का िनयनतण िकसी से नही िकया जा सकता। िवषयो के थोडे दशरन से उदबुद हुई वे
बढती है और िवषयो के दशरन और समरण का तयाग होने पर अपने पिरवार के साथ हास को पापत होती है।।30।।
जैसे अिगन की िचनगारी केवल एक तृण से पदीपत हो उठती है वैसे ही संकलप तृणतुलय अलपिवषय से भी पदीपत होते
है। जैसे िबजली की अिगनयो का आकार गुपत रहता है, कभी चमक कर वे कणभर मे नष हो जाता है, ठुंठ आिद मे
चोर की भािनत उनसे होती है, मेघ िसथत जल मे उनकी िसथित रहती है वैसे ही संकलपो का भी आकार गुपत रहता है,
वे पदीपत होकर कण भर मे नष हो जाते है। खमभे आिद मे चोर सब भािनत के हेतु है और जड िवषयो मे उनका िनवास
है।
इस पकार 'कीदृशसतात संकलपः' (हे तात् संकलप िकस पकार का है) इतयािद पशो का उतर कहकर "कथं
चैषिवनशयित" (िकस पकार इसका िवनाश होता है) इस अिनतम पश का उतर कहने के िलए पूवोकत संकलप का
िनवारण कोई किठन काम नही है, ऐसा कहते है।
हे पुत, जो भी वसतु असनमय (िमथया) है उसी का जान से शीघ िनवारण िकया जा सकता है, इसमे कुछ भी
सनदेह नही है। असत् वसतु कभी सद् नही हो सकती है। यिद संकलप परमाथरभूत होता, तो वह सवतः ही अिनवायर हो
जाता है।।31-33।।
िकनतु यह असनमय ही है, इसिलए इसका सुखपूवरक िनवारण िकया जा सकता है।
जगत सतय है, इस पक मे तो आतमा भी जगत के तुलय ही है, अतएव आतमा मे मिलन सवभावता की पािपत होने
पर जान से सतय का िनरास ही सब पमाणो से िवरद है, इससे अिनमोकपसंग हो जायेगा। िवरद का (जान से सतय
का िनरास का) भी यिद सवीकार िकया जाय, तो जैसे कोयले की कािलमा यिद कुछ बाकी रखकर धोई जाय तो
कािलमा ही शेष रहेगी यिद कुछ शेष न रखकर धोई जाय तो केवल शूनयता मे पयरवसान होगा, इसी दृषानत से इस पक
मे पुरषाथर का अिसततव ही िमट जायेगा, इस आशय से कहते है।
हे साधो, यिद संसाररपी मल कोयले की कािलमा के समान सतय हो, तो इसको धोने के िलए कौन दुबुरिद
पवृत होगा ? िकनतु यह चावलो मे िछलको की नाई िसथत है, इसिलए इसका पौरष पयत से िवनाश हो जाता है।
हे पुत, पापत हुआ अनािदभूत भी यह संसारमल तततवजानी के िलए तो अनायास ही उचछेदरप से िवसतृत है,
कयोिक अनािद अजान से उतपन, अितिवसतृत भी रजत, सवप आिद की भािनत का जानमात से उचछेद िदखाई देता है,
यह तातपयर है।
असंभावना, िवपरीत भावना आिद मल का तो जान भूिमका अभयासरप पुरष पयत से भी िवनाश होता है, इस
आशय से कहते है।
जैसे पुरष पयत से धान का िछलका नष हो जाता है और जैसे ताबे की कािलमा नष हो जाती है वैसे ही
पयत से पुरष के असमभावना, िवपरीत भावना आिदरप मल अवशय नष हो जाते है, इसमे सनदेह नही है, इसिलए तुम
उसके िलए पयत करो।।34-38।। असतय िवकलपो से युकत िमथया संसार को इतने समय तक जो तुमने नही जीता,
यह उपाय न जानने के कारण ही हुआ। तिनक भी उपाय के पिरजान से यह शीघ लय को पापत होता है। भला
बतलाइये तो सही, असत् वसतु कही िचरकाल तक रहती है ?।।39।। िवचार से संसार सविनषबाध को ऐसे पापत
होता है जैसे िक दीपक का भली-भाित देखने से िदचनदता की िनवृित हो जाती है।।40।। हे पुत, यह संसार न तो
तुमहारा समबनधी है और न इसके समबनधी तुम हो। तुम यह मेरा समबनधी है या मै इसका समबनधी हँू, ऐसी भािनत का
तयाग करो। असतय वसतु को सतय के तुलय देखने पर इसकी भावना उिचत नही है।।41।। संसारी सवभाववाले मेरे
ये महासमृिदयो से दैदीपयमान भोगिवलास सतय है, ऐसा वयथर भम तुमहारे अनदर न हो। तुम और वे फैले हएु िवलास
तथा और भी जनममरणािदरप जो दृशय है इन सबके रप से आतमतततव ही िवलिसत हो रहा है, दृशयरप कोई
अितिरकत सत् नही है।।42।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौवनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआ, आआआआआ
आआआआ आआ आआआआआ आआ ।आआआआआआआआआ आआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे रघुकुलरपी आकाश के चनद शीरामचनदजी, राित मे उन दोनो के वातालाप को इस
पकार सुनकर मै वहा पर वृिषजल के वेष से मेघ जैसे पवरत की चोटी पर उतरा।।1,2।। वहा पर मैने जैसे तेज से
अिगन युकत रहती है वैसे ही बडी भारी तपसया से युकत और इिनदयो पर िवजय पापत करने मे शूरवीर दाशूर मुिन को
देखा। देह से िनकल रहे तेज से उनहोने सारी पृथवी को सुवणरमय बना रकखा था, उस पदेश को वे ऐसे सनतपत कर रहे
थे जैसे िक सूयर भुवनो को पकािशत करता है।।3,4।। मुझे आया हुआ देखकर दाशूर ने आसन देकर अघयर एवं
फल, पत, पुषप आिद से मेरी पूजा की।।5।।
तदननतर उस दाशूररपी सूयर के साथ पहले से पसतुत बहचचा मैने की जो उनके पुत को समयग् बोध कराने
वाली और संसार से उदार करने मे समथर थी।।6।।
मैने उस कदमब वृक को देखा, िजसके खोखले किलयो से वयापत थे, और जो दाशूर की इचछा से िकसी को
वयाकुल न कर रहे मृगो के समूहो से लताओं के मणडल से मिणडत वन की नाई सेिवत था। वायु से उसके पललवरपी
होठ िहल रहे थे, अतएव वह हँसने-से िखला हुआ-सा था। शाखाओं की चोिटयो पर बैठे हुए, चनदमा के समान सुनदर,
भटके हुए चमरमृगो से, सफेद-सफेद मेघ खणडो से शरतकाल के आकाश के समान वह आवृत था।।7-9।। िहमकणो
की पंिकतरपी मुकतावली से वह अलंकृत था। िनमरल फूलो के समूह से उसका सवाग भरा हुआ था।।10।। अपने
परागरपी चनदन के लेप से वह जड से लेकर चोटी तक िलपत था और अपने पललवो के िवसतार से पचुर एवं लाल रंग
के धोती, दुपटा, अंगरखा, पगडी आिद से युकत था।।11।। मानो िववाह के िलए पुषपो के भार से भरे हुए, लतारपी
अंगना से संयुकत उसने नागिरक वेष से अपनी उपमा कर रखी थी।।12।। मुिनयो से बनाई हुई पणरशालाओं के
आकार के तुलय लतामणडपो से वह िवभूिषत था तथा महोतसव के समय पताकाओं से सुशोिभत नगर के समान वह
मंजिरयो से सुशोिभत था।।13।। मृगो के खुजलाने से उतपन कमप से िगरी हुई पुषपधुिनयो से वह धूसिरत था अपने
िवसतार के आिधकय से समीपवती वन को उसने नीचा िदखा िदया था, अतएव वह युद के िलए उदत हुए बडे शेष
वृषभ के समान था।।14।। फूलो से िगरी हईु पुषपधूिलयो से लाल हएु मयूरो से वह ऐसा पतीत होता था मानो पवरतो
ने सनधयाकालीन मेघ खणडो के बचचे-से अपने केश धरोहररप से उसमे रख िदये है।।15।।
अब 'अिलनेतेण भािसना' पुषपरपी हास से सुशोिभत मकरनदरपी मद से घूणरमान, केसर से पूणर अतएव पुलको
की शोभा धारण करने वाले, पुषपो से अतयनत िनिबड और वनवायु से चंचल, कुणडलरपी िनदालू नेतवाले, सतबकरपी
सतनो का पललवरपी करो से सपशर करने वाले, पुषपो की धूिल रािशरपी कु ंकुम से रकतवसतवाले, लताओं से रिचत
िवतानरपी घरो के झरोखो पर अनुराग रखने वाले, िचकने रहे पतो से भरी हुई पुषपयुकत लताओं के झूलो मे
कौतुकपूवरक झूलने मे िवलासी पुरषरप उसने पैर से लेकर मसतक तक सब अवयव फूल, फल, पकी आिद आभूषणो
के आशय बना डाले थे। वनदेवी के पक मे पललवो की तरह लाल हाथवाले, फूल की तरह िनमरल हास से भरे शोिभत
होने वाले, मद के नशे से घूणरमान, केसर युकत पुलक की कािनतवाले, फूलो से खूब भरे हुए, वन की वायु से
उललासयुकत, कमल की तरह मुकुिलत नेतवाले, सतबको की तरह सतन धारण करने वाले, पुषपो की परागरािशरप
कु ंकुम से अरणवसतवाले, लताओं से िनिमरत िवतानरपी घरो के झरोखो पर बैठने मे अनुरकत, पतो से हरी-भरी फूली
हुई लताओं के झूलो मे झूलने के िलए िवलासयुकत, कोिकल की-सी मधुर धविन से शोिभत होने वाले वनदेिवयो के समूह
ने उसके पैर से लेकर चोटी तक चारो ओर अपने -अपने िनवास बना रकखे थे। वसनत के पक मे कदमबपकोकत
िवशेषणवाले वसनत ने सदा उसके सवाग मे अपना आलय बना रखा था। चमक रहे भँवरो के कम से लता और कदमब
की मंजिरयो मे बैठने से कया ये लता के नेत है अथवा कदमब के नेत है, यो सनदेहासपद मंजिरयो के जाल से वह युकत
था अथवा वनदेिवयो के भँवरो के सदृश नेत वृनदो से कया ये वनदेिवयो के नेत है अथवा भमरयुकत मंजिरया है, यो
सनदेह मे डालनेवाली मंजिरयो से वह युकत था।।16-20।।
िहमकणो से िजनका रितशम शानत हो गया था, मद से अलसाये हुए, पुषपो की धूिल से सने हुए, परसपर खूब
आिलंिगत, पुषपगभररपी अनतःपुर मे बैठे हुए, पेमोिचत कुछ शबद कर रहे मत भँवरो के अनेक जोडो से वह आवृत था।
21-22।। उसने िदशाओं मे नीली मिकखयो की सुनदरधविनयो से िनवेिदत हुए-से वनोपानतरपी नगरी के मृग, पकी आिद
के शबदरपी घुंघुम को सुनने की इचछा से मानो कणभर के िलए अपने कान ऊँचे कर रखे थे।।23।।
पललवो मे, जो तिकये के तुलय थे, िनदावश अथवा चपलता से कण भर रखे हएु दशरनीय िसरवाले अतएव
चनदमा की िकरणो से आचछािदत, वनािदरप अवयव समूहवाली भूिम को राित के बीतने की पतीका से देख रहे, वन
सथिलयो के पुत रप एवं पतो के जालो के अनदर िछपे हुए और मुिन के पभाव से मूितरमान िवनय की तरह िसथत बनदरो
से उसके अधोभाग और शाखािद अवयव शोभायमान थे।।24,25।। घोसलो मे सास ले रहे पकी मुिन के पभाव से
िनःशंक होकर सोने के कारण नही िदखाई देते थे। पहले भँवरो से पिरवेिषत, दैववश पकने के कारण नीचे िगरे हएु
फलो मे समीप मे बैठे हुए मृगािद पािणयो की अँगरखे की भाित चारो ओर से पिरवेिषत मणडिलयो से भकण और मदरन
आिद की आशंका से भँवर आिद वहा पर संदेहयुकत और भय से मूक थे। तातकािलक जप मे रदाकमाला की तरह
लटक रहे लता गुचछो से उसने सारे वन को सुगिनधत कर िदया था। फूलो से आकाश को मानो मेघाचछन कर िदया
था।।26,27।। पललवो से सुशोिभत घोसलो से उसका सारा भाग काला हो गया था और जड की भूिम पर
धूिलकदमबो से उसकी फलरािशया िमिशत थी।।28।। बहुत कया कहूँ, उस वृक मे ऐसा एक भी पता न था, िजस पर
कोई जीव न रहता हो और िकसी के उपयोग मे न आता हो। उस वृकराज के नीचे िगरे हुए पतयेक पते पर मृग सोय
थे, पतयेक सथान पर उपयोग मे न आता हो। उस वृकराज के नीचे िगरे हुए पतयेक पते पर मृग सोय थे, पतयेक सथान
पर मृग आराम कर रहे थे और पेड मे िसथत पतयेक पललव पर पकी बैठे थे।।29,30।। इस पकार के गुणो से युकत
उस कदमब वृक को िदवयदृिष से देख रहे मेरी वह अँधेरी राित महोतसव के सदृश हो गई।।31।। तदननतर मनोहर
कथाओं से, जो िवजानरपी आलोक से अिधक रमणीय थी, दाशूर के उस पुत को पुनः परम जान का बोध करा
िदया।।32।। हम दोनो की आपस की िविवध कथाओं से वह राित इस पकार मुहूतर की भाित वयतीत हुई, जेसे िक
पेमयुकत नायक-नाियकाओं की परसपर की िविवध कथाओं से राित मुहूतर की भाित बीत जाती है।।33।। पातःकाल
अपसराओं के अंगभाग की तरह सुशोिभत, पुषपशोभा के िनिबड समूह के सदृश तारामणडल के धीरे-धीरे िवलय होने पर
कदमबवृक के आकाशभाग तक पुत के साथ मुझे िबदा करने के िलए आये हुए दाशूर मुिन को उनके िनवास सथान के
िलए लौटाकर मै आकाशगंगा गया।।34,35।। वहा अपने अभीष सथान को पाकर और आकाशतल मे जाकर और
आकाश मे पिवष होकर मै सपतिषरयो के मधय मे सवसथ की तरह िसथत हो गया।।36।। हे रघुननदन, यह दाशूर की
आखयाियका, जो सतय सी होती हुई भी जगत के पितिबमब की तरह असनमयी है, मैने आपसे कही।।37।।
हे शीरामचनदजी, जगत सवरप के िनरपण के िसलिसले मे यह जगत दाशूर की आखयाियका के तुलय है, यह
मैने बोध के िलए आपसे कहा।।38।। इसिलए जानी की दृिष से अवासतिवक, अजानी की दृिष से चाहे वह
वासतिवक ही कयो न हो, इस जगत मे अहं-मम इतयािद आसथा का तयाग करके दाशूर से उपिदष िसदानत के अनुसार
उदार दृिषवाले आप सदा आतमवान होइये।।39।। इसिलए िवकलप, उसके आशयरप मन और उसके हेतुभूत अजान
को दूर करके आप िनमरल आतमतततव का दशरन कीिजए। शीघ उस उतम पद को आप पापत होगे, िजसकी पािपत से
तीनो भुवनो मे आप पूजय हो जायेगे।।40।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पचपनवा सगर समापत
।।दाशूरोपाखयान समापत।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआआआ
आआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआ । आआआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, यह जड जगत नही है, ऐसा िनशय करके इसमे सब ओर से अहं, मम
इतयािद तादातमय संसगाधयासरपी आसथा का आप तयाग कीिजए। जो वसतु है ही नही, उसके पित िववेकी पुरषो की
आसथा ही कैसे हो सकती है ?।।1।।
दृशय सत् है अथवा सदसत् है या असत् ही है, इन तीनो पको मे उसमे अहं, मम इतयािद तादातमय संसगाधयास
उिचत नही है, ऐसा कहते है।
ये देहािद आपकी सता से िनरपेक सता को पापत होकर िसथत है, ऐसा यिद आप मानते है, तो आप देहािद सता
से िनरपेक असंग उदासीन िचदूप सवातमा मे िसथत होइये। आप िनरपेक देहािद मे अधयास दारा आतमा को कयो बाधते है
? ऐसा करना तो आपके िलए उिचत नही है।।2।। यह जगत सदसत् है, ऐसा यिद आपका िनशय है, तो भी सता
और असता के परसपर नाशक होने के कारण अिनयत सवभाव वाले दृशय मे पूवोकत अधयास कैसे हो सकता है ?।।
3।। हे शीरामचनदजी, यह जड जगत असत् है, ऐसा यिद आप मानते है, तो आपका बनधन ही नही है। केवल सवचछ
आतमतततव ही इस पकार चारो ओर िवसतृत जात हो गया, अतएव अनय मे रचना का (तादातमय संसगाधयास का)
अवकाश नही रहा।।4।।
इस जगत का कोई कता है अथवा यह अकतृर है अथवा कता और अकता साधारण यह उदासीन आतमा की
सिनिधमात से लभय है, तीनो पको मे आपकी उसके पित आसथा उिचत नही है, ऐसा कहते है।
यह जगत कता से िनिमरत नही है और अकता से िकये गये कमवाला भी नही है, यह सवयं ही कता और
अकतारपी पद को पापत हुआ पतीत होता है।।5।। यह जगत-जाल कतारिहत हो अथवा सकतृरक हो, आप इससे
अनयोनय तादातमयाधयासवश एकतव को (देहादातमभाव को) देखते हुए बुिदउपािधपिरचछेद मे िसथत न होइये।।6।।
यिद कोई शंका करे, 'यतोतवा इमािन भूतािन जायनते', 'िवशसय कता भुवनसय गोपता' इतयािद शुितयो से िवरद
यह अकतृरतवपक कैसे उठा और कैसे आपने इसका िनरपण िकया ? इस पर कहते है।
'यतददेशयमगाहमवणरमचकुः शोतं तदपािणपादं
िनतयं िवभुं सवरगतं सुसूकमं तदवययं यदभूतयोिनं पिरपशयिनत'
इतयािद शुितयो से असंग उदासीन होने के कारण जड पवरत आिद के तुलय, समपूणर इिनदयो से िवहीन आतमा
मेर सूयर की पिरिध करता है इसी तरह कता की तरह जगिनमथयातवजान के िलए उपहृत होता है यािन लकणया कता
माना जाता है। इस तरह जब कतृरतवपितपादक शुितयो का तततव जात हो गया तब जगत काकतालीय के समान
अकतृरक ही है, ऐसा मेरा िवशास है। काकतालीय नयाय से अिनवरचनीय ही वह उतपन हुआ है। उसमे अहनतािद के
अिभमान से पुनः पुनः समृित मूखर को ही होती है, अनय को नही होती।।7,8।।
उसकी अिनवरचनीयता को ही युिकत से िदखलाते है।
यह जगत न तो कभी अतयनत अभावरप शूनयसवभाव था और न कभी पधवंस पयुकत शूनयसवभाव था, कारण
िक शूनय वसतु का दशरन नही होता, िकनतु जगत सदा पवाहरप से िदखाई देता है एवं धवसत वसतु की उतपित मे िवरोध
होता है िकनतु जगत पुनः पुनः उतपन होता है, इसिलए यह जगत अतयनत अभाव एवं पधवंस अभावरप कभी नही
था।।9।।
तब तो वह आतमवत् सदा सतसवभाव अथवा किणक सतासवभाव हो ? इस पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, यह जगत न कभी िनतयसतासवभाव था और न किणक सतासवभाव था, कयोिक पथम पक
यिद मािनये, तो पतयेक कण मे पिरणाम होने से इसके किणकतव का जो अनुभव होता है, उसके साथ िवरोध होगा।
दूसरा पक भी ठीक नही कयोिक अनािद, अननत पूवर और उतर काल मे असत् जगत के वतरमानरप से अिभमत कण मे
भी असत् की सता न होने के कारण असततव का अनुमान होता है।।10।।
भले ही िनयित से होने वाली सृिष मे परमातमा की सिनिधमात से कतृत र ा हो पर यह मेरे सृिष करने योगय
वसतु है, इस अिभमान से उसमे उसका खेद युकत नही है ऐसा कहते है।
समपूणर इिनदयो से रिहत और आयासशूनय परमातमा यिद इसका कता हो, तो सदा इसकी रचना करता हुआ भी
कभी खेद को पापत नही होता। इसी से भाव और अभाव अवसथावाली यह पौढ िनयितशिकत िमथया उिदत हुई भी इस
पकार की िसथर और दीघर िदखाई देती है।।11,12।। असीम काल का मनुषय देह की परमाविधवरप सौ वषर कोई
एक अंश है। पूवर और उतर काल मे कभी न रहने के कारण अतयनत असंभािवत, केवल उतने ही काल के िलए मनुषय
देहातमतारप आशयर से युकत वह समपूणर इिनदयो से रिहत आतमा िकसिलये उसका अनुसरण करता है ? उसका ऐसा
करना सवरथा अनुिचत है।।13।।
जगत के पदाथर यिद िसथर है, तो िसथर होने के कारण ही यानी तयाग और उपादान के िलए अयोगय होने के
कारण ही उनमे आसथा करना शोभा नही देता। असंग शुद चेतन का जड के साथ समबनध भी नही हो सकता, इसले
भी उन पर आसथा करना अनुिचत है, इस आशय से कहते है।
जड और चेतन का अनयोनय समबनध कैसे हो सकता है ?।।14।। जगत के पदाथर यिद अिसथर है, तो भी
उनमे आसथा करना शोभा नही देता, कयोिक अिसथर पदाथर मे आसथा कर रहे आपको दूध के फेन के सदृश अिसथर
पदाथर का नाश होने पर यिद शोक उिचत होता तो देहािद मे आसथा करने से उनका नाश होने पर भी शोक उिचत
होता।15।। हे महाबाहो शीरामचनदजी, आतमा की जगतसवभावता यानी जनम नाश आिद सवभावता अनयोनय तादातमय
संसगाधयासरप आसथा बनधन ही है, उससे अितिरकत कुछ नही है। वह िसथर और अिसथर आतमा और जगत का
तादातमयधयासरप आसथा का बनध फेन और पवरत के तादातमाधयास की तरह शोिभत नही होता।।16।।
यिद कोई शंका करे िक सकतृरतवपक मे इसके पित अनासथा कैसे हो सकती है ? इस पर कहते है।
यदिप आतमा सवरकता है, तथािप वह अकता के समान कुछ भी नही करता। जैसे दीपक आलोक के पित
उदासीन है वैसे ही आतमा इस जगिनमाण के पित उदासीन रहता है।।17।। जैसे सूयर सब पािणयो के िदवस कृतय
का िनवाह करता हुआ भी कुछ नही करता वैसे ही परमातमा भी सबका िनवाह करता हुआ भी कुछ नही करता। जैसे
सूयर अपने पद मे िसथत होकर चलता हुआ भी नही चलता वैसे ही अपने सवरप मे िसथर आतमा चलता हुआ भी नही
चलता।।18।।
यिद कोई शंका करे िक सूयर सब पािणयो के िदन कृतय के िनवाह मे िनिमत मात है, िदन कृतय के कता लोग
तो उससे िभन िदखाई देते है, लेिकन जगत के िनमाण मे दूसरे कता नही है, यो दृषानत और दाषािनतक मे िवषमता है,
ऐसी आशंका करके कहते है।
जैसे अरणा नदी का तीर, जो सवभावतः िशलाओं से िवषम (ऊँचा-नीचा) है और िजसका जलपवाह भी िनम
गितशील है, पवाह मे िवषमता पैदा नही करता, िकनतु उन दोनो की सिनिध मे उतपन हुआ आवतर आकिसमक ही है, वैसे
ही िचत् और जड की सिनिध मे यह जगत भी अकसमात ही उतपन हुआ सा िदखाई देता है। जगिनमाण के िवषय मे
कतृरता का भार िकसी के िसर मढा नही जा सकता, यह भाव है।।19।।
इस पकार िवचार करने पर तो जगत मे आसथा सुतरा उिचत नही है, ऐसा कहते है।
हे रामचनदजी, ऐसा यिद आपने कुशलतापूवरक िनशय कर िलया और पमाण से शुद िचत से िवचार कर िलया,
तो हे साधो, आप पदाथों के पित भावना करने के योगय नही है। भला बतलाइये तो सही अलातचक (जलती हुई लकडी
को गोल घुमाने से िदखने वाला तेजोमय चक) मे, सवप मे और भािनत मे भावना कैसे समभव है ?।।20,21।। जैसे
अकसमात कही से आया हुआ अपिरिचत पाणी मैती का पात नही होता, वैसे ही भम से उतपन हुआ वह जगजजाल भी
आसथा का भाजन नही है।।22।।
असतय होने से भी उसमे आसथा उिचत नही है, ऐसा कहते है।
जैसे शीत से पीिडत हुए आपको उषणता की भािनत से पतीत चनदमा मे आसथा नही होती, जैसे ताप से पीिडत
आपको भािनतवश शीतल पतीत हो रहे सूयर मे आसथा नही होती और जैसे पयास से आकुल आपको मृग-जल मे आसथा
नही होती, वैसे ही जगत-िसथित मे भी आपको आसथा नही करनी चािहए।।23।। जैसे आप मनोरथ से किलपत पुरष
को, सवप मे देखे गये मनुषय को और िदचनदतवभम को देखते है वैसे ही इन बाह दृशय पदाथों को भी देिखये।।24।।
सती आिद वसतुओं से सौनदयर की िचनतनमयी आसथा का अपने अनदर अचछी तरह पिरतयाग कर, अकतृरतवपद और
उसकी इचछा को िनगलकर जो आप पिरिशष है वही आप है, हे अनघ, इस पकार के आप इस जगत मे लीला से िवहार
कीिजये। वयवहार मे उदासीनता से कतारप, सब पदाथों के अनदर िसथत और सबसे अतीत आतमरप आपके
सिनिधमात से इचछारिहत पभा पकािशत होती है।।25-27।। जैसे मेघो के सिनिधमात से कुटज के फूल अपने आप
उतपन होते है वैसे ही आतमा की केवल सिनिध से तीनो जगत सवयं उतपन होते है।।28।। जैसे सब पकार की
इचछा से रिहत सूयर के आकाश मे रहने पर सब लौिकक वयवहार होते है, वैसे ही परमातमा की सता से सब वयवहार
होते है।।29।।
जैसे रत की इचछा नही रहती है िक मुझसे पकाश हो, िकनतु उसके रहने पर जैसे पकाश होता है वैसे ही
इचछाशूनय परमातमा के एकमात सतारप से िसथत होने पर यह जगतो का समूह होता है।।30।। इसिलए आतमा मे
कतृरतव और अकतृरतव भी िसथत है, कयोिक इचछा रिहत होने के कारण वह अकता है सिनिधमात से कता है।।31।।
सनमयपुरष समपूणर इिनदयो से अतीत होने के कारण कता और भोकता नही है और इिनदयो के अनतगरत होने के कारण
वही कता और भोकता है।।32।। हे पापरिहत शीरामचनदजी, आतमा मे कतृरतव और अकतृरतव दोनो ही िवदमान है,
िजससे आप अपना कलयाण देख,े उसका अवलमबन करके िसथर होइये।।33।। मै सबमे िसथत और अकता हूँ, इस
दृढ भावना दारा पवाह से पापत हुए कायों को करता हुआ भी पुरष पुणय-पाप से िलपत नही होता।।34।। िचत की
अपवृित से जीव वैरागय को पापत होता है। िजस पुरष को 'मै कुछ भी नही करता हूँ' – ऐसा िनशय है, वह भोग समूहो
की कामनावाला होकर कया कायर करेगा अथवा कया तयाग करेगा ? इसिलए िनतय 'मै अकता हँू', - इस पकार की दीपत
भावना से अमृतनामक वह परम समता ही अविशष रह जाती है। यिद उस महाकतृरता से 'मै ही सब कुछ करता हूँ' –
ऐसा यिद मानते हो, तो उस िसथित को भी वृद लोग उतम िसथित कहते है।
पथम पक मे राग-देष आिद की पसिकत का अभाव िदखलाते है।
'इस समसत जगत् भम को मै नही करता हँ'ू , - ऐसा यिद मानते हो, तो उस कलप मे अपने से अनय का
अतयनत अभाव होने के कारण राग-देष का पसंग कहा है ?
दूसरे पक मे भी राग-देष आिद की पसिकत का अभाव िदखलाते है।
अनय ने जो शरीर को जलाया और अनय ने जो पालन िकया, वह भी हमारे दारा िकया गया है, अतः उसमे खेद
और हषर का कौन पसंग है ? मेरे सुख और दुःख का िवसतार करने वाले जगजजाल के नाश और अभयुदय मे मै ही कता
हूँ, ऐसा हृदय मे िनशय करके िसथत हुए पुरष के सुख और दुःख का कौन पसंग है ? इस आतमकतृरता दारा दुःख और
हषर के िवलास के अपने -आप िवलीन होने पर एकमात समता ही शेष रहती है। सब भूतो मे समता है, वही सतय परम
िसथित है।।35-42।। उकत समता मे िसथत हुआ िचत िफर तिनक भी जनम भागी नही होता। अथवा हे रामचनदजी,
आतमा की सवरकतृरता, अकतृरता इन सबका तयाग करके मन का िवलयकर जो आप अविशष रहे, वही आपका
यथाथरसवरप है। आप िसथर होइये।।43।।
इस दृिष की अपेका पूवोकत दृिषया सवलप मिहमावाली है, ऐसा दशाते है।
यह (इस देह मे पिसद) मै हूँ, इसे मै करता हूँ और इसे नही करता' – इस पकार के भावो का अनुसनधान
करने वाली दृिष सनतोष के िलए नही होती।
यिद वे सनतोष के िलए नही है, तो कयो आपने उनका उपनयास िकया ? ऐसी यिद शंका हो, तो समपूणर अथों के
मूल देह मे अहंभाव की िनवृित के उपाय रप से उनका उपनयास िकया है, इस आशय से देह मे अहंभाव की
अनथररपता और सवरथा हेयता को दशाते है।
पूवोकत दृिष कालसूत नरक की राह है, वही महावीिच नरकरपी जाल है और अिसपतवनो की (एक पकार के
नरको की) परमपरा है, जो िक देह मे 'अहं' ऐसी पतीित है। उसका पयतपूवरक तयाग करना चािहए। यिद सवरनाश भी
उपिसथत होता हो तो भी भवयपुरषो को कुते के मास को ली हुई चणडािलन के समान उसका सपशर नही करना चािहए,
िवशुदातमदृिष के िलए पटलरप नेत दोष की परमपरा के समान आवरण और िवकेप मे हेतुभूत उस दृिष के दूर से
तयाग कर देने पर बादलरिहत चादनी के समान परम िनमरल आतमदृिष उिदत होती है, हे शीरामचनदजी, उिदत हुई िजस
दृिष से भवसागर पार िकया जाता है।।44-48।।
अब उकत तीनो दृिषयो के इकटा कर उनमे अपने अिधकार के अनुसार ऐिचछक िसथित की उपपित करते
हुए सगर का उपसंहार करते है।
'मै कता नही हूँ, कतृरता का पयोजक देहािद भी नही हूँ', - ऐसा अपने हृदय मे सपष जानकर अथवा 'सबका
कता मै हूँ, सबका अिधषानभूत बहाणड भी मै ही हूँ' – यो िनशय कर अथवा मै यह पिसद दृशयरप कुछ भी नही हूँ,
िकनतु लोकपिसद, पिरिचछन, जड, दुःखसवभाव संसार से िवलकण पूणाननद िचदातमा मै हूँ, ऐसा िनणरय करके आप
सवोतम अपने सवरप मे िसथत होइये, िजसमे िक बहवेता साधु पुरष िसथत हुए है।।49।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छपपनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ, आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ
आआ आआआआआआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ।
आगे कहे जाने वाले पश की इचछावाले शीरामचनदजी शीविसषजी दारा कही गई पूवोकत बातो के अनुवाद और
पशंसा दारा उनका मुझे बोध हो गया यो दशाते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, सदुिकतयो से सुनदर जो आपने पहले कहा, यह वासतव मे ठीक है। भूतो का
िनमाण करने वाले परमातमा अकता होते हुए भी कता है और अभोकता होते हुए भी भोकता है। भूतो का िनमाण करने
वाले परमातमा अकता होते हुए भी कता है और अभोकता होते हुए भी भोकता है। यदिप आपने परमातमा की सवरभोकतृता
और अभोकतृता नही कही, तथािप अकतृत र ा और सवरकतृरता के समान मैने उसे भी जान िलया।।1।। सबके िनयनता,
सवरवयापक, िचनमात, िनमरलपद, जैसे पृथवी मे जरायुज, उिदज आिद चार पकार के पाणी शरीर रहते है वैसे ही सब भूत
िजसमे िनवास करते है और सवयं जो सब भूतो का अनतयामी है, हे पभो, ऐसा बह इस समय मेरे हृदयंगम हो गया है।
जैसे मेघो की मुसलधार वृिष से पवरत गीषम के सनताप से रिहत हो जाता है वैसे ही आपकी उिकतयो से मै सनतापरिहत
हो गया हूँ।।2,3।।
परमातमा के भोकतृतव और अभोकतृतव के अिवरोध मे भी उपपित कतृरतव और अकतृरतव के अिवरोध मे कही
गई उपपित के तुलय ही है ऐसा मैने जान िलया, यह दशाते है।
परमातमा उदासीन और इचछारिहत होने के कारण न भोगकता है और न सृिषकता है। समपूणर लोको का
पकाशक होने के कारण पकाश सवरप वह परमातमा भोगकता और सृिषकता भी है। िकनतु हे बहन्, मेरे हृदय मे यह
िनमिलिखत महान सनदेह है, जैसे चनदमा अपनी िकरणो से अनधकार को तहस-नहस कर देते है वैसे ही आप अपनी
वाणी से इस सनदेह को िछन-िभन कर दीिजये।।4,5।।
पश मे उपयोगी होने के कारण पूवरसगर मे कही गई जगत की सता और असतारप दृिष के पक का तथा
वयिष की अहनता के पिरतयाग से समिष मे अहंभाव के पक का अनुवाद करके शीरामचनदजी पूछते है-
आपके कथनानुसार यह जगत सत् है या असत् है, यह पिसद समिष ही मै हँू या एकमात वयिष देह मै नही
हूँ, यह पपंच समिष दृिष से एक है या वयिष दृिष से अनेक, इतयािद अिनयत बहुत कलपनाओं से भरा हुआ िवरोध
अिदतीय, सवपकाश होने के कारण ही मोहानधकारशूनय, िनमरल आतमा मे सूयर मे िहम के समान कैसे इस समय िवदमान
है ? यिद किहए, पहले मायाशबल बहा के अनदर यह िवदमान था, वही इस समय अिभवयकत हुआ है, तो उस पर पश
होता है िक वह पहले भी कैसे था, कयोिक उस समय भी उकतिवरोध समान ही है।।6,7।।
शीरामचनदजी के वचनो से ही उनको सवपकाश पतयगातमा का दशरन हो गया है, उनको सब शरीरो मे एकता
का जान और जगत की अिनवरचनीयता का पिरजान हो गया है, िकनतु वासनाओं के कय न होने के कारण सब संशयो
की कारण अिवदा का उचछेद करने वाला पतयगातमबहैकयरप अखणडाकार अनुभव नही हुआ, ऐसा िनशयकर पूवोकत
अखणडाकारनुभव के उपायरप से 'वासनोचछेद के उपायो को कहने की इचछा से शीविसषजी पहले आपके पशो का
उतर कहने के िलए यह अवसर नही है, ऐसा कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, िसदानतकाल मे (िनवाण पकरण के उतराधर मे पाषाणाखयाियका आिद
कहने के अवसर पर) इस पश का िसथर उतर मै आपसे कहूँगा। िजससे आप इसे तततवतः जान जायेगे।।8।। हे
शीरामचनदजी, मोकोपाय के उपदेश के िसदानत को यानी बहिनषारप अखणडाकार बोध को पापत िकये िबना आप इन
पशो के उतर सुनने के िलए पयापत योगय नही होगे।।9।।
इस समय यिद मै आपसे कहूँगा भी, तो वह आपके िचत मे आरढ नही होगा, इस आशय से कहते है।
हे शीरामचनदजी, जैसे युवा पुरष पेयसी के गीतो का पात होता है वैसे ही समपूणर कमर फलो की अविधरप
आतमजान वाला पुरष इन पशो के उतर वाकयो का भाजन होता है।।10।। जैसे बालको के िवषय मे पेम की कथाएँ
वयथर होती है, वैसे ही अलप जान वाले पुरषो के िवषय मे मोकपद कथा िनरथरक है।।11।।
इस पकार के पश भी तभी शोभा देते है, इस आशय से कहते है।
जैसे नारंगी, सुपारी, जमबीर आिद वृको के फल शरतकाल मे ही शोभा देते है, वसनत मे शोभा नही देते है वैसे ही
िकसी समय मे ही पुरष की कुछ बाते शोिभत होती है यानी आपका यह पश अभी शोिभत नही होता है।।12।। जैसे
िनमरल वसत मे रंग लगता है वैसे ही आतमजानी, जान वृद पुरष मे उदार िवजान कथाओं से युकत उपदेश वािणया
साथरक होती है।।13।। हे शीरामचनदजी, इस पश का उतर मैने भागरवोपाखयान मे संकेप से कह िदया है, लेिकन
आपको अनिधकारी देख कर उसे िवसतार से पूरा नही कहा। इसीिलए आपको सपषरप से वह पिरजात नही हुआ।।
14।।
अखणडाथर का बोध होने पर मेरे उपदेश के िबना भी इस पश का उतर आप सवयं जान जायेगे, ऐसा कहते है।
यिद आप-अपने से उस आतमा को जान लेते है, तो इस पश के उतर को अपने आप भलीभाित जान जायेगे,
इसमे कुछ भी सनदेह नही है।।15।। हे सजजन िशरोमणे शीरामचनदजी, िसदानत काल मे जबिक आपको आतमजान
हो जायेगा, तब मै पश और उतर का कम िवसतार से ही कहूँगा।।16।।
मेरा उपदेश तो दार पदशरनमात है, आपको एकागता से सवयं आतमदशरन करना होगा, ऐसा कहते है।
संसारी आतमा को भी आतमा जानता है, कयोिक आतमा ने ही मािलनयवश आतमा को संसारी बनाया है। वह
आतमा ही आतमजान से िनमरल होकर वासतिवक पूणर आतमा को पापत होता है यानी तदूप हो जाता है।।17।। हे
शीरामचनदजी, आतमा के कतृरतव और अकतृरतव का िवचार भी इसी अखणड बहजान के उदेशय से मैने कहा है। मेरे
कहने पर भी उकत अकतृरतव का िवचार भी इसी अखणड बहजान के उदेशय से मैने कहा है। मेरे कहने पर भी उकत
अखणडातमता का आपको पिरजान नही हुआ, अतएव आपकी वासना कीण नही हुई है, ऐसी मै संभावना करता हँू।।
18।।
अब बनध और मोक का रहसय िदखलाते हुए वासनाओं के उचछेद मे उपाय कम को दशाते है।
वासनाओं से बद पुरष बद है और वासनाओं का कय मोक है। आप वासनाओं का तयाग करके मोकािथरता का
भी तयाग कीिजये।।19।।
वासना के कय मे वैरागय की दृढता ही पहली भूिमका है, ऐसा कहते है।
पहले िवषयो दारा िचत मे सथािपत, ितयरग् आिद योिन को देने वाली तामसी वासनाओं का तयाग करके मैती,
करणा, मुिदता उपेकारप भावना नामवाली िनमरल वासनाओं को सवीकार कीिजये।।20।। मैती आिद भावना नामवाली
िनमरल वासनाओं का भी, िचनमात से अितिरकत मैतीआिद नही है, इस जान से भीतर तयाग कर बाहर उनसे वयवहार
करते हुए भी आप, िजनकी िक अनतःकरण मे सब वासना शानत हो गई, सपजात समािध के अभयास से िचनमात ही मै
हँू, इस पकार के दृढ वासनावाले होइये।।21।। मन, बुिद आिद से युकत उकत मैतयािद वासना का भी पिरतयाग कर
आतमा होने के कारण ही तयाग करने के अयोगय होने से अवशय शेष रहने वाले पतयक् तततव मे िसथर िवशािनतवाले यानी
असंपजात समािध मे िवशानत हुए आप िजस कलना नामक दैत कलपना के मूलसतमभरप अहंकार से पूवोकत सबका
तयाग यानी सवरत 'अहं मम' इतयािद अिभमान का तयाग कर देते है, उसका भी तयाग कीिजये। उकत तयाग अहंकार मे
भी शुद िचनमात रप अहंभावरिहत पूणातमा के दशरन दारा मूल अजान का समूल उचछेद होने से सवयं ही हो जाता है,
इसिलए उसमे अनय कारण की अपेका नही है, इसिलए अनवसथादोष का अवसर नही हो सकता।।22।। हे सुबुदे,
पाणसपनदनपूवरक कलना, काल, पकाश, ितिमर आिद का एवं वासना और िवषयो का, उनके दारभूत इिनदयो और समूल
अहंकार का तयाग करके आकाश के समान िनमरल (िवकेपरिहत) एकमात बहातम अखणडाकार बुिदवाले होकर जो
िचनमय आप हो रहे है, सवरपूिजत वही परमाथररप आप होइये।।23,24।।
इस पकार की अवसथा को पापत हुए पुरष की पूजयता ही पशंसा दारा िदखलाते है।
जो महामित पुरष पूवोकत सबका हृदय से पिरतयाग कर सब िवकेपो के कारणभूतो अिभमान से रिहत िसथत
होता है, वह मुकत है, परमेशर है।।25।।
इस पकार अभयास के दृढ होने से सातवी भूिमका मे पहुँचे हुए िसद की कृतकृतयता ही हो जाती है, उसका
कोई कतरवय अविशष नही रहता, ऐसा कहते है।
िजसने पूवोकत अिभमान अधयास का हृदय से पिरतयाग कर िदया है, ऐसा उतम आशयवाला पुरष समािध और
कमर करे, चाहे न करे, वह मुकत ही है।।26।। िजसका मन वासनारिहत हो गया हो, उसे न तो नैषकमयर से पयोजन है,
न कमों से और न समािध और जप से ही उसे पयोजन है।।27।।
कुछ समय तक िकये गये शवण, मनन और धयान से वासनाकय होने के पहले ही मै कृतकृतय हो गया हूँ, ऐसी
भािनत से पयत से िवमुख नही होना चािहए, ऐसा कहते है।
मैने शासत का खूब िवचार िकया और बडे भारी पिरशम से सब िवदानो की सममित से यही मोक शासत का
रहसय है, यो िनणरय भी िकया और बडे भारी पिरशम से सब िवदानो की सममित से यही मोक शासत का रहसय है, यो
िनणरय भी िकया, िकनतु शुितयो मे बालय और पािणडतय शबदो से कहे जाने वाले शवण और मनन की दृढता से उतपन
पूवोकत िनिवरकलप असंपजात समािध के पिरपाक पयरनत मुिनभाव के िसवा परम पद यानी पिरिनिषत तततवजान नही है,
अतः इससे िवरत होना उिचत नही है।।28।।
अतएव तततवजानी िवरल और दुलरभ है, ऐसा कहते है।
दसो िदशाओं मे घूम-घूम कर सब दृशय मैने देखा, िकनतु तततवजानी लोग िवरल ही देखे।।29।।
सब लोग बिहमुरख है। बाहर इष की पािपत और अिनष के पिरहार के उपाय मे ही लोगो की लगन देखी,
आतमा के पित लगन नही देखी, ऐसा कहते है।
यहा पर जो कुछ िदखाई देता है, वह इष और अिनष से अितिरकत नही है। उससे अितिरकत जो अिवषय
आतमतततव है उसके िलए कोई भी पुरष पयत नही करता, िकनतु इष और अिनष के िलए ही लोग पयत करते है।।
30।।
अनातमा मे पयत एकमात अनातम देह के िलए ही है, अतएव वह पुनः पुनः देह पािपत रप अनथर का हेतु है, इस
आशय से कहते है।
मनुषयो के जो कोई लौिकक गृह, महल आिद के िनमाण कायर है और जो वैिदक यजािद िकयाएँ है, वे सब
एकमात देह के िलए है, आतमा के िलए उन का कोई भी उपयोग नही है।।31।। पाताल मे, बहलोक मे, सवगर मे,
पृथवी पर और अनतिरक मे िजनहे िचदेकरस का पिरजान हो गया ऐसे िवरल ही पुरष िदखाई देते है।।32।। यह हेय
है, यह उपादेय है, इस पकार अजान से उतपन हुए िनशय िजस जानी के नष हो गये, ऐसा पुरष अित दुलरभ है।।
33।।
यिद कोई शंका करे िक संसार मे उतम राजयािद पद पापत करने पर भी शािनत िदखाई देती है िफर आतमदशरन
का कया पयोजन है ? इस पर नही, ऐसा कहते है।
पाणी चाहे भुवन मे राजय करे, चाहे इनदपद पािपत दारा मेघ मे पवेश करे अथवा वरणपद पािपत दारा जल मे
पवेश करे, पर आतमलाभ के िबना उसे शािनत नही िमल सकती।।34।।
तब िवशािनत चाहने वाले पुरष को िकनकी उपासना करना चािहए ? ऐसा पश होने पर उनके उपासनीय पुरषो
को कहते है।
जो महाजानी सजजन इिनदयरपी शतुओं का दमन करने मे शूर-वीर है, जनमरप जवर के नाश के िलए उनही
महामितयो की उपासना करनी चािहए।।35।।
उनकी उपासना से तततवजान होने पर भी िफर भोगो मे अनुराग का िनवारण कौन करेगा ? इस शंका पर कहते
है।
सवरत पाच भूत है, छठा कुछ भी नही है, इसिलए कौन धीरबुिद पुरष पाताल मे, पृथवी मे और सवगर मे रित को
पापत होगा। भाव यह है 'अपागादगनेरिगनतवं तीिण रपाणीतयेव सतयम्' इस शुित मे कही गयी रीित से सब भौितक
पदाथों के भूतमाततारप िमथयातव का बोध होने पर उनमे अनुराग का उदय ही नही होता।।36।।
तब भूत भी तो बहुत है, बचे हुए भूतो के भी अननत होने से उनसे उदार पाना संभव नही है। ऐसा यिद कोई
कहे, तो ठीक है, अजािनयो की दृिष मे ऐसा ही है, तततवजािनयो की दृिष मे तो 'अनेन सोमय शुंगेनापो मूल मिनवचछ'
इस शुित मे दिशरत युिकत से सबके अिधषानभूत बह के दशरन से भूतो मे भी ये सतय है, ये िमथया है, ऐसे िनशय से
भूतो से भी िनसतार पाना सुलभ ही है, इस आशय से कहते है।
युिकत से वयवहार कर रहे जानी का संसार गौ के खुर के समान अनायास तरने योगय है, िकनतु िजसने युिकत
का दूर से पिरतयाग कर िदया है, ऐसे अजानी का संसार पलय के महासागर के समान दुसतर है।।37।।
अपिरिचछन आतमाननद की दृिष मे बहाणड कदमब गोलक के तुलय है। इस सारे बहाणड के पापत होने पर भी
वह जानी पुरष को कया देता है और कया भोग करता है !।।38।।
राजयािद सुख युद आिद अनथों दारा लाखो योदाओं के कय का कारण होता है, इसिलए दयालू तततवजानी दारा
वह िधकार के योगय ही है, सतकार के योगय नही है ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, िजसके िलए अजानी लोगो की महायुदािद िकयाएँ होती है लाखो योदाओं के िवनाश हेतु उस
राजय सुख को मै िधकार के योगय समझता हूँ।।39।।
यिद कोई शंका करे िक महाकलप तक िचरकाल भोगने योगय बहा के पद मे (िहरणयगभरपद मे) उसकी रित
होगी ? इस पर नही, ऐसा कहते है।
िदपराधर अविधवाले महाकलपानतरप काल से नष होने के कारण अतयनत कोमल उस पद मे भी सब पािणयो
की पलय का िनिमत होने के कारण मानस वयथा का िनिमतभूत नाश होता है, अतः वह पद मूढो का ही सपृहणीय है,
तततवजािनयो का सपृहणीय नही है।।40।। तततवजानी आतमा की दृिष से तो तीनो जगत सृिष आिद से तिनक भी
उतपन नही हुए, कयोिक 'िनरोधोनचोतपितः' इतयािद शुित है। उन वनधयापुत के समान तुचछ तीनो जगतो के पापत होने
पर आतमा कया बलवान होगा, िजससे िक उनमे उसका अनुराग होगा ?।।41।।
असार अंश के अिधक होने से और उपयुकत अंश के नयून होने से भी सावरभौम आिद पद सपृहणीय नही है, इस
आशय से कहते है।
यह पृथवी इधर सैकडो पवरतो से वयापत है एवं इस तरफ अननत जल रािशयो से वयापत है। इस पृथवी का
शरीर ही िकतना बडा है, िजससे िक वह सबके तयाग से िरकत हुए उस जानी के िवशाल आशय को पूणर कर सके।
भाव यह है िक भूिम सवाश उपयोग मे नही आ सकती, इसिलए भी सावरभौिमपद सपृहणीय नही हो सकता।।42।।
पाताल और सवगर सिहत इस जग मे वह कायर नही है, जो िक आतमजानी पुरष को अवशय कतरवय हो, कयोिक सब
कामनाओं की पािपत से वह कृतकृतय है।।43।।
जैसे मृग तृषणा सूयर के पकाश से उतपन होती है, अतएव सूयर की अपेका करती है, िकनतु सूयर मृगतृषणा का
िनिमत होता हुआ भी उसकी अपेका नही करता है वैसे ही तततवजानी के िचतपकाश से उतपन हुआ जगत ही तततवजानी
की अपेका करे, तततवजानी तो पूणाननद मे रमता है, अतएव कटाक से भी जगत को नही देखता, जगत की अपेका
करना तो उसके िलए बहुत दूर है, ऐसा कहते है।
एकता पापत हएु , आकाश के समान सब जगह वयापत, सवसथ, आतमजानी, आतमिनष, मनरिहत पुरष का
ितलोकीरपी िवशाल मृगतृषणानदी का तट िनवृत हुए सारे संसार से सुनदर होकर आकाश के मधय भाग के तुलय ही
मूतरसवरपवाला नही है, यदिप शरीर आिद असत् है, िफर भी बािधत पदाथों की अनुवृित से पारबध कमों का नाश होने
तक उनका आभास होता ही है, अतएव उकत ितलोकी रपी मृगतृषणा नदी का तट शरीर समूहरपी कुहरे से धूसर रंग
का है।।44,45।।
जगत को तततवजानी के आतमपकाश की अपेका है, इस बात को िवसतार से सपष करते है।
सभी कुल पवरत िवशाल बहरपी िनमरल सागर के फेन है, नदी, समुद आिद जलशोभाएँ िचतसूयर की महापभा मे
मृगतृषणा है, सारी की सारी सृिषया आतम तततवरपी महासागर की तरंगे है और शासतदृिषया यानी शौत-समातर धमर
और बह तततवपितभास (बहजान) बहरपी मेघ की वृिष है। यदिप लौिकक चाकुष आिद दृिष का पकाश रप होने के
कारण बहरपी मेघ की वृिष के सदृश ही है, तथािप सुनदर उपजाऊ खेत मे वृिष के समान शासतदृिषयो का ही
पुरषाथर मे उपयोग है, अतएव उनही का उपादान िकया है।।46,47।।
अिधषानरप से आतमपकाश की अपेका कह कर जड पदाथों के पकाश के िलए भी उसकी अपेका है, ऐसा
कहते है।
जब घडे, काठ आिद के तुलय चनदमा, अिगन और सूयर िचदूप कािनत के पकाशहीन है, तो मल कण के तुलय
पृथवी के धातु उसकी अपेका करते है, इसमे कहना ही कया है ? भाव यह है िक जब िनमरल आिदतय आिद भी उसके
पकाश की अपेका करते है तब अतयनत मिलन होने के कारण मल कण के सदृश पािथरव आिद धातु अपने पकाश के
िलए उसकी अपेका करते है, इसमे कहना ही कया है ?।।48।।
'एतसयैवाननदसवानयािन भूतािन मातामुपजीविनत' इस शुित से सब पािणयो के जीवन के हेतु िवषयाननद के िलए
भी उसकी अपेका है, ऐसा कहते है।
देहरप से जो पिरिचछन होता है या अनुभूत होता है या नष होता है, ऐसे आतमावाले पुरष नर और असुर, जो
संसाररपी वन मे िवहार करने वाले तथा काम भोगरप तृणो के गास मे मृग के समान है, आननदपूवरक िवहार करते
है।।49।।
बहा दारा जगत के नर, सुर और असुर आिद के शरीर अनािद संसाररपी महावन मे जजरर हुए जीवो के पयाय
कम से बनधन के िलए रकत और मास के िपंजडे बनाये गये है। हडडी के टुकडे ही उनके अगरल (दार अवरोधक
काष) है और िसर ही उनके ऊपर के ढकने है और नसे ही लोह की िसकिडया है।।50।। इस पकार संसाररपी
देह के िववेक से शूनय, वनपंिकतयो की मृगरपी मास की पुतिलया, िजनके अनदर जीव पिवष है, अपनी अपनी
मूढबुिदयो के भोगरप िकसलयो (कोपलो) के गास से िवनोद करने के िलए ततभोगभूिमरप नगर संचार मे बहा दारा
िनयोिजत है।।51।।
तततवजानी की देह भी देखी जाती है, अतएव वह भी कया वैसा ही है, इस पर नही ऐसा कहते है।
सवरतयागी पूवोकत महामितवाला तततवज पुरष तिनक भी इस पकार का नही है। जैसे पवरत मनदवायु से
िवचिलत नही होता वैसे ही भोगो के समूह से तततवजानी िवचिलत नही होता।।52।। हे शीरामचनदजी, िजसमे चनद
और सूयर के संचार का पदेश आकाश िवपुल होता हुआ भी पृथवी के िछद के समान अलपरप से भी िसथत नही है, उस
महान पद मे जानी िसथत होता है। भाव यह है िक उस पकार के महापद मे िसथत हुए जानी की आकाश के मधय के
देश से पिरिचछन पदो मे कैसे लगन हो सकती है ?।।53।। िजस तततववेता के िचतपकाश से बहा आिद लोकपाल
पकाशवाले होकर एवं चकु दारा बाहर और बुिद दारा भीतर समयग् वयवहार के उिचत बोधवाले होकर अजान समुद मे
मगन हो अपने आतमा को अशरीर समझते हुए भी मूढ होकर अज जन की तरह देहातमभाव से शरीरो की रका करते
है।।54।। तततवज पुरष को, वैरागय के दृढ होने के कारण भोगवासना का कय होने से िजसका अनतःकरण शुद है,
लोकपालो के भोग के योगय भी तैलोकय राजयािद जगत के भाव पुनः पुनः अभयसत होने पर भी ऐसे रंिजत नही करते
जैसे िक आकाश को मेघ रंिजत नही करते।।55।। जैसे भगवती पावरती जी के नृतय की इचछा करने वाले भगवान
शंकर को नाचते हुए बनदर अनुरिं जत नही करते वैसे ही कोई भी जगत के पदाथर तततवज पुरष को अनुरिं जत नही
करते।।56।। जैसे घडे से बाहर रहने की अवसथा मे रत के भीतर िदखाई दे रही सतमभ, दीवार आिद के पितिबमब
की शोभा घडे मे िसथत रत को अनुरिं जत नही करती वैसे ही ये कोई भी पदाथर तततवज पुरष को अनुरिं जत नही
करते।।57।।
पूवोकत अथर का ही संकेप से उपसंहार करते है।
जैसे राजहंस बगुले के खाने योगय गनदे शेवाल के टुकडो मे रित को पापत नही होते वैसे ही तततवजानी भी
बहलोकपयरनत समसत जगत के वैभव का अजानी की दृिष से अित दुभेद होने के कारण वज के तुलय, िववेकी की
दृिष से जल िवलासो मे उनत तरंग दारा अपने अगभाग मे िकये गये चनद आिद के पितिबमब के तुलय अिनवचरनीय और
अिसथर एवं तततवजानी की दृिष से अित तुचछ जानकर अज के समान उनके अभीष सुखो मे अितलालसा पूणर
अनुराग को पापत नही होते।।58।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सतावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआआ आआ
आआआआ आआ
आआआआआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः इसी पूवोकत वसत के िवषय मे कही गई पूवरकाल की जो गाथा बृहसपित के पुत कच ने
गाई थी, हे शीरामचनदजी, उसे आप सुिनये।।1।। मेर के िकसी वन मे सुरगुर के पुत कच रहते थे। कभी शुद
बहिवदा के मनन-िनिदधयासन के पिरपाक से वे आतमा मे िवशािनत को पापत हुए।।2।। उनकी आतमजान के अमृत
से पिरपूणर वह मित पंचभूतो से िनिमरत, अनादर के योगय इस िमथया दृशय पपंच मे नही रमी।।3।। दृशय मे न रमने के
कारण सदूप ऐकातमय से अितिरकत वसतु को न देखते हुए, एकमात आतमवसतु का पिरशेष होने से उदास हुए – से
एकाकी उनहोने हषर से गदगद हुई वाणी से यह कहाः मै कया करँ, कहा जाऊँ, िकसका गहण करँ और िकसका तयाग
करँ ? जैसे महापलय के जल से संसार भरा होता है वैसे ही यह सारा िवश आतमा से भरा हुआ है।।4,5।।
यिद कोई कहे, जीवातमा के जो सुख साधन है, उनहे करो, वे सुख साधन जहा पापत हो वहा जाओ, सुख और
सुख के साधनो का गहण करो एवं दुःख के साधन और दुःख का तयाग करो, तो इस पर कहते है।
दुःख, दुःख का उपभोग करने वाले जीव और जीव की अिभलाषा के योगय सुख इतयािद सारा जगत यिद मूल
का अनवेषण िकया जाये, तो आकाशमात ही है, िफर भी िदशाओं से और मनोरथो से सुमहान वह आतममय है यानी आतमा
ही है, ऐसा मुझे जात हो गया, अतः उसी आननदैकरस आतमा से मेरा सब दुःख नष हो गया है, इसिलए िकसी वसतु के
तयाग और िकसी वसतु के गहण की मुझे आवशयकता नही है।।6।। बाह (आिधभौितक) और आभयनतर
(आधयाितमक) भावो से युकत इस देह मे ऊपर, नीचे और पूवर आिद िदशाओं मे इधर-उधर आतमा ही है। अनातममय कही
पर भी नही है। इस िवषय मे शुित भी हैः 'आतमैवाऽधासतादातमोपिरषदातमा पशादातमा पुरसतादातमा दिकणत आतमोतरत
आतमैवेद ं सवरम्'।।7।। सभी जगह अिधषानरप से आतमा िसथत है। िववतररप किलपत िवकार के दशरन से सब
आतममय ही है। तततवदशरन से तो सब आतमा ही है। इस दृिष से मै परमाथर आतमा मै ही सवरदा िसथत हूँ।।8।। जो
चेतनरप से पिसद है और जो अचेतनरप से पिसद है, वह सब सनमय, अपार आकाश को पूणर करने वाला आतमरप मै
सवरत िसथत हूँ।।9।।
आननदरप एकमात सागर के तुलय मै सवरत सुखपूवरक िसथत हँू, इस पकार मेर पवरत के िनकु ंज मे भावना
करते हुए वे िसथत रहे।।10।।
िवशुद आतमा को उनहोने िकस पमाण से देखा, इस पर कहते है।
कमशः घणटानाद की तरह ॐकार का उचचारण करते हुए उनहोने देखा।
शुित भी हैः
पणवो धनुः शरो हातमा बह तललकयमुचयते।
अपमतेन वेदवयं शरवत् तनमयो भवेत्।।
अथात् पणव धनुष है, जीवातमा बाण है, बह लकय है। अपमत होकर उसका वेध करना चािहए। वेधन करने
के पशात बाण के समान तनमय होना चािहए।
यिद कोई शंका करे िक ॐकार मे आकारािदमाताएँ िवराट आिद की वाचक है। तुरीय तततव को ॐकार के
िकस अंश से देखा ? इस पर कहते है।
पूवर-पूवर माताओं का िवराटािद अथों के साथ उतरोतर माताओं मे लय करके बाल के समान ॐकार के िसर
पर िदखाई देने वाला, अित सूकम और कोमल, सबसे पीछे के अधरमातरप कलामात की, जो सबके िवषय का चरम
सीमारप तुरीयतततव है, तुरीयातमा से ही भावना करते हएु तुरीयभावापन होकर न तो आनतरकारण मे िसथत और न
बाहभू कायर मे वे आगे कहे जाने वाले पकार से िसथत हुए।।11।।
उसी िसथित को दशाते हएु उपसंहार करते है।
हे शीरामचनदजी, कलपनारपी कलंक से रिहत अतएव शुद एवं िजनका पाणसपनदन हृदय मे िनरनतर लीन हो
गया, इसिलए िजससे मेघ हट गये, ऐसे शरतकाल के आकाश के समान िनमरल वे महातमा कच गाते हुए िसथत रहे।।
12।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अटावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआ,
आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआ । आआ आआआआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
पसंग पापत कच गाथा को समापत करके भोग तततवजो की इचछा आिद के योगय नही है, इस िवषय का, जो
पकृत है, उपपादन करते हुए शीविसषजी वैरागय के उपदेश के िलए िवषयो की िनःसारता का िवसतार से वणरन करते
है।
शीविसषजी ने कहाः शीरामचनदजी, इस संसार मे अन-पान तथा सतीरप िवषयो से िजहा, उपसथ आिद
इिनदयो का जो संसगर है, उसके िसवा उतम पुरषाथर रप और कुछ भी नही है, यह बात शुित, समृित और पुरषो के
उपदेश से िसद है, यह िवचार कर परम पद मे आरढ पुरष इन भोगो की भला कयो कर वाछा करेगा ? भाव यह िक
यहा पर वाछा के योगय कुछ भी नही है।।1।।
यिद कोई शंका करे िक मोक के समान काम भी पुरषाथर ही है, उसकी भई वाछा करनी ही चािहए। ऐसा
कहने वाले के पित कहते है।
जो मूढ असाधु पुरष कृपणो के सवरसव तथा आिद, मधय और अनत मे असत् भोगो से सनतुष होते है, वे िनरे
पशु-पकी ही है।।2।। जो पुरष लोक मे यह सतय है, यो िवशास को पापत होते है, मनुषयो मे गदरभ रप उनसे कोई भी
पयोजन नही है। इधर केश है तो इधर रकत है, यही तो सती का शरीर है, इससे जो सनतोष को पापत होते है, वे कुते
ही है मनुषय नही। सारी पृथवी िमटी ही है, सभी पेड काठ ही है और शरीर आिद भी मास के पुतले ही है। नीचे पृथवी है,
ऊपर आकाश ही है। भला बतलाइये तो सही सारभूत पदाथर कया है, जो सुख के िलए हो। सब लोक वयवहार इिनदयो
के सपशर के अनुसार होने वाले, िववेक के तततव मे बािधत होने वाले और िबना िवचारे ही भले लगने वाले है। जैसे
जवाला के अनत मे काजल िसथत रहता है, वैसे ही सब सुखाशा का िवषयो के लाभ से अथवा अलाभ से अनत होने पर
पाप, िवषय आिद की कलुषता और िवयोग, िवषाद आिद से होने वाला दुःख भी वतरमान काल के सुख के समान ही रहता
है। उतपन और िवनष होने वाली अतएव अिनतय मन और इिनदयो से उतपन सब समपितया गजराज से कुचली हुई
लताओं के तुलय कीण हो जाती है।
कानता आिद का भोग केवल अिनतय ही नही है, िकनतु अभेधय नरकरप भी है, ऐसा कहते है।
हिडडयो के समूह मे देह नामवाला पुरष रकत और मास की पुतली का यह मेरी पेयसी है, इस बुिद से सादर
आिलंगन करता है यह मोहक काम का कम है। यह सब अजािनयो की दृिष मे सतय और िसथर और असतय यह सब
उनकी तुिष के िलए नही होता है। यह जो िवषैली भोगतृषणा है, वह भोग न करने पर भी िवष के तुलय मूचछा पैदा
करती है, भोग करने पर तो वह कयो नही करेगी ? उस भोगासथा का तयाग करके सवातमैकतवपद को पापत होइये। जब
यह िचत अनातममयरप से िसथित को पापत हुआ, तभी यह असनमय जगजजाल उतपन हुआ।।3-11।।
यिद शंका हो िक हमारे िचत की िसथित के अनुसार देहािद जगत उतपन हुआ है, िफर आप कैसे कहते है िक
बहा के संकलप से उतपन हएु जगत को बहा के मन का अनुसार संकलप करने से जगत की कलपना कर रकखी
है।।12।।
पसंगवश शीरामचनदजी बहा के मन के जगतकलपनाकम को पूछते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे बहन्, हे महामते, पूवर उपासक का मन पहले के वयिष-अिभमान को समिषआतमता
की अितशय भावना से उतपन दृढ संसकार दारा छोड कर, समिषिसिदरप िवरंिच का पद पापत कर, कायरभूत बह
बनकर इस जगत को कमशः कैसे सुघन (चार पकार के पािणयो के समूह से िनिबड) बनाता है ?।।13।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, कमलकोशरप िवसतार से उठ करके सवरपथम बालक बहाजी ने
'बह' शबद का उचचारण िकया, इसिलए वह बहा कहे जाते है।।14।। उतथानरप जागत की कलपना के बाद सकल
संकलपातमक मनो के समिषरप एवं अपने ही मन से चतुमुरख आकृित की कलपना िकये हुए बहा के संकलप ने आगे की
सृिष मे उदम िकया।।15।।
सूयर आिद पकाश के अधीन सब वयवहार है, अतः पहले आिदतय की सृिष को कहने की इचछा से शीविसषजी
सूयर के उपादानभूत सारे आकाश मे वयापत तेज की सृिष कहकर उसी तेज का वणरन करते है।
तदननतर उनहोने पहले अतयनत पकाश से युकत तेज का संकलप िकया, िजसने शरतकाल के अनत मे बफर से
सफेद हुई लताओं के समूह की तरह िदशाओं के मधय भाग को पिरवेिषत िकया था, िजसने पिकयो के पंखो के सदृश
दोनो पाशों मे तनतुओं के फैलाने से कभी कीण न होने वाले शूनयरप आकाश को बहुत से तनतुओं से युकत-सा बनाया
था, िजसने फैली हुई तेज की रािशयो से आिद अनत तक पहुँचे हएु लोकालोक पवरत के िशखर के रंग-िबरंग धातुओं के
संसगर से िदगनतो को पीला कर िदया था, िजसने आकाश को सवणर के समान चमकदार और अनावृत, अपिरिचछन तथा
पकाशमय होने के कारण बहजान के तुलय बना िदया था, िजसने बहा के कमल को िवकिसत करने के िलए पंखुिडयो
के अनदर पिवष हुई िकरणो से झरोखो पर बनाई गई सुवणर की झालरो की तरह चमकदार केसरो से जटायुकत कर
िदया था और जो एकमात समुद की तरंगो मे पितिबिमबत होने की कारण दैदीपयमान तथा चलते हुए उपवनो के तुलय
िकरणो से िवभूिषत था।।16-18।।
उस तेज मे अपने सदृश दूसरी मूितर की कलपना दारा िहरणयगभर का पवेश कहते है।
तेजोमणडल की सृिष करने के अननतर चतुमुरख शरीराकार से िसथत पूवोकत मनने उस चमकीले तेजो से
दैदीपयमान, पुराण आिद मे पिसद अपने आकार के तुलय शरीर की कलपना की।।19।। तदननतर वह देव उस
िपणडीभूत तेज से आिदतय बनकर आज भी पतयक उिदत होता है, वह पभा समूहरप मणडल के मधय मे िसथत और
जलते हुए कनक कुणडलो से युकत है।।20।। उसके चारो ओर जल रही जवालाओं की पंिकतयो को धारण करने
वाली धधकती हुई अिगनया है और वह जवालाओं से िवशालकाय है एवं उसने उकत िवशाल अवयवो से आकाशमणडल
को पूणर कर रखा है।।21।।
तदननतर मरीिच आिद पजापितयो की सृिष कहते है।
तदननतर िवश की वृिद करने वाले सवरज चतुमुरख बहा ने जैसे सागर तरंगो को िवभकत करता है वैसे ही
आिदतय आिद के िनमाण से बची हुई तेज की उन कलाओं को िवभकत कर िजनका नौ पकार से िनमाण िकया, वे भी
तेज के टुकडे बहाजी के संकलप से सब िसिदयो को पापत और बहा के समान ही शिकतवाले पजापित होकर
संकलपानुसार वसतु को कणभर मे ही अपने आगे देखकर पापत करते थे।।22,23।।
उनसे देव, दानव, यक, राकस, मनुषय आिद की सृिष का पवाह कहते है।
वे पजापित िजन-िजनका पुत, पौत आिद परमपरा से और देव, दानव आिद जाित भेदो से िविवध पकार एवं
वयिकतभेद से बहुत भूतगणो का संकलप करते थे, उन-उन को पापत करते थे।
उन भूतो मे आगे मैथुन सृिष का पवाह दशाते है।
उन भूतो मे बहुत से औरो का, उनमे औरो का, उनमे औरो का संकलप करते हुए उनको पापत करते थे।।
24।।
तदननतर वेदो का समरण कर िफर बहुत से यजो के गुण और कम का समरण कर बहा ने जगदूपी घर के
िलए मयादा की कलपना की।।25।। इस पकार मन िवशाल शरीरवाले बहा का रप धारण करके इस दृशय सृिष का
िवसतार करता है, जो पािणयो की परमपरा से ठसाठस भरी है, समुद, पवरत और वृको से पूणर है, लोकोतर कम से युकत
है, मेर, भूमणडल, िदशा के मंडल से िजसका मधय भाग जिटल है एवं जो सुख-दुःख, जरा, जनम, मरण आिद शारीिरक
कलेशो से और मानिसक कलेशो से भी यह संसार सवरथा हेय है यह इस तरह बोिधत हुई है, राग और देषमय होने के
कारण उदेगयुकत है और सततव, रज और तम इन तीनो गुणो से रची गई है।।26-28।।
यिद कोई शंका करे िक सब वयवहार बहा के मन से रचे गये है, ऐसी अवसथा मे यज आिद शारीिरक कमर है
और उपासना आिद मानिसक है, इस वयवसथा मे कया हेतु है ? तो इस पर कहते है।
बहा से उतपन हुई मनोवृितयो से अथवा हाथो से जो वसतु जैसे देखने और पापत करने योगय पहले माया दारा
किलपत हुई, वह सब वैसे ही आज भी िदखाई देती है और पाई जाती है। बहा के संकलप अनुसार ही और लोगो की भी
यह शारीिरक और यह मानिसक है ऐसी कलपना िनयत है। उससे िभन अनय की कलपना नही हो सकती, यह भाव
है।।29।।
समिषदृिष से सब भूतो मे और वयिषदृिष से अथवा एक जीववाद से कुछ लोगो मे िसथत मन ही िचत् मे
िसथत संसार का संकलप करता है और पर बह का साकातकार भी करता है।।30।। इस पकार का जगत समबनधी
िमथया मोह िसथरता को पापत हुआ है। संकलप करने वाले सवयं मनने ही शीघ उसकी कलपना की है।।31।। संकलप
से ही सब जगत की िकयाएँ उतपन होती है और संकलपवश ही िनयित के अधीन देवतालोग उतपन होते है।।32।।
इस पकार सृिष के िवसतार का वणरन करके सृिष की िनवृित और शासत के िनमाण मे कारण कहने के िलए
भूिमका बाधते है।
अपने -अपने उतकषर के िलए मनुषय आिद पजाओं मे धमर और अधमर की अिभवृिद के िलए पयत कर रहे इनद
िवरोचन आिद देवता और असुरो के अिधपितयो दारा जबदरसती सािततवकी, राजस और तामस वृितयो मे लोगो को लगाने
से वध, बनधन, जनम-जरा आिद हजारो कलेशो से अितपीिडत जगत की सृिषयो से िवरकत पजासमूहो को उतपन करने
वाले ये पूवोकत पभु कमलासन पर बैठे हुए बहा िनिमिलिखत िवचार करते है।।33।। मन के संकलपमात से
वयिषजीवोपािधतभूत जो िविचत िचत उतपन हुआ और उसके उपभोग के िलए वयवहाररप िवकार से युकत िवशाल
भुवन आिद की सृिष, जो रद, िवषणु और महेनद से युकत है, पवरतो से और सागरो से वयापत है, िजसका मधयभाग,
पाताल, अनतिरक, पृथवी, िदशा, और सवगर मागर से आकीणर है, यह सब मैने अपना संकलपसमूह ही चारो ओर िवसतृत
िकया है। इस समय इस िवकलप के उललासन कम से मै िवरकत हो गया हूँ, ऐसा िवचार कर कलपनारपी अनथरकारी
संकट से िवरत हो बहा अनािद, आतमरपी परबह का अपने से समरण करते है।।34-37।। उस परमातमा को
समरणमात से पापत कर, जहा चारो ओर एकमात उनही का पकाश है, मानस वयापाररिहत यानी सपतमभूिमका रप उस
पद मे शानत आतमावाले बहा सुखपूवरक ऐसे िसथत होते है, जैसे थका हुआ पुरष भली-भाित िबछाये हुए िबछौने पर
िसथत होता है।।38।। ममतारिहत, अहंकारशूनय अतएव परमशािनत को पापत हुए कोभरिहत बहा िनशल सागर की
तरह अपनी आतमा से आतमा मे िसथत होते है।।39।। िकसी समय एकाकार वृित की धारणा मे आगहरप धयान से
भगवान बहा सवयं ऐसे िवरत होते है, जैसे जल की िनशलतारप सौमयता से समुद िवरत होता है।।40।। तब वे
सुख-दुःख से युकत सैकडो आशापाशो से बंधे हुए, राग, देष और भय से पीिडत संसार का िवचार करते है।।41।।
िफर दया से आकानत िचतवाले वे पािणयो के कलयाण के िलए अधयातमजान से भरे हुए गमभीर अथरवाले बहुत से शासतो
की रचना करते है।।42,43।। िफर पूवोकत सपतम भूिमकारप परमपद को पाकर सृिष िवकेपरप परम आपितयो से
छुटकारा पाये हुए बहा मनथनदणडरप मनदराचल से छुटकारा पाये हुए सागर के समान सवसथ और शानतातमा होकर
िसथत होते है।।44।। कमलासन मे िसथत हुए बहा जगत की चेषा को देखकर और जगत की मयादा को ठीककर
िफर आतमा मे िसथत हो जाते है।।45।। िकसी समय सब संकलपो से हीन सवेचछामात से केवल लोगो के अनुगह के
िलए ही लोक के सदृश कायर करते हुए िसथत होते है।।46।।
तब तो समािधकाल मे उनकी सरलता, सृिष, संहार आिद के समय उस सरलता का तयाग, देह आिद का
गहण, सृिष के रप से अनेक होना, वयुतथानकाल मे चेतन होना, पद मे िसथित, अनयत िसथित यो िविवध पकार के
भावारमभो से युकत िचत-वृितयो मे अजानी के तुलय ही िवषमता हुई। ऐसी आशंका कर कमशः उकत शंकाओं का
पिरहार करते है।
बहा को समािधकाल मे न ऋजुता होती है, न सृिष और संहारकाल मे उसका तयाग होता है, न देहािद का
गहण होता है, न सृिषरप से अनेकता होती है, न वयुतथान के समय चेतना होती है और न कमलपर िसथित तथा
अनयत अिसथित होती है।।47।। सब भावो का आरमभ करने वाले बहा सब वृितयो मे समान और पिरपूणर सागर के
समान आकारवाले मुकतरप होकर िसथत रहते है।।48।। िकसी समय समपूणर संकलपो से रिहत अपनी सवेचछा से
केवल लोगो के अनुगह के िलए ही वे पितबद होते हं।।49।।
हे महामते, जो मैने आपसे कही, यह परम पिवत बाह िसथित है। पजापितयो की मानिसक सृिष पहला िवधीक
(बहा आिद का दल) है, कयोिक पजापितयो को संकलप से िसिदया पापत है एवं जान और योगरप ऐशयर सवयं ही उनहे
जात है। मैथनुसृिष मे भी देव, गनधवर, यक आिद के सािततवक होने के कारण एक बार के उपदेश से जानरप ऐशयर को
पापत हुआ देवानीक (देवता का दल) मधयम है। मनुषय आिद तो रजोगुण और तमोगुण से गसत है हजारो पयतो से उनहे
जानरप ऐशयर पापत हो सकता है, अतएव नरानीक (मनुषयो का दल) अधम है।
यो तीन अनीको का िवभाग अपने मन मे रखकर उनकी अपने कारण से पापत िचतशुिद के अनुरप जान से
बह पािपत को पृथक पृथक दशाते है।
पूवोकत इस सािततवक बाह िसथित को िवधयनीक और सुरानीक भी पापतो होता हो।।50।।
उन पूवोकत तीन अनीको मे (दलो मे) पहल अनीक मानस उपासना का फल होने के कारण एक मात मन से
उतपन होने वाला है, अतएव सूकम होने से उसकी पािपत मे िवशेषता कहते है।
चूँिक पहला दल िचदूप सब सृिषयो के उपरमसवरप बहाकाश मे बहा के मन से किलपत फल के समान मन
का फल होकर पहले उतपन होता है, अतः वही सवतः िसद जानरप ऐशयर से पहले बहतव को भली भाित जानकर
उसको पापत करता है।।51।।
दूसरा दल औषिध पललवो के िवकारभूत सोमरस, घृत, दूध से िसद होने वाले कमर का फल है, अतः उनका
पिरणाम होने के कारण पथम दल की अपेका सथूल होने से उसे उपदेशमात से बह पािपत होती है, यो िवशेषता
िदखलाते है।
पजापितयो की और औषिधयो की सृिष होने पर जो देवानीकरप दूसरी पहले की अपेका नयून कलपना उिदत
होती है, वह पहले चनदमा की कलारप से आकाश और वायु का अवलमबन करके औषिध पललवो मे पवेश कर सोम,
घृत और दूधरप से अिगन मे हवन होने पर सूयरमणडल मे अमृत के आकार से पिरणत हो पजापित आिद से उपभुकत
होती है। उनके उपभोग के अननतर उनके वीयररप से पिरणत हुई मैथुन दारा कोई इनद आिद सुरता, कोई कुबेर आिद
यकयोिनता को पापत होती है। वह सािततवकी होने से मनुषय आिद की अपेका पहले पजापितयो के अनुगहपूणर उपदेश
आिद से जानैशयर समपित दारा अभयुिदत होती है, इसिलए पहले वह बहतव को पापत होती है।।52,53।।
तो कया सब देवताओं की मुिकत होती है ? इस पर नही, ऐसा कहते है।
देवताओं मे अथवा मनुषयो मे उतपन हुआ जो वयिकत जान-वैरागय से समपन अथवा भोगलमपट िजस जीव की
मैती आिद से संगित करता है, वह उसकी संगित से शीघ वैसे गुणवाला हो जाता है। भोगलमपट पुरष से संसगरवश
सवयं भी वैसा होकर उसी जनम मे बनधन को पापत होता है और जानैशयरसमपन पुरष की संगित से सवयं भी जान-वैरागय
समपन होकर उसी जनम मे मुकत हो जाता है।
तब तीसरे अनीकरप मनुषयो को कया करना चािहए ? इस पर उनका कतरवय कहते है।
बनध और मोक संगित के अनुसार कहते है, इसिलए सवयं ही अपने पौरष पयत से साधुसंगित, सत् शासतो के
शवण आिद एवं इिनदय और मन की जय के उपायो का, जब तक फल की पािपत न हो तब तक अभयास करना
चािहए।।54।।
पूवोकत सबका संकेप से उपसंहार करते है।
हे शीरामचनदजी, अिधक पकाशवाली उपासनाओं, सब लोगो मे पिसद यज आिद कमों और अनथर फल देने
वाले िनिषद और िमिशत कमों से कम से पापत तथा अनेक पकार के पारबध वेगो, कीडा-कौतुको तथा कोध, लोभ से
बढे हुए वयवहारो से कमशः दृढ िसथित को पापत हुई तीन अनीकरप सृिष सगोनमुख बह मे इस पकार पूवोकत
संकलपकलपना से ही सता को पापत होकर आिवभाव को पापत हुई है।।55।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनसठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआ
आआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआ
आआ आआआआ आआ । आआआआआआ
पूवोकत तीन अनीकसृिषयो का – 'सा वयोमिनलमािशतय' इतयािद से संकेप से कहे गये कम के िवसतार से
वणरन करने के िलए भूिमका बाधते है।
हे महाबाहो शीरामचनदजी, सृिष की वयवसथा करने वाले िपतामह भगवान बहा के समािध से वयुितथत होने पर,
इस जगदूपी जीणर घटीयंत (रहट) के भरे हएु पाणी रपी घडो से युकत रससी दारा पुनः पुनः देह गहण से जीव और
जल की तृषणा से आरोह और अवरोह कम से चलने पर, बहा से उतपन हुए जीवो के संसाररपी िपंजडे मे पवेश करने
पर अनयानय मनो के मायाशबल बहा के पथम उतपन पुतभूत आकाश मे वायु के झोके से चंचल और आहत जलकणो
से वयापत आवतर की भाित घूमने पर बह मे जीवो के समूह िनरनतर उपािध के उतपन होने के कारण अिगन के
िवसफुिलंग के समान बाहर िनकलते है और कोई उपािध के नष होने से सुषुिपत की तरह िवशािनत के िलए बह मे पवेश
करते है।।1-4।। हे शीरामचनदजी, अनािद अननत बहरपी पद से उतपन हुए यानी कलपना को पापत हुए ये
जीवसमूह समुद मे तरंगो की भाित बह मे िसथत है।।5।। जैसे पकाश की शोभा मेघ मे पिवष होती है वैसे ही ये
जीवसमूह भूताकाश मे पवेश करते है। जैसे दूध और जल एकता को पापत होते है वैसे ही ये जीवसमूह अधयसत
आकाश और वायु के साथ बह मे एकता को पापत होते है।।6।। तदननतर तेज, जल और पृथवी की उतपित हो जाने
पर पकाश को पापत करके वे जीव शबद, सपशर, रप, रस और गनधरप तनमाताओं के सिहत पूवोकत वायु से और अपने
उपभोग के हेतु अमुखय और मुखय दो पकार के पाणवायु से ऐसे आकानत होते है, जैसे िक पचणड दैतयो के समूह से
देवता आकानत होते है।।7।। इस पकार िलंगदेहता को पापत हुए वे जीव पाण के आतमभाव के और भूततनमातसिहत
वायु के साथ अन और जल के दारा अंडज आिद चार पकार के पािणयो के पाणवायु यानी अनगासक अपानवृित भेद
को पापत करके शरीरो मे पवेश करते है और वीयरता को पापत होते है।।8।।
तीसरे दल की सृिष का कम कह कर दूसरे दल की सृिष का कम कहते है।
अनय कुछ इषापूतरकारी (यज, कुएँ और बाविडया खुदवाना आिद कमर) जीवरािशया शदापूवरक अिगन मे दी गई
आहुित से यानी तजजनय अपूवर से पिरवेिषत होकर धुएँ के दारा सूयरमणडल मे पहुँचकर सूयर की िकरणो दारा
चनदमणडल मे पवेश करने से धूम आिद मागर मे पिवष हुई है। उन जीवपरमपराओं का भी िलंगदेह पािपतपयरनत कम
पूवोकत ही है।।9।।
चनदकलासवरपता को पापत हुए वे भी जीवसमूह कलपवृक के फलो मे रसरप से पवेश दारा उपभोकता के
वीयररप से पिरणत होकर देवगभर से उतपन होते है, ऐसा कम बतलाते है।
पूणर भगवान चनदमा िजतनी िकरणो से संसार को पकािशत करते हुए उिदत होते है, चंचल, शेत वणर की उतनी
िकरणो से पूणर इसिलए कीरसागर के सथानापनरप पूवोकत तनमातासवरप िलंगदेहवाले आकाश मे वह जीवपरमपरा
िसथत होती है।।10।। तदननतर उन चनदिकरणो के ननदन आिद वन मे िगरने पर िकरणो के साथ िगर रही वह
जीवपरमपरा उस वन मे जैसे दासी घर के कायों मे वयग रहती है वैसे ही वयग हो पकी के तुलय पवेश करती है।।
11।। उस वन मे फल चनदमा की और सूयर की िकरणो के लगने से अपने रस से कमशः वृिद और मधुरता को पापत
होते है।।12।। इस पकार पूवोकत जीवपरमपरा चनदमा की िकरणो से िगर कर जैसे बालक दूध से भरे हुए माता के
सतनो मे िसथित करता है वैसे ही रस से भरे हएु उन फलो मे िसथित करती है।।13।। वे फलो की पंिकतया सूयर की
िकरणो से पक जायेगी। कशयप आिद से उपभुकत उनही फलो मे वीयरता को पापत होकर मूिचछरतपाय वे जीवजाितया
रहती है।।14।। जैसे अंकुर, शाखा, पते िजसमे आिवभूरत नही हुए, ऐसा वटवृक का बीज, शाखा, अंकुर, पते और
फल से युकत वट वृक मे रहता है, जैसे काष मे अिगन िसथत रहती है और जैसे िमटी मे घडे िसथत रहते है वैसे ही
जीवता, िजसकी वासनाएँ सुपत रहती है, गभररपी िपंजडे मे िसथत रहती है। केवल गभर मे ही मूिचछरत जीवपरमपराओं का
अनय के आशय दारा ितरोधान नही होता, िकनतु पलय के समय उपािध का नाश होने के कारण पापत हुए अवयकत से
िनकल कर आकाशरप मे, िलंग शरीर के आरमभ समय मे और चनदिकरण आिद मे पवेश करने के समय मे भी ितरोधान
से िसथित रहती है।।15,16।।
इस पकार गभर मे पापत हुए जीवो के जनम मे िनिमतभेद होने से िवशेषता दशाते है।
पूवरजनम मे िजसने सती, पुत आिद के शरीरो की शोभा नही देखी, जो मरने तक सवरथा िवरकत होकर रहता है
और जो राग आिद से और बहुत से कमरकाणड आिद शासतो से ऐिहक और पारलौिकक भोग के साधन लौिकक और
वैिदक कमों मे पेिरत होता हुआ भी उनमे पवृत नही होता है, वह शेष पुरष पूवोकत कम से देवगभर मे उतपन होता हुआ
अतयनत सािततवक जाित का होकर उस जनम मे जान पापत करके उदार जीवनमुकतोिचत वयवहारवाला होता है। उसी
जनम से यिद वह मोकभागी हो, तो सािततवक कहा जाता है।।17।।
देवपद मे अिधकार पािपत के अनुकूल कमर और उपासना करने वालो के जनम मे िवशेष भेद िदखलाते है।
इस देवयोिन को पापत करके नष की जा सकने वाली जनमपरमपरा को भोग लमपटतावश उचछेद न करता
हुआ जो अपने अिधकार भोग की रका के िलए ही जनम पापत करे, वह तमोयुकत राजस सािततवक है।
अब पथम दल मे (िवधयनीक मे) उतपन हुए केवल सािततवक लोगो का पुनजरनम नही होता है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी पुरष के अिनतम जनम से जो नर और देवताओं के दल की (अनीक की) अपेका पधान है,
अथात् पजापित के अिधकार से संसार मे आया हुआ केवल सािततवक िवधयनीक जैसे मुकत होता है, वैसा इस समय मे
आपसे कहूँगा। हे पुणयाकृितवािल शीरामचनदजी, पथम दल मे यानी िवधयनीक मे उतपन हुआ पुरष कोई भी और कभी
भी पुनः उतपन नही होता है यानी मुकत ही हो जाता है।।18-20।।
तब कौन उतपन होते है ? ऐसा पश होने पर उनहे कहते है।
हे शीरामचनदजी, राजस-सािततवक पुरष यहा पर उतपन होते है।
शंकाः केवल सािततवक के पुनजरनम न होने मे कया कारण है ?
समाधानः केवल सािततवक पुरष पूवरजनम मे भी आतमतततव का शवण, मनन आिद उपायो से िवचार कर केवल
पितबनध के कय के िलए पितबनधकययोगय जनम को पापत हुए है। इस जनम मे भी उनकी बुिद से सदा आतमतततव ही
माननीय है, इसिलए उनका पुनजरनम नही होता है।।21।।
अतएव वे दुलरभ है, ऐसा कहते है।
जो जब परमातमा से नर और सुर के अनीक की अपेका पधानता से पापत हुए है, हे शीरामचनदजी, वे
महागुणशाली पुरष दुलरभ है।।22।।
जो पजापित, सुर, और मनुषय के अनीक से अनय राकस, िपशाच, पशु-पकी आिद है वे पेड पतथर के तुलय है,
जानािधकार की चचा मे उनकी योगयता ही नही है, इसिलए उनका उललेख नही िकया है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, जो और िविवध पकार के तामस जाितवाले मूढ, मूक जीव है, वे सब सथावर पेड, पतथरो के
समान है, उनका कया िवचार िकया जाय ?।।23।।
तततवजान की दुलरभता का ही उपपादन करते है।
कम से पापत उतम जनम मे भी कुछ ही नर और सुर सासािरक भोगरिच को पापत नही हुए है, अतः वैरागय
अतयनत दुलरभ है। उन लोगो मे मेरे तुलय जनम से लेकर शम, दम आिद सब गुणो की समपित से खूब आतमिवचार
योगयता को पापत हुए भी कुछ लोग िनरनतर समािध सुख मे िवघभूत राजकुलपौरोिहतय के कारण कुछ राजसयुकत
सािततवक ही है, शुद सािततवक नही है। (यह शुद सािततवकता की अित दुलरभता के सूचन के िलए िनरिभमानतावश
अितशयोिकत है)।।24।। मेरे सदृश आप भी वैरागय, शम, दम आिद समपित से पूणर है ही, िकनतु परमातमपद का
िवचार न करने से आपकी इस पकार की संसार भािनतरप महाआपित िवसतीणर हुई है। परमातमपद का यहा पर मेरे
सामने आज ही आप शीघ िवचार कीिजये। एकमात िवचार करने से आप ही यहा पर अिदतीय परम पद है।।25।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
साठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस, शीरामचनदजी, जो िवचारणा की योगयता को पापत पुरष राजसािततवकी पूवरजनम
की कमोपासना से पृथवी मे उतपन हुए है, वे महागुणशाली पुरष जैसे आकाश मे चनदमा पकाशमान रहते है वैसे ही सदा
पसन और पकाशमान रहते है।।1।। जैसे आकाश मेघो से की गई मिलनता को पापत नही होता वैसे ही वे भी
मानिसक दुःख को पापत नही होते है, जैसे सुवणर का कमल राित मे मलान नही होता वैसे ही वे शारीिरक दुःख को पापत
नही होते है। जैसे सथावर वृक आिद पारबध भोग से अितिरकत कोई दूसरी चेषा नही करते है वैसे ही वे भी जान और
जानसाधनो की िसिद के िसवा अनय वसतु नही चाहते है और जैसे वृक अपने पुषप, फल आिद से रमता है वैसे ही वे भी
अपने सदाचारो से रमते है।।2,3।। हे शीरामचनदजी, राजसािततवक पुरष की बुिद शािनत आिद सुधा के बढने पर
वृिद को पापत हो जाती है, अतएव वह शुकलपक के चनदमा के तुलय सुनदर हो जाती है, िजससे वह पुरष मोक को पापत
होता है।।4।। जैसे चनदमा शीतलता का तयाग नही करता वैसे ही वे शीतलता के समान िसथत सौमयता का आपित
मे भी तयाग नही करते है। मैती आिद गुणो से मनोहर पकृित से ही वे ऐसे िवराजमान रहते है जैसे की नूतन गुचछो से
शोिभत लता से वन के वृक शोिभत होते है। सब पर समान दृिष रखने वाले, एकमात परमातमा मे अनुराग रखने वाले,
सदा सौमय, साधुओं से भी बढकर साधु, समुद के तुलय मयादा धारण िकये हुए पुरष आपके तुलय है। इसिलए हे
महाबाहो, आपितयो का अनिधकरण उनका जो सथान वही गनतवय है। आपितयो के सागर मे जाना उिचत नही है।
खेदरिहत आपको इस जगत मे वैसे बताव करना चािहए जैसे िक रजोगुणरिहत सािततवक आतमाननद लाभ बढे एवं मूढो
के िवचारणीय िवषयो के पिरतयाग दारा बारमबार सत् शासतो का िवचार करना चािहए।।5,9।। इस पकार भावना
करने वाले पुरष को अतयनत आदर के साथ सब वसतुओं की िविवध िनिमतो से उपपन होने वाली अिनतयता का भी
िवचार करना चािहए। हे शीरामचनदजी, इस पकार अिनतयता का िवचार कर रहा िवशुद बुिदवाला पुरष अजान को
बढाने वाले िमथया अमयगदशरन का तयाग कर पहले ऐिहक िवषयो के उपभोग के योगय लौिकक िकया की, मरने के बाद
उपयोग मे आने वाली पारलौिकक िकया की और उन िकयाओं के फल, पशु, पुत, धन, सवगर िवमान, अपसरा आिद पदाथों
की, ये आपित ही है, ऐसी भावना करे, ये समपित है, ऐसी भावना कभी न करे।।10,11।। आगे कहे जान वाले
िवचाररप जान का असीम परबहरप वसतु को पापत करने के िलए साधु सतीथयों के साथ िविधवत् पापत हुए सेवा
आिद पयत दारा पसन िकये हुए गुर से 'हे पभो, मै कौन हँू,' यह संसाराडमब कैसे उतपन हुआ, इतयािद सिवनय
पशपूवरक िवचारकर समरण करना चािहए। कमों मे िनमगन नही होना चािहए और अनथरकारी लोगो के साथ संगित भी
नही करनी चािहए।।12,13।। सब िपय वसतुओं का िवचछेद संसारमात के िलए अवशयंभावी है, ऐसा सदा िवचार
करना चािहए।।14।। आभयनतर अहंकार के उससे बाहरी शरीर के, उससे भी बाहरी पुत, िमत आिद संसार के, जो
तीन सागर तुलय है, नौकारप आतमिवचार को पूणर करके सतय का ही अवलोकन करना चािहए।।15।।
सतय का ही अवलोकन करना चािहए, ऐसा जो कहा उसमे उपाय कहते है।
अिसथर शरीर का और अहंकार का भी तयाग कर अतयनत कलयाणकारी, िजसने मोती की माला को वयापत कर
रखा है, ऐसा मोती-माला के अनतगरत सूत के समान सब देह, अहंकार आिद के अनतगरत िचनमात का ही अवलोकन
करना चािहए।।16।। उस िनतय िवसतृत, सवरत वयापत, सवरभािवत, कलयाणकारी परम पद मे जैसे सूत मे मिणरािशया
िपरोई रहती है वैसे ही यह सारा जगत िपरोया हुआ है।।17।। जो िचत् िवशाल भुवन के भूषणरप आकाश मे िसथत
सूयर मे है, वही िचत् पृथवी के िववर के मधय मे िसथत कीडे मे भी है।।18।। हे अनघ, जैसे यहा पर घटाकाश और
महाकाश का परमाथरतः भेद नही है वैसे ही शरीर मे िसथत जीवो का भेद नही है।।11।। ितकत, कडुआ आिद रस के
भेद को जानने वाले सभी पािणयो की अनुभूित एक ही होती है, अतः िचनमात मे भेद कैसे ? भाव यह िक जैसे एक पुरष
से आसवादनीय ितकत, कडुआ आिद रस का भेद होने पर भी उनके अनुभव का भेद नही है वैसे ही देहािद का भेद होने
पर भी िचनमात मे भेद नही है।।20।।
चेतनो मे जैसे िचत् का भेद नही है, वैसे ही सब वसतुओं मे ततसवरप का भेद नही है, ऐसा उतपततयािदिवषयक
मूढ जनसाधारण आपकी बुिद शासतीय नही है।।21।।
तब शासतीय बुिद कैसी है ? ऐसा पश होने पर उसे कहते है।
हे शीरामचनदजी, जो उतपन होकर िवलीन हो जाती है, वह वसतु नही है। वह आभासमात है, न वह सत् है और
न असत् है।।22।।
वह न सत् है और न असत् है, ऐसा जो कहा, उसका उपपादन करते है।
चूँिक मोक होने के पहले अिभवयकत और अशानत िचत सा भली-भाित गृहीत हो रहा यह जगत अपने िसथित
काल मे िवदमान है, अतः असत् नही है। मोह की िनवृित होने पर तो मोकपािपत से पहले भी जो यह है ही नही तो
मोककाल मे यह सुतरा नही है, अतः सत् भी नही है।।23।।
जान की साथरकता का िवचार करने पर भी मोह आिद की सता या असता नही कही जा सकती, अतएव
इसकी अिनवरचनीयता ही िसद हुई, ऐसा कहते है।
मोहजाल आिद अतयनत असत् है, तो भला बतलाइये, पुरष जान दारा िकसका िनरास करेगा ? कयोिक िनरास
करने योगय वसतु के अभाव मे िनरासक जान की साथरकता नही हो सकती। यिद मोहजाल अतयनत सत् है, तो जान से
िकसका तयाग करेगा ? कारण िक जान सतय वसतु का िनवतरक नही देखा जाता, इसिलए अिनवचरनीय अधयासरप
संगित से रजजुसपर आिद के समान यह दृशय समुदाय मोह मे कारण है, ऐसा पिरशेष से िसद होता है।।24।। यिद
जगत असत् है, तो यहा पर मोह कैसे ? यिद वह सत् है, तो मोह का कारण कैसे ? इसिलए सदा शानत हुए आप जनम,
मरण और िसथितरप संसार मे आकाश के समान समदृिष होइये।।25।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकसठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ-आआ आआआआआआआ आआ आआआ
आआ आआआ आआआआआ आआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआआआआआ।
मूढो के िचनतिन योगय िवषयो के पिरतयाग से बार-बार सत् शासत का िवचार करना चािहए, ऐसा जो पहले
कहा, उस पर कैसे उसका िवचार करना चािहए, ऐसा पश होने पर कहते है।
बाह और आभयनतर दनदो को सहने वाला, ऊहापोह मे कुशल पुरष सवयं ही 'तिदजानाथर ं स गुरमेवािभगचछेत्
सिमतपािणः' इतयािद शासत के अनुसार पापत हुए, तततवजानी और िशषय के अपराध को सहने वाले महामितगुर के साथ
शासत का पहले िवचार करे।।1।। उतम कुल मे उतपन हुए, िवषयतृषणा शूनय, तततवजानी महापुरष के साथ शासत
का िवचार कर मन का नाश करने वाली समािध से परमपद पापत िकया जाता है।।2।। वेदानत मे उपयोगी अनयानय
शासतो के, सतकमर, सदाचार आिद के और सजजनो की संगित, वैरागय आिद के िनरनतर अभयास से संसकृत हुआ पुरष
पतयकतततव िवषयक आतमजान का भाजन होकर आपके समान शोिभत होता है।।3।।
उकतगुण आप मे ही है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, आप बाह और आभयनतर दनदो के सहन करने वाले, एवं िविवधगुणो के आगार है, आपका
आचार उतम है तथा आपके मन के सभी मल दूर हो गये है, अतः आप दुःखरिहत परम पद मे िसथत है।।4।।
अब शीरामचनदजी मे जान से जीवनमुकतता की समभावना करते हुए कहते है।
सचमुच आप िजससे मेघ हट गये हो, ऐसे शरद् ऋतु के आकाश के तुलय है। आप जान से युकत आप भावना
से युकत होइये।।5।।
जीवनमुिकत की समभावना मे बीजभूत मुकत मन का लकण कहते है।
सब बाह पदाथों की िचनता से रहित एवं भीतर परमातमा के साथ कीर-नीर के तुलय एकता होने से बहाकार
पिरणामरप कुशलतावाली कलपना से जो मुकतो के अनुभव से िसद है, िसथत और दैतरिहत मन मुकत ही है, इसमे कोई
सनदेह नही है।।6।। इस पकार मुकत मन वाले आपकी चेषा का इस समय संसार मे पूवोकत जीवनमुकत पुरष राग-
देषहीन पूवोकत कलपना दारा अनुसरण करेगे।।7।। जो लोग बाहर लोकोिचत आचारवाले होकर िवहार करते है,
जानरपी नौका से युकत वे बुिदमान पुरष संसाररपी सागर को पार करेगे।।8।। जो सजजन पुरष आपके सदृश
बुिदवाला और समदृिष है, वही सुदृिष पुरष मुझसे कही गई जानदृिषयो का भाजन है।।9।।
तो कया जीवनमुकत हुआ मै शरीर का तयाग अथवा यथेष आचरण करँ ? इस पर नही ऐसा कहते है।
जब तक आपका शरीर है, तब तक आप बाहर धमरशासत और सदाचार के अनुसार आचारवाले और अनदर
सब एषणाओं का तयाग कर के राग-देषहीन बुिद से िसथत रिहए।।10।। जैसे और गुणी पुरष शािनत को पापत हुए है
वैसे ही आप परमशािनत को पापत होइये। जो सवाथर कुशलता से दूसरो को ठगने वाले िसयार सदृश है और बचचो की
तरह यथेष आचारवाले है, वे मूढ पुरष ही िवचार योगय नही है।।11।। शुद सािततवक जनमवाले जीवनमुकत पुरषो के
जो सवाभािवक शम, दम आिद गुण है उनका उपाजरन कर रहा साधारण पुरष भी कमशः जान पापत करके अिनतम
जीवनमुकत शरीर को पापत होता है।।12।। कयोिक पुरष िजनही जाित गुणो का सदा यहा सेवन करता है, दूसरी
जाित मे उतपन होकर भी वह एक कण मे उस जाित को पापत होता है। भाव यह िक उतकृष जाित के गुणो का सेवन
करने पर उतकृष जाित मे जनम पाता है और अधम जाित के गुणो का सेवन करने पर अधम जाित मे जनम पाता है,
यह िनयम है।।13।। कमाधीनता को पापत हुए जीव पूवरजनम के सब भावो को पापत होते है, राजा की सेनाओं को
और पवरतो के वनो को कमशः नीितशासत के अनुसार पराकम से और काटने आिद लोग जीत लेते है, इसिलए अधम
पुरष को भी मोक के िलए ही अवशय पयत करना चािहए। जो पुरष पौरष से िवरत नही होता, उसे फल िसिद
अवशयपापत होती है, यह अिभपाय है।।14।। पुरष चाहे, राकस, िपशाच, शूद आिद तामसी योिन मे उतपन हुआ हो,
चाहे कितय, वैशय आिद राजस योिन को पापत हुआ हो अथवा सततव, तम से िमिशत सपर आिद योिन को पापत हो, उसे
कीचड से भोली-भाली गाय की तरह िवषयो से बुिद का धैयर के साथ उदार करना चािहए।।15।।
पूवोकत बात को ही िवसतार के से कहते है।
अपने िववेक से ही सनत लोग देवता आिद सािततवक योिन को पापत होते है, इसिलए हे शीरामचनदजी, िनमरल
िचतरपी मिण को िजस वसतु का संसगर होता है, वह िचतरपी मिण तनमय हो जाती है, इसिलए पौरष ही पधान है।
पौरष पयत से ही बडे उतम गुणो से अलंकृत मुमुकु पुरष पाशातय यानी जीवनमुकत उतम शरीरवाले होते है। न कोई
ऐसी वसतु पृथवी मे है, न सवगर मे, न देवताओं के पास अथवा न अनयत कही है, िजसे गुणवान पुरष अपने पौरष पयत
से हसतगत न कर ले। युिकत के सिहत बहचयर, धैयर, वीयर और वैरागय के वेग के िबना आप उस अभीष वसतु को
पापत नही कर सकते।।16-19।। सब पािणयो के आतयािनतक दुःख की िनवृित से उपलिकत, िनरितशय आननदरप
होने के कारण अतयनत िहतकर इस उपिदष आतमतततव को िवशुद सततवगुणो की वृिद के उपाय मे सावधान बुिद दारा
आतमरप से िसथर करके आप शोकरिहत होइये। तदननतर आपके दारा उपिदष कम से आपके ये और लोग भी मुकत
और शोकरिहत हो जायेगे।।20।। हे शीरामचनदजी, िववेक की िवपुल मिहमा से युकत, बढे हुए शम, दम आिद गुणो से
मनोहर इस अिनतम जीवनमुकत शरीर के पापत होने पर आप जीवनमुकत पुरषो के सपतम भूिमका रप कमर मे िसथित
कीिजये। यह वैरागय पकरण मे कही गई सब लोगो मे पिसद संसार पािपत से होने वाली मोह िचनता आप मे िसथत न
हो।।21।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बासठवा सगर समापत
(शी योग वािसषभाषानुवाद मे िसथित पकरण समापत)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआ आआआआआआ
आआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ
आआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआआ
आआ आआआ आआआआआआ ।
उतपित पकरण मे सृिष की पितपादक सब शुितयो के तातपयर को सपष करने के िलए सारी पपंच रचना मन
के अधीन ही है, यह दशाया। िसथित पकरण मे भी जगत की िसथित का पितपादन करने वाली सब शुितयो के तातपयर
िदखलाने के िलए सारी पपंच िसथित मन के अधीन ही है, यह िदखलाया। अब 'या गागयरमरीचयोऽकरसयासतं गचछतः
सवा एतिसमंसतजोमणडल एकीभविनत' (हे गागयर, जैसे असत हो रहे सूयर की िकरणे सवरजन पतयक तेजोरािशरप
तेजोमणडल मे एकसवरपता को पापत होती है। िफर वे मरीिचया दूसरे िदन सूयर का उदय होने पर सब िदशाओं मे
संचार करती है, वैसे ही सब वागािद इिनदया सब वयवहारो के कारणभूत अनतःकरण मे सवप के समय एकता को पापत
होती है।), 'सुषुिपतकाले सकले िवलीने ' (िजस कारणभूत बह मे िवनाश के समय मरते हुए भूत पवेश करते है), 'यथा
नदः सपनदमानाः समुदेऽसतं गचछिनतनामरपे िवहाय' (जैसे बह रही निदया अपने नाम और रप का तयाग करके समुद मे
लीन हो जाती है), 'गताः कलाः पंचदशपितषानम्' (मोक से समय जानी के पाण, शदा, पाच महाभूत, इिनदय, मन,
अन, वीयर, तप, मनत, कमर और लोभरप पनदह कलाएँ अपने कारण मे पापत हो जाती है) और 'एवमेवासय पिरदषुिरमाः
षोडश कलाः पुरषायषाः पुरषं पापयासतं गचछिनत' (इस दषा की ये सोलह कलाएँ , िजनका पुरष सथान है, पुरष को
पापत करके यानी पुरषातमभाव को पापत होकर असत को पापत होती है।) सुषुिपत, पलय, समािध, साकातकार और
िवदेहकैवलय मे पपंच की िनवृित होने के कारण जीव की बहरपतापािपत के पितपादन दारा पतयकबहैकरस अखणड
वसतु की लकक पूवोकत इन शुितयो के भी मन का नाश होने से ही सारे पपंच की िनवृित दारा सवरप पितषा मे तातपयर
है, इस रहसय का उदघाटन करने के िलए उपशम पकरण का आरमभ कर रहे शीविसषजी पूवर और उतर पकरणो की
संगित दशाते हुए िवषय और पयोजन को िदखलाकर िशषय को सुनने के िलए सावधान करते हुए कहते है।
हे शीरामचनदजी, दृशय की िसथित का पितपादन करने वाली शुितयो के तातपयर का वणरन करने के उपरानत
आप इस उपशम पकरण को सुिनये जो समझ मे आने से मोककारी है।।1।।
यहा पर िसथित का पितपादन करने वाली शुितयो के तातपयर का वणरन करने के पशात उपसंहार बोधक
शुितयो के तातपयर वणरन की अवसर संगित है। 'जातं िनवाणकािर यत्' से पूवर पकरण का पयोजन ही इसका पयोजन
है, जो दोनो की एक कायरकािरता संगित भी िदखलाई, यह जानना चािहए।
शीवालमीिक जी ने कहाः वतस भरदाज, जब देवता, ऋिष, मुिन, राजा आिद की सुनदर सभा शरद् ऋतु मे
तारो से ठसाठस भरे हुए आकाश के तुलय िनशल थी, शीविसषजी इस पकार मन को आननद मे डुबाने वाले पिवत
वचन कह रहे थे। वायुरिहत अतएव िनशल कमलवाले कमलो के तालाब की नाई सभा का मधयभाग विसषजी के
जानपूणर वचन सुनने मे उतसुकतावश मौन होकर बैठे हुए राजाओं से पूणर था, िवलासिनयो के मद और मोह का बल
शानत हो गया था, वे िचरसंनयािसिनयो की तरह अनतःकरण मे परम शािनत को पापत हो रही थी। िवलािसनी गण के
कर कमलो मे हंस-से मालूम हो रहे चँवर मानो विसषजी का उपदेश सुन लेने से शुत अथर मे समािध लगाकर लीन हो
गये थे, वृक की तरह सभा मे पिकयो ने अपना चह-चहाना बनद कर िदया था, नािसका के अगभाग पर तजरनी अंगुली
के अगभाग को रख कर िवचारवान राजा गण िवजानकला को िवचार कर रहे थे पातःकाल मे कमल की नाई
शीरामचनदजी िवकिसत हो उठे थे। जब सूयर के पकट काल मे आकाश अनधकाररपी आसन का तयाग कर चुका था।
(अनधकार भूिम मे ही घन होता है अतएव ऊपर िसथत आकाश के आसनरप से उसकी उतपेका की गई है। भाव यह है
िक जैसे गुरजनो के आने पर िशषय उनका अभयुतथान करता हुआ आसन का तयाग करता है वैसे ही सूयर के उदय होने
पर आकाश ने अनधकाररपी आसन छोड िदया था), महाराज दशरथ जैसे मयूर वृिष के कारण हुई आदरता से मेघ के
शबद सुनता है वैसे ही पेमादरभाव से शीविसषजी के उपदेश वचन सुन रहे थे, बनदर की तरह चंचल मन को सब िवषय
भोगो से हटाकर मनती लोग बडे पयत के साथ सुनने मे लगे थे, शीविसषजी के उपदेश वचनो से लकमणजी के हृदय
मे बह का सफुरण हो रहा था, उनहे आतमतततव का पिरजान हो चुका था तथा वे चनदमा के खणड के समान िनमरल और
िशका बल से िवचकण हो गये थे, शतुओं का संहार करने वाले शतुघजी िचत से पूणरता को पापत हो चुके थे, पूणर
आननद को पापत वे पूिणरमा के पूणर चनदमा के समान िसथत थे, दुःखी मन के वशीभूत हो जाने पर सुिमत मनती का
हृदय जैसे मानसरोवर मे दुःख से िचिनतत सुनदर सूयर के उदय दारा पीितकर होने पर पातःकाल के कमल िवकिसत हो
उठते है वैसे ही िवकिसत हो उठा था।।2-12।।
उस समय वहा पर बैठे हुए अनयानय राजा और मुिन, िजनके िचतरपी रत भली-भाित धुल गये थे, िचत से
उललिसत-से हो गये। उस समय दशो िदशाओं को पूणर करती हुई, पलयकाल के मेघ के गजरन के समान तेज और
सागर के घोष के तुलय गमभीर मधयाहकाल के शंखो की धविनया ितरोिहत हो जाती है।।13-15।। तदुपरानत मुिन
ने सभा मे अपनी उपदेश वािणयो का उपसंहार िकया। िजस गुण का जनो को आहािदत करने वाला अंश अिभभूत हो
गया है, उसे कौन गुणी पुरष पकट करेगा ! भाव यह है िक मधयाहकालीन शंखो की धविन से लोगो का मन चंचल हो
उठा था, अतएव उनहोने अपने उपदेश वचनो मे लोगो की एकागता न देखकर उसका उपसंहार िकया। मधयाहकाल
की शंखधविन सुनकर मुहत ू रभर िवशाम करके घन कोलाहल के शानत होने पर शीविसषजी ने शीरामचनदजी से कहाः हे
शीरामचनदजी, आज का इतना ही आिहक मैने कहा, हे शतुतापन, शेष वकतवय कल पातःकाल कहूँगा।।16-18।।
मधयाह समय मे करने योगय िदजाितयो का िनयमतः पापत कतरवय कमर नष न हो, इसिलए उसका अनुषान मुझे भी
करना चािहए।।19।। हे सुनदर, आप भी उिठये। हे आचारचतुर, सनान, दान, अचरन, पूजन आिदरप सब
सितकयाओं का अनुषान कीिजये।।20।। ऐसा कह कर मुिनजी उठे। जैसे उदयाचल के िशखर से चनदमा के साथ
सूयर उिदत हो वैसे ही मुिनजी के साथ महाराज दशरथ सभासिहत उठे।।21।। उन दोनो के उठने पर मनद मनद
वायु से किमपत भँवररपी नेतवाली वह सारी सभा उठने के िलए चंचल हईु ।।22।। िसर की मालाओं से उठ रहे
भँवरो के दलो से अलंकृत वह सभा असताचल मे (▀) चंचल सूँडवाली गजसेना के सदृश उठी।।23।।
▀ यहा के मधयाह का समय असताचल के सूयोदय का समय है, वह हािथयो के उठने का समय है, इस
आशय से सनधयादौ (असताचल मे) कहा है।
एक के शरीर के दूसरे के शरीर के साथ टकराने के कारण सभा मे हजारो बाजू-बनद चूर-चूर हो गये थे,
अतएव वह जहा तहा रतो से भरी हुई थी, इसिलए उस सभा को देखने से लाल मेघो से युकत सनधया का समरण हो
जाता था।।24।। उड रहे और मालाओं से गुँथे हुए मुकुटो पर मँडरा रहे भँवरो ने घुंघुम धविन से उस सभा को
गुलजार बना रखा था और मुकुटो पर भाित-भाित के जडे हुए रतो की पभा से उस सभा ने आकाश को इनदधनुष बना
डाला था।।25।। कानतारपी लताओं के हाथरपी पललवो मे सुनदर चँवररपी मंजरीवाली वह सभा कुबध गजराजो
के मणडल से युकत वन शेणी के तुलय थी यानी जैसे वन शेणी मे लताओं के पललवो मे सुनदर मंजिरया सुशोिभत होती है
और उसमे मदोनमत गजराज कुबध रहते है वैसे ही उस सभा मे मिहलाओं के हाथो मे चँवर शोिभत थे और सभा से उठ
रहे लोग ही िवकुबध मत गजराज थे।।26।। उस सभा ने चमक रही कडो की कािनतयो से सब के वसत लाल कर
िदये थे और परसपर के आकषरण फैला िदये गये थे, अतएव वह सभा वायु से िजसके फूल उडाये गये हो, ऐसी
मनदारवनरािज के तुलय थी।।27।। उस सभा ने इधर-उधर उड रहे कपूर के चूणर से और उसके सदृश िहम कणो
से सफेद मेघ बना रखे थे, अतएव वह िजसकी सारी की सारी भूिम िहम, काश और फूल आिद से वयापत हो, ऐसा
शरतकाल के िदकतटो की पंिकत के सदृश थी।।28।। चंचल मसतक मिणयो के अगभाग से उस सभा के आकाश
का मधयभाग लाल हो गया था, अतएव वह िजसमे नीलकमल िखले न हो तथा िदन के कायों का उपसंहार करने वाली
सनधया के तुलय थी।।29।। रतो के िकरणरपी जलपवाह मे मुखरपी कमलो से ठसाठस भरी हुई नुपुरो की
धविनरपी सारसवाली और भँवरो से वयापत वह सभा कमिलनी के (कमल के तालाब के) सदृश थी। उसमे मिणयो की
िकरणे की जल पवाह के सथानापन थी, लोगो के मुँह ही पदसथानीय थे, नुपुरो की धविनयो ने ही सारसो का सथान
िलया था और भँवरे भी फूलो की मालाओं मे मँडरा रहे थे, अतएव वह कमिलनी के तुलय थी।।30।। सैकडो
राजाओं से वयापत, िवसतृत वह सभा सैकडो पवरतो से वयापत पािणयो की परमपराओं से पूणर नूतन उतपन हुई सृिष के
समान थी।।31।। तदननतर मिणयो दारा इनदधनुष के तुलय बनाये गये राजा लोग राजा दशरथ को पणाम कर जैसे
मिणयो दारा इनदधनुष के तुलय बनाई गई तरंगे सागर से िनकलती है वैसे ही राजमिनदर से िनकले।।32।। सुमनत
और अनयानय मंती, जो बहरस और जल के िवहारजान मे बडे िनपुण थे, शीविसषजी और राजा दशरथ को पणाम कर
सनान करने के िलए गये। वामदेव आिद और िवशािमत आिद अनयानय ऋिषगण शीविसषजी को आगे करके अनुजा की
पतीका मे खडे रहे।।33,34।। तदननतर वहा पर शतुतापन राजा दशरथ मुिनयो की पूजा करके मुिनयो से आजा
पाकर अपने कायर के िलय गये।।35।। पातःकाल िफर आने के िलए वानपसथ लोग वन को गये, गनधवर आिद
वयोमचारी आकाश को गये और नागिरक लोग नगर को गये।।36।। राजा दशरथ और विसषजी के बडे िवनय से
पाथरना करने पर भगवान शीविसषजी ने शी विसषजी के िनवास सथान पर िबताई।।37।। जैसे देवताओं के समूह
से अनुगत सवरलोक नमसकृत भगवान बहा बहलोक को जाते है, वैसे ही सब बाहण शेषो, राजाओं और मुिनयो के
साथ राम आिद दशरथ के सब पुतो दारा उपािसत शीविसषजी अपने आशम को गये।।38,39।।
तदुपरानत अपने आशम सथान से उनहोने अपने चरणो पर िगरे हुए राम आिद सब दशरथ पुतो को िबदा
िकया।।40।। आकाश मे रहने वाले, भूिम मे रहने वाले और पाताल मे रहने वाले उन सबको, जो िक उतम-उतम
गुणो से अलंकृत थे, यथा योगय िबदा करके अपने घर मे पवेश कर उदारिचत शीविसषजी ने िदवसोिचत पंचयज िकया
की।।41।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पहला सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआआआआआआआआ, आआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआआआ
आआ आआआआआआ आआआ आआआआ आआआ आआआआआआआआ आआआ आआआआआआआ आआ
आआआ आआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआआआ
। आआआआआ
चनदमा के तुलय कािनतवाले उन राजपुतो ने साथ साथ घर जाकर अपने अपने भवनो मे भलीभाित आिहक
कायर िकया।।1।। शीविसषजी, शीरामचनदजी, अनयानय राजाओं, मुिनयो और िदजाितयो ने अपने घरो मे, गिलयो मे
और बाहर करने योगय अपने -अपने कायर िनमिलिखत रीित से िकये। कमल, कहार, कुमुद तथा उतपलो से मनोहर
और चकवाक, हंस तथा सारसो की पंिकतयो से युकत जलाशयो मे उन लोगो ने सनान िकया। गौ, भूिम, ितल, सुवणर,
शयया, आसन, वसत, बतरन आिद का दान बाहणो को िदया। सुवणर और मिणयो से अदभुत देवालयो मे और अपने घरो
मे िवषणु, शंकर तथा अिगन, सूयर आिद देवताओं की पूजा की। तदननतर इन लोगो ने पुत, पौत, सखा, चाकर और
बनधु-बानधवो के साथ अपने अनुरप भोजन िकया। उस समय उस नगर मे केवल अषम भाग शेष रहने से िदन सूकम
हो गया था, अतएव वह देखने मे अचछा मालूम पडता था। सायंकाल तक का समय उनहोने तब तक उस समय के
उिचत पुराण, धमरशासत के अवलोकन आिद कमर से िबताया, जब तक िक भगवान सूयर अपनी िकरणो के साथ असत
नही हो गये।।2-8।। तदननतर उनहोने भलीभाित सनधयावनदन िकया, अघमषरण मनतो का जप िकया, पिवत सतोत
पढे और मनोहर गाथाएँ गाई।।9।। तदुपरानत कानत के संगम से कामिनयो के शोक का नाश करने वाली तथा
चनदमा और तुषार को देने वाली राित कीरसागर से पकट हुई पूवर िदशा के तुलय आिवभूरत हुई। धीरे-धीरे शीरामचनदजी
आिद राजकुमार दीघर चनदिबमब के समान रमणीय िबसतरो पर सोये जो फूलो से भरे थे और कपूर का चूणर िजन पर
मुिटयो से बखेरा था।।10,11।। तदुपरानत शीरामचनदजी को छोडकर और लोगो की उस समय के उिचत
िवषयभोग, िनदा आिद वयवहारवाली वह मनोहर राित िबसतरो पर मुहूतर के समान धीरे-धीरे बीत गई। िकनतु
शीरामचनदजी जैसे हाथी का बचचा अपनी माता का िचनतन करता है वैसे ही शीविसषजी की पूवोकत उदार और मधुर
उपदेशवाणी का िचनतन करते हुए बैठे रहे। यह संसार भमण कया वसतु है, ये लोग कया है, ये िविचतभूत कयो आते है
और कयो जाते है, मन का सवरप कैसा है, कैसे यह िनवृत होता है, यह माया कहा से आिवभूरत हुई है और कैसे यह
िनवृत होती है ?।।12-15।। इस माया के िनवृत होने से कया गुण होता है ? अथवा समपूणर भोगय, भोकता और भोग
की िनवृित होने से पुरषाथर िवघातरप दोष होता है ? आकाश से भी िवसतीणर आतमा मे यह संकोच (पिरचछेद) कहा से
आया ?।।16।। भगवान शीविसषजी ने मन के कय के िलए कया साधन और फल कहा है अथवा आतमा के िवजात
होने पर कया कहा है ?।।17।। जीव, िचत, मन, माया इतयािद फैले हुए रपो से आतमा ही इस िमथयाभूत संसार का
िवसतार करता है एवं एकमात मन रप तनतु मे बंधे हुए इनका कय होने से दुःखिनवृित िसद होती है। मायारप ये सब
हम लोगो के दारा कैसे भली-भाित िचिकतसा योगय होगे ? िवषयरपी मेघो का (िवषय ही संसाररप से घन बन कर
िचताकाश को आवृत करने के और दुःखो की हजारो धाराओं को वषा ने के कारण मेघ के सदृश हुए) अनुसरण कर
माला के समान घेरने वाली अपनी बुिदवृितरपी इस बकपंिकत को जैसे हंस जल से दूध का भाग अलग कर देता है
वैसे ही मै कैसे पृथक करँ ?।।18-20।।
यिद कोई शंका करे, िवचार से कया पयोजन है, भोगो का ही तयाग कीिजये तो इस पर कहते है।
भोगो का तयाग नही िकया जा सकता और उनके तयाग के िबना हम िवपितयो से िनसतार नही पा सकते, अहो
यह बडा संकट आया। भाव यह है िक सवरथा भोगो का तयाग करने से जीवन ही नही रह सकता। जीवन के िलए
थोडा भी यिद भोग का उपादान िकया जाय, तो वासनावृिद का संकट आ गया।।21।।
दूसरा संकट भी कहते है।
इस अवशय पापतवय आतमतततव मे मन ही पमाण है और यह बाहरी िवषय समुदाय ही िजसकी िसिद मे कारण
और पुरषाथरभूत है, ऐसा हमारा मन अपनी मूखरतावश पहाड से भी बढ-चढ कर भारी बन गया है। जैसे िक बालक
दारा मूखरता से किलपत यक पहाड के समान भारी हो जाता है। भाव यह है िक मन की िसिद िवषयो के अधीन है
अतएव िवषयो से मन को िनवृत करना संभव नही है, कयोिक ऐसा करने से उसकी िनःसवरपतापित हो जायेगी।
िवषयो से उसकी िनवृित िकये िबना तततवसाकातकार मे वह पमाण नही बनाया जा सकता, यह दूसरा संकट है।।
22।।
यिद सब िवषयो की िनवृित होने पर भी एकमात बहाकारता का अवलमबन करके वासनारिहत मन को
सथािपत िकया जा सके, तो इिचछत िसिद हो सकती है, ऐसा िवचार करते हुए कहते है।
िजस युवती ने अपने पित को पा िलया, वह िफर दूसरे का समरण नही करती है वैसे ही संसारभम से रिहत
बहाकारता को पापत हुई हमारी मित परम शािनत को पापत करके दूसरे िकसी का समरण नही करेगी।।23।।
उस दशा को पापत करने के िलए उतकणठा करते है।
कब मेरा मन कोधरिहत, समपूणर अिभलाषाओं से शूनय, पापहीन, पिवत और परमातमा मे िवशानत होगा ? सोलह
कलाओं से समपूणर चनदमा से भी शीतल परम पद मे सपतम भूिमकापयरनत भली भाित िवशाम कर (जीवनमुिकत सुख को
पापत) मै कब जगत मे भमण करँगा ? जैसे जल मे छोटी तरंग िवलीन हो जाती है वैसे ही किलपत असतयरप का
तयागकर आतमा मे लीन हुआ मन कब शािनत को पापत होगा ? तृषणारपी तरंगो से अशानत, आशारपी मगरो से भरे हुए
संसार सागर को तैरकर मै कब सनतापरिहत होऊँगा ? जानी और समदृिष होकर मै उपशम से शुद, मुमुकुओं को पापत
होने योगय पदो मे शोक रिहत होकर कब िनवास करँगा ? मेरा बडा भारी संसाररपी जवर कब नष होगा ? उसने मेरे
सब अंगो को संतपत कर रखा है एवं धातुओं के कय से जो भयंकर है। हे बुदे, वयथारिहत और तेज पकाश से पिरपूणर
मेरा िचत िनवात सथान मे रखे हुए दीपक की िशखा के समान कब शािनत को पापत होगा ?।।24-30।। गरड
जैसे सागर को अनायास पार कर जाता है, वैसे ही मेरी इिनदया िवषयो की अवहेलना से दुःखो को दूर करने के िलए
दुष अिभलाषा से होने वाले िविवध भावी शरीरो को कब पार कर जायेगी ? पशु, पुत, धन, अन, पान आिद की अपािपत
और िवयोग से रो रहे मुझ मूढ मे रोदन का कारणभूत यह देह ही वह पिसद आतमा मै हूँ, इस पकार का पूवर-पूवर देहो
की वासना और काम-कमर परमपरा से उतपन वयथर भम पबोधरप िवमलता की पािपत होने पर शरतकाल मे मेघ की तरह
कब नाश को पापत होगा ?।।31,32।।
उतकट मोकेचछा से सवगर भी मुझे तृण के समान मालूम पडता है, ऐसा कहते है।
ननदनवन मे जो सुखानुभव है, वह िजस परम पद मे तृण के तुलय नगणय है, उस आतमामय परम पद को मै
चाहता हँू, उसको कब मै पापत होऊँगा ?।।33।।
अब िववेक गहण के िलए मन आिद की पाथरना करते है।
हे मन, कहो तो सही, वीतराग पुरषो दारा उपिदष िनमरल जानदृिष कया तुममे िसथित करेगी ? हे िचत, मै
दुःखरपी अजगरो का भोजन होकर हा तात, हा मात, हा पुत – इन रोदनो का भाजन िफर न होऊँ।।34-35।। हे
बुिद, हे बहन (♠) मै तुमहारा भाई हँू, मेरी पाथरना को तुम जलदी पूरी करो। हम दोनो दुःख से छुटकारा पाने के िलए
मुिन जी की उपदेशवािणयो का िचनतन करे।।36।। हे सािधव, हे पुित (ф) हे सनमते, हे भवये, तुमहारे पैर पकडकर
पेम से मै पाथरना करता हँू। मेरी पाथरना से संसार के उचछेद से उपलिकत पूणरता की पािपत के िलए तुम खूब सावधान
होओ।।37।।
♠ जीव और बुिद एक अिवदा के गभर से उतपन हुए है, इसिलए बुिद को भिगना कहा और अपने को भाई
कहा।
ф शासताभयास और सजजनो के अनुगह से पीछे उतपन होने के कारण सनमित को पुती कहा।
इस पकार पाथरना दारा सावधान की गई बुिद को वैरागय-पकरण आिद चार पकरणो के अथर के समरण मे
कमशः िनयुकत करते है।
हे मते, शीविसष मुिन दारा मेरे मुख से कहलाई गई और सवयं कही गई वैरागयवािणयो का, तदननतर मुमुकुओं
के आचार का, तदननतर उतपितयो के कम का तदननतर दृषानतो से सुनदर और जानपूणर उपाखयानो से सुबोध इस
िसथित-पकरण का तुम भली भाित समरण करो।।38,39।।
यिद कोई शंका करे िक मन की पहले पाथरना की गई, उसी से चारो पकरणो के अथर के अवधारण की िसिद
हो गई िफर उससे पृथक मित की कयो पाथरना की जाती है ? तो इस पर कहते है।
मन से सैकडो बार जो वसतु िवचािरत होती है, उसे यिद बुिद सवीकार न करे, तो वह भलीभाित िवचािरत हुई
भी शरतकाल के मेघ के समान िसथर नही रहती, अतः शवण दारा तततव का िवचार होने पर भी मनन दारा समपािदत
िनशयाितमका बुिद ही कतरवय समपादन मे समथर होती है, इसिलए पुनः मित की पाथरना उिचत ही है।।40।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
दूसरा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआआआआआआ आआआ आआआ आआआ आआआआआआआआआआआआआआआ आआआ आआ आआआ
आआआआआआआआआआआआ
आआ आआआ-आआआ आआआ आआआआ आआ आआआ आआ आआआआआ।
शीवालमीिक जी ने कहाः हे वतस, जैसे सूयोदय की आकाका करने वाले कमल की राित वयतीत होती है, वैसे
ही शीरामचनदजी की वह राित इस पकार की िवसतृत जानिवषयक िचनता से वयतीत हुई।।1।। कुछ अनधकारवश
पीले, कुछ लाल आकाश मे िवरल तारो वाली िदशाओं की मानो बुहारी से छोडने पर पातःकाल के तुयरशबद के साथ
चनदमा के समान सुनदर मुखवाले शीरामचनदजी कमल के तालाब से सुनदर कमल के समान उठे।।2,3।। पातःकाल
की सनान िविध कर और सनधया-वनदन आिद कमर से िनवृत होकर भाईयो के साथ थोडे से अपने पिरजनो को भेजकर
िफर सवयं विसषजी के िनवास सथान पर गये।।4।। पहले ही सनान, सनधया आिद से िनवृत होकर एकानत मे समािध
मे बैठे हुए आतमपरायण मुिन को शीरामचनदजी ने िसर झुकाकर दूर से ही पणाम िकया।।5।। िवनययुकत वे
राजकुमार उनहे पणाम कर जब तक अनधकार भली-भाित नष नही हो गया।, िदशाएँ साफ-साफ नही िदखाई देने लगी,
तब तक उस आँगन मे खडे रहे। तदननतर राजा, महाराज, राजकुमार, ऋिष और बाहण बहलोक मे देवताओं के
समान चुपचाप शीविसषजी के सथान पर आये।।6,7।। शीविसषजी का वह िनवास सथान लोगो से ठसाठस भर
गया। हाथी, घोडे और रथो की भीड लग गयी। वहा राजाओं के उिचत िशषाचार के रहने पर भी वह घर राजमहल
के सदृश सुशोिभत हो गया यानी िवनय आिद राजोिचत वयवहार तो था ही, घर भी अब राजमहल के सदृश हो गया।।
8।। एक कण मे शीविसषजी समािध से जाग उठे। उनहोने िवनय आिद वयवहार से और िपय वचन आिद के उपचार
से पणाम कर रहे लोगो के ऊपर अनुगह िकया। िवशािमतजी के साथ मुिन शीविसषजी, िजनके पीछे बहुत से मुिन
चल रहे थे, जैसे बहा कमल पर आरढ होते है वैसे ही रथ पर शीघ आरढ हुए।।9,10।। जैसे स देवताओं से
पिरवृत बहा इनद के नगर मे जाते है वैसे ही िवशाल वािहनी पिरवृत शीविसषजी महाराज दशरथ के घर गये।।
11।। जैसे हंसो के झुणड से पिरवेिषत राजहंस कमल के तालाब मे पवेश करता है वैसे ही िवनीत लोगो से पूणर राजा
दशरथ िसंहासन से शीघ उठकर वहा पर तीन कदम उनके सवागत के िलए गये।।13।। उस सभा मे उन सब
दशरथ आिद राजाओं, विसष आिद मुिनयो, ऋिषयो, बाहणो, सुमनत आिद मिनतयो, सौमय इतयािद िवदानो, राम आिद
राजकुमारो, शुभ आिद मनतीपुतो, अमातयो, पजाओं, सुहोत आिद नागिरको, मालव आिद नौकर-चाकरो और माली आिद
पुरवािसयो ने पवेश िकया।।14-16।। तदननतर जब वे सबके सब अपने -अपने आसनो पर बैठ गये और आसनो पर
बैठे हुए वे शीविसषजी की ओर टकटकी लगाये हएु थे, सभा का कोलाहल शानत हो चुका था, बंदीगुण चुप हो गये थे,
राित मे सुखपूवरक रहने के समबनध की पशोतर रप आपस की बाते समापत हो चुकी थी, उस सभा के मधय मे िनशलता
छा गई थी, कमलो के पराग कमल के गभर से िनकलकर सभा मे पवेश कर रहे थे एवं वायु से चंचल मोितयो की लरो मे
चंचलतापूवरक भोगलमपट हो रहे, चारो ओर झूल रहे बडे-बडे फूलो के झूलो से खूब अिधक सुगनध लेकर मनद-मनद
वायु बह रहा था, झरोखो पर लगे हएु कोमल िबछौनो पर, िजनमे फूल िबखेरे थे, बैठी हईु मिहलाएँ देख रही थी, झरोखो
से आई हुई सूयर की िकरणो से चकाचौध होने के कारण चंचल नेतवाली मिणयो की पभा से पीली और सुकुमारी, सफेद
चँवर धारण करने वाली वे चंचल नािरया चपलता का तयागकर चुपचाप खडी थी, िविवध पकार के रतो से जडे हुए
आंगनो के मोितयो के पितिबमब के तुलय सूयर की िकरणो के राग से युकतत मधयवाले यानी नाना पुषपरािश का गहण नही
रहे थे, अतएव पृिथवी का सपशर न होने से आकाश मे मेघ के समान मँडरा रहे थे, उस सजजनो के समाज मे
पूजनीयजन, पूवरसंिचत पुणयो से शीविसषजी के मुख से िनकला हुआ जो वचन सुना था, हृदय मे उस वचन के िवसतार
दारा बडे आशयर के साथ बहुत गुण-गणो से सुनदर, कोमल पदाविलयो से मनोहर अभीष वाकय आपस मे कह रहे थे,
िदशाओं से, नगर से, आकाश से और वन से आये हुए िसद, िवदाधर, शेष मुिनगण और बाहणवृनद शीविसषजी को
चारो ओर से मौनपूवरक पणामकर चुपचाप पवेश कर रहे थे, तदननतर िजनके साथ अवशय समभाषण करना चािहए, ऐसे
गौरवशाली पुरषो के साथ अितमनद सवर से कान के पास बाते और कह रहे थे, िखले हुए रकत कमलो के कोशो से
िनकले हएु , पहले उनके अनदर डू बे हुए भौरो, पुषपरस और पुषपराग के रंग से कुछ पीले रंगवाले तथा घर मे लगी हुई
वायु के धके से चंचल घिणटयो के शबद से िजसने घरो के अनदर होने वाले गीतो को ितरसकृत कर िदया था, ऐसा वायु
बह रहा था, चनदन की सुगनध से िमिशत, फूल के चंचल पराग से युकत अतएव ताजे फूलो की उतकट सुगनध से मेघो
को सुगिनधत करने वाले अगर और तगर के धुएँ , शािमयानो मे बँधे हएु कमलो की सुगनध के साथ िजस बहने मे शबद
होने के कारण भँवरो की पतीित होती थी, यो बह रहे थे।।17-27।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तीसरा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआ आआआआ
आआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआआ
आआआआआआआआआआआआ
आआ आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ।
शीवालमीिक जी ने कहाः वतस, राजा दशरथ ने मेघ के गजरन के तुलय गंभीर वाणी से यह उनके उपदेश मे
अतयनत िवशास पकट करने वाली पदाविलयो से सुनदर िनिमिदरष वचन मुिनशेष शीविसषजी से कहा।।1।। भगवन्,
कल की उपदेश कथावली से उतपन हुए तथा तपसया के कलेश से भी बढे-चढे शम से आप मुकत हो गये है ? शोताओं
को आननद देने वाला जो िवशद वचन समूह से आपने कल कहा था, अमृत की वषा के तुलय उसी वचन समूह से हम
लोग आशािसत हुए है। जैसे अमृत से िनमरल चनदमा अमृत की वषा के तुलय उसी वचन समूह से लोग आशािसत हुए
है। जैसे अमृत से िनमरल चनदमा की िकरणे अनधकार को हटाकर अनतःकरण को शीतल करती है वैसे ही अमृत की
तरह िनमरल ये महातमाओं के िवशद उपदेश अजानानधकार को हटाकर अनतःकरण को सनतापरिहत कर देते है।।2-
4।।
अब चनदमा की िकरणो से भी महातमाओं की उपदेशवािणया उतकृष है, ऐसा कहते है।
मनुषय के आननद से लेकर िहरणयगभर के आननदपयरनत िवषयसुखो से भी अतयनत ऊँचे पद से संबध ं रखने
वाली जो महातमाओं की सूिकतया है, वे अपूवर आननद को देने वाली और मोह को सवरथा दूर करने वाली है।।5।।
आतमरप रत के पकाशन मे एकमात दीपकरप तथा सरस युिकतरपी लताएँ िजससे उिदत होती है, वह सजजनरपी
वृक वनदनीय है।।6।। जैसे चनदमा की िकरणे अनधकाररािश को हटा देती है वैसे ही सजजनो की सूिकतया मन से
जो बुरा िवचार िकया, शरीर से जो बुरा काम िकया, उन सबको िनवृत कर देती है।।7।। हे मुिनजी, जैसे शरतकाल
मे वषा ऋतु के मेघ कीण होने लगते है वैसे ही हम लोगो के संसार मे बनधन शृंखलारप तृषणा, लोभ आिद आपके
उपदेश वचन से कीण होने लग गये है।।8-10।। िसद रस से बनाये गये िसद अंजन से िजनहे दृिष पापत हो गई,
ऐसे जनमानध लोग िजस पकार सुवणर को देखने लगते है वैसे ही बहरसरपी अंजन से पापत पतयग् दृिष वाले हम लोग
िनदोष आतमा को देखने के िलए उपयुकत हो गये है। आपकी उिकत रपी शरद ऋतु से हमारे हृदयरपी आकाश मे
िसथत संसारवासना नामक कुहरा नष होने लग गया है। हे मुिनजी, उदारबुिद पुरषो की उपदेशवािणया जैसे हृदय को
आहािदत करती है वैसे मनदार के फूलो के गुचछे अथवा अमृत सागर की तरंगे आहािदत नही करती। हे रघुवर, जो-जो
िदन महापुरषो की पूजा से वयतीत होता है, वही िदन पकाशयुकत है, शेष िदन अनधकार से आवृत है। हे कमल के
समान िवशाल नेतवाले शीरामचनदजी के सामने बैठे हुए, उदारबुिद भगवान शीविसषजी ने यो कहना आरमभ िकया।।
14।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, हे अपने रघुकुल के एकमात पकाशक चनद, हे महामते, जो मैने पूवापर
िवचािरत वाकयाथर कहा था, कया उसका आपको समरण है ? कया आप मन के समान माया से जगत के वेश मे िसथत
बहरप, िनषपपंच बहरप, सथूल, सूकम, सदा उिदत परमातमा के रप का, जो हमने कहा था, समरण करते हो ? अथवा
अपनी बुिद से दृशय से अितिरकत उसे जानते हो ?।।15-17।। हे सजजनिशरोमणे, हे साधुवादो के एकमात भाजन,
सवरशिकतमान बह से ही जैसे यह िवश उिदत हुआ है, उसका कया आप समरण करते है ?।।18।। हे सनमते, फैले
हुए अिवदा के रप का, जो काल के बल से नष होने वाला, संखया से अननत और देश, कालािद से अनतवाला है, कया
आप समरण करते है ? िचत ही नर है, िचत से अितिरकत नर नही है, ऐसा जो मैने कहा था, उसका लकण आिद के
िवचार दारा कया आप भलीभाित समरण करते है ?।।19,20।। हे शीरामचनदजी, कया आपने कल के शवण के
िवषयभूत वाकयाथर को मनन दारा पिरषकृत िकया और राित मे उसे हृदय मे सथािपत िकया ?।।21।। हे
शीरामचनदजी, बार-बार िवचारा हुआ, मनन दारा हृदय मे सथािपत तततविचनतन मोकरप पयोजन को देता है। िकनतु
िजस नराधम ने उपिदष पदाथर की धारणा अनादर से नष-भष कर दी उसे मोकरप फल पापत नही होता।।22।।
हे शीरामचनदजी, जैसे िवशाल वकःसथल वाला पुरष कणठ मे जाितशुिद से शोिभत होने वाले सुनदर मोितयो का भाजन
होता है, वैसे ही िववेकयुकत िचतवाले आप िवचािरत, शुिद से शोिभत होने वाले उपदेश वचनो के भाजन है।।23।
शीवालमीिक जी ने कहाः बहाजी के पुत महातेजसवी शीविसषजी के इस पकार शीरामचनदजी को कहने के
िलए अवसर देने पर शीरामचनदजी ने िनिमिलिखत वाकय कहा।।24।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, हे सब धमों के जाता, आपके ही पभाव का यह िवसतार है, जो िक मै परम
उदार होकर आपके वचन को समझ सका। जैसे आप आदेश देते है, वैसे ही वह सब मैने िकया, उससे िवपरीत नही
िकया है। राित मे िनदा का तयाग करके मैने हृदय मे वाकयाथर का िचनतन िकया। हे पभो, उपदेश योगय अथर के
पकाशन मे सूयररप आपने संसाररप अनधकार के िवनाश के िलए जडतारप शीत को हटाने से सुख देने वाला
वाणीरपी िकरणो का समूह कल फैलाया था।।25-27।।
हे उदारिचत, मनोहर, पुणयमय और कमयुकत वह सारा का सारा अतीत उपदेश िसलिसलेवार गुँथे हुए मनोहर
और पिवत रतो के समान मैने अपने हृदय मे सथािपत िकया।।28।।
सब अिनषो की िनवृित करने वाला, अतयनत मधुर, परमपुरषाथर का साधन और अनुललंघनीय होने के कारण
आपका वचन अवशय िसर से पणाम कर हृदय मे धारण करने योगय है, ऐसा कहते है।
भगवन्, आपका शासन िहतकारी, मनोहर, पुणय और आननद का साधन है, अतएव िकन देवयोिन िवशेष िसदो
दारा अथवा सवतः िसद सनकािद दारा या योग, मनत आिद से िसद पुरषो दारा िसर से धारण नही िकया जाता ?
संसाररपी कुहरे के आवरण का िनवारण कर रहे हम लोग आपके पसाद से वषा ऋतु के अनत मे िदवसो के समान
पसन हो गये है यानी हम मे आपका उपदेश वयथर नही हुआ। आपका पिवत उपदेश तीनो कालो मे िहतकारी है। शवण
के समय वह मधुर है, मनन और िनिदधयासन के समय अनतमुरखता से होने वाले शम आिद के समपित सुख को बढाने
वाला है एवं उसका उतरकाल मोकरप उतम फल से युकत है। िवकिसत, सफेद, अमलान एवं पुणय, पाप और उनके
फलो को एकमात आननद रप बना देने वाला आपका उपदेशरपी कलपवृक पुषप हम लोगो को कलयाणकारी फल देने
वाला हो।।29-32।।
अब तीथररप होने के कारण महानदरप से गुर का समबोधन कर अविशष उपदेश कहने के िलए पाथरना
करते है।
हे देशकाल और शासत के िवचारो मे िवशारद, हे फैले हुए सदाचाररपी पिवत जलो के एकमात जलाशय, हे
महावरत, हे िनषपाप मुिनजी, इस समय आप मेरे पित उपदेश वाणी के पवाह का पुनः पसार कीिजये। जलाशयपक मे सब
शासतरपी हंस आिद पिकयो के संचार से सुशोिभत, मुिनयो दारा िजसमे अपने वरत िवसतृतरप से िकये गये है, सनान
करने वालो के पापो का िवनाश करने वाले, फैले हुए पिवत जल के एकमात आशय हे जलाशय तुम इस समय वाणी
पवाहरपी अपने पवाह का िवसतार करो।।33।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौथा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआ आआआ-आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआ
आआ आआआआआ

