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तत्त्वज्ञान 0

तत्त्वज्ञान

योगी आनन्द जी

हे आत्म-तत्व से युक्त पुरुष!


आप आत्मप्रकाश से युक्त हैं। अज्ञानी नहीं, अज्ञान
तो आवरण मात्र हैं। यदद आप इस आवरण को हटा देते
है तो वास्तदवक प्रकाश-पुुंज आपको स्वत: ददखाई देगा
... ।

तत्त्वज्ञान 1

© लेखक
योगी अनन्द जी

anandkyogi@gmail.com
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http://www.youtube.com/c/YogiAnandJiSahajDhyanYog
https://www.fb.com/sahajdhyanyog/

तत्त्वज्ञान 2
योगी आनन्द जी

तत्त्वज्ञान 3
प्रस्तावना
तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ऄत्यन्त दल
र लभ ह। ववरले साधकों को ही तत्त्वज्ञान प्राप्त होता ह। वजसने आस
ज्ञान को प्राप्त कर वलया ह।, वह शर -ऄशर कर्मों से परे हो गया ह। विर ईसके वलए कर्मलभ बन्धन रूप नहीं
बनते हैं वह साधक वनष्कार्म ाव से कर्मलभ करता ह। ईसे ज्ञात हो जाता ह। वक र्मैं यह शरीर, आवन्ियााँ, र्मन,
ऄहक ं ार, वित्त अवद नहीं हाँ ऄथालभत् जड़ पदाथलभ नहीं ह,ाँ बवकक जड़ पदाथलभ से परे हाँ आसवलए प्रत्येक र्मनष्र य
के वलए तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ऄत्यन्त र्महत्वपणर लभ ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त वकए वबना कोइ ी र्मनष्र य जीवन्र्मक्त

नहीं हो सकता ह। और न ही अत्र्मा र्में वथथत हो सकता ह। तत्त्वज्ञान से ऄववद्या का पणर लभ नाश हो जाता ह।
ऄववद्या का नाश वकए वबना वनम्नगावर्मनी ववषयाशव‍त वाली ऄपरा-प्रकृ वत से जीव र्म‍र त नहीं हो सकता
ह।
तत्त्वज्ञान कोइ ऐसा ज्ञान नहीं ह। जो वेद-शाथरों व ऄन्य अ्यावत्र्मक पथर तकों को पढ़कर प्राप्त कर
वलया जाए तत्त्वज्ञान वसिलभ योग के ऄभ्यास द्रारा ही प्राप्त वकया जा सकता ह। जब वववेक-ख्यावत
ऄवथथा र्में अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान हो जाता ह।, तब तत्त्वज्ञान की प्रावप्त ऄभ्यासानसर ार
होने लगती ह। वेद-शाथरों से, गरू र के द्रारा प्रविन सनर ने से ऄथवा ऄन्य अ्यावत्र्मक पथर तकों को पढ़ने
से तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ह। आस ज्ञान के द्रारा (वेद-शाथरों अवद के द ऄववद्या का नाश नहीं होता
ह।, ‍योंवक वित्त र्में रजोगणर ी व तर्मोगणर ी वृवत्तयााँ ववद्यर्मान रहती हैं यह ज्ञान तत्त्वज्ञान प्रावप्त र्में वसिलभ
सहायक होता ह। तत्त्वज्ञान के ववषय पर लेख वलखने का हर्मारा यही ईदेश्य ह। वक वतलभर्मान सर्मय र्में आस
दल र लभ ज्ञान के ववषय र्में स ी र्मनष्र य सर्मझ सकें वक वाथतव र्में तत्त्वज्ञान ‍या होता ह।? र्मैंने आस लेख र्में
िेतन-तत्त्व व जड़-तत्त्व के ववषय र्में वलखने का प्रयास वकया ह। तावक ऄभ्यावसयों को आस लेख के द्रारा
र्मागलभदशलभन वर्मल सके , आस पर ववशेष रूप से ्यान वदया गया ह।

तत्त्वज्ञान 4
दनवेदन
तत्त्वज्ञान पर लेख वलखने की प्रेरणा हर्में योगी पतंजवल ॠवष जी से वर्मली एक वदन जब र्मैं योग
सम्बन्धी लेख वलख रहा था, ईसी व‍त ऊवषवर पतंजवल जी का सन्देश अया– ‚योगी, मैं तमु से बात
करना चाहता ह‛ूँ यह सन्देश वर्मलते ही र्मैंने लेख वलखना बन्द कर वदया और अाँखें बन्द करके ्यान पर
ब।ठ गया अाँखें बन्द करते ही पतंजवल ऊवष प्रकट हो गये पहले र्मैंने ईन्हें प्रणार्म वकया, ईन्होंने
अशीवालभद र्मिर ा र्में ऄपना हाथ उपर की ओर ईठाया और हर्मसे बोले, ‚योगी पत्रु , तमु इस कॉपी में क्या
लिख रहे थे‛? र्मैं बोला, ‚भगवन, मैं अपने अनभु व लिख रहा था जो हमें ध्यानावस्था में आते हैं‛
ऊवषवर पतंजवल जी बोले, ‚तमु इस कॉपी को ज्ञान से भर दो‛ र्मैं बोला, ‚प्रभ!ु मैं इतनी मोटी कॉपी ज्ञान
से कै से भर सकता ह,ूँ इतना ज्ञान मझु में नहीं है‛ पतंजवल जी बोले, ‚योगी पत्रु , मैंने कहा ना इस कॉपी को
ज्ञान से भर दो, ज्ञान मैं दगूँू ा, क्या तमु मझु से ज्ञान िोगे?‛ र्मैं प्रसन्नता से बोला, ‚हाूँ प्रभ!ु मैं आपसे ज्ञान
देने की प्राथथना करता ह।ूँ यह हमारा सौभाग्य ही होगा लक आप हमें ज्ञान देंगे‛ पतंजवल जी बोले, ‚मैं तम्ु हें
ज्ञान अवश्य दगूँू ा। तम्ु हें लकस लवषय में ज्ञान अथवा जानकारी चालहए– मझु से पछू ो, मैं तम्ु हें बताऊूँगा। क्या
इस समय तम्ु हें कुछ पछू ना है‛? र्मैं बोला, ‚नहीं प्र !र आस सर्मय हर्मारे ऄन्दर वकसी प्रकार की कोइ शंका
ऄथवा प्रश्न नहीं ह।‛ पतंजवल जी बोले, ‚ठीक है, जब तम्ु हें योग के लवषय में कुछ भी पछ ू ना हो तो हमें
याद करना, मैं तम्ु हें बताऊूँगा‛ र्मैं बोला, ‚प्र !र अप हर्में सर्मय वनवश्ित कर दें तावक र्मैं ईसी सर्मय
अपसे पछर र ाँ वजससे अपको सर्मावध र्में वकसी प्रकार का ऄवरोध न अए‛ पतंजवल जी बोले, ‚योग के
लवषय में तमु लकसी भी समय पछू सकते हो। तम्ु हें इतना ज्ञान होना चालहए लक जब तमु लिखना शरू ु करो
तो लिखते ही चिे जाओ और जब तमु बोिना शरू ु करो तो बोिते ही चिे जाओ। कहो, मैंने ठीक कहा
ना?‛ र्मैं बोला, ‚जी प्र ‛र पतंजवल जी बोले, ‚मैं तम्ु हारी सहायता अवश्य करूूँगा‛ र्मैंने ईन्हें प्रणार्म
वकया, विर वे ऄदृश्य हो गये
वप्रय पाठकों! जरूरत पड़ने पर र्मैं योगीराज पतंजवल ऊवष जी से योग के ववषय र्में जानकारी ले
वलया करता था ईन्होंने हर्में करण्डवलनी के ववषय र्में बहुत ज्ञान वदया ऄब ईन्हीं की प्रेरणा से आस लेख को
वलख रहा हाँ यह लेख र्मैंने ऄपने योग के ऄभ्यास के ऄनसर ार वलखा ह। ऄभ्यास के सर्मय प्रत्यक्ष रूप से
हर्मारा कोइ र्मागलभदशलभक नहीं था र्मैंने थवयं ऄपने ज्ञान के द्रारा यह र्मागलभ तय वकया ह। क ी-क ी हर्मारे
सार्मने आस र्मागलभ र्में अगे बढ़ने पर प्रवतकरल पररवथथवतयााँ ईपवथथत हो जाती थी आन प्रवतकरल पररवथथवतयों
के द्रारा अए हुए ऄवरोधों को र्मैं ोगकर पार कर लेता था ऄथवा क ी-क ी सक्ष्र र्म वदव्य शवक्तयों से

तत्त्वज्ञान 5
र्मागलभदशलभन ले लेता था आस लेख को वलखते सर्मय हर्मारी ऄवथथा जीवन्र्मक्त र की ह। लेख वलखते सर्मय
हर्में थोड़ी बहुत परे शानी का सार्मना करना पड़ रहा ह। आसका कारण यह ह। वक र्मैं लेख र्में ‍या-‍या वलखाँर
व वकन-वकन शब्दों का प्रयोग करूाँ, आसके वलए हर्में ऄपने अपको बवहर्मलभख र ी करना पड़ता ह। वबना
बवहर्मलभख
र ी हुए र्मैं यह लेख नहीं वलख सकता ‍योंवक जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त होने के कारण र्मैं परर ी तरह
से ऄन्तर्मलभख
र ी हो गया ह,ाँ परन्तर ऄन्तर्मलभख
र ी रहकर लेख नहीं वलखा जा सकता ह। आसवलए हर्में ऄहक ं ार,
बवर ि, र्मन, आवन्ियों अवद को क्रर्मशः बवहर्मलभख र ी करना पड़ता ह। र्मैं बवहर्मलभख
र ी ज्यादा सर्मय तक नहीं रह
पाता ह,ाँ ऄपने अप ऄन्तर्मलभख र ी हो जाता हाँ यह ऄन्तर्मलभख
र और बवहर्मलभख र की ऄवथथा जो बार-बार होती
रहती ह।, वह लेख वलखने के वलए ऄवरोध का कारण बनती ह। व।से र्मैं परर ी तरह से प्रयास करूाँगा वक
लेख वलखते सर्मय ऄवधक से ऄवधक बवहर्मलभख र ी रहाँ तावक आस लेख से साधकों को ईनकी
अवश्यकतानसर ार र्मागलभदशलभन वर्मल सके
र्मैंने योग के ऄभ्यास की शरू र अत वसतम्बर 1984 र्में की थी विर 17 िरवरी 1985 को श्रीर्माता
जी से (हर्मारे गरू र देवद ईनके घर जाकर (वर्मरज-र्महाराष्रद दीक्षा ली ईन्हीं के र्मागलभदशलभन र्में योग का
ऄभ्यास करता रहा ईस सर्मय र्मैं वदकली र्में नौकरी करता था विर नौकरी छोड़कर जनवरी 1987 र्में र्मैं
ऄपने प।तक ृ गााँव कानपरर (ई.प्र.) अ गया यहााँ अकर योग का ऄभ्यास ऄत्यन्त ई्र रूप से करने लगा
ढेरों घरे लर व सार्मावजक ऄवरोध अते रहे र्मगर र्मैंने आन ऄवरोधों की क ी परवाह नहीं की ओर न ही
क ी योगर्मागलभ से वविवलत हुअ क ी-क ी अवश्यकता पड़ने पर श्रीर्माता जी के पास िला जाया
करता था ईस सर्मय श्रीर्माता जी ऄपने घर पर ही साधकों का र्मागलभदशलभन वकया करती थी विर जल र ाइ
1991 र्में श्रीर्माता जी का अश्रर्म वर्मरज के पास बनना शरू र हो गया था ईस सर्मय ईन्होंने अश्रर्म की
देख ाल के वलए हर्मारा ही ियन वकया था र्मैं जल र ाइ 1991 र्में वर्मरज अश्रर्म र्में रहने लगा ओर वहााँ पर
सद।व योग का ऄभ्यास वकया करता था विर र्मैंने ऄत्यन्त कठोर साधना करना अरम् कर वदया आससे
हर्में योग र्में शीघ्र ही सिलताएाँ वर्मलने लगीं
जल
र ाइ 1992 र्में हर्मारे और श्रीर्माता जी के वविारों र्में र्मत ेद ई रना शरू
र हो गया आसका कारण
थवयं हर्मारे योग का ऄभ्यास ही था श्रीर्माता जी के र्मागलभदशलभन के कारण एक सर्मय हर्मारे ऄभ्यास र्में
ऄवरोध अ गया परन्तर श्रीर्माता जी ने आस ऄवरोध का दोषी हर्में ही बताया तथा ऄत्यन्त कठोर शब्दों
का प्रयोग वकया ईन शब्दों को सनर कर र्मैं दःर खी हो गया विर र्मैंने सक्ष्र र्म लोक के तत्त्वज्ञानी योवगयों से
सम्पकलभ थथावपत वकया तथा ईनसे र्मागलभदशलभन करने की प्राथलभना की ईनके र्मागलभदशलभन र्में करछ वदन योग का

तत्त्वज्ञान 6
ऄभ्यास वकया र्मैं सर्मझ गया वक श्रीर्माता जी हर्मारा र्मागलभदशलभन नहीं कर पायेंगी वह हर बात के वलए गरू र
कृ पा को र्महत्व देती थीं वकंतर र्मैं कर्मलभ पर र्महत्व देता था र्मैं वकसी कारण से अश्रर्म र्में बना तो रहा र्मगर
श्रीर्माता जी से र्मागलभदशलभन लेना बन्द कर वदया हर्मारी करण्डवलनी पणर लभ यारा करके वथथर हो िक र ी थी ऄब
र्मैं अगे के ववषय र्में जानना िाहता था, त ी सर्मावध ऄवथथा र्में र्मािलभ 1993 र्में ब्रह्म की ओर से सन्देश
वर्मलने लगा वक अपका र्मागलभदशलभक ईत्तर ारत र्में ह।, ऄब यह थथान छोड़ दीवजये विर ऄप्र।ल 1993 र्में
र्मैंने वर्मरज अश्रर्म छोड़ वदया र्मैं ऄपने प।तक ृ गााँव कानपरर (ई.प्र.) वापस अ गया यहीं पर र्मैंने 11-12
वषीय एक लड़के के योग के ऄभ्यास का र्मागलभदशलभन वकया आस लड़के ने र्मार 5½ घण्टे र्में ही योग र्में
ईच्ि ऄवथथा प्राप्त कर ली, ‍योंवक वह पवर लभ जन्र्म र्में र्महान योगी था आसी लड़के ने विर हर्में योग के
ववषय र्में र्महत्वपणर लभ जानकाररयााँ देनी शरू र कर दी हर्में योग के ववषय र्में ढेर सारी जानकारी प्राप्त हो गइ
करछ सर्मय बाद यह लड़का ऄपने शेष कर्मालभशयों को ोगने के वलए ौवतक जगत् र्में वलप्त हो गया र्मैंने
ऄपने गााँव के बाहर जंगल र्में करवटया (झोपड़ीद बना कर ईसी र्में ऄभ्यास करना शरू र कर वदया यहीं पर
र्मझर े तत्त्वज्ञान की प्रावप्त हुइ आसी तत्त्वज्ञान को र्मैं आस लेख र्में वलख रहा हाँ
यह र्मैं तीसरा लेख वलख रहा हाँ आससे पहले ी हर्मने दो लेख वलखे हैं पहला लेख ‚सहज ध्यान
योग‛ तथा दसर रा लेख ‚योग कै से करें ‛ वलखा ह। पाठकों को पहले क्रर्मशः ये दोनों लेख पढ़ने िावहएं,
‍योंवक ये तीनों लेख क्रर्मशः एक ही हैं आसे तीन ागों र्में वलखा गया ह।, ‍योंवक एक ाग र्में परर ा लेख
वलखना सम् व नहीं था जब पाठक क्रर्मशः तीनों लेख पढ़ेंगे तब सहज ्यान योग के ववषय र्में परर ी तरह
से सर्मझ र्में अ जाएगा जो साधक सहज ्यान योग के र्मागलभ पर िल रहे हैं ऄथवा जो वजज्ञासर आस र्मागलभ
के ववषय र्में जानना िाहते हैं, ईन्हें तीनों लेख क्रर्मशः ऄवश्य पढ़ने िावहए ये तीनों लेख र्मैंने ऄपने
ऄभ्यास के ऄनसर ार वलखे हैं आसर्मे शरू र अत से लेकर अत्र्मवथथवत तक के ववषय र्में वलखा ह। वक
साधकों को ्यानावथथा र्में क। से-क। से ऄनर व अते हैं तथा ईनका ऄथलभ ‍या होता ह।, व ढेरों प्रकार की
जानकाररयााँ वलखी गइ हैं, तावक साधकों का र्मागलभदशलभन हो सके
तत्त्वज्ञान आतना गहन ववषय ह। वक आस पर लेख वलखना हर्म ज।से साधक के वलए ऄसम् व-सा ह।
विर ी वलखने का प्रयास कर रहा हाँ बवर िर्मान पाठकों से वनवेदन ह। वक र्मैं एक छोटा-सा साधक हाँ तथा
ऄकपज्ञान वाला हाँ आसवलए लेख वलखते सर्मय ढ़ेरो रवर टयााँ होंगी आन रवर टयों के वलए हर्में क्षर्मा करें
र्मनष्र य िाहे वजतना ी पथर तकीय ज्ञान से यक्त
र हो जाए, कोइ िाहे वजतना ी ऄपने को धर्मलभ का र्मर्मलभज्ञ कहे,
िाहे घर से ववर‍त होकर जंगल ऄथवा दसर रे थथानों पर िला जाए, या विर वजतना ी अप ऄपने को

तत्त्वज्ञान 7
वजतेवन्िय कहे, र्मनष्र य ‍या देवता ी ‍यों न हो, परन्तर वबना योग के ऄभ्यास के द्रारा तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं
हो सकता ह। सांसाररक ज्ञान र्मार से तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं होती ह। ‍योंवक ऄववद्या ्र वन्थ का नाश तो
सर्मावध के द्रारा ही हो सकता ह। ऄन्यथा नहीं योगाव‍न के द्रारा पाप-पंजर जलकर राख हो जाते हैं एवं जब
ऄभ्यास वशखर पर होता ह।, तब तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। तत्त्वज्ञान के द्रारा ही क। वकय की प्रावप्त होती
ह।
हे ऄर्मृत के परर ों! जागो, कब तक ऄज्ञान रूपी ऄंधकार र्में टकते रहोगे? बहुत टक वलया, आस
कष्ट रूपी क्षण गं रर ससं ार र्में तम्र हारा कोइ नहीं ह। सर्मथत ससं ार भ्रर्म र्मार ह। भ्रर्म को वाथतववक न
सर्मझो वाथतव र्में तर्मर ऄववनाशी िेतनर्मय तत्त्व हो ऄपने थवरूप को पहिानों तम्र हारा अत्र्मज्ञान
ऄववद्या ने ढक वलया ह। आस ऄववद्या रूपी अवरण को कठोर ऄभ्यास के द्रारा वछन्न-व न्न करके नष्ट
कर दो, विर तर्मर ऄपने अपको ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत पाओगे और देखोगे वक तर्मर थवयं आस सम्पणर लभ
सृवष्ट के वपता हो तथा शासक ी तम्र हीं हो तम्र हारी जय हो! तम्र हारी जय हो!

योगी आनन्द जी

तत्त्वज्ञान 8
दवषय सूची
क्र.सुं नाम पृष्ठ
प्रथम अध्याय
1. योग का र्महत्व 14
2. संसार 26
3 प्रकृ वत 56
4. गणर 77
5. वित्त 85
6. द:र ख 101
7. कर्मलभ 110
8. करण्डवलनी 118
9. वसवियााँ 138
10. सर्मावध 147
11. जीवन्र्मक्त
र 176
12. ऊतम् रा-प्रज्ञा 191
13. वववेक-ख्यावत 199
14. पर-व।रा‍य 202
15. तत्त्वज्ञान 206
16. ब्रह्म 228
17. र्मोक्ष 238
दितीय अध्याय
सन् 1999
18. सर्मावध ऄवथथा र्में अए करछ ऄनर व 254

तत्त्वज्ञान 9
सन् 2000
र्माता अवदशव‍त द्रारा तत्त्वज्ञान प्रावप्त का अशीवालभद, ऄवरोधक टरट गया,
19. सबीज सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा, तीनों गणर , ेदज्ञान रूपी ऄश्वशाला, 260-266
अत्र्मा एक वित्त ऄनेक, ऄहक ं ार
सन् 2001
स ी वथतओ र ं का त्याग, र्माता काली की कृ पा, िारों शरीर, प्रकृ वत, धर्मलभ
रूपी वषालभ का होना, बन्धन से र्म‍र त हुअ, ऄवथर्मता का साक्षात्कार, ऊतम् रा-
20. प्रज्ञा का ईदय होना, ऊतम् रा-प्रज्ञा का दशलभन, वित्त के बाह्य पररणार्म वाले 267-274
तीनों गणर , वित्त की वर र्म

तत्त्वों का साक्षात्कार, पृथ्वी तत्त्व के सार्मान्य व ववशेष रूप का साक्षात्कार, जल


तत्त्व के सार्मान्य व ववशेष रूप का साक्षात्कार, ऄव‍न तत्त्व के सार्मान्य रूप का
21. साक्षात्कार, ऄव‍न तत्त्व के ववशेष रूप का साक्षात्कार, वायर तत्त्व के सार्मान्य 275-278
रूप का साक्षात्कार

ऊतम् रा-प्रज्ञा का साक्षात्कार, वायर तत्त्व के ऄन्दर ऄव‍न तत्त्व, जल तत्त्व व


22. पृथ्वी तत्त्व, अकाश तत्त्व के सार्मान्य रूप का साक्षात्कार, ऄवथर्मता का 280-284
साक्षात्कार, तीनों तापों का साक्षात्कार

वायर तत्त्व के ववशेष रूप का साक्षात्कार, अकाश तत्त्व के ववशेष रूप का


23. साक्षात्कार, तत्त्वों की पहिान, ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत की संवध होना 285-288

वशववलगं रूपी ब्रह्माण्ड, र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत को खा गया, वववेक-ख्यावत, वित्त


24. का इश्वर के वित्त र्में ऄन्तर्मलभख
र ी होना, र्मृत्यर से साक्षात्कार, थथल
र शरीर बेकार 292-300
हो िक
र ा ह।, तम्र हें प्रकृ वत के करछ कायलभ करने हैं

तत्त्वज्ञान 10
सन् 2002
आजं न की अवाज, बााँस, आजं न की अवाज, ऊतम् रा-प्रज्ञा का वदखाइ देना,
25. आजं न की अवाज, बााँस, आजं न की अवाज, बााँस 302-307

सन् 2003
गवान् वशव द्रारा अवद शव‍त र्मंर वदया जाना, ऄपरा-प्रकृ वत का नष्ट हुए के
26. सर्मान होना, ऄपरा-प्रकृ वत संवगनी के रूप र्में, प्रकृ वत बकरी के रूप र्में, ऄब 308-312
तर्मर वकराएदार हो गये हो
सन् 2004
सरल बनो, ि‍की का िलना, वायर तत्त्व अकाश तत्त्व र्में ववलीन होने की
ओर, प्रज्ञा के तीन थवरूपों का साक्षात्कार, ऄपरा प्रकृ वत का थवरूप,
27. वदव्यदृवि, अकाश तत्त्व र्में ऄववथथत, थथलर शरीर का वदव्य प्रकाश रूप र्में 314-320
पररववतलभत होना

सहथर-दल कर्मल (सहस्त्रार िक्रद का ववकास होना शरू र हुअ, सहथर-दल


28. कर्मल का ववकास, सहथर-दल का कर्मल पणर लभ रूप से ववकवसत हो गया, इश्वर 321-327
के सर्मान थवरूप व शवक्तयों का प्राप्त होना

ऄपरा प्रकृ वत की सीर्माएाँ, ऄंडे के रूप र्में वथथत कर्मालभशय नष्ट हुए, कर्मालभशयों से
29. र्मक्त
र होना तय 329-330

सन् 2005
श्री हरर के थवरूप र्में ऄनन्त ब्रह्माण्ड, श्री हरर का अशीवालभद, र्माया द्रारा ऄपने
थवरूप का दशलभन, तर्मर पणर लभ हो, वित्त की वर र्म का शि र होना, थथल र जगत नि
30. हुए के सर्मान, सहथर-दल कर्मल, परर्म-् शांत की ऄवथथा, स ी धर्मों की 332-337
अवखरी सीर्मा एक ही ह।

तत्त्वज्ञान 11
सन् 2006
31. अवा, नाव, तीर, वित्त की वर र्म पर वछि, र्मैं वशववलंग के उपर 339-342
सन् 2007
सगणर ब्रह्म (परर्म-वशवद
् का दशलभन, कलयगर ने हर्मसे र्मािी र्मााँगी, सवोच्ि
32. ऄवथथा पर 343-345

सन् 2008
नाग ने काटा, बााँस, संसार िक्र, तीर, सहथर-दल कर्मल पर परर्म्-वशव व
परा-शव‍त एक साथ ववराजर्मान, र्मैं गवान् शंकर के रूप र्में, संककप करो
33. हर्मारी सोइ हुइ सारी शव‍तयााँ जा्र त हो जाएाँ, सहनशीलता की देवी, ‍या तम्र हें 346-350
वशवत्व पद वदया जाना िावहए
सन् 2009
प्रकृ वत देवी की प्रेरणा से कायलभ करना, वित्त का साक्षात्कार, र्मैं सहथरार िक्र व
ऄहक ं ार के उपर असन लगाकर ब।ठा, सहथर-दल कर्मल के उपर ववद्यर्मान
34. हुअ, सहथर-दल कर्मल, जगत् का ऄवथतत्व न जाने कहााँ ववलीन हो गया, 352-357
सर्मता का ऄभ्यास करो, योगी तर्मर ऊवष हो
सन् 2010
वित्ताकाश से अगे, ऄपना जीवन र्मझर े दे दो, स ी प्राणी तम्र हारे ऄंश हैं,
35. अहट 358-360

योगी की ईपावध दी गइ, परा-प्रकृ वत का ऄवतरण, सर्मथत ब्रह्माण्ड को धारण


36. कर वलया, सर्मथत ब्रह्माण्ड र्मेरे िारों ओर घर्मर रहा ह।, तम्र हारे ऄन्दर ब्रह्मऊवष 361-363
के गणर अने लगे हैं

सम्पणर लभ आच्छाओ ं से रवहत होना, ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप, र्मैं सवोच्ि वथथवत


37. के पास, अकाश तत्त्व, ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने वसर के नीिे दबा वलया 364-367

तत्त्वज्ञान 12
र्मैं वछि से ईस पार िला गया, वित्त की िंिलता शांत हो गइ, परर्म् शांत, हे
38. इश्वर! आन स ी को र्माि कर दो, र्मैं ही सृवष्ट वाला वृक्ष ह,ाँ हर्मारा थथल
र शरीर 368-372
प्रारब्ध वेग के द्रारा सधा हुअ ह।, जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा पररप‍व हो गइ

ऄन्वय योग का पणर लभ होना, वेदान्त दशलभन र्में लेख वर्मलता ह।, र्मैं िरवाहा ह,ाँ
39. आजं न, नाव, ऊतम् रा-प्रज्ञा, झोपड़ी, योवन, वववर, ईकटा वृक्ष, धर्मलभर्मेघ 373-380
सर्मावध

40. आस लेख के ऄन्त र्में 381

तत्त्वज्ञान 13
प्रथम अध्याय
योग का महत्व
ब्रह्म प्रावप्त का साधन योग ही ह। गीता र्में गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– ‚हे लनष्पाप अजथनु !
इस मनष्ु य िोक में मैंने परु ातन काि में कलपि मुलन और लहरण्यगभथ रूप में दो लनष्ठाएूँ बतिायी हैं।
कलपि मलु न के द्वारा बतिायी हुई साांख्य योग की लनष्ठा ज्ञान से होती है तथा लहरण्यगभथ के रूप में
बतिायी हुई कमथयोग की लनष्ठा लनष्काम कमथ योग से होती है। साांख्य योग के वता ा कलपि मुलन हैं और
कमथ योग के वता ा लहरण्यगभथ हैं। साांख्य योग और कमथ योग यद्यलप ये दोनों अिग-अिग नाम से वलणथत
हैं, मगर वास्तव में ये दोनों एक ही हैं। इन दोनों में से एक का भी ठीक से अनष्ठु ान कर िेने से दोनों का
फि लमि जाता है। साांख्य योगी लजस परमात्म स्वरूप को प्राप्त करते हैं, कमथयोगी भी उसी परमात्म
स्वरूप को प्राप्त करते हैं। जो साांख्य योग और कमथ योग को एक जानता है, वह तत्त्ववेत्ता है। हे अजथनु !
कमथ योग के लबना साांख्य योग साधन रूप में कलठन है‛
हे पाठकों! वजस प्रकार सत्वगणर , रजोगणर और तर्मोगणर आन तीनों र्में से प्रत्येक गणर वबना दोनों की
सहायता से ऄपना कोइ ी कायलभ थवतंर रूप से प्रारम् नहीं कर सकते हैं, ईसी प्रकार ज्ञान, ईपासना, कर्मलभ
ी ऄपने-ऄपने कायलभ र्में परथपर एक-दसर रे की सहायता की ईपेक्षा रखते हैं सांख्य योग र्में ज्ञान प्रधान ह।
तथा कर्मलभ ईपासना गौण ह। कर्मलभयोग र्में कर्मलभ की प्रधानता ह। साख्ं य योग सीधे और कवठन र्मागलभ से जाता ह।
कर्मलभयोग बीि र्में थोड़ा-सा घर्मर ावदार र्मागलभ से जाता ह। दोनों एक ही थथान से िलते ह। तथा ऄन्त र्में एक
ही थथान र्में जाकर वर्मल जाते हैं
कर्मलभ योग र्में यर्म, वनयर्म, असन, प्राणायार्म, प्रत्याहार ये पााँि बवहरंग साधन हैं तथा ्यान, धारणा,
सर्मावध ऄन्तरंग साधन हैं धारणा, ्यान, सर्मावध- ये तीनों वनबीज सर्मावध के बवहरंग साधन हैं वनबीज
सर्मावध का ऄंतरंग पर-व।रा‍य ह।, वजसके द्रारा वित्त से ऄलग अत्र्मा का साक्षात्कार कराने वाली वववेक-
ख्यावत रूपी सावत्वक वृवत्त का ी वनरोध होकर अत्र्मा र्में ऄववथथवत का ला होता ह।
कर्मलभयोग के पहले पााँि बवहरंग साधन सांख्य योग और कर्मलभयोग र्में एक सर्मान हैं वकन्तर जहााँ कर्मलभ
योग र्में धारणा, ्यान, सर्मावध द्रारा वकसी ववषय को ्येय बनाकर ऄन्तर्मलभख र होते हैं, वहीं सांख्य योग र्में
वबना वकसी को ्येय बनाकर ऄंतर्मलभख र होते हैं ईसर्में धारणा-्यान-सर्मावध के थथान पर वित्त और ईसकी

तत्त्वज्ञान 14
वृवत्तयााँ दोनों ही वरगणर ात्र्मक हैं आसवलए गणर ही गणर र्में बरत रहे हैं आस ावना से अत्र्मा को वित्त से
पृथक ऄकतालभ व के वल शि र थवरूप र्में देखना होता ह। यह अत्र्मसाक्षात्कार कराने वाली वववेक-ख्यावत
के रूप र्में गणर ों की ही सावत्वक वृवत्त ह। आस प्रकार पर-व।रा‍य द्रारा आस वृवत्त के वनरोध होने पर अत्र्म
ऄववथथवत को प्राप्त होते हैं
योग स ी धर्मों और वाद-वववाद से रवहत ह। योग तत्त्व का ज्ञान थवयं ऄनर व द्रारा प्राप्त करना
वसखलाता ह। तथा र्मनष्र यों को ऄपने ्येय तक पहुिाँ ाता ह। योग के ववषय र्में अजकल नाना प्रकार की
भ्रावं तयााँ ि। ली हुइ हैं आसवलए योग के वाथतववक थवरूप को सर्मझा देना ऄत्यन्त जरूरी ह। थथल र ता से
सक्ष्र र्मता की ओर जाना ऄथालभत् बवहर्मलभख र ी से ऄन्तर्मलभख
र ी होना योग ह। वित्त की वृवत्तयों के द्रारा हर्म व्यवहार
की दशा र्में बवहर्मलभख र ी रहते हैं वजतनी वृवत्तयााँ बवहर्मलभख
र ी होती जाएाँगी, ईतनी ही ईसर्में रजोगणर व तर्मोगणर
की र्मारा बढ़ती जाएगी ईसके ववपरीत, वृवत्तयााँ वजतनी ऄन्तर्मलभख र ी होती जाएाँगी, ईतनी ही रजोगणर और
तर्मोगणर की र्मारा घटती जाएगी व सत्त्वगणर का प्रकाश बढ़ता जाएगा जब वित्त र्में कोइ ी वृवत्त नहीं रह
जाएगी, तब शि र अत्र्म थवरूप रह जाएगा करछ र्मनष्र य योग का ऄभ्यास आसवलए नहीं करना िाहते हैं,
‍योंवक वह ऄपने गृहथथ जीवन को ऄ्यात्त्र्म के र्मागलभ र्में बंधन सर्मझते हैं तथा गृहथथ का साथ छोड़ना
नहीं िाहते हैं योग करने के वलए ऄथवा परर्मात्र्मा को प्राप्त करने के वलए गृहथथ बन्धन नहीं ह। और न
ही ईसे छोड़ने की अवश्यकता ह। अप गृहथथ र्में रहकर ी योग कर सकते हैं आसवलए गृहवथथयों के
वलए ‚सहज ध्यान योग‛ ईपयोगी बतलाया गया ह। र्मैंने वजनसे योग सीखा था ऄथवा जो हर्मारे योग
की गरू र थीं, वह खदर ी गृहथथ र्में ही रहती थीं ईन्होंने गृहथथ र्में रहकर थवयं योग वकया तथा स।कड़ों
वशष्यों का र्मागलभदशलभन ी वकया सि तो यह ह। वक अपकी गृहथथी अपका बन्धन नहीं ह।, बवकक अपके
सक्ष्र र्म शरीर र्में वथथत अपके कर्मों के संथकार ही वाथतववक बन्धन हैं ये संथकार अपके ऄनन्त जन्र्मों के
हैं अपको गृहथथ रुपी बन्धन से नहीं, बवकक वित्त र्में वथथत संथकार रूपी बन्धन से परे होना ह। अप
कहीं ी िले जाएाँ, ये संथकार अपके साथ ही रहेंगे आसवलए ऄच्छा ह। वक गृहथथ र्में रहकर ही ऄभ्यास
वकया जाए
क। वकय रूप परर्म् पद प्राप्त करने के वलए ऄनेक ईपाये बताए गए हैं, वकन्तर ईन सर्मथत ईपायों से
ईस परर्म् पद को प्राप्त करना सहज नहीं ह। सहज ्यान योग के द्रारा क। वकय पद असानी से प्राप्त हो
जाता ह। क। वकय पद प्राप्त करना ही र्मानव जीवन का ईदेश्य ह। क। वकय र्म‍र त होने पर दःर खों की ऄत्यन्त

तत्त्वज्ञान 15
वनवृवत्त हो जाती ह। दःर ख नष्ट हो जाने पर पनर ः ईसकी ईत्पवत्त न होने को ही दःर खों की अत्यंवतक वनवृवत्त
कहते हैं क। वकय र्मोक्ष होने पर जीव को पनर ः जन्र्म, र्मृत्य,र जरा-व्यावध जवनत दःर ख नहीं ोगना पड़ता ह।
शाथरों व पथर तकों से जो ज्ञान प्राप्त होता ह। वह वाथतववक ज्ञान नहीं ह।, ‍योंवक शाथरों व पथर तकों
को पढ़ने से तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ह। आसवलए ऐसे ज्ञान को ऄववद्या से यक्त र ज्ञान कहा जाएगा
तत्त्वज्ञान (यथाथलभ ज्ञानद योगाभ्यास के वबना प्राप्त नहीं हो सकता ह। एक साधारण र्मनष्र य का जो ज्ञान ह।,
वह के वल भ्रावं त वाला ज्ञान ह। ज्ञान ईसे कहा जाता ह। वजससे ऄज्ञान का नाश हो जाए, र्मगर सनर ने व
पढ़ने वाले ज्ञान से ऄज्ञान पर कोइ प्र ाव नहीं पड़ता ह। जब तक योग के ऄभ्यास के द्रारा तत्त्वज्ञान की
प्रावप्त न हो जाए, तब तक ऄज्ञान (ऄववद्याद बना रहता ह। ज्ञान और ऄज्ञान अपस र्में एक-दसर रे के
ववरोधी हैं वजस थथान पर ज्ञान होगा वहााँ पर ऄज्ञान हो ही नहीं सकता ह।, ज।से-प्रकाश के सार्मने ऄंधकार
ठहर नहीं सकता ह। यही बात ज्ञान और ऄज्ञान के ववषय र्में ह। शाथरीय ऄथवा पथर तकीय ज्ञान से जीव
की र्मवर ‍त नहीं हो सकती ह। और न ही दःर खों से छरटकारा वर्मल सकता ह। र्मगर ऄभ्यास के द्रारा प्राप्त
तत्त्वज्ञान से परर ी तरह से छरटकारा वर्मल सकता ह। तथा जीव ी बन्धन से र्म‍र त हो जाता ह। अजकल
र्मनष्र य शाथरों को पढ़कर ऄपने अपको ज्ञानी सर्मझने लगते हैं ऐसी भ्रांवत वह थवयं ही बना लेते हैं
शाथरों र्में यह ी वलखा ह। वक योग साधना के ऄवतरर‍त तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का दसर रा कोइ सरल ईपाय
नहीं ह। योग के ऄभ्यास द्रारा ही तत्त्वज्ञान प्राप्त होता ह। और ईसी तत्त्वज्ञान से योगी लोग दल र लभ र्मवर ‍त
को प्राप्त करते हैं
ब्रह्माण्ड का छोटा थवरूप वपण्ड रूप र्में र्मानव शरीर ह। ब्रह्माण्ड का छोटा थवरूप होने के कारण जो
शव‍तयााँ ब्रह्माण्ड र्में वथथत हैं, वही शव‍तयााँ र्मानव शरीर र्में सक्ष्र र्म रूप से ऄपने-ऄपने वनवश्ित थथान पर
ववद्यर्मान रहती हैं ऄब यह र्मनष्र य के उपर ह। वक वह ऄपने शरीर र्में वथथत ईन शवक्तयों की खोज करता ह।
ऄथवा नहीं यवद खोज करे गा तो ऄवश्य वह शव‍तयााँ प्राप्त होंगी ऄगर खोज नहीं करे गा तो एक-न-एक
वदन र्मानव शरीर नष्ट हो जाएगा र्मगर यवद र्मनष्र य ईन शवक्तयों का ला नहीं ईठा पाया तो आसका
वजम्र्मेदार वह थवयं ह। यह शव‍तयााँ सषर प्र तावथथा र्में ववद्यर्मान रहती हैं वजस जगह पर ये शव‍तयााँ
ववद्यर्मान होती हैं ईस जगह को िक्र, पद्म या कर्मल कहते हैं ये िक्र साधारण र्मनष्र य के शरीर र्में बन्द
रहते हैं ऄथालभत् वनवष्क्रय रहते हैं आन्हें वक्रयाशील करने के वलए ऄथवा शवक्तयों को जा्र त ऄवथथा र्में
लाने के वलए योग का ऄभ्यास करना जरूरी ह। योग के ऄभ्यास के वबना ये शव‍त के न्ि (िक्रद
वक्रयाशील नहीं हो सकते वजस र्मनष्र य के ये शव‍त कें न्ि जा्र त होकर वक्रयाशील हो जाते हैं, ईस र्मनष्र य

तत्त्वज्ञान 16
के ऄन्दर ईच्ि कोवट की यो‍यता अ जाती ह। तथा ऄत्येंविय ज्ञान की प्रावप्त होने लगती ह। आन िक्रों र्में
उपर वाले दो िक्र ऐसे हैं वजनके वक्रयाशील होने पर प्रकृ वत के रहथयों का ज्ञान होने लगता ह। तथा साधक
को ऄपने वाथतववक थवरूप की ऄनर वर त होने लगती ह। ऄ ी तक जो वह ऄपने अपको वसिलभ र्मानव देह
र्मानता था तथा वसिलभ र्मानव देह तक ही सीवर्मत वकए हुए था र्मगर ऄब योग के ऄभ्यास के द्रारा उपरी
िक्रों के वक्रयाशील होने पर ऄपने अपको ि।तन्यर्मय व व्यापक रूप र्में जान लेता ह। तथा िेतनता और
व्यापकता की ऄनर वर त करता ह। आसवलए हर र्मनष्र य को ऄपने आस र्मानव देह प्राप्त करने का वाथतववक
ला प्राप्त करना िावहए तावक ईसके जीवन का ववकास व ईन्नवत हो सके
प्रविन के द्रारा सनर ा हुअ तथा पथर तकों के द्रारा पढ़ा हुअ ज्ञान बवर ि के ऄन्तगलभत अता ह।, र्मगर
तत्त्वज्ञान बवर ि और ऄहक ं ार से परे की ऄवथथा र्में प्राप्त होता ह। वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा
र्में जब वनर्मलभल-प्रज्ञा प्रकट होती ह।, ईस वनर्मलभल प्रज्ञा र्में प्रकृ वत के तत्त्वों के वाथतववक थवरूप का ज्ञान योगी
को होता ह। तत्त्वों का ज्ञान होने पर प्रकृ वत का ज्ञान परर ी तरह से हो जाना थवा ाववक ह। योगी ऄच्छी
तरह से सर्मझ लेता ह। वक र्मैं जड़ पदाथलभ नहीं हाँ ऄथालभत् र्मैं शरीर नहीं ह,ाँ आवन्ियााँ नहीं ह,ाँ र्मन नहीं ह,ाँ बवर ि
नहीं ह,ाँ ऄहक ं ार ऄथवा वित्त नहीं हाँ यह सब ज्ञात हो जाने पर योगी ऄपने अपको जड़ पदाथलभ से ऄलग
कर लेता ह। जड़ पदाथलभ से ऄलग होते ही वह ि।तन्यर्मय तत्त्व र्में ऄववथथत हो जाता ह। हर्म स ी ऄपने
अपको जड़ पदाथलभ सर्मझते हैं योग के ऄभ्यास के द्रारा आसी जड़ पदाथलभ से ऄपने को ऄलग करना ह। जड़
पदाथलभ से ऄलग होते ही हर्म ऄपने र्मल र थवरूप िेतनतत्त्व र्में वथथत हो जाएाँगे
जब तक हर्म तत्त्वज्ञान के द्रारा प्रकृ वत के वाथतववक थवरूप को नहीं जान लेते हैं, तब तक ऄपने
वाथतववक थवरूप, जो ि।तन्यर्मय ह।, ईसर्मे वथथत नहीं हो सकते हैं, ‍योंवक ऄज्ञानता के कारण हर्म ऄपने
अपको थथल र शरीर सर्मझे हुए हैं आसवलए हर्म स ी के वलए ऄत्यन्त अवश्यक हैं वक हर्म तत्त्वज्ञान की
प्रावप्त करें जब तक तत्त्वज्ञान को प्राप्त नहीं करें गे तब तक आस ससं ार र्में जन्र्म, जरा व र्मृत्यर को प्राप्त होते
रहेंगे एक बात और थपष्ट कर दाँ–र हर साधक को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ह।, ‍योंवक तत्त्वज्ञान की
प्रावप्त कइ जन्र्मों तक कठोर साधना करने के बाद ऄवन्तर्म जन्र्म र्में होती ह। वजसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता
ह। वह योगी सर्माज र्में ऄपने अपको प्रकट नहीं करता ह।, बवकक गप्र त रूप से रहता ह। अजकल प्रविन
करने वालों की बहुतायत ह। प्रविन के सर्मय बहुत ीड़ ी एकर होती ह।, र्मगर आसका र्मतलब यह नहीं
ह। वक वह तत्त्वज्ञानी हैं तत्त्वज्ञानी को कीवतलभ, व। व अवद से ‍या लेना-देना, वह तो सब करछ त्याग िक र ा
ह।

तत्त्वज्ञान 17
तत्त्वज्ञान पर ढेरों सन्त र्महात्र्मा व प्रविनकतालभ अजकल बहुत प्रविन करते हैं तथा तत्त्वज्ञान को
ववव न्न दृवष्टकोण से ईदाहरण देकर सर्मझाते हैं यवद प्रविनकतालभ से पछर ा जाए वक ‍या ईसने थवयं योग
का ऄभ्यास करके तत्त्वज्ञान प्राप्त वकया ह।, तो शायद प्रविन कतालभ वनरूत्तर हो जाएगा तत्त्वज्ञान कोइ
ऐसी वथतर नहीं ह। जो पढ़कर रट वलया जाए, विर वही दसर रे को सनर ाने लगे आस वक्रया से न तो कहने वाले
को और न ही सनर ने वाले को ला होगा, ‍योंवक तत्त्वज्ञान के ववषय र्में कहने व सनर ने से ऄज्ञानता पर
कोइ ऄसर नहीं पड़ता ह। ऄज्ञानता दोनों के वित्त र्में ज्यों-की-त्यों बनी रहती ह। र्मगर तत्त्वज्ञान का
थव ाव ह। वक वजसे यह ज्ञान प्राप्त हो जाता ह।, ईसके पास ऄज्ञानता क ी नहीं अती ह।, ‍योंवक तत्त्वज्ञान
ऄज्ञानता का ववरोधी ह। ये अपस र्में एक साथ नहीं रह सकते हैं, ज।से प्रकाश और ऄंधकार एक साथ
नहीं रह सकते हैं
र्मनष्र य के जीवन र्में अ्यावत्र्मक ववकास के वलए योग का ऄभ्यास करना ऄत्यन्त अवश्यक ह।,
र्मगर योग का ऄभ्यास वबना त्याग के नहीं वकया जा सकता ह। त्याग व।रा‍य का पररणार्म ह। योग के
ऄभ्यास से र्मनष्र य की र्मानवसक शव‍त बढ़ती ह। ऄपनी आच्छाओ ं को जानबझर कर रोकने से आच्छाओ ं की
शव‍त संवित हो जाती हैं विर ईस शव‍त से र्मनष्र य यथोवित जो करछ ी करना िाहे कर सकता ह।
सर्माज का ईपकार र्मानवसक शव‍त के संिय के वबना सम् व नहीं ह। र्मानवसक शव‍त का संिय योग के
ऄभ्यास के द्रारा होता ह। आससे वनम्न कोवट की वासनाएाँ रुक जाती हैं, विर ईच्ि कोवट की वासनाओ ं का
ववकास होता ह। ये वासनाएाँ शारीररक सख र की न होकर र्मानवसक सन्तोष सम्बन्धी होती हैं ये योग के
ऄभ्यास र्में सहायक होती हैं साधक का ्येय जब तत्त्वज्ञान प्रावप्त हो जाता ह।, तब वह साधक को
शाश्वत शांवत प्रदान करता ह। आसवलए साधक को न के वल ोगों का त्याग करना पड़ता ह।, बवकक त्याग
का ी त्याग करना पड़ता ह। तत्त्वज्ञान की प्रावप्त के वलए साधक को ऄभ्यास र्में ऄत्यन्त कठोरता नहीं
बरतनी िावहए वकसी ी प्रकार की ऄवत कठोरता साधक र्में ऄव र्मान की वृवि करती ह।, आसवलए
साधक को र्म्यर्म र्मागलभ ऄपनाना िावहए जब तक गवान् गौतर्म बि र कठोर योग का ऄभ्यास करते रहे,
तब तक ईन्हें तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं हुइ जब ईन्होंने कठोर ऄभ्यास को छोड़ वदया तथा र्म्यर्म र्मागलभ
ऄपना वलया, तब ईन्हें तत्त्वज्ञान की प्रावप्त हो गइ
साधक का ्येय अ्यावत्र्मक शांवत प्राप्त करना ऄथवा वनवालभण प्राप्त करना होता ह। जब तक
साधक को संसार की ऄवनत्यता या दःर ख रूपता का ज्ञान नहीं होता ह।, तब तक ईसका र्मन सांसाररक
ववषयों की ओर जाता रहता ह।, िाहे वह र्मन को रोकने का वकतना ही प्रयत्न ‍यों न कर ले जब र्मनष्र य

तत्त्वज्ञान 18
को संसार की दःर ख-रूपता और ऄवनत्यता का ज्ञान हो जाता ह।, तब ईसका संसार से सहज ही ऄलगाव
हो जाता ह। विर र्मन को सांसाररक ववषयों र्में जाने पर प्रयत्न के द्रारा रोकने का प्रयास नहीं करना पड़ता
ह। र्मनष्र य का र्मन ऄभ्यास का दास ह। जब तक साधक वनत्य प्रवत योग का ऄभ्यास नहीं करता ह।, तब
तक ईसकी संवित वासनाओ ं का ववनाश नहीं होता और न ही ईसे थथायी शांवत की प्रावप्त होती ह।
बवहर्मलभख
र ी वृवत्तयों वाला र्मनष्र य सांसाररक सिलता तो प्राप्त कर सकता ह।, वकंतर ईसे अ्यावत्र्मक शांवत
प्राप्त नहीं हो सकती ह। ज।से-ज।से र्मनष्र य र्मृत्यर के सर्मीप अता जाता ह।, व।स-े व।से र्मानवसक ऄशांवत बढ़ती
जाती ह। प्रकृ वत थवयं ही बढ़र ापे र्में र्मनष्र य को त्याग के वलए अदेश देने लगती ह। वह र्मनष्र य ा‍यवान ह।
वजसे यवर ावथथा र्में ही ऄपने ऄहक ं ार को त्यागने की सदब् वर ि अ जाती ह।
योग का र्मागलभ कवठन होने के कारण शरू र अत र्में स ी र्मनष्र यों को आसका ऄभ्यास ऄसम् व-सा
प्रतीत होता ह।, ‍योंवक सार्मान्य ऄनव ज्ञ और देहात्र्म ाव वाले र्मनष्र यों को ऄज्ञान की वक्रयाशव‍त परर ी
तरह से ऄवधकार र्में वकए रहती ह। आसवलए योग र्मागलभ पर िलने वाले साधकों पर यह ऄज्ञान बाधा डालने
का प्रयत्न करता ह।, ‍योंवक योग ऄववद्या (ऄज्ञानद का ववरोधी ह। ऄभ्यास के सर्मय साधक थवयं देखता
ह। वक ईसका शरीर, प्राण व र्मन योग र्मागलभ र्में जबरदथत रुकावटें डालते हैं यवद साधक आस लक्ष्य को
थवीकार कर ले तथा र्मागलभ र्में अने वाली कवठनाआयों का सार्मना करने के वलए त।यार हो जाए, बन्धनों को
पीछे छोड़ दे और लक्ष्य प्रावप्त र्में लग जाए, तो यह वनवश्ित ह। वक ईसे ईसके लक्ष्य की प्रावप्त ऄवश्य
होगी गवान् वेद व्यास जी कहते हैं– ‚जो ममत्व है, वही दुःु ख का मि ू है और लनमथमत्व ही दुःु खों की
अत्यन्त लनवृलत्त है। लनमथमत्व से वैराग्य होता है, वैराग्य से योग की प्रालप्त होती है। योग से तत्त्वज्ञान की
प्रालप्त होती है और तत्त्वज्ञान से मनष्ु य को मलु क्त लमिती है‛ ऄतः यह थपष्ट ह। वक र्मर्मर क्षर के वलए योग
का ऄभ्यास वकतना अवश्यक कतलभव्य ह। योग का ऄभ्यास करने का ऄवधकार सम्पणर लभ र्मानव जावत को
ह। प्रत्येक र्मनष्र य को ऄपने ववकास तथा ईत्थान के वलए ऄभ्यास करना िावहए जा्र त ऄवथथा र्में र्मनष्र य
ऄपने शरीर के द्रारा वसिलभ ौवतक ववकास कर सकता ह।, र्मगर योग के ऄभ्यास के द्रारा र्मनष्र य ऄपना
सक्ष्र र्म और सक्ष्र र्मतर ववकास कर सकता ह। और वह ऄपने िेतन थवरूप र्में वथथत हो सकता ह। र्मनष्र य
दःर खों से छरटकारा पाने के वलए ौवतक ववकास करता ह। र्मगर दःर खों से छरटकारा नहीं वर्मलता ह।, ‍योंवक
दःर खों के संथकार सक्ष्र र्म रूप से ईसके वित्त र्में वथथत रहते हैं आसवलए छरटकारा कहााँ से वर्मले जब र्मनष्र य
ौवतक ऄवथथा से लेकर सक्ष्र र्मतर ऄवथथा तक का ववकास नहीं करे गा तथा आसके बाद िेतन थवरूप र्में
वथथत नहीं हो जाएगा, तब तक ईसे दःर खों से छरटकारा नहीं वर्मल सकता ह। आसवलए र्मानव जावत को

तत्त्वज्ञान 19
दःर खों से छरटकारा पाने के वलए योग के ऄभ्यास को ऄपने जीवन का एक ाग बना लेना िावहए, वजससे
दःर खों से ऄत्यन्त वनवृत्त होकर परर्म् शांवत को प्राप्त कर सके
तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए वकसी की कृ पा की अवश्यकता नहीं होती ह।, ‍योंवक वकसी की कृ पा से
तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के वलए कइ जन्र्मों तक साधना करने की
अवश्यकता होती ह।, विर ऄवन्तर्म जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। साधक के र्माता-वपता व वनकट
सम्बवन्धयों का अशीवालभद व कृ पा तत्त्वज्ञान प्रावप्त र्में सहायता नहीं कर सकता ह। इश्वर न वकसी पर कृ पा
करता ह। और न ही वकसी के कायलभ र्में ऄवरोध डालता ह। वसिलभ सदग् रुर की कृ पा व अशीवालभद तत्त्वज्ञान
प्रावप्त र्में सहायक हो सकता ह। एक बात का ्यान रहे वक गरू र वसिलभ र्मागलभदशलभन करता ह। आसी र्मागलभदशलभन
को कृ पा व अशीवालभद सर्मझा जाए, ‍योंवक योग का ऄभ्यास तो थवयं साधक को करना पड़ता ह।
तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए के वल वही र्मागलभदशलभन कर सकता ह।, वजसे थवयं तत्त्वज्ञान प्राप्त हो अजकल
तत्त्वज्ञानी र्महापरूर ष कहााँ वर्मलेगा, यह बता पाना बड़ा र्मवर श्कल ह।, ‍योंवक ऐसे र्महापरू र ष ऄपनी यो‍यता
को वछपाए रहते हैं ज्यादातर जो योगी गरू र पर पर असीन हैं, ईन्हें थवयं तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता ह। विर
ी ऐसे परू र ष ऄपने अप को तत्त्वज्ञानी कहने लगते हैं करछ तो ऄपने अप को इश्वर का ऄवतार ी
कहने लगते हैं, यह ईनकी ऄज्ञानता ह। ऐसे योवगयों की यो‍यता कहााँ तक होती ह। यह बता पाना
ऄसम् व ह। ज्यादातर योगी ऄपने अपको तब पणर लभ सर्मझने लगते हैं, जब ईन्हें सर्मावध ऄवथथा र्में ह्रदय
के ऄन्दर दीपवशखा के सर्मान जलती हुइ लौ का साक्षात्कार होने लगता ह। आसे वह अत्र्मा का
वाथतववक थवरूप सर्मझ लेते हैं, र्मगर यह ईनकी ऄज्ञानता ह। वाथतववकता यह ह। वक ह्रदय के ऄन्दर
वदखाइ देने वाली लौ वाथतव र्में वित्त की ही सावत्वक वृवत्त होती ह। सर्मावध काल र्में आस प्रकार के
ऄनर व ऄहक ं ार की वर र्म पर वथथत वित्त वृवत्तयों के द्रारा वदखाइ देने लगते हैं आस ऄवथथा से तत्त्वज्ञान
प्रावप्त की ऄवथथा बहुत अगे ह।
पजर ा-पाठ व इश्वर वितं न से तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं हो सकती ह। आसकी प्रावप्त के वलए ौवतक
साधनों का र्मोह छोड़ना ऄत्यतं अवश्यक ह। तथा योग के वनयर्मों के ऄनसर ार सयं र्म व ऄभ्यास ऄत्यन्त
जरूरी ह। आसे प्राप्त करते सर्मय साधक को कष्ट व परे शावनयों का सार्मना करना पड़ता ह। घर के सदथय
व सर्माज वनश्िय ही साधक का ववरोध करते हैं ऐसा ववरोध सद।व ईसे सहना पड़ता ह। ऐसी ऄवथथा र्में
साधक का कोइ साथ नहीं देता, बवकक कष्टों को सहते हुए ईसे ऄपना र्मागलभ खदर तय करना पड़ता ह।
साधक को तत्त्वज्ञान प्राप्त करते सर्मय जो ौवतक कष्ट वर्मलते हैं, वह ईसके वित्त र्में वथथत शेष कर्मालभशयों

तत्त्वज्ञान 20
के कारण होते हैं शेष कर्मालभशय ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक होते हैं आन ‍लेशात्र्मक कर्मालभशयों के कारण ही
साधक को आन्हें ोगते सर्मय घोर कष्ट ईठाना पड़ता हैं र्मनष्र य धनबल और बाहुबल को प्राप्त कर ऄपने
को धन्य सर्मझने लगता ह।, र्मगर तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए कोइ प्रयास नहीं करता ह। सर्मयानसर ार धनबल
और बाहुबल तो नष्ट हो जाता ह। र्मगर वजसने तत्त्वज्ञान प्राप्त कर वलया ह।, वह ज्ञान क ी सर्माप्त नहीं
होता ह। जो साधक इश्वर प्रावप्त तथा तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए सद।व प्रयासरत ह।, ईसे वकसी प्रकार का
य नहीं रहता यहााँ तक वक ईसे र्मृत्यर का ी य नहीं रहता ह। य ईसी को होता ह। जो थवयं को
अत्र्मा न र्मानकर वसिलभ थथल
र शरीर र्मान लेता ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष सखर -दःर ख से परे वन लभय होकर आस
संसार र्में रहता ह।
तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के वलए जड़ प्रकृ वत से असव‍त को ऄलग करना होगा हर्मने ऄपने अपको
शरीरात्र्मा, प्राणात्र्मा व ऄतांकरणात्र्मा सर्मझ वलया ह।, यही ऄज्ञानता ह। आसी कारण हर्म ऄपने वाथतववक
थवरूप को नहीं पहिान पा रहे हैं ऄज्ञानता के कारण ही हर्म शरीर व संसार को ऄपना सर्मझे हुए हैं
सबसे पहले ऄपने र्मन को वज्र के सर्मान कठोर बना लीवजए ऄपने र्मन र्में एक ही लक्ष्य रवखए वक
अपको तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ह। जब तक र्मन सशक्त नहीं होगा, तब तक लक्ष्य को प्राप्त नहीं वकया जा
सकता ह। ऄब अप वनर्मलभर्मता व व।रा‍य रूपी तलवार ले लीवजए और आस तलवार से ईन ररश्तों को
बेरहर्मी से काट डावलए जो अपके ऄपने हों आस संसार र्में ऄपने कहे जाने वाले ररश्ते ही तत्त्वज्ञान प्रावप्त
के र्मागलभ र्में ऄवरोध हैं आस संसार र्में वकसी का कोइ नहीं ह।, विर ी यवद अप ईन्हें ऄपना र्मान रहे हैं तो
यह अपकी ऄज्ञानता ह। आस संसार र्में वजतने ी ररश्ते हैं, िाहे वह र्माता-वपता, ाइ-बहन, पत्नी-परर ,
िािा-दादा अवद हो, तत्त्वदृवष्ट से ये अपके कोइ नहीं हैं ये सब पवर लभ जन्र्म के कर्मलभ ऄनसर ार अपके वनकट
सम्बन्धी बन करके ऄपना-ऄपना कर्मलभ ोग रहे हैं जब स ी जीव ऄपने-ऄपने कर्मालभनसर ार िल ोग रहे
हैं, तो विर आनका सम्बन्ध वकसी से क। से हो सकता ह।? यवद कोइ र्माता-वपता यह सोिे वक र्मैं ऄपने परर
का पालन-पोषण कर रहा हाँ ऄथवा वकया ह। तथा यह र्मैंने ऄपने परर पर एहसान वकया ह। आस ववषय पर र्मैं
यही कहगाँ ा वक ईन र्माता-वपता की ऐसी सोि बहुत ही संकरवित ह।, ‍योंवक सत्य तो यह ह। वक प्रत्येक
प्राणी ऄपने प्रारब्ध के ऄनसर ार जन्र्म ्र हण करता ह। विर जन्र्म के बाद ईसका पालन-पोषण क। सा होगा,
आसकी व्यवथथा थवयं प्रकृ वत करती ह। आसी प्रकार यवद कोइ परर ऄपने र्माता-वपता की वृिावथथा र्में सेवा
करता ह। तो यह सेवा थवयं र्माता-वपता के संथकारों के द्रारा वर्मल रही ह।, परर के वल वनवर्मत्त र्मार ह। ऐसा
ही स ी के सम्बन्ध र्में सर्मझना िावहए स ी र्मनष्र यों को वनष्कार्म ाव से सद।व कतलभव्य करते रहना
िावहए

तत्त्वज्ञान 21
र्मानव जीवन र्में तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ही परर्म् लक्ष्य होना िावहए आसवलए साधक को वकसी ी
ऄवरोध के सार्मने हार नहीं र्माननी िावहए सर्मथत ऄवरोधों को ईसे पार करना होगा पहले आन ऄवरोधों
को गौरपवर लभक सर्मझें, विर सल र झाने का प्रयास करना िावहए ऄगर ऄवरोध न सल र झ रहा हो तो ईसका
कतलभव्य ह। वक आन ऄवरोधों र्में ईलझकर ऄपना बहुर्मकर य सर्मय बरबाद न करें , बवकक ईन ऄवरोधों को पार
कर जाएाँ और पीछे र्मड़र कर न देखें, ‍योंवक र्मख्र य बात यह ह। वक ईसे आस र्मागलभ र्में क ी रुकना नहीं ह।,
बवकक अगे की ओर बढ़ते जाना ह। र्माता-वपता का कतलभव्य ह। वक वह ऄपने परर को तत्त्वज्ञान प्रावप्त के
र्मागलभ पर जाने के वलए सहयोग करें ज्यादातर र्माता-वपता की सोि यही होती ह। वक ईसका परर इश्वर
प्रावप्त के र्मागलभ पर न जाए, बवकक वंश-परम्परा को अगे बढ़ाए र्मैं तो यही कहगाँ ा वक तत्त्वज्ञान प्रावप्त के
र्मागलभ पर िलना श्रेष्ठ ह। पवर लभकाल र्में ी बहुत से ऐसे र्महापरू र ष हो िक
र े हैं वजनकी वंश वृवि ही रुक गइ,
‍योंवक वे इश्वर प्रावप्त के वलए कठोर साधना करने र्में लग गये
वकसी ऄनर वी र्मागलभदशलभक की देख-रे ख र्में योग का ऄभ्यास करना िावहए ऄभ्यास करते सर्मय
योग के वनयर्मों का कठोरता के साथ पालन करना िावहए सिलता प्राप्त करने के वलए गरू र वनष्ठ व ब्रह्म
वनष्ठ होना ऄवत अवश्यक ह। साधक को ऄपने र्मवथतष्क र्में एक बात सद।व बनाए रखनी िावहए वक ईसे
थथल र पंि तर से लेकर प्रकृ वत पयलभन्त स ी प्राकृ वतक पदाथों का त्याग करना ऄवत अवश्यक ह।, ‍योंवक
प्रकृ वत अपकी नहीं ह। ऄथालभत् प्रकृ वत से असव‍त का त्याग करना ऄवनवायलभ ह। आसका ऄथलभ यह नहीं ह।
वक अप गृहथथी को त्यागकर जंगल र्में ऄभ्यास करने िले जाएाँ स ी परू र ष घर र्में रहकर साधना कर
सकते हैं, र्मगर यह सर्मझ कर वक घर अपका नहीं ह। अप सद।व कतलभव्य पालन करते रहें, कतलभव्यों का
त्याग क ी न करें यवद कहीं एकांत जगह वर्मल जाए तो ओर ी ऄच्छा ह।, ‍योंवक एकांत र्में योग का
ऄभ्यास करते सर्मय ौवतक ऄवरोध नहीं अते हैं जब साधक प्रकृ वत व ईससे बने पदाथों को ऄपना
नहीं सर्मझेगा, तब ईसे वकसी वथतर के प्राप्त होने ऄथवा िले जाने पर वकसी प्रकार का दःर ख नहीं होगा
आसका ऄभ्यास दृढ़ता पवर लभक करना िावहए प्रत्येक र्मनष्र य ने ऄपने अपको सांसाररक पदाथों व संसार से
आतना र्मजबतर ी से बााँध रखा ह। वक आसे त्यागने र्में सक्ष्र र्म रूप से दःर ख की ऄनर वर त करता ह। ऐसी ऄवथथा
र्में व।रा‍य के द्रारा असव‍त का त्याग करना िावहए यवद विर ी दःर खों की सर्मावप्त न हो तो ध।यलभपवर लभक
दःर खों को ोग कर सर्माप्त करते रहें आन दःर खों को ोगते सर्मय साधक के वित्त पर वथथत र्मवलनता नष्ट
होने लगेगी र्मवलनता वजतनी नषट् होगी वित्त ईतना ही थवच्छ होगा, ‍योंवक वित्त को थवच्छ करना
अवश्यक ह। वित्त के ऄत्यंत शि र होने पर ही तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह।

तत्त्वज्ञान 22
तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ऄत्यन्त दल र लभ ह। परन्तर यह हर वकसी को प्राप्त नहीं हो सकता ह। साधक को
ऄपना लक्ष्य प्राप्त करने के वलए दो प्रकार का ऄभ्यास करना िावहए एक– जब साधक ऄभ्यास करे गा
तो आसकी जानकारी स ी को ऄवश्य हो जाएगी करछ सर्मय बाद लोग ईसके पास अकर ऄवरोध
ईपवथथत करें गे आन ऄवरोधों से बिने के वलए साधक को दसर रा तरीका ईपयोगी होगा दूसरा– योग के
ऄभ्यास के ववषय र्में वकसी को न बताएं, बवकक बहरूवपयों के सर्मान ऄपने थवरूप को बदले रहें ऄथालभत्
वह गप्र त रूप से रहें र्मैंने ऄपने जीवन र्में गप्र त रूप से बहुत ऄभ्यास वकया ह।, आसवलए अज सिलता की
सीढ़ी पर ब।ठा हाँ र्मैंने कइ वषलभ पवर लभ ऄपने एक वर्मर से कहा था, ‚र्मैं आस संसार को जीतने अया ह,ाँ आसे
जीत कर ही रहगाँ ा‛ ऄथालभत् ऄपरा-प्रकृ वत को हर्मारे सार्मने घटर ने टेकने होंगे र्मैं आस प्रकृ वत का थवार्मी
बनाँगर ा पवर लभकाल र्में र्मैं आसका थवार्मी था ऄज्ञानता से भ्रर्मवश आसके ऄधीन होकर बहुत जन्र्मों से आसे
ऄपना सर्मझता हुअ दर-दर की ठोकरें खा रहा था ईसने क ी ी र्मझर पर रहर्म नहीं वकया, सद।व ही
नाना प्रकार के ोगों को ोगने के वलए लालि देती रही आन ोगों को ोगने के पररणार्म थवरूप हर्में
दःर ख ही वर्मला ह।, परन्तर ऄब ऐसा नहीं होगा र्मैंने आसकी वाथतववकता को जान वलया ह। पाठकों! आस
प्रकृ वत की वाथतववकता को जानने का अप ी प्रयास करें आससे अपका जीवन सिल हो सके गा
साधक को िावहए वक वह दृढ़तापवर लभक योग का ऄभ्यास करता रहे तथा योग के द्रारा वकसी का ी
सांसाररक कायलभ न करे ऐसा वनयर्म बना ले ऄपने जीवन को ऐसे ढ़ाल ले वक सर्माज को लगे अप
साधक वबककरल नहीं हैं ऐसी ऄवथथा र्में अप ऄपनी यो‍यता का पररिय क ी न दें विर संसार से गप्र त
रूप र्में वशक्षा ्र हण करने का प्रयास करना िावहए अप सर्माज र्में व्यवहार की दशा र्में संसारी परू र षों की
ााँवत बन जाआए र्मगर यह सद।व याद रवखऐ वक अप एक साधक हैं तथा इश्वर प्रावप्त हेतर आस संसार से
ज्ञान प्राप्त करना ह। क ी ी ऐसा कायलभ न करें वजससे अ्यावत्र्मक र्मागलभ पर प्रश्न विन्ह लग जाए
नारदोपवनषद र्में एक जगह वणलभन वर्मलता ह। वक नारद जी ने सनतकरर्मार से पछर ा- ‚ गवन् ब्रह्मज्ञान प्रावप्त
का सरल ईपाय ‍या ह।‛? सनतकरर्मार बोले– ‚नारद, गृहवथथयों के साथ सद।व ऐसा व्यवहार करें वजससे
वह सद।व अपको शंका की दृवष्ट से देखते रहें, र्मगर क ी ी ऐसा कायलभ न करें वजससे अ्यावत्र्मक र्मागलभ
कलंवकत हो‛ नारद ने पछ र ा– ‚ गवान् आससे ‍या होगा‛? सनतकरर्मार बोले– ‚गृहथथ तम्र हारी वनंदा
करें गे, वनन्दा सनर ने से वित्त शवर ि होगी, ब्रह्मज्ञान प्रावप्त के वलए वित्त का ऄत्यन्त वनर्मलभल होना ऄवत
अवश्यक ह।‛

तत्त्वज्ञान 23
सर्मावध के द्रारा जब वकसी पदाथलभ के ववशेष थवरूप का साक्षात्कार हो जाता ह। तब ईस पदाथलभ के
प्रवत असव‍त सर्माप्त हो जाती ह।, ‍योंवक ज्ञान के प्रकाश से पदाथलभ का ववशेष थवरूप प्रकावशत हो जाता
ह। विर ईस पदाथलभ के ववशेष थवरूप के प्रकावशत होने पर ईस पदाथलभ के प्रवत ऄववद्या नष्ट हो जाती ह।
ऄववद्या के नष्ट होने पर वह पदाथलभ नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह। साधक को संसार एवं सांसाररक पदाथों
से असव‍त सर्माप्त करना अवश्यक ह। असव‍त सर्माप्त करने के वलए संसार के वाथतववक थवरूप को
जानना जरूरी ह। जब तक वाथतववक थवरूप का ज्ञान नहीं होगा, तब तक असव‍त सर्माप्त नहीं हो
सके गी वजस प्रकार दधर से घी प्राप्त करने के वलए दधर को ववव न्न प्रवक्रयाओ ं से गजर ार कर ईसका र्मंथन
करना अवश्यक ह। वबना र्मंथन के घी की प्रावप्त नहीं हो सकती ह। ठीक ईसी प्रकार वकसी ी प्रदाथलभ का
यथाथलभ ज्ञान सर्मावध ऄवथथा र्में प्राप्त होता ह। आसके ऄवतरर‍त साधक को सांसाररक ज्ञान प्राप्त करने के
वलए ऄपनी बवर ि का र्मंथन करना होगा यह कायलभ वसिलभ वही साधक करे वजसका ब्रह्मरन्र खल र ा हुअ हो,
तावक ईसकी वदव्य दृवष्ट ी आस कायलभ र्में सहायता कर सके वदव्य दृवष्ट के द्रारा वकसी ी र्मनष्र य का
तर काल, वतलभर्मान काल व ववष्य काल देखा जा सकता ह। परन्तर वदव्य दृवष्ट के द्रारा वर्मली जानकारी से
सन्तष्र ट नहीं हो जाना िावहए आस प्रकार की जानकारी से वकसी ी र्मनष्र य के प्रवत पणर रू लभ प से असव‍त
सर्माप्त नहीं हो सकती ह। साथ र्में ऄनर वर त के द्रारा वर्मले ज्ञान से ईसके प्रवत असव‍त सर्माप्त हो सकती
ह।
आस संसार र्में दो प्रकार के प्रवाह बह रहे हैं एक प्रवाह सत्त्वगणर की प्रधानता वाला ह। तथा दसर रा
प्रवाह तर्मोगणर की प्रधानता वाला ह। वजन र्मनष्र यों की वित्त वृवत्तयों का प्रवाह सत्त्वगणर ी होता ह।, ऐसे
र्मनष्र य संसार र्में बहुत कर्म पाये जाते हैं जो आस थव ाव वाले होते हैं, ईनर्में से करछ र्मनष्र य ऄपने अपको
वछपाए हुए ऄपना ऄभ्यास करते रहते हैं, तथा करछ ऄपने को प्रकट ी वकए रहते हैं ऐसे र्मनष्र यों द्रारा आस
संसार का ककयाण होता रहता ह।, ‍योंवक सांसाररक र्मनष्र यों को ज्ञान प्रदान करते रहते हैं तथा सर्माज को
इश्वर परायण बनाने के प्रयास र्में लगे रहते हैं ऐसे सावत्वक र्मनष्र यों को र्महापरू र ष की संज्ञा दी जाती ह।
ऐसे परू र षों के ववषय र्में जानना अवश्यक नहीं ह। ‍योंवक वे ऄपना ज्ञान दसर रों को वनःथवाथलभ ाव से बााँटते
रहते हैं ऐसे परू र षों के द्रारा धर्मलभ की व्यवथथा यथोवित बनी रहती ह। साधकों को तर्मोगणर प्रधान र्मनष्र यों
के ववषय र्में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना िावहए, ‍योंवक आस संसार र्में ज्यादातर व्यवहार तर्मोगणर की
प्रधानता से हो रहा ह। जब आसकी वाथतववकता का ज्ञान होगा तब र्मन संसार की ओर बार-बार नहीं
ागेगा धीरे -धीरे ऄभ्यास के द्रारा संसार के प्रवत सक्ष्र र्म रूप से व।रा‍य होता जाएगा तथा असव‍त सर्माप्त
होने लगेगी आससे वनबीज सर्मावध ऄवथथा प्राप्त करने र्में सहायता वर्मलेगी आस संसार से तब तक गप्र त

तत्त्वज्ञान 24
रूप से ज्ञान प्राप्त करते रहो जब तक अपका र्मन आस संसार की ओर जाना बन्द न कर दे करछ वषों बाद
ऐसी ी ऄवथथा अएगी अपका र्मन शि र व व्यापक होकर वनरुि होने लगेगा यह शब्द र्मैंने ऄपने
ऄनर व के द्रारा वलखे हैं
वजस साधक की आच्छा शव‍त िट्टान की तरह र्मजबतर होती ह। ईसे संसार का अकषलभण प्र ाववत
नहीं कर सकता ह। ऄगर क ी संसार का अकषलभण ईसके सार्मने ईपवथथत ी हो गया तो ईस अकषलभण
को ब्रह्म की रिना र्मार सर्मझते हुए िष्टा रूप से ऄवलोकन करता रहेगा आस भ्रर्म रूपी सत्ताहीन संसार र्में
आतना सार्मथ्यलभ कहााँ ह। जो तत्त्वज्ञानी को वविवलत कर सके पवर लभकाल र्में वजतने योगी वविवलत हुए हैं, तब
तत्त्वज्ञान प्रावप्त से पवर लभ की ऄवथथा रही होगी ईनका वित्त पणर लभ रूप से शि
र नहीं हुअ होगा वजसके वित्त
से ऄववद्या का नाश हो गया हो, ईसके वलए सम्पणर लभ संसार नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह। ऐसे ब्रह्म थवरूप
र्महापरू र ष ऄपनी लीला वश संसार को वशक्षा देने के वलए कायलभ करते रहते हैं वे संसार के वनयर्मों के
ऄधीन नहीं होते हैं वे ऄपनी आच्छा शव‍त से प्रकृ वत को ऄपने ऄधीन वकए रहते हैं जब तक थथल र शरीर
रहता ह।, तब तक वे इश्वरीय कायलभ करते रहते ह। तथा पणर लभ थवतन्र होते हैं संसारी र्मनष्र य ईन्हें पहिान नहीं
सकता ह।, वे ऄपनी पहिान वकसी को बताते नहीं ह। ईनके द्रारा वकए गये कायों को देखकर संसारी
र्मनष्र य भ्रवर्मत बना रहता ह। हो सकता ह। वक करछ लोग हर्मारे आस तरीके से सहर्मत न हों र्मैंने ऄपनी
सिलता के अधार पर यह शब्द वलखे हैं आस सिलता को प्राप्त करने के वलए र्मैंने सासं ाररक सख र ों का
त्याग कर वदया था तथा घोर कष्टों को सहन करते हुए कठोर पररश्रर्म के द्रारा तत्त्वज्ञान प्राप्त कर पाया
ऄप्र।ल 1993 र्में हर्मारी गरुर र्माता जी ने हर्में कहा था, ‚हमें आपसे बहुत आशायें हैं, भलवष्य में हम
आपको आश्रम में कुछ लजम्मदारी देना चाहते हैं। आप यही रहकर साधकों का मागथदशथन कीलजए। हमारे
बाद भी आप आश्रम में रह सकते हैं, क्योंलक यहाूँ के साधक आपसे बहुत प्रेम करते हैं‛ र्मैं श्रीर्माता जी से
बोला वक हर्मारा ईत्तर ारत जाना वनवश्ित ह।, वहीं पर हर्मारी शेष साधना पणर लभ होगी ववष्य र्में प्रकृ वत
हर्मसे करछ कायलभ करवायेगी करछ वदनों बाद र्मैं ऄपने घर (कानपरर ई.प्र.) अ गया विर िरवरी 1996 र्में
र्मैं गरुर र्माता जी के दशलभन करने वर्मरज गया था वापस अने के बाद हर्में श्रीर्माताजी का पर वर्मला ईसर्में
वलखा था, ‚अप जलगााँव अश्रर्म र्में अ जाआए, वहीं पर रवहए‛ आस पर का र्मैंने ईत्तर नहीं वदया जनर
1997 र्में र्मैंने श्रीर्माता जी से दरर ी बना ली 23 नवम्बर 2009 को ईन्होंने थथल र शरीर त्याग वदया 24
नवम्बर 2009 को श्रीर्माता जी ने हर्मसे सम्पकलभ वकया हर्मारी ईनसे 5-7 वर्मनट तक बातें हुइ र्मगर आस बार
ी र्मैंने ईनकी बात थवीकार नहीं की, ‍योंवक आस ऄवथथा र्में र्मैं वर्मरज अश्रर्म र्में क। से सहयोग कर सकता
था!

तत्त्वज्ञान 25
सस
ुं ार
तत्त्वज्ञान की दृवष्ट से यह जगत् न तो ईत्पन्न होता ह। और न ही क ी लीन होता ह। आस प्रकार
के वल ब्रह्म ही सदा ऄपने अप र्में प्रवतवित ह। परर्म् अकाश रूप आस ब्रह्म का प्रकाश के वल ऄनर व का
ववषय ह। जो वित्त अवद के ऄन्दर ऄन्तयालभर्मी रूप से वथथत ह।, ईसका ऄनर व के वल वही करता ह।, दसर रा
नहीं कर सकता ह। सर्मिर के जल र्में वजस प्रकार बड़ी-बड़ी लहरें वथथत रहती हैं, ईसी प्रकार वनराकार ब्रह्म
र्में ईसी के सर्मान यह जगत् वथथत ह। पणर लभ से पणर लभ का प्रसार होता ह। जो पणर लभ र्में वथथत ह। वह पणर लभ ही ह।
प्रलय होने पर सम्पणर लभ कारणों का कारण ब्रह्म ही वथथत रहता ह। सर्मावध र्में वनरोध ऄवथथा के द्रारा जब
वृवत्तयों का क्षय होता ह।, तब र्मन के थवरूप का नाश हो जाने पर ऄवनवलभिनीय थवप्रकाश ब्रह्म रहता ह।
यह दृश्य जगत् प्रलय होने पर कहााँ रहता ह।? उत्तर– ज।से अकाश र्में क ी वन नहीं होते हैं, ईसी प्रकार
सम्पणर लभ जगत् तीनों कालों र्में क ी ऄवथतत्व र्में नहीं अता ह। ज।से सोने के करण्डल र्में थपष्ट वदखाइ देने
वाला करण्डलत्व वाथतव र्में नहीं ह।, सोना ही ईस रूप र्में ावसत होता ह।, आसी प्रकार ब्रह्म र्में जगत् नार्म
की कोइ वथतर नहीं ह। वजसे हर्म जगत् कहते हैं, वह ब्रह्म का ही थवरूप ह। अकाश र्में जो शन्र यता ह। वह
अकाश से व न्न नहीं ह। ब्रह्म ही व्यवष्ट और सर्मवि रूप र्में जगत् ह। दृश्य वथतओ र ं के दशलभन और र्मनन के
जो प्रकार हैं, ईन रूपों र्में थवयं ब्रह्म ईवदत और ववलीन होता रहता ह।
यह जगत् सर्मवि की आच्छा का कायलभ होने के कारण आसकी सदृर ढ़ एवं क्रर्मबि प्रतीवत होती ह।
सवालभत्र्मक ब्रह्म ही आस जगत् का ऄवधष्ठाता ह। ईसका सत्ता र्मार रूप ही यह जगत् ह। पंि तर ों की
तन्र्माराएाँ ही जगत् का बीज हैं पंि तन्र्माराओ ं का बीज र्माया शव‍त ह। वजसका ब्रह्म से साक्षात् सम्बन्ध
ह। तथा वही जगत् की वथथवत का कारण ह। आस प्रकार सबका अवद तर ब्रह्म ही र्माया द्रारा जगत् का
बीज होता ह। र्माया के हट जाने पर ब्रह्म ही ववशि र रूप से सदा ऄनर व र्में अता ह। वजस प्रकार थवप्न र्में
नगर, नदी, पहाड़ अवद वबना बनाए ही बन जाते हैं, ईसी प्रकार र्महा अकाश र्में यह सम्पणर लभ जगत् रूपी
सृवष्ट बार-बार ईत्पन्न और नष्ट होती ह। वजस प्रकार थवप्न देखने वाला परू र ष नगर, नदी, पहाड़ अवद
का वनर्मालभण कर लेता ह।, ईसी प्रकार िेतन अत्र्मा ी सम्पणर लभ जगत् का वनर्मालभण कर लेता ह। वाथतव र्में आस
जगत् के रूप र्में िेतन अत्र्मा ही होता ह। जो थवरूप कवकपत ह।, वह सत्य क। से हो सकता ह।? जब पंि
तन्र्माराएाँ ब्रह्म थवरूप हैं तो पिं तन्र्माराओ ं से ईत्पन्न ईसके कायलभरूप थथलर पिं तर ों को ी ब्रह्म ही
सर्मझना िावहए

तत्त्वज्ञान 26
थवप्न र्में वनवर्मलभत शहर ऄसत् होता हुअ ी सत् सा प्रतीत होता ह। आसी प्रकार ब्रह्माकाश रुपी परर्म्
अकाशर्मय िेतन अत्र्मा र्में जीवाकाशत्व ऄसत् होता हुअ ी सत् सा प्रतीत होता ह। ऄथालभत् ब्रह्मर्मय
र्महा अकाश से ऄलग न होने पर ी ऄलग-सा वदखाइ देता ह। ब्रह्म र्में कवकपत सर्मवि जीवकाशत्व
ऄत्यन्त ववविर होता हुअ ी, ‚र्मैं छोटा सा तेज कण ह‛ाँ , ऐसी ावना करने से वह ऄपने अपको व।सा
ही ऄणर रूप र्में ऄनर व करने लगता ह। वह वजस थथरलता का विंतन करने लगता ह।, ावना द्रारा ऄपने
को व।सा ही थथल र सर्मझने लगता ह। ज।से र्मनष्र य थवप्न र्में ऄपने को पवथक के रूप र्में देखता ह। व।सा ही
वह वित्त की ककपना से ऄपने र्में सक्ष्र र्म शरीर और थथल र शरीर की ावना को धारण करता ह। ज।से काँर ए
के जल र्में प्रवतवबवम्बत हुअ शरीर वह व्यवहार कतालभ-सा जान पड़ता ह। ऄथालभत् वह ववषय बाहर होने पर
ी ऄपने बाह्य रूप को त्याग कर ही शरीर के ऄन्दर ऄन्त:करण र्में ावसत होता हैं आसी प्रकार, ‚र्मैं छोटा
सा तेज कण ह‛ाँ की ईपावध र्में थवरूपतः कवकपत जो सक्ष्र र्म शरीर ह।, ईसके ऄन्दर वथथत हुअ जीवात्र्मा
वासनार्मय देह अवद व्यवहार का ऄनर व करता ह। र्मनोर्मय सक्ष्र र्म शरीर वाला जीव ऄपने सक्ष्र र्म देहाकाश
र्में ही थथलर ता की ावना करके थथल र देहधारी हो गया ह। वह ऄपनी ककपना के ऄन्दर ही वथथत हुए
ब्रह्माण्ड का दशलभन करता ह। वित्त से ऄपने संककप के ऄनसर ार ही ऄपने वलए देश, काल, कर्मलभ अवद
ककपनाओ ं की ावना करता हुअ नार्म अवद का वनर्मालभता बन कर सक्ष्र र्म शरीरधारी जीव ऄपने द्रारा
कवकपत ववव न्न नार्मों से ईन-ईन पदाथों और ऄपने को ऄसत्य जगत् रूपी भ्रर्म र्में बााँधता ह। ऄसत्य
जगत् रूपी भ्रर्म र्में ही यह जीवात्र्मा वर्मथ्या ववकास को प्राप्त होता जान पड़ता ह।
ककप के ऄन्त र्में ब्रह्मा के र्म‍र त हो जाने के कारण वनश्िय ही वतलभर्मान ककप के ब्रह्मा को कोइ
पवर लभजन्र्म की थर्मृवत नहीं रहती ह। आसवलए वतलभर्मान ककप र्में ज।से ब्रह्मा संककपर्मय ह।, व।से ही ईनसे ईत्पन्न
हुअ जगत् ी संककपर्मय ही ह। वजस प्रकार थवप्न र्में देखें गये पदाथलभ जा्र त ऄवथथा र्में वर्मथ्या वसि होते
हैं, ईसी प्रकार साक्षी से ईत्पन्न हुअ जगत् वर्मथ्या ही वसि होगा वजस प्रकार थवप्न र्में ऄपना र्मरना
वदखाइ देता ह।, परन्तर जा्र त ऄवथथा र्में वह र्मरना ऄसत् ही वसि होता ह। ईसी प्रकार ऄज्ञान ऄवथथा र्में
प्रतीत होने वाला यह दृश्य जगत् तत्त्वज्ञान होने पर ऄसत् ही वसि होता ह।
ब्रह्म र्में जगत् का तीनों कालों र्में ऄत्यन्त ऄ ाव ह। सवच्िदानन्द इश्वर ही ऄपने अप र्में जगत् के
रूप र्में ववकवसत हो जाता ह। जब आस जगत् का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह। तब के वल एक ब्रह्म ही शेष
रहता ह। यवद जगत् प्रतीत होता ह। तो वह ब्रह्म ही ह।, ब्रह्म के ऄवतरर‍त करछ ी नहीं ह। जब ऄभ्यास के
द्रारा वनरूिावथथा अती ह। त ी आस जगत् का ऄ ाव होता ह।, परन्तर वित्त के र्मौजदर रहते दृश्य जगत् का

तत्त्वज्ञान 27
ऄ ाव होना सम् व नहीं ह। आसवलए तत्त्वज्ञान के वबना दृश्यता की शांवत नहीं हो सकती ह। तत्त्वज्ञानी के
वलए जगत् शांत एवं ऄववनाशी ब्रह्म ही ह।, परन्तर वहीं ऄज्ञानी की बवर ि से ावसत हुअ नाना प्रकार के
लोकों से यक्तर ह। आस सृवष्ट को जब सृवष्ट रूप सर्मझा गया तो यह पतन की ओर ले जाती ह।, परन्तर जब
आसी को ब्रह्म रूप से जान वलया गया तो यह र्मोक्ष की ओर ले जाती ह। योग के ऄभ्यास के द्रारा आवन्िय
सर्मदर ाय पर ववजय प्राप्त कर आस जगत् को पार वकया जा सकता ह।, ऄन्य वकसी कर्मलभ से आस जगत् को पार
करना कवठन ह। ऄभ्यास के द्रारा जो ऄभ्यासी वववेक यक्त र हो गया हो, वही आवन्िय पर ववजय प्राप्त कर
सकता ह। ईसी को आस जगत् के ऄत्यन्त ऄ ाव का ज्ञान होता ह।
अत्र्मा थवयं ऄपने सक ं कप से जा्र त-थवप्न-सषर प्र त नार्मक तीन ऄवथथाओ ं को प्राप्त हुअ ह।, आन
ऄवथथाओ ं र्में शरीर कारण नहीं ह। आस प्रकार जा्र त अवद तीनों ऄवथथाएाँ अत्र्मा र्में ही जीवत्व हैं
अत्र्मा ही जीव रूप से थिरररत हो रहा ह।, ज।से- जल ही लहर तथा ाँवर अवद के रूप र्में प्रकट हो रहा ह।
तावत्वक दृवष्ट प्राप्त होने पर जल र्में जल से पृथक लहर अवद की सत्ता नहीं रहती ह। आसी प्रकार
तत्त्वज्ञानी परू
र ष ज्ञान के द्रारा जगत् से वनवृत्त हो जाता ह।, परन्तर जो ऄज्ञानी परू
र ष ह।, वही सृवष्ट र्में प्रवृत्त
होता ह। ब्रह्म का ही विन्तन करना ईवित ह।, दृश्य जगत् का विन्तन करने से ‍या ला ह। बीज ऄपने
थवरूप का त्याग करके ऄंकरर अवद क्रर्म से िलथवरूप र्में पररवणत होता देखा जाता ह। परन्तर ब्रह्म ऐसा
नहीं ह। वह ऄपने थवरूप का त्याग वकए वबना ही जगत् रूप र्में प्रतीत का ऄवधिान रूप से कारण होता ह।
आसवलए बीज और ब्रह्म की तल र ना करना ईवित नहीं ह। ऄपने को दृश्य रूप र्में देखने वाला िष्टा ऄपने
वाथतववक थवरूप को नहीं देख सकता ह। वजसकी बवर ि प्रपंि से अक्रान्त हो, ऐसे वकसी ी परू र ष को
ऄपनी यथाथलभ वथथवत का ज्ञान नहीं होता ह। ज।से– नेर बवहर्मलभख र होने के कारण ऄपने को नहीं देख पाता ह।,
ईसी प्रकार अकाश की ााँवत वनर्मलभल होता हुअ िष्टा ी बवहलभर्मख र होने के कारण ऄपने थवरूप का
साक्षात्कार नहीं कर पाता ह।
आस ससं ार र्में व्यवहार करने वाले स ी र्मनष्र यों को ववव न्न प्रकार की अपदाऐ ं थवा ाववक ही
वर्मला करती हैं ब्रह्म सत्य ह।, वह सदा सत्य ही ह। दृष्य जगत् ऄसत्य ह।, वह सदा ऄसत्य ही ह। आसवलए
र्माया रूपी ससं ार र्में ऐसी दसर री कौन सी वथतर ह। वजसके ववषय र्में शोक वकया जाए आस ऄसत्य रूपी
संसार र्में वबककरल ी असव‍त नहीं रखनी िावहए असव‍त से र्मनष्र य ऄपने अपको थवयं ही बााँध लेता
ह। यह सब ब्रह्म का ही थवरूप ह।, ऐसा सोिकर असव‍त रवहत होकर आस संसार र्में व्यवहार करना
िावहए यवद र्मनष्र य ने वववेकबवर ि से कर्मलभ नहीं वकए तो ोग-पदाथों से पररपणर लभ संसार की रिना रूपी र्माया

तत्त्वज्ञान 28
शव‍त अस‍त र्मनष्र यों को ऄनथलभ-गतों र्में ढके ल देती ह। जब संककपों का ली- ााँवत ऄवरोध कर वदया
जाता ह। तब संसार रूपी िक्र रुक जाता ह। संककपात्र्मक र्मन को राग-द्रेष अवद से क्षोव त करने पर यह
संसार रूपी िक्र रोकने की िेष्टा करने पर ी वेग के कारण िलता ही रहता ह। आसवलए र्मनष्र य को योग
के ऄभ्यास द्रारा ज्ञान रूपी बल से वित्त रूपी संसार िक्र का ऄवश्य ऄवरोध करना िावहए ऄज्ञान रूपी
िक्र के उपर वथथत हुअ जीवात्र्मा वजस देह को जन्र्म-र्मरण रूपी िक्र को देखता रहता ह।, वह ऄवधक
भ्रांवत देने वाला, थवयं भ्रांवत रूपी पतन ईन्र्मख
र थवरूप से ्र थत, ली प्रकार ऄनथों र्में वगराया हुअ
वदखाइ पड़ता ह। वर्मथ्याज्ञान के द्रारा संककप से ईत्पन्न यह शरीर सत्य-सा होने पर ी वाथतव र्में ऄसत्य
ही हैं, ‍योंवक जो वथतर ऄज्ञान से ईत्पन्न हुइ हो वह क ी ी सत्य नहीं हो सकती ह। ऄभ्यास के द्रारा
वित्त को ववलीन कर देने से ऄभ्यासी आस संसार से क ी नहीं डरता ह।
यह जो संसार वदखाइ दे रहा ह। वह ऄववद्या के कारण वदखाइ दे रहा ह। र्मगर सर्मथत संसार रूप
प्रपंि वर्मथ्या ही हैं वववेकी परू
र ष वाथतववक तत्त्व को वववेिन पवर लभक ्र हण कर लेते हैं, र्मगर ऄवववेकी
र्मनष्र य तक-ववतलभक और वाद-वववाद करते रहते हैं आसवलए ऄभ्यास द्रारा प्रत्येक र्मनष्र य को ऄपना वित्त
परर्म-् शिर कर लेना िावहए यह जो संसार वदखाइ देता ह। ईसके र्मल र तथा ऄन्त र्में सत्ता का ऄ ाव ह।
वविार करने पर र्म्य र्में ी आसकी कोइ सत्ता नहीं होने के कारण प्रतीवत र्मार ह। आसवलए तत्त्वज्ञानी परू र ष
आस संसार र्में वकसी प्रकार का ववश्वास नहीं करते हैं, ‍योंवक ऄनावद वासना के कारण यह संसार वदखाइ
देता ह। यह संसार न तो अरम् र्में ह। और न ही ऄन्त र्में ह।, तब यह सर्मझ लेना िावहए वक यह र्म्य र्में
ी नहीं ह। आस संसार र्में ऄववद्या रूपी वायर से ईत्पन्न सबसे बड़ा ऄहर्म् ह। ऄहर्म् के कारण र्मनष्र य आस
संसार रूपी जाल र्में िाँ सता जाता ह। आस संसार रूपी जाल र्में िाँ सने र्में राग-द्रेष और र्मर्मता अवद सहयोग
करते हैं परर्मात्र्मा रूपी जो सक्ष्र र्म तत्त्व ह।, वह ऄज्ञानी र्मनष्र यों के वलए ऄज्ञान से अवृत रहता ह। संसार
िक्र के अवतलभ रूपी भ्रर्म र्में यवद भ्रर्मण नहीं करना िाहते हो तो संसार के ोग पदाथों को प्राप्त करने
वाले कर्मों को छोड़कर ब्रह्म र्में अस‍त हो जाओ ब्रह्म से प्रेर्म न होकर जब तक बाह्य ववषयों र्में
असव‍त ह। त ी तक संककप से ईत्पन्न हुअ यह संसार वदखाइ देता ह।
यह ससं ार रूपी वृक्ष ऄहक ं ार रूपी बीज से ईत्पन्न होता ह। ज्ञान रूपी योगाव‍न से जब आसका बीज
नर जाता ह। तब संसार रूपी वृक्ष ईत्पन्न नहीं होता ह। यहााँ जो करछ प्रतीत हो रहा ह।, वह सब ऄसत्य ह।
संककप-ववककप को त्याग देने र्मार से आस संसार का नाश हो जाता ह। संसार सागर को पार करने की
आच्छा वाले ववर‍त श्रेष्ठ र्महापरू
र षों तथा तत्त्वज्ञानी के साथ ब।ठकर आस संसार के ववषय र्में वववेकी र्मनष्र य

तत्त्वज्ञान 29
को वविार करना िावहए वक यह संसार ‍या ह।, आसका पररणार्म, र्मल र और सार ‍या ह। तथा आससे र्म‍र त
होने का ईपाय कौन सा ह।? तत्त्वज्ञानी परू र ष का संग प्राप्त हो जाने पर साधक को श्रेष्ठ ऄवथथा प्राप्त हो
जाती ह। यह तो संसार का अ ास ह।, वह िेतन थवरूप ब्रह्म का अ ास रूप ह।, विर आसर्मे एकत्व और
वद्रत्व की ककपना क। से की जा सकती ह।? सख र रूप वदखाइ देने वाले सांसाररक ववषय ोगों को दःर ख रूप
ही सर्मझना िावहए आस संसार र्मागलभ र्में िलते-िलते जो थक कर िरर हो गया हो ईस राहगीर के वलए
तत्त्वज्ञान ववश्रार्म थथल ह। आस संसार को ज।सा तत्त्वज्ञानी सर्मझता ह।, व।सा ऄज्ञानी नहीं जानता ह। और
ज।सा ऄज्ञानी जानता ह।, व।सा तत्त्वज्ञानी नहीं सर्मझता ह। ऄज्ञानी के वलए यह संसार दःर खर्मय ह। और
तत्त्वज्ञानी के वलए अनन्दर्मय ब्रह्म ह। जीवन्र्मक्त र ज्ञानी के वलए भ्रावन्त की शांवत हो जाने पर संसार का
थवरूप ी नष्ट हो जाता ह। ईसकी दृवष्ट र्में एक र्मार ब्रह्म ही ववद्यर्मान वदखाइ देता ह। ज।से– जले हुए
घास-िरस की राख का ढेर वायर के वेग से ईड़कर न जाने कहााँ िली जाती ह।, व।से ही अत्र्मथवरूप र्में
ववश्रार्म प्राप्त हो जाने पर आस संसार का ऄवथतत्व न जाने कहााँ ववलीन हो जाता ह।, ‍योंवक जो सर्मथत
प्रावणयों के वलए रावर के सर्मान ह।, ईस परर्मानन्द र्में संयर्मी परू र ष जागता रहता ह। वजस संसार र्में प्राणी
जागते रहते हैं, वह तत्त्वज्ञानी के वलए रावर के सर्मान ह। ज।से ऄन्धे र्मनष्र य को रूप का ऄनर व नहीं होता
ह। व।से ही तत्त्वज्ञानी को संसार का ऄनर व नहीं होता ह। ऄगर क ी होता ी ह। तो वह भ्रर्म रूप एवं
ऄसत् रूप र्में होता ह। ऄज्ञावनयों के वलए दःर ख रूप जो लोक ह।, वह ऄज्ञावनयों की दृवष्ट र्में ह। परन्तर
तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में ईसका कोइ ऄवथतत्व नहीं ह। तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में दष्र ट बवर ि का ऄवथतत्व नहीं
रहता ह। व।से ही तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में ऄज्ञानी के ससं ार की सत्ता नहीं रहती ह। ऄज्ञानी परूर ष तो तत्त्वज्ञानी
को विरकाल तक ऄज्ञानी ही सर्मझता ह।
थवप्न तथा संककप के पदाथलभ क ी देखे नहीं गये ह।, बवकक भ्रर्म वश आनकी प्रतीवत होती ह। आस
संसार को तत्त्व दृवष्ट से देखने पर ी ईपलब्ध ही नहीं होता ह।, आसवलए यह सवलभथा वर्मथ्या ह। देश, काल,
वक्रया, ेद, संककप और वित्त आन सबकी सत्ता ऄज्ञान र्मार ही ह। ऄज्ञान से व न्न आसकी सत्ता न पहले
थी ओर न ही ऄब ह। वववेकपणर लभ वविार करने से ज्ञानोदय होने पर पदाथों र्में सकारता या थथल र ता की
ावना शांत हो जाती ह। ये सब के सब विन्र्मय ब्रह्म थवरूप हैं, ऐसा वनश्िय हो जाता ह। आसी प्रकार
थवप्न से जागने पर थवप्न के पदाथों र्में ी थथल र ता की ावना वनवृत्त हो जाती ह। वासना के क्षीण होने पर
ईसके वलए संसार की वथथवत थवप्न के सर्मान हो जाती ह।, विर ईसकी दृवष्ट र्में संसार के वल संककप रूप
ही हो जाता ह। ईस परू र ष की सक्ष्र र्म वासना क्रर्मशः धीरे -धीरे ववलीन हो जाती ह। आस तरह सवलभथा वासना
शन्र य होकर वह शीघ्र ही र्मोक्ष को प्राप्त हो जाता ह। तत्त्वज्ञान से जब यह भ्रर्म र्मार संसार िक्र थथल

तत्त्वज्ञान 30
रूपता से रवहत ऄनर व हो जाता ह। तब क्रर्मशः ईसकी वासना का क्षय होने लगता ह। थथल र ता का भ्रर्म
वर्मट जाने पर जब संसार की वित्त र्मार रूपता ऄवगत हो जाती ह।, तब वित्त वृवत्तयों के वनरुि हो जाने पर
आस संसार के प्रवत होने वाली अथथा शांत हो जाती ह। ऄज्ञावनयों की दृवष्ट र्में संसार का जो थवरूप ह।,
वह सत्य नहीं ह। तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में ईसका ज।सा थवरूप ह। वह ऄवद्रतीय ब्रह्मर्मय होने के कारण वाणी
का ववषय नहीं ह। ऄतः यहााँ पर ऄज्ञावनयों के संसार की सत्ता का वनराकरण वकया गया ह। ऄज्ञावनयों का
जो संसार ह।, वह अवद ऄंत से यक्त र ह। तथा द्र।त रूप ह। र्मगर तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट से संसार की सत्ता सम् व
ही नहीं ह।
यह र्माया ऐसी ह। जो ऄपने ही ववनाश से हषलभ देने वाली ह। आसके थव ाव का पता नहीं लगता ह।
ज्ञान की दृवष्ट से जब देखने का यत्न वकया जाता ह। तब यह तत्काल नष्ट हो जाती ह। संसार को बााँधने
वाली यह र्माया बड़ी ववविर ह। यह र्माया ऄसत्य ह। र्मगर सत्य की तरह आसने ऄपना ज्ञान कराया ह। जो
आस संसार के ब्रह्म रूप से सत्य ह। ऄथवा यह संसार वर्मथ्या होने के कारण ऄसत्य ह। आन दोनों बातों र्में से
वकसी एक को दृढ़ वनश्िय के साथ ऄपना लेता ह। और र्मन र्में अस‍त न होकर संसार को थवप्न की
ााँवत भ्रर्म रूप ही देखता ह।, ईसको दःर ख क ी प्र ाववत नहीं करता ह। आस वर्मथ्या तर शरीर-संसार अवद
रूप द्र।त ावनाओ ं र्में वजसकी ऄहर्म् बवर ि ह।, वही दःर ख के सागर र्में डरबता ह। ऄथालभत् ईसे ही दःर ख
प्र ाववत करता ह। ऄपने वनजथवरूप से शन्र य वर्मथ्यादशी र्मनष्र य के वलए सब ओर के वल ऄववद्या वदखाइ
देती ह। वजस तरह सदृर ढ़ खं े र्मण्डप को धारण करते हैं, ईसी तरह रजोगणर ी व तर्मोगणर ी जीव सदा आस
ववशाल संसार र्माया को धारण करते हैं तत्त्वज्ञावनयों के संग से, योग के ऄभ्यास से वजनके पाप नष्ट हो
गये हैं, ईन्हीं परू र षों के ऄन्त:करण र्में प्रज्ज्ववलत लौ के सर्मान सार वथतर का दशलभन कराने वाली ईत्तर्म
बवर ि ईत्पन्न होती ह। वजन र्मनष्र यों का ऄंतःकरण वर्मथ्या वथतर र्में अस‍त ह।, ईन पशर तकर य र्मनष्र यों के
ह्रदय र्में वकस ईपाय से वववेक प।दा वकया जा सकता ह।?
ऄववद्या कवकपत अकृ वत र्मार से ावसत होती ह। सत्यता का आसर्में सवलभथा ऄ ाव होता ह।
ऄववद्या ऄज्ञानी परू र षों को धोखा देती ह। प्रलयकाल की ीषण अाँधी के सर्मान ऄववद्या ी यक ं र रूप
धारण करके वविरती ह। तथा रजोगणर की ऄवधकता से यह यक्त र होती ह। तथा लोक-लोकान्तरों को ऄपने
प्र ाव र्में रखती ह। ज।से अकाश ऄकारण ही नीला वदखाइ देता ह।, ईसी प्रकार ऄववद्या ी वकसी कारण
के वबना प्रतीवत का ववषय होती ह। ज।से रे ल र्में ब।ठे हुए यारी को वृक्षों र्में गवतशीलता प्रतीत होती ह। यह
ऄववद्या जब वित्त को दवर षत कर देती ह। तब आससे व्याकरल हुए लोगों को दीघलभकाल तक संसार रूपी थवप्न

तत्त्वज्ञान 31
का भ्रर्म बना रहता ह। वासना रूपी प्रबल ऄववद्या र्मन को ईसी तरह शीघ्र अक्रान्त कर लेती ह। ज।से जाल
पक्षी को िााँस लेता ह। ज।से वववेक बवर ि से ववषयों का ववरोध वकया जाता ह।, व।से ही वासना रूपी
ऄववद्या का ी शीघ्र वनरोध करना िावहए ज।से स्रोत को रोक देने से नदी सख र जाती ह।, ईसी प्रकार
ऄववद्या के वनरोध से ऄववद्या रूपी संसार नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह।
ऄववद्या, ऄववद्यर्मान होकर ी ऄत्यन्त तच्र छ ह। और वर्मथ्या ावना रूप ह। आसने सारे जगत् के
प्रावणयों को ऄधं ा बना रखा ह। बड़े अश्चयलभ की बात ह। वक आसका न कोइ रूप ह।, न ही अकार ह। यह
ि।तन्यता से ी रवहत ह। तथा ऄसत् होकर ी नष्ट नहीं हो रही ह। यह सदा ऄत्यन्त दःर खों से व्याप्त,
र्मृतक के तकर य और सज्ञं ाहीन ह। कार्म और क्रोध ही ईसके सदृर ढ़ ऄगं ह। तर्मोगणर की ऄवधकता से यह
प्रावणयों को ऄपने प्र ाव र्में ले लेती ह। तथा तत्त्वज्ञान के ईदय होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाती ह। ज।से
ओस की बाँदर सयर लभ के प्रकाश र्में क्षण र र्में नष्ट हो जाती ह।, आसी प्रकार ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने से
आस ऄववद्या का तत्काल नाश हो जाता ह। यह ऄववद्या गहन दःर ख रूपी कााँटों से सश र ोव त होती ह। तथा
ऄपने साथ देहाव र्मानी जीव को नीिे की ओर वगराने की कोवशश करती रहती ह। जब ईसका ववनाश
करने वाली ब्रह्म साक्षात्कार आच्छा थवयं ईत्पन्न हो जाती ह। तब ऄववद्या का धीरे -धीरे ववनाश होना शरू र
हो जाता ह। बाह्य ववषयों की आच्छा र्मार को ही ऄववद्या कहते हैं, ‍योंवक ऄववद्या से ही आच्छा होती ह।
आच्छा र्मार का नाश होना र्मोक्ष कहलाता ह। र्मोक्ष संककप के ऄ ाव र्मार से वसि कहलाता ह। वजस
प्रकार सयर लभ के वनकलने से रात न जाने कहााँ िली जाती ह।, ईसी प्रकार तत्त्वज्ञान के ईदय होने पर ऄववद्या
न जाने कहााँ ववलीन हो जाती ह। तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में ऄववद्या नहीं ह।, ऄववद्या ऄज्ञानी की दृवष्ट र्में ह।
जो सत्य ह।, ईस ब्रह्म को र्मनष्र य ल र गये ह। और जो ऄसत्य ऄववद्या नार्मक वथतर ह।, ईसी का वनरन्तर
थर्मरण हो रहा ह।
ऄववद्या वाथतव र्में नहीं ह। र्मगर ईसने सबको वश र्में कर रखा ह। आस ससं ार र्में जड़ शरीर अवद करछ
ी नहीं ह। सि तो यह ह। वक ईसकी सत्ता ी नहीं ह। जीव ने ही थवप्न र्में वदखाइ देने वाली वथतओ र ं की
ााँवत आसकी ककपना कर ली ह। ऄज्ञानी जीवात्र्मा को शारीररक सख र -दःर ख होते हैं तत्त्वज्ञानी र्महात्र्मा को
ये वबककरल नहीं होते हैं, ‍योंवक वह ब्रह्म के यथालभथ थवरूप को जान गये हैं शरीर जड़ ह।, वह सख र -दःर ख
का ऄनर व नहीं कर सकता ह। जीवात्र्मा ऄवववेक के कारण दःर खी होता ह।, यह ऄवववेक ऄवतशय
ऄववद्या के कारण होता ह। ऄववद्या ही सर्मथत दःर खों की हेतर ह।, ऄववद्या के कारण जीवात्र्मा शर -ऄशर
कर्मों के िल थवरुप सखर -दःर ख का ो‍ता ह। ज।से रे शर्म का कीड़ा ऄज्ञान वश रे शर्म कोष र्में बाँध जाता ह।

तत्त्वज्ञान 32
ववव न्न प्रकार की ऄववद्या रूपी वृवत्तयों से बाँधा हुअ र्मन ववव न्न प्रकार की अकृ वतयों र्में वविरण करता
हुअ िक्र के सर्मान घर्मर ता रहता ह। तत्त्वज्ञान से शन्र य ईस वर्मथ्यादशी जीव के वलए सब ओर के वल
ऄववद्या ही ववद्यर्मान ह। ब्रह्म प्रावप्त के वबना ऄववद्या रूपी नदी (संसारद से पार नहीं वकया जा सकता ह।
ऄववद्या जन्र्म से ही ईत्पन्न होती ह। और बाद र्में जन्र्मान्तर रूपी िल प्रदान करती ह। यह जन्र्म से
ससं ार र्में ऄपना ऄवथतत्व प्राप्त करती ह। और बाद र्में वथथत रूपी िल प्रदान करती ह। आस ऄववद्या की
बवर ि ऄज्ञान से होती ह।, बाद र्में ऄज्ञान रूपी िल देती ह। वजस प्रकार जल र्में तरंगे ईत्पन्न होती हैं व।से ही
ब्रह्म के सक ं कप से कला रूपी प्रकृ वत प्रकट होती ह। यह प्रकृ वत सत्त्व-रज-तर्म गणर ों वाली ह। सत्त्व अवद
गणर थवरूप धर्मलभ से यक्त र प्रकृ वत ही ऄववद्या (र्मायाद ह। प्रकृ वत से पार हो जाना र्मोक्ष की प्रावप्त ह। जो दृश्य-
जगत् वदखाइ देता ह।, वह सब ऄववद्या के कायलभ होने से ईसी के अवश्रत ह। प्रकृ वत का जो शि र सत्त्व ऄंश
ह। वह ववद्या ह। ववद्या से ऄववद्या ईसी प्रकार ईत्पन्न हाती ह।, वजस प्रकार जल से बल र बल र े ईत्पन्न होते हैं
यही बल र बल र े विर जल र्में लीन हो जाते हैं, ईसी प्रकार ववद्या र्में ऄववद्या ववलीन हो जाती ह। ववद्या और
ऄववद्या र्में दृवष्टयों की ेद ावना से ही व न्नता ह।, वथततर : नहीं ह। वजस प्रकार जल और तरंग की एक
रूपता ह।, ईसी प्रकार ववद्या और ऄववद्या एक रूप ही हैं, ऄलग-ऄलग नहीं हैं वाथतव र्में एक ब्रह्म से
व न्न ववद्या और ऄववद्या नार्म की कोइ वथतर नहीं ह। ववद्या और ऄववद्या की दृवष्ट का त्याग करने पर जो
शेष रहता ह।, वह वाथतव र्में ब्रह्म ही ववद्यर्मान ह। जब ब्रह्म का यथाथलभ ज्ञान नहीं रहता ह। तब यही ऄज्ञान
ही ऄववद्या कहलाती ह। जब यथाथलभ ज्ञान हो जाता ह। तब ज्ञान ही ऄववद्या-क्षय नार्म से कहा जाता ह। धपर
और छाया की तरह परथपर ववरूि ववद्या और ऄववद्या दोनों र्में से ववद्या का ऄ ाव होने पर ऄववद्या रूपी
वर्मथ्या ककपना प्रकट होती ह। ऄववद्या का ववनाश होने पर ववद्या और ऄववद्या दोनों का ववनाश हो जाता
ह। दोनों का ऄ ाव होने पर एक र्मार ब्रह्म ही शेष रहता ह। ज।से ऄनन्त घड़ों र्में एक ही अकाश ऄन्दर व
बाहर पररपणर लभ ह।, ईसी प्रकार सर्मथत जड़ िेतन वथतरओ ं र्में ऄन्दर व बाहर ब्रह्म ही सदा-सवलभदा पररपणर लभ ह।
ऄववद्या ऄत्यन्त बलवान होती ह। यह वपछले ऄसख्ं य जन्र्मों से िली अ रही ह।, आसवलए यह दृढ़
हो गइ ह। शरीर की ईत्पवत्त और ववनाश र्में ऄन्दर -बाहर सवलभर सर्मथत आवन्ियााँ आस ऄववद्या का ही ऄनर व
करती हैं, ‍योंवक ब्रह्म के थवरूप का यथाथलभ ज्ञान तो वकसी ी आवन्िय का ववषय नहीं ह। र्मन सवहत स ी
आवन्िय का ववनाश हो जाने पर सत्य थवरूप ब्रह्म का यथाथलभ ज्ञान ही वथथत रहता ह। आवन्िय और वृवत्तयों से
ऄतीत होने के कारण ब्रह्म का थवरूप प्रावणयों के प्रत्यक्ष क। से हो सकता ह।? प्राणी तो पदाथों का ऄनर व
र्मन आवन्िय द्रारा ही करते हैं सांसाररक पदाथों के ोग की आच्छा का नाश हो जाने पर ऄववद्या नाश होने

तत्त्वज्ञान 33
लगती ह। संतसंग के द्रारा, शाथरों के ऄथलभ का वववेकपणर लभ वविार करने से तथा योग के ऄभ्यास के द्रारा
आन सब साधनों की एक साथ प्रावप्त होने पर क्रर्मशः धीरे -धीरे ऄववद्या रूपी र्मल का नाश होने लगता ह।
जब तक आस ऄववद्या के ववषय र्में पणर लभ ज्ञान नहीं हो जाता ह।, त ी तक यह ऄनन्त सी प्रतीत होती ह।
ऄववद्या के ववषय र्में पणर लभ रूप से जान वलए जाने पर आसका ऄवथतत्व वर्मट जाता ह।
ऄज्ञानी परू
र ष की ऄज्ञानता से शरीर र्में ही अत्र्म ावना ईत्पन्न हो जाती ह। ऐसे परू र ष को आवन्ियााँ
रोष-पवर लभक शरर बन कर परावजत कर देती हैं र्मगर तत्त्वज्ञानी परूर ष की आवन्ियााँ ज्ञानपवर कलभ एक र्मार र्में
वथथत रहती हैं ईस वनदोष परू र ष की आवन्ियााँ वर्मर बनकर ईसका सहयोग करती हैं और ज्ञानी परू र ष का
क ी पतन नहीं कर सकती हैं कठोपवनषद् र्में वणलभन वकया गया ह।– ‚जो परू ु ष लववेकहीन बलु ि वािा
और चांचि मन से यता ु रहता है, उसकी इलन्ियाूँ असावधान सारथी के दष्ु ट घोों ों की भाूँलत वश में नहीं
रहती हैं, परन्तु जो सदा लववेकयता
ु बलु ि वािा और मन को वश में लकए हुए मन से सम्पन्न रहता है,
उसकी इलन्ियाूँ सावधान सारथी के अच्छे घोों ों की भाूँलत वश में रहती हैं।‛
स ी प्रावणयों र्में ऄववनाशी ब्रह्म रहता ह। परन्तर जीवात्र्मा को आसका पणर लभ रूप से ज्ञान न होने के
कारण ईसर्में दीनता अ जाती ह। ऐसे ऄज्ञानी जीवों के शरीर से श्वााँस आस प्रकार वनकलता ह। ज।से लोहार
की धौंकनी से वायर वनकलती ह। ऄतः ऄज्ञानी का जीवन व्यथलभ ह। ऄज्ञान ही परे शावनयों का अश्रय थथान
ह। कौन-सी अपवत्त ऄज्ञानी को प्राप्त नहीं होती ह।? ऄज्ञानी को दःर ख और क्षवणक सख र बार-बार अते
जाते रहते हैं शरीर, धन, थरी-परर अवद र्में असव‍त रखने वाले ऄज्ञानी के वलए र्माया का प्र ाव क ी
नष्ट नहीं होता ह। ऄज्ञानी परू र ष ससं ार र्में बार-बार जन्र्मता-र्मरता रहता ह। धन की जो ऄव लाषा की
जाती ह।, वह ऄज्ञान ही ह। वासना रूपी जंजीरों से बाँधी हुइ ऄज्ञावनयों की दृढ़ ावना यगर ों-यगर ों के
अवागर्मन के दःर खों से वछन्न-व न्न नहीं होती ह। सख र -दःर ख की परम्परा से यक्त
र ससं ार र्में गोता लगाना
ऄज्ञान रूपी ऄधं कार ही ह। ‚यह शरीर र्मैं नहीं ह‛ाँ , आस प्रकार जब ब्रह्म ावना ईत्पन्न होती ह।, र्मैं
ब्रह्मथवरूप ह,ाँ ऄपने वाथतववक थवरूप का यथाथलभ ज्ञान होने पर ऄज्ञान ववलीन हो जाता ह। सबके ह्रदय र्में
वथथत होते हुए ी ऄज्ञान के कारण ब्रह्म के थवरूप का ज्ञान नहीं होता ह।
ऄज्ञान से ईत्पन्न होने वाली ऄहर्म् ावना ही ऄज्ञान की सत्ता का पणर लभ पररिय देने वाली ह। हे
ऄज्ञानी परू
र षो! र्मोक्ष प्रावप्त के वलए ोगों के त्याग, वववेक-वविार, र्मन और आवन्िय के वन्र ह रूपी
परू
र षाथलभ आन तीनों का ईपयोग करना ह। ऄतः ऄनात्र्म वथतर का त्याग करके शीघ्र अत्र्मा की शरण र्में अ
जाना िावहए ऄज्ञानी परू र ष तो आस संसार र्में वासना रूप ही हैं यह वासना तत्त्व दृवष्ट से वविार करने पर

तत्त्वज्ञान 34
ठहरती नहीं ह। परन्तर कोइ ी आस वासना के ऄसल थवरूप पर वविार नहीं करता ह। आसी कारण यह
संसार ईपवथथत हुअ ह। वित्त का जो बाह्य पदाथों की ओर प्रसरण ह।, वह तो ऄज्ञान यक्त र ऄनर व से ही
वसि ह। जब ववद्या से ईस ऄनर व का बोध हो जाता ह। तब ऄभ्यासी को ऄसत् पदाथलभ का ऄनर व नहीं
होता ह।, बवकक ऄज्ञान से ऄपने ऄंतःकरण र्में ऄहर्म् ाव रूपी ककपना कर ली ह।, जो वाथतव र्में नहीं ह।
ज।से हाथ र्में दीपक लेकर ढरढ़ने वाले को ऄंधकार वदखाइ नहीं देता ह।, ईसी प्रकार वववेकवान परू र ष यवद
देखे तो ईसे ऄज्ञान की ईपलवब्ध नहीं हो सकती ह। सृवष्ट के वल ऄज्ञावनयों के ऄनर व र्में अती ह।,
वाथतव र्में ईसका कोइ ऄवथतत्व नहीं ह। ऄत्यन्त परर्म् शि र ब्रह्म ही हर्मारे सार्मने सृवष्ट रूप र्में ववराजर्मान
ह। वाथतव र्में यहााँ सृवष्ट नार्म की कोइ वथतर नहीं ह। ऐसी ऄवथथा र्में कहााँ से सृवष्ट हुइ, कहााँ से ऄववद्या
अइ, कहााँ से ऄज्ञान अवद की वथथवत ह।? सब शांत िेतन ब्रह्म ही ह।, ‍योंवक यवद पणर लभ रुप से ऄज्ञान के
ववषय र्में जान वलया जाए तो आसका ऄवथतत्व नहीं रह जाता ह।, बवकक वसिलभ िेतन ब्रह्म रह जाता ह।
वजस र्मनष्र य को आस जगत् की पणर लभ सत्यता का वनश्िय ह।, वह ऄत्यन्त र्मढ़र ह। ईस ऄत्यन्त र्मढ़र
र्मनष्र य के प्रवत यवद जगत् की ऄसत्यता के ववषय र्में कहा जाए तो यह ईपदेश शो ा नहीं देता ह।, ‍योंवक
ईस र्मनष्र य के र्मन को ऄच्छा नहीं लगता ह। योग के ऄभ्यास के वबना जगत् की ऄसत्यता का वनराकरण
नहीं हो सकता ह। ऄज्ञानी को वकतने ही प्रयत्न से ‍यों न सर्मझाया जाए, ईसे ऄन्दर -बाहर जो संसार की
सत्यता का ऄनर व हो रहा ह। ईसका वह सत्य ब्रह्म र्में ईसी प्रकार बोध नहीं कर सकता ह।, ज।से र्मरा हुअ
र्मनष्र य ऄपने प।रों से नहीं िल सकता ह। आसवलए ऄज्ञानी र्मनष्र य को ब्रह्म-तत्त्व का ईपदेश देना व्यथलभ ह।,
‍योंवक ईस ऄज्ञानी र्मनष्र य र्में तप और ववद्या अवद के ऄनर व से होने वाले संथकारों का ऄ ाव होने के
कारण ईसर्में सदा देहात्र्म ाव का ही ऄनर व वकया ह। ईसे क ी ऄसंसारी अत्र्म- ाव ऄनर व नहीं
हुअ हर्मारा कहने का तात्पयलभ यह ह। वक जो न ऄत्यन्त ऄज्ञानी हो और न ही पणर लभ ज्ञानी हो, वही वजज्ञासर
ब्रह्म तत्त्व के ईपदेश का ऄवधकारी ह।
असव‍त और र्मर्मता ही ससं ार र्में स ी प्रावणयों के र्मोह और जन्र्म-र्मृत्यर का कारण ह। जीवात्र्मा
असव‍त और र्मर्मता से यक्त र ह।, वह ससं ार रूपी सागर र्में डरबा हुअ ह। परन्तर जो र्मर्मता और असव‍त से
र्म‍र त हो गया ह।, वह र्मनष्र य ससं ार से पार हो गया ह। वजस र्मनष्र य का वित्त ववषयों की असव‍त से रवहत
व वनर्मलभल ह।, वह संसार र्में रहते हुए वनःसंदहे र्म‍र त ह। वजसका वित्त ववषयों की असव‍त से यक्त र ह।, वह
आच्छाओ ं के कारण सदृर ढ़ बन्धन से बाँधा हुअ ह। असव‍त और र्मर्मता से रवहत हुअ परू र ष जीवन यारा
के वलए न्याय यक्त र कर्मलभ करता हुअ ी कतृलभत्व से वलप्त नहीं होता ह। वह बाहर से करछ ी कायलभ करे

तत्त्वज्ञान 35
ऄथवा न करे , वकसी ी दशा र्में कतालभ व ो‍ता नहीं ह। पवर लभजन्र्म र्में असव‍त और र्मर्मता के द्रारा वकए
गऐ कर्मों के िल के कारण ही वतलभर्मान जन्र्म र्में सख र -दःर ख की प्रावप्त होती ह। तथा शव‍तहीन दशा को
प्राप्त हुए र्मनष्र य िलने-विरने की शव‍त से शन्र य बारम्बार र्मरते रहते हैं असव‍त दो प्रकार की होती ह।
एक–ससं ारी परू र षों की असव‍त, दूसरी– तत्त्वज्ञानी की असव‍त ससं ारी परू र षों की असव‍त तत्त्वज्ञान
से शन्र य, शरीर अवद ऄसत्य वथतओ र ं से और बारम्बार संसार से सदृर ढ़ रूप र्में वथथत रहती ह। आस
असव‍त के वशी तर होने से र्मन ववषय ोगों र्में व्यथलभ ही रर्मणीकता की ककपना करके ईन पर टरट पड़ता
ह। आसी असव‍त से यक्त र होकर देवता थवगलभ र्में, ऄसरर वनम्न लोकों र्में, र्मनष्र य ल र ोक र्में वथथत हैं स ी
ऄसख्ं य प्राणी असव‍त के कारण ही बारम्बार ईत्पन्न होकर नष्ट हो रहे हैं दसर रे प्रकार की असव‍त
तत्त्वज्ञावनयों की होती ह। आस असव‍त के कारण ही तत्त्वज्ञानी परू र ष ऄपने थवरूप र्में वथथत ह। यह
असव‍त अत्र्म तत्त्व के ज्ञान द्रारा वववेक से ईत्पन्न होती ह। और यह पनर जलभन्र्म से रवहत ह।
आस संसार र्में असव‍त पणर लभ र्मन से व्यवहार करने वाले र्मनष्र य सद।व दःर ख की ऄनर वर त करते रहते हैं
र्मार करछ सर्मय के वलए सख र की ऄनर वर त हुइ ी तो वह ऄन्त र्में दःर ख रूप र्में ही पररववतलभत हो जाती ह।
ऐसा राग पणर लभ आच्छाओ ं के कारण होता ह। ल र ोक पर जो दःर ख सर्महर वदखाइ दे रहा ह।, ईस सब की
ककपना ववषयासक्त वित्त वाले र्मनष्र यों के वलए हुइ ह। आसवलए सारे दःर ख ववषयासक्त वित्त वाले र्मनष्र यों
को अ घेरतें हैं जो र्मन असव‍त से शन्र य, स ी प्रकार से शांत, वनर्मलभल रूप से वथथत ह।, ईस साधक के
वलए सख र का हेतर होता ह। सवलभर दृश्य पदाथों र्में ऄनासक्त-सा होकर, दृश्य जगत् के अश्रय तर ब्रह्म र्में
वथथत होकर, ब्रह्म रस से यक्त र र्मन वाला वथथत होकर रहना िावहए ब्रह्म र्में वथथत हुअ जीवात्र्मा सम्पणर लभ
असव‍तयों से रवहत होकर ब्रह्म- ाव को प्राप्त हो जाता ह।, विर वह संसार र्में व्यवहार करे ऄथवा न करे ,
‍योंवक ईसके वलए कोइ कतलभव्य शेष नहीं रह जाता ह। वजस प्रकार बादलों का अकाश के साथ कोइ
सम्पकलभ नहीं रहता ह।, ईसी तरह ब्रह्म र्में वथथत हुअ जीवात्र्मा वक्रयाओ ं को करता हुअ ऄथवा न करता
हुअ वक्रयाजवनत िलों से वबककरल सम्बि नहीं होता ह। परू र ष को िावहए वक संसार के सम्बन्ध का ी
पररत्याग करके परर्म् शांत होकर ब्रह्म र्में वथथत रहे वजसने ऄपने थवरूप रूप र्में परर्म् ववश्रार्म को प्राप्त कर
वलया ह। वह र्मोक्ष को प्राप्त हो गया ह।
वजस प्रकार थवप्नावथथा र्में सं्र ह की गइ सम्पवत्तयों के नष्ट हो जाने पर या न होने पर ईससे ईत्पन्न
सख
र -दःर ख से संसारी परू
र ष वलप्त नहीं होता ह।, ईसी प्रकार तत्त्वज्ञानी परू
र ष असव‍त रवहत र्मन से कर्मलभ
करता हुअ ी ईससे ईत्पन्न सख र -दःर ख से वलप्त नहीं होता ह। तथा असव‍त रवहत र्मन वाला तत्त्वज्ञानी

