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आआआ -2
(आआआआआआ आआआआआआ, आआ आआआआ आआआआआआ)
आआआआआआ आआआआआआआ आआआआ आआआआआआआआआ आआआआआआआ आआआआआआ
'आआआआआआआआआआआ आआआआआआआआआ'
(आआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआआ) आआ आआआआआआ
आआआआआआ
हे शीरामजी, बुिदमान पुरष को एकाग िचत मे एकानत मे बैठकर पाणवायु के सपनदन पर िवजय पाने के िलए
बार बार खूब यत करना चािहए।।32।।
हठयोग के अभयास की यिद शिकत न रहे, तो राजयोग का अभयास करना चािहए, यह कहते है।
हे शीरामजी, अथवा इस उपाय को छोडकर अनय उपाय से यिद आप िचत के ऊपर आकमण करना चाहते है ,
तो बहुत काल के अननतर उस पद को पापत करेगे।।33।। अधयातमिवदा और दुदानत मन का जय उस पकार नही
कर सकते, िजस पकार मदमत दुष हाथी का अंकुश के िबना दूसरे उपाय से जय नही कर सकते।।34।।
उसी का िदगदशरन करते है।
अधयातमिवदा की पािपत, साधुसंगित, वासना का पिरतयाग और पाणसपनदन का िनरोध ये ही युिकतया िचत के
ऊपर िवजय पाने के िलए िनिशत रप से पुष उपाय है। इनसे ततकाल ही िचत है।।35,36।। इन सुनदर युिकतयो
के रहते जो पुरष हठयोग से िचत को वशीभूत करना चाहते है , उनके िलए मेरा यही मत है िक वे दीपक का पिरतयाग
कर अंजनो से अनधकार का िनवारण करना चाहते है। (एक बात यहा यह जान लेनी चािहए, वह यह िक पहले
बतलाया गया पाणिनरोध भी दुदानत मन के दमन मे हेतु होने से एक तरह का हठरप उपाय ही है , तथािप सत्-शासत
और सदगुर से बोिधत मागर से शूनय जो दूसरे उपवेशन, शयन, शरीरशोषण, मनत, यनत शमशानसाधन आिद
साहससवरप हठातमक उपाय है, उनही का यहा िनवारण िकया गया है)।।37।। जो मूढ पुरष हठयोग से िचत का
जय करने के िलए उदोगशील रहते है, वे उनमत नागेनद को मानो कमलतनतुओं से बाधने के िलए उदत है।।38।।
बतलाई गई इन चार युिकतयो का तयागकर जो पुरष िचत या िचत के िनकटवती अपने शरीर को िसथर करने के िलए
दूसरा यत करते है उन पुरषो को जानमागर के सामपदाियक लोग वृथा पिरशमी कहते है।।39।।
सत्-शासतोकत मागर से भष होने के कारण उनहे अनथर परमपरा ही पापत होती है , िचत जय पापत नही होता,
यह कहते है।
शीरामजी, वे वृथाशमी लोग, एक भय से दूसरा भय, एक दुःख से दूसरा दुःख पापत करते है। भागयहीन पापी
जनतुओं की नाई वे कही भी उतम धैयररपी िवशािनत पापत नही करते।।40।। पवरत-पानतो मे फल और पतो का
भकण कर रहे वे अतयनत मुगधबुिद एवं भीर होकर िवचारे हिरणो की नाई इधर-उधर पिरभमण िकया करते है।।
41।। िजस पकार गाव मे आई हुई मृगी िकसी का िवशास नही करती, वैसे ही उन पुरषो की चारो ओर से िभन, शीणर
तथा तुचछ अंगवाली बुिद िकसी पदाथर मे िवशास नही करती।।42।। उनका तरंगसदृश अितचपल मन, जल मे
तरंगो की नाई, भयसथानो मे ही उतरोतर जाता रहते है और पवरत की चोटी से िगर रही पबल पवाह से युकत निदयो मे
िगरा हुआ तृण िजस पकार अित दूर बह जाता है वैसे ही उनका िवषयानुपाितसवभाव िचत राग आिद से बलपूवरक अित
दूर िखंच जाता है।।43।।
अब मोकरप फल िजसका िनिशत है, उस धमरमेघनामक (आतमिववेक जान-पवाहरप) समािध का पिरतयाग
कर यज, दान आिद का, िजनके अनुषान मे कलेश अिधक, फल कम तथा मोकफलकतव मे सनदेह है, अनुषान भी
केवल कलेशमय ही है, यो पकृत िवषय की पशंसा के िलए कहते है।