शीविसषजी ने कहाः हे मनोहर आकृितवाले शीरामचनदजी, उतम िसदानतो से सुनदर, मोकरपी कलयाण देने
वाले इस उपशम पकरण को आप सावधान होकर सुिनये।
हे शीरामचनदजी, जैसे सनतर (उिचत अनतर पर िसथत) खमभे गृहमणडप को धारण करते है वैसे ही राजस-
तामस जीव इस िवशाल संसारमाया को धारण करते है। जैसे साप अपनी पुरानी केचुली का तयाग करते है वैसे ही
पूवोकत लकणवाले, राजससािततवक और शुद सािततवक आपके तुलय गुणवान धीर पुरष अवहेलना दारा इस तुचछ माया
का तयाग करते है।।1-3।।
िकस उपाय से उसका तयाग करते है, ऐसे पश होने पर उस उपाय को कहते है।
हे साधो, शुदसािततवक जनमवाले अथवा राजस-सािततवक जनमवाले पज पुरष ही जगत की मूल परमपरा का
िवचार करते है।।4।। शासत के अभयास, सजजनो की संगित और सतकमों के आचरण से िजनके पाप नष हो चुके,
ऐसे महातमा पुरषो की सार वसतु का अवलोकन करने वाली दीपक के तुलय बुिद उतपन होती है।।5।। सवयं ही
िवचार दारा अपने -आप सवरप का िवचार कर जब तक जान नही होता, तब तक जातवय वसतु पापत नही होती।।
6।।
आप मे तो उसकी पािपत की योगयता है ही, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, जानवान, पवीणकुशल, धीर और राजस-सािततवक जनमवाले सतपुरषो मे आप मुखय है।।
7।। हे पज, संसाररपी कायों मे कया वसतु सतय है अथवा कया असतय है, इस बात का िनरीकण िवचार से सवयं
कीिजए और सतयपरायण होइये। जो वसतु आिद और अनत मे नही है, उसकी सतयता कैसी ? जो वसतु आिद और अनत
मे िनतय है, वही सतय है, वह उससे अितिरकत असतय सवभाव कैसे हो सकती है, कयोिक सवभाव का िवपयरय नही हो
सकता। िजसका मन आिद और अनत मे असनमय वसतु मे सतयबुिद से अनुरकत है, उस मूढ पशुरप जनतु को िववेक
िकस उपाय से उतपन िकया जा सकता है ?।।8-10।।
मनोरथ से बनाये गये महल के तुलय यह जगत एकमात मन का कायर है, इस कारण भी इसमे सतयतव पसंग
नही हो सकता, इस आशय से कहते है।
मन ही यहा पर जनम लेता है, मन ही बढता है और तततवदशरन से मन ही मुकत होता है।।11।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे बाहन, यह बात मुझे जात हो गई है िक इस ितभुवन मे मन ही जरा मरण का भाजन
संसारी है, उसके तरने का जो सुिनिशत उपाय है, उसे मुझसे किहये। कयोिक रघुविं शयो के हृदय के अजानानधकार
का सूयररप आप िवनाश करते है।।12,13।।
पहले शासताभयास और सजजनसंगित से वैरागय आिद साधन चतुषय का समपादन करना चािहए, ऐसा कहते
है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पहले शासताभयास, सजजनसंग और उतकृष वैरागय से मन को
जानोदय के योगय बनाने वाली िवशुिद को पापत कीिजये। जब िनरािभमानता से युकत मन वैरागय को पापत होता है, तब
सब शासतो के रहसयजान से अतयनत गौरवशाली और उपदेश देने की कुशलता से िशषय को सुबुद करने मे समथर
गुरओं का िविधपूवरक अनुगमन करना चािहए।।14,15।। तदुपरानत गुर दारा उपिदष मागर से पहले ितलोचन आिद
सगुण परमेशर का धयान, भजन आिद करके कमशः साधक पुरष जो परम पावन पद है, उसे पापत करता है। सवचछ
िवचार दारा अपने आतमा का शीतल चनदमारपी तेज से पूणर समसत आकाश की तरह भीतर साकातकार कीिजये।।
16,17।। तब तक पुरष संसाररपी महासागर मे तृण के समान बहता है, जब तक िक बुिदरपी नाव से िवचाररपी
तट पर िसथत नही हो जाता।।18।। िवचार से िजसने जातवय वसतु को जान िलया, उस पुरष को बुिद जैसे िसथर
जल रेत के कणो को दबा देता है वैसे ही सब मानिसक िचनताओं को दबा देती है।।19।। राख मे िछपे हुए सोने को
यदिप और लोग अलग नही कर सकते, तथािप सदा सुवणर का शोधन करने से उसे पृथक करने मे दक सवणरकार को
यह सोना है, यह भसम है, यह जैसे साफ जात हो जाता है, उसके न िमलने से होने वाला मोह उसे नही होता वैसे ही
अजािनयो की दृिष से पिरिचछन यह जीव िचरकाल तक िवचार दारा िववेक करके अपने सवरप का पिरजान कर लेने
पर सवतः कालािदपिरचछेद शूनय हो जाता है, इसिलए मनुषय को इसमे मोह का अवसर ही कहा ?।।20,21।। िजस
पुरष ने तततव वसतु का जान पापत नही िकया, उसका मन यिद मोह को पापत होता है तो हो, िकनतु िजसे सार पदाथर
का पिरजान हो चुका है, उसकी मूढता समभािवत नही है, इसमे कोई सनदेह नही है।।22।।
हे जनो, अपिरजात (िजसका पिरजान नही हुआ) आतमा आप लोगो की दुःखिसिद के िलए है, कयोिक "यदा
हेवैष एतिसमनुदरमनतरे कुरते अथ तसय भयं भवित, तततवेव भयं िवदूषो मनवानसय" (जब यह इस आतमा मे थोडा भी
भेद करता है, तब इसे भय होता है, जान के अपिरपाकवश उपासय-उपासक भाव को देख रहे िवदान को भी भय होता
है। ऐसी शुित है। पिरजात आतमा तो अननत सुख और शािनत के िलए है, कयोिक 'रसहेवायं लबधवाननदीभवित', सवान्
कामानापवाऽमृतः समभवत्' 'जातवा तं मृतयमतवेित' 'आननदं बहणो िवदान न िबभेित कुतशन' इतयािद शुितया है।।
23।।
िजसने आतमा का ितरोधान कर रकखा है, ऐसे इस शरीर से िमले-जुले हुए से अपने अपने आतमा का पंच
कोशो के िववेक दारा साकातकार कर आप लोग शीघ सवसथ होइये। हे लोगो, जैसे कीचड मे िगरे हुए सोने का कीचड
के साथ तिनक भी समबनध नही रहता वैसे ही इस िनमरल आतमा का देह के साथ तिनक भी समबनध नही है। जैसे
कमलो के आधारभूत िवपुल जल और कमल के पते मे िसथत जल की बूँदे उपािध से ही िभन है, वसतुतः उनमे भेद
नही है वैसे ही बह और जीव उपािधवश ही पृथक-पृथक है।।24,25।।
शंकाः िवपुल जल के कमल के पते मे िबनदुरप से आरढ होने और पिरचछेद आिद मे वायु आिद िनिमत पिसद
है। पूणातमा के पिरचछेद दारा देह मे आरढ होने मे कौन-सा िनिमत है ?
समाधानः ठीक है, मै बार-बार भुजाएँ फैलाकर और गला फाडकर इस बात की घोषणा कर चुका हूँ िक आतमा
के पिरचछेद दारा देह मे आरढ होने मे एकमात कारण पापी मन ही है, इसिलए उसके नाश के िलए ही पयत करना
चािहए, पर मेरी बात को कोई सुनता नही है।।26।।
दुवासनारपी पंकपूणर, गतर मे कछुए के समान िछपा हुआ और कठोर, भोग पािपत मे मागर के समान दार भी
इिनदयो दारा िवषयो मे संलगन, जड मन जब तक िसथत है, िजसने आतमिवचार को भुला िदया है, तब तक इस
संसाररपी अनधकार का चनदमा, अिगन, नकत, मिण आिद सब तेजो के साथ बारहो सूयर भी तिनक भी भेदन नही कर
सकते। पबुद मन जब अपनी पारमािथरक िसथित को असतयभूत पपंच से पृथक कर देखता है, तब हृदयसथ
अजानानधकार सूयर का उदय होने पर राित के अनधकार के समान िनवृत हो जाता है। देहािद तादातमय अधयासरप
शयया पर शयन िकये हुए मन को उतम जान के िलए और संसार की िनवृित के िलए िनतय जागत करे, कयोिक संसार
अतयनत दुःखदायी है। जैसे धूिल से आकाश का समबनध होने पर भी धूिल से आकाश िलपत नही होता और जैसे जल
से कमल का समबनध होने पर भी जल से कमल िलपत नही होता वैसे ही समबद हुए शरीरो से आतमा िलपत नही होता
है। जैसे पृथक िसथत कीचड आिद का सुवणर के साथ संसगर होता है, िकनतु वह सुवणरतादातमय आपितरप पिरणित को
वसतुतः भीतर पापत नही होता है वैसे ही जड शरीर का आतमा के साथ संसगर तो होता है, परनतु वह आतमातादातमय
आपितरप पिरणाम को वसतुतः पापत नही होता है। जैसे आकाश मे हजारो िबनदुओं की आकृित और मिलनता असतय
ही मूढो की पतीत होती है वैसे ही आतमा मे सुख और दुःख की अनुसािरता और अनुभवकतृत र ा असतय ही मूढो को
पतीत होती है। सुख और दुःख न तो देह के है और न सवातीत आतमा के है। ये अजान के ही है, अजान का नाश
होने पर िकसी के भी नही है न तो िकसी का कुछ सुख है और न िकसी का कुछ दुःख है। हे शीरामचनदजी सबको
आप अपनी जानदृिष से अननत आतमा का िववतर और िनतय पशानत देिखये। जो ये िवसतृत सृिषदृिषया चारो ओर
िदखाई देती है, वे जल मे तरंगो की तरह और आकाश मे िपचछक की (♥) तरह आतमा मे ही है। जैसे मिण िकसी
पकार का वयापार िकये िबना अपने आप तेजोमय अपनी कािनतयो को फैलाती है वैसे ही यह आतमा भी कायरवयापार के
िबना अपने आप सृिषयो का पसार करता है। हे सुमते, आतमा और जगत न तो एक (अिदतीय) है और न अनेक ही है,
कयोिक जगत का रप असत् है, भाव यह है िक असत् से सत् का न अभेद कहा जा सकता है और न भेद ही कहा जा
सकता है। अजानकाल मे यह इस पकार आभासमात ही सफुिरत होता है।।27-38।।
♥ आँखे आधी बनद करके सूयर के सनमुख सो रहे पुरष को भािनतवश जो मयूर की पूँछ के सदृश िदखाई देता
है।
वासतव मे तो भािनत का भी पृथक िनरपण नही िकया जा सकता, 'बहैवेद ं सवरमातमैवेद ं सवरम्' इस शुित मे
कही गई रीित से यह सब बह ही है, ऐसा कहते है।
वासतव मे तो भािनत का भी पृथक िनरपण नही िकया जा सकता, 'बहैवेद ं सवरमातमैवेद ं सवरम्' इस शुित मे
कही गई रीित से यह सब बह ही है, ऐसा कहते है।
यह सब बह ही है, इस पकार यह आतमा ही फैला है। हे अनघ, मै पृथक हँू और जगत पृथक है, इस भािनत
का आप पिरतयाग कीिजए। हे शीरामचनदजी, जैसे सागर मे सनमय तरंगकलपनाएँ नही हो सकती वैसे ही देशकृत
पिरचछेद से शूनय, वसतुकृत पिरचछेद से शूनय कािलक पिरचछेद से हीन आतमा मे कलपनाएँ हो ही नही सकती है।।
39,40।।
वासतिवक एकतव के िवरोध के भी परमातमा मे दैत कलपना नही हो सकती, ऐसा कहते है।
जैसे अिगन मे िहमकण का अिसततव नही है, वैसे ही अिदतीय सवातमक परमातमवसतु मे दूसरी कलपना है ही
नही।।41।।
अब पूवोकत आतमा के पिरचय से उसमे िवशाम पाने के िलए सदा उसकी भावना करनी चािहए, ऐसा कहते है।
नीर-कीर के समान िचदूपता को पापत हएु मन से ही िचनमय आतमा की भावना कर रहा जीव माया कौिटलय
रप मािलनय से रिहत आतमा मे सवयं पकािशत होता है यानी उसी रप से सवयं भािसत होता है।।42।।
आतमभावापन पुरष की जीवनमुिकतरप िवशािनत िदखलाते है।
हे शीरामचनदजी, इस आतमतततव मे न शोक है, न मोह है, न जनम है और न कोई जनमनेवाला है। यहा जो है,
वही है। आप संतापरिहत होइये।।43।।
हे शीरामचनदजी, आप सुख-दुःख आिद शारीिरक दंदो के िवकेप से रिहत, िनतय सततव मे िसथत होने के कारण
रजोगुण और तमोगुण से होने वाले मानिसक िवकेप से शूनय अतएव शारीिरक िवकेप और मानिसक िवकेप की िनवृित के
उपायभूत योग, केम की िचनता से िवहीन आतमवान्, अिदतीय, शोकरिहत और सनतापरिहत होइये।।44।।
हे शीरामचनदजी, आप सवरत सम, अपने सवरप मे िसथत, िसथर बुिद, शोकरिहत मनवाले मुिन, मौनी,
सुनदरमिण के समान िनमरल और सनतापरिहत होइये।।45।।
हे शीरामचनदजी, आप अिवदा और उसके कायों से िवशुद (अिवदा और अिवदा के कायर से रिहत) शानत
संकलप (िजनका संकलप िनवृत हो गया है), धीरमित, सवाधीनिचत, जैसे िमला उसका अनुसरण करने वाले और
सनतापरिहत होइये।।46।।
हे शीरामचनदजी, आप िवषयो के राग से रिहत, कलेशशूनय, िनमरल, िनषपाप, न गहण करने वाले और न तयाग
करने वाले एवं सनताप शूनय होइये।।47।।
हे शीरामचनदजी, आप संसारातीत पद को पापत हुए, पापतवय वसतु के पापत होने से पिरपूणर, पूणर सागर के
समान कोभरिहत और सनताप शूनय होइये।।48।।
हे शीरामचनदजी, आप िवकलपो की परमपराओं से रिहत, मायारपी काजल से शूनय, अपने से अपने मे तृपत और
सनताप शूनय होइये।।49।।
हे आतमवेताओं मे शेष शीरामचनदजी, आप संसार से भी िवशाल शरीरवाले (सवरवयापक), पवरतो के िसर के
समान शेष यानी सुमेर पवरत के तुलय धीर और सनताप रिहत होइये।।50।।
हे शीरामचनदजी, जो कुछ िमल गया उसका भोग करने , सभी जगह अिभलाषा न करने तथा तयाग और गहण
का पिरतयाग करने से आप सनताप शूनय होइये।।51।। पूणर सागर के समान अपने से ही अपने मे पूणरकामता का
सेवन कीिजये। पूणर चनदमणडल के समान अपने से ही अपने मे सब तापो की िनवृित के सुख का अनुभव कीिजए।।
52।।
हे शीरामचनदजी, यह सारी पपंच रचना असतय है। यह असतय है, ऐसा जानने वाला तततवज पुरष असतय
सवरप का अनुगमन नही करता है। हे शीरामचनदजी, आप तततवजानी है, आपकी कलपनाएँ शानत हो गई है, आप
दोषरिहत, िनतयपकाश और शोकरिहत होइये।।53।।
यिद तततवज पुरष असतय वसतु का अनुसरण नही करता है, तो राजय आिद से मेरा कया पयोजन है, मेरे िलए
तो संनयास का गहण कहना ही उिचत है, इस पकार शीरामचनदजी का आशय इंिगत दारा समझ कर कहते है।
िपताजी दारा पदत एकचछत राजय का अपने गुणो से राजाओं और पजाओं को पसन कर आप समान दृिष से
िचरकाल तक पालन कीिजये। पारबध होने के कारण अवशय भोगयोगय कमों और उनके फलो का न तयाग उिचत है
और न उनमे राग उिचत है।।54।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पाचवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआ आआआआ
आआआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआ
आआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआ आआआ आआआआआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआ।
आगे कहे जाने वाले गुणोपाजरन कम का पकृत मे समबनध िदखाने के िलए पसतुत अनासिकत से िकये गये
अपितिषद कायों मे पवृित दारा जीवनमुकत पुरष का लकण कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जो पुरष 'मै शुित, समृित और सदाचार से पापत, सकल वयवहार को
अयसकानत मिण के समान केवल अपनी सिनिध से करता हँू', यो वासनारिहत होकर कायों मे पवृत होता है, अजानी के
समान कतृरतवािभमानपूवरक पवृत नही होता, वह मुकत है, ऐसा मेरा िवशास है।।1।।
कमरफलो मे आसिकत होने के कारण ही अजािनयो को अनथर की पािपत होती है, ऐसा िदखलाते है।
मनुषय शरीर को पाकर भी कोई मूढ अनासिकत से कमानुषानरप इस िकया मे रत नही होते, वे कामातमा
पुरष सवगर का भोग करके नरक मे जाते है और नरक से िफर सवगर मे आते है।।2।। िनिषदकमर मे िनरत और
सतकमर से िवरत कोई लोग नरक से नरक, दुःख से दुःख और भय से भय से भय को पापत होत है। शुित भी है -
िविहतसयाऽनुनषानािननदतसय च सेवनात्। अिनगहाचचेिनदयाणा नरः पतनमृचछित।। (िविहत कमों को न करने से,
गिहरत कमों के आचरण से और इिनदयो की सवचछनदता से मनुषय का पतन होता है)।।3।। नरको मे उपभुकत दुषकमर
फलो के कम से ितयरक योिन मे उतपन हएु , अपने वासनारप तनतुओं से बँधे हुए कोई जीव ितयरग योिन से वृक आिद
सथावर योिन को पापत होते है, उनसे िफर ितयरग योिन को जाते है।।4।।
राजस-तामस और शुदतामस जीवो को कह कर शुदसािततवक जीवो को कहते है।
कोई आतमजानी धनय पुरष, िजनहोने मन के साकी आतमा का िवचार कर िलया और िजनकी तृषणारपी बनधन
शृंखला टू ट गयी हो, वे कैवलयरप पद को पापत होते है।।5।।
राजस-सािततवको को िदखलाते है।
हे शीरामचनदजी, पहले उतरोतर उतकृष कुछ ही मनुषय जनमो को भोग करके जो इस जनम मे मुकत हो गया,
इसीिलए वह राजस-सािततवक है।।6।।
उसकी शािनत आिद गुणो से अिभवृिद कहते है।
उतपन होकर वह पूिणरमा के चनदमा के समान वृिद को पापत होता है। जैसे वषा ऋतु मे कुटज के वृक को
पुषप शोभा पापत होती है, वैसे ही उसे साधन चतुषय समपित पापत होती है।।7।। हे महामते शीरामचनदजी, िजसका
यह अिनतम जनम है, उसमे बहिवदा की उपायभूत सब िनमरल िवदाएँ शीघ ऐसे पिवष होती है, जैसे उतम बास मे
िनमरल मोित पिवष होते है। जैसे अंगनाएँ अनतःपुऱ का आशय लेती है वैसे ही पूजयता, मनोहरता, मैती, सौमयता, कृपा
और अपरोक जान िनतय उसका आशय लेते है। सब कायों को कर रहा जो पुरष फल के बढने या नष होने पर सब
कमों मे सम होकर, न पसन होता है, न शोक करता है, उसमे िदन मे अनधकार रािश के समान सुख, दुःख आिद सब
दनद नष हो जाते है एवं जैसे शरद् ऋतु मे मेघ सवचछ हो जाते है वैसे ही उसमे पहले मिलन भी धैयर, शदा आिद सब
गुण िनमरलता को पापत हो जाते है। जैसे वन मे वायु से िछदो के पूणर होने के कारण मधुर धविनवाले बास को सब मृग
चाहते है वैसे ही कोमल आचार से मधुरतावाले उस पुरष को सब लोग चाहते है। जैसे उतपन होते ही मेघ के पीछे बक
पंिकत दौडती है, वैसे ही इस पकार की गुणशोभाएँ अिनतम जनमवाले पुरष का बचपन से ही अनुसरण करती है।।8-
13।।
इस पकार गुणो की समपित होने पर गुरमुख से शवण मे अिधकार होता है। अपकव िचतवाले पुरषो का
गुरमुख से शवण मे अिधकार नही है, ऐसा कहते है।
तदननतर गुणो से पिरपूणर वह जीवनमुकत पुरष गुर का ही अनुगमन करता है। गुर उसे आतमतततव एवं
अनातमतततव के िववेक मे उपायो का उपदेश देकर अपनी बुिद से भी मननरप पिवत कायर मे पवृत करता है।।14।।
इस पकार के गुणो से पिरपूणर पुरष को ही गुरपूवरक शवण आिद से साकातकार पािपत होती है, ऐसा िदखलाते
है।
हे शीरामचनदजी, तदननतर िवचार-वैरागयवाले गुणशाली िचत से आननदैकरस िनिवरकार सवयं-पकाश आतमा का
वह साकातकार करता है।।15।। यह िवचार से सुनदर तथा शानतिचत से पहले आभयनतर मनोमनन को जान के िलए
बढाता है। जो अिनतम जनमवाले जीवनमुकत पुरष है, वे महागुणी पुरष सोये हुए मनरपी मृग को ऐसे बोिधत करते है,
जैसे वह िनगुरण बह ही हो जाता है।।16,17।।
पूवोकत अथर का संकेप से उपसंहार करते है।
वे पूवोकत गुणो से समपन अिनतम जनमवाले मनुषय िजनके जीवनमुिकतरप सगुण पखयात है, ऐसे सदगुरओं की
पयत से सेवा कर उनसे पदिशरत युिकतयो से िनमरल हुई बुिद दारा िचत के अनतगरत पतयातमरप रत का िवचार कर,
िचत के अनदर पकाशमान, पतयगिभन बह का िचरकाल तक साकातकार कर उनके साकातकार मात से ही बहभाव
आपितसवरप िनमरल (माया और उसके कायररपी मल से िनमुरकत) परम पुरषाथररप गित को अपने सथान मे ही पापत
करते है। उपासक के समान उतकमणपूवरक लोकानतर मे जाकर नही, यह मतलब है।।18।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छठा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआ आआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआ
आआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआआआआआ । आआ आआआआआआ
पूवोकत साधारण कम का अनुवाद कर िकसी बडभागी पुरष का पूवोकत कम के िबना ही पापत एकमात अपने
िवचार से ही सहसा सवरगुण समपित सिहत जानोदय रप िवशेष िदखलाते है।
शीविसषजी ने कहाः हे कमलनयन, यह (पूवोकत) सब देहधािरयो का साधारण कम मैने आपसे कहा। इस
समय आप नीचे कहे जा रहे दूसरे कम को सुिनये। हे शीरामचनदजी, इस संसाराडमबर मे उतपन हुए देहधारी जीवो को
मोकरप फल देने मे समथर ये (पूवोकत और आगे कहे जा रहा) दो उतम कम है। उनमे से एक तो यािन पूवोकत कम
गुर के उपदेश के अनुसार आचरण करने से धीरे-धीरे एक जनम से अथवा अनेक जनमो से मोकरप िसिद देने वाला
कहा गया है। दूसरा (आगे कहा जा रहा) कम हैः दैववश पापत जीव और जगत तततव के िवचारवाले लोगो को सवयं ही
शीघता से आकाश से फल पतन के तुलय जान पािपत होती है।।1-4।।
दूसरे कम मे जनक की आखयाियका का दृषानत देने वाले शीविसषजी भूिमका बाधते है।
उकत कम मे आकाश से फल िगरने के तुलय जानपािपत के िलए इस पाचीन वृतानत को आप सुिनये, मै आपसे
कहता हँू।।5।। हे सकलैशयरसमपन शीरामचनदजी, अिनतम जनम वाले महानुभाव पुरष, िजनके पूवरसंिचत पुणय-
पापरप मोक के पितबनध नष हो चुके है, िनमरल परम िववेक को जैसे आकाश से िगरे हुए फल के तुलय पापत करते है
वैसी वकयमाण कथा को आप सुिनये।।6।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सातवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआआ आआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआआ
आआआ आआआ आआआआआ आआआआ, आआ आआआआआआ ।
महाबली ऋतु मे उपवन मे िवहार कर रहे शीजनक जी िवदेह देशो के शासक थे उनकी सब आपितया िनवृत
हो चुकी थी और दूनी और रात चौगुनी समपित बढ रही थी। वे याचको के (मनोरथ पूणर करने के कारण) कलपवृक थे,
इषिमतरपी कमलो के सूयर के तुलय िवकासकारी थे, बनधुबानधवरपी फूलो की वसनत ऋतु के तुलय अिभवृिद करने
वाले थे, िसतयो के कामदेव तुलय रितवदरक थे, बाहणरपी कुमुदो के िलये चनदमा थे यानी चनदमा के तुलय उललासक
थे, शतुरपी अनधकार के िलए भासकर थे यानी भगवान सूयर के तुलय उसके िनवतरक थे, सौजनयरपी मिणयो के सागर
थे और भगवान के तुलय पालन के िलए वे पृथवी मे िसथत थे।।1-3। िकसी समय फूली हुई छोटी-छोटी लताओं से
बढी हुई वसनत ऋतु मे, जो मतवाले के समान बढ रही थी, कोिकलो के गानो से मानो नाच रही थी और मंजिरयो की
रािशयो से पीली थी, महाराज जनक जैसे देवराज इनद सुनदर ननदनवन मे जाते है वैसे ही, िजसका सारा भाग पफुिललत
था, सुनदर िवलासवाली लताओं और मिहलाओं से भरा था उस सुनदर उपवन मे लीला से गये। उस मनोरम शेष उपवन
मे, िजसमे केसरो मे िसथत पराग, सुगिनध और मकरनद के कणो को हरने मे, न िक धूिल उडाने आिद मे समथर उदाम
यानी मनद, सुगनध और शीतल वायु बह रहे थे, अनुचरो को दूर रखकर उनहोने कीडाशैल के िशखरो पर उगे हुए
लतागृहो मे िवचरण िकया।।4-6।।
हे कमलनयन, तदननतर उनहोने िकसी तमालवृक की झाडी मे िछपे हुए, सदा पवरतो की गुफाओं मे िवचरण
करने वाले, एकानत मे िनवास करने वालो िसदो की अपने अनुगह के िलए कही गई तथा शुित, समृित, पुराण और
इितहासो से गीत आतमतततव की शवण मात से साकात् भावना कराने वाली िनमिलिखत गीताएँ सुनी।।7,8।।
िसदो ने कहा, चकु आिद इिनदयो दारा िवषयो के पमाता का सतकचनदन, विनता आिद िवषय के साथ समबनध
होने से उतपन हुई िवषयाकार बुिदवृित मे सवयं पकाशमान जो आननदरप िनशय है, तदूप आतमतततव के पिरशोधन दारा
िनरितशय भूमारप से आिवभूरत आतमा का, िनिवरकलप समािध दारा बाहरी और अनतःकरण के सपनद का तयाग कर, हम
िनरनतर (अनुभव) करते है। भाव यह िक िवषयाकार वृित मे सवयं पकाशमान आननद िवषय कोिट मे नही आ सकता,
कयोिक वे कारक है। आननदरप, साधय का तदवयव (साधन का अंग) होना अनुभव िवरद है। इसिलए वह सािककोिट
मे ही आता है। साकी ही अिवदारपी आवरण से मनद िचदाननद सवभाववाला होकर अनय अहंकारातमा की कलपना कर
रह मानो उसकी अंगता को पापत हुआ-सा िनरितशय आननदरप अपने आतमा को नही जानता है, अतएव उसी सवतततव
के िवचार से आिवभूरत िनरितशयाननदसवभाव की समािधसथ मन से हम उपासना करते है। 'एतसयैवाननदसयानयािन
भूतािन मातामुपजीविनत' (इसी आननद की माता का एक अंश का अनय पाणी उपजीवन करते है) इस शुित से बहाननद
की ही अिवदा दारा िवषयाकारवृित के पिरचछेद से िवषयाननदतव पतीित होती है।।9।।
औरो ने कहाः दषा, दशरन और दृशय इस ितपुटी का वासना के साथ तयागकर चकु, मानस आिद वृितयो के
पहले ही उन वृितयो की उतपित मे साकीरप से भासमान आतमा की हम लोग उपासना करते है। दषा आिद ितपुटी के
तयाग से दो अवसथाओं की बीजभूत वासना से पूणर सौषुपत अजान का भी िनरास कहा। 'चाकुष मानस आिद वृितयो के
पूवर ही उनकी उतपित मे साकीरप से भासमान' इससे पहले से िसद ितपुटी का साकी सवानुभाव िसद है, यो पृथक
करके दशाया है। उसी बीजसिहत ितपुटी के तयाग से तुरीय आतमा की हम लोग उपासना करते है, यह अथर है।।
10।।
दशरन के (मानस-चाकुषवृित के) पहले उनकी उतपित का साकीरप जो तततव है, उसके िवषय मे जो लोग
अिसत, नािसत इस पकार का संदेह करते है, उनके पित भी दोनो (अिसत-नािसत) पको के अिवरद साकी को दशाते हुए
दूसरे िसद लोग कहते है।
जो लोग मानस, चाकुष आिद वृितयो के पहले से ही िसद उनकी उतपित का साकीभूत तततव है, परंतु वह भी
जनय ही है, िनतय नही है – ऐसा कहते है, उनके पक मे पूवर-पूवर के आभासो के सवपकाशता अथवा सविवषयता दोनो
पको मे सवमात के भान मे पिरकीण होने से वे पूवोतर िवजानो का सपशर नही कर सकते। इसिलए उनमे उनकी (पूवोतर
िवजान की) उतपित आिद की सािकता नही हो सकती। सवयं अपनी उतपित आिद का साकी तो हो नही सकता, कयोिक
अपनी उतपित के पहले वह सवयं अिसद है, इसिलए कोई दूसरा ही साकी आवशयक है, अतएव अिसत पक के मधयगत
और अिवरद एवं जो लोग साकी नही है, ऐसा कहते है उनकी नािसतकता भी साकीरिहत होने के कारण अिसद ही है,
अतएव उस पक का साधक होने से उस पक के मधयगत और उसके अिवरद तथा पकाशयो का पकाशक जो िनतय
आतमा है, उसकी हम उपासना करते है।।11।।
औरो ने कहाः िजसमे यह सब है, िजसका यह सब है, िजससे यह सब है, िजसके िलये यह सब है, िजसके
दारा यह सब है। जो यह सब है उस सतय की हम उपासना करते है।
औरो ने कहाः 'अ' िसर के समान िजसका पथम वणर है और 'ह' िजसके अनत मे है यानी अकारािद-हकारानत
समसत वसतुओं के पकाशक वेद-शासत आिद शबदसमूह के पकृितभूत मसतवर का अकरसमामाय मे (आकारािद हकारानत
समुदाय मे) िनवेश होने से समपूणर जगत के आकारवाले सपपंच बह मे अनुगत, 'अहोितवयापोित' इस वयुतपित दारा
अशेषाकार यानी आकाररिहत िनगुरण बह मे भी िसथत तथा िनरनतर िकयमाण सववयवहारो मे उचचायरमाण अहंपद के
वाचय सवातमभूत बहातमा की हम लोग िनरनतर भावना करते है।।12,13।।
औरो ने कहाः हृदय गुहा मे िसथत दैदीपयमान ईशर का तयाग कर जो लोग अनय के पास जाते है, वे हाथ मे
आये कौसतुभमिण का तयाग कर अनय रतो की चाह करते है।।14।।
औरो ने कहाः समपूणर आशाओं का तयाग कर हृदय मे िसथत जान का फलरप यह बह पापत होता है, िजसके
लाभ से वासनाजालो से जिटल हृदयगिनथ कट जाती है, जो िवषविललयो की मूल परमपरा है।।15।। औरो ने कहाः
जो दुबुरिद पुरष भोगय िवषयो मे अतयनत नीरसता को जानकर भी उनमे भोग तृषणा करता है, वह नर नही है, वह गधा
है।।16।। औरो ने कहाः जैसे इनद वज से पवरतो के ऊपर पहार करते है वैसे ही पुनः पुनः उठे हुए इन इिनदयरपी
संगो पर िववेकरपी दृिष से पहार करना चािहए।।17।। औरो ने कहाः पिवत उपशम सुख को पापत करे। शमवान
पुरष का िवशुद िचत शािनत को पापत होता है। िजस पुरष का िचत उपशम को पापत हो गया, उसकी िनरितशय
सुखरप अपने सवरप मे िचरकाल तक उतम िसथित होती है।।18।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
आठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआ आआआआ
आआ आआआआआ आआआआआआआ आआ आआ आआआ आआआ आआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआ
आआ आआआआआ आआ आआ आआ आआआआआआ आआआ।
शीविसषजी ने कहाः िसदगणो से गाई गई इस गीताओं को सुनकर राजा जनक जैसे डरपोक आदमी रण के
कोलाहल से दुःखी होता है वैसे ही शीघ दुःखी हुए।।1।। अपने पिरवार को ले जा रहे वे अपने घर के पित ऐसे गये
नदी का वेग अपने तीरवती वृको से अनुगत होकर सागर को जाता है। अपने सारे पिरवार को अपने -अपने घर मे
छोडकर जैसे सूयर उदयाचल पर चढते है वैसे ही वे अकेले ही उतम महल पर चढे। वहा पर उडने के िलए ततपर
पिकयो के डैनो (पंखो) के समान चंचल लोकगित को देख रहे राजा ने वयाकुल होकर यह िवलाप िकया। बडे खेद की
बात है िक जीवो की जनम, जरा, रोग, मरण आिद से चंचल अित कष देने वाली दशाओं मे जो पतथरो पर पतथरो के
समान जबदरसती मे लोट रहा हँू। िजस काल का अनत ही नही, उसका एक अितसूकम अंश मेरा जीवन है, उस जीवन मे
मै आशा रखता हूँ, मुझ जड को िधकार है। जीिवत पयरनत रहने वाला मेरा यह राजय िकतना है ? केवल इससे ही
सनतुष होकर मै मूखर के समान आने वाले दुःखो के पितकार की िचनता के िबना कयो बैठा हँू ? मै आिद और अनत मे
अननत हूँ। मधय मे तुचछ थोडा सा जीवनवाला हूँ। जैसे बालक िचत मे िलखे गये चनदमा से ही आशासन को पापत
होता है, जो िक चनदमा की बुिद से जात है, न िक वासतिवक चनदमा है, वैसे ही आतमरप से जात इस देह से मै वयथर
आशासन को कयो पापत हुआ ? िकस ऐनदजािलक ने पपंचरिहत इनदजाल दारा मुझे मोिहत िकया ? ओह ! कष है िक मै
अतयनत मोिहत हो रहा हँू। जो सतय है, जो एकमात सुखरप है, जो अपिरिचछन है और जो अजनय है, ऐसी कोई वसतु
इस संसार मे है ही नही। मेरी बुिद कहा िवशानत हो ?।।2-10।।
यिद कोई शंका करे दूर देश मे शायद कोई वैसी वसतु पिसद हो। इस पर नही ऐसा कहते है।
दूरसथरप से पिसद भी जो कोई वसतु है, वह वसतुतः समीपसथ ही है, कयोिक वह मेरे मन मे िवदमान है। मन
देह के बाहर दूर तो जाता नही है। यिद वह दूर जाय, तो दूर मे ही उसकी पतीित का अनुभव होगा, न िक हृदय मे।
हृदय मे ही सब लोग बाह वसतु के बोध का अनुभव करते है, इसिलए भीतर भासमान दूर आिद की कलपना भी
वासतिवक नही है, िकनतु अनथर ही है, अतः दूर आिद की कलपना तयाजय ही है, उपादेय नही है, ऐसा िनशय करके मै
बाह अथर की भावना का तयाग कर रहा हँू।।11।। लोगो के भोग के िलए धनोपाजरन आिद मे पवृितरप जो आवेग है,
वह जल की भँवरी की तरह नशर तथा जनम, मरण आिद दुःख हेतु पायः देखा गया है। इसिलए आज भी िवषय-सुख है
वह दुःख ही है। इस संसार मे कुछ काल तक देखे गये, तदननतर तुरनत नष हएु सवराजय आिद पद का अतयनत तुचछ
होने के कारण िचनतन भी मैने नही िकया। सवोचच जो ऐनद, पाजापतय आिदपद है, उनका अचछी तरह िवचार िकया,
िकनतु जहा िववेकी पुरषो की आतयािनतक िवशािनत होती है, वैसी कोई वसतु यहा है ही नही।।13,14।। आज जो बडे
लोगो के मसतक पर िवराजमान यानी महतम है, वे कुछ ही िदनो मे नीचे िगर जाते है। हे दुष िचत भला बतलाओ तो
सही महता मे (राजय आिद के वैभव के उतकषर मे) मेरा कया िवशास हो ?।।15।। मै िबना रससी के ही बँधा हँू। िबना
पंक के ही कलंक से युकत हूँ। सबसे ऊपर िसथत होकर भी नीचे िगरा हूँ। ओह ! सवरप मे मेरी जो िसथित है, वह
नष हो गई। यदिप मै बुिदमान हँू तथािप जैसे सूयर के सामने पकाश को आचछािदत करने वाला काला मेघ आता है,
वैसे ही मेरे सामने आतमपकाश को आचछािदत करने वाला यह मोह कहा से आया ? ये महाभोग मेरे कौन है ? ये बनधुगण
मेरे कौन है ? जैसे बालक भूत के भय से वयाकुल हो उठता है वैसे ही मै इसमे ममतारप समबनध की कलपना से
वयाकुल हो गया हूँ। इस भोगो मे जरा, मरण को पापत कराने वाली एवं उदेग देने वाली इस आसथा को मै सवयं ही कयो
बाध रहा हूँ ? यह भोग और बानधव आिद की समपित भले ही अचछी तरह से चली जाय या रहे, इसके पित मेरा कया
आगह है ? बुदबुद की शोभा की भाित यह िमथया ही इस पकार पापत हुई है।।16,20।। पृथु, मरत आिद चकवती
राजाओं के वे महािवभव, वे सुनदर गुणवाले, सनेहयुकत बानधव सभी इस समय जब समृित शेष हो गये है यानी वे िवदमान
नही है, तब िफर वतरमान मे भी कया आसथा ? पाचीन राजाओं के पाकतन धन कहा गये, पूवरकलपीय बहा के पाचीन
जगत कहा गये, यानी सब नष हो गये, तो िफर धन आिद मे मेरी कया आसथा हो ? जैसे जल मे बुदबुद काल से नष हो
जाते है वैसे ही लाखो इनद काल दारा नष कर िदये गये, इसिलए यिद मै जीवन मे आसथा बाध रखूँ, तो िववेकी लोग
हँसेगे। करोडो बहा नष हो गये, सृिष परमपराएँ बीत गई, धूिल की तरह राजा लोग िमटी मे िमल गये। भला मेरे
जीवन मे कया िवशास है ? संसाररपी राित के दुःखसवपभूत, देहमय, अहंताममतावयवहार भम मे यिद मै आसथा रखता
हूँ, तो मेरी इस अिववेिकता को िधकार है। शरीर सिनिहत वसतु मे अपरोकता की कलपना, शरीर िवपकृष वसतु मे
परोक की कलपना और शरीर मे आतमता की कलपना यह तीन पकार की कलपना असतयरप ही है। अहंकाररपी
िपशाच के दारा मोिहत हुआ मै कयो अज की नाई इतने काल तक िवचाररिहत होकर िसथत हूँ ? मै इस कण, िनमेष,
मुहूतर आिदरप फैली हुई कालरेखा से पितकण नष हो रही अपनी आयु को देख रहा हूँ िफर मै न मालूम कयो नही
िवचार करता हूँ ? िजनहोने बहा आिद उतम अिधकािरयो को अपने चरणो पर झुका िदया एवं िवषणु आिद की देह को
खेलने की गेद की भाित युद आिद के समय आकाश मे फेक िदया, ऐसे कालरपी रद भी जब महाकाल दारा नष कर
िदये गये, तो हे जीिवत आशा, मेरे अनदर तुम कयो नृतय कयो कर रही हो ? वे िदन िनरनतर अब भी आते है और इस
अवसथा मे भी वयथर ही नष हो जाते है। आज तक कोई भी िदन नही देखा, िजसमे िनतय, एक, िनदोष और आनदैकरस
वसतु पापत हुई हो। जैसे तालाब मे हंस सफुिरत होते है वैसे ही समपूणर मनुषयो के िचत मे ये भोग ही सफुिरत होते है,
िकनतु पतयगातमभूत परमपद का साकातकार सफुिरत नही होता। मै कष से भी अतयनत कष को पापत हुआ, दुःख से
भी अतयनत दुःख को पापत हुआ, परनतु आज भी िवरकत नही हुआ। हा ! राग, लोभ आिद से दूिषत होने के कारण अधम
िचतवाले मुझे िधकार है। िजन िजन उतम िवषयो मे मै दृढ पीित बाधी, उन-उन िवषयो का भी िवनाश देखा गया, तब
भला इस संसार मे उतम वसतु कया है ? मधयकाल मे जो मनोहर है यानी युवावसथा, पिरणाम मे जो मनोहर है यानी भम
एवं अिवचार से जो मनोहर है यानी िवषय, िवनाशरपी अशुिद से दूिषत वैसे अपिवत है। िजन-िजन पदाथों मे मनुषय
अपनी आसथा बाधता है, उन –उन पदाथों मे उस मनुषय के दुःख का पादुभाव बार-बार देखा गया है।।21-34।।
बाद मे भी अज पुरष के सुख की आशा नही है, यह कहते है।
इस संसार मे अज मनुषय पतयेक दूसरे िदन राग और लोभ की अिभवृिद से अतयनत पापमयी, िहंसा आिद कमों
मे पवृित दारा अतयनत कूर तथा फलकाल मे खेद देने वाली दशा को पापत होते है। अज पुरष, जो बालयवासथा मे
अजान से पीिडत रहता है, युवावसथा मे काम से पीिडत रहता है तथा शेष अवसथा मे (वृदावसथा मे) सती के सिहत
कुटुमब के पालन-पोषण की िचनता से पीिडत रहता है, कब अपने उदार का साधन करता है ? यानी कभी नही करता।
दुमरित पुरष आिद और अनत मे अतयनत असतय, भोगकाल मे भी िवरस, दिरद, रोग, वाधरकय आिद दशाओं से दूिषत तथा
असार होते हएु भी सारबुिद से गृहीत इस संसार को, जो देख रहा है, वह िकसिलए ? यानी संसारदशरन का कुछ भी
पयोजन नही है।।35-37।।
यिद कोई शंका करे िक 'यन दुःखेन संिभनम्' इतयािद शुित से (◄) बतलाये गये लकण से युकत सवगर कया
सारभूत नही है ? उस पर कहते है।
◄ यन दुःखेन संिभनं न च पसतमननतरम्। अिभलाषोपनीतं च ततपदं सवःपदासपदम्।। अथात् जो दुःख से
िमिशत न हो, न िकसी की अपेका नयून हो और िबना पयत के इचछामात से पापत हो, वह सुख सवगरपद से कहा जाता
है।
सुकृित पुरष राजसूय, अशमेघ आिद सैकडो यजो को करके महाकलपपयरनत भोगय भी सवगर को पापत होता है,
जो महाकाल की दृिष से कणमात भोगय अतएव अलप ही है, िकनतु अिधक की (अपिरिचछन अननत की) पािपत उसे नही
होती। इसिलए वह भी असार ही है, यह भाव है।।38।।
न ह वै सशरीरसय सतः िपयािपययोरपहितरिसत।
(शरीरधारी पाणी के िपय एवं अिपय का वारण नही होता है)
इस शुित के अनुसार तथा सवगरवािसयो की भी असुर आिद से पीडा के शवण से सवगर मे दुःख का असमबनध
भी असमभव है, इस आशय से कहते है।
भूिम अथवा पाताल मे सवगर नाम का कौन सा पदेश है, जहा दुष भँविरयो की भाित ये आपितया अिभभूत नही
करती ?।।39।।
देह का अिभमान रहने पर आिध-वयािध के दुिनरवार होने के कारण अज पुरष को कही भी िवशािनत नही िमलती
है, इस आशय से कहते है।
अपने िचतरपी िबल के सपर जो आिधया है, एवं शरीररपी सथल के पलवल (छोटे जलाशय) जो वयािधया है,
इनका भला कैसे िनवारण िकया जा सकता है ?।।40।।
िवनाशी एवं दुःखिमिशत होने के कारण समपूणर दृशय की अभदता िदखलाते है।
वतरमानकािलक दृशय के िसर पर िवनाश, मनोहर पदाथों के िसर पर अरमयता एवं सुखो के िसर पर दुःख
िवदमान है। यानी वतरमानकािलक दृशय, मनोहर पदाथर और सुख ये सभी कमशः िवनाश, अरमयता और दुःख से वयापत
है। भला कौन ऐसी मुकत वसतु है, िजसमा मै आशय करँ।।41।। अजान से िवमोिहत कुद पाणी उतपन होते है और
मरते है। पृथवी इनही लोगो से िनिबड है। उतम महातमा लोग दुलरभ है।।42।। नीलकमल के तुलय मनोहर और भमर
के तुलय चंचल नेतवाली, अितशय पीितरप भूषण से युकत (अतयनत अनुरागवाली) िसतया भी कणमात मे िवनाशी होने
के कारण उपहास के ही योगय है।।43।।
यिद कोई शंका करे िक राजा होने के कारण िनगह और अनुगह मे समथर, उतम पुरषरप आपको िवषयो मे
आशासन कयो न पापत होगा ? इस पर कहते है।
िजनके नेतिनमीलन और नेतोनमीलन से पलय और सृिष होते है, वैसे पुरष भी जब िवदमान है, तो मेरी कया
गणना है ? भाव यह है िक बहा आिद महापुरषो को भी जब आशासन नही पापत हुआ, तो मेरी कया गणना है ? मनोहर से
भी मनोहर एवं िसथर से भी िसथर पदाथर है, परनतु इन पदाथों की शोभा का फल उपाजरन, रकण, िवयोग आिद से
िचनतारप ही है, इसिलए कयो उसकी इचछा करते हो ? िविवध रत, घोडे, हाथी, धन, सती आिद के भेद से िविचत
समपितया यिद िचत से आदरणीय है, तब वे भी बहुत पयतो से पापत करने योगय, दुःख से रका करने योगय अवशय नष
होने वाले होने के कारण महाआपितया ही है, ऐसा मेरा मत है।।44-46।। इसी तरह यिद दिरदता, बनधुनाश,
राजयनाश आिद आपितया भी साधु संगित, तीथर तपसया, जान आिद की पािपत करा देने से िविचत अतएव कलयाणकार
ही है, यो मन मे भान हो, तो वे भी िववेक, वैरागय आिद महाआरमभ से युकत समपितया ही है, यो मै मानता हँू।।47।।
इसिलए असतयभूत जगत मे ममता की अिभवृिद ही िवपित है, िववेक से ममता का पिरकय ही समपित है, इस
आशय से जगत मे ममता की अयोगयता िदखलाते है।
समुद मे पितिबिमबत चनदमा की भाित कणिवनाशी, िमथयाभूत, एकमात मन के िववतर जगत मे 'मेरा यह है' यह
अपूवर पदवाकयरप अकर-पंिकत िकधर से आई ? यानी िनरथरक ही है।।48।। काकतालीय नयाय से अकसमात
अिवचार से समपन इस जगत िसथित मे भोग लमपट इस मन ने वयथर ही हेय और उपादेय की कलपना की है।।49।।
जैसे पिरिचछन, आधयाितमक, आिधदैिवक एवं आिधभौितक तापो से संतपत िकन सुखनाम की दृिषयो मे मै अनुरकत हुआ
हूँ ?।।50।।
अभयासवश िनरनतर दुःख का भोग सह भी हो सकता है, परनतु सुख भोग से अभयास के िविचछन हो जाने पर
दुःख भोग दुःसह हो जाता है, ऐसा कहते है।
िनरनतर दाह से युकत रौरव की अिगन मे लोटना अचछा है, परनतु िविचछन सुख-दुःख के पिरवतरन से युकत
संसार की अवसथाओं मे िसथित करना अचछा नही है।।51।।
सुख सुख नही है, िकनतु दुःख िवशेषरप ही है, इसका युिकत से उपपादन करते है।
संसार ही सब दुःखो की चरम सीमा है, उसके मधय मे जब देह िगर गई, तब कैसे सुख पापत हो सकता है
?।।52।। सवाभािवक महादुःख से पूणर इस संसार मे जो िसथत है, वे लोग जैसे तलवार के आघात की अपेका कोडे
का आघात सुखकर मालूम होता है वैसे ही महादुःख की अपेका कुछ अलप दुःख को ही सुखकर मानते है। संसार मे
आतयािनतक सुख की सता है ही नही, यह भाव है।।53।।
यदिप मै शुित, समृित आिद पमाणो मे कुशल, मेधावी, िवचार चतुर हूँ, तथािप छोटे – बडे काष तथा लोष के
तुलय िसथितवाला होकर, िजनहोने शासत, लोक, पमाण तथा वसतु का अचछी तरह िवचार नही िकया है ऐसे मूखों की
समानता को पापत हुआ हूँ।।54।।
अब अपनी पमाण कुशलता को संसार के मूलिनशय से सफल बनाते है।
सैकडो संकलपरपी अंकुरो, देह और भुवनरपी शाखाओं, िवराटरपी अवयवी (मोटी डाल), सुख-दुःखरपी
फलो और राग, लोभरपी पललवो से शोिभत हो रहे संसार वृक का मूलभूत महाकुर मन है।।55।।
मन का भी रहसय मुझे जात है, यह कहते है।
मै संकलप को ही मन समझता हँ,ू उस मन का संकलप के उपशमन दारा शोषण करता हँू, िजससे िक यह
संसाररपी वृक शोष को पापत होता है।।56।। आकारमात से रमणीय, नाश को पापत कराने वाली आशारपी पाशो से
ओत-पोत, अधोगित, ऊधवरगित और दुःख को देने वाली संसारवृितया मैने बहुत भोगी, अब मै िवशाम लेता हूँ।।
57,58।।
ओह ! मै मारा गया, नष हुआ, मरा, ऐसा जो मैने बारमबार शोक िकया था, वह शोक मेरा बीत गया। अब मै
शोक नही कर सकता।।59।।
कयो अब शोक नही करते ? इस पर कहते है।
मै पबुद हूँ, पसन हूँ, अपने पारमािथरक धन को चुराने वाले मन – नामक चोर को मैने पकड िलया, इसे मारता
हूँ। यह केवल चोर ही नही है, िकनतु वैरी भी है, कयोिक इसने मुझे बहुत िदन तक मरा है। इतने िदन तक मेरा मनरपी
मोित िवद यानी लिकत नही था। अब वह लिकत होकर शम, दम आिदरप सूत के योगय हो रहा है। जैसे तुषारकिणका
सूयर के ताप से वायु मे िसथित पापत करने के िलए लय को पापत होती है। वैसे ही मेरा मन िववेक से बहतततव मे
िसथित पापत करने के िलए बहुत शीघ लय को पापत होगा। िसथर महातमाओं ने मुझे िविवध उपदेशो दारा अचछी तरह
बोध करा िदया है। अब मै परमाननदरप आतमा का अनुगमन कर रहा हूँ।।60-63।।
इसिलए मै कभी भी परमातमािनषा का तयाग नही करँगा, यह कहते है।
मै आतमरपी मिण को पाकर एकानत मे उसी को देख रहा हूँ, मेरी अनय वसतु की इचछा अतयनत शानत हो गई
है अतः मै शरद् ऋतु मे िहमालय आिद पवरतो पर बादल की भाित सुखपूवरक िसथत होता हूँ।।64।।
अब पूवोकत िवषय का ही संकेप से उपसंहार करते हुए िववेकरपी गुर को नमसकार करते है।
यह देह मै हूँ, यह धन, राजयािद मेरा है, इस तरह सफुिरत हुए िवसतृत असतयरप का जानबल से नाश कर
अतयनत बलवान अनदर िसथत मनरपी शतु को समािध के अभयास से अचछी तरह मार कर सपतम भूिमका मे
िवशािनतरप पशम को मै पापत हो रहा हूँ। हे िववेक, आपको नमसकार है।।65।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
नवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआआआ आआआआ आआ आआआ आआआआआआआआ आआआआआआ
आआआआआआआआआ
आआआआ आआ आआ आआआआ आआआ आआ ।आआआ आआआआ आआआआआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पूवोकत पकार से िवचार कर रहे राजा जनक के सामने जैसे सूयर के
रथ के आगे अरण पवेश करते है वैसे ही पधान दारपाल ने पवेश िकया।।1।।
पतीहार ने कहाः हे देव, आपके भुजारपी सतमभ पर समसत पृथवी का भार िसथत है, आप उिठये, राजधमर के
योगय वयवहारो का समपादन कीिजये।।2।। फूल, कपूर और कु ंकुम से (केसर से) िमिशत जल के घडो से युकत ये
िसतया मूितरमित निदयो की भाित सज-धज कर सनान भूिम मे खडी है।।3।। जहा पर कमल और शेतकमल के वन
मे भौरे घूम रहे है एवं कमल से युकत कमल के नाल की रिससयो से जहा पर शािमयाने सजाये गये है, ऐसी बनाई गयी
ये कमलयुकत तालाब की तीर भूिमया सनान के समय मे सवागत करने वाले लोगो के चामर, रथ, हाथी और घोडो के
सिहत छतो से पपूिरत है। इससे ये तीरभूिमया हंस, सारस, नक, कमल आिद से युकत कमिलनी के (कमल से युकत
तालाब के) तुलय है, यह अथरतः पतीत होता है। ये देवताओं के पूजागृह सब पुषपो और आपत चाकरो से पूणर एवं पकवान
और जौ के अंकुर आिद औषिधयो से अलंकृत पानतभोगो से सजाये गये है।।4-6।। हे देव, सनान के पिवतहसत है, वे
आपकी पतीका कर रहे है। राजन्, आपकी कानताओं ने भोजन भूिमया सजा रखी है, जो लेपन, चनदन जल के सेक
आिद से पिरषकृत होने के कारण शीतल है, हे महाराज, वे हाथ मे सुनदर चँवर लेकर आपकी पतीका कर रही है।।
7,8।।
हे महाराज, आपका कलयाण हो, शीघ उिठये, िनतयकमर का समपादन कीिजये। महापुरष अपने कमों मे काल
का अितकमण नही करते।।9।। पतीहार के इस तरह कहने पर भी राजा जनक वैसे ही िविचत संसार की िसथित
का िचनतन करते रहे।।10।। सुखकररप से िसथत यह राजय िकतना है ? यानी कुछ भी नही है। कणमात मे नष
होने वाले इस राजय से मेरा कोई पयोजन नही है। िमथयाभूत माया के सभी आडमबर का पिरतयाग करके पशानत समुद
की भाित शानत होकर मै एकानत मे ही िसथत रहता हूँ। इन असतय भोगिवसतारो से मेरा कोई पयोजन नही है। सभी
कमों का पिरतयाग कर मै केवल सुख से िसथत होता हँू।।11-13।। हे िचत, तुम इस भोगाभयासरपी दुभरम से
सुखलव के आसवाद की जो चतुरता है, उसका जनम, वृदावसथा एवं जडता के समूहरपी कीचड की शािनत के िलए
तयाग कर दो। हे िचत, तुम िवषयािभलाषा, उनके िलए उदोग, उनके उपभोग और उनके समरण आिदरप िजन-िजन
अपनी अवसथाओं मे सुखलव के आसवाद की भािनत अथवा उतसाह देखते हो, तुम उनही अवसथाओं से समपािदत परम
दुःख को पापत होओगे।।14,15।। सब भोगभूिमयो मे बार-बार भोग की आशा से िचरकाल तक पवृत एवं भोग की
शिकत के कुिणठत हो जाने से तथा लोक-शासत के भय से िचरकाल तक िनवृत हुआ िचत तृिपत को पापत नही होता
है। इसिलए हे पापी मन, इस तुचछ भोगिचनतन से कोई पयोजन नही है। यह कृितम सुख अनथर का बीज है, इसिलय
िजस हेतु से अकृितम (सवाभािवक) पीित उतपन हो, उस हेतु को पापत करो।।16,17।। ऐसा िवचार कर राजा जनक
िचत की चपलता के शानत होने के कारण िचत मे अंिकत के तुलय मौन हो गये।।18।। राजाओं के िचत के
अनुवतरन के िवषय मे अतयनत पटु उस दारपाल ने भी गौरव एवं भय से िफर कोई वाकय नही कहा।।19।। तदननतर
राजा जनक ने कणमात चुप रह कर पुनः शमयुकतमन से पािणयो के जीवन मे हेतुभूत तततव का िचनतन िकया।।
20।। इस संसार मे कया उपादेय है, िजसको मै पयत से िसद करँ। नाशरिहत ऐसी कौन वसतु है, िजसमे मै आसथा
बाधू ? मेरी िकयाततपरता से कया एवं मेरी िनिषकयता से ही कया ? ऐसा कोई कायर नही है जो उतपन हुआ हो, पर
िवनाशरिहत हो, कयोिक जनयवसतुमात िवनाशी है, ऐसा िनयम है। असतयभूत उतपन हुआ यह शरीर िकयायुकत रहे या
िकयारिहत रहे, देह के चलन और अचलन दशा मे समानरप से िसथत, िवशुद, िचनमात सवभाव मेरी कया कित है ?।।
21-23।। मै न तो अपापत वसतु की इचछा करता हूँ और न पापत वसतु का तयाग ही करता हूँ। सवसथ होकर अपने
सवरप मे िसथत हूँ। जो मेरे पारबध से पापत है, वही मुझे पापत रहे और कुछ नही। यहा मेरा न तो कमर से कोई
पयोजन है और न कमर की उपेका से कोई अनथर ही है। िकया अथवा उसकी उपेका से जो कुछ भी पापत है, वह
मायामय ही है यानी िमथया ही है। शासतिविहत एवं लोकपापत िकयाओं को कर रहे या न कर रहे मुझे इस संसार मे
कुछ भी अपेिकत नही है, जो िक उपादेय हो। इसिलए यह शरीर उठकर पूवर-पूवर वयवहार के कम से पापत पसतुत कमों
को करे। िनवयापार अंगवाला हो करके यह शरीर सूख जाता है, यह कया अचछा है ? अथात् ऐसा करना उिचत नही
है। मन के िनषकाम, राजहीन और शम होने पर शरीर के अवयवो से पारबध कमों दारा उतपन हुए चेषा-अचेषारप
कायर फल के िलए समान है अथात् उनसे पुणय-पापरप फल का उदय नही होता।।24-28।।
यिद कोई कहे यह कैसे ? तो इस पर कहते है।
कमर से उतपन हुई फल समपितयो मे कतृरता और भोकतृता मन से किलपत है। मन के शानत हो जाने पर मनुषय
का िकया हुआ भी न िकया हुआ एवं भोगा हुआ भी न भोगा हुआ ह जा जाता है। पुरष के भीतर जैसे कतृरता या
भोकतृता का िनशय रढ हो गया वह पुरष समपूणर देह िकयाओं मे अपने िनशय के अनुकूल तनमय हो जाता है। इस
समय मेरी बुिद कतृरता और भोकतृतारपी रोग से शूनय आतमपद के दृढ िनशय से समपन नही है। इसिलए िचत के
भीतर कृत और अकृत कमर के फल को अवशय भोगने के िलए पुनजरनम आिद की शंका से उतपन तथा इष पािपत और
अिनष िवघात से उतपन अधीरता का अचछी तरह तयाग करता हूँ।।29,30।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
दसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआ आआ आआ आआआआ आआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआ आआआआआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ । आआ आआआआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पूवोकत रीित से िवचार कर राजा जनक जैसे सूयर िदवस का समपादन
करने के िलए उठते (उिदत होता) है वैसे ही कतृरतव-भोकतृतवािभमानरप आसिकत से रिहत होकर यथा पापत िकया का
संपादन करने के िलए उठे। यह मेरा इष है, यह मेरा अिनष है, इस कलपना मे िनिमतभूत वासनाओं का सवयं िचत से
तयाग कर उनहोने जागत अवसथा मे ही सुषुपत के समान (कारण िक सथूल, सूकम देह आिद का अिभमान न होने पर
जागत और सुषुिपत मे कोई भेद नही रहता) यथा पापत कमर िकया।।1,2।। देवता, बाहण आिद पूजनीय लोगो का
पूजा, दान आिद दारा सममान कर उस िदन का कायर पूरा करके उसी धयानलीला से उनहोने अकेले रात िबताई।।3।।
मन को, िजसका िवषयभम िनवृत हो गया था, समािहत करके राित वयतीत होने पर उनहोने अपने िचत को इस
पकार समझायाः हे चंचल िचत, संसार तुमहारे आतमा के सुख के िलए नही है, तुम शािनत को पापत होओ। शािनत से
िवकेपरिहत सारभूत आतमसुख पापत होता है। जैसे-जैसे तुम िविवध िवकलपो का संकलप करते हो वैस-े वैसे तुमहारे
िचनतन से यह संसार अनायास वृिद को पापत होता है। जैसे वृक जल से सैकडो शाखावाला हो जाता है वैसे ही शठ,
तुम भी भोग की इचछा से असंखय वयथाओँ से युकत होते हो। चूँिक जनम तथा संसार सृिषया िवषयिचनताओं के
िवकलप से उिदत है, इसिलए तुम िविवध िचनताओं का तयाग कर उपशम को पापत होओ।।4-8।।
हे सुनदर, इस चंचल संसारसृिष और शािनतसुख को तराजू मे रखकर अपनी बुिद से कौन सारभूत है, इसकी
परीका करो। यिद तुमहे संसारसृिष मे सार पतीत हो, तो इसी संसारसृिष का अवलंबन करो। चूँिक यह संसारसृिष
असार है, इसिलए तुम इसमे आदर का तयाग कर यह साररिहत दृशय दशरन योगय है, इस पकार की दशरनलालसा से
िपय का गहण मत करो और अिपय का यह दशरन के अयोगय है, यो देष से तयाग न करो, िकनतु िपय और अिपय दोनो
के साकी एकमात आतमा की इचछा से आतमकाम होकर इचछापूवरक िवहार करो। पहले अिवदमान यह दृशय सुख-दुःख
के साधनरप से उिदत हो अथवा इस समय िवदमान यह नष हो, िकनतु हे साधो, तुम इसके उदय और नाश से उदय
नाश पयुकत हषर-िवषादरप िवषमता को पापत मत होओ।।9-11।।
यिद कोई शंका करे िक दृशय का समबनध रहते उससे होने वाले वैषमय का तयाग कैसे हो सकता है ? तो इस
पर कहते है।
वतस, तुमहारा दृशय वसतु के साथ तिनक भी समबनध नही है। िजसका सवरप िवदमान नही है, ऐसे असदूप
दृशय से सदूप तुमहारा समबनध ही कौन है ?।।12।। हे मन, तुम असत् हो और यह दृशय भी सत् नही है, इसिलए
दोनो के ही वनधयापुत और आकाशपुषप के समान असत् होने पर िनःसवरप िसथितवालो का समबनध, ऐसी उिकत अपूवर
(िवसमयकािरणी) ही है।।13।।
यिद कहते हो, मै असत् नही हूँ। सतय आतमा ही मै हूँ। दृशय ही असत् है, तो भी दोनो का समबनध नही बन
सकता, ऐसा कहते है।
हे सुनदर, यिद यह दृशय असत् है और तुम सतय हो, तो भला बतलाओ तो सही, सदसदूप सदा मृत और
जीिवतो का समबनध कैसे हो सकता है ?।।14।।
दोनो सत् ही है। कोई भी असत् नही है, इसमे भी कभी इष का िवयोग न होने से हषर तथा िवषाद का अवसर
नही है, ऐसा कहते है।
हे िचत, तुम और दृशय दोनो ही यिद सनमय और सदा रहने वाले हो, तो हषर और िवषाद का िवसतार ही कहा है
? इसिलए तुम महान िवषाद का तयाग करो। आतम-सवरप िसथित मे उतसाह को समािध के अभयास से जगाओ, वह
मौन होकर िसथत है। िवकेपरप सागर मे आिवष हुई इस अमंगलमय िसथित का तयाग करो। उतसवो मे लोगो के
कौतुक के िलए बारद आिद से बने हएु कनदुकाकार अलात यनत के (अनार यानी एक पकार की आितशबाजी के)
समान वयथर अपने -आप जल रहे तुम मोहरपी मल को पापत होकर हे सनमते, मनदता को पापत मत होओ।।15-17।।
इस दृशयवगर मे िजसके पापत होने से तुम परम पिरपूणरता को पापत हो जाओ, ऐसी कोई भी उनत उतम वसतु नही है,
इिसलए अभयास और वैरागय के बल से अित धीरता का अवलमबन कर हे शठ मन, तुम चंचलता का तयाग करो।।
18।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
गयारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआआ
आआ आआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस, वहा अपने राजय मे इस पकार िवचार कर रहे धीरमित राजा जनक ने सब
राजकायर िकये, िकनतु उनहे पहले के समान अहनता ममता से मोह नही हुआ। उनका मन कही हषर सथानो मे उललास
को पापत नही हुआ।।1।। केवल सुषुिपत के समान िनिवरकेपरप से सदा िसथत रहा। तब से लेकर उनहोने तो दृशय
का गहण ही िकया अथवा न तयाग ही िकया, केवल ततकाल मे उपिसथत दृशय मे वह िनःशंक होकर िसथत रहे। जैसे
धूिल से पापत कलंक से आकाश कलंक को पापत नही होता वैसे ही िनरनतर िवचारवाले राजा जनक ने अनािद सवभाव
पापत, रजोगुण से उिदत अहं-मम अिभमानरप कलंक पुनः पापत िकया ही नही।।2-4।। इस पकार आतम-िववेक के
अनुसनधान से राजा जनक का अपिरिचछन बहाकार समयक् जान अतयनत िनमरल हो गया। जैसे आकाश मे सूयर उिदत
होते है वैसे ही उनके हृदयाकाश मे िचदातमा, उिदत हो गया िजसके पकाश िवकेपो से समपािदत रंजनाभेदो से रिहत है
और जो दुःखो से शूनय है।।5,6। अननत आतमावाले, सब भूतो के आतमा के िभज उनहोने सब पदाथों को िचदातमा मे
अधयसत अतएव आतमभूत देखा।।7।। वे न तो कही पर िवशेषरप से हिषरत हुए और न कही पर दुःखी हुए। माया
के सवरवयवहाररप होने के कारण असंग आतमा से उसका सपशर न देखने से सदा ही वे समिचत रहे। पािणयो का
सतकार करने वाले जानवृद जनक, िजनहोने लोक मे परबह का जान पापत कर िलया था, तब से लेकर जीवनमुकत हो
गये। िवदेह देशो का राजय कर रहे, लोगो के पाणो से समान, राजा जनक हषर और िवषाद के अधीन होकर उनसे कभी
भी संतपत नही होते थे।।8-10।। मानिसक गुण और दोषो के वयापार से न तो सवरप के ितरोधानरप असत को
पापत होते थे और न पुनः सवरप के आिवभावरप उदय को पापत होते थे। बाहरी राजय से उतपन अथर और अनथों से
न तो उनहे हषर होता था और न खेद होता था। कमर करते हुए भी वे कही पर कुछ भी नही करते थे। वे िनरनतर िचत्
के मधय मे सदा िसथत रहते थे।
सुषुपत रप से िसथत राजा जनक की राग, देष, आिद सब वासनाएँ सब पदाथों से सवरथा िनवृत हो गई थी। वे
न तो भिवषय का अनुसनधान करते थे और न अतीत की िचनता करते थे। वतरमान कण का हँसते हुए अनुसरण करते
थे भाव यह िक वासनावश पूवोतर का अनुसनधान होता है, उससे पूवर मे अिनष करने वाले पदाथों से देष होता है और
भावी िपय के िलए अनुराग होता है, तदननतर पवृित होती है, यो सब अनथों की पािपत वासना से ही होती है। एकमात
वतरमान का दशरन करने मे दुःख के पित देष न होने से उसमे अिपयता का अनुसनधान नही होता, इसिलए वे सवाभािवक
आननद की अनुवृित से हँसते हुए ही एकमात वतरमान कण का अनुसरण करते थे।।11-14।। हे कमलनयन
शीरामचनदजी, एकमात अपने िवचार से ही राजा जनक को पापतवय परम बहरप वसतु िनःशेषरप से पापत हुई यानी
िवसमृत गले के सुवणरहार की तरह जानमात से िमली, न िक अनय इचछा से।।15।।
जब तक फल की पािपत न हो, तब तक िवचार का तयाग नही करना चािहए, ऐसा कहते है।
तब तक अपने िचत से आतमतततव का िवचार करना चािहए जब तक िवचारो की सीमा का अनत
(आतमजानरप फल) पापत न हो।।16।। सनतो की संगित से िनमरलतारप अभयुदय को पापत हुए, िवचार से िवशद
िचत से जो परम पद पापत होता है, वह न तो गुर के उपदेश से न शासताथर के अनुशीलन से और न पुणय से पापत
होता है। (यहा पर साधनभूत गुर, शासताथर और पुणय को परमपद को असाधन कहना िवचार की पधानता के बोधन के
िलए है जैसे िक गौ और अश से िभन अपशु है, गौ तथा अश पशु है, यहा पर गौ और अश की पधानता के दोतन के
िलए उनसे िभन को अपशु कहा है)।।17।। हे शीरामचनदजी, सत् शासतो के अभयास और िवचार से पिरषकृत तथा
ऊहापोह मे कुशल अनुरागयुकत सखी के सदृश-अपनी मित से उतम पद पापत होता है, अनय िकया से पापत नही
होता।।18।। िजस पुरष की पूवापर का िवचार करने वाली, कुशाग पजारपी दीपिशखा दुसतर है और दुःखरपी
महातरंगो से भरी है, उन आपितरपी निदयो से पजारपी नौका दारा ही िनसतार होता है।।20।। जैसे कोमल वायु की
लहर असार तृण को लथेड देती है वैसे ही पजा से रिहित मूढ पुरष को छोटी-सी आपित भी पीिडत कर डालती है।।
21।। हे शतुतापन, पजावान पुरष के चाहे गुर आिद सहायक न हो, शासताभयास भी उसने न िकया हो, िफर भी
एकमात जान से बािधत होने के कारण अितकोमल संसाररपी सागर से वह िनसतार पा ही जाता है।।22।।
लोक मे भी पजावान मनती आिद की अनयबल से युकत पुरष की अपेका पबलता पिसद ही है, ऐसा कहते है।
पजावान पुरष चाहे सहायशूनय ही कयो न हो, िफर भी वह कायर मे सफलता पापत करता है, िकनतु पजािवहीन
पुरष कायर को पापत कर बहुत सी सेना आिद के बल से पधान होकर भी नष हो जाता है(♦)।।23।।
♦ इस शलोक का दूसरा अथर यह है िक – चरमसाकातकारवृितरप पजा से समपन असंग आतमा सब
कायरपपंचो के बाध को और सब अवशयककतरवय पुरषाथों की अविधभूत परम पुरषाथर को पापत होता है। िकनतु मोह
सकल पपंच िवसताररप कायर को पाकर उसका कारण होने से पधान होता हुआ जानमात से नष हो जाता है।
कोई कहे िक पजा जब ऐसी वसतु है, तब उसे िकस उपाय से पापत करना चािहए ? इस पर कहते है।
जैसे फल पािपत के िलए िसंचन, रकण करने आिद से लता बढाई जाती है वैसे ही शासताभयास और सजजनो
की संगित से पहले पजा को बढाना चािहए।।24।। जैसे चनदमा का मणडल संसार के अनधकार को दूर करने वाली
चादनी को उतपन करता है वैसे ही पाकतन शुभकमररपी वृक, िजसका पजाबल ही महान मूल है, समय पर मूलअजान
की िनवृित मे समथर आतमजान को उतपन करता है।।25।। बाह पदाथों के अजरन मे लोग जैसे उदोग करते है, पजा
की अिभवृिद के िलए पहले वैसा ही उदोग करना चािहए, उससे अिधक पिरशम की आवशयकता नही है, यह भाव है।।
26।। बुिद की मंदता, जो सब दुःखो की सीमा है, आपितयो का उतम भणडार है और संसार रपी वृको का बीज है
उस अजान का िवनाश करना चािहए।।27।।
इसी पकार पजाकोश भी सब समपितयो की चरम सीमा है, ऐसा िदखलाते है।
सवगर से जो सुख िमलता है, पाताल से(♣) जो सुख िमलता है और राजयो से जो सुख िमलता है, वह सारा
सुख महातमा को पजाकोश से पापत होता है।।28।।
♣ सवलोकादिप रमयािण पातालानीित नारदः। जगाद दुसदा मधये पातालेभयः समागतः।। (पाताल लोको से
आए हुए शीनारदजी ने देवताओं की सभा मे कहा िक पाताल सवगरलोक से भी रमणीय है) इस पौरािणक वचन से पाताल
मे भी सुखाितशय पिसद है।
आतयािनतक दुःखकय भी एकमात पजा का ही फल है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, भयंकर इस संसार सागर से पजा दारा ही िनसतार होता है, दानो से, तीथों से अथवा तपसया
से इस संसार से िनसतार नही िमलता। दान, तप आिद का फल छोटे-मोटे पापो का कय है, संसारसागर से िनसतार रप
महाफल नही है।।29।।
जो सवगािद अनय पदाथर दानािद कमों के फल कहे गये है, वे भी पजा के फल ही है, ऐसा कहते है।
भूिमचर लोग भी आकाशगमन आिदरप दैवी समपित को जो पापत हुए है, वह भी पजारपी पिवत लता से उतपन
हुआ सवािदष फल है। िजन िसंहो ने अपने पंजो से मत गजेनदो के कुमभसथल फाड डाले, वे भी पजा से िसयारो दारा
ऐसे परािजत हुए है, जैसे िसंहो से हिरण परािजत होते है। साधारण से भी साधारण लोगो ने अपनी पजा से राजगदी
पापत की है। इस लोक मे पजा मे ही सवगर और अपवगर की योगयता िदखाई देती है। अितभीर भी सब वादीजन पजा
से ही अपने िवकलपो से शोिभत होने वाले पगलभवािदयो को जीत लेते है। िववेकी पुरष के हृदयकोश मे िसथत यह पजा
िचनतामिण रप है, यह कलपलता की नाई वािछत फल देती है। कुशल पुरष पजा से संसार से िनसतार पाता है और
अधम पुरष डू बता है। ठीक भी है, नौका चलाने की िशका को पापत हुआ केवट नौका से पार चला जाता है और नौका
चलाने मे अिशिकत केवट पार नही पहुँचता। पजा को नौका के समान यिद िववेक वैरागय आिद सनमागर मे लगाई जाय,
तो पार पहुँचाती है िकनतु राग, देष, आिद असत् मागर मे लगायी गई, संसार मे भमण करती हुई बुिद सागर मे घूमती हुई
नौका के समान मनुषय को आपित देती है।।30-36।। तृषणा के वगर के लोभ, मोह, कोध, िचनता आिद से उतपन हुए
देष, िचनता, अिवदा आिद दोष िववेकशील अतएव असंमूढ पुरष को इस पकार पीिडत नही करते, िजस पकार िक
कवचयुकत पुरष को बाण पीिडत नही कर सकते।।37।। हे शीरामचनदजी, इस लोक मे पजा से सारा जगत गुण-
दोष तततविववेक के साथ भलीभाित िदखाई देता है। परमाथरदृिषवाले पुरष के पास न समपितया आती है, न िवपितया
ही आती है। जैसे सूयर को आवृत करने वाला जलरप िवसतृत काला मत अहंकार पजा से नष हो जाता है।।
38,39।। उनत अनुपम पद मे पहुँचने की इचछावाले पुरष को पहले इस मित का ही कमशः िववेकिशका दारा शोधन
करना चािहए। धानय आिद की अिभवृिद चाहने वाला कृषक सबसे पहले पृिथवी को ही जोतता है।।40।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
आआ आआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इस पकार जनक के समान अपने से आतमा का िवचार कर आप
असमभावना आिद पितबनधको के िनरास दारा जातजेय (िजन लोगो को जातवय वसतु का, बह का पिरजान हो चुका)
लोगो के पद को पा जाओगे। जो लोग अिनतम जीवनमुिकत जनमवाले पजावान और राजस-सािततवक है, वे लोग जनक
के समान पापत वसतु को सवयं पा जाते है। भाव यह िक रजोगुण से पौरष पयत होने और सततवगुण से िचतपसाद की
अिभवृिद होने के कारण राजस-सािततवक पुरष ही अपने िववेक से आकाश से फल पतन के तुलय जानपािपत मे
अिधकारी है।।1-2।।
वे पापतवय वसतु को कैसे पापत करते है, ऐसी शंका होने पर उसे कहते है।
सततवगुण की अिभवृिद से जब आतमा अपने से ही अपने मे पसन होता है, तब रजोगुण की िवषमभशिकत
(आवरणशिकत) से इिनदयनामक शतुओं क पुनः पुनः जीतकर वे सवयं पापतवय वसतु को पापत करते है।।3।। पसन,
सवरवयापक, इिनदयो को वश मे करने वाले, सवयं जयोित परमातमा के अपने -आप साकातकृत होने पर सब दुःख दृिषया
नष हो जाती है।।4।। उस परबह परमातमा का साकातकार होने पर अहनता-ममता पतीितरप हृदय गिनथया नष हो
जाती है, जो दुवासनाओं की मुिटया है यानी बीज की मुटी की तरह अपने भीतर दुवासनाओं का दृढतापूवरक गहण करने
वाली और िचतरपी खेत मे बोई जाने वाली है और आधयाितमक आिद िविवध दुःखो की वृिषया है।।5।।
हे शीरामचनदजी, अपनी िववेक बुिद से अपने को समपूणर जगत के उतपित आिद के अिधषानभूत बहरप से
जानकर राजा जनक के समान परम पुरषाथररप शोभावाले आप सवोतकृष हो जाइये।।6।।
अब आतमपसाद के उपायो मे िवचार ही मुखय है, ऐसा कहते है।
िनतय आनतिरक िवचारवाले और जगत क अिनतय देख रहे पुरष का आतमा राजा जनक के समान समय आने
पर सवयं पसन हो जाता है।।7।।
िवचार की जड भी पुरष पयत ही है, इस आशय से कहते है।
संसार से भयभीत हुए पुरषो का अपने पयत को छोडकर न तो भागय शरण है, न कमर शरण है, न धन शरण है
और न बनधु-बानधव ही शरण है।।8।।
यिद कोई शंका करे िक भागयवश सवयं ही समय आने पर जान हो जायेगा ? हमारे पयत से कया लाभ है ? तो
इस पर कहते है।
जो लोग पयत, िववेक, वैरागय, िवचार आिद कायों मे भागय के आधीन रहते है और भागय के पितकूल होने पर
अपने हजारो पयतो से कया िसद होगा, बहुत से लोग फल पािपत के िलए पयत करते है, पर दैव से िवनष हुए उनका
काम, कोध आिद से पतन देखा जाता है – इतयािद कुकलपनाएँ करते है, उनकी मनद मित िवनाश की ओर ले जाने वाली
है, उनका अनुसरण नही करना चािहए।।9।। परम िववेक का अवलमबन कर आतमा का अपने आप साकातकार कर
वैरागय से वृिद को पापत हुई (अनािदकाल से िनमगन आतमा के उदार मे समथर) बुिद से संसारसागर को पार करे।।
10।। हे शीरामचनदजी, जनक की आखयाियका के उदाहरण से िवसतािरत, आकाश से फलपतन के तुलय यह
जानसंपािपत मैने आपसे कही जो अजानरपी वृक को उखाड फेकने वाली और िनरितशयसुख देने वाली है।।11।।
जैसे पातःकाल मे कमलिवकास को पापत होता है, वैसे ही जनक के तुलय सदबुिद और सवयं ही आतमसाकातकार करने
वाले पुरष की देह के अनदर हृदय मे िसथत सवयंजयोित परमातमा िवकास को पापत होता है।।12।। जैसे धूप से
िजसकी शीतलता हर ली गयी, ऐसा िहमकण गलकर लीन हो जाता है, वैसे ही यह िविचत संसार िचनतन िवचार से
िवलीन हो जाता है।।13।।
देह मे अहंभाव का तयाग ही पूणर आतमदशरन मे मुखय साधन है, ऐसा कहते है।
यह देह ही मै हूँ, इस राित का िवनाश होने पर अपने -आप सवरवयापक िवशाल आतमपकाश पकट हता है। 'यह
देह ही मै हूँ' इस पिरचछेद के िवनष होने पर अननतभुवनवयापी िवसतार उतपन हो जाता है।।14,15।। हे सदबुदे,
जैसे राजा जनक ने िवचार कर अहंकारवासना का तयाग िकया वैसे आप भी अपने हृदय मे िवचार कर अहंकारवासना
का तयाग कीिजए।।16।। अहंकाररपी मेघ के नष होने पर सवरवयापक, िनमरल िचदाकाश मे आतमपकाशरपी परम
सूयर अवशय ही अतयनत पकाश को पापत होता है।।17।। जो अहंकार की भावना है, वही तम का (अजान का) मुखय
बल है, उसके शानत होने पर पकाश उतपन हो जाता है।।18।। न अहनता है, न अनय है और न तो शूनय ही है,
कयोिक दोनो का साकी िवदमान है, इस पकार से भािवत मन शािनत को पापत होकर गहण योगय िवषयो मे मगन नही
होता।।19।।
उपादेय (गाह) िवषयो मे मन का अनुराग और हेय (तयाजय) िवषयो मे मन का देष ही पुरष का बनधन है, उससे
अितिरकत बनधन नही है, ऐसा कहते हं।
मन का जो उपादेय वसतुओं की ओर आकृष होना है और जो हेय वसतुओं का सवरथा तयाग है, उसी को आप
बनधन समिझये, उससे अितिरकत बनधन नही।।20।। हे शीरामचनदजी, हेय वसतुओं के पापत होने पर आप िखन न
होइये और उपादेय वसतुओं मे अिभमान न कीिजये। हेय और उपादेय वसतुओं मे राग देषातमक वृितयो का तयाग कर
उनके साकी मे एकिनष होकर िवकेप शूनय होइये।।21।। िजन लोगो की, यह उपादेय है, यह हेय है, ऐसी अवसथा
सवरत अहेय आतममात के दशरन से िवलीन हो गई, वे पुरष न तो िकसी वसतु की वाछा करते है और न िकसी वसतु का
तयाग ही करते है।।22।। जब तक िचत से हेय और उपादेय की कलपना कीण नही हुई, तब तक जैसे मेघाचछन
आकाश मे चादनी शोिभत नही होती वैसे ही समता (अिवषम बहातमता) शोिभत नही होती।।23।। यह वसतु खराब है
इसिलए तयाजय है, यह वसतु उतम है इसिलए गाह है, इस पकार िजसका मन चंचलता को पापत हुआ, उस पुरष मे
समता शाखोट वृक मे मंजरी के समान नही होती।।24।। यह वसतु मेरे अनुकूल है अतः यह मुझे पापत हो, इस
पकार लाभ से िवलािसत होने वाली और यह वसतु मेरे पितकूल है अतः यह मुझे कभी भी पापत न हो, इस पकार देष से
िवलािसत होने वाली एषणा िजस पुरष मे है, उसमे वैरागय से उिदत होने वाली समता और सवचछता कहा ?।।25।।
उस पुरष मे समता और सवचछता की संभावना मे कया िवरोध है, ऐसा पश होने पर कहते है।
अिदतीय िनदोष इस बहतततव के ही भेदाभेद कलपना से िवदमान रहने पर कया अतयनत अयुकत है ? और कहा
पर युकतता है ? भाव यह िक यिद सब पदाथर असंग, अिदतीय, आननदरप और अिभन ही हैतो आतमरप होने के कारण
सब अनुकूल ही है, यिद िभन है तथािप आतमा से उनका सपशर न होने से न अनुकूल है, न पितकूल है, इसिलए भेद की
अवसथा मे भी अयुकतता और युकतता का अवकाश नही है। पूवोकत पुरष मे तो युकतता-अयुकतता िवदमान है, अतः
उसमे सवचछता और समता की संभावना मे िवरोध है ही।।26।। इिचछत, अिनिचछत की आशंकारपी चंचल वानिरया
िजस पुरष के िचतरपी वृक पर सफुिरत होती है। भला उस पुरष को शािनत कहा से पापत हो सकती है ?।।27।।
अब जीवनमुकत पुरष के लकणभूत पनदह गुणो को कहते है।
िनराशता, िनभरयता, िनतयता, समता, जाता, िनरीहता, िनिषकयता, सौमयता, िनिवरकलपता, धैयर, मैती, सनतोष,
मधुरता, मधु-भािषता और मननशीलता ये हेय और उपादेय से रिहत जानी मै, वासना के बीज अजान के नष होने के
कारण, वासनारिहत रहते है।।28,29।।
इस समय उकत गुणो के अजरन मे उपाय का उपदेश देते है।
जैसे बह रहे जल को बाध से रोकते है वैसे ही िनकृष िवषयो मे दौड रहे मन को िवषयो से सब बाहेिनदयो की
परावृित दारा जबदरसती रोके।।30।।
बाहपदाथों मे आतमतवभािनत नही हो सकती है अतः उनका रत की तततव-परीका के समान सदा सब तरह
िवचार करना चािहए, ऐसा कहते है।
इन बाह पदाथों का तयाग करके आप बैठते, चलते, सोते सदा सब आनतरपदाथों का भली-भाित िवचार
कीिजये। वृदो ने कहा भी है – चलते, बैठते अथवा जागते, सोते िजसका मन िवचारमगन नही रहता वह मृतक
कहलाता है। तृषणारपी मछली िजसमे फँसी है, मोहरपी सेवार से जो मैला हुआ है, संसाररपी जल मे फैला है एवं जो
िचनतारप तनतुओं से िनिमरत है, ऐसे वासनाजल को जैसे आकाश मे बह रही तेज आँधी से बादल िछन-िभन हो जाता है
वैसे ही मेरे दारा उपिदष इस तीखी बुिद रपी कैची से कािटये जो अतयनत िवसतीणर बह की ओर उनमुख है।।31-
33।। हे सौमय, िचर अभयास से दृढ हुए एकातमिसथरतारप िचत धैयर से समपन अतएव अनािदकाल से संसारसागर मे
डू बे हुए आतमा का उदार करने मे समथर अपरोक साकातकार बुिद से संसाररपी वृक के मूल को, जो दोषरपी अंकुरो
की उतपितभूिम है, जैसे वृक के अवयव काषरप कुलाडे से वृक काटा जाता है, वैसे ही मन से ही मन का िवनाश कर
शीघ ही परम-पिवत सथान को पाकर आप िसथर होइये।।34,35।।
यिद कोई शंका करे िक ऐसी अवसथा मे भी तततवजानी के जीवन की िसिद के िलए जीवन के मूलभूत
अिवदानामक मोह को अवशय ही मानना पडेगा, वही िफर संसार को उतपन करेगा, तो इस पर कहते है।
मोह संसार को भूल कर िफर िफर नही उतपन होता, भाव यह िक वासनाकयरप िवसमृित होने पर मोह मे बीज
शिकत नही रह जाती।
शंकाः तब संसार को भूल कर िफर िफर नही उतपन होता, भाव यह िक वासनाकयरप िवसमृित होने पर मोह
मे बीज शिकत नही रह जाती।
शंकाः तब संसार ही मोहकेत मे अपने आप उगेगा ?
समाधानः संसार िचत का िवसमरण कर िफर नही उगता। भाव यह िक िचतसंसकारोचछेदरप िवसमरण होने
पर िफर संसार का उदगम नही होता।।37।।
िचत और चेतय इन दोनो के िवसमरण मे उनके ऊपर आसथा का तयाग ही उपाय है, ऐसा कहते है।
खडे होते, चलते, सोते, जागते, रहते, उछलते, कूदते यह असत् ही है, ऐसा मन मे िनशय कर इसमे आसथा का
पिरतयाग कीिजए।।38।।
आसथा का तयाग करने पर समता भी िसद होती है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, समता का पूणररप से अवलमबन कर पापत कायर कर रहे और अपापत कायर का िचनतन न
कर रहे आप इस लोक मे िवहार कीिजये।।39।। जैसे महेशर पृथवी आिद अषमूितररप िलंगो को शुद िचनमातदृिष
से नही धारण करते और जगदाकार मे िववितरत माया के अिधषान होने से अपने संिनधानमात से उनहे धारण भी करते
है उससे सवरकता भी होते है वैसे ही आप भी राजय आिद कायों को अनयथा से केवल संिनिध-मात से कीिजये और
आतमा अकता है, इस िनशय से न भी कीिजये।।40।। नानयोऽतोऽिसत दषा नानयोऽतोऽिसत शोता। (इससे अनय
दषा नही है, इससे अनय शोता नही है।) इतयािद शुित सब शरीरो मे आप ही अपचयुत सवभाव है, परमाथर सत् है, आप
ही जनमािदिवकार शूनय अज है, आप ही सबकी आतमा है एवं आप ही पूवोकत महेशर है। इस पकार के आपने अपने
अजान से इस पकार इस पपंच का िवसतार िकया है, दूसरे ने नही िकया है।।41।।
यिद मैने ही इसका िवसतार िकया है, तो इसमे मेरे हषर-कोध से होने वाले दोष कयो होते है ? इस पर कहते है।
िजस तततवजानी ने सदूप आतमदृशय की परमाथरसनमात भावना से चारो ओर अनय कोई वसतु है, ऐसी भावना
का तयाग कर िदया, वह पुरष हषर, कोध, िवषाद आिद से होने वाले दोषो से आकानत नही होता, इसिलए आप भी दैत की
भावना का तयाग कीिजये। जो राग और देष का तयाग कर चुका है, िजसके िलए ढेला, पतथर और सोना समान है एवं
िजसने संसार की वासनाओं का तयाग कर िदया है, ऐसा योगी युकत कहा जाता है। वह जो कुछ करता है, जो भोजन
करता है, जो देता है और जो मारता है, इन सबमे उस मुकतबुिदवाले पुरष की सुख-दुःख के िवषय मे समानता रहती है
जो इष और अिनष भावना का तयाग कर यह पापत कमर कतरवय ही है, इस बुिद से कायों मे पवृत होता है, वह कही पर
भी िनमगन नही होता है। हे महामते, यह मै और जगत िचतसतामात ही है, इस पकार के िनशयवाला मन, िजसने
भोगिचनता का तयाग कर िदया है, शािनत को पापत होता है।
यह मै और जगत िचतसतामात ही है, ऐसा जो ऊपर कहा है, उसका उपपादन करते है।
चूँिक मन सवभावतः जड है, अतः सवतः िसद होने और दूसरे का (अपने िवषय का) साधन करने के िलए
सवयं असमथर होने के कारण अपनी िसिद और अपने िवषय के साधन के िलए सवसािकभूत, सवपकाश, िचदूप
पारमािथरक वसतु का अनुसरण करता है। जैसे िक अपने जीवनिनवाह के िलए और जैसे िसंह का अनुगामी िबलाव िसंह
के पराकम से पापत मास खाता है वैसे ही मन असतकलप है, यह बात िसद हुई, यह एक अिदतीय आतमा का िवसमरण
कर, उसकी जगत के आकार से भावना कर सवयं जगदाकार हो िचतततव की कृपा से जीता है, इसिलए आतमसमृित को
पापत कर िफर िचत भी हो जाता है यानी मनसता का तयाग करता है।।49।।
मन की पकाशशिकत के समान सपनदनशिकत भी िचत् के अधीन है, ऐसा कहते है।
जो जड मन शव के तुलय अचेतन है, वह िचदूप दीिपका के बल के िबना कैसे चेषा कर सकता है ?।।
50।।
अतएव िचत् मे सपनदन कलपना है, वही मन है, ऐसा िवदानो का पितवाद है यह कहते है।
यह शासतज लोग िचतसवभाव से समबद असनमय सपनदशिकतरप कलपना को िचत शबद से कहते है।।
51।।
सपनदशिकत के ही िवलास िचत और िचतवृितया है, ऐसा कहते है।
जो िचतरपी साप का फुफकारना है, वही यह कलना शबद से कहा जाता है। मै िचत् ही हूँ, ऐसा जानकर वह
कलना शुद िचदूपता को पापत होती है।।52।।
इससे िसद हुआ िक िचत् का चेतय तयाग ही बहतारप से पयरवसन होना है, ऐसा कहते है।
चेतय से रिहत जो िचत् है, वह सनातन बह है और चेतयसिहत जो यह िचत् है, वही यह कलना है।।53।।
काल दारा मनन से यह कलना मन होती है, ऐसा कहते है।
जो सिचचदाननदरप है, वही कलना बन कर सदा हृदय मे सत् के समान िसथत संकलप-िवकलप कलपना होकर
यह पिसद मन बन जाता है।।54।।
िनतय अनुभवसवभाव बह का सवरपिवसमरण होने पर कलना ही समृितता को और िचतता को पापत होती है,
ऐसा कहते है।
िचतरप से पिसद यह कलना जभी उिदत होती है, तभी वह िचततव को भूलकर जड के समान िसथत हो
जाती है।।55।।
अतीत िवषयो के आकार की कलपना से िचतता के समान अनागत िवषयो के आकार की कलपना से संकलप-
िवकलप का अनुिवधान करने के कारण मनसता को भी वह पापत हुई है, इस आशय से कहते है।
इस तरह दो पकार से पिरचछेद को पापत हुई, पूवर जनम के इष-अिनष-साधनो का िनशय कर भावी इष-
अिनष साधनता का संकलप कर हेय-उपादेय धमरवाली मुखय वह िचित ही संकलप को उतपन करने वाली कलना नामक
होगी।।56।। वह िचित ही अपनी मायाशिकत से जगता को मानो पापत हईु है। जब तक गुर, शासत और िवचारो से
वह पबोिधत नही की जाती है, तब तक वह वासतिवक पूणाननद अिदतीयरप बह नही जाना जाता है।।57।। इसिलए
शासतिवचार से, उतकृष वैरागय से और इिनदयो के िनगह से कलना को कलनारप जो तीन अवसथाएँ है, तदूप सवप से
लौटाये।।58।। शासतजनयजान से, शम आिद साधनयुकत मनन और िनिदधयासनो से पबुद हुई सब लोगो की कलना
बहता को पापत होती है, अनयथा संसार मे भमण करती है। रागरपी मिदरा से मत, िवषयरपी गडढे मे िगरी हईु और
आतमा के अजान से सोई हुई कलना को ही पबुद करना चािहए।।59,60।।
यिद कोई शंका करे िक कलना यिद सोई है, तो जगत को कैसे जानती है अथवा जानने पर पिसद िचतसवभाव
से उसमे कौन अनतर है ? तो इस पर कहते है।
जब यह अपबुद रहती है, तब जगत का कुछ भी बोध नही होता, कयोिक जगत एकमात अजान का िवलास है,
िदखाई देती हुई भी जगत िसथित भीतर साकिलपकपसाद कलना के समान असनमयी है।।61।।
िवषयाश का तयाग करने पर बची हुई कलना ही आतमा है, ऐसा कहने पर वृितजान ही आतमा है, ऐसा कोई न
समझ जाय, इसिलए उसके साकी उसके अनदर िसथत शुद िचत को पृथक करके िदखलाते है।
गनधशिकत से मंजरी के समान यह िचतवृितरप कलना अनदर िसथत उस सवरसािकणी परमदृिष से वयापत
होकर अपने -अपने िवषयो के पकाशन मे समथर होती है सवतः नही होती।।62।।
यिद वह सवरसािकणी है, तो तत् तत् अनतःकरण धमों को ही कयो पकािशत करती है, सबको कयो नही
पकािशत करती है ? तो इस पर कहते है।
जो यह िनतयबोधसवरप साकी िचित है, वह पिरिचछन वृितरप कलना की उपािध के कारण थोडी ही है, इस
तरह तीनो जगतो मे उन-उन पािणयो दारा वह संकिलपत है, इसिलए थोडा ही (ततत अनतःकरणधमों को ही) िनतय
जानती है।।63।। हे शीरामचनदजी, पाषाणतुलय, जड कलना जैसे पिदनी धूप से पबोिधत होती है वैसे ही परम चेतन
से ही बोिधत होती है।।64।।
जो नैयाियक आिद िनतय साकी को न जानते हुए पर पकाशय अिनतय जान को ही अथरपकाशक मानते है,
उनका बहुत उदाहरणो से उपहास करते है।
जैसे पाषाणमयी कनया को नाचने के िलए िकतना भी कहा जाये, पर वह नाचती नही वैसे ही यह कलना शरीर
मे कुछ भी नही जानती।।65।।
अचेतन अनतःकरणवृित आिद मे िनतयिचत् की सिनिध के अभाव मे िवषयोनमुख पवृित ही नही हो सकती,
उनकी पकाशता तो दूर रही, इस आशय से कहते है।
कया नही िचतिलिखत राजाओं ने कोलाहल से भरा हुआ युद िकया ? कया चनदमा की िकरणो दारा वनसपितया
कही आपयाियत हुई है ?।।66।। खून से लथपथ शरीरवाले मुदे कहा दौडे, वन के पतथर के टुकडो ने कहा मधुर
गीत गाया ? पुरषो दारा पाषाण आिद से िनिमरत सूयों ने कहा राित का अनधकार दूर कर िकया ? संकलपमय आकाश
वनो से कहा छाया की जाती है ?।।67,68।। पतथर के तुलय जड, िमथया भमो से उतपन मृगतृषणामय इन मनो मे
कहा िकया की जाती है ?।।69।।
िनतयिचदातमा का यिद सवीकार न िकया जाय, तो कलना आिद के अधयास की िसिद ही नही होगी, ऐसा कहते
है।
जैसे तेज धूप के तपने पर मृगतृषणानदी सफुिरत होती है वैसे ही आतमा के रहने पर ही यह कलना खूब
सफुिरत होती है।।70।। िचत् की पिरिचछन सपनदकलपना ही मन है, ऐसा पहले कहा गया है, अब िचत् और अिचत्
अंश का िववेक होने पर िचदाश के आतममात होने से जडाश सपनदकलपना ही अविशष रहती है, इस पकार की
सपनदशिकत तो पाण ही है, उसका िनरोध करने पर मन नामक अनय कोई िनरोधयोगय नही है, ऐसा कहने के िलए
भूिमका बाधते है।
जो यह सपिनदत है, उसी को सवयं अपनी वंचना करने वाले अजािनयो ने मन जाना, उसे आप अनमयकोश के
अनदर िसथत पाणमय कोशरप वायुओं की शिकत जािनये।।71।।
पूवोकत पाणशिकत संकलप से उतपन हुई है, संकलपरिहत योिगयो की िचदातमरप ही वह पृथक िवदमान है,
ऐसा कहते है।
िजन लोगो की संिवत संकलपलेशरप िनशयो से आकानत नही है, उनकी यह संिवत, िजसने िवषयाकार की
कलपना नही की, परमातमा की पभारप है।।72।। वही 'यह मै हूँ' 'यह मेरा है' इस पकार जब िवषयो की कलपना
करती है, तब सपनद के िबना उसमे आकेप हो नही सकता, इसिलए सपनदरप पाणतततव के और िचदातमक आतमतततव
के, जो पृथक-से हो गये, िववेक न होने के कारण िफर ऐकय के अधयास से जडसंविलतिचदूप कलना जीव नाम के कही
जाती है।।73।।
इसी पकार और भी उसकी संजाएँ पिसद है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, असत् संकलप की बुिद, िचत जीव ये संजाएँ िवदानो दारा किलपत है। परमाथरतः वे नही
है।।74।।
कयो परमाथरतः नही है ? ऐसा यिद कोई कहे, तो इस पर कहते है।
चूँिक परमाथरतः न मन है, न यह बुिद है और न शरीर है यानी इनसे उपलिकत दृशयमात नही है, केवल
एकमात आतमा ही सदा िवदमान है, कयोिक दृशय 'अपाणो हमनाः शुभ' 'अकायमवरणमनसनािवरम्' 'असथूलमनषु' इतयािद
सैकडो शुितयो, िवदानो के अनुभवो और युिकतयो से बािधत है।।75।।
यिद आतमा ही है, तो वह कयो नही पतीत होता अथवा जगदूप से कौन पतीत होता है ? ऐसी शंका होने पर
कहते है।
आतमा ही यह समपूणर जगत है और आतमा ही कालकम है। आकाश से सूकम होने के कारण नही सा पतीत हो
रहा वह िनमरल ही है।।76।।
कैसे वह नही-सा है और कैसे है ही, यह िनशय हुआ ? इस पर कहते है।
सवचछ होने के कारण चकु आिद की योगयता मे पयोजक सथूलता, नीलता आिद के अभाव से वह असत्-सा
पतीत होता है और िचदूप होने से सवपरपकाशक होने के कारण वह सत् है, अतएव सवरपदातीत आतमा केवल अपने
अनुभव से ही पतीत होता है न िक इिनदयो से।।77।।
सथूलता आिद के अभाव से अनय इिनदया उसमे भले ही पवृत न हो, पर मन तो सूकम होने के कारण
अथरिनणरय हेतू रप से पिसद है, वह उसमे कयो न पवृत होगा ? इस पर कहते है।
जहा पर परमातमसंिवत है, वहा पर मन कीण हो जाता है। जहा पर पकाश रहता है, वहा पर अनधकार कीण हो
जाता है। भाव यह है िक ठीक है मन उसमे पवृत होता, यिद उसके दशरन के समय मे ही वह सवयं नष न हो जाता।
मन अजान का कायर है, अतः आतमसाकातकार की वृित का उदय होते ही अिवदा के साथ वह तुरनत नष हो जाता है,
अतः मन मे आतमदशरन योगयता नही है।।78।।
तब कहा पर मन की वृितशिकत है ? इस पर कहते है
िजस अवसथा मे अतयनत सवचछ आतमरप संिवत् के बाह अथर संकलपवश बाहिवषयाकाररप से उतपन होने
के कारण पकाशयरप से अिभमत होते है, वहा पर पारमािथरक आतमा का िवसमरण और िचत से उतपन हुआ िमथया
पदाथों का दशरन पिसद है।।79।।
अपनी उतपित का िवरोधी होने से भी मन की आतमदशरन मे शिकत नही है, ऐसा कहते है।
परम पुरष की जो संकलपमयता है, वही िचत शबद से कही जाती है। असंकलप से िचत का अभाव होता है,
उससे मुिकत होती है। भाव यह है िक िजसकी उतपित संकलपमयता के अधीन है, वह भला संकलपो के कय से
उपलिकत मोकरप आतमा मे कैसे पवृत होगा ?।।80।।
इसिलए संकलप िचत की उतपित मे बीज है, यह हम बहुत बार कह आये है, ऐसा कहते है।
संसार की उतपित के िलए संकलपता को पापत हो रहे आतमा का िचतसवभाव से जो थोडा सा िवचलन होता है,
वही िचत के जनम का कारण है, इसमे कोई सनदेह नही है।। 89।।
पूवोकत िवषय को ही सपष करके कहते है।
िनिवरकलप िचत से पचयुत हुई, संकलपरप कलंक से कलंिकत सता कलना कही जाती है। जैसे सती आिद
की संकलपना से पुंसतव उदबुद होता है, वैसे ही उकत कलना से मन जगत की उतपित के िलए पबुद होता है।।
82।।
'यदेतसपिनदतं नाम' इतयािद से जो िवषय पसतुत िकया, उसका पयोजन कहते है।
हे शीरामचनदजी, जैसे दपरण आिद पदाथर का पितिबमब उसके नष होने पर तुरनत नष हो जाता है वैसे ही
पाणशिकत के िनरद होने पर मन लीन हो जाता है, कयोिक जैसे पितिबमब दपरण का पितरप है वैसे ही यह मन भी
पाणरप ही है।।83।।
पाणरप ही मन है, यह कैसे जात हुआ ? इस पर कहते है।
जीिवत पुरष मन के दूर देशानतर के अनुभव को हृदय मे िसथत जानता है यानी उस दूर देश के अनुभव मेरे
हृदय मे है, ऐसा अनुभव करता है। मन के साथ दूर देश का समबनध सपंद के िबना नही हो सकता और वेदनाश
िचतसंमबनध के िबना नही हो सकता, अतएव सपंदन और वेदन दो शिकतयो के योग से पाण ही मन कहा जाता है।।
84।।
इस पकार पाण के िनरोध से मनो-िनरोध की िसिद के िलए दोनो की एकता का पितपादन कर िनरोध का
उपाय बतलाते है।
वैरागय से, पाणायाम के अभयास से, समािध से, िचत के बाहिवषयो मे गमनरप दुरभयास के िवनाश से और
परमाथर-तततव के जान से पाणवायु का िनरोध िकया जाता है।।85।।
अब 'अनमयं िह सोमय मन आपोमयः पाणः' इस शुित के अनुसार िभिन उपादानवाले पाण और मन िभन है, इस
पक मे भी मन मे सवतः सपनदशिकत और िचतशिकत का अभाव होने से वे दोनो पाण और िचदातमा के अधीन ही है,
इसिलए पाण का िनरोध होने पर मन के िनरोध की उपपित हो गई। इस आशय़ से कहते है।
िशला मे भी कदािचत चलनशिकत और जवलनशिकत हो सकती है, िकनतु मन की सपनद मे और वेदन मे शिकत
नही है।।86।।
तब वे शिकतया िकसकी है, यह आशंका होने पर कहते है।
सपनदन पाणवायु की शिकत है, यह चलदूप और जड ही है। िचतशिकत आतमा की है, वह सवरदा सवचछ और
सवरगामी है। िचतशिकत और सपनदशिकत का जो समबनध है, वही मन है। िमथया ही वह उतपन हुआ है, अतएव
िमथयाजान कहा जाता है। यही कायर अिवदा है, यही माया शिकत कही जाती है, यही संसारािदरप िवष देने वाला वह
परम अजान है।।87-89।। िचतशिकत और सपनदशिकत की संगित मे यह संकलप-कलपना िनिमत है, संकलप-कलपना
यिद न की जाये, तो ये संसार भीितया पिरकीण हो जाती है।।90।।
वायु की जो सपनदशिकत है, वह िचत् से चेतन बनाई जाती है, चेतयसिहत वह िचत् तभी संकलप से िचतता को
पापत हो जाता है।।91।। िचत की यह िचतता बाल के यक के समान िमथया किलपत है, कयोिक िजसमे
अखणडमणडलाकार रप सपनद नही है, ऐसा िचत् ही परमाथररप है। उकत अखणडपूणररप यह िचतसवभावता िचत से
अनय िकससे खिणडत होगी ? भला अखणडशिकतवाले इनद का युद िकसके साथ हो सकता है ?।।92,93।।
इसिलए समबनधी न होने के कारण समबनध यहा नही है, समबनध के िबना मन िकसका और कैसे िसद हो ? भाव यह िक
अिचत् का िचत् के साथ िवरोध है, िवरोध होने पर िचतसता से बािधत िसथितवाला होने से मन कया पदाथर होगा ? यिद
जड मन भी अपनी सता मे अनयिनरपेक, सवतः िसद कहा जाय, तो उसका अनुभव करने वाले उसके समबनधी अनय
चेतन का अभाव होने से िचतसमबनध के िबना वह मन िकसका और कैसे िसद होगा ? अनुभव मे आरढ न होने पर
अलीक (झूठा) – पुषप और मन का कया अनतर होगा ?।।94।।
इस पकार िचत् और सपनद के भेद पक मे मन की अलीकता कह कर अभेद पक मे तो वह सुतरा अलीक है,
ऐसा कहते है।
िचत् और सपनद का अभेद होने पर तो मन नाम की वसतु की समभावना ही कया है ? भला बताइये, हाथी, घोडे
के सममदर के िबना सेना कया हुई ?।।95।। इसिलए हे शीरामचनदजी, दोनो पको मे मन का समभव न होने से तीनो
जगतो मे दुषातमा मन है ही नही। ऐसे िनशय से ही मनोनाश होता है।।96।। हे अनघ, अनथर के िलए वयथर मन का
संकलप आप मत कीिजये। मन िमथया ही उिदत हुआ है, परमाथरतः वह यहा पर है नही।।97।। हे महामते, कही पर
आप अपने मन मे कुछ भी संकलप न कीिजये, कयोिक संकलप करने वाला मन यहा कही पर है ही नही।।98।। हे
मननशील शीरामचनदजी, समयक् जान से आपके हृदयरपी मरभूिम मे असमयक् जान से उतपन हुई मृगतृषणारपी
कलपना शानत हो गई है।।99।। जड होने से और सवरपहीन होने से मन सदा ही मरा है, मरे हुए मन से लोग मारे
जाते है, यह चकवात घूमती हुई मूखरता की परमपरा बडी ही िविचत है।।100।। िजसका न सवरप है, न शरीर है, न
कोई आधार है और न जाित ही है वह इन सबको खा डालता है, यह बडा अदभुत मूखरतारपी जाल है।।101।। जो
पुरष सब पकार की सामिगयो से रिहत मन से भी मारा जाता है, उसे मै िजसका िसर नीलकमल की पँखुिडयो से चूर-
चूर िकया गया, ऐसा समझता हूँ।।102।। जो पुरष जड, मूक और अनधे मन से भी मारा गया, वह मूढ चनदमा की
िकरणो से जलता है, ऐसी मेरी समझ है।।103।। िवदमान और शतु को जीतने की सब सामगी से समपन होने पर
भी मूढ पुरष अिवदमान मन से अिभभूत होता है और िववेकी पुरषो दारा वैरागय आिद महापयास – साधय साधनो से
और योग, धयान, समािध-अभयास, साकातकार के उपायो से अिवदमान ही मन का नाश िकया जाता है, यह सब कलपना
िमथया ही उिदत हुई है, वासतिवक नही है। िमथया संकलप से किलपत, िमथया ही िसथित को पापत हुआ, खोजने पर भी
जो दृिषगोचर नही हुआ, उसकी लोगो के ऊपर आकमण करने की कया शिकत है ?।।104,105।। महामायावी-रप
से पिसद मयासुर का भी िनमाण करने वाली यह माया अतयनत अदभुत है, िजससे एक अतयनत चंचल िचत से भी ये
लोग अिभभूत हो रहे है।।106।। जब मूखरता आती है, तब पुरष सभी आपितयो का भाजन होता है, इसमे तिनक भी
िववाद नही है, कयोिक मूखर को कौन आपित नही है, अथात् सभी आपितया है, देिखये अजानी ने ही मूखरता दुषकमर आिद
दारा इस सृिष को उतपन िकया है जो सब आपितयो की खान है।।107।। बडे कलेश की बात है, यह सृिष मन, देह
आिद की दुबुरिद करके मूखरता के वशीभूत है यानी मूखरता से पीिडत है, िफर भी इस पिसद जीव दारा असनमागानुवतरन
से उतरोतरदुःख के िलए पापत की जाती है। भाव यह है िक अनध के तुलय जड मन आिद की सवभािवक मूखरता से
पीिडत पपंच का पुनः उसके दुःख को जानने वाले जीव से पीडन अतयनत अनुिचत है।।108।। यह मूखरतामयी सृिष
अिवचारमात से िसद है, अतएव एकमात िवचार से इसका बाध िकया जा सकता है, जैसे जल अपने दारा किलपत तरंग
के पवाह से छोटी-छोटी बूँदो मे िवभकत होता है, यह भािनत िवचार-मात से नष होती है। वैसे ही यह सृिष की भािनत
भी िवचारमात से नष होती है।।109।। वही जल जहा पर भँवरी होती है, वहा पर नीलाजन के तुलय वणरवाला, बीच
मे छेद से युकत, पीसने के यनत से मानो चूर-चूर िकया जाता है, िफर वही जल जहा पर कापा है, वहा पर मणडल से
पूणर चनदमा के िकरण-सपशर से मानो उनमत होता है, इस पकार की जैसे भािनत होती है, वैसे ही यह भी भािनत है।।
110।। शतुओं से केवल देखा गया पुरष नेतो से रची गई रिससयो से मानो बाधा जाता है और संकलप-मात से रची
गयी शूर-वीर सेनाओं से मानो वह रंिजत होता है, इतयािद भािनत के तुलय ही यह भािनत है।।111।। इसिलए अतयनत
कोमल होने के कारण यह सृिष कही पर भी िसथत नही हुए, वयथर किलपत, िदितय कृपण मन से नष होती है। यह
मूखरलोकमयी सृिष असत् उिदत हुए मन के िसवाय कुछ भी नही है। जो पुरष उसको वश मे करने के िलए समथर नही
है, हे शीरामचनदजी, वह आधयाितमक शासत के उपदेश के योगय नही है।।112, 113।। कयोिक उस पुरष की बुिद
चारो ओर से िवषयो मे ही आरढ है, उसी से ही वह पिरपूणर-सी िसथत है, अतएव वह पतयक् नही होती, इसिलए सूकम
पदाथों के िवचारो मे वह समथर नही है, अतः अधयातमशासत के उपदेश के योगय नही है।।114।। वीणा की तनती
मधुर धविन से भी यह डरती है। िनदायुिकतबनधु की भी मुखकािनत से डरती है। भाव यह है िक धैयर के हेतुओं का
अभाव होने से वह सबसे डरती है। वंचक पुरषो दारा 'यह तुमहारा शतु आया', इस पकार ऊँचे सवर से कहे गये
अिवदमान शतु से भयभीत होकर भागती है। बहुत कया कहे अपने ही मन से भी यह िववश (भयभीत) की गई है, अनय
से तो कहना ही कया है ?।।115,116।।
अब पूवोकत दुषपजा भले ही डर, तथािप उसके कारण पुरष का वयामोह उिचत नही है, इस पकार पूवर पसतुत
ही उपसंहार करते है।
उकत दुषपजा िवषिमिशत लडडू के आसवादलेशरप िवषयसुख लेश से मरणासन-सी िववश, शतु के समान
पहार कर रहे हृदयगत िचत से ही सनतािपत और िववेकबुिद से रिहत है, अतः वह सतय वसतु को िबलकुल नही
जानती। इस पकार की भी उस पजा से पुरष वयथर ही मोिहत हुआ है। भाव यह है िक सवचछ िचतवाले और सवजनो
से संतपत िववेकबुिदवाले और सतय सव-रहसय को जानने वाले शतु से मोह होना ठीक है, िकनतु उससे िवपरीत दुषपजा
से मोह होना ठीक नही है।।117।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तेरहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआआ आआआ आआआआ आआ आआआ, आआआआआ आआ आआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ
आआ
आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ।
मन एवाऽसदुितथतम्। यः शकतो न वशीनकतुर नाऽसौ रामोपिदशयते। इस पकार पहले पसतुत उपदेश के
अनिधकारीजनो का ही उपेकयरप से वणरन करते है।
हे मान देने वाले शीरामचनदजी, संसाररप सागर के िनःसार कललोलरप िवषयसुखािभलाषाओं से िनरनतर कमर
मे पवृत की जा रही िजस जनता ने मन के िनगह, िववेक, वैरागय आिद के िवषय मे अपेका न होने से िवदानो को पाकर
भी पश पाथरना आिद न कर मित की मूकता का ही अवलमबन िकया, वह जनता मेरे दारा आतम-लाभ के उपायो से भरे
हुए, उतकृष-कला से युकत इन िवचार वचनो से इस जगत मे शासत का उपदेश नही पा सकती।।1,2।। नेत के
रहने पर भी जो दूरदृष को, देष आिद से सदा नही देखता, कौन दुमरित पुरष उसे िविचत िचिडयो से िचितत वन को
िदखला सकता है ? (जो सवयं नही देखता उसे िदखलाना अनुिचत है, यह सूचना करने के िलए 'योऽनयः' ऐसा कहने के
बदले 'अतयथर न पशयित' यह कहा)।।3।।
कौन दुबुरिद पुरष कुषरोग से िछन-िभन, घघरर शबद करने वाली नािसका से युकत पुरष को िविवध सुगनधो
की परीका मे सुगनधतततव का िनणायक बनायेगा ? वैसे ही कौन अबुिद पुरष आतमोपदेश दारा मूखर को पामािणक
बनायेगा ?।।4।।
कौन अबुिदपुरष मिदरा के नशे से िजसकी आँखे चढी हो, अतएव िजसकी इिनदया अपना कायर करने मे
असमथर हो, ऐसे मतपुरष को धमर तततव के िनणरय मे साकीरप से पमािणत करेगा ?।।5।। कौन पुरष शमशान मे
पडे हुए शव से सनदेह होने पर जन-समूहो की सैकडो कथाएँ पूछेगा ?।। वैसे ही कौन मूखर को उपदेश देगा ! यानी
मूखर को उपदेश देना शमशान मे पडे हुए मुदे से जन समूहो से समबनध रखने वाली कथा पूछने के तुलय वयथर है।।
6।। जो हृदयरपी िबल मे िसथत मनरपी गूंगे और अनधे साप को नही जीत सका, उस दुबुरिद को िकस पकार उपदेश
िदया जा सकता ?।।7।। वसतुतः जो है ही नही, उस मन को आप जीता हुआ ही जािनये। जो िशला है ही नही, वह
अपने िनकट से सुतरा दूर िनरसत ही है।।8।। िजस दुबुरिद पुरष ने अिवदमान मन पर िवजय पापत नही की, वह िवष
खाये िबना ही िवष की मूचछा से मरता है।।9।।
'वसतुतो यन िवदते' ऐसा जो पहले कहा, उसकी उपपित कहते है।
जानी आतमा सदा ही देखता है, सपनद मे पाण-शिकतया समथर है, इिनदया अपने धमों मे समथर है, हे
शीरामचनदजी, भला मन नामक वसतु कया कही जाती है। भाव यह िक कया पदाथों की पिसिद के िलए मन माना जाता
है अथवा सपनद के िलए या जानेिनदय और कमेिनदय के पयोजन की िसिद के िलए ? पाणपेिरत इिनदयो से समीप मे लाये
गये पदाथों की पिसिद साकी से ही हो सकती है, इसिलए मन का कोई पयोजन नही है।।10।।
यिद कोई कहे सब शिकतयो से बँधा हुआ मन कयो नही माना जाता ? तो इस पर यह उिकत िववेक करने पर
संगत नही होती, कयोिक वीणा की मधु धविन के समान शिकतयो के समुदाय से ही समुिदत वयवहार की िसिद हो सकती
है, इस आशय से कहते है।
पाणो की सपनदन शिकत है, परमातमा की जान-शिकत है और इिनदयो की पृथक पृथक अपनी शिकतया है भला
उनसे यहा एक कौन बाधा जाता है ? भाव यह है िक जैसे िकसी समाज मे सनान, दान, गान, सतुित, आिद नाना वयवहार
िकसी एक सवरशिकतमान पुरष से समपन नही होता, उसी तरह यहा भी सब वयवहार एक-से ही नही हो सकता।।
11।।
यिद कोई कहे िक समुदाय िकसी समुदायकता अनय के िलए ही होता है, ऐसा िनयम है, अतः यहा पर भी कोई
संघात-कता अपेिकत है ? तो इस संघात के भी जगदूप संघात के मधयवती होने के कारण सबकी सब वयवहार शिकतया
सबके िनमाण-कता आतमरप परमेशर की ही िकरण रप है। अतः यह संघात भी उनही के िलए िसद होगा, अचेतन मन
के िलए नही, इसिलए पितशरीर िभन चेतन मन की िसिद नही हुई, इस आशय से कहते है।
ये सब वयवहारशिकतया सवरशिकतमान परमातमा की ही िकरणे है। मन आिदशबद वाचयता एवं पृथकता आपकी
कहा से उिदत हुई ?।।12।।
अचछा, चेतन, जीव इसका अिधषाता हो, वह िचतरप लगाम के िबना इिनदयरपी घोडो को काबू मे रखने के
िलए समथर नही हो सकता, इसिलए िचत भी िसद हो ही गया, ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
जीवरप से जो कहा गया है, उसको और िजसने इस जगत को अनध बना डाला है उस िचत को भी आप
असत् ही जािनये, उसकी कौन शिकत है ? भाव यह है िक 'जीवित' और 'िचतमेव च' यो आपने जो दो कहे है, वे कया
है, कया आतमा से िभन कोई अनय चेतन है या अचेतन है ? पथम पक तो बन नही सकता, कयोिक 'नानयोऽतोऽिसत दषा
नानयोऽतोऽिसत शोता इस शुित से बह से अितिरकत अनय चेतन का िनषेध है। दूसरे पक मे अचेतन को चेतन पदाथर
की आवशयकता होने से इिनदयो से उसमे कोई अनतर नही रहा, अतः इिनदय अिधषानशिकत उसमे नही हो सकती।
इस सब हेतुओं से आप उन दोनो को असत् ही जािनये।।13।। अपने से किलपत मन से िजनकी परमाथर दृिष जल
गयी है, उन लोगो की दुःख परमपरा को देखकर मेरी करणा से सराबोर मित मानो वयामोह (घबराहट) को पापत हो
जाती है कयोिक उनकी दुःखिनवृित का उपाय खोजने पर करोडो वषों मे भी नही िमल सकता।।14।।
िजस दुःख का कोई िनिमत होता है, उस दुःख का, िनिमत के िनवारण से, िनवारण िकया जा सकता है, मूखों
का दुःख तो िनिमरत है, अतः उसका िनवारण नही हो सकता, इस आशय से कहते है।
यहा पर दूसरा कौन है ? िजससे मूखर को खेद होता है ? िजससे िक मूखर सनतपत होता है। गधे और मूखर
दुःख के िलए ही उतपन होते है इनके िलए शोक करना ठीक नही है, कयोिक इनके सदृश असंखय मूढ योिनया िदखाई
देती है उनके समान ही ये भी उपेकणीय है।।15।। िनरनतर पैदा होने वाले जड, पापी, दुबुरिद सागर से बुदबुदो की
तरह िवनाश के िलए ही िविवधयोिनयो मे पैदा होते है।।16।। देिखये, पतयेक देश मे पितिदन पशु िहंसा सथान मे
िनयुकत लोगो दारा िकतने पशु मारे जाते है, इसमे कौन-सी िवलाप करने की बात है ?।।17।। भूिम मे उतपन होने
वाले जीवो मे से डासो और मचछरो का पितिदन वायु संहार कर डालता है, इसमे कौन-सा शोक है ?।।18।। पतयेक
िदशा मे हर एक वन मे बडे-बडे पवरतो पर शबर आिद लाखो मृगो को मारते है, इसमे भला िवलाप की कया गुंजाइश है
?।।19।। िनदरय बडी मछली जल मे छोटे छोटे अनेक जलजीवो को अपने आहार के िलए काटती है। इसमे कौन-
सा शोक है।।20।।
अब बलवानो दारा दुबरलो के पीडन का परमपरा दारा उपपादन करते है।
भूखी मकखी परमाणु कण के समान सूकम लीख को खाती है, उसको भूखी मकडी खा जाती है, चंचल मकडी
को भी जंगली डास खा डालता है, उस डास को मेढक खा डालता है। मेढक को भी साप िनगल जाता है, भयंकर
साप को गरड मार डालता है और नेवला काट डालता है, नेवले को िबलाव मार डालता है और िबलाव को कुता काट
डालता है, कुते को भालू मार डालता है, भालू को बाघ मार डालता है, बाघ के ऊपर िसंह आकमण करता है और शरभ
नाम का मृग िसंह को खा डालता है, गरज रहे मेघ के ऊपर चलने पर उसको सहन न करने से उछलकर पतथरो की
चटानो पर िगरने के कारण मेघ दारा शरभ नाश को पापत होता है, मेघ वायुओं उडाये जाते है, वायु पवरतो से जीते जाते
है। पवरत वज से चूर-चूर िकये गये है, वज भी इनद का वशीभूत है, इनद को िवषणु बनाते है, िवषणु भी सुख-दुःख दशाओं
से भरी हईु , जरा-मरण से अपने भोजय अन के समान पािलत जनतुता को पापत होते है और जनतु भी, जो महाकाय है
और िवदा तथा आयुधो से युकत है, तथािप लीख, मचछर, खटमल, मकखी आिद शरीर मे लगे हुए जीवो से खाये ही जाते
है। इस पकार आिधभौितक दुःखो से चारो ओर िछन-िभन, आधयाितमक और आिधदैिवक दुःखो से जजरिरत जीव वयथर
मोहवश परसपर खाया जाता है और आगे खाने के िलए कुछ अंश मे रिकत भी होता है। िविवध भूतो की जाितया
िनरनतर नष होती है और िनरनतर लीखे, जुएँ , चीिटया आिद बहुत से जीव उतपन होते है। जल मे मछली, जलहाथी,
मगर आिद जीव पैदा होते है, भूिम के अनदर िबचछू आिद कीडो के समूह उतपन होते है, आकाश मे भी आकाश पकी (▓)
आिद उतपन होते है एवं वन पिकतयो मे िसंह, वयाघ, मृग आिद पैदा होते है।।21-31।।
▓ आकाश पकीः एक पकार के छोटे छोटे पकी। वे सदा आकाश मे ही घूमते हुए ही बचचे देते है। उतपन हुए
अणडे को नीचे िगरने के पहले ही तोडकर िनकले हुए बचचे तुरनत पंखवाले हो जाते है और वे भी आकाश मे ही उडकर
घूमते है, यह लोक पिसद है।
पतयेक िदशा मे पािणयो के शरीरो मे भी कीडे, जुएँ आिद िविचत जीव पैदा होते है, वृक आिद सथावर जीवो मे
घुन, भमरी के आकार के अनय काष जीव आिद उतपन होते है, िशलाओं के अनदर भी कीडे, मेढक, घुन आिद जीव
उतपन होते है और िवषा मे भी भाित-भाित के कीडे उतपन होते है।।32,33।। इस पकार असंखय जनमो और मरणो
मे करणावान लोग सदा पसन होवे चाहे रोएँ। िकनतु इस संसाररपी भम मे, िजसमे िनरनतर मृतयु और िनरनतर उतपित
है, न तो पसनता उिचत है, न तो दुःिखता ही उिचत है। भाव यह िक देष न होने के कारण दूसरे की पीडा के
अिभननदन की तरह सनेह न होने के कारण दूसरे की पीडा के िलए रोदन भी ठीक नही है, िकनतु उपेका ही उिचत है।
इस पकार पािणयो की पचुर जनमवाली ये पंिकतया वृक के पतो के तुलय वयथर ही उतपन हो-होकर लीन हो जाती है।।
34-36।। जो पुरष दयालु बनकर कुबुिद लोगो के दुःख को दूर करने के िलए पवृत हुआ, वह सारे आकाश को अपने
छाते से तापरिहत करने के िलए पिरशम करता है यानी कुबुिदयो के दुःख को दूर करना अपने ऊपर ताने हुए छाते से
सारे आकाश के ताप को दूर करने की तरह असमभव है।।37।।
संसार मे पशु-पकी सरीखे लोगो को उपदेश देना उिचत नही है। भला वन मे ठूँठ के िनकट कथा का अथर
कहने से कौन पयोजन िसद हो सकता है ?।।38।। िजनहोने अपने मन को िवषयो मे फैला रखा है, उन मनुषयो और
पशुओं मे कया अनतर है ? पशु रससी से खीचे जाते है और मूढिचतवाले पुरष मन से खीचे जाते है। अपने िचतरपी
कीचड मे फँसे हुए और अपने नाश के िलए कमर का आरमभ करने वाले मूखों की आपितयो को देखकर पतथर भी रोते
है चेतनो की तो बात ही कया है ? िजन लोगो ने अपने िचत पर िवजय पापत नही की, उनकी सब देशो मे सदा दुःख देने
वाली दशाएँ भरी हुई है, इसिलए बुिदमान पुरष उनके माजरन मे पवृत नही होता, कयोिक उनका माजरन समसत भूिम की
धूिल के माजरन के समान असमभव है।।39,40।। हे शी रघुननदन, िजन लोगो ने अपने िचत पर िवजय पापत कर ली
है उनके दुःख को दूर करना सरल है, इसिलए जानी पुरष दुःख माजरन मे पवृत हो।।42।।
पसंग पापत अिधकारी िवचार को समापत कर पसतुत िवषय का ही अनुसरण करते हुए कहते है।
हे महाबाहो, मन नही है, वृथा आप उसकी कलपना न कीिजये। जैसे किलपत वेताल से बालक मारा जाता है
वैसे ही किलपत मन से आप मारे जाते है।।43।।
यिद मन नही है, तो पितयोगी की अिसिद होने से उसके िनषेध का अवसर ही नही है। ऐसी यिद कोई शंका
करे तो इस पर कहते है।
जब तक आतमतततव को भूले हुए आप मूढ हएु थे, तभी तक आपका मनरप सपर उिदत हुआ था।।44।। हे
शतुनाशन, इस समय आप परमाथर आतमरप को जान चुके है। संकलप से िचत की अिभवृिद होती है, इसिलए आप
संकलप का ही शीघ पिरतयाग कीिजये।।45।।
अब बनध और मोक का रहसय कहते है।
यिद आप इस दृशय का अवलमबन करते है, तो आप िचत युकत और बनधन वाले है। यिद आप इस दृशय का
तयाग करते है, तो आप िचत शूनय और मोकवान ह।।46।।
यिद कोई पश करे, यह दृशयतततव कया है, तो इस पर कहते है।
इस ितगुणातमक मायामय पपंच का आशय बनधन के िलए ही है। यिद इसका तयाग िकया जाय तो संसार के
मोक के िलए होता है। बनधन और तयाग के िवषय मे जैसी आपकी अिभरची हो, वैसा कीिजये।।47।। 'अहम्' यानी
आनतरदृशय और 'इदम्' यानी बाह दृशय है ही नही, इस पकार धयान कर रहे, अननत आकाश के तुलय िवशाल हृदय
वाले, आतमरप आप पवरत के समान िनशल हो िसथत होइये। हे शीरामचनदजी, आप आतमा की ओर इस जगत की 'मै'
और 'यह' इस पकार की भेदमयी कलना का सवरथा पिरतयाग कर बहिनष हो िसथर होईये।।48,49।।
यिद कोई कहे, उन दोनो का कलना का तयाग करने पर कौन वसतु अविशष रहती है, िजसमे आप िसथित
का उपदेश देते है, तो इस पर कहते है।
दषा और दृशय दशाओं के मधय मे एवं आतमा और जगत के मधय मे यानी ितपुटी मे अनुसयूत, सनमातरप,
दशरननामक ितपुटी के साकी सवभाव मे िसथत अपने सवरप की सवरदा भावना कीिजये।।50।।
चाकुष ितपुटी की भाित आसन आिद तुिटयो मे भी उस साकी का ही धयान करना चािहए, ऐसा कहते है।
आसवाद और आसवादक से पिरतयकत और सवाद और सवादक के मधय मे िसथत केवल सवादन का धयान
करते हएु आप सदा आतममय होइये।।51।।
अनुमित आिद अनय अनुभवो मे ऐसा ही समझना चािहए, इस आशय से कहते है।
हे शीरामचनदजी, अनुभव करने योगय और अनुभव-कता के िवषयभूत ितपुटी अंश से वयितिरकत मधय का
(उसके साकी का) अपने हृदय मे अवलमबन करके आप सवयं िसथत होइये। भव की भावना यानी संसकारवश संसार
के दशरन (सवपदशा से) शूनय, भावदशा (जागतदशा) और अभावदशा (सुषुिपत) से रिहत आतमा का इस पकार भाव कर
रहे आप सवयं आतमिनष होइये। हे शीरामचनदजी, शुद िचनमात सवभाववाली आतमसता का पमादवश तयाग कर रहे
आप जो सवयं चेतय की भावना करते है, तब आप अितदुःख देने वाली िचतता को पापत होते है। हे महाबाहो, इस
िचतरपी कडी को सवरपजान युिकत से तोडकर िचतरप िपंजडे से आतमारपी िसंह को मुकत कीिजये। जब आप
परमातमदशा का तयाग कर तेजी से चेतय की ओर िगरते हुए संकलप को पापत होते है, तब चेतय को देखते है।।52-
56।।
कैसे चेतय की ओर जीव िगरता है, उससे कैसे संकलपो को पापत होता है और कैसे संकलप का कय होता है,
ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर यह कहते है।
जब िचत-पूवर अनुभव से उतपन दृशय संसार के उदबुद होने पर िचत ही कुछ सथूलता को पापत िचत है, इस
जान से आतमा से वयितिरकत िसद होता है तब पुनः पुनः मनन से दृशय संकलप करने मे समथर हो मन होता है और वही
दुःखी है। अपने से अितिरकत मन है, इस संिवत के तयाग से तो वह नष हो जाता है।।57।। यह समपूणर जगत
आतमा ही है, अनदर ऐसे जान का उदय होने पर उपिहत िचतता कहा है ? उपािधरप िचत कहा है ? िचतवृित से
वयापत चेतय कहा है और िचतवृित कहा है ? अथात् कुछ भी शेष नही रहते है।।58।। हे शीरामचनदजी, मै आतमा
हूँ, इस पकार अनुभव मे आ रहे देह इिनदय आिद से युकत जीव हूँ, केवल इतना ही तुचछ िचत है, यह इस पकार
अनािद और अननत दुःख का िवसतार करता है। मै बह ही हँू, बह से अितिरकत जीव नामक परमाथर सत् कुछ कही
नही है। यही िचत का िवनाश है, इसी को परम सुख कहते है। हे शीरामचनदजी, आतमा ही यह जगत है, ऐसा िनशय
होने पर िचत की असता अथरतः समपन हो जाती है, इसमे कोई सनदेह नही है।।59,61।।
मनोनाश के उपाय का उपसंहार करते है।
परमाथर तततव का जान होने से यह जगत आतमा ही है, ऐसा िनशय िसथर हो जाता ह, तब आप मन को जैसे
सूयर की कािनत से अनधकार का िवनाश होता है, वैसे ही िवनष जािनये। जब तक मनरपी साप शरीर मे है, तब तक
महाभय रहता है, मनरप सपर को समािध से हटा देने पर भय का अवसर कहा से है ?।।62,63।। हे अनघ, यह
अितबलवान िचतरप वेताल एकमात भािनत से बलवानो मे शेष िचतरप यक के चले जाने पर आप मानसिचनताशूनय
और वयाकुलतारिहत होइये, आपको कोई भय नही है।।64,65।। आतमलाभ से सब कामनाओं की पािपत होने पर
रागरिहत अतएव बाह सुखो के साधनो के उपाजरन से हीन ही मै हूँ, केवल इतने से ही आपकी िचतसता नष हो गई है
आप दुःखरिहत उतम परमपद को पापत हो गये है, इस पकार मुमुका भी िजसके अनतःकरण मे शानत हो गई ऐसे आप
िसथत होईये।।66।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौदहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ,
आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ । आआआआआआ आआ आआआआआआ
िचत का नाश होने पर परमपुरषाथर पािपत की ही गयी है, इस िचत का अनुसरण करने पर तृषणा की अिभवृिद
से अनथों की परमपरा पापत होती है, यह दशाने के िलए भूिमका बाधते है।
हे शीरामचनदजी, संसार की बीजकणरप, जीवो के बनधन के िलए जालसवरप अपिवत इस िचतसता का
अनुसरण कर रहे आतमा िजसने अपना बहातमरपता का तयाग कर िदया, अिवदा से आचछन जान को, िजसकी
अिभवयिकत इिनदयवृितयो की अधीन है, पापत कर रहे िचत के ही अनुरोध से िचतकिलपत देहािद संघात ही मै हूँ, ऐसा
अनुसंधान करता है और िचत से पापत िकये गये नाना िवषयो की कलपना से होने वाले राग-देषवासनारप मल को
धारण करता है।।1,2।।
वह राग-देषवासनारप मल को धारण करे, उससे कया ? ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
पितिदन बढ रहे महामोह को देने वाली, भय देने वाली और हजारो मरण, मूछा और भािनतयो की हेतु होने से
िवषलतारप तृषणा राग-देषवासनारपी मल को धारण करने वाले आतमा के िलए मूछा ही देती है, सुख का लेश भी नही
देती।।3।। जैसे आकाश मे मेघगजरन, वृिष आिद अनेक िवकार करने वाली वषा ऋतु की अँधेरी रात जब-जब
उिदत होती है, तब-तब महामोहपद होती है, वैसे ही अननत आतमा मे िवकार करने वाली यह तृषणा भी जब-जब उिदत
होती है तब-तब महामोह देती है।।4।। महादेव आिद देवता पलयकाल की अिगन की जवालाओं के संताप को सहने
के िलए समथर है िकनतु तृषणारपी अिगन की जवालाओं के संताप को सहने के िलए समथर नही है। तीखी, काली, दीघर
और घोर तृषणारपी तलवार, जो शीतल होती हुई भी उतरकाल मे दुःख देने वाली है, अपने अंग को सदा काटती
है।।5,6।।
हे शीरामचनदजी, संसार मे जो ये दुवरिनवार, दुःख से दूर करने के अयोगय बडे बडे दुःख है, वे तृषणारपी लता
के फल है।।7।। मनरपी िबल मे छुपी हुई यह तृषणारपी भेिडया अदृशय होकर ही मनुषयो के शरीर से मास, हडडी,
खून आिद खाती है।।8।। जड तृषणा जलमय वषा ऋतु की नदी के समान कणभर मे वृिद को पापत होती है, कणभर
मे िरकत हो जाती है और टीला, काटे, जंगल आिद मे पवेश करा कर पुरष को काटती है।।9।।
मूछा ही देती है, ऐसा जो पहले कहा था, उसी का िववरण करते है।
तृषणा से पीिडत पुरष जो दीनता का भोगकर चुका, िजसका हृदय नष हो गया एवं िजसका तेज चला गया,
नीचता को पापत होता है, घबराता है, रोता है और िगरता है।।10।।
तृषणा का नाश होने पर सब दुःख िनवृत हो जाते है, सब पुणयो का उदय होता है, ऐसा कहते है।
िजस वृकरपी पुरष के खोखलेरपी हृदय मे काली सािपनरपी तृषणा बैठी नही है, उस पुरष के हृदयरनध मे
चलने वाले पाणवायु सवसथ रहते है। इसमे सनदेह नही िक िजस पुरष मे तृषणारपी अँधेरी रात असत हो गई, उसमे
शुकलपक मे चनदमा के समान पुणय बढते है।।11,12।। जो पुरषरपी वृक तृषणारपी घुनो से घुन नही गया, वह
सदा पुणयरपी फूलो से पफुिललत दशा को पापत होता है।।13।। िववेकरिहत पुरषो के िचतरपी अरणय मे अननत
वयाकुलतारप कललोलो से युकत और भािनतरपी भँविरयो से ठसाठस भरी हुई तृषणारपी नदी बहती है। तृषणा दारा ये
सब लोग धागे से बँधे हुए पकी के तुलय पहले धनपािपत के िलए देश-िवदेश मे घुमाये जाते है, तदननतर धन की रका,
वयय, नाश आिद की िचनता और शोक से जजरिरत िकये जाते है और अनत मे मारे जाते है।।14,15।।
िनदरय िचत से ककरश तृषणा कुलाडे की धार के समान शीघ िगरती हुई धमर और जान के मूलो को तथा दया,
िववेक आिद के छोटे-छोटे अंकुरो को भी काट डालती है। जैसे मृग कुएँ के ऊपर उगे हुए हरे ितनको की ओर जाता
हुआ अनधे कुएँ मे िगर पडता है, वैसे ही तृषणा का अनुसरण करता हुआ मूढ पुरष नरक मे िगरता है।।16,17।।
बुढापा िकतना ही जोर-शोर का कयो न हो, पर वह नेतो को उतना अनधा नही बनाता, िजतना िक हृदय की िपशाचीरप
कृश तृषणा अनधा बनाती है।।18।। हृदय मे िसथत उललूरप अमंगलभूत तृषणा से, जो हृदय मे घोसला बना चुकी हो
उससे, भगवान िवषणु तक वामनता को पापत हुए।।19।। ईशर से पयुकत या देवभोगय सुखलेश िवषियणी रजजु की
तरह हृदय मे गुँथी हुई इस अलौिकक तृषणा से ही पितिदन सूयर आकाश मे घुमाए जाते है।।20।। िजसका आकार
सवरदुःखमय है एवं जो जगत के सब लोगो के जीवन का नाश करती है, ऐसी तृषणा का कूर सािपन के समान मनुषय को
दूर से ही तयाग करना चािहए।।21।।
सारा संसार वयवहार तृषणा से ही होता है, इस आशय से कहते है।
तृषणा से ही वायु बहती है, तृषणा से पवरत खडे है, तृषणा से ही पृथवी जीवो को धारण करती है, सारा तैलोकय
तृषणा से ही धारण िकया गया है।।22।। यह सारी लोक-याता तृषणारपी रजजु से बँधी हुई है, रजजुबनधन से तो
लोग मुकत हो सकते है, परनतु तृषणारपी बनधन से कोई मुकत नही हो सकते।।23।।
इसिलए हे शीरामचनदजी, संकलप तयाग से आप तृषणा का तयाग कीिजये। संकलपहीन मन नही है अथात्
संकलप के अभाव मे मन नही रह सकता, ऐसा युिकतयो से िनणरय िकया गया है। मन ही जब नही रहेगा, तब तृषणा
कहा से होगी ? यह भाव है।।24।।
हे महाबाहो, पहले आप अपने िचत मे तुम, मै, यह, इस दुराशा का अथात सब दुराशाओं के िनिमतभूत
तमोमय अिभमान का संकलप न कीिजये।।25।।
हे शीरामचनदजी, यिद आप दुःख को उतपन करने वाली अनातमा मे आतमभावना की भावना न करेगे, तो आप
तततवजािनयो मे िगने जायेगे।।26।।
हे शीरामचनदजी, इस अपिवत अहंभावमयी तृषणा को अनहंभावरप कैची से काटकर आप समपूणर भूतो से होने
वाले भयो का ितरसकार कर संसार की बाध भूिम बह मे िसथत होइये।।27।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पनदहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ-आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ, आआआआ आआआआआआआआआआ
आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ । आआ आआआआ
जीिवत पुरष देह मे अहंभाव का तयाग नही कर सकता और िशषय के मरण मे गुर का तातपयर नही हो सकता,
अतः 'एतामहंभावमयी तृषणा िछततवा' इतयािदकथन के तातपयर को न समझ रहे शीरामचनदजी पूछते है।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन, जो आप मुझसे कहते है िक अहंकार तृषणा का गहण तुम मत करो, आपका
यह वचन सवभावतः जिटल ।।1।। हे पभो, यिद मै अहंकार का तयाग करँ, तो मुझे देह नामक अवयव संिनवेश का
पूणररप से तयाग करना पडेगा। भाव यह िक पाण और अहंकार की एकता सवयं आप ही पहले कह आये है, अतः पाणो
को बचाकर अहंकार के तयाग का संभव नही, इसिलए अहंकार के साथ पाण भी अविशष नही रहेगे।।2।। जैसे
जानु के तुलय िवशाल तने से वृक धारण िकया जाता है वैसे ही अहंकार से यह शरीर धारण िकया जाता है।।3।।
अहंकार का िवनाश होने पर यह शरीर अवशय नष हो जाता है, जैसे की तने के आरा दारा काटे जाने पर महान वृक
िगर जाता है।।4।। इसिलए मै इस अहंकार का कैसे तयाग करँ कैसे जीऊँ, हे वकताओं मे शेष मुिनजी, इस िवषय
को खूब िवचार कर मुझसे किहए।।5।।
शीविसषजी ने कहाः हे कमलनयन शीरामचनदजी, िवदानो दारा जेय और धयेय भेद से दो पकार का वासना
तयाग सवरत कहा जाता है। जेय यानी िवदानो से समािधकाल मे या िवदेहमुिकत मे जान से बािधत। धयेय यानी
अिधषानमात पिरशेषरप। वयुतथानकाल मे वाकयजनय अखणडाकार वृित से वासनासिहत अजान का बाध होने पर भी
जीवनमुिकत पितपादक शासत के अनुरोध से और पारबध फल भोग के शेष रहने से उन दोनो के िनवाह के िलए बािधत
अनुवृितवाले अिवदालेश के शेष का या िवकेपाश के अबाध का सवीकार करना पडता है एवं िजसमे अहंभाव का
अधयास नही, ऐसी देह से भोगहेतु वयवहार की िसिद न होने से उसमे तातकािलक अहंकारभास की अनुवृित िवदानो के
अनुभव से िसद है, अतः वयुतथानदशा मे अहंकारबाध के अनुसनधान पयत साधय होने के कारण पायः धयानरप है,
इसिलए उकत वासना तयाग धयेय के समान होने के कारण धयेय है।
उन दोनो मे दूसरे पक का उपपादन करते है।
िववेिकयो की दृिष से दो अहंपतीित गोचर पतीत होते है। एक देह, इिनदय, बुिद और मन की अपेका करने
वाला और िमत, पुत, सती, धन आिद की ममतावाला संघातातमा और दूसरा अखणडैकसवभाव, जागत, सवप, सुषुिपत
इन तीन अवसथाओं और मरण, मूछा, जनमानतर का साकी, िववेक करने पर अविशष िचनमात सवभाववाला।।6।।
उनमे पथम के सवरप का पहले िवचार कर िनशय करना चािहए, ऐसा कहते है।
इस देह, इिनदय आिद पदाथों और उपभुकत बाहरी अन, पान आिद पदाथों का मै संघातमा हँू, मेरे ये जीिवत है
यानी मेरे सवरप िसिद मे िनिमतभूत है। अतएव इनके िबना मै वयवहार मे कुछ भी नही हूँ और मेरे िबना ये कुछ नही
है, ऐसा अनतःकरण मे पथम अहंपदाथर का िनशय करके मन के साथ उसके पृथक करने पर संघातातमा को अतयनत
असदूप ही जानकर दूसरी अखणडैकरस आतमा की िचदूप से मै पदाथर का संघातातमा नही हूँ और ये पदाथर मेरे जीिवत
नही है, ऐसे जान से तदूप भावना करने पर लीला से कायर कर रही अनतः शीतल बुिद से जो भावनारप वासना तयाग
है, उसे ही शीरामचनदजी मैने धयेय वासनातयाग कहा है।।7-9।।
पथम वासनाकय का उपपादन करते है।
सारे जगत को बहरप से जानकर भूिमका अभयास के कम से जो वासना तयाग को करके िनरहंकार और
िनिवरकलप समािधसथ है अथवा पारबधकय दारा जो सवरथा देह तयाग है, वह जेय वासनाकय कहा गया है।।10।।
अहंकारमयी वासना का तयाग कर जो लोकसंगहोिचत वयवहार से िसथत रहता है, धयेय वासना तयागवाला वह
जीवनमुकत कहलाता है।।11।। हे रघुननदन, मूल अजान के साथ कलनारप वासना का तयाग कर जो पुरष शम
को पापत हुआ, उसे जेयतयागमय (िजसके वासना सिहत अजान का नाश होकर िचनमात का अवशेष है) मुकत जािनये।
पूवोकत धयेय वासना तयाग करके जीवनमुकत महातमा, सजजनिशरोमिण जनक आिद लोकसंगहोिचत वयवहार से िसथत
रहते है।।12,13।। जेय वासना तयाग करके शािनत को पापत हुए िवदेह मुकत पुरष परबह मे ही िसथत रहते है।।
14।।
हे शीरामचनदजी, ये पूवोकत दोनो ही तयाग समान है, दोनो मुकतपद मे िसथत है। ये दोनो ही बहता को पापत
है और दोनो सनतापरिहत है। हे अनघ युकतमित (समािध मे आरढ), अयुकतमित (वयुतथान वयवहार वाला) – ये दोनो
ही अिवदा मलरिहत बह मे ही केवल िसथत है। उनमे से एक यानी वयुितथत पुरष चंचल शरीरवाला िसथत रहता है,
दूसरा शरीर तयाग करके मुकत हुआ पुरष वासना शूनय होकर रहता है। िनरनतर यथा समय सुख-दुःखो के आने पर
िजसको हषर न होता है, न िवषाद होता है, वह मुकत कहा जाता है।।17,18।। िजस पुरष को इष और अिनष
वसतुओं मे इचछा और देष नही होते और जो पुरष अजानी की दृिष मे इष और अिनषरप से सममत वसतुओं मे सुषुपत
पुरष के तुलय अनासकत होकर वयवहार करता है, वह मुकत कहा जाता है।।19।। शरीर मे और शरीर के समबनध
मे 'अहम्' (मै), 'मम' (मेरा) ऐसी हेयोपादेय कलना िजस पुरष के अनदर कीण हो गई है, वह जीवनमुकत कहा जाता
है।।20।। हषर, रोष, भय, कोध, काम और कापरणय दृिषयो का िजसके हृदय मे सपशर नही होता, वह मुकत
कहलाता है।।21।। जो पुरष िजसकी पदाथों मे आसथा शानत हो गयी, ऐसे िचत से युकत होकर, जागत मे भी सदा
सुषुपत की तरह िसथत रहता है और जैसे पूणर चनदमा सवाभािवक पसनता से सेिवत होते है वैसे ही जो सवाभािवक हषर
से सेिवत होता है, वह इस लोक मे मुकत कहा जाता है।।22।।
शीवालमीिक जी ने कहाः मुिनजी के ऐसा कहने पर िदन बीत गया। सूयर असत हो गया। मुिनयो की सभा
महामुिन को पणाम कर सायंकाल के कृतय के िलए सनान करने चली गयी। राती बीतने पर सूयर की िकरणो के साथ
िफर मुिनयो की उभा उपिसथत हो गई।।23।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सोलहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआआआआआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआआआ
आआआआआ
आआ आआआआ आआआआ आआआ आआआआआ आआ, आआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआआ।
शीरामचनदजी के इंिगतो से इनहे िवदेहमुकत का लकण जानने की इचछा है, यह ताडकर एकरप से उसके
लकण आिद का अभाव होने से वहा पुरषो के कुणठीभाव कथन से ही िनरितशय, सवपकाश, भूमाननद का पिरशेष ही
िवदेहमुिकत का सवरप लकण है, यह सूिचत करते हुए जीवनमुिकत लकणो मे ही अवशय उपादेय िवशेषो को कहने के
िलए विसषजी पितजा करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जो लोग िवदेह मुकत है, वे वाणी के िवषय हो ही नही सकते, इसिलए
आप इस जीवनमुिकत का सुिनये।।1।।
यिद कोई कहे, जीवनमुकतो मे यिद ततद् वणाशम के उिचत कमरफलो मे तृषणा है, ते अजािनयो की तरह ही
उन कमरफलो मे तृषणा नही है, तो उनकी उन कमों मे पवृित ही नही होगी, कयोिक 'पयोजनमनुिदशय मनदोऽिप न पवतरते'
ऐसा नयाय है, इस दोश का पिरहार करने के िलए जानी और अजानी की कमर मे पवृित कराने वाली शुद और अशुद
तृषणा की िवलकणता का उपपादन करते है।
िवषय के आसवादन मे उतसाहरिहत िजस तृषणा से तत्-तत् वणाशम के सवभाव से पापत िकये गये ये कमर िकये
जाते है, उस तृषणा को जीवनमुकतता कहते है।।2।।
संसार सतय है, इस बुिद से िजसके दारा भोगो मे उतसाह दृढ हो गया है, ऐसी तृषणा से पाणो की बाह पदाथों
मे आसथा है, उसे आचायर लोग दृढ संसार िनिगडरप बनधन कहते है।।3।।
भोगय पदाथों मे 'ये िमथया है' इस िनशय से हृदय मे भोगसंकलपरिहत और एकमात लोक संगह के िलए बाह
पदाथों मे िवहार करने वाली जो तृषणा उिदत होती है, वह जीवनमुकतो के ही शरीर मे आिशत है।।4।।
हे शीरामचनदजी, बाह िवषयो मे जो लमपटता से बढी-चढी तृषणा वह बद कहलाती है। समपूणर पदाथों मे जो
लमपटता से रिहत जो तृषणा है वह मुकत कहलाती है।।5।। िवषयपािपत के पहले और अनत मे रागिवहार आिद के
कारण तृषणा की जो दुःख शूनयता थी, वही शूनयता यिद िवषयपािपत काल मे भी िनरनतर रहे, तो वह तृषणा िवदानो दारा
मुकत कही गई है।।6।। हे महामते शीरामचनदजी, यह मुझे पापत हो, इस पकार की हृदय मे जो भावना है, उसे आप
तृषणारपी और कलनारपी शृंखला जािनये। उस तृषणा का सत् और असत् पदाथों मे सदा तयाग कर परम उदार और
महामना पुरष जीवनमुिकत पद को पापत करता है। देह आिद बनधन की आशा का, देह आिद की िनवृित की आशंका,
(▲) सुख-दुःखदशा का और सत्-असत् की आशा का भी तयाग कर पशानत महासागर की तरह आप िसथत होइये।।
7-9।। हे बुिदमानो मे शेष शीरामचनदजी, अजर, अमर आतमा को जानकर आप जरा व मरण की शंका से मन को
कलुिषत न कीिजये।।10।।
▲ बनध िमथया है, ऐसा िनशय होने पर बनध की िनवृित के पाथरनीय न होने के कारण उसमे आशा तयाग
सवाभािवक है, कयोिक जागता हुआ कोई पुरष सवप के िनगडबनधन से छुटकारा पाने की आशा नही रखता।
आशा के तयाग मे उपाय बताते है।
हे शीरामचनदजी, यह पदाथररपी दृशय आपका नही है और आप भी यह नही है, यह परमाथरतततव से अनय ही
कुछ है और आप भी इससे अनय ही है। असत् उिदत हुए इस असत् िवश के सत् की तरह िसथत होने पर और आपके
उकत िवशता का अितकमण करने पर तृषणा का समभव ही कहा हो सकता है ?।।11,12।। हे शीरामचनदजी,
िवचारवान पुरष के हृदय मे चार पकार का िवसतृत िनशय होता है, उसे भी आप सुिनये। पैर से लेकर िसर तक मै
माता िपता दारा िनिमरत हूँ, इस पकार का एक िनशय है, हे शीरामचनदजी, असतदशरन उकत िनशय बनध के िलए है। मै
देह, इिनदय आिद सब पदाथों से परे, बाल के अगभाग से भी सूकम हूँ, ऐसा दूसरा िनशय सजजनो के मोक के िलए होता
है।।13-15।। हे रघुवर, जगत के सब पदाथों का सवरपभूत अिवनाशी मै ही सब कुछ हूँ इस पकार का तीसरा
िनशय भी मोक का ही कारण है। मै अथवा यह जगत सब आकाश के तुलय सब शूनय ही है, इस पकार का यह चौथा
िनशय भी मोकिसिद के िलए होता है।।16,17।। इन िनशयो मे पहला िनशय बनधन के िलए कहा गया है, शुद
भावना से उतपन हुए शेष तीन मोक के िलए कहे गये है।।18।।
यिद कोई शंका करे, तृषणा भेद के िनरपण के अवसर पर इस िवभाग की कया आवशयकता है ? तो इस पर
कहते है।
इनमे से पहला िनशय बनधन का हेतु है, इसके रहने पर ही तृषणा बनधक होती है। िनदोष तृषणावाले शेष तीन
िनशय सवचछ है। जीवनमुकत पुरषो मे ही वे िवलास करते है।।19।।
उनमे तीसरे िनशय का पयोजन कहते है।
हे महामते, सवातमा मै ही सब कुछ हूँ, इस पकार का जो िनशय है, उसे पापत कर मेरी बुिद िफर िवषाद को
पापत नही होती है।।20।। आतमा की मिहमा ऊपर-नीचे-ितरछे सवरत है, सभी आतमा है, इस पकार के उस
आनतिरक िनशय से पुरष बनधन मे नही पडता।।21।। (चौथा िनशय शूनयवादी के मत मे पिवष है, इस शंका का
िनवारण करते हुए कहते है।) पिरिशषय, िनतय आतमा ही वािदयो दारा शूनय, पकृित, माया, बह, िवजान, िशव, पुरष,
ईशान-इन शबदो से कहा जाता है। अवसतु इन शबदो से नही कहा जाता है। यह सब सदा सत् ही है, यहा पर िदतव या
अनयतव िवदमान नही है। परमाथर सवरप दृिष से सारा जगत वयापत है, भािनतबुिद से वयापत नही है। जैसे असीम
सागर पाताल तक जल से भरा हुआ है वैसे ही बहा से लेकर पेड-पौधो तक सारा जगत आतमा से पूणर है, इसिलए
पमाण से बोिधत बहैकय ही िनतय और सतय है, उससे अितिरकत िमथया जगत कही नही है। जैसे की सारा सागर जल
ही है, तरंग आिद कही पर नही है, यह िसद हुआ।।22-25।। जैसे कडा, बाजुबनद, नूपुर आिद सुवणर से पृथक
नही है, वैसे ही वृक, तृण आिद करोडो आकार आतमा से िभन नही है।।26।।
तो जल-समुद आिदरप जगत मे भेदाभेद पतीित कैसे होती है ? इस पर कहते है।
परमातममयी अदैत शिकत ही दैत और अदैतभेद से जगिनमाण लीला दारा अजो के िलए िवसतार को पापत होती
है।।27।।
हे शीरामचनदजी, सवकीय अथवा परकीय पुत-िमत आिद सारे जगत के वृिद को पापत होने पर अथवा नष
होने पर आप सुख-दुःख का गहण कभी भी न कीिजये।।28।।
मुझे िकस पकार वयवहार करना चािहए, इस पर कहते है।
बह के तुलय ही आप परमाथरतः सता दैतातमक ही होकर वयवहारकाल मे भी भावना दारा अदैत का ही आशय
कर तत्-तत् पािणयो के कमरफल देने के समय बह के सदृश ही वणर-आशमधमर वयवसथापन के िवषय मे दैत का सवरथा
अनादर कर सवरथा वयवहार करते हुए यथा योगय दैत-अदैत परायण होइये, भाव यह है िक अदैत मे कमों की ही िसिद
न होने के कारण एकरपता से सवरत कथंिचत अदैताचरण करने पर जगत की वयवसथा तथा धमरशासत आिद का बाध
होगा, इसिलए वहा पर दैत का आशय ही उिचत है। हे शीरामचनदजी, आप पदाथों की िविवध आँधी से भीषण उतपातो
से भरी हईु जनम भूिमयो मे, उतपातपूणर गतों मे हाथी के समान, मत िगिरये।।29,30।। परमाथरतः दैत का समभव
ही नही है, कयोिक वह िचत से किलपत ही है वासतिवक नही है। अनयवािदयो ने भी िदतव की अपेका बुिद से उतपित
तथा उपेकाबुिद के नाश से नाश माना है। इसी पकार आतमा मे एकतवनामक संखया गुण भी नही हो सकता, कयोिक वह
भी िदतव आिद के वयावतरकतवरप से ही किलपत होने के कारण िदतव से ही उिदत हुआ है अतएव अदैत, ऐकय से भी
रिहत, अपनी िसिद मे अनय की अपेका न रखने के कारण सदा उिदत हुआ है अतएव अदैत, ऐकय से भी रिहत, अपनी
िसिद मे अनय की अपेका न रखने के कारण सदा उिदत, सनमात बह ऐकय के िनरास से सवररप है और दैत के िनरास
से कुछ भी नही है, कयोिक 'तसमातत् सवरमभवत्' 'नेह नानािसत िकंचन' इतयािद शुितया और उसके अनुभव करने वाले
जानी जन ऐसा कहते है।।31।।
न तो अहम् है और न जगत ही है, िकनतु यह सब िनिवरकार, िवजानमात ही है, उसके साकातकारमात से शानत
हुए इस जगत को सदा न तो असत् और सत् जािनये। परम, अमृत, अनािद, सब जयोितयो को भािसत करने वाला,
अजर, अज, अिचनतय, िनषकल, िनिवरकार, सब इिनदयो से रिहत, पाण से भी पाणन मे िनिमतभूत, सब कलनाओं से
रिहत, कारणो के भी कारण, सदा उिदत ईशर, फैले हुए िचदाकाश मे िसथत, अनुभवो के बीजसवरप, सवरप िसथित
दारा उपदेश देने के योगय, आनतराननदैकरसबह ही तुम, मै और जगत है उससे िभन कुछ नही है, इस पकार का
िनशय तुमहारे हृदय मे हो।।32-34।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सतहवा सगर समातप
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआआआ आआआआ, आआ आआआआआआ
आआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआ । आआ आआआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे आजानबाहु शीरामचनदजी, समािहत िचतवाले, काम, लोभ आिद कुदृिषयो से
अदूिषत, इस संसार मे लीलापूवरक िवचरण कर रहे महातमाओं की यह िसथित आप सुिनये।।1।। जीवनमुकत मन
वाला मुिन इस संसार मे िवचरण करते हुए भी पहले जनमािद दुःखो से, बीच मे आधयाितमक आिद दुःखो से और अनत मे
मृतयु आिद दुःखो से िवरस जगत की गितयो को 'ये पिरहास के योगय है', यो तुचछ समझ कर देखे।।2।। तत्-तत्
समय मे पापत हुए सब उिचत कायों मे िसथत, शतु, िमत आिद दृिषयो मे सम, पूवोकत जेय और धयेय भेद से विणरत दो
पकार के वासना तयागो मे से धयेय वासनातयाग का अवलमबन करके िसथत, सवरत उदेगरिहत, लोगो के अिभमत का
पोषक यानी िकसी का भी अिपय न करने वाले, िववेकरपी पकाश से आतमसाकातकारवान, जानरप उपवन मे िसथत,
सवातीत पद का यानी बह का अवलमबन करने वाला, पूणरचनदमा के समान शीतल आशयवाला, न िकसी से उदेग
करने वाला और न िकसी से सनतुष होने वाला पुरष संसार मे दुःखी नही होता।।3-6।। सब शतुओं मे सम दृिष
रखने वाला, दया दािकणय आिद गुणो से युकत, गुर आिद पूजनीय लोगो के समयोिचत सेवा, पिरपालन आिद कायर करने
वाला पुरष संसार मे दुःखी नही होता। जो पुरष पापत िपय का न अिभनदन करता है, न अिपय का देष करता है, न
िवनष का शोक करता है, न अपापत की आकाका करता है, िमतभाषण करता है और आवशयक काम मे आलसय नही
करता है, वह संसार मे पीिडत नही होता।।7।।
जो पूछने पर पसतुत िवषय को कहता है, िबना पूछे मौन होकर खमभे की तरह खडा रहता है, इचछा और
अिनचछा से रिहत वह पुरष संसार मे दुःखी नही होता।।8।। सबका िपय करने वाला, अगर कोई आकेप करे तो
चतुरतापूवरक समाधान करने वाला और पािणयो के आशय को जानने वाला पुरष संसार मे पीिडत नही होता।।9।।
यह युकत है और यह अयुकत है, इस पकार वैषमय दृिष से गसत एवं आशय से िजसकी दृिष नष है, ऐसे पुरष से
िकये गये लोक दृषानत को अपकपाती होने के कारण हाथ मे िसथत िबलवफल के समान वह जानता है। भाव यह िक
यिद एक का पकपात होता होता तो उस पक के दोष तथा दूसरे पक के गुण राग-देष से आचछन होने के कारण सपष
नही भािसत होते, अपकपाती को दोनो सपषरप से भािसत होते है।।10।। परम पद मं आरढ होकर वह िवनाश को
पापत होने वाली िजन लोगो ने अपने िचत पर िवजय पापत कर ली है, िजन महातमाओं ने परबह परमातमा का साकातकार
कर िलया है, उन लोगो का ऐसा सवभाव मैने आपसे कहा।।12।।
मुकतो की िसथित के समान बद पुरषो की िसथित का उनके आशय के उदरण दारा आप वणरन कीिजये, ऐसा
यिद शीरामचनदजी कहे, तो मूखों की मनोरथयुकत भािनतया, उनसे पयुकत दुशेषाएँ तथा उनके फलभूत दुःखो की
िविचतताएँ अननत है, अतएव उनका वणरन नही िकया जा सकता, इस आशय से कहते है।
िजनहोने अपने िचत पर िवजय पापत नही की एवं जो भोगरप कीचड मे डू बे है, ऐसे मूखों के अिभमत को
कहने के िलए हमे पिरजान नही है। उन मूखों को नािरया, जो िववेक-बुिदयो के अतयनताभाव से, पूवरसंिचत पुणयो के
पधवंसाभाव से और समभािवत पुणय, तप, संयम आिद के पागभाव के पिरपालन से पैर से लेकर मसतक तक अलंकृत है
अतएव जो सुवणर की कािनतवाली नरकािगनयो की जवाला है, अिभमत है और अनथों से भरे हुए यानी उपाजरन, रकण,
वयय और नाश मे बहत ु आयास एवं अधमर के िनिमतभूत, वयथर अनथर पयोजक कलह, वैर आिद कलेशो के कारण,
संसारदुःख को देने वाले तथा चारो ओर से आपितयो की वषा करने वाले घन ईिचछत है।।13-15।।
यिद कोई कहे, इस पकार के धन से भी यजािद सतकमों का आचरण होने से उनका िनसतार हो सकता है, तो
इस पर 'नही' ऐसा कहते है।
मूखों के जो यजािद कमर है, वे भी फलािभलाषा युकत ही है और िविवध पकार के दंभ, मान, मद, मातसयर आिद
दुराचारो से पूणर है अतएव पुनजरनम आिद से होने वाले सुख-दुःखो से भरे हुए है, इसिलए मूखों का कुछ भी िनसतार का
हेतु हम नही कह सकते।।16।।
इसिलए आप भी िवदचचिरत से ही िवहार कीिजये, अनय से नही, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, धयेयनामक वासनातयाग से िवलिसत होने वाली पूणर दृिष का अवलमबन करके सवसथ हएु
आप जीवनमुकतरप से िवहार कीिजये।।17।।
हे शीरामचनदजी, भीतर सब आशाओं का तयाग कर वीतराग, वासनारिहत हएु आप बाहर सब कमर आचारो मे
अनुवतरनशील होकर लोक मे िवहार कीिजये।।18।।
हे शीरामचनदजी, उदार, मधुर आचारवाले, सबके (अजािनयो के भी) कमर आिद आचारो मे अनुवतरनशील
होकर लोक मे िवहार कीिजये।।19।।
हे शीरामचनदजी, सब संसार दशाओं और परमाथरसवरप मे िसथित रप िभन-िभन भूिमका दशाओं का िवचार
करके जो परमाथर सतय परम पद है, उसी का भावना दारा अवलमबन कर आप लोक मे िवहार कीिजये।।20।।
हे शीरामचनदजी, भीतर िनराशता का गहण कर और बाहर आशािनवत पुरषो की सी चेषावाले अतएव धनािद
नाश होने पर बाहर संतपत के समान संतपत िकनतु भीतर चारो ओर शीतल आप लोक मे िवहार कीिजये।।21।।
हे शीरामचनदजी, बाहर कृितम आडमबरवाले और हृदय मे आडमबरहीन, बाहर कता और भीतर अकता आप
लोक मे िवहार कीिजये।।22।।
हे शीरामचनदजी, आप सब पदाथों का वयवहारतः और परमाथरतः सारासार तारतमय जान चुके है, इसिलए आप
जैसे चाहते है, वैसी दृिष से लोक मे िवहार कीिजये।
हे शीरामचनदजी, कृितमरप से उललास और हषर मे िसथत, कृितमरप से दुःख की गहा (िनंदा) करने वाले
और कृितमरप से कायर के आडमबर से युकत आप लोक मे िवहार कीिजये।।23,24।।
हे शीरामचनदजी, अहंकार का तयाग कर चुके, सवसथ बुिदवाले और आकाश के सदृश सुनदर एवं िजनहोने
कलंकरपी िचह का गहण नही िकया, ऐसे आप लोक मे वयवहार कीिजये। चनदमा राित मे केवल 'मै ही पकाशक हूँ',
यो अहंकारयुकत, कयरोगी होने के कारण असवसथबुिद तथा कलंक से लािछत भी है, आप वैसे नही है, इस तरह इस
शलोक दारा चनदमा से शीरामचनदजी मे वयितरेक दशाया।।25।।
हे राघव, सैकडो आशारपी पाशो से उनमुकत, सब वृितयो मे सम, बाहर ततत वणाशम सवभाव के उिचत
कायों मे अथवा पजाओं के िहतकर कायों मे संलगन आप लोक मे िवहार कीिजये।।26।।
सब वृितयो मे सम, ऐसा जो ऊपर कहा है, उसका बनध-मोक आिद िवषमता के पितषेध दारा उपपादन करते
है।
देही का परमाथरतः न बनध है और न मोक है। यह िमथया इनदजाल के संसार मे भमण कराने वाली है।।
27।। हे शीरामचनदजी, जैसे तेज धूप मे जल की पतीित कराने वाला पचुर मृगजल भमवश िदखाई देता है, वैसे ही
अजान से भािनतमात यह जगत िदखाई देता है।।28।।
देही का बनधन कयो नही है, ऐसा पश होने पर उसमे युिकत िदखाते है।
असंग, एकरप, सवरवयापक, आतमा का बनधन कैसे हो सकता है, जब वह बद नही है, तो मोक का िकसके
िलए िवधान हो सकता है ?।।29।। यह िवशाल संसार भािनत अतािततवक जान से उतपन हुई है, तततवजान से यह
जैसे रजजु सपरबुिद चली जाती है वैसे ही नष हो जाती है।।30। हे शीरामचनदजी, आप अपनी एकाग सूकमबुिद से
अपने तततव को जान चुके है और अहंकाररिहत हो चुके है, इसिलए आप आकाश के तुलय िनमरल होकर िसथत होइये।
आप इसी पकार साकी है, इसिलए िमत, बनधु, बानधवो से समबनध रखने वाली सब वासनाओं का तयाग कीिजये।
िजनका सवरप ही िवदमान नही है ऐसे बनधु-बानधवो की वासना कैसी ?।।31,32।। इस पकार वासना का तयाग
होने पर वासनाओं से पिरिशष साकीरप आपका पिरशेषतः परमाथरसततववानरप से अनुमान होता है। वासनाओं के
तयाग के पहले परम कारण बह से पलय और सुषुिपत मे िनतय पापत हुआ भी यह आतमतततव पिरिचछन, असतयरप ही
पापत हुआ, िकनतु परमाथरसतयरप पापत नही हुआ। इस पकार वासना तयाग ही आतम पािपत मे हेतु है, अनय हेतु नही है,
यह भाव है।।33।।
भोगो से, भोगसाधक बनधुओं से, जगत के माला, चनदन आिद पदाथों से और उनकी पािपत मे िनिमतभूत शुभ-
अशुभ कमों से आतमा का कोई समबनध नही है, िफर इनके िलए आप वयथर ही शोक कयो करते है ?।।34।। हे
शीरामचनदजी, मै, िजसका केवल आतमता ही एकमात परमाननदसतय है, ऐसा हँू, इस पकार की िजनहे बुिद पापत हो
गई, ऐसे आपका भय के कारणो से समबनध नही है, िफर आप जगत के भय से कयो डरते है ?।।35।। िमथया होने
के कारण बनधु के उतपन होने पर उसके दुःख-सुख के भमो से आपका कौन समबनध है ? जो आप इनके िलए शोक
करते है।।36।।
इस पकार आतमा के असंगतव, अिदतीयतव के दशरन से शोक को असमभव कहा है। अब भले ही आतमा संगी
हो, तथािप वह िनतय है या किणक है या पागभाव या घटािद के समान कालानतर मे नष होने वाला है। इन सभी पको मे
बनधु के िलए शोक करना उिचत नही है, यो पगलभता से समाधान करने की इचछा से शीविसषजी पहला पक लेकर
कहते है।
आप यिद पूवर जनमो मे हुए थे, भावी जनमो मे होगे और इस समय इस जनम मे िसथत है, इस पकार के सवभाव
वाले आतमा को िनशयरप से जान चुके है, तो िवदमान और िनकट िसथत बनधुओं के समान अतीत और बहुत से पाणो
के समान पयारे बनधुओं का शोक कयो नही करते है।।37,38।। हे शीरामचनदजी, पहले आप अनय हएु थे, इस
समय अनय है और आगे भी अनय होगे इस पकार किणक आतमा को यिद आप जानते है, िफर भी आप सदूप का
अवलमबन करके कयो शोक करते है, दूसरे कण मे शोचय और शोिचता का अभाव होने से शोक का अवसर ही नही है,
यह दूसरा पक है।39।।
तीसरे पक मे कहते है।
पहले उतपन होकर और इस समय उतपन होकर िफर आप आगे नही उतपन होगे, तथािप अपने नष होने के
कारण कीण संसार (िजसका संसार कीण हो गया है) आप िकसिलए शोक करते है ?।।40।।
जबिक आतमा के जनम आिद का संगी होने पर भी शोक युकत नही है, तब िफर असंग, उदासीन, िनतय,
कूटसथ, सवपकाश, पूणर, आननदैकरस आतमा मे शोक उिचत नही, इसमे कहना ही कया, इस आशय से उपसंहार करते
है।
इसिलए माियक जगत के कम मे दुःखी होना उिचत नही है, िकनतु सवाभािवक सनतोषवृित ही उिचत है तथा
सवाभािवक कायों का अनुवतरन उिचत है।।41।। हे शीरामचनदजी, आप दुःखी न होइये और सुखी भी न होइये।
सब जगह आप समता को पापत होइये, कयोिक परमातमा सवरवयापक है। अननत, सतसवरप आप वयापक आकाश के
समान है तथा जवालाओं के चारो ओर से पभा से वयापत मधयभाग मे अनधकार का अवकाश नही है, वैसे ही आप मे भी
अजान दुःख आिद का अवसर नही है, यह भाव है।।42,43।।
आप ही सबके अनतरातमा है, ऐसा कहते है।
िजनका सवरप दृिषगोचर नही हुआ, ऐसे सूकम आप हारभूत मोितयो के एक दीघर तनतु के समान सब जगत
के पदाथों के अनदर िसथत है। यह संसार की िसथित ही है िक अज को ही उतपन होकर िफर उतपन होना पडता है,
जानी को नही। हे शीरामचनदजी आप जानी है, आप सुखी होइये। हे शीरामचनदजी, इस संसार का यह सवरप दुःखो
से पूणर है, अजान से ही यह िवसतार को पापत होता है। हे सनमते, आप जानवान है। भम मे एकमात भम के िसवाय
और दूसरा रप कया हो सकता है ? सवप मे एकमात सवप को छोडकर अनय कौन कम हो सकता है ? भाव यह है िक
अनय भािनतयो मे वासतिवकता की पिसिद न होने के कारण इसमे भी कोई वासतिवकता नही है।।44-47।।
जो िनसतततव है वह सतयरप से कैसे िदखाई देता है, ऐसी शंका होने पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, सवरशिकत की यह शिकत है, जो िक भममाततामय यह जगदाकार भान अितसफुट िदखाई
देता है। (जगत की भममातता के पदशरन के िलए उसकी अिनतय सवभावता िदखलाते है।) यहा पर कोई िकसी का
सुबनधु नही है, कोई िकसी का शतु भी नही है, सवेशर भगवान की इचछा से सब-सबके-सब (शतु, िमत और उदासीन)
होते है।।48,49।। परसपर िनिमतभूत और जजरिरत यह सारा जगत जल के तरंगो के समूह के समान सदा बहता
है।।50।। इस चंचल संसार का चक नेिम के (पिहये के घेरे के) समान चारो ओर से नीचे का भाग ऊपर आता है
और ऊपर का भाग नीचे आता है।।51।। सवगर के लोग नरक मे जाते है और नारकीय लोग सवगर मे जाते है। लोग
एक योिन से दूसरी योिन मे िफर एक दीप से दूसरे दीप मे जाते है। धीर लोग दीनता को पापत होते है और दीन धीरता
को पापत होते है। अधोगित,, ऊधवरगित आिद सैकडो भमो से पाण पिरसफुिरत होते है।।52,53।। यह पदाथर समूह
एकरप से िसथत, सवचछ और सनतापरिहत है। जैसे अिगन मे िहमकण पापत नही होता वैसे ही यहा कुछ भी पापत नही
होता।।54।। जो-जो महाभागयशाली बहुत-से बानधव है, वे सब कुछ ही िदनो मे नष हुए ही देखने मे आते है। हे
महाबाहो, परता, आतमीयता, अनयता, तवता, मता इतयािद भावनाएँ िदचनददशरन के समान सतय नही है।।55,56।।
हे शीरामचनदजी, यह बनधु है, यह शतु है, यह मै हँू, यह आप है, इस पकार की आपकी िमथयादृिषया अब िछन-िभन
हो जाय। कीडा के िलए वयवहार मे िसथत आप भीतर अजान और वासना के साथ िछन-िभन हुई, बािधत अनुवृितवाली
इन दृिषयो से आननदपूवरक बाहर वयवहार कीिजये।।57,58।। हे सुवरत शीरामचनदजी, वासनाभारवान की यानी
अजानी की तरह जैसे आप शम से पिरशानत न हो, वैसे इस संसार मागर मे आप िवहार कीिजये। वासनाओं का कय
करने वाली यह िवचारणा जैस-े जैसे आप मे उिदत होती है वैस-े वैसे वयवहार बनद होते जाते है। यह बनधु है, यह बनधु
नही है, ऐसी गणना संकुिचत िचतवाले पुरषो मे होती है, उदाराशय पुरषो की तो बुिद आवरणशूनय (यही बनधु है, इस
पकार के पिरिचछनतारप आवरण से रिहत) यानी सवरत समदिशरनी है।।59-61।। यह वसतु नही है, जहा पर मै
नही हूँ। वह वसतु नही है, जो मेरी न हो, ऐसा िनशय कर धीर पुरषो की बुिद पूवोकत आवरण से रिहत ही होती है।।
62।। जो पुरष महान है, वह िचदाकाश के समान न तो असत को पापत होता है और न उिदत होता है, जैसे आकाश
मे िसथत पुरष भूतल को देखता है, वैसे ही वह सवरप मे पितिषत हो सबको देखता है।।63।। हे शीरामचनदजी,
सभी भूतजाितया आपके बनधु समबनधी है, कयोिक अनािद संसार मे सब योिनयो मे बहुत बार आपने जनम िलया है। ये
सब आपकी बनधुता के अतयनत असंबद नही है, कयोिक बारी-बारी से सब-के-साथ आपका समबनध है अथवा देहदारक
परमपरा समबनध की अपेका सब जीवो के साथ एकातमय समबनध अनतरंग है, अतएव उस समबनध से अतयनत असमबद
कोई नही है, यह भाव समझना चािहए।।64।। जहा िविवध योिनयो से िविचत सैकडो जनमो से यह भम िनिहत है,
ऐसे इस जगत मे यह बनधु है, यह बनधु नही है, यह भेददशरन भम के िसवाय और कुछ नही है, वसतुतः तो
जीवभावदृिष मे तीनो भुवनो के समसत जीव अपने बनधु ही है और बहभावदृिष मे तो सवयं ही सब कुछ है, इसिलए
ितभुवनसथ सब जीव ही अबनधु भी है।।65।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अटारहवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआ आआ
आआआआआ, आआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआआ । आआ आआआआआआआआआआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पूवोकत िवषय मे ही मुिनपुत दो भाइयो के गंगाजी के तट पर हुए
संवादरप इस पाचीन इितहास को िवदान लोग कहते है। हे शीरामचनदजी, यह बनधु है, यह बनधु नही है, इस कथा के
िसलिसले मे मुझे इसका समरण हो आया है। आप इस पिवत और अदभुत इितहास को सुिनये।।1,2।। इस
जमबूदीप के िकसी पवरत समूह के मधय मे महेनदनामक पवरत है, िजसकी वनरािजया महामुकुटभूत है, िजसके कलपवृक
के वनो की छाया मे मुिन और िकनर िवशाम लेते है, िजसने अपने गगनचुमबी िशखरो से िवसतृत आकाश को भी वयापत
कर िदया है, जो बहलोक के भीतर पहुँचे हुए िशखरो की गुफाओं मे फैल रह सामवेद की पितधविनयो के कोलाहलो से
मानो गान करता है, जो िशखरो की चोिटयो पर िबजली से सुशोिभत नीले मेघो से सुशोिभत होता है, जो लता के फूलो
से गुँथे हुए केशो के समान िदखते है, जो उस समय तटो मे उछलने के िलए उतकिणठत शरभो के िवजृमभणो (मुँह
फाडने ) से अपने गुहारपी मुँहो दारा पलयकाल के मेघो का उपहास करता हुआ सा गजरता है, इसने गुफाओं के अनदर
होने वाले झरनो के कलरव से समुदजल कललोलो के िवलास को सवरथा जीत िलया है। उसके एकभाग मे, रतमय,
मनोहर, िवसतृत िशखर पर मुिनयो ने सनान, जलपान आिद के िलए आकाश गंगा को उतार िलया था।।3-9।। उस
आकाशगंगा के दैदीपयमान, सुवणर से पीले तट पर, जहा फूले हुए वृक थे और रतमयपवरत के तट से पकाश जगमगाता
था वहा जानवान, तपसया की रािशरप, उदारबुिद दीघरतपा नामक मुिन िनवास करते थे, जो मूितरमान दूसरे तपरप
थे।।10-11।। उस मुिन के चनदमा के तुलय सुनदर पुणय और पावन नाम के दो लडके थे, यिद बृहसपित के कच
नाम के दो पुत होते, तो उनसे उनकी उपमा हो सकती।।12।। दीघरतपा मुिन उन दोनो पुतो और भाया के साथ
फल से लदे हुए वृको से पूणर उस गंगातट पर िनवास करते थे।।13।। हे शीरामचनदजी, समय बीतने पर उनके दो
लडको मे से पुणय नामवाला बडा लडका तततवजानी हुआ, जो अवसथा से जयेष और गुणो से भी जयेष था।।14।।
पावन पातःकाल की सनधया के कमल के समान अधर पबुद हुआ। मूखरता से तो बाहर हो गया, िकनतु परमातमवसतु मे
पापत नही हुआ, इसिलए उसकी िसथित मधय मे दोलायमान थी।।15।। तदननतर पािणयो दारा आयु के कयरप से
लिकत सौ संवतसरकाल के 'िजसने उनकी दीघर देहरपी लता और आयु जीणर कर दी थी' बीतने पर इस कणभंगुर
पािणयो से पूणर, जनम, जरा, मरण, सवगर से पतन, नरक आिद सैकडो वृतानतो से भयंकर संसार का अनुराग तयाग कर
जरा से जजरिरत जीवनवाले दीघरतपा मुिन ने िगिर-गुफारपी घर मे कलनारप िचिडया के घोसले रप देह का, जैसे
भारवाहक पुरष घर मे भार का तयाग करता है, वैसे ही तयाग िकया।।16-18।।
जैसे फूल की सुगनध आकाश मे जाती है, वैसे ही िजसमे कलना िकया शानत है एवं चेतय से रिहत जो ततद्
जीव चेतन है, उनके सथानभूत रागरिहत परम पद को वे पापत हुए। तदननतर मुिन की पती ने पाण और अपान से
रिहत मुिन की देह को नालरिहत कमल के समान िगरी हुई देख कर पित दारा िसखाई गई िचरकाल से अभयसत
योगिकया से अपने शरीर का, जो रोग, बुढापे आिद से जजरिरत नही हुआ था, ऐसे तयाग िकया, जैसे भँवरी अमलान
कमिलनी का तयाग करती है। लोगो की अदृशयता को पापत उसने जैसे पभा आकाश मे िसथत असत को पापत हुए
चनदमा का अनुसरण करती है वैसे ही पित का ही अनुसरण िकया। माता-िपता के चले जाने पर उनके औधवरदेिहक
कमर मे पुणय ही अवयगता पूवर िसथत रहा और पावन दुःख को पापत हुआ। शोक से वयाकुल िचतवाला वह पावन अरणय
भूिमयो मे घूमता हुआ अपने जयेष भाई के समान धैयर का अवलमबन न कर िवलाप करता था।।19-24।।
तततवजानी पुणय माता-िपता का औधवरदेहिक कमर समापत कर वन मे शोक से वयाकुल पावन के समीप आया।।25।।
पुणय ने कहाः हे वतस, जैसे वषा ऋतु अनधता की एकमात कारण तथा भाप के समूह को धारण करने वाली
जल-समबनधी गमी को मेघ बना देती है, वैसे ही तुम अनधता के एकमात कारण तथा अशुओं की धारा धारण करने वाले
कमल सदृश नेत समबनधी घोर शोक को िनिबड बना रहे हो।।26।।
हे महापाज, तुमहारे िपता तुमहारी माता के साथ सवरपभूत, मोक नामक परमातमपदवी को पापत हो गये है। वही
सब जनतुओं का उतपित आिद तीनो कालो मे आधारभूत है। बहवेताओं का वह सवरप है। िपता के अपने सवरप को
पापत हो जाने पर तुम कयो शोक करते हो ? तुमने , यही मेरी मा है, यही मेरे िपता है, इस पकार की मोह से उतपन हुई
भावना यहा पर बाध रखी है, िजससे शोक के अयोगय िपता का भी तुम शोक करते हो। न वही तुमहारी माता है, न वही
तुमहारे िपता है तथा असंखय पुतवाले उनके न तुमही पुत हो।।27-30।। हे वतस जैसे पतयेक वन मे जलपवाह के
बहुत से गडढे होते है, वैसे ही तुमहारे हजारो माता-िपता हो चुके है।।31।। हे वतस, असंखय पुतवाले उनके तुमही
केवलपुत नही हो। निदयो की तरंगो के समान मनुषयो की बहुत सी पुत रािशया वयतीत हो चुकी है। जैसे लता और
शाखा के लाखो पते, कोपले, डंठल वयतीत होते है, वैसे ही हमारे माता और िपता के अनेक लाखो पुत बीत चुके है।
जैसे महावृक के पतयेक ऋतु मे फल वयतीत होते है वैसे ही जनतु के पतयेक जनम मे िमत, बानधव आिद के वृनद वयतीत
हुए है।।32-34।।
हे वतस, यिद माता, िपता, पुत आिद सनेहवश शोक के योगय है, तो िनरनतर अतीत हजारो माता-िपता पुत
आिद का शोक कयो नही िकया जाता है ?।।35।। हे महाभाग, जगत की कलपना के िनिमतभूत मोह के होने पर ही
यह पपंच िदखाई देता है। हे पाज, परमाथरतः आपके िमत, बनधु-बानधव है ही नही। हे भाता, िचरकाल से संतपत महान
मरसथल मे जैसे जल िबनदु नही रहते, वैसे ही बहसवभाव होने के कारण परमाथर दृिष से यहा नाश नही है। बहबोध
होने पर तो कहना ही कया है ? जो इन छत, चामरो से चंचल राजसमपितयो को तुम देखते हो, हे महाबुदे, यह तीन
अथवा पाच िदनो का सवप ही है।।36-38।।
हे वतस, पारमािथरक दृिष से तुम सतय का िवचार करो, न तो तुम हो और न हम है। तुमहारे भीतर जो भािनत
है, उसका तुम तयाग करो। यह गया, यह मर गया इतयािद दुदरृ िषया अपने संकलपरप सिनपातभम से उतपन हुई
सामने िदखाई देती है, परमाथरतः नही िदखाई देती है। अजानरप धूप से आचछन मरभूिम सदृश आतमा मे पुणय-
पापरप पवाह से युकत तरंगो से चंचल सवसंकलप वासना नामक यह असीम मृग जल पिरसफुिरत होता है।।39-
41।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआ आआआआ आआआआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआ-आआआ
आआ आआआआआआआआ आआ आआआ आआआआआ।
शोक मोहमूलक है, मोह के िनरास दारा ही इसका शोक दूर करना चािहए, यो समझ रहे पुणय शोक के
िवषयभूत िपता आिद के अिनवरचनीय होने से उनका िमथयातव की पितजा कर जान से उसकी िनरसनीयता का वणरन
करते है।
पुणय ने कहाः हे वतस, कौन िपता है अथवा कौन िमत है, कौन माता है और कौन बनधु-बानधव है, तततवतः इन
सभी का िनवरचन नही हो सकता है। अपनी भमरपी आँधी से ही ये जनरपी धूिलकण उतपन होते है अथवा अपनी
िववेक बुिदरप आँधी से ही ये सवजनरपी धूिलकण िनवािरत होते है।।1।। बनधु, िमत, पुत, सनेह, देष, मोहदशारप
रोग से युकत यह पपंच अपने दारा िकये गये संकेत से ही िवसतार को पापत होता है।।2।।
यह मेरा बनधु है, यो बनधुरप मे भािवत पुरष बनधु होता है, यह मेरा शतु है, ये शतुरप से भािवत पुरष शतु
होता है। िवष और अमृत की दशा के समान यहा पर िसथित भावमयी है। जैसे िवष के कृिमयो दारा िवष की यह हमारा
जीवन हेतु है, यो दृढ भावना करने से उनके पित वह अमृत हो जाता है और लोगो दारा यह हमारे मरण का हेतु है, यो
भावना करने से उनके पित िवष होता है, इसी पकार जगत की िसथित भावनामयी है, यह भाव है।।3।।
बनधुओं की वासतिवकता का िवचार जाने दीिजये, उनके पित शोक करने वाले तुम यिद केवल सवतव का
िवचार करो, तो उसी से उनका िनरास हो सकता है, इस आशय से कहते है।
सब देहो मे अिगनरप से िवदमान, सवरवयापी आतमा की यह मेरा बनधु है, यह मेरा शतु है, ऐसी कलपना कैसे हो
सकती है ?।।4।।
यिद कोई शंका करे िक समपूणर देहो मे मै कैसे एक हूँ, तो इस पर अहंपतयवेद का ही यह कौन पदाथर है, यो
िवचार करो, इस आशय से कहते है।
हे वतस, रकत मास आिद जड संघात अिसथपंजररप देह से अनय चेतन सवभाव मै कौन हूँ, ऐसा अपने िचत
से सवयं िवचार करो।।5।। परमाथरदृिष से न पावन शबद वाचय तुम कोई हो अथवा न पुणय शबद वाचय मै ही कोई
हूँ, यह िमथया जान (देहातमभम) ही पुणय-पावन शबद से पिसद होता है।।6।।
इस पकार िपता आिद का शरीर भी भािनत से अितिरकत कुछ भी नही ठहरता, यह कहते है।
कौन तुमहारी माता है, कौन तुमहारे िपता है, कौन िमत है अथवा कौन शतु है। जरा बतलाओ तो सही, अननत
िवलासवाले िचदाकाश का कौन सविभन है और सव है ? भाव यह है िक यिद देहािद उपािध से पृथक िकया गया
िचदाकाश ही मै, तुम और िपता आिद है, ऐसा समझते हो, तो 'मेरे िपता, मेरा भाई' इतयािद भेदयुकत सवतव आिद
समबनध नही घट सकता।।7।।
यिद िलंग शरीर ही अपार मेरे बनधु है, ऐसा मानो, तो इस पर सुनो, ऐसा कहते है।
यिद तुम मुझसे पृथक िलंगातमा हो, तो वयतीत अनेक जनमो मे तुमहारे जो बंधु और जो धन, समपित आिद थे,
उनके िलए भी तुम शोक कयो नही करते ?।।8।। उन भूली हुई वनसथिलयो मे तुमहारे मृग योिनयो मे उतपन बहुत से
मृग बनधु हुए थे, उनके िलए तुम शोक कयो नही करते ?।।9।। कमल के वनो मे और निदयो के तटो पर हंसरप
तुमहारे हंस बनधु हुए थे.... उनके िलए तुम शोक कयो नही करते ?।।10।। अनय जनमो मे बडी िविचत वनपंिकतयो
मे तुमहारे बहुत से वृक अतयनत बनधु हुए थे, उनके िलए तुम शोक कयो नही करते ?।।11।। बडे ऊँचे-ऊँचे पवरत-
िशखरो पर तुमहारे बहुत िसंह बानधव हएु थे, उनके िलए तुम शोक कयो नही करते ?।।12।। निदयो, तालाबो और
पोखरो मे तुमहारे बहुत से मतसय बनधु हुए थे, उनके िलए तुम शोक कयो नही करते ?।।13।।
अब योगबल से देखे गए भाई के िविवध जनमो का िवशेषरप से समरण कराते हुए कहते है।
हे वतस, तुम दशाणर देश मे किपल वनवानर हुए थे, तुषार देश मे राजपुत हुए थे और पौणड देश मे जंगली
कौवा हएु थे। हैहय देश मे हाथी हुए थे ितगतरदेश मे गधा हएु थे, शालव पदेश मे कुता हुए थे और वही चीड के पेड पर
पकी हुए थे। िवनधयाचल मे पीपल होकर, बडे भारी वट के वृक मे घुन होकर और मनदराचल मे मुगा होकर मनदराचल
की ही गुफा मे तुम बाहण हुए थे। कोशल देश मे बाहण होकर, बंग देश मे तीतर होकर और तुषार देश मे घोडा
होकर तुम पुषकर मे पिसद बहा के यज मे पशु हुए थे। जो पहले िवनधय के वन मे ताड के वृक की जड के भीतर
कीडा हुआ था, जो गूलर के फूल मे मचछर हुआ था और जो बगुला हुआ था, हे वतस, वह तुम अब मेरे भाई हो।
िहमालय की कनदरा मे भोजपत के वृक की पतली तवचा के भीतर छः मास तक जो चीटा हुआ था, वही तुम मेरे अनुज
हुए हो। सवदेश सीमा के अनत मे छोटा-सा गाव है, वहा के कंडो के ढेर मे जो छः महीने तक िबचछू र से िसथत रहा,
हे साधो, वही तुम मेरे भाई हो। जो वन मे शबरी के बचचे का जनम पाकर जैसे पदो मे भमर लीन होता है वैसे ही शबरी
के सतनो के ऊपर िछपा, वही तुम मेरे भाई हो।।14-21।। हे वतस, इन अनयानय बहुत सी जीवयोिनयो मे इसी
जमबू दीप मे पहले सैकडो, हजारो बार तुम उतपन हो चुके हो। मै तततवजान से िवशुद सूकम बुिद से तुमहारे और अपने
पूवर जनमो के वासना कम को इस पकार देखता हँू।
भाई के जनमो के कथन का उपसंहार कर अपने बहुत जनमो का कहना आरमभ करते है।
मेरी भी अजान से जड बहुत सी योिनया बहत ु बार बीत चुकी है। आपको मै जान से उतपन दृिष से उनका
समरण करता हूँ। ितगतर देश मे सुगगा होकर, नदी के तट पर मेढक होकर, वनो मे लवा(एक पकार का छोटा पकी)
होकर मै इस वन मे उतपन हुआ हँू। िवनधयाचल मे शवरयोिन का भोगकर, बंग देश मे वृकयोिन का भोगकर, िवनधयाचल
मे ही ऊँट की योिन का भी भोग कर इस वन मे उतपन हुआ हूँ। जो िहमालय मे चातक हुआ, जो पौणड देश मे राजा
हुआ और जो सहाचल की झािडयो मे वयाघ हुआ, वही मै तुमहारा बडा भाई हँू। जो दस वषर तक गीध, जो पाच महीने
तक मगर और जो सौ वषर तक िसंह रहा, वही मै इस जनम मे तुमहारा अगज हुआ हूँ। आनध गाम मे चकोर एवं
तुषारपदेश मे राजा के समान िवराजमान होने वाला, सामनतरप, शी शैलाचायर का पुत मे अपुणयातमा होता हुआ भी लोगो
की वंचना के िलए पुणयनाम से पखयापनरप दमभ से युकत होकर यह कह रहा हूँ। अनेक जनमो की भािनत के पाकतन
सभी िवलासो का मै समरण करता हँू, वे िविवध संसारवाले और िविवध आचारो से युकत चेषावाले है।।22-30।।
ऐसी अवसथा मे जगत मे उतपन हुए सैकडो माता, िपता, भाई, बनधु और िमत चले गये। उनमे से िकनका शोक करे,
िकनका शोक न करे एवं उन बनधुओं का अितकमण कर यहा िकनका शोक करे, इसिलए िकनही का भी शोक हम नही
करते कयोिक ऐसी जगत की गित है। वन के वृको के पतो के समान संसारी पुरषो के अननत िपता जाते है, अननत
माताएँ जाती है। इसिलए हे वतस, यहा पर दुःख-सुख की कया अविध है ? अतः सबका तयाग कर सवचछता को पापत
हुए हम लोग िसथत है।।31-34।।
हे भद, मन मे अहंरप से िसथत पपंच भावना का तयाग कर उस गित को पापत होओ, िजस गित को
आतमजानी लोग पापत होते है। सुबुिद लोग यहा पर अधोगित, ऊधरगित आवेग एवं िवशामरिहत िनरनतर भमण का शोक
नही करते केवल िनरिभमािनता से िचरकाल तक वयवहार करते है।।35,36।। हे वतस, वयगतारिहत होकर तुम
आतमा को भाव-अभाव से रिहत एवं जरा मरणिवहीन समझो, िवमूढ मनवाले न बनो। न तुमहे दुःख है, न तुमहारा जनम
है, न तुमहारी माता है और न तुमहारे िपता है। हे सदबुदे, तुम आतमा ही हो। अनातमभूत देह आिद कोई भी तुम नही
हो। नटो के समान िविवध अिभनय करने वाले अजानी लोग ही इस संसारयाता मे यही परम पुरषाथर है, ऐसी बुिद वाले
होते है। सवसथ और यथापापत वसतु का दशरन करने वाले तततवज पुरष तो उदासीन दशरक ही है, अतएव वे साकी धमर
मे िसथत है। जैसे दीपक राित आने पर पकाशन िकया मे सिनिधमात से कता होते हुए भी वयापार न करने के कारण
अकता ही है, वैसे ही यहा तततवजानी पुरष लोकवयवहार िसथित मे कता होते हुए भी अकता ही है।।37-41।।
अब दूसरा दृषानत कहते है।
जैसे हाथ मे िसथत दपरण, रत आिद पितिबमब की उपािधभूत वसतुएँ िबमबभूत अपनी सारी देह मे िसथत सब
धमों के साथ भी सवदेह मे रिचत पितिबमब मे िबमब के अनय धमों के समान सवयं िनिवष नही िदखाई देती हो वैसे ही
सवातमा मे अधयसत कायों के कता होते हएु भी महामित पुरष सवयं उनमे अिभिनवेशवाले नही होते। हे वतस, सब
एषणामय कलंको से रिहत अतएव मननशील, अपने से ही अपने हृदयकमल मे सवसथ आतमरप से साकातकृत एवं
संसार भम का सवरथा तयाग कर पिरिशष हुए इस आतमा से ही सनतोष को पापत होओ।।42,43।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ, आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ, आआआआआ
आआ आआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, इस पकार उस पुणय दारा पबोिधत पावन जैसे पातःकाल भूतल पकाशता
को पापत होता है, वैसे ही पिरिनिषत आतमिनशय को पापत हुआ।।1।। जान और िवजान मे पारंगत, िसद और
आनिनदत वे दोनो ही पारबध कमों का नाश होने तक उस वन मे भमण करते थे। तदननतर समय पाकर कभी तेलरिहत
दीपको के समान शािनत को पापत हुए वे दोनो िवदेह होकर िनवाण पद को पापत हो गये।।2,3।।
पूवोकत आखयान का उपसंहार कर पसतुत पसंग मे उसकी योजना करते है।
हे िनषपाप शीरामचनदजी, इस पकार पहले जनमो मे देहधारण कर चुके लोगो के िमत, बनधु और बानधवो का
समूह अननत है, भला बतलाइये तो सही, उनमे से कौन िकसका गहण करते है और कौन िकसका तयाग करते है
?।।4।। हे रघुननदन, इसिलए सब शोको की मूलभूत, पतयेक िवषय मे अननत तृषणाओं का एक-मात तयाग ही
उनकी िनवृित मे उपाय है। िवषयो के उपाजरन दारा उनका वधरन उपाय नही है। जैसे लकडी से आग बढती है वैसे
वैसे ही िचनतन से िचनता बढती है, जैसे लकडी के िबना अिगन बुझ जाती है वैसे ही िचनतन के अभाव से वह नष हो
जाती है।।5,6।। हे शीरामचनदजी, उिठये और पूवोकत धयेय वासना तयागरपी रथ मे बैठे हुए आप सब भूतो के
ऊपर कृपा से उदारदृिष दारा दीन लोगो को देखते हुए पकृत वयवहार का अनुषान कीिजये।।7।। हे महाबाहो, यह
सवचछ, कामनारिहत, िनदोष बाही िसथित है, इसे पापत कर वयवहार मे अकुशल पुरष भी मोह को पापत नही होता।
केवल एक िववेकरपी िमत को एवं एकमात बुिदरपी िपय सखी को लेकर िवहार कर रहा पुरष संकटो मे मोह को
पापत नही होता। िजसने सब धनसमपितयो का तयाग कर िदया और भीतर सनेह न रहने के कारण अपने बनधु-बानधवो
को मानो गलहसत देकर िनकाल िदया, ऐसे अपने िववेक के िसवाय संकट से कोई उदार नही कर सकता। वैरागय से,
शासत से अथवा महततव आिद गुणो से बडे पयत के साथ आपितयो को दूर करने के िलए सवयं ही मन को उनत
बनाये। तीनो भुवनो के ऐशयर से वह फल पापत नही हो सकता औऱ रतो से भरे हुए कोश से भी वह फल पापत नही हो
सकता, जो फल तुचछ िवषयो की अिनचछा दारा उतकषर को पापत हुए मन से पापत हो सकता है। इस जगत के मधय मे
अधोगित, ऊधवरगित और मनुषयलोक मे ही जनम परमपरा दारा भमणो से जो पुरष िगरते है, उनका मन सदा ही संतपत
रहता है, कभी िवशानत नही होता।।8-13।।
यिद कोई शंका करे िक सनताप के कारणभूत आधयाितमक, आिधदैिवक, आिधभौितक, रोग, वषा, धूप, चोर,
सपर आिद के रहते कैसे मन की एक मात शािनत से सब सनतापो की िनवृित हो सकती है ? इस पर कहते है।
मन के पूणर होने पर सारा जगत सुधारस से पूणर हो जाता है, िजसके पैर जूते से ढके हुए रहते है, उसके िलए
सारी भूिम चमडे से ढकी हुई है। भाव यह है िक आधयाितमक, आिधदैिवक और आिधभौितक भेद से तीनो पकार के
सनतापो की जड मनोदोष ही है। मन के िवशुद बहामृतरस से पूणर होने पर सारा जगत आननदपूणर ही पतीत होता है।
जैसे की मुलायम जूतो से िजसका पैर सुरिकत है, उसे कुश और काटो से भरी हुई सारी पृथवी भी मुलायम चमडे से
ढकी हुई ही पतीत होती है।।14।। हे शीरामचनदजी, मन वैरागय से पूणरता को पापत होता है, आशा के वश मे चलने
वाला मन पूणरता को पापत नही होता। जैसे शरतकाल से तालाब िरकतता को पापत होता है वैसे ही आशा से मन सूखे
हुए सागर के गतर के समान िरकत हो जाता है। िजन लोगो का मन आशा से िववश रहता है, उन लोगो का हृदय,
िजसने भीतर के गतर को पकट कर िदया है, अगसतय ऋिष से पीये गये सागर के समान शूनयता को पापत होता है।
भाव यह है िक जैसे समुद के िरकत हो जाने पर उसके गतर के पकट हो जाने से भीतर मगर, साप आिद सपषरप से
पकािशत हो रहे थे, वैसे ही मन के िरकत होने पर उसके गतर के पकट हो जाने से भीतर के लोभ, दैनय, आिद सभी
दोषो का पकाश हो जाता है। िजसके धमर, जान, वैरागय, शम, दम आिदरप पुषप, फल, पललव आिद से समृद िवशाल
िचतरपी वृक पर तृषणारपी चंचल वानरी नही घूमती, उस पुरष का मन, बुिद, अहंकार, िचत इन चार पकार के वृको
से भरा हुआ अनतःकरणरपी िवशाल वन खूब सुशोिभत होता है। िजनके िचत मे सपृहा नही है, उन लोगो के िलए
तैलोकय भी कमलगटे के कोश के समान अतयनत छोटा है, योजन समूह गोपद है और महाकलप आधा पलक है, भाव
यह िक अपिरिचछन बहसुख की दृिष से देश-काल से पिरिचछन आिधपतयवैभव भी अतयलप ही है। जो शीतलता
िनःसपृह लोगो के मन मे िवराजमान रहती है, वह शीतलता न चनदमा मे है, न िहमालय की गुफा मे है और न वह केले
और चनदन के वृको की शेणी मे है। िनःसपृह मन जैसे शोिभत होता है वैसे न पूणर चनदमा शोिभत होता है, न कीरसागर
शोिभत होता है और न लकमी का रमणीय मुख ही शोिभत होता है। जैसे मेघपंिकत चनदमा को मिलन कर देती है और
जैसे काजल का लेप चूने के लेप को दूिषत कर देता है, वैसे ही आशारपी िपशािचनी मनुषयो को मिलन कर देती है।
िचतरप वृक की आशानामक शाखाओं ने िदशाओं के तटो को वयापत कर रखा है, उनके कट जाने पर िचतरपी
महावृक बहरपता को पापत हो जाता है। तृषणारपी महाशाखाएँ िजसकी कट गई, ऐसे िचतरपी ठूँठ के रहने पर बढने
मे रकावट डालने वाले कुवृक के कट जाने के बाद उसके नीचे उगे हुए उस वृक के समान धैयर सैकडो शाखाओं वाला
हो जाता है। हे शीरामचनदजी, िचत के कीण होने पर बढे हुए वैरागय िजतेिनदयता, दनद सिहषणुता आिद धैयरवाला पुरष
उस परम पद को पापत होता है, जहा पर िफर नाश नही है। हे शीरामचनदजी, उतम आशयवाले आप यिद
िचतवृितरपी इन आशाओं को पुनः पनपने के िलए अवसर नही देगे, तो आपको जनम आिद का कोई भय नही है।
वृितरिहत आपका िचत भी अिचतता को पापत हुआ हो, तभी आप अपने अनदर मोकमयी उस पूणर सता को पापत होते
है।।15-26।। हे शीरामचनदजी, िचत मे पिवष हुई उललू-पकीरपी कुबध तृषणा से भीतर मे अमंगल खूब िवसतार
को पापत होते है। भाव यह िक जब कभी घर मे उललु का पवेश होता है, तो मरण, दिरदता, आिद अनेक अमंगल होते
है, ऐसा जयोितष आिद शासतो मे पिसद है। वह जब देह के अनदर िचत मे िनरनतर पिवष होकर सब वयवहारो मे कुबध
होकर िसथत हो, तब उससे सभी अमंगल खूब िवसतार को पापत होते है, इसमे कहना ही कया है ?।।27।।
यिद कोई शंका करे, एकमात आशा के तयाग से कैसे िचत की शािनत हो सकती है ? संकलप, सनदेह, धृित,
अधृित आिद अनय वृितयो से भी िचत का पनपना नही रोका जा सकता ? तो इस शंका का सब वृितयो की जड आशा
ही है, यह िदखलाते हुए पिरहार करते है।
समािध के समय बाह कारण रके रहते है, अतएव चाकुष आिद वृितया नही होती, इसिलए उस समय केवल
िचनतन ही िचत की वृित अविशष रहती है। यह िसदानत हम पहले कह आये है और िचनतन मे भी िचत आशा से ही
पवृत होता है, कयोिक आशा आिद िवषयो मे ही पुरषो का िचनतन देखा जाता है, इसिलए आशानामक िचतवृित का
तयागकर आप िनिशंतता को पापत होइये।।28।।
जाडा और उषणता का नाश होने पर अिगन के उपशम के समान वृित का नाश होने पर मन का उपशम िसद
होता है, ऐसा कहते है।
जो िजस वृित से जीिवत रहता है, उस वृित के सवरथा िनरोध से वह अपकय कम से नष हो जाता है।
इसिलए हे शीरामचनदजी, आप िचत के उपशम के िलए िचतवृित का नाश कीिजये।।29।।
पूवोकत अथर का ही संगह करके उपसंहार करते है।
हे महातमन्, आप पुत, धन, लोक आिद की समपूणर एषणाओं का तयाग कर आशानामक संसार बनधन को दूर
कर जीवनमुकत होइये, कयोिक मन मे िसथत कुितसत आशाएँ आतमा की हथकिडया है, उनके नष होने पर कौन मुकत
नही होगा यानी सभी मुकत हो जाते है।।30।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआ आआ आआआआआ
आआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ।
अब 'पदककोशं ितजगत' इतयािद से िववेक होने पर तैलोकय का ऐशयर भी अतयलप है, ऐसा जो पहले कहा
था, उसके उपपादन के िलए बिल का उपाखयान कहने की इचछा से भूिमका बाधते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुवशं रपी आकाश के पूणर चनद शीरामचनदजी, अथवा आप अकसमात िवचार के
उदय से बिल के समान िनमरल जान पापत कीिजये।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवन्, हे सब धमों के जाता गुरजी, आपके पसाद से मैने पाने के योगय सवातमक
बह को हृदय मे पापत कर िलया है और उसी िनमरल पद मे मैने िवशाम िकया है।।1,2।। हे िवभो, जैसे शरद् ऋतु
मे आकाश से िवशाल मेघ चला जाता है, वैसे ही मेरे िचत से तृषणा नामक वह महातम हट गया है। अमृत से पूिरत,
आकाश मे िसथत, शीतलसवरप, महाकािनतवाले सायंकाल मे पूणर चनदमा के समान मै अमृत से लबालब भरा हुआ,
िचदाकाश मे िसथत, सनतापशूनय िचतवाला, महाकािनत से युकत और अनतःकरण मे आननद से पूणर हो िसथत हूँ।
परनतु हे सब सनदेहरपी मेघो के िनवारण के िलए शरद् ऋतु के तुलय, मुिनवर आपके इन वचनो से मुझे तृिपत नही हो
रही है।।3-5।। हे िवभो, िफर आप मेरी जानवृिद के िलए बिल की बोधपािपत पकार को किहये। गुरजनो को िशषयो
को उपदेश देने मे कभी खेद नही होता।।6।।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुवर, मै आपसे बिल का उतम वृतानत कहँूगा, आप उसे सुिनये। िजसके शवण से
आप िनतय, तततवरप आतमसवरप बोध को पापत हो जायेगे। इस बहाणड मे िकसी िदगरप छोटे िनकु ंज मे भूिम के
नीचे िवदमान पाताल नाम से पिसद लोक है। कही पर वह कीरसागर मे उतपन हईु अतएव वहा उतपन अमृत के दव से
मानो िलपत अितसुनदरी दानव कनयाओं से ठसाठस भरा है। कही पर वह दो से लेकर दो हजार तक संखयावाली
िजहाओं से औरो की अपेका वयाकरण, छनदःशासत आिद का दुगुना वयाखयान करने से तेज शबदवाले अतएव चंचल
िजहा से युकत हजारो िसरवाले सापो से भरा है। कही पर अपने शरीररपी पवरत से सारे संसार को वयापत करने वाले
और धमर या यज के हिवषय को जबदरसती छीन कर खाने वाले दानवो से वह आचछान है, जो चल रहे मेर पवरत के
समान िवशालकाय है। कही पर िजनके मसतकरपी िशखर की चोिटयो पर भूमणडल का मधयभाग िवशानत है और जो
दातरपी वृको के पवरत के तुलय आशयभूत है, ऐसे िदगगजो ने उसको अपना िनवास सथान बनाया है।।7-12।।
कही पर बडे कट-कट शबदो से िजनमे भू-रािशया भयभीत है और जो दुगरनधरप से नारकीय जीवो के कमर
भािसत हो रहे है, ऐसे नरकमणडलो से सबसे नीचे वह वयापत है। कही पर नीचे के नरक-पदेश से लेकर ऊपर हम
लोगो के भूतल तक सात पुओं मे िपरोई गई लोह ही सीक के समान सात पातालो मे िपरोये गये रतो के आकाररप मेर
आिद पवरतो से वह वयापत है एवं कही पर िछदो की तरह अतयनत संकुिचत पाताल के अवयवो से वयापत है। कही पर
वह िजसकी चरणकमल की धूिल सुर और असुरो के मसतको पर सुपत की भाित िवशाम ले रही है, ऐसे ितलोकविनदत
भगवान किपलमुिन दारा पिवत बनाया गया है। कही पर असुर िसतयो से तैयार िकये गये िविवध उपकरणो से पूजा और
कीडा के अिभलाषी भगवान हाटकेशर से वह पािलत है। उस पाताल मे, जहा पर असुरो के बाहुसतमभो से महान
राजयभार धारण िकया जा रहा है, िवरोचन के पुत बिलनामक दानव राजा हएु । सब देवता, िवदाधर और नागो के साथ
रोदनयुकत देवराज इनद ने िजसके पैर दबाने की जबदरसती इचछा की।।13-18।।
उसकी ऐसी सामथयर कैसे हुई, ऐसी आशंका होने पर कहते है।
तैलोकयरपी रतो की कोश के समान अपने उदर मे रका करने वाले, सब जीवो के पालक, तीनो लोको का
पालन करने वाले इनद, मनु, शेषनाग आिद के आधारभूत भगवान शीहिर िजसके पालक थे। िजसका नाम सुनने से
ऐरावत के गणडसथल मयूर के शबद से सापो के हृदय िशराओं की तरह सूख जाते थे और भय से सवेदयुकत, हो जाते
थे। कुद आकृितवाले िजस बिल के पताप की दुःसह गमी से सातो महासागर शोष को पापत होकर पलयकाल की तरह
केवल गतर संखया से ही सात रहे, जलािद पवाह से सात नही रहे यानी सभी सूख गये। िजसके अशमेघ आिद शेष
यजो के धुएँ से उतपन हुई मेघपिकतया जलगहण के िलए समुद को घेरी हुई अतएव इस बहाणडरपी कोटर की कवच
बन गयी। िजसके ितरछे देखने से िजनके आधारभूत कुलाचल िवचिलत हो उठते थे, ऐसी सब िदशाएँ फलभार से
निमत हईु लताओं के समान झुकने लगती है। लीला से िजसने सब भुवनो के भूषणभूत इनद आिद पर भी िवजय पापत
की थी, ऐसे उस दैतयराज ने दस करोड वषर तक राजय िकया। तदननतर जल के भँवर के समान घूमने वाले बहुत से
युगो के बीतने पर, सुर असुरो के बडे भारी समूह के उनत और अवनत होने पर एवं तैलोकय मे अतयनत उतकृष बहुत
से भोगो के िनरनतर भोगे जाने पर दानव राजा बिल को िवषय भोग िवरस पतीत होने लगे। मेर पवरत के िशखर पर
रतिनिमरत घर के झरोखे पर बैठे हुए उसने एक बार संसार िसथित का सवयं िवचार िकया। अकुिणठत शिकत वाले मुझे
अब इस लोक मे िकतने समय तक यह सामाजय करना होगा और तीनो लोको मे िवहार करना होगा ? तीने लोको को
आशयर मे डालने वाले, पचुर भोगो से अतयनत मनोहर इस महान राषट के उपभोग से मेरा कया पयोजन है ? अिवचार
मात से मधुर लगने वाला और अवशय िवनष होने वाला यह समपूणर भोग मेरे िलए कया सुखावह होगा ?।।19-30।।
पुनः िदन की एकमात कलपना, पुनः राित की िसथित, िफर वे ही सनान, भोजन, शयन आिद कायर, अिभनव
कुछ भी कमर या सुख नही है, इसिलए उनमे लमपटता महापुरषो की लजजा के िलए ही है, न िक सनतोष के िलए है।
पुनः कानता का आिलंगन िकया जाता है, पुनः उपभोग िकया जाता है यहा पर यह बालको की कीडा महान पुरषो की
लजजा से िलए ही है। एक बार भोग करने से िवरस हुए उनही यह बालको की कीडा महान पुरषो की लजजा के िलए ही
है। एक बार भोग करने से िवरस हएु उनही वयापारो को पितिदन पुनः पुनः िकये गये कम के अनुकरण के समान िफर
कायर परमपराएँ , पाज पुरष की दृशय यह िवडमबना पुनः पुनः िकये गये कम के अनुकरण के समान उपहास की हेतु है,
ऐसा मै समझता हँू। जैसे जल िफर तरंगता को पापत कर िफर िनसतरंग हो जाता है वैसे ही यह जन उस-उस िकया
को पापत करता है यानी वयथर ही उन पूवरकृत िकयाओं का अनुकरण करता है। उनमत की चेषा की तरह यह पुनः
पुनः की जाने वाली िकया, जो बाललीला की तरह है, पाज पुरष को बार-बार हँसाती है यानी उसे देखकर पाज पुरष
बार-बार हँसता है। िनतय की गई भी इस िनषपयोजन िकया से कौन ऐसा पयोजन िसद होगा, िजसके पापत होने पर
िफर कमर नही रहता है यानी कृतकृतयता हो जाती है। अथवा िकतने समय तक यह बडा भारी आडमबर (दृष और
अदृष फल के िलए कमरसंघात) हमे करना पडेगा, उससे हमे कया पापत होगा ? वसतुतः वसतु शूनय ही यह अननत िशशु
कीडा दुःखपरमपरा चाहने वाले पुरषो दारा ही बार-बार की जाती है। िजसके पापत होने पर कोई भी अनय कायर कतरवय
नही रहता, वैसे महाउदार अिदतीय फल को (पुरषाथर को) यहा मै कुछ भी नही देखता। किणक, तुचछ िवषयसुख के
िसवाय दूसरा िनतय वह उतिम सुख कया है, ऐसा मै िवचार करता हँू, यह सोचकर राजा बिल शीघ धयानमगन हो
गये।।31-41।।
धयान से संसकार जागत होने के कारण राजा बिल पहले सवयं पूछे गये िपता के उपदेश की समृित को िवमशर
के साथ िदखलाते है।
समृत अथर का मन मे ही भौह चढाकर िवचार करते हएु दैतयराज कण भर मे बोले की मुझे समरण हो आया।
पाचीन समय मे आतमतततवजानी तथा लोक के िविवध वयवहारो को देख चुके अपने िपता भगवान िवरोचन से मैने पूछा
था।।42,43।।
हे महामते, संसार सीमा की अविध वह कौन कहा जाता है, जहा पर सब दुःखो और सुखो के समबनध के सब
भम शानत हो जाते है ? मन का मोह कहा पर शानत है, सब एषणाएँ कहा पर बीत चुकी है, तात, पुनरावृितरिहत
िचरिवशाम कहा पर है ? पुरष िकसको पापत होकर इस लोक से बहलोकपयरनत पापत होने वाले सब सुखो के िवषय मे
तृिपतमान हो जाता है। हे तात, िकसके दशरन करके िफर अनय फल की अिभलाषा नही रहती ? अतयनत पचुर भी ये
भोग सुखावह नही है, ये सनत पुरषो के मन को भी कुबध करते है और मोह मे डालते है। इसिलए हे तात, अिवनाशी
आननद से सुनदर कोई वैसा पद मुझसे किहये, जहा पर िसथत होकर मै िचरकाल तक िवशािनत को पापत होऊँ। पाचीन
काल मे चनदमा की िकरणो के साथ सौनदयर, अमृतरसपूणरता आिद गुणो की अिधकता होने के कारण सपधा करने वाले
फूल और फलो के गुचछो से िगर रहे फूलो और फलो के समूह से आचछन मूल पदेशवाले, सवगर से जबरदसती लाकर
अपने आंगन मे लगाये गये कलपवृक के नीचे बैठे हुए मेरे िपता िवरोचन ने पूवोकत पश को सुनकर उस कलपवृक के
पचुर रसायनरपी आसवो के तुलय मधुर जो वचन मेरे अजान के िनवारण के िलए कहा, उसका मुझे समरण हो
आया।।44-49।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बाईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआ आआआआआ।
िचतं वृितिवहीनं ते यदा यातमिचतताम्। तदा मोकमयीमनतः सतमापोिष ता तताम्।।
इससे मोक िचत जय के आधीन है, यह कहा। िचत जय का भी आतयािनतक आशा तयाग ही उपाय कहा गया
है। उकत आशा तयाग आतमदशरन के िबना नही हो सकता, कयोिक – िवषया िविनवतरनत िनहारसय देिहनः।
रसवजररं सोऽपयसय परं दृषटवा िववतरते।।
ऐसा भगवान का वचन है और आतमदशरन भी मन पर िवजय पाये िबना समपन नही हो सकता। इस पकार
अनयोनयाशयता को पापत हुआ यह आतमदशरन अशकय ही है, ऐसी आशंका को दूर करने के िलए दो साधनो के एक
साथ अभयास आिदरप उपाय को कहने के िलए बिल के उपाखयान के बीच मे राजमनती का उपाखयान िवरोचन के मुख
से पसतुत करते है।
हे पुत, अतयनत िवसतृत, िवशाल मधयभागवाला मोकनामक देश है, िजसमे अनको हजार तैलोकय समा सकते
है, जहा पर न जलाशय है, न समुद है, न पवरत है, न वन है, न तीथर हं, न निदया है, न तालाब है, न पृथवी है, न
आकाश है, न अनतिरक है, न वायु आिद है, न चनदमा औऱ सूयर है, न लोकपाल है, न देवता है, न दानव है, न भूत,
यक और राकस है, न झािडया है, न वन की िविवध शोभाएँ है, न सथावर और जंगमरप काठ, तृण और पाणी है, न
जल है, न अिगन है, न िदशाएँ है, न ऊधवरभाग है, न अधोभाग है, न लोक है, न आलोक है, न धूप है और न िवषणु,
इनद, िशव आिद है। वहा पर अकेला वही महातेजसवी राजा (आतमा) है। वह सवरकता, सवरवयापक और कूटसथ है।
उसने सब सनमनतणाओँ मे ततपर मनती का (मन का) संकलप िकया, वह आतमा की अतयनत असंभव संसािरता का भी
शीघ िनमाण करते है। आतमा की अतयनत उपपन पूणाननदैकरसता भी नही पतीत होती है, यो अपलाप करता है। सवयं
जड होता हुआ भी केवल राजा के िलए सब कुछ सदा करता है, वह कुछ भी भोग नही करता और कुछ भी नही जान
सकता। उस राजा के सब कायों का एकमात कता वही है, राजा तो केवल अिदतीय सवभाव मे सवसथ होकर ही
िसथत रहता है।।1-9।। बिल ने कहाः हे महामते, आिध-वयािध से रिहत वह देश कौन है, कैसे वह िमलता है और हे
पभो िकसको वह िमला है ? पूवोकत पकार का वह मनती कौन है और वह महाबली राजा कौन है, िजसे िक हम लोग भी
जीत न सके िजनहोने अनायास तीनो लोको को िछन-िभन कर डाला। हे देवताओं को भय देने वाले, िपताजी, यह
अपूवर आखयान मुझसे किहये और मेरे हृदयरपी आकाश मे से संशयरपी मेघ को दूर कीिजये।।10-12।।
िवरोचन ने कहाः हे पुत, यिद देवता और असुर िमलकर लाख गुने भी हो, तो भी वहा पर उस बलवान मनती
के ऊपर तिनक भी आकमण नही कर सकते।।13।। हे पुत, वह मनती न तो इनद है, न कुबेर है, न कोई देवता है
और न असुर है, जो िक तुमसे जीता जा सके।।14।।
कयो मेरे पास आयुध अथवा योदा नही है, जो मै उस पर िवजय पापत कर सकूँ ? ऐसा यिद बिल की ओर से
पश हो, तो उस पर भले ही तुमहारे पास आयुध और योदा हो, पर वह उनका िवषय नही हो सकता, ऐसा कहते है।
जैसे पतथर पर कमल का आघात कुिणठत हो जाता है, वैसे ही उस पर तलवार, मूसल, भाले, वज, गदा आिद
आयुध कुिणठत हो जाते है।।15।।
तुम उस पर कया िवजय पापत करोगे, बिलक उसी ने तुमहारे जैसे बहुत से लोगो पर िवजय पापत की है, ऐसा
कहते है।
वहा तक असत-शसतो की पहुँच नही है, योदाओं के पराकमपूणर कमों की भी वहा पहुँच नही है, बिलक उसी ने
सब देवता और असुर सदा ही अपने वशीभूत कर रखे है।।16।।
हमारे पूवरज आिद को भी उसी ने अपने वश मे कर िवषणु दारा मरवाया है, इस आशय से कहते है।
यदिप वह िवषणु नही है, तथािप उसने इस लोक मे िहरणयाक आिद असुरो को ऐसे िगराया, जैसे िक पलयकाल
का वायु मेरपवरत के कलपदुम को िगराता है।।17।। सबको िववेक का उपदेश देने वाले नारायण आिद देवताओं को
भी उसने भृगु आिद के शाप के िनिमत के उदघाटन दारा उन पर आकमण कर अपने इचछानुसार गभररपी गतों मे
पिवष कराया। केवल पाच बाणवाला कामदेव उसी के पसाद से इन तीनो लोको पर बडे आटोप के साथ आकमण कर
समाट के समान समृद हो रहा है।।18,19।।
कोध ने यदिप सुर और असुरो के समूह को सवतनत नही छोडा, उसमे कोई गुण भी नही है आकृित भी अचछी
नही है एवं बुिद भी उसकी अचछी नही है, िफर भी वह उस मनती के पसाद से समृद हो रहा है। हजारो देवता और
असुरो का जो बार-बार युद होता है, वह मनत जानने वाले उस मनती के बाएँ हाथ का खेल है।।20,21।। हे पुत,
उसी पभु दारा यिद वह मनती जीता जाता है, तो सुजेय होता है। अनयथा तो वह पवरत के समान अचल है। बहुत से
पुणयो के पिरपाक से िववेक के उदय के समय मे अपने उस मनती को जीतने की उसी पभु की यिद इचछा होती है, तो
यत के िबना उसके ऊपर िवजय पापत होती है। तीनो लोको मे िजतने बलवान है, उनहे अपने बल से जीतने वाले और
तीनो लोको को मर रहे जनतु के समान उचछवािसत कर देने वाले उसे जीतने की यिद तुम मे शिकत है, तो तुम िनिशत
पराकमशाली हो।।22-24।।
उसमे सबको जीतने की केवल शिकत ही नही है, िकनतु तैलोकय को उतपन करने की शिकत भी है, ऐसा
कहते है।
सूयर रपी उस मनती का उदय होने पर ये ितलोकरपी कमल-तालाब िवकास को पापत होते है और उसके
असत होने पर िवलीन हो जाते है। वयामोहरिहत एकाग बुिद से उसे इस पकार जीतने के िलए यिद तुम समथर हो तो हे
सुवरत, तुम धीर हो। उसके ऊपर िवजय पापत होने पर अिजत लोग भी िविजत हो जाते है। यिद उस पर िवजय पापत
न हुई, तो जो िचरकाल से िविजत है, वे लोग भी अिविजत ही है। इसिलए मृतयु पर िवजय पापत करने के िलए और
अकय सुख के िलए शम से होनेवाली सवरतयाग आिद चेषा दारा भी उस पर िवजय पाने के िलए यतवान होओ।
अितबलशाली उसने अनायास ही देवता, दानव, नाग और यको के समूहो से युकत तथा मनुषय, सपर और िकनरो सिहत
सारे तैलोकय को चारो ओर से अपने वश मे िकया है।।25-29।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तेईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआआ आआआआआआआ आआआ आआ आआआ आआ आआआआआ आआआआआआआ
आआ आआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ।
बिल ने कहाः हे तात, उस बलवान मनती पर िकस उपाय से िवजय पापत की जा सकती है तथा महाबलशाली
वह कौन है ? करके यह सब शीघ मुझसे किहये।
िवरोचन के कहाः हे पुत, यदिप वह मनती िनतय अजेय िसथितवाला है, तथािप उसको सुख से जीतने का
उपाय मै तुमसे कहता हूँ, िजससे उस पर िवजय पापत की जा सकती है, उसे तुम सुनो।।1,2।। हे पुत, युिकत से
पकडा गया वह एक कण मे वशीभूत हो जाता है। युिकत के िबना तो वह दुदानत साप के समान दाह उतपन करता है।
जो लोग बालक की नाई उसे थोडे से िवषय पदान और बार-बार िवषय दोष पखयापन दारा वंिचत कर राजयोगनामक
युिकत से वश मे करते है, वे उस राजा का साकातकार कर राजा के पद को पापत करते है। उस राजा का साकातकार
होने पर मनती वश मे होता है। उस मनती के वशीभूत होने पर राजा का साकातकार होता है। जब तक राजा का
साकातकार नही होता तब तक मनती पर िवजय पापत नही हो सकती, जब तक मनती पर िवजय पापत नही हईु , तब तक
राजा का साकातकार नही होता। राजा का साकातकार न होने पर वह दुष मनती अतयनत दुःख के िलए राग-देष आिद
पैदा करता है और मनती पर िवजय न होने पर वह राजा सवरथा अदृशयता को पापत हो जाता है। इसिलए अभयास से
राजदशरन और मनती पराजय इस दोनो का एक साथ आरमभ करना चािहए। पौरष पयतरप सुनदर अभयास से धीरे-
धीरे उकत दोनो का पयत से समपादन कर तुम उस शुभ मोकरप देश को पापत हो रहे हो। अभयास के सफल होने पर
यिद तुम उस देश को पापत होओगे, तो हे दैतयेनद, तुमहे िफर तिनक भी शोक नही रहेगा। िजन लोगो के सब आयास
शानत हो गये है िजनका आशय सदा के िलए पफुिललत हो उठा है और िजनके सब सनदेह शानत हो चुके है, ऐसे
साधुजन उस शुभ देश मे िनवास करते है।।3-11।।
अब गूढोिकत का िववरण करते है।
हे पुत कौन वह देश है, यह सब मै तुमसे पकट करता हूँ, सुनो समपूणर दुःखो का नाश करने वाला मोक ही मैने
देश नाम से तुमसे कहा है।।12।। हे महामते, वहा पर मनुषय आिद के आननद से लेकर िहरणयगभर के आननदपयरनत
समपूणर पदो का अितकमण करने वाले, वाणी और मन के अगोचर, भगवान आतमा ही राजा है। उनहोने सब पजाओं के
समिषभूत मन को अपना मनती बनाया। जैसे िमटी का िपणड घटरप से तथा धूम बादल के रप से सथूलता को पापत
होता है, वैसे ही यह िवश वासनातमक सूकमभाव से मन मे िसथत होकर ही सथूलता को पापत हुआ है। उस मनती के
िविजत होने पर सब जीतने के योगय पदाथर जीत िलये जाते है तथा सब पापत करने के योगय पदाथर पापत हो जाते है।
उसे अतयनत दुजरय जानना चािहए, वह युिकत से ही जीता जाता है।।13-15।।
बिल ने कहाः हे भगवन्, उस िचत की िवजय मे जो युिकत है, उसे आप सपष रप से किहये, िजससे िक मै
उस दारण मन को जीतूँगा।।16।।
िवरोचन ने कहाः हे पुत, सभी िवषयो के पित जो यह अतयनत असपृहा है, वही मन की िवजय िक िलए युिकत
है। यही परम मुिकत है, इसी के दारा महामदमत अपने मनरपी मत हसती का शीघ दमन िकया जाता है।।
17,18।। हे महामते, यह युिकत अतयनत दुषपापय है और सहज मे पापत होने वाली भी है। अगर इस का अभयास न
िकया जाय, तो अतयनत दुषपापय है। भलीभाित यिद अभयास िकया जाय, तो यह जैसे सेक से सीची गई लता चारो
ओर से सफुटता को पापत होती है।।20।। हे पुत, जैसे बोये िबना धान नही िमलते वैसे ही यिद िवरिकत का अभयास
न िकया जाय, तो भोगो मे लुबध पुरष िकतना ही इसे कयो न चाहे, पर यह नही िमलती, इसिलए इसको अभयास से
िसथर करो। संसाररपी गतर मे िनवास करने वाले ये जीव तब तक िविवध दुःखो मे भटकते है, जब तक िवषयो मे
वैरागय को पापत नही होते। जैसे अतयनत बलवािन देही भई गमन न करे तो अनय देश को पापत नही होता, वैसे ही
अभयास के िबना कोई भई जीव चाहे वह िकतना ही बलवान कयो न हो, िवषयो मे िवरिकत को पापत नही होता। इसिलए
िनरनतर पूवोकत जीवनमुिकत के हेतु भी धयेय वासना तयाग की अिभलाषा कर रहे देहधारी को अभयास से भोगो मे
िवरिकत ऐसे बढानी चािहए जैसे िक सेक आिद से लता बढाई जाती है। अकसमात (या एक साथ) सब िवषयो का तयाग
नही िकया जा सकता, िकनतु कम से एक-एक िवषय का िचरकाल तक तयाग कर पुनः कभी-कभी थोडा-थोडा सेवन
करता हुआ पुरष कम से वैरागय की दृढता होने पर सबका तयाग करे।।21-24।।
वैरागय की दृढता मे हषर, कोध, चंचलता आिद की पािपत का िनवारण करने वाली पौरष दृढता आवशयक है,
इस आशय से कहते है।
हे पुत, पुरषाथर के िसवाय हषर कोध से रिहत िकयाफल को पापत करने के िलए अनुकूल शुभ साधन यहा पर
पापत नही होता।।25।।
यिद कोई कहे दैव से ही उसकी पािपत कयो न हो जायेगी ? तो इस पर कहते है।
यदिप संसार मे लोग दैव कहते है, तथािप दैव कोई देहधारी वसतु नही है, िकनतु अवशय भािवतवयतानामक जो
िनयित पयुकत अपनी शुभाशुभ िकया है, वह मानुष दृिषवाले पुरषो से ही दैव कही जाती है, न िक िदवय शासतीय
दृिषवाले पुरषो से, अतः दैव भी पुरषपयत ही है, उससे िभन नही है।
शंका- पयत के िबना भी दैव से ही िकनही को हषर और कोध की शािनत िदखाई देती है, सो कैसे ?
समाधानः हषर और कोध के हेतुभूत कमर का कय होने पर जब जहा िजसका जो ही हषर और कोध के िवनाश
के िलए समपन हुआ, वही यहा दैव शबद से कहा जाता है। जैसे मृगतृषणाभम मरभूिम के तततवजान से जीता जाता है,
वैसे ही िनयितरप दैव वैरागय दृढता अभयास आिदरप पौरष से थोडे ही समय मे जीता जाता है।।26-29।।
यिद दैवनामक िनयित पौरषनामक िनयित से जीती जाती है, तो िनयित के फल मे िनयम न होने के कारण
अिनयम हो जायेगा। ऐसा यिद कहो, ते इषापित है, कयोक मन के संकलप से उतपन सब पदाथों मे यिद कोई बाधक
न हो, तो पमाणो से फलवता गृहीत है, अतः मनःसंकलपजनय पौरष फलवतता दारा सुखपद है, ऐसा ही िनयम माना
गया है, ऐसा कहते है।
िजस-िजस वसतु का जैसे संकलप िकया जाता है, वह वैसे ही पमाणो से फलवता के गृहीत होने पर पौरष से
फलवता के दारा सुखपद होता है।।30।। हमारे मत मे कता भी मन ही है, वह यहा पर िजस वसतु की जैसी
कलपना करता है, वह वैसे ही होती है। वह जैसे िनयित का संकलप करता है, वह वैसे ही होती है।।31।।
पूवोकत कथन का उपपादन करते है।
िचत सवभावतः िनयत फलवाले, अपवाद िवषयो मे अिनयत फलवाले वयावहािरक पदाथों को एवं अतयनत
अिनयत फलवाले पाितभािसक पदाथों का भी िनमाण करता है, इसिलए यह िचत िनयित का भी उपपादक है।।32।
इसिलए वसतु के पारमािथरक होने पर तिदषयक बोध मे िनयत फलता ही है। दैव के अथवा कमर के समान
िनयतफलता नही है, इस आशय से कहते है।
यह िचतरप जीव कभी (मोकािधकारी जनम मे) िनतय िनयत एक सवभाव वाले परमातमा मे पतयक् परमाथर
िवषयक साकातकार नामक िनिवरकलप समािध करता हुआ जैसे वायु आकाश मे सफुिरत होता है, वैसे ही इस जगतकोश
मे सफुिरत होता है यानी सवसवभाव मे पकािशत होता है।।33।। कभी (उतथानकाल मे) शासतरप िनयम से िविहत
वणाशमोिचत कमर करता हुआ, अजानी लोगो के बोधन के िलए, 'ये यािजक एवं सदाचार के पवतरक है', इतयािद रप से
लोक मे पखयात िनयितशबद से युकत वह जैसे पवरत का िशखर सवयं िनशल होता है हुआ भी वायु के वेग से वृको के
चंचल होने पर चंचल-सा और वृको के िसथर होने पर िसथर सा उिदत होता है, वैसे ही िनयित के अनुसार चंचल व
िसथर होता है।।34।। इसिलए जब तक मन है, तब तक न दैव है न िनयित है। मन के असत होने पर जो होता है,
वह वैसे ही रहे।।35।। पुरष कमर और जान के अिधकारी शरीर को पापत होकर पौरष से िजस पदाथर का जैसे
संकलप करता है, वह वैसे होता है, उससे िवपरीत नही होता।।36।।
संकलप के सवाधीन होने पर पौरष दारा वैरागय आिद साधनो का समपादन कर परम पुरषाथररप बहातमभाव
का ही संकलप करना चािहए, देहातमभाव का संकलप नही करना चािहए, इस अिभपाय से कहते है।
हे पुत, पुरषाथर के िसवाय यहा पर कुछ भी नही है, इसिलए पुरष परम पौरष का अवलमबन कर भोगो के
पित वैरागय करे। जब तक संसार का िवनाश करने वाली भोगो मे िवरिकत नही होती, तब तक िवजय देने वाली परम
िवशािनत पापत नही होती। जब तक मोह मे डालने वाली िवषयो मे रित रहती है, तब तक संसार दशारपी झूला चंचल
आनदोलनवाला रहता है। हे पुत अभयास के िबना भोगरपी सापो के समूहो से भरी हुई दुःखदाियनी दुराशा कभी िनवृत
नही होती।।37-40।।
बिल ने कहाः हे सब असुरो के अिधपित, िनतयातमभावरप िसथित देने वाली भोगो मे अरित ही जीव के
अनतःकरण मे कैसे िसथर होती है ?।।41।।
िवरोचन ने कहाः हे पुत मोकरप फलवाली आतम-साकातकार रप लता भोगो मे जीव की रित इस पकार
सपषरप से पैदा करती है, जैसे िक अंगूर आिद की महालता शरद् ऋतु मे कचचे फल पैदा करती है।।42।। जैसे
लकमी कमल के अंदर िनवास करती है, वैसे ही यह िवषयो मे उतम अरित आतम-साकातकार के हृदय मे िनवास करती
है।।43।। इसिलए पुरष पजारप मिण की कसौटी, अित उतम िवचार से परबह परमातमा का दशरन करे और साथ
ही साथ भोगो के पित अनुराग को हटावे।।44।।
िचत के पिरपाक के अनुसार भूिमका भेदो के कहने की इचछावाले िवरोचन पहली भूिमका कहते है। अवयुतपन
िचत के सनमागर के आरमभ मे िदन के दो भागो को एकमात देह के भोगोपायो से पूणर करे, एक भाग को शासत-शवण से
पूणर करे और एक भाग को गुर सेवा से पूणर करे।।45।।
पथम भूिमका पर िवजय पापत होने के अननतर उसके आगे की भूिमका कहते है।
कुछ वयुतपितयुकत िचत के सनमागर के आरमभ मे िदन के एक भाग को भोगो से पूणर करे, दो भागो को गुर
सेवा मे िबताये, कयोिक अिधक समय तक गुर िक सािनधय मे रहने पर समय-समय पर गुरओं से अपना सनदेह होने
पर पूछा जा सकता है और एक भाग को शासताथर के िचनतन मे िबताये।।46।।
िदतीय भूिमका पर िवजय पापत होने पर उसके आगे की भूिमका कहते है।
वयुतपित को (रततततव के समान िचरकाल की परीका से यथाथर िनशय को) पापत हुए िचत के सनमागर के
आरमभ मे िदन के दो भागो को शासत और वैरागय से और दो भागो को धयान और गुर-पूजा से पूणर करना चािहए।।
47।।
पूवोकत चारो पकार के कमो मे शुद िचत पुरष ही अिधकारी है, ऐसा कहते है।
साधुता को (शुदिचतता को) पापत हुआ पुरष ही जान कथा के आरमभ मे योगय है। िनमरल वसत ही उतम रंग
को गहण करता है, मिलन गहण नही करता।।48।।
थोडे मिलन िचत का जान कथा कम मे कैसे अिधकार है ? इस पर कहते है।
दुःख के अनवय-वयितरेक के पदशरन और पिवत शुित, समृित और गुर के वचनो से धीरे-धीरे िचत का लालन
करना चािहए। शासताथर मे िचत के िचरपिरशीलन दारा आँवले के मुरबबे के समान मधुरैकरसता के पिरणाम से िचत
का पालन करना चािहए। परम जान मे पिरणत हुआ िचत, िजसका बाह मिलन जडाकारगहण िशिथल हो गया हो वह
चादनी से युकत सफिटक के समान शीतल हो कर िवराजमान होता है।।49,50।। िजसमे भेद से िवषमतारप
कुिटलता नही रह गई, ऐसी सरल उतकृष पजा से वह इिनदय, िवषय और उनकी वृितयो के, उनके सवामी जीव के
और भोगायतन देह के समानरप से अिधषानभूत बह को शीघ देखे, जो सिचचदाननद अिदतीय एकरस है।।51।।
िवचार का फल तृषणा का आतयािनतक तयाग भी तभी होता है, इस आशय से कहते है।
हे पुत पजा दारा िवचार करने से आतमदशरन और तृषणा का तयाग इन दोनो को एक ही काल मे करे।।
52।।
िवचार का फल पुरष अपराधिनवृित और जान का फल मूल अिवदािनवृित पृथक िसद नही होते ऐसा कहते
है।
परमातमा का दशरन होने पर िनसपृहा होती है और िनसपृहता होने पर परमातम दशरन होता है। जैसे अिगन की
पभावसथा और दीपकारावसथा अनधकार और तेल इन दोनो की िनवितरका होकर परसपर एक काल मे िसथत है वैसे ही
ये दोनो दृिषया परसपर एक काल मे िसथत है। भोगो के समूह के रसरिहत होने पर और परमोतकृष परबहदेव का
दशरन होने पर कभी नष न होने वाली असीम िवशािनत पापत होती है।।53,54।।
िकनतु जो लोग भोगासवाद मे लमपट है, उनहे तो आतमाननद की पािपत नही होती, ऐसा कहते है।
िवषयो मे ही सारभूत आननद समझकर उनका आसवादन करने वाले जीवो को इस जगत मे कभी आतमशवण
के िबना असीम िनरितशयाननद पापत नही होता। यज, दान, तप और तीथर सेवन से अदृष दारा िवषय सुख ही होता है,
िकनतु सवातमा के अवलोकन के िबना तप से, दान से और तीथों से भी पाणी की िवषयो मे िवरित नही होती। हे पुत,
अपने पयत के िबना पुरष की बुिद िकसी भी युिकत से अपने कलयाण के िलए आतमावलोकन मे पवृत नही होती। हे
पुत, भोगो के तयाग से पापत हुए परमाथर के िबना परम बहपद िवशािनत सुख नही िमलता। जैसा सवातमरप से
अिभवयकत परमकारण परमातमा मे िवशाम िकया जाता है, वैसा िवशाम बहा से लेकर सतमबपयरनत इस जगत मे कही पर
भी नही िमलता। पौरष पयत का अवलमबन कर दैव का दूर से तयाग कर पाज पुरष मुिकत दार के मजबूत अगरल
सदृश भोगो की िननदा करे। भोगो की िनंदा के पौढ होने पर िवचार उतपन होता है। जैसे िक वषा ऋतु के धान आिद
की फसल से वृिद युकत होने पर धानो की फल समपित से सुशोिभत िनमरल शरतकाल उतपन होता है।।55-62।।
भोगो की िनंदा से िवचार उतपन होता है और िवचार से भोगो की िनंदा उतपन होती है, ये दोनो जैसे समुद िकरणो दारा
मेघो को भरता है और मेघ वृिष दारा समुद को भरते है वैसे ही परसपर एक दूसरे को पूणर करते है। भोग िनंदा, िवचार
और अिवनाशी आतमदशरन ये तीनो जैसे परसपर अतयनत पीितवाले िमत एक दूसरे के पयोजन को िसद करते है वैसे ही
परसपर एक दूसरे की वृिद करते है। पहले दैव का अनादर कर पौरष पयत से दातो से दातो को पीसकर भी भोगो मे
िवरिकत पापत करे।।63,64।। देश और आचार से अिवरद, बनधु-बनधवजनो से सममत पौरष से पहले कमशः
धनोपाजरन करे। धन से कुलीन गुणशाली सजजनो की आराधना कर उनहे वशीभूत करे, उनके सतसंग से भोगो मे
िवरिकत होती है।।65,66।। तदननतर िवचार होता है, िवचार के बाद िवचाररिहत वाकयाथर का जान होता है।
उसके बाद गित सामानय नयाय के आलोचन से सब शुितयो के अिदतीय बह मे तातपयर का िनणरय होता है। तदननतर
कम से परमपद पापत होता है।।67।। िवषयो का तयाग करने मे यिद इस समय असमथर हो, तो यौवन आिदकाल के
बीतने पर जब िवषयो से िवरत होओगे, तभी िवचारवश परम पद को पाओगे, इस समय नही। तब अतयनत पिवत आतमा
मे पूणर िवशािनत पापत करोगे, िफर दुःख के िलए कलपना रपी पंक मे नही िगरोगे।।68,69।। हे शुद तुमहारी
आसथा भोगो मे िसथत भी नही है, िजससे िक तुमहे अनय काल की पतीका करनी पडे। अतएव तुम सदािशव ही हो।
अतः बहभूत तुमको नमसकार है (यहा पर पुत दृिष से नमसकार अनुिचत है तथािप बह दृिष से उिचत है, यह
समझना चािहए।)।।70।।
पूवोकत अथर का संकेप कर उपसंहार करते है।
देश और आचार से अिवरद कम से धन का उपाजरन करो। उस धन से अतयनत तुचछ भोग की गहरणा दारा
यानी भोग के िलए धन वयय न कर बहवेताजनो को नमसकार से, अन-वसतदान आिद सममान दारा अपनी ओर आकृष
करो तदननतर सतसंगित से उतपन हुए िवषयो के अनादर से साधन चतुषय समपित से उतपन अधयातमशासत के
समयक् िवचार वैभव से तुमहे आतमलाभ कणठिसथत िवसमृत सुवणर के लाभ के समान होगा।।71।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौबीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ
आआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआआआआ आआआआआआआआ
। आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ

बिल ने कहाः सुनदर िवचार वाले मेर िपता ने यह पहले मुझसे कहा था। इस समय भागय से मुझे इसका
समरण हो गया है, इससे मै पबुद हो गया हूँ। आज मेरी भोगो के पित यह िवरिकत सपषरप से उतपन हो गई है। बडे
हषर की बात है िक मै अमृत के समान शीतल, िनमरल शािनतसुख मे पिवष हूँ।।1,2।। पुनः पुनः अपनी आशा को
पूणर कर रहा, पुनः पुनः धन बटोर रहा एवं पुनः पुनः िपया को पाथरना आिद दारा अपने अनुकूल कर रहा मै समपित के
पिरपालन के िवषय मे संतृपत हो गया हूँ। अहा, अतयनत शीतल यह शािनत भूिम बडी रमणीय है। शािनतगुण मे सभी
सुख-दुःख दृिषया नष हो जाती है। शािनत मे िसथत मै शािनत को पापत हो रहा हूँ, चनदिबमब मे रखे हुए की तरह मै
सनतापरिहत हो रहा हूँ। सुखपूवरक िसथत हूँ एवं मेरा अनतःकरण अतयनत हिषरत हो रहा है। िजसमे भोगो की उतकणठा
से इधर-उधर तेजी से नाच रहे मन के वेग से िवशाल शरीर जलाया जाता है और िजसमे िनरनतर कोभ भरा रहता है
वह धनोपाजरन, दुःखरप ही है।।3-6।।
अब धनोपाजरन के फलरप सती आिद का भोग भी असार है, ऐसा िवचार कर उनके िलए शोक करते है।
पहले मै सती के अंगो से अंग का, मास से मास का संमदरन कर जो पसन हुआ वह मेरा अजान िवलास ही
था। सब भावो के दृषानतभूत महावैभव मैने सवयं देखे, बेरोक-टोक राजयािद भोगो का भोग िकया, सब पािणयो को
अपने सामथयर से झुका िदया, िफर भी अिवनाशी सुख कया उतपन हुआ ? भाव यह िक अनािद संसार मे सभी का कभी
ऐसा वैभव रहा होगा और मेरी भी अनेको बार हजारो दुदरशाएँ हुई होगी और आगे भी हो सकती है, िफर यह वैभव कौन-
सा शोभन है ?।।7,8।।
नया चमतकार न िदखाई देने और चिवरतचवरण रप होने से भी ऐिहक और पारलौिकक भोगो मे सार नही है,
ऐसा कहते है।
सवगर मे, इस लोक मे अथवा अनय नागलोक आिद मे पुनः पुनः पूवानूभूत वे ही वसतुएँ इधर उधर िसथत है,
कुछ भी नया नही है। इसिलए सभी का पिरतयाग कर और बुिद से सवयं पिरहार कर पापत हुए सवरपबोध से पूणर की
तरह िसथत मै आतमा मे सवसथ होकर िसथत हूँ।।9,10।।
जो कुछ भोग अजािनयो की दृिष मे भी वह असार ही है, इस आशय से कहते है।
पाताल मे, भूतल मे, सवगर मे, िसतया, रत, मिणया आिद जो सार पदाथर है, उनहे भी तुचछ काल शीघ िनगल
जाता है। पहले इतने समय तक तुचछ जगत के आिधपतय की इचछा से देवताओं के साथ देष करता हुआ मै अतयनत
मूखर ही हुआ था। एकमात मन के िनमाणरप जगदािधपतयनामक इस महामानिसक दुःख का तयाग न करने से कौन
पुरषाथर है और महातमा का उनमे राग ही कया है ? भाव यह है िक अनुराग होने पर उसमे पुरषाथरता बुिद हो सकती है,
पर महातमा का उसमे अनुराग नही होता। कष की बात है, अजानरपी मद से मत अपने मृतयुभूत सवयं ही मैने बहुत
समय तक अनथर का पुरषाथर बुिद से सेवन िकया।।11-14।। अतयनत चंचल तृषणा वाले अजानी मैने इस ितजगत
मे इतने पशाताप की अिभवृिद के िलए कया नही िकया ?।।15।।
अथवा बीते हुए के िलए शोक करने से कया पयोजन है ?
अब मै वतरमान मोह िचिकतसा दारा पुरष जनम की सफलता के उपाय का िचनतन करँ, ऐसा कहते है।
इसिलए इस तुचछ अतीत की िचनता से मेरा कया पयोजन िसद हो सकता है ? वतरमान मोह के पतीकार से
पुरषजनम सफलता को पापत होता है।।16।। जैसे अपिरिचछन सवरप बह के साथ अभेद िसथित से आतमा मे चारो
ओर से पूणर सुख कीरसागर मे अमृतमंथन से रसायन के समान आिवभूरत होता है वैसे मै आज शुकाचायर जी से पूछता
हूँ।।17।। यह पपंच कया है ? अहंपतययवेद जीव तततव कया है ? इस आतमदशरन के उपाय को मै अजान की शािनत
के िलए अपने कुलगुर होने से कुल के ईशर शुकाचायर जी से पूछता हँू। मै योगिसद होने से सब अिभलाषाओं के
अिधपित, आिशत जनो पर सदा पसन रहने वाले शुकाचायर जी का िचनतन करता हूँ। उनके दारा वाणी से उपिदष
अननत वैभवशाली आतमा मे सवयं अपने से िसथत होऊँगा, कयोिक महातमाओं की उपदेशवािणया अकय वसतु को उतपन
करती हूँ, कभी भी िवफल नही होती।।18,19।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पचीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआ आआआ आआआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआ
आआआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआ आआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, बलवान बिल ने ऐसा सोचकर, आँखे बनद कर कमलनयन शुकाचायर
का धयान िकया िजनका बहाकाश ही िवशािनत सथान है। तदननतर िनतय धयान परायण शुकाचायर जी ने सबके
अनतयामी बहरप होने के कारण सबमे िसथत अपना िचनतन कर रहे अपने िचत मे िसथत िशषय बिल को अपने नगर
मे तततविजजासा से गुरदशरन के िलए इचछुक जाना।।1,2।। तदननतर भगवान शुकाचायर जी, जो सवरगत अननत
िचदातमा है, देहसिहत अपने को बिल के रतमय झरोखे के पित ले आये।।3।। बिल, िजनका शरीर गुर की देहपभा
से सुशोिभत था, जैसे पातःकाल मे सूयर की िकरणो से िवकिसत कमल उदबुद होता है, वैसे ही उठ खडे हुए।।4।।
वहा पर बिल ने रतमय अघयर के पदान से, मनदार वृक के फूलो की रािशयो से और पादािभवनदन से शुकाचायरजी की
पूजा की। बिल ने रतमय अघयर से पूणर शरीरवाले, मनदारपुषपो के िशरोभूषण से िवभूिषत और बहुमलू य आसन पर बैठे हुए
गुर से कहा।।5।।
हे भगवन्, जैसे सूयर की पभा सनधयावनदन आिद कायर करने के िलए लोगो को पेिरत करती है, वैसे ही आपकी
पसनता से उतपन हुई मेरी यह पितभा मुझे आपके सामने कहने के िलए पेिरत करती है।।6,7।। भगवन्, महामोह
देने वाले भोगो के पित मै िवरकत हूँ, जो अपने जानमात से महामोह का नाश करे, ऐसे तततव को जानना चाहता हूँ।
इस भोगजाल के उतकषर की अविध िकतनी बडी है, इसकी पकृित कया है, मै कया हूँ और ये भोगय लोक कया है ? यह
सब आप मुझसे शीघ कहने की कृपा कीिजये।।8,9।। शुकाचायर जी ने कहाः हे सवरदानवराजेनद, इस िवषय मे
बहुत कहने से कया लाभ है ? मै आकाश मे जाने के िलए ततपर हूँ, इसिलए संकेप से तुम सारभूततततव को सुनो। इस
जगत मे अनयिनरपेक िसिदवाला चैतनय ही है। चैतनय के अधीन िसिदवाले इन भोगो के उतकषर की िविध िचत् ही है,
कयोिक 'यतो वाचो िनवतरनते' इस शुित से पूणर चैतनय ही सब आननदो के उतकषर की अविधरप से कहा गया है। िचत्
मे ही वेदवैिचतय का अधयास होने से यह सब िचनमय ही है, कयोिक 'एतसयैवाननदसयानयािन भूतािन मातामुपजीविनत'
ऐसी शुित है एवं 'तततवमिस', 'अहं बहाऽिसम', 'एष बहैष इनदः', 'नाऽनयोऽतोऽिसतदषा' इतयािद सैकडो शुितयो से
भोकतृतव भी िचनमात ही है। इसी पकार भोगय समूहरप ये लोक भी परमाथरतः िचत् ही है, कयोिक 'बहैवेद ं िवशिमदं
विरषम्' ऐसी शुित है। यह िसदानत का संकेप से संगह है। यिद तुम शदालु और िववेकी हो, तो इस िनशय से तुम
सब कुछ पापत कर सकोगे। यिद शदालु और िववेकी नही हो, तो तुमसे बहुत कहा गया भी राख मे हवन के तुलय
िनषफल है।।10-12।। िचत् की जो चेतयाकार कलपना है, वही बनध है, उससे मुिकत मोक कहलाता है।
चेतयाकाररिहत िचत् पूणर आतमा है, यह सब िसदानतो का संगह है। ऐसा िनशय कर यिद तुम सवयं अखणडाकारवृित से
आतमा का अनायास दशरन कर सकोगे, तो तुम अननत पद को पापत होओगे।।13,14।। मै देवलोक मे जाता हूँ,
यही पर सपतिषर मुझे िमले थे, वहा पर िकसी देवकायर से मुझे जाना है।।15।।
यिद बिल की ओर से यह पश हो िक आप मुकत है, अतएव कृतकृतय है, यिद आप वहा पर न जाये, तो आपकी
कया कित है ? तो इस पर कहते है।
हे राजन्, जब तक यह शऱीर है, तब तक मुकतपुरषो को भी यथापापत िकया का तयाग सवभावतः अचछा नही
लगता।
तदननतर यह कह चुके शुकाचायर जी गहो से वयापत अतएव पुषप पराग से िलपत भँवरे के समान कबुरिरत
आकाश के मधय मे सपष मेघ और समुद के ऊपरी मागर से चंचल तरंग के समान बडे वेग से उडे।।16,17।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छबबीसवा सगर समापत्
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआ आआ आआआआआआ
आआआआआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, सुर और असुरो की गोषी मे अतयनत पशंसनीय शुकाचायरजी के चले
जाने पर बुिदमानो मे शेष बिल ने अपने मन से िवचार िकया िक भगवान शी शुकाचायर जी ने ठीक ही कहा। ये तीनो
जगत िचत् ही है, मै िचत् हूँ, ये लोक िचत् ही है, िदशाएँ िचत् ही है और यह िकया िचत् है। परमाथररप से बाहर भीतर
सवरत सब िचत् ही है, िचत् से अितिरकत यहा पर कही कुछ नही है। यह सूयर आिदतयरप से यिद िचत् दारा चेितत न
होता, तो सूयर और अनधकार का भेद कैसे उपलबध होता ? यह भूिम है, इस पकार यह भूिम िचत् से यिद पकािशत न
होती, तो भूिमका भूिमतव यानी जलािद से वयावृतरप जो केवल भूिम मे ही िनरढता को पापत है, कया होता ? यिद
िदशाएँ ये िदशाएँ है, यो िचत् दारा चेितत न होते, तो शैलो की शैलता कया होती ? यिद जगत यह जगत है, यो िचत्
दारा चेितत न होता, तो जगत की जगता (मूतरता) कया होती और आकाश की अमूतरता कया होती ? यह सथूल शरीर
िचत् से यिद चेितत न होता, तो पािणयो के शरीर की शरीरता कया होती ? इिनदया िचत् है, शरीर िचत् है, मन िचत् है,
मन की अिभलाषा िचत है, भीतर िचत् है, बाहर िचत है, असत् िचत् है, असत् से िवलकण सत् पदाथर िचत् है, सत्
और असतय पदाथर के समबनध से वयवहार की जगत सता िचत् है। मै भोगेचछापूवरक सब शबद आिद िवषयो के भोग
िचत् से ही करता हूँ, शरीर से कुछ नही करता, कयोिक अचेतन शरीर भोकता नही हो सकता।।1-10।।
जब मै शरीर से कुछ नही करता, तब शरीरािभमान वृथा ही है, इसिलए वह तयाजय ही है, ऐसा कहते है।
काठ और ढेले के समान इस जड शरीर से मेरा कया पयोजन है ? चेतनरप मे सकल जगदूप िचत् ही हूँ।
आकाश मे िचदूप मै हूँ, सूयािद के तेज मे िचदूप मै हूँ और अविशष तीनो भूतो मे भी िचदूप मै हूँ, सुर-असुरो मे और
सथावर जंगमो मे िचदूप मै हूँ। यहा पर केवल िचत् ही है, दूसरी कलपना ही नही है। लोक मे िदतव का संभव न होने से
कौन शतु है अथवा कौन िमत है ?।।11-13।।
देहािद दैत भले ही हो, तथािप उसकी कित से असंग, पूणर, िचनमातरप मेरी कोई कित नही है, ऐसा कहते है।
बिलनामधारी शरीर के पकाशमान िसर के कटने पर सब लोको को पूणर करने वाले चैतनय का कया कटा ?।
14।।
भले ही िचत् का ही िछन हो, तथािप छेद, छेदन आिद भाव और अभाव और तिदषयक राग, देष आिद भी,
िचत् के आधीन ही उनकी कलपना होने से िचत् से अितिरकत नही है, अतएव िचत् के पितकूल कुछ नही हुआ, ऐसा
कहते है।
िचत् से यह देष है यो संकेितत होने से देष, देष होता है, अनयथा देष नही होता, इसिलए देष आिद सब भाव
और अभाव चैतनयरप ही है। बहुत िवचार करके भी िचत् से पृथक इस िवशाल ितभुवन के मधय से कुछ भी वसतु
पापत नही होती है। अितशुद चेतनरप मुझमे न देष है, न अनुराग है, न मन है और न मन की वृितया ही है। ये हो भी
कैसे ? भला अितशुद िचनमात मे िवकलप कलपना कैसे हो सकती है ? सवरत जानने वाला, सवरवयापक, िनतय
आननदमयरप, िवकलप-कलपना से शूनय, दैत अंश से रिहत मै िचत् ही हूँ। नामरिहत िचत् काजो 'िचत्' यह नाम है,
वह नाम नही है, यह सवरत जाने वाली सब नामरप कलपना की अिधषानभूत िचत्-शिकत ही नाम शबद की तरह
सफुिरत हीत है।।15-19।।
इसी पकार 'कोऽहम्' (मै कौन हूँ) इस पश का उतर भी सवयं मुझे जात हो गया है, ऐसा कहते है।
मै दृशय-दशरन से रिहत केवल अिदतीय िनिवरकार सवरपवाला, िनतय उिदत, भािनतरिहत साकी परमेशर हूँ।
इस पकार के पकाशमात सवरपवाले मुझमे िनतय सवातमा के अवभास से शूनय जल अथवा केशो के अगभाग मे
पितिबिमबत चनदकला के सदृश सवकलपनारपी अपिरिचछन जीवभाव जो उिदत हुआ है, वह एकमात भािनत ही है,
वासतिवक नही है, इसिलए उस जीवभाव को मै चरम साकातकार वृित से पदीपत हुए सवरप से ही अिभभूत करता हूँ।
चेतय के समबनध से शूनय, िवमुकत महातमा पतयकचेतनरप सवरपभूत बह को नमसकार है।।20-22।।
अपना आतमा ही परमेशर है िजसने जीवभाव पर िवजय पापत कर ली, इसिलए उसे नमसकार करते है।
चेतय से रिहत िचदूप, साकातकार के योगय मनन-िनिदधयासनरप युिकत से युकत, सब पदाथों के पकाशन मे
दीपक पतयगरप बह को नमसकार है। मै िजसमे सब जातवय वसतुएँ शानत हो चुकी, चेतय से रिहत िचतरप, सवरत
िवश को पूणर करने वाला, सवरवयापक एकमात सिचचदाननदरप हँू। सवरत वयापत मै आकाश के समान अननत हँू और
अणु से भी अणु हूँ, इसिलए ये सब सुख-दुःख दशारपी दृिषया मुझे पापत नही कर सकती है।।23-25। वतरमान मे
असंवेद (चकु आिद वृितयो की वयावृित के िलए असंवेद कहा है) संवेदनरप और अचेतय (अतीत और अनागत के
िवषय मे समृित आिद वृितयो की वयावृित के िलए अचेतय कहा है) चेतनरप सवरवयापत मुझको ये जगत के भाव और
अभाव देशतः कालतः अथवा वसतुतः पिरिचछन नही कर सकते है, बिलक ये भाव और अभाव ही साकी से पिरचछेद है,
यह भाव है।।26।।
यिद किहये िक हम इयता (सीमा) मे सथापन को पिरचछेद नही कहते है, िकनतु तततवावधारण को पिरचछेद
कहते है, तततवजान के अनुकूल पमाण आिद जगत के भाव वासतव मे आतमा का उकत पिरचछेद करते ही है, इस पर
कहते है।
अथवा ये जगत के पदाथर मुझे पिरिचछन करे, इस पकार का पिरचछेद मुझे अिभमत ही है, िकनतु इतने से ये
मुझसे पृथक नही हो सकते। मदपू ही हो जाते है, यह भाव है।।27।।
इनसे पिरचछेद होने पर बाएँ हाथ मे रखे गये धन का दािहने हाथ से ले जाने , हरने अथवा लौटाकर देने से
दोनो हाथो से अिभन देहरप देवदत की जैसे धन कित नही होती है वैसे ही मेरी कोई कित नही है, ऐसा कहते है।
यिद अपने सवरपभूत वसतु से वसतु ले जाई जाती है, हरी जाती है अथवा वापस लेकर दी जाती है, तो
िकसका कया नष हुआ ?।।28।।
वसतुतः तततवबोध से पहले भी जगत मै ही था, इसिलए पहले भी न तो कुछ उतपन हुआ था और न िवनष
हुआ था, इस आशय से कहते है।
मै ही सदा सब कुछ सबका कता और सवरगत था। यह चेतय भी मै ही हूँ। नया कुछ भी उिदत नही हुआ।।
29।। मै एकमात यह िचत हँू, िचदूप मेरा संकलप और िवकलप से कया बढा और कया िवनष हुआ ? अपने अजान से
मै संकोभ को पापत होता हूँ और तततवजान से पिवत आतमा मे िवशािनत को पापत होता हूँ। ऐसा िवचार कर रहा परम
जानी दैतयराज बिल ओंकार से सथूल और सूकम के संकोभ एवं उनके हेतुभूत अजान से युकत चैतनय को बोिधत कर
रही अकार आिद तीन माताओं का तयाग कर तुरीय की आतमरप से भावना करता हुआ समािधसथ होकर िसथत रहा।
उस महान पद को पापत हएु बिल के सब संकलप िवलीन हो गये, सब कलपनाएँ नष हो गई, धयाता, धयेय और धयान से
रिहत होने के कारण उसने चेतय, िचनतक और िचनतन का तयाग कर िदया। वह िनमरल और वासनाशूनय हो गया,
इसिलए िनवात सथान मे रखे हएु दीपक की पभा के समान िनशल हो गया। शानत मनवाला राजा बिल उस रतिनिमरत
झरोखे पर पतथर पर गढी हुई मूितर के सदृश रहा। राजा बिल िजसने तीनो एषणाओं को शानत कर िदया अतएव पिरपूणर
तथा िवषयो के िचनतनरपी दोषदशा से शूनय इस िनमरल बहभावपािपतरप सता से ऐसे सुशोिभत हुआ जैसे मेघरिहत
शरत् कालीन आकाश िनमरलता से सुशोिभत होता है।।30-35।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सताईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआआआआआ आआआआआ आआआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआआआआआ
आआ आआआआआ
आआ आआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआ आआआ आआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, तदननतर बिल के अनुचर वे दानव लोग सफिटक के बने हुए बिल
के िनवासभूत ऊँचे राजमहल पर एक कण मे चढ गये। वे अनुचर थे – िडमब आिद धीर मनती, कुमुद आिद सामनत,
सुर आिद राजा, वृत आिद सेनापित, हयगीव आिद सैिनक, चाकाज आिद बानधव, लडुक आिद िमत, बललुक आिद
पीितकारी, कुबेर,यम, इनद आिद भेट देने वाले देवता, सेवा करने का अवसर चाहने वाले यक, िवदाधर और नाग, चँवर
डुलाने वाली रमभा, ितलोतमा आिद अपसराएँ , सागर, निदया, पवर, िदशाएँ , िविदशाएँ (िदशा और िविदशाओं के देवता
और उनमे अिधकारी रप से िनयुकत लोग) उस समय बिल की सेवा के िलए उस सथान पर आ पहुँचे। इनके
अितिरकत तैलोकय के मधय मे िनवास करने वाले बहुत से िसद भी आय। सबने , िजनकी मुकुटो की पंिकतया झुक रही
थी, बडे आदर के साथ बिल को, जो धयान और मौन से समािध मे बैठा था और िचत मे िलिखत िचत के समान िनशल
था, पणाम िकया।।1-7।।
राजा बिल का दशरन कर अवशय कतरवय पणाम आिद कर चुके वे महाअसुर बिल के पाणो का सनदेह होने से
िवषादवश गमभीर हुए, उसी पसनता और आननद देखने से िवसमत हुए, रोमाच आिद आननद के िचह न देखने से
आनिनदत और अपना रकक न देखने से भयभीत हुए। दानव मिनतयो ने यहा पर कया करना चािहए, यह िवचार कर
सब जाताओं मे शेष गुर शुकाचायर का समरण िकया।।8,9।। िचनतन के पशात दैतयो ने किलपत (▲) दैदीपयमान
भागरव का शरीर पापत हुए गनधवरनगर के समान देखा। असुरो दारा पूजे जा रहे और गुर के उचच आसन पर िसथत
शुकाचायर जी ने धयान से चुपचाप बैठे हुए दानवराज बिल को देखा। दानवो पर पेम करने वाले शीशुकाचायर जी ने कण
भर िवशाम करके धयान से देखकर िवचार करते हएु बिल को संसारभमरिहत (िजसका संसार रपी भम कीण हो गया
था) जाना। तदननतर पकािशत करने वाली अपने शरीर की सैकडो िकरणो से कीरसागर को भी नीचा िदखा रहे-से
गुर ने हँसते हुए सभा मे िसथत लोगो से यह वाकय कहा।।10-13।।
▲ शुकाचायर जी के दारा ही, जो सपतऋिषयो की सभा मे गये हुए थे, योग बल से बिल के महल मे पापत होने
के कारण उस शरीर की कलपना की गई थी, अतः उसे 'किलपत' कहा।
हे दैतय लोगो, िसद हुआ यह ऐशयरशाली बिल अपने िवचार से ही िवमल पद को पापत हुआ है। यह
िवशािनतसुख का अितशय है।।14।। हे दावनशेषो, इसिलए यह ऐसे ही समािध मे िसथत होकर िनरितशय
आननदरप आतमा मे िचरिसथित को पापत हो और िनिवरकार पद का साकातकार करे।।15।। िचरकाल से थका हुआ-
सा यह िचत भािनतरिहत होकर िवशाम को पापत होकर िवशाम को पापत हो रहा है। इसका संसाररपी कुहरा शानत हो
गया है। इससे आप लोग भाषण न कीिजये।।16।। जैसे पृथवी पर राित के अनधकार, िनदा आिद के शानत होने पर
िदन को सूयर का िकरणसमूह पापत होता है, वैसे ही अजानरपी संकट के दूर होने पर अपना ही पकाश इसको पापत
हुआ है।।17।। समय आने पर यह सवयं ही पबोध को ऐसे पापत होगा, जैसे की बीज के समपुट से 'मै अंकुर हूँ' इस
पबोध से सुपत मूतर अंकुर पबोध को पापत होता है।।18।। हे दानवनायको, आप सब लोग राजय-कायर करो, बिल
एक हजार वषर मे समािध से पबुद होगा।।9।।
गुर के ऐसा कहने पर जैसे वृक सूखी हुई मंजरी का तयाग करते है वैसे ही वहा पर दैतयो ने दपर, कोप और
दुःख से उतपन हुई िचनता का तयाग िकया। तदननतर पहले जैसी राजय की वयवसथा सथािपत कर रखी थी, उसी के
अनुसार बिल के राजयवयवहार कम को िसथर करके सब असुर अपने अपने वयापार मे िनरत हुए।।20,21।।
उस समय बाहर से आये हुए मनुषय नागािद ने कया िकया ? ऐसा पश होने पर कहते है।
मनुषय पृथवी को गये, नागराज आिद रसातल को गये, गह अनतिरक को गये, देववृनद सवगर को, कुलाचल आिद
पवरतो मे अिधकृत देवता और िदकपाल अपनी-अपनी िदशाओं को, ऋक, वानर आिद यूथपित िकिषकनधा आिद कनदराओं
को व गरड, संपाित, जटायु आिद आकाशचारी आकाश को गये।।22।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अटाईसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ
आआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआ आआआ आआ आआआआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, तदननतर पूरे एक हजार िदवय वषों के बाद असुरशेष महाऐशयरशाली बिल
देवताओं की दुनदुिभयो की तुमुल धविन से समािध से जागा। बिल के समािध से जागने पर उस समय वह बिल का नगर
बहाजी के िनवासभूत आकाश मे सूयर की िकरणो के उिदत होने पर जैसे कमल का तालाब िवकास शोभा से सुशोिभत
होता है वैसे ही सुशोिभत हुआ।।1,2।। जागते ही बिल ने जब तक दावन उसके िनकट नही आये तब तक समािध
भवन मे कण भर िवचार िकया।।3।। अहा ! यह पदवी बडी रमणीय, शीतल और पारमािथरक है। मै इस पदवी मे
एक कण () िसथत होकर िवशािनत को पापत हुआ हूँ।।4।। इसिलए इसी पदवी का अवलमबन करके मै िवशािनत
सुख को पापत करँ। बाह िवभूितयो के उपभोग से मेरा कया होगा ? यानी उनसे इस पकार का कुछ भी िवशािनत सुख
मुझे नही िमलेगा।।5।। समािध के पिरपाक से उतपन आननदरािश मेरे अनतःकरण को जैसे सनतुष कर रही है,
चनदमा के िबमबो मे आननद लहिरया भी वैसा सनतुष नही कर सकती।।6।। यो सोचकर िवषयो से वयावृत मन को
िफर भी िवशािनत सुख के िलए लगा रहे बिल को चारो ओर से दैतयो ने ऐसे घेर िलया जैसे चनदमणडल को मेघ घेर लेते
है।।7।। उनके पणामो से बिल की दृिष आकुल हो गई। कुलाचलो के तुलय िवशाल शरीरवाले दैतयो से िघरे हएु
उसने उनहे देखकर िफर यह िवचार िकया।।8।। चैतनयरप मेरा, िजसका िवकलप नष हो गया, कौन-सा पदाथर
उपादेय है ? उपादेय बुिद से ही बाह पदाथों को देखने पर मन उनकी ओर आकृष होने के कारण रािगतारप मल को
पापत होता है, केवल दशरनमात से नही।।9।।
यिद कोई शंका करे िक मोक की इचछा से समािध गहण मे ही आपका आगह हो, तो उस पर कहते है।
मै िकससे मोक की इचछा करता हूँ ? पहले मै बंधा ही िकससे हूँ ?
भाव यह िक जान से अजान और अजान के कायर का तैकािलक बाध होने पर बनध का दशरन ही नही है। बद
न होता हुआ भी मै मोक चाहता हूँ, यह मूखों की चेषा का अनुकरण नही तो और कया है ? न मेरा बनधन है, न मेरा
मोक है। मेरे अजान का िवनाश हो चुका। धयान करने से ही मेरा कया होगा अथवा धयान न करने से ही कया होगा।
10,11।।
धयान और अधयान की भािनत का तयाग करके पतयगरप आतमतततव अपने दषा सवभाव से ही बाहर
उदासीनता से देखता हुआ िजस वसतु के पित आता है, वह सफुिरत हो। उतने से ही अजो के तुलय देहािद
तादातमयाधयास से देहािद के वृिद और कय से होने वाले वृिद और कय मेरे नही हो सकते, िजससे अनथर हो।।12।।
मै न धयान की इचछा करता हूँ और न धयान के अभाव की इचछा करता हूँ। न भोगो की इचछा करता हूँ और न अभोग
की ही इचछा करता हँू, िकनतु सनताप रिहत होकर समरप से िसथत हँू।।13। न परमतततव की मुझे अिभलाषा है
और न जगत की िसथित की मुझे वाछा है। न तो धयान दशा से मेरा कोई पयोजन है और न धन-समपित से ही मेरा
कोई कायर है।।14। देह समबनध का अभाव होने से मै मरा भी नही हँू और पाण का समबनध न होने से मै जीिवत भी
नही हूँ। न मै मूतर हूँ, न अमूतर हूँ, और न मै सनमय हूँ। ये देह, लोक आिद मेरे नही है। अनय देह और अनय लोक
आिद भी मेरे नही है। पतयकचैतनयरप मुझको नमसकार है। मै महान हँू। यह जगत सामाजय मेरा हो, इसमे िसथत
होकर मै बैठा हूँ अथवा यहा पर जग सामाजय मेरा न हो, मै सनतापरिहत हो आतमा मे िसथत हूँ। धयानदृिष से मेरा कया
काम है ? राजय, वैभव-समपित से मेरा कया पयोजन है ? जो आता है, वह आये। न वह मै हँू और न वह मेरा है।।
15-17।। यिद इस समय कतरवयतव की आसथा से मेरा कुछ भी करणीय नही है, तो यह पसतुत राजयपालनरप कुछ
कमर मै िकसिलए न करँ ? जानवानो मे शेष पूणातमा बिल ने ऐसा िनणरय कर जैसे सूयर कमलो को देखता है वैसे ही
दैतयो को देखा। यथायोगय दृिषपात कर दैतयराज बिल ने जैसे वायु फूलो की सुगनध गहण करता है वैसे ही सब
दानवो के पणाम गहण िकये।।18-20।। तदननतर बिल ने वहा पर धयेय तयागमय मन से सभी राजकायर िकये।
बाहणो, देवताओं और गुरओं की पाद, अघयर आिद से उसने पूजा की एवं िमत, बनधु, सामनत और सजजनो का उनके
उिचत दान, समादर आिद दारा सममान िकया। नौकर-चाकर और याचको को धन से पिरपूणर िकया और भाित-भाित के
िवभवो के समपरण दारा ललनाओं को पसन िकया।।21-23।। राजा बिल देवता, असुर आिद सब पर शासनरप
राजय मे राजयाग आिद की अिभवृिद को पापत हुआ। तदननतर कभी उसकी अशमेघ यज करने की इचछा हुई। उसने
शुकाचायर आिद पधान पुरषो के साथ अशमेघ नामक महायज िकया िजसमे तीनो भुवनो के लोग तृपत िकये गये थे और
सब देवता तथा ऋिष पूजे गये थे।।24,25।। िसिद देने वाले भगवान शीहिर 'बिल संसारी िविवध भोगो का
अिभलाषी नही है, ऐसा िनणरय कर बिल की अिभलाषा की िसिद के िलए उस यज मे आये।।26।। एकमात भोग मे
आसकत होने के कारण कृपण अतएव शोचनीय तथा अवसथा मे जयेष इनद को जगदूपी जंगल का भाग देने के िलए
अपने मायाबल से तीन लोको को अपने पग से नाप रहे कायरकुशल शीहिर ने बिल को ठगकर जैसे कोई भूगभर मे बने
हुए पृथवी के अनदर िसथत घर मे बनदर को बाधे वैसे ही पाताल मे बिल को बाध िदया। अब भी जीवनमुकत शरीरवाला,
िनिवरकलप समािध मे बुिदरिहत और िनतय आतमिनष बिल पाताल मे पुनः इनदतवपािपत के हेतुभूत पारबध से युकत होकर
िसथत है।।27-29।। पातालरपी गतर मे िसथत जीवनमुकत गितवाला बिल आपित और समपित को समान रप से ही
देखता है। जैसे उदय और असत से रिहत िसथर िकरणवाला िचतिलिखत सूयरमणडल न तो असत को पापत होता है
और न उिदत होता है वैसे ही उसकी पजा भी सुख और दुःख मे न तो असत होती है और न उिदत होती है।।
30,31।।
जीवन मे आदर रखने वाले भोगलंपट पुरषो के िवभव और जनमो के हजारो बार आिवभाव और ितरोभाव
िचरकाल तक देखकर बिल का मन भोगो मे वैरागय को पापत हो गया। दस करोड वषर तक लगातार तीनो लोको का
शासन करके अनत मे वैरागय को पापत हुआ बिल का मन शानत हो गया। सुख और दुःखो के हजारो बार आगमन और
िवनाश सैकडो संपित और िवपितया बिल ने देखी। इसिलए कहा पर बिल आशासन को पापत हो यानी िकस िवषय मे
बिल को आशासन िमले। पिरपूणर िचतवाला बिल भोगो मे अिभलाषा का तयागकर िनतय आतमिनष होकर पाताल के
मधय मे यानी रसातल मे जब तक िवपित का कय नही होता, तब तक िसथत है।।32-35।।
हे शीरामचनदजी, िफर इस बिल को सारे जगत का इनदरप से बहुत वषों तक शासन करना होगा। बिल को
इनदपद की पािपत से न संतोष है और न अपने पद से चयुत होने का दुःख ही है। सब भावो मे सम तथा सदा ही
सनतुषिचत बिल पारबध से पापत वसतु का उपभोग करता हुआ आकाश के समान सवसथ है।।36-38।।
अब बिल के चिरत का उपसंहार कर शीरामचनदजी को उपदेश देते है।
हे शीरामचनदजी, बिल की यह जानपािपत मैने आपसे कही। इस दृिष का अवलमबन कर आप भी
जीवनमुिकतरप अभयुदयवाले होओ।।39।।
हे रघुवर, आप बिल के सदृश अपने िवचार से 'मै िनतय हँू' इस पकार के िनशय से पौरषपूवरक अदैत पद को
पापत कीिजये। दस करोड वषर तक लगातार तीनो लोको पर शासन कर अनत मे असुरशेष बिल भी वैरागय को पापत
हुआ।।40-41।।
हे शतुतापन, इसिलए अनत मे अवशय दुःखदायी सभी भोगो का तयागकर आप सतय आननदरप दुःखरिहत
परम पद को पापत होओ।।42।।
हे शीरामचनदजी, िविवध पकार की िवकृितयो की सृिष करने वाली इन दृशय दृिषयो को जैसे दूर से पवरत
िशलाएँ रमणीय मालूम पडती है वैसे रमणीयरप से नही जानना चािहए। पामर पुरषो के वयवहारो मे पवृत हएु इस लोक
और परलोक मे दौड रहे इस मन को बाधकर हृदयरपी कोठरी मे िसथर कीिजये।।43,44।।
यिद कोई शंका करे िक शतु और िमत मे समदृिष कैसे हो सकती है ? तो इस पर कहते है।
आिदतय के समान सबको पकािशत करने वाले चैतनयरप आप ही सारे जगत मे िसथत है ऐसी अवसथा मे शतु
की देह मे भी पकाशक आतमरप आप ही है, इसिलए वैषमयदृिष होने का कोई कारण नही है, कौन आपका शतु है और
कौन आपका आतमीय है ? कयो वृथा आप यह शतु है, यह िमत है ऐसी भूल करते है ?।।45।।
यिद शीरामचनदजी को शंका हो िक मै जीव हँू, मेरी ईशरातम समदृिष कैसे हो सकती है, तो इस पर कहते
है।
हे महाबाहो, आप अननत है, आिदपुरषोतम भी आप ही है, अननत पदाथों के आकार से चैतनयरप आप ही वृिद
को पापत हुए है।।46।। जैसे सूत मे मिणया िपरोई जाती है वैसे ही सदा पकाशमान शुद-बुद-जानरप आप मे यह
सारा चराचर जगत िपरोया हुआ है।।47।।
कालकृत वैषमय भी आप मे नही है, यह कहते है।
अज, पुरषिवराटरप आप शुद चैतनय ही है। न तो आप उतपन होते है और न मरते है। आपको जनममरण
भािनतया न हो।।48।। तृषणा बढने पर जनम आिद रोगो की पबलता और तृषणा के कम होने पर जनम आिद रोगो की
दुबरलता होती है, इस बात को अनवय-वयितरेक से जानकर भोगो की तृषणा का तयागकर आप एकमात भोग साकी ही
होइये।।49।।
आपके चैतनय बल से ही यह जगत िसद है, ऐसा कहते है।
िचदािदतयरप सदा पकाशमान जगत के अिधपित आपके िसथत होने पर ही यह संसाररपी सवप आभािसत
होता है।।50।। आप वयथर िवषाद मत करो, आपको सुख और दुःख की अिभलाषा नही है, आप शुदिचत, सबके
आतमा और सब वसतुओं के पकाशक है।।51।।
यिद आप अशुद िचत ही है, तो उसकी िसिद के िलए कम से उपाय सुिनये ऐसा कहते है।
जो-जो वसतु मन को िपय है वह अनथर साधन है और जो तप, कलेश, इिनदय संयम, पाणायाम आिद मन को
अिपय है, वे सब मेरे िलए आवशयक है, ऐसी कलपना कर सपतम भूिमका-का पिरपाक होने तक उसके अभयास से मन
के ऊपर िवजय होने पर उस कलपना का भी तदननतर तयाग कीिजये।।52।। इष और अिनषदृिष का तयाग करने
पर अकय समता उतपन होती है। अभयास से हृदय मे िसथर हईु समता से िफर पाणी उतपन नही होता।।53।।
बालक की नाई िजन-िजन पदेशो मे मन िनमगन होता है उन-उन पदेशो से लौटाकर मन को अिधषान िचनमात
मे लगाये भगवान ने भी कहा हैः यतो यतो िनशरित मनशंचलमिसथरम्। ततसततो िनयमयैतदातमनयेव वशं नयेत।। इस
पकार अभयास को पापत हुए मनरपी मत हाथी को सब पयतो से बाधकर परम कलयाण पापत होता है।।54,55।।
जो लोग शरीर को ही परमाथर जानते है, िमथयादृिष से िजनका हृदय दूिषत है और जो भोग संकलपो के अधीन है, ऐसे
धूतर मूखर पुरषो की समता को आप पापत न होइये।।56।।
जो लोग पराधीन बुिद है, सवयं िवचार नही कर सकते, उनका अजान ही महाअनथर है, ऐसा कहते है।
आतमतततव के िनणरय मे िववेक वैरागय आिद उपायो से दिरद, पर वंचक मूखों के कथन पर अवलिमबत अजान
से बढकर इस लोक मे अिधक दुःखदायी और कोई नही है।।57।। हे महामते, आप हृदयरपी आकाश मे उिदत हुए
इस अिवववेकरपी मेघ को िववेकरपी वायु से शीघ दूर कीिजये। जब तक सवयं शवण, वैरागय आिद पुरष पयत से
आतमसाकातकार मे यत नही िकया जाता, तब तक िवचोरोदय नही होता।।58।।
वैरागय, िवचार, शवण आिद के रहते हुए भी बिहमुरख दृिषवाले पुरषो को जान नही होता, इसिलए आनतरदृिष
भी आवशयक है, इस आशय से कहते है।
जब तक पतयक तततव का दशरन नही होता तब तक वेद-वेदानत शासतो के अथर और तकों की दृिषयो से भी
यह आतमा पकट नही होती।।60।।
यिद कोई कहे तब तो एकमात पतयकतततवदृिष ही जान के िलए पयापत हो, गुर के उपदेश का कया पयोजन
है ? इस शंका पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, आतमा मे अपने से ही िसथत हुए आप िवसतृत बोध को पापत हएु है मेरा उपदेश होने पर
आपको बोध हुआ है।।61।। िवकलप के अंश से रहित चैतनयरप सूयर परमातमा की यह िवसतृत वयािपत (देशतः
कालतः और वसतुतः अपिरिचछनता) मेरे उपदेश से ही आपको गृहीत हईु है। आपके सब संकलप नष हो गये है,
सनदेह भम शानत हो गये है, कौतुकरपी तुषार हट गया है, आप सनतापशूनय हो गये है।।62,63।। हे मननशील,
शीरामचनदजी, जब आप आतमतततव के आवरण और िवकेप से रिहत होगे तब आप जो पापत ही है ऐसे जान और जान के
साधन (िवचार, गुर शासतोपदेश आिद का) मोक के िलए जो सवीकार करते है, जो िववेक वैरागय आिद की यत से रका
करते है, जो आलसय, पमाद आिद दोषो पर यत से िवजय पापत करते है, जो समािध सुखरपी अमृत को पीते है, जो
उतरोतर भूिमका मे आरढ होने से आशयर करते है और जो सपतम भूिमका मे िवशािनत से पूवर-पूवर अवसथा से अिधक
सुख के उतकषर से अभयुदय को पापत होते है, वह सब आपको न हो, िकनतु बहसवरप ही आप िसथत रहे।।64।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ, आआआआआआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआ
आआआआआआ आआ आआ आआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआ
। आआआआआआआ
इस पकार केवल काकतालीय नयाय से पवृत हुए तथा शासत और आचायर के उपदेश से पिरपुष अपने िवचार
से जानोदय के पकार का वणरन करने के िलए पहादोपाखयान कहने की इचछावाले शीविसषजी उसके सुनने मे
रामचनदजी को सावधान करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जान की िनिवरघ पािपत मे इस उतम पकार को आप सुिनये। जैसेिक
दैतयराज पहाद अपने -आप िसद हो गया।।1।। नारायण के समान पाताल मे पराकमी िहरणयकिशपु नाम का दैतय
था। उसने अपने पराकम से देवता और असुरो को परािजत कर िदया था।।2।। जैसे राित मे भमर के िनवासभूत
और पातःकाल मे फूलने से िवकिसत पतवाले कमल को राजहंस भमर से छीनकर ले लेता है वैसे ही उसने तीनो भुवनो
पर आकमण कर इनद से तीनो लोको का ऐशयर छीन िलया।।3।। जैसे हाथी हंसो को हटाकर कमिलनी मे भमरो का
राजय करता है वैसे ही उसने देवता और असुरो के अिधपितयो पर िवजय पापत कर तीनो लोको का राजय िकया।
तदुपरानत तीनो भुवनो पर शासन कर रहे उस दैतयराज ने समय आने पर जैसे वसनत ऋतु बहुत से अंकुर उतपन
करती है वैसे ही बहुत से पुत उतपन िकये।।4,5।। जैसे तेज मे बढी-चढी और अवसथा मे नयी, आकाश मे फैलने
से शोिभत होने वाली सूयर की हजार िकरणे शीघ वृिद को पापत हो जाती है वैसे ही तेज मे बढे-चढे अवसथा से बालक
से सवगर मे आकमण करने से शोिभत होने वाले वे शीघ ही युवा हो गये।।6।। जैसे बहुमूलय मिणयो मे कौसतुभ मिण
पधान है वैसे ही उनके बीच मे पहाद नाम का पुत पधान हुआ।।7।। जैसे सब पकार की सुनदरता से युकत बसनत
से वषर सुशोिभत होता है वैसे ही उस पुत से िहरणयकिशपु अतयनत सुशोिभत हुआ।।8।। तदननतर पुतो की
सहायता, सेना और धनसमपित से युकत वह दैतय साठ वषर के हाथी के समान मदोनमत हुआ।।9।। जैसे पलय के
बारह सूयर बढ रहे ताप से और अपनी पखर िकरणो से तीनो जगतो को सनतपत करते है वैसे ही िदन-पर-िदन बढ रही
आकमणजिनत पीडा और करगहणजिनत िनतय नई-नई संपित से उसने तीनो जगतो की सनतपत िकया।।10।।
जैसे दुलार से िबगडे हुए बालक के मयादा के उललंघन से बनधु-बानधव दुःखी होते है वैसे ही उसके आकमणजिनत
सनताप से सूयर, चनद आिद देवता िखन हुए।।11।।
तदननतर उनहोने दैतयराजरपी गजराज के वध के िलए बहाजी से पाथरना की। ठीक ही है, बार बार िकिय
गये अपराध को महापुरष भी सहन नही कर सकते।।12।। तदननतर भगवान हिर ने नरिसंह शरीर धारणकर जैसे
हाथी घोडे को कटकट शबद के साथ काट डालता है वैसे ही उसे िवदीणर कर िदया। वह नरिसहं शरीर पलयकाल मे
ढह रहे जगत के समान घघरर शबद कर रहा था, उसमे िदगगजो के दातो के सदृश नख वज आिद के तुलय बढे थे,
उसकी दनत पंिकतया िसथर िवदुतलता के तुलय चमकीली थी, दस िदशारपी कोटरो मे घूम रही जलती अिगनया ही
उसके कुणडल थे, उसका उदर सब कुलाचलो की िपणडाकार िसथित के समान भीषण था, उसके बाहूरपी वृको के
िहलने -डुलने से उठा हुआ बहाणडरपी खपपर िवदीणर हो रहा था, मुख दारा पेट से िनकले हएु उसके शास वायुओं से
पवरत एक सथान से दूसरे सथान पर हटाये गये थे, तीनो जगतो को जलाने के िलए ततपर कोपरपी पलयािगन से वह
अतयनत गवीला था, अयाल से भयंकर िवशाल कनधो के कमप से उसने सूयर को िवचिलत कर िदया था, उसके
रोमकूपो मे दैदीपयमान अिगनरािश से पवरत िपघल गये थे, उसमे उखाडे गये कुलाचलो से बडी भारी दीवार की रचना मे
मानो िदकतट उदत थे और उसके सब अवयवो से पिटश, पास, तोमर आिद िविवध आयुध उतपन हुए थे।।13-
19।। जैसे सब पािणयो के पलय के अनत मे अिगन समपूणर जगतो को जला डालती है वैसे ही इस पकार के नरिसंह
शरीर को धारण िकये हुए भगवान ने िनकल रही नेतअिगनयो से असुरो के नगर मे रहने वाले सब जीवो और सब सामगी
को जला िदया।।20।। पलयकाल के संवतर नामक मेघो के गजरन से वयाकुल जलपलय के समान मेघ गजरन के
तुलय घनघोर ठोकने से उस नृिसंहरपी वायु के अतयनत कोभ को पापत होने पर िदशाओं मे जल रहे मचछरो के समान
दानवो के झुणड के झुणड भाग गये और कािनतवाले दीपको के समान अदृशय हो गये।
तदननतर पाताल, जहा से दैतयनामक भाग गये थे और सब अनतःपुर जल गये थे, पलय मे बरबाद हुए जगत
के तुलय हो गया। अकाल के पलय के तुलय भीषण युद मे िहरणयकिशपु को मारकर सवसथ हुए देवताओं दारा बडे
आदर के साथ पूिजत भगवान नृिसंह के धीरे-धीरे वाणी के अगोचर अपने पद को जाने पर मरने से बचे हुए दानव पहाद
के संरकण मे जैसे पकी सूखे तालाब मे जाते है वैसे ही अपने उस जले हुए देश मे गये। वहा पर आतमीय बनधु-बानधवो
का नाश पयुकत समयोिचत िवलाप कर मरे हएु बनधुओं का उनहोने औधवरदैिहक सतकार िकया। िजनके बनधु-बानधव मारे
जा चुके थे और अिधकाश बनधु-बानधव जीते जी जलाये गये थे, ऐसे मरने से बचे हुए आतमीयजनो को उनहोने धीरे-धीरे
आशासन िदया। िचनतावश िनशेष अतएव िचतिलिखत के तुलय दुःिखत आकृितवाले दीन-मिलन िचत अतएव तुषार से
नष-भष िकये गये कमलो के सदृश शोक सनतपत अनतःकरण वाले वे पहाद आिद असुरनायक, िजनके शाखा, पते
आिद जल गये हो, ऐसे वृको के समान िनशेष हो गये। (ठुंठ वृको का वायु से न िहलना पिसद ही है।)।21-28।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ, आआआआआआआआ आआ आआआआआआ
आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ । आआआआआआआ आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, तदननतर पातालगतर मे, जहा दानवो का िवनाश िकया गया था वहा
दुःखसनतपत अतएव मौनी पहाद ने िवचार िकया। हमारा कौन सहायक हो ? समपितरपी पललवो को उतपन करने मे
समथर जो भी असुररपी वृक का अंकुररप तेजसवी यहा पर पैदा होता है, उसी को शीहिर रपी बनदर खा डालता है।
जैसे िहमालय मे िवकिसत कमल कभी िसथर नही होते वैसे ही पाताल मे वजदणडशाली बलवान दैतय कभी भी अंकुिरत
होकर िसथर नही हुए। समुद की तरंगो के समान पखर आकृित और गजरनवाले सब दैतय उतपन हो होकर िवलीन हो
जाते है, उनका तिनक िवकिसत कायर नष कर िदया जाता है।।1-4।। बडा खेद है, बाहरी और भीतरी सब
समपितरपी पकाशो को हरने वाले अदभुत अनधकार के तुलय हमारे शतु हमारे शतु उनित के िशखर पर पहुँच चुके
है।।5।। हमारे िमतरपी अधरराित के कमल तडाग, िजनके हृदय अनधकार से पूणर है, और िजनकी पंखुडीरपी
संपित िदन-पर-िदन संकुिचत हो रही है, कैद को पापत हो रहे है। जो पणाम के समय मेरे िपताजी के चरण-कमल का
सपशर करते थे देष से कलुिषत देवताओं ने, हमारा देश ऐसे आकानत कर िदया है जैसे िसंह मृग के वन को आकानत
करे। जो अपना हृदयवती महादुःख सबके आगे कहते िफरते है उदमरिहत, कािनतहीन तथा दीनहीन हमारे बानधव,
गीषम ऋतु मे िजनकी पंखुिडया झुलस चुकी हो ऐसे कमलो के समान शोिभत नही होते है।।6-8।। आजकल
शूरवीर असुरो के घरो मे िनरनतर बहने वाले उतपात वायुओं से उडाये जा रहे भसमरप कुहरे पहले की धूप की घूमरािश
के समान पतीत हो रहे है। िजनके चौखट और िकवाड देवता हर ले गये है ऐसी दैतयो के अनतःपुर की दीवारो पर,
समृिदकाल की मरकतपभा के समान इस समय जौ के अंकुर उगे है। जो दानव पहले सुमेररपी कमिलनी के मदरन मे
मदोनमत हाथी के सदृश थे, वे भी आज देवताओं के सदृश दीनता को पापत हुए है। अहो, भागय के िलये कया असाधय
है ?।।9-11।। जैसे गाव मे गई हुई भयभीत मृिगया तिनक पते के फडकने पर भी डरती है वैसे ही दैतयो की
िसतया, िजनको शतुभय का अनुभव हो चुका है, तिनक पतो के फडकने पर भी डरती है। असुर नािरयो के कणरफूल
बनाने के िलए लगाये गये रतो के गुचछेवाले फूले हुए िदवय वृक नरिसंह के हाथो से तहस-नहस होकर ठुंठ बन गये
है।।12,13।। देवताओं ने उस ननदनवन मे िदवयवसतो से युकत लता और पते वाले रतो के गुचछो से लदे हुए
कलपवृक िफर से लगा िलये है।।14।। पहले असुरो ने देवताओं की बनदी नािरयो के सुनदर मुख पशंसा के साथ
देखे थे, लेिकन अब असुरो की बनदी नािरयो के मुख देवताओं दारा देखे जाते है।।15।।
मालूम पडता है, देवताओं की ऐरावत आिद हािथयो के गणडसथल मे बह रही मदधारारपी महानिदया शैल
िशखरो पर बह रही निदयो के समान हो जायेगी।।16।। मद के दाह से उतपन हुई राख हमारे हािथयो के सूखे हुए
गणडसथलो मे सूखे हुए मरसथलो की धूिल के समान पतीत होती है।।17।। फूले हुए सफेद मनदार के परागयुकत
मकरनदो से रंगे हुए वायु िजनका अंगसपशर करते थे, अतएव जो मारे हषर के मेरिशखरो के तुलय थे, वे दैतय दुलरभ हो
गये है।।18।। पहले दानवो के अनतःपुर मे अभयसत (िचरकाल तक िनवास कर चुकी) देवता और गनधवों की
सुनदिरया आज वृक पर मंजिरयो के समान मेर पर िनवास करती है।।19।। बडे खेद की बात है, मेरे िपता जी की
पटरािनयो के सूखे हुए कमलो की तरह नीरस िवलासो की अपसराएँ नृतयो मे अनुकरण दारा भतसरना करती है।।
20।। पहले जो चँवर मेरे िपता पर डुलाये गये थे, बडे खेद की बात है, वे ही आज सवगर मे इनद पर डुलाये जाते है।
िजनका पराकम समरण भी दुःखदायी है, ऐसे उन एकमात भगवान शीहिर के पसाद से हम जैसे महापतापशाली लोगो
को भी ये आपितया पापत है। जैसे िहमालय के िशखर कभी सनतपत नही होते वैसे ही उन िवषणु भगवान की बाहुओं की
िनिबड छाया मे िवशानत देवताओं को कभी सनताप पापत नही होता।
जैसे पवरत या वृक की चोटी पर बैठे हुए बनदर बलवान कुतो को भी तंग करते है, वैसे ही भगवािन िवषणु के
पराकमरपी पवरत या वृक की चोटी के अवलमबन से समृद हुए देवता लोग हम बलवानो को भी पाताल मे ढकेल रहे
है।।21-24।। भगवान के मुखभूत कमल पर िहम के समान आँसू सदा बने रहते है।।25।। जगदूपी जीणर-शीणर
मकान की जीणर-शीणर, टू टी-फूटी दीवारे िगर रही है, उसे नीलमिण के सतमभरप भगवान की भुजाओं दारा समहाला
जाता है।।26।। जैसे कीर सागर के मधय मे डू बे हुए मनदराचल के धारणकता कचछप भगवान है वैसे ही िवपितरप
सागर मे डू ब रही देवसेना के वह भगवान ही धारणकता है। उनहोने ये मेरे िपता आिद सब असुरशेष को ऐसे िगरा डाले
जासे िक कुबध हुआ पलयकाल का वायु कुलाचलो को िगराता है। केवल एक उनही भुजारप अिगन हम लोगो का संहार
करने मे समथर है देवताओं के गुर शीमान मधुसूदन हम लोगो के दारा आकानत नही हो सकते। दैतयो के बाहुदणड के
िलए कुठारभूत उन शीहिर भगवान के पराकम से पराकमशाली होकर इनद जैसे बनदर बालको को छेडता है वैसे ही
दैतयो को छेड रहा है। यिद भगवान शसतासत का तयाग कर दे, तो भी उन पर िवजय पापत नही की जा सकती। वज
से भी किठन वे शसतासतो के आघातो से िछन-िभन नही िकये जा सकते है।।27-31।। उनहोने हमारे बाप-दादो के
साथ बहुत से भयंकर युद को कौशलो का अभयास िकया है िजनमे परसपर पवरत फेके गये थे। उन अितभीषण और
िवशाल शतुपिं कतयो मे जो भयभीत नही हुआ, वह इस समय भयभीत होगा, इसमे तो कहना ही कया है ?।।32,34।।
कयो दूसरा पतीकार का उपाय नही है, ऐसा कहते है।
जगत मे सब वसतुओं के सवभाव से सब पकार की बुिदयो से और सब पकार के कमों के उदोगो से शरणाथी
लोगो के िलए एकमात भगवान ही शरण है, अनयथा गित नही है।।35।।
और लोग शरण कयो नही हो सकते ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
तीनो लोको मे उनसे बढकर कोई भी नही है। सृिष, पलय, और संहार के एकमात हेतु हिर ही है।।36।।
ऐसा िवचारकर सवातमना उनकी शरणागित का संकलप करते है।
इस कण से मै सदा अजनमा नारायण की शरण मे पापत हुआ हँू। सब देश, सब काल और सब वसतुओं मे मै
नारायणमय हूँ। िनरनतर भगवान की शरणागित, धारणा, समरण और जप के साधनभूत उनके शौत मनत का समरण कर
िनरविचछन उसके जप का संकलप करते है। जैसे आकाश से वायु कभी नही हटता वैसे ही सब पुरषाथों का साधक
'नमो नारायणाय'(►) यह मनत मेरे हृदयकोश से दूर न हो।
► पणवयुकत 'नमो नारायणाय' यह मनत पिवत देश मे ही जपने योगय है, िनरनतर जपने योगय नही है, इसिलए
पणव रिहत युकत मनत का उपादान िकया। शलोक मे 'हृतकोशात' यह कथन मानस जप की मुखयता के दोतन के िलए
है।
सब देश, सब काल और सब वसतुओं मे मै नारायणमय हूँ, ऐसा जो कहा था, इसका सपषीकरण कहते है।
हिर िदशा है, हिर आकाश है, हिर पृथवी है, हिर जगत है और अपमेयातमा हिर मै हूँ। मै भावनावश पायः िवषणु
हो गया हूँ।।37-39।।
यिद कोई कहे िक िकसिलए तुम ऐसी कलपना करते हो, तो इस पर कहते है।
सवयं िवषणु हुए िबना िवषणु की पूजा करता हुआ पुरष पूजा का फल-भागी नही होता है। अतः िवषणु बनकर
िवषणु की पूजा करनी चािहए, इसिलए मै िवषणुरप से िसथत हुआ हँू, कयोिक 'नािवषणु पूजयेिदषणु'ं नािशवः पूजयेिचछवम्'
ऐसी िविध है। जो हिर है वही पहादनामक है। पतयगातमा से अनय हिर पृथक नही है ऐसा मन मे िनशयवाला मै
सवरवयापक हँू।।40,41।। अब शीहिर के वाहन, असत, आभरण, शरीर आिद की अपने रप से कलपना करते है। इस
असीम आकाश को वयापत करके िसथत यह सुवणर के समान वणरवाला गरड मेरे अंगो का आसन बन गया है। िजनके
हाथो के अवयवो पर सब चक, गदा, खडग आिद असतरपी पकी िनतय िनवास करते है, नखकािनतरपी मंजिरयो से जो
वयापत है, कोमल-कोमल मनदार के फूलो की मालाओं से िजनके मूल पदेश सुगिनधत है एवं मनदराचल से िजनके
बाजूबनध िघसे गये है, महामरकत मिण के वृकरप ये मेरे चार बाहु है। चंचल चनदकला की रािश के समान सुनदर चँवर
धारण करने वाली कीर सागर के मधय से उतपन यह लकमी मेरी एक बगल मे िसथत है। अनायास तीनो भुवनो को
िजसने पलोिभत कर िदया है, तैलोकययरपी वृक की मंजरी के समान िवराजमान यह हिर की िनमरल िनशल कीितर मेरे
समीप मे िसथत है।।41-46।। िनरनतर अनेक जगतो का नूतन िनमाण करने वाली अपने इनदजाल से शोिभत होने
वाली यह िवषणु की माया मेरे समीप मे िसथत है। िजसने अनायास तैलोकय की वृकरािशयो पर िवजय पापत की है, ऐसी
कलपवृक की लता के तुलय यह लकमी की सखी जया मेरी दूरी बगल मे िवराजमान हो रही है। िनतय शीतल और िनतय
उषण चनदमा और भासकर ये दो देवता मेरे मुँह मे मेरे दो लोचन है, िजनहोने संसार को पकािशत कर रखा है। मेरी नील
कमल के समान शयामल, मेघ के समान सुनदर, फैल रही यह देहकािनत है, इसने िदशाओं को शयामल बना रखा है। यह
पाचजनय शंख मेरे हाथ मे है, जो मूितरमान आकाश के समान शबदरप है, कीरसागर के समान शुभ है और िजससे सदा
धविन िनकलती है।।47-51।। यह सुनदर कमल मेरी हथेली पर िवदमान है, जो मेरी नािभ से उतपन हुआ है और
िजसकी किणरका के मधय मे बहारपी भमर िछपा है।।52।। यह रतो से िचत-िविचत शरीरवाली अतएव सुमेर के
िशखर के तुलय, सोने से मढी हुई मेरी भारी गदा है, जो दैतय और दानवो का संहार करती है।।53।। यह सूयर के
समान चमकीला मेरा सुदशरन चक है, िजससे सदा िकरणे बाहर फूट रही है और जो चारो ओर जवालारपी जटाओं से
वयापत है। इसने चारो और िदकतटो को पटल के समान लाल कर िदया है।।54।। यह धूमयुकत अिगन के समान
सुनदर काला और चमकीला मेरा अनदकनामक खडग है। यह दैतयरपी वृको के िलए कुठारभूत है और देवताओं को
आननद देनेवाला है। यह बाणरपी वृिषधाराओं को वषा मे पुषकरावतर मेघ के तुलय और शेषनाग के सदृश िवशाल शारंग
नामक धनुष है, जो िविवध मिणयो से िविचत होने के कारण इनदधनुष के समान सुनदर है।।55,56।।
मै उतपन होकर नष हुए अतीत और वतरमान इस अनेक जगतो को अपने उदर मे िचरकाल तक धारण करता
हूँ। पृथवी मेरे चरण है, आकाश मेरा िसर है, तीनो जगत मेरे शरीर है, िदशाएँ मेरे उदर है। मै नील मेघ के मधय के
समान शयामल कािनतवाला, गरडरपी पवरत पर आरढ तथा शंख-चक-गदाधारी साकात िवषणु हूँ। ये सब दुष
िचतवाले जीव जैसे चंचल तृणरािशया वायु से उडती है वैसे ही मुझसे भाग रहे है। यह नील कमल के समान शयामल
कािनतवाला, पीतामबरधारी, हाथ मे गदा िलया हुआ, गरड पर आरढ और लकमीयुकत मै सवयं ही अचयुत हो गया हूँ।।
57-61।। कौन मेरा िवरोधी होकर तैलोकय को भसम करने मे समथर मेरे पित युद के िलए आता है ? जो आता है,
वह कुबध हुई कालािगन के पित शलभ (तीड) जैसे अपने नाश के िलए आता है वैसे ही सविवनाश के िलए आता है। ये
मेरे सामने खडे हुए सुर और असुर जैसे कमजोर नेतवाले लोग सूयर की पभा को नही सह सकते वैसे ही मेरे तेज की
जवालाओं को नही सह सकते। बहा, इनद, अिगन, िशव आिद देवता बहुत से मुखो से िनगरत वेदवाणी से इस ऐशयरशाली
िवषणुरप मेरी सतुित करते है। िवपुल ऐशयरवाला मै िवषणु की आकृितवाला हो गया हूँ और परमाथर सवभाव से सब दनदो
से अतीत हो गया हूँ। िजसके उदर मे ितभुवनरपी भवन िसथत है ऐसी मूितरवाला, सब दुष पािणयो को िछन-िभन कर
चुका, मेघ, पवरत, तृण, वन आिद सब वसतुओं के अिधषानरप से िसथत और सब भयो को दूर करने वाला िवराटरप
परबहातमक मै ही हूँ। उसे मै पणाम करता हूँ।।62-66।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआआ आआआआ
आआ
आआआ आआआआआ आआआआआआआ आआआ आआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआआ आआ
आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पहाद ने यह िवचार कर और भावना दारा अपने शरीर को नारायणरप
बनाकर भगवान िवषणु की पूजा के िलए िफर िवचार िकया। मुझसे किलपत इस वैषणव शरीर से अनय समिषरप अथवा
वयिष देवतारप मूितर न हो, िकनतु यह मदूप िवषणु ही, जो गरड पर बैठे हुए िकया, जान, इचछा, अनुगहरप चार
शिकतयो से समपन, हाथ मे शंख, चक और गदा िलये हुए, शयामल शरीर, चतुबाहु, चनद-सूयर रपी नेतवाले, सुनदर
ननदननामक खडग से अपने भकतो को पसन िकये हुए महाकािनतवाले और संकषरण, पदुम आिद वयाह और पाषरदो से
युकत है, हृदय से पुषपाजिल भावना दारा बाहर आवािहत होकर पूजा की समािपत तक अनय की तरह िसथत हो। इनकी
मै सब सामिगयो से रमणीय मानिसक पूजा करता हँू।।1-5।। इन पूजनीय देवािधदेव की बाहरी उपकरणो से िवसतृत
तथा बहुत रतो से पूणर पूजा से िफर बाह पूजा करँगा।।6।। पहाद ने ऐसा िवचारकर िविवध पूजा-सामिगयो से पूणर
मन से लकमी के पित भगवान िवषणु की पूजा की। रतो के समूहो से जिटत िविवध पातो के पानतो दारा िकये गये
अिभषेको से, चनदन आिद के िवलेपनो से, धूप, दीप और िविवध पकार के िवभववाले आभूषणो से, मनदार की मालाओं
के वेषनो से, सुवणर-कमलो की रािशयो से, कलपवृक की लताओं के गुचछो से, रतो के गुचछो से और कलप वृक आिद
देव वृको के पललवो से, िविवध पकार के फूलो की मालाओं से, िकंिकरात, अगिसत, कुनद, चमपा, नीलकमल,
रकतकमल, कुई, काश, खजूर, आम, पलाश, अशोक, मैनफल, िबलव, कनैर, िकरातक, कदमब, मौलिसरी, मनीम,
सेनदुआर, जूरी, बकायन, गुगुिल, िबनदुक आिद फूलो के समूहो से, मेहदी, पाटल, आम, अमडा, गवय और हरे बहेडो
के फूलो से, शाल, ताल और तमालो के लता, फूल और पललवो से, कोमल-कोमलकिलयो से, काशमीर केसरयुकत
आम के बौरो से, केवडे, कमल और इलायची की मंजिरयो से, इनके अितिरकत धूप, दीप, नैवेद, तामबूल, दपरण, छत
चँवर, आरती, पुषपाजिल, पदिकणा, नमसकार आिद सौनदयरयुकत सब उपचारो से सवयं अपने अपरण दारा भी जगत मे जो
जो िवभव पिसद है उपकरण बनाये गये उनसे भवयभिकत से पहाद ने अपने अनतःपुर मे मन से अपने सवामी भगवान की
पूजा की।।7-16।। तदुपरानत दावनराज पहाद ने उस देवगृह मे बाह सामगी से पूणर पूजा से भगवान िवषणु की
पूजा की। इसी मानस पूजा मे कहे गये कम से बाह पदाथों से परमेशर की बार-बार पूजा कर दानवराज पहाद को
अतयनत संतोष हुआ। तदुपरानत तभी से लेकर पहाद पितिदन पूवोकत पूणर भिकत से भगवान की पूजा करने लगा।।
17-19।। तदननतर उस नगर मे सभी दैतय िवषणुभकत और सदाचारी हो गये। राजा अचार का हेतु है, यिद राजा
धमातमा होता है, तो पजा भी धािमरक होती है और राजा दुराचारी होता है तो पजा भी दुराचारी िनरत हो जाती है। हे
शतुतापन, तदुपरानत यह समाचार दूतो दारा अनतिरक और सवगरलोक मे पहुँचा िक दैतय भगवान िवषणु का देष करना
छोडकर उनके भकत बन गये है। हे शीरामचनदजी, मरतो सिहत इनद आिद सब देवताओं को बडा आशयर हुआ िक
दैतयो ने िकस हेतु िवषणु भगवान की भिकत अपनाई है ? आशयर मे डू बे हुए देवता अमरावती का तयागकर कीर सागर मे
शेषशैयया पर िवराजमान युदिवजयी शीहिर के समीप गये। वहा पर देवताओं ने शीहिर को यह वृतानत कहा और
शेषशयया पर बैठे हुए भगवान से यह अपूवर अदभुत आशयर पूछा।।20-24।।
भगवन् यह कया बात है, जो दैतय सदा ही आपके िवरद रहने वाले आपके भकत हो गये है। मालूम होता है यह
माया है। कहा तो अतयनत दुष दानव, िजनहोने आपके भकतो, देवता और मुिनयो के िनवासभूत पवरत तक तोड-फोड
डाले थे और कहा अिनतम उतम जनम मे पापत होने वाली भगवान जनादरन की भिकत। हे भगवन्, पामर पुरष गुणवान
हो गया यह कथा औतपाित की अकाल पुषपमाला के समान सुख के िलए और उदेग के िलए भी है। जैसे काचो के बीच
मे बहुमूलयमिण शोिभत नही होती वैसे ही जो जहा पर उिचत न हो वह वहा शोिभत नही होता।।25-28।।
यिद किहये कशयप ऋिष के वंशधर होने के कारण वे भी तुमहारे सदृश ही है, तो गुणो मे वैषमय होने के कारण
ऐसी बात नही है, इस आशय से कहते है।
जो-जो जैसे गुण का पाणी होता है, वह उसी तामसी, राजसी या सािततवकी िसथित को पापत होता है, यही बात
उिचत है। यदिप बकरे कुते के सदृश ही है, िफर भी कुता उनके बीच मे शोिभत नही होता। शरीर मे चुभती हईु वज
की सुइया वैसे दुःख नही देती जैसे िक अनौिचतय से संबद ये वसतु दृिषया दुःख देती है। जो जहा पर कम से पापत
हो, उिचत हो और अिनिनदत हो, वही वहा पर सुशोिभत होता है। देिखये न, कमल जल मे ही शोिभत होता है, सथल
मे नही। कहा तो पामरोिचत कायर करने वाला, सदा िनिनदत कमों मे िनरत और तामस योिन अधम शोचनीय दानव
(पहाद) और कहा भगवान िवषणु की भिकत ?।।29-32।। कमिलनी सनतपत ऊषर भूिम मे िसथत है, यह कथा जैसे
शोताओं को सुख नही देती वैसे ही हे भगवन्, िदित की सनतित भी भगवान मे भिकत करती है यह अधम पुरष का
अवलंबन करने वाली कथा भी हमारे िलए सुखदायी नही है।।33।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआ आआ आआआआआआआ आआआ
आआआ आआ आआआआ आआआ ।आआआआआ आआआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनद जी, अनुिचत देखने से कुिपत हुए अतएव पूवोकत रीित से जोर से
िचललाकर पूछ रहे देववृनद से शतुओं का िवनाश करने वाले भगवान जैसे मयूरो के झुणड से बादल बोलता है वैसे ही
िनम िनिदरष वाकय बोले। शीभगवान ने कहाः हे देववृनद, पहाद भिकतमान हो गया है, यह जानकर आप लोग दुःखी न
हो। यिद कहो िक पहले दैतय सवतः ही बलवान है, आपकी भिकत से और बलवान हो जायेगे, अतः हम िवषाद कयो न
करे, तो आपका यह तकर ठीक नही है, कारण िक शतुतापन पहाद मोक योगय है, अतएव आप लोगो के समान तुचछ
राजय सुख को वह नही चाहता है। उसका यह अिनतम जनम है।।1,2।। जैसे जला हुआ बीज अंकुर पैदा नही कर
सकता, वैसे ही इसके बाद इस दानव को मातृगभरिनवास नही करना होगा।।3।।
देवताओं ने जो उसकी भगवदिकत को अनुिचत दोषरप ठहराया था, उसका पिरहार करते है।
यिद गुणवान पुरष गुणहीन हो जाये, तो इसे िवदान लोग पुरषाथर का िवघात करने वाला कम कहते है। यिद
िनगुरण गुणवान हो जाये, तो इसे िसिददायक कम कहते है।।4।। हे देवशेषो, आप लोग अपने -अपने अदभुत लोको
को जाइये। पहाद की यह भिकत आिद गुणवता आप लोगो के अमंगल के िलए नही है।।5।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, भगवान देवताओं से यह कह कर वहा कीरसागर की लहरो मे तटवती
तािपचछ वृक के गुचछो की तरह अनतिहरत हो गये।।6।। जैसे पहले आकाश से समुद मे िगरा हुआ जलकणसमूह
मनदराचल से किमपत सागर से िफर आकाश मे चला जाता है वैसे ही पहले आकाश से आये हुए देवता भी सतुित दारा
भगवान की पूजा कर िफर आकाश मे चले गये।।7।। तबसे पहाद के पित देवताओं की िमतता हो गयी। िजस पुरष
या िवषय मे अपने पूजनीय िपता, आचायर आिद उिदगन नही हुए, उसमे बालको का भी मन िवशासी हो जाता है, यह
पिसद है।।8।। इस पकार के भिकतमान पहाद ने देवािधदेव भगवान िवषणु की पितिदन मन, कमर और वचन से पूजा
की। तदननतर भगवतपूजा मे परायण पहाद के समय पाकर िववेक, आननद, वैरागय, िवभव आिद गुण बढ गये। जैसे
सूखे हुए वृक की ओर िकसी का आकषरण नही होता है वैसे ही उसकी भोगो की ओर अिभरिच न थी और जैसे मृग
जनाकीणर भूिम मे पसन नही होता वैसे ही वह कानताओं मे नही रमता था। शासताथर कथन के िसवा अशासतीय
लोकवृतो मे वह नही रमता था।।9-11।। सथल मे जैसे कमिलनी का पेम नही होता वैसे ही दशरन योगय समाज,
उतसव आिद कौतुको मे उसका पेम न था।।12।। जैसे न गुंथा हुआ मोती िनमरल मोती पर िसथर नही रह सकता
वैसे ही भोगरपी रोगो के िवषयरपी अपथय के सेवन दारा अनुकूल आचरण मे उसका िचत िसथर नही होता था।।
13।।
यिद कोई पूछे िक तब कैसा उसका िचत था, तो इस पर कहते है।
उसके िचत ने भोग आिद की कलपना का तयाग कर िदया था, िकनतु िवशािनत सुख को वह पापत नही हुआ
था, अतएव वह झूले मे लटकाये हुए की तरह बीच मे लमबमान िसथत रहा। भगवान िवषणु ने पहाद की उस िसथित को
कीरसागर से सब मे िवदमान अपनी परम रमणीय बुिद से जान िलया।।14,15।। तदननतर भकतो को आहािदत
करने वाले भगवान् िवषणु पाताल मागर से पूजा देवगृह मे पहाद के सामने आये। भगवान पुणडरीकाक को आये हुए
जानकर दैतयराज पहाद ने दुगुनी सामगी से दैदीपयमान पूजा से आदरपूवरक उनकी पूजा की।।16,17।। परम पसन
हुए पहाद ने पूजागृह मे आये हुए नेतो के सामने िसथत भगवान शीहिर की मारे हषर के िवकास को पापत हुई वाणी से
सतुित की।।18।।
पहाद ने कहाः मै ितभुवन की सुरिकत िसथित के अनुकूल सुनदर कोश गृहरप, बाह और आभयानतर
अनधकार का िवनाश करने वाले, सवयंजयोितसवरप, अनाथो के रकक, शरण के योगय, सवरशिकतसमपन, रजोगुण से
बहा, सततवगुण से अचयुत और तमोगुण से िशवरप, सब दुःखो का हरण करने वाले हिर के शरणागत होता हूँ।।
19।। नीलकमल और नीलमिण के समान कािनतवाले, और शरतकालीन िनमरल आकाश के मधयभाग के तुलय शयामल,
भमर, अनधकार, काजल और अंजन के समान कािनतवाले कमल, चक और गदा धारण करने वाले आपकी शरण मे मै
पापत होता हूँ।।20।। िजनका शरीर भौरो की रािश के समान कोमल है, िजनका शुभ शंख सफेद कमल के कुणडल
के समान सुशोिभत होता है, शुित ही िजनका गुंजन है ऐसे बहाजी िजनके नािभ कमल के भमर है एवं जो अपने भकतो
के हृदयकमल मे िनवास करते है, ऐसे भगवान की मै शरण लेता हूँ।।21।। सफेद नखरपी तारे िजसमे िबखरे है,
मनद-मनद हास से पकाशमान मुख ही िजसमे पूणर चनदिबमब है एवं कौसतुभमिण की िकरणरािश ही िजसमे आकाश गंगा
है, इस पकार के िवसतृत हिररपी शरतकािलन आकाश की मै शरण लेता हूँ। रची गई घनी सृिष िजनमे िबना िकसी
संकोच के िनिवष है, सततव आिद मायागुणो से होने वाले अननत कलयाण गुणगणो से िजनकी िचरनतन मूितर रमणीय है,
पलयकाल मे वटपत पर सोने वाले बालकरप अिवनाशी, अज, अिवकारी, सवरवयापक, भगवान की शरण मै जाता
हँू।।22,23।। ताजे फूले हएु नािभकमल के पराग से वकःसथल मे पीले वणरवाले, पकाशमान लकमी के शरीर से
िवभूिषत वामागवाले, सायंकाल के समय के समान अरण अंगरागवाले एवं सुवणर के समान चमकदार पीतामबर से सुनदर
भगवान की शरण मे मै जाता हँू।।24।।
दैतयरपी निलनी के िलए िहमपातरप, देवरपी निलनी के िलए सदा उिदत सूयरमणडलरप, बहारपी निलनी के
तडागरप एवं हृदयकमल मे िनवास करने वाले िवषणु की मै शरण लेता हँू।।25।। ितभुवनरपी कमिलनी के िलए
सूयररप, अनधकार के सदृश आचछादक अजान के िलए शेष दीपरप, िनतयसवपकाश, अजड, िचदातमतततवरप, जगत
की सब पीडाओं को दूर करने वाले भगवान की मै शरण लेता हँू।।26।।
शीविसषजी ने कहाः इस पकार के िविवध गुणो से युकत सतुितवचनो से पूिजत असुरो का िवनाश करने वाले
नीलकमल के सदृश शयामल भगवान शीहिर, िजनका कणठ शीलकमी जी से आिलंिगत था, पसन होकर जैसे मेघ मयूर
के पित बोलता है वैसे ही दैतयराज पहाद के िलए बोले।।27।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
तेतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ
आआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीभगवान ने कहाः हे दैतयकुल के चूडामिणरप, हे गुणसागर, पुनः जनम रपी दुःख की िनवृित के िलए तुम
अभीष वर मागो।।1।।
पहाद ने कहाः हे पभो, आप सब संकलपो का फल देनेवाले है और सब पािणयो के हृदय मे िसथत है, अतएव
िजस वसतु को आप सवोतम समझते हो, उसी को मुझे देने की कृपा कीिजये।।2।।
इस पकार पाथरना करने पर भगवान िवषणु अपने िवचार से उतपन आतमतततव साकातकार के िबना आतयािनतक
दुःखिनवृित नही हो सकती, यह समझकर वर देते है।
शीभगवान ने कहाः हे पापरिहत, सब सनदेहो की िनवृित के िलए और मुिकतरपी सवोतम फल के िलए तुमहारा
बहसाकातकार-पयरनत िवचार हो।।3।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, दैतयराज पहाद से यह कहकर जैसे कलकल धविन करके समुद की
लहर िछप जाती है वैसे ही भगवान िवषणु अनतिहरत हो गये।4।। भगवान िवषणु के अनतिहरत होने पर पहाद ने पूजा मे
मिण-रतो से सुशोिभत अिनतम पुषपाजिल देकर, सुनदर आसन पर बैठकर, पदासन लगाकर सतोतपाठ करने के समय
बडे हषर से अपने अनतःकरण मे िवचार िकया। जनममरणरपी संसार से छुटकारा देने वाले भगवान ने तुम िवचारवान ही
होओ, ऐसा मुझे उपदेश िदया है। इसिलए मै अपने अनतःकरण मे आतमिवचार करता हूँ।।5-7।।
सारा दृशय आतमा के िलए ही है, इसिलए आतमा ही पधान है, यह िनशय कर वह आतमा कौन है, ऐसा िवचार
करते है।
जो इस संसाररपी आडमबर मे बोलता हूँ, चलता हूँ, बैठता हूँ और सब उदोगो से िवषयो का उपभोग करता हूँ
वह मै कौन हूँ, यही िवचार पहले मुझे करना चािहए।।8।।
देह से बाहवसतु तो आतमा हो नही सकती, ऐसा कहते है।
वृक, तृण, पवरत आिद से युकत यह सारा जगत तो आतमा हो नही सकता, कयोिक जो बाहरी और अतयनत जड
है, वह मै कैसे हो सकता हूँ।।9।।
देह भी मै नही हूँ, ऐसा कहते है।
वसतुतः असत् होता हुआ भी उिदत, जड होने के कारण ही बोलने मे असमथर, पाणवायुओं दारा केवल अपने
संचार के समय मे ही संचािलत, थोडे समय मे नष होने वाला यह अचेतन शरीर भी मै नही हूँ।।10।।
इस पकार शबद आिद िवषय भी मै नही हूँ, ऐसा कहते है।
जड (अिचदूप) कणरिचछद दारा अित दीघर, गमभीर, पद वाकय आिद भेदो से किलपत कणभर मे नष होने वाला,
कयी होने के कारण शूनयाकार, आकाश से उतपन होने वाला अचेतन शबद भी मै नही हूँ।।11।। कण मे नष होने
वाली तविगिनदय से पापत करने वाला (चेतन के अधीन िसिदवाला) अचेतन सवरप सपशर भी मै नही हँू। अिनतय, चंचल
िजहा से संबद सवभाववाला यानी रसनेिनदय के अधीन िसिदवाला, दवय मे रहने वाला, अचेतन तुचछ रस, िजहा के
अगभाग से लेकर कणठ तक िजसके आसवाद का पसार है, मै नही हँू। कणिवनाशी पदाथर और चकु इन दोनो के अधीन
िसिदवाला अतएव िवनशर तथा केवल दषा मे अिवदमान अचेतन रप मै नही हूँ। गनधवती, जड, नष होने वाली
नािसका (घाणेिनदय) दारा किलपत, (दूसरे कण मे अनय गनध का पादुभाव होने से) अिनयत आकारवाला और अचेतन
तुचछ गनध भी मै नही हूँ।।12-15।।
शबद आिद िवषयो को अनातम कहना वचन, गहण आिद मे भी समान होकर सवरत ितपुिटयो के अनातमतव का
उपलकक है, कयोिक सवरत नयाय समान है, इससे अहंकार, मन, बुिद, िचत ितपुटी का भी अनातमरप से िनरास होने
पर शुद िचनमात ही आतमा पिरिशष रहता है, इस आशय से कहते है।
'मम' इस पकार के अिभमान से रिहत, मननरप मन के वयापार से शूनय माया के समबनध से रिहत, पंचेिनदयो
के भम से शूनय (पंचेिनदयतादातमय भािनतरिहत) शानत शुद चेतन ही मै हँू।
चेतन पद से चेतनावान जडाश का भी गहण न हो, उसके शोधन के िलए कहते है।
सवयं जयोित, सबका पकाशक, बाह और आभयनतर सवरत वयापक, अखणड िनमरल, सनमय यह मै चेतयरिहत
िचनमात ही हूँ।।17।।
इस पकार पिरशुद तवंपदाथर का िवचारकर उसके दारा ही ततपदाथर का भी शोधन करके उसको समझाने के
िलए भूिमका बाधते है।
अनय िनरपेक होने के कारण उतम तेजरप इस चेतनरप दीपक से ही घट-पट आिद सूयरपयरनत ये सब पदाथर
पकािशत होते है।।18।। हा, इस सारे सतय का मुझे अब समरण हो आया है। आकाश आिद िवकलपो से रिहत
िचदूप पकाश सवरवयापक यह आतमा मै हँू।।19।। भीतर पकाशमान तेजरप इसी से इन िविचत इिनदयवृितयो का
सफुरण होता है जो िक भीतर पकाशमान तेज से अिगनभूत अंगारकण पंिकतयो का सफुरण होता है।।20।। जैसे
गीषम ऋतु से मरमरीिचकाओं का (मृगतृषणाओं का) सफुरण होता है वैसे ही सवरवयापक इस चेतन से ये िविचत इिनदय
पंिकतया सफुिरत होती है।।21।।
सब पदाथों की सफूितर के समान सता भी इसके अधीन ही है, ऐसा कहते है।
जैसे वसतो का अपना शुकलािदगुणतव दीपक से पितपािदत होता है वैसे ही पदाथों की यह अपनी सता इसी से
पितपािदत होती है।।22।। जैसे गहण सब पितिबमबो का िवशािनत सथान है। उसी एक िवकलपरिहत िचदूपी दीपक
के पसाद से सूयर गमर, चनदमा शीतल, पवरत ठोस और जल तरल है। भाव यह है िक िविभन पदाथों के िविवध िविचत
सवभावो की िसिद उसी के अधीन है।।23,24।। आकाश से वायु, वायु से अिगन, अिगन से जल, इतयािद कम से
शुित और पतयक दारा अनुभूत सब पदाथों की जगत मे उतपित आिद की वयवसथा मे सदूप से सब कायों मे वयकत यही
आिदकरण है, इसका कोई कारण नही है।।25।।
पूवोकत नैरनतयर कम से अनुभूत सब पदाथों का जैसे गीषम ऋतु के सूयर के सनताप से भूिम आिद की अतयनत
सनतपतता उतपन होती है वैसे ही इसी से पिसद आकाश आिद पदाथरतव होता है। जैसे बफर से शीतलता उतपन होती है
वैसे ही वसतुतः िनराकार यानी कारणतव आिद आकार से शूनय और िवदा से कारणभूत सब कारणो के कारण इससे यह
दृशय उतपन हुआ है। जगत मे उतपित आिद की वयवसथा मे कारण भूत बहा, िवषणु, इनद और रद का यही आिदकारण
है। इसका कोई कारण नही है। िचत्, चेतय, दषा, दृशय आिद नामो से विजरत सवरपवाले सवयं िनतय सवपकाश इस
मुझ पतयक् चैतनय को बार-बार नमसकार है।।26-29।।
कारण होने से जैसे यह हिर का हेतु है वैसे ही पालन और संहार का हेतु भी है, ऐसा कहते है।
िनिवरकलप चैतनयसवरप सब पािणयो के अिधषाता इसमे गुणो की नाई अिभन सतावाले सब भूत िसथत रहते
है और पवेश भी करते है। भाव यह िक 'यतो व इमािन भूतािनजायनते' इतयािद शुित मे कहे गये बहलकण का इसमे
समनवय है।।30।।
कारण मे सूकमरप से िसथत इस समय वतरमान भी िजसका इस चेतन अनतरातमा ने यह उतर कण मे उतपन
हो। ऐसा संकलप िकया वही सवरत उतर कण मे उतपन होता है, अनय नही।।31।। िजस वसतु को चेतन ने अपनी
सता और सफूितर के पदान दारा उजजीिवत िकया, वही अपने 'घट है' इतयािद वयवहारपद को पापत होता है और
िजसको चेतन ने अपनी सता और सफूितर के पदान दारा उजजीिवत नही िकया, वह असततवरप नाश को पापत हुआ है।
ये घटपटाकर जगत के सैकडो पदाथर िवशाल दपरणरप इस िचदाकाश मे पितिबिमबत है।।32,33।।
इसी पकार वृिद आिद भाविवकार भी इसी मे अधयसत है, ऐसा कहते है।
जैसे पितिबिमबत सूयर मे कय और वृिद पितिबमबरप से िसथत सूयर मे ही अधयसत होकर अनय वृितया पतीत
होती है वैसे ही यह भी िवशाल पदाथर मे िवशाल, िवनष होने वाले पदाथर मे िवनाशी और सत्-असतरप से िसथत है।
सब अजानी पािणयो के दशरन के अयोगय िजनका िचत िवलीन हो चुका, ऐसे महातमाओँ को पापत होने योगय यह अित
िनमरल परमाकाश सतपुरषो दारा देखा जाता है।।34,35।।
जो लोग कारण के एक देश मे पिरणामरप जगत है, ऐसी कलपना करते है, उनकी कलपना भी इसी परमाकाश
मे है अनय मे नही है, इसी आशय से कहते है।
आचाररपी भौरो से वेिषत यह िविवध दृशयरपी सुनदर मंजरी इसी कारणरप वृक से उतपन होती है। जैसे
िविवध पकार के वृक, झाडी और लताओं दारा वेिषत वनपंिकत पवरत से उतपन होती है वैसे ही यह चंचल िवशाल
संसार रचना इसी से उतपन होती है।।36,37।।
इसी मे कलपना है, यह कैसे जाना ? ऐसी यिद कोई शंका करे, तो जगत की सफूितर इससे िभन है, इससे
जाना, ऐसा कहते है।
तैलोकय मधयवती बहा से लेकर ितनके तक सब पदाथों का पकाशक यह सवयं जयोित िचदातमा सबसे िभन
है।।38।। जनम और िवनाश रिहत सवरवयापक यह एक मै सब चराचर भूतो के अनदर सवानुभवरप िसथत हूँ। इस
मेरे सथावर और जंगम बहुत शरीर है, िजनकी संखया गणना, काल की सीमा और देश की सीमा नही हो सकती।।
39,40।। अनुभूित सवरप एक यह अपना अनुभूितवश सवयं सवरदषा, सवरदशय और सवरदशरन एवं हजारो लोचन
और हाथवाला है।।41।। यह पतयक ईशरभूत मै सुनदर सूयररप होकर आकाश मे िवचरण करता हँू एवं वायुरप
होकर अनय वायु देह से भी आकाश मे िवचरण करता हूँ।।42।। मेरा शंख, चक और गदा धारण करने वाला यह
शयामल शरीर, जो सब सौभागयो की चरम सीमा है, इस संसार मे वयवहार करता है।।43।। इस जगत मे सदा
पदासन आसीन होकर िनिवरकलप समािध मे िसथत परम सुख को पापत मै बहरप से उतपन हुआ हूँ।।44।। मै तीन
नेतवाली आकृित से शीपावरती जी के मुखकमल का भमर बन कर जैसे कछुआ अपने अंगो को समेट लेता है वैसे ही
इस जगत का पलयकाल मे संहार करता हूँ। जैसे तपसवी गुरपरमपरा पापत अपने मठ की रका करता है वैसे ही
इनदरप से मै मनवनतरकम से पापत हुए इस सारे ितलोक का पालन करता हँू।।45,46।।
तवं सती तवं पुमानिस तवं कुमार उत वा कुमारी।
तवं जीणो दणडेन वंचिस तवं जातो भविस िवशतोमुखः।।
इस शुित का अपने अनुभव दारा अपने मे समनवय करते है।
यह मै ही सती हँ,ू मै ही पुरष हँू, कुमार भी मै ही हँू, देहधारी होने से मै जीणर हो गया हँू और मै ही सवरतोमुख
िवराट पुरष हूँ।।47।। मै जीवसाररप से िसथत होकर तृण, लता, झाडी आिद के समूह को िचदूप भूिम से ऐसे
उतपन करता हँू जैसे जलरप से िसथत जीणर कूप अपने अनदर लता को उतपन करता है।।48।। सुनदर बालकरप
मैने इस सुनदर जगदूपी आडमबर का िमटी के िखलौने के समान अपनी कीडा के िलए िवसतार िकया है।।49।।
मुझसे कारणरप से यह जगत् वयापत िकया जाता है। मुझे ही पापत होकर यह सता को पापत होता है। अपने
तततवदशरन दारा मुझसे पिरतयकत हुआ यह जगत जीवनमुकत वयवहार मे िवदमान होता हुआ भी कुछ नही है।।50।।
मुझ िवशाल िचदूपी दपरण मे जो पितिबमब पापत हुआ है, वह मुझसे पृथक नही है, इस संसार मे मुझसे अितिरकत कोई
वसतु है ही नही।।51।।
अब ईशरप अपने िवभूित िवसतार का वणरन करते है।
मै फूलो मे सुगनध हूँ, फूलो की पंखुिडयो मे मै कािनत हूँ। कािनतयो मे रपकला हूँ और रपो मे भी मै अनुभव
हँू। चराचर जगदूप मे कुछ यह दृशय है, वह सब सवर संकलप रिहत परम िचदातमतततव मै ही हँू। रसमयी आिद शिकत
यानी रस तनमाता िजससे सागर, नदी, तालाब, कूप आिद जलाशय िवसतृत है, वही जलभूत शिकत जैसे वृको मे शाखा,
पललव आिद की उतपित मे हेतुरप से और दीवारो मे इनके, जौ के अंकुर आिद की उतपित मे हेतुरप से फैली है वैसे
ही मै सब वसतुओं मे तत् तत् कायों की उतपित मे हेतुरप से फैला हूँ। मै अपनी इचछा से सब पदाथों की उस परम
अनतयािमता को पापत करके जान वैिचतय का िवसतार करता हँू। जैसे दूध के अनदर घी रहता है और जल के अनदर
रसशिकत रहती है वैसे ही िचतशिकतरप मै सब पदाथों मे िसथत हूँ। जैसे तृण, काष, लोष आिद वसतुएँ पृथवी पर
िसथत है वैसे ही अतीत, वतरमान और भिवषय यह जड जगत िचदूप मुझमे वयविसथत है। सब िदशाओं के मधय को
िजसने पूणर कर रखा है, संकोचभम का िजसने तयाग कर िदया है, सबमे िसथत सबका रचियता और वयिषभेद से
शोिभत होने वाला एवं समिष रप से शोिभत होनेवाला मै हँू।।52-58।।
इनद से बढकर राजय की पािपत हुए िबना आपकी समाटता कैसी ? ऐसी यिद कोई शंका करे, तो उस पर
कहते है।
यह िवसतृत अपूवर जगदाजय, िजसमे इनद का बनधन नही िकया गया और असत-शसतो के दारा देवताओं का
संहार नही िकया गया, िबना पाथरना के मुझे पापत हुआ है। इनदराजय की पािपत के िलए बडे कष उठाने पडते है
शसतासतो दारा देवताओं का संहार करना पडता है तथा इनद को बाधना पडता है। वह अपूवर भी नही है, अनेको दारा
उपभुकत है, यह उससे िवलकण होने से शेष है, यह भाव है।।59।।
अहो, मै तो िवसतृत आतमावाला हँू, अतएव मै अपने आप अपने आतमा मे, कोिठले मे धानो की भाित, ऐसे नही
समा रहा हूँ जैसे पलयकाल की घोर आँधी से उछलता हुआ पलय सागर पहले के सागर नही पाता वैसे ही अपने ही
अनदर िनिरतशय आननदरप से सवाद मे आ रहे सवसथ आतमा मे मै अनत नही पाता हँू। यह जगनामक बहाणड,
िजसका भीतर का भाग संकुिचत है, बडा छोटा है, इसिलए जैसे बेल के फल के अनदर हाथी नही समा सकता वैसे ही
मेरा िवशाल शरीर इसमे नही समा सकता है।।61,62।। उतर-उतर दस गुने िवशाल पृथवी, जल आिद आवरणो से
आवृत बहाणड रप बहा के घर से आगे साखय, वैषणव आिद के शासतो मे पिसद चौबीस तततवो के और शैव, पाशुपत
आिद के अिभमत छतीस तततवो के अनत मे भी घूम रहा मेरा सवरप आज भी घूमता ही है, वािपस नही होता है। यह
देह आिद मै हूँ, इस पकार की िनराधार यह कलपना, इतने िदनो तक मेरे हृदय मे कहा से हुई ? िजसकी आकृित का
आर-पार नही है, ऐसी मेरी यह सवलपता कैसे हुई ? ये मै हँ,ू यह िमथया भािनत ही है। कौन शरीर है ? शरीर ही जब
पिसद नही है, तो अशरीर भी कौन है ? कारण िक वनधया के पुत की नाई वनधयापुत को मारनेवाली अपिसद ही है।
इसी पकार कौन मरा ? पाण ही जब पिसद नही है, कौन उससे िवयुकत हुआ और कौन जीता है यानी पाण धारण
करता है ?।।63-65।।
अब असतय सामाजय मे आसकत हएु अपने िपता, िपतामह आिद पूवरजो के िलए शोक करते है।
मेरे िपता, िपतामह आिद बेचारे मनदमित थे, जो इस सामाजय का तयाग कर भवभूिम मे अनुरकत हुए। कहा
बहा से बढी हुई पूणर यह महादृिष और कहा सापो की नाई भयंकर आशाओं से भीषण राजय िवभूितया। यह शुद
िचनमय दृिष, िजसमे अननत आननद का भोग पापत होता है और जो परम शािनत देने वाली है, सब दृिषयो से बढकर
है। सब पदाथों के अनदर िवदमान चेतयरिहत िचदातमारप पतयक चेतनसवरप मुझको बार-बार नमसकार है। चूँिक
िचरभुकत अन के समान िजसने संसार सरिण को जीणर कर िदया है, ऐसा मै आज हो गया हूँ। अतएव चारो ओर से
चेतय के जय के फलरप सवरअनथरिनवृित को पापत हो गया हँू और पापत सब सुखो को पापत हएु मेरा जीवन सफल हो
गया है, अतएव मै सवोतकृष रप से िवराजमान हूँ। िनतयबोधरप इस उतम सामाजय का तयागकर अरमणीय राजय के
िविवध दुःखो मे मुझे आननद नही िमलता।।66-71।। भूतल मे, जहा पर वनदुगर मे लकिडया, जलदुगर मे जल और
िगिरदुगर मे पतथर िवपितयो के समय शरण होते है, सवािमतव के अिभमान से जो सतृषण हुआ उस अजानी बेचारे
कुदानवरपी कीडे को िधकार है। एकमात अिवदातमक अन पान आिदपदाथों से अिवदामय गिहरत शरीर को तृपत कर
रहे अजानी हमारे िपता ने कया िकया ? कुछ वषों तक इस जगदूपी समपितयुकत छोटे से मठ को पाकर िहरणयकिशपु ने
कया कशयप के कुल मे जनम के अनुरप परमपुरषाथर पापत िकया ? इस आतमरप आननद का आसवाद ने लेकर यहा
सैकडो जगदाजयो का आसवाद ले रहे पुरष को कुछ भी आसवाद नही िमला।।72-75।।
एक की पािपत से िह िवषय के िबना ही सब िवषयसुखो की पािपत होती है, ऐसा कहते है।
िजसे कुछ भी पापत नही हुआ, इस परम अमृत को पाकर पूणर अनतःकरणवाले हुए उसको यह सब िनरनतर
पापत हो गया। मूखर इस परमपद को तयागकर पिरिमत पदाथर को पापत होता है जानी नही। ऊँट ही सुनदर लता का
तयागकर काटो की ओर जाता है अनय नही। इस परम दृिष का तयाग कर इस गिहरत राजय मे िकसको पीित होगी ?
कौन बुिदमान पुरष ईख के रस का तयाग कर नीम के पतो का कडवा रस पीयेगा ? सचमुच मेरे िपता, िपतामह सब
मूखर ही रहे, िजनहोने इस दृिष का तयागकर राजयरपी िवपित मे पीित की। कहा फूली हुई ननदनवन सी सथिलया,
कहा सनतपत मरभूिमया, कहा शानत ये जानदृिषया और कहा भोगायतन शरीरािद मे आतमबुिद ? तैलोकय मे राजय को
पापत कुछ भी सुख नही िमलता है िफर भी उसे ही पुरष चाहता है, िकनतु िचत तततव मे तो सब कुछ िनिहत है, उसका
जान कयो नही करता ? सब मे िसथत, सवसथ और सम, िनिवरकार, सवररप िचत् से सदा सब जगह सुख के साधन
खुशी से पापत होते है। तेज की भासनशिकत, चनद की अमृतपािपत, िहरणयगभर की सवरमानयता, इनद की सवोतकृष
तैलोकयराजता, िशवजी की िनरितशय जान, ऐशयर, आननद शिकत पूणरता, िवषणु की जयलकमी, मन की शीघगितता, वायु
की बलवता, अिगन की दाहकता, जल की आपययकता, भृगु आिद मुिनयो की महातपः िसिद, बृहसपित की िवदा,
िवमानो की आकाशगित, पवरतो की िसथरता, समुद की गमभीरता, मेर पवरत की महोनतता, बौद िसदानत मे िसद
शूनयतारप सवर उपदव शािनत या बहसाकातकार समबिनधनी सवर अनथरिनवाणशिकत, मिदरा की मदचंचलता, वसनत
ऋतु की पुषपमयता, वषा ऋतु की मेघशबदता, यको की मायामयता, आकाश की िनमरलता, िहम की शीतलता, गीषम
ऋतु की तपतता ये और इनसे अितिरकत अनयानय बहुत सी देश, काल और िकयारप नाना आकार िवकारो से उतपन,
भूत, भिवषयत और वतरमान तीनो लोको के अनदर िसथत िविचत शिकतयो का सवसथ, सम िनिवरकार परमचैतनय दारा,
जो तत्-तत् शिकत के कायर के अनुसनधान से युकत है, िनमाण िकया जाता है।।76-90।।
िविचत पदाथों की िविचत पभा िदखाई देती है, ऐसी अवसथा मे िचत् की समता कैसे ? इस पर कहते है।
जैसे सूयर की पभा वृित से िकये गये सथाणु, पुरष इतयािद िवकलपो से रिहत हो सब पदाथों मे समान रप से
िगरती है वैसे ही सब वृितयो मे पिवष िचत् भी िचतवृित मे िसथत िवकलपो से रिहत होकर सैकडो पदाथों मे समानरप
से िगरती है।।91-92।।
िदशा और काल के भेद से उतपन वैषमय भी उसमे नही है, ऐसा कहते है।
जैसे सूयर की पभा सब िदशाओं के मधय मे िसथत तीनो कालो मे चेषा से युकत पचुर पदाथररािश को एक कण
मे पकािशत करती है वैसे ही यह िनमरल िचित सारे संसार की िवशाल दृशय शोभा को, जो तीनो कालो मे िसथत है, एक
कण मे पिथत कर देती है।।93।।
देश और काल के भेद सवपदेश और सवपकाल की दीघरता के तुलय अिभन काल वाले चैतनय से ही भािसत
होते है, ऐसा कहते है।
अखणड ही शुद िचित अिभनकाल से समबद होती हईु ही अतीत, अनागत आिद तीनो कालो की सैकडो
कलपनाओं से िभन सी और पतयक, अनुमान, उपमान आिद अननत पमाण, पमेय और पुरषो के भेद से िभन
कलेवरवाली-सी पतीत होती है।।94।।
अतएव कालभेद और वृितभेद होने पर उसके साकी चैतनय का भेद नही है, इसिलए उसमे पूणरता ही है, ऐसा
कहते है।
चैतनय की, िजसे तीनो कालो का पिरजान है और िजसमे अननत वृितया देखी गई है, पूणरता ही, िजसका
दूसरा नाम समता है, अविशष रहती है।।95।।
अतएव दो मधुर रसो का अथवा दो तीखे रसो का एक ही समय सवाद लेने पर िवषय का भेद रहने पर भी
अनुभव का भेद नही होता, इसिलए िवषय आिद का भेद िचत् के भेद का पयोजक नही है, ऐसा कहते है।
शहद और नीबु आिद पतयेक की अनुभूित के समान एक काल मे अनुभूत तुलय रसवाले दो मधुर रसो से और
दो कडुवे रसो से भी िचित समता को ही पापत होती है यानी उनसे िचित मे भेद नही होता है।।96।। घट, पट आिद
िविचत पदाथर शोभा भी अनयोनय के वयावतरक भेद संकलपकला का तयाग की हुई, सूकम, सवरगत, एकमात सता
अदैतरप िचदवयवसथा एक ही समय मे अनुभूयमान होती हईु समता से अनुभूत होती है िवषमता से नही यानी िवषयआिद
का भेद िचत् का भेदक नही है, यह दोनो का अथर है।।17,18।।
भेदसंकलपकला के तयाग का उपाय कहते है।
िचत से वाचारमभण शुित दारा, 'नेित नेित' इतयािद शुित दारा और आचायोपदेश, सविवचार आिद से भी सब
दृशय के अभाव का आशय कर वह िचतरप भाव, शोक, मोह आिद के पिरणामरप दुःखता का तुरनत तयाग करता है।
िफर भी राग आिद के संसकारो की दुषता से समयानतर मे शोक आिद की पुनः उतपित हो सकती है, अतएव
सवरदृशयपितषेधरप अभाव से परमाथर सद् अदैताननदसवभाव आतमा का दशरन कर वह िचतरप भाव राग आिद दुषता
का भी तयाग कर देता है, कयोिक 'रसोऽपयसय परं दृषा िनवतरते' ऐसा भगवान का वचन है, इसिलए बीज (राज आिद)
के अभाव से भेद-संकलपकला का तयाग िसद हो जाता है, यह अथर है।।99।।
उकत अथर का पकारानतर से उपपादन करते है।
वतरमान चेतय की (दृशय की) उपेका करने वाले, अतीत चेतय के वासनारपी बनधनो से शूनय और चेतय के
आधारभूत तीनो कालो का दशरन न कर रहे चैतनय के भावी चेतययोग की भी भावना नही की जा सकती, अतएव समता
ही अविशष रहती है।।100।। उकत िचित वाणी वयवहार के अगोचर होने से शाशत असता को पापत सी होती है।
नैरातमिसदानतदशा को (शूनयवादी की िसदानतावसथा को यानी शूनयरपता को) पापत हुई िसथत होती है, चूँिक िसथत
है, इसिलए वसतुतः नैरातमयिसदानतदशा को पापत नही हुई है कारण िक सत् असत् नही हो सकता।।101।। जो
(िचत्) िसथत है वह शासतीय वयवहार मे पतयक् होने के कारण आतमा है तथा बृहत् होने से बह है, परमाथर दृिष से तो
उसमे वािणयो की पवृित का अभाव होने से कुछ भी नही है। यिद पवृित िनिमत की कलपना से शबद पवृित कही जाये,
तो संकोच हेतु का अभाव होने से सब पवृित िनिमतो की कलपना होने से वह सब है, कयोिक, 'यतो वाचो िनवरतनते
अपापय मनसा सह' और 'समात् ततसवरम् भवत्' इस शुित मे दोनो पकारो का िनरपण है। सब दृशयो का परम उपशम
होने पर उनकी अविध होने से लय को पापत न हुई यह िचित परम समता 'मोक' नाम से कही जाती है।।102।
इस पकार भेदसंकलप की कलपना का तयाग उपायपूवरक कहा। एवं कलप की कलपना मे िचित की मनदता के
पसार के कम को कहते है।
संकलप से किलपत तो यह िचित पटलरप आवरण से युकत दृिष के समान मनदाभास (मनदपकाश) होने के
कारण इस जगत को परमाथररप से नही देखती है। जो िचित इष-अिनष संकलपरप मलो से भीतर ओत पोत है वह
जैसे जाल मे बँधी हईु िचिडया आकाशमागर से उडने मे समथर नही होती वैसे ही सारे आकाश को वयापत करने मे समथर
नही होती है।।103,104।। जो कोई भी ये नेतिवहीन पिकयो की तरह मोहरपी जाल मे पडे है, वे सब संकलप
कलपना से ही पडे है। िविवध संकलपो से पिरवेिषत अतएव िवषयरपी गडढो मे िगरनेवाले मेरे िपता, िपतामह आिद
पूवरजो ने यह दुःख शूनय अपिरिचछन आतमपदवी नही देखी। अपिरिचछन आतमपदवी के अदशरन से गडढो मे मचछरो के
तुलय पृथवी पर सुशोिभत हुए वे बेचारे मेरे िपता, िपतामह आिद कुछ ही िदनो मे नष हो गये। दुबुरिद अतएव भोगरपी
दुःख की चाह वाले वे लोग यिद आतमतततव को जान गये होते, तो भाव और अभावरपी अनधे कुएँ मे न िगरते। सब
जीव इचछा-देष से उतपन दनद मोह से यानी सुख-दुःख, शीत-उषण आिद के उपाजरन और पतीकार के अिभिनवेश से
िछद मे िछपे हुए कीडो के तुलय हो गये है। िजसकी इष और अिनषकलपनारपी मृगतृषणा सतयजानरपी मेघ से
(दनदताप की शािनत दारा) शानत हो चुकी है, उसका जीवन साथरक है।।105-110।।
केवल सतयजान से इषािनष कलपनारप मृगृषणा का कैसे नाश हो सकता है ? ऐसा यिद कोई कहे तो उस
पर उसके असत् होने से ही उसकी शािनत होती है, ऐसा कहते है।
चादनी की मनदोषण एवं कलंकयुकत (काली) छिव की तरह िनरनतर िनमरल आकारवाली इस शुदिचत की
कलपनाएँ कहा से हो सकती है ? अब अखणडवाकयाथर का साकातकार कर अखणड वाकयाथररप से िसथित पापत हुए
अतयनत दुलरभ आतमा को पेम से नमसकार करते है। हे लोगो के जानपकाश हेतुभूत मिणरप, हे देव, आप िचरकाल मे
पापत हुए हो। अिविचछन िचदातमरप मुझ आतमा को नमसकार है।।111,112।। हे भगवन, िचरकाल तक मैने
आपका िवचार िकया है, आपको पापत िकया है, अपने पारमािथरकरप से अिभवयकत िकया है और िवकलपो से आपका
उदार िकया है, आप जो है वह है आपको नमसकार है। मुझ रप आप अननत को, मुझरप आप िशवदेवािधदेवपरम
परमातमा को नमसकार है। मेघरपी आवऱण से शूनय पिरपूणर चनदिबमब के तुलय कलनारपी आवरण से रिहत अपने ही
रप को, जो आननदैकरस सवातमा मे सवयं (अनय िकसी आधार के िबना) अपने पारमािथरकरप से िसथत, सवपकाश
सवाधीन आननदवाला है, अिभनरप मै पणाम करता हूँ।।113-115।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
चौतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआ आआआ आआआआआ आआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआ
आआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ। आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआ
पहाद ने कहाः 'ओिमित बह (ॐ बह है), ओिमतीदं सवरम् (ॐ यह सब है)।
एतदै सतयकाम परमचापरं च बह यदोकारः' हे सतयकाम,यह पर और अपर बह है, जो यह ओंकार है।)
इतयािद शुितयो से सबके अधयोरोपवाले बह का बोधक और सबके अपवाद से पिरिशष बह का बोधक' ॐ ही िजसका
सवानुरप अिभधान है और िवकारो से रिहत यह आतमा ही जो कुछ इस जगतीतल मे िसथत है वह सब कुछ है।।
1।।
यह आतमा एकमात देह के अनतगरत है, यह बाह सूयर आिद सब कुछ कैसे हो सकता है ? ऐसी यिद कोई
शंका करे, तो सूयर आिद बाहपदाथों का पकाशक होने से, ऐसा कहते है।
यह चेतन मेदा, अिसथ, मास, मजजा और रकत आिद रप देहपिरिमत नही है, िकनतु उससे अतीत है। सूयर
आिद के अनदर िसथत दीपकरप यह सूयर आिद को पकािशत करता है।।2।।
केवल उससे पकाशय होने के कारण सब कुछ तदातम कैसे है ? ऐसी यिद िकसी को शंका हो, तो उस पर
कहते है।
चूँिक अिगन आिद की उषणसवभावता िचत् के अधीन उषणता के भान के अधीन है, इसिलए िचदातमा ही
सवसता से अिगन को उषण करता है एवं जल को, जो अपनी सता से ही सतावाला है, रसरप से पगट करता है।
इसी पकार जैसे राजा भोगो को भोगते है वैसे ही वह अनयानय इिनदयानुभावो का भोग करता है।।3।। सदा िनिषकय
रहता भी वह बैठे हुए की तरह गित आिद वयापार से िवरत नही है, कयोिक वायु और सूयर रप से सदा गितयुकत है।
कालरप से सदा चलता हुआ भी कुलाल के चक के समान एक ितलल भर भी इधर-उधर नही जाता, वयवहार रिहत
होने पर भी सब वयवहार मे िसथत है, कमर करता हुआ भी उनके फल से िलपत नही होता।
यिद कोई शंका करे िक पूवरजनम के कमों से इस समय सुख-दुःख से िलपत होता है और इस समय यहा पर
िकये गये कमर से परलोक मे सुख दुःख से िलपत होगा)।।4।।
ऐसी िसथित मे 'कुवरनिप न िलपयते' ऐसा कैसे कहते है ? तो इस पर कहते है।
पूवरजनम मे, आज और इस समय इस लोक मे, पर लोक मे तथा इस लोक की सिनधरप सवप मे शासत से
अिनिषद (िविहत) शुभ कमर के फलो का भाग करता हुआ और शासतिनिषद अशुभ कमों के फलो का भोग करता हुआ
भी यह सब भोगवृितयो मे सम रहता है। भाव यह है िक दृशय भोगो से दषा मे िवकार का संभव नही है।।5।।
यिद कोई कहे िक भोग यिद भोकता का सपशर नही करते है, तो भोगो से कमों की सफलता कैसे होगी ? तो
इस पर कहते है।
वसतुतः भयरिहत यह आतमा ही तत् तत् कमों के अनुरप सवयं होता है और उतपन हुआ बहा से लेकर
तृणपयरनत भोकता और भोगो तथा उनके आधार चौदह भुवनो को केवल अपनी सिनिध से घुमाता रहता है। वही इसका
कमरफल है।।6।।
यिद कोई शंका करे िक आतमा मे यिद सपनदन ही नही है, तो वह जगत को कैसा घुमायेगा, तो इस पर कहते
है।
िनतय आतमसता ही सपनदसता है, इसिलए वह सदा चलने वाले देवरपवायु से भी िनतयसपनदमय है।
िनतयसथाणु से भी बढकर िनिषकय है और िनतय आकाश से भी बढकर लेपरिहत है।।7।।
यिद कोई कहे िक मन अथवा इिनदया ही देहािद को कमर मे पवृत करती है, आतमा नही करता, तो इस पर
कहते है।
जैसे वायु पललवो मे हलचल पैदा करता है वैसे ही यह आतमा मन मे कोभ पैदा करता है। जैसे सारिथ घोडो
को हाकता है वैसे ही यह अपनी इिनदयो को तत्-तत् कायों मे पवृत करता है।।8।। भोगो का भोग करने वाले िवभु
आतमा समाट के समान अपना आतमा मे सवसथ होकर िसथत होता हुआ भी अित दुदरशागसत पुरष के समान देहरपी घर
मे सदा कमरिनरत रहता है। इसी का सदा अनवेषण करना चािहए, इसी की सतुित करना चािहए और इसी का धयान
करना चािहए। खोजे गये इसी से पुरष जरामरणरपी संसार से पार होकर परमपद को पापत होता है। सभी के
शरीररपी पदगभर मे भमररप यह केवल जान से पापत होने के कारण अतयनत सुलभ है। अतयनत आपत बनधु के समान
केवल समरणमात से ही वश मे हो जाता है।।9-11।। दूरदेशवती िमत आिद का जोर से िचललाकर पुकारने से और
नजदीक मे िसथत िमत का केवल पुकारनेमात से लाभ हो जाता है। िकनतु यह तो िबना जोर से पुकारे अपने शरीर से
ही पापत हो जाता है तथा केवल पणव के उचचारण से थोडा समरण करने पर कणभर मे सनमुख हो जाता है।।12।।
जैसे सेिवत होने पर सवरसमपितशाली धनी को अिभमान या गवर हो सकता है वैसे सेवन िकये जा रहे सवरसमपितशाली
इसको तिनक भी मान या गवर नही होता।।13।।
कैसे यह देह मे िवदमान रहता है ? ऐसा पश होने पर कहते है।
फूलो मे सुगनध की तरह, ितलो मे तेल की तरह और रसो मे माधुयर की तरह वह सब शरीरो मे िसथत है।।
14।। जैसे िचरकाल से पहले न देखा गया और ततकाल आगे देखा गया िपता आिद बनधु पिरजान मे नही आता है
वैसे ही सदा हृदय मे िवदमान भी यह चेतन अिवचारवश जात नही होता।।15।। जैसे िपय बनधुजन के पापत होने
पर परम आननद होता है वैसे ही िवचार के दारा इस परमेशर के जात होने पर परमाननद होता है।।16।। अितशय
आननद देने वाले इस परमातमरप परम बनधु के दशरन होने पर वे दृिषया पापत होती है, िजनसे मरणािद िवचछेद नही
होता। सब ओर से सनेह आिद पाश टू ट जाते है, काम आिद शतु सब नष हो जाते है और तृषणाएँ जैसे दुष चूहे घरो
को िछन-िभन करते है वैसे मन को िछन –िभन नही करती।।17,18।।
एकमात उसके िवजान से सवरिवजान होता है, ऐसा कहते है।
इस परमातमा का दशरन होने पर सारा जगत दृष होता है, इसके सुनने पर सब सुना जाता है, इसका सपशर
होने पर सारे जगत का सपशर हो जाता है तथा इसके रहने पर जगत िसथत होता है यानी जगत उसकी सता के अधीन
सतावाला है।।19।।
'एष सुपतेषु जागितर कामं कामं पुरषो िनिमरमाणः।' इस शुित का अवलमबन करके कहते है।
सोये हुए लोगो के बीच मे यह जागत रहता है, अिववेिकयो के ऊपर पहार करता है, दुःिखयो की आपित दूर
करता है और जो महातमा नही है, उनको मनोवािछत देता है। जगत िसथित मे यह आतमा ही जीव होकर लोको मे
िवचरण करता है, भोगो मे िवलास और वसत, आभूषण, समान, उतसव आिद वसतुओं मे शोिभत होता है।।20,21।।
असाधारण जीवभेदभमदशा मे भी इसकी साधारण एकातमयसफूितर की कित नही होती, ऐसा कहते है।
अतः जैसे िमरचो मे तीकणता रहती है वैसे ही शानतातमा से आतमा का ही अनुभव करता हुआ यह सब देहो मे
िसथत है।।22।। चेतना (पूवरकाल और उतरकाल का अनुसनधान) और कलना (वतरमान दशरन) रपी, बाह और
आभयनतर चेतनोपािधयो मे िसथत यह जगत पदाथों के संभार मे तो अिधषान सता सामानय सवभाव को पापत हुआ
है।।23।। आकाश मे यह शूनयता है, वायु मे सपनदन है, तेज मे यह पकाश है, जल मे यह मधुर रस है, पृथवी मे
कािठनय है, अिगन मे यह उषणता है, चनदमा मे यह शीतलता है और सब जगतो मे यह सता है।।24,25।। काजल
मे कािलमा है, िहमकण मे जैसे शीतलता है, पुषपो मे जैसे सुगनध है वैसे ही देह मे देहपित (आतमा) पकािशत होता
है।।26।।
इसकी मन, इिनदय आिद से वयावृत सवरकेत साधारण पकाशता को ही िदखलाते है।
जैसे सता सवरगत है, जैसे काल सवरगत है और जैसे राजा की पभुशिकत सवरदेश मे वयापत होती है वैसे ही नेत
आिद के वयापारो और मानिसक वयापारो से युकत जो बाहरी और भीतरी पकाश है, वह आतमा का ही कायर है यानी
पकाशैकसवभाव है। इसी पकार सूयर-चनदािद सब देवताओं का भी बोधक यह पिसद महादेव मै ही हूँ। मेरी दूसरी
कलपना ही नही है।।27,28।। जैसे अतयनत सूकम रेणु से आकाश का समबनध नही होता, जैसे जल से कमल दल
का समबनध नही होता और जैसे पाषाण का भय, कमप आिद से समबनध नही होता वैसे ही मेरा अनयो से समबनध नही
है।।29।। तुमबी के ऊपर जलधाराओं के तुलय मे देह मे सुख-दुःख िगरे अथवा न िगरे उससे तुमबी के आकाश के
तुलय हम लोगो की कौन कित है ?।।30।। दीपक के अंगभूत तेल, बती, बतरन आिद का अितकमण करके िनकला
हुआ दीप पकाश जैसे रससी से नही बाधा जाता वैसे ही सब पदाथों से अतीत मे बद नही होता हँू। काम, भाव, अभाव
और इिनदयो से हमारा कया समबनध है ? भला बतलाइये तो सही आकाश का बाधना समभव नही है, मन का ताडन
समभव नही है, वैसे ही काम, भाव, अभाव और इिनदयो से हमारा कोई समबनध नही है।।31,32।। शरीर के सैकडो
टुकडे होने पर शरीरी के (आतमा के) कौन खणड खणड होते है, घडा चाहे टू टे, फूटे या धवसत हो जाय, पर घटाकाश
की कया कित हईु ?।।33।। अदृशय िपशाच के समान यह िमथया मन उिदत हुआ है, जान से (मन अितिरकत आतमा
के जान से) जड मन का िवनाश होने पर हमारी कया कित हुई ? पहले (अजानावसथा मे) िजसकी सुख-दुःखमयी वासना
है, इस पकार का मेरा मन हुआ था, अब तो मेरी एकमात अपिरिचछन सुख िवशािनत हो गई है।।34,35।। अनय भोग
करता है, अनय गहण करता है, अनय की अनथरगित होती है, यह देखता है इस भोकता आिद की एकता के कारण
अधयासरप मूखरता िकस जादूगर की चकी के समान घुमाने की चातुरी है।।36।। पकृित भोग करती है, मन गहण
करता है, देह को कलेश पापत होता है, आतमा पवृित आिद से दुष (दोषारोिपत) होता है। िवचार करने पर केवल आतमा
मे कुछ भी मूखरता नही है, इसिलए कोई कित नही है।।37।। न मेरी भोग भोगने की आकाका है और न भोगो के तयाग
मे मेरी वाछा है जो आता है वह आये और जो जाता है वो जाये।।38।। सुखो की मुझे अपेका नही है और दुःखो मे
मेरी उपेका नही है। सुख-दुःख चाहे आये अथवा जाये मै इनसे मौन हँू।।39।। िविवध वासनाएँ मेरे शरीर मे चाहे
असत को पापत हो चाहे उिदत हो, न इस वासनाओं मे मै हूँ और न ये मेरी कोई है।।40।। अतयनत िवनष हुए
िववेकरप सवरसव के दूरकर इतने समय ता अजानरपी शतु ने मुझे कलेश पहुँचाया, िकनतु इस समय उतपन हुए सवाग
सुनदर शीिवषणुपसाद से परम तततव का जान पाकर मैने इसका तयाग कर िदया है।।41,42।। इस समय परम
जानरपी मनत से इस अहंकाररपी िपशाच को शरीररपी वृक के खोखले से मैने िनकाल िदया है।।43।।
अहंकाररपी यक से िवहीन यह मेरा शरीररपी महान वृक अतयनत पिवतता को पापत होकर पफुिललत वृक के समान
सुशोिभत हो रहा है।।44।। दुराशारपी दोष का नाश होने पर िववेकरपी धन समृिद को पापत कर मेरी मोहरपी
दिरदता नष हो चुकी है, अतएव मै परमेशररप से िसथत हूँ।।45।। मैने जातवय सब कुछ जान िलया है तथा दषवय
सब कुछ देख िलया है। इस समय मुझे वह वसतु पापत हो चुकी है, िजससे कुछ भी अपापत नही रहता है। मै ऊँची
और िवसतृत पारमािथरक भूिमका को पापत हो चुका हूँ, िजसमे अनथों का नाम-िनशान नही है, िवषरपी साप नही रह गये
है, आशारपी मृगतृषणा शानत हो चुकी है, मोहरप कुहरा नष हो गया है, िजसकी चारो िदशाएँ रजो गुण (धूिल) से रिहत
है और िजसमे शीतल शािनतरपी वृक है। िवषणु भगवान की सतुित से, पणाम से, पाथरना से, शम और िनयम से मै
भगवान आतमा को पा चुका हूँ और मैने इसे भलीभाित जान िलया है। भगवान िवषणु के अनुगह से िवनाशी बहरप
भगवान आतमा, जो अहंकार से शूनय है, िचरकाल से मेरे समृितपटल पर आरढ हो गये है। वासनारपी घोर वनो मे,
जहा पर इिनदयरपी सापो के अनेक िबल है, मरणरपी बडे-बडे गडडे है, तृषणारपी करंजकु ंज (करंजो की झािडया) है,
जो काम कोलाहल से पूणर है, िजनमं दुःखरपी वनािगनया धधकती है तथा दुःखदायी वनािगन के सदृश कूर पर धन-पाण
हरने वाले (चोर) है, अहंकाररपी शतु ने नीचे िगरने और ऊपर चढने के तुलय लोको की िवपित और समपितयो से,
अधोगित और उतमगितयो से, आिवभाव और ितरोभावो से एवं आशा-पाशो की िविवध चेषाओं दारा मुझे ऐसे ही सवरसव
हरण दारा पीिडत िकया, जैसे िक राित के समय अलप बलवाले पुरष को, जंगल मे िपशाच पीिडत करता है। िकनतु
इस समय मैने पसन हुए िवषणु भगवान के बहाने अपनी ही िकया-शिकत से सवयं िववेक को उदीपत कर िलया है। उकत
िववेक से परमेशर आतमा के पबुद होने पर मै उस अहंकाररपी िपशाच को ऐसे नही देख रहा हँू, जैसे िक सूयर के उिदत
होने पर अनधकार नही िदखाई देता है। जैसे बुझे हुए दीपक की गित जात नही होती यानी वह कहा चला जाता है यह
मालूम नही होता वैसे ही मनरपी िबल मे िनवास करने वाले उस अहंकाररपी िपशाच की गित को परमेशररप मै नही
जानता हूँ। जैसे सूयोदय होने पर चोर भागने की तैयारी करता है वैसे ही ईशररपी आपका साकातकार होते ही मेरा
अहंकार भागने के िलये ततपर हो गया। िपशाच की नाई भािनतवश िमथया उिदत हुए अहंकार के चले जाने पर मै
िजससे अजगर भाग गया हो उस बगीचे के तुलय सवसथ होकर बैठा हूँ। इस जगत मे जानवान मे अहंकाररपी चोर से
छुटकारा पा चुका हँू और िचरकाल से िनवृत हुआ हँू यो सोचकर मै िवशािनत को पापत हो रहा हँू और िनवाण को पापत
हो रहा हूँ। वषा ऋतु की जलरािश से सीचे गये अतएव वनािगन की लपटो से रिहत पवन के समान मै हृदय मे
शीतलता को पापत हो गया हँू। मेरी आशारपी मृगतृषणा शानत हो चुकी है। आतमतततव के िवचार अहंकार के
पिरमािजरत होने पर कया मोह है, कया दुःख है, कया तुचछ आशाएँ है और कया मानिसक िचनताएँ है यानी ये कुछ भी नही
रहते है। जैसे िचतिनमाण की चेषा दीवार मे ही होती है आकाश मे नही होती वैसे ही अहंकार के रहते ही नरक, सवगर,
मोक आिद भम होते है। जैसे वसत के मिलन होने पर उसमे कु ंकुम का रंग शोिभत नही होता है वैसे ही िचत मे
अहंकारावेशरप िपतज उनमाद के रहने पर जान चमतकार शोिभत नही होता है। अहंकाररपी चनदमा के पकाश से
शोिभत होने वाली िनमरलता शोिभत होती है। हे आतमन्, अहंकार कीचड से हीन, अतयनत पसन आननद के सरोवर
पतयागतमरप तुमको (बह) बार-बार नमसकार है।।46-66।। हे आतमन्, िजसके इिनदयरपी भयंकर मगर शानत हो
गये है, िजसका िचतरपी बडवानल नष हो गया ऐसे आननद के सागर पतयगातमरप तुमको (बह) बार बार नमसकार
है। िजससे अहंकाररप मेघ चला गया है और आशारपी वनािगन िजसमे शानत हो चुकी ऐसे िनशल आननद पवरतरप
पतयगातम बह को पुनः पुनः नमसकार है।।67,68।। हे आतमन्, िजसमे आननदरपी कमल िखले है और िचनतारपी
लहरे शानत हो चुकी है ऐसे सुनदर मानसरोवररप पतयागातमभूत तुमको पुनः पुनः नमसकार है। बुिद और उसकी वृित
मे पितिबिमबत चैतनय ही िजसके पंख है, जो हृदयरपी कमल के मधय मे िनवास करता है और जो मानसरोवर मे हंस के
समान सबके मन का हंसरप है ऐसे आतमा को बार बार नमसकार है।।69,70।।
हे पूणातमन् - 'एतसमाजजायते पाणो मनः सवेिनदयािण च' इतयािद शुित मे कही गई सतह कलाओं से अथवा
'षोडशाकलः सोमयपुरषः' इस शुित मे िदखलाई गई सोहल कलाओं से िजसने अपने रप की कलपना है, वसतुतः जो
िनरवयव है, सदा उिदत अमृतरपी चनदरप (●) आपको नमसकार है। सदा उिदत, सनताप न पहुँचाने वाले हृदय के
अनधकार (अजान) का नाश करने वाले, सवरवयापी होने पर भी अदृशय, चैतनयरपी सूयर को पुनः पुनः नमसकार है।।
71,72।। तेलरिहत, परम पेम की उदीपत करने वाले, वृित दारा िनषकमणरप बती से युकत सब वसतुओं के सवभाव के
आधाररप बुिदपकाशक चैतनयरप दीपक को बार बार नमसकार है।।73।।
● चनदमा के पक मे पिसद सोलह कलाओं से िजसका रप बना हुआ है, कला से अितिरकत देवतारप और
अमृतसवरप, ऐसा अथर करना चािहए।
अब मेरा पौरष सफल है, यो उसका अिभननदन करते है।
जैसे लोहे के घन से तपा हुआ लोहा टू ट जाता है वैसे ही शम, दम आिद से युकत मन से कामािगन से सनतपत
मन को मैने जबरदसती नष कर िदया है। पतयगातमोनमुख चकु आिद इिनदयो से बाह पदाथोंनमुख मन का उचछेद कर
और पतयगातमोनमुख अहंकार से बाहपदाथोनमुख उचछेदकर अविशष िचनमात मे सवोतकृष रप से िसथत हँू। शदा से
अशदा का उचछेद कर, अतृषणा से तृषणा का तयाग कर, िवचारवती बुिद से अिवचार, सनदेहािद रप अपजा का
िवनाशकर जातृतवािभमानशूनय जानमातसवभाव ही तुम हो, ऐसे पतयकचैतनयरप तुमको नमसकार है। मन से उिचछन मन
के िनरहंकार होने पर तथा बहहंभाव से देहािद मे अहंभाव के िवनष होने पर केवल सवचछ िचनमातसवभाव मै रहता हूँ।
भावना मे हेतुभूत बुिद से रिहत, अहंकाररिहत, मनरिहत, इचछा हेतुभूत िचत से शूनय मेरा शरीर एकमात पाणनिकया से
शुदसवरप वाले जीवनमुकत आतमा मे ही िसथत है। लीला से ही भोग-ऐशयरदान दारा अपने अननत भकतो पर अनुगह
करने वाले बहा, िवषणु आिद से भी उतकृष िनरितशयाननद िवशािनत, जो परम शािनत से युकत है, मुझे पापत हो गई।
मेरा मोहरपी वेताल शानत हो चुका है, अहंकाररपी राकस मुझको छोडकर चला गया है और कुितसत आशारपी
िपशािचनी से मै छुटकारा पा चुका हँू, अतएव मै सनतापरिहत हो गया हँू। तृषणारपी रससी को तोडकर दुरहंकाररपी
िचिडया मेरे शरीररपी िपंजर से उडकर न जाने कहा चली गई है। िनिबड अजानरपी घोसले को जानाभयासवश चूर-
चूर कर के उठा देने पर अहंभावरपी पकी मेरे शरीररपी वृक से उडकर न मालूम कहा चला गया है। बडी पसनता की
बात है िक दुराशाओं से और लमबे अरसे से दुष देह आिद मै आतमतततव के अिभमान से मिलन और भयरपीसपों से
िलए िहतैषी बहुत सी मेरी दुवासनाएँ समािध से उिचछन हो गई है।।74-83।।
अब नीद टू टने पर सवप की दुदरशा की तरह अपना पहले की अहंकार दशा का समरण कर आशयर करते है।
इतने समय तक मै कौन हुआ ? इससे यह मै िमथया ही दृढ अहंकार को पापत हुआ, ऐसा आशयर है। आज मै
अनुभव मे आ रहे िनरितशयाननद सवभाववाला हो गया हँू। मेरी साकातकारवृित अपिरिचछन बहाकार हो गई है, कयोिक
अहंकाररपी काले बादल ने मेरा सवरथा तयाग कर िदया है। मैने भगवान आतमा का वाकय पमाण से दशरन कर िलया है
और उनका मनन से जान भी कर िलया है। समािध मे मन से शलेषपूवरक उनहे पा िलया है और समािध मे उनका
अनुभव कर िलया है। अपने शरीर के समान सदा अनुभूित मे उनका िनयोग भी कर िलया है। कहा भी हैः
देहातमजानवजजानं देहातमजानबाधकम्। आतमनयेव भवेद यसय स नेचछनिप मुचयते।। (देहातमजान के समान िजसे
देहातमजान का बाधक जान हो जाता है, वह मुिकत न चाहता हुआ भी मुकत हो जाता है।)।।84-86।।
अब दोष और िवकेपरिहत मेरा मन शानत हो गया है, ऐसा कहते है।
िवषयरिहत, अतएव मनन और एषणारिहत, अहंकारभमो से सवरथा मुकत अतएव िनशेष, रागो के समपकर से
रिहत और भोगोतकणठा से शूनय मेरा मन ईधनरिहत अिगन के समान शािनत को पापत हो गया है।।87।।
मन की शािनत से ही सब आपितयो की िनवृित और काम, लोभ, मोहािद दोषो को देने वाली, िचरकाल तक
एकमात दुःखरप, कण-पितकण मे िविचत दुःखरप, असह, दुसतर बडी-बडी आपितया नष हो गई है और चैतनयघन
अिदतीय पूणाननद आतमा पापत हो गया है, कारण की पतयगातमा मे अजानजाङय जान से बािधत हो चुका है।।88।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पैतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआ आआ
आआआआआ
आआ आआआआआआ, आआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआ आआआ
आआआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ। आआआ आआआआआआ आआआ आआआ आआआआआ
पहाद ने कहाः मानुष आननद से लेकर िहरणयगभर के आननदपयरनत सब सुखोतकषर के सथानो से भी बढकर
आननदरप पतयगातमा िचरकाल से मेरे समृितपट पर आरढ हुआ है। हे भगवान, तुम भागय से मुझे पापत हुए हो।
अपिरिचछन सवभाववाले तुमको नमसकार है। दशरन कर पणाम करके िचरकाल तक समािध मे कीर-नीर की तरह
सिममिलत रप से मेरे दारा आपका आिलंगन िकया जाता है। हे भगवान, तीनो भुवनो मे तुमहारे िसवा मेरा कौन परम िपय
होगा ? जब तक तुम िमलते नही, तुमहारे दशरन नही होते तब तक मृतयु होकर तुम अभकतो का नाश करते हो और
भकतो की रका करते हो, उपासना आिद कमों से आरािधत होकर वरदान देते हो, सतुितकता आिद के रप से सतुित
करते हो, गमनकता के रप से चलते हो और सवररप से वयवहार करते हो। मैने तो यह िनतय अपरोक सवभाव आतमा
को पा िलया है और देख िलया है। अब मेरे पित कया करते हो अथवा कहा जाते हो ? भाव यह िक तुम इस समय
पहले की नाई अनयत नही जा सकते और कुछ नही कर सकते।।1-3।।
हे िवशजनीन, आपने सता से सकल िवश को भर रखा है, अतः िनतय सब जगह आप िदखाई देते है। अब इस
समय आप कहा भागते हो ? हम दोनो का बहुत से जनमो से वयविहत अजान वयवधायक था। आज उसका नाश होने से
अतयनत अभेदरप समीपता पैदा हो गई है। हे बानधव, बडे भागय से मै आपको देख पाया हूँ। आप कृतकृतय है, कता है,
सबका भरणपोषण करने वाले है, आपको बार बार नमसकार है। आप संसाररपी पते के वृनतरप, िनतय और िनमरल है,
आपको नमसकार है। हाथ मे चक और कमल धारण करने वाले (िवषणुरप) आपको नमसकार है। अधरचनद धारण
करने वाले िशवरप आपको नमसकार है। देवताओं के अिधपित (इनदरप) आपको नमसकार है। कमलयोिन (बहरप)
आपको नमसकार है।।4-7।। वयवहार दृिष से हम दोनो का लहर और लहर के जल के समान जो यह भेद है, वह
वयवहारदृिष या भेद असतय कलपना ही है। पवाह से अनािद, भाव और अभावो से िवकिसत होनेवाली, अननत वसतुओं
की िविचतता से पूणर सवरपवाली अननत कलपना से आप की िवसतार को पापत हुए है। पहले सषवय (सृिष करने
योगय) पदाथों का दशरन करने वाले आपको नमसकार है तदननतर सषवय पदाथों की सृिष करने वाले आपको नमसकार
है और सृिष करके अननतरपो से िवकास को पापत होने वाले आपको नमसकार है अतएव सवरसवभाव और
अिधषानरप से सवरवयापी आपको नमसकार है।।8-10।।
इतने समय तक मेरे सवरप से आप ही मेरे अिभपायानुकूल चलने से शानत हो गये है, इस समय आपने ही
अपने को िवशाम के िलए पापत कर िलया है, ऐसा कहते है।
मदभाव को (जीवभाव को) पापत हुए तवतसवरप मैने , जो अपने कामािददोषो, के अनुसार उपिदष असनमागर मे
पवृत होने के कारण नष हुआ अतएव ितरोिहत आतमभाववाला तथा दीघर दुःख का भाजन हुआ, पतयेक जनम मे
िचरकाल तक ऊपर, नीचे और मधय लोको मे बहुत से संसारभम देखे तथा उनमे िववेक के अनुकूल दृषानत दृिषया
देखी। उस बिहलोक के दशरन से आपने अपने को पापत नही िकयाष तीनो लोको के दशरन से तिनक भी पुरषाथररप
पापत नही हुआ। यह सारा जगत िमटी, काष, पतथर और जलमात है। हे देव, िजसकी पािपत होने पर पुरषाथेचछा पूणर
होती है, ऐसी वसतु आपके िसवा इस जगत मे दूसरी नही है।।11-13।।
हे देव, आज यह तुम मुझे िमल गये हो, मैने तुमहे देख िलया है और मुझे तुमहारा सवरप पिरजात हो गया है।
मुझे तुमहारी पािपत हो गयी है, तुमको मैने गहण कर िलया है, तुम मोहशूनय हो गये हो, तुमको नमसकार है।।14।।
कैसे मै देखा गया, ऐसा यिद कहो, तो चाकुष आिद सब वृितयो के पकाशनरप से 'पितबोधिविदत् मतम्' (बह
पतयेक बोध मे जात होता है) इस शुित मे पदिशरत उपाय से मैने तुमहे देखा, ऐसा कहते है।
हे देव, अनतःकरण के चकु दारा घटािददेश िनगरमन मे घटाविचछन चैतनयरप जो नेत की पुतली िक िकरणो से
ओतपोत शरीर होकर िसथत है, वह यहा पर दशरन रप से कैसे नही िदखाई देता है ? जो तवचा और उषणतव आिद सपशर
को सपशरवृित से वयापत करता हुआ जैसे ितल के अनतगरत तेल ितल से िमले हएु पुषपो की सुगनध गहण करता है वैसे
ही शीत आिद सपशर को वयापत करके पकािशत करता है, वह कैसे अनुभूत नही होता ? जो शबद सुनने से शबदशिकत को
(गायन, कावय आिद के गुण चमतकार को) पकािशत करता हुआ शरीर मे रोमाच पैदा करता है, वह दूरवती कैसे हो
सकता है ? िजहारपी पललव मे लगी हुई मीठी, खटी आिद वसतुएँ सवादरिसक पेम के िवषयभूत िजसे पहले ही सवािदत
हो जाती है, वह िकसको सुखरप से सफुिरत नही होता है ? हाथ के समान वसतु के गहण मे कारणभूत घाणेिनदय से
गले मे डाली हुई माला के फूलो की सुगनध गहण कर जो माला से अलंकृत अपने शरीर को पसनता से देखता है, वह
िकसको हाथ मे िसथत की तरह सपष पतयक नही है ?।।15-19।। वेद-वेदानत के िसदानत, तकर, पुराण के गीत
आिद से िजनका वणरन हुआ वह िवजात आतमा कैसे िवसमृित को पापत होता है ? सवचछ परबह परमातमरप आपका
साकातकार होने पर वे ही सुनदर देह के भोग आज मुझे यह पहले के समान अचछे नही लगते।।20,21।।
'येन सूयरसतपित तेजसेदः' इस शुित के अनुसार भी कहते है।
िनमरल दीपरप तुमसे सूयर पकाशता को पापत हुआ है, शीतल िहमरप तुमसे चनदमा शीतलता को पापत हुआ है,
ये पवरत तुमहारे दारा ही गुर (भारयुकत) िकये गये है, ये वायु आिद आकाशचारी तुमसे धारण िकया गया है, यह पृिथवी
तुमहारे दारा ही अचल है और यह आकाश तुमहारे दारा ही अवकाश देने वाला है। बडे भागय की बात है तुम मतसवरपता
को पापत हो गये हो और भागय से मै तवतसवरपता को पापत हो गया हूँ। हे देव, मै तुम हूँ और तुम मै हो। बडे भागय की
बात है हम लोगो का भेद नही रहा।।22-24।।
अब अखणडाथर मे पमाणरप से समपन अहं और तवं शबदो को नमसकार करते है।
लकय महातमा के बाधन मे पयायरप, कारणोपािध िविशष वाचयाथर तुमहारे अथवा कायोपािधिविशषवाचयाथर मेरे
शाखा के समान एकदेश भूतउपािध दारा भेदकलपना से संयुकत तवम और अहं शबदो को पुनः पुनः नमसकार है। अननत
मुझ पतयगातमरप को नमसकार है, अतयनत सम सवरप को नमसकार है, अहंकार रिहत तथा रपरिहत मुझ पतयगातमा
को नमसकार है।।25,26।। सम, िनमरल िनराकार सािकभूत, िदशा काल आिद से अनविचछन सवातमरप मुझ
पतयकसवभाव मे ही आप रहते है कभी भी पराकसवभाव मे नही रहते।।27।।
यिद कोई पश करे िक पतयक सवभाव मे ही रहते है, यह कैसे जाना ? तो इस पर कहते है।
आपसे पेिरत मन कोभ को पापत होता है, आपकी पेरणा से चकु आिद इिनदयो की वृितयो सफुिरत होती है, पाण
और अपान मे पवािहत होने वाली पचुर शिकत उललास को पापत होती है। 'केनेिषतं पतित पेिषतं मनः।' इतयािद शुित मे
पदिशरत मन आिद की चुमबक के समान पेरणा से हमे यह जात हुआ, यह अथर है।।28।।
आशारपी रससी से खीचे गये, चमर, मास और हिडडयो से वयापत मनरपी सारिथ से युकत शरीररपी यनत
आपसे पेिरत होकर चलते है।।29।।
तो कया आप पाण आिदशिकत है अथवा देह मे िसथत अहंकार आिद है, ऐसी आशंका होने पर नही, ऐसा कहते
है।
यह न मै िचत् देह ही हूँ, न तो मै कोई पाण आिद शिकत हूँ और न देह मे िसथत अहंकार आिद ही हूँ।
पशः तब आपको देह से कया मतलब है ?
उतरः कुछ भी नही। देह अपनी इचछानुसार चाहे िगरे चाहे उिदत हो, उससे मेरा कुछ भी पयोजन नही है।।
30।। मै िचरकाल से 'मै' हुआ हूँ, िचरकाल से मुझे मेरा सवरप लाभ हुआ है। जैसे पलय के अनत मे पलयािगन मे
शािनत होती है वैसे ही िचरकाल से भम शािनत को पापत होता है। िचरकाल से संसार मे भमणशील होने के कारण इतने
काल तक दीघर संसार मागर मे थका हुआ मै इस समय जैसे पलय के अनत मे पलयािगन शानत होकर िवशाम को पापत
होती है वैसे ही िवशाम को पापत हुआ हँू। सबसे परे सवररप तवतसवरप मुझको नमसकार है। जो गुर अथवा वेदानत
तुमको मदूप कहते है, उनको भी नमसकार है। िजससे अननत भोग पकाशय है, िफर भी जो पकाशयो की दोष वृितयो से
सपृष नही है और िजसमे अिभिनवेश नही है (जो उदासीन है) ऐसी परमातमा की सािकता सवोतकृषरप से िवदमान
है।।31-34।। हे आतमन्, फूलो मे सुगनध की तरह, धोकनी मे वायु की तरह तथा ितलो मे तेल की तरह इस शरीर
मे सब जगह आप ही सार रप है।।35।।
सवरकता भी तुमही हो, ऐसा कहते है।
िनरहंकाररप होते हुए आप दुषो का नाश करते है, सजजनो की रका करते है, भकतो को वरदान देते है, गजरते
है और वयवहार करते है, यह आपकी मायावता बडी िविचत है। सृिष के समय मे िचदातमरप आपसे बाहर-भीतर
पदाथों के पकाश दारा पदीपत हुआ मै जीवरप से पवेश कर नाम-रपातमक समपूणर जगत को रचता हुआ तुमहारे ही
सवरप से वशीभूत वसतुतः रच करके पालता हूँ। पलयकाल मे उपरत-वयापार होकर मै िफर जगत का उपसंहार
करता हुआ तुमहारे सवरप से ही उसका िवनाश करता हँू। जैसे वट के बीज के अनदर वटता पहले ही थी, है और होगी
वैसे ही परमाणुरप के अनदर यह संसार मणडल था, है और होगा जैसे आकाश मे बादल घोडे, हाथी और रथो के
आकार मे िदखाई देता है वैसे ही हे देव, आप भी सैकडो पदाथों के रप से िदखाई देते है।।36-39।।
अब सवयं मुकत होकर अपने से अिभन बदातमा के मोकोपाय का उपदेश देते है।
बहुत पकार के िवकारपूणर सवभाव वाले पदाथों के बाध के िलए और िनरितशयाननद सवरप के आिवभाव के
िलए असंगातमदशरन दारा भाव और अभावो से रिहत होकर असंगतातमभाव से ही सदा िवमुकत होओ, िफर बनध को पापत
मत होओ।।40।।
उसके उपाय भूत पूवर पीिठका का उपदेश देते है।
मान, महाकोप, कलुषता और कुिटलता का तयाग कीिजये। महापुरष पाकृितक गुण संकट मे नही िगरते। मै
कौन हूँ, कया हो गया, ऐसा िवचार कर मोितयो के कणो के समान सफेद हँसी हँसते हुए अपनी पूवरजनमो की दीघर
दुरातमा दशा का बार-बार समरण करके उसका तयाग कर दीिजये। वे कायर बीत चुके, वे बुरे िदन चले गये, िजनमे आप
िचंतारप अिगन की अनेक जवाला से आकानत हुए थे।।41-43।। आप देहरपी नगर मे िवफल मनोरथवाले राजा के
समान िसथत है। जैसे आकाश मुिषयो से नही पकडा जाता वैसे ही आप दुःखो से गृहीत नही होते।।44।। आप
िजनहोने मनरपी हाथी पर िवजय पापत कर ली है, आज इिनदयरपी दुष घोडो को जीतकर भोगरपी शतु को चारो ओर
से चूणर-िवचूणर कर सामाजय िसंहासन पर िसथत है। अपार आकाश के पिथक आप िजनसे िनरनतर जगत का उदय
और असत होता है, िनतय बाहर और भीतर पकाश करने वाले सूयर है। सूयर भी अपार आकाश के पिथक है और िनतय
उनका उदय और असत होता है तथा वह पकाशक भी है।।45,46।।
यिद ऐसा है, तो सवरत मै आपको कयो नही देखता हूँ, ऐसी शंका होने पर कहते है।
हे िवभो, आप सवरदा, सुपत हो, जैसे कािमनी दारा भोगालोकन लीला के िलए कामुक पबोिधत होता है वैसे ही
भोकता का अदृष शिकत से भोगालोकन कीडा के िलए केवल उतने पबोध को आप पापत होते ही पूणातमरप से पबोध
को पापत नही होते। इिनदयवृितरपी मधुमिकखयो दारा दूर से अतीत तथा नेतरपी झरोखे पर बैठी हुई िचत्-शिकत से
सवीकृत उपािधरप शहद आपके दारा िपया जाता है।।47,48।।
योिगयो के उतकमण के समय सुषुमािद मागर का पकाश भी तुमहारे आधीन ही है, ऐसा कहते है।
पाण और अपान के िनरोध मे ततपर योिगयो दारा बह-पािपत का सथान होने के कारण बहपुररप के अनुकूल
िविवध नाडी मागों मे गमनागमन दारा (संचार दारा) अनय बहाणड मे जाने के िलए अथवा अिचररािद मागों से सूयरमणडल
मे जाने के िलए बहरनध के समबनधी सुषुमा आिद मागर के पूवर सवयं जयोित आपके दारा देखे जाते है।
आआआआआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआ। आआआआआ आआआआआआआआआआआआ
इस शुित के अनुसार यदिप सब लोगो के मरण मे नाडी के दार का पकार आतमजयोित के अधीन ही है तथािप
अयोिगयो मे पीडा परवशता आिद दारा उसकी अवधानशिकत न रहने के कारण और योिगयो के मरण समय मे या
अभयासकाल मे सावधान रहने के कारण वे ही कहे गये है।।49।।
आप देहरपी फूल मे सुगनध है, देहरपी चनद मे परमाथर सतयभूत अमृत है, देहरपी शाखा मे रागािदरपी
पललवो की उतपित मे िनिमतभूत रस है और देहरपी िहम मे शीतलता है। सब पािणयो के शरीर मे गवर का िनिमतभूत
जो सनेह है, वह शरीररप दूध के घी के सदृश सारभूत आप ही है। जैसे काष मे अिगन िसथत रहती है वैसे ही देह के
अनदर आप िसथत है। आप ही सवोतम सवाद (अित मधु अमृतसवरप) है। सूयािद जयोितयो के भी पकाश िनिमत आप
ही है। पदाथों के जाता तथा चकु आिद इिनदयो के अवभासक आप ही है।।50-52।।
आप सब वायुओं के सपनदरप है, मन रपी हाथी के मद के तुलय भािनत के िनिमत है, जानरपी अिगनिशखा
के पकाश िनिमत और उषणता िनिमत है। यह आतमीय वाणी भी आपके उपसंहार से ही मरण, मूचछा और सवप मे दीपक
के समान लीन हो जाती है िफर देहानतर मे कही से उिदत हो जाती है। जैसे सुवणर मे कडा, बाजूबनद आिद आभूषण
आिवभूरत होते है वैसे ही संसार मे िसथत पदाथर रािशया आप मे ही उिदत होती है। आप ही कीडा के िलए सवयं अपने से
अपनी आप,यह, तुम, मै आिद शबदो से सतुित करते है और कहते है यानी आप ही अपने मे तवम्, अहं आिद शबदो से
वयवहार करते है आपसे अनय कोई नही है। जैसे मनद वायु से िहलाया जा रहा मेघ हाथी, घोडे, मनुषय आिद आकारो से
िदखाई देता है वैसे ही आप िविवध जीवो के आकारो से िदखाई देते है। जैसे अिगनयो मे जवाला हाथी और घोडे के
आकार से शोिभत होती है वैसे ही पृिथवी मे िविवध सृिषयो मे आप अपने से अिभन जीवो के आकार मे िदखाई देते है।
आप बहाणडरपी मोितयो के अिविचछन दीघर तनतु और भूतरप धानयो के चैतनयरपी रसायन से सीचे हुए केत है।
अनिभवयकत अतएव असतयपाय िवदारप बीज के अनदर िसथत सषवय पदाथों का वह पिसदसवरप आप से सृिष
दारा ऐसे पकािशत िकया जाता है जैसे िक पकने से मासो की आसवादन के योगय सवादुता पापत होती है। जैसे िक
अनधे के िलए विनता की िवदमान भी वसतु शोभा िसथत नही रहती।।53-61।। जैसे दपरण आिद मे पितिबमब अपने
मुख का सौनदयर कानताओं के चुमबन आिद अथरिकया पयुकत तृिपत के िलए पयापत नही होता, वैसे ही वसतुभूत आपसे
रिहत िवदमान भी पदाथर अथर िकया के िलए समथर नही होता। जैसे अनधेरी रात मे सूयर के िबना वृक, पवरत आिद की
ऊँचाई िवदमान होती हुई भी भान न होने के कारण असतपाय रहती है वैसे ही आपके िबना काष लोष के तुलय यह
शरीर पृिथवी पर पडा रहता है। जैसे सूयर के पकाश को पाकर अनधकार नष हो जाता है अथवा जैसे सूयर के तेज
को पाकर िहम नष हो जाता है वैसे ही आपको पापत कर यह सुख-दुःख कम नष हो जाता है। जैसे पातःकाल मे सूयर
के आलोकन से शुकल आिद वणर िसथित को पापत होते है वैसे ही आपके आलोकन से ही ये सुख आिद िसथित को पापत
होते है। चूँिक आपके आलोकन से ही उतपन हुए वे सुख आिद चरमसाकातकार से दीपत हुए आपके समबनध समय मे ही
नष हो जाते है, परनतु आपके दारा देखे गये ही वे दूर होते है अनय उपाय से नही। दीपक के अभाव मे सफुटता को
पापत हुई अनधकार की अनधकारता दीपक के पकाश के समबनध के समय अपने धमी से िवयुकत होकर नष हो जाती
है। उसका धमर तो सनमातसवभाव है, जो नष नही होता।।62-67।।
दृषानत मे किथत की दृषािनतरक मे योजना करते है।
हे देव, इस पकार सुख-दुःख िनदोष आपको देखकर ही उतपन होते है। पूवोकत रीित से उतपन होते ही
बीजभाव के साथ नष हो जाते है। जैसे िनमेष के लाखवे िहससे के रप से पिसद अितसूकम काल-कला सवतः ही
नष हो जाती है वैसे ही सुख-दुःख भी िवषयो के हटने के कारण सवतः भंगुर होने से इस िनतय िनरितशय आननद
पकाशरप आतमा मे कणभर भी रह नही सकते। इसी पकार अितसूकम काल होने के कारण न िदखाई देने वाली और
गनधवरनगरी के समान िमथयाभूत भी सुख-दुःखािद की भावना अजात आपके पसाद से सतय सी पतीत होती है, िकनतु
आपका साकातकार होने पर िवलीन हो जाती है। अजात आपके पकाशरप दुष चकु से उतपन हुई और सुजात आपके
पकाशरप चकु से कीण हुई यह सुख-दुःखािद की भावना मर कर सवप मे िफर उतपन हुई-सी सवप मे उतपन होकर
जागत मे िफर मरी हुई-सी िकसके दारा देखी जा सकती है ?।।68-71।।
िमथयाभूत वसतुओं की कणसथाियता भी नही घट सकती, ऐसी अवसथा मे उनहे अथरिकयाकारी कहना
महाआशयर है, ऐसा कहते है।
कणभर भी िसथर न रहने वाली वसतु कैसे अथरिकयाकारी हो सकती है ? कमलबुिद से किलपत आकारवाले
तरंगो से माला कैसे देखी जाती है ?।।72।।
यिद कोई शंका करे, बौददशरन के समान यहा पर भी किणक पदाथों से अथर िकया कयो न होगी, तो इस पर
कहते है।
जब उतपन होते ही नष हुई वसतु अथरिकया करेगी, तो यह लोक िबजिलयो से माला बनाकर आननद करेगा।
भाव यह है िक बौदलोग भी किणक पदाथों से पामािणक अथरिकया िसद नही कर सकते।।73।। उकत रीित से
अतयनत दुघरट भी सुख-दुःखािद संपित को सुख-दुःखािद की दुघरटता जानने वाले िववेकी जनो के हृदय मे िसथत हुए
आप गहण करते है, िकनतु सम िसथित का तयाग नही करते, यही अिववेिकयो से िववेिकयो मे अनतर है।।74।।
तब अिववेिकयो मे मै कैसा हूँ, ऐसा पश होने पर तो कोई उतर नही है, कयोिक अिववेिकयो की कलपनाएँ
अननत और अिनयत है, ऐसा कहते है।
हे सहजातमन्, अिववेिकयो मे आकिसमक िविवध वासनाओं के उदय से आप जो हो, हे अननतरपो और नामो के
आसपद, उनके सवरपकथन मे मेरी वाणी समथर नही है।।75।।
आपकी अननतरप और नामो की आसपदता मे कतृरतवाधयास ही मूल है, ऐसा कहते है।
चेषारिह, िनरवयव, िनरहंकार, मूतर सथूल देहोपािधवाले अथवा अमूतर सूकम देहोपािधवाले आपने कतृरता का
सवीकार िकया है।।76।।
अब िववेकी और िववेिकयो मे पिसद दो रपो से परमातमा की सतुित करते है।
हे बहाणड आिद अितिवसतृत आकारवाले, आपकी जय हो, हे शािनतपरायण, आपकी जय हो, हे भगवान, आप
सब पमाणो से परे है आपकी जय हो, हे भगवान, आप सब पमाणो से वेद है आपकी जय हो, हे जात (उतपन हुए),
आपकी जय हो, अजात (अजनमा), आपकी जय हो, हे कत, हे अकत, आपकी जय हो। हे भाव, आपकी जय हो, हे
अभाव, आपकी जय हो, हे जय , आपकी जय हो, हे अजेय, आपकी जय हो। मै उललास को पापत हो रहा हूँ, िनवाण को
पापत हो रहा हँू, िसथत हँ,ू पतयगातमरप मुझको नमसकार है, बहरप तुमहे नमसकार है।।77-79।।
तवतसवरप से िसथत होने पर मेरी सवर अनथरिनवृित िसद हो गई है, यो उपसंहार करते है।
मेरे दोषरिहत आतमाराम रागरंजना से शूनयतवसवभाव होने पर मेरा बनधन कहा, िवपितया कहा, समपितया कहा
और जनम-मरण कहा ? अतः मै शाशत सुख िवशािनत को पापत होता हूँ।।80।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
छतीसवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआ,
आआआआ आआआआआआआ आआआआआआ आआआआ आआआआआआ । आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, शतुनाशक पहाद पूवोकत आतमा का िचनतन करते करते
िनिवरकलप परमाननदपूणर समािध को पापत हो गया।।1।। िनिवरकलप समािध मे िसथत सवरपसामाजय को पापत पहाद
िचतिलिखत की तरह िनशल अतएव पवरत से गढकर बनाया हुआ सा शोिभत हुआ।।2।। अपने घर मे समािध मे
िसथत हो रहे पहाद का भुवन के बीच मे िसथत मेर की तरह बहुत समय बीत गया। असुरशेषो दारा जगाने पर भी वह
महामित जैसे बहुत सेक करने पर भी अकाल मे बीज से अंकुर नही िनकलता वैसे ही समािध से िवचिलत नही हुआ।।
3,4।। इस पकार पतथर पर गढे हुए सूयर के समान िनशल बहसवरप वह शानत असुरपुर मे हजार वषर तक बाह
दृिष शूनय होकर िसथत रहा।।5।। उस भूमा की दशा मे अतयनत पिरणित से पहाद िजसमे आननद का लेश नही
और परमातमा का आभास नही ऐसी मरणावसथा को पापत हुआ-सा लोगो को पतीत हुआ।।6।। तदननतर इस बीच मे
वह पातालमणडल अराजक और पबल मातसयनयाय से (बलवान सजातीयो और िवजातीयो दारा दुबरलो के ितरसकार, वध
आिद से) पीिडत हुआ।।7।। िहरणयकिशपु के मर जाने और उसके पुत पहाद के समािधसथ होने पर पाताल मे कोई
दूसरा राजा न रहा।।8।। असुरो के अिधपित की चाहवाने उन दानवो के बडे पयास से भी पहाद समािध से पबुद
नही हुआ।।9।। जैसे राित मे भमर िजसकी पंखुिडया िवकिसत हो रही हो ऐसे कमल को नही पा सकते वैसे ही
असुरो ने उस सवामी को समािध से बोध-युकत नही पाया।।10।। जैसे िजससे सूयर असत हो गये हो, ऐसी भूिम के
अनदर सोये हुए पुरषो की सनान, दान, गमन, धावन आिद चेषाएँ नही होती वैसे ही िचतरिहत उसके अनदर पबोध का
लेश भी जात नही हुआ।।11।।
तदननतर पहले भयभीत हुए िनबरल दैतयो के अपने अभीष देशो को चले जाने पर और बलवान दैतयो के
दसयुओं की भाित अराजक नगर मे यथेचछ लूट-पाट वयवहार करने पर उकत अराजकता से सारा पाताल िचरकाल तक
बलवानो दारा दुबरलो के उतपीडनरप मातसयनयाय से असत-वयसत और मयादारिहत हो गया।।12,13।।
मतसयनयाय का ही उपपादन करते है।
उसमे बलवानो दारा दुबरलो के नगर छीने गये थे, मयादा, या कम का कही नाम-िनशान न था, विनताएँ सब
लोगो से पीिडत थी, नगर का मधय भाग खणडहर मे पिरणत हो गया था, सब पुरष पलाप और रोदन से आकानत थे,
परसपर एक दूसरे के वसत रहते थे, बगीचे और नगर के वृक ढह गये थे, वयथर अनथों से सारा पाताल पीिडत था, सब
के सब असुर िचनतागसत थे, अन, फल और बनधु-बानधवो का अभाव हो गया था, अनवसर के उतपात से सारा पाताल
िववश था, िदशाओं के मुख धूिल से वयापत थे, देवताओं के बचचे भी उसका ितरसकार करते थे, चाणडाल, कुते, िसयार,
राकस, िपशाच आिद तामस पािणयो से वह आकानत हो गया था, यहा के आिदिनवासी भद पािणयो से वह शूनय हो गया
था, उसकी शोभा नष हो चुकी थी और सब अटािरया भगन पायः हो चुकी थी।।14-17।। वह असुर मणडल चारो
ओर से भयोिदगन हो गया था, उसमे िसतया, धन, मनत, तिनिमतक युद अिनयत (िनयमरिहत) हो गये थे। िजनकी धन-
समपित और िसतया हरी गई थी, उन लोगो के िवलाप से वह कोलाहल युकत था, अतएव किलयुग के समय मे दूसरो के
धन हरने मे शूरवीर कूर दसयुओं के तुलय था।।18।।
सैतीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआ । आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस, तदननतर कीरसागररपी नगर मे शेष शययारप िसंहासन पर बैठे हुए अिरमदरन
भगवान हिर ने , समसत जगतो के िनयमो का पालन ही िजनकी कीडा है, वषा ऋतु की िनदा टू टने पर देवताओं के
पयोजन को िसद करने के िलए िकसी समय अपनी बुिद से तीनो लोको की तातकािलक िसथित का िनरीकण िकया।।
1,2।। वे सवगर का अवलोकन कर, भूलोक के िनवािसयो के शुभाशुभ आचरण का अवलोकन कर अपने मन से दैतयो
दारा पािलत पाताल मे शीघ गये यानी उनहोने अपने मन से पाताल की िसथित का िनरीकण िकया।।3।। पाताल मे
दानवराज पहाद के िनशल समािध मे िसथत होने पर इनद के नगरभूत सवगर मे संपित को अितवृिद को पापत हुई
देखकर पहले कीरसागर मे सोये हुए तदननतर जाग कर शेषशयया पर िसथत वहा पर भी पदासन लगाकर बैठे हुए हाथ
मे शंख, चक और गदा धारण िकये हुए भगवान िवषणु के मन ने ितलोकरपी कमल के महाभमररपी अपने दैदीपयमान
शरीर से यह िवचार िकया।।4-6।।
पहाद के समािध से सामाजय मे िवशािनत होने से और पाताल के नायकरिहत होने पर यह सृिष पायः दैतय
शूनय हो गई है, यह कम कष की बात नही है।।7।। दैतयो के न रहने पर पितसपधा से रिहत पद को पापत हुए
देववृनद जैसे अनावृिष के समय मे नदी सूख जाती है वैसे ही रागदेष रिहत हो जायेगे।।8।। जैसे जल से रिहत
लता शुषकता को पापत होती है वैसे ही अिभमानशूनय होने के कारण सवगर सुख से िवमुख देवता राग-देष के अभावरप
शम से शीत-उषण दनदो के उपदव से रिहत मोक नामक उस परमपद को पापत होगे।।9।।
देववृनद के शािनत को पापत होने पर-
मुकतेषच िबभयतो देवा मोहेनािपदधुनररान्।
तसमादेषा तन िपयं यदेतनमुषया िवदुः।
तसमादेतेसूरा िवघमाचरिनत शपिनत च।
(मनुषयो की मुिकत से भयभीत देवता उनहे मोह से आचछन करते है, इसिलए देवताओं को यह िपय नही है िक
मनुषय जानी हो, वे मनुषयो के मुिकतमागर मे िवघ डालते है और उनहे शाप देते है।)
पमािदनो बिहिशताः िपशुनाः कलहोतसुकाः।
संनयािसनोऽिप दृशयनते देवसंदिू षताशयाः।।
(संनयासी भी आलसी, िवषयवासना युकत, चुगलखोर, झगडालू देखे जाते है, कयोिक उनका मन देवताओं दारा
दूिषत रहता है) – इतयािद शुित, समृित, वाितरक आिद से िसद मनुषयो की देवदूिषत िचतता की अिसिद से मनुषयो मे भी
शमआिद की पािपत होने से पृिथवी मे सब यज आिद िकयाएँ देवतवरप फल से रिहत होकर उचछेद को पापत होगी, इसमे
कोई सनदेह नही है।।10।।
यज आिद िकयाओं के उिचछन होने पर कमरभूिम वयथर हो जायेगी और कमर के वयथर होने पर संसार का उचछेद
हो जायेगा।।11।।
कमर का उचछेद हो, इससे आपकी कया कित होगी ? ऐसा कोई कहे, तो इस पर कहते है।
पलयपयरनत रहने वाले तीनो भुवन, िजनका मैने िनमाण िकया है, अकाल मे ही जैसे धूप मे िहमकण नष हो
जाता है वैसे ही नाश को पापत हो जायेगे।।12।। इस पकार इन जगतो के िवलीन होकर नष होने पर अपनी लीला
का नाश करने वाले मुझसे कया उिचत िकया गया अथात् कुछ भी नही ?।।13।। अपनी लीला का नाश होने से मै
भी चनदमा, सूयर और तारे नष हो गये ऐसे इस शूनय जगत मे लीला के िलए गृहीत अपने शरीर का उपसंहार कर िफर
संसार की अनुतपित के िलए उस पूणर आतमपद मे िसथत हो जाऊँगा।।14।। इस पकार अनवसर मे ही जगत के
नष होने पर देव, मनुषय आिद जीव वगर का मै कलयाण नही देखता यह बात नही है िक मै कलयाण देखता ही हँू।
कयोिक 'वैरागयातपकृतौ लयः' इस समृित के अनुसार पकृित मे लय होिन पर सुषुिपत की तरह सवर दुःख िनवृितरप शेय
की िसिद है ही, िकनतु, 'तमेवेतं वेदानुवचनेन बाहणा िविविदषिनत' अनेक जनम संिसदसततो याितपरागितम्' इतयािद
शुित-समृित से िसद अक जनमो मे िकये िनषकाम कमर से होने वाली िविविदषा दारा तततवसाकातकार न होने से
मूलअजानरप आवरण की िनवृित न होने के कारण बीज के रहते िफर आवृित की आशंका हो सकती है।
िनरितशयाननद पािपत रप शेय िकसी को भी नही हो सकता, इसिलए कमशः सबका उकत शेय की पािपत के िलए दानव
जीये।।15।। दैतयो के उदोग से देवता िजगीषु (उदमी) बनेगे, देवताओं के कारण यज, तप आिद िकयाएँ होगी, उससे
संसार की िसथित होगी, संसार िनयम अनयथा नही होगा।।16।। इसिलए पाताल मे जाकर जैसे वसनत आिद ऋतु
वृक को िफर पूवरवत् िसथत करती है वैसे ही मै दानवराज पहाद को अपने कमर मे पूवरसथािपत करता हूँ।17।। यिद मै
पहाद को छोडकर दूसरे को दानवराज बनाऊँ, तो वह िनशय देवताओं पर चढाई कर देगा।।18।। पहाद का तो यह
शरीर परम पिवत और अिनतम है। इस देह से वह कलप पयरनत रहेगा।।19।। देहधारी पहाद को कलप पयरनत यही
रहना होगा, इस पकार की परमेशर की िनयित दैवी िनयम से िनिशत है।।20।। इसिलए जैसे गजर रहा मेघ पवरत नदी
के तट पर सोये हुए मयूर को जगाता है वैसे ही पाताल मे जाकर दैतयराज पहाद को ही जगाता हूँ।।21।। जैसे मन
की चेषा से रिहत मिण अपने मे संिनिहत वसतु के पितिबमब को धारण करती है वैसे ही जीवनमुकतो को अनासिकतरप
समािध मे िसथत पहाद दानवािधपतय को गहण करे।।22।। इस पकार सुर और असुरो के साथ यह सृिष नष नही
होगी तथा सुर और असुरो का दनद युद होगा।।23।। यदिप सषवय जगत के सृिष और संहार ये दोनो मेरे िलए
समान ही है तथािप यह पूवोकत सृिष के अनुसार हो अनय से मेरा कया मतलब है।।24।।
यिद कोई शंका करे, योगिनदा दारा सवरपसुख गमन का तयागकर दैतयपुर गमन आपके िलए उिचत नही है, तो
इस पर कहते है।
आसिकत के अभाव से जो गमन आिद पयत है, वह योगगमन ही है वह अनय और गमन नही है, कयोिक
योगिनदा से पापत होने वाला जो सुख है, वह गमनयत की उतपित और अनुतपित मे समान है और गमन पयत आिद की
िसथित और नाश मे समान है।।25।। इसिलए मै पाताल मे जाता हूँ और असुरराज पहाद को जगाता हूँ। चलता
हुआ भी मै िनशलता को ही पापत होता हूँ, कारण िक मै अज के समान संसारलीला नही करता।।126।। हम
मयादारिहत दसयुओं के अनाचार से भयानक पाताल मे जाकर जैसे सूयर कमल को िवकिसत करता है वैसे ही पहाद
को समािध से जगाते है, उससे समपूणर जगत को पूवोकत रीित से िसथरता को पापत करते है, जैसे िक वषा ऋतु चंचल
मेघरािश को पवरत पर िसथर करती है।।27।।
अडतीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ
आआआआआआआआआआआ आआआआआ आआआआ । आआ आआआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे वतस शीरामचनदजी, ऐसा िवचारकर सवातमा भगवान कीरसागररप अपने नगर से
अपने पिरवार के साथ अपने िशखरो के साथ पवरत की नाई चले।।1।। भगवान उसी कीरसागर के तले के छेद से
िजसका जल रोक िदया गया था, िदितय इनदनगर के तुलय पहाद नगर मे गये। वहा पहुँचने पर भगवान शीहिर ने
पहादनगर मे सुवणरमय गृह के अनदर िसथत असुरराज पहाद को पवरत की गुहा मे बैठे हुए समािधसथ बहा के समान
देखा।।2,3।। वहा पर िवषणु भगवान के तेज से वे सबके सब दैतय धूिल के समान उड गये और सूयर की पखर
िकरणो से भयभीत हएु उललूओं की भाित दूर चले गये।।4।। दो या तीन मुखय-मुखय असुरो के साथ पिरवारयुकत
भगवान शीहिर ने जैसे तारो से पिरवेिषत चनदमा आकाश मे पवेश करता है वैसे ही असुरगृह मे पवेश िकया।।5।
भगवान गरडरपी आसन पर बैठे थे, शीलकमी जी उन पर चँवर डुला रही थी, शंख,चक, गदा, आिद आयुध आिद उनके
पिरवार थे और देविषर और मुिन उनकी सतुित कर रहे थे।।6।। इस पकार के िवषणु भगवान ने 'हे महातमन्, जागो',
यह कहते हुए िदकमणडल को मुखिरत करते हुए अपना पाचजनय शंख बजाया।।7।। भगवान् िवषणु के बल से उतपन
हुए उस महान शबद से, िजसका वेग एक साथ कुबध हुए पलयकाल के मेघ और सागर के शबद के समान था, भयजिनत
मूचछा को पापत होकर आसुरी जनता भूिम पर िगर पडी, जैसे िक मत नील मेघ के शबद से राजहंसावली भूिम पर िगर
पडती है।।8,9।। िकनतु जैसे मेघ के शबद से कुटज वृको की पंिकत िखल उठती है वैसे ही भयरिहत वैषणवी जनता
आननद को पापत होकर हिषरत हुई।।10।। वषा ऋतु मे वन मे फूले हुए कदमब की तरह दानवराज पहाद धीरे-धीरे
पबुद हुआ।।11।। वषा ऋतु मे वन मे फूले हुए कदमब की तरह दानवराज पहाद धीरे-धीरे पबुद हुआ।।11।।
तदननतर जैसे गंगाजी धीरे-धीरे सारे सागर को भर देती है वैसे ही बहरनध मे उिदत हईु पाणशिकत ने पहाद
को पूणर कर िदया।।12।। कणभर मे जैसे उदय के अननतर सूयर की पभा भुवन के मधय को पूणर कर देती है वैसे ही
पाणो ने चारो ओर से पहाद को पूणर कर िदया।।113।। तदननतर इिनदयो के नौ िछदो मे पवृत होने पर उसकी
चेतनाशिकत िलंगदेह रपी दपरण मे पितिबिमबत होकर िवषयोनमुख हो गई।।14।। हे शीरामचनदजी, चेतनीय
िवषयोनमुखी िचत् चेतयाकार संसकार का उदबोध होने से चेतय सी होकर िचजजड उभयतारप मनसता को पापत हुई,
जैसे दपरण पर पडी हुई मुखशी िदतव को पापत होती है।।15।। िचत के कुछ अंकुिरत होने पर जैसे पातःकाल मे
नीलकमल िवकिसत होने लगते है वैसे ही उसके नेत िवकिसत होने लगे।।16। जैसे वायु से पेिरत कमल मे सपनद
होता है वैसे ही भीतर पिवष पाण और अपान से उदबोिधत चारो ओर नाडी िववरो मे जो संवेदन हुआ उसमे सपनद हो
गया।।17।। जैसे पूणर जल मे तरंग होती है वैसे ही केवल एक िनमेष मे पाणो से पूणर उसमे मन सथूलता को पापत हो
गया।।18।। जैसे सूयर के आधे उिदत होने पर तालाब मे कमलो मे सफुरण हो जाता है, वैसे ही उसके भी नेत, मन,
पाण और शरीर िवकिसत हुए।।19।। इस बीच मे जैसे ही भगवान शीहिर ने 'जागो', यह कहा वैसे ही मेघ के गजरन
से मयूर के समान वह पबुद हो गया।।20।। ितलोकािधपित भगवान कलप के आिद मे जैसे नािभकमल से उतपन
बहा से कहते है वैसे ही पफुललनयन पहाद से, िजसे मै पहाद हँू, यह पतयिभजा हो चुकी थी और िजसकी पूवावसथा की
समृित दृढ हो चुकी थी, कहा।।21।। 'हे साधो, तुम महती दैतयराजशी का और अपनी आकृित का समरण करो। तुम
देह के िवसमरण से अनवसर मे ही देह का अवसान िकसिलए करते हो ?।।22।।
यिद - 'न वै सशरीरसयिपयायोरपहितरिसत' (सशरीर पुरष के इष और अिनष का िवनाश नही होता) इस
शुित से तथा सब लोगो के अनुभव से देह का समरण अनथर का कारण है, ऐसी शंका हो, तो उस पर कहते है।
हेयोपादेय के संकलप से रिहत तुमहारे शरीर मे िसथत िपय और अिपय से कया पयोजन है, इसीिलए तुम इस
समय अवशय उठो। भाव यह िक हेयोपादेय संकलप का तयाग होने से देह के रहने पर भी िपय और अिपय से तुमहे कोई
अनथर की पािपत नही होगी।।23।। हे वतस, तुमहे कलपपयरनत इस देह से यहा पर रहना होगा। हम तुमहारे यथाथर
और अगिहरत आयु के िनयम को जानते है।।24।। यहा पर राजय िसंहासन पर ही िसथत हो रहे जीवनमुकतरप तुमको
कलपतक इस शरीर को िबना िकसी उदेग के वयवहार मे पेिरत करना चािहए।।25।। हे िनषपाप, जैसे घडे के फूटने
पर घटाकाश महाकाश मे समा जाता है वैसे ही इस शरीर के कलपानत मे िवनष होने पर तुमहे आतमभूत िनरितशय
महता मे िनवास करना होगा।।26।। तुमहारा यह शरीर, जो कलपानत तक रहने वाला है, लोक के िविवध वयवहारो
को देख चुका है और जीवनमुिकत से सुशोिभत है, शुद हो गया है।।27।।
तो कया कलपानत िनकट है ? ऐसी आशंका होने पर नही, ऐसा कहते है।
हे सजजनिशरोमणे, अभी पलयकाल मे उिदत होने वाले बारह सूयर उिदत नही हुए है, िहमालय आिद पवरत
मिटयामेट नही हुए है और जगत जला नही है, तुम वयथर कयो शरीर का तयाग करते हो ?।।28।। अभी तीनो लोको
की राख से धूसर तथा देवताओं की चंचल खोपिडया िजसकी िचहभूत है, ऐसी पलयकालीन पखर वायु नही बहती है,
तुम कयो शरीर को छोडते हो ?।।29।। अशोक के वृको पर मंजिरयो की नाई इस समय बहाणड मे पुषकरावतरनामक
पलयकालीन मेघो पर िबजिलया नही चमकती है िफर तुम वयथर कयो शरीर का तयाग करते हो ?।।30।। जल रही
भूिम के पकमप से िवदीणर होने के कारण िजसमे पवरत शबद कर रहे हो और अिगन के जलने से जो उजजवल हो ऐसी
िदशाएँ िवशीणर नही हुई है, वयथर मे तुम शरीर का कयो तयाग करते हो ?।।31।। यह वकत, िजसमे पलयकाल के मेघ
वृिद को पापत हुए हो ऐसा नही हुआ है और िजसमे बहा, िवषणु और रद नामक तीन देवता शेष रह गये हो, ऐसा नही
हुआ है, इसिलए तुम वयथर शरीर का तयाग कयो करते हो ?।।32।। यहा पर िदशाएँ जजरिरत नही हुई है िजनके भेद
का अनुमान लोकालोक पवरत के िशखरो से होता है, जो भूिमरपी कमल की पँखुिडयो के सदृश है, तुम वयथर शरीर का
तयाग कयो करते हो ?।।33।। आकाश मे बारहो आिदतयो की तोडे जा रहे मेर के टंकार की तरह धविनवाली िकरणे
नही घूमती है और पलयकाल के मेघ नही गरजते है िफर तुम वयथर शरीर का तयाग कयो करते हो ?।।34।। मै
गरड पर सवार होकर अणडज आिद चार पकार के पािणयो से वयापत तथा सूयर आिद के पकाश से युकत दसो िदशाओं
मे िवहार करता हूँ, ऐसी िसथित मे तुम शरीर का पिरतयाग मत करो। भाव यह िक इस समय तुमहारा मरना शोभा नही
देता है।।35।। ये हम लोग है, ये पवरत है, ये पाणी है, यह तुम हो, यह जगत है, यह आकाश है, इसिलए तुम
पलयपयरनत सथायी शरीर का तयाग मत करो।।36।।
तो िकसका मरना उिचत है, ऐसा पश होने पर कहते है।
िजसके वयाकुल मन को घन अजान के समबनध से िविवध दुःख िछन-िभन करते है, उसका मरना शोभा देता
है, कयोिक 'अतयनत पीडतो जीवः सथूलदेहिं वमुंचिनत' इस समृित से िसद उसके मरण का हेतु उपपन है।।37।। मै
कृश हँ,ू मै अतयनत दुःखी हँू और मै मूढ हँू ये या इनसे अनय भावनाएँ िजसकी मित को नष करती है, उसका मरना
शोभा देता है।।38।। जो भीतर अनेक आशारप पाशो से बँधा है और चंचल मनोवृित दारा इधर उधर ले जाया
जाता है, उसका मरना शोभा देता है।।39।। जैसे मूढ पुरष महान फल देने वाले धान के अंकुर आिद को उसे खाने
वाले पशु आिद के िलए काट देते है वैसे ही तृषणाएँ िजसके हृदय को भगन कर देती है, िजनहोने िववेकरपी अंकुर को
हर िलया, उसका मरना शोभा देता है।।40।। िजसके ताड वृक के समान राग आिद की उनित से (अिभवृिद से)
समपन मनरपी वन मे िचतवृितरपी लता सुख-दुःखरपी फलो से युकत है, उसका मरना उिचत है।।41।। िजसके
इस देहरपी दुष वृक को, िजसमे रोमराजीरपी शाखाओं का समूह है, काम आिद अनथररपी जोर की आँधी दूर हर ले
जाती है, उसका मरना शोभा देता है।।42।। आिदवयािधरपी वनािगनया िजसके चंचल अंगरपी लतावाले सवदेहरपी
वन को जलाती है, उसका मरना उिचत है।।43।। जैसे सूखे हुए वृक के खोखले मे अजगर फुफकारता है वैसे ही
काम कोधरपी अजगर िजसके शरीर मे फुफकारते है उसका मरना शोभा देता है।।44।।
मरणसवरप का पयालोचन करने पर भी तततवजानी का मरण संभव नही है, ऐसा कहते है।
जो यह देह का पिरतयाग है वह लोक मे मरणनाम से पिसद है। वह तयाग तततवजानी का सत् आतमा से नही
िकया जा सकता, असत् देह से भी उसका समपादन नही हो सकता, कयोिक सत् आतमा के िनिषकय होने से उसमे तयाग
िकया का समबनध नही है और असंग आतमा का देह संग पिसद नही है एवं असत् देह से भी सवपिरतयाग असंभव है।
यिद कोई शंका करे िक देह की असता मे कया कारण है ? तो उस पर कहते है।
पमाणो दारा अवशय वेदनाई (जानने योगय) आतमा का जान ही देह आिद की असता मे कारण है, कयोिक देहािद
के सदभाव की पतीित अजानिनबनधन है।।45।।
िकसका जीवन शोिभत होता है, ऐसा पश होने पर िजसका जीवन सफल है, उसे कहते है।
िजसकी बुिद सवातमतततव के िवचार से उचटती नही, उस यथाथरदशी तततवजानी का जीवन शोिभत होता है।
भाव यह है िक देह से पाणो का उतकमण मरण नही है िकनतु आतमतततव से मित का उतकमण ही मरण है। उकत मरण
जानी का कदािप नही हो सकता, इसिलए सदा ही उसका जीवन शोभा देता है। अजानी की तो मित आतमतततव से सदा
उतकानत रहती है, अतएव वह िनतयमृतसवरप है।।46।। एक देह मे अिभमान होने पर उसका तयाग मरण है, िजसका
िकसी देह मे अहंभाव नही है और िजसकी बुिद देह के िपय और अिपय से िलपत नही होती वह सब भावो मे (देहो मे)
और िवषयो मे सम है उसके मरण का संभव न होने से सदा उसका जीवन ही शोिभत होता है।।47।। जो राग-देष से
रिहत अनतःशीतल बुिद से साकी के समान इस जगत को देखता है, उसका जीवन शोभा देता है।।48।। असार
जानकर हेय और उपादेय का तयाग कर रहे िजसने िचत के िवरामभूत साकी मे अपने िचत का समपरण कर िदया है,
उसका जीवन शोिभत होता है।।49।। िजसने शुिकत, रजत आिद के सदृश वसतु के समान भासमान बाहाथरकलपना
रप मल मे अनासकत िचत को बह मे ही लीन कर िदया, उसका जीवन शोभा देता है।।50।। जो सतय दृिष का
अवलमबन करके इस जगत-वयवहार को िबना वासना के लीला से करता है, उसका जीवन शोभा देता है।।51।। जो
लोकवयवहार करता हुआ भी दुःखहेतु पदाथर की पािपत होने पर न तो उदेग को पापत होता है और न सुखहेतु वसतु की
पािपत होने पर मन मे पसन होता है, उसका जीवन शोभा देता है।।52।।
तालाब से हंसो के समूह के समान िजससे गुणो का (शािनत, कमा, माधुयर आिद का) समूह चला जाता है,
िजसके तततवजानी ही आतमीय है और सवयं शुद है, उसका जीवन शोिभत होता है।।53।। िजसके गुण आिद के
शवणगोचर होने पर, दशरन होने पर और समरण होने पर पािणयो को बडा आननद होता है, उसका जीवन सफल है।।
54।। हे दनुजेशर, िजसकी समपित (उदय) होने पर जीवरपी भमर से युकत जीवरपी कुमुद हृदय से आनिनदत होते
है, कयरोगरिहत चनदमा की पूणरता के समान उसी का जीवन शोिभत होता है अनय का (अजानी का) नही।।55।।
उनतालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआआ आआआ आआ आआआआआआ
आआआआआआ आआआ आआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ, आआ आआआआ आआ आआआआआआआआआआ