तत्त्वज्ञान 36
अाँखों से देखता हुअ ी ईसका वित्त ब्रह्म र्में वथथत होने के कारण करछ नहीं देखता ह। वजसका वित्त
ब्रह्म र्में तत्परता से लगा रहता ह।, वह ववषय पदाथों को क। से देखेगा? असव‍त रवहत र्मन वाला तत्त्वज्ञानी
परूर ष सनर ता हुअ ी नहीं सनर ता ह।, थपशलभ करता हुअ ी थपशलभ नहीं करता ह।, साँघर ता हुअ ी नहीं साँघर ता
ह।, नेरों को बन्द करता हुअ व खोलता हुअ ी वह नेरों को न बन्द करता ह। और न ही नेरों को खोलता
ह। असव‍त ही संसार का कारण ह।, असव‍त ही वासनाओ ं की जड़ ह।, असव‍त ही सर्मथत वृवत्तयों की
र्मलर ह।, असव‍त के ही त्याग को र्मोक्ष कहते हैं असव‍त के त्याग से र्मनष्र य को जन्र्म-र्मृत्यर के िक्र से
छरटकारा वर्मल जाता ह।
ऄनक र र ल और प्रवतकरल पदाथों की ईत्पवत्त तथा ववनाश र्में जो हषलभ और ववषाद रूपी जो ववकार
प्रकट करने वाली वासना ह।, ईसी का नार्म संग (असव‍तद ह। जीवन्र्मक्त र तत्त्वज्ञावनयों के पनर जलभन्र्म का नाश
करने वाली हषलभ और वववाद से रवहत शि र वासना ही असव‍त रवहत जो वित्त वृवत्त रहती ह।, वह नर े हुए
बीज के सर्मान अकृ वत र्मार ही ह। शि र वासना का दसर रा नार्म ऄसंग (असव‍त का ऄ ावद ह। यह शि र
वासना तब तक रहती ह। जब तक प्रारब्ध ोग संथकार रूपी थथल र शरीर रहता ह। आस शि र वासना से जो
करछ वकया जाता ह।, वह संसार र्में पनर ः जन्र्म-र्मरण रूपी बन्धन का कारण नहीं होता ह। जो परू र ष तत्त्वज्ञानी
नहीं ह। ऄथालभत् संसारी र्मनष्र य र्में वासना हषलभ और ववषाद से यक्त र रहती ह। यह वासना जन्र्म-र्मरण रूपी
बन्धन देने वाली होती ह। आसी बन्धन कारक वासना का दसर रा नार्म संग ह।, यह पनर जलभन्र्म का कारण होती
ह। जो दःर खों से घबराता नहीं ह।, सख र ों र्में हवषलभत नहीं होता ह। और स ी अशाओ ं से रवहत ह।, वह ऄसंग
ही (असव‍त से रवहतद ह।
तृष्णा हजारों करवटलताओ ं से री होती ह। ववषय ोग सख र ईसका थव ाव ह। ववषर्मता रूपी सख र
से सदा यक्त
र रहती ह। तृष्णा का जरा-सा ी थपशलभ होने पर र्मनष्र य को परर ी तरह से ऄपने प्र ाव र्में ले लेती
ह।, विर वह दगर लभवत को प्राप्त हो जाता ह। वह परूर षों के ह्रदय का ेदन करने वाली तथा र्मायारूपी जगत्
को रिने वाली ह।, दर ालभ‍य प्रदान करने वाली तथा दीनता की र्मवर तलभ ह। वह र्मनष्र य के ह्रदय को ऄत्यन्त
र्मवलन, पररणार्म र्में घोर दःर ख देने वाली, वासना रूपी ऄनन्त आच्छाओ ं से यक्त
र तथा ववषयों र्में गहरा प्रेर्म
करने वाली ह। यह व्यथलभ र्में ववथतार को प्राप्त होने वाली ऄर्मंगलकारी तथा क्ररर होती ह। यह र्मनष्र य को
क ी सख र देने वाली नहीं होती ह। यह र्मोह के अवरण से थिरररत होती ह। वववेक रूपी प्रकाश प्रकट हो
जाने पर शांत होने लगती ह। तथा वववेकी और ववर‍त परू र षों को छोड़कर ववषयासक्त परू र ष के पास िली
जाती ह। संसार र्में वजतने ी दोष हैं, ईनर्मे एक र्मार तृष्णा ही ऐसी ह। जो दीघलभ काल तक दःर ख देती रहती

तत्त्वज्ञान 37
ह। यह र्मनष्र य को ीषण संकट र्में डाल देती ह। तथा ज्ञान के प्रकाश को ढक देती ह। सांसाररक व्यावहारों
र्में िाँ से र्मनष्र यों को बााँधने के वलए तृष्णा एक र्मजबतर रथसी ह।, आसी ने सबके र्मन को बााँध रखा ह। यह
वववेक के प्रकाश को पाकर वनर्मलभल हो जाती ह।, वववेक न होने पर ऄज्ञान से र्मवलन रहती ह। तथा र्मोह से
अवृत्त हो जाती ह। र्मनष्र य ववषयों के विन्तन को त्याग देने से दःर ख को दरर कर सकते हैं ववषय विंतन
त्याग ही आसके वनवारण का ईपाय ह। तृष्णा ऄन्दर से खोखली, कपट से यक्त र , दःर ख रूपी कााँटों से
पररपणर लभ, धन सम्पवत्त र्में ऄवधक प्रेर्म रखने वाली ह। तत्त्वज्ञानी परू
र ष वववेक रूपी तलवार से आस तृष्णा को
काट डालते हैं र्मनष्र यों के ह्रदय र्में रहने वाली तृष्णा तलवार की धार से ी ज्यादा प।नी ह।
थथल र शरीर हड्डी, रक्त, र्मासं अवद से बना हुअ अाँतो, र्मल-र्मरर अवद से यक्त र ह। आसर्मे नावड़यों
का जाल वबछा हुअ ह।, नाना प्रकार के ववकारों से यक्त र , ऄन्त र्में र्मृत्यर को प्राप्त हो जाता ह। आसके द्रारा
र्मनष्र य सांसाररक थथल र पदाथों को ोग करता हुअ सख र -दःर ख का ऄनर व प्राप्त करता ह। थोड़े से खान-
पान के द्रारा अनवन्दत होने लगता ह।, थोड़ी सी शीत व धपर से दःर खी हो जाता ह। आस शरीर के सर्मान
गणर हीन और शोिनीय दसर रा कोइ नहीं ह। यह त ी तक वक्रयाशील ऄथवा जीववत रहता ह।, जब तक
ह्रदय र्में प्राण वायर का थपन्दन होता ह। प्राण वायर का थपन्दन रुकने पर र्मृत्यर को प्राप्त हो जाता ह। आस
थथल र शरीर का सम्बन्ध थथल र जगत् व थथल र पदाथों से रहता ह। यह ऄसर्मथलभ, दीन, क्षण ंगरर तथा प्रारब्ध
अवद के ऄधीन ह। यह थथल र शरीर अ ास र्मार ही ह। ऄज्ञान के कारण यह ावसत होता ह।, आसवलए
आसे सत् कहते हैं वाथतव र्में यह नहीं ह।, आसवलए यह ऄसत् कहा गया ह। ज।से थवप्न काल र्में थववप्नक
पदाथलभ सत् से प्रतीत होते हैं, र्मगर जब थवप्न के बाद जा्र त ऄवथथा र्में अते हैं तो थवप्न र्में वदखाइ देने
वाले पदाथलभ ऄसत् र्मालर्मर पड़ते हैं, ‍योंवक थवप्न काल के पदाथलभ का जा्र त ऄवथथा र्में ऄत्यन्त ऄ ाव
हो जाता ह। आसी प्रकार शरीर की प्रतीवत होने पर सत्य-सा वदखाइ देता ह। र्मगर तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर
‚यह शरीर ऄसत्य ह।‛, ऐसी ऄनर वर त होने लगती ह।, ‍योंवक तत्त्वज्ञान के सर्मय आस शरीर का ऄत्यन्त
ऄ ाव हो जाता ह। आसवलए यह शरीर अवद जो के वल अ ास रूप ह।, ज्ञान काल र्में ही प्रतीत होते हैं
शारीररक और र्मानवसक व्यावधयों से वनरन्तर दःर खी आस थथल र शरीर र्में वकसी प्रकार की वथथरता
नहीं रहती ह। यवद पत्थर की र्मवर तलभ की ली- ााँवत रक्षा की जाए तो वह बहुत साल तक व।सी ही सन्र दर
बनी रहती ह। थथल र शरीर तो ऄनेक प्रकार से रक्षा करने के बाद ी शीघ्र ही नष्ट हो जाता ह।
थवप्नावथथा का शरीर संककप से ईत्पन्न होने के कारण लम्बी ऄववध तक सख र -दःर ख से अक्रान्त नहीं
रहता ह।, र्मगर थथल
र दीघलभकाल के संककप से ईत्पन्न होने के कारण दीघलभकाल के दःर खों से अक्रान्त रहता

तत्त्वज्ञान 38
ह। आस थथलर शरीर का संककपर्मय होने के कारण आसका ऄवथतत्व ही नहीं ह। तथा अत्र्मा के साथ आसका
कोइ सम्बन्ध ी नहीं ह। विर ी थथल र शरीर के वलए यह ऄज्ञानी जीव ‍लेश की ऄनर वर त करता रहता
ह। आसका एक र्मार कारण ऄज्ञान ही ह। वजस प्रकार थवप्नावथथा र्में ईत्पन्न शरीर अवद पदाथों का
ववनाश हो जाने पर अत्र्मा की करछ ी हावन नहीं होती ह।, ईसी प्रकार एक र्मार संककप से ईत्पन्न
ववनाशशील आस शरीर रूपी यन्र का ववनाश हो जाने पर अत्र्मा की करछ ी हावन नहीं होती ह। ऄतः
थथलर शरीर के वलए शोक करना र्मख
र लभता ऄथवा ऄज्ञानता के वसवाय करछ ी नहीं ह।
शरीर रूपी गाड़ी खींिने के वलए इश्वर ने र्मन शव‍त व प्राण शव‍त रूपी दो ब।ल बनाए हुए हैं आसी
प्राण शव‍त व र्मनशव‍त से थथल र शरीर जीववत तथा वक्रयाशील रहता ह। जीव जीवन धारण करता ह। और
ऄज्ञान के कारण जीव को शारीररक व र्मानवसक कष्टों का ोग करना पड़ता ह। सवलभशव‍त र्मान होने पर
ी वही िेतन जीवात्र्मा ऄज्ञान के कारण- ‚र्मैं िेतन नहीं ह‛ाँ , आस ावना से आस देह र्में परवशता प्राप्त
करता ह। और ऄपने थवरूप के ज्ञान से रवहत हो जाता ह। जब तक शरीर का ह्रदय रूपी यन्र िलता रहता
ह। तब तक जीव ऄपने संककप वश प्रकृ वत के ऄधीन हुअ कर्मलभ करता रहता ह। ह्रदय रूपी यन्र रुक जाने
पर तथा आसके शांत हो जाने पर यह थथल र शरीर र्मृत्यर को प्राप्त हो जाता ह। परन्तर योग के ऄभ्यास से
वित्त की जो सर्मता होती ह।, यही ऄवथथा ऄच्छी-बरर ी दशाओ ं द्रारा प्राप्त दःर ख से रवहत होना ह।
तत्त्वज्ञानी परू
र ष तो जब तक प्राप्त हुए ऄवन्तर्म शरीर की र्मृत्यर नहीं हो जाती ह। तब तक बवर ि अवद की
सर्मता हाथ-प।र अवद के संिालन से इश्वरीय ववधान के ऄनसर ार सर्मय वबताते रहते हैं
ऄहक ं ार के साथ कतालभपन अ जाता ह। ऄच्छे कर्मलभ करने का ऄहक ं ार होता ह। बरर े कर्मलभ करने का ी
ऄहक ं ार होता ह। ‚र्मैं तो करछ नहीं करता ह,ाँ सब गवान् करता ह।‛, यह ऄहक ं ार ही तो ह। ऄपने िेतन्य
थवरूप का बोध नहीं ह।, आसवलए यह सब ऄपने र्में अरोवपत कर लेता ह। ऄहक ं ार के वशी तर र्मनष्र य राग-
द्रेष अवद दोषों र्में बने रहते ह। ऄहक ं ार रूपी दोष के कारण ससं ार रूपी रात र्में जीव को र्मोवहत करने
वाली र्माया जाल वबछाए हुए ईपवथथत रहती ह। ऄहक ं ार के द्रारा ही शावं त का ववनाश हो जाता ह। तथा
यह पण्र य व सर्मदवशलभता का बहुत बड़ा दश र र्मन ह। जब तक ऄतं ःकरण र्में ऄहक ं ार रूपी बादल अच्छावदत
ह।, तब तक यथाथलभ ज्ञान का ववकास नहीं हो सकता ह। ऐसी ऄवथथा र्में तृष्णा रूपी लता का ववकास होता
रहता ह। यह ऄहक ं ार दवर षत ऄतःकरण र्में र्मनष्र य को संसार बन्धन र्में डालने वाला व र्मोह को जन्र्म देता
ह। ‚र्मैं देह ह‛ाँ , आस प्रबल र्मोह से बढकर ऄज्ञान आस संसार र्में नहीं होगा आस ऄहक ं ार रूपी वृक्ष को
वववेकरूपी वविार से ईखाड़ कर िें क देना िावहए िेतन अत्र्मा दपलभण के सर्मान शि र ह। आस संसार र्में

तत्त्वज्ञान 39
ऄनरर ाग से र्मेरा ‍या प्रयोजन ह।, ऐसा र्मन र्में वविार करना िावहए र्मैं ि।तन्यर्मय ब्रह्म ह,ाँ र्मेरे वसवाय दसर रा
करछ ी नहीं ह।, ऐसा ऄहक ं ार जीवन्र्मक्त
र परू
र ष को र्मोक्ष प्राप्त करने के वलए बन्धन र्में नहीं डालता ह। ‚र्मैं
थथलर शरीर ह‛ाँ , आस प्रकार का जो ऄव र्मान ह। वह लौवकक एवं तच्र छ ह। आस ऄहक ं ार को त्याग देना
िावहए ऐसा ऄहक ं ार र्मनष्र य का सबसे बड़ा शरर ह। यही दःर ख देने वाला ी ह। ‚र्मैं देह नहीं ह‛ाँ , ऐसा
वविार करने से स ी प्रवतबन्धकों के नाश होने से तत्त्वज्ञान से यक्त र होकर परू र ष र्मोक्ष को प्राप्त कर लेता
ह।
ऄहक ं ार दो प्रकार का होता ह। एक– सावत्वक ऄहक ं ार, दूसरा– तार्मवसक ऄहक ं ार सावत्वक
ऄहक ं ार की दृवष्टयााँ ऄत्यन्त वनर्मलभल हैं आस सावत्वक ऄहक ं ार से तत्त्वज्ञान की ईत्पवत्त होती ह। र्मैं सबसे
परे सक्ष्र र्म से ी सक्ष्र र्मतर और ववनाशशील पदाथों से ऄतीत हाँ यह ऄहक ं ार की पहली दृवष्ट ह। तथा जो
करछ हाँ वह सब र्मैं ही ह,ाँ यह ी सावत्वक ऄहक ं ार की ही दृवष्ट ह। सांख्य योग के ऄभ्यासी के ऄहक ं ार
की दृवष्ट सद।व यही होती ह।- ‚र्मैं जड़ प्रकृ वत से परे ि।तन्य थवरूप ब्रह्म ह‛ाँ ऄथालभत् र्मैं सबसे परे सक्ष्र र्म से ी
सक्ष्र र्मतर हाँ व‍त योग के ऄभ्यासी के ऄहक ं ार की दृवष्ट सद।व यही रहती ह। वक यह सर्मथत संसार इश्वर
का ही थवरूप ह। र्मैं इश्वर का ऄंश हाँ ऄथालभत् र्मझर र्में तथा ऄन्य प्रावणयों र्में कोइ िकलभ नहीं ह। हर्म स ी
जीव तर रूप से एक ही हैं ये दोनों प्रकार की दृवष्ट जीवन्र्मक्त र परू
र षों की होती ह। र्मगर जो तर्मोगणर ी
ऄहक ं ार ह। ईसकी दृवष्ट यह होती ह।- ‚र्मैं देह ह,ाँ यह थथल र संसार र्मेरा ह।, आसके ोग पदाथलभ र्मेरे हैं‛ आसी
दृवष्ट के कारण यह ऄहक ं ार दःर ख थवरूप, र्मोह, तृष्णा, राग-द्रेष व ऄज्ञान से यक्तर होता ह। आसी तर्मोगणर ी
ऄहक ं ार का ऄभ्यास के द्रारा त्याग करने का प्रयास करना िावहए
योग के ऄभ्यास से सासं ाररक ववषय ावना का त्याग कर विर ब्रह्म की सत्ता का ऄनर व करने से
ऄहक ं ार का ववनाश हो जाता ह। जब तक सम्पणर लभ पदाथों का त्याग नहीं वकया जाता ह। तब तक यह
ऄहं कार बना रहता ह। जब ऄभ्यासी वववेकपणर लभ वविार से सबका पररत्याग करके वनश्िल होकर वथथत हो
जाता ह। तब ऄहक ं ार का ऄ ाव हो जाने पर ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत हो जाता ह। ऄथालभत् ब्रह्म को प्राप्त
हो जाता ह। सर्मथत ऐश्वयलभ का त्याग कर देने पर तथा य से रवहत हो जाने पर, सर्मथत धन अवद
आच्छाओ ं का त्याग हो जाने पर, शरओ र ं के वलए ी वर्मर ाव अ जाने पर, ऄहर्म् से वनवृत्त हुअ जा
सकता ह। आस वित्त रूपी वृक्ष के बीज ऄहक ं ार का त्याग असानी से नहीं वकया जा सकता ह।, ‍योंवक
बार-बार त्याग करने पर ी आसका त्याग नहीं वकया जा सकता ह। और आसका त्याग न हो पाने का कारण
हैं– ‚र्मैं देह ह‛ाँ , यह जो ऄव र्मान रूपी दोष ह।, यह शरीर अवद का ज्ञान ही ह। यह थरी, परर , धन अवद

तत्त्वज्ञान 40
सब र्मेरे हैं, आस प्रकार की ऄहतं ा र्मर्मता का सवलभथा ऄ ाव होने पर ककयाण थवरूप, शांत व बोध थवरूप
ब्रह्म र्में वथथवत हो जाती ह। ब्रह्म के यथाथलभ ज्ञान के द्रारा ऄहक ं ार का क्षय हो जाने पर र्मर्मता का अधार
तर सारा संसार ही नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह। ऄहक ं ार की ावना करने वाला जीवात्र्मा ऄहर्म् का
त्याग कर देने र्मार से वबना वकसी के ववघ्न बाधा के शांत थवरूप हो जाता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर
ऄहक ं ार अवद के साथ सम्पणर लभ जगत् शांत हो जाता ह।, तब तेल सर्माप्त होने पर बझर े हुए दीपक की ााँवत
सम्पणर लभ जगत् का त्याग वसि होता ह। ऄन्यथा नहीं होता ह। कर्मों का त्याग, त्याग नहीं कहा जाता ह। जहााँ
जगत् का र्मान ही नहीं ह।, एक र्मार ववशि र अत्र्मा ही ऄववनाशी ह।, आस प्रकार का ज्ञान ही वाथतववक
त्याग कहा जाता ह।
ऄहक ं ार के ईन्र्मल
र न हो जाने पर संसार की जड़ता ऄपने अप ईखड़ जाती ह। वजस प्रकार र्माँहर के
ाप से दपलभण र्मवलन हो जाता ह। तथा ाप के वर्मट जाने से दपलभण पनर ः थवच्छ हो जाता ह।, आसी प्रकार
ऄहक ं ार रूपी र्मल से अत्र्मा रुपी दपलभण र्मवलन-सा हो जाता ह।, वकंतर ऄहक ं ार के शांत होते ही वित्त
थवच्छ रूप से प्रकावशत होने लगता ह। ऄभ्यासी का ऄहर्म् ाव िेतन अत्र्मा र्में ववलीन हो जाता ह। तब
ईसका कोइ नार्म रूप नहीं रह जाता ह। ऐसी ऄवथथा र्में कोइ कहे– ‚र्मैं ववशि र ि।तन्य थवरूप ह‛ाँ , तो आसे
द्र।त भ्रर्म नहीं कहा जा सकता ह। यह परर्माथलभ थव ाव छोड़कर ओर करछ ी नहीं ह। जो र्मनष्र य ऄज्ञान द्रारा
ही र्मोक्ष की खोज करता ह। वह पागलों के सर्मान िेष्टा करता ह। ऄहर्म् ावना ही ऄज्ञान रुपी सत्ता ह।
तत्त्वज्ञानी परुर ष सद।व शांत रहता ह।, ईसर्मे र्मर्मता व ऄहर्म् ावना ही नहीं होती ह। ऄहर्म् ावना का
त्यागकर अकाश के सर्मान वनर्मलभल हुअ तत्त्वज्ञानी परू र ष सद।व के वलए ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो
जाता ह।
अवद काल र्में सृवष्ट के अरम् र्में ब्रह्मा से जब र्मन रूपी तत्त्व ईत्पन्न हुअ त ी ईस र्मन के सकं कप
के ऄनसर ार जीवों का कर्मलभ ी ईत्पन्न हुअ र्मन से ही कर्मलभ की ईत्पवत्त हुइ ह। आसवलए बीज और वृक्ष की
ााँवत कारण और कायलभ रूपी र्मन और कर्मलभ परथपर ऄव न्न हैं आस ससं ार र्में वक्रया का होना कर्मलभ बताया
गया ह। आस वक्रया का अश्रय तर शरीर ी पहले र्मन ही था ऄथालभत् यह शरीर ी र्मन का सक ं कप होने के
कारण र्मनोरूप ही ह। आसी प्रकार वक्रया ी र्मन का संककप होने के कारण र्मन का ही थवरूप ह। ऐसा कोइ
लोक नहीं ह।, जहााँ वकए गये कर्मों का िल प्राप्त नहीं होता ह। ज्ञान पवर लभक वकया गया कर्मलभ, िाहे पवर लभ जन्र्म
का हो ऄथवा आसी जन्र्म का, वह वक्रया रूप परू र षाथलभ ही परू
र ष का परर्म् प्रयत्न ह। वह क ी वनष्िल नहीं

तत्त्वज्ञान 41
होता ह। जो तत्त्वज्ञानी नहीं ह। ईनके र्मन और कर्मलभ का नाश वबककरल नहीं होता ह। आन दोनों र्में एक का
ऄ ाव होने पर दोनों का ऄ ाव हो जाता ह।
ब्रह्म शव‍त से ईत्पन्न जो सक ं कपर्मय रूप ह।, ईसे र्मन कहा गया ह। र्मन थवयं ी सक ं कप शव‍त के
सार्मथ्यलभ से यक्त
र ह। ज।से गणर ी का गणर से हीन होना सम् व नहीं ह।, ईसी प्रकार र्मन का ककपनात्र्मक वक्रया
शव‍त से रवहत होना ऄसम् व ह। एक र्मार सक ं कप ही वजसका शरीर ह।, जो नाना प्रकार के ववथतार से
यक्त
र होने वाला तथा िल का जनक ह।, ईस वित्तरूपी कर्मलभ ने ऄपने ही थवरूप से आस नाना ववध ववश्व
का, जो र्माया य और वासना की ककपनाओ ं से व्याप्त ह।, ववथतार कर रखा ह। र्मन वजसका ऄनसर धं ान
करता ह। ईसी का सम्पणर लभ कर्मेवन्िय वृवत्तयााँ सम्पादन करती हैं, आसवलए र्मन को कर्मलभ कहा गया ह। वित्त,
ऄहक ं ार, र्मन, कर्मलभ, वासना, ऄववद्या, प्रकृ वत, र्माया अवद संसार भ्रर्म की ही हेतर हैं वित्त ाव को प्राप्त
हुअ संसार पदवी को पहुिाँ ा शि र िेतन ऄपने ही स।कड़ों संककपों द्रारा व न्न-व न्न नार्म को प्राप्त हुअ
ह। शि र िेतन ब्रह्म ही संसार र्में जीव कहलाता ह।
दृढ़ ावना से यक्त र र्मन ने ही प्रकाश थवरूप अत्र्मा पर अवरण डालने वाले जगत् को थवीकार
वकया ह। अकाश, नगर, पेड़-पौधे, शरीर अवद ववववध प्रकार का रूप धारण करने वाली ववविर अकृ वत
के द्रारा र्मन ही ऄपने थवरूप का ववथतार कर रहा ह। सम्पणर लभ ववथतृत जगत् र्मन से ही व्याप्त ह। र्मन से
व न्न तो के वल ब्रह्म ही शेष रहता ह। ब्रह्म की शव‍त से ही र्मन सम्पणर लभ ससं ार र्में दौड़ लगाता ह। र्मन के
ववलय होने र्मार से र्मोक्ष की प्रावप्त हो जाती ह। भ्रर्म ईत्पन्न करने वाली र्मन नार्म की वक्रया का क्षय होने
पर जीव र्म‍र त कहा जाता ह। विर वह आस ससं ार र्में जन्र्म ्र हण नहीं करता ह। आसवलए र्मनष्र य को िावहए
वक र्मन को रोजाना प्रयत्नपवर लभक ऄपनी र्मवर ‍त के वलए ब्रह्म र्में लगाए, ‍योंवक ब्रह्म र्में लगाया हुअ र्मन
वासना रवहत एवं शि र हो जाता ह। तत्पश्चात वह ककपना शन्र य होकर ब्रह्म ाव को प्राप्त हो जाता ह। ब्रह्म
का विन्तन करने से ऄभ्यास वश शातं हुअ र्मन विर शोक नहीं करता ह। र्मन के द्रारा ही नाना प्रकार के
दःर ख बढ़ते हैं र्मन को वश र्में कर लेने से ज्ञान का ईदय होने के कारण वे सारे दःर ख ईसी तरह नष्ट हो जाते
हैं ज।से सयर लभ के सार्मने बिलभ का ढेर गल जाता ह। योग के ऄभ्यास के द्रारा वनरोध ऄवथथा का अश्रय ले
परर्म् शावं त को प्राप्त हुअ, जन्र्म रवहत जीवन्र्मक्त
र परू र ष बड़ी-से-बड़ी अपवत्तयों के अने पर ी क ी
शोक नहीं करता ह।
वजस ऄभ्यासी को तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया ह।, ईसकी दृवष्ट र्में ईसका र्मन ी ब्रह्म थवरूप ही ह।
ऄज्ञानी परू
र षों का र्मन ही संसार भ्रर्म का कारण ह।, जो जन्र्म-र्मरण हेतर संसार र्में टकने का हेतर ह। र्मन के

तत्त्वज्ञान 42
द्रारा ही जो र्महान अरम् हुअ ह। ऄथालभत् सृवष्ट हुइ ह।, वही संसार रूप से देखा जाता ह। र्मन की
कारण तर अद्याशव‍त रूप विन्र्मय परर्मात्र्मा का क ी नाश नहीं होता ह। आष्ट वथतर र्में राग और ऄवनष्ट
वथतर र्में द्रेष के कारण बन्धन र्में डालने वाली र्मन की ही शव‍त ह। आसी के द्रारा व्यथलभ भ्रर्म से थवप्न की
ााँवत आस संसार की ककपना हुइ ह। ज्ञान के वबना आसका ऄन्त नहीं होता ह। र्मन का नाश ही परर्म् परू र षाथलभ
की प्रावप्त ह। और यही सर्मथत दःर खों के सर्मल र का ईपाय ह। वववेकहीन र्मन ही बड़ी-बड़ी ववपवत्तयों का
एक र्मार कारण ह।
र्मन की वासना ही जीव के वलए एक र्मार र्मोह का कारण ह। आसवलए यत्नपवर लभक ईसकी जड़ को
काट कर ईखाड़ िैं कना िावहए र्मनष्र य का र्मन वासना रूपी जाल से अकृ ष्ट होकर बड़ी वववशता को
प्रापत् हो जाता ह। जीव की वजस वविार से ज्ञेय पदाथलभ सम्बन्धी वासना कट जाती ह।, ईसका प्रकाश
अवरण से रवहत हो प्रकावशत हो जाता ह। र्मन ने जो कर वदया ईसी को वकया हुअ सर्मझो र्मन वजसे
छोड़ दे ईसे छोड़ा हुअ सर्मझो र्मन ही जगत् ह।, वजसका र्मन र्मोह को प्राप्त हो जाता ह।, वही र्मढ़र
कहलाता ह। र्मन जब देखता ह। तो नेरेवन्िय बन जाता ह। और र्मन जब सनर ता ह। तब कणेंविय बन जाता ह।
संघर ने से र्मन घ्राणेवन्िय बन जाता ह। तथा रस का थवाद लेने से रसनेवन्िय बन जाता ह। थपशलभ का ऄनर व
करने से त्विाआवन्िय बन जाता ह। र्मन ही शरर को वर्मर बना लेता ह। और वर्मर को शरर बना लेता ह। र्मन ने
ऄपने र्में ही आवन्िय का वनर्मालभण कर रखा ह। आवन्ियों से र्मन साकार होता ह। तथा र्मन से आवन्ियााँ साकार
होती हैं आस प्रकार दोनों एक सर्मान ज।से हैं र्मगर आनर्में र्मन ही ईत्कृ ष्ट ह।, ‍योंवक र्मन से आवन्ियााँ ईत्पन्न
हुइ हैं आवन्ियों से र्मन ईत्पन्न नहीं हुअ ह। र्मन जब कहीं अस‍त होता ह। ऄथालभत् वकसी दसर रे कार्म से
ईलझा रहता ह।, ऄगर ईस सर्मय ईससे कोइ बात कही जाए तो वह सनर नहीं पाता ह। थवप्न र्में जब र्मन
प्रसन्न होता ह। तब ह्रदय के ऄन्दर वनवर्मलभत हुए नगर, नवदयााँ, पवलभत अवद ऄपने-ऄपने कायलभ को करने र्में
सर्मथलभ वदखाइ देते हैं ईसी प्रकार वित्त के ऄन्दर र्मन से ही थवप्न के सर्मान नगर, नवदयााँ, पवलभत अवद प्रकट
होते हैं ज।से-पत्ते, लता, िरल और िल की शो ा ऄंकरर का ही थवरूप हैं, ईससे व न्न नहीं हैं आसी प्रकार
जगत् और थवप्न की ववलास- वर र्मयााँ र्मन का ही ववकास ह।, र्मन से व न्न नहीं हैं
वासना पर अरूढ़ हुअ र्मन ववषयों के र्मनन से ऄवतशय र्मोह को प्राप्त हो ऄपने सक ं कप के
ऄनसर ार ववव न्न प्रकार की योवनयों र्में सख र -दःर ख, य-ऄ य को प्राप्त होता ह। आसी र्मन के ऄन्दर सख

और दःर ख रहते हैं वे ही देश और काल का प्र ाव पड़ने पर क ी घन तर हो जाते हैं तथा क ी ऄत्यन्त
सक्ष्र र्म हो जाते हैं र्मनोर्मय शरीर के संककप के सिल होने पर ही थथल
र शरीर शांत एवं ईकलास को प्राप्त

तत्त्वज्ञान 43
होता ह। र्मन आस देह के ऄन्दर ऄपने संककपों द्रारा कवकपत ऄनेक प्रकार के बढ़े हुए ईकलास जनक ावों
से क्रीड़ा करता ह। जो र्मनष्र य ऄपने ऄन्त:करण र्में र्मन को िंिलता के वलए ऄवधक ऄवसर नहीं देता ह।,
ईसका र्मन वथथर होकर लय को प्राप्त हो जाता ह। आस संसार र्में कहीं ी िंिलता से रवहत र्मन नहीं देखा
गया ह। जो र्मन िंिलता से रवहत ह। वह वसिान्त तर र्मोक्ष कहलाता ह। र्मन के ववनाश र्मार से सम्पणर लभ
दःर खों की शांवत हो जाती ह। तथा र्मन के संककप र्मार से परर्म् सख
र की प्रावप्त होती ह। र्मन की िंिलता
ऄववद्या से ईत्पन्न होने के कारण ऄववद्या कही जाती ह। ववषय विन्तन का त्याग कर देने से ऄववद्या तथा
वासनार्मयी वित्त सत्ता का ऄन्त:करण र्में लय हो जाता ह।, ऐसा होने से र्मोक्ष की प्रावप्त होती ह।
र्मन र्मोह का जनक और जगत् की वथथवत का कारण ह। र्मन ही व्यवष्ट और सर्मवि रूप से आस जगत्
की ककपना करता ह। संसार की सर्मथत वव वर तयााँ एक र्मार र्मन को जीतने से ही प्राप्त होती हैं वित्त
वजसकी ावना र्में तन्र्मय होता ह।, ईसे वनःसंदहे प्राप्त कर लेता ह। ऄथालभत् िंिल हुअ र्मन वजस-वजस
वथतर की ावना करता ह। तथा वजस-वजस वासना से यक्त र होकर ाव को ऄपनाता ह।, ईसी थवरूप को
प्राप्त हो जाता ह। ज्ञानेवन्ियों के ऄपने-ऄपने ववषय र्में प्रवत्त होने पर ईनसे कर्मेंविय थवरूप थवतः थिरररत
होती हैं, ज।से धल र , वर्मवश्रत वाय,र पृथ्वी ऄपने अप धल र कणों के रूप र्में थिरररत होती ह। कर्मेंविय क्षब्र ध
होकर जब ऄपनी वक्रया शव‍त प्रकट करती ह।, तब र्मन र्में प्रिरर कर्मलभ सम्पावदत होता ह। आस प्रकार र्मन से
कर्मलभ की ईत्पवत्त हुइ ह। और र्मन की ईत्पवत्त र्में कर्मलभ ही कारण ह। िरल और सगर ंध की ााँवत आन दोनों की
सत्ता व न्न नहीं ह। र्मन वजस-वजस ाव को ऄपनाता ह।, ईसी-ईसी को वथतर रुप र्में पाता ह। ऄपने-ऄपने
ावों द्रारा ही दृढ़तापवर लभक व न्नता को प्राप्त हुए र्मनष्र यों के र्मन धर्मलभ-ऄथलभ-कार्म-र्मोक्ष का प्रयत्न करते रहते
हैं
जो ऄभ्यासी वववेक-ख्यावत ऄवथथा से यक्त र ह।, वजसके वित्त की वृवत्तयााँ ब्रह्म र्में लीन होती जा रही
ह।, जो ज्ञान प्राप्त करके संककपों का त्याग कर रहा ह।, वजसका र्मन ब्रह्म थवरूप र्में पररवणत हो गया ह।, जो
नाशवान जड़ दृश्य का त्याग कर रहा ह। तथा ब्रह्म का ्यान का रहा ह।, दृश्य जगत् का ऄनर व नहीं करता
ह।, वह परर्म् तत्त्व र्में जाग रहा ह। र्मन और ऄहक
ं ार आन दोनों र्में से वकसी एक का ववनाश हो जाने पर र्मन
और ऄहक ं ार दोनों का ववनाश हो जाता ह। आसवलए आच्छाओ ं का पररत्याग करके ऄपने व।रा‍य और
अत्र्मा-ऄनात्र्मा के वववेक से के वल र्मन का ही ववनाश कर देना िावहए ज।से- वायर के शांत होने से सर्मिर
शांत हो जाता ह।, व।से ही प्रसन्न, गम् ीरता से यक्त
र , क्षो शन्र य तथा राग-द्रेश अवद दोषों से रवहत, वश र्में

तत्त्वज्ञान 44
वकया हुअ र्मन सर्म हो जाता ह। ब्रह्म प्रावप्त रूप ऄर्मृत प्रवाह से पणर लभ तथा ऄववनाशी अनन्द से सम्पन्न
परू
र ष शांवत से यक्त
र रहता ह।
र्मन ही कर्मलभ रूप वृक्ष का ऄंकरर ह। र्मन के नष्ट हो जाने पर ससं ार रूपी वृक्ष ी नष्ट हो जाता ह। तथा
सम्पणर लभ दःर खों का ऄन्त हो जाता ह। र्मन से व न्न तो यह शरीर ी नहीं होता ह। र्मन के होने से शरीर का
ऄवथतत्व ावसत होता ह। यवद र्मन नष्ट हो गया ह। तो शरीर ी ावसत नहीं होगा ववषयों के वितं न से
प्रसार को प्राप्त हुए र्मन र्में यह सारा जगत् थिरररत हो रहा ह। र्मन ही जगत् ह।, यह सारा जगत् ही र्मन ह।
ऄतः दोनों एक साथ रहते हैं वनर्मलभल सत्त्व-थवरूप र्मन वजस पदाथलभ के ववषय र्में ज।सी ावना करता ह।, वह
वथतर व।सी ही हो जाती ह। ससं ार के स ी पदाथलभ संककप रूप ही हैं, आसवलए वववेकी परू र ष ईनकी क ी
कार्मना नहीं करता ह। थवयं र्मन ी संककप रूप ह। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर र्मन और पदाथलभ दोनों की शांवत
हो जाती ह। यह संसार र्मन से ईत्पन्न होता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर र्मन शांत हो जाता ह।, परंतर
र्मनष्र य संसार भ्रर्म र्में पड़कर बेकार र्में ही दःर ख की ऄनर वर त करता रहता ह। आसवलए प्रत्येक र्मनष्र य को
तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए प्रयास करना िावहए
इश्वर प्रावप्त र्में र्मन की वर र्मका र्मख्र य रूप से होती ह। र्मन ही आसकी प्रावप्त र्में बाधक ह। आसका
वजसर्में ऄनरर ाग हो जाता ह।, वही ाव ्र हण कर लेता ह। ससं ारी र्मनष्र यों का र्मन बवहलभर्मख र ी होकर आवन्ियों
के ववषयों र्में अस‍त बना रहता ह। ऄज्ञान के कारण ईन्हीं को सख र प्रावप्त का साधन सर्मझ रहा होता ह।,
जबवक ये ववषय ोग वाथतव र्में पररणार्म र्में दःर खदायी ही हैं पदाथों को ोगने के वलए वहसं ा, ऄसत्य
तथा शाथर ववरूि कायलभ करने की िेष्टा की जाती ह।, वजससे र्मन र्मवलन हो जाता ह। परन्तर विर ी र्मन
को शावं त नहीं वर्मलती ह। तथा र्मन ििं ल हो जाता ह। र्मन का ऄज्ञान और ोग ोगने की आच्छाओ ं के
कारण ईत्पन्न राग-द्रेष, र्मवलनता और ििं लता दरर कर र्मन को शि र और शांत बनाना अवश्यक ह।
आसके वबना र्मन अत्र्मा की ओर ईन्र्मख र नहीं हो सकता ह। आसके वलए ज्ञान के ऄवतरर‍त व।रा‍य और
ऄभ्यास की ी अवश्यकता ह।
आच्छाओ ं की पवर तलभ र्में लग जाना, छोटी-छोटी वथतओ र ं की ओर अकवषलभत हो जाना तथा छोटी-छोटी
बातों र्में ईलझ जाना पतन का कारण होता ह। आवन्ियों के द्रारा सांसाररक सख र लेने की आच्छा ही हर्में छोटा
बना देती ह। ये तच्र छ आच्छाएाँ वजतनी प्रकट होती हैं, र्मनष्र य ईतना ही ऄन्दर से छोटा होता जाता ह। वजतना
आच्छाओ ं का त्याग करता ह। ईतना ही वह र्महान होता जाता ह। वकसी वथतर की आच्छा हुइ, वह वथतर वर्मल
गइ तो आच्छा परर ी हो गइ ये आच्छाएाँ परर ी नहीं होती ह।, बवकक वित्त र्में आसके संथकार गहराइ से ववद्यर्मान हो

तत्त्वज्ञान 45
जाते हैं ऄगर र्मनष्र य की आच्छा पणर लभ नहीं हुइ तो ईसके ी संथकार वित्त पर पड़ते हैं ऐसी ऄवथथा र्में वह
सख र और दःर ख की ऄनर वर त करता ह। र्मनष्र य िाहे तो ऄभ्यास करके ऄपने वववेक को जा्र त कर सकता
ह।, वववेक से आच्छाओ ं की वनवृवत्त हो जाती ह। आससे वह ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।, आसवलए
र्मनष्र य को ऄपनी बवर ि का ववकास करके वववेक को जा्र त कर लेना िावहए ऄगर ऐसा नहीं वकया तो
क्षण ंगरर पदाथों की प्रावप्त के वलए ईसकी यारा लम्बी होती जाएगी ऄन्त:करण र्में वजतनी ऄवधक
वासनाएाँ होगी, ईतना ही वह ऄन्दर से कर्मजोर होगा जो र्मनष्र य ऄन्दर से कर्मजोर होगा वह ऄवश्य ही
बाहर से ी कर्मजोर होगा वित्त से आच्छाओ ं की वजतनी वनवृवत्त होती जाएगी ईतना ही वह र्महान बनता
जाएगा
आच्छाएाँ दो प्रकार ही होती हैं एक– शि र आच्छा और दूसरी– र्मवलन आच्छा र्मवलन आच्छा के जन्र्म
का कारण ह। आसके द्रारा जीव जन्र्म-र्मृत्यर के ि‍कर र्में पड़ता ह।, ऄज्ञान ही घनी तर अकृ वत ह। जो आच्छा
शि र होती ह। वह नर े हुए बीज के सर्मान पनर जलभन्र्म रूपी ऄंकरर को ईत्पन्न करने की शव‍त को त्याग कर
के वल शरीर धारण र्मार के वलए वथथत रहती ह।, वह ऄज्ञान और ऄहक ं ार से रवहत होती ह। जो र्महापरू र ष
शि र आच्छाओ ं से यक्तर हैं, वे जन्र्म रूप ऄनथलभ र्में नहीं पड़ते हैं ऐसे परर्म् बवर िर्मान परू
र ष परर्मात्र्मा के तत्त्व
को जानने वाले जीवन्र्मक्तर कहलाते हैं
र्मनर ष्य के ऄन्त:करण से जो यह प्रकट होता ह।– ‚र्मझर े यह वर्मल जाए‛, आसी को आच्छा कहते हैं
यही आच्छा शोक और र्मोह अवद ववकारों को ईत्पन्न करने र्में लगी रहती ह। आच्छा ही आवन्ियों के सर्महर से
शर -ऄशर कर्मलभ करवाती ह। िारों ओर दरर -दरर तक ि। ले हुऐ आच्छाओ ं के सर्महर ही र्मद हैं, ससं ार ही
आसका कर्मलभ क्षेर ह। आसी कर्मलभ क्षेर र्में हर परू
र ष क ी हारता ह। और क ी जीतता ह। आसी हार-जीत का
ऄनर व करता हुअ ऄज्ञानी परू र ष ऄपने बहुर्मकर य जीवन को व्यथलभ र्में व्यतीत करता रहता ह। तथा दःर ख
की ऄनर वर त करता रहता ह। सारे पदाथों र्में वनवास करने वाली आस आच्छा को ध।यलभ के द्रारा जीत लेना
िावहए ववषयों के थर्मरण का त्याग कर देने से ससं ार का ऄक ं र र ईत्पन्न नहीं होता ह। आच्छा से यक्त
र र्मनष्र य
दीनता को क ी नहीं छोड़ सकता ह। तीव्र आच्छा को ही संककप कहा जाता ह। ससं ार के पदाथों का
ावना से रवहत होने को सक ं कप त्याग कहते हैं संककप के ऄ ाव को ककयाण रूप कहा जाता ह।
संककप को ही थर्मरण सर्मझना िावहए संककप र्में पहले के ऄनर व वकए हुए पदाथों तथा ववष्य र्में होने
वाले पदाथों की ावना की जाती ह।, संककप त्याग ही परर्म्-श्रेय का सम्पादक ह। संसार का संककप ही
सबसे बड़ा बन्धन ह। तथा संककप का ऄ ाव ही र्मोक्ष ह।

तत्त्वज्ञान 46
सर्मथत कार्मनाओ ं से रवहत जीवन्र्मक्त र परूर ष को शरीर का ऄनसर ंधान क। से हो सकता ह।, ‍योंवक वह
तो ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार कर िक र ा होता ह। सर्मथत वथतओ
र ं की आच्छाएाँ ही बन्धन हैं तथा ईनकी ईपेक्षा
र्मोक्ष ह। जो र्मोक्ष र्में ववश्रार्म कर रहा ह।, ईसे वकस वथतर की आच्छा हो सकती ह। तत्त्वज्ञानी के वल ऄपने
थवरूप र्में वथथत रहता ह। ईसकी आच्छाएाँ व िेष्टाएाँ शांत हो जाती हैं ईसे ऄपने शरीर का ान नहीं रहता
ह। जीवन्र्मक्तर परूर ष को आस संसार का जीवन बााँस के सर्मान ऄन्दर -बाहर से शन्र य, रसहीन व वासना
रवहत प्रतीत होता ह। ऄंतःकरण का आच्छा रवहत हो जाना ऄथालभत् आच्छाओ ं के त्याग देने से शांवत प्राप्त
होती ह। आच्छा के ईत्पन्न होने से जो दःर ख प्राप्त होता ह।, व।सा दःर ख तो र्मृत्यर के पश्िात नरक र्में ी प्राप्त
नहीं होता ह। र्मनष्र य के ऄन्त:करण र्में ज।सी-ज।सी, वजतनी आच्छाएाँ ईत्पन्न होती हैं, व।से-व।से ईसके दःर ख
बढ़ते जाते हैं वववेक वविार से ज।से-ज।से आच्छाएाँ शांत होती जाती ह।, व।से-व।से दःर खों की र्मारा कर्म होती
जाती ह। तथा शांवत की ऄनर वर त बढ़ने लगती ह। यवद एक ही साथ सम्पणर लभ आच्छाओ ं का त्याग न वकया जा
सके तो धीरे -धीरे , थोड़ा-थोड़ा करके ही ईसका त्याग करते रहना िावहए जो परू र ष ऄपनी आच्छाओ ं को
क्षीण करने का प्रयास नहीं करता ह।, वह ऄपने अप को वदन-पर-वदन दःर ख के गड्ढे र्में िें क रहा ह। आच्छा
र्मार ही संसार ह।, आच्छाओ ं का ऄ ाव र्मोक्ष ह। आसवलए यथाशव‍त आच्छाओ ं को जीतना िावहए आसी
तरह जहााँ-जहााँ आच्छा का सम्बन्ध ह।, वहााँ-वहााँ पाप-पण्र यर्मयी दःर ख रावश व पीड़ाओ ं से यक्त र बन्धन
ईपवथथत हो जाता ह।
तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर आच्छा ईत्पन्न होती ही नहीं ह। यवद वकसी को तत्त्वज्ञानी की आच्छा
ईत्पन्न वदखाइ दे तो वह ब्रह्म थवरूप ही होती ह। ब्रह्म के ऄवतरर‍त यहााँ कोइ दसर री वथतर ववद्यर्मान हो तो
ईसे प्राप्त करने की िेष्टा की जाए जब ब्रह्म के वसवाय वकसी दसर री वथतर की सत्ता ही नहीं ह।, तब ब्रह्म से
व न्न वकस पदाथलभ को प्राप्त करने की आच्छा की जाए ब्रह्म थवयं परर्म् अकाश थवरूप ह। और थवयं
अकाश ही अकाश रुपी ववषय का ज्ञाता ह। आस संसार का अ ास ी अकाश थवरुप ही ह। ऐसी
ऄवथथा र्में आच्छा का ववषय ही नहीं ह। जहााँ संसार दृश्य अवद ह।, वहााँ र्मोक्ष नहीं ह। तथा जहााँ र्मोक्ष ह।,
वहााँ संसार-दृश्य अवद नहीं हैं छाया और धपर की ााँवत आन दोनों का अपस र्में सहयोग का ऄनर व नहीं
होता ह। यवद ये दोनों एक साथ रहते तो अपस र्में बावधत होने के कारण ऄसत्य हो जाते; ऄसत्य र्में र्मोक्ष
नहीं रहता ह। र्मोक्ष का ऄनर व िेतनर्मय तथा दःर ख रवहत रूप से होता ह। यह संसार जीवात्र्मा को बन्धन
र्में डालने वाला ह।, आसवलए आन सांसाररक आच्छाओ ं को योग के ऄभ्यास द्रारा थर्म कर देना िावहए आन
सांसाररक आच्छाओ ं के थर्म होते ही धीरे -धीरे तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होने लगती ह।

तत्त्वज्ञान 47
जब तत्त्वज्ञान का ईदय होने लगता ह। तब आच्छाएाँ सर्माप्त होने लगती हैं तथा व।से-व।से द्र।त की
शांवत व वासना का ववनाश होने लगता ह। ऐसी ऄवथथा र्में आच्छा ईत्पन्न क। से हो सकती ह।? सम्पणर लभ दृश्य
पदाथों से व।रा‍य हो जाने के कारण ईस ऄभ्यासी की ऄववद्या ी शांत हो जाती ह।, तब र्मोक्ष का ईदय
होता ह। र्मोक्ष के ईदय होने पर व।रा‍य और ऄनरर ाग दोनों नष्ट हो जाते हैं ईस सर्मय ऄभ्यासी का थव ाव
ऐसा हो जाता ह। वक ईसे दृश्य जगत् ऄच्छा नहीं लगता ह। ऐसी ऄवथथा र्में तत्त्वज्ञानी की आच्छा और
ऄवनच्छा दोनों ही ब्रह्मथवरूप हो जाती हैं ज।से प्रकाश और ऄंधकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं,
ईसी प्रकार तत्त्वज्ञान और आच्छा एक साथ नहीं रह सकते हैं आच्छाओ ं के ऄत्यन्त क्षीण हो जाने पर
अत्र्मानन्द का ऄनर व होने लगता ह। जब तत्त्वज्ञानी को ोग पदाथलभ र्में थवाद का ऄनर व न होने लगे,
सारा दृश्य जगत् िीका लगने लगे, तब ईसकी आच्छाएाँ रुक जाती हैं तथा वह एकता-ऄनेकता ऄथालभत् द्र।त-
ऄद्र।त से र्म‍र त होकर शांत हो जाता ह।
ऄज्ञानी जीव को ऄपने ही संककप से द्र।त की प्रतीवत होती ह।, तब ईसकी ऄद्र।त की ावना नष्ट हो
जाती ह। संककप से ही एक वथतर र्में द्र।त की प्रतीवत होती ह।, परन्तर ऄद्र।त की ावना से आस जगत् का
थवरूप नष्ट हो जाता ह। ववशि र अत्र्मा र्में द्र।त नहीं रहता ह। जो वथतर ऄपने संककप से बनाइ गइ ह। वह
वथतर संककप के ऄ ाव र्में नष्ट हो जाती ह। जीवात्र्मा को जो दःर ख प्राप्त हुअ ह।, ईसका कारण थवयं का
संककप ही ह। जब सर्मावध के ऄभ्यास द्रारा ईसर्में संककप का ऄ ाव होने लगता ह।, तब ईसका
सांसाररक दःर ख ी कर्म होने लगता ह। वजतना दःर ख कर्म होगा ईतनी ही ज्यादा सख र की प्रावप्त होगी
आसवलए ऄवववेक के कारण जो संककपों का प्रवाह ह।, आसको रोक देना िावहए संककपों का प्रवाह रुकने
से वित्त र्में वथथरता अएगी तथा वित्त की वथथरता से शांवत प्रापत् होती ह। जब वनरूिावथथा र्में संककपों
का ऄ ाव हो जाता ह।, तब यह संसार न जाने कहााँ (ब्रह्म र्मेंद ववलीन हो जाता ह। र्मनष्र य र्मोह और तृष्णा
के कारण सांसाररक पदाथों की प्रावप्त हेतर संककप करता रहता ह।, आसवलए र्मोह और तृष्णा रूपी संककप
को वनरुि कर देना िावहए जीवात्र्मा ऄज्ञान के कारण ही ऄपने संककपों के द्रारा सांसाररक बन्धन र्में िाँ स
गया ह।, वाथतव र्में वह ब्रह्म से ऄव न्न ह। ऄभ्यास के द्रारा परर्मात्र्म-थवरूप की ऄनर वर त करके संसार
रूपी बन्धन से सद।व के वलए र्म‍र त हो जाता ह।
तत्त्वज्ञावनयों की दृवष्ट र्में यह सम्पणर लभ संसार भ्रर्म रूपी ही ह।, र्मगर ऄज्ञावनयों की दृवष्ट र्में यह सत्य
वदखाइ दे रहा ह।, परन्तर सत्य वदखाइ देने का कारण थवयं ईसके वित्त की वृवत्तयााँ हैं जब वित्त से वृवत्त
थपवन्दत होकर प्रकट होती ह।, तब संसार का थवरूप धारण कर लेती ह। ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत होने के

तत्त्वज्ञान 48
वलए वित्त का ववनाश करना अवश्यक ह। वित्त के ववनाश के वलए दो प्रकार के ईपाय हैं आनर्में से एक
ईपाय ह।– ऄभ्यास के द्रारा प्राणों का थपन्दन रोक वदया जाए तो वित्त का ववनाश हो जाएगा वजस प्रकार
जल पृथ्वी र्में स ी ओर से प्रवेश करके व्याप्त होता ह।, ईसी प्रकार आस शरीर र्में ववद्यर्मान ऄसंख्य नावड़यों
र्में स ी ओर से प्राण वायर प्रवेश करके व्याप्त होती ह। शरीर के सर्मथत ऄंग प्राण के थपन्दन से कायलभ करते
हैं प्राण के थपन्दन से ही वित्त का थपन्दन होता ह। वित्त के थपन्दन से ही सांसाररक पदाथों की ऄनर वर तयााँ
होती हैं ऄथालभत् वित्त का थपन्दन प्राण के थपन्दन के ऄधीन ह। ऄभ्यास के द्रारा प्राण का थपन्दन रोक वदया
जाए तो वित्त पर वथथत वृवत्तयााँ (र्मनद ऄवश्य वनरुि हो जाएाँगी र्मन ऄथवा संककप के ऄ ाव र्में संसार
की ऄनर वर त नहीं होगी, विर यह संसार नष्ट हुए के सर्मान हो जाएगा
प्राणायार्म के ऄभ्यास से प्राण वायर वनरुि होने लगती ह। वकसी ऄनर वी परू र ष के र्मागलभदशलभन र्में ही
प्राणायार्म का ऄभ्यास करना िावहए प्राणों का थपन्दन सर्मावध द्रारा रुक जाता ह।, आसवलए साधक को
इश्वर के ऄथलभ थवरूप का विंतन करना िावहए सर्मावध र्में जब शब्द और ज्ञान का प्रवाह रुककर ऄथलभ र्में
ववलीन हो जाता ह।, तब ऄथलभ र्में वथथवत होने पर वित्त का थपन्दन रुकने लगता ह। जब साधक का ब्रह्मरन्र
खल र जाता ह।, तब प्राण और र्मन दोनों एक साथ ब्रह्मरन्र के ऄन्दर िले जाते हैं ईस सर्मय वनववलभककप
सर्मावध लगती ह।, तब प्राणों का थपन्दन रुक जाता ह। सर्मथत संककप ववककप रवहत होने पर कोइ नार्म रूप
नहीं रहता ह। ऄत्यन्त सक्ष्र र्म विन्र्मय अकाश थवरूप ब्रह्म का ्यान करने पर सारे ववषय ववलीन हो जाते
हैं, तब प्राण वायर का थपन्दन वनरुि होने लगता ह।
आस जगत् का वनर्मालभण प्राण तत्त्व से हुअ ह। प्राण तत्त्व से बना हुअ जगत् अकाश तत्त्व र्में
ऄवधवष्ठत ह। प्रलय के ऄन्त र्में यह जगत् अकाश तत्त्व र्में ववलीन हो जाता ह। प्राण तत्त्व अकाश तत्त्व
को ऄवधवष्ठत कर जगत् की रिना करता ह। अकाश सवलभव्यापक व सवलभशव‍तर्मान ह।, आसी तरह प्राण
वायर ी आस जगत् की सवलभसर्मथलभ व सवलभव्यापक ऄव व्यवं जका शव‍त ह। जगत् र्में जो गरू र त्व शव‍त,
अकषलभण शव‍त, सक ं कप शव‍त, नाड़ी प्रवाह अवद वजतनी ी शव‍तयााँ हैं, वे सब-की-सब प्राण नार्मक
शव‍त की व न्न-व न्न ऄव व्यवं जका शव‍तयााँ हैं प्राण ववश्व की र्मानवसक और शारीररक तथा स ी
प्रकार की शवक्तयों की सर्मवि हैं प्राण ही प्रत्येक जीव की जीवन-शव‍त ह। तथा वह वविारों के प्रवाह र्में,
नावड़यों के प्रवाह र्में, श्वााँस के अवागर्मन र्में, शारीररक वक्रया के रूप र्में व्य‍त हो रही ह। जो र्मनष्र य सारे
दःर खों से छरटकारा प्राप्त करना िाहते हैं तथा अनन्द की ऄनर वर त करना िाहते हैं, ईन्हें प्राणों को ऄपने

तत्त्वज्ञान 49
ऄधीन करना होगा प्राणों को ऄपने ऄधीन करने से वित्त के अवरण व र्मल नष्ट हो जाएाँगे वित्त के
वनर्मलभल होने पर अलौवकक ज्ञान की प्रावप्त होती ह। तथा सारे दःर खों से वनवृवत्त वर्मल जाती ह।
ऄभ्यासी परू र ष की जब संसार से ववरव‍त होने लगती ह। तब सासं ाररक पदाथों के ोगों की तृष्णा
नष्ट होने लगती ह। तथा ोग पदाथलभ नीरस लगने लगते हैं और श्रेष्ठता का ईदय होने लगता ह। ऄन्त:करण
र्में इश्वर प्रावप्त की श्रिा जा्र त हो जाती ह। ईस सर्मय वववेकी परू र ष धन अवद की कार्मना नहीं करता ह।
यवद ऐसे परू र ष के पास सम्पवत्त हो ी तो वह ईसको ी त्याग देता ह। आवन्ियों के ोग रूपी ववषय बार-
बार ईसकी आवन्ियों के सम्पकलभ र्में अते हैं र्मगर ईनकी ऄनर वर त नहीं होती ह।, ‍योंवक ईसका र्मन सवलभथा
शातं बना रहता ह। वववेकी परू र ष आस ससं ार र्में जहााँ कही ी जाता ह।, ठहरता ह। एवं रहता ह।, वहााँ-वहााँ
तत्त्वज्ञान ऄथवा ज्ञान से सम्बवन्धत खोज करता रहता ह। सांसाररक परू र षों को ईसका हाव- ाव, व्यवहार
अवद िाहे ज।सा लगे ऄथवा करछ संवद‍ध या पागलों ज।सा लगे, र्मगर ईस संसार से वह सार-वथतर की
खोज करता रहता ह। आसे साधारण परू र ष नहीं सर्मझ सकते हैं धीरे -धीरे ऄभ्यास के बल से शांत वववेकी
परूर ष थवयं ही परर्म् पद थवरूप परर्मात्र्मा को प्राप्त कर लेता ह।
साधक के ऄभ्यास काल र्में एक सर्मय ऐसा ी अता ह। जब परर्मात्र्मा ऄपने वववेक नार्मक दतर को
साधक के पास ेजता ह। वववेक नार्मक दतर साधक को ज्ञान का ईपदेश ी देता ह। यह दतर साधक को
सदा अनन्द देने वाला होता ह।, विर यह ह्रदय गफ़ र ा र्में (ह्रदय गफ़
र ाद ऐसे वथथत हो जाता ह। ज।से अकाश
र्में िन्िर्मा वथथत रहता ह। यही वववेक वासना यक्त र ऄज्ञानी जीव को ज्ञान प्रदान करता रहता ह। धीरे -धीरे
वह ससं ार सागर से पार कर देता ह। यही ज्ञान थवरूप ऄन्तरात्र्मा ही सबसे बड़ा परर्मात्र्मा ह। यही
परर्मात्र्मा सवलभर वविरण करता ह।, जागता ह।, देखता ह।, आसवलए कहा गया ह। वक आसके अाँख, कान, हाथ,
प।र, सवलभर व्याप्त हैं आसका वणलभन गीता के 13वें ऄ्याय के 13वें श्लोक र्में ी वकया गया ह। वववेक द्रारा
वित्त को नष्ट हुए के सर्मान करके जीव को ऄपनी वदव्य ऄवनवलभिनीय वथथवत तक पहुिाँ ा देता ह। आसवलए
ऄभ्यासी को सम्पणर लभ सक ं कप-ववककपों, वविारों तथा ऄथलभ-सक ं टों को छोड़कर ऄपने ऄभ्यास के बल पर
ऄथालभत् ऄपने परू र षाथलभ से परार्मात्र्मा को प्राप्त कर लेना िावहए
यह संसार सागर तृष्णा रूपी तरंगों से िंिल हो रहा ह। र्मन रूपी प्रिण्ड वायर थपेड़े र्मार रही हैं
सम्पणर लभ तर रूप जल कणों से व्याप्त हैं आवन्ियााँ रूपी र्मगरर्मच्छ आसर्में रहने के कारण यह ओर ी गहन हो
गया ह। आस संसार सागर को पार करने के वलए वववेक ही जहाज रूपी साधन ह। इश्वर पहले वववेक रूप
दतर ेजता ह। विर परर्माथलभ वथतर के ईत्तर्म ज्ञान से जीव को सवोच्ि पद तक पहुिाँ ा देता ह। वजनका वववेक

तत्त्वज्ञान 50
पष्र ट हो गया हो तथा वजन्होंने वासना रूपी बरर ाइ का त्याग कर वदया हो, ईनके ऄन्दर ब्रह्मानर वर त होने
लगती ह। व।रा‍यवान परू र ष का ही वववेक यक्तर वविार सिल होता ह। वववेक से पहले राग-द्रेष का नाश
होता ह।, आसके पश्िात ववषय ोगों के वलए प्रयत्न सवलभथा क्षीण हो जाता ह। वजस ऄभ्यासी का वववेक
जा्र त ह।, वही परू
र ष परर्म्-पववर ह।
परर्मात्र्मतत्त्व का यथाथलभ ज्ञान अशारूपी घास-िरस थर्म करके के वलए ऄव‍न थवरूप ह। परर्मात्र्मा
के तत्त्व को जानने वाले तत्त्वज्ञानी ऄिल परा-प्रज्ञा को ही सर्मावध कहते हैं वह एका्र , सद।व तृप्त, सत्य
और ऄथलभ को ्र हण करने वाली ह। प्रज्ञा क्षो रवहत, ऄहक ं ार शन्र य, सखर -दःर ख अवद से परे रहने वाली
वथथरता से यक्त र ह। वितं ा से शन्र य, ऄव ष्ट पदाथों को प्राप्त करने वाली तथा परर्मात्र्मा ाव से पणर लभ रहती
ह। र्मन जब तत्त्वज्ञान के साथ सदा के वलए ऄन्तर्मलभख र ी हो जाता ह।, तब तत्त्वज्ञानी की सर्मावध सदा बनी
रहती ह। ज।से सयर लभ वदन र प्रकाश देता रहता ह। ईसी प्रकार तत्त्वज्ञानी की प्रज्ञा जीवनपयलभन्त परर्माथलभतत्त्व के
पदाथलभ दशलभन से ववश्रार्म नहीं लेती ह। ऄथालभत् सद।व परर्मात्र्मज्ञान से पररपणर लभ रहती ह। ज।से नदी के पानी की
धारा वनरन्तर बहती रहती ह।, ईसी तरह तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट क्षणर्मार के वलए परर्मात्र्मा के थवरूप ज्ञान से
ऄलग नहीं होती ह।, बवकक सद।व एक रस बनी रहती ह। तत्त्वज्ञानी की बवर ि क ी ऄपने थवरूप को

र ती नहीं ह।
वनववलभककप सर्मावध के िलथवरूप साधक को ऊतम् रा-प्रज्ञा प्राप्त होती ह। ववशेष ऄथलभ वाली होने
के कारण यह प्रज्ञा श्रवर त और ऄनर्मर ान जन्य प्रज्ञा से ऄन्य ववषय वाली होती ह। साधारण बवर ि के द्रारा
ऄनर्मर ान वकए हुए ववषयों से ी आस बवर ि के द्रारा ववशेष ऄथलभ का ऄथालभत् यथाथलभ ऄथलभ का ऄनर व होता
ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा ईत्पन्न हुए ज्ञान से ससं ार के पदाथों र्में व।रा‍य ईत्पन्न होकर वित्त र्में वथथत
ववक्षेपों का ऄ ाव हो जाता ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा से ईत्पन्न सथं कार ऄन्य दृश्य जन्य सथं कारों के बाधक होते
हैं प्रज्ञा के सथं कारों द्रारा ववषय सवहत वित्त की सर्मथत वृवत्तयों को ल र जाने का ऄभ्यास करना िावहए
आस प्रकार ऄभ्यास करते-करते दृश्य का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह। दृश्य के ऄत्यन्त ऄ ाव करने वाली
वृवत्त का ी ऄ ाव (थवर्मेव वनरोधद हो जाता ह। आस प्रज्ञा के ववषय र्में व्यास जी कहते हैं- “अध्यात्म
प्रसाद की पररपक्व अवस्था के िाभ होने पर प्रज्ञा का िाभ होता है। यह प्रज्ञा ‘अन्वथथ है’ के सत्य को ही
लवषय करने वािी है। इसमें अलवद्या की गन्ध का नाम नहीं रहता है। यह प्रज्ञा अलद्वतीयत्व-असांगत्वालद,
लवशेष-लवषयक होने से श्रलु त और अनमु ान जन्य प्रज्ञा से अन्य लवषयक है। इस तत्त्व साक्षात्कार रूपी प्रज्ञा

तत्त्वज्ञान 51
के िाभ होने से पनु : नवीन सांस्कार पैदा होता है। यह तत्त्व साक्षात्कार जन्य सांस्कार, व्यत्ु थान सांस्कार
आशय का बोध कराता है”।
शरीर ववज्ञान के ऄनसर ार हर परू र ष के ऄन्दर थरी तत्त्व वछपा रहता ह। तथा हर थरी के ऄन्दर परू र ष
तत्त्व वछपा रहता ह। परू र ष र्में थरी तत्त्व वकतना होता ह। ऄथवा थरी र्में परू र ष तत्त्व वकतना होता ह।, यह
वनवश्ित रुप से कहना र्मवर श्कल ह।, ‍योंवक हर परू र ष र्में थरी तत्त्व की र्मारा व न्न-व न्न होती ह। यवद वकसी
परूर ष र्में थरी का प्रवतशत ज्यादा पाया जाता ह। तो थरी तत्त्व की झलक ईसके थव ाव र्में वदखाइ देने
लगती ह। आसी प्रकार वस्त्रयों र्में यवद परू
र ष तत्त्व का प्रवतशत वनवश्ित र्मारा से ऄवधक ववद्यर्मान ह। तो थरी
के थव ाव र्में परू र षत्व झलकने लगता ह। र्मैंने ऄपनी वपछली पथर तक ‘योग कै से करें ’ र्में कइ ऄनर व
वलखे हैं ्यानावथथा र्में र्मैं सन्र दर थरी बना गया, विर थरी बन कर आधर-ईधर घर्मर रहा हाँ अवद ऐसे
ऄनर व अने का कारण यह ह। वक ईस सर्मय हर्मारे ्यान की ऄवथथा ईस कोष र्में पहुिाँ गइ थी जो थरी
तत्त्व से सम्बवन्धत था आसवलए हर्में थरी से सम्बवन्धत ऄनर व अते थे वजसका ह्रदय वववेक से व्यापक
हो गया ह।, ईस तत्त्वज्ञानी परू र ष को नारी शरीर र्में कोइ अकलभ षण नहीं होता ह। ऄतः वववेक बवर ि से
सम्पन्न कोइ ी परू र ष असव‍त से प्रेररत होकर क ी थरी र्मोह र्में नहीं िंसेगा थरी का शरीर पंि तर ों का
वपण्ड र्मार ह। आस थरी शरीर रूपी वपण्ड र्में परू र षों को कौन-सी ववशेषता प्रतीत होती ह। वजससे परू र षों के
ववकारों र्में वगरने की िेष्टा को ईवित कहा जाए? थरी की सन्र दरता, रूप लावण्यता और शरीर संगठन को
लेकर जो ववलक्षणता वदखाइ देती ह।, ईससे तो के वल ऄज्ञानी ही अनवन्दत होता ह। ज्ञानी परू र षों को वह
पंि तर ों का वपण्ड ही वदखाइ देता ह। वजस प्रकार पत्थर की दो प्रवतर्माओ ं का अपस र्में अवलंगन होने पर
ी ईसर्में राग नहीं होता ह।, ईसी प्रकार वित्त और शरीर का अपस र्में अवलंगन होने पर अपस र्में राग
नहीं होना िावहए वजस प्रकार पत्थर की प्रवतर्माओ ं र्में अपस र्में थनेह नहीं हो सकता ह।, व।से ही देह
आवन्ियों और प्राणों र्में ी अपस र्में थनेह सम्बन्ध नहीं ह। जीवात्र्मा वित्ताकृ त को प्राप्त कर देह और
प्रावणयों से संयोग करता ह। वजस सर्मय जीवात्र्मा यथाथलभ ज्ञान के द्रारा ववषय रुपता का पररत्याग करके
थवयं ही ववशि र अत्र्मथवरूप को प्राप्त करता ह।, ईस सर्मय सम्पणर लभ तर प्रावणयों र्में असव‍त से रवहत
जीवात्र्मा साक्षी हुअ देह को अत्र्मा से व न्न देखता ह। तथा तर सर्महर को ऄपने से पृथक देखकर
ऄववनाशी अत्र्मा देहातीत हो जाता ह।
तत्त्वज्ञानी परू
र ष को ववषयोप ोग अनन्द नहीं पहुिाँ ा सकते हैं वजस तत्त्वज्ञानी के प्रवत सन्र दर वस्त्रयााँ
ऄनरर क्त हैं, ऐसे ईदार बवर ि तत्त्वज्ञानी परू
र ष के ऄन्त:करण र्में कार्म वासना के बाण वछन्न होकर धल र के

तत्त्वज्ञान 52
सर्मान हो जाते हैं ईन सन्र दर वस्त्रयों का ईस पर कोइ ऄसर नहीं होता ह। तत्त्ववेत्ता परू र ष रूप लावण्य यक्त र
थरी को वर्मट्टी की प्रवतर्मा की तरह सर्मझते हैं, ‍योंवक वर्मट्टी की प्रवतर्मा र्में थरी के ऄवयव, रंग-रूप
पंि तर ों को छोड़कर और करछ ी नहीं होते हैं आसवलए वर्मट्टी की प्रवतर्मा और जीववत सन्र दर थरी र्में
तत्त्वतः सर्मानता ह। तत्त्व को जानने वाले वववेकशील परुर ष का जीववत सन्र दर थरी के ईपयोग र्में अ्र ह
क। से हो सकता ह।? ववशि र ब्रह्म तत्त्व र्में वथथत तत्त्वज्ञानी परू
र ष ईस परर्मात्र्म थवरूप र्में ही र्म‍न रहता ह।
करछ ससं ारी परू र ष थोड़ा-सा धन एकर करके र्मदान्ध हो जाते हैं ईनकी सोि होती ह। वक हर्मारे
ज।सा श्रेष्ठ परूर ष आस ससं ार र्में नहीं ह। हर्मने धन को एकर करके ऄपने जीवन की ईन्नवत कर ली ह। आसे वे
ऄपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करना सर्मझते हैं ऐसे परू र ष सर्माज र्में ऄपना ऄवधपत्य थथावपत करने के
वलए खबर हाथ-प।र पटकते रहते हैं वह यह ल र जाते हैं वक यवद धनवान परू र ष ही श्रेष्ठ होता तो वह परर्म्
शांवत को प्राप्त कर लेता परन्तर जो वजतना धनवान होता ह। वह ईतना ही ऄशांत होता ह। तो विर ऐसे
ऄशांत परू र ष को श्रेष्ठ क। से कहा जा सकता ह।? ऐसे परू र षों को याद रखना िावहए वक धन तो ववव न्न
प्रकार से (ऄधर्मलभ अवदद एकर वकया जाता ह।, तो ‍या ईन्हें श्रेष्ठ परू र ष की संज्ञा दी जाए? करछ ऐसे
धनवान होते हैं वजनर्में श्रेष्ठ होने के गणर ी नहीं होते हैं बाहर से वह ज।से वदखाइ देते हैं, ऄन्दर से वह
करछ और ही होते हैं धन िाहे वजस प्रकार से एकर वकया गया हो वह ऄज्ञानता के ऄन्तगलभत अता ह।
करछ र्महापरू र षों के जीवन पर ्यान दें तो वशक्षा वर्मलेगी वक ईन्होंने परर्म् शांवत प्राप्त करने के वलए ऄपना
राज्य ी त्याग वदया था ईसके बाद कठोर साधना के द्रारा परर्म् शांवत को प्राप्त हुए धन एकर करने की
तृष्णा जीवन र्में क ी सर्माप्त नहीं होती ह।, बवकक सांसाररक बन्धन और ी र्मजबतर होता जाता ह।
इश्वर ने थपन्दन शव‍त सम्पन्न सृवष्ट के अवद र्में सख र -दःर ख अवद प्रारब्ध ोग रूपी कर्मलभ का आस
रूप र्में ववधान कर वदया ह। वक जीव को ईसके कर्मालभनसर ार आतने सर्मय तक ोगने के वलए सख र -दःर ख प्राप्त
होगा ईसी के ऄनसर ार प्रकृ वत र्में व्यवथथापवर लभक वक्रया हो रही ह। वजस सर्मय नावड़यों र्में प्रवेश की हुइ वायर
बाहर नहीं वनकलती ह। और बाहर वनकली हुइ वायर ऄन्दर प्रवेश नहीं करती ह।, ईस सर्मय थपन्दन शव‍त
रुक जाती ह। ऄथालभत् ह्रदय थपन्दन करना बन्द कर देता ह। तब नाड़ी शन्र य हो जाने के कारण प्राणी की र्मृत्यर
हो जाती ह। जब तक र्मनर ष्य र्में ऄववद्या रहेगी तब तक जन्र्म र्मृत्यर के िक्र र्में घर्मर ता रहेगा तथा आस िक्र
का घर्मर ना बन्द नहीं होगा जीवात्र्मा न जन्र्मता ह। और न ही र्मरता ह। वह थवप्न के सर्मान के वल भ्रर्म से
ही जन्र्म र्मृत्यर को देखता हैं ‍योंवक जीवात्र्मा तो के वल िेतन र्मार ह। िेतन के ऄवतरर‍त ओर करछ र्माना
नहीं जा सकता ह। िेतन तत्त्व की क ी र्मृत्यर नहीं होती ह।, वह तो ऄववनाशी ह। र्मृत्यर तो के वल शरीर की

तत्त्वज्ञान 53
होती ह।, परन्तर िेतन ऄववनाशी ही बना रहता ह। वाथतव र्में न कोइ जन्र्म लेता ह। और न ही कोइ र्मरता ह।
जीव के वल वासना रूपी अवलभत के गड्ढ़ों र्में गोते लगाता रहता ह। जगत् से य ीत होकर जीव जब
ऄभ्यास द्रारा भ्रर्म वश प्रतीत होते हुए संसार के वाथतववक थवरूप को सम्यक रूप से सर्मझ लेता हैं वक
वाथतव र्में संसार का ऄवथतत्व ही नहीं ह।, वह ऄववद्या के कारण प्रतीत हो रहा ह।, तब वह पणर लभतया
वासनाओ ं से रवहत होकर र्म‍र त हो जाता ह। आसवलए अत्र्म-थवरूप ही सत्य ह।, बाकी सब ऄसत्य ह।
ऄगर वकसी को र्मारना या नष्ट करना ह। तो ऄवश्य र्मारो, र्मगर वह ह। ऄज्ञानता ऄज्ञानता की र्मृत्यर
कर दो जीव को कब तक ऄज्ञानता की गहरी नींद र्में सल र ाते रहोंगे, आसे नींद से जगा दो जीव से कहो-
जागो कब तक सोते रहोंगे, तर्मर ऄनन्त काल से सो रहे हो, ऄब तरम्हें जागना होगा ऄपनी सोने की अदत
को सद।व के वलए त्याग दो ऄज्ञान रूपी ऄंधकार नष्ट हो गया ह।, ज्ञान रूपी प्रकाश ि। ल िक र ा ह। तम्र हारी
वनिा का सर्मय ऄब सर्माप्त हो िक र ा ह।, तम्र हें ऄब क ी ी वनिावथथा र्में जाने की अवश्यकता नहीं
पड़ेगी ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत होने के वलए त।यार हो जाओ तर्मर ने ऄज्ञानता का अवरण ‍यों ओढ़
रखा ह।? आस अवरण को सद।व के वलए िें क दो आस अवरण के दरर होते ही ऄपने अपको एक ऐसे ज्ञान
रूपी प्रकाश र्में पाओगं े जहााँ क ी ऄज्ञान रूपी ऄंधकार ईपवथथत नहीं होता ह। ज।से ही जीव ऄज्ञानरूपी
वनिा से जागेगा, ईसे ऄपने थवरूप का ान होने लगेगा वक वह इश्वर का परर होने के कारण इश्वर के ही
सर्मान थवरूप वाला ह। ईसकी ऄज्ञानता नष्ट हो जाने पर ईसके ऄन्दर व्यापकता अ जाएगी, विर वह
जीव से जीवेश्वर थवरूप र्में वथथत हो जाएगा यह सद।व याद रखना िावहए वक जीव क ी ी इश्वर के
सर्मान नहीं बन सकता ह।, ‍योंवक जीव का सम्बन्ध ऄपरा-प्रकृ वत से ह। ऄथालभत् जीव का वित्त ऄपरा-
प्रकृ वत द्रारा बना होता ह। आसर्में गणर पररणार्म ऄवथथा र्में रहते हैं, आसवलए जीव की यह ऄवथथा पररणार्म
द्रारा प्राप्त हुइ ह। जीव को ज्ञान ी पररणार्म द्रारा प्राप्त हुअ ह। इश्वर का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से ह।
ऄथालभत् इश्वर का वित्त परा-प्रकृ वत के द्रारा बना हुअ ह। परा-प्रकृ वत र्में गणर साम्यावथथा र्में रहते हैं,
आसवलए इश्वर का ज्ञान वनत्य ह। वनत्य ज्ञान होने के कारण इश्वर जीव पर शासन करता ह। इश्वर के ऄन्दर
शव‍तयााँ पणर लभ रूप से ववद्यर्मान रहती ह। जीव (जीवेश्वरद की शव‍तयााँ ऄंश रूप र्में होती हैं, व।से इश्वर
और जीव र्मल र रूप से (िेतन रूप सेद एक ही हैं इश्वर का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से तथा जीव का सम्बन्ध
ऄपरा-प्रकृ वत से होने के कारण इश्वर का ऄंश कहा जाता ह।, ‍योंवक ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत की ऄंश
र्मार ह। आसवलए इश्वर वपता ह। और जीव परर ह।

तत्त्वज्ञान 54
बहुत से वजज्ञासओ र ं ने हर्मारे ऄगले जन्र्म ्र हण करने के ववषय र्में ढेरों प्रश्न वकए ईन्होंने हर्मसे पछर ा
वक अपने ऄपनी दसर री पथर तक के ऄवन्तर्म ऄनर व र्में वलखा ह।– अगला जन्म लेना अदनवायय है, र्मगर
वतलभर्मान सर्मय र्में अपने ब्रह्म साक्षात्कार कर वलया ह। ऄथालभत् तत्त्वज्ञान से यक्त र हैं और तत्त्वज्ञानी जन्र्म
्र हण नहीं करते हैं, ‍योंवक वे अवागर्मन से र्म‍र त हो परर्मपद ् को प्राप्त कर लेते हैं दोनों बातें अपस र्में
ववरोधी हैं, विर सत्य ‍या ह।? आस प्रश्न का ईत्तर र्मैं नहीं देना िाहता था र्मगर हर्मसे बहुत से लोगों ने यह
प्रश्न वकया ह। आनर्में से बहुत से पी.एि.डी. के छार व व।ज्ञावनक हैं यहााँ पर र्मैं ईत्तर देने का प्रयास कर रहा
हाँ यह ऄनर व र्मैंने सन् 1999 र्में वलखा था ईस सर्मय योग र्में हर्मारी जो ऄवथथा थी, ईसके ऄनसर ार तो
जन्र्म लेना अवश्यक था र्मगर ऄब वतलभर्मान र्में र्मेरी जो ऄवथथा ह।, ईसके ऄनसर ार जन्र्म लेने का प्रश्न ही
नहीं ईठता ह। थथल र शरीर त्यागने के पश्िात र्मैं वनगलभणर ब्रह्म र्में लीन नहीं होना िाहता ह,ाँ ऄपरा-प्रकृ वत का
त्याग करके इश्वर के लोक र्में (परा-प्रकृ वत र्मेंद ऄनन्त काल तक रहगाँ ा यवद अवद शव‍त ने (परा-प्रकृ वतद
जीवों के ककयाण हेतर आस लोक र्में अने के वलए कहा तो ऄवश्य ही आस लोक र्में ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने
ऄधीन करके जन्र्म धारण कर लाँगर ा ऐसा होगा ऄथवा नहीं होगा, यह र्मझर े वनवश्ित रूप से थथल र शरीर
त्यागने से पहले ज्ञात हो जाएगा आन पंव‍तयों को वलखते सर्मय हर्मारी यही सोि ह। वक यवद जीवों के
ककयाण हेतर ल र ोक पर अना पड़ा तो ऄवश्य अउाँगा

तत्त्वज्ञान 55
प्रकृदत
ऄद्र।तवादी प्रकृ वत की सत्ता को ब्रह्म से ऄलग नहीं र्मानते हैं, बवकक ईसी र्में अरोवपत र्मानते हैं
ज।से– रथसी र्में सााँप और सीप र्में िााँदी की सत्ता अरोवपत ह। प्रकृ वत को ऄवनवलभिनीय र्माया या ऄववद्या
र्मानते हैं, जो न सत्य ह। और न ऄसत्य ह। सत्य आसवलए नहीं वक र्मोक्ष ऄवथथा र्में प्रकृ वत का वनतांत
ऄ ाव हो जाता ह। ऄसत्य आसवलए नहीं ‍योंवक सारा व्यवहार प्रकृ वत र्में ही िल रहा ह। द्र।तवाद र्में
प्रकृ वत को एक थवतन्र तत्त्व र्मानते हैं र्मोक्ष की ऄवथथा र्में आसका नाश के वल र्मोक्ष वालों के वलए होता
ह। आसका ऄपने थवरूप से ऄ ाव नहीं होता ह। जो र्मोक्ष ऄवथथा को प्राप्त नहीं हुए हैं, ईनके वलए प्रकृ वत
बनी रहती ह। ऄद्र।तवाद और द्र।तवाद र्में प्रकृ वत के ववषय र्में वसिलभ शब्दों का ईलटिे र ही ह।, ‍योंवक जगत्
का ईपादान कारण प्रकृ वत ही वसि होती ह। आसे िाहे सत्य कहो, िाहे ऄसत्य कहो, िाहे सत्य और
ऄसत्य से ववलक्षण कहो
प्रकृ वत ने ऄपने अपको दो ागों र्में ऄलग-ऄलग रूप र्में वव ‍त कर वलया ह। आन दोनों प्रकृ वतयों
का थव ाव ी अपस र्में व न्न-व न्न व ऄसर्मानता से यक्त र हैं प्रकृ वत का जो र्मल र थवरूप ह। ईसे परा-
प्रकृ वत कहते हैं प्रकृ वत के दसर रे थवरूप को ऄपरा-प्रकृ वत कहते हैं परा-प्रकृ वत र्में तीनों गणर साम्यावथथा
र्में रहते हैं गणर ों की साम्यावथथा के कारण परा-प्रकृ वत र्में वकसी प्रकार का पररणार्म नहीं होता ह।, ‍योंवक
गणर अपस र्में सर्मान रूप से रहते हैं तथा एक दसर रे पर दबाव नहीं देते हैं परा-प्रकृ वत इश्वर का ववशि र
सत्त्वर्मय वित्त ह। परा-प्रकृ वत को कारण जगत् (र्महाकारण जगतद,् कारण लोक, अवदत्य लोक अवद
ववव न्न नार्मों से जाना जाता ह। ऄपरा-प्रकृ वत र्में तीनों गणर ववषर्मावथथा र्में रहते हैं ववषर्मावथथा के कारण
तीनों गणर अपस र्में एक दसर रे को दबाते रहते हैं आसी ववषर्मावथथा के कारण ऄपर प्रकृ वत र्में सद।व
पररणार्म होता रहता ह। यह पररणार्म प्रवतक्षण वबना रूके सद।व होता रहता ह। आसवलए यह संसार पररणार्मी
कहा गया ह। आस ऄपरा-प्रकृ वत के ऄन्तगलभत ब्रह्मलोक से लेकर पाताल लोक तक अता ह। ब्रह्मलोक से
लेकर पाताल लोक तक वजतने ी प्राणी अते हैं, वह स ी जन्र्म-अयर और र्मृत्यर को प्राप्त होते हैं
िेतन तत्त्व की वनकटता से ही जड़तत्त्व प्रकृ वत र्में ज्ञान व व्यवथथा पवर लभक वक्रया हो रही ह। आस
प्रकृ वत र्में एक प्रकार का क्षो ी हो रहा ह।, वजससे प्रकृ वत र्में वित्त, वित्त र्में ऄहक ं ार, ऄहकं ार र्में
तन्र्माराओ ं और आवन्ियों का और तन्र्माराओ ं र्में सक्ष्र र्म पंि तर व सक्ष्र र्म पंि तर र्में थथलर पंि तर ों तक
पररणार्म हो रहा ह। जड़ र्में आन सब पररणार्मों का वनवर्मत्त कारण जीवात्र्मा ह। आन सारे पररणार्मों का प्रयोजन
ी जीवात्र्मा के वलए ोग व ऄपवगलभ ह। गीता के तीसरे ऄ्याय के सत्ताआसवें व ऄट्ठाआसवें श्लोक र्में

तत्त्वज्ञान 56
गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं–‚सम्पणू थ कमथ प्रकृ लत के गणु ों द्वारा लकए जाते हैं। लफर भी अहक
ां ार से
मोलहत हुआ जीवात्मा ऐसा मान िेता है लक ‘मैं कताथ ह’ूँ । परन्तु हे महाबाहो! गणु लवभाग (स्थि ू पांचभतू
से िेकर लचत्त तक) और कमथ लवभाग (स्थि ू पांचभतू से िेकर लचत्त तक की चेष्टाएूँ) के तत्त्व को जानने
वािे ज्ञानी परू
ु ष सम्पणू थ गणु गणु ों में वतथ रहे हैं, ऐसा जानकर आसता नहीं होता है”।
परा-प्रकृ वत (र्मल
र -प्रकृ वतद की सत्ता साम्य पररणार्म वाली ह। ऄथालभत् सत्त्वगणर का सत्त्वगणर र्में,
रजोगणर का रजोगणर र्में और तर्मोगणर का तर्मोगणर र्में पररणार्म हो रहा ह। आस र्मल र प्रकृ वत का प्रत्यक्ष न होने
के कारण जीवात्र्मा के वलए प्रयोजन से रवहत ह। जीवात्र्मा का प्रयोजन ोग और ऄपवगलभ ह। ोग गणर ों के
पररणार्मों का यथाथलभ रूप से साक्षात्कार होता ह। ऄपवगलभ जीवात्र्मा की ऄपने थवरूप र्में ऄववथथवत ह।,
वबना गणर ों का साक्षात्कार वकए जीवात्र्मा का ऄपने थवरूप र्में ऄववथथवत होना वबककरल ऄसम् व ह।
परा-प्रकृ वत के साम्य पररणार्मों का प्रत्यक्ष न होने से वसिलभ ऄनर्मर ान द्रारा जाना जा सकता ह। परा-प्रकृ वत
ववकृ वत नहीं ह।, के वल प्रकृ वत ह। आसे सर्मवष्ट, ऄव्य‍त व प्रधान ी कहते हैं ऄपरा-प्रकृ वत र्में गणर ों का
पररणार्म हो रहा ह। पररणार्मों का प्रत्यक्ष होने के कारण यह व्य‍त रूप र्में ह। गीता र्में गवान् श्री कृ ष्ण
ऄजलभनर से कहते हैं–
‚प्रकृ लत में लस्थत हुआ जीवात्मा प्रकृ लत उत्पन्न हुए लत्रगणु ात्मक पदाथथों को भोगता है और इन गणु ों
का सगां ही इस जीवात्मा के अच्छी बरु ी योलनयों में जन्म िेने का कारण है। जब जीवात्मा के साथ
सत्त्वगणु प्रधान रूप में होता है तब रजोगणु व तमोगणु गौण रूप में रहते हैं, तब उनका जन्म देव
योलनयों में होता है। जब जीवात्मा के साथ रजोगणु प्रधान रूप में रहता है तब सत्त्वगणु व तमोगणु
गौण रूप में रहता है, तब जीवात्मा का जन्म मनष्ु य योलन में होता है। जब जीवात्मा के साथ तमोगणु
प्रधान रूप में रहता है तब सत्त्वगणु व रजोगणु गौण रूप में रहते हैं, तब उसका जन्म पश-ु पक्षी,
कीट-पतांगे आलद लनम्न कोलट की योलनयों में होता है‛।
ऄपरा-प्रकृ वत र्में ऄनल
र ोर्म और प्रवतलोर्म दो प्रकार के थवा ाववक पररणार्म होते हैं, जो परू र षाथलभ
कतलभव्यता कहलाते हैं यह पररणार्म रूप शव‍त प्रकृ वत र्में थवा ाववक हैं ऄपरा-प्रकृ वत का बवहलभर्मख र ी रूप
से वित्त से लेकर पंि-र्महा तर तक ऄनल र ोर्म पररणार्म ह।, विर ऄपने कारण प्रवेश द्रारा वित्त तक प्रवतलोर्म
पररणार्म ह। प्रवतलोर्म पररणार्म र्में पृथ्वी का जल र्में, जल का ऄव‍न र्में, ऄव‍न का वायर र्में, वायर का
अकाश र्में, आवन्ियों का र्मन र्में, र्मन का बवर ि र्में, बवर ि का ऄहक
ं ार र्में तथा ऄहक
ं ार का वित्त र्में प्रवेश हो
जाता ह। आस ववषय र्में अप हर्मारे ऄनर वों को पवढ़ए, तब ली प्रकार सर्मझ र्में अ जाएगा जीवात्र्मा के

तत्त्वज्ञान 57
ोगों की सर्मावप्त हो जाने से प्रकृ वत की दोनों शव‍तयााँ थवा ाववक ही (ऄनल र ोर्म पररणार्म व प्रवतलोर्म
पररणार्मद नष्ट हो जाती हैं, तब र्म‍र त जीवात्र्मा के प्रवत प्रकृ वत कृ ताथलभ (ऄपने कायलभ को सर्माप्त करने
वालीद हुइ विर पररणार्म को अरम् नहीं करती ह।
सृवष्ट और प्रलय के सर्मय तीनों गणर ों की ऄवथथा ववशेष होती ह। थथल र तर ों से लेकर तन्र्माराओ ं
तक एक ववशेष प्रकार की सक्ष्र र्म ऄवथथा होती ह। थथल र तर ों, सक्ष्र र्म तर ों और तन्र्माराओ ं का सद।व
ववशेष प्रकार का सक्ष्र र्म सम्बन्ध बना रहता ह।, आसी के ऄन्तगलभत सारे सक्ष्र र्म लोक अते हैं प्रलय काल र्में
के वल पृथ्वी का जल र्में, जल का ऄव‍न र्में तथा ऄव‍न का वायर र्में थवरूप से लय हो जाता ह। सृवष्ट के
सर्मय ये स ी ऄपने थवरूप से क्रर्मशः प्रकट हो जाते हैं आसी प्रकार प्रावणयों के सम्बन्ध र्में ी ह। पााँिों
थथल र - तर सक्ष्र र्म- तर ों र्में, पााँिों सक्ष्र र्म- तर तन्र्माराओ ं र्में, तन्र्माराएाँ ऄहक ं ार र्में, दसो आवन्ियााँ र्मन र्में, र्मन
बवर ि र्में तथा बवर ि ऄहक ं ार र्में क्रर्मशः लीन हो जाते हैं प्रलय के सर्मय रजोगणर पर तर्मोगणर का प्र ाव
ऄवधक पड़ता ह। विर वतलभर्मान थथल र रूप छोड़ कर क्रर्मशः ऄपने-ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं विर
सृवष्ट के सर्मय ये स ी (ऄहक ं ार से लेकर पंि-र्महा तर तकद ऄपने कारण से क्रर्मशः ववकृ वत रूप र्में प्रकट
होने लगते हैं प्रकट होते सर्मय तर्मोगणर पर रजोगणर का प्र ाव ऄवधक हो जाता ह। सृवष्ट के बाद प्रलय
और प्रलय के बाद सृवष्ट यही क्रर्म प्रवाह ऄनावद काल से िला अ रहा ह।
प्रकृ वत को जड़ तत्त्व ी कहते हैं आस प्रकृ वत के र्मख्र य रूप से कइ ाग वकए जा सकते हैं यही
ऄपने अप को अठ प्रकृ वतयों के रूप र्में तथा सोलह ववकृ वतयों के रूप र्में ईत्पन्न वकए हुए ह। आसी प्रकृ वत
से ववकृ वत के रूप र्में वित्त ईत्पन्न हुअ ह।, वित्त से ववकृ वत रूप र्में ऄहक ं ार ईत्पन्न हुअ ह।, ऄहक ं ार से
ववकृ वत रूप र्में तन्र्माराएाँ, र्मन तथा दसों आवन्ियााँ ईत्पन्न हुइ हैं तथा तन्र्माराओ ं से पिं - तर ईत्पन्न हुए हैं
र्मन, दसों आवन्ियों व पिं - तर ों से ववकृ वत के रूप र्में कोइ नया तत्त्व ईत्पन्न नहीं हुअ ह।, आसवलए ये स ी
सोलह तत्त्व ववकृ वत रूप र्में ही ह। परा-प्रकृ वत वकसी की ववकृ वत नहीं ह। वित्त प्रकृ वत की ववकृ वत ह। र्मगर
वित्त से ववकृ वत के रुप र्में ऄहक ं ार ईत्पन्न हुअ ह। आसवलए वित्त ऄहक ं ार की प्रकृ वत ह। ऄहक ं ार वित्त से
ववकृ वत रूप र्में ईत्पन्न हुअ ह।, आसवलए ऄहक ं ार वित्त की ववकृ वत ह। र्मगर ऄहक ं ार से पिं तन्र्माराएाँ
ईत्पन्न हुइ ह।, आसवलए ऄहक ं ार पााँिों तन्र्माराओ ं की प्रकृ वत ह। पााँिों तन्र्माराएाँ ऄहकं ार से ईत्पन्न होने के
कारण ऄहक ं ार की ववकृ वत ह। पााँिों तन्र्माराओ ं से ववकृ त रूप र्में पंि-र्महा तर ईत्पन्न हुए हैं, आसवलए
पााँिों तन्र्माराएाँ पंि-र्महा तर ों की प्रकृ वत ह। पंि-र्महा तर पााँिो तन्र्माराओ ं की ववकृ वत ह। ऄहक ं ार से
दसर रे ववकृ वत के रूप र्में र्मन व दसों आवन्ियााँ ईत्पन्न हुइ ह। आसवलए ऄहक ं ार र्मन व दसों आवन्ियों की प्रकृ वत

तत्त्वज्ञान 58
ह। वित्त, ऄहक ं ार, पााँिों तन्र्माराएाँ प्रकृ वत व ववकृ वत दोनों हैं सोलह ववकृ वतयों (र्मन, दसों आवन्ियााँ व पंि-
र्महा तर द से कोइ नया तत्त्व ईत्पन्न नहीं हुअ, आसवलए ये वसिलभ ववकृ वत ह। ऄथालभत् परा-प्रकृ वत वसिलभ वाथतव
र्में प्रकृ वत ह। सातों (वित्त, ऄहक ं ार और पााँिो तन्र्माराएाँद प्रकृ वत और ववकृ वत हैं, सोलह ववकृ वतयााँ (र्मन,
दसों आवन्ियााँ और पंि-र्महा तर द हैं, आसवलए प्रकृ वत ऄपने अपको िौबीस र्मख्र य ागों र्में वव ‍त वकए
हुए ह। र्मैं एक बात थपष्ट कर दाँ-र वक परा-प्रकृ वत से इश्वर के वित्त का वनर्मालभण हुअ ह।, आसवलए इश्वर का
वित्त सर्मवि रूप वाला ह। व्यवष्ट रुप से (ऄपरा-प्रकृ वत सेद जीवों के वित्त का वनर्मालभण हुअ ह। सोलह
ववकृ वतयााँ वसिलभ ववकृ वतयााँ आसवलए हैं, ‍योंवक वह वकसी की प्रकृ वत नहीं हैं, जबवक सारी थथल र वथतएर ाँ
आन्हीं थथल र तर ों के कायलभ हैं वकन्तर पााँिों थथरल- तर ऄपने ववकृ वत पररणार्म से अगे कोइ नया तत्त्व कारण
रूप होकर नहीं बनाते हैं
योग र्में काल और वदशा को जड़ तत्त्व नहीं र्माना ह।, ‍योंवक ये वाथतववक तत्त्व नहीं हैं काल और
वदशा न प्रकृ वत हैं और न ही ववकृ वत, और न ही आन दोनों को अत्र्मा के सर्मान िेतन तत्त्व कहा जा सकता
ह। ऄथालभत् काल और वदशा न तो जड़ तत्त्व ह। और न ही िेतन तत्त्व ह। योग के ऄनसर ार ये दोनों एक क्रर्म
से दसर रे क्रर्म र्में और एक थथान से दसर रे थथान र्में अगे-पीछे , वनकटता और दरर ी बतलाने के वलए वित्त की
वनर्मालभण की हुइ वथतएर ाँ हैं ये थवयं ऄपना कोइ ऄवथतत्व नहीं रखते हैं र्मैं ऄपने ऄनर व के द्रारा बता रहा हाँ
वक साधक को वित्त का साक्षात्कार होने तक ऄनर व के सर्मय वदशाओ ं का ज्ञान बना रहता ह।
यह सृवष्ट िौदह प्रकार के प्रावणयों से यक्त र ह। आनर्में से प्रथर्म अठ प्रकार के प्रावणयों की सृवष्ट द।वी
प्रकार की ह। आस द।वी सृवष्ट र्में सत्त्वगणर प्रधान रहता ह। विर र्मनष्र य की सृवष्ट अती ह। वजसर्में रजोगणर
प्रधान रहता ह। वनिली पााँि प्रकार की सृवष्ट वतयलभक योवनयों की ह।, आसर्में तर्मोगणर प्रधान रहता ह। उपर
की जो अठ प्रकार की सृवष्ट ह।, वह व न्न-व न्न कर्मों व ईपासना का िल ह। ये अठों प्रकार की द।वी
सृवष्ट र्मनष्र यों से सक्ष्र र्म होने के कारण आनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ह। र्मनष्र य से जो पााँि प्रकार की वनम्न
श्रेणी की वतयलभक सृवष्ट ह।, ईसका प्रत्यक्ष होता ह। जो साधक ववतकालभनगर त से (पिं -र्महा तर साक्षात् के
बादद उाँिी प्रकाशर्मय वविारानगर त (सक्ष्र र्म र्महा तर व तन्र्माराओ ं के ऄन्तगलभतद सर्मावध का ऄभ्यास कर
रहे हैं, ईन्हें (साधकों कोद ईनकी यो‍यता के ऄनसर ार आन अठ प्रकार की द।वी सृवष्ट का साक्षात्कार होता
ह। ऄथवा हो सकता ह। ऄब यह बात ्यान देने यो‍य ह। वक वविारानगर त सर्मावध के ऄन्तगलभत सक्ष्र र्मता के
थतर र्में ऄंतर ह।, ‍योंवक आस सक्ष्र र्मता के ऄन्तगलभत सक्ष्र र्म पंि-र्महा तर व तन्र्माराएाँ अती ह। अपस र्में
आनकी सक्ष्र र्मता र्में ारी ऄंतर ह। आसी ऄंतर के ऄनसर ार ही अनन्द की ऄनर वर त होती ह। ऄथालभत् सक्ष्र र्मता के

तत्त्वज्ञान 59
ऄनसर ार ही अनन्द की ऄनर वर त र्में ऄंतर ह। आस द।वी सृवष्ट र्में पहले के छः प्रकार की सृवष्ट र्में परथपर
कािी ऄंतर ह। आसी ऄंतर के ऄनसर ार अपस र्में अनन्द की ऄनर वर त तथा अयर र्में ी ऄंतर ह। आन स ी
छः प्रकार की सृवष्ट र्में सारा कायलभ संककपर्मय होता ह। आन संककपों र्में परथपर सक्ष्र र्मता और अनन्द के
ऄनसर ार ऄंतर ह। ये स ी प्राणी वर लोक, थवगलभ लोक, र्महलोक, जनलोक, तपलोक और ब्रह्मलोक के
ऄन्तगलभत अते हैं िौदह प्रकार की सृवष्ट के नार्म आस प्रकार हैं–
1. ब्राह्म, 2. प्रजापत्य, 3. ऐन्र, 4. देव, 5. गन्धवय, 6. दपत्र्य, 7. दवदेह, 8. प्रकृदतलय, 9. मनुष्य,
10. पशु, 11. पक्षी, 12. रें गने वाले जन्त,ु 13. कीट, 14. स्थावर।
ववदेह और प्रकृ वतलयों का अनन्द और सक्ष्र र्मता पहले के छः प्रकार की सृवष्ट से ऄवधक हैं आनकी
अयर ी आनसे ऄवधक ह।, ‍योंवक ववदेह वविारानगर त से उाँिी अनन्दानगर त सर्मावध (ऄहक ं ार की वर र्मद
को वसि वकए हुए ह। तथा शरीर से ऄव र्मान छोड़े हुए ह। दसर रे शब्दों र्में वनववलभिार (वनववलभककपद सर्मावध
की ईच्ितर ऄवथथा प्राप्त वकए होते हैं प्रकृ वतलय आनसे ी उाँिी ऄवथर्मतानगर त सर्मावध को वसि वकए
हुए होते हैं, र्मगर प्राकृ वतक बन्धन सर्माप्त नहीं हुअ होता ह। आन्हें तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं होती ह। ऐसे
योवगयों को ऄपने थवरूप र्में वथथत होने के वलए ऄगला जन्र्म ्र हण करना ऄवनवायलभ होता ह। ये दोनों
ऄवथथाएाँ वसिलभ योवगयों को ही प्राप्त होती हैं आस ववषय र्में व्यास जी वलखते हैं- ‚ववदेह और प्रकृ वतलय
नार्मक ऄवथथा क। वकय की तकर य वथथवत र्में ह।, आसवलए ये वकसी वदव्य लोक र्में वनवास करने वाले के साथ
सवम्र्मवलत नहीं वकए गये हैं‛ गीता र्में गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं–
“ब्रह्मिोक से िेकर सब िोक (ब्रह्म िोक से िेकर पाताि िोक तक) पनु रावृती स्वभाव वािे हैं,
लकन्तु हे अजथनु ! मझु (शि
ु चेतनतत्त्व पर ब्रह्म) को प्राप्त होकर पनु जथन्म नहीं होता है‛।
प्रकृ वतलय योगी का प्राकृ वतक बन्धन सर्माप्त न हो पाने के कारण ऄपरा-प्रकृ वत के अवरण र्में ववद्यर्मान
रहते हैं, आसवलए ये वकसी लोक (िौदह लोकों के द के वनवासी नहीं कहे जाते हैं, ‍योंवक स ी िौदह
लोकों र्में वथथत प्रावणयों से प्रकृ वतलय की सक्ष्र र्मता व व्यापकता ऄवधक होती ह।
ऄपरा-प्रकृ वत र्में ब्रह्मलोक से लेकर पाताल लोक तक िौदह लोक अते हैं, आनका ऄवधपवत
वहरण्यग लभ होता ह। वहरण्यग लभ को प्रजापवत व ब्रह्मा ी कहते हैं सृवष्ट का कायलभ यही प्रजापवत गवान्
ब्रह्मा ही करते हैं आनका लोक ब्रह्म लोक कहा जाता ह। साधना काल र्में वजस साधक की वदव्य दृवष्ट
ऄत्यन्त शव‍तशाली हो, वे ब्रह्म लोक का र्म्य वाला ाग ऄवश्य देखें, ‍योंवक आस लोक के र्म्य वाले
ाग का दृश्य बहुत ऄच्छा ह। यहीं से सक्ष्र र्म वायर का प्रकट होना शरू
र होता ह। यहााँ पर शीतल सगर वन्धत

तत्त्वज्ञान 60
वायर का प्रवाह सदा सर्मान रूप से बहता रहता ह। ब्रह्मा का थथान लोक के उपरी ाग पर ह। वजतने लोक
ऄपरा-प्रकृ वत के ऄन्तगलभत अते हैं, ईनर्में वथथत स ी प्रकार की जीवात्र्माएाँ वकसी-न-वकसी की वासनाओ ं
से यक्त
र होती हैं िाहे वह प्राणी सक्ष्र र्म लोक र्में सर्मावध ही ‍यों न लगाता हो, ईन्हें ी बहुत ऄन्तराल के
बाद ख र -प्यास लगती ह। आस ख र और प्यास की ऄत्यन्त सक्ष्र र्म रूप से ऄनर वर त होती ह। ऐसी
जीवात्र्माएाँ (थवगलभलोक से लेकर ब्रह्मलोक तक हीद थवयं ऄपने योगबल से ऄपनी आच्छानसर ार पदाथलभ
प्रकट कर लेती हैं, विर ईसी को खा लेती हैं यह पदाथलभ (वथतदर योग बल का बदला हुअ थवरूप होता ह।
ऄथालभत् सक्ष्र र्म लोक र्में वथथत जीवात्र्माएाँ ऄपना पण्र य ऄथवा योगबल ही खाया करती हैं
आन िौदह लोकों र्में वथथत ववव न्न प्रकार की जीवात्र्माएाँ ऄपने-ऄपने कर्मालभनसर ार दःर ख और अनन्द
की ऄनर वर त करती हैं उपर के लोकों र्में वदव्य जीवात्र्माएाँ रहती हैं वे ऄपने लोकों र्में सक्ष्र र्मता के ऄनसर ार
अनन्द की ऄनर वर त करती हैं तथा आनकी अयर ी बहुत ज्यादा होती ह। आन्हीं लोकों र्में साधक व ‍त
रहते हैं र्मगर साधक व क्तों का क्षेर ऄलग होता ह। साधक व ‍त ईन लोकों र्में सर्मावध लगाते हैं
ऄथवा इश्वर विन्तन करते हैं विर ईवित सर्मय अने पर ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करते हैं जन्र्म ्र हण
करने के बाद ऐसी जीवात्र्माएाँ योग का ऄभ्यास ऄथवा व‍त करने लगती हैं ल र ोक से नीिे जो वनम्न
श्रेणी के लोक हैं, ईन लोकों र्में ज्यादातर जीवात्र्माएाँ कष्ट ही ोगा करती हैं, ‍योंवक आन लोकों र्में
जीवात्र्माओ ं को कष्ट ोगने के वलए ही ेजा जाता ह। ये लोक प्रकाश से रवहत ऄथवा धाँधर ले प्रकाश से
यक्त
र होते हैं धाँधर ले प्रकाश के कारण आनर्में ऄवधक दरर का दृश्य वदखाइ नहीं देता ह। ल र ोक से उपर के
लोक (थवगलभ लोक से लेकर ब्रह्म लोक तकद प्रकाशर्मान हैं वर लोक र्में करछ क्षेर र्में प्रकाश रहता ह।, करछ
क्षेर घोर ऄंधकार से यक्त र रहता ह। उपर के लोकों र्में प्रकाश एक सर्मान नहीं रहता ह। ऐसा घनत्व के
कारण होता ह।, ‍योंवक आन लोकों का घनत्व क्रर्मशः कर्म होता जाता ह। कर्म घनत्व होने के कारण
सत्त्वगणर की र्मारा बढ़ने लगती ह। ज।से-ज।से सत्त्वगणर की र्मारा बढ़ती जाएगी व।से-व।से प्रकाश बढ़ता
जाएगा यहााँ पर र्मैं एक र्महत्वपणर लभ बात वलख रहा हाँ वक ये स ी लोक न कहीं उपर हैं, न ही कहीं नीिे हैं
आन लोकों की व न्नता घनत्वथतर कर्म ज्यादा होने के कारण ह। ज।से-ज।से घनत्व कर्म होता जाता ह।, व।से-
व।से ई्वलभता की ऄनर वर त होती ह। ज।से-ज।से घनत्व का थतर ज्यादा होता जाता ह।, व।स-े व।से वनम्नता की
ऄनर वर त होती ह। वजतना घनत्व थतर कर्म होगा ईतना ही तर्मोगणर की र्मारा घटेगी और सत्त्वगणर की र्मारा
बढ़ेगी आसवलए ई्वलभ लोकों र्में प्रकाश वथथत रहता ह। वजतना घनत्व थतर बढ़ेगा ईतना ही तर्मोगणर की
र्मारा सक्ष्र र्म रूप से बढ़ेगी तथा सक्ष्र र्म रूप से सत्त्वगणर कर्म होता जाएगा आसवलए प्रकाश धीरे -धीरे धनत्व
थतर के ऄनसर ार घटता जाता ह। ल र ोक थथल र -लोक ह।, आसे र्म्य र्में र्माना गया ह। नीिे के जो सात लोक

तत्त्वज्ञान 61
हैं, वह पृथ्वी के नीिे नहीं ह। ऄथवा पृथ्वी के ऄन्दर नहीं ह। आन लोकों र्में क्रर्मशः घनत्व कर्म होता जाता
ह। तथा वनम्न श्रेणी के कर्मलभ ोगने के वलए जीवात्र्माओ ं को यहााँ ेजा जाता ह। आन लोकों र्में वथथत
प्रावणयों को सद।व दःर ख की ऄनर वर त होती रहती ह। आसवलए ये नीिे के लोक कहे गये हैं र्मृत्यर के पश्िात
प्राणी का सक्ष्र र्म शरीर कर्मालभनसर ार वजस घनत्व वाला होता ह। ऄथालभत् वजतना व्यापक होता ह। ईसी के
ऄनसर ार ईसे लोक की प्रावप्त होती ह। जीवन्र्मक्त र योगी का सक्ष्र र्म शरीर ौवतक देह त्यागने के पश्िात
योगाव‍न द्रारा थर्म हो जाता ह। सक्ष्र र्म शरीर र्में ही प्रावणयों के कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं ऐसी ऄवथथा र्में
जीवन्र्मक्त
र परूर ष सक्ष्र र्म शरीर से रवहत हुअ ऄपने ऄत्यन्त व्यापक कारण शरीर द्रारा ऄपरा-प्रकृ वत को
पारकर परा-पकृ वत (इश्वर के लोक र्मेंद र्में ववद्यर्मान हो जाते हैं ऄब र्मैं क्रर्मशः िौदह लोकों को वलख रहा
ह,ाँ जो वनम्न प्रकार हैं–
1. पाताल लोक 2. रसातल लोक 3. महातल लोक 4. तलातल लोक 5. सुतल लोक 6. दवतल
लोक 7. अतल लोक 8. भूलोक 9. भुवलोक 10. स्वगय लोक 11. महलोक 12. जनलोक
13. तपलोक 14. ब्रह्मलोक।
सन् 1996 के अरम् र्में ्यानावथथा र्में हर्में प्रलय और सृवष्ट का ऄनर व अया था, र्मैं ईसे वलख
रहा हाँ ्यानावथथा र्में ऐसा लगा र्मानों यं कर ववथिोट हुअ हो और सारा ऄतं ररक्ष वहल गया, विर
ओकं ार की ्ववन अने लगी ऐसा लग रहा था र्मानों बहुत दरर से ओकं ार की ्ववन अ रही ह। यह
ओकं ार ्ववन धीरे -धीरे तीव्र होती िली गइ सर्मथत ऄतं ररक्ष र्में तीव्र ्ववन सनर ाइ देने लगी ओकं ार की
्ववन के साथ ही ऄतं ररक्ष र्में वथथत ्र हों र्में कंपन होने लगा ज।से-ज।से ओकं ार की ्ववन तीव्र होती जाती,
व।से-व।से ऄतं ररक्ष र्में वथथत ्र हों र्में कंपन ी बढ़ता जाता था करछ क्षणों र्में जोरदार ववथिोट हुअ और
ववथिोट की अवाज के साथ सर्मथत ्र ह टरट-टरट कर छोटे-छोटे टरकड़ों र्में वबखर गये ऐसा लग रहा था
र्मानों ऄतं ररक्ष र्में ्र हों का र्मलबा वबखरा हो विर यह र्मलबा ज।सा वबखरा पदाथलभ ओकं ार की ्ववन की
ओर िम्र बक की ााँवत वखिकर जाने लगा करछ क्षणों र्में यह र्मलबा ज।सा पदाथलभ धीरे -धीरे तेज ऄव‍न के
रूप र्में पररववतलभत हो गया और धीरे -धीरे ऄव‍न का थवरुप वपण्ड अकार र्में बदल गया यह ऄव‍न वपण्ड
ओकं ार की ्ववन की ओर जा रहा था विर ऄव‍न वपण्ड धीरे -धीरे वायर वपण्ड के रूप र्में पररववतलभत होता
वदखाइ वदया, त ी ओकं ार की ्ववन धीरे -धीरे धीर्मी होकर शांत हो गइ आस दृश्य र्में नष्ट होते हुए पृथ्वी
ी वदखाइ दे रही थी ओकं ार की ्ववन ऄनन्त दरर से अ रही थी सृवष्ट के सर्मय प्रलय से ठीक ईकटी
वक्रया होती ह।, यह ी ्यानावथथा र्में वदखाइ वदया था शरू र अत र्में ववथिोट के साथ ओकं ार की ्ववन

तत्त्वज्ञान 62
प्रकट होती ह। छोटा-सा वायर वपण्ड करछ क्षणों र्में ववशाल ऄव‍न वपण्ड के रूप र्में पररववतलभत हो गया वही
दहकता हुअ ऄव‍न वपण्ड यंकर ववथिोट के साथ ऄसंख्य टरकड़ों ज।से रूप र्में पररववतलभत हो गया ये
टरकड़े गवत कर रहे थे तथा अपस र्में टरटते जा रहे थे ये ऄव‍न के टरकड़े धीरे -धीरे थथल र वपण्ड के रुप र्में
पररववतलभत हो गये वजस गवत से ये टरकड़े टरटकर वबखरे ईसी गवत से थथल र वपण्ड गवत करने लगे सृवष्ट
और प्रलय के ऄनर व र्में र्मझर े जल तत्त्व वदखाइ नहीं वदया था हो सकता ह। वक ऄव‍न वपण्ड और थथल र
वपण्ड के बीि की ऄवथथा हर्में सर्मझ र्में न अइ हो, ‍योंवक जब हर्में ऄंतररक्ष र्में पृथ्वी वदखाइ दी थी, ईस
सर्मय हर्में पृथ्वी का सर्मिर वदखाइ नहीं वदया था
एक ऄनर व हर्में 22 ऄगथत 2001 को अया था यह दृश्य र्मैंने वसिलभ अाँखें बन्द करने पर देखा
था र्मैंने देखा वक ऄंतररक्ष र्में एक गोलाकार ववशाल जगह ह। आस गोलाकार जगह र्में प्रकाश (प्रकाश
ज।सा तत्त्वद ईबलता रहता ह। तथा ईसी र्में ववलीन होता रहता ह। प्रकाश ईबलने और ईसी र्में ववलीन होने
की वक्रया ऄत्यन्त तीव्र गवत से होती रहती ह। आस गोलाकार प्रकाशर्मान जगह के बाहर ररंग के अकार र्में
कािी िौड़ी पट्टी नर्मर ा क्षेर ऄपने ही जगह पर ऄत्यन्त तीव्र गवत से घर्मर रहा ह। यह ररंगनर्मर ा क्षेर ईस
गोलाकार प्रकाशवान जगह को िारों ओर से घेरे हुए ह। यह ररंगनर्मर ा जगह जो िौड़ी पट्टी के अकार र्में
ह।, आसी क्षेर र्में ऄसंख्य अकाश-गंगाएाँ हैं ऄसंख्य शब्द आसवलए प्रयोग वकया गया, ‍योंवक र्मैं ईनकी
वगनती नहीं कर सकता हाँ वह गोलाकार प्रकाशर्मान क्षेर व आसके बाहर का क्षेर जो ररंग के अकार र्में ह।
ऄथालभत् दोनों क्षेर ऄत्यन्त ववशाल ऄंतररक्ष र्में ऄंडाकार रूप र्में एक साथ वर्मलकर ि‍कर लगा रहे हैं
ऄत्यन्त ववशाल ऄतं ररक्ष र्में दो प्रकार की गवत हो रही ह। एक– गोलाकार कािी बड़ा क्षेर वजसर्में प्रकाश
ईबलता और ववलीन होता ह। ईसके िारों ओर ररंग अकार र्में पट्टीनर्मर ा िौड़ा क्षेर ऄपनी ही जगह पर
तीव्र गवत से घर्मर रहा ह। दूसरा– गोलाकार र्म्य वाला क्षेर व बाहर का ररंग अकार वाला क्षेर वजस र्में
अकाश-गंगाएाँ हैं दोनों एक साथ वर्मलकर ऄत्यन्त ववशाल ऄंतररक्ष र्में ऄंडाकार गवत कर रहे हैं दोनों
वर्मलकर वकस के न्ि का ि‍कर लगा रहे हैं, यह र्मेरी वदव्य दृवष्ट से वदखाइ नहीं वदया वसिलभ ऄत्यन्त
ववशाल ऄंतररक्ष र्में ये दोनों एक साथ वर्मलकर गवत करते वदखाइ वदए छकलाकार पट्टी ऄपनी जगह पर
एन्टी ‍लॉक-वाइस गवत कर रही थी, दोनों क्षेर एक साथ वर्मलकर ‍लॉक-वाइस गवत कर रहे थे आस दृश्य
के सर्मय वायर तत्त्व के घषलभण की अवाज अ रही ह।
गोलाकार प्रकाशवान क्षेर ज्वालार्मख
र ी के लावे के सर्मान ईबल रहा था तथा वहीं पास र्में ईबला
हुअ तत्त्व ववलीन होता वदखाइ दे रहा था पदाथलभ का ईबलना और ववलीन होना यह वक्रया कइ जगह हो

तत्त्वज्ञान 63
रही थी ईबलता हुअ गोलाकार क्षेर आतना बड़ा था वक अकाश-गंगाओ ं वाले क्षेर को बड़े अरार्म से
वनगल लेगा ओर र्मालर्मर ी नहीं पड़ेगा वक अकाश-गंगाएाँ व ईनका क्षेर कहााँ िला गया लावा के
सर्मान ईबलते पदाथलभ से ही अकाश-गंगाओ ं का वनर्मालभण हुअ ह। आसवलए सम्पणर लभ अकाश-गंगाएाँ व
ईनका क्षेर ऄपने के न्ि का ि‍कर लगा रहे हैं तथा ये दोनों वर्मलकर (र्म्य वाला क्षेरद ऄपने के न्ि का
ि‍कर लगा रहे हैं यह के न्ि दृश्य र्में वदखाइ नहीं वदया ये दोनों क्षेर (र्म्य वाला क्षेर तथा अकाश-
गंगाओ ं वालाद वजस ऄंतररक्ष र्में ववद्यर्मान ह।, ईस ऄंतररक्ष का घनत्व कर्म ह।, ऐसा थपष्ट वदखाइ दे रहा
था करछ वदनों बाद ज्ञान के द्रारा ईस के न्ि की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास वकया तो र्मालर्मर हुअ वक
वह थथान ऄत्यन्त सक्ष्र र्म ह। तथा ईस दृश्य को प्रकृ वत वदखाना नहीं िाहती ह। आसवलए वह थथान अपकी
वदव्य दृवष्ट र्में नहीं अया विर र्मैंने ी ईस क्षेर को जानने की हठ नहीं की
वजस प्रकार प्रत्येक अकाश-गंगा ऄपने के न्ि का ि‍कर काट रही ह।, ईसी प्रकार प्रत्येक अकाश-
गंगा र्में बड़े-बड़े ्र हों का ि‍कर ईनके ईप्र ह काट रहे हैं ऄथालभत् िारों ओर गवत कर रहे हैं ये ईप्र ह एक
बार र्में दो प्रकार के ि‍कर काटते हैं एक- थवयं ऄपना ऄथालभत् ऄपनी धरर ी पर गवत कर रहे हैं तथा
दूसरा– ऄपने ्र ह का ऄथालभत् वजस ्र ह से ईसका वनर्मालभण हुअ ह। ्र ह से ईप्र ह का जब वनर्मालभण हुअ, तो
पहले ववथिोट हुअ विर ईससे गवत ईत्पन्न हुइ, आसवलए ईप्र ह गरू र त्वाकषलभण के कारण गवत करने लगा
अकाश-गंगा ऄसंख्य ्र हों तथा ईप्र हों का सर्महर ह। आन अकाश-गंगाओ ं र्में ववशेष प्रकार के कइ
िम्र बकीय क्षेर हैं आन िम्र बकीय क्षेरों का र्मानव शरीर र्में वथथत नावड़यों के सर्मान जाल वबछा हुअ ह।
छोटे-छोटे िम्र बकीय क्षेरों का सम्बन्ध बड़े-बड़े िम्र बकीय क्षेरों से होता ह। प्रत्येक ्र ह-ईप्र ह का सम्बन्ध
िम्र बकीय क्षेर से ऄवश्य होता ह। क ी-क ी ऐसा ी होता ह। वक ्र हों व ईप्र हों र्में तथा आन दोनों के
बीि ऄंतररक्ष र्में िम्र बकीय क्षेर बनते व सर्माप्त होते रहते हैं यह िम्र बकीय क्षेर बहुत ही र्महत्वपणर लभ हैं
करछ िम्र बकीय क्षेर ऄत्यन्त ववशालकाय होते हैं, तो करछ वबककरल छोटे होते हैं करछ ववशालकाय
िम्र बकीय क्षेर ्र हों को वनगल जाने का सार्मथ्यलभ रखते हैं करछ वषलभ पवर लभ र्मैंने ऄंतररक्ष र्में कइ िम्र बकीय क्षेर
देखे थे पहले तो आन्हें र्मैं सर्मझ नहीं पाया वक यह ‍या ह।, विर आनके ववषय र्में जानकारी हो गइ जब यह
ऄनर व अया था तब िम्र बकीय क्षेरों के ववषय र्में ज्यादा जानकारी नहीं हुइ थी करछ वदनों तक र्मैंने
्यानावथथा र्में आन िम्र बकीय क्षेरों के ववषय र्में बहुत खोज की ये खोज ज्यादातर ऄपने ही सौर र्मण्डल र्में
की थी पृथ्वी पर ी आन िम्र बकीय क्षेरों का प्र ाव ह। करछ छोटे-छोटे िम्र बकीय क्षेर पृथ्वी की वर र्म पर
ी बनते व सर्माप्त होते रहते हैं सर्मिर र्में बड़े-बड़े िम्र बकीय क्षेर हैं, ये िम्र बकीय क्षेर र्मानव जावत के
वलए हावनकारक हैं ववशालकाय िम्र बकीय क्षेर के न्ि र्में वथथत हैं जहााँ पदाथलभ ईबलता-सा रहता ह। आन

तत्त्वज्ञान 64
िम्र बकीय क्षेरों का सम्बन्ध अकाश-गंगाओ ं से होता ह। यह दृश्य वसिलभ ईच्ि कोवट का साधक ही देख
सकता ह।, वजसने ऊतम् रा-प्रज्ञा द्रारा पदाथलभ के ववशेष थवरूप का साक्षात्कार वकया ह।, ‍योंवक अकाश-
गंगाओ ं का के न्ि ऄत्यन्त सक्ष्र र्म व कर्म घनत्व वाला होता ह।
ऄब र्मैं प्रकृ वत देवी के (ऄपरा-प्रकृ वतद ववषय र्में करछ शब्द वलख रहा हाँ हर्मारा और प्रकृ वत देवी का
सन् 1995-1996 र्में कािी वनकटता से सम्बन्ध रहा था र्मझर े सन् 1995 र्में र्माता करण्डवलनी शव‍त का
वरदान प्राप्त हुअ र्मैं आस वरदान का प्रयोग वसिलभ अ्यावत्र्मक कायों के वलए कर सकता था, त ी
प्रकृ वत देवी ने हर्मसे सम्पकलभ थथावपत वकया ओर बोली- ‚योगी परर ! ऄब तम्र हें प्रकृ वत के ढेरों कायलभ करने
हैं‛ र्मैंने सोिा र्मैं प्रकृ वत के ढेरों कायलभ क। से कर सकता ह?ाँ विर प्रकृ वत देवी बोली– ‚योगी, तम्र हें तो शव‍त
का वरदान प्राप्त ह।, विर डरते ‍यों हो? वनडर होकर हर्मारे कायलभ करो‛ र्मैं बोला-‚र्माता, र्मैं जो कायलभ
करूाँगा, ईसके कर्मालभशय हर्मारे वित्त पर वथथत होंगे, हर्मारे उपर कर्मलभ बढ़ जाएाँगे‛ प्रकृ वत देवी बोली–
‚तम्र हारे कर्मलभ नहीं बढ़ेंगे ‍योंवक तर्मर हर्मारा कायलभ करोगे यवद वकसी कारण से थोड़े कर्मलभ बन ी जाएाँ तो
यह कर्मलभ योगबल के द्रारा तररन्त जल जाएाँगे आसवलए कर्मों के ववषय र्में विवन्तत न हो और यह अश्चयलभ ी
न करो वक यह कर्मलभ तर्मर से कराए जा रहे ह। वतलभर्मान सर्मय र्में तर्मर एक ऐसे योगी हो जो हर्मारे कायलभ कर
सकते हो, आसवलए हर्मारे कायलभ सम्पन्न करो आस सर्मय ऄनेक वदव्य शवक्तयों की दृवष्ट तम्र हारी ओर ह।
तम्र हारे ऄ्यात्र्म र्मागलभ र्में कोइ ऄवरोध नहीं डाल पायेगा‛
ऄब र्मैं ढेरों कायलभ प्रकृ वत देवी के सक्ष्र र्म रूप से करने लगा प्रकृ वत देवी हर्में अकर बता देती थी वक
ऄर्मक र कायलभ करना ह। और र्मैं ईस कायलभ को करने के वलए त।यार हो जाता था कायलभ िाहे वजतना कवठन
‍यों न हो, पर हर्मारे ऄसीवर्मत योगबल व र्माता करण्डवलनी के वरदान के कारण कायलभ तरर न्त हो जाता था
करछ वदनों बाद सक्ष्र र्म कायों के ऄलावा ौवतक कायों की ी सिर ी लम्बी होती जा रही थी आसवलए ऄब
्यान करने र्में ी ऄवरोध अने लगा था, ‍योंवक ्यान करने के वलए ऄब सर्मय कर्म वर्मलता था तथा
ऐसे कायों को करके र्मन उब-सा गया था र्मैंने ऄपनी बात र्माता प्रकृ वत से कही– ‚र्माता, ऄब हर्मारा र्मन
ऐसे कायों र्में नहीं लगता ह।, र्मैं उब-सा गया ह‛ाँ प्रकृ वत देवी बोली, ‚र्मैं तम्र हें अशीवालभद देती ह,ाँ तर्मर
ववष्य र्में र्महान बनोगे तथा हर्मारे अ्यावत्र्मक कायलभ करोगे तम्र हें ववष्य र्में बहुत कायलभ करने हैं‛ विर
हर्में कइ वदव्य शवक्तयों के अशीवालभद वर्मले– ‚तर्मर ववष्य र्में र्महान बनोगे‛ िरवरी 1996 के प्रथर्म
सप्ताह र्में हर्में जानकारी वर्मली वक प्रकृ वत द्रारा बताइ गइ एक बात गलत वनकली र्मैं सर्मझ गया वक हर्में
धोखा वदया गया ह। जब र्मैंने यह वशकायत प्रकृ वत देवी से की तो वह िपर रही और कोइ ईत्तर नहीं वदया