िजस पकार मृग कालकेप करते है, वैसे ही यज, तप, दान, तीथर, देवाचरन आिद भमो के कारण असंखय मानस
पीडाओं से युकत होकर मनुषय वृथा कालकेप करते है।।44।।
शीरामजी, राग आिद सैकडो दोषो से झुलस गये वे आतमसवरप नही जान पाते और उनमे से कोई लोग ही
कभी दैववश आतमसवरप जान पाते है।।45।। उतपित एवं िवनाशशील, एकत िसथर न रहने वाले तथा सवगर, नरक
और मनुषय के भोगिवशेषो के कारण, गेद की नाई, िनपतन और उतपतनकारक शरीर वाले होकर वे मरण आिद से
पीिडित हो जाते है।।46।। िजस पकार तालाब मे तरंगे आती जाती रहती है , वैसे ही वे इस मृतयुलोक मे आते है, यो
सैकडो आवतरनो से घूमते रहते है।।47।।
हे रघुननदन, इसिलए आप विणरत हठािदरप दुषबुिद का पिरतयाग कर शुद संिवित का आशय (पिरजान) कर
रागशूनय होकर सुिसथर हो जाइये।।48।। इस संसार मे जानी ही सुखी है, जानी ही जीिवत है और जानी ही बलवान
है, इसिलए आप जानपचुर बन जाइये।।49।। हे महातमन्, िवषयो से शूनय, अित-उतम, समसत पदाथों के हेतु तथा
िवकलपो से विजरत अिदतीय संिवत-पद की भावना करते हएु तथा िचत के संकलप-िवकलपो से िवमुख यानी िचत की
बिहमुरखता से शूनय होकर आप बहसवरप मे िसथत हो जाइये। और वयुतथानकाल मे तो िविहत कमों का अनुषान
करते हुए भी असंग एवं शम से पापत हईु जीवनमुकत-गुण-समपित से रािजत होकर अकतापद की पािपत करके िसथत
होइये।।50।।
िसथित पकरण उपशम पकरण
बानबेवा सगर समापत
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आआआआआआआआआआ आआआआ
आआआआआ आआ आआआआआआआआ, आआआआआआआ आआआ आआआआआआआ आआ आआआआआआआआआआआ आआआआ आआ
आआआआआआ आआ
आआआआआआ आ आआआआ आआ आआआआ आआआआआआ आआ आआआआआ आआआआआ आआआआ आआ, आआ आआआआआआ ।
उसमे पहले थोडे से भी िवचार और मनोिनगह का रिच के उतपादन और पवृित के दारा कमशः मोक मे
पयरवसान होता है, यह कहते है।
हे शीरामजी, थोडे से भी िवचार से िजसने अपने िचत का तिनक भी िनगह कर िलया, उसने जनम का फल पा
िलया। इससे यह धविनत हुआ िक मनुषय जनम पाकर जो आतमिवचारकपूवरक मनोिनगह नही करता, उसका जनम
िनषफल है।।1।।
िवचार एवं िचतिनगह का जनम की सफलता मे उपयोग बतलाते है।
शीरामजी, यिद हृदय मे पूवोकत इस िवचाररपी कलपवृक का कोमल अंकुर पसफुिरत हो जाय, तो वही अंकुर
अभयासयोग से सैकडो शाखाओं मे फैल जाता है।।2।। िजसने वैरागयपूवरक कुछ पौढ-िवचार कर िलया है, उस
नररत का तो पूवोकत शम, दम आिद शुद गुण उस पकार आशय भली पकार आतम-िवचार से युकत तथा सवरप परबह
का अवलोकन करना ही िजसका सवभाव है ऐसे मेधावी िवदान को पचय और पकषर से िवखयात भी िहरणयगभरपद आिद
अिवदाकायररप वैभव लुबध नही करते।।4।। आतमा के यथाथर जान से िजसकी बुिद पिरषकृत हो गई है, उस महातमा
को यहा िवषय, मानिसक वृितया, आिध और वयािध ये सब कौन िवकार उतपन कर सकते है अथात् कोई िवकार उतपन
नही कर सकते, कयोिक वह िनिवरकार आतम-सवरप है।।5।।
िहरणयगभर आिद के वैभव वीतराग महातमा को लुबध करने मे समथर नही है, इसी िवषय को अनयोिकतयो से दृढ
करते है।
हे भद शीरामजी, भला बतलाइये तो सही िक खूब चल रहे पवनो से वयापत तथा िवदुत-समूह से शेतरकत पलय
काल का पुषकरावतरनामक मेघ का बालको की मुिषयो से कही गहण हुआ है ?।।6।। शीरामजी, भला बतलाइये िक
कया िवकासरमय राित-कमलो से अपने नेतो का पराभव हो जायेगा, इस शंका से मुगध अंगनाओं ने सुनदर मिणमय