यदिप पहाद जीवनमुकत था तथािप उसके िलए केवलसंिनिध से राजयपालन के िनवाह के उपाय का उपदेश
देने की इचछावाले भगवान शी हिरक देह के रहते भी उसके साथ समबनध न रहने से पूवोकत जीवन और मरण गौण ही
है। मुखय नही है यह कहने के िलए जीवन और मरण के लोकपिसद सवरप को कहते है।
दृष देह की िसथरता को लोग जीवन कहते है िफर िदितय देह के गहण के िलए पूवर देह का तयाग
(उतकमणपूवरक गमन) मरण कहा गया है।।1।। हे महामते, इन दोनो (िसथरता और पाणोतकमण) पकोक से तुम मुकत
हो, अतएव यहा तुमहारा कया मरना है अथवा कया जीवन है, कयोिक 'अशरीरं शरीरेषु' न तसय पाणा उतकामनतयतैव
समवनीयनते' ऐसी शुितया है।।2।।
यिद मेरे जीवन और मरण नही है, तो आपने तुमहारा जीवन शोिभत होता है तुमहारा मरना शोिभत नही होता,
ऐसा कयो कहा ? यिद पहाद की ओर से यह पश हो, तो उस पर कहते है।
हे शतुतापन, मैने दृषानत के िलए यानी जानी और अजािनयो के गुण और दोषो के पखयापन के िलए सब कहा
था। हे सवरज, न तो तुम कभी जीिवत हो और न कभी मरते हो।।3।। जैसे आकाश मे िसथत भी वायु संगरिहत
(संबनध शूनय) होने के कारण आकाश शूनय होता है ऐसे ही देह दृिष शूनय तुम भी देह मे िसथत होते हुए भी देहरिहत
होने के कारण अदेह हो।।4।।
मेरी देह मे िसथित कैसे जात होती है ? इस पर कहते है।
हे सुवरत, देह मे शीत, उषण आिद सपशर के वेदन का िनिमत होने से और अनयत उसके अदशरन से देह मे ही
तुम हो। यिद कहो िक सपशर के संवेदन मे असंग आतमा कैसे कारण है, तो इस पर दृषानत सुनो, जैसे वृक के बढने मे
कारण है वैसे ही असंग आतमा सपशर के संवेदन मे कारण है।।5।।
यिद पहाद पूछे िक मेरी अदेहता कैसे ? तो इस पर कहते है।
तुमहे तततवजान हो चुका है, अतएव तुम पबुद हो गये हो, बोध होने पर सवरदैत से रिहत पुरषो का शरीर यहा
कहा रहता है, सवप की िनवृित होने पर सवप शरीर नही रहता। यह एक पिरिचछन देहरप यदिप असंभावय है तथा
अजािनयो मे ही िसथत है।।6।।
यिद अजानी भी देह मे रह कर देही है, तो सपशर के संवेदन से देह मे िसथत मै देही कयो न रहूँगा ? इस पर
कहते है।
पकाशक होने के कारण तुमहारी सब वसतुओं मे िसथित तुलय है, इसिलए एकमात परमातमा मे बुिदवृितवाले
पकाश सवरप तुम सब कुछ हो, अजानी के समान देह मात नही हो। कौन वसतु तुमहारी देह होगी, िजसका िक तुम
अहंबुिद से गहण करो और अदेह भी कौन होगी, िजसका िक तुम अनहंबुिद से तयाग करो।।7।।
यिद कोई कहे िक िजसकी वृिद से अपने हषर की वृिद हो और िजसके िवनाश िनिमत के दशरन से िवषाद हो
वह देह है और उससे अनय अदेह है इस पकार का भेद कयो न होगा ? तो इस पर ऐसा नही कह सकतेक, कयोिक
तततवजानी के हषर और िवषाद के हेतु का कही संभव नही है, ऐसा कहते है।
चाहे वसनत ऋतु का उदय (आगमन) हो चाहे पलयकाल की घनघोर आँधी बहे तथािप अिपय और िपय वसतु
से शूनय आतमा का कया आया।।8।। पवरतो के ढहने पर भी, पलयािगनयो के धधकने पर भी उतपातवायुओं के बहने
पर भी तततवजानी आतमा मे िसथत रहता है।।9।। सब भूत चाहे रहे चाहे सब कुछ चला जाय अथवा सबका नाश हो
जाय या सब वृिद को पापत हो, िकनतु तततवजानी आतमिनष ही रहता है उससे िवचिलत नही होता।।10।। इस देह
के िवनष होने पर परमातमा का िवनाश नही होता है, इसके बढने पर परमातमा नही बढता और इसके चेषा करने पर
चेषा नही करता।।11।। देह के समबनधी मे 'अहं' इस पकार तादातमयाधयासरप देही हूँ' तदमरसंसगाधयासरप िचत
भम के नष होने पर मै तयाग करता हूँ अथवा तयाग नही करता, इस पकार की िनरथरक कलपना कैसे उदत हो सकती
है ?।।12।। हे तात्, इस कायर को करके मै इस कायर को करता हूँ, इसका तयागकर के इसका तयाग करता हूँ,
तततवजािनयो के इस पकार के संकलप सवरथा नाश को पापत हो जाते है।।13।। जानी पुरष इस संसार मे सब कुछ
करते हुए भी कुछ भी नही करते है। कमर के कभी-भी न करने पर वे सदा अकतारप से िसथत रहते है।।14।।
जब वे कता नही है तब अभोकततृतव सहज ही उनमे पापत हो गया। भला बतलाइये तो सही, धान आिद के बीज बोये
िबना तीनो लोको मे कौन धान आिद का संगह करता है ?।।15।। कतृरतव और भोकतृतव के शानत होने पर एकमात
िनिवरकेपता ही अविशष रहती है। कतृरतव के मूलोचछेद के बदमूल हुई िनिवरकेपता ही िवदानो दारा मुिकत कही जाती
है।।16।। जानवान, चैतनयसवरप परमातमसवरप के आिवभाव से सब कुछ का ितरसकार करके िसथत हुए
शुदातमापुरष पहले पापत न हुए िकस ऐिहक फल को गहण करे या पहले से गृहीत िकस फल का तयाग करे ?।।
17।। गाहा, गाहक और ततसंबनधरप अजानावसथा मे यथाथररप से पतीत िकया और कारक के संबनध से बने हुए
अवानतर वाकयाथररप अवयिव कमवाले महावाकयाथर के अवयवो से यानी अंग-पधान िकयाकलापरप िवकारो से रिहत
कूटसथ आतमा िकसका गहण करे और िकसका तयाग करे ?।।18।। ऐिहक और पारलौिकक इष और अिनषो के
साधनो के तयाग और उपादान के िनिमत गाह गाहक संबनध के नष होने पर रागािदिवकेपो की शािनत उतपन होती है।
वही रागािद के मूलोचछेद िसथरता को पापत होकर मोकनाम से पुकारी जाती है।।19।।
इस पकार से िसथत हुए जीवनमुकत लोगो को भी जब तक पारबध का कय नही होता तब तक वयवहार िसिद मे
दृषानत कहते है।
उकत िनिवरकेपतारप शािनत मे सदा िसथत हुए तुमहारे जैसे शानत पुरष गाढ िनदा मे सोये हुए पुरष के अवयवो
की चेषाओं के तुलय वयवहार करते है।।20।। परबह के जान से वासनारिहत हुए तुम इस जगत मे आतमिनष बुिद
से अधरसुषुपत के समान इस राजयपालन आिद वयवसथा को देखो।।21।। िजनका िचत सवातमा मे ही संलगन है ऐसे
जानी पुरष, रमणीय अनातम पदाथों मे सुख का अनुभव नही करते और केवल सवातमा मे ही िजनहे रसायन के समान
मधुर सुख का आसवाद होता है, वे आतमा का सपशर न करने वाले दुःखो के उपिसथत होने पर उिदगन नही होते।।
22।। यिद कोई कहे िक जािनयो को जब सुख कऔर दुःख है ही नही तब वे सुख की पािपत और दुःख के पिरहार के
िलए कमर कयो करते है ? तो इस पर कहते है।
िनतयपबुद असंग पुरष, यथापापत इन कायों को जैसे दपरण िबमबो को गहण करते है वैसे ही अनासथा से गहण
करते है। संसार िसथित मे सोये हुए आतमिनष पुरष सवातमा मे ही जागरक रहते है। सुषुपत के सदृश आशयवाले वे
बालको की नाई वयवहार करते है।।23,24।। हे महातमन्, भीतर भगवान िवषणु की पदवी को पापत हएु तुम बहा के
एक िदन तक इस पाताल मे ही िविवध गुणो से युकत राजयलकमी का उपभोगकर िवदेह कैवलय नामक चयुितरिहत परम
पद को पापत होओ।।25।।
चालसीवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआआआ । आआआ आआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पलय मे जगदूपी रतो को अपने अनदर समेट लेने के कारण जगदूप
रतो के सनदूकरप और सृिषकाल मे तैलोकयरपी अदभुत पदाथर का दशरन करने वाले भगवान िवषणु चादनी के समान
शीतल वाणी से पूवोकत बाते कहने पर पूवोकत पहाद नामक देह ने , मारे आननद के िजसके नेतकमल िवकिसत थे और
िजसने मनन गहण कर िलया था, पसनता से िनम िनिदरष वचन कहे।।1,2।। पहाद ने कहाः भगवान, असुरो का
कया िहत है और देवताओं का कया अिहत है, इस िवचार से और सैकडो राजयकायों से मै अतयनत थक गया था, अतएव
एक कण के िलए मैने िवशाम िलया।।3।। हे देवािधदेव, आपके पसाद से तततवबोध दारा सवरपाविसथित मुझे भली-
भाित पापत हो गई है। मै समािध और असमािध मे तथा सदेह और िवदेह मुिकतयो मे पारमािथरकरप से सदा समान ही
हूँ।।4।। हे महादेव, मैने िनमरल अखणड मानस साकातकार वृित से िचरकाल तक आपके दशरन िकये है। इस समय
िफर चमर चकु से भी बडे भागयवश ये आप मेरे दृिषगोचर हो रहे है।।5।। हे महेशर, मै सब संकलपो से िनमुरकत इस
अननत अनतर दृिष मे िनमरल आकाश मे आकाश की तरह न शोक से, न मोह से, न वैरागय िचनता से, न देहतयाग के
कायर और न संसार भय से ही िसथत था। भाव यह िक शोक, मोहआिद िनिमतो से मै समािध मे िसथत नही था,
िजससे मेरे देह तयाग का पसंग आता।।6,7।।
यिद कहे िक िपता के राजय आिद के नाश आिद शोक के हेतु तो तुमने देखे ही है, उनका अपलाप कैसे करते
हो ? तो इस पर कहते है।
एक तततववसतु के िवदमान रहते कहा से शोक, कहा से नाश और कहा से शरीर होगा ? कहा पर संसार,
कहा पर िसथित और कहा पर भय और अभय होगे ? भाव यह है िक सचमुच यहा पर मैने शोक के हेतु िपता के
राजयािदनाश आिद देख,े पर अदैत आतमा मे शोक हेतु नही है, इसिलए मेरी यह समािध शोक हेतुक नही है।।8।।
तब तुमहारी समािध का हेतु कया है ? ऐसा यिद पश हो तो िवचार से उतपन िवशािनत की इचछा ही मेरी समािध
मे हेतु है, ऐसा कहते है।
अपने −आप उतपन हुईक िनमरल यथेचछा से ही देहतयाग आिद के संकलप के िबना ही िवसतृत पावन पद मे मै
िसथत हुआ हूँ।।9।।
यिद कोई कहे 'न च वैरागयिचनतया' इस अंश से वैरागय का िनराकरण उिचत नही है, कयोिक िवचारपूवरक
समािध मे वैरागय अनुकूल ही है, पितकूल नही है, तो इस पर कहते है।
हे ईशर, हाय ! मै िवरकत हूँ, संसार का तयाग करता हूँ, इस पकार की अजािनयो की िचनता हषरशोकरपी
िवकार देने वाली है।।10।।
वैरागय के समािधकरण होने पर रागयुकत देह मे भी दुःख हेतुतव का अनुभव होगा, अतः उसका तयाग भी
समािध मे िनिमत होगा, वह भी अजािनयो का ही अभीष है मेरा अभीष नही है, ऐसा कहते है।
देह का अभाव होने पर दुःख नही रहते, देह मे दुःख रहते है, इस पकार िचनतारपी िवषैली नािगन मूखर को
ही डँसती है, ऐसा मेरा िवशास है।।11।।
इसिलए सुख पािपत की इचछा से अथवा दुःख िनवृित की इचछा से मैने समािध नही ली, ऐसा कहते है।
यह सुख है, यह दुःख है, यह मेरा है और यह मेरा नही है इस पकार दोलायमान िचत मूढ को ही नष
करता है, पिणडत (जानी) को नही।।12।।
तब भेदवासना के कय की इचछा से तुमने समािध ली होगी, ऐसा यिद कोई कहे, तो उस पर कहते है।
मै अनय हूँ, और यह अनय है, इस पकार की वासना उनही अजानी जीवो को होती है, िजनहोने तततवजान को
बहुत दूर तक फेक िदया है, तततवजािनयो को ऐसी वासना नही होती।।13।।
संसार के तयाग के िलए अथवा मोक की पािपत के िलए तुमने समािध ली होगी, ऐसा यिद कहे, तो उस पर
कहते है।
यह तयाजय है और यह गाह है इस पकार का दुबुरिदयो का िमथया मनोभम अजानी की तरह जानी को उनमत
नही बनाता।।14।। हे कमलनयन, सब मे आतमरप आपके वयापत होने पर हेयोपादेय पक मे िसथत दूसरी कलपना
कहा से हो सकती है ?।।15।। भािनतजान मे सीप मे रजत के समान भािसत होने वाले परमाथररप से भािसत न
होने वाला यह सारा जगत आतमा और माया के अनयोतयतादातमयाधयास रप िमथुनीकरण से उतपन हुआ है। यहा पर
कया वसतु हेय और कया वसतु उपादेय है, िजसका िक तयाग अथवा गहण िकया जाय।।16।।
इसिलए मेरी तततव िवचार िवशािनत ही समािध हो गई, ऐसा कहते है।
अपने सवभाव से केवल दषा और दृशय का िवचार कर रहे असीम परमातमरप मैने अपने आप मे कणभर
िवशाम िलया।।17।। समािधकाल मे मै इषक और अिनष ( िपय और अिपय) से रिहत हेयोपादेय से िवहीन था।
इस समय ( वयुतथान काल मे) यो ( आपसे आजपत पदाथों के गहण की योगयता से) िसथत हूँ।।18।। वह अपने
सवभाव को पापत हुआ मै मेरे दारा सवकतरवयता से पापत िकये गये आप से आजपत सब कायर करता हँू, अपने राग से
नही, िकनतु आपकी इचछा का वशवती होकर।।19।।
जैसे आपके दारा आजपत राजय को, जो मुझे सवभावतः पापत है, मै सवीकार करता हूँ वैसे ही आप भी मेरे दारा
की गई पूजा को, जो सवेशर होने के कारण आपको िनयमत पापत है, गहणकीिजये  , ऐसा कहते है।
ये आप पुणडरीकाक है तीनो जगतो मे पूजय है, इसिलए शासत और लोकपिसिद से पापत पूजा को आप गहण
कीिजये।।20।। ऐसा कहकर दानवराज पहाद ने कीरोदशायी भगवान के आगे शैलराज जैसे पूणर चनदमा को
उपिसथत करता है वैसे ही अघरपात उपिसथत िकया।।21।। पहाद ने अपने शंख, चक आिद आयुधो से युकत,
अपसराओं दारा पिरवेिषत, देवताओं से पिरवृत, पिकराज गरड से युकत, उदर के अनदर िसथत तैलोकय सिहत,
अपने सामने िसथत भगवान िवषणु की, िजनके बाहर रोमकूपक आिद मे भीतर विसत, उदर, हृदय आिद मे लोक घूम
रहे थे, पूजा की। पूजा करके खडे हुए पहाद से कहा।।22,23।। 'हे दानवराज उठो, िसंहासन पर बैठो, मै सवयं
अपने हाथो से शीघ तुमहारा राजयािभषेक करता हँू।।24।। पाचजनय शंख की धविन सुनकर जो ये िसद, साधय और
देववृनद आये है वे तुमहारा मंगल करे। 'ऐसा कह कर भगवान मेर के िशखर पर मेघो के समान योगय उस दानव को
िसंहासन पर बैठाया।।25,26।। इसके बाद अपमेय भगवान ने शीहिर ने िवदाधर और लोकपालो से पिरवृत होकर
बुलाये गये कीरोद आिद महासागरो, गंगा आिद जलपवाहो और सब तीथर के जलो से, सब िवप ऋिषयो और सब
िसदगणो के साथ असुरराज पहाद का दैतयराज मे ऐसे ही अिभषेक िकया जैसे िक पहले सवगर मे देववृनदो से इनद का
अिभषेक िकया था।।27−29।। सुर और असुरो से सतूयमान भगवान शीहिर ने राजय मे अिभिषकत, सुर और असुरो
से पहाद से यह कहा।।30।। हे अनघ, तुम जब तक पृिथवी और जब तक चनद−सूयर मणडल है तब तक अखिणडत
गुणो से पशंसनीय राजा होओ।।31।। अनुराग, भय और कोध से रिहत तुम, इष और अिनष फल का तयागकर
समबुिद से राजय का पालन करो।।32।। तुम िनरितशयाननद भूिम देख चुके हो, अतएव तुमहे सब भोगो से पिरपूणर
राजय मे अरितरप उदेग नही करना चािहए और अपने िपता−िपतामहो की भाित सवगर अथवा भूलोक मे उदेग उतपन नही
कराना चािहए।।33।। पजा, शतु आिद के ऊपर िनगह, अनुगह आिद ? यथा पापत दृिषयो मे तत्−तत् पुरषो के
अनुरप देश, काल और िकया से अपने ऊपर पापत वध, बंधन आिद कायर करो। राग, देष आिद िवषमता का तयागकर
रहो। देह से अितिरकत आतमा ही इस भाव से लाभ और हािन मे समानरप से इदनता और ममता से विजरत कायर कर
रहे तुम सुख−दुःखो से पीिडत नही होगे।।34,35।। तुम संसार के वयवहार को देख चुके हो, अनुपम उस परम पद
का भी तुमहे अनुभव हो चुका है, इसिलए सवरत सब कुछ तुम जानते हो। तुमहारे िलए अिधक कया उपदेश िकया जाय
? अथात् वयवहार और परमाथर मे तुम कुशल हो तुमहारे िलए उपदेश की आवशयकता नही है।।36।। अनुराग, भय
और कोध से रिहत तुमहारे राजा होने पर अब असुरो मे दुःखरपी दुगरिनथ नही रहेगी और देवताओं मे िसथत वह दुःख
दुगरिनथ मेरे दारा असुरो का संहार नही करायेगी।।37।। आज से लेकर देव−दानवो के युद से वंिचत जगत
सपनदरिहत सागर के समान सवसथ−सा हो जायेगा। देवता और असुरो की नािरया एक दूसरे के पितयो से बनदी न
होकर अपने ही अनतःपुरो और पितयो के िवशास को पापत हो।।क 39,40।। हे दानव, तुम कृषणपक की राितयो मे
गाढ िनदा और अनधकाररप अजानानधकार को दूर कर सदा उिदत, सवपकाश बहातम सफूितरवाले होकर असुरो की
िसतयो के िवलासो से रमणीय तथा काम आिद शतुओं से अपराभूत राजयलकमी का िचरकाल तक उपभोग करो।।
41।।
इकतालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआ आआआ आआआ, आआआआआआ आआ आआआआआ
आआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआआ आआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, ऐसा कहकर सुर, नर और िकनरो के सिहत भगवान पुणडरीकाक, जो
सुर, नर और िकनरो से युकत होने के कारण ही दूसरे संसार के समान िवसतृत थे, असुरगृह से चले।।1।। पहाद
आिद दारा पीछे से छोडी गई पुषपाजिलयो की रािश से, जो पिकराज गरड के पीछे के पंखो पर रािशभूत हो गई थी,
आचछन िकये जा रहे भगवान कम से कीरसागर मे पहुँचकर तदननतर सुरवृनद को िवदाकर जैसे सफेद कमल पर भमर
बैठता है वैसे ही शेषशयया पर िसथत हुए।।2,3।। इस पकार शेषनाग के शरीररपी आसन पर भगवान िवषणु, सवगर मे
देवताओं के साथ इनद और पाताल मे असुरराज पहाद तीनो ही सनतापरिहत होकर िसथत हएु ।।4।। हे
शीरामचनदजी, यह अवशेष पापो को दूर करने वाली पहाद की जानपािपत मैने आपसे कही, जो चनदमा के अमृत के
समान शीतल है।।5।। उसको जो मनुषय, चाहे वे बडे पातकी ही कयो न हो, संसार मे बुिद पूवरक िवचार करेगे, वे
शीघ परमपद को पापत होगे।।6।। सामानय िवचार से भी जब पाप का नाश हो जाता है तब वेदानत वाकयो के िवचार
से कौन परम पद को पापत न होगा ?।।7।। अजान पाप कहलाता, वह िवचार से नष होता है, इसिलए पाप की
जड उखाड फेकने वाले िवचार का पिरतयाग नही करना चािहए।।8।। पहाद की इस िसिद का िवचारकर रहे लोगो
के सात जनमो के पाप नष हो जाते है, इसमे कोई सनदेह नही है।।9।।
िवदेह मुकत के साथ समािध मुकत के िवशािनत सुख की समता होने पर िफर उसके वयुतथान मे हेतु जानने की
इचछा कर रहे रामचनदजी पूछते है−
भगवान, महातमा पहाद का परम पद मे पिरणत मन पाचजनय शंख की धविन से कैसे पबुद हुआ ? भाव यह है
िक मन का िवलय होने पर पाचजनय शंख धविन का शवण ही दुलरभ है, िफर इससे वह कैसे पबुद हुआ?।।10।।
पारबध शेष से उदबोिधत शुदवासना सिहत भगवद इचछा ही समािधमुकत के पबोध मे हेतु के यो िवदेहमुकत से
समािधमुकत का अनतर कहने के िलए संदेह और िवदेह मुिकतयो का िवभाग िदखलाते है।
शीविसषजी ने कहाः हे िनषपाप आकृितवाले शीरामचनदजी, लोक मे दो पकार की मुिकत होती है, एक सदेह
मुिकत और दूसरी िवदेह मुिकत। उसका यह िवभाग है, उसे आप सुिनये।।11।। िजस अनासकत मितवाले पुरष का
इष और अिनष कमों के तयाग और गहण मे राग नही है, उसकी िसथित दारा कय होने पर पुनजरनम से रिहत िवदेह
मुिकत कही गई है। िवदेह मुिकत मे िसथत भुने हुए बीजो के सदृश अतएव पुनजरनम रपी अंकुर से रिहत पुरष
देहदृशयता को पापत नही होते, िकनतु जीवनमुकत पुरषो के हृदय मे शुद, पिवत, तृषणा, कापरणय आिद से रिहत,
आतमधयानमयी शुदसततवानुपाितनी वासना ऐसे ही रहती है जैसे िक सुषुपत पुरष के हृदय मे रहती है।।13−15।। हे
रघुवर, देह धारण हेतु पारबध के शेष रहने पर हजारो वषों के बाद भी हृदय मे िसथत उसी वासना से वे पबोध को पापत
होते है।।16।। हे महाबाहो, पहाद हृदय मे िसथत अपनी शुदसततवमयी वासना से, जो शंख धविन से उदबुद हुई थी,
पबोध को पापत हुआ था।।17।।
यिद िकसी को शंका हो िक शोितिनदय के िवलीन होने पर शंख धविन का भी गहण नही हो सकता, अतः शंख
धविनमात से कैसे पबोध हुआ ? तो उसका पिरहार करते हुए कहते है।
भगवान हिर सब पािणयो के आतमा है उनको जैसा भान होता है वह सब शीघ वैसा ही हो जाता है, कयोिक वे
सतय संकलप है।।18।। भगवान वासुदेव ने जब पहाद पबोध को पापत हो, ऐसा िवचार िकया तभी पलक भर मे ऐसा
हो गया।।19।। सवयं अकारण यानी शुदरप भूतो के कारण यानी अवयकत उनहोने काम,कमर, आिद िनिमतो से
अपने मे ही जगत की सृिष के िलए वासुदेवमयरप से शरीर गहण िकया है, ऐसी ही शुित, समृित और पुराणो मे पिसद
है।।20।।
इसीिलए उनके शरीर का दशरन होने पर आतमदशरन होता है और आतमदशरन होने पर उनका दशरन सुलभ हो
जाता है, ऐसा कहते है।
आतमदशरन से शीघ भगवान का दशरन हो जाता है और भगवान की आराधना से शीघ अपने −आप आतमा का
दशरन हो जाता है।।21।। हे शीरामचनदजी, इस सृिष का अवलमबन करके आप शीघ आतमदशरन के िलए पयत
करे। िवचारातमा आप िनतयपद को पापत होगे।।22।। हे रामचनदजी, दुःखरपी मुसलाधार वृिषवाली संसाररपी वषा
ऋतु, जो चारो ओर वयापत है, िवचाररपी सूयर को न देख रहे लोगो को परम अजान देती है।।23।। यह अतयनत
दैदीपयमान माया िवषणुरप आतमा के पसाद से धीर पुरषो को ऐसे ही पीिडत नही करती जैसे मनतिसदपुरषो को िपशाची
पीिडत नही कर सकती।।24।। जैसे अिगन की जवाला वायु के कारण ही िनिबडता को पापत होती है और अनत मे
कीणता को पापत हो जाती है वैसे ही संसार जाल रचनारप यह िवषणुमाया आतमा की इचछा से ही देहािदरप िनिबड
अनथरता को पापत हुई है। िनशय भिकत, धयान आिद से आरािधत आतमा की इचछा से ही िववेक, िवचार आिद के जनम
के समय कीणता को पापत हो जाती है, अतएव ईशरपसाद से उतपन िवचार आिद से ही अवशय जान लाभ होता है, यही
इस उपाखयान का तातपयर है।।25।।
बयालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआ
आआआ आआआआआ
। आआआआ आआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआआ आआ आआ आआआ आआआआ आआ
आआआआआ आआआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीरामचनदजी ने कहाः हे सब धमों के जाता, हे भगवान, जैसे चनदमा की िकरणो से औषिधया आहािदत होती
है वैसे ही सफिटक के समान शुद आपके वचनरपी िकरणो से हम आहािदत हुए है।।1।। जैसे कणर भूषण के िलए
कानो दारा वािछत, गुर, देवता आिद की पसनता से पाप दूर करने के कारण पिवत और कोमल फूल गहण करने पर
सुख देते है वैसे ही कानो को भले लगने वाले पिवत और कोमल आपके वचन हम लोगो दारा गृहीत होने पर सुख देते
है।।2।। भगवान, यिद पौरष पयत से ही सब कुछ पापत होता है, तो पहाद भगवान के वर के िबना भी अपने ही
पौरष से कयो पबुद नही हुआ है ? इससे अपने पौरष से ही सवरत जान लाभ होता है, ऐसा जो िनयम पहले कहा था
उसका भंग हो गया, यह भाव है।।3।।
अपने पौरष से िसद होने वाली पुरषाथर िसिद मे भगवान का वर भी दार िवशेष ही है सवतनत नही है, इसिलए
पूवोकत िनयम भंग नही हुआ, इस आशय से संकेप मे उतर देते है।
हे शीरामचनदजी, महातमा पहाद ने जो कुछ पापत िकया वह सब अपने पौरष से ही पापत िकया, दूसरे से
नही।।4।।
अथवा िवषणु से पहादातमा का भेद न होने के कारण आतमपयत से पापत वह पहाद पयत से ही बोध को पापत
हुआ, ऐसा वहा पर पिरहार हो सकता है, इस आशय से कहते है।
जैसे ितलो के अनतगरत और ितलो से िनकाला हुआ तेल िभन नही है वैसे ही आतमा और नारायण िभन नही है।
जैसे शुकलता (कपास) और वसत िभन नही है वैसे ही आतमा और नारायण िभन नही है और जैसे फूलो का सार सुगनध
है वैसे ही जीवो का परमाथर सार िवषणु है, इसिलए भी उनमे अभेद जानना चािहए।।5।।
अथवा कायर और कारण उपािध का तयाग करने पर िविशष िचनमात का अभेद है ही। इस पकार लकयपरक
और आतमा शबद की पयायता ही है, ऐसा कहते है।
जो िवषणु वही आतमा है और जो आतमा है वही िवषणु है। जैसे िवटप और पादप शबद पयाय है वैसे ही िवषणु
और आतमशबद पयाय है। भाव यह िक िवटपवतव (शाखावतव) और पादकरणकपान कतृरतवरप उपािध का भेद होने पर
भी खणड वृक सवरप मे जैसे िवटप और पादप शबदो की पयायता है वैसे ही कायर और कारण रप उपािध का भेद होने
पर भी पिरिशष िचनमात सवरप मे आतमा और िवषणु शबदो की पयायता ही है।।7।। सवातमभूत िवषणु के ही पहाद ने
सवयं इस वर का उपाजरन िकया। अपने मन को सवयं ही िवचारयुकत बनाकर अपने आतमा का उसने सवयं जान पापत
िकया।।8।। कभी सवातमभूत िवषणु दारा ही आतमा अपने पयत से िकये गये िवचार के बल से सवयं पबुद िकया जाता
है और कभी भिकतरप पयत से पापत होने वाले िवषणु देह दारा बोिधत होता है।।9।।
अनवय से पदिशरत अथर को वयितरेक के दशरन दारा भी दृढ करते है।
िचरकाल से आरािधत भी परम पसन हुए भी ये भगवान अिवचारशील पुरषो को जान नही दे सकते।।10।।
'तुमहे आतमजानपयरनत िवचार पापत हो' इस पकार वर दे रहे भगवान हिर को पुरष पयत से उतपन िवचार ही
मुखयरप से अिभमत है वर मुखयरप से अिभमत नही। अनयथा तुमहे जान हो, ऐसा ही वरदान देत,े इस आशय से
कहते है।
आतम−साकातकार मे पुरष पयत से उतपन हुआ िवचार मुखय कारण है, वह आिद गौण है, इसिलए तुम मुखय
हेतु मे संलगन होओ।।11।। ( िजस िवषय मे पयत करने से िवचारोदय होता है, उसे दशाते है।) इसिलए दसो
इिनदयो को जबरदसती अपने वश मे कर अभयास करते हुए सब पयतो से मन को िवचारवान बनाओ।।12।। कही पर
िकसी के दारा जो कुछ भी पाया जाता है वह अपने यत से पयुकत शुभाचरण से ही पाया जाता है, दूसरे से कही पर भी
नही।।13।। पौरष पयत का अवलमबन कर इिनदयरप पवरत को लाघकर संसाररप सागर को पार कर परम पद
को पापत होओ।।14।। यिद पौरष पयत के िबना भगवान िवषणु का दशरन हो, तो ये भगवान मृग और पिकयो का कयो
नही उदार करते यानी आतमतततव का साकातकार कयो नही कराते ?।।15।।
गुरजी िशषय के पयत के िबना ही शिकतपात आिद दारा िशषय का उदार करते है यह योगशासत आिद मे
पिसद है, इसमे वयिभचार आयेगा, ऐसी शंका होने पर कहते है।
अपना पौरष िकये िबना यिद गुर अजानी का उदार करते है, तो ऊँट अथवा बैल का उदार कयो नही करते
है ? गुरभिकत आिद पयत ही वहा पर भी जानोतपित मे गुरकृपा को दार बनाते है, यह भाव है।।16।।
जान की दृढता से बािधत मनवाले अपने आतमा से जो परमपुरषाथररप परमपद पापत िकया गया, वह न तो
भगवान िवषणु से कुछ पापत िकया जा सकता है, न गुर से और न धन से ही पापत िकया जा सकता है।।17।।
अभयास और वैरागय से युकत आतमा से िजसने इिनदयरपी सापो को अपने वश मे कर िलया है, उससे जो परम
पुरषाथर पापत िकया जा सकता है, वह तीनो जगतो से भी पापत नही िकया जा सकता।।18।। हे वतस, तुम अपने
आतमा को यह उतकृष है, यह समझकर शवण आिद से अपने −आप िसद करो तथा िसद हुए उसका अपने −आप
िनरनतर अनुसनधान दारा पूजन करो, अपने आतमा का अपने आप तततवतः साकातकार कर उसी मे अपने −आप भली
भाित िसथत होओ।।19।।
यिद अपने पयत से उतपन िवचार से ही जान उदय होता है, तो शासतो मे िवषणु भगवान की आराधना का
िवधान िकसिलए है ? ऐसी कोई शंका करे, तो उस पर कहते है।
िवषयो मे आसिकत की पबलता के कारण अधयातमशासतो से, इिनदयजय आिद पयतो से और िवचारो से दूर
भागनेवाले मूखों की कथंिचत शुभ मागर मे पवृित के िलए िवषणु की भिकत की कलपना की गई है।।20।।
पूवोकत अथर को युिकतयो से दृढ करते है।
शासत मे अभयास और पयत पहले मुखय िविध कही गई है। उनके अभाव मे पूजय पूजारप िविध गौण है।।
21।। यिद इिनदयो पर िवजय पापत कर ली गई, तो पूजनो से कया फल पापत है ? यिद इिनदयो पर िवजय पापत नही
हुई, तो पूजनो से कया फल पापत है, यानी कुछ भी नही।।22।। िवचार और उपशम के िबन पूणाननद आतमा
सवतनतरप से तततवतः पापत नही होता। िवचार और उपशम से रिहत (िवषयासकत) पुरष का ईशर भी कया अिपय
कर सकता है ?।।23।। िवचार और उपशम से युकत अपने िचत को पसन करो। उसके पसन होने पर आप परम
पुरषाथररप िसिदता को पापत हो जाओगे। नही तो आप जंगली गदहे के सदृश हो।।24।। जैसे िवषणु आिद देवताओं
की िवनय पाथरना सवयं की जाती है, वैसे ही अपने ही िचत की पणय पाथरना कयो नही की जाती है ?।।25।। इन
सभी लोगो के अनदर भगवान िवषणु भिकत है बाहभिकत मुखय नही है।।26।। हृदयरपी गुहा मे िनवास करने वाला
िचत−तततव ही आतमा का ( िवषणु का) मुखय शाशत सवरप है। हाथ मे शंख, चक, गदा धारण िकया हुआ आकार गौण
है।।27।। जो मुखय आकार का तयाग कर गौण रप का अनुसरण करता है वह, िसद अमृत का तयाग कर साधय
धान आिद को कृिष दारा उतपन करता है।।28।।
तब बाह िवषणु भिकत का अिधकारी कौन है ? ऐसा पश होने पर उसे कहते है।
हे वतस रघुननदन, जो उनमत मनवाला पुरष आतमजान के चमतकार मे कदािप िसथित को पापत होता ही नही,
आतमिववेकलाभ से शूनय और अनतगरत अज मन का वशीभूत हो वह शंख−चक−गदाधारी परमेशर की पूजा करे।
29,30। हे शीरामचनदजी, परमेशर के पूजन से, वैरागयकारी कलेशपद तपसया से उसका िचत बहुत समय मे िनमरलता
को पापत होता है।।31।। िनतय के अभयास और िवचार से िचत बहुत जलदी िनमरल हो जाता है। आम ही धीरे−धीरे
पुषप, फल आिद मे अितसुगिनधरप दशा को पापत होता है।।32।। हे शतुतापन, शासत मे िवषणु पूजाकमरप िनिमत
से जो फल कहा गया है उसे भी अपने ही संकलप से पापत करता है।।33।। जो अिमत तेजवाले िवषणु से वरदान
पाता है। उसने भी अपने ही अभयास रपी वृक का वह फल पापत िकया।।34।। िनिध, रत आिद के लाभ के िलए
पृथवी खोदने के िलए उतसुक पुरष का या अशमेध के अश को खोजने के िलए उतसुक सगर लडको का अथवा
मनदराचल को खीच रहे देवता, असुर आिद का अपने मन के िनगह के िसवा दूसरा कोई भी उपाय नही है यानी मन की
एकागता के िबना महाकायों की िसिद कदािप नही हो सकती है।।36।। तब तक मनुषय हजारो जनमो तक संसार मे
भटकते रहते है जब तक िक मनरपी मत महासागर पशानत नही हो जाता।।37।।
बहा, िवषणु, इनद, रदािद देवािधदेव िचरकाल तक पूिजत हो और दया भी करते हो, िफर भी ये मनोवयािध
के उपदवो से बचा नही सकते।।38।। बाह इिनदयो से अनुभव मे आनेवाले और अनतःकरण से अनुभव मे आने वाले
भयानक िवषयरप का तयागकर जनमकय के िलए जनमािद िवकारशूनय सनमात का अखणडाकार िचनतन कीिजये।।
39।। हे शीरामचनदजी, आप बाह और आभयानतर िवषयो से िनमुरकत, िनरामयैकसंिवनमय, सवयं िनरितशयाननदरप से
भािसत होने वाले अननतरप सनमात का, जो सबका सार है, िनरनतर तदाकारवृित से आसवाद लीिजये। यो उसका
आसवाद ले रहे आप जनमरप नदी के उस पार पहुँच जाओगे।।40।।
तैतालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआआआआआआआआ
आआ आआआआ आआ आआआआआआ आआआ आआआआआआआ । आआ आआआआआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, संसार नाम की यह माया अपिरिमत भािनतक की हेतु है। यह अपने
िचत पर िवजय पाने से ही कय को पापत होती है। अनयथा नही।1।। हे अनघ, जगनमायापपंच की िविचतता के जान
के िलए इस इितहास को मै आपसे कहूँगा। आप धयान देकर सुिनये।।2।। मेर पवरत पर कलपवृक वन के समान इस
पृिथवी तल मे कोशलनामक िविवध रतो का भंडार भूत देश है।।3।। वहा पर गािध नाम से पखयात कोई गुणवान
बाहण हुआ। वह परम शोितय, धीमान् और मूितरमान धमर−सा था।।4।। जैसे िनषकलंक िनमरल आकाश मे भुवन
िवराजमान होता है वैसे ही बालयवसथा से िवरकत िनषकलंक िनमरल िचत से वह िवराजमान था।5।। िकसी अभीष
तपसयारप कायर को अपना लकय बनाकर वह बंधुओं के समूह से हटकर तपसया करने के िलए वन मे चला गया।।
6।। वहा पर जैसे चनदमा अितदशरनीय अिशनी आिद तारो से मिणडत और पसन−िनमरल आकाश को पापत होता है वैसे
ही वह िवपराज फूले हुए कमलो से युकत तालाब को पापत हुआ।।7।। जब तक भगवान िवषणु का दशरन न िमले तब
तक तपसया करने के िलए वषाकाल के कमल के समान गले तक जल मे डू बा हुआ वह बाहण उस तालाब मे पिवष
हुआ।।8।। तालाब के जल मे डू बे हुए तथा िनवास सथानभूत तालाब के कमलो का सूयर के िवयोग से संकोच होने
पर उनके सहवास सनेह से तिनक मिलन मुखकमल वाले उसके आठ मास वयतीत हो गये।।9।। तदननतर एक
समय जैसे वषा ऋतु मे गीषम से संतपत पृिथवी तल पर काला मेघ आता है, वैसे ही तपसया से कृश उसके पास
शयामलकािनतवाले भगवान शीहिर आये।।10।।
शीभगवान ने कहाः हे िवप, जल के मधय से उठो, मनमाना वर लो। तुमहारा िनयमरपी वृक अभीष फल से
युकत हो गया है।।11।। बाहण ने कहाः भगवान्, असंखय बहाणडो मे िवदमान पािणयो के हृदयकमल मधय मे िसथत
भमररप और ितजगत रपी कमिलनी के तालाबरप भगवान िवषणु को नमसकार है।।12।। हे भगवान, आपसे रिचत
इस संसार नामक माया को, जो परमातमा मे अधयसत है और जीवो को अनधा बनाने वाली है, मै देखना चाहता हूँ।।
13।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, 'इस माया को तुम देखोगे और देखने के बाद इसका तयाग करोगे' ऐसा
बाहण से कहकर भगवान गनधवरनगर के समान अदृशय हो गये।।14।। भगवान िवषणु के चले जाने पर वह उतम
बाहण शीतल और िनमरल मूितर होने के कारण कीरसागर से चनदमा के समान जल से उठा।।15।। वह चनदमा के
दशरन और सपशर से िवकिसत कमल की भाित ितलोकी के अिधपित भगवान के दशरन से बहुत पसन हुआ।।16।।
तदननतर हिर भगवान के दशरन से आननद मे मगन हुए उसके वन मे िकतने ही िदन बाहणोिचत तप, सवाधयाय, अितिथ
पूजा आिद से वयतीत हएु ।।17।। एक समय जैसे महिषर योगबल से अतीत और अनागत को देखने के िवमान सरोवर
मे िचनतन करते है वैसे ही िवषणु भगवान के वचन का िचनतन कर रह उसने फूले हुए कमलवाले तालाब मे सनान करना
आरमभ िकया।।18 तदननतर सनानिविध मे सब पापो की िनवृित के िलए ( अघमषरण के िलए) उसने जल के भीतर
कुशयुकत अपने हाथ से आवतर−सा िकया।।19।। जल मे डुबकी लगा कर पणव आिद मनतो के समरणरप उस
अघमषरण िविध मे जल के मधय मे िसथत उसके मनत, धयान आिद िवसमृत हो गये और जान िवपरीत गहणोनमुख हो
गया। उसने अपने घर पर अपने को वायु वेग से कनदरा के बीच मे िगरे हुए वृक के समान मृत और शोचनीयता को
पापत हुआ देखा। उसने अपने को पाण और अपान वायुओं के पवाह से मुकत, नाश को पापत हुआ, िनवात सथान मे िगरे
हुए कदली के वृक आिद के समान पशानत अवयव चेषावाला, पीले मुँहवाला, वृक के सूखे हुए पते के समान मुरझाया
हुआ, शव हुआ−सा, िजसकी नाल कट गई हो ऐसे कमल के समान कुमहलाया हुआ, पातःकाल िजससे तारे असत हो
गये ऐसे आकाश के समान असत नेत वाला देखा। वह अनावृिष से गसत गाम के समान चारो ओर धूिल से धूसिरत
था, करण िवलाप करने वाले दुःखी दीन बनधुओं से, िजनका मुँह वाषपधारा से आदर था, वह ऐसे पिरवृत था जैसे
कुरर नामक पिकयो से वृक आवृत होता है। बाध के टू ट जाने से बह रहे जल से िजसका मुखरप कमल हरा जा रहा
हो, ऐसी कमिलनी के तुलय भाया ने उसके चरण परड रकखे थे। ऊँचे गूँज रहे ( रोदन कर रहे) भौरो के समान पलाप
और दीघर सवर के आलाप मे आसकत मा ने उसकी ठुडडी, जो नूतन मूँछ−दाढी से युकत थी, पकड रखी थी।।20−
27।। जैसे ओस बहा रहे सूखे पतो से वृक पिरवेिषत होता है वैसे ही पास मे बैठे हुए दुःखी अशु धारा बहा रहे
अनयानय लोगो से वह पिरवेिषत था।।28।। िवयोग के भय से मानो संयोग का तयाग कर रहे अतएव दूर हटे हुए
हाथ, पैर आिद अंगो से अनातमीयजनो की भाित वह आवृत था।।29।। परसपर न सटे हुए ओठो से और कुछ मिलन
सफेद दातो से अपने जीवन को इतने समयतक वृथा गया यो हँस रहे िवरकत पुरष, के समान मौन धयान को पापत
हुआ, पंक से बनाया हुआ−सा, िफर न जागने के िलए सोया−सा, दीघर िवशाम कर रहा सा था।।30,31।। बानधवो के
रोने पीटने के कोलाहल से िमली हईु वािणयो को, िकसका मेरे पित अिधक सनेह और िकसका कम यो िवचार करने के
िलए, मानो, यत से सुन रहा था।।32।। तदननतर उस समय रािशभूत िनरनतर पलापो से वयाकुल चेषा वाले छाती
पीटने के साथ मूचछा से उतपन नेत के जलपवाह से सराबोर दुःखी आतमाओं दारा, जो दीघर िवलाप आिद के घघरर शबद
से पूणर थे, उसका अमंगल शव िफर न देखने के िलए घर से बाहर िनकाला गया और शमशान मे ले जाया गया। वह
शमशान मास, आँते और चबी के पंक से दूिषत, सूखे और ताजे खून से तर तथा सैकडो कंकालो से वयापत था, चील−
गीधरपी मेघो से उसमे सूयर की िकरणे आचछन थी, िचता की अिगन से अनधकार न था, िसयारो के मुख से िनकली
हुई अशुभ जवालाओं से उसमे पृथवी पललवयुकत−सी पतीत होती थी, वहा पर बह रही खून की निदयो मे कोई सफेद
चील और कौए सनान करते थे और कोई डू ब गये थे, खून से तर आँतो के समूहरपी जाल मे बूढे पकी बँधे हुए था।
वहा पर उन बनधुओं ने पदीपत अिगन मे जैसे समुद बडवानल मे अपने जल पवाह को भसम करते है वैसे ही उसे भसम
िकया।।33−38।।
सूखे हुए इनधनो से खूब बढी हुई जवालारािशरपी जटाओं से युकत उस िचता ने चट−चट शबदो से शव को
शीघ जला िदया।।39।। अिगन ने , िजसने बढ रहे कट−कट शबदो से और छोडीक गई दुगरनध से मेघमणडल को
वयापत कर िदया था, उसकी अिसथ रािश को, िजससे बढे हुए रस िनकल चुके थे, जैसे हाथी सुराखवाले बास के
समूह को चारो और िवदिलत कर देता है वैसे ही िवदिलत कर िदया।।
चौवालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआ, आआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
आआआ आआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजीक, इसके बाद जल के भीतर िसथत हुए गािध ने मानिसक दुःखो से भरी
हुई अपनी बुिद से िनमरल आतमा मे अनतरातमा से अपने को भूतमणडल नामक देश की सीमा के गाव के नजदीक रहने
वाले चाणडालो की सती के गभर मे िसथत अतएव आकुल देखा।।1,2।। गभरवासके दुःखो से पीिडत था, उसके
कोमल अंग थे और वह अपनी िवषा के समान चाणडाली के हृदय मे सोया था, अतएव वयाकुल था।।3।। कमशः
पिरपकव होने के कारण जैसे वषा ऋतु काले मेघ को समय पर पैदा करती है वैसे ही समय पर चाणडाली से उतपन
िकया गया वह काली कािनतवाला तथा मलमूत आिद से वेिषत था।।4।। चाणडालो के घर मे उतपन हुआ और
चाणडालो का अतयनत िपय िशशुरप इधर-उधर चल रहा वह यमुना पवाह मे िगरे हुए कणरभूषणरप नील कमल के
समान था।।5।। बारह वषर की अवसथा को पापत हुआ, तदननतर सोलह वषर की अवसथा मे िसथत, सथूल कनधावाला,
िवशालकाय, उदीयमान मेघ के समान था।।6।। िशकार खेलने के िलए कुतो से पिरवृत होकर एक वन से दूसरे वन
मे िवहार कर रहा, लाखो मृगो को मार रहा वह वयाधो की अवसथा को पापत हुआ था।।7।। तदननतर तमाल की लता
के समान चाणडाल कनया से उसने िववाह कर िलया था। वह सतनरप और सतवको से सुशोिभत थी, नूतन पललव के
समान उसके हाथ थे। दात साफ न करने के कारण मिलन और सवाभािवक शुकलता के कारण िनमरल उसकी
दनतपंिकत थी और वह सवयं शयाम थी। नव पललवो का अनुकरण करने वाले बहत ु से िवलासो से उसके अंग पूणर थे।
8,9।। जैसे काली भँवरी के साथ काला भौरा पुषपो की समृिद से पूणर वनानतो मे िवहार करता है वैसे ही शयामवणर
वाला वह नूतन होने के कारण ही अभीष शयामवणरवाली उसके साथ पुषपो की समृिद से पूणर वन पानतो मे िवहार करता
था।।10।। वन की पणरलताओं के (तामबूल लताओं के) पते मे िनवास कर रहा वयसनो से आतुर वह पुरष का
आकार धारण िकये हुए िवनधयाचल के समान भीषण था।।11।। वह वन के कु ंजो मे िवशाम करता था, पवरत की
गुफाओं मे सोता था, पतो की ओट मे िछपा रहता था, बडी-बडी झािडयो को उसने अपना िनवास सथान बना रखा
था।।12।। वह िकंिकरात की मंजिरयो के कणर भूषणो से अलंकृत रहता था, जूही की मालाओं से िवभूिषत रहता
था।।13।। फूलो की सेजो पर लेटा रहता था, पवरत के तटो पर घूमता था, वनो के िवषय मे असाधारण जान रखता
था और मृगो का िशकार करने मे पिणडत था।।14।। तदननतर जैसे खैर काटो को पैदा करता है वैसे ही उसने वनो
मे अपने कुल के अंकुररप पुतो को, िजनके चिरत अतयनत िवषम (शवण के भी अयोगय) थे, उतपन िकया।।15।।
पहले वह सती-पुत आिद पिरवार वाला हुआ, उसके बाद उसका यौवन कीण हो गया, तदननतर वृिष रहित भूिम की तरह
धीरे-धीरे जजरर हो गया।।16।। तदुपरानत भूतमणडल नामक देश की अपनी जनमभूिम मे जाकर दूर पणर कुटी
बनाकर मुनीशर के समान रहने लगा।।17।। वह जरा से अतयनत जजररता को पापत हो गया। अपने शरीर के समान
पमाणवाले उसके लडके थे, वह गडढे मे उतपन सूखे हुए तमाल वृक के सदृश था।।18।। वह बडा पौढ था,
चाणडाल की गृहसथी कर रहा था, उसके बहुत से बनधु बानधव थे, नाम, कमर और वचन बडे कूर थे और वह बहुत बडी
कुटुमब वृिद को पापत हुआ था। उसने अपने को इस पकार देखा।।19।। तदननतर अनय चाणडालो से वृद, अपने
पूवोकत भम का अनुसरण कर रहे कुटुमबी गािध ने अपना िजतना कुटुमब था उसे मृतयु दारा आवृत कर जैसे वृिष-जल
का पवाह वन मे िगर हुए सूखे पतो को ले जाता है वैसे ही गया देखा।।20,21।। दुःख से पीिडत वह झुणड से
िबछुडे हुए मृग के समान एकाकी ही वन मे रोता था। उसके नेत आँसुओं से भीगे रहते थे और उसका कोई अवलमबन
न था।।22।। शोक से वयाकुल बुिदवाले उसने कुछ िदन वहा बीताकर जैसे सूखे कमलवाले सरोवर का हंस आिद
तयाग कर देते है वैसे ही सवदेश का तयाग कर िदया।।23।। अवलमबनरिहत और शोकपीिडत वह िकसी दूसरे के
दारा पेिरत हो रहे की नाई वायु से उडाये गये बादल की भाित बहुत देशो मे भटकता िफरा।।24।। एक समय
आकाश मे सुनदर िवमान आकाश मे िवचरण करने वाला वह कीर लोगो के िनवासभूत देश मे शीमतीपुरी मे पहुँचा।।
25।। वह सवगर मागर के तुलयक राजमागर के मधय मे पहुँचा जहा पर रतो और वसतो से आचछािदत मागर िसथत वृक,
लताएँ और अँगनाएँ नाच रही थी, टखनो तक फूल िबखरे हुए थे, अधीन राजाओं, ललनाओं और नागिरक लोगो से जो
ठसाठस भरा था और चनदन तथा अगर से सुशोिभत था।।26,27।। वहा पर उसने चलने से चंचल हएु सुमेर पवरत
के, िजसमे शेष मिणयो से देवताओं के मिनदर बने थे, तुलय शेष रतो के झूले से अलंकृत मंगल हाथी को देखा।।
28।। जैसे रत परीका मे कुशल पुरष िचनतामिण को देखने की इचछा से रत के िलए िवहार करे वैसे ही राजा के मरने
पर राजा के िलए वह इधर-उधर िवहार कर रहा था।।29।। उस चाणडाला ने कौतूहल से िवसफािरत दृिषक से
सपनदयुकत पवरत के तुलयक उस हाथी को िचरकाल तक देखा।।30।। उस हाथी ने देख रहे उस चाणडाल को
अपनी सूँड से पकडकर जैसे मेर अपने तट पर सूयर को संलगन करता है वैसे ही बडे आदर के साथ उसको अपने
गणडसथल पर चढाया।।31।। जैसे पलयकाल के मेघ के आकाश मे आरढ होने पर सागर गरजते है वैसे ही उसके
गणडसथल पर आरढ होने पर चारो ओर िवजय के नगारे बजने लगे।।32।। मनोरथो को पूणर करने वाला राजा
सुशोिभत हुआ। तदननतर जागे हएु पिकयो की धविन के समान राजा की जय हो, इस पकार की जनधविन उतपन हईु ,
िजसने िदशाओं को भर िदया था।।33।। इसके बाद सागरो की, िजनका जल तटो से टकराया हो, धविन के समान
बिनदवृंदो का तुमुल कोलाहल हुआ।।34।। कीरसागर के मनथन से जिनत कोभ से घूम रही लहिरयो ने जैसे
मनदराचल को पिरवेिषत िकया था वैसे ही सुनदर-सुनदर ललनाओं ने, अलंकृत करने के िलए, उसे घेर िलया।।
35।। जैसे वेलाएँ , िजनमे सूयर नाना पकार के मिणयो मे पितिबिमबत होने के कारण तत्-तत् पभाओं से सुशोिभत रहता
है, अपने तटवती पवरत को पूिरत करती है वैसे ही उनहोने सूतो मे गुँथे हुए रतो से उसे पिरपूणर िकया।।36।। जैसे
वृिषया जल पवाहो से वन मधय मे िसथत उतम िशखर को िवभूिषत करती है वैसे ही िहम के समान शीतल सपशर वाले
हारो से उन युवितयो ने उसे िवभूिषत िकया।।37।। जैसे चंचल कररपी पललववाली बसनतशोभा वन को फूलो से
वेिषत करती है वैसे ही िविचत वणर और सुगिनध वाले फूलो से िसतयो ने उसे पिरवेिषत िकया।।38।। जैसे पवरत
मेर आिदधातुओं की पभारािशयो से मेघ को िलपत करता है वैसे ही िविवध रंग, रस और सुगिनधवाले िवलेपनो से उनहोने
शीघ उसका लेप िकया।।39।। जैसे मेर सनधयाकाल के मेघ, तारे, चनदमा और आकाश गंगा से वयापत आकाश को
गहण करता है वैसे ही रत और सुवणर के भूषणो से भूिषत उसने उनके हर िचत को हर िलया।।40।। भाित-भाित के
िवलासो से युकत ललनारपी लताओं से पिरवृत रतरपी पुषप और वसतो से सुशोिभत कलपवृक के समान सुशोिभत
हुआ।।41।। इस पकार के उसके पास जैसे फूले हुए मागर के वृक के समीप पिथक जाते है वैसे ही पिरवार युकत
सब पकृितया आई।।42।। उनहोने जैसे देवता ऐरावत हाथी पर इनद का अिभषेक करते है वैसे ही उसी हाथी पर
उसका िसंहासन मे अिभषेक िकया।।43।। जैसे कौआ पिरपुष, पाणिवहीन जंगली हिरण को पाता है वैसे ही उस
चाणडाल ने कीरनगर के मधय मे इस पकार राजय पापत िकया।।44।। कीरदेश की नािरयो के करकमलो से िजसके
चरण दबाये जाते थे, सवाग मे कु ंकुम के लेप से जो सनधयाकाल के समान सुनदर था, इस पकार का वह नागिरक
ललना जनो से युकत होकर जैसे फूले हुए वन मे िसंिहिनयो के झुणड से युकत िसंह सुशोिभत होता है वैसे ही कीरनगर
मे सुशोिभत हुआ।।45,46।। जैसे तालाब मे सूयर की िकरण और मद से सनतपत हुआ हाथी जल के पवाहो से कीडा
करता है वैसे ही िसंहो से िवदीणर िकये गये हािथयो के कुमभो से िगरे हुए मोितयो से िवभूिषत शरीरवाला और िचनता एवं
िवषाद से शूनय वह सजजनो के साथ भोगो से आननद लेता था।।47।। चारो ओर उसकी राजयशिकत वयापत थी,
अतएव सब िदशाओं मे उसकी आजा चलती थी। कुछ िदनो मे सवेचछा से ही उसकी सारी राजयवयवसथा िसद हो गई
थी। पकृितयो ने ही उसके समसत अधीनसथ राजाओं का भार वहन िकया था, इस पकार का वह गवल इस नाम से
पिसद होकर वहा पर राजा हुआ।।48।।
पैतालीसवा सगर समापत

िसथित पकरण उपशम पकरण


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआआआ
आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, वह िवलासवती सुनदिरयो से पिरवृत मिनतमणडल दारा सनमािनत, सब
सामनतो दारा विनदत, छत और चँवरो से लािलत अपितहत आजावाला तथा सुनदर आकृितवाला था। उसे राजय के सब
गुण जात थे। उसकी पजाओं के शोक, भय, कलेशआिद नष हो गये थे। िनरनतर सतुितमंगल और आननदपूणर वृित से,
आसवो से अतयनत उनमत हुए पुरष की नाई, वह अपने सवभाव को भूल गया।।1-3।। कीरदेश मे उस चाणडाल ने
आठ वषर तक राजय िकया तब तक उसने दया, दािकणय, शौचािद सदवृितयो को पूणररप से धारण िकया।।4।।
तदननतर एक समय वह अपनी इचछा से भूषणरिहत अतएव अनधकार सा तारे चनदमा, सूयर के तेज और मेघो से रिहत
वह आकाश के तुलय िसथत था।।5।। वह हार, बाजूबनद कडे आिद आभूषणो का बहुत आदर न करता था कयोिक
पभुता से पिरपूणर िचत को कृितम आभूषण आिद भले नही लगते।।6।। जैसे असत को पापत होता हुआ सूयर मुखय
आकाशरपी आँगन से आकाश के अिनतम भाग को जाता है वैसे ही वह मुखयजनो से आिशत भीतर के आँगन से
साधारण लोगो से सेिवत बाहरी आँगन मे पूवोकत वेष से अकेला ही गया। वहा पर उसने वसनत मे उतपन हुए कोिकलो
के समूह की नाई मधुर गा रहे काले और सथूलदेहवाले चाणडालो के संघ को देखा।।7,8।। वह जैसे भमर पंिकत,
िजसके पंख शबद कर रहे हो, वृक को किमपत करती है वैसे ही करपललव की लीला से वीणा के तारो को मधुर सवर के
साथ बजा रहा था।।9।। उनमे से एक बूढा चाणडालो का नेता उठा िजसके लालनेत थे और जो िहम से आचछन
पवरत के काचमय शृंग के समान वृदावसथा से सफेद हुए केशो से आचछन काले शरीर का था।।10।। उसने
'कटंज' इस पूवरनाम कीर देश के अिधपित गवल का सहज संबोधन करते हुए कहाः जैसे शृंगारी पुरष मधुरकणठवाले
कोिकल का सममान करता है वैसे ही यहा पर राजा गानिवदा मे कुशल मधुर कणठवाले आपका सममान करता है कया ?
जैसे वसनत फल और पुषपो की रािशयो से आम के वृक को पूणर कर देता है, वैसे ही घर, वसत, आसन आिद के दान से
राजा आपको पूणर करता है कया ? आपके दशरनो से सूयोदय से कमल के समान तथा चनदमा के उदय से औषिधयो के
समान मै परम आननद को पापत हुआ हूँ। बंधुओं का दशरन सब आननदो को, बडे-बडे लाभो की और अननत िवशामो की
चरम सीमा है। चाणडाल के ऐसा कहने पर राजा ने उस काल मे उतपन हुई िविभन चेषाओं से ही उसका ितरसकार
िकया। उसी समय झरोखे मे बैठी हुई िसतयो और अमातयआिद पकृितया यह चाणडाल है यह जानकर अतयनत उदास
हुई।।11-16।। जैसे तुषार से भरने वाली वृिष से कमल शोिभत नही होते वैसे ही वे नागिरक शोिभत नही हुए।।
17।। जैसे वृक की चोटी पर बैठी हुई िबलली के फुफकार का िसंह ितरसकार करता है वैसे ही राजा ने चाणडाल के
संभाषण का ितरसकार िकया।।18।। उसने तुरनत जैसे राजहंस अनावृिष से िजसके कमल मलान हो रहे हो ऐसे
तालाब मे पवेश करता है वैसे ही आननदरिहत अनतःपुर मे पवेश िकया।।19।। िजसके तने के बडे खोखले मे अिगन
लगी हो ऐसे सेमल आिद का वृक जैसे मलानता को पापत होता है वैसे ही वह सब अवयवो मे भीनी हुई मलानता को पापत
हुआ।।20।। वहा पर चूहे ने िजसकी जड खा डाली हो ऐसे कु ंकुम के फूलो की झाडी के समान सब लोगो को
उसने उदास देखा।।21।। तदननतर उन मनती, नगरवासी और नािरयो ने जैसे घर मे ही िसथत शव का लोग सपशर
नही करते वैसे ही सपशर नही िकया।।22।। जैसे दुःखी अतयनत सनेहवाली ललनाएँ शव का दूर से ही तयाग कर देती
है ऐसे ही सेवको ने असतकृत उसका दूर से ही तयाग कर िदया।।23।। उसके मुँह पर आननद की रेखा भी न थी,
शरीर काला पड गया था, शोभा ने तो उसका सवर तयाग कर िदया था, इसिलए शमशान भूिम के समान था। दुःखी
नागिरको ने उसका कुछ भी सममान नही िकया।।24।। उसका शरीर धुएँ के समान मैला था। जैसे पवरत के
िशलामय पदेश के समीप अिगन नही जाती वैसे ही पिरताप दशावाली जनता उसके समीप नही गयी।।25।।
अपनी आजाशिकत से उसने जनता को कयो वशीभूत नही िकया ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
योदाआिद के समुदाय से उपेिकत मनदोतसाह हुई उसकी आजा, भसममे जलिबनदुओं के समान कूर कायरकारी
आकारवाले तथा संगित से अशुभ फल देने वाले उससे भयभीत होकर लोग िवशेषरप से भागते थे।।27।। यदिप
वह बहुत से लोगो के बीच रहता हुआ भी अकेला ही रहता है वैसे ही वह भी अकेला ही हुआ।।28।। जैसे पिथक
वायु के कारण शबद कर रहे तथा मोितयो की रािश से युकत भी कीचकनाम के िवशेष बासो को वचन नही देते है यानी
उनसे बाते नही करते वैसे ही खूब पुकार रहे एवं मोितयो के हारो से अलंकृत भी उसे नगरवािसयो ने पितवचन नही
िदया।।29।। इसके अननतर हम सब लोग िचरकाल तक चाणडाल के सपशर से दूिषत है, पायिशतो से हमारी शुिद
होगी नही, अतएव हम लोग अिगन मे पवेश करते है, ऐसा िनशयकर नगर मे सब नागिरक तथा मिनतयो ने सूखी हुई
लकिडयो से बढाई हुई िचताएँ चारो ओर बनाई।।30,31।। तब आकाश मे तारो के समान चारो ओर उसमे िचताओं
के पजविलत होने पर सारे नगर के लोग िवलाप करने लगे।।32 करण िवलाप करने वाला और आँसुओं की धारा
वषानेवाली नािरयो दारा नगर वयापत था तथा वहा जल रहे कुणडो के आस-पास लोग िकंकतरवयिवमूढ होकर रो रहे
थे।।33।। जैसे वायुओं से अरणय दृढतर शबद करता है वैसे ही अिगनकुणडो मे पिवष हुए मंितयो के सेवको के रोदन
दारा सारा नगर खूब आँसू बहा रहा था और िवलाप कर रहा था।।34।। िचंताओं मे जले हुए शेष बाहणो के मास से
अिधक गनधवाली उतपात की आँधी दारा िमटी के ढेरो से उठे हुए धूिल कणो से ऐसा पतीत होता था मानो उस पर तुषार
की वृिष हुई हो।।35।। वायु से दूर-दूर तक फैली चबी की गनध से दूर से लाये गये पिकयो और िपशाच आिद के
मणडलो से िछन सूयरवाला वह नगर बादलो से िजसमे सूयर आचछन हो ऐसे आकाश की नाई हुआ।।36।। वायु से
उडाई गई िचताओं की अिगन से उस नगर का आकाश मणडल जल रहा था तथा उडे हुए अिगन कणो के संघातरपी
तारो से िदशाएँ कबुरिरत हो गई थी।।37। वहा पर उनमत चोर लुटेरो दारा आभूषण आिद के हरण के समय बालक
और कुमार रो और काप रहे थे, भयभीत नागिरको ने अपने जीवन और नाम का तयाग कर िदया था एवं िकसी पकार
की मयादा नही रह गई थी।।38।। उस नगर मे घर नही िदखाई देते थे, चोरो ने सब धनसंचय लूट िलया था, लोगो
ने अपने पुत-कलत का तयाग कर िदया था और मरने के िलए सब नगरवासी वयग थे।।39।। इस पकार इस कष
पर िविधिवपयरय के, िजससे सारी जनता की पूणर पलय के समान िसथित थी, पवृत होने पर शोक से वयाकुल िचतवाले
गवलने , राजय के सजजनो के संसगर से िजसकी धीर बुिद पिवत हो गई थी, िवचार िकया। मेरे ही कारण यह अनथर,
जो अकाल पलयमय और सब नेताओं का नाशकारी है, इस देश मे उतपन हुआ है। मेरे जीवन के कलेश से कया पयोजन
है मेरे िलए मरना ही महोतसव है। लोकिननदनीय दुष जीव का जीवन की अपेका मरण अचछा है।।40-43।। ऐसा
िवचार कर गवल ने अपने शरीर को पतंग की नाई िबना िकसी उदेग के पजविलत अिगन मे आहुित बना िदया।।44।।
गवल नामक उस देह के िनवेदवश अिगन मे िगरने और अवयवो से वयाकुल होने पर अपने अंगो के दाहवश िहलने -डुलने
के कारण जल के अनदर अघमषरण कर रहे गािध तुरनत बोध को पापत हुए।।45।।
शीवालमीिक जी ने कहाः मुिन महाराज के ऐसा कहने पर िदन बीत गया, सूयर भगवान असताचलावलमबी हो गये
और सभा मुिन जी को नमसकार कर सायंकाल की िविध के िलए सनानाथर चली गयी और दूसरे िदन राित बीतने पर
सूयर की िकरणो के साथ िफर आ गयी।।46।।
िछयालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआआ,
आआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआआ आआ। आआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआ
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनद, तदननतर शीगािधजी जैसे समुद का अित संकुबध तटवती आवतर शानत
होता है ऐसे पूवोकत संसार भम से शानत हुए।।1।। जैसे पलय के समय बहाजी जगत् की रचना से िवरत होते है
वैसे ही मन की रचनारप मोह से वे िवरत हुए।।2।। जैसे मिदरा आिद के मद के शानत होने पर सवचछ िचत हुआ
पुरष 'मै अमुक हूँ' इस बोध को पापत होता है वैसे ही िनदारिहत बुिदवाले शानत हुए गािध धीरे-धीरे पूवोकत गाधय
अहंभाव बोध को पापत हुए।।3।। जो सनान के िलए जल मे उतरा था वह गािध मै हँू यह अविशष सनान, तपरण आिद
कृतय मेरा कायर है यह पहले देखा गया चाणडाल राजय आिद मेरा कायर नही है यह उनहोने वैसे ही देखा जैसे राित के
बीतने पर अनधकारावरण के कीण होने पर लोग देखते है।।4।। जैसे िशिशर ऋतु के अनत मे वसनत कमल को,
िजसका मुकुलरपी मुख उतपन हो चुका हो, जल के अनदर से बाहर करता है वैसे ही गािध ने , िजनहे अपने सवरप का
समरण हो चुका था, जल पैर बाहर िकया।।5।। पूवानुभूत जल, िदशा और आकाशवाणी इस पृथवी को िफर अनय-सी
देख वे परम िवसमय को पापत हुए।।6।। मै कौन हूँ, कया देखता हूँ, मैने कया िकया यो कणभर भूभगं पूवरक अनदर
िवचार करते हएु िसथत रहे।।7।। थके हएु मैने उस थकावट से ही कणभर मे ही भम देखा। ऐसा िवचारकर वह
जैसे उदयाचल से सूयर िनकलते है वैसे ही जल से बाहर िनकले।।8।। उठकर उनहोने िवचार िकया मेरी वह माता
कहा है और वह सती कहा है ? जबिक मै माता और पती के बीच मे मृतयु को पापत हुआ।।9।। जैसे वायु से उडाये
गये पते का माता-िपता, सथानीय लतापधान वृक तलवार से नष हो जाता है वैसे ही मुझ मनदभागय के माता और िपता,
जब मै बालक ही था तभी, मृतयु से नष हो गये थे।।10।। मै अिववािहत हँू जैसे बाहण िचत मे कोभ पैदा करने
वाली दुष मिदरा के रस को नही जानता वैसे ही मै कोभकािरणी सती का सवरप भी नही जानता।।11। मेरे जनमभूिम
के अमातय बनधु-बानधव मुझसे बहुत दूर है, िजनके बीच मे मैने पाण तयागे थे, वे न मालूम कौन थे ? ।।12।।
इसिलए उतपन हुए ये िविवध पकार के पदाथर और जनम आिद का अिभमान गनधवरनगर के समान मैने कया देखा?।।
13।।
सवप के समान बाध होने के कारण उसकी असतयता का िनशय कर उसकी उपेका करते है।
यह बनधुओं के बीच मे मृत िसथित रहे इस मायाजिनत मोह मे यह कुछ भी सतय दृिषगोचर नही होता।।
14।। जैसे मदोनमत िसंह वनरािजयो मे घूमता है वैसे ही यह पािणयो का िचत अननत भािनतयो मे िनतय घूमता है।।
15।। इस पकार गािध ने िचत मे उस मोह का िवचार कर उसी अपने आशम मे कुछ िदन िबताये।।16।। वहा एक
समय गािध के पास कोई िपय अितिथ बहा के पास दुवासा की तरह आया। शानत हुए उसने वहा पर िवशाम िलया
जैसे वसनत फल, पुषप, रस आिद से वृक को परम पसनता को पापत कराता है वैसे ही गािध ने फल, पुषप, रस और
भोजन से उस अितिथ को पसनता को पापत कराया।।17,18।। एकानत मे दोनो ने सनधयावंदन और जप िकया।
दोनो ही कम से कोमल पललवो के शयनो पर आकर बैठे।।19।। तदननतर उन दोनो तपिसवयो की अपने तप, धयान
आिदकमों के अनुरप शानतरस पधान कथा ऐसी ही पवृत हुई जैसे िक भगवान सूयर का उतर िदशा से समबनध होने पर
वसनत मे वसनत ऋतु के अनुरप पुषपशोभा पवृत होती है।।20।। गािध ने बातचीत के िसलिसले मे उस अितिथ से
पूछा िक बहन्, आप कयो कृश है और कयो थके है ?।।21।। अितिथ ने कहाः भगवान, मेरी अतयनत कृशता और
शम का कारण सुिनये। हम लोग असतयवादी नही है, जो वासतव बात है, उसे मै आपसे कहता हँू।।22।। इस भूतल
मे उतर िदशारपी िनकु ंज है, उसमे कीर नाम से िवखयात समृद और िवशाल देश है।।23।। उसमे पुरवासी लोगो से
सनमािनत हो रहा िविवध पकार के आतमा को अचछे लगने वाले भोगो मे तृषणायुकत और िचतरपी वेताल से मोिहत मै
एक मास रहा।।24।। वहा पर कही एक समय एक ने कथा के िसलिसले मे मुझसे कहाः हे िदज, यहा पर आठ वषर
चाणडाल राजा हुआ।।25।। तदननतर गाव मे पूछे गये सब लोगो ने आठ वषर तक यहा पर चाणडाल राजा हुआ, यह
कहा।।26।। वह अनत मे जाना गया और शीघ अिगन मे पिवष हो गया। उससे सैकडो बाहणो ने यहा पर अिगन मे
पवेश िकया।।27।। हे िवप, उनके मुख से यह सुनकर उस देश से बाहर िनकलकर मैने शुिद के िलए पयाग मे
पायिशत िकया।।28।। आज तीसरे चानदायण के बाद पारणा करके मै यहा आया हूँ, इसी कारण मै थका हूँ और
अतयनत कृश हँू।।29।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जब गािध ने यह सुना तब उनहोने बाहण से िफर
पूछा। उनहोने यही बात कही इससे िवपरीत बात नही कही।।30।। इसके बाद आशयर को पापत हुए गािध ने उस
राित को वहा पर िबताकर जगदूपी घर के महादीपसवरप सूयर के उिदत होने पर और पातःकाल सनानिविध कर चुकने
पर पूछकर अपने अितिथ के चले जाने पर िवसमय से भरी हुई बुिद से यह िवचार िकयाक।।31,32।। जो बात मैने
शािनत दशा मे देखी वही मेरे अितिथ ने सतय कही। मेरा इस पकार का रप शामबरी माया है कया ?।।33।। जो मैने
बनधुओं के बीच मे अपना वह मरण देखा वह तो िनःसनदेह माया ही है उसमे संवाद अथात् सतयतव देखा नही जा
सकता, िकनतु अविशष जो अितिथ के चानदायण मे िनिमतभूत अपना चाणडाल वृतानत है, उसे मै देखूँगा।।34।। मै
अपने उस चाणडाल वृतानत को देखने के िलए खेदरिहत होकर भूतमणडल देश की सीमा मे िसथत गाम मे शीघ जाता
हूँ।।35।। ऐसा िवचार कर रहे गािध मणडलानतर को जाने के िलए उदत होकर जैसे सूयर मेर के पाशरभाग को देखने
के िलए उिदत होते है वैसे ही उठे।।36।। उदोगी बुिदमान पुरष, मनोराजय को भी पा जाता है। गािध ने जाकर
सवप देखा हुआ जयो का तयो पाया।।37।। उदोग से दुषपापत भी सब कुछ पापत होता है। देिखये, न जगनमाया को
सवप मे देख रहे गािध उसे नेतगोचर करने को ततपर हुए।।38।। गािध घर से िनकल कर मागर मे वषा ऋतु के जल
पवाह के वेग से तवरायुकत हुए।। उनहोने वाततुरगं म के(वायु ही िजसका वाहन है यानी मेघ के) तुलय बहुत से देशो को
लाघ डाला।।39।। जैसे काटो को चाहने वाला अकेला ऊँट बबूल के वन मे जाता है वैसे ही गािध एकाकी ही
पूवोकत पकार के आचार-िवचारवाले उकत भूतणडलनामक देश मे पहले गये।।40।। िफर वहा पर बुिद मे िसथत
(समृित पथ मे आरढ हो रहे) अवयव संिनवेश से (आकार पकार से) गनधवर नगर के तुलय िकसी एक गाव को उनहोने
देखा।।41।। उस गाव के छोर पर गािध ने भुवन के नीचे पाताल मे नरक मणडल के समान उसी चाणडाल गृह को
देखा।।42।। गनधवर के समान गािध ने िजसमे जनम आिद के िवसतार का िचत मे िवचार िकया था और जो गृह आिद
मे पचुर आसिकतवाला था इस तरह अपना चाणडालतव िचहो से देखा।।43।। पहले देखे गये चाणडाल गृह ने अपने
उसी आकार-पकार से गािध के मन को अपूवर वैरागय मे पहुँचा िदया।।44।। वह चाणडालगृह वषाऋतु की मूसलाधार
वृिष से िछन-िभन हो गया था, उसकी दीवारो पर जौ के अंकुर जमे थे, उसका आधा छपपर असत-वयसत हो गया था
एवं उसमे कुछ-कुछ शयन के भगनावशेष दृिषगोचर हो रहे थे। वह दािरदय के समान कठोर था, दुभागय के समान
दीवारमात अविशष गृहाकार था, चौयर आिद दौरातमय के समान उसके अवयव िशिथल हो गये थे और दुदरशा के समान
उसका एक भाग खिणडत हो गया था।।45,46।। गािध ने दातो से चबाई हुई गाय, घोडे, भैस आिद की सफेद
हिडडयो से, जो मानो गवाही देने के िलए वहा पर पडी थी, चारो ओर वयापत, िजनमे उसने पहले भोजन और पान िकया
था, वषा के िनशल जल से भरे हुए अतएव ऐसा मालूम पडता था आसव आिद से भरे है ऐसे खपपरो से आवृत, तृषणाओं
के समान लमबी सूखी हुई उनही आँतो से लता के समान सतमभ आिद के वेषनो दारा पिरवेिषत उस पाकतन अपने घर
को शुषक शवपाय हएु पाकतन देह के समान बडी तवरा से िचरकाल तक देखा।।47-50।। गािध को बडा आशयर हुआ
वह जैसे पिथक मलेचछनगर को लाघकर आयों के देश मे जाता है वैसे ही उसके समीपवती कुगाम मे गये।।51।।
वहा पर उनहोने लोगो से पूछाः हे सजजन, कया आपको इस गाव के छोर पर पहले हुए चाणडाल वृतानत का समरण है।
सभी धीमान पुरष िचरकाल की घटनाओं को भी हथेली मे रकखे हुए आँवले के समान सपषरप से देखते है, ऐसा मैने
सजजनो के मुँह से सुना है।।52,53।। हे सजजन, यहा पर एकानत मे िनवास करने वाले अितवृद चाणडाल का, जो
दुःखो की मूितर के समान था, कया आपको समरण है ? हे साधो, यिद आप उसको जानते है, तो यथाथररप से मुझसे
किहये। हे पिथक, सनदेह को िनवृत करने मे बडा पुणय कहा गया है।।54,55।। गािध नाम के बाहण ने गामीण
लोगो से अतयनत आशयर और पशोदोग के साथ बार-बार पूछा जैसे िक आतुर पुरष अतयनत आशयर और पशोदोग के
साथ िचिकतसक से पूछता है।।56।। गामीणो ने कहाः हे बहन्, जैसे आप कहते है वह ठीक वैसे ही है, उसमे कुछ
भी हेर-फेर नही है। यहा पर कूर आकृितवाला कटंजनाम का चाणडाल हुआ।।57।। िजसका वृक के पत समूह की
नाई पुत, पौत, सुहृद, चाकर और बनधु-बानधवो का संघ अित िवसतृत हुआ।।58।। जैसे वनािगन पवरत के पुषपफल से
पूणर वन को नष कर देती है वैसे ही काल ने िजस वृद के सारे कुटुमब को नष कर िदया।।59।। तदननतर जो देश
का तयाग कर कीरपदेश मे गया, वहा पर िबना िकसी उदेग के आठ वषर तक राजा हुआ।।60।। वहा यथाथर वृतानत
जानकर लोगो ने िजसे ऐसे ही दूर कर िदया जैसे िक लोग अनथर की रािश को दूर कर देते है और जैसे गाम मे िवष
वृक को दूर कर देते है।।61।। तदुपरानत लोगो के अिगन मे पवेश करने पर आयों के संसगर से आयरता को पापत हुआ
वह सवयं अिगन मे पिवष हुआ।।62।। हे पभो, आप इतने पयास से चाणडाल को कयो पूछते है, कया वह आपका बनधु
था या आप सवयं उसके बनधु हो गये ?।।63।। इस पकार कह रहे गामीणो से िफर-िफर पूछ रहे गािध वहा पर सब
पानतो मे पूरा एक महीना रहे।।64।। िजस पकार गािध ने चाणडालता का अनुभव िकया था उसी पकार सभी गामीणो
ने जयो-का-तयो सारा वृतानत कहा।।65।। सब पािणयो के मुँह से सतय वचन सुनकर सवयं भी अबािधत पतयिभजा
से जैसे अनुभूत हुआ था वैसे देख कर लजजा से गूढ आकृितवाले गािध चनदमा के कलंक की नाई अपने हृदय मे उतपन
हुए परम िवसमय को पापत हुए।।66।।
सैतालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
गािध का कीरनगर मे जाकर आशयरपूवरक देखकर तपसया से
भगवान िवषणु को पसन करना तथा िवषणु का यह सब माया है, यह कहना।
विसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, चाणडालो के घर मे िचरकाल से आसकत गािध का मन िफर आशयर मे पड
गया, कयोिक अदभुत दृशय को देखने से गािध का मन तृपत नही हुआ।।1।। वहा गािध ने पलयकाल के उपदव से
नष हएु ितलोक को िजस तरह बहा देखते है उसी तरह बहुत से सथानो और घरो को देखा।।2।। जैसे िपशाच
सूखी हिडडयो की मालाओं से पिरवेिषत शमशान के वृक पर अपने आप कहता है, वैसे ही जंगल मे खणडहर मे उसने
अपने मन मे कहा िक पिरखा मे खाई मे गाडी हुई ये मरे हुए हािथयो के दातो की मालाएँ आज भी पलयकाल को लकय
करके मेर की चोिटयो के समान िसथत है।।3,4।। यहा पर पहले मैने मद पीकर उनमत हुए अपने चाणडाल भाईयो
के साथ बंदिरयो का मास पके हएु बास के अंकुरो के साथ खाया था।।5।। हािथयो के मद से तीखा मद पीकर मै
चाणडाल तरणी का िसंहचमर पर आिलंगन कर यहा पर सोया था।।6।। यहा पर मैने मास और खल से पुष हुई
कुितया मृत हािथयो के दात रपी खूँटो पर रिससयो से बाधी थी।।7।। यहा पर हािथयो के मोितयो की तीन उखाओं
के (थािलयो के) पिरमाणवाला हािथयो के दातो का पात था, जो काले मेघ की शोभा को धारण िकये हुए भैसे के चमर से
ढका हुआ था।।8।। ये वे भूिमसथल है जहा पर आम के पतो पर कोिकलो के समान चाणडाल बालको के साथ
िचरकाल तक मैने धूिल कीडा की थी।।9।। यहा पर उन बालको के सास से बजते हुए बंसी के ताल सवर के
समान गान िकया था, कुती का रिधर पीया था और मुदे को सजाने वाली वसतुओं से सबकी सजावट की थी।।
10।। यहा पर िववाहो मे अपने सब कुटुमब के साथ कुटुमबवाले मैने जैसे सागर मे कललोल धविनपूवरक नृतय करते है
वैसे ही उतकृष धविनवाला नृतय िकया था।।11।। यहा पर दूसरे िदन के भोजन के िलए पकडे हएु काक, भास आिद
पिकयो का जो उडने के कारण चंचल थे, बास का िपंजडा बनाया था।।112।।
शीविसषजी ने कहाः वतस, इस तरह की पहले हईु चाणडालो की िकयाओं का (कुकमों का) समरण करते हुए
गािध, िजनका िसर आशयर से काप रहा था, िवधाता की िविचत लीलाओं का िवचार करने लगे।।13।। कतरवय को
जानने वाले गािध उस देश से बहतु काल के बाद चले एवं कम से भूतमणडल नामक देश को छोडकर दूसरे देश मे
पहुँचे।।14।। तदननतर बहुत-सी निदयो, पवरतो, देशो तथा जंगलो का उललँघन करके िहमालय पवरत के मधय मे रत
के समान शेष पूवरदृट कीर देश मे पहुँचे।।15।। वहा पर गािध, िजस पकार संसार की याता करने से थके हुए
नारदजी सवगर को पापत करते है वैसे ही रतो से समृद पवरत के समान ऊँचे महलोवाले राजनगर मे पहुँचे।।16।।
उसके बाद अपने उपभोग मे आये हुए अपने महल, देखे हुए दूसरो के मकान और पूवर मे अपने आननद के साधनभूत बाग
बगीचो को और नगर के बहुत से सथानो को देखते हुए गािध नागिरक लोगो से पूछने लगेः हे सजजनो, कया आप लोगो
का समरण है िक यहा का राजा चाणडाल था, यिद आप जानते है, तो इस िवषय िविधपूवरक शीघ वणरन कीिजये।
17,18।।
नागिरक लोगो ने कहाः हे िदज, यहा आठ वषर तक चाणडाल राजा हुआ, िजसको मंगल हसती ने राजा बनाया
था अनत मे सवरप जात होने पर अिगन मे जल गया। हे तपिसवन, आज इस बात को देखते हुए बारह वषर बीत गये
है।।19,20।। इस पकार कुतूहल से भरे हुए गािध िजस-िजस मनुषय को देखते थे उस-उस मनुषय से पूछते थे और
उसी के मुख से सुनते थे और आसवादन करते थे।।21।। इसके अननतर गािध ने उस नगर मे बल-वाहन के साथ
(सेना अशािद के सिहत) राजमहल से बाहर िनकले हुए राजा के रप मे चकधर भगवान िवषणु को देखा।।22।।
उडती हईु धूिलरपी मेघो दारा आकाश को आचछािदत करती हुई सेना को देखकर अपनी पूवरराजयावसथा का समरण
करके अतयनत िवसमय को पापत हुए गािध ने कहा।।23।। ये वे ही कीर देश के नृप की कािमिनया है, िजनकी तवचाएँ
कमल के मधयभागकी तरह कोमल है और िजनका रंग िपघले हुए सुवणर की भाित सुनदर है और िजनके नेत चंचल
नीलकमल के सदृश है।।24।। ये चनदमा की िकरणो की रािश के सदृश शेत, िनशल िनझरर के समान, तथा आकाशो
के फूलो की रािश के समान चँवरो का समूह सामने है।।25।। मनोहर ललनाएँ इन चँवरो को डुला रही है, मानो वन
की लताएँ िखले हुए पुषपो की समृिद कँपाती हो।।26।। कलपवृक से युकत मेर पवरत की िशखर परमपरा के समान ये
सब िदशाओं के भागो मे उनमत हािथयो के जम घर है।।27।। ये वे इनद के यम आिद लोकपालो के समान राजा के
यम, वरण, कुबेर के समान तेजसवी अधीन देशो के राजा लोग है।।28।। ये कलपवृक लताओं के कु ंजो की तरह
सुनदर, सब अभीष वसतुओं को देने वाली एवं हर एक वसतुओं से भरी हुई घरो की पंिकतया िवसतृत है।।29।। यह
वही कीर जनता का राजय है, िजसका मैने पहले उपभोग िकया था और िजसका आज अपने पूवरजनम के चिरत की
भाित मुझे पतयक हुआ है।।30।। यह िबलकुल सतय है िक यह समाचार पहले सवप की तरह देखा गया िफर
जागदभूत होकर सामने खडा है, न मालूम िकससे, कयो और िकसिलये इस माया का बार-बार आिवभाव होता है।।
31।। कष की बात है, जैसे िवसतार को पापत हो रहे जाल से पकी िववश हो जाता है वैसे ही मै फैल रहे मन के दीघर
मोह से िववश हो गया हूँ।।32।। हा ! बडे खेद की बात है, अपबुद और वासना से नष हुआ मेरा मन ननहे से बालक
के मन की नाई िवसतृत िविवध भमो को देखता है।।33।। यह बडी माया पहले तपसया से पसन िकये गये िवषणु
भगवान ने भली-भाित मुझे िदखाई है। अब मुझे अचछी तरह सारा वृतानत का समरण हो गया है।।34।। इसिलए अब
पवरत की गुफा मे जाकर ऐसा यत करँगा, िजससे इस िमथया जान की उतपित के िनिमत का और इसकी िसथित के
िनिमत का मुझे जान हो जाय।।35।। ऐसा सोचकर गािध उस नगर से चल गये और पवरत की गुफा मे जाकर थके
हुए िसंह की तरह बैठ गये।।36।। वहा उस बडे भारी तेजसवी गािध ने डेढ वषर तक चुललुभर पानी पीकर िवषणु
भगवान को पसन करने के िलए किठन तपसया की।।37।। इसके अननतर जल की तरह सवचछ मूितरवाले, कमल
नेत एवं नीलकमल की तरह शयामवणरवाले िवषणु भगवान शरत् काल मे जलसवरप एवं नीलकमलो से शयामवणरवाले बडे
भारी सरोवर की नाई गािध पर पसन हो गये।।38।। गािध के िनवासभूत पवरतराज की उस गुफा मे भगवान उनके
पास आये और आकाश मे मेघ के समान िवशुद शयाम कािनत वाले भगवान वहा खडे हो गये।।39।।
शीिवषणु भगवान ने कहाः हे गािध, कया तुमने मेरी गुरतर माया को देखा और संसाररपी जाल के कायर को भी
देखा िजसमे भागय ही िनिमत है ?।।40।। हे गािध, मनोवािछत इस मायादशरन के पापत होने पर पवरतभूिम मे तपसया
करके िनषकलंक हुए तुम और कया चाहते हो ?।।41।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, इस पकार कह रहे िवषणु भगवान के दशरन कर िदजो मे शेष गािध ने
पुषपो की रािश से भगवान के चरणो की पूजा की।।42।। पुषपो को िबखेरते हुए गािध ने अघयर देकर और पदिकणा के
साथ शीघ पणाम कर जैसे चातक मेघ से कहता है वैसे ही िवषणु भगवान से यह वाकय कहा।।43।। हे भगवान, यह
जो आपने अतयनत अनधकारमय माया िदखाई है, उसको आप िजस पकार सूयर पातःकाल मे पृिथवी को पकट करते है
उसी पकार पकट कीिजये।।44।। हे देव वासनारपी मल से मिलन मन िजस भम को सवप की नाई देखता है, वह
जागदवसथा मे भी कयो िदखाई देता है ?।।45।। हे अिवदािदमल से रिहत पितषावाले, मुझे जल के अनदर कणभर
के िलए सवप की तरह उपलबध हुआ यह भम अिधक काल तक दृिषगोचर कयो हुआ ?।।46।। मेरे चाणडाल
िवषयक िमथया जान से किलपत समय की दीघरता एवं अलपता तथा चाणडाल शरीर का जनम और नाश मन मे ही कयो न
िसथत रहे वे बाहर कैसे िसथत है ?।।47।।
शीभगवान ने कहाः हे गािध, िजस संसाररपी भम को तुम देखते हो यह सब िजसको तततवजान नही हुआ है,
अतएव वासनारपी वयािध से जो गसत है उस मनोभाव को पापत हुए आतमा का सवरप है, वसतुतः कुछ नही है।।
48।।
यिद कहो है, तो मन मे ही है बाहर कुछ नही है, ऐसा कहते है।
आकाश, पवरत, समुद, पृथवी, िदशा आिद कुछ भी बाहर नही है। ये सब अंकुर मे पतो के समूह की नाई अपने
िचत मे ही है।।49।। िजस पकार अंकुर से फल, पुषप आिद बाहर पकट होते है उसी पकार पृथवी, आकाश आिद
पदाथर भी मनोभाव को पापत हुए आतमा से बाहर पकट होते है।।50।। यह सतय है िक पूवोकत पृथवी आिद िचत मे
िसथत है बाहर कभी नही रहते है, कयोिक यह देखा गया है िक पललव अंकुर मे िसथत है और फल की शोभा
पललवाधीन है।।51।। वतरमान िवषय मे चकुरािद इिनदयो दारा रपालोक पतयय, भावी िवषय मे मनसकार पतयय,
(अथात् भावी काल मे िवषय का मन से समथरन िकया जाता है, अतः भावी िवषय मे मनसकार पतयय होता है) एवं अतीत
िवषय मे तता पतयय होता है, कयोिक अतीत समृित का िवषय होता है अतः तीनो पतययो के जापक तीन काल हुए और
कालो की वयंिजका सूयर की िकया है। इसिलए सबका पयावसान िकया मे ही हुआ। इस िकयातमक वसतुओं का
उपसंहार और सृिष मन सवयं ऐसे ही करता है जैसे िक कुमहार घट का नाश और सृिष करता है।।52।। इस
पूवोकत बात का सब बालक, वृद और विनताएँ सवप, भम, मद, आवेग, राग, रोग आिद की बुिदयो मे अनुभव करते है
अथात् सवपभमािद सब िचत के ही धमर है।।53।। जैसे जडो से (मूलो से) पृथवी को आकानत िकये हएु वृक मे लाखो
फल और पुषप रहते है, उसी पकार वासनाओं से युकत िचत मे लाखो (पृथवी आिद) वृतानत रहते है। भाव यह है िक
सदिधषान के अवषमभ के बल से िचत संसार को धारण करतता है।।54।। जैसे पृथवी से उखाडे गये वृक मे पते
आिद नही रहते वैसे ही वासना रिहत जीव के जनम आिद नही होते है।।55।। िजस िचत मे सदिधषान के अवलमबन
से अननत जगत-रपी जाल फँसा है उस िचत मे यिद चाणडालतव पकट हो गया, तो इसमे कया आशयर है ? अथात् कुछ
आशयर नही है।।56।। िजस पकार पचुर वेगवाली तथा िविवध पकार के मानिसक िचनतारपी िवकार को पैदा करने
वाली चाणडालता पितभास के दारा (अजान के दारा) तुमहे जात हुई है उसी तरह एक बाहण अितिथ आया, उसने
भोजन िकया, वह सोया और उसने कथा कही' यह भी सब तुमने भमातमक ही देखा है।।57,58।। उसी पकार 'मै
उठ कर जाता हूँ, मैने भूतमणडल नाम के गाम को पापत िकया, ये भूत है, ये गाम है' यह भी तुमने भमातमक ही देखा
है।।59।। उसी पकार कटंजनाम के चाणडाल का यह नष हुआ पाकतन घर है, यो मनुषयो से कहे गये कटंज के
गृहरप भम को तुमने देखा।।60।। उसी पकार 'मैने कीर देश को पापत िकया और कीरदेश के वािसयो ने मुझसे
चाणडाल के राजा होने की कथा कही' यह सब भी तुमने भम ही देखा।।61।। हे िदजोतम, इस पकार तुमने यह सब
मोहजाल देखा है, िजसको तुम यह सतय है, यो जानते हो और िजसको यह असतय है, यह भी तुम जानते हो।।62।।
वासनाओं से ओतपोत िचत अपने भीतर कया नही देखता, वषर भर मे िसद (पूरा) होने वाले कायर को भी सवप मे िसद
हुआ देखता है।।63।। न अितिथ है, न वे कीर है, न वे भूत है और न वह नगर है। हे महाबुिदवाले, यह सब तुमने
वयामोह से (अजान से) देखा है।।64।। तुम भूतदेश और कीर देश को अभी भी नही गये, िकनतु अितिथ का वाकय
सुनकर भूतदेश को जाते हुए तुमने रासते मे थकावट के कारण िकसी पवरत की गुफा मे िवशाम िकया और वही शम से
िवमूढ िचत होने के कारण सवप की तरह यह वह भूतमणडल है, यह चाणडाल का घर है इतयािद सब तुमने भमातमक
देखा है और दूसरे िदन अघमषरण के समय भी सब मायापूणर वसतुएँ (या कायर) देखी है।।67।। हे मुिन, केवल ये ही
पूवोकत भम तुमने नही देखे पतयुत सब कालो मे समसत िदशाओं मे मदोनमत की नाई घूम रहे तुमने मन से िविशष भम
देखा है।।68।। इसिलए उठो और शानत बुिद होकर अपना बहचयाशमोिचत अिगनहोतािद एवं सवाधयाय आिद कमर
करो, कयोिक यहा मनुषय अपने कमर िकये िबना कलयाण को पापत नही होते है।।69।।
शीविसषजी ने कहाः हे वतस, तीनो लोको के तपिसवयो से पूिजत एवं भगवान के चरण सपशािद से पिवत हाथो
वाले पंिडत और मुिनयो के समूह से िघर हुए पदनाभ भगवान, इस पकार कह कर अपने सथान कीर सागर को चले
गये।।70।।
अडतालीसवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआ आआआ आआ आआआआ आआआआ आआआआ आआआआआ
आआआआआआआ आआ आआआ आआ आआआ आआ आआ आआआआ आआ आआ आआआआआआआआ आआआआ
आआ आआआआआआआआआआ आआआआ।
भगवान के वाकय के अथर को असंभावना और िवपरीत भावनी की दृढता से न समझ रहे गािध जगत के
अिधषानभूत आतमतततव के साकातकार के िबना ही पूवरदृष देश आिद का बाध हो सकता है या नही यह परीकापूवरक
अनुभव करने की इचछा से िफर भूतमणडल आिद देशो मे भटके, ऐसा कहते है।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, तदुपरानत भगवान िवषणु के चले जाने पर िफर गािध सवयं अपने
मोह के िवचार के िलए भूतमणडल आिद देशो मे आकाश मे मेघ की नाई कम से भटके।।1।। तदननतर लोगो के मुँह
से अपने चाणडालतव आिद के वृतानत को पूवानुभूत के तुलय ही सुनकर और िचहो से देखकर िफर पवरत की गुफा मे
जाकर उनहोने शीहिर भगवान् की आराधना की।।2।। तदुपरानत थोडे ही समय मे भगवान शी हिर उनके पास आये।
भगवान एक बार थोडी सी आराधना से ही बनधुता को पापत हो जाते है।।3।। जैसे मेघ मयूर के पित बोलता है वैसे
ही पसन हुए भगवान गािध के पित बोलेः हे गािध, तपसया से तुम िफर कया चाहते हो ?।।4।।
गािध ने कहाः हे देवदेव, मैने छः महीने तक भूमणडल और कीरराजय मे भमण िकया। वहा पर जनपवादो मे भी
मेरे वृतानत मे वयिभचार नही आया यानी वह जयो-का-तयो सुना गया।।5।। हे पभो, आपने मुझसे तुमने माया से
भूतमणडल देखा, ऐसा कयो कहा ? महातमाओं का वचन मोह के नाश के िलए होता है न िक मोह की वृिद के िलए। माया
से दुष पदाथर कालानतर मे अवशय वयिभचिरत होते है, िकनतु ये तो अवयिभचिरत है, अतः ये माया है, ऐसा कैसे समझा
जा सकता है ? यह भाव है।।6।।
माियक पदाथर भी जनपवादो मे अवयिभचिरत हो सकते है, इसमे उपित कहते है।
शी भगवान ने कहाः गाधे, काकतालीय नयाय से पिसद भूतमणडल देश केक और कीरदेश के लोगो के मन मे,
तुमहारे मन की नाई, कटंज चाणडाल की िसथित अपरोक रप से भािनतवश पितिबिमबत है।।7।।
वे भी अपनी भािनत से ही वैसा कहते है, इसिलए उनके वचन का संवाद सतयता का आपादक नही है, ऐसा
कहते है।
इसिलए वे तुमहारे वृतानत को जैसे का तैसा कहते है। बाधक जान के िबना पितभास (भम) अभमता को पापत
नही होता।।8।। िकसी चाणडाल दारा गाव के छोर पर बनाया गया मकान, जो िक यह पहले मैने बनाया था यो तुमहारे
भािनतजिनत आगह का िवषयीभूत है और अब ईँटो के टुकडो के रप मे पिरणत हो गया है, तुमने देखा था।।9।।
कभी भािनत रप पितभास बहुतो का भी एक-सा ही होता है। कौए की ताड के पेड के नीचे िसथित के समान मनोगित
बडी िविचत है।।10।। देखो न बहुत से लोग एक ही सवप देखते है जैसे िक िनदा के समान भमपद मिदरा के मद से
मत िचतवाले बहुत से समानरप से घूम रही-सी िदशाओं को देखते है।।11।। एक ही नीली वनसथली मे मृग के
बचचो के समान बहुत से बालक एक ही बालू आिद से बनाये हुए गृह, हल, दुगर आिद की भमलीला मे खेलते है।।
12।। वध, बनधन, पराजयक, पलायन आिद िविवध आकारवाले अपने पारबधफल पाक के पापय होने पर भी बहुत से
सैिनक आिद लोग एक ही समय एक तरह के जय, लाभ, भोग आिद पयोजनो की भािनत से उनके लोभ से युद आिद
दारा यत करते है, यह पिसद है।।13।।
यिद मानस कलपना ही जगत है, तो हेमनत आिद समय धान आिद के अंकुरो का पितबनधक और जौ आिद के
अंकुरो का सहायक है, इस लोक पिसिद का बाध होगा, कयोिक मानस कलपना का बाह काल सहायक नही हो सकता
है, गािध की इस शंका का िनवारण करते हुए कहते है।
काल पितबनध और अभयनुजा (सवीकृित) का दाता है ऐसा जो लोकापवाद है, उसमे िवरोध नही आता है कयोिक
पितबनध और अनुजा का हेतुभूत काल भी संकलप मात ही है। यानी िदशा िवशेष से अविचछन सूयर की िकया को
देखकर मन ही शासतानुसार मास, ऋतु आिद भेदो की कलपना करता है।
शंकाः तब अकिलपत काल कौन है ?
समाधानः जो अकिलपत अखणडकाल (परमातमा) है, वह सवातमा मे िसथत रहता है, िकसी के िलए न तो
पितबनधक होता है और िकसी को अभयुजा ही देता है।।14।।
इसी अथर को सपष करते है।
अमूतर जो भगवान काल है, उसे तो पिणडत लोग जनमािद िवकार रिहत बह ही कहते है। वह न तो कभी
िकसी का कुछ भी तयाग करता है और न कभी िकसी का कुछ भी गहण करता है।।15।।
पथम काल की संकलपरपता िसद करते है।
वषर, कलप, युगरप जो यह लौिकक काल है, वह जनयमात के कालरप उपािधजनय होने के कारण सूयर िकया,
चनद िपणड आिद पदाथर समूहो दारा संकिलपत होता है और उस काल दारा पितबनध और अभयनुजावश सब पदाथों के
समूह उनकी िकया फल आिद की वयवसथा संकिलपत होती है।।16।।
पासंिगक शंका का खणडन कर पसतुत का अवलमबन कर कहते है।
उन भानतिचतवाले भूतदेश के और कीर देश के लोगो ने सदृश पितभास से उतपन भम को वैसे ही देखा।।
17।।
तब मुझे कया करना चािहए ? यह पूछने पर कहते है।
हे साधो, सववयापार मे ततपर होकर यानी अपने वणर और आशम के आचरण मे ततपर होकर आप बुिद से अपने
आतमा का िवचार कीिजये तथा मोहरिहत होकर यही रिहये, मै जाता हँू।।18।।
ऐसा कह कर सबके अिधपित भगवान िवषणु अनतिहरत हो गये और िचनता से वयापत बुिद से युकत गािध कनदरा
मे जा बैठे।।19।। तदननतर पवरत पर कुछ महीनो के बीतने पर वही उस गािध ने पुणडरीकाक भगवान की पुनः
आराधना की।।20।। एक समय उनहोने आये हुए पभु को देखा, पणाम िकया, मन, वचन और कमर से उनकी पूजा की
तथा पश की अनुजा के वाकय से पूछा।।21।।
गािध ने कहाः हे भगवन, अपनी इस चाणडाल िसथित का िचत से समरण कर रहा और इस जनम, मरण आिद
अनथर पचुर संसार माया का समरण कर रहा मै अतयनत मोह को पापत हो रहा हँू।।22।। इसिलए महामोह की िनवृित
के िलए उपाय कह कर झटपट न चले जाइये, िकनतु संशय से उतपन मोह का नाश होने तक िसथत होइये और मुझे
एक ही िनमरल कमर मे िनयुकत कीिजये।।23।।
शी भगवान ने कहाः हे बहन्, यह जगत् मायारपी महाशमबरासुर का आडमबररप है। इसमे आतमतततव के
िवसमरण से यानी आवरण के िनिमतभूत अजान से सब आशयरमय कलपनाएँ होती है।।24।।
माया मे हजारो अघिटत घटनाएँ हो सकती है, ऐसा कहते है।
तुमने भूतमणडलक और कीरनगर मे जो वैसा देखा, वह सब संभव ही है, कयोिक िनदा आिद मे असंभािवत
पदाथों का भम लोगो को िदखाई ही देता है।।25।। भूतदेशवािसयो और कीरदेशवािसयो ने तुमहारी ही तरह िमथया
होते हुए भी सतय की तरह वैसा भम देखा, कयोिक समान संकलप से समान काल आिद का संभव है।।26।। मै
तुमहारे चाणडाल िननदा समबनध को पगटाने वाले यथाथर िवषय को कहूँगा, तुम इसे सुनो, इससे मागरशीषर की लता के
तुलय तुमहारी िचनता नष हो जायेगी।।27।। जो यह कटंज नाम का चाणडाल भूतमणडल मे पहले हुआ, वह तुमहारे
दारा देखे गये उसी आकार-पकार से वैसे ही युकत पहले हुआ। वैसे ही कलत रिहत होकर दूसरे देश मे गया, कीरदेश
का अिधपित हुआ और तदननतर अिगन मे पवेश कर गया।।28,29।।
यिद उस पकार का अनय पुरष हुआ, तो उसका वृत मेरे अनुभव पथ मे कैसे आरढ हुआ। इस पकार की
आशंका होने पर कहते है।
तब जल के अनदर डू बे हुए तुमहारे मन मे उस पकार की कटंज के आचार की िसथित भािनत से केवल
पितभािसत हुई, कयोिक ऐसा ही तुमहारा संकलप था।।30।।
जो वसतु कभी न देखी गयी हो, दूसरे देश मे हो और बीत चुकी हो, उसका सामने वतरमान रप से दशरन कैसे
हो सकता है ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
जैसे दषा पुरष कभी अनुभूत वसतु को भी िबलकुल भूल जाता है वैसे ही िचत कभी न देखी गई वसतु को भी
पूवरदृष के समान देखता है।।31।। हे गाधे, जैसे सवप से मनोरथ, संिनपात के भम होते है वैसे ही जागत मे भई मन
से सवयं भम देखे जाते है।।32।। जैसे ितकालदशी योगी की दृषी से भिवषयत वसतु भी उसके उतर काल मे होने
वाले दृशयमान पदाथों की अपेका भूतकालसथ होती है वैसे ही हे गाधे, अतीत कटंज का चिरत भी वतरमान पितभा को
पापत होता है।।33।।
यिद कहो आतमिभन कटंज मे और अनातमीय उसके घरबार, सती-पुत आिद मे मेरा वही मै हूँ, तदीय ही वह
(गृह आिद) मेरा है, यो मजजन कैसे हुआ ? तो इस पर थोडा कहा जाता है। अतततवज सभी लोगो का अनातमा देह मे
और अनातमीय गृह, कलत आिद मे 'अहम्' 'मम ऐसा अिभमान िदखाई देता है, केवल आतमिवत् का ही उनमे मजजन नही
होता, इस अिभपाय से कहते है।
यह देह मै हूँ तथा ये घर-दार आिद मेरे है, यो आतमजानी िनमगन नही होता। यह देह मै हूँ तथा ये घर-दार
आिद मेरे है, यो अनातमजानी िनमगन होता है।।34।।
सबमे अहंभावना से भी तततवजानी का उनमे मजजन नही होता है, कयोिक पिरिचछन अहंभाव ही मजजन का हेतु
है, ऐसा कहते है।
सब कुछ मै ही हँू ऐसी भावना से तततवजानी दुःखी नही होता, वह पदाथों मे भेदरप अनथर भावना का गहण
नही करता है। इसी कारण वह सुख, दुःख से युकत भमो मे जल मे तुमबी के समान िनमगनपाय होता हुआ भी(▀) नही
होता।।35,36।।
▀ सवोहंभावना मे भी अहंकारता है, इसिलए िनमगन पाय कहा है।
तब मै कैसा हूँ, ऐसा पूछने पर तुम अनतरालवती(मधयवती) हो, ऐसा कहते है।
िविवध वासनाओं से गसत िचतवाले, चेतनारिहत तुम िजसकी महावयािध कुछ शेष रह गई हो, उस रोगी के
सदृश हो, जैसे िकंिचत अविशष महावयािधवाला पुरष सवासथय को पापत नही होता वैसे ही तुम भी सवरप मे अविसथत
आतमा को पापत नही हुए हो।।37।। जैसे गृह रचना या गृह पवेश आिद समयग् पयत से रिहत पुरष वृिष का िनवारण
करने मे समथर नही होता वैसे ही जान के पिरपूणर न होने के कारण तुम मनोभम का िनवारण करने मे समथर नही हो।।
38।। जो ही तुमहारे िचत मे सहसा पितभािसत होता है ऊँचे पुरष से वृक के समान कणभर मे उसी से तुम आकानत
हो जाते हो यानी उसके अिभमान से ितसकृत हो जाते हो।।39।। यहा पर इस माया चक का मधयभूत िचत चारो
ओर घूमता है। यिद पुरष उस िचत आतमा मे पिवलापन दारा ितरसकार करके िसथत हो जाये, तो वह माया चक कुछ
भी पीडा नही पहुँचाता है।।40।। तुम उठो, पवरत के कु ंज मे दस वषर तक अिखन बुिद होकर िचत िनरोध का
अभयास करो। तदननतर तुम अननत जान पापत करोगे।।41।। ऐसा कहकर भगवान शीहिर वायु मे लीन मेघ की
नाई, बुझे हुए दीपक की भाित और यमुना की तरंग की भाित एक कण मे वही पर अनतिहरत हो गये।।42।। जैसे
शरद् ऋतु के बाद (पतझड मे) वृक पतो से रिहत हो जाता है(िवरसता को पापत हो जाता है) वैसे ही गािध िववेकवश
उतपन हुए वैरागय को पापत हुए।।43।। गािध ने िजनकी मित घूम रही भमरािश से उनमुकत हो चुकी थी, पाकतन कमर
रप दैव की योगय चाणडाल भाव पदशरनरप िविचत चेषा की थोडी िननदा की।।44।। जैसे गीला मेघ पवरत पर जाता
है वैसे ही करणा से आदर िचतवाले गािध कलयाणकारी िचतिनयमन के अभयास के िलए तथा सवरशेष पद मे िवशािनत
केक िलए ऋषयमूक पवरत पर गये।।45।। वहा पर सब संकलपो का तयागकर गािध ने दस वषर तक तप(मन तथा
इिनदयो का संयम) िकया, उससे उनहोने आतमजान पापत िकया।।46।। आतमजान पािपत के उपरानत महातमा गािध
अपनी पारमािथरक सता पापत कर भय-शोक रिहत हो तथा िनरनतर उिदत जीवनमुकत सवरपवाले अतएव अपिरिचछन
सवाननद मद से आघूिणरत और पूणर िचतवाले हो षोडश कलाओं से पूणर चनदमा के समान अपिरिचछन बहाकाश मे िवहार
करने लगे।।47।।
उनचासवा सगर समापत
िसथित पकरण उपशम पकरण
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ आआ, आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआ
आआआआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ।
पूवर सगों मे विणरत गािध के वृतानत की पसतुत कथा मे योजना करते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुननदन, इस पकार अतयनत फैली हुई यह महामोहमयी िवषम माया अिचनतनीय है,
एकमात परमातमा ही इसका आशय और िवषय है।।1।।
दुजानता को ही तीन पकारो से दशाते है।
कहा दो मुहूतर के भम से लोकदशरन, और कहा अनेको वषों मे मुकत होने वाला चाणडाल का भम, कहा
भमावसथा मे पािपत और कहा पतयक दशरन, कहा िनसनदेह असतयता और कहा सतय मे पिरणत होना ? इसिलए मै
कहता हूँ, हे महाबाहो, यह िवषम माया असावधान मनवाले पुरष को पित िदन संकट मे डालती है।।2-4।।
िचतंनािभः िकलाऽसयेह मायाचकसयसवरतः। सथीयतेचेतदाकमयतन िकंिचत् पबाधते।।
इस पकार भगवान ने जो अनत मे गािध का उपदेश िदया, उसके उपाय को जानने की इचछा से शीरामचनदजी
पूछते है-
हे बहन्, अिधकारी लोग पिरपूणर आननदसवरप आतमा को पिरिचछन समझनारप अंगचछेद के हेतुभूत तथा वेग
से बह रहे इस मायाचक का िनरोध कैसे करे ?।।5।।
भगवान दारा उपिदष माया चक को रोकने के पकार का पहले िवसतार करने के िलए उकत का अनुवाद करते
है।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुवर, आप िचत को घूम रहे और भािनत देने वाले इस संसाररपी मायाचक महानािभ
(पिहये के बीच का भाग) जािनये।।6।। पुरष पयत से बुिद दारा उस िचतरपी महानािभ के (पिहये के बीच के
िहससे के) रकने पर मायाचक, िजसकी नािभ पकड ली गयी है, भमण से रक जाता है।।7।। जैसे रससी के रोकने
पर रससी मे लपेटा हुआ कासे आिद का बनाया हुआ कीडाचक (लटू) नही चलता है वैसे ही मोहचक, िजसकी मनरपी
नािभ रोक दी गई है, नही चलता।।8।। हे शीरामचनदजी, आप चकयुदो मे मुखय तथा उनको रोकने और घुमाने आिद
मे कुशल है, इसिलए आप उकत दृषानत को कयो नही जानते है ? नािभ मे रोका गया चक वश मे आता है, अनयथा
नही।।9।। हे रामचनदजी, इसिलए पयत से िचतरपी नािभ को रोककर संसाररपी चक को आतमा को जनमपरमपरा
की पािपत कराने से रोिकये।।10।। इस िचतिनरोधरपी उपाय के िबना आतमा को अननत दुःख पापत हुआ है। इस
दृिष के पापत होने पर उस दुःख को कण भर मे नष हुआ ही जािनये। यिद मेरे कथन मे संशय हो, तो आप वैसा
करके देिखये, यह अथर है।।11।।
इससे अितिरकत अनय उपाय नही है, ऐसा कहते है।
केवल िचतवशीकरणरप परम औषिध के िसवा वह संसाररपी महारोग पयत से भी शानत नही होता।।12।।
इसिलए हे राघ, तीथरसनान, दान, तपसया आिद कमों का मागर छोडकर परम कलयाण के िलए भीतरी िचत को ही वश मे
कीिजये।।13।। जैसे घडे के अनदर घटाकाश रहता है वैसे ही िचत के अनदर ही संसार है। जैसे घडे के नष होने
पर घटाकाश नही रहता वैसे ही िचत का नाश होने पर संसार नही रहता।।14।। जैसे घटाकाश मे रोका गया
मचछरािद िजसमे दुःखपूवरक संसरण है ऐसेक आकाश कोटर को भागयवश घडे के िवनाश से नष कर, अनुपम
महाकाश मे पवेश कर बनधन रिहत ही सुखी होता है वैसे ही आप भी िचत के नाश से िचतरपी घटाकाश का िवनाश
कर अतुिलत बहाकाश मे पवेश कीिजये।।15।।
िचत के नाश का कया उपाय है ? इस पर कहते है।
बाह बुिद से वतरमान कण का अनायास भजन कर रहा और भूत तथा भिवषयत का भजन न कर रहा िचत
अिचतता को पापत होता है। भूत, भिवषयत् िवषयो के अनुसनधान के तयाग से ही कमशः िचत का कय होता है, यह
अथर है।।16।। हे राघव, यिद आप भावी िवषयो के संकलप का और उसके अंशभूत पदाथों का अनुसनधान तयाग
पतयेक कण मे सावधानी से कीिजये, तो आप पिवत अिचतता का िवसतार रहता है तब तक वृिष के (आकाश जल के)
िबनदु रहते है।।18।।
इसी पकार िचत के रहने पर संकलपो का भी वारण नही िकया जा सकता, ऐसा कहते है।
जब तक चेतन (िचदातमरप) िचत सिहत है तब तकक अवशय संकलपो की कलपना होगी, जब तक जगत्
चनदमा के िकरणो से युकत रहेगा तब तक ओस की बूँदे अवशय होगी।।19।। यिद चेतन िचत से पृथक है यानी
कूटसथ है, यो भावना की जाय, तो अपने सार के मूलो को (काम, कमर, वासना आिद को) मूलाजाननाश के साथ
महािसद के समान जले हुए ही जािनये।।20।।
यिद कोई शंका करे िक भले ही मूल अजान के साथ संसारमूलो का दाह हो, तथािप चेतन मे िफर कलपनारपी
मल के कारण िचत आिद की उतपित कयो नही होती है ? इस पर कहते है।
िचत से पृथक हुआ चेतन पतयकचेतन (आतमा) कहा जाता है। वह सवभावतः मनरिहत है। उसमे कलपनारपी
मल के संभव नही है।।21।।
िचतरिहत जो चेतनरप है, वही परमाथर सतयता है, वही िनरितशय आननदरपता है, वही परमातमसवभावभूत
अवसथा है, वही सवावभासक िचदूपा है और वही परमाथर दृिष है, िकनतु िजस अवसथा मे दुष मन है वह वैसी नही
है।।22।।
िननदता के बीजो को िदखलाते है।
जहा पर मन रहता है वही पर जैसे शमशान के समीप कौए आते है वैसे ही सदा िविवध आशाएँ और सुख-दुःख
समीप मे आते है।।23।।
यिद कोई शंका करे िक जािनयो के भी मन है िफर उनमे आशा कयो उतपन नही होते ? तो उस पर कहते है।
जािनयो का मन है यह बात ठीक है तथािप उनके मानस संकलप मे आशा आिद सब भावो की वयवसथािपका
संसाररपी लता के वासनारपी बीज ही नही उगते, कयोिक वे तततवजान से बािधत हो जाते है।।24।।
जो पदाथर पहले वासतिवक रप से जात हो उनका िकस उपाय से अवसतुतवजान रप बाध होता है, ऐसा पश
होने पर उसे कहते है।
शासत और सजजनसंगित के िनरनतर अभयास से जगत के पदाथों की अवासतिवकता जात होती है।।25।।
िचत को अिववेक से हटाकर उदम के (पुरषपयत के) साथ अवशय इसी जनम मे जान पापत करँगा, इस तरह के दृढ
िनशयो से शासतो और सतसंगित मे जबरदसती लगाना चािहए।।26।।
िकस मुखय कारण का अवलमबन करके शासत आिद से भी आतमा का अनवेशण करना चािहए ऐसा यिद कहे,
तो सवयंजयोितरप पतयगातमा का ही अवलमबन करके आतमा का अनवेषण करना चािहए, कयोिक उससे वेद पदाथों की
िवलकणता से उसी की सवतः पिथित होती है, इस आशय़ से ही (पकाशमान अपने सवरप से ही) ही देखा जाता है।।
27।।
पूवर शलोक मे उकत मुखय कारणता को सपष करते है।
चूँिक अपना आतमा ही अपने से अनुभूतदृशय वसतुएँ दुःख ही है, यो िववेक से उनहे छोडना चाहता है, अतएव
अपने आतमा के अवलोकन मे दृशय पितकूल सवभाववाली आतमा ही सवयं एक मुखय कारण कहा गया है। यिद आतमा
सवयं भी असुख जडसवभाव होता, तो दृशय के पितकूल न होता, यह भाव है।।28।।
इसिलए आतमा के लाभ के िलए सदा आतमा मे तललीन होइये, ऐसा कहते है।
बात कर रहे, तयाग कर रहे, गहण कर रहे, आँखे खोल रहे, बनध कर रहे भी आप मनन से (मन के वयापार से)
रिहत अननत िचनमात मे परायण (तललीन) होइये।।29।। उतपन हो रहे, जी रहे, मर रहे तथा अनयानय कमों मे िनरत
हुए आप शोधन दारा िनमरलता को पापत हुए संिवतमाताशरपसवातमा मे िसथर होइये। उतपित और मरण का गहण उनके
तुलय सुख, दुःख तथा अनयानय दुदरशाओं मे भी आतमपरता के अिवसमरण के िवधान के िलए है, यह समझना चािहए।।
30।। यह (सनमुख िसथत), वह (दूर देश मे िसथत) मेरा है, यह पतयिभजायमान देह है हँू, इस पकार की वासनाओं का
भली-भाित तयाग कर एकागता से भीतर िसथत संिवतमात मे ततपर होइये।।31।। वतरमान िसथित (बालयावसथा) और
भिवषय िसथित (यौवन, राजय आिद की िसथित) इन दोनो मे जब तक देह रहे तब तक एक बुिद होकर सवसंिवत से
धयान और समािध मे ततपर रिहये।।32।। बालयावसथा, युवावसथा और वृदावसथा मे, सुखो मे, दुःखो मे, जागत
अवसथा मे, सवपावसथा मे और सुषुिपत अवसथा मे सवसंिवत मे (िचनमात मे) तललीन होइये।।33।। बाह िवषयरपी
मल का तयागकर मन को खूब गला रहे आप आशापाशरपी मल को िछन-िभन कर सवसंिवत मे परायण हो जाइये।।
34।। अपने संकलप से िकये गये शुभ और अशुभरप संकेतो मे िजनकी आशारपी िवषूिचका शानत हो गई है, अतएव
िजनकी यह इष है और यह अिनष है, यह दृिष नष हो चुकी है ऐसे आप संिवत रपी सार-पदाथर मे संलगन होइये।।
35।। कता (िवजानमय), कमर (बाहिवषय) और करणो (इिनदयो) सिहत तथा अपना सपशर न करने वाले इस पकार के
संसारो का जैसे मिण अपने अनदर पितिबमबो का िवसतार करती है वैसे ही अपने िवसतार कर रहे, िवकलपरिहत तथा
आलमबन रिहत आप सविचनमात परायण होइये।।36।।
जागत अवसथा मे ही सुषुपत की-सी िनिवरकलप तथा अतयनत िसथर िसथित की भावना कर रहे आप 'मै सब हूँ'
यह िवचार करके मात सतारप होइये।।37।। नाना दशा (जागत और सवपदशा) और अनानादशा (सुषुिपत दशा) से
मुकत अथवा सृिष और पलय दशा से मुकत, मुकतरप से सम मे (बह मे) संलगन तथा सबकी नाना बुिदवृितयो के दीप
के तुलय पकाशक आप सविचनमातपरायण होइये।।38।। आतमता (सवता) और परता (अनयता) का तयागकर जगत
की िसथित मे दैतजानशूनय आप आतमा का अवलमबन कर वज के सतमभ की नाई िसथर होइये।।39।। एक मात
धैयरधमरवाली उदार बुिद से आशा रप मानिसक जालो का भीतर उचछेद कर धमाधमर रिहत होइये।।40।। आतमजान
समपन एवं तततव का आसवाद ले रहे पुरष के िलए हलाहल िवष भी अमृत बन जाता है। भाव यह है िक सबके अमृत
होने पर िवष की भी अमृतता अथात् (सहज) िसद हो गई।।41।। जब िनमरल और अखणड चैतनय का अजान होता
है तब संसाररपी भम का कारणरप महामोह उिदत होता है।।42।। जब िनमरल और अखणड सवसंिवत् मे (िचत मे)
िसथित होती है तब संसार भम का कारणभूत मोह नष हो जाता है।।43।। अपने सवरप को पापत हुए एवं आशारपी
महासागर को पार िकये हुए आपकी बुिद सूयर की िकरणो के समान चारो ओर फैलेगी।।44।।
मुकत पुरष की अनयत आशा की संभावना तो दूर रही, बिलक अमृत आिद रसायन के आसवाद मे भी आतमाननद
के आसवाद मे िवघ की संभावना से िवष की नाई हेयता बुिद हो जाती है, इस आशय से कहते है।
हे शीरामचनदजी, अपनी अिदतीयाननदसवरपता का दशरन कर रहे अिदतीय आननदरप बह मे िसथत पुरषो को
सवािदष अमृत आिद रसायन भी पितकूल िवष के समान लगता है।।45।। जो लोग हमारे पतयगातमभाव को पापत हुए
है यानी जीवनमुकत पुरष है जनम को साथरक करने से, पुरषाथर साधन से तथा सफल पौरषवाले होने से उन शेषतम
पुरषो के साथ हम सदा मैती करते है। अनय लोग तो पुरषाथर के उपयोगी पौरष से हीन होने के कारण नाममात के
पुरष है, पुरष शबद के अथर का उनमे नामिनशान भी नही है, इसिलए लमबी बाहुवाले वे गदहो के समान उपेका के ही
पात है, दशरन आिद के योगय भी नही है।।46।।
इस पकार अनय महान् योगी और उपासक भी जगत मे है ही, उनसे भी तततवजानी मे ही कौन उतकषर (शेषता)
है ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
अपनी संिवत से सबसे उनत िसथितवाले अतएव उतकषर की परम सीमा मे पहुँचे हएु तततवजानी के सामने योगी
आिद जानपािपत के िलए उन-उन महापुरषो के पास जाते है। वे जैसे हाथी मेर आिद पवरत के सामने एक िनकटवती
कुद पवरत से दूसरे पवरत पर जाते है वैसे ही जाते हुए पतीत होते है। मेर के समान सवोनत दृढरप से िवशानत नही
मालूम पडते है।।47।।
अपनी संिवत से उनत िसथित का उपपादन करते है।
सवसंिवदरपी िदवय चकुवाले तततवजानी के, िजसकी सीमाएँ पहले िकसी के दारा नही देखी गई, वतरमान समय
मे व भिवषय मे भी देखने योगय नही है, अनतःकरण् का किलपत सूयर आिद सभी तेज उपकार नही करते है। इसिलए
सवसंिवत से ही उसकी उनत िसथित है, यह अथर है।।48।।
ये सूयर आिद केवल उपकार ही नही कर सकते, सो बात नही है, िकनतु तततववेता के सनमुख अवसतुता को ही
पापत होते है, ऐसा कहते है।
िवदा से िजसने आतमतततव का जान पा िलया है, ऐसे तततववेता के सनमुख ये महापकाशवाले सूयर आिद मधयाह
के दीपको की नाई अवसतुता को पापत होते है।।49।। तेज के कायर पकाशनो मे, योगिसिद के विशतव आिद पभावो
मे, शारीिरक बलवानो मे, ऐशयर, आयु आिद से शेषो मे तथा वागमता आिद उनित से युकत सबमे तततवजानी परम उनत
है। सब उनितया तततवजानी मे अधयसत है, यह अथर है।।50।। तततवजानी शेष पुरष िजस जगदीशर की दीिपत से
सूयर अिगन, चनदमा, मिण और तारा दीपत होते है, उसके तुलय सुशोिभत होते है।।51।।
हे शीरामचनदजी, िजन लोगो को तततवजान नही हुआ वे पृथवी के िबलो मे रहने वाले कीडो से, गदहो से और
पशु-पिकयो से भी गये गुजरे कहे गये है। तततवजान का अभाव होने पर उससे भी अधम करोडो योिनयो की पािपत होती
है, यह भाव है।।52।। तभी तक अजानरपी वेताल है जब तक देहधारी सत् भी आतमा की अजान से असता मानने
के कारम अनातमवान है अतएव वह अचेतन है, इसिलए आतमजानी ही चेतन से संयुकत है, ऐसा िवदानो का कथन है।।
53।। जो आतमतततव को नही जानता, उसकी सबकी-सब चेषाएँ दुःख के िलए ही है। वह भूतल मे इधर-उधर
चलता िफरता हुआ भी शवरप से ही भमण करता है, केवल आतमजानी ही सचेतन है, ऐसा पिणडत लोग कहते है।।
54।। जैसे चारो ओर से घने मेघ के उिदत होने पर पकाश शोभा दूर चली जाती है वैसे ही िचत के सथूल होने पर
आतमजता, जो थोडी बहुत उपािजरित भी हो चुकी हो, दूर भाग जाती है।।55।। इसिलए मन को पापत भोगो के (िवषयो
के) सेवन के ितरसकार दारा और अपापत भोगो की अिभलाषा के तयाग दारा समय से अजीणर पत के समान धीरे-धीरे
कृश बनाना चािहए।।56।।
मन की सथूलता के हेतु कौन है ? िजनके तयाग से मन मे कृशता हो, ऐसी आशंका होने पर मन की कृशता के
हेतुओं को कहते है।
अनातमा मे (देह, इिनदय आिद मे) आतम भाव से, इस देहमात मे आसथा से, पुत, कलत और कुटुमब से िचत
सथूलता को पापत होता है।।57।। अहंकार के िवकास से, ममतारपी मल मे आसिकत से तथा यह शरीर मेरा आतमा
या भोग सथान है, इस भाव से िचत सथूलता को पापत होता है।।58।। जरा-मरणरपी दुःख से पूणर, वयथर ही िदन पर
िदन बढे हुए दोषरपी सापो के िवषरप पूवोकत 'इदं मम' इस भाव से िचत सथूलता को पापत होता है।।59।।
आिध(मानिसक वयथा) और वयािध (शारीिरक वयथा) की अिभवृिद से, संसार की रमणीयता, िचरसथाियता आिद के
िवशास से और यह हेय है यह उपादेय है इस पयत से िचत सथूलता को पापत होता है।।60।। सती, पुत आिद के
पित सनेह से तथा मिण और िसतयो के लोभ से, जो आपततः रमणीय पतीत होता है, उतपन हुए धन के लोभ से िचत
सथूलता को पापत होता है।।61।। दुराशारपी दुगध के पान से, भोगरपी पवन के बल से, आदरपदान से तथा नाना
िवषयो मे संचार से िचतरपी सपर सथूलता को पापत होता है।।62।। िवष से जैसी दाह, मूचछा और वयाकुलता होती है
वैसी दाह, मूचछा और वयाकुलता को सूिचत करने वाले भीषण भोगो के सेवन से, िजसके सवरप और सवभाव आवागमन
वाले है, िचत सथूलता को पापत होता है।।63।। शरीररपी बुरे गडढे मे िचरकाल से उगे हुए इस अदभुत िचतरपी
िवष वृक को िवचाररपी मजबूत आरे से जबरदसती िनःशंक काट डालो। िविवध िचनताएँ ही िजसमे लमबी-लमबी
मंजिरया है, जो जरा, मरण और वयािधरपी फलो के समूह से लदा है, कामोपभोगो के समूह ही िजसमे िखले हएु फूल है,
आशा ही बडी-बडी शाखाएँ , िवकलप ही पते है और जो पवरत के तुलय अचल है।।64,65।।
इस समय उसी िचत का गजरप मे वणरन करते है।
हे रघुवर, हे राजाओं मे सवरशेष, आप िचतरपी हाथी को अतयनत तीकण बुिदरपी नखरािशयो से चीर
डािलये। उकत िचतरपी हाथी के आगम, अनुमान रपी नेत आतमतततव िववेक मे पमाद करने वाले है, वह एक
बिहमुरखरप संसारपवरत तट पर बैठता है, अतएव अनतमुरख िवशािनत सुख का अनुभव करने मे असमथर है, देष, ईषया
आिद से भीषण होने के कारण उग है, सजजनो दारा गृहीत होने वाले शम, दम, ितितका, आिदरप कमलवन के
अवलोकन मे उतकिणठत तो है, पर अतयनत कोधी है यानी उसके रकण मे अयोगय है, सुख और दुःख ही उसके शीतल
और गमर वाषप वाले मद को बहाने वाले गणड सथल है, वह शरीररपी भीषण वन मे रहता है और बडे-बडे काम आिद
िवकार ही उसके दात है, अतएव वह धैयर आिद िकया का उचछेदरप कायर करता है।।66-67।।
सती िचह आिद कुितसत सथानो मे िनतय आसिकत को पापत, शरीररपी मास के गसन के तुलय अनतभाव के
आपादन से पुष, पर ममरभेदनरपी दुषकमर मे कठोर चोचवाले, केवल सवाथर मे ही दृिष रखने वाले, वृिद को पापत हईु
तामस वृितयो से मिलन, वहन करने वाले आतमा के भारभूत, दुष चेषावाले, कठोर शबद रहे तथा दुवासनाओं से
आिवभूरत अपने िचतरपी कौए को (♠) दोषो की शािनत के िलए शरीर रपी घोसले के अनदर से दूर हटाइये।।
68,69।।
♠ कौए के पक मे शमशान आिद गिहरत सथानो मे सदा आसकत, मास के गसन से पुष शव आिद के ममरसथानो
को नोचने मे कठोर चोचवाले, एक आँखवाले, गाढ अनधकार के भागो के समान काले, वृक आिद के भारभूत, दुष
चेषाएँ करने वाले, कणरकठोर काव-काव शबद कर रहे दुगरिनध से चले हुए कौए को, यो अथर करना चािहए।
उसी िचत का िपशाचरप से वणरन कर उसे न हटाने से मोक की पािपत नही होती, ऐसा कहते है।
अजानरपी महान् वटवृको पर बैठे हुए, तृषणारपी िपशािचनी दारा सेवयमान्, िचत के हटने पर चेतनरिहत
अननत कोिट देहरपी अरणय मे िचरकाल तक भटके हुए इस िचतरपी िपशाच को िचदातमा के गृहभूत हृदय से जब
तक िववेक, वैरागय, गुरसमीप गमन, पुरषपयत आिद सवतनत मनतो दारा पुरष नही हटाता तब तक यहा पर आतमिसिद
कैसे हो सकती है ?।।70,71।।
अब मन का सपररप से िनरपण करते हुए उसका तयाग करते है।
हे शीरामचनदजी, िचतरपी साप को, िजसकी शुभ और अशुभ रप दो दाढ है, जो एक-दो नही अनेकानेक
मनुषयो की हतया कर चुका है, िचनता ही िजसका िवष है शरीर ही गिहरत केचुल है, िनरनतर शम आिद दोषो से रिहत
पाणवायुक ही िजसका भोजन है, जो सबको िविवध भय और मृतयु देता है एवं हृदयकमल रप सेमर के पेड के खोखले
मे िसथत है, िचदेकरस बहरपी गरड को बोधक 'सतयं जानम् अननतं बह' इतयािद मनतो के अमोघ पभाव से
मूलअजान के साथ नष कर भय को सवरथा िमटा कर िनभरय होइये।।72,73।। शरीररप शवरािशयो के िनरनतर
अनुसनधान से (दूसरे पक मे भकण से) अमंगल आकार को धारण करने वाला, िविवध िदशाओं मे भमण से उतपन शम से
पीिडत, अपमान, वयय, शोक, भय आिद से (दूसरे पक मे कौए, चील आिद के चोचो के पहारो से) कत-िवकत शरीर से
सुषुिपत मे शमशान-वृक के तुलय सुपत देह का (शमशान वृक का) सेवन करने वाला, भोगो की अिभलाषावश िदशाओं मे
इधर उधर दौड रहा, ऊपर को गदरन िकया हुआ एवं अधीर और बढी-चढी अिभलाषावाला िचतरपी िगद यिद आपके
देह वृक से उडकर चला जाय, तो आपकी खासी जीत है।।74,75।।
अब उसी मन का बनदर के रप से िनरपण करते है।
हे शीरामचनदजी, भला चाहने वाले, चंचल तथा वयाकुल अंग-पतयंगवाले मन रपी महामकरट, जो वन पानतो मे
िदशाओं के मधयो मे खूब भटका है, एक जनमरपी भूिम से दूसरी जनमरपी भूिम मे गया है, िचनता और उसके संसार
बनधन का अपनी चेषाओं दारा अनुकरण कर रहा है तथा आँख और नाक िजसके फूल है, भुजा आिद िजसकी शाखाएँ
है और चंचल अंगुिलया िजसके पते है, ऐसे देहरपी वृक पर उललास को पापत हो रहा है, उसको िसिद के िलए चारो
ओर से घेरकर भीतर ही भीतर मार डािलये।।76,77।।
अब उसी िचत का मेघ के रपक से वणरन करते है।
परमाथर सुखरप सतफल के (मेघ पक मे पकी हईु फसल) नाश के िलए असमय मे उपिसथत हुए, हृदयरपी
आकाश मे िसथत िचतरपी मेघ, िजसकी मुखसदृश बिहमुरखवृित के अगभाग मे पितिबमबन दारा िबजली के सदृश
िचदाभास पकाशसंकानत है, जो अनथर समूहरपी मूसलाधार वृिष कर रहा है। वासनारपी आँधी ने िजसे भीतर चकर
मे डाल रकखा है, उसका संकलपो के बार-बार समथरनो के तयागरप मंतो के पभाव से उतसाहपूवरक उचछेद कर
जीवनमुिकतरप महानपद् पाकर िनतय मुकतातमा ही होइये।।78,79।।
अब उसी मन का जाल के रपक से िनरपण करते है।
िजसका आतमा ही उपादान कारण है ऐसी कलप की आिद सृिष से लेकर आज तक िकये गये पुणय पाप कमों
से िनरनतर गाठ देने से मजबूत बनाये गये, मनतो दारा िछन-िभन नही हुए, अिगन से जलाये न गये, आतमा मे महती पीडा
की कलपना करे, अतएव सब िविवध योिनयो के िविवध जनमो के कमशः बनधन के िलये लमबी रससी के समान िसथत
िचतरपी जाल को, िजसमे असंखय शरीर पंिकतया गुँथी हुई है, असंकलपरप शसतो से जबरदसती काटकर आप सवयं
पुनजरनम शंकारिहत होकर सुखपूवरक िवहार कीिजये।।80,81।।
अब मन के संकलप का अजगर के रपक से वणरन कर रहे शीविसषजी उसके वध का उपाय कहते है।
हे शीरामचनदजी, आप संकलपरपी घोर अजगर को, िजसने कोध आिद रप सिवष (िवषैले) फुफकार से
दिकण-उतर मागर से जाने वाले जीवो को जला डाला है, िजसके फुफकार पर तततव का बोध तो अतयनत दुलरभ है, जो
अतयनत िवषैला है, अतएव अपने िवष से िजसने सब भुवनो को संतपत कर िदया है, तृषणारपी मुँह को खोलकर
िवषयरपी भोगय वसतुओं के िलए चार पकार के शरीररपी दणड कोक िजसने कँपाया है, जो मोक के उदोग मे आलसी
होने के कारण मनदगितवाला है और देहरपी गुहा मे सोया है, शीघ परम वैरागय नामक महाअिगन मे जबदरसती भसम
करके आप अपने सवरप मे पूणाननद वैभववाले होइये।।82,83।।
वैरागय से संकलप पर िवजय पाने से िचत शुिद होने पर उसी पकार जान और समािध के कम से िचत पर
िवजय भी हो जाती है, ऐसा कहते है।
हे साधु िशरोमणे, जैसे असत के पयोग से घोर असत का शमन िकया जाता है वैसे ही शुद िचत से िचत का
शीघ शमन कर आप बनदर से छुटकारा पाये हएु वृक िजसकी शोभा नष-भष हईु उसके समान िचरकाल तक चंचलता
को तयाग कीिजये।।84।। पूवोकत रीित से और पूवर मे उपिदष तततवबोध से पतयगातमा मे उपशम को पापत हुए मन
को राग आिद मलो से शूनय बनाकर िनमरल िचत से सथूल, सूकम और कारण देहपयरनत सब दशृ य समूह को हेयदृिष से
ितनके के टुकडे से भी तुचछ (सवप शरीर आिद के समान अतयनत उपेका के योगय) समझकर संसार से पार हुए आप
पारबध शेष के भोगाथर, 'आतमकीड आतमरितः िकयावानेष बहिवदा विरषः' इस शुित मे पदिशरत लीला से लोक संगह के
िलए सोम आिद का पान कीिजए, ऋितवक आिद के साथ यजो मे िवहार कीिजये तथा शासत से अिवरद लौिकक िवषय
मे रमण कीिजये। उससे आपको पुनबरनधन की पािपत नही होगी।।85।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
पचासवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआआ आआआआ आआ
आआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ।
शवण और मनन से आतमतततव का िनणरय होने पर भी िचतिवशािनत के िबना िवकेपरिहत जीवनमुकत सुख की
पािपत नही होती, इसिलएक िवकेपशूनय जीवनमुिकत सुख के िलए समािध के अभयासो मे ततपरता के साथ बोध वृिद की
अतयनत आवशयकता है, यो उदालक-चिरतवणरन के दारा उपदेश देने की इचछावाले शीविसषजी उदालक चिरत के
वणरन के िलए पहले िचत के चिरतो मे अिवशसनीयता कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, ऐिहक, पारलौिकक और दूर िसथत िवषयो मे आसिकत होने के कारण
बडे लमबे, वासनापचुर होने के कारण अतयनत महीन, पमाद कर रहे पुरष के तुरनत ही समािध सुख के िवचछेद के हेतु
होने के कारण अतयनत तीकण, आतमा के पितिबमब के गहण मे योगयतारप िनमरलता होने के कारण सफेद अतएव छुरे
की धार के तुलय िचत के चिरतो मे पमादवश िवशसत मत रिहये।।1।। हे नीितशासत के ममरज, सतकूलरपी खेत मे
उतपन हुई देहरपी लता मे िचतशुिद, शवण आिद (देहरपी) उपायो से यह परमातमा जानरप आपकी बुिद लता
िचरकाल मे उतपन हुई है। इसे आप िववेकरपी जल के सेक से बढाइये।।2।।
वह बालयवासथा से यिद सीची जाये, तो बढती है। वृदावसथा आिद से देहरपी लता के मुरझाने पर उसके
िगरने की शंका से उसका उदार भी नही हो सकता उसकी मंजिरयो को बढाना तो दूर की बात रही, ऐसा कहते है।
जब तक कालरपी सूयर से यह देहरपी लता मुरझाती नही तभी तक पृथवी पर न िगरी ही इस देह लता का
गुरसेवा, शवण आिद से उदार कर बुिदरपी लता का पालन कीिजये।।3।।
आगे कहे जाने वाले आखयानरप मेरे वाकय के अथर का शवण पूवरक बार-बार मनन करना िववेक सेक है।
उसी मे सब मनन युिकतया िवदमान है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, आप मेरे वाकयाथों के एकमात तततवज है। जैसे मयूर मेघ के गजरन की भावना से सुख को
पापत होता है वैसे ही मेरे वाकयो के अथों की एकमात भावना से आप भी सुख को पापत होते है।।4।।
उकत आखयाियका का अवतरण कर उसके अथर िवचार कतरवयता को कहते है।
'तत्' और 'तवम्' आिदपदाथर के शोधन मे ततपर बुिद से 'अनेन सोमय शुंगेनापो मूलमिनवचछ' इस शुित मे
पदिशरत युिकत दारा कारण से अितिरकत कायाकुर के अपलाप सके देह आिद के आरमभक और बाह पपंच के आरमभक
पाच महाभूतो को उदालक मुिन के समान िछन-िभन और मूल अिवदा के तहस-नहस होने से िशिथलकर उनके
अिधषानभूित सनमात के अनवेषण मे धीरो से भी धीर बुिद से मन मे िवचार कीिजये।।5।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवान्, उदालक मुिन ने िकस कम-से-उन पंचमहाभूतो को िछन-िभन कर अपने
अनतःकरण मे िवचार िकया ?।।6।। शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, िजस पकार पाचीन काल मे उदालक
मुिन ने पंचमहाभूतो के िवचार से अकुिणठत परम दृिष पापत की। उस पकार को आप सुिनये।।7।। इस जगतूपी
जीणर-शीणर घर के िकसी िवसतृत कोने मे, जो पवरतरपी उलटे करके रखे हुए बतरनो से भरा है और भूिम की आगनेयी
िदशा मे गनधमादन नाम से शैलराज पर एक अदभुत भूिम भाग है। उसके ऊपर खूब फल िबखरे रहते है, फूले हुए पेड
ही कपूर के तुलय सफेद पराग और केसरो से चारो ओर से वयापत होने के कारण उसके कपूरर-केसर है, उस पर भाित-
भाित के पकी रहते है, नाना पकािर की लताएँ सुशोिभत रहती है, उसके तट वनपशुओं के झुणडो से भरे रहते है, फूलो
के केसरो से उसकी शोभा कही अिधक बढी-चढी है, उसके िकसी पदेश पर िवशाल महारत है तो कही पर चंचल
कमल िखले है, कही पर सरोवररपी दपरण उसकी शोभा बढाये रहते है, तो कही पर कुहरारपी केशो से वह वयापत
रहता है।।8-9।। उस गनधमादन पवरत के भूिम भाग पर िकसी एक उठे हुए िशखर पर, िजसमे सीधे वृक है, टखनो
तक फूल िबखरे रहते है और घनी ठणडी छायावाले महावृक है वहा पहले उदालक नाम के एक मौनी मुिन रहते थे। वे
यत से मै अवशय पुरषाथर का साधन करँगा ऐसा अिभमान रखते थे और शासत, अनुमान आिद पमाण मे कुशल थे।
उनका मन महा उदार था और वे बडे तपसवी थे। अभी उनहे युवावसथा पापत नही हईु थी।।12,13।। पहले तो वे
अलप पजावाले, अिवचारवान, परमपद मे िवशािनत को अपापत, अपबुद तथा पबोध के अनुकूल पुणयपूणर अनतःकरण वाले
थे।।14।। तदननतर कमशः तपसया से शासताथर के िनयमो के अभयास पिरपाक से कमो से उनहे िववेक पापत हुआ
जैसे िक भूतल को वसनत ऋतु पापत होती है।।15।। तदननतर एकानत मे ही िनवास कर रहे, संसाररपी रोग से
भयभीत बुिदवाले, पिवत, मनवाले उनहोने िकसी समय िनमिनिदरष रीित से िवचार िकया।।16।। पापत करने योगय
पुरषाथों मे से पधान मोकरप पुरषाथर कया है ? इसमे िवशािनत होने पर िफर शोक नही होता तथा िजसे पापत करके
िफर जनम से समबनध नही होता।।17।। जैसे मेर पवरत के िशखर पर मेघ िचरकाल तक िवशाम को पापत होता है
वैसे ही िजसमे मन के वयापारो का तयाग हो चुका हो ऐसे परम पावन पद मे मै, िचरकाल तक कब िवशािनत को पापत
होऊँगा ?।।18।। जैसे चंचल (अशानत) कललोलो की धविन के समान धविनवाली तरंगे समुद मे शानत हो जाती है
वैसे ही मेरे अनदर भोग तृषणाएँ , िजनकी धविन शानत कललोलो की धविन के समान गंभीर है, कब शानत होगी ?।।
19।। मुझे यह कायर करके यह भी दूसरा कायर कतरवय है, इस कलपना का मै परमपद मे िवशानत बुिद से अपने अनदर
कब उपहास करँगा ?।।20।। जैसे कमल के पते मे िसथत जल भी सपशर न होने के कारण कमल के पते मे नही
लगता वैसे ही केवल आभास से मेरे िचत मे िसथत होते हुए भी उपेका करने के कारण समबनधरिहत िविवध िवकलप मेरे
िचत मे कब न लगेगे ?।।21।। मै बहुत-सी बडी-बडी तरंगो से भरी हुई तथा अिववेक से खूब बढी हुई तृषणारपी
नदी को िववेकबुिदरपी नौका से कब पार कर जाऊँगा ?।।22। मै जगत के पािणयो से की जा रही असनमयी तथा
िचत को वयग करने वाली इस बाहपवृित का बालको की कीडा के तुलय कब उपहास करँगा ?।।23।। जैसे
िजसका उनमाद रपी वातरोग िनवृत हो चुका हो ऐसे पुरष की िविकपतता शानत हो जाती है वैसे ही िवकलपो से िविकपत,
झूले के समान अशानत मेरा मन कब शािनत को पापत होगा ?।।24।। आिवभूरत हुए सवरप के पकाश के िछटकने से
जगत की िविवध गितयो का उपहास कर रहा मै बहाणड शरीरवाले (सवरवयापक) आतमा से समान पिरपूणर बुिद होकर
कब अनतःकरण मे सनतोष को पापत होऊँगा ?।।25।। जैसे मंथन से उतपन िवकेप से मुकत हुआ कीरसागर
समािधसथ भगवान शीिवषणु से सुशोिभत आकारवाला, पशानत और मंथन से िनकली हुई अमृत, कौसतुभ आिद वसतुओं मे
िनसपृह हो शािनत को पापत होता है वैसे ही परमातमा से एकरस आकारवाला सौमय, धमर, अथर तथा कामरप ितवगर मे
सपृहारिहत हो मै कब अनतःकरण मे शािनत को पापत हूँगा ?।।26।। सैकडो आशापाशरपी इस अचल-अटल सारी
दृशयशोभा को सनमातरप से देख रहा मै कब अपने अनदर अपिरिचछनता को पापत होऊँगा ?।।27।। िजसकी
कलपनाएँ शानत हो गई ऐसी बुिद से बाहरी और भीतरी सारे पपंच को िचनमात देख रहा मै कब उस की भावना से िसथर
होऊँगा ?।।28।। िजसका िचत शानत हो गया है ऐसे सवरपवाला अतएव उतम िचदेकरसता को पापत हुआ मै
जनमानधता के सदृश अनािद मूलअजान के हटने से कब परम आलोक को पापत होऊँगा ?।।29।। अभयास से पापत
होने योगय सुनदर चैतनयरपी पकाश से बािधतानुवृितरप होने के कारण तुचछ (थोडी बची हुई) आयुशेषरप काल कला
को आतमा से समबनध न होने के कारण दूर से ही कब देखूँगा ?।।30।। इष और अिनषो से िनमुरकत हेय और
उपादेय से रिहत एवं सवयंजयोित परम पद मे िसथत हुआ मं कब अनतःकरण मे सनतोष को पापत होऊँगा ?।।31।।
दुराशारपी उललूओं से भरी हुई, िजसने मूखरता से (दूसरे पक मे बफर से)क हृदयरपी कमल को जीणर-शीणर कर िदया है
तथा मेरी यह अिवदा अनधकार रपी काली राती कब नाश को पापत होगी ?।।32।। पवरत की गुफा मे िनिवरकलप
समािध से शानत मनोवयापारवाला (िचदेकरसता से मनोवृितरिहत हुआ) मै कब िशला की समता को पापत होऊँगा?।।
33।। मेरा अहंकाररपी हाथी, िजसकी सवाशभूत अिभमान वृितया ही बडे मदपवाह है, परमाथर सनमात के जानरप
िसंह के दारा िनिहत होकर कब नाश को पापत होगा ?।।34। िनिवरकलप धयान मे मगन हुए मौन वरतधारी मेरे मसतक
पर वनधूिणरकाएँ (एक पकार की िचिडया) कब ितनको का घोसला बनायेगी?।।35।। धयान मे िसथर बुिदवाले अतएव
पवरत के ठूँठ के समान िनशल िसथितवाले मेरे वकःसथल पर लमबमान जटाओं के अगभाग मे बनाये गये घोसले मे
िचिडया कब िनःशंक होकर िवशाम लेगी?।।36।। तृषणारपी कंजे के वृको से चारो ओर वयापत, काम आिदरपी मृगो
से जजरर जनमरपी झािडयो से भरे हएु संसाररपी जंगली तालाब का तयागकर मै कब जाऊँगा?।।37।। इस पकार
की िचनताओं से परवश हुए उदालक नाम के बाहण ने बार-बार धयान मे बैठते हुए वन मे धयानाभयास िकया।।38।।
िकनतु िवषयो से हरे जा रहे अतएव बनदर के समान चंचल िचत मे पसनता पदान करने वाली समािध िसथरता उनहे नही
िमली।।।।39।। िकसी एक समय बाह िवषयो के संबनध के तयाग के अननतर उनका िचतरपी वानर सािततवक
देवता आिद से भोगय िवषय मे या सािततवक वृित के सुखासवाद मे मनोरथो दारा चंचलता को पापत हुआ।।40।।
िकसी समय उनका मनरपी वानर चंचलतावश अनदर होने वाले समािध सुख-समबनध का तयाग कर जैसे िवष से मरा
हुआ पुरष जठरािगन समबनधी देह की उषणता का तयागकर अनय लोक मे जाता है वैसे ही िवषयो को पापत हुआ।।
41।। हे कमलनयन, कभी उनका मन हृदयाकाश मे उिदत हुए सूयर के सदृश तेज को (♣) देखकर िवषयो मे उनमुख
हो गया।।42।। कभी उनका मन हृदयवती गाढ अजानरपी अनधकार का थोडी-बहुत बह की अिभवयिकत से तयाग
कर (कुछ शमन कर) उसी समय िवषय वासना के जागने से िवषय लमपट होकर भयभीत पकी के समान उडकर चला
जाता था।।43।।
♣ इस िवषय मे शुित हैः नीहारधूमाकानलािनलाना खदोतिवदुतसफिटकशशीनाम्। एतािन रपािण पुरःसरािण
बहणयिभवयिकतकरािण योगे।। यानी योगी की पहले तुषार के समान िचतवृित होती है, उसके बाद धुएँ के समान
िचतवृित होती है, तदननतर सूयर के समान िचतवृित होती है, तदुपरानत भीतर का वायु बाह वायु के समान कुिभत होता
है, ततपशात जुगनू के समान िचतवृित होती है, तदुपरानत िबजली के तुलय, तदुपरानत सफिटक के समान, तदननतर पूणर
चनद के सदृश िचतवृित होती है। इस तरह तुषार धुआँ, सूयर, अिगन, वायु, जुगनू, िबजली, सफिटक और पूणरचनदमा के
रप के सदृश ये बुिद के रप योिगयो के अनुभव िसद है। योग करने पर बह की अिभवयिकत के दोतक ये पूवररप
(िचह) आिवभूरत होते है।
कभी उनका मन बाह सपशों का (िवषयो के समबनधो का) और आभयनतर सपशों का (समािधसुख-समबनधो का)
तयागकर तम (अजान) और तेज (आतमजयोित) के अनतराल मे (सिनध मे) लीन होकर िनदारपी शाशती (िचरकाल तक
चलनेवाली) िसथित को पापत होता था।।44।। जैसे वायु दारा तटवती जल मे डुबाया गया और तट की लहरो से
िहलाया जा रहा वृक बडे संकट मे िसथत रहता है वैसे ही बडी-बडी गुफाओं मे धयानमगन मनवाले उदालक पूवोकत रीित
से धयानवृितयो मे वयाकुल मन के मधय मे तुचछ तृषणारपी तीर तरंगो से दोलाियत शरीरवाले होकर बडे संकट मे िसथत
रहे।।45,46।। तदननतर वयाकुल मनवाले मुिन जैसे सूयर पितिदन महामेर मे अकेले ही भमण करते है वैसे ही पवरत
पर भमण करते थे।।47।। एक समय से सब पािणयो से दुषपापय एवं सबके संचार से रिहत कनदरा मे वायु दारा
िवकेप-वयाकुलता न थी, कोई मृग-पकी वहा कभी नही पहुँचे थे, देवता और गनधवों तक को उसका दशरन कभी नही
िमला था और वह परमाकाश के (बह के) समान शोभायमान थी।।49।।
पुषपो की रािशयो से वह कनदरा चारो ओर आचछन थी, नरम हरी घास से ढकी होने से बडी भली लगती थी,
अतएव मालूम होता था िक मानो जयोितरप रस के (चनदमा के) पतथरो के साथ यानी चनदकानत मिणयो के साथ जोडी
हुई मरकत मिणयो से बनाई गई है।।50।। उसके दरवाजे पर बडी मीठी और ठणडी छाया थी, रतरपी दीपको सके
वह जगमगाती थी और वनदेिवयो के अनतःपुर की कुटी के समान बडी गुपत थी।।51।। उसके दरवाजे पर केवल
शीत िनवारण करने वाले आलोक फैलते थे, शरद ऋतु के पातःकालीन सूयर की पभा के समान न वह अित उषण थी
और न अित शीतल थी। सुवणर के समान पीला उस का रंग था।।52।। वह गुफा बाल सूयर से सूखी हुई थी (इससे
यह वयकत होता है िकक उसका मुँह पूवर की ओर था) उसमे िबना शबद का मनद-मनद पवन बहता था (इससे वह वयकत
होता है िक पिशम की ओर उसमे िखडिकया थी) और मंजिरयो से लदे हुए वृको से वह युकत थी (इससे उसमे सुगिनधत
वयकत होती है)। वह सवयंवर के िलए ततपर अतः हाथ मे वरमाला ली हुई राजकनया के समान थी।।53।। वह गुफा
कमल के मधयभाग के समान कोमल थी, अतएव बहा के िवशाम के योगय थी, चारो ओर फूलो की रािशयो से कोमल
और बडी मनोहर थी तथा उपशम पदवी के समान सदा ही आशय लेने के अनुरप थी।।54।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
इकयावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआआआआआआआ, आआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआआ
आआआआ आआआआआआ आआआआआआआ आआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, जैसे भमर बहुत पकार के भमण से िमले हुए कमल गभर मे पवेश
करता है वैसे ही वे धमातमा मुिन बहुत पकार के अनवेषण से िमली हुई पदगभर के समान मनोहर गनधमादन गुफा मे
पिवष हुए।।1।। जैसे सृिष रचना से वैरागय होने पर सतयलोक मे िसथत अपरािजता नाम की अथवा
भगवनािभकमल रप अपनी नगरी मे पवेश कर रहे बहाजी िवराजमान होते है वैसे ही समािधपिवणता से उस गुफा मे
पवेश कर रहे वे िवरािजत हुए।।2।। (♥) वहा पर उनहोने जैसे इनद मेघ को िजसके मधय मे िबजिलया सवगुचछ के
समान फैली रहती है, रािशभूत करते है वैसे ही ताजे (न मुरझाये हुए) पतो से कोमल आसन बनाया, िजसमे उनका
शरीर ही गुचछ के समान शोिभत हो रहा था।।3।। जैसे सुमेर नील रतमय अपने तट पर आकाश को, िजसमे तारे
ही बहुमलू य रत है, िबछाता है वैसे ही उनहोने उस आसन के ऊपर सुनदर मृगचमर िबछाया।।4।। जैसे मेघ वृिष से
आपने जाडय का (जलता का) तयाग कर सफेद और गजरन रिहत होकर पवरत के िशखर पर बैठता है वैसे ही शुद
अनतःकरण वाले वे िचत की वृितयो को जड िवषय के तयाग से लघु बनाते हुए उस पर बैठे।।5।। पबुद (जानी)
किपल आिद के समान दृढ िसदासन (♦) बाधकर एडी से वृषणो को (अणडकोषो को) दबाकर उतर की ओर मुँह िकये
हुए उनहोने बहा आिद गुर-परमपरा के िलए पणामंजिल की।।6।।
♥ 'पदकूटीिमव' इससे वहा पर पिवष हुए उनको िनरितशय आननद रस-पान से िवशािनत िमलेगी, यह
अिभवयकत होता है।
♦ पदासन का गहण िसदासन का उपलकण है, कयोिक एिडयो से वृषणो को दबाना उसी मे घट सकता है।
समीप मे (िवषयो मे) दौडे हुए मनरपी मृग को वासनाओं से हटाकर उनहोने िनिवरकलप समािध के िलए यह
िवचार िकया।।7।। अरे मूखर मन, तुमहारा संसार वृितयो से कया मतलब है ? बुिदमान लोग अवसान मे (अंत मे)
दुःख देने वाले कमर का सेवन (आचरण) नही करते है।।8।। जो शािनतरपी रसायन का तयागकर िवषय भोगो की
ओर दौडता है, वह मनदार वन का तयागकर िवष वृको से भरे हुए जंगल मे जाता है।।9।। चाहे तुम पाताल मे जाओ
चाहे बहलोक मे भी चले जाओ, िकनतु शम रपी अमृत के िबना उस िनरितशय सुख मे िवशािनत को पापत नही हो
सकते।।10।। हे मन, तुम सैकडो भोग आशाओं से पूणर होने पर पूवोकत रीित से सब दुःख देते हो। अब तुम
भोगाशाओं का तयाग कर दुःखसपशररिहत िनरितशय आननदरप होने के कारण अतयनत सुनदर परम कलयाण को (िनवाण
को) पापत होओ।।11।। भाव (इष वसतु का समपादन) और अभावमय (अिनष का िनवारण) ये िविचत िवषय तुमहारे
उतकट दुःख के िलए ही है, ये सुख के िलए कभी नही हो सकते है।।12।।
हे मूखर िचत, मेढकी जैसे मेघ मे शबदािदक वयथर वृितयो सके भमण करती है वैसे ही तुम शबद आिद इन गिहरत
वृितयो से कयो िनरनतर भमण करते हो ?।।13।। हे मनरपी मेढकी, जरा बतला तो सही, इतने समय तक वयथर
भुवन मे (मेढकी के पक मे जल मे) तवरा से भटक रही अनधी तूने कया फल पाया ?।।14।। हे िचत, िजससे मन
और वाणी का अगोचर िवदेह कैवलय सुख तुमहे िमले, िजसमे तुमहे जीवनमुिकत िवशािनत सुख िमले, उस सकलवृित के
शमरप समािध मे उदोग कयो नही करते हो ?।।15।।
शबद आिद िवषय दुःख के िलए ही है 'ऐसा जो पूवर मे कहा है, उनमे से पतयेक का दृषानतो के उदाहरणो दारा
िवसतार करते है।
हे मूखर, वयथर बिहमुरखतारप उतथान से बढी हुई शोतेिनदय तादातमयापितरप शोतता को पापत कर ('पाणनेव
पाणो नाम भवित वदन् वाक् पशयंशकुः शृणवन् शोतम्' इतयािद से शवण आिद के समय आतमा के शोतािद भाव का शवण
है।) वयाध के गीत और घंटा की धविन से मोिहत मृग के समान शबदनुसािरणीवृित से नाश को पापत मत होओ।।
16।। हे मूखर मन, उस सपशोनमुखता से (सपशाहर सुखानुभव की इचछा से) केवल दुःख के िलए तवगइिनदयता को पापत
होकर तू हािथनी पर लोलुप हाथी के समान बंधन को मत पापत हो। पीलवान लोग िसखाई हुई हिथनी से बन गज को
लुभाकर गतर की ओर लाकर गतर मे िगराने आिद से बाधते है, यह पिसद है।।17।। अरे अनधे मन, दुष अनो की
अिभलाषा से रसनेिनदयता को पापत होकर बंसी मे बँधे हुए मास के टुकडे पर (चारे पर) लोलुप मछली के समान तू
नाश को पापत मत हो।।18।।
हे मूढ, तू कानता समबनधी नाना पकार के रपो मे ततपर चकुिरिनदयता के पापत होकर पकाश मे लोलूप पतंगे
के समान दाह को पापत मत हो।।19।। गनध के अनुभव की इचछा से घाणेिनदयता का आशय लेकर हाथी दारा मसले
गये कमल के अनदर िसथत भँवरे के समान शरीर रपी कमल के अनदर बनधन को पापत मत हो।।20।। अरे मूखर,
मृग, भँवरा, पतंगे, हाथी और मतसय एक-एक शबद आिद िवषय से िवनष हुए यानी मृग एकमात शबद से, भँवरे एकमात
गनध से, पतंगे एकमात रप से, हाथी एकमात सपशर से और मछिलया एकमात रस से िवनष हुई, संिमिलत सब अनथों
से वयापत हुए तुमहे कहा से सुख हो सकता है ?।।21।। हे िचत, जैसे कुद रेशम का कीडा अपने सवाभािवक लार के
फेन का अपने बनधन के िलए कोशरप से पसार करता है वैसे ही तुमने भी वासनाजाल की अपने कुिवतकर से रचना
की है।।22।।
तब पमाद से पापत हएु इस बनधन पर कैसे िवजय पापत हो सकती है ? ऐसा कोई पूछे, तो इस पर कहते है।
पहले कमर, उपासना आिद से शरदकालीन मेघ के समान शुिद को िजसमे संसाररपी दोष का सवरथा तयाग हो
चुका हो उसे पापत होकर शवण, मनन आिद का पिरपाक होने के कारण जानोदय से यिद वासनाजाल का सवरथा उचछेद
कर शानत होते हो, तुमहारी असीम िवजय है।।23।।
सारे वकतवय का संकलन कर एक उिकत से कहते है।
यिद तुम जगत-पवृित को जनम तथा मरण की एवं बल आिद और दिरदता आिद अवसथाओं का पालन करने
वाली (धातीरप), मरने के बाद भी नरक, सथावर आिद गितयो मे संताप देने वाली जानते हुए भी नही छोडोगे, तो िवनष
हो जाओगे।।24।।
अथवा अपने वैरी िचत को उपदेश नही देना चािहए, िकनतु जबरदसती उसे बाध कर िवचार दारा उसका
उचछेद ही कर डालना चािहए, इस आशय से कहते है।
अथवा हे अनघ, मै तुमहे यह िहत उपदेश कयो दूँ ? आतमा से पृथक िचत नाम की कया कोई वसतु है ? यो
िवचार कर रहे पुरष का िचत ही नही है।।25।।
अथवा िचत के उचछेद के िलए पृथक पयत करने की भी आवशयकता नही है कयोिक वह मूल अजान के
अनवय वयितरेक का अनुसरण करता है यानी मूलअजान के अिसततव से उसका अिसततव है और मूलअजान के अभाव
से उसका अभाव है। अतएव मूलअजान के उचछेद से ही उसका उचछेद करना चािहए, इस आशय से कहते है।
जब तक िनिबड अजान है तब तक घनीभूत िचत है, जब तक वषा ऋतु के मेघ रहेगे तब तक अवशय पचुर
कुहरा रहेगा। िजतना अजान कीण होता जायेगा उतना ही िचत भी कृश होता जायेगा। िजतना वषा ऋतु का िवनाश
होगा उतना ही कुहरा कीण होगा। िवचार से शुद हुआ िचत वासनाकय से िजतनी सूकमता को पापत हुआ (शरतकाल के
मेघ की तरह) मै उसको उतना कीण हुआ भी समझता हूँ।।26-28।।
अिववेकी का िचत उपदेश के अयोगय ही है, िकनतु िववेकी का िचत भी चाहे वह नष हो रहा हो चाहे नष हो
चुका सुतरा उपदेश के अयोगय है, इस आशय से कहते है।
असत् अथवा नाश को पापत हो रहे िचत का जो यह उपदेश िकया जाता है, यह आकाश के, जल के और वायु
के ताडने के समान वयथर है।।29।।
उकत का ही अनुवाद दारा उपसंहार करते है।
चूँिक तुम िदन पर िदन कीण हो रहे हो, इसिलए कीयमाण होने के कारण असनमय तुमको मै तयागता हूँ। िवदान
जन पिरतयाजय को उपदेश देना भारी मूखरता ही कहते है।।30।।
अपना उससे असमबनध देखना ही उसका तयाग है, इस आशय से कहते है।
हे असनमयिचत, मै अहंकारवासना से रिहत िनिवरकलप सवयं जयोित चैतनय हूँ। अहंकार के बीजभूत तुमसे मेरा
कोई समबनध नही है।।31।।
मुझसे कौन अपराध हुआ ? िजससे िवनाश के िलए आप मेरा तयाग करते है, ऐसा यिद मन की ओर से पश हो,
तो देहआिद मे अहंकाररपी दुदरृ िष का अवलमबन िकया है। वह दुदरृ िष शंका िवष से हुई िवषूिचका के समान िमथया
हेतुक होती हुई भी मूढो के िवनाश के िलए होती है, यही तुमहारा अपराध है, यह अथर आतमतततव की इस पकार के
पिरिचछन मन के अनदर पिरिचछन िसथित (देहआिद मे अहंकार भाव से िसथित) नही हो सकती है।।33।।
िचत की तयाजयता मे दूसरा भी हेतु कहते है।
हे िचत, खेद की बात है िक तुमने बडे भारी जीणर कुएँ आिद के समान अगाध तथा काम, कोध, लोभ आिदरप
साप, िबचछू , िपशाचािद के िनवासभूत होने के कारण दुःखदायी इस वासना को ही अपने िनवाससथान के रप मे
अपनाया है, िकनतु मै तो इसका अनुसरण नही करता हूँ। इसिलए उसके अनुगामी तुमहारा तयाग करता हूँ, यह भाव
है।।34।। यह (देह) वह (आतमा) मै हँू ऐसी भािनत की जो तुमने अहनता से कलपना की है, वह अिवचारशील बालको
के तुलय वयथर मोह है। मै तो िवचारशील हूँ, मुझको वह मोह कहा ? यानी कुछ भी नही है, यह भाव है।।35।।
'अहम' की नािसतता को ही िवचारकर िवशद करते है।
पैर के अँगूठे से लेकर िसर तक मैने ितल-ितल पर िवचार िकया। यह 'अहम्' नाम का पदाथर मुझे नही
िमला। 'अहम्' रप से िसथत कौन होगा ?।।36।।
यिद अहंपदाथर है ही नही, तो तुम कौन हो ? ऐसा पश होने पर कहते है।
तीनो जगतो मे िजसने सब िदशारपी कु ंजो को भर रकखा है यानी जो िदशाकृत पिरचछेद से रिहत है, एक
यानी वसतुकृत पिरचछेद से रिहत है, जेय कम से भूत, वतरमान और भिवषयत् तीन अवसथारप काल से िकये गये
पिरचछेद से शूनय है, अतएव सब पकारो मे वसतु अवानतर सवरपशूनय है इस पकार का जानरप ही मै हँू।।37।।
िजसका पिरिचछन रप नही है, िजसकी नाम की कलपना नही है, एकतव संखया नही है, न िजसकी अनयता है, न महता
है और न अणुता है, वह जानरप मै हँू।।38।। हे िचत, चूँिक मै जानसवरप हँू, इसिलए साकीभूत अपने जेय
दुःखकारण तुमको, जो चारो ओर फैले हो, देखता हूँ। दुःख के कारण होने से ही तुम आगे कहे जाने वाले िववेक को
उपाजरन कर िववेक से उतपन बोध दारा मुझसे मारे जाते हो।।39।।
िववेचन का पकार िदखलाते है।
देह मे यह मास है, यह रकत है, ये हिडडया है, ये शासवायु है, यह 'अहम्' रप से िसथत कौन है ? भाव यह
िक इदनता से गृहीत हो रहे मास आिद मे वह अहंशबदाथर कोई भी नही है कयोिक इदनता और अहनता का परसपर िवरोध
है।।40।। सपनदनाश सारा का सारा पाणवायुओं का है, जानाश परमातमा का है, बुढापा और मरण देह के धमर है, यह
'अहम्' रप से िसथत पदाथर कौन है ?।।41।।
हे िचत, मास अहं पदाथर से पृथक है, रकत भी उससे अितिरकत है, हिडडया भी 'अहम्' से िभन है, बोध
(जानेिनदयवयापार) उससे अनय है, सपनदन भी उससे अितिरकत हे िफर 'अहम्' रप से िसथत पदाथर कौन है ? भाव यह
िक मास आिद तो आतमा से िभनरप से पतीत हो रहे है, अतः उनमे अहनता उपपन नही हो सकती।।42।। यह
नािसका है, यह िजहवा है, यह तवचा है, ये दो कान है ? भाव यह िक नािसका आिद भी इदनता से पतीत होने के कारण
अहंशबदाथर नही है।।43।। परमाथररप से िवचार करने पर मन 'अहम्' नही है. तुम (िचत) 'अहम्' नही हो, वासना भी
'अहम्' नही है। शुद िचतपकाश यह आतमा तो अहनता से रिहत ही िवलिसत होता है यानी आतमा तो अहनता से सवरथा
असपृष है, यह भाव है।।44।। उकत आतमा मे यिद अधयारोप दृिष हो, तो मै ही सवरत अिधषान हूँ, इसिलए सब
कुछ मै ही हूँ अथवा यिद अपवाद दृिष हो, तो यहा मै कुछ भी नही हूँ, ऐसी जो दृिष है वही वासतिवक है। एक देहमात
मे सीिमत अहंभावरप दूसरा अहंकार कम नही है। भाव यह िक इस जगत मे सवरत पतीयमान मै ही हूँ अथवा यहा पर
पतीयमान कुछ भी मै नही हूँ ऐसी जो दृिष है, वही वासतिवक है। दूसरा पिरिचछन िवषय मै अहंपतीितरप कम
वासतिवक नही है।।45।। अजानरपी धूतर ने वंचना दारा सवरपिवयोग से िचरकाल तक ऐसे ही मुझे कलेश पहुँचाया
जैसे िक मसत भेिडया जंगल मे मृग के बचचे को कलेश पहुँचाता है।।46।। बडे सौभागय का िवषय है िक अब मै
अजानरपी चोर को पहचान गया हूँ। अपने वासतिवक सवरप धन को हरने वाली इसको िफर नही अपनाऊँगा।।
47।।
परसपर िवरोधी सवभाववाले हम दोनो का कोई समबनध भी नही है, एकता की बाते तो दूर रही, इस अिभपाय से
कहते है।
जैसे पवरत पर िसथत मेघ पवरत का कोई नही होता वैसे ही दुःखरिहत मै दुःख के भाजन उसका समबनधी नही
हूँ और वह मेरा समबनधी नही है।।48।।
यिद तुममे अहंकार आिद सवरथा नही हो, तो तुम वचन आिद से कैसे वयवहार करते हो ? ऐसी शंका होने पर
कहते है।
नट के समान तातकािलक तदाव का कलपना दारा अहंकार बनकर यह (तुमहे उपदेश आिद) कहता हूँ, नेत
आिद से जानता हूँ, बैठता हूँ तथा चलता हूँ। वासतव मे आतमदशरन से मै अहंकारशूनयता को पापत हो गया हूँ।।49।।
मुझे इसका पूरा िनशय है िक वासतव मे ये चकु आिद मै ही हूँ। यिद ये मुझसे िभन है, तो जड है चाहे मेरे शरीर मे रहे
अथवा जाये। ये मेरे कोई नही है।।50।। बडे खेद की बात है, जगतरपी बालक का वेतालरपी तथा ताड के पेड
से भी लमबी और अनूठी आकृितवाला यह 'अहम्' कौन है ? िकसने और कैसे इसकी कलपना की है ?।।51।।
अब अपनी पूवावसथा की अिवचारदशा के िलए शोक करते है।
जैसे तृण-हीन खराब पवरत मे हिरण दीघरकाल तक वयथर इधर-उधर लुढकता है वैसे ही मै इस संसाररपी
गडडे मे इतने दीघरकाल तक वृथा लुढकता रहा।।52।।
अब पतयेक इिनदय के िवषय से समबद अहं पतीित के भाजन का अनवेषण करते है।
यिद चकु अपने िलए आलोकन मे पवृत हुआ, तो संसार मे 'अहम्' नामक कौन है जो मोिहत हुआ ?।।53।।
यिद तवचा अपने िवषय मे सपशर के िलए ततपर हुई, तो यह 'अहम्' नामक दुष िपशाच के तुलय कौन उिदत हुआ ?।।
54।। रसनेिनदय के अपने िवषय रसो मे पवृत होने पर मै मीठा भोजन करने वाला हूँ, इस पकार का गिहरत भम कहा
से आता है ?।।55।। शवणतृषणा से िववश बेचारी शोतेिनदया के शबदरप िवषय को पापत होने पर िनबीज अहंकार
दुःख की पािपत कैसी ?।।56।। अपनी नािसका की अिभलाषावश अपने गनध को पापत होने पर 'मै सूँघनेवाला हूँ'
ऐसे िजसे अिभमान होता है, उस चोर को मै जानता ही नही हँू।।57।। पूवोकत सथलो मे पिसद यह अहनता की
कलपना मृगतृषणा के समान वयथरहोती है। उस अहनता की कलपना के िनिवरषय होने पर यह (देह) 'अहम्' (मै) हूँ, इस
पकार का जो भाव है, वह भािनत ही है, इसिलए देह मे अहंभाववासना का सवरथा तयाग करना चािहए।।58।।
यिद कोई कहे िक वासना के अभाव मे बाहरी पवृितया सवरथा िवरत हो जायेगी, इसिलए पुरष का जीवन ही न
रहेगा, तो उस पर कहते है।
यह शरीर वासनाहीन होने पर भी अपने जीवन के हेतु कमर मे चकु आिद इिनदयो दारा सवतः बाहर पवृत होता
है। इस पवृित मे वासना कारण नही है। दाम, वयाल और कट की, जो वासनारिहत थे, पहले युदािद पवृितयो का वणरन
िकया जा चुका है।।59।।
यिद वासना के िबना भी शरीर बाहर पवृत होता है तो पवृित पयुकत दुःख भी अवशय होगा ही, ऐसी अवसथा मे
वासना के तयाग से कया लाभ हुआ ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
हे िचत, यिद वासनारिहत कमर िकया जाय, तो तातकािलक भोगाभास मे मै दुःखी हँू, यह अिभमान नही होता,
भावी (आगे होने वाले) सुख-दुःखो का अनुभव नही होता, इसिलए उनसे होने वाले शोक, मोह, भय, िवषाद, िचनता, उदेग
आिद सब संतापो की शािनत ही इसका गुण है, यह भाव है।।60।।
अब इिनदयो को समबोिधत कर इस अथर का िवचारपूवरक उनहे उपदेश देते है।
इसिलए हे मूखर इिनदया, भीतर अपनी वासना का तयागकर तुम सब कमर करो, उससे तुमहे दुःख पापत नही
होगा।।61।। जैसे बालक पहले िमटी के िखलौने बनाते है िफर उनके िवनाश से उनहे पशाताप होता है वैसे ही तुमने
(इिनदयो ने ) भी िवषयो के उपाजरन और उनके िवनाश मे केवल दुःख के िलए ही अज आतमा मे भोगवासना की वयथर
सथापना की है।।62।।
अतएव िवदानो की वासना आिद सब दृिषया अजान से बािधत होकर अपने कायर राग आिद के साथ शुदातमा
ही हो गई, इसिलए उनका पृथक अिसततव नही है, ऐसा कहते है।
हे िनषपाप, जानी की ही दृिष मे जैसे तरंग, बुदबदे, फेन आिद जल से पृथक नही है वैसे ही वासना आिद सब
दृिषया आतमा से पृथक नही है। अजानी की दृष मे तो उनकी पृथक सता है।।63।।
अतएव अजािनयो ने तृषणा से ही इिनदयो का िवनाश िकया है, ऐसा कहते है।
हे इिनदयरपी बालको, जैसे रेशम के कीडे अपने से उतपन हुए तनतु से नष हो जाते है वैसे ही तुम लोग भी
सवतः उतपन हुई तृषणा से ही नष हुए हो।।64।। जैसे पवरत के पिथक पवरत के िशखर पर जाते-जाते िपतवश घूम
रही दृिष से िगरकर िवषम गतरमय भूभाग मे िगरते है वैसे ही जरा, मरण आिद कलेशो से पूणर इस संसाररपी पतथर
कंकड पूणर भूिम मे तुम लोग तृषणा से ही लुढक रहे हो।।65।। जैसे छेदे हुए मनको मे (मिनयो मे) गुँथी हुई दीघर
डोरी मोितयो के बनधन मे कारण होती है वैसे ही आप लोगो के एक जगह बनधन मे वासना ही हेतु है।।66।। एकमात
भािनत से बनाई हुई यह (वासना) वसतुतः सतय नही है। हँिसये से पतो के समान एकमात असंकलप से ही यह काटी
जाती है।।67।। जैसे वायु का झोका दीपको के तथा चमक रहे उलका, िबजली आिद तेजो के िवनाश के िलए होता
है वैसे ही बढ रही यह (वासना) आप लोगो के ही िवमोहन और कय के िलए (मरण आिद दुःख के िलए) है।।68।।
इस कारण सब इिनदयो के कोश के तुलय आधारभूत हे िचत, तुम सब इिनदयो के साथ ऐकमतय को पापत होकर िनशय
अपने को असतसवरप (िमथयाभूत) जानकर केवल िनवाणरप िनमरल िनमरल बोध मात होकर िसथत होओ, िफर िचतरप
का गहण मत करो।।69।। हे िचत, सकल शासततततवजाताओं के अिभमत दैत वासना पिरहाररप (अिभमत
िवषयतयागरप) मनत युिकत से असंखय दुःखवाली अहंकारवासनारपी िवषम िवष तुलय अजान से पैदा हुई िवषूिचका का
भली-भाित तयागकर संसार शूनय हो मरण आिद सब भयो के सथान पिरपूणरननदातमा ही तुम होओ, यह अथर है।।70।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बावनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआआ आआआआ
आआ आआ आआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ।
उदालक ने कहाः पिरिचछन ितल आिद फूल आिद से वािसत होते है आतमिचत तो आरपाररिहत (असीम) है।
सथूल पृिथवी, जल, तेज, वायु कसतूरी आिद सुगिनधत पदाथों से वािसत होते है, िचत तो परमाणु से, अपंचीकृत आकाश
से और अवयाकृत आकाश से सूकमतम है, अतएव उसका तिनक भी सपशर करने के िलए वासना आिद समथर नही है।
साकात् उसके सपशर मे असमथर होने पर भी उसके चैतय के सपशर दारा वासना आिद उसका सपशर करेगे। ऐसा कहना
भी ठीक नही है, कयोिक वह चैतय रिहत है।।1।।
यिद कोई पश करे िक चैतनयरप तुमहारे दारा अपकािशत िवषय मे वासना का उदय नही िदखाई देता, अतः
तुमही से ये वासना आिद िवसतािरत है इस पर ये तुमहारा सपशर न करने वाले कैसे है ? तो इस पर कहते है।
मैने उनका िवसतार नही िकया है, िकनतु बुिद मे और अहंकार मे िचत् के पितिबमबवश जड इिनदयो दारा गृहीत
िवषयो की सूकम अवसथारप अतएव शूनय (असत्-रप) होती हुई भी वेतालो के समान तास देने मे उदत िवसतृत
वासनाओं का मन अनुभव करता है।।2।। जागत अवसथा मे बुिद और अहंकार से बहुत बार िकये गये िवषय िवचारो
से और मन से अनुभूत िवषयो से मेरा संपकर नही है, कयोिक लेप रिहत िचत ही मै हूँ, मन आिद का संघातरप नही हूँ।
शुित ने भी कहा है, 'स यतत िकंिचतपशयतयननवागतसतेन भवतयसंगो हंय पुरषः' वह (सवपदशी पुरष) वहा (सवप मे)
जो कुछ देखता है, उससे असंसपृष होता है, कयोिक यह पुरष असंग है।।3।।
एवं सथूल शरीर से िकये गये पाप-पुणयरप कमर से भी उसका समबनध नही होता, ऐसा कहते है। देह अपनी
दुशेषाओं से वृिद को पापत हुई संसारिसथित का चाहे गहण करे, चाहे तयाग करे, िकनतु मै तो उसकी दोनो अवसथाओं
मे िनलेप िचत् ही हूँ।।4।।
अतएव जनम-मरण नही है, ऐसा कहते है।
िचत् के जनम-मरण नही है, कयोिक वह सवरवयापक और िचतरप है। अतएव कया जीव मरता है और कया
िकसी के दारा मारा जाता है यानी जीव का मरना और मारना दोनो असंगत है।।5।।
अिवनाशी अिदतीयातमा का दशरन होने पर वधय-घातक बुिद ही नही रह जाती है, अतएव आतयिनतक अभय
िसिद हो जाती है, यह आशय है। िजसको जीवन से पयोजन है, उसे मरने से भय होता है, िकनतु िचत् का जीवन से
कोई पयोजन नही है, ऐसा कहते है।
िचत् का जीवन से कोई पयोजन नही है कयोिक सवातमा िचत् ही सब वसतुओं का जीवन है। यिद सब देश,
काल और वसतुओं मे फैली हुई सवरपभूत िचित ही इसका जीवन है, तो उस जीवन से कब कया दूसरी अपापत वसतु
पापय होगी, िजसके िलए उसकी इचछा होगी ?।।6।।
मरण और जीवन केवलमात मन की कलपनाएँ है, इस कारण भी मरण और जीवन मे देष और वाछा की पािपत
नही होती, ऐसा कहते है।
जीता है और मरता है, इस पकार की कलपना, जो कुिवकलपो की मालाओं से भरी हुई है, मनो की ही है, िनमरल
सवरप आतमा की नही है।।7।। जो देह मे अहंभावता को पापत है, वह देह के भाव और अभावरप जनम मरणो के
फनदे मे पडता है। आतमरप तुममे देहाहंभाव नही है, इसिलए तुमहारे भाव और अभावरप जनम मरण कहा से होगे ?।।
8।।
देह मे अहंभावना कया अहंकार की है अथवा मन की है या पदाथर समूह की है ? इनमे से पहले के दो (अहंकार
और मन) पमाण वैद नही है, इसिलए असतसवरप है। पदाथर भी अतयनत जड है, अतएव वे भी अिभमान योगय नही है,
इसिलए अहंभावना का न तो कोई िवषय है और न आशय है, ऐसा कहते है।
अहंकार वयथर मोहरप है, मन मृगतृषणारप है तथा पदाथर समूह जड है, अतः अहंकार भावना िकसे हो ?।।
9।।
उकत अथर को ही पकारानतर से िवसतार पूवरक कहते है।
देह रकतमासमय है, मन िवचार से नष हो चुका और िचत आिद सब जड है। िफर देह मे अहंभावना कैसे हो
?।।10।। सब इिनदया िनतय सवसविवषय वयापाररप केवल सवोदरपूरण मे ही लगी है अहंकारपुिषरप परोपकार मे
नही लगी है, सब पदाथर पदाथरसवरप मे िसथत है, अतः अहंभाव भावना कैसे हो ?।।11।। सततव आिद गुण गुणो के
पकाश, पवृित और मोहरप अपने वयापार मे िसथत है, पकृित (पधाननाम की माया) गुणसामयावसथारप सवभाव मे िसथत
है और सत् (बह) सवातमभूत सतसवभाव मे िवशानत है, अतः अहंभावना कैसे और िकसके हो ?।।12।।
इस देह मे जो िचदातमा है, वह भी सवरगामी (सवरवयापक), सब देहो मे िसथत, सवरकालमय महान अिदतीय
परमातमा ही मै हूँ, यो िनशय कर िसथत है, वह भी अहंकारासपद नही है, यह अथर है।।13।। ऐसी अवसथा मे 'अहम्'
रप से जो केवल इस देह का अिभमानी है, उसकी कैसी आकृित है, (कया जाित है, अथवा कैसी अंगो की बनावट है)
वासतव मे कौन है, िकस रप से िनदेशके योगय है, िकस हेतु से बनाया गया है, कैसी उसकी रपरेखा है और िकसका
िवकार है ? अहंभाव से मै िकसका गहण करता हँू अथवा अहंभाव के अभाव से मै िकसका तयाग करता हँू।।14।।
अतः िनवरचन के अयोगय होने से अहंकार िमथया ही है, इसिलए आतमा से उसका समबनध नही है, ऐसा कहते
है।
इसिलए अपने अिसततव और अभाव मे उपपित रखने वाला 'अहम्' नाम का कोई पदाथर यहा पर नही है।
अतः िनरहंकारसवरप मेरा िकसके साथ और कैसे समबनध हो सकता है।।15।। अहंकार का सवरथा अभाव होने पर
िकसका िकससे कौन समबनध ? समबनध का अभाव िसद होने पर 'तवम्' 'अहम्' ऐसी दैत कलपना िवलीन हो जाती
है।।16।।
इस पकार सदवसतु से वयितिरकत इदं पदाथर का अनवेषण करने पर भी उसका िमथयातव ही अनत मे िसद होता
है, यो सद् बहअदैत का सामाजय पितिषत हुआ। शोक का अवकाश ही कहा है ? ऐसा कहते है।
इस पकार जो कुछ भी इस जगतीतल मे िसथत है, वह सब बहसवरप ही है। मै 'सत्' (बह) ही हूँ, मै 'तत्'
(बह) ही हँू, वयथर शोक कयो करता हँू?।।17।।
सत्-अदैत की िसिद के बल से भी अहंकार का िनरास िकया जा सकता है इस आशय से कहते है।
सवरवयापक एक ही िनमरल पद के रहने पर अहंकार रप कलंक का कैसे और कहा से उदय हो सकता है
?।।18।। पदाथर शोभा िबलकुल है ही नही, एकमात सवरवयापक आतमा ही है अथवा पदाथर शोभा भले ही हो िफर भी
उसका िकसी के साथ समबनध नही हो सकता है।।19।।
समबनध का उपपादन करते है।
मन अपने अवयवरप से किलपत सब इिनदयो से मन मे ही सवप के समान उललास को पापत होता है। बाह
िवषयो का सपशर करने के िलए समथर नही होता, िकनतु िचत् तो इिनदयो और बाहिवषयो से अिलपत सवरप
(असंगसवभाव) है। ऐसी अवसथा मे िकसका िकसके साथ समबनध कैसे और िकस के दारा हो सकता है ?।।20।।
समबनधाभाव मे दृषानत देते है।
जैसे एक सथान पर देखे गये भी पतथर और लोहे की शलाकाओं का (सीको का) परसपर समबनध नही होता
वैसे ही एक सथान पर देखे गये भी देह, इिनदय, मन और िचत् का परसपर समबनध नही है।।21।।
यिद कोई कहे िक तब लौिकक पुरषं का 'यह मेरा धन है' ऐसा वयवहार कैसे होता है ? तो इस पर कहते है।
अहंकाररपी भम के अजानवश उिदत होने पर यह सारा जगत् 'यह मेरा है और यह इसका है' यो वृथा भानत
हुआ है।।22।। यह अहंकार चमतकार आतमतततव के अजान से उतपन हुआ है। तततवजान होने पर तो जैसे सूयर के
ताप से िहम-किणका गल जाती है वैसे ही यह गल जाता है।।23।। आतमा से अितिरकत कुछ भी नही है, सब बह ही
है, इस पकार का मेरा अनुभव िसद जो सततव है, उसकी मै भावना करता हूँ।।24।।
अब अहंकार के माजरन के उपायो को कहते है।
मै आकाश की नीिलमा के समान उतपन हुए इस अहंकाररप महाभम का िजससे पुनः कभी समरण न हो ऐसा
िवसमरण ही उतम समझता हूँ।।25।। िचरकाल से आरढ हुए अहंकार भम का समूल पिरतयाग कर शानतातमा हुआ
मै जैसे शरत् काल का आकाश अपने िनमरल सवभाव मे िसथत रहता है वैसे ही िनमरल आतमा मे िसथत हूँ।।26।।
अहंकार भम के रहने पर कया हािन है ? ऐसा यिद कोई कहे, तो इस पर कहते है।
देहआिद मे वृिद को पापत हुआ अहंभाव अनथों की परमपराओं की सृिष करता है, पाप का िवसतार करता है
और सनताप की वृिद करता है।।27।। दुवासनारपी जल से भरे हुए हृदयरपी आकाश मे अहंकाररपी मेघ के
िवकास को पापत होने पर शरीररपी कदमब वृकरपी आकाश मे अहंकाररपी मेघ के िवकास को पापत होने पर
शरीररपी कदमब वृकपर दोषरपी मंजिरया चारो ओर से िवकिसत हो उठती है।।28।। मरणािद पारलौिकक दुःख
पुनजरनम तक रहता है एवं जीवन आिद ऐिहक दुःख मरण पयरनत रहता है और भोगयवगर नाश से खिणडत होता है, यह
दुःख वेदना बडी कषकािरणी है।।29।। जैसे गीषम ऋतु मे सूयरकानत मिणयो की अिगन शानत नही होती है वैसे ही
दुबुरिदयो की 'यह मुझे िमल गया, इसको मै पापत करँगा' इस पकार की सनतापपद पीडा कभी शानत नही होती।।
30।। जैसे जल की आशयभूत (जल से भरी हुई) मेघमाला गुरतर पवरत पंिकत की ओर दौडती है वैसे ही 'यह है यह
नही है' इस पकार की िचनता, िजसका आशय अज पुरष है, जड अहंकार की ओर अगसर होती है।।31।। अहंकार
के कीण होने पर सूखा हुआ संसाररपी वृक रागरपी अंकुर की उतपादनशिकत से रिहत अतएव पतथर के तुलय होकर
िफर अंकुर को उतपन नही करता है, पनपता नही है।।32।। अपनी तृषणारपी काली नािगने, िजनहोने देहरपी वृक मे
अपना िबल बनाया है, िवचार रपी गरड के आने पर न मालूम कहा चली जाती है।।33।। इसिलए िवश के
िमथयाभूत अजान से उतपन अतएव अधयास से ही सनमय और असनमय वयवहारवाला होने पर 'तवम्' (तुम) 'अहम्' (मै)
इस पकार का भेदवयवहार भी कया है ?।।34।।
भाव यह िक िवश के असतय िसद होने पर उससे होने वाला सारा का सारा भेदवयवहार भी असतय है, जब यह
भेदवयवहार असतय हो गया तब 'तवम्' 'अहम्' यह भेद वयवहार भी कहा सतय रहा ?
अतएव सतय पयोजन से सवरथा रिहत ही यह जगत् पहले कारणतव के अयोगय अजान से उिदत होता है। जो
वसतु िबना कारण के उतपन हुई वह 'सत्' कैसे कही जा सकती है ?।।35।।
इस रीित से उतपित से पहले देहआिद की जैसे िसथित थी वैसे ही सवरदा रहती है, यह िसद हुआ, ऐसा कहते
है।
सृिष से पूवर अनािद अननतकाल मे िमटी मे घटरप आकार के समान बह मे ही शरीर था, वैसे ही इस समय
भी है और आगे भी वैसे ही होगा।।36।।
उकत अथर मे दृषानत कहते है।
जैसे जल, जो िक पूवर और उतर काल मे तरंग आिद से अिवकृत केवल मात जलरप से िसथत रहता है,
मधय मे कुछ समय के िलए चंचल होकर पूवर और उतर काल मे पिसद सौमयता का तयाग कर तरंगरप होकर जल ही
रहता है दूसरी वसतु नही होता वैसे ही देह आिद भी तीनो कालो मे बह ही है, उससे अितिरकत नही है।।37।। इस
देह मे जो केवल एक कण के िलए चेषा युकत है, और भंगोनमुख (िजसका भंग तुरनत होना ही चाहता है) तरंग मे
िजनहोने अहंरप से िवशास िकया वे मनदमित उसके नाश से नष हो गये यानी भंगोनमुख तरंग के समान कण िवनशर
तथा जीवनरप एक कण के िलए चेषायुकत शरीर मे अहंरप से आसथा मनदमितयो की ही हो सकती है, अनयो की
नही।।38।।
देश से पिरिचछन होने के कारण भी देह आिद वसतुओं मे आसथा उिचत नही है, ऐसा कहते है।
उतपित के पूवर और नाश के पशात सवरत देहआिद सब वसतुएँ नही है। अपने आधार िवतेभर या िक उनकी
उकत सकल पदेश मे पतीित होती है या उस एक देश मे, तो यह िनवरचन करना किठन हो जायेगा। उनमे भी
हतरिपणी यह आसथा कौन है ? यानी अनुिचत है।।39।।
उकत नयाय को िलंगदेह मे भी िदखलाते है, वह भी सत् से वयितिरकत नही है, ऐसा कहते है।
िचत (िचतउपलिकत िलंग शरीर) अपनी उतपित से पूवर समय मे और पूवर पदेश मे सवसाकी िचनमात सवभाव
ही था। उतरकाल और अनयपदेश मे नष हुआ देश से पिरिचछन भी आकाश मे लीन हुए की भाित अतयनत ितरोिहत
हुआ वह सत् है या असत् है यह नही कहा जा सकता है। इस पकार का तुमहारा िचत (िलंगदेह) वतरमान समय मे और
इस पदेश मे सत् से वयितिरकत कया उिदत हुआ यानी कुछ भी नही।।40।।
यिद कोई पूछे िक सथूल, सूकम देह आिद यिद असत् ही है, तो उनका भान कैसे होता है, इस पर कहते है।
जैसे सवप के िवकारो मे असतय भी सवशरीरोचछेद आिद सतय सा पतीत होता है, जैसे बाघ, चोर आिद की
भयदृिषयो मे बाघ आिद के न रहने पर भी सवरत बाघ आिद की शंका होती है, मिदरा आिद के नशे मे न घूमती हुई
पृथवी भी, घूमती हईु सी पतीत होती है अथवा जैसे नाव की सवारी से हएु भम मे पृथवी पेड आिद के न चलने पर भी वे
चलते हुए-से पतीत होते है, जैसे वात, िपत आिद संिनपात मे भय आिद के हेतु न रहने पर भी भय आिद होते है, जैसे
नेत आिद इिनदय के दोष दूिषत होने पर िदचनदतवभािनत होती है, जैसे अितिपयतम के लाभ आिद होने वाले आननद मे
और िवधुरो की काम आिद दोषावेश दशाओं मे भाव और अभाव का रप चंचल यानी केवल पतीितकाल मे ही सथाय़ी
रहता है कुछ कािमनी आिद का सवरप दृिषगोचर होता है शीघ ही बाध होने से नष हो जाता है वैसे ही यह सथूल,
सूकम देह आिदरप जगत् की भािनत भी है। अनतर केवल इतना ही है िक सवप आिद थोडे समय तक रहते है और
जगत भम मोक पयरनत रहता है यो समय मे नयूनता और अिधकता के िसवा उनमे िवशेषता नही है।।41-43।। हे
िचत, जैसे पुत, आिद के न मरने पर भी वंचक पुरष को मार डालते है वैसे ही वह समय मे नयूनता और अिधकता तुमहे
पीिडत करती है िजसे तुमने वयवहािरक वसतुओं मे सतयता के भम से िवयोग और संयोगवश िनतय सुख और दुःख के
उदय मे िनिमत बना रखा है।।44।। अथवा यह तुमहारा अपराध नही है, िकनतु तुममे अहंभाव के अभयासवाले मेरा
ही यह अपराध है। यहा पर असदूप तुममे अहंभाव के अभयास से मै मृगतृषणा के तुलय िमथया तुमको सत्-सा देखता
हूँ। इसी से तुमहारे दारा िकया हुआ ह सब मेरा िकया हुआ हो गया है।।45।।
अतएव तुमहारे िववेकजान से ही मेरे अपराध रप तुमहारी शािनत होती है, ऐसा कहते है।
जो कुछ भी यह िवशाल दृशयमणडल है, वह सबका सब अवासतिवक ही है, ऐसा िनणरय करके मन के मननरप
वयापार से शूनय िनवाण पद को पापत होता है।।46।।
तुमहारे कारण हईु भोगवासनाओं का भी उसी से कय हो जाता है, ऐसा कहते है।
यह अवासतिवक है, ऐसा मन मे दृढ िनशय होने पर हेमनतऋतु मे वृको की मंजिरयो की नाई भोगवासनाएँ कीण
हो जाती है।।47।। अथवा िचत के पितिबमब के गहण से िचदूप होने के कारण रागरिहत हुआ (िवरकत हुआ)
अतएव संकलप और िवकलपरप वयसन का तयाग कर चुका तथा चरम साकातकारवृित से आतमसाकातकार कर चुका,
मन ही सवयंसवसथ (मोकिवशािनतमान्) होता है, मै नही, कयोिक मै तो सदा एकरप हे, सदा अिदतीय बह रप हँू, िफर
मेरी मोकिवशािनत पािपत कैसी ?।।48।। िचत अपने -आप बाहर पवृत हुए अपने अवयवरप इिनदय आिद का संवरण
कर तततवबोध दारा परमातमरप अिगन मे पिकपत होकर िचत-सवरप को जला कर अतयनत शाशत परम शुिद को पापत
होता है।।49।। जैसे वीर पुरष युदभूिम मे िसथत अपने शरीर को सवगरगामी अपने से िभन देखकर और उस शरीर
से समबनध रखने वाले घर, खेत, धन आिद की वासना का तयागकर अपने नाश तक को सवीकार करके बहलोक को
जीतता है वैसे ही िचत देह को अपने से िभन जानकर, िवषय-वासना का तयागकर और अपने िवनाश तक को सवीकार
कर बहलोक पर िवजय पाता है यानी मोकिवशािनत को पापत होता है।।50।। मन शरीर का शतु (संतापक) है और
शरीर मन का िरपु (संतापक) है। जैसे आधार और आधेयरप जल और घडे का कायरभूत संयोग दोनो मे से एक के
नष होने पर नष हो जाता है वैसे ही इन दोनो मे से एक की वासना के िवनाश से ये दोनो नष हो जाते है।।51।।
जैसे परसपर एक-दूसरे के पोषक होने के कारण अनुरागवाले, परसपर संतापक होने के कारण देषवाले बाघो के रहते
वन के िहरण को सुख नही होता वैसे ही पूवोकत रीित से परसपर पबल िवरोध रखने वाले इन दोनो के (शरीर और मन
के) रहते बेचारे जीव को सुख नही होता, िकनतु इनका मूलअजान के दारा िवनाश ही परमसुख है।।52।।
यिद कोई शंका करे िक मरण से भोगायतन देह का नाश होने के कारण ही सब दुःखो का पिरहार कयो न होगा
? तो उस पर कहते है।
इन दोनो मे से देह का िवनाश होने पर भी एक के (मन के) रहने पर पुनः देहकलपना अवशय होगी, अतः मरण
की बात आकाश मे जा रही सती ने भूिम िनगल डाली इस कथा के समान असंभािवत है(▲)।।53।।
यिद कोई पश करे िक मन और देह के रहने पर जीव की कया कित है ? तो उस पर कहते है।
सवाभािवक िवरोधवाले ये दोनो जहा पर इकटे होते है वहा पर जैसे लड रहे दो योदाओं के मधय मे िसथत पुरष
के शरीर पर तलवार और बाणो की बौछार िगरती है वैसे ही अनथों की परमपराएँ अवशय ही िगरती है।।54।।
▲ 'वयोनमययः िसतया' इस पाठ मे लोहे की सती पितमा ने आकाश मे भूिम िनगल डाली, इस कथा के समान
है, यह अथर है। लोहे की पितमा का आकाश मे जाना और वहा पर भूिम को िनगलना जैसे अतयनत असंभािवत है वैसे
ही मन के रहते मरण भी अतयनत असंभािवत है, यह आशय है।
परसपर िवरदक देह और मन जहा पर संघिटत होते है उस वैषियक सुखभोग मे जो मूखर अनुराग रखता है
उसे आवरणरिहत (खुले हुए) बडवानल मे, िजसमे िनरनतर समुद का जल िगरता है, फेक देना चािहए। वह वहा पर भी
अनुराग करेगा। वैषियक सुख भोग बडवानल से कम भीषण नही है। वैषियक सुखभोग मे अनुराग करने वाला
बडवानल मे भी अवशय अनुराग करेगा, यह भाव है।।55।।
'रागदेषवतोः' ऐसा जो पहले कहा है, उसमे मन के देह मे राग-देष के अंशो को हम िदखलाते है।
जैसे बालक अपने संकलप से यक की कलपना करता है वैसे ही मन अपने संकलप से शरीर की कलपना कर
इसके िलए आयु पयरनत भोजन की कलपना कर पुष बना कर अपने अिभिनवेश से होने वाले सब दुःखो को इसे देता
है।।56।।
मन मे देह के देषाश को उसके िनिमत के साथ िदखलाते है।
तदननतर उन दुःखो से तािपत शरीर मन को मारने की इचछा करता है अथात् दुिवरषयो के सेवन से मन मे
राग-देष, शोक, मोह, पाप आिद के जनन दारा मन को पीिडत करना चाहता है। मन से उतपन हुआ अतएव मन का
पुतरप शरीर िपतृ सथानीय मन को कैसे मारना चाहता है, ऐसी शंका नही करनी चािहए, कयोिक आततायी बने हुए
(पीडापद) िपता को पुत भी मारता ही है।।57।।
उसकी शतुता का लोकिसद नयाय से उपपादन करते है।
पकृित से ही कोई िकसी का शतु नही है और पकृित से ही कोई िकसी का कभी िमत भी नही है। जो सुख
देता है वह िमत कहा गया है और दुःखदायी शतु कहे गये है।।58।। िविवध दुःखे का अनुभव कर रहा शरीर अपने
मन का िवनाश करने की इचछा करता है एवं मन कण भर मे शरीर को अपने दुःखो का सथान(भोगायतन) बना लेता
है।।59।।
इस पकार परसपर एक दूसरे को दुःख देने वाले तथा सवभाव से ही अतयनत िवरद इन मन और शरीर के
संगत होने पर सुख की पािपत कैसे हो सकती है ?।।60।।
मन का िवनाश होने पर तो देह को िफर दुःख पािपत नही होती है, ऐसा कहते है।
मन का ही िवनाश होने पर शरीर दुःख का भाजन नही होता है, इसिलए शरीर भी मन के िवनाश मे उतकिणठत
होने के कारण जान और उसकी पािपत के उपायो मे िनतय यत करता है।।61।।
यिद कोई कहे, तब मन भी देह के िवनाश के िलए कयो यत नही करता है ? तो, इस पर कहते है।
िजस मन को आतमिववेक नही हुआ उसके दारा शरीर चाहे नाश को पापत िकया गया हो चाहे न िकया गया हो
वह आपितयो का सथान बनाकर अनथों की ही सृिष करता है, इसिलए शरीर के नाश मे मन की इषिसिद नही होती
है, यह अथर है।।62।। जैसे शरीर से जलरप मेघ और तालाब परसपर एक दूसरे से पुिष को पापत होते है, वैसे ही
शरीर से जडरप ये मन और शरीर परसपर के अनुगह से पुिष को पापत हुए है।।63।।
यिद कोई पूछे िक परसपर िवरद इन दोनो की एकत िसथित िकसिलएक है ? तो अनपाक के िलए परसपर
िवरद जल और अिगन की एकत िसथित के समान पुरष के भोग और मोक के उपायो के वयवहार के िलए ही इनकी
एकत िसथित है, ऐसा कहते है।
िवरद होने के कारण दो पकार से िसथत भी ये अनयोनयतादातमयाधयास से एकरप होकर दुःखो का भोग
करने के िलए एक साथ भोग और मोक के वयवहार साधन मे ततपर हुए है, जैसे िक लोक मे परसपर िवरद होने के
कारण पृथक-पृथक िसथत भी जल और अिगन अनपाक के िलए एकरप होते है।।64।।
देह को जो िचत के अधीन के कहा, उसका फल कहते है।
िवनाशी िचत के कीण होने पर देह उनमूिलत हो जाता है और िचत के बढने पर वृक के समान सैकडो
शाखापशाखावाला होता है।।65।। मन के कीण होने पर शरीर कीण वासनावाला होकर कीण हो जाता है। देह के
कीण होने पर मन कीण नही होता, इसिलए मन को ही कीण करना चािहए।।66।। संकलपरपी वृको से भरे तृषणारपी
लतावाले मनरपी वन को िछन-िभन कर िवसतृत मुिकतरपी भूिम को पापत कर मै सुखपूवरक िवहार करता हँू।।
67।। संकलप का नाश होने पर कीण हो रहा अतएव मन मे (मनःसवभाव मे) िसथत न हुआ यह मन वासनाजाल से
रिहत होकर वषा ऋतु के अनत मे मेघ के समान नष हो जायेगा।।68।। तवचा, रकत, मास, मेदा, हडडी, मजजा
और शुक नाम की धातुओं का संघातरप यह देहनामक मेरा शतु मन के कीण होने पर चाहे नष हो जाय, चाहे रहे मेरी
कोई भी कित नही है।।69।।
देह के न रहने पर दुःख कयो नही रहेगा, ऐसा यिद कोई पश करे, तो देह समबनध के हेतुभूत मन के नाश से
देह का संबनध नही है, दुःखपािपत तो दूर गई, इस आशय से कहते है।
िजसके िलए भोगेचछु अपनी देह की इचछा करता है वह मेरा समबनधी नही है और न मै ही उसका समबनधी हूँ।
मेरे सुखलेश से कया पयोजन है ?।।70।। मै देह नही हँू, इस अवशय जातवय अथर मे युिकत को सुिनये। यिद देह मै
(आतमा) होऊँ, तो सब अंगो के रहने पर भी शव (मुदा) कयो वयवहार नही करता ? इससे िसद हुआ िक देह आतमा नही
है।।71।। शव मे बोध आिद के अदशरन से यह िसद हुआ िक मै देह से अितिरकत हँू, िनतय हँू, मेरी जयोित कभी
असत नही होती। जो वयापक होने के कारण सूयरमणडल मे भी िसथत होने से सूयर से संगत होकर आकाश मे सूयर को
जानता हँ,ू वही िचदूप मै हँू।।72।। न तो मै अजानी हँू, न मुझे दुःख है, न अनथर है और न मुझमे दुःिखता है। मेरा
शरीर रहे चाहे न रहे मै सनताप शूनय होकर िसथत हूँ।।73।।
भूमा मे (सवरवयापक बह मे) मन आिद की पािपत ही नही है, ऐसा कहते है।
जैसे राजा के िनकट पामर लोग नही रह सकते वैसे ही जहा पर आतमा है वहा न मन रहता है, न इिनदया
रहती है और न िविवध वासनाएँ ही रहती है।।74।। मै उस परमपद को पापत हो चुका हँू। मै सजातीय िवजातीय
और सवगत भेद रिहत हूँ, मै सबसे उतकृष बहरप हूँ, तीनो तापो की शािनत सके िनवाणरप हूँ, पिरपूणर होने के कारण
अंशरहित हँू, आतपकाम होने के कारण् मुझे िकसी वसतु की अिभलाषा नही है अतएव मै िनरीह हँू।।75। जैसे ितलो
से पृथक िकये गये तेल का पेरे हुए ितलो से कोई समबनध नही रहता वैसे ही मन, देह, इिनदय आिद से अब मेरा कोई
समबनध नही है। पारबध शेष के भोग के िलए इस सवातमरप शेषपद से वयवहारभास मे अवतीणर हएु पूवर वासना से
पृथककृत मितवाले मेरा यह देहेिनदय आिद पिरवार पिरजन की भाित िवनोद हेतु है।।76,77।।
पूवोकत पारबध शेष भोगलीला मे सवचछता आिद गुण समपितया मेरी हृदयंगम् कानताएँ है, यो उनका िनरपण
करते है।
सवचछता, पूणरकामता, सता (सदूपता), सवरिपयता, सतयता (अबाधयता), जािनता, आननदसवरपता,
िनिवरकारता, सदा मृदुभािषता, पूणरता, िनलोभता, अबािधत सवभावता, कािनतमता, एकतानता, सवातमकता, िनभरयता,
िदतवािदिवकलपअभावना आिद ये मेरी िनतय उिदत हुई सवसथ, सम, सुनदरी तथा सुनदर उदयवाली कानताएँ है, जो
एकमात आतमिनष मुझे सदा िपय है।।78,80।। सबमे सब कुछ सदा सवरथा कलपना से संभव है, अतः सब िवषयो
के पित मेरे राग-देष और उनके फल सुख-दुःख कीण हो गये है।।81।। इसिलए मै शरत्-ऋतु मे आकाश मे
मेघखणड के समान शीतल (ितिवधताप शूनय) आतमा मे दृशयभाव का तयाग करके िवशाम लेता हूँ, कयोिक मेरा मोह िमट
चुका है, मेरा मन कीण हो गया है, अतएव िचत के संकलप िवकलप भी मुझमे नही रह गये है।।82।।