तत्त्वज्ञान 65
र्मैं बोला- ‚र्माता, जब अप ही झठर बोलेंगी तो हर्म ज।से संसारी परू र षों का ‍या होगा? र्मैं अपसे वकतना
प्रेर्म करता था तथा वकतना ववश्वास करता था‛ र्मेरे आस प्रकार कहने पर प्रकृ वत देवी नाराज हो गइ और
बोली, ‚र्मझर े ‍या करना िावहए और ‍या नहीं करना िावहए, यह र्मझर े कहने वाले तर्मर कोइ नहीं हो
तम्र हारे वकसी प्रश्न का ईत्तर देने के वलए र्मैं बा्य नहीं हाँ आसवलए तम्र हें जो करना हो करो, र्मझर े जो करना
था वह र्मैंने वकया‛, यह कह कर प्रकृ वत देवी ऄदृश्य हो गइ ं र्मैंने तपलोक वनवासी थवार्मी वशवानन्द जी से
पछर ा– हर्मारे साथ ऐसा ‍यों हुअ ह।? थवार्मी वशवानन्द जी बोले– ‚आस ववषय र्में र्मैं करछ नहीं कह सकता
हाँ प्रकृ वत देवी सवोच्ि शव‍त हैं, ईसके वलए र्मैं तच्र छ प्राणी हाँ ‛ विर थवार्मी वशवानन्द जी करछ नहीं
बोले, शांत होकर अाँखें बन्द कर ली ऄन्य सक्ष्र र्म शवक्तयों ने ी आस ववषय र्में करछ ी बताने से आन्कार
कर वदया (यह थवार्मी वशवानन्द जी ऊवषके श वाले हैं, आनका अश्रर्म ऊवषके श र्में बना हुअ ह। आन्होंने
सन् 1963 र्में सर्मावध ले ली थी वतलभर्मान सर्मय र्में ये तपलोक र्में सर्मावध लगाए रहते हैं आन्होने सन्
1995-1996 र्मे हर्मारा र्मागलभदशलभन वकया था द
करछ वदनों बाद हर्में योग र्मागलभ के ऄपने अदशलभ ववश्वावर्मर जी की याद अइ कािी पररश्रर्म के बाद
हर्मारा ववश्ववर्मर जी से सम्पकलभ थथावपत हो गया वह असन पर ब।ठे हर्मारी ओर देख रहे थे र्मैंने ईन्हें
प्रणार्म वकया ईन्होंने हाथ ईठाकर अशीवाद वदया और बोले, ‚र्महान बनो, र्मझर े क। से याद वकया‛ र्मैं
बोला– ‚प्र !र र्मैं अपको ऄपना अदशलभ र्मानता ह‛ाँ वह बोले, ‚यह र्मझर े र्मालर्मर ह।‛ र्मैं बोला, ‚प्र !र र्मैंने
अपको आसवलए याद वकया ह। वक अप हर्मारे अदशलभ हैं और अप हर्मारी सर्मथया हल कर सकते हैं
ब्रह्माण्ड र्में कोइ ी वदव्य शव‍त हर्मारी सर्मथया हल करने को त।यार नहीं ह।, ‍योंवक वे स ी प्रकृ वत से
डरते हैं र्मझर े र्मालर्मर ह। वक अप ऄत्यन्त वनडर थव ाव वाले हैं अपने ऄपनी साधना काल र्में ऄपने आष्ट
गायरी देवी को ी श्राप दे वदया था अपको तो र्मालर्मर होगा वक प्रकृ वत देवी ने हर्मारे साथ ‍या व्यवहार
वकया ह।‛ वह बोले– ‚हााँ, र्मझर े र्मालर्मर ह।‛ र्मैं बोला, ‘‍या अप प्रकृ वत देवी से डरते नहीं ह।’? वह बोले–
‚र्मैं ईनकी परवाह नहीं करता ह,ाँ तम्र हें ‍या पछर ना ह।– पछर ो, र्मैं बताने को त।यार ह‛ाँ र्मैं बोला- ‚प्र !र आसने
हर्मारे साथ ऐसा व्यवहार ‍यों वकया‛ वह बोले– ‚यह र्मैं नहीं बता सकता हाँ वक ईसने ऐसा व्यवहार ‍यों
वकया? परन्तर आसर्में दःर खी होने की ‍या बात ह।? वह ज्यादा-से-ज्यादा अपको नरक र्में िें क सकती ह।,
आससे ज्यादा ओर करछ नहीं कर सकती ह। तो ी अप डरो नहीं, नरक का कष्ट ोग कर विर अ जाओ
विर प्रकृ वत देवी से कहो– र्माता, र्मैं अ गया ऄब अपकी ‍या अज्ञा ह।? वे वकतनी बार अपको नरक र्में
िैं कें गी अप कष्टों को ोगने से डरो नहीं, विर एक सर्मय ऐसा अएगा जब तम्र हारा कोइ करछ नहीं
वबगाड़ पायेगा जब तर्मर र्महान बन जाओगे तब स ी तम्र हें सम्र्मान की दृवष्ट से देखेंगे, र्मगर आसके वलए

तत्त्वज्ञान 66
तम्र हें कठोर योग का ऄभ्यास करना होगा कष्टों से डरों नहीं, कष्ट प्रत्येक योगी के जीवन र्में अते हैं,
तम्र हें आन कष्टों को पार करना होगा र्मैंने ी ऄपने जीवन र्में बहुत कष्ट ईठाये थे तथा ऄत्यन्त कठोर तप
वकया था तर्मर दःर खी र्मत हो, ववष्य र्में र्महान बनोगे तथा प्रकृ वत के बहुत से कायों को करोंगे और
लर ोक पर र्महान योगी के रूप र्में जाने जाओगे ‍या तर्मर करछ ओर जानना िाहते हो‛? र्मैं बोला, ‚नहीं
प्र ‛र वह बोले– ‚तम्र हारा ककयाण हो, र्महान बनो‛ विर वे ऄदृश्य हो गये और विर धीरे -धीरे हर्मारा
दःर ख ी सर्माप्त हो गया
हर्मसे जो बात करती थी वह ऄपरा-प्रकृ वत थी, वजसके ऄन्तगलभत िौदह लोक अते हैं साधकों को
यह ्यानावाथथा र्में ऄत्यन्त सन्र दर थरी के रूप र्में वदखाइ देती ह। वसर पर उाँिा-सा र्मवणयों से यक्त र र्मक
र र ट,
हरे रंग की साड़ी व ब्लाईज तथा आसर्में िर्मकीले वसतारे लगे होते हैं आन वसतारों से वझलवर्मलता हुअ
प्रकाश वनकलता रहता ह। यह शरीर पर ववव न्न प्रकार के अ षर ण धारण वकए रहती ह। यह ऄपरा-
प्रकृ वत परा-प्रकृ वत की ऄंश र्मार ही ह। आन पंव‍तयों को वलखते सर्मय आस प्रकृ वत की र्मैं वबककरल ी
परवाह नहीं करता ह,ाँ ‍योंवक र्मैंने तत्त्वज्ञान के द्रारा आसके वाथतववक थवरूप को पहिान वलया ह। यह
प्रकृ वत हर्में वकसी प्रकार से ऄपने ऄवधकार र्में नहीं ले सकती ह। जब र्मैं व्यवहार की दशा र्में होता ह,ाँ ईस
सर्मय हर्में प्रकृ वत के वनयर्म र्मानने ऄवनवायलभ होते हैं र्मगर जब र्मैं ऄपने थवरूप र्में वथथत होता ह,ाँ तब यह
प्रकृ वत र्मेरे वलए तच्र छ होती ह। यह ऄवथथा र्मैंने कठोर पररश्रर्म करके व ढेरों कष्टों को ोगकर प्राप्त की
ह। जब हर्में जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त हुइ ईस सर्मय तक र्मैं प्रकृ वत के ववषय र्में पणर लभ रूप से जान िकर ा था
र्मैंने यह ी देखा था वक जीवात्र्माएाँ वकस प्रकार ऄपने-ऄपने ोगों को ोगने के वलए जन्र्म लेने के वलए
िल देती हैं यह जीवात्र्माएाँ वकस क्षेर र्में प्रलय काल से सषर प्र तावथथा र्में बनी रहती ह। ऄब प्रकृ वत के
र्महत्वपणर लभ ेद हर्मसे वछपे नहीं हैं, ‍योंवक सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को क ी-क ी र्मैं ऄपने ईदर के ऄन्दर
देखता हाँ ईसी ऄवथथा र्में प्रकृ वत के र्मख्र य रूप से वक्रयाकलाप देखता रहता हाँ ऐसा ्यानावथथा र्में
ऄथवा अाँखें बन्द होने पर देखता हाँ
आस ऄपरा-प्रकृ वत का प्रवाह नीिे की ओर ह। ऄथालभत् यह नीिे की ओर बवहर्मलभख र ी ह। आसका वणलभन
गीता के पन्िहवें ऄ्याय के प्रथर्म शलोक् र्में वकया गया ह।- जो सवोपरी ह। ऄथालभत् इश्वर ससं ार रूपी वृक्षऺ
के ‘ई्वलभर्मल
र ’ हैं ईस इश्वर से ही प्रकट होने वाले ब्रह्मा संसार वृक्ष के तना हैं ब्रह्मा से प्रकट होने वाले
देवता, र्मनष्र य अवद ऄनेक थथावर योगी संसार वृक्ष की ऄवान्तर छोटी-छोटी शाखाऐ ं हैं जो नीिे की ओर
ि। ली हुइ हैं क ी वथथर न रहने के कारण ऄथालभत् क्षण ंगर र होने से संसार वृक्ष को ‘ऄश्रवत्थ’ कहते हैं

तत्त्वज्ञान 67
ईस वृक्ष के अवद ऄन्त का पता न होने तथा प्रवाह रूप से वनत्य रहने के कारण ईसे ‘ऄव्यय’ कहते हैं
परन्तर वाथतव र्में वह ऄव्यय (वनत्यद नहीं हैं ‍योंवक ईसका वनरन्तर पररवतलभन प्रत्यक्ष देखने र्में अता ह।
वेदों र्में अए हुए सकार्म ऄनिर ानों का वणलभन आस संसार वृक्ष के पत्ते कहे गये हैं ऐसे ईस ‘ऄश्रवत्थ’ वृक्ष
रूपी संसार को यथाथलभ रूप से जो कोइ जानता ह।, वही वाथतव र्में वेद के यथाथलभ तत्त्व को जानने वाला ह।
आस ब्रह्माण्ड (ऄपरा-प्रकृ वतद की तल र ना एक घड़े के रूप र्में की गइ ह। जब साधक का ब्रह्मरन्र खल र ने
वाला होता ह।, तब ब्रह्मरन्र ईकटे घड़े के रूप र्में वदखाइ देता ह। यह ईकटा घड़ा ही ब्रह्माण्ड का थवरूप ह।
जब ब्रह्मरन्र खल र जाता ह। तब साधक को ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश वदखाइ देता ह। ऐसा लगता ह। ज।से आस
ईकटे घड़े के ऄन्दर प्रकाश ही प्रकाश रा हुअ ह। सर्मझाने के वलए यही कहा जाता ह। वक यह ब्रह्म का
प्रकाश ह। र्मगर सत्य यह ह। वक ये ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश ऄहक ं ार की ऄत्यन्त शव‍तशाली सावत्वक
वृवत्त ही ह। जो आस रूप र्में वदखाइ दे रही ह। ऄवधक सावत्वकता के कारण ऄत्यन्त तेज प्रकाश वदखाइ देता
ह।, ‍योंवक सत्त्वगणर प्रकाशशील ह। गौर करने वाली बात ह। वक आस ऄवथथा र्में ब्रह्म का दशलभन क। से हो
सकता ह। जबवक ऄपनी दोनों पथर तकों ‚सहज ्यान योग‛ और ‚योग क। से करे ‛ र्में साधकों को यह
सर्मझाने के वलए र्मैंने ईस जगह ब्रह्म का प्रकाश वलख वदया ह। साधकों को यह सर्मझना िावहए वक
ब्रह्मरंध खल र ने पर ईसकी गवत ्यानावथथा र्में ऄहक ं ार की वर र्म तक हो गइ ह। ऄ ी ऄहक ं ार की वर र्म
तक वसिलभ गवत हुइ ह।, वथथवत तो बहुत सर्मय तक ऄभ्यास करने के बाद अती ह।
ऄपरा-प्रकृ वत वजसके द्रारा सर्मथत ब्रह्माण्ड की रिना हुइ ह।, यह वकसी ी जीवात्र्मा की वाथतववक
र्माता नहीं हो सकती ह। परा-प्रकृ वत (र्मल र -प्रकृ वतद ही हर्म स ी की वाथतववक र्माता ह। र्मगर ऄज्ञानता
वश हर्म ऄपरा-प्रकृ वत को ही वाथतववक र्माता सर्मझने की ल र कर लेते हैं यह तो पररणार्म गावर्मनी ह।,
आसर्मे हर क्षण पररणार्म होता रहता ह। आस कारण आसे क्षण ंगरर ी कहा गया ह। हर क्षण पररणार्म होने के
कारण वकसी ी वथतर का थवरूप वथथर नहीं रह सकता ह। ऄथालभत् कोइ ी वथतर वकसी की नहीं हो सकती
ह। र्मनष्र य ऄज्ञानता के कारण आस जगत् की वथतओ र ं को ऄपना सर्मझ रहा ह।, आसी कारण से वह जीवन
र दःर ख ईठाता रहता ह। जब प्रकृ वत व प्रकृ वत से बने पदाथलभ वकसी के नहीं हो सकते हैं, तो विर प्रकृ वत
वकसी की र्माता क। से हो सकती ह।? र्मैं ी ऄपने साधना काल र्में पहले आसे र्माता कह कर सम्बोवधत करता
था र्मगर तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद तत्त्व दृवष्ट से यह भ्रर्म रूप ही ावसत होती ह। अपने पढ़ा होगा
वक पहले र्मैं आससे बहुत प्रेर्म करता था तथा आसके कायलभ ी करता था, र्मगर आसने झठर बोल कर हर्में धोखा
वदया, आस कारण र्मझर े करछ वदनों तक बहुत ‍लेश सहना पड़ा आस प्रकृ वत को र्माया या भ्रर्म ी कहते हैं
यह साधकों को सन्र दर र्मर्मतार्मयी र्माता के रूप र्में वदखाइ देती ह। र्मगर आन से क ी ी प्रेर्म नहीं करना

तत्त्वज्ञान 68
िावहए, बवकक कठोर योग के ऄभ्यास के द्रारा आसके बन्धनों को पार करके ऄपने थवरूप र्में वथथत होने
का प्रयास करना िावहए
परा-प्रकृ वत इश्वर का वित्त व कारण जगत् (र्महाकारण जगतद् के नार्म से जानी जाती ह। यही र्मल र
प्रकृ वत कही जाती ह। परा-प्रकृ वत र्में गणर साम्यावथथा र्में रहते हैं, आसवलए परा-प्रकृ वत र्में वकसी प्रकार का
पररणार्म नहीं होता ह। यही परा-प्रकृ वत जीवों की वाथतववक र्माता ह। यह परा-प्रकृ वत जड़ तत्त्व ही ह।, र्मगर
सत्त्वगणर की ववशि र ता को वलए हुए ह। सत्त्वगणर प्रकाशशील होने के कारण परा-प्रकृ वत का क्षेर सद।व
प्रकाशवान बना रहता ह। योगी परा-प्रकृ वत का वित्त द्रारा साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं, ‍योंवक जीवों के
वित्त ऄपरा-प्रकृ वत द्रारा बने होते हैं र्मझर े याद अ रहा ह। वक सर्मावध ऄवथथा र्में र्मैंने परा-प्रकृ वत का प्रवेश
द्रार देखा ह। ज।से ही र्मैंने प्रवेश द्रार के ऄन्दर ऄपना प।र रखा, त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया ईस क्षेर र्में
तीव्र प्रकाश ववद्यर्मान था वहााँ का घनत्व ऄत्यन्त कर्म था तथा वहााँ के ववषय र्में करछ ी नहीं जान सका
परा-प्रकृ वत का प्रवेश द्रार ऄपरा-प्रकृ वत व परा-प्रकृ वत का संवध थथल ह। ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत के
ऄन्दर ही ववद्यर्मान ह। ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत के बीि र्में कोइ ी प्रवेश द्रार नहीं ह। र्मगर ऄपरा-
प्रकृ वत की अवखरी सीर्मा के बाद जब परा-प्रकृ वत का क्षेर अता ह।, तब योवगयों को सर्मावध ऄवथथा र्में
आस जगह ऄथालभत् संवध-थथल प्रवेश द्रार के रूप र्में वदखाइ देता ह। वाथतव र्में यहााँ पर घनत्व का बहुत
ज्यादा ऄंतर होता ह। ऄभ्यासी के वित्त की र्मवलनता नष्ट होने पर जब शि र ता बढ़ती ह।, तब वित्त
ऄत्यन्त व्यापक होने लगता ह। ऄन्त र्में साधक का वित्त इश्वर के वित्त र्में व्यापक होकर ऄन्तर्मलभख र ी होने
लगता ह। इश्वर के वित्त र्में ऄन्तर्मलभख र ी होने के कारण ईसे वदखाइ देता ह। वक र्मैं परा-प्रकृ वत के क्षेर र्में जा
रहा हाँ परा-प्रकृ वत के क्षेर र्में प्रवेश करने का ऄथलभ यह नहीं ह। वक साधक को परा-प्रकृ वत का साक्षात्कार
हो रहा ह। परा-प्रकृ वत को वसिलभ ऄनर्मर ान के द्रारा जाना जा सकता ह।, आसीवलये आसे ऄनर्मर ानगम्य कहा गया
ह।
इश्वर के शरीर की संरिना परा-प्रकृ वत के द्रारा हुइ ह। परा-प्रकृ वत र्में गणर साम्यावथथा र्में रहने के
कारण इश्वर के वित्त र्में वकसी प्रकार का पररणार्म नहीं होता ह। इश्वर के ववशि र थवरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान
योगी के वित्त के द्रारा नहीं हो सकता ह। वित्त वृवत्त इश्वर के ववशि र थवरूप का तदाकार होकर ज्ञान नहीं
करा सकती ह। वजस प्रकार ौवतक पदाथों का ज्ञान साधारण र्मनष्र यों को बाह्य प्रत्यक्ष से ( ौवतक पदाथों
के सार्मान्य रूप काद होता ह।, ईसी प्रकार साधकों को सक्ष्र र्म पदाथलभ के ववशेष थवरूप का ज्ञान सर्मावध के
द्रारा होता ह। आस प्रकार इश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान सर्मावध के द्रारा नहीं हो सकता ह।, ‍योंवक इश्वर के शरीर

तत्त्वज्ञान 69
का वनर्मालभण गणर ों की साम्यावथथा से हुअ ह। इश्वर तो परा-प्रकृ वत का ी वनयन्ता ह।, आसवलए इश्वर का
शि र थवरूप प्रत्यक्ष नहीं वकया जा सकता ह। इश्वर सवलभज्ञ, सवलभशव‍तर्मान तथा ज्ञान थवरूप वाला ह। इश्वर
की ज्ञान शव‍त से प्रकृ वत र्में सारे जीवात्र्माओ ं के ककयाण के वलए सृवष्ट, वथथवत और प्रलय की
व्यवथथापवर लभक वक्रया हो रही ह।
इश्वर क ी ी जन्र्म ्र हण नहीं करता ह। वह तो जीवात्र्माओ ं का ककयाणकतालभ, वनयन्ता व कर्मों
का ऄ्यक्ष ह। ईसके द्रारा बनाए गये वनयर्मों के ऄनसर ार ही प्रकृ वत ऄपना कायलभ करती ह। जो जीवन्र्मक्त र
योगी ऄपना थथल र शरीर त्यागकर परा-प्रकृ वत (इश्वर के लोकद र्में िले जाते हैं, वे परा-प्रकृ वत र्में ऄनन्त
काल तक सर्मावध र्में लीन रहते हैं तथा ऄन्त सर्मय र्में वनजथवरूप र्में वथथत हो जाते हैं इश्वर के
ऄन्त:करण र्में वही ववलीन होता ह।, जो इश्वर प्रावप्त की आच्छा रखता ह। जो योगी ऄपने िेतन थवरूप को
प्राप्त करना िाहते हैं वे ऄन्त र्में ऄपने अत्र्मथवरूप र्में वथथत हो जाते हैं वजन योवगयों के ऄन्त:करण र्में
जीवों के प्रवत ककयाण की ावना होती ह।, सर्मय अने पर ऐसे योगी इश्वर की प्रेरणा ऄथवा परा-प्रकृ वत
के कहने पर जीवों के ककयाण हेतर ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करते हैं आस प्रकार के जन्र्म ्र हण करने को
अवतार कहते हैं ऐसे ऄवतारी परू र ष इश्वरीय शवक्तयों से सम्पन्न होकर ही जन्र्म ्र हण करते हैं ईनकी
शव‍तयााँ ऄंश रूप र्में होती हैं, आसवलए ऐसे ऄवतारी परू र ष को इश्वर ऄथवा गवान् कहते हैं इश्वरीय
शवक्तयों से सम्पन्न होने के कारण ही आन्हें अवतार कहा जाता ह। ज।से- नरवसंह, वराह्, श्रीरार्म, श्रीकृ ष्ण
अवद गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं–
‚हे अजथनु , पवू थ काि में हम और तमु एक साथ रह चक ु े हैं, उस समय तमु नर नाम के ऋलष थे और
मैं नारायण नाम का ऋलष था। दोनों एक साथ ही योग का अभ्यास लकया करते थे। जीव होने के
कारण तम्ु हें पवू थकाि का याद नहीं है, परन्तु मझु े ईश्वर होने के कारण सब कुछ याद है”।
ऄवतारी परू
र ष ऄपना कायलभ सर्माप्त करने के पश्िात ऄपने लोक को वापस िले जाते हैं, विर दबर ारा

र ोक पर जन्र्म ्र हण करने के वलए क ी नहीं अते हैं आसी प्रकार का क्रर्म िलता रहता ह।, ‍योंवक
ऄवतारी परू
र ष के वित्त र्में वकसी प्रकार की वृवत्त (आच्छाद शेष नहीं रह जाती ह।
अपने पढ़ा होगा वक इश्वर कहते हैं, ‚र्मैं ऄपने ऄंश से ऄवतार लाँगर ा‛ जो योगी ऄवतार ्र हण
करने के वलए इश्वर के लोक (ऄन्त:करणद से अता ह।, वह इश्वर का ऄंश ही कहा जाएगा इश्वर के
लोक र्में रहने वाले योगी को जीवेश्वर कहा जाता ह। इश्वर और जीव र्मल र रूप से एक ही िेतन तत्त्व ह।
र्मगर इश्वर का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से ह। ऄथालभत् इश्वर का वित्त परा-प्रकृ वत से बना ह। जीव का सम्बन्ध

तत्त्वज्ञान 70
ऄपरा-प्रकृ वत से ह। ऄथालभत् जीव का वित्त ऄपरा-प्रकृ वत से बना ह। परा-प्रकृ वत और ऄपरा-प्रकृ वत के
सम्बन्ध से जीव इश्वर का ऄंश रूप ही हुअ इश्वर के लोक र्में वथथत योगी तत्त्वज्ञानी होता ह। ऄथालभत्
ब्रह्मज्ञान से यक्त
र रहता ह। यह ज्ञान नष्ट नहीं होता ह।, ‍योंवक ईसने ऄपने थवरूप को ऄभ्यास के द्रारा
जान वलया ह। आसवलए कहा जाता ह। वक ऐसा योगी ब्रह्मथवरूप हो जाता ह। वजस योगी के वित्त र्में जीवों
के ककयाण हेतर आच्छा बनी रही तथा थथल र शरीर त्याग वदया, ऐसा योगी इश्वर के लोक र्में बहुत सर्मय
तक रहता ह। ईवित सर्मय अने पर इश्वर की प्रेरणा ऄथवा परा-प्रकृ वत के कहने पर वह ल र ोक पर जन्र्म
्र हण कर लेता ह। जन्र्म ्र हण करने से पवर लभ वे ऄपनी सम्पणर लभ इश्वरीय शव‍तयााँ ऄंश रूप र्में लेकर अते हैं
ऐसे ऄवतारी परू र ष तो पहले से ही ब्रह्मज्ञान से यक्त
र होते हैं तथा ऄपनी संककप शव‍त से सम्पणर लभ ऄपरा-
प्रकृ वत को ऄपने ऄधीन वकए रहते ह। ऐसे परू र षों की आच्छा शव‍त से ही सम्पणर लभ कायलभ होते रहते हैं
इश्वर का शरीर परर्म् अकाश तत्त्व से बना हुअ ह। परर्म् अकाश को ब्रह्म का (इश्वर काद थवरूप
कहते हैं यह अकाश परा-प्रकृ वत ही ह। सांख्य योगी और कर्मलभ योगी को इश्वर परर्म-वशव ् के रूप र्में
वदखाइ देते हैं, व‍त योगी को इश्वर नारायण के रूप र्में वदखाइ देते हैं ऐसा ईनकी ावनाओ ं के ऄनसर ार
होता ह। इश्वर का वित्त परा-प्रकृ वत द्रारा बना ह।, आस परा-प्रकृ वत के ऄन्दर ही ढेरों ऄपरा-प्रकृ वतयााँ
ववद्यर्मान हैं आसवलए कहा जाता ह। वक सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत ऄथवा सृवष्ट इश्वर के ऄन्दर ववद्यर्मान ह।
तथा इश्वर कण-कण र्में वथथत ह। एक बार ऄनर व र्में हर्में वदखाइ वदया वक गवान् नारायण के शरीर र्में
ऄनन्त ब्रह्माण्ड हैं र्मगर इश्वर के रुप र्में परर्म-वशव
् का दशलभन हर्में जनवरी 2007 र्में हुअ तत्त्वज्ञान प्राप्त
करते सर्मय एक बार इश्वर के थवरूप का साक्षात्कार ऄवश्य होता ह। आस साक्षात्कार के सर्मय इश्वर
थवयं साधक का सक्ष्र र्म शरीर नष्ट करते वदखाइ देते हैं आस ऄनर व के बाद तथा थथल र शरीर त्यागने के
पश्िात इश्वर की प्रावप्त होना वनवश्ित हो जाता ह। ऄब पाठक गण कह सकते हैं वक परा-प्रकृ वत का
साक्षात्कार नहीं वकया जा सकता ह।, ऐसा र्मैंने वलखा ह।, विर परर्म्-वशव का साक्षात्कार क। से हुअ?
सर्माधान- जब साधक को जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त होने लगती ह। ऄथालभत् जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा को ऄभ्यास
के द्रारा पररप‍व कर रहा होता ह। यह ईसकी वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास की ऄवथथा होती ह। वनबीज
सर्मावध र्में वित्त का बाह्य पररणार्म होना रुक जाता ह। ऄथालभत् वित्त की वृवत्तयााँ वनरुि हो जाती हैं, तब
तर्मोगणर सत्त्वगणर का सहयोग करने लगता ह। सत्त्वगणर व तर्मोगणर वर्मलकर रजोगणर को दबा लेते हैं आस
ऄवथथा र्में तर्मोगणर व रजोगणर लेशर्मार ही होते हैं, तब वित्त ऄत्यन्त व्यापक होकर इश्वर के वित्त (परा-
प्रकृ वतद र्में ऄन्तर्मलभख
र ी हो जाता ह। वित्त की व्यापकता के ऄनसर ार सत्त्वगणर ी वृवत्तयााँ ी ऄत्यन्त व्यापक
हो जाती हैं व्यापकता आतनी बढ़ जाती ह। वक ईनर्मे सगणर ब्रह्म (इश्वरद के थवरूप धारण करने की शव‍त

तत्त्वज्ञान 71
अ जाती ह। यह साक्षात्कार वित्त की ऄत्यन्त सावत्वक वृवत्त के द्रारा होता ह। ईस सर्मय साधक को
इश्वर का थवरूप ऄपने ही ऄनन्त व्यापक वित्त के ऄन्दर वदखाइ देता ह।
परर्म-् वशव के तीसरे नेर से ‍यारह रूि प्रकट हुए हैं, आन रूिों को गवान् शक ं र ी कहा जाता ह।
आन ‍यारह रूिों के ऄलग-ऄलग नार्मों का वणलभन शाथरों र्में ी वर्मलता ह। श्री नारायण के ह्रदय से गवान्
ववष्णर प्रकट हुए हैं, आनका थवरूप नारायण के ही सर्मान ह। श्री नारायण की नाव कर्मल से ब्रह्मा जी प्रकट
हुए हैं गवान ब्रह्मा, गवान ववष्ण,र एवं गवान शंकर आस ऄपरा-प्रकृ वत के सृवष्टकतालभ, पालन-कतालभ व
सहं ार-कतालभ हैं ऄथालभत् आन तीनों की प्रेरणा से ये तीनों कायलभ होते हैं र्महा प्रलय के सर्मय ऄपरा-प्रकृ वत
सर्मथत जीवों (प्रावणयोंद को ऄपने ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से वथथत करके थवयं परा-प्रकृ वत र्में बीज रूप से
ववद्यर्मान हो जाती ह। ईस सर्मय ये तीनों देवता ऄपने र्मल र थवरूप र्में (परर्म-वशव
् व नारायणद ववलीन हो
जाते हैं ऄथालभत् ब्रह्म र्में ववलीन हो जाते हैं सृवष्ट के सर्मय दसर रे ब्रह्मा, रूि व ववष्णर प्रकट होते हैं, आन तीनों
की अयर का हर्में सही-सही ज्ञान नहीं ह। आन तीनों र्में ब्रह्मा की अयर कर्म होती ह। ‍यारह रूिों र्में अठवें
रूि ऄन्य रूिों की ऄपेक्षा ज्यादा शांत थव ाव वाले हैं र्मगर ‍यारहवें रूि का थवरूप ऄत्यन्त यंकर ह।
ऄथालभत् थव ाव से तेज हैं, यह एक बार थवयं गवान् शंकर ने हर्में बताया था श्री हनर्मर ान जी ‍याहरवें रूि
के ऄंशावतार हैं ब्रह्मा, ववष्णर व र्महेश (शंकरद का शरीर अकाश तत्त्व से बना ह। वकसी-वकसी जगह
लेख वर्मलता ह। वक सृवष्ट के अरम् र्में गवान् ब्रह्मा के र्मथतक से रूि प्रकट हुए तथा ईनके ह्रदय से
गवान् ववष्णर प्रकट हुए हैं यह जो वलखा ह। वह सत्य ह। गवान् ब्रह्मा के शरीर से ही ये दोनों सृवष्ट के
अरम् र्में प्रकट होते हैं सि ये ह। वक श्री ववष्णर व रूि इश्वर से प्रकट होकर विर ब्रह्मा के शरीर से प्रकट
हो जाते हैं गवान् ब्रह्मा को सृवष्ट-कतालभ की ईपावध दी गइ ह। श्री गणेश जी, श्री कावतलभकेय जी, श्री
हनर्मर ान जी व वायर देवता अवद वायर तत्त्व से ईत्पन्न हुए हैं जब र्मैं सर्मावध द्रारा पदाथों के ववशेष रूप का
साक्षात्कार कर रहा था, तब र्मालर्मर हुअ वक वायर देवता व हनर्मर ान जी से श्री गणेश जी वनश्िय ही श्रेष्ठ
हैं आन्ि व ऄन्य देवता अवद ऄव‍न तत्त्व की प्रधानता से ईत्पन्न हुए हैं आन देवताओ ं की ई्र का ज्ञान हर्में
नहीं हैं सन् 1995 र्में हर्मारी आन्ि देवता से बात हुइ थी ईस सर्मय ईन्होंने बताया था वक आन्ि पद पर ब।ठने
वाले देवता की ई्र 72 से 74 यगर ों तक की होती ह। इश्वर के लोक (परा-प्रकृ वतद र्में जो जीवात्र्माएाँ रहती
हैं, वे र्म‍र त होने के कारण क ी जन्र्म ्र हण नहीं करती हैं
परा-प्रकृ वत को र्मल
र प्रकृ वत, सर्मवि प्रकृ वत, ऄव्य‍त, इश्वर का लोक, इश्वर का वित्त, अवदत्य
लोक तथा वनत्य लोक अवद कहते हैं आसे इश्वर की शव‍त ी कहते हैं परा-प्रकृ वत द्रारा इश्वर के लोक

तत्त्वज्ञान 72
की रिना हुइ ह। ऄपरा-प्रकृ वत को व्यवष्ट प्रकृ वत, व्य‍त अवद कहते हैं यह वनम्नर्मखर ी ऄथालभत् वनम्नगर्मन
करने वाली और वक्रयाशव‍त वाली ह। यह यंर सार्म्र ी र्मार ह। जो ववकास के वलए व ऄज्ञान को गवत देने
के वलए प्रथततर की गइ ह।, र्मगर यांवरकता और ववकास के वलए ऄज्ञान को गवत देने के वलए आसके पीछे
परा-प्रकृ वत का ऄंश हैं, जो ववकास क्रर्म साधने के वलए बनाए हुए हैं परा-प्रकृ वत जो करछ ह।, वह ऄज्ञान
की शव‍त नहीं ह।, बवकक गवान् की ि।तन्यर्मय शव‍त ह। ववषयासवक्त वाली व नीिे को गर्मन करने
वाली ऄपरा-प्रकृ वत और साधना के र्मागलभ र्में पड़ने वाली बाधाओ ं के सोि र्में बने रहना स ी की बहुत
बड़ी ल र ह। आन बाधाओ ं को देखना, सर्मझना और हटाना ऄवश्य ही कवठनाइ रा कायलभ ह। आसी ऄपरा-
प्रकृ वत को सब करछ सर्मझकर आसी र्में सदा लगे रहना ठीक नहीं ह। परा-प्रकृ वत के ऄवतरण का ऄनर व
करना र्मख्र य बात ह। परा-प्रकृ वत के ऄवतरण का ऄनर व ईसी साधक होता ह। जो सर्मावध की ईच्ितर्म
ऄवथथा का ऄभ्यास कर रहा ह। जब ऄववद्या अवद ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय वववेक-ख्यावत के द्रारा जलकर
नर े हुए बीज के सर्मान होने लगते हैं, तो आसके बाद ही परा-प्रकृ वत के ऄवतरण की ऄनर वर त की जा
सकती ह। साधक को सर्मावध ऄवथथा र्में ऄपरा-प्रकृ वत व परा-प्रकृ वत की संवध होते हुए वदखाइ देती ह।
आस संवध के बाद परा-प्रकृ वत की संवध होते हुए वदखाइ देती ह। आस संवध के बाद परा-प्रकृ वत का ऄवतरण
होना शरू र हो जाता ह। ऄपरा-प्रकृ वत वजतनी शि र होगी, ईतना ही परा-प्रकृ वत का ऄवतरण होगा आसका
ऄवतरण एक ही बार र्में नहीं होता ह।, बवकक धीरे -धीरे ऄभ्यास के ऄनसर ार होता रहता ह।
िेतन तत्त्व जड़ तत्त्व से सवलभथा ववलक्षण ह। परा-प्रकृ वत के सम्बन्ध से िेतन तत्त्व की संज्ञा इश्वर ह।,
तो ऄपरा-प्रकृ वत के सम्बन्ध से िेतन तत्त्व की संज्ञा जीव ह। िेतन तत्त्व करटथथ वनत्य ह।, परा-प्रकृ वत
पररणार्मी वनत्य ह। िेतन तत्त्व वनवष्क्रय ह। तथा जड़ तत्त्व सवक्रय ह। जड़ तत्त्व र्में ज्ञान, वनयर्म व व्यवथथा
पवर लभक वक्रया िेतन तत्त्व के सावन्य र्मार से हो रही ह। िेतन तत्त्व वक्रया का वनवर्मत्त कारण ह। तथा जड़
तत्त्व ईपादान कारण ह। इश्वर सवलभव्यापक, सवलभज्ञ व सवलभ शव‍तर्मान ह। ईसके थवा ाववक ज्ञान द्रारा जीवों
के ककयाण के वलए गणर ों र्में ववषर्म पररणार्म हो रहा ह।, वजससे सारी सृवष्ट की रिना हो रही ह। साधारण
र्मनष्र यों के वलए परा-प्रकृ वत सषर प्र तावथथा र्में रहती ह। ऐसे र्मनष्र यों के वलए परा-प्रकृ वत का ऄवतरण होना
सवलभथा ऄसम् व ह। ऄपरा-प्रकृ वत का ववकास र्मनष्र य वकसी-न-वकसी रुप र्में करता रहता ह। साधक
ऄभ्यास के द्रारा ऄन्तर्मलभख र ी होकर ववकास-क्रर्म र्में अगे बढ़ते रहते हैं आस ऄभ्यास द्रारा वित्त का
रजोगणर ी व तर्मोगणर ी र्म।ल साि होता रहता ह। ज।स-ज।से र्म।ल साि होता जाता ह।, व।से-व।से वित्त र्में
सत्त्वगणर की र्मारा बढ़ती जाती ह। सत्त्वगणर के प्रकाश र्में ऄपरा-प्रकृ वत की ववकृ वतयों का साक्षात्कार

तत्त्वज्ञान 73
होता जाता ह। वनर्मलभल प्रज्ञा के प्रकट होने पर प्रकृ वत-पयलभन्त सारे पदाथों का एक ही सर्मय र्में साक्षात्कार हो
जाता ह।
परा-प्रकृ वत के ऄवतरण के वलए अवश्यक ह। वक साधक के वित्त र्में वववेक-ख्यावत का प्रवाह
वनरन्तर बहता रहे, आस वनरन्तर प्रवाह से पर-व।रा‍य ईत्पन्न होगा पर-व।रा‍य से ऄपरा-प्रकृ वत के प्रवत
असव‍त सर्माप्त होती जाएगी तथा परा-प्रकृ वत का ऄवतरण धीरे -धीरे बढ़ता जाएगा परा-प्रकृ वत का
ऄवतरण एकदर्म एक साथ नहीं होगा, बवकक धीरे -धीरे होगा जब जीव की असव‍त ऄपरा-प्रकृ वत से
सर्माप्त होने लगेगी, ईस सर्मय ऄपरा-प्रकृ वत का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से हो जाएगा आस सम्बन्ध को सवं ध
ऄथवा अवलगं न ी कहते हैं आसका ऄनर व साधक को वदखाइ देता ह। ऄनन्त काल से विर वनिा र्में
सोइ हुइ परा-प्रकृ वत जा्र त होते हुऐ वदखाइ देती ह। ऄपरा-प्रकृ वत नीिे की ओर बवहर्मलभख र ी ह।, यह जीवों के
ोग के वलए प्रथततर रहती ह। परा-प्रकृ वत ई्वलभर्मख
र ी ह। आसका प्रवाह क। वकय की ओर होता ह।, यह जीव
के ोग का ववषय नहीं ह। ऄपरा-प्रकृ वत र्मनष्र य को ऄववद्या यक्त र ववज्ञान के ववकास को साधने के वलए
प्रथततर की गइ ह। ऄववद्या यक्त र ववज्ञान का ववकास र्मनष्र य के वलए बन्धन से यक्त र होता ह। परा-प्रकृ वत का
ऄवतरण आस बन्धन से र्मवर ‍त वदलाता ह। तथा र्मनष्र य को क। वकय र्मोक्ष देने वाली ह। आसवलए हर्म स ी को
क। वकय र्मोक्ष की प्राथलभना परा-प्रकृ वत से करनी िावहए परा-प्रकृ वत र्मोक्ष दायनी होने के कारण हर्म स ी की
वाथतववक र्माता ी ह। र्माता ईसी को कहते हैं जो ऄपने बच्िे का सही पालन-पोषण करे तथा सदर्मागलभ
वदखाए ईसे ईसके लक्ष्य तक पहुिाँ ा दे ऄथालभत् परर्म-वपता ् (ब्रह्माद से वर्मला दे ऄपरा-प्रकृ वत हर्मारी
वाथतववक र्माता नहीं हो सकती ह।, ‍योंवक यह भ्रर्म र्में डाले रहती ह। तथा बन्धन र्में बााँधे रहती ह। आसी
कारण जीव भ्रर्म वश आसी प्रकृ वत को ऄपनी र्माता सर्मझे रहता ह। और यहीं पर टकता हुअ जन्र्म-अय-र
र्मृत्यर को प्राप्त होता रहता ह।
परा-प्रकृ वत इश्वर की शव‍त होने के कारण गवती थवरूपा ह। िण्डी, दगर ालभ, काली, पावलभती,
गायरी, लक्ष्र्मी अवद देववयााँ परा-प्रकृ वत की ऄश ं र्मार हैं ये देववयााँ ऄपने कायलभ हेतर परा-प्रकृ वत से प्रकट
होती हैं कायलभ सम्पन्न करने के बाद विर परा-प्रकृ वत र्में ही लीन हो जाती हैं परा-प्रकृ वत ही अवद शव‍त
र्महाकरण्डवलनी ह। र्मल र ाधार र्में वथथत करण्डवलनी आस र्महाकरण्डवलनी की ऄश ं र्मार ह। र्मल
र ाधार र्में वथथत
करण्डवलनी का थवरूप ऄव‍न तत्त्व से बना ह। योग के ऄभ्यास द्रारा ई्वलभ हुइ करण्डवलनी पणर लभ यारा करके
ह्रदय र्में वथथत हो जाती ह।, तब वायर तत्त्व र्में ववलीन होकर साधक के सम्पणर लभ शरीर र्में व्याप्त हो जाती ह।
र्महाकरण्डवलनी का थवरूप सत्त्वगणर की ववशि र ता से यक्त र परर्म् अकाश तत्त्व से बना हुअ ह।

तत्त्वज्ञान 74
र्महाकरण्डवलनी र्में वायर तत्त्व बीज रूप र्में ववद्यर्मान रहता ह।, आसवलए र्मल
र ाधार र्में वथथत करण्डवलनी
र्महाकरण्डवलनी की ऄंश र्मार ही ह।
परा-प्रकृ वत (इश्वर का लोकद र्में वथथत होने के वलए साधक को वनबीज सर्मावध का ऄभ्यास करना
ऄवत अवश्यक ह। वजन साधकों ने वनबीज सर्मावध की पररप‍व ऄवथथा प्राप्त कर ली ह। ऄथालभत् जो
सद।व ऄपने अत्र्मा र्में वथथत रहता ह।, ईसे थथल र शरीर त्यागने के पश्िात वकसी ी लोक र्में जाने की
अवश्यकता नहीं पड़ती ह। थथल र शरीर त्यागते ही वह ब्रह्म र्में वथथत हो जाता ह। जो साधक
वनरूिावथथा (वनबीज सर्मावधद का ऄभ्यास कर रहे हैं ऄथालभत् वजस ऄभ्यासी के वित्त पर व्यत्र थान के
सथं कार क ी-क ी प्रकट हो जाते हैं, ऐसी ऄवथथा वाला साधक थथल र शरीर त्यागने के पश्िात परा-
प्रकृ वत र्में वथथत हो जाता ह। विर वहााँ पर ऄनन्त काल तक सर्मावध का ऄभ्यास करने के पश्िात वनगलभणर
ब्रह्म र्में ववलीन हो जाता ह। परा-प्रकृ वत र्में वथथत जीवों को ख र -प्यास की ऄनर वर त नहीं होती ह। तथा
श्वााँस लेने की अवश्यकता ी नहीं पड़ती ह। जीवों को ख र -प्यास और श्वााँस लेने का कारण ईनके
वित्त र्में प्राण का थपन्दन होता ह। जब तक वित्त र्में प्राणों का थपन्दन होगा, तब तक जीवो को ख र -प्यास
की ऄनर वर त होती रहेगी यह ऄनर वर त िाहे करछ क्षणों र्में हो ऄथवा स।कड़ों वषों र्में हो देवता अवद ी
प्राण के सहारे श्वााँस-प्रश्वााँस की वक्रया करते हैं वित्त रूपी वृक्ष के दो बीज हैं एक– प्राण थपन्दन ऄथालभत्
प्राणों की वनरन्तर वक्रया, दूसरा– वासना (कर्मालभशयद आन दोनों र्में एक के क्षीण होने पर दसर रा ी शीघ्र ही
क्षीण हो जाता ह। वनबीज सर्मावध (वनरूिावथथाद के सर्मय दोनों ही क्षीण हो जाते हैं परा-प्रकृ वत र्में वायर
तत्त्व का ऄ ाव ह। वहााँ पर वायर तत्त्व बीज रूप र्में ववद्यर्मान रहता ह। वहरण्यग लभ (ब्रह्माद की सृवष्ट र्में
वथथत जीवों को प्राणी कहा जाता ह। प्राणी ईसे कहते हैं जो प्राणों के सहारे वजन्दा रहते हैं प्राणी की
ऄपरा-प्रकृ वत व ईससे बने पदाथों से असव‍त रहती ह। और यही जीव का जीवत्व ह। ऄभ्यास के द्रारा
जीव का जीवत्व नष्ट होने पर तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह।, तब जीव जीवेश्वर बन जाता ह। परा-प्रकृ वत र्में
वही जीव थथल र शरीर त्यागने के पश्िात जा सकता ह। ऄथवा वथथत हो सकता ह। वजसका जीवत्व पणर लभ
रूप से नष्ट हो िक र ा ह। ख र -प्यास व श्वााँस-प्रश्वााँस सक्ष्र र्म शरीर के ऄन्तगलभत होता ह। तत्त्वज्ञानी परू
र षों
का सक्ष्र र्म शरीर थथल र शरीर त्यागने के पश्िात ही जलकर नष्ट हो जाता ह।
जब सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड र्में प्रलय हो जाती ह।, ईस सर्मय स ी जीवों के वित्त बीज रूप र्में ऄपरा-प्रकृ वत
के ऄन्दर वथथत हो जाते हैं प्रलयावथथा के सर्मय जीव की ऄवथथा गहरी वनिा ज।सी होती ह। स ी जीवों
के वित्त बीज रूप र्में सर्मेट कर ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत र्में बीज रूप र्में वथथत हो जाती ह। ऄनन्त काल

तत्त्वज्ञान 75
बाद जब सृवष्ट का सर्मय अता ह।, तब ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत से प्रकट हो जाती ह। सृवष्ट के सर्मय
बीज रूप र्में ववद्यर्मान जीवों के वित्त कर्मालभनसर ार जन्र्म ्र हण करने के वलए प्रकट होने लगते हैं प्रलय के
सर्मय जीवों के वित्त बीज रूप र्में प्रकृ वत के ऄन्दर वजस थथान पर ववद्यर्मान हो जाते हैं तथा विर जन्र्म
्र हण करने के वलए प्रकट होकर िल देते हैं, वह थथान सर्मावध के र्मा्यर्म से र्मैंने देखा हुअ ह। आसका
वणलभन र्मैंने ऄनर वों र्में नहीं वकया ह। गीता र्में गवान् श्री कृ ष्ण ऄपने लोक (परा-प्रकृ वतद के ववषय र्में
कहते हैं–
“न तद्भासयते सूयो न शशाुंको न पावकः। यद्गत्वा न दनवतयन्ते तधाम परमुं मम”।

तत्त्वज्ञान 76
गुण
प्रकृ वत जो ऄपने अपको कइ ागों र्में (अठ प्रकृ वतयााँ और सोलह ववकृ वतयााँद वकए हुए ह। ये
सत्त्वगणर , रजोगणर व तर्मोगणर का ही रूप हैं तीनों गणर प्रकृ वत से ही ईत्पन्न हुए हैं सत्त्वगणर का थव ाव
हकका, प्रकाशक व सख र थवरूप ह। रजोगणर का थव ाव िंिल, वक्रया करना व दःर ख थवरूप ह। तर्मोगणर
का थव ाव ारी, ऄवरोध डालना (रोकना या वथथवत बनाए रखनाद व र्मोह थवरूप ह। ये तीनों गणर प्रत्येक
वथतर र्में पाये जाते हैं तथा तीनों गणर सद।व एक साथ रहते हैं, क ी ी ऄलग नहीं होते हैं ऐसा नहीं होता
ह। वक एक गणर ना हो वसिलभ दो ही रह जाएाँ ऄथवा दो गणर ना हों एक ही रह जाए तीनों गणर एक-दसर रे के
अवश्रत रहते हैं तथा तीनों गणर एक-दसर रे को प्रकट करते हैं ये तीनों गणर सद।व सर्मान रूप से नहीं रहते हैं,
बवकक सद।व एक गणर दसर रे गणर को दबाता रहता ह। जब सत्त्वगणर प्रधान रहता ह।, तब रजोगणर व तर्मोगणर
को दबाकर सख र , प्रकाश और शांवत की वृवत्त ईत्पन्न करता ह। जब रजोगणर प्रधान होता ह।, तब सत्त्वगणर
और तर्मोगणर को दबाकर दःर ख, ििं लता और ऄसन्तोष की वृवत्त ईत्पन्न करता ह। जब तर्मोगणर प्रधान
होता ह।, तब सत्त्वगणर और रजोगणर को दबाकर अलथय, सथर ती और र्मोह की वृवत्त ईत्पन्न करता ह। ये
तीनों गणर एक दसर रे के ववरोधी होते हुए ी दीपक के सर्मान ऄपने ईदेश्य र्में लगे रहते ह। वजस प्रकार तेल,
बत्ती और ऄव‍न एक दसर रे के ववरोधी होते हुए ी एक साथ वर्मलकर प्रकाश का कायलभ करते हैं, ईसी प्रकार
तीनों गणर एक साथ वर्मलकर ऄपने कायलभ र्में लगे रहते हैं
प्रत्येक पदाथलभ र्में तीनों गणर ों का थव ाव ईपवथथत रहता ह। जब कोइ वथतर वथथर रहती ह।, तब ईस
सर्मय ईस वथतर र्में तर्मोगणर प्रधान रूप र्में रहता ह। सत्त्वगणर व रजोगणर गौण रूप र्में रहते हैं ऄथालभत् सक्ष्र र्म
रूप र्में रहते हैं जब ईवित सर्मय अता ह।, तब ये दोनों ऄपने-ऄपने सर्मय र्में प्रकट हो जाते हैं जब कोइ
वथतर वक्रयाशील होती ह।, तब ईस वथतर र्में ईस सर्मय रजोगणर प्रधान रूप र्में रहता ह। आसके दोनों साथी
सत्त्वगणर और तर्मोगणर गौण रूप र्में रहते हैं जब कोइ वथतर प्रकाश वाली हो जाती ह। तब ईसर्में ईस सर्मय
सत्त्वगणर प्रधान रूप र्में रहता ह। रजोगणर व तर्मोगणर गौण रूप र्में रहते हैं जब कोइ वथतर वथथर होती ह। तब
ईसर्में तर्मोगणर प्रधान रूप र्में रहता ह। तथा जब कोइ वथतर गवतशील या वक्रयाशील होती ह।, तब ईसर्में
रजोगणर प्रधान रूप र्में हो जाता ह। जब वही वथतर प्रकाशशील हो जाती ह।, तब ईस वथतर र्में सत्त्वगणर
प्रधान रूप र्में हो जाता ह। आस प्रकार स ी वथतओ र ं र्में तीनों गणर प्रधान व गौण रूप र्में ईपवथथत रहते हैं
सत्त्वगणर का थव ाव हकका व प्रकाशक होने के कारण सत्त्वगणर प्रधान पदाथलभ हकके होते हैं ज।से–
अग हककी होने के कारण उपर की ओर जलती ह।, वायर वतरछी िलती ह।, आवन्ियााँ शीघ्रता से कायलभ

तत्त्वज्ञान 77
करती हैं सत्त्वगणर की प्रधानता के कारण अग र्में प्रकाश ह।, र्मन व आवन्ियााँ प्रकाशशील हैं सत्त्वगणर व
तर्मोगणर थवयं ऄपना कायलभ नहीं कर सकते हैं रजोगणर वक्रया वाला होने के कारण ऄपने कार्म को करवाता
ह। जब शरीर र्में रजोगणर प्रधान होगा तब शरीर के ऄन्दर ईत्तेजना और िंिलता बढ़ जाती ह। रजोगणर
िंिल थव ाव का होने के कारण सत्त्वगणर को (हकका होने के कारणद कायलभ के वलए प्रवृत्त कराता ह।
लेवकन तर्मोगणर ारी व ऄवरोधक होने के कारण रजोगणर को रोकता ह। जब शरीर र्में तर्मोगणर प्रधान
होता ह।, तब शरीर र्में अलथय व ारीपन होता ह। तथा कार्म करने की आच्छा नहीं होती ह।
प्रकृ वत से ईत्पन्न तीनों गणर पररणार्मी होते हैं, ये तीनों गणर एक क्षण ी वबना पररणार्म के नहीं रहते
हैं पररणार्म का ऄथलभ पररवतलभन ह। पररणार्म का लक्षण एक धर्मलभ को छोड़कर दसर रा धर्मलभ धारण करना ह। यह
पररणार्म दो प्रकार का होता ह। एक सरूप पररणार्म होता ह। तथा दसर रा ववरूप पररणार्म होता ह। जब दधर
ऄपने थवरुप दधर की ही ऄवथथा र्में बना रहता ह। तब ी दधर के परर्माणर वथथत नहीं रहते हैं, बवकक िलते
ही रहते हैं आस ऄवथथा र्में दधर का दधर बने रहने का पररणार्म हो रहा ह। यह सरूप पररणार्म कहा जाता ह।
र्मगर जब दधर का दही बनने का पररणार्म होता ह। ऄथवा एक वनवश्ित सर्मय के बाद दधर के वबगड़ने या
खट्टा होने का पररणार्म होता ह।, तब ववरूप पररणार्म कहा जाता ह। ववरूप पररणार्म तो प्रत्यक्ष होता ह। तथा
प्रत्यक्ष होता वदखाइ पड़ता ह। र्मगर सरूप पररणार्म वसिलभ ऄनर्मर ान के द्रारा जाना जाता ह। आसी प्रकार तीनों
गणर ों के ऄलग-ऄलग ऄपने सर्मय र्में पररणार्म होने को ऄथालभत् सत्त्वगणर का सत्त्वगणर र्में, रजोगणर का
रजोगणर र्में तथा तर्मोगणर का तर्मोगणर र्में जो पररणार्म होता ह।, ईसे सरूप पररणार्म कहते हैं यह गणर ों की
साम्यावथथा ह। आस परा-प्रकृ वत को ऄव्य‍त तथा प्रधान कहते हैं, यही सारे जड़ तत्त्वों का र्मल र कारण ह।
जब तीनों गणर एक दसर रे को दबाने का कायलभ करते हैं तब ववरूप पररणार्म होता ह।, आसे गणर ों का ववषर्म
पररणार्म कहते हैं वित्त से लेकर पााँिों थथल र र्महा तर ों तक जो तेइस (23द तत्त्व हैं (वित्त, ऄहक ं ार, पााँिों
तन्र्माराएाँ, र्मन, दसो आवन्ियााँ, पााँिों थथल
र र्महा तर द, ये स ी तीनों गणर ों के ववषर्म पररणार्म हैं ये सब प्रकृ वत
के कायलभ (तेइसों तत्त्वद प्रकृ वत की ऄपेक्षा ववकृ वत और व्य‍त हैं
ऄपनी-ऄपनी ववकृ वतयों की ऄपेक्षा वित्त, ऄहक ं ार व पााँिों तन्र्माराएाँ ऄव्य‍त और प्रकृ वत हैं,
परन्तर परा-प्रकृ वत की ऄपेक्षा ये स ी व्य‍त और ववकृ वतयााँ ह। वजस-वजस ववकृ वत का सर्मावध के द्रारा
साक्षात्कार होता जाता ह।, ईस-ईस साक्षात्कार से ईसकी प्रकृ वत का ऄनर्मर ान वकया जाता ह। सर्मावध द्रारा
ऄन्त र्में गणर ों का सबसे पहला पररणार्म वित्त का वववेक-ख्यावत द्रारा साक्षात्कार होता ह। ईस साक्षात्कार
से गणर ों की सबसे प्रथर्म साम्य पररणार्म वाली ऄवथथा का ऄनर्मर ान ज्ञान द्रारा होता ह। ये सारी सृवष्ट गणर ों

तत्त्वज्ञान 78
का ही पररणार्म ह।, आसवलए तीनों गणर ही सारी सृवष्ट की ईत्पवत्त का ईपादान कारण हैं वरगणर ात्र्मक प्रकृ वत
और अत्र्मा दोनों ही ऄनावद ह।, आसवलए प्रकृ वत का अत्र्मा के साथ सावन्य र्मार संयोग साम्य पररणार्म
ऄनावद ह।, ववषर्म पररणार्म तथा जीव का ोग और ऄपवगलभ का प्रयोजन ी ऄनावद ह। ऄनावद का
ऄव प्राय काल की सीर्मा से परे होना ह। काल कोइ वाथतववक वथतर नहीं ह। ववषर्म पररणार्म के क्रर्मों की
अगे-पीछे , वनकटता और दरर ी बतलाने के वलए के वल वित्त का वनर्मालभण वकया हुअ पदाथलभ ह।
गणर ों की साम्य पररणार्मों वाली ऄवथथा का नार्म परा-प्रकृ वत ह। परा-प्रकृ वत जड़, ऄवलगं तथा
वरगणर र्मयी कही गइ ह। गणर ऄपने थवरूप से पररणार्म थव ाव वाले हैं, आसवलए आनका साम्य पररणार्म
ऄनर्मर ान गम्य ह। आस प्रकृ वत का सर्मावध के द्रारा साक्षात्कार नहीं वकया जा सकता ह। सर्मावध के द्रारा
योगी वसिलभ वित्त तक साक्षात्कार कर सकता ह। परा-प्रकृ वत गणर ों की साम्यावथथा होने के कारण तथा
वकसी की ववकृ वत न होने के कारण जीवात्र्मा के वलए वनष्प्रयोजन ह। जीवात्र्मा का प्रयोजन ोग और
ऄपवगलभ ह। ोग गणर ों के पररणार्म का यथाथलभ रूप से साक्षात्कार तथा ऄपवगलभ जीवात्र्मा की
थवरूपाववथथवत ऄथालभत् ब्रह्म की प्रावप्त ह। वबना गणर ों के पररणार्म के यथाथलभ रूप का साक्षात्कार वकए
थवरूपाववथथवत प्राप्त नहीं की जा सकती ह। िेतन तत्त्व ऄपने शि र थवरूप र्में जड़ तत्त्व से सवलभथा व न्न व
ववलक्षण ह। प्रकृ वत र्में गणर ों के ववषर्म पररणार्म के कारण सृवष्ट की रिना हुइ ह। ववषर्मावथथा वाली प्रकृ वत
को ऄपरा-प्रकृ वत कहते हैं गणर ों का पहला ववषर्म पररणार्म सत्त्वगणर र्में रजोगणर का वक्रया र्मार तथा
तर्मोगणर का वथथवत र्मार ववषर्म पररणार्म वित्त ह। यह सत्त्वगणर र्में रजोगणर व तर्मोगणर की सक्ष्र र्म र्मारा ही
सृवष्ट के वनयर्मों का बीज ह। आसी वित्त से सारी सृवष्ट की ईत्पवत्त होती ह। गीता के िौदह वें ऄ्याय र्में
गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं–
“हे अजथनु ! मेरी योलन (गभथ रखने का स्थान) लचत्त है, उसी में मैं गभथ रखता ह।ूँ (अपने ज्ञान का
प्रकाश डािता ह)ूँ और उसी (जों -चेतन) सयां ोग से सब भतू ों की उत्पलत्त होती है। उसमें बीज
डािने वािा मैं (चेतन तत्त्व) लपता ह”ूँ ।
वित्त ्र ाह्य और ्र हण सब प्रकार के ववषयों का जीवात्र्मा को प्रत्यक्ष कराने के वलए दपलभण रूप ह।
वित्त र्में ही सख र -दःर ख, र्मोह अवद सत्त्वगणर , रजोगणर व तर्मोगणर का पररणार्म होता ह। वित्त की वृवत्त र्मार
से सक्ष्र र्म शरीर के साथ थथल र शरीर को छोड़कर दसर रे शरीर र्में जाना र्मृत्यर और जन्र्म कहलाता ह। वित्त र्में
पााँि प्रकार की ऄवथथाएाँ होती ह।– एक– र्मढ़र ावथथा, दूसरी– वक्षप्तावथथा, तीसरी– वववक्षप्तावथथा,
चौथी– एका्र ावथथा, पााँचवी– वनरूिावथथा

तत्त्वज्ञान 79
मूढ़ावस्था र्में तर्मोगणर प्रधान होता ह।, सत्त्वगणर व रजोगणर गौण रूप र्में रहते हैं यह ऄवथथा कार्म,
क्रोध, लो , र्मोह अवद के कारण होती ह। र्मनष्र य की आस ऄवथथा र्में प्रवृवत्त ऄज्ञान, ऄधर्मलभ तथा राग
अवद र्में होती ह। यह ऄवथथा वनम्न कोवट के र्मनष्र यों की होती ह।
दक्षप्तावस्था र्में रजोगणर प्रधान रहता ह।, सत्त्वगणर व तर्मोगणर गौण रूप र्में रहते हैं आस ऄवथथा र्में
र्मनष्र यों की प्रवृवत्त ज्ञान-ऄज्ञान, धर्मलभ-ऄधर्मलभ की होती ह। यह ऄवथथा साधारण सासं ाररक र्मनष्र यों की होती
ह।
दवदक्षप्तावस्था र्में सत्त्वगणर प्रधान होता ह।, रजोगणर व तर्मोगणर दबे हुए गौण रूप र्में रहते हैं यह
ऄवथथा र्मनष्र यों के राग-द्रेष, कार्म-क्रोध, लो -र्मोह छोड़ने से होती ह। आससे ईसकी प्रववत्त ज्ञान, धर्मलभ,
व।रा‍य अवद र्में होती ह। लेवकन रजोगणर वित्त को वववक्षप्त करता रहता ह। यह ऄवथथा ईच्ि कोवट के
र्मनष्र यों तथा वजज्ञासओर ं की होती ह। ये तीनों ऄवथथाएाँ वित्त की थवा ाववक नहीं हैं, ‍योंवक बाहर के
ववषयों का वित्त पर प्र ाव पड़ता रहता ह।
एकाग्रावस्था र्में एक ही ववषय र्में सर्मान वृवत्तयों का प्रवाह वनरन्तर बहता रहता ह। जब वित्त र्में
बाह्य ववषयों के रजोगणर व तर्मोगणर का प्र ाव न रह जाए, तब वित्त वनर्मलभल थवच्छ िर्मकते हुए थिवटक
के सर्मान हो जाता ह। ईस सर्मय थथल र पंि-र्महा तर ों से लेकर वित्त तक ्र ाह्य, ्र हण और ्र हीता ववषयों
का यथाथलभ साक्षात्कार होता ह। आसकी ऄवन्तर्म सवोच्ि ऄवथथा वववेक-ख्यावत ह।, यह वित्त की
थवा ाववक ऄवथथा ह। आसर्में प्रकृ वत के स ी कायों का पणर लभतया साक्षात्कार होता ह। एका्र ावथथा र्में
वववेक-ख्यावत द्रारा वित्त और अत्र्मा के ेद का साक्षात्कार होता ह। यह वववेक-ख्यावत ी वित्त की
एक वृवत्त ह। आस वृवत्त के बाद पर-व।रा‍य ईदय हो जाता ह।
दनरूधावस्था र्में यह वववेक-ख्यावत वृवत्त ी वनरुि हो जाती ह। आस ऄवथथा र्में सवलभववृ त्तयों के
वनरोध होने से ऄब स ी प्रकार के सथं कारों की सर्मावप्त हो जाती ह।, र्मगर पर-व।रा‍य के सथं कार शेष रहते
हैं वनरूिावथथा र्में वकसी प्रकार के सथं कारों की वृवत्त न रहने पर कोइ ी पदाथलभ जानने र्में नहीं अता ह।
तथा ऄववद्या अवद ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय जो जन्र्म-अयर तथा र्मृत्यर के बीज हैं, वह ी नहीं रहते हैं
आसवलए आसको वनबीज सर्मावध ी कहते हैं जब स ी प्रकार की वृवत्तयों का वनरोध हो जाता ह।, तब
जीवात्र्मा की ऄववथथवत शि र िेतन तत्त्व र्में हो जाती ह।
गणर ों के ववषर्म पररणार्म से वित्त का वनर्मालभण हुअ ह।, आसी वित्त र्में ऄहकं ार बीज रूप र्में रहता ह। जब
सत्त्वगणर ी वित्त र्में रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा बढ़ने लगती ह।, तब ऄहक ं ार बवहर्मलभख
र ी होने लगता ह। यह

तत्त्वज्ञान 80
ऄहक ं ार तीनों गणर ों का वद्रतीय ववषर्म पररणार्म ह। आस ऄहक ं ार र्में जो रजोगणर व तर्मोगणर ह। यही ऄहर्म्
ाव ईत्पन्न करता ह। ऄहर्म् ाव एकत्व व बहुत्व अवद स ी प्रकार की व न्नता प्रकट करता ह।
ऄहक ं ार र्में दो प्रकार के ववषर्म पररणार्म हो रहे हैं एक–्र ाह्य रूप र्में, दूसरा– ्र हण रूप र्में ्र ाह्य रूप र्में
पााँि तन्र्माराएाँ ईत्पन्न हो रही हैं, ये तन्र्माराएाँ शब्द, थपशलभ, रूप, रस और गन्ध हैं आन्हीं पााँिों तन्र्माराओ ं
से पााँि सक्ष्र र्म र्महा तर ईत्पन्न हो रहे हैं आन पााँिों सक्ष्र र्म र्महा तर ों से पााँि थथल
र र्महा तर ईत्पन्न हुए हैं ये
वही अकाश, वाय,र ऄव‍न, जल और पृथ्वी हैं आन पााँिों तन्र्माराओ ं के सक्ष्र र्म व थथल र ्र ाह्य ववषर्म
पररणार्म हैं ्र हण रूप र्में पााँि ज्ञानेवन्ियााँ व पााँि कर्मेवन्िया तथा र्मन हैं पााँिों ज्ञानेवन्िया-कान, त्विा,
नेर, जी और नाक हैं तथा पााँिों कर्मेवन्ियााँ हाथ, प।र, र्माँहर , जननेवन्िय और गदर ा हैं आन ववषर्म पररणार्मों र्में
सत्त्वगणर , रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा बढ़ती जाती ह। वित्त की ऄपेक्षा ऄहक ं ार र्में रजोगणर व तर्मोगणर
ऄवधक ह। ऄहक ं ार की ऄपेक्षा र्मन, दसों आवन्िय व तन्र्माराओ ं र्में रजोगणर व तर्मोगणर ऄवधक ह। आन
तन्र्माराओ ं की ऄपेक्षा सक्ष्र र्म पंि तर र्में रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा ऄवधक ह। थथल र पंि तर ों र्में रजोगणर
व तर्मोगणर की र्मारा आतनी ऄवधक बढ़ जाती ह। वक ये ौवतक नेरों से वदखाइ देने लगते हैं सत्त्वगणर र्में
वजतना रजोगणर व तर्मोगणर बढ़ेगा ईतनी ही ऄवधक थथरलता अने लगती ह।
गणर ों के प्रथर्म ववषर्म पररणार्म र्में (वित्त र्मेंद सत्त्वगणर प्रधान रूप से होता ह। रजोगणर व तर्मोगणर वसिलभ
नार्म र्मार का होता ह।, आसवलए वित्त ऄवत सक्ष्र र्म ह। ऄवत सक्ष्र र्मता के कारण वित्त वव र (व्यापकद ह। ज।से-
ज।से रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा क्रर्मशः बढ़ती जाती ह।, व।स-े व।से सक्ष्र र्मता कर्म होती जाती ह। ज।से-ज।से
सक्ष्र र्मता कर्म होती जाती ईसी के ऄनसर ार व्यापकता ी कर्म होती जाती ह। आसी कारण प्रकृ वत के ऄन्दर
वित्त व्याप्त ह। तथा वित्त के ऄन्दर ऄहक ं ार व्याप्त ह। ऄहक ं ार के ऄन्दर पााँिों तन्र्माराएाँ, र्मन व दसों
आवन्ियााँ व्याप्त हैं आन्हीं तन्र्माराओ ं के ऄन्दर सक्ष्र र्म पंि तर व्याप्त हैं सक्ष्र र्म पंि तर ों के ऄन्दर थथल र
पंि तर व्याप्त ह। रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा तन्र्माराओ ं की ऄपेक्षा सक्ष्र र्म पंि तर ों के ऄन्दर ऄवधक ह।
सक्ष्र र्म पंि तर ों की ऄपेक्षा थथल र पंि तर ों र्में रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा बहुत ऄवधक ह। आसवलए थथल र
पंि तर दृवष्टगोिर हो रहे हैं शरू र अत र्में सत्त्वगणर प्रधान था, रजोगणर व तर्मोगणर वसिलभ नार्म र्मार थे र्मगर
ज।से-ज।से गणर ों का पररणार्म क्रर्म बढ़ता गया, व।से-व।से सत्त्वगणर कर्म होता गया तथा रजोगणर व तर्मोगणर
बढ़ता गया आसी के साथ व्यापकता कर्म होती गइ ऄन्त र्में जब थथल र पंि तर ों र्में सत्त्वगणर नार्म र्मार का
रह गया और तर्मोगणर प्रधान हो गया तब व्यापकता आतनी कर्म हो गइ वक र्मनष्र य ने ऄपने अपको वसिलभ
थथल र शरीर तक ही सीवर्मत कर वलया तथा ौवतक जगत् को ही पणर लभ रूप से ऄपना सर्मझने लगा आस
ौवतक जगत् र्में सारा व्यवहार तर्मोगणर का ही िल रहा ह। पहले सत्त्वगणर प्रधान था, तर्मोगणर वसिलभ नार्म

तत्त्वज्ञान 81
र्मार का था र्मगर ऄब तर्मोगणर प्रधान ह।, सत्त्वगणर वसिलभ नार्म र्मार का ह। सत्त्वगणर की प्रधानता वाला
वित्त जड़ होते हुए ी ज्ञान थवरूप अत्र्मा से प्रवतवबवम्बत ह। अत्र्मा का प्रकाश वित्त पर पड़ता ह।,
आसवलए वित्त र्में ज्ञान वदलाने की यो‍यता ह। अत्र्मा का प्रकाश जो वित्त पर पड़ता ह।, आसी के द्रारा
(प्रकाश या ज्ञान के द्राराद वित्त के ववषयों का ऄपने अप ज्ञान होता रहता ह। आसवलए अत्र्मा को िष्टा
तथा वित्त को दृश्य कहते हैं वित्त र्में प्रवतवबवम्बत िेतन तत्त्व ी रजोगणर व तर्मोगणर की ऄवधकता बढ़
जाने के कारण, आन्हीं दोनों गणर ों के अवरणों से अच्छावदत होकर थथल र शरीर व ौवतक जगत् र्में झलक
र्मार ही वदखाइ दे रहा ह।
वदव्य शरीर व देवताओ ं के शरीर ईत्पन्न होने के सर्मय सत्त्वगणर प्रधान होता ह।, ऄन्य दोनों गणर गौण
रूप र्में रहते हैं र्मनष्र य का शरीर ईत्पन्न होने के सर्मय रजोगणर प्रधान रहता ह।, ऄन्य दोनों गणर गौण रूप र्में
रहते हैं पश,र पक्षी, कीट अवद का शरीर ईत्पन्न करते सर्मय तर्मोगणर प्रधान रहता ह।, ऄन्य दोनों गणर गौण
रूप र्में रहते हैं र्मनष्र य जो ी कर्मलभ करता ह।, वह रजोगणर के द्रारा करता ह।, ‍योंवक रजोगणर का थव ाव
वक्रया करना ह। रजोगणर जब सत्त्वगणर के साथ वर्मलकर कर्मलभ करता ह। तो वह कर्मलभ पण्र य वाले हो जाते हैं
जब रजोगणर तर्मोगणर से वर्मलकर कर्मलभ करता ह। तो वह कर्मलभ पाप वाले होते हैं आस प्रकार तीनों गणर ों द्रारा
जो ी पररणार्म हो रहा ह।, वह जीवात्र्मा के ोग-ऄपवगलभ के वलए ह। थथल र पंि तर ों से लेकर वववेक-
ख्यावत तक जो ी पररणार्म का रूप ह। ईसकी ऄनर वर त ही ोग ह।, ‍योंवक वववेक-ख्यावत से रवहत
जीवात्र्मा के साथ गणर सयं क्त र रहते हैं सर्मावध के द्रारा वववेक-ख्यावत प्राप्त करने पर ये गणर जीवात्र्मा के
वलए पररणार्म ( ोग रूप र्मेंद बन्द कर देते हैं ऄपवगलभ ईसे कहते हैं– जब जीवात्र्मा सारे ोगों को ोगकर
ऄपने शि र थवरूप र्में (अत्र्मा र्मेंद ऄववथथत हो जाए, यह ऄवथथा वववेक-ख्यावत के पश्िात अती ह।
गणर ों की िार प्रकार की ऄवथथाएाँ ऄथालभत् पररणार्म हैं– 1. दवशेष, 2. अदवशेष, 3. दलगुं मात्र 4.
अुंदलग। ववशेष ऄवथथा र्में सोलह ववकृ वतयााँ अती हैं, ऄववशेष ऄवथथा र्में पााँिों तन्र्माराएाँ और
ऄहक ं ार अता ह। वलगं र्मार ऄवथथा र्में वित्त अता ह। तथा ऄवं लग ऄवथथा र्में ऄव्य‍त, परा-प्रकृ वत
अती ह।, यह गणर ों की साम्यावथथा हैं परा-प्रकृ वत जीवात्र्मा के वलए वनष्प्रयोजन ह। वित्त को बनाने वाले
गणर जीवात्र्मा के वलए ोग और ऄपवगलभ का कायलभ करने के पश्िात ऄपने कारण र्में (प्रकृ वत र्मेंद लीन हो
जाते हैं
वित्त र्में दो प्रकार का पररणार्म सद।व होता रहता ह। पहले प्रकार का पररणार्म थवयं वित्त र्में होता
रहता ह।, आसे वित्त का अंतररक पररणार्म ी कहते हैं, ‍योंवक वित्त का ऄवथतत्व ही गणर ों के ववषर्म

तत्त्वज्ञान 82
पररणार्म द्रारा ह। सत्त्वगणर र्में नार्म र्मार का रजोगणर व तर्मोगणर ही वित्त का अंतररक पररणार्म ह। दसर रे
प्रकार का पररणार्म बाह्य पररणार्म कहा जाता ह। यह पररणार्म वित्त र्में वथथत ववव न्न प्रकार की वृवत्तयों र्में
होता रहता ह। आन्हीं वृवत्तयों के कारण र्मनष्र य व।सा ही कर्मलभ करता ह। वजस प्रकार की (सत्त्वगणर ी, रजोगणर ी व
तर्मोगणर ीद ईसकी वृवत्त होती ह। वित्त का बाह्य पररणार्म दो प्रकार के दृश्यों द्रारा वदखाइ देता ह। एक–
कबतर रों के रूप र्में, दूसरा– बच्िों के रूप र्में कबतर रों वाला ऄनर व ऄपनी वपछली पथर तक ‚योग कै से
करें ‛ र्में वलखा ह। आस प्रकार के ऄनर व जनवरी 1996 र्में बहुत अए थे, ईस पथर तक र्में पढ़ा जा सकता
ह। ऐसे ऄनर व तब अते हैं जब साधक ऄहक ं ार की वर र्म पर सर्मावध का ऄभ्यास कर रहा होता ह। आस
ऄनर व को संक्षेप र्में वलख रहा हाँ तीन कबतर र अपस र्में एक दसर रे को जबरदथती दबाते रहते हैं तथा नीिे
वाले कबतर र के वसर पर िोंि का प्रहार करते रहते हैं सत्त्वगणर के प्रतीक वाला कबतर र सबसे उपर होता
ह।, बीि र्में रजोगणर के प्रतीक वाला कबतर र होता ह। तथा सबसे नीिे तर्मोगणर के प्रतीक वाला कबतर र
होता ह। आन तीनों कबतर रों के बाह्य थवरूप की थवच्छता र्में व न्नता होती ह। सत्त्वगणर के प्रतीक वाला
कबतर र ऄत्यन्त थवच्छ होता ह। तथा क ी-क ी सम्पणर लभ ऄंतररक्ष र्में ी ईड़ता वदखाइ देता ह। ईड़ने के
बाद कबतर र के उपर ब।ठ कर नीिे वाले कबतर र के वसर पर जबरदथत िोंि का प्रहार करता ह। यह वित्त
की एका्र ावथथा के सर्मय होता ह। आस ऄवथथा र्में एक ही ववषय र्में सर्मान वृवत्तयों (सत्त्वगणर ीद का प्रवाह
वनरन्तर बहता रहता ह। सत्त्वगणर ऄपने दोनों साथी रजोगणर व तर्मोगणर का दबाए रहता ह। दसर रे प्रकार का
ऄनर व तब अता ह। जब ऊतम् रा-प्रज्ञा द्रारा प्रकृ वत के पदाथों के ववशेष थवरूप का साक्षात्कार हो जाता
ह। आस दृश्य र्में तीन छोटे -छोटे बच्िे वदखाइ देते हैं दो बच्िे एक साथ वर्मलकर तीसरे बच्िे को नीिे
दबाकर बड़े अरार्म से सोते रहते हैं दृश्य बहुत ऄच्छा वदखाइ देता ह। उपर वाले दोनों बच्िे सत्त्वगणर व
तर्मोगणर के प्रतीक हैं, नीिे वाला बच्िा रजोगणर का प्रतीक ह। वववेक-ख्यावत के पश्िात जब साधक
वनरूिावथथा का ऄभ्यास करता ह। तब आस प्रकार के ऄनर व अते हैं वनरूिावथथा र्में वित्त का बाह्य
पररणार्म रुक जाता ह। तथा वित्त का अन्तररक पररणार्म होता रहता ह। जब बाह्य पररणार्म रुकता ह। तब
वित्त र्में लेश र्मार वथथत तर्मोगणर सत्त्वगणर का सहयोग करके रजोगणर को दबा लेता ह।, तब वित्त की
वृवत्तयााँ वनरुि हो जाती हैं वित्त का अन्तररक पररणार्म वित्त का थवरूप नष्ट होने पर ही बन्द होता ह।
दोनों प्रकार के ऄनर व वित्त के बाह्य पररणार्म से सम्बवन्धत ह। कबतर र वाला ऄनर व एका्र ावथथा का ह।
बच्िों वाला ऄनर व वनरूिावथथा का संकेत ह। वनरूिावथथा र्में वकसी प्रकार के ऄनर व नहीं अते हैं
क ी-क ी साधक को ऐसे ऄनर व योगवनिा र्में वदखाइ देते हैं

तत्त्वज्ञान 83
गणर ों की प्रवृवत्त जीवात्र्मा के ोग और ऄपवगलभ के वलए ह। आसी कारण वित्त, ऄहक ं ार, आवन्िय,
शरीर अवद का थवरूप धारण वकए ह।, वजससे जीवात्र्मा के प्रवत आन गणर ों का कायलभ सर्माप्त हो जाता ह।
विर गणर ऄपने कारण प्रकृ वत र्में लीन हो जाते हैं जब गणर ऄपने कारण र्में लीन होते हैं, तब वे प्रवतलोर्म
पररणार्म से लीन होते हैं ऄथालभत् वनरोध के संथकार र्मन र्में, र्मन ऄहक
ं ार र्में, ऄहक
ं ार वित्त र्में, वित्त को
बनाने वाले गणर प्रकृ वत र्में लीन हो जाते हैं गणर ों का ऄपने कारण र्में लीन हो जाना ऄथालभत् गणर ों का
जीवात्र्मा से ऄलग हो जाना ही क। वकय ह।
गणर ों के वाथतववक थवरूप का साक्षात्कार नहीं वकया जा सकता ह। र्मानव शरीर द्रारा सर्मावध
ऄवथथा र्में वित्त तक ही साक्षात्कार हो सकता ह। वित्त का साक्षात्कार होने पर साधक के वलए प्राकृ वतक
बन्धन सर्माप्त हो जाता ह।, ‍योंवक गणर विर ईस जीवात्र्मा के वलए सृवष्ट ईन्र्मख र (ऄनलर ोर्म पररणार्मद और
प्रलय ईन्र्मख
र (प्रवतलोर्म पररणार्मद दोनों प्रकार के पररणार्म क्रर्म सर्माप्त कर देते हैं

तत्त्वज्ञान 84
दचत्त
गणर ों का सवलभप्रथर्म ववषर्म पररणार्म वित्त ह।, सत्त्वगणर र्में लेशर्मार रजोगणर व तर्मोगणर वित्त कहलाता
ह। सत्त्वगणर र्में वक्रयार्मार रजोगणर तथा आस वक्रया को रोकने र्मार तर्मोगणर होता ह।, आसे व्यवष्ट वित्त कहते
हैं आस व्यवष्ट वित्त र्में सत्त्वगणर ऄपनी ववशि र ता को छोड़े हुए हैं, ‍योंवक सत्त्वगणर र्में रजोगणर व तर्मोगणर
वर्मला हुअ ह। व्यवष्ट वित्त र्में व्यवष्ट ऄहक ं ार रहता ह।, ये जीवों के वित्त हैं जो संख्या र्में ऄसंख्य हैं यह
गणर ों की ववषर्मावथथा ह। गणर ों की साम्यावथथा र्में जो वित्त बनता ह।, ईसे सर्मवि वित्त कहते हैं सर्मवि
वित्त र्में सत्त्वगणर का सत्त्वगणर र्में, रजोगणर का रजोगणर र्में, तर्मोगणर का तर्मोगणर र्में पररणार्म होता ह। ऄथालभत्
आस वित्त र्में गणर सर्मान रूप से रहते हैं, एक दसर रे को दबाते नहीं ह। आस वित्त र्में सत्त्वगणर ववशि र ता वलए
हुए ह।, आसवलए आसे ववशि र सत्त्वर्मय वित्त कहते हैं जबवक व्यवष्ट वित्त र्में सत्त्वगणर ऄपनी ववशि र ता छोड़े
हुए होता ह। ववशि र सत्त्वर्मय वित्त र्में सर्मवष्ट ऄहक ं ार बीज रूप से रहता ह।, यह इश्वर का वित्त ह। िेतन
तत्त्व के ज्ञान का प्रकाश वित्त पर प्रवतवबम्ब के रूप र्में पड़ता ह। यही ज्ञान का प्रकाश वित्त पर पड़ने के
कारण िेतन तत्त्व (अत्र्माद वित्त का िष्टा ह। तथा वित्त दृश्य ह। वित्त र्में ईसके ज्ञान के प्रकाश र्में जो करछ
ी हो रहा ह। वह ईसे (अत्र्मा कोद ज्ञात रहता ह। व्यवष्ट वित्त के सम्बन्ध से िेतन तत्त्व (अत्र्माद का नार्म
जीव ह। सर्मवि वित्त के सम्बन्ध से िेतन तत्त्व (अत्र्माद का नार्म इश्वर ह। सर्मवष्ट का ऄथलभ सरूप पररणार्म
से ह। वजसर्मे गणर सर्मान रूप र्में रहते हैं, एक दसर रे को दबाते नहीं हैं व्यवष्ट का ऄथलभ ववरूप पररणार्म से ह।,
आसर्मे गणर सद।व एक दसर रे को दबाते रहते हैं
वित्त र्में रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा ज।स-े ज।से बढ़ती जाती ह।, व।स-े व।से ऄहक ं ार, तन्र्माराएाँ, र्मन,
आवन्ियााँ, सक्ष्र र्म पंि-र्महा तर बवहर्मलभख
र ी होते जाते हैं ऄन्त र्में थथल
र शरीर व ौवतक जगत् र्में रजोगणर व
तर्मोगणर का व्यापार पणर लभ रूप से हो जाता ह। सत्वगणर की र्मारा आतनी कर्म हो जाती ह। वक वह के वल
प्रकाश र्मार रह जाता ह। सत्वर्मय वित्त र्में रजोगणर व तर्मोगणर का अवरण परर ी तरह से अच्छावदत हो
जाता ह। जीव ऄपने वाथतववक थवरूप को रजोगणर व तर्मोगणर से अच्छावदत अवरण के कारण ल र
जाता ह। जीव ऄपने अपको थथल र शरीर तक सीवर्मत कर लेता ह। तथा ौवतक जगत् को ऄपना सर्मझने
लगता ह। आसी कारण जीव ऄपने वनज थवरूप को ल र कर ऄज्ञान से यक्त
र कर्मों के कारण आसी ौवतक
जगत् र्में बार-बार जन्र्म, अयर और र्मृत्यर के िक्र र्में बना रहता ह। सर्मावध के ऄभ्यास के द्रारा वजतनी
ऄन्तर्मलभख
र ता बढ़ती जाएगी, वित्त र्में वथथत रजोगणर व तर्मोगणर का अवरण ईतना ही धीरे -धीरे कर्म होता
जाएगा तब सत्त्वगणर का प्रकाश बढ़ता जाएगा और जीव ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो जाएगा

तत्त्वज्ञान 85
वित्त स ी प्रकार के दृश्यों से यक्तर होता ह।, आसवलए हर्म आसे दृश्य ी कहते हैं तथा यह िेतन तत्त्व
के ज्ञान के प्रकाश से ी यक्त र होता ह।, ‍योंवक वित्त पर िेतन तत्त्व का प्रवतवबम्ब ज्ञान के प्रकाश के रूप र्में
पड़ता ह। आस प्रकार वित्त स ी ऄथों वाला होता ह। एक– ्र हीता थवरूप वाला, दूसरा– ्र हण थवरूप
वाला, तीसरा– ्र ाह्य थवरूप वाला एक– िेतन तत्त्व से (अत्र्मा सेद प्रवतवबवम्बत हुअ वित्त ज्ञान वाला
प्रतीत होता ह। आसी ज्ञान वाला प्रतीत होने के कारण वित्त को िेतन तत्त्व होने की भ्रावन्त होने लगती ह।,
यह ईसका ्र हीता थवरूप ह। दूसरा– वित्त गणर ों का ववषर्म पररणार्म ह।, यह पररणार्मी व जड़ ह। यह र्मन व
आवन्ियों के रूप र्में ्र हण थवरूप ह। तीसरा– बाह्य ववषयों से प्रवतवबवम्बत होकर वित्त ईस ज।सा ावसत
होने लगता ह।, यह आसका ्र ाह्य थवरूप ह। ्र ाह्य थवरूप र्में तन्र्माराएाँ, सक्ष्र र्म व थथल र पंि-र्महा तर अते हैं
वित्त के वल ्र हण रूप र्में व ्र ाह्य रूप र्में प्रतीत होता ह। र्मैंने यहााँ पर जो ्र हीता थवरूप का ईकलेख वकया
ह।, यहीं भ्रावन्त होती ह। र्मगर यह भ्रावन्त सर्मावध द्रारा वववेक-ख्यावत के पश्िात सर्माप्त हो जाती ह। जब
ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह। तब वित्त की वाथतववकता का पता िल जाता ह। वित्त का ऄपना एक
थवरूप ह। दूसरा– िेतन तत्त्व से प्रवतवबवम्बत होकर ज्ञान वाला प्रतीत होता ह।, तीसरा– बाह्य ववषयों से
प्रवतबवम्बत होकर ईन ज।सा ावसत होता ह।
वित्त र्में प्रवतक्षण बाहरी तथा अन्तररक गणर ों का पररणार्म हो रहा ह। वित्त राग-द्रेष, कार्म-क्रोध,
लो -र्मोह, य अवद रूप से बदलता रहता ह। वजस प्रकार वायर के वेग से जल र्में तरंगे ईठती हैं, ईसी
प्रकार वित आवन्िय द्रारा बाह्य ववषयों से अकवषलभत होकर ईन ज।से ववकारों र्में पररवणत होता रहता ह। यह
सब वित्त की वृवत्तयााँ कहलाती हैं जो प्रवतक्षण प्रकट होती रहती हैं ज।से- जल, वायर के ऄ ाव र्में तरंगों
का थवरूप त्याग कर ऄपने थव ाव र्में ऄववथथत हो जाता ह।, आसी प्रकार वित्त ऄपने बाह्य और अंतररक
पररणार्मों को त्याग कर ऄपने कारण र्में (प्रकृ वत र्मेंद ऄववथथत हो जाता ह। वित्त र्में पााँि प्रकार की
ऄवथथाएाँ होती हैं, वजन्हें पहले वलखा जा िक र ा ह। साधक को सर्मावध र्में वित्त नदी के रूप र्में वदखाइ देता
ह।, ईस नदी र्में बहता हुअ पानी वित्त की ऄनन्त वृवत्तयााँ होती हैं आसवलए वित्त को नदी का रुप कहा
जाता ह। वजसर्मे वृवत्तयों का प्रवाह बहता ह। आसकी दो धाराएाँ होती हैं एक– ससं ार रूपी सागर की ओर
बहती ह।, दूसरी– ककयाण रूपी सागर की ओर बहती ह। वजन र्मनष्र यों ने पवर लभ जन्र्म र्में सासं ाररक ववषयों के
ोगों से सम्बवन्धत कायलभ वकए हैं ईनकी वृवत्तयों की धारा ईन संथकारों के कारण ववषय ोगों के र्मागलभ से
बहती हुइ संसार सागर र्में जाकर वर्मलती ह। वजन र्मनष्र यों ने पवर लभ जन्र्म र्में र्मोक्ष से सम्बंवधत कायलभ वकए हैं,
ईनकी वृवत्तयों की धारा ईन संथकारों के कारण वववेक र्मागलभ से बहती हुइ ककयाण रुपी सागर र्में जाकर
वर्मलती ह। साधारण र्मनष्र यों ऄथवा संसारी र्मनष्र यों की ववषय ोग वाली धारा जन्र्म से ही खल र ी रहती ह।,

तत्त्वज्ञान 86
आनकी दसर री धारा बन्द रहती ह। दसर री धारा खोलने के वलए योग के ऄभ्यास का सहारा वलया जाता ह।
योग का वजतना कठोर ऄभ्यास वकया जाता ह।, ईतने ही ऄवधक प्रवाह से यह ऄपना र्मागलभ बना कर
वववेक के स्त्रोत र्में पहुिाँ ती ह। विर ककयाण रूपी सागर र्में जाकर वर्मल जाती ह। आस ऄवथथा र्में पहली
वाली धारा को योग के ऄभ्यासी ईसके स्त्रोत पर (ववषय ोग की धारा परद व।रा‍य का बन्ध लगा देते हैं
आस प्रकार योग का ऄभ्यास और व।रा‍य दोनों ही एक साथ वर्मलकर वित्त की वृवत्तयों को वनरुि कर देते
हैं वसिलभ योग का ऄभ्यास ऄथवा व।रा‍य वकसी एक के सहारे वित्त के वृवत्तयों को वनरुि नहीं वकया जा
सकता ह।
र्मनष्र य के वित्त र्में कइ प्रकार के र्मलों का अवरण होता ह। आन्हीं र्मलों के कारण योग के ऄभ्यास र्में
शीघ्र सिलता नहीं वर्मलती ह। आन र्मलों को जब ी सर्मय वर्मले (जा्र त ऄवथथा र्में व्यवहार के सर्मयद
तब साि करते रहना िावहए ये र्मल आस प्रकार ह।– ऄपनी आच्छानसर ार प्राप्त वथतर की ऄनर वर त र्में सख र
वर्मलता ह। यह सख र सद।व बना रहे, यह आच्छा ही राग ह। राग वित्त का र्मल ह। दसर रों को सम्पवत्त वाला
अवद देखकर वित्त र्में एक प्रकार की जलन होती ह। आसे आष्यालभ कहते हैं यह इष्यालभ वित्त को गन्दा कर देती
ह। दसर रे की बरर ाइ और दःर ख पहुिाँ ाने की आच्छा वित्त को र्मवलन कर देती ह। दसर रों के गणर ों र्में दोष
अरोवपत करने से वित्त र्में र्मल का अवरण िढ़ने लगता ह।, दसर रे से द्रेष करने पर ी वित्त र्मवलन होने
लगता ह। वकसी से ऄपर्मावनत होकर तथा कठोर विन सनर कर सहन न कर पाने पर बदले की ावना से
वित्त र्मवलन होता ह। आन स ी र्मलों से यक्त र होकर वित्त पर परर ी तरह से गन्दगी िढ़ जाती ह।, वजससे योग
के ऄभ्यास र्में वित्त शीघ्रता से एका्र नहीं हो पाता ह। वित्त के आस र्मल रूपी अवरण से छरटकारा पाने के
वलए वनम्नवलवखत ईपाय करने िावहएं ऄपने ववरोधी र्मनष्र य को देखकर ी ईससे इष्यालभ की ावना न
रखें, बवकक वर्मरता की ावना रखनी िावहए ऄपने ववरोधी ऄथवा ऄपने वर्मर के सख र को ऄपना सख र
सर्मझकर प्रसन्न रहना िावहए जब ऄपने ववरोधी ऄथवा ऄपने वर्मर का सख र ऄपना सख र सर्मझोगे तो
राग और द्रेष की ावना सर्माप्त हो जाएगी तथा इष्यालभ ी सर्माप्त हो जाएगी दसर रे र्मनष्र य पर परोपकार व
दया की ावना रखनी िावहए, आससे घृणा अवद सर्माप्त हो जाती ह। आसवलए वववेकी र्मनष्र य सब पर दया
करते हैं ज।से र्मझर े ऄपने प्राण वप्रय हैं, व।से ऄन्य प्रावणयों को ी प्राण वप्रय हैं, ऐसा वह सोिते हैं आस
प्रकार का व्यवहार जब र्मनष्र य दसर रों पर करता ह। तो ईसके वित्त से र्मलों का अवरण हट जाता ह। ऄथालभत्
र्मल धल र जाते हैं वित्त के वनर्मलभल होने से प्रसन्नता प्राप्त होती ह। आससे सर्मावध ऄवथथा र्में वित्त शीघ्र
एका्र हो जाता ह।

तत्त्वज्ञान 87
वजन ऄभ्यासी साधकों ने सांसाररक ववषयों की आच्छा परर ी तरह से छोड़ दी ह।, ऐसे साधकों के वित्त
से ऄज्ञान अवद ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय सर्माप्त हो जाते हैं, वजससे सर्मावध ऄवथथा र्में वित्त र्में सावत्वक
संथकार ईदय होते हैं आन संथकारों से वित्त शीघ्रता से एका्र हो जाता ह। वित्त की एका्र ता प्राप्त हो जाने
पर ईसे जहााँ िाहो लगा सकते हो जब वित्त र्में एका्र होने की यो‍यता प्राप्त हो जाती ह।, तब वित्त योगी
के वश र्में हो जाता ह। विर वित्त को जहााँ िाहो, वजस पदाथलभ र्में िाहो लगा सकते हो आस ऄवथथा र्में वित्त
की रजोगणर ी व तर्मोगणर ी वृवत्तयााँ क्षीण हो िक र ी होती ह। तथा वित्त का थवरूप ऄवत वनर्मलभल थिवटक के
सर्मान हो जाता ह। वजस प्रकार ऄवत वनर्मलभल थिवटक के सार्मने वजस रंग का िरल रख वदया जाए, थिवटक
ईसी रंग का वदखाइ देने लगता ह। आसी प्रकार रजोगणर ी व तर्मोगणर ी वृवत्तयों के क्षीण होने पर सत्त्वगणर के
प्रकाश की सावत्वकता बढ़ने पर वित्त आतना थवच्छ हो जाता ह। वक विर ईसे वजस ी पदाथलभ र्में लगावें ईस
पदाथलभ का साक्षात्कार करा देता ह।, िाहे वह ्र हीता, ्र हण व ्र ाह्य ववषय हो वित्त के आस प्रकार वथतर का
अकार धारण करने को वित्त की एका्र ता व सबीज सर्मावध कहते हैं सर्मावध से पहले वित्त र्में रजोगणर व
तर्मोगणर से यक्त
र वृवत्तयााँ रहती हैं, विर सर्मावध की ऄवथथा र्में जो ऄनर व अते हैं ईनके ी संथकार वित्त
पर पड़ते हैं ये सर्मावध के संथकार पहले वाले रजोगणर ी व तर्मोगणर ी से शव‍तशाली होते हैं, ‍योंवक सर्मावध
के सथं कारों का ज्ञान रजोगणर ी व तर्मोगणर ी सथं कारों के ज्ञान से ऄवधक वनर्मलभल होता ह। सर्मावध वाले ज्ञान
की वनर्मलभलता र्में पदाथलभ के तत्त्व का ऄनर व होता ह।
सर्मावध ऄवथथा र्में ऄभ्यावसयों को जो वित्त ि।तन्य-सा वदखाइ देता ह। जब वववेक-ख्यावत के द्रारा
अत्र्मा और वित्त र्में व न्नता का ज्ञान हो जाता हैं, तब वित्त एक जड़ वथतर वदखाइ देती ह। तब लगने
लगता ह। वक वित्त र्मझर से व न्न ह। ऄववद्या के नाश हो जाने पर वित्त ऄव र्मान से रवहत रजोगणर व
तर्मोगणर के अवरण से शन्र य हो जाता ह। तब सत्त्वगणर के प्रकाश र्में जो िेतन तत्त्व का प्रवतवबम्ब वित्त पड़
रहा ह।, वजसके कारण वित्त ि।तन्यर्मय-सा प्रतीत होता था, तब वित्त से व न्न ईसका (िेतन तत्त्व के
प्रवतवबम्ब काद साक्षात्कार होता ह। यह साक्षात्कार वित्त की एक सावत्वक वृवत्त के कारण होता ह।
वववेक-ख्यावत र्में जो साक्षात्कार होता ह। ईससे वित्त आतना सावत्वक हो जाता ह। वक वववेक-ख्यावत ी
वित्त की एक सावत्वक वृवत्त प्रतीत होने लगती ह। अत्र्मा और वित्त का ेद जानने वाला साधक सवज्ञलभता
को प्राप्त कर लेता ह।, ‍योंवक वित्त गणर ों का प्रथर्म ववषय पररणार्म ह। वित्त ्र हीता थवरूप ी ह।, आसी के
द्रारा गणर ों के पररणार्म का यथाथलभ ज्ञान ी प्राप्त होता ह। अत्र्मा वित्त का थवार्मी तथा ज्ञान थवरूप ह।,
परन्तर ऄवववेक के कारण वित्त र्में अत्र्मा को अरोवपत करते हैं, यही ऄज्ञान का कारण ह। गणर ों के
पररणार्मों का सम्पणर लभ ज्ञान होने पर साधक सवलभज्ञ हो जाता ह।

तत्त्वज्ञान 88
सत्त्व प्रधान वित्त सयर लभ के सर्मान प्रकाशवान ह। ज।से वषालभ ऊतर र्में सयर लभ के प्रकाश को बादल ढक लेते
हैं, ईसी प्रकार रजोगणर ी व तर्मोगणर ी ऄववद्या से यक्त र कर्मालभशय ी वित्त के प्रकाश को ढक लेते हैं ऄथवा
अवरण डाले रहते हैं वजस प्रकार बादलों के हट जाने पर सयर लभ का प्रकाश िारों ओर ि। ल जाता ह।, ईसी
प्रकार रजोगणर ी व तर्मोगणर ी वृवत्तयों के र्मल का अवरण हटने पर वित्त का ज्ञान थवरूप प्रकाश िारों ओर
ि। ल जाता ह। विर जानने यो‍य करछ ी शेष नहीं रह जाता ह।, ‍योंवक ज्ञान का प्रकाश ऄनन्त तथा ज्ञेय
वथतएर ाँ ऄकप रह जाती ह।
अत्र्मा दृिा ह।, वित्त दृश्य ह। अत्र्मा के साथ वित्त ी ि।तन्य-सा हो जाता ह। जब वित्त ववषयों के
साथ सम्बन्ध करता ह।, तब वही वित्त सब वथतओ र ं को ्र हण करने की शव‍त से सम्पन्न होता ह। रजोगणर
और तर्मोगणर के अवरण से रवहत शि र सत्त्ववित्त ही अत्र्मा का प्रवतवबम्ब ्र हण करने र्में सर्मथलभ होता ह।
रजोगणर और तर्मोगणर ऄशि र होने के कारण प्रवतवबम्ब ्र हण करने र्में ऄसर्मथलभ ह। वित्त रजोगणर और
तर्मोगणर को दबाता हुअ सत्त्वगणर प्रधान बन कर वथथर दीपवशखा के (जलती हुइ लौ के सर्मानद अकार-
सा िेतन प्रवतवबम्ब ्र हण करने की शव‍त के कारण सदा एक रूप से पररवणत होता हुअ र्मोक्ष तक रहता
ह। ऄब ईन साधकों को यह बात सर्मझ र्में अ जानी िावहए वक जो आस जलती हुइ लौ के अकार को
अत्र्मा कहते हैं, यह वित्त का ही एक थवरूप ह। जो आस प्रकार वदखाइ देता ह। वित्त के ऄन्दर अत्र्मा को
अरोवपत करना ऄज्ञानता के वसवाय करछ ी नहीं ह। यह ऄज्ञानता जो अत्र्मा को दीप वशखा के सर्मान
सर्मझा रही ह।, वववेक-ख्यावत की प्रावप्त के बाद सर्माप्त हो जाती ह।, ‍योंवक वववेक-ख्यावत के द्रारा
अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान हो जाता ह।
वित्त र्में जो तर्मोगणर लेश र्मार ह।, ईसी तर्मोगणर र्में ऄववद्या बीज रूप र्में ववद्यर्मान रहती ह। आस
तर्मोगणर की र्मारा जब वित्त र्में बढ़ती ह।, तब ऄववद्या बवहर्मलभख र ी होने लगती ह। आसी ऄववद्या से क्रर्मशः
ऄवथर्मता, राग, द्रेष, ऄव वनवेश और ‍लेश ईत्पन्न होते हैं, आसवलए ऄववद्या पााँि गााँठो (ऄवथर्मता, राग,
द्रेष, ऄव वनवेश और ‍लेशद वाली कही गइ ह। ऄवनत्य र्में वनत्य, ऄपववर र्में पववर, ऄनात्र्मा र्में अत्र्मा
का ज्ञान ऄववद्या ह। आसी ऄववद्या के कारण र्मनष्र य सकार्म कर्मलभ करता ह।, आन्हीं सकार्म कर्मों से वित्त र्में
ईसी प्रकार के (सकार्म कर्मों के ऄनसर ारद कर्मालभशय बनते हैं विर कर्मालभशयों के ऄनसर ार जन्र्म-अयर तथा
ोग को प्राप्त होता ह। आन्हीं ोगों के ऄनसर ार सखर -दःर ख ईत्पन्न होते हैं जहााँ ऄववद्या होती ह।, वहााँ पर
ऄवथर्मता अवद ‍लेशों की ईत्पवत्त देखी जाती ह। र्मगर ऄववद्या जब वशवथल कर दी जाती ह। ऄथवा

तत्त्वज्ञान 89
वशवथल हो जाती ह।, तब ऄवथर्मता अवद की ईत्पवत्त नहीं होती ह। आससे थपष्ट होता ह। वक आन सबका
कारण ऄववद्या ही ह।
ऄववद्या के कारण र्मनष्र य को यह सम्पणर लभ जगत् वनत्य वदखाइ देता ह। तथा धन अवद सब करछ वह
ऄपना सर्मझता ह। िोरी, ऄन्याय, वहसं ा अवद से कर्माए हुए धन को ईवित सर्मझना, वहसं ा, पाप और
ऄधर्मलभ से यक्त
र वित्त को पववर सर्मझना ऄववद्या ह। स ी र्मनष्र य आन सासं ाररक ववषयों र्में वलप्त होकर सद।व
सख
र ढरंढा करते हैं, जबवक आस ऄवनत्य सासं ाररक ववषय र्में सख र वबककरल नहीं ह। गणर ों के कारण स ी
पदाथलभ पररवतलभनशील हैं, विर पररवतलभनशील पदाथलभ से सख र क। से वर्मल सकता ह।? जो वथतर अज अपकी ह।
वह कल दसर रों की हो जाएगी, आसवलए स ी पदाथलभ दःर ख थवरूप ही हैं शरीर, आवन्िय और वित्त ये स ी
जड़ तत्त्व हैं, आन्हें अत्र्मा सर्मझना ही ऄववद्या ह। यही ऄववद्या बन्धन का र्मल
र कारण ह।
ऄववद्या को वर्मथ्या ज्ञान ी कहते हैं र्मनष्र य र्में वववेक न होने से अत्र्मा और वित्त र्में ऄव न्नता
वदखाइ देती ह। वित्त की सख र -दःर ख और र्मोह रूपी वृवत्तयों का अत्र्मा पर अरोप लगाया जाता ह। र्मनष्र य
कहता ह।- अज हर्में अवत्र्मक दःर ख ह।, अज हर्में अवत्र्मक सख र ह।, ऄपने अत्र्मा से वनणलभय करना अवद
अत्र्मा न दःर खी होता ह। और न सख र ी होता ह। र्मनष्र य ये सब अत्र्मा पर ही अरोवपत करता ह। यही र्मनष्र य
की ऄज्ञानता ऄथवा ऄववद्या ह।, ‍योंवक सारे धर्मलभ वित्त के ह। न वक अत्र्मा के अत्र्मा ि।तन्यर्मय िष्टा के
थवरूप र्में ह। वर्मथ्या ज्ञान से यक्त
र जो वित्त ह। वह ऄपने ऄवधकार को सर्माप्त नहीं कर सकता ह। वह
ऄवधकार से यक्त र रहने के कारण अवागर्मन से यक्त र रहता ह।, र्मगर वववेक-ख्यावत को प्राप्त हुअ वित्त
ऄपने ऄवधकारों की सर्मावप्त पर ऄज्ञान से रवहत हो जाता ह। तथा बन्धन से ी र्म‍र त हो जाता ह।, वजससे
वह अवागर्मन से रवहत हो जाता ह। ऄववद्या के ववरोधी ववशि र ज्ञान से ऄववद्या की सर्मावप्त (ऄ ावद हो
जाती ह। तथा ऄववद्या की सर्मावप्त पर ऄववद्या के कायलभ वित्त और अत्र्मा को ऄव न्न रूप र्में देखने के
ऄ ाव को र्मोक्ष कहते हैं ऄथालभत् दःर खों का ऄपने कारण सवहत नाश हो जाता ह।
र्मनष्र य का वित्त िंिल होता ह। ईसे पाप र्मागलभ से हटा वदया जाए तो पण्र य की ओर िला जाता ह।
और यवद पण्र य र्मागलभ से हटा वदया जाए तो पाप र्मागलभ र्में लग जाता ह। आसवलए आसे पाप र्मागलभ से हटा कर
दृढ़ता पवर लभक पण्र य र्मागलभ पर लगा देना िावहए र्मनष्र य के वलए ईवित ह। वक वित्त को शीघ्र ही सर्मता रूपी
सांत्वना देकर योग के ऄभ्यास के प्रयत्न के द्रारा धीरे -धीरे अत्र्म थवरूप के विंतन र्में लगाना िावहए,
हठपवर लभक एकाएक ईसका ववरोध न करें ज।से एक दीपक से स।कड़ों दीपक जल जाते हैं, ईसी तरह एक ही
िेतन अत्र्मा ऄपने संककप से र्मानों नानात्व को प्राप्त हुअ ह। र्मनष्र य वित्त र्मार ही ह।, वित्त के वनरुि हो

तत्त्वज्ञान 90
जाने पर यह जगत् शांत हो जाता ह। वजसका वित्त शांत ह। ईसके वलए सारा जगत् शांत हो जाता ह। वित्त
ही ववकास रूप से जगत् को प्राप्त हुअ ह। ज।से बालर के ऄन्दर तेल नहीं ह।, ईसी तरह ब्रह्म र्में शरीर अवद
की सत्ता नहीं ह। राग-द्रेष अवद कलेशों से यक्त र यह वित्त ही संसार ह। ईन राग अवद दोषों से जब
छरटकारा वर्मल जाता ह। त ी संसार बन्धन का नाश हो पाता ह। सम्पणर लभ लोकों की ककपना का अकाश
थवरूप वित्त सम्पणर लभ दृश्यों को ऄपने ऄन्दर धारण करता ह। वजस परू र ष का वित्त ववषयों र्में बंधा हुअ ह।,
वह बन्धन र्में पड़ता ह। तथा वजसका वित्त कर्मलभ वासना के बन्धन से रवहत ह।, वह र्मोक्ष को प्राप्त होता ह।
र्मन के एक र्मार ब्रह्माकार होने पर संसार का लय हो जाता ह। वित्त के सहयोग के वबना र्मनष्र य आस संसार
को नहीं देख सकता ह। र्मन द्रारा ही र्मनष्र य ऄच्छी बरर ी वथतर को छरकर, सनर कर, देखकर, संघर कर ऄपने
ऄन्दर हषलभ या ववषाद का ऄनर व करता ह। राग के ववषया तर बाह्य ववषयों का पररत्याग करके परर्मात्र्म
विन्तन रूपी परू र षाथलभ र्मय प्रयत्न से वित्त पर ववजय पाइ जाती ह। जो बाह्य ववषयों को त्याग कर वित्त के
राग अवद रोग से रवहत रहता ह।, ईसने ऄपने र्मन को जीत वलया ह। वित्त की शांवत के वसवाय र्मवर ‍त का
दसर रा कोइ ईपाय नहीं ह। ज्ञान का ईदय हो जाने पर र्मन के लय हो जाने से परर्म् शांवत प्राप्त हो जाती ह।
जब साधक ऄभ्यास के द्रारा संककपों का पररत्याग करके वित्त रूपी वृक्ष को सर्मल र से नाश कर
देता ह।, तब साधक सवलभव्यापी ब्रह्म थवरूप हो जाता ह। परर्माथलभ वथतर ऄथालभत् ऄवधिान रूप ब्रह्म का
साक्षात्कार होने पर वित्त की सत्ता नहीं रहती ह। वित्त की सत्ता ही जगत् तथा जगत् की सत्ता ही वित्त ह।
एक के ऄ ाव से दोनों का ऄ ाव हो जाता ह। आन दोनों का ऄ ाव सत्य थवरूप परर्मात्र्म ववषयक विंतन
करने से सम् व ह। शि र वित्त का ऄनर व सत्य होता ह। बहुत सर्मय तक परर्मात्र्मा के विन्तन थवरूप दृढ़
ऄभ्यास से वित्त की शवर ि होती ह। वजसका वित्त संककपों से अक्रान्त नहीं होता ह। ईसके वित्त र्में ज्ञान
का ईदय होता ह। वासना से र्मवलन वित्त र्में ब्रह्माकार रूपी एक दृवष्ट वथथर नहीं होती ह।, वित्त का वासना
से रवहत होना ही ईसकी शवर ि ह। जगत् के ज्ञान से शन्र य और एक ब्रह्माकार होना ही वासना से रवहत होना
ह। वित्त की शवर ि से ऄभ्यासी शीघ्र ही ज्ञान सम्पन्न हो जाता ह। वित्त का विन्र्मय ब्रह्म र्में लय हो जाना
ही ईसकी वाथतववक शवर ि ह। जब वित्त वसवि को प्राप्त होता ह।, तब जीवात्र्मा जगत् के सम्पकलभ से यक्त र
हो िेतनर्मय अत्र्मथवरूप र्में वथथत हो जाता ह। िेतन अत्र्मा ववशि र एवं सवलभव्यापी ह।, आसवलए वित्त के
ववषय र्में पणर लभ रूप से ज्ञान रहता ह। तथा सवलभव्यापी होने के कारण वह कहीं ी तत्काल प्रकट हो जाता ह।
ज।से बीज के ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से पत्ते, वृक्ष, िरल और िल रूपी ऄणर रहते हैं, ईसी प्रकार िेतन ऄणर के
ऄन्दर सर्मथत सक्ष्र र्म ऄनर व ववद्यर्मान हैं वजस र्मनष्र य के ऄन्दर यह वविार नहीं ईठता ह। वक ‚र्मैं कौन ह‛ाँ ,

तत्त्वज्ञान 91
‚यह संसार ‍या ह।‛, वह संसार के बन्धन से र्म‍र त नहीं हुअ ह। वजस शिर वित्त वाले र्मनष्र य की ववषय-
वासना प्रवतवदन क्षीण होती जाती ह।, ईस व।रा‍यवान का ही वववेक यक्त
र वविार सिल होता ह।
जो ऄभ्यासी वनत्य-ऄवनत्य वथतर से सम्पन्न ह।, वजसके वित्त की वृवत्तयााँ िेतन तत्त्व र्में लीन होती
जा रही हैं, जो ज्ञान प्राप्त करके सक
ं कपों का त्याग कर रहा ह।, जो नाशवान जड़ पदाथलभ का त्याग कर रहा
ह।, जो ब्रह्म का ्यान कर रहा ह। ऄथालभत् िेतन तत्त्व की ऄनर वर त कर रहा ह।, वह जागने के यो‍य परर्म्-तत्त्व
र्में जाग रहा ह। ज।से वायर के शातं होने पर सर्मिर र्में वनश्िलता रूपी सर्मता अ जाती ह।, ईसी प्रकार वित्त
के शातं हो जाने पर सब जगह सवोत्तर्म शांवत प।दा करने वाली ऄज्ञान रूपी र्मल से रवहत सर्मता का ईदय
होता ह। वजसका वित्त रूपी गवलभ नष्ट हो गया हो, आवन्ियााँ रूपी शरओ र ं पर ववजय प्राप्त कर ली हो, ईस
ऄभ्यासी की ोग वासनाएाँ क्षीण हो जाती हैं जब तक योग के ऄभ्यास के द्रारा र्मन पर ववजय प्राप्त नहीं
कर ली जाती ह। तब तक वित्त र्में वासनाएाँ प्रकट होकर सांसाररक ोग र्में वलप्त कराती हैं र्मनष्र य को
िावहए वह विन्तन करें वक यहााँ आस क्षण ंगरर संसार र्में कोइ प्रयोजन नहीं ह।, बवकक यह सब र्माया का
वर्मथ्या अडम्बर ह। आसका र्मन से त्याग करके गहरे सर्मिर की ााँवत शांत रहने का ऄभ्यास करना िावहए
वित्त को सर्मझाना िावहए वक ईसकी बार-बार ोगों र्में वेग पवर लभक जो प्रकृ वत हो रही ह।, वह बड़ी घृवणत
ह।, ऄतः आससे दरर हो जा सांसाररक ववषयों को ोगने के कारण ही जड़ता के सर्महर रूपी कीिड़ र्में पड़ा
हुअ ह। वजन-वजन ऄवथथाओ ं र्में भ्रवर्मत होकर सख र देखता ह। ईसी सख र से र्महान दःर ख की प्रावप्त ी
होगी आसवलए तच्र छ ोग विन्तन से कोइ ला नहीं ह।
ससं ार रूपी र्माया-िक्र भ्रर्मणशील तथा भ्रावन्त थवरूप ह। आस र्माया िक्र की नाव वित्त ह। जब
योग के ऄभ्यास द्रारा वित्त वृवत्त को रोक वदया जाता ह। तब यह र्माया िक्र शीघ्र ही अगे बढ़ने से रुक
जाता ह। आस वित्त वृवत्त की वनरोधरूपी यवर क्त के वबना जीवात्र्मा को ऄनन्त दःर खों की प्रावप्त होती ह। जब
ऄभ्यास के द्रारा वित्त वृवत्त वनरोध कर दी जाती ह। तब सारे दःर ख क्षण र र्में नष्ट हो जाते हैं यह ससं ार
दःर ख का थवरूप ह।, ऐसा सर्मझना िावहए आस दःर ख रूपी रोग का वनवारण वित्त वृवत्त वनरोध ही ह। आसके
ऄवतरर‍त ऄन्य वकसी प्रयत्न से आस दःर ख का वनवारण नहीं हो सकता ह। वजस प्रकार घट के ऄन्दर
घटाकाश रहता ह।, परन्तर घट के नष्ट होने पर घटाकाश नहीं रह जाता ह।, ईसी प्रकार वित्त के ऄन्दर यह
संसार ह। ऄतः वित्त का ववनाश होने पर संसार का ी ववनाश हो जाता ह। वित्त की वृवत्तयााँ त ी तक
रहती हैं, जब तक संककप की ककपना बनी रहती ह। ज।से बादलों का ववथतार त ी तक रहता ह।, जब तक
अकाश र्में जल के कण ववद्यर्मान रहते हैं ककपना त ी तक रहती ह। जब तक जीवात्र्मा र्मन के साथ ह।

तत्त्वज्ञान 92
यवद ऐसी ावना की जाए वक िेतन जीवात्र्मा र्मन से ऄलग ह।, तो वसि परू र षों र्में र्मल
र ऄववद्या सवहत
वासनाओ ं का ज्ञान द्रारा जलकर ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह। शन्र य हुअ वित्त ही िेतन जीवात्र्मा शि र
जीवात्र्मा कहा जाता ह।
वित्त का ववनाश दो प्रकार से होता ह। एक- सरूप ववनाश, दूसरा- ऄरूप ववनाश सरूप ववनाश
जीवनर्म‍र त ऄवथथा प्राप्त होने पर होता ह। तथा ऄरूप ववनाश ववदेह र्म‍र त होने पर प्राप्त होता ह। आस
ससं ार र्में वित्त का ऄवथतत्व दःर ख का कारण और वित्त का ववनाश र्मोक्ष का कारण ह। ऄतः पहले वित्त
के ऄवथतत्व का नर े हुए बीज के सर्मान ववनाश करके विर वित्त के थवरूप का ववनाश कर देना िावहए
ऄज्ञान से ईत्पन्न हुइ वासनाओ ं से व्याप्त जो जन्र्म का कारण र्मन ह।, ईस ववद्यर्मान र्मन के बल से दःर ख
का कारण होता ह। आसवलए जब तक र्मन का ऄवथतत्व ह। तब तक दःर ख का ववनाश क। से हो सकता ह।?
र्मन जब ववलीन हो जाता ह। तब साधक का संककपर्मय संसार ी ववलीन हो जाता ह।, विर साधक को
सख र -दःर ख रूपी दशाएं वविवलत नहीं कर सकती हैं तब वह सर्म थव ाव से यक्त र रहता ह। तथा पणर लभ
अनन्द एक रस ब्रह्मवनष्ठा से वविवलत नहीं होता ह। तब सर्मझना िावहए वक ऄभ्यासी का वित्त नर े हुए
बीज के सर्मान नष्ट हो गया ह। यह ‚जड़ देह र्मैं ह‛ाँ , ‚संसार का ऄर्मक र पदाथलभ र्मेरा ह।‛, आस प्रकार की
तच्र छ ावना वजस परू र ष के ऄन्दर ववकार प।दा नहीं करती ह।, ऐसे परू र ष का वित्त नष्ट हुए के सर्मान हो
गया होता ह।, यही जीवन्र्मरक्त परू र ष का वित्त होता ह। ब्रह्मवासना से ओतप्रोत, पनर जलभन्र्म से रवहत जो
जीवन्र्मक्त
र परूर ष के र्मल की सत्ता ह। वह सत्त्व नार्म से जानी जाती ह। ऄरूप वित्त की दशा ववदेह-र्म‍र त
परूर ष की होती ह।, वह ऄवयव अवद ववकार से रवहत ह। ईस परर्म् पववर ववदेह र्म‍र त रूपी वनर्मलभल पद र्में
सर्मथत श्रेष्ठ गणर ों का अश्रय रूप र्मन ी ववलीन हो जाता ह। ववदेह र्म‍र त परुर ष के सत्त्व ववनाश रुप-सरुप
वित्त नाश र्में वकसी ी दृश्य पदाथलभ का ऄवथतत्व नहीं रहता ह। ऄथालभत् संककप सवहत सम्पणर लभ संसार का
ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह।
यह वित्त ाव-ऄ ाव, दःर खों तथा वासनाओ ं का खजाना ह। तथा शरीर का कारण वित्त ही ह। यह
प्रतीत होने के कारण सत् तथा ववनाशशील होने के कारण ऄसत् रूप ह। ये शरीर सर्महर वित्त से ही ईत्पन्न
हुए हैं यह वर्मथ्या जगत् जो दृश्य को प्राप्त ह।, वह वित्त से ईसी प्रकार ईत्पन्न होता ह।, ज।से वर्मट्टी से घड़े
ईत्पन्न होते हैं ववव न्न प्रकार की वृवत्तयों को धारण करने वाले वित्त रूपी वृक्ष के दो बीज होते हैं एक–
प्राणों का थपन्दन, दूसरा– कर्मालभशय जब वित्त र्में प्राण वायर थपन्दन करती ह। ऄथवा जब शरीर की
नावड़यों र्में प्राण वायर संिरण करने लगती ह। तब वित्त की वृवत्तयााँ तत्काल ईत्पन्न होने लगती ह। वकन्तर

तत्त्वज्ञान 93
जब प्राण वायर थपन्दन नहीं करती ऄथवा नावड़यों र्में प्राण संिरण नहीं करता तब वित्त से वृवत्त ईत्पन्न
नहीं होती ह। यह प्राणवायर संिरण रूपी जगत् वित्त के द्रारा वदखाइ पड़ता ह। जीवात्र्मा का ववषयों से
रवहत होने पर ईसका परर्म् ककयाण होता ह।, वकन्तर प्रकट हुअ जीव ही तत्काल बाह्य ववषयों की ओर राग
वश िला जाता ह। ईन ववषयों के ोग के ऄनर व से वित्त र्में ऄत्यन्त दःर ख ईत्पन्न होता ह। योग के
ऄभ्यासी वित्त की शांवत हेतर सर्मावध के ऄभ्यास द्रारा वृवत्तयों का वनरोध करते हैं ऄथवा प्राणों का वनरोध
करते हैं एक का वनरोध करने से दोनों का वनरोध हो जाता ह।, ईस सर्मय जीवात्र्मा को जगत् का ान नहीं
रहता ह। ऄतः वह ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।
ऄभ्यास के द्रारा जब तक र्मन ववलीन नहीं हो जाता ह। तब तक वासना का सवलभथा नाश नहीं होता
ह। वित्त को शांत करने के वलए वासना का शांत होना ऄवत अवश्यक ह। जब तक वासना पणर लभ रूप से
नष्ट नहीं हो जाएगी तब तक वित्त ी पणर लभ रूप से शांत नहीं होगा जब वित्त शांत होगा त ी ब्रह्म का
यथाथलभ ज्ञान ऄथालभत् तत्त्वज्ञान होगा जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होगा तब तक पणर लभ रूप से वासना का नाश नहीं
होगा योग के ऄभ्यास के द्रारा यह कायलभ क्रर्मशः धीरे -धीरे ही होना सम् व होगा, आस कायलभ के वलए कइ
वषलभ लग जाएाँगे ऐसे कायों के वलए (ऄवथथा प्राप्त होने के वलएद एक सर्मय वनवश्ित नहीं होता ह।, बवकक
साधक के ऄभ्यास के ऄनसर ार ही होता ह। तत्त्वज्ञान क ी ी एक साथ पणर लभ रूप से प्राप्त नहीं होता ह।,
बवकक धीरे -धीरे ही क्रर्मशः प्राप्त होता ह। ज।से-ज।से तत्त्वज्ञान प्राप्त होगा, व।स-े व।से वासनाओ ं का धीरे -
धीरे क्षय होगा ऐसी ऄवथथा र्में ऄभ्यासी क ी तत्त्वज्ञान से तो क ी वासनाओ ं से यक्त र होगा, र्मगर
ऄभ्यास के द्रारा तत्त्वज्ञान बढ़ता जाएगा और वासनाएाँ कर्म होती जाएाँगी तथा र्मन ी धीरे -धीरे थोड़े-थोड़े
सर्मय के वलए ववलीन होना शरू र हो जाएगा ऄभ्यास के ऄनसर ार ववलीनता का सर्मय बढ़ता जाएगा
आसवलए परर्मात्र्मा का यथाथलभ ज्ञान, र्मनोनाश तथा वासना क्षय ये तीनों ही एक दसर रे के कारण हैं दथर सा्य
ऄवश्य ह।, वकन्तर ऄसा्य नहीं ह। कठोर ऄभ्यास तथा संयर्म करने से ये तीनों कायलभ वसि हो जाते हैं
वासना पररत्याग के वलए प्राणायार्म एक ऄच्छा ईपाय ह।, आसवलए प्राणों के वनरोध का ी ऄभ्यास करना
ऄवत अवश्यक ह। वासनाओ ं के ली- ााँवत पररत्याग से वित्त नर े हुए बीज के सर्मान हो जाता ह।
आसवलए ऄभ्यासी को िावहए वक दोनों का ऄभ्यास एक साथ करता रहे, आससे ऄपने थवरूप र्में शीघ्र
वथथत हो जाएगा
जब परर्मात्र्मा के यथाथलभ रूप का ऄनर व होता ह।, तब ऄनर व के प्र ाव से आस संसार की वासना
वशवथल पड़ जाती ह। जब तक पणर लभता का ईदय नहीं होता ह। त ी तक वित्त का प्रवाह पतन की ओर

तत्त्वज्ञान 94
जाता रहता ह। तथा वित्त अवद की प्रतीवत होती ह। जब तक ववषय वासना की ऄव लाषा रहती ह। तथा
र्मख
र लभतावश र्मोह और असव‍त रहती ह।, त ी तक वित्त अवद की ककपना रहती ह। वजसके ऄन्तःकरण र्में
ोगों की अथथा नहीं ह। तथा आच्छाओ ं का जाल वछन्न-व न्न हो िक र ा ह।, ईसका वित्त रूपी भ्रर्म नष्ट हो
जाता ह। परर्मात्र्मा के ज्ञान रूपी सयर लभ का ईदय होने पर वित्त ववनष्टता को प्राप्त हो जाता ह। जो ऄभ्यासी
ब्रह्म के सगणर व वनगलभणर थवरूप का साक्षात्कार वकए हुए हैं, ऐसे तत्त्वज्ञानी परू र ष का वित्त सत्त्व नार्म से
कहा जाता ह।, ‍योंवक ऐसी ऄवथथा र्में वित्त पर सत्त्वगणर का प्रकाश ि। ला रहता ह।, रजोगणर व तर्मोगणर
लेश र्मार रहते हैं जो सर्मरूप ब्रह्म पद र्में वनत्य वथथत ह। तथा वित्त रवहत तत्त्वज्ञानी परू र ष हैं वे सत्त्व वित्त
की ईपेक्षा से लीला र्मार व्यवहार करते हैं शि र हुए सत्त्व वित्त र्में र्मोह रूपी िल ईत्पन्न नहीं होता ह।
तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर वासना रवहत सत्त्व रूप होकर पनर जलभन्र्म का बाधक हो जाता ह। वजनका वित्त
शि र ह।, ज्ञान रूपी ऄव‍न से द‍ध हो िक र ा ह।, वह जन्र्म का कारण नहीं हो सकता ह। ऄथालभत् जन्र्म-र्मरण को
प्राप्त नहीं हो सकता ह।
जो र्मनष्र य ऄपने थवरूप र्में वथथत होने के वलए ऄथवा इश्वर प्रावप्त के वलए ऄपना घर-द्रार, धन-
सम्पवत्त, थरी-परर अवद त्याग देते हैं तथा गवे वथर धारण कर लेते हैं, ऐसे र्मनष्र य सर्मझते हैं वक र्मार
आसी से इश्वर प्राप्त हो जाएगा, यह ईनकी र्महान ल र ह। गवे वथर धारण करने या दाढ़ी रख लेने से
इश्वर प्राप्त नहीं होगा इश्वर को प्राप्त करना ह। तो वित्त का त्याग करो, वित्त को ही भ्रर्म सर्मझो, ‍योंवक
वित्त ही संसार रूपी जाल ह। वित्त के साथ सम्बन्ध रखने वाले र्मनष्र य को जीवन र दःर ख-ही-दःर ख प्राप्त
होता ह। वजसका वित्त के साथ सम्बन्ध ववच्छे द हो गया हो ईसके पास दःर ख क ी नहीं अता ह।, वह
थवयं परर्म् सख र थवरूप हो जाता ह। वित्त ही संककप द्रारा संसार और शरीर अवद का अकार धारण
करके सवलभर व्याप्त हो रहा ह।, आसवलए वित्त त्याग को ही सवलभत्याग कहा जाता ह। वित्त के वसि हो जाने
पर सत्य का ऄनर व (सगणर व वनगलभणर द ऄपने अप हो जाता ह। वित्त का ऄ ाव हो जाने पर द्र।त-ऄद्र।त
अवद स ी ावनाओ ं का सवलभथा ववनाश हो जाता ह।
वित्त रूपी वृक्ष का बीज ऄथवा र्मल
र (जड़द ऄहक ं ार ही ह। इश्वर की र्माया ही यह र्मायार्मय ससं ार
ह।, आसवलए वित्त ी इश्वर की र्माया रूपी क्षेर ह। ववव न्न प्रकार की वासनाएाँ वित्त रूपी वृक्ष की शाखाएं
हैं तीव्र वववेक तथा व।रा‍य के द्रारा वासना रूपी शाखाएं नष्ट हो जाती ह।, ‍योंवक वजसका र्मन वकसी
ववषय र्में अस‍त नहीं ह।, जो तकलभ -ववतकलभ से रवहत ह।, वह ऄभ्यासी परू र ष ऄपने परू र षाथलभ से वित्त रूपी
वृक्ष की शाखाओ ं का काटता रहता ह। तथा वह वित्त रूपी वृक्ष की जड़ को ी काटने र्में सार्मथलभवान हो