िपटािरयो मे कमल-िवकास मे हेतुभूत गगन-मधयगत चनदमा कही बद िकया ?।।7।। शीरामजी, भला बतलाइय िक
गणडसथलो से चलायमान भमरमणडलरप नील कमल िजनके मसतको मे है , ऐसे हािथये का मुगध अंगनाओं के शासो के
दारा गजवध के िलए पेिरत होने के कारण उतसाहरमय मचछरो ने कहा मनथन िकया ?।।8।। अपने से िवदािरत हुए
मत गजो के मुकताफलो की कािनतयो से सुशोिभत हो रहे िजनके नखपंजर है, ऐसे युद मे िनपुण िसंह हिरणो के दारा
कही मिदरत हुए है ?।।9।। िवष की अिधकता के कारण अपने आप िनकलने वाले रस के सदृश सवयं िनकलने वाले
बडे-बडे िवष-िबनदुओं से अरणयवृक िजनहोने दगध िकये है, ऐसे कुिधत अजगरो को कही कुद मेढको ने िनगल िलया
?।।10।। िजसने चतुथे, पंचम आिद भूिमका पापत कर ली है और िजसने जेय तततव जान िलया है , ऐसी िववेकी वीर
िवदान, जो आगे की भूिमकाओं के ऊपर िवजय पाने के िलए पयतशील है, िवषय तथा इिनदयरपी चोरो के दारा कही पर
अिभभूत हो सकता है ?।।11।।
अतः िजनका िचत पिरपकव नही हुआ है, वे पहले की भूिमकाओं मे ही िवघो से आकानत होते है, आगे की
भूिमकाओं मे जा ही नही पाते, ऐसा कहते है।
िवषयरपी शतु अपौढ िवचारबुिद का उस पकार अपहरण कर डालते है, िजस पकार पचणड पवन िछनवृनत
(िछनआशय) लता का अपहरण कर डालते है।।12।। िजस पकार अवानतर कलपो के कोभो मे महान् धीर होकर
रहने वाले मेर आिद पवरतो का उचचाटन करने मे मनद पवन समथर नही होते, उस पकार पौढतापापत िववेक के लवमात
का भी िवनाश करने मे दुष राग आिद वृितया समथर नही होती।।13।। शीरामजी, िजसने दृढमूल गहण नही िकया है,
ऐसे िवचाररपी पुषप वृक को िचनतारपी झंझावात कँपा देते है, परनतु चारो ओर की सुदृढ से भली पकार सुिसथत हएु
िवचाररपी पुषपवृक को नही कँपाते।।14।।
अतएव िवचार के िवचछेद काल मे पमाद से राग आिद रप मृतयु से यह आकानत होता है, इस आशय से कहते
है।
िजस पुरष का अनतःकरण जब जाते या बैठते, जागते या सोते, इन सभी अवसथाओं मे आतमिवचार से
ओतपोत नही रहता, तब वह मृत कहा जाता है।।15।। शीरामजी, इस जगत का सवरप कया होगा ? इस देह का
सवरप कया होगा यो िनरनतर धीरे-धीरे एकानत मे या सवयं अकेले या गुर, सजजन महातमा आिद के साथ अधयातमदृिष
से िवचार कीिजये।।16।।
िवचार करने से फल अवशय होता है, यह कहते है।
पमादरपी अनधकार का अपहरण करने वाले आतमिवचार से ततकाल ही सवाितशायी िनमरल बहरप पद उस
पकार िदखाई पडता है, िजस पकार पकाशमान दीपक से घटािद वसतु िदखाई पडती है।।17।।
जान से दो फल होते है, यह कहते है।
शीरामजी, आतमसवरप के िवजान से समसत दुःखो का िवनाश उस पकार हो जाता है, िजस पकार पकाश के
दारा मनोरंजन करने वाले सूयर से अनधकार का िवनाश हो जाता है।।18।। जब जान अपनी पकाशरपता पापत कर
लेता है, तब जेय बह का पूणर रप से उदय उस पकार सवतः हो जाता है, िजस पकार सूयर का अभयुदय हो जाने पर
भूभाग पर िवमल पकाश का उदय सवतः हो जाता है।।19।।
जान का सवरप बतलाते है।
शीरामजी, िजस शासतसमबनधी िवचार से बहसवरप अवगत हो जाता है, वही शासतीय भाषा मे जान कहा
जाता है। जेय बह का आकाररप और भेद का बाधरप होने के कारण जेय बह स वह अिभन ही बनकर दृढ
पितिषत रहता है।।20।। हे भद, पिणडत लोग आतमिवचार से उतपन आतमिवजान को ही जान कहते है। उसी जान