िसथित पकरण उपशम पकरण


ितरपनवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ, आआआआआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआ आआआआ आआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआआआ
आआ आआआ आआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआआआ
आआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, िवशुद तथा िवशाल बुिद से इस पकार िनणरय कर पदासन लगाकर
और नेतो को आधे मीच कर मुिन बैठ गये।।1।। िजसने ॐकार का उचचारण िकया, उसको परमपद अवशय पापत
हो गया, कयोिक ॐकार यह अकर परबह का पधान नाम और अनतरंग पतीक है, अतः यह अकर परबह ही है ऐसा
िनशय कर उदालक मुिन ने घणटे के अधोभाग मे लटके हुए लोहे के जीभ के आकार के लटकन को अचछी तरह ताडन
करने से घणटे के आकाशगमन मे उतपन नाद की तरह ॐकार का, िजसका ऊँचा सवर था तथा धविन ऊपर को गई
थी, उचचारण िकया।।2,3।। उदालक मुिन ने तब तक ॐकार का उचचारण िकया जब तक उनकी उस पकार से
उचचािरत पणव धविन मूलाधार से उठकर बहरनधपयरनत पिरवयापत न हुई और उनके संिवत् तततव (ॐकाराकार
बुिदतततव) और जीवतततव (जीवाखयचैतनय यानी अनतःकरणाविचछन चैतनय) अदरमाता के उचचारण के बाद यानी
अधरमातोचचारण का उपशम होने पर जो िनरंश कूटसथ चैतनय (बहचैतनय) अनुभूित मे अिभवयकत होता है, उसी
बहचैतनय के अिभमुख न हो गये।।4।।
िनिवरकलप समािध की िसथित की योगयता की िसिद के िलए पहले उसी पणव दारा सथूल देह का
शोषण(सुखाना), दहन(जलाना), दुष भसमाशका िनरसन (दूर करना), आपलावन (कालन), दूसरे िदवय शरीर का
िनमाण आिद पणव भावना से समपन हुआ, यह कहते है।
अधरमाता सिहत अकार, उकार, मकाररप तीन अवयववाले पणव के पथम अंश उदात 'अकार' का उचच
सवर से तारभाव अिभवयकत होने पर बाहर िनकलने के िलए उदत पाणो दारा मूलाधार से लेकर ओष पुट तक शरीर
को धविनत करने पर रेचक नाम वाले पाण िनकलने के कम ने िजस पकार अगसतय ऋिष ने जल पीकर समुद को
िरकत कर िदया था उसी पकार समसत शरीर को खाली कर िदया अथात् उदालक मुिन ने रेचन दारा शरीर को सुखा
िदया।।5,6।।
मुिन का रेिचत पाण वायु कहा ठहरा, इस पर कहते है।
िजस पकार पकी घोसले को छोडकर आकास मे घूमता है उसी पकारक उनका रेिचत पाणवायु शरीर का
तयागकर बह की भावना से अिभवयकत हादररस से भरे हुए बाहाकाश मे िसथत हुआ।।7।।
िनरनतर बहभावना से कया हुआ यह कहते है।
पाणो के िनषकमण और संघषर से हृदय मे भावना दारा उतपन हुई जलती जवालाओं वाली अिगन ने, िजस पकार
उतपात पवन से पैदा हुई दावािगन शुषक वृको को जला देती है उसी पकार उनके सारे शरीर को जला िदया।।8।।
इस पकार पणव के पथम अंश मे िजतनी यह पूवोकत अवसथा हुई, सब भावना से हुई, हठ से नही हुई, कयोिक हठयोग
से अथात् बलातकार से पाणो को बाहर िनकालने मे मूचछा, मरण आिद का भय रहता है।।9।। इसके अननतर दूसरे
'उकार' अंश के अनुदातसवर से गंभीर उचचारण के समय पणव की समिसथित होने पर पाणो का िनशल कुमभक नाम
का कम हुआ।।10।। वे पाण न बाहर थे, न भीतर थे, न अधोभाग मे थे, न ऊधवरभाग मे थे और न िदशाओं मे थे,
बाध मे रके हुए जल की तरह संकुबध थे।।11।। अिगन शरीररपी नगर को जलाकर िबजली की तरह कण भर मे
शात हो गई, बरफ की तरह सफेद रंगवाली शरीर की भसम िदखाई दी।।12।। िजस अवसथा मे शरीर की िनशल
एवं शेत हिडडया मानो कपूर के चूणर से सुसिजजत शयया मे उिचत सुख से सोई हुई सी भावना से मालूम पडी।।
13।। आँधी से उडाई हईु हिडडयो से युकत वह भसम शी महादेव जी के भसमधारणरपी वरतवाले की नाई पचणड वायु
ने तपसया से कृश शरीर की तरह अभकय अपने शरीर मे लगाई अथात् उडाई।।14।।
पचणड वायु से उडाई हुई वह हिडडयो से िमली हुई भसम कण भर आकाश को ढक, कर शरद् ऋतु की बदली
की तरह कही चली गई।।15।। इस पकार यह िजतनी भी अवसथा पणव के दूसरे अंश मे (कुमभक कम मे) हुई
सब भावना दारा ही हुई हठ से नही हईु , कयोिक हठयोग दुःखद होता है जैसे की पूवरकम मे बताया गया है।।16।।
इसके अननतर पणव के उपशािनतपद तृतीय मकार कम मे अथात् मकारोचचारण के समय मे पूरण करने के कारण
पाणो का 'पूरक' नाम का कम उतपन हुआ। (यदिप रेचक, कुमभक और पूरक समग पणव के ही साधन िसद है तथा
रेचक मे पथम भाग का ही िवसतार िकया जाता है कुमभक मे मधयभाग का और पूरक मे चरम भाग का (अिनतम भाग
का), कयोिक कणठ से िनकलते हएु पाणवायु से कणठ सथानीय आकार भाग की ही अिभवयिकत होती है, संकुिचत हो रहे
ओषो के उकार भाग की और ओषो के समपुिटत होने पर मकार भाग की अिभवयिकत होती है। मकार भाग की
अिभवयिकत के समय पाणवायु यदिप पुनः पवेश करता है, तो भी उसमे पणव के संसकार का ही अनुवतरन होता है,
इसिलए तत्-तद् भाग के अवसर िवभाग की उिकत है, ऐसा समझना चािहए)।।17।। इस तृतीय अवसर मे, जीव
चैतनय मे(जीविचत् मे) अथात् जीवातमा मे भावना दारा भािवत अमृत के (बह के) मधय मे गये हुए पाणो ने िहम के
सपशर की तरह सुनदर शीतलता पापत की।।18।। इस पकार गगन कोष मे िसथत कुहरा शीतल मेघ भाव को पापत
कर लेता है उसी पकार आकाश के मधय मे िसथत पाण कम से चनदमणडलता को पापत हुए।।19।। अमृतमय
कलाओं के समूह से भली भाित पूणर एवं धणरमेघाखयसमािध की तरह पहाददद से भरे हुए, रसायन महासागर रपी उस
चनदमणडल मे पाणवायु िजस पकार गवाक मे झरोखे मे गई हुई चनद िकरणे सफिटक दणडाकार हो जाती है उसी तरह
अमृतमय िकरणो की धारा बन गये।।20,21।। िजस पकार महादेव जी के िसर पर अमृतमय गंगा की धारा िगरती
है उसी पकार पाणो की वह अमृतमय धारा शेष बचे हुए शरीर की भसम पर आकाश से िगरी।।22।। िजस पकार
मंथन करने से चंचल मनदराचलवाले समुद से पािरजात वृक उतपन हुआ।।23।। नारायणरप से पादुभूरत एवं कमल
की तरह िखले हुए नेत एवं पसन मुखवाला अतएव कािनत से मनोहर उदालक का शरीर अतयनत सुशोिभत हुआ।।
24।। िजस पकार जल का समुदाय सरोवर को एवं वसनत ऋतु मे कोमल पतो को पैदा करने वाले पािथरव रस वृक
को सवागपूणर बना देते है उसी पकार अमृतमय पाणो ने उनके शरीर को सवागपूणर बना िदया।।25।। िजस पकार
चकाकार भँवरो से बह रही शी गंगाजी को जल पूणर करते है उसी पकार पाणो ने अनदर कुणडिलनी को पूणर िकया।।
26।।
दहन, पलावन आिद दारा िवषणु शरीररप से उनकी उतपित कहने का पयोजन कहते है।
िजस पकार शरद ऋतु मे अिनतम वृिष से धुला हुआ और शीघ सूखा हुआ रासता वषाकाल के कीचड वगैरह
के नष हो जाने पर िनमरल हो जनता के यातायात आिद कायर के योगय हो जाता है उसी पकार उकत बाहण का शरीर
भी दहन, पलावन आिद की भावना से कलुिषत रिहत होकर पकृत समािधरप कायर मे िसथत हो गया।।27।। इसके
बाद पदासन लगाकर उस भावमय शरीर मे दृढता से िसथत होकर उदालक मुिन ने िजस पकार बनधन सतमभ मे हाथी
को बाधते है उसी पकार देह मे पाचो इिनदयो को बाधकर िनिवरकलप समािध के िलए तथा मन को, िजसमे पाणायाम
दारा पाणवायुरपी मृग शानत हो चुके थे और जो आशा, लोभ, तृषणा, उतकणठा, पतीका आिद के पीछे-पीछे दौडने वाला
था उसे सवचछ बनाने के िलए ऐसे उदोग िकया जैसे िक शरतकाल शानत मृगवाले तथा िदशाओं मे फैले हएु अपने िनमरल
सवभाव को सवचछ करने के िलए उदोग करता है। परनतु इस अवसथा मे िजस पकार ढीले गढे हुए अश आिद बाधने
के घँटे को अश आिद से खीची गई रससी उखाड कर खीच लेती है उसी पकार पूवानुभूत घर, खेत, पुत, िमत आिद
की िचनता ने उनके मन को दूर आकृष िकया।।28-30।। िजस पकार अित शीघता से बह रहे जल को पुल
अथात् बाध रोक देता है उसी पकार उनहोने गृह, पुत, िमत आिद कुद िवषयो मे भागते हुए उनमत वयाकुल मन को
िववेकबल से िनमरल बनाकर रोक िदया।।31।। िजस पकार संधयाकाल िनशल आँख की पुतली के सदृश भमरो से
युकत कमलो को संकुिचत कर देता है उसी पकार उनहोने िनशल पुतिलयो से मनोहर एवं दोनो पलको के िमलने से
सघन केशो से युकत पकमोवाले नेतो को आधा मीच िलया।।32।। िजस पकार चकवती का पशसत जनम समय
जगत का कलयाण सूिचत करने के िलए शीतल, मनद और सुगनध वायु उसके जनम देश मे सम अथात् न अितवेग से
और न अित मनद चाल से बहता है उसी पकार उकत ऋिष ने मौनी होकर पाण, अपान के वेग को मुख मे कोभ, वैषमय
आिद से रिहत कर िदया।।33।। िजस पकार कछुआ अपने रंगो एवं इिनदयो को िवषयो से पृथक कर देता है। िजस
पकार ितलो से तेल पृथक िकया जाता है।।34।। िजस पकार छोटे कुणडे से सहसा ढँकी हुई मिण दूर तक फैली
हुई िकरणो को छोड देती है उसी पकार समसत बाह सपशों को(बाहा िवषयो के) उस धीर बुिद वाले ने सहसा दूर
छोड िदया।।35।। िजस पकार वृक पतो के कोश मे िसथत रस को (जल को) मागरशीषर मे नष कर देता है उसी
पकार उनहोने समसत वसतुओं का दशरन छू ट जाने से मनोवासना रप आभयनतिरक िवषयो को आकषरण दारा बाध होने से
अिधषानतततव मे िवलीन कर िदया।।36।। इसके बाद िजस पकार मुख मे कसकर बाधा हुआ जलपूणर औंधा
(अधोमुख) बेडा अनदर वायु के पवेश के िबना दूसरे िछदो से जल के न चूने से इतर रनध कोशो को रोकता है, उसी
पकार उनहोने मूलाधार के अवरोध से एडी दारा मलदार के संकोच से नवदार के (नौ दारो से िनकलने वाले) वायुओं को
रोक िदया।।37।।
जैसे मेर अपने रतो के पकाश से पूणर एवं अलपवृको के पुषपो से सुशोिभत अतएव िवशद िशखर को धारण
करता है वैसे ही उस धीर ने अपने आतमरपी रत के पकाश से पकािशत तथा पसन मुखरप कमलपुषप से सुशोिभत
एवं रजोगुण तथा तमोगुण से अनावृत कनधे को धारण िकया।।38।। जैसे हाथी पकडने वाले लोग िवनधयाचल के
गडडे मे युिकतयो से वश मे िकये हुए उनमत हाथी को पकड लेते है, उसी पकार उनहोने एक िवषय मे धारणा-धयान-
समािधरप संयम के पित उनमुख (आकृष) एवं पतयाहाररप उपायो से वश मे िकये हुए मन को हृदयाकाश मे धारण
िकया।।39।। िजस पकार शरद् ऋतु मे आकाश िनमरल सौमयता को पापत करता है उसी पकार उनहोने कोभ आिद
िवहीनता पापत करके िनवात एवं पिरपूणर समुद की अचल शोभा को हर िलया। भाव यह है िक धारणा दारा आतम धयान
मे पूणर िवशािनत पापत की।।40।। िजस पकार सामने उडते हएु मचछरो को वायु दूर उडा ले जाता है उसी पकार
बहाकार िचतवृित मे िवकेप करने के िलए िवपरीत भावना से उठे हुए िवकलपो को उनहोने दूर भगा िदया अथात् नष
कर िदया।।41।। िजस पकार शूरवीर पुरष सामने आये हएु शतुओं को रण मे तलवार से काट डालता है उसी
पकार आतमजानी उदालक ने अपनी इचछानुसार बार-बार आर रहे िवपरीत भावनाजनय (िमथयावासना से उतपन)
िवकलपो को दृढ मन के दारा नष कर िदया।।42।। िवकलपो के समूह का उचछेद हो जाने पर उनहोने अपने
हृदयाकाश मे चंचल, काजल की तरह काले तमोगुण की अिधकता से उतपन अनधकार को देखा, िजसने िववेकरपी
सूयर को आचछन कर िदया था।।43।। उनहोने पवन से काजल के समान सततवगुण के उदेक से उिदत जानरपी
पकाशवाले अनतःकरणरपी सूयर से उस तमोगुणरपी अनधकार के शानत हो जाने पर मनोहर तेज के समूह को देखा
अथात् उनहे सततवगुण के अनुरप तेजःपुंज का भम हुआ।।45।। िजस पकार हाथी का बचचा सथल कमलो के वन
को िछन-िभन कर देता है उसी पकार उनहोने उस भम को नष कर िदया।
शंकाः उनहोने उकत भम को सततवगुण के िवरोधी रजोगुण आिद से नष कर िदया अथवा और िकसी से ?
समाधानः िजस पकार िपशाच बतरन मे भरे हुए रकत को अतयनतवेग से कणभर मे पी जाता है उसी तरह वे
तेजःपुंजातमक भम को शीघ पी गये अथात् अिधषान तततव का साकातकार होने से उसका बाध हो गया, रजोगुणािद
दारा तेजःपुंज का नाश नही हुआ।।46।। िजस पकार सूयर के असत होने पर राित मे तालाब की तरंगो से चंचल
कमल बनध हो जाता है अथवा िजस पकार उनमत घूरता हुआ शराबी राित मे नशे से िनदा को पापत हो जाता है उसी
पकार उस मुिन का चंचल और घूरता हुआ मन तेजःपुंज के उपरत होने पर िवषय का लाभ न होने से िनदा मे डू ब
गया।।47।। िजस पकार वायु मेघ पंिकत को, दुष हाथी नीलकमिलनी को और सूयर राित को िछन-िभन कर देता
है उसी पकार उस मुिन ने उस िनदा को भी शीघ िछन-िभन कर िदया।।48।। िजस पकार सूयर के पकाश की ओर
दृिष लगाये हएु पुरष को आकाश के बालो के गीले, मयुर आिद के पुचछ की तरह चमचमाहट पतीत होती है उसी
पकार उनके मन ने िनदा का नाश होने पर आकाश िविवधरपवाले है ऐसी भावना की।।49।। िजस पकार मेघ
तमाल पुषप को, वायु कुहरे को और दीपक अनधकार को नष कर देता है उसी पकार मुिन ने सवचछ सवभाववाले
आकाश मे देखे हुए नाना रपो को भी नष कर िदया।।50।। िजस पकार िनदा-भंग हो जाने पर शराबी िविकपत-सा
(पागल सा) हो जाता है उसी पकार आकाश के पूवोकत भमातमक जान का नाश होने पर उस मुिन का मन मूढ अथात्
मोहाकानत हो गया।।51।। िजस पकार सूयर संसार से राित दारा उतपन अनधकार को हटा देता है उसी पकार इस
िववेकी ने उस मोह को मन से हटा िदया।।52।। इसके अननतर तेज अनधकार, िनदा, मोह आिद से रिहत मन
िकसी अिनवरचनीय अवसथा को पापत करके कणभर के िलए शानत हो गया।।53।।
हे शीरामचनदजी, नहर दारा खेत मे पहुँचाया गया सरोवर का जल खेत को भर कर पुल अथात् बाध से
रककर िजस पकार नहर दारा लौट कर उलट पवाह से िफर सथान पर सरोवर मे आ जाता है उसी पकार मन कणभर
िवशानत होकर पुनः शीघ बाहपपंचाकार वृित को पापत हो गया।।54।। उसके अननतर, सुवणर िजस पकार नुपुर
भाव को पापत हो करता है अथात् नुपुराकार मे पिरणत हो जाता है उसी पकार पूवर मे धयानािद से िचरकाल तक िकये
गये अनुसनधानवश और समािध मे िकये गये अनुभव दारा रसासवाद के कारण िफर वही आकृष हुआ िचदाकारवृित को
पापत हो गया, अथात् िचदंशपधान सिवकलप समािध के रप मे पिरणत हो गया।।55।।
इस पकार सिवकलप समािध से कमशः इनधनशूनय अिगन की तरह िदन पर िदन कीण हो रहा उनका मन कीर
नीर के समान िचदेकरस बन गया, ऐसा कहते है।
इसके अननतर िजस पकार घडे मे िसथत पंिकल जल का पंक जल के सूख जाने पर घट भाव को पापत
करता है अथात् घट से समबद हो जाता है उसी पकार अपने िचतततव को छोडकर आतमतततवरप एकरसता को पापत
हुआ उनका िचत पूवरवसथा से अनय ही हो गया अथात् अिधषान िचतततव मे लीन हो गया।।56।।
िचत के िचतततव के िनवृत होने पर उसमे पितिबिमबत चैतनय की िबनबचैतनय मे एकता हो गई, ऐसा कहते
है।
एक रसाकार बुिदवाला वह िजस पकार तरंग आिद के भेद को छोडता हुआ समुद जलसामानयरप को पापत हो
जाता है उसी पकार पितिबमब वृतयाकार को छोड कर शुद िचत् (सवपकाशातमक बह) सवरसािकिचतसामानयरप को
पापत हो गया।।57।।
इस पकार िनिवकलप समािध मे पितिषत उदालक को समािध के पिरपाक से तततवसाकातकार और उसका
फल 'बह वेद बहैव भवित' (जो बह को जानता है वह बह ही हो जाता है) इस शुित मे पदिशरत बहभाव पापत हुआ,
यह दशाते है।
उसके अननतर उस समािध से तततवजान को पापत हुए उदालक दैत के पितभास से रिहत होकर जगत् के
अिधषानभूत शुदसवरप महत् िचदाकाश हो गये।।58।। इसके अननतर अमृत के गृहसवरप समुद की नाई
उदालक ने बाह पपंच के दशरन से रिहत होकर बहािद उतम पकृितवालो से आसवािदत िनितशय आननद वहा पापत
िकया।।59।। उदालक ऋिष शरीर से पृथक होकर शुद हुए की नाई अिनवरचनीय अविसथित को पापत करते हुए
सनमातसवभावरप होकर आननद के सागर हो गये।।60।। जैसे शरद ऋतु के सवचछ आकाश मे समसत कलाओं से
पिरपूणर चनदमा िसथत होता है। वैसे ही िदजचेतनातमा उदालक आननदरपी सरोवर मे हंस की तरह िसथत हो गये।।
61।। वह उदालक ऋिष िनवात दीपक के सदृश कािनतवाले, िचतिलिखत के सदृश अननयमनसक, िनसतरंग समुद
के गमभीर, एवं पूवर मे जो वृिष कर चुका हो बाद मे िनजरल और मूक (गजरन शूनय) हो गया हो ऐसे मेघ की िसथित के
समान िसथितवाले हो गये।।62।। इसके अननतर इस महालोक मे (परम पद) मे िचरकाल तक िसथत हुए अथवा
इस महापकाश मे िचरकाल तक िसथत हएु अथवा इस महापकाश मे िचरकाल तक िसथत हुए उदालक ऋिष ने आकाश
मे चलनेवाले बहुत से िसद और देवताओं को देखा।।63।। वहा उनके चारो ओर इनदपद और सूयर पद देने वाले
और अपसराओं से िनिबड िसिदयो के बहत ु से िविचतगण भी आ गये।।64।। जैसे गंभीर बुिद उदारपुरष बचचो के
िवलास के साधन िखलौनो का आदर नही करता वैसे ही कोभरिहत गमभीर बुिदवाले उदालकने उन िसिदगणो का आदर
नही िकया।।65।। उतरायण के आधारभूत िदगभाग मे सूयर िजस पकार छः मास तक रहता है उसी पकार उदालक
उस आननद-मिनदररप समािध मे िसिदयो के गणो का अनादर करके छः महीने तक िसथत रहे।।66।। जब
सवोतकृष सपतम भूिमका मे िसथित रप जीवनमुकतपद को पापत हुए तब वहा उनके पास िसद, सुर, गणदेवता, बहा,
महादेव आिद सब उपिसथत रहे।।67। उस आननद मे िचत का रसासवादलकण पिरणाम न होने से वह उदालक
'अनाननद' पद को पापत हो गये, अतः उनका संिवदातमचैतनय िवषयी मनुषयो की नाई न कुद आननद मे रहा और न दुःख
मे ही रहा, िकनतु सवपकाशरस पूणर रहा।।68।। िजस पुरष ने सवगर देख िलया उसका पेम पृिथवी पर िकसी
भोगसामगी मे नही होता उसी पकार मन कणभर अथवा हजार वषर तक उकत िसथित को पापत कर भोगसामगी मे पेम
नही करता।।69।। वह सवोतकृष पद है, वही सवोतकृष शानत गित है, वही शाशत कलयाण कर है, वह िशव है,
वहा पर िवशािनत को पापत हुए मनुषय को भम िफर बाधा नही पहुँचाता।।70।। जैसे जो पुरष चैतरथ (कुबेर का
उदान) पापत कर चुके हो वे खिदर के (खैर के) उदान मे नही जाते है वैसे ही सनतपुरष बहसाकातकार करके इस
बाह पपंचातमक दृिष को िफर पापत नही करते है।।71।। िजस पकार राजा लोग दीनता को कुछ नही िगनते उसी
पकार शवण, मनन, िनिदधयासन और समािध दारा पिरषकृत िचत-से-महाआननद पदवी को पापत करके जीव दृशय का
आदर नही करते।।72।। हे िनषपाप शीरामचनदजी, उस पद मे िवशािनत को पापत हुआ अतएव बोध को पापत हुआ
िचत षषम भूिमका मे दूसरो के महापयत से समािध वयुतथानदशा के पित बोध को पापत करता है या सपतम भूिमका मे
उसको भी पापत नही करता है।।73।। िजस पकार सूयर चैत मास मे नीहार पटल (कुहरे) से दूर रहता है उसी
पकार उदालक ऋिष िसिदयो से दूर रहे। समािध मे छः महीने वास करके समािध से जागरक उनहोने परम
तेजिसवनी, पणाम करने की लालसावाली तथा चनदिबमब के सदृश शरीर को धारण की हुई सनेह युकत रमिणयो को
देखा एवं गौर मनदारपुषपो की धूिल से धूसिरत भमरो से (भौरो से) और चँवरो से युकत फहराती हुई पताकाओं के
समूहवाली िदवयिवमानो की पंिकतयो को देखा।।74-76।। करकमल मे कुशा की पिवती के िचहवाले हमारे जैसे
मुिनयो को और िवदाधिरयो सिहत िवदाधरो के अिधपितयो को भी देखा।।77।।
उन सबने उन महातमा उदालक मुिन से कहाः हे भगवान, आप हमारे पणाम से अनुगह पूणर दृिष से हमको
देिखये।।78।। हे भगवान्, आइये और इस िवमान पर चढकर देवताओं के नगर को चिलये (सवगर को चिलये),
कयोिक संसार के उपभोगो की अिनतम सीमा सवगर ही है।।79।। हे िवभो, पलयपयरनत अपने वािछत और उिचत
भोगय पदाथों का उपभोग कीिजये कयोिक समसत तपसयाएँ सवगािदरप फल के भोगने के िलए होती है।।80।। िजस
पकार हािथयो के चारो ओर हिथिनया उसकी उपासना करती है उसी पकार हार एवं चँवरो को धारण की हुई गनधवर
ललनाएँ आपकी उपासना करती हुई खडी है, कृपया इनको देिखये।।81।। हे भगवान्, धमर और अथर दोनो का सार
काम है और काम का सार सुनदर युवितया है। ये वारागनाएँ वसनत मे मंजरी के समान सवगर मे ही होती है।।82।।
इस पकार कह रहे इन सब अितिथयो की यथोिचत पूजाकर के वे मुिन िमथयातव आिद के िनशय से (सवगर और सवगर
के िविवध भोग िमथया है इस िनशय से) िबना िकसी पकार के कौतूहल से बैठे रहे।।83।। उस धैयर पूणर बुिदवाले
मुिन ने गनधवर ललनाएँ आिद िवभूित का न तो अिभननदन ही िकया और न तयाग ही िकया अथात् उनसे उदासीन रहे
और हे िसदो, आप लोग जाइये, ऐसा कहकर िफर अपने समािधरप वयापार मे लग गये।।84।। इसके अननतर
अपने धमर मे िनरत अतएव भोगो मे पेम न करते हुए उदालक मुिन की िचरकाल तक पतीका, पणाम, पशंसा आिद दारा
उपासना कर िसद लोग कुछ िदनो मे सवयं चले गये।।85।। जीवनमुकत वह मुिन वनो मे और मुिनयो के आशमो मे
सुखपूवरक यथेचछ िवहार करते रहे।।86।। मेर, मनदराचल, कैलास, िहमालय और िवनधयाचल की चोिटयो पर और
दीप, उपवन, िदशा, कु ंज, जंगल और अरणयभूिम इन सबमे यथेचछ िवहार करते रहे।।87।। उस समय से उदालक
िदजपवरतो की भीतर की गुफाओं मे धयानरपी लीला से परमपद पािपत पूवरक रहने लगे।।88।। समािध मे बैठे हुए
मुिन कभी एक िदन मे ,कभी एक महीने मे, कभी एक वषर मे और कभी कई वषों मे समािध से जागते थे।।81।।
उस समय से उदालक मुिन वयवहारकाल मे भी िचदावरप एकतव को पापत हो समािहत िचत ही रहते थे। अज के
समान िविकपत िचत नही रहते थे। अथात् वयवहािरक दशा मे भी धयानसथ ही रहते थे।।90।। िजस पकार पृिथवी
पर सूयर का तेज सवरत सम रहता है उसी पकार अनतःकरणवृित के अनुगत और उसके साकी िचदमात के िनरनतर
साकातकाररपी समािध के अभयास से अिपिरिचछन िचदभाव को पापत करके वह मुिन सवरत राग-देष को छोड देने से
और करणा से अिवषम बहभाव के दशरन से सम रहे।।91।। वह मुिन िचतसामानय के िनरनतर अभयास के कारण
सतासामानय को पापत करके अथात् दृशय और उसके संसकार का मूलोचछेद होने पर उसके पथनरप िचततवयवहार का
उपरम होने से सवपकाशातमक िनरितशय आननदसनमात भाव का पिरशेष होने के कारण सता सामानय को पापत करके
िचतसथ सूयर के समान इस दृशयपपंच मे न आिवभाव को (उदय को) पापत करते थे और न ितरोभाव को (असत को)
पापत रहते थे।।92।।
इस पकार उकत िसथित को िदखाते हएु उपसंहार करते है।
सब िवकेपो के उपशमन होने के कारण तथा परमपद की पािपत से शानत िचत जनममरणरपी पाशो का िवनाश
कर चुके और संशय रिहत उस मुिन ने शरद् ऋतु के आकाश के समान शानत, अिपिरिचछन, अिततेजसवी, सफुट
अथात् िनरावरण होने के कारण पकाशमय, पाकतनदशा का अतयनत िवसमरण होने के कारण िचतरिहत बहसवभावापन
शरीर को धारण िकया पहले की नाई उदालक शरीर को धारण नही िकया। अथात् बहसवरप हो गये।।93।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

चौवनवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ, आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआ आआआ
आआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआआआआ ।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवान्, आप आतमजानरपी िदन के िलए सूयरक सवरप है, मेरे संशयरपी ितनको
के िलए अिगनरप है एवं अजान से होने वाले तापतय सनताप के िलए चनदमा सवरप है, अतः कृपापूवरक बतलाइये िक
सतासामानय कया है अथात् सतासामानय का कया लकण है भाव यह है िक अजानरपी अनधकार का िवनाश करने मे,
जान पयुकत संशयिवपयरय का उचछेद करने मे तथा संशय-िवपयरय पयुकत सब दुःखो के उचछेद मे केवल आप ही समथर
है, अतएव सतासामानय का लकण बताने की कृपा कीिजये।।1।।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जब िचत पूणर शुद है, उसमे कुछ नही है, ऐसी भावना से यानी तीनो
कालो मे भी दृशय वसतुतः नही है यो शुित, युिकत और अनुभव से िनरनतर अनुसनधान करने से चैतय संसकारो का
मूलोचछेद होने पर िचत भली भाित कीण हो जाता है तब जड और चेतन सबमे अनुगत सवतः िसद सतामात ही
सतासामानय होता है। छठी भूिमका मे िचत के अवानतर भेदो का पिरमाजरन कर िचत् सामानयभूत चैतयाभाव की
अतयनत भावना करने से चैतयसंसकारो का आतयािनतक उचछेद होने पर जब िचत कीण हो जाता है तब सवमात सता से
सवतः िसद हो रही पिरिशष िचत्-अिचत् दोनो मे अनुगत सता ही सतासामानय होती है, अथात् िवकेप के हेतुभूत िचत
का अभाव होने से आतमा की सवरपसता ही अविशष रहती है, यह भाव है।।2।। समसत वृितयो मे पितिबिमबत
चैतनय जब सकल पपंच का बाध होने पर अनतःकरण की वृितयो और वृित के िवषयो से रिहत होकर सवातमा मे अथात्
िबमब चैतनय मे लीन होता है तब उस िबमब की असत् रप की नाई (िजसमे रप नही है यानी आकाश की नाई) सवचछ
सतासामानयता समझना चािहए।।3।। िचत की वृितयो मे अिभवयकत हुआ अखणड चैतनय जब बाह एवं आभयानतर
का जो कुछ है इन सबका अपलाप कर (यह कुछ नही है, ऐसा िनशय कर) िसथत होता है तब सतासामानयता समझनी
चािहए।।4।। हे शीरामचनदजी, जब िचत की वृितयो मे अिभवयकत हुआ अखणड चैतनय समसत भूतपपंच का
अपलाप कर के अपने पारमािथरक सवरप से सवपकाशातमक सता सामानयतमक, केवल िचतसवरप होता है तब
सतासामानयतया समझनी चािहए।।5।। हे शीरामचनदजी, िजस पकार कछुआ अपने -आप ही अपने अंगो को लीन
कर देता है तब सतासामानयता समझनी चािहए।।6।। हे शीरामचनदजी, चूँिक यह उकत सपतम भूिमका रढदृिष
तुयातीत पद के समान है, इसीिलए सदेहमुकत और िवदेहमुकत दोनो को सदा होती ही है यानी सदेहमुकत और िवदेहमुकत
दोनो की समानसवरपिसथित मे भेद नही है।।7।। हे िनषपाप शीरामचनदजी, यह बोध से उतपन दृिष पंचमािद
भूिमकाओं मे समािधसथ जानी को होती है, सपतम भूिमका मे तो वयुितथत को भी अथात् जो समािधसथ नही है उसको
भी होती है, केवल अज को कभी नही होती है।।8।। िजस पकार पृिथवी पर पिसद पारदािद (पारा आिद) रस एवं
आकाशरपी गली मे वायु िकसी वसतु से सपृष नही होते उसी पकार इस दृिष मे िसथत गमभीर सवभाव वाले सब
जीवनमुकत लोग िकसी भी ऐिहक अथवा पारलौिकक भोग की तृषणा रपी धूिल से सपृष नही होते।।9।।
उसी का उदाहरण देते है।
हे शीरामचनदजी, आसमतपभृित अथात् हमारे सदृशय मनुषय लोक मे इस दृिष मे िसथत है, आकाशरपी वीथी
मे नारदािद मुिनगण इस दृिष मे िसथत है और उससे भी ऊधवरलोक मे बहा, िवषणु, महादेह आिद इस दृिष मे िसथत
है।।10।।
हे शीरामचनदजी, समसत भय का नाश करने वाली इस पदवी का अवलमबन करके वे उदालक पारबधकमों का
कय होने तक संसाररपी घर मे रहे।।11।। इसके अननतर बहत ु काल के बाद उदालक की यह दृढ बुिद हुई िक मै
इस देह को छोडकर िवदेह मुकत हो जाऊँ।।12।। हे शीरामचनदजी, इस पकार िचिनतत अथर मे दृढ िनशय वाले वे
उदालक ऋिष बद पदासन होकर आधी आँखे मीचकर पवरत की गुफा मे पतो के आसन पर बैठ गये।।13।।
मलदार के अवरोध से नवदारो का संयम कर शबद-सपशािद िवषयक वृितयो को बदली फल की तरह एक-एक चुनकर
हृदय मे उनका िनवेश करके िफर उनके पारमािथरकसवरप की अपने अंग के समान भावना कर अथात् सवातमा के
साथ ऐकय सथािपत कर िचदातमा एवं सैनधवघन के समान एक रस हुए उदालक ने िचतसामानय को पापत िकया।।
14।। हे शीरामचनदजी, पाणवायुओं को रोकते हुए, समरप से िसथत कणठवाले, तालू के मूलतल मे फाटक के
समान लगे हुए िजहामूल से उनत हुए-से सुनदर मुँहवाले, न बाहर न भीतर, न नीचे, न ऊपर, न रपािद िवषयो मे, न
शूनयआकाश मे कही भी मन और दृिष को संयुकत न कर रहे एवं दातो से दातो का सपशर न कर रहे तथा पाणो के
पवाहो के अवरोध से सम यानी उनकी िकयाओं से उतपन हुए शरीर, मन और इिनदयो के चाचलय से शूनय, पसनवदन,
िचदूप बहाननद के अनुभव से सीधे खडे हएु रोगटो से पुलिकत शरीरवाले वे उदालक ऋिष अनतःकरण के
एकदेशभूतवृितभेदो मे पितिबिमबत िचत् के िनरनतर अनुसनधान से सवोपािधभूत वृित भेदो के िवलयाभयास के कारण
िबमभभूत िचत् सामानय को पापत हो गये एवं उनहोने िबमबभूत िचनमात के अनुसनधान अभयासवश हृदय मे सवोतकृष
आननद पवाह का अनुभव िकया।।15-18।।
उस उदालक ऋिष का पूवरवत् सतासामानय अनुपवेश कहते है।
जब तक िनरितशय आननद का आसवाद पापत नही होता तभी तक िचत अपनी वृितयो के िनरोध से उतपन
कलेश को सहन न करता हुआ बाहिवषयो मे पवृत होता है। आननद का आसवादन करने पर तो 'गुडपीिपलका' नयाय से
वही पर आसकत हुआ िचत अपने सवरप को भी भूलकर अपने मे अनुगत िचतसामानय को िनरितशय सवपकाश
सतासामानय को पापत करा देता है, इसी को िचतसामानयवसथाकम का लय और सतासामानय पापत कहते है। यही बात
कही गई है। उदालक ने आननद के आसवादन से िचतसामानय दशाकम के लयवाले, िवशमभर, अननत, पिरपूणर,
सतासामानय को पापत िकया।।19।। िवकेप-वैषमय से सवरथा रिहत सवभाववाले एवं अनुपम आननद से अतयनत
मनोहर मुखकािनतवाले वे उदालक ऋिष सवोतकृष आननदपदवी को पापत हो बैठ गये।।20।।
आननद के आिवभाव के दोतक रोमाच िचहो की भी कम से उपरित िदखलाते है।
हे शीरामचनदजी, शानत रोमाचोवाले तथा मनन, िनिदधयासन आिद दारा िचरकाल मे िजनका जगदिवषयक भम
कीण हो चुका था, ऐसे उदालक ऋिष जीते हुए ही िनवाण पद को पापत करके पारबध भोग के हेतूभूत शेष दोषो के कय
के कारण िवशुद हो गये।।21।। हे शीरामचनदजी, वे महातमा उदालक िचतिलिखत के समान अननयिचत एवं अचल
होकर समसत कलाओं से पिरपूणर शरदऋतु के सवचछ आकाश के चनदमा के समान िवशुद हो गये।।22।।
'न तसय पाणा उतकामनतयतैव समवनीयनते' इस शुित मे कहे गये पकार के अनुसार उनही मे उनके पाणो का
तपत जल की उषणता के समान कम से उपशमन हुआ, इस आशय से कहते है।
धीरे-धीरे कुछ िदनो मे वह उदालक ऋिष िजस पकार हेमनत ऋतु मे वृको का रस िनमरल सूयर िकरणो के तेज
मे शानत हो जाता है उसी पकार जनम-मरण से छुटकारा पाकर अपने पापत करने योगयसथान शुद आतमा मे शानत हो
गये अथात् उदालक ने अपने पाणो की सवातमा मे लीन कर िदया।।23।।
पाणो के उपशमन होने पर उनके पिरिशष सवरप को कहते है।
समसत संशयो का िवनाश हो जाने से िनःसनदेह अतएव िवकाररिहत एवं समसत तुचछ िवषयो मे आसकत हुई
अनतःकरणवृितयो से रिहत सवभाववाले अतएव अिभराम (मनोहर) वे उदालक ऋिष िहरणयगभरपदपयरनत सब िवषयसुख
अिगन से िचनगािरयो की तरह िजससे बाहर िनकले थे, ऐसे वाणी के अगोचर उस सुख को पापत हो गये, िजस सुख को
पापत करके इनदलकमी भी (इनद का ऐशयर भी) समुद मे तृण के समान समझी जाती है।।24।। वह उदालक बाहण
पित बहाणड के भेद से अननत आकाशो को वयापत करने वाली िदशाओं को भी वयापत करने वाला अथात् देशकृत
पिरचछेद से रिहत, सवरदा समसत वसतुओं मे पूणर, सकल वसतुओँ के आधारभूत भुवनो का धारण-पोषण करने वाला
(◄) बडे भागयो से उतम जनो से सेवा करने योगय, वाणी के अगोचर, अननत, आद अथात् काल से अपिरिचछन,
पारमािथरक सतावाले, सबको बहरप एक रस मे मसत करने वाले सवोतकृष भूमाखय परम सुखसवरप ही हो गये।।
25।।
◄ इससे उसकी सवािधषानता अिभवयकत हुई, अतः कोई वसतु उससे िभन नही है।
इसके अननतर उदालक के जीवातमा के िनमरलसवरप आद पद को पापत होने पर उस उदालक बाहण का
शरीर छः मास तक वही पडा हुआ सूयर की िकरणो से तपत होकर सूख गया और बह रहे वायु की टकर से उतपन हुए
भयंकर शबद से रमणीयता को पापत करता हुआ बाल वृकरपी भुजाओं की बजाने योगय िशरातिनतयो से पवरत के िवलास
के िलए वीणा हो गया।।26।। िजसके अननतर िचरकाल बाद उस पवरतभूिम पर, जहा उदालक का शव पडा हुआ
था, पवरत के नयाय के साथ पीले केशोवाली बाही आिद सब माताएं िकसी भकत की अिभमत फलिसिद के िलए इस
पकार आई िजस पकार पीली जवालाओं की पंिकतया अिगन के पास आती है।।27।।
उन माताओं मे से समसत पिणडतो की एवं देवताओं की भी पूजय राित के समय नूतन-नूतन आभूषणो के
वैिचतय से एक-से-एक सुनदर नये-नये लासयािद वृतानतवाली चामुणडा नाम की माता ने सूयर की िकरणो से सूखे हुए उस
बाहण के शव को अित शीघ ही उदत तलवार और खटवाग के (शसतिवशेष के) मधय मे िसथत अपने मुकुट का भूषण
बना िदया।।28।।
िजसका मूढदृिष लोगो से किलपत, मलमासािद से िनिमरत सथूल शरीर भी तीनो लोको से वनदनीय देवी के िसर
का भूषण बनकर सवोतकषर पा गया, उस िवषय मे िवशेष कया कहा जाये, यो जान के महततव का उतकषर िदखलाते हुए
कहते है।
इस पकार उदालक ऋिष का वह तुचछ शरीर महाभगवती चामुणडा के लीला िवलास के िलए बने हुए
िशराभूषणो की उस माला मे आननद के साथ सो गया िजस माला मे मोरो के (मयूरो के) मनोहर पुचछरपी चंचल
मेघखणड िवराजमान थे और जो मालानूतन-नूतन मनदार पुषपो से पिरवेिषत थी और िजसके अगभागो मे पुषपो का गुचछा
था अतएव वेणी के (चोटी के) छल से पीछे आ रहे लता-जाल पर मानो भौरा (भमर) आननद से लेटो हो, ऐसा वह शव
मालूम हुआ।।29।।
उकत उदालक के आखयान का उपसंहार करते हुए उस आखयान का पिरशीलन करने वाले मनुषयो के
संसाररपी ताप उपशमन और परम पुरषाथर का लाभ िदखलाते है।
समसत दृशय पदाथों के िववेक मे सफूितर को पापत हुए आननदरपी िवकिसत पुषपो वाली, पूवोकत पकार से
पदिशरत उदालक के िवदेहकैवलय पािपत पयरनत चिरत की आदर एवं िनरनतर अभयास से हुई िशकारपी कलपवलली
(कलपलता) िजस पुरष के हृदयरपी वन मे उतपन होकर उतरोतर भूिम मे आरढ होकर फैल गई, वह पुरष तीनो
तापरप (आिधभौितक, आिधदैिवक और आधयाितमक तीनो तापरपी) सूयर से वयापत वयवहाररपी कानन मे िवहार करता
हुआ भी सतय, शािनत, दािनत आिदगुणो से सुगिनधत, शीतल वव सहज संतोषसवरप छाया से कभी भी िवयुकत नही
होता। अिपतु सवोतकृष मोकफल के साथ 'न स पुनरावतरते' इस शुित के अनुसार पुनरावृितरहित सवातमभाव से
समबनध को पापत करता है। इसिलए ऐसी लता का हृदय मे आरोप करके िवसतार करना चािहए।।30।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

पचपनवा सगर समापत।


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआ आआआआआआआआआ
आआआआआआआआ आआआआआ आआआआआआआआआ आआआआ आआ आआ आआआआआआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीवािसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, पूवोकत िवचार, वैरागय और समािध के अभयास के कम से िवहार कर
रहे आप अपने आतमसवरप का िवचारकर भूमाखय परम पद मे िवशािनत को पापत होइये।।1।। शासत के शवण से,
पदाथर तततव के परीकण से, गुरवचनो पर िवशास से तथा अपने िचत के शोधनक से तब तक िवचार करना चािहए
जब तक सब दृशय के बाध के अभयास से परमपद पापत न हो जाय।।2।। वैरागय के अभयास, शासतथरिवचार, पजा,
गुर-उपदेश और यमिनयमो के कम से पुणय पद पापत होता है अथवा केवल पजा से ही पुणय पद पापत होता है।।3।।
समयक् पबोधयुकत तीकण और दोषरिहत मित अनयानय सब सामिगयो से िवहीन होती हुई भी जीव को परम पद पापत
करा देती है।।4।।
शीरामचनदजी ने कहाः हे भगवान्, हे भूत और भिवषयत के जाता, कोई पबुद पुरष वयवहार करता हुआ भी
समािधसथ के तुलय िवशानत रहता है, कोई एकानत मे आशय ले कर समािध मे िसथत रहता है। इन दोनो मे से कौन
शेष है, यह मुझसे कहने की कृपा कीिजये।।5,6।। शीवािसषजी ने कहाः वतस शीरामचनदजी, इस माियक िवश
को अनातमरप (िमथया) देख रहे पुरष की जो यह अनतःशीतलता यानी जान पितषा की फलभूत पूणरकामता है, वही
समािध कही जाती है, कयोिक पूणरकामता के पापत होने पर िवकेपो का पसंग ही नही रहता। मन के रहने पर दृशय
पदाथों के साथ समबनध होता है, जो िवकेप का हेतु है, िकनतु मेरा मन नही है, ऐसा िनशय कर पूणरकाम हुआ कोई पुरष
वयवहारिनरत होता है और कोई धयान मे िनरत होता है। यिद अनतःकरण शीतल हो, तो ये दोनो ही सुखी है। जो
अनतःकरण की शीतलता है, वह अननत तपसयाओं का फल है।।7-9।।
यिद समािध सथान मे िसथत पुरष का िचत अपनी वृित से चंचल हो, तो उस पुरष की वह समािध उनमत
पुरष के ताणडव के तुलय है। पुरष का िचत वासनािवहीन हो तो उसकी उनमत चेषा बहसमािध के तुलय है। जो
पबुद वयवहाररत है और जो पबुद वनवासी है, ये दोनो ही समान है, कयोिक दोनो ही सब सनदेहो का उचछेद करने वाले
परमपद मे पितिषत है।।10-12।।
वयवहार िनरत और अरणयवासी दोनो ही समान कैसे हो सकते है ? वयवहारी पुरष को कतृरतवपयुकत बनधन
कयो नही होगा ? ऐसी यिद कोई शंका करे, तो उस पर कहते है।
जैसे कानता आिद की कथा के शवण मे अनयत आसकत मनवाला पुरष कथा शवण करता हुआ भी राग आिद
िवकारो का उदय न होने से रागािदपयुकत दोषो से बद नही होता।।13।। जैसे सवप मे िनशल देहावयववाले सुषुपत
पुरष का मन भी गतरपात और उसमे िनवास का कता बनता है वैसे ही पचुरवासनावाला िचत कमर न करता हुआ भी
कता के तुलय होता है यानी कतृरतवपयुकत दोषो से बद होता है।।14।। िचत का जो अकतृरतव है वह उतम समािध
है, उसी को आप केवलीभाव जािनये और वही शेष परम सुख िवशािनत है।।15।। िचत चंचलता और अचंचलता से
समािध मे और असमािध मे परम कारण कहा गया है, इसिलए उसी को आप अंकुररिहत यानी वासनारिहत कीिजये।।
16।। वासनारिहत मन िसथर कहा गया है, वही धयान है, वही केवलीभाव है और वही सदाशानतता है।।17।।
सवलपवासनावाला यानी चतुथी आिद भूिमकाओं मे कीणवासनावाला मन अकता है। उससे सपतम भूिमका पितषारप पद
पापत होता है।।18।। पचुर वासनावाला यह मन कतृरतव-भाजन (कता) है। कता होने के कारण ही सब दुःख देता
है, इसिलए वासना को कीण बनाना चािहए।।19।। िजससे आतमा देह दृशय मे अहंताममताअिभिनवेश से रिहत होता
है, शोक, भय और एषणाओं से शूनय होता है और सवसथ (सवरपिसथत) होता है, वह 'समािध' कही जाती है।।
20।। सब पदाथों मे अहंताममताअधयास का मन तयागकर अपनी अिभरची के अनुसार आप चाहे पवरत पर
समािधसथ होकर बैिठये अथवा घऱ मे वयवहाररत होकर बैिठये।।21।। भलीभाित समािहत िचतवाले अहंकार आिद
दोषो से रिहत गृहसथो के िलए घर ही िनजरन (एकानत) वनभूिम है।।22।। िनतय अपरोक पतयगातमा मे िसथत,
समािहत मन और दृिषवाले आप लोगो के आकाश आिद महाभूतो के तुलय वन और घर समान है।।23।। हे
राजपुत, िजसका िचतरपी महामेघ शानत हो चुका यानी जो शरत् के आकाश के तुलय िनमरल है, उस पुरष के िलए
जनरपी जवालाओं से उजजवल नगर भी शूनय (िनजरन) वन ही है।।24।। हे शतुतापन, राग आिद वृितवाले िचत से
मत हुए पुरष के िलए िनजरन वन भी पचुर लोगो से संकीणर नगर है।।25।। यह राग आिद से िविकपत हुआ िचत
िविवध िवषयभम का अनदर लय होने से िफर सैकडो वयुतथानो की बीजभूत सुषुिपत को पापत होता है। राग आिद की
वासनाओं से रिहत िचत मोक को पापत होता है। आप जैसे चाहे वैसा करे।।26।।
यिद कोई कहे िक पहले वयवहार िनरत और तततवजानी इन दोनो की समािध तुलय कैसे कही ? तो इस पर
कहते है।
जो सवरभावपदातीत अथवा सवरभावातमक आतमा को सदा देखता है वह समािहत कहा जाता है। तततवजानी
समािध मे सवरभावपदातीत तततव को देखता है और वयवहार मे सवरभावातमक तततव को देखता है यो केवल एक िपणड मे
अहंकार न होने से उसमे राग आिद की पसिकत नही होती है, यह भाव है।।27।। िजस िवसतृत सवरप के अनदर
राग-देष कीण हो चुके हो और िजसके िलए सब भाव समान है वह समािहत कहा जाता है।।28।। हे जनेशर,
उसका मन जैसे सवप मे वैसे ही जागत मे भी इस दृशय को सतरप से सद् ही देखता है। जगत् को (सद् से
वयितिरकत रप को) नही देखता है।।29।।
पशानत िचतवाले के िलए नगर भी शूनय (िनजरन वन) है, ऐसा जो पहले कहा था, उसकी उपपित कहते है।
जैसे बाजार मे इकटे हएु बहुत से लोग अपने -अपने वयवहार करते हएु भी उदासीन (जो न शतु है और न िमत
है) के िलए कुछ भी उपकारक न होने से सब पकार से असत् ही है, कयोिक उनके साथ उसका कोई समबनध नही है
वैसे ही गाम भी जानी के िलए, गामवासी जनो के साथ समबनध न होने से, अरणय तुलय ही है यानी िवकेप हेतु नही
है।।30।। िजसका मन सदा अनतमुरख है यानी बिहमुरख नही है वह पुरष चाहे सोया हो, चाहे जागा हो, चाहे चलता
हो वह नगर, देश और गाम को अरणय के समान देखता है।।31।। िनतय अनतमुरख िसथितवाले पुरष के िलए पृथवी
आिद महाभूतो से वयापत यह सारा जगत बािधत होने के कारण सवरथा अनुपयोगी होने से शूनयता को पापत हो जाता
है।।32।। अनतःशीलता (जान पितषा की फलभूत पूणरकामता) पापत होने पर तो जवररिहत पुरषो के तुलय सारा
का सारा जगत जीवनपयरनत शीतल हो जाता है। भीतर तृषणा से सनतपत लोगो का जगत वनािगन सनतापमय होता है,
कयोिक भीतर सभी जीवो का िचत जैसे तपत या शीतल होता है वही बाहर जगत के रप मे िसथत होता है।।
33,34।। दुलोक, पृथवी, वायु, आकाश, पवरत, निदया और िदशाएँ अनतःकरण तततव के बाहरी भागो के तुलय
िसथत है।।35।। वट के फल के अनदर वट बीजो के समान जो सदा अपने अनदर रहता है, वही दैदीपयमान होकर
िवकास होने पर पुषप की गनध के समान बाहर पकट होता है।।36।।
आरोप दृिष से कहकर अपवाद दृिष से कहते है।
कोई वसतु न तो बाहर है और न कही भीतर है, तो जगदाकार का भान कैसे होता है, ऐसी शंका नही करना
चािहए, कयोिक िजस वसतु का पूवर वासना के बल से िवकास हुआ उसके वेष से परमाथर तततव ही उिदत हुआ है।।
37।। आतमतततवरप जो आनतर वसतु है वही बाहरप होकर जगदूप से पतीत होती है। जैसे िडबबे मे रखा हुआ
कपूर गनधरप से िवकिसत (अिधक पदेश मे िवसतृत) होता है वैसे ही वह तत्-तत् उपािधयो के अनुसारी संकोच होने
पर भी िवकिसत होता है।।38।। आतमा ही जगदूप से और अहनता से बाहतवेन और आनतरतवेन खूब सफुिरत होता
है। वसतुतः वह न तो चकु आिद से अदृशय अहंकाररप है और न उससे दृशय बाह सथूल रप है, िकनतु िवभु यानी
दोनो मे अनुसयूत सनमातरप है।।39।। अतएव यह आतमा अपने िचत को ही पूवर-पूवर अनुभव के अनुसार बिहमुरख
चकु आिद दारा बाह (जगदाकार) देखता है। अनदर िसथत जागत-वासना आिद से हृदय मे िसथत सवप हो देखता
है।।40।।
न कोई वसतु बाह है और न कोई आनतर है, ऐसा जो पहले कहा उसका युिकत से अनुभव कराते है।
बाह और आभयनतर दोनो पकार का जगत दोनो अनुसयूत सत् आतमा से पृथक होकर असत् ही है अतःशानत
ही है यानी मृत ही है, िकनतु पृथकरण के अभाव मे उसकी सता से ही बाह और आभयनतर भेद के रहने पर उसमे
अहंताममता का अधयास होने से उसका नाश होने पर बडेक भारी नाश का भय होता है।।41।।
बडे भारी नाश के भय का ही उपपादन करते है।
तत्-तत् मानसी वयथाओं से हतातमा पुरष के दुलोक, पृथवी, वायु, आकाश पवरत, निदया, िदशाएँ आिद सब
पदाथर तीनो तापो की जवालाओं से जविलत होकर पलयारमभकाल ही हो जाते है।।42।।
सनमात आतमा का साकातकार होने पर तो कमेिनदयो दारा वयवहार करने पर भी अिभमान न होने से हषर शोक
आिद जिनत तिनक भी िवकेप नही होता, इसिलए सदा समािधसथ पुरष की समानता ही रहती है अथात् वयवहाररत भी
जानी पुरष समािधसथ के तुलय ही होता है, इस आशय से कहते है।
जो पुरष अनदर एकमात आतमरित होकर कमेिनदयो से िकया करता हुआ हषर और शोक के वशीभूत नही होता,
वह समािधसथ कहा जाता है।।43।। सवरगत आतमा का साकातकार कर रहा अतएव शानतधी जो पुरष न शोक
करता है और न धयान करता है, वह समािधसथ हो जाता है। जगत् की गित को उतपित और िवनाश युकत देखता हुआ
जो पुरष मूढ जनो मे पिसद अहंता, ममता आिद दृिषयो पर उपहास करता है वह समािधसथ कहा जाता है।।
44,45।।
कयो उपहास करता है, ऐसा यिद कोई कहे तो अहनता-ममता आिद दृिषयो के िवषय अिभमान और
अिभमनतवयरप अहनता और जगत् आशय के िसद न होने से िमथया है, इसिलए उपहास करता है, ऐसा कहते है।
उनहे (अहनता और जगत् को) सवानुभाविसद पतयकसवभाव मेरे आिशत मानेगे अथवा शुित िसद बहभाव के
आिशत मानेगे। मुझमे तो उनका संभव नही है, कयोिक दषा दृशय का आशय नही हो सकता। परबह मे भी उनका
संभव नही है, कयोिक असंग अिदतीय, कूटसथसवरप समबह अहनता और जगत के जनम आिद िवभमता का आधार
नही हो सकता है। जैसे शरद ऋतु की धूप से िमिशत दूर से िदखाई दे रही लहिरयो मे दवीभूत रजत के समान
सफुिरत हो रही पुंजीभूतकािनत लहिरयो के अनदर नही है, कयोिक समीप मे जाने पर और लहिरयो मे डू बकर खोजने पर
वह िदखाई नही देती और न उनके अनदर और बाहर िसथत आकाश मे है, कयोिक आकाश मे पापय आिद चार पकारो
की िकयाओं के फल का दशरन नही होता अतएव लहरो की िकया से उतपन फल का वह आशय हो यह संभव नही है।
अतः उस कािनत के समान अहनता और जगत् िनराशय होने के कारण िमथया ही है।।46।।
अहनता और जगत् के भेद का िनराकरण कर उनके दषा के भेद का िनराकरण करते है।
िजस जानी का आभयनतरपतयागातमरप अहनतारिहत हो गया, िजस जानी के दृशय जगत् िवभाग आिद नही है,
मन नही है और मन के अधीन कलपनावाले चेतनतव और अचेतनतव नही है, वह एक सवातमा है उससे अितिरकत जन
(चेतन) नही है, कयोिक भगवती शुित भी कहती हैः 'नाऽनयोऽतोऽिसत दषा' यानी उससे अितिरकत दषा नही है।।
47।।
उसके लकणो को कहते है।
जो आकाश के समान सवचछ है, बाहचेषाओं का भली-भाित (शासत और िशषाचार के अिवरोध से) आचरण
करता है और हषर, कोध आिद िवकारो मे काठ और ढेले के समान शानत सवभाव वाला है, सब जीवो को अपने समान
और परदवय को ढेले के समान सवभाव से ही न िक भय़ से देखता है वही समयक् दशरनवान् है।।48,49।।
तततवजानी ही समदशी होता है, इसमे युिकत कहते है।
मूढ पुरष महान् (िहरणयगभर के ऐशयरपयरनत) अथवा अलप (कौडी भर) सवणर, कािमनी आिद िवषय को िमथया
नही देखता और उसके अिधषान सदूप का उसने अनुभव नही िकया, इसिलए सनमातसवभाव से भी उसे नही देखता,
िकनतु तततवजानी ही उसे पूवोकत रीित से देखता है, इसिलए दोनो पकार से उसमे समदिशरता की उपपित होतीहै, यह
भाव है।।50।।
िजसके आशय मे समदिशरता बदमूल हो गई वह सब जगत् और सब अवसथाओं मे हषर, िवषाद आिद से िलपत
नही होता है, ऐसा कहते है।
इस पकार आशयवाला बहपद को पापत हुआ पुरष चाहे िनिषकंचन रहे चाहे ऐशयर आिद अभयुदय को पापत हो,
चाहे पुत, बनधु-बानधव आिद की मृतयु को पापत हो, चाहे पूवोकत अभयुदय िसथित को पापत न हो। चाहे उतमोतम भोगय
पदाथों से पिरपूणर और बनधु-बानधवो से भरपूर घर मे रहे, चाहे सब पकार के भोगो से शूनय िवशाल अरणय मे रहे। चाहे
मिदरापन मे िनरत होकर पबल कामवेदना के साथ नाचे, चाहे सब आसिकत का तयाग कर िनिवरकार हो पवरत पर
तपसया के िलए जाय, चाहे चनदन, अगर और कपूर से शरीर का लेप करे, चाहे धधकती हुई जवालाओं से पचुर
िवसतारवाली अिगन मे िगरे, चाहे महापाप करे, चाहे पचुर पुणय करे, चाहे आज ही मृतयु को पापत हो, चाहे अनेक पलयो
के बाद मरे, यह (समदशी) महातमा कुछ (अहनता का आशय मरण, दुःख आिद िवकारो से युकत देह, मन आिद) नही
होता है, अतएव उस महातमा ने वह कुछ भी नही िकया। जैसे कीचड मे िगरा हुआ सुवणर कलंिकत नही होता वैसे ही
वह कलंक को पापत नही होता है।।51-56।।
अज जनो मे िकसको कलंक होता है यानी कौन कलंकी है, ऐसा पश होने पर उसका िनदेश करते है।
शासतो दारा िजनकी अभयनुजा (सवीकृित) पापत नही है, ऐसे िवषयो के सेवन से दूिषत वासनारप ऐिनदक
संिवत्, उनके आयतन देह और उनके भोगय शबदाथररप िवषयो से, जो शुिकत रजत के समान है, अहंकार पधान
िलंगातमा कलंिकत होता है।।57।।
िकस उपाय से कलंक की शािनत होती है, ऐसा पश होने पर उसे कहते है।
वसतु िसथित का भली-भाित जान होने से सब वसतुओं के पशमन होने के कारण िचत का कलंक बाधवश
असता से सवतः शानत हो जाता है।।58।।
तब संसार दुःख पािपत का कया कारण है ? ऐसी शंका होने पर संसार दुःख पािपत का उपाय कहते है।
अहंकार के अधयास से वासनारपी अनथों के उदबुद होने से पुरष के जनम मे िविचत सुख-दुःख होते है।।
59।।
अतएव अहनता की शािनत होने से संसारदुःख की िनवृित हो जाती है, ऐसा कहते है।
जैसे रजजू मे सपरभािनत के शानत होने पर 'यह साप नही है,' – यो िनभरय पयुकत आहाद होता है वैसे ही
अहनता की शािनत होने पर िचत मे सवरदुःख वैषमयशूनयतारप समता पापत होती है।।60।।
पाप के फल की तरह पुणय का फल भी जानी को नही होता, यो उसके सब कमों की कित हो जाती है, ऐसा
कहते है।
जानी जो कुछ काम करता है, जो भोजन करता है, जो देता है अथवा जो यज मे हवन आिद करता है वह
जानी का नही है न उनमे जानी िनरत ही रहता है। वह चाहे करे, चाहे न करे उनके फल से वह िलपत नही होता है।।
61।। जानी का न तो कमर से कोई पयोजन है और न कमरतयाग से ही उसका कोई पयोजन है। अपने यथाथर सवरप
के जान से वह आतमा मे ही िसथत है।।62।।
फल की इचछा से उसके उपायभूत कमर मे पुरष की पवृित होती है, िकनतु जानी पूणरकाम है, अतएव उसको
उकत फलेचछा ही उिदत नही होती, ऐसा कहते है।
जैसे पतथर से मंजिरया उतपन नही होती वैसे ही जानी पुरष से इचछाएँ उतपन नही होती। कदािचत इचछाएँ
उतपन होती भी है वे जल मे तरंगो के समान तदूप (उससे अिभन) ही है यानी कभी वासनाभयास वश उिदत हुई इचछाएँ
भी परमाथरदृिष से उसकी सवातमभूत ही है।।63।।
जानी की सवातमा को और सबकी तदातमा को (जािनरपता को) दृढ करते हुए दोनो की िनषपपंच िचनमातता
ही परमाथरतः फिलत हईु , यह दशाते है।
जानी सब जगदूप है और अखणड जगत् जानीरप है, कयोिक इस जगत मे िवभािगता (ितिवध
पिरचछेदशािलता) कुछ भी नही है। भेदकायर कारणोपािधयो के तत् तत् सािकिचनमात होने पर वह (तततवजानी)
सवरजगत् का अिधषान सनमात ही है, कारण िक वह परम, पूणर होने से पुरष और सब दोषो से असपृष होने से पावन
जो परमातमा है एकमात तदूप ही है। इस रीित से सब दैतबनधनो से िनमुरकत सतसवरपमात पिरिशष वह िनतयमुकत हो
गया।।64।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

छपपनवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआआ आआआआ आआ आआआआ आआआ
आआआआआ आआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआ आआ आआआआआ आआ आआ आआआआ आआआआ आआआआ आआ,
आआ आआआआआआ

इस पकार सारे जगत का िचत् से अभेद परमाथररप से िसद होने पर वयवहार अवसथा मे भी जगत् वैिचतय
तत्-तत् रप िचतसवरप ही है, ऐसा फिलताथर हुआ, यह कहते है।
शीविसषजी ने कहाः वतस, आतमरपी मीचर के (आतमा ही हुआ सवपकाशरप तीकणता से युकत िमचा, उसके)
अनदर चेतन होने के कारण तीकणतापिथितरप जो अनुभव है, वही सवरपजान का अभाव होने के कारण मे, तुम
आिदरप घट, दीवार भेद आिदरप और उसके आधार देश-काल रप जगत है। यह िचत् का अभेद होने से फिलताथर
हुआ।।1।। आतमरपी लवण के (नमक के) अनदर िचत् होने के कारण लवणता पिथितरप (पिसद) जो वेदन है,
वह अहं, तवम् आिद, घट, दीवार भेद आिदरप और उसके आधार देश, काल आिद से युकत जगद् -रप से िसथत है।।
2।। आतमारपी ईख के अनदर िचत् होने से जो सवतः माधुयरवेदन है, वह तत् तत् आकारो मे अिभवयिकत अहनता,
तवनता आिदरप और घट, दीवार भेद आिदरप जगत है।।3।। आतमरप पाषाण का िचत होने से जो सवतः कािठनय
पिथितरप वेदन है वह अहनता, तवनता आिदरप, घट, दीवार भेद आिदरप और देश, कालािद रपता को पापत हुआ
है।।4।। आतमरप पवरत का चेतन होने से जो सवतः गुरता पिथितरप वेदन है वह अहनता, तवनता आिदरप, घट,
दीवार भेदािदरप भुवनरप से िसथत है।।5।। आतमरपी जल का िचत् होने से जो सवतः दवतव आिद मे वतरन है वह
आवतर आिद, अहनता तवनता, आिद घट, दीवार भेद आिद तत्-तत् आतमसता के समान िसथत है।।6।। आतमरप
वृक िचत् होने से जो शाखािदरप से पिथितरप वेदन है वह अहनता, तवनता आिदरप, घट, दीवार भेद आिदरप भुवन
आिद के समान वतरमान और भासमान है।।7।। आतमरपी आकाश का िचत् होने से जो शूनयता पिथितरप वेदन है
वह अहनता, तवनता आिदरप, घट, दीवार भेद आिदरप भुवन आिद है, ऐसी कलपना है।।8।। आतमरपी आकाश का
िचत् होने से जो मूतर पदाथों के अनदर िछदता पिथतरप वेदन है वह अहनता, तवनता भेद और शरीर आिद रप से पदीपत
है।।9।। आतमरप दीवार का जो सवतः िनरनतर िनिबडतापिथितरप का अनुभव है वह अहनता आिद भेद से दृशय
होने से िचत् से वयितिरकत-सा (िभन-सा) बाहर िसथत है।।10।। आतमसता का िचत् होने से जो सवतः
एकमातसता के रप से वेदन है वह अहनतािद, भेदआिद िचदाभास के तुलय िसथत है।।11।। आतमपकाश का जो
सवतः अवभासन है वही अहनता तवनता आिद की और वृित भेद से िभन िचदाभासो मे अनुगत सामानय की कलपना
करता है वह जीव है।।12।। आतमरपचनदमा के अनदर जो िचदूप िचदमृत है उसके दारा सव-पकाश रप से सवतः
आसवािदत वह अहनता आिदरप अहनतारप से सवतः आसवादन करता है।।14।। परमातमरप मिण का िचत् होने के
कारण जो अनदर सवयं सफुरण होता है उसी की चेतनारप सवरप मे वह 'अहम्' इतयािदरप से कलपना करता है।।
15।।
माियक जगदाकार का जो अभाव है, वह केवल सवपकाश सवातमानुभव सवरप ही है, इसका भली-भाित
पिरजान कराने के िलए ही पशयित, वेित, आसवादयित, आसवादते (देखता है, जानता है, सवाद लेता है, आसवािदत
होता है) इतयािद कमरकतुरभाव से वयवहार होता है, न िक तथोवत जगदाकार अनुभव सवपकाश सवातमानुभव से िभन है,
यो उनके भेद का साधन करने के आशय से वैसा वयवहार होता है, यो कहते है।
यह आतमा यहा पर परमाथरतः जानने योगय वसतु का अभाव होने के कारण जानने योगयवसतु का अपने अनदर
न अनुभव करता है और सवाद लेने योगय वसतु का अभाव होने के कारण न तो आसवाद वसतु का सवाद लेता है।।
16।। यह आतमा िवकार होने योगय वसतु का अभाव होने पर अपने भीतर िविभन जीवािद चैतनय रप से कुछ भी
िवकार नही करता है और पापत वसतु के न रहने से उसकी पािपत नही करता है।।17।। असत् जगदाकार का
अिधषानभूत ही अननत आतमा, िजसका िक सवरप पिरपूणर है, सवरदा एकरप होकर अपने सवरप मे ही महान पवरत के
समान अविसथत है।।18।।
तब 'यदातममिरचसय' इतयािद कथन का कया अिभपाय है ? इस पश पर उसका अिभपाय कहते है।
शीरामचनदजी, इस वचोभंगी से यानी 'यदातममिचरसय' इतयािद वाकयो से मैने आपको इसको िदगदशरन कराया
िक अहंतािद (जीवभाव आिद) एवं जगतािदका (जगद् भाव आिद का) तिनक भी भेद नही है।।19।। न िचत है, न
पमाता है और न जगदाकार आिद िवभम है, पहले वषाकाल मे बरस चुकने के कारण बाद मे शरत्-काल मे शबदशूनय
हुए मेघ के समान शुद अथात् अिधषान-सदातमरप से पिरिशष बािधत जगत शानत हुआ ही शािनत को पापत होता
है।।20।। जैसे दवसवभाव होने के कारण जल ही जल मे आवतर आिद भाव को पापत होता है, वैसे ही मायावी सवरज
ही अपनी माया से संयुकत जिपतरप आतमा मे अहंतािदरप को यानी जीव और जगत् के रप को पापत होता है।।
21।। जैसे जल मे दवतव रहता है, जैसे सदा गमन करने वाले वायु मे सपनद रहता है, वैसे ही परमाथररप से केवल
जिपतसवरप वाले सवरज परमातमा मे अहंता, देश काल आिद रहते है।।22।।
यिद जीव का सवरप और जगत् का सवरप दोनो जिपत से िभन नही है तब जिपत के जीव और ईशरभाव मे
परसपर कया भेद रहा ? इस पश पर कहते है।
ईशर अपने शरीर भाव मे िनरितशय आननदरप सवरपजान को जान की अिभवृिद से यानी समग आवरण और
पिरिचछनता से शूनय जान की अिभवृिद से सदा सवरदा ही जानता है और अहंकार एवं सथूल-देहसवरप जीवभाव मे तो
चेतनरप होता हुआ भी जीवन के हेतुभूत पाण, इिनदय और िवषयो के साथ अनेकिवध अधयासो के कारण 'मै जीव
आिदसवरप वही आतमा हँ'ू यो जानता है, तािततवक जान उसे नही रहता, यही उनमे भेद है।।23।।
इसिलए जीव की जयो-जयो भािनत होती जाती है, तयो-तयो ईशर का िववतर (उपादान की सता से िवष
सतावाला पिरणाम) होता जाता है। यह कहते है।
िजस-िजस कारण और कमों की वासना से िजस पकार के िवषय पिरजान से अजानी जीवातमा को िजस
दशरन, लाभ और उपभोग के वैिचतय से िजस-िजस तरह के िपय, मोद, पमोद आिद िविभन-िविभन पकार के उपभोगो
का आिवभाव होता है अथवा वह अननय सवरप मे जैसी भोकता, भोगय और भोग की िविचततारपी अनयता का अनुभव
कर लेता है, उस-उस जीव की काम आिद की वासना से वह परमेशर वैसे-वैसे अपने अंगो को िववितरत करता है यानी
वैिचतय धारण करता है।।24।। जब इसने (जीव ने ) सत्-शासतो से और सद् -गुरओं के उपदेशो से यह जान िलया
िक इस भोगय जगत् का जीवन(सार) या परमाथर िसथित अिधषानसनमातरप सफूितर ही है और भोकता का जीवन
(सार) िजसके अधीन समसत जीवो के जीवन है ऐसा आननदसवरप जीवन ही है, तब भोगय और भोकता दोनो के
अिधषानो की िचदूपता ही अविशष रह गई, ऐसी िसथित मे जीव और ईशर का कभी भी भेद नही है।।25।।
जीव और ईशर का भेद करने वाले अजान के िवनष हो जाने पर पाज और तुरीय का भेद भी िनवृत हो जाता
है, अतः अखणडपूणाननदैकरस िचनमात का सामाजय िसद हुआ, यह कहते है।
जैसे वासतव मे जीव और ईशर का भेद नही है, वैसे ही इस पाज और तुरीय दोनो का भेद भी नही है।
शीरामी, असिलयत मे आप उन सबको शानत अखणड पूणाननदैकरस बहरप ही जािनये।।26।।
िनचोड अथर का अनुवादपूवरक उपसंहार करते है।
समसत जगत् पूणरसवपकाशसवरप, आननदैकरस, िवषय एवं अपने भेदक धमों से शूनय, एक, आिद मधय से
शूनय, पशानत बहसवरप ही है। ऐसी िसथित मे 'सवर पशानतम्'(सब पशानत बहरप है।) इतयािद तातकािलक शबदमयी
दृिषपदो से बािधत होने वाले अथों के अभेदसंसगर का उललेख करने वाली आहायर (बनावटी) भेददृिष साकात् पयोजन
न होने के कारण िमथया ही है, कयोिक िवरोध का भान होने पर भागतयाग-लकणा का आशय लेकर लकयाथर अखणड का
बोध कराना ही उसका पयोजन है। उकत वाकय से बोधय अखणडरप अथर तो ॐकार से लिकत जो िवशुद चैतनय है,
वही है, अतएव यह सब ॐकार सवरप है, यही कहना चािहए। ॐकार से िवशुद चैतनय यो लिकत होता है – ॐकार,
जगत् और बह का एकीकरण कर तदननतर िवराट्, िहरणयगभर, अवयाकृत और तुरीयसवरप अकार, उकार, मकार
और अधरमाता यो ॐकार के चार तरह पादो का िवभाग कर पूवर पूवर पादो का उतरोतर पादो मे उपसंहार कर लेने के
अननतर चतुथर आधी माता से असंसृष अदय पूणाननदएकरस िनतय, अपरोक पतयक्-िचनमातसवरप बह बोिधत होता
है।।27।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

सतावनवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआ आआआ आआआआ आआआआआ आआआआआआआ आआ
आआआआआ
शीविसष जी ने कहाः शीरामजी, पहले के मुिन इसी िवषय मे यानी शबदरपा भेददृिष केवल बोध के िलए है,
इस कहे गये अथर मे ही पाचीन इितहास का, िजसमे भीलो के राजा सुरघु का अतयनत िवसमय कराने वाला वृतानत है,
उदाहरण देते है।।1।।
सुरघु के िनवास देश को बतलाने के िलए उसके पास के िहमालय के िशखर का वणरन करते है।
यहा िहमालय की चोटी कैलास नाम का पवरत है, वह कया है ? उतरिदशा का सार है, भूिम से िनकले कपूर
का समूह है, िशवजी का कलयाणमय हासय है, िवशुद चनदमा का तेजःपुंज है अथवा उतर िदशा का सार, िशवजी का
हासय और चनदमा का पकाश ये सब पृथवी मे आकर मानो एक कपूर का ढेर बन गये है। पवरतो मे शेष िहमालय के
दारा धारण की गई िशखरो की परमपरारप मोितयो की माला का सुमेर मिण है अथवा यो किहये के वह शैलो मे िवहार
करने वाले हािथयो िनकले हुए मुकता समुदाय का नायक संगहक रािश है। भगवान् िवषणु के कीर सागर की तरह
सुरपित इनद के सवगर की तरह और बहा के आशय िवषणु नािभकमल की तरह वह शिशमौली पावरती पित का तो घर
अथात् ससुर दारा िनिमरत सथान है।।2-4।। िदवयागनाएँ िजस पर आरढ है, ऐसे अितचंचल रतो की शलाकाओं से
युकत रदाक वृको से लटक रहे झूलो से वह ऐसे शोभता है, जैसे समुद चंचल रत रपी शलाकाओं से युकत लहिरयो से
शोभता हो।।5।। जहा पमत पमथगणो की अंगनाओं के चरणो से िवतािडत िवलासी शोकरिहत पुरष ऐसे भले लगते
है, जैसे अशोक वृक।।6।। उस िशखर पर िजन-िजन िदशाओं मे भगवान शंकर का िवचरण होता है उन-उन
िदशाओं मे (मसतक मे धािरत चनदमा की जयोतसना के समपकर से) चनदकानत मिण के दवो से पपात सथानो मे झरने बह
रहे है और िजन िदशाओं मे उनका िवचरण नही होता, उन िदशाओं मे बहते हुए झरने भी रक जाते है।।7।। अनेक
बहाणडो के आधार बह की नाई जो लताओं, वृको, गुलमो, बाविडयो, तालाबो, निदयो, नदो, पशुओं, हिरणो और भूतो
का आधार है अथवा उन लता आिदयो से वह समसत बहाणड की तरह आचछािदत है।।8।। उस िहमालय के
िशखरभूत कैलास के मूल देश मे हेमजट (सुवणर के सदृश पीत जटावाले) नाम के िकरात उस भाित िनवास करते थे,
िजस भाित वटवृक के मूल देश मे चीिटया िनवास करती है।।9।। कैलास पवरत के नीचे पवरतो के अरणयो मे उतपन
होने वाले रदाक और अनयानय वृको के फल, पुषप, कनदमूल आिद से वे कुद िकरात अपना जीवन वयतीत करने के
कारण उललू के समान िनकट जीवी होकर रहते थे।।10।। उन िकरातो का एक राजा था, वह उदारचेता और
शतुओं के दुगों का जीतने वाला था, िवजयलकमी तो मानो उसके हाथ थी। पजा के पालन मे दक था, उसका नाम था
– सुरघु, वह अतयनत बली था, बडे-बडे शतुओं के दपर को देवो के समान िमनट भर मे िवचूिणरत कर देता था, पराकम
मे वह सूयर के सदृश था, गित मे शरीरधारी वायु के तुलय था। अपने अनेकिवध राजय वैभवो तथा िविवध धन
संपितयो से उसने गुहको के नायक कुबेर को मात कर िदया था। उचच आतमजान के कारण सूराधीश इनद के गुर
बृहसपित के और रस, अलंकार आिद से पिरपूणर कावयो की िविवध रचनाओं के कारण असुर देश के शुकाचायर के ऊपर
उसने िवजय पर रखी थी।।11-13।। जैसे सहसाशु िदवाकर (सूयर) िकसी पकार की अंगो मे थकावट का अनुभव
िकये िबना कमशः एक के पीछे अनेक िदवसो का िनमाण करते है, ठीक उसी तरह वह सुरघु नाम का राजा अंगो मे
िकसी पकार की थकावट का अनुभव िकये िबना िजस समय जो राजकायर पापत होते गये, उनको िनगह और अनुगह
की वयवसथा से करता था।।14।। अननतर िनगहानुगह-वयवसथा से िकये जाने वाले उन राजकायों से उतपन सुख
और दुःखो के कारण उसकी पारमािथरक गित ऐसे लुपत हो गई जैसे िक फंदे मे फँसे पकी की गित लुपत हो जाती है।।
15।।
दुःख से जिनत िचनता और शोक को िदखलाते है।
कोलय ू नत मे जैसे ितल पीसे जाते है, वैसे इन दुःखी पजाजनो को बलपूवरक मै कयो पीसता हँू यानी दुःख दे
रहा हूँ ? सभी पािणयो को वैसे ही दुःख होता है, जैसे िक मुझे होता है।।16।।
कतरवय के संशय मे पथम कोिट को िदखलाते है।
इसिलए इन दुःखीजनो को मै धन दूँ, इनके ऊपर िनगह करना वयथर है जैसे धन िमलने पर मै आनिनदत होता
हँू, वैसे ही समपूणर मनुषय धन से ही आनिनदत होते है।।17।।
अब दूसरी कोिट बतलाते है।
अथवा धमरशासत ने िजस पुरष के िलए जैसा िनगह यानी वध, बनधन आिद दणड योगय ठहराया हो, उसे वैसे
ही दणड दूँ, कयोिक िबना दणड िदये यह पजा अपनी-अपनी मयादा मे ऐसे पवृत नही होती, जैसे िक जलके िबना नदी
पवृत नही होती।।18।। वध और बनधन आिद से यह मेरा दणडिनय है, यह पुरसकार आिद से सदा अनुकमपनीय है,
भागयवश आज सुखी हूँ तो दुभागयवश आज दुःखी हूँ, यह सब पिरशेष मे कष ही है, हा कष !।।19।। जैसे सोये
हुए पयासे पुरष का बहत ु काल की तृषणा से युकत मन जल के बडे-बडे आवतों मे घूमकर कही एक जगह िवशाम नही
पाता, वैसे ही भूिम पित सुरघु का उपयुरकत िवकलपो से चंचल हुआ मन कही एक जगह िवशाम को पापत नही हुआ।।
20।। िकसी एक समय जैसे देविषर नारद इनद के घर आते है वैसे ही िजनहोने समसत िदशारपी मणडले मे भमण
िकया है, ऐसे महिषर माणडवय उस राजा के घर पर आये।।21।। इस राजा ने समपूणर शासतो के िवजाता, सनदेहरपी
दुष वृक-सतमभ के छेदन मे कुठारसवरप उन महामुिन माणडवय का पूजन िकया और पूछा।।22।। सुरघु ने कहाः हे
महामुने , जैसे भूिम पर वसनत ऋतु के अथवा िवषणु के आने पर लोक परम सुखी होते है, वैसे ही आपके शुभागमन से
मै अतयनत सुखी हुआ।।23।। भगवान, आप परम पद मे िचरकाल से िवशािनत पा चुके है, अतः जैसे सूयर अनधकार
को काट डालता है, वैसे ही मेरे इस संशय को काट दीिजये।।25।। महाराज बडो के संसगर से भला िकसको दुःख
से छुटकारा नही होता ? दुःख के सवरप को भली भाित जाननेवाले िवज जन सनदेह को ही महान दुःख कहते है।।
26।। जैसे िसंह के नख हाथी को उतपीिडत करते है, वैसे ही मेरे शतु, िमत आिद के शरीरो के िवषय मे मेरे दारा
िकये गये िनगह और अनुगह से जिनत िचनताएँ मुझे अतयनत उतपीिडत कर रही है।।27।। हे भगवान, इसिलये सूयर
की िकरणो के समान मेरी बुिद मे सवरदा सम दृिष का उदय जैसे हो और िवषमदृिष का उदय जैसे न हो, वैसा
कृपापूवरक कीिजये।।28।। माणडवय ने कहाः राजन, जैसे (धूप से) कुहरा नष हो जाता है, वैसे ही वैरागय, तयाग
आिद सवयत से तथा आतमसाकातकार होने तक िनरनतर अनुिषत शवण, मनन आिद आतमा के अिभवयंजक उपायो से
यह मन की मृदुता यानी हषर, िवषाद आिद कणटको से होने वाली छेदन योगयता िवनष हो जाती है।।29।। हे राजन,
जैसे शरत्-काल के आगमन मात से बडे-बडे मेघमणडल िवलीन हो जाते है, वैसे ही केवल अपनेपन का िवचार करने से
ही मन का भीतरी संताप शीघाितशीघ िवलीन हो जाता है।।30।। हे राजन्, अपने ही मन से भीतर िवचार कीिजये
िक जो अपने समबनधी शतु, िमत आिद, अपने शरीर मे रहने वाली इिनदया तथा बुिद आिद वसतुएँ है, वे तततवतः कौन
है एवं युिकत से उनका पकार कया है ?।।31।। मै कौन हँू ? कैसा हँू ? यह िदखाई देने वाला जगत कया है ? कैसे
जनम और मरण होते है ? इसका भी अनदर से िवचार कीिजये, यो िवचारने से आप महता को पापत हो जायेगे।।
32।। जब तथोकत िवचार से अपने सतसवरपभू सवभाव को आप जान जायेगे, तब आपके िनशल मानस को हषर,
अमषर आिद अवसथाएँ उतोलन नही कर पायेगी अथात उनमन और आनमन के हेतु पदाथों से तराजू की िसथित जैसे
अिनयत (असंतुिलत) हो जाती है, वैसे आपके अनतःकरण की िसथित अिनयत नही होगी।।33।। जैसे तरंग अपने
उतंग सवरप को छोड पूवरिसद जलसवभाव होकर शानत हो जाता है, वैसे ही िचनताजवर से मुकत हुआ आपका मन
अपने संकलप िवकलपातमक सवरप को छोड पूवरिसद बहसवभाव हो कर शािनत को, िनिवरकेपता को पापत हो जायेगा।।
34।।
तब कया मन की सता ही िवनष हो जायेगी ? नही, ऐसा नही कहते है।
जैसे पहले मनु के बाद किलकाल को पापत कर अनेकिवध पापो से आकानत हुआ भूमणडल िफर दूसरे मनु की
गित मे िवदमान रहता हुआ ही पापो से छुटकारा पाता है, वैसे ही जीवनमुकत के वयवहार मे समथर होने से मन भी
िवदमान रहता हुआ ही पहले के अपने रप को छोड देता है।।35।।
केवल दुःख िनवृित ही तततवजान का फल नही है, िकनतु िजस सामाजय मे बहा आिद देवताओं के ऊपर भी
अनुकंपा की जाती है, वैसा िनरितशयाननद सामाजय भी फल है, ऐसा कहते है।
जैसे लोक मे पजाजन पालन करने वाले सनतुष िपता की कृपा के पात होते है, वैसे ही वे िवभव समपन बहा
आिद बडे देवता भी िविदत तततव अतएव सनतुष आपकी कृपा के पात होगे।।36।।
जब आकाश आिद की भी महता उसकी सता के अधीन है, तब उसकी सवाितशाियनी (सभी से बढी चढी)
महता मे तो कहना ही कया ? इस आशय से कहते है।
हे राजन्, िववेक जिनत जानरप दीप से आतमतततव को जान लेने पर आप मेर, समुद और आकाश को भी
उतम अथर देनेवाली महता पायेगे।।37।। हे साधो, जैसे गाय के खुरमात जल मे हाथी नही डू बता, वैसे ही महततव
पापत कर लेने पर आपका अनतःकरण संसािरक वृितयो मे नही डू बेगा।।38।। राजन्, जैसे िशिथल शरीरवाला
मचछर गाय के खुरमात जल मे डू ब जाता है, वैसे ही काम, कापरणयआिद दोषो से दूिषत मन तुचछ कायर मे भी मोह को
पापत हो जाता है।।39।। केवल दृशय का अवलमबन करने वाली अनतःकरण की वासनारपी उकत अपनी दीनता से
कीडे की भाित आप कीचड मे फँस रहे है।।40।।
तब िकन िकन िवषयो मे या िकतने समय तक वैरागय करना चािहए ? ऐसी शंका होने पर कहते है।
हे महाबाहो, जब तक सवयंजयोित परमातमा का ही अवशेषरप से अनुभव नही िकया जाता जब, तक समसत
पपंच का सवयं पिरतयाग करन चािहए।।41।।
अनेक तरह की शुितयो और शासतो का पयालोचन करना चािहए। अनेक तरह की शुितये और शासतो का
पयालोचन भी तब तक करना चािहए, जब तक िक आतमा का अपरोक साकातकार न हो, ऐसा कहते है।
जैसे िजस धातु मे सुवणर का अिसततव है, उस धातु का तब तक शोधन िकया जाता है, जब तक केवल सुवणर
अविशष नही रह जाता, वैसे ही तब तक समसत अधयातम आिद शासत देखे (िबचारे) जाते है, जब तक िक केवल
आतमा पापत नही हो जाता है।।42।। सवातमक बुिद से सवरदा सभी पकारो से सब देशो मे सभी दृशयो का पिरतयाग
कर पूणातमा अपने आप से ही पापत होता है। एकाध बार, िकसी एक जगह, िकसी पकार कुछ िवषयो का पिरतयाग
करने मात से वह पापत नही होता, यह तातपयर है।।43।।
कहे गये ही अथर को वयितरेक से भी दृढ करते है।
जब तक समपूणर दृशयो का पिरतयाग नही होता, तब तक आतमा का लाभ नही होता यानी साकातकार नही होता,
कयोिक सभी अवसथाओं का पिरतयाग करने पर जो शेष रहता है, वही आतमा कहा जाता है।।44।। साधो, वयवहार
मे भी जब तक िवरोधी वसतु को नही छोडते तब तक सामानय गाय, धन आिद वसतु भी जब पापत नही की जा सकती,
तब असाधारण आतमा के लाभ की तो कथा ही कया ?।।45।। राजन्, अनयानय सब कायों को छोडकर िजस िवषय
की पािपत के िलए आतमा सवयं सब पकार से यत करता है, उसी को पापत करता है, दूसरे को नही।।46।। इससे
आतमा का साकातकार करने के िलए सभी िवषयो का पिरतयाग करना चािहए सब पिरतयाग करने पर जो कुछ (िजसे
छोड नही सकते, ऐसा तततव) िदखाई देगा, वही परम पद है।।47।। मिणयो मे सूत की नाई समपूणर कायर और
कारणो की परमपरारप जगत् मे अनुगत सदूप वसतु मे केवल अपनी कलपना से अिभवयकत िमथयाभूत सद से िभन
वसतुओं का िनःशेष पिरतयाग कर, अननतर अपने (मन के) सवरप का भी मूलअजान का नाश होने से बाध-दारा
पिवलापन कर मन िजस सिचचदाननदैकमात वसतु को पापत होता है, वही बह का सवरप है।।48।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

अटावनवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआआ, आआ आआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामजी, पूवोकत पकार से इस सुरघु राजा को उपदेश देकर भगवान माणडवय अपने
सुनदर मुिनयो के रहने योगय देश की ओर चले गये।।1।। तततवदषा उकत मुिन के चले जाने पर उस राजा ने
एकानत और अिनिनदत सथान मे जाकर बुिद से िवचार िकया िक सवयं मै कौन हूँ ?।।2।।
राजा पहले बाह दृशयो मे आतमता और आतमीयता का िवचार से िनरास करते है।
मै न मेर पवरत हूँ और न मेरा मेर पवरत है, मै न जगत् (ऊपर और नीचे के लोक) हूँ और न मेरा जगत है, मै
न पवरत हूँ और न मेरे पवरत है, मै न पृथवी हूँ और न मेरी पृथवी है। मेरा न तो यह िकरातमणडल है और न मै ही
िकरातमणडल हूँ, केवल अपने संकेत से यानी सब लोगो की संमित से पटािभषेक आिद के दारा मै राजा बनाया गया हूँ,
यो अपनी कलपना से ही मेरा केवल देश ही है। मैने यह कलपना छोड दी, मै न देश हूँ और न मेरा यह देश है, अब
नगर बचा, पर इस नगर के िवषय मे भी कलपना तयाग से यही िनशय िनकलता है – धवजाओं और बागो की पंिकतयो से
युकत सेवक और उदानो से भरी, हािथयो, अशो और सामनतो से युकत नगरी न तो मै हूँ और न तो नगरी मेरी है।
िमथयाभूत कलपना से समबनध रखने वाला तथा कलपना का िवनाश होने पर नष हो जाने वाला यह भोग समुदाय तथा
भाया आिद कुटुमब पिरवार मै नही हूँ और न तो वह सब मेरा ही है।।3-7।। एवं सेवको, सेनाओं, वाहनो और अनय
नगरो से युकत राजय मै नही हूँ और मेरा राजय नही है, कयोिक घुँघवी और कषापण के समबनध की नाई यह समबनध
अनािद अनध परमपरा के वयवहार से केवल किलपत है।।8।।
केवल कलपना के तयागरप उपाय से बाह िवषयो के साथ अपने समबनध का िनरास कर अब अचेतन होने के
कारण देह, इिनदय आिद के साथ भी आतमा के समबनध का िनरास करने के िलए आरमभ करते है।
हाथ, पैर आिद अवयवो से युकत केवल देह मै हूँ, ऐसा हो सकता है अतः इस िवषय मे भी मै अपने भीतर
पूणररप से शीघ िवचार करता हूँ।।9।। इस शरीर मे िवदमान मास और अिसथ मै नही हूँ, कयोिक वे अचेतन है, मेरे
समबनध को भी वे (मास और अिसथ) पापत नही कर सकते, कयोिक जल मे कमल की भाित मै असंग हूँ।।10।।
मास जड है, अतः मास मै नही हूँ, (रकत जड है, अतः) वह भी मदूप होने मे समथर नही है। हिडडया भी जड है,
अतः हिडडया भी मै नही हूँ और न िकसी हालत मे वे मास आिद मेरे है।।11।। कमेिनदयो (हाथ, पैर, मुख, गुदा
और उपसथ) मै नही हूँ और मेरी कमेिनदया नही है। इस देह मे जो कुछ जड पदाथर है वह मै नही हूँ, कयोिक मै चेतन
हूँ।।12।। भोग मै नही हूँ और भोग मेरे नही है, मेरी जानेिनदया नही है और जड एवं असत् सवरपवाली जानेिनदया मै
नही हूँ।।13।। संसाररपी दोष का मूल कारण मन मै नही हूँ, कयोिक वह अचेतन है। अननतर अब दृषातमक
(जाने जाते है, इसिलए दृषातमक) बुिद और अहंकार भी मै नही हूँ और वे मेरे नही है, कयोक अनतःकरण की
अवसथारप होने के कारण वे तो जड है।।14।। िजसका सवरप अित चपल है, ऐसा शरीर से लेकर मन, बुिद,
इिनदय आिद तक जो सथूल-सूकम भूतो का समूह है, वह भी मै उकत रीत से नही हूँ। अब जो कुछ बचा है उसे भी
देखकर िवचारता हूँ।।15।। अब बाकी तो पमाता जीव है, वह िवषयो के साथ जब पकाशता है, तब 'मै इसे जानता
हूँ' यो ितपुटी-साकातकार से बोिधत होने वाला यह पमाता आतमा का तािततवक सवरप कैसे हो सकता है ?।।16।।
इसी युिकत से सािकसंवेद पिमित और पमेय को छोडता हूँ, कयोिक चेतय नही हूँ, यह िनिशत है।(इतने िवचार के
अननतर अब) इस िनशय पर आरढ हुआ िक समसत िवकलपो से शूनय, िवशुद साकीरप शेष आतमा मै हूँ।।17।।
'हार कही खो गया' इस भम से यत तत खोज रहे पुरष को अपने गले मे ही उसे िदख जाने पर हार पािपत
जैसे आशयरभूत होती है, वैसे ही उस साकी के केवल दशरन से ही सुरघु को आतमपािपत आशयरभूत हुई, उसे िदखलाते
है।
अहो अतयनत आशयर का िवषय है अनािद काल से लेकर पयत कर रहा लबधातमा भी मै आज ही परम
पुरषाथरसवरप फल का भाजन हुआ, (कयोक आज तक मै अजान मे डू बा हुआ था) यह मै ततपदबोध से असीम
आतमरप हूँ, इस परम आतमा का कही पर अनत नही है।।18।।
अपने अनुभव के साथ 'एष बहैष इनदः' (यह बहा है, यह इनद है) इतयािद शुितयो का संवाद देते है।
जैसे मोितयो मे अनुसयूत रप से सूत अविसथत रहता है, वैसे ही बहा, इनद यम, वायु और समसत पािणयो के
समूह मे यह िनिखल ऐशयों से पिरपूणर ततपदबोध से आतमा अनुसयूतरप से अविसथत है।।19।। उस पकार की यह
िचितशिकत समसत मलो से परे है, िवषयो के आमय से (बीमारी से) विजरत है, समसत िदशाओं के मणडलो को पिरपूणर
यानी वयापत कर लेने वाली है और अजािनयो के भय की हेतु होने से भयंकर आकार धारण करने वाली है।।20।।
यह िचितशिकत समसत मानिसक वृितयो मे िनवास करती है, (कयोिक 'पितबोधिविदतं मतम्' यानी जब समसत
वृततयातमक बोधो मे पडे हुए िचतपितिबमबो के सवरप से बह िविदत होता है, तभी बह जात होता है, यह शुित है) सूकम
यानी इसका पिरजान करना साधारण खेल नही है, अतयनत किठन है, उतपित और िवनाश दोनो से रिहत है, पाताल से
लेकर बहलोक पयरनत समसत भुवनो के भीतर िनवास करती है एवं समसत शिकतयो की मंजुषा (िपटारी) है।।21।।
यह िचित िनरितशयाननदरप सवर सौनदयर से पिरपूणर है, समसत पकाश-योगय पदाथों को पकािशत करने वाली दीिपका है
और समपूणर संसाररपी मोितयो की माला को गुहने के िलए िवशाल सूत है।।22।। यह िचित शिकत समपूणर आकार
और िवकारो से युकत है, समसत िवकारो से रिहत है तथा सब भूतो के समूह की रपता को पापत हुई इस िचितशिकत ने
सदा सवरभाव को पापत िकया है।।23।। यही िचित शिकत चौदह भुवनो के भेद से चौदह पकार के भूतो के संगो को
उनके अनदर धारण करती है। अनुभवातमक जगत की यह कलपना भी इस िचितशिकत को छोडकर दूसरा कुछ भी
नही है।।24।। सुख और दुःख की अवसथा का जो पिरजान होता है, वह तो केवल िमथया अवभास है और नाना
पकार के आकारो से अवभासमान जो आतमा है, वह सब कुछ परा िचित ही है।।25।। यही िचित समसत जगत मे
अनुगत मेरी आतमा है, जो मेरी बुिद का साकी है, वह यही िचित है। वहा यह िचितशिकत दषा और दृशय के भेद से
कालपिनक शरीरवाली होकर 'मै राजा हँू' ऐसा भम पैदा करती है यानी जानदशा के पहले उसी ने 'मै राजा हँू' यह भम
पैदा िकया था, यह भाव है।।26।। शरीररपी रथ पर आरढ हुआ मन इसी िचितशिकत के पसाद से अनेक तरह के
संसारो की लीलाओं मे जाता है, दौड धूप करता है और नृतय करता है।।27।। वासतव मे ये मन, शरीर आिद वसतुएँ
कुछ भी नही है। तुचछ मन आिद के नष हो जाने पर भी इस आतमा का कुछ िबगडने नही पाता।।28।। िचतरपी
नटो दारा बनाया गया जगजजालरपी यह नाटक इसी एक साकी रपी बुिद से, जो िक दीपक की िशखा की नाई है,
देखा जाता है।।29।। अतयनत दुःख की बात है िक िनगह और अनुगह की िसथित मे मुझे देहिवषियणी िचनता वयथर
ही हईु , कयोिक यहा परमाथर मे यह कुछ बी नही है।।30।। अहो, अब तो मै जाग गया हँ,ू मेरा असिदचार नष हो
गया, जो दृषवय था, उसे समगरप से मैने देख िलया और यह जो पापतवय था, उसे पापत कर िलया।।31।। जगत
मे जो यह सब कुछ दृशय िदखाई देता है, वह िचिनषपनदाश माताश से िचत् का िनषपनद यानी माया से जीवभाव का
िवभम, उसका अंश है पाच जानेिनदया, पाच कमेिनदया, पाच पाण, मन और बुिद इन सतह अवयवो से युकत िलंग शरीर
का भम, इसकी माताएँ है – बाह और अनतःकरण के अभेद िवभम, इनका अंश है – जागत और सवप के दृशयो का
िवभम, िनषकषर यह िनकला िक माया से होने वाले िचत् के जीवभम के अंशभूत सतह अवयवो वाले िलंग शरीर के
माताभूत बाह और अनतःकरण के अभेद िवभमो के अंश जागत और सवपो के दृशयो के िवभम से िभन दूसरा सथायी
यानी ितकालबाधय कुछ भी नही है।।32।।
पूवोकत पणाली से जब जगत िमथया िसद हुआ, तब िनगह और अनुगह तथा उनके हेतु हषर औऱ अमषर भी
िनराशय, पकाररिहत, िवषयरिहत और सवरप-रिहत ही िसद हुए, ऐसा कहते है।
लोक मे वे िनगह और अनुगह कहा है, िकस तरह के है, िकस मै रहते है, उनका रप कया है, इसी तरह
उनके हेतु हषर और अमषर की परमपरा भी कहा है अथात् सभी वयथर यानी िमथया ही है।।33।।
आतममोह के िनकल जाने पर सुख और दुःख की पािपत भी नही होती, ऐसा कहते है।
कया सुख है ? और कया दुःख है ? यानी कालपिनक सुख और दुःख दोनो ही िमथया है। यह सब कुछ वयापक
परबह सवरप ही है। पहले मै वयथर ही मूढ बन कर बैठा था, अब भागयवश अपने वासतव सवरप मे अविसथत हुआ
हूँ।।34।। िजसका आननदैकरस पूवरसवभाव से अनुभव होता है, ऐसा बहरप आलोक मे कया शोक है, कया मोह है,
कया पेकण है, कया कायर है, कया अवसथान है और कया गमन है अथात् शोक आिद की तिनक भी संभावना नही है।।
35।। अलौिकक चमतकार से पिरपूणर यह िचदाकाश नाम की वसतु सबका अितकमण कर यानी सबसे परे अपना
अिसततव रखती है। हे िनरितशयाननदरपी सौनदयर से पिरपूणर, िनःशेषतततवरप िनगुरण िचदाकाश, आपको मेरे बार-बार
नमसकार है, पबल सौभागय से मै आपको देख सका हूँ।।36।। अहो, िनिशतरप से मै पबुद हो चुका हूँ जो जातवय
था उसे भली-भाित पूणररप से मैने जान िलया। समयक-जान होने पर िजसका आिवभाव होता है अथवा जो समयक्
जानरपी अभयुदय है, उस अननत आतमरपतततव को नमसकार है।।37।। राग, देष आिद दोषो के िनकल जाने के
कारण मेरी जागत, सवप और सुषुिपतरपी तीनो अवसथाएँ चली गई है। तथा िनशल सुषुिपत कला से उपािधयो के हट
जाने के कारण मै परबह के साथ एकता को पापत हुआ हूँ, इसिलए मै संसार भम से रिहत अतएव आकाश आिद
अधयारोपरपी राग से शूनय पतयक्-बह मे परम समता से (आतयािनतक अभेद से) िनवास करता हँू, अब कभी मै िफर
िवषमता को पापत नही होऊँगा, यह भाव है।।38।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
उनसठवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआ
आआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआ आआ आआआआ । आआआआआआआ आआ आआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः भद शीरामजी, जैसे िवशािमत ने अपने तपोबल से बहतव पापत िकया था, वैसे ही उकत
पकार से हेमजट नामक भीलो के राजा सुरघु ने िववेक के अधयवसाय से (िनशयातमक जान से) परमपद को पापत
िकया।।1।। पुनः पुनः िदवस मालाओं का िनमाण करने वाले भगवान सूयर की नाई वह राजा बार-बार धमर, अथर
आिद की पािपत की हेतुभूत िकयाओं का अनुषान करता था, दैवात् उन िकयातमक चेषाओं से दुःख-पयरविसत फलो के
होने पर भी वह दुःखी नही होता था।।2।। तभी से लेकर वह राजा िचनता जवर से मुकत होकर अपने राजोिचत
िनगह और अनुगहरपी कायों मे वैसे अटल बना रहता था, जैसे पबल पवाह के सामने नदी के मधय मे रहने वाला पवरत
अटल बना रहता है।।3।। हषर और िवषाद रिहत होकर पितिदन अपने आय, वयय आिद कायों को करते हुए उस
उदार और गमभीर आकृितवाले राजा ने समुद की सुनदरता चुरा ली यानी समुद की शोभा पर िवजय पाई।।4।। जैसे
पकाशमयी कमपनशूनय अपनी िशखा से दीपक अतयनत शोिभत होता है, वैसे ही वह राजा सुषुिपत के समान िनशल
पकाश-मयी िचतवृित से अतयनत शोिभत होता था। वह न िनदरयी था, न दयालु था, न दनदो से युकत था, न
मतसरवाला था, न बुिदमान था, न बुिदरिहत था, न अथी था और न अनथी था। भीतर शािनत पहुँचाने वाली तथा
िनशलता के कारण अतयनत धीर समदशरनातमक वृित से वह ऐसे शोिभत होता था, जैसे पिरपूणर समुद और चनदमा और
चनदमा शोिभत होते है।।5-7।। चूँिक यह सब जगत केवल िचतततव की कलना ही है, यो िनशय करने के कारण
उसकी बुिद भौितक सुख-दुःखातमक िवकारो से रिहत अतएव पिरपूणररप से पकािशत हो रही थी, इसिलए पबुद तथा
िचत मे लय को पापत वह राजा शरीर से उललिसत होते, िचत से िवकिसत होते, पूणररप से अविसथत रहते, जाते,
बैठते और सोते सदा सवरदा पर बह की समािध मे ही िसथत रहता था।।8,9।। कमल की भाित िजसके नेत थे
और िजसके शरीर मे तिनक भी वाधरकयािद का िवकार पापत नही हुआ था, ऐसा वह सुरघु राजा आसिकतरिहत राजय
करते हुए सैकडो वषर पयरनत इस भूमणडल मे िवदमान रहा।।10।। उसके बाद जैसे बरफ का कण गमी से शोिषत
होकर सवकीय मूतरसवरप का अपने आप पिरतयाग कर देता है, वैसे ही उस राजा ने इस देह नामधारी पंचातमक
अवयव-संिनवेश का अपने आप ही पिरतयाग कर िदया।।11।। जैसे निदयो का जल दो िकनारो पार होते ही पानी
पिरिचछनता का पिरतयाग कर पिरपूणर यानी पिरिचछनता से रिहत असीम समुद मे पिवष हो जाता है, वैसे ही वह राजा
बह साकातकारातमक वृित की सामथयर से (जनम आिद के पितबीजभूत अिवदारपी आवरण का ितरोधान हो जाने के
कारण) समसत िहरणयगभािद कारणो के िनयनता तथा सृिष और पलय के हेतु परबह परमातमा मे पिवष हो गया।।
12।।
उस परम पद मे पवेश कर सुरघु िकस पकार का हुआ, इसे कहते है।
जैसे घटाकाश घट के फूट जाने पर महाकाश के साथ एकीभूत हो जाता है वैसे ही यह महातमा सुरघु िजसने
िक बहसाकातकारातमक पजा से िवमल आननदैकरस तथा सवपकाशातमक तेज को सवातमरप से पापत कर िलया था
औऱ जनम आिद िवकारो से रिहत अवसथा को पापत कर लेने के कारण िजसके समसत शोक शानत हो चुके थे-पूणररप
से पर सवरप ही हो गया यानी परमातमा के साथ एकीभूत हो गया। यही इसका िनवाण था, यह भाव है।।13।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

साठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआआआआआ आआआआआ आआ
आआआआआआ आआ आआआआआ
आआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः कमल के समान नेतो वाले हे राघव, राजा सुरघु के समान आप भी हषर, शोक आिद के
िनिमत पापो का तततवजान से समूल उचछेद होने पर दनदरिहत परम पद को पापत कीिजये और उतम मोकरपी िवभूित
के िलए शोक का पिरतयाग कर दीिजए।।1।। जैसे घोर अनधकार मे बैठा हुआ बालक पकाश को पापत कर िखन
नही होता, वैसे ही गाढ अजानरपी अनधकार मे डू बा हुआ मन इस बोधातमक दृिष का अवलमबन लेकर पकाश को
पापत कर सनतपत नही होता।।2।।
जैसे कुएँ मे िगर रहे पाणी को मजबूत तृणसमुदाय के अवलमबन से िवशािनत-सुख िमलता है, वैसे ही मोहरपी
गहरे कुएँ मे िगर रहे मन को सुरघु के पकरण मे दशाई गई िववेकावसथा से िवशािनत सुख िमलता है।।3।। हे
शीरामजी, आपने समसत भूमणडल को सुशोिभत िकया है। अब आप इस परम पिवत दृिष को बार-बार पिरशीलन के
दारा अतयनत दृढ बनाइये, दूसरो को उसका उपदेश भी दीिजये और सदा सवरदा एक बह की समािध मे ही ततपर हो
जाइये।।4।।
शीरामचनदजी ने कहाः मुिनशेष, जैसे वायु के दारा िहलाया गया मोर का पंख अतयनत चपल होता है, वैसे ही
यह मन अित चपल है, अतः भला बतलाइये िक यह अित चंचल मन िकस तरह और िकस रप से एक वसतु मे िसथर
रह सकता है ?।।5।।
शीविसषजी ने कहाः भद, िजस समय सुरघु आतमसाकातकार कर लेने के अननतर पबुद हो चुके थे, उसी
समय उसी तततवज सुरघु राजा औऱ राजिषर पणाद का (इसी का 'पिरघ' यह दूसरा भी नाम है) परसपर इस िवषय मे
अतयनत अदभुत संवाद हुआ था, इसका आप शवण कीिजये।।6।। हे राम जी, उन दोनो ने अपने मन को, जो बोध
को पापत हुआ था, एक समाधान मे ही लगा रखा था, मै यह उनका परसपर का संवाद आप से कहता हूँ।।7।। रथ
के अक-दणड की(धुरे की) नाई आधारभूत अथवा रथ मे पिरघ नामक शसत शतुदल के शूर-वीरो का िवदलन करने मे
जैसे अतयनत िवखयात है, वैसा अतयनत िवखयात पारसीक देश का एक राजा हुआ। वह बडे-बडे शूरवीर शतुओं का
िवनाश कर देता था। उसका नाम था-पिरघ।।8।। हे रघुननदन, जैसे ननदनवन मे रहने वाले कामदेव का वसनत
िमत है, वैसे राजा पिरघ सुरघु का परम िमत था। िकसी समय जैसे पलयकाल के पापत होने पर संसार मे बडी भारी
अनावृिष होती है, वैसे ही इस राजा के राषट मे बडी भारी अनावृिष (वषा का अभाव) हुई। उसमे कारण राजा का दोष
नही था, िकनतु कारण था – पजाओं का पापरपी दोष। जंगल मे पजजविलत अिगन मे जैसे पािणयो की पंिकत-की-
पंिकतया नष-भष हो जाती है, वैसे ही अनावृिष से वहा की बहत ु सी जनता कुधा से गतपाण होकर नष भष हो गई।
पजा का कष देखकर राजा पिरघ अपार िवषाद से गसत हुआ। जैसे बटोही जले गाव को छोड देता है, वैसे ही उसने
अतयनत शीघतापूवरक अपना सारा छोड िदया। पजा जनो को िवनाश से बचाने के िलए उसने अनेक उपाय िकये, उनहे
कुछ भी लाभ नही हुआ, अतः अपने राजय से िवरकत होकर मृगचमरधारी बडे बडे मुिनयो की नाई अरणय मे तप करने के
िलए चला गया। िजसे नागिरक नही जानते थे, ऐसे िकसी दूर अरणय मे िवरकतातमा होकर ऐसे रहने लगा जैसे दूसरे
परलोक मे रहता हो।।9-14।। िजसकी बुिद शानत हो चुकी थी तथा िजसने अपना दमन िकया था, ऐसा पवरत के
गुहा मिनदर मे तपशया कर रहा वह राजा पिरघ वहा सवयं शुषक और जीणर-शीणर पतो का भकण करता था। (यहा
'कनदरमिनदरे' इस शबद से उसकी अतयनत िवरिकत सूिचत होती है, कयोिक उसने पणरकुटी का भी पिरतयाग कर केवल
पवरत की गुफा का आशय िलया था)।।15।। बहुत काल तक उसने अिगन की नाई केवल सूखे पतो का ही भकण
िकया, इसिलए बडे-बडे तपिसवयो के बीज मे इसने अपना 'पणाद' नाम पापत िकया।।16।। तभी से लेकर जमबूदीप
मे पणाद नाम का यह उतम राजिषर मुिनयो के मणडल मे अतयनत िवखयात हुआ।।17।। तदननतर एक हजार वषर की
दारण तपशया से अभयासवश अनतःकरण की परमशुिद तथा ईशर के अनुगह से जिनत आतमजान उसने पापत िकया।
वह दनदो से परे हो गया था, उसकी समसत िवषयािभलाषाएँ िनकल चुकी थी, उसका अनतःकरण पसन था, उसका
िवषयराग हट गया था, वह आकेपो से विजरत था तथा जीवनमुकत एवं पबुद-मित था।।18-19।। हे शीरामचनदजी,
जैसे हंसो के साथ भमर कमिलनी मे िवहार करते है वैसे ही यहा िजणर पणाद अपनी इचछा के अनुसार िकसी भी समय
िसद (तततवजान पा चुकने वाले) तथा साधय (तततवजान की इचछावाले) मुिनवरो से पिरवृत होकर इस ितलोकीरपी
मिठका मे िवहार करता था।।20।। िकसी समय यत-तत िवचर रहे राजिषर पणाद उस सवणरजट नामक, देश के
अिधपित राजा सुरघु के सदन मे (िनवास सथान मे) पापत हुआ जो िक रतो से िविनिमरत तथा सुमेरपवरत के दूसरे
िशखर के समान ऊँचा था।।21।। पहले से ही वे िमत थे, वहा उनहोने परसपर एक दूसरे का पूजन िकया। वे पूणर
थे, दोनो ही जातवय तततव जान चुके थे संसार से परे यानी जीवनमुकत हो गये थे। अननतर उन दोनो ने एक दूसरे से
यह कहाः अहो, िनिशत मेरे कलयाणमय पावन सतकमों का यह फल है, जो िक मैने आपको पाया। एक दूसरे का शरीर
से आिलंगन कर परसपर आनिनदत आकृितवाले वे दोनो एक पवरत के ऊपर चनद और सूयर की नाई एक आसन पर
बैठे।।22-24।।
पिरघ ने कहाः हे सुरघो, आपके दशरन से मेरा िचत अतयनत आननद को पापत हुआ और चनदिबमब मे गोता
लगाने वाले मन की नाई मेरा मन अतयनत शीतलता को पापत हुआ। िचितशिकत की पधानता होने पर आननद का
आिवभाव होता है मनन शिकत की पधानता होने पर सनताप शानत हो जाता है।।25।। तालाब के िकनारे पर
अविसथत िछन आशावाले वृक के समान सहज आननद का समपरण करने वाला सवाभािवक पेमिवयोगावसथा मे सैकडो
शाखा-पशाखाओं को पापत होता है।।26।। साधो, िवशास गिभरत उन पहले की सुखदुःख की कथाओं, लीलाओं
तथा वयापारो का बार-बार समरण कर मै आननद से पिरपूणर हो जाता हँू।।27।। राजन्, जैसे आपने महामुिन माणडवय
के पकाश से परम तततव जाना वैसे ही मैने तप से आरािधत परमातमा के पसाद से यह जान पाया है।।28।।
महाराज, कया आप समसत दुःखो से छुटकारा पा चुके है ? और जैसे कोई भूमणडल का सवामी उतरोतर पवरतो का
अितकमण कर मेर के ऊपर िवशािनत करे, वैसे ही कया आप परम कारणरप (िववतापादनतव से उपलिकत) परबह मे
उतरोतर भूिमकाओं के पिरपाक से िवशािनत कर चुके है ?।।29।।
हे परमकलयाण, जैसे शरत्-काल मे तालाब के जल मे धूल आिद का आवरण न होने के कारण उसमे पसनता
(सवचछता) उतपनता होती है, वैसे ही कया आपके िचत मे आतमारामता के कारण पसनता, रजोगुण और तमोगुण
अनावरणरपता उतपन होती है ?।।30।। हे सौभागयसमपन राजन्, सुपसन एवं गंभीर समदृिष से कया आप समसत
जनो के िहत के साधन अवशय कतरवय कमों को करते है ?।।31।। राजन्, शारीिरक और मानिसक पीडाओं से
रिहत, धीर तथा धन-धानयो से समपन जनता समसत िचंताओं से िनमुरकत होकर कया आपके देश मे िनवास करती है
?।।32।। महाराज, उतकृष ससय आिद फलो से समपन, िविवधफलो से िवनम कलपलता की नाई पृिथवी कया
आपकी पजाओं का समय समय पर तत् तत् इिचछत फलो की पूितरयो दारा सदा सवरदा पोषण करती है ?।।33।।
राजन्, चनदमा की अनेक िकरणो की नाई समसत िदशाओं मे तुषार के समूह के सदृश आपका कया पिवत यश फैला है
?।।34।। महातमन्, जैसे तालाब का जल अपने अनदर रहने वाली कमल के नाल की भूिम को भर देता है, वैसे ही
कया आपने -अपने पशसत गुण-गणो से िदशाएँ भर दी है ?।।35।। कया धान की कयािरयो के कोने मे अविसथत
अितपसन कुमािरया पतयेक गाव मे आपके आननदवधरक यशोगान कर रही है ? धानय, धन, िवभव, सेवक, सतीजन,
पुत, पिरवार और नगरािद सवरत सथानो मे कुशल तो है न ?।।36,37।। शारीिरक और मानिसक पीडाओं से रिहत
यह आपकी देहरपी लता ऐिहक फल के साधनरप से िविहत का शरीरी आिद और पारलौिकक फल के साधन रप से
िविहत जयोितषोम आिद िकयाओं से होने वाली पुणयरपी जो फल है, उनको करती तो है न ?।।38।। हे िजतेिनदय,
ऊपर-ऊपर से रमणीय िदखाई देने वाले, पर असिलयत मे आतमतततव मे भारी पितबनधक होने के कारण महान् वैरी इन
िवषयरपी सपों मे आपका अनतःकरण वैरागय धारण करता तो है न ?।।39।। अहो, अपने दोनो को एक दूसरे से
अलग हुए बहुत काल वयतीत हुआ, परनतु वसनत ऋतु और पवरततट की नाई समय पापत होने पर िफर िमल गये।।
40।। िपयवर, इस जगदीतल मे इष और अिनष जनो के संयोग एवं िवयोग से होने वाली वे सुख और दुःख की
अवसथाएँ है ही नही, जो देहधारी पािणयो के दारा अनुभूत न होती है।।41।। इसी तरह हम लोग इन अतयनत
दीघरकािलक सुख और दुःख की अवसथाओं मे िचरकाल तक िवयोगी थे, परनतु िफर भी इस समय हम लोग एक दूसरे
से िमल गये है, कयोिक पािणयो के कमों के अनुसार होने वाली भगविदचछा का िवलास अदभुत है यानी कुछ और ही
है।।42।।
पिरध दारा कहे गये अथर का अनुमोदन करते हुए सुरघु उसी अथर को कहते है।
सुरघु ने कहाः भगवन्, भगवान की इचछारपी इस िनयित की सपरगित के समान गमभीर और िवसमयकारक
गित को कौन जान सकता है ? अथात् कोई नही जान सकता।।43।। िपयवर, िविध ने इस पकार आप और हम
लोग दोनो को देशतः अतयनत दूर तथा कालतः भी अिधक समय तक अलग रखकर आज िफर संघिटत िकया है।
अहो, भला बतलाइये िविध के िलए कया असाधय है ?।।44।।
महातमन्, आज तो हम लोग अतयनत सुखीक होकर अविसथत है, आपके आगमनरपी पुणयो से हम अतयनत
पिवत हो गये है। महानुभाव देिखये आपके आगमन से कीण पाप हुए हम लोगो के पुणयरपी वृको ने वह िचत-
समाधानरपी फल िदया िजससे िक हम लोग समपूणर वयाकुलताओं से िवमुकत होकर कृतकृतय हो गये।।45,46।।
राजिषर, नगर मे अविसथत हम लोगो की समपूणर समपितया आज आपके शुभागमन से चारो ओर फलोनमुखता को पापत
हो गई।।47।। हे महानुभाव, आपके पुणय वचन और दशरन चारो ओर से मानो अमृतो की मधुर रािश बरसा रहे है,
कयोिक सजजन पुरषो का समागम मोकसुख की पािपत सदृश होता है।।48।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

इकसठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआआआ आआ आआ आआआआ आआ आआआआआआआआआ-आआआआआआ आआ आआआआआआ आआ
आआआआआआआआआ आआ आआआ आआआआआआ आआआआआआआआ आआआआआआ आआआ आआ आआआआआ आआआआ आआ, आआ
आआआआआ।
महिषर शीविसषजी ने कहाः शीरामजी, तदननतर िचरकाल तक करीब करीब उस तरह की पाचीन पेम से
ओतपोत िवशासपूणर कथालापो से सुरघु के सुनदर सदन मे िवशािनत लेकर राजा पिरघ, िजसका शसतिवशेष का नाम के
सदृश नाम है, कहने लगे।।1।।
कया यह राजा सुरघु मेरे पूछने पर वयवहार और समािध दोनो दशाओं मे तततव मे तततविवत् पुरष के सुख का
उतकषर और अपकषररप तारतमय कहेगा या नही, इसकी परीका करने के िलए पहले अपने अनुभव का उदघाटन करते
है।
पिरघ ने कहाः राजन्, इस संसाररपी जाल मे रह कर जो जो कमर िकये जाते है, वे समािहत िचतवाले जानी
के िलए तो सुखकारक है, पर उससे िभन अजानी के िलए सुखकारक नही है।।2।।
इस तरह अपने अनुभव का पकाशन कर वह युकत है या अयुकत इस िवषय मे दूसरे के अनुभव की िजजासा
कर रहे राजा पिरघ मानो समािध मे ही अिधक िवशािनत है, यो िदखलाते हुए पश करते है।
हे राजन्, समग संकलपो से शूनय, िवशािनत के सबसे उतम सथानरप, िवकेपातमक दुःखो के उपशम मे परम
साधन तथा सासािरक सुखो की अपेका अिधक पशसत समािध का कया आप अनुषान करते है ?।।3।।
जबिक आपका यह अनुभव है। समािहत िचतवाले पुरष के सभी कमर सुख के िलए है और आपके इस
अनुभव के साथ मेरा भी अनुभव संवाद रखता ही है, तब समािध मे अिधक िवशािनत का पदशरन तथा वयवहार और
समािध का भेद मानकर िकया गया पश दोनो आपके अयुकत ही है, इस आशय से तततवज राजा सुरघुः 'संकलपरिहत
िवकेपातमक दुःखो का परम उपशम और सासािरक सुखो की अपेका अिधक शेष, इस अंश का आतमरपता मे भी संभव
होने के कारण तनमात का सवीकार करते हुए िवशािनत सथान समािध का अनुषान करते है ?' यह पशाश असंभव है
कयोिक अिवशाम के हेतु मन का तो बाध हो ही चुका है यो मानकर आकेप करते है।
सुरघु ने कहाः भगवन्, युकत होने के कारण आप मुझसे यही किहये िक समपूणर संकलपो से रिहत िनरितशय
उपशमरप (आतमा) सासािरक सुखो की अपेका पशसत है, परनतु यह आप मुझसे कयो कहते है िक समािध का
अनुषान करना चािहए।।4।। महातमन्, जो तततवज पुरष है, वह चाहे चुप-चाप ही सदा वयवहार करे चाहे अवयवहार
करे, तो भी उसका समािहत िचतता को छोड कर और कया सवरप हो सकता है ? कयोिक अनावृत-सवभाव होने के
कारण कभी भी असमािहत िचतवाला नही हो सकता।।5।।
यिद आतमसवरप मे अटल अविसथत रहना ही समािध है, यह आपका मत है, तो वह सदा है ही, िफर कुछ भी
करने को बाकी नही रहता, ऐसा कहते है।
िजनका िचत पबुद हो गया है, ऐसे तततवज मुिन सदासवरदा जगत के वयवहार को करते हएु भी आतमरप
अिदतीय िचततव मे परमिनषा वाले होने के कारण सदा समािध समपन ही है।।6।।
यिद आप मुझे अजानी मानते है, तो भी समािध का उपदेश अयुकत है ऐसा कहते है।
िजसका अनतःकरण परमशािनतरपी िवशुदता को पापत नही हुआ है, ऐसा पुरष चाहे पदासन लगावे चाहे
परबह को हाथ जोडे तो भी उसको िकसी भी उपाय से िकसी तरह की समािध नही लग सकती, कयोिक जहा िचत
का लगाना है उसको वह जानता ही नही, यह भाव है।।7।। भगवन्, चुपचाप बैठे रहना समािध नही कहलाता,
िकनतु समसत आशारप तृणो के िलए अिगनरप जो आतमतततव का अपरोक साकातकार है, वही समािध कहलाता है,
कयोिक 'समयक् आधानम् समािधः' समयक् यानी समसत इिचछत िवषयो का समूल बाध से पारमािथरक सवरप मे िचत
का जो आधान अवसथान है, वह समािध है यो समािध शबद की वयुतपित है यह भाव है।।8।।
महातमन्, मनीषी लोग समािध शबद का एकाग, सदासवरदा, तृपत, सतय अथर का गहण करने वाली परा पजा ही
(अबािधत आतमा का अपरोक साकातकारातमक िवजान) अथर कहते है।।9।।
उसी का फलतः वणरन करते है।
कोभ से रिहत, अहंकार से शूनय, सुख-दुःख आिद दनदो मे न िगरने वाली और सुमेर से भी अिधक िसथर
आकारवाली पजा समािध शबद से कही गई है।।10।। िचनता से विजरत, अभीष पदाथर को पापत हेय और उपादेय से
रिहत तथा पिरपूणर जो मानिसक वृित है, वह समािध शबद से कही गई है।।11।।
वैसी समािध तो मुझको पहले से ही िसद है, उसके अनुषान की आवशयकता नही है, इस आशय से कहते
है।
िजस समय से लेकर मन का तततवजान के साथ अतयनत (सवरदा के िलए) समबनध हो जाता है, उस समय से
लेकर महातमा िवदान की समािध लगातार बनी ही रहती है, कदािप िविचछन नही होती।।12।। जैसे कीडा कर रहे
बालक के हाथ से दूर खीचा गया कमल का तनतु टू ट जाता है, वैसे पबुद अनतःकरण वाले जानी की समािध लगकर
पुनः टू ट नही जाती, यहा वयितरेकी दृषानत है।।13।।
यिद शंका हो िक तततववेता को भी बहाकारवृित का िवचछेद होने पर वयुतथानावसथा मे समािध का भंग हो
जायेगा, तो इस पर कहते है।
जैसे सूयर सारे िदन पकाश से िवराम नही करता, अिपतु पकाशपूणर ही रहता है, वैसे ही तततवजानी की पजा
जीवनपयरनत यानी िवदेह मुिकत पयरनत तततव के अवलोक से िवराम नही करती, अिपतु दृढ संसकार के कारण सदा
सवरदा अनुवतरन करती ही रहती है।।14।।
आतमसवरप को आवृत करने वाले अजान का एक बार उिदत हुई बहाकार वृित से समूल नाश हो जाता है तो
िफर वह आवरण करने की शिकत ही नही रखता, इसिलए तततववेता को सवरपावरणरप समािध भंग का पसंग ही नही
है इस आशय से कहते है।
जैसे नदी िनरनतर जल के पवाह से कणमात भी रक नही सकती, वैसे तततविवत की
आतमतततवसाकातकारातमक दृिष सवरपजान से कणमात भी रक नही सकती यानी तततवज का साकारातमक बोध
िकसी आवरण से आवृत नही होता।।15।।
अथवा परम पेम का भाजन होने से एक बार भी पापत हुए तततवजान का िवसमरण नही होता, इस आशय से
कहते है।
जैसे काल अपनी कलाओं की गित का कभी भी िवसमरण नही करता, वैसे ही तततविवत पुरष की बुिद अपने
आतमसवरप का कभी भी िवसमरण नही करती। जैसे सवरत सदा-गितसवभाव वायु अपनी गित का िवसमरण नही करता,
वैसे ही तततविवत् जानी की पजा िनशय करने योगय िचितमात का कभी िवसमरण नही करती।।16,17।।
िजसका आवरण िवनष हो चुका है, ऐसा आतमा सवाकारवृितयो को लगातार उतपन करता ही िसथत रहता है,
इस आशय से कहते है।
जैसे काल के मूितररप सूयर आिद अपनी गित को बटोरते हुए (िनरनतर गित समपन होते हुए) ही सदा िसथत
रहते है, वैसे ही िवषयो से िविनमुरकत (अनावृत) चैतनय सफूितर भी अपनी गितयो को यानी सवाकार वृितयो को बटोरती
हुई (िनरनतर आतमाकार-वृितयो से समपन होती हुई) ही रहती है।।18।।
अथवा तततवज के जीवनकाल का आतमावबोध असाधारण धमर है, अतः उससे तततवज का कभी भी िवयोग
नही होता, इस आशय से कहते है।
जैसे घट आिद पदाथर सता से (अिसतततव से) िवहीन होकर कभी भी उपलबध नही होते, ऐसे ही तततवजानी
का समय आतमजान से िवहीन होकर कभी भी उपलबध नही होता।।19।।
अथवा जैसे अिगन का उषणतव सवभाव है, वैसे ही तततवज का आतमबोध सवभाव है, इसिलए तततवज का
आतमबोध से िवचछेद नही होता, इस आशय से कहते है।
जैसे संसार मे उषणतव आिद सवाभािवक गुणो से युकत अिगन आिद गुणवान् पदाथर कभी भी उकत गुणो से िवहीन
नही रहते, वैसे ही आतमा की पहचानकर चुकने वाला आतमवान् जानी कभी भी आतमजान से िवहीन नही होता।।
20।। मै सदा-सवरदा ही आतमजान से समपन हूँ, सदा-सवरदा ही िनमरल सवभाव हूँ, सदा-सवरदा ही शानतातमा हूँ और
सदा-सवरदा ही समािधयुकत हँू। मेरा समािध से िवचछेद िकससे और कैसे हो सकता है ? कयोिक मेरी समािध
आतमसवरप से िभन नही है, अतः उसका अिसतततव सदा सवरदा बना हुआ ही है।।21,22।।
यिद आप यह मानते है िक मन है, तो वह सदा-सवरदा समािहत ही है और यिद यह मानते है िक मन नही है, तो
समािध भी है नही कयोिक िवकेप का हेतु ही नही रहा, इस आशय से सुरघु उपसंहार करते है।
इसिलये यिद मेरा मन है तो वह िकसी भी समय समािध से विजरत नही और यिद नही है, तो मन िकसी भी
समय समािध से युकत नही है, अथात् समािध करने की आवशयकता ही नही रहती, कयोिक िवकेपकारण के न रहने से
अिदतीय आतमतततव की एकरपता का ही सदा सवरदा संभव है।।23।। चूँिक यह जो कुछ िदखलाई पडता है, वह
सभी कुछ सदा सब पकार सवरवयापक आतमसवरप ही है, इसिलए यह समािध कया होगी औऱ असमािध भी कया कही
जायेगी ? अथात् उन दोनो के सवरप के िवषय मे कुछ भी नही कहा जा सकता।।24।। उतम महातमन्, िजनकी
बुिद से भेद का िवघटन हो गया है यानी िजनकी बुिद मे तिनक भी भेद के िलए सथान नही है अतएव जो कायों के
पिरणामो मे यानी सुख-दुःख आिद िवकारो से होने वाली भेद-भावनाओं से िविनमुरकत हो चुके है ऐसे बडे-बडे तततविवत्
सदा सवरदा एक ही सवरप से समदृिष होकर िसथत रहते है, इसिलए समािहत और असमािहत के भेद को मानकर
पवृत हुआ आपका वह वाणी का पपंच िकस अथर का बोधक होगा ? िकसी अथर का नही अथात् आपकी वाणी का
िवलास िमथया ही है, यह भाव है।।25।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

बासठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआ आआ आआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआ आआ,
आआआ आआआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआ। आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआ
पिरघ ने कहाः राजन्, आप िनिशतरप से तततव को जान चुके है और उस उतम परम पद की पािपत भी कर
चुके है, अतयनत शीतल अनतःकरण से युकत होने के कारण आप ऐसे सुशोिभत (पकािशत) हो रहे है, जैसे िक
शीतलातमा पिरपूणर चनदमा।।1।। हे महाराज, सनेह के कारण अतयनत मधुर, सुशीतल, आननदरपी पुषपरस से
पिरपूणर, उतम शी से समपन आप कमल के समान अतयनत भले लगते है।।2।। जैसे तट के झंझावात के झकोरो से
िनमुरकत तथा िनमरलतव आिद गुणो से युकत िवसतृत समुद सुशोिभत होता है, वैसे ही िनमरल अतएव िवसपषरप से
िदखाई देने वाले आशय से, अनतःकरण से (समुद-पक मे अनतःपदेश से) युकत, गमभीर, पूणर, वयापक सवरप तथा
संसाररपी वायु के झकोरो से िनमुरकत आप सुशोिभत हो रहे है।।3।। हे तततवज, सवचछ, आननद से पिरपूणर,
अहंकाररपी काले बादलो से शूनय, िवसपष, िवसतीणर और अित गमभीर होने के कारण आप ऐसे शोभते है, जैसे शरत्
काल का आकाश।।4।। हे राजन्, आप सभी इष और अिनष िवषयो मे एक-से िदखाई देते है, सभी िवषयो मे आप
सनतुष रहते है, सभी िवषयो मे आसिकत से विजरत है, अतएव सवरत सुशोिभत हो रहे है।।5।। महाराज, आपने
अपनी उतम बुिद से कया सार है एवं कया असार है, इसका िवचारपूवरक िनणरय िकया है और उसके पारंगत हो गये है
एवं यह भी जानते है िक यह दृशयमान समसत पपंच एकरप से अविसथत अखणड परबहसवरप ही है।।6।। सत्
और असत् के िनणरय के तततव को जानने वाले हे राजन्, पसन िचत से युकत तथा आरोह और अवरोह की हेतु (संसार
मे आवागमन की हेत)ु भोगासिकत से होने वाली लालच से शूनय आपका शरीर अविसथत है।।7।। हे भागयवान, जैसे
समुद फेन अनदर मे अविसथत अमृत से तृपत रहा करता है, वैसे ही िजसकी अपेका संसार मे दूसरी परमाथर वसतु है ही
नही, ऐसी सवातमरपी वसतु से ही आप पुनः संसार-पािपत मे अहेतुभूत अपनी मिहमा मे ही पिरतृपत रहते है।।8।।
पिरघ दारा किथत अथर का सभी युिकतयो से समथरन और अनुमोदन कर रहे सुरघु कहते है।
सुरघु ने कहाः हे मुने , संसार मे वह वसतु ही नही है, जो िक हम लोगो के िलए उपादेय हो, जो कुछ यह दृशय
है, वह सब कुछ भी नही है यानी िमथया ही है।।9।। उपादान करने योगय वसतु का अभाव होने के कारण कुछ भी
हेय यानी तयाजय नही है, कयोिक िजस वसतु का गहण कर िलया हो, उसका पिरतयाग ही तो होना है, ऐसी िसथित मे
अब आप बतलाइये िक तयाग के िवरोध और तयाग से हट जाने वाले गहण के (उपादान) के िबना 'यह हेय है' ऐसा कैसे
कहा जा सकता है ? अथात् कभी नही कहा जा सकता।।10।।
यिद शंका हो िक जो तुचछ है, वह हेय और जो अतुचछ है, वह उपादेय कयो नही होगा ? तो इस पर कहते है।
महाराज, देश और कालवश सभी पदाथर तुचछ और अतुचछ हो जाते है, इसिलए दीघरकाल से मेरी तुचछ और
अतुचछ िवषयक मानस िसथित नष हो चुकी है। इसी िवषय मे दृषानत है समपूणर भूमणडल का राजा मुकत हो जाने पर
एक छोटे से गाव मे भी, जो िक पहले तुचछ था, सनतुष रहता है और पहले के िवसतृत राजय को भी तुचछ समझता है,
अतः समयवश ही तुचछतव और अतुचछतव की बुिद होती है।।11।। संसार मे देश और काल के पभाव से तुचछ मे
अतुचछतव और अतुचछ मे तुचछतव भावना हो जाती है, इसिलए पिणडतो को तुचछ और अतुचछ बुिद से िकसी की िननदा
या सतुित नही करनी चािहए।।12।। लोक मे िननदा और सतुित दोनो राग से होते है और राग इचछा को कहते है,
िजसकी बुिद िनमरल है, ऐसा पुरष अतयनत उदार आतमवसतु की ही इचछा करता है, कयोिक वहा सतुित और िननदा की
पसिकत ही नही है।।13।। इस ितलोकी मे िसतया, पवरत, समुद, वनपंिकतया आिद भूत सतयता से रिहत है, वासतव
मे यहा कुछ भी सारभूत वसतु नही है।।14।। इस मास और अिसथमय अधयातम जगत मे तथा काष, मृितका और
िशलामय अिधभूतजगत् मे, जो िक जजरर, वाछनीय तथा शूनयातमक है, कया चाहा जाय ? अथात् कुछ भी नही।।
15।। राजन्, जैसे िदवस-का िवनाश हो जाने पर तदनुगामी पकाश और ताप दोनो का िवनाश हो जाता है, वैसे ही
इचछा का िवनाश हो जाने पर तदनुगामी राग और देष दोनो का िवनाश हो जाता है यानी राग-देषमूलक पवृित और
िनवृित का िनरास हो जाता है।।16।।
यिद सभी वसतुएँ असारभूत है, तो आशय करने योगय सारभूत वसतु कौन है ? इस पश पर सारभूत वसतु
बतलाते है।
िमतवर, अब इस िवषय मे अिधक वाकयो का पयोग करना वयथर है। यिद अनतःकरण चारो ओर से रागमुकत
होकर तथा समसत िवकेपरपी िवषमता से रिहत होकर अपने आतमसवरप मे ही पिरतृपत रहे, तो वही सबसे उतम
िवशािनत है। सवाितशायी सुख के िलए केवल इसी एक दृिष का सदा सवरदा आशय करना उिचत है।।17।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

ितरसठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआ आआआआ आआआआआ आआआ आआआआआआ आआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआआआ आआ आआआआ आआआआआ आआ आआआआआ
आआआआ आआ आआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ। आआ आआआआ
शीविसषजी महाराज ने कहाः भद शीरामजी, तततव सुरघु और राजा पिरघ दोनो पूवर विणरत पकार से जगत्-
िवभम का िवचार कर अतयनत पसन हुए, उनहोने परसपर एक दूसरे का िविशष पूजन िकया और अपने -अपने कायों मे
ततपर हो यथा सथान पसथान िकया।।1।। हे राघव, उस वणरन िकये गये संवादरपी उतम बोध-हेतु का शवण कर
िकया गया िनशय ही बोध के िलए पयापत है। अतः इसी सुरघु और पिरघ के संवाद के शवण से जिनत िनशयातमक
जान से आप पतयक-रीित से पापत पद हो जाइये। कयोिक परमपद की पािपत के िलए उतना सुपितिषत बोध ही पयापत
है।।2।। पिणडतो के साथ िवचार करने के कारण या अपने िनशल िवचार के कारण अतयनत तीवर हुई उतम पजा से
हृदयाकाश मे अहंकाररपी काले मेघ िनःशेष गल जाने पर, समसत लोगो से अनुमोिदत, फलातमक बोध से युकत
(शरत्-पक मे ससयािद फलो से युकत), अतएव पसनता बढाने वाले, राग आिद मलो से रिहत (शरत्-पक मे पंक आिद
मलो से शूनय), िवसतृत िचतरपी शरतकाल के उपिसथत होने पर, जो धयान करने योगय, समग अनथों के नाशक,
आतमरपता के कारण सुगम, समपूणर आननदो की िनिध, अतयनत पसन परमातमारपी िचदाकाश मे अविसथत रहता है
और जो सदा केवल आतमा के िवचार मे िनरत, सदा बाह आसिकत से शूनय, सुखी तथा पुनः पुनः आदर से केवल
िचनमात वसतु मे आसवाद लेने वाला है, वह मानिसक शोको से कभी िवचलित नही होता।।3-6।। रामजी, जैसे जल
मे रहने वाला कमल कीचड आिद कलंको से कलंिकत नही होता, वैसे ही तततवज वयवहार मे िनरत अतएव अजानी
जनो दारा 'यह राग और देष से भरा है' यो किलपत हो रहे भी राग, देष आिद भीतरी कलंको से कलंिकत नही होता।।
7।। जैसे हािथयो से िसंह पराभव को पापत नही होता, वैसे हीजो समयक् जान से युकत, िनमरल, भीतर से पसनमन
मुिन है, वह कभी भी मन से पराभव को पापत नही होता।।8।। जैसे ननदनवन मे िवषैले काटो से युकत वृक नही होते,
वैसे ही जानी पुरष का केवल िवषयोपभोगो मे शरण लेने वाला अतएव अतयनत दीनता से युकत मन नही होता, कयोिक
उसका िचत बडा है यानी कुद िवषय सुखो की अिभलाषा से विजरत है।।9।। जैसे िवरकतपुरष, कामुकपुरष के
समान पती आिद का मरण होने पर दुःखी नही होता, वैसे ही िजसने चारो ओर से िवचारकर िवषय, इिनदय, शरीर आिद
समसत दृशयरप िमथयाभािनत का पिरजान कर िलया है, ऐसा तततवज पुरष का अनतःकरण दुःखी नही होता।।10।।
िवजाता पुरष को भावी दुःखो के हेतु पापो का भी समबनध नही होता, यह कहते है।
हे साधो, जैसे धूली आकाश तल को सपशर नही कर सकती, वैसे ही िवचारपूवरक मनोमोह का सवरप भली
भाित जान लेने वाले पुरष को पाप, िजनका सवरप जगत मे िमथयाभूत कतृरतवािभमान से उतपन हुआ है वे (पाप) सपशर
नही कर सकते।।1।। हे शीरामजी, जैसे अनधकाररपी रोग का महान औषध दीपक है, वैसे ही जगदाकार मे फैले
हुए अजानरपी रोग का सबसे बडा औषध 'यह जगत अिवदामात है' इस पकार का िवचारजिनत जान ही है।।12।।
जैसे यह सवप है, इस पकार जाने गये सवप से सवािपक भोग भूम का सदा सवरदा क िलए िवनाश हो जाता है, वैसे ही
जयो ही यह अिवदा है, इस पकार अिवदा का सवरपजान हो गया, तयो ही उसका सदा सवरदा के िलए िवनाश हो जाता
है।।13।। जैसे जल मछिलये के नेतो को सपशर नही करता (यिद जल मछिलयो के नेतो को सपशर करेगा, तो नेतो
के बनध हो जाने के कारण जल मे उनके देखना आिद वयवहार ही लुपत हो जायेगे), वैसे ही वयवहार मे िनरत हुए भी
साधु पुरष को, जो िक अिदतीय परबह मे बुिद रखता है और भीतर से आसिकत विजरत है, अिवदारपी पाप सपशर नही
करता।।14।। हे शीरामजी, दैदीपयमान िचदूपी पकाश का उदय हो जाने पर अजानरपी राित सदा के िलए िवलीन
हो जाती है और परमाननद को पापत हुई जानी की पजा पकािशत रहती है।।15।। शासतरपी सूयर से बोिधत हुआ
पुरष अजानरपी िनदा का िवनाश होने के बाद उस िवजान को पापत करता है, िजसकी पािपत से मनुषय को िफर कभी
मोह नही होता।।16।।
अब िवदा की सतुित करते है।
वे ही िदन जीवनपूणर है और वे ही िकयाएँ आननद से युकत है, िजन िदनो और िकयाओं मे सदा सवरदा हृदयरपी
आकाश मे आतमारपी चनदमा से उिदत हईु िचदूिपणीजयोतसना िखल रही हो या पकाश रही हो।।17।। जैसे चनदमा
अपने अमृत से भीतर शीतलता को पापत करता है, वैसे ही मोह का अितकमण कर लेने वाला पुरष िनरनतर
आतमिचनतनरपी अमृत से अपने भीतर शीतलता को पापत करता है।।18।। वे ही िमत िमत है, वे ही शासत शासत
है और वे ही िदन िदन है, िजनके कारण वैरागयरपी उललास से युकत आतमाकार वृितरपी िचत का अभयुदय िवसपष
रीित से िसद होता है।।19।। पाप के िवनाश से विजरत अतएव िजन मनुषयो की आतमा को जानने मे उपेका है वे
जनमरपी जंगल के पौधे है, दीन है और िचरकाल तक संसार दुःखो से दुःिखत होकर शोक िकया करते है।।20।।
हे शीरामजी, िवषयािभलाषारपी सैकडो बनधो से बँध,े भोगरपी ितनको मे अतयनत लालच कर रहे, बुढापे के कारण
जजरर आकार को पापत हुए, शोकजिनत उचछवास से िवडिमबत हो रहे, दुःखरपी भारी बोझ के ढो रहे, जनमरपी जंगल
मे जी रहे, कुकमररपी कीचड से चारो ओर चुपड गये, मोहरपी सवलप जलाशय मे सो रहे, रागरपी दातो की पंिकतयो
से चबाये गये, तृषणारपी चमरमयी नासारजजू से (नाथ से) खीचे गये, मनरपी बिनये की आजा मे िसथत रहे,
बानधवरपी बनधनो के कारण चलने िफरने मे अशकत हुए, पुत और सती की िशिथलता से जिनत जीणरतारपी गोबर मे
बार-बार डू ब रहे, सदा थके हुए, िवशािनत से विजरत, आवागमन के दीघर मागों मे भगन, आवागमन के कारण चारो ओर
से कीण, संसाररपी अरणय मे चकर काट रहे, शीतल छाया को पापत नही हुए, तीवर िवषय संसगर जनय तापो से
संतािपत, केवल बाहरी आकार से सुनदर पर भीतर से दीन, बाहचकु आिद इिनदयो से पभािवत, कामय कमों मे रिच
बढाने वाले अथरवादरपी घणटानादो से भिमत, पापरपी कोडो के आघातो से पीिडत, जनम-मरणरपी गाडी के बोझ से
लदे हुए, अजानरप िवकट अटवी मे लुिठत अतएव भगन-शरीर, अपने अनथर मे ही सवरदा िनमगन, दुःखी, दीन,
जडीभूत शरीर, कमों के बोझे से सदा करण कनदन कर रहे इस जीवरपी बैल का संसाररपी सवलप तालाब से
दीघरकाल तक उतम पयत करके जानरपी बल से उदार करना चािहए।।21-29।।
उदार कर चुकने पर जीव के िफर कीचड मे फँसने की शंका का िनवारण करते है।
हे रघुवीर, तततवसाकातकार से िचत के कीण हो जाने पर जीव संसार मे िफर कभी जनम-गहण नही करता
और वह िचत की कयदशा मे संसार-सागर से पार हो जाता है।।30।।
उदार के उपायो का जान तो सदगुरओं के समीप जाने से िमलता है, इस आशय से कहते है।
हे शीरामजी, बडे-बडे सत्-पुरषो के समागम से संसाररपी समुद का उललंघन करने की युिकत उस पकार
पापत होती है, िजस पकार समुद का उललंघन करने के िलए नािवक से नौका पापत होती है।।31।। हे शीरामजी,
मरभूिम की नाई िजस भूिम मे मोकरपी फल को देने वाला और मानिसक शािनतरपी शीतलछाया को करने वाला
तततवज सत्-पुरषरपी वृक िवदमान न हो, वहा िवदानो को नही रहना चािहए।।32।। शीरामचनदजी, मनोहर और
तापोशामक शीतलवचन ही िजसके पते है, परोपकार परायणता ही िजसकी उतम छाया है और मुसकराहट ही िजसके
पुषप है, ऐसे सतपुरष रपी चमपा के वृक के नीचे मनुषय को कणभर मे ही आतयािनतक िवशािनत (आतमलाभरप िवशािनत)
पापत हो जाती है।।33।। िजसको तिनक भी िववेक हुआ हो, ऐसे बुिदमान पुरष को इस संसार मे सवलप भी िनदा
नही लेनी चािहए, जहा िक सवातमपािपत रप िवशािनत का अभाव है और जो महामोह से जिनत संताप रपी संपित को
देने वाला है।।34।। आतमा ही आतमा का िमत है, इसिलए इन साधुसमागम आिद उपायो अपने आप ही अपना
उदार कर लेना चािहए, न िक देहािभमान के गवर से जनम कीचड के समुद मे अपने को फँसा देना चािहए।।35।।
बुिदमान वयिकतयो को अपनी बुिद, शासत और सजजनो की सहायता लेकर पबल पयत से इस देहाधीन दुःख के िवषय
मे िवचार करना चािहए िक यह कया है ? कैसे आया ? इसका मूल कया है ? और इसका िवनाश िकससे हो सकता है
?।।36।। अजान मे डू बी हईु अपनी आतमा का उदार करने मे मनुषयो को धन, िमत, अनातमशासत और बानधव ये
कुछ भी उपकार नही करते।।37।।
तब कौन उपकार करता है, इस पश पर कहते है।
सदा सवरदा ही साथ रहने वाले िवशुदमनरपी िमत के साथ कुछ परामशर करने से आतमा संसार सागर से पार
हो जाता है।।38।। वैरागय और अभयासरपी पयतो के दारा िकये गये आतमिवचार से उतपन आतमतततव साकातकार
रपी बडे जहाज से यह भवसागर पार िकया जाता है।।39।। अनेक मनुषयो के दारा पितिदन शोक को पापत हो रहे
तथा दुष आशाओं के दारा दाह को पापत हो रहे आतमा की कभी उपेका नही करना चािहए, िकनतु अतयनत आदर से
इसकाक उदार करना चािहए।।40।। अहंकार ही िजसका मजबूत आलान (हाथी बाधने का खूँटा) है, तृषणा ही
िजसको बाधने की रससी है, मन ही गणडसथल से झरने वाला िजसका मद है और जनमरप कीचड मे जो फँस गया है,
ऐसे जीवरपी हाथी का उदार करना चािहए।।41।। हे शीरामचनदजी, इस आतमा की इतने ही यत से रका की जा
सकती है, िजतने यत से अपने अजान को दूर कर अहंकार िनकाल िदया जाय।।42।। मन के दारा रची गई बाह
और आधयाितमक आसिकतयो का िनरसन कर जो अहंकारभाव काट िदया जाता है, बस उतने काटने मात से ही
परमातमा का जान होने तक अनुिषत िवचार मे आतमा पूणररप से िवसपष-रीित से पकट भाव को पापत हो जाता है।।
43।।
उसमे भी दुसतयज देहािभमान का पिरतयाग ही मुखय है, इस आशय से कहते है।
काठ और िमटी के ढेले की तरह यह देह है, इस पकार का जो देखना है, उतने मात से ही देवािधदेव परमातमा
जाना जाता है।।44।। अहंकाररपी मेघ के िवनष हो जाने पर पहले चैतनयरपी सूयर िदखाई देता है, तदननतर
उस परमातमदशरन की भूिमका का पिरपाक हो जाता है और उससे परमपद पापत हो जाता है।।45।। जैसे अनधकार
का उचछेद हो जाने पर पकाश का पिरजान सवतः हो जाता है, वैसे ही अहंकार का िवचछेद हो जाने पर आतमा का
पिरजान सवतः हो जाता है।।46।। अहंकार के िवनष हो जाने पर जो िनरितशयाननद िवशािनत की सवरपभूत
िनिवरकलप अवसथा आिवभूरत होती है, वह पिरपूणर अवसथा है, उसी का उतम पयत से सेवन करना चािहए।।47।।
उसी िनिवरकलप अवसथा का वणरन करते है।
पिरपूणर समुद की तरह असीम वह िनिवरकलप अवसथा न तो सब लोगो के मन की िवषय है, न तो िकसी
उपमान से उपिमत की जा सकती है और न िवषयो के समबनधो को पापत करती है।।48।। यिद चेतन के
पकाशातमक अंश से गृहीत िसथरता को पापत तुरीय दृिष पापत हो, तो उसी तुरीय दृिष से िनवरकलप अवसथा का
(परमेशर-सवरपािवभाव-दशा का) सादृशय कहा जा सकता है, दूसरे का नही।।49।।
िकस तरीके से तुयावसथा की संभावना होगी ? तो इस पर कहते है।
तुयावसथा मे िसथत िनिवरकेपतव अंश को लेकर सुषुिपत के पास पहुँचा हुआ जो सादृशय है, उस सादृशय से
सुषुिपत अवसथा के समीप तुयावसथा संभािवत होती है यानी यिद सुषुिपत अवसथा मे अजानरपी आवरण न होता, तो वह
तुयावसथा ही होती, इस रीित से सुषुपत अवसथा से उसकी संभावना की जा सकती है। वह िनिवरकलप
परमातमभावावसथा समपूणर आकारो से पिरपूणर तथा आकाश-कोश की नाई सवरत वयापत है।।50।।
घट का िवनाश होने पर जैसे घटाकाश महाकाशसवरप हो जाता है, वैसे ही मन, अहंकार आिद उपािधयो का
िवनाश होने से तवं पद से लिकत होने वाले आतमा के सवरपभूत हो जाता है, ऐसा कहते है।
मन और अहंकार का िवलय होने पर समसत पदाथों के भीतर रहने वाली िजस िनरितशयननदातमक
परमातमसवरपावसथा का आिवभाव होता है, उस अवसथा का, जो सवयं समािध से िसद, तथा सुषुपत अवसथा के साथ
पूवोकतरप से िकसी अंश मे िमलती जुलती है, वाणी से पिरजान नही होता, केवल अपने इस हृदय मे ही उसका
अनुभव होता है, अपने अनुभव के िसवा उसका दूसरा पिरचायक नही है, यह भाव है।।51,52।। जैसे साधारण
खाड आिद के सवरप का अपने अनुभव के िसवा और िकसी दूसरे पमाण से पिरजान नही होता, वैसे ही आतमा के
सवरप का भी अपने अनुभव के िसवा और िकसी दूसरे पमाण से पिरजान नही होता।।53।।
यह सब सवरवयापक आतमसवरप ही है। यिद यह सब आतमा की ही सवरप है, तो उसके िकस तरह अनुभव
होता है ? इस पश पर कहते है।
जब िचत बाह िवषयो से उपरत हो जाता है और पतयगातमा मे कीरोदक के समान एकरसरप से उसका
िनशल पिरणाम हो जाता है, तब चर और अचरो के सवरपभूत तथा चकु आिद इिनदयो का साकीरप से पकाश करने
वाला आतमा सवयं ही अनुभूत हो जाता है, इस िवषय मे तिनक भी संशय नही करना चािहए।।54।। उस पकार
चतुथर भूिमका मे आतमा का अनुभव होने के अननतर पाचवी भूिमका मे िवषयवासनाओं का आतयािनतक िवनाश हो जाता
है, उसके बाद छठी भूिमका मे िकसी तरह के पयत के िबना ही शुभ परम पुरषाथररप अपने आतमा का सफुट पकाश
यानी सदा ही पूणरता का अनुभव िसद होता है। उसके बाद सातवी भूिमका मे समािध और असमािध की समता के
कारण िवषमता का अतयनत िनरास हो जाने से, समुद के भीतर िवलीन नमक के समान सव-सवरप मे सुखैकरसता
सवरप से पिरणमन होता है अथात् अपने मे ही परमातमभाव हो जाने से सवरपिनषा िसद हो जाती है। इस पिरणाम के
तततव का बहा आिद बडे-बडे देवता भी इयतारप से पिरजान नही कर सकते, कयोिक 'यतो वाचो िनवतरनते अपापय
मनसा सह' इतयािद शुितया है, यह भाव है।।55।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

चौसठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआआआ आआ, आआआआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआ
आआआआआ आआ
आआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआ आआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआ,
आआआआ आआ आआआ आआ आआआआआ।
आतमदशरन के उपायो की उपेका करने पर शोक, मोह आिद दुःखो की परमपरमा हट नही सकती, इस िवषय मे
भास और िवलास की आखयाियका का अवतरण करने वाला महिषर विसषजी कहते है-
कमलनयन शीरामचनदजी, 'पुत आिद मेरे है, यह देह आिद मै हूँ' इतयािद अिभमान का पिरतयाग कर शासत
आिद से संसकृत मन से ही संकलपातमक िचत का छेदन कर यिद आतमा का साकातकार नही िकया जाय, तो िचत मे
िलिखत सूयर के समान जगत्-रपी दुःख का कभी भी असत नही होता। पतयुत महान समुद की नाई असीम संसाररपी
िवपित अननतता को पापत करती ही रहती है।।1,2।।
जल के तरंगो की कीडाओं की हेतु, मेघो से और तजजिनत नील अनधकारो से शयाम तथा दुःख कारण
संसाररपी वषा ऋतु बार-बार आती रहती है।।3।। इसी िवषय मे सहािद के िशखर पर रहने वाले भास और िवलास
नाम के दो िवशुदातमा िमतो के संवादरपी इस पाचीन इितहास के िशखर पर रहने वाले है।।4।। अपनी ऊँचाई से
आकाश का अितकमण कर लेने वाला, उपतय का भाग से (तराई या पवरत के पास की भूिम से) पृथवी का अितकमण
कर लेने वाला और भूिम के भीतर पिवष मूलभाग से पाताल का अितकमण कर लेने वाला तीनो लोको मे िवजयी एक
पवरत है। उसका नाम है – सहा, उसमे भाित-भाित के असंखय फूल है, असंखय िनमरल झरने बह रहे है, गुहको (देव
िवशेषो) दारा वहा की धन-समपितयो की चारो ओर से रका की गई है, वहा के रतो की दीिपतयो से मनुषयो की दृिष
चकाचौध हो जाती है। मोितयो के समूह से भरे तथा मानिसक आिद रतो की दीिपतयो से पकािशत हो रही दीवारो से
युकत सुवणरमय िनतमब देश से वह गणडसथल से एरावत की नाई बडा भला लगता है। उस पवरत पर कही अनेक तरह
के पुषपो के समूह के समूह िमलकर पवािहत हो रहे है, कही हिरताल, गौिरक आिद धातुएँ भरी पडी है, कही िवकिसत
कमलो से सुशोिभत सरोवर है, कही रतो से युकत िशलाएँ है। उस पवरत पर िकसी सथान मे झरनो की गुनगुनाहट हो
रही है, कही वायु पवेश से बासो के मधुर शबद हो रहे है, कही गुहाओं से िनकला वायु सनसनाहट कर रहा है, कही
भमरो का मंजुल घुंघुम शबद हो रहा है। उसके िशखर पर अपसराएँ कही गान गा रही है, उसके वनपदेश मे मृग और
पिकयो के सुनदर शबद हो रहे है। उसके ऊपरी पदेश मे मतो की नाई मेघ गजर रहे है और आकाश पदेश मे पिकयो के
शबद हो रहे है।।5-10।। उस पवरत की गुहाएँ िवदाधरो से आिशत है, िजनमे भँवरो के मधुर गीत हो रहे है, ऐसे
कमलो का वह आगर है, उसके नीचे देश मे िकरात अपना िनराला गीत गा रहे है, वनो के वृको मे पिकयो का मधुर
कलनाद हो रहा है। सारे संसार का मानो यह दूसरा घर है, कयोिक उस पवरत का ऊपरी िहससा देवो से भरा है, नीचे
का िहससा मनुषयो से भरा है और पृथवी के भीतर का िहससा नागो से भरा है। उसकी छोटी छोटी कनदराओं मे िसद
लोग रहते है, भीतरी भागो मे अनेक िनिधया गडी है। चनदन-वृको मे सपर रहते है और िशखरे की चोिटयो पर िसंह रहते
है।।11-13।। उस पवरत का शरीर नीचे िगरे हुए पुषपरपी अभो से आचछािदत, ततकण िगरे हुए पुषपो का
अनतिरकसथ धूिलरपी अभ से धूलीमय, िगर रहे (उड रहे) पुषपो के झंझावातरपी भम से भानत-हृदय तथा पुषपो के
वृको से धवलवणर है। वह अनेक तरह की धातुओं की धूिलरपी अभो से किपलवषर और रतो की िशलाओं के ऊपर
अविसथत मनदार वृक के (कलपवृक िवशेष के) ऊपर आरढ िसद िसतयो की नाई मनोहर नगर िक अंगनाओं का चारो
ओर से आशय-सथान है।।14,15।। उप पवरत मे िजनहोने मेघरपी नील वसतो का पिरधान िकया है और मूक रतो
को धारण करने से अतयनत शोिभत हो रही है, ऐसी सुवणरमयी िशलारपी सुनदिरया िशखररपी पुरषो का आिलंगन
करने के कारण अिभसािरकाएँ बनी हुई है।।16।।
उस पवरत मे उतर िकनारे के िशखर पर जहा फलो से लदे िवनम वृक है, रतमयी अनेक बाविडयो से जल के
झरने बह रहे है और जो आमवृक की शाखाओं के दारा ऊपर की ओर िवसतािरत फूलो के गुचछो से तनतुर यानी ऊँचे
दातो से युकत होकर िसथत है, तथा िजसकी िदशाओं के तटो मे िवकिसत कोलक, पुनाग (शेत कमल) और नील
कमल िवदमान है, िजस पर सूयर लताओं के िवसतार से ढक जाता है, जो रतो के दीिपत समूहो से अतयनत पकािशत हो
रहा है, बह रहे जमबूरसो से पूणर है और सवगर सथान की नाई अतयनत आननद देने वाला है, महान, िसदो का शम हरने
वाला, बहलोक के सदृश, सवगर की नाई रमणीय, िशवजी के नगर की उपमावाला अतयनत सुनदर महामुिन अित का
आशम है।।17-20।। उस बडे िवसतीणर आशम मे आकाशमागर मे रहने वाले बृहसपित और शुक की नाई शासतो को
जाननेवाले िवदान तपसवी, िजनके नाम भी बृहसपित और शुक थे, रहते थे।।21।। िकसी समय की बात है वहा पर
एक ही आशम मे रहने वाले उन दोनो तपिसवयो के िवशुद सवरप वाले दो पुत ऐसे उतपन हुए जैसे िक तालाब मे दो
कमलो के पौधो मे फूलो की पकृित किलया उतपन होती है।।22।। उनके नाम थे-िवलास और भास। िपताओं के
सथान मे ही वे दोनो कमशः लता और वृक के दीघर पललवो की नाई बढने लगे।।23।। वे दोनो एक दूसरे के पित
अतयनत सनेह रखते थे, परसपर पयार करते थे और िमत थे। जैसे ितलो मे तेल और पुषपो मे सुगनध एक दूसरे से िमले
जुले रहते है, वैसे ही वे दोनो एक दूसरे से िमलजुल कर रहते थे।।24।। जैसे पुत के िलए िमले हुए अनुरकत पित-
पती एक दूसरे से अलग नही होते, वैसे ही वे दोनो कभी भी एक दूसरे अलग नही होते थे, उन दोनो के मन समान होने
के कारण ऐसा मालूम पडता था िक एक ही मन ने मानो दो भागो मे बँट कर दो सवरप धारण कर िलये है।।25।।
अतयनत मनोहर शरीरवाले वे दोनो बालक कमल मे दो भँवरो की नाई एक दूसरे से मुिदत होकर मुिनयो से िवरािजत
उसका सुनदर आशम मे उसी पकार पेमयुकत होकर िनवास करते थे।।26।। अलपकाल मे ही बालयावसथा का
अितकमण कर नवीन िपय उन दोनो ने उदय को पापत सूय़र और चनदमा के समान युवावसथा पापत की।।27।।
तदननतर जैसे अपने खोते से उडकर दो पकी अनयत चले जाये, वैसे ही वृदावसथा से पीिडत उन दोनो के वे दोनो
िपता (शुक और बृहसपित) शरीर को छोड परलोक चले गये।।28।।
िपताओं के मर जाने पर पानी से िनकाले गये कमल की भाित वे दोनो चेहरे से दीन, शरीर से सनतपत और
उतसाह से रिहत हो गये।।29।। हे रामजी, उकत बालको ने अपने िपताओं की दाह आिद िकया कर अतयनत िवलाप
िकया, कयोिक बडे-बडे िवदान भी लौिकक िसथित का उललंघन करने मे असमथर होते है।।30।।
शीरामजी, तदननतर औधवरदेिहक (मरण के बाद की) िकया कर वयथागसत उन दोनो ने शोक से िनकली
करणापूणर दीन वाणी से (िपताओं के िवषय मे) अतयनत िवलाप िकया, उनकी समसत सचेषाएँ िनकल गई, वे मरे नही,
पर िवलाप के कारण एका-एक अशूनय हृदय हो गये यानी मूिछरत हो गये और उस समय िचत मे िलिखत मनुषयो की नाई
उनकी िसथित हुई।।31।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

पैसठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआ आआआ
आआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ। आआआआआआ
महामुिन शीविसषजी ने कहाः वतस, गीषम के पचणड ताप से तथा दावािगन के ताप से सवागीण सूखे हुए
अरणय मे उतपन दो वृको के समान अतयनत शोक से परािजत िपता के िवयोगजनय संताप से सवागीण सूखे हुए वे दोनो
दृढ तपसवी अविसथत थे।।1।। घर, खेत, धन, आिद पदाथों मे अतयनत िवरिकत को पापत हुए वे दोनो बाहण, झुणड
से अलग हुए दो मृगो की नाई, अलग अलग होकर जंगल मे अपना-अपना कालकेप करते थे।।2।। तदननतर उसी
अवसथा मे कमशः उनके िदन, मास और वषर बीतते चले और वे दोनो, गडढे मे उतपन दो वृको की नाई, बुढापे को पापत
हुए।।3।। बहुत समय बीत जाने पर एक समय पारबधवश से कुछ समय िबछुडे हुए वे दोनो जजरर तपसवी, िजनहे
िवशुद जान पापत नही हुआ था, एक दूसरे से िफर िमल गये औऱ परसपर यह कहने लगे।।4।।
िवलास ने कहाः हे मेरे उतम जीवनरपी वृक के फल, हे मेरे हृदय मे सदा सवरदा रहने वाले अमृत के सागर
(चनदमा) और हे इस जगत के महाबनधो भास ! आपका सवागत हो।।5।। िपयवर, मुझसे अलग होकर तुमने इतने
िदन कहा वयतीत िकये ? यह बतलाओ। कया तुमहारी तपशया सफल हुई ?।।6।। हे साधो, कया तुमहारी बुिद
संसाररपी अिगन से जिनत संताप से रिहत हो गई ? कया तुमने तततवजान से आतमा पापत कर िलया ? कया तुमहारी
िवदा सफल हो गई ? अचछा, कहो तुम कुशल तो हो ?।।7।। शीविसषजी ने कहाः भद, उस पकार पश पूछने वाले
तथा संसार से उिदगन हुए अपने िमत (भास) अतयनत आदरपूवरक वकयमाण पकार से सपष कहने लगा।।8।। भास
ने कहाः हे माननीय साधु पुरष, मेरा तो आज ही आगमन शुभ हुआ कयोिक उतम भागयवश मुझको तुमहारा दशरन हो
गया। पर भैया, इस दुःखमय संसार मे चकर काट रहे हम लोगो की कुशलता कैसे हो सकती है ?।।9।। िपय
बनधो, जब तक जातवय वसतु का जान नही हो जाता, जब तक मन मे उतपन होने वाला काम, संकलप आिद नष नही
हो जाते और जब तक इस संसार के पार नही लग जाते, तब तक मै कुशल कैसे हो सकता हूँ ?।।10।। जैसे
लताओं के बनधन सरोते आिद से काटे जाते है, वैसे ही जब तक िचत मे उतपन हुई आशाएँ पूणररप से काटी नही
जाती, तब तक हमे कुशलता कहा ? जब तक आतमजान (शोिधत 'तवम्' और 'तत्' पदाथर का पिरजान) पापत नही हो
जाता, जब तक समभाव का उदय नही होता और जब तक अखणड वाकयाथर-बोध नही हो जाता, तब तक हम लोगो
की कुशलता कहा ?।।11,12।। हे साधो, आतमा की पािपत के िबना और जानरप महान औषध के िबना यह
संसाररपी दुष महामारी पुनः पुनः उतपन होती ही रहती है।।13।।
िपय िमत, यह संसाररपी दुष वृक हो पहले अंकुिरत होने पर शैशवरप िवकार टहनी रपी िवकास को पाता
है, तदननतर उसका अितकमण कर यौवनरपी पते धारण करता है और तदननतर जरारपी कुसुम से कुसुिमत होता है
वह बार-बार पापत होता ही रहता है।।14।। इस शरीररपी जीणर शीणर वृक से मरणरपी मंजरी (बौर), िजस पर
बानधवो के आकनदनरपी भँवरो के गुंजार शबद होते रहते है और वृदावसथा रप पुषप लगते है, बार-बार उतपन होती
रहती है।।15।। िजनमे कमों का उपभोग िकया जा चुका है, ऐसी वसनत आिद ऋतुओं से सारहीन, पाचीन िदवसो
से पूिरत अतएव पायः नीरस यह संवतसरो की परमपरा पुनः वयथर ही िबताई जाती है। भाव यह है िक यिद पाणी का
दुष पारबध हुआ तो उसको मरण के बाद नरक, सथावर भाव या पशु आिद िनकृष योिनयो मे जनम पापत हो जाता है
और यिद अचछा पारबध हुआ तो सवगर पापत होता है। मरण के अननतर यिद नरक आिद िमले, तो वहा पर वसनत आिद
ऋतुओं मे िजनमे की ठंडी, गमी, वायु, वषा, सपर, मचछर आिद दुःखदायी असंखय पितबनधक भरे पडे है दुषकृत कमों
का उपभोग करना ही पडता है, अतएव इस ऋतुओं मे सरसता कहा रही, इनही के कारण वसनत आिद छः ऋतुओं के
िमलने पर हुआ वषर भी िवरस ही होगा और सुतरा वषर परमपरा भी, इस अिभपाय से 'भुकतकमरतुरिवरसा' यह
'संवतसरावली' का िवशेषण है।
अचछे पारबध से मरण के बाद यिद सवगर िमला, तो वहा पर गया हुआ पाणी दूसरे पुणय का साधन कर नही
सकता, कयोिक सवगर मे केवल भोग ही भोग होता है, पुणय का संचय नही होता, जो पहले का संिचत पुणय होगा,
उसका तो वयय ही होगा। दूसरी बात यह है िक सवगर मे अपने अपने पुणयो के अनुसार ऊँचे नीचे फलो का उपभोग कर
रहे दूसरे जीवो को देखकर पाणी को हषर, असूया आिद होते है, ऐसी िसथित मे हषर, अमषर, असूया, काम आिद दोषो की
अिधकता से शम, दम आिद का अनुषान न हो सकने के कारण आतमजान की पािपत भई सवगर मे दुलरभ है। अतः
िवषयानुरिकत से िजन-िजन िवषयो का वहा पर बैठकर पितिदन उपभोग िकया जाता है, उन सबका पहले अनेक बार
उपभोग िकया जा चुका है, नवीन िवषय तो कोई है नही, अतः पाचीन अनुभूत िवषयोपभोग से िदन भी पाचीनपाय हुए।
वषातमक काल िदवसो से पूणर है, अतः 'एवंिवध पाचीन िदनो से पूिरत' एतदथरक 'पुराणिदवसोिमभता' यह दूसरा िवशेषण
'संवतसरावली' का है।।16।।
यिद दैवात् मरण के बाद िफर मनुषय का शरीर िमला, उसमे भी अतयनत दुलरभ बाहण आिद का शरीर िमले, तो
भी वतरमान शरीर के िमलने पर केवल िवषयासिकत के कारण हो रहा भमण जैसे दुवार है, वैसे ही उसमे भी भमण दुवार
ही होगा, इस आशय से कहते है।
फल ही िवषयोपभोग ही िजनमे भयंकर सपर रहते है, हजारो िवषयोपभोगो की तृषणाएँ ही िजनमे उतपन काटे भी
है, ऐसी देहरपी पवरत की महान भीषण गुफाओं मे यानी गुफाओं के सदृश देहरथ िछदो मे अविसथत इिनदयो की
आसिकतयो मे तथा ऐिहक एवं पारलौिकक भोगो की हेतुभूत लौिकक और वैिदक िकयाओं मे ही जीव सदा सवरदा
लुढकता रहता है, अतः उनमे भी आतमा और अनातमा के िववेक की संभावना नही है, यह भाव है।।17।। िजनमे
सुख के लेशमात आकार ही है, ऐसे िचरकाल और अलपकाल तक भोगय होने के कारण दीघर एवं अदीघर पुणय-पापातमक
कमररपी दुःखो से कभी समापत न होने वाले आगम और अपगमसे युकत राितया (कालमात) समसत जनमो मे आती और
जाती रहती है।।18।। िजनके फल िमथया ही है, तथा जो कुितसत आशाओं के आवेश से पललिवत है, ऐसे तुचछ
कमों के दारा िमथया आचरण करने वाले पुरष अपनी आयु यो ही नष कर डालते है।।19।।
जनमो-जनम िववेक के िवरोिधयो की पबलता और िववेक के सहायको की दुबरलता है, इसका सिवसतार वणरन
करते है।
िजसने परमातमा मे बनधन के हेतु िववेकरपी आलान को उखाड फेका है और िजसने तृषणा िवषयरपी हिथनी
मे कामासकत होने के कारण िनदा खो दी है, ऐसा मनरपी मदोनमत हाथी दूर-दूर चारो ओर दौडता रहता है।।20।।
िजससे परम पुरषाथर का हेतुभूत आयुरप िचनतामिण तथा िववेकरप िचनतामिण वयथर िगर रहा है, ऐसे शरीर वृक के
ऊपर अविसथत हृदयरपी बडे घोसले मे रहने वाला जीभ की चंचलता मे संलगन अतयनत पाचीन सवादु अन आिद मे
अिभलाषारपी गीध बढता ही रहता है।।21।। जीणर-शीणर पते के सदृश, रसशूनय, सुख से विजरत िदवसो से
पिरिचछन यह तुचछ शरीर लता िजसके अवयव कय, दुबरलता, रोग आिद से कायर मे असमथर हो गये है वह नष हो
जाती है।।22।। जैसे कुहरे से आहत (आकानत) कमल धूसर (मटमैला) हो जाता है, वैसे ही वृदावसथा मे पुत,
चाकर आिद के दारा जिनत अपमानरपी धूिल से आहत, शारीिरक शोभा से विजरत मुख धूसर हो जाता है।।23।।
जैसे सूख रहे सरोवर से राजहंस ततकण भाग जाता है, िफर कभी नही लौटता, वैसे ही यौवनरपी जल िजसमे से नष
हो रहा है, ऐसे सुख रहे शरीररपी सरोवर से आयु भाग जाती है, पुनः कभी नही लौटती।।24।। कालरपी पवन के
दारा बलपूवरक कँपाए गये जजरर जीवनरपी वृक से भोगरपी फूल और िदवसरपी पते नीचे िगरते जाते है यानी िवनष
हो जाते है।।25।। िजनमे भोग ही बडे-बडे सपर रहते है और िजनहोने आनतर दुःखातमक मेढको को धारण िकया है,
ऐसे मोहो के अनधकूपो मे अविसथत जल-पवाहो मे मन डू बता रहता है।।26।। अनेक तरह के अनुरागो मे लगी हुई
यह तरल तुचछ तृषणा, देवमिनदरो के ऊपर लगी पताका की नाई, ऊँची ही चढी रहती है।।27।। इस संसाररपी
तंत के (तातो के) जीवन आशा से भरे आयुरपी तनतु को महान् कालरपी िबल मे रहने वाला मृतयुरप चूहा सदा
कतरता रहता है।।28।। िजसमे यौवन ही बडे-बडे तरंग है, चल रही चंचल तलवार के सदृश काम, कोध, देष,
भय आिद ही िजस मे फेन है तथा लोभ, तृषणा आिद से यत-तत होने वाले पिरभमण ही िजसमे बडे-बडे आवतर है, ऐसी
जीिवतरपी दुष नदी वयथर ही जा रही है।।29।। िशलप, तकर, नीितशासत आिद कौशलो से वयापत जगत् के
वयवहाररप तरंगो से पिरपूणर, कुबधतारपी कोटरो से युिकत यह पवृितरपा नदी, िजसका पारावार ही नही है, पतयेक
जनम मे ऐसे ही िनरथरक बहती रहती है।।30।। ये बनधुजनो के समूहरपी असंखय निदया गमभीर कोटरवाले िवशाल
काल सागर मे िनरनतर िगरती रहती है।।31।। हे िपयवर, जनम-जनम मे यह नही जाना जाता है िक परमपुरषाथर
की साधनभूता यह देहरपी रतशलाका िवनाशरपी कीचड से पूणर सागर के पेट मे िकस जगह समा गई है।।32।।
िचरकाल से िचनतारपी चक मे बँधा हुआ तथा दुष िकयाओं के अनुषान मे िनरत यह िचत, समुद के िछदवाले बडे
आवतर मे घूम रहे तृण की नाई, घूमता रहता है।।33।। असंखयकायरपी तरंगो मे बह रहा तथा िचनतारपी ताणडव
नृतय से युकत िचत कणभर भी िवशािनत नही पा रहा है।।34।। मैने यह िकया, यह करता हँू और यह करँगा, इस
पकार की कलपनाओं के जाल मे फँसकर मितरपी पिकणी अतयनत मोिहत हो जाती है।।36।। भद, िचरकािलक
िचनता नदी के समान आवतर मे, िजसमे तरंगो के समूह भरे पडे है, अतयनत चपल मनरपी मतसय कण भर मे ही महती
वृिद को पापत हो जाता है।।37।। आतमा का तिनक भी सपशर नही करने वाले तथा अनातमभूत देह आिद की ही
शरण लेने वाले उस पकार के असंखय दुःखो को देहातमबुिद से बटोरकर पुरष दीनता को पापत करता है।।38।।
सब जनमो मे दुःख के सथान अनेक है, यो बतला रहे महानुभाव भास पकृत िवषय का उपसंहार करते है।
अनेकिवध सुख और दुःखो के बीच मे पडा हुआ, िवशाल जरामरणरपी आँधी से बार-बार मिदरत हुआ तथा
जगत्-रपी उदयाचल पर लोट रहा यह पाणी सूखे पते की नाई जजररता को पापत होता है।।39।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

छासठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआ, आआआआ आआआआआआ आआआआ आआ आआआ आआआआआ
आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ
आआ आआआआआ आआ आआआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ, आआ आआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः भद शीरामचनदजी, उन दोनो ने उस पकार संसार की असारता के िवचार से ओतपोत
कुशल पश एक दूसरे से िकया। तदननतर समय आने पर िवशुद जान पाकर वे दोनो मुकत हो गये।।1।। हे
महाबाहो, इसिलए मै कहता हूँ िक जाल के समान बनधन के हेतुओं से पिरपूणर िचत को संसार-तरण मे यथाथर
आतमजान के िसवा और दूसरा कोई उपाय नही है।।2।।
जैसे साधारण तुचछ पकी के िलए दुसतर सागर गरड जी के िलए गाय के खुरमात के समान है, वैसे ही पहले
िजस दुःख का वणरन िकया जा चुका है, वह यदिप असीम है, तथािप भवयमित (िववेकी) पुरष के िलए वह अतयनत
कोमल है यानी वह उसका उचछेद अनायास कर सकता है।।3।।
सथूल और सूकम दो देहो मे होने वाले अिभमान का पिरतयाग ही संसार के उचछेद का उपाय है, इस आशय़ से
कहते है।
जैसे तटसथ दशरक पुरष दूर से ही जनसमूह को देखता है, वैसे ही देहािभमान से रिहत, िचनमात सवरप
अपनी आतमा मे िनषा रखने वाले महातमा लोग दूर से ही देह को देखते रहते है।।4।। भले ही देह दुःखो से अतयनत
कुबध हो जाये, उससे हमे (आतमा मे) कौन सी कित पहुँची ? रथके घुरारिहत होने पर या तुट जाने पर सारिथयो को
कौन सी कित पहुँचती है ?।।5।। हे शीरामचनदजी, मन के कुबध हो जाने पर िचतसवभाव आतमा के पूणरतव-सवरप मे
कया कित हुई ? कया तरंगो के रप मे जल का िवसतार हो जाने पर पूणरसवभाव समुद मे िवपिरतय यानी पूणरतासवरप की
हािन पहुँचती है ?।।6।।
अहनता का तयाग होने पर िकसी को भी कही पर भी ममता की पािपत नही होती, इस अिभपाय से कहते है।
भला बतलाइये िक हंस जल के कौन और पाषाण जल के कौन होते है और िशलाएँ काषो की कौन होती है ?
अथात् कोई नही होती, वैसे ही भोग परमातमा के कौन होते है ? अथात् अचेतन और असंग िचत मे कभी भी ममता
नही हो सकती, यह भाव है।।7।।
शीरामजी, िजस पकार बीच-बीच मे अनेक पवरतो से वयापत होने पर भई उतर पवरत और दिकण समुद का
परसपर कोई समबनध नही है, वैसे ही परमातमा और संसार का भी परसपर कोई समबनध नही है। कया कही आकाश
रजजू से बाधा जा सकता है ?।।8।। अपनी गोद मे धारण िकये गये कमल भी जल के कौन होते है ? अथात् जैसे
कोई नही है, वैसे ही यहा आतमा के शरीर भी कोई नही है।।9।। जैसे काठ और जल के अनयोनय आघात से बडे-
बडे उतंग कण आिद उतपन होते है, वैसे ही देह और आतमा के तादातमयअधयास से सुख, दुःख आिद िचत वृितया
उतपन होती है।।10।।
आतमा का देह के साथ समबनध आधयाितमक है, इसमे दृषानत कहते है।
जैसे जल और काष के केवल सािनधय से ही जल मे काठ के पितिबमब िदखाई देते है, वैसे ही (आधयाितमक
समबनध से) आतमा मे शरीर िदखाई देते है।।11।। जैसे दपरण, तरंग आिद मे पडे हुए पितिबमब वासतव मे न सतय है
और न असतय है, िकनतु अिनवरचनीय है, वैसे ही आतमा मे पतीयमान शरीर भी न सतय है, और न असतय है, िकनतु
अिनवरचनीय है।।12।। जैसे परसपर आहत होने पर काठ, जल और पतथर कभी भी दुःिखत नही होते, वैसे ही
पृथवी, जल, तेज, वायु और आकाशरपी पाच भूतो के, जो देह आिद के सवरप मे पिरणत हुए है वे कोडा, चनदन आिद
से संयुकत अथवा सती, पुत आिद से िवयुकत होने पर कभी दुःिखत नही होते।।13।। जैसे काठ के साथ समबनध
को पापत जल से कमप, शबद आिद िकयाओं की उतपित होती है, वैसे ही सामीपय संसगर से चैतनय के दारा अिधिषत
होकर चारो ओर से बोिधत इस देह से कमप, शबद आिद िकयाएँ होती है।।14।।
भासमान सुख, दुःख आिद के अनुभव िकसको होते है ? इस शंका पर िकसी को नही होते, ऐसा समाधान
कहते है।
शुद चैतनय और जड देह को ये सुख, दुःख आिद के अनुभव नही होते, उकत केवल अजान को ही होते है,
जब अजान नष हो जाता है, तब हम लोगो की केवल शुद िचित ही अविशष रह जाती है।।15।। जैसे काठ और
जल का समपकर होने पर उनमे से िकसी को सुख और दुःख का अनुभव नही होता, वैसे ही देह और और देहािभमानी
आतमा का समबनध होने पर उनमे से िकसी को भी सुख, दुःख आिद का अनुभव नही होता है।।16।।
तब तततवज और अतततवज दोनो मे समानता ही रही, इस पर कहते है।
अजानी पुरष िजस रप से इस संसार को देखता है, इसको उस रप से सतय ही मान लेता है और जानी
पुरष िजस रप से इस संसार को देखता है, इसको उस रप से सतय ही मान लेता है और जानी पुरष िजस रप से
इस संसार को देखता है उसको उस रप से सतय नही मानता।।17।।
तब जानी पुरष को अपने पारबध के अनुसार होने वाले भोगानुभव िकस तरह के रहते है ? इस पर कहते है।
जैसे पतथर और जल के समबनध भीतर के अनुपवेश से विजरत होते है, यानी जल के भीतर न पतथर का पवेश
होता है और न पतथर के भीतर जल का पवेश होता है, वैसे ही जानी पुरष को आसिकत विजरत मानिसक वृितयो के
होने पर जायमान बाह िवषयो के अनुभव भीतरी संग से (अिभमान से) रिहत होते है।।18।। जैसे जल और काठ
का समबनध भीतर के समबनध से रिहत होता है वैसे ही देह और देही आतमा का समबनध भी भीतर के समबनध से
(परमाथर समबनध से) रिहत होता है।।19।। जैसे जल और काठ का तथा पितिबमब और जल का समबनध अनतःसंग
से रिहत यानी तादातमय समबनध से शूनय होता है, वैसे ही देह और देही का भी समबनध अनतःसंग से रिहत यानी
तादातमय समबनध से शूनय ही होता है।।20।।
पूवरशलोक मे जल और काठ का दृषानत संसगाभाव के बोधन के िलए और यहा तादातमय के अभाव के बोधन
के िलए िदया गया है, इसिलए पुनरिकत नही समझनी चािहए। शंका हो िक यिद सुख, दुःख आिद के जान का िनषेध
करते है, तो उनके जान को छोडकर इस संसार मे दूसरे जान का अभाव होने के कारण शूनयता ही पसकत हो जायेगी
? तो इस आशंका पर कहते है।
वेद िवषयो से रिहत शुद संवेदन ही सवरत अविसथत है, दैत से कलंिकत दूसरी संिवत है ही नही, कयोिक दैत
िवषय का िनरपण ही नही हो सकता।।21।।
जो असत् है, उसका भी भािनतवश अिसततवरप से भान होता है, यह कहते है।
जैसे वेतालरप से भावना करने पर अवेताल वसतु भी िवशाल वेताल सवरप हो जाती है, वैसे ही दुःखशूनय
चैतनयरप आतमा भी अनतःकरण मे दुःख भावना करने से सपष दुःिखतवरप से भासने लगता है।।22।। जैसे
वासतव मे समबनध न होने पर सवािपक अंगना के साथ कीडा आिद वयापार मे आधयािसिक समबनध हो जाता है अथवा
जैसे वेतालरप न होने पर ठूँठ अँधेरे मे आधयािसक समबनधवश वेतालरप हो जाता है, वैसे ही आतमा के साथ वासतव
मे देह आिद का समबनध न होने पर भी मन की भावना से उसके साथ देहािद का आधयािसक समबनध हो जाता है।।
23।। जैसे जल और काठ का परसपर समबनध असत्-पाय (िमथयारप ही) है वैसे ही शरीर और परमातमा का
समबनध भी िमथया ही है।।24।। जैसे भीतरी समबनध का (अहनता के अधयास का) अभाव होने के कारण काषो के
पतनो से जल पीिडत नही होता, वैसे ही देह आिद के अधयासो से शूनय आतमा शारीिरक दुःखो से पीिडत नही होता।।
25।। िवदाने का यह िनिशत मत है िक चूँिक देह मे अहंभावना करने से ही आतमा देह के दुःखो से दुःिखत है,
इसिलए देह भावना का पिरतयाग करने से ही पुरष मुकत हो जाता है।।26।। हे िपय शीरामचनदजी, छोटे तालाब मे
िगरे हुए पते, जल, मल और काष एक दूसरे से यदिप समबद है, तथािप अहनताधयास से रिहत होने के कारण जैसे
दुःखी नही होते, ऐसे ही आतमा, देह, इंिदय और मन एक दूसरे से यदिप पयापतरप से समबद है, तथािप अहनताधयास
का वासतव मे अभाव होने के कारण वे परमाथरतः दुःख से रिहत ही सदा सवरदा रहते है।।27,28।। हे शीरामजी,
संसार मे अहनताधयास ही समसत पािणयो के जरा, मरण और मोहरपी वृको का उपादान कारण यानी मूल कारण है।।
29।। जो जीव अधयासयुकत है, वह इस संसाररपी सागर मे डू बा हुआ है और जो अहनताधयास से िनमुरकत है, वह
संसाररपी सागर से पार हो चुका है।।30।। अहनताधयास से युकत मन, काम आिद वृितयो की असंखयता के
कारण, अननत शाखा-पशाखाओं से युकत वृक के सदृश कहा जाता है और अहनताधयास से विजरत मन िवलीन िचत
कहा जाता है।।31।। शीरामजी, आप मुझसे यह जान लीिजये िक जैसे भीतर से खिणडत हुए सफिटक िनिमरत िलंग
आिद पूजा के िलए अपावन यानी अयोगय हो जाते है, वैसे ही िवषयासकत हुआ यह मन अपिवत हो जाता है और जैसे
खिणडत न हुए सफिटक आिद से िनिमरत िलंग आिद पिवत रहते है, वैसे ही िवषयो मे आसिकत से विजरत यह मन सदा
सवरदा पिवत ही रहता है।।32।। िवषयो की आसिकत से विजरत और िवकेप आिद मलो से रिहत िचत संसारी होता
हुआ भी अतयनत बनधन से गसत ही है।।33।। अहनता आिद अधयास से युकत मन संसाररपी बनधन से बँधा है और
अहनता आिद अधयास से रिहत मन संसार रपी बनधन से छू टा हुआ है, अकेला अहनता अधयास ही बनध और मोक के
कारण है।।34।। जैसे बडे बडे काष भारो कको पार उतारने वाली जलसथ नौका सवयं लकडी की होती हुई भी
लकडी के छेदन, भेदन, दहन आिद गुण-दोषो से तथा जल के चलन, पिरवतरन, िनमरलपन, गनदेपन आिद गुण-दोषो से
गुण-दोषवती नही होती, वैसे ही अहनता आिद अधयास से िनमुरकत पुरष शरीरयाताथर सब कुछ करता हुआ भी, कता
नही होता।।35।। जैसे सवप मे जो सुख और दुःख दोनो से भरा है, वासतव मे कुछ न करने पर भी सवपावसथायुकत
जीव को बाघ आिद से जिनत भय, पलायन आिद मे वयाकुलता हो जाती है, वैसे ही वासतव मे कता न होने पर भी जीव
अहनता आिद के अधयासवश कता हो जाता है।।36।। जैसे सवपावसथा मे देह की चेषा न होने पर भी िचत की
कतृरता से आतमा मे कतृरतव िवदमान है, वैसे ही पुत, सेवक आिद को देख रहे जागदवसथा युकत आतमा मे देह की चेषा
न होने पर भी सपषरप से िचत की कतृरता से कतृरतव िवदमान है, यह कतृरतव भी मुखय कतृरतव के सदृश ही एक तरह
से है, कयोक िवकुबध को (चंचल िचत को) सुख दुःख देखे जाते है।।37।। मन के कतृरतव न होने पर आतमा का
अकतापन सपषरप से िसद हो जाता है, कयोिक शूनयिचत पुरष कता होते हएु भी अिभमान नही करता।।38।।
शीरामजी, िचत जो िकया गया है, उसी का आप फल पाते है और िचत से जो नही िकया गया है, उसका फल नही
पाते है। देह कही कमर के पित कारण नही है कयोिक िचत मे कतृरतव शिकत नही है, यह बात नही है, अतएव िचत की
कतृरतवशिकत से ही सब कमों की िसथित हो जायेगी, िफर देह मे कतृरतव मानने की कोई आवशयकता नही है।।39।।
यदिप मन भले ही कुछ करे, तथािप यिद वह उसमे आसकत नही है, तो वह अकता के सदृश ही है। आसिकत विजरत
मन कमों के फलो का भोकता नही होता, यो तततवज महानुभाव कहते है।।40।। दूर देश मे अविसथत कानता मे
िजस पुरष का मन आसकत है, वह पुरष जैसे सामने के कायों से (शीत, उषण आिद के अनुभवरप कायों से) िलपत
नही होता, वैसे ही आसिकत विजरत पुरष बहहतया, अशमेध आिद के पुणय-पापो से िलपत नही होता।।41।। अहनता
आिद अनातम अधयासो से िविनमुरकत जीव िवकेपो से शूनय सुखो का पूणर अनुभव करता है। वह बाहर से कुछ करे या
कुछ न करे, पर सवरथा कतृरतव और भोकतृतव से रिहत ही है।।42।।
आसिकत का तयाग करने से ही सभी जीवनमुकत पुरष के गुण मन मे िसद हो जाते है, इस आशय से कहते
है।
शीरामचनदजी, जो अनतःकरण भीतरी आसिकतयो से शूनय होगा, वह न कता होगा, न बद होगा, न अयुकत
होगा और न िलपत होगा अथात् अकता, िवमुकत, पशानत, युकत और अिलपत ही होगा।।43।।
उपसंहार करते है।
हे शीरामजी, इससे सबके भीतर रहने वाले आतमा से िभन बाहर से लगे हुए पाच कोशो का तथा भोगयवगररप
बनधनो मे डालने वाले समसत पदाथों का िनरास करने मे यही एक मुखय उपाय िनिशत हुआ िक अिखल दुःखो को देने
वाली कूर आसिकत का पिरतयाग करना चािहए यानी इतने िवचार से यही िनिशत हुआ आसिकत पिरतयाग ही बनधन के
िनरास मे हेतु है, यह तातपयर है।।44।।
हे राघव, तीकण धारवाले तलवार आिद शसत के समान नीले यमुना जल मे िमिशत हुआ सफिटक मिण की नाई
अित सवचछ गंगाजल जैसे (उसके साथ) एकरपता को पापत हो जाता है, वैसे ही आसिकत दोष से रिहत, अतएव
संसारदशा से पाकतन पतयक्-तततव को, जो आकाश के समान िनमरल कािनतवाला है, पापत हुआ मन समसत पपंच के
उपशमरप मलो से शूनय परमातमा के साथ एकरपता को पापत हो जाता है।
िसथित पकरण उपशम पकरण

सडसठवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ, आआआआआआआ-आआआआआआआआआआआआआ
आआआ आआ आआ। आआआआआआ
शीरामजी ने कहाः भगवान्, संग िकस पकार से होता है ? िकस तरह का संग मनुषयो को बनधन मे डालता है
? कैसा संग मोक का कारण है ? और संग की िचिकतसा (िनवृित) कैसे की जा सकती है ?।।1।।
विसषजी ने कहाः भद, शरीर (केत) और शरीरी (केतज) आतमा का जो िवभाग है यानी शरीर जड है और
आतमा चेतन है, यो जो उनकी िवरद सवभावता है, उसका भली पकार केवल पयालोचन न करने से ही एक दूसरे का
तादातमय और एक दूसरे मे एक दूसरे के धमों का िविनमय होता है। इसी िविनमय भावना से शरीर मे उतपन हुआ जो
आतमािभमान है यही संग कहलाता है और इसी संग से संसाररपी बनधन उतपन होता है।।2।।
संग के अनयानय लकण कहते है।
आतमा का सवरप असीम है यानी उसका काल से, देश और वसतु से िकसी तरह पिरचछेद नही हो सकता,
अजानवश उसमे उकत ितिवध पिरिचछनता का िनशय हो जाने पर जीव का अपना अपिरिचछन सुखसवभावता का
िवसमरण हो जाता है, इस पकार के उकत िवसमरण से इधर उधर के तुचछ िवषयो से वह आभयानतर सुख चाहने लगता
है, अतः जो वैषियक सुखािथरता है, यही बनधन की हेतु संग कहलाती है।।3।।
बनधन हेतु आसिकत की िवरोिधनी असंग िसथित का लकण कहते है।
शीरामजी, यह िदखाई दे रहा समसत पपंच आतमसवरप है, इसिलए मै उसमे से िकसको चाहूँ और िकसको
छोड दूँ, इस पकार की पिरपकव िवचारणा से जिनत जीवनमुकत के शरीर की जो अवसथा है, उसे आप असंग-िसथित
जािनये।।4।। मै अहंकार से पिरिचछन (सवलपता को पापत) नही हूँ, मेरे िसवा दूसरा कोई नही है, इसिलए िमथयाभूत
शरीर मे िवषयो से जिनत सुख हो चाहे न हो, मै तो देहािदक के साथ कभी संग को पापत न होने वाले सवभाव से युकत
हूँ, इस पकार िजसका भीतर से दृढ िनशय है, वह मनुषय मुिकत का अिधकारी कहलता है।।5।। हे शीरामजी, जो
अपने सवरकमरतयाग की यत तत बडाई नही करता, जो फल के उदेशय से कमों मे अिभिनवेश नही करता, जो फल की
िसिद और अिसिद मे सदा एक सा रहता है और जो ईशरापरण बुिद से कमरफलो का पिरतयाग कर देता है, वही पुरष
अससंकत कहलाता है।।6।। सदा सवरदा केवल आतमसवरप मे िनषा रखने वाले िजस महातमा का अनतःकरण हषर
और कोध के वश मे नही होता, वही लोक मे असंसकत और जीवनमुकत कहा जाता है।।7।। जो पुरष, अतयनत
कुशलतापूवरक समपूणर कमर और तजजिनत फल आिद केवल मन से ही, न िक कमर से, पिरतयाग करता है, वह
असंसकत कहलाता है साधारण लोगो को अचछे अचछे कमों मे पवृत कराने के िलए बाहर से तो वह कमर आिद का
अनुषान करता रहता है, पर भीतर से उनमे आसिकत नही रखता। यह 'न कमरणा' इस वाकय से बतलाया है।।8।।
तीन पशो का समाधान कर चतुथर पश का समाधान करते है।
हे राघव, संसिकत के अभाव से अनेक तरह के फलानुरागो दारा उतपन हुई िनिखल दुष चेषाएँ िवनष हो
जाती है और शवण आिद शुभ चेषाएँ िनिवरघतापूवरक कलयाण का समपादन करती रहती है।।9।।
अब आसिकत से होने वाले पिरणामो का िवसतारपूवरक िनरपण करते है।
भद, आसिकत से िवसतार को पापत हईु समसत दुःखरािशया गडडे मे उतपन काटेवाले वृको की नाई हजारो
शाखा-पशाखाओं मे फैल जाती है।।10।। िजसका नाक नाथ से खीचा गया हो, ऐसा गदहा भयभीतातमा होकर जो
अपनी गित से मागर मे भार ढोता है, वह आसिकत के फल का ही एक िवसतार है। िकसी देश मे गदहे को भी नाथ
लगाते है। अथवा 'गदरभ' शबद को बैल आिद भारवाहक गामय पशुओं मे उपलकण मान लेना चािहए।।11।।
वृक एक सथान मे चुपचाप खडा होकर अपने सथावर शरीर से ठंड, वायु और धूप के कलेश को जो सहता
(अनुभव करता) रहता है, वह भी आसिकत के फल का ही िवसतार है।।12।। भूिम के िबल मे पडा हुआ अतएव
अपने अंगो मे पीडा का अनुभव कर रहा बेचैन कीट जो काल काट रहा है, वह भी आसिकत के फल का िवसतार
है।।13।। कुधा से िजसकी पाख कृश हो गई है तथा िजसकी बुिद बाण, पतथर, िमटी के ढेले आिद के अिभघात से
भय गसत हो गई है, ऐसा वृक की शाखाओं पर शयन कर रहा पकी अपनी आयु को जो खपाता है, वह आसिकत के फल
का िवसतार है।।14।। दूब, कोपलो और ितनको का आहार करने वाला मृग भीलो के बाणो की पीडा से अपनी देह
को जो छोड देता है, वह भी आसिकत के फल का िवसतार है।।15।। पुणय और पाप के अिधकारी ये जन-समूह
धवसत-िवधवसत होकर बार बार जनम धारण कर रहे कृिम और कीट भाव को जो पापत होते है, वह संसृित के फल का
िवसतार है।।16।। जलाशय मे तरंगो की नाई ये असंखय भूत(पाणी) उतपन होकर जो िवलीन हो जाते है, वह भी
संसिकत के फल का िवसतार है।।17।। लता और ितनको के समान शिकतहीन दशा को पापत अतएव चलने -िफरने
की शिकत से शूनय मनुषय पुनः पुनः जो मर जाते है, वह संसिकत के फल का िवसतार है।।18।। भूिम के अनदर
िसथत जल को अपने अपने मूलो से पीकर तृण, गुलम, लता आिद अपने अपने िवजातीय सवरप को जो उतपन करते
है, वह भी संसिकत के फल का िवसतार है।।19।। अपनी अनथर परमपराओं के अनुरप िवयोग, भािनत, पतन आिद
हजारो िवकेपो के हेतु असंखय बाह और आभयनतर पदाथों से पिरपूणर यह संसाररपी नदी जो बढने पाई है, वह संसिकत
के फल का िवसतार है।।20।। हे शीरामजी, आसिकत दो पकार की कही गई है एक वनदा (वंदनीय) यानी पशसत
और दूसरी वनधया यानी पुरषाथर फल से शूनय। इनमे पहली वनदा आसिकत खुद तततवज महातमाओं की है और दूसरी
वनधया सवरत पिसद समसत अजािनयो की है।।21।। आतमतततवजान से रिहत, देह आिद असतय वसतुओं से जिनत
जो अतयनत दृढ यानी िचरकाल से भािवत पुनः पुनः संसार मे आसिकत है, वह वनधया आसिकत कही जाती है।।
22।। आतमा के सवरपजानरप हेतु के दारा यथाथर और अयथाथर वसतु के (िनतयािनतयवसतु के) िववेक से उतपन
हुई, अबाधय आतमतततव का अवलमबन करने वाली जो पुनः संसार से शूनय आसिकत है, वह वनदा आसिकत कही जाती
है।।23।।
सवोतकषर की समपादक यही वनदा आसिकत है, ऐसा कहते है।
शीरामजी, िजनके हाथो मे शंख, चक गदा है, ऐसे भगवान िवषणु इसी िवनदा संसिकत के पभाव से िविवध
मतसय आिद अवतारो मे की गई लीलाओं दारा तीनो लोको का पालन करते है।।24।। इसी वनदा संसिकत की
सामथयर से भगवान सूयरनारायण आकाशमागर मे िकसी पकार का अवलमबन िलए िबना पितिदन िनरनतर संचरण िकया
करते है।।25।। हे राघव, िजसने पाकृत पलय मे िवदेह-कैवलयरप परम शािनत के िलए दो पराधर वषर पयरनत हिर
आिद िक कलपना की है, ऐसा िहरणयगभर का शरीर वनदा संसिकत की ही सामथयर से वयवहार करता है।।26।।
केवल लीला से गौरीरपी आलान (बनधन-सतमभ) मे आसकत तथा भसम से अतयनत सुशोिभत महादेवजी का शरीर इसी
वनदा संसिकत की सामथयर से अविसथत है।।27।। िजनहोने आतमतततव के िवजान मे दृढ पितषा पाई है, ऐसे िसद,
लोकपाल तथा अनयानय देवता जो इस जगत के पागण मे िसथत रहते है, वह भी वनदा संसिकत की सामथयर है।।
28।। तीन लोको से िभन अनयानय भुवन (महः, जनः, तपः आिद लोको मे रहने वाले तततवज महातमा लोग) मरण से
रिहत शरीर के यनतो के समूहो को जो धारण करते है, वह भी वनदा संसिकत की सामथयर है।।29।।
वनधया संसिकत मे वनधयातव (िनषफलतव) ही है, इसका उपपादन करते है।
मास के टुकडो मे गीध की नाई िवषयो मे झूठमूठ रमयतव की कलपना कर जो मन झपटता है, वह
वनधयासंसिकत की सामथयर है।।30।।
मुकत और अमुकत दोनो के सारे वयवहार संसिकत से ही होते है, यो िवसतारपूवरक बतलाते है।
संसिकत के पभाव से वायु समसत भुवनो के कोटरो मे बहता है, पाच भूत अपने अपने सवरप मे रहते है और
यह जगत्-िसथित चलती है।।31।। संसिकत के पभाव से बहाणडरपी गूलर के फल मे मचछरो की नाई अपना
अपना वयवहार कर रहे देवता सवगर मे, मनुषय पृथवी मे, सपर और असुर पाताल मे अविसथत है।।32।।
हे रामजी, समुद मे तरंगो की नाई ये असंखय भूत जो उतपन होते है, मरते है, िगरते है उठते है, यह भी
संसिकत का िवलास है।।33।। झरनो के जलकणो के समान उड-उड कर िवरसतापूवरक ये भूत जो िवलीन हो जाते
है, वह भी संसिकत का पताप है।।34।। मछली के सदृश एक दूसरे के अंगो को िनगल रहे, जडता से जजरर तथा
भमगसत ये जनसमूह आकाश मे शीणर शुषक पते के समान जो भमण कर रहे है, वह भी संसिकत का पताप है।।
35।।
िपय रामजी, वृक के ऊपर मचछरो की पंिकत की नाई पाताल मे जल-पवाह के सदृश आवतर वृित धारणकर
आकाश मे जो नकत चक घूम रहा है, वह भी संसिकत की सामथयर है।।36।। कभी उदय तो कभी असत, कभी वृिद
तो कभी हास, कभी उतथान तो कभी पतन इस िविवध दशाओं से सदा ही िशिथल, कालरपी बालक के गेद रप,
जडतायुकत, जलमय तथा अनेकिवध कलंको से मलान चनद का शरीर यदिप इन बहुिवध दोषो के कारण पिरतयाग
करने योगय है, तथािप आज तक जो वह नही छोडता, यह ससंिकत का ही पिरणाम है।।37।। अनेक तरह के
अपार युगावतों के दुःखानुभव से कठोर हुए मनोरपी छेदनयोगय वरणिवशेष के दुःख से दुःखी इनद आिद देवगण भी जो
उचछेदन दारा उसकी िचिकतसा नही करता, वह भी संसिकत का फल है।।38।।
केवल आतमा और अनातमा के िववेक से उतपन जान से ही संसिकत का उचछेद हो सकता है, इसका िदगदशरन
कराने के िलए आसिकत का िवषय जगत् केवल वासना से ही किलपत है, यह कहते है।
हे राघव, वासना के वश से िकसी ने सवोतकृष िचदाकाश मे इस िविचत जगतरपी िचत की रचना की है,
उसे आप देिखये।39।। शीरामजी, शूनय आकाश मे केवल मन के असंगरपी रंग से बनाया गया जो जगदूपी िविचत
िचत है, वह कभी भी सतय नही हो सकता।।40।। जैसे अिगन की जवाला ितनको को खा डालती है, वैसे ही तृषणा
इस संसार मे आसकत मनवाले वयवहारी जीवो के शरीरो को खा डालती है।।41।।
आसिकत दोष से पापत हुए तथा तृषणा के दारा खाये गये शरीर असंखय है, यह कहते है।
हे शीरामचनदजी, भला बतलाइये िक समुद की बालु और तसरेणुओं की िगनती करने के िलए कौन समथर हो
सकता है ? अथात् जैसे कोई नही हो सकता, वैसे ही चारो ओर से िवषयो मे आसकत मितवाले जीव के शरीरो की
िगनती करने के िलए कौन समथर हो सकता है ? अथात् कोई नही हो सकता।।42।। चोटी से लेकर मूल तक मेर
पवरत का अवलमबन करने वाली मोितयो की लतारपी गंगा के तरंगरपी मोितयो की गणना कदािचत कोई कर सकता
है, पर आसकत िचतवाले जीवो के शरीरो की गणना तो कोई नही कर सकता।।43।। िजनका िचत संसार मे
आसकत है, उनही जीवो के िलए ये रमय अनतःपुर की पंिकतया, िजनके नाम रौरव, अवीिच, कालसूत आिद है, िकसी
कारीगर ने बनाई है।।44।। शीरामजी, आसकत िचतवाला अतएव दुःखो से सूखा हुआ पुरष जल रही नरकरपी
अिगनयो के िलए एक तरह से इनधन का संगह (समूह) है, यह आप जािनये, कयोिक नरकरपी अिगनया उसी काष-
संचय से जलती है।।45।। इस जगती-तल मे जो कुछ भी दुःखजाल है, वह सब आसिकतिचत पुरषो के िलए
किलपत है।।46।। जैसे जल के तरंगो से संविलत बडी-बडी निदया समुद के पित जाती है, वैसे ही समपूणर दुःखो
की परमपराएँ आसकत िचतवाले पुरष के पित जाती है।।47।। िचित-शिकत ही िजसका सवरप है, िजसने भारभूत
शरीर को धारण िकया है और जो जीव के िलए जनम और मरण की अवसथा चाहती है, उस अिवदा ने ही इस समसत
पपंच का िवसतार िकया है।।48।। हे शीरामजी, जैसे वषाकाल मे बडी-बडी निदया महान िवसतार को पापत होती है,
वैसे ही िवषयोपभोगो मे आसिकत न करने से समपूणर िवभूितया महान िवसतार को पापत होती है।।49।। हे रामजी,
भीतरी आसिकत शरीरो के िलए अंगारे है और भीतरी आसिकत का पिरतयाग अंगो के िलए उतम रसायन है, यह आप
जािनये।।50।। अवलमबन के िलए तृणिवशेषो को चाहने वाली लता जैसे अवलिमबत तृणो से जिनत अिगन से दगध
हो जाती है, वैसे ही अनदर मे अविसथत संसिकतरपी अिगन से पकृितभूत जीव भी दगध हो जाता है।।51।।
यहा पकृित के कायर देह आिद के साथ जीव का समबनध होने के कारण जीव 'पकृित' कहा गया है।
आसिकत से शूनय अतएव आकाश के समान िनमरल-सवरप से अविसथत, चारो ओर से शानत, असत् के
सदृश, सत के समान भासमान मन सवरत सुख का ही हेतु है।।52।। िवदा िवषय मे उतम उदय हो पापत हुए यानी
पबुद हुए अिवदा िवषय मे (पपंच मे) कय को पापत हुए यानी अनुसनधान से शूनय हुए तथा सवरत दृशयसतुओं मे आसिकत
से विजरत हुए अपिन अनतःकरण से जो पुरष सदा-सवरदा अविसथत रहता है, वही पुरष जीवनमुकत कहलाता है।।
53।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

अडसठवा सगर समापत


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आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआ आआआआआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआ आआआआआआआआआआआआआआआ आआआ
आआआआआआआ आआआ
आआआआआआआआआआआआ आआआ आआआआ आआ आआ आआआआ आआ, आआ आआआआ ।आआ आआआआ
शीविसषजी ने कहाः हे रामचनदजी, िववेकी िवदान पुरष भले ही सवरदा तत् तत् समय के योगय समसत
वयवहारो मे िनरत रहे, भले ही तत्-तत् वयवहार मे उिचत सभी िपय, पुत आिद के साथ रहे, भले ही िनिषद लौिकक एवं
शासतीय समसत कायों मे वयसत रहे, तथािप उसे अपने मन को वैसा बनाना चािहए, जैसे मै अभी आगे जाकर कहूँगा।
अथवा एक काल, एक देश और एक सेवक आिद के सहभाव से कितपय कमों मे ततपरता-संपादक पिरिचछन संसिकत
का पिरतयाग करने के िलए पहले समपूणर देश, काल आिद समसत उपकरण सामगी से िनिखल जगत के वयवहाररप
कमों मे सवयं िनरत होकर भी पीछे से अपने मन को वैसा बनाना चािहए जैसे मै आगे वणरन करँगा।।1।। न साधय
पदाथों की चेषाओं मे, न अतीत काल की वसतुओं की िचनताओं मे, न वतरमान कालीन वसतुओं मे, न आकाश मे, न
नीचे, न मधय मे, न िदशाओं मे और न लताओं मे मन को आसकत करना चािहए।।2।। न आिधभौितक भाया, चाकर
आिद िवषयो मे, न उनके उपभोग की इिनदयवृितयो मे, न आधयाितमक वसतुओं मे और न पाण, मूधा तथा तालू मे – जो
योग शासत मे विणरत कामय िसिद अनुकूल धारणा के सथानसवरप है – मन को कभी आसकत नही करना चािहए।।
3।। न भौहो के बीच मे, न नािसका के मधय मे, न मुख मे, न दिकण नेत की कनीिनका मे, न अनधकार मे, न पकाश
मे और न इस हृदयरपी आकाश मे मन को आसकत करना चािहए।।4।। न जागत मे, न सवप मे, न सुषुिपत मे, न
शुद सततवगुण मे, न तमोगुण मे, न पीतरकत आिद रजोगुण मे और न गुणो के समाहार मे मन को आसकत करना
चािहए।।5।। न कायर वगर मे, न िसथरकारण अवयकत मे, न सृिष के आिद काल मे, न मधय काल मे, न अनतकाल
मे, न दूर मे, न समीप मे, न सामने , न नामरपातमक पदाथर मे और न जीव मे मन को आसकत करना चािहए।।6।।
न रप, रस, गनध, सपशर और शबद मे, न िवषयािभलाषा की परवशतारपी मोह मे, न िवषयोपभोग-फलरपी
आननदवृितयो मे, न खेचरी आिद िसिदयो मे, न अतीत-अनागत वसतुओं का पिरजान होना, दीघरजीवी होना आिद
िसिदयो मे मन को आसकत करना चािहए।।7।। िनशल बुिद का सािकभूता िचित मे केवल िवशािनत कर पिरपूणर
भूमाननद से युकत अतएव सवरत दृशय पदाथों मे नीरस-सा होकर अविसथत होइये।।8।।
'इव' शबद से यह िदखलाया िक मन की इस पकार की िसथित भी िमथया ही है।
उस पकार िचित मे िवशािनत पाकर अविसथत हुआ जीव समसत संगो से रिहत होकर बहभाव को पापत हो
जाता है। बहभाव को पापत हुआ यह जीव इन समसत वयवहारे को चाहे करे, चाहे न करे, उससे कुछ भी उसका
िबगडने नही पाता।।9।। जैसे आकाश मेघो के साथ तिनक भी समबनध पापत नही करता वैसे ही अपने सवरप मे
िनरत जीव, िकयाओं का (िविहत या िनिषद कमों का) अनुषान करे चाहे न करे, पर िकयाजिनत फलो के यानी सवगर,
नरक आिद के साथ तिनक भी समबनध पापत नही करता।।10।। अथवा पूवोकत सािततवक बुिद का भी पिरतयाग
कर िनिवरकार िचत्-सवरप जीव अपने सवरप मे उस पकार शानत होकर अविसथत रहे, िजस पकार िक पदीपत हो रहा
मिण अपने सवरप मे शानत होकर अविसथत रहता है।।11।। हे रामचनदजी, िजसने अपने सवरप मे परम िवशािनत
पापत कर ली है, िजसका अनतःकरण आतम-साकातकाररप महान् उदय को पापत कर चुका है एवं िजसकी वयवहार और
तत् समबनधी फलो मे तिनक भी इचछा नही रह गई है, ऐसा जीव भले ही लोक-दृषया वयवहार करे, तथािप वह
कमरजिनत फलो का सवलप भी समबनध पापत नही करता, कयोिक वह समबनध की हेतु अिवदा, काम और कमर की
वासनाओं से शूनय है, हा, उस समय वह तब तक देह भार को सहता रहता है, जब तक िक पारबध का कय नही
होता।।12।।
शुित भी कहती है 'तसय तावदेव िचरं यावन िवमोकये।'
िसथित पकरण उपशम पकरण

उनहतरवा सगर समापत


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आआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआ आआआआआ आआआआआआआ आआ
आआआआआआआ आआआआआ आआ आआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआआ, आआ आआआआआआ
आआआआआआआआ ।आआआआआआआ
शीविसषजी ने कहाः भद जो असंग से उतपन सुख के िनरनतर आसवाद मे संलगन है और िजनके अनतःकरण
अतयनत िवशाल है, ऐसे जीवनमुकत महानुभाव, चाहे वयवहार करे, तो भी सदा-सवरदा िनभरय और शोक शूनय ही होकर
अविसथत रहते है।।1।।
उनकी वैसी िसथित होती है, यह आपने िकस पमाण से जाना ? इस पश पर पमाण कहते है।
हे शीरामजी, यदिप पुत और धन का िवनाश तथा बनधन, मान, अपमान आिद कोभ के (घबडाहट के) हेतुओं
से साधारण लोगो को कुबध शरीर-सा मालूम पडने पर भी वासतव मे कुबधशरीर से शूनय जीवनमुकत तततवज महािवदान
की िचत वृित सदा-सवरदा परमाथर सुख मे ही संलगन रहती है। उससे तिनक भी उसका िवयोग नही होता, अतएव वह
अनदर से पिरपूणर रहता है तथा उसके मुख मे पूणर-चनदमा की नाई परम शोभा दीख पडती है, यही दीख पडने वाली
पूणरचनद की शोभा ही तततवज की पूवोकत अवसथा मे पमाण है। चनदपक मे जयोितशक और रथािद की गित से कुबध
शरीर से शूनय पूणर चनद पूिणरमा की राित मे संमुख होने से सूयर की िवषमता न होने के कारण भीतर अमृत से पिरपूणर
रहता है। उसके वदन सदृश िबमब मे उतम शोभा दीख पडती है।।2।।
िजस तततविवत के अनुगह से दूसरे भी जब कोभरपी मिलनता से िनमुरकत हो जाते है, तब उस तततविवत की
कोभशूनयता मे तो कहना ही कया ? इस आशय से कहते है।
िजस महातमा का अनतःकरण इिनदयो की आसिकतयो से विजरत, केवल चैतनय मात का अवलमबन करने वाला
तथा समसत िचनता जवरो से िनमुरकत है, उस महातमा से समपूणर जन, िनमरली से जल की भाित, पसन (िवशुद) हो जाते
है।।3।। सदा सवरदा आतमदृिष मे िनमगन रहने वाला तततविवत् बाहर से चंचल होते हुए भी अपने सवरप से तिनक
भी टस से मस नही होता, अतएव साधारण जनो दारा यह जो कुबध-सा देखा जाता है, वह जलगत सूयर-पितिबमब की
कुबधता के दशनर के समान िमथया ही है।।4।। सवसवरप मे िनरनतर रमण करने वाले तथा परम मोकरपी उदय को
पापत हुए तततविवत् महातमा साधारण लोगो को ऊपर ऊपर से मोर के पंख की नाई चपल मालूम पडते है, परनतु भीतर
से मेर पवरत की नाई अटल है।।5।।
िवकोभ के पतीत होने पर भी वसतुतः तततविवत् मे कोभ नही रहता, इस िवषय मे दृषानत कहते है।
जैसे रंजक जपाकुसुम (फूल) आिद उपािधयो से िचकना सफिटक मिण (वासतव मे) रंग से युकत रंग से युकत
नही होता, वैसे ही आतमसवरप को पापत हुआ तततविवत् का अनतःकरण (उपािधयो से) सुख-दुःख से रंग से युकत नही
होता।।6।। जैसे जल रेखा कमल को रंिजत नही कर सकती, वैसे ही िजसने जीव और ईशर के सवरप को
भलीभाित जान िलया है अतएव जो परम िनरितशयाननदरप परम अभयुदय को पापत हुआ है, ऐसे तततविवत के िचत् को
संसािरक दृिष रंिजत नही कर सकती।।7।।
जब तक जीव भीतर भली पकार आसिकत से विजरत नही होता, तब तक उसका बाहर की आसिकत से विजरत
होना दुलरभ है, इस आशय से असंसकत का लकण कहते है।
जब यह जीव परमातमा का जान पापत कर समसत कलपनाओं के हेतुभूत मलो से विजरत होता हुआ धयानाभाव-
दशा मे भी आतम धयान की तरह िनरितशय सुख मे िनमगन रहता है, तब 'सवसकत' कहलाता है। तततविवत् को
सवभावतः िनरितशयाननद आतमा का सफुरण (पकाश) होने के कारण वह िनिवरकलप समािध की नाई सदा-सवरदा
आतमधयान मे ही लगा हुआ रहता है, अतएव बाहधयान-वयापारो के न रहने पर भी तथोकत सफुरण की सामथयर से
िनरितशाननद सुखसमुद मे अवगाहन करने वाला यह 'सवसकत' शबद से वयवहृत िकया जाता है, यह तातपयर है।।
8।।
जान की पिरपकव अवसथा के उतकषर से आतमसिकत मे भी कमशः उतकषर बढता जाता है और तदनुसार संग
भी कीण होता जाता है, यह कहते है।
केवल आतमा मे िवशािनत होने से ही जीव संसार मे असंगभाव को पापत करता है। केवल आतमा के जान से ही
िवषयसंग कीणता को पापत होता है, दूसरे िकसी पकार से नही।।9।। हे शीरामचनदजी, पूवोकत सवरपवाली
असंसकत दृिष मे पिरणत, िपयािपय आिद दनदो से शूनय तथा िनतय कभी असत न होने वाले उदय से युकत जीव जागत
अवसथा मे ही सुषुिपत मे अविसथत हो जाता है।।10।। सवसंसिकतरपी दृिष मे अभयास कम से परम पौढता को
पापत हुआ जीव पिवत सूयरभाव को (परम पावनसवपकाश आतमसवरपता को) ऐसे पापत होता है, जैसे कमशः अपनी
कला के कय से जलमय मणडल मे पडा हुआ सूयर पितिबमबसवरप चनदमा अमावसया मे सूयररपता को पापत होता है।।
11।।
जागत अवसथा मे ही सुषुपतसथ है, यह जो पहले कहा था, उसे िवशद कहते है।
िचत के िवषय समबंिधनी वृितयो से शूनय हो जाने पर कीण वृितवाले अनतःकरणो की वासनाओं से िनमुरकत
पशानत िसथित है, वही जागत-मे सुषुिपत कही जाती है।।12।। हे शीरामजी, उकत सुषुपत-दशा को पापत होकर जी
रहा तथा वयवहार कर रहा पुरष सुख-दुःखरपी रससे से कभी भी आकृष नही होता।।13।। जो पुरष जागत मे ही
सुषुपतसथ होकर जगत के वयवहाररपी कायों को करता है, िनरंहभाव के सादृशय से नतरक पितमा के तुलय शरीरवाले
उस पुरष को सुख-दुःख का अनुभव पापत नही होता।।14।। िचत मे चोट (पीडा) पहुँचाने वाली अहंकाररपा ही
शिकत है, कयोिक वह इष और अिनष के संयोग और िवयोग से संताप देती है। परनतु जब िचत आतमरपता को पापत
हो गया, तब वह िचत मे कया और कैसे चोट पहुँचा सकती है ?।।15।। पूवर से ही यानी साधन अवसथा से ही
लेकर अिभिनवेश का पिरतयाग कर कमों का अनुषान कर रहा िनिवरकार बुिदवाला जीव जीवनमुकत-सवरप से
अविसथत रहता है और उन कमों के फलो से बद नही होता।।16।। हे अनघ, सुषुिपत की िवकारशूनय वृित का
अवलमबन लेकर आप वणाशम-सवभाव के अनुसार पारबध पिरपाक से पापत हुए लौिकक या शासतीय कमों का चाहे
अनुषान किरये चाहे मत किरये, उससे कुछ होने वाला नही है।।17।।
आशमोिचत कमों का भी पिरतयाग कर देना चािहए, ऐसा जो लोग मानते है, उसके पित कहते है।
जानी पुरष को कमर का अनुषान या पिरतयाग कुछ भी नही भाता, िकनतु िजनहोने आतमतततव को जान िलया
है, ऐसा महातमा िजस समय जो पापत हो जाता है, तदनुसार अनुवतरन करते हुए अविसथत रहते है।।18।। हे
शीरामचनदजी, आप सुषुिपत अवसथा मे रहने वाली िनिवरकार बुिद से युकत यानी तततवज होकर कुछ करते है तो भी
अकता ही है और यिद उस बुिद से शूनय यानी अतततवज होकर आप कुछ नही करते है, तो भी कता ही है, ऐसी
पिरिसथित मे आपकी जैसी इचछा हो, वैसा कीिजये।।19।।
हे राघव, जैसे िकसी पयोजन की अिभलाषा न रखकर केवल लीलावश ही बालक पलंग के ऊपर सपनदन
कीडा करता है, वैसे ही आप भी िकसी पयोजन की अिभलाषा न करते हएु कमों का अनुषान कीिजये।।20।।
िवषय समबनध से शूनय चैतनयरप परम पद मे पितिषत हुआ अतएव बाह इिनदयो के वयापार जागत-दशा मे भी सुषुपत
िनिवरकार वृित मे समारढ लबधातमा तततवज जो जो कमानुषान करता है, उसमे वसतुतः उसका कतृरतव नही रहता।।
21।। सुषुिपत की िवकारशूनय अवसथा को पापत कर और अपने िचत मे समसत वासनाओं से रिहत होकर जानी
भीतर से ऐसी शीतलता को पापत करता है जैसे चनदमा अमृत से अपने भीतर शीतलता को पापत करता है।।22।।
जैसे छह ऋतुओं मे अिवकृत सवभाव होने के कारण पवरत एक सा रहता है वैसे ही पूणरचनद के िबमब की नाई महान
तेजसवी पूणातमा िनिवरकार अवसथा मे पितिषत तततवज समसत आपितयो की अवसथाओं मे सदा सवरदा एक सा रहता
है।।23।। जैसे वायु से बाहर के वृक, तृण आिद मे कंपन होने से ऊपर-ऊपर से पवरत के पसपिनदत (पकिमपत)
होने पर भी वासतव मे पवरत का भीतरी पकमपन नही होता, वैसे ही सुषुिपत दशा मे अविसथत धीरातमा तततवज लौिकक
या वैिदक िकयाओं के होने पर यो ही ऊपर से चंचलता को पापत हुआ पतीत होता है, परनतु वासतव मे उसके भीतर
कुछ भी कंपन (चाचलय) नही होता।।24।।
जैसे िकयाओं मे उसकी िनिवरकारता है, वैसे ही मरण और जीवन मे भी उसकी िनिवरकारता है, इस आशय से
कहते है।
हे शीरामजी पूवोकत िनिवरकार सुषुपत अवसथा मे िसथत होकर तथा समसत िचतिवकेप आिद पापो से िनमुरकत
होकर इस शरीर को िगरा दीिजय अथवा पवरत के समान भीतर से िनषकमप होकर दीघरकाल तक उसको धारण
कीिजये।।25।।
तततवजो को सदा सवरदा ही तुरीयावसथा होती है, यही कहना युिकतसंगत हो सकता है, परनतु यह कहना
युिकतसंगत नही हो सकता िक तततवजो को सुषुिपत मे ही वह तुयर िसथित होती है, इस पकार की आशंका को मन मे
रखकर कहते है।
हे शीरामजी, यही सुषुिपत-िसथित अभयास योग से जब दृढता को पापत हो जाती है, तब तततवज महातमाओं के
दारा तुयर िसथित कही जाती है अतः उकत शंका का अवसर नही हो सकता।।26।।
तब सुषुिपत िसथित कहने का अिभपाय कया है ? इस पश पर वैसा कहने का अिभपाय कहते है।
सुषुिपत अवसथा मे आननदमय पतयागातमा मे अशेष दुःखो का अभाव तथा िनरितशय सुख की पिरपूणरता रहती
है, अतः तततवज को दुःख शूनय िनरितशय सुख समृिद है, इसे िवसपष रप से बतलाने के िलए सुषुिपत िसथित का
िनदेश िकया गया है।
इस िनिवरकार सुषुिपत िसथित मे तततवज भीतर से िनरितशयाननद से ही पिरपूणर रहता है, उसके समसत दोष
पकीण होकर रहते है, मन आतयािनतक िवनाश को पापत हुआ रहता है और महान जीवनमुिकत लकण के उदय से पिरपूणर
रहता है।।27।।
िनिवरकार सुषुिपत अवसथा मे िसथत तततवज को जगत् का अनुभव कैसे होता है ? उसे बतलाते है।
उकत सुषुिपत अवसथा मे सदा सवरदा रहने वाला जानी अतयनत पमोद से पिरपूणर और िनरितशय आननदरपी मद
से मत होकर इस जगत की रचना को सदा एक तरह की मानो लीला ही देखता रहता है।।28।।
यिद शंका हो िक उस पकार की लीला का अनुभव कर रहा जानी उस जगत् मे िफर आसकत भी तो हो
जायेगा ? तो नही ऐसा पकार समाधान करते है।
हे शीरामजी, िजसके शोक, भय एवं अनयानय सासािरक िमथया पपंच सदा के िलए िनवृत हो गये है तथा जो
संसाररपी िवभम से विजरत है ऐसा तुयावसथा मे सदा-सवरदा आसीन हुआ आतमजानी िफर इस संसार चक मे कभी भी
िगरता नही है।।29।।
कयो संसार मे नही िगरता ? इस पश पर कहते है।
पवरत पर चढा हुआ धीर पुरष पवरत को हरा भरा यानी दूर से पवरत को अतयनत सुनदर समझने वाले भमगसत
नीचे के पदेश मे अविसथत पुरष को देखकर जैसे हँसता है, वैसे ही वह जानी अपनी पुणयमयी तुयर िसथित को पापत
कर जैसे यह भिमत जगत् है, उसको दोष दृिष से देखकर हँसता है, पुरषाथर बुिद से नही।।30।। हे
शीरामचनदजी, पहले अनाननद को यानी अवसथातय पद को पापत हुआ जानी इस तुयावसथा मे तो सदा-सवरदा केवल
आननद मे ही िनयतरप से लीन होने के कारण िवनाश शूनय िसथित को (महाननदपद को) पापत कर अविसथत रहता
है।।31।।
इस पकार जीवन भर जानी की तुयावसथा रहती है, यह कह करक अनत मे िवदेह अवसथा को पापत हुए जानी
की तुयातीत अवसथा होती है, यह कहते है।
अनाननदपद की (अवसथातयपद की) अपेका महत् होने से तुयरपद महाननद कहलाता है, यह महाननदपद
जीवनमुकत पुरष को सदा सवरदा ही रहता है। िवदेह मुिकत मे तततवज को अनाननदपद का समरण नही होता, अतः
उसकी अपेका महत् का भी आकलन न होने से अनाननद और महाननद दोनो से अतीत हो गया है, इससे भी मुकत योगी
तुयातीत अवसथा को पापत हुआ ऐसा कहा जाता है।।32।।
उकत िसथित का वणरन करते हुए उपसंहार करते है।
शीरामजी, जैसे जल मे डाला हुआ सैनधव नमक का टुकडा जलमय हो जाता है, वैसे ही िजसका समपूणर जनम
हेतु काम और कमों की वासनारप फासी िछन िभन हो गई है और अिखल अजानिनिमतक देह, इिनदय आिद मे अहम्
अिभमान नष हो गया है, ऐसा महातमा योगी परमाननदरपीपरमाथर िसथित को पापत होता है।।33।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

सतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआ आआआआ-आआआआआ आआआआआआआ आआआआ आ आआआआ आआ आआआआ आआआआ आआआ आआ आआआआआ
आआ आआआआआआ आआआआ आआआआआ । आआ आआआआआआ
तुयातीत पद वाणी का िवषय नही है, इसे बतलाने के िलए भूिमका बाधते है।
शीविसषजी ने कहाः हे रघुशेष, िजतने अँश मे तुयावसथा का (ф) साकात् अनुभव होता है, उतने ही अंश मे
कैवलयपद (केवल िचनमात मे अविसथत-सवरप कैवलयपद) जीवनमुकत और वेदवचनो का िवषय होता है यानी
जीवनमुकतो का अिधकृत तथा शुितवाकयो का पितपाद िवषय होता है कयोिक वाकयजनमय अखणडाकार वृित का उतने
ही अंश मे पयरवसन है, यह भाव है।।1।।
ф जागत, सवप और सुषुिपत रपी तीनपादो का परामशर कर अननतर जागत आिद अवसथाओं के साकी िचनमात
मे उनके पिवलापन-कम से जो केवल चैतनय-पिरशेषातमना अविसथित पापत होती है, वह तुयावसथा कहलाती है।
हे महाबाहो, जैसे वायु-पापय आकाश पुरषो का पापय िवषय नही है, वैसे ही इससे ऊपर का तुयातीत पद यदिप
िवदेह मुकतो का पापय है, तथािप जीवनमुकत और वेदवचनो का अिधकृत या पितपाद िवषय नही है, कयोिक िवषयता के
समपादक मन का उस अवसथा मे िवनाश हो चुका है।।2।। जैसे आकाशवीथी (मागर) वायुओं को पापत है, वैसे ही
दूर से भी अित दूर यानी अतयनत दुरिधगमय उकत िवशािनतसथान (तुयातीतपद) िवदेहमुकत पुरषो का पापय है।।3।।
इससे सदेहमुकत पुरषे की पंचम भूिमका से लेकर सपतम भूिमका तक ही िसथित रहती है, यह कहते है।
िनरितशयाननदरपी मद से मत महाजानी कुछ समय तक पूवोकत िनिवरकारातमक सुषुपत अवसथा से
जगितसथित का अनुभव कर उसके बाद तुयावसथा को पापत होता है।।4।।
तुयातीत पद मे जब तक िवशािनत पापत न हो जाये, तब तक जान की दृढता करनी चािहए, न िक केवल
मधयवती भूिमकाओं मे िवशािनत पापत न हो जाये, तब तक जान की दृढता करनी चािहए, यो कहते है।
हे रघुनायक, िजस पकार तुयातीत पद का पिरजान रखने वाले आतमतततवजानी महातमा तुयातीत पद को पापत
होते है, उसी पकार आप भी सुख-दुःखािद दनदो से िविनमुरकत होकर उस परम पद को पापत कीिजये।।5।।
उसमे भी पहले पंचम भूिमका का ही शासतीय वयवहारो के िनवाह के िलए अभयास करना चािहए, इस आशय
से कहते है।
हे शतुसंतापक शीरामजी, िनिवरकार सुषुिपत अवसथा को (पंचमभूिमकाितमका को) पापत कर आप उसी से
शासतीय आिद वयवहारो मे िनरत होइये, यो वयवहार करने से िचत मे िवदमान चनदमा का जैसे कलाकय या राहू के
साथ समबनध नही होता, वैसे ही आपका कय (मरण) या तजजिनत उदेग (भय) नही होगा।।6।।
यिद शंका हो िक देह का िवनाश हो जाने पर संिवत् का िवनाश अवजरनीय होने के कारण संिवत्-सवरप मेरा
िवनाश कयो नही होगा, तो इस पर कहते है।
हे शीरामजी, शरीररपी घर का िवनाश होता है या नही होता ? इस पकार के सनदेह चक मे आप मत पिडये,
कयोिक यह मेरा शरीर है, इतयािद जो अनुभव है, यह केवल भम है।।7।।
यिद देहानुभव भम, तो वही नष हो जाये, इस पर कहते है।
हे शीरामजी, चाहे देह िवनष हो जाये, चाहे वह िवनष न हो जाय यानी िसथर रहे, उससे आपको कया
पयोजन है ? आप तो केवल आतमजान की िसथरता मे पयतशील हो जाइये, यह देह है, वैसा भले ही बना रहे।।8।।
सवातमबोध मे सनदेह का िनराकरण करते है।
भद, आप जगत् के अिधषानभूत सतयतततव को जान गये है, सुषुिपत आिद तीन अवसथाओं के अिधषान को
भी जान गये है और अखणड वाकयाथर के सवरप को भी पापत हो चुके है, इसिलए आप तुयातीतरपी महान उदय के
िलए शोकशूनय हो जाइये।।9।। शीरामजी, अभीष और अनभीष िवषयो को छोडकर आप शीतल साकातकार रपी
आलोक की शोभा से ऐसे सुशोिभत हो रहे है, जैसे िक अनधकार और मेघमणडल से िविनमुरकत शरतपूिणरमा की राित का
आकाशमणडल सुशोिभत ही रहा हो।।10।। जैसे योग, मनत और तप की सामथयर से आकाशगमन की िसिद को
पापत हुआ योगी आकाश को छोडकर पृथवी पर नही दौडता, वैसे ही आतमजान से समपन मन भी िनमकोिट के िवषय
सुखो के पीछे भागता नही।।11।।
हे शीरामजी, समसत बहाणड मे देश, काल और वसतु के पिरचछेद से शूनय िवशुद चैतनय की ही सता है,
दूसरे की नही इसिलए आपको 'यह, वह, मै, यह शरीर और वह पुत आिद मेरे है' इतयािद िविवध भमो मे नही पडना
चािहए।।12।।
जब केवल िवशुद िचत् ही है, तब उससे िभन 'आतमा' यह दूसरा नाम कैसे हुआ ? इस पर कहते है।
सवरत वयापक चैतनय का 'आतमा' यह नाम केवल वयवहार के िलए ही किलपत है, नाम, रप आिद भेद तो इस
चैतनय से अतयनत दूर ही है।।13।। जैसे समुद जलसवरप ही है, उससे िभन तरंग आिद कुछ भी नही है, वैसे ही
यह सब जगत् आतमसवरप ही है, उससे िभन पृथवी, जल आिद कुछ भी नही है।।14।। जैसे समुद मे पूणर जल के
िसवा दूसरा कुछ भी पापत नही होता, वैसे ही जगदूप से िवसतृत आतमा के िसवा दूसरा कुछ भी पापत नही होता।।
15।। हे पाज शीरामजी, यह देहािद, वह धनािद और मै आिद की वयवसथा आप िकसमे करते है ? देह आिद भावो मे
से जो आप है और जो आपके साथ समबनध रखते है, उनका सवरप कया है ? देह आिद भावो मे से जो आप है और जो
आपके साथ समबनध रखते है, उनका सवरप कया है ? और िजनमे आप है, और जो आपके नही है, उसका सवरप कया
है ? अिधषान-दृिष से िकसी के साथ भवदूपता और भवतसमबिनधता नही हो सकती। हा, अधयास दृिष से वैसा हो
सकता है, पर वह तो सािततवक नही है, यह भाव है।।16।।
परमाथर मे भेद है ही नही, इसिलए भेदाधीन देह, देह के साथ समबनध और देह गहण आिद कलंको की
संभावना ही नही है, ऐसा कहते है।
जैसे भगवान भासकर मे अनधकारपट से िकसी पकार के कलंक की समभावना नही हो सकती, वैसे ही
भेदाधीन कलंक की आतमा मे भी िकसी पकार से समभावना नही हो सकती, कयोिक वासतव मे आतमा मे न तो भेद है, न
देह है और न उनका समबनध ही है।।17।।
कथंिचत भेद मान िलया जाय और देह आिद भी सतय मान िलये जाय, तो भी उनके साथ आतमा का समबनध
हो ही नही सकता, यो पौिढ बतलाते हुए कहते है।
हे शतुिनषूदन, भेद का अंगीकार करने पर भी और देह आिद को सतय मान लेने पर भी वयापक आतमा का
उनके साथ समबनध नही हो सकता यह मै आपसे कहता हूँ।।18।। जैसे छाया और धूप िवसतार का तथा पकाश
और अनधकार का परसपर समबनध नही होता, वैसे ही शरीर और आतमा भी परसपर समबनध नही होता।।19।। हे
शीरामजी, जैसे सदा-सवरदा परसपर िवरद रहने वाले शील और उषण का एक दूसरे से समबनध नही होता, वैसे ही
चैतनय और जाडय धमों से परसपर अतयनत िवरद देह और आतमा का भी (एक दूसरे से) कभी समबनध नही हो
सकता।।20।।
यिद शंका हो िक देह और आतमा का संयोग या तादातमय समबनध भले ही न हो, परनतु समवाय तो हो सकता
है, तो इस पर कहते है।
जो िक समवाय समबंध अयुतिसद पदाथों का है, वह इन जड देह और चेतन आतमा का कैसे अनुभूत हो
सकता है, अथात् उनका समवाय समबनध है, वह अनुभव नही हो सकता।।21।।
शीरामजी, दावािगन मे समुद है, यह उिकत िजस पकार दुरबोधाथर है, उस पकार िचनमातसवरप आतमा का देह
के साथ समबनध है, यह जो उिकत है, वह भी असमभवाथरक है। यिद देह को चैतनय का आशय माना जाय, तो िवषम
न हो सकने के कारण उसका समरण नही हो सकेगा। यिद देह को आतमा का िवषय मानेगे, तो आशय न हो सकने के
कारण समवाय आिद अिसद हो जायेगे और िवषयतासमबनध तो िमथयावसतु मे भी रहता है, ऐसी िसथित से उसमे
सतयतव रह नही सकता, इसिलए तथोिकत दुरबोधाथर है, यह भाव है।।22।।
तब अधयसत ही समबनध हो ? इस पर कहते है।
जैसे सूयर की िकरणो मे पतीत हुआ समुद िवभम िकरणो के यथाथर साकातकार से िवनष हो जाता है, वैसे ही
अिधषान आतमतततव के साकातकार से यह देह और आतमा का परसपर हुआ समबनध िवभम भी िवनष हो जाता है।।
23।।
शुदमपापिवदम्' (आतमा िनमरल और समसत पापो से िवसिजरत है) इतयािद शुितयो से िनिशत सवाभािवक िवशुिद
के साथ िवरोध होने से भी आतमा अशुद देह आिद के साथ तिनक भी सपशर नही करता, ऐसा कहते है।
िचदातमा समसत मलो से िवविजरत, अिवनाशी, सवपकाश एवं समसत िवकारो से रिहत है और देह िवनाशी एवं
समसत मलो से पिरपूणर है, ऐसी िसथित मे िवशुिद आिद गुणो से युकत आतमा अिवशुिद आिद से उपपलुत शरीर के साथ
कैसे समबद हो सकता है ?।।24।।
यिद शंका हो िक देह का आतमा के साथ समबनध नही है, तब देह मे िकया आिद कैसे हो सकते है, कयोिक
आतमसमबनध से शूनय मृत देह मे िकया आिद देखने मे नही जाते, तो इस पर कहते है।
शीरामजी, पाणवायु से अथवा पाण िसथित के पयोजक अन आिद भूतो से पापत बल होकर ही देह सपनदन को
पापत करती है, इसिलए आतमा के साथ देह का सवलप भी समबनध नही है। तातपयर यह िनकला िक देहगत सपनद मे
पाण अथवा बल ही पयोजक है, आतमा नही।।25।।
पूवोकत रीित से दैत को सतय मानने पर भी जब आतमा के साथ देहािद का समबनध नही हो सकता, तब
उसको असतय मानने पर आतमा के साथ देह आिद का समबनध नही है, इसमे तो कहना ही कया ? यो पौिढवाद का
उपसंहार कर रहे शीविसषजी कहते है।
हे धीमन्, जब दैत की सतयता मानने पर भी आतमा के साथ (पूवोकत पणाली से) देहािद का समबनध नही हो
सकता, तब दैत की असतयता मे इस पकार समबनध की कलपना ही कैसे हो सकती है, अथात् नही हो सकती, यह
भाव है।।26।।
दैत की अिसिद ही कैसे है ? ऐसी आशंका कर शरीर और आतमा के समबनध मे दशाई गई दूषण युिकत का
वहा पर दैत की (अिसिद मे) भी अितदेश करते है।
हे शीरामजी, यिद कोई दैत मे सतयता की आशंका करे तो उसमे पूवोकत इनही युिकतयो का आशय करना
चािहए। तातपयर यह हुआ िक िदतीय वसतु की िसिद होने पर ही दैत की िसिद हो सकती है। यिद िदतीय वसतु िचत् है,
तो उसमे भेदक का अभाव होने से दैतिसिद की आशा करना ही वयथर है। यिद िदतीय वसतु जड है, तो छाया और धूप
की नाई िचत् और जड का परसपर िवरोध होने से पूवरिसद िचत् के िवरद जड पदाथर िसद ही नही हो सकता। यिद
यह कहा जाय िक िचत् अपने से असमबद अथर का साधन करता है, तो उससे भी कुछ मतलब िसद नही हो सकता,
कयोिक दावािगन मे सागर है, इस कथन के सदृश ही तथोकत कथन असंभवाथरक है। यिद दैत को अधयसत माना
जाय, तो वह िचतसाकातकार से िवलीन हो जायेगा। िनमरलतव आिद आतम सवभाव से िवरद, मिलन देहािद जड पदाथों
की असंग आतमा से िसिद कैसे हो सकती है इतयािद पूवोकत युिकतयो का पकृत मे भी सामय होने के कारण उपनयास
करना चािहए, इसिलए दैतभम का पिरतयाग कर अिदतीय िचनमात मे ही आप िनषा कीिजये। उसमे न तो िकसी का
कभी बनधन होता है और न िकसी का कभी मोक होता है यानी उकतावसथा मे बनध, मोक आिद की शंका ही नही हो
सकती।।27।।
वह कौन सी िसथित है जो मुझको पापत करनी है, इस पश पर उस िसथित को कहते है।
हे शीरामचनदजी, पहले से ही शानत हुआ यह समसत बाह और आभयनतर जगत आतमसवरप ही है, इस पकार
के सपष अनुभव को सभी अवसथाओं मे आप दृढ बनाइये।।28।।
िवरद दृिष का पिरतयाग करने पर ही सवरत आतमदृिष दृढ होती है, इस आशय से कहते है।
शीरामजी, बडे-बडे तततववेताओं के दारा 'मै सुखी हँू, मै दुःखी हँ,ू मै मूखर हँू' इतयािद पतययो का दुदरृ िष शबद
से वयवहार िकया गया है, यिद आप इन पतययो मे वसतुबुिद रखते है, तो अवशय आप दीघरकालीन दुःख की ही
अिभलाषा रखते है, यह मुझे कहना पडेगा।।29।।
यिद शंका हो िक देह, दुःख आिद का अनुभव पतयक आिद पमाणो से होता है और आतमा का भी अनुभव शुित
और तदनुकूल युिकतयो से होता है, इसिलए जब दोनो अनुभव पमाण-जिनत होने के कारण समान ही है, तब ऐसा कौन
िवशेष है िक िजसके आधार पर आप यह कह सकते है- आतमदृिष अवलमबन कर देहािद दृिष का पिरतयाग कर देना
चािहए, तो इस शंका पर कहते है।
शीरामजी, पवरत और ितनके मे तथा रेशम और पतथर मे जो िवशेष कहा जाता है, वही िवशेष परमातमा और
शरीर की समानता के पित कहा जा सकता है। भाव यह है जैसे पवरत और ितनका इन दो के मधय मे दूर से चकु के
दारा पवरत पर ही दृिष पडती है, कयोिक पवरत बडा और िसथर है, इसिलए उसमे अनायास दृिष सरल हो जाती है।
ितनका अितचंचल और तुचछ है, अतः दूर से चकु के दारा तृण-दृिष दुषकर हो जाती है। इसी पकार रेशम और पतथर
के बीच मे भी मृदु और सुख सपशर होने के कारण तवचाइिनदय से रेशम का सपशर ही उपादेय होता है, कठोर और दुःखद
होने के कारण पाषाण का सपशर उपादेय नही होता, पतयुत हेय ही होता है, बस इसी पकार परमातमा और देहािद अनातमा
के बीच मे भी अपिरिचछन, सदा सवरदा सवपकाश और आननदरप होने के कारण परमातमदृिष उपादेय एवं सुकर है और
तुचछ, अिसथर और मन आिद से सापेक होने के कारण देहािद अनातमदृिष हेय और दुषकर है, यो आतमा और अनातमा
की दृिष मे महान् वैषमय होने से सामय नही हो सकता।।30।।
िवरोध होने से भी शरीर और आतमा के समबनध की नाई सादृशय भी िनरसत िकया जा सकता है, ऐसा कहते
है।
हे शीरामजी, जैसे परसपर अतयनत िवरद तेज और ितिमर का एक दूसरे से समबनध और सादृशय नही हो
सकता, वैसे ही परसपर अतयनत िवरद आतमा और शरीर का भी एक दूसरे से समबनध और सादृशय नही हो सकता।।
31।।
िवरोध होने से ही देह और देही के परसपर तादातमय की शंका भी नही हो सकती, ऐसा कहते है।
जैसे शीत और उषण का ऐकय वाणी के िवलास मे भी कहीँ नही िदखाई पडता, वैसे ही जड और पकाशसवरप
देह और आतमा का भी संयोग नही हो सकता। जब आतमा और अनातमा का संयोग ही असमभव है, तब उनका ऐकय तो
दूरतः ही िनरसत है, यह भाव है।।32।। यह देह पाणवायु से ही चलती है, उसी से आती और जाती रहती है एवं देह
की नािडयो मे िवलास करने वाले पाणवायु से ही शबद करता है। पहले आतमा के साथ संयोगािद समबनध के िबना भी
पाणवायु से देह चेषा होती है इसका पितपादन िकया था, इसिलए पुनरिकत की शंका नही करना चािहए।।33।।
जैसे िछदयुकत बासो सेक वायु के दारा शबद उतपन होते है वैसे ही शरीर के कणठरप िछद से उदगत् पाणवायुओं से
(जबक वे कणठ, तालू आिद सथानो मे िजहा आिद के दारा अिभघा से िनकाले जायेगे, तब) क वगर, च वगर, ट वगर, त
वगर आिद शबद पकट होते है, यह पतयक िसद है।।34।।
इसी युिकत से चकु आिद समपूणर इिनदयो का सपनद भी वायु से होता है आतमा का तो कायर केवल संिवत ही है,
दूसरा नही, यह कहते है।
िवषय-पदेश मे होने वाले चकुःसपनद मे हेतुभूत कनीिनका का पिरसपनद भी केवल पाण-वायु से ही होता है, यो
समसत इिनदयो के सफुरण से उतपदमान उकत सफूितररपा संिवत ही केवल आतमा से होती है, दूसरा कुछ भी नही
होता।।35।।
यदिप वह सवरगत और िनतय है, तथािप िचत और उसकी वृितयो मे ही अिभवयकत होती है, अनयत नही ऐसा
कहते है।
यदिप आकाश, पतथर, दीवार आिद सवरत सथानो मे आतमा की िसथित (सता) िवदमान है, तथािप दपरण मे
पितिबमब की नाई इस िचत मे ही वह िदखाई पडती है।।36।।
अतएव िचत के गमन से ही आतमा का परलोक मे गमन आिद वयवहार भी होता है, ऐसा कहते है।
शरीररपी आलय को छोडकर जहा िचतरपी पकी अपनी वासना के अनुसार जाता है, वही पर आतमा अनुभूत
होता है।।37।। जहा पुषप रहता है, वही पर जैसे गनध की संिवत (जान) रहती है, वैसे ही जहा िचत होता है, वही
प आतमा की संिवत रहती है।।38।। जैसे सवरत अविसथत आकाश दपरण मे पितिबिमबत होता है, वैसे ही सवरत
अविसथत आतमा िचत मे िदखाई पडता है।।39।। जैसे पृथवी मे नीचे का सथान जल का आशय सथान होता है, वैसे
ही अनतःकरण ही चैतनय पितिबमब का आशय सथान है।।40।। जैसे सूयर की पभा आलोक का िवसतार करती है,
वैसे ही अनतःकरण मे पितिबिमबत आतमसंिवत वयावहािरक और पाितभािसक जगत्-सवरप का िवसतार करती है।।
41।। अतः भूतो की उतपित मे (संसृित मे) अनतःकरण यानी समिष आतमा िहरणयगभर ही कारण है, आतमा तो
समसत पदाथों से परे है, इससे पितिबमब दारा भूतोतपित मे कारण होते हुए भी आतमा सवतः कारण नही है।।42।।
तब अनतःकरण का कारण कौन है ? इस पश पर उसका कारण कहते है।
पखर बुिदवाले िवदान लोग यह कहते है िक संसार की सृिष मे िवचार, अजान और मूढता ही सारभूत है और
यही अनतःकरण मे हेतु है।।43।। अनयथागहण के संसकारो की सामथयररप मोह से िवभमो की बीज घनीभूत सता
का (िचतपिरणाम का) अनतःकरण ने गहण िकया है, जैसे मोह से असमभािवत अनधकार सूयर से िदखाई देता है, वैसे
ही सममोह से ही असंभािवत जनमािद परमपरा आतमा मे िदखाई देती है। अथवा जैसे सूयर से ही उसको गसने वाला
राहुरप तम िदखाई देता है वैसे ही तथोकत कारण से िचत पिरणाम को गहण करने वाला अजान 'मै अज हूँ' यो
पतयकरप से आतमा मे सभी पुरषो को िदखाई पडता है।।44।। तब िचत िवनाश िकस कारण से होता है ? इस पश
पर िचत िवनाश मे कारण कहते है।
हे रामजी, जैसे दीप से अनधकार ततकण ही असता को पापत हो जाता है, वैसे ही अबािधत आतमा के केवल
सवरप-जान से ही िचत ततकण ही असता को पूणररप से पापत यानी नष हो जाता है।।45।। इसी िचत के कारण
से संसार का कारणभूत अजान पापत हुआ है, अतः अिधकारी जन को सवयं उसके िवषय मे िवचार करना चािहए
अथवा इससे संसार के कारणभूत िचत के िवषय मे िवचार करना चािहए, िजसके िक जीव, अनतःकरण, िचत, मन
आिद अनेक नाम है।।46।।
शीरामजी ने कहाः मानयतम् है भगवान, िचत के ये नाम िकस योग से यानी िकस वयुतपित से योगरिढ को
पापत हुए है, हे बहन, उसी को मुझसे इसिलए किहए िक िजससे आपके दारा पितपािदत पूवोकत िवचारो की िसिद हो
जाय।।47।।
उसमे पहले रिढ और योगाश से जीव नाम का िनवरचन करने के िलए महाराज विसषजी भूिमका बाधते है।
विसषजी ने कहाः हे रामजी, जैसे तरंगो के समूह केवल जल ही उतपन होते है, वैसे ही ये समसत पदाथर,
जो आतमतततव के साथ ऐकयाधयास होने के कारण आतमतततवरप पतीत होते है, केवल िचत से (समिष िचत से) ही
सदा उतपन होते है।।48।।
उतपन पदाथों के सथावर-िवभाग मे हेतु बतलाते है।
जैसे समुद का जल चंचल तरंगो मे सपनदातमा होकर अविसथत रहता है, वैसे ही आतमा िचत से उतपन उन
पदाथों मे कही कही पर केवल सपनदरपातमा होकर अविसथत रहता है।।49।। जैसे तरंगभाव को पापत हएु जलो मे
जल असपनदसवरप होकर रहता है, वैसे ही उन पदाथों मे कही पर परमातमा असपनदन सवरपातमा होकर अविसथत
रहता है।।50।। उन भावो मे अचंचल (िसथर) पतथर आिद पदाथर तो अपने सवरप मे अविसथत है और सुरा के
फेन की नाई अतयनत उतकट सपनद से युकत पुरष चंचल है यानी अपने सवरप मे अविसथत नही है।।51।। उसमे
उन-उन शरीरो मे सवरशिकत तत्-तत् पदाथर-सवरपापन आतमा के दारा किलपत अजान की कलना पिसद है, इसिलए
सवयं आतमा ही उकत सवकिलपत अजानसवरप होकर सुषुिपत और पलय मे अविसथत रहता है।।52।। पितिबमब
भाव को संपापत अननत आतमा के दारा भािसत-सा होकर पसफुिरत हुआ उकत अजान ही रिढ अंश को लेकर जीव
कहा जाता है। वही इस संसार मे महामोहरपी माया के िपंजडे मे फँसा हुआ हाथी है।।53।।
उसमे योगाश को कहते है।
हे शीरामजी, सभास अजान ही पाण-धारण करने से 'जीव' यो कहा गया है, अहनता होने से यानी सवरपथम
'अहम्' (मै हँू) यो वयवहार करने के कारण अहंभाव से (अंहनाम से), िनशय करने के कारम बुिद नाम से और संकलप
करने के कारण मन नाम से कहा गया है।।54।। जीव मन आिद की पकृित (कारण) होने से पकृित, उपिचत
(बुिदगत) होने से देह, अजान अंश की पधानता से जड और चैतनय की पधानता से चेतन कहा जाता है।।55।।
अजान और जान के साकी दोनो के बीच मे रहने वाला साभास मन ही तत् तत् नाना-रपता को पापत होकर जीव, बुिद,
मन, िचत, अहंकार आिद अनेक नामो से वयवहृत होता है।।56।।
परमातमा का ही उपािध मे पवेश हो जाने से उसके अनेक नाम हो जाते है, इसमे शुितयो का पमाण रप से
पदशरन करते है।
हे अनघ, उस पकार के जीव के सवरपो का बृहदारणयक आिद अनेक वेदानत गनथो मे अनेक तरह (▓)
िनिशतकाल से कथन िकया गया है।।57।।
▓ 'स एष इह पिवषः आनखागेभयः' (यह आतमा बहा से लेकर तृण तक के देहो मे नखागपयरनत पिवष है
यानी जल मे सूयर की नाई पितिबिमबत है), इसका उपकम कर 'पाणनेव पाणो भवित वदनवाक् पशयैशकुः शृणवन् शोतं
मनवानो मनसतानयसयैतािन कमरनामधेयािन' (पाणन िकया को कर रहा आतमा पाण नामवाला, वदन िकया को कर रहा
वाक् नामवाला, दशरन िकया को कर रहा चकु नामवाला, शवण िकया को कर रहा शोत नामवाला, मनन िकया को कर
रहा मन नामवाला होता है, आतमा के ये सब नाम कमरकृत है), इसी पकार 'स समानः सनुभौ लोकावनुसंचरित
धयायतीव लेलायतीव स िह सवपो भूतवेमं लोकमितक मित मृतयो रपािण' (सवपकाश आतमा संिनिहतवािद से बुिद के
सदृश होकर अनयोनय धमर आिद का अधयास होने पर पापत और पापतवय दोनो लोको मे संचरण करता है, बुिद का धयान
वयापार होने पर आतमा मानो धयान करता हुआ-सा, पाणािद वायुओं के चलने पर चलता हुआ-सा पतीत होता है।
सवपाकार मे पिरणत बुिदवृित के अवभासक रप से सवपाकार होकर जागत-वयवहाररप इस लोक का अितकमण
करता है यान उसका अिभमान छोड देता है। अजानरपी मृतयु के अहमिभमान आिद सवरपो का अितकमण करता है),
इसी पकार 'बुदैगुरणेनातमगुणेन चैव आरागामातो हवरोऽिप दृषः।' 'बालागशतभागसय शतधा किलपतसय च। भागो
जीवः स िवजेयः स चाननतयाय कलपते।', ततसृषवा तदेवानुपािवशत्। तदनुपिवशय सचच तयचचाभावत्।।' (संकलप
आिद बुिद के गुणो से तथा जरा, मृतयु आिद शरीर के गुणो से जानरप वयापक आतमा आरे के अगभाग की नाई िदखाई
पडता है,' 'केश के अगभाग के सौ बार िकये गये भाग का पुनः सौ बार िकया गया जो िवभाग है, उसकी नाई जीव को
सूकमाितसूकम जानना चािहए, वह जीवसवरप से अननत हो जाता है, जगत की सृिष कर उसी मे आतमा ने अनुपवेश
िकया, उसमे पवेश कर आतमा पृथवी आिद मूतर और आकाश आिद अमूतर सवरप हो गया।), 'सं एतमेव सीमानं
िवदायैतया दारा पापदत..... तसमािददनदो नाम। यदेतद् हृदयं मनशैततसंजानमाजानं िवजानं पजानम्, (उस परमेशर ने
मूघा के मधय भागरप सीमा पदेश मे िछद कर उसी के दारा शरीर मे पवेश िकया,.... इससे इनद नाम हुआ, संकलप
आिद साधनभूत मन और बुिद है, वह संजान है, आजिपत, िवजान और पजान है) तथा 'तवेमकोऽिस बहूननुपिवषः।'
'एको देवो बहुधा िवचारः', 'एक सन् बहुधा िवचारः', (तुम एक अिदतीय हो, अनेक मे पिवष हो, एक आतमदेव बहुत
पकार से िवचरण करता है) इतयािद शुित या इस तरह के आतमा के अनेकिवध नामो मे पमाण है।
अतएव वैिदक मागर का अनुसनधान न करने वे कुतािकरको दारा की गई िवरद िवरद जीवसवरपकी
कलपनाओं का समादर नही करना चािहए, ऐसा कहते है।
अजानी मूढे ने , जो कुितसत कलप िवकलपो की िसिद के िलये दुष तकर-िवतकर करने मे िनपुण है, इस जीवािद
संजाओं मे केवल मोह के िलए वयथर ही अिभिनवेशो की कलपना कर रकखी है।।58।।
इस युिकत-पयुिकतयो से यह िसद हुआ िक न तो शुद आतमा संसारी है और न देह ही संसारी है, िकनतु
मधयवती जीव ही संसारी है, इस आशय को कहते है।
हे महाबाहो, इस पकार यह जीव ही संसार का कारण है, िवचार वाणी आिद से शूनय यानी जड देह ने इसमे
िकया ही कया ? अथात् जड शरीर से संसार िसथित नही हो सकती, यह भाव है।।59।।
अतएव देह का िवनाश होने पर भी जीव का िवनाश नही होता, ऐसा कहते है।
जैसे आधार (घट) और आधेय (जल) इन दो मे से िकसी एक का िवनाश होने पर दूसरा नष नही होता, वैसे
ही शरीर आिद का नाश होने पर आतमा नष नही होता।।60।। जैसे एक पते के रस का िवनाश होने पर भी
वृकवयापी रस का िवनाश नही होता, िकनतु यिद वह वासनायुकत है, तो शरीरनाश के बाद वासना मे िसथत रहता है एवं
जैसे कीण हुआ पते का रस सूयर की िकरणो मे चला जाता है, वैसे ही यिद वह वासनाशूनय है, तो बहाकाश सवभाव मे
िसथत रहता है।।61,62।। िजस महामूखर को इस पकार भम हो िक शरीर के नष होने पर मै नष हो गया, तो
उस मूखर के िलए मै यो मानता हूँ िक माता के सतन से उसके िलए वेताल का समुतथान हो गया है।।62।।
तातपयर यह है िक 'अशरीरं वाव सनतं िपयािपये न सपृशतः' (शरीर समबनध से रिहत हुए आतमा को सुख या
दुःख कुछ भी सपशर नही करते) इस शुित से देह िवनाश भय का अहेतु पतीत होता है, ऐसी अवसथा मे अभय हेतु
शरीर-िवनाश मे ये हेतुतव का िमथया पिरजान रखने वाले महामूखर को अपनी माता के सतन से भी वेताल के समुतथान
की संभावना हो सकती है औऱ उस समभावना से सतनयपान न हो सकने से उसका जीवन भी दुलरभ हो जायेगा।
यिद शंका हो िक देह जीव से िभन है, इसिलए देह के िवनाश से जीव का भय न हो, तो भले ही मत हो िकनतु
िचत जीवसवरप है, इसिलए िचत के नाश से जीव को भय हो सकता है तो इस पर कहते है।
यिद उस उपािध का आतयािनतक नाश होगा, जो िक वज की बेडी के समान अतयनत दृढ बनधनभूत है, तो यह
जीव अपनी बहसवरपता का समरण कर िनरितशयाननदरपी अभयुदय को पापत हो जायेगा, कयोिक आप िचत के नाश
से जीव-िवनाश की जो समभावना करते है, वह शासतो मे जीव के िलए मोक कहा गया है।।64।। 'मै नष हो गया,
मै मर गया' यो लोगो दारा िवनािशतव आिद से िविशष जो जीव कहा जाता है, उसे िनिशतरप से मै िमथया और असत्
मानता हँू, कयोिक देश और काल से वयविहत होकर यानी पूवर शरीर-तयागने के बाद िविभन-िविभन देश और काल मे
जाकर वह अनय देह को गहण करके पुनः पुनः अनुभूत होता है।।65।। इस संसार मे मरण नाम की निदयो मे,
तरंगो के भीतर तृण के सदृश, पतीत होने वाले जीवो के दारा देश और कालवश ितरोिहत सवरपो से उकत पकार के
भावो की 'मर गया, नष हो गया उतपन हुआ' आिद पदाथों की भािनतवश से कलपना की जाती है।।66।।
कलपना की िवलकणता मे वासना की िवलकणता हेतु है, इस आशय से कहते है।
जैसे बनदर वन के एक वृक छोड कर दूसरे वृक पर चला जाता है, वैसे ही वासना मे आरढ जीव एक शरीर
को छोडकर दूसरे शरीर पर चला जाता है।।67।। हे राघव, िजस शरीर पर वह चला गया, उस शरीर को भी
छोडकर दूसरे िवसतृत देश और दूसरे काल मे दूसरे शरीर पर भी थोडे ही समय मे चला जाता है।।68।। जैसे
आसकत उपमाता बालको को इधर-उधर ले जाती है, वैसे ही अपनी ही वंचक वासना, िजसका िक जीवो का यथाथर
सवरप आवृत कर जीना ही सवभाव है, बहुत काल तक इधर-उधर जीवो को ले जाती है।।69।। अपने अपने कायों
की िसिदयो मे एक दूसरे का परसपर उपयोग करने के कारण जो एक दूसरे के जीवन के उपाय यानी साधन है, ऐसे
वासनारपी रजजु से बँधे हुए जीव पहले से ही जीणर तो है ही, िफर भी पवरतो की कुिकयो मे यानी पवरततुलय जड शरीर
मे अतयनत दुःखपूवरक पाणो को कीण कर रहे है।।70।। शी रामजी, जीणों से भी अिधक जीणर होकर िजनहोने
दिरदता, रोग, िवयोग आिद से जिनत दुःखो के बोझो को ढोया है तथा अनेक योिनयो मे दुदरशागसत पिरणामो से जजरर
यानी दुःखो से िशिथल हुआ िजनका जीवन है, ऐसे जीव हृदय मे उतपन वासनाओं की परमपरा से नरको मे दीघरकाल
तक िनवास करते है, आशयर है िक वासनादोष से जिनत दुदरशा असीम है, यह भाव है।।71।।
शीवालमीिक जी ने कहाः मुिन विसष महाराज के ऐसा कहने पर िदन बीत गया, सूयर भगवान असताचल की
ओर चले गये और सभा मुिनजी को नमसकार कर सायंकालीन िविध के िलए चली गयी औऱ राित बीतने पर सूयर की
िकरणो के साथ िफर दूसरे िदन आ गई।।72।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

इकहतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआ आआ, आआआ आआ आआआ, आआआ आआ आआआआआ आआआआ आआ,
आआआआ आआआ आआआ-आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे महाभाग शीरामजी, आप देह के उतपन होने पर न तो उतपन होते है और न देह के
िवनष होने पर नष हो जाते है, कयोिक अपने सवरप मे आप िकसी तरह के कलंक से कलंिकत नही है यानी िनज
सवरप से आप िवशुद है, अतः आपकी देह कोई चीज नही है।।1।।
'मै गोरा हूँ', 'मै मोटा हूँ' इतयािद पतयक पमाण से आतमा मे देहरपता का साकात् अनुभव होता है, अतः देह
का िवनाश होने पर आतमा की िसथित कैसे हो सकती है ? तो इस पर कहते है।
हे शीरामजी, जो कुणड और बदर का (बेर के वृक या फल का) नयाय है और जो घट औऱ आकाश की मयादा
है, वही यहा पर भी (देह और आतमसथल मे भी) समझनी चािहए। (तातपयर यह है िक जैसे 'कुणडे मे बेर', 'घटाकाश'
इतयािद वयवहारो मे कुणडे औऱ बेर का तथा घट और आकाश का समबनध पतीत होता है, पर उनका तादातमय पतीत
नही होता, वैसे ही 'मै गोरा हूँ' इतयािद वयवहार से शरीर और आतमा का तादातमय समबनध पतीत होता है, पर वासतव मे
वह नही है।) ऐसी िसथित मे एक कुणड या घट के नष हो जाने पर कुणड और बदर तथा घट औऱ आकाश दोनो भी
नष हो जाने पर आतमा अपनी सहज िसथित को पापत हो जाता है, ऐसी हालत मे 'देह का िवनाश होने पर मै नष हो
जाता हूँ', इस पकार की भावना से जो दुःखी होता है, उस मनद बुिद को िधकार है।।3।।
यिद आतमा का देह के साथ तादातमय नही है, तो जैसे शाखा के कमपनो से वृक मे कमपन होता है, वैसे ही देह
की पवृित से आतमा संसार का भागी कयो होता है ? इस पर कहते है।
िजस पकार घोडे आिद की लगाम और रथ का समबनध पीित और देष की योगयता से रिहत है, उसी पकार
िचित का भी देह, िचत, इिनदय आिद के साथ समबनध पीित और देष की योगयता से रिहत है।।4।। हे शीरामजी,
जैसे सरोवर, तदगत पंक और िनमरल जल का समबनध िकसी पकार के परसपर के अनुराग से युकत से युकत नही है,
वैसे ही देह, इिनदय और आतमा का समबनध िकसी पकार के परसपर के अनुराग से युकत नही है।।5।। जैसे मागर
पिथको के संयोग और िवयोग की अवसथा मे आसथा (अहनता और ममता के अिभमान) एवं पिरवेदन से यानी उसके
िवयोग से जिनत (िवलाप से) विजरत है, वैसे ही देह और देही का संयोग और िवयोग अहनता-ममता अिभमान एवं
िवयोग-जिनत िवलाप से विजरत है।।6।।
वैसे कयो है ? इस पर कहते है।
जैसे किलपत वेताल के कराल वदन, दात आिद िवकारो से जिनित पाथिमक भय के पुनः पुनः समरण से
बालक को मोहने वाली भीितया िमथया ही है, वैसे ही ये किलपत सनेह, सुख आिद िमथया ही है।।7।। जैसे एक ही
वृक से िवलकण िवलकण पुतिलया (भीितया) बनाई जाती है, वैसे ही पाचभूते के संघात से िविभन िविभन जनसमूह
बनाये गये है।।8।। जैसे लकिडयो के बोझे मे लकिडयो के िसवा और कुछ नही िदखाई पडता, वैसे ही पृथवी, जल,
तेज आिद पाच भूतो के शरीर मे पाच भूतो के िपणड के िसवा और कुछ भी नही िदखाई पडता।।9।। हे मनुषयो, तुम
लोग पाच भूतो का कोभ, नाश और उतपित होने पर हषर, अमषर और िवषाद के वश मे कयो हो जाते हो ?।।10।।
अपनी देह मे सनेह आिद की अयोगयता बतलाकर अब सती आिद के शरीरो मे भी सनेह आिद की अयोगयता है,
यह बतलाते है।
िजसका सती नाम यह दूसरा अिभधेय (वाचय) है, ऐसे तुचछ भूतो के समूह मे यानी सती-शरीरातमक पाच भूतो
के िपणड मे पुरषो को ऐसी कया िवशेषता पतीत होती है, िजससे िक उनकी अिगन मे पतंगे की नाई, िवषयािगन मे वयामोह
और राग से दृशयमान िगरने की चेषा युिकतसंगत कही जाय।।11।।
सुकुमार और सुनदर अवयव-सिनवेश ही सती के शरीर मे अितशय है, तो इस पर कहते है।
सुकुमार और सुनदर अवयवो के संिनवेश अंश को लेकर िवलकणता का जो उपपादन करते है, वह तो केवल
अजािनयो के िलए ही संतोष का िवषय हो सकता है, पर जो तततवज है, उनको तो उसमे उपिसथत पाचभूतो का ही
दशरन होता है।।12।।
भाई आिद मे राग का िनवारण करते है।
जैसे एक पतथर से उतपन हईु दो पाषाण-पितमाओं के परसपर आिलंिगत होने पर भी राग नही होता, वैसे ही
िचत और शरीर के आिलंिगत होने पर भी राग नही होता।।13।। हे शीरामचनदजी, िमटी से बनाई गई पितमाओं का
समागम होने पर भी िजस पकार उनका परसपर ममता आिद से शूनय भाव होता है, उसी पकार बुिद, इिनदय, आतमा
और मन का समागम होने पर भी आपका ममता आिद से शूनय ही भाव हो।।14।। जैसे पतथर की बनाई गई पितमाएँ
अनयोनय सनेह-समबनध के भाजन नही है, वैसे ही देह, इिनदय, आतमा और पाण भी अनयोनय सनेह समबनध के भाजन नही
है अतः उनमे से िकसके िवषय मे यहा शोक करना चािहए ?।।15।। जैसे यत तत िभन िभन पदेश मे उतपन हुए
ितनको को तरंगे पयापत रप से एकत करती है, वैसे ही आतमा िभन िभन पदेश मे उतपन भूतो को एकत करता है।।
16।। जैसे समुद के जल मे तृण एक दूसरे से िमल जाते है औऱ पृथक हो जाते है, वैसे ही रागािभमान से
िविनमुरिकतपूवरक ही पुत, पशु आिद पाणी अथवा पृथवी आिद भूत सविनिमरत देह मे या सवािधषान आतमा मे एक दूसरे से
िमल जाते है और पृथक हो जाते है।।17।। जैसे सागर आवताकार की कलपना से वृिदगत आकार को पापत कर
तृण, काठ आिद पदाथों को बटोरता हुआ रहता है, वैसे ही आतमा भी िचताकृित को पापत कर देह, भूत आिद को
बटोरता हुआ रहता है, वैसे ही आतमा भी िचताकृित को पापत कर देह, भूत आिद को बटोरता हुआ रहता है।।18।।
तब िकस उपाय से आतमा भूतसमबनध के हेतुभूत िचतभाव से मुकत होता है ? इस पश पर उस उपाय को
बतलाते है।
जैसे जल अपनी सपनदन िकया से ही मिलनता का पिरतयाग कर सवयं ही सवचछता को पापत करता है, वैसे ही
आतमा पबोध से िवषयरपता का पिरतयाग कर सवयं ही आतमरपता को पापत करता है।।19।। तदननतर पबोधकाल
मे ही मन के दारा समपािदत भूताशलेष से िविनमुरकत होकर अपने देह को उस पकार देखता है, िजस पकार िक वायु के
कनधे पर चढे हुए देव आिद भूमणडल को देखते है।।20।।
दशरन का फल बतलाते है।
भूतसमूह को अपने से पृथक देखकर अिवनाशी आतमा देहातीत हो जाता है और जैसे सूयाकािनत िदवस मे
परम पकाश को पापत करती है, वैसे ही परम पकाश को पापत करता है।।21।। तदननतर जैसे मद के मद से मत
हुआ पुरष मद के िनकल जाने पर भीतर अपने पूवर िवजान को समरण करता है, वैसे ही आतमा अपने ही से अपने पमाण
पमेयरपी िवकारो से िविनमुरकत सवरप को जान लेता है।।22।। िजस पकार समुद मे तरंगरपी कणो के कललोलो
से असीम जल पसपिनदत होता है उसी पकार आतमा ही समसत वसतुओं से मानो उिदत हुए िवश के रप से पसपिनदत
होता है।।23।। हे शीरामजी, िजनका समसत राग िवनष हो गया है, िजनके पाप दूर हो गये है तथा जो परबहपद
को पापत हो चुके है ऐसे जीवनमुकत पुरष उसी पकार के िविशष िवजान से युकत होकर इस संसारमणडल मे िवचरण
करते है।।24।। जैसे समुद की ऊिमरयो िविवध शेष रतो से समबद होने पर भी उनमे अनासिकत के कारण
िसिललयो (एक पकार के पतथरो) के टुकडो की भाित ही वयवहार करती है, वैसे ही वासना विजरत उतम महातमा लोग
भी िचत के वयवहारो से समबनध होने पर भी उनमे अनासिकत के कारण ऊपर ऊपर से ही वयवहार करते है।।25।।
जैसे तीर और काषो से समुद मलान (दीन) नही होता तथा जैसे रजः कणो से आकाश मलान नही होता, वैसे ही िजसने
अपनी आतमा को भली पकार पहचान या है, ऐसा आतमवान् (आतमजानी) पुरष इस संसार मे िनजी लौिकक वयवहारो से
मलान नही होता, वैसे ही तततवजानी को गत, अभयाग, सवचछ, मिलन, जड एवं चंचल भोगो से राग और देष नही
होता।।27।।
तततवज को कयो अनुराग नही होता ? इस शंका पर कहते है।
चूँिक तततवज पुरष इस जगत मे मन, मनन (संकलप) जो सब कुछ िवदमान है, वह सब िवषयोनमुखता को
पापत िचततव के िवलास का एक उललास है, यो मानते है, इसिलए उनको िकसी से राग या देष नही होता।।28।।
जो अहम्, भूत आिद तथा तीनो कालो मे उतपन होने वाली वसतुएँ दृशय औऱ दशरन के समबनधो से िदखाई
पडती है, वह सब केवल मन का ही िवसतार है, मन की कलपना के िसवा और कुछ नही है।।29।। हे
शीरामचनदजी, इस जगत मे दो पदाथर है एक दृशय औऱ दूसरा दषा इन दो पदाथों के बीच मे केवल दृिष के यानी दृिष
सवरप साकीभूत आतमा के दारा िसद हुआ जो दृशय पदाथर है, वह असत् है या सत् है ? इस िवषय का अभी तक
िनणरय न हो सकने के कारण दृशय हषर औऱ शोक के िलए अयोगय ही है और दूसरा सवतः िसद जो साकीरप आतमा है,
वह तो असंग है, इसिलए उतपन हुए भी हषर और शोक से वह समबद नही होता, ऐसी िसथित मे दृक और दृशय दोनो को
सत् या असत् मानने पर भी हषर-शोक की संभावना नही हो सकती, यह तातपयर है।।30।।
कया असतय वसतु के िवषय मे हषर और शोक होते है ? या सतय वसतु के िवषय मे ? या सतयासतय वसतु के
िवषय मे ? इन तीन िवकलपो मे भी हषर और शोक की योगयता नही है, ऐसा कहते है।
हे शीरामचनदजी, जो असतय वसतु है, उसके िवषय मे भी हषर-शोक करना वयथर ही है, कयोिक वह तो असतय
ही ठहरा। जो सतय वसतु है उसके िवषय मे हषर-शोक करना अनुिचत है, कयोिक सतय वसतु सदा-सवरदा पापत ही है,
इसिलए ऐसी वसतु के िवषय मे लाभ-पयुकत हषर और हािन-पयुकत शोक ये कैसे हो सकते है ? अब तृतीय िवकलप बचा,
वह भी अयुकत है, कयोिक सतय-असतय एक वसतु हो ही नही सकती, कारण िक एक वसतु मे सतयतव और असतयतव
ये दो िवरद धमर नही रह सकते। ऐसी पिरिसथित मे यह तृतीय िवकलप पथम िवकलप के सदृश हो जाने से पथम
िवकलपोकतदूषण ही इसमे आ गया। जब ऐसी वासतव मे िसथित है, तब जगत मे हषर-शोक-योगय िकसी वसतु के न रहने
से उसके िलए आपको शोक करना वयथर ही है।।31।। हे सुनदरनेतवाले शीरामजी, िमथया दशरनरपी भम को
छोडकर आप यथाथर वसतु का अवगम किरये। जब मनुषय यथाथर जान से युकत होकर पौढ बन जाता है, तब इस
संसार मे कही पर भी वह मोह को पापत नही होता।।32।।
भोग सुख के िलए सभी लोग िवषय औऱ इिनदयो का समबनध मानते है, उस समबनध की अवसथा मे अिभवयकत
होने वाला जो सुख है, उसका सवतः पकाश होने के कारण वह अनुभूितसवरप है, वृितरप उपािध के बल से पितयमान
भेद, तारतमय आिद के िनरास से अखणड के साथ ऐकय होने पर वह सुख बहसवरप ही है, पृथक नही है, ऐसा कहते
है।
रमय िवषय और इिनदयजिनत वृितयो का परसपर समबनध होने पर अपनी आतमा मे उतपन जो
परमातमसवरपसुख है, वह रमय िवषय और इिनदयो के परसपर समबनध के िवसतार से अिभवयकत (पकािशत) होता है।
इसिलए अनुभूत-सवरप सुख बह ही कहा जाता है।।33।।
िवषय और इिनदयो का समबनध होने पर सवोतम जो सुखानुभूित होती है, वह अजानी पुरष को संसार पदान
करती है औऱ तततवज जानी पुरष को सवोतम सदा उदयसवरप मोक पदान करती है यानी िवषयाकार वृित से
आसवािदत सुख िवषयो मे राग आिद दोषो का उदावन कर संसार देता है और िवषयो का िववेककर अखणड अिदतीय
आतमभाव से गृहीत सुख मोक देता है, यह भाव है।।34।।
रमय िवषयो का और इिनदयवृितयो का परसपर समबनध होने पर उतपन होने वाला जो सुख है, वह आतमसवरप
ही है, ऐसा महातमा लोग कहते है।
वह सुख िवषयसंग से युकत होने पर संसार कहलाता है और िवषय संग से िविनमुरकत होने पर मुिकत कहलाता
है।।35।। दुःखरपी बीमारी से विजरत दृशय औऱ ऐिनदयक वृितयो के समबनध से जिनत सुखानुभव, यिद कय और
अितशय से यानी पुणय के तारतमय से जिनत वृितनाश औऱ वृित वैशद के उतकषर से होने वाले कय और अितशय से
शूनय हो जाय, तो वह मुिकतसवरप हो जाता है, ऐसा िवदान लोग कहते है।।36।। दृशय और दशरन के समबनध से
होने वाली जो अखणड पूणाननद सफुरण-सवरप दृशय और दशरन से विजरत सुखानुभूित होती है, उसका अवलमबन करने
से संसार की अनुतपित होती है।।37।। उकत पकार की दृिष का अखणड-पूणाननद-सफुरणातमक सुखानुभूित का)
अवलमबन करने पर आतमसवरप को आवृत करने वाली सुषुिपत दृिष का िवचछेद हो जाता है और आतमसवरप-दृिष
पकािशत रहती है। उसी एकमात दृिष का अवलमबन करने पर ही तुयावसथा पापत होती है और उसी के अवलमबन से
मुिकत कही जाती है।।38।। हे शीरामचनदजी, जब दृशय और दशरन के समबनध से िनमुरकत और परम बुिद से युकत
यह सवरप दृिष होती है, तब दृशय औऱ दशरन के समबनध के असली तततव को जानकर पुरष तुयावसथा को पापत होता
है। (तुयरसवरपा मुिकत मे आतमा का जो सवरप रहता है, उसे बतलाते है) हे शीरामजी, तुयरतारप मुिकत मे आतमा न
तो सथूल रहता है, न अणु रहता है, न पतयकातमक वृित का िवषय रहता है, न अिवषय रहता है, न चैतनय युकत रहता
है, न जड रहता है, न असत् ही रहता है, न अिसततवरप भाविवकार से युकत रहता है।।39,40।। उकत अवसथा
मे आतमा न अहंरप रहता है, न अनय सवरप रहता है, न समीप मे रहता है, न दूर मे रहता है, न सताशय रहता है
और न सताशयतयव के अभाव से युकत रहता है।।41।। तुयावसथा मे आतमा न तो पापय है, न अतयनत अपापय है,
न सवातमक है, न वयापक है, न पदो का वाचय है, न तो पदो का अवाचय है, (कयोिक तुयरतवािद पदो से लिकत होता है),
न पाच भूतो का आतमा (सवभाव) है और न पाच भूतो के सवरपभूत ही है।।42।।
उकत अथर मे युिकत कहते है।
मन के साथ जो चकु आिद छः इिनदया है, उनका िवषय जो यह दृशयतव को पापत यानी जगत है, उसका
अितकमण करने वाला जो पद होगा, वह इस जगत मे िवदमान िकसी दृशय पदाथर का सवरप नही हो सकता, िकनतु
सवसवरप हो सकता है।।43।।
हे शीरामचनदजी, िजस पकार का यह जगत् है, उस पकार के इस जगत् को भलीभाित जाननेवाले पुरष के
िलए यह समसत िवश आतमसवरप ही है, कही भी आतमसवरप से विजरत वसतु नही है।।44।।
तब कयो भूिम आिदभूत िदखाई देते है ? इस पर कहते है।
हे शीरामचनदजी, यह आतमा ही अपने सवरप मे कािठनय दवता, सपनद, आकाशरपी अवकाश और पकाश के
अवलोकनो से कमशः पृथवी, जल, वायु, आकाश और तेजरप जगत्-भावो मे िवदमान है यानी नट के समान अविसथत
है, यह भाव है।।45।।
यह आपने कैसे िनशय िकया िक आतमा ही उस पकार से अविसथत है ? इस पर कहते है।
हे शीरामजी, चूँिक वसतुओं की जो-जो सता है, वह आतमा के पकाश के िसवा दूसरी वसतु नही है, इसिलए जो
कोई यह कहे िक मै आतमपकाश से वयितिरकत हँू, तो उसका वैसा कहना उनमत की नाई बकवासमात ही है, यह आप
जािनये।।46।।
जो कुछ पहले कहा, उस सबको एकत कर उपसंहार करते है।
शीरामजी, समसत काल और असीम कालकमो के बीच मे पिवष अनेक जगत् तथा उन अनेक जगतो मे जीव
के अनैिकिवध संसार यह सब एक आतमा ही है, इसको छोड और कोई दूसरी कला की गणना है ही नही, अतः हे
महानुभा, आप पहले इस पकार की बुिद से युकत होकर उकत बुिद से यानी तततवदशरन से इस संसार से अपना
छुटकारा पा जाइये।।47।।

िसथित पकरण उपशम पकरण


बहतरवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआ आआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआ आआआआ आआआआआ आआ, आआआआआ आआआआआआआआ आआआआआ
आआआआ आआआआआ आआ, आआआआआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ
आआआआआ आआआआ आआआआ, आआ आआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामचनदजी, जैसे िचनतामिण के सवरप को जाननेवाले देवता िचनतामिण को पापत
कर लेते है वैसे ही पूवोकत िवचारातमक दृिष से दैत का पिरतयाग कर आतमा के सवरप को जानने वाले तततविवत्
महातमा सवरपाविसथितरप मुिकत को पापत कर लेते है।।1।।
सवरत अहंभाव-दृिष को बतलाने के िलए उपकम करते है।
हे शीरामजी, अब आप इस िदतीय दृिष का शवण कीिजये, इसका शवण करने से आप अिवचल अपने आतमा
का साकातकार कर लेगे और िदवय दृिष से समपन हो जायेगे।।2।। मै आकाश हूँ, मै आिदतय हूँ, मै िदशाएँ हूँ, मै
अंध हँू, मै ऊधवर हँू, मै दैतय हँू, मै देव हँू, मै लोक हँू और मै चनद आिद की पभा हँू। मै अनधकार हँू, मै मेघ हँू, मै पृथवी
हूँ, मै समुद आिद हूँ तथा रेणु, वायु, अिगन एवं यह समसत जगत् मै ही हूँ।।3,4।। तीनो लोको मे सब जगह जो
सवरपभूत आतमा अविसथत है, वह मै ही हँू। इस सवातमक सवरप से िभन पिरिचछन मै कौन हँू ? अथात् मै कभी
पिरिचछन नही हो सकता हूँ। देहािद भी मुझसे िभन कौन है ? एक अिदतीय वसतु मे िदतव (सवरपगतभेद) िकस पकार
हो सकता है ?।।5।। हे राम जी, यो िवचारकर आप िनशयातमक जान से युकत हो जाइये, तदननतर आतमा के
भीतर रहने वाले जगत् को सवसवरप भूत देिखये। यो जगत को सवसवरपभूत देखने के अननतर आप हषर और िवषाद
परािजत नही होगे।।6।। हे कमलनयन पापशूनय शीराघव, इस समसत जगत् के आतमसवरप से अविसथत हो जाने
पर कया अपना और कया पराया रहेगा ? यह आप मुझसे किहये अथात् अपना और पराया कुछ भी नही रहेगा।।7।।
तततवज से िभन ऐसी कौन वसतु है, जो उसे यिद पापत हो जाये तो वह तिनबनधन हषर और िवषाद से गसत हो जाय।
यिद उसका ऐसी वसतु के आ जाने से िवषाद िदखलाई पडे तो वह तततवज ही नही है, िकनतु अतततवज ही है, कयोिक
ऐसा पुरष जगनमय ही होता है िचनमय नही, यह जानना चािहए।।8।। ये आगे कही जाने वाली दो अहंकार की
दृिषया सािततवक और अतयनत िनमरल है, उनकी तततवजान से पवृित होती है, वे मोक को देने वाली तथा पारमािथरक
है।।9।। हे रघुकुलितलक उन दो अहंकार-दृिषयो मे पहली सबसे परे आकाश की नाई सथूल सवभाव विजरत,
जागत आिद तीन अवसथाओं से युकत तथा दृशयो से शूनय 'मै हूँ' इस पकार की है और दूसरी 'सभी कुछ मै हूँ' इस
पकार की है।।10।। हे पापशूनय राम जी, इन दो से पृथक एक तीसरी अहंकारदृिष सवभावतः ही, न िक शासततः
चली आ रही है। इसका सवरप है - 'देह मै हूँ'। इस दृिष को आप केवल दुःखदायक ही जािनये, न िक
िवशािनतदायक।।11।। अब आप इन तीनो अहंकारे को भी छोडकर जो अविशष रहने वाला अहंभावनाशूनय पूणर
िचतसवभाव है, उसका अवलमबन कर उसी अवलमबन योगय वसतु मे िनरत होकर अविसथत रिहये।।12।। यदिप
आतमा शोधन दारा अिखल पपंच सवरप से िनमुरकत तथा बाध के दारा समसत पदाथों की सता का अितकमण करने
वाला है, तथािप जगत के बोध सवरप उपाय के दारा िनिखल जगत को पूणर करने वाला सबका पकाशक यह आतमा
है।।13।।
युिकत, शासत औऱ गुरवचन ये तो केवल िदशामात का सूचन करने के िलए है, उसका पिरचय तो केवल
अपने अनुभव से ही होता है, इस आशय से कहते है।
हे तततवजशेष, अपने ही अनुभव से शीघ देिखये की आप सदा-सवरदा उिदत सवभा तत्-पदलकय परबह
सवरप ही है अतः आप देह आिद की वासनाओं से युकत अहंकार तादातमयाधयास का पिरतयाग कर दीिजये।।14।।
'तं तवौपिनषदं पुरषं पृचछािम' (उपिनषद के पमाण-गमय उस पुरष के िवषय मे पूछता हूँ) इतयािद शुित से यह
जात होता है िक धमाधमर के सदृश शुित और शुतयुकत युिकतयो मे केवल िवशास रखने से ही अलौिकक आतमा का
पिरजान होता है, ऐसी िसथित मे आप कैसे कह कहते है िक आतमा केवल अपने अनुभव से ही वैद है ? तो उस पर
कहते है।
हे शीरामजी, आतमा न तो अनुमान से (युिकत से) सफुट होता है और न आपत वचन आिद से सफुट होता है,
िकनतु वह सवरदा सब पकार से केवल अनुभव से ही पतयक यानी सफुट होता है। धमर आिद के समान अतयनत परोक
आतमवसतु का पितपादन करने के िलए शुित आिद की पवृित नही है, िकनतु सबके अनुभव से िसद सतावाले आतमा का
िववेचन करने के िलए ही उनकी पवृित है।।15।।
सबको आतमा पतयक है, इसका उपादान करते है।
बाह और आनतर िवषयो मे अनतःकरण की वृित के समबनध से अिभवयकत होने वाला जो अथरपकाशरप
साकात् अपरोक जान पिसद है और जो अनुिमित, उपिमित और शबद जान आिद भी पिसद है, वह सब, िवषय और
अनतःकरण वृितरप उपािध के पिरतयाग से अपरोक आतमरप से ही अविशष रहते है। शुित भी कहती है।
'पितबोधिविदतं मतममृततवं िह िवनदते'।।16।।
आतमा पतयक और परोक वेद, वयकत एवं अवयकत दोनो से िवलकण है, इस कथन से दृशय और दशरन दोनो से
भी वह िनमुरकत है, इसका उपपादन करते है।
यह पकाशातमक आतमदेव न तो सत् है और न असत् है, न अणु है और न महान है, न सत् और असत् की
दृिष के मधय मे यािन सतयासतय है, िकनतु वही दोतनातमक देव दृशयमान समसत जगत् का सवरपभूत है।।17।।
इस पकार वाग् आिद कमेिनदयो की पवृित मे िनिमत होने के कारण वागािद से वयवहृत न होने वाले आतमा का
पिरचय देकर अब वागािद और उनके (वागािद के) िवषयो का उसमे बाध करके उसी का पिरशेष करना चािहए, इस
आशय से कहते है।
आतमा ही इस पकार बोलता है, परनतु वह कहा नही जा सकता। ये वाक् आिद और उनसे वयवहृत होने वाले
पदाथर आतमा से अनय नही है, हे रामजी, आप आतमा को अनामय (अिवकारी) ही देिखये।।18।।
आतमा और अनातमा, यह नाम-रप जो िवभाग है, उसकी भी उसी आतमा ने अपनी जानशिकत से यानी
मायाशिकत से कलपना कर रखी है, अतः बाधयतव की उपपित है, इस आशय से कहते है।
यह आतमा है और यह आतमा नही है, ये जो संजाभेद है, इसकी सवयं आतमा ने ही अपने मे अपनी सवरगत
शिकत से (मायाशिकत से) कलपना कर रखी है।।19।।
हे शीरामजी, वह पकाशमान परमातमा तीनो कालो मे सब जगह अविसथत है, वह यदिप सदा िनतय सवपकाश,
पूणर एवं अपरोक सवभाव है, तथािप सूकम और वयापक होने के कारण सथूल-िवषयो मे आसकत बुिदवाले पुरष उसका
पिरजान नही कर सकते है।।20।।
सथूल-िवषयो की आसिकत मे तो मोहवश पुयरषकरप उपािध मे (पाचभूत, कमर, वासना और िवदा इन आठ
वसतुओं से बने हुए िलंग शरीर मे) पितिबमब पडने से आतमा की जायमान जीवभावापित िनिमत है, इस आशय से कहते
है।
सगर के कम से उतपन भोगय और भोगायतन आिद अनेक पदाथो मे पुयरषकरपी दपरण मे अपनी मायावश सवतः
आतमा ही जीवरप से पितिबिमबत होता है।।21।। जैसे पंखे आिद के संयोग से आकाश मे सवरदा सवरत िसथत वायु
अिभवयकत िकया जाता है, वैसे ही पुयरषक के उदय से ही सदा सवरत िसथत सवयं आतमा 'अहम्' इस रप से
अिभवयकत िकया जाता है।।22।। जैसे सब पदाथों का अिसततव सवरत िवदमान है, वैसे ही महेशर िचतसवरप
परमातमा भी सवरत िवदमान है तथा वयापक है, वह कही एक जगह पर ही यानी िकसी एक देह मे ही रहता है, ऐसी बात
नही है।।23।।
पिरिचछन अहंसवरप से परमातमा के सफुरण मे तो पुयरषक हेतु है, ऐसा कहते है।
जैसे वायु होने पर रजः कण पसफुिरत होते है अथवा जैसे दीपक होने पर दशरन पसफुिरत होता है, वैसे ही
पुयरषक के होने पर ही उसमे जीव पसफुिरत होता है, न िक पतथर मे पसफुिरत होता है।।24।। जैसे आकाश मे
सूयर के रहने पर ही सब मनुषयो को तत्-तत् िकया से होने वाले फलो की अिभलाषा पसफुिरत होती है, वैसे ही पुयरषक
मे परम पेमासपद िनिरतशयाननदातमक सवातमा के रहने पर ही यह सवेचछापीित और िविचत भोगो की इचछा पसफुिरत
होती है।।25।।
यदिप आतमा सब वयवहारो से दूर है, तो भी 'आतमनसतु सवर ं िपयं भवित' इतयािद शुित से आतमा ही िपय और
अिपय का िनवाहक है, यह भाव है।
वैसा भले ही हो, उससे कया हुआ ? इस पर कहते है।
आकाश मे सूयर िसथत होने पर तत्-तत् इचछाफल मे अनुरप िसथित रखने वाला यह वयवहार यिद िवनष हो
जाता है, तो उससे सूयर मे कया आया ? अथात् कुछ नही।।26।। सवपकाश सवरप आतमा के अविसथत होने पर
आतमसता से अपनी िसथित को पापत करने वाली देह यिद नष हो जाती है, तो उससे आतमा मे कया हुआ ? अथात्
कुछ भी नही।।27।।
तब आतमा का सवाभािवक सवरप कैसा है ? तो उस पर कहते है।
सबका यह आतमा िकसी समय न तो उतपन होता है, न मरता है, न कुछ गहण करता है, न कुछ चाहता है, न
मुकत होता है और न बद होता है।।28।।
इसिलए आतमा को अजान से ही अनथर की भािनत हुई है, यह कहते है।
आतमा के पबोध से उतपन, आतमशूनय वसतु मे आतमभाव को पापत हुई, रजजु मे सपर भम के सदृश, भािनत
केवल दुःख के िलए ही है।।29।।
पबोध होने पर आतमा िकस पकार का रहता है ? उसे कहते है।
यह आतमा कभी भी उतपन नही हुआ, कयोिक इसका कोई आिद कारण नही है, और यह नष भी नही होता
कयोिक उसकी उतपित नही हईु है। वह आतमिभन वसतु की कभी भी अिभलाषा नही करता है, कयोिक आतमा से िभन
कोई वसतु है ही नही।।30।। यह आतमा िदशा या काल से पिरिचछन नही है, अतः कभी यह बद नही होता, जब
बनध ही नही है, तब मोक कहा से होगा, इससे वासतव मे आतमा यह आतमा का अमोक ही िसथत है।।31।। हे
राघव, मैने पहले जो आतमा के गुण बतलाये है, उन गुणो से युकत ही यह आतमा सबका है, इसिलए यह सब लोग
अिवचार से जिनत मोह को पापत होकर चारो ओर से रहे है।।32।। हे सुमते, मेरे वचनो से आपने जगत की पूवातर
रचना का िनःशेषरप से भली भाित पिरजान कर िलया है, अतः मूखरता को पापत हुए मनुषयो की नाई आप शोक मत
कीिजये।।33।। जैसे गेहँू आिद को पीसने के िलए िविनिमरत जल-चकी आिद यनत के दारा गेहँू आिद का पीसना
पवृत होने पर पुरष केवल संिनिधमात से उकत कायर को करता हुआ-सा पर सवतः तो काम आिद वयापारो से शूनय
होकर िसथत रहता है, वैसे ही िवदान को मोक और बनधरपी दोनो ही कलपनाओं का पिरतयाग कर तथा सवतः समसत
वयापारो से शूनय होकर देह आिद से वयवहार करना चािहए।।34।। मोक न तो आकाश की पीठ के ऊपर है, न तो
पाताल मे है औऱ न भूिम के तल पर है, िकनतु समयक् जान से िचनमात-सवरपता को पापत िनमरल िचत ही मोक है।।
35।। इचछा करने योगय िवषयो मे अनासिकत करने से अनतःकरण का जो बोधातमक वृित से सवयं कय हो जाता है,
वही आतमतततव को जानने वाले तततवजो दारा मोक पद से कहा जाता है।।36।। हे शीरामजी, जब तक िनमरल
आतमा का पबोध उिदत नही हुआ है, तब तक मूखरतायुकत कापरणय से पुरष िनतय-पापत आतमा मे अपािपत की कलपना
कर मोक पािपत की इचछा करता है।।37।। सवाितशायी िनतय आतमा के जान को पापत कर जब िचत पारमािथरक
िचनमातसवरप को पापत हो जाता है, तब चाहे दस मोक रहे, तो भी यह उनकी इचछा नही करता, िफर सवलप एक मोक
को चाहेगा ही कैसे ?।।38।। हे अभव (संसार शूनय), यह मोक है और यह बनध है, इस पकार की तुचछ कलपना
का पिरतयाग कर महातमा होकर उस मोक रप आप ही हो जाइये।।39।।
हे शीरामजी, समसत कलपनाएँ िजसमे से िनमूरल हो गई है, ऐसी अवसथा को पापत होकर आप सगर के पुतो
दारा खोदी गई पृथवी की मेखला तक यानी समुद पयरनत पृथवी-मणडल का दीघर काल तक पालन कीिजये, कयोिक आप
समसत आसिकतयो से परे हो चुके है तथा आपकी आतमजयोित उिदत हो चुकी है, इसिलए राजय आिद का पालन आपके
िलए िकसी तरह से दोष का हेतु नही हो सकता।।40।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

ितहतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआ आआआआआ-आआआआआआआआ, आआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआ आआआ आआआआआआआआआआ
आआ आआआआआ आआ । आआआआआआ
ये मूढ लोग अिवचार से ही होते है, यह जो पहले कहा था, उसी का आरमभ मे सिवसतार िवचार करते है।
शीविसषजी ने कहाः शीरामजी, जैसे रमय रमणी, पुत आिद के मुख को न देख रहे िवरही पुरष के हृदय मे
मलानता (दीनता), कृशता आिद िवकृत सवरप को उतपन करने वाली उदासीनता िनरनतर उतपन होती है, वैसे ही पलय
और सुषुिपत मे अजान से आवृत होने के कारण िनरितशयाननदसवरप अतएव परम पेमासपद अपने सवरप को न देख
रहे आतमा मे काम-कमों की वासना के पिरपाक कम से सृिष और जागतकाल मे िचिदलास से सूकम, सथूल, समिष
और वयिष शरीर उतपन होते है।।1।। जैसे मिदरा के सवाद से मद की महाशिकत पापत होती है, वैसे ही
अहनताधयास से जीव सथूल और सूकम शरीर के अधीन हो जाता है और उससे यह िनरितशय िनिबड सनेह से भरी
अनथर रपा माया यानी िमथयाभूत माया पापत हुई है, जो िक राग, लोभ, मोह आिद मद की महाशिकत है।।2।। जैसे
मरभूिम मे सूयर की िकरणो के ताप से जल पतीत हो जाता है, वैसे ही उकत सवरपवाली इस रागािद की शिकत सवरपा
महामाया से, जो पवृित, भोग, पुणय, पाप, वासना अनथर परमपरारप िवकारो से युकत है तथा िजसने परमातमा के
अनयथा भाव से अपना अिसततव बना रखा है यह समसत जगत् पतीत हो रहा है।।3।। मन, बुिद, अहंकार, वासना
और इिनदय इस पकार के नाम और रप की कलपना करने वाले सवसवरपरपी जलो से आतमारप समुद पसफुिरत होता
है।।4।।
अनथरपािपत के पकार को बतलाकर अब उसके उचछेदन का उपाय बतलाने के िलए जैसे एक ही वृक अंकुर,
काणड, मूल और शाखाओं आिद के परोह कम चारो ओर फैलकर अविसथत होता है, वैसे ही एक ही अनतःकरण पहले
िचनतन करने से िचत, तदननतर मनन करने से मन, तदननतर िनशय करने से बुिद और तदअननतर िनशयािभमान से
अहंकार यो नामो को धारण कर चारो ओर फैलकर अविसथत है, ऐसा कहते है।
हे शीरामजी, िचत और अहंकार यो दो पकार का वयवहार केवल वाणी मे ही है, वासतव मे नही है, कयोिक जो
िचत है, वही अहंकार है और जो अहंकार है, वही िचत है।।5।। जैसे बफर से िभन शुकलतव की कलपना की जाती
है, पर वासतव मे बफर और शुकलतव मे परसपर कोई पाथरकय नही है, वैसे ही िचत और अहंकार की कलपना वयथर ही की
जाती है, वासतव मे उनका परसपर कोई भेद नही है।।6।।
िचत औऱ अहंकार की एकता की उिकत का फल कहते है।
भद शीरामचनदजी, जैसे पट का िवनाश होने पर पट (वसत) और शुकलतव दोनो का िवनाश हो जाता है, वैसे
ही मन और अहंकार इन दोनो के बीच मे से िकसी एक का िवनाश हो जाने पर मन एवं अहंकार दोनो का िवनाश हो ही
जाता है।।7।।
अब उसके उचछेदन का उपाय कहते है।
'मुझे मोक िमले' इस पकार की तुचछ मोकेचछा, सासािरक बनध बुिद तथा अनयानय इचछाओं का पिरतयाग कर
अपने वैरागय और आतमा-अनातमा के िववेक से केवल मन को ही िवनष कर देना चािहए।।8।।
मोकेचछा का तयाग कयो करना चािहए, इस पर कहते है।
हे रामभद, 'मुझे मोक िमले' इस पकार की यिद भीतर इचछा उतपन हो गई, तो मन सबल हो गया, यह जान
लेना चािहए। मनन की ओर मन के एक दम उतकिणठत हो जाने पर वही मन शरीर के आकार मे पिरणत हो जाता है
और िफर बिहमुरखता का समपादन कराकर केवल दोष को ही उतपन करता है। अतः िकसी पदाथर की इचछा करनी ही
नही चािहए। चाहे वह पदाथर मोक हो, चाहे सासािरक वसतु हो। पदाथर की इचछा ही तुचछ है।।9।।
मन का पिरिचछन शरीर के आकार मे पिरणत होना ही दोष है, न िक शुद आतमा के आकार मे पिरणत होना
दोष है, इस आशय से कहते है।
समपूणर पिरिचछन वसतुओं से परे अथवा समसत भूतगणो मे वयापत आतमा मे कया बंध है और कया मोक है ?
इसिलए हे शीरामजी, आप पिरिचछनता-मनन का ही िनमूरलन कर दीिजये।।10।।
पाण आिद वायुओं से होने वाले चलन आिद धमों से युकत देह इतयािद से आतमा िवलकण है यह बतलाते है।
वायु सपनदनरप धमर से युकत है, अतः जब वह इस तुचछ देह मे चलता है, तब हाथ, पैर और रसनारपी
पललवो की पंिकत चलने लगती है।।11।। जैसे वायु वृक मे पललवो की पंिकत को चलाता है, वैसे ही पाणािद वायु
देह मे अंगो की पंिकतयो को पयापतरप से चलाता हे।।12।। सब पदाथों को वयापत कर लेने वाली अितसूकम िचित
न तो सवतः चल है और न िकसी से चलायमान होती है, जैसे अचल मेरपवरत वायुओं से किमपत नही होता, वैसे ही यह
िचित भी पाण आिद वायुओं से किमपत नही होती।।13।।
शुद आतमभाव मे आतमा का संचलन नही होता तो भले ही न हो, पर सवातमरपता के भाव मे तो उसका वैसे
संचलन हो सकता है, जैसे शाखा के संचलन से वृक का संचलन होता है, इस पर कहते है।
जैसे अपने पकाश के दारा दीपक घट आिद पदाथों को पकािशत कर देता है, वैसे ही बोध के दारा अपने
सवरप मे अविसथत िचदूपी आतमा, िजसमे समसत अथर पितिबिमबत हुए है, इन अिखल बहाणडो को पकािशत कर देता
है। िनषकषर यह िनकला िक जैसे सफिटक की िशला चल रहे अनेक पदाथों के पितिबमबो की सवरपता को पापत होती
हुई भी सवयं अचल रहती है, वैसे ही आतमा चल रहे पदाथों की सवरपता को पापत होता हुआ भी सवयं अचल ही रहता
है।।14।। आतमा और देह की तिनक भी समानता नही है, यह जब वसतु िसथित है, तब दुबुरिदयो को 'यह देह ही मै
हूँ, हाथ आिद अंग मेरे है तथा सती, पुत आिद मेरे है' इतयािद अतयनत दुःखपद वयथर मोह नही है, तो िफर है कया ?।।
15।। आतमा और शरीर का अतयनत वैधमयर होने पर भी देह मे जातृतव और आतमा मे कतृरतव, भोकतृतव आिद िवरद
धमर अिवदा के कललोलरपी रागािद से उपिहत तथा देह आिद के साथ तादातमय और संसगरदाधयास से जिनत होने के
कारण अिनतय िमथया भािनत से ही सदा पतीत होते है।।16।।
उपलिबध के अनुसार ही उतरोतर भािनत की बीजभूत वासना भी बढती जाती है यो कहते है।
उसमे 'यह मै आगनता हँू, मै भोकता हँू, मै कता हँू', इस पकार की वासना, ऐसी वयथर उतपन होती है, जैसे
तूलाजान से आवृत मरभूिमसथ धूप से मृगतृषणा उतपन होती है।।17।। असिलयत मे असतय ही है, तथािप
असतयसवरप से अजात अतएव सतय-सी िदखाई पडने वाली यह अजतारपा वासना (अिवदा) मनरपी मत मृग को,
जो िवषयो की तृषा से आकानत है, उस पकार खीचती है, िजस पकार जल की तृषा से आकानत मृग को मृगतृषणा
खीचती है।।18।। हे रामजी, जैसे िजसका सवरप जान िलया गया हो, ऐसी चाणडाल-कनया बाहणो की पंिकत मे से
भाग जाती है, वैसे ही िजसका तािततवक सवरप जान िलया हो, ऐसी अिवदारपी वासना भाग जाती है और नष हो
जाती है।।19।। हे रामभद, जैसे 'यह मृगजल है' इस पकार तािततवक सवरप से जाना गया मृगजल पयासे मृग को
अपनी ओर नही खीचता, वैसे ही 'यह अिवदा है' इस पकार तततवतः जानी गई अिवदा मनरपी मृग को नही
खीचती।।20।।
शीरामजी, जैसे दीपक से अनधकार नष हो जाता है और पकाश आ जाता है, वैसे ही परमाथररप आतमा के
अवबोध से वासनामूल नष हो जाता है औऱ अपिरिचछन आतम पकाश आिवभूरत हो जाता है।।21।। जैसे ताप से
तुषार किणका गल जाती है, वैसे ही 'अिवदा का अिसततव िकसी तरह नही है', इस पकार शासत और तदनुकूल युिकत
से दृढ िनशय हो जाने पर अिवदा ततकण गल जाती है।।22।। इस जड देह के िलए भोगो से कया पयोजन है ? इस
पकार के िनशय से युकत तततवज पुरष इचछाओं के हेतुभूत मल को (अजान को) ऐसे िछन िभन कर देता है, जैसे िसंह
पीजिड को िछन िभन कर देता है।।23।। हे शीरामजी, अपने हृदय से इचछाओं के पिरवारभूत देहािभमान आिद का
िनिशतरप से पिरहार हो जान पर पुरष चनदमा की नाई सौनदयर से पिरपूणर हो जाता है और अतयनत पसनता को पापत
करता है।।24।। हे मयादापुरषोतम, जैसे वृिष से धोया गया पवरत परम शीतलता को पापत करता है, वैसे ही उकत
देहािभमान का िवनाश हो जाने पर पुरष िनरितशय शीतलता को पापत करता है। जैसे राजय िमल जाने पर दिरद परम
िवशािनत को धारण करता है, वैसे ही वह परम िवशािनत को धारण करता है।।25।। जैसे शरदकाल मे िनमरलतव
आिद शोभा से आकाशतल अतयनत सुशोिभत होता है, वैसे ही वह तततवजानरपी उतम शोभा से सुशोिभत होता है और
जैसे कलप के अनत मे (महापलय मे) समुद अपनी सीमा मे नही समाता, वैसे ही वह अपने मे नही समाता यानी उस
समय िकसी से पिरिचछन नही होता।।26।। जैसे मेघ वषाकाल मे बरस चुकने के कारण शरतकाल मे गजरन आिद
से शूनय हो जाता है, वैसे ही तततववेता उकत दशा मे समसत अिभिनवेशे से शूनय हो जाता है और जैसे पशानत समुद
अपने सवरप मे िसथत रहता है, वैसे ही वह अपने सवरप मे ही अविसथत रहता है।।27।। हे शीरामचनदजी, जैसे
अचल मेर िसथरता और धीरता को गहण करता है, वैसे ही अचल तततववेता िसथरता और धीरता को गहण करता है
यानी न तो िकनही िवषयो से हिषरत होता है और न भयसथानो से पकिमपत होता है। ईँधनो के शानत हो जाने पर अिगन
की नाई अित सवचछ कािनत से िवरािजत होता है।।28।। तततववेता मुिन अपने ही सवरप मे ऐसे उतम शािनत से
समिनवत रहता है, जैसे वायुरिहत पदेश मे दीपक अपने सवरप मे शानत रहता है। और परम तृिपत को ऐसे पापत करता
है, जैसे अमृत पी जाने वाला पुरष परम तृिपत को पापत करता है।।29।। जैसे मधयदीपवाला घट, मधयजवाला वाला
अिगन और पसफुिरत कािनतवाला मिण अपने भीतर पकाश को पापत करते है, वैसे ही तततववेता पुरष अपने भीतर
परमपकाश सवरपता को पापत करता है।।30।।
तततविवत् महानुभाव सब भूतो के आतमसवरप, सवरत सतावाले, सबके िनयनता, सबके नायक, वयवहार-दशा
मे सवाकार और परमाथर दशा मे िनराकार अपने आतमा को देखता है।।31।। आतमतततव सवरप को पहचान लेने
वाला महातमा भूतपूवर उन तुचछ िदवसो की पंिकतयो का समरण कर हँसता है, िजनमे काम-बाणो की परमपराओं से चंचल
िचत िवदमान था।।32।। तततववेता पुरष िवषयी पुरषो के संग औऱ िवषयो के अनुरज ं न से विजरित, मान और
मानिसक िचनताओं से शूनय, आतमिवषय मे आसकत, पिरपूणर औऱ िवशुद अनतःकरण युकत होता है।।33।।
आतमजानी कामरपी कीचड के लेप से रिहत, बनधन सवरप आतमभम से शूनय, सुख-दुःख आिद दनदो से उनमुकत तथा
संसाररपी सागर से तरा हुआ रहता है।।34।। तततवज िवदान सबसे उतम सावरभौम शािनत को, साधारण जीवो के
िलए अतयनत दुलरभ परमपद को तथा संसारताप मे पुनः पुनः सनताप-सवरप आवृित से विजरत यानी अनावृितपद सवरप
सामाजय को पापत हुआ रहता है। समसत लोगो के दारा कमर और वाणी से उस महािवजान का सुनदर परम पावन चिरत
चाहा जाता है, पर वह कुछ भी नही चाहता। सभी मनुषय उसके चिरत फलो का अनुमोदन करते है, पर वह िकसी का
अनुमोदन नही करता यानी उदासीन रहता है।।35,36।।
तततवज न तो कुछ देता है, न िकसी का गहण करता है, न िकसी की सतुित करता है, न िकसी की िननदा
करता है, न अपने सवरप के ितरोधान को पापत करता है, न उदय को पापत होता है यानी िफर सवरप के आिवभाव
को पापत नही होता, न सनतुष होता है और न शोक करता है।37।। समसत आरमभो का (लौिकक, वैिदक कमों
का) पिरतयाग करने वाला, समसत उपािधयो से विजरित तथा समसत आशाओं को ितलाजली देने वाला पुरष जीवनमुकत
कहा जाता है।।38।।
महाराज विसष शीरामभद को जीवनमुकत के लकणो की िशका देते है।
हे शीरामजी, जैसे जल धाराओं का िनःशेषरप से पिरतयाग कर मेघ पिरपूणररप से पशानत हो जाता है, वैसे ही
आप भी समसत अिभलाषाओं का पिरतयाग कर अनतःकरण से मौन हो जाइये यानी पशानत हो जाइये।।39।।
अिभलाषा के पिरतयाग की पशंसा करते है।
हे शीरामभद, िजस पकार चनद-िबमब की नाई अतयनत शीतल नैराशय अपने अनतरातमा को सुख-शािनत
पहुँचाता है, उस पकार अंग मे आिलंिगत वरविणरनी (अपने पित मे अननय भाव रखने वाली अित कमनीय कानता) पुरष
के अनतरातमा को सुख-शािनत नही पहुँचाती है।।40।। हे राघव, िजस पकार समपूणर जगत् को सुशीतल करने वाला
नैराशय अनतरातमा को सुख पहुँचाता है, उस पकार कणठ मे संलगन चनदमा भी अनतरातमा को सुख नही पहुँचाता।।
41।। शीरामजी, िजस पकार नैराशय से सम हुए अनतःकरण से युकत उदारिमित मौनी तततवज सुशोिभत होता है,
िवकिसत कुसुमो से पिरपूणर एवं नूतन लताओं से िवरािजत कुसुमाकार उस पकार सुशोिभत नही होता।।42।।
शीरामजी, नैराशय से जैसी शीतलता पापत होती है, वैसी शीतलता न तो िहमालय से, न मोितयो से न कदली काणडो से,
न चनदन से और न िहमाशु से पापत होती है।।43।। पुरष को न तो राजय से, न तो सवगर से, न तो चनदमा से, न
तो वसनत से और न कानता के कमनीय संसगर से वैसा उतम सुख िमलता है, जैसा िनराशा से उतम सुख िमलता है
यानी राजय आिद की अपेका िनराशा ही सबसे बढ चढ कर सुख है।।44।। हे साधो, िजस मोकनामक परम सुख के
िलए तीनो लोको की समपितया ितनके की नाई कुछ भी उपकार नही कर सकती, वह मोकातमक िनरितशय सुख
नैराशय से ही पापत होता है।।45।। हे रघुकुल कमलिदवाकर, आपितरप करंज (करंजुवे) वृक के िलए परशुरप,
परम िनरितशय िवशािनत सुख के सथानसवरप, शािनतरपी वृक के फूलो के गुचछ सवरप नैराशय का आप आशय
लीिजये।।46।।
हे शीरामजी, नैराशय से अलंकृत आकृितवाले महातमा की दृिष मे पृथवी गाय के खुर की तरह सुमेर पवरत
सथाणु की तरह (काटे गये वृक के अविशष भाग की तरह), िदशाएँ साधारण िपटािरयो की तरह और सारा ितभुवन
तृण की तरह पतीत होता है।।47।। भद, इस जगत् मे जो लौिकक और शासतीय दान, आदान यानी धन आिद का
सवीकार, समाहार यानी संगहवृित से कोश आिद का बढाना, िवहार यानी धनवयय से पुत के साथ कीडन, िवभव यानी
वसत, अलंकार आिद समपित इतयािद िकयाएँ है, िफर उनसे जो फल होते है, वे अतयनत तुचछ होते है औऱ पिरणाम मे
अनथर के समपादक है, परनतु मूढ पुरषो का उनमे वैसा गह नही है, इसिलए वे हँसी के पात है, यह भाव है।।48।।
हे शीरामजी, आशा िजसके हृदय मे अपना सथान कभी नही जमा सकती, ऐसे समपूणर ितभुवन को तृण के
सदृश समझने वाले उस महातमा की उपमा िकससे दी जा सकती है ?।।49।। भद, 'मुझे यही होना चािहए औऱ यह
नही होना चािहए' इस पकार की इचछा िजसके िचत मे नही होित, ऐसे सवाधीन िचतवाले या सवेशरसवरप वाले िवदान
की मनुषय िकस पकार तुलना कर सकते है ?।।50।। शीरामभद, समसत संकटो के पारभूत, संकट और मल से
विजरत, सुखातमक तथा बुिद की परम साथरकतासवरप नैराशय का आप अवलमबन कीिजये।।51।।
हे शीरामजी असिलयत मे आप मे (आतमा मे) न तो आशाओं का अिसततव है और न आपका (आतमा का)
आशाओं से िकसी तरह का समबनध ही है। इस जगत् को अजानवश से उितथत िमथया भममात उस पकार जािनये,
िजस पकार दौड रहे रथ के ऊपर अविसथत पुरष को दोनो ओर बगल की िदशाओं मे िवदमान तर, गुलम आिद मे
पिहयो के पिरभमण से भमवश पिरभमण होता िदखाई पडता है। अथवा हे शीरामजी, आप आशाओं का अवलमबन मत
कीिजये। आशाएँ एक तरह की चोर है, कयोिक आतमा और अनातमा के िववेक िवजानरपी धनसमपित का अपहरण कर
वे पुरषो को आतमसुख से वंिचत कर देती है। जगत् का वैषियक सुख मूढ पुरषो से ही सैकडो तरह की अिभलाषाओं
के दारा चाहा जाता है। जैसे दौड रहे रथ मे लगे हुए पिहयो के ऊधवर और नीचे पदेश मे होने वाला घुमाव नेमी का
आशय करने वाले िपपीिलका इतयािद जीवो के पतन, पेषण (कुचला जाना) आिद अनथर का कारण होता है, वैसे ही
िमथया भममात जगत् भी उसका आशय करने वाली यानी भािनतरप जगत् मे सतयतवमित रखने वाले जीवो के जनम,
मरण आिद अनथों का कारण है यानी अनथों के िलए ही जगत् समुितथत है, यह जािनये।
अथवा उतम सुख की अिभलाषा से िनम कोिट के सुखो की अिभलाषा का अपहरण करने के िलए उतरोतर
अनय अनय आशाओं का पिरगह करना पडेगा, ऐसी िसथित मे आशाओं की अिभवृिद ही होगी, आशा का िवनाश नही
होगा, इस पकार की शीरामचनदजी की आशंका को ताडकर महाराज विसषजी कहते है।
हे शीरामजी, उतकृष आशाएँ िनकृष आशाओं की अपहती है, इस अिभपाय से नैराशय का कथन मैने नही
िकया है, ऐसा आप जािनये, कयोिक जगत् तो िमथया भम है, यानी िमथयाभूत वसतुओं मे अिभलाषाओं की परमपरा का
उतपादन कर वह पुरषो को चकर मे डालता है। और जैसे दौड रहे रथ मे िसथत पुरष को िदकचको मे कमशः भमण
उतपन होता है अथवा दौड रहे रथ के वेग से िदकमोह उतपन होता है, वैसे ही भािनतवश जगत् उतपन है, अतः इस
पकार के िमथया भमणशील जगत् मे उतकषरपयुकत अपकषर कथा ही अपिसद है। अथवा आशाएँ आशाओं की चोरी नही
करती, अतः आतमवेता िकसी की भी चाहना नही करता, कयोिक जगत भममाते है, इस जगत मे ऐसी कोई
पुरषाथरसवरप वसतु नही है, जो चाहने योगय हो, अतः आप आशाओं से कुछ भी समबनध मत रिखये, इस पक मे शेष
अंश पूवर की तरह समझ लेना चािहए।।52।।
आशाओं के आतयािनतक िनरास के हेतु का अनवेषण करने पर उसका पिरजान न होने के कारण मोह को पापत
हुए-से शीरामजी को देखकर पूवोकत देह आिद मे अहमभाव और ममता का पिरतयाग ही आतयािनतक नैराशय मे हेतु है,
इसका आगहपूवरक समरण करा रहे महाराज विसषजी कहते है-
हे महाबाहो, बोिधत होने पर आप देह तथा देह-समबनधी जरा आिद मेरे है, पूवोकत काल मे पिसद और वतरमान
काल मे पतयक देह मै ही हूँ, इतयािद रप से मूखों की नाई कयो भम मे पडे हुए है ?।।53।।
आपका वैसा कहना यदिप उिचत है, तथािप आशारपी दुःखकी िनवृित िकस पकार से होगी ? तो इस पर
कहते है।
शीरामजी, यह समपूणर जगत् आतमसवरप ही है, यहा िविवधरपता है ही नही, जगत् को अिदतीय
परमातमसवरप जानकर धीर महातमा तिनक भी िखन नही होते।।54।। हे राघव, इन पदाथों के समूहो का जो
यथाथर आतमभूत सवरप है, उसको जानने से ही पुरष बुिद के परम िवशािनतसवरप नैराशय को पापत होता है।।
55।।
समसत पदाथों का यथाथर सवरप िकस पकार का है ? इसे कहते है।
उतपित, िवनाश और िवकलपो से िविनमुरकत, आिद और अनत मे िसथत जो सवरप है वही पदाथों का सवरप है,
ऐसी भावना कर आप अपनी िसथित कीिजये।।56।। शीरामजी, जैसे वीर केसरी के पास से िहरनी पलायन कर
भाग जाती है, वैसे ही समसत िवकलपो के पिरतयागरपी महावैरागय से वीरता को पापत हुए अनतःकरण से युकत पुरष के
पास से यह मोहकारी संसरणशील माया पलायन कर भाग जाती है।।57।।
इसी पकार काम आिद दोष भी भाग जाते है, इस आशय से कहते है।
िजसकी बुिद धीर है, ऐसा तततविवत् महातमा वनलता की नाई अितचपल उनमत कामातुर कानता को जजरर
पसतर की मूितर के तुलय देखता है।।58।। हे अंग, जैसे वायु पवरत को न आननद दे सकता है, न खेद दे सकता है
और न धैयर से पचयुत कर सकता है, वैसे ही तततविवत् पुरषो को िवषयोपभोग न तो आननद पहुँचा सकते है, न तो
आपितया भीतर खेद पहुँचा सकती है और न दृशय समपितया धैयर से चयुत कर सकती है।।59।। भद िजसके िवषय
मे बाल अँगनाएँ अनुरकत है, ऐसे भी तततवज मुिन के अनतःकरण मे उदार बुिद के कारण कामदेव के बाण छोटे-छोटे
टुकडे होकर धूिलरपता को पापत हो जाते है।।60।। आतमा के तततव को पहचान लेने वाले अपराधीन (इिनदयो के
अवशीभूत) िवदान को राग औऱ देष अपनी ओर आकृष नही करते। शीरामजी, इस पकार महािवदान मे उनके दारा
जब तिनक-सा समपादन भी नही हो सकता, तब उनके दारा आकमण की तो कथा कैसे हो सकती है ?।।61।।
जैसे पिथक मरभूिम मे रमण या िवशाम नही करता, वैसे ही िवदान, जो लता और विनता मे एक-सी दृिष रखता है
तथा िजसका पवरत की नाई िवकार शूनय िनषकमप आकार है, वह इन तुचछ िवषयोपभोगो मे रमण नही करता।।62।।
तब कया िवदान खाना, पीना आिद का पिरतयाग कर देता है ? तो इस पर कहते है।
हे शीरामजी, जैसे लोचन आसकत न होकर आलोक का उपभोग करता है वैसे ही िजसका अनतःकरण िकनही
भोगय पदाथों मे आसकत नही है ऐसा तततवज मुिन अयत से पापत अिनिषद अन, पान आिद सब भोगयजात का केवल
देहमात के धारण के अनुकूल चेषा से (वयापार से) उपभोग करता है।।63।।
जो तततवज गृहसथ है, वह अपने सती आिद के िलए उपभोग का आसवाद होने पर भी रागी पुरष की नाई
भमगसत नही है, ऐसा कहते है।
हे भद, काकतालीय की नाई पापत हुई तुलना आिद भोगपंिकतया आसवािदत होने पर भी तततवज धीर पुरष को
न दुःख के िलए तथा न तुिष के िलए होती है।।64।। जैसे दो वीिचया शैलेनद मनदराल को कोभ नही पहुँचा
सकती, वैसे ही िजसने पतयक्-दृिष के मागर का भली पकार पिरजान कर िलखा है, ऐसे तततवज महापुरष को सुख-
बुिद और दुःख बुिद दोनो तिनक भी कोभ नही पहुँचा सकती।।65।। अवहेलना से यानी असतयबुिद से िवषयो को
देख रहा मृदु , दमनशील तथा समसत िचनता आिद जवरो से िविनमुरकत तततविवत् सब भूतो मे अनतरातमसवरप से िसथत
आतमपद का ही अवलमबन कर अविसथत रहता है।।66।। अनेक भुवनो को उतपन कर रहे अपनी आतमा मे परम
िवशािनत लेने वाले िहरणयगभर की ही नाई तत्-तत् कालोिचत िकयाओं मे वयापत होने पर भी देहािदयुकत तततववेता िकसी
पकार से िवकेप से युकत नही रहता यानी िवकेपशूनय ही रहता है।।67।। जैसे वसनत आिद ऋतुओं के आने पर
पवरत िकसी पकार का कोभ पापत नही करता, वैसे ही कालानुसार, देशानुसार एवं कमानुसार आपितयो के तथा सुख-
दुःखो के आने पर भी तततविवत् कोभ को पापत नही होता।।68।। हे शीरामजी, वाक् आिद कमेिनदयो के वयापारो के
िवषयो मे डू ब रहे भी आतमज िवदान का कुछ भी िवनष नही होता, वह सदा-सवरदा अनासकत मन से युकत है।।
69।।
भीतरी आसिकत ही दोष की उतपादक है, ऊपर ऊपर की बनावटी आसिकत दोष की उतपादक नही है, इस
िवषय मे दृषानत कहते है।
जैसे सुवणर भीतर के कलंक से ही कलंिकत कहा जाता है, ऊपरी पंक आिद के लेपनरपी कलंक से
कलंिकत नही कहा जाता, वैसे ही पाणी भावासिकत से यानी भीतरी आसिकत से ही समासकत कहा जाता है, ऊपरी
बनावटी आसिकत से आसकत नही कहा जाता।।70।।
आनतर आसिकत के तयाग से देहदुःख आिद की भी पसिकत नही होती, ऐसा कहते है।
शरीर से पृथक यानी िभन आतमा का अपरोक साकातकार कर रहे िनतयािनतय िववेक के िवजान समपन जानी
के भले ही अंग काटे जाये, तथािप उसका कुछ भी काटा नही जाता।।71।।
देह से अितिरकत आतमा का िवसमरण होने पर तो िफर दुःख होगा ? इस आशंका पर कहते है।
जैसे एक बार िपय बनधु का पिरजान हो जाने के अननतर िफर वह अजात नही हो जाता, वैसे ही िवमल
पकाशसवरप जो आतमा है, उसका कभी यिद जान हो गया, तो वह सदा जात ही रहता है, िफर उसका िवसमरण नही
होता।।72।।
िवसमरण की अपािपत मे दृषानत और उपपित से युकत हेतु बतलाते है।
जैसे पवरत के तट से छू रही वषाकालीन नदी वषा की िनवृित हो जाने पर िफर नही छू ती, वैसे ही सपरभािनत
की िनवृित हो जाने पर रजजु मे िफर सपरभावना नही होती।।73।।
िनषकषर यह िनकला िक आतमभािनत की िनवृित हो जाने पर आतमा का िवसमरण िफर नही होता।
जैसे अिगन के ताप से िजसके अंग िवशुद हो चुके है तथा जो िनःशेषरप से अपने सवभाव को यािन केवल
सुवरणसवरपता को पापत हुआ है, ऐसा कीचड मे िनमगन हो रहा सुवरण भी िफर मल को गहण नही करता, वैसे ही पकृत
मे भी समझना चािहए।।74।। हे शीरामजी, अपने हृदय की गिनथ का उचछेद हो जाने पर िफर देहािद के गुणो से
आतमा का बनधन नही होता, कया वृकसथ वृनत से यानी डंठली से टू ट गये फल को कोई भी समथर पुरष पुनः डंठल के
साथ पूवरवत् जोड सकता है ? अथात् नही जोड सकता।।75।। पतथर का छेदन और मिण के तािततवक सवरप का
िवचार इन दोनो की सहायता से जो मिण का अंश नही है, उस अंश को काटकर पतथर के अनतगरत मिण की पािपत की
जाती है। इस पकार पापत हईु मिण का पुनः पूवरवत् पाषाण के साथ सनधान करने के िलए कौन पुरष सामथयर रख
सकता है अथात् कोई नही रख सकता।।76।। अिवदा का असली सवरप जान लेने के अननतर कौन बुिदमान
पुरष िफर उसमे डू बता है यानी फँसाता है ? चाणडालो के उतसव िवशेष का पिरजान हो जाने के अननतर कौन िदजनमा
उस उतसव मे संिमिलत होने की पतीका करेगा ?।।77।। जैसे िवशुद सिलल मे हुई दुगध भािनत दुगध सवरप का
िवचार करने के अननतर िविनवृत हो जाती है, वैसे ही सासािरक वासना बुिदसथ आतमा का सवरप का िवचार करने के
अननतर िविनवृत हो जाती है।।78।। इस लोक मे शेष शेणी के बाहण लोग तब तक जलबुिद से मद पी लेते है,
जब तक उसका असली सवरप नही जान लेते। असली सवरप को जान लेने पर तो उसका पिरतयाग कर देते है।।
79।। हे शीरामजी, तततववेता पुरष रपलावणययुकत कािमनी को भी िचत मे िलिखत कानता की पितमा की नाई ही
देखते है, कयोिक वह दवयमात समारमभ है यानी उसका तािततवक सवरप पंचभूतातमक दवयमात ही है।।80।। हे
शीरामजी, जैसे िचत मे िचितत कािमनी के केश, ओष आिद अवयव मषी, कु ंकुम आिद रंगसवरप पाच भूतो को
छोडकर और कुछ भी नही है, वैसे ही रप और लावणय से युकत जीिवत कािमनी के भी केश ओष आिद पाच भूतो के
सवरप अितिरकत दूसरा कुछ भी नही है, इसिलए कानता-पितमा और जीिवत कानता मे तततवतः समानता होने के
कारण जीिवत-कानता की कया उपादेयता हो सकती है ?।।81।।
यिद शंका हो िक जैसे सती आिद िवषयो का अनुभूयमान जो सवरप है, उससे िवपरीत ही उनका तािततवक
सवरप है, वैसे ही सवातमानुभव का भी परम पेमासपदतवरप से अनुभूयमान जो आननदसवरप है, उससे िवपरीत ही कयो
नही होगा ? तो इस पर कहते है।
जैसे गुड के अनुभूत सवाद मधुर रस का अनुभूत गुड, अनुभवकरण िजहा तथा अनुभव करने वाले देवदत
आिद के दाह, कतरन आिद सैकडो पयतो से भी 'यह माधुयर का अनुभव नहं है, िकनतु ितकतता आिद का अनुभव है' यो-
अनयथा नही कर सकते, वैसे ही आतमा के तािततवक आननदानुभव को भी अनयथा नही कर सकते।।82।।
अतएव जब एक बार अनुभूत पदाथर को भी अनयथा नही कर सकते, तब केवल उसी एक वसतु मे वयसनी
पुरष के दारा सदा-सवरदा अनुभूयमान पदाथर को अनयथा नही कर सकते, इसमे तो कहना ही कया है ? इस आशय से
कहते है।
परपुरष मे वयसन (आसिकत) रखने वाली नारी, घर के कायर मे वयग रहने पर भी, उसी परपुरष समबनधरपी
रसायन का अपने अनदर आसवाद लेती है।।83।। हे शीरामजी, इस पकार िवशुद परबहतततव मे उतम िवशािनत को
पापत हुआ धीर तततवज पुरष इनद के साथ हजारो देवताओं से भी िवचिलत नही िकया जा सकता।।84।। भद,
भला बतलाइये तो सही िक ऐसा कौन बिलष सवामी है, िजसने परपुरष के संग मे वयसन रखने वाली अपनी पती को
उसके संकलप मे अविसथत परकानतसंगमरपी महोतसव का िवसमरण कराया हो।।85।। हे राघव, सासािरक िविभन
िवषयाननदरपी जो अनेक पुणयरस है, वे सब िजसमे शहद के छते की नाई एक रस हो जाते है, ऐसे
सवातमाननदिचदालोक के िनरनतरासवादनधारा को पापत हुए ही तततवज महातमा की मित का िवसमरण कौन करा सकता
है ? इस िवषय मे िशवधमोतर मे भी कहा गया गया हैः
जानामृतरसो येन सकृदासवािदतो भवेत्। िवहाय सवरकायािण मनसततैवधावित।।
यानी एक बार भी िजसने जानामृतरपी रस का आसवाद ले िलया हो, उसका मन समसत वयापारो को छोडकर
उसी मे अनुधावन करता है।।86।।
समग सुख और दुःख से युकत वयवहारो को यानी घर के कामो को िविधपूवरक कर रही पित, सास और ससुर
के दारा पीिडत भी कुलजनो के आिशत वधु, जो पर संग मे आसिकत रखने वाली है, िजस पकार संकलप कानत से
आननदिवभोर होती है और दुःखो से पीिडत नही होता, उसी पकार िजस महातमा की अिवदा िनवृत हो गई है, िजसकी
भली पकार की दृिष यानी तततवबुिद है तथा जो सुनदर आचरणो से युकत है, ऐसा महातमा पयापतरप से वयवहार मे
िनरत होने पर भी अपने अनतरातमा से पसनता को पापत करता रहता है।।87-89।।
उसमे भी जो तततवज सपतम भूिमका मे आरढ है, उसकी अतयनत िसथरता रहती है, ऐसा कहते है।
हे शीरामजी, सपतम भूिमका मे समारढ योगी िछनाग हुआ भी छेिदत नही होता, िगर रहे अशुओं से युकत होता
हुआ भी रोता नही है, दगध होता हुआ भी दगध नही होता, िवनष देह होता भी नष नही होता।।90।।
हे राघव, मन के िवनाशपयरनत भूिमका मे सुपितिषत पुरष धीर तततवज यदिप पूवरकािलक पारबधफलरपी कमर
से िवधुर भोगशूनय दिरद-अवसथा मे या माणडवय की नाई शूलािधरोहण (शूली पर चढाना) रपी संकटावसथाओं मे या
उतम नगरसथ सदन मे या भयंकर अटवी मे या तपोवन मे भले ही रहे, तथािप वह सदा-सवरदा सुख-दुःख के संिनपात
से दूर ही रहता है, तिनक भी संसािरक हषर, शोक के साथ उसका समबनध नही होता, यह भाव है।।91।।

िसथित पकरण उपशम पकरण


चौहतरवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ-आआआआ आआआआआआआआ आआआ आआ आआआआ, आआआ आआआ आआ आआआ आआआआआआआ आआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआ आआआआआ, आआआआ, आआआआआआ आआआ ।आआ आआआआआआ
महाराज विसष जी ने कहाः हे राघव, अपने राजय मे समयोिचत तत्-तत् वयवहार मे ततपर होते हुए भी राजा
जनक िनिखल मानिसक िचनतारपी जवर से रिहत तथा भीतर आकुल मित से विजरत होकर ही सदा-सवरदा अविसथत
हुए।।1।। आपके िपतामह महाराज िदलीप ने अनेक तरह के उिचत सासािरक कमों मे सवरदािनरत होने पर भी भीतर
आसिकत से विजरत होकर ही दीघरकाल तक पृथवी का उपभोग िकया।।2।। राग आिद की कािलमा से शूनय होने के
कारण आतमजान को पापत हुए महाराज मनु ने िचरकाल तक पजाओं का पालन करते हुए तथा सवरदा जीवनमुकत सवरप
होकर राजय का संरकण िकया।।3।। िविचत सैनय तथा बाहुबल का िजनमे उपयोग होता था, ऐसे युदो मे तथा
अनेक वयवहारो मे दीघरकाल तक िसथत रहे महाराज मानधाता आिखर परम पद को पापत हुए।।4।। पाताल की पीठ
पर आसीन होकर बिलराज यथाथर-से वयापार को करते हुए भी सदा तयागी, सदा अनासकत और जीवनमुकतरप से
िसथत है।।5।।
'िदवस िसथतम्' ऐसा यिद पाठ हो, तो 'पाताल मे िनवास करने के िलए भगवान के दारा िनयिमत िदवसो का
पिरपालन करते हुए महाराज बिल जीवनमुकत होकर अविसथत है' ऐसा अथर करना चािहए।
दानवो का अिधपित नमुिच सदा-सवरदा देवताओं के साथ युद या मयादा वयितकम मे तथा अनेकिवध देव और
दानवो के आचरण एवं िवचार-िवमशों मे तततपर होता हुआ भी भीतर से सनतपत (िखन) नही होता था।।6।। इनद के
युद मे अपने शरीर का पिरतयाग करने वाले मानी वृतासुर ने, िजसका अनतःकरण अतयनत उदार था, भीतर पशानत
मन होकर ही देवताओं के साथ युद िकया।।7।। पाताल तल का पिरपालन करने वाले दानवोिचत कमों का
अनुषान कर रहे भकत पवर पहाद अिवनाशी, वाणी के अगोचर परम सुख को (मोक को) पापत हुए।।8।। हे
शीरामजी, यदिप केवल माया मे ही िनरत रहता था तथािप हृदयसथ िचदाकाश एकरपता से आिवभूरत शमबरासुर ने इस
संसाररपी माया का पिरतयाग कर िदया।।9।। दानवो की कायर िसिद के िलए भगवान नारायण के साथ युद कर रहे
कुशल शमबरासुर ने अथवा कुशल नाम के एक अनय दानव ने परम तततवजान को पापत कर इस संसार का पिरतयाग
कर िदया।।10।। समसत देवताओं का मुखसवरप अिगन िकया समूह मे तततपर होता हुआ भी यजीय लकमी का
िचरकाल तक उपभोग करता हुआ परनतु मुकत होकर ही इस ितभुवन मे रहता है।।11।। जैसे पैरो से आकमण
करने पर आकाश समबनध को पापत नही होता, वैसे ही समसत देवताओं के दारा पीयमान सोम, िजसके भीतर बहातमक
रसायन यानी (पुनरजजीवन का अमृत) िवदमान है, सुख, दुःख आिद के संसगर को पापत नही होता।।12।। पती
के िलए चनदमा के साथ िजनहोने युद िकया था, ऐसे देवताओं के गुर बृहसपित सवगर लोक मे देवताओं के
पौरोिहतयािधकार की िविचत चेषाओं को कर रहे भी मुकत होकर यहा अविसथत है।।13।। आकाशतल मे चमकने
वाले, िवदान तथा नीितशासत रचना के दारा समसत अिभमत अथों का पिरपालन करने वाले असुरदैिशक शुकाचायर
िनिवरकार बुिद होकर ही काल िबताते है।।14।। ऊपर के लोको का और पािणसमूहो के अंगो का िचरकाल से
संचरण करा रहा वायु भी मुकत ही िसथत है, जो सदा सवरदा सवरत संचरण करता है।।15।। हे शीरामजी,
नैकिवधपािणयो के समूह के अतयनत वेगपूवरक ऊपर, नीचे और मधयलोक की गितयो से होने वाले िनरनतर आवतरन एवं
उनसे जिनत उदेगो के सवरप का पिरजान रख रहे बहा भी अिखन बुिद तथा सममन होकर अपने दो पराधरवषरपयरनत
अितवसतृत आयुषय को िबताते है।।16।। भगवन् शीहिर यदिप िनतयमुकत है तथािप जरा, मरण, युद आिद दनदो की
युदलीला से इन संसारमणडल मे बहत ु काल तक संचरण करते है।।17।। जैसे कोई कामुक कािमनी को धारण
करे, वैसे ही िनतययुकत, भगवान ितनेत शंकरजी सौनदयर तर की मंजरीरपा भगवती गौरी को अपने देहाधर पिरधारण
करते है। भगवान ितनेत न तो कामुक है और न भगवती गौरी कािमनी ही है, िकनतु एक बह और दूसरी बहिवदा है,
यह धविनत िकया है।।18।। मुकत होते हुए भगवती गौरी ने भी ितनेत धूजरिट को चनदमा की कला की नाई अित
सवचछ अतयनत धवलवणर मोितयो के हार के सदृश अपने गले मे लगाया है।।19।। िजसकी िविचत दुरवगाह बुिद
थी यानी साधारण बुिदवाले लोग िजन पदाथों को समझ नही सकते उन पदाथों को शीघ समझ लेने की तीवरािततीवर
बुिद िजसमे थी और जो वीर था, ऐसे जानरपी रत के एकमात समुद सवामी काितरकेय ने मुकत होते हएु भी तारकासुर
आिदयो से रण कीडा की।।20।। हे शीरामजी, धयानरपी सिलल से धोई गई, धीर मुकत बुिद से ही भृग ं ीश ने
(िशवजी के गणिवशेष ने ) अपनी माता को अपने रिधर और मास का पदान िकया था।(इस िवषय मे पुराणो मे उललेख
है िक जब भृंगीश गण भगवती देवी का अनादर कर केवल िशवजी की आराधना मे ततपर हुआ, तब कुिपत देवी ने माता
और िपता के भागसवरप रिधर और मासरप देह मे से अपने मातृभाव को लौटाने की याचना की, इस याचना के
अनुसार उसने िशवजी के पित एकिनषभिकत के पकाशनाथर अनायास माता के दारा अपने देह मे आये हुए रकत, मास
आिद को नोचकर उनको पदान कर िदया)।।।21।। महामुिन नारदजी यदिप मुकत सवभाव है, तथािप इस
जगतरपी जंगल के खणड मे कलह कौतुक को पवृत करने वाली शानत बुिद से यत तत िवचरण करते है।।22।।
भद, शीरामजी, समसत भुवनो मे अतयनत मानय, समथर यह िवशािमत महिषर यदिप जीवनमुकत मानस है, तथािप
वेदशासत मे िविहत यजािद िकयाओं का अनुषान िकया करते है।।23।। जीवनमुकत होकर ही सहसमुख, नागराज
शेष पृथवी को धारण करते है, सूयर भगवान िदवसो की परमपराओं का िनमाण करते है, यमराज धमाधमर िवचारपूवरक
लोगो का िनयमन इस ितभुवन मे िवमुकतसवरपता को पापत होकर संसार मे अनासकतसवरप से अविसथत है।।
25।। िविचत शोक, मोह अनथों के उतपादक तथा पुत, सती, धन-समपितआिद का संगहकर युद, वध, बनधन आिद
आचारो से युकत भी इन सासािरक राजयािद वयवहारो मे संिसथत कुछ पुरष भीतर शािनत से समिनवत यानी मुकत रहते
है और कुछ मूढ तो िशला के सदृश रहते है, यानी अजान मे फँसे रहते है।।26।। कुछ महानुभावो ने उतकृष
आतमजान का समपादन कर िचतिवकेप की िनवृित के िलए तपोवन का आशय िलया। जैसे भृगु, भरदाज, िवशािमत,
शुक आिद।।27।। कुछ तततवज महातमा आतमजान पापतकर राजयकमर मे ही छत, चामर आिद से रिकत होकर रहते
है। जैसे जनक, शयाित, मानधाता, सगर आिद।।28।। कुछ तततवज आकाश मे गह, नकत आिद के आधारभूत
जयोितशक के मधय मे अविसथत है। जैसे बृहसपित, शुकाचायर, चनद, सूयर, सपतिषर आिद।।29।। कुछ तो देवताओँ
के पद को पापत होकर िवमानो की पंिकतयो के ऊपर आरढ होकर िसथत है। जैसे अिगन, वायु, वरण, यम, तुमबर
नारद आिद।।30।। कुछ महानुभाव पाताल की कनदरा मे जीवनमुकत होकर सुिसथत है। जैसे बिल, सुहोत, अनध,
पहाद आिद।।31।। ितयरक् योिनयो मे भी सदा कृतबुिद महातमा रहते है जैसे गरड, हनुमान, जामबवान आिद और
देवयोिनयो मे भी मूखर बुिदवाले बहत
ु से महामूढ िवदमान है।।32।।
यिद शंका हो िक िजतने सािततवक है उन सबमे देवता अिधक सािततवक है, अतः िजनकी जान और ऐशयर
शिकत सवभावतः ही अिभवयकत होती है, ऐसी देवयोिनयो मे मूखों की संभावना कैसे हो सकती है ? तो यह शंका युकत
नही है, कयोिक सवरशिकत ईशर की सवरभाव से सवरत सब पकार से सदा िसथित होने से तथा सवरसवरप आतमा मे
सवपािद अवसथाओं मे सैकडो असंभािवत वसतुओं का भी दशरन होने के कारण कही पर िकसी की भी असंभावना नही
करना चािहए ऐसा कहते है।
िजसका अतयनत वयापक सवरप है, ऐसे सवरसवरप आतमा मे सब कुछ सवरभाव से सवरत सब पकार से सदा
ही समभािवत हो सकता है।।33।।
पूवोकत अथर को ही सपषरप से कहते है।
िविध की िनयित, अननत कायों के आरमभ मे िनरत है और िविचत है, अतः संिनवेशाश के वैिचतय से सब
कुछ सब जगह िदखाई पडता है।।34।।
िविध कौन है ? इसे कहते है।
बहा, दैव, िवषणु, िहरणयगभर, िशव, ईशर आिद परमातमा के नामो से हम सब लोगो का पतयक् चेतनरप आतमा
ही कहा जाता है।।35।।
जहा पर अतयनत असंभािवत भी वसतु और अवसतु दोनो एक दूसरे के भीतर संभािवत हो जाती है, वहा पर
दूसरा कया असंभािवत हो सकता है ? इस आशय से कहते है।
अवसतु मे भी भीतर वसतु रहती है, जैसे बालू मे सुवणर तथा वसतु मे भी अवसतु रहती है, जैसे सुवणर के कणो
के भीतर मािलनय।।36।। हे शीरामजी, जो युकत नही है उसमे युिकत से िवमशर करने पर युकतता िदखाई पडती है,
कयोिक युिकत से िवचार करने पर फलतः भीषण होने से अतयनत युकत पाप मे भी पुरष को धमर मे पवृत कराने का
मनन गुण िदखाई पडता है।।37।। हे साधो, असतय मे भी फलतः शाशती सतयता िदखाई पडती है, कयोिक
शूनयातमक धयान-योग से शाशत (अिवनाशी) पद की पािपत होती है।।38।। असिलयत मे जो नही है, उसका भी
देश और काल के िवलास से शीघ पादुभाव हो जाता है, जैसे ऐनदजािलक सृिष मे सीगवाले खऱगोश भी िदखाई पडते
है।।39।। िजनका िवनाश कभी भी संभािवत नही था, ऐसे सुदृढ पदाथर भी कलप के अनत मे कय को पापत हुए
िदखाई पडते है। जैसे चनद, सूयर, पृथवी, समुद, देवता आिद।।40।।
असंभािवत का भी संभव है, इसका पासंिगक जो उपादान हुआ, उसका भी पकृत ही फल है, यह िदखलाते
हुए उपसंहार करते है।
हे महाबाहो, इस पकार के भाव-अभावातमक संसृितकम को देख रहे आप हषर, अमषर िवषाद और अिभलाषाओं
का पिरतयाग कर समभाव को पापत हो जाइये।।41।। इस संसार मे जो असत् है, वह सत् का पिरतयाग कर आप
शीघ ही समता पापत कीिजये।।42।।
यिद शंका हो िक ऐसा होने पर िवदेह मुिकत मे भी िफर संसार पािपत की संभावना हो जायेगी, तो इस पर कहते
है।
हे राघव, मुिकत हो जाने पर िफर इस संसार मे िकसी पकार जीवतव की पािपत नही हो सकती, कयोिक करोडो
मनुषय असंसारी आतमा के िववेक की य़ानी तततवजान की अपवृित मे ही अजान-दशा मे अतयनत असंभािवत करोडो
अनथों की संभावनारपी भम मे िनमगन रहते है, मुिकत मे नही, कयोिक संसारिनमजजन के हेतु अजान का िवनाश हो
चुका है।।43।।
मुिकत िनतय-पापत आतमसवरप है, इससे भी उसके िवनाश की आशंका नही हो सकती। िवसमृत गले के हार
की नाई आतमा का आतम अनातमा के केवल िववेक से ही लाभ हो जाता है, ऐसा कहते है।
हे राघव, चूँिक इस संसार मे आतमसवरप मुिकत की सदा ही पािपत है, इसिलए आतमा अनातमा के िववेक-
िवजान की उपलिबध होने पर करोडो मनुषय िवमुकत हो चुके है।।44।। हे शीरामजी, िववेक और अिववेक से मुिकत
सुलभ और असुलभ हो जाती है, इसिलए आप मनोिवनाश को पापत कर िववेक का पदीपन कीिजये।।45।।
हे शीरामजी, िजसको मुिकत की अिभलाषा हो, उसे आतमा के अवलोकन मे यत करना चािहए। समसत दुःखो
का िशरोचछेद आतमा के अवलोकन से ही होता है।।46।।
यिद शंका हो िक पहले के महातमाओं की जीवनमुिकत का संभव होने पर भी वतरमान काल के महातमाओं की
जीवनमुिकत का संभव नही है, तो इस पर कहते है।
राग से शूनय, अिभिनवेशो से रिहत तथा उतम मेधा से समपन सुहोत, जनक इतयािद की नाई इस वतरमान
काल मे भी अनेक जीवनमुकत िवदमान है।।47।। हे शीरामचनदजी, इसिलए आप भी वैरागय और िववेक से उिदत
धीरबुिद से समिनवत िमटी के ढेले मे पतथर और काचन मे समदृिष तथा जीवनमुकत होकर िवहार कीिजये।।48।।
हे राघव, इस लोक मे देहधारी जीवो की दो पकार की मुिकत है एक तो सदेह-मुिकत और दूसरी िवदेह मुिकत। अब आप
उनका िवभाग सुिनये।।49।।
उसमे पहले सदेहमुिकत और िवदेह मुिकत इन दोनो मुिकतयो मे घटने वाले मुिकत शबद के अथर का िनवचरन
करते है।
हे पापशूनय आकृितवाले शीरामजी, पदाथों के (िवषयो के) असंग से जो मन की शािनत होती है, वह िवमुकतता
यानी मुिकत शबदाथर है। िवमुकतता देह के अिसततव और नािसततव दोनो अवसथाओं मे होती है।।50।। भद उसमे
सनेह बनधन का िवनाश ही यानी देहािद मे आतमसवरपतव के िवभम से हुई पीित का िवनाश ही उतम कैवलय(मुिकत) है,
ऐसा तततवज िवदान कहते है। वह कैवलय देह की सता रहे चाहे न रहे, दोनो अवसथाओं मे होता है।।51।। जो
िवदान िवषय-सनेह से रिहत होकर जीता है, दोनो से जो परे है, वह तीसरा मुकत कहलाता है।।52।। भद, मोक के
िलए शम, दम आिद चार साधनो के मधय मे यत के दारा पूवरपूवर की िसिद हो जाने प उतरोतर पर िवजय पाने के िलए
युिकतपूवरक (पमाणो का तातपयर और पमेय के सवरप का अवधारण करने के िलए अनुकूल जो तकर है, ततपूवरक) पयत
करना चािहए। जो युिकतपूवरक पयत से विजरत है, ऐसे पुरष के िलए गाय का खुर मात पदेश भी अलंघय हो जाता
है।।53।।
यथोकत युिकतपूवरक पयत का अनुषान वहा तक करना चािहए, जहा तक िक आतमा के सवरप का अवधारण
न हो जाये, जब िक आतमा का अधयवसान हुआ हो, तब सहसा बीच मे ही िवरिकत से पयत का उपराम कर उसे
(आतमा को) पुनः अनथर के वश मे नही कर देना चािहए, ऐसा कहते है।
केवल मोह का अवलमबन कर अधयवसाय के न होने पर पयत के अनादर से असीम सवरपवाले आतमा को
दुःख के िलए ही परवश नही करना चािहए।।54।।
किथत अथर को ही सपषरप से कहते है।
हे रामजी, बडे धैयर का अवलमबन कर फल की पािपत तक अनुिषत सतत पयत से जिनत दृढ िनशय से युकत
मन से िचरकािलक िसिद के िलए यानी पितबनध होने पर अनेक जनमो से होने वाली मोकातमक िसिद के उदेशय से
अपने दारा ही अपना िवचार करना चािहए। जो िनरनतर अधवसाय करने वाला पुरष है, उसके िलए जगत गाय का
खुरमात हो जाता है।।55।।
सुगम यानी बुद ओर पकृित पुरष िभनतवरप शोभन िववेक को पापत हुए महामुिन किपल इन दोनो ने खूब
िवचार करके भी अधयवसाय करने की सामथयर न होने के कारण आतमतततव से िवचयुत होकर किणक िवजानो के
सनतानरप और सततवािद गुणतय की सामयअवसथारप पधानपद को पापत िकया, एवं िकसी यानी वेद का िननदक होने
के कारण िजसका नाम लेना समुिचत नही है ऐसे अहरद नाम के कितय राजा ने भी असली बहतततव से िवचयुत होकर
आतमा को िचतसवभाव मानकर भी देह के तुलय पिरमाणवाला मानने से हाथी, मचछर आिदयो के शरीरो मे पवेश करने मे
अवयवो का उपचय पापत होने के कारण अधुव ही माना है, इसिलए ये तीनो अनुतम िमथयापद मे ही िनमगन है और
जीवो वेद के रहसय मे िनषणात है, ऐसे महानुभावो ने तो उतम सतयािवदसवरप परमपद को यथाथररप से पापत िकया है,
वह वेदोकतमागर से पापत िकया गया पद पयत लकण कलपतर का महान फल है, इसिलए उसी पकार दूसरे भी पयत
करे।।56।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

पचहतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआआ, आआआआआआआआआआ आआआआ, आआआआ आआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआ
आआआआआआ आआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ।
महाराज विसषजी ने कहाः हे राघव, ये समसत जगत अिवजात बह से ही आिवभूरत होते है, आतमा और
अनातमा के अिववेक से वे िसथरता को पापत होते है और िववेक से पशानत (िवनष) ही हो जाते है।।1।। बहरपी
समुद मे जगत-समूहरपी जल के तरंगो की िगनती कौन कर सकता है ? कया कोई सूयर िकरणो से समबनध रखने वाले
तसरेणुओं की िगनती कर सकता है ?।।2।। हे राम जी, आतमा का यथाथर जान न होना ही जगत का िसथित मे
कारण है और आतमा का यथाथर जान ही संसार के िवनाश का कारण है, यह आप जािनये।।3।। हे शीरामजी, यह
संसार-सागर ऐसा घोर है िक इसके पार हो जाना अतयनत दुषकर है, युिकत और पयत के िसवा इसका तरण नही िकया
जा सकता।।4।।
उसी संसार-सागर का वणरन करते है।
िजसके मोहरपी जल से भरा गया, पूणर यह संसाररपी सागर जो िक मरणरपी अगाध आवतर से और बडे बडे
तरंगो से वयापत कोटरो से युकत है औऱ िजसमे चकर काट रहे पुणयरपी फेन है, धधकता हुआ नरकरपी बडवानल है,
और तृषणारप चंचल लहिरया है तथा जल मे उतपन हुआ मनरपी जल-हाथी है, िजसमे जीिवतरपी निदया लीन हो
जाती है, एवं जो िवषयोपभोगरपी रतो की िपटारी है, कुबध रोगरपी सपों से आकानत है, िजसमे इिनदयरपी मगरो की
घर-घर धविन होती है। शीरामजी देिखये तो सही, इसमे अतयनत चपल, बडे बडे िशखरो की नाई धीर महानुभावो का
आकषरण करने की कमता रखने वाली मुगध अंगनारपी िवसतृत बीिचया है, ये बीिचया दनतचछेदो की शोभा से पदराग
मिणयो से समिनवत, नेतरपी नीलकमल से वयापत, दातरपी मुकुलो से युकत, िसमतरपी फेन से सुशोिभत, केशरपी
इनदुनील मिण से वेिषत, भौरो के िवलासरपी तरंगो से तरंिगत, िनतमबरपी पुिलन से सफीत, कणठरपी शंखो से
िवभूिषत, ललाटरपी मिणपटो से (रतफलको से) आढय, िवलासरपी मगरो से युकत, कटाको का चपलता के कारण
अितगहन, देहकािनतरपी सुवणर बालुका से युकत है, इस पकार की अितचंचल लहिरयो के कारण जो अतयनत भयंकर
है उस मे िनमगन हुआ पुरष यिद बाहर हो जाये, तो यह परम पुरषाथर ही होगा।।5-12।। पजारपी बडी नौका और
िववेकरपी नािवक के रहने पर यिद इस संसार रपी सागर से जो पार नही हुआ, तो उस पुरष को िधकार है।।
13।।
हे शीरामजी, अपारावार यानी असीम संसार समुद का आतमतततव के दशरन से बाध कर उसको चारो ओर से
पमेय बहसवरप बनाकर जो पवेश करता है यानी पतयग् आतमा को भी जो तदूप पापत करता है, वही पुरष कहा जाता
है।।14।।
हे शीरामजी, आयर यानी बडे-बडे तततवजो के साथ बह का िवचारकर तथा वैसी बुिद से संसार-सागर का
अवलोकन कर तदननतर यानी तततवजान के अननतर बहरपता को पापत हुए जगत् मे कीडा शोिभत होती है, अनयथा
नही।।15।। हे साधो, इस संसार मे आप धनय है, कयोिक िवचारपवीण बुिद से आप इसी बाल अवसथा मे धनयता के
कारण ही इस संसार के िवषय मे िवचार करते है।।16।।
हे शीरामजी, आपकी नाई संसार का िवचारपवीण आिद उतम बुिद से पहले िवचार कर जो अिधकारी पुरष
बह मे अवगाहन करता है वह कभी संसार मे फँसता नही है।।17।। हे शीरामजी, जैसे गरड जी के दारा अमृत
लाने के पहले सपों की उपेका की गई थी, िफर माता के शापिवमोचन के अननतर उनका िनःशेष उपभोग िकया जाता
है, वैसे ही सबसे पहले उस पकार के समान भय देने वाले भोगो के सवरप का बुिद से िवचार कर उनकी उपेका करनी
चािहए, और िफर उनका उपभोग करना चािहए।।18।।
लोक मे भी राजकीय िवभूित के उपभोग मे यह नयाय पिसद है, ऐसा कहते है।
िवचारपूवरक राजपसाद और राज-अनुगह आिद रहसय का पतयककर िजन राज-िवभूितयो का उपभोग िकया
जाता है, वे जनतु को महान् मोकातमक उदय देने वाली होती है और बाकी की केवल दुःख के िलए है।।19।।
तततवजान के बाद ही भोगजरणोपपादक िवशेषण समपित पापत होती है उसके पूवर नही ऐसा कहते है।
िजसने तततव को जान िलया है, ऐसे पुरष के बल, बुिद और तेज उस पकार बढते है, िजस पकार वसनत
ऋतु से युकत वृक के सौनदयर आिद गुण बढते है।।20।।
शीरामचनदजी को भोगजरण की सामथयर नही है, इस आशंका का पिरहार करने के िलए तततवबोध-समपित
िदखलाते है।
हे िविदततततव शीरघुननदन तुम रसायन से पिरपूणर, सुशीतल यानी ितिवध तापो से शूनय, िनमरल, सम और
िवसतृत शी से पूणरचनद की नाई अतयनत िवरािजत हो रहे थे।।21।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

िछहतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआ आआआआ आआआआ आआआआआ
आआआआ आआ आआआआआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआआआआआ आआआआआआ।
शीरामजी ने कहाः हे मुिनवर, िजसने बहतततवरप चमतकार का अपरोक साकातकार कर िलया है, ऐसे तततवज
िवदान का उदार चिरत आप हमसे समासतः (यानी यत-तत जहा कही कहा गया है, उसका संगहकर) किहये, कयोिक
आपके वचन मे तृिपत िकसको हो सकती है ?।।1।। महाराज विसष ने कहाः हे महाबाहो, अनेक बार मैने आपसे
जीवनमुकत के लकण कहे है, िफर भी मै जो यह संगहकर आपसे पुनः कह रहा हूँ, उसे सुिनये।।2।। भद िजसकी
समसत एषणाएँ यानी िवषयािभलाषाएँ िनकल गई है, ऐसा आतमवान् (तततविवत्) पुरष इस दृशयमान अिखल जगत को
सवरत सुषुपत की नाई यानी वयवहार दृिष से सुषुपत के समान तमःसवरपमात सदा देखता है और परमाथर दृिष से
बािधत की केवल अनुवृित होने के कारण असत् की नाई अनासिकतपूवरक देखता है।।3।। िजसने आतमजान पापत
कर िलया है, ऐसा आतमजानी पुरष कैवलय को पापत हुआ-सा चारो ओर पसुपत मन से युकत-सा तथा घूणरमान
आननदवान्-सा अविसथत रहता है।।4।। तततवज पुरष पहले चकु आिद से देखे गये और पीछे हाथ आिद से
पिरगृहीत हुए भी अन, वसत आिद वसतुओं का बुिद से गहण नही करता वह अनतमुरख होने के कारण अतयनत उदार
और समसवरप है।।5।। शीरामजी जो शानत बुिद से समपन िवदान है, वह अनतरातमा मे लीन दृिष से यह जनता का
वयवहार असंग, उदासीन आतमा की केवल सिनिध से पवृत होने के कारण काषिनिमरत जड पितमा के संचार के सदृश
है, ऐसा जानकर हँसता रहता है।।6।। तततविवत् भिवषय की न अपेका करता है, न वतरमान मे अविसथित यानी
समासिकत करता है, न भूतकालीनवसतु का समरण करता है, और सब कुछ करता भी है।।7।। वयवहािरक वसतुओं
के िवषय मे सुपतपाय होता हुआ भी अपनी आतमा मे जागत रहता है।।
भगवान ने गीता मे कहा भी है-या िनशा सवरभूताना तसया जागितर संयमी। यानी अजजीवो के पित सवरथा
अजात होने के कारण उनके िलए िनशासवरप जो आतमा है, उस मे जानी पुरष जागता रहता है।
सब कुछ कमर करता है, तथािप भीतर से कुछ नही करता। तातपयर यह हुआ िक वयवहार मे अतयनत कुशल
भी वह पसुपत ही रहता है, अतः वयवहार कौशल से जिनत फल से समबद नही होता।।8।।
इसिलए उसकी िसथित सदा ही एक-सी रहती है, ऐसा कहते है।
अपने भीतर समपूणर वसतुओं का पिरतयाग करने वाला तथा सदा भीतर इचछाओं से विजरत तततववेता बाहर से
यानी ऊपर-ऊपर से उनमना होकर कायों को कर रहा भी एकरप से ही िसथत रहता है।।9।। िजसने बाहर से
समसत वसतुओं की इचछा की है, जो समयानुसार पापत हुए तत-तत् देह, वणर और आशमो के उपयोगी कमों मे तथा
िपता, िपतामह आिद कमपरमपरा से पापत हुए राजयािदकाम, बनधुओं के कायर तथा दान, मान आिद कमों मे केवल अनुवृित
रखने वाला, समसत सुख भोगो का जो आतमसवरप समझने वाला अथवा समसत सुख भोगो का सवयं ही आतमसवरप
है, इसीिलए अजािनयो की दृिष मे भोगकाल मे समसत िवषयािभलाषाओं मे अविसथत तततववेता समसत कमों को करता
है, परनतु उसने कतृरतवािभमान का पिरतयाग कर रखा है।।10-11।। पकृत तततवज उदासीन पुरष की नाई अविसथत
रहता है। परमपराकम से समपापत कमों मे पापत हुए इष और अिनष फलो को न चाहता है, न देष करता है, न शोक
करता है और न पसन होता है।।12।। जो तततवज है, वह अनुकूल और पितकूल आचरण मे ततपर पाणी के ऊपर
अनासकत िचत से, भकत के िवषय मे भकत के आचरण से औऱ शठ के िवषय मे शठ के सदृश िसथत है।।13।।
बालको मे बालक, वृदो मे वृद, धीरो मे धैयरवान्, यौवनवृितयो वालो मे युवा और दुःिखतो मे दुःखी सा रहता है।।
14।।
पूवोकत बालािद के सदृश आचरण करने वाले तततवजो मे जो िवशेष है, उसे कहते है।
तततवज मुिन जब-जब अपने मुख से वाणी को पवृत करते है, तब पिवत कथाओं को ही कहते है बालक आिद
की नाई वयथर भाषण नही करते। उनका अनतःकरण दीनता से विजरत रहता है। वे धीरबुिदवाले, उिदत आननद से
युकत तथा दक रहते है और लोक मे उसके पुणय चिरतो का वणरन होता है।।15।। पाज, पसन और मधुर रहता है,
अपनी पितभा के उदय मे पूणर, खेदरपी दुगरित से रिहत तथा समसत मनुषयो मे िसनगध बनधुभाव रखने वाला होता है।।
16।। तततवज उदार चिरत और उदार आकार से युकत है, सम है, सौमय सुख का समुद है, सुिसनगध है उसका सपशर
सवरिवध संताप का अपहरण करने वाला है और वह पूणरचनद की नाई पूणर उदय से समिनवत है।।17।। तततवज
महातमाओं को पुणय कमों से न भोगो के पिरतयाग से और न बनधुओं से ही पयोजन है।।18।। उसका न आवशयक
कायों के ऐिहक और पारलौिकक फल के हेतु कमों के आरमभ से पयोजन िसद होता है एवं न कमों के अभाव से, न
बनध से, न मोक से, न पाताल से और न सवगर से ही उसका पयोजन है।।19।। तततवज महानुभाव ने जब समसत
जगत की सवरपभूत अिदतीय आतमरप यथाथर वसतु का भली पकार पिरजान कर िलया, तब उसका मन सासािरक
सुख और दुःख एवं दुःखकारणो की िनवृित-सवरप मुिकत इन दोनो के बीच मे कही भी कापरणय से युकत नही होता।।
20।। समयक्-जानरपी अिगन से िजसके सनदेहरपी जाल(िपंजडे) िवनष हो गये है, उस महातमा का िचतरपी पकी
िनःसंशय पयापत रप से उड जाता है ऐसी िसथित मे तततवज के मन मे कापरणय की संभावना ही नही है।।21।।
िजसका अनतःकरण भािनत से िविनमुरकत होकर बहसवरप हो गया हो, वह आकाश की नाई सभी दृिषयो मे न
असत को पापत होता है और न उदय को पापत होता है।।22।।
मन का यिद अभाव है, तो शरीर चेषा आिद की उपपित कैसे हो सकती है ? तो इस पर कहते है।
दोलारपी सुखशयया मे उपिवष बालक का अनतःकरण जैसे अंगो की आवली के अनुसनधान से विजरत होकर
चेषा करता है, वैसे ही तततवज का अनतःकरण भी िकसी पकार के बाहो के अनुसनधान से विजरत होकर चेषा करता
है अथात् तततवज का अंगचलन सवाननद के आिवभाव के उललास से ही होता है, शुित भी है, 'तदथा महाराजौ वा
महाबाहणो वा महाकुमारो वा अितघीमाननदसय गतवा शयीत' (जैसे छोटा बालक, सवाधीन पकृितवाला महाराज एवं
िवदािवनय-समपन शासतोकत कमानुषान करने वाला िवदान दुःख िवनाशक आननद की अवसथा पापत कर सोता है, वैसे
ही यह िवजानमय तततववेता समसत ससार-धमों से विजरत होकर सोता है)।।23।। िजसका पुनजरनम मनद हो गया है,
ऐसा आननद-सागर मे िनमगन तततववेता, घूणरमान शराबी की नाई, अनुपादेय बुिद से कृत का (िकये गये कमों का) और
अकृत का समरण नही करता, कयोिक अनुपादेय बुिद से उसकी िनयमतः कृताकृत की समारक िकयाफलोपादेयत-बुिद
नष हो गई है।।24।। शीरामजी, िजसके समसत अथर अनुपादेय हो गये है, ऐसा तततववेता सब पकार से समसत
वसतुओं का गहण भी करता है और पिरतयाग भी करता है, यो बालक के सदृश उसकी चेषा रहती है।।25।। देश
और काल के अनुसार पापत हएु िकयाकलापो एवं तत्-तत् कायों मे िसथत हुआ भी वह कामनाओं से जिनत सुख और
दुःखे से तिनक भी अिभभूत नही होता।।26।। तततवज ऊपर-ऊपर से समसत अथों को करता है, पर भीतर िकसी
पकार की इचछा न रहने के कारण बाह अथों मे सतयता-बुिद से िकसी तरह की आसथा नही करता और न उससे
जिनत फलो की चाहना ही करता है।।27।। सिनिहत भी दुःखावसथा की उपेका नही करता और न सुखावसथा की
अपेका ही करता है। कायों के सफल होने पर न हषर करता है और न कायों के िवनष होने पर िखन होता है।।
28।। यिद सूयर शीतल पकाशवाला हो जाय चनदमा का मणडल तपने लग जाय, अिगन की जवाला नीचे की ओर हो
जाये यानी अधोमुख होकर अिगन जलने लगे, तो भी तततवज को आशयरबुिद नही होती।।29।।
कयो आशयरबुिद नही होती ? तो इस पर कहते है।
चूँिक तततववेता पुरष यह जानता है िक परबह िचदातमा की असीम ये मायाशिकतया इस पकार पसफुिरत हो
रही है, इसिलए सैकडो आशयरजनक घटनाओं के होने पर भी उसको आशयर नही होता।।30।। तततवज मुिन दया
और दीनता का पिरगह नही करता, न कूरता का आशय लेता है, न लजजा का अनुसनधान(अनुभव) करता है और न
िनलरजजता का अनुभव करता है।।31।। वह कभी भी दीनतायुकत सवरपवाला नही होता, कभी उदत सवरपवाला
नही होता। और न कभी पमत न िखन न उिदगन और न हषर युकत ही होता है।।32।। शरतकािलक आकाश की नाई
अतयनत िनमरल, िवसतृत इसके िचत मे उस पकार कोप आिद उतपन नही होते, िजस पकार आकाश मे धान के अंकुर
उतपन नही होते।।33।। िजसमे पाणी अिवरत मरते और उतपन होते है, ऐसी जगत् की िसथित मे कहा, िकस पकार
और कौन यह सुिखता और दुःिखता होगी ? 'िकम' शबद का तीन बार िविभन रप से उपयोग इसिलए िकया गया है िक
देश-काल से, पकार से और सवरप से असंभािवतततव का लाभ हो।।34।।
जो कहा गया है उसका दृषानत से समथरन करते है।
जल मे तरंगजिनत फेनो के वेगपूवरक भमण मे तथा पािणयो की परमपरा मे यह िसथरता कहा और कैसे हो
सकती है ? इसिलए सुख-दुःख का पसंग कया हो सकता है ?।।35।। पाितभािसक जगत की दृिषरपी सृिष मे
सकम नर यानी 'मै' ही अपनी आतमा मे जगदूप माया का सजरन करता हूँ,' इस पकार अनुभव कर रहे जीवनमुकत
महापुरष न िनरनतर पािणयो से जिनत असीम भाव एवं अभावो से नष और िखन होते है तथा न उतपन औऱ पसन ही
होते है।।36।।
'पितकणिवपिरणािमनो ही सवे भावाः' (समसत घट आिद पदाथर पितकण पिरवतरनशील है) इस नयाय से हर एक
कण मे रपानतर को पापत होने वाले जगत् के धमों मे अनुवतरमान सथायी सतसवरप आतमा, सवप की नाई, सवसवरप मे
ही छः पकार के भाव-िवकारो से युकत दृशय पदाथों की पितकण कलपना कर रहा अनुभव करता है, यही जीवनमुकतो का
िनशय होने के कारण उनको हषर आिद की पािपत कैसे हो सकती है, इस आशय से कहते है।
जैसे राित मे िनमेश-िनमेश मे यानी कण कण मे होने वाली िभन-िभन सवप दृिषया कणभर मे उतपित औऱ
िवनाश से युकत होती है, वैसे ही ये लोकदृिषया भी कण-कण मे उतपित और िवनाश से युकत होती है।।37।।
जो िनरनतर उतपित और िनरनतर िवनाश से समिनवत है ऐसे दगध संसार मे कारणय औऱ आननद का कया
पसंग हो सकता है ?।।38।।
यिद शंका हो िक पिसद शुभ कमों के फलो के िवदमान रहते उनके िवरोधी पुत-िवयोगजिनत दुःख आिद भी
अपना अिसततव रख सकेगे, तो वह युकत नही है, कयोिक जीवनमुकतपुरषो को शुभ कमों का अभाव होने से उन दोनो की
पसिकत ही नही है, ऐसा कहते है।
शुभ कमों का अभाव होने से सुखाभाव मे िसथित को पापत होने पर शुभ फलो से िवलकण दुःखसंिवद् कैसी,
िकस पकार की और कहा पापत हो सकती है ?।।39।। जो दुःखदशा सुखानुभव के बाद अपना अिसततव पापत कर
अपने कायर शोक, मोह आिद कमों का िवसतार करती है, वह दुःखदशा शुभ कमों का अभाव होने से सुख के शानत हो
जाने पर खुद भी शानत ही हो जाती है, इसिलए िबना कारण के अिसततव से वह कैस हो सकती है, यो पूवोकत अथर का
ही सपषीकरण िकया गया है।।40।। सुख, दुःख दोनो के कीण हो जाने से हेय और उपादेय दोनो का भी िवनाश
तथा शुभ और अशुभ का िवनाश हो जाता है, ऐसी िसथित मे इष और अिनष कहा रहेगे ?।।41।।
उससे कया हुआ ? इस पर कहते है।
रमय और अरमय दृिष के िनरास से भोग अिभलाषा के िनवृत हो जाने तथा नैराशय के िनरनतर पौढ हो जाने
पर अनतःकरण िहम की नाई गल जाता है।।42।।
मन का भले ही िवनाश हो जाये, इससे भी कया हुआ ? इस पर कहते है।
हे शीरामजी, ितलो के अतयनत दगध हो जाने पर तेल की कलपना ही कैसे हो सकती है ? इसी पकार मूल
पयरनत मन के कीण हो जाने पर संकलप की कथा कैसे हो सकती है ?।।43।। हे शीरामजी, आतमा से पृथक कुछ भी
पदाथर नही है, इस पकार की दृढ भावना के कारण यानी िनशल िनशय के कारण समसत दृशय पदाथों के
संकलपिवकलप के तयागपूवरक वयापक बहैकसवभाव महातमा तततविवत् िनतयतृपत तथा अपने िनरितशयाननद-सवरप से
आननदवान होकर जागत औऱ सवप मे यथा पापत अथों के आलोचनमातरप िचत के पित िसथत रहता है, उसका िवलय
होने पर सुषुिपत मे सोता है और जब तक पारबध कमों का कय नही होता, तब तक जीिवत रहता है।।44।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

सतहतरवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआ आआआआ आआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआआआआआआ आआ
आआआआआआ
आआ आआआआ आआआआआ आआआ आआआआआआआ । आआआ आआ आआआ आआआआआआ आआआआआआ
महाराज विसषजी ने कहाः हे शीरामजी, जैसे राित मे जलती हुई लकडी को गोल घुमाने से असत् ही
अिगनमयचक सत्-सा िदखाई पडता है, वैसे ही िचत के पसपनदन से असत् जगत् सत्-सा िदखाई पडता है।।1।। हे
शीरामजी, जैसे जल के पिरतः सपनदन से (भमण से) जल के पृथक वतुरल (गोल) नािभ आकार का आवतर (भँवरा)
िदखाई पडता है, वैसे ही िचत के सपनदन से जगत् िदखाई पडता है।।2।। जैसे आकाश मे सूयरताप के संमुख नेतो
के पिरसपनदन से यानी ईकण से असत् िपचछाकार (मोर के पंख) और दूसरी ओर उनके सपनदन से असत् मौिकतक
सतय सा िदखाई पडता है, वैसे ही िचत के सपनदन से असत् जगत् सतय सा िदखाई पडता है।।3।। शीरामजी ने
कहाः हे बहन्, िजस सवभाव िवशेष से िचत पसपिनदत होता है औऱ िजस उपाय िवशेष से वह वैसा पसपिनदत नही होता
है, उसे मुझसे किहए, िजससे िक आपके दिशरत मागर से मै उस िचत को सपनदरिहत बनाऊँ।।4।।
िचत के सपनदनसवभाव को िचत से अलग नही रह सकते, इसिलए दृषानतो के ही दारा उसका िदगदशरन
कराते है।
विसषजी ने कहाः हे शीरामजी, जैसे शुकलतव और िहम, जैसे ितल और तेल का अंश, जैसे कुसुम और सुगनध
तथा जैसे अिगन औऱ उषणतव परसपर एक दूसरे समबद औऱ अिभनरप है, वैसे ही हे राघव, िचत औऱ सपनदन परसपर
एक दूसरे से समबद और अिभनरप है, उनके भेद की केवल िमथया कलपना की गई है। सवरत गुण-गुणी आिद सथलो
मे अिवचार से भेद सिहषणु अभेद ही संशलेष (समबनध) है, िवचार करने से वहा पर भेदाश िमथया और अभेदाश वासतव
है, यह 'अिभनौ' इससे बतलाया।।5,6।।
अभेदाश ही किलपत कयो नही है ? इस आशंका का पिरहार कर रहे महाराज विसषजी 'येन न सपनदते तथा'
(िजस उपाय से मन वैसे सपिनदत नही होता) इस पशाश का उतर देते है।
िचत और िचत-पिरसपनद इन दो पको मे से एक पक का संशय होने पर जो सवयं गुण और गुणी इस रप से
कारणातमा िवकिलपत है, उस रप से िसथत होकर ही दोनो गुण-गुणी नष हो जाते है, इस िवषय मे संशय नही करना
चािहए, तातपयर यह है िक जो गुण और गुणी शबद से सवयं कारण कलपा गया है, उसी कारण के सवरप से िसथत होकर
ही गुण और गुणी दोनो िवकलपो का भी िवनाश मानना चािहए, न िक िनरनवय िवनाश मानना चािहए। ऐसी िसथित मे
केवल कारणसवरिप से िसथित पाकर ही गुण और गुणी के भेद का िवनाश अनुभूत होने से भेदाश ही किलपत है,
अभेदाश नही, यह िसद होता है औऱ मन एवं मन सपनद इन दोनो मे से एकतरफे िवनाश के अधीन आतयािनतक उभय
िनवृित से ही सपनदन का िनवारण नही िकया जा सकता, यह भी िसद होता है।।7।।
अतएव सपनद के िनरोध के दारा दोनो का नाश करने के िलए जानरप उपाय शासत मे िदखलाया गया है, ऐसा
कहते है।
हे शीरामजी, िचत के िवनाश के िलए दो उपाय शासतो मे िदखलाये गये है-एक योग और दूसरा जान।
िचतवृित का िनरोध योग है और आतमा का समयक् अपरोक साकातकार जान है।।8।।
उन दो मे से पहले पथम उपाय की िजजासा कर रहे शीरामजी पूछते है।
शीरामजी ने कहाः हे बहन्, िकस समय और कैसी पाण और अपान के िनरोध रप योग नाम की युिकत से मन
असीम सुख को देने वाली शािनत को पापत करता है।।9।।
इस सगर की समािपत पयरनत इसी पश के उतर का वणरन करने वाले महाराज विसष िचतसपनद पाण-सपनदन
के अधीन है, यह बतलािन के िलए पहले पाण के सवरप को कहते है।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामजी, जैसे जलसयनदनमागरभूत पृथवी के िववरो मे जल चारो ओर वयापत होकर
पसफुिरत होता है, वैसे ही इस देह मे िवदमान हजारो नािडयो मे चारो ओर जो वायु पसफुिरत होता है, वह पाणवायु
है।।10।।
यिद शंका हो िक पाण वायु तो बाहर ही जाता है, हृदय मे तो अनय अपान आिद वायु संचारण करते है ? तो
इस पर कहते है।
हे शीरामजी, सपनदनवश से भीतर िकया के वैिचतय को पापत हुए उसी पाणवायु के अपान आिद नामो की
िवदानो ने कलपना की है, अतः अपान आिद पाण के ही वृितभेद है, उससे अनय नही है, यह भाव है।।11।। जैसे
आमोद का (सौगनधय का) पुषप तथा जैसे शुकलतव का िहम आशय है, वैसे ही िचत का यह पाण, जो िचत के साथ
अिभनता को पापत हुआ है, आशय है।।12।।
(वािरदृषानत की उपपित के िलए 'रस' यह िवशेषण िदया गया है। शुित भी कहती हैः 'आपोमयः पाणः',
'एतमेवािगरसं मनयनते पाणो वा अंगाना रसः (पाण जलमय है और पाण को ही अंिगरस मानते है, कयोिक वह(पाण) अंगो
का रस है। कोश की नाई चारो ओर संिशलष होने से िचत के साथ मानो अिभनता को पापत हुआ पाण िचत का
आशय होता है। शुित भी कहती हैः 'पाणबनधनं िह सोमयमनः' (हे सौमय, मन पाण के आधीन है)।
इसीिलए पाणसपनद िचतसपनद का हेतु है, ऐसा कहते है।
हे शीरामजी, भीतर पाण के पिरसपनदन से संकलप के (वृितमात के) आकलन मे उनमुख जो संिवत् उतपन होती
है, वही िचत कहलाती है, यह आप जािनये।।13।। पाण के सपनदन से िचत का सपनदन होता है यानी िचदाभास से
वयापत वृितिवशेष, उतपन होता है और िचत के सपनदन से ही संिवत् यानी तत् तत् िवषयाकार पथन उस पकार उतपन
होता है, िजस पकार जल के सपनदन से चक की तरह वतुरल आकार की रचना करने वाली उिमरया उतपन होती है।।
14।।
िचत का पिरसपद पाण पिरसपनद के अधीन है, यह बात बडे-बडे महिषर, जो 'पाणबनधनं िह सोमय मनः' इतयािद
वेदो का रहसय जानते है, कहते है। अतः पाण का िनरोध करने पर मन अवशय उपशानत यानी िनरद हो जाता है।।
15।।
भले ही ऐसा हो, उससे पकृत मे कया हुआ, इस पर कहते है।
मन के सपनदन की िवशािनत हो जाने पर यह संसार उस पकार िवलीन हो जाता है, िजस पकार सूयर के
पकाशरप सपनदन की िवशािनत हो जाने पर वयवहार िवलीन हो जाता है।।16।। शीरामजी ने कहाः महाराज, देहरपी
अपने घर मे िसथत हृदयािद सथानो मे िवदमान बहतर हजार नाडीरपी िछदो मे िनरनतर संचरण कर रहे तथा मुख,
नािसका आिद िछदोरपी बाह आकाशो मे िनरनतर गमनशील पाण आिद वायुओं का पिरसपनदन कैसे रोका जा सकता है
?।।17।।
पाणवायु की चंचलता के िनरोध मे िनरालमबन और सालमबन आिद राजयोगरपी उपायो का उपदेश देने के िलए
महाराज विसष उपकम करते है।
शीविसषजी ने कहाः भद शीरामजी, अधयातमशासत का उपदेश, बहिवत् पुरषो का संसगर, िवषयो मे
अनासथारपी वैरागय तथा समािध के पयोजक यम, िनयम आिद िनयमो के अभयास इन उपायो से हृदय मे पूवाभयसत
सासािरक वयवहारो मे अतयनत अनादररपी अनासथा के दृढ हो जाने पर पाण का पिरसपनदन िनरद हो जाता है।।
18।।
सबसे पहले सथूल िशखर मे, चनदिबमब मे, मिण, देवता की मूितर आिद सथलो मे अथवा जहा कही भी मन रमण
करता हो, वही पर िचत का िनरोध करने के िलए अभयास करना चािहए, ऐसा कहते है।
िचरकालपयरनत एकागरप से(एक-पकार-सवरप से) उतपन यानी एकाग रप पिरणाम को पापत कर उिदत हएु
अिभवािछत धयान से(जहा कही भी सरसवािहनी इचछा हुई, उसी पदाथर के धयान से) जो एक वसतु के सवरप का
िनरनतर पुनः-पुनः अनुसनधान होता है, उसी अनुसनधान से पाण् का सपनदन (पाणवायु का चाचलय) िनरद हो जाता
है।।19।।
अथवा पूरक, कुमभक और रेचक के कम से पाणवायु का िनरोध करके दुदानत मन का िनरोध करना चािहए,
ऐसा कहते है।
दृढतापूवरक पुनः-पुनः पिरशीलनरप अभयास लकण हेतु से पयास के िबना अनायास उतपन हुए कुमभक की
िसिदपयरनत पूरक आिद के दारा िकये गये अपने पाण के िनयमन से होने वाले एकानत धयानयोग से (िनतयािनतय वसतु
का यथाथर रप से िववेक कर िनतय अिदतीय वसतु मे पवितरत धयानयोग से) पाणवायु की समग चंचलता िनरद हो
जाती है।।20।। उचचसवर से पणव का उचचारण होने पर पानत मे (अनतय मे) जो शेष तुयरमाता रप शबदतततव
अनुभूत होता है, उसका अनुसनधान करने से बाह िवषयो के िवजान का (बिहमुरख िचतवृित का) जब आतयािनतक
उपराम हो जाता है, तब पाणवायु का सपनदन रक जाता है।।21।।
अब रेचक और पूरक इन दो मे से िकसी एक के दारा शास और पशास का जब िशिथलीकरण हो जाता है तब
दीघरकाल तक तथा अिभवधरन सिहत धयान का अभयास होता है, इससे भी पाणसपनदन का िनरोध होता है, यह कहते
है।
रेचक का दृढ अभयास करने से, िविचछन मेघो की आकाशरपता की नाई, िवपुलीभूत पाणवायु की शूनयरपता
हो जाती है और उससे जब नािसका के िछदो को पाणवायु का सपशर नही होता, तब पाणवायु का सपनदन रक जाता
है।।22।। पूरक का दृढ अभयास होने पर, पवरत के ऊपर मेघो की नाई, शरीर के आभयनतर िवदमान हजारो नािडयो
के भीतर पाणवायु तब तक धीरे-धीरे बढता जाता है, जब तक वह सवरत वयापत होकर िनशल नही हो जाता, इस पकार
पाणसंचरण शानत हो जाने पर पाणसपनदन रक जाता है।।23।।
पूितर के अननतर पूणर कुमभ की नाई कुमभक के अननत काल तक िसथत होने पर और अभयास से पाण का
िनशल सतमभन हो जाने पर पाण वायु से सपनदन का िनरोध हो जाता है। (रेचक, पूरक और कुमभक इन ितिवध
पाणायामो के िवषय मे पतंजिल िनिमरत योगशासत मे िवसतार से वणरन िकया गया है 'तिसमन् सित
शासपशासयोगरितिवचछेदः पाणायामः' (आसन के ऊपर िवजय पा जाने पर शास (बाह वायु का आयमन-भीतर पवेश),
पशास (कौषय वायु का िनःसारण), इन दोनो की गित का िवचछेद ही पाणायाम है यानी शास और पशास दोनो का
अभाव ही पाणायाम है, उसे करना चािहए)। इस पाणायाम के अवानतर भेद भी है -
'बाहाभयनतरसतमभवृितदेशकालसंखयािभः पिरदृषो दीघरसूकमः'।) जहा पशासपूवरक गितिनरोध होता है, वह बाह है यानी
बाहवृित रेचक है। जहा शासपूवरक गितिनरोध होता है, वह आभयानतर है यानी आभयानतर वृित पूरक है। जहा पर
शास और पशास दोनो का अभयासिनरपेक एक बार के पयत से गितिनरोध होता है, वह सतमभवृित है यानी कुमभक है।
इस कुमभक मे जैसे तपत पतथर के ऊपर पिकपत जल चारो ओर से संकुिचत हो जाता है, वैसे ही शास, पशास दोनो की
भी गित एक साथ िनरद होकर सतिमभत हो जाती है। ये तीनो पाणायाम देश पिरदृष है यानी इनका बाहर तूललव के
सपनद आिद से और आभयानतर नािभ आिद के सपनदन आिद से इतना देश िवषय होता है, ऐसा िनधारण िकया गया है।
काल से पिरदृष है-यानी कणो की इयता के अवधारण से परिचछन है। संखयाओं से पिरदृष है यानी इतनी संखयावाले
शास-पशास कालो तक पहला पाणायाम, दूसरा पाणायाम और तीसरा पाणायाम, यो उदबोिधत है। इसी पकार मृदु , इसी
पकार मधय और इसी पकार तीवर है। यह पाणायाम दीघर और सूकम है यानी दीघरता और सूकमता युकत पाणो से दीघर
औऱ सूकम हो जाता है। 'अभयासात् सतिमभते पाणे' इस वाकय से यह सूिचत िकया िक रेचकािद तीन पकारो से पृथक
चतुथर भी एक पाणायाम का पकार है। यह चतुथर पकार महिषर पतंजिल ने यो बतलाया हैः बाहाभयनतरिवषयापेकी
चतुथरः। पूवोकत रेचक, पूरक के ऊपर िवजय पा जाने से उनका आकेप करने वाला यानी उन दोनो का अितकमण कर
सवयं ही वतरमान पाण गित के अभाव रप चतुथर पाणायाम है। पाणायाम की पितषा का फल भी कहा गया हैः तत
कीयते पकाशावरणम्। धारणासु च योगयता मनसः' (पाणायाम के अभयास से योिगयो का िववेकजान को आवृत करने
वाला कमर कीण हो जाता है, पाणायाम के अभयास से धारणा मे मन की योगयता होती है)। इन सूतो के भाषय मे िलखा
हैः तपो न परमं पाणायामाततो िवशुिदमरलाना दीिपतश जानसय। (पाणायाम से बढकर तप नही है, पाणायाम से मल शुद
हो जाते है और जान की दीिपत होती है।।24।।
िजहामूल के ऊपरी िहससे मे िवदमान मुखानतगरत जो दो भाग है, उनहे तालू कहते है। उन दो तालुओं के
मधयमागर मे रहने वाली घंिटका को (मुख बाने पर िजहा के मूलभाग मे सतन की नाई लटक रही दृशयमान इनदयोिन को)
पयत िवशेष के दारा यानी वधरनाभयास आिद यतो से भीतर पाण के संचरण मागरभूत मूघररनध मे पवेिशत िजहा से नीचे
की ओर करने से जब पाण ऊधवररनध मे (बहरनध मे अथात् कपालकुहर मे जो सुषुमा के ऊपरी भाग का दार कहा
जाता है) पिवष हो जाता है, तब पाणवायु की चंचलता िनरद हो जाती है। इसका पकार िवशेष भगवान सकनद ने इन
शबदो से पकािशत िकया हैः
रसना तालुिववरे िनधायोधवरमुखोऽमृतम्। धयिनजररता गचछेदाषणमासान संशयः।।
ऊधवरिजहः िसथरो भूतवा सोमपानं करोित यः। मासाधेन न सनदेहो मृतयुं जयित योगिवत्।।
आकाशं च मिरिचवािरसदृशं यद् बहरनधिसथतं यनाथेन सदािशवेन सिहतं शानतं हकाराकरम्।
पाणं तत िवलीय पंचघिटकं िचतािनवतं धारयेदेषा मोककवाटपाटनपटुः पोकता नभोधारणा।।
(तालुिछद मे िजहा को धारण कर ऊधवरमुख योगी अमृत पी रहा छः महीनो के भीतर युवा बन जाता है। िजहा
को ऊँची करके िसथर हो कर जो सोमपान करता है, वह आधे ही मास मे मृतयु के ऊपर िवजय पा जाता है, इसमे
संशय नही करना चािहए। मिरिचवािर के सदृश, बहरनध मे अविसथत, शानत, हकार अकरवाला सवामी सदािशव से
समिनवत जो आकाश है, उसमे पाच घडी पयरनत पाण का िवलयकर िचत को धारण करे, तो वह मोक दार को खोलने मे
समथर नभोधारणा कही जाती है।) मुख को फैलाने पर गले के अनदर लटक रही मास का टुकडारप जो घणटी है, उसे
इनदयोिन कहते है, इसमे शुित पमाण हैः 'अनतरेण तालुके य एष सतन इवालमबते सेनदयोिनः' (तालुओं के बीच मे जो
सतन की नाई लटकती है, वह इनदयोिन है (इसी से लिमबका योग की भी सूचना होती हैः जो 'खेचरी' शबद से भी कही
जाती है। कहा भी हैः
कपालकुहरे िजहा पिवषा िवपरीतगा। भुवोरनतगरता दृिषमुरदा भवित खेचरी।
(तालू के बीच मे कपालकुहर नाम की गुफा है, उसी मे जीभ को िवपरीत भाव से पहुँचा कर भुयुगल के मधय मे
अवलोकन करने से खेचरी मुदा होती है) इतयािद योगशासत मे सिवसतार िनरिपत है, यह लघुयोगवािसष की टीका के
कता का मत है।।25।। समसत िवकारो से विजरत अतएव िकसी भी नाम से शूनय सूकम आकाश मे यानी हृदयाकाश
मे बाह और आंतर संवेदन वृितमात के िनिवरकलप समािध से िवलीन हो जाने पर पाणवायु का सपनदन िनरद हो जाता
है।।26।।
नािसका के अगभाग से उपलिकत बारह अंगुलमात से पिरिमत बाह आकाश मे चकु औऱ मन का िनरोध होने
से भी पाणसपनदन िनरद हो जाता है, यह कहते है।
नािसका के अगभाग मे बारह अंगुलपयरनत यानी नािसका के अगभाग से लेकर बारह अंगुल पिरिमत िनमरल
आकाश भाग मे नेतो की लकयभूत संिवद् दृिष के (वृितजान के) िवलीन हो जाने पर पाण का सपनदन िनरद हो जाता
है।।27।।
लिमबकायोग से असमुिचचत अनय उपायो से भी अभयसत पूवोकत नभोधारणा योग से पाण सपनदन रक जाता
है, ऐसा कहते है।
अभयास से यानी योगशासतो मे दिशरत पवनिनरोध के अभयास से ऊधवररनध के दारा सुषुमामागर से) तालू के
ऊपर यो बहरनध है, उसमे िसथत पाणवायु जब गिलतपाय हो जाता है, तब पाणवायु का सपनदन रक जाता है।
('तालूधवरदादशानतगे' इस पकार के लघुयोगवािसषकार के पाठ के अनुसार उकत रीतया पाणवायु के तालू (िवशुद नाम
का षोडशार चक), ऊधवर (बहरनध) और दादशानत (अनाहत नामक दादशार चक) इनमे से िकसी भी एक मे चले जाने
पर जब बिहमुरख संिवत् गिलत हो जाती है, तब पाणवायु का सपनदन िनरद हो जाता है, यह अथर है)।।28।।
इसी पकार खेचरी मुदा भी पाण सपनदन के िनरोध मे हेतु है, यह कहते है।
िचरकाल तक िनरोध करने पर चकु की कनीिनकाओं के आलोक का यानी चकुिरिनदय का उपराम हो जाने से
तथा पूवोकत रीित से कपाल कुहर मे पवेश करने से िजहा के अगभाग के और पाण के दादशानत मे पापत हो जाने पर
जब संकेतातमक भूमधय यानी अिवमुकतसथानातमक िचनमातसवरप परमेशर का आतमसवरप से जान हो जाता है तब
पाण का सपनदन रक जाता है।।29।।
गुर या ईशर के अनुगह काकतालीय नयाय से झिटित जान के उदबुद हो जाने पर ततकण ही िचतिवकिलप के
उपशम से पाण का िनरोध होता है, ऐसा कहते है।
ईशर या गुर के अनुगह से झिटित उतपन हुए आतमजान के दृढीभूत तथा समसत िवकलपाशो िविनमुरकत हो
जाने पर पाण का सपनदन िनरद हो जाता है।।30।।
('अथ यिददमिसमनबहपुरे दहरं पुणडरीकं वेशम दहरोऽिसमननतराकाशः') (उतम, मधयम अिधकारी के पित
बहजान हेतुभूत शरीर मे यह पिसद छोटा कमलसदृश हृदयरपी घर है, इसके अनदर सूकम आकाश है) इतयािद शुित से
पिसद दहराकाश मे िचरकाल तक िचत को लगाने से बहसाकातकार के होने पर भी पाणसपनदन रक जाता है, ऐसा
कहते है।
हे मननशील राम जी, हृदय मे िचरकालपयरनत शुित पितपािदत दहराकाश की िनयत भावना से जिनत
िवषयवासना विजरत िचत से होने वाले धयान से पाण का सपनदन िनरद हो जाता है। पातंजलयोग सूत मे भी कहा हैः
'हृदये िचतसंिवत्', '.....सवाथरसंयमात् पुरषजानम्' (दहराकाश मे संयम से सवासन िचतसाकातकार होता है, िचतसवभाव
मे संयम करने से पुरष का साकातकार होता है।)।।31।।
शीरामचनदजी, ने कहाः बहन्, इस जगत् मे पािणयो का वह हृदय कया है ? महाआदशरसवरप िजसमे यह सब,
दपरण मे पितिबमब की नाई, सफुिरत होता है। हृदय शबद का तीन जगह पयोग होता है एक तो पुणडरीकाकार मासखणड
मे, दूसरा मन मे और तीसरा परमातमा मे। इन िविभन सथानो मे पयोग होने के कारण् सनदेह को पापत हुए भगवान का
पश उिचत ही है।।32।।
विसषजी ने कहाः भद, इस जगत् मे पाणोयो के दो पकार के हृदय है- एक उपादेय और दूसरा हेय। अब
इनका िवभाग सुिनये।।33।।
मासखणडरप हृदय और मनरप हृदय पिरिचछन होने के कारण उन दोनो को एक मानकर दो िवभाग यहा
बतलाये है, यह समझना चािहए।
हे शीरामजी, इयतारप से पिरिचछन इस देह मे वकःसथल के भीतर शरीर के एक देश मे अविसथत जो हृदय
है, उसे आप हेय हृदय जािनये।।34।। संिवत्-मातसवरप से िसथत हृदय तो उपादेय कहा गया है। (यिद शंका हो
िक आतमा के िलए जो हृदय शबद का पयोग होता है वह गौण है, कयोिक हृदय मे िसथित करने के कारण ही तो आतमा
हृदय कहा जाता है, इस पर कहते है।) यह आतमा सबके भीतर और बाह है और भीतर एवं बाह नही भी है।।35।।
वह उपादेय हृदय पधान हृदय है, उसी मे यह समसत जगत् िवदमान है, वही समसत पदाथों का आदशर है और वही
समपूणर संपितयो का कोष है, कयोिक 'अिसमन दावापृिथवी अनतरेव समािहते' (इसमे भीतर आकाश और पृथवी से
उपलिकत समसत वसतुजात िवदमान है) यह शुित है।।36।।
हे शीरामजी, संिवत ही सभी पािणयो का हृदय कहा जाता है, न िक जड और जीणर पतथर के सदृश देह के
अवयव का एक अंश हृदय कहा जाता है।।37।। इसिलए संिवत्-सवरप िवशुद हृदय मे वासनाओं से विजरत होकर
बलपूवरक िचत को लगाने पाण का सपनदन िनरद हो जाता है।।38।। इन पूवोकत उपायो से तथा समपदाय कम से
चले आ रहे अनयानय आचायों के मुख उपिदष नाना संकलपो से किलपत उपायो से पाण सपनदन िनरद हो जाता है।।
39।।
सहसा हठयोग मे पवृित का िनरास करने के िलए कहते है।
ये जो पूवोकत योगातमक युिकतया कही गई है, वे अभयास के दारा ही भवयमित के िलए संसार के उचछेदन
करने मे िनराबाध उपाय हो सकती है, जबदरसती िनरोध करने पर तो रोग आिद की संभावना हो जायेगी।।40।।
वैरागयरपी लाछन से समनतात् लािछत यानी संसारासिकत से विजरत तथा अभयास से दृढता को पापत पाणायाम वासना
के अनुसार, सफल होता है यानी िजस समय जैसी जैसी वासनाएँ होती है, उस समय उन-उन वासनाओं का िनरोध
करके सफल होता है अथवा मुमुका की वासना होने पर मोकरप फल से और भोग की वासना होने पर तत्-तत् िविचत
फलभोग िसिदरप फल से सफल होता है।।41।।
अतएव तत्-तत् िसिदरप फलभेद के िलए पातंजल शासत मे भूमधय आिद सथानभेद से धारणाओं के भेद
बतलाये गये है, इस आशय से कहते है।
हे शीरामजी, जैसे पवरत का झरना दूर जाकर वही पर लीन हो जाता है, वैसे ही भू, नािसका तालू-संसथान तथा
कणठाग पदेश से लेकर बारह अंगुिलपिरिमत पदेश मे अभयासवश से पाण लीन हो जाता है। पतंजिल ने कहा भी है -
'नािभचके कायवयूहजानम्', कणठकूपे कुतपासािनवृितः', 'कूमरनाडया सथयरम्', 'मूधरजयोितिष िसिददशरनम्' (नािभचक मे
पाण का संयम करने से कायवयूह का कायसथ वातािद पदाथर का पिरजान होता है, कणठ के नीचे वकः सथल मे
कूमाकार नाडी होती है, उस कूमरनाडी मे पाण का संयम करने से िसथरपद पापत हो जाता है, कपालमधय पभासवर
मूधरजयोित मे संयम करने से सवगर और पृथवी के अनतरालवती िसदो का दशरन होता है)।।42।।
'िजहयाऽऽकमय घिणटकाम्' यह जो पहले कहा गया था, उसमे उपाय कहते है।
पुनः-पुनः िचरकािलक अभयास से यिद िजहापानत के दारा घिणटका आकानत हो जाय, तो उससे पाण अिधक
गित नही कर सकता।।43।।
ये जो समािधभेद बतलाये गये है, उनका तत्-तत् िसिद-फलो मे िवकलपो का बाहुलय होने पर भी िनषकाम पुरष
के िलए परम िवशािनतरप फल मे उनकी िवकलपसवरपता का अवसर नही है, ऐसा कहते है।
यदिप ये समािधया िवकलप पचुर है, तथािप िनषकाम पुरष के पित अपने अभयास के कारण परम िवशािनत के
िलए झिटित (चटपट) िवकलप अभावरपता को पापत हो जाती है।।44।। हे शीरामचनदजी, अभयास से ही पुरष
आतमा मे रमण करने वाला, वीतशोक, भीतरी सुख से पूणर होता है, अनय उपाय से नही, इसिलए आप अभयासवान हो
जाइये।।45।। हे शीरामजी, अभयास के दारा पाणवायुओं का जब चाचंलय िवनष हो जाता है तब मन िवशािनत को
पापत करता है और िनवाण (मोक) अविशष रह जाता है।।46।। हे शीरामजी, वासना से युकत मन शरीर को गहण
करता है, तदननतर उसमे अिभमान से पाण का गहण करता है और वासना से रिहत मन मोक गहण करता है, इसिलए
आपकी जैसी इचछा हो वैसा कीिजये।।47।। चूँिक पाणवायु का सपनदन मन का सवरप है और उससे संसाररपी भम
उतपन होता है, इसिलए तथोकत अभयास से पाण सपनदन का ही िवनाश हो जाने पर संसाररप जवर खिणडत हो जाता है
यानी िचिकतसत हो जाता है।।48।। हे शीरामजी, पाणी का िवकलपाश िवनष हो जाने पर केवल वह पद (बहपद)
अविशष रह जाता है, िजस पद मे अनैकिवधकलपनाओं से समिनवत शबद िनवृत हो जाते है।।49।। वह पद ऐसा है
िक उसमे यह समसत जगत् िवदमान है, उससे यह सब उतपन हुआ है, वह समसत जगत् का सवरपभूत है और वह इस
जगत के चारो ओर िवदमान है। परमाथर दशा मे उसमे न तो यह दृशयमान समसत जगत िवदमान है, न तो उससे
उतपन हुआ है और न उसके सवरपभूत ही जगत है। वासतव मे दृशयमान इस पकार का जगत् है ही नही।।50।।
यहा पर विसषजी 'इदं दृशयं यत न' इस वाकय से आधेयतारप से, 'यतो न' इससे उपादेयतारप 'यन' इससे
तादातमय समबनध से जगत् मे सिचचदाननदातम समबनध का िनषेध करने से िकसी अंश से भी जगत और बह का सादृशय
नही है, यह सूिचत हुआ। अतएव िवनािशतव आिद धमों से युकत जगत मे कोई भी बह का दृषानत नही है, ऐसा कहते
है।
यह जगत िवनाशी, िवकलपसवरप तथा अनेकिवध गुणो से युकत है, इसिलए समसत गुणो से विजरत उस आतमा
का इस जगत मे कोई भी सदृश दृषानत िदखाई नही पडता।।51।।
यिद शंका हो िक इस जगत मे बह का कोई भी सदृश दृषानत नही है, तो उसका पिरचय कैसे होगा ? तो इस
पर कहते है।
िनतय उिदत सवरप यह िचितरपी चिनदका समसत शािलयो का (अनो का) आसवाद देखने वाली, सूयािद
समसत तेजो की दीिपका (पकािशता) और आभयानतर समसत कामो की कलपनाितमका है। िनषकषर यह िनकला िक रप,
रस आिद को िवषय करने वाली बाह वृितयो की ितपुटी की तथा आभयानतर कामािद वृितयो की ितपुटी की भासक होने
से इस िचितरपी चनद का पिरचय करना चािहए।।52।।
'फलमत उपपतेः' (इष, अिनष आिद कमों का फल ईशर से पापत होता है कयोिक इसी अथर मे युिकत है) इस
नयाय से तथा िविचत कमरफलो के उदय और कय के पित िनिमतरप होने से भी उसका पिरचय करना चािहए, ऐसा
कहते है।
कलपवृक सवरप उसी आतमा से ये अनेक संसारफलो की पंिकतया, जो अनेक पकार के रसो से पिरपूणर है,
िनरनतर उतपन और िवनष होती है।।53।।
उसका पिरचय होने पर पुरषाथर िसिद को बतला रहे महाराज विसष पकृत िवषय का उपसंहार करते है।
हे भद शीरामजी, िनिखल सीमाओं के अनतभू उस पद का अवलमबन कर जो महातमा िसथत रहता है, वह
िनशलबुिद, तततवज और जीवनमुकत कहलाता है।।54।।
हे शीरामजी, िजस महातमा की समसत कामोपभोग की इचछाएँ िनवृत हो गई है, िजसकी कामोपभोग की
उतकणठाओं के अनुकूल और पितकूल पदाथों मे िहत अिहत वासनाएँ िनवृत हो गई है तथा िजसका अनतःकरण समसत
िहतअिहत वयवहारो के होने पर भी हषर और िवषाद से विजरत हो गया है, वह मुकत अनतःकरण महातमा सब पुरषो मे
शेष और साकात नारायण हो जाता है।।55।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अठहतरवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआ आआआ आआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ
आआआआ आआ, आआआआआ आआ आआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआ आआआआआआआआ आआ आआआआ आआ
आआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीरामजी ने कहाः हे भगवान्, पूवर सगर 'दौ कमौ िचतनाशसय' इतयािद से उपकानत दो उपायो से आपने
योगयुकत पुरष के िचत का िवनाश-पकार ही िनरिपत िकया है। अब आप अनुगह कर मुझसे समयक् जान किहये यानी
समयक जान िनरपण कीिजये।।1।।
लकण, सवरप एवं साधन आिद से समयक जान का िनरपण करने वाले महाराज शीविसषजी पहले 'आतमा के
पिरचय से िकया गया जगत का बाध ही समयक जान है, यो उसका (समयक जान का) लकण कहते है।
विसषजी ने कहाः शीरामजी, इस जगत मे आिद और अनत से रिहत अवभाव से सवरप परमातमा का ही केवल
अिसततव है, इस पकार का असाधारण एवं अपिरिचछन आकारवाला जो िनशय है, िवदान लोग उसी िनशय को समयक्
जान कहते है।।2।।
इसी पकार जगत का बाध कर आतमा का पिरचय करना भी समयक जान का लकण है, ऐसा कहते है।
ये जो घट, पट आिद आकारो से युकत पदाथों की सैकडो पंिकतया है, वे सब आतमसवरप ही है उससे िभन
अनय कुछ नही है, इस पकार का िनशय समयक जान है।।3।।
समयक जान मे मोक देने की सामथयर है, ऐसा कहते है।
शीरामजी, आतमा का यथाथर जान न होने से जनम होता है और आतमा के यथाथर जान से मोक होता है। रजजु
का यथाथर जान न होने से रजजु सपररप हो जाती है और उसका यथाथर जान होने से रजजु सपररप नही होती यानी
सपरभाव से रजजु का मोक हो जाता है, यह भाव है।।4।।
तब मुिकत मे कया बच जाता है ? उसे बतलाते है।
इस मुिकत मे संकलपाशो से िविनमुरकत, समसत संवेदो से (िवषयो से) विजरत तथा केवल सवपकाशसवभाव से ही
चारो ओर पकाशमान केवल िचित ही बच जाती है, उससे अनय कुछ भी नही बचता।।5।।
हे शीरामजी िवदानो के दारा समसत मलो से िविनमुरकत वह संिवत जब िवजात हो जाती है, तब परमातमा कही
जाती है और सवतः िनिखल मलो से विजरत होने पर भी जब अधयासवश भीतर से अशुदरप होती है, तब अिवदा कही
जाती है।।6।।
ऐसी िसथित मे जान और िवषय मे अिवजानजिनत ही भेद है, ऐसा कहते है।
हे शीरामजी, संिवित (जान) ही संवेद (िवषय) है, वासतव मे इन दोनो की तिनक भी भेद कलपना नही है, आतमा
ही आतमा का चयन करता है यानी आतमा ही अजान से आतमा को नानारप बना देता है और जान से आतमा की
एकरपता का पिरचय कर लेता है, आतमा से पृथक कुछ भी नही है।।7।।
समयक जान का िनचोड सवरप कहते है।
इस तीनो लोको मे यथाथर आतमदिशरता इतनी ही है िक यह सब जगत् आतमसवरप ही है, ऐसा िनशय करके
पुरष पूणरता को पापत करे।।8।। हे शीरामजी, यह सब आतमसवरप ही है, कौन भाव और अभाव अलग कर िनरिपत
हो सकते है ? वे कहा रह सकते है ? बनध और मोक की कलपना कहा हो सकती ? आतमा को छोड कर ऐसी कौन
वसतु है ? िजसके िवषय मे मूढ लोक शोक करते है।।9।। आतमा से िभन न तो चेतय है और न िचत है, दृशय रप
यह सब बह ही शोिभत हो रहा है, समसत बहाणड अिदतीय िचदाकाशसवरप ही है, अतः कया मोक है औऱ िकसको
बनध है ?।।10।। िजतने बडे-से-बडे पदाथर है, उन सबसे भी बडा बह है। माया से नट की नाई अपनी आतमा मे ही
बढे हुए आकार से युकत यह जगत-रप दृशय अविसथत है। आतमा के जान से िदतव ततकण िवलीन हो जाता है अतः
आप अपने से ही आतमसवरप हो जाइये।।11।। जैसे काष, पाषाण और वसतो के तािततवक सवरप का भलीभाित
पिरजान हो जाने पर उनमे तिनक भी भेद नही रह जाता, वैसे ही अिधषान भूतसनमातसवरप का पिरजान हो जाने प
तिनक भी भेद नही रह जाता, ऐसी िसथित मे आप संकलप और िवकलप के उनमुख कहा है ? यानी हेय और उपादेय की
एकरपता होने पर संकलप और िवकलप का पसंग ही हो नही सकता।।12।। हे राघव, आिद और अनत मे अिवनाशी,
पूणर शानत जो सवरप है, वही पिसद आतमरपतव है, चूँिक आतमा का वैसा सवरप है, इसिलए आप उसी सवरपवाले हो
जाइये।।13।।
हे राघव, यह िनिखल सथावर और जंगमातमकजगत् िनरितशयाननदातमक िचदाकाशसवरप ही है, अतः सुख
औऱ दुःख की पसिकत कहा होगी अथात् कही नही होगी, इसिलए आप समसत िचनता जवरो से िनमुरकत हो जाइये।।
14।। जैसे जल िविचत तरंगो से पसफुिरत होता है, वैसे ही दैत और अदैत िवकलपो से समुदभूत जनम, मरण और
िवभम सवरप आतमाओं से आतमा ही अजािनयो के िलए पसफुिरत होता है।।15।। जो महातमा शुद आतमा का
आिलंगन कर अनतःसथ बुिद से सदा-सवरदा अविसथत रहता है, उस तततवज आतमािभलाषी को कौ भोग बाधने के िलए
समथर हो सकते है ?।।16।। जैसे मनद पवन पवरत का भेदन नही कर सकते, वैसे ही िजस िवदान ने पकाशमान
आतमा का पूणररप से िवचार कर िलया है, ऐसे तततवज के अनतःकरण को काम आिद छः शतु तिनक भी भेदन नही कर
सकते।।17।। जैसे जल से िनगरत अथवा सवलप जल मे िसथत मतसय को बगुले िनगल जाता है।।18।। हे
शीरामजी, समसत जगत् आतमसवरप ही है, कही पर भी अिवदा नाम की कोई वसतु है नही, इस पकार की दृिष का
अवलमबन कर आप समयक सवरप वाले होकर िसथत हो जाइये।।19।। हे शीरामजी, जैसे अनेकिवध सरोवरो मे
जल, फेन आिद जल से पृथक नही है, वैसे ही (दृशय बह से पृथक नही है) केवल कलपनाओं मे यानी िवकलपातमक बुिद
मे ही नानातव है, वासतव मे नानातव नही है, इस पकार िववेकपूवरक भली पकार अथर को जान लेने वाला उकत एकिवध
िनशय पधान पुरष आतयािनतक िचत िवनाश के कारण िवमुकत है, ऐसा कहा जाता है।।20।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

उनासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआआ आआआआआ
आआआआआआआ आआआआ आआआआ, आआ आआआआआ आआ । आआआआआआ
महाराज विसष जी ने कहाः हे शीरामजी अपने हृदय मे िवचार (आगे कहा जाने वाला िवचार) कर रहे िववेकी
आतमा को सवरदा संमुख िसथत भी िदवय भोगो मे अिभरिच उतपन ही नही होती।।1।।
उसमे पहले िजस सथल मे चकु के दारा इष एवं अिनष िवषय गृहीत होने पर चकु मे अहनता के अिभमान से
जीव को सुख-दुःख अनुभूत होते है, उस सथल मे चकु के पित जीव की सवािमता ही है, अहनता नही है, ऐसा िवचार
करने से जीव को दुःख आिद की पािपत नही हो सकती, ऐसा िदखलाते है।
नेत केवल रप देखने मे ही िनिमत है और चकु का सवामी जीव तो केवल चकु मे अहनता के अिभिनवेश से
सुख-दुःख का भोकता होता है। जैसे बैल बोझा ढोने के िलए ही है, उस ढोये हुए दवय का उपभोग करने वाला तो दवय
का सवामी है।।2।।
जीव का सवािमतव केवल चकु पर ही नही है, िकनतु कायरकारणसमूह, काम, कमर, वासना तथा उसके अनेक
िवध फल भेदो पर भी है। इस िसथित मे अहंकार, बुिद, मन एवं पाण की परमपरा से िकसी तरह से सवतवकोिट मे
पिवष एक चकु का कभी अिनषरप के साथ समबनध पाप् हुआ भी तो उसकी गणना ही कया है और उससे जीव को
दुःख की पसिकत ही कैसे हो सकती है, इस आशय से कहते है।
नेत के अिनषरप मे िनमगन होने पर जीव को कोभ ही कैसे ? सेना के अनतगरत धोबी का गदहा अलप
जलाशय मे यानी छोटे तालाब मे डू बा, तो उससे सेनापित की कित ही कया हुई ?।।3।।
जीव का नेत, सती, पुत आिद के सौनदयरसवरपातमक कीचड का तुम आसवाद मत करो, यह तथोकत रप कण
मे ही नष हो जायेगा और तुमहे भी नष कर डालेगा।।4।।
शंका हो िक तब िकस पकार का पाज कहा िनबद होता है, तो उस पर कहते है।
तेज बुिदवाला पाज पुरष तो भीतर िनवास कर रहे िजस िचदातमा से बाह और आभयानतर िवषयो का उनके
समबनध दारा पकाश होता है, तथा िजस तथोकत िचदातमा से अनातमभूत पाच कोशो की परमपरा का आतमा के तादातमय
आरोप से अनुभव होता है, उस िचदातमा के उदासीन तथा यथापापत पदाथों के पकाशनरप चिरतो से अभयासवश
समबद होता है, मूखों की नाई तथािवध सौनदयररपी रपकदरम के आसवादनरप कमों से समबद नही होता। तातपयर यह
िनकला िक शीरामजी, आप भी अपने उदासीन सतसवरप का पकाशन कीिजये, उसका आसवादन मत कीिजये।।5।।
हे नेत, जो उतपन होकर िवनष हो जाता है और जो केवल ऊपर-ऊपर से ही रमणीय पतीत होता है, ऐसे
असत्-सवरप रप का (सौनदयर का) उस अवशयमभावी मृतयु के मुख मे पवेश करने के िलए आशय मत करो।।6।। हे
नेत, जब िकसी की अपेका िकये िबना समसत अथों के पकाशन मे सदा समथर परमातमा रप आिद िवषयो मे
उदासीनसवरप से िसथत है, तब कालवश से यानी िकसी समय दीप आिद के पकाश को पाकर पकाशन कर रहे तुम
अकेले ही कयो सनतपत होते हो ?।।7।।
इसिलए तुम भी साकी की तरह िसथत सदूप को देखो, यह भाव है।
समपित चकु के दारा भािनत से रप के देखे जाने पर भी िचत को उसमे अिभिनवेश करने मे कोई हेतु नही है,
यह कहते है।
हे िचत, नदी आिद के जल मे दृशयमान नाना पकार के िविचत अिनयत तरंगो की नाई अिनयत, आकाश मे सूयर
की संमुख अशुसिहत नेतवाले पुरष को िदखाई पडने वाली मयूर िपिचछका की (मोर के पंख की) नाई िमथयाभूत एवं
'यह घोडा है', 'यह गाय है', 'यह सती है' इस तरह की अनेक अचछी-बुरी जाितयो के िवकलपो से जिनत यह नाना
पकार की रप दृिष (सौनदयानुभूित) चकु की सफुिरत होती है, ऐसी पिरिसथित मे तुमहे कया िमला, िजससे िक तुम उसमे
अनुरकत होते हो और वृथा सनतपत होते हो ?।।8।।
चकु के दारा दृष पदाथाकार वृित िचत मे भले ही हो, तथािप उसमे अिभिनवेश के हेतु अहंकार के होने मे
कोई हेतु नही है, ऐसा कहते है।
हे िचत, पलयकालीन जल मे मछली की नाई सफुरण धमरवाले िचत मे सवयं रप आिद िवषयाकार का यिद
सफुरण होता है, तो वह भले ही हो, परनतु अहंकाररप से तुम िकस िनिमत को लेकर उितथत हुए हो ?।।9।। हे
िचत, आधारआधेयभूत तथा जडसवरप पकाश और रप के परसपर आिद के पकाश का आशय लेकर सफुिरत होते है
और सूयािद पकाश उकत सती-शरीरािदभूतरप से कामािद दोष दारा िचत मे वयाकुलता होती है, यह पिसद है। परनतु
पकाश और रप का िचत के साथ समबनध न होने के कारण वह वयथर ही है।।10।।
पकाश और रप के साथ िचत का समबनध ही नही है, इस िवषय को दृषानत से सपष करते है।
जैसे वासतव मे परसपर एक दूसरे से असंबद मुख, दपरण और पितिबमब परसपर एक दूसरे से समबद पतीत
होते है, वैसे ही वासतव मे परसपर एक दूसरे से असमबद रप, पकाश और मन एक दूसरे से समबद पतीत होते है। चकु
के दारा बाहर रप का अवलोकन होता है और मन के दारा भीतर संकलपािद मनसकार जात होते है, यो िभन देशता होने
के कारण वासतव मे उनका समबनध नही हो सकता। यह भाव है।।11।।
वासतव मे असमबद होने पर भी जो समबदतव भािनत होती है, उसमे जान ही िनिमत है, ऐसा कहते है।
हे िचत, ये पूवोकत रपािद अजानरपी जंतु के (लाख के) दारा ही िनरनतर एक दूसरे से परसपर समबद हुए है,
जब अजानरपी जंतु अजान के ताप से िपघल जाता है, तब एक दूसरे से असमबद और बािधत होकर अिधषान
सनमातरप मे अविसथत रहते है।।12।। जैसे दो काठ लाख से एक दूसरे से िशलष हो जाते है, वैसे ही ये रप,
पकाश और संकलप आिद मनसकर परसपर िचत की कलपना से एक दूसरे से संिशलष हो जाते है।।13।। मकडी के
जाले के समान आप ने ही बनधन मे हेतुभूत अपने िचत के संकलप िवकलपातमक तनतु मनद और मधयम अिधकारी के
िलए वैरागय, शम, दम, िवरोध आिद रप मनोभयास से यतपूवरक िकये गये िवचार से िवनष हो जाता है। और उतम
अिधकारी के िलए सहसा उतपन िनतय अिनतय िवजान से उस तनतु के िविचछन हो जाने पर सवभावतः ही अजान भावना
पवृत नही होती।।14।। अजान के िवनाश से कीण हुए मन मे िफर ये रप, पकाश और मनसकार परसपर एक दूसरे
से कोई भी संघिटत नही होते।।15।।
पहले यत से तो िचत का उचछेद कर देना चािहए, ऐसा कहते है।
िचत ही सभी इिनदयो का भीतर से पबोध (पेरणा) करता है, इसिलए जैसे मिनदर से िपशाच का उचछेद कर
देते है, वैसे ही िचत का उचछेद कर देना चािहए।।16।।
अब ललकार कर िचत को ही बोिधत करते है।
हे िचत, तुम िमथया ही पलाप करते हो, मैने तुमहारे उचछेद के िलए उपाय ढू ँढ िनकाला है। तुम आिद और
अनत दोनो मे िनतानत तुचछ (असत्) हो, इसिलए वतरमान काल मे भी असत् ही हो। पूवर उतरकाल मे असत् वनधयापुत
वतरमान काल मे सत् नही हो सकता।।17।। हे िचत, तुम इिनदयो से समबद शबद आिद पाच आकारो के दारा अपने
भीतर कया गरजते हो, जो तुमहारा अिभमान करने वाला पमाता तुमहे 'यह मेरा है' इस रप से जानता है, उसी के िवषय
मे तुम उपकरणरप से गरज सकते हो, परनतु असंग, उदासीन, िचदेकरस मेरे िवषय मे तुम नही गरज सकते।।
18।। हे दुष िचत, तुमहारा गजरन मेरे िलये तिनक भी हषर और िवषाद के िलए नही है, ऐनदजािलक माया से जिन मन
के अनेक तरह की िवषयदशरनाकार चेषाओं की नाई तुम अनेकिवध िवषयाकार वृितयो मे कयो िनरथरक दगध हो रहे हो
?।।19।। हे िचत, तुम रहो चाहे जाओ, तुम न तो मेरे हो और न तुम जीते हो। अपने िमथयासवभाव से तुम सदा
मृतक (िनरातमक) ही हो और िवचार से उस पकार समृत तुम अतयनत असत् हो।।20।। हे िचत, तुम तततवरिहत
जड, भानत और शठ हो, तुमहारा आकार अतयनत असत् है, अजानसवरप तुमहारे दारा अजानी पुरष को ही बाधा पहुँच
सकती है, न िक िवचारवान जानी पुरष को।।21।। हे िचत, 'तुम तततवशूनय हो' यह आज तक हम लोगो ने नही
जाना था। आज आतमतततवदशरन के पभाव से हम लोगो ने यह जान िलया िक तुम तततवरिहत ऐसे हो, जैसे दीपो के
िलए अनधकार।।22।। हे िचत, तुम शठ के दारा दीघरकाल तक अवरद मेरा समपूणर देहरपी घर शम, दम, िवचार,
पबोध आिद साधुओं के संसगर से विजरत हुआ था।।23।। हे िचत, पेत के सदृश आकारवाले जड तुमहारे मनरपी शठ
के चले जाने पर मेरा देहरपी यह घर शम, दम आिद समसत साधुओं के दारा सेवा करने योगय हो गया।।24।।
हे जगतरपी िचतवेताल, शठरप तुम पहले ही नही थे, वतरमानकाल मे भी नही हो और आगे भी नही रहोगे, इस
पकार तीनो कालो मे िनिषद िकये गये भी तुम इस समय जो अपनी िसथित बनाये रखे हो, उसके िलए तुमहे कया लजजा
नही आती, आशयर है तुमहारी िनलरजजता का।।25।।
यिद तुम को लजजा है तो तुम मेरे घर से बाहर िनकल जाओ, ऐसा कहते है।
हे िचतरपी वेताल, तृषणारपी िपशािचिनयो के तथा कोध आिद गुहको के साथ तुम मेरे शरीररपी घर से
बाहर िनकल जाओ।।26।। हे िचत, भागयवश केवल आतमा और अनातमा के िववेकमात से तुम पमत िचतरपी
वेताल मेरे देहरपी मिनदर से ऐसे िनकल गये हो जैसे गुफा से दुष कूर भेिडया।।27।।
िचत के दारा ठगे गये पुरषो के िवषय मे शोक करते है।
बडे आशयर की बात है िक महान जड एवं एककणमात मे िवनष हो जाने वाले शठ मन के दारा यह समसत
जनसमूह िववशता को पापत हो गया है।।28।। हे िचत, मनुषयो के बीच मे भरने वाले देह मे आतमबुिद रखने वाले
सवतः मृत मनुषय के पित यिद तुम गरजते हो तो तुमहारा कया पराकम है, कया बल है और कया समाशय है ? यिद एक
अिदतीय आतमतततवसवरप को समझने वाले मेरे पित आकर तुम गरजो, तो मै तुमहारा पराकम, बल और समाशय
समझूँ।।29।। हे अजानी गरीब िचत, मै आज तुमको मारता नही हँ,ू यानी तुमहारा वध नही करता, कयोिक तुम पहले
से ही मर चुके हो, यह मैने जान िलया है। यही तुमहारा वध है।।30।। हे िचत, इतने काल तक तुमहारा अिसततव
(सवरपसता) जीिवत की नाई था, यह जानकर िचरकाल तक संसार राितयो मे तुमहारे साथ तादातमयभाव को पापत हुआ
था।।31।। िचत िनसतततव है, अतः उसका अिसततव हो ही नही सकता-यह मैने आज जान िलया, इसिलए तुमहारी
आशा का पिरतयाग कर केवल अपने सवरपभूत आतमा मे िसथत रहता हँू।।32।। भागयवश िचत िनसतततव है, यह
मैने आज सवयं जान िलया।
बोध के अननतर जीवनमुकतो को िचतशूनय होकर ही अविशष आयु का केपण करना उिचत है, यह कहते है।
अतः शठ मन के साथ अपने समसत जीवन का केपण नही करना चािहए।।33।। काम, कोध, लोभ आिद
शठो के उतसवभूत मन को देहरपी घर से कणभर मे िनकालकर मै वैताल से शूनय होकर भीतर से सवसथ होकर
अविसथत रहता हूँ।।34।। िचरकाल तक िचतरपी वेताल के दारा ठगे गये उसके सवरपभूत मैने अनेक तरह के
िवकारो को उतपन िकया, अब मै सवयं पदाथरभूत होकर उन िवकारो का समरण कर हँसता हँू।।35।। भागयवश बहुत
काल के अननतर अब िवचाररपी तलवार से मिदरत िचतरपी वेताल को, जो तालवृक के सदृश उतंग ऊँचाई से युकत
है, हृदय मिनदर से हटा िदया।।36।। िचतरपी वेताल के शानत हो जाने पर और काम आिद मलो का अभाव होने से
पिवत पदवी के यानी इिनदयो के दारभूत मागर को पापत करने पर अब उतम भागय से शरीररपी नगर मे केवल मै
सुखपूवरक अविसथत हूँ।।37।। िवचाररपी मनत से मन भर गया, िचनता मर गई और अहंकाररपी राकस भी मर
गया, अब समसत िवषमताओं से रिहत तथा सवसथ होकर केवल मै ही िसथत हूँ।।38।। कौन मेरा मन है ? कौन मेरी
आशा है और कौन मेरा अहंकार है ? भागय से मेरा िनरथरक यह पोषयवगर शेषरप से िवनष हो गया।।39।।
अब अविशष िनरितशयआननदैकरससवरप आतमा को शदाितशय से नमसकार करते है।
एक, कृतकृतय, अिवनाशी, िवमलसवरप तथा िनिवरकलप चैतनयनामधारी मदूप ही आतमा को बार-बार नमसकार
है।।40।। मुझे न तो शोक है और न मोह है न मै अहम् अिभमान पधान जड अंशसवरप ही सवयं हूँ। मै अहंकार
यानी पतयक िचदातमसवरप नही हूँ, ऐसा नही है, िकनतु पतयक्-चैतनयसवरप हूँ। मै भेद का आशय नही हूँ यानी
अिदतीय हूँ। मदूप ही आतमा को बार-बार नमसकार करता हूँ।।41।। न मुझे इचछा है, न मेरे कमर है, न मेरा संसार
है, न मुझमे कतृरतव है, न मुझमे भोकतृतव है और न मेरी देह है। मदूप ही आतमा को नमसकार है।।42।। मै आतमा
यानी आतमशबदजनय पतीित का िवषय नही हूँ, मै अनातमा भी नही हूँ, तततवदृिष से अितिरकत ऐसे िकस पदाथर की
संभावना की जा सकती है, जो मेरे सवरप हो सके, इसी पकार अहंशबदजनय पतीित का िवषय और उससे िभन मै नही
हूँ, ऐसी िसथित मे मुझसे अनय की अपिसिद होने से सवयं ही मै सवरसवरप और सवातमक ही हूँ, यह अथर है, ऐसे मदूप
ही आतमा को नमसकार है।।43।। मै ही आिद यानी भुवनो का कारण हूँ, मै ही धाता यानी धारण करने वाला हूँ. मै
िचतसवरप हूँ, मै भुवनसवरप हूँ, मेरा ितिवधपिरचछेद नही हो सकता, ऐसे मदूप आतमा को बार-बार नमसकार हूँ, मै
िचतसवरप हूँ, मै भुवनसवरप हूँ, मेरा ितिवधपिरचछेद नही हो सकता, ऐसे मदूप आतमा को ही बार-बार नमसकार है।।
44।। िवकारशूनय, िनतय, अंशशूनय, िवशालतम, सवरसवरप तथा सवरकालातमक यानी सनातन मदूप आतमा को ही बार-
बार नमसकार है।।45।। रपशूनय, नामशूनय, पकाशरप, महदाकृित तथा सवयं एक आतममात मे िसथित रखने वाले
मदूप आतमा को ही बार-बार नमसकार है।।46।। मै सवरत समरप, सवरत वयापक, सूकम और जगत को एकमात
पकािशत करने वाली सता को भीतर से पापत हुआ हूँ, ऐसे मदूप पतयगातमा को ही नमसकार है।।47।। पवरत, समुद,
पृथवी, नदी इनसे युकत पिसद यह वतरमान दृशय शी मदूप है ही नही, इसी पकार अतीत, अनागत पदाथों से पिरपूणर यह
जगत भी मदूप है ही नही। अथवा उकत सभी मदूप ही है, ऐसे मदूप पतयगातमा को बार-बार नमसकार है।।48।।
चूँिक मन के समसत िवकलप िवनष हो चुके है, इसिलए सम और अतयनत अिभराम, समसत िवश का आिवभाव करने
वाले, सवतः िवशविजरत अननत, सवरप, अजनमा, जरारिहत, समसत गुणो से शूनय तथा अिवनाशी ईशर के सवरप को मै
पणाम करता हँू।।49।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

अससीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआ आआआआआआआआआ आआआ
आआआआआआआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआआआआ।
शीविसषजी ने कहाः हे महाबाहो, पूवोकत पकार से भली पकार िवचार के दारा भीतर से तततवजान को पापत
कर 'आतमा ही अवशय जातवय है' इसिलए िवचार तततव को जानने वाले महातमा लोग िफर िचत के िवषय मे
वकयमाणरीित से िवचार करते है।।1।। िजस िचत के दारा 'यह समसत जगत् आतमसवरप ही है' इस पकार के
परोक साकातकार से जगत पिरमािजरत िकया गया है, वह िचत कहा से उतपन हुआ ? यह अतयनत आशयर है, कयोिक
जगत के अवसतुसवरप होने से उसके अनतगरत हुआ िचत भी सवयं अवसतुसवरप ही है।।2।।
िचत अवसतुसवरप ही है, इसका साधन कहते है।
जैसे आकाशवृक भमवश अनयरप से पतीत होता है, वासतव मे वह िवशुद आकाशसवरप ही है, उससे पृथक
आकाशवृक नही है यानी असत् ही है, वैसे ही िचत जड, िचत अनतर से शूनय और माया का कायर होने से िनशयरप से
असत् ही है, वह केवल िवशुद आतमसवरप ही है।।3।। जैसे नौका मे अविसथत अजानी बालक को तटवती सथाणु
मे पतीत होने वाला गित आिद पिरसपनद केवल भािनत से ही िदखाई पडता है, वैसे ही यदिप अजानी को िचत दीखाई
पडता है तो भी आतमजानी तततवज की दृिष मे वह है ही नही, िकनतु असनमय ही है।।4।। मूखरतापयुकत मोहरपी
भम के शानत हो जाने पर हम लोगो का िचत का वैसा अनुभव नही होता, जैसे तेल या गने को पेरने के यनत के ऊपर
आरोहण करने से उतपन पिरभमण के बाद आरोही को पवरत मे पिरभमण का अनुभव नही होता।।5।। उकत युिकतयो
से िचत का अिसततव है ही नही, िचतातमक केवल बह का ही अिसततव है, चूँिक बाह और आभयनतर पदाथों की
भावनाएँ असदातमक िचत से ही िवसतार को पापत होती है, इसिलए असतसवरप उनका मैने पिरतयाग कर िदया।।
6।। मेरे समसत सनदेह शानत हो चुके है, समसत िचनता जवरो से विजरत होकर मै अविसथत हूँ, िजस पारमािथरक
सवभाव से मै अविसथत रहता हूँ, उसी पारमािथरक सवभाव से इस समय सवानुभव से भी इचछाओं से िनमुरकत होकर
िसथत हूँ।।7।। जैसे पकाश का उपराम हो जाने पर िविभन-िविभनरपो का पकाशन करने वाली चकुआिद से जिनत
संिवितया िवनष हो जाती है, वैसे ही िचत का उपराम हो जाने पर चंचल तृषणा आिद दुगुरण िवनष हो गये।।8।।
िचत मर गया, तृषणाएँ चली गयी, मोहरप पंजर भली पकार कीण हो गया, अहंभावना िवशीणर हो गयी और इस अहंरप
आतमा के अजानरपी िनदा से विजरत होने पर मैने अपने सवाभािवक सवरप को जान िलया।।9।। जगत् शानत होकर
अिदतीय परबहसवरप ही हो गया और भेदवसतु सत् है ही नही, इसिलए मै दूसरे िकस िवषय का िवचार करँ ? इस
असत् अथों की कथा से मेरा कुछ भी पयोजन नही है।।10।। िचदाभाससवरप, जीवसवरप से विजरत, आिद और
अनत से शूनय, परमपावन पद को मै पापत हुआ हूँ। मै सौमय, सवरत वयापक, अितसूकम, सनातन आतमसवरप से िसथत
हँू।।11।। इस लोक के वयवहार दृिष से और शुितदृिष से कमशः िचत आिद एवं आतमा आिद जो अिसततव रप से
पिसद वसतुरप पदाथर है तथा रजजु-सपर आिद एवं वनधया पुत आिद जो नािसतकतवरप से पिसद अवसतुरप पदाथर है,
वह सब आकाश से भी अतयनत िनमरल, सवपकाश, शानत, असीम, वयापकसवरप बहातमक ही है, कयोिक उसी मै सत्
असत् रप िवकलपो का आरोप होता है।।12।। िचत रहे या न रहे, वह भीतर से मर जाय या िजनदा रहे, उसके
िवषय मे िवचार करने से मेरा कौन-सा पयोजन है ? कयोिक मै तो िचरकाल से समरप से उिदत आतमसवरप हँू।।
13।। मै तो इतने समय तक मूखरतावश िनतयअिनतय वसतु के िवषय मे िकसी पकार का िवचार न कर रहा केवल
पिरिचछन देहािद के सवभाव से युकत होकर वतरमान था। समपित िवचार है।।14।। मन के मर जाने पर 'िवचार
करने वाला है या नही' इस पकार की िनरथरक िवकलप शी भी मनरपी वेताल के पुनजीवन के िलए कयो उतपन होती है,
इसिलए उस िवकलप शी का मै पिरतयाग करता हँू।।15।। तथोकत इस भीतरी संकलप-कलना का पिरतयाग करता
हूँ, इस पकार का िनशयकर ॐकार के लकयभूत तुरीय आतमा मे मौन की नाई शानतातमा होकर िसथत रहता हूँ।।
16।।
िकये गये िवचार का उपसंहार कर रहे महाराज विसषजी उस की िनरनतर कतरवयता को कहते है।
हे शीरामचनदजी, खाते, जाते, सोते और िसथत रहते सदा सवरदा सवरत उस पकार की पजा से युकत िचत से
तततवजानी पुरष पितिदन भली पकार िवचार करे।।17।। आतमसवरप मे अविसथत, सवसथ अपने िचत से भली
पकार िवचार करके सतपुरष अपने -अपने वणर और आशमो के अनुसार पापत हएु कमों मे िकसी पकार का उदेग िकये
िबना िसथत रहते है।।18।। िजनका मान और मद गिलत हो चुका है, िजनका अनतःकरण पमुिदत है, िजनकी शरद्
ऋतु से समिनवत चनदमा की नाई पसन मुख कािनत है और जो पापत हुए शासतानुमोिदत वयवहारो मे िवहार करने वाले
है, ऐसे असीम बुिदवाले महापुरष इस संसार मे सुखपूवरक िवचरण करते है।।19।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

इकयासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआ आआआआआआआआ आआआआआआ आआ
आआआ, आआआआआआआआ आआ आआ आआ आआआआआआआ । आआ आआआआआआ आआआआआ
पूवर मे िकया गया िवचार सामपदाियक है, इसे बतलाते है।
महाराज विसषजी ने कहाः हे शीरामजी, पहले आपके सामने मैने िजस िवचार का िदगदशरन िकया है उस
िवचार को पहले िवदान संवतर ने (बृहसपित के छोटे भाई ने ) िकया था। िवनधयाचल पवरत के ऊपर उसी आतमतततवज
संवतर ने उकत िवचार को मुझसे कहा था।।1।। हे शीरामचनदजी, िवचारपचुर बुिद से इसी दृिष का अवलमबन कर
आप इस संसारसागर के उतरोतर िचत की िवशािनत के पकषर-पिरपाक से जिनत भूिमका आरोहण कम से पार हो
जाइये।।2।। हे शीरामजी, अब आप इस दूसरी इिनदय और मन की बोधरिपणी दृिष का शवण कीिजये, जो परमपद
को पदान करने वाली है, इसी से महामुिन वीतहवय ने िनःशंक परमपद को पापत िकया था।।3।। पहले महान् तेजसवी
वीतहवय मुिन अरणय मे समािध के िलए अनुकूल िवनधय पवरत की िवसतृत गुफा को खोजते हुए उस पकार पिरभमण कर
रहे थे, िजस पकार सहसाशु (सूयर) मेर पवरत की गुफाओं को खोजते हुए पिरभमण कर रहे हो।।4।।
वीतहवय को समािध की इचछा कैसे हुई इसे कहते है।
िकसी समय की बात है िक संसाररपी भम को देने वाले तथा घोर आिध और वयािधमय आकारवाले इस
सासािरक िकयाकलापो से महामुिन वीतहवय उिदगन हो उठे।।5।। केवल िनिवरकलप समािध से पापत होने वाले उदार
परबह को जानने की इचछा से ही उकत महामुिन ने जगत्-रपी जीणर-शीणर अपने वयापारो की परमपरा का उपसंहार कर
िलया यानी उनहोने संनयास गहण कर िलया।।6।। उसके बाद जैसे भमर नीलकमल मे पवेश करता है, वैसे ही
महामुिन वीतहवय ने कदली-पतो से िविनिमरत अपनी पणरकुटी मे पवेश िकया, िजसमे कदली दारा शेत कपूर की रचना
की गयी थी अतएव जो सुगनध से पूणर थी।।7।। महामुिन वीतहवय मे उस पणरकुटी मे अपने दारा िबछाये गये सम
और शुद मृगचमर के आसन के ऊपर उस पकार िवशािनत ली, िजस पकार बरस चुका मेघ तापशूनयपवरत के ऊपर
िवशािनत लेता है।।8।। पदासन बाधकर, पैर के तलवो के मूल के ऊपरी भाग पर हाथ की अँगुिलयो को रखकर
तथा अपनी गीवा को ऊँची तान कर उस पकार िनशल होकर बैठ,े िजस पकार िनशल शृंग(िशखर)।।9।। जैसे
सायंकाल के समय मेरपवरत की कनदरा मे पवेश कर रहा भानु अपनी दीिपतिकरणो का अपने मे उपसंहार कर लेता है,
वैसे ही महामुिन वीतहवय ने इिनदयालोकरपी कारण से िदशाओं मे िबखरे हुए मन का उसके िनगह के उपायो से धीरे-
धीरे यानी आगे कहे जाने वाले पबोधन से अपने हृदय मे उपसंहार कर िलया।।10।। तदननतर बाह और आभयनतर
सपशों का यानी बाह इिनदयो के तथा भीतरी मन के िवषयरपी सपशों का पिरतयाग कर रहे उस महामुिन ने पापशूनय
मन से कमशः यह (आगे के िलये कहा जाने वाला) िवचार िकया।।11।। अतयनत आशयर की बात है िक मन इतना
चंचल है। कणमात पकार तरंगो के दारा बहाया गया पता िसथरता को पापत नही होता।।12।। िनरंकुश चकुआिद
इिनदयो से समबद संभमरप अनेकिवध िवषयसवरपो को लेकर मन िनरनतर उस पकार नृतय करता है, िजस पकार
करतल से िवतािडत गेद नृतय करता है।।13।।
इिनदयो के दारा विधरत मन पूवर-पूवर वृितयो का तयाग करते ही उतरोतर तदनुसािरणी इन वृितयो को गहण कर
लेता है और िजस िवषय से उसको हटाया जाता है, उसी िवषय मे अतयनत उनमत की नाई दौडता है।।14।। मन
घट से पट के ऊपर और पट से उतकट शकट के ऊपर कूद जाता है यो यह िचत अथो के ऊपर उस पकार दौडता
है, िजस पकार वृको के ऊपर बनदर दौडता है।।15।।
यो िचत के दोषो की समालोचना करके मुिन वीतहवय ने उसके िनगरमन के दारो की समालोचना की, यह कहते
है।
अितिनिनदत इिनदय नामवाले ये चकु आिद मन के पाच दार है अब मै उनके िवषय मे भली भाित िवचार करता
हूँ।।16।।
अब इिनदयो को ही भतसरनापूवरक बोधन करते है।
सागर के तरंगो की नाई अितचंचल है हतभागय इिनदयगण, इस जनम मे समािध के दारा आतमदशरन के िलए
अभी तक तुमहे अवसर पापत नही हुआ कया ?।।17।। हे चंचल सवभाववाले इिनदयगण, अब तुम लोग अनथर के िलए
चंचलता मत करो, अपने दुःखदायक भूतकालीन कमों का तुम बार-बार खूब समरण कर लो।।18।।
हे इिनदयगण, तुम लोग मन ही के अलग-अलग दार के रपो मे किलपत हो, अतएव िनिशत अधम और जड ही
हो, हम जानते है िक जड मे पवृित और जल मे तरंगरपी पवृित का आशयतव मृगतृषणा की नाई िमथया है।।19।।
अनृत (असतय) सवरपवाले आप लोगो की दुिवरनय से आतमजानशूनय कुमागर मे जो पवृित है, वह अनधो की ही
उपमा के िलए हो सकती है यानी अमागर मे दौड रहे अनधो के कूप-पतन की उपमा हो सकती है, यह भाव है।।20।।
यिद हम लोग जड है, तो कौन दशरन आिद से सब वयवहारो को करता है ? इस पर कहते है।
िचदातमा भगवान्-सवरप मे साकीरप सब कुछ करता हूँ। हे जघनय इिनदयवृनद, तुम कयो िनरथरक वयाकुल हो
रहे हो।।21।। हे चकुआिद इिनदयगण, सतय सवरप से िवरिहत तुम लोग मेरे पित िमथया ही गरज रहे हो, तुम लोग
अलातचक के सदृश और रजजु मे सपर-भम के सदृश िमथयारप ही हो।।22।। िजस सवावभासक साकीसवरप
पतयगातमा ने चकु आिद इिनदयो के सवरप का भली पकार पिरजान कर िलया है, उस पतयगातमा के साथ उनका तिनक
भी वैसे समबनध नही है, जैसे सवगर और पाताल तल मे िवदमान पवरतो का परसपर समबनध नही है अथवा पाताल के
पवरतो के साथ सवगर का समबनध नही है।।23।। जैसे सपों से डरा हुआ पिथक उनसे दूर रहता है चाणडालो से डरा
हुआ बाहण चाणडालो से दूर रहता है, वैसे ही िचदेकरससवरप दोषशूनय पतयगातमा इिनदयो से दूर रहता है।।24।।
तब कयो इिनदयो के वयापारो मे आतमा की कारणता पिसद है, इस पर कहते है।
हे इिनदयगण, केवल चैतनयसता की सिनिध से ही तुम लोगो की परसपर चेषा उस पकार पूणररप से रहती है,
िजस पकार आिदतय के रहने पर शाद और कृिष आिद कमर करने वाले पुरषो के उनके इचछानुसार तत्-तत् कमर रहते
है।।25।।
अब ललकार कर िचत को पबुद करते है।
हे िचतरपी चारण (इिनदयो की बिहमुरखता के पचार मे हेतुभूतः), हे चावाक (देह मे आतमजान करने वाले), हे
चारो िदशाओं मे उदर भरण के िलए िभका मागने वाले, तुम इस जगत मे कुते की नाई िनरथरक अनथर के िलए इस
पकार िवचरण मत करो।।26।। हे शठ, 'मै चेतनधमा हूँ' इस पकार की तुमहारी वासनारपी भािनत िमथया और
िनरथरक है, कयोिक परसपर एक दूसरे से अतयनत िभन धमरवाले िचत् और मन की एकता नही हो सकता।।27।। हे
िचत, 'मै ही जीता हूँ' इस पकार की यह तुमहारी अहंकाररपी दुबुरिद दुःख के िलए िमथया ही उतपन हुई है। वह सतय
नही है, कयोिक वह परमातमसवरप से विजरत है। िनषकषर यह है िक अहंकार के अधीन जीवन सतयभूत नही है, कयोिक
वह परमातमसवरप से विजरत है। िनषकषर यह है िक अहंकार के अधीन जीवन सतयभूत नही हो सकता, कयोिक उसके
(अहंकार के) न रहते हुए भी सुषुिपत मे जीवन देखने मे आता है। अहंबुिद िमथयासवरप ही है, कयोिक सतयभूत
परमातमा का तिनक भी उसमे समबनध नही है। इस िवषय मे शुित भी है, न पाणेन नापानेन मतयो जीवित कशन। इतरेण
तु जीविनत यिसमनेतावुपािशतो।। (मरणधमा न पाणो से और न अपान से जीता है, पतयुत दूसरी वसतु से बह से ही
जीता है, िजसमे ये पाण और अपान समािशत है।।28।।
हे िचत, अहंकार का यानी अिभमानरप तुमहारे पिरणाम का जब आिवभाव होता है, तब 'कायर-कारण संघातरप
मै ही हूँ' इस पकार का जो तुम अिभमान करते हो, उसे छोड दो। हे मूखर, तुमत कुछ भी नही हो, इसिलए कयो वयथर
चंचल हो उठते हो।।29।।
जब तुमहारा सवरप ही दुलरभ है, तब तुमहारा अिभमान के दारा दूसरो की रका करना तो दूरतः ही िनरसत है,
इस आशय से कहते है।
संिवदरपी चैतनय अनािद और अननत है, संिवद से दूसरा कुछ भी नही है, इसिलए हे महामूखर, इस शरीर मे
िचत नामवाले तुम कौन हो ?।।30।। हे िचत, दुःख का िवषय है िक भोग के उतरकण मे िवषय मे पयरविसत होने
वाली और भोगकाल मे अमृत के समान उितथत यह तुमहारी कतृरतव, भोकतृतव की आशंका (अिभमािनता) वयथर ही है।।
31।। हे मूखर िचत, चकु आिद इिनदय-गणो का आशय लेकर तुम उपहास के पात मत होओ। तुम न तो कता हो और
न भोकता हो, िकनतु जड हो। तुम दूसरे साकी के दारा बोिधत होते हो।।32।।
भोगानुभव की सामथयर से विजरत, जड एवं िमथयाभूत तुमहारी भोगािभलाषा िनरथरक ही है, ऐसा कहते है।
हे िचत, तुम भोगो के कौन होते हो अथवा भोग तुमहारे कौन होते है ? जडसवरप तुमहारा जब सवरप
(अिसततव) ही नही है, तब बनधु, िमत आिद तुमहारे कैसे हो सकते है।।33।। जो जडसवरप है, उसका अिसततव है
ही नही। जैसे जपा कुसुम की लािलमा से सफिटक मे लािलमा िदखाई पडती है, वैसे ही परमातमा के अिसततव से जड
मे अिसततव िदखाई पडता है। सवयं तो असता से समिनवत है, जातापन, कतापन, भोकतापन और पूवापर अनुसनधान
का कतापन ये सब चैतनय के िबना नही हो सकते।।34।।
जब ऐसी िसथित है, तब मै (िचत) पतयक्-चेतनसवरप ही कयो न कहा जाऊँ ? ऐसी आशंका होने पर तब तो
तुमहारी िनिवरकलप ही िसथित युिकतयुकत है, दुःखपद कतृरतव-भोकतृतव भावअभावरा िवकलपमयी िसथित युकत नही है, ऐसा
कहते है।
हे िचत, 'पतयकचेतनसवरप ही मै हूँ' इस पकार तुम अपने को पतयक् चेतनरप मानते हो, तो तुमहारा सवरप
आतमा ही हुआ, ऐसी िसथित मे दुःखपद भावअभावमयी तुमहारी सता कैसी ?।।35।।
िनिखल िवकलपो का तयाग हो जाने पर तुमहारी िचतसवरपता हो नही सकती, यह भाव है। यिद तुम अपने को
अचेतनरप मानोगे, तो अनायास ही कतृरतव आिद का पिरमाजरन कर सकते हो, यह कहते है।
हे िचत, तुमने िजस रीित से िजन िमथया कतापन और भोकतापन दोनो को जान िलया है, उनका मै युिकत से
िकस पकार पिरमाजरन कर देता हँ,ू उसे धीरे से सुनो।।36।। हे िचत, यह तुम अपने आप ही जडभूत हो, इसमे
तिनक भी सनदेह नही है। भला बतलाओ तो सही, जड मै कैसे कतापन रह सकता है ? कया यहा पतथर की मूितरया भी
िकसी पकार नाच सकती है ?।।37।। हे िचत, यिद तुम यह कहो िक पतथर की पितमा िकसी अनय चेतन के
वयापार से नाच करती हुई देखी जाती है, तो इस पर मै तुमहे यह सदुपदेश देता हूँ िक तुम भी उस ईशर के
िचदाभासरपी अंश से दीघरकाल तक अपना जीवन-िनवाह करो, सवतः तुम अपना जीवन िनभा नही सकते। ऐसी
िसथित मे पितमा के नतरनरपी फल का उपभोकता जैसे चेतन ही है, पितमा नही है, वैसे ही तुमहारे दारा िकये गये जीवन
आिद फलो का उपभोकता िचदातमा ही है अतः तुम जीवन, अिभलाषा, हनन, गमन और गजरन के िलए वृथा ही दौड-धूप
करते हो।।38।। िजसकी शिकत से जो िकया जाता है, वह उसी के दारा िकया हुआ होगा। पुरष की शिकत से
हँसुआ काटता है, पर काटनेवाला पुरष कहलाता है।।39।। िजसकी शिकत से िजसका हनन िकया जाता है, वह
उसी के दारा हत कहा जायेगा, पुरष की शिकत से तलवार हनन करती है, हनन करने वाला पुरष ही कहा जाता है।।
40।। िजसकी शिकत से जो िपया जाता है, वह उसी के दारा िपया गया कहा जायेगा, पात के दारा जल आिद िपये
जाते है, पर जो मनुषय है, वही पीने वाला कहा जाता है, पात नही।।41।। हे मेरे पयारे िचत, तुम सवभाव से ही जड
हो, पर उसी सवरज साकी के दारा बोिधत होते हो, कयोिक आतमा ही अपना अपने से भोकता, भोगय, कारण, उपकारण
आिद जगत् के रप से सवप की नाई सजरन करता है।।42।। हे िचत, आतमारपी परमातमा ही िनरनतर तुमहे
िचदाभास-वयािपत से बोध पदान करते है, कयोिक सैकडो बार आवृित करके भी पिणडत लोगो को मूखों को बोध देना ही
चािहए।।43।।
इसिलए बोधसता के अधीन ही तुमहारा नाम और रप से सवरप-लाभ है, ऐसा कहते है।
हे िचत, चूँिक इस बहाणड मे केवल बोधमातसवरप आतमसता ही सफुिरत होती है, इसिलए उसी आतमसता से
तुमने नाम और अथर को पापत कर अपना अिसततव बना रखा है।।44।।
इस िसथित मे हे िचत, आतमा ही अपने जान से तुमहारे जैसा हुआ है और अपने जान से तुमहारे भाव से मुकत
हो जाता है, ऐसा कहते है।
हे िचत, इस पकार तुम अजानरपी आतमशिकत से ही पापत हो। जान होने पर तुम ऐसे गिलत हो जाते हो,
जैसे तीवर धूप मे िहम।।45।। इससे तुम तततव रिहत हो, तुम मूढ हो और परमाथर दशा मे तुमहारा अिसततव ही नही
है। इसिलए तुमहे 'मै तततवरप ही हूँ' ऐसा िनरथरक तादातमय अधयास, जनम आिद दुःख के िलए, मत होवे।।46।।
ऐनदजािलक लता की नाई िचत की कलपना िमथया है। इस बहाणड मे िवजान मातसवभाव बह का ही सवरप सवोपिर
िवरािजत है।।47।। बाहीशिकत से यानी िचितशिकत से युकत माया ही मनुषय, देवता और समसत जगतरपो से
आिवभूरत है। और तत्-तत् रपो से वह ऐसी गरजती है, जैसे समुद के तरंगो के कलोलो से संविलत तट गरजता
हो।।48।।
हे मूढ यिद तुम आतमतततव के पिरजान से िचनमय हो जाओगे, तो िचदभेद समपादक कारण के न रहने से तुम
उस परम पद से िनरनतर अवयितिरकत सवरपवाले ही हो जाओगे, िफर िकस िवषय मे तुम शोक करते हो।।49।।
उस समय अपापत िवषयो का अभाव होने के कारण िवषयशूनय शोक की संभावना ही नही है, इस आशय से
कहते है।
हे अजानी िचत, वह परम पद सवरत जाने वाला, अतीत एवं अनागत सब पदाथों मे िसथित रखने वाला यानी
काल कृत पिरचछेद से शूनय और सबका सवरपभूत है, उसकी पािपत हो जाने पर सवरथा सभी कुछ पापत हो जाता
है।।50।। हे िचत, इस समय बह से न तो तुम पृथक हो और न देह ही पृथक है, िकनतु वयापक एवं पकाश सवभाव
बह रप ही सब है। चूँिक यहा 'अहम्', 'तवम्' इस पकार का वयवहार िकयारिहत बह मे सफुिरत होता है, इसिलए
िकसको कया दुःख होगा।।51।।
कहे गये दोनो कलपो को िफर सपष कहते है।
हे िचत, तुम यिद आतमसवरप हो जाओगे, तो तततवसवरप ही रहोगे, कयोिक इस संसार मे सवरत वयापक केवल
आतमा का ही अिसततव है, उससे िभन दूसरे िकसी का अिसततव नही है। यिद कहो िक जड का अिसततव है, तो यह
पृथक तततव ही नही है, परनतु बहरप ही है। समसत तीनो जगत् आतमसवरप ही है, आतमा से िभन दूसरा कुछ भी नही
है। इसिलए यिद तुम आतमा से पृथक िकसी वसतु के रप मे अपने को मानोगे, तो तुम कुछ भी नही हो यानी तुम
परमाथर रप हो ही नही।।52,53।। हे िचत, मै बाल शरीर हँू, मै वृद शरीर हँू, बाल शरीर के समबनधी कीडा के
उपकरण आिद और वृद शरीर के समबनधी पुत, पौत आिद मेरे है इस पकार िनरथरक इचछा कयो करते हो, कयोिक
आतमसवरप हो जाने वाले की दृिष मे देह पारमािथरक नही रहती, कया असत-शरीर यानी असत सवरपवाला कही
पसफुिरत होता है ? यिद कहो िक हा, तो बतलाओ िक कौन खरगोश के सीग के दारा मारा गया।।54।।
तब िचत और अिचत से पृथक तृतीय सवरपवाला ही मै कयो न होऊँ, तो इस पर कहते है।
हे शठ, जैसे इस जगत मे छाया और धूप इन दो के बीच मे से िकसी एक का ही अनुरज ं न (समबनध) सब

पदाथों मे रहता है, तीसरे िकसी का अनुरजन नही रहता, वैसे ही िचत् और जड इन दो अंख-कलनाओं को छोडकर
िभन तीसरी कोई कलना ही नही रहती।।55।।
तब मेरा तािततवक सवरप कया है ? ऐसी िचत की आशंका होने पर 'अिनतम आतमसाकातकारातमक वृित से
अिवदा के साथ तुमहारी जडता और तुमहारे अनदर रहने वाले िचदाभासका कय हो जाने पर चरम साकातकार से
आिवभूरत जो सवपकाश पूणातमा का सवरप है, वही तुमहारा तािततवक सवरप है, वही तुम हो, ऐसा कहते है।
ितकाल मे बािधत न होने वाले आतमा के साकातकार से िचत और उसकी जडता का कय हो जाने पर उससे
(चरम यथाथर साकातकार से) आिवभूरत सवसंवेदनमात सवरप है, वही िचत का तािततवक सवरप है।।56।। हे मूढ,
इस कारण तुमहारे मे न तो कतृरतव है और न भोकतृतव ही है। तुम उकत परबहसवरप ही हो, इससे मूखरता का पिरतयाग
करो और आतमवान हो जाओ।।57।।
यिद मै आतमसवरप ही हूँ, तो 'मनसैवानुदषवयम्' (मन से ही आतमा का साकातकार करना चािहए),
'मनसैवेदमापतवयम्' (मन से ही इसको पापत करना चािहए) इतयािद शुितयो मे मुझको आतम-पापत का उपकरण कयो
बतलाया गया है ? तो इस पर कहते है।
अजान दशा मे ही आतमशासत और आचायर के दारा िकये गये उपदेशो के पयोजन की िसिद के िलए कारणरप
से किलपत तुमहारे दारा आतमा शुदसवरप अपने तततव को अिनतम साकातकार का िवषय करता है, यह उकत शुित दारा
कहा जाता है। जैसे अपने मुख के सवरप को देखने की इचछा करने वाला पुरष दपरणरप उपािध के ऊपर अिधरढ
अपने मुखरप ही करण से मुख को देखता है, वैसे ही पकृत मे समझना चािहए।।58।।
यिद तुम करणो का सवभाव ही अपना सवभाव मानते हो, तो चलने मे भी तुमहारी सवतः सामथयर नही है, इसिलए
तुमहारा कतृरतव-अिभमान वयथर ही है ऐसा उपपादन करते है।
सवतः सपनदन-शिकत से रिहत, असत्-सवरपवाला तथा अवलमबन विजरत जडरप करण चैतनय के दारा
समपािदत कतरवयाथर-पकाश के िबना सपनदन नही कर सकता।।59।। कता के दारा अिधिषत न हुए इस करण मे
िकसी पकार की शिकत नही रह सकती, काटने वाला यिद न हो तो कया हँसुए मे कुछ करने की शिकत रह सकती
है।।60।। हे िचत, खडग पहार और तदुतरभावी छेदन िकया के िलए पुरष मे ही शिकत है। अतयनत जड तलवार मे
मूल से लेकर समसत अवयवरप उपकरणो के होते हुए भी उकत शिकत नही रह सकती।।61।। हे िमत, तुम कता
नही हो, इसिलए िनरथरक दुःखभागी मत होओ। हे मूखर, पामर के सदृश पकृित के कायों मे दूसरे के िलए कलेश सहन
शोभा नही देता।।62।।
यिद शंका हो िक मोह से जीवरपता को पापत हुए अशनाया आिद से पीडयमान ईशर की मै उपेका कैसे कर
सकता हूँ अतः उसके िलए अनेक पयतो से संघिटत हो रहा मै ईशर के िवषय मे शोक करता हूँ, तो इस पर कहते है।
जो तुमहारे सदृश होगा, उसी के िलए तुमहे शोक करना चािहए, ईशर तो तुमहारे सदृश है नही, अतः उसका कया
शोक करोगे। कयोिक न तो उसका कोई कृत कमर से ही यहा पयोजन है और न कोई अकृत अकमर से ही पयोजन
है।।63।। हे िचत, कायरकारणसंघात के अिभमान से 'इस आतमा का मै उपकार करता हँू' इस भम से तुम पिरिचछन
बुिद को पीिडत करते हो संघात मे रहने वाले पाच पाण, मन, बुिद और दस इिनदय सभी अचेतन होने के कारण उनका
भोगो से कुछ पयोजन नही है, इसिलए िकसी का िकसी के िलएक कुछ भी उपयोग नही होता, यह भाव है।।64।।
अतः पिरशेष से ईशर के िलए ही तुमहे पवृित कहनी चािहए, पर उसका तो उतर कहा ही गया है, ऐसा कहते
है।
हे िचत, यिद तुमहारा यह अिभपाय है िक भोग के सवामी कता परमातमा के िलए मेरी तथोकत पकार की अथों
मे पवृित है, तो यह भी ठीक नही है, कयोिक भोग के सवामी परमातमा की कुछ भी इचछा नही है, कारण िक वह सदा ही
तृपत है।।65।।
परमातमा पिरपूणर और अिदतीय है, अतः उसको इचछा नही हो सकती, ऐसा कहते है।
सवभावतः पकाशसवभाव, सवरत वयापक, अिदतीय चैतनयातमा ने ही इस समसत बहाणड को वयापत कर रखा है,
इसिलए दूसरी कोई कलपना ही नही है।।66।।
समसत जगत की परमातमा ने ही अपने सवरप मे कलपना की है, अतः कोई वसतु अलभय न होने से परमातमा
को जगत मे िकसी पकार की इचछा नही है, ऐसा कहते है।
अिवदापयुकत एक और अनेक के पकाशक समसतसवरप आतमा ने अपनी ही आतमा के अनदर जगत का
िनमाण िकया है, ऐसी िसथित मे सब कुछ पापत होने से अनतरातमा िकसकी इचछा करेगा।।67।।
यिद सभी कुछ ईशर का ही है, तो उसमे मेरी इचछा कैसे हुई ? इस पर कहते है।
हे िचत, तुमहारे जैसे मूखों की दृिष से ही इस जगत मे वयथर कोभ उस पकार उतपन होता है, िजस पकार
राजा की सती को देखकर मूखर युवा को मदमयी अवसथा उतपन होती है।।68।।
तब उस परमातमा के साथ समबनध सथापन कर मै उसके अनुगह से भोगो को पापत करँगा। इस पर कहते
है।
(आतमा के साथ समबनध बाधने की इचछा के कारण) हे सुनदर िचत, तुम आतमा के साथ अपना समबनध करने
की इचछा रखते हो, परनतु तुम उसके समबनधी यानी समबनध के योगय उसी पकार नही हो सकते. िजस पकार कुसुम के
समबनध के योगय फल नही हो सकता। तातपयर यह है िक कुसुम से उतपन हुआ भी फल कुसुम से बिहमुरख होने के
कारण कुसुम मे रहने वाले सुगिनध आिद के उपभोग हेतु समबनध के योगय नही होता, कयोिक फल की अिभवृिद होने पर
कुसुम का ितरोभाव हो जाता है, इसी पकार यहा भी समझ लेना चािहए।।69।।
समबनध की अयोगयता का उपपादन करने के िलए मुखय समबनध का लकण कहते है।
हे िचत, एक पदाथर की िकया से या उभय पदाथों की िकयाओं से एक पदाथर के दूसरे पदाथर मे िमल जाने से
एक का दूसरे मे जो अनतभाव हो जाता है या उस अनतभाव से जो ऐकय हो जाता है, वही समबनधफलतः लकण है, यो
समबनधलकण िवदानो के दारा कहा गया है। वैसा समबनध दैतावसथा मे ही हो सकता है, पर अब दैत नही, िकनतु अदैत
है, अतः समबनध कैसे ?।।70।। हे िचत, तुम उकत मुखय समबनध मे हेतु नही हो यानी मुखय समबनध के िलए अयोगय
हो, कयोिक तुम सवतः एक पकार के नही हो, तुमहारे कायर भी नाना पकार के है और नाना पकार की िविहत और िनिषद
िकयाओं की ओर झुकी हुई तुमहारी सुख-दुःख दशाएँ भी चारो ओर से पिसद है।।71।। जो सम है, उनका यानी कीर
और कीर का, जो अधरसम है, उनका यानी कीर और नीर का भी परसपर समबनध देखा गया है। परनतु जो िवलकण है
यानी अिगन और जल की नाई अतयनत िवरद है, उनका समबनध नही हो सकता, कयोिक िवरोिधयो का जमघट होने पर
तो एक का िवनाश ही देखा जाता है, समबनध का अवसथान नही देखा जाता।।72।।
यिद शंका हो िक शबद, सपशर, रप आिद परसपर िवरद गुणवाले भी सूकम भूतो का पंचीकरण दारा जैसे
समबनध होता है, वैसे ही मेरा आतमा के साथ समबनध कयो नही होगा ? तो इस पर कहते है।
शबद, सपशर आिद िवरद गुणवान पदाथों मे परसपर िवरदता नही है, कयोिक दूसरे दवयो के गुण भी परसपर मेल
से पंचीकृत दवयो का आशय करते है।
जैसे कहा हैः
शबदैकगुणमाकाशं शबदसपशरगुणो मरत्। शबदसपशररपगुणैिसतगुणं तेज उचयते।।
शबदसपशररपरसगुणैरापशतुगुरणाः। शबदसपशररपरसगनधैः पंचगुणा मही।।
आकाश केवल शबद गुणवाला है, वायु शबद और सपशर गुणवाला है, तेज शबद, सपशर और रप-इन तीन गुणो से
तीन गुणवाला कहा जाता है, जल शबद, सपशर, रप और रस इन चार गुणो से युकत है और पृथवी शबद, सपशर, रप, रस
और गनध इन पाच गुणो से युकत है। पकृत मे संिवत और जडता का िवरोध होने से जडरप तुमहारे दारा यिद संिवत
चयुत हो जायेगी तो साधक के भाव से जड अंश िसद ही नही होगा, ऐसी िसथित मे तुमहारी ही अिसिद का पसंगरप
दुःख पापत हो जायेगा। यिद संिवत के दारा तुम चयुत हो जाओगे तो तुमने अपने ही िवनाश के िलए आतमसमबनध की
इचछा की, यह पापत होगा। इसिलए आतमा के साथ समबनध चाहने वाले तुम दोनो पकार से भी संिवत से चयुत न हो, वह
तातपयर है।।73।। अथवा आतमजान से तुमहारे जैसे दुःखपद दृशयो का उचछेद हो जाने पर दुःखशूनय िनरितशय
आननदातममात का पिरशेष रह जाता है। यिद इतने से तुम सनतुष रह सकते हो, तो एकाग धयान से दीघरकाल तक
िविचछन समािध से युकत होकर आतमदशी हो जाओ।।74।।
तुमको समािध मे ही सुख है, न िक संकलपोनमुखता को तुम दुःखपद संिवत की चयुित समझो।।75।।
यिद शंका हो िक मै संकलप नही करता, िकनतु कतृरतवसवभाव से आतमा ही संकलप करता है, तो यह शंका
युकत नही है, ऐसा कहते है।
हे िचत, कलपनारपी पंक से विजरत तथा संकलपािद मनन के धवंसरप आतमा मे कतृरता कैसी, कया कही
आकाश मे पुषप िकसी तरह उतपन हो सकता है ?।।76।। जैसे आकाश मे हाथ, पैर आिद अंग हो ही नही सकते,
वैसे ही आतमा मे कतृरतव हो ही नही सकता। हे िचत, तुमहारे ही दारा किलपत अनेकरपता और एकरपता से यह आतमा
अपने मे केवल सफुिरत ही होता है, कलपना नही करता।।77।। जैसे समुद अपने अनदर जलसवरप फेन, बुदबुद
और तरंगो से सफुिरत होता है, वैसे ही आभासमात सवरप सवातमक इस िचदातमा मे जगत सफुिरत होता है।78।।
जैसे समुद मे तपत अंगार नही रह सकता, वैसे ही आतमा मे दूसरी कोई कलपना ही नही रह सकती, इस पकार जब
आतमदेव मे कलपना का अभाव है तथा मन एवं देह जड है, तब िववेक दृिष से यह अनय है, यह अनय नही है, यह शुभ
है, यह अशुभ है 'इतयािद असत् कलपनाएँ कलपक के भाव से ही नही रह सकती। ऐसी िसथित मे हे सुनदर िचत, संवेद
से िनमुरकत संिवत ही सारभूत वसतु है, दूसरी नही।।79,80।। हे िचत, जैसे आकाश मे अरणय नही है, वैसे ही पूवोकत
सत् कलपनाएँ आतमा मे है ही नही, संवेद से विजरत केवल संिवत ही इस जगत के रप मे िवसतृत हुई है, इसिलए उसमे
यह मै हूँ, यह अनय है', इस पकार की असत् कलपनाओं का अवसर ही कैसे हो सकता है ?।।81।। हे िचत, अनािद
रपविजरत, सवरगामी और वयापक आतमा मे कलपनाओं का कौन आरोप कर सकता है ? कया आकाश मे ऋगवेद आिद
लेखयमात को कोई िलपी बद कर सकता है ?।।82।।
हे िचत, अपने िनमरल सवभाव से तुमने जब असंिदगध और पतयक रप से यह जान िलया िक वसतुरप से
पिसद तथा पद और अथों मे सारभूत केवल संिवतसवभाव आतमा ही समसत िदशाओं को पूणर कर िसथत है, तब मेरे
सुख-दुःखो के लेश उस पकार कीण हो गये, िजस पकार मृगतृषणा मे पतीत जल, रजजु मे पतीत सपर और शुिकतसीपी मे
पतीत रजत सतयजान से कीण हो जाते है, कयोिक िनशय ही पूवोकत सुख-दुःख पतयय भािनतरप है, यथाथर नही है।।
83।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

बयासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआ
आआआआ आआ आआ
आआआआ आआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
शीविसषजी ने कहाः हे शीरामजी, मुिनयो मे शेष धीर उस वीतहवय मुिन ने िवशुद धारणा से समिनवत बुिद से
एकानत मे िसथत होकर पुनः अपनी इिनदयो को सुनदर रीित से यह बोधन िकया।।1।। हे शीरामजी इिनदयो के िलए
उकत मुिन वीतहवय ने एकानत मे िसथत होकर जो बोध-पदान िकया था, उसको मै आप से सपष कहता हूँ, उसे शवण
कीिजये। शवण करने से आप उस भावना को पापत होकर मुकत हो जाइये।।2।। हे इिनदयवृनद, आप लोगो की यह
जो िवचार दृिष से पिसद आतमसता है यानी अपना अिसततव है, वह जीवनकाल मे अनथररप दुःख का हेतु है और
उसके बाद िफर-िफर मृतयु, नरक आिद को देने वाला है, इसिलए पूवर मे पदिशरत सिदचार से आप लोग अपनी उकत
िमथयाभूत सता का पिरतयाग कर दीिजये।।3।। मेरे पूवर मे िकये गये आतमतततव के उपदेश से आप लोगो की यह
िमथयाभूत सता िवनाश को पापत ही हो गई, ऐसा मै मानता हँू, कयोिक आप अजान से उतपन हुए है, अतः उपदेश से
अजान का िवनाश हो जाने पर सता को पापत नही कर सकेगे।।4।।
अब िचत के पित भी वैसा उपदेश देते है।
हे तुचछ िचत, तुमहारी अपनी सता केवल तुमहािर दुःख के िलए ही सपषरपता को उस पकार पापत होती है,
िजस पकार जलते समय तपत काचन की नाई पजजविलत होकर शबद करने वाली अिगन मे की गई कीडा बालक और
पिकयो के पाशरभाग के दाह के िलए होती है।।5।।
िचत और इिनदय समुदाय की सता से हुई अनथर-परमपरा को िदखलाते है।
हे िचत, तुम देखो िक तुमहारा अिसततव होने पर भमणशील मूखों के राग, देषािद तरंगो से वयापत संसाररपी
निदयो का समूह कालरपी िवशाल समुद मे पिवष हो रहा है।।6।। देिखये, परसपर एक दूसरो के अहंकारो से होने
वे एक दूसरो के वध, पराजय, उतपीडन आिद की िचनताओं से युकत दुःख की पंिकतया कही से उस पकार िगर रही है,
िजस पकार महावृिष की धाराएँ िगर रही हो।।7।। असीम, हृदय का उनमूलन करने मे उदत, भीषण कनदन कराने
वाली तथा कूर संपित-िवपितरपी महामारी चारो ओर से पसफुिरत हो रही है।।8।। इस शरीररपी जजरर वृक के
ऊपर िनमरल तथा पकाशमान जरा-मरणरपी मंजरी िवकिसत हो रही है, िजसमे कास-शास (खासी) रपी गूँज रहे भमर
िवदमान है।।9।। मनोरथो के तरंगरपी सपों से वेिषित, िनहाररपी यानी िनिबड जडतारपी इिनदयो के िछदरपी
दारो से युकत शरीर के कोटर मे (हृदय मे) जालिनमाण मे वयग, चपल िचंतारपी मकडी अपने भीतर घूम रही है।।
10।। लोभरपी अपने िवलासो से शबद कर रहा िचतरपी पकी सुख-दुःख रप तीकण चोच से शम, दम, धमािद फलो
के पुषपरपी गुण समूहो को कतर रहा है।।11।। अपिवत, दुष आचरण करने वाला कामरपी ककरश मुगा राग आिद
वासनाओं से वयापत मनरपी कूडे के ढेर को इधर-उधर िवसतृत कर देता है यानी बार-बार अपने पैरो से फैला देता
है।।12।। मोहरपी महाराित मे भयावह अजानरपी उललू हृदयरपी वृक के ऊपर शमशान मे वेताल की नाई चारो
ओर से गरज रहा है।।13।। हे इिनदयगण, आप लोगो के िवदमान रहते ये और इनसे दूसरी भी बहुत सी अशुभ-
िशयाराित मे िपशािचिनयो की नाई गरजती रहती है।।14।।
अब िचत और इिनदयगणो के न रहने पर समसत गुणो की समपित िदखलाते है।
हे साधो िचत, तुमहारे िवदमान न रहते समपूणर शुभिशया (आगे कही जाने वाली गुररपी िशया) िववेकरपी पकाश से
युकत उस पकार पूणररप से िवकिसत होती है, िजस पकार पातःकाल मे कमिलिनया।।15।। मोहरपी तुषार से
विजरत, िनमरल िववेक पकाश से समिनवत तथा मनरपी रजोगुण से शूनय अब हृदयाकाशरप बह शोिभत हो रहा है।।
16।। िकसी पकार की आशंका िबना आकाशमणडल मे पितत और वायु आिद से आकुिलत वृिष धाराओं की नाई
िवकेपो के हेतु िवकलप-समूह अब नही िगरते है।।17।। सबको आननद देने वाली, शानत, परम पिवत (सब भूतो मे)
मैती हृदय मे ऐसे उतपन होती है, जैसे तरवर मे मनोहर मंजरी उतपन होती है।।18।। भीतर से िछदवाली यानी
अपूणरता से युकत तथा जडता से भरे मूखों मे िवदा, कौशल आिद गुणो का समबनध कराने वाली िचनता उस पकार सूख
रही है, िजस पकार िहमदगध कमिलनी।।19।। अजान का िवनाश होने पर हृदय मे अपने जान का पकाश उस पकार
पकटरपता को पापत हो रहा है, िजस पकार शरतकाल मे मेघो के शानत हो जाने पर आकाश मे सूयरमणडल पकटरपता
को पापत होता है।।20।। वायु के शानत होने पर समुद जैसे समता को पापत करता है, ऐसे ही पसन, िवशाल गामभीयर
से युकत, कोभशूनय तथा िवषमता के समपादक हेतुओं से परािजत न हुआ मन समता को पापत करता है।।21।।
आतमारामरपी अमृत-पवाह से पूणर तथा अिवनाशी आननद से पचुर पुरष शीतलता से युकत होकर भीतर उस पकार
िसथत रहता है, िजस पकार शीतल चनदमा।।22।। अजान का िवनाश हो जाने पर आतमाकार वृितया भीतर केवल
संिवदंशमात मे िवशानत हो जाता है।।23।। केवल संिवनमात मे िवशािनत हो जाने पर आतमसवरप का, जो िनरितशय
आननद से वयापत है, पूणररप से अनुभव होता है, परनतु यह अनुभव आशारपी फासी को उतपन करने वाले पाण-समबद
देह आिद िवदमानता-दशा मे नही होता, अथवा संिवदेक-िवशािनत हो जाने पर शरीर बहाननद के आिवभाव से मनथर
(भारी) होकर मानो अमृत के पाशन से भिरताकार (पूणररप) अनुभूत होता है, परनतु यह अनुभव अन, पान आिद
आशारपी पाशो का िनमाण करने वाले आसिकत-पयोजक पाण आिद पापो की िवदमानता-दशा मे नही होता।।24।।
दावािगन से िजन वृको के पते और रस दगध हो गये है, उन वृको मे वषा होने पर पुनः पललव और रसो का िजस पकार
आिवभाव हो जाता है, वैसे ही जानरपी अिगन से िजनका संसार, जरा और जनमो से उपलिकत महामागर नष हो गया है,
उन तततवजो मे भी आरोगय, तुिष, पुिष, कािनत आिद गुणो का पुनः आिवभाव हो जाता है।।25।।
िनरितशय आननदरपी आतमा मे पुनरावृितशूनय िवशािनत ही समसत गुणो की अविध है, उसके पसंग से तततवज महापुरष
मे दूसरे भी अननत गुण आ जाते है पर उनका वणरन नही िकया जा सकता, इस आशय से उपसंहार करते है।
तततवज पुरष िफर जनम न हो, इसिलए आतमारपी वृक के ऊपर िचरकाल तक िवशािनत करता है। (हे िचत,
तुमहारा िवनाश हो जाने पर) इस तरह की एवं अनय तरह की अनेक शुभ गुणो की समपितया पापत हो जाती है।।
26।। हे सवरभकक िचत, समसत आशारपी कयरोग को आशय देने वाले तुमहारे अिसततव के िमट जाने पर (सवरिवध
गुण पापत हो जाते है, यह बात िनिशत हईु ) हे िचत, अब तुमसे कहता हँू िक इन दो पको मे से यानी आतयिनतक
आतमभाव से िसथित और आतयिनतक िनरातमतव का सवीकार इन दोनो पको मे से तुम िजस िकसी पक से अपना कलयाण
देखो उसी का कण भर मे आशय ले लो।।27।। मै तो यह मानता हूँ िक हे मािनयो मे शेष िचत, आतयिनतक
आतमभाव से िसथत ही तुमहारे िलए सुख पद है। अतः हे िचत, तुम उसी अभाव की (भावानतर शूनय आतम िसथित की)
भावना करो, कयोिक सुख का तयाग करना महामूखरता है।।28।।
यिद शंका हो िक चेतन का अपने अनदर अनतभाव करने वाले पूवरिसद मनोरप से मेरा जीवन तुम कयो नही
चाहते और मेरा आतयािनतक अभाव कयो चाहते हो, तो इस पर कहते है।
हे िचत, तुमहारा अनतभािवत चेतनसवरप जो पिसदरप है, वह यिद सतय होता, तो उस रप से जी रहे तुमहारा
अभाव कौन चाहता। हे सुनदर, परनतु तुम उस रप से नही हो, यानी असत् हो, यह मै शुित, शासत आिद के अनुभव से
िवचार कर तुमसे कहता हँू, ऊपर ऊपर से नही कहता हँू, (इस आतयािनतक आतमभाव से अवसथान तुमहारे िहतकारक
भी है, ऐसा कहते है) हे िचत, इससे 'मै जीता हूँ' इस पकार की िमथया आशा से तुम फूलो मत। जब तुम पहले से ही
किलपत हो, तुमहारी सता है ही नही, तब जो तुमहारा अिसततव है, वह भममूलक ही िसद होता है। हे िचत, अब वही
भािनत िवचार से आतयिनतक िवनाश को पापत हो गई।।29-31।। हे साधो, तुमहारा सवरप इतना ही है िक
आतमसवरप का िवचार न करना। आतमा और अनातमा का भली पकार िवचार करने पर तुमहारे सवरप की सनमातरप
तथा िवकेपातमक िवषमता से शूनय िसथित हो जाती है।।32।। िवचार न करने पर तुम उस पकार उतपन होते हो,
िजस पकार पकाश के न रहने पर अनधकार। हे िचत, िवचार से तुमहारा सवरप उस पकार शानत हो जाता है, िजस
पकार पकाश के न रहने पर अनधकार। हे िचत, िवचार से तुमहारा सवरप उस पकार शानत हो जाता है, िजस पकार
पकाश से अनधकार का सवरप।।33।। हे सखे, इतने समय तक तुमहारे सवरप के िवषय मे बहुत कम िववेक रहा,
इसिलए तुमहारे सवरप का अलप िववेक होने के कारण ही दुःख की हेतु तुमहारी मोटाई उस पकार उतपन हुई, िजस
पकार मोहजिनत संकलपमात से बालक के शरीर मे वेताल उतपन होता है, तुमहारे मोटपन से सुख-दुःख आिद दनद, जो
बहाजी के दारा िकये गये पदाथों की उतपित और िवनाश के संकलप से संकलप समय मे ही नशय िसद हो जाने के
कारण िवनाशी है। िजस िववेक के पसाद से जानोदय कण मे अिवदाजिनत पाकतन अपने सवरप का िवनाश होने पर
िनतय यानी आिद और अनत से शूनय आतमा के सवरप का आिवभाव हुआ उस िववेक को बार-बार नमसकार है।।34-
36।। हे तुचछ िचत, बहुत करके तुम सवयं भी अब पबुद हो चुके हो और शासत से ही बोिधत हो गये हो। िचतता के
िवनष होने पर तुम परमेशर सवरप हो। पूवर मे भी परमेशर सवरप ही थे, वतरमान काल मे भी कलयाण के िलए बोध से
तुमहे अपना वासतिवक सवरपिवलास (परमेशरसवरपतव) पापत हुआ है, इसिलए समसत वासनाओं से मुकत तुम साकात्
महेशर ही हो, दूसरे नही हो।।37,38।। िजसकी अिववेक से उतपित होती है, उसका िववेक से िवनाश हो जाता है।
पकाश से अनधकार िवनाश को पापत होता है और पकाश का अभाव होने पर अनधकार हो जाता है।।39।। हे साधो,
तुमहारे पिरिचछन रहने पर भी िवचार के दृढ होने पर सुख की िसिद के िलए तुमहारा चारो ओर से यह िवनाश पापत
हुआ।।40।। इसिलए िसदानतभूत युिकतयो से यह िनणीत हुआ िक तुम असत् ही हो। हे इिनदयो के सवामी िचत, तुम
संसार से पार हो जाओ, तुमहारा कलयाण हो।।41।।
िचतेिनदय के सथान मे यिद 'िवततवेिनदय' यह पाठ हो तो िसदानतभूत युिकतयो से अपने असली सवरप को
पापत कर संसार से पार हो जाओ, यह अथर करना चािहए। मन की तीनो कालो मे सता नही है, यह कहते है।
पहले जो कभी भी नही था, वतरमान मे भी जो असत् है, उतरकाल मे भी िजसकी होने की समभावना नही है,
ऐसे हे सवकीय मन, तुमहारा कलयाण हो।।42।।
िचत की असता से ही पुरषाथर िसिद बतलाते है।
सौभागयवश मे समसत िचनता-जवरो से िनमुरकत हुआ हूँ, शानत हुआ हूँ, और चारो ओर से तृपत हो गया हूँ,
तुरीयपद मे िसथत मै अपनी आतमा मे िसथत हो गया हूँ।।43।। इसिलए इस संसार मे िजसकी िसथित हो ही नही
सकती, वह िचत है ही नही, है ही नही। आतमा तो अवशय ही है, अवशय है ही, आतमा को छोडकर और कुछ भी उससे
िभन नही है।।44।।
यह आतमा है, मै ततसवरप ही हूँ, मुझसे पृथक दूसरा कुछ भी कही नही है। पकाशमान िचतसवरप बोधातमा मै
ही सदा सवरत रहता हूँ।।45।।
शुदिचदेकरस आतमा मे 'यह आतमा है' इस पकार की जब कलपना ही नही हो सकती, तब दूसरी कलपनाओं के
िवषय मे तो कहना ही कया ? इस आशय से कहते है।
सवरिवध मलो से विजरत आतमा के अनदर 'यह आतमा है' इस पकार की कलपना ही नही हो सकती, यह मै
मानता हूँ, कयोिक यह एक अिदतीय आतमा मे पितयोगी के भेद से होने वाली यानी अनय वसतु की सता से होने वाली
कलपना कैसे हो सकती है।।46।।
इसिलए परमातमा वाणी का भी अिवषय है, ऐसा कहते है।
उसी कारण से यानी अिदतीय वसतु मे कोई कलपना नही हो सकती, इस कारण से 'मै यह आतमा हूँ' इस
पकार कलपना के अिभवयंजक शबदो का उचचारण न करता हुआ मै मौनी होकर उस पकार जडाश की हेतु अिवदा का
भी बाध हो जाने के कारण वासना से विजरत, िचदाभास के भी पृथक न रहने से चेतनाशता के आशय से विजरत उसके
अधीन िकयाशिकत का भी उपराम होने के कारण पाण संचरण से शूनय, भेदक का अभाव होने के कारण भेदाश से
शूनय, एकरस, िचनमात सवरप, जगत के बाध के आशयरप से पिरिशष संिवदंश को पापत कर मन की चेषा और वाणी
के वयापार से शूनय होकर िवशािनत लेता हँू।।48।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

ितरासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआआआआआआ आआ आआआआआ आआ, आआआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआ आआ आआआ
आआआआ आआआआ आआआ आआआआआआआआआआआ, आआआआआआआआआ, आआआआआ आआआ आआ
आआआआआ आआ आआआआआ।
विसषजी ने कहाः भद उस पकार िनणरय कर वह मुिन वीतहवय समसत वासनाओं को छोडकर िवनधयािद के
गहर कोटर मे समािध लगाकर उसमे अटल रहे।।1।। उस समय महामुिन वीतहवय िकसी पकार के कोभ से शूनय
पिरपूणर संिवत् पकाशरप आननदयुकत होने के कारण अतयनत सुनदर मालूम पडते थे, उनका मन अतयनत िवलीन हो
गया था, अतएव ऐसे भले लगते थे, जैसे पशानत समुद भला लगता है।।2।। इस महामुिन का कमशः पाणसंचार
भीतर हृदय मे ही उस पकार शानत हो गया, िजस पकार इनधन के जल जाने पर अिगन मे जवालाओं के समूह का
संचरण शानत हो जाता है।।3।।
महामुिन वीतहवय के, अधरउनमीिलत नेतो का वणरन करते है।
महामुिन वीतहवय के चंचलताशूनय दो नेत अतयनत अनतिनरष िनमीलत नही थे अथात आधे मूँदे हुए थे।
(इससे उनके नेत बाह िवषयो मे लगे होगे, यह भी नही) बाह िवषयो मे भी लगे नही थे, शेष यानी उनमीिलत अंश से
अितिरकत अंशो से उनके नेतो ने भीतर िसथित पापत की थी यानी अनतमुरख-िसथित पापत की थी।।4।। महामुिन
वीतहवय के दोनो नेत ऐसे लिकत होते थे मानो उनका सवलप से भी सवलप पकाश नािसका के अगभाग मे दोनो ओर
बराबर फैला हुआ है। इससे वे आधे िवकिसत पदो के सदृश शोभा को पापत कर रहे थे।।5।। महाबुिद वीतहवय ने
अपने आसनबनध मे शरीर, िशर और गीवा को समानरप से रखा था, इसिलए वे ऐसे मालूम पडते थे, जैसे पवरत से
खोदी गई अथवा िचत मे िलखी गई मूितर हो।।6।। शीरामजी, िवनधयािद के िकसी झरने के समीपसथ पदेश के कोटर
मे उस पकार की समािध का अनुषान कर रहे उकत महामुिन के तीन सौ संवतसर आधे मुहूतर की नाई वयतीत हो
गये।।7।। आतमवान धयानिनमगन उस मुिन ने जीवनमुकतता के कारण इतने काल को कुछ भी नही समझा और अपने
उस शरीर का तयाग भी नही िकया।।8।। योग के रहसय को जानने वाले परमभागयशाली वह मुिन महान् मेघो के
चारो ओर फैलने वाले शबदो से भी, बरस रही वृिष की धाराओं के समपात से जिनत घरघर शबदो से भी, िशकार खेलने
के समय आये हुए समीपसथ पदेशो मे रहने वाले सामनतो के मतवाले हािथयो के गजरनो से भी, पकी और वानरो की
िकलिकलाहटो से भी, जंगल के हािथयो मातंगो के (परसपर संघटन से जिनत) अवयकत शबदो से भी, िसंहो के
कोधपूवरक गजरनो से भी, झरनो की िदगवयापी घघरराहट धविन से भी, भूकमप के दारा िछन-िभन हुए पवरत-तटो के
आसफालनो से भी, वन दाहो के समय अिगन के संयोग और उससे उतपन शबदो से भी, जल-पवाहो से आहत पशु आिद
के आसफालनो एवं गजरनो से भी, बडे-बडे पवरत तटो के आघातो से भी, जलपवाहो के आनदोलनो से पापत धरणीतल से
िफसले हुए िमटी से िमले जल के शैतय से भी तथा अिगन की नाई ककरश गीषम आिद के तापो से भी, उतने समय तक
समािध से जागे नही।।9-13।। शीरामजी, पयोजन के िबना केवल अपनी इचछा के अनुसार समय के बीतने पर और
जल मे तरंगो की नाई एक-के पीछे एक यो अनेक बार वषाओं के बरसने पर थोडे ही समय मे उकत पवरत की कनदरा मे
वषा के ओघ से भी पापत हुए कीचड ने इस महामुिन को पृथवी के भीतर यानी भूगभर मे कर िदया अथात पवेिशत कर
िदया। तातपयर यह हुआ िक वषा से बहाया गया कीचड इनके शरीर के चारो ओर ऐसा घना जम गया था, िजससे िक वे
बाहर से नही िदखाई पडते थे, पृथवी के भीतर पिवष हो गये थे।।14,15।। िजसके भीतर अनेक संकट भरे पडे थे,
ऐसे उकत कोटर की भूिम मे यह मुिन कीचड से संिशलष कनधे से युकत होकर उस पकार रहते थे, िजस पकार पवरत
के अनदर िशला।।16।। तदननतर तीन सौ वषों के बीत जाने पर पृथवी के कोटर मे संिशलष वे सवंय ही
िनगहानुगहसमथर तथा आतमसवरपता को पापत हुए महामुिन समािध से जाग गये।।17।।
उस पकार संकटो के बीच मे रहने वाले उकत मुिन का जीवन कैसे रहा ? इस पर कहते है।
इस महामुिन वीतहवय की पृथवी से दबी हुई देह को जीवनादृष से पापत िलंग शरीर मे पितिबिमबत संिवत् ने ही
गहण कर पालन िकया, पाण-वृितरप सपंदन ने पालन नही िकया, कयोिक वह सूकम था, इसिलए पाण-संसरण नही हो
सकता था।।18।।
तीन सौ वषों के बाद उनका जो वयवहार रहा, उसे कहते है।
तीन सौ वषों की समािध के अननतर उसकी जीवरपा संिवत ने अविशष पारबध के भोग के िलए हृदय के
भीतर उनमेष-कम से सथूलता को पापत कर अपने मन की सवरपभूत होकर आगे कहे जाने वाले समसत िवषयो का
कलपना के दारा हृदय मे ही अनुभव िकया।।19।।
उनहोने िजसका अनुभव िकया, उसे ही कहते है।
कमनीय कैलास पवरत के कानन मे एक कदमबवृक के नीचे सौ वषों तक उनहोने अपने हृदय मे मुिनतव का
अनुभव िकया जो जीवनमुकत आतमा के कारण िवमल था।।20।। सौ वषों तक उनहोने मानसी वयािध से विजरत
िवदाधरतव का अनुभव िकया और पाच युगो तक देवताओं एवं चारणो से विनदत देवराजतव का अनुभव िकया।।21।।
शीरामजी ने कहाः हे मुने , उन इनदतव आिद के अनुभवो मे देश और काल का िनयम और अिनयम कैसे हुआ, कयोिक
देश और काल की िनयित को अनयथा नही कर सकते। तातपयर यह है िकः "कैलासकानने" इतयािद से देश का िनयम
'युगपंचकम्' इतयािद से काल का िनयम तथा थोडे ही समय मे और हृदय पदेश मे ही उकत अनुभव होने से देशकाल
का अिनयम यह कैसे हो सकता है, कयोिक देश और काल के िनयम का उललंघन कोई नही कर सकता, इस पकार का
पशाथर है।।22।।
असवातमकतवरप से जात िचित मे सवलप-देश और काल मे अनय िवसतृत देश और काल की कलपना करने मे
िनयित का िवरोध होता ही है, पर सवातमकता और सवरशिकतसमपनतारप से पिरजात िचित मे उकत िवरोध नही होता,
इस आशय से कहते है।
महाराज विसषजी ने कहाः भद शीरामजी, यह सवातमक िचितशिकत जहा पर िजस पकार से उिदत होती है,
वहा पर उसी पकार की शीघ हो जाती है, कयोिक सवातमकतव का अनुभव करने वाले अनुभिवता की िचित का उकत
पकार से बन जाना एक सवभाव ही है।।23।।
अपनी बुिद से अनुभूयमान देशकाल मे ही संकोच और वैपुलय के िनयम और अिनयम परसपर िवरद होते है,
पर अनअनुभूयमान के साथ अनुभूयमान के वे िवरद नही होते, कयोिक अतयनत अलप नाडी िछदो मे सवलप समय मे ही
िवसतृत देश-काल वाले सवप का अनुभव होता, इस आशय से कहते है।
जहा पर िजस समय बुिद मे िजस पकार का अनुभव होता है, वहा पर उस समय वैसा िनयम रहता है, कयोिक
देश, काल आिद के िनयमो के कम बुिदमय आतमा मे अधयसत है।।24।। उनही दो हेतुओं से समसत वासनाओं से
विजरत इस महामुिन वीतहवय ने हृदयसथ संिवदाकाश (देवराजतव आिद अनुभव की हेतु वासना) वासना ही नही है,
कयोिक जानरप अिगन से अपनी शिकत खो देने के कारण दगध और िदखाई पडने के कारण दगध हुए बीज की बीजता
ही कया होगी ?।।26।। महामुिन वीतहवय ने एक कलप तक चनदमौिल महादेवजी के गणता यानी िशवजी के गणो की
सवािमता की, जो शेष िवदाओं मे िनपुण और तीनो कालो मे जानपूणर थी।।27।।
जीवनमुकत भी उस मुिन के भोगपद पारबध कमों से उदबोिधत दृढ संसकार ही िवलकण देहभोग आिद के
अनुभव मे कारण था, यह कहते है।
जो िजस िवषय के दृढ संसकार से युकत होता है, वह उस िवषय को एक उसी पकार का देखता है, कयोिक
उस पकार के दृढ संसकार से ही जीवनमुकत होकर मुिन वीतहवय ने उन-उन वसतुओं का अनुभव िकया था।।28।।
शीरामजी ने कहाः हे मुिनवर, ऐसी िसथित होने पर तो जीवनमुकत पुरष के अनतःकरण मे भी बनध और मोक
की दृिषया होती है, यह मानना पडेगा, जैसे िक मुिन वीतहवय के अनतःकरण मे हुई।।29।।
दगधपट के दृषानत से असत् पदाथर का पारबध शेष से पितभास बािधत की अनुवृितमातसवरप है, बनध-सवरप
नही है, इस आशय से कहते है।
महाराज विसषजी ने कहाः शीरामजी, जीवनमुकतो की दृिष मे िजस पकार का यह जगत् िवदमान है, वह
पशानत, आकाश की नाई अतयनत िनमरल बहसवरप ही है, िफर उनको बनध और मोक की दृिषया कैसे हो सकती
है।।30।। िजस िजस सथल मे िजस िजस पकार से संिवदरपी आकाश भासता है उस उस सथल मे उस-उस
पकार से उतने उतने रपो मे वयापत होकर वह पापत-सा हो जाता है।।31।।
जैसे ईशर को हमारे जगत का पितभास बनधन का हेतु नही होता है, वैसे ही मुिन वीतहवय को भी तत्-तत्
सवरप का अनुभव बनधन का हेतु नही हुआ, इस आशय से कहते है।
हे राघव, महामुिन वीतहवय ने सब भूतो मे आतमभाव होने के कारण अनेक लोको का बहरप से अनुभव िकया
और वतरमान समय मे भी कर रहे है।।32।
महामुिन वीतहवय का हृदय (हृदय से उपलिकत आतमा) हम लोगो के समसत आतमाओं के सवरपभूत था,
इसिलए समपूणर पािणयो को होने वाले जगत के अनुभव भी उनही के अनुभव है, ऐसा भी कहने मे िकसी पकार की बाधा
नही है, इस आशय से कहते है।
हे राघव, बहाणड के एक कोने मे अविसथत महामुिन वीतहवय की आतमरपता को पापत हुए वासतिवक
सवरपसता से विजरत और भािनतवश अतयनत िवशाल मालूम पडने वाले उन असंखय भुवनो मे, जाकर आतमा के
तततवजान से वंिचत अजानी इनद हुआ था, वही आज 'दीन' नाम के देशो मे राजा होकर इस समय भी जंगल मे िशकार
खेलने मे पवृत हुआ है।।33,34।। िपतामह के पादकलप के समय, जबिक मुिन वीतहवय िशवजी के गणो के
अिधपित थे, उनकी कीडा के िलए आतमबोध से शूनय हो हंस था, वही इस समय िनषादो का राजा होकर िसथत है।।
35।। इसी पकार उस समय पृथवी के सौराषट पदेश मे जो आतमजान से रिहत राजा था, वही आज आनधपदेश के एक
गाव मे अविसथत है, जहा अनेकिवध वृक है।।36।।
गुर महाराज विसषजी की उिकत का अिभपाय सवातमता के पितपादन मे है, इसको न समझ रहे मनुषयो को,
उनकी शंका के उदघाटन दारा गुरमुख से ही बोध कराने वाले शीरामजी पूछते है।
शीरामजी ने कहाः गुरवर, मुिन वीतहवय की यह सृिष तो मानससृिष है, उस सृिष मे िवदमान देही यिद
भािनत सवरप है, तो वे इनद, हंस आिद देहो के आकार वाले चेतन युकत कैसे हुए ?।।37।।
महाराज विसषजी ने कहाः हे शीरामजी, महामुिन वीतहवय का वह जगत यिद केवल भािनतसवरप ही आपको
मालूम पडता है, तो िफर आपका यह पिसद जगत िकस हेतु से यथाथररप से भािसत हो सकता है ? तातपयर यह हुआ
िक समपूणर जगत मन ही का कायर और केवल भािनतसवरप ही है, यह तत्-तत् सथल मे अनेक बार कहा गया है,
इसिलए यह आपका पिसद जगत वीतहवय की मानसी सृिष के सदृश भािनतमात सवरप ही ठहरा, ऐसी िसथित मे आप
ही बतलाइये िक आपका भी यह जगत चेतनो से भरा कैसे पतीत हो रहा है ?।।38।।
दोनो सृिषयो की समानता बतलाते है।
हे शीरामजी, आपका यह जगत भी मनोमय भमतुलय एवं परमाथर दशा मे िजस पकार से िचनमातसवरप है, उसी
पकार से महामुिन वीतहवय का भी वह जगत मनोमय, भमतुलय एवं परमाथर-दशा मे वयोमरपी िचनमातसवरप है।।
39।। हे शीरामजी, वासतव मे तो वह (मुिन वीतहवय का) जगत न तो आपके इस जगत के सदृश है और न इस जगत
से िवलकण ही है, कयोिक वसतु की समानता और असमानता वसतु की िसिद के िबना नही हो सकती, आपके भी जगत
की सता नही है, केवल बह ही जगत के रप मे भासता है।।40।। जैसे यह भूत, भिवषयत और वतरमान जगत है,
वैसे ही दूसरा भी जगत है। समसत दृशयभूत जगत् संिवनमातरप से अविशष जो मन है, ततसवरप ही है अितिरकत
नही है।।41।। हे शीरामजी, जब तक इस पकार के जगत को संिवनमात सवरप नही जान लेते, तब तक वह
वजसार की नाई अतयनत दृढ रहता है। और जात हो जाने पर ितकालबािधत परम िचदाकाश-सवरप हो जाता है।।
42।। अजान से यह मन ही उतपित और वृिद आिद पिरणामो से जगत के रप मे ऐसा िवकिसत होता है, जैसे समुद मे
जल।।43।।
हे शीरामजी, अिवकृत िचदाकाश सवभाव से अविसथत बह माया से 'मै िकसी को मानो चेतन करने वाला हूँ'
यो अपनी कलपना कर िचतरप हो जाता है, तदननतर उसी का पुनः पुनः मनन करने से मन नामवाला हो जाता है।
उसी से यह िवशाल जगत पापत हुआ है, इसीिलए इस पकार यह दृशय जगत िवसतृत है। वासतव मे कुछ भी िवसतृत
नही है।।44।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

चौरासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआआआ आआ आआआआआ आआ आआआआआआआआआ आआ आआआ आआआआआआआआ
आआआआ आआआ आआ आआआआआआ, आआआआआआआआआआ आआआआआआ आआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआ।
शीरामजी ने कहाः भगवन्, अब कृपापूवरक मुझसे यह बतलाइये िक महामुिन वीतहवय ने उस भूगभर मे िसथत
अपनी देह का कैसे उदार िकया ? उसका पकार कया था ? उसके बाद उनकी िदनचया कया रही और देहमुिकत मे
अविशष उनका सवरप कैसे था?।।1।। विसषजी ने कहा) भद, तदननतर समािध मे उकत मुिन ने अपनी वीतहवय
नामक मन को आतमा का एक चमतकारमात और पिरिचछन बहसवरप समझ िलया।।2।। जब वह महादेव जी के
गण थे, तब िकसी समय िचदातमा का धयान करते समय उनकी यह इचछा हुई िक मै पहले अपने समसत जनमो का
अवलोकन करँ।।3।। तदनतर उनहोने कुछ नष हुई और कुछ नष न हईु अपनी समसत देहो को पतयक देखा।
देखने के बाद जो शरीर नष नही हुए थे उनके मधय मे तत्-तत् कोटर मे अविसथत यही तत्-तत् अनष देहो के हृदय
कोटर मे जीवट के उपाखयान मे कही जाने वाली रीित के अनुसार अपनी कलपना से ही अविसथत वीतहवय शरीर का
उदार करने के िलए अकसमात ही उनकी इचछा हुई।।4।। वहा पर पृथवी के उदर-कोटर मे पीिडत उस वीतहवय
नामक शरीर को कीचड मे िसथत कीडे की नाई देखा। वह वषा के पवाह से कुछ दूर बहाया गया था, उसके पृषभाग
पर कीचड का सतर जम गया था और उनके तवचा, हाथ आिद अवयव तथा पीतसथ िमटी ये सब काश आिद घासो के
समूहो से वयापत हो गये थे। 'पीठसथ' शबद से यह सूिचत होता है िक वे जलपवाहो से उलटे मुँह िगराये गये थे।।
5,6।।
महान् तेजसवी वीतहवय ने इस पकार धरा के िववर मे पीिडित अपनी देह को देखकर उतम बोध से युकत बुिद
से पुनरिप िवचार िकया।।7।। समपूणर अवयवो मे पीडा होने के कारण पाणवायु से यानी पाण-संचारो से िनमुरकत मेरी
देह चलने -िफरने मे तथा कुछ करने मे तिनक भी समथर नही है।।8।। इसिलए उदार के उपाय को जानकर मै
परकीय शरीर मे पवेश के िलए योग शासत मे उपिदष मागर से सूयर के शरीर मे पवेश करता हूँ। उसमे पवेश करने से
सूयर का सेवक िपंगल नाम का गण उनकी आजा से मेरे शरीर का उदार कर देगा।।9।।
उनकी दूसरी िचनता बतलाते है।
अथवा इस पपंच से मेरा कया पयोजन है ? मै इस शरीर से िनिवरघतापूवरक िवदेह मुिकत के दारा शानत हो जाता
हूँ। मै िनवाण को पापत कर लेता हूँ। अपने पद को जाता हूँ। देह लीला से मेरा कौन पयोजन है ?।।10।।
हे महामते उस पकार मन से िवकार कर महामुिन वीतहवय कणभर भूतल मे चुपचाप बैठकर िफर िवचार करने
लगे।।11।। मुझे देह का तयाग न तो उपादेय (अपेकणीय) है और न देह का आशय ही उपादेय है, कयोिक जैसे देह
का पिरतयाग है, वैसे ही देह का समाशय है, दोनो मे कुछ भी अनतर नही है।।12।। इसिलए जब तक शरीर है और
जब तक वह अणु परमाणु रप नही बन जाता, तब तक मै इसका आशय कर कुछ िवहार कर लूँ।।13।। सूयर सेवक
िपंगल नामक गण के दारा अपने शरीर का उदार करने के िलए आकाश मे िसथत सूयर के शरीर मे मै उस पकार पवेश
करता हूँ, िजस पकार दपरण मे पितिबमब।।14।। उस पकार िवचार कर वायुरपधआरी यानी सूकम सवरप मुिन
वीतहवय ने पूवर मे वयाखयात पुयरषक शरीर होकर सूयर मे उस पकार पवेश िकया, िजस पकार भसताकाश मे (चमडे की
धौकनी के अनतगरत आकाश मे) वायु पवेश करे।।15।। उदार बुिदवाले भगवान मननशील सूयर ने भी हृदय मे पिवष
उकत मुिननायक को देखा और उनके कायर को तथा पूवापर शरीरो को देखा। तदननतर िवनधयपवरत के भूगभर के
अनतगरत तृण और पतथर से चारो ओर ढके हुए तथा मृतपाय मुिन वीतहवय के शरीर को देखा।।16,17।।
उसके बाद सूयर ने कया िकया ? उसे कहते है।
आकाश के मधय मे संचरण करने वाले सूयर भगवान ने मुिन वीतहवय के अभीष को जानकर पृथवी से
मुिनशरीर का उदार करने के िलए अपने अगगामी िपंगलनाम के गण को आदेश िदया।।18।।
सूयर के हृदय मे पिवष हुई मुिन वीतहवय की संिवत ने कया िकया ? उसे कहते है।
मुिन वीतहवय की पुयरषकरपी वायुमय उकत संिवत ने पूजनीय भगवान भासकर को अनतःकरण से तुरत ं पणाम
िकया।।19।। सूयर के दारा अतयनत मानपूवरक आजा को पापत हुए उकत वीतहवय मुिन ने िवनधयािद की गुफा की ओर
जा रहे अगगामी िपंगलनामक गण के शरीर मे पवेश िकया।।20।। सूयर भगवा के गण िपंगल ने आकाश का पिरतयाग
कर लतागृह और कु ंजर से सुनदर तथा वषाकाल मे मत मेघो से युकत आकाश की नाई दैदीपयमान िवनधयाचल के
अरणय को पापत िकया।।21।। िजसने अपने नखो से भूतल को खोद िदया है, ऐसे िपंगल ने भूगभर से मुिन वीतहवय
के कलेवर को उस पकार उदधृत िकया, िजस पकार सारस पकी कीचड से मृणाल (कमलनाल) को उदधृत करता
है।।22।। तदननतर मुिन वीतहवय-समबनधी पुयरषक शरीर िपंगल के शरीर से िनकलकर अपने शरीर मे उस पकार
पिवष हुआ, िजस पकार आकाशतल मे चारो ओर पिरभमण करने वाले पकी अपने घोसले मे पवेश करता है।।23।।
पापत मूितर वीतहवय तथा आकाशगामी िपंगल दोनो ने परसपर पणाम िकया। तदननतर तेज के िनिध वे दोनो अपने कायों
मे ही ततपर हो गये।।24।। िपंगल आकाश की ओर चले गये और मुिन वीतहवय िनमरल सरोवर की ओर, जो
कुमुदरपी तारओं से युकत तथा बाल सूयर के राग से रंिजत जल से युकत था, सनानाथर चले गये।।25।।
िवकिसत कमलो से युकत उस सरोवर मे मुिन वीतहवय ने तुरतं उस पकार मजजन िकया, िजस पकार कीचड
से भरे तालाब मे कीडा के अननतर हाथी का बचचा वन मे मजजन करता हो।।26।। उसमे सनानकर तदननतर
जपकर और उसके बाद सूयर की पूजाकर मनन आिद वयवहारो से युकत शरीर से पुनः पूवरवत् सुशोिभत हो गये।।
27।। पूवोकत समान शीलो मे मैती, एकरप सवाितशायीशािनत, सुनदर पजा, मुिदत कृपा तथा उतम शी से युकत मुिन
वीतहवय ने, सकलसंगो से िनमुरकत िचतवाले होकर िवनधयाचल मे नदी के तट पर केवल एक ही िदन रमण िकया यानी
समािध से पचयुत होकर िसथत रहे।।28।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

पचासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआआआआआआ आआ आआ आआआआआआ आआ आआआआ आआआआआ, आआआआआआ आआ आआआआआआआआआआ
आआआआआआ, आआआ आआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआआ । आआआ आआआआआ आआ आआआआआआ
महाराज विसषजी ने कहाः भद, िदन की समािपत के बाद उकत मुिन ने पुनः भी मन की एकागतारप समािध
के िलए िकसी अितिवसतृत पूवरपिरिचत िवनधयािद की गुफा मे पवेश िकया।।1।। लोक मे कया सार है और कया असार
है, इसका भली पकार पिरजान रखने वाले महामुिन वीतहवय उसी आतमा के अनुसनधान का पिरतयाग न करते हुए
इिनदयो के साथ अनतःकरण से िवचारने लगे।।2।।
उनहोने कया िवचार िकया ? उसे कहते है।
मैने पहले से ही इिनदयो का भली पकार पिरतयाग कर िलया है , अब िफर उन के िवषय मे अिधक िचनता करने
से मेरा कुछ भी पयोजन िसद नही होने वाला है।।3।।
अिसत और नािसत यो दो पकार दृशय कलपनाओं का, कोमल लता की नाई, िवनाश कर उन दो कलपनाओं के
साकारप से अविशष चैतनयमात का अवलमबन कर शरीर, िशर और गीवा को समानरप से रखकर दृढासन होकर मै
उस पकार अचल बैठता हूँ, िजस पकार पवरत का िशखर।।4।। मै यदिप सदा उिदत सवभाव (पकाश सवभाव) हूँ,
तथािप अज दृिष से अनधकार को पापत हुआ-सा हूँ एवं यदिप सदा जीिवत-सवभाव हूँ, तथािप अजदृिष से मृत-सा हूँ।
तततवदृिष से तो उससे िवपरीत िनमरल सवभाव को पापत हुआ एकरस िचनमातसवरप होकर अविसथत हूँ।।5।। मै
यदिप पबुद यानी उतमजान से समपन जागत अवसथा से युकत हूँ, तथािप सुषुिपत मे ही िसथत रहता हूँ। कयोिक घट
आिद दैत पदाथों को अब मै नही देख रहा हूँ। इसी पकार यदिप मै सुषुिपत मे िसथत रहता हूँ। तथािप जागत अवसथा
से युकत ही हूँ, कयोिक मुझे अपने सवरप का सदा सपषरप से अनुभव हो रहा है। सथूल, सूकम और कारण से िनमुरकत
तुयर पद का अवलमबन कर अचल िसथितवाला होकर शरीर के भीतर रहता हँू।।6।। मन से परे यानी मन के
अिवषय चारो ओर अविसथत, पूणर सतासामानयरप परम सामयभूत परमातमा मे िवकारयुकत होकर सथाणु की तरह मै
िसथत हँू।।7।। इस पकार िवचार कर वह धयान मे छः िदन तक िफर बैठ गये। तदननतर उस पकार पबोध को
पापत हुए, िजस पकार कणभर मे सोया हुआ पिथक पबोध को पापत होता है।।8।। तदननतर उस समय वयुतथान दशा
मे भी समािहत िसथितवाले िसद, महान तपसवी, भगवान वीतहवय ने जीवनमुकत सवरप से िचरकाल तक यत-तत
िवचरण िकया।।9।। ये महामुिन वीतहवय न तो गुण दृिष से िकसी वसतु की सतुित करते थे और न दोषदृिष से
िकसी की िननदा भी कभी करते थे। वे न तो कभी उदेग को पापत होते थे और न कभी हषर को पापत होते थे।।0।।
चलते-िफरते उठते-बैठते िचत से शूनय हुए उस वीतहवय मुिन के हृदय मे अपने मन के (बािधत-अनुवृत मन के) साथ
िवनाश के िलए इस पकार की कथा यानी वकयमाण िवचारातमक कथा हुई।।11।। िवषयो के उपभोग से सामथयर के
वयय से रिहत, इिनदयो के सवामी हे मन, देखो की शम से समिनवत तुमने िकस पकार के समसत जगत को आननद देने
वाले वयापक सुख को अथवा िनरितशय आननदरपी सुनदर बहरप आकाश को पापत िकया है।।12।। हे चंचल
पदाथों मे सवरशेष मन, इसिलए तुमको आगे भी इस रागशूनय दशा का ही अवलमबन करना चािहए और अपनी चंचल
वृित का पिरतयाग कर देना चािहए।।13।। हे इिनदय नाम को धारण करने वाले चोर और हे नष आशावृनद, यह मेरे
दारा अनुभूयमान आतमा तुमहारा नही है और तुम लोग आतमा के नही हो।।14।। हे इिनदयगण, इस पकार आतमा के
साथ समबनध न होने के कारण अब तुम लोग अविशष अपने असततव सवरप को ही पापत हो जाओ। तुमहारी समग
अिभलाषाएँ िनषफल कर दी गई है। अब िवनष आशयवाले तुम लोग मेरे ऊपर आकमण करने समथर नही है।।15।।
तब पहले हम लोगो मे तुमहारे ऊपर आकमण करने की सामथयर कहा से थी ? तो आतमा के साथ तादातमय
आिद के अधयास से थी, ऐसा कहते है।
हे इिनदयगण, 'हम आतमा है' इस पकार की जो यह तुम लोगो को वासना हुई थी, वह आतमतततव की िवसमृित
से उस पकार उतपन हुई, िजस पकार रजजु तततव की िवसमृित से रजजु मे सपरवासना उतपन होती है।।16।। उकत
यह वासना अनातमा मे आतमतवरपता भािनत और वसतु मे अवसतुतवरपा भािनत थी। वह आतमा के अिवचार से उतपन
हुई थी और आतमा के िवचार से िवनाश को पापत हो गई।।17।।
इस पकार िववेकजान हो जाने पर िकसी को भी आपके दारा उतपन दोषो के साथ समबनध नही होता, ऐसा
कहते है।
हे इिनदयगण, करणसवरप आप लोग दूसरे है, अिभमान करने वाले हम लोग दूसरे है, अिदतीय बह दूसरा है,
पाण हेतुक िकया कारणता दूसरी है, िचदाभासरपी भोकता दूसरा है और गहण करने वाला मन दूसरा है, ऐसी िसथित मे
िकस का िकस पकार कौन-सा दोष हो सकता है ?।।18।।
यिद ऐसी बात है, तो वयवहाररपी कायर की िसिद िकस रीित से होगी ? तो काकतालीय नयाय से होगी, यो
गृहदृषानत से कहते है।
अरणय से लकडी उतपन हुई, बासो की तवचा से लकडी के बोझ को बाधने की पूितर रजजु हुई, वसुला, कुठार
आिद लोहे से उतपन हएु और बढई अपने उदर की पूितर के िलए ही पवृत हुआ, न िक घर की िसिद के िलए।।19।।
यो इस लोक मे अपने -अपने िभन-िभन पयोजन के िलए अविसथत पदाथों की यानी िकया-कारकरप पदाथों की सामगी
से अथरतः उतपदमान दृढ गृहाकृित जैसे काकतालीय ही है यानी काकतालीय नयाय से ही िसद होती है, वैसे ही पकृत
कायरकरणसंघात सथल मे भी काकतालीय नयाय से ही दशरन, शवण, आदान आिद अपनी-अपनी शिकतयो से िनयत जान-
कमेिनदयो से समिनवत तत्-तत् उस पकार की वयवहाररप कायरकिलका चंचलतापूवरक उतपन हुई है, उसमे िकसी की
कया कित है अथात िकसी की कोई कित नही है।।20,21।। अब अिवदा दूर से ही िवसमृत हो गई, आतमिवदा
िवसपषरप से अनुभूत हो गई, जो सत् था वही सत् रहा, असत् असत् ही रहा, िवघ कीण हो गया और जो िसथित के
योगय था, वही िसथत रह गया।।22।। हे शीरामजी, इस पकार के िवचार से युकत होकर उन महान तपसवी मुिन शेष
भगवान वीतहवय ने अनेक बरसो तक इस लोक मे अपनी िसथित की।।23।। शीरामजी िजस पद के पापत होने पर
पुनजरनम के िलए िचनता िवनष हो जाती है और मूढता कोसो दूर भाग जाती है, उस परम पूणाननद सवपकाशरप पद मे
िनरनतर ये मुिन अविसथत थे।।24।। िकसी समय भािनत से िचत-िविचत पदाथों के समूह के दशरन से पापत हुए
यथािसथत आतमभूत वसतु मे अिवशास का वारण करने के िलए बार-बार धयान मे िवशास का अवलमबन कर वह
सुखानुभव को पापत करते हुए सदा िसथत रहते थे।।25।।
शेष पारबध का िवनाश हो जाने पर मुिन वीतहवय का मन िकस पकार का रहा, उसे कहते है।
तयागने योगय और गहण करने योगय पदाथों की पािपत हो जाने पर भी तयाग और गहण की बुिद का कय हो
जाने के कारण महामुिन वीतहवय का अनतःकरण इचछा और अिनचछा का अितकमण कर गया था।।26।। देहापगम
दशा मे एक अिदतीय रप से िसथत, जनम और कमों की अविध के अवसानरप तथा पितभासमात से भी अविसथत देह
आिद संसार के संग का तयाग हो जाने पर पिरशेष मे रहने वाले बहरसरपी मकरनद मे उनको उतकणठा हुई और उसके
बाद उनहोने उसी इचछा के साथ सह पवरत की सुवणरकनदरा मे पवेश िकया।।27।। िफर देह आिद के साथ संगित न
हो, इिसलए शीघ जगतरपी जाल का भली पकार अवलोकन कर वे महामुिन पदासन लगाकर बैठ गये और तदननतर
वहा अपने आप ही अपने अनदर कहने लगे।।28।।
सवाभािवक शतुभूत राग, देष आिद मे भी देषअभावरपता और मैती की भावना करते हुए मोकपद को जानने की
इचछावाले-से होकर िहत का उपदेश कर रहे पणाम करके उनको संबोिधत करते है-
हे राग, अब तुम नीरागसवरप हो जाओ। हे देष, तुम देषअभावरप हो जाओ। आप दोनो ने इस लोक मे मेरे
साथ दीघरकाल तक कीडा की है।।29।। हे भोग, मै आप लोगो को पणाम करता हूँ। आप लोगो ने मेरा इस लोक मे
सौ करोडो वषर तक उस पकार लालन-पालन िकया है, िजस पकार पयार करने वाले िपता आिद ने बालक का लालन-
पालन िकया हो।।30।। सबसे पुणयतम इस मोकपद का भी िजसने मुझको िवसमरण कराया था, उस अंशरप
िवषयसुख को मै बार-बार पणाम करता ह। ू ।31।। हे दुःख, तुमहारे दारा सनतपत हएु मैने अतयनत आदर से आतमा का
अनवेषण िकया है, इसिलए इस मोकमागर का तुमने ही अनुकमपा से मैने यह अतयनत शीतल पदवी (िनरितशयसुखरप
मोक पदवी) पापत की है, अतः दुःख नामधारी तुमहे मेरा पणाम हो।।33।।
अब जान के पादुभाव मे उपकारक देह की पाथरना कर उसको संबोिधत करते है।
संसार मे सारहीन जीवनवाले हे िमत देह, तुमहारा कलयाण हो, कयोिक तुमहारी ही कृपा से हम अपने सथान को
जा रहे है। हे देह, यह अपने लोगो की िवयोग की अवसथा आज की नही है, िकनतु अनािद िनयित का यही सवभाव है,
कारण िक जो संयोग होता है, उसका अनत मे िवयोग ही पयरवसान होता है।।34।। आशयर है िक पािणयो के सवाथों
की अतयनत िवषम गित है, कयोिक वसतु की पािपत के िलए घिनष िमत आिद सवजनो को भी छोडकर पुरष दूर-दूर दौड
जाते है। इसी नयाय के अनुसार सैकडो जनम तक साथी रहकर मै आज अपने पयारे िमत शरीर से अलग हो रहा
हँू।।35।। हे िमत देह, िचरकाल से बनधुरप तुम मेरे दारा जो तयागे जा रहे हो वह एक सवाथर की ही लीला है। (यह
मेरा अपराध नही है, िकनतु तुमने अपना ही नाश करने के िलए मेरा उपकार िकया है, यो मानो शोक कर रहे कहते है।)
हे देह, तुमने ही अपने िलए आतमजानवश उस पकार की कित उठा ली है।।36।। तुमने आतमा के िवजान की पािपत
कर अपना िवनाश िकया है, अतः हे देह, तुमहारे दारा ही यह तुमहारा िवनाश िकया गया है, दूसरे के दारा नही िकया गया
है।।37।।
अब तृषणा की पाथरना करते है।
हे मातृरप तृषणे, मै अब जा रहा हँू। मेरे जाने पर तुम अकेली, शुषक और दीन हो जाओगी, पर दुःख मत
करना।।38।। हे काम भगवान्, तुमहारे ऊपर िवजय पाने के िलए मैने तुमहारे िवरोधी वैरागय सेवन आिद दोष िकये थे,
उन दोषो के िलए मुझे कमा पदान कीिजये। अब मै उतम िवशािनत की ओर जा रहा हँू। मेरी मंगल कामना किरये।।
39।।
अब िफर पुनरावृित के दारा तृषणा के मुख का दशरन न हो, इसिलए उसका िनवारण कर रहे मुिन वीतहवय
कहते है।
हे मातृरप तृषणे, अब से लेकर अपने दोनो का संयोग के दोष से ही सदा के िलए िवयोग हो रहा है। इसिलए
मै तुमहे यह आिखरी पणाम कर रहा हूँ।।40।। हे पुणयदेव, आपको मै पणाम करता हूँ, आप ही ने पहले मेरा नरको से
उदार कर सवगर के साथ समबनध करवाया था।।41।। िनिषद आचरणरपी खेत मे उतपन हुए, नरकरपी बडी-बडी
शाखाओं को धारण करने वाले और यातनारपी पुषप-समूह से युकत पापरपी वृक को मेरा नमसकार हो।।42।।
िजसके साथ मैने दीघरकाल तक पकृत योिनयो का उपभोग िकया था, आज तक पतयक नही हुए उस मोहसवरप को मै
पणाम करता हूँ।।43।। शबद कर रहे बास िजसके मधुर शबद है और शीणर पते ही िजसके पहनने के िलए वसत है,
समािध मे पेयसी सती के सदृश वयवहार करने वाली उस गुहारपी तपिसवनी को मै पणाम करता हूँ।।44।। हे सखी
गुहातपिसवनी संसाररपी महामागर मे िखन हुए मेरे िलए तुम ही अकेली आशासन देने मे समथर , अतयनत सनेह से
समिनवत, पूणर आतमा मे िवशािनत-पदान दारा समसत लोभो को नाश करने वाली तपसया (िमत) हुई।।45।। अनेक
दुःखो से िखन तथा दोषो से (समािध के िवघो से) दवीभूत हुए मैने शोक का िवनाश करने के िलए उतम सखीभूत तुम
अकेली का ही आशय िकया।।46।।
अब दणडकाष के गुणो का वणरन कर उसके नमसकार करते है।
कुते, सपर आिद से होने वाले भयो मे, िवषम पदेशो मे तथा गडडे और कु ंजो मे हाथ को अवलमबन देने वाला,
वृदावसथा के एकमात िमत दणडरप काष तुमहे मै पणाम करता हूँ।।47।।
अब समपूणर देहभाग देह को ही समपरण करते है।
हे देह, के अिसथिपंजर और दूसरा रकत तथा आँतरपी सूत बस इनही दो तततवो से समिनवत तुमहारा
असाधारण िवभाग है, इस अपने िवभाग को लेकर तुम अपनी पकृित की ओर चले जाओ।।48।। हे देह, तुमहारे मल,
दुगरनध, सवेद आिद के दारा दूिषत हो जाने के कारण हुए जो जलके अपराध है, उनके पकार-िवशेष-सवरप तुमहारी
िवशुिद का समपादन करने वाले सनानरप उपायो को भी मै पणाम करता हूँ तथा तुमहारे भोजन, अलंकरण आिद
वयवहारो को एवं भोजनािद सामगी के समपादन के िलए इतसततः दौडधूप करने की पवृितयो को मै पणाम करता हूँ।।
49।। हे पुराने सजग िमतरप पाण, आज मैने िमतो की नमसकार-परमपरा मे आप लोगो को भी ऊँचा बना िदया है यानी
आप लोगो को भी नमसकार िकया है, आपका कलयाण हो, मै जा रहा हूँ।।50।।
पहले के िमत भाव का वणरन करते है।
हे पाणवृनद, आप लोगो के साथ मैने िचत-िविचत अनेक योिनयो मे िवशाम िकया और पवरत के कु ंजो मे तथा
लोकातरो मे भी िवशाम िकया।।51।। आप लोगो के साथ ही मे नगरो मे और िसदो के केतो मे कीडा की, पवरतो मे
िनवास िकया, कायों के िवलासो मे िसथित की और िविवध पकार के मागों मे पसथान िकया।।52।। हे पाणवृनद,
संसार के कोश मे ऐसा कोई भी नही है, िजसको आप लोगो के साथ मैने अपने हाथो से न िकया हो, न अपहृत िकया
हो, न िदया हो, और जो पैरो से न गत हुआ हो और मन से जो अवलिमबत न हुआ हो।।53।। हे िपय पाण-समुदाय,
आप अपनी पकृित मे जाइये और मै बह मे जाता हँू, आप लोग यह शंका न करे िक हम लोगो का पकृित मे पिवलाप
कयो कराते है ? कायरकरणसंघातरप से ही िसथत होकर भोगयसमुदाय को ही पहले के समान पापत िकये जाये , कयोिक
िजतने भोगय समूह है, वे अनत मे नाशवान है, और िजतने उनत है, वे अनत मे पतनशील है। संसार-मागर मे िजतने
संयोग है वे सब अनत मे िवयोग को ही पापत होते है।।54,55।।
अब पतयेक इिनदय आिद के दारा पापत करने योगय पकृित को िवभागपूवरक बतलाते है।
यह चकु का पकाश आिदतय मणडल मे पवेश करे। सुगनधहेतुक आननदजान की करण घाणेिनदय गनध की
आशय पृथवी मे पिवष हो जाय।।56।। शबदो की शवणशिकत यानी शोतेिनदय आकाश कुिक मे पिवष हो जाय और
रसना की रसगहणशिकत यानी रसनेिनदय चनदमणडलरपी जल मे पिवष हो जाय।।57।।
उस पकार उपािधभूत आप लोगो के अपनी-अपनी पकृितयो मे पिवष हो जाने पर आप मे पितिबिमबत
िचदाभाससवरप मै जीवातमा भी अपने िबमबरप पणव की चतुथर अधरमाता से लिकत बहातमा मे पिवष हो जाता हूँ यानी
िवशािनत लेता हँू, यो कहते है।
मनदराचल के अभाव मे समुद की नाई, सूयर के अभाव मे िदन की नाई, शरत् काल मे अपने उपादान कारण मे
िवलय को पापत हुए मेघ की नाई, इनधनो के दगध होने पर अिगन की नाई तथा सनेह(तेल) के अभाव मे दीपक की नाई
ओंकार की अिनतम अधरमाता से लिकत परबहसवरप अपने मे अपने आप से ही मै आतयिनतक मनःशािनतपूवरक िवशािनत
लेता हँू।।58,59।।
समपूणर कायों की परमपरा से शूनय, समसत दृशयो की अवसथा को अितकमण कर िसथित रखने वाला, दीघर
उचचािरत पणव की बहरनध मे िवशािनत का अनुसरण कर बहाकारता की पािपत से उपरत बुिद तथा पारबध से पितबद
अविशष अिवदारपी मल से रिहत यह मै पूणररप से अविसथत हूँ।।60।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

िछयासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआ आआ आआआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआ आआआआ आआ
आआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआ, आआ आआआआ आआ । आआआआआआ
महाराज विसषजी ने कहाः शीरामजी, आगे कहे जाने वाले पकार से अतयनत उचच सवर से पणव का धीरे-धीरे
दीघरता के समपादन दारा उचचारण् कर रहे महामुिन वीतहवय ने मनन (संकलप) और एषणाओं से (पुत आिद की
अिभलाषाओं से) कमशः विजरत होकर छठी या सपतम भूिमका को पापत कर अपने हृदय मे बह का लाभ िकया।।
1।।
'ओमतयेतदकरं सवरम्' इतयािद माणडू कय शुित मे पदिशरत कम से आकार, उकार, मकार और अधरमाता से
किलपत सथूल, सूकम, अवयाकृत और तुरीयरप पादो के भेद से ॐकार का समरण कर रहे महामुिन संनयासी वीतहवय
पंचीकरण-पिकया मे बतलाये गये िवराट, िहरणयगभर और अवयाकृत पादो का पहले तुयर मे 'जागिरतसथानो' इतयािद शुित-
पदिशरत रीित के अनुसार अधयारोप और तदननतर 'नानतःपजम्' इतयािद शुित-पदिशरत रीित के अनुसार अपवाद कर
तीन लोगो की रचना के िलए िकये गये बहाजी के संकलप से कलपपयरनत किलपत बाह और आभयानतर िवभाग से युकत
सथूल, सूकम और कारण सवरप पदाथों का भी पिरतयाग कर अिवनाशी िवशुद बहसवरप का अपरोक साकातकार कर
इिनदय और तनमाताओँ का पिरतयाग कर िदया।।2,3।। िजस पकार कोभशूनय िचनतामिण अपने सवरप मे रहता है,
वैसे ही कोभशूनय आकारवाले महामुिन वीतहवय अपने सवरप मे ही िसथत थे, वे पूणरचनद की नाई पिरपूणर थे तथा
मनथनरिहत मनदराचल की नाई िसथर िवशािनत से युकत थे।।4।। भमण से रोकने पर कुमहार के घर मे चक िजस
पकार अकुबध आकारवाला रहता है, वैसे ही ये मुिन अकुबध आकारवाले थे और शानत अतयनत िनमरल समुद की नाई
पिरपूणर थे।।5।। (उस पकार के अनेक शुभ िवशेषणो से समपन महामुिन वीतहवय ने पूवोकत रीित से अधयारोप और
अपवाद से समसत कलपनाओं का पिरतयाग कर िवशुिद आिद गुणो से युकत तथा) तेज और तम दोनो के समूह से रिहत,
सूयर, चनद और ताराओं से शूनय, धूम, अभ और धूिल से विजरत, शरतकालीन आकाश के समान अतयनत सवचछ, असीम
बहातमा का साकातकार कर पणव के अगभाग के दीघरनादरपी सूत के साथ ही इिनदय और शबदािद तनमाताओं के जाल
को उस पकार तयाग िदया, िजस पकार वायु ने गनध को तयाग िदया हो।।6,7।। तदननतर आकाश-मणडल मे चकु
दारा िदखाई पडने वाले तमो भाग की नाई िचदाकाश मे साकी के दारा िसद तथा पकािशत हो रहे तमोमात को(अिवदा
के तामस वृित-िवशे, को) ऐसे तयाग िदया, जैसे बुिदमान कोधाश को तयाग देता है।।8।। तदनतर आधा कण िवचार
कर उकत मुिन ने पकािशत हो रहे तेज का भी (अिवदा के सािततवक वृितिवशेष का भी) पिरतयाग कर िदया। तम और
तेज दोनो का पिरतयाग करने से वे मुिन न तम और न पकाशरप थे यानी तम और पकाश दोनो से शूनय अवसथा को
पापत हुए थे।।9।। अननतर तम और पकाश से शूनय अवसथा को पापत कर मुिन वीतहवय ने कलपना के हेतुभूत
मनरपी तृण को, जो िकंिचत पकािशत भी था, आधे िनमेष मे मन से ही काट िदया।।10।। हे शीरामजी, तदननतर
वायुशूनय पदेश मे िसथत दीपक की नाई िवसपष पकाश को पापत हुए अपने सवरप मे िसथत संिवत का, जो ततकण
उतपन हएु बालक के जान के सदृश वासनािद से विजरत थी, अवलमबन कर िचित की चेतयदशारप कलपना को उसकी
उतपित के पहले ही समथर मुिन वीतहवय ने िनमेष के चतुथर भागातमक काल मे ही उस पकार पिरतयाग कर िदया, िजस
पकार वायु सपनदन शिकत का पिरतयाग कर देता है।।11,12।। शीरामजी, तदननतर इस रीित से सािकमात के
पिरशेषसवरप 'पशयनती' पद को पापत कर अननतर 'पशयनती' पद ही आकाश आिद के बाधाशय रप से अविशष
सतामात सवरप कारणतततव होने के कारण तदाव मे िसथितरप सुषुपत सथान को पापत कर मुिन वीतहवय पवरत की
नाई अचल होकर िसथत हो गये।।13।।
तदननतर समथर मुिन वीतहवय पहले उकत सुषुपत सथान मे िकंिचत िकंिचत िसथत होकर अननतर उसमे
िसथरता को पापत कर तुयर रप मे लीन हो गये। 'तुयररप मुपाययौ' इस वाकय से पहले सदेहावसथ छठी और सपतम
भूिमका को बतलाकर साकी की सदेकरसता िसद हो जाने पर िनरितशय अखणड आननद के आिवभाव से अविशष
पारबध के साथ जगत-पितभास का आतयािनतक िवनाश और तदननतर िवदेह कैवलय की पािपत बतलाई गई है।।14।।
तदननतर उनका सवरप कैसा था ? इस चतुथर पश का उतर देते है।
जैसे राित मे देखने वाले उललू आिद को अनधकार ही पकाशरप होता है , वैसे ही उस तुयर अवसथा मे वे मुिन
िवषयपयुकत आननद से विजरत होते हुए भी सवरपभूत आननद से युकत थे, सविभनसता से शूनय होते हएु भी सवरपतः
सतारप थे, सविभन वसतुसवरप से अिकंिचदूप होते हुए भी सवतः िकंिचदूप थे।।15।। वे चेतय का अभाव होने से
अिचनमय और सवतः िचतसवरप थे। तदननतर 'नेित नेित' इतयािद शुितयो से बोिधत जो अदैत तततव है और जो वाणी
का भो अगोचर है, उस तततव को ये मुिन पािपत हो गये।।16।। इसके अननतर ये मुिन समसत पदाथों मे अविसथत,
समसत भावो से विजरत, िनरितशय समता से पूणर पकाशमान परम पिवत पदसवरप हो गये।।17।।
इससे समसत वािदयो के दारा अनैकिवध िवकलपो से अपने -अपने िसदानत रप से िवकिलपत जो पद है, वही
पद वीतहवय का था, ऐसा कहते है।
जो शूनयवादी बुदो का शूनयरप पापय पद है, जो बहजािनयो का बहरप शेष पापत पद है, जो िवजानवादी
बौदो का िवजानरप िनमरल पापय पद है, उस पदरप होकर ही ये मुिन वीतहवय िसथत थे।।18।। किपलमुिन-िनिमरत
साखयशासत मे पितपािदत पुरषरप, पतंजिल िनिमरत योगशासत मे पितपािदत कलेश आिद से विजरत पुरष िवशेषातमक
ईशररप, चनदिचहवाले महादेव जी के अनुयायी पाशुपत मत मे पदिशरत िशवरप और काल ही एक तततव है-इस पकार
पितपादन करने वाले कालवािदयो के मत मे पदिशरत कालरप जो तततव है, ततसवरप होकर ये महामुिन वीतहवय
अविसथत थे।।19।। आतमा के सवरप को भली पकार जानने वाले आतमवािदयो के मत मे जो आतमतततव है,
सौतािनतक और वैभािषक मत मे पितपािदत सथाियतव से अभासमान किणक िवजानरपी जो नैरातमयतततव है , िचत् और
िचत् के बीच मे शूनयातमक तततव है, जीवनमुकत महापुरषो के मत मे पिरपूणर बहतमक जो तततव है, ततसवरप होकर ही
ये महामुिन अविसथत थे। शूनयवािदयो से उपकम कर सवरवािदयो से उपसंहार इसिलए िकया गया है िक उनकी
पिरिचछनता और अपिरिचछनता-वाद मे परम अविध है और अनयानय मधयपितत मतो मे उभय का संिमशण है तथा
तारतमय से उनका उतथान हुआ है, यह दोतन हो।।20।। जो तततव समसत शासत का िसदानतभूत है, जो सबके
हृदय मे अनुगत है, जो सवातमक है और जो सबका सवरप है, ततसवरप होकर ये मुिन अविसथत थे।।21।। जो
सवरथा सपनदन िकया से रिहत है, जो समसत पकाशमान सूयर आिद तेजो का भी भासक बनकर पकािशत हो रहा है तथा
जो केवल अपने अनुभव के सवरपभूत है, ततसवरप होकर ये मुिन िवरािजत थे।।22।। जो तततव वासतव मे
अिदतीय होने के कारण एक और मायावश अनेक भी है, जो आचायर-वाकय से गमय होने के कारण वयवहार मे अिवदा से
युकत तथा परमाथर दशा मे सवतः पकाश होने के कारण िवदा से रिहत भी है, जो सवातमक होने से सवरसवरप तथा
पपंचातीत होने से असवातमक भी है, तततसवरप होकर ये मुिन अविसथत थे।।23।। वह वीतहवय मुिन उकत कम से
मुकत लोगो की दृिष मे आकाश के सवरप की अपेका िनमरल िसथितवाले होकर उतपित शूनय, जरारिहत, कारणविजरत,
अिदतीय, मल से रिहत एवं अवयवरिहत पद सवरप होकर अविसथत थे और बद लोगो की दृिष मे कण मे ईश होकर
अपने कायों के भेद से अनेक और अवयवयुकत होकर अविसथत थे।।24।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
सतासीवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआ आआ आआआआआआआ आआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआ आआआआआआआ आआ आआ आआआ,
आआआआ आआआ आआआ आआ आआ आआ आआआआआ आआ आआ आआआ, आआ आआआआआआ ।
महाराज विसष जी ने कहाः भद शीरामजी उकत रीित से संसार की अविध के अिनतम सथानभूत पर बह को
पापत करने के अननतर दुःखसागर के पार को पापत हुए महामुिन वीतहवय आतयािनतक मनोनाश होने पर परम िवशानत
हो गये।।1।। महामुिन वीतहवय के उस पकार परम िवशानत होने पर िनरितशयसुखातमक मोक को पापत हो जानेपर
तथा समुद मे जलकण की नाई अपने पद मे पितिषत हो जाने पर उसी पकार अविसथत हो रहा िकयाशूनय वह देह
भीतरी िवरसता को पापत होकर उस पकार मलान हो गया, िजस पकार हेमनत-ऋतु मे कमल मलान हो जाता है(कुमहला
जाता है)।।2,3।।
समसत देह मे वयापत होकर रहने वाले पाणो का हृदय मे उपसंहार कहते है।
देहरपी वृक के भीतर अविसथत, पकी की नाई आचरण करने वाले उसके तत्-तत् नाडी सथान का पिरतयाग
कर हृदयरपी घोसले की ओर उस पकार आ गये, िजस पकार यनतो से उनमुिकत िशलाएँ। यहा 'देहरपी वृक के अनदर
अविसथत हृदयरपी नीड का पिरतयाग कर पाण बाहर आ गये' ऐसा अथर नही करना चािहए, कयोिक 'न तसय पाणा
उतकामनतयतैव समवलीयनते बहैव सन् बहापयेित' (तततवज के वाक् आिद पाण जाते नही है, यही लीन हो जाते है, वह
जीिवत दशा मे ही बहरप होकर बह को पापत करता है) इतयािद शुित के साथ िवरोध होगा और समसतकमर और
तजजिनत वासनाओं का कय हो जाने के कारण उस पकार के उतकमण मे कोई बीज या पयोजन नही है।।4।।
'इित तु पंचमयामाहुतावापः पुरषवचसो भविनत तदथा पेशसकारी पेशसो मातामुपादाय' इतयािद शुित के अनुसार
तथा 'तदननतरपितषपतौ रंहित संपिरषवकतः पशिनरपणाभयाम्' इतयािद बादरायणसूत के अनुसार पहले के जनमो मे
अनुिषत अिगनहोत आिद कमों मे समवायी अपशबदवाचय सोम, आजय, पय आिद भूतमाताओं से युकत ही िलंगशरीर की-
जो चनदमणडल मे आरढ है, भोग के अनत मे आकाशािद कम से पृथवी मे वरीही, यव, पुरष और योिषत्-रपी अिगन मे
पवेश करने से पुरषकारता की पािपत का अवगम न होने से उन भूतमाताओं का कारण मे अनुपवेश कहते है।
पाण से लेकर नाम पयरनत सोलह कलाओं से युकत भूत पृथवी आिद महाभूतो मे ही लीन हो गये और जो िपता
और माता के मल से उतपन सथूल अंश सवरप मास, अिसथ और आँत-रपी देह था, वह अरणय मे पृथवीतल मे िमल
गया।।5।। िलंग शरीर मे पितिबिमबत जीवभूता िचित सविबमबभूत चैतनय-समुद मे जा िमली। तवचा-असृक्, मास
आिद धातु अपने उपादानभूत धातु मे िमल गये। महामुिन के िवशानत हो जाने पर सब अपने -अपने उपादानो मे ही
अविसथत हो गये।।6।।
उपसंहार करते है।
हे शीरामचनदजी, महामुिन वीतहवय की यह सैकडो िवचारो से समिनवत िवशािनत कथा आपसे मैने कही, अब
आप अपनी पजा से इसका िववेचन कीिजये।।7।। हे राघव, इस पकार की रमणीय अपनी उतकृष िवचारधारा से
तततव का अवलोकन कर उकत सार का गहण कीिजये और तैयार हो जाइये।।8।।
अब भगवान विसषजी कृपा के आिधकय से कहे गये, कहे जा रहे और कहे जाने वाले गनथ का, िचरायु और
सवरदशी हम लोगो के दारा सब पकारो से अनेक बार िकये गये िवचारो का, लोक, शासत, शुित तथा अनवय और
वयितरेक से परीका करके िकये गये पुनः-पुनः दशरन को एकातमयदृिष को अवलिमबत कर जानपितषता पापत करना ही
फल है, इससे अिधक और कुछ पुरष को समपादन करने का नही है, यह िनणीत हुआ, यो िवशास को दृढ करने के िलए
कहते है।
हे शीरामजी, िजसका आपके सामने मैने वणरन िकया, िजसका वणरन कर रहा हँू और िजसका वणरन करँगा,
ितकाल को पतयकरप से देख रहे तथा िचरकाल तक जीने वाले हम लोगो ने उसके िवषय मे िवचार िकया है और
पूणररप से उसको सवयं देखा भी है।।9,10।। हे महामित, इस िनमरल दृिष का अवलमबन कर उतकृष जान को
पापत करो, कयोिक जान से ही मुिकत पापतकी जाती है।।11।। हे शीरामजी, जान से ही मनुषय दुःख के अभाव को
पापत होता है, जान से अजान का िवनाश हो जाता है, जान से ही परम िसिद िमलती है, वासतव मे वह दूसरे िकसी से
नही िमलती।।12।। जान से समसत आशाओं का चारो ओर से खणडन कर महामुिन वीतहवय अपने िचतरपी पवरत
को िनःशेषरप से खणडन कर अविसथत थे।।13।।
महामुिन वीतहवय ने अपने हृदय मे संकलपमय जगत का और उसमे गणतव का अनुभव िकया, ऐसा पहले कहा
गया है, ऐसी िसथित मे उनहोने उस संकलपमय जगत के अनतगरत सूयर मे पवेश कर वहा के िपंगल नामक गण के दारा
इस दृशयमान जगत के भूभाग मे अविसथत अपनी देह का उदार िकस पकार िकया ? कयोिक सवप के कुदालो से
जागत की िनिधयो का खनन नही देखा जाता है, इस पकार की शीरामजी की शंका को िचनहो से ताडकर विसषजी
कहते है।
उस वीतहवयाितमका संिवत ने अपने हृदय से उपलिकत बह मे हम लोगो के साधारण दृशय को ही अपना
संकलप जगत है, ऐसा अनुभव िकया, दूसरे अपूवर जगत का अनुभव नही िकया।।14।।
इससे भी यही वह जगत था, ऐसा कहते है।
हम लोगो के चकु आिद से िदखलाई पड रहे मुिन वीतहवय हम लोगो के मनोमातसवरप ही है , कयोिक हम लोगो
का मन ही 'अहम्' और 'तवम्' के रप मे मानो बसता है, मन री यह समसत जगत है, अतः उसमे अनयतव और अनयतव
कया होगा ? वनधया के भेद से उसके पुतो मे कही भेदन हो सकता है ? नही हो सकता।।15।।
इस पकार शीरामजी की शंका का समाधान कर पकृत अथर का ही उपसंहार करते है।
िजनहोने परम पयोजनसवरप आतमतततव का जान कर िलया था, िजनके राग आिद दोष कीण हो चुके थे, जो
समसत अिवदा, काम, कमर आिद मलो से, ततपयुकत इिनदय-िवकारो से, देहतयरप उपािधयो से तथा इन उपािधयो से
होने वाले िपयािद-संगो से रिहत थे, वह िववेकी वीतहवय मुिन िचरकाल तक िचतशुिद के शोकशूनय उपायो के
अनुषानो से यानी शवण, मनन, िनिदधयासनरप साकातकार पयोजक समािध भूिमका के अभयासो से अपने हृदय मे
अनुसृत यानी अनुसरण दारा साकातकृत अपने सवभावभूत, िनमरल असीम मोकपद को पापत हुए।।16।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
अटासीवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआ, आआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआआआ
आआआ आआआआआआआआआ आआ आआआआआ आआआआ आआआआ आआआ आआआआ आआआआआआ
आआ आआआआआआआ आआआ आआआआआ आआआआआआ आआआआआआ आआआआ
आआ आआआआ, आआ आआआआ

महाराज विसषजी ने कहाः भद शीरामजी, महामुिन वीतहवय की नाई अपने को तततवजानी बनाकर आप राग,
भय और उदेग से विजरत होकर सदा िसथत रिहये।।1।। हे राघव, इस बहाणड मे तीस हजार वषों तक महामुिन
वीतहवय ने शोकविजरत होकर सुखपूवरक िवहार िकया था, आप भी उसी पकार शोकशूनय होकर सुखपूवरक िवहार
कीिजये।।2।। हे दीिपत समपन महामते, िजस पकार अनय महामित िविदत वेद मननशील महातमा िनवास करते थे ,
उसी पकार आप भी अपने राषट मे िनवास कीिजये।।3।।
हे महाबाहो, यदिप आतमा सवरत वयापक है, तथािप सुख-दुःखो की परमपरा से कभी भी वह पराभूत नही होता,
अतः आप िनरथरक कयो शोक कर रहे है ?।।4।। हे िपय शीरामजी, आतमसवरप को जान लेने वाले बहुत से महातमा
इस लोक मे िवचरण कर रहे है, परनतु उनमे से कोई भी आपकी नाई दुःख के अधीन नही होते।।5।। हे शीरामजी,
आप अपने सवरप मे िसथत हो जाइये, भीतर से समपूणर वसतुओं का तयाग करने वाले हो जाइय, सवरत समबुिद हो
जाइये और सुखी हो जाइय। आप सवरत वयापक है, आप आतमसवरप ही है, आपका पुनः जनम नही है।।6।। जैसे
मयुरो के वश मे िसंह नही हो जाते।।7।। शीरामजी ने कहाः भगवन्, इसी पसंग से मुझको यह एक संशय हुआ है,
उसको आप मेघ को शरतकाल की नाई नष कर दीिजये।।8।। हे आतमजािनयो मे शेष, जीवनमुकत शरीरवाले
महातमाओं की आकाशगमन आिद शिकतया यहा कयो नही िदखलाई पडती है ?।।9।।
'शरीराणाम्' इस शबद से पारबध होने पर वीतहवय मुिन को अपने मे जैसे िवदाधरतव आिद का साकातकार हुआ,
वैसे ही मानिसक िसिदया भी हो सकती है, यह आशय है।
महाराज विसषजी ने कहाः हे रघुकुलभूषण, जो ये देवताओं की आकाशगमन आिद िसिदया पमाणो से उपलबध
होती है, वे अिगन मे ऊधवर जवलन की नाई सवभावतः िसद है।।10।। हे शीरामजी, जो िचत िविचत आकाशगमन आिद
िकयाकलाप िदखाई पडता है या पमाण से उपलबध होता है, वह तत्-तत् योिनये मे उतपन देह का सवभाव है, कयोिक
मचछर आिद मे भी आकाशगमन शिकत िदखाई पडती है। इसिलए वह आतमतततवजो को वािछत नही है।।11।।
तब मनुषयो को योग की िसिद के दारा आकाशगमन आिद की पािपत कैसे होती ? इस पर कहते है।
हे राघव, आतमतततवजान से शूनय पाकृत अमुकत जीव भी मिण, औषध आिद दवयो की शिकत से, योगाभयास
आिद िकयाओं की शिकत से, उसके पिरपाक पयोजक काल की शिकत से आकाशगमन आिद िकसी समय पापत कर
सकता है। जैसे िक चीटी गीषम की समािपत मे कालशिकत के पभाव से पंख-पादुभाव दारा आकाशगमन पापत करती
है।।12।। तुचछ होने के कारण आकाशगमन आिद िसिदयो आतमज िवदान की अिभलाषा की िवषय नही हो सकती,
कयोिक आतमसवरप जानी सवयं आतमा को पापत कर चुका है। इसिलए वह अपनी आतमा मे ही तृपत रहता है , अतः
अिवदामय फलवाले पदाथों की ओर नही दौडता।।13।। संसार मे जो कोई भी पदाथर है, उन सबको आतमज
अिवदामय ही मानते है, इसिलए अिवदा से विजरत तततवज उनमे कैसे डू ब सकता है।।14।। जो योगाभयास आिद
सैकडो पिरशमो से अिवदा को भी आकाशगमन आिद िसिदयो के दारा सुखसाधन बना लेते है, वे आतमतततवज है ही
नही, कयोिक आकाशगमन आिद िसिदया अिवदामय ही है।।15।।
तब कया तततवज पुरषो मे आकाशगमन आिद िसिदयो को समपादन करने की सामथयर है ही नही ? इस शंका
पर 'नही' ऐसा उतर देते है।
तततवज हो चाहे अतततवज हो, जो कोई भी िचरकािलक पयतपूवरक दवय कमों से शासतोकत उपाय का अनुषान
करता है, वह आकाशगमन आिद िसिदया पापत कर सकता है।।16।। यहा धन आिद की अिभलाषाओं से विजरत
आतमसवरपज पुरष सबसे अतीत हो जाता है, वह अपने ही सवरप मे सदा सनतुष रहता है, इसिलए न कुछ चाहता है
और न कुछ करता है।।17।। आतमज पुरष को न तो कोई आकाशगमन से, न िसिद से, न तुचछ भोगो से, न िनगह
अनुगह सामथयर से, न अपने उतकषर के खयापक (घोषणा करने वाले) अिभमानो से और न आशा, मरण तथा जीवन से ही
पयोजन है।।18।। सदा सनतुष, पशानतसवरप, रागविजरत, वासनाशूनय तथा आकाश के सदृश िनमरल आकारवाला
तततवज िवदािन अपने सवरप मे ही िसथत रहता है।।19।। अपने जीवन और मरण की आसिकत से विजरत तततवज
पुरष आकिसमक पापत हुए सुख और दुःख से अपनी सवाभािवक तृिपत का पिरतयाग नही करता।।20।। जैसे समुद
नदी-पवाह और नदी पवाह से पापत तृण, काष आिद के अपने भीतर पवेश से उपचयापचयरप िवकृित पापत नही करता,
वैसे ही तततवज पारबध कम के अनुसार पापत हुए अनुकूल और पितकूल वसतुओं से भी िकसी पकार की िवकृित पापत न
कर अपने आतमा की अखणडाकावृितरपी पुषपो से पूजा करता हुआ ही अपने सवरप मे िसथत रहता है।।21।।
तततवज को यहा न तो कृत कमर से (िविधयुकत अनुषान से) ही पयोजन (पुणय) है और न अकृत कमर से ही
(िविहताकरण से ही) पयोजन (पतयवाय-पािपत) है, कयोिक जानवान को बहा से लेकर सथावर तक सब भूतो मे कोई भी
पदाथर पयोजन के िलए आशय योगय नही है।।22।। जो आतमजान से शूनय है, वह भी आकाशगमन आिद िसिदयो को
चाहता है और वह तथािवध िसिदयो के साधक दवयो से कमशः उनहे िसद करता है।।23।। मिण, मनत आिद
युिकतयो से ही इस पकार की आकाशगमन आिद िसिद हो सकती है। तत् -तत् शासतो मे पिसद िनयित के कम को
(सवभाव की सामथयर को) तत्-तत् िनयित का िवधान करने वाले ितनेत आिद शेष देवता भी वयथर नही कर सकते।।
24।।
जो देवता आिद की सवतः आकाशगमन आिद िसिदया है, वह वसतु सवभाव ही है, अतएव उनमे वे समपित से
लेकर जीवनपयरनत ही है, ऐसा कहते है।
देवता आिद मे जो आकाशगमन आिद िसिदया है, वह वसतुसवभाव ही है। दूसरे िकसी से वे नही आती। जैसे
चनदमा शीतलता का पिरतयाग नही करता, वैसे ही िनयित का (सवभावका) पिरतयाग कोई नही कर सकता।।25।।
चाहे सवरज हो, चाहे बहुज हो, चाहे भगवान् लकमीपित हो, चाहे उमापित हो, कोई भी िनयित को अनयथा करने मे समथर
नही है।।26।। हे शीरामजी, मिण आिद दवय, काल, योगाभयास आिद िकया और मनत पयोगो मे उकत पकार की
शिकतया, जो आकाशगमन आिद शबदो से कही जाती है, सवभावतः िसद है।।27।।
जैसे िवष को हरण करने वाले औषध आिद दवयो की शिकत अपने कायर मे समथर है, वैसे मिण, मनत आिद की
शिकत भी अपने -अपने कायर मे समथर है, ऐसा कहते है।
जैसे िवषघ मिण, मनत आिद दवय की शिकतया िवष का िवनाश कर देती है, जैसे मिदरा मत कर देती है, जैसे
मािकक मधु अथवा मदनफल खाने पर वमन करा देता है, वैसे योगािद उपायो मे कुशल पुरषो दारा पयुकत मिण आिद
दवय, काल, िकया आिद उपाय सवभाववश से िसिदयो को अवशय उतपन करते है।।28,29।। हे पापशूनय राघव,
दवय-काल-िकयाकमसवरप आिवदक िवषयो से परे तथा अजान को बािधत कर देने वाले आतमजान मे आकाशगमन
आिद िसिदयो के पित कारणता और िवरोिधता नही है।।30।।
जैसे िकया-फल सवगािद मे आतमजान का उपयोग नही है, वैसे जानफलमुिकत मे दवय, देश, िकया आिद का भी
उपभोग नही है, ऐसा कहते है।
आतमतततवजान के फलभूत परमातमा के पद के लाभ मे यानी मोक मे दवय, देश, िकया, काल आिद युिकतया
कोई भी उपकार नही कर सकती।।31।। यिद आकाशगमन आिद की िकसी पुरष को इचछा होती है, तो वह उसकी
िसिद का साधन पूणररप से करते है। आतमजानी पूणर है, अतः उसको कही इचछा नही होती।।32।।
आतमजानी को इचछा कयो नही होती ? इसे कहते है।
हे िनषकलंक शीरामजी, जो आतमा की पािपत होती है, वह सब इचछाओं की शािनत होने पर ही होती है, अतः
आतमज को आतमलाभ की िवरोिधनी इचछा कैसे और िकससे हो सकती है ?।।33।।
यदिप तततववेता इचछा से विजरत है, तथािप वह यिद कौतुकवश यतानुषान करे, तो उसे आकाशगमन आिद
िसिदया पापत हो जाती ही है, इस आशय से कहते है।
चाहे तततवज हो चाहे अतततवज हो, िजसकी िजस पकार इचछा उिदत होगी, वह उस पकार से उसी इचछा से
यत करता है और समय आने पर उस िसिद को पापत करता है।।34।।
तब वीतहवय को कयो िसिदया नही हईु ? तो इस पर कहते है।
आतमजान की इचछावाले वीतहवय ने िसिदयो की इचछा से िकसी पकार का यत नही िकया और जान की इचछा
से तो उसने शीघ यत िकया था। जैसे िक इसने अरणय मे जानाभयास के िलए उदोग िकया था, यह पहले विणरत हो
चुका है।।35।।
इस पकार िकया, कमर और दवयरपी युिकतयो के सवभाव से उतपन होने वाली कम पापत िसिदया अपनी इचछा
के ही अनुसार िसद हो जाती है।।36।।
िसिद के िवषय मे या जान के िवषय मे अनुपरत पयत ही अवशय फलवान है, इसका मुमुकु-वयवहार पकरण मे
सिवसतार वणरन िकया जा चुका है, इस आशय से कहते है।
शीरामजी, जो-जो आकाशगमन आिद िसिदनामक फलो की पंिकतया िजस पुरष के दारा पापत की गई देखी
जाती है, वे उस पुरष के दारा अपने पयतरपी वृक से ही पापत की गई है।।37। िजनहोने अपना अनतःकरण पिवत
कर िलया है, जो आतमतततव-जान से समपन है, जो सदा सनतुष है तथा जो सबके दारा वािछत परमपेमासपद आतमसुख
को पापत हुए है, उन महातमाओं के िलए िसिदया कुछ भी उपकार नही करती।।38।।
शीरामजी ने कहाः हे बहन्, मुझे यह एक संशय हो रहा है िक महामुिन वीतहवय की वह देह िहंसक बाघ आिद
दारा भिकत कयो नही हुई और पृथवी मे कीचड आिद के कलेद से िवशीणर कयो नही हुई।।39।। भगवान्, अरणय-िसथत
ये वीतहवय मुिन उसी समय (जब पृथवी मे ढक गये थे, उसी समय) ततकाल िवदेहमुकत कयो नही हुए ? इन दो पशो का
यथाथर उतर मुझसे किहये।।40।।
पथम पश का उतर देने के िलए महाराज विसषजी भूिमका बाधते है।
महाराज विसषजी ने कहाः भद, जो जानी की संिवत राग आिद मलो से दूिषत वासनारपी ('देह ही मै हूँ' इस
पकार देह मे अहंभाव की वासनारपी) तनतु से बँधी हुई रहती है, वही यहा देह के छेदन-भेदन से जिनत सुख-दुःख
दशारपी दाह की आशय होती है।।41।। देहािभमान-वासना से िविनमुरकत जीवनमुकत महातमा की देह बािधत होने से
अिधषानभूत िवशुद संिवत्-सवरप रहती है, अतः उसके छेदन मे कोई भी िहंसक पाणी समथर नही होते, कयोिक
'अचछेदोऽयम अदाहोऽयम अकलेदोऽशोषय एव च' (या आतमारपा संिवत न छेद है, न दाह है, न कलेद है और न शोषय
है) इतयािद भगवान का वाकय है।।42।। उपपित बतलाने के अननतर अब वकतवय के िलए पितजा करते है।
हे महाबाहो, अब आप यह सुिनये िक िकस युिकत से योगी हजारो बरसो तक भी शरीरचछेदन आिद िवभमो के
दारा आकानत नही होता।।43।। शीरामजी, िचत िजस-िजस पदाथर मे जब-जब िगरता है यानी आसकत होता है, तब-
तब उस-उस पदाथर मे आसकत होकर वह ततकाल ही तदूप हो जाता है।।44।। जैसे जब मन शतु को देख लेता है,
तब वह उस शतु के देष के पितिबमब से युकत सा होकर देष आिद िवकार पापत कर लेता है और जब िमत को देख
लेता है, तब वह उसके हृदय के पेम के पितिबमब से युकत-सा होकर उतम पीित को पापत कर लेता है, यह िवषय सब
लोगो को पतयकरप से अनुभूत है।।45।।
इसीिलए यिद एक राग-देष से शूनय रहता है, तो दूसरे मे भी राग-देष आिद अनुभूत नही होते, यह कहते है।
राग और देष से विजरत पिथक यानी उदासीन पुरष का, वृक और पवरत के िवषय मे तो मन राग और देष से
रिहत होता है, यह भी सबको अनुभूत है।।46।।
इसी पकार अचेतन भोजय आिद पदाथों के िवषय मे भी पीित, अपीित और उदासीनता ये सब उनमे रहने वाले
गुण-दोष और गुण-दोष दोनो के अभाव का मन मे पितिबमब पडने से ही पिसद है, इस आशय से कहते है।
सरस सवादु पदाथर के िवषय मे यह मन लालची बन जाता है, नीर ससवादु पदाथर के िवषय मे सपृहारिहत हो
जाता है और कटुपदाथर के िवषय मे िवरस हो जाता है, यह सवयं सब लोग अनुभव करते है।।47।।
वैसा मन भले ही हो, उससे पकृत मे कया आया ? इस पर कहते है।
हे भद जो िहंसक जनतुओं का मन है, वह जब राग, देष एवं िवषमता से रिहत संिवत के (चैतनय के) िवलास से
िनतानत समिनवत योगी की देह िगरता है, तब ततकाल ही योगी के चैतनय की समता का पितिबमब पडने से मानो समता
पापत कर लेता है, इसिलए उनके दारा िहंसा की पािपत नही हो सकती।।48।।
इस िवषय मे पतंजिल मुिन ने िहंसा पितषा का उपकम कर कहा हैः 'ततसंिनधौ वैरतयागः' (अिहंसा-िसद होने
पर योगी की संिनिध मे िहंसक पाणी वैर का तयाग कर देते है।)
िहंसक पाणी समदशी यित के संसगर से देष आिद से मुकत हो जाता है, इसिलए वह िकसी की भी िहंसा करने
मे उस पकार पवृत नही होता, िजस पकार पिथक गाव के समीपसथ वन मे उतपन लता आिद के छेदन मे पवृत नही
होता।।49।। योगी के शरीर के समीप से िहंसक पाणी जब अनयत चला जाता है, तो वहा जाकर देष आिद से भरा
जैसा जैसा जनतु-समूह िमलता है, वैसा-वैसा तदनुरप वह िहंसक भाव को पापत कर लेता है।।50।। हे शीरामजी,
इनही दो कारणो से िहंसक मृग, बाघ, िसंह, कीट और सपों ने भूगभर मे पकािशत हो रही महामुिन वीतहवय की देह को
कत-िवकत नही िकया।।51।।
'कथं िकलना न भूतले' (वीतहवय की देह पृथवी सड कयो नही गई) इसका उतर देते है।
काष, लोष (िमटी का ढेला), पतथर आिद सवरत सथानो मे मूक बालक के समान सामानयरप से संिवत्-सता
अविसथत रहती है।।52।।
तब पुयरषको मे (सूकम शरीरो मे) ही वह कयो उपलबध होती है ? इस पर कहते है।
जैसे जल मे सूयािद का पितिबमब िदखाई पडता है, वैसे ही असमािहत िचत से संयुकत पुरषो को वह संिवत्
सता केवल पुयरष के मे ही हजारो िवषम पिरणामोवाली, पिरिचछन तथा तैर रहे पदाथर की नाई चपल िदखाई पडती
है।।53।।
हे राघव, उस वीतहवय-समबनधी पुयरषक ने तततवजान और तदनुकूल समािध से अिवषम सवभाव को पापत की
गई पृथवी, जल, वायु और तेज की संिवत के दारा उकत मुिन-शरीर को समसत िवकारो से शूनय बहभाव पापत कराया
था, इसिलए वह िवकृत नही हुआ, यह भाव है।।54।।
हे शीरामजी, इस िवषय मे मुझसे आप दूसरी भी युिकत सुिनय। वह यह है िक सपनदन ही नाश मे कारण है
और यह सपनद िचत से जिनत अथवा वात से जिनत एक पकार का िवकार है, यह बात लौिकक वयवहार मे पिसद
है।।55।। पाणन-वृित ही पाण-वायुओं का सपनद है। हे राघव, चूँिक वीतहवय की देह मे धारणा दारा उकत पाणन-वृित
के शानत हो जाने पर वे पाण पतथर की नाई दृढ होकर िसथत थे, इसिलए मुिन की वह नष नही हुई।।56।। िजस
महामित के हाथ, पैर तथा पाण आिद से युकत शरीर मे िचतजिनत अथवा वातजिनत सपनदन नही रहता, उसके शरीर
मे वृिद आिद तथा कय आिद िवकार उतपन नही होते।।57।।
हे तततवज-िशरोमणे, हाथ आिद बाह और पाण आिद आनतर अवयवो से युकत शरीर मे सपनदन-वृित के पशानत
हो जाने पर तवचा आिद धातुएँ अपनी पूवावसथा का कभी भी पिरतयाग नही करती।।58।। इसी तरह िचतजिनत और
वातजिनत देह-सपनदन के शानत हो जाने पर तवचा आिद धातुएँ अपने चंचल सवरप से भली भाित सतिमभत होकर मेर
पवरत के सदृश दृढ िसथरता धारण करती है।।59।। इसीिलए पाणसपनद के शानत हो जाने पर काष के सदृश
योिगयो के शरीरो मे दृढ िसथित और मुदे मे कमपन-शूनयता लोक मे देखी जाती है।।60।। इस युिकत से हजारो
बरसो तक योिगयो के शरीर इस लोक मे मेघो की नाई न तो िकलन (गीले) होते है और न भूगभरिसथत िशला की नाई
िवशीणर होते है।।61।।
अिनतम पश का अनुवादपूवरक उतर देते है।
हे शीरामजी, अब आप यह सुिनये िक िजन उपायो से बह जात होता है, उस उपायो से समिनवत बडे
महातमाओं मे सवरशेष यह महामुिन वीतहवय उसी समय अपनी देह का उतसजरन कर मुकत कयो नही हो गये ?।।
62।। हे भद, जो िवषयअिभलाषाओं से विजरत, अजानगिनथ से िनमुरकत तथा िविदत वेद महामित महातमा है, वे सब
अपनी देह के िवषय मे सवतंत होकर िसथत रहते है यानी देह को रखना या छोडना उनकी इचछा की बात है। कयोिक
शुित भी है 'तसय ह न देवाश नाभूतया ईशते आतमा हेषा स भवित' (तततवज महािवदान का देवता अभूित के िलए यानी
सवातमक बहभाव-पािपत के िनराकरण के िलए समथर नही होते, कयोिक वह देवताओं के आतमसवरप हो जाता है।)।।
63।।
अब योिगयो की सवतनतता का ही उपपादन करते है।
हे शीरामजी, दैव (पूवर के अनुिषत कमों का फल देने वाले ईशर), कमों की पधानतावाद मे पितपािदत पाकतन
या वतरमान कमर और वासना ये सब उन योिगयो के िचत को, जो अविशष पारबध कमों का उपभोग करने के िलए पवृत
है, अनयथारप से पवृत करने मे समथर नही है।।64।।
हे पीितपात शीरामजी, इसिलए तततवजो का अनतःकरण काकतालीय की नाई अकसमात िजस कण मे िजस
िकसी की यानी पारबध पापत जीवन या मरण की भावना करता है, उसी कण मे उस को ठीक रप से कर डालता है।।
65।। काकतालीय नयाय से वीतहवय की संिवत ने उस समय जीने की भावना की और उसी को ततकाल िसथर कर
डाला।।66।। पारबध की समािपत हो जाने पर जब वीतहवय की पितभा (संिवत्) िवदेहमुकतता की ओर झुक गई यानी
उसने िवदेहमुिकत की भावना की, तब वह िवदेहमुकत हो गये, कयोिक यह मुिन अपने जीने आिद मे सवतनत थे।।67।।
उकत अथर का ही संकेप से उपसंहार करते है।
शीरामजी, समसत वासनाओं से िविनमुरकत तथा अजानरपी बनधन से विजरत होने के कारण ततकाल ही
अनतःकरणउपािधक वीतहवय का जीव पारमािथरक आतमसवभाव उिदत हुआ। चूँिक वह सकल शिकतयो के िनिध महेशर
ही थे, अतः जो चाहते थे, उसी समय वह हो जाता था। कहा भी हैः
तुषेण बदो वरीिहः सयात् तुषाभावे तु तणडुलः। पाशबदः सदा जीवः पाशमुकतः सदािशवः।।
जैसे िछलके से युकत चावल धान कहा जाता है और िछलको के अभाव मे यानी शुद तंदुल कहा जाता है , वैसे
ही अजानरपी पाश से युकत चेतन सदा जीव कहा जाता है और अजानपाश से विजरत चेतन शुद सदा िशव कहा जाता
है।।68।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

नवासीवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआ आआआ आआआआआ आआ आआआआ आआआ आआआआआआ आआआ आआ आआआआआआआ आआ आआआआआआ आआ
आआआआआ-आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ । आआआआआआ
महाराज विसषजी ने कहाः महाभाग, वीतहवय का िचत जब िवचार से, भूँजे बीज की नाई, अंकुरशिकत से
रिहत हो गया था और पितभास से रिहत नही हुआ था, तब उसमे मैती आिद गुणो का आिवभाव हो गया।।1।।
शीरामजी ने कहाः भगवन्, आतमा और अनातमा के िवचार से महामुिन वीतहवय के बािधत हुए अनतःकरण-
सवरप मे मैती आिद गुण उतपन हुए, आपके इस कथन का कया अिभपाय है ?।।2।। हे वािगमयो के िशरोमिण, जब
िचत बह मे बाध हो गया, तब िकसमे मैती आिदगुण उतपन होगे और कहा वे पसफुिरत होगे , यह आप मुझसे किहए।
तातपयर यह है िक उस पिरिसथित मे यह शंका होती है िक कया िजसका बाध हुआ है, उसमे मैती आिद गुण उतपन हुए
एवं उक्त गुण क्या िचदाभास में पर्सफ ् ुिरत होते हैं अथवा िबम्बभूत चैतन्य में ? इनमे से
िकसी भी पक की उपपित नही हो सकती। कयोिक बािधत मृगतृषणा नदी मे या उसके अिधषान मरभूिम मे शैतय आिद
गुण उतपन होते नही देखे जाते। इसी पकार वहा उनका भासक कोई पदाथर भी उपलबध नही होता।।3।। महाराज
विसषजी ने कहाः भद, िचत का िवनाश दो पकार का होता है-एक सरप िवनाश दूसरा अरप िवनाश, साराश यह है
िक सफिटक आिद सवचछ पदाथों मे पडे हुए अपने पितिबमब मे िजस पकार अनय पुरष के भम का आभास होता है, उस
पकार िचत् मे पडे हुए िचत पितिबमब मे िजस पकार अनय पुरष के भम का आभास होता है , उस पकार िचत् मे पडे हुए
िचत पितिबमब मे िचदनतरतव (अनय िचत का) का आभास होता है, उस भासमानरप से युकत एक िचतिवनाश होता है
और दूसरा तादृश रप से शूनय िचत िवनाश होता है। पहला सरप िवनाश तो जीवनमुिकत होने से होता है और दूसरा
अरप िवनाश िवदेहमुिकत से हो जाता है।।4।। इस संसार मे िचत का अिसततव (िचतदशरनपूवरक आतमा का
अदशरन) दुःख का कारण है और िचत का िवनाश (िचतअदशरनपूवरक आतमदशरन) सुख का कारण है। अतः पहले िचत
की अिसतता का िवनाश कर तदननतर िचत का िवनाश कर देना चािहए।।5।।
तब िकस तरह की िचत सता है ? उसे कहते है।
हे शीरामजी, िजसका बाध नही हुआ है, उस अजान से उतपन हुई वासनाओं से वयापत जो जनमकारण मन है,
वही िवदमान मन है, यह आप जािनये। वह िवदमान मन केवल दुःख का ही कारण है।।6।। पाकतन अनािद अधयास
से िसद देह, इिनदय, िवषय आिद के धमों मे आतमा के संसगाधयास से ममता होती है और उससे 'वे मेरे है' यो जीव घना
अिभमान कर लेता है। इसी एकमात अिभमान से जो आतमतततव को न पहचानने वाला दुःखगसत अजानी िचत है , वही
जीव कहा जाता है।।7।। जब तक मन का अिसततव है, तब तक दुःख का िवनाश कैसे ? जब मन असत हो जाता
है, तब पाणी का संसार भी असत हो जाता है।।8।। हे शीरामचनदजी, इस अजानी जीव मे ही वासनारपी अंकुरो के
समूहो से दृढतापूवरक पितिषत हुआ िवदमान मन ही दुःखरपी वृक का मूल है, यह आप जािनये। दुःखरप वृको के
जंगल के अंकुर उसी मन से उतपन होते है।।9।।
शीरामजी ने कहाः बहन्, िकस महातमा का मन िवनष हुआ था ? िवनाश को पापत हुए मन का सवरप िकस
पकार का होगा ? िचत का नाश कैसा है ? और नाश को पापत हुए मन की वयवहार कमता का लकण कया है ?।।
10।।
महाराज विसषजी ने कहाः हे पशवेताओं मे शेष रघुकुलवाहक शीरामजी, मैने 'तामसैवासना-जालैः' इतयािद
पूवर वाकय से िचत की सता का सवरप बतलाया है। अब आपके इसके िवनाश का सवरप सुिनये।।11।। हे
शीरामजी, जैसे िनःशास वायु पवरतराज को अपने सवरप से िवचिलत नही करते , वैसे ही बाह और आभयानतर सुख-
दुःख दशाएँ िजस धीर पुरष को सम-सवभाव तथा पूणाननदैकरस सवातमिनषा से िवचिलत नही करती, िवदान लोग उस
महातमा के िचत को नष िचत कहते है।।12।। 'यह सात िबते का शरीर ही पिसद मै हूँ, यह उससे अितिरकत घट
आिद सब मै नही हँू', इस पकार की तुचछ भावना िजस पुरष को भीतर से संकुिचत नही करती, िवदान उस पुरष के
िचत को नष िचत कहते है।।13।। िजस नररत को आपित, कापरणय यानी दिरदता, उतसाह यानी पुतािद पािपत
पयुकत हषर, मनद, मनदता (अपुटता) और महोतसव यानी िववाह िवरपता की (िवकािरता की) ओर नही ले जाते, िवदान
लोग उसके िचत को नष कहते है।।14।।
लकण की उिकत का उपसंहार करते है।
हे साधो, इस लोक मे यही िचत का िवनाश है और इसी को नष िचत भी कहते है। यही जीवनमुकत महानुभाव
की िचत नाश-दशा है।।15।।
हे िनषपाप शीरामजी, मनसता (परमाथररपता की भािनत से घटािददृशय पदाथों का मनन करना) ही मूढता है, यह
आप जािनये। जब उसका िवनाश हो जाता है, तब िचत िवनाश नामक शुद सतसवभावता का भली पकार उदय होता
है।।16।।
हे राघव, उस िवशुद सतसवभावतवरप िचत िवनाश का, जो जीवनमुकत सवभावातमक है, िकनही लोगो ने िचत
नाम रखा है।।17।। हे पापशूनय रामजी, जीवनमुकत मन मैती आिद शुभ गुणो से समपन उतम वासनाओं से युकत तथा
पुनजरनम से शूनय होता है।।18।। हे शीरामजी, बहाकार वासना से ओतपोत, पुनजरनम से िनमुरकत जो जीवनमुकत मन
की सता है, वह सततवनाम से वयवहृत होती है।।19।।
भद, वयुतथानकाल मे ही पितभासरप से अनुभूत होने से मानो साकार सवरप को पापत तथा सनमातसवभाव की
पािपत होने के कारण देह आिद-पिरचछेद के संसपशर से शूनय जो जीवनमुकत का सवरप है, यह मननीय िवषय के न रहने
से उसका सरप मनोनाश है।।20।।
इससे 'सता नाशसय कीदृशी' इस पशाश का समाधान हुआ, यह समझना चािहए। इसीिलए मैती आिद गुणो की
भी वहा पितभािसत रप से उपपित हो सकती है, यह कहते है।
तदननतर िजस पकार चनदमा मे पसन जयोतसनाएँ रहती है, वैसे ही जीवनमुकत मनोिवनाश मे पसनता, मैती
आिद गुण सदा सब तरह से रहते है।।21।। संतोषरपी शीतलता के आशय, सततवनामक जीवनमुकतसवरप मनोनाश-
दशा मे गुणरपी समपितया उस पकार पसफुिरत होती है, िजस पकार िहमालय मे वसनत ऋतु मे मंजिरया पसफुिरत
होती है।।22।।
दूसरे अरप मनोनाश का िदगदशरन कराते है।
हे रघुकुलभूषण, जो मैने पहले अरप मनोनाश कहा था, वह िवदेहमुकत का ही िवषय है तथा अवयवािद
िवकारो से विजरत है।।23।। शीरामजी, परम पिवत िवदेहमुिकतरपी िनमरल पद मे समसत शेष गुणो का आशय भी
पितभािसक मन िवलीन हो जाता है।।24।। भद, िवदेहमुकत महातमाओं के पापय िवषय उस सततविवनाशरप अरप
िचतनाश दशा मे िकसी भी दृशय पदाथर का अिसततव नही रहता, कयोिक 'यत नाऽनयतपशयिनत नानयचछृणोित
नानयिदजानाित स भूमा' (िजस परबह पद की पािपत दशा मे न दूसरा िदखाई पडता है, न दूसरा सुनाई पडता है, न
दूसरा जात होता है, वह भूमा है) इतयािद शुित है।।25।।
किथत अथर का ही िवसतार करते है।
वहा यानी अरप िचत िवनाश दशा मे न मैती आिद गुण है, न गुणाभाव यानी मनोदोष है, न शी (गुणसमृिद) है,
न शी का अभाव (दोषसमृिद) है, न चपलता है, न उदय है, न असत है, न हषर है, न अमषर है और न पृथक तदीय
पिरजान है।।26।। न तेज (माियक सततववृित) है, न कुछ तम (माियक तमोवृित) है, न सनधया है, न िदन है, न रात
है, न िदशाएँ है, न आकाश है, न नीचा पदेश है और न अनथररपता है।।27।। न कोई वासना है, न िकसी पकार की
रचना है, न इचछा है, न अिनचछा है, न राग है, न भाव है, न अभाव है और न उकत पद साधय है।।28।। वह परमपद
तम और तेज से शूनय तारे, चनद, सूयर और वायु से विजरत, सनधया, रजःकरण और सूयरकािनत से रिहत शरतकालीन
सवचछ आकाश के सदृश अतयनत िनमरल है।।29।। िजस पकार वायु का िवशाल आकाश पितषा सथान है, वैसे ही
वह िवशाल पद उन लोगो का पितषा सथान है, जो लोग संसार के कारण िचत और तजजिनत िनरनतर भमण से परे ह
गये है।।30।। िविवध दुःख से िनमुरकत, सवयं चैतनयरप होता हुआ ही सुपत पुरष, की नाई उनमेष आिद िकयाओं से
शूनय, बहाननद से पिरपूणर तथा रज और तम से रिहत जो पद है, उस पद मे वे महातमा अपुनरावृित से िसथरता पूवरक
रहते है, जो पितभािसक िचताश से भी शूनय, िवदेहमुकत (सथूल, सूकम और कारण शरीरो से रिहत) एवं आकाश कोश
के सदृश सूकम (इिनदय अगमय) हो गये है।।31।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

नबबेवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआ आआ आआआआ आआआआ आआ, आआआआ आआ आआआआ आआ आआ आआआ
आआ आआ आआआआ आआआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआ आआ आआआ, आआ आआआआआआ ।
परबह मे अधयसत चौदह भुवन-सवरप जगत मे िवसतृतरप से फैली हुई जीव सृिषरपी लता के बीजो की
परमपरा की सीमा कहा तक है ? इसको मूल का उचछेद करने मे उपाय जानने की अिभलाषा से पूछने की इचछावाले
शीरामजी पहले जगत का वन के रप मे वणरन करते है।
शीरामजी ने कहाः महाराज, (यह जगत एक तरहका बडा भारी वन है, वहा पर) िनिवरशेष पर बह का
साकातकार करने मे पवरत की नाई पितबनधक होने से पवरत तुिलय अवयाकृत मे उतपन िचतिविचत पृथक पृथक बहाणड
ही वृक है, उन वृको पर तारागण ही फूल लगे है, देवता और असुर पकी है। िवदुत-रपी मंजिरयो से समिनवत िदशारपी
शाखाओं के अगभागो मे नील आिद वणरवाले मेघ ही पललव है। वह सब ऋतुओं मे सुनदर चनदमा और सूयररपी िवकास-
रमणीय पुषपो से उनत दात से युकत होकर हँसता हुआ-सा िसथत है, सात समुदरपी बाविडयो से वेिषत है, सैकडो
निदयो से मनोहर है, लोकभेद से चौदह पकार के और वयिकतशः असंखय भूतगणो से उपजीिवत है यानी उनके जीवन
का साधन है।।1-3।। हे बहन्, इस पकार के जगत-रपी महाअरणय का आकमण करके यानी वासना-पतानो
(िवसतारो) से चारो ओर संवेषन करके जालरचनापूवरक िसथत हुई जीवसृिषरपी दाकलता, -िजसका िवसतृत आकार
है, जरा और मरण ही िजसकी पवर-काणड-गिनथया (पोर) है, िजस पर सुख-दुःखरपी फलो की पंिकतया लगी है, माया
ही िजसका दृढ मूल है, मोह ही िजसकी िसंचन-साधन जलो की अंजिलया है उसका बीज कया है ? उस बीज का भी
बीज कया है, उस बीज के बीज के बीज कया है औऱ तृितय बीज का बीज भी कया है।।4-6।। हे वािगमयो मे सवरशेष,
संकेप से इन चार पशो का मुझको उतर दीिजये, िजससे िक िफर मुझमे जान की अिभवृिद हो और जानरप तततवाश
की िसिद हो।।7।।
महाराज विसषजी ने कहाः राघव, िलंगदेह मे पचछन (िछपे हुए) िचत िविचत अननत कायों के उतपादक
शुभाशुभ कमर ही िजसके बडे-बडे अंकुर है, वह शरीर ही जीव-सृषीरपी लता की बीज है, यह आप जािनय।।8।।
िजस पकार शरत् काल मे शाखाओं के िवसतारो से गहन तथा फल और पललवो से शोिभत होकर पृथवी शसय-समपित
से (हिरयाली से) बढ जाती है, वैसे ही यह जीव-संसृितलता उससे यानी उकत शरीर से अतयनत बढ जाती है।।9।।
'तसय िकं बीजमुचयते' (उस शरीर का बीज कया है ?) इस िदतीय पश का उतर देते है।
वैभव की वृिद और कित इन दो दशाओं के िनिधभूत तथा िविवध दुःखरपी रतो की िपटारीसवरप िचत उकत
शरीर का बीज है, जो िक आशाओं का वश मे रहने वाला एक तरह से अनुचरभूत है।।10।। एकमात तथोकत
सवोपिर िचत से ही यह वतरमान, भूत और भिवषयत् के शरीर समूह उतपन हुए है। और यह बात सबको सवप के भमो मे
सवयं अनुभूत होती है।।11।। हे रघुशेष, िजस पकार मुमूषर मरणासन पुरष के उतपात पदशरनसंकलप से युकत िचत
से ही झरोखे आिद से युकत तथा सुनदर आकारवाला गनधवर नगर उतपन होता है, वैसे ही तत्-तत् शरीरसंकलप से युकत
िचत से ही तत्-तत् शरीर उतपन होते है।।12।।
इस पितपािदत अथर की असंभावना करना युिकतसंगत नही है, कयोिक समसत जगत िहरणयगभर का एकमात
मनोिवकाररप है, यह सब शुित और पुराणो मे पिसद है, यह कहते है।
हे शीरामजी, समपूणर उपचारो से पिरपूणर जो िमथया जगत का सवरप दृशयता को पापत है, वह िचत से उस
पकार उतपन होता है, िजस पकार मृितका जगत का सवरप दृशयता को पापत है, वह िचत से उस पकार उतपन होता
है, िजस पकार मृितका से घट आिद सवरप उतपन होते है।।13।।
तदननतर उसका भी बीज कया है, इस तृतीय पश का उतर देते है।
राघव अनेक तरह की वृितया धारण करने वाले िचत रपी वृक के दो बीज है एक पाण पिरसपनद और दूसरा
दृढ वासना।।14।।
पथम बीज का उपपादन करते है।
जब हृदय की नािडयो मे संचरण के िलए उदुकत होकर पाण वायु अपना वयापार करने लगता है , तब
चेतनिवकार-पायः (वृितजान पचुर) िचत ततकाल ही उतपन होता है।।15।। जब खाद पदाथों के अनुभव से िजन
संसकारो का उदबोधन होने के कारण बहतर हजार नाडी मागों के िछदो मे पाण अपना वयापार छोड देता है , तब उससे
िचत अनदर उतपन नही होता।।16।।
िहरणयगभर की िचित की जगदाकारता भी समिष-पाण के पिरसपनदन से ही युकत होती है, यह बात अपने िचत
के सपनदन के दृषानत से लिकत होती है, यह कहते है।
यह पाण-पसपनदन सवरप ही इस पकार का जगत नामधारी पदाथर िचत के दारा उस पकार लिकत होता है ,
िजस पकार आकाश मे नीलतव आिद लिकत होते है।।17।। समिष पाणसपनदन के िवषय मे उपरत उस िचित की
शािनत यानी िनिषकयता ही शािनत अथात् जगत्-पलय या मोक कहा जाता है, पाण के सपनदन से संिवत् करतल से
िवतािडत गेद की नाई, ऊपर नीचे होती रहती है।।18।। शीरामजी, पाण-सपनदन से बोध को पापत हईु संिवत् देहो मे
चकाकार आवतों से उस पकार पसफुिरत होती है, िजस पकार करतल से िवतािडत गेद आंगन मे चकाकार आवतर से
पसफुिरत होता है।।19।। िजस पकार सूकम से सूकम सवरपवाली संिवत् पाण पसपनदन से बोिधत होती है।।20।।
हे राघव, संिवत् की िविकपतता न होने पर मोकरप सवाितशायी कलयाण पापत होता है, यह आप जािनय। कोभ
हेतु पाण सपनदन का जहा पर पाणायाम के अभयास से िवनाश हो जाता है, वहा पर कोभ होता ही नही है।।21।।
संिवत् का संरोध करने से कया फल है ? और संिवत यिद िचताकार हो जाय तो कौन दोष है ? इस पर कहते
है।
भली पकार उिदत हुई संिवत ततकाल ही बाह िवषयो की ओर राग वश चली जाती है, तदननतर उनके उपभोग
के संवेदन से िचत की अननत दुःख उतपन होते है।।22।। जब संिवत् बाह िवषयो मे उदासीन होकर आतमबोध के
िलए उदुकत होती है, तब पापत करने योगय वह िनमरल मोकरप पद पापत हो जाता है।।23।। हे शीरामचनदजी,
इसिलए िजस पकार मूढ पुरष पाण-पिरसपनदो से तथा रागाितशय के दारा वासनाओं के उतपादनो से संिवत् को
िवसतृतवपयुकत मनसतव की संपित से युकत करते है, उस पकार यिद आप संिवत् को िवसतृत नही करते है , तो जनम
आिद समसत िवकारो से शूनय होकर मुकत ही हो जायेगे।।24।। शीरामजी, संिवत् की सथूलता को (मोटेपन को) आप
िचत जािनये, संिवत् के सथूलतारपी उसी िचत ने इस अनथर जाल का िवसतार िकया है, िजसने िक मनुषय जीवो को
खिणडत और जजरर कर डाला है।।25।। योगी लोग िचत की शािनत के िलये योगशासत मे बतलाये गये पाणायाम,
धयान तथा सदगुर के समपदाय आिद से िसद युिकत-किलपत शािनतकारक उपायो के अभयास से पाण का िनरोध करते
है।।26।।
फल की एकता के रप से पाण के संरोधन की ही पशंसा करते है।
हे शीरामजी, बडे बडे िवदान लोग पाण-िनरोध को ही िचत-शािनत रप फल का दाता, उतम समता का हेतु, छः
पकार के ऐशयों से युकत तथा संिवत् की सवसथता कहते है।।27।।
िचत के अनय बीज का वणरन करने के िलए पितजा करते है।
हे राघव, जानी पुरषो के दारा भली पकार उपिदष तथा सवयं अनुभूत वासनाओं से जीवन पयरनत उजजीिवत
इस िचत की दूसरे पकार से उतपित सुिनये।।28।।
उसमे पहले वासना का सवरप कहते है।
पहले के जनमो की दृढ भावना से देह आिद जड पदाथों का जो 'अहम्' 'मम' इतयािद संसकाररप से
आदान(गहण) होता है, वह यिद पूवापर िवचार से शूनय हो जाता है तो वह वासना शबद से वयवहृत होता है 'वासयित
भावयित इित वासना' वयुतपित से आतमा को देह आिद भावो मे भािवत करने वाला संसकार वासना कहा जाता है।
पूवापर के िवचारो से युकत जीवनमुकत महातमाओं का देह आिद संसकार वासना नही है, कयोिक िवरोधी पूवापर िवचारो से
समिनवत होने के कारण उनको उकत संसकार देहािद भावो मे भािवत नही कर सकता, यह भाव है।।29।।
अजानी आतमाओं को तो वह संसकार, िकसी पकार का िवरोध न होने के कारण, तीवर संवगे से आतमा के दारा
िजस पदाथर की भावना की जाती है, ततकाल ही वह महातमा अनय संसमरणो को छोडकर तदूप ही हो जाता है।।
30।।
वह भावना िजस पकार देह मे आतमता दीखलाती है, उसी पकार बाह अथों मे सता भी दीखलाती है, ऐसा
कहते है।
वासना के दारा अतयनत वशीकृत उस भावना से भािवत वह पुरष, िजस िकसी को देख लेता है, उस सबको
वह यह सत्-वसतु है, इस पकार मोह कर लेता है।।31।। वासना के वेग से पुरष अपने रप को छोड देता है और
िजस पकार मिदरा के मद से दुषदृिष होकर वासना के दारा उपसथािपत समसत भानत जगत के रप को देखता है।।
32।। आतमिमथयाजान से युकत हुए पुरष भीतरी वासनाओं से वशीकृत होकर, िवष से वशीकृत पुरष की नाई, अनेक
मानसी आपितयो से िवकल रहता है।।33।।
वही िचत की िचतता के रप से वासना पयुकत उतपित है, इस आशय से कहते है।
हे शीरामजी, िजससे अनातम-वसतु मे आतमतवबुिदरप अयथाथर जान और अवसतु मे वसतुतव-रप अयथाथर
जान होता है, उसको आप िचत जािनये।।34।।
हे भद, दृढ अभयास के कारण देह आिद पदाथों मे 'अहम्', 'मम' आिद आतमाधयासरप एकमात वासना से ही
जनम, जरा और मरण मे हेतुभूत अितचपल िचत की उतपित होती है।।35।।
इसीिलये वासना के िवनाश से िचित की सवसथतारप मुिकत होती है, ऐसा कहते है।
जो कुछ भी हेयसवरप और उपादेय सवरप वसतु है, वह जब अिसततव पापत नही करती और सबका पिरतयाग
कर अविसथत रहती है, तब िचत उतपन नही होता।।36।। हे शीरामजी, िनरनतर वासना का अभाव होने से जब मन
मनन नही करता, तब अमनसता का उदय होता है, जो िनरितशय मोकसवरप शािनत पदान करती है।।37।। आकाश
मे मेघ की नाई संिवदाकाश मे जब कुछ भी सफुिरत नही होता, तब आकाश मे कमल की नाई िचदाकाश मे िचत उतपन
नही होता।।38।। जब जगदूप वसतु मे िकसी पदाथर की भावना नही होती, तब शूनय हृदयाकाश मे िचत कैसे उतपन
होगा ?।।39।। हे शीरामचनदजी, बस, इतना ही िचत का सवरप मै मानता हूँ िक राग से जगत्-रपी वसतु के अनदर
आतमरप वसतुतव से भावना करना।।40।। हे शीरामजी, इस कारण कोई भी दृशय युिकतयो से समथरन करने योगय
नही है, इस पकार की भावना कर रहे तथा आकाशकोश की नाई अित सवचछ आतमपदाथर मे िचत का उदय कैसे होगा
?।।41।।
अब अिचततव का लकण कहते है।
हे शीरामजी, बाहवसतुओं से असमरणरप िनरोधयोग का अवलमबन करने से समसत दृशयो के पिरमाजरन -
सवरप अभाव का समपादक पारमािथरक आतमदशरन से जो सवरप आिवभूरत होता है, वह अिचत कहा जाता है।।
42।।
तब वृित से िविशष िचत के रहने पर जीवनमुकत अिचत कैसे ? इस पर कहते है।
हे शीरामजी, भीतर से सब कुछ का पिरतयाग कर सुशीतल बहरप आशय मे लगा हुआ जो िचत है, वह
कदािचत वृित से युकत हो गया, तो भी वह असत् सवरप ही है।।43।।
दगधपट के अवभास से सतयपटरपता नही कही जा सकती, िकनतु असतयपटरपता ही कही जा सकती है,
यह तातपयर है।
हे शीरामजी, िजस महामित पुरष को संसकार से जिनत िवषयरसासवाद के संसमरण से िवषयानुरिकत उतपन
नही होती, उस महामित पुरष का िचत अिचतरपता को तथा िवशुद सततव को यानी पटभसम की नाई अविशष
अिधषानभूत सता को पापत हुआ है, ऐसा कहा जाता है।।44।।
तब जीवनमुकत पुरष वयवहार कयो करता है ? इस शंका पर कृतकायर कुमहार के चकभमण की नाई वह
वयवहार करता है, ऐसा समाधान देते है।
िजस महापुरष मे पुनजरनम की उतपादक वासना है नही, वह चक की भिम के सदृश जगत के वयवहार मे िनरत
होता हुआ भी जीवनमुकत और सततवसथ है। तातपयर यह है िक िजस पकार कुमहार के वयापार के अभाव मे भी चक का
भमण तब तक होता रहता है, जब तक िक उसमे संसकार (वेग) रहता है, उसी पकार अिवदा के कीण होने पर भी
संसकार के अविशष रहने से जीवनमुकत शरीर और उसका वयवहार दोनो पारबध भोगपयरनत िवदमान रहते है।।45।।
इन महानुभावो की वासना भूँजे बीज के सदृश पुनजरनम से शूनय और रस से विजरत यानी िवषयानुरिकत से रिहत है , वे
महानुभाव जीवनमुकत होकर अविसथत रहते है।।46।। हे शीरामचनदजी, िजनका िचत सततवरपता पापत कर चुका
है, ऐसे जान के पारंगत हुए वे महातमा 'अिचत' शबद से वयवहृत होते है। पारबध का कय हो जाने पर वे
िचदाकाशसवरप हो जाते है।।47।।
वासना के बीज का िवनाश होने पर अनय बीज से िचत की उतपित कयो नही होगी ? तो इस पर कहते है।
हे राम जी, िचत के दो कारण है, एक पाणसपनदन और दूसरा वासना। उन दो कारणो मे से िकसी एक का
िवनाश हो जाने पर ततकाल दोनो नष हो जाते है।।48।। हे शीरामजी जैसे घटाकाश के दारा जल का सवीकार
करने मे घट और जलाशय दोनो िमलकर कारण होते है। वैसे ही िचत की उतपित मे ये दोनो परसपर िमलकर ही
कारण होते है, एक कारण नही होता।।49।। शीरामजी, केवल एक मात घनीभूत वासना ही बलपूवरक पुनजरनम उतपन
नही करती। 'उसका भी कया बीज है' इस चतुथर पश का भी, अनवसथा का पिरहार करते हुए, उतर देते है। ये
पाणसपनदन और वासना दोनो, ितलो मे तेल की नाई, एक दूसरे के भीतर िसथत है और बीजाकुरनयाय से काल की
अपेका रखने वाले कम से युकत होकर एक दूसरे का कारण है।।50।।
इसी पकार िचत की भी उन दोनो के पित और ऐिनदयक सुख -दुःख आिद के पित कारणता है, ऐसा कहते है।
संिवत्-सवरप यह िचत सबको यथाकम से यानी पहले पाण को, तदननतर इिनदयो को और तत्-पयुकत आननद को
उतपन करता है, इसी पकार पूवर मे उपभुकत िवषयाननद और तातकािलक जीवनसवरप पवनसपनद मे वासनारप से भी
िचत की उतपादकता है, ऐसा कहते है।
जब आननद और पवन दोनो वासनासवरप हो गये, तब उनहोने साथ िमल कर ही िचत का उतपादन िकया। वे
पुषप मे सुगंिध तथा ितल मे तेल के समा वयविसथत है, इसिलए एक दूसरे का एक दूसरा आशय और एक दूसरा का एक
दूसरे हेतु हो सकता है, अनावसथा दोष का पसंग नही हो सकता।।51,52।।
हे शीरामजी, िचतरप बीज मे वासना से ही पाण सपनदन होता है पाण-सपनदन से वासना होती है और उससे
बीज का अंकुरकम उतपन होता है।।53।।
दोनो मे िचतउतपादकता है, इस पकार बतलाते है।
वासना का ऊधवरगित सवभाव होने से वह संिवत के कोभकारक कमर से पाण पसपनदन का उदबोधन करती है
उससे िचत उतपन होता है।।54।। सपनदनधमरवान् होने से हृदयगत राग आिद गुणो की पेरणा करने वाला पाण संिवत
का उदबोधन करता है और कम से िचतरपी बालक उतपन होता है।।55।। हे शीरामजी, उस पकार वासना और
पाणसपनद दोनो िचत के कारण है, उनमे से िकसी एक का कय हो जाने पर दोनो का और उनके कायर िचत का िवनाश
हो जाता है।।56।।
िचत का वृकरप से वणरन कर रहे महाराज विसषजी वासना के कय से िचत िवनाश होता है, यो कहते है।
हे शीरामजी, सुख और दुःख के मननातमक सपनदन से उकत, शरीररपी महान फल से समिनवत, कायररपी
पललवो से पूणर आकार को धारण करने वाला, तृषणारपी काले सापो से वेिषत, राग तथा रोग रपी बगुलो का आशय,
अजानरपी दृढ मूल से संयुकत, इिनदयरपी पिकयो से आकानत िचतरपी वृक को कीणता-पापत वासना उस पकार िगरा
देती है, िजस पकार काल से पिरपकव फल को वायु पवाह िगरा देता है।।57-59।।
उसी िचत का आँधी से उडाये गये धूिल के ढेर के रप मे वणरन करते हुए , िजस पकार पवन के िनरोध से
धूिलपटल का नाश हो जाता है, उसी पकार पाणसपनदन के िनरोध से मनरपी धूिल-पटल का िवनाश हो जाता है, यो
कहते है।
हे शीरामजी, समसत िदशाओं को मिलन करने वाली, पूणर चैतनय रपी (पक मे सवरजननेतरपी अिखलदशरन को
ढक देने वाली, चंचलमेघ के सदृश आकारवाली, अजानरपी झाडू से आिवभूरत, तृषणारपी तृणखणडो से वयापत, सतमभ के
सदृश आकारवाली देह से (पक मे वातयासंसथान से यानी धूिलसतमभ से) युकत, पसफुिरत हो रहे सवलप वृितयो से (पक
मे िविभन िदशाओं से आने वाले वायुओं के झुंडो से ) कुबध, सब िदशाओं मे उडने मे दक और भीतर मे िसथत बह के (पक
मे सूयर के पकाश के) पतयकीकरण मे असमथर पवन से उडाई गई िचतरपी धूिल पाणसपनदन के िनरोध से अनायास
कणभर मे िवलीन हो जाती है।।60-61।।
अब दूसरे बीज का िनवरचन करते है।
हे शीरामजी, वासना और पाणसपनदन इन दोनो का संवेद यानी िपय और अिपय शबद आिद िवषय बीज है,
कयोिक उनही से वे दोनो पसफुिरत होते है।।63।। हृदय मे िपय और अिपय शबद उन दोनो का बीज है।।64।। हे
भद, िजस पकार मूल के उचछेद से वृक ततकाल नष हो जाता है, उस पकार संवेद का (िपय-अिपय िवषय का)
पिरतयाग करने से पाणसपनदन और वासना दोनो ही ततकाल समूल नष हो जाते है।।65।।
संिवत के साथ अभेद-भावना ही संवेद का पिरतयाग है, ऐसा कहते है।
हे राघव, संिवत ही अपनी वीरता का पिरतयाग कर संवेदसवरप-सी बनकर िचत बीजरप हो जाती है, यह
आप जािनये, िजस पकार ितल तेल से रिहत नही है, उस पकार संिवत से रिहत कोई भी संवेद पदाथर पिसद नही
है।।66।। न बाहर और न भीतर कोई भी संवेद संिवत से अलग रहता है , अपने संकलप से संिवत ही पसफुिरत होती
है सवयं संवेद को देखती है।।67।। िजस तरह सवप मे अपना मरण और िभन देश मे िसथित दोनो अपने चमतकार
के योग से ही होते है, उसी तरह जागतकालीन संवेद भी संिवत के चमतकारमात से ही होते है।।68।। हे रघुननदन
िजस िववेक अवसथा मे अपने पारमािथरक सवरप का अनुभव होता है , वह सवसवरपानुभव भी अपने संकलप से जिनत
सवप के सदृश ही है, कयोिक अदय परमातमा मे सवसवरपानुभव और िववेक आिद परमाथरतः नही हो सकते है।।69।।
हे राघव, जैसे बालक को अपने संकलप से जिनत भम से ही वेताल का उदव होता है अथवा जैसे सथाणु मे
पुरषरपता होती है, वैसे ही संकलपजिनत भम से ही संिवत् की संवेदरपता होती है।।70।। जैसे िखडकी आिद
िछदो मे से पिवष चनद या सूयर की िकरणो की दणडकारता उसके भीतर घूम रहे तसरेणुओं की आकाररपता पतीत
होती है अथवा जैसे नौका मे अविसथत पुरष को पवरत आिद अचल पदाथों मे सपनदन िदखाई पडता है , वैसे ही संिवत
से संवेद पतीत होता है।।71।। शीरामजी, यह भािनतजान िमथयारप है, उसका यथाथर आतमजान से उस पकार
िवलय हो जाता है, िजस पकार रजजू और चनद के िनदोष दशरन से रजजु मे सपरभािनत और एक चनद मे दो चनदरपता
की भािनत का िवलय हो जाता है।।72।।
तब यथाथर जान िकस तरह का है, उसे कहते है।
हे शीरामजी, ये जो तीन लोक है, वे िवशुद संिवत-सवरप ही है, उससे पृथक नही है, इस पकार का भीतरी जो
दृढ जान है, वही यथाथर जान है, ऐसा पिणडत लोग कहते है।।73।।
उस यथाथर जान से िजसका माजरन करना है, उसे बतलाते है।
पहले देखा गया या नही देखा गया पदाथर इस संिवत को जो भासता है , उसका इस यथाथर जान से िवदान को
पिरमाजरन कर देना चािहए।।74।। उकत पितभास का माजरन न करना ही बडे भारी संसार के साथ आतमा का संसगर
करना है और उसका पिरमाजरन करना ही मोक है, यह अनुभविसद बात है।।75।। शीरामजी, िपय-अिपय शबद आिद
िवषयो का अनुभव जनमरप अननत दुःख का हेतु है और िचदेकरससवभाव मे पितिषत असंिवित यानी िवषयो का
अदशरन पुनजरनम से विजरत िनतय आतमसवरप सुख का हेतु है।।76।। हे रघुदह, इसिलए आप भी शबद आिद िपय
अिपय िवषयो के दशरन से िवमुख होकर जडतारिहत, एकरससवरप तथा पूणाननदातमक हो जाइये। जो असंवेद भी
सवतः पबुद आतमा है, तदूप ही आप हो जायेगे, अनयरप नही हो जायेगे।।77।। शीरामजी ने कहाः भगवन, एक ही
पदाथर अजड भी और असंिवितरप भी कैसे हो सकता है ? असंिवितरप होने पर वह जडता कैसे िनवृत होगी ?
तातपयर यह है िक जडता का पिरतयाग होने पर संवेदन का शेष अवशय रहेगा और संवेदन का पिरतयाग होने पर जडता
का शेष अवशय रहेगा, ऐसी िसथित मे एक ही पदाथर अजड और असंिवितरप-यो िवरद सवभाववाला कैसे हो सकता है
? यह आप मुझसे किहए।।78।।
महाराज विसषजी ने कहाः भद, संिवत्-शबद का एक अथर है-बाह अथों को सतयरप से जानना। इस अथर
को लेकर बािधत अथों के अनुभवो से वयवहार आभास को िदखला रहा भी जीवनमुकत महातमा समसत वतरमान िवषयो मे
आसथा नही रखता एवं वासना का कय हो जाने के कारण भूत और भिवषयत की वसतुओं मे भी कही आसथा नही रखता,
इसिलए िकसी भी वेद को सतयरप से न जानने के कारण उतने अंश को लेकर काष-लोष की नाई असंिवत रप
और सवतः तो सवपकाश िचदेकरस से पूणर होने के कारण अजडरप कहा जाता है, यह तातपयाथर है।।79।।
संिवत्-शबद का पूवोकत अथर बतलाते हुए किथत भाव का ही समथरन करते है।
शीरामजी, सतयतव बुिद से िचित का बाह अथों का अवलमबन करना ही संिवत कहा जाता है, उकत पकार की
संिवत िजस महापुरष को नही होती, वह असंिवत अजड कहा जाता है, िफर वह सैकडो कायों मे वयसत ही कयो न हो ?
इससे 'सवरतानवसतासथः' इस पद का तातपयर पकट िकया।।80।।
'िवशानतासथो न कुतिचद् ' इस अंश का भी अतीत िवषयो मे तातपयर खोलते हुए उसे ही कहते है।
हे शीरामभद, िजस महातमा की बुिद िपय और अिपय शबद आिद िवषयो से तिनक भी आसकत नही होती, वही
अजड संिवत् और जीवनमुकत कहा जाता है।।81।।
उकत वाकय का अनागत िवषयो मे भी तातपयर खोलते हुए उसे कहते है।
वासना विजरत न होने के कारण अपनी आतमा मे जब िकसी भिवषयत पदाथर की भावना नही की जाती और
बालक एवं मूक के िवजान के सदृश िसथर होकर िसथर रहता है, तब जडता से िविनमुरकत, िवशाल एवं सवचछ िवजान
का अवलमबन कैसे हो जाता है, इससे पाज पुनः िलपत नही होता।।82,83।।
शंका का समाधान कर अब पकृत िवषय का समथरन कर रहे महातमा विसषजी कहते है-
समसत वासनाओं के तयाग के अननतर होने वाली िनिवरकलप समािध से असीम आननद उस पकार पतीत होता
है, िजस पकार आकाश से असीम नीलापन पतीत होता है।।84।। शीरामभद, संवेदन से रिहत (घटािद आकार
वृितयो से विजरत) योगी लोग उसी असीम आननद मे िसथत रहते है।
यिद शंका हो िक अनयाकार संवेदन का अभाव होने पर भी बहाकार वृितरप संवेदन का समािध मे तो
िनवारण नही कर सकते, ऐसी िसथित मे असंिवतृतव कैसे ? तो इस पर कहते है-
आननदमय धयेयरप होने से अपिरिचछन बहाकार वह संवेदन भी अपने दारा पदीपत बहरप जयोित से बािधत
होकर उसी के अनदर लीन हो जाता है।।85।। इसिलए वह घटािद आकार वृितयो का तयाग करने वाला योगी
चलते, बैठते, सपशर करते और सूँघते इन सब अवसथाओं मे भी अजड, आननद से पूणर और सुखी कहा जाता है।।
86।। हे असीम गुणो के सागर शीरामजी, पाणायाम आिद पिरशम से साधय यतपूवरक चेषा से इस जाडयरिहत
संिवदूपी दृिष का अवलमबन कर आप दुःख सागर के पार तैर जाइये।।87।।
िचदातमा सवयं ही अपने िमथयाभूत बनध और मोक की कलपना करता है, ऐसा कहते है।
जैसे काल पाकर बीज महान वृक होकर आकाश को वयापत कर लेता है, वैसे ही यह अपने संकलप से ही
उतपन हुआ असत् िवषय-समूह काल पाकर िचदाकाश को वयापत कर लेता है।।88।।
कब िकस पकार उितथत हुआ ? उसे कहते है।
बार-बार संकलप करके जब संिवत अपना संकलपमय सवरप पापत कर लेती है , तब वही इस जनमजात की
बीजता को पापत हो जाती है।।89।। हे राघव, अपने आपसे अपना उतपादन कर और अपने आपसे ही अपने को बार-
बार मोिहत कर तदननतर हृदयसथ आतमतततव को जान रही संिवत सवयं अपने मोक की ओर ले जाती है, यह बात
िवदानो के अनुभव से पिसद है।।90।। हे शीरामजी, यह संिवत िजसकी भावना करती है, ततकाल ही तदूप हो जाती
है।
तब उसी समय सब पािणयो की संिवत अपने सवरप की भावना से अपने सवरपभूत मोक को यथेचछ कयो
पापत नही होती, तो इस पर कहते है।
राग आिद की भूिमकाओं से मुकत नही हुई संिवत दीघर-काल होने पर भी अपना सवरप पापत नही कर
सकती।।91।।
इसीिलये देव, गनधवर आिद सवरप भी इसके किलपत वेष ही है, वासतव नही है, ऐसा कहते है।
न यह देव है, न सुर है, न राकस है, न यक है, न िकनर है और न तो मनुषय ही है, िकनतु आिद िसद िवलािसनी
अपनी माया से आतमा जगत रपी नाटक खेलता है जैसे मायावी नट।।92।।
जैसे कोशकारकृमी अपने आपको बाधता हुआ तथा छुडाता हुआ देखा जाता है, वैसे ही पकृत आतमा के िवषय
मे भी जानना चािहए, ऐसा कहते है।
जैसे कोवे का िनमाण करने वाला रेशम का कीट अपने आपको सवभाववश से बाधकर और दुःखभोग कर
दीघरकाल के अननतर केवलता पापत करता है, वैसे ही संिवत् भी अपने आपको संसार मे बाधकर और दुःखभोग कर
दीघरकाल के अननतर सवभाववश से सवयं ही बनधन आिद से िनमुरकत होकर केवलता पापत करती है।।93।।
जगतरपी समुदो का संिवत ही पयापत जल है, यही अपूवर िदशाओं का मणडल है और यही पवरत आिद भावो को पापत
होकर पसफुिरत होती है।।94।। हे शीरामजी, संिवत्-रपी जलसंतित के दुलोक, पृथवी,वायु, आकाश, पवरत, निदया,
िदशाएँ ये सब तरंग है।।95।।
हे भद, जगत केवल संिवनमातसवरप ही है, उससे पृथक दूसरी कोई कलपना ही नही है, इस पकार के जान से
ही संिवत अदयरपता पापत करती है।।96।।
कब संिवत को समयक् जान होता है, इस पर कहते है।
जब संिवत कुछ िवषय पापत नही करती, जब साधारण चलन और असाधारण कमपन नही करती एवं जब अपने
सवरप मे अवसथान करती है, तब वह िलपत नही होती।।97।।
पूवोकत पणाली से भली पकार शोधन करने के अननतर पिरशेषरप से अविशष हुई संिवत अनतःकरण मे
संिवत-पितिबमबसवरप ही है, इस पकार की शोतृ-वगर की भािनत का िनरास कर रहे शीविसषजी महाराज
अिगनिवसफुिलंगनयाय से पितिबमब की बीजभूत सनमातसवरप बहसंिवत ही उकत संिवत है, यो िदखलाते है।
हे शीरामजी, इस संिवत् का सनमातसवरप बह ही बीज कहा जाता है। िजस पकार सूयर आिद तेज से पभा
उिदत होती है, उस पकार यह पितिबमबभूत संिवत िबमबभूत संिवनमातसवरप बह से ही उिदत होती है।।98।।
जो पहले शलोक मे 'सनमातरप बहबीज है' ऐसा कहा गया है, वहा पर घट, पट आिद मे रहने वाली
अथरिकयाकािरतवरप वयवहािरक सता ही उसकी बीज है, ऐसा िकसी को भम न हो, इसिलए वयावहािरक सततव से
िवलकण सततव बतलाने के िलए पहले सता की िदिवधता बतलाते है।
शीरामजी, सता के दो रप िसथत है-एक तो अनेक आकारवाला होकर िसथत है और दूसरा एकरप होकर
िसथत है। अब उनका िवभाग सुिनये।।99।। घटािदरपो के िवभाग से जो घटतव, पटतव, तवतव, मततव आिद
उपािधभूत सता कही जाती है, वह नानाकृित सतासवरप है।।100।।
घटतव, पटतव आिद उपािधया, जो अथरिकयाओं का भेद होने पर सवरपयोगयतारप है, वे वयावहािरक सतारप
ही है, यह आशय है।
िवभाग का पिरतयाग कर सतारप से वयापत समसत जगत के अिधषान सवरप साधारण सवभाव से जो सता
का रप िवदमान है, वह एकरप कहलाता है।।101।।
िवशेषाश का पिरतयाग कर सनमातसवरप जो िलपत न करने वाला सता का एक रप सवरप है , वही
वयापकरप और वसतुततव है, ऐसा िवदान कहते है।।102।।
हे शीरामजी, सता का रप नाना आकार के रप मे कभी नही है, चूँिक तदघटतव आिदरप कपाल, चूणर, धूिल
आिद अवसथाओं मे असंवेद होकर अनुवतरमानता के रप से िदखाई नही पडता है, अतः वह सतयरप नही हो
सकता।।103।।
समसत अवसथाओं मे अनुगत सदूप तो वैसा नही है, ऐसा कहते है।
सता का जो िवमलातमा एकरप सवरप है, वह कभी भी नाश पापत नही करता और न कभी िवसमृित पापत
करता है, अथात् सदा पकाशमान-रप होने से वह िनतय चैतनयेकरससवरप है।।104।। हे शीरामजी, यह कालसता
है और यह वसतुसता है, इस पकार की भी िवभागकलपना का पिरतयाग कर आप एकमात सतसवरप मे ही आिशत हो
जाइये। तातपयर यह है िक कुछ लोग कहते है िक अतीत और अनागत वसतुओं मे 'अिसत' इस पकार का वयवहार न
होने के कारण वतरमान काल ही सब वसतुओं की सता है यानी सब पदाथों की सता वतरमानकाल-सता है। कुछ लोग
कहते है िक समूह बन कर अवयव ही अवयवी के रप मे सफुिरत होते है अतः कला ही परमाणुरप अवयव ही जगत
की सता है, और कुछ लोग यह कहते है िक अवयवी पदाथों मे भी अनुगत सता जाित है , इसी पकार अनयानय लोग भी
अपनी अपनी बुिद के अनुसार अनयानय सताओं की कलपना करते है, हे शीरामजी इस तरह की तत्-तत् मत मे किलपत
िवभाग कलपना का तयाग कर आप सनमातसवरप एकमात बह का ही अवलमबन कीिजये, इसी से आपके मनोरथो की
िसिद हो जायेगी।।105।। हे भद, िजस पकार अधयसत भेद का पिरतयाग करने पर अिधषान सनमात के पिरशेष से
समसत जगत उतम सतासवरप है, वैसे ही अधयसत भेदकलपना का पिरतयाग करने पर यदिप कालािद सता भी उतम
सतासवरप ही हो जाती है, तथािप वह िवभकत रप से बाधयोगय होने के कारण पारमािथरक नही है।।106।। जहा
िविभन-िविभन पदो को देने वाली िवभाग कलपना नानारपता का कारण देखी जाती है , वहा वह पावन पद कैसे हो
सकता है ?।।107।। हे शीरामजी, एकमात सामानय सतातमक ही समसत जगत है, इस पकार की भावना करते हुए
आप पिरपूणर आननद से युकत तथा सब िदशाओं और उनमे िसथत पदाथों को वयापत करने वाले हो जाइये।।108।। हे
िवज जनो मे शेष शीरामजी, सामानय सतामात की परम अविधभूत जो सता है, वही इस जगत की और पितिबमब िचत
की बीजरप हुई है और उसी से यह समसत जगत पवृत हुआ है।।109।। हे शीरामभद, समसत सताओं की चरम
अविध मे जो कलपनाओं से िनमुरकत पद है, वही पद आिद (उतपित) और िवनाश से शूनय है, उसका कोई बीज है नही।।
110।। िजस पद मे सदमरता भी लीन हो जाती है और जो िनिवरकाररप से अविसथत है, उस पद मे अपना दृढ सथान
कर लेने वाला पुरष कभी इस दुःखमय संसार मे आता नही है और वही असिलयत मे पुरष है , दूसरा तो सतीपाय है,
यह भाव है।।111।।
परम पुरषाथररपता बतलाने के िलए उसी की पशंसा करते है।
वही पद समसत हेतुओं का हेतु है, उसका कोई दूसरा हेतु नही है, वही समपूणर सारो मे सारभूत है, उससे
बढकर दूसरी सारभूत वसतु नही है।।112।। शीरामजी, जैसे तालाब मे तटसथ वृक पितिबिमबत होते है, वैसे ही उस
पतयक् रप असीम बहातमक दपरण मे ये सब वसतुदृिषया पितिबिमबत होती है।।113।। उसी पतयकरप बह मे
अधयसत होने के कारण ये सब पदाथर इिनदयपीित उतपन करते है। िजस पकार जीभ से छः रस सफूितर या सता पापत
करते है, वैसे ही आननद के सागर उसी बह से सभी पकार के आननद सफूितर या सता पापत करते है।।114।। चूँिक
असवादु पदाथर भी आननदसमुद बह के संसगर से इिनदय-पीित उतपन करते है, इसिलए वह िचदाकाश का पद यानी
सवरप सवादु और िपय पदाथों के बीच मे सबसे बढ-चढ कर आननदरप और िपयतम है।।115।।
'आननदादयेव खिलवमािन' (आननदातमा बह से ही ये सब भूतपदाथर उतपन होते है , उसी से उतपन होकर उसी
से जीिवत रहते है और उसी की ओर जाकर उसी मे लीन हो जाते है ) इतयािद शुित से पितपािदत जगत के जनम आिद
के कारणतवरप बह-लकण का समनवय भी उसी मे है, यह िदखलाते है।
हे िपय शीरामजी, िवपिरणाम से युकत होते है, अपकयोनमुख रहते है और लीन हो जाते है।।116।।
यह भारी, यह हलका, इतयािद वैिचतय का वही सामानयातमक पद िनवाहक है, ऐसा कहते है।
वह बह भारी पदाथों मे अतयनत भारी, हलके पदाथों मे अतयनत हलका सथूलो मे अतयनत सथूल (मोटा) और
सूकमो मे अतयनत सूकम पिसद है।।117।। वह दूरवृितयो मे अतयनत दूरतम, समीप वृितयो मे अतयनत समीपतम,
छोटो मे अतयनत छोटा, और बडो मे अतयनत खडा भी है।।118।। हे िपय शीरामजी, वह सूयर आिद तेजो का भी तेज,
अनधकारो का भी अनधकार, वसतुओं का भी वसतु और िदशाओं का भी पर िदशारप है।।119।। वह बहातमक पद
लोक मे पिसद कोई वसतुरप नही है और सवलप से भी सवलपतर पिसद वसतुरप भी है , वह सताशय (भावातमक) और
असताशय (अभावातमक) भी है, वह दृशयरप और अदृशयरप भी है, वह अहंरप और अहंरप नही भी है।।120।। हे
िनषपाप शीरामजी, समपूणर पयतो से उस परम पावन पद मे िजस पकार आप िसथत हो, उस पकार यत कीिजये।।
121।।
हे शीरामजी, उकत सतासामानयकोिट मे (शोिधत ततपदाथर की चरमाविध मे) िसथत वह पद िनमरल और
िवकारविजरत है, वही आतमा का पारमािथरक सवरप है, उसका साकातकार करने पर िचत बािधत हो जाता है। इसिलए
जयो ही आप एकमात वयापक उकत सवरप अवगत कर लेगे, तयो ही िचरकािलक अपुनरावृित के िलए संसाररप भय से
िनमुरकत परम पद सवरप ही हो जायेगे।।122।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

इकयानबेवा सगर समापत


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआ आआआआ
आआआआआआआआआ आआआआआआआआआआआआआ आआआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआआ आआ आआआ
आआआआआ आआआ आआ आआआआआआआआआआआआआ आआआआआ आआ आआआआआआआआ आआ आआआआआ।
शीरामजी ने कहाः मानयतम, आपने ये जो पूवोकत जीवसृिष-लता के बीज बतलाये, उनमे से िकस बीज की
िनवृित करने से परमपद पापत िकया जा सकता है ? यह तो एक अथर हुआ। दूसरा अथर इस पकार हैः हे भगवान,
आपने ये जो अभी मोक के 'अथाऽसयाः संिवदो राम' इतयािद से भूिमका िवशेषरप बीज बतलाये, उनमे से िकस बीज का
अवलमबन करने से परम पद पापत िकया जा सकता है ? यह कृपाकर मुझसे किहये।।1।।
शीरामजी के इस पश पर महाराज विसषजी पहले अथर के अनुसार उतर देते है।
महाराज विसषजी ने कहाः भद, मैने आपसे इन दुःखो के बीजो के िवषय मे जो-जो उतर िदया है उस उस की
िनवृित करने से ततकाल ही पुरष परम पद पापत करता है।।2।।
अब िदतीय अथर के अनुसार उतर देते है।
हे रामभद, शोिधत ततपदाथररप सता सामानय की पराकाषा मे िसथत पद मे यानी चैतनयरप शोिधत तवंपदाथर
का अभेद होने के कारण अखणड एकरसरप पद मे यिद आप बलपूवरक वासना का पिरतयाग कर पुरष पयत से कणभर
के िलए भी िसथित-िचत की िनशलता बाधे, तो हे ततवज, आप उसी कण मे उकत उतम पद को पूणररप से पापत कर
ले।।3,4।।
यिद वैसी िसथित बनाने की शिकत न हो, तो भी कहते है।
हे िपय शीरामजी, अथवा यिद सतासामानयरप शोिधत जगतकारणातमक तततव मे आप िसथित (िचत की
िनशलता) करते है, तो कुछ अिधक आवशयकता होती है, इससे 'अिधकेन यतेन' कहा।।5।।
हे अघशूनय शीरामजी, शोिधत तवंपदाथररप संिवत-तततव मे धयानसमपन होकर यिद िसथत रहते है तो और कुछ
ऊँचे अिधक पयत से उकत पद पापत करेगे।।6।।
यिद शंका हो िक शोधन से संिवत्-अंश का तयाग होने पर एकमात संवेदाश का धयान भी उपाय कयो नही
होगा, तो नही, कयोिक वह अशकय है, ऐसा उतर देते है।
हे राघव, केवल संवेद के िवषय मे यानी केवल िवषय मे धयान ही नही हो सकता, कयोिक सवरत सब अवसथाओं
मे इसी संिवत का ही संभव है यानी िवषयो से पहले पसफुिरत हो रही संिवत का ितरोधान अशकय है और उसका यिद
ितरोधान हो जायेगा, तो िवषय की सफूितर न होने से उसका धयान ही नही हो सकेगा।।7।।
िचनतन, िचनतनीय आिद जो पदाथर है, उस सबकी िसिद संिवत के अधीन है यह िदखलाते है।
हे शीरामजी, जो आप िचनतन करते है, जाते है, िसथत रहते है और करते है वहा वहा िसथत संिवत ही वह सब
कुछ करती है, अतः िचनतन, िचनतनीय आिद सभी संिवतसवरप है, कयोिक सभी का तततव संिवत् ही है, यह भाव है।।
8।।
अनय उपाय भी कहते है।
हे शीरामचनदजी, आप यिद वासना के पिरतयाग मे पयत करते है , तो आपकी समपूणर आिध-वयािधया कण भर मे
िवनष हो जायेगी।।9।।
कया यह उपाय पहले बतलाये गये उपायो से सरल है ? 'नही' यह कहते है।
शीरामजी, पूवर मे पदिशरत पयतो की अपेका यह पयत अतयनत किठन कहा गया है, कयोिक वासना का पिरतयाग
कर सुमेर पवरत के उनमूलन से भी अिधक दुषकर है।।10।।
असौकयर का उपपादन करने के िलए परसपराधीनतव का उपपादन करते है।
जब तक मन नष नही होता, तब तक वासना का िवनाश नही होता और जब तक वासना िवनष नही होती,
तब तक िचत की शािनत नही होती।।11।।
इसी पकार इन की तततवजान नही होता, तब तक िचत की शािनत कहा ? और जब तक िचत की शािनत नही
होती, तब तक तततवजान नही होता।।12।। जब तक वासना का नाश नही होता, तब तक तततवजान नही होता।
जब तक वासना का नाश नही होता, तब तक तततवजान कहा से होगा ? और जब तक तततवजान नही होता, तब तक
वासना का कय नही होगा।।13।। तततवजान, मनोनाश और वासनाकय ये तीनो की एक दूसरे के पित कारणभाव को
पापत होकर अविसथित है अतः अतयनत दुःसाधय है।।14।।
तब कौन ऐसा उपाय है, िजससे उनकी िसिद हो सके ? इस पश पर 'वैरागयपूवरक एक साथ तीनो का अभयास
ही उनकी िसिद मे उपाय है', ऐसा उतर देते है।
हे राघव, िववेक से युकत पौरष पयत से भोगेचछा का दूर से ही पिरतयाग कर इन तीनो का आशय करना
चािहए।।15।। हे शीरामजी, जब तक उन तीन उपायो का साथ मे भली पकार बार बार पयास न िकया जाय, तब
तक सैकडो बरसो तक भी परमपद की पािपत नही हो सकती।।16।। हे महामुने , वासनाकय, आतमिवजान और
मनोनाश इन तीनो का एक साथ दीघरकाल तक अभयास जब िकया जाता है, तब वे मननशील महातमा के िलए फलपद
होते है।।17।। शीरामजी, िजस पकार मनतशासतोकत मूचछा, मरण आिद पितबनधको से पितबद मनत फलपद नही
होते, वैसे ही उन तीनो मे से एक का िचरकाल तक अभयास यदिप िकया जाय, तो भी वे फलपद नही होते, वैसे ही उन
तीनो मे से एक का िचरकाल तक अभयास यदिप िकया जाय, तो भी वे फलपद नही हो सकते।।18।। जैसे
पािरतोिषक आिद से सवाधीन बनाकर दीघरकाल तक तत्-तत् कायर मे पेिरत भी सेना के वीर योदा लोग एक एक करके
अपने सवामी राजा के अिभमुख जाने मे समथर नही होते, वैसे ही बुिदमान पुरष के दारा दीघरकाल तक सेवा आिद से
सवाधीन कर तत्-तत् कायों मे योिजत भी ये वासनाकय, आतमिवजान और मनोनाश इन तीनो का एक साथ पयतपूवरक
आपको सेवन करना चािहए, उस सेवन से आप िलपत नही होगे अथात् िलपत नही करने वाले सवभाव मे िसथत हो
जायेगे।।21।।
िजस पकार कमलनाल के उचछेदन से िबसतनतु टू ट जाते है, वैसे ही भली पकार उन तीनो का िचरकाल तक
अभयास करने से अतयनत दृढ हृदयगिनथया (अनतःकरण एवं उसके धमर आिद के अधयास) िनःशेषरप से टू ट जाती
है।।22।।
वासनाकय आिद तीनो का भी िचरकाल तक अभयास कयो करना चािहए ? इस पर कहते है।
हे शीरामजी, यह संसार की िसथित सैकडो जनमातरो से मनुषयो के दारा अभयसत है, अतः उन उपायो का
िचरकाल तक अभयास िकये िबना कही पर भी वह नष नही हो सकती।।23।। हे भद, जाते, शवण करते, सपशर
करते, सूँघते, िसथत रहते, जागते, सोते सब अवसथाओं मे उतम मोकरपी कलयाण के िलए इन तीन उपायो के अभयास
मे ही आप िनसत हो जाइये।।24।।
तीनो के साथ चतुथर पाणायाम का भी अभयास करना चािहए, ऐसा कहते है।
हे रामभद, तततवजो का मत है िक वासनओं के पिरतयाग के सदृश पाणायाम भी उपाय है। इसिलए वासना
पिरतयाग के साथ साथ पाणिनरोध का भी अभयास करना आवशयक है।।25।। वासनाओं का भली पकार पिरतयाग
करने से िचत अिचतरप हो जाता है। और पाणवृितयो का पिरतयाग करने से भी िचत अिचतरप हो जाता है, इिसलए
आप जैसे चाहे वैसा कीिजये।।26।। िचरकाल तक पाणायाम के अभयासो से, योगाभयास मे कुशल गुरजी के दारा दी
गई यानी उपिदष युिकत से तथा सविसतक आिद आसनो के जय और िहत, िमत एवं पिवत पदाथों के भोजन से पाण
सपनदन रक जाता है।।27।। हे शीरामजी, यथाभूत अथर के यानी ितकाल मे बािधत न होने वाले अथर के साकातकार
से वासना अपने कायर के िलए पवृत नही होती। आिद, मधय और अनत मे कभी भी पृथक न होने वाला सतामात सवरप
जो पदाथर सवरत िसथत रहता है, वही सतयभूत अथर है, उसको भलीभाित जान लेना जान कहलाता है। यही जान
वासना का िवनाश कर देता है।।28।। भद, केवल बाह िवषयो मे आसिकत रखने वाले मनुषयो का संसगर छोडकर या
संकलप छोडकर समय अनुसार पापत हुए वयवहारो के अनुषान से, सासािरक मनोरथो के तयाग से तथा शरीर मे
िवनािशतवबुिद से वासना पवृत नही होती।।29।। िजस पकार पवन-सपनद के शानत हो जाने पर आकाश-तल मे धूिल
नही उडती, वैसे ही वासनारपी धनसमपित का िवनाश हो जाने पर लजजावश िचत यत तत उडता नही है।।30।।
जो पाणवायु का वयापार है, वही िचतसपनदन है, उसी से समसत जगत उस पकार उतपन होते है, िजस पकार धूिल आिद
के ढेर से रज उतपन होती है।।31।।

हे शीरामजी, बुिदमान पुरष को एकाग िचत मे एकानत मे बैठकर पाणवायु के सपनदन पर िवजय पाने के िलए
बार बार खूब यत करना चािहए।।32।।
हठयोग के अभयास की यिद शिकत न रहे, तो राजयोग का अभयास करना चािहए, यह कहते है।
हे शीरामजी, अथवा इस उपाय को छोडकर अनय उपाय से यिद आप िचत के ऊपर आकमण करना चाहते है ,
तो बहुत काल के अननतर उस पद को पापत करेगे।।33।। अधयातमिवदा और दुदानत मन का जय उस पकार नही
कर सकते, िजस पकार मदमत दुष हाथी का अंकुश के िबना दूसरे उपाय से जय नही कर सकते।।34।।
उसी का िदगदशरन करते है।
अधयातमिवदा की पािपत, साधुसंगित, वासना का पिरतयाग और पाणसपनदन का िनरोध ये ही युिकतया िचत के
ऊपर िवजय पाने के िलए िनिशत रप से पुष उपाय है। इनसे ततकाल ही िचत है।।35,36।। इन सुनदर युिकतयो
के रहते जो पुरष हठयोग से िचत को वशीभूत करना चाहते है , उनके िलए मेरा यही मत है िक वे दीपक का पिरतयाग
कर अंजनो से अनधकार का िनवारण करना चाहते है। (एक बात यहा यह जान लेनी चािहए, वह यह िक पहले
बतलाया गया पाणिनरोध भी दुदानत मन के दमन मे हेतु होने से एक तरह का हठरप उपाय ही है , तथािप सत्-शासत
और सदगुर से बोिधत मागर से शूनय जो दूसरे उपवेशन, शयन, शरीरशोषण, मनत, यनत शमशानसाधन आिद
साहससवरप हठातमक उपाय है, उनही का यहा िनवारण िकया गया है)।।37।। जो मूढ पुरष हठयोग से िचत का
जय करने के िलए उदोगशील रहते है, वे उनमत नागेनद को मानो कमलतनतुओं से बाधने के िलए उदत है।।38।।
बतलाई गई इन चार युिकतयो का तयागकर जो पुरष िचत या िचत के िनकटवती अपने शरीर को िसथर करने के िलए
दूसरा यत करते है उन पुरषो को जानमागर के सामपदाियक लोग वृथा पिरशमी कहते है।।39।।
सत्-शासतोकत मागर से भष होने के कारण उनहे अनथर परमपरा ही पापत होती है , िचत जय पापत नही होता,
यह कहते है।
शीरामजी, वे वृथाशमी लोग, एक भय से दूसरा भय, एक दुःख से दूसरा दुःख पापत करते है। भागयहीन पापी
जनतुओं की नाई वे कही भी उतम धैयररपी िवशािनत पापत नही करते।।40।। पवरत-पानतो मे फल और पतो का
भकण कर रहे वे अतयनत मुगधबुिद एवं भीर होकर िवचारे हिरणो की नाई इधर-उधर पिरभमण िकया करते है।।
41।। िजस पकार गाव मे आई हुई मृगी िकसी का िवशास नही करती, वैसे ही उन पुरषो की चारो ओर से िभन, शीणर
तथा तुचछ अंगवाली बुिद िकसी पदाथर मे िवशास नही करती।।42।। उनका तरंगसदृश अितचपल मन, जल मे
तरंगो की नाई, भयसथानो मे ही उतरोतर जाता रहते है और पवरत की चोटी से िगर रही पबल पवाह से युकत निदयो मे
िगरा हुआ तृण िजस पकार अित दूर बह जाता है वैसे ही उनका िवषयानुपाितसवभाव िचत राग आिद से बलपूवरक अित
दूर िखंच जाता है।।43।।
अब मोकरप फल िजसका िनिशत है, उस धमरमेघनामक (आतमिववेक जान-पवाहरप) समािध का पिरतयाग
कर यज, दान आिद का, िजनके अनुषान मे कलेश अिधक, फल कम तथा मोकफलकतव मे सनदेह है, अनुषान भी
केवल कलेशमय ही है, यो पकृत िवषय की पशंसा के िलए कहते है।
िजस पकार मृग कालकेप करते है, वैसे ही यज, तप, दान, तीथर, देवाचरन आिद भमो के कारण असंखय मानस
पीडाओं से युकत होकर मनुषय वृथा कालकेप करते है।।44।।
शीरामजी, राग आिद सैकडो दोषो से झुलस गये वे आतमसवरप नही जान पाते और उनमे से कोई लोग ही
कभी दैववश आतमसवरप जान पाते है।।45।। उतपित एवं िवनाशशील, एकत िसथर न रहने वाले तथा सवगर, नरक
और मनुषय के भोगिवशेषो के कारण, गेद की नाई, िनपतन और उतपतनकारक शरीर वाले होकर वे मरण आिद से
पीिडित हो जाते है।।46।। िजस पकार तालाब मे तरंगे आती जाती रहती है , वैसे ही वे इस मृतयुलोक मे आते है, यो
सैकडो आवतरनो से घूमते रहते है।।47।।
हे रघुननदन, इसिलए आप विणरत हठािदरप दुषबुिद का पिरतयाग कर शुद संिवित का आशय (पिरजान) कर
रागशूनय होकर सुिसथर हो जाइये।।48।। इस संसार मे जानी ही सुखी है, जानी ही जीिवत है और जानी ही बलवान
है, इसिलए आप जानपचुर बन जाइये।।49।। हे महातमन्, िवषयो से शूनय, अित-उतम, समसत पदाथों के हेतु तथा
िवकलपो से विजरत अिदतीय संिवत-पद की भावना करते हएु तथा िचत के संकलप-िवकलपो से िवमुख यानी िचत की
बिहमुरखता से शूनय होकर आप बहसवरप मे िसथत हो जाइये। और वयुतथानकाल मे तो िविहत कमों का अनुषान
करते हुए भी असंग एवं शम से पापत हईु जीवनमुकत-गुण-समपित से रािजत होकर अकतापद की पािपत करके िसथत
होइये।।50।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बानबेवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआआ आआ
आआआआआआ आआ
आआआआआआ आ आआआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
उसमे पहले थोडे से भी िवचार और मनोिनगह का रिच के उतपादन और पवृित के दारा कमशः मोक मे
पयरवसान होता है, यह कहते है।
हे शीरामजी, थोडे से भी िवचार से िजसने अपने िचत का तिनक भी िनगह कर िलया, उसने जनम का फल पा
िलया। इससे यह धविनत हुआ िक मनुषय जनम पाकर जो आतमिवचारकपूवरक मनोिनगह नही करता, उसका जनम
िनषफल है।।1।।
िवचार एवं िचतिनगह का जनम की सफलता मे उपयोग बतलाते है।
शीरामजी, यिद हृदय मे पूवोकत इस िवचाररपी कलपवृक का कोमल अंकुर पसफुिरत हो जाय, तो वही अंकुर
अभयासयोग से सैकडो शाखाओं मे फैल जाता है।।2।। िजसने वैरागयपूवरक कुछ पौढ-िवचार कर िलया है, उस
नररत का तो पूवोकत शम, दम आिद शुद गुण उस पकार आशय भली पकार आतम-िवचार से युकत तथा सवरप परबह
का अवलोकन करना ही िजसका सवभाव है ऐसे मेधावी िवदान को पचय और पकषर से िवखयात भी िहरणयगभरपद आिद
अिवदाकायररप वैभव लुबध नही करते।।4।। आतमा के यथाथर जान से िजसकी बुिद पिरषकृत हो गई है, उस महातमा
को यहा िवषय, मानिसक वृितया, आिध और वयािध ये सब कौन िवकार उतपन कर सकते है अथात् कोई िवकार उतपन
नही कर सकते, कयोिक वह िनिवरकार आतम-सवरप है।।5।।
िहरणयगभर आिद के वैभव वीतराग महातमा को लुबध करने मे समथर नही है, इसी िवषय को अनयोिकतयो से दृढ
करते है।
हे भद शीरामजी, भला बतलाइये तो सही िक खूब चल रहे पवनो से वयापत तथा िवदुत-समूह से शेतरकत पलय
काल का पुषकरावतरनामक मेघ का बालको की मुिषयो से कही गहण हुआ है ?।।6।। शीरामजी, भला बतलाइये िक
कया िवकासरमय राित-कमलो से अपने नेतो का पराभव हो जायेगा, इस शंका से मुगध अंगनाओं ने सुनदर मिणमय
िपटािरयो मे कमल-िवकास मे हेतुभूत गगन-मधयगत चनदमा कही बद िकया ?।।7।। शीरामजी, भला बतलाइय िक
गणडसथलो से चलायमान भमरमणडलरप नील कमल िजनके मसतको मे है , ऐसे हािथये का मुगध अंगनाओं के शासो के
दारा गजवध के िलए पेिरत होने के कारण उतसाहरमय मचछरो ने कहा मनथन िकया ?।।8।। अपने से िवदािरत हुए
मत गजो के मुकताफलो की कािनतयो से सुशोिभत हो रहे िजनके नखपंजर है, ऐसे युद मे िनपुण िसंह हिरणो के दारा
कही मिदरत हुए है ?।।9।। िवष की अिधकता के कारण अपने आप िनकलने वाले रस के सदृश सवयं िनकलने वाले
बडे-बडे िवष-िबनदुओं से अरणयवृक िजनहोने दगध िकये है, ऐसे कुिधत अजगरो को कही कुद मेढको ने िनगल िलया
?।।10।। िजसने चतुथे, पंचम आिद भूिमका पापत कर ली है और िजसने जेय तततव जान िलया है , ऐसी िववेकी वीर
िवदान, जो आगे की भूिमकाओं के ऊपर िवजय पाने के िलए पयतशील है, िवषय तथा इिनदयरपी चोरो के दारा कही पर
अिभभूत हो सकता है ?।।11।।
अतः िजनका िचत पिरपकव नही हुआ है, वे पहले की भूिमकाओं मे ही िवघो से आकानत होते है, आगे की
भूिमकाओं मे जा ही नही पाते, ऐसा कहते है।
िवषयरपी शतु अपौढ िवचारबुिद का उस पकार अपहरण कर डालते है, िजस पकार पचणड पवन िछनवृनत
(िछनआशय) लता का अपहरण कर डालते है।।12।। िजस पकार अवानतर कलपो के कोभो मे महान् धीर होकर
रहने वाले मेर आिद पवरतो का उचचाटन करने मे मनद पवन समथर नही होते, उस पकार पौढतापापत िववेक के लवमात
का भी िवनाश करने मे दुष राग आिद वृितया समथर नही होती।।13।। शीरामजी, िजसने दृढमूल गहण नही िकया है,
ऐसे िवचाररपी पुषप वृक को िचनतारपी झंझावात कँपा देते है, परनतु चारो ओर की सुदृढ से भली पकार सुिसथत हएु
िवचाररपी पुषपवृक को नही कँपाते।।14।।
अतएव िवचार के िवचछेद काल मे पमाद से राग आिद रप मृतयु से यह आकानत होता है, इस आशय से कहते
है।
िजस पुरष का अनतःकरण जब जाते या बैठते, जागते या सोते, इन सभी अवसथाओं मे आतमिवचार से
ओतपोत नही रहता, तब वह मृत कहा जाता है।।15।। शीरामजी, इस जगत का सवरप कया होगा ? इस देह का
सवरप कया होगा यो िनरनतर धीरे-धीरे एकानत मे या सवयं अकेले या गुर, सजजन महातमा आिद के साथ अधयातमदृिष
से िवचार कीिजये।।16।।
िवचार करने से फल अवशय होता है, यह कहते है।
पमादरपी अनधकार का अपहरण करने वाले आतमिवचार से ततकाल ही सवाितशायी िनमरल बहरप पद उस
पकार िदखाई पडता है, िजस पकार पकाशमान दीपक से घटािद वसतु िदखाई पडती है।।17।।
जान से दो फल होते है, यह कहते है।
शीरामजी, आतमसवरप के िवजान से समसत दुःखो का िवनाश उस पकार हो जाता है, िजस पकार पकाश के
दारा मनोरंजन करने वाले सूयर से अनधकार का िवनाश हो जाता है।।18।। जब जान अपनी पकाशरपता पापत कर
लेता है, तब जेय बह का पूणर रप से उदय उस पकार सवतः हो जाता है, िजस पकार सूयर का अभयुदय हो जाने पर
भूभाग पर िवमल पकाश का उदय सवतः हो जाता है।।19।।
जान का सवरप बतलाते है।
शीरामजी, िजस शासतसमबनधी िवचार से बहसवरप अवगत हो जाता है, वही शासतीय भाषा मे जान कहा
जाता है। जेय बह का आकाररप और भेद का बाधरप होने के कारण जेय बह स वह अिभन ही बनकर दृढ
पितिषत रहता है।।20।। हे भद, पिणडत लोग आतमिवचार से उतपन आतमिवजान को ही जान कहते है। उसी जान
के अनदर जेय उस पकार पचछन रहता है, िजस पकार दूध के अनदर माधुयर पचछन रहता है।।21।। जैसे मैरे
(मिदरािवशेष) पी लेने वाला पुरष सदा मदपचुर रहता है, वैसे समयक् जानरपी सुनदर पकाश से युकत पुरष सवयं
अनुभूयमान बहानंद से पचुर रहता है।।22।। िजसका सवरप सैनधव घन की नाई एकरस है, ऐसा िनमरल पर बह ही
जेय कहा जाता है। वह जेयरप बहजान के आिवभावमात से ही सवयं समसत अिवदा और उसके कायररपी मलो से
िनमुरकत हो जाता है।।23।। जानसमपन तथा आननद पापत िवदान िकसी भी िवषय मे िलपत नही होता। समसत संगो
से िनमुरकत एवं जीवनमुकत वह जानी, राजािधराज समाट की आतमा की नाई, पिरपूणर मनोरथ होकर िसथत रहता है।।
24।।
रागीजनो दारा सपृहणीय भावो मे उस िवदान की अनासिकत बतलाते है।
शीरामजी, जो तततवज पुरष है, वह वीणा, बासुरी की मधुरधविन आिद मनोहर शबदो मे, कािमिनयो के शृंगाररस
िमिशत कमनीय गीतो मे, वसनतकाल मे मदमत हुए भमरो की गुंजार धविनयो मे, वषा के िवसतार से जिनत पुषपो मे, मेघो
के खणडो मे, सरोवरसथ सारस पिकयो के शवणिपय, शबदो मे, करताल आिद वादिवशेषो मे, चमडे से मढे गये गमभीर
मृदगं आिद वादो मे, तनती से िनिमरत वीणा आिद, भीतर के िछद से युकत बासुरी आिद तथा िचत िविचत कासयताल
आिद वादो की धविनयो मे, कही पर भी िचत नही लगाता, शीरामजी चाहे धविन रक हो चाहे मधुर, कही भी यह उस
पकार पेम नही करता, िजस पकार कमलो मे चनदमा पेम नही करता।।25-29।। भद, आसिकतविजरत जानी पुरष
कोमल कदली के सतमभो की पललवपंिकतयो से युकत तथा देवता एवं गनधवों की कनयाओं के अंगो के सदृश अितकोमल
अवयववाली लताओं से युकत ननदनवन की कीडाओं मे कही िकसी समय भी िचत नही लगाता। हे शीरामजी, िजस
पकार हंस मरभूिम मे भोग की इचछा नही करता, उसी पकार सवाधीन िवषयो मे भी आसिकत नही रखने वाला धीर
तततवज िकसी भी िवषय मे भोग की इचछा नही करता।।30-31।। जानवान पुरष िपणडखजूर (एक पकार की खजूर)
कदमब, कटहल, दाक, खरबूजा, अखरोट, िबमब (कुँदर) तथा नारंग आिद जाित के फलो मे मद, मधु, मैरेय, माधवीक,
आसव आिद मदिवशेषो मे, दही, दूध, घी, आिमका (गमर दूध मे दही डालने से िपंडीभूत दवय), मकखन, ओदन (भात) आिद
भोजय पदाथों मेल लेह, पेय आिद िवलास-पूणर िचत-िविचत छः पकार के रसो मे, अनयानय फल, कनदमूल, शाक एवं
मास आिद पदाथों मे कही पर िचत नही लगाता। वह तृपतसवरप एवं असकतमित है, अतः वह भोगय पदाथों मे उस
पकार पवृत नही होता, िजस पकार आसवादन मे पेम रखने वाला बाहण अपने शरीर के टुकडो मे पवृत नही होता।।
32-34।।
शीरामजी जो जानी शीमान महातमा है, वह यमराज, चनद, इनद, रद, सूयर और वायु के सथानो मे, मेर,
मनदराचल, कैलास, सहािद तथा ददूरर पवरत के पललव समूहो से युकत िशखरो मे, चनदिबमब की कला आिद मे, िदवय
शरीर समपित से िकयमाण कीडाओं से युकत कलपवृको के िनकु ंजो मे, रतयुकत सुवणरिभित से िनिमरत मोित और
मिणपचुर सुनदर घरो मे, ितलोतमा, ऊवरशी, रमभा, मेनका आिद अंगलताओं मे कही पर भी असकतमित होने के कारण
दृिषपात नही चाहता, वह पिरपूणर, मौनी एवं शतुओं के िवषय मे अचल है यानी देष से किमपत नही होता।।35-39।।
जो समबुिद, िपय, अिपय सब सथानो मे समदृिष रखने वाला तथा अिपय मे कोभशूनय जानवान पुरष है, वह कनेर,
मनदार, कलार, कमल आिद मे, कुई, नील कमल, चंपा, केतकी, अगर, जाित (मालती) आिद पुषपो मे, कदमब, आम,
जामुन, पलाश एवं अशोक वृको मे, जपा, माधवी, बेर, िबमब, पाटल तथा चमेली आिद मे, चनदन, अगर, कपूर, लाह एवं
कसतुरी मे, केसर, लवंग, एला, कंकोल (शीतल चीनी के वृक का भेद), तगर आिद अंगरागो मे से िकसी की सुगनध मे
पेम उस पकार नही करता, िजस पकार मिदरा की गनध मे शोितय िदज पेम नही करता।।40-43।।
इसी पकार भयजनय धविनयो मे उसको भय नही होता, ऐसा कहते है।
गडगडाहट धविन से युकत सागर, पितधविनरप आकाशजिनत शबद के, पवरत मे िसंहो के गजरनो के होने पर
जानी तिनक भी कुबध नही होता।।44।। शतुओं के नगारे आिद के शबदो से, डमर के शबद से, कणर कटु धनुष के
टंकार से जानी तिनक भी भयभीत नही होता।।45।। मदोनमत हािथयो के िचंघाडिन के शबद, वेतालो की कलह
आिद धविन तथा िपशाच एवं राकसो का िसंहनाद होने पर जानी पुरष जरा भी किमपत नही होता।।46।। जो पर बह
मे धयान लगाने वाला िवदान है, वह वज के भयावह शबद से, पवरत के िवसफोट से एवं ऐरावत के िचंघाडने से किमपत
नही होता।।47।। जानी पुरष चल रहे आरे के घषरण से, चमचमाती हुई तलवार के िवदलन से, बाण एवं वज के
समपात से अपनी सवरपिसथितरप समािध से िवचिलत नही होता।।48।। जानी पुरष वािटका मे न आननद पापत
करता है और न तो खेद। एवं मरभूिम मे न खेद पापत करता है और न तो आननद।।49।। भसम से रिहत उजजवल
अंगारो के सदृश असह बालू से युकत मरपदेशो मे, पुषपो के समूहो से आचछािदत मृदु घासमय भूिमयो मे, तीकण छुरे
की धारो मे, नवीन कमलो से िनिमरत शययाओं मे, उनत पवरत के पदेशो मे, कुओं के अनदर की िनम भूिमयो मे सूयरिकरणो
से पतपत िशलाओं मे, कोमल ललनाओं मे, संपितयो मे, उग िवपितयो मे, कीडाओं तथा उतसवो मे िबहार कह रहा भी
जानी न उदेग पापत करता है और न तो आननद पापत करता है। वह भीतर से सदा मुकत और बाहर से कमरकता की
नाई िसथर रहता है।।50-53।। जानी पुरष महिषर माणडवय की नाई पारबध कमों से पापत हुई अंगो को संकुिचत
करने वाली नरक की अरणयभूिमयो मे, जहा पर एक दूसरो के दारा अनेक बछी तोमर आिद शसतिवशेषो की वृिष हो
रही है, न भयभीत होता है, न वयाकुल होता है और न तो दीन होता है, परनतु वह सम, सवसथमन, मौनी और धीर होकर
पवरत की नाई अटल रहता है।।54,55।। जानी पुरष अपिवत, अपथय, िवषयुकत, गोमय आिद मल, आदर तथा
रसविजरत पदाथों को खाकर भी ततकण उस पकार पचा देता है, िजस पकार साधारण मनुषय पिरषकृत अन को खाकर
पचा देता है।।56।।
शीरामजी, िजसके अनतःकरण मे िकसी पकार की िवषयासिकत नही है, वह तततवज ततकण बुिद का िवनाश
करने वाला िबमब का फल (कुनदर का फल), िवषपाय सब ओर से कषाय लगने वाला फल, कीर, इकुरस, जल और
ओदन इन सब िवषयो के आसवादिन मे सम यानी तुलयिचत रहता है।।57।।
राकस, िपशाच आिद मे जीवनमुकत हो सकते है, इसिलए उनका भी संगह करने के िलए ततसाधारण कहते है।
मैरेय(मदिवशेष), मिदरा, कीर, रकत, चरबी, आसव, रक हडडी, तृण और केश इन सबसे जानी न पसन होता है
और न तो कुिपत ही होता है।।58।।
तततवज की शतु और िमत मे समदृिष रहती है, ऐसा कहते है।
जीवन का िवनाश करने वाला तथा जीवन का दान देने वाला इन दोनो पुरषो को जानी पुरष पसनता एवं
मधुरता से शोिभत दृिष से यानी समदृिष से देखता है।।51।। जानवान् िचरसथायी देवशरीर तथा कुछ काल तक
सथायी मतयर शरीर, एवं उनके भोगय रमणीय तथा अरमणीय वसतु इन सबके िवषय मे न हषर करता है और न तो गलािन
करता है, कयोिक उसकी समता की भावना सदा पदीपत रहती है।।60।।
शीरामजी, अपने िचत मे आसिकत का अभाव तथा िवषयसवरप का भलीपकार जान हो जाने के कारण जगत
की िसथित मे जानी आसथा नही रखता एवं िमथया िवषय आसथा के अयोगयरप होने से जानी साधु िकसी भी समय
िकसी इिनदय को िवषयपवृित के िलए अवसर नही देता, कयोिक उसकी बुिद समसत मानस पीडाओं से िनमुरकत हो चुकी
है।।61,62।।
तब इिनदया िकसको िनगल जाती है, इस पर कहते है।
िजस पकार हिरण पललव िनगल जाते है, वैसे ही इिनदया तततवजान से शूनय िवशािनत से विजरत, अपापत-आतमा
तथा िसथित शूनय मनुषय को ततकाल िनगल जाती है।।63।। संसार-समुद मे बह रहे, वासनारपी वीिचया (गितशील
तरंग) से वेिषत अतएव िनरनतर महान् कनदन करने मे ततपर उस अजानी को इिनदयरपी मगर िनगल जाते है।।
64।।
लोभ आिद िवकलप भी आतमज को िवचिलत नही करते, ऐसा कहते है।
जैसे जल पवाहो से पवरत बहाया नही जा सकता, वैसे ही िवचारवान, एकमात बहरप पद मे समासीन तथा
आतमा मे बुिद की िवशािनत लेने वाला महामित लोभ आिद िवकलप समूहो से बहाया नही जा सकता।।65।। समसत
संकलपो की सीमा के अनतभूत परम पद मे जो महानुभाव िवशािनत कर चुके है, उस पापत सवरप महातमाओं की दृिष मे
मेर पवरत ही तृण के सदृश है।।66।। शीरामजी, िजन महातमाओं का िचत पिरपूणर आतमाकार के पितफलन से
िवशाल हो गया है, उनकी दृिष मे जगत, जीणर ितनके का टुकडा, िवष, अमृत, कण और हजारो कलप ये सभी समानरप
है।।67।। जगत िचनमातसवरप है, यो जानकर ये पमुिदतमित तथा समसत जगत मे आनतर पतयगातमरपता के
अवलोकन से अनतःरथ जगत-वाले महातमा संिवनमय होकर सवरत िवहार करते है।।68।। संिवनमात के
पिरसपनदनसवरप जगत के िपंजडे मे कया हेय और कया उपादेय हो सकता है ? अथात् न कुछ हेय है और न कुछ
उपादेय है, यह तततवजो का मत है।।69।। हे पापशूनय शीरामजी, यह समसत जगत संिवतातमक ही है, अतः आप
अनयता-भािनत का पिरतयाग कर दीिजये। जो पकाशातमक िचतपचुर सवरपवाला तततव है, वह कया तयागेगा और कया
भमण करेगा ?।।70।। भूतकालीन पदाथों मे िकसी की इचछा नही होती, अतः अजानीरपी हिरणो के दारा
वतरमानकालीन जो कुछ भूिम से पललवाकुरपाय पदाथर उतपन होते है और भिवषयतकालीन जो कुछ भूिम से
पललवाकुररप पदाथर उतपन होने वाले है, ये ही सपृहणी है, उन सबका जैसे तततवज की दृिष से संिवदूप से पथन होता
है, वैसे ही आकाशािद तततवो के अंकुर की नाई िसथत शबद, सपशर आिद अनय िवषयो का भी तततवज की दृिष से
संिवदूप से ही पथन होता है।।71।।
पितपािदत अथर की िसिद मे युिकत बतलाते है।
शीरामजी, िजसकी आिद और अनत मे अिसतता है नही, उसकी यिद वतरमान काल मे यानी बीच मे कुछ-काल
तक सता देखी जाय तो वह संिवत का एक भम ही है।।72।। शीरामभद, इस उकत अथर का युिकतपूवरक मनन से
दृढीकरण कर तथा 'यह भावरप है और यह अभावरप है' इस पकार िवकलपयुकत मित का तयागकर भाव के
बाधसवरप बह मे पापत होकर आप संगशूनय पकाशमान संिवदूप हो जाइय।।73।। हे महाबाहो, िजस पकार कोई भी
मनोराजय की संपितयो के नष होने या न होने पर, तजजिनत सुख-दुःखो से िलपत नही होता, उसी पकार जानी पुरष
संगरिहत मन से कमानुषान करे, चाहे न करे, तजजिनित सुख-दुःखो से िलपत नही होता।।75।। आतमा मे अकतापन
और अभोकतापन का अनुभव हो जाने के कारम बुिद को वीतसंग बना रहा तथा शरीर आिद उपकरणो से वयवहार िनरत
हो रहा भी जानी सुख-दुःखातमक अनुकूल पितकूल भावो से उस तरह िलपत नही होता, िजस तरह मनोराजय के वैभवो
के आगमापयो से अजानी िलपत नही होता।।76।। िवषयो के साथ संसगर से शूनय अनतःकरणवाला महातमा चकु से
िवषयो को देख रहा भी उनहे नही देखता, कयोिक उसका िचत तो अनयत परबह मे लगा हुआ है। िजसका िचत अनयत
रहता है, वह िवषय नही देखता, यह बात बालक को भी जात है।।77।। िवषयसंग से शूनय मनवाला पाणी सुनता हुआ
भी नही चुनता, सपशर करता हुआ भी सपशर नही करता। इस अथर की पितपादक शुित भी है - 'अनयतमना अभूव ं
नादशरमनयतमना अभूव ं नाशौषम्' (अनयत मना था, अतएव मैने नही देखा, अनयतमना था, अतः मैने नही सुना)।।
78।। यह अनयतमना योगी भली पकार सूँघ रहा भी नही सूँघता, नेत उनमीिलत कर रहा भी उनमीिलत नही करता,
पदाथे ं मे यानी अपने अपने िवषयो मे संसकारवश कमेिनदयो के संसृत होने पर भी यह संसृत नही होता।।71।। भद
िजनका मन अनयत चला गया है, ऐसे अपने घर मे रहने वाले मूखर एवं अपौढमित बालक, पशु आिद इस िवषय का यानी
देख रहा भी नही देखता आिद उकत अथर का अनुभव करते है, इस िवषय मे उनको िकसी पकार का िववाद नही है।।
80।।
इन पूवोकत वाकयो से यह िनषकषर िनकला िक आसिकतपूवरक पदाथों का अनुभव करना ही बनधन मे हेतु है, वह
आसिकतशूनय जानी को होता नही, इस आशय से कहते है।
आसिकत ही संसार की कारण है, आसिकत ही समसत् पदाथों की हेतु है, आसिकत ही रमय िवषयो की
अिभलाषाओं की जनक है और आसिकत ही समसत िवपितयो की उतपािदका है।।81।। हे िनमरल शीरामजी,
संगपिरतयाग मोक (वतरमान देह आिद से समबनध की िनवृित) है, यह महिषरयो का मनतवय है। संगतयाग से जनम (भावी
देहािदबनधन) छू ट जाता है, अतः आप पदाथों का संसगर छोड दीिजये और जीवनमुकत हो जाइये।।82।। शीरामजी ने
कहाः अिखल संशयरपी कुहरे के िलए शरतकाल के वायुरप हे महामुने , संग िकसे कहते है ? हे पभो, यह मुझसे
किहये।।83।।
महाराज विसषजी ने कहाः भद, इष एवं अिनष पदाथों की पािपत तथा अपािपत होने पर हषर और िवषादरप
िवकार उतपन करने वाली मिलन जो यह रागािद वासना है, वही संग है, ऐसा मुिन कहते है।।84।। जीवनमुकत
सवरपवाले तततववेताओं को पुनजरनम न देने वाली हषर एवं िवषाद दोनो से िनमुरकत शुद वासना होती है।।85।।
रामभद, उस शुद वासना का दूसरा नाम असंग है, इसे आप जािनये। वह तब रहती है, जब तक अविशष पारबध कमों
का िवनाश नही हो जाता। उस वासना से जो कुछ िकया जाता है , वह पुनः संसार का कारण नही होता।।86।। जो
जीवनमुकत सवरप से समपन नही है एवं जो दीन एवं मूढमित है, उनकी वासना हषर तथा िवषाद इन दोनो से िमली हुई
रहती है, यह वासना बनध (संसार) देने वाली होती है।।87।। शीरामजी, इसी बनधकार के वासना का दूसरा नाम संग
है, यह पुनजरनम पदान करती है, इस वासना से जो कुछ िकया जाता है, वह केवल बनधन का ही हेतु होता है।।88।।
शीरामजी, अपनी आतमा मे िवकार पैदा करने वाले उकत सवरप के संग का तयागकर यिद आप सवसथ होकर िसथत
रहे, तो वयवहार मे वयसत होते हुए भी आप उससे िलपत नही होगे।।89।। हे राघव, यिद हषर, अमषर एवं िवषाद से आप
अनयरपता पापत नही करेगे, तो राग, भय, और कोध से विजरत होकर असंगरप हो जायेगे , यह िनिशत है।।10।। हे
राघव, यिद दुःखो से गलािन नही करते, सुखो से फूल नही जाते तो, आशाओं की परवशता का पिरतयाग कर असंग ही
हो जायेगे।।91।। वयवहारो एवं सुख-दुःख की अवसथाओं मे िवचरण करते हुए भी आप यिद बहैकरसता छोडते
नही, तो आप असंग ही है।।92।। हे राघव, संवेद पदाथर िचतसवभाव ही है, जान होने पर वह यिद आपको एकरप
लिकत होता है और यिद आप िजस समय जैसे वयवहार पापत हुआ, तदनुसार वतरन करते है, तो आप असंग है।।
93।। हे अनघ, असंगता ही िबना पिरशम से िसद हुई सुदृढ जीवनमुकत की अवसथा है , अतः उसका अवलमबन कर
आप एकरप, सवसथ और वीतराग हो जाइये।।94।। जीवनमुकतो के जान से समपन, मौनवरतधारी और इिनदयरपी
पाशो को वश मे रखने वाला जानवान् आयरपुरष मान, मद और मातसयर से रिहत तथा िचनताजवर से शूनय होकर िसथत
रहता है।।95।। शीरामजी, भोग, िवकेप आिद के हेतुभूत पचुरतर पदाथों के सदा रहते हुए भी सबमे समानभाव रखने
वाला तथा बाहर एवं भीतर इचछा एवं याचना आिद दीनता से शूनय अनतःकरणवाला यह महातमा एकमात अपने
वणाशमोिचत सवाभािवक कम-पापत वयापार से पृथक दूसरा कुछ भी वयापार नही करता।।96।। जो कुछ भी
वणाशमानुसार परमपरा-पापत अपना कतरवय रहता है, यह जानी उसी का िकयािभिनवेश और लाभ की अिभलाषा से विजरत
बुिद से खेद छोडकर अनुषान करता हुआ अपनी आतमा मे रमण करता है।।97।। िजस पकार मनदराचलपवरत से
मिणत कीरपचुर वािरसमुद अपना सवाभािवक शुकलपन नही छोडता, उस पकार आपित पाकर अथवा उतम समपित
पाकर महामित तततवज अपना पूवरिसद शम, दम, पसनता, समदशरन आिद सवभाव नही छोडता।।98।।
जैसे चनदमा कलाओं की वृिद और कलाओं के हास या उदय एवं असतमय काल मे एकरप रहते है , वैसे ही
जानी सामाजय और दिरदता आिद आपित तथा सपािद योिन अथवा देवताओं की सवािमता पापत कर खेदशूनय तथा
हषरशूनय होकर एक रप से िसथत रहता है।।99।।
बतलाये गये लकणो से युकत जीवनमुिकतरपी सुख की पािपत राग, देष और भेदवासना के िवनाश तथा जान के
अभयास से युकत आतमिवचार ही उपाय है, इसिलए उसी का शीरामचनदजी, को उपदेश दे रहे महिषर विसषजी उपसंहार
करते है।
शीरामजी, मन मे दीनता का तयागकर आप कोध के, आतमा और अनातमा के भेद के तथा नानाफलक
तुचछसवरप कमों के तयागपूवरक आतमा का िवचार कीिजये, िजस िवचार से उतम कायरिनष हो जाये यानी अवशय
समपादन करने के िलए योगय अिनतम पुरषाथर मे िसथत हो जाय।।100।। शीरामजी, उकत आतम-िवचार के दारा पापत
समािध के िवलास से समसत वासनाओं की िवनाश हो जाने से अितसवचछ, समािधगत आतमतततवरप अवशय दृषवय
पदाथर से युकत तथा िवदा और अिवदाकायर के िवनाश मे समथर होने के कारण दीपत बुिद से दुःखविजरत
िनरितशयातमक सुख-सवरप परमपद का अवलमबन कर आप अविसथत हो जाइये।
परमपद का अवलमबन करने से पुनरावृित की शंका नही रह जाती, ऐसा कहते है।
भद, आप िफर इस संसार मे जनमो के बनधनो से बद न होगे। इससे एकमात तततवसाकातकार से ही अिवदा
और उसके कायररप समसत अनथों के उपशम के अननतर िनतय िनरितशयआननदसवरप मे पितषा होती है , यह िसद
हुआ।।101।।
िसथित पकरण उपशम पकरण

ितरानबेवा सगर समापत्


इित शी योगवािसष िहनदीभाषानुवाद मे
उपशम पकरण समापत।
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