तत्त्वज्ञान 95
जाता ह। वित्त रूपी वृक्ष की शाखाओ ं को काटना गौण ह।, ईसकी र्मल र (जड़द को काटना प्रधान ह।
आसवलए ऄभ्यासी को ऄहक ं ार रूपी जड़ को काटने के वलए तत्पर हो जाना िावहए
जीवन्र्मक्त
र परू र ष का वित्त व्यापार शन्र य हो जाता ह।, ‍योंवक पनर जलभन्र्म र्में सहायक जो वासना होती ह।
वह तत्त्वज्ञानी र्में नहीं रहती ह। तत्त्वज्ञानी परूर ष वजस वासना द्रारा सासं ाररक कर्मों का व्यवहार करते हैं ईसे
सत्त्व नार्म से कहा जाता ह। यह सत्त्व वासना पनर जलभन्र्म से रवहत होती ह। जो सत्त्व र्में वथथत ह।, वजनकी
आवन्ियााँ तत्त्वज्ञान के द्रारा वश र्में हैं, ऐसे जीवन्र्मक्त
र परू
र ष असव‍त रवहत होकर आस ससं ार र्में रहते ऄथवा
वविरण करते हैं जो परू र ष वित्त र्में वथथत हैं, वह ऐसा नहीं करते हैं ऄथालभत ऄज्ञान से अच्छावदत वित्त को
‘दचत्त’ कहते हैं तथा ज्ञान से यक्त र वित्त को सत्त्व कहा जाता ह। ऄज्ञानी वित्त र्में वथथत रहते हैं तथा
तत्त्वज्ञानी सत्त्व र्में वथथत रहते हैं वित्त बारम्बार ईत्पन्न होता ह। तथा बन्धन र्में पड़ता ह।, परन्तर ‘सत्त्व’ पनर ः
ईत्पन्न नहीं होता ऄथालभत् जन्र्म ्र हण नहीं करता ह। तथा बन्धन र्में नहीं पड़ता ह। तत्त्वज्ञानी सत्त्व सम्पन्न
होकर र्महात्यागी बनकर वथथत रहता ह।, ‍योंवक ईसकी सारी वासनाएाँ नष्ट हो िक र ी ह। वजनका वित्त ब्रह्म
र्में रर्म गया ह।, प्राण ईसी र्में लीन हो गये हैं, वह परर्म् पद को प्राप्त हो जाते हैं
वित्त के संककप से ऄसत्-जगत् सत् सा वदखाइ देता ह। वित्त और संककप एक दसर रे से वर्मले हुए
ऄव न्न रूप ह।, ईनके ेद की ककपना करना वर्मथ्या सर्मझना िावहए, ‍योंवक यवद वित्त ह। तो सक ं कप ह।
और सक ं कप ह। तो वित्त ह। वित्त की प्राण वायर अधार ह।, प्राण के थपन्दन से वित्त का थपन्दन होता ह।
और वित्त के थपन्दन से ही सासं ाररक पदाथों की ऄनर वर तयााँ होती हैं वित्त का थपन्दन प्राण के थपन्दन के
ऄधीन ह। आसवलए प्राणो का वनरोध करने से र्मन का वनरोध हो जाता ह। र्मन के सक ं कप का अ ाव हो
जाने पर यह ससं ार ववलीन हो जाता ह। यह ससं ार अवद-ऄन्त से रवहत प्रकाश थवरूप ब्रह्म ही ह। आस
प्रकार का जो दृढ़ वनश्िय ह।, आसी को ब्रह्म के थवरूप का यथाथलभ ज्ञान कहते हैं यथाथलभ ज्ञान न होने से
र्मनष्र य जन्र्म-र्मृत्यर के िक्र र्में घर्मर ता रहता ह। आसका ज्ञान हो जाने पर र्मोक्ष को प्राप्त हो जाता ह। र्मोक्ष र्में
सक ं कप से सवलभथा रवहत, सर्मथत ववषयों से सवलभथा रवहत के वल ब्रह्म रहता ह। वित्त का सक ं कप-ववककप
वववेक बवर ि के द्रारा यत्नपवर लभक वकए गये वववेक वविार रूपी ऄभ्यास से ववनष्ट हो जाता ह।, विर सक ं कप
ववककप रूपी ऄज्ञान ावना प्रवत्त नहीं होती ह। ऄज्ञान के ववनाश से क्षीण र्मन र्में रूप, अलोक और
र्मनन कोइ ी एक दसर रे से संघवटत नहीं होते हैं ऐसी ऄवथथा र्में वित्त ववनष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह।
वित्त के दो थवरूप होते हैं– पहला सरुप तथा दूसरा ऄरूप वित्त के सरूप र्में ही स ी प्रकार के
कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं ऄथालभत् वृवतयााँ आसी सरूप र्में ववद्यर्मान रहती हैं, आसी को सक्ष्र र्म शरीर कहते हैं

तत्त्वज्ञान 96
जब तक साधक का सक्ष्र र्म शरीर ववद्यर्मान रहता ह।, तब तक स ी प्रकार के कर्मालभशयों का ोग कर्मलभ िल
के रूप र्में करना पड़ता ह। तथा कर्मालभशयों के नष्ट होने पर सक्ष्र र्म शरीर ऄथालभत् वित्त का सरूप नष्ट हो जाता
ह।, विर जन्र्म-र्मृत्यर से रवहत जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा ईसे प्राप्त हो जाती ह। जीवन्र्मक्त र परूर ष का शरीर प्रारब्ध
वेग के ऄनसर ार िलता रहता ह। आस प्रकार वित्त र्में दो प्रकार से पररणार्म होता रहता ह।– एक– बाह्य
पररणार्म, दूसरा– अन्तररक पररणार्म बाह्य पररणार्म वृवत्तयों र्में होता रहता ह। जब साधक की वित्त
वृवतयााँ वनरुि हो जाती हैं तब गणर ों का बाह्य पररणार्म होना रुक जाता ह। आस बाह्य पररणार्म के द्रारा संसार
का ान होता ह। तथा संसार र्में व्यवहार होता ह।, ‍योंवक आनका सम्बन्ध वृवत्तयों से होता ह। जीवन्र्मक्त र
परू
र ष के वित्त का थवरूप नष्ट हो जाता ह। ्यानावथथा र्में वित्त का सरूप दो रूपों र्में वदखाइ देता ह।
पहला: यह वर र्म के रूप र्में वदखाइ देता ह। यह वर र्म ौवतक जगत् की वर र्म के सर्मान होती ह।, यह
वित्त की वर र्म होती ह। आसी र्में साधक के ऄनन्त जन्र्मों के कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं वित्त की िार प्रकार
की वर र्मयााँ होती ह।, आन वर र्मयों के ऄनसर ार ईनके कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं
दूसरा: साधक को ऄनर व र्में घड़ा वदखाइ देता ह। सबसे पहले यह ब्रह्मरंर खल र ने से पहले वदखाइ
देता ह। आस घड़े तथा वर र्म का सम्बन्ध ऄपरा-प्रकृ वत से होता ह।, आसे सक्ष्र र्म शरीर ी कह सकते ह। ब्रह्मरंर
खल र ते सर्मय आस घड़े का र्माँहर नीिे की ओर होता ह। आसका कारण ह। ऄपरा-प्रकृ वत वनम्नर्मख र ी ऄथवा
वनम्नगावर्मनी होती ह। ऄथालभत् आसका प्रवाह नीिे की ओर होता ह। आसवलए साधक को यह घड़ा नीिे की
ओर र्माँहर वकए हुए वदखाइ देता ह। ऐसे साधक का वित्त सृवष्ट ईन्र्मखर होता ह। सृवष्ट ईन्र्मख र होने से जीव
ऄज्ञान र्में पड़ा हुअ ससं ार को ऄपना सर्मझता रहता ह। तथा सासं ाररक पदाथों का ोग करता रहता ह।
जब तक वित्त की वर र्म ववद्यर्मान रहेगी ऄथवा घड़े का थवरूप ववद्यर्मान रहेगा ऄथालभत् वित्त का
थवरूप रहेगा, तब तक जीव प्राकृ वतक बन्धन र्में बंधा रहेगा आसवलए प्राकृ वतक बन्धन को नष्ट करने तथा
र्मोक्ष प्राप्त करने के वलए साधक को वित्त का थवरूप नष्ट करना होगा दसर रे शब्दों र्में वित्त की वर र्म को
नष्ट करना होगा वित्त की वर र्म एक बार र्में नष्ट नहीं हो सकती, बवकक आसके नष्ट होने की प्रवक्रया
ऄभ्यास के ऄनसर ार कइ वषों तक िलती ह। वित्त की वर र्म नष्ट होते सर्मय साधक को घोर ‍लेशात्र्मक
कर्मलभ ोगने पड़ते हैं, ‍योंवक आसके नष्ट होते सर्मय घड़े का थवरूप तरर न्त नष्ट नहीं होता ह। पहले वनववलभिार
सर्मावध की प्रवीणता ऄभ्यास के द्रारा प्राप्त की जाती ह।, तत्पश्िात वित्त के वनर्मलभल होने पर ऊतम् रा-
प्रज्ञा का ईदय होता ह।, विर ईसके क्रर्म ववकास के वलए करछ वषों तक ऄभ्यास करते रहना पड़ता ह। जब
ऊतभ्र्मरा प्रज्ञा के द्रारा प्रकृ वत के पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार हो जाता ह। ऄथालभत् थथल
र पंि

तत्त्वज्ञान 97
र्महा तर से लेकर प्रकृ वत पयलभन्त तक ईसके वाथतववक थवरूप का ज्ञान हो जाता ह।, तब वववेक-ख्यावत की
ऄवथथा र्में साधक ऄपने अपको ि।तन्य थवरूप र्में वथथत हुअ देखता ह। जड़ प्रकृ वत नीिे की ओर ईससे
व न्न वदखाइ देती ह। ईस सर्मय यह घड़ा उपर की ओर र्माँहर वकए हुए पणर लभ रूप से खाली नीिे से उपर की
ओर अता हुअ वदखाइ देता ह। घड़े का र्माँहर उपर की ओर होने का ऄथलभ ह।– साधक का वित्त ई्वलभर्मख र ी
हो गया ह। ईसके वलए ऄपरा-प्रकृ वत ई्वलभर्मख र ी हो जाती ह। ई्वलभर्मख
र ी का ऄथलभ ह।- क। वकय ईन्र्मख
र होना,
वनम्नर्मख
र ी का ऄथलभ होता ह।– सृवष्ट ईन्र्मख
र होना ऄभ्यास के द्रारा पहले वित्त का प्रवाह क। वकय ईन्र्मखर
करना िावहए, त ी वित्त का सरूप नष्ट हो पायेगा
वित्त की वर र्म नष्ट होते हुए साधक को सर्मावध ऄवथथा र्में वदखाइ देता ह। साधक जब गहरी
सर्मावध र्में होता ह।, तब ईसे यंकर ववथिोट की अवाज सनर ाइ देती ह। आस ववथिोट की अवाज सनर कर
ईसकी सर्मावध ंग हो जाती ह। सर्मावध ंग होने के बाद वह नहीं सर्मझ पाता ह। वक ववथिोट कहााँ हुअ
ऄथवा ्ववन का ऄथलभ ‍या ह।? यह पहला ऄनर व होता ह। करछ वदनों बाद विर ऐसी ही अवाज सनर ाइ
देती ह।, तब साधक ऄनर व र्में देखता ह। वक वित्त की वर र्म र्में वछि हो गया ह। आस वछि के नीिे थवच्छ
अकाश ह। आस ऄनर व को देखकर साधक को अश्चयलभ होता ह। वक वर र्म के नीिे थवच्छ अकाश ह। ऐसा
दृश्य जीवन र्में पहली बार वदखाइ देता ह। जब वछि होता ह। तब नीिे की ओर थवच्छ अकाश तो वदखाइ
देता ह।, र्मगर वछि के बीि र्में र्मोटी-र्मोटी लकवड़यों का जाल वदखाइ देता ह। दृश्य वबककरल ऐसा होता ह।,
ज।से सीर्मेंट (अर.सी.सी.द की छत र्में लोहे के छड़ों का जाल होता ह। छड़ तो पतली होती ह। र्मगर टरटी हुइ
वर र्म र्में बने वछि के ऄन्दर की लकड़ी जो वदखाइ देती ह। वह कािी र्मोटी होती ह।, ‍योंवक वित्त की वर र्म
ी बहुत र्मोटी होती ह। वछि का र्मलबा ऄदृश्य हो जाता ह। आसी प्रकार धीरे -धीरे ऄभ्यास के ऄनसर ार
वर र्म र्में वछि होते हैं साधक की दृवष्ट ईन वछिों के ऄन्दर झााँक कर देखती रहती ह। ऄभ्यास के ऄनसर ार
यही क्रर्म िलता रहता ह।
वित्त की वर र्म के ऄन्दर जो र्मोटी-र्मोटी लकवड़यों का जाल-सा बना होता ह।, वाथतव र्में वह लकड़ी
के रूप र्में साधक के ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय होते हैं वजन्हें ोग कर सर्माप्त करना होता ह। आसका
ोग एक साथ नहीं हो सकता ह।, बवकक क्रर्मशः धीरे -धीरे होता रहता ह। कर्मालभशय ोग के सर्मय साधक
को संसार से वनन्दा, ऄपर्मान, कष्ट व दगर लभवत की प्रावप्त होती ह। कोइ ी साधक आसे ोगे वबना र्म‍र त नहीं
हो सकता ह। यह क्रर्म तब तक िलता रहता ह।, जब तक वित्त की वर र्म पणर लभ रूप से नष्ट नहीं हो जाती ह।
ऐसा ‍यों होता ह।, ईसका सर्माधान वकए दे रहा हाँ इश्वर का ऄंश रूप जीव इश्वर के शरीर से ईत्पन्न

तत्त्वज्ञान 98
होता ह। ईत्पन्न होते ही इश्वर की अज्ञानसर ार ऄपरा-प्रकृ वत के ोग के वलए िल देता ह। त ी इश्वर के
शरीर र्में ववद्यर्मान ऄपरा-प्रकृ वत को देखते ही जीव आसको ऄपना सर्मझते हुऐ नीिे की ओर र्माँहर करके
सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत के उपर वथथत हो जाता ह। तथा ऄपने थवरूप (शरीरद से सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को
ऄपने नीिे दबा लेता ह। त ी ईसके ऄन्दर ाव अ जाता ह।– ‚यह प्रकृ वत र्मेरी ह।‛ ऄथालभत् ‚यह संसार
र्मेरा ह।‛ ईसर्में यह ऄहर्म् ाव अ जाता ह। तथा जीव के ऄन्दर ऄहर्म् ाव अते ही ईसका पतन हो
जाता ह। विर जीव ऄपने थवरूप को ही ल र जाता ह। तथा ऄहक ं ार बवहर्मलभख
र ी हो जाता ह। ऄहक ं ार के
बवहर्मलभख
र ी होते ही वित्त की वर र्म का वनर्मालभण होने लगता ह। ौवतक संसार र्में जन्र्म लेने के बाद विर सद।व
ऄववद्या द्रारा कर्मलभ करता रहता ह। आन्हीं कर्मों के ऄनसर ार वित्त की वर र्म पर कर्मालभशय एकर होते रहते हैं
तथा ईसका वित्त रजोगणर व तर्मोगणर के अवरण से अच्छावदत हो जाता ह। योग के ऄभ्यास के द्रारा
कर्मालभशयों व वर र्म को जब नष्ट वकया जाता ह।, ईस सर्मय साधक को बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं
वित्त की वर र्म नष्ट होते सर्मय इश्वर का (सगणर ब्रह्म काद साक्षात्कार होता ह। यह साक्षात्कार वित्त
की ऄत्यन्त व शव‍तशाली वृवत्त के द्रारा होता ह। साक्षात्कार के सर्मय वित्त की वर र्म वदखाइ नहीं देती ह।,
बवकक सवलभर अकाश ही अकाश वदखाइ देता ह। ज।सा उपर की ओर अकाश वदखाइ देता ह। व।सा ही
नीिे की ओर ऄनन्त गहराइ तक अकाश ही अकाश वदखाइ देता ह। आसी सम्पणर लभ अकाश र्में नीिे से
लेकर उपर तक इश्वर परर्म् वशव खड़े हुए वदखाइ देते हैं ईस सर्मय साधक एक बार र्में इश्वर का सम्पणर लभ
शरीर नहीं देख सकता ह। ऄथालभत् दृवष्ट को उपर से नीिे की ओर ले जाना पड़ता ह। इश्वर का कर्मर से
लेकर उपर तक का ाग थपष्ट वदखाइ देता ह।, वकंतर कर्मर से नीिे का ाग ऄनन्त गहरे अकाश र्में
ववद्यर्मान होने के कारण वदखाइ नहीं देता ह। परर्म् वशव (इश्वरद ऄपने एक हाथ र्में घड़ा वलए होते हैं, आस
घड़े को वहीं नीिे की ओर पटक कर िोड़ देते ह। वजस पर घड़ा पटक कर िोड़ा जाता ह। वह खड़े
अकार र्में लोहे की साफ्ट ज।सी वथतर होती ह। यह घड़ा साधक के वित्त का थवरुप होता ह।, आसे इश्वर के
द्रारा नष्ट कर वदया जाता ह। आस ऄनर व के करछ सर्मय बाद साधक के वित्त की वर र्म पणर लभ रूप से नष्ट हो
जाती ह। ज।स-ज।से वित्त की वर र्म नष्ट होती जाती ह।, व।से-व।से वित्त सक्ष्र र्म व व्यापक होता जाता ह। वर र्म
नष्ट हो जाने पर वित्त की सक्ष्र र्मता व व्यापकता बहुत ज्यादा बढ़ जाती ह। ऄन्त र्में वित्ताकाश विदाकाश
र्में ऄन्तर्मलभख
र ी हो जाता ह।
ऄभ्यास के द्रारा वित्त के बाह्य पररणार्म का होना बन्द हो जाता ह। र्मगर वित्त र्में अन्तररक पररणार्म
होता रहता ह।, आसी को वित्त का ऄरूप कहते हैं वनगलभणर ब्रह्म र्में जब विवतशव‍त सद।व के वलए वथथत हो

तत्त्वज्ञान 99
जाती ह।, तब वित्त को बनाने वाले गणर ी ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं ज।से नदी सर्मिर र्में वर्मलने के
बाद ऄपना नार्म व थवरूप खो देती ह।, वह सर्मिर रूप ही हो जाती ह।, व।से ही योगी ब्रह्माण्ड र्में सद।व के
वलए वथथत हो ब्रह्म थवरूप हो जाता ह।
वित्त की वर र्म टरटने का ऄनर व ऄथालभत् इश्वर का ऄनर व वसिलभ ईसी साधक को अएगा वजसके
वित्त र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा का क्रर्म-ववकास हो रहा होगा तथा जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा प्राप्त होनी होगी वित्त की
वर र्म जो टरटती हुइ सी वदखाइ देती ह। ईसका कारण ऊतम् रा-प्रज्ञा ही होता ह।, ‍योंवक वह ज्ञान का
प्रकाश रती रहती ह। ज।स-ज।से प्रज्ञा का ववकास होगा व।से-व।से ऄवधक ज्ञान के प्रकाश से वित्त
प्रकावशत होगा ज्ञान के प्रकाश से ऄववद्या के सथं कार नष्ट होते रहते हैं, आसी कारण वित्त की वर र्म टरटती
हुइ वदखाइ देती ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा का क्रर्म ववकास वषों तक िलता रहता ह। आसी प्रकार वित्त की वर र्म
नष्ट होने का क्रर्म ी वषों तक िलता रहता ह। जब प्रज्ञा का पणर लभ ववकास हो जाता ह। तब पर-व।रा‍य द्रारा
प्रज्ञा के संथकार ी वनरुि होने लगते हैं वनरूिावथथा र्में वित्त का सरूप नष्ट हो जाता ह। र्मगर सर्मावध
ंग होने पर व्यत्र थान के संथकार विर प्रकट हो जाते हैं ऄभ्यास द्रारा धीरे -धीरे व्यत्र थान के संथकार नष्ट
होते रहते हैं तथा पर-व।रा‍य के संथकार पिर होते रहते ह। यही क्रर्म िलता रहता ह। ऄन्त र्में व्यत्र थान के
संथकार पणर लभ रूप से बन्द हो जाते हैं आस ऄवथथा र्में योगी के व्यत्र थान संथकार ोजन करने अवद के सर्मय
प्रकट होते हैं, र्मगर ऐसी ऄवथथा र्में योगी वथथत-प्रज्ञ ही कहा जाएगा

तत्त्वज्ञान 100
दुःख
छोटे-से-छोटे प्राणी से लेकर बड़े -से-बड़े राजा तक हर सर्मय तीनों प्रकार के द।वहक, द।ववक व
ौवतक दःर खों र्में से वकसी-न-वकसी दःर ख की वनवृवत्त का प्रयत्न करते रहते हैं विर ी दःर खों से छरटकारा
नहीं वर्मलता ह। तृष्णा के कारण र्मनष्र य ववषयों के पीछे सखर सर्मझकर दौड़ता ह। और जब ईन ववषयों को
प्राप्त कर लेता ह। तब यही ववषय र्मनष्र य के वलए दःर ख ही वसि होते हैं, ‍योंवक जहााँ से ईत्पवत्त होती ह।
वह जड़ तत्त्व ह।, वजसे प्रकृ वत कहते हैं जड़ तत्त्व व िेतन तत्त्व र्में असव‍त तथा ऄवववेकपणर लभ संयोग ही
दःर ख का वाथतववक थवरूप ह। िेतन तत्त्व और जड़ तत्त्व का वववेकपणर लभ ज्ञान ही दःर ख का वाथतववक
थवरूप ह। िेतन तत्त्व और जड़ तत्त्व र्में अत्र्मा का वववेकपणर लभ ज्ञान ही दःर ख से वनवृवत्त का र्मख्र य साधन ह।
जड़ तत्त्व र्में अत्र्म-तत्त्व का ऄभ्यास या जड़ तत्त्व को ल र से िेतन तत्त्व र्मान लेना; वित्त, ऄहक ं ार,
बवर ि, र्मन, आवन्ियााँ, शरीर र्में ऄहर्म् ाव और ईसके ववषय र्में र्मर्मत्व प।दा कर लेना ही दःर खों र्में िाँ सना ह।
तथा जड़ तत्त्व से (प्रकृ वत सेद ऄपने को सवलभथा ऄलग करके वनववलभकार वनलेप शि र अत्र्मा र्में ऄववथथत
होना ही दःर खों से वनवृवत्त ह।
दःर ख ऄपने आवच्छत ववषय के ववयोग या ऄवनष्ट की प्रावप्त पर होता ह। यह ऄतीत ववषयों की
थर्मृवत र्में तथा ववष्य के ववषयों के संककप र्में होता ह। दःर ख र्में िेहरा र्मरर झा जाता ह। तथा र्मनष्र य र्में दीनता
अ जाती ह। तत्त्वों के ज्ञान से वर्मथ्या ज्ञान ऄथालभत् ऄववद्या का नाश होता ह। वर्मथ्या ज्ञान के नाश से दोषों
(राग-द्रेष-र्मोहद का नाश होता ह। दोषों के नाश से प्रवृवत्त का नाश होने से जन्र्म लेना रुक जाता ह। जन्र्म
्र हण न करने से सब दःर खों का ऄ ाव हो जाता ह। ऄथालभत् सब प्रकार के दःर खों का ऄ ाव ही ऄपवगलभ
(ब्रह्म प्रावप्तद ह।
र्मक्त
र ावथथा र्में दःर खों का ऄ ाव होता ह। ववषय सख र के ोग काल र्में ी पररणार्म दःर ख, ताप दःर ख
और संथकार दःर ख बना रहता ह।, आसवलए वववेकी परू र ष के वलए सब करछ (सख र ीद दःर ख ही ह।
वरगणर ात्र्मक प्रकृ वत व रजोगणर र्में दःर ख ह। तथा सत्त्वगणर र्में सख
र ह। आसवलए सख र र्में बने रहने पर गणर ातीत
ऄवथथा नहीं रह सकती ह। सख र ववषय और ववषय ो‍ता दोनों की ऄपेक्षा रखता ह।, आसके कारण र्म‍र त
ऄवथथा र्में सख र के र्मानने से वनगलभणर शि र ऄद्र।त की वसवि न हो सके गी संसार र्में प्रत्येक प्राणी की यही
आच्छा होती ह।– ‚र्मैं सख र ी रह‛ाँ , ‚दःर खी क ी न ह‛ाँ वकन्तर सख र की प्रावप्त वकए वबना दःर ख की वनवृवत्त
ऄसम् व ह।, ‍योंवक दःर ख की वनवृवत्त का नार्म सख र ह। आसवलए सख र के ऄव लावषयों को दःर ख की जड़
ही काट देनी िावहए, ‍योंवक दःर ख की जड़ ही ऄज्ञान ह। वजतना ऄवधक ऄज्ञान होगा ईतना ही ऄवधक

तत्त्वज्ञान 101
दःर ख होगा ज्ञान और ऄज्ञान पदाथलभ के तत्त्व के सम्बन्ध से ह। वजस तत्त्व से ऄज्ञान होगा ईसी से दःर ख
होगा वजस तत्त्व का वजतना यथाथलभ ज्ञान होता जाएगा ईससे ईतना ही दःर ख वनवृवत्त रूपी सख र की प्रावप्त
होती जाएगी जब सारे तत्त्वों का यथाथलभ ज्ञान होता जाएगा तब सारे तत्त्वों से ऄ य रूपी सख र का ला
होगा आसवलए तत्त्वों का यथाथलभ ज्ञान सारे दःर खों की जड़ काटना ह। स ी प्रकार के द:र खों तथा बन्धनों का
र्मल
र कारण पााँि ‍लेश हैं, जो आस प्रकार हैं– 1. अदवद्या 2. अदस्मता 3. राग 4. िेष 5. अदभदनवेश।
आन्हें हर्म आस प्रकार से सर्मझ सकते हैं–
1. अदवद्या- ऄवनत्य र्में वनत्य, ऄशि र र्में शि
र , दःर ख र्में सख
र और ऄनात्र्मा र्में अत्र्मा सर्मझना
ऄववद्या ह। ऄववद्या रूपी क्षेर र्में ही ऄन्य िारों ‍लेश होते हैं
2. अदस्मता- आस ऄववद्या के कारण जड़ वित्त और िेतन अत्र्मा र्में ेद ज्ञान नहीं रहता ह। यह
ऄववद्या र्में ईत्पन्न हुअ वित्त और विवत (िेतन्यद र्में ऄवववेक ऄवथर्मता ‍लेश कहलाता ह।
3. राग- वित्त और विवत (िेतन तत्त्वद र्में वववेक न रहने से जड़ तत्त्व र्में सख
र की वासना ईत्पन्न होती
ह। ऄवथर्मता ‍लेश से ईत्पन्न हुइ वित्त र्में सख
र की वासना का नार्म राग ह।
4. िेष- आस राग से सख र र्में ववघ्न पड़ने पर दःर ख के संथकार ईत्पन्न होते हैं राग से ईत्पन्न हुए दःर खों
के सथं कारों का नार्म द्रेष ह।
5. अदभदनवेश- दःर ख पाने के य से थथल
र शरीर को बिाए रखने की वासना ईत्पन्न होती ह।, ईसे
ऄव वनवेश कहते हैं
‍लेश से कर्मलभ वासनाएाँ ईत्पन्न होती हैं और कर्मलभ वासना से जन्र्म रूपी वृक्ष ईत्पन्न होता ह। ईस वृक्ष
र्में जावत (ववव न्न प्रकार की योवनयााँद, अयर और ोग रूपी तीन प्रकार के िल लगते हैं आन तीनों िलों
र्में सख
र -दःर ख रूपी दो प्रकार के थवाद होते हैं जो पण्र य कर्मलभ ऄथालभत् दसर रों के वलए ककयाणाथलभ कर्मलभ वकए
जाते हैं, ईनसे जावत, अयर और ोगों का सख र वर्मलता ह। जो पाप कर्मलभ करता ह। ऄथालभत् दसर रों को दःर ख
पहुिाँ ाने के वलए कर्मलभ करता हैं, ईससे जावत, अयर और ोग र्में दःर ख पहुिाँ ता ह। वकन्तर यह सख र ी
तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में दःर ख ही हैं, ‍योंवक ववषयों र्में पररणार्म दःर ख, ताप दःर ख और सथं कार दःर ख वर्मला
होता ह। तीनों गणर ों के सदा ऄवथथर रहने के कारण ईनकी सख र -दःर ख और र्मोह रूपी वृवत्तयााँ ी बदलती
रहती ह।, आसवलए सख र के पीछे दःर ख का होना अवश्यक ह।

तत्त्वज्ञान 102
पााँि ेद वाली ईपयलभक्त र वृवत्तयााँ सत्त्वगणर ी, रजोगणर ी और तर्मोगणर ी होने से सखर -दःर ख और र्मोह
थवरूप हैं यही सख र -दःर ख और र्मोह थवरूप वृवत्तयााँ ‍लेश थवरूप हैं, आसवलए ये सब वृवत्तयााँ ही वनरोध
करने यो‍य हैं र्मोह थवयं ऄववद्या रूप होने से सवलभ दःर खों का र्मल र ह। तथा दःर ख की वृवत्तयााँ थवयं दःर ख रूपी
हैं सखर की वृवत्तयााँ सख र के ववषयों और ईनके साधनों र्में राग ईत्पन्न करती हैं सख र ोग के पश्िात जो
ईनकी वासना रहती ह।, वह राग होता ह। आसवलए ये ‍लेश जनक सख र -दःर ख और र्मोह थवरूप होने से सब
प्रकार की वृवत्तयााँ त्याज्य हैं
सृवष्ट र्में तीन प्रकार के ेद हैं आसी प्रकार र्मनष्र य ी तीन प्रकार के दःर खों र्में से वकसी-न-वकसी दःर ख
से छरटकारा पाने का प्रयत्न करता रहता ह। ये तीनों ेद आस प्रकार ह।– 1. दैदहक 2. भौदतक 3. दैदवक।
1. दैदहक– जो सीधे ऄपने साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं, ज।से-वित्त, ऄहक ं ार, र्मन, आवन्ियााँ व शरीर
अ्यावत्र्मक सखर -दःर ख दो प्रकार का होता ह। एक-शारीररक, दूसरा-र्मानवसक शरीर का बलवान,
िरतीला और थवथथ होना शारीररक सख र ह। शरीर का दबर लभल, ऄथवथथ और रोगी होना शारीररक दःर ख ह।
आसी प्रकार शर संककप, शांवत व व।रा‍य र्मानवसक सख
र ह। इष्यालभ, तृष्णा, शोक, राग-द्रेष र्मानवसक दःर ख हैं
2. भौदतक– जो ऄन्य प्रावणयों की सृवष्ट से सम्बन्ध रखने वाले हैं, ज।स-े गाय,घोड़ा, पश-र पक्षी अवद
से वर्मलने वाला सख र ऄथालभत् दसर रे प्रावणयों से वर्मलने वाला सख
र ौवतक सख
र ह। ज।से-गाय से दधर -घी का,
घोड़ा अवद से सवारी का सख र वर्मलता ह। ौवतक दःर ख वह ह।, जो शेर अवद वहसं क जानवरों से शरीर को
हावन पहुिाँ ाने तथा सपलभ-वबच्छर अवद के काटने से होता ह।
3. दैदवक– जो वदव्य शवक्तयों की सृवष्ट से सम्बन्ध रखने वाले ह। ज।से-पृथ्वी, सयर लभ अवद द।ववक
दःर ख प्रकाश व वषालभ से होता ह। ज।से-ऄवधक वषालभ होना, वबजली वगरना, ऄव‍न व ति र ान अवद से दःर ख
वर्मलना
ऄववद्या, ऄवथर्मता, राग, द्रेष और ऄव वनवेश ‍लेश ह। ये पााँिों बन्धन-रूपी-पीड़ा ईत्पन्न करते
हैं और वित्त र्में ववद्यर्मान रहते हुए संथकार रूपी गणर ों के पररणार्म को दृढ़ करते हैं, आसवलए ‍लेश नार्म से
हो गये हैं ये स ी वर्मथ्या ज्ञान ही हैं, ‍योंवक आन सब का कारण ऄववद्या ह। ऄथालभत् ऄववद्या ही स ी
‍लेशों का र्मल
र कारण ह। ये वित्त के वर र्म पर कइ ऄवथथाओ ं र्में (‍लेशद ववद्यर्मान रहते ह। जो आस प्रकार
हैं–

तत्त्वज्ञान 103
एक- करछ ‍लेश ऐसे ी होते हैं जो वित्त की वर र्म पर ऄववथथत तो हैं परन्तर ऄ ी जागे नहीं हैं,
‍योंवक ऄपने ववषय अवद के ऄ ाव काल र्में ऄपने कायों को अरम् नहीं कर सकते हैं ऐसे ‍लेश
प्रसप्तर कहलाते हैं वजस प्रकार बाकयावथथा र्में ववषय ोग की वासनाएाँ बीज रूप से दबी रहती ह। तथा
वकशोरावथथा र्में जा्र त होकर िल वदखाती हैं
दूसरी- करछ ‍लेश ऐसे होते हैं जो योग के ऄभ्यास से वशवथल कर वदए गये हैं आस कारण ववषय
होते हुए ी ऄपने कायलभ को अरम् करने र्में सर्मथलभ नहीं होते हैं, बवकक वसिलभ शातं रहते हैं परन्तर आनकी
वासनाएाँ वित्त र्में सक्ष्र र्म रूप से बनी रहती हैं
तीसरी- करछ ‍लेश ऐसे होते हैं जो वकसी बलवान ‍लेश से दबे हुए शव‍त रूप से रहते हैं और
ईनके ऄ ाव र्में वतलभर्मान हो जाते हैं ज।से- राग की ऄवथथा र्में द्रेष वछपा रहता ह। और द्रेष की ऄवथथा र्में
राग
चौथी- करछ ‍लेशों की यह ी ऄवथथा होती ह। जो ऄपने सहायक ववषयों को पाकर ऄपने कायलभ
र्में प्रवृत्त हो जाते हैं ज।स-े व्यत्र थान की ऄवथथा र्में साधारण र्मनष्र यों र्में होते हैं
पााँचवीं- आन सब ‍लेशों का र्मल र कारण ऄववद्या ह। ऄववद्या के नाश होने से स ी प्रकार के ‍लेश
सर्मल
र नष्ट हो जाते हैं, ‍योंवक वववेक-ख्यावत रूपी ऄव‍न र्में द‍ध बीज ाव को प्राप्त होते हैं, जो पनर ः
ऄकं र र देने र्में तथा िल देने र्में ऄसर्मथलभ हो जाते हैं
सर्मावध के ऄभ्यास से सक्ष्र र्म वकए गये ‍लेश जब वववेक-ख्यावत रूपी ऄव‍न से द‍ध बीज के सर्मान
हो जाते हैं, तब वनबीज सर्मावध द्रारा सर्माप्त ऄवधकार वाले वित्त के ऄपनी प्रकृ वत र्में लीन होते सर्मय वे
‍लेश ी ईनके साथ लीन होकर वनवृत्त हो जाते हैं ऄपने कारण र्में लीन होने के ऄवतरर‍त आन ‍लेशों के
वनरोध के वलए ऄन्य वकसी प्रयत्न की अवश्यकता नहीं रहती ह।, ‍योंवक धर्मों के नाश के वबना संथकार
रूपी सक्ष्र र्म धर्मों का नाश नहीं होता ह। आसवलए वे द‍ध बीज रूप पााँिवी ऄवथथा वाले ‍लेश वित्त के
ऄपने कारण र्में लीन होने से त्यागने यो‍य हैं ‍लेशों की सक्ष्र र्म वृवत्तयााँ जो सर्मावध के द्रारा वशवथल कर दी
गइ हैं, जब तक सक्ष्र र्म होते-होते नर े हुए बीज के सर्मान न हो जाएाँ ऄथालभत् वशवथल हुए ‍लेशों को वववेक-
ख्यावत द्रारा तब तक यत्न करते रहना िावहए, जब तक नर े हुए बीज के सर्मान न हो जाएाँ ज।से वथर का
थथलर र्म।ल पानी र्में वथर रगड़ने र्मार से सगर र्मता से दरर वकया जा सकता ह।, परन्तर सक्ष्र र्म र्म।ल ववशेष यत्न
करके दरर करना पड़ता ह। ईसी प्रकार कलेशों की थथल र वृवत्तयााँ कर्म दःर ख देने वाली होती हैं, वकन्तर
‍लेशों की सक्ष्र र्म वृवत्तयााँ ऄवधक दःर ख देने वाली होती ह। ऄथालभत् सर्मावध द्रारा वशवथल वकए गये ‍लेशों

तत्त्वज्ञान 104
की सक्ष्र र्म वृवत्तयााँ थथल
र वृवत्तयों से ऄवधक दःर ख देने वाली व र्महान शरर हैं आसवलए आनकी वनवृवत्त के वलए
ववशेष प्रयत्न की अवश्यकता ह। आन सक्ष्र र्म वृवत्तयों को वववेक-ख्यावत रूपी ऄव‍न से द‍ध बीज के सर्मान
कर देना िावहए विर ये द‍ध बीज के सर्मान होकर वनबीज सर्मावध र्में वित्त के ववलीन होने पर ईसके साथ
थवयं ही ववलीन हो जाती हैं
आस ससं ार का जीवन दःर खों से रा हुअ ह। दःर ख प्रथर्म सत्य ह। जन्र्म, र्मरण, जरा, व्यावध ये स ी
दःर ख हैं ऄवप्रय वथतर का साथ वर्मलना ी दःर ख ह। तथा वप्रय वथतर का ववयोग ी दःर ख ह। ऄपनी आच्छा
के ऄनसर ार वथतर का न वर्मलना ी दःर ख ह। दःर ख का वाथतववक कारण तृष्णा ह। जो बारम्बार प्रावणयों को
ईत्पन्न करती ह। तथा राग से यक्त र ह। यहााँ और वहााँ सवलभर तृष्णा ऄपने ववषयों को खोजती रहती ह। तृष्णा
तीन प्रकार की होती ह। एक- जो नाना प्रकार के ववषयों की कार्मना करती ह। दूसरी- जो संसार की सत्ता
को बनाए रखना िाहती ह। तीसरी- जो संसार के व। व की आच्छा रखती ह। तृष्णा की वृवत्तयााँ प्रावणयों
को बड़ी वप्रय व ऄच्छी लगती हैं सख र के िे र र्में पड़े हुए र्मनष्र य तृष्णा की वृवत्तयों की धारा र्में पड़ते हैं
तथा बारम्बार जन्र्म-र्मृत्यर के िक्र र्में अते हैं यही तृष्णा जगत् के सर्मथत वविोह व ववरोध की जननी ह।
आसी के कारण राजा से राजा, क्षवरय से क्षवरय, ब्राह्मण से ब्राह्मण, र्माता परर से और परर र्माता से लड़ता ह।
धनी परू र ष तृष्णा के कारण गरीबों को िसर ता ह। स ी दःर खों का कारण तृष्णा ही ह।, आसवलए तृष्णा का
सर्मवर ित ववच्छे द करना प्रत्येक प्राणी का कतलभव्य ह।
दःर ख का कारण वासनाएाँ हैं, वासनाओ ं का कारण ऄववद्या अवद ‍लेश हैं जो पण्र य कर्मलभ, पाप कर्मलभ
व पण्र य और पाप दोनों वर्मवश्रत सकार्म कर्मलभ हैं आन वासनाओ ं का िल जावत (ववव न्न प्रकार की योवनयााँद,
अयर और ोग हैं वासनाओ ं का अश्रय वित्त ह। वासनाओ ं का अलम्बन आवन्ियों के ववषय हैं यद्यवप
वासनाएाँ ऄनावद और ऄनन्त हैं तथापी ये वासनाएाँ ऄपने िल, अश्रय और अलम्बन के सहारे रहती हैं
आनकी वथथवत र्में वासनाओ ं की ईत्पवत ह। और ऄ ाव र्में नाश ह। वववेक-ख्यावत द्रारा तत्त्वज्ञान से ऄववद्या
‍लेशों का ईनके िल, अश्रय और अलम्बन सवहत ऄ ाव हो जाता ह। जब योगी को वववेक-ख्यावत
की अवथथा प्राप्त होती ह। तथा ऄभ्यास के कारण जब वनरन्तर वववेक ज्ञान का प्रवाह बहने लगता ह। तब
व्यत्र थान के सथं कारों के बीज वनतांत थर्म हो जाते हैं आस कारण व्यत्र थान की वृवत्तयााँ बीि-बीि र्में
ईत्पन्न नहीं होती हैं ज्ञान की आस पररप‍व ऄवथथा को धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं यह ऄवथथा (धर्मलभर्मेघ
सर्मावधद सबीज सर्मावध की सबसे उाँिी ऄवथथा ह। धर्मलभर्मेघ सर्मावध की प्रावप्त पर ऄववद्या अवद पााँिों
‍लेश, पण्र य कर्मलभ, पाप कर्मलभ, पण्र य और पाप कर्मलभ (दोनों वर्मवश्रत कर्मलभद तीनों प्रकार के सकार्म कर्मलभ और

तत्त्वज्ञान 105
ईनकी वासनाएाँ र्मल
र सवहत नाश हो जाती ह। आस प्रकार ‍लेश और कर्मों के ऄ ाव र्में योगी जीवन्र्मक्त र
होकर वविरण करता ह। तथा शरीर त्यागने के पश्िात र्मवर ‍त को प्राप्त होता ह। और पनर ः जन्र्म धारण नहीं
करता ह।, ‍योंवक वर्मथ्या ज्ञान ऄथालभत् ऄववद्या ही संसार का कारण ह। आसवलए वजसकी ऄववद्या अवद
नष्ट हो गइ ह।, ऐसा कोइ ी योगी वकसी कारण से कही ी ईत्पन्न हुअ नहीं देखा जाता ह।
र्मनष्र य जब सत्त्वगणर प्रधान के ऄन्तगलभत सकार्म कर्मलभ करता ह।, तब आस कर्मलभ से वित्त र्में जो कर्मालभशय
रूपी वृवत्तयााँ ईत्पन्न होती हैं वह ऄव‍लष्ट वृवत्तयााँ कहलाती ह। ऐसी वृवत्तयााँ शाथरों के पढ़ने तथा धावर्मलभक
व अ्यावत्र्मक कर्मों से ईत्पन्न होती हैं र्मगर जब-जब तर्म-प्रधान कायलभ करता ह।, तब-तब वित्त र्में व‍लष्ट
वृवत्तयााँ ईत्पन्न होती हैं, ये व‍लष्ट तर्म-प्रधान होती हैं ऄव‍लष्ट वृवत्तयााँ सत्त्व प्रधान होती हैं ये सत्त्व
प्रधान ऄव‍लष्ट वृवत्तयााँ ऄववद्या और कलेशों की ववरोधी वववेक-ख्यावत रूपी होती ह। तर्म प्रधान व‍लष्ट
वृवत्तयााँ, ‍लेश व दःर ख अवद की जड़ रूपी ह। वित्त र्में वथथत दोनों प्रकार की वृवत्तयों का अपस र्में
ववरोधा ास होता ह। पहले ऄव‍लष्ट वृवत्तयों को ्र हण करके व‍लष्ट वृवत्तयों का वनरोध करना िावहए,
विर पर-व।रा‍य के द्रारा आन ऄव‍लष्ट वृवत्तयों का ी वनरोध वकया जाता ह।
व‍लष्ट वृवत्तयों के संथकार वित्त र्में ऄनन्त गहराइ तक होते हैं तथा ईनके वछिों र्में (रर‍त-थथान र्मेंद
शाथर, ऄ्यात्र्म, गरू र ईपदेश, ऄभ्यास और व।रा‍य रूपी सावत्वक वृवत्तयााँ ववद्यर्मान रहती हैं वृवत्तयों का
थव ाव होता ह। वक वह ऄपने सर्मान सथं कारों को ईत्पन्न करती हैं आसवलए व‍लष्ट वृवत्तयााँ व‍लष्ट
सथं कारों को और ऄव‍लष्ट वृवत्तयााँ ऄव‍लष्ट सथं कारों को ईत्पन्न करती हैं आसी प्रकार वछपी हुइ
ऄव‍लष्ट वृवत्तयााँ ऄव‍लष्ट सथं कारों को और ऄव‍लष्ट सथं कार ऄव‍लष्ट वृवत्तयों को ईत्पन्न करते हैं
आधर योग के वनरन्तर ऄभ्यास होने से ऄव‍लष्ट वृवत्तयों की ऄवधकता होने लगती हैं यवद यही क्रर्म
बराबर िलता रहे तो व‍लष्ट वृवत्तयों का वनरोध हो जाता ह।, परन्तर आनके सथं कार सक्ष्र र्म रूप से ऄव‍लष्ट
वृवत्तयों के वछि र्में बने रहते हैं आनका नाश वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास से होता ह। उपरी तरीके से जब
व‍लष्ट वृवत्तयााँ सवलभथा दब जाती हैं, तब ऄव‍लष्ट वृवत्तयों का ी वनरोध पर-व।रा‍य से हो जाता ह। आन सब
वृवत्तयों का वनरोध वनबीज सर्मावध ह।
साधक को ऄच्छी तरह से ज्ञान होना िावहए वक थथरल वृवत्तयााँ र्मनष्र य की साधारण शरर हैं, ‍योंवक
आन्हें शीघ्र ोग वलया जाता ह। सक्ष्र र्म वृवत्तयााँ (संथकारद प्रबल शरर हैं, ‍योंवक वृवत्तयों से ही संथकार बनते
हैं तथा वृवत्तयों से सक्ष्र र्म रूप र्में होते हैं थथल
र से सक्ष्र र्म पदाथलभ ऄवधक शव‍तशाली होता ह।, आसवलए र्मनष्र य
जब ऐसे संथकारों का ोग करता ह।, तो ऄवधक कष्टदायी होते हैं योग र्में साधक को ऄपना लक्ष्य प्राप्त

तत्त्वज्ञान 106
करने के वलए थथल र वृवत्तयााँ आतनी बाधक नहीं होती वजतने वक संथकार बाधक होते हैं कार्म, क्रोध अवद
की थथलर वृवत्तयों से छरटना आतना बाधक नहीं ह।, र्मगर सक्ष्र र्म संथकारों के हाथों छरटना ऄत्यन्त र्मवर श्कल
होता ह। आसवलए साधक को सर्मावध की ईच्िावथथा र्में घोर ‍लेश व दःर ख ोगना पड़ता ह।, र्मगर
वनरूिावथथा के सर्मय स ी प्रकार के दःर खों का ऄन्त हो जाता ह।
शाथरों र्में वणलभन वर्मलता ह। वक देह धारण की ऄवथथा र्में वप्रय-ऄवप्रय ववषयों से ्र हण होने वाली
व्याकरलता क ी नहीं वर्मटती ह। देह-धारी होना ही दःर ख का र्मल र ह। ईस सर्मय जो क ी क्षवणक सख र का
ऄनर व होता ह।, वह ी दःर ख से सम्बन्ध रखने के कारण दःर ख ही ह। ऄतः सम्पणर लभ दःर खों का र्मल र तर जो
शरीर ्र हण करता ह। ईसका ऄ ाव हो जाना ही परर्म् परू र षाथलभ रूप र्मोक्ष ह। जीव का सारा व्यवहार दःर ख
की वनवृवत्त और अनन्द प्रावप्त के वलए ह। र्मनष्र य से लेकर कीड़े-पतंगे तक सबकी आवन्ियों और
ऄन्त:करण की सतत् िेष्टा का यही एक र्मार हेतर ह। परन्तर दःर ख की ऄत्यन्त वनवृवत्त और अनन्द की
प्रावप्त ऄके ले र्मनष्र य देह वाले जीव को ही प्राप्त हो सकती ह। जीव जो ववषय सख र ोगता ह। वह तो
आवन्ियों द्रारा ्र हण वकया हुअ ्र ाह्य ववषय ह।, र्मगर जो अनन्द ह। वह वित्त ्र ाह्य ह।
वर्मथ्या ज्ञान से प्राप्त हुअ वित्त ही सारे ऄनथों की जड़ ह। र्मोह अवद के कारण देह अवद र्में प्रकट
वित्त ऄहक ं ार के द्रारा जब तक ‚र्मैं कतालभ ह‛ाँ , ‚र्मैं ो‍ता ह‛ाँ , ‚र्मैं दःर खी ह‛ाँ , ‚सब करछ र्मेरा ह।‛, व पाप-
पण्र य के व्यवहार होते रहते हैं, तब तक आसी व्यवहार र्में बधं े रहने के कारण जन्र्म, अयर और र्मृत्यर के
ससं ार से जीव का वबककरल छरटकारा नहीं हो सकता ह। आसवलए वप्रय-ऄवप्रय ववषयों की वेदना से विंवतत
रहने के कारण जीव ऄत्यन्त दःर खी रहा करता ह। जब तक शरीर धारण करे गा, तब तक थवप्न र्में ी जरा
सी ी शांवत का ऄनर व नहीं कर सकता ह।, यह वनवश्ित ह।
र्मनष्र य र्मानवसक और शारीररक दःर खों का ोग करता ह। आस प्रकार के दःर ख र्मानवसक व शारीररक
रोग लग जाने से ोगने पड़ते हैं क ी-क ी ये दोनों दःर ख परथपर एक दसर रे के कारण बनकर ईत्पन्न होते
हैं ऄथालभत् शारीररक दःर ख से र्मानवसक दःर ख, र्मानवसक दःर ख से शारीररक दःर ख तथा क ी-क ी दोनों एक
साथ होते हैं क ी सख र के बाद ये दोनों क्रर्मशः ईत्पन्न होते हैं आवन्िय वन्र ह के ऄ ाव से राग-द्रेष र्में िाँ स
जाने से तथा ‚यह प्राप्त हो गया ह।‛, ‚यह प्राप्त होना ऄ ी शेष ह।‛, आस प्रकार की सोि से विंताएाँ
ईत्पन्न होने से र्मानवसक दःर ख ईत्पन्न होता ह। र्मानवसक दःर ख का कारण बार-बार आच्छाओ ं के ईत्पन्न
होने से, ऄज्ञानता व वित्त की र्मवलनता के कारण होता ह। शारीररक दःर ख रोग लग जाने के कारण होता
ह। शरीर र्में जब ववव न्न प्रकार की बीर्माररयााँ लगती हैं तो दःर ख की ऄनर वर त होती ह। आन वबर्माररयों के

तत्त्वज्ञान 107
कइ कारण हो सकते हैं छोटी-छोटी बीर्माररयों से ईत्पन्न दःर ख तो औषवध अवद से शीघ्र दरर हो जाता ह।
र्मगर करछ बीर्माररयों के दःर ख ऐसे होते हैं जो र्मनष्र य को बहुत सर्मय तक प्र ाववत वकए रहते हैं क ी-
क ी ऐसे दःर ख र्मृत्यर का कारण ी बन जाते हैं ऄगर ऐसे दःर ख पवर लभजन्र्म के कर्मालभशयों के कारण प्राप्त हो
रहे हैं ऄथालभत् प्रारब्ध के कारण प्राप्त हो रहे हैं, तो कािी सर्मय तक प्र ाववत करते हैं प्राण वायर का
ईवित रूप से शरीर र्में वक्रया न हो पाने से रोग ईत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे रोग बहुत सर्मय तक दःर ख की
ऄनर वर त कराते हैं ऐसे रोग प्राणायार्म के द्रारा ठीक वकए जा सकते हैं सि तो यह ह। वक यवद प्राणायार्म
वनयवर्मत रूप से तथा ईवित वववध द्रारा वकया जाए तो रोग रूपी शारीररक दःर ख ज्यादातर ठीक वकए जा
सकते हैं ऄथालभत् दःर खों का ऄन्त वकया जा सकता ह। आस प्रकार के दःर खों का र्मल र कारण ऄज्ञान ही ह।
यथाथलभ ज्ञान के द्रारा आनका सर्मलर नाश हो जाता ह। तत्त्वज्ञान और आवन्िय वन्र ह के ऄ ाव से ऄज्ञानता के
द्रारा वकए गये कर्मों से वित्त र्में र्मवलनता अ जाती ह।, यह र्मवलनता दःर खों का कारण बनती हैं जब आस
र्मवलनता को ऄभ्यास के द्रारा नष्ट वकया जाता ह। तब वित्त वनर्मलभल होने लगता ह। र्मवलनता नष्ट होते
सर्मय ऄभ्यासी को ववव न्न प्रकार के दःर खों की ऄनर वर त होती ह। आस प्रकार के दःर खों से ऄभ्यासी को
घबराना नहीं िावहए, बवकक ध।यलभ पवर लभक दःर खों का ोग कर लेना िावहए जब वित्त वनर्मलभल हो जाएगा, तब
दःर खों की प्रावप्त नहीं होगी ईस सर्मय ब्रह्म र्में वथथवत होने के कारण अनन्द की ऄनर वर त होगी तथा जन्र्म-
र्मृत्यर के दःर ख से ी रवहत होकर र्मोक्ष को प्राप्त हो जाएगा
र्मनष्र य को लोक और परलोक का दःर ख बहुत ही कष्टदायी होता ह।, ‍योंवक आन दोनों से पीवड़त
होकर स ी र्मनष्र य बहुत दःर ख ोगते हैं ऄज्ञानी र्मनष्र य आस लोक र्में व्यावध्र थत होकर ईसके वनवारण के
वलए औषवध द्रारा जीवनपयलभन्त यथाशव‍त प्रयत्न करते हैं, र्मगर परलोक र्में वर्मलने वाले दःर खों के वलए वे
करछ ी ईपाय नहीं करते हैं जो श्रेष्ठ परू र ष होते हैं वे परलोक रूपी र्महा दःर ख से बिने के वलए ऄपने
थवरूप र्में वथथत होने ऄथवा इश्वर प्रावप्त का प्रयत्न करते हैं ऐसे परू र ष परलोक रूपी दःर खों से बिने के
वलए सदा सावधान रहते हैं तथा र्मोक्ष की आच्छा ईत्पन्न होने पर कठोर ऄभ्यास के द्रारा पररश्रर्म करते हुए
ववजयी होते हैं जो परू र ष आस लोक र्में नरक रूपी दःर खों का ईपाय नहीं कर लेता ह।, वह परू र ष दःर खों से
यक्त र होकर ईपाय रवहत थथान यानी नरक र्में पहुिाँ ता ह। आसवलए र्मनष्र य को आस लोक के दःर खों के ईपायों
र्में ही जीवन नष्ट नहीं करना िावहए, ‍योंवक सम्पणर लभ जीवन र्में ववव न्न प्रकार के दःर ख प्राप्त होते ही रहते
हैं आसके साथ-साथ तत्त्वज्ञान रूपी ईपाय से परलोक के दःर खों का वनवारण करते रहना िावहए जीवन
क्षण ंगरर ह।, ऄतः पणर लभ प्रयत्न पवर लभक शीघ्र ही परलोक रूपी दःर ख के वनवारण र्में लग जाना िावहए
परलोक रूपी दःर ख के वनवारण कर लेने पर आस लोक के दःर खों का तत्काल ऄन्त हो जाएगा सख र के

तत्त्वज्ञान 108
प्राप्त होने से दःर ख का और दःर ख के प्राप्त होने से सखर का नाश हो जाता ह।, ऄतः दोनों नाशवान हैं
वजसका नाश नहीं होता ह। वह ऄववनाशी अत्र्मा ह। वजसके र्मन र्में आच्छाओ ं की परम्परा बनी हुइ ह। ईसे
सख र -दःर ख ऄवश्य प्राप्त होते रहते हैं, आसवलए आस दःर ख का वनवारण करना अवश्यक ह। आसका वनवारण
स ी प्रकार की आच्छाओ ं का पररत्याग करने से होता ह। जब साधक के ऄन्त:करण र्में वकसी प्रकार की
आच्छाएाँ ही नहीं होगी, तब ईसे वकसी प्रकार का दःर ख ी प्राप्त नहीं होगा जब ऄभ्यास के द्रारा
वनरूिावथथा प्राप्त हो जाती ह। ईस सर्मय ऄभ्यासी को वकसी प्रकार के दःर ख की ऄनर वर त नहीं होती ह।
ऐसी ऄवथथा र्में दःर ख का ऄवथतत्व नष्ट हो जाता ह। यह तत्त्वज्ञान की ऄवथथा ह।, वजसे जीवन्र्मक्त र
ऄवथथा ी कहते हैं
र्मनष्र य को ऄपने जीवन र्में ईत्थान के वलए ऄपने थवाथलभ को त्याग कर दसर रे के साथ ऄच्छा व्यवहार
करना िावहए जो दसर रे के दःर खों को देखकर प्रसन्न होता ह।, दसर रे का सख र देखकर दःर खी होता ह।, ऐसा
र्मवलन वित्त वाला परू र ष क ी ी सख र को प्राप्त नहीं कर सकता ह। इश्वर प्रावप्त की बात तो बहुत दरर ह।
आसवलए दसर रे के सख र -दःर ख को ऄपना सख र -दःर ख सर्मझना िावहए वजस प्रकार वह थवयं ऄपने सख र की
वृवि करना िाहता ह।, ईसी प्रकार दसर रों के सख र की वृवि करने के वलए प्रयत्न करना िावहए वजस प्रकार
वह थवयं ऄपने दःर खों की वनवृवत्त के वलए प्रयत्न करता ह।, ईसी प्रकार ईसे दसर रों के दःर खों की वनवृवत्त का
प्रयत्न करना िावहए र्मनष्र य के दःर खों का र्मल र कारण यह ह। वक वह सांसाररक पदाथों से र्मर्मत्व रखता ह।
आस कारण ईसे ववव न्न प्रकार के दःर खों का ोग करना पड़ता ह। यवद र्मर्मत्व का पणर लभ रूप से त्याग कर
वदया जाए तो दःर खों की ऄनर वर त नहीं होगी, बवकक ऐसे सख र की प्रावप्त होती ह। जो क ी सर्माप्त नहीं
होता ऐसा सख र जीवन र्में वकसी ी ोग पदाथलभ को ोगने से प्राप्त नहीं वकया जा सकता ह। र्मर्मत्व को
त्यागने से व।रा‍य ईत्पन्न होता ह। पर-व।रा‍य व ऄभ्यास के द्रारा तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। तथा तत्त्वज्ञान
के द्रारा योगी को र्मोक्ष प्राप्त होता ह।

तत्त्वज्ञान 109
कमय
गीता र्में गवान् श्रीकृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– “वास्तव में सम्पणू थ कमथ प्रकृ लत के गणु ों द्वारा लकए हुए
हैं। अहक
ां ार से मोलहत हुआ अन्त:करण वािा जीवात्मा ‘मैं करता ह’ूँ , ऐसा मान िेता है”।
कमय का अथय है – ‘िलना या हरकत करना’ ये पााँि प्रकार के होते हैं, एक– उपर िें कना, दो–
नीिे वगराना, तीन– वसकोड़ना, चार– ि। लाना, पााँच– गर्मन करना र्मनष्र य के कर्मलभ पाप और पण्र य से यक्त र
होते हैं स ी प्रकार के कर्मलभ रजोगणर द्रारा वकए जाते हैं, वबना रजोगणर के कोइ वक्रया नहीं होती ह। रजोगणर
का जब सत्त्वगणर के साथ सम्बन्ध होता ह। तब ज्ञान, धर्मलभ, व।रा‍य अवद र्में प्रवृवत्त होती ह। जब रजोगणर का
तर्मोगणर के साथ सम्बन्ध होता ह।, तब ऄज्ञान, ऄव।रा‍य और ऄधर्मलभ अवद कर्मों र्में प्रवृवत्त होती ह। यही
दोनों प्रकार के कर्मलभ शर -ऄशर , पाप-पण्र य कहलाते हैं जब रजोगणर का सत्त्वगणर और तर्मोगणर दोनों से
सम्बन्ध होता ह।, तब दोनों प्रकार के कर्मों की प्रवृवत्त होती ह।, ऐसे कर्मलभ पाप और पण्र य से वर्मवश्रत कहे जाते
हैं आन्हीं कर्मों के ऄनसर ार वित्त र्में संथकार पड़ते हैं और आन्हीं को वासनाएाँ कहते हैं पण्र य कर्मों से
देवताओ ं के रूप र्में जन्र्म वर्मलता ह। ऄथालभत् वजनके वित्त र्में वसिलभ पण्र यर्मय कर्मालभशय ही हैं, वे देवताओ ं के
करल र्में जन्र्म लेते हैं वजनके वित्त र्में पाप और पण्र य दोनों वर्मवश्रत कर्मालभशय हैं, ईन्हें र्मनष्र य के रूप र्में जन्र्म
वर्मलता ह। वजनके वित्त र्में वसिलभ पाप के कर्मालभशय हैं, वे र्मनष्र य से नीिे पशर पक्षी अवद के रूप र्में जन्र्म लेते
हैं
स ी जीवात्र्माएाँ ऄपने कर्मों के ऄनसर ार ोग करती हैं वजनके वित्त र्में ज।से कर्मालभशय होते हैं, ईन्हें
कर्मालभशयों के ऄनसर ार ईसी योवन र्में जाना पड़ता ह।, तावक वह ऄपने कर्मालभशयों का ोग कर सकें ऄथालभत्
स ी जीवात्र्माओ ं को ऄपने कर्मों के ऄनक र र ल शरीर धारण करना पड़ता ह। र्मनष्र य शरीर ही एक ऐसा
शरीर ह। जो ऄपने पवर लभजन्र्मों के कर्मालभशयों को ोगता हुअ ी ऄपनी आच्छानसर ार कर्मलभ कर सकता ह।
र्मनष्र य के ऄलावा आस जगत् र्में वजतने ी शरीरधारी हैं, िाहे वह सक्ष्र र्म शरीरधारी हों ऄथवा थथरल
शरीरधारी हों, वे कर्मलभ नहीं कर सकते हैं, बवकक वसिलभ ऄपने पवर लभजन्र्मों र्में वकए हुए कर्मों का ोग कर सकते
हैं र्मनष्र य से देवता श्रेष्ठ होते हैं, ‍योंवक देवताओ ं के वित्त र्में पाप से रवहत पण्र य कर्मालभशय होते हैं, आसवलए
वे सद।व कर्मों का ोग वकया करते हैं आनके शरीर र्में सत्त्वगणर की प्रधानता होती ह। जब देवता ऄपने पण्र य
कर्मों का ोग कर लेते ह। तब पण्र य क्षीण हो जाने पर ईन्हें विर नये कर्मलभ करने के वलए पृथ्वी पर र्मनष्र य
शरीर धारण करना होता ह। स ी प्रकार के शरीर धाररयों र्में र्मनष्र य शरीर श्रेष्ठ र्माना गया ह। र्मनष्र य शरीर

तत्त्वज्ञान 110
के द्रारा योग का ऄभ्यास करके जीव आस संसार र्में जन्र्म-र्मृत्यर के अवागर्मन से र्म‍र त हो सकता ह। तथा
ऄपने वाथतववक थवरूप र्में वथथत हो सकता ह।, वजसे वह ऄववद्या के कारण ल र िक र ा ह।
र्मनष्र य योग के ऄभ्यास के द्रारा ऄपने वित्त पर वथथत कर्मालभशयों से छरटकारा पा सकता ह। ऄववद्या
से यक्त र ‍लेशात्र्मक कर्मालभशयों को सर्माप्त करते सर्मय साधक को घोर दःर ख व ‍लेश सहना पड़ता ह।
सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा र्में योगी का वित्त कर्मालभशयों से रवहत हो जाता ह। वजन र्महान योवगयों ने वित्त
र्में वथथत ‍लेशात्र्मक कर्मालभशयों को वनबीज सर्मावध द्रारा सर्माप्त कर वदया ह।, ऐसे योवगयों के कर्मलभ वनष्कार्म
ऄथालभत् वासना से रवहत के वल कतलभव्य र्मार रहते हैं योवगयों के कर्मलभ पाप-पण्र य से रवहत होते हैं योगी के
वलए पाप कर्मलभ करना सवलभथा त्याज्य ह। तथा कतलभव्य रूपी पण्र य कर्मलभ वह असव‍त, र्मर्मता और ऄहर्म् ाव
छोड़कर वनष्कार्म ाव से करता ह। योगी के कर्मलभ बन्धन रूप नहीं होते हैं, लेवकन साधारण र्मनष्र य के कर्मलभ
तीन प्रकार के होते हैं एक– पाप से यक्त र कर्मलभ, दूसरा– पण्र य से यक्त
र कर्मलभ, तीसरा–पाप और पण्र य दोनों
प्रकार के वर्मवश्रत कर्मलभ साधारण र्मनष्र य के कर्मलभ बन्धन से यक्त
र होते हैं
पण्र य कर्मलभ ऄथालभत् वहसं ा रवहत कर्मलभ जो परोपकार रूप र्में वकए जाते हैं या दसर रों के ककयाण हेतर
वकए जाते हैं, ऐसे कर्मों के ोगों र्में र्मनष्र य को सख र वर्मलता ह। जो कर्मलभ पापर्मय होते हैं ऄथालभत् वहसं ात्र्मक
या दसर रों को दःर ख पहुिाँ ाने के वलए वकए जाते हैं, ऐसे कर्मों के ोग से र्मनष्र य को दःर ख वर्मलता ह। परन्तर
तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में सखर ी दःर ख थवरूप ही ह। तीनों गणर ों के सदा ऄवथथर रहने के कारण ईनकी सख र -
दःर ख और र्मोह रूपी वृवत्तयााँ ी बदलती रहती हैं आसवलए सख र के पीछे दःर ख का होना ऄवनवायलभ ह। वित्त
र्में दो प्रकार के कर्मालभशय रहते हैं एक– जो कर्मालभशय वित्त की उपरी सतह पर होते हैं ईन्हें प्रारब्ध कहते
हैं ये कर्मालभशय वतलभर्मान जन्र्म र्में ोगे जाते हैं ऄथालभत् वजन कर्मालभशयों ने जन्र्म, अयर और ोग का कायलभ
अरम् कर वदया ह। दूसरा– करछ कर्मालभशय वित्त की वनिली वर र्म पर रहते हैं ऐसे कर्मालभशय प्रारब्ध
कर्मालभशयों के सार्मने ऄपना कायलभ अरम् नहीं कर सकते हैं, ‍योंवक प्रारब्ध कार्मालभशय आन्हें दबाए रखते हैं
आसवलए यह कर्मालभशय वित्त की वनिली वर र्म पर दबे पड़े रहते हैं, आन्हें सवं ित कर्मलभ ी कहते हैं र्मनष्र य जो
वतलभर्मान र्में कर्मलभ करता ह। ईन्हें वक्रयर्माण कर्मलभ कहते हैं वक्रयर्माण कर्मलभ से जो कर्मालभशय बनते ह। ईनर्में से करछ
कर्मालभशय प्रारब्ध कर्मालभशयों के साथ वर्मल जाते हैं, वे प्रारब्ध रूप बन जाते हैं करछ कर्मालभशय वित्त की
वनिली वर र्म पर िले जाते हैं और संवित कर्मालभशयों के साथ वर्मलकर संवित कर्मालभशय बन जाते हैं क ी-
क ी संवित कर्मालभशय ी ऄपने वकसी जगाने वाले का सावन्य पाकर वनिली वर र्म से उपर अकर

तत्त्वज्ञान 111
प्रारब्ध कर्मालभशयों के साथ वर्मल जाते हैं वनिली वर र्म पर जो कर्मालभशय रहते हैं, वे कर्मालभशय सोये हुए रहते
हैं र्मनष्र य आन कर्मालभशयों को आस जन्र्म र्में नहीं ोगता, बवकक ऄगले जन्र्मों र्में ोगता ह।
र्मृत्यर के सर्मय प्रारब्ध कर्मालभशय परर े वेग के साथ जाग जाते हैं तथा ऄपने सर्मान ही ईन कर्मालभशयों को
ी जगा देते हैं, जो सवं ित कर्मालभशयों र्में सषर प्र तावथथा र्में होते हैं विर आन सब जागे हुए सथं कारों के ऄनसर ार
ही ऄगला जन्र्म देवता, र्मनष्र य, पश-र पक्षी अवद योवन र्में होता ह।, वजससे ईन जागे हुए कर्मालभशयों को ोगा
जा सके ईन्हीं कर्मालभशयों के ऄनसर ार (जागे हुए सथं कारों काद ईनका ोग वनवश्ित होता ह। तावक जागे हुए
सथं कार ऄगले जन्र्म र्में ोगे जा सके ऄगले जन्र्म के वलए र्मृत्यर के सर्मय ही शरीर, अयर और ोग
वनवश्ित हो जाता ह। आस ऄवथथा र्में जो कर्मालभशय नहीं जाग पाते हैं ऄथालभत् सषर प्र तावथथा र्में रहते हैं, ईनका
िल ऄ ी वनवश्ित नहीं हुअ ह। ऐसे कर्मालभशय ऄगले जन्र्म र्में नहीं ोगे जा सकें गे, ‍योंवक ईनका िल
ऄ ी र्मृत्यर के सर्मय वनवश्ित नहीं हुअ ह।
वित्त र्में संथकार जन्र्म-जन्र्मान्तरों से संवित होते अ रहे हैं जब तक ऄववद्या अवद ‍लेश रूपी जड़
वित्त र्में ववद्यर्मान रहती हैं, तब तक कर्मालभशयों का ढेर वित्त र्में बना रहता ह। आन कर्मालभशयों से शरीर, अयर
और ोग रूपी िल प्राप्त होता रहेगा आन संथकारों की जड़ ऄववद्या ही ह।, र्मगर जब योगी ऄभ्यास के
द्रारा वववेक-ख्यावत की प्रावप्त कर लेता ह।, तब वववेक-ख्यावत के द्रारा ऄववद्या, ‍लेश, सख र -दःर ख अवद
से वनवृत हो जाता ह। वजससे जन्र्म, अयर और ोग का थवाद थवयं सर्माप्त हो जाता ह।
सवं ित कर्मालभशय वित्त की वनिली वर र्म पर प्रारब्ध कर्मालभशयों द्रारा दबे पड़े रहते हैं ये प्रारब्ध
कर्मालभशय संवित कर्मालभशयों के ववरोधी होते हैं, ‍योंवक प्रारब्ध कर्मालभशय वित्त की उपरी सतह पर प्रधान
रूप से रहते हैं, आसवलए ये कर्मालभशय शव‍तशाली होते हैं र्मगर संवित कर्मालभशय सषर प्र तावथथा र्में सक्ष्र र्म रूप
र्में दबे रहते हैं, आसवलए ये शव‍तशाली नहीं होते साधक जब ऄभ्यास के द्रारा ईच्ितर ऄवथथा र्में
पहुिाँ ता ह।, तब प्रारब्ध कर्मालभशय ऄवरोधक के रूप र्में उपर रहते हैं सर्मावध के र्मा्यर्म से यह ऄवरोध
हटाकर एक ओर कर वदया जाता ह।, वजससे वित्त की वनिली सतह पर सषर प्र तावथथा वाले संवित कर्मलभ
जागकर उपरी वर र्म पर अ जाते हैं और प्रधान रूप धारण कर लेते हैं विर ोग का कायलभ शरू र कर देते हैं
यह सब कर्मालभशय साधक के वलए ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय होते हैं आन कर्मालभशयों को ोगना अवश्यक होता
ह। आस प्रकार योगी के वित्त र्में संवित कर्मालभशय नहीं रह जाते स ी कर्मालभशय प्रधान बनकर ोग कायलभ शरू र
कर देते हैं यवद वनिली वर र्म वाले कर्मालभशय ऄत्यन्त पाप से यक्त र हैं, जब ऐसे कर्मालभशय प्रारब्ध कर्मालभशय
बन जाते हैं, तब साधक ऄपने कर्मालभशयों के कारण ऄधर्मी बन जाता ह। र्मगर ये कर्मालभशय ोग लेने के

तत्त्वज्ञान 112
बाद विर ऄपने र्मागलभ पर अ जाते हैं आसवलए क ी-क ी देखा गया ह। वक ईच्ि श्रेणी का साधक ी
क ी-क ी ऄधर्मलभ वाले कायलभ करने लगता ह।, ऐसा ईसके पवर लभजन्र्मों के कर्मालभशयों के कारण होता ह।
साधक को जब वववेक-ख्यावत के द्रारा वित्त और अत्र्मा की व न्नता का ज्ञान होता ह।, तब
वववेक-ख्यावत की पररप‍व ऄवथथा पर धर्मलभर्मेघ सर्मावध लगती ह। धर्मलभर्मेघ सर्मावध से ऄववद्या, ‍लेश,
सकार्म कर्मों की तथा ईनकी वासनाएाँ र्मल र सवहत नष्ट हो जाती हैं आस प्रकार ऄववद्या, ‍लेश और सकार्म
कर्मों के ऄ ाव र्में साधक जन्र्म-र्मृत्यर के अवागर्मन से र्म‍र त होकर आस लोक र्में नहीं रहता ह। तथा पनर ः
थथल र शरीर धारण नहीं करता ऄथालभत् थथल र शरीर त्यागने के पश्िात आस लोक र्में नहीं अता ह। रजोगणर व
तर्मोगणर यक्त
र ‍लेश कर्मों की सर्मावप्त पर वित्त र्में वथथत र्मलों का अवरण पणर लभ रूप से सर्माप्त हो जाता ह।,
आससे वित्त परर ी तरह से थवच्छ हो जाता ह। वित्त पर जो िेतन का प्रवतवबम्ब (ज्ञान-थवरूप प्रकाशद पड़
रहा ह।, वही ज्ञान-थवरूप प्रकाश ऄनन्त हो जाता ह। तथा ज्ञेय पदाथलभ (जड़ पदाथलभद ऄकप हो जाता ह।, विर
जानने यो‍य करछ ी नहीं रह जाता ह। यही ऄनन्त ज्ञान-थवरूप प्रकाश प्रकृ वत के दोषों को वदखलाने
लगता ह।, विर सकार्म कर्मलभ की वासनाएाँ र्मल र सवहत नष्ट हो जाती हैं ऄब यह कहा जा सकता ह। वक
योगी ी क ी-क ी साधारण र्मनष्र यों की ााँवत कर्मलभ करते देखें गये हैं यह सि ह। वक योगी की सकार्म
कर्मलभ वासनाएाँ सर्माप्त होने के बाद ी योगी कर्मलभ करते देखे गये हैं र्मगर िकलभ यह होता ह। वक साधारण
र्मनष्र य जब कर्मलभ करता ह। तो ईसका कर्मलभ वासनाओ ं (िलद से यक्त र होता ह। र्मगर योगी जब कर्मलभ करता ह।
तो बाहर से साधारण र्मनष्र यों की ााँवत कर्मलभ करते वदखाइ देता ह।, र्मगर ईसके द्रारा वकया गया कर्मलभ
वासनाओ ं से रवहत ऄथालभत् वनष्कार्म कर्मलभ होता ह।, ‍योंवक ईसने ऄववद्या अवद को र्मल र से ईखाड़ कर िें क
वदया ह। ऐसे वनष्कार्म कर्मलभ करने वाले के कर्मालभशय नहीं बनते हैं जो योगी जीवन र्म‍र त हो गया ह। वह
ऄपना कर्मलभ कतलभव्य र्मार सर्मझकर करता ह। स ी प्रकार के कर्मों से वनवृवत्त के बाद (ऄववद्या और
‍लेशात्र्मक कर्मों के बादद गणर ऄपना पररणार्म क्रर्म सर्माप्त कर देते हैं, विर ईस योगी के वलए गणर प्रवृत्त
नहीं होते बवकक ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं यही क। वकय ह।
र्मनष्र य को वही कर्मलभ करने िावहए जो शासरों् द्रारा बताऐ गये हैं शाथरों के द्रारा बताऐ गये कर्मों को
करने से र्मनष्र य जावत का ईत्थान होता ह। शाथरों र्में र्मनष्र य के कतलभव्यों के ववषय र्में ववथतार से वलखा गया
ह। यह सब आसवलए वलखा गया ह। वक र्मनष्र य जावत का ईत्थान हो सके तथा र्मनष्र य इश्वर की प्रावप्त कर
सके व ऄपने वाथतववक थवरूप की पहिान कर सके साधारण र्मनष्र यों को ऄववद्या से यक्त र कर्मों के
ववषय र्में सही ज्ञान न होने के कारण ईसके द्रारा वकए गये कर्मों से ज्यादातर पतन का र्मागलभ ही प्रशथत होता

तत्त्वज्ञान 113
ह। और जब आन कर्मों का िल ोगना पड़ता ह।, तब र्मनष्र य ऄपने ा‍य ऄथवा इश्वर को दोष देने लगता
ह। वह सोिता ह। वक र्मेरे ा‍य र्में इश्वर ने दःर ख ही दःर ख वलख वदए हैं, जबवक ये दःर ख थवयं ईसी के कर्मों
का िल हैं परन्तर ऄज्ञानता वश वह आस बात को र्मानने को त।यार नहीं होता ह। आसवलए शाथर र्मनष्र यों को
ईसके कतलभव्यों के ववषय र्में वशक्षा देते हैं, वजससे ईनका पतन नहीं बवकक ईत्थान का र्मागलभ प्रशथत हो
गीता र्में कइ जगह ऄलग-ऄलग सक्ष ं ेप र्में कर्मों के ववषय र्में सर्मझाया ह। एक जगह गवान् श्री
कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– “तमु क्षलत्रय हो अतुः तम्ु हें यि ु करना चालहए, क्योंलक इस वक्त यही तम्ु हारा
धमथ है। यलद तमु यि ु क्षेत्र से भागोगे तो पाप के भागी हो जाओगे”।
यहााँ पर गवान् श्री कृ ष्ण थवयं ऄजलभनर को यिर करने के वलए प्रेररत कर रहे हैं तथा यह ी कह रहे
हैं वक यह तम्र हारा धर्मलभ ह। ऄथालभत् यि
र करना ी क ी-क ी योिाओ ं के वलए थवधर्मलभ हो जाता ह। जबवक
हर्म स ी जानते हैं वक जहााँ तक सम् व हो सके यि र से बिना िावहए, ‍योंवक यि र का पररणार्म स ी को
ज्ञात ह। जब क ी-क ी यि र ी थवधर्मलभ हो जाता ह। तब ऄन्य कर्मों के ववषय र्में क। से जाना जा सकता ह।
वक ऄर्मक र कर्मलभ करना कब ईवित ह। ऄथवा कब ऄनवर ित आसवलए हर्म स ी को कर्मलभ करने के ववषय र्में
ज्ञान होना जरूरी ह। गवान् श्री कृ ष्ण हर्में शाथर के ऄनसर ार कर्मलभ करने की अज्ञा देते हैं वबना वकसी
ऄतीवन्िय ज्ञान के यह नहीं बताया जा सकता ह। वक ऄर्मक र जावत र्में जन्र्म से पवर लभ कौन से कर्मों का िल ह।
और यह ी नहीं कहा जा सकता ह। वक आस जन्र्म र्में वकस प्रकार के कर्मलभ करने से पवर लभ जन्र्म र्में वकए कर्मों
के दष्र पररणार्म से बि सकते हैं
गीता र्में यह ी कहा गया ह। वक कर्मलभ करते सर्मय हर्में अत्र्मा के शि
र थवरूप का ज्ञान होना िावहए
ऄथालभत् आस बात का ज्ञान होना िावहए वक अत्र्मा हर्मारे शरीर, र्मन व आवन्ियों अवद से व न्न ह। हर्में यह
नहीं ल र ना िावहए वक सारे कर्मलभ र्मन, आवन्ियों व शरीर के द्रारा वकए जाते हैं, र्मगर ऄज्ञानी र्मनष्र य यह
सर्मझता ह। वक अत्र्मा ही सारे कर्मलभ करवाता ह। आस ऄज्ञान का कारण ऄहक ं ार ह।, आसवलए र्मनष्र य को
िावहए वक वह ऄहक ं ार का त्याग करने का प्रयास करे कर्मलभ करते सर्मय वकसी प्रकार की असव‍त नहीं
होनी िावहए और न ही कतालभपन का ऄव र्मान होना िावहए साधारणतया जो र्मनष्र य ऄवधक ईत्साही
होता ह।, ईसके कर्मलभ र्में ऄवधक असव‍त देखी जाती ह। र्मगर असव‍त और कार्मना ईसके कायलभ के िल
की प्रावप्त र्में सहायक होने की बजाय बाधक वसि होते हैं
जो र्मनष्र य कर्मलभ र्मार को थवरूप से छोड़ने के पक्ष र्में हैं, ईनका कहना होता ह। वक प्रत्येक कर्मलभ बन्धन
का कारण होता ह। आसवलए कर्मलभ को त्याग वदया जाए, ‍योंवक जब कर्मलभ ही नहीं वकया जाएगा तो िल ी

तत्त्वज्ञान 114
नहीं ोगना पड़ेगा आसवलए वे कर्मलभ को छोड़ने के पक्षपाती ह। परन्तर गीता र्में कहा गया ह। वक कर्मलभ का
सवलभथा त्याग सम् व नहीं ह।, ‍योंवक सवलभथा वनश्चेि हो जाने से जीवन ी ऄसम् व हो जाएगा आसके
ऄलावा कर्मलभ के त्याग से कोइ ी र्मनष्र य कर्मलभ िल से र्म‍र त नहीं हो सकता ह। यवद ोजन करना छोड़
वदया जाए तो ईसका र्मन ोजन के विंतन र्में लगा रहेगा यह विन्तन ी एक कर्मलभ ही हो जाएगा वजसका
िल ईसे ऄवश्य वर्मलेगा ऄथालभत् र्मनष्र य को ईसके कर्मों का िल तो ोगना ही पड़ता ह। शास्त्रोक्त पिवत
से वकए गये कर्मलभ से ऄन्त:करण शि र हो जाता ह। जब धीरे -धीरे ऄभ्यास के द्रारा ऄन्तः करण पणर लभ रुप से
शि र हो जाता ह।, तब आस प्रकार वकए गये कर्मों का िल र्मनष्र य को नहीं ोगना पड़ता, बवकक आस प्रकार
के कर्मलभ हर्में वपछले कर्मलभ के बन्धन से ी र्म‍र त कर देते हैं ऄथालभत् शाथरों के ऄनसर ार कर्मलभ करना िावहए
असव‍त व िल की आच्छा को त्याग कर कर्मलभ करना िावहए तथा कर्मलभ करते सर्मय सद।व याद रखना
िावहए वक कर्मलभ शरीर, आवन्ियों व र्मन द्रारा ही वकए जा रहे हैं, परन्तर अत्र्मा का आससे करछ लेना देना नहीं
ह।
र्मनष्र य के जीवन र्में ईत्थान और पतन ईसके कर्मालभनसर ार ही होता ह। प्रारब्ध और संवित कर्मलभ वह
ऄपने जन्र्म ्र हण करने से पवर लभ ही लेकर अता ह। करछ र्मनष्र य ा‍य को र्महत्व देते हैं, ऐसे र्मनष्र यों के
जीवन र्में प्रारब्ध कर्मों का र्महत्व होता ह। करछ र्मनष्र य ा‍य को वबककरल र्महत्व नहीं देते, बवकक थवयं
ऄपने कर्मों पर ववश्वास करते हैं ऐसे थव ाव वाले र्मनष्र य ऄवधक पररश्रर्मशील होते हैं दोनों प्रकार के
र्मनष्र यों को प्रारब्ध तो ोगना ही होता ह।, र्मगर ईनके सोिने का ढंग व न्न-व न्न प्रकार का होता ह। करछ
र्मनष्र यों को थोड़े से पररश्रर्म से ही ईन्नवत कर लेते हैं, र्मगर करछ ऐसे ी हैं वजन्हें पररश्रर्म के ऄनसर ार िल
की प्रावप्त नहीं होती ह।, आसका कारण प्रारब्ध कर्मलभ ही हैं र्मनष्र य के जीवन र्में प्रारब्ध सद।व प्र ाववत करता
रहता ह।, आसवलए स ी को सद।व ऄच्छे कर्मलभ करने िावहए वजसके िल थवरूप र्मनष्र य को ववष्य र्में
प्रारब्ध के द्रारा सिलता वर्मलती रहे
साधकों! ले ही अप ऄपने लक्ष्य को प्राप्त करने के वलए कठोर पररश्रर्म कर रहे हों, र्मगर अपके
प्रारब्ध कर्मलभ तर्मोगणर ी हैं आसवलए यह कर्मलभ सद।व अपके र्मागलभ र्में वकसी-न-वकसी रूप र्में ऄवरोध डालते
रहेंगे ऄब प्रश्न ईठता ह। वक लक्ष्य क। से प्राप्त वकया जाए? सर्माधान- प्रकृ वत का वसिान्त ह। वक प्रारब्ध
नष्ट नहीं वकया जा सकता ह। संवित कर्मों को योगाव‍न के द्रारा जलाया जा सकता ह। परन्तर प्रारब्ध
ोगना ही होगा, ‍योंवक जन्र्म ्र हण करने से पवर लभ ही प्रारब्ध कर्मों का ोग वनवश्ित हो जाता ह। ऐसी
ऄवथथा र्में साधकों के वलए र्मेरी व्यव‍तगत राय ह। वक ऄगर अप र्महान बनना िाहते हैं तो ऄवश्य बन

तत्त्वज्ञान 115
सकते हैं, अपको कोइ रोक नहीं पायेगा परन्तर पहले अप वकसी श्रेष्ठ र्महापरू र ष के वशष्य बने, वजसने
इश्वर का साक्षात्कार वकया हो, ‍योंवक ऐसा र्महापरू र ष ही योग का सही र्मागलभदशलभन कर सकता ह। गरू र
वसिलभ र्मागलभदशलभक होता ह।, र्मगर र्मागलभ अपको थवयं ऄभ्यास के द्रारा तय करना होगा विर अप ऄपनी
वशक्षा, सम्र्मान और ऄहक ं ार को एक ओर िें क दीवजए अप पणर लभ रूप से ऄपने शरीर, सांसाररक पदाथों
व ईनसे बनी वथतओ र ं से असव‍त को त्याग दीवजए अपका वसिलभ एक ही लक्ष्य इश्वर प्रावप्त का होना
िावहए सम्र्मान और थतवर त से सद।व दरर रहें अपके हर श्वााँस र्में इश्वर के नार्म का थर्मरण होना िावहए
विर कर्मलभ से कहो वक र्मझर े अगे बढ़ने का र्मागलभ दे दो, नहीं तो तम्र हें नीबर की तरह वनिोड़ कर रख दगाँर ा
कठोरता के साथ प्राणायार्म करो, र्मंर वसि करो तथा वसि र्मंरों का प्रहार वित्त पर वथथत कर्मों पर करों
ऐसे कायों के वलए “ॎ मत्रुं ”, ‚कुण्डदलनी मुंत्र” तथा “शद‍त मुंत्र” ऄवधक ईवित होंगे, ‍योंवक आन
र्मंरों से शव‍तयााँ वनकलती हैं जब वसि र्मंरों का प्रयोग साधक ऄपने वित्त पर वथथत कर्मालभशयों पर करे गा,
तब आन कर्मों के द्रारा वनश्िय ही सक्ष्र र्म गन्दगी (तर्मोगणर द वनकलेगी, परन्तर यह गन्दगी ऄन्य सक्ष्र र्म लोकों
को प्र ाववत करे गी, तब साधक के सार्मने एक सर्मथया अ जाएगी वक सक्ष्र र्म शव‍तयााँ व वसि परू र ष
साधक को ऐसा करने र्में र्मना करें गे तब ईनसे कवहए वक र्मेरा ईदेश्य वसिलभ इश्वर प्रावप्त का ह।, अपको
कष्ट देना नहीं, आसवलए हर्में र्माि करें हो सकता ह। ऐसी ऄवथथा र्में साधक को दण्ड ी वर्मले , परन्तर
क ी ी कष्टों से न डरो यवद कष्ट अ ी जाएाँ तो ईनका थवागत करो और ईनसे कहो- हे कष्टों! र्मैं
तम्र हें थवीकार करता हाँ साधकों सद।व ्यान रखें वक वजस सर्मय कष्ट ोग रहे हों, ईस सर्मय ी इश्वर का
वितं न करना (र्मंर-जापद न छोड़ें यवद र्मृत्यर ी सार्मने अ जाए तो ईससे कहो, ‘र्मैं िलने को त।यार ह’ाँ ,
अप ले िवलए क ी ी र्मृत्यर से न डरो ववष्य र्में एक सर्मय ऐसा ी अएगा जब र्मृत्यर ी अपके
सार्मने घटर ने टेक देगी आतनी कठोर साधना करो वक कष्टों की ऄनर वर त न होने पाये वकसी के द्रारा वर्मली
वनन्दा व ऄपर्मान का प्र ाव ही तर्मर पर न पड़े, सख र -सवर वधा और कीवतलभ से सद।व दरर रहो हर्मारे शाथर
गवाह हैं वक कठोर साधना के द्रारा प्रकृ वत को ी पराथत वकया जा सकता ह। तथा इश्वर की प्रावप्त की जा
सकती ह। अप ऄच्छे साधक बवनए तथा इश्वर की प्रावप्त कीवजए जब तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता ह। तब
आस ससं ार का थवरूप वदखाइ नहीं देता ह।, बवकक सवलभर ब्रह्माण्ड ही ववद्यर्मान हुअ वदखाइ देता ह। जब
ब्रह्म की प्रावप्त हो जाए तब आस संसार को ऄपना थवरूप सर्मझकर ऄपना लीवजए, ‍योंवक संसार र्में
वजतने शरीर ाषर्मान हो रहे हैं, वह स ी अपके ही थवरूप हैं
जब साधक आस र्मागलभ को ऄपनायेगा तब करछ सर्मय बाद वनश्िय ही ईसकी वनन्दा होनी शरू र हो
जाएगी तथा सर्माज के ऄधर्मी थव ाव के र्मनष्र य वनन्दा, ऄपर्मान व कष्ट देकर साधक का र्मागलभ ऄवरोध

तत्त्वज्ञान 116
करने का प्रयास करें गे ऐसा अवद काल से होता िला अया ह। साधक के साथ नयापन करछ ी नहीं ह।,
‍योंवक देववृवत्त व असरर ी वृवत्त अपस र्में एक दसर रे की ववरोधी होती ह। एक सत्त्वगणर ी ह। तो दसर री
तर्मोगणर ी ह। एक ज्ञान रूपी प्रकाश से यक्त र ह। तो दसर रा ऄववद्या रूपी ऄंधकार से यक्त र ह। र्मगर साधक को
असरर ी वृवत्त वाले र्मनष्र य से सद।व ला वर्मलेगा, ‍योंवक ये लोग साधक के पाप कर्मों को नष्ट करके अगे
का र्मागलभ प्रशथत कर देते हैं वतलभर्मान सर्मय र्में देखा होगा वक ऄधर्मी र्मनष्र य सख
र ी होता ह। तथा जो धर्मलभ के
र्मागलभ पर िलते हैं, ईनके वलए वकसी-न-वकसी प्रकार से ऄवरोध खड़े वकए जाते हैं परन्तर ऄधर्मी र्मनष्र य
का सख र क्षवणक होता ह। तथा वित्त र्मवलन होने के कारण वह वकसी-न-वकसी दःर ख से दःर खी रहता ह। ऐसा
वसिलभ ावसत होता ह। वक ऄर्मक र व्यव‍त सख र ी ह।, परन्तर वाथतव र्में ऐसा होता नहीं ह। धर्मलभ के र्मागलभ पर
िलने वाले र्मनष्र यों को कष्ट ले ही वर्मले परन्तर ऄन्त र्में इश्वरीय अनन्द ऄथालभत् परर्म् शांवत की ऄनर वर त
करता ह। साधकों! शरर और वर्मर र्में कोइ ऄंतर नहीं होता ह। दोनों ऄपनी-ऄपनी जगह पर ऄच्छे हैं,
आसवलए आन्हें सद।व सर्म ाव से देखते रहो ऐसा हो सकता ह। वक वर्मर र्में क ी थवाथलभ अ ी जाए, परन्तर
शरर थवाथी नहीं होता ह। वह सद।व कवर्मयााँ बताता रहेगा ईन कवर्मयों को देखो, सर्मझो और सल र झाओ ं
ऄथवा आनसे परे हो जाओ शरओ र ं के ववषय र्में ऐसा आसवलए वलखा ‍योंवक साधक का कोइ शरर नहीं
होता ह। ऄगर कोइ शरतर ापणर लभ व्यवहार करता ी ह। तो साधक को ईसके साथ वर्मरता पणर लभ व्यवहार करना
िावहए र्मैं ऄपनी ऄनर वर त के ऄनसर ार यह बताना िाहता हाँ वक यहााँ न कोइ शरर ह। और न ही कोइ वर्मर
ह। न कोइ ऄपना ह। और न कोइ पराया ह। र्मनष्र य के वित्त पर वथथत कर्मालभशयों के ऄनसर ार ही प्रकृ वत व
प्रकृ वत से बने पदाथलभ प्राप्त होते हैं ऄभ्यास के द्रारा सम्पणर लभ वृवत्तयों का वनरोध करना ह। विर ससं ार
ईपवथथत नहीं होगा जब तक थथल र शरीर रहेगा तब तक ससं ार ावसत होता रहेगा

तत्त्वज्ञान 117
कुण्डदलनी
र्मैंने करण्डवलनी के ववषय र्में ऄपनी वपछली पथर तक ‘सहज ध्यान योग’ र्में कािी करछ वलखा हुअ
ह। आसवलए यहााँ पर आस ववषय र्में लेख वलखने की अवश्यकता र्महससर नहीं हो रही ह। परन्तर करछ
वजज्ञासओर ं की आच्छा ह। वक आस पथर तक र्में ी करण्डवलनी पर लेख वलखाँ,र आसवलए करछ शब्द वलख रहा हाँ
सबसे पहले र्मैं यह बता दाँर वक करछ लोग करण्डवलनी के ववषय र्में वबककरल ी नहीं जानते हैं ऐसे ऄनव ज्ञ
लोग करण्डवलनी के ववषय र्में ईकटे-सीधे शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं र्मैं ऐसे ऄज्ञावनयों को बताना
िााँहगा वक करण्डवलनी शव‍त के वबना इश्वर की प्रावप्त ऄथवा तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता यवद ऐसे
ऄज्ञावनयों को इश्वर की प्रावप्त करनी ह। ऄथवा ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत होना ह।, तो ईन्हें करण्डवलनी के
ववषय र्में ऄपनी सोि बदलनी होगी करण्डवलनी जा्र त करके ई्वलभ वकए वबना ईन्हें ऄपना लक्ष्य प्राप्त
नहीं होगा ऄथालभत् इश्वर की प्रावप्त नहीं होगी हर्मने सन् 1992 र्में वदव्य दृवष्ट से देखा था वक ारत के
करछ प्रवसि गायक जब तन्र्मय होकर गाना गाते थे, (ज्यादातर अलाप के सर्मयद तब ईनकी करण्डवलनी
ई्वलभ होकर नाव िक्र तक अ जाती थी ईन गायकों को यह र्मालर्मर ही नहीं होता था वक ईनके ऄन्दर
करण्डवलनी जा्र त हो जाती ह।, ‍योंवक ईनका व्यव‍तगत रूप से करण्डवलनी शव‍त से करछ लेना देना नहीं
होता ह। हर्में एक ऄनर व याद अ रहा ह। वक हर्में एक ववदेशी परू र ष कइ बार वदखाइ वदया करता था, वह
शायद व।ज्ञावनक होगा हर्में ऐसा लगा वक जब वह गहराइ से सोिता ऄथालभत् शोध करता था, ईस व‍त
ईसकी करण्डवलनी अाँखें खोल देती थी, विर करछ क्षणों बाद अाँखें बन्द कर लेती थी र्मैं आस परू र ष को
नहीं जानता था वह कौन ह।? आस जगह पर दो ईदाहरण आसवलए वलखे ‍योंवक न तो वे परू र ष योगी थे तथा
न ही ईनका करण्डवलनी से करछ लेना देना था, विर ी आनकी करण्डवलनी जा्र त थी करछ साधक
करण्डवलनी जा्र त करने के वलए व न्न-व न्न तरीकों को ऄपनाते रहते हैं, परन्तर ईनकी करण्डवलनी जा्र त
नहीं होती ह। आसका कारण ह।– सही र्मागलभदशलभन का न होना तथा ईनका संयर्म व एका्र ता र्में कर्मी का
होना
करण्डवलनी को ऄपशब्द कहने वालों से र्मैं पछ
र ता ह,ाँ ‍या वह रार्म और कृ ष्ण अवद से ी श्रेष्ठ हैं?
ईनकी ी करण्डवलनी आनके गरू र ने जा्र त करके ई्वलभ की थी तथा करण्डवलनी के ववषय र्में सर्मझाया ी
था यहााँ पर र्मैं एक रहथय खोल रहा हाँ वजससे अलोिकों को सन्तष्र ट हो जाना िावहए करण्डवलनी के
वबना प्राणी करछ ी नहीं कर सकता ह। प्रत्येक प्राणी प्राण के द्रारा ही जीववत रहता ह। तथा प्राण तत्त्व के
वबना थवयं ईसका कोइ ऄवथतत्व ी नहीं ह। प्राण तत्त्व के द्रारा सारी सृवष्ट की (ऄपरा-प्रकृ वत कीद रिना

तत्त्वज्ञान 118
होती ह। यह सृवष्ट अकाश तत्त्व र्में ववद्यर्मान रहती ह। ऄथालभत् अकाश तत्त्व ही आस सृवष्ट का ऄवधष्ठाता
ह। प्राण तत्त्व र्में जो शव‍त होती ह।, वह करण्डवलनी की ही शव‍त ह। आसी शव‍त के द्रारा र्मन के संककप र्में
शव‍त अती ह।, नावड़यों र्में शव‍त से रक्त का प्रवाह होता ह। तथा वित्त र्में प्राणों का थपन्दन होता ह। आसी
थपन्दन शव‍त से प्राणी के सर्मथत ऄंग कायलभ करते हैं, आसवलए करण्डवलनी को शव‍त थवरूपा कहते हैं
प्राण तत्त्व ऄव व्यन्जक शव‍त ह। करण्डवलनी शव‍त ही सर्मथत ब्रह्माण्ड र्में व्याप्त होकर व्यववथथत वक्रया
व संिालन करती ह। शरीर रूपी वपण्ड के र्मल र ाधार र्में वशववलंग पर साढ़े तीन ि‍कर लपेटे हुए
करण्डवलनी शव‍त रूप से ववद्यर्मान रहती ह। रेतायगर र्में ऄवतारी परू र ष श्री रार्म जी की करण्डवलनी ईनके
गरूर देव ववशि जी ने जा्र त की थी तथा करण्डवलनी के ववषय र्में सर्मझाया था श्री रार्म के परर लव-करश
की करण्डवलनी ईनके गरू र र्महवषलभ वाकर्मीवक जी ने जा्र त की थी करण्डवलनी जा्र त होते सर्मय लव-करश ने
वाकर्मीवक जी से पछर ा, ‚गरू र देव, करण्डवलनी के ववषय र्में कृ पा करके हर्में सर्मझाएं तथा आसका जा्र त होना
‍यों अवश्यक ह।‛ विर वाकर्मीवक जी ने करण्डवलनी के ववषय र्में ववथतार र्में सर्मझाया और कहा,
‚वजसकी करण्डवलनी जा्र त नहीं होती ह।, वह वदव्यास्त्रों को धारण नहीं कर सकता ह।, आसवलए तर्मर दोनों
का वदव्यास्त्रों से यक्त
र होना अवश्यक ह।‛ श्री कृ ष्ण की करण्डवलनी ईनके गरू र देव सन्दीपवन जी ने जा्र त
की थी हनर्मर ान जी की करण्डवलनी ईनके वपता पवन देव ने जा्र त की थी श्री रार्म जी के गरू र देव श्री
ववशि जी की करण्डवलनी ब्रह्मा जी ने जा्र त की थी र्मेरी करण्डवलनी र्मेरे गरू र देव श्री र्माता जी ने जा्र त
नहीं की थी, बवकक हर्मारे पवर लभजन्र्म के वपताश्री ने जा्र त की थी ईन्हें हर्मारी करण्डवलनी जा्र त करने के
वलए तपलोक से ल र ोक पर हर्मारे पास अना पड़ा था वतलभर्मान सर्मय र्में वे तपलोक र्में सर्मावध लगाए हुए
हैं रहथय की बात यह ह। वक पवर लभकाल र्में वदव्याथर धारण करने वाले की करण्डवलनी ई्वलभ होती थी िाहे
कोइ राक्षस वृवत्त वाला हो ईसकी ी करण्डवलनी ई्वलभ होती थी तथा के वल वही वदव्यास्त्रों को धारण कर
सकता था वजसकी करण्डवलनी जा्र त नहीं होती थी वह वदव्यास्त्रों को धारण नहीं कर सकता था पहले
करण्डवलनी जा्र त करते थे तत्पश्िात् वदव्याथर प्राप्त करने की यो‍यता अती थी आसवलए वदव्याथर
प्रावप्त के वलए कठोर साधना करनी पड़ती थी, विर जब वदव्याथर का देवता प्रसन्न हो जाता था त ी
वदव्याथर वर्मलना सम् व होता था आसी कारण करण्डवलनी को शव‍तथवरूपा कहते हैं ईसके वबना
ब्रह्माण्ड र्में वकसी प्रकार का कंपन ी नहीं हो सकता ह। आसी को धारण करने पर वशव को सवलभशव‍तर्मान
कहा जाता ह।
साधक की करण्डवलनी के वल वही जा्र त कर सकता ह। वजसकी थवयं की करण्डवलनी जा्र त हो,
‍योंवक करण्डवलनी की शव‍त ही करण्डवलनी को जा्र त कर सकती ह। र्मैंने पहले ी वलखा ह। वक करछ

तत्त्वज्ञान 119
प्रवसि गायकों की करण्डवलनी ऄपने अप जा्र त हो िक र ी ह। हााँ, यह सि ह। वक ईन्होंने गायन का आतना
ऄभ्यास वकया वक ईनकी एका्र ता व ऄभ्यास के कारण करण्डवलनी शव‍त ऄपने अप जा्र त हो गइ
ऄगर कोइ साधक संयर्म व ध।यलभ से ब्रह्मवनष्ठ होकर कठोर ऄभ्यास करे तो करण्डवलनी जा्र त हो जाएगी
परन्तर आससे करण्डवलनी थोड़ा-सा ही ई्वलभ होगी आसवलए ईवित यही ह। वक आसको वकसी ऄनर वी गरुर से
जा्र त करवाएं, ‍योंवक योग र्मागलभ र्में ढेर सारे ऄवरोध अते हैं आन ऄवरोधों को दरर करने के वलए सदग् रुर
का होना ऄवत अवश्यक ह। वबना गरू र के योग का ऄभ्यास करना सम् व नहीं ह। जब दो जन्र्म पवर लभ के
हर्मारे वपताश्री ने हर्मारी करण्डवलनी जा्र त की थी तब ईन्होंने कहा था, ‚तम्र हारी करण्डवलनी ऄब ई्वलभ की
जा िक र ी ह।, आसको वगरने र्मत देना ऄथालभत् सषर प्र तावथथा र्में र्मत जाने देना‛ ईन्होंने ऐसा आसवलए कहा,
‍योंवक पहले ी हर्मारी करण्डवलनी कइ बार जा्र त होकर सषर प्र तावथथा र्में जा िक र ी थी तब र्मैंने कइ बार
श्री र्माता जी (गरू
र देवद को पर वलखा, परन्तर वह थपष्ट ईत्तर नहीं देती थीं
करछ र्मनष्र यों की भ्रार्मक धारणा होती ह। वक करण्डवलनी जा्र त होकर नीिे न िली जाए नहीं तो
ईसके पररणार्म ऄच्छे नहीं होंगे र्मैं ऐसे ऄज्ञावनयों से कहना िााँहगा वक वह हर्में बताएं वक करण्डवलनी
वकस र्मागलभ से नीिे की ओर िली जाएगी? करण्डवलनी ि।तन्य थवरूपा ह। वह ऄपने र्मागलभ पर िलना थवयं
जानती ह।, ईसे कौन बताएगा वक वकस र्मागलभ पर िलना ह। बवर ि से रवहत पशओ र ं के बच्िे जन्र्म लेते ही
थतनपान करने लगते हैं, ईन्हें कौन बताता ह। वक थतनपान करो ओर आस प्रकार करो विर हर्म तो ईस
ि।तन्य थवरूपा की बात कर रहे हैं वजसके द्रारा साधक को इश्वर की प्रावप्त होती ह। आसवलए ऄज्ञानता
पणर लभ सोि र्मवथतष्क से त्याग देनी िावहए र्मैंने ऄपने जीवन र्में आन पवक्तयों को वलखें जाने तक छब्बीस
(26) साधकों की करण्डवलनी जा्र त की ह। र्मझर े क ी ऐसी जानकारी नहीं वर्मली वक करण्डवलनी वनम्न
र्मागलभ की ओर गर्मन कर सकती ह। हााँ, र्मैंने यह प्रयोग ऄवश्य वकया ह। र्मैंने करछ साधकों की करण्डवलनी
को िारों र्मागों पर िलने के वलए र्मजबरर वकया था ऄथालभत् बड़ी सावधानी से साधक पर गहरी दृवष्ट रखते
हुए करण्डवलनी को िौथे र्मागलभ पर कइ बार ले गया था विर सक्ष्र र्म जगत् की कइ शवक्तयों ने हर्में ऐसा करने
के वलए र्मना कर वदया तथा हर्में बताया गया वक करण्डवलनी को तीन र्मागों पर ही िलने दो, िौथे र्मागलभ पर
जाने के वलए र्मजबरर र्मत करो आस ववषय पर विर र्मैंने सन् 1995 र्में करण्डवलनी देवी से बात की तथा पछर ा
वक र्माता ‍या अप जा्र त होकर साधक के शरीर र्में वनम्न र्मागलभ की ओर गर्मन कर सकती हैं?, दसर रा–
िौथे र्मागलभ पर ले जाने के वलए हर्में सक्ष्र र्म जगत् के र्महापरू
र षों ने ‍यों र्मना वकया था? पहले प्रश्न को
सनर कर करण्डवलनी देवी के िेहरे के ाव थोड़े से बदल गये वह नीले प्रकाश से यक्त र ऄंतररक्ष र्में खड़ी हुइ
थी वह बोली– ‚परर , जो ऐसा कहते हैं, वह ऄज्ञानी परू र ष हैं र्मैं स ी प्रावणयों को र्मागलभ बताती ह,ाँ र्मझर े

तत्त्वज्ञान 120
कौन र्मागलभ बताएगा? िौथे र्मागलभ पर ले जाने के वलए तम्र हें र्मना वकया गया ह।, आसका कारण साधक की
सक्ष्र र्म ऄवथथा ह। नाव से सीधे ह्रदय तक र्मागलभ ले ही छोटा वदखाइ दे, परन्तर ऄवथथाओ ं र्में ारी ऄंतर
होता ह। ऄथालभत् नाव िक्र व ह्रदय (ऄनाहद िक्रद र्में जो ऄवथथा होती ह।, ईसर्में सक्ष्र र्मता का बहुत ज्यादा
ऄंतर ह। ‛
साधकों, यहााँ पर ह्रदय िक्र की बात नहीं की ह।, बवकक ह्रदय का तात्पयलभ ऄन्त:करण से ह। ह्रदय र्में
करण्डवलनी सबसे ऄन्त र्में अती ह।, जब यह ह्रदय िक्र, कण्ठ िक्र, अज्ञा िक्र, ब्रह्मरंर खोलकर ईकट
कर नीिे की ओर ईतर कर ह्रदय र्में अ जाती ह।
सर्मवष्ट सृवष्ट और व्यवष्ट सृवष्ट र्में करण्डवलनी सवलभव्यापक होकर ववद्यर्मान रहती ह। सर्मवष्ट सृवष्ट
की करण्डवलनी को र्महाकरण्डवलनी ी कहते हैं यह ऄव्य‍त रूप र्में रहती ह। व्यवष्ट सृवष्ट र्में प्रत्येक
प्रावणयों के ऄन्दर ववद्यर्मान करण्डवलनी र्महा करण्डवलनी का ऄंश र्मार ही ह। ऄव्य‍त करण्डवलनी जब
व्य‍त रूप र्में अती ह।, तब वेग ईत्पन्न होता ह। आस वेग से ववथिोट होता ह। वजसे ्ववन या नाद कहते हैं,
आसी नाद को ओकं ार कहते हैं नाद से प्रकाश ईत्पन्न होता ह। ओकं ार से बावन र्मारकाएं ईत्पन्न हुइ हैं
आनर्में से पिास र्मारकाएं ऄक्षर कही गइ हैं, आ‍यानवीं प्रकाश थवरूप ह। तथा बावनवी प्रकाश का प्रवाह
ह। आस करण्डवलनी शव‍त से यक्त र ि।तन्य र्मय जीव प्राण शव‍त को सगं वलए हुए थथल र शरीर का थवार्मी
होता ह। र्मनष्र य के शरीर र्में र्मख्र य रूप से सात िक्र होते हैं र्मलर ाधार से लेकर अज्ञािक्र तक कर्मल दलों
की संख्या पिास होती ह। ये पिास र्मारकाएं आस प्रकार हैं– मूलाधार िक्र पर िार र्मारकाएं,
स्वादधष्ठान िक्र पर छ: र्मारकाएं, नादभ िक्र पर दस र्मारकाएं, ह्रदय िक्र पर बारह र्मारकाएं, कण्ठ
िक्र पर सोलह र्मारकाएं, आज्ञा िक्र पर दो र्मारकाएं होती हैं तथा सहस्त्रार िक्र र्में एक हजार दल
कर्मल होता ह। सहथरार िक्र पर एक हजार दल कर्मल ऄथालभत् एक हजार र्मारकाएं होती हैं ऄगर हर्मसे
पछर ा जाए वक ‍या अपने आन कर्मल दलों की वगनती की ह।, तो र्मैं यही कहगाँ ा वक र्मैंने वगनती नहीं की ह।
स ी कर्मल दलों की वगनती की ी नहीं जा सकती ह। र्मैं आतना ऄवश्य कहगाँ ा वक यह कर्मल का िरल
बहुत बड़ा वदखाइ देता ह। तथा आसर्मे बहुत पख ं वर ड़यााँ (दलद होती हैं र्मैं ऄनर्मर ान के द्रारा कह सकता हाँ वक
यह सत्य ह। वक आसर्में एक हजार दल होते होंगे, ‍योंवक आसे र्मैंने कइ बार सर्मावध ऄवथथा र्में देखा था आस
कर्मल के उपर र्मैं थवयं िला हाँ तथा र्म्य र्में खड़े होकर िारों ओर देखा ह। आसके ववषय र्में बहुत ऄनर वर त
की ह। तथा ज्ञान ी प्राप्त हुअ ह। यह ज्ञान का अयतन ह। आसके उपर परर्म् वशव (सगणर ब्रह्मद तथा
ईनके साथ ईनकी परा शव‍त ववराजर्मान रहती ह। यह प्रकृ वत का क्षेर होता ह।

तत्त्वज्ञान 121
सहथरार िक्र ब्रह्मरन्र के ऄन्दर उपरी ाग र्में ऄवत सक्ष्र र्म रूप र्में ऄववकवसत रहता ह। आस िक्र
को स ी साधक जा्र त नहीं कर सकते हैं, ‍योंवक आस िक्र का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से होता ह। परा-
प्रकृ वत, इश्वर का लोक, इश्वर का वित्त, ऄव्य‍त प्रकृ वत अवद पयालभयवािी शब्द हैं सहथरार िक्र कइ
जन्र्मों तक योगाभ्यास करने के पश्िात जब अवखरी जन्र्म होता ह। तब ववकवसत होता ह। आसके ववकवसत
होने पर साधक को एक बार सगणर ब्रह्म (इश्वरद का दशलभन ऄवश्य होता ह। तथा तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती
ह। ऄन्त र्में साधक र्मोक्ष को प्राप्त होता ह। सहथरार िक्र ईसी का खल र ेगा वजसके वित्त र्में ऄभ्यास के
द्रारा ऄथालभत् सर्मावध के द्रारा वनर्मलभल ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय हो जाता ह। विर आसी ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा
वित्त पर वथथत ऄववद्या का नाश होने लगता ह।, तब यह सहथर-दल कर्मल खल र कर ववकवसत होता
वदखाइ देता ह। आसके ववकवसत होने का ऄथलभ होता ह। वक ईस साधक का यह अवखरी जन्र्म ह। , ‍योंवक
आस प्रज्ञा-लोक के ववकवसत होने पर जीव की ऄववद्या नष्ट हो जाती ह। ऄववद्या के नष्ट होने पर जगत् का
ऄवथतत्व ईस साधक के वलए नहीं रह जाता ह।, तब जीव ऄथालभत् विवतशव‍त ऄपने थवरूप र्में वथथत हो
जाती ह। जीव को जीवत्व की िेतना सहथरार िक्र से ऄनाहत िक्र र्में (ह्रदय र्मेंद अने पर होती ह।
सहथरार िक्र र्में ऄव्य‍त नाद ह।, वही अज्ञा िक्र र्में अकर व्य‍त रूप र्में हो जाता ह। ओकं ार से स ी
र्मारकाएं ईत्पन्न होती ह। ईनका ऄव्य‍त थवरूप सहथरार िक्र ही ह।
र्मनष्र य के शरीर र्में र्मख्र य रूप से सात िक्र होते हैं आनका वणलभन र्मैं ऄपनी वपछली पथर तक र्में कर
िक र ा हाँ सर्मावध ऄवथथा र्में र्मैंने कइ कर्मल (िक्रद ऐसे देखे हैं वजनका वणलभन र्मैं नहीं कर सकता हाँ
ब्रह्मरन्र के ऄन्दर कइ कर्मल ऄववकवसत देखे थे विर ऄभ्यास के द्रारा धीरे -धीरे आन बन्द िक्रों को
खोला था ये िक्र बन्द कर्मल कली के रूप र्में वदखाइ देते थे , विर धीरे -धीरे ववकवसत होकर खल र जाते
थे ये स ी कर्मल की कवलयााँ ऄधोर्मख र ी होती थी तथा ववकवसत होकर ई्वलभर्मख
र ी हो जाती थी यह
ऄववकवसत िक्र कािी सर्मय के ऄंतर पर वदखाइ देते थे र्मैं आनका वणलभन नहीं कर सकता हाँ र्मैं वसिलभ
आतना कह सकता हाँ वक जब करण्डवलनी पणर लभ यारा करके वथथत हो जाती ह।, तब वह र्मख्र य रूप से छः
िक्रों का ेदन करती ह। जब करण्डवलनी ब्रह्मरन्र खोलकर अज्ञा िक्र से होते हुए ह्रदय की ओर अती
ह।, ईस सर्मय तालर र्में वथथत िक्र को खोलती हुइ ह्रदय र्में ईतर अती ह। ह्रदय र्में ऄनाहत िक्र होता ह।
आन दोनों िक्रों की (तालर के िक्र व ऄनाहत िक्र कीद ऄनर वर त ी ववशेष प्रकार की होती ह। वजनकी
करण्डवलनी शांत व र्म्यर्म होती ह।, ऐसे साधकों की करण्डवलनी तालर र्में करछ सर्मय तक ठहरती ह।
ऄभ्यास के ऄनसर ार िक्र खल र ने र्में सर्मय लग जाता ह। वजनकी करण्डवलनी ई्र होती ह।, ईन साधकों को
थपष्ट ऄनर वर त होती ह। वक ज।से करण्डवलनी तालर को काटे डाल रही ह। विर नीिे की ओर ईतर अती ह।

तत्त्वज्ञान 122
वह ऄपना र्माँहर ह्रदय के ऄन्दर कर देती ह। तथा ऄपने र्माँहर से ऄव‍न तत्त्व ईगलने लगती ह।, वजससे कािी
र्मारा र्में तर्मोगणर ी कर्मलभ जल जाते हैं आस ऄवथथा र्में साधक के ह्रदय र्में हकका-सा ददलभ र्महससर होता ह।, ज।से
वक ईसके ह्रदय र्में थपन्दन कर्म हो रहा ह। ऄथवा प्राण वायर ठहर-सा गया ह। यह सब सक्ष्र र्म शरीर के
ऄन्तगलभत होता ह।, र्मगर ईसकी ऄनर वर त थथल र शरीर र्में होती ह।, ‍योंवक सक्ष्र र्म शरीर थथल
र शरीर के ऄन्दर
व्याप्त होता ह। आसवलए िक्र व करण्डवलनी अवद स ी सक्ष्र र्म शरीर के ऄन्तगलभत अते हैं, परन्तर आनकी
ऄनर वर त थथल र शरीर र्में होती ह।
एक र्महापरू
र ष ऐसे थे जो गरूर पद थे तथा ईनके सैंकड़ो वशष्य हैं ईन्होंने हर्मारे सार्मने कइ बार कहा
था– ‚लोग कहते हैं वक करण्डवलनी ई्वलभ होकर सहथरार िक्र र्में परर्म-वशव
् से जाकर वर्मलती ह।, परन्तर
ऐसा नहीं होता ह। करण्डवलनी ब्रह्मरन्र को खोलकर ईकट पड़ती ह। विर ह्रदय र्में अकर ठहर जाती ह।, यही
करण्डवलनी की पणर लभ यारा ह।‛
र्मैं आन र्महापरू
र ष का नार्म नहीं वलखना िाहता ह,ाँ ‍योंवक करछ सर्मय पवर लभ आन्होंने थथल र शरीर त्याग
वदया ह। र्मैं पाठकों को बताना िाहता हाँ वक यह सत्य ह। वक करण्डवलनी ई्वलभ होकर सहथरार िक्र र्में
जाकर परर्म-वशव ् से वर्मलती ह। परन्तर यह वकस प्रकार वर्मलती ह।, आसका वणलभन र्मैं कर रहा हाँ ज।सा वक र्मैं
ऄपनी वपछली पथर तक र्में वलख िक र ा हाँ वक जब हर्मारा ब्रह्मरन्र खल
र ा था, ईस सर्मय र्मैं करछ घण्टों के
वलए बेहोश हो गया था आसका कारण ह। प्राण वायर का ब्रह्मरन्र के ऄन्दर प्रवेश करना जब पहली बार
प्राण वायर ब्रह्मरन्र र्में प्रवेश करता ह। तब प्राण के साथ र्मन ी ब्रह्मरन्र र्में प्रवेश करता ह। आस थथान पर
र्मन व प्राण एक साथ ठहर जाते हैं ऄथालभत् करछ सर्मय के वलए वित्त र्में प्राण का थपन्दन सक्ष्र र्म रूप से ठहर
जाता ह। प्राण के साथ र्मन ी (वृवत्तयााँद वनरुि हो जाता ह।, तब वित्त र्में वकसी प्रकार का संककप-ववककप
नहीं ईठता ह। प्राण का थपन्दन रुकने के कारण साधक िेतना शन्र य-सा हो जाता ह।, तब ईसे ऄपनी सधर -
बधर नहीं रहती ह। विर करछ सर्मय बाद वित्त र्में प्राण का थपन्दन होना शरू र हो जाता ह।, तब प्राण ब्रह्मरन्र
से नीिे की ओर अ जाता ह। प्राण नीिे अने पर साधक को होश अ जाता ह। यह ऄनर वर त ई्र साधना
करने वाले साधकों को होती ह। धीर्मी गवत से साधना करने वाले साधकों को नहीं होती ह। ऐसी जानकारी
र्मैंने कइ साधकों से ली ह। वजनका ब्रह्मरन्र खल र ा हुअ ह।
र्मनष्र य के शरीर र्में करण्डवलनी का थवरूप ऄव‍न तत्त्व से सम्बवन्धत होता ह। ऄथालभत् ऄव‍न तत्त्व के
रूप र्में होता ह। जब वह ई्वलभ होकर पणर लभ यारा करके ह्रदय र्में वथथत हो जाती ह।, तब वह गवत करना छोड़
देती ह। ऄथालभत् र्मल र ाधार र्में वापस अकर वशववलंग से वलपटती नहीं ह।, बवकक र्मल र ाधार से ब्रह्मरन्र द्रार से

तत्त्वज्ञान 123
होते हुए अज्ञा िक्र से नीिे की ओर ईतर कर ह्रदय के ऄन्दर प्रवेश कर जाती ह। ईस सर्मय करण्डवलनी
की लम्बाइ साधक के थथरल शरीर के बराबर हो जाती ह। ईसकी पाँछर र्मल र ाधार र्में वथथत वशववलंग र्में होती
ह। तथा र्माँहर ह्रदय (ऄनाहत िक्रद र्में होता ह।, विर वह गवत करना छोड़ देती ह। आसे करण्डवलनी की पणर लभ
यारा ऄथवा ह्रदय र्में वथथत होना कहते हैं ह्रदय र्में वथथत होने पर यह ऄव‍न तत्त्व का थवरूप छोड़कर
वायर तत्त्व के रूप र्में पररववतलभत हो जाती ह। वायर तत्त्व के रूप र्में पररववतलभत होकर साधक के सम्पणर लभ शरीर र्में
व्याप्त हो जाती ह। विर करण्डवलनी का नाग वाला थवरूप ईसे नहीं वदखाइ देता ह।, ‍योंवक वायर तत्त्व रूप
र्में व्यापक होकर वथथत हो जाती ह। ऐसी ऄवथथा र्में साधक के शरीर रूपी वपण्ड तथा ब्रह्माण्ड रूपी वपण्ड
का सम्बन्ध अपस र्में सर्मवि रूप र्में वायर तत्त्व से हो जाता ह। जब ब्रह्माण्ड र्में वकसी ी प्रकार की
हलिल होती ह।, वह हलिल साधक ऄपने ऄन्त:करण र्में देखता ह। यह हलिल िाहे थथल र , सक्ष्र र्म या
कारण रूप र्में हो ईसे वदखाइ देगी परन्तर ब्रह्मवनष्ठ साधक ऐसी ऄवथथा पर क ी ्यान नहीं देता ह। वह
ऄभ्यास करता हुअ अगे की ओर बढ़ता रहता ह। यह ऄवथथा साधक के वलए ऄत्यन्त र्महत्वपणर लभ होती
ह।, ‍योंवक वह ऄसीवर्मत शव‍त का थवार्मी होता ह।, ईसे ढेरों वसवियााँ प्राप्त होती हैं देवता ी ऐसे साधक
को सम्र्मान की दृवष्ट से देखते हैं ऐसा साधक यवद संयर्म के द्रारा ऄपने वित्त की र्मवलनता दरर कर ले तो
ईसके सक ं कप र्में ववलक्षण शव‍त अ जाती ह। यह सक ं कप शव‍त सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड र्में कायलभ करती ह। बहुत
से साधक यहीं पर रुक जाते हैं वो ऐसा सर्मझते हैं वक र्मैं पणर लभ हो गया हाँ तथा बहुत से गरू र पद पर असीन
होकर साधकों का र्मागलभदशलभन करने लगते हैं ऐसे साधकों ऄथवा र्महापरू र षों से कहना िाहता हाँ वक यह
पणर लभता नहीं ह।, ऄ ी अगे का र्मागलभ बहुत लम्बा ह। यवद यहााँ पर रुक गये तो कइ जन्र्म ओर लेने पडेंऺगे,
आसवलए अगे का र्मागलभ तय करने के वलए ऄभ्यास करते रहना िावहए
करण्डवलनी का ह्रदय र्में वथथत हो जाना तत्त्वज्ञान के वलए पयालभप्त नहीं ह। ऄ ी तो वायर तत्त्व र्में
प्रवेश र्मार ही वकया ह। वायर तत्त्व से पार होने के वलए बहुत सर्मय ऄथवा कइ जन्र्म लग जाएाँगे वित्त पर
वथथत स ी प्रकार के कर्मालभशयों को नष्ट करना ऄवत अवश्यक ह।, त ी सगणर व वनगलभणर ब्रह्म का
साक्षात्कार सम् व हो पायेगा यह ऄवथथा वित्त पर ऄहक ं ार की वर र्म पर ऄभ्यास करने की ह। आस
ऄवथथा र्में वनववलभिार सर्मावध लगती ह। साधक को सर्मावध के सर्मय अनन्द ी अता ह। ऄ ी ऄहक ं ार
की वर र्म पर, विर ऄवथर्मता की वर र्म पर सर्मावध का ऄभ्यास करना होगा आसवलए अत्र्मसाक्षात्कार की
र्मंवजल ऄ ी दरर ह। आस वर र्म पर ऄभ्यास करते सर्मय सर्मावध ऄवथथा र्में वित्त पर जलती दीपवशखा के
सर्मान लौ (ज्योवतद वदखाइ देती ह।, आसे अत्र्मा न सर्मझें यह ऄहक ं ार की ऄत्यन्त सावत्वक व सशक्त

तत्त्वज्ञान 124
वृवत्त होती ह। ऄन्य वृवत्तयााँ ी आस वृवत्त का सहयोग करती हैं, आसवलए वित्त पर वसिलभ एक लौ ऄत्यन्त
सन्र दर जलती हुइ वदखाइ देती ह।
ऄभ्यास के द्रारा ऄहक ं ार तथा ऄवथर्मता की वर र्म पार करना अवश्यक होता ह। वित्त के ऄत्यन्त
वनर्मलभल होने पर ऊतम् रा-प्रज्ञा प्रकट होती ह। आस ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा ज्ञान का प्रकाश वित्त पर प्रकट
होने के कारण ऄववद्या द्रारा वकए गये कर्मों के कर्मालभशय धीरे -धीरे ऄभ्यासानसर ार नष्ट होने लगते हैं यह
ऊतम् रा-प्रज्ञा ऄववद्या जनक सथं कारों की ववरोधी होती ह। तथा वववेक-ख्यावत के प्रकट होने पर जड़ व
िेतन की व न्नता का ज्ञान होता ह। यह ऊतम् रा-प्रज्ञा व वववेक-ख्यावत ईसे प्राप्त होती ह।, वजस साधक
का यह अवखरी जन्र्म होता ह। आसी ऄवन्तर्म जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। यह अवखरी जन्र्म
साधक का प्रकृ वतलय ऄवथथा की यो‍यता प्राप्त वकए रहता ह। प्रकृ वतलय ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए
साधक का जन्र्म करछ-न-करछ ववशेषता को प्राप्त वकए हुए रहता ह।, ‍योंवक ईसका यह जन्र्म इश्वर प्रावप्त
ऄथवा तत्त्वज्ञान प्रावप्त करने के वलए हुअ होता ह। ऐसे साधकों के वित्त र्में ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक कर्मलभ
वथथत रहते हैं, आस कारण ईसे जन्र्म से ही कष्ट वर्मलने शरू र हो जाते हैं जब तक साधक ऄभ्यास के द्रारा
अत्र्माववथथत न हो जाए, तब तक ईसे आस संसार र्में ववव न्न प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं यही कारण ह।
वक वजन-वजन साधकों को अत्र्मवथथवत हुइ ह।, ईन्हें सारे जीवन र्में कष्टों का सार्मना करना पड़ा ह। आसकी
व्यवथथा थवयं प्रकृ वत देवी जन्र्म लेने से पवर लभ कर देती ह। आस ववषय र्में हर्मारी बात सन् 1995-1996 र्में
प्रकृ वत देवी से हुइ थी त ी से र्मझर े र्मालर्मर था वक र्मरझे वनश्िय ही आस जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होगी
ऄथालभत् सगणर ब्रह्म (इश्वरद का, विर ऄभ्यासानसर ार वनगलभणर ब्रह्म का साक्षात्कार होगा
करण्डवलनी ह्रदय र्में वथथत होने के बाद वायर तत्त्व र्में ववलीन हो जाती ह। तब वह ऄव‍न तत्त्व वाला
थवरूप त्याग देती ह।, विर वायर तत्त्व र्में व्याप्त हो जाती ह। वजन साधकों को आसी जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान प्राप्त
होना होता ह। ईनका वित्त वनर्मलभल होकर वनववलभिार सर्मावध की प्रवीणता अने पर ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय
होता ह। आस ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा वायर तत्त्व ऄत्यन्त थवच्छ व सक्ष्र र्म हो जाता ह।, तब साधक का वित्त
वनर्मलभल व व्यापक होकर परा-प्रकृ वत र्में ऄन्तर्मलभखर ी हो जाता ह। जब वित्त पहली बार परा-प्रकृ वत र्में
ऄन्तर्मलभख
र ी होता ह।, ईस सर्मय साधक को ऄनर व अता ह। र्मैं ऄपना ऄनर व वलख रहा ह-ाँ र्मेरा थथल र
शरीर शव के सर्मान असन पर वगर गया था तब ऄनर व अया वक िारों ओर प्रकाश ही प्रकाश ि। ला
हुअ ह। तथा र्मैं ईस प्रकाश र्में पड़ा हुअ गोल-गोल घर्मर रहा हाँ प्रकाश के वसवाय करछ ी नजर नहीं
अता ह। ज।से ही र्मैंने ईठकर ब।ठना िाहा (ऄनर व र्मेंद परन्तर विर वगर पड़ा ईस सर्मय हर्में वसिलभ प्रकाश