के अनदर जेय उस पकार पचछन रहता है, िजस पकार दूध के अनदर माधुयर पचछन रहता है।।21।। जैसे मैरे
(मिदरािवशेष) पी लेने वाला पुरष सदा मदपचुर रहता है, वैसे समयक् जानरपी सुनदर पकाश से युकत पुरष सवयं
अनुभूयमान बहानंद से पचुर रहता है।।22।। िजसका सवरप सैनधव घन की नाई एकरस है, ऐसा िनमरल पर बह ही
जेय कहा जाता है। वह जेयरप बहजान के आिवभावमात से ही सवयं समसत अिवदा और उसके कायररपी मलो से
िनमुरकत हो जाता है।।23।। जानसमपन तथा आननद पापत िवदान िकसी भी िवषय मे िलपत नही होता। समसत संगो
से िनमुरकत एवं जीवनमुकत वह जानी, राजािधराज समाट की आतमा की नाई, पिरपूणर मनोरथ होकर िसथत रहता है।।
24।।
रागीजनो दारा सपृहणीय भावो मे उस िवदान की अनासिकत बतलाते है।
शीरामजी, जो तततवज पुरष है, वह वीणा, बासुरी की मधुरधविन आिद मनोहर शबदो मे, कािमिनयो के शृंगाररस
िमिशत कमनीय गीतो मे, वसनतकाल मे मदमत हुए भमरो की गुंजार धविनयो मे, वषा के िवसतार से जिनत पुषपो मे, मेघो
के खणडो मे, सरोवरसथ सारस पिकयो के शवणिपय, शबदो मे, करताल आिद वादिवशेषो मे, चमडे से मढे गये गमभीर
मृदगं आिद वादो मे, तनती से िनिमरत वीणा आिद, भीतर के िछद से युकत बासुरी आिद तथा िचत िविचत कासयताल
आिद वादो की धविनयो मे, कही पर भी िचत नही लगाता, शीरामजी चाहे धविन रक हो चाहे मधुर, कही भी यह उस
पकार पेम नही करता, िजस पकार कमलो मे चनदमा पेम नही करता।।25-29।। भद, आसिकतविजरत जानी पुरष
कोमल कदली के सतमभो की पललवपंिकतयो से युकत तथा देवता एवं गनधवों की कनयाओं के अंगो के सदृश अितकोमल
अवयववाली लताओं से युकत ननदनवन की कीडाओं मे कही िकसी समय भी िचत नही लगाता। हे शीरामजी, िजस
पकार हंस मरभूिम मे भोग की इचछा नही करता, उसी पकार सवाधीन िवषयो मे भी आसिकत नही रखने वाला धीर
तततवज िकसी भी िवषय मे भोग की इचछा नही करता।।30-31।। जानवान पुरष िपणडखजूर (एक पकार की खजूर)
कदमब, कटहल, दाक, खरबूजा, अखरोट, िबमब (कुँदर) तथा नारंग आिद जाित के फलो मे मद, मधु, मैरेय, माधवीक,
आसव आिद मदिवशेषो मे, दही, दूध, घी, आिमका (गमर दूध मे दही डालने से िपंडीभूत दवय), मकखन, ओदन (भात) आिद
भोजय पदाथों मेल लेह, पेय आिद िवलास-पूणर िचत-िविचत छः पकार के रसो मे, अनयानय फल, कनदमूल, शाक एवं
मास आिद पदाथों मे कही पर िचत नही लगाता। वह तृपतसवरप एवं असकतमित है, अतः वह भोगय पदाथों मे उस
पकार पवृत नही होता, िजस पकार आसवादन मे पेम रखने वाला बाहण अपने शरीर के टुकडो मे पवृत नही होता।।
32-34।।
शीरामजी जो जानी शीमान महातमा है, वह यमराज, चनद, इनद, रद, सूयर और वायु के सथानो मे, मेर,
मनदराचल, कैलास, सहािद तथा ददूरर पवरत के पललव समूहो से युकत िशखरो मे, चनदिबमब की कला आिद मे, िदवय
शरीर समपित से िकयमाण कीडाओं से युकत कलपवृको के िनकु ंजो मे, रतयुकत सुवणरिभित से िनिमरत मोित और
मिणपचुर सुनदर घरो मे, ितलोतमा, ऊवरशी, रमभा, मेनका आिद अंगलताओं मे कही पर भी असकतमित होने के कारण
दृिषपात नही चाहता, वह पिरपूणर, मौनी एवं शतुओं के िवषय मे अचल है यानी देष से किमपत नही होता।।35-39।।
जो समबुिद, िपय, अिपय सब सथानो मे समदृिष रखने वाला तथा अिपय मे कोभशूनय जानवान पुरष है, वह कनेर,
मनदार, कलार, कमल आिद मे, कुई, नील कमल, चंपा, केतकी, अगर, जाित (मालती) आिद पुषपो मे, कदमब, आम,
जामुन, पलाश एवं अशोक वृको मे, जपा, माधवी, बेर, िबमब, पाटल तथा चमेली आिद मे, चनदन, अगर, कपूर, लाह एवं
कसतुरी मे, केसर, लवंग, एला, कंकोल (शीतल चीनी के वृक का भेद), तगर आिद अंगरागो मे से िकसी की सुगनध मे
पेम उस पकार नही करता, िजस पकार मिदरा की गनध मे शोितय िदज पेम नही करता।।40-43।।
इसी पकार भयजनय धविनयो मे उसको भय नही होता, ऐसा कहते है।
गडगडाहट धविन से युकत सागर, पितधविनरप आकाशजिनत शबद के, पवरत मे िसंहो के गजरनो के होने पर
जानी तिनक भी कुबध नही होता।।44।। शतुओं के नगारे आिद के शबदो से, डमर के शबद से, कणर कटु धनुष के
टंकार से जानी तिनक भी भयभीत नही होता।।45।। मदोनमत हािथयो के िचंघाडिन के शबद, वेतालो की कलह
आिद धविन तथा िपशाच एवं राकसो का िसंहनाद होने पर जानी पुरष जरा भी किमपत नही होता।।46।। जो पर बह
मे धयान लगाने वाला िवदान है, वह वज के भयावह शबद से, पवरत के िवसफोट से एवं ऐरावत के िचंघाडने से किमपत
नही होता।।47।। जानी पुरष चल रहे आरे के घषरण से, चमचमाती हुई तलवार के िवदलन से, बाण एवं वज के
समपात से अपनी सवरपिसथितरप समािध से िवचिलत नही होता।।48।। जानी पुरष वािटका मे न आननद पापत
करता है और न तो खेद। एवं मरभूिम मे न खेद पापत करता है और न तो आननद।।49।। भसम से रिहत उजजवल
अंगारो के सदृश असह बालू से युकत मरपदेशो मे, पुषपो के समूहो से आचछािदत मृदु घासमय भूिमयो मे, तीकण छुरे
की धारो मे, नवीन कमलो से िनिमरत शययाओं मे, उनत पवरत के पदेशो मे, कुओं के अनदर की िनम भूिमयो मे सूयरिकरणो
से पतपत िशलाओं मे, कोमल ललनाओं मे, संपितयो मे, उग िवपितयो मे, कीडाओं तथा उतसवो मे िबहार कह रहा भी
जानी न उदेग पापत करता है और न तो आननद पापत करता है। वह भीतर से सदा मुकत और बाहर से कमरकता की
नाई िसथर रहता है।।50-53।। जानी पुरष महिषर माणडवय की नाई पारबध कमों से पापत हुई अंगो को संकुिचत
करने वाली नरक की अरणयभूिमयो मे, जहा पर एक दूसरो के दारा अनेक बछी तोमर आिद शसतिवशेषो की वृिष हो
रही है, न भयभीत होता है, न वयाकुल होता है और न तो दीन होता है, परनतु वह सम, सवसथमन, मौनी और धीर होकर
पवरत की नाई अटल रहता है।।54,55।। जानी पुरष अपिवत, अपथय, िवषयुकत, गोमय आिद मल, आदर तथा
रसविजरत पदाथों को खाकर भी ततकण उस पकार पचा देता है, िजस पकार साधारण मनुषय पिरषकृत अन को खाकर
पचा देता है।।56।।
शीरामजी, िजसके अनतःकरण मे िकसी पकार की िवषयासिकत नही है, वह तततवज ततकण बुिद का िवनाश
करने वाला िबमब का फल (कुनदर का फल), िवषपाय सब ओर से कषाय लगने वाला फल, कीर, इकुरस, जल और
ओदन इन सब िवषयो के आसवादिन मे सम यानी तुलयिचत रहता है।।57।।
राकस, िपशाच आिद मे जीवनमुकत हो सकते है, इसिलए उनका भी संगह करने के िलए ततसाधारण कहते है।
मैरेय(मदिवशेष), मिदरा, कीर, रकत, चरबी, आसव, रक हडडी, तृण और केश इन सबसे जानी न पसन होता है
और न तो कुिपत ही होता है।।58।।
तततवज की शतु और िमत मे समदृिष रहती है, ऐसा कहते है।
जीवन का िवनाश करने वाला तथा जीवन का दान देने वाला इन दोनो पुरषो को जानी पुरष पसनता एवं