तत्त्वज्ञान 125
वदखाइ दे रहा था उपर नीिे िारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था करछ क्षणों बाद र्मैं थवयं घर्मर ना बन्द हो गया
ऄथालभत् गवत रुक गइ, तब देखा वक हर्मारे सार्मने एक छोटा-सा वपण्ड (ईस प्रकाश क्षेर की ऄपेक्षा थथल र द
ववद्यर्मान था ईसे देखकर र्मैं बोला- यह तो वायर तत्त्व बीज रूप र्में ववद्यर्मान ह। र्मैं ईस वपण्ड को देख रहा
था वक त ी हर्में होश अ गया र्मैं असन के उपर शव के सर्मान पड़ा हुअ था, तब र्मझर े र्महससर हुअ वक
हर्मारे शरीर र्में शव‍त नहीं रह गइ ह। तब सोिा वक ईठकर ब।ठ जाउाँ, विर जोर लगाकर ब।ठ गया परन्तर
ज।से ही ब।ठा, त ी र्मेरा थथल र शरीर असन पर विर से वगर पड़ा र्मैं बेहाश हो गया, विर वही ऄनर व
अया आस प्रकार तीन बार हुअ आस ऄनर व को ववथतार से दसर री जगह वलखा गया ह।
जो करण्डवलनी वायर तत्त्व के रूप र्में हर्मारे ऄन्दर व्याप्त थी, वही वायर तत्त्व ऄथवा वायर तत्त्व के रूप
र्में करण्डवलनी शव‍त परर्म् अकाश थवरूप र्महाकरण्डवलनी (परा-प्रकृ वतद र्में ऄन्तर्मलभख र ी हो गइ ऄथवा क्षिर
करण्डवलनी व्यापक होकर र्महाकरण्डवलनी र्में ऄन्तर्मलभख र ी हो गइ यही करण्डवलनी का परर्म-वशव ् के साथ
संयोग ऄथवा वर्मलन ह।, ‍योंवक परर्म्-वशव के साथ परा-शव‍त (र्महाकरण्डवलनीद सद।व ववराजर्मान रहती
ह। ऄब शायद वजज्ञासर साधक सर्मझ गये होंगे वक करण्डवलनी परर्म्-वशव से क। से वर्मलती ह। ऄभ्यास के
द्रारा साधक की ऄगली ऄवथथा ऐसी ी अती ह। जब साधक का वित्त सद।व इश्वर के वित्त र्में
ऄन्तर्मलभखर ी रहता ह। र्मैं यहााँ पर यह बता दाँर वक करण्डवलनी र्में वकसी प्रकार के ेद नहीं होते हैं शांत, र्म्यर्म
और ई्र करण्डवलनी साधक को साधना के ऄनसर ार ही ऄनर वर त होती ह। वजस साधक ने पवर लभ जन्र्म र्में
साधना नहीं की होगी ऄथवा थोड़ी की होगी ईसकी करण्डवलनी शांत होगी वजसकी साधना पवर लभ जन्र्म से
ई्र रही होगी ईसकी करण्डवलनी ई्र होना वनवश्ित ह। यह वित्त पर वथथत र्मवलनता, थवच्छता, तर्मोगणर व
सत्त्वगणर , कर्मालभशय अवद पर अधाररत होता ह। साधक का जन्र्म वकस यो‍यता को लेकर हुअ ह।, यह
करण्डवलनी के थवरूप (शांत, र्म्यर्म व ई्र द को वनवश्ित करता ह। आसवलए वतलभर्मान र्में एक ही ऄवथथा
को प्राप्त साधकों के ऄन्दर शव‍त र्में व न्नता होती ह। ई्र करण्डवलनी वाला साधक वनश्िय ही ऄन्य
साधक की ऄपेक्षा ऄवधक शव‍त (योगबल की शव‍तद का थवार्मी होगा ऐसा साधक ही गरू र पद पर
ब।ठने के यो‍य होता ह।
करण्डवलनी शव‍त का र्मख्र य वनवास थथान सहथरार िक्र ही ह। सहथरार िक्र र्में वह ऄव्य‍त रूप र्में
रहती ह। इश्वर से ऄंश रूप र्में प्रकट हुअ जीव जब प्रकृ वत के ोग के वलए आस लोक र्में यारा करने के
वलए र्माता के ग लभ र्में अता ह।, तब यह जीव ऄपनी संवगनी करण्डवलनी शव‍त व प्राण शव‍त के साथ र्माता
के ग लभ र्में प्रवेश करता ह। सहथरार िक्र र्में ऄव्य‍त रूप र्में वथथत करण्डवलनी अज्ञा िक्र र्में व्य‍त रूप र्में

तत्त्वज्ञान 126
हो जाती ह। यह स ी छः िक्रों र्में तथा स ी वछिों तथा करहरों र्में प्राण शव‍त के साथ प्रवेश करती ह।
ऄन्त र्में र्मल र ाधार िक्र र्में वथथत वशववलंग र्में साढ़े तीन ि‍कर लपेट कर सो जाती ह। वशववलंग र्में तीन
ि‍कर वलपटे हुए वदखाइ देते हैं, अधा ि‍कर वदखाइ नहीं देता ‍योंवक अधा ि‍कर ऄथालभत् पाँछ र वाला
ाग ऄपने र्माँहर के ऄन्दर दबाए हुए होती ह। जीव जब र्माता के ग लभ से जन्र्म लेना िाहता ह।, वह पहले
र्माता के सक्ष्र र्म शरीर से अज्ञा लेता ह।– ‚र्माता, र्मैं तम्र हारे ग लभ से जन्र्म लेना िाहता ह‛ाँ र्माता अज्ञा दे
देती ह।, आसके बाद ही र्माता के ग लभ से जन्र्म लेना सम् व होता ह। आस ववषय र्में र्मैंने पवर लभ काल र्में बहुत
प्रयोग वकए तथा जानकाररयााँ प्राप्त की त ी यह शब्द वलख रहा हाँ ऄज्ञानी र्माताएं आस बात को नहीं
जान पाती वक ईन्होंने ही ऄपनी सन्तान को ऄपने ग लभ र्में प्रवेश करने की अज्ञा दी ह। यवद र्माता ईच्ि
श्रेणी की सावधका हो और वह ईस ऄवथथा र्में र्माता बनना िाहती हो तो वह ऄवश्य जान जाएगी वक
ईसके ग लभ से जन्र्म लेने वाला जीव क। से कर्मों तथा क। से थव ाव वाला होगा सन् 1993 र्में र्मैंने एक
सावधका से आस ववषय र्में बात की थी पहले वह र्मेरे शब्दों को सनर कर िौंक पड़ी, विर ईसने सारी बातें
बता दी ईसने र्मझर से प्रश्न वकया, ‚अनन्द ।या, अप आतनी बारीकी से यह सब क। से जानते हैं?‛, तब
र्मैंने ऄपनी जानकाररयााँ आस ववषय र्में ईस सावधका को बताइ ईसने कहा अपकी सारी बातें सत्य हैं ईस
सावधका ने बताया वक र्मझर े ऄपने परर के ववषय र्में आसके जन्र्म से पवर लभ सब करछ ज्ञात हो गया था वक यह
ववष्य र्में क। सा बनेगा वग।रा
करण्डवलनी जब र्मल
र ाधार िक्र र्में अकर वशववलंग पर वलपट कर सषर प्र त ऄवथथा र्में िली जाती ह।
ऄथालभत् सो जाती ह।, ईस सर्मय जीव प्राण शव‍त के सहारे पणर लभ रूप से जीवत्व को प्राप्त हो जाता ह। तब
वह ऄपने थवरूप को ल र जाता ह। तथा आस संसार को ही ऄपना सर्मझने लगता ह। र्मोह व ऄज्ञान के
कारण सांसाररक पदाथों को ऄपना सर्मझता हुअ ोग र्में वलप्त हो जाता ह। सांसाररक पदाथलभ क्षण ंगरर व
पररणार्मी होने के कारण ईसे सद।व दःर ख की ही ऄनर वर त कराते रहते हैं आस प्रकार जीव आस संसार र्में
ऄज्ञानता के कारण टकता रहता ह। स ी जीव जा्र त, थवप्न और सषर प्र त, आन्हीं तीन ऄवथथाओ ं को
ऄनर व करते हैं तरर ीयावथथा का ज्ञान और ववज्ञान के वल योवगयों को होता ह। योग के ऄभ्यास के द्रारा
जब करण्डवलनी ई्वलभ होकर कइ जन्र्मों के ऄभ्यास के बाद ऄपने थवरूप र्महाकरण्डवलनी र्में ऄववथथत हो
जाती ह।, तब जीव का जीवत्व नष्ट हो जाता ह। विर वह ऄपने जीवेश्वर थवरूप को प्राप्त कर लेता ह।
करछ वजज्ञासर हर्मारे पास अए ईन्होंने हर्मसे ऄपनी करण्डवलनी जा्र त कर देने के वलए कहा, तब
र्मैंने ईन्हें सर्मझाया वक करण्डवलनी का जागरण योग के ऄभ्यास की ववशेष ऄवथथा पर होता ह। ईसके

तत्त्वज्ञान 127
वलए साधक को यो‍यता ी प्राप्त करनी िावहए जब करण्डवलनी जागरण की पररप‍व ऄवथथा अ जाती
ह।, तब जा्र त कर दी जाती ह। एक वजज्ञासर ने तो यहााँ तक कहा वक अप हर्मारी करण्डवलनी जा्र त कर
दीवजए र्मैं वकसी से बदला लेना िाहता हाँ र्मैं ईसके शब्द सनर कर िौंक पड़ा ओर बोला, ‚अपके कहने
का र्मैं ऄथलभ नहीं सर्मझ पाया, थोड़ा थपष्ट कवहए‛ तब ईसने ऄपने जीवन की ददलभ री दाथतान सनर ाइ
ईसकी बातें सनर कर र्मझर े लगा की यह परू र ष बहुत दःर खी ह। विर र्मैंने ईससे पछर ा, ‚करण्डवलनी जा्र त होने
के बाद ईन लोगों से अप क। से बदला लेंगे‛? वह बोला कठोर ऄभ्यास करके करण्डवलनी को अज्ञा िक्र
तक ले जाउाँगा, तब र्मैं सक्ष्र र्म रूप से शव‍तशाली हो जाउाँगा, विर ईन लोगों से बदला ले सकाँर गा र्मैं
बोला- अप ऄपनी सोि बदल दीवजए, दःर ख सर्माप्त हो जाएगा ईन लोगों को धन्यवाद दीवजए वजन्होंने
अपको दःर ख वदए हैं तथा इशवर ् से प्राथलभना कीवजए वक प्र र हर्मारे ववरोधी जहााँ ी रहें ऄच्छी प्रकार से
रहें, ईनके जीवन र्में वकसी प्रकार का दःर ख न अएं ईन्होंने अपके साथ वकसी प्रकार का बरर ा व्यवहार
नहीं वकया, बवकक अपकों पवर लभजन्र्मों के पापों से र्म‍र त कर वदया पाप कर्मलभ ोगते सर्मय दःर खों की
ऄनर वर त होती ह।, यह स ी जानते हैं वह लोग वसिलभ वनवर्मत्त र्मार हैं वजन्होंने अपको दःर ख वदया विर र्मैंने
वतब्बत के र्महान सन्त ‘वर्मलारे पा’ की जीवनी सनर ाइ तथा र्मैंने ऄपनी ी जीवनी सनर ाइ र्मैंने ी ऄपने
जीवन र्में बहुत कष्ट ईठाए हैं हर्मारा सब करछ छीन वलया गया था र्मझर े डेढ़ वषलभ तक गााँव से र्मााँग कर
खाना पड़ा ऄन्त र्में ररवाकवर से हर्में दो गोवलयााँ ी र्मारी गइ यह सब करछ गााँव वालों ने नहीं वकया,
बवकक हर्मारे घरवालों ने वकया विर ी र्मैं प्रसन्न रहता हाँ र्मझर े र्मालर्मर ह। वक ये लोग (घर वालेद र्मेरा करछ
ी नहीं वबगाड़ सकते हैं, ‍योंवक र्मैं आस शरीर को व आस ससं ार को ऄपना नहीं र्मानता हाँ र्मझर े ज्ञात ह। वक
र्मैं वसिलभ िेतन तत्त्व ह,ाँ िेतन तत्त्व का ये लोग करछ नहीं कर सकते हैं ऄथालभत् हावन नहीं पहुिाँ ा सकते ह।
विर र्मैं ईस परूर ष से बोला, ‚जाओ, ईन लोगों से जाकर कहो वक र्मैं अपका अ ारी ह,ाँ अपने र्मझर े पापों
से र्म‍र त कर वदया‛ ईस परू र ष ने हर्में कोइ ईत्तर नहीं वदया हााँ, शातं होकर िला गया, ‍योंवक र्मैंने ऄतं र्में
कह वदया था वक साधना करों और इश्वर की प्रावप्त का प्रयास करो, जब ईवित सर्मय अए तब हर्मसे
करण्डवलनी ई्वलभ करवा लेना साधकों! करण्डवलनी, वसवियााँ तथा ऄन्य वदव्य शव‍तयााँ आसवलए नहीं होती
हैं वक कोइ ी आन शव‍तयों के द्रारा वकसी को हावन पहुिाँ ाए, ऐसे बरर े वविार र्मन से त्याग देने िावहएं
र्मानव जीवन स ी को अत्र्म ककयाण के वलए वर्मला ह।
स ी साधकों की आच्छा होती ह। वक ईनकी करण्डवलनी जा्र त हो जाए यह आच्छा होना थवा ाववक
ही ह। साधक ऄगर संयर्म-पवर लभक कठोर साधना करता ह।, तब ईसकी करण्डवलनी पररप‍व ऄवथथा र्में
जा्र त हो जाती ह। ऄथवा साधक का गरू र थवयं ही सर्मझ लेता ह। वक ईसके वशष्य की करण्डवलनी जा्र त

तत्त्वज्ञान 128
करने का सर्मय अ िक र ा ह।, तब जा्र त कर दी जाती ह। कठोर साधना करने वालों की करण्डवलनी थवयं
जा्र त हो सकती ह। स ी साधकों की करण्डवलनी थवर्मेव जा्र त नहीं हो सकती ह। यह सब साधक के
ऄभ्यास पर वन लभर करता ह। करछ साधक वसिलभ व्यायार्म, प्राणायार्म अवद का सहारा लेकर ही जा्र त करने
का प्रयास करते हैं र्मैं यही कहगाँ ा वक करण्डवलनी जा्र त करने के वलए ्यान करना ऄवत अवश्यक ह।
्यान के वबना करण्डवलनी जा्र त करने का वविार र्मन से त्याग दें तो ऄच्छा ह। साधक का प्राण वायर जब
कण्ठ िक्र र्में हो और ईसका ्यान एक से डेढ़ घण्टे लगता हो तथा तीन बार ्यान करता हो ऄथालभत् एक
वदन र्में 5 घण्टे का ्यान करने का ऄभ्यास हो तो ऄच्छा ह।, तब करछ र्महीनों र्में ऄथवा करछ वषों र्में
करण्डवलनी जा्र त की जाए त ी ऄच्छा ह। ऄभ्यास वजतना ज्यादा होगा करण्डवलनी ईतनी ही तेजथवी या
ई्र होगी, शीघ्र करण्डवलनी जा्र त करने से कोइ ला नहीं वर्मलेगा यवद साधक को ववष्य र्में र्महान
बनना ह। तो वसिलभ कठोर ऄभ्यास करता रहे, करण्डवलनी की ओर ्यान न दे वसिलभ र्मन को एका्र करने की
कोवशश करे , ईवित सर्मय अने पर करण्डवलनी जा्र त हो जाएगी ऄथवा गरू र देव थवयं जा्र त कर देंगे
यवद वकसी साधक के सदग् रुर थथल र शरीर त्याग िक र े हैं, तब वकसी ऄनर वी परू
र ष से करण्डवलनी जा्र त
करवा ले करण्डवलनी जा्र त करना प्रत्येक गरू र के बस की बात नहीं होती ह। अजकल जहााँ देखो गरू र ही
गरू
र प्रकट होकर घर्मर रहे हैं गरू र ओ ं का तो ज।से बाजार सा लगा हुअ ह।, ऐसे गरू र ओ ं से बिें तथा यो‍य
सदगरूर के र्मागलभदशलभन र्में साधना करें , वजन्होंने ऄभ्यास के द्रारा पररप‍व ऄवथथा प्राप्त की हो
जब साधक की साधना कण्ठ िक्र र्में होती ह। तथा र्मन वथथर होने लगता ह।, तब ऄभ्यासानसर ार
प्राण वायर के ध‍के र्मल र ाधार र्में वथथत करण्डवलनी को लगने लगते हैं प्राण वायर के ध‍के लगने से
करण्डवलनी जाग जाती ह। थथल र प्राण वायर तो ्यानावथथा र्में कण्ठ िक्र र्में होता ह।, परन्तर सक्ष्र र्म प्राण वायर
करण्डवलनी को ध‍के र्मारता ह। करण्डवलनी अाँखें खोलकर र्माँहर से पाँछर ईगल देती ह।, विर धीरे -धीरे
ऄभ्यासानसर ार ई्वलभ होने लगती ह। वह वजस-वजस िक्र र्में पहुिाँ ती ह।, ईस-ईस िक्र र्में वथथत जड़ता को
जला देती ह। तथा ईस जगह पर ि।तन्यता वबखेर देती ह। करण्डवलनी जागरण होने पर करण्डवलनी के थवरूप
के दशलभन व न्न-व न्न रूपों र्में होते हैं ज्यादातर सनर हले नाग व थरी रूप र्में होते हैं कण्ठ िक्र खल र ने र्में
ऄवधक सर्मय लगता ह। यहााँ पर र्मागलभ र्में एक ्र वन्थ होती ह।, ईस ्र वन्थ को खल र ने र्में साधक को कइ वषलभ
तक ऄभ्यास करने के बाद सिलता वर्मल पाती ह। कण्ठ िक्र के बाद करण्डवलनी अज्ञा िक्र को खोल
देती ह। आस ऄवथथा र्में वदव्य-दृवष्ट बहुत तेजथवी हो जाती ह।, ईसके देखने की क्षर्मता बढ़ जाती ह। विर
करण्डवलनी तीन र्मागों पर िलकर ब्रह्मरन्र द्रार खोल देती ह। ब्रह्मरन्र खल र ने पर साधक का प्राण व र्मन
ब्रह्मरन्र के ऄन्दर प्रवेश कर जाते हैं, तब साधक की वनववलभककप सर्मावध लगती ह। करण्डवलनी ब्रह्मरन्र

तत्त्वज्ञान 129
खोलकर अज्ञा िक्र से होते हुए नीिे की ओर ह्रदय र्में अ जाती ह। ऄभ्यास के पररप‍व होने पर
करण्डवलनी आसी ऄवथथा र्में वथथर होकर ऄपना ऄव‍न तत्त्व वाला थवरूप छोड़कर वायर तत्त्व के रूप र्में
पररववतलभत हो जाती ह। तब वायर तत्त्व रूप से सर्मथत शरीर व ब्रह्माण्ड र्में व्याप्त हो जाती ह। साधक के
अवखरी जन्र्म र्में यही करण्डवलनी सहथरार िक्र र्में वथथत र्महाकरण्डवलनी र्में ऄववथथत हो जाती ह।
र्महाकरण्डवलनी परर्म-वशव
् के साथ सहथर-दल कर्मल के उपर ववराजर्मान रहती ह।, तब जीव जीवत्व को
त्याग कर जीवेश्वर थवरूप को प्राप्त कर लेता ह। और विर क ी जन्र्म ्र हण नहीं करता विवतशव‍त
ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत हो जाती ह।, यही क। वकय ह।
ब्रह्मरन्र द्रार खल
र ने को करछ साधक सहथरार िक्र खल र ना सर्मझ लेते हैं, परन्तर ऐसा नहीं ह।
ब्रह्मरन्र द्रार खल र ने का ऄथलभ सहथरार िक्र खल र ने से वबककरल न लगाएं नहीं तो बहुत ारी ल र होगी,
‍योंवक हर्मने साधकों के र्माँहर से सनर ा ह। वक ईनके स ी सातों िक्र खल र िक र े हैं ये शब्द सनर कर ईनके
सार्मने नहीं बोला, ‍योंवक वो शायद हर्मारी बात का ववश्वास ना करते थवयं श्री र्माता जी (हर्मारे गरू र देवद
कहा करती थी वक ईनका सातवााँ िक्र ऄथालभत् सहथरार सन् 1962 र्में खल र गया था ईस सर्मय हर्में आस
ववषय र्में ज्ञान नहीं था, परन्तर जब हर्में ऄभ्यास के द्रारा र्मालर्मर हुअ वक यह सातवााँ िक्र नहीं ह। तो
अश्चयलभ हुअ ब्रह्मरन्र द्रार कठोर र्मोटी परत से ढका हुअ रहता ह। आस द्रार को खोलने के वलए
करण्डवलनी को कािी सर्मय लगता ह। वजसकी करण्डवलनी शांत होती ह।, ईसे तो र्महीनों ऄथवा वषों तक
ऄभ्यास करना पड़ सकता ह। परन्तर ई्र करण्डवलनी वाले साधक का ब्रह्मरन्र ऄभ्यास के ऄनसर ार शीघ्र
खल र जाता ह। सर्मावध ऄवथथा र्में र्मन वजतना ऄवधक एका्र होगा करण्डवलनी ईतनी ही ऄवधक ई्र
होगी करण्डवलनी ऄपने र्माँहर से ब्रह्मरन्र द्रार पर जब ठोकर र्मारती ह। तो सर्मावध ऄवथथा र्में साधक को
ऄवश्य ऄनर वर त होती ह। वक ऐसा हो रहा ह। ईस सर्मय ऐसा लगता ह। र्मानों गरर्म-गरर्म लोहे का सजर ा
(सअ र द ब्रह्मरन्र द्रार पर िर ोया जा रहा ह। विर ऄन्त र्में ब्रह्मरन्र द्रार र्में वछि कर देती ह।, तब सक्ष्र र्म र्मन
और प्राण ब्रह्मरन्र के ऄन्दर प्रवेश कर जाते हैं साधक ऄपनी सधर -बधर खो जाता ह।, ईसका थथल र शरीर
एक ओर लढर क जाता ह।
साधक की करण्डवलनी जब ब्रह्मरन्र द्रार पर पहुिाँ ती ह।, ईस व‍त साधक का ब्रह्मरन्र द्रार बन्द
होता ह। तब ईसे ऄनर व र्में वदखाइ देता ह। वक ज।से उपर ऄंतररक्ष र्में बहुत बड़ा अग का गोला ह। ऄथवा
वनकलते हुए सरर ज के सर्मान गोला वदखाइ देता ह। जब करण्डवलनी ब्रह्मरन्र द्रार पर जोर-जोर से ठोकर
र्मारती ह।, तब वह गोला ऄंतररक्ष र्में आधर-ईधर गवत करने लगता ह। तथा करछ क्षणों र्में विर वथथर हो जाता

तत्त्वज्ञान 130
ह।, तब करण्डवलनी ब्रह्मरन्र द्रार पर ठोकर र्मारती ह। वह लाल सख र लभ गोला वहलने लगता ह। या कंपन करने
लगता ह। ऄथवा आधर-ईधर गोल-गोल गवत करने लगता ह। परन्तर जब ब्रह्मरन्र द्रार खल र जाता ह। तब यह
गोला िट जाता ह। तथा िारों ओर बहुत तेज प्रकाश ि। ल जाता ह। साधक देखता ह। ज।से वह प्रकाश र्में
खड़ा ह।, ईसका सम्पणर लभ शरीर प्रकाश र्में थनान कर रहा ह। जब तक ब्रह्मरन्र द्रार खल र ा नहीं होता ह।,
करण्डवलनी द्रार पर ध‍के र्मारती ह। आसी सर्मय क ी-क ी यंकर र्मेघ गजलभना ी सनर ाइ देती ह। ऐसा
लगता ह। र्मानों वषालभ ऊतर के बादल जोर-जोर से गरज रहे हों यह र्मेघ गजलभना दसवां व अवखरी नाद ह।
अकाश तत्त्व र्में वायर तत्त्व का घषलभण होने के कारण यह ्ववन साधक को सनर ाइ देती ह। ब्रह्मरन्र खल र ने
के बाद र्मेघ गजलभना (दसवां नादद सद।व के वलए बन्द हो जाता ह। व।से यह ्ववन बहुत ही सक्ष्र र्म होती ह।,
परन्तर साधक को यंकर गजलभना के रूप र्में सनर ाइ देती ह। विर करण्डवलनी ्यानावथथा के सर्मय ब्रह्मरन्र
द्रार के ऄन्दर ऄपना र्माँहर थोड़ा-सा ऄन्दर कर देती ह। यह ऄन्दर की ओर ज्यादा नहीं जाती यह वक्रया
करछ वदनों तक ही िलती ह। करछ वदनों बाद द्रार के ऄन्दर र्माँहर डालना बन्द कर देती ह। ऄभ्यास बढ़ने पर
करण्डवलनी छोटे र्मवथतष्क के ऄन्दर (वसर के वपछले ाग सेद उपर की ओर होते हुए अज्ञा िक्र पर
अकर नीिे ह्रदय की ओर िली जाती ह। वकसी-वकसी की करण्डवलनी सीधे र्मागलभ से होकर ब्रह्मरन्र द्रार
के नीिे से अज्ञा िक्र के वलए र्मड़र ती ह।, तब ह्रदय र्में अती ह। र्मैंने एक बार पतंजवल ऊवष से पछर ा था,
प्र !र हर्में करण्डवलनी के ववषय र्में बताएं? तब ईन्होंने हर्में बताया वक वसर र्में करण्डवलनी वकस प्रकार ऄपना
र्मागलभ तय करके नीिे ह्रदय की ओर अती ह। हर्में थवयं ऄपनी ऄनर वर त के द्रारा आस ववषय र्में ज्ञात ह।
साधक की वजतनी साधना जीवन र र्में होती ह।, ऄगले जन्र्म र्में वतलभर्मान की यो‍यता र्मार करछ
सर्मय र्में ही प्राप्त कर लेता ह। ऄथालभत् वतलभर्मान साधना ऄगले जन्र्म र्में जड़र जाती ह। र्मृत्यर के सर्मय साधक
ने वित्त की जो ऄवथथा योग के द्रारा प्राप्त की ह। वह ऄवथथा ऄगले जन्र्म र्में ईवित सर्मय अने पर प्राप्त
हो जाएगी आसवलए देखा गया ह। वक करछ साधक शीघ्र ही ईन्नवत कर लेते हैं और करछ साधकों को
सिलता कािी ऄभ्यास के बाद र्में वर्मलती ह। यहााँ पर एक बात ्यान र्में रखने यो‍य ह।– साधक यह
सर्मझ ले वक वतलभर्मान जन्र्म र्में कण्ठ िक्र खल र गया ह। ऄथवा अज्ञा िक्र खल र जाता ह।, तो ऄगले जन्र्म र्में
्यान पर ब।ठते ही कण्ठ िक्र ऄथवा अज्ञा िक्र खल र जाएगा, ऐसा कदावप नहीं होगा ऄगले जन्र्म र्में
साधना शरू र अत से ही होगी, परन्तर थोड़े से ऄभ्यास के बाद साधक को वपछले जन्र्म की यो‍यता प्राप्त
हो जाएगी परन्तर ऄन्य साधक को वजसकी यो‍यता वपछले जन्र्म र्में नहीं थी ऄथवा साधना नहीं की थी,
ईसे तो शरू र अती सिलता ी कठोर ऄभ्यास के बाद ही प्राप्त हो पायेगी आस प्रकार धीरे -धीरे कइ जन्र्मों
तक साधना करती पड़ती ह। एक-दो जन्र्मों की साधना से इश्वर प्रावप्त सम् व नहीं ह। आसका कारण ह।

तत्त्वज्ञान 131
साधक के वित्त पर ऄनन्त जन्र्म-जन्र्मान्तरों के ऄववद्या यक्त र संथकार होते हैं, यह धीरे -धीरे ही नष्ट होते हैं
ये सथं कार एक-दो जन्र्म र्में सर्माप्त नहीं हो सकते हैं, विर तत्त्वज्ञान की प्रावप्त ऄवन्तर्म जन्र्म र्में होती ह।
जब साधक का ऄवन्तर्म जन्र्म होता ह।, तब वह प्रकृ वतलय ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए रहता ह। ऐसे
साधक वपछले जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान प्राप्त न होने के कारण शरीर त्यागने के पश्िात प्रकृ वत के अवरण र्में
वथथत रहते हैं आनका वकसी लोक ववशेष से सम्बन्ध नहीं होता ह। वतलभर्मान जन्र्म र्में वह तत्त्वज्ञान प्रावप्त के
वलए जन्र्म धारण करता ह। आसवलए प्रकृ वतलय ऄवथथा की प्रावप्त र्में साधक को वतलभर्मान जन्र्म र्में ब्रह्म
साक्षात्कार होना वनवश्ित होता ह। ऐसे साधक को सारे जीवन ‍लेश सहना वनवश्ित होता ह।, ‍योंवक
ईसके वित्त पर ‍लेशात्र्मक कर्मलभ ववद्यर्मान रहते हैं ये ‍लेशात्र्मक कर्मलभ सासं ाररक दःर ख के साथ-साथ
संसार के वाथतववक थवरूप का ज्ञान ी कराते हैं आससे साधक का संसार के प्रवत र्मोह ंग हो जाता ह।
तथा धीरे -धीरे आस संसार से व।रा‍य हो जाता ह। यह व।रा‍य तत्त्वज्ञान प्रावप्त र्में सहायक होता ह। र्मेरा
वतलभर्मान जन्र्म प्रकृ वतलय ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए था आसवलए शरू र अत से ही र्मेरी साधना ई्र थी
तथा ऄपने अप योग के ववषय र्में ज्ञान प्राप्त हो जाता था र्मझर े वपछले जन्र्म के वसि-र्मंर अवद ऄपने
अप याद अ गये थे जब साधक ऄभ्यास के द्रारा करण्डवलनी की पणर लभ यारा का ऄभ्यास कइ जन्र्मों तक
करता रहता ह।, तब ऄवन्तर्म जन्र्म र्में ईसका सहथरार िक्र खल र ता ह। सहथरार खल र ने के बाद पररप‍व
ऄवथथा र्में साधक इश्वर का साक्षात्कार कर लेता ह। तथा ऄन्त र्में वनगलभणर ब्रह्म का साक्षात्कार करके
क। वकय र्में वथथत हो जाता ह।
करण्डवलनी जब ह्रदय र्में वथथत हो जाती ह।, ईस सर्मय सर्मावध ऄवथथा र्में र्मन व प्राण ब्रह्मरन्र के
ऄन्दर प्रवेश करते हैं, तब साधक की वनववलभककप सर्मावध लगती ह। वनववलभककप सर्मावध की पररप‍वता
ऄथवा प्रवीणता पर ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह। आस प्रज्ञा के द्रारा साधक के वित्त पर वथथत ऄववद्या
के सथं कार धीरे -धीरे नष्ट होने लगते हैं आससे वित्त वनर्मलभल हो जाता ह। तथा व्यत्र थान के सथं कारों को रोकने
र्में सहायता वर्मलती ह। विर प्रकृ वत के पााँिों तत्त्वों के ववशेष रूप का साक्षात्कार होता ह। ऄथालभत् थथलर से
लेकर प्रकृ वत-पयलभन्त ऄलग-ऄलग तथा विर एक साथ साक्षात्कार होता ह। सर्मावध के ऄभ्यास के द्रारा
ज।से-ज।से प्रज्ञा के सथं कार वित्त पर बढ़ते जाते हैं, व।स-े व।से सहथर-दल कर्मल ववकवसत होने लगता ह।
सबसे पहले साधक को ऄंतररक्ष र्में बहुत बड़े अकार र्में कर्मल की कली वदखाइ देती ह। आस कली को
देखकर साधक सर्मावध ऄवथथा र्में सोिने लगता ह। वक आतनी बड़ी िरल की कली ईसने ऄपने जीवन
काल र्में नहीं देखी होती ह। तथा कली का र्माँहर ऐसा वदखाइ देने लगता ह। र्मानों ऄब यह ववकवसत होने

तत्त्वज्ञान 132
वाली ह। र्मझर े सहथर-दल कर्मल के करछ-करछ सर्मय के ऄंतराल से बहुत ऄनर व अए ज।से-ज।से ईसका
क्रर्म-ववकास होता था व।से-व।से हर्में वदखाइ देता था वक हर्में पहले थोड़ी सी पंखवर ड़यााँ खल र ी हुइ वदखाइ दी
थी, विर थपष्ट हो गया वक र्मैं सहथर-दल कर्मल का िौथाइ ाग ववकवसत हुअ देख रहा हाँ एक बार
देखा वक र्मैं आस िरल के उपर िला जा रहा हाँ र्मझर े सम्पणर लभ दृश्य र्में िरल की पंखवर ड़यााँ ही वदखाइ दे रही
थी, र्मैं आन पंखवर ड़यों के उपर िल रहा था सहथर-दल कर्मल को पणर लभ ववकवसत होने र्में कइ वषलभ लग गये,
जबवक र्मैं ऄपने जीवन र्में ज्यादा-से-ज्यादा सर्मावध व प्राणायार्म् का ऄभ्यास करता रहा था आसके
ववकवसत होने के सर्मय हर्में बहुत सांसाररक दःर ख सहने पड़े, वतलभर्मान सर्मय र्में र्मैं पणर लभ वनडर हाँ डर क। से
लग सकता ह।, र्मृत्यर ी जब अएगी तब पहले हर्मसे अज्ञा लेगी, विर थथरल शरीर से हर्मारा सम्बन्ध
ववच्छे द होगा
सहथर-दल कर्मल ज्ञान का अयतन ह। ज।से-ज।से आसका ववकास होता ह। व।से-व।से साधक का ज्ञान
बढ़ता ह। आसका सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से होता ह। आस कर्मल या िक्र के ववकवसत होने पर साधकों के वलए
परा-प्रकृ वत का ववकास होता ह। तथा परा-प्रकृ वत का ऄवतरण ी ईसके ऄन्दर होता ह। ज।से-ज।से परा-
प्रकृ वत का ऄवतरण होगा, व।स-े व।से ऄपरा-प्रकृ वत शि र होकर परा-प्रकृ वत र्में ऄववथथत होती जाएगी
ऄथालभत् साधक का वित्त वनर्मलभल होकर परा-प्रकृ वत के ऄन्दर ऄन्तर्मलभख र ी होता जाएगा आसवलए हर्में ऄनर व
र्में वदखाइ वदया वक र्मैं सहथर-दल कर्मल के उपर िला जा रहा हाँ ऄन्त र्में र्मझर े वदखाइ वदया वक सहथर-
दल कर्मल का ववकास हो िक र ा ह।, र्मैं ईसके र्म्यर्म र्में खड़ा हाँ विर करछ वदनों बाद वदखाइ वदया वक एक
परूर ष व एक थरी आस सहथर-दल कर्मल के उपर ब।ठे हुए हर्मारी ओर देख रहे हैं यह परर्म-वशव ् व ईनकी
परा-शव‍त एक साथ ववराजर्मान वदखाइ दे रहे थे साधक को आसी ऄवथथा र्में ऄभ्यास करते सर्मय सगणर -
ब्रह्म का साक्षात्कार होता ह। यह साक्षात्कार होना वनवश्ित होता ह।, ‍योंवक परा-प्रकृ वत, सहथरार िक्र
और सहथर-दल कर्मल एक ही हैं परा-प्रकृ वत को इश्वर का वित्त ी कहते हैं जब आसका पणर लभ ववकास हो
जाता ह। तब जीव का जीवत्व नष्ट हो जाता ह।, विर वह जीवेश्वर बन जाता ह। तथा पनर जलभन्र्म से रवहत हो
जाता ह।
सहथरार िक्र का पणर लभ ववकास होने र्में आसवलए कइ वषलभ लग जाते हैं, ‍योंवक आस िक्र र्में 20 वववर
होते हैं आन स ी वववरों को ज्ञान के प्रकाश से रने र्में कइ वषलभ का ऄभ्यास लग जाता ह। साधक को ये
स ी वववर ऄनर व र्में एक बार र्में ही वदखाइ नहीं पड़ते हैं, बवकक एक बार र्में एक ऄथवा क ी दो ी
वदखाइ देते हैं जब ये वववर वदखाइ देते हैं, तब साधक को ऐसा लगता ह। र्मानों वकसी काँर ए नर्मर ा जगह को

तत्त्वज्ञान 133
देख (झााँक रहाद रहा ह। आन वववरों र्में हकका काला ऄधंकार-सा ववद्यर्मान रहता ह।, आसवलए शरू र अत र्में
आन वववरों को थपष्ट नहीं देखा जा सकता ह। जब वववर का काला-सा ऄंधकार ऄभ्यास के द्रारा सर्माप्त
हो जाता ह।, तब वववर को थपष्ट देखा जा सकता ह। ईस सर्मय ऐसा लगता ह। र्मानों पानी से रवहत पत्थर
का बना हुअ काँर अ-सा हो आस काँर ए नर्मर ा जगह के ऄन्दर की दीवारों पर काला-काला तर्मोगणर ी पदाथलभ
लगा हुअ ह। क ी-क ी वदखाइ देता ह। वक साधक ईस काँर ए के ऄन्दर नीिे की ओर ईतरता जा रहा ह।
ऄभ्यास के द्रारा आन वववरों र्में ववद्यर्मान सक्ष्र र्म जड़ता नष्ट होकर प्रज्ञा का प्रकाश र जाता ह। ज्ञान का
प्रकाश र जाने पर वववर सर्माप्त हो जाता ह। विर ऄगला वववर वदखाइ देता ह। ईसर्में ी वही पहले ज।सी
वक्रया होती ह। आस प्रकार धीरे -धीरे ऄभ्यास से वववर सर्माप्त होकर ज्ञान का प्रकाश सवलभर ववद्यर्मान हो
जाता ह। आसवलए सहथरार िक्र ववकवसत होने र्में बहुत सर्मय लग जाता ह। एक वववर सर्माप्त होने र्में
(ज्ञान का प्रकाश रने र्मेंद साधक को कािी सर्मय तक ऄभ्यास करना होता ह। जब वववर ज्ञान के प्रकाश
से र जाता ह।, तब साधक को शरू र अती ऄवथथा विर से अ जाती ह।, ‍योंवक आन वववरों की 50-50
र्मारकाएं होती हैं ये र्मारकाएं र्मल र ाधार िक्र से लेकर अज्ञा िक्र तक होती हैं, तब साधक की यह
ऄवथथा ईसके व्यत्र थान के संथकारों के कारण अ जाती ह। सर्मावध के द्रारा जो ऄनर व अता ह। ईसके
ी सथं कार वित्त पर पड़ते हैं सर्मावध के सथं कार व्यत्र थान के सथं कारों से ऄवधक बलवान होते हैं, ‍योंवक
सर्मावध-प्रज्ञा व्यत्र थान की प्रज्ञा से ऄवधक वनर्मलभल होती ह। ईसकी वनर्मलभलता र्में पदाथलभ का तत्त्व ऄनर व
होता ह। सर्मावध प्रज्ञा के सथं कार व्यत्र थान के संथकारों व वासनाओ ं को हटाते रहते हैं व्यत्र थान के
सथं कारों के दबने से ईनसे ईत्पन्न होने वाली वृवत्तयााँ ी दब जाती ह। आन वृवत्तयों के वनरोध होने पर विर
सर्मावध ईत्पन्न होती ह।, यही क्रर्म िलता रहता ह। आन वववरों के कारण साधक की कइ बार शरू र अती
ऄवथथा ईपवथथत हो जाती ह।, तब वह सोिता ह। वक आस ऄवथथा र्में यह शरू र अती ऄवथथा ‍यों और
क। से अ गइ जब स ी वववर ज्ञान के प्रकाश से र जाते हैं, तब सहथरार िक्र पणर लभ रूप से ववकवसत हो
जाता ह। पणर लभ रूप से ववकवसत होने पर थवयं साधक (योगीद जीवेश्वर रूप र्में ऄपनी संवगनी करण्डवलनी
शव‍त के साथ सहथर-दल कर्मल के उपर वथथत हो जाता ह।, ऐसा ऄनर व र्में अता ह।
सहथर-दल कर्मल जब पणर लभ रूप से ववकवसत हो रहा होता ह।, तब सगणर -ब्रह्म ऄथालभत् इश्वर का
साक्षात्कार होता ह। ईस सर्मय इश्वर ऄपने हाथों से साधक का सक्ष्र र्म शरीर ऄथालभत् वित्त के थवरूप को
वछन्न-व न्न कर देते हैं आस सक्ष्र र्म शरीर र्में साधक के कइ जन्र्मों के संथकार ववद्यर्मान रहते हैं आसको वित्त
का थवरूप ी कहते हैं वित्त का थवरूप नष्ट होने पर साधक को जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त होती ह। र्मझर े
सगणर ब्रह्म का साक्षात्कार 11 जनवरी, 2007 को हुअ था ऄब साधकों को सर्मझ लेना िावहए वक

तत्त्वज्ञान 134
करण्डवलनी शव‍त के द्रारा क। से इश्वर का साक्षात्कार होता ह। तथा ब्रह्मरन्र व सहथरार िक्र र्में ‍या ऄंतर
ह।? ब्रह्मरन्र खल
र े हुए साधकों की वगनती वतलभर्मान सर्मय र्में आस ल
र ोक पर सैंकड़ो र्में हो सकती ह। परन्तर
सहथरार िक्र वजन साधकों का खल र कर ववकवसत हो गया ह।, ऐसे साधकों की वगनती आस ल र ोक पर र्मार
थोड़ी ही होगी ऐसे योगी ऄत्यन्त गप्र त रुप से रहते हैं तथा वह सर्माज को ऄपने ववषय र्में नहीं बताते हैं
परन्तर वे इश्वर की प्रेरणा से आस जगत् का गप्र त रूप से ककयाण करते रहते हैं ऐसे परू
र ष वदव्य शवक्तयों से
यक्त
र रहते हैं, आनके वलए कोइ ी कायलभ ऄसम् व नहीं होता ह। ऄन्त र्में ये थथल र शरीर त्याग कर ब्रह्म र्में
वथथत हो जाते हैं
सहथर-दल कर्मल के पणर लभ ववकवसत होने पर साधक ऄपने अपको कर्मल के र्म्य र्में खड़ा हुअ
देखता ह। ईस सर्मय दृश्य र्में वसिलभ सहथर-दल कर्मल ही वदखाइ देता ह। साधक के साथ ईसकी
करण्डवलनी शव‍त वदखाइ नहीं देती ह। ईस सर्मय साधक का वित्त शि र होकर ऄत्यन्त व्यापक हो जाता ह।
तथा जीव जीवेश्वर बन जाता ह। जीवेश्वर के साथ ईसकी करण्डवलनी शव‍त त ी थरी रूप र्में (संवगनीद
वदखाइ देती ह।, जब तक साधक ऄभ्यास के द्रारा ऄन्वय योग को पणर लभ नहीं कर लेगा ऄन्वय योग के पणर लभ
होने पर ही वशवत्व का पणर लभ ववकास होता ह। वशवत्व का पणर लभ ववकास ही पणर लभता ह। पणर लभ ववकास होने पर
जीवेश्वर के साथ ईसकी संवगनी करण्डवलनी शव‍त सहथर-दल कर्मल पर एक साथ ब।ठे वदखाइ देते हैं
जब साधक ऄन्वय योग का ऄभ्यास कर रहा होता ह।, तब ईसे सहथर-दल कर्मल के वनिले ाग पर
काला पदाथलभ ऄथवा धंधर ला ऄंधकार-सा वदखाइ देता ह। यह काला पदाथलभ तर्मोगणर ऄथवा ऄववद्या का
ऄंश होता ह। यह ऄभ्यास के द्रारा धीरे -धीरे नष्ट होता रहता ह। ऄन्वय योग पणर लभ होने पर ऄववद्या पणर लभ
रूप से नष्ट हो जाती ह। ऄववद्या को पणर लभ रूप से नष्ट करने के वलए ऄन्वय योग का ऄभ्यास ऄवत
अवश्यक ह।, विर सवलभर वशवत्व प्रकावशत हो जाता ह।
ब्रह्म को जड़तत्त्व से ऄलग करके देखने का नार्म व्यवतरे क योग ह। तथा ब्रह्म को सवलभर सब अकारों
र्में देखने का नार्म ऄन्वय योग ह। व्यवतरे क योग से अवरण नष्ट होता ह। तथा ऄन्वय योग से ववक्षेप नष्ट
होता ह। व्यवतरे क योग र्में वित्त वृवत्त को वनरुि करना होता ह। तथा ऄन्वय योग र्में सम्पणर लभ जगत् को
ब्रह्मथवरूप देखना होता ह।, आसवलए दोनों योग करना ऄवत अवश्यक ह। पहले व्यवतरे क योग विर ऄन्वय
योग का ऄभ्यास होता ह। जब वसिलभ व्यवतरे क योग का ऄभ्यास वकया जाता ह।, तब यह जगत् जड़ रूप र्में
वदखाइ देता ह। आससे ी पनर जलभन्र्म से छरटकारा वर्मल जाता ह।, परन्तर र्मृत्यर के पश्िात र्मोक्ष वर्मलता ह।
ईदाहरण के वलए जल और ओले देखने र्में व न्न हैं, परन्तर दोनों एक ही हैं यही बात ब्रह्माण्ड और सम्पणर लभ

तत्त्वज्ञान 135
जगत् की ह। दृवष्ट से ये दोनों व न्न-व न्न वदखाइ देते हैं, परन्तर ऄन्तदृलभवि र्में ये दोनों एक ही हैं आस प्रकार
ऄन्त लभतर वाथतववक रूप से देखना ही सर्मदशलभन ह।, आसी को ऄन्वय योग कहते हैं साधकों! र्मैं सहज ्यान
योग का साधक हाँ र्मैं ज्ञान योग और व‍त योग दोनों को लेकर िला हाँ व।से ये दोनों र्मागलभ अपस र्में
व न्न-व न्न हैं, परन्तर ऄभ्यास के अवखरी दौर र्में र्मैंने थोड़ी-सी व‍त ी ऄपना ली थी सि तो यह ह।
वक स ी प्रकार के योग एक सर्मान ही हैं, वसिलभ ऄज्ञानता की दृवष्ट से देखने पर व न्न-व न्न वदखाइ देते हैं,
‍योंवक ऄन्त र्में एक ही थथान पर पहुिाँ ना होता ह। ज्ञानी परू र ष वनगलभणर ब्रह्म र्में वथथत होकर क। वकय को
प्राप्त करता ह। तथा व‍त योग र्में ऄन्त र्में सगणर ब्रह्म के ऄन्त:करण र्में वथथत हो जाता ह। दोनों को एक
ही ऄवथथा प्राप्त होती ह। व‍त का र्मागलभ थोड़ा घर्मर ावदार व लम्बा, प्रेर्मरस से यक्त र ह। ज्ञान का र्मागलभ
छोटा व रसहीन ह। ज्ञान योग के योगी को ऄभ्यास के सर्मय बहुत कष्ट सहने होते हैं, ‍योंवक थवयं ही वह
ऄपना र्मागलभ तय करता ह। व‍त योगी इश्वर पर अवश्रत रहता ह। र्मैं ज्ञान योगी ह,ाँ थोड़ी-सी व‍त ी की
ह।, परन्तर र्मैं ‍त नहीं हाँ र्मैंने दोनों प्रकार के योग की ऄनर वर त की ह। आस संसार र्में ऄभ्यासी के वलए
सर्मदशलभन श्रेष्ठ ह। र्मझर से एक बार इश्वर ने प्रेरणा द्रारा कहा था, ‘सर्मता का ऄभ्यास करो’, सर्मता के
ऄभ्यास से ऄहक ं ार की जननी ऄवथर्मता सर्माप्त हो जाती ह। विर आस ौवतक देह र्में ही योगी साक्षात्
ब्रह्म थवरूप हो जाता ह।
र्माता ही परर को बताती ह। वक ईसका वपता कौन ह। ऄथवा र्माता ही परर को ईसके वपता से पररवित
करवा सकती ह।, ‍योंवक ईसे ज्ञात होता ह। वक ईसका वपता कौन ह।? साधक के शरीर र्में सक्ष्र र्म रूप से
ववद्यर्मान ईसकी करण्डवलनी शव‍त ही र्माता थवरूप होती ह। ईसके जा्र त हुए वबना साधक ऄपना पणर लभ
ववकास नहीं कर सकता ह। पणर लभ ववकास करना र्मानव जीवन का लक्ष्य होना िावहए आसवलए करण्डवलनी
शव‍त पणर लभ ववकास र्में साधक का सहयोग करती ह। वह ऄपने ऄव्य‍त रूप से ब्रह्माण्ड रूपी वपण्ड र्में
व्याप्त रहती ह। आस ब्रह्माण्ड का सृजन वहरण्य ग लभ के द्रारा होता ह। ऄवधिाता रूप परर्म् अकाश तत्त्व र्में
वायर के द्रारा सृवष्ट का सृजन होता ह। तथा प्राण शव‍त के द्रारा सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड र्में व्यवथथा पवर लभक वक्रया
होती रहती ह। करण्डवलनी शव‍त दसर रे थवरूप से जीव के साथ संवगनी रूप र्में प्राण शव‍त के साथ ग लभ र्में
प्रवेश करती ह।, विर वह र्मल र ाधार र्में वशववलंग के साढ़े तीन ि‍कर लपेट कर सो जाती ह। साधक
ऄभ्यास के द्रारा ईसे जा्र त कर सकता ह। आस ऄवथथा र्में ईसे र्माता ही कहना िावहए, ‍योंवक जीव
ऄपने थवरूप को ल र िकर ा होता ह। करण्डवलनी साधक को ईसके परर्म-वपता ् वशव (इश्वरद से वर्मला देती
ह।, तब जीव ऄपना जीवत्त्व त्याग कर ऄपने जीवेश्वर रूप को धारण कर लेता ह। ज।सा परर्म-वशव ् का
थवरुप होता ह।, व।सा ही जीवेश्वर का थवरुप होता ह।, ‍योंवक जीव ईस परर्म्-वशव का ऄंश थवरूप ह।

तत्त्वज्ञान 136
थवयं करण्डवलनी शव‍त जीवेश्वर के संवगनी रूप र्में प्राप्त हो जाती ह।, परन्तर जीवेश्वर क ी ी परर्म्-वशव
की बराबरी नहीं कर सकता ह।, ‍योंवक जीव इश्वर का ऄंश रूप ह। इश्वर सगणर ब्रह्म ह।, ईसका वित्त परा-
प्रकृ वत द्रारा बना हुअ ह। जीव का वित्त ऄपरा-प्रकृ वत से बना ह। इश्वर का ज्ञान व शव‍तयााँ वनत्य हैं
जीव को ज्ञान व शव‍तयााँ पररणार्म के द्रारा प्राप्त हुइ हैं ऄतः इश्वर वपता ह। और जीव परर

तत्त्वज्ञान 137
दसदधयााँ
वसवि एक ऐसा शब्द ह। वजसे सनर कर साधारण र्मनष्र य ी आस शब्द की ओर अकवषलभत हो जाता
ह। सि तो यह ह। वक यवद वकसी परू र ष ने छोटी-सी ी वसवि प्राप्त कर ली हो तो साधारण र्मनष्र य ईसकी
थतवर त अवद करना शरू र कर दते हैं ईसके ववषय र्में बढ़ा-िढ़ाकर बातें करने लगते हैं वक ऄर्मक र सन्त
बहुत ही ईच्िकोवट का ह।, वग।रा-वग।रा ऐसे वसवि प्राप्त सन्त के दशलभन के वलए ीड़ ईर्मड़ पड़ती ह। विर
ईसके दशलभन करके र्मनष्र य ऄपने अप को धन्य र्मानने लगता ह। तथा ईस सन्त की गवान् र्मान कर पजर ा
करने लगता ह। अजकल सर्माज र्में ऐसी घटनाएाँ ऄ‍सर देखने को वर्मल जाती हैं आन सबका कारण ह।
लोगों को वसवि के ववषय र्में सही ज्ञान नहीं होना हर्मने देखा ह। वक बहुत से र्मनष्र य वसवि के ि‍कर र्में
पड़कर बहुत वदनों तक आसे प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं तथा ऄपने जीवन का बहुर्मकर य सर्मय नष्ट
करते रहते हैं र्मैं ऐसे ऄज्ञानी लोगों से कहना िाहता हाँ वक वे वसवि के ि‍कर र्में ऄपना बहुर्मकर य सर्मय
व्यथलभ र्में नष्ट न करें यवद यह ी र्मान वलया जाए वक साधक को छोटी-र्मोटी वसवि वर्मल ी गइ तो ईससे
‍या प्राप्त करें गे? वसिलभ करछ सर्मय तक सर्माज के द्रारा सम्र्मान, यश व धन अवद परन्तर यह ी सि ह।
वक वसवियों को प्राप्त करने वाला साधक ऄन्त र्में ववव न्न प्रकार के कष्ट ईठाता ह।
प्रत्येक योग र्मागलभ र्में एक वनवश्ित ऄवथथा र्में साधक को वसवियााँ ऄवश्य वर्मलती हैं, यह प्रकृ वत का
वनयर्म ह। यवद साधक सतकलभ रहे तो ी करछ-न-करछ प्र ाव तो वसवियों का ऄवश्य पड़ता ह। आसवलए
ऄच्छा ह। वक आन वसवियों से कायलभ न लें यवद साधक ने आन वसवियों से कायलभ वलया तो ये वसवियााँ तीव्र
गवत से कायलभ करने लगती हैं और ऄगर आनसे कायलभ न वलया जाए तो ये धीरे -धीरे शांत हो जाएाँगी जब
वसवियााँ कायलभ करती हैं तो वह साधक के योगबल के ऄनसर ार ही कायलभ करती हैं, आससे साधक का
योगबल सर्माप्त होने लगता ह। र्मैंने करछ वसवियों से जरूरत पड़ने पर थोड़ा-सा कायलभ वलया ह। तावक र्मैं
वसवियों के ववषय र्में ज्ञान प्राप्त कर सकाँर र्मैं साधना बहुत करता था तावक योग र्मागलभ र्में वकसी प्रकार की
रूकावट न अए यवद वकसी साधक को वसवि प्राप्त हो ी जाए तो ईस वसवि से िर्मत्कार क ी न
वदखाए
जब साधक की ऄवथथा कण्ठ िक्र र्में बहुत वदनों तक बनी रहती ह। तथा साधक वनरन्तर कठोर
ऄभ्यास करता रहता ह।, तो यहीं से करछ वसवियााँ वर्मलनी शरू
र हो जाती हैं ज।से–दरर दशलभन, दरर श्रवण, वािा
वसवि अवद दरर दशलभन- दरर श्रवण वसवि ऄत्यन्त ऄच्छी लगती ह।, ‍योंवक आन वसवियों से साधक वकसी ी
सर्मय सम्पणर लभ पृथ्वी के वकसी ी थथान का दृश्य देख सकता ह। तथा ईस दृश्य से सम्बवन्धत अवाज ी

तत्त्वज्ञान 138
सनर सकता ह। आन वसवियों से करछ ी वछप नहीं सकता ह। वािा वसवि त ी प्राप्त होगी जब साधक
ऄत्यन्त संयवर्मत होकर साधना करता ह। तथा र्मौन व्रत का पालन करता ह। जब वािा वसवि प्राप्त होती
ह।, ईस सर्मय साधक को ऄत्यन्त सतकलभ ता बरतनी िावहए तथा जरूरत पड़ने पर ही बात करनी िावहए
आसी थथान पर करछ और ी वसवियााँ करछ देने का प्रथताव रखती हैं, परन्तर ईस प्रथताव को ऄथवीकार कर
देना िावहए तथा ऄपना लक्ष्य प्राप्त करने का अशीवालभद र्मााँगना िावहए
उपर वलखी हुइ वसवियााँ साधक को ईस सर्मय वर्मलती ह।, जब ईसका सम्बन्ध सक्ष्र र्म जगत् से हो
जाता हैं ये वसवियााँ वनम्न-थतर की कही जाती हैं र्मगर जो साधक ईच्िावथथा या ईच्ितर ऄवथथा को
प्राप्त वकए हुए हैं, ऐसे साधकों को ईनकी यो‍यता ऄनसर ार वसवियााँ प्राप्त होती हैं बड़ी-बड़ी वसवियों को
प्राप्त करने के वलए साधक को ववशेष प्रकार की कठोर साधना करनी पड़ती ह। ऐसी वसवियों को वसखाने
वाला गरू र होना ऄवत अवश्यक ह।, वकंतर ऐसा गरू र वतलभर्मान र्में वर्मलना ऄवत कवठन ह। बड़ी-बड़ी वसवियााँ
वकसे प्राप्त हैं, यह तो र्मैं नहीं जानता हाँ यवद साधक ऄत्यन्त शि र ता और संयवर्मत होकर रहता ह।, तो
ऄपने ज्ञान से वसवियों के ववषय र्में जानकारी प्राप्त कर सकता ह।, परन्तर यह कायलभ वनश्िय ही ऄवत कवठन
ह। र्मैं ी आस र्मागलभ पर िल िक र ा हाँ ऐसा कायलभ वसिलभ वही साधक कर सकता ह। जो पवर लभजन्र्मों र्में श्रेष्ठ
साधक रह िक र ा ह।, वरना थवयं ऄपने ज्ञान से बड़ी-बड़ी वसवियााँ प्राप्त नहीं हो सकती हैं र्मैंने ी सन्
1994 से सन् 1998 के बीि करछ ववशेष प्रकार की वसवियााँ प्राप्त करने का प्रयास वकया था परन्तर ईन
वसवियों को पणर लभ रूप से प्राप्त नहीं कर सका, ‍योंवक हर्मारा र्मागलभ थवयं गवान् ववष्णर ने रोक वदया था
तथा हर्में सर्मझाया ी था
र्मैंने ऄपने साधनाकाल र्में दो वसवियों को प्राप्त करने का प्रयास वकया था ये वसवियााँ परकाया
प्रवेश और अकाश गर्मन थी परकाया प्रवेश के वलए र्मैंने थवयं जानकारी प्राप्त की थी जब र्मझर े ववशेष
नाड़ी का ज्ञान हो गया वक आस नाड़ी के द्रारा बाहर वनकलने पर परकाया प्रवेश र्में सिलता वर्मल सकती ह।
बहुत प्रयास करने पर र्मैं ईस नाड़ी को खोल नहीं सका, ‍योंवक वह नाड़ी बन्द थी र्मैंने ईस नाड़ी को
खोलने के वलए योग बल का प्रयोग ी वकया था आसके बाद र्मैंने आस र्मागलभ को छोड़ वदया विर ज्ञानिक्र
का प्रयोग वकया र्मैं ज्ञानिक्र के द्रारा ऄतं ररक्ष र्में बाहर वनकल गया र्मैं ऄपने थथल
र शरीर से बाहर तो
वनकल गया, परन्तर हर्मारा र्मागलभ गवान् ववष्णर ने रोक वदया तथा वसवि के वलए र्मना ी वकया विर र्मैं
वापस ऄपने शरीर र्में अ गया ्यानावथथा र्में साधक सक्ष्र र्म शरीर या कारण शरीर र्में िला जाता ह।, परन्तर
आस वसवि के वलए थथल र शरीर से वनकलना पड़ता ह। ये दोनों ऄवथथाएाँ अपस र्में व न्न हैं साधक

तत्त्वज्ञान 139
्यानावथथा र्में देखता ह। वक वह सक्ष्र र्म शरीर से आधर-ईधर घर्मर रहा ह। आस ऄवथथा को प्राप्त हुअ साधक
परकाया र्में प्रवेश नहीं कर सकता, ‍योंवक ्यानावथथा र्में साधक ऄन्तर्मलभख र ी होकर सक्ष्र र्म शरीर र्में प्रवेश
करता ह। ईस सर्मय वदखाइ देता ह। वक वह थथल र शरीर से वनकलकर सक्ष्र र्म शरीर र्में ऄलग खड़ा ह।, तब
थथल र शरीर दरर ब।ठा हुअ वदखाइ देता ह। परन्तर जब आस वसवि के वलए बाहर वनकलना होता ह।, तब सक्ष्र र्म
शरीर को एक ववशेष नाड़ी से बाहर वनकालना होता ह। ऄथवा ज्ञान िक्र से बाहर वनकालना होता ह।
बाहर वनकलने के बाद विर ौवतक जगत् र्में एक वनवश्ित सीर्मा तक सक्ष्र र्म जगत् र्में भ्रर्मण कर सकता ह।
आस ऄवथथा र्में ईसका थथरल शरीर नष्ट नहीं होता ह।, ‍योंवक थथल र शरीर का सक्ष्र र्म शरीर से सक्ष्र र्म रूप से
तारतम्य बना रहता ह। र्मैंने यह बात आसवलए वलखी ह।, ‍योंवक साधक ्यानावथथा र्में सक्ष्र र्म शरीर द्रारा
सक्ष्र र्म जगत् र्में भ्रर्मण करते हैं, आसवलए यह न सर्मझ लें वक वे ी परकाया र्में प्रवेश कर सकते हैं
्यानावथथा र्में सक्ष्र र्म जगत् र्में भ्रर्मण करना या सक्ष्र र्म जगत् के दृश्य देखना अवद वित्त की वृवत्तयों द्रारा
होता ह। परन्तर परकाया प्रवेश के वलए साधक ऄपने सक्ष्र र्म शरीर के ऄन्दर सक्ष्र र्म आवन्ियााँ व प्राण अवद को
लेकर थथल र शरीर से बाहर हो जाता ह। ज।से र्मनष्र य की र्मृत्यर के सर्मय सक्ष्र र्म शरीर ऄपने ऄन्दर सब करछ
सर्मेट कर थथल र शरीर से बाहर हो जाता ह। र्मृत्यर के सर्मय सक्ष्र र्म शरीर का वनकलना व वसवि के वलए
सक्ष्र र्म शरीर का वनकलना, आन दोनों ऄवथथाओ ं र्में व न्नता ह। र्मृत्यर के सर्मय सक्ष्र र्म शरीर का थथल र शरीर
से सम्बन्ध सद।व के वलए सर्माप्त हो जाता ह।, ऐसी ऄवथथा र्में थथल र शरीर ही नष्ट हो जाता ह। वसवि के
वलए जब ववशेष र्मागलभ से सक्ष्र र्म शरीर को बाहर वनकाला जाता ह।, तब थथल र शरीर से सम्बन्ध ऄत्यन्त
सक्ष्र र्मता से बना रहता ह। आसवलए थथल र शरीर थवयंर्मेव क ी नष्ट नहीं होता िाहे वषों बीत जाएाँ आस
वक्रया को करने वाला साधक ऄपने थथल र शरीर को सरर वक्षत थथान पर करके तब सक्ष्र र्म शरीर से बाहर
वनकलता ह।
ऄ‍तबर र 1995 की बात ह। र्मैंने ्यानावथथा र्में संककप करके सर्मथत ब्रह्माण्ड र्में संदश े ेजा,
‚अकाशगर्मन वसवि के ववषय र्में कोइ ी वसि परू र ष या वदव्यशव‍त हर्में जानकारी देने की कृ पा करें ,
‍योंवक र्मैं अकाशगर्मन वसवि के ववषय र्में जानना िाहता हाँ तथा हर्मारा र्मागलभदशलभन करें ‛ करछ क्षणों तक
आन्तजार करने के ईपरांत ी हर्मारे पास वकसी का सन्देश नहीं अया र्मेरे प्रश्न का वकसी ने ईत्तर नहीं
वदया र्मैं जानता था वक ब्रह्माण्ड र्में ढेरों ऐसी शव‍तयााँ व वसि परूर ष हैं, जो आस वसवि के ववषय र्में जानते
हैं, परन्तर हर्में बताना नहीं िाहते थे विर र्मैंने ऄपने योग बल से पछर ा- ‍या हर्मारा संककप सर्मथत ब्रह्माण्ड
र्में पहुिाँ गया ऄथवा नहीं? ईत्तर वर्मला- संककप सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड र्में पहुिाँ िक
र ा ह। र्मैं बोला- र्मैं विर
संककप करता ह,ाँ ‚कोइ वसि परू र ष हर्में आस वसवि के वलए र्मागलभदशलभन करे , वजसे यह वसवि प्राप्त हो‛

तत्त्वज्ञान 140
परन्तर करछ क्षणों तक कोइ अवाज नहीं अइ ऄब र्मैंने सोिा यह वसवि वकसे प्राप्त ह।, ईसी का अहवान
करूाँगा यह वसवि पवर लभकाल र्में ढेरों योवगयों को प्राप्त थी तथा वतलभर्मान काल र्में अवद गरू र शंकरािायलभ को
प्राप्त थी हर्मने शंकरािायलभ जी के नार्म का ियन वकया वक आन्हीं से पछर ा जाए तब र्मैंने शंकरािायलभ जी के
वलए संककप वकया– ‚अप कृ प्या हर्मारा र्मागलभदशलभन कीवजए‛ परन्तर शंकरािायलभ जी के ी दशलभन नहीं हुए
ऄब र्मझर े ऐसा लगा– शायद र्मैं योगी ही नहीं ह,ाँ ‍योंवक आतने सर्मय से र्मैं करछ पछर रहा ह,ाँ र्मगर कोइ ी
करछ बताने को त।यार नहीं ह। लगता ह। हर्में उपर वाले योगी ही नहीं र्मानते हैं ऄब हर्में ऄपने अप पर
दःर ख हुअ, र्मैंने ऄपने ऄहक ं ार का थर्मरण वकया और बोला, ‚तर हर्मारे सम्पणर लभ शरीर र्में व्याप्त हो जा और
ई्र रूप को धारण कर ले‛ ईसी सर्मय हर्में क्रोध अने लगा, तब हर्मने संककप वकया– ‚कहााँ हो,
अवदगरू र शंकरािायलभ जी, हर्मारे सार्मने प्रकट हो जाओ‛ आसके साथ ही र्मैंने ढेर सारा योगबल संककप र्में
लगा वदया और विर र्मैं अाँखें बन्द करके ब।ठ गया संककप करते ही शंकरािायलभ जी ऄंतररक्ष र्में प्रकट हो
गये, वह हर्मारी ओर देख रहे थे र्मैं बोला– ‚प्र !र र्मैं अपको प्रणार्म करता ह‛ाँ ईत्तर र्में शंकरािायलभ जी ने
ऄशीवालभद र्मिर ा र्में उपर की ओर हाथ ईठाया और बोले– ‚योगी, ‍या यही तरीका ह। वकसी से करछ पछर ने
का‛? र्मैं बोला– ‚प्र !र क्षर्मा करें ‛ बार-बार संककप करने से जब कोइ जवाब नहीं वर्मला, त ी र्मैंने ऐसा
वकया विर ईन्होंने करछ नहीं कहा, वह वबककरल शातं खड़े रहे र्मैं बोला– ‚प्र !र अप हर्में अकाश गर्मन
वसवि के ववषय र्में बताएं तथा र्मेरा र्मागलभदशलभन करें , र्मैं आस वसवि को प्राप्त करना िाहता ह‛ाँ शक ं रािायलभ
जी बोले– ‚योगी, र्मैं आस वसवि के ववषय र्में नहीं जानता ह,ाँ र्मैं वसिलभ पानी के उपर िलने की वसवि के
ववषय र्में जानता ह‛ाँ र्मैं बोला– ‚प्र !र अपके ववषय र्में जो लेख वर्मलता ह।, ईसर्में वलखा ह। वक अपने आस
वसवि का प्रयोग वकया ह।‛ परन्तर ईत्तर र्में शक ं रािायलभ जी करछ नहीं बोले, बवकक उपर की ओर करछ देख
रहे थे, वजसे र्मैं सर्मझ न सका र्मैं बोला– ‚प्र !र अप हर्में जल पर िलने वाली वसवि के ववषय र्में बता
दीवजये‛ ईसी सर्मय ऄत्यन्त तेज प्रकाश वबन्दर प्रकट हो गया, विर ईस प्रकाश वबन्दर का ववथिोट हो
गया ववथिोट होते ही सारा ऄतं ररक्ष प्रकाश से यक्त र हो गया और विर दृश्य सर्मापत् हो गया तथा र्मैंने
अाँखें खोल दी
र्मझर े ऄपने कायलभ र्में सिलता नहीं वर्मली र्मैंने विर शंकरािायलभ जी का संककप वकया ओर अाँखें बन्द
करके ब।ठ गया शंकरािायलभ जी विर ऄंतररक्ष र्में वदखाइ देने लगे र्मैं बोला– ‚प्र !र बीि र्में ऄवरोध अ
गया था, क्षर्मा करना र्मैंने विर अपको परे शान वकया‛ र्मैंने कहा प्र र अप जल के उपर िलने की वसवि
के ववषय र्में ही बता दीवजए वह बोले– ‚योगी! आस ववषय र्में बताने की अज्ञा नहीं ह।‛ र्मैं थोड़ा िौंका
और पछर ा– ‚प्र !र अपको वकसकी अज्ञा की जरूरत ह।‛ वह बोले– ‚ब्रह्म की‛ ईसी सर्मय वही प्रकाश

तत्त्वज्ञान 141
वबन्दर विर से प्रकट होकर ववथिोवटत हो गया ऄंतररक्ष र्में प्रकाश ही प्रकाश ि। ल गया र्मैंने अाँखें खोल
दी र्मैं सर्मझ गया वक ब्रह्म ही हर्मारे र्मागलभ के ऄवरोध हैं, आसीवलए शंकरािायलभ जी पहली बार उपर की
ओर देख रहे थे परन्तर ब्रह्म तो सवोच्ि सत्ता हैं, ईनका तो कोइ करछ नहीं कर सकता ह। विर र्मैं ्यान पर
ब।ठ गया र्मैंने ब्रह्म से पछर ा– ‚प्र !र अप हर्मारा र्मागलभ ‍यों ऄवरोध कर रहे हैं, कृ पया अप अज्ञा दे
दीवजए‛ ईसी सर्मय एक तेज प्रकाश वबन्दर प्रकट हो गया और ईस प्रकाश वबन्दर से ्ववन वनकलने लगी–
‚योगी तम्र हें ऄपने र्मागलभ पर अगे बढ़ना िावहए, तर्मर ल र ोक पर वसवियााँ प्राप्त करने के वलए नहीं गये हो
प्रकृ वत तर्मर से करछ कायलभ लेना िाहती ह।, वसिलभ वही कायलभ करो‛ र्मैं बोला– ‚प्र !र अप िाहें तो करछ ी
कर सकते हैं अप तो आच्छा र्मार से ही हर्में वसवि प्राप्त करा सकते हैं‛ ब्रह्म बोले– ‚योगी तर्मर
ा‍यशाली हो जो र्मझर से बात कर रहे हो, वरना हर्मारा दशलभन ी योवगयों के वलए ऄत्यन्त र्मवर श्कल ह।‛ र्मैं
बोला– ‚प्र !र आस कृ पा के वलए र्मैं अपको बारम्बार प्रणार्म करता हाँ कृ प्या अप हर्म पर कृ पा कीवजए‛
ब्रह्म बोले– ‚र्मैं वकसी पर कृ पा नहीं करता, वसिलभ लीलाएं करता ह‛ाँ आन शब्दों के परर ा होते ही वह प्रकाश
वबन्दर ऄदृश्य हो गया र्मैं सर्मझ गया वक ऄब यह वसवि हर्में प्राप्त नहीं होगी
र्मैं वनववलभककप सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा के ऄन्तगलभत योग का कठोर ऄभ्यास कर रहा था, ईस
सर्मय हर्में वदव्य शवक्तयों द्रारा ढेरों वरदान वर्मले करछ वरदानों का प्रयोग र्मैंने वकया ी था वे वरदान
ववलक्षण शव‍त वाले थे ईसी सर्मय र्मैंने एक बार विर अकाश गर्मन वसवि की र्मााँग की, तो कािी सर्मय
बाद र्मझर े वसवि वसखाने का वनणलभय वकया गया तथा वसवि वसखाने के वलए एक वदव्य शव‍त ी वनयक्त र
कर दी गइ र्मैं वसवि के वनयर्मों का पालन करने लगा वसवि र्मैं गााँव से बाहर नदी के वकनारे बनी झोंपड़ी
र्में सीखता था, यह थथान वबककरल सनर सान था वसवि प्राप्त करने र्में सिलता वर्मलने ी लगी, परन्तर
हर्मारे वित्त र्में थोड़े से संथकार शेष थे जो आस वसवि र्में ऄवरोध डाल रहे थे विर हर्में सर्मझाया गया वक
पहले आन कवर्मयों को परर ी तरह से नष्ट कर दीवजये, विर यह वसवि सीवखये हर्मारी सर्मझ र्में अ गया और
र्मैंने वसवि सीखना छोड़ वदया तथा योग का ऄभ्यास करने लगा जब र्मझर े ऄभ्यास के द्रारा वनववलभककप
सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा प्राप्त हुइ, तब प्रकृ वत के ववषय र्में सम्पणर लभ ज्ञान प्राप्त हो गया ऄब र्मैं वसवि
के ववषय र्में सोिता तक नहीं ह,ाँ ‍योंवक ये वसवियााँ योग र्मागलभ र्में ऄवरोध हैं र्मझर े जो वसवियााँ तथा वरदान
प्राप्त हुए थे, र्मैंने ईन स ी का त्याग कर वदया ऄब र्मझर े ऄपना लक्ष्य प्राप्त हो गया ह। र्मैं ऄब वसिलभ
वनबीज सर्मावध वकया करता हाँ

तत्त्वज्ञान 142
सयं र्म से नाना प्रकार की वसवियााँ प्राप्त हो सकती हैं व।से ये वसवियााँ साधक के योग के ऄभ्यास र्में
परर ी तरह से ऄवरोध का कायलभ करती हैं योग के प्रवत वजनकी श्रिा होती ह। ऄथवा जो योग के ववषय र्में
जानते हैं, ईनको ये वसवियााँ ऄवधक प्र ाववत नहीं करती हैं, ‍योंवक ईन्हें र्मालर्मर होता ह। वक वसवियााँ
व्यत्र थान तथा सर्मावध र्में ववघ्न रूप हैं
ऄपनी-ऄपनी वर र्मयों के थवार्मी देवता बड़े अदर से नाना प्रकार के ोगों और ऐश्वयों का साधकों
को प्रलो न देते हैं ऄतः साधकों को सद।व सावधान व सिेत रहना िावहए यवद साधक आन वसवियों र्में
िाँ स जाएगा तो ईसका पररश्रर्म व्यथलभ हो जाएगा आस कारण आनसे सदा ऄलग रहना िावहए हर्मारे पास ी
वसवियााँ अइ थीं, परन्तर र्मैंने थवीकार नहीं वकया साधक को ऄव र्मान नहीं अना िावहए, ‍योंवक
ऄव र्मान ी सर्मावध र्में ऄवरोध ज।सा कायलभ करता ह। सबीज सर्मावध को िार वर र्मयों र्में बांटा गया ह।–
प्रथर्म वर र्म वाला ऄभ्यासी आस यो‍य नहीं होता ह। वक ईसके पास वसवियााँ अएं प्रथर्म वर र्म वाले वे
साधक ह। जो थथल र पंिर्महा तर ों का साक्षात् कर रहे हैं दसर री वर र्म को प्राप्त करने वाले साधकों को आन
वसवियों के ि‍कर र्में पड़ने की सम् ावना रहती ह।, आस कारण ऐसे साधकों को सावधान रहने की
अवश्यकता ह। दसर री वर र्म के ऄंन्तगलभत वे साधक अते हैं वजन्होंने थथल र पंि तर ों को साक्षात् कर वलया
ह।, सक्ष्र र्म पंि तर व तन्र्माराएाँ साक्षात् करने का ऄभ्यास कर रहे हैं तीसरी वर र्म को प्राप्त वकए हुए साधक
और िौथी वर र्म वाले साधकों को आतनी यो‍यता प्राप्त हो जाती ह। वक वे असानी से आन वसवियों के
ि‍कर र्में नहीं पड़ते हैं तीसरी वर र्म को प्राप्त वकए हुए वे साधक अते हैं, वजन्होंने सक्ष्र र्म पंि तर व
तन्र्माराओ ं का साक्षात्कार कर वलया ह। तथा ऄहक ं ार को साक्षात्कार करने का ऄभ्यास कर रहे हैं िौथी
वर र्म के ऄन्तगलभत वे साधक अते हैं वजन्होंने ऄहक ं ार का साक्षात्कार कर वलया ह। तथा ऄवथर्मता का
साक्षात्कार करने का ऄभ्यास कर रहे हैं
यहााँ पर जो र्मैंने ‘भूदम’ शब्द वलखा ह।, ईस वर र्म का ऄव प्राय वित्त की वर र्म (सतहद से ह।
वसवियों को प्राप्त करने के वलए सयं र्म करना जरूरी ह। वबना सयं र्म के कोइ ी वसवि प्राप्त नहीं हो
सकती ह। सयं र्म करते सर्मय पहले ईस वथतर के थथल र अकार का अलम्बन करके सयं र्म करना िावहए
तथा जब थथल र वथतर (पदाथलभद पर सयं र्म हो जाए विर सक्ष्र र्म की ओर जाना िावहए ऄथालभत् वित्त की थथल र
वृवत्त वाली वर र्म जो प्रथर्म ह।, ईस पर ववजय प्राप्त करनी िावहए प्रथर्म वर र्म को जीते वबना वद्रतीय वर र्म
पर संयर्म करने वालों को सिलता प्राप्त करने र्में सन्देह हो सकता ह। आसवलए पहले थथल र विर सक्ष्र र्म व
विर और अगे ईस पदाथलभ् की पराकािा तक संयर्म करना िावहए त ी सिलता सम् व हो सकती ह।

तत्त्वज्ञान 143
सयं र्म र्में वित्त का ही सारा खेल होता ह।, ‍योंवक थथरल तर ों की ऄपेक्षा सक्ष्र र्म तर सक्ष्र र्म हैं, सक्ष्र र्म तर की
ऄपेक्षा तन्र्माराएाँ व आवन्ियााँ सक्ष्र र्म हैं और ईनकी ऄपेक्षा ऄहक
ं ार सक्ष्र र्म ह। ऄहक
ं ार की ऄपेक्षा वित्त सक्ष्र र्म
ह। वित्त जो गणर ों का प्रथर्म ववषय पररणार्म ह। तथा संसार के सारे पदाथों की प्रकृ वत होने के कारण सबके
साथ तदाकार हो सकता ह।
स ी को र्मालर्मर ह। वक प्रत्येक वथतर ऄपने सक्ष्र र्म रूप र्में ऄवधक शव‍त की ईत्पादक होती ह।
सक्ष्र र्मता वजतनी बढ़ती जाती ह।, ईतनी ही ईसकी शव‍त र्में वृवि होती जाती ह। ईदाहरण के वलए- औषवध
के थथल र रूप की ऄपेक्षा ईनके सत्वों र्में कइ गणर ा बल बढ़ जाता ह। धातयर ें ऄव‍न द्रारा थर्म होकर ऄपने
सक्ष्र र्म पररर्माणओ र ं र्में बहुत ज्यादा प्र ावशाली बन जाती ह। आसी प्रकार जब सयं र्म करते-करते थथल
र ,
सक्ष्र र्म, सक्ष्र र्मतर व सक्ष्र र्मतर्म ऄवथथा अ जाती ह।, यह ऄवथथा ही वित्त की ऄवथथा ह। वित्त सबसे सक्ष्र र्म
होने के कारण सबर्में प्रववि होकर ईसर्मे यथोवित पररणार्म कर सकता ह।, तत्पश्चात ऄद्भरत िर्मत्कार
वदखाए जा सकते हैं तथा वसवियों को प्राप्त वकया जा सकता ह।
सर्मावध ऄवथथा र्में छोटी-छोटी वसवियााँ ऄपने अप वर्मल जाती हैं, ‍योंवक साधक वजस वर र्म पर
ऄभ्यास कर रहा होता ह।, ईस वर र्म (वित्त की वर र्मद की वसवियों का प्र ाव करछ-न-करछ थोड़े सर्मय के
वलए अ जाता ह। परन्तर जब साधक ईन वसवियों पर ्यान नहीं देता तथा ऄभ्यास र्में लगा रहता ह। तो
वसवियों का प्र ाव थवयं सर्माप्त हो जाता ह। परन्तर जो वसवियााँ बड़ी-बड़ी व शव‍तशाली होती हैं, ईनके
वलए सर्मावध द्रारा ववशेष प्रकार का सयं र्म वकया जाता ह। जब सर्मावध र्में वसिलभ वसवियों को प्राप्त करने के
वलए सयं र्म वकया जा रहा होता ह।, तब योग र्में अगे की ऄवथथा के वलए ऄवरोध ही सर्मझना िावहए,
‍योंवक साधक का लक्ष्य ईस सर्मय वसवि प्राप्त करना हो जाता ह। ये वसवियााँ योग र्में ऄवरोध थवरूप हैं
बड़ी-बड़ी वसवियों के वलए कइ-कइ वषों तक सयं र्म वकया जाता ह।, तब जाकर सिलता हावसल की जा
सकती ह। करछ वसवियााँ तो ऐसी हैं वक ईन्हें प्रत्येक साधक प्राप्त ी नहीं कर सकता ह। यह वसिलभ ववरले
साधकों को ही प्राप्त हो सकती हैं
बड़ी-बड़ी वसवियााँ प्राप्त करने के वलए पंि तर ों के स ी पााँिों थवरूपों र्में संयर्म करके जब ववजय
प्राप्त हो जाए, तब पााँिों तर ों पर जय प्राप्त होती ह। आसके बाद वसवियााँ प्राप्त करने का द्रार अ जाता ह।
पााँिों तर ों की पााँिों ऄवथथाओ ं पर जय प्राप्त करना स ी साधकों के वश की बात नहीं ह। यवद पााँिों
तर ों पर जय प्राप्त करने के वलए प्रयासरत हो जाएगा तो साधक की अयर सर्माप्त हो जाएगी, तब ी जय
प्राप्त नहीं कर पायेगा बड़ी-बड़ी वसवियााँ वसिलभ ईनकी प्रावप्त के वलए हैं, वजन्होंने पवर लभ जन्र्मों र्में सर्मावध की

तत्त्वज्ञान 144
ईच्ितर ऄथवा ईच्ितर्म ऄवथथा प्राप्त कर ली ह। ऐसे साधक वतलभर्मान जन्र्म र्में शीघ्र ही सर्मावध के द्रारा
ऄपने पवर लभ जन्र्म के योग के ऄभ्यास वाली वर र्म को प्राप्त कर अगे बढ़ना शरू र कर दते हैं तथा वपछले
जन्र्म की सर्मावध के संथकारों के प्र ाव से ईन्नवत र्में सहायता वर्मलती ह। ऄब र्मैं पााँिों तर ों की पााँिों
ऄवथथाओ ं (रूपोंद के ववषय र्में वलखता हाँ पृथ्वी, जल, ऄव‍न, वाय,र अकाश आन पााँिों तर ों के पााँि-
पााँि थवरूप हैं, जो आस प्रकार हैं 1. स्थूल 2. स्वरूप 3. सक्ष्ू म 4. अन्वयीरूप 5. अथयतत्त्व।
स्थूल- पृथ्वी, जल, ऄव‍न, वायर और अकाश का ऄपना-ऄपना वववशि अकार थथल
र रूप र्में ह।
स्वरूप- ईपयलभक्त
र पााँिों तर ों का ऄपना-ऄपना वनयत धर्मलभ ह।, वजनसे ये जाने जाते हैं ज।से-पृथ्वी का
गन्ध, जल का विकनापन, ऄव‍न का ईष्णता, वायर की गवत और कंपन, अकाश का ऄवकाश (रर‍तताद
थवरूप ह।
सूक्ष्म- थथल
र तर ों के कारण पृथ्वी की गन्ध तन्र्मारा, जल की रस तन्र्मारा, ऄव‍न की रूप तन्र्मारा,
वायर की थपशलभ तन्र्मारा, अकाश की शब्द तन्र्मारा सक्ष्र र्म रूप ह।
अन्वयीरूप- सत्त्वगणर , रजोगणर व तर्मोगणर , ये तीनों गणर ऄपने प्रकाश, वक्रया और वथथवत धर्मलभ से
पााँिों तर ों र्में ऄन्वयी ाव से वर्मले रहते हैं, यह ऄन्वयी रुप ह।
अथयतत्त्व- जीवात्र्मा का ोग और ऄपवगलभ वजस प्रयोजन को लेकर पााँिो तर ऄपने-ऄपने कायों र्में
लगे हुए हैं, वह ऄथलभतत्त्व रुप ह।
आस प्रकार पााँिों तर ों के धर्मलभ, लक्षण और ऄवथथा ेदों से पच्िीस रूपों र्में क्रर्म से साक्षात् पयलभन्त
सयं र्म करने से पााँिों तर ों का सर्मान रूप से ज्ञान और परवशीकार हो जाता ह।, तब स ी तर ों की
प्रकृ वतयााँ योगी के सकं कपानसर ार होने लगती हैं ऄपवगलभ का ऄथलभ ह।– दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त ऄथालभत्
ब्रह्म की प्रावप्त
पााँिों रुपों की प्रथर्म तीन ऄवथथाएाँ ज्यादातर साधकों को प्राप्त हो जाती हैं आन तीनों ऄवथथाओ ं
को प्राप्त करने के वलए साधकों को कठोर साधना करनी पड़ती ह। परन्तर बाद की दोनों ऄवथथाएाँ बड़ी
कवठन हैं यह दोनों ऄवथथाएाँ स ी साधकों के वलए वबककरल ऄसम् व हैं, ‍योंवक स ी साधकों के कर्मलभ
सर्माप्त नहीं होते हैं और न ही ब्रह्म प्रावप्त होती ह। ज्यादातर साधक ऄहक ं ार की सीर्मा पर जाकर ठहर
जाते हैं तथा अगे का ऄभ्यास नहीं करते ऄहक ं ार की सावत्वक वृवत्त के द्रारा ह्रदय र्में दीप वशखा की
ााँवत (जलती हुइ लौ के सर्मानद साक्षात् होने पर ऄपने अपको पणर लभ सर्मझ लेते हैं, जबवक यह ऄहक ं ार

तत्त्वज्ञान 145
की एक ऄत्यन्त शव‍तशाली सावत्वक वृवत्त होती ह। आसवलए साधक को आसी ब्रह्म का साक्षात्कार
सर्मझकर ऄपने को धन्य नहीं सर्मझ लेना िावहए, ‍योंवक यह वाथतववक थवरूप दशलभन नहीं ह। यहााँ से
अगे की ऄवथथा ऄत्यन्त कवठन ह। ऄ ी साधक को कािी लम्बा र्मागलभ तय करना ह।, परन्तर वजन
साधकों ने ोग कर्मलभ पणर लभ कर वलए हैं, वववेक-ख्यावत के द्रारा वित्त व अत्र्मा की व न्नता का ज्ञान हो
िक
र ा ह। तथा वनबीज सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे हैं, ऐसे योवगयों को ऄथलभतत्त्व की प्रावप्त कहा जाता हैं
वजस प्रकार पिं तर ों पर संयर्म करने के बाद ढेरों बड़ी-बड़ी वसवियााँ प्राप्त होती हैं, ईसी प्रकार कइ
ऄलग-ऄलग पदाथों पर सयं र्म करने से ी वसवियााँ प्राप्त होती हैं हर्मारा सोिना ह। वक वसवियों के
ववषय र्में ज्यादा न वलखा जाए त ी ठीक ह।, ‍योंवक वकसी सर्मय र्मैंने ी ऄपना कािी सर्मय वसवियों के
ि‍कर र्में नष्ट वकया था हर्में वसवियााँ प्राप्त होनी शरू
र ी हो गइ थी, परन्तर हर्मारा बहुत सर्मय लगने के
कारण र्मैं आस र्मागलभ से ऄलग हो गया बड़ी-बड़ी वसवियों को प्राप्त करने की आच्छा त ी करनी िावहए जब
ऄहक ं ार की वर र्म वसि हो गइ हो ऄथालभत् ववदेहावथथा प्राप्त कर ली हो ईदान वायर को परर ी तरह से ऄपने
वश र्में करने का ऄभ्यास करना िावहए र्मैं पााँिों प्राणों को करम् क के द्रारा प।र के तलवे पर एकर कर
वदया करता था, आससे थथल र शरीर हकका होने लगता ह। र्मैं ोजन ऄकप-र्मार ही करता था तावक वजन्दा
बना रहाँ करम् क प्राणायार्म की ऄववध शरू र अत र्में तीन से पााँि वर्मनट तक होनी िावहए थथल र वायर का
थपशलभ साधक के थथल र शरीर पर वबककरल र्महससर नहीं होना िावहए, िाहे तेज हवा ‍यों ना िल रही हो
व्यवहार की दशा र्में ऐसा र्महससर होना िावहए ज।से वह थथल र शरीर र्में नहीं ह।, त ी वसवि प्राप्त करने की
शरूर अत करो परन्तर सबसे ऄच्छा ह। वक ऄपने जीवन का बहुर्मकर य सर्मय वसवियों के ि‍कर र्में नष्ट न
करें , बवकक योग र्मागलभ पर अगे बढ़ने के वलए सद।व ऄभ्यास करते रहना िावहए

तत्त्वज्ञान 146
समादध
ऄिागं योग के ऄनसर ार सर्मावध अठवीं सीढ़ी या पायदान ह। सर्मावध ऄवथथा प्राप्त करने के वलए
साधक को पहले सातों सीवढ़यों (यर्म, वनयर्म, असन, प्राणायार्म, प्रत्याहार, धारणा, ्यानद का ऄभ्यास
करना जरूरी ह। आसके बाद ही अठवीं सीढ़ी ऄथालभत् सर्मावध ऄवथथा र्में पहुिाँ ा जा सकता ह। जब वकसी
्येय वथतर को वित्त की वृवत्त र्मार से लगाया जाता ह। ऄथवा जब ्येय वथतर को वित्त की वृवत्त से धारण
वकया जाता ह।, तो ईसे धारणा कहते हैं आस धारणा के सर्मय बीि-बीि र्में ऄन्य वृवत्तयााँ ी अती रहती
हैं, परन्तर जब वृवत्त (जो ्येय वथतर र्में लगाइ गइ ह।द सर्मान रूप से बराबर प्रवावहत होती रहे, बीि र्में वकसी
प्रकार की दसर री वृवत्त न अए, तब ईसे ्यान कहते हैं यही ्यान बाद र्में सर्मावध कहलाता ह। जब ईसर्में
के वल ्येय वथतर ऄथलभ र्मार से (शन्र य ज।सीद ाषने लगे और यह ान न हो वक र्मैं ्यान कर रहा ह,ाँ वसिलभ
्येय वथतर के थवरूप का ान होता रहे, तब आसे सर्मावध कहते हैं सर्मावध दो प्रकार की होती ह।- एक–
सबीज सर्मावध, दूसरी– वनबीज सर्मावध
सबीज समादध– ्यान की पररप‍व ऄवथथा र्में सबीज सर्मावध लगनी शरू र हो जाती ह। आसर्में
बीज रूप र्में संसार का ववषय ्येयाकार वृवत्त के रूप र्में रहता ह। आस ऄवथथा र्में ्येय थवरूप र्मार से
ऄववथथत होकर प्रकावशत होने लगता ह। आससे पहले ्यान र्में ्याता और ्येय की वरपटर ी बनती ह। आस
वरपटर ी का सर्मावध र्में ऄ ाव हो जाता ह। ्यानावथथा र्में ्येय वथतर के अलम्बन वाली (देखने वालीद
वृवत्त सर्मान रूप से बहती रहती ह। ऄथवा सर्मान रूप से ईदय होती रहती ह। आस वृवत्त र्में (्येय वथतर के
अलम्बन वाली वृवत्तद ्याता और ्यान दोनों सर्मावहत हो जाते हैं ज।से-ज।से ्यान ऄथालभत् ऄभ्यास
बढ़ता जाता ह।, ्येय रूपी वृवत्त र्में व्यापकता बढ़ती जाती ह। आस वृवत्त र्में सत्त्वगणर का प्र ाव ऄभ्यास के
ऄनसर ार बढ़ने के कारण ऄवधक प्रकावशत होती जाती ह। तथा ्याता और ्यान ईस व्यापक प्रकाश र्में
ऄपने थवरूप से शन्र य ज।से होते जाते हैं जब ्यान का ऄभ्यास ऄवधक बढ़ जाए, तब ्याता और ्यान
ऄपने थवरूप से शन्र य होकर ्येय र्में सम्पणर लभता से ावसत होने लगे, तब आस ऄवथथा को सबीज सर्मावध
कहते हैं
साधक ज।से-ज।से ऄभ्यास बढ़ाता ह।, ईसके वित्त र्में सावत्वकता बढ़ती रहती ह। तथा रजोगणर व
तर्मोगणर का प्र ाव कर्म होता जाता ह। आससे साधक ऄन्तर्मलभख र ी होता ह। तथा वदव्यता ी बढ़ती ह।
ऄभ्यास के ऄनसर ार वित्त की उाँिी वर र्मयों र्में रजोगणर व तर्मोगणर कर्म होता जाता ह।, आससे वित्त र्में
प्रकाश ी बढ़ता जाता ह। सत्त्वगणर के प्रकाश र्में रजोगणर व तर्मोगणर का र्मल धल
र ता जाता ह।, तब साधक

तत्त्वज्ञान 147
को सर्मावध की ईच्ितर व ईच्ितर्म ऄवथथा धीरे -धीरे प्राप्त होने लगती ह।, वजससे साधक का जीवन
सावत्वक व वदव्य हो जाता ह। सबीज सर्मावध से एका्र ता की प्रावप्त होती ह।, यह वित्त की एक ऄवथथा
ह। आस एका्र ऄवथथा र्में वित्त से तर्म के र्मल का अवरण और रजोगणर की िंिलता से वनवृवत्त हो जाती
ह। तथा सत्त्वगणर के प्रकाश र्में एक ही वृवत्त रहती ह। यह वृवत्त सावत्वक व ऄत्यन्त सशक्त होती ह। आस
सर्मावध की सबसे उाँिी ऄवथथा वववेक-ख्यावत ह। वववेक-ख्यावत र्में अत्र्मा और वित्त की व न्नता का
ज्ञान होता ह।, तब ऄववद्या, कलेशात्र्मक कर्मलभ अवद जले हुए बीजों के सर्मान हो जाते हैं
दनबीज समादध– वनबीज सर्मावध र्में वकसी प्रकार का सांसाररक बीज नहीं होता ह। जब ्येयाकार
वृवत्त का ऄ ाव हो जाए तथा स ी प्रकार की वृवत्तयों का ऄ ाव हो जाए, तब वनबीज सर्मावध लगती ह।
आस ऄवथथा र्में पर-व।रा‍य के संथकार शेष रहते हैं वकसी प्रकार की वृवत्त न रहने के कारण वकसी ी पदाथलभ
के ववषय र्में जानकारी नहीं होती ह। ऄववद्या, ‍लेश व कर्मालभशयों के जन्र्म अवद के बीज नहीं रहते हैं वित्त
र्में वनरोध के पररणार्म के कारण अत्र्मा वकसी बाह्य दृश्य का िष्टा नहीं रहता ह।, विर वह ऄपने थवरूप र्में
ऄववथथत रहता ह। वित्त अत्र्मा को दृश्य वदखलाने का कायलभ बन्द करके अत्र्माकार हो जाता ह।, परन्तर
वनरोध पररणार्म की ऄवथथा र्में गणर सत्त्ववित्त र्में ऄववथथत रहते हैं आनर्में ऄब के वल अंतररक पररणार्म
होता रहता ह। आस ऄवथथा को वित्त का ‘प्रशाुंत प्रवाह वाला’ कहते हैं
सबीज सर्मावध र्में अलम्बन की वृवत्त होने के कारण आसी को ससं ार का बीज कहते हैं सबीज
सर्मावध को दो ागों र्में बााँटा जा सकता ह। एक- सववककप सर्मावध, दो- वनववलभककप सर्मावध सववककप
सर्मावध शब्द (नार्मद, ऄथलभ (रूपद, और ज्ञान के ववककपों से यक्त र होने के कारण आसे सववककप सर्मावध
कहते हैं वनववलभककप सर्मावध र्में शब्द (नार्मद और ज्ञान के ववककपों से रवहत वित्त वृवत्त के वल ऄथलभ र्मार से
ावसत होती ह। वनववलभककप सर्मावध को वनबीज सर्मावध नहीं सर्मझना िावहए, ‍योंवक वनववलभककप सर्मावध
र्में सथं कार शेष रहते हैं यद्यवप वनववलभककप सर्मावध र्में वरपटर ी का (्याता, ्यान और ्येयद ऄ ाव होता ह।,
परन्तर अलम्बन वथतर ईपवथथत (ऄथलभर्मार र्मेंद रहती ह।, जबवक वनबीज सर्मावध र्में अत्र्मा र्में ऄववथथवत
रहती ह। ईसर्में ससं ार का वकसी प्रकार का बीज शेष नहीं रहता ह।
सबीज सर्मावध र्में सबसे पहले थथल र ्र ाह्य वथतर (पदाथलभद का अलम्बन होता ह।, विर सक्ष्र र्म ्र ाह्य
वथतर का अलम्बन होता ह। जब साधक थथल र ्र ाह्य वथतर का अलम्बन करके थथल र ववषयों का
साक्षात्कार करता ह। तथा सक्ष्र र्म ्र ाह्य वथतर का अलम्बन करके सक्ष्र र्म ववषयों का साक्षात्कार करता ह।,
तब थथल र ्र ाह्य वथतर के अलम्बन के कारण आस सर्मावध को ववतकालभनगर त सर्मावध कहते हैं सक्ष्र र्म ्र ाह्य

तत्त्वज्ञान 148
वथतर के अलम्बन के कारण आस सर्मावध को वविारानगर त सर्मावध (सववककप सर्मावधद कहते हैं सबीज
सर्मावध के दो प्रकार होते हैं, सववककप सर्मावध (सवविार सर्मावधद और वनववलभककप सर्मावध (वनववलभिार
सर्मावधद परन्तर आन दोनों प्रकार की सर्मावधयों के वित्त की ववव न्न ऄवथथाओ ं (ववव न्न वर र्मयोंद के
कारण सवर वधा हेतर कइ प्रकार कर वदए गये हैं जब साधक थथल र ववषयों के साक्षात्कार के वलए ऄभ्यास
करता ह।, तो ईसे ववतकालभनगर त सर्मावध कहते हैं जब सक्ष्र र्म ववषयों के साक्षात्कार के वलए ऄभ्यास करता
ह।, तब ईसे वविारानगर त सर्मावध कहते हैं सवविार सर्मावध और वनववलभिार सर्मावध के कारण ववतकालभनगर त
व वविारानगर त सर्मावध के ी ेद हो जाते हैं एक– सववतकलभ सर्मावध, दूसरा– वनववलभतकलभ सर्मावध, तीन–
सवविार सर्मावध, चार– वनववलभिार सर्मावध आन िारों सर्मावधयों र्में थथल र पिं तर , सक्ष्र र्म पिं तर , थथल

आवन्ियों, सक्ष्र र्म आवन्ियों, र्मन, बवर ि व पााँिों तन्र्माराओ ं का साक्षात्कार होता ह। आन स ी के साक्षात्कार के
बाद कठोर ऄभ्यास करने पर वनववलभिार सर्मावध (वनववलभककप सर्मावधद की ईच्ितर ऄवथथा प्राप्त होती ह।
आस ऄवथथा र्में साधक के वित्त के ऄहक ं ार र्में सत्त्वगणर की ऄवधकता होने के कारण साधक को आस
ऄवथथा र्में अनन्द की ऄनर वर त होती ह। अनन्द की ऄनर वर त सत्त्वगणर के कारण होती ह। आसवलए कोइ-
कोइ साधक आस ऄवथथा को अनन्दानगर त सर्मावध ी कहते हैं, परन्तर यह वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर
ऄवथथा ह। आस ऄवथथा र्में ऄहक ं ार यानी ‘र्मैं ह’ाँ की वृवत्त रहती ह। जब साधक का ऄभ्यास और बढ़ता
ह।, तब ईसे वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा प्राप्त होती ह।, आस ऄवथथा र्में वित्त की ऄवथर्मता
वाली वर र्म अती ह। यहााँ पर के वल ‘ह’ाँ (ऄवथर्मद वृवत्त रह जाती ह।
सवविार सर्मावध (सववककप सर्मावधद और वनववलभिार सर्मावध (वनववलभककप सर्मावधद के छः ेद हो
गये हैं– 1. सदवतकय समादध, 2. दनदवयतकय समादध, 3. सदवचार समादध, 4. दनदवयचार समादध,
5. दनदवयचार समादध की उच्चतर अवस्था, 6. दनदवयचार समादध की उच्चतम अवस्था।
सदवतकय समादध- यह सर्मावध की पहली ऄवथथा ह। ऄभ्यास के कारण रजोगणर व तर्मोगणर के
दबने पर सत्त्वगणर प्रधान होता ह।, तब सत्त्वगणर के प्रकाश र्में थथल र तर ों का साक्षात्कार होता ह। वित्त की
आस वर र्म का सम्बन्ध पााँिों थथल र तर व ईनसे बने पदाथों (थथल र शरीर व थथल र जगतद् से होता ह। जब
वित्त की वृवत्त को वकसी थथल र पदाथलभ पर ठहराया जाता ह।, तब ईस थथल र पदाथलभ के वाथतववक थवरूप का
सारे ववषयों सवहत साक्षात्कार होता ह। ये सारे ववषय साधक ने पहले क ी नहीं देंखे होंगे , न ही क ी सनर े
होंगे और न ही क ी ऄनर व वकए होगें आस सर्मावध र्में दो प्रकार के ऄनर व होते हैं एक- वपछले
संथकारों का वृवत्त रूप र्में प्रकट होना, दूसरा- आन वृवत्त रूप र्में प्रकट हुए संथकारों का वाथतववक थवरूप का

तत्त्वज्ञान 149
ज्ञान करा देना जब तर्मोगणर ी संथकार वृवत्त रूप र्में प्रकट होते हैं, तब वित्त की वृवत्त वकसी यंकर डरावनी
अकृ वत वाली हो जाती ह। ऄथवा तर्मोगणर ी व रजोगणर ी वथतर (पदाथलभद के अकार वाला रूप धारण कर
लेती ह।, वजससे साधक को क ी-क ी सर्मावध ऄवथथा र्में डर ी र्महससर होता ह।, ‍योंवक वृवत्तयों का
थवरूप ौवतक जगत् की वथतर के सर्मान होता ह। ऄथवा वृवत्तयााँ काकपवनक थवरूप धारण करती हैं, ऐसी
वृवत्तयााँ तर्मोगणर ी होती हैं आसवलए तर्मोगणर के कारण प्रकाश नहीं होता ह। ऄथवा धंधर ला-सा प्रकाश होता
ह। परन्तर जब सावत्वक संथकार वृवत्त रूप र्में प्रकट होते हैं, तब साधकों को वकसी धावर्मलभक थवरूप वाले के
दशलभन होते हैं, ‍योंवक वृवत्त सत्त्वगणर से यक्त
र होती ह। आसवलए सावत्वक थवरूप को धारण करती ह। ऐसी
ऄवथथा र्में धर्मालभत्र्माओ ं व देवताओ ं अवद का साक्षात्कार होता ह। वृवत्तयााँ प्रकाश से यक्त
र होती हैं ऄथालभत्
सारे दृश्य प्रकाश र्में वदखाइ देते हैं ये संथकार वपछले जन्र्मों के ी हो सकते हैं तथा वतलभर्मान जन्र्म के ी हो
सकते हैं वपछले जन्र्मों के संथकार होने के कारण साधक को आन्हीं वृवत्तयों के द्रारा वपछले जन्र्म की
घटनाएाँ ी वदखाइ पड़ जाती हैं क ी-क ी सर्मावध ऄवथथा र्में साधक को वदखाइ देता ह।- वह ईड़ रहा ह।
अवद आस प्रकार के ऄनर व प्राणों के कारण अते हैं स ी प्रकार के ऄनर व प्रकृ वत की सोलह
ववकृ वतयों (पााँि थथल र तर , दस आवन्ियों व र्मनद के ऄन्तगलभत अते हैं आसवलए सववतकलभ सर्मावध कही गइ ह।,
‍योंवक थथल र ववषयों र्में शब्द (नार्मद, ऄथलभ (रूपद, ज्ञान के ववककपों से यक्त
र होती ह। आसे ववककपों से यक्त र
होने के कारण सववककप सर्मावध ी कहते हैं
दनदवयतकय समादध– वनववलभतकलभ सर्मावध (वनववलभककप सर्मावधद साधक को तब लगती ह।, जब ऄभ्यास
के द्रारा सववतकलभ सर्मावध की पररप‍व ऄवथथा प्राप्त कर लेता ह। पररप‍व ऄवथथा र्में साधक को जो
ऄ ी थथल र ववषयों र्में शब्द, ऄथलभ और ज्ञान का ववककप प्राप्त रहता ह।, तब ्येय वथतर थवरूप से शन्र य
ज।सी (ऄथलभरूप र्मेंद ावसत होने लगती ह। शरू र अत र्में वनववलभतकलभ सर्मावध र्मार करछ क्षणों की होती ह।, विर
ऄभ्यास के अधार पर सर्मावध का सर्मय बढ़ता जाता ह। वनववतकलभ सर्मावध र्में वकसी प्रकार का ववककप न
रहने के कारण आसे वनववलभककप सर्मावध कहते हैं
सदवचार समादध– सवविार सर्मावध को सववककप सर्मावध ी कहते हैं पहले सववतकलभ सर्मावध र्में
थथल र ववषयों र्में शब्द, ऄथलभ और ज्ञान का ववककप रहता ह।, परन्तर आस सर्मावध र्में थथल र ववषय न होकर
सक्ष्र र्म ववषय होता ह। सक्ष्र र्म ववषयों र्में देश (थथानद, काल (वतलभर्मान काल, तर काल, ववष्यकालद और
वनवर्मत्त (धर्मलभद के ववककपों से यक्त र वित्त वृवत्त ावसत होती ह। आस सर्मावध के ऄन्तगलभत सक्ष्र र्म पंि तर ों से
लेकर तन्र्माराओ ं तक सक्ष्र र्म ववषयों का साक्षात्कार होता ह। थथल र पंि तर ों से परे तन्र्माराओ ं तक सक्ष्र र्म-

तत्त्वज्ञान 150
पिं तर ों का एक तारतम्य िला गया ह। ऄथालभत् सक्ष्र र्म तर ों से तन्र्माराओ ं तक घनत्व बदलता िला गया
ह। आसी बदले हुए घनत्व के ऄनसर ार सारे सक्ष्र र्म लोंको का वनर्मालभण हुअ ह। आन्हीं सक्ष्र र्म लोकों का
शरू र अत से लेकर ऄन्त तक जो अपस र्में सक्ष्र र्मता का सम्बन्ध ह।, ईसे तारतम्य कहा जाता ह। आस प्रकार
की सर्मावध के ऄन्तगलभत सारे सक्ष्र र्म लोक अते हैं ये लोक वाथतव र्में सक्ष्र र्म ऄवथथा के नार्म हैं आन सक्ष्र र्म
ऄवथथाओ ं र्में सक्ष्र र्मता के ऄनसर ार सत्त्वगणर की ऄवधकता हो जाती ह।, आस कारण ये ऄवथथाएाँ संककपों
वाली व अनन्द वाली होती हैं, परन्तर सावत्वकता और सक्ष्र र्मता के ऄनसर ार ही संककप और अनन्द र्में ी
ऄंतर होता ह। आस ऄवथथा र्में साधक को बहुत ऄच्छे -ऄच्छे ऄनर व अते हैं, ‍योंवक ये ऄनर व सक्ष्र र्म
लोकों के होते हैं साधक की यो‍यता के ऄनसर ार वकसी ी लोक के दृश्य वदखाइ दे सकते हैं तथा ईस
दृश्य के ववषय र्में ज्ञान ी होता ह। आन्हीं दृश्यों के कारण साधक के ऄन्दर अनन्द की ऄनर वर त होती ह।
तथा प्रसन्नता ी बढ़ती ह। साधक को ऐसा लगता ह। ज।से सारे िौदह लोक ईसके ऄन्दर सर्माये हुए हैं,
वह जब िाहे सर्मावध र्में ब।ठकर आन लोको का भ्रर्मण कर सकता ह। क ी-क ी साधक को यह ी भ्रर्म
होने लगता ह। वक वह बहुत बड़ा योगी बन गया ह।, परन्तर ऐसा ऄव र्मान साधक के ऄन्दर नहीं अना
िावहए नहीं तो पतन होने का डर ी रहता ह। आस सर्मय साधक की वदव्य दृवष्ट ी कायलभ करने लगती ह।
आससे साधक सक्ष्र र्म पदाथलभ को बड़े अरार्म से थपष्ट रूप से देख सकता ह। क ी-क ी साधक के वित्त र्में
संवित सथं कार धावर्मलभक तथा सावत्वक वृवत्त के रूप र्में प्रकट होने लगते हैं आससे साधक को सावत्वक दृश्य
वदखाइ पड़ने लगते हैं ऐसे सावत्वक दृश्य साधक को ऄपने-ऄपने काकपवनक रूप र्में प्रकाशर्मय अकृ वत
र्में अ ा ज।से प्रकट होते हैं ऐसे दृश्य वित्त की सावत्वक वृवत्तयााँ थवयं धारण कर लेती हैं साधक के
ऄन्दर जो ी वविार अते हैं, वे क ी-क ी सर्मावध ऄवथथा र्में वदखाइ पड़ने लगते हैं आस ऄवथथा र्में
साधक को पाताल लोक से लेकर ब्रह्म-लोक तक के दृश्य ईसकी यो‍यतानसर ार वदखाइ पड़ते हैं ईसे देवी-
देवताओ ं के दशलभन होते हैं तथा ईनसे बातें ी होती हैं, वजससे साधक को साधारण र्मनष्र य वसि परू र ष कह
कर सम्बोवधत करने लग जाता ह। साधक को ऐसे यश से बिना िावहए आससे ऄच्छा ह। वक साधक
ऄपने ऄनर व वकसी को न बताए, वसिलभ ऄपने सर्मकक्ष वाले साधकों को ही बताए बहुत से साधक आसी
सवविार सर्मावध र्में अस‍त हो जाते हैं, वजससे वे अत्र्मवथथवत से वंवित हो जाते हैं आस ऄवथथा र्में
असव‍त का कारण यह ी हो सकता ह। वक ऄभ्यास के कारण वित्त की एका्र ता र्में दृढ़ता बढ़ जाती ह।
एका्र ता की दृढ़ता के कारण सत्त्वगणर का प्रकाश वकसी ी सक्ष्र र्म ववषय का साक्षात् कराने र्में सार्मथलभवान
हो जाता ह। आससे साधक ऄपने ऄन्दर जो ी आच्छा करता ह।, ईसे ईसी वविार का साक्षात्कार हो जाता

तत्त्वज्ञान 151
ह। साधक थवयं ऄपने अपको वसि परू र ष सर्मझ ब।ठता ह।, ‍योंवक वह जो ी जानकारी िाहता ह।, वह
जानकारी ईसको ववथतारपवर लभक हो जाती ह।
दनदवयचार समादध– वनववलभिार सर्मावध को वनववलभककप सर्मावध ी कहते हैं आस प्रकार की सर्मावध
देश (थथानद, काल (वतलभर्मान, तर , ववष्यद, वनवर्मत्त (धर्मलभद के ववककपों से रवहत होती ह। वसिलभ वित्त वृवत्त
धर्मलभ र्मार से ावसत होती रहती ह। पहले शरू र अत र्में यह सर्मावध र्मार करछ क्षणों की होती ह।, विर
ऄभ्यास बढ़ने पर वनववलभिार सर्मावध का सर्मय ी बढ़ता रहता ह। आस ऄवथथा र्में साधक के ऄन्दर वकसी
प्रकार का ववककप नहीं रहता ह। जब तक साधक का र्मन व प्राण ब्रह्मरन्र के ऄन्दर रहता ह।, तब तक
वनववलभिार सर्मावध लगती ह। जब र्मन व प्राण ब्रह्मरन्र से नीिे अ जाते हैं, तब सर्मावध सवविार हो जाती
ह।, ‍योंवक आस ऄवथथा र्में र्मन व प्राण अज्ञा िक्र पर होते हैं वित्त र्में विर ववककप ईदय होने लगता ह।
यवद विर साधक का र्मन व प्राण एका्र ता के कारण ब्रह्मरन्र के ऄन्दर िला जाए तो वनववलभिार सर्मावध
लग जाती ह। शरू र अत र्में साधक को आसी प्रकार वनववलभिार सर्मावध लगती ह। र्मगर ऄभ्यास बढ़ जाने पर
र्मन व प्राण बीि र्में ब्रह्मरन्र से नीिे नहीं अते हैं, बवकक सर्मावध ंग होने पर ही नीिे अते हैं साधक के
वित्त र्में ऄ ी शेष संथकार ईपवथथत रहते हैं वनववलभिार सर्मावध का लगना ऄथालभत् ऄहक ं ार की वर र्म पर
प्रवेश करना ह।
दनदवयचार समादध की उच्चतर अवस्था– वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा के ऄन्तगलभत
ऄहक ं ार अता ह।, ‍योंवक आवन्ियों और तन्र्माराओ ं का कारण ऄहक ं ार ह। आसवलए आवन्ियों और
तन्र्माराओ ं से ऄवधक सावत्वक व सक्ष्र र्म ऄहकं ार हुअ वनववलभिार सर्मावध र्में वजस सक्ष्र र्म ववषय का ऄथालभत्
देश, काल और वनवर्मत्त (धर्मलभद के ववककपों से रवहत धर्मलभ र्मार से ावसत होने वाली वित्त की वजस वृवत्त
का साक्षात्कार वकया जाता ह।, ईसके बाद साधक जब और सर्मावध का ऄभ्यास बढ़ाता ह।, तब ऄभ्यास
के एक वनवश्ित ऄवथथा के बाद वित्त की एका्र ता के द्रारा सत्त्वगणर की ऄवधकता र्में ऄहक ं ार थवयं
साक्षात् होने लगता ह। वनववलभिार सर्मावध की आस ईच्ितर ऄवथथा को प्राप्त करने के वलए ऄथालभत्
ऄहक ं ार का साक्षात्कार करने के वलए साधक को ऄत्यन्त कठोर व वनरन्तर सर्मावध का ऄभ्यास करना
पड़ता ह। तथा ढेरों प्रकार के ौवतक व र्मानवसक कष्ट ईठाने के साथ त्याग और व।रा‍य का सहारा ले लेना
िावहए, त ी ऄहक ं ार का साक्षात्कार होना सम् व ह। ऄहक ं ार का साक्षात्कार हर साधक नहीं कर सकता
ह।, ‍योंवक आसके साक्षात्कार से पवर लभ एक वनवश्ित र्मारा र्में ईसे ऄपने संथकार नष्ट करने होंगे ये संथकार
वसिलभ ोगकर ही नष्ट वकए जा सकते हैं, ऄन्य वकसी प्रकार से नष्ट नहीं वकए जा सकते हैं ऄब साधक

तत्त्वज्ञान 152
सर्मझ गये होंगे वक ऄहकं ार को साक्षात्कार करने के वलए वनश्िय ही वनरन्तर कठोर ऄभ्यास करना होगा
तथा वित्त र्में वथथत ‘शेष सस्ुं कारों’ को एक वनवश्ित र्मारा र्में ोगकर सर्माप्त करना होगा ये शेष
संथकार ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक होते हैं
जब साधक वित्त की आस वर र्म पर (ईच्ितर ऄवथथा र्मेंद ऄभ्यास करता ह।, तब ईसे अनन्द की
ऄनर वर त होती ह। आस अनन्द की ऄनर वर त का कारण सत्त्वगणर प्रधान ऄहक ं ार ह।, ‍योंवक वनववलभिार
सर्मावध के बाद वनरन्तर ऄभ्यास से तथा सक्ष्र र्मता के तारतम्य को साक्षात् करते हुए साधक के वित्त र्में
सत्त्वगणर के बढ़ने से अनन्द की ऄनर वर त होने लगती ह। आस सर्मय यहााँ पर वकसी प्रकार का ववषय
ऄथवा वविार नहीं रहता ह।, वकन्तर सत्त्वगणर की प्रधानता के कारण अनन्द ही अनन्द की ऄनर वर त होती
ह।, तब ईसे ऄनर वत होती ह।, ‚मैं सुखी हाँ” आस ऄवथथा र्में साधक आवन्ियों पर ववजय प्राप्त कर लेता ह।,
‍योंवक ऄहक ं ार थथल
र तर से लेकर तन्र्माराओ ं तक सारे सक्ष्र र्म ववषयों का तथा आन ववषयों को ्र हण
कराने वाली आवन्ियों का ईपादान कारण ह। ऄहक ं ार गणर ों का दसर रा ववषय पररणार्म ह।, आसर्मे सत्त्वगणर की
प्रधानता होती ह। ऄहक ं ार के साक्षात्कार के सर्मय वित्त र्में ‘मैं हाँ’ की वृवत्त रहती ह। यही वृवत्त
(ऄहर्मवथर्मद अनन्द की ऄनर वर त कराती ह। जब साधक की करण्डवलनी ब्रह्मरन्र द्रार खोलकर अज्ञा िक्र
से होते हुए नीिे अकर (नया र्मागलभ बनाकरद ह्रदय र्में वथथर हो जाती ह।, तब करण्डवलनी ऄपना ऄव‍न तत्त्व
वाला थवरूप त्यागकर वायरू र प र्में साधक के सम्पणर लभ शरीर र्में व्याप्त हो जाती ह। आस ऄवथथा को प्राप्त
करने के बाद बहुत सर्मय तक जब वनरन्तर कठोर ऄभ्यास वकया जाता ह।, तब वित्त की एका्र ता तथा
ढृढ़ता बढ़ाने के बाद सत्त्वगणर की ऄवधकता र्में ऄहक ं ार का साक्षात्कार होता ह।
दनदवयचार समादध की उच्चतम अवस्था– वनववलभिार सर्मावध की आस ऄवथथा र्में ऄवथर्मता का
साक्षात्कार होता ह। ि।तन्यर्मय तत्त्व (अत्र्माद से प्रवतवबवम्बत वित्त वजसर्में ऄहक ं ार बीज रूप र्में रहता ह।
ऄथवा जहााँ से अत्र्मा और वित्त र्में ऄव न्नता का अरोप होता ह।, ईसे ऄवथर्मता कहते हैं यह ऄवथर्मता
ऄहक ं ार का कारण रूप ह।, आसवलए ऄवथर्मता ऄहक ं ार से ऄवधक सक्ष्र र्म ह। जब साधक वनववलभिार सर्मावध
की ईच्ितर ऄवथथा के बाद ी वनरन्तर कठोर ऄभ्यास करता रहता ह।, तब वित्त की एका्र ता ओर बढ़ने
पर जब ईच्ितर्म ऄवथथा की प्रावप्त होती ह।, ईस सर्मय ऄवथर्मता का साक्षात्कार होने लगता ह। आस
ऄवथथा र्में अनन्द की ऄनर वर त कराने वाली वृवत्त और ी सक्ष्र र्म व वनर्मलभल हो जाती ह। वनर्मलभलता बढ़ने के
कारण वृवत्त र्में वसिलभ , ‘हाँ’ (ऄवथर्मद का ज्ञान शेष रह जाता ह। ऄवथर्मता का साक्षात्कार ऄहक ं ार के सर्मान
सक्ष्र र्म ववषयों के ज।सा नहीं होता ह।, ‍योंवक िेतन तत्त्व से प्रवतवबवम्बत जो वित्त ह।, ईस प्रकावशत वित्त की

तत्त्वज्ञान 153
सज्ञं ा को ऄवथर्मता कहा जाता ह। ऄहक ं ार का ईपादान कारण व गणर ों का प्रथर्म ववषय पररणार्म के कारण
सत्त्वगणर ी ऄहकं ार से कही ऄवधक सत्त्व ऄवथर्मता र्में होता ह। आस ऄवथर्मता र्में सत्त्वगणर प्रधान रूप र्में,
रजोगणर वक्रया र्मार, तर्मोगणर रोकने के वलए होता ह। आसवलए ऄहक ं ार से कहीं ऄवधक ऄसीर्म व व्यापक
अनन्द की ऄनर वर त होती ह।
साधकों! यह ईच्ितर्म ऄवथथा प्रत्येक साधक प्राप्त नहीं कर सकता ह। यवद र्मैं कहाँ वक सैंकड़ो या
हजारों साधकों र्में वकसी एक साधक को यह ऄवथथा प्राप्त होती ह।, तो यह गलत न होगा आस ऄवथथा
को प्राप्त करने वाले साधक अगे ी वनरन्तर ऄभ्यास करते रहें तो ईन्हें दनबीज सर्मावध प्राप्त हो सकती
ह। आस ऄवथथा को (ईच्ितर्म ऄवथथाद प्राप्त करने वाले साधक को वनश्िय ही ौवतक व र्मानवसक
कष्टों का सार्मना करना पड़ता ह। ये कष्ट ईसे पवर लभ जन्र्मों के संथकारों के कारण वर्मलते हैं आन संथकारों को
ोगकर सर्माप्त करना ऄवनवायलभ होता ह। आस ऄवथथा को प्राप्त करने पर साधक के ऄन्दर वनश्िय ही
व्यापकता व सहनशीलता का प्र ाव बहुत ऄवधक हो जाता ह। आस ईच्ितर्म ऄवथथा के ऄन्त र्में वववेक-
ख्यावत की प्रावप्त होती ह। वववेक-ख्यावत ी वित्त की ही एक ऄत्यन्त सावत्वक वृवत्त होती ह। वववेक-
ख्यावत रूपी वृवत्त के ईदय होने पर अत्र्मा और वित्त र्में व न्नता का ज्ञान होता ह।
ऄ ी र्मैंने सववककप और वनववलभककप सर्मावध के ऄन्तगलभत छः प्रकार की सर्मावधयों के ववषय र्में
वलखा ह। र्मख्र यरूप से सर्मावध दो प्रकार की होती ह।– सबीज सर्मावध तथा वनबीज सर्मावध योग के
ऄभ्यासी सर्मावध के ववषय र्में ववथतारपवर लभक सर्मझ जाएाँ आसवलए सबीज सर्मावध को ेदों सवहत वलखा ह।
यहााँ पर र्मैंने सबीज सर्मावध के छः प्रकार के ेद वलखे हैं, परन्तर वकसी-वकसी थथान पर सबीज सर्मावध के
िार ेद वकए गये हैं- (1) दवतकाय नुगत समादध, (2) दवचारानुगत समादध, (3) आनन्दानुगत
समादध, (4) अदस्मतानगु त समादध। ववतकालभनगर त सर्मावध के ऄन्तगलभत सववतकलभ सर्मावध व वनववलभतकलभ
सर्मावध अती ह।, वविारानगर त सर्मावध के ऄन्तगलभत सवविार सर्मावध और वनववलभिार सर्मावध अती ह।,
अनन्दानगर त सर्मावध के ऄन्तगलभत वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा अती ह।, ऄवथर्मतानगर त सर्मावध
के ऄन्तगलभत वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा अती ह।
ऄब र्मैं ववतकलभ सर्मावध और वविार सर्मावध के ववषय र्में थोड़ा और थपष्ट वलखने का प्रयास कर रहा
हाँ र्मनष्र य जो जन्र्म, अयर और र्मृत्यर को प्राप्त होता ह।, ईसका र्मख्र य कारण ईसके वित्त र्में वथथत कर्मालभशय
हैं ये कर्मालभशय वित्त र्में संथकार के रूप र्में रहते हैं आन्हीं कर्मालभशयों के ऄनसर ार ही र्मनष्र य का जीवन िलता
ह। र्मनष्र य जो कर्मलभ करता ह।, ईनके ी कर्मालभशय संथकार रूप र्में एकर होते हैं, वही वृवत्त रूप र्में पररववतलभत

तत्त्वज्ञान 154
होकर बाहर वनकलते रहते हैं आन संथकारों को िार वर र्मयों पर ऄलग-ऄलग कर लें तो ऄच्छा ह।, आससे
सर्मझने र्में असान होगा
पहली भूदम– यह वित्त की सबसे उपरी वर र्म ह। आसर्में संथकार वृवत्त रूप र्में रहते हैं, आन्हीं के
ऄनसर ार र्मनष्र य वतलभर्मान सर्मय र्में कायलभ करता ह।, ‍योंवक ये वृवत्तयााँ बाहर वनकला करती हैं वृवत्तयााँ जब
बवहलभर्मख
र ी होती ह। तब ईसर्में रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा ऄवधक रहती ह। यवद आन्हीं वृवत्तयों को ऄभ्यास
के द्रारा ऄन्तर्मलभख
र ी कर दें तो रजोगणर क्षीण होने लगता ह। तथा सत्त्वगणर बढ़ने लगता ह। आन वृवत्तयों का
सम्बन्ध थथल र तर ों व ईनसे बने ववषयों से होता ह। आसवलए आस वर र्म की वृवत्तयों की जो ििं लता ह।,
ईसर्में एका्र ता लाने के वलए वकसी थथल र ववषय का अलम्बन करते हैं
दूसरी भदू म– यह वर र्म पहले वाली वर र्म से नीिे होती ह। आस वर र्म र्में पहली वर र्म की ऄपेक्षा
ऄवधक सक्ष्र र्म ववषयों के संथकार ववद्यर्मान रहते हैं, आसवलए यह वर र्म वविारों के ऄन्तगलभत अती ह।
तीसरी भूदम– यह ऄवथथा ऄहक ं ार के ऄन्तगलभत अती ह। यह वर र्म दसर री वर र्म से नीिे होती ह।
तथा दसर री वर र्म से ऄवधक सक्ष्र र्म होती ह। गणर ों का वद्रतीय ववषय पररणार्म ह।, आसवलए सत्त्वगणर की यहााँ
प्रधानता रहती ह।
चौथी भदू म– यह वर र्म तीसरी वर र्म से नीिे तथा ईससे ऄवधक सक्ष्र र्म ह। आस वर र्म पर िेतन तत्त्व
का प्रवतवबम्ब वित्त पर पड़ रहा ह।, आसवलए यह ईच्ितर्म ऄवथथा वाली वर र्म ह।
पहली वाली वर र्म का सम्बन्ध थथल र - तर व ईससे बने ववषयों से सम्बवन्धत ह।, ज।से- शरीर, पृथ्वी,
सयर लभ, िन्िर्मा नक्षर अवद दसर री वर र्म पहले वाली वर र्म से ऄवधक सक्ष्र र्म व व्यापक ह। आस वर र्म के
ऄन्तगलभत सारे सक्ष्र र्म लोक अते हैं, आसवलए यह वर र्म सक्ष्र र्म ऄवथथा वाली कही गइ ह। यह वर र्म वविारों
के ऄन्तगलभत अती ह। तीसरी वर र्म, दसर री वर र्म की ऄपेक्षा ऄवधक व्यापक, ऄवधक सक्ष्र र्म तथा सत्त्वगणर
की ऄवधकता से यक्त र ह। यह वर र्म ऄहकं ार के ऄन्तगलभत अती ह। सत्त्वगणर की ऄवधकता के कारण
साधक को आस ऄवथथा र्में अनन्द की ऄनर वर त होती ह। सत्त्वगणर के कारण अनन्द प्रकट होता ह। यह
वित्त की ईच्ितर ऄवथथा ह। िौथी वर र्म तीसरी वर र्म के नीिे होती ह।, आस वर र्म को ऄवथर्मता ी कहते
हैं अत्र्मा से प्रवतवबवम्बत वित्त की संज्ञा का नार्म ऄवथर्मता ह। यह वर र्म सबसे ऄवधक व्यापक व
सक्ष्र र्मतर्म ह।, आसे वित्त की ईच्ितर्म ऄवथथा कहते हैं

तत्त्वज्ञान 155
अकाश, वाय,र ऄव‍न, जल और पृथ्वी ये पााँिों थथल र पंि तर हैं शब्द, थपशलभ, रूप, रस और गन्ध
ये पााँि थथल र ववषय हैं ये थथल र - तर व आनसे बने ववषय अवद स ी ्र ाह्य ववषय हैं आन पदाथों र्में (ववषयों
र्मेंद लगने वाली सर्मावध ववतकलभ के ऄन्तगलभत अती ह। ऄपनी आच्छानसर ार साधक जब वकसी थथल र पदाथलभ
को वित्त की वृवत्त के द्रारा एका्र करने का प्रयास करता ह।, तो ईसे ईस सर्मय ईस ्येय वथतर का शब्द
(नार्मद, ऄथलभ (रूपद और ज्ञान का ववककप रहता ह। ज।से वकसी साधक ने िन्िर्मा को ्येय बनाकर सर्मावध
लगाइ तो ईसर्में िन्िर्मा का नार्म (शब्दद, िन्िर्मा का रूप (ऄथलभद और िन्िर्मा का ज्ञान रहता ह। ये तीन
प्रकार की ककपना ही सववतकलभ सर्मावध (सववककप सर्मावधद ह। ऄगर गौर करें तो सर्मझ र्में अ जाएगा वक
ये तीनों शब्द, ऄथलभ और ज्ञान एक दसर रे से व न्न हैं, परन्तर शब्द के संकेत की थर्मृवत र्मार से एक का ान
होने से ऄन्य दोनों का ी एक साथ ान हो जाता ह। ज।से- यवद वकसी ने िन्िर्मा कहा तो िन्िर्मा का नार्म
(शब्दद, िन्िर्मा का रूप (ऄथलभद और िन्िर्मा का ज्ञान हो जाता ह। वकसी के द्रारा िन्िर्मा कहने र्मार से
िन्िर्मा से सम्बवन्धत तीनों प्रकार का ान हो जाता ह।, आसवलए तीनों प्रकार का ान ऄ ेद-सा ह। जब
तक नार्म (शब्दद, रूप (ऄथलभद और ज्ञान अपस र्में व न्न-व न्न ह।, तीनों प्रकार का ान ऄ ेद-सा होने के
कारण ऄसत्य ह।, आसवलए ऄसत्य, ऄ ेद ववषयक होने से यह ान ववककप रूप ह। आस प्रकार के ववककप
से यक्तर सर्मावध को सववककप सर्मावध ऄथवा सववतकलभ सर्मावध कहते हैं
सववतकलभ सर्मावध के वनरन्तर ऄभ्यास से वित्त की एका्र ता बढ़ती ह।, ‍योंवक रजोगणर व तर्मोगणर
क्षीण होता ह। तथा सत्त्वगणर की ऄवधकता बढ़ती ह। सत्त्वगणर की ऄवधकता वजतनी बढ़ेगी, ईतनी ही वित्त
की एका्र ता ी बढेऺगी ्येय वथतर (पदाथलभद वाली वृवत्त ी सत्त्वगणर की ऄवधकता के कारणा वनर्मलभल
होगी वजतनी वृवत्त की वनर्मलभलता बढ़ेगी ईतनी ही बवहलभर्मख र ी वृवत्त ऄन्तर्मलभख
र ी होती जाती ह। आस वृवत्त की
एका्र ता आतनी बढ़ जाए वक शब्द (नार्मद और ईस शब्द का ऄथलभ (रूपद के सम्बन्ध र्में जो ज्ञान ईत्पन
होता ह।, आन दोनों की (शब्द और ज्ञान कीद थर्मृवत ी न रहे, वित्त ्र हणात्र्मक थवरूप से शन्र य ज।सा होकर
ऄथलभ र्मार थवरूप का साक्षात्कार करा दे ऄथालभत् नार्म (शब्दद और ज्ञान को छोड़कर ्येय वथतर के तदाकार
हो जाए (्येय वथतर के थवरूप को धारण कर लेद आस ऄवथथा र्में साधक को थर्मृवत नहीं रहती ह। वक वह
सर्मावध र्में ब।ठा हुअ ह। और न ही सर्मावध र्में वकसी प्रकार का दृश्य वदखाइ देता ह।, ‍योंवक यह ऄवथथा
्येय वथतर के नार्म व ज्ञान की थर्मृवत न रहने पर अती ह। वकसी प्रकार का ववककप न रहने पर आसका नार्म
वनववलभककप सर्मावध या वनववलभतकलभ सर्मावध ह।