मधुरता से शोिभत दृिष से यानी समदृिष से देखता है।।51।। जानवान् िचरसथायी देवशरीर तथा कुछ काल तक
सथायी मतयर शरीर, एवं उनके भोगय रमणीय तथा अरमणीय वसतु इन सबके िवषय मे न हषर करता है और न तो गलािन
करता है, कयोिक उसकी समता की भावना सदा पदीपत रहती है।।60।।
शीरामजी, अपने िचत मे आसिकत का अभाव तथा िवषयसवरप का भलीपकार जान हो जाने के कारण जगत
की िसथित मे जानी आसथा नही रखता एवं िमथया िवषय आसथा के अयोगयरप होने से जानी साधु िकसी भी समय
िकसी इिनदय को िवषयपवृित के िलए अवसर नही देता, कयोिक उसकी बुिद समसत मानस पीडाओं से िनमुरकत हो चुकी
है।।61,62।।
तब इिनदया िकसको िनगल जाती है, इस पर कहते है।
िजस पकार हिरण पललव िनगल जाते है, वैसे ही इिनदया तततवजान से शूनय िवशािनत से विजरत, अपापत-आतमा
तथा िसथित शूनय मनुषय को ततकाल िनगल जाती है।।63।। संसार-समुद मे बह रहे, वासनारपी वीिचया (गितशील
तरंग) से वेिषत अतएव िनरनतर महान् कनदन करने मे ततपर उस अजानी को इिनदयरपी मगर िनगल जाते है।।
64।।
लोभ आिद िवकलप भी आतमज को िवचिलत नही करते, ऐसा कहते है।
जैसे जल पवाहो से पवरत बहाया नही जा सकता, वैसे ही िवचारवान, एकमात बहरप पद मे समासीन तथा
आतमा मे बुिद की िवशािनत लेने वाला महामित लोभ आिद िवकलप समूहो से बहाया नही जा सकता।।65।। समसत
संकलपो की सीमा के अनतभूत परम पद मे जो महानुभाव िवशािनत कर चुके है, उस पापत सवरप महातमाओं की दृिष मे
मेर पवरत ही तृण के सदृश है।।66।। शीरामजी, िजन महातमाओं का िचत पिरपूणर आतमाकार के पितफलन से
िवशाल हो गया है, उनकी दृिष मे जगत, जीणर ितनके का टुकडा, िवष, अमृत, कण और हजारो कलप ये सभी समानरप
है।।67।। जगत िचनमातसवरप है, यो जानकर ये पमुिदतमित तथा समसत जगत मे आनतर पतयगातमरपता के
अवलोकन से अनतःरथ जगत-वाले महातमा संिवनमय होकर सवरत िवहार करते है।।68।। संिवनमात के
पिरसपनदनसवरप जगत के िपंजडे मे कया हेय और कया उपादेय हो सकता है ? अथात् न कुछ हेय है और न कुछ
उपादेय है, यह तततवजो का मत है।।69।। हे पापशूनय शीरामजी, यह समसत जगत संिवतातमक ही है, अतः आप
अनयता-भािनत का पिरतयाग कर दीिजये। जो पकाशातमक िचतपचुर सवरपवाला तततव है, वह कया तयागेगा और कया
भमण करेगा ?।।70।। भूतकालीन पदाथों मे िकसी की इचछा नही होती, अतः अजानीरपी हिरणो के दारा
वतरमानकालीन जो कुछ भूिम से पललवाकुरपाय पदाथर उतपन होते है और भिवषयतकालीन जो कुछ भूिम से
पललवाकुररप पदाथर उतपन होने वाले है, ये ही सपृहणी है, उन सबका जैसे तततवज की दृिष से संिवदूप से पथन होता
है, वैसे ही आकाशािद तततवो के अंकुर की नाई िसथत शबद, सपशर आिद अनय िवषयो का भी तततवज की दृिष से
संिवदूप से ही पथन होता है।।71।।
पितपािदत अथर की िसिद मे युिकत बतलाते है।
शीरामजी, िजसकी आिद और अनत मे अिसतता है नही, उसकी यिद वतरमान काल मे यानी बीच मे कुछ-काल
तक सता देखी जाय तो वह संिवत का एक भम ही है।।72।। शीरामभद, इस उकत अथर का युिकतपूवरक मनन से
दृढीकरण कर तथा 'यह भावरप है और यह अभावरप है' इस पकार िवकलपयुकत मित का तयागकर भाव के
बाधसवरप बह मे पापत होकर आप संगशूनय पकाशमान संिवदूप हो जाइय।।73।। हे महाबाहो, िजस पकार कोई भी
मनोराजय की संपितयो के नष होने या न होने पर, तजजिनत सुख-दुःखो से िलपत नही होता, उसी पकार जानी पुरष