तत्त्वज्ञान 156
वजस प्रकार सववतकलभ और वनववलभतकलभ सर्मावध थथल र ववषयों से सम्बवन्धत ह।, ईसी प्रकार सवविार
और वनववलभिार सर्मावध सक्ष्र र्म ववषय के सम्बन्ध से सर्मझनी िावहए ज।से– थथल र ववषयों र्में शब्द (नार्मद,
ऄथलभ (रूपद और ज्ञान के ववककपों से यक्त र सववतकलभ सर्मावध ह। ईसी प्रकार देश (थथानद, काल ( तर ,
ववष्य, वतलभर्मानद और वनवर्मत्त (धर्मलभ या कायलभ-कारण रूपद के ववककपों से यक्त र वनववलभतकलभ सर्मावध होती ह।
उपर नीिे अवद देश हैं, वतलभर्मान, तर काल और ववष्यकाल ये काल हैं तथा कायलभ-कारण रूप ज्ञान ह।
ज।से– थथलर परर्माणर (सक्ष्र र्म पृथ्वीद का गन्ध तन्र्मारा प्रधान पााँि तन्र्माराएाँ कारण हैं जल परर्माणर (सक्ष्र र्म
जलद का गन्ध तन्र्मारा रवहत रस तन्र्मारा प्रधान िार तन्र्माराएाँ कारण हैं ऄव‍न परर्माणर (सक्ष्र र्म ऄव‍नद का
गन्ध व रस तन्र्मारा रवहत रुप तन्र्मारा प्रधान तीन तन्र्माराएाँ कारण हैं वायर परर्माणर (सक्ष्र र्म वायदर का गन्ध,
रस और रूप तन्र्मारा रवहत थपशलभ तन्र्मारा प्रधान दो तन्र्माराएाँ कारण ह। अकाश परर्माणर (सक्ष्र र्म अकाशद
का के वल शब्द तन्र्मारा ही कारण ह। जब वनववलभिार सर्मावध के वनरन्तर ऄभ्यास से वृवत्त र्में एका्र ता आतनी
ज्यादा बढ़ जाए वक देश, काल और वनवर्मत्त (धर्मलभद अवद की ी थर्मृवत न रहें, ईस सक्ष्र र्म ववषय (्येय
वथतदर को के वल धर्मलभ र्मार थवरूप से तदाकार प्रकाश करें , तब वह वनववलभिार सर्मावध होती ह।
सक्ष्र र्म ववषय र्मल
र प्रकृ वत तक हैं सवविार सर्मावध र्में जो सक्ष्र र्म ववषय बतलाये गये हैं, वह वसिलभ
तन्र्माराओ ं तक ही सीवर्मत नहीं हैं, बवकक सक्ष्र र्म ववषय र्मल र प्रकृ वत तक हैं पााँिों थथल र तर ों के सक्ष्र र्म
परर्माणर ऄपने-ऄपने कारण तन्र्माराओ ं र्में, पााँिों तन्र्माराएाँ ऄपने कारण ऄहक ं ार र्में, ऄहक ं ार ऄपने कारण
वित्त र्में, वित्त ऄपने कारण र्मल र प्रकृ वत र्में हैं ये सब सक्ष्र र्म ववषयों के ऄन्तगलभत अते हैं सक्ष्र र्म परर्माणर से
र्मल
र प्रकृ वत तक क्रर्मशः सक्ष्र र्मता बढ़ती जाती ह।, आसवलए र्मल र प्रकृ वत र्में ही सक्ष्र र्मता की पराकािा ह।
सववतकलभ सर्मावध और वनववलभतकलभ सर्मावध र्में के वल थथल र - तर और ईन थथल र - तर पदाथों से बनी
वथतओर ं ऄथालभत् ववकृ त रूप का साक्षात्कार होता ह। सवविार सर्मावध और वनववलभिार सर्मावध र्में सक्ष्र र्म तर ों
से लेकर तन्र्माराओ ं तक जो ऄहक ं ार की ववकृ वत ह।, ईसका साक्षात्कार होता ह। वनववलभिार सर्मावध की
ईच्ितर ऄवथथा र्में तन्र्माराओ ं की प्रकृ वत ऄहक ं ार का (जो वित्त की ववकृ वत ह।द साक्षात्कार होता ह।
वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में ऄहक ं ार की प्रकृ वत ऄवथर्मता का जो अत्र्मा से प्रकावशत वित्त
का (जो र्मल
र प्रकृ वत की ववकृ वत ह।द साक्षात्कार होता ह। र्मल
र प्रकृ वत का साक्षात्कार नहीं होता ह।, बवकक
वववेक-ख्यावत द्रारा अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान होता ह।
ववकृ वत व्य‍त रूप र्में वसि होती ह। ईसकी प्रकृ वत (ववकृ वत कीद ऄव्य‍त रूप र्में व ववकृ वत की
ऄपेक्षा ऄवधक सक्ष्र र्म होती ह। ज।से-ज।से सर्मावध के द्रारा ववकृ वत का साक्षात्कार होता ह।, वह ऄपनी

तत्त्वज्ञान 157
प्रकृ वत र्में लीन हो जाती ह।, विर वह प्रकृ वत व्य‍त हो जाती ह। व्य‍त हो जाने से रुप वसि हो जाती ह।,
विर ईस ववकृ वत के साक्षात्कार हो जाने पर ऄपने ऄव्य‍त प्रकृ वत र्में लीन हो जाती ह। ईदाहरण- जब
सर्मावध के द्रारा ववकृ वत रूप थथल र - तर और ईससे बनी वथतओ र ं का साक्षात्कार हो जाता ह।, तब वह
(स ी ववकृ वतयााँद ऄपनी प्रकृ वत सक्ष्र र्म तर ों से लेकर तन्र्माराओ ं तक र्में लीन हो जाती हैं जब स ी
ववकृ वतयााँ लीन हो जाती हैं, तब सक्ष्र र्म- तर से लेकर तन्र्माराओ ं तक जो प्रकृ वत रूप र्में ऄव्य‍त थी, वह
ववकृ वत रूप र्में वसि होने लगती हैं सवविार सर्मावध और वनववलभिार सर्मावध के द्रारा ये ववकृ वत (सक्ष्र र्म
तर ो से लेकर तन्र्माराओ ं तकद वसि होने पर साक्षात्कार के बाद ऄपनी प्रकृ वत ऄहक ं ार र्में लीन हो जाती
हैं ऄब ऄहक ं ार ववकृ वत रूप र्में वसि होने लगता ह। तथा वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा र्में
साक्षात्कार होने पर ऄवथर्मता र्में लीन हो जाता ह। ऄब ऄवथर्मता के व्य‍त हो जाने पर ववकृ वत वसि होती
ह। ऄवथर्मता अत्र्मा से प्रवतवबवम्बत वित्त को कहते हैं जब सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में ऄवथर्मता का
साक्षात्कार होता ह।, तब र्मल र प्रकृ वत व्य‍त नहीं होती ह।, ‍योंवक र्मल र प्रकृ वत साम्यावथथा र्में ह।
साम्यवाथथा ऄव्य‍त ह।, आसवलए ऄवथर्मता के साक्षात्कार र्में वववेक-ख्यावत द्रारा अत्र्मा और वित्त की
व न्नता का ज्ञान होता ह। सर्मावध के द्रारा साधक के वल वित्त तक साक्षात्कार कर सकता ह।
जब साधक को वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा प्राप्त होती ह।, आस ऄवथथा की प्रावप्त पर
वनरन्तर ऄभ्यास र्में लगे रहने पर रजोगणर व तर्मोगणर रूपी र्मल का अवरण नष्ट होने पर प्रकावशत वित्त
का सत्त्वगणर की प्रधानता से एका्र ता का प्रवाह वनरन्तर बहता रहता ह। आसे सर्मावध की प्रवीणता का नार्म
वदया गया ह। आस ऄवथथा र्में साधक के वलए कहा जाता ह। वक वह योग र्में प्रवीण हो गया ह। आसी
प्रवीणता के होने पर साधक की प्रज्ञा की वनर्मलभलता बढ़ती ह। योग की ाषा र्में आस वनर्मलभलता को
‘अध्यात्म प्रसाद’ कहते हैं वित्त की आसी वनर्मलभलता र्में साधक को प्रकृ वत के स ी पदाथों का साक्षात्कार
होता ह। आन पदाथों के साक्षात्कार के ववषय र्में अप हर्मारे ऄनर वों को पढ़कर जानकारी प्राप्त कर सकते
हैं यह साक्षात्कार पदाथलभ के ववशेष थवरूप का होता ह।
आस वनर्मलभलता या ऄ्यात्र्म प्रसाद के द्रारा साधक के वित्त पर प्रज्ञा (ज्ञानद ईत्पन्न होती ह।, आसे
ऊतम् रा-प्रज्ञा ी कहते हैं आस ऊतम् रा-प्रज्ञा र्में ऄववद्या अवद का नार्मो वनशान नहीं होता ह।, ‍योंवक
यह ऄववद्या की सख्त ववरोधी ह। ऊतम् रा का ऄथलभ होता ह।– ‘सत्य को धारण करने वाली’ यहााँ पर
‘ऊत’ का ऄथलभ सत्य ह।, परन्तर ‘ऊत’ और ‘सत्य’ के ऄथलभ र्में व न्नता ह। एक सत्य वह ह। जो अपने वेद
शाथरों के द्रारा विनों से सनर ा ह। एक सत्य वह ह। वजसका अप ऄनर्मर ान लगा लेते हैं ज।से- ऄर्मक र थथान

तत्त्वज्ञान 158
पर वषालभ हो रही ह। अपने ऄनर्मर ान लगा वलया वक वहााँ पर बादल ऄवश्य हैं आन दोनों सत्य से वह सत्य
(ऊतद ऄत्यन्त ववलक्षण ह।, ‍योंवक यह सत्य सर्मावध ऄवथथा र्में थवयं ऄनर वर त के द्रारा प्राप्त होता ह।
दसर रे प्रकार से आस सत्य को सर्मझा द-ाँर वेद शाथरों के ज्ञान से और ऄनर्मर ान के द्रारा ज्ञान से (प्रज्ञा सेद
ऊतम् रा-प्रज्ञा का ववषय ही ऄलग ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा का ववषय पदाथलभ के ववशेष रूप से (ऄथलभ काद
साक्षात्कार करने से ह। ऄब ववशेष रूप पदाथलभ के ववषय र्में वलखता हाँ
प्रत्येक पदाथलभ के दो रूप होते हैं एक– सार्मान्य रूप, दूसरा– ववशेष रूप सार्मान्य रूप वह ह। जो
ईस प्रकार के सब पदाथों र्में पाया जाता ह। तथा ववशेष रूप वह ह। जो प्रत्येक पदाथलभ का ऄपना-ऄपना रूप
होता ह।, वजससे एक ही प्रकार के पदाथलभ र्में एक-दसर रे से ेद हो सकता ह। ऄ ी र्मैंने दो प्रकार का ज्ञान
वलखा था, एक– ऄनर्मर ान के द्रारा वथतर के थवरूप का ज्ञान लगा वलया जाता ह। दूसरा– वेद शाथरों को
पढ़कर ऄथवा सनर कर वथतर के थवरूप का ज्ञान लगा वलया जाता ह। वेद और शाथरों के द्रारा पदाथलभ के
सार्मान्य रूप का बोध होता ह।, आसी प्रकार ऄनर्मर ान के द्रारा ी पदाथलभ के सार्मान्य रुप का ज्ञान होता ह।,
परन्तर प्रत्यक्ष द्रारा ही वथतर के ववशेष रूप को देखा जा सकता ह। ज।स-े जब कोइ ्र ाह्य वथतर अाँखों के
सार्मने अती ह। ऄथवा जब वकसी ्र ाह्य वथतर पर दृवष्ट पड़ती ह।, तो अाँखों की वकरणें (तेजद ईस पर
पड़ती हैं वित्त का ईस वथतर पर राग के कारण अाँख की वकरण के द्रारा ईस थथान पर पहुिाँ कर ईस ्र ाह्य
वथतर का अकार (वृवत्त द्राराद धारण कर लेता ह।, आसे प्रत्यक्ष कहते हैं आवन्ियों द्रारा ी थथल र वथतओ र ं के
ही प्रत्यक्ष रूप को देखा जा सकता ह।, परन्तर सक्ष्र र्म व ऄतीवन्िय पदाथों को नहीं देखा जा सकता ह।,
‍योंवक सक्ष्र र्म से लेकर प्रकृ वत तक प्रत्यक्ष की पहुिाँ नहीं ह। परन्तर वनववलभिार सर्मावध ईच्ितर्म ऄवथथा र्में
प्राप्त ऊतम् रा-प्रज्ञा (ज्ञानद ऄन्य ज्ञान (प्रज्ञाद से ईत्कृ ष्ट ह। यह प्रज्ञा (ज्ञानद परर्म् प्रत्यक्ष ह।, ऄन्य स ी
प्रज्ञाओ ं (ऄनर्मर ान, वेद-शाथरों व प्रत्यक्ष अवदद का यह (ऊतम् रा-प्रज्ञाद बीज रूप ह। ऄथालभत् ऄन्य सब
ज्ञान (प्रज्ञाद आस ज्ञान के (ऊतम् रा-प्रज्ञा के द अश्रय हैं
जब हर्में ऊतम् रा-प्रज्ञा द्रारा पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार हुअ, ईस सर्मय से यह प्रकृ वत
वबककरल बेकार सी लगने लगी तथा प्रकृ वत से ऄरूवि-सी हो गइ, जबवक हर्मारा शरीर प्रकृ वत के थथल र
पदाथों से बना हुअ ह। वतलभर्मान र्में सारा व्यवहार थथरल जगत् से सम्बवन्धत ह।, परन्तर र्मैं अतं ररक रूप से
ऄपने िेतन थवरूप का थर्मरण करता रहता हाँ ऄथवा ईसी की (िेतन थवरूप कीद याद र्में रहता हाँ आस
ववशेष रूप के साक्षात्कार से प्रकृ वत की वाथतववकता के ववषय र्में ज्ञान हो जाता ह। र्मैंने ऄपने ऄनर वों र्में
पृथ्वी, जल, ऄव‍न, वायर और अकाश के ववशेष रूप के साक्षात्कार के ववषय र्में वलखा ह। व।से यह ववषय

तत्त्वज्ञान 159
(ववशेष रूप का साक्षात्कारद शब्दों के द्रारा नहीं बताया जा सकता ह। यह वसिलभ सर्मावध के द्रारा ऄनर वर त
का ववषय ह।, विर ी र्मैंने वलखने का प्रयास वकया ह। पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार हर्में सन्
2001 के शरू
र अती सर्मय र्में हुअ था
साधक जब वनरन्तर ऄभ्यास र्में लगा रहता ह।, तब पााँिों तत्त्वों के साक्षात्कार के करछ सर्मय बाद
ईसकी ववविर ऄवथथा हो जाती ह। साधक थवयं नहीं सर्मझ पाता ह। वक ऄभ्यास के सर्मय (सर्मावध के
सर्मयद ईसकी ऐसी ऄवथथा क। से अ गइ यवद ईसका र्मागलभदशलभक आस ऄवथथा को प्राप्त कर िक र ा ह। तो
वह सर्मझा देगा वक यह ऄवथथा ‍यों प्राप्त हुइ ह। परन्तर वजसका र्मागलभदशलभक या गरू र आस ऄवथथा को
प्राप्त नहीं कर पाया ह। ऄथवा आस ऄवथथा र्में यवद साधक का र्मागलभदशलभक नहीं ह।, तो ईसे ऄवश्य ऄपने
योग के ऄभ्यास के प्रवत शंका-सी प्रकट हो जाएगी सर्मावध के सर्मय वतलभर्मान वाली ऄवथथा न रहकर
पवर लभ सर्मय वाली ऄवथथा (साधना की शरू र अत से लेकर जो ऄब तक की ऄवथथा रही ह।द अने लगती
ह।, तब साधक सोिता ह। वक हर्मारी यह ऄवथथा तो करछ वषों पवर लभ थी, विर ऄब ऐसा ‍यों हो रहा ह।?
क ी-क ी साधना के शरू र अत वाली ऄवथथा ी अ जाती ह। यवद साधक को साधना के शरू र अती
ऄवथथा र्में ववव न्न प्रकार की वक्रयांएाँ हुइ हैं, र्मिर ाएाँ हुइ हैं, वस्त्रका िली ह।, बन्ध लगे हैं, तो यह सब
वक्रयांएाँ ऄवश्य होंगी सर्मावध ी शीघ्र ही ंग हो जाएगी तथा साधक सोिेगा वक हर्मारे साथ ऐसा ‍यों
हो रहा ह।? जब र्मझर े यह ऄवथथा प्राप्त हुइ, तब र्मैं ी यही सोिता था वक आस प्रकार की ववव न्न वक्रयाएाँ
साधक के शरुर अती सर्मय र्में हुअ करती हैं, परन्तर ऄब ‍यों हो रही हैं? करछ वदन तो र्मैं दःर खी रहा वक
हर्मारी साधना र्में रवर ट कहााँ से अ गइ, परन्तर बाद र्में हर्मारी सर्मथया सल र झ गइ र्मझर े र्मालर्मर हो गया वक आस
ऄवथथा र्में ये वक्रयाएाँ ‍यों हो रही हैं? आसका कारण वनम्नवलवखत ह।-
साधक को ईच्ितर्म ऄवथथा र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा की प्रावप्त के बाद प्रकृ वत के सक्ष्र र्म पदाथों का
साक्षात्कार हो जाता ह।, तब ईस ऊतम् रा-प्रज्ञा से ईत्पन्न होने वाले सथं कार ऄन्य सब व्यत्र थान के
सथं कारों (रजोगणर ी व तर्मोगणर ी सथं कारद को रोकने वाले होते ह। जब साधक ने योग के ऄभ्यास की
शरू र अत नहीं की थी तथा सर्मावध ऄवथथा से पहले ईसके वित्त र्में व्यत्र थान (रजोगणर ी व तर्मोगणर ीद के
संथकार रहते हैं, परन्तर जब साधक को सर्मावध ऄवथथा र्में जो ऄनर व अते हैं, ईनके ी सथं कार वित्त पर
पड़ते हैं ये सर्मावध वाले संथकार व्यत्र थान के संथकारों से शव‍तशाली होते हैं, ‍योंवक सर्मावध के द्रारा
प्राप्त प्रज्ञा (ज्ञानद व्यत्र थान की प्रज्ञा से ऄवधक वनर्मलभल होती ह। व्यत्र थान की प्रज्ञा ईसे कहते हैं, जो साधक
ने सर्मावध के ऄलावा ऄपने सारे जीवन र्में ज्ञान प्राप्त वकया ह। सर्मावध की प्रज्ञा की वनर्मलभलता र्में पदाथलभ का

तत्त्वज्ञान 160
ज्ञान होता ह।, यह ज्ञान वजतना ऄवधक होगा ईतने ही शव‍तशाली ईसके संथकार होंगे, विर ईन्हीं
शव‍तशाली संथकारों की ऄवधकता से सर्मावध प्रज्ञा और ऄवधक वनर्मलभल होगी आस सर्मावध प्रज्ञा के
संथकार व्यत्र थान के संथकारों को हटाते रहते हैं ऄथवा दबाते रहते हैं जब व्यत्र थान के संथकार दबेंगे तो
ईनसे ईत्पन्न होने वाली वृवत्तयााँ ी दब जाती हैं आन वृवत्तयों के वनरोध से विर सर्मावध ईत्पन्न होती ह।, आस
सर्मावध से विर सर्मावध प्रज्ञा प्रकट होती ह। यही क्रर्म िलता रहता ह। सर्मावध प्रज्ञा, विर सर्मावध प्रज्ञा से
सर्मावध के संथकार, यहााँ तक वक आस वक्रया से सर्मावध की अरवम् क ऄवथथा अ जाती ह।, विर आस
अरवम् क ऄवथथा से सर्मावध प्रज्ञा प्रकट होती ह। तथा विर आससे सर्मावध के संथकार प्रकट होते हैं यह
जो बार-बार वक्रया होती ह।- सर्मावध प्रज्ञा की ऄवधकता (वनर्मलभलताद, विर आससे सर्मावध के संथकार, आस
लगातार क्रर्म से वनरोध के संथकार शव‍तशाली होते हैं और व्यत्र थान के संथकारों को रोकते रहते हैं ऄन्त
र्में व्यत्र थान के संथकार सवलभथा रुक जाते हैं
सर्मावध प्रज्ञा वाले जो संथकार होते हैं, ईन संथकारों का साधक ोग नहीं करता ह।, बवकक आन
संथकारों (सर्मावध प्रज्ञा वालेद के द्रारा ‍लेश के संथकार धीरे -धीरे सर्माप्त कर वदए जाते हैं वजस प्रकार
वित्त र्में दो प्रकार का पररणार्म होता ह।, एक– अंतररक पररणार्म, दूसरा– बाह्य पररणार्म आसी प्रकार वित्त
दो प्रकार के कायलभ करता ह। एक– जीवात्र्मा को ववषयों का ोग ईपलब्ध कराना, दूसरा– वववेक-ख्यावत
ईत्पन्न करना वसिलभ पहले प्रकार के कायलभ से ईत्पन्न संथकार वासना को ईत्पन्न करते हैं, परन्तर वववेक-
ख्यावत से वित्त के ोग के ऄवधकार सर्माप्त हो जाते हैं यह ऄवथथा सबीज सर्मावध की सबसे उाँिी
ऄवथथा ह।
साधक के वित्त र्में जब प्रज्ञा का ईदय होता ह।, तो ईसे सयर लभ से ी बड़े अकार र्में पवर लभ वदशा की ओर
ईदय होते हुए प्रज्ञा वदखाइ देती ह। ज।से ही प्रज्ञा की वकरण (प्रकाशद सर्मावध ऄवथथा र्में साधक के र्माँहर पर
पड़ती ह।, साधक की अाँखें िकािौंध हो जाती हैं तथा सर्मावध गं हो जाती ह। सर्मावध के बाद साधक
का अकषलभण वनश्िय ही आस प्रज्ञा की ओर रहता ह।, ‍योंवक ईसने जीवन र्में आतना तेजथवी व वनर्मलभल
प्रकाश नहीं देखा होता ह। आस प्रज्ञा को ज्ञान ी कहते हैं आसके प्रथर्म दशलभन र्में यह खबर ी ह। वक प्रकृ वत से
सम्बवन्धत स ी वथतओ र ं से लगाव नहीं रह जाता ह। साधक ज।से-ज।से वनरन्तर ऄभ्यास करता ह।, व।से-व।से
सर्मावध र्में प्रज्ञा उपर की ओर ऄंतररक्ष र्में सयर लभ के सर्मान जाती वदखाइ देती ह। ज।से-सयर लभ सबर ह पवर लभ र्में ईदय
होकर दोपहर र्में उपर की ओर ऄंतररक्ष र्में जाता वदखाइ देता ह।, आसी प्रकार प्रज्ञा ी सर्मावध के ऄभ्यास
के ऄनसर ार ऄंतररक्ष र्में उपर की ओर (अगे की ओरद गवत करती वदखाइ देती ह। विर ऄभ्यास के एक

तत्त्वज्ञान 161
वनवश्ित ऄववध र्में यही प्रज्ञा पवश्िर्म वदशा र्में ऄथत (वछपतेद होते वदखाइ देती ह।, ‍योंवक साधक को
ऄगली ऄवथथा प्राप्त होने के वलए आस प्रज्ञा रूपी वृवत्त का ी वनरोध होना अवश्यक ह। आसके वनरोध
हुए वबना वनबीज सर्मावध की ऄवथथा प्राप्त होना सम् व नहीं ह।
ऄभ्यास के ऄनसर ार साधक के वित्त र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय तथा ऄथत होना होता रहता ह।
क ी–क ी प्रज्ञा पवर लभ र्में ईदय होकर पवश्िर्म वदशा की ओर जाती ह। तथा क ी पवश्िर्म वदशा से ईदय
होकर ईत्तर वदशा से होते हुए पवर लभ वदशा की ओर जाती वदखाइ देती ह। ऄथालभत् प्रज्ञा िारों ओर ऄभ्यास के
ऄनसर ार गवत करती रहती ह। क ी-क ी वर र्म के नीिे ी क्षण र के वलए प्रज्ञा वदखाइ दे जाती ह।, आससे
वित्त की वर र्म नष्ट होने र्में सहायता वर्मलती ह। एक सर्मय ऐसा ी अता ह। जब एक ही बार र्में ऄतं ररक्ष र्में
एक साथ तीन प्रज्ञा वदखाइ देती हैं, परन्तर ऐसा दृश्य बहुत कर्म वदखाइ देता ह। यह तीनों प्रज्ञाएाँ अगर्म,
ऄनर्मर ान और प्रत्यक्ष प्रर्माण रूप हैं प्रज्ञा ऄपने ज्ञान के प्रकाश से वित्त को प्रकावशत कर देती ह। आससे
वित्त पर वथथत ऄज्ञानता नष्ट हो जाती ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा ऄववद्या की ववरोधी ह। जब तक सम्पणर लभ वित्त
ज्ञान के प्रकाश से प्रकावशत नहीं हो जाता ह।, तब तक वित्त र्में प्रज्ञा का ईदय होता रहता ह। ऄन्त र्में
सम्पणर लभ वित्त ज्ञान के प्रकाश से प्रकावशत हो जाता ह।, विर प्रज्ञा रूपी वृवत्त वनरुि हो जाती ह। यह ऄभ्यास
कइ वषों तक करना पड़ता ह।, तब यह वृवत्त वनरुि होती ह।
साधक के वित्त र्में जब ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह।, तब यह सर्मझना िावहए वक साधक के
वलए प्रज्ञा-लोक का ववकास होना शरूर हो गया ह। प्रज्ञा-लोक अवदत्य लोक को कहते हैं, यह अवदत्य
लोक इश्वर का लोक ऄथवा इश्वर का वित्त ह। यही सत्यावथथा वाली र्मल र प्रकृ वत ह। जब ऊतम् र-प्रज्ञा
ऄपनी िरर्म सीर्मा पर हो, तब साधक को सर्मझना िावहए वक अवदत्य लोक का दरवाजा ईसके वलए
खलर गया ह। अवदत्य लोक र्में थथान पाने के वलए साधक को वनबीज-सर्मावध का ी ऄभ्यास करना
िावहए
धमयमेघ समादध– जब वनरन्तर वववेक-ख्यावत का ईदय होता रहे ऄथवा जब वनरन्तर वववेक-
ख्यावत रूपी वृवत्त का प्रवाह बहता रहे, तब धर्मलभर्मेघ-सर्मावध होती ह। योगी के वित्त र्में जब पाप-पण्र य से
रवहत धर्मलभ की जो वषालभ होती ह।, ईसे धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं धर्मलभर्मेघ वषालभ के ववषय र्में अपकों हर्मारे
ऄनर वों र्में ववव न्न प्रकार के ऄनर व पढ़ने को वर्मल जाएाँगे वनरन्तर वववेक-ख्यावत के ईदय होने से
वनरन्तर वववेक ज्ञान का प्रवाह बहने लगता ह। आसी प्रवाह के बहने से व्यत्र थान के संथकार थर्म होने लगते
हैं ज्ञान की पररप‍व ऄवथथा को धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं धर्मलभर्मेघ सर्मावध की पराकािा पर-व।रा‍य ह।

तत्त्वज्ञान 162
तथा पर-व।रा‍य का िल वनबीज सर्मावध ह। धर्मलभर्मेघ सर्मावध की प्रावप्त पर ऄववद्या अवद ‍लेश, सकार्म
कर्मलभ तथा ईनकी वासनाएाँ र्मल
र सवहत नष्ट हो जाती हैं आस प्रकार ‍लेश और कर्मों के ऄ ाव र्में योगी
जीवन्र्मक्त
र होकर रहता ह। धर्मलभर्मेघ सर्मावध के बाद जीवात्र्मा के ोग और ऄपवगलभ का कायलभ सर्माप्त हो
जाता ह।, विर गणर ों का ईस जीवात्र्मा के वलए कोइ कायलभ शेष नहीं रहता ह। आससे गणर ऄपना कतलभव्य परर ा
करके ऄपना पररणार्म क्रर्म सर्माप्त कर देते हैं धर्मलभर्मेघ सर्मावध को सबीज व वनबीज सर्मावध का संवध
थथल सर्मझा जाना िावहए ऄथालभत् धर्मलभर्मेघ सर्मावध सबीज सर्मावध व वनबीज सर्मावध के बीि की ऄवथथा
ह।
दनबीज समादध
धर्मलभर्मेघ सर्मावध की पराकािा पर-व।रा‍य ह। पर-व।रा‍य की ऄवथथा प्राप्त होने पर योगी की वनबीज
सर्मावध लगती ह। वववेक-ख्यावत एक सावत्वक वृवत्त ह।, परन्तर पर-व।रा‍य द्रारा आस सावत्वक वृवत्त का ी
वनरोध हो जाता ह। तथा ऊतम् रा-प्रज्ञा वाले संथकारों का ी वनरोध हो जाने पर वनबीज सर्मावध लगती ह।
एक बात ्यान रखने वाली ह। वक वनरोधावथथा (वनबीज सर्मावधद ऊतम् रा-प्रज्ञा की ही ववरोधी नहीं ह।,
बवकक ऊतम् रा-प्रज्ञा के संथकारों की ी ववरोधी ह। आस ऄवथथा र्में पर-व।रा‍य के संथकार रहते हैं
सर्मावध ऄवथथा र्में सवलभववृ त्तयों के वनरोध का साक्षात्कार होना ऄसम् व ह।, परन्तर र्मैंने जो ऄनर व र्में
सवलभववृ त्तयों के वनरोध के ववषय र्में वलखा ह।, वह ऄनर व सर्मावध ऄवथथा का नहीं ह।, बवकक योगवनिा र्में
अया था योगवनिा र्में रजोगणर व तर्मोगणर सर्मावध की ऄपेक्षा ऄवधक हो जाता ह।, आस कारण ऄनर व
वदखाइ वदया ऄनर व ऐसा था वक वजसे र्मैं शब्दों र्में नहीं वलख सकता हाँ योगी को जो वृवत्तयों का वनरोध
होता ह। वह एकदर्म एक साथ शरू र नहीं होता ह।, बवकक पहले र्मार एक क्षण विर दो क्षण, आसी प्रकार
सर्मावध के ऄभ्यास के ऄनसर ार वृवत्तयों के वनरोध का सर्मय ी बढ़ता रहता ह।
वित्त र्में दो प्रकार का पररणार्म होता ह। एक- अतं ररक पररणार्म, दो- बाह्य पररणार्म अतं ररक
पररणार्म सत्त्व वित्त र्में होता रहता ह। जो वक थवा ाववक ह। बाह्य पररणार्म वित्त की ववव न्न प्रकार की
वृवत्तयों र्में होता ह।, आसवलए वित्त र्में बाहर से वृवत्तयों को रोकने का पररणार्म होता रहता ह। आस ऄवथथा र्में
अत्र्मा वकसी बाह्य दृश्य का िष्टा नहीं रहता ह। अत्र्मा शि र ि।तन्यर्मय थवरूप (ब्रह्मद र्में ऄववथथत रहता
ह। वनरोध पररणार्म की ऄवथथा र्में गणर सत्त्व वित्त र्में ऄववथथत रहते हैं तथा अतं ररक पररणार्म होता रहता
ह।

तत्त्वज्ञान 163
वित्त की वृवत्त वनरुि करने के दो ईपाय हैं एक- ऄभ्यास द्रारा, दूसरा- पर-व।रा‍य द्रारा वित्त का
जो बवहर्मलभखर ी प्रवाह ह। (ववव न्न प्रकार की वृवत्तयों काद वह प्रवाह व।रा‍य के द्रारा रुक जाता ह। ऄभ्यास के
द्रारा वित्त का अंतररक प्रवाह (शांत प्रवाह वालाद रुक जाता ह। र्मनष्र य के वित्त र्में वासना वाले व्यत्र थान
के संथकार ऄनन्त जन्र्मों के पड़े होते हैं आन स ी को करछ ही वषों र्में बीज सवहत नष्ट कर देना ऄत्यन्त
कवठन ह। यवद वनरोध के संथकार थोड़े ी कर्मजोर हो गये तो व्यत्र थान के संथकार दबा (वनरोध के संथकारों
कोद लेते हैं आसवलए योगी को ध।यलभ पवर लभक वनरन्तर ऄभ्यास र्में लगे रहना िावहए योगी को यह नहीं सोिना
िावहए वक र्मैं 20-25 वषों से ऄभ्यास कर रहा ह,ाँ तो व्यत्र थान के संथकार दब जाएाँगे आन व्यत्र थान के
संथकारों र्में सर्मावध प्रारम् के संथकार, एका्र ावथथा के संथकार व सर्मावध से पवर लभ सर्मय वाले संथकार
(जन्र्म जन्र्मान्तरों के द रहते हैं वनबीज सर्मावध र्में जब वनरोध के संथकार शव‍तशाली हो जाते हैं, तब
व्यत्र थान के संथकार सवलभथा दब जाते हैं ईस सर्मय र्मल रूपी व्यत्र थान के संथकारों से रवहत वित्त र्में वनरोध
के संथकारों का प्रवाह बहने लगता ह। यह ऄवथथा वित्त की प्रशांत ऄवथथा कही जाती ह।, परन्तर सर्मावध
टरटने पर ( ंग होने परद व्यत्र थान के संथकार विर से वनरोध के संथकारों को दबा लेते हैं जब सर्मावध
ऄवथथा र्में वनरोध के संथकारों से व्यत्र थान के संथकार दबे रहते हैं, तब अत्र्मा की शवर ि परर्मात्र्मा थवरूप
र्में ऄववथथवत होती ह।
ऄब हर्म करछ शब्द साधकों के थथल र शरीर त्यागने के बाद की ऄवथथा के ववषय र्में वलखना िाहेंगे
वक थथल र शरीर त्यागने के पश्िात वकस ऄवथथा र्में रहते हैं? व।से आस ववषय र्में हर्मने ऄपनी वपछली
पथर तक ‘सहज ध्यान योग’ र्में वणलभन वकया ह।, परन्तर र्मैं यहााँ पर ी सक्षं ेप र्में वलख रहा हाँ साधारण र्मनष्र य
की जब र्मृत्यर होती ह।, वह ऄपने पाप कर्मलभ, पण्र य कर्मलभ व पाप और पण्र य वर्मवश्रत कर्मों के ऄनसर ार र्मृत्यर के
बाद वासना देह र्में िले जाते हैं ऐसा ईनके द्रारा वकए गये सकार्म कर्मों के ऄनसर ार होता ह।, ‍योंवक
सकार्म कर्मलभ करने वालों की तृष्णा ऄवधक प्रबल होती ह। ऐसे र्मनष्र य र्मृत्यर के सर्मय तृष्णा से प्र ाववत
रहते हैं ईस सर्मय ईनकी वासना ऄपने पररवार, ररश्तेदार व वर्मर अवद से सम्बवन्धत रहती ह।, जबवक
स ी र्मनष्र य जानते हैं वक र्मृत्यर एक ऄटल सत्य ह।, विर ी तृष्णा के कारण र्मरना नहीं िाहते हैं परन्तर जब
थथल र शरीर से सक्ष्र र्म शरीर का सम्बन्ध ववच्छे द हो जाता ह।, तब ईसके सक्ष्र र्म शरीर पर ऄत्यन्त पारदशी
पतली वझकली का अवरण िढ़ जाता ह। जब तक अवरण िढ़ा रहता ह। ऄथवा वासना (आच्छाओदं से
्र वसत रहते हैं, तब तक यहीं पृथ्वी की पररवध र्में (ऄंतररक्ष र्मेंद टकते रहते हैं वासना देह र्में वकसी-वकसी
जीवात्र्मा की अयर बहुत ज्यादा होती ह। आस वासना देह र्में अयर वनवश्ित नहीं होती ह। वक जीवात्र्मा को
वकतने वषों बाद आस देह से र्मवर ‍त वर्मलेगी? वासना देह र्में अयर का वनवश्ित होना थवयं जीवात्र्मा पर वन लभर

तत्त्वज्ञान 164
करता ह। ऐसी जीवात्र्माएाँ ऄपनी आच्छा पवर तलभ के वलए आधर-ईधर टकती रहती ह।, र्मगर जब आनकी आच्छा
पवर तलभ नहीं होती ह।, तब करछ सर्मय तक आस देह र्में रहकर आस देह से र्म‍र त हो जाती हैं
वासना देह वाली जीवात्र्माएाँ ख र -प्यास से परे शान रहती हैं, ‍योंवक ये थवयं ोजन ्र हण नहीं कर
सकती हैं जब तक कोइ सश‍त व्यव‍त (सक्ष्र र्म शव‍त का थवार्मीद आन्हें ोजन न दे दे, तब तक आन्हें
ोजन प्राप्त नहीं हो सकता ह। आसवलए ऐसी जीवात्र्माएाँ सद।व साधक से सम्बन्ध थथावपत करने का
प्रयास करती रहती हैं परन्तर साधक को आनके ि‍कर र्में नहीं पड़ना िावहए, ‍योंवक ये जीवात्र्माएाँ ऄपना
कर्मलभ आसी देह र्में ोग रही होती हैं यवद साधक ने वकसी जीवात्र्मा को ोजन व पानी दे वदया तो ऐसी ढेरों
जीवात्र्माएाँ ईसके पास अनी शरू र हो जाएाँगी, विर ईसके योग र्मागलभ र्में यह कायलभ ऄवरोध रूप होगा
साधक िाहे तो ऄपने योगबल से ऐसी जीवात्र्माओ ं को क्षण र से छरटकारा (वासना देह सेद वदला
सकता ह। तथा सीधे उपर की ओर (ई्वलभ कर सकता ह।द ेज सकता ह। जब ऐसी जीवात्र्माएाँ वासना देह
को त्यागकर ई्वलभ होती हैं, तब वह वर लोक र्में पहुिाँ ती हैं वर लोक र्में ऄपने कर्मों के ऄनसर ार ईन्हें दण्ड
वर्मलता ह। विर ईन्हें यवद पण्र य का ोग करना होता ह।, तो वपतर लोक र्में पण्र य ोग करने के वलए ऄपने
अप िली जाती हैं वपतरलोक पण्र य ोग करने का थथान ह। यहााँ पर वकसी प्रकार की परे शानी वकसी ी
जीवात्र्मा को नहीं वर्मलती ह। यहााँ पर जीवात्र्मा ऄपने पण्र य के ऄनसर ार ोग करके ल र ोक पर (पृथ्वी परद
जन्र्म ्र हण करने के वलए अ जाती ह। ऐसी जीवात्र्माओ ं के वलए र्मनष्र य शरीर वर्मलना वनवश्ित ह।, परन्तर
जो जीवात्र्मा वर लोक से दण्ड ोगने के पश्िात तरर न्त ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करने अएगी, ईसे
कर्मालभनसर ार र्मनष्र य या ऄन्य शरीर धारण करना पड़ सकता ह।
ऄब साधकों के ववषय र्में करछ वनवारण दे रहे हैं जो साधक सववककप सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे
हैं, ऐसे साधक ऄपनी यो‍यतानसर ार र्महलोक व जनलोक र्में करछ सर्मय तक अनन्द का ोग करते हैं
सववककप सर्मावध के ऄन्तगलभत सववतकलभ व सवविार सर्मावध अती ह। सववतकलभ की ऄपेक्षा सवविार
सर्मावध के ऄभ्यास वाला साधक ज्यादा सर्मय तक अनन्द का ोग करता ह।, विर जन्र्म लेने के वलए
लर ोक पर ऄपने सावत्वक सथं कारों के ऄनसर ार र्मनष्र य का शरीर धारण करने के वलए उाँिे करल र्में जन्र्म
लेते हैं ईवित सर्मय पर जब योग वाले सथं कार प्रकट होते हैं, तब योग का ऄभ्यास करना शरू र कर देते हैं
आसवलए देखा गया ह। वक क ी-क ी लड़के -लड़वकयााँ शीघ्र ही योग का ऄभ्यास करना शरू र कर देते हैं
तथा ईन्हें सर्मावध ला ी शीघ्र होने लगता ह।, ऐसा पवर लभ जन्र्म के संथकारों के कारण होता ह। सववककप
सर्मावध कण्ठ िक्र खल र ने के बाद अज्ञा िक्र पर लगती ह। वजन साधकों का ऄ ी कण्ठ िक्र नहीं खल र ा

तत्त्वज्ञान 165
ह।, धारणा व ्यान का खबर ऄभ्यास वकया ह। तथा करण्डवलनी ी ई्वलभ हो िक र ी ह।, ऐसे साधक शरीर
छोड़ने के बाद ी सक्ष्र र्म लोकों र्में ऄपनी यो‍यतानसर ार करछ सर्मय तक रहते हैं ऐसे साधकों को वपतर
लोक व र्महलोक र्में थथान वर्मलता ह। वपतर लोक र्में वसिलभ सखर या अनन्द ोगा जाता ह।, वहााँ पर इश्वर
विंतन या सर्मावध नहीं लगाइ जा सकती ह। वपतर लोक से उपर के लोकों र्में सर्मावध ऄथवा विंतन का
ऄभ्यास वकया जाता ह।
वजन साधकों का ब्रह्मरन्र खल र गया ह। तथा वनववलभककप सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे हैं, वे थथल र
शरीर त्यागने के पश्िात जनलोक, तपलोक व ब्रह्मलोक र्में (ऄपनी यो‍यतानसर ारद रहकर सर्मावध का
ऄभ्यास करते हैं तथा अनन्द की ऄनर वर त करते हैं आन साधकों की यहााँ रहने की ऄववध सववककप
सर्मावध के ऄभ्यास वाले साधकों से ऄवधक होती ह। उपर के ये तीनों लोक नीिे के लोकों की ऄपेक्षा
ऄवधक सक्ष्र र्म होते हैं ऄवधक सक्ष्र र्म होने के कारण यहााँ पर जीवात्र्माएाँ ऄवधक सर्मय तक रहती हैं शाथरों
र्में ल
र ोक की ऄपेक्षा ये लोक ऄर्मर कहे गये हैं, आसवलए र्मनष्र यों के बन्धनों की ऄपेक्षा यहााँ रहने वाली
जीवात्र्माओ ं (साधकों के सक्ष्र र्म शरीर कोद को र्म‍र त कहा जाता ह। परन्तर आन लोकों र्में रहने वाली
जीवात्र्माएाँ र्म‍र त नहीं होती हैं ये सारे लोक व्यवष्ट प्रकृ वत के ऄन्तगलभत अते हैं, आसवलए ये स ी लोक
ऄवनत्य हैं आन लोकों की जीवात्र्माएाँ जन्र्म के सर्मय ऄपनी वपछली यो‍यता वलए हुए ल र ोक पर योवगयों
के घर र्में जन्र्म लेती हैं, वजससे अत्र्म-साक्षात्कार का प्रयत्न कर सकें सक्ष्र र्म लोकों के ऄन्तगलभत ल र ोक से
उपर छः लोक अते हैं, जो क्रर्मशः आस प्रकार हैं– वर लोक, थवगलभलोक, र्महलोक, जनलोक, तपलोक व
ब्रह्मलोक सक्ष्र र्म तर ों से लेकर तन्र्माराओ ं तक जो सक्ष्र र्मता का तारतम्य ह।, ईनके ऄन्तगलभत ये लोक अते
हैं आन स ी लोकों र्में ऄववथथत जीवात्र्माओ ं को ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करने के वलए अना पड़ता ह।,
परन्तर सक्ष्र र्मता के ऄनसर ार ये जीवात्र्माएाँ कर्म ऄथवा ज्यादा ऄववध तक यहााँ (सक्ष्र र्म लोकों र्मेंद रहती हैं
वजतनी सक्ष्र र्मता यहााँ बढ़ती जाएगी, ईन जीवात्र्माओ ं को वहााँ रुकने की ऄववध ी बढ़ती जाएगी तथा
ईतनी ही ज्यादा अनन्द की ऄनर वर त होगी
जो साधक वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा र्में ऄहक ं ार का साक्षात्कार करने का प्रयास कर
रहे हैं, ऐसे साधक थथल र शरीर त्यागने के पश्िात आन सक्ष्र र्म लोकों से उपर के थतर ( वर र्मद को प्राप्त करते
हैं यह वर र्म (थथानद ब्रह्मलोक से ऄवधक सक्ष्र र्म व ऄवधक अनन्द की ऄनर वर त कराने वाला तथा ऄवधक
ऄववध वाला ह। ऄहक ं ार के द्रारा तन्र्माराएाँ, सक्ष्र र्म- तर व आवन्ियााँ ईत्पन्न हुइ हैं तथा ऄहक
ं ार गणर ों का

तत्त्वज्ञान 166
दसर रा ववषर्म पररणार्म ह। आसवलए ऄहक
ं ार र्में सत्त्वगणर की ऄवधकता होती ह। आस सत्त्वगणर के कारण
अनन्द की ऄवधक ऄनर वर त होती ह।, आस ऄवथथा को ववदेहावथथा कहते हैं
वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में ऄवथर्मता का साक्षात्कार करने का ऄभ्यास कर रहे
ऄभ्यासी ऄहक ं ार का साक्षात्कार कर िक
र े होते हैं, परन्तर ऄ ी ऄवथर्मता का साक्षात्कार नहीं कर पाये हैं
ऄवथर्मता का साक्षात्कार न होने से अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान नहीं होता ह। ऐसी ऄवथथा र्में
प्रकृ वत का बन्धन बना रहता ह।, आसवलए आसे प्रकृ वतलय ऄवथथा कहते हैं प्रकृ वतक बन्धन के कारण आसे
र्म‍र त नहीं कहा जा सकता ह। प्रकृ वतलय साधक ऄपने ऄवधकार के सवहत वित्त के साथ थथल र शरीर
त्यागने के पश्िात ववदेहों से ी लम्बे सर्मय तक प्रकृ वत के अवरण र्में (ऄवथर्मता प्रकृ वत र्मेंद अनन्द का
ऄनर व करते हैं ववदेह और प्रकृ वतलय साधकों को तत्त्वज्ञान ऄथवा अत्र्मवथथवत की ऄवथथा प्राप्त
करने के वलए ल र ोक पर जन्र्म धारण करना पड़ता ह। ऐसे साधक जन्र्म लेने के बाद ऄपने वपछले ऄभ्यास
वाले संथकारों के द्रारा शीघ्र ही वनबीज सर्मावध को प्राप्त कर लेते हैं, ‍योंवक ईनके ऄन्दर वपछले संथकारों
के द्रारा पर-व।रा‍य ईदय हो जाता ह। आस पर-व।रा‍य के कारण शीघ्र ही वनबीज सर्मावध का ला होता ह।
प्रकृ वतलय योगी थथलर शरीर त्यागने के पश्िात ब्रह्मलोक से उपर ऄपरा-प्रकृ वत के अवरण र्में
वथथत रहते हैं यह थथान ब्रह्मलोक से ी सक्ष्र र्म ह। वकसी-वकसी थथान पर पथर तकों र्में लेख वर्मलता ह। वक
ववदेह योवगयों और प्रकृ वतलय योवगयों की क। वकय के सर्मान ऄवथथा होती ह। क। वकय के सर्मान ऄवथथा
आसवलए कहा जाता ह।, ‍योंवक ऄन्य योवगयों की ऄपेक्षा ऄवधक सक्ष्र र्म शरीर धारण वकए रहते हैं तथा
ईनकी ऄववध ी वहााँ पर ठहरने की ऄवधक होती ह।
जब साधक को ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार होता ह।, तब थथल र
पदाथों से लेकर प्रकृ वत पयलभन्त तक एक साथ साक्षात्कार हो जाता ह। आस साक्षात्कार के बाद सर्मावध का
वनरन्तर ऄभ्यास करने से प्रज्ञा-लोक (इश्वर के लोक काद का ववकास होता ह। यह प्रज्ञा-लोक का ववकास
सर्मावध के द्रारा वदखाइ नहीं दे सकता ह। प्रज्ञा-लोक के ववकास का ऄनर व थोड़ा-सा योगवनिा र्में अ
सकता ह। साधक ऄनर व र्में इश्वर लोक के प्रवेश द्रार के ऄन्दर ऄपने अपको जाता हुअ देखता ह। आस
लोक र्में प्रवेश करते सर्मय ऄंतररक्ष र्में एक पारदशी ऄत्यन्त खबर सरर त ववशाल दरवाजा वदखाइ देता ह।
साधक जब आस दरवाजे के ऄन्दर प्रवेश करता ह।, तो वहााँ पर प्रकाश ही प्रकाश रा वदखाइ देता ह। ज।से
ही दरवाजे के ऄन्दर प्रवेश करे गा त ी योगवनिा ंग हो जाएगी तथा ऄनर व सर्माप्त हो जाएगा वाथतव
र्में इश्वर के लोक र्में कोइ प्रवेश द्रार नहीं ह।, बवकक ऐसा वसिलभ ावसत होता ह। वक प्रवेश द्रार बना हुअ ह।

तत्त्वज्ञान 167
इश्वर का लोक परर्म् अकाश तत्त्व से बना हुअ ह। जो साधक वनबीज सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे हैं
तथा बहुत से व्यत्र थान के संथकार वनरोध संथकारों द्रारा नष्ट कर वदए गये हैं, और करछ शेष रह गये हैं, यवद
आस ऄवथथा र्में थथल र शरीर त्याग वदया जाता ह। तो ईस साधक को इश्वर के लोक की प्रावप्त होगी विर
इश्वर के लोक र्में ऄनन्त काल तक सर्मावध का ऄभ्यास करके व्यत्र थान के संथकारों को नष्ट कर वदया
जाता ह।
जब वनरोध के सथं कार व्यत्र थान के स ी सथं कारों को नष्ट कर देते हैं, तब ऄन्त र्में वनरोध के सथं कार
थवयं नष्ट हो जाते हैं विर वित्त को बनाने वाले गणर ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं तथा अत्र्मा ऄपने
शि र परर्मात्र्म थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।, आसे क। वकय कहते हैं वजन योवगयों ने अत्र्म वथथवत (वथथत
प्रज्ञद ऄवथथा को प्राप्त कर वलया ह। तथा व्यत्र थान के संथकारों को नष्ट कर वदया ह।, वकन्तर ईनके वित्त र्में
प्रावणयों के ककयाण का संककप बना हुअ ह।, ईनके वित्त को बनाने वाले गणर कारण र्में लीन नहीं होते हैं
ऐसे योगी ऄपने ववशाल सावत्वक थवरूप से इश्वर के ववशि र सत्त्वर्मय वित्त (वजसर्में सारे प्रावणयों के
ककयाण का संककप ववद्यर्मान ह।, आस ऄवथथा र्में इश्वर व योग के सर्मान संककप होते हैंद र्में लीन रहते हैं
इश्वरीय वनयर्मानसर ार संसार के ककयाण के वलए जब ईनकी जरूरत होती ह।, तब आस ौवतक संसार र्में
ऄवतार लेते हैं
जब साधक वनववलभककप सर्मावध का ऄभ्यास करता ह।, ईसके वित्त र्में ‚सथं कार‛ शेष रहते हैं ये
सथं कार ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक होते हैं जब ये ‍लेशात्र्मक सथं कार वृवत्त रूप र्में प्रकट होकर बाहर वनकलते
हैं, तब ईस साधक को वनश्िय ही घोर ‍लेश या कष्ट ईठाना पड़ता ह। परन्तर करछ साधक आसी ऄवथथा
र्में (वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा र्मेंद बहुत ही ज्यादा यश (कीवतलभद को प्राप्त करते हैं आसका
कारण साधक के द्रारा वकए गये पवर लभ जन्र्म के पण्र यर्मय कर्मलभ होते हैं आन पण्र यर्मय कर्मों का ोग यश रूप र्में
वर्मलता ह।, परन्तर क ी-क ी साधक को ऄत्यन्त ऄपयश का सार्मना ी करना पड़ता ह। आस ऄपयश से
यश पर कावलख पतर जाती ह। ऐसा पवर लभ जन्र्म के पाप यक्त र सथं कारों के कारण होता ह। आस ऄवथथा को
प्राप्त साधक यवद गरू र पद पर ब।ठता ह।, तो वनश्िय ही सर्माज र्में र्महान योगी के नार्म से जाना जाता ह।
परन्तर गरू र पद थवीकार कर लेने के कारण ईसे अगे बढ़ने के वलए योगाभ्यास र्में ऄवरोध अ जाता ह।,
‍योंवक वजम्र्मेदाररयााँ बढ़ जाती हैं ऄथवा ऄपने अपको पणर लभ सर्मझने लगते हैं ज्यादातर साधक
वनववलभककप ऄवथथा को प्राप्त करने पर ऄपने को पणर लभ सर्मझने की गलती कर ब।ठते हैं ईनका कहना होता
ह। वक हर्मारी करण्डवलनी पणर लभ यारा करके ह्रदय र्में वथथत हो गइ ह। तथा हर्में अनन्द की ऄनर वर त ी हो रही

तत्त्वज्ञान 168
ह। ह्रदय र्में अत्र्मा का साक्षात्कार ी हो गया ह। ऐसे साधक आसी ऄवथथा को प्राप्त कर ऄपने अपको
पणर लभ या धन्य र्मानने लगते हैं, जबवक ऄ ी बहुत लम्बा सिर तय करना शेष ह। आसी ऄवथथा को प्राप्त
कर करछ साधक ऄपने अपको गवान् का ऄवतार ी र्मानने लगते हैं तथा थवयं कहने लगते हैं वक र्मैं
ऄर्मक र देवता या इश्वर का ऄवतार हाँ ऐसे साधकों के वशष्य ी बहुत होते हैं और वह ऄपने गरू र को
गवान् कहने लगते हैं र्मैं ऐसे वशष्यों से करछ ी नहीं कहना िाहता हाँ हााँ, ऐसे गरू
र ओ ं से ऄवश्य कहना
िााँहगा- ऐसा साधक (योगी या गरू र द ऄपने अपको वकतना बड़ा ज्ञानी सर्मझता ह।, जो ऄपने को गवान्
कहलाना शरू र कर देते हैं ऄ ी ऐसे योवगयों से तत्त्वज्ञान स।कड़ों र्मील दरर ह।, विर ी ऄपने अपको
गवान् र्मान रहे हैं
वजन साधकों को वतलभर्मान जन्र्म र्में ऄवथर्मता का साक्षात्कार हुअ ह। ऄथालभत् सर्मावध र्में ईच्ितर्म
ऄवथथा प्राप्त की ह।, ऐसे साधक वनश्िय ही पवर लभ जन्र्म से र्महानता को लेकर आस लोक र्में अए हैं, ‍योंवक
ऄवथर्मता का साक्षात्कार एक दो जन्र्मों के ऄभ्यास से प्राप्त नहीं वकया जा सकता ह। ईच्ितर्म ऄवथथा
को प्राप्त करने वाले साधकों को ऄपने जीवन र्में वनश्िय ही घोर कष्ट ईठाना पड़ता ह।, ‍योंवक ईन्हें ऄपने
वित्त पर वथथत ‍लेशात्र्मक संथकार नष्ट करने होते हैं ये ‍लेशात्र्मक संथकार आतने कष्टदायी होते हैं वक
आसका ऄनर्मर ान वसिलभ वही लगा सकता ह। जो आनका ोग करता ह। ऄथालभत् साधक को यह ऄवथथा प्राप्त
करने के वलए वनश्िय ही ऄत्यन्त कवठनाइ से गजर रना पड़ता ह। साधक को सर्माज र्में ऄकारण ही घोर
कष्ट व ऄपर्मान सहना होता ह। सत्य तो यह ह। वक एक सर्मय ऐसा ी अता ह।, जब ईसका आस संसार र्में
कोइ नहीं होता ह। साधक ले ही ऄच्छे कर्मलभ करे परन्तर ईसे दोषी ठहराया जाता ह। ईसे आस संसार र्में
कष्ट और ऄपर्मान के ऄलावा करछ ी नहीं वर्मलता ह। आन सब कष्टों का कारण थवयं ईसके ‍लेशात्र्मक
कर्मलभ हैं, जो साधक के वलए ोगने ऄवनवायलभ हैं आससे एक ला ऄवश्य वर्मलता ह। वक साधक को आस
संसार की वाथतववकता सर्मझने का ऄच्छा ऄवसर वर्मलता ह।, ‍योंवक साधक के वजतने वनकट सम्बन्धी
व जान-पहिान वाले होते हैं, वे सब साधक का साथ छोड़ देते हैं तथा साधक के र्मागलभ र्में ऄवरोध खड़ा
करने लगते हैं साधक को िाहे वकतने ही कष्ट ‍यों न वदए जाएाँ परन्तर वह योग का ऄभ्यास करना बन्द
नहीं करता ह।, बवकक योग का ऄभ्यास बराबर करता रहता ह। साधक की यह ऄवथथा तब तक बनी
रहती ह।, जब तक ईसे वववेक-ख्यावत ऄवथथा प्राप्त नहीं हो जाती ह। आस ऄवथथा को प्राप्त करने पर
साधक को कष्ट र्महससर नहीं होता, बवकक बड़े अरार्म से कष्टों को थवीकार कर लेता ह।, ‍योंवक साधक
को र्मालर्मर हो जाता ह। वक ‚र्मैं कौन ह‛ाँ तथा सर्माज के ये लोग ऄज्ञानी हैं, आस कारण ईसके साथ (साधक
के द ऐसा व्यवहार कर रहे हैं

तत्त्वज्ञान 169
र्मैंने ी ऄपने जीवन र्में घोर कष्टों को ोगा ह। तथा कइ वषों तक कष्टों र्में जीवन वबताया ह।, तब
जाकर यह ऄवथथा प्राप्त हुइ ह। परन्तर ऄब तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने के कारण र्मैं ईन कष्टों को र्महससर नहीं
करता हाँ कष्ट तो अते-जाते रहते हैं, परन्तर पहले की ऄपेक्षा कर्म अते हैं हर्मारा सोिना ह। वक करछ-न-
करछ कष्ट तो जीवन र बने रहेंगे आसका कारण थवयं हर्मारे व्यत्र थान के संथकार हैं ये ‍लेशात्र्मक संथकार
जन्र्म-जन्र्मान्तरों के होते हैं, आसवलए ये ऄवधक सक्ष्र र्म व गहराइ र्में बीज रूप र्में रहते हैं आन्हें शीघ्र नष्ट कर
देना पणर लभ रूप से ऄसम् व ह। ये संथकार वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास के सर्मय धीरे -धीरे नष्ट होते रहते हैं
वजसने वववेक-ख्यावत के द्रारा अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान कर वलया ह।, वह योगी वकसी ी
र्मनष्र य को वशष्य नहीं बनाएगा, ‍योंवक वशष्य बनाना और विर ईसका र्मागलभदशलभन करना, बन्धन र्में बंधना
ह। आसवलए तत्त्वज्ञानी योगी वशष्य नहीं बनाते हैं और न ही अश्रर्म िलाते हैं हााँ , ऄगर ईनसे करछ योग के
ववषय र्में पछर ा जाए तो ऄवश्य ईसकी शंका का सर्माधान ऄथवा र्मागलभदशलभन कर देंगे वनबीज सर्मावध के
ऄभ्यास के सर्मय योगी ज्यादातर िपर रहता ह। ऄथवा सर्माज से कर्म सम्बन्ध रखता ह।, तावक ईसे
ऄभ्यास र्में वकसी प्रकार का ऄवरोध न अए र्मैं थवयं ी यही करता हाँ साल के करछ र्महीनों र्में र्मैं ऄपने
अपको सीवर्मत कर लेता हाँ व।से र्मैं ऄपने अप को सीवर्मत वकए हुए ह,ाँ वकसी से ज्यादा सम्पकलभ नहीं
रखता हाँ सर्मावध के ऄभ्यास के सर्मय र्मैं साधारण परू र षों से दरर रहता हाँ
जहााँ-जहााँ थथल र जगत् व सक्ष्र र्म जगत् ह।, वहााँ-वहााँ िेतन तत्त्व ी ह। दधर र्में र्म‍खन की ााँवत,
थथल र जगत् व सक्ष्र र्म जगत् र्में िेतन तत्त्व व्याप्त ह। दधर के प्रत्येक कण र्में र्म‍खन ह।, वकन्तर जब तक दधर
को दही बनाकर र्मथा (वबलोया या र्मन्थनद नहीं जाएगा, तब तक र्म‍खन ईससे दृवष्टगोिर नहीं होगा
आसी प्रकार सर्मावध का अश्रय वलए वबना िेतन तत्त्व का साक्षात्कार नहीं हो सकता ह। जा्र त ऄवथथा र्में
वक्षप्त वित्त को र्मन व आवन्ियों द्रारा गन्ध, रस, रूप, थपशलभ और शब्द के रूप र्में बाह्य जगत् का प्रत्यक्ष होता
ह। ईस बाह्य जगत् र्में िेतन तत्त्व ऄत्यन्त सक्ष्र र्म रूप से व्याप्त रहता ह। वकन्तर िेतन तत्त्व र्में ऄववथथवत
आवन्ियों के वनरोध से ऄथालभत् र्मन के वनरुि होने पर वनबीज सर्मावध र्में होती ह। ईस सर्मय आवन्ियााँ वनश्चेि हो
जाती हैं और बाह्य जगत् ऄपने र्मल र श्रोत र्में ऄववथथत हो जाता ह।
ववदेह योवगयों और प्रकृ वतलय योवगयों को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के
वलए ववदेह और प्रकृ वतलय योगी को जन्र्म ्र हण करना पड़ता ह। आसवलए आन योवगयों की सर्मावध ‚ व-
प्रत्यय‛ कहलाती ह। व का ऄथलभ ह।- जन्र्म और प्रत्यय का नार्म ह। प्रतीवत या प्रकट होने का जन्र्म से ही
वजस की प्रतीवत होती ह। ऄथालभत् प्रकृ वतलय योवगयों को अत्र्मवथथवत प्राप्त करने की यो‍यता होती ह।

तत्त्वज्ञान 170
प्रकृ वतलय योवगयों को ऄपने वपछले जन्र्म के ऄभ्यास के संथकार के बल से तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का
ऄवधकार प्राप्त होता ह। नये योवगयों की ऄपेक्षा आन्हें श्रिा, ईत्साह अवद सर्मावध के साधनों की
अवश्यकता नहीं ह। प्रकृ वतलय योवगयों को वनबीज सर्मावध का ऄवधकार प्राप्त होता ह। आन्हीं वपछले
जन्र्म के ऄभ्यास के संथकारों के द्रारा पर-व।रा‍य ईदय होकर ववरार्म प्रत्यय के ऄभ्यास से वनबीज सर्मावध
वसि हो जाती ह। ववरार्म-प्रत्यय का ऄथलभ ह।- सवलभववृ त्त वनरोध का कारण जो पर-व।रा‍य ह। ऄथालभत् पर-व।रा‍य
के ऄभ्यास को ववरार्म-प्रत्यय कहते हैं
वकसी-वकसी जगह पर ववदेह योवगयों तथा प्रकृ वतलय योवगयों को क। वकय पद के तकर य वथथवत
वाला बतलाया गया ह। ्यान रखने की बात ह। वक आन योवगयों को क। वकय पद के सर्मकक्ष तो कहा गया
ह।, परन्तर आनके वलए क। वकय पद का प्रयोग नहीं वकया जा सकता ह। क। वकय पद की प्रावप्त ‘वथथत-प्रज्ञ’
को होती ह।, ‍योंवक ववदेह योगी सबीज सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा वाला होता ह। तथा प्रकृ वतलय योगी
सबीज सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा वाला होता ह। वथथत-प्रज्ञ योगी की वनरुि वथथवत (वनरूिावथथा या
वनबीज सर्मावधद होती ह। गीता र्में ववदेह व प्रकृ वतलय योगी को योग भ्रष्ट योगी कहा गया ह। तथा ‘वथथत-
प्रज्ञ’ को अत्र्मा र्में वथथत वाला योगी कहा गया ह।
दवदेह– ववदेह योगी ईन्हें कहते हैं जो ववतकालभनगर त तथा वविारानगर त सर्मावध को वसि कर िक र े हैं
तथा अनन्दानगर त वर र्म र्में प्रवेश करके ऄहक ं ार को साक्षात्कार करने का प्रयास कर रहे हैं तथा देह से
अत्र्मव र्मान वनवृत्त हो िक र ा ह।, आसवलए ववदेही कहलाते हैं ऐसे योगी थथल र शरीर त्यागने के पश्िात
लम्बी ऄववध तक सक्ष्र र्म लोकों से परे ऄपरा-प्रकृ वत के अतं ररक अवरण र्में अनन्द की ऄनर वर त करते
हैं, परन्तर यह ऄववध प्रकृ वतलयों से कर्म होती ह। ईवित सर्मय अने पर ऄगली ऄवथथा प्राप्त करने के
वलए ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करते हैं
प्रकृदतलय– वजन्होंने ऄहक ं ार का साक्षात्कार कर वलया ह। तथा ऄवथर्मता का साक्षात्कार करने के
वलए सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे हैं ऐसे योवगयों को वववेक-ख्यावत की ऄवथथा प्राप्त नहीं होती ह।
बहुत से योगी आसी अनन्दर्मय ऄवथथा को पणर लभता सर्मझकर सर्मावध का ऄभ्यास करना बन्द कर देते हैं
तथा ऄन्त र्में ऄवधकार के सवहत वित्त के साथ थथल र शरीर त्यागने के पश्िात लम्बी ऄववध तक
ऄवथर्मता प्रकृ वत र्में ऄथालभत् प्रकृ वत के अवरण र्में क। वकय पद के सर्मान अनन्द का ऄनर व करते हैं
अनन्द का प्रकट होना र्मवर ‍त नहीं ह।, ‍योंवक अनन्द सावत्वक वित्त का गणर ह। ऐसे साधकों को तत्त्वज्ञान
प्राप्त करने के वलए ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करना पड़ता ह। आनकी सर्मावध ‚ व-प्रत्यय‛ कहलाती ह।

तत्त्वज्ञान 171
‘ व’ नार्म जन्र्म का ह। और प्रत्यय कारण को कहते हैं जन्र्म से ही वजसे वनबीज सर्मावध को प्राप्त करने
की यो‍यता होती ह।, ईसका नार्म ‘ व-प्रत्यय’ ह। आनका वित्त पवर लभजन्र्म के योग वसवि के प्र ाव से ही
वनबीज योग र्में प्रवृत्त होता ह। प्रकृ वतलय योवगयों को वनबीज योग की प्रावप्त ववषयक ज्ञान का ऄवधकार
प्राप्त होता ह। वपछले जन्र्म के ऄभ्यास के संथकार के बल से ईनको पर-व।रा‍य ईदय होकर वनबीज
सर्मावध वसि हो जाती ह।
जो योगी प्रकृ वतलय ऄवथथा की यो‍यता को प्राप्त वकए हुए जन्र्म को ्र हण करते हैं, ईन्हें वतलभर्मान
जन्र्म र्में बिपन से ही परे शावनयों व कष्टों का सार्मना करना पड़ता ह। ये कष्ट थवयं ईसके नजदीकी
र्मनष्र यों से व सर्माज से वर्मलते हैं आस प्रकार के कष्टों से योगी को एक ला वर्मलता ह। वक ईसे ससं ार के
वाथतववक थवरूप का ज्ञान होने लगता ह। वक संसार ‍या ह।? आस संसार र्में इश्वर के ऄवतरर‍त कोइ ी
ऄपना नहीं होता यहााँ आस संसार र्में दःर खों के वसवाय करछ ी नहीं ह।, वजससे पर-व।रा‍य ईत्पन्न होता ह।
ऐसे योगी वनश्िय ही ब्रह्म (तत्त्वज्ञानद की प्रावप्त करते हैं, ‍योंवक हर्म ब्रह्म को प्राप्त करने के वलए ही जन्र्म
्र हण करते हैं हर्मारा जन्र्म ी प्रकृ वतलय ऄवथथा की यो‍यता को प्राप्त वकए हुऐ हुअ ह। जब र्मैंने
साधना की शरुर अत की थी त ी र्मझर े र्मालर्मर हो गया था वक र्मझर े आस जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होगी
आसवलए र्मैं सद।व अगे की ओर बढ़ता रहा वतलभर्मान सर्मय र्में र्मैं तत्त्वज्ञान से यक्तर हाँ
तत्त्वज्ञानी– तत्त्वज्ञानी के ववषय र्में जानने के वलए तत्त्वज्ञान वाला पाठ पवढ़ए जब योगी प्रकृ वतलय
ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए जन्र्म ्र हण करता ह।, तब ईसे वतलभर्मान जन्र्म र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त ऄवश्य
होती ह।, ‍योंवक जन्र्म से पवर लभ ही प्रकृ वत देवी ईस योगी के वलए व्यवथथा कर देती ह।, तावक योगी योग का
िल प्राप्त कर सके ऐसा योगी सम्पणर लभ जीवन ‍लेश ोगता रहता ह।, ‍योंवक ईसके वित्त पर ‍लेशात्र्मक
सथं कार ववद्यर्मान रहते हैं ये सथं कार ोगकर ही नष्ट करने होते हैं जब ईसे तत्त्वज्ञान की प्रावप्त हो जाती
ह।, तब ईसे ‍लेशों की ऄनर वर त नहीं होती ह। तत्त्वज्ञानी ऄपने शेष जीवन र्में ससं ार का गप्र त रूप से
ककयाण करता रहता ह। वह ऄपने ववषय र्में वकसी को करछ ी नहीं बताता ह। और न ही ऐसा क ी
ावसत होने देता ह। वक वह तत्त्वज्ञानी ह। जब तक ईसके प्रारब्ध सथं कारों का वेग बना रहता ह।, तब तक
ईसका थथल र शरीर सधा रहता ह। सथं कारों का वेग सर्माप्त होने पर थथल र शरीर का त्याग कर देता ह।
ईसका सक्ष्र र्म शरीर योगाव‍न र्में जलकर थर्म हो जाता ह। तथा वह (योगीद ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो
जाता ह। ऄथवा इश्वर के लोक र्में वथथत हो जाता ह। वजन योवगयों ने वनबीज-सर्मावध का ला प्राप्त कर

तत्त्वज्ञान 172
वलया ह।, वकन्तर ईनके वित्त से व्यत्र थान के सारे संथकार ऄ ी नष्ट नहीं हो पाये हैं या करछ शेष रह गये हैं,
ईस ऄवथथा र्में थथलर शरीर त्यागने के पश्िात इश्वर के लोक को प्राप्त होते हैं
अवतार– तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर योगी ऄपने थवरूपों र्में वथथत हो जाता ह। ऄथालभत् ब्रह्म थवरूप हो
जाता ह। तथा विर जन्र्म-र्मृत्यर के िक्र से रवहत हो जाता ह। विर ईसे ल र ोक पर जन्र्म ्र हण करने की
अवश्यकता नहीं रहती, ‍योंवक ईसकी ऄववद्या र्मल र सवहत नष्ट हो िक र ी होती ह। वित्त को बनाने वाले
गणर ों का प्रयोजन पणर लभ हो िक र ा होता ह। परन्तर करछ योगी ऐसे ी होते हैं जो पणर लभत्व को प्राप्त करने के बाद
ी प्रावणयों के ककयाण का सक ं कप ईनके वित्त र्में बना रहता ह। ऐसे योवगयों के वित्त को बनाने वाले गणर
ऄपने कारण र्में लीन नहीं होते हैं, बवकक थथल र शरीर त्यागने के पश्िात वित्त ऄपने ववशाल सावत्वक
थवरूप से इश्वर के ववशि र सत्त्वर्मय वित्त र्में ऄन्तर्मलभख
र ी होकर सारे प्रावणयों के ककयाण का संककप
ववद्यर्मान रहता ह। सर्मान संककप होने पर इश्वर के वित्त र्में योगी का वित्त ऄन्तर्मलभख र ी रहता ह। ऄथालभत्
इश्वर का संककप व योगी का संककप एक सर्मान रहता ह। इश्वरीय वनयर्मानसर ार जब ऐसे योगी की
अवश्यकता होती ह।, तब प्रावणयों के ककयाण के वलए ल र ोक पर ऄवतररत होते हैं ऄवतररत होते सर्मय
परा-प्रकृ वत थवयं इश्वरीय शवक्तयों को ऄंश रूप र्में ईस योगी को प्रदान कर देती ह। तथा परा-प्रकृ वत थवयं
ईस योगी को प्रावणयों के ककयाण के वलए वनदेश देती ह। ऐसा योगी इश्वरीय शवक्तयों से यक्त र होकर
ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने संककप द्रारा ऄवधकार र्में लेकर ल र ोक पर ऄवतार ्र हण करता ह। ऐसे ऄवतारी
परू
र ष पर ऄपरा-प्रकृ वत का कोइ ी वनयर्म लागर नहीं होता ह।, लेवकन वह सद।व प्रकृ वत के वनयर्मों का
सम्र्मान करता रहता ह। यही ईसकी लीलाएाँ कही जाती हैं यहााँ एक बात ्यान देने यो‍य ह। वक ऐसा
ऄवतारी परू र ष पवर लभ जन्र्म का योगी ही होता ह। आसवलए ईसके पास इश्वरीय शव‍तयााँ ऄंश रूप र्में वनवहत
होती हैं पणर लभ रूप से शव‍तयााँ तो वसिलभ इश्वर के पास ही रहती हैं इश्वर क ी ी जन्र्म ्र हण नहीं करता
ह।, वह ऄजन्र्मा ह। ऄवतारी परू र ष को ही इश्वर या गवान् कह वदया जाता ह। तथा शाथरों र्में ी ऄवतारी
परूर ष को ब्रह्म शब्द से सम्बोवधत वकया गया ह।, ‍योंवक वह पवर लभकाल से (जन्र्म ्र हण करने से पवर लभद
तत्त्वज्ञान से यक्त
र होता ह। ऄथालभत् ब्रह्मत्व को प्राप्त होता ह।, आसवलए ईसे ब्रह्म कहा जाता ह। रार्म व कृ ष्ण
अवद ऄवतारी परू र ष थे श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं–
“हे अजथनु ! मेरे और तम्ु हारे पवू थकाि में ढेरों जन्म हो चक
ु े हैं, मझु े वो सारे जन्म याद हैं, परन्तु तम्ु हें
याद नहीं हैं।”

तत्त्वज्ञान 173
आन शब्दों से थपष्ट हो जाता ह। वक श्री कृ ष्ण पवर लभ काल र्में योगी थे, परन्तर ऄवतारी परू र ष होने के
कारण ईन्हें ब्रह्म कहा जाता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने के बाद योगी के संककप तथा इश्वर के संककप र्में कोइ
िकलभ नहीं रहता ह।, ‍योंवक योगी का ववशाल सावत्वक वित्त इश्वर के ववशि र वित्त र्में ऄन्तर्मलभख
र ी हो जाता
ह। ऄवतारी परू र ष पवर लभकाल र्में ही वनबीज सर्मावध के द्रारा व्यत्र थान के सारे संथकारों को नष्ट कर िक र ा
होता ह। ऄतः ऐसे परू र ष ऄवतार के सर्मय साधारण परू र षों की ााँवत थरी के ग लभ से जन्र्म ्र हण नहीं करते
हैं, ‍योंवक ऐसे ऄवतारी परुर ष ऄपरा-प्रकृ वत को संककप के द्रारा ऄपने ऄवधकार र्में वलए रहते हैं ऄथालभत्
ऄवतारी परू र ष ग लभ की पीड़ा की ऄनर वर त नहीं करता ह।, बवकक वह ऄपनी र्माया के द्रारा ग लभ से प्रकट
होता ह। ईस सर्मय सर्मथत प्रकृ वतयााँ ईसके ऄनक र र ल हो जाती हैं ऐसा ऄवतारी परू र ष प्रावणयों का
ककयाण करने के पश्िात ऄपने लोक (इश्वर के लोकद वापस लौट जाता ह।
जनवरी 1996 की बात ह।, जब एक वदन र्मैं ऄत्यन्त दःर खी था र्मैं सोि रहा था वक र्मझर े आतना दःर ख
‍यों वर्मलता ह।? र्मैंने ऐसी जगह जन्र्म ‍यों वलया ह। जहााँ दःर ख के वसवाय करछ ी नहीं ह।, हर्मारे योगर्मागलभ
र्में ऄवरोध डाला जा रहा ह। बहुत सोिने के बाद र्मैंने प्रकृ वत देवी से कहा– ‚र्माता, हर्में आतना दःर ख ‍यों
वर्मलता ह।‛? प्रकृ वत देवी बोली– “योगी पत्रु , तम्ु हें अपना लपछिा समय याद नहीं है, इसलिए ऐसा सोच
रहे हो। तमु अपना लपछिा समय देखो, जब तमु ने जन्म ग्रहण नहीं लकया था‛।
विर र्मैं सर्मावध पर ब।ठ गया हर्में ऄपना वपछला दृश्य वदखाइ देने लगा ईसे र्मैं सक्ष ं ेप र्में वलख रहा
ह–ाँ र्मैं ऄतं ररक्ष र्में ब।ठा सर्मावध लगाए हुए था, ईसी सर्मय हर्मारे पास प्रकृ वत देवी अइ ईसने ऄपना हाथ
अशीवालभद र्मिर ा र्में उपर ईठाया, वजससे हर्मारी सर्मावध गं हो गइ र्मैंने अाँखें खोल दी र्मैंने देखा वक
प्रकृ वत देवी सार्मने खड़ी थी ईन्हें देखकर र्मैंने प्रणार्म वकया ओर बोला– ‚र्माता अप‛? प्रकृ वत देवी
बोली- “पत्रु , तम्ु हारा जन्म िेने का समय आ गया है, जाओ जन्म ग्रहण करो” र्मैं बोला- ‚र्माता, र्मेरी
सर्मावध ऄ ी परर ी नहीं हुइ ह।, आतनी जकदी जन्र्म का सर्मय क। से अ गया ह।‛? प्रकृ वत देवी बोली– “पत्रु ,
तम्ु हें योग का फि लमिने वािा है, इसलिए भि ू ोक पर तम्ु हारी व्यवस्था कर दी गई है‛ र्मैं बोला- ‚ठीक
ह।, र्माता‛ प्रकृ वत देवी बोली– “ज्ञान के द्वारा तमु अपना अगिे जन्म का स्थान और जन्म की प्रमख ु
घटनाएूँ भी देख िो। एक बात का ध्यान रखना लक सारे कमाथशय नष्ट करके आना है” र्मैं बोला- ‚ठीक
ह।, र्माता‛ र्मैंने ज्ञान के द्रारा वतलभर्मान जन्र्म की र्मख्र य-र्मख्र य घटनाएाँ देखी विर र्मैं प्रकृ वत देवी से बोला–
“माता, यह जगह मेरे लिए उपयता ु है। यहाूँ पर मेरे सारे कमाथशय नष्ट हो जाएूँगे” विर र्मैंने प्रकृ वत देवी
को प्रणार्म वकया विर प्रकृ वत देवी ऄदृश्य हो गइ तथा र्मैं जन्र्म ्र हण करने के वलए िल वदया

तत्त्वज्ञान 174
ऄनर व र्में प्रकृ वत देवी कहती ह।– “तम्ु हें योग का फि लमिने वािा है, तम्ु हें सारे कमाथशय नष्ट
करके आना है और ज्ञान के द्वारा तमु अपना अगिा जन्म (वतथमान जन्म) देख िो” योग का िल
‘वथथवत-प्रज्ञ’ या ‘अत्र्म-वथथवत’ प्राप्त करना होता ह। सारे कर्मालभशय नष्ट करके अना ऄथालभत् व्यत्र थान के
संथकारों को नष्ट करने के वलए कहा जाता ह। वथथत-प्रज्ञ ऄवथथा र्में व्यत्र थान के संथकार नष्ट हो जाते हैं
आन सब शब्दों का ऄथलभ ह। वक पवर लभकाल से ही वनवश्ित था वक हर्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होगी अवदगरू र
शंकरािायलभ ने ी हर्में तत्त्वज्ञानी कहकर सम्बोवधत वकया था, जबवक ईस सर्मय र्मझर े तत्त्वज्ञान की प्रावप्त
नहीं हुइ थी आन सब ऄनर वों का ऄथलभ वनकलता ह। वक र्मैंने पवर लभ जन्र्म र्में प्रकृ वतलय ऄवथथा के ऄन्तगलभत
थथलर शरीर का त्याग वकया था आसवलए वतलभर्मान जन्र्म र्में वनबीज-सर्मावध प्राप्त करने का ऄवधकारी था
गवान् दत्तारेय ने सांकृवत र्मवर न को ईपदेश वदया था– ‚मैं वह परमात्मा ह,ूँ जो सांसार के बन्धन में
बूँधा हुआ नहीं ह।ूँ इसलिए मझु से लभन्न लकसी भी वस्तु की लकसी भी काि में सत्ता नहीं है। जैसे- फे न
और तरांग आलद समिु में ही उठते हैं और समिु में ही लविीन हो जाते हैं, इसी प्रकार यह जगत् मझु में ही
उत्पन्न होता है और मझु में ही लविीन होता रहता है। अतुः सृलष्ट का कारण समलि भी मझु से पृथक नहीं
है। यह जगत् और माया भी मझु से अिग कोई अलस्तत्व नहीं रखते हैं‛ आस प्रकार वजस परू र ष को ये
परर्मात्र्मा ऄपने अत्र्मथवरूप से ऄनर व होने लगता ह।, वह परर्म् परू र षाथलभ थवरूप साक्षात् परर्मात्र्म थवरूप
को प्राप्त हो जाता ह। जब योगी के र्मन र्में सवलभव्यापक अत्र्म ि।तन्य का ऄपरोक्ष ऄनर व होने लगता ह।,
तब वह थवयं परर्मात्र्म थवरूप र्में प्रवतवित हो जाता ह। जब ज्ञानी र्महात्र्मा सब तर ों को ऄपने र्में ही देखता
ह। और ऄपने को सम्पणर लभ तर ों र्में प्रवतवित देखता ह।, तब वह साक्षात् ब्रह्म हो जाता ह। जब सर्मावध र्में
वथथत योगी परर्मात्र्मा से एकी तर होकर ऄपने से व न्न वकसी तर को नहीं देखता ह।, तब वह के वल
परर्मात्र्म थवरूप र्में प्रवतवित हो जाता ह। जब योगी के वल अत्र्मा को ही परर्माथलभ सत्य थवरूप देखता ह।
और सम्पणर लभ जगत् को र्माया का ववलास र्मानता ह।, तब ईसे परर्मानन्द की प्रावप्त होती ह।

तत्त्वज्ञान 175
जीवन्मुक्त
जो परू र ष यह सर्मझता ह। वक यह संसार सत्य ह।, वजसके कारण ववषय ोगों की वासना दृढ़ हो गइ
ह।, आस प्रकार की तृष्णा द्रारा जीव की जो बाह्य पदाथों र्में असव‍त होती ह।, आसे ही संसार के बन्धन कहा
गया ह। वजन परू र षों ने ऄभ्यास के द्रारा सांसाररक पदाथों की ऄसत्ता के ववषय र्में पणर लभ ज्ञान प्राप्त कर
वलया ह।, आसीवलए सर्मथत जड़ पदाथों र्में त्याग तथा तृष्णा से रवहत होकर परर्म् ईदार हो जाते हैं, ऐसे
र्महापरू
र ष को जीवन्र्मक्तर पद की प्रावप्त होती ह। तथा वह जीवन्र्मक्तर कहे जाते हैं जीवन्र्मक्त र परूर ष के
ऄन्तःकरण र्में यह सब सांसाररक ोग पदाथलभ वर्मथ्या ह। ‘यह र्मझर े प्राप्त हो’, आस प्रकार की जो ह्रदय र्में
ावना होती थी, ऐसी ावना से र्म‍र त होकर ोग संककप रवहत हो जाता ह। जीवन्र्मक्त र परूर ष के
ऄन्तःकरण र्में सद।व दृढ़ वनश्िय रहता ह। वक र्मेरा थथल र शरीर जो र्माता-वपता द्रारा रिा गया ह।, यह ऄसत्
दृवष्ट ह। आसी कारण र्मनष्र य को बन्धन प्राप्त होता ह। यही ऄनन्त काल तक दःर ख तथा ‍लेश ोगने का
हेतर ह। र्मैं शरीर-आवन्िय अवद स ी पदाथों से रवहत सक्ष्र र्म से ी सक्ष्र र्मतर हाँ ससं ार के सर्मथत पदाथलभ र्मझर
ऄववनाशी ब्रह्म का ही थवरूप ह। ऄहक ं ार तथा सर्मथत ससं ार अकाश के सर्मान शन्र य ह।
जीवन्र्मक्त
र परू
र ष का वित्त सद।व एका्र रहता ह। तथा वह कार्म, क्रोध, लो अवद से अहत नहीं
होता ह। लीला पवर लभक वविरण करता हुअ संसार से क ी प्र ाववत नहीं होता ह।, ‍योंवक आस रसहीन
संसार के ववषय र्में ईसे ज्ञान हो जाता ह। वप्रय वथतर के प्राप्त हो जाने से वह प्रसन्न नहीं होता ह। और न ही
ऄवप्रय से द्रेष करता ह। वह नष्ट हुइ वथतर के वलए शोक नहीं करता ह। और न ही ऄप्राप्त वथतर के वलए
प्रयास करता ह। वह सदा ब्रह्म के थवरूप का र्मनन करता हुअ कतलभव्य कर्मलभ र्में अलथय छोड़कर प्रवत्त
रहता ह। तथा आच्छा और ऄवनच्छा के बन्धन से र्म‍र त हो जाता ह। जीवन्र्मक्त र परर्म् पद र्में अरूढ़ हो संसार
की क्षण ंगरर ऄवथथा को ऄपनी शांत बवर ि के द्रारा देखता ह।, ‍योंवक ईसने वित्त को जीत वलया ह। तथा
ब्रह्म का साक्षात्कार कर वलया ह। ऄन्दर से स ी प्रकार की अशाओ ं का त्याग करके , वीतराग और
वासना शन्र य हो, बाहर से सर्मथत सतकर्मों ् एवं सदािारों का ठीक-ठीक पालन करते हुए, ऄहक ं ार से
रवहत, ऄपने वाथतववक थवरूप र्में वथथत, अकाश के सर्मान वनलेप और कलंक से दरर रहकर वथथत रहता
ह। वाथतव र्में जीवात्र्मा का न तो बन्धन ह। और न ही र्मोक्ष ह। यह आस वर्मथ्या र्माया संसार र्में टकने वाली
ह। अत्र्मा तो सदा सवलभव्यापी और असव‍त के बन्धन से रवहत ह।, विर अत्र्मा का बन्धन क। से हो सकता
ह।? जब वह बाँधा ही नहीं ह। तो र्मोक्ष के वलए प्रयत्न का ‍या ऄथलभ ह।? ्र रूपी ववशाल ससं ार यथाथलभ तत्त्व

तत्त्वज्ञान 176
से न जानने के कारण ऄज्ञान से ही ईत्पन्न हुअ ह। तत्त्वज्ञान होने से यह ईसी तरह नष्ट हो जाता ह।, ज।से
रथसी का ज्ञान होने से ईसर्में सपलभ के होने की भ्रांवत नष्ट हो जाती ह।
र्मवर ‍त दो प्रकार की होती ह। एक जीवन्र्मक्त र ऄवथथा, आसे संदहे र्मवर ‍त ी कहते हैं तथा दूसरी
ववदेह र्मवर ‍त ह। वजस ऄनास‍त परू र ष की आष्ट ऄवनष्ट कर्मों के ्र हण व त्याग र्में ऄपनी कोइ आच्छा नहीं
रहती ह। ऄथालभत् वजसकी आच्छा का सवलभथा ऄ ाव हो गया हो, ऐसे परू र ष की वथथवत को जीवन्र्मक्त र
ऄवथथा कहा जाता ह। ऐसे जीवन्र्मक्त र को देह के ववनाश होने पर ववदेह र्म‍र त ऄवथथा प्राप्त हो जाती ह।
वजन्होंने वनगलभणर ब्रह्म र्में ऄववथथवत प्राप्त कर ली ह। तथा वित्त का थवरूप और ऄरूप ववनष्ट हो िक र ा ह।,
लीलार्मार से वक्रया हो रही ह।, ईन्हें ववदेहर्म‍र त कहा जाता ह। ववदेहर्म‍र त परूर ष क ी ी जीवन धारण नहीं
करते हैं वे शरीर त्यागते ही पणर लभ ब्रह्म र्में लीन हो जाते हैं वजन जीवन्र्मक्त
र परू र षों के वित्त र्में प्रावणयों के
ककयाण की ावना रहती ह।, ऐसे र्महापरू र ष शरीर त्यागने के पश्िात परा-प्रकृ वत र्में ऄववथथत रहते हैं
ईवित सर्मय अने पर इश्वर की प्रेरणा से इश्वरीय शवक्तयों से यक्त र होकर ल र ोक पर प्रावणयों के ककयाण
हेतर ऄवतार ्र हण करते हैं
ससं ार र्में जो परू
र ष राग-द्रेष के ऄत्यन्त ऄ ाव से ईत्पन्न अनन्द के ऄभ्यास र्में लगे हुए हैं तथा
वजनके ऄन्तःकरण ऄत्यन्त ववशाल हैं, ऐसे जीवन र्म‍र त परू र ष व्यवहार करें ऄथवा न करें , वे सवलभथा य
तथा शोक से रवहत ससं ार र्में वथथत रहते हैं ईनका ऄंतःकरण जड़ पदाथलभ के विन्तन से रवहत, के वल वनत्य
िेतन ब्रह्म का ही अलम्बन करने वाला तथा सर्मथत विन्ता व दःर खों से र्म‍र त हैं ब्रह्म के थवरूप र्में र्म‍न
रहने वाला तत्त्वज्ञानी परूर ष ससं ार र्में व्यवहार करते हुए ी ऄपने थवरूप र्में वथथत रहता ह। वजसने ब्रह्म के
सगणर व वनगलभणर थवरूप को ऄच्छी तरह से जान वलया ह।, ऐसे तत्त्वज्ञानी जीवन्र्मक्त र परू र ष के ऄतं ःकरण र्में
सख र -दःर ख की प्रावप्त होने पर ववकार ईत्पन्न नहीं होते हैं जीवात्र्मा परर्मात्र्मा का ज्ञान प्राप्त कर सर्मथत
ककपनाओ ं के हेतर तर र्मलों से रवहत हुअ ्यान के ऄ ाव की दशा र्में ी ब्रह्म के थवरूप र्में र्म‍न रहता
ह।, तब वह अत्र्मारार्म कहलाता ह। ऄथालभत् ऄपने ही अत्र्मा र्में रर्मण करने वाला होता ह। अत्र्मारार्म होने
से परू
र ष ससं ार र्में ऄसंग ाव को प्राप्त करता ह। अत्र्मा के ज्ञान से सासं ाररक पदाथों ऄथालभत् ववषयों की
ओर असव‍त का नाश होता ह। वित्त र्में ववषय सम्बन्धी वृवत्तयों के रवहत हो जाने पर ऄतं ःकरण र्में
वासनाओ ं से रवहत परर्म् शांवत की ऄवथथा प्राप्त होती ह। यही ऄवथथा जा्र त र्में सषर प्र त के सर्मान
सर्मावध ऄवथथा कही गइ ह। आस ऄवथथा को प्राप्त करने वाले परू र ष को संसार र्में िाहे दःर ख वर्मले ऄथवा

तत्त्वज्ञान 177
सखर , वकंतर वह संसार की ओर अकवषलभत नहीं होता, ‍योंवक ब्रह्मज्ञान होने के कारण ईसे र्मालर्मर ह। वक
संसार का ऄवथतत्व ह। ही नहीं आसी कारण सख
र -दःर ख से रवहत होकर संसार के कायों को करता रहता ह।
सासं ाररक ववषयों से रवहत हुअ जीवन्र्मक्त र पद पर ली- ााँवत वथथत ब्रह्म को प्राप्त परू
र ष जो ी
कर्मलभ करता ह।, ईस वकए हुए कर्मलभ का ईसर्में कतालभपन का ाव नहीं रहता ह। ऐसी ऄखण्ड सर्मावध का
ऄभ्यास जब दृढ़ता पवर लभक हो जाता ह।, तब ईसकी तरर ीयावथथा कही जाती ह। ईसके ऄन्त:करण र्में सर्मथत
ववकार नष्ट हो िक र े होते हैं तथा र्मन का ऄत्यन्त ऄ ाव-सा हो गया ह। ऐसे ब्रह्मज्ञानी परू
र ष को इश्वरीय
अनन्द की ऄवथथा प्राप्त हो जाती ह। ऄखण्ड सर्मावध र्में वथथत हुअ ब्रह्मज्ञानी परू र ष ऄवतशय प्रसन्नता
से यक्तर परर्म् अनन्द र्में र्म‍न रहता हुअ आस ससं ार के व्यवहार को सदा लीला के सर्मान देखता रहता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू र ष ववषयी परू र षों के संग से रवहत, ववषयों की असव‍त से रवहत, सम्र्मान और र्मानवसक
विन्ताओ ं से शन्र य, इश्वर विन्तन र्में रत, शि र ऄंतःकरण से यक्त र होता ह। कार्म रूपी कीिड़ से र्म‍र त,
बन्धन थवरूप संसार भ्रर्म से शन्र य, हषलभ-शोक, राग-द्रेष तथा य अवद से रवहत होता ह।, ‍योंवक वह संसार
सागर से पार हो िक र ा होता ह। तथा परर्म् पद पर वथथत होता ह। स ी र्मनष्र य र्मन, वाणी और कर्मलभ द्रारा
जीवन्र्मक्त
र परूर ष के अिरणों के ऄनक र रण की आच्छा करते हैं, पर वह वकसी प्रकार की आच्छा नहीं करता
ह। स ी र्मनष्र य ईसके अनन्द का ऄनर्मर ोदन करते हैं, पर वह वकसी का ऄनर्मर ोदन नहीं करता ह। वह वसिलभ
ईदासीन रहता ह। वह न त्याग करता ह।, न ्र हण करता ह।, न ही वकसी की थतवर त करता ह।, न वकसी की
वनन्दा करता ह। वह सर्मथत अरम् ों, सम्पणर लभ ववकारों, अशा, आच्छा और वासना से रवहत ह।
जीवन्र्मक्त
र परूर ष शातं बवर ि से सम्पनन, ् अतं ररक दृवष्ट से सासं ाररक र्मनष्र य के व्यवहारों को
यरं वनवर्मलभत के सर्मान देखता ह। ऐसा परू
र ष न तर कालीन वथतर का थर्मरण करता ह।, न ववष्य की परवाह
करता ह। और न ही वतलभर्मान र्में वकसी पदाथलभ र्में तन्र्मय होता ह।, तथा सब करछ करता हुअ ी वनलेप रहता
ह। वह सोता हुअ ी अत्र्मज्ञान र्में जागता रहता ह। सम्पणर लभ असव‍त से शन्र य, सम्पणर लभ कार्मनाओ ं से
रवहत, सब कायों को करता हुअ ी सर्म ाव र्में वथथत रहता ह।, ‍योंवक ईसका ऄंतःकरण भ्रर्म से रवहत
होकर सर्मता रूपी ब्रह्म थवरुप र्में वथथत हो गया ह। थथान और सर्मय के ऄनसर ार प्राप्त हुइ वक्रयाओ ं र्में
वथथत हुअ ी वह कर्मों से ईत्पन्न सख र और दःर ख की प्रावप्त र्में ववकारवान नहीं होता ह। वह दःर ख की
ऄवथथा की ईपेक्षा नहीं करता ह। और सख र की ऄवथथा की परवाह नहीं करता ह। संसार र्में िाहे वजतनी
ी ववपरीत घटनाएं घटने लगे, तब ी जीवन्र्मक्त र परू र ष को अश्ियलभ नहीं होता, ‍योंवक वह जानता ह। वक
यह सब ब्रह्म की ऄसीर्म र्माया शव‍तयााँ आस प्रकार थिरररत हो रही हैं आसवलए अश्ियलभ घटनाएं घटने पर

तत्त्वज्ञान 178
ी ईसे अश्ियलभ नहीं होता ह। ईसके ऄन्दर क ी दीनता नहीं अती और न ही क ी वह ईदण्ड होता ह।
वह ऄपने वनरवतशय अनन्द थवरूप से अनन्दवान होकर वथथत रहता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू
र ष का र्मन वर्मरता अवद गणर ों से सम्पन्न होता ह। तथा ईत्तर्म आच्छाओ ं और पनर लभजन्र्म से
शन्र य होता ह। पनर लभजन्र्म से रवहत जो जीवन्र्मक्त
र परूर ष की सत्ता ह।, वही सत्त्व नार्म से कही जाती ह। ववदेह
र्म‍र त परूर ष का र्मन जो श्रेष्ठ गणर ों का अश्रय रूप ह।, वह ी ववलीन हो जाता ह। ववदेह र्म‍र त परू र ष का
ऄरूप वित्त जो सत्त्वथवरूप ह।, ईसके नष्ट हो जाने पर दृश्य पदाथलभ का ऄवथतत्व ही नहीं रह जाता ह।
ऄथालभत् सक ं कप सवहत सम्पणर लभ ससं ार का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह। आस ऄरूप वित्त के ववनाश की दशा
र्में गणर -ऄवगणर , ििं लता-ऄििं लता, ईदय-ऄथत, प्रकाश-ऄधं कार, वदन-रात, वदशाएाँ-अकाश, आच्छा-
ऄवनच्छा, ाव-ऄ ाव अवद नहीं रहते हैं और न ही वकसी प्रकार की रिना रहती ह। ऄथालभत् ऐसे परू र ष
बवर ि और संसार से पार हो गये होते हैं
जीवन्र्मक्त
र तत्त्वज्ञानी परू
र ष का वित्त इश्वर र्में ऄथवा वनजथवरूप र्में रर्मा रहता ह।, आसवलए वह वनत्य
तृप्त, शांतवित्त परू र ष परर्मात्र्म थवरूप र्में ही वथथत रहता ह। जीवन्र्मक्त
र परूर ष क ी ी वसवियों की ओर
नहीं जाता ह।, ‍योंवक वसवियों र्में ईसे कोइ ववशेषता नजर नहीं अती ह। ले ही कोइ ी वसवि हो, वह
तन्र-र्मंर, तप और प्राणायार्म द्रारा प्राप्त की जाने वाली वसवियााँ ज।से- अकाश गर्मन, पर-काया प्रवेश
अवद को र्महत्व नहीं देता ह। जीवन्र्मक्त र परू र ष की ववशेषता यही ह। वक वह ऄज्ञानी व ससं ारी परू र षों के
सर्मान नहीं रहता ह। आस परू र ष का र्मन स ी वथतओ र ं र्में असव‍त के त्याग के कारण राग रवहत व वनर्मलभल
बना रहता ह। तथा ववषय ोगों र्में नहीं िाँ सता ह। जो परू र ष सर्मथत बाहरी विन्हों से रवहत तथा तत्त्वज्ञान से
दीघलभकावलक सासं ाररक भ्रर्म की वनवृवत्त हो जाने के कारण परर्म् शांवत को प्राप्त कर िक र ा ह।, ईस तत्त्वज्ञानी
परू
र ष र्में कार्म-क्रोध, लो -र्मोह, अवद का वनत्य ऄ ाव रहता ह।
जब ऄभ्यासी जीवन्र्मक्त र ऄवथथा र्में प्रवेश करता ह।, तब ‍या सोिता ह। तथा क। से ऄनर तर करता ह।,
करछ शब्दों र्में वलखता ह–ाँ ‚ऄब र्मैं सक्ष्र र्म शरीर रूपी बन्धन से सवलभथा र्म‍र त हो गया हाँ आस सक्ष्र र्म शरीर र्में
वासनाएाँ, सक्ष्र र्म- तर , कर्मलभ, ऄववद्या, आवन्ियााँ और बवर ि अते हैं इश्वर का ऄंश होने से इश्वर र्में (सगणर
ब्रह्म र्मेंद प्रववि हो गया हाँ ऄंश और ऄंशी का ऄ ेद होने के कारण सर्मथत ईपावधयों से रवहत परर्मात्र्मा
थवरूप ही हाँ र्मैं करटथथ, शि र और व्यापक हाँ ज।से- जल र्में वर्मलाया हुअ जल नष्ट न होते हुए तिरप हो
जाता ह।, व।से ही र्मैं सवलभ ाव से अनन्द थवरूप िेतन परर्मात्र्मा र्में प्रववि होकर तिरप हो गया हाँ पाप और
पण्र य से रवहत विन्र्मय थवरूप परर्मात्र्मा र्मैं ही ह‛ाँ

तत्त्वज्ञान 179
आस प्रकार के लक्षणों से यक्त
र , प्रकृ वत के गणर ों से ऄतीत, सवलभव्यापक ब्रह्म का ्यान करना िावहए
तथा वनष्कार्म ाव से ऄपने कतलभव्य का पालन करना िावहए आस तरीके से ब्रह्म ववषयक ऄभ्यास करने से
ऄभ्यासी का र्मन ब्रह्म र्में ववलीन होने लगता ह। र्मन के ववलीन हो जाने पर ईसे थवयं ही ऄपने
अत्र्मथवरूप का ऄनर व हो जाता ह। अत्र्मा की ऄनर वर त होने पर सम्पणर लभ द:र खों का ऄन्त होकर अत्र्मा
र्में अनन्द का ऄनर व होने लगता ह। तथा अत्र्मा थवयं ही ऄपने अप परर्मानन्द परर्मात्र्मा थवरूप को
प्राप्त हो जाता ह। ऄब वह जानने लगता ह। वक ईसकी बवर ि सवलभथा वनर्मलभल हो गइ ह। ईसके वलए यह
संसार विरकाल तक वथथर नहीं रह सकता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू
र षों द्रारा सद।व इश्वर द्रारा प्रेररत कर्मलभ ही वकए जाते हैं विर ी ऐसे परू
र षों को क ी
ऐसे कर्मलभ नहीं करने िावहए वजनर्मे दोष हों ववशेषकर वनवषि कर्मलभ क ी नहीं करना िावहए जब जीवात्र्मा
संककपों से रवहत हो जाता ह।, तब ब्रह्म के लक्षणों से यक्त र हो जाता ह। तथा ईसकी स ी आवन्ियााँ शांत हो
जाती ह। शरीर, आवन्िय, र्मन, बवर ि से परे जो जीवात्र्मा ह।, ईससे ी परे जो ब्रह्म ह।, वही र्मेरा वाथतववक
थवरूप ह।, ऐसा वनणलभय करके जब जीवात्र्मा एकत्व ाव से ्यान करता ह।, तब वह ऄपने वनजथवरूप
ऄथालभत् परर्मात्र्म थवरूप को प्राप्त हो जाता ह। जब जीवात्र्मा कतृलभत्व, ोक्तृत्व तथा ज्ञातृत्व से तथा सम्पणर लभ
देह अवद ईपावधयों से एवं सख र -दःर ख से रवहत हो जाता ह।, तब तब जीवात्र्मा सम्पणर लभ तर ों को अत्र्मा र्में
तथा अत्र्मा र्में सम्पणर लभ तर ों को ऄ ेद रूप से देखने लगता ह। जीवन्र्मक्त र संसार से जब सवलभथा र्म‍र त हो
जाता ह।, तब वह जा्र त थवप्न ऄवथथाओ ं से रवहत होकर तरर ीयावथथा र्में वथथत रहता ह। तथा अत्र्मानन्द
र्में प्रवेश करता ह।
अत्र्मज्ञानी परूर ष र्में वनज थवरूप ऄनसर धं ान के वसवाय ऄन्य कोइ िेष्टा ही नहीं होती ह। अशा,
िेष्टा, कार्मना अवद से रवहत तथा बवहलभर्मख र ी वृवत्त से शन्र य जो ऄखण्ड अत्र्म ज्ञान ह।, वह शातं ऄनन्त
अत्र्मथवरूप ही ह। ऐसे जीवन्र्मक्त र परू
र ष को शरीर अवद का ऄनसर ंधान होना क। से सम् व हो सकता ह।?
सर्मथत कार्मनाओ ं से रवहत हुअ जीवन्र्मक्त र ज्ञानी परू
र ष िष्टा, दृश्य और दशलभन की वरपटर ी से रवहत ह। तथा
वनराकार ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार कर िक र ा ह। सर्मथत वथतओ र ं की आच्छाएाँ ही सदृर ढ़ बन्धन हैं और ईनकी
ईपेक्षा ही र्मवर ‍त ह। जो ईस र्मवर ‍त र्में ववश्रार्म कर रहा ह।, ईसे वकसी वथतर की आच्छा नहीं हो सकती ह।
जीवन्र्मक्त
र परू र ष के वल ऄपने यथाथलभथवरूप र्में ही वथथत रहता ह।, ईसकी सर्मथत आच्छाएाँ व िेष्टाएाँ शांत हो
िकर ी हैं ईसे ऄपने शरीर का ान नहीं रहता ह। तथा ऄपने र्मोह को सपलभ की कें िल र ी के सर्मान त्याग वदया
ह। जब तक ईसका थथल र शरीर जीववत ह।, तब तक वह वासना शन्र य होकर कर्मलभ करता रहता ह।

तत्त्वज्ञान 180
जीवन्र्मक्त
र परू
र ष की िेष्टाएाँ प्रारब्ध कर्मों र्में आच्छा शन्र य तथा व्याकरलता से रवहत होती हैं तत्त्वज्ञानी
परू
र ष को आस संसार का जीवन बांस की तरह बाहर व ऄन्दर से शन्र य, रसहीन तथा वासना रवहत प्रतीत
होता ह। वजसकी आस संसार र्में रूवि नहीं होती ह। तथा ह्रदय र्में वजसे ऄदृश्य िेतन ब्रह्म ही ऄच्छा लगता
ह।, ईसने ऄपने ीतर व बाहर से शांवत प्रावप्त कर ली ह।, वह आस संसार से पार हो गया ह। र्मन का आच्छा
से रवहत हो जाना ही ब्रह्म प्रावप्त ह। र्मन को ज।सी शांवत आच्छा त्याग कर देने से होती ह।, व।सी शांवत ढेरों
ईपदेशों के सनर ने से ी ईपलब्ध नहीं होती ह। आच्छा की ईत्पवत्त से ज।सा दःर ख प्राप्त होता ह।, व।सा दःर ख
तो नरक र्में ी नहीं वर्मलता ह। आसवलए आच्छा र्मार को ही दःर ख दायक वित्त कहते हैं, और ईस आच्छा की
शांवत र्मोक्ष कहलाता ह। ववषय ोग संसार रूपी र्महान रोग ह।, ाइ्-बन्धर अवद सदृर ढ़ बन्धन हैं धन-
सम्पवत्त र्महा ऄनथलभ के कारण हैं, ऐसा सर्मझकर ऄपने अत्र्मा र्में ही शांवत ला करना िावहए ज।से-
सषर प्र त ऄवथथा र्में परू
र ष को जा्र त का ान नहीं रहता ह।, व।से ही ब्रह्म थवरूप र्में वथथत परू र ष को जगत्
का ान नहीं होता ह। आस संसार र्में िाँ से परू र ष को ब्रह्मथवरूप का ज्ञान ही नहीं रहता ह।, परन्तर वजसका
वित्त पणर लभतया शांत हो गया ह। तथा जीवन्र्मक्त र तत्त्वज्ञानी ह।, वह ब्रह्म और जगत् के प्रकाशर्मान रूप को व।से
ही जानता ह।, ज।से जा्र त और थवप्न िष्टा को क्रर्मशः ईनके रूप की जानकारी रहती ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष
को सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत (ससं ारद के यथाथलभ रूप का वाथतववक ज्ञान हो जाता ह।, वजससे ईसका वित्त
ऄत्यन्त शि र होकर ली- ााँवत शातं हो जाता ह।
जीवन्र्मक्त
र तत्त्वज्ञानी परू
र ष को ब्रह्म के ववषय र्में ली- ााँवत ज्ञान हो जाता ह। ऐसा परू
र ष िाहे जंगल
र्में रहे ऄथवा शहर र्में, ईसके वलए दोनों सर्मान हैं ऄभ्यास के वलए एकांत ऄथालभत् जंगल ज्यादा ईपयक्त र
होता ह।, ऐसी र्मेरी ऄनर वर त ह।, ‍योंवक एकांत र्में वकसी प्रकार का व्यवधान नहीं होता ह। व्यवधान न अने
से अगे का र्मागलभ प्रशथत होने र्में असानी हो जाती ह। जहााँ तक हर्मारी ऄनर वर त ह।, वजस प्रकार से र्मैंने
जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा प्राप्त की ह।, ईसके ऄनसर ार ऄभ्यासी को सर्माज के सम्पकलभ र्में अना होगा जब तक
वह सर्माज के सम्पकलभ र्में नहीं अएगा, तब तक आस ऄवथथा र्में पररप‍वता नहीं अएगी सर्माज र्में व्यवहार
ी करना होगा, आस ऄवथथा र्में जो व्यवहार करता ह। वह वनष्कार्म ाव से होता ह। ईसे वकसी प्रकार की
असव‍त नहीं होती ह।, ‍योंवक ईसने थथल र शरीर से लेकर जीवात्र्मा तक का ज्ञान ऄभ्यास के द्रारा प्राप्त
कर वलया ह। ऐसी ऄवथथा र्में असव‍त का कोइ र्मतलब नहीं रह जाता ह। आसवलए असव‍त रवहत होकर
संसार र्में व्यवहार करता ह। संसार र्में व्यवहार करते सर्मय ईसे ऄपर्मान, वनन्दा, कषट् अवद सहने होते हैं,
ऄगर ऐसा नहीं करे गा तो वित्त र्में पणर लभ वनर्मलभलता क। से अएगी वित्त पणर लभत: वनर्मलभल और थवच्छ हो जाए
आसके वलए सर्माज से ऄपर्मान, वनन्दा व कष्ट सहना अवश्यक ह। जो ऄभ्यासी आन सबसे डरता ह।, वह

तत्त्वज्ञान 181
जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा प्राप्त नहीं कर सकता ह। बहुत से बवर िर्मान ऄभ्यासी ऄपना ऄपर्मान जानबझर कर
करवाते हैं संसारी र्मनष्र य आस ववषय र्में नहीं जान पाता ह। वक योगी परुर ष संसारी र्मनष्र यों से क। सा व्यवहार
िाहता ह। जीवन्र्मक्त र परू
र ष को संसार से वजतना कष्ट वर्मलेगा, ईससे वित्त की र्मवलनता, जो पवर लभ जन्र्मों र्में
असव‍त व र्मोह के कारण अइ ह।, थवच्छ होने लगती ह। तथा वनगलभणर ब्रह्म र्में ऄववथथत होने के वलए
र्माया के करछ अवरण पार करने होते हैं आन अवरणों को पार करने के वलए ऄभ्यास करना होता ह। तथा
संसार र्में व्यवहार करके ऄपर्मान अवद का ोग करना होता ह।, तब ऄभ्यासानसर ार बहुत सर्मय र्में
अवरणों को पार कर पाता ह। र्मैंने जीवन्र्मक्तर परूर षों के वलए वलखा ह। वक ईन्हें वित्त थवच्छ करने के वलए
संसार र्में व्यवहार करना िावहए ऄथवा करते हैं, विर जीवन्र्मक्त र का ऄथलभ ही ‍या हुअ जब वह जीवन्र्मक्त र
ही ह।, तो संसार र्में व्यवहार करना, ऄपनी वनन्दा, ऄपर्मान करवाना अवद ऐसा ‍यों? र्मैं यह बताना िाहता
हाँ वक जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा एक ही बार र्में एक ही सर्मय र्में वर्मल जाए ऐसा नहीं होता ह। यह ऄवथथा धीरे -
धीरे प्राप्त होती ह। आसका कोइ वनवश्ित सर्मय तय नहीं ह। वक जीवन्र्मक्त र ऄवथथा वकतने वषों र्में पररप‍व
होती ह। यह ऄभ्यासी के ऄभ्यास तथा पवर लभ जन्र्मों के संथकारों पर वन लभर करता ह। जो जीवन्र्मक्त र परुर ष पणर लभ
रूप से पररप‍व ह।, ईसने तो सगणर व वनगलभणर ब्रह्म का साक्षात्कार कर वलया ह। परन्तर वजन योवगयों ने यह
ऄवथथा पररप‍व नहीं की ह। तथा पररप‍वता के वलए ऄभ्यास कर रहे हैं, ईनके वलए ये शब्द वलखे हैं
ईन्हें ससं ार के व्यवहार र्में अना होगा, सारे कष्टों को सहना होगा, ‍योंवक ईन्हें यह ऄवथथा प्राप्त करनी
ह। जब सम्र्मान-ऄपर्मान, वनन्दा-थतवर त, तथा सख र -दःर ख र्में वकसी प्रकार के ेद की ऄनर वर त न हो, दोनों
ऄवथथाओ ं र्में ऄथालभत् सर्म-ववषय र्में एक ज।सी ही ऄनर वर त हो ऄथालभत् आन दोनों ऄवथथाओ ं से परे की
ऄवथथा प्राप्त हो जाए
जीवन्र्मक्त
र परूर ष ऄगर जंगल र्में रहे तो वहााँ के जीव-जंतर ी ईसके वर्मर बन जाते हैं वहसं क पशर ी
जब तक ईसके पास रहेगा ऄथवा ईसकी वनवश्ित सीर्मा के ऄन्दर रहेगा, ईस सर्मय वहसं ा छोड़ देगा ऐसे
र्महापरुर ष के द्रारा जंगल की वनवश्ित सीर्मा र्में ऐसा वातावरण बन जाता ह। वक र्मनष्र य और पशओ र ं के
ऄंतःकरण र्में वहसं क वृवत्तयााँ ईठती ही नहीं हैं जीवन्र्मक्त
र परू
र ष ऄगर ववशाल राज्य र्में ी रहता हो, तो
वहााँ का ववशाल जनसर्मरदाय से रा हुअ थथान ी शन्र य- सा हो जाता ह। ववपवत्तयााँ ईसके वलए
सम्पवत्तयााँ हो जाती हैं ईसके वलए ऄसर्मावध ी सर्मावध ही ह। तथा दःर ख र्महान सख र ही ह। वाणी का
व्यवहार ी र्मौन ह। और कर्मलभ ी ऄकर्मलभ ह। जा्र त ऄवथथा र्में रहता हुअ ी जा्र त र्में नहीं ह।, ‍योंवक
वनववलभककप अत्र्मा र्में ईसकी सदृर ढ़ वथथवत ह। वह जीववत रहता हुअ ी देहाव र्मान से शन्र य रहने के
कारण र्मृत्यर के ही तकर य ह। वह सारे व्यवहार का पालन करता ह। तो कर्मलभ करने के ऄव र्मान से वक ‚र्मैं

तत्त्वज्ञान 182
कर्मलभ कर रहा ह‛ाँ , रवहत होने के कारण करछ ी नहीं करता ह। वह रवसक होकर ी ऄत्यन्त ववर‍त ह।
ऐसा परू र ष करूणा से रवहत होता हुअ ी सबको ऄपना वर्मर र्मानकर सबके प्रवत प्रेर्म ाव रखता ह।
वनदलभयी होकर ी वह ऄत्यन्त करूणा से रा हुअ ह।, तृष्णा से परे होकर ी सबके ककयाण की तृष्णा
रखता ह।, शोक और य से शन्र य होकर ी वह दसर रों का दःर ख देखकर शोक यक्त र वदखाइ देता ह। तथा
वनजानन्द ऄथवा ब्रह्मानन्द का रवसक होकर ी वह संसारी र्मनष्र यों से ऄत्यन्त ववर‍त रहता ह। ईसे यवद
वकसी प्रकार की कोइ वथतर वर्मल ी जाए तो ी ईसे वकसी प्रकार की कोइ असव‍त नहीं होती ह। तथा
ऄप्राप्त वथतर के वलए वह कोइ आच्छा नहीं रखता ह। ऄनक र र ल और प्रवतकरल पदाथलभ के प्राप्त हो जाने पर
ईसे वकसी प्रकार का सख र ऄथवा दःर ख नहीं होता ह। स ी ऄवथथाओ ं र्में सख र -दःर ख से रवहत होकर सदा
एक-सा वथथत रहता ह। ऐसे र्महापरू र ष शर कर्मों के ऄवतरर‍त वनवषि कर्मलभ क ी नहीं करते हैं और न ही
इश्वर आच्छा के ववपरीत क ी िेष्टा करते हैं
जीवन्र्मक्त
र परू र ष वकसी र्मनष्र य ऄथवा वथतर से क ी अस‍त नहीं होता ह। और न ही वकसी से
ऄकथर्मात ववर‍त होता ह। अजकल बहुत से सन्त र्महात्र्मा व न्न–व न्न तरीकों से धन ऄवजलभत करते हैं
ऄथवा धन ऄवजलभत करने का प्रयास करते रहते हैं, परन्तर जीवन्र्मक्त र परू र ष क ी धन ऄवजलभत करने के वलए
संसार से यािना नहीं करते हैं, ‍योंवक ईसके स ी प्रकार के राग सर्माप्त हो गये हैं परन्तर उपर से वह राग
से यक्त
र सा वदखाइ देता ह। वह इश्वर से प्रेररत होकर जो ी कायलभ करता ह।, ईससे जो सख र -दःर ख की प्रावप्त
होती ह।, ईस सख र -दःर ख से सवलभथा ऄछरता रहता ह। परन्तर सांसाररक र्मनष्र यों को वदखाइ देता ह। वक ईसे
सखर -दःर ख की ऄनर वर त हो रही ह। र्मगर वह सख र -दःर ख, हषलभ-ववषाद करके वशी तर नहीं होता ह। क ी-
क ी व्यवहार र्में देखा जाता ह। वक तत्त्वज्ञानी परू र ष दसर रों के सखर से प्रसन्न तथा दसर रे के दःर ख से दःर खी हो
जाते हैं परन्तर सत्य तो यह ह। वक वह न तो प्रसन्न होते हैं और न दःर खी ही होते हैं, ‍योंवक ऄन्दर से
सर्मतापणर लभ थव ाव का पररत्याग क ी नहीं करते हैं ऐसा र्महापरू र ष संसार रूपी र्मंि का ऄव नेता ह।
ईसके पररवार के जो ी सदथय थरी-परर , ाइ- तीजा अवद िाहे जो ी हों, ईसे ज्ञात ह। वक ये सब पानी
के बल र बलर ों के सर्मान हैं आसवलए ऐसा तत्त्वज्ञानी परू र ष क ी ी र्मोह रूपी थनेह नहीं करता ह।, परन्तर थनेह
से रवहत होते हुए ी ावक र र्मनष्र यों के सर्मान यथा-यो‍य थनेह वृवत्त का दशलभन करता हुअ व्यवहार करता
ह। बाहर से स ी प्रकार के व्यावहारों को करता हुअ ऄन्दर वह सवलभथा शांत रहता ह।
जीवन्र्मक्त
र परूर ष ऄपने कर्मों के िलों र्में असव‍त से शन्र य होते हुए ी राग यक्त र परू
र षों के सर्मान
व्यवहार करते हैं तथा वित्तरूपी दपलभण सर्मथत दृश्य प्रपंि को वे कपट वर र्म के सर्मान ऄसत् देखते ह। वजस

तत्त्वज्ञान 183
प्रकार थवप्न र्में देखी गइ वथतर जा्र त ऄवथथा र्में ऄसत् र्मानी जाती ह।, ईसी प्रकार वे जगत् को ऄसत्
र्मानते हैं जो ज्ञानी र्महात्र्माओ ं के सर्मान शि
र वित्त वाले होते हैं, वे ही तत्त्वज्ञानी जीवन्र्मक्त र परू र षों के
ववषय तथा र्महत्व को ली प्रकार सर्मझ सकते हैं संसारी परू र ष ईनके ववषय र्में नहीं जान पाते हैं
तत्त्वज्ञानी परू र ष ऄपने सवोत्तर्म ाव को वछपाए रहते हैं वह ऄपने गणर ों के ववषय र्में दसर रों को नहीं बताते
हैं और न ही वकसी प्रकार दसर रों के सार्मने प्रदशलभन ही करते हैं, ‍योंवक वह वासना से शन्र य, द्र।तहीन तथा
ऄव र्मान से रवहत होते हैं ऐसे तत्त्वज्ञावनयों को एकांत र्में रहना, ऄपर्मान, बरर ी वथथवत तथा साधारण
र्मनष्र यों द्रारा की गइ ऄवहेलना अवद, ये सब बातें ईन्हें सख र पहुिाँ ाती ह। ऐसा सख र बड़ी-बड़ी सर्मृवियों
के द्रारा ी प्राप्त नहीं वकया जा सकता ह। तत्त्वज्ञावनयों का जो वनरवतशय अनन्द ह।, ऐसा अनन्द वसिलभ
ऄनर वर त के द्रारा ही जानने यो‍य ह। र्महत्व की बात ह। वक ऐसा अनन्द तत्त्वज्ञानी परू र ष ी नहीं देखता ह।,
वह तो के वल ऄपने वनज प्रकाश थवरूप से ऄनर तर करता ह। वजनके वित्त र्में ऄहक ं ार ववद्यर्मान ह।, ऐसे
परुर ष प्रयास करते हैं- ‘लोग र्मेरे गणर ों को जाने और र्मेरी पजर ा करें ’, परन्तर तत्त्वज्ञानी का वित ऄहक ं ार से
रवहत ह। ईनके ऄंतःकरण र्में आस प्रकार की आच्छा का प्राकट्य क ी नहीं होता ह। वक लोग ईनके गणर ों को
जाने और ईनकी पजर ा करें ऐसे वासना-शन्र य तत्त्वज्ञ र्महापरू र ष वसवियों को प्राप्त करने के वलए वक्रयायों
का साधन क। से करें गे? आस प्रकार की वसवियााँ ईनके वलए ऄत्यन्त तच्र छ और र्मन का भ्रर्म र्मार ह।
जीवन्र्मक्त
र परू र ष का शरीर ी देह धर्मलभ से यक्त र रहता ह।, परन्तर ईस शरीर के ऄन्दर जो ईसका वित्त
ह।, वह ऄिल रहता ह। ऄथालभत् वित्त र्में वकसी प्रकार का थपन्दन नहीं होता ह। थपन्दन न होने के कारण
ईसके वित्त र्में ोग रूपी संथकार ही ववद्यर्मान नहीं होते हैं ईसका वित्त सत्त्वगणर प्रधान होता ह। आसवलए
ईसके वित्त र्में देह धर्मलभ व्याप्त नहीं होता ह। जीवन्र्मक्त
र परू
र ष को िाहे वजतनी कठोर सज़ा दी जाए ऄथवा
ईसे राज वसंहासन पर ब।ठा वदया जाए, आन दोनों ऄवथथाओ ं र्में ईसे वकसी प्रकार का न तो दःर ख का
ऄनर व होता ह। और न ही सख र का ऄनर व होता ह। जीवन्र्मक्तर परू
र षों का शरीर अवद क ी अत्र्म ाव
से ऄलग नहीं होता ह। आसवलए जीवन्र्मक्त र क ी ी र्मरा हुअ र्मरता नहीं ह।, रोता हुअ रोता नहीं ह। और
हाँसता हुअ हाँसता नहीं ह।, ऄथालभत् र्मृत्यर अवद ऄवथथाओ ं र्में दःर ख और प्रसन्नता से यक्त र नहीं होता ह।
यवद व्यवहार के सर्मय देखा जाए तो जीवन्र्मक्त र परू
र ष तथा ऄज्ञानी संसारी र्मनष्र यों के अिरण एक ज।से ही
देखे जाते हैं जीवन्र्मक्त
र परू र ष वीतराग होते हुए ी ईनका व्यवहार रावगयों के सर्मान ही होता ह। सबसे
र्महत्वपणर लभ बात ह। वक बन्धन और र्मोक्ष का कारण तो वासना और वासना शन्र यता ही ह।

तत्त्वज्ञान 184
जीवन्र्मक्त
र परू
र ष सद।व ज्ञान र्में वथथत रहते हैं तथा ऄपने वनज थवरूप र्में सदा रर्मते रहते हैं ऐसी दशा
र्में वह कर्मों का पररत्याग नहीं करते हैं, ‍योंवक ईन्हें कर्मों से कोइ प्रयोजन नहीं ह। ऄर्मक र कर्मलभ त्याज्य ह।
या ऄर्मक र कर्मलभ करने यो‍य ह।, जीवन्र्मक्त
र की दोनों प्रकार की ये दृवष्टयााँ क्षीण हो गइ हैं विर ईसे कर्मों का
त्याग करने से ‍या र्मतलब ह। ऄथवा कर्मलभ का अश्रय होने की ‍या अवश्यकता ह।? तत्त्वज्ञानी परू र ष को
न तो कर्मों के त्याग करने से कोइ प्रयोजन ह। और न ही कर्मों के अश्रय लेने से , आसवलए जीवन्र्मक्त र परूर ष
ज।सा कर्मलभ करते अए हैं, ईसी प्रकार वह ी व।से ही कर्मलभ कर रहा ह। जब तक थथल र शरीर जीववत ह।, तब
तक शरीर वनवश्ित रूप से िेष्टा करता रहता ह। आसवलए जीवन्र्मक्त र परूर ष को िावहए वक वह शांत ाव से
िेष्टा करता रहे ईसे कर्मों का त्याग करने की ‍या अवश्यकता ह।? सदा वनववलभकार रहने वाली सर्मता यक्त र
बवर ि से जब कर्मलभ वकया जाता ह।, तो वह वनदोष ही होता ह। ऐसे कर्मों से संसार का ककयाण ही होता ह।,
‍योंवक ईसके सारे कर्मलभ र्मनष्र य के ककयाण के वलए ही होते हैं सांसाररक दृवष्ट से देखने पर ऐसे कर्मों के
ववषय र्में ले ही सर्मझा ना जा सकता ह।, परन्तर क ी-क ी आन कर्मों र्में गढ़र रहथय ी छरपा होता ह। इश्वर
क ी ी ऄपनी कृ पा प्रत्यक्ष अकर नहीं करे गा जब ईसे करछ करना होता ह।, वह ऐसे ज्ञानी परू र षों को ही
र्मा्यर्म बनाता ह।, ‍योंवक ज्ञानी परूर ष संसार और इश्वर के बीि की कड़ी होता ह। वह इश्वर के ऄवत
नजदीक रहता ह। तथा ससं ार र्में ी व्यवहार करता ह।
जीवन्र्मक्तर परू र ष क ी ी वकसी प्रकार के वनयर्मों को नहीं र्मानते हैं और न ही वकसी प्रकार के
वनयर्मों का ऄनसर रण ही करते हैं वह ऄपना जीवन वकस प्रकार व्यतीत करते हैं, यह वनवश्ित रूप से कहा
नहीं जा सकता ह।, ‍योंवक वह पणर लभ रूप से थवतंर होते हैं यवद पवर लभकाल की ओर ्यान दें तो पढ़ने को
वर्मलेगा वक बहुत से जीवन्र्मक्त र परू र ष गृहथथ र्में रहते थे तथा बहुत से घने जंगलों र्में करवटया या अश्रर्म
बनाकर ी रहते थे करछ जीवन्र्मक्त र गफ़ र ाओ ं र्में रहते थे, परन्तर करछ ऐसे ी थे वजनका न तो कोइ अश्रर्म
था और न ही गफ़ र ाओ ं र्में रहते थे, ईनका तो कोइ रहने का वठकाना ही नहीं था अज यहााँ तो कल दसर री
जगह ठहर जाते थे राजा जनक ऐसे ही जीवन्र्मक्त र परू
र ष थे, वे ऄपने राज्य का कायलभ ार ी देखते थे
राजा जनक तत्त्वज्ञानी, वीतराग, ऄनासक्त वित्त वाले थे वे विन्ता रवहत होकर राज्य करते थे आससे पहले
पवर लभकाल र्में प्रहलाद, बवल अवद बहुत से राजा हो गये जो जीवन्र्मक्त र होते हुए ी राज्य का कायलभ ी देखते
थे करछ जीवन्र्मक्त र र्महापरू र ष ऄपने ऄंतःकरण र्में सम्पणर लभ िलों की असव‍तयों का त्याग कर सब प्रकार
का वनत्य कर्मलभ करते हुए तत्त्वज्ञानी होकर ी ऄज्ञावनयों की ााँवत वथथत रहते थे करछ सर्मतापणर लभ ह्रदय
वाले राग-द्रेष का पररत्याग करने के वलए शरर-वर्मर से रे हुए ऄपने गााँव या शहर को छोड़कर ऄन्य गााँव
या शहर र्में िले जाते हैं र्मैं यहााँ पर ऄपने ववषय र्में दो शब्द वलख रहा ह–ाँ जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त करने