संगरिहत मन से कमानुषान करे, चाहे न करे, तजजिनित सुख-दुःखो से िलपत नही होता।।75।। आतमा मे अकतापन
और अभोकतापन का अनुभव हो जाने के कारम बुिद को वीतसंग बना रहा तथा शरीर आिद उपकरणो से वयवहार िनरत
हो रहा भी जानी सुख-दुःखातमक अनुकूल पितकूल भावो से उस तरह िलपत नही होता, िजस तरह मनोराजय के वैभवो
के आगमापयो से अजानी िलपत नही होता।।76।। िवषयो के साथ संसगर से शूनय अनतःकरणवाला महातमा चकु से
िवषयो को देख रहा भी उनहे नही देखता, कयोिक उसका िचत तो अनयत परबह मे लगा हुआ है। िजसका िचत अनयत
रहता है, वह िवषय नही देखता, यह बात बालक को भी जात है।।77।। िवषयसंग से शूनय मनवाला पाणी सुनता हुआ
भी नही चुनता, सपशर करता हुआ भी सपशर नही करता। इस अथर की पितपादक शुित भी है - 'अनयतमना अभूव ं
नादशरमनयतमना अभूव ं नाशौषम्' (अनयत मना था, अतएव मैने नही देखा, अनयतमना था, अतः मैने नही सुना)।।
78।। यह अनयतमना योगी भली पकार सूँघ रहा भी नही सूँघता, नेत उनमीिलत कर रहा भी उनमीिलत नही करता,
पदाथे ं मे यानी अपने अपने िवषयो मे संसकारवश कमेिनदयो के संसृत होने पर भी यह संसृत नही होता।।71।। भद
िजनका मन अनयत चला गया है, ऐसे अपने घर मे रहने वाले मूखर एवं अपौढमित बालक, पशु आिद इस िवषय का यानी
देख रहा भी नही देखता आिद उकत अथर का अनुभव करते है, इस िवषय मे उनको िकसी पकार का िववाद नही है।।
80।।
इन पूवोकत वाकयो से यह िनषकषर िनकला िक आसिकतपूवरक पदाथों का अनुभव करना ही बनधन मे हेतु है, वह
आसिकतशूनय जानी को होता नही, इस आशय से कहते है।
आसिकत ही संसार की कारण है, आसिकत ही समसत् पदाथों की हेतु है, आसिकत ही रमय िवषयो की
अिभलाषाओं की जनक है और आसिकत ही समसत िवपितयो की उतपािदका है।।81।। हे िनमरल शीरामजी,
संगपिरतयाग मोक (वतरमान देह आिद से समबनध की िनवृित) है, यह महिषरयो का मनतवय है। संगतयाग से जनम (भावी
देहािदबनधन) छू ट जाता है, अतः आप पदाथों का संसगर छोड दीिजये और जीवनमुकत हो जाइये।।82।। शीरामजी ने
कहाः अिखल संशयरपी कुहरे के िलए शरतकाल के वायुरप हे महामुने , संग िकसे कहते है ? हे पभो, यह मुझसे
किहये।।83।।
महाराज विसषजी ने कहाः भद, इष एवं अिनष पदाथों की पािपत तथा अपािपत होने पर हषर और िवषादरप
िवकार उतपन करने वाली मिलन जो यह रागािद वासना है, वही संग है, ऐसा मुिन कहते है।।84।। जीवनमुकत
सवरपवाले तततववेताओं को पुनजरनम न देने वाली हषर एवं िवषाद दोनो से िनमुरकत शुद वासना होती है।।85।।
रामभद, उस शुद वासना का दूसरा नाम असंग है, इसे आप जािनये। वह तब रहती है, जब तक अविशष पारबध कमों
का िवनाश नही हो जाता। उस वासना से जो कुछ िकया जाता है , वह पुनः संसार का कारण नही होता।।86।। जो
जीवनमुकत सवरप से समपन नही है एवं जो दीन एवं मूढमित है, उनकी वासना हषर तथा िवषाद इन दोनो से िमली हुई
रहती है, यह वासना बनध (संसार) देने वाली होती है।।87।। शीरामजी, इसी बनधकार के वासना का दूसरा नाम संग
है, यह पुनजरनम पदान करती है, इस वासना से जो कुछ िकया जाता है, वह केवल बनधन का ही हेतु होता है।।88।।
शीरामजी, अपनी आतमा मे िवकार पैदा करने वाले उकत सवरप के संग का तयागकर यिद आप सवसथ होकर िसथत