तत्त्वज्ञान 185
के वलए र्मैं ऄपने गरू र जी का अश्रर्म छोड़कर ऄपने गााँव अ गया गााँव अकर गााँव से बाहर जंगल र्में
करवटया बना ली तथा कठोर ऄभ्यास करने लगा यहााँ अने पर हर्मारा खबर ईपहास वकया गया, वनन्दा की
गइ तथा बहुत लोगों ने तो घोर ऄपर्मान ी वकया, परन्तर र्मैंने क ी ी ऐसे परू र षों के साथ शरतर ा का
व्यवहार नहीं वकया गााँव वालों ने हर्में बहुत ईकटा-सीधा बोला, परन्तर र्मैं दःर खी नहीं हुअ तथा ऄपने र्मागलभ
से वविवलत ी नहीं हुअ हर्मारे पररवार वालों ने हर्में खबर कष्ट वदए, परन्तर र्मैं सदा र्मथर कराता रहा सि
तो यह ह। वक र्मैं ऄपने पररवार वालों और गााँव वालों का ऊणी हाँ वक आन्होंने जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त
करने र्में हर्मारी सहायता की ह। ऄगर ये स ी ऐसा व्यवहार न करते तो शायद हर्में ऄ ी ये ऄवथथा प्राप्त
नहीं होती ये लोग हर्मारी वजतनी वनन्दा करते, वजतना हर्मारा ऄपर्मान करते थे, ईतनी ही हर्मारे वित्त की
र्मवलनता नष्ट होती रहती थी र्मवलनता नष्ट होने पर वित्त र्में वनर्मलभलता अती थी जीवन्र्मक्त र ऄवथथा
प्राप्त करने के वलए वित्त का वनर्मलभल होना अवश्यक ह। आस कायलभ र्में हर्मारे घर वालों तथा गााँव वालों ने
बड़ा सहयोग वदया ऄतः इश्वर ईन स ी का ककयाण करे
हर्में आतने शीघ्र जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा प्राप्त क। से हुइ? आसका र्मैं र्मल
र र्मंर बता रहा हाँ शायद ही कोइ
ऄभ्यासी ऐसे शब्द वलखता हो सबसे पहली और र्महत्वपणर लभ बात ह।- यो‍य गरू र का होना गरू र ईसी को
बनाना िावहए वजसने ऄभ्यास के द्रारा अत्र्म साक्षात्कार वकया हो तथा योग की बारीवकयों को जानता
हो ऐसा गरू र वर्मलना ऄत्यन्त दल र लभ ह। विर कठोर ऄभ्यास वकया जाना अवश्यक ह। बस एक ही लक्ष्य
होना िावहए और वह लक्ष्य ह।- इश्वर प्रावप्त ऄथवा वनज थवरूप र्में वथथत होना अपके र्मागलभ र्में बहुत से
ऄवरोध अएंगे अपका र्मन, प्राण व शरीर ववरोध करें गे ऄथालभत् अपका सहयोग करने र्में अना-कानी
करें गे, परन्तर अप कठोरता बरतें, डरें वबककरल नहीं करछ ऄवरोध अपके गरू र देव दरर कर देंगे, परन्तर याद
रखना वक सारे ऄवरोधों को अपको थवयं पार करना ह।, गरू र वसिलभ र्मागलभदशलभक ह। ऄब र्मल
र र्मंर पर अ
जाएाँ- अपका पररवार, वर्मर, ररश्तेदार अवद अपके नहीं हैं, यह सब भ्रर्म र्मार ह। आसवलए र्मन से आनके
प्रवत पणर लभ असव‍त हटा दो यवद अवश्यक हो तो आनके साथ ऄपना कतलभव्य करते रहें अपका सबसे बड़ा
दश्र र्मन अपका ही ऄहक ं ार ह। ऄहक ं ार को नष्ट करने के वलए अप ऄपना ऄपर्मान करवाएं, वनन्दा सनर े
यवद अपके पास आज्जत नार्म की कोइ िीज ह। तो ईसे दरर िें क दीवजए, ‍योंवक यही आज्जत अपके
योगर्मागलभ र्में बहुत बड़ा ऄवरोध डालेगी ऄपर्मान व वनन्दा करने वाले र्मनष्र यों को सद।व र्मन के ऄन्दर
अशीवालभद दें, ‍योंवक वह अपका कायलभ कर रहे हैं सारे जीवन आसी प्रकार कठोर ऄभ्यास करते रहें, तब
ी जरूरी नहीं वक अपको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाएगा, ‍योंवक तत्त्वज्ञान प्राप्त करने वाले साधक का
अवखरी जन्र्म होता ह। ऄववद्या नष्ट हो जाने के कारण वह विर जन्र्म ्र हण नहीं करता ह। ऐसा साधक

तत्त्वज्ञान 186
जब जन्र्म लेता ह।, तो प्रकृ वत को पहले से ही व्यवथथा करनी होती ह। वतलभर्मान जन्र्म साधारण नहीं होता ह।,
वह प्रकृ वतलय ऄवथथा प्राप्त वकए हुए रहता ह। ऐसी यो‍यता वाले साधक को तत्त्वज्ञान प्राप्त होना
वनवश्ित ह। ईसे थवयं प्रकृ वत ी र्मना नहीं कर सकती ह।, ‍योंवक प्रकृ वत ी इश्वरीय वनयर्मों के ऄधीन ह।
इश्वर के वनयर्म के ऄनसर ार ईस जीव को र्म‍र त करना अवश्यक ह।
वजस ऄभ्यासी ने कठोर ऄभ्यास तथा सयं र्म के द्रारा जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त कर ली ह।, ईसके
वलए ऄपनी ौवतक देह, थरी-परर अवद सर्मथत ससं ार व सासं ाररक पदाथलभ अ ास र्मार ही वदखाइ देते हैं
ऄथालभत् ब्रह्मवनष्ठ जीवात्र्मा आस ससं ार को तथा ौवतक देह को थवप्न के सर्मान र्मानता हुअ ऄपने देह र्में
रहता ह। यह ससं ार लम्बी ऄववध तक बने रहने वाले थवप्न के सर्मान वर्मथ्या ही वदखता ह। वजसकी
ऄज्ञानर्मयी वनिा टरट गइ हो तथा वासनात्र्मक ावना नष्ट हो गइ हो, वह तत्त्वज्ञानी परू र ष आस संसार को
देखता हुअ ी नहीं देखता ह। ऄथालभत् आसे वर्मथ्या सर्मझता ह। जीवों के थव ाव से यह कवकपत संसार,
वजसकी र्मोक्ष होने तक वनरन्तर प्रावप्त होती रहती ह।, ऄज्ञानी के ऄन्दर ही यह संसार सदा सत्यवथथत
रहता ह। यह संसार ौवतक दृषवट ् से देखने पर सब प्रकार से सम्पन्न वदखाइ देता ह।, र्मगर वाथतव र्में यहााँ
करछ ी सम्पन्न नहीं ह। यह अ ास र्मार एवं र्मन का ववलास र्मार ह।, ऄतः ऄसत् रूप र्में वथथत ह। आस
संसार का थवरूप र्मन का संककप र्मार ही ह।, आसवलए र्मनष्र य र्मन की ककपना को सम्पणर लभ शव‍त से सम्पन्न
सर्मझते हैं ऄभ्यास के द्रारा जब साधक वनरूिावथथा को प्राप्त करता ह।, तब वृवत्तयों के वनरुि हो जाने
पर ऄथालभत् संककप के शांत हो जाने पर तेल से रवहत दीपक की ााँवत सब करछ शांत हो जाता ह। ईस
सर्मय संसार अवद का ऄवथतत्व नहीं रह जाता ह। आस ऄवथथा को प्राप्त हुए जीवन्र्मक्त र तत्त्वज्ञानी परू
र ष
को संसार की वाथतववकता का ज्ञान हो जाता ह। ईसे सवलभर व्यापक ब्रह्म की ही ऄनर वर त होती ह। र्मगर
जब वह व्यत्र थान ऄवथथा र्में अता ह।, तब ईसे संसार वदखाइ देता ह। तथा जीवन्र्मक्त र परू
र ष व्यत्र थान
ऄवथथा र्में ही व्यवहार करता ह। व्यवहार के सर्मय वह ऄपने थवरूप र्में वथथत होता ह। संसार के थवरूप
का ज्ञान होते हुए ी संसार र्में व्यवहार करता रहता ह। आस व्यवहार का ईस पर वकसी प्रकार का ऄसर
नहीं पड़ता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू
र षों के वित्त र्में प्रारब्ध वश ईत्पन्न होने वाली ईपदेश की आच्छाओ ं को आच्छाएाँ नहीं
कहा जा सकता ह। जीवन्र्मरक्त परू र षों द्रारा ईपदेश अवद सर्मथत कर्मलभ वनष्कार्म होते हैं ईन्होंने ऄभ्यास के
द्रारा ऄपने वित्त के अवरणों एवं ववक्षेपों को नष्ट कर वदया ह। ऄथालभत् ऄववद्या रूपी र्मल को दरर कर वदया
ह। ईनके वित्त र्में िेतन तत्त्व का प्रकाश प्रकावशत होने के कारण सद।व ब्रह्म र्में वथथत रहते हैं ऐसी

तत्त्वज्ञान 187
ऄवथथा र्में वकया गया कोइ ी कर्मलभ वनष्कार्म ाव वाला ही होता ह। बहुत से जीवन्र्मक्त र परू र षों ने
सांसाररक परूर षों तथा संसार का ईिार करने के वलए ईपदेश तथा योग का प्रिार वकया गवान् श्री कृ ष्ण
ने ऄजलभनर को गीता का ईपदेश वदया था र्मर्मर क्ष
र र द्रारा र्मोक्ष की आच्छा से वकया गया कर्मलभ वनष्कार्म ही होता
ह।
र्मानव जीवन का िरर्म लक्ष्य जब आसी देहावथथा र्में प्राप्त होता ह।, तब ईसे जीवन्र्मक्त र ऄवथथा
कहते हैं जीवन्र्मक्तर ऄवथथा हजारों परू र षों र्में वकसी एक को ही प्राप्त हो पाती ह। ज्ञान र्मागलभ र्में ज्ञान को
सात प्रकार की ऄलग-ऄलग वर र्मयों र्में बाटं ा गया ह। ऄभ्यासी जब ज्ञान की िौथी वर र्म र्में प्रवेश करता
ह।, तब ईसे जीवन्र्मक्तर कहा जाने लगता ह। र्मगर वसिलभ िौथी वर र्म को प्राप्त वकए हुए साधक जन्र्म-र्मृत्यर से
रवहत हो जाएाँ यह कहना ी सम् व नहीं ह। आसवलए पााँिवी, छटवीं और सातवीं वर र्म को प्राप्त वकए हुए
साधक को ही जीवन्र्मक्त र कहना ईवित होगा िौथी वर र्म र्में ऄपरोक्ष ब्रह्मज्ञान का ईदय होता ह। वसिलभ
ऄपरोक्ष ब्रह्मज्ञान से ही जीवन्र्मक्त
र हो पाना सम् व नहीं ह। ज्ञान की आस िौथी ऄवथथा र्में ब्रह्म (सगणर द का
साक्षात्कार होता ह। ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर ी जब तक देह और वित्त पर आसका प्र ाव न पड़े, तब
तक जीवन्र्मक्त र क। से हो सकता ह।? देह और वित्त पर आस ज्ञान का प्र ाव पड़ने के वलए देह-शवर ि तथा
वित्त-शवर ि होना अवश्यक ह। आन दोनों की शवर ि के वबना र्मनोर्मय वथथवत र्में ब्रह्म साक्षात्कार का
ऄनर वात्र्मक ववकास नहीं होता ह। आस साक्षात्कार का ज्ञान जब तक जीवन र्में प्रवतिवलत न हो, तब तक
जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा का ईदय क। से होगा? जीवन्र्मक्त र ऄवथथा र्में देहर्मय और र्मनोर्मय ऄनर व र्में ब्रह्म का
ऄनर व ऄनथर यतर होना िावहए, आसके वलए देह और र्मन की थवच्छता अवश्यक ह। जब साधक की
प्राणायार्म, र्मंर-जाप व ऄकप सावत्वक ोजन के द्रारा ऄभ्यास से तर -शवर ि और वित्त-शवर ि सम्यक रूप
से हो जाती ह।, तब साधक ज्ञान की िौथी वर र्म से पााँिवी वर र्म र्में प्रवेश करता ह। ऄब यह कहा जा
सकता ह। वक वाथतव र्में जीवन्र्मक्त र का ईदय हुअ ह।
ज्ञान की पााँिवी वर र्म पर जब साधक सर्मावध ऄवथथा र्में होता ह।, तब ईसे ससं ार का ान वबककरल
नहीं रहता ह। व्यत्र थान ऄवथथा ऄथालभत् व्यवहार काल र्में असव‍त, कार्मना, सक ं कप और कतृलभत्व
ऄव र्मान से रवहत होकर सर्मथत कर्मलभ होते रहते हैं ईसके द्रारा जो कर्मलभ होते हैं, वह शास्त्रानसर ार ही होते हैं
आस ऄवथथा र्में जीव और जगत् की सत्ता बावधत हो जाती ह।, र्मगर वनष्कार्म ाव से व्यवहार िलता रहता
ह। ऄज्ञानी परू
र ष आस जगत् को सत्य रूप र्में ऄनर व करता ह।, र्मगर आस ऄवथथा को प्राप्त साधक का यहााँ
पर वह ाव नहीं रहता ह। ईसे जगत् थवप्न के सर्मान वदखाइ देता ह। छटवीं वर र्म पर ऄभ्यास से

तत्त्वज्ञान 188
ऄन्त:करण र्में संसार के पदाथों का ऄत्यन्त ऄ ाव-सा हो जाता ह। वजससे ईसे ऄन्दर-बाहर के पदाथों का
थवयं ान नहीं होता ह। आसवलए आस ऄवथथा को वित्त की ‘पदाथलभ ावना’ वर र्मका कहते हैं आस ऄवथथा
को तरर ीयावथथा ी कहते हैं ज्ञान की सातवीं वर र्म पर जगत् ऄनर व र्में नहीं अता ह। ऄथालभत् साधक को
लौवकक ज्ञान का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह।, ‍योंवक वित्त ब्रह्म र्में तिरप हो जाता ह। आसवलए जा्र त,
थवप्न और सषर प्र त ऄवथथा ऄलग-ऄलग रूप र्में पकड़ना र्मवर श्कल या ऄसम् व-सा लगने लगता ह। आसी
कारण यह ऄवथथा तररीयातीत कही जाती ह।
जीवन्र्मक्तर ऄवथथा र्में के वल प्रारब्ध कर्मलभ रहता ह। प्रारब्ध कर्मलभ जब ोग के द्रारा सर्माप्त हो जाता
ह।, तब आसके बाद ी करछ सर्मय तक प्रारब्ध सथं कार के वेग के द्रारा साधक का शरीर सधा रहता ह।
आससे यह नहीं सर्मझ लेना िावहए वक साधक र्मनष्र य देह से र्म‍र त होने के साथ-साथ पणर लभत्व र्में वथथत हो
गया ह। यवद देह त्यागते सर्मय योग के वलए ईपयोगी संथकार शेष रह गये हैं तो इश्वर के लोक र्में जाकर
ईन संथकारों को (व्यत्र थान के द ऄभ्यास के द्रारा क्षय करना पड़ता ह। जो साधक व‍त प्रधान होते हैं,
के वल वही इश्वर के लोक र्में दाथय ाव से रहते हैं र्मगर ज्ञान र्मागलभ का साधक प्र -र ाव को प्राप्त होता
ह। विर ऄभ्यास के द्रारा धीरे -धीरे क। वकय (र्मोक्षद को प्राप्त होता ह। जो जीवन्र्मक्त र साधक पणर लभता प्राप्त
करने के वलए ‘ऄन्वय योग’ का ऄभ्यास करता ह।, वह सर्मथत ववश्व को ऄपने वव व के रूप र्में ऄनर व
वकया करता ह। आस ऄवथथा र्में अत्र्मा वशव रूप से प्रकावशत होता ह।, ‍योंवक सम्पणर लभ जगत् वशव और
शव‍त का प्रकाश रूप ही ह। जीवन्र्मक्त र परू
र ष वशव थवरूप ह।, आसवलए यह सम्पणर लभ जगत् ईसके सार्मने
ऄपनी शव‍त के खेल के रूप र्में ऄनर तर करता ह। र्म‍र त परू र ष को सवलभर वशवरूप का ान होता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू र षों द्रारा ही ज्ञान तन्तर का संरक्षण होता ह। आस जगत् का सब प्रकार का ऄवधकार कायलभ
जीवर्म‍र त परू र ष द्रारा सम्पन्न होता ह। ऐसे परूर ष कतृलभत्व हीन होने के कारण कर्मालभतीत होते हैं आस कारण वे
सब कायों र्में इशवर ् के प्रवतवनवध होते हैं विवतशव‍त रूपी बल प्राप्त होने पर साधक सम्पणर लभ जगत् को
अत्र्मसात करने र्में सार्मथलभवान हो जाता ह। विवतशव‍त के प्र ाव से देह, प्राण अवद के अवरण हट जाते
हैं तथा ऄनावृत्त थवरूप प्रकावशत हो जाता ह।, तब सम्पणर लभ जगत् ऄपने थवरूप के साथ ऄव न्न रूप से
प्रकावशत हो जाता ह। ज।से ऄव‍न के प्रज्ववलत होने पर सम्पणर लभ दाह्य पदाथलभ थर्म हो जाते हैं, ईसी प्रकार
वह प्रकावशत होने पर सर्मथत ववषयों के बन्धन ्वथत कर देता ह। ववश्व को ऄपने साथ ऄव न्न रूप र्में
देखने का नार्म ही विदानन्द की प्रापवत ् ह। आस ऄवथथा के प्राप्त हो जाने पर ी व्यत्र थान ऄवथथा र्में
संसार र्में व्यवहार के सर्मय ी ि।तन्यता के साथ साधक को एकात्र्मता का वनरन्तर बोध बना रहता ह।

तत्त्वज्ञान 189
साधक को जब जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त हो जाती ह।, तब ईसे थथल र से लेकर प्रकृ वत-पयलभन्त सर्मथत
पदाथलभ जड़ रूप र्में वदखाइ देने लगते हैं आवन्ियााँ, प्राण, र्मन, ऄहक ं ार अवद जड़ रूप र्में सर्मावध ऄवथथा र्में
वदखाइ देते हैं, तब साधक को ज्ञात हो जाता ह। वक थथल र पंि तर ों से लेकर प्रकृ वत-पयलभन्त पदाथलभ जड़ रूप
र्में हैं ये सर्मथत वथतऐर ें कच्िी वर्मट्टी की बनी हुइ वदखाइ देती ह। संसारी र्मनष्र य कच्िी वर्मट्टी का बना
हुअ िौपाया जानवर-सा वदखाइ देता ह। आसका ऄथलभ ह। वक वजस जीवात्र्मा को इश्वर का साक्षात्कार नहीं
हुअ ह। ऄथवा तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हुअ ह।, वह ज्ञान से रवहत जीव पशर के सर्मान होता ह।, ‍योंवक िारों
गणर ( य, र्म।थनर , अहार, वनिाद ईस र्मनष्र य र्में पाये जाते हैं, ईन्हीं िारों गणर ों के कारण पशर और र्मनष्र य र्में
कोइ ऄंतर नहीं होता ह। आसवलए गवान् शंकर को ‘पशपर वत’ कहा जाता ह। पशपर वत का ऄथलभ ह। ‘जीवों
का थवार्मी’ एक गणर ओर होता ह।, वजसे पााँिवां गणर कहते हैं ईसका नार्म ‘वववेक’ ह। वजस र्मनष्र य ने
योग के ऄभ्यास के द्रारा ऄपना ववकास कर वलया ह।, ईसे वववेक (वववेक-ख्यावतद की प्रावप्त होती ह।
वववेक के पररप‍व होने पर जीव का जीवत्व नष्ट हो जाता ह। तथा जीवत्व के नष्ट होने पर वित्त वनर्मलभल
होकर व्यापक हो जाता ह।, तब वह जीवेश्वर बन जाता ह।
जब ऄभ्यासी को सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत जड़ रूप र्में वदखाइ देने लगे तब ईसे व्यवतरे क योग कहते हैं
व्यवतरे क योग र्में िेतन तत्त्व से (अत्र्मा सेद जड़ तत्त्व (ऄपरा-प्रकृ वतद ऄलग वदखाइ देती ह। ऐसी ऄवथथा
र्में अत्र्मा िष्टा रूप से ऄपने से व न्न जड़ प्रकृ वत को देखता ह। आसे जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा कहते हैं, ‍योंवक
ऄभ्यासी जन्र्म ्र हण करने से र्म‍र त हो जाता ह। र्मगर वह ऄवथथा थथल र शरीर त्यागने के पश्िात ही प्राप्त
होती ह।, आसवलए आसे पणर लभत्व की प्रावप्त नहीं कहते हैं पणर लभत्व तब होता ह। जब जड़ प्रकृ वत िेतन्य रूप र्में
वदखाइ देने लगे, ‍योंवक ब्रह्म से ईत्पन्न हुइ प्रकृ वत ब्रह्म थवरूप ही होती ह। आसवलए साधक को पणर लभता
प्राप्त करने के वलए सम्पणर लभ जगत् को ब्रह्म रूप र्में देखना होगा आस ऄभ्यास को ऄन्वय योग (सर्मताद
कहते हैं ऄन्वय योग के पणर लभ हो जाने पर सम्पणर लभ जगत् ब्रह्म-थवरूप वदखाइ देता ह।, तब साधक थवयं ब्रह्म
थवरूप हो जाता ह। ऄन्वय योग त ी पणर लभ होगा जब साधक सम्पणर लभ प्राणी जावत को ऄपना ही थवरूप
सर्मझेगा यवद वकसी ने ईसके साथ बरर ा व्यवहार कर ी वदया तो ईसे ऄतःकरण से र्माि करना होगा
ऄथालभत् सम्पणर लभ प्राणी जावत से प्रेर्म करना होगा, तब साधक का वित्त इश्वर के वित्त र्में ऄन्तर्मलभख
र ी होकर
इश्वर की आच्छा तथा साधक की आच्छा एक हो जाएगी आसे वशवत्व की प्रावप्त कहते हैं

तत्त्वज्ञान 190
ऋतम्भरा-प्रज्ञा
वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में जब योगी कठोर संयर्म करता हुअ वनरन्तर ऄभ्यास
करता ह।, तब सर्मावध र्में प्रवीणता होने पर वित्त र्में वनर्मलभलता बढ़ती ह। जब रजोगणर व तर्मोगणर का अवरण
नष्ट हो जाता ह।, तब सत्त्वगणर की प्रधानता र्में थवच्छ वथथर रूप र्में एका्र ता का प्रवाह बहने लगता ह।, तब
योगी के वित्त र्में प्रज्ञा का ईदय होता ह। आस प्रज्ञा र्में ऄववद्या अवद का नार्मो वनशान ी नहीं होता ह।
आसवलए आस प्रज्ञा की प्रावप्त पर योगी को प्रकृ वत-पयलभन्त सक्ष्र र्म पदाथों का साक्षात्कार होता ह। आन सक्ष्र र्म
पदाथों का साक्षात्कार सार्मान्य रूप व ववशेष रूप दोनों प्रकार के रूपों का होता ह। जब योगी को थथल र -
तर से लेकर प्रकृ वत-पयलभन्त तक का साक्षात्कार हो जाता ह।, तब ईसे प्रकृ वत के ववषय र्में ज्ञान हो जाता ह।
यह ज्ञान प्रकृ वत के दोषों को वदखलाने वाला होता ह। आवन्ियााँ वसिलभ थथल र पदाथों का ही ज्ञान करा सकती
ह। र्मगर पिं तन्र्माराओ,ं ऄहक ं ार, वित्त व प्रकृ वत के सक्ष्र र्म पदाथों का ज्ञान आवन्िय द्रारा नहीं हो सकता ह।,
‍योंवक यह सक्ष्र र्म पदाथलभ ऄतीवन्िय हैं आसवलए सक्ष्र र्म पदाथों र्में आवन्ियों की पहुिाँ नहीं होती ह। आन सक्ष्र र्म
पदाथों के सार्मान्य रूप का ही ज्ञान अगर्म व ऄनर्मर ान के द्रारा वकया जा सकता ह। आन सक्ष्र र्म पदाथों के
ववशेष रूप का ज्ञान अगर्म व ऄनर्मर ान के द्रारा नहीं हो सकता ह। आसवलए ऊतम् रा-प्रज्ञा प्रत्यक्ष, अगर्म
व ऄनर्मर ान की प्रज्ञा से ईत्कृ ष्ट ह। यह अगर्म-ऄनर्मर ान प्रज्ञा का बीज रूप (ऊतम् रा-प्रज्ञाद ह। ऊतम् रा-
प्रज्ञा अगर्म-ऄनर्मर ान का अश्रय ह।
वकसी ी पदाथलभ के ववशेष रूप का साक्षात्कार ऊतम् रा-प्रज्ञा द्रारा ही वकया जा सकता ह। प्रत्येक
पदाथलभ के दो रूप होते हैं– एक- सार्मान्य रूप, दूसरा- ववशेष रूप सार्मान्य रूप वह ह। जो आस प्रकार के
स ी पदाथों र्में पाया जाता ह। तथा ववशेष रूप वह ह। जो पदाथलभ का (थवयं काद ऄपना-ऄपना रूप ह।
ज।से– यवद वकसी थथान पर गायों का झंडर हो तो हर्म स ी कहते हैं वक आस झंडर र्में स ी गायें ह। ईस झंडर र्में
स ी गायों की अकृ वत (रूपद गायों के सर्मान ह।, आसवलए स ी को गाय कहा गया ह। यह गाय का
सार्मान्य रूप ह। ऄब ववशेष रूप के ववषय र्में सर्मझ लें– यह स ी जानते ह। वक झंडर र्में स ी गायें ह।, र्मगर
ईन गायों का रूप व न्न-व न्न ह। आस व न्न-व न्न रूप के कारण हर गाय एक दसर रे से ऄलग-ऄलग रूप
की ह। आसे ही ववशेष रूप कहते हैं यहााँ पर एक ही गाय के दो रूप हो गये हैं सार्मान्य रूप के द्रारा गाय
का वनणलभय वकया गया वक यह गाय ह।, ऄन्य कोइ और पशर नहीं होगा र्मगर ववशेष रूप के द्रारा ढेरों गायों
र्में प्रत्येक गाय का ऄलग-ऄलग रूप र्में वनणलभय वकया गया ह। ऄथालभत् ववशेष रूप के द्रारा प्रत्येक गाय का
ऄलग-ऄलग रूपों र्में ज्ञान हुअ ह।, आसे प्रत्यक्ष ज्ञान ी कहते हैं यह प्रत्यक्ष ज्ञान आवन्ियों के द्रारा थथल र

तत्त्वज्ञान 191
वथतओ र ं के ही प्रत्यक्ष रूप को वदखला सकता ह।, र्मगर सक्ष्र र्म और ऄतीवन्िय पदाथों को ये आवन्ियााँ नहीं
वदखला सकती हैं तन्र्माराओ,ं ऄहक ं ार, वित्त, प्रकृ वत अवद सक्ष्र र्म पदाथों र्में प्रत्यक्ष की ी पहुिाँ नहीं ह।
अगर्म और ऄनर्मर ान से पदाथों के के वल सार्मान्य रूप का ही पता लग सकता ह। आनके ववशेष रूप को
नहीं बतला सकते हैं
यथाथलभ ज्ञान के साधन को प्रर्माण कहते हैं ज।से- देखने से, सनर ने से, ऄनर्मर ान से, वेद-शाथरों के
पढ़ने से अवद आस प्रकार से जो ज्ञान ईत्पन्न होता ह।, यवद यह ज्ञान यथाथलभ ह। तो प्रर्मा कहलाता ह। और
ऄगर ज्ञान यथाथलभ नहीं ह। तो ऄप्रर्मा कहलाता ह। वजस वृवत्त से प्रर्मा (यथाथलभ ज्ञानद ईत्पन्न होता ह। ईसका
नार्म प्रर्माण ह। यह प्रर्मा अाँख अवद आवन्ियों द्रारा, सक्ष्र र्म ज्ञान द्रारा व सनर ने के द्रारा वित्त र्में वृवत्त के रूप र्में
रहता ह।, विर यह प्रर्मा वृवत्त से ईत्पन्न होता ह। आसवलए ईस वित्त वृवत्त को प्रर्मा का साधन होने से प्रर्माण
कहा जाता ह। यह तीन प्रकार की होती ह।– एक- प्रत्यक्ष प्रर्माण, दो- ऄनर्मर ान प्रर्माण, तीन- अगर्म
प्रर्माण।
प्रत्यक्ष प्रमाण– ्र हण रूप प्रत्येक ज्ञानेवन्िय (नाक, जी , अाँख, कान, त्विाद और ्र ाह्य रूप
ईनके ववषय (गन्ध, रस, रूप, शब्द, थपशलभद क्रर्मशः एक ही साधन से ईत्पन्न हुए हैं, आसवलए आन दोनों की
अपस र्में अकषलभण शव‍त होती ह। ज।से- जब वकसी रूप वाले ववषय का अाँख से सम्बन्ध होता ह।, तब
अाँख की वकरण ईस पर पड़ती ह। और वित्त का ईस ववषय से राग होने के कारण नेरों के द्रारा ईस थथान
पर पहुिाँ कर ईस रूप वाला हो जाता ह। वित्त का ईस रूप वाले अकार का हो जाने को प्रत्यक्ष प्रर्माण
वृवत्त कहते हैं ईसर्में जो ‘र्मैं आस रूप ववषयक हो जाने वाला ह’ाँ , िेतन तत्त्व का प्रवतवबम्ब ईस प्रत्यक्ष
प्रर्माण वृवत्त द्रारा वृवत्त ज।सा ववषयकार होना प्रत्यक्ष प्रर्मा (यथाथलभ ज्ञानद कहलाता ह।
अनुमान प्रमाण– सक्ष्र र्म से सक्ष्र र्म का सम्बन्ध सार्मान्य रूप से वनश्िय करके जो यथाथलभ ज्ञान
(प्रर्माद प्राप्त हो ईसे ऄनर्मर ान प्रर्मा कहते हैं धअर ाँ ऄव‍न के वबना नहीं होता ह।, आसवलए धऐंर से ऄव‍न का
ऄनर्मर ान होता ह। ऄथालभत् जहााँ-जहााँ धअ र ाँ होगा, वहााँ-वहााँ ऄव‍न होगी ऐसे ही जहााँ गन्ध होती ह।, वहीं
पृथ्वी तत्त्व होता ह। जहााँ पृथ्वी तत्त्व होता ह।, वहााँ गन्ध होती ह। यह जो ज्ञान प्राप्त होता ह। वह ऄनर्मर ान
प्रर्माण ह। ऄनर्मर ान प्रर्माण के द्रारा जो वित्त वृवत्त बनती ह।, वह ऄनर्मर ान वृवत्त होती ह। ऄनर्मर ान वृवत्त द्रारा
जो िेतन-र्मय तत्त्व का प्रवतवबम्ब रूप ज्ञान ह।, वह ऄनर्मर ान प्रर्मा (यथाथलभ ज्ञानद कहलाता ह। ऄथालभत् धर्मलभ-
धर्मी, कायलभ-कारण सम्बन्ध से जो यथाथलभ ज्ञान ईत्पन्न हो, ईसे ऄनर्मर ान प्रर्मा कहते हैं
आगम प्रमाण– वेद-शाथरों के पढ़ने ऄथवा सनर ने से, र्महापरू र षों के द्रारा, गरू र के ईपदेश द्रारा
तथा प्रविन सनर ने से (जो भ्रर्म, दोषों अवद से रवहत होद जो ज्ञान प्राप्त होता ह।, ईससे जो वित्त के पररणार्म

तत्त्वज्ञान 192
द्रारा वित्त की वृवत्त बनती ह।, ईसे अगर्म प्रर्माण वृवत्त कहते हैं ईस वृवत्त द्रारा जो िेतनतत्त्व का प्रवतवबम्ब
रूप ज्ञान होता ह।, ईसे अगर्म प्रर्मा कहते हैं
जीवात्र्मा को प्रर्माता कहते हैं और वृवत्त को प्रर्माण कहते हैं िेतन र्में ऄथालभकार वृवत्त का प्रवतवबम्ब
प्रर्मा (यथाथलभ ज्ञानद कहा जाता ह। प्रवतवबवम्बत वृवत्तयों के ववषय को प्रर्मेय कहा जाता ह। यहााँ पर अत्र्मा
को प्रर्माता र्मानना सवलभथा गलत ह।, ‍योंवक अत्र्मा स ी धर्मों से रवहत ह। तथा प्रर्माता नार्म प्रर्मा रूप ध।यलभ
वववशि का ह। जीवात्र्मा ही प्रर्मा का अधार होने से प्रर्माता ह। ज्ञान अत्र्मा का गणर व धर्मलभ नहीं ह। र्मगर
अत्र्मा ज्ञान थवरूप वाला ह। अत्र्मा वनगणर लभ होने से िष्टा ही ह।, आसवलए अत्र्मा प्रर्मा का (यथाथलभ ज्ञान
काद िष्टा ही ह।, प्रर्माता नहीं ह। यह प्रत्यक्ष प्रर्माण के सम्बन्ध र्में वलखा गया ह। प्रत्यक्ष प्रर्माण के सम्बन्ध
र्में प्रर्माण, प्रर्मा, प्रर्माता, प्रर्मेय और साक्षी (िष्टाद ेद से पााँि पदाथलभ र्माने जाते हैं जो आस प्रकार हैं:-
प्रमाण- जब वित्त वकसी बाह्य ववषय का अकार ्र हण कर लेता ह।, तो अकार वववशष्ट पररणार्म
को प्रर्माण कहते हैं ज।से- सेब को देखकर वित्त सेब का अकार धारण कर लेता ह। आसर्में वित्त ने जो सेब
का अकार धारण वकया ह।, तो वित्त र्में अकार रूप पररणार्म हुअ आस अकार रूप पररणार्म को प्रर्माण
कहेंगे
प्रमा- जीवात्र्मा को जो सेब का ज्ञान हुअ वक यह सेब ह।, आस यथाथलभ ज्ञान को प्रर्मा कहते हैं
प्रमेय- यहााँ पर वित्त वृवत्त का ववषय सेब ह।, आसवलए सेब का प्रर्मेय कहेंगे
प्रमाता- वित्त र्में प्रवतवबवम्बत िेतन ऄथालभत् जीवात्र्मा प्रर्मा का अश्रय ह।, आसवलए जीवात्र्मा को
प्रर्माता कहा जाता ह।
साक्षी- वित्त की वृवत्त का िष्टा शि र िेतन तत्त्व ह। यहााँ पर अत्र्मा को िष्टा या साक्षी कहेंगे

आस ऊतम् रा-प्रज्ञा के प्राप्त होने पर योगी के ऄन्दर प्रज्ञालोक का ववकास होने लगता ह। यह
प्रज्ञालोक इश्वर का लोक या परा-प्रकृ वत ह।, ‍योंवक वनववलभिार सर्मावध की प्रवीणता होने पर योगी के वित्त
र्में वनर्मलभल प्रज्ञा का ईदय होता ह। वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में रज व तर्म के र्मल रूप
अवरण का क्षय होने पर प्रकाश थवरूप वित्त का सत्त्वगणर की प्रधानता से रज व तर्म से रवहत थवच्छ
वथथरता रूपी एका्र प्रवाह वनरन्तर बहता रहता ह।, आसी को प्रवीणता कहते हैं आससे योगी को प्रकृ वत
पयलभन्त सब पदाथों का एक ही काल र्में साक्षात्कार हो जाता ह। आसी को प्रज्ञालोक के ववकास की
शरू र अत या प्रज्ञा प्रसाद ी कहते हैं योगी के वित्त र्में जो प्रज्ञा का ईदय होता ह। ईसका नार्म ऊतम् रा-
प्रज्ञा ह। यह प्रज्ञा का यथाथलभ नार्म ह।, ‍योंवक ‘ऊत’ का ऄथलभ सत्य होता ह। और ‘ रा’ का ऄथलभ ह।– ‘धारण

तत्त्वज्ञान 193
करने वाली’ यह प्रज्ञा सत्य को धारण करने वाली होती ह।, आसर्में भ्रांवत एवं ऄववद्या अवद की गन्ध ी
नहीं होती ह। आसवलए ‘सत्य’ और ‘ऊत’ का ेद सर्मझ लेना िावहए अगर्म और ऄनर्मर ान के द्रारा जो
यथाथलभ ज्ञान प्राप्त होता ह। ईसे सत्य कहते हैं यही सत्य संसारी परू र षों (ऄज्ञानीद को प्राप्त होता रहता ह।
जो सबीज सर्मावध की पररप‍व ऄवथथा र्में प्रज्ञा के द्रारा पदाथलभ के ववशेष रूप का साक्षात्कार करने से
प्राप्त होता ह। ऄथालभत् ‘ऊत’ का ऄथलभ- साक्षात् ऄनर तर सत्य ह। यह वसिलभ ईच्ि कोवट के योवगयों को ही
प्राप्त हो सकता ह।, ऄन्य संसारी परू र षों को प्राप्त नहीं हो सकता ह।
ऊतम् रा-प्रज्ञा से ही सक्ष्र र्म पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार हो सकता ह।, ऄन्य वकसी प्रर्माण
से नहीं हो सकता ह। आसवलए यह ऊतम् रा-प्रज्ञा ववशेष ववषयक होने से अगर्म-ऄनर्मर ान प्रज्ञा से व न्न
और ईत्कृ ष्ट ह। और यही परर्म-प्रत्यक्ष ् ह। यह अगर्म और ऄनर्मर ान का बीज ह। ऄथालभत् अगर्म और
ऄनर्मर ान आसके अश्रय ह। ऊतम् रा-प्रज्ञा आनके अश्रय नहीं ह।, आसे वववेक-ख्यावत के सर्मान सर्मझना
िावहए
जब योगी के वित्त र्में प्रज्ञा का ईदय होता ह।, तब प्रज्ञा सर्मावध ऄवथथा र्में पवर लभ वदशा र्में ऄत्यन्त
ववशाल अकार र्में सयर लभ के सर्मान गोलाकार ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश के रूप र्में वदखाइ देती ह। तब ऐसा
लगता ह। र्मानों सयर लभ ऄपना ववशाल रूप धारण करके प्रकट हो गया हो जब आसका प्रथर्म दशलभन होता ह।,
तब प्रज्ञा बहुत सन्र दर वदखाइ देती ह। ईस सर्मय यह ऄपने थवरूप (अकारद से सम्पणर लभ पवर लभ वदशा को ढके
रहती ह। तथा प्रज्ञा की वकरणें िारों ओर ि। ली वदखाइ देती हैं योगी को ज।से ही प्रज्ञा का दशलभन होता ह।,
तब सयर लभ के सर्मान अकार वाली प्रज्ञा का प्रकाश (प्रकाश वकरणेंद योगी के र्मख र पर पड़ता ह।, वजससे योगी
की अाँखें िकािौंध हो जाने के कारण सर्मावध तक गं हो जाती ह। ‍योंवक र्मेरे साथ ऐसा ही हुअ था
जब पहली बार प्रज्ञा का दशलभन होने पर र्मेरी सर्मावध ंग हो गइ, तब र्मैं सोिने लगा वक वजसका हर्में दशलभन
हुअ ह।, वह ‍या ह।? विर हर्मने सर्मावध के र्मा्यर्म से आस ववषय र्में जानकारी प्राप्त की और तब हर्में
र्मालर्मर हुअ वक ‘यह ऊतम् रा-प्रज्ञा ह।’ आसके दशलभन के बाद योगी के ऄन्दर थवर्मेव ज्ञान प्रकट होने
लगता ह। तथा स ी प्रावणयों के प्रवत ाव बदलने लगता ह।, ‍योंवक योगी को ज्ञान के द्रारा र्मालर्मर पड़
जाता ह। वक र्मझर र्में और सर्मथत प्रावणयों र्में कोइ ऄतं र नहीं ह।, स ी प्राणी एक सर्मान हैं र्मगर ऄपने-ऄपने
कर्मों के कारण ऄपना-ऄपना ोग ववव न्न प्रकार के शरीरों को धारण करके कर रहे हैं वजस प्रकार ज्ञान
का प्रकाश हर्मारे वित्त पर पड़ रहा ह।, ईसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश स ी जीवों के वित्त पर ी पड़ रहा ह।
र्मगर ऊतम् रा-प्रज्ञा का साक्षात्कार वसिलभ र्मानव शरीर द्रारा ही वकया जा सकता ह।

तत्त्वज्ञान 194
योगी को सर्मावध ऄवथथा र्में जब प्रज्ञा का साक्षात्कार होता ह।, तब योगी के थव ाव र्में पररवतलभन
होना शरू र हो जाता ह। योगी र्में सक्ष्र र्म रूप से सर्मथत प्रावणयों के प्रवत द्रेष- ाव सर्माप्त होने लगता ह।,
‍योंवक ईसे र्मालर्मर हो जाता ह। वक ईसर्में और सम्पणर लभ प्रावणयों र्में कोइ िकलभ नहीं ह। ऄज्ञानता के कारण
साधारण र्मनष्र य ऄपने अपको पहिान नहीं पा रहा ह। आस ऄवथथा र्में योगी करछ सर्मय के वलए ऄपने
ज्ञान रूपी थवरूप र्में खोया रहता ह।, तब ईसे ौवतक जगत् की (जा्र त ऄवथथा कीद करछ ी याद नहीं
रहती ह। ऄथालभत् आस ऄवथथा र्में करछ ी कायलभ करता ह।, या देखता ह। तो वह ल र -सा जाता ह। ईसे
व्यवहार की दशा का ान नहीं होता ह। यह ऄवथथा करछ सर्मय के वलए अती ह। ऄभ्यासानसर ार यह
ऄवथथा बढ़ती रहती ह। शरू र अत र्में प्रज्ञा का थवरूप बड़े गोलाकार रूप र्में वदखाइ देता ह।, वजस प्रकार
सयर ोदय के सर्मय सयर लभ बडेऺ अकार र्में वदखाइ पड़ता ह। ज।से-ज।से योगी वनरन्तर सर्मावध का ऄभ्यास करता
ह।, व।स-े व।से यह प्रज्ञा पवर लभ वदशा र्में उपर की ओर ऄंतररक्ष र्में अगे की ओर गवत करती हुइ वदखाइ देती ह।
ज।से-ज।से प्रज्ञा अगे की ओर गवत करती वदखाइ देगी, व।से-व।से प्रज्ञा का प्रकाश ी ऄवधक तेज होता
जाता ह। वजस प्रकार सयर लभ ्र ीष्र्म ऊतर र्में ऄंतररक्ष र्में उपर की ओर जाता ह।, ईसी प्रकार ईसका प्रकाश ी
बढ़ता जाता ह। सर्मावध का ऄभ्यास ज।से-ज।से ज्यादा बढ़ेगा, ईतनी ही वित्त की वनर्मलभलता बढ़ती जाती ह।
वजतनी वित्त की वनर्मलभलता ऄवधक होगी ईतनी ही प्रज्ञा ऄवधक प्रकावशत होती जाती ह। एक वनवश्ित
सीर्मा के बाद प्रज्ञा का प्रकाश नहीं बढ़ता ह।, जबवक सयर लभ का प्रकाश दोपहर के बाद धीर्मा पड़ने लगता ह।
र्मगर प्रज्ञा का प्रकाश ऄपनी सवोच्ि ऄवथथा र्में पहुिाँ कर सद।व एक सा रहता ह। ऄभ्यासी जब प्रज्ञा को
देखता ह।, तब ईसे वदशाओ ं का ज्ञान रहता ह।
प्रज्ञा के साक्षात्कार के बाद योगी को सर्मावध ऄवथथा र्में ववशेष प्रकार की वक्रयाएाँ होनी शरू र हो
जाती हैं ये वक्रयाएाँ वसिलभ ईसी योगी को होती ह। वजसे प्रारवम् क ऄवथथा र्में (जब ईसने ऄभ्यास करना
शरू र वकया थाद वक्रयाएाँ, र्मिर ाएाँ ऄथवा बन्ध लगे होंगे जब कोइ साधक ्यान करना अरम् करता ह। तो
करछ सर्मय बाद वक्रयाएाँ, र्मिर ाएाँ व बन्ध लगने शरू र हो जाते हैं विर एक वनवश्ित ऄवथथा के बाद ये स ी
वक्रयाएाँ, र्मिर ाएाँ व बन्ध अवद नहीं लगते हैं करछ साधकों को वक्रयाएाँ, र्मिर ाएाँ अवद नहीं होती ह। र्मैं वसिलभ
ईन साधकों के वलए वलख रहा हाँ वजन्हें प्रारवम् क ऄवथथा र्में ऐसा हुअ ह। जब प्रज्ञा के ईदय होने के बाद
ईसे प्रारवम् क ऄवथथा वाली वक्रयाएाँ होनी शरू र हो जाती ह।, तब वह सोिता ह। वक आस ऄवथथा र्में यह
वक्रयाएाँ ‍यों हो रही हैं, यह ऄवथथा तो कइ वषलभ पहले की थी यवद ईसका र्मागलभदशलभक (सदग् रुर द ऄ ी
ौवतक देह र्में ह। तो वह सब करछ सर्मझा देगा र्मगर यह जरूरी नहीं ह। वक र्मागलभदशलभक ने ी यह ऄवथथा
प्राप्त की हो वाथतव र्में आस ऄवथथा को प्राप्त वकतने योगी वतलभर्मान सर्मय र्में होंगे, यह कहना र्मवर श्कल ह।

तत्त्वज्ञान 195
ऄगर आस ऄवथथा र्में ईसका (ऄभ्यासी काद र्मागलभदशलभक नहीं ह।, तो वनश्िय ही वह सोि र्में पड़ जाएगा
वह सोिेगा वक र्मेरे ऄभ्यास र्में कहााँ पर रवर ट हो गइ जो यह ऄवथथा ईपवथथत हो गइ ह। जब ईसे क ी-
क ी प्रज्ञा का दशलभन होगा, तब वह सोिेगा वक र्मेरा ऄभ्यास सही र्मागलभ पर जा रहा ह।, ‍योंवक प्रज्ञा का
दशलभन हो रहा ह। तथा साधना के अरम् वाली ऄवथथा ी अ जाती ह।
जब हर्मारी ी यह ऄवथथा अइ थी, तब र्मैं सोि र्में पड़ गया वक र्मेरे द्रारा ऄभ्यास र्में कहााँ रवर ट
हो गइ ह। र्मैंने ऄभ्यास को कर्म ी नहीं वकया ह।, विर यह ऄवथथा ‍यों अ गइ, आस ववषय र्में वकससे
पछर र ाँ ? र्मैं जानता था वक र्मेरे ऄभ्यास र्में कहीं ी गड़बड़ी नहीं ह। र्मेरे ववषय र्में वसिलभ वही योगी बता सकता
था वजसने यह ऄवथथा प्राप्त की हो र्मगर आस ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए योगी हर्में कहााँ वर्मलेगा, र्मैं यह
नहीं जानता था, ‍योंवक आस ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए योगी ऄपने अपको प्रकट नहीं करे गा ारतवषलभ
र्में जो बड़े-बड़े योगी ववख्यात हैं, ईन्हें ी यह ऄवथथा प्राप्त नहीं ह। ऐसे योगी वनबीज-सर्मावध व क। वकय
के ववषय र्में खबर प्रविन करें गे, र्मगर ईन्हें थवयं यह ऄवथथा प्राप्त नहीं होती ह।, ‍योंवक र्मैं ऐसे योवगयों से
वर्मल िक र ा हाँ करछ योगी तो ऄपने अप को गवान् तक कहलवाते हैं ऐसे योगी वकसी ी रूप र्में
तत्त्वज्ञानी नहीं हो सकते हैं, ‍योंवक तत्त्वज्ञान की प्रावप्त के बाद कोइ ी योगी ऄपने अपको गवान् नहीं
कहलवायेगा र्मैं यह सब सोिकर कठोर ऄभ्यास र्में लगा रहा वक क ी-न-क ी ऄवश्य र्मझर े आस ववषय र्में
जानकारी प्राप्त हो जाएगी
जब र्मैंने ऄपने अपको और ऄवधक सयं वर्मत करके कठोर ऄभ्यास करना शरू र वकया, तब
सर्मावध पर ब।ठते ही हर्मारी वस्त्रका िलनी शरू र हो जाती थी विर र्महायोग र्मिर ा ी लगती तथा बाद र्में
तीनों बन्ध ी लग जाते थे र्मझर े ऐसा लगता था वक र्मैं 15 वषलभ पवर लभ की ऄवथथा र्में पहुिाँ गया ह,ाँ र्मगर विर
ऄपने अप सर्मावध लग जाती थी तथा क ी-क ी प्रज्ञा का दशलभन ी हो जाता था जब र्मैं सर्मावध
ऄवथथा र्में प्रज्ञा को देखता था तब र्मालर्मर पड़ जाता था वक हर्मारा ऄभ्यास सही र्मागलभ पर जा रहा ह।,
‍योंवक प्रज्ञा ऄतं ररक्ष र्में ओर अगे की ओर वदखाइ पड़ती थी सर्मावध के बाद र्मैं सोिता था वक प्रज्ञा
अगे की ओर जा रही ह। ज।से-ज।से प्रज्ञा अगे की ओर जाती ईसका प्रकाश ी ऄत्यवधक तेज होता
जाता था र्मैं सर्मझ गया की हर्मारा ऄभ्यास सही वदशा की ओर जा रहा ह। र्मगर आस ऄवथथा र्में वक्रयाएाँ
व र्मिर ाएाँ होने का ऄथलभ नहीं सर्मझ सका
जब हर्मारे वित्त र्में प्रज्ञा का ईदय हो गया, ईसके करछ वदनों बाद प्रकृ वत के सक्ष्र र्म पदाथों के
सार्मान्य रूप का व ववशेष रूप का ऄथालभत् दोनों रूपों का साक्षात्कार होने लगा पााँिों तत्त्वों के
साक्षात्कार के ववषय र्में र्मैंने ऄपने ऄनर वों र्में वलखा हैं अप हर्मारे ऄनर वों र्में ईन पदाथों के साक्षात्कार

तत्त्वज्ञान 196
के ववषय र्में पढ़ सकते हैं हर्म पहले ी वलख िक र े हैं वक सक्ष्र र्म पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार वसिलभ
सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में वकया जा सकता ह। आस ऄवथथा को हर योगी प्राप्त नहीं कर सकता ह।
यह ऄवथथा वनवश्ित ही कइ जन्र्मों तक लगातार योग का ऄभ्यास करने के बाद तथा ऄपने कर्मालभशयों को
कािी र्मारा र्में ोगकर नष्ट करने के पश्िात ही प्राप्त की जा सकती ह। र्मझर े प्रज्ञा का साक्षात्कार पहली
बार 18 िरवरी 2001 को हुअ था आसके करछ वदनों बाद सक्ष्र र्म पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार
होने लगा ज।से– पृथ्वी तत्त्व के सार्मान्य रूप व ववशेष रूप का, जल तत्त्व के सार्मान्य व ववशेष रूप का,
ऄव‍न तत्त्व के सार्मान्य व ववशेष रूप का, वायर तत्त्व के सर्मान्य रूप व ववशेष रूप का साक्षात्कार,
अकाश तत्त्व के सार्मान्य रूप व ववशेष रूप का साक्षात्कार हुअ आसके ऄवतरर‍त ऄवथर्मता, वित्त, तीनों
तापों, दधर व प्राकृ वतक बन्धन का साक्षात्कार हुअ
ऊतम् रा-प्रज्ञा के ईदय होने के बाद योगी को सर्मावध ऄवथथा र्में अरवम् क ऄवथथा वाली
वक्रयाएाँ व र्मिर ाएाँ होना ‍यों शरू
र हो जाती ह। तथा शरू र अत की ऄवथथा ी ईपवथथत हो जाती ह। आसका
कारण ह।- योग का ऄभ्यास करने से पहले योगी का वित्त वसिलभ व्यत्र थान के संथकारों (रजोगणर ी व
तर्मोगणर ी संथकारद से यक्त र रहता ह। जब योगी ऄभ्यास करता ह।, तब ऄभ्यास के सर्मय ईसे जो ऄनर व
होता ह।, ईसके ी सथं कार योगी के वित्त पर पड़ते हैं ये सथं कार (योगाभ्यास के ऄनर व वाले सथं कारद
व्यत्र थान के सथं कारों से शव‍तशाली होते हैं, ‍योंवक सर्मावध वाली प्रज्ञा (ज्ञानद व्यत्र थान की प्रज्ञा (ज्ञानद से
ऄवधक वनर्मलभलता वाली होती ह। आस वनर्मलभलता र्में पदाथलभ के सार्मान्य रूप व ववशेष रूप का ऄनर व होता
ह। योगी को वजतना तत्त्व का (ववशेष रूप काद ऄनर व होता ह।, ईतने ही ईसके सथं कार (प्रज्ञा वालेद
प्रबल होते हैं आन सथं कारों की प्रबलता र्में विर सर्मावध-प्रज्ञा होती ह। आस सर्मावध प्रज्ञा से ईत्पन्न सथं कार
व्यत्र थान के सथं कारों और आच्छाओ ं को हटाते रहते हैं ऄथवा दबाने लगते हैं जब व्यत्र थान के सथं कार
दबने लगते हैं, तब ईन संथकारों से ईत्पन्न वृवत्तयााँ दब जाती हैं आन वृवत्तयों के वनरोध होने पर सर्मावध
ईत्पन्न होती ह। आस सर्मावध के ईत्पन्न होने से सर्मावध-प्रज्ञा प्रकट होती ह। विर यही क्रर्म िलने लगता ह।-
सर्मावध-प्रज्ञा, सर्मावध-प्रज्ञा से सर्मावध के सथं कार, आस प्रकार के िक्र के िलने से योगी के अरवम् क
ऄवथथा वाले सथं कार प्रकट हो जाते हैं आन अरवम् क ऄवथथा वाले सथं कारों के कारण सर्मावध ऄवथथा
वाली वक्रयाएाँ होना शरू र हो जाती हैं, विर वनववलभिार सर्मावध लगती ह। वनववलभिार सर्मावध से ऊतम् रा-प्रज्ञा
प्रकट होती ह।, वजससे वनरोध संथकार होता ह। वनरोध संथकार से विर ऊतम् रा-प्रज्ञा का प्रकषलभ होता ह।
आस प्रज्ञा से वनरोध संथकारों का प्रकषलभ होता ह। आस प्रकार के िक्र से वनरोध के संथकार शव‍तशाली होकर
व्यत्र थान के संथकारों को परर ी तरह से रोक देते हैं

तत्त्वज्ञान 197
सर्मावध के द्रारा योगी के वित्त र्में रजोगणर व तर्मोगणर र्मल रूपी अवरण नष्ट हो जाने पर विर
ईत्कषलभ प्रज्ञा की प्रावप्त होती ह। विर ऄभ्यास के ऄनसर ार ईस प्रज्ञा से ईत्कृ ष्ट ज्ञान ईत्पन्न होता ह। आससे
योगी को प्रकृ वत र्में दोष वदखाइ देने लगते हैं ऄथवा प्रकृ वत के दोषों का ज्ञान हो जाता ह। जब योगी को
प्रकृ वत के दोषों का ज्ञान हो जाएगा तो आससे योगी के ऄन्दर पर-व।रा‍य ईत्पन्न हो जाता ह। आस पर-व।रा‍य
से योगी की वनबीज सर्मावध का अरम् हो जाता ह।

तत्त्वज्ञान 198
दववेक-ख्यादत
जब योगी वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा को प्राप्त करता ह।, तब सर्मावध की प्रवीणता
प्राप्त होने पर ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह। प्रज्ञा के ईदय होने पर पदाथों के ववशेष रूप का
साक्षात्कार होने के बाद वववेक-ख्यावत की प्रावप्त होती ह। वववेक-ख्यावत का ऄथलभ ह।- व न्नता का ज्ञान,
ऄथालभत् अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान वववेक-ख्यावत कहलाता ह।, अत्र्मा और वित्त र्में
ऄव न्नता की संज्ञा ऄवथर्मता कही जाती ह। वववेक- ख्यावत ईत्पन्न होने से योगी को यह र्मालर्मर हो जाता
ह। वक शरीर, आवन्ियााँ, र्मन, बवर ि व वित्त र्मझर से ऄलग हैं, र्मैं िेतनर्मय तत्त्व अत्र्मा हाँ योगी को जब
वववेक-ख्यावत ऄवथथा की प्रावप्त होती ह।, तब ईसे वित्त जड़ रूप र्में ऄपने से ऄलग थपष्ट वदखाइ देता ह।
तथा वित्त ई्वलभर्मखर ी होकर क। वकय ईन्र्मख
र होता हुअ ी वदखाइ देता ह।
वववेक-ख्यावत के ईत्पन्न होने से योगी के वित्त पर वथथत ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय सर्माप्त होने लगते
हैं, ‍योंवक ऄ ी तक जो ऄवथर्मता ‍लेश था ईसकी सर्मावप्त होने लगती ह। ऄववद्या ऄपने ऄन्य स ी
सहयोवगयों के साथ ऄभ्यासानसर ार नर े हुए बीज के सर्मान होने लगती ह। आस ऄववद्या के ऄन्दर जो वसिलभ
नार्म र्मार का तर्मोगणर था, वो आस वववेक-ख्यावत वाली वृवत्त को वथथर रखने का कायलभ करता ह। ऄथालभत्
ऄब तर्मोगणर ी सत्त्वगणर का सहायक हो जाता ह। वववेक-ख्यावत वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा
की (वित्त कीद एक सावत्वक वृवत्त ही ह। आस ऄवथथा र्में (वववेक-ख्यावत र्मेंद जो ि।तन्य थवरूप अत्र्मा का
साक्षात्कार होता ह।, वह अत्र्मा का वाथतववक थवरूप नहीं ह।, ‍योंवक यह थवरूप (अत्र्मा काद वववेक-
ख्यावत द्रारा वदखाया गया ह। वववेक-ख्यावत थवयं एक सावत्वक सशक्त वृवत्त ह।, आसवलए आस अत्र्म-
साक्षात्कार को वाथतववक नहीं, बवकक एक सावत्वक वृवत्त ही कहा जाएगा वजस प्रकार अइने र्में िेहरा
देखने पर अइने वाला िेहरा वाथतववक नहीं होता ह।, ईसी प्रकार यह अत्र्म साक्षात्कार वाथतववक नहीं
ह। अगे की ऄवथथा प्राप्त करने के वलए आस वववेक-ख्यावत रूपी वृवत्त से ी असव‍त हटानी पड़ेगी
वववेक-ख्यावत के द्रारा योगी को जो ज्ञान होता ह। वक र्मैं शरीर नहीं ह,ाँ आवन्ियााँ नहीं ह,ाँ र्मन नहीं हाँ
या वित्त नहीं हाँ यह ज्ञान ईपदेश के द्रारा, प्रविन के द्रारा, शाथरों के पढ़ने से तथा ऄनर्मर ान के द्रारा ी
प्राप्त होता ह। र्मगर आस ज्ञान के द्रारा ऄववद्या से छरटकारा नहीं पाया जा सकता ह।, ‍योंवक वर्मथ्या ज्ञान
वाले संथकार ईसके वित्त र्में बने रहते हैं आस कारण रजोगणर ी व तर्मोगणर ी वृवत्तयााँ सद।व ईसके वित्त र्में
प्रकट होती रहती हैं र्मगर जब सर्मावध के ऄभ्यास से ऄववद्या व ऄवथर्मता का ववरोधी ेदज्ञान (वववेक -
ख्यावतद प्राप्त होता ह।, तब ऄववद्या के नाश होने पर रजोगणर ी व तर्मोगणर रूपी अवरण (र्मलद नष्ट हो

तत्त्वज्ञान 199
जाता ह। रजोगणर व तर्मोगणर के र्मलों के नष्ट होने पर तथा वनरन्तर ऄभ्यास करने से वववेक का प्रवाह
वनर्मलभल और शि र हो जाता ह। ऄववद्या नर े हुए बीज के सर्मान होने से बन्धन की ईत्पवत्त करने र्में ऄसर्मथलभ
हो जाती ह।
जब योगी को वववेक-ख्यावत द्रारा अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान होता ह।, तब ईसके
ऄन्दर की पहले वाली ावना, ‘र्मैं कौन ह’ाँ सर्माप्त हो जाती ह।, ‍योंवक ईस सर्मय वह वित्त र्में ही सारे
पररणार्मों को देखता ह। विर ऄपने अपको वित्त से ऄलग िेतन थवरूप, ऄपररणार्मी, ज्ञान थवरूप के रूप
र्में देखने लगता ह। ऄ ी तक जो ईसके वित्त का बहाव ऄज्ञान के र्मागलभ से होता हुअ सांसाररक ववषयों
की ओर जा रहा था, ऄब ईसके वित्त का बहाव ज्ञान र्मागलभ से होकर क। वकय की ओर जाने लगता ह।
क ी-क ी आस ज्ञान रूपी र्मागलभ के बहाव र्में रजोगणर ी वृवत्तयााँ ईदय होने लगती हैं आससे योगी को ‍लेश
की ऄनर वर त होने लगती ह। ईसका कारण यह ह। वक जब योगी के वित्त र्में अत्र्मा और वित्त की व न्नता
का ज्ञान प्रबल रहता ह।, तब तक योगी की प्रवृवत्त क। वकय की ओर होती ह। जब अत्र्मा और वित्त की
व न्नता के ज्ञान र्में वशवथलता अने लगती ह।, तब ईसके वित्त र्में व्यत्र थान की वृवत्तयााँ प्रकट होने लगती हैं
आन वृवत्तयों के कारण योगी को सख र तथा दःर ख की ऄनर वर त होने लगती ह। ऐसी ऄवथथा र्में योगी को यह
जान लेना िावहए वक ऄ ी वववेक-ख्यावत की ऄवथथा पररप‍व नहीं हुइ ह।, ‍योंवक जब योग के ऄभ्यास
के द्रारा वववेक-ख्यावत की ऄवथथा पररप‍व हो जाती ह। ऄथालभत् वववेक-ख्यावत का वनरन्तर प्रवाह बहता
रहता ह।, तब आस वनरन्तर प्रवाह को धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं धर्मलभर्मेघ सर्मावध के ववषय र्में र्मैं पहले ी
वलख िक र ा हाँ आसकी पराकािा पर-व।रा‍य ह।, आस पर-व।रा‍य के द्रारा वनबीज सर्मावध लगती ह। वववेक-
ख्यावत को सबीज सर्मावध और वनबीज सर्मावध की बीि वाली ऄवथथा कहा जा सकता ह।, ‍योंवक यहीं
तक परू र षाथलभ का ववषय ह।
अत्र्मा और वित्त का ेदज्ञान सासं ाररक ववषयों ज।सा नहीं ह।, बवकक आससे ऄत्यन्त ववलक्षण ह।,
वजसे शब्दों र्में नहीं कहा जा सकता ह। र्मगर र्मैंने ऄनर वों र्में ईस ऄवथथा को वलखा ह। आस ऄवथथा को
हर योगी प्राप्त नहीं कर सकता यह ऄवथथा बहुत ही कर्म योवगयों को प्राप्त होती ह। र्मैं ऄपने व्यव‍तगत
ऄभ्यासानसर ार वलख रहा ह-ाँ आस ऄवथथा को प्राप्त करने र्में र्मंर योग कािी सहायक होता ह। र्मैंने र्मंर-
जाप बहुत ज्यादा वकया ह। सर्मावध के बाद जब ी सर्मय वर्मलता, र्मैं र्मंर-जाप करने र्में लग जाता था
ऄभ्यासी को यह नहीं सोिना िावहए वक र्मंर-योग हर्मारा र्मागलभ नहीं ह।, र्मैं ‍यों र्मंर-जाप करुाँ र्मेरा कहना
ह। वक यवद शीघ्र सिलता िावहए तो ऄभ्यासी को ऄवश्य ही र्मंर-जाप का सहारा लेना िावहए परन्तर

तत्त्वज्ञान 200
र्मंर-जाप करने का तरीका सही होना िावहए त ी ईसका िल वर्मलता ह। र्मंर-जाप से वित्त पर वथथत र्मल
व अवरण शीघ्र नष्ट होने लगते हैं ऄथालभत् वित्त शवर ि र्में र्मंर-जाप सहायक होता ह।
वववेक-ख्यावत तक अत्र्मा वित्त के अकार का प्रतीत होता ह। र्मगर वनबीज-सर्मावध र्में वित्त
अत्र्मा के अकार वाला हो जाता ह। वववेक-ख्यावत की वनरन्तर बहने वाली ऄवथथा को जीवन्र्मक्त र -
ऄवथथा कहते हैं रजोगणर ी व तर्मोगणर ी र्मल रूपी अवरण नष्ट हो जाने पर जब वनर्मलभल वववेक ख्यावत के
द्रारा सांसाररक ववषयों का ज्ञान ईत्पन्न न होने पर वनम्नवलवखत प्रकार वाली ऄत्यन्त ईच्िावथथा वाली
प्रज्ञा का ईदय होता ह।-
1. जो करछ जानना था, जान वलया ऄथालभत् जो वरगणर ात्र्मक संसार ह।, वह सब पररणार्म, दःर ख, ताप
(तीनों प्रकार के तापद वाला ह।
2. जो करछ दरर करना था, दरर कर वदया अत्र्मा और वित्त का जो संयोग था, वह दरर कर वदया
3. जो करछ साक्षात् करना था, साक्षात् कर वलया ऄब साक्षात् करने यो‍य करछ ी शेष नहीं रह गया
4. जो करछ करना था कर वलया ऄथालभत् र्मोक्ष के ईपाय वनर्मलभल वववेक-ख्यावत को प्राप्त कर वलया ह।
यह ऄवथथा वित्त के व्यवहार की सीर्मा रे खा ह।
5. वित्त ने ऄपना ऄवधकार ोग-ऄपवगलभ परर ा कर वलया, ऄब ईसका कोइ ऄवधकार शेष नहीं रह
जाता ह।
6. वित्त को बनाने वाले गणर ऄपने ोग-ऄपवगलभ का प्रयोजन वसि करके ऄपने कारण र्में लय होने के
ऄव र्मखर जा रहे हैं, ऄब आनका कोइ प्रयोजन शेष नहीं रहा
7. गणर ों से परे होकर अत्र्मा शि
र परर्मात्र्म थवरूप र्में ऄववथथवत हो रही ह।
गीता के तेरहवें ऄ्याय र्में गवान् श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– “इस प्रकार प्रकृ लत और आत्मा
के भेद तथा लवकार सलहत प्रकृ लत के छूटने के उपाय को जो परू ु ष ज्ञान नेत्रों द्वारा (लववेक-ख्यालत द्वारा)
तत्त्व से जान िेते हैं, वे महात्मा जन पर-ब्रह्म को प्राप्त होते हैं”।

तत्त्वज्ञान 201
पर-वैराग्य
ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा ईत्पन्न हुए ज्ञान से सांसाररक पदाथों से व।रा‍य ईत्पन्न होकर अत्र्मा र्में
ऄववथथवत के साधनों र्में अने वाले ववक्षेपों का ऄ ाव हो जाता ह। ईस ऊतम् रा-प्रज्ञा से ईत्पन्न ज्ञान
रूप संथकार ऄन्य दृश्य जन्य संथकारों का बाधक ह। आस प्रज्ञा के संथकारों द्रारा वित्त की सर्मथत वृवत्तयों के
ववथर्मरण का ऄभ्यास करना िावहए आस प्रकार ऄभ्यास करते-करते दृश्य का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह।
दृश्य के ऄत्यन्त ऄ ाव से वित्त की वृवत्तयों का थवर्मेव वनरोध होने लगता ह। ऄथालभत् वित्त का बाह्य
पररणार्म होना रुक जाता ह। ऄथवा प्रकृ वत के दोषों का ज्ञान हो जाता ह। जब योगी को प्रकृ वत के दोषों का
ज्ञान हो जाएगा, तब ईसकी असव‍त प्रकृ वत से सवलभथा सर्माप्त हो जाती ह। ईससे योगी के ऄन्दर पर-
व।रा‍य ईत्पन्न होता ह।
वकसी ी ववषय वथतर को त्यागने का नार्म व।रा‍य नहीं ह।, ‍योंवक वकसी वथतर को त्यागने के कइ
कारण हो सकते हैं रोगी र्मनष्र य को रोग के कारण ववषयों से ऄरूवि हो जाती ह। ऄथवा रोग के ईपिार
हेतर ववषयों से परहेज वकया जाता ह। आससे यह नहीं कह सकते हैं वक ऄर्मक र ववषय से व।रा‍य ले वलया ह।
क ी-क ी वकसी ववषय वथतर के प्राप्त न होने पर ऄथवा वकसी के अ्र ह करने पर वकसी वथतर को त्यागा
जा सकता ह। ऐसी वथतओ र ं को त्यागने से ईन वथतओ र ं के प्रवत व।रा‍य नहीं कहा जा सकता ह।, ‍योंवक
ऐसी वथतओ र ं का ौवतक रूप से ले ही ोग न वकया जाए ऄथवा आन वथतओ र ं से दरर रह गया हो परन्तर
ऐसी वथतओ र ं की तृष्णा सक्ष्र र्म रूप से ईसके ऄन्दर बनी रहती ह। परन्तर ज्ञान के द्रारा ववषयों को ऄत्यन्त
दःर ख तथा बन्धन रूप सर्मझकर ईसे त्याग देना ही व।रा‍य ह। ववषयों को ोगने से क ी ी शांवत नहीं
वर्मल सकती ह।, बवकक ववषयों को वजतना ोगा जाएगा ईतनी ही ईस ववषय के प्रवत वासना ड़के गी
ऐसा सर्मझें- वजस प्रकार ऄव‍न र्में घी डालने से ऄव‍न ऄत्यवधक प्रिण्ड रूप धारण कर लेती ह।, ईसी
प्रकार ववषय ोग की वासनाएाँ हैं आसवलए ववषयों को ोगने से वासनाये प्रिण्ड रुप धारण कर लेती हैं
यहााँ पर र्महान सन्त तृलभहरर जी के शब्द याद अ गये– ‚भोगों को हमने नहीं भोगा, बदकक भोगों ने
हमें भोग दलया। समय नहीं बीता, हम ही बीत गये, तृष्णा जीणय नहीं हुई, हम ही जीणय हो गये‛
जब कोइ र्मनष्र य व।रा‍य लेगा तब ईस र्मनष्र य को सक्ष्र र्म रूप से ईस वथतर की प्रावप्त की ऄवश्य
आच्छा होगी ऐसा आसवलए होता ह। ‍योंवक वह पहले ईन ववषयों को ोग िक र ा होता ह। ईसके संथकार
वित्त र्में वथथत रहते हैं, ईन्हीं संथकारों के कारण र्मनष्र य र्में ईस वथतर की प्रावप्त की आच्छा िलती ह। ऐसा
होने पर र्मनष्र य बार-बार ईस वथतर का विन्तन करता ह। ईस सर्मय ईसे ऄपने र्मन को ऄन्य वकसी कायलभ र्में

तत्त्वज्ञान 202
लगाना िावहए तावक र्मन ऄपने ककयाण हेतर विन्तन कर सके यवद र्मन ईस ववषय का ज्यादा विन्तन
करता हो तो ज्ञान के द्रारा ईन ववषयों के दोषों को थर्मरण कराएं तावक र्मन थवर्मेव ऄपना र्मागलभ बदल दे
धीरे -धीरे आस प्रकार के ऄभ्यास से वनश्िय ही सिलता वर्मलनी शरू र हो जाएगी यह ऄभ्यास तब तक
करना िावहए, जब तक सक्ष्र र्म रूप से ी वित्त र्में राग अवद दोषों से वनवृवत्त न हो जाए जब ौवतक और
वदव्य वथतओ र ं के ईपवथथत रहने पर ी र्मन आन वथतरओ ं के प्रवत ईपेवक्षत रहे, तब सर्मझना िावहए वक ऄब
व।रा‍य हो गया ह। ऄथालभत् जब ईसे यह ज्ञान हो जाए वक ये वथतएर ाँ र्मेरे वशी तर हैं, र्मैं आनका वशी तर नहीं
हाँ आसका दसर रा नार्म ऄपर-व।रा‍य ह।, आस ऄपर-व।रा‍य की प्रावप्त पर सबीज सर्मावध लगती ह। आसकी
सबसे उाँिी वर र्म वववेक-ख्यावत ह। वजसर्में अत्र्मा और वित्त र्में व न्नता का ज्ञान होता ह। आस वववेक-
ख्यावत रूपी वृवत्त से ी असव‍त का हट जाना पर-व।रा‍य कहलाता ह।
आस ऄपर-व।रा‍य र्में ौवतक और सक्ष्र र्म ववषयों से तृष्णा सर्माप्त हो जाती ह।, ‍योंवक ववषयों के
दोषों के बारे र्में जानकारी होने पर ऄथवा देखकर ईन ववषयों से लगाव सर्माप्त हो जाता ह।, तब योगी र्में
ईन ववषयों के प्रवत ववर‍तता अ जाती ह। जब योगी स ी प्रकार के ववषयों से ववर‍त हो जाता ह।, तब
सर्मावध ऄवथथा र्में वित्त एका्र होने लगता ह। जब वित्त र्में एका्र ता के ऄभ्यास की पररप‍वता अ
जाती ह।, तब ईस ईच्ितर्म ऄवथथा र्में अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान होने लगता ह। ऄथालभत्
वववेक-ख्यावत की प्रावप्त हो जाती ह। अत्र्मा और वित्त की व न्नता के ज्ञान र्में ज।से-ज।से ऄभ्यास बढ़ता
ह।, व।से-व।से वित्त की वनर्मलभलता बढ़ती ह। ऄवधक वनर्मलभलता की ऄवथथा प्राप्त होने पर वववेक-ख्यावत ी
वित्त की सावत्वक वृवत्त ह।, ऐसा ज्ञान होने लगता ह। ऄवधक ऄभ्यास बढ़ने पर वववेक-ख्यावत से ी
व।रा‍य ईत्पन्न होने लगता ह। आस व।रा‍य को ही पर-व।रा‍य कहते हैं आस पर-व।रा‍य के ईत्पन्न होने पर योगी
के वित्त र्में वकसी प्रकार के ‍लेश नहीं रह जाते हैं ऐसा योगी जीवन्र्मक्तर ऄवथथा वाला कहा जाता ह।,
‍योंवक ईसके वलए ससं ार िक्र (जन्र्म-अय-र र्मृत्यदर टरट िक र ा होता ह। ऄब ईसे ससं ार र्में जन्र्म लेने की
अवश्यकता नहीं ह। ईसे पर-व।रा‍य द्रारा वनबीज-सर्मावध लगती ह।
जब योगी के वित्त र्में पर-व।रा‍य की ईत्पवत्त होती ह।, ईस सर्मय योगी के वित्त र्में वववेक-ख्यावत
का प्रवाह वनरन्तर बहने लगता ह। आसी को धर्मलभर्मेघ सर्मावध ी कहते हैं तथा ज्ञान की सवोच्ि सीर्मा ही
पर-व।रा‍य ह। आस पर-व।रा‍य का िल वनबीज सर्मावध ह। दसर रे शब्दों र्में ज्ञान रुपी वृवत्त के वनरुि होने के
बाद ही वनबीज सर्मावध लगती ह। जहााँ तक तीनों गणर ों का पररणार्म ह।, वहााँ तक तृष्णा रवहत हो जाना ही
पर-व।रा‍य ह।

तत्त्वज्ञान 203
र्मैं थोड़ा-सा ईन योवगयों के वलए करछ शब्द वलख रहा हाँ जो आस ऄवथथा र्में वनरन्तर ऄभ्यास कर
रहे हैं ईन ऄभ्यावसयों को ऄच्छी तरह से याद रखना िावहए वक जब पर-व।रा‍य की ऄवथथा प्राप्त होने
वाली होगी, ईससे थोड़ा पहले ईन योवगयों को वनश्िय ही सर्माज से ऄपर्मान व कष्ट सहना पड़ेगा यवद
ऄभ्यासी ऄपनी सर्मथत ौवतक वथतओ र ,ं वजन वथतरओ ं का वह थवार्मी ह।, का त्याग कर दे तो ऄच्छा ह।
वरना ईसके ऄवधकार से स ी वथतएर ाँ िली जाएाँगी विर ी यवद ईसने सांसाररक वथतओ र ं का त्याग नहीं
वकया तो ईसे पर-व।रा‍य वाली ऄवथथा प्राप्त नहीं होगी ऄच्छा तो यही ह। वक पहले से ही सम्पणर लभ
ौवतक पदाथों का त्याग कर वदया जाए, परन्तर यवद त्याग करने के पश्िात योगी के वित्त र्में ईन त्यागी हुइ
वथतओ र ं के प्रवत थोड़ी ी तृष्णा रह गइ ह। तो विन्ता नहीं करना िावहए धीरे -धीरे वनरन्तर ऄभ्यास से
सक्ष्र र्म तृष्णा सर्माप्त हो जाएगी यह ऄवथथा ईन योवगयों को कष्टदायी होती ह। जो करछ-न-करछ ौवतक
वथतओ र ं के थवार्मी ह। आसका र्मतलब यह नहीं ह। वक योगी ने सर्मथत वथतओ र ं का त्याग तो कर वदया ह।,
र्मगर वह ऄच्छे अश्रर्म र्में जाकर सख र का ोग करने लगे यह ईवित नहीं ह।, ‍योंवक र्मैंने बहुत से अश्रर्मों
र्में सन्यावसयों को सख र ोगते हुए देखा ह।, जबवक वह वाथतव र्में सखर नहीं होता ह। सख र ोगने वाले योगी
पर-व।रा‍य की ऄवथथा वकसी ी हालत र्में प्राप्त नहीं कर सकते हैं
पर-व।रा‍य की ऄवथथा वजस योगी को प्राप्त होने वाली हो, ईसके वलए ऄच्छा ह। वक वह अश्रर्म
अवद र्में रहने की आच्छा न करे , ‍योंवक अजकल ज्यादातर अश्रर्मों की हालत ऐसी ह। वक आस ऄवथथा
को प्राप्त योगी के वलए ऄनक र र ल नहीं होगी वह एकांत वास करे तो ऄच्छा ह। ऄपने ोजन की व्यवथथा
ी थवयं कर ले ऄथवा र्मााँग कर ोजन प्राप्त कर ले यह ऄवथथा योगी के वलए ऄत्यन्त कष्टदायी होती
ह। सारा सर्माज योगी का ववरोधी हो सकता ह। ऄथवा ोजन प्रावप्त र्में ी ऄवरोध अ सकता ह। ऐसी
ऄवथथा र्में सर्माज के व्यवहार से योगी को वकसी प्रकार का दःर ख र्महससर नहीं करना िावहए, बवकक ऐसे
लोगों पर दया करनी िावहए जो ईसे ऄपर्मावनत करें या वकसी प्रकार का ऄवरोध ईपवथथत करें दया
आसवलए करनी िावहए, ‍योंवक ऐसा करके वे ऄभ्यासी के वित्त र्में वथथत सथं कारों को नष्ट कर रहे हैं
योगी के वित्त र्में जो कलेशात्र्मक सथं कार रह जाते हैं, ईन सथं कारों का ोग योगी को वकसी-न-वकसी रूप
र्में ोग कर सर्माप्त करना ही पड़ेगा आसवलए ईसे सर्मझ लेना िावहए वक ईसके वित्त र्में जो सक्ष्र र्म सथं कार
हैं, वह सर्माप्त हो रहे हैं यह ऄवथथा योगी की वनबीज सर्मावध तक िलेगी जब योगी व्यत्र थान के सर्मथत
संथकार वनरुि कर देगा तब ईसे कष्ट नहीं ोगने होंगे और यवद कष्ट अ ी जाएाँ तो ईसे कष्टों की
ऄनर वर त नहीं होगी प्रत्यक्ष देखने पर तो साधारण र्मनष्र य यह ले ही सर्मझें की योगी कष्ट ोग रहा ह।,
र्मगर ईस योगी को कष्ट प्र ाववत नहीं कर सकते हैं

तत्त्वज्ञान 204
व्यास जी ने ऄभ्यास और व।रा‍य के ववषय र्में बड़े सन्र दर ढंग से सर्मझाया ह।- वित्त एक नदी ह।,
वजसर्में वृवत्तयों का प्रवाह बहता ह। आसकी दो धाराएाँ ह।- एक संसार सागर की ओर बहती ह। और दसर री
ककयाण की ओर बहती ह। वजसने पवर लभ जन्र्म र्में ोग अवद के कायलभ वकए हैं, ईनकी वृवत्तयों की धारा ईन
संथकारों के कारण ऄज्ञान र्मागलभ से बहती हुइ संसार सागर र्में जा वर्मलती ह। वजन्होंने क। वकयाथलभ कायलभ वकए
हैं, ईनकी वृवत्तयों की धारा ईन संथकारों के कारण वववेक र्मागलभ से बहती हुइ ककयाण सागर र्में जाकर
वर्मलती हैं संसारी र्मनष्र यों की पहली धारा तो प्रायः जन्र्म से ही खलर ी होती ह।, वकन्तर दसर री धारा को
शाथर, गरू र , अिायलभ तथा इश्वर विन्तन ही खोलते हैं पहली धारा को बन्द करने के वलए ववषयों के श्रोत
पर-व।रा‍य का बन्ध लगाया जाता ह। और ऄभ्यास रूपी बेलिे से दसर री धारा का र्मागलभ गहरा खोदकर
वृवत्तयों के सर्मथत प्रवाह को वववेक श्रोत र्में डाल वदया जाता ह।, तब प्रबल वेग से वह सारा प्रवाह
ककयाण रूपी सागर र्में जाकर लीन हो जाता ह। आस कारण ऄभ्यास और व।रा‍य दोनों ही एक साथ
वर्मलकर वित्त की वृवत्तयों के वनरोध के साधन हैं वजस प्रकार पक्षी का अकाश र्में ईड़ना दोनों पंखों के
ऄधीन होता ह।, ईसी प्रकार सर्मथत वृवत्तयों का वनरोध न के वल ऄभ्यास से और न ही के वल व।रा‍य से ही
हो सकता ह। आसवलए ऄभ्यास और व।रा‍य दोनों का ही सर्मच्र िय होना अवश्यक ह।

तत्त्वज्ञान 205
तत्त्वज्ञान
यह जगत् परम्परा ववषर्म तथा ऄनन्त ह। आसर्में पड़ा हुअ जीव देहा्यास से यक्त र रहता ह। आसवलए
ज्ञान के वबना ब्रह्म प्रावप्त का र्मागलभ वदखाइ नहीं देता ह। जो लोग आस संसार की ऄसारता और दःर ख रूपता
को देखकर ऄपनी सांसाररक बवर ि का पररत्याग कर देते हैं, वे संसार बन्धन से र्म‍र त होकर ब्रह्म को प्राप्त
हो जाते हैं वववेकशील परू र ष ज्ञान रूपी नौका पर सवार होकर आस वसागर को पार कर जाते हैं संसार
सागर से ईबारने वाला यह ज्ञान रूपी ईपाय वनत्य वववेक और व।रा‍य अवद से सर्मवन्वत ह। आस ज्ञान यवर क्त
के वबना ऄनन्त ववक्षेपों से पररपणर लभ ये सांसाररक दःर ख और य विरकाल तक ऄन्त:करण को संतप्त करते
रहते हैं तत्त्वज्ञानी ऄथवा श्रेष्ठ परू र षों र्में दःर ख सहने की क्षर्मता ज्ञान के बल पर ही अती ह। ज्ञान यवर क्त के
ऄवतरर‍त दःर खों को वे वकसी प्रकार सहन नहीं कर सकते हैं दःर खों की वितं ाएाँ ऄज्ञानी र्मनष्र यों को जगह-
जगह पर अ घेरती हैं तथा सर्मयानसर ार सतं प्त करती रहती हैं र्मगर वजसने ज्ञान प्राप्त कर वलया ह। तथा
ली- ााँवत ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार कर वलया ह।, ऐसे ज्ञानी परू र ष को दःर ख ऄथवा र्मानवसक व्यथाएाँ
प्र ाववत नहीं कर सकती हैं आसवलए बवर िर्मान परू र ष तत्त्वज्ञान प्रावप्त के वलए वकसी अत्र्मतत्त्व के यथाथलभ
ज्ञाता के पास जाकर ववनय ाव से प्राथलभना करें वक ईसे अत्र्मतत्त्व के यथाथलभ ज्ञान की प्रावप्त का र्मागलभ
बताएं ईस प्रर्माण करशल तथा ववशि र वित्त वाले अत्र्मवेत्ता के विनों को प्रयत्न पवर लभक ्र हण करें र्मगर
जो परूर ष अत्र्मतत्त्व का ज्ञाता नहीं ह।, ईससे तत्त्व सम्बन्धी प्रश्न नहीं करने िावहएं, ‍योंवक ईसके विन
्र हण करने यो‍य नहीं होते हैं तत्त्वज्ञानी तथा प्रर्माण करशल व‍ता के ईपदेशों का जो परू र ष ऄनसर रण नहीं
करता ह।, ऐसे परू र ष को ऄज्ञानी व र्मख र लभ ही कहा जाएगा ऄतः व‍ता के व्यवहार अवद के कायों से
ईसकी ऄज्ञता तथा तत्त्वज्ञता का पहले वनणलभय करके ही प्रश्न करने का वनणलभय करना िावहए तत्त्वज्ञानी को
िावहए वक तत्त्वज्ञान का ईपदेश वसिलभ ईसे ही दें वजसकी बवर ि सार्मथलभवान हो तथा जो वनन्दनीय न हो जो
परूर ष वसिलभ पश-र धर्मलभ से यक्त
र हो ईसे तत्त्वज्ञान का ईपदेश वबककरल नहीं देना िावहए
संसार बन्धन की वनवृवत्त या र्मोक्ष के वलए ज्ञान ही साधन ह। ‍लेशयक्त र सकार्म कर्मों से संसार
बन्धन से र्म‍र त नहीं हुअ जा सकता ह। र्मोक्ष र्में ज्ञान के ऄवतरर‍त सकार्म कर्मों अवद का आसर्में कोइ
ईपयोग नहीं ह।, ‍योंवक रथसी र्में होने वाले सपलभ के भ्रर्म का वनवारण करने के वलए ज्ञान का ही ईपयोग
होता ह। ज्ञान से ही ईस भ्रर्म की वनवृवत्त होती ह।, ऄन्य वकसी कर्मलभ से नहीं योग के ऄभ्यास र्में तत्पर होना
ही ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त र्में हेतर ह। ऐसे तत्त्वज्ञान से जीव के दःर ख का वनवारण होता ह। तथा जीवन्र्मक्त र

तत्त्वज्ञान 206
ऄवथथा प्राप्त होती ह। ऄपने पौरूष जवनत प्रयत्न से ववकास को प्राप्त हुए वववेक द्रारा ब्रह्म का यथाथलभ
ज्ञान होता ह।
सगणर ब्रह्म ऄथालभत् इश्वर सदा शरीर र्में ह्रदय गफ़र ा र्में वथथत रहते हैं तथा सवलभव्यापक हैं यही इश्वर
वशव तथा श्री हरर हैं कायलभ-कारण थवरूप आन पर-ब्रह्म परर्मात्र्मा का साक्षात्कार हो जाने पर आस साधन
परायण के ह्रदय की ्र वन्थ खल र जाती ह। यह ्र वन्थ जड़-िेतन वाली होती ह। आसके खल र ने पर सारे संशय
वर्मट जाते हैं ऄथवा वछन्न-व न्न हो जाते हैं और सम्पणर लभ शर -ऄशर कर्मलभ नष्ट हो जाते हैं ब्रह्म र्में यह
जगत् सम्बन्धी भ्रर्म ईत्पन्न हुअ ह। आस भ्रर्म के ऄत्यन्त ऄ ाव के ज्ञान र्में यवद दृढ़ता हो जाए त ी ब्रह्म
का थवरूप ज्ञात होता ह। दृश्य के ऄत्यन्त ऄ ाव के वसवाय दसर री कोइ गवत नहीं ह। ज्यों-की-त्यों वथथत
हुए आस दृश्य जगत् के ऄत्यन्त ऄ ाव का वनश्िय हो जाने पर जो शेष रह जाता ह।, ईसी परर्माथलभ वथतर का
बोध होता ह। जब तक दृश्य की सत्ता का ऄत्यन्त ऄ ाव ऄथवा वर्मथ्या वसि नहीं हो जाता ह।, तब तक
ईस परर्म् तत्त्व रूप ब्रह्म को क ी कोइ जान नहीं सकता ह। ऄसत् पदाथलभ की क ी कोइ सत्ता नहीं होती ह।
तथा सत् पदाथलभ का क ी ऄ ाव नहीं होता ह। जो वथतर थव ाव से ह। ही नहीं, ईसे वर्मथ्या सर्मझकर त्याग
देने र्में कौन सी परे शानी ह।? यह जगत् ब्रह्म र्में ही कवकपत ह।, ऄतः ब्रह्मथवरूप ही ह। आसके ऄवतरर‍त
ईसकी कोइ सत्ता नहीं ह। ज।से सोने र्में कवकपत कड़े और करण्डल अवद अ षर ण सोने की दृवष्ट से ऄ ाव
ही ह।, ईसी प्रकार ब्रह्म र्में कवकपत जगत् ब्रह्म दृवष्ट से ऄ ाव ही वसि होता ह।
एक र्मार शि र वनर्मलभल एवं सवलभव्यापक ब्रह्म ही सदा सवलभर ववराजर्मान ह। ब्रह्म सवलभशव‍तर्मान होने
के कारण वजन-वजन ककपनाओ ं की ावना करता ह।, ईन्हें थवयं ही प्राप्त कर लेता ह। ऄथालभत् थवयं ही वह
ईसी रूप वाला हो जाता ह। ज्ञान का प्रकाश छा जाने पर ऄज्ञान रूपी ऄधं कार का तत्त्व ज्ञात नहीं होता ह।
ऄथालभत् ईसका पता ही नहीं िलता ह। आसी प्रकार सवलभशव‍तर्मान जीवात्र्मा जो क ी बावधत न होने वाले
र्महाि।तन्य रूपी सार तर ऄंश से रूपवान प्रतीत होता हुअ ब्रह्म ही ह। िेतनता जो अकाश से ी सक्ष्र र्म
सब ओर ि। ली हुइ ह।, वह थव ाव से ही पहले ऄहक ं ार का दशलभन करती ह। ज।से जल थवयं ऄपने अप र्में
बल र बल र ा तरंग अवद के रूप र्में थिरररत हो रहा ह।, ईसी प्रकार अत्र्मा जब ऄपने अप र्में थवयं थिररणशील
होता ह।, तब ईस िेतन अत्र्मा की िेतना शव‍त ईस सक्ष्र र्म ऄहक ं ार का दशलभन करती ह।, जो ईत्तरोत्तर
थथल र ता को प्राप्त हुइ ऄन्त र्में ब्रह्माण्ड का अकार धारण कर लेती ह। िेतन की जो िर्मत्काररणी वित्त
शव‍त ह।, वह थवयं ऄपने अप र्में जो सृवष्ट करती ह।, ईसी का नार्म जगत् या संसार रख वदया गया ह।
दृश्य तर जो ऄहक ं ार ह। ईसकी ककपना ि।तन्य के ऄधीन ह। ऄथालभत् ि।तन्य की ही ककपना ह। तन्र्मारा
अवद जो जगत् ह।, ईसकी ककपना ऄहक ं ार के ऄधीन ह। आस प्रकार ऄहक ं ार और जगत् ि।तन्य रूप ही

तत्त्वज्ञान 207
हैं, विर ईस ि।तन्य र्में द्र।त और ऄद्र।त कहााँ ह।? र्मन के संककप रूप जो सम्पणर लभ जगत् ह।, वह शन्र य ही ह।
आवन्िय और ईसके ऄवधष्ठाता देवताओ ं का वनवास तर जो साकार एवं थथल र ववश्व ह।, वह ी शन्र य ही
ह।, ‍योंवक दोनों ही ि।तन्य के ही रूप ह। आसवलए वह ि।तन्य से व न्न नहीं ह। जो वथतर वजस वथतर का
ववलास होती ह।, वह ईससे क ी ी व न्न नहीं होती ह। जल के ववलास तर तंरग र्में ऐसा देखा गया ह।
आसी प्रकार िेतन के ववलास र्में सदा ऄदृश्य, रूप और नार्म से रवहत तथा सवलभव्यापक ि।तन्य शव‍त का जो
रूप ह।, ईससे थिरवतलभ प्राप्त करने वाले जगत् का ी वही रूप ह। ऄथालभत् िेतन की ही जो व नन-व ् न्न
अकार र्में थिररणाएाँ होती हैं, वही जगत् कहा गया ह। ऄतः यह जगत् ि।तन्य-शव‍त या िेतन-अत्र्मा से
व न्न नहीं ह। िेतन अत्र्मा का जो ि।तन्य ह।, ईसी को जगत् सर्मझना िावहए, ‍योंवक वह ि।तन्य जगत् से
पृथक नहीं ह। यवद िेतन को जगत् ाव से रवहत र्माना जाए तो वित्त वित्त नहीं रह जाएगा ऄथालभत् िेतन
को िेतन नहीं कहा जा सकता ह। ऄतः िेतन का व जगत् का प्रतीत र्मार से ही ेद ह।, वाथतव र्में ेद
नहीं ह।
वजस परू
र ष को जानने यो‍य वथतओ र ं का ज्ञान हो िकर ा हो तथा एक र्मार बोध थवरूप ऐसे परू र ष
के र्मन र्में कोइ ी सांसाररक पदाथलभ सत्य न हो, वजस परू र ष को तत्त्वज्ञान प्राप्त हो िकर ा हो, ईसे संसार की
भ्रावन्त क। से हो सकती ह।? ज।से रथसी का ज्ञान हो जाने पर सपलभ का भ्रर्म वर्मट जाता ह। तथा पनर ः ईसर्में सपलभ
की भ्रावन्त नहीं होती ह।, ईसी प्रकार ससं ार भ्रर्म के ऄसत्य ाव का पणर लभ ज्ञान हो जाने पर विर ससं ार की
सत्ता क। से वटक सकती ह।? वजसका ह्रदय थवच्छ, वनर्मलभल, तथा ऄत्यन्त व्यापक ह।, ऐसे तत्त्वज्ञानी परू र ष
की बवर ि र्में ऄहक ं ार और ससं ार की प्रतीवत तच्र छ शब्द का प्रतीक ह। यह वाथतववक नहीं ह।, बवकक
के वल व्यवहार र्मार ह। वजसके वित्त र्में ज्ञान का ईदय नहीं हुअ ह।, वजसकी परर्मात्र्म-तत्त्व र्में दृढ़ वथथवत
नहीं ह। तथा जो र्मोह से ्र थत ह।, ईसके वलए यह ससं ार ऄसत् होते हुए ी सत्य-सा प्रतीत होता ह। वजस
प्रकार थवप्न िष्टा द्रारा थवप्न र्में देखी गइ ऄपने वनकट सम्बन्धी की र्मृत्यर दःर ख तथा शोक का कायलभ करा
देती ह।, ईसी प्रकार वजनकी बवर ि र्मोह से अच्छावदत ह।, ईन परू र षों के वलए यह ससं ार सद।व शोक और
दःर ख से यक्त र होता ह। यह वर्मथ्या ससं ार जीव को र्मोवहत करता ह। स ी वथतएर ाँ शरीर के ऄन्दर और बाहर
सवलभर ववद्यर्मान हैं ज्ञान वृवत्त वजसे ज।सा जानती ह।, ईसे ईसी तरह थवयं ही देखती ह। ईसी तरह िेतन
अकाश रूप परर्मात्र्मा र्में सब करछ वथथत ह। और वही परर्मात्र्मा ईसका ऄनर व करता ह।
यह सम्पणर लभ जगत् ब्रह्म ही ह।, ऐसी ऄवथथा र्में शरीर अवद की ककपना क। से की जा सकती ह।? जो
करछ वदखाइ दे रहा ह।, वाथतव र्में वह सब अनन्द थवरूप ब्रह्म ही ह। जो परू र ष ऄज्ञानी होता ह।, ईसकी
दृवष्ट र्में सत्य का वतरो ाव तथा ऄसत्य का अवव ालभव शीघ्र होता ह। परन्तर वजस परू र ष ने रथसी र्में ईत्पन्न

तत्त्वज्ञान 208
सपलभ की भ्रावन्त को वर्मटा वदया ह।, ‍या ईसे दबर ारा रथसी र्में सपलभ की भ्रावन्त हो सकती ह।? ऄथालभत् वबककरल
नहीं हो सकती ह। आसी प्रकार जो जन्र्म-र्मरण धर्मालभ थथल र शरीर को अत्र्मा र्मानते हैं, ऐसे ऄज्ञानी परू र ष
वर्मथ्या सृवष्ट का विरकाल तक सत्य की तरह ऄनर व करते हैं परन्तर अत्र्मतत्त्व के यथाथलभ ज्ञान होने से
थथल र शरीर र्में अत्र्म बवर ि करना भ्रर्म र्मार ही ह।, ‍योंवक ईसने संसार के वाथतववक थवरूप का ज्ञान कर
वलया ह।, ईसकी भ्रावन्त संसार के प्रवत नष्ट हो िक र ी ह। भ्रावन्त के नष्ट हो जाने पर ईसकी सत्ता नहीं रह
जाती ह। वाथतव र्में ईसकी सत्ता नहीं थी, वसिलभ ऄज्ञान था जो ऄब सर्माप्त हो गया ह। ऄज्ञान के साथ
भ्रावन्त ी सर्माप्त हो गइ ह।
थवप्न ऄथवा र्मन की ककपना से जो पदाथलभ ईत्पन्न होते हैं, वे स ी वित्त-वृवत्त के ऄन्दर ववलीन
हो जाते हैं, ज।से सारी िेष्टाएाँ वायर र्में ऄन्त लभतर हो जाती हैं वित्तवृवत्त ही थवप्न अवद पदाथों की प्रतीवत
द्रारा पयालभप्त रूप से थिरररत होती ह। वही थिरररत न होने पर थवप्न के साथ एकता को प्राप्त होकर तिरप हो
जाती ह। ज।से वायर और गवत दो ऄलग-ऄलग नहीं हैं, ईसी प्रकार वित्त-वृवत्त और थवप्न र्में वदखाइ देने
वाले पदाथों र्में ेद नहीं ह। ईनर्मे जो ेद-सा प्रतीत होता ह।, वही ऄज्ञान ह। वही संसार कहा गया ह। तथा
वही ससं ार का वर्मथ्या ज्ञान रूप ह। थवप्न र्में ज।से ऄसत् पदाथों की प्रतीवत होती ह।, ईसी तरह से सृवष्ट
अवद र्में ऄसत् जगत् का ान होता ह। ऄतः ज।से थवप्न ऄसत् ह।, व।से ही जा्र त ऄसत् ह। आसर्में कोइ
शक ं ा का ववषय नहीं ह। ज।से जागने पर थवप्न र्में देखे गये पदाथों का तत्काल ऄ ाव हो जाता ह।, ईसी
प्रकार तत्त्वज्ञान हो जाने पर आस ौवतक ससं ार का ऄभ्यास क्रर्म से ऄ ाव हो जाता ह। थवप्न ऄवथथा र्में
वदखाइ देने वाली सृवष्ट जा्र त ऄवथथा र्में वदखाइ देने वाली सृवष्ट वर्मथ्या ही ह।, ‍योंवक ऄज्ञान से आसका
दशलभन होता ह। जो र्माया रूप से प्रतीत होने वाले के वल ससं ार का भ्रावन्त रुप ह। थवप्न की जो ऄनर वर तयााँ
हैं, वे स ी ऄथलभ शन्र य ही हैं आस भ्रर्म रूपी ससं ार का दशलभन करने वाले परू र ष के ऄवन्तर्म सर्मय र्में थवप्न की
ऄनर वर त के सर्मान जो ये सृवष्ट की प्रत्यक्ष प्रतीवतयााँ हैं, वे स ी यद्यवप सक्ष्र र्म शरीर र्में प्रववि हो िक
र ी हैं,
परन्तर विर ी प्रकट हुइ-सी प्रतीत होती हैं जबवक वाथतव र्में तो वह र्मन के ऄन्दर ही हैं
ऄवद्रतीय ब्रह्म के साथ ऄभ्यासी की एकता का पणर लभ वनश्िय हो जाने पर ईत्कृ ष्ट एवं सश ं य रवहत
अत्र्म-ववज्ञान प्रकावशत हो जाता ह। ऄगर कोइ कहे वक अत्र्म-ववज्ञान प्रकावशत हो जाने पर तत्त्वज्ञावनयों
के शरीर यहााँ ‍यों वटके रहते हैं, तो आसका ईत्तर ह। वक यह सब प्रारब्ध ऄथवा वनयवत के प्र ाव से बना
रहता ह। प्रारब्ध ऄथवा वनयवत शि र िेतन परर्मात्र्मा की शव‍त रूप ह। यही प्रारब्ध तर , ववष्य एवं
वतलभर्मान काल र्में सम्पणर लभ पदाथों को ऄपने ऄधीन करके जगत् की व्यवथथा रूप से वथथत ह। ववष्य र्में
ऄर्मक र पदाथलभ र्में आस प्रकार की थिरवतलभ होनी िावहए, ऄर्मक र को ो‍ता का पद प्राप्त होना िावहए, आसके

तत्त्वज्ञान 209
द्रारा आस प्रकार और ईसके द्रारा आस प्रकार ऄवश्य होना िावहए, ये सब प्रारब्ध ही करता ह। यह प्रारब्ध
ही सम्पणर लभ- तर अवद ऄथवा काल वक्रया अवद जगत् ह। आस प्रारब्ध से ही परू र षाथलभ की सत्ता लवक्षत होती
ह। और परू र षाथलभ से ही प्रारब्ध की सत्ता सवर ित होती ह। जब तक संसार ह।, तब तक प्रारब्ध और परू र षाथलभ
ये दोनों सत्ताएं परथपर ऄव न्न रूप से वथथत हैं र्मनष्र य को ऄपने पौरूष से ही प्रारब्ध और परू र षाथलभ आन
दोनों को बनाना िावहए प्रारब्ध के ऄनसर ार होने वाला ोग ऄवश्य ही होकर रहेगा, ऐसा वनश्िय करके
बवर िर्मान परू र ष क ी पौरूष का त्याग न करे , ‍योंवक प्रारब्ध पौरूष रूप से ही वनयार्मक होता ह। ऄथालभत्
पवर लभजन्र्मों र्में वकया गया परूर षाथलभ ही वतलभर्मान जन्र्म र्में प्रारब्ध होकर यह वनयर्म करता ह। वक ऄर्मक र प्राणी को
ऐसा ही होना िावहए जो परू र ष प्रारब्ध के रोसे िपर िाप हाथ पर हाथ रखे ब।ठा रहता ह।, वह परू र ष शन्र य
व ऄकर्मलभण्य हो जाता ह। ऐसा र्मनष्र य क ी ी सख र ी नहीं रह सकता ह। यह र्मत सोिो वक ईसकी प्राण
वायर की िेष्टा कहााँ िली जाएगी यवद वनववलभककप सर्मावध र्में वित्त को शांवत प्रदान करने वाली वृवत्तयों
को वनरुि करके ऄभ्यासी परुर ष र्मवर ‍त पा गया हो तो वह ी ईसके परू र षाथलभ का िल ही ह। वबना परुर षाथलभ
के िल प्राप्त नहीं होता ह। परुर षाथलभ र्में तत्पर होना श्रेष्ठ साधन ह। और कतलभव्य का ऄत्यन्त ऄ ाव रूप
र्मोक्ष सवलभश्रेष्ठ ककयाणर्मय िल ह। तत्त्वज्ञावनयों का प्रारब्ध ोग दःर ख रवहत ह। जो दःर ख रवहत प्रारब्ध
ोग ह।, वह यवद ब्रह्म सत्ता के प्रकाश र्में वथथर हो जाए तो वनश्चत सर्मझना िावहए वक वह परर्म् शि र ब्रह्म
को प्राप्त हो गया ह। आसे ही परर्म-गवत ् कहते हैं
परर्माथलभ तत्त्व के ज्ञात हो जाने पर द्र।त नहीं रह जाता ह।, ईस सर्मय सारी ककपनाएाँ शातं हो जाती हैं
विर शातं थवरूप परर्माथलभ तत्त्व ही शेष रहता ह। वजन्हें तत्त्व का ज्ञान नहीं हुअ ह।, ऐसे ऄज्ञानी परू र ष ऄपने
ववककपों से ईत्पन्न हुए तकों द्रारा ऄद्र।त के ववषय र्में वववाद करते हैं तत्त्वज्ञान हो जाने पर वाद और द्र।त
नहीं रह जाता ह। द्र।त के वबना वाच्य-वािक का बोध वसि नहीं होता, परन्तर द्र।त वकसी तरह से सम् व
नहीं ह। आसवलए शातं थवरूप परर्मात्र्मा ही पणर लभतया वसि होता ह। वित्त ही ववनाश रूप से जगत् को प्राप्त
हुअ ह। ज।से बालर के ऄन्दर तेल नहीं होता ह।, ईसी तरह ब्रह्म र्में शरीर अवद की सत्ता नहीं ह। राग-द्रेष,
ऄववद्या-ऄज्ञान के द्रारा यह वित्त ही ससं ार ह। ऄज्ञान अवद दोषों से जब छरटकारा वर्मल जाता ह।, त ी
जीवन-र्मृत्यर रूपी आस ससं ार बन्धन से र्म‍र त हो पाता ह। लोकों की ककपना का अकाश रूप वित्त सम्पणर लभ
दृश्य को ऄपने ऄन्दर धारण करता ह।
सम्पणर लभ जीवों का अत्र्मा ऄपने संककप से तीनों ऄवथथाओ ं को प्राप्त हुअ ह। ये तीनों ऄवथथाएाँ
जा्र त, थवप्न और सषर प्र त हैं आन ऄवथथाओ ं का कारण शरीर नहीं ह। आस प्रकार तीनों ऄवथथा रूप
अत्र्मा र्में ही जीवत्व हैं ऄथालभत् अत्र्मा ही जीव रूप से थिरररत हो रहा ह। आसर्में शरीरत्व का ववकास नहीं

तत्त्वज्ञान 210
ह।, ज।से जल ही तरंग अवद रूप र्में होता ह। तावत्वक दृवष्ट से जल र्में तरंग अवद की ऄलग सत्ता नहीं
रहती ह।, ईसी प्रकार जीवात्र्मा ही जा्र त अवद ऄवथथा रूप ह। ऐसे वविार दृढ़ होते ही जीव से ऄलग
शरीर अवद की वाथतववक सत्ता शेष नहीं रह जाती ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष परर्मात्र्म पद को ज्ञान द्रारा प्राप्त
करके संसार से वनवृत्त हो जाता ह। परन्तर जो ऄज्ञानी जीव ह।, वही सृवष्ट र्में प्रवृत्त होता ह। ऄज्ञानी जीव
वाथतववक अत्र्मज्ञान से रवहत और शरीर र्में अत्र्मा की भ्रावन्त-वासना से यक्त र होने के कारण सृवष्ट को
प्राप्त होता ह। ब्रह्म वनववलभशेष, वनववलभकार, ऄवद्रतीय और ऄसंग होने के कारण वाथतव र्में वकसी का कारण
नहीं ह। र्मगर सम्पणर लभ जगत् के अरोप ऄवधष्ठान रूप से अवद कारण हैं ईस वनववलभशेष ब्रह्म र्में वथततर :
कारण एवं वनवर्मत्त अवद वथतर की सम् ावना नहीं ह। ऄतः ब्रह्म र्में वबना वकसी कारण के प्रतीत होने वाला
यह जगत् वर्मथ्या ही ह। आसवलए सार-वथतर ब्रह्म का ही वविार करना ईवित ह।, ऄसार-वथतर दृश्य जगत् का
वविार करने से ‍या ला ? बीज ऄपने थवरूप का त्याग करके ऄंकरर अवद क्रर्म से िलरूप र्में पररवणत
होता देखा जाता ह। परन्तर ब्रह्म र्में आस प्रकार की वक्रया नहीं होती ह। ब्रह्म ऄपने थवरूप का त्याग वकए
वबना ही जगत् रूप भ्रर्म ऄवधष्ठान रूप से कारण होता ह।
यहााँ न बन्धन ह। और न ही र्मोक्ष ह।, न बन्धन का ऄ ाव ह।, न बन्धन की सत्ता ह। यह भ्रर्म रूपी
र्माया ही प्रकट हुइ ह। बन्धन और र्मोक्ष की ऄवथथाओ ं से तथा द्र।त और ऄद्र।त से रवहत यह सम्पणर लभ
ववज्ञान अनन्दर्मयी ब्रह्म सत्ता ही ह। यह जगत् ब्रह्म का ही थवरूप ह। ऐसा ज्ञान वजन र्मनष्र यों को नहीं होता
ह।, ईनके वलए यह दृश्य जगत् दःर ख थवरूप ही ह। वजसे तत्त्वज्ञान हो गया ह। ईसके वलए यह दृश्य जगत्
र्मोक्ष प्रदान करने वाला होता ह। ज।से प्रेर्म से रवहत वकसी वर्मर के वर्मलने और वबछरड़ने से र्मनष्र य को न सख र
होता ह। और न ही दःर ख होता ह। ईसी प्रकार ब्रह्म का तावत्वक ज्ञान हो जाने पर आस थथल र शरीर के रहने
और वबछरड़ने से परू र ष सख र ऄथवा दःर ख की ऄनर वर त नहीं करता ह। वासना रवहत व शातं वित्त हुअ
वित्त का थवार्मी जीवात्र्मा सवलभव्यापी और सबका ऄवधपवत बन जाता ह।
तत्त्वज्ञावनयों का जो कर्मलभ या कतलभव्य वदखाइ देता ह।, वह वाथतव र्में ऄसत् ह। ‍योंवक ईसर्में कतालभपन
नहीं होता ह। परन्तर जो ऄज्ञावनयों का कर्मलभ ह।, ईसर्में कतलभव्य का ऄव र्मान होने के कारण ऄसत् नहीं ह।
तत्त्वज्ञानी और ऄज्ञानी र्में यही ऄतं र होता ह। हर्म सबसे पहले सर्मझ यह लें वक कतलभव्य वकसे कहते हैं?
वित्त र्में वथथत जो र्मन की वृवत्त ह।, ईसका यह वनश्िय वक ‘ऄर्मक र वथतर ्र हण करने यो‍य ह।’, आसका
ववश्वास ही वासना कहलाता ह। यही वासना ही कतलभव्य शब्द से कहा गया ह।, ‍योंवक वासना के ऄनसर ार
ही िेष्टा करता ह। और िेष्टा के ऄनसर ार ही िल ोगता ह। ऄतः कतलभव्य से ही िल ो‍तृत्व होता ह।,
यही वसिान्त ह। कहा जाता ह। वक र्मनष्र य कर्मलभ करे ऄथवा न करे , परन्तर ज।सी ईसके र्मन र्में वासना होती ह।,

तत्त्वज्ञान 211
वह सवलभर ईसी का ऄनर व करता ह। आसवलए वजस परू र ष को तत्त्वज्ञान नहीं हुअ ह।, वह कर्मलभ करे ऄथवा
न करे तो ी ईसर्में वासना होने के कारण कतृलभत्य ऄवश्य अ जाता ह। आसके ववपरीत वजस परू र ष को
तत्त्वज्ञान हो गया ह।, वह कर्मलभ करें ऄथवा न करें तो ी ईनर्में कतृलभत्य नहीं होता ह।, ‍योंवक वह वासना से
सवलभथा शन्र य हैं तत्त्वज्ञानी की वासना वशवथल हो जाती ह।, आसवलए वह कर्मलभ करता हुअ ी ईसके िल
की आच्छा नहीं रखता ह। ईसकी बवर ि कतृलभत्व ऄव र्मान व असव‍त से रवहत होती ह। ऄतः असव‍त से
रवहत ाव से िेष्टा र्मार करता ह। ईसे जो करछ ी प्रारब्ध के ऄनसर ार िल प्राप्त होता ह।, वह ईस सारे
कर्मलभ िल को ‘यह ब्रह्म ह।’ ऐसा ऄनर व करता ह। वजसका र्मन असव‍त र्में डरबा हुअ ह।, वह कर्मलभ न
करके ी कतालभ ही र्माना जाता ह। र्मन जो करछ करता ह।, वही वकया हुअ होता ह। र्मन वजसे नहीं करता ह।,
वह नहीं वकया हुअ होता ह। ऄतः र्मन ही कतालभ ह।, शरीर कतालभ नहीं ह। सम्पणर लभ ववषय और ववव न्न प्रकार
की वित्त वृवत्तयााँ जब वासना रूप हो जाती हैं, तब ईस वासना रूपी ईपावध से यक्त र जीवात्र्मा ही रहता ह।
र्मगर जो तत्त्वज्ञान के ज्ञाता हैं, ईनका र्मन प्रिण्ड धपर र्में वहर्मकण के सर्मान गलकर जब परर्म् शांत हो
जाता ह।, तब तरर ीयावथथा को प्राप्त होकर ब्रह्म र्में वथथत हो जाता ह।
तत्त्वज्ञानी परू
र ष थरी तथा धन के नष्ट हो जाने पर ी क ी शोक नहीं करते हैं ऄववद्या के
ऄश ं तर परर अवद के प्राप्त हो जाने पर सख र और नष्ट हो जाने पर दःर ख की ऄनर वर त करते रहना ‍या
ईवित ह।? ऄथालभत् सवलभथा ऄनवर ित ह। थरी और धन की प्रावप्त एवं वृवि होने पर खश र ी से झर्मर ने का कोइ
र्मतलब नहीं होता ह। धन और थरी अवद के बढ़ने पर तो आन्हें परर्माथलभ र्में बाधक सर्मझकर दःर ख का
ऄनर व करना िावहए सन्तोष करना तो वबककरल ईवित नहीं ह। ससं ार र्में र्मोह-र्माया की वृवि होने पर
ला कौन परू र ष सख र ी रह सकता ह। वजन ोगों के बढ़ जाने पर र्मढ़र परू र ष को राग होता ह।, ईन्हीं ोगों
की वृवि से वववेकशील परू र ष के र्मन र्में व।रा‍य होता ह। ससं ार के व्यवहार र्में जो-जो वथतर नश्वर प्रतीत हो
ईसकी ईपेक्षा कर देनी िावहए तथा जो न्याय सगं त प्राप्त हो जाए ईसे यथा यो‍य व्यवहार र्में लाना
िावहए ऄप्राप्त ोगों की क ी आच्छा न करना, प्राप्त हुए ोगों को यथा यो‍य व्यवहार र्में लाना, यही
ज्ञानी परूर षों के लक्ष्ण हैं तत्त्वज्ञानी परू
र ष का सब करछ नष्ट हो जाए तो ी वे दःर खी नहीं होते हैं यवद ईन्हें
थवगलभ का लो ी वदया जाए तो ी वे अस‍त नहीं होते हैं ऐसे परू र ष आच्छा रवहत तथा ऄनासक्त ाव
से व्यवहार करने वाले होते हैं वे शरीर रूपी रथ का अश्रय लेकर परर्मात्र्मा-थवरूप होकर तथा असव‍त
रवहत होकर वविरते हैं
तत्त्वज्ञानी जीवन्र्मक्त
र परू र ष प्रलय काल र्में सब करछ नष्ट कर देने वाली वायर के िलने तथा
प्रलयाव‍न के धधकने पर ी वनत्य परर्मात्र्मा र्में वथथत रहता ह। संसार के स ी प्राणी वथथत रहें ऄथवा िले

तत्त्वज्ञान 212
जाएाँ, ईनका ववनाश हो जाए ऄथवा ईनकी वृवि हो जाए, र्मगर तत्त्वज्ञानी क ी वविवलत नहीं होता ह।
आस शरीर के नष्ट हो जाने पर परर्मात्र्मा न तो नष्ट होता ह। और न ही आस शरीर के बढ़ने से वह बढ़ता ह।
और न ही आस शरीर के िेष्टा करने पर वह िेष्टाशील होता ह। वजस परू र ष को तत्त्वज्ञान प्राप्त हो िकर ा ह।,
ईसके ह्रदय र्में ‚र्मैं आस कायलभ को सर्माप्त करके रहगाँ ा और आसका त्याग करके ही छोड़ूगा‛, ऐसे संककपों
का सवलभथा ऄ ाव हो जाता ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष आस जगत् र्में सारे कर्मों को करते हुए ी नहीं करते हैं और
क ी ी ऄनष्र ठान करने पर वे सदा ऄकतालभ रूप से ही वथथत रहते हैं आस प्रकार कतृलभत्व व ो‍तृत्व का
ईपशर्म हो जाने पर एक र्मार शांवत ही शेष रह जाती ह। यह शांवत जब दृढ़ हो जाती ह।, तब आसे र्मोक्ष कहा
जाता ह। वजसका वित्त परर्मात्र्मा र्में ही संल‍न ह।, ऐसे तत्त्वज्ञानी संसार के ऄच्छे ववषय ोगों के प्राप्त होने
पर न तो प्रसन्न होते हैं और न ही र्मन के ववपरीत दःर खों के अ जाने पर ईवद्र‍न होते हैं ऄथालभत् सख र -दःर ख
र्में ईनकी सर्मान वथथवत रहती ह। ऄहक ं ार और वासना रूपी ऄनथों के ईत्पन्न होने से परू र ष के जीवन र्में
नाना प्रकार के सख र -दःर ख अते-जाते रहते हैं परन्तर ईस ऄहक ं ार के पणर लभतया शांत हो जाने पर वित्त र्में
सर्मता प्राप्त हो जाती ह। र्मर्मता और ऄहतं ा से रवहत होने के कारण ईसके कर्मलभ करने ऄथवा न करने से
सद।व एक-सा रहता ह। ईसका कर्मलभ करने से कोइ प्रयोजन नहीं ह। और कर्मलभ न करने से कोइ र्मतलब नहीं ह।
आसी कारण तत्त्वज्ञानी जीवन्र्मक्त र परू
र ष के र्मन र्में कार्मनाओ ं की ईत्पवत्त ही रुक जाती ह।
ब्रह्मतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी परू
र ष तीक्ष्ण और ऄिल परा-प्रज्ञा को ही सर्मावध कहते हैं, जो
सद।व एका्र , सवलभदा तृप्त और सत्य-ऄथलभ को ्र हण करने वाली ह। प्रज्ञा क्षो रवहत, ऄहक ं ार से शन्र य,
सख र -दःर ख अवद द्रन्दों से ऄलग रहने वाली वथथरता यक्त र होती ह। जब र्मन तत्त्वज्ञान के साथ सदा के वलए
ऄत्यन्त सम्बि हो जाता ह।, तब तत्त्वज्ञानी परू र ष की सर्मावध सदा बनी रहती ह। ईसका क ी ववच्छे द नहीं
होता ह। तत्त्वज्ञानी की प्रज्ञा जीवन पयलभन्त ब्रह्मतत्त्व के यथाथलभ ऄवलोकन से ववश्रार्म नहीं लेती ह।, बवकक
सदा-सवलभदा ब्रह्म के यथाथलभ ज्ञान से पररपणर लभ रहती ह। तत्त्वज्ञानी की ववज्ञानर्मयी दृवष्ट क्षणर्मार के वलए ी
ब्रह्म के थवरूप ज्ञान से ऄलग नहीं होती ह।, बवकक सद।व एक रस ही बनी रहती ह। ज।से काल ऄपने क्षण
अवद कलाओ ं की गवत नहीं ल र ता ह।, ईसी तरह तत्त्वज्ञानी परू र ष की बवर ि क ी ऄपने ब्रह्मथवरूप को
नहीं ल र ती ह। ईसकी बवर ि ब्रह्म का वनरन्तर वितं न करती रहती ह। ऄथालभत् वह सदा ब्रह्म के ्यान र्में बना
रहता ह। ज।से आस संसार र्में गणर वानों का गणर हीन होना ऄसम् व ह।, ईसी प्रकार तत्त्वज्ञानी परू र षक ी ी
ब्रह्मज्ञान से ववहीन नहीं रह सकता ह। वह सदा-सवलभदा ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न रहता ह। ब्रह्म से ईत्पन्न हुअ
यह जगत् ऄवववेक से वथथरता को प्राप्त होता ह। ब्रह्म के यथाथलभज्ञान से वनश्िय ही प्रशांत थवरूप हो जाता
ह।, ‍योंवक ब्रह्म का यथाथलभ ज्ञान न होना ही संसार की वथथवत र्में कारण ह। और यथाथलभ ज्ञान ही आस संसार के

तत्त्वज्ञान 213
ववनाश र्में कारण ह। ब्रह्मतत्त्व के यथाथलभ ज्ञान से ऄज्ञान का क्षय और वासना का ववनाश हो जाने पर शोक
से रवहत परर्म् पद की प्रावप्त हो जाती ह।
तत्त्वज्ञानी के वलए कतलभव्य और ऄकतलभव्य करछ ी नहीं रहता ह।, आसवलए ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त के
वलए प्रत्येक र्मनष्र य को शीघ्र ही ऄभ्यास र्में लग जाना िावहए ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त के प्रयत्न के वबना
िपर िाप ब।ठे रहने से ‍या ला ? थथल र शरीर र्में अत्र्मबवर ि का वनश्िय नहीं करना िावहए यह शरीर तो
के वल यंर की ााँवत प्राण से ही िेष्टा करता रहता ह। प्राण वायर से रवहत शरीर वनश्िेष्ट ऄथवा रा हुअ
कहा जाता ह। िेतन जीवात्र्मा अकाश से ी बढकर वनर्मलभल और ऄव्य‍त ह। सत् थवरूप ब्रह्म की सत्ता
ही िेतन जीवात्र्मा के ऄवथतत्व र्में कारण ह। जीवात्र्मा के वबना प्राण और शरीर दोनों नष्ट हो जाते हैं
ब्रह्मज्ञान के द्रारा दोषों से रवहत हो जीवात्र्मा परर्म्-वशव परब्रह्म परर्मात्र्मा हो जाता ह। परर्म-् वशव परब्रह्म
परर्मात्र्मा सबका बल, सर्मथत ज्ञान का एक र्मार ईत्पादक और सबको थिरवतलभ देने वाला ह। सबका अवद
कारण एवं सर्मथत देवताओ ं का थवार्मी ी यही ह। तथा स ी ज्ञात पदाथों की िरर्म सीर्मा ह। शोक एवं य
के ववनाशक आस परर्मात्र्म-तत्त्व का साक्षात्कार करके र्मनष्र य विर संसार र्में नर े हुए बीज के सर्मान जन्र्म
नहीं लेता ह। तत्त्व से जान वलए जाने पर सर्मथत प्रावणयों को ई य कर देता ह। सर्मथत पदाथों के ऄन्दर
रहने वाले, ऄनर व थवरूप एक र्मार ववशि र , प्रकाशर्मय, परर्म् िेतन परर्मात्र्मा को ब्रह्मज्ञानी परू
र ष परर्म-्
वशव रूप परर्मेश्वर कहते हैं यह परर्म-वशव ् परर्मेशवर सम्पणर लभ कारणों के कारण हैं, वकन्तर वाथतव र्में ईनका
कोइ कारण नहीं ह। वह ऄपनी सत्ता से सर्मथत ावों को सत्ता प्रदान करने वाला ह। परन्तर वह थवयं
ावना का ववषय नहीं ह। वह ववशि र और ऄजन्र्मा हैं वही सर्मथत दृश्य ववषयों का प्रकाशक और दृश्य
ससं ार का परर्म् अधार हैं सक्ष्र र्म से ी सक्ष्र र्मतर्म हैं कतालभपन के ऄव र्मान से रवहत होने के कारण यह
परर्मात्र्मा करछ न करते हुए ी रिना करता ह। और संसार का ईिार रूप र्महान कायलभ करता हुअ ी करछ
नहीं करता ह।
ज्ञान और कर्मलभ के ववषय र्में पछर ा जाए वक कौन-सा श्रेयकर ह।, तो यही कहा जाएगा वक ज्ञान ही
श्रेयकर ह।, ‍योंवक ज्ञान से क। वकय परर्मात्र्मा का साक्षात् ऄनर व हो जाता ह। वजन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुअ
ह।, ईनके वलए कर्मलभ ही सबसे बढकर ह। ऄज्ञानी के स ी कर्मलभ सिल हैं ऄथालभत् जन्र्म, अय,र र्मृत्यर रूप िल
प्रदान करते हैं, ‍योंवक कर्मों र्में वथथत वासनाओ ं के कारण िल की प्रावप्त होती ह। परन्तर जो ज्ञान सम्पन्न
हैं ईनके स ी कर्मलभ वनष्िल हैं, ‍योंवक ऐसे कर्मलभ जन्र्म-अय-र र्मृत्यर रुपी िल प्रदान नहीं करते हैं आसका
कारण ह।– ईनकी वासनाएाँ नष्ट हो िक र ी हैं वासना के क्षय हो जाने पर कर्मलभ िल नष्ट हो जाते हैं वाथतव
र्में वासना कायलभ वथतर नहीं ह। ज।से र्मरूथथल र्में भ्रर्मवश जल की प्रतीवत होती ह।, ईसी प्रकार ऄज्ञानी र्में

तत्त्वज्ञान 214
ऄहक ं ार अवद का रूप धारण कर ऄसत्य रूप से वासना प्रकट होती ह। सब करछ ब्रह्म ही ह।, ऐसी ावना
करने से वजसका ऄज्ञान नाश हो गया हो ईनके र्मन र्में वासना ईत्पन्न ही नहीं ह।, वजस प्रकार बवर िर्मान
परूर ष को र्मरूथथल र्में भ्रर्म नहीं होता ह। ऄपने ऄन्दर से वासना र्मार का पणर लभतया पररत्याग कर देने से
जीवात्र्मा जन्र्म-अय-र र्मृत्यर एवं पनर जलभन्र्म से रवहत होकर र्मोक्ष को प्राप्त हो जाता ह।
जब तक थथल र शरीर ह। तब तक ईसकी ऄच्छी बरर ी दशा होती रहती ह। परन्तर योग के ऄभ्यास के
द्रारा जब वित्त सर्मता ऄवथथा को प्राप्त होता ह।, तब वही थथल र शरीर की ऄच्छी बरर ी दशाओ ं द्रारा प्राप्त
दःर ख से रवहत हो जाता ह। तत्त्वज्ञानी जीवन्र्मक्त र परुर ष तो जब तक प्राप्त हुए ऄवन्तर्म थथल र शरीर का पतन
(र्मृत्यदर नहीं हो जाता ह।, तब तक वित अवद की सर्मता तथा हाथ-प।र अवद के संिालन से इश्वरीय
वनयर्म के ऄनसर ार ऄपना सर्मय वबताते रहते हैं
िेतन ब्रह्म के वाथतववक थवरूप का तत्त्वतः बोध प्राप्त हो जाने पर जब ऄहक ं ार अवद के साथ
ही सम्पणर लभ शांत हो जाता ह।, तब तेल के सर्माप्त हो जाने पर बझर े हुए दीपक की ााँवत सम्पणर लभ दृश्य जगत्
का त्याग हो जाता ह।, ऄन्यथा नहीं होता ह। कर्मों का त्याग, त्याग नहीं कहा जाता ह। जब जगत् का ान
वकसी प्रकार का नहीं रह जाता ह।, तब र्मार िेतन अत्र्मा ही ऄहक ं ार अवद ववकारों से रवहत ऄववनाशी
ह। आस प्रकार ऄहक ं ार, र्मर्मता अवद का सवलभथा ऄ ाव हो जाने पर जो शेष रह जाता ह।, वही शातं एवं
बोधथवरूप परर्मात्र्मा ह। ऄहक ं ार की ावना करने वाला जीवात्र्मा एक र्मार ऄहक ं ार का त्याग कर देने
र्मार से वबना वकसी ऄवरोध के शातं थवरूप हो जाता ह। जो ऄपने ऄन्दर की र्मनोवृवत जीत रहा ह। ऄथवा
वजसने जीत वलया ह। वही वववेक का सपर ार ह।, ‍योंवक ईसने परू र षाथलभ करके जीवन को सिल वकया ह।
ससं ार र्में वजतने ी पदाथलभ हैं, ईन सब का ऄक ं र र ऄहक ं ार ही ह। आसवलए ज्ञान के द्रारा ऄहं ाव के नष्ट हो
जाने पर संसार रुपी वृक्ष की जड़े ऄपने अप ईखड़ जाती हैं ऄहक ं ार के कारण परर्मात्र्मा रूपी दपलभण र्मल
से अवृत्त-सा हो जाता ह।, परन्तर ऄहं ाव के शातं हो जाने पर शि र थवच्छ रुप से प्रकावशत होने लगता ह।
ऄहक ं ार से शन्र य ऄहं ता परर्मात्र्मा र्में ववलीन होकर ब्रह्मरूप ही हो जाती ह।
जीवन्र्मक्त
र तत्त्वज्ञानी के द्रारा ब्रह्म र्में वनष्ठा हो जाने के कारण पवर लभकाल र्में वकए हुए कर्मों के
िलथवरूप सख र -दःर ख अवद प्रारब्ध का, सासं ाररक जड़ पदाथों तथा वित्त का ी ऄनर व नहीं करता ह।
ब्रह्म के थवरूप को यथाथलभ रूप से जान लेने पर वजस तत्त्वज्ञानी के सर्मथत व्यवहार तत्त्वज्ञानी के ऄनरू र प ही
होते हैं और वजनके वित्त र्में सम्पणर लभ वासनाओ ं का ऄ ाव हो िक र ा ह।, वह तत्त्वज्ञानी कहलाता ह। वह ब्रह्म
ला से सन्तष्र ट होकर थवा ाववक रूप से परर्म् शांत रहता ह। तथा ईसके व्यवहार ऄथवा िेष्टा से
बवर िर्मान परू र ष अंतररक शांवत का ऄनर व प्राप्त करते हैं यह जीव जब ऄपने से व न्न जड़ ऄहक ं ार