रहे, तो वयवहार मे वयसत होते हुए भी आप उससे िलपत नही होगे।।89।। हे राघव, यिद हषर, अमषर एवं िवषाद से आप
अनयरपता पापत नही करेगे, तो राग, भय, और कोध से विजरत होकर असंगरप हो जायेगे , यह िनिशत है।।10।। हे
राघव, यिद दुःखो से गलािन नही करते, सुखो से फूल नही जाते तो, आशाओं की परवशता का पिरतयाग कर असंग ही
हो जायेगे।।91।। वयवहारो एवं सुख-दुःख की अवसथाओं मे िवचरण करते हुए भी आप यिद बहैकरसता छोडते
नही, तो आप असंग ही है।।92।। हे राघव, संवेद पदाथर िचतसवभाव ही है, जान होने पर वह यिद आपको एकरप
लिकत होता है और यिद आप िजस समय जैसे वयवहार पापत हुआ, तदनुसार वतरन करते है, तो आप असंग है।।
93।। हे अनघ, असंगता ही िबना पिरशम से िसद हुई सुदृढ जीवनमुकत की अवसथा है , अतः उसका अवलमबन कर
आप एकरप, सवसथ और वीतराग हो जाइये।।94।। जीवनमुकतो के जान से समपन, मौनवरतधारी और इिनदयरपी
पाशो को वश मे रखने वाला जानवान् आयरपुरष मान, मद और मातसयर से रिहत तथा िचनताजवर से शूनय होकर िसथत
रहता है।।95।। शीरामजी, भोग, िवकेप आिद के हेतुभूत पचुरतर पदाथों के सदा रहते हुए भी सबमे समानभाव रखने
वाला तथा बाहर एवं भीतर इचछा एवं याचना आिद दीनता से शूनय अनतःकरणवाला यह महातमा एकमात अपने
वणाशमोिचत सवाभािवक कम-पापत वयापार से पृथक दूसरा कुछ भी वयापार नही करता।।96।। जो कुछ भी
वणाशमानुसार परमपरा-पापत अपना कतरवय रहता है, यह जानी उसी का िकयािभिनवेश और लाभ की अिभलाषा से विजरत
बुिद से खेद छोडकर अनुषान करता हुआ अपनी आतमा मे रमण करता है।।97।। िजस पकार मनदराचलपवरत से
मिणत कीरपचुर वािरसमुद अपना सवाभािवक शुकलपन नही छोडता, उस पकार आपित पाकर अथवा उतम समपित
पाकर महामित तततवज अपना पूवरिसद शम, दम, पसनता, समदशरन आिद सवभाव नही छोडता।।98।।
जैसे चनदमा कलाओं की वृिद और कलाओं के हास या उदय एवं असतमय काल मे एकरप रहते है , वैसे ही
जानी सामाजय और दिरदता आिद आपित तथा सपािद योिन अथवा देवताओं की सवािमता पापत कर खेदशूनय तथा
हषरशूनय होकर एक रप से िसथत रहता है।।99।।
बतलाये गये लकणो से युकत जीवनमुिकतरपी सुख की पािपत राग, देष और भेदवासना के िवनाश तथा जान के
अभयास से युकत आतमिवचार ही उपाय है, इसिलए उसी का शीरामचनदजी, को उपदेश दे रहे महिषर विसषजी उपसंहार
करते है।
शीरामजी, मन मे दीनता का तयागकर आप कोध के, आतमा और अनातमा के भेद के तथा नानाफलक
तुचछसवरप कमों के तयागपूवरक आतमा का िवचार कीिजये, िजस िवचार से उतम कायरिनष हो जाये यानी अवशय
समपादन करने के िलए योगय अिनतम पुरषाथर मे िसथत हो जाय।।100।। शीरामजी, उकत आतम-िवचार के दारा पापत
समािध के िवलास से समसत वासनाओं की िवनाश हो जाने से अितसवचछ, समािधगत आतमतततवरप अवशय दृषवय
पदाथर से युकत तथा िवदा और अिवदाकायर के िवनाश मे समथर होने के कारण दीपत बुिद से दुःखविजरत
िनरितशयातमक सुख-सवरप परमपद का अवलमबन कर आप अविसथत हो जाइये।
परमपद का अवलमबन करने से पुनरावृित की शंका नही रह जाती, ऐसा कहते है।
भद, आप िफर इस संसार मे जनमो के बनधनो से बद न होगे। इससे एकमात तततवसाकातकार से ही अिवदा
और उसके कायररप समसत अनथों के उपशम के अननतर िनतय िनरितशयआननदसवरप मे पितषा होती है , यह िसद
हुआ।।101।।
िसथित पकरण उपशम पकरण