तत्त्वज्ञान 215
और थथल र शरीर अवद का ऄनर व करता ह।, तब तत्काल ही ईसके साथ ऄपना तादात्म्य र्मानकर ईसको
ऄपना थवरूप सर्मझ लेता ह। यही आसका बन्धन र्में पड़ना ह। यह जीव जो ऄज्ञान वनिा र्में पड़कर ऄिेत
हो रहा ह।, जब जाग ईठता ह।, तब परर्मात्र्मरस के अवेश से ब्रह्मथवरूप को ही प्राप्त हो जाता ह। जब
परूर ष तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेता ह।, तब आस दृश्य जगत् के ववद्यर्मान होने पर आसका ान नहीं होता ह।,
‍योंवक ईसे सवलभर िेतन ब्रह्म की ही ऄनर वर त होती रहती ह। दृश्य जगत् का ान न होने के कारण ईनकी
िेष्टा वाथतव र्में िेष्टा नहीं होती ह। तत्त्वज्ञानी क ी ी दृश्य जगत् के ऄव र्मान से बंधते नहीं हैं आसवलए
वे बन्धन र्म‍र त होकर सांसाररक कर्मलभ बन्धन से रवहत रहते हैं वह ऄपने जीवन वनवालभह के वलए सब कायलभ
करता हुअ ी ब्रह्म से विंतन र्में रत होने के कारण दृश्य प्रपंि र्में वलप्त नहीं होता ह। तत्त्वज्ञानी परुर ष
स्र ाटों का ी स्र ाट ह। प्रारब्ध वश जब कोइ ईसे वथर देकर शरीर ढक देता ह।, जो ी ईसे ोजन करा
देता ह। वह ोजन कर लेता ह।, ईसकी जहााँ आच्छा अइ सो जाता ह। ऄन्दर से शन्र य होता हुअ ी वह
पररपणर लभ अत्र्मा होता ह। ईसका ऄंतःकरण ब्रह्म से रा होता ह। तत्त्वज्ञानी तथा ऄज्ञानी र्में दोनों के सम्पणर लभ
ईत्पवत्त और ववनाश कर्मों र्में वासना शन्र यता के वसवाय दसर रा कोइ ऄंतर नहीं होता ह। ऄथालभत् तत्त्वज्ञानी
वासना रवहत होकर कर्मलभ करता ह। और ऄज्ञानी वासना यक्त र होकर कर्मलभ करता ह। यह सम्पणर लभ संसार प्रलय
के सर्मय नष्ट हो जाता ह। और विर सृवष्ट के सर्मय ईत्पन्न हो जाता ह।, आसवलए यह ऄसत् ह। र्मगर जो न
क ी नष्ट होता ह। और न ही क ी ईत्पन्न होता ह।, वही सत्य थवरूप िेतन ब्रह्म ह।
जो परू र ष ऄपनी आवन्ियों को ऄन्तर्मलभख र ी करके ऄभ्यास करता हुअ सदा ब्रहा के अनन्द र्में र्म‍न
हो शांत और ईदार ाव से कायलभ करता ह।, वह कतालभपन दोष से रवहत होता ह। जो सर्मथत सक ं कप ववककप
से रवहत हो ऄपनी ह्रदय गफ़ र ा र्में ऄथालभत् ह्रदयकाश र्में ववराजर्मान हो वथथत रहता ह।, वह ऄपने अत्र्मा र्में
रर्मण करने वाला परर्मेश्वर ही ह।, ‍योंवक ईसर्में बाह्य तथा अतं ररक ववषयों का सवलभथा ऄ ाव रहता ह।
वह सर्मथत ककपनाओ ं से परे होता ह। ईसे ज्ञात होता ह। वक वह वनर्मलभल ऄनन्त िेतन ह। तथा सब करछ
ऄनन्त िेतन र्मार ही ह। ववशि र ज्ञानथवरूप परर्मात्र्मा र्में ववशि र ज्ञान थवरूप परर्मात्र्मा ही ह। ईसर्में ेद
ज्ञान की दृवष्ट नहीं होती ह।, ऄतः वह वकसी वथतर को ऄपने से व न्न नहीं र्मानता ह। जीववत रहकर
व्यवहार परायण होता हुअ ी परर्म् शातं रहता ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष की यह जो वथथवत ह।, वह ऄन्दर और
बाहर के साधनों से रवहत सर्म ह। ऄनावृत थवप्रकाश वनरवतशय अनन्द रूप से वथथत हुए तत्त्वज्ञानी परू र ष
संसार के अन से रवहत तथा दःर खों से शन्र य रहते हैं परर्मात्र्म ज्ञान के साथ सासं ाररक पदाथों के ज्ञान से
यक्तर हो र्मनष्र य तत्त्वज्ञानी बन जाता ह। जो र्मनष्र य परर्मात्र्म ज्ञान से रवहत होता ह। ईसे पशर के सर्मान होने की

तत्त्वज्ञान 216
सज्ञं ा दी जाती ह। परन्तर जो र्मनष्र य परर्मात्र्मा के ज्ञान से रवहत तथा सांसाररक पदाथों के ज्ञान से शन्र य से
होता ह।, वह पश-र पक्षी एवं वृक्ष अवद बन जाता ह।
तत्त्वज्ञान का यथाथलभ ज्ञान हो जाने पर आच्छा ब्रह्मथवरूप ही हो जाती ह।, ईससे व न्न नहीं रहती ह।
ज।से सयर लभ के ईदय होने पर रावर ववलीन हो जाती ह।, व।से ही अत्र्मज्ञान हो जाने पर आच्छा अवद स ी
ववकार शांत हो जाते हैं ज।से-ज।से ज्ञान का ईदय होता ह।, व।से-व।से द्र।त की शांवत तथा वासना का ववनाश
होता जाता ह। ऐसी ऄवथथा र्में आच्छा क। से ईत्पन्न हो सकती ह।? सम्पणर लभ दृश्य पदाथों से व।रा‍य हो जाने के
कारण वजस परू र ष की वकसी ववषय र्में आच्छा ईत्पन्न ही नहीं होती ह।, ईस परूर ष की ऄववद्या शांत हो जाती
ह।, तब दृश्य पदाथलभ ववषयक व।रा‍य और ऄनरर ाग दोनों ही नष्ट हो जाते हैं आस ऄवथथा र्में तत्त्वज्ञानी की
आच्छा और ऄवनच्छा दोनों ही ब्रह्मथवरूप हो जाते हैं तत्त्वज्ञानी र्में आच्छा ईत्पन्न नहीं होती ह।, आसर्में जरा
ी संशय नहीं ह। वजस प्रकार प्रकाश और ऄंधकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं, ईसी प्रकार आच्छा
और तत्त्वज्ञान दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं वजसकी सारी आच्छाएाँ शांत हो गइ हैं, ईसे वकस प्रयोजन
से ‍या ईपदेश वदया जा सकता ह।? सर्मथत आच्छाओ ं का ऄत्यन्त क्षीण हो जाना ही अत्र्मानन्द का
ऄनर व ह।, यही तत्त्वज्ञान प्रावप्त का लक्ष्ण ह। तत्त्वज्ञानी को जब वकसी ी ोग पदाथलभ र्में थवाद का
ऄनर व नहीं होता ह।, तब ईसे सारा दृश्य जगत् िीका लगने लगता ह। ईस सर्मय ईसकी आच्छा का प्रसार
रुक जाता ह। एकता और ऄनेकता ऄथालभत् द्र।त और ऄद्र।त के प्रपिं से र्म‍र त होकर शातं हो जाता ह। ईसे
आच्छा-ऄवनच्छा, ऄपने-पराये, जीवन-र्मरण अवद से कोइ र्मतलब नहीं रहता ह।
वजस तत्त्वज्ञानी को र्मोक्ष का तत्त्वज्ञान हो जाता ह।, ईसके ऄन्दर यवद आच्छा ईत्पन्न ी हो जाए,
तो ी वह शाश्वत ब्रह्म थवरूप ही होती ह। यह सम्पणर लभ जगत् न दःर ख थवरूप ह। और न ही सख र थवरूप ह।,
बवकक वशव थवरूप और शातं ह। ऐसी ावना से वजसका ऄन्त:करण पत्थर के सर्मान दृढ़ हो जाता ह।,
ईसे तत्त्वज्ञानी कहा जाता ह। जगत् की सत्ता का ऄ ाव सर्मझ र्में अ जाने पर और दृश्य के ऄनर व रवहत
हो जाने पर विन्र्मय अकाश ही सवलभर व्याप्त वदखाइ देता ह। ब्रह्म का थवरूप सबसे सक्ष्र र्म ह। आसवलए जो-
जो वथतर वजस-वजस रूप से ऄत्यन्त ऄणर थवरूप ह।, वह ईसी-ईसी रूप र्में सक्ष्र र्म- तर ब्रह्म वथतर ह। ऐसी
दशा र्में ब्रह्म-वथतर ही सवलभर वतलभर्मान ह। आस जगत् को वजसने वजस तरीके से ऄभ्यास के द्रारा देखा ईसे
वथततर ः यह ब्रह्म रूप ही वदखाइ वदया ज।से सोने के अ षर ण सैंकड़ो रूपों र्में पररववतलभत हो जाने पर ी
तत्त्व रूप से सोना ही रहता ह।, व।से ही शांत ब्रह्म के ऄनेक रूप जगत्-जीव और जीव ाव र्में पररवणत होने
पर वह ईनर्में ऄपने शांत ब्रह्म थवरूप से ही वथथत रहता ह।

तत्त्वज्ञान 217
तत्त्वज्ञानी परू
र ष ने संसार को क्षीण कर देने वाले थवा ाववक सत्य ऄथलभ का साक्षात् कर वलया ह।
आसी कारण वह संककप रवहत हो जाता ह।, ‍योंवक वह संककप को अत्र्मा से पृथक र्मानता ही नहीं हैं
आसवलए संककप अ ास ऄसत् ह। ईसके सारे अवरण क्षीण हो जाते हैं तथा ईसका वित्त ज्ञान लोक से
प्रकावशत हो जाता ह। तत्त्वज्ञान से देखने पर आस संसार का प्रत्यक्ष दशलभन नहीं होता ह। संसार सदा के वलए
सत्ताहीन हो जाता ह।, आसवलए जगत् का रूप थवरूप रवहत ह। ब्रह्म थवयं ऄपने अप र्में वथथत ह। तत्त्वज्ञान
की प्रावप्त हो जाने से जा्र त के सर्मय जो राग और वासना से रवहत सषर प्र त ऄवथथा प्राप्त होती ह।, ईसे
तत्त्वज्ञानी परू र ष थव ाव कहते हैं और ईसर्में वनवित हो जाना र्मवर ‍त कहा जाता ह। ऐसी वनष्ठा प्राप्त हो
जाने पर तत्त्वज्ञानी को कतालभ, कर्मलभ और कारण से शन्र य, बाह्य और अंतररक ववषयों से रवहत ब्रह्म ही जगत्
रूप से वथथत ऄनर तर होता ह। ऄथालभत् जगत् ब्रह्म थवरूप ही प्रतीत होता ह। ईस तत्त्वज्ञानी को ऐसा वदखाइ
देता ह। ज।से प्रकाशर्मान वथतर र्में प्रकाशर्मान वथतर प्रकावशत हो रही ह। ऄथालभत् पणर लभ र्में पणर लभ वथथत ह। द्र।त और
ऄद्र।त से रवहत ब्रह्म ही ऄखण्ड रूप र्में वथथत ह। वित्त की वृवत्तयााँ वनरुि हो जाने पर सारे संककप शांत हो
जाते हैं ज।से जा्र त परू र ष के वलए थवप्न नष्ट हो जाता ह।, व।से ही तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में यह सारा जगत्
नष्ट हुए के सर्मान ही वदखाइ देता ह। जब कोइ ईपदेशक या प्रविन कतालभ ऄववद्या थवरूप वकसी
काकपवनक ईपदेश या प्रविन र्में कहता ह।– ‚र्मैं कृ ताथलभ हो गया‛ ऄथवा ऄपने को कृ ताथलभ र्मानने लगता ह।,
वह ऄज्ञानी होने के कारण वाथतव र्में ऄकृ ताथलभ ही ह। वह र्मख र लभता से र्मोवहत होकर ही ऐसा सर्मझने लगता
ह। र्मगर जब ईसे ववव न्न प्रकार के कष्ट अ जाते हैं, तब ईसे ऄपनी ऄकृ ताथलभता का ज्ञान होता ह। ऄतः
कृ ताथलभ होने का यही ईपाय ह। वक जगत् भ्रर्म का पणर लभतया ज्ञान हो जाने पर जो वासना रवहत वथथवत प्राप्त
होती ह।, ईसे कृ ताथलभ होना कहा जाता ह। ईसके प्राप्त हो जाने पर सम्पणर लभ जगत् थवयं नीरस हो जाते हैं
यवद आस जगत् को तत्त्वज्ञान की दृवष्ट से देखा जाए तो थपष्ट हो जाता ह। वक सृवष्ट का वाथतव र्में
कोइ कारण नहीं ह। आसवलए यह न ईत्पन्न होती ह। और न ही नष्ट होती ह। ज।सा कारण होता ह। व।सा ही
कायलभ ईत्पन्न होता ह। जब सृवष्ट का कारण ही कवकपत और वर्मथ्या ह।, तब ईससे होने वाली सृवष्ट ी
कवकपत और वर्मथ्या ही वसि होती ह। ज।से सर्मिर र्में ईत्पन्न होने वाली लहरें अवद ईसी का ही रूप ह।,
ईसी प्रकार ववकार रवहत परर्मात्र्मा र्में जगत् और वित्त अवद वथथत हैं जगत् और वित्त परर्मात्र्मा से व न्न
नहीं हैं परर्मात्र्मा ऄपने ईदर र्में ऄनेक ब्रह्माण्ड धारण करने वाला एक ही ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष थवप्न काल
र्में थवप्न को जा्र त रूप र्मानते हैं, ‍योंवक ईसने वासनाओ ं से यक्त र र्मन को ्र हण नहीं वकया ह। ईसी को
योगवनिा ी कहते हैं तथा वह जा्र त काल र्में जा्र त को ी थवप्न सर्मझते हैं, ‍योंवक ईन्हें अत्र्मबोध हो
िक र ा ह। तत्त्वज्ञानी होते ही आवन्ियों के बार-बार सम्पकलभ र्में अने पर ी यह दृश्य जगत् वर्मथ्या वसि हो

तत्त्वज्ञान 218
जाता ह। ज।से ऄव‍न र्में घी और इधन ं सब ववलीन होकर एक रूप हो जाते हैं, व।से ही ज्ञान काल र्में जगत्,
र्मन और िष्टा अवद सब एक र्मार ब्रह्म ाव को प्राप्त हो जाते हैं तत्त्वज्ञानी परू र ष ऄत्यन्त तच्र छता को
प्राप्त हुअ धन ववद्यर्मान होने पर ी ईसर्में रूवि नहीं लेता ह।, बवकक थवप्न की ााँवत ईसे वर्मथ्या सर्मझ
लेने के कारण वह ईसर्में रस नहीं लेता ह। ज।से र्मृगतृष्णा का वर्मथ्या जल वकसी की प्यास नहीं बझर ा सकता
ह।, व।से ही ऄसत् पदाथलभ वकसी ी तत्त्वज्ञानी परू र ष को क। से रूविकर प्रतीत हो सकता ह।? ऐसा कौन-सा
परूर ष होगा जो थवप्न को थवप्न सर्मझ लेने पर ईसर्में देखी हुइ वथतर को प्राप्त करने के वलए िल देगा जब
आस जगत् को थवप्न के सर्मान वर्मथ्या सर्मझ वलया जाए, तब ईसके प्रवत होने वाली असव‍त दरर हो जाती
ह। तथा िष्टा और दृश्य के सम्बन्ध र्में जो िेतन तथा जड़ ्र वन्थ रूप दोष प्राप्त हुअ ह।, ईसका ववच्छे द हो
जाता ह। यह वदखाइ देने वाला भ्रावन्त-पणर लभ सम्पणर लभ जगत् ऄज्ञान के द्रारा वदखाइ देता ह। परन्तर तत्त्वज्ञान
प्राप्त हो जाने पर सब ओर ि। ले हुए सयर लभ के प्रकाश के सर्मान प्रकावशत हो जाता ह। ज।से बादलों के हट
जाने पर थवच्छ अकाश वदखाइ देता ह।, ईसी प्रकार जगत् की भ्रावन्त दरर हो जाने पर शि र परर्मात्र्मा का
ऄनर व हो जाता ह।
र्मनष्र य को ईिार करने के वलए ऄभ्यास के द्रारा वासना को क्षीण करने के वसवाय दसर रा और कोइ
ईपाय क ी सिल नहीं होता ह। आन ौवतक पदाथों र्में ऄनक र र ल बवर ि होने पर वासना होती ह। र्मगर आन
ौवतक पदाथों की सत्ता खरगोश के सींग के सर्मान होती ही नहीं ह।, विर ी आनर्में बनी रहने का ‍या
कारण ह।? वासना से रवहत हो जाने पर स ी जीव सर्मान हो जाते हैं परन्तर वासना की ववषर्मता के कारण
वे सख र े हुए पत्ते के सर्मान ईड़-ईड़कर कर्मलभ ोगने के वलए थवगलभ-नरक अवद ववव न्न लोकों र्में वगरते हैं
जगत् के स ी पदाथलभ त ी तक ऄच्छे प्रतीत होते हैं, जब तक ईनके थवरूप पर सम्यक वविार नहीं वकया
जाता ह। वविार करने पर आन पदाथों की सत्ता ही वसि नहीं होती ह। ऄतः वह ऄदृश्य होकर न जाने कहााँ
ववलीन हो जाते हैं यह ज्ञान ऄभ्यास के द्रारा पररप‍व हुए वबना र्मन के ऄन्दर व।से ही प्रवेश नहीं करता
ह।, ज।से कर्मण्डल अवद के अकार र्में पररवणत हुए वबना काठ (लकड़ीद र्में जल नहीं वटक सकता ह। एक
र्मार योग के ऄभ्यास द्रारा बोध र्में ववश्रार्म प्राप्त होने पर द्र।त और ऄद्र।त की दृवष्ट शातं हो जाती ह।
वजन्होंने र्मोह, ऄव र्मान और असव‍त पर ववजय प्राप्त कर ली ह। तथा वनत्य ज्ञान र्में लीन रहते हैं, वजनकी
कार्मनाएं पणर लभ रूप से वनवृत हो गइ हैं तथा सख र -दःर ख अवद द्रन्दों से र्म‍र त हैं, ऐसे ज्ञानी परू
र ष ऄववनाशी
पद को प्राप्त होते हैं
ब्रह्म की सत्ता थवरूप प्रकृ वत थवयं ही ऄपने से ऄपना सृजन करती ह। तथा ईसी के प्र ाव से
ऄववद्या एवं ऄनावद रूप से ऄनर वर त होती ह। ज्ञान दृवष्ट से स ी करछ क्षण र र्में ही आसकी जानकारी हो

तत्त्वज्ञान 219
जाती ह। ऄन्य दृवष्ट से ऄथवा ऄन्य वकसी प्रकार से आस ववषय र्में नहीं जाना जा सकता ह। आसवलए
तत्त्वज्ञानी परूर ष ज्ञान दृवष्ट वसि वथतर को ही सार तर र्मानते ह। पणर लभता के प्राप्त होने ऄथालभत् पणर लभ दृवष्ट होने
पर ज्ञानता और ऄज्ञानता एवं सत् और ऄसत् की वथथवत र्में करछ ी ऄंतर या ेद नहीं ह।, ‍योंवक सत्य
ब्रह्म र्में सत् और ऄसत् दोनों एक सर्मान ही हैं वजसका वित्त ऄन्तर्मलभख र ी होकर वनजथवरूप र्में ऄथवा
इश्वर र्में लगा हुअ ह।, ईसे सख र के साधन सख र तथा दःर ख के साधन दःर ख नहीं दे सकते हैं ब्रह्म र्में वनष्ठा
रखने वाले तत्त्वज्ञानी परू र ष की बवर ि क ी वविवलत नहीं होती ह। वह एक र्मार िेतन अकाश थवरूप
परर्मात्र्मा के विंतन र्में दृढ़ता पवर लभक र्म‍न होने के कारण लौवकक सख र का ऄनर व नहीं करता ह। सांसाररक
व्यवहार र्में लगे होने पर र्मन वकसी ी पदाथलभ के प्रवत अस‍त नहीं होता ह। प्रारब्ध ऄनसर ार जो करछ वर्मल
जाए ईसी से वनवालभह करता ह। जन्र्म-र्मृत्यर अवद सांसाररक दःर खों से उपर ईठकर ऐसा तत्त्वज्ञानी परू र ष
अत्र्मा र्में ऄववथथत हो जाता ह।
ऄज्ञानी की दृवष्ट र्में जो थिरररत होने वाला संसार ह।, वह तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में नष्ट हुए के सर्मान
हो जाता ह। तत्त्वज्ञानी िाहे ऄज्ञावनयों की ााँवत ौवतक संसार र्में व्यवहार करने र्में लगा हो, तो ी पहले
की ेद बवर ि नष्ट हो जाती ह। वाथतव र्में यहााँ पर ऄज्ञान, भ्रर्म, दःर ख-सख र , ववद्या-ऄववद्या अवद सब करछ
ब्रह्म ही तो ह। वजसको ज्ञान प्राप्त हो गया हो वह परुर ष िेतन थवरुप र्में वथथत रहता ह। िाहे वह सर्मावध
लगाए हुए ब।ठा हो और िाहे ससं ार र्में व्यवहार कर रहा हो, वह सदा ऄपने थवरूप र्में ही वथथत रहता ह।
ऄथालभत् वह िाहे सर्मावध र्में वथथत रहे ऄथवा व्यवहार र्में रहे, वह सद।व एक-सा रहता ह। ज्ञानी परुर ष सब
करछ देखता हुअ ी वनवष्क्रय रहता ह। ऐसे तत्त्वज्ञानी को सर्मावध काल र्में ब्रह्म नार्मक िेतन-थवरूप
परर्माथलभ सत्य का तथा व्यवहार करते सर्मय ववश्वरूप नार्मक िेतन थवरूप का सवलभर दशलभन होता ह। ईसे
सृवष्ट और प्रलय ी विन्र्मार ही प्रतीत होते हैं सम्यक ज्ञान होने पर शरीर से सम्बन्ध रखने वाले ोग
पदाथों तथा ईनकी प्रावप्त के ईपायों से सवलभथा ववरव‍त रहती ह। ज्ञान से व।रा‍य की, व।रा‍य से ज्ञान की
वृवि होती ह। ज्ञान का ज्ञानत्व आतना ही ह। वक ईससे व।रा‍य की वृवि हुइ और व।रा‍य होने से ज्ञान साथलभक
सर्मझा जाता ह। ज्ञान और व।रा‍य रूपी ईत्कृ ष्ट धन ही र्मोक्ष कहलाता ह। र्मोक्ष को प्राप्त हुए तत्त्वज्ञानी
परूर ष को क ी शोक या दःर ख की ऄनर वर त नहीं होती ह। स।कड़ों हजारों प्रयत्नशील परू र षों र्में से कोइ
ववरला ही योग का ऄभ्यासी बलवान और ईत्साही होता ह। जो आस जगत् के वासना जाल को आस तरह
वछन्न-व न्न कर डालता ह।, ज।से कोइ वसंह र्मजबतर लोहे के वपंजरे को तोड़ डालता ह। ऐसे र्महापरू र ष के
ऄन्दर वासना-शन्र य ाव प्रकट होने पर सदृर ढ़ बोध (ज्ञानद की प्रावप्त होती ह।, तब ईसकी बवर ि एक र्मार
पर-ब्रह्म र्में ही वथथर हो जाती ह। आसके पश्िात ऄनन्त शांवत का (र्मोक्षद का ईदय होता ह।

तत्त्वज्ञान 220
यह सम्पणर लभ जगत् र्मन से ही व्याप्त ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर जब र्मन ववलीन हो जाता ह।, तब
सवलभव्यापी ब्रह्म ही शेष रहता ह। ऄथालभत् र्मन से व न्न के वल परर्मात्र्मा ही शेष रहते हैं परर्मात्र्मा सवलभव्यापी
तथा स ी का अधार ह। तथा परर्मात्र्मा की शव‍त से ही र्मन को शव‍त वर्मलती ह। आसी शव‍त से सम्पन्न
होकर र्मन सम्पणर लभ संसार र्में दौड़ लगाता रहता ह।, वही ववव न्न शरीरों का कारण ह। ऐसा सर्मझो की र्मन
ही जन्र्म लेता ह। और र्मन ही र्मरता ह।, ‍योंवक आन गणर ों ऄथवा ावों का ववकार अत्र्मा र्में नहीं ह। र्मन के
ववलीन होने र्मार से जीव को र्मवर ‍त की प्रावप्त होती ह।, विर वह आस संसार र्में जन्र्म ्र हण नहीं करता ह।
वजन ऄभ्यावसयों ने योग के ऄभ्यास द्रारा ऄपना ववकास कर वलया ह।, ईनर्में तीन प्रकार के
अकाश ववद्यर्मान रहते हैं एक– तर ाकाश, दो– वित्ताकाश, तीन– विदाकाश
भतू ाकाश– यह अकाश दसों वदशाओ ं र्में र्मण्डलाकार ववथतार से यक्त र ह। वायर और र्मेघ अवद
का यह अकाश अश्रय होता ह। यह तर ात्र्मक अकाश ही तर ाकाश कहा जाता ह।
दचत्ताकाश– यह आवन्ियों और र्महा तर ों से श्रेष्ठ ह। वजसने ऄपने संककप के द्रारा आस सम्पणर लभ
जगत् का ववथतार वकया ह। वह सर्मथत प्रावणयों का वहतकारी संककपात्र्मक र्मन ही वित्ताकाश कहा जाता
ह।
दचदाकाश– जगत् ईत्पवत्त और ववनाश का ज्ञाता ह। तथा सम्पणर लभ तर -प्रावणयों र्में व्यापक ह। जो
ऄन्दर और बाहर से पररपणर लभ ह।, वह परर्मात्र्मा ही विदाकाश कहलाता ह।
तर ाकाश और वित्ताकाश ये दोनों परर्मात्र्मथवरूप विदाकाश की शव‍त से ईत्पन्न हुए हैं वजसे
ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान नहीं ह।, ईसके वलए तीनों अकाशों की ककपना हुइ ह। वजसे ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान हो गया
ह। ऄथालभत् जो बोध को प्राप्त हो गया ह। ईसके वलए यह ककपना नहीं ह।, ‍योंवक ब्रह्मज्ञानी की दृवष्ट र्में तो
सवलभव्यापी एक र्मार िेतन ब्रह्म ही वनत्य वथथत ह। ऄज्ञानी परू र ष को ही द्र।त-ऄद्र।त के ेदों को सर्मझाने के
वलए तत्त्वज्ञान का ईपदेश वदया जाता ह। जो परुर ष तत्त्वज्ञानी ह।, ईसे तत्त्वज्ञान का ईपदेश नहीं वदया जाता
ह।
जो परूर ष आस ससं ार र्में ोग पदाथों को ोग- ोग कर थक िक र ा ह। तथा वजसे सर्मझ र्में अने लगा
ह। वक यह ससं ार दःर ख थवरूप व बन्धन ही ह।, ऐसे परू र ष के वलए र्मोक्ष प्रावप्त का ज्ञान तथा वासना रवहत
बनने का ज्ञान शांवत प्रदान करने वाला ह। वाथतव र्में जगत् रूपी पदाथलभ ऄवनवलभिनीय हैं आस जगत् को
तत्त्वज्ञानी ज।सा सर्मझता ह। व।सा ऄज्ञानी परू र ष नहीं जानता ह। और ज।सा ऄज्ञानी जानता ह। व।सा तत्त्वज्ञानी
परूर ष नहीं सर्मझता ह। ऄथालभत् ऄज्ञानी के वलए यह जगत् दःर ख थवरूप ही ह। र्मगर तत्त्वज्ञानी के वलए यह
जगत् िेतन ब्रह्म थवरूप ह। तत्त्वज्ञानी के वलए जगत् की भ्रावन्त सर्माप्त हो जाने पर यह जगत् नष्ट हुए के

तत्त्वज्ञान 221
सर्मान हो जाता ह। ज।से खबर जले हुए घास-िरस की राख वायर के वेग से ईड़कर न जाने कहााँ ववलीन हो
जाती ह।, व।से ही योग के ऄभ्यास के द्रारा ऄपने वनज थवरूप र्में वथथवत प्राप्त हो जाने पर जगत् का
ऄवथतत्व न जाने कहााँ ववलीन हो जाता ह।
ज्ञान की सात वर र्मयााँ होती हैं जब ऄभ्यासी परू र ष ज्ञान की िौथी वर र्म पर ऄभ्यास कर रहा होता
ह।, तब ईसे जीवन्र्मक्तर कहते हैं र्मवर ‍त के वलए िौथी वर र्म पर वकया गया ऄभ्यास पयालभप्त नहीं ह। धीरे -
धीरे ईसे ऄपना ऄभ्यास बढ़ाना होगा और जब छटवीं वर र्म पर (तरर ीयावथथाद पररप‍व हो जाती ह।, तब
ईसे पणर लभ रूप से जीवन्र्मक्त
र कहा जाए तो ईवित होगा ऄथालभत् तरर ीयावथथा को प्राप्त हुअ परुर ष जीवन्र्मक्त र
कहलाता ह। ईसे जा्र त ऄवथथा जब थवप्न -सी ावसत होने लगती ह।, तब आस ऄवथथा र्में वित्त का
ऄरूप नाश हो जाता ह। ऄरूप र्में ही वित्त की वर र्मयााँ होती हैं आसी वर र्म पर प्राणी द्रारा वकए गये कर्मों के
कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं ऄभ्यास के द्रारा धीरे -धीरे कर्मालभशयों का नाश होता ह। तथा वित्त की वर र्म टरटने
लगती ह। वर र्म र्में बड़े-बड़े वछि होने लगते हैं तथा ऄनर व र्में ी क ी-क ी ये वछि वदखाइ ी देते हैं
आसका वणलभन वित्त वाले पाठ र्में वकया गया ह। जीवन्र्मरक्त परू र ष सांसाररक व्यवहार करते रहते हैं
ज्ञान की छटवीं वर र्म पर जब ऄभ्यास पररप‍व हो जाता ह।, तब वह सातवीं वर र्म ऄथालभत् ज्ञान के
सवोच्ि थथान पर अरूढ़ हो जाता ह। आस ऄवथथा को तरर ीयातीत कहते हैं यह ऄवथथा ववदेह र्म‍र त
परूर षों की होती ह। ववदेह र्म‍र त परू र षों र्में लेशर्मार ी देहाव र्मान नहीं होता ह। ईनके वलए जा्र त ऄवथथा
सषर प्र त के सर्मान हो जाती ह। तथा वित्त का थवरूप ी नष्ट हो जाता ह। वित्त का थवरूप नष्ट हो जाने के
कारण ईन्हें जगत् का ान वबककरल नहीं रहता ह।, तब वे पणर लभ रूप से ब्रह्म र्में वथथत हो जाते हैं ऄब प्रश्न
वकया जा सकता ह।– यवद वित्त नष्ट हो गया ह। तो ईनका शरीर क। से सधा हुअ ह। तथा वे ोजन क। से
करते हैं? सर्माधान- प्रारब्ध वेग के कारण ईनका शरीर सधा रहता ह।, ज।से तीर कर्मान से छरटने के बाद ी
अगे की ओर गवत करता ह। तीर की जो अगे की ओर गवत होती ह।, ईसर्में कर्मान के द्रारा शव‍त लगी
होती ह। ोजन करते सर्मय वह र्मार करछ सर्मय के वलए व्यत्र थान ऄवथथा र्में अता ह।, र्मगर ईसे ोजन के
थवाद की ऄनर वर त नहीं होती ह।, वसिलभ अ ास होता ह। ऐसे परू र षों को ोजन दसर रे र्मनष्र य ही ईपलब्ध
कराते हैं वह ोजन प्राप्त करने के वलए ससं ार र्में व्यवहार नहीं करता ह। ऐसे र्महापरू र ष थवयं ऄपने अप
र्में वथथत रहते हैं संसार से ईनका करछ लेना देना नहीं होता ह। ऄभ्यासी परू र ष जब सातवीं वर र्म पर प्रवेश
करता ह।, तब ईसे वकसी प्रकार की सर्मावध लगाने की अवश्यकता नहीं होती ह।, ‍योंवक वह सहज
ऄवथथा र्में वथथत रहता ह। ऐसे परू र षों पर र्माया का प्र ाव वबककरल नहीं पड़ता ह।, बवकक र्माया ईनसे दरर

तत्त्वज्ञान 222
खड़ी रहती ह। ऐसे र्महापरू र ष संककप के द्रारा वसवियों को प्रकट कर सकते हैं, ‍योंवक प्राकृ वतक पदाथों
पर आनका पणर लभ ऄवधकार होता हैं
‍त योगी ऄपनी सत्ता को ब्रह्म र्में ववलीन नहीं करना िाहते हैं वे ऄपना ऄवथतत्व खोना नहीं
िाहते हैं, ‍योंवक ईन्हें ज्ञावनयों के सर्मान र्मवर ‍त र्मंजरर नहीं ह। वे विन्र्मय ऄक्षरीय देह प्राप्त करके ऄनन्त
काल तक इश्वरीय अनन्द की ऄनर वर त करना िाहते हैं दसर रे शब्दों र्में कहें- ‍त योगी सद।व इश्वर का
विंतन करता रहता ह।, ‍योंवक इश्वर का विंतन करना ही ईसका थव ाव होता ह। आसवलए ईनका द्र।त ाव
क ी सर्माप्त नहीं होता ह। द्र।त ाव सर्माप्त ना होने के कारण वित्त का नाश नहीं होता ह। ईनके वित्त पर
सावत्वक वृवत्तयााँ ववद्यर्मान रहती हैं वे थथल र शरीर त्यागने के बाद इश्वर के लोक र्में वथथत हो जाते हैं
ईन्हें ईनकी ावनानसर ार िार प्रकार की र्मवर ‍तयों र्में से एक प्रकार की र्मवर ‍त प्राप्त हो जाती ह। तथा वहााँ
ऄनन्त काल तक इश्वरीय अनन्द की ऄनर वर त करते रहते हैं ऄंत र्में इश्वर के ऄन्त:करण र्में ववलीन हो
जाते हैं
अत्र्मानन्द, वनजानन्द, विदानन्द और ब्रह्मानंद आन स ी शब्दों को पयालभयवािी शब्द सर्मझना
िावहए आस अनन्द की र्म‍र त योगी परू र ष ही ऄनर वर त करता ह।, र्मगर ववषयानन्द पश,र पक्षी, कीड़े अवद
ोगते हैं र्मनष्र य ी यवद आसी तरह ववषयों का अनन्द ोगता रहा तो र्मनष्र य और पश-र पक्षी र्में करछ ी
ऄतं र नहीं रहता ह। र्मनष्र य का शरीर प्राप्त हुअ ह। तो ब्रह्मानदं ऄथवा इश्वरीय अनन्द प्राप्त करने का
प्रयास करना िावहए ब्रह्मानदं की प्रावप्त ब्रह्म साक्षात्कार होने पर होती ह। ब्रह्मानदं को ब्रह्मज्ञान ी कहते
हैं थकरल, कालेज व ववश्वववद्यालयों र्में कोइ िाहे वजतनी वशक्षा ्र हण कर ले, िाहे वजतना ी शाथरों को
पढ़ले ऄथालभत् शब्द ज्ञान र्में िाहे वजतना वविान हो जाए र्मगर ईसे ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त नहीं हो सकती ह।,
‍योंवक पथर तकों को रटने व शाथर-ज्ञान से ऄज्ञान और ऄववद्या के बन्धन को नष्ट नहीं वकया जा सकता
ह। बन्धन त ी टरटता ह। जब ऄववद्या का नाश होता ह। शब्दों के ज्ञान से ऄगर र्मोक्ष वर्मलता होता तो

र ोक के ना जाने वकतने ही र्मनष्र यों को र्मोक्ष वर्मल गया होता ऄथालभत् स ी पढ़े वलखे र्मनष्र य आस ससं ार
को पार करके र्मोक्ष को प्राप्त कर िक र े होते करछ वशवक्षत परू र षों को ऄहकं ार होता ह। वक ईन्होंने आतनी
ईपावधयााँ प्राप्त कर ली हैं, र्मगर ऐसे परू र षों का ज्ञान वर्मथ्या ज्ञान होता ह। ईनकी ईपावधयााँ ईन्हें आस ससं ार
से ऄथवा दःर खों से वनवृवत्त नहीं वदला सकती हैं तत्त्वज्ञान के सर्मक्ष सर्मथत लोकों का सम्पणर लभ ज्ञान नगण्य
ह। ऐसे परू र षों को (सांसारीद ऄपने ज्ञान का ऄव र्मान त्याग देना िावहए तथा सदगरू र के र्मागलभदशलभन र्में
व।रा‍य यक्तर होकर ब्रह्मज्ञान प्रावप्त के वलए ऄभ्यास करना िावहए ऄभ्यास करते हुए जब कइ जन्र्म बीत
जाएाँगे तब अवखरी जन्र्म र्में ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त हो जाएगी ब्रह्मज्ञान की प्रावप्त पर ऄववद्या का पणर लभ नाश

तत्त्वज्ञान 223
हो जाता ह। तथा सांसाररक बन्धन ी टरटकर नष्ट हो जाते हैं ऐसा परू र ष ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो
जाता ह।, वजसे र्मोक्ष कहते हैं एक बात र्महत्वपणर लभ ह। वक अत्र्मा से र्मोक्ष प्राप्त नहीं होता ह।, बवकक
अत्र्मज्ञान से र्मोक्ष प्राप्त होता ह। अत्र्मा तो सबके ऄन्त:करण र्में वथथत ह। पर स ी प्राणी र्म‍र त तो नहीं
हैं ऄववद्या के बन्धन से छरड़ाने वाला अत्र्मज्ञान शब्द ज्ञान नहीं ह। वजज्ञासर ऄच्छी तरह से जान लें वक
अत्र्माकार वृवत्त को ही अत्र्मज्ञान कहते हैं
वनबीज सर्मावध र्में वृवत्तयों के वनरोध का प्रयास वकया जाता ह। ऄभ्यास करते-करते साधक वबना
प्रयास वकए ही सर्मावधथथ हो जाता ह। ईस सर्मय ब्रह्म ऄनर वर त के कारण वकसी प्रकार की वासना नहीं
रहती आस ऄवथथा र्में संसार की ऄनर वर त नहीं होती ह। ईसे ज्ञान हो जाता ह। वक सवलभर ब्रह्म ही ह। संसार
का ऄवथतत्व नहीं ह। ऄथालभत् संसार की सत्ता ही नहीं ह। जो करछ ावसत हो रहा ह।, वह ब्रह्म का संककप
होने के कारण ब्रह्म थवरूप ही ह। ऐसा वृवत्त वनरोध होने पर होता ह।, र्मगर सर्मावध ंग होने पर यह संसार
जड़ वदखाइ देने लगता ह। योगी यह न सोिे वक र्मझर े तो सर्मावध र्में अत्र्म-साक्षात्कार हो िक र ा ह। ऄथवा
र्मैं अत्र्मा र्में वथथत हो िकर ा हाँ यह जड़ संसार हर्मसे व न्न ह। और ऄब हर्मारा आस संसार से वकसी प्रकार
का कोइ सम्बन्ध नहीं ह। िेतन अत्र्मा को ऄपना थवरूप र्मानना तथा संसार को जड़ र्मानना ऄथवा जड़
रूप र्में देखना व्यवतरे क योग ह। आस ऄवथथा को जीवन्र्मक्त र ऄवथथा कह सकते हैं, ‍योंवक जन्र्म-र्मृत्यर से
छरटकारा ी वर्मल जाता ह। र्मगर र्मवर ‍त र्मृत्यर के पश्िात ही वर्मलेगी पणर लभता प्राप्त करने के वलए ऄन्वय योग
का ऄभ्यास करना ऄवत अवश्यक ह। ऄन्वय योग सर्मदशलभन या सर्मता के द्रारा प्राप्त होता ह। सर्मथत
प्रावणयों को ऄपना ही थवरूप र्मानना ऄथालभत् आस ससं ार र्में ावसत होने वाले सब शरीर र्मेरे ही हैं, सवलभर र्मैं
ही ह,ाँ ऐसा ऄनर व करना वजस ज्ञान से सारा जड़ ससं ार विन्र्मय वदखाइ देने लगे वही पणर लभ ज्ञान ह। ऄथालभत्
‘र्मैं ब्रह्म ह’ाँ , ‘यह सब करछ ब्रह्म ही ह।’ सोने र्में गहनों को देखना व्यवतरे क ह। तथा गहनों र्में सोने को देखना
ऄन्वय ह। आसी प्रकार ब्रह्म र्में जगत् को देखना व्यवतरे क ह। और जगत् र्में ब्रह्म को देखना ऄन्वय ह।
व्यवतरे क योग से अवरण नष्ट होता ह। तथा ऄन्वय योग से ववक्षेप नष्ट होता ह। व्यवतरे क ज्ञान एकदेशीय
होने से ऄपणर लभ ह।, आसवलए ऄन्वय ज्ञान ही पणर लभ ह।
िेतनतत्त्व का वरगणर ात्र्मक प्रकृ वत से ऄपने अपको ऄलग करके ऄपने थवरूप र्में वथथत होने को
क। वकय कहते हैं क। वकय प्रावप्त का ईपाय वववेक ज्ञान ह। वनववलभिार सर्मावध की िरर्म ऄवथथा र्में
ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह। विर ऄभ्यास के द्रारा आस ऊतम् रा-प्रज्ञा का क्रर्म ववकास होता ह। प्रज्ञा
की िरर्म ऄवथथा र्में ऄवववेक को दरर करने के वलए जड़ तत्त्व से िेतन परू र ष को क्रर्मशः ऄलग करके
ऄपने थवरूप र्में वथथत करते हैं यह वववेक-ख्यावत ऄवथथा प्राप्त वकए वबना सम् व नहीं ह। वववेक-

तत्त्वज्ञान 224
ख्यावत के िलथवरूप ब्रह्म के थवरूप का दशलभन होता ह।, तब ईसे विदालोक र्में ऄपररणार्मी परू र ष (इश्वरद
और पररणार्मी गणर देखने को वर्मलते हैं, तब पर-व।रा‍य का ईदय होता ह। ऄभ्यास के द्रारा पणर लभ वववेक हो
जाने पर जीवात्र्मा ऄपना जीवत्व त्याग कर ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाता ह। ऄब यहााँ पर थोड़ा दसर रे
ढंग से वणलभन कर रहा हाँ िेतन तत्त्व एक बार र्में ही ऄपने थवरूप र्में वथथत नहीं हेाता ह।, बवकक धीरे -धीरे
ऄभ्यास के द्रारा वथथत होने का सर्मय बढ़ता रहता ह।
जड़ सत्ता से ऄलग होने पर जीवात्र्मा को पणर लभत्व प्राप्त नहीं होता ह। जब तक ईसर्में वशवत्व का
ववकास नहीं होता ह।, तब तक पणर लभत्व सम् व नहीं ह। विवतशव‍त का (ईन्र्मनी शव‍तद ववकास हुए वबना
जीवात्र्मा को वशवरूप र्में नहीं पहिाना जा सकता ह। विवतशव‍त वित्तथवरूप वशव ाव के साथ वनत्य
ववद्यर्मान ह। विवत शव‍त का पणर लभ ववकास होने पर जीवात्र्मा वशव रूप र्में प्रकाशवान हो जाता ह।, तब
विवतशव‍त वनवृत हो जाती ह। तथा वशव शवक्त ऄव न्न होकर प्रकावशत हो जाती ह।
ज्ञान र्मागलभ र्में (सांख्य योग र्मेंद वववेक ज्ञान के द्रारा क। वकय की प्रावप्त होती ह। आस वथथवत र्में िेतन
तत्त्व जड़ तत्त्व से ऄलग होकर वनजथवरूप र्में प्रवतवित होता ह। योग के द्रारा एक ओर ऄवथथा प्राप्त
होती ह।, ईसे प्रकृ वत ऐश्वयलभ कहा जाता ह। वववेक के द्रारा प्रकृ वत और िेतन तत्त्व ऄलग हो जाते हैं िेतन
तत्त्व ऄपने को जड़ तत्त्व से ऄलग सर्मझता ह। योग के द्रारा प्रकृ वत और जीवात्र्मा एक हो जाते हैं यही
ऄवथथा इश्वर की ह। एक र्मागलभ से क। वकय तथा दसर रे र्मागलभ से ऐश्वयलभ की प्रावप्त होती ह। वववेक र्मागलभ र्में
प्रकृ वत को क्रर्मशः त्यागना पड़ता ह। और योग र्मागलभ र्में प्रकृ वत को ऄपनाना पड़ता ह। प्रकृ वत को ऄपना
बनाने को ही ऄन्वय योग कहते हैं ईसे ऄपना बना लेना त ी सम् व ह। जब थथल र से लेकर वित्त तक की
र्मवलनता दरर हो जाए असव‍त और ऄहक ं ार के रूप र्में यह र्मवलनता ऄवथर्मता सर्मावध के बाद ी
ववद्यर्मान रहती ह। आसको दरर वकए वबना प्रकृ वत को ऄपना बना लेना सम् व नहीं ह। आससे ऐश्वयलभ की
प्रावप्त होती ह। आसे आच्छा शव‍त का पणर लभत्व कहते हैं आस आच्छा शव‍त का ी सर्मपलभण करना पड़ता ह।,
तब र्महा आच्छा प्रकट होती ह। आसी के द्रारा ववश्व ककयाण सम् व होता ह। ऐसा र्महापरू र ष ब्रह्म र्में वथथत
हुअ जगत् का ककयाण करता ह। दोनों प्रकार के योग र्में ले ही ऄलग-ऄलग ऄवथथा ावसत हो र्मगर
दोनों ब्रह्मथवरूप ही होते हैं ज्ञान र्मागलभ र्में जगत् का ऄवथतत्व भ्रर्म-थवरूप बताया गया ह। ज।से सर्मिर र्में
लहर ईत्पन्न होती हैं, तो सर्मिर और लहर र्में कोइ ऄंतर नहीं होता ह।, िाहे सर्मिर शांत हो ऄथवा वायर के
कंपन से लहर प्रकट हो जाए दोनों ऄवथथाओ ं र्में जल ऄपने थवरूप से ववद्यर्मान रहता ह। जल के थवरूप
र्में वकसी ी प्रकार का िकलभ नहीं अता ह। कंपन शांत हो जाने पर लहरों का ऄवथतत्व नहीं रहता ह। आसी
प्रकार ब्रह्म एक थवरूप र्में रहे ऄथवा व न्न-व न्न थवरूप वाला हो जाए, ईसके थवरूप पर वकसी प्रकार

तत्त्वज्ञान 225
का ऄंतर नहीं पड़ता ह। वह ऄपने थवरूपों र्में ही वथथत रहता ह। वसिलभ ऄववद्या के कारण ब्रह्म और जगत्
र्में व न्नता वदखाइ देती ह। र्मनष्र य का परर्म् कतलभव्य ह। वक वह ऄपनी ऄववद्या को नष्ट कर दे ऄववद्या के
नष्ट होते ही वह ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाएगा
ऄभ्यास के द्रारा जब वित्त का ववक्षेप व वित्त पर वथथत अवरण दरर हो जाते हैं ऄथालभत् वित्त पर
वथथत र्मल नष्ट हो जाता ह।, तब अत्र्मज्ञान का प्रकाश वित्त पर पड़ने के कारण वित्त विन्र्मय सा हो जाता
ह। ईस सर्मय आवन्ियों से सम्बवन्धत वृवत्तयााँ बवहर्मलभखर ता को त्याग कर ऄन्तर्मलभख
र ता को धारण करती हैं आसी
प्रकार का वनश्िय करने वाली वृवत्त ऄथालभत् बवर ि वनज थवरूप र्में ही वथथत हो जाती ह। आस ऄवथथा र्में
दोनों प्रकार की वृवत्तयााँ अत्र्मा की ओर ईन्र्मखर हो जाती हैं ऄथवा अत्र्माकार होती हैं जब तक वित्त को
विदाकार नहीं बनाया जाएगा, तब तक पणर लभता प्राप्त नहीं हो सकती ह। वजन योवगयों ने यह जान वलया ह।
वक जड़तत्त्व से िेतन तत्त्व व न्न ह। तथा ऄब ईनकी ऄववद्या नष्ट हो गइ ह।, तो वे बहुत बड़ी गलती कर
रहे हैं वववेक-ख्यावत ऄवथथा र्में अत्र्मा ऄनात्र्मा के ववषय र्में ज्ञान हो जाता ह। र्मगर आससे ऄववद्या पणर लभ
रूप से नष्ट नहीं होती ह। हााँ, यह ऄवथथा ऄववद्या नाश का द्रार ह।, आससे वित्त का विदाकार होना
अवश्यक ह। वित्त-वृवत्त वनरोध को योग कहा जाता ह।, यह सि ह। र्मगर वित्त का ि।तन्य र्में सर्मरस होना
ही पणर लभ योग ह। आस ऄवथथा र्में ब्रह्मानदं की ऄनर वर त होती ह।, विर द्र।त का ान नहीं रहता ह। सवलभर िेतन
परर्मात्र्मा ही व्याप्त वदखाइ देता ह। ऐसे योगी के ऄन्दर ससं ार के ककयाण के वलए ववलक्षण सार्मथ्यलभ अ
जाता ह।
वजस योगी का द्र।त ाव नष्ट हो गया ह। तथा सवलभर िेतन ब्रह्म की ही ऄनर वर त करता ह।, ऐसा
र्महापरू र ष आस ससं ार र्में वकस ऄवथथा र्में रहेगा तथा ससं ार के साथ क। सा व्यवहार करे गा, आसका कोइ
वनयर्म नहीं ह। ये स ी प्रकार के बन्धन से र्मक्त र होते हैं वकसी प्रकार के वनयर्म और कायदे आन पर लागर
नहीं होते हैं वे जब िाहे बोलते हैं और जब न िाहे वकसी से बात नहीं करते हैं क ी-क ी र्मौन ी
धारण करते हैं तथा ऄपने थवरूप र्में सद।व वथथत रहते हैं ऐसे परू र ष क ी ी ससं ार के सार्मने वसवियों का
िर्मत्कार नहीं वदखाते हैं, जबवक आनकी आच्छा र्मार से ही वसवियााँ प्रकट हो जाती हैं वित्त की सवलभववृ त्त
वनरोध के ऄभ्यास र्में पररप‍व होने से र्मख्र य कारण शव‍त के थवार्मी होते हैं विर ी वे सद।व गप्र त रहते हैं
वे ऄपना सार्मथ्यलभ वकसी के सार्मने प्रकट नहीं करते हैं तथा गप्र त रहते हुए ही संसार का कायलभ वकया करते
हैं आनकी ज्ञान दृवष्ट परर्म् शिर होती ह। तथा आच्छा शव‍त ऄजेय होती ह। वित्त रूपी सा्र ाज्य के थवार्मी
होने के कारण सब शव‍तयााँ आनके ऄधीन होती हैं तथा ये र्मन को ऄपने वश र्में वकए रहते हैं तत्त्वज्ञान रुप
और अनन्दरुप होने के कारण इश्वर के ऄवत नजदीक रहते हैं ऐसे र्महापरू र षों के ववषय र्में जानना ऄथवा

तत्त्वज्ञान 226
परखना संसारी र्मनष्र यों के सार्मथ्यलभ से बाहर ह।, ‍योंवक वह ऄपने गणर ों को वकसी को वदखाते नहीं ह। तथा
कोइ ईनके गणर ों की पहिान नहीं कर सकता ह।
र्मनष्र य िाहे वजतना ी पथर तकीय ज्ञान से यक्तर हो जाए, िाहे कोइ वजतना ी ऄपने को धर्मलभ का
र्मर्मलभज्ञ कहे, िाहे घर से ववर‍त होकर जंगल ऄथवा दसर रे थथानों पर िला जाए, कोइ िाहे वजतना ऄपने
को वजतेवन्िय कहे, र्मनष्र य ‍या देवता ी ‍यों न हो, वबना योग के ऄभ्यास द्रारा तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं
हो सकती ह। सांसाररक ज्ञान से तत्त्वज्ञान की प्रावप्त नहीं होती ह।, ‍योंवक ऄववद्या ्र वन्थ का नाश सर्मावध
द्रारा ही हो सकता ह।, ऄन्यथा नहीं योगाव‍न के द्रारा पाप पंजर जल कर राख हो जाते हैं एवं जब ऄभ्यास
वशखर पर होता ह।, तब तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। तत्त्वज्ञान के द्रारा ही क। वकय की प्रावप्त होती ह।
तत्त्वज्ञान ऄनर वर त का ववषय ह। आसे शब्दों र्में वलखा जाना ऄसम् व ह। जो ऄनर वर त का ववषय
होता ह।, वह ऄनर वर त के द्रारा ही जाना जा सकता ह।, ईसे शब्दों के द्रारा क। से बताया जा सकता ह।? िीनी
र्मीठी होती ह।, ईसका र्मीठापन क। सा होता ह।, ईसे शब्दों के द्रारा नहीं सर्मझाया जा सकता ह। िीनी को
के वल खाकर ही आसके र्मीठे पन को जाना जा सकता ह। आसी प्रकार ब्रह्म के ववषय र्में शब्दों द्रारा नहीं
बताया जा सकता ह।, बवकक शब्दों के द्रारा बताने का के वल प्रयास वकया जा सकता ह। अजकल बहुत
से ईपदेशक या प्रविनकतालभ इश्वर ऄथवा ब्रह्म के ववषय र्में बहुत ईपदेश करते हैं, वकंतर यवद प्रविनकतालभ
से पछर ा जाए वक ‍या ईसने इश्वर की प्रावप्त की ह।? ऄथालभत् वजसने योग के द्रारा इश्वर का साक्षात्कार
वकया ह।, वही इश्वर के ववषय र्में ईपदेश करने का ऄवधकारी ह। ऐसे ऄवधकारी वतलभर्मान सर्मय र्में वकतने
होंगे ऄथवा कहााँ वर्मलेंगे, र्मैं नहीं जानता हाँ र्मझर े आतना ऄवश्य र्मालर्मर ह। वक वतलभर्मान सर्मय र्में इश्वर के
ववषय र्में प्रविन करने वालों का बाजार लगा हुअ ह। जो इश्वर के ववषय र्में करछ ी नहीं जानते हैं, वह
दसर रों को इश्वर के ववषय र्में क। से ईपदेश दे सकते हैं? ऐसे परू र ष थवयं ऄपने अप को गर्मर राह कर रहे हैं
ऄथवा सर्माज को गर्मर राह कर रहे हैं ऐसे प्रविनकतालभ को र्मेरी यही राय ह। वक पहले ऄभ्यास के द्रारा थवयं
इश्वर का साक्षात्कार करें , विर इश्वर के ववषय र्में ईपदेश करें , त ी सर्माज का ककयाण होगा

तत्त्वज्ञान 227
ब्रह्म
ब्रह्म देवताओ ं का ी देवता ह। ब्रह्म के ज्ञान से ही र्मोक्ष की प्रावप्त होती ह। संसार के बन्धन से
वनवृवत्त के वलए ऄथवा र्मोक्ष की प्रावप्त के वलए ब्रह्म के ज्ञान का होना ऄवत अवश्यक ह। संत परू र षों का
संग, सतशाथरों का थवा्याय करना तथा योग के कठोर ऄभ्यास र्में तत्पर होना ब्रह्मज्ञान प्रावप्त र्में हेतर ह।
ब्रह्मज्ञान से ही जीवों के दःर खों का वनवारण होता ह। ब्रह्म कहीं दरर नहीं रहते हैं, बवकक हर्म सब प्रावणयों के
शरीर र्में ही वथथत हैं विन्र्मय वशव वनगलभणर -ब्रह्म का ही थवरूप हैं, आन्हीं वशव को परर्मात्र्मा व इश्वर ी
कहते हैं कायलभ कारण थवरूप आन्हीं परब्रह्म परर्मात्र्मा का साक्षात्कार हो जाने पर ऄभ्यासी परू र ष के
ऄन्त:करण र्में जो िेतन और जड़ की ्र वन्थ होती ह।, वह खल र जाती ह। आसके खल र ने से सारे संशय नष्ट
होने पर कर्मलभ ी, जो शर और ऄशर होते हैं, वह क्रर्मशः धीरे -धीरे ऄभ्यासानसर ार जल कर नष्ट हो जाते
हैं वजस प्रकार अकाश र्में नीले रंग की प्रतीवत होती ह।, ईसी प्रकार सवच्िदानन्दर्मय ब्रह्म र्में जगत् रूपी
भ्रर्म ईत्पन्न हुअ ह। आस भ्रर्म के ऄत्यन्त ऄ ाव के ज्ञान र्में यवद परर ी दृढ़ता हो जाए त ी िेतन ब्रह्म का
थवरूप ज्ञान होता ह। दृश्य जगत् के ऄत्यन्त ऄ ाव का वनश्िय हो जाने पर वजस परर्माथलभ वथतर का बोध
होता ह।, वह परर्मात्र्मा ईस जानने वाले परू र ष का अत्र्मा ही हो जाता ह। जब तक आस जगत् का ऄत्यन्त
ऄ ाव नहीं होता ह।, तब तक परर्म् तत्त्व परर्मात्र्मा को कोइ जान नहीं सकता ह।
सत्य वथतर की ही सत्ता ह।, ईसका क ी नाश नहीं होता ह। यह जो अकाश अवद तर और
ऄहक ं ार अवद र्में लवक्षत हो रहा ह।, वह सब व्यवहार दशा र्में जगत् ह। तत्त्वज्ञान होने पर ऄथालभत् परर्माथलभ
दशा र्में ब्रह्म ही ह।, ब्रह्म के वसवाय और ऄन्य वथतर नहीं ह।, हर्मारे सार्मने जो दृश्य जगत् वदखाइ दे रहा ह।
वह परब्रह्म परर्मात्र्मा ही ह। सवलभर पणर लभब्रह्म का ही प्रसार हो रहा ह। परब्रह्म परर्मात्र्मा के साथ जीवात्र्मा की
एकता का जो बोध ह।, वही पणर लभ र्में पणर लभ का प्रसार ह। परब्रह्म परर्मात्र्मा सवलभर व्यापक होने के कारण पणर लभ ह।
जीवात्र्मा ी परर्मात्र्मा का ऄंश होने के कारण पणर लभ ही ह। परर्मात्र्मा और जीवात्र्मा र्में जो ेद का भ्रर्म ह।
ईसका वर्मट जाना ही ईनकी एकता ह। आस एकता की ऄनर वर त ही पणर लभ का प्रवेश होना ह। वाथतव र्में
जीवात्र्मा ब्रह्म से क ी ऄलग नहीं होता ह। और न ही कहीं वकसी जगत् से अकर ईसर्में प्रवेश करता ह।,
यह सब औपिाररक ह। ब्रह्म शांत थवरूप होता ह। ज्ञान दृवष्ट प्राप्त होने पर जगत् दृवष्ट शांत हो जाती ह।,
आसवलए जगत् को ी शांत कहा गया ह। वजस प्रकार वर्मट्टी से घड़ा अवद प्रकट होता ह। तथा ऄंत र्में
घड़ा वर्मट्टी र्में ही वर्मल जाता ह।, ईसी प्रकार यह जगत् ब्रह्म से प्रकट हुअ ह। ऄंत र्में ब्रह्म र्में ही ववलीन हो
जाता ह।

तत्त्वज्ञान 228
सम्पणर लभ संककपों के त्याग तथा जगत् की प्रतीवत के ऄत्यन्त ऄ ाव से ब्रह्म के थवरूप का परर्म्
ऄनर व होता ह।, वजसके संकोि से संसार का प्रलय और ववकास से ईसकी सृवष्ट होती ह। यह िरािर
जगत् वजसकी विन्र्मयी लीला ह।, जगत् रूप होने पर ी वजसकी ऄखण्डता खवण्डत नहीं होती ह।, वह
शाश्वत ब्रह्म कहा गया ह। ब्रह्म ऄणर से ी ऄणर ह।, वह ऄपने संककप से थवयं वायरू र प र्में प्रकट हो जाता
ह। वायरू र प र्में वह भ्रर्म थवरूप वाला ही ह। वाथतव र्में वह वायर अवद करछ ी नहीं ह।, के वल शि र िेतन
ही ह। वही ब्रह्म शब्द के संककप द्रारा शब्द बनता ह।, वकन्तर ईसकी शब्द रूपता का दशलभन भ्रर्म र्मल र क ह।
वाथतव र्में वह शब्द और शब्दाथलभ की दृवष्ट से ऄत्यन्त परे ह। ब्रह्म की प्रावप्त के वलए ढेरों साधन हैं, ईसके
प्राप्त होने पर करछ ी पाना शेष नहीं रहता ह।
परर्मात्र्मा विन्र्मय और ऄत्यन्त सक्ष्र र्मतर्म ह। परर्मात्र्मा से यह सम्पणर लभ ववश्व सब ओर से पररपणर लभ ह।
ऄणर रूप होता हुअ ी यह परर्मात्र्मा ऄनन्त दरर ी र्में ी नहीं सर्माता ह।, ‍योंवक सवलभव्यापी रूप रवहत होने
के कारण परर्मात्र्मा वनराकार ह। वजस प्रकार से बीज के ऄन्दर ावी वृक्ष, पत्ते, िल अवद ववद्यर्मान रहते
हैं, ईसी प्रकार परर्मात्र्मा र्में तर , वतलभर्मान और ववष्य के प्राणी सदा ववद्यर्मान रहते हैं परर्मात्र्मा ईदासीन
की ााँवत सम्पणर लभ जगत् र्में वथथत ह। ईसर्में कतालभपन और ो‍तापन का वबककरल सम्बन्ध नहीं ह। परर्मात्र्मा
आस जगत् र्में ऄन्दर और बाहर सर्मान रूप से वथथत ह। थवणलभ (सोनेद र्में यह सार्मथ्यलभ होती ह। वक ईसका
करण्डल अवद बन सके , र्मगर करण्डल यह सार्मथ्यलभ नहीं रखता ह। वक वह थवणलभ का वनर्मालभण कर सके ईसी
प्रकार विन्र्मय होने के कारण िष्टा र्में यह शव‍त होती ह। वक वह दृश्य जगत् का वनर्मालभण कर सकता ह।
र्मगर जड़ होने के कारण दृश्य जगत् र्में यह शव‍त नहीं होती ह। वक वह िष्टा (परर्मात्र्माद का वनर्मालभण कर
सके यह दृश्य जगत् ऄसत् होता हुअ ी ऄज्ञान वश सत-् सा प्रतीत होता ह। यह दृश्य जगत् ऄज्ञान र्मार
से ईत्पन्न ह। जब तक ऄज्ञान रहता ह। त ी तक जगत् की वथथवत रहती ह। करण्डल और कड़े अवद की
प्रतीवत के सर्मय थवणलभ की थवणलभता सत्य होने पर ी कोइ यह नहीं कहता ह। वक यह थवणलभ ह।, ‍योंवक
ऄज्ञानी परू र ष की बवर ि ईस अ षर ण के नार्म-रूप र्में ईलझी रहती ह। ईसी प्रकार िष्टा के दृश्य रूप र्में
वथथत होने पर ईसके वाथतववक थवरूप की थिरवतलभ नहीं होती ह। ज।से करण्डल के रूप र्में प्राप्त होने पर
थवणलभ ऄपनी थवणलभता का लक्ष्य कराता ह।, व।से ही दृश्य रूप र्में वथथत हुअ िष्टा ऄपने िष्टापन को लवक्षत
कराता ह। िष्टा जब ऄज्ञान वश ऄपने अप को दृश्य रूप र्में देखता ह।, तब ऄपने वाथतववक थवरूप को
नहीं देख पाता ह। िष्टा र्में दृश्यत्व की प्रावप्त होने पर ईसकी सत्ता ी ऄसत्ता सी हो जाती ह। ऄथालभत्
सत्यरूप होने पर ी ऄसत्य-सा ावसत होने लगता ह। परन्तर जब तत्त्वज्ञान के द्रारा दृश्य नष्ट हो जाता ह।,
तब के वल िष्टा की ही सत्ता रह जाती ह।

तत्त्वज्ञान 229
तत्त्वज्ञानी को ली ााँवत ज्ञात हो जाता ह। वक ज।से करण्डल और कड़े की सत्ता थवणलभ से व न्न नहीं
ह।, ईसी प्रकार द्र।त ी िेतन ब्रह्म से व न्न नहीं ह। ज।से अकाश की शन्र यता अकाश से तथा वायर का
थपन्दन वायर से व न्न नहीं ह।, व।से ही द्र।त ी िेतन ब्रह्म से व न्न नहीं ह। द्र।त और ऄद्र।त की प्रतीवत दःर ख
की ऄनर वर त से यक्त र ह।, यह वनवृवत्त के वलए नहीं ह। वाथतव र्में वजस परुर ष को द्र।त और ऄद्र।त की प्रतीवत
ऄच्छी तरह से सर्मझ र्में अ जाए, तो ईस परू र ष की वथथवत पणर लभ रूप से िेतन ब्रह्म र्में हो जाएगी िष्टा-
दृवष्ट और दृश्य रूप जो यह जगत् ह।, वह ऄणर से ी ऄणर परर्मात्र्मा र्में वथथत ह। परर्मात्र्मा ने ऄपने थवरूप
र्में आस जगत् को कइ बार ईत्पन्न तथा ववलीन वकया ह। ज।से वकसी बीज के ऄन्दर वृक्ष, पवत्तयााँ, टहवनयााँ
और िल अवद ववद्यर्मान हैं वजस प्रकार टहवनयों, पवत्तयों और िलों का त्याग न करता हुअ वृक्ष वथथत
रहता ह।, ईसी प्रकार आस िेतन ब्रह्म र्में ऄनन्त शाखाओ ं व प्रशाखाओ ं से यक्त र जगत् वथथत ह। वजस योग
के ऄभ्यासी को वदव्य दृवष्ट प्राप्त हो गइ ह। तथा सगणर ब्रह्म का साक्षात्कार कर वलया ह।, ऐसा ऄभ्यासी
आन शब्दों को ऄच्छी तरह सर्मझ सकता ह। ऄज्ञानी ऄथवा संसारी परू र ष आस सत्यता की ऄनर वर त नहीं
कर सकता ह।, ‍योंवक वह ऄपना अंतररक ववकास न करने के कारण ऄज्ञानता को नष्ट नहीं कर पाया ह।
आसवलए ईसे यह सारा ज्ञान ऄसत्य-सा लगता ह। िेतन परर्मात्र्मा के ऄन्दर वथथत हुअ द्र।त रूप जगत् जो
ऄद्र।त रूप र्में देखता ह।, वह ऄद्र।त रूप र्में देखना ही तत्त्वदशलभन ह। र्मगर वाथतव र्में तो न द्र।त ह। और न ही
ऄद्र।त ह।, न वह सौम्य ह। और न ही वह क्षब्र ध ह। िेतन परर्मात्र्मा के ऄन्दर अकाश और वायर अवद करछ
ी नहीं ह।, वह के वल िेतन परर्मात्र्मा ही ह।, ऄवद्रतीय परर्मात्र्मा र्में ेद और ऄ ेद की भ्रावन्त हो रही ह।
आस भ्रर्म का नाश हो जाने पर सब करछ ब्रह्मतत्त्व के रूप र्में शेष रह जाता ह। जब तक ब्रह्म का साक्षात्कार
नहीं हो जाता ह। त ी तक शरीर अवद के पीवड़त होने पर पीड़ा रवहत जीवात्र्मा पीड़ा से यक्त र -सा वदखाइ
देता ह। परन्तर जब साक्षात्कार हो जाता ह।, तब यह सब बातें नहीं रह जाती ह।
यह जगत् ब्रह्म का ही थवरूप ह। तत्त्वज्ञान हुए वबना यह जगत् दःर ख की ऄनर वर त कराता ह। जब
योग के ऄभ्यास के द्रारा ऄभ्यासी को ऐसा ज्ञान हो जाता ह।, तब यह दृश्य जगत् र्मोक्ष प्रदान करने वाला
हो जाता ह। एकत्व बोध से यथाथलभ ज्ञान प्राप्त होता ह। ऄर्मक र र्मनष्र य वजससे प्रेर्म न हो, ईससे वर्मलने
ऄथवा वबछरड़ने से न सख र होता ह। और न ही दःर ख होता ह। आसी प्रकार वजसे ब्रह्म का तत्त्वज्ञान हो गया ह।,
वह थथल र शरीर के रहने ऄथवा वबछरड़ने से सख र ऄथवा दःर ख र्में वलप्त नहीं होता ह। वासना रवहत तथा
शांत वित्त हुअ आस शरीर का थवार्मी जीवात्र्मा सवलभव्यापी और सबका ऄवधपवत हो जाता ह। जीवात्र्मा
को विन्र्मय परर्म् अकाश थवरूप, ऄववनाशी, सवच्िदानन्द परर्मात्र्म थवरूप ही जानना िावहए आस शरीर
र्में दो प्रकार का सवलभ तर थवरूप िेतन ह। एक तो िंिल थवरूप वाला जीवात्र्मा ह। और दसर रा वनववलभककप

तत्त्वज्ञान 230
परर्म् िेतन थवरूप परर्मात्र्मा ह। िेतन परर्मात्र्मा ही ऄपने संककप से जीवात्र्मा के रूप र्में ऄपने से व न्न-सा
होकर वथथत ह। वह िेतन परर्मात्र्मा ही ऄपने संककप से अकाश अवद पंि तर ों र्में, शब्द अवद पााँि
ववषयों र्में, प्राण-ऄपान अवद पााँि प्राणों तथा देशकाल अवद रूप र्में पररवणत होता ह। वाथतव र्में यह
िेतन परर्मात्र्मा जब-जब जहााँ संककप करता ह।, तब-तब वहााँ व।सा ही बन जाता ह।
िेतन जीवात्र्मा ऄज्ञान के कारण, ‚र्मैं दःर खी ह‛ाँ , ऐसी ावना व्यथलभ र्में ही करता रहता ह। ‚र्मेरा
यह िला गया, वह िला गया, ऄर्मक र र्मेरा वप्रय था, वह र्मर गया‛, ऐसी ावना करके वह रोता रहता ह।
वजस प्रकार बालर र्में तेल नहीं होता ह।, ईसी प्रकार शि र अत्र्मा र्में िष्टा, दृवष्ट, दृश्य की वरपटर ी नहीं होती
ह। वजस प्रकार जड़ लोहा िम्र बक के सावन्य से वक्रयाशील हो जाता ह।, ईसी प्रकार सवलभव्यापी िेतन
थवरूप परर्मात्र्मा के सावन्य से यह जीवात्र्मा िेष्टावान होता ह। ऄथालभत् सवलभवथथत परर्मात्र्म शव‍त से ही
वह जीव िेष्टा करता ह। यह जीव ऄज्ञानता से ऄपना वाथतववक थवरूप ल र जाने के कारण ही िेतन
वित्त-सा बन गया ह। परर्मात्र्मा ने शरीर रूपी रथ िलाने के वलए प्राण-शव‍त और र्मन-शव‍त रूपी दो
शव‍तयााँ ईत्पन्न की हैं जब तक थथल र शरीर र्में सक्ष्र र्म शरीर ववद्यर्मान रहता ह।, तब तक थथल र शरीर
जीववत रहता ह। जब थथरल शरीर से सक्ष्र र्म शरीर का सम्बन्ध सर्माप्त हो जाता ह।, तब शरीर र्मृत कहा
जाता ह। परन्तर जब तक शरीर र्में ह्रदय कायलभ करता रहता ह। ऄथवा ह्रदय धड़कता ह।, तब तक जीव ऄपने
सक ं कप वश ऄधीन हुअ कर्मलभ करता रहता ह।
िेतन जीवात्र्मा अकाश से बढकर वनर्मलभल और ऄव्य‍त ह। परर्मात्र्मा की सत्ता ही जीवात्र्मा के
ऄवथतत्व र्में कारण ह। जीवात्र्मा के वबना थथल र शरीर और प्राण दोनों नष्ट हो जाते हैं शरीर ववयोग र्में
प्राण वायर र्में ववलीन हो जाता ह। अकाश से ी वनर्मलभल अत्र्मा को क ी कष्ट नहीं होता ह। ब्रह्मज्ञान के
द्रारा दोषों से रवहत जीवात्र्मा परर्म-वशव
् थवरूप हो जाता ह। परर्मात्र्मा परर्म-वशव ् ही एक र्मार सगणर ब्रह्म
हैं यही स ी ज्ञानों के ईत्पादक और स ी को थिरवतलभ देने वाले हैं आस परर्मात्र्म तत्त्व का साक्षात्कार करके
ऄभ्यासी परू र ष विर ससं ार र्में नर े हुए बीज के सर्मान जन्र्म नहीं लेता ह। परर्म्-वशव ही सर्मथत कारणों के
कारण हैं, र्मगर वाथतव र्में ईनका कोइ कारण नहीं ह। वे ऄपनी सत्ता से सर्मथत ावों को सत्ता प्रदान करते
हैं, वकन्तर थवयं ावना का ववषय नहीं हैं वह ववशि र और ऄजन्र्मा हैं, दृश्य ववषयों के प्रकाशक एवं दृश्य
जगत् का परर्म् अधार हैं वह कतालभपन के ऄव र्मान से रवहत होकर जगत् की रिना करता ह। तथा जगत्
का ईिार रूप र्महान कायलभ करता हुअ ी करछ नहीं करता ह। वाथतव र्में शि र , वनववलभशेष, ऄवद्रतीय ब्रह्म न
तो कायलभ ह। और न ही कारण ह।, ‍योंवक वनववलभशेष होने से ईसर्में कारणत्व और कायलभत्व का ऄ ाव ह।
आसवलए शि र िेतन ब्रह्म न ही कतालभ ह। और न ही कर्मलभ ह।, न ही कोइ ईसका वनवर्मत्त ह। और न ही कोइ

तत्त्वज्ञान 231
ईपादान ह। कारण की सत्ता न होने से यह जगत् वकसी का ी कायलभ नहीं ह।, ‍योंवक कारण का थवरूप न
रहने से जो कायलभ थवरूप वदखाइ देता ह।, वह के वल भ्रर्म र्मार ह। आसवलए आस जगत् का तीनों कालों र्में
ऄत्यन्त ऄ ाव ह। जगत् का तीनों कालों र्में ऄ ाव होने से सर्मथत पदाथलभ वर्मथ्या वसि होते हैं पदाथों के
वर्मथ्या वसि हो जाने पर ज्ञान वकसका होगा जब ज्ञान का ऄ ाव वसि हो गया हो, तब ऄहक ं ार का कोइ
कारण नहीं रहता ह। विर न ही बन्धन ह। और न ही र्मोक्ष ह।, के वल िेतन थवरूप ब्रह्म ही सवलभर ह।
परर्मात्र्मा का जो सक्ष्र र्म तत्त्व ह।, वह ऄज्ञानी परू
र षों के वलए ऄज्ञान से अवृत रहता ह। आसवलए
ऄज्ञानी र्मनष्र यों को ऄनात्र्मा र्में अत्र्मा का और अत्र्मा र्में ऄनात्र्मा का भ्रर्म हो जाता ह। वाथतव र्में ऄसत्
वथतर की क ी ईत्पवत्त नहीं होती ह। तथा सत् वथतर का क ी ऄ ाव नहीं होता ह।, बवकक के वल र्माया द्रारा
रवित रिनाओ ं का अवव ालभव और वतरो ाव होता रहता ह। परर्मात्र्मा के शि र थवरूप का ऄनर व करने
के वलए र्मनष्र य को योग का ऄभ्यास करना िावहए सर्मावध द्रारा यह सब सम् व हो सकता ह। परर्मात्र्मा
के ऄनर व से ऄज्ञान से अच्छावदत ईसकी बवर ि रूपी रावर वदन के रूप र्में पररवणत हो जाती ह। र्मनष्र य को
वववेक से र्मोह का त्याग कर देना िावहए, विर वह ऄसाधारण परर्मात्र्मा के यथाथलभ ज्ञान को प्राप्त कर
लेता ह। कार्मना और असव‍त होने पर पण्र य कर्मलभ से बन्धन की प्रावप्त होती ह। तथा कार्मना और असव‍त
से रवहत होने पर ईसी पण्र य कर्मलभ से ज्ञान तथा र्मोक्ष की प्रावप्त होती ह।
ववशि र परर्मात्र्मा र्में सृवष्ट के कारण तर र्माया, बीज, अकार, र्मल, र्मोह, भ्रर्म अवद वकसी का
होना वाथतव र्में सम् व नहीं ह। वह के वल शातं , ऄत्यन्त वनर्मलभल, अवद, ऄतं से रवहत ह। परर्मात्र्मा आतना
सक्ष्र र्म ह। वक ईसके ऄन्दर वथथत अकाश ी थथल र कहा जा सकता ह। वजसकी ईत्पवत्त का कोइ कारण
नहीं ह।, जो सदा थवयं ऄनर व के द्रारा र्माना जाता ह।, ईसकी सत्ता का वनराकरण कोइ नहीं कर सकता ह।
जगत् ब्रह्म थवरूप होने के कारण ि।तन्यर्मय ह। आसर्में जड़ थवरूप की जो प्रतीवत होती ह। वह भ्रर्म रूपी ह।
पणर लभ ब्रह्म परर्मात्र्मा से पणर लभ ववथतार हो रहा ह। पणर लभ ही ववराजर्मान ह।, पणर लभ से पणर लभ का ईदय हुअ ह। पणर लभ र्में
पणर लभ ही प्रवतवष्ठत ह। वह ब्रह्म ऄजन्र्मा, वनराकार, सवलभव्यापक और ऄवद्रतीय तथा ज्ञानथवरूप ह। वह एक
होकर ही सदा वथथत रहता ह।
परर्मात्र्मा (जीव रूप सेद जब तक ऄज्ञान र्में रहता ह।, त ी तक ईस परू र ष के वित्त र्में ऄववद्या रूपी
र्मल ववद्यर्मान रहता ह। आसका यथाथलभ ज्ञान हो जाने पर सब शि र वनर्मलभल परर्मात्र्मा ही शेष रह जाता ह।
ऄथालभत् सब शि र वनर्मलभल परर्मात्र्मा ही ह।, यह दृढ़ वनश्िय हो जाता ह। जो ऄनावद विन्र्मय सवलभव्यापक परर्म्
अकाश रूप ह।, ईस परर्मात्र्मा र्में र्मल कहााँ से अ सकता ह।, ‍योंवक वजस परर्मात्र्मा के ज्ञात होने से
ऄववद्या रुपी र्मल धल र जाता ह।, ईसर्में र्मल क। से हो सकता ह। ऄथालभत् जो सवलभव्यापक हो ईसर्में र्मल नहीं हो

तत्त्वज्ञान 232
सकता ह। ऄंश रूप र्में र्मल के हो जाने पर व्यापकता सर्माप्त हो जाएगी और वह सीर्माओ ं र्में अ जाएगा
आसवलए परर्मात्र्मा का थवरूप ववशि र ह। यवद गहरी दृवष्ट से देखा जाए तो करछ ी थिरररत नहीं हो रहा ह।,
‍योंवक परर्म् िेतन तो ऄत्यन्त ववशि र थवरूप वाला ह। जो एक र्मार सवच्िदानंदर्मय ह।, वजसे परर्मात्र्मा
कहते हैं ईसका ऄपने अप र्मे कवकपत संककप ही आस जगत् के रूप र्में ि। ला हुअ ह। जीवन्र्मक्त र परू र ष
संसार र्में व्यवहार की दशा र्में शि र विदाकाश रूप ही होता ह। वह ईसी विदाकाश रूप र्में िपर िाप शांत
रहता ह।
ब्रह्म के ऄन्दर जगत् की सत्ता वसि नहीं ह। जगत् की जो सत्ता ईपलब्ध होती ह।, यवद वह सत्ता
ब्रह्म के ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से ह। तो वह वनत्य ब्रह्म ही ह।, ‍योंवक ब्रह्म तो ऄववकारी ह। ईसके ऄन्दर वकसी
प्रकार का कोइ ववकार नहीं ह। आसवलए ब्रह्म से ऄलग जगत् की सत्ता वबककरल वसि नहीं होती ह। आसी
कारण जगत् को ऄवनवलभिनीय ी कहा गया ह। तत्त्वज्ञान हो जाने पर जगत् वदखाइ नहीं देता ह। ऄथालभत्
ऄनर व र्में नहीं अता ह। ऄज्ञान की ऄवथथा र्में प्रतीवत होने के कारण सत्ता वाला कहा जाता ह।, र्मगर
वाथतव र्में यह जगत् ऄसत्ता से पष्र ट, थवयं ऄनर व गम्य होने के कारण ऄवनवलभिनीय ही ह। ऄतः यह
जगत् ऄज्ञानी की दृवष्ट र्में सत्य ह। तथा तत्त्वज्ञानी की दृवष्ट र्में ऄसत्य ह। सर्मथत तर ों र्में वनत्य विदात्र्मा ही
सत्ता रूप से सवलभर पररपणर लभ ह। जो र्मनष्र य आस जगत् के वनत्य ि।तन्य रूपता का वनराकरण करके ऄधं कार
रूपी काँर ए र्में रहने वाले र्मेंढक के सर्मान बेकार र्में ही बोलते रहते हैं तथा वतलभर्मान नार्म-रूप के ऄनर व को
ही प्रर्माण र्मान कर कहते हैं वक िेतनता नार्म की कोइ वथतर नहीं ह। वह शरीर से ईत्पन्न होती ह। ऄथालभत्
जड़ से ही ि।तन्य की ऄव व्यव‍त हुइ ह। ऐसे र्मनष्र य ऄज्ञानी, र्मोह से ्र थत व पागल हैं, ईनका र्मवथतष्क
ठीक नहीं ह। ऐसे र्मनष्र यों से ज्ञानी परू र षों को शाथरीय एवं तत्त्वज्ञान की ििालभ नहीं करनी िावहए
सर्मथत ससं ार जो ोग रूप र्में वथथत वदखाइ दे रहा ह।, वह शि र िेतन ब्रह्म ही ह। आस ससं ार र्में
वजतने लोक हैं, ईन लोकों र्में वथथत ववव न्न प्रकार के प्राणी ब्रह्म थवरूप ही हैं जीवात्र्मा व अकाश
अवद ब्रह्म ही ह।, िाहे शरर हो, वर्मर हो या सगे सम्बन्धी अवद ी ब्रह्म थवरूप ही हैं, ‍योंवक ये स ी ब्रह्म
र्में ही ऄववथथत हैं ब्रह्म ही ब्रह्म र्में वथथत ह।, ब्रह्म ही ब्रह्म र्में थिरररत हो रहा ह।, ‚र्मैं ी ब्रह्म ही ह‛ाँ ब्रह्म से
ऄलग वकसी वथतर की ककपना नहीं की जा सकती ह। वजस प्रकार तरंग जल से व न्न नहीं ह।, ईसी प्रकार
प्रकृ वत हुए वबना ही ब्रह्म र्में प्रतीत हो रही ह। जीवात्र्मा िेतन ह।, प्रकृ वत के पदाथलभ जड़ हैं, ऐसा र्मोह वसिलभ
ऄज्ञानी को होता ह।, तत्त्वज्ञानी को क ी नहीं होता
अत्र्मा और संसार रूपी बन्धन का वाथतव र्में अपस र्में कोइ सम्बन्ध नहीं ह। ईसी तरह संसार र्में
शरीर का और अत्र्मा का कोइ सम्बन्ध नहीं ह। सख र -दःर ख अवद के ऄनर व के वल शि र िेतन अत्र्मा

तत्त्वज्ञान 233
और के वल जड़ शरीर को ही नहीं होते हैं, बवकक शरीर और अत्र्मा के तादात्म्य के कारण होते हैं जब
तत्त्वज्ञान के द्रारा ऄज्ञान का नाश हो जाता ह।, तब सख र -दःर ख का ऄत्यन्त ऄ ाव होकर के वल अत्र्मा
शेष रहती ह। ऄज्ञानी परू र ष वजस रूप र्में संसार को देखता ह।, ईसी रूप र्में संसार को सत्य र्मानता ह। परन्तर
तत्त्वज्ञानी परू
र ष के वलए ऐसा नहीं ह।, ईसे ज्ञात ह। वक संसार ऄज्ञान के द्रारा प्रतीत होता ह।
ऄभ्यास के द्रारा जीव और इश्वर की जो रूपता होती ह।, यह एक वनगलभणर ब्रह्म र्में वथथत होने के
सर्मय नहीं होती ह। वनगणर लभ ब्रह्म र्में वथथत होना तो योग की सर्मावप्त ही ह। जीव और इश्वर की एकरूपता
तो आससे पहले की ऄवथथा ह। यह ऄवथथा जीवन्र्मक्त र ऄवथथा की शरू र अत होती ह।, ‍योंवक जीव और
इश्वर की एकरूपता र्में र्मोक्ष वर्मल जाता ह। ऐसा जीवन्र्मक्त र संसार र्में व्यवहार तो करता ह।, यवद ऐसी
ऄवथथा र्में थथरल शरीर त्याग वदया जाए तो ईसका ऄवथतत्व परा-प्रकृ वत ऄथालभत् इश्वर के लोक र्में बना
रहता ह। इश्वर और जीव आस संसार र्में ी एक रूप होते हैं ऐसा तब होता ह। जब इश्वर (सगणर -ब्रह्मद का
साक्षात्कार हो जाता ह। पहले इश्वर का साक्षात्कार होता ह।, विर वनगलभणर ब्रह्म र्में ऄववथथवत होती ह। इश्वर
और जीव र्में ेद तो ह। परन्तर परर्माथलभता ेद नहीं ह। िेतन तत्त्व का सम्बन्ध जब परा-प्रकृ वत से होता ह।,
तब िेतन तत्त्व की संज्ञा इश्वर नार्म से कही जाती ह। जब िेतन तत्त्व का सम्बन्ध ऄपरा-प्रकृ वत से होता
ह।, तब िेतन तत्त्व की सज्ञं ा जीव नार्म से होती ह। इश्वर एक ही ह।, जीव ऄनेक हैं दोनों के ऄतं ःकरण र्में
ऄतं र होता ह। इश्वर का वित्त (ऄतं ःकरणद परा-प्रकृ वत से बना होता ह। जीव का वित्त ऄपरा-प्रकृ वत से
बना होता ह। ऄपरा-प्रकृ वत की ईत्पवत्त परा-प्रकृ वत से होती ह। तथा ऄतं र्में परा-प्रकृ वत र्में ही लीन हो जाती
ह। सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत की ऄश ं र्मार ह। आसवलए वित्त के सम्बन्ध से इश्वर तथा जीव र्में
ऄतं र ह। परा-प्रकृ वत साम्यावथथा वाली, ऄपररणार्मी, व्यापक तथा ऄक्षर थवरूप वाली ह।, जबवक ऄपरा-
प्रकृ वत आससे सवलभथा व न्न ह। यह ववषर्मावथथा वाली, पररणार्मी, सीवर्मत तथा क्षर थवरूप वाली ह। आसी
कारण इश्वर और जीव र्में ऄतं र ह।, जबवक र्मल र रूप से तो दोनों िेतन तत्त्व ही हैं आनके वित्त र्में व न्नता
ह। वित्त के सम्बन्ध से इश्वर वपता ह। और जीव परर ह।, ‍योंवक ऄपरा-प्रकृ वत का प्रकट होना तथा ववलीन
होना परा-प्रकृ वत र्में ह। आसवलए जीवात्र्मा का जीवत्व जब नष्ट हो जाता ह।, तब िेतन तत्त्व शेष रहने पर
ऄपने थवरूप ब्रह्म र्में वथथत हो जाता ह।
जीवात्र्मा का जीवत्व नष्ट होने पर र्मर्मत्व व तर्मोगणर ी ऄंहकार नष्ट हो जाता ह।, तब ऄभ्यासी की
वित्त-वृवत्त ऄत्यन्त व्यापक हो जाती ह। वित्त-वृवत्त व्यापक होने पर ऄहक ं ार रवहत थवरूप का बोध होता
ह।, तब वित्त को सब प्रकार की सीर्माओ ं से र्म‍र त कर देता ह। इश्वर (सगणर ब्रह्मद के साथ एकरूपता होने
पर ऄहतं ा और र्मर्मता की सत्ता का थवरूप बदल जाता ह। क ी-क ी व्यत्र थान की ऄवथथा र्में ऄहर्म

तत्त्वज्ञान 234
ाव वाली वृवत्तयााँ प्रकट होने लगती हैं ऐसी ऄवथथा र्में साधक को इश्वर के साथ एकात्र्मता ाव बनाए
रखना िावहए, वजससे ऄहर्म ाव से पणर लभ रूप से र्मवर ‍त वर्मल सके जब धीरे -धीरे वनरन्तर ऄभ्यास से
ऄहक ं ार से र्मवर ‍त वर्मल जाती ह।, तब इश्वर से एकात्र्मता का ाव बना रहता ह। तथा प्रयास की
अवश्यकता नहीं पड़ती ह। तब ऄन्त:करण र्में ऄनन्त की सत्ता थथावपत होती ह।, वजससे बाह्य जगत् को
ऄनर व करने का तरीका ी बदल जाता ह। और इश्वरीय सत्ता की ऄनर वर त होने लगती ह। आस ऄवथथा
र्में शरीर त्यागने पर इश्वर के लोक र्में ऄनन्त काल तक रहना होगा वहााँ ऄभ्यास करके वनगलभणर ब्रह्म र्में
लीन होना होगा, आसवलए यह ऄवथथा साधन की ही ऄवथथा ह। िेष्टा िाहे वजतनी थवयं थिरतलभ हो यह
बिता का ही लक्ष्ण ह। क। वकय की ऄवथथा प्राप्त करने के वलए सगणर ब्रह्म (इशवरद ् की ऄवथथा से पार
होना जरूरी ह। जहााँ न वकसी प्रकार की आच्छा हो और न ही वकसी प्रकार की िेष्टा हो, वसिलभ िेतन तत्त्व
हो
र्मनष्र य के ऄंतःकरण र्में परर्मात्र्मा (ब्रह्मद वथथत रहता ह। ऄंतःकरण अवरणों व ववक्षेपों से यक्त

रहने के कारण ब्रह्म के थवरूप का दशलभन नहीं होता ह। जब योग के ऄभ्यास के द्रारा धीरे -धीरे वृवत्तयााँ शांत
होते-होते पणर लभ रूप से शांत हो जाती ह। ऄथालभत् वनरुि हो जाती हैं, तब परर्मात्र्मा के थवरूप का साक्षात्कार
हो जाता ह। वजस प्रकार वकसी जलाशय र्में तरंगों के ईठने पर सयर लभ का प्रवतवबम्ब नहीं देखा जा सकता ह।
ऄथवा र्मवलन दपलभण र्में ऄपना र्मख र नहीं देखा जा सकता ह।, ईसी प्रकार ऄतं ःकरण र्में अवरणों और
ववक्षेपों के कारण ब्रह्म के थवरूप का दशलभन नहीं वकया जा सकता ह। दपलभण की र्मवलनता दरर होने पर
प्रवतवबम्ब वदखाइ देने लगता ह। अवरणों और ववक्षेपों के दरर होते ही परर्मात्र्मा का थवरूप ऄवश्य वदखाइ
देने लगता ह। वित्त की वृवत्तयों की ििं लता के कारण सवलभव्यापक ब्रह्म ऄतं ःकरण र्में वथथत रहने पर ी
वछपे हुए के कारण दरर -सा रहता ह। वृवत्तयों की ििं लता शातं होने पर ब्रह्म प्रकट होकर प्रत्यक्ष हो जाता ह।
और विर क ी दरर नहीं रहता ह। वजस प्रकार अकाश र्में र्मेघों के अच्छावदत हो जाने से सयर लभ का प्रकाश
ढक जाता ह। और आन्हीं र्मेघों के दरर हो जाने से सयर लभ का प्रकाश उपर पड़ने लगता ह। यवद देखा जाए तो
सयर लभ ऄपनी जगह पर पहले ी था, जब ईसका प्रकाश नहीं वदखाइ दे रहा था र्मेघों के वछन्न-व न्न होने
पर जब प्रकाश वदखाइ देने लगता ह।, तब ी सयर लभ पहले की ााँवत वथथत रहता ह। वह न दरर जाता ह। न ही
नजदीक अता ह।, वह सद।व प्रकावशत रहता ह। आसी प्रकार सवलभव्यापक ब्रह्म सद।व ऄंतःकरण र्में ववद्यर्मान
रहता ह। ऄंतःकरण र्में अवरण और ववक्षेपों के कारण ऐसा लगता ह। ज।से ब्रह्म ईससे बहुत दरर ह। अवरण
और ववक्षेपों के दरर होने पर िेतन ब्रह्म का प्रकाश प्रकावशत हो जाता ह। जब तक ऄंतःकरण र्में अवरण
और ववक्षेप रहेंगे तब तक जगत् सत्य वदखाइ देगा ऄथवा जगत् की सत्ता सत्य लगेगी र्मगर जब ऄभ्यास

तत्त्वज्ञान 235
के द्रारा ऄंतःकरण के अवरण और ववक्षेप दरर हो जाते हैं, तब सवलभर ब्रह्म का प्रकाश प्रकावशत होने के
कारण जगत् का थवरूप ऄदृश्य हो जाता ह। विर जगत् भ्रर्म रूपी व वर्मथ्या ावसत होने लगता ह।
इश्वर को सवच्िदानन्द ी कहते हैं ऄथालभत् ईसका थवरूप सत-् वित्त और अनन्द थवरूप ह। आसी
अनन्द इश्वर से ऄंशरूप र्में जीव ईत्पन्न होता ह। जीव अनन्द से ईत्पन्न होते हैं और ऄंत र्में अनन्द र्में
डरबकर ववलीन हो जाते हैं आसवलए अनन्द की आच्छा करना जीव का थव ाव ह। तथा ईसका थवरूप धर्मलभ
ह।, ‍योंवक जीव तर परा-प्रकृ वत ह। परा-प्रकृ वत ऄथालभत् इश्वर का वित्त ऄथवा र्महाशव‍त थवरूपा ह।
अनन्द ईसका थवरूप धर्मलभ होने के कारण सदा अनन्द की प्रावप्त का प्रयास करता रहता ह। र्मगर ऄज्ञानता
के कारण र्माया वश आस संसार रूपी बन्धन र्में बंध जाने के बाद वह ऄपने थवरूप को ल र गया ह। अनन्द
प्राप्त करने के वलए जीव एक पदाथलभ से दसर रे पदाथलभ के ोग र्में लगा रहता ह। परन्तर आन पदाथों र्में वह
ऄववनाशी अनन्द की प्रावप्त नहीं हो पाती ह।, ‍योंवक ईसे र्मालर्मर ह। वक संसार के वजतने ी पदाथलभ हैं, वह
सब नश्वर हैं ये पदाथलभ अज हैं, कल नहीं हैं नश्वर और पररणार्मी होने के कारण ईनका रूपान्तरण होता
रहता ह। तथा ऄवथथा ेद के कारण ईसे ईन पदाथों से क ी सख र की प्रावप्त होती ह। तो क ी दःर ख की
ऄनर वर त होती ह। जीव का यही क्रर्म ऄनन्त तक िलता रहता ह। दःर खी हुअ जीव जब योग के ऄभ्यास
द्रारा आन सासं ाररक पदाथों से ईदासीन होकर शातं हो जाता ह।, तब ईसे ऄपनी ल र का एहसास होता ह।
ऄज्ञानता के नष्ट होने पर विर ऄपने विदानन्द रूपी अनन्द सागर र्में डरब जाता ह। विर ईसे आस संसार र्में
रहते हुए ी क ी दःर खों की ऄनर वर त नहीं होती ह।, ‍योंवक ईसे तो दःर खों से ऄत्यन्त वनवृवत्त वर्मल िकर ी
होती ह। ईसकी ऄववद्या नष्ट हो जाने के कारण ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत हो िक र ा ह। जीव जब तक आस
ससं ार र्में ऄवनत्य पदाथों र्में वनत्य अनन्द को ढरंढता रहा, तब तक ईसे अनन्द की प्रावप्त तो दरर की बात
रही, ईसे सद।व दःर खों की ही ऄनर वर त हुइ, ‍योंवक ऄवनत्य र्में वनत्य की प्रावप्त नहीं हो सकती ह। जब
ईसने आन ऄवनत्य पदाथों का पणर लभतया त्याग कर वदया, ईसी सर्मय ईसे ऄपने अप वनत्य अनन्द प्राप्त हो
गया ईसे वनत्य अनन्द प्राप्त करने का कोइ प्रयत्न नहीं करना पड़ा, वनत्य अनन्द तो ईसका थवरूप धर्मलभ
ही ह। यह वनयर्म ह। वक एक बार र्में ही सत् और ऄसत् वथतर दोनों को धारण नहीं वकया जा सकता ह। जब
जीव ऄज्ञान वश ऄसत् वथतर को धारण करता ह।, तब सत् वथतर ऄज्ञानता के कारण ईससे दरर हो जाती ह।
और जब सत् वथतर को धारण करता ह।, तब भ्रर्म रूपी ऄसत् वथतर (संसार व सांसाररक पदाथलभद ईसके वलए
नष्ट हुए के सर्मान हो जाते हैं
इश्वर की परा-प्रकृ वत के सम्बन्ध से स ी जीव सर्मदर ाय ऄव नन् हैं र्मगर जीवों के ऄनावद कर्मलभ
संथकारों का जो सर्महर ह।, ईसके िलथवरूप प्राप्त हुए थथल र शरीर, र्मन, बवर ि और शव‍त के तारतम्य से

तत्त्वज्ञान 236
अपस र्में व न्नता ह। प्रलय काल र्में स ी जीव ऄपरा-प्रकृ वत र्में गहरी वनिा ज।सी ऄवथथा को प्राप्त होकर
ऄववथथत हो जाते हैं, विर सृवष्ट के सर्मय पनर ः ऄपरा-प्रकृ वत से प्रकट हो जाते हैं ऐसा तब होता ह। जब
ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत से प्रकट होकर सृवष्ट ईन्र्मखर हो जाती ह। इश्वर की परा-प्रकृ वत के ऄन्तगलभत होने
से ईसी के ऄंश हैं, आसवलए जीव इश्वर से ऄव न्न कहलाता ह। इश्वर ईसका वनयार्मक ह।, जीव ईसका
वनयर्मन ह। इश्वर एक ह। और जीव ऄनेक ह।
अत्र्मा के दो थवरूप होते हैं एक अत्र्मा और दसर रा जीवात्र्मा अत्र्मा की ऄनर वर त आनर्में से
वकसी एक रूप र्में ऄथवा दोनों ही रूपों र्में हो सकती ह। आन दोनों ऄनर वर तयों र्में थोड़ा-सा ऄंतर होता ह।
अत्र्मा सम्पणर लभ जगत् र्में व्याप्त प्रतीत होता ह। जीवात्र्मा व्यव‍त ववशेष के र्मन प्राण शरीर को धारण करने
वाला व्यवष्ट परू र ष प्रतीत होता ह। सबसे पहले साधक को जब अत्र्मा का ऄनर व होता ह।, तब अत्र्मा
सब जड़ पदाथों से पृथक ऄपने अप र्में ही वथथत वदखता ह। यह साधक की वववेक-ख्यावत ऄवथथा ह।
आस प्रकार के ऄनर व के बाद ी साधक को ऄ ी बहुत ऄभ्यास करना होता ह। जीवात्र्मा का ऄनर व
ऐसा नहीं ह। आस ऄनर व र्में इश्वर के साथ एकता तथा इश्वर ही एकर्मार अश्रय वदखाइ देता ह। विर
ऄपरा-प्रकृ वत को पणर लभ शि र कर देने की तथा ऄंतःकरण अत्र्मा, प्राणात्र्मा और शरीरात्र्मा को खोज
वनकालने की शव‍त की ऄनर वर त होने लगती हैं योग र्में आन दोनों प्रकार के ऄनर वों की अवश्यकता
होती ह।, त ी साधक पणर लभता र्में वथथत हो पाता ह।

तत्त्वज्ञान 237
मोक्ष
ोग और ऄपवगलभ ये दोनों परू र षाथलभ वित्त द्रारा होने से और वित्त र्में ही होने से वित्त के ही धर्मलभ हैं
वजस प्रकार हार और जीत योिाओ ं द्रारा योिाओ ं र्में ही होती ह।, र्मगर हार और जीत राजा की कही जाती
ह।, आसी प्रकार बन्धन वित्त र्में होते हुए ी व्यवहार रूप र्में अत्र्मा के वलए कहा जाता ह। ‍योंवक अत्र्मा
वित्त का िष्टा ह। और ईसका थवार्मी ी ह। जब तक वित्त र्में ोग और ऄपवगलभ का कायलभ परर ा नहीं हो
जाता ह।, तब तक वित्त र्में बन्धन बना रहता ह। परू र षाथलभ से वित्त का ववयोग ही बन्धन से ववयोग ह। ऄथालभत्
र्मवर ‍त ह। बन्धन तीन प्रकार का होता ह।
पहला बन्धन– जो साधक वित्त की प्रथर्म वर र्म र्में अस‍त हो रहे हैं ऄथवा वजन योवगयों का
ऄभ्यास वसिलभ वित्त की प्रथर्म वर र्म तक ही ह। ऄथालभत् वसिलभ थथल र वृवत्तयों का ही साक्षात्कार कर पाये हैं,
आनके ऄन्तगलभत थथल र पिं तर अते हैं, ऐसे साधक ववकारों र्में अस‍त होकर शीघ्र ही ल र ोक पर जन्र्म
्र हण करते हैं ईवित सर्मय अने पर विर आसी वर र्म (वित्त की प्रथर्म वर र्मद को शीघ्र सर्माप्त कर ऄभ्यास
करने लगते हैं
दूसरा बन्धन– जो साधक वित्त की प्रथर्म वर र्म का साक्षात्कार कर िक र े हैं ऄथालभत् पंि तर ों का
साक्षात्कार कर िक र े हैं तथा वित्त की दसर री वर र्म का साक्षात्कार करने के वलए ऄभ्यास कर रहे हैं, वित्त
की दसर री वर र्म के ऄन्तगलभत सक्ष्र र्म पिं तर व तन्र्माराएाँ अती हैं, आस ऄवथथा र्में साधक सक्ष्र र्म ववषयों र्में
अस‍त रहते हैं परोपकार, ऄवहसं ा और सावत्वक कायों र्में लगे रहते हैं तथा िल की कार्मना रखते हैं
आस ऄवथथा को प्राप्त साधक को यश, सम्र्मान, सख र अवद बहुत वर्मलता ह। ऐसे साधक थथल र शरीर के
पश्िात ऄपनी यो‍यतानसर ार सक्ष्र र्म लोकों र्में, वपतर लोक से लेकर ब्रह्म लोक तक, सावत्वक वासनाओ ं
का िल ोगते हैं विर वे ऄपने कर्मालभशयों के ऄनसर ार ल र ोक पर जन्र्म लेते हैं ऐसे साधकों का वित्त
शरीर र्में बंधे रहने का कारण धर्मलभ-ऄधर्मलभ से यक्त र ईनकी वासनाएाँ हैं विर आसी बन्धन के कारण र्मनष्र य
लोक ( ल र ोकद पर जन्र्म लेते हैं ईवित सर्मय अने पर ऄभ्यास के द्रारा ऄवत शीघ्र आसी वर र्म को प्राप्त
कर ऄभ्यास र्में लग जाते हैं
तीसरा बन्धन– जो साधक सबीज सर्मावध की ईच्ितर व ईच्ितर्म ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए
हैं ईच्ितर ऄवथथा वाली वित्त की वर र्म ऄहक ं ार के ऄन्तगलभत अती ह। आसर्में सावत्वक ऄहक ं ार के
कारण अनन्द की ऄनर वर त होती ह।, आसवलए आस वर र्म को अनन्दानगर त ी कहते हैं ईच्ितर्म ऄवथथा
वाली वित्त की वर र्म ऄवथर्मता के ऄन्तगलभत अती ह।, आसवलए आसे ऄवथर्मतानगर त वर र्म ी कहते हैं

तत्त्वज्ञान 238
जो साधक ऄभ्यास के द्रारा आन्हीं वर र्म को प्राप्त पाते हैं ऄथवा आन्हीं वर र्म र्में अस‍त रहते हैं,
वववेक-ख्यावत के द्रारा ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत होने का प्रयत्न नहीं करते हैं ऄथवा प्राप्त नहीं कर पाते
हैं, वे थथल र शरीर त्यागने के पश्िात सक्ष्र र्म वासनाओ ं के ऄधीन बहुत सर्मय तक ववदेह और प्रकृ वतलय
ऄवथथा र्में र्मोक्ष ज।सी वथथवत र्में रहकर ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत होने के वलये विर ल र ोक पर जन्र्म
्र हण करते हैं आस बन्धन को प्राकृ वतक बन्धन कहते हैं ववदेहों को ऄहक ं ार का और प्रकृ वतलय को
ऄवथर्मता का बन्धन रहता ह। उपर वलखे बन्धनों से थपष्ट ह। वक जीवात्र्मा थवयं ऄपने बन्धन का
वजम्र्मेदार ह।
सृवष्ट का जो ऄवरोहण क्रर्म ह। ऄथालभत् पहला ववषर्म पररणार्म ह।– वित्त से ऄहक ं ार बवहर्मलभख र ी हो
रहा ह। ऄहक ं ार से तन्र्माराएाँ, र्मन और दसों आवन्ियााँ तथा तन्र्माराओ ं से सक्ष्र र्म पिं तर , सक्ष्र र्म पंि तर ों से
थथल र पंि तर बवहर्मलभख र ी हो रहे हैं शरू र अत से लेकर (वित्त से लेकरद ऄन्त तक (थथल र पंि- तर तकद
ज।से-ज।से बवहर्मलभख र ता बढ़ती जाती ह।, व।से-व।से रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा बढ़ती जाती ह। थथल र जगत् व
थथल र शरीर र्में रजोगणर व तर्मोगणर का ही व्यवहार िल रहा ह। सत्त्वगणर के वल नार्म र्मार का (गौण रूप
र्मेंद रह जाता ह। जब साधक के ऄभ्यास के द्रारा ऄवरोहण क्रर्म से ईकटे अरोह क्रर्म र्में होने लगता ह।, तब
ऄभ्यासानसर ार ऄन्तर्मलभख र ता बढ़ने लगती ह। वजतनी ऄन्तर्मलभख र ता बढ़ेगी ईतना ही रजोगणर व तर्मोगणर का
अवरण (र्माराद कर्म होता जाएगा तथा सत्त्वगणर की र्मारा बढ़ती जाएगी, तब सत्त्वगणर के प्रकाश र्में िेतन
तत्त्व की ऄनर वर त बढ़ती जाएगी ज।से-ज।से िेतन तत्त्व की थपष्टता से ऄनर वर त बढ़ती जाएगी, व।स-े व।से
जीवात्र्मा का बन्धन ढ़ीला होता जाएगा
यह जो बन्धन ह। वह वाथतव र्में वित्त र्में ही होता ह। अत्र्मा का आससे (बन्धन और र्मोक्षद करछ
लेना देना नहीं ह।, ‍योंवक अत्र्मा पर आसका (बन्धन और र्मोक्ष काद वकसी प्रकार का प्र ाव नहीं पड़ता ह।
अत्र्मा िष्टा र्मार ह।, वकसी से सम्बि नहीं होता ह। वह न बन्धन र्में बाँधता ह। और न ही र्म‍र त होता ह।
बन्धन र्में बाँधना और र्म‍र त होना तो प्रकृ वत का कायलभ ह।, न वक अत्र्मा का ऄज्ञान ही बन्धन का कारण ह।,
ववशि र ज्ञान र्मोक्ष का कारण ह। र्मनष्र य जो ी ऄच्छे बरर े कर्मलभ करता ह। वह धर्मलभ-ऄधर्मलभ की प्रवृवत्त ह। यह
सब वित्त के कायलभ हैं आनका सम्बन्ध परर ी तरह से वित्त से ह।, ‍योंवक तीनों गणर ों का ववषर्म पररणार्म तो
वित्त र्में ही हो रहा ह। ऄज्ञान ऄथवा ऄववद्या र्में जो वित्त की ऄवथथा रहती ह।, ववशि र ज्ञान की प्रावप्त पर
वित्त की यह ऄवथथा पहले की ऄपेक्षा से व न्न हो जाती ह। यवद प्राकृ वतक बन्धन से यक्त र योवगयों पर
गौर करें तो थपष्ट ज्ञात हो जाता ह। वक ईन्हें ी र्मवर ‍त नहीं ह।, जबवक ऐसा योगी सक्ष्र र्म जगत् से परे प्रकृ वत
के अवरण र्में बहुत सर्मय तक ऄववथथत रहता ह। तथा र्मोक्ष ज।सी ही ऄनर वर त करता ह। र्मगर ईसको ी

तत्त्वज्ञान 239
वकसी-न-वकसी सर्मय जन्र्म ्र हण करना होता ह।, ‍योंवक ऐसे योगी ऄपने थवरूप र्में ऄववथथवत की
ऄवथथा प्राप्त नहीं कर पाये हैं थवरूप ऄववथथवत की ऄवथथा प्राप्त करने के वलए ईन्हें जन्र्म ्र हण करना
होता ह।, ‍योंवक प्रकृ वतलयों को ऄवथर्मता र्में असव‍त बनी रहती ह। ऄवथर्मता र्में असव‍त का कारण यह
ह। वक जहााँ तक तीनों गणर ों का ऄवधकार ह।, ईसर्में वकसी-न-वकसी पदाथलभ से ऄववद्या के कारण करछ-न-
करछ असव‍त शेष रह जाती ह। यही बन्धन का कारण ह। यह असव‍त वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास के
सर्मय सर्माप्त हो जाती ह।, ‍योंवक वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास के सर्मय व्यत्र थान के संथकार दब जाते हैं,
तब यह प्राकृ वतक बन्धन ी सर्माप्त हो जाता ह।
वर्मथ्या ज्ञान (ऄववद्याद के वासना से यक्त
र जो वित्त ह।, वह न तो ऄपने ोगों के ऄवधकार को
सर्माप्त करता ह। और न ही अत्र्मा के दशलभन को प्राप्त होता ह। ऐसा वित्त ऄपने ोगों से यक्त र होने के
कारण पनर रावृवत्त शील हो जाता ह। ऄथालभत् विर से ऄपने ोगों र्में लग जाता ह। ऐसा वित्त र्में वथथत
कर्मालभशय रूप र्में सक्ष्र र्म वासनाओ ं के कारण होता ह। र्मगर वववेक-ख्यावत द्रारा अत्र्मा का दशलभन हो जाने
पर वित्त ऄपने ोगों के ऄवधकार की सर्मावप्त को प्राप्त हुअ ऄववद्या से रवहत होकर बन्धन के कारण के
ऄ ाव हो जाने से पनर रावृवत्त से रवहत हो जाता ह। वववेक-ख्यावत के द्रारा अत्र्मा और वित्त की व न्नता
का ज्ञान होता ह। वनरन्तर ऄभ्यास से वववेक ज्ञान वनर्मलभल व शि र हो जाता ह।, तब ‍लेशों का सवलभथा नाश
हो जाता ह। और वर्मथ्या ज्ञान का बीज नर े हुए बीज के सर्मान हो जाता ह। विर यह बन्धन की ईत्पवत्त
करने र्में ऄसर्मथलभ हो जाता ह।
ससं ार र्में जो ईत्पन्न हुअ ह। वही अयर और र्मृत्यर को प्राप्त होता ह। वही बन्धन र्में पड़ता ह। तथा
वही र्मोक्ष को प्राप्त होता ह। ऄपने वाथतववक थवरूप का तत्त्वज्ञान न होने से जीव बन्धन र्में पड़ता ह।
ईत्पन्न होने का सम्बन्ध आस दृश्य जगत् से ह।, अत्र्मा से नहीं अत्र्मा ईत्पवत्त से पहले ज।सा था व।सा ही
ईत्पवत्त के बाद ी रहता ह। ईत्पवत्त का अत्र्मा पर वकसी प्रकार का प्र ाव नहीं पड़ता ह।, वह सदा एक
रहता ह। दृश्य जगत् का ऄवथतत्व ही बन्धन थवरूप ह। आस दृश्य जगत् का सम्बन्ध वित्त पर वथथत वृवत्तयों
से ह। वृवत्तयों के द्रारा ही दृश्य जगत् की ऄनर वर त की जाती ह। आसी दृश्य जगत् के द्रारा ही जीवात्र्मा
बन्धन र्में पड़ता ह। वित्त पर वथथत वृवत्तयों का ऄभ्यास के द्रारा वनरुि हो जाने पर दृश्य जगत् का वदखाइ
देना बन्द हो जाता ह। दृश्य का वनवारण हो जाने पर दृश्य जगत् नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह।, तब
जीवात्र्मा बन्धन से र्म‍र त हो जाता ह। वित्त पर वथथत वृवत्तयााँ जब तक वायर थपन्दन के द्रारा बाहर
वनकलती रहती हैं, तब तक दृश्य जगत् बना रहता ह। ऐसी ऄवथथा र्में दृश्य जगत् की सत्ता का भ्रर्म बना
रहेगा सत्ता का नष्ट होना तथा ऄपने थवरूप र्में वथथत होना ही र्मोक्ष ह। आसवलए कहा जाता ह। वक जब

तत्त्वज्ञान 240
तक दृश्य बना रहेगा तब तक र्मोक्ष प्राप्त नहीं होगा जो ऄसत् वथतर ह। ईसका ऄवथतत्व नहीं ह। यह ऄसत्
वथतर जो भ्रर्म रूपी ह।, ईसे सत्य रूप र्में ऄज्ञानी परूर ष ही देखते ह। यह जीवात्र्मा का बन्धन ह। जो परू र ष
वनववलभककप सर्मावध का ऄभ्यास कर रहे हैं, ईस सर्मावध ऄवथथा र्में जगत् का ान नहीं रहता ह। सर्मावध से
ईठने के बाद ईसे सांसाररक दःर ख ऄनर व र्में अने लगता ह। वृवत्त रूप दृश्य के रहते हुए कोइ ी ऄभ्यासी
सर्मावध का वकतना ी ऄभ्यास करे , ‍या ईसे संसार की प्रावप्त नहीं होगी? ऄथालभत् ऄवश्य होगी, ‍योंवक
ईस परू र ष की जहााँ-जहााँ वित्त-वृवत्त जाएगी, वहााँ-वहााँ ईससे सम्बन्ध रखने वाले जगत् की ऄनर वर त होगी
िष्टा िाहे जहााँ ी हो ईसके ऄन्दर ही जगत् का प्रादर ालभव होता ह। वजस प्रकार परू र ष थवप्न को ऄपने
ह्रदय के ऄन्दर ही देखता ह।, ईसी प्रकार यह जगत् वित्त र्में ही वथथत ह। यह ऄपने ऄनर व के द्रारा वदखाइ
देता ह। आसवलए आस जगत् की ऄत्यन्त ववथर्मृवत होना ही र्मोक्ष कहलाता ह। आस ऄवथथा को प्राप्त करने
वाले परू र ष के वलए कोइ ी वथतर वप्रय ऄथवा ऄवप्रय नहीं होती ह। व।से र्मोक्ष थवा ाववक रूप से सद।व
ववद्यर्मान रहता ह।, र्मगर ऄववद्या के कारण ईदय नहीं होता ह। ज।से कपड़े र्में ईज्ज्वलता ववद्यर्मान रहती ह।,
र्मगर कपड़ा र्मवलन होने के कारण ईज्ज्वलता वदखाइ नहीं देती ह। र्म।ल के दरर होते ही ईज्ज्वलता प्रकट हो
जाती ह। आसी प्रकार ऄववद्या के कारण जगत् सत्य वदखाइ देता ह।, ऄववद्या के नष्ट होते ही जगत् का
ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह। जगत् के ऄत्यन्त ऄ ाव होने पर जीवत्व नष्ट हो जाता ह। तथा अत्र्मा ऄपने
थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।
वजसके ऄन्दर सृवष्ट और प्रलय होते रहते हैं, जो जन्र्म और र्मृत्यर से रवहत हैं, ऄखण्ड वनत्य रस
प्रकाश से यक्त र हैं, िेतन थवरूप सवलभव्यापी और ववकार रवहत हैं, जो स ी का अधार ह।, ईसका कोइ
अधार नहीं ह। वह थवयं ऄपने अप र्में वथथत ह। ऐसे परर्मात्र्मा का तत्त्वज्ञान होने पर र्मोक्ष की प्रावप्त होती
ह। वजस प्रकार वर्मट्टी के ऄन्दर घड़ा अवद ववद्यर्मान रहते हैं, ईसी प्रकार ब्रह्म र्में नाना प्रकार की सृवष्टयााँ
ववद्यर्मान रहती हैं ये सृवष्टयााँ तत्त्व रूप से ऄसत्य ही हैं, परन्तर र्माया के प्र ाव से सत्य प्रतीत होती हैं आसी
कारण ब्रह्म से ऄव न्न होने के कारण ी व न्न-सी वदखाइ देती हैं ऄभ्यासी परू र ष वजस-वजस वथतर से
ववर‍त होता जाता ह।, ईस-ईस वथतर से र्म‍र त होता जाता ह। जब ऄभ्यास करते-करते धीरे -धीरे सब और
से वनवृत हो जाता ह।, तब ईसे वकसी प्रकार का दःर ख नहीं होता ह। आस ऄवथथा र्में वह र्मोक्ष को प्राप्त हो
जाता ह।
र्म‍र त परू
र ष दो प्रकार के होते हैं एक– ववदेह र्म‍र त, दूसरा– जीवन्र्मक्त र ववदेह र्म‍र त परूर ष के
ववषय र्में करछ ी नहीं कहा जा सकता ह। ऄथालभत् जो ी ईसके ववषय र्में कहा जाएगा, वह कर्म ही होगा
ईसका शब्दों र्में वणलभन नहीं वकया जा सकता ह। ‍योंवक वह तो साक्षात् ब्रह्म थवरूप ही होता ह। तथा सद।व

तत्त्वज्ञान 241
ऄपने थवरूप र्में वथथत होता ह। वह संसार र्में व्यवहार नहीं करता ह। और ईसे तो संसार का ान ही नहीं
होता ह। यवद र्मझर से पछर ा जाए वक र्मैंने क ी ववदेह र्मर‍त परू र ष को प्रत्यक्ष देखा ह।, तो र्मैं यही ईत्तर दगाँर ा–
र्मैंने ऄ ी तक ऐसे परू र ष को नहीं देखा ह। यह सारी जानकाररयााँ हर्में ज्ञान के द्रारा वर्मली हैं तथा हर्में ी
क ी ऐसी ऄवथथा करछ सर्मय के वलए प्राप्त हुइ थी तब हर्मने ऐसा जान पाया था वक ववदेह र्म‍र त परू र ष
संसार र्में ऐसे रहता ह। र्मैंने आस ऄवथथा की प्रावप्त के वलए ऄभ्यास रोक वदया ऄ ी र्मैं जीवन्र्मक्त र
ऄवथथा र्में ही रहना िाहता ह,ाँ ‍योंवक संसार र्में ऄ ी बहुत से कायलभ करने हैं वतलभर्मान सर्मय र्में हर्मारी
पररवथथवतयााँ करछ आस प्रकार की ह। वक र्मैं ववदेह र्म‍र त ऄवथथा का ऄभ्यास नहीं कर सकता हाँ र्मैं ववष्य
र्में ववदेह र्म‍र त ऄवथथा प्राप्त करके ही आस थथल र शरीर को त्यागना िाहता हाँ र्मैं जीवन्र्मक्त र परूर षों के
ववषय र्में बहुत करछ वलख सकता ह,ाँ ‍योंवक र्मैंने यह ऄवथथा कइ वषों से प्राप्त कर रखी ह। तथा संसार र्में
र्मैं संसारी परू र षों के सर्मान व्यवहार करता हाँ संसारी परू र ष हर्में नहीं सर्मझ सकता ह। वक र्मैं जीवन्र्मक्त
र हाँ
बहुत से ऄज्ञानी परू र ष तो ढोंगी, पाखण्डी तथा पता नहीं कौन-कौन सी ईपावधयााँ देते रहते हैं र्मैं ईन
ईपावधयों को सनर कर ी प्रसन्न बना रहता ह,ाँ ‍योंवक र्मैं स ी प्रकार के प्रावणयों र्में ववद्यर्मान हाँ र्मझर र्में और
ऄन्य प्रावणयों र्में तत्त्वरूप से करछ ी व न्न नहीं ह। यवद ौवतक दृवष्ट से सोिंर तो यह थथल र शरीर गन्दगी
से रा होने के कारण एवं ऄपरा-प्रकृ वत से बना होने के कारण वनन्दनीय ही ह। ससं ारी परुर ष तो आस थथल र
शरीर की वनन्दा करते हैं वनन्दक तथा र्मेरी अत्र्मा तो एक ही ह। ऄतः र्मैं और वनन्दक एक ही हुए जब
तत्त्व रूप से एक ही हैं तो वनन्दक के प्रवत ववकार अने का कोइ कारण नहीं बनता ह।
जीवन्र्मक्त
र परू र ष के ऄन्त:करण र्में ोग पदाथलभ वर्मथ्या हैं आस वनश्िय से ोग पदाथों के प्रवत
सक ं कप रवहत ससं ार र्में व्यवहार करते रहते हैं र्मझर े ऄर्मक
र वथतर प्राप्त हो जाए, यह जो ावना ह। वह तृष्णा
से सम्बवन्धत ह। आस तृष्णा का त्याग करके ही परर्म् ईदार हो गया ह। ऄज्ञानी परू र षों के ऄन्दर यह ावना
होती ह। वक यह थथल र शरीर हर्मारे र्माता-वपता द्रारा ईत्पन्न वकया गया ह। र्मगर जीवन्र्मक्त र परूर ष का
वनश्िय होता ह। वक र्मैं थथल र शरीर से लेकर वित्त अवद से ी सक्ष्र र्मतर हाँ जगत् के सर्मथत पदाथलभ परर्मात्र्मा
के ही थवरूप हैं सारा जगत् अकाश के सर्मान ही ह। शि र ावना से यह वनश्िय ही जीवन्र्मक्त र परूर ष को
र्मोक्ष प्राप्त कराता ह। आसवलए ब्रह्म का साक्षात्कार करने के वलए स ी ववषयों का त्याग कर देना िावहए,
‍योंवक सब करछ त्यागने के पश्िात जो करछ शेष रहता ह।, वह र्मोक्ष का ही थवरूप ह।
ऄभ्यासी परू र ष को ऄभ्यास के द्रारा वित्त की वृवत्त को वनरुि कर देना िावहए ‍योंवक जब प्राण,
र्मन की वृवत्त तथा वासना का ऄत्यन्त ऄ ाव हो जाता ह।, तब र्मोक्ष की प्रावप्त होती ह। आच्छाओ ं ऄथवा
वासनाओ ं को वित्त कहते हैं जब ऄभ्यास के द्रारा वित्त ववलीन हो जाता ह।, तब संसार की वनवृवत्त हो

तत्त्वज्ञान 242
जाती ह। यह संसार र्मन के संककप से ईत्पन्न हुअ ह। जब र्मन ऄथालभत् वित्त की वृवत्त वनरुि हो जाएगी
तब संसार रह ही कहााँ जाएगा तब के वल परर्माथलभ तत्त्व ही शेष रहेगा, यही र्मोक्ष का थवरूप ह। र्मन, प्राण,
वासना आन तीनों र्में वकसी एक का ववनाश करने से संसार का ऄ ाव हो जाता ह। आनर्में र्मन र्मख्र य ह।,
‍योंवक र्मन के संककप से संसार ईत्पन्न हुअ ह। आसवलए सर्मावध के ऄभ्यास से र्मन की वृवत्त को वनरुि
कर देना िावहए विर जीवात्र्मा को ईस परर्म् पद की प्रावप्त हो जाएगी जब प्राणायार्म वकया जाता ह।, तब
र्मन ऄपने अप ऄपनी िंिलता को छोड़कर शांत होने लगता ह। जब वायर का िलना रुक जाता ह।, तब
गन्ध का प्रसार ी रुक जाता ह। आसी तरह र्मन के रुकने पर प्राणों का िलना रुक जाता ह। प्राण और र्मन
दोनों एक दसर रे से वर्मलते जल र ते रहते हैं आन दोनों र्में से कोइ ी ऄके ला नहीं रह सकता ह। एक के रुकने
से दसर रा रुक जाता ह। ऄथालभत् एक के ववलीन होने पर दसर रा ववलीन हो जाता ह। ऄथालभत् दोनों ववलीन हो
जाते हैं दोनों के ववलीन होने पर जीवात्र्मा का जीवत्व नष्ट हो जाता ह। तथा शि र वनर्मलभल अत्र्मा ऄपने
थवरूप र्में वथथत हो जाता ह। वित्त का थव ाव ह। वक वह वजस वथतर र्में तन्र्मय हो जाता ह।, शीघ्र ही ईसी
रूप वाला बन जाता ह। आसवलए ऄभ्यासी को परर्मात्र्म-तत्त्व र्में तब तक तदाकार वृवत्त बनाए रखना
िावहए जब तक ईस वृवत्त का ही ऄभ्यास के द्रारा वनरुि (ऄ ावद न हो जाए वृवत्त के वनरुि होने से
ऄभ्यासी का वित्त थवयं ही प्राण के साथ ववलीन हो जाएगा, तब र्मोक्ष थवरूप ब्रह्म र्में वथथत हो जाएगा
सासं ाररक पदाथों का जो प्रसारण ह।, जीवात्र्मा को ईसका ऄनर व ऄज्ञान के द्रारा ही वसि होता
ह। जब ज्ञान के द्रारा आस प्रकार के ऄनर व रुक जाते हैं, तब ऄभ्यासी परू र ष को ऄसत् पदाथों का ऄनर व
नहीं होता ह। तब वह सोिता ह।- र्मैं बेकार र्में ही ऄब तक ऄसत् पदाथों का ऄनर व करता रहा हाँ जब
परूर ष सोिता ह।, र्मैं यह ह,ाँ र्मैं वह ह,ाँ र्मैंने ऐसा वकया अवद ऄहं ाव ही बन्धन का कारण होता ह। यही
बन्धन दःर ख थवरूप ह। परन्तर जब ऄहं ाव नहीं रहता ह।, तब र्मोक्ष का कारण बन जाता ह। आससे थपष्ट
होता ह। वक बन्धन और र्मोक्ष ऄपने ही ऄधीन हैं वासनाओ ं के क्षीण होने पर दःर ख का ऄनर व नहीं होता
ह। तथा वासना ऄत्यन्त सक्ष्र र्म होकर र्मोक्ष रूप र्में बदल जाती ह।
जब ऄभ्यास के द्रारा द्र।त और एकत्व अवद ेद न रह जाए, सब करछ ब्रह्म ह।, र्मैं ी ब्रह्म ही हाँ
ऄथालभत् दृश्य का ऄत्यन्त ऄ ाव रूप जो ऄनर वर त ह।, वह र्मोक्ष ही ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष ब्रह्म को आसी रूप र्में
ऄनर तर करता ह। सम्यक ज्ञान से ही र्मोक्ष की प्रावप्त होती ह। वहााँ न एकत्व ह। और न ऄनेकत्व ह। वहााँ
करछ ी नहीं ह। ऄथालभत् जहााँ दृश्य की सत्ता का ऄत्यन्त ऄ ाव ह।, स ी प्रकार के सद् ावों की सीर्मा का
जहााँ पर ऄन्त ह।, सर्मथत ववकारों का जहााँ ऄ ाव ह।, वनरवतशय अनन्द रूप से वथथत और परर्म् शांत पद
को र्मोक्ष कहा जाता ह।

तत्त्वज्ञान 243
जीवन्र्मक्त
र और ववदेहर्म‍र त परुर षों र्में कोइ ऄंतर नहीं ह। दोनों प्रकार के परू र ष र्मोक्ष को प्राप्त हो
िक र े हैं, ‍योंवक दोनों प्रकार के परू र ष बोध थवरूप हैं ईनका ोग पदाथलभ से कोइ सम्बन्ध नहीं ह। आन्हें
ोगों की ऄनर वर त ी नहीं होती ह।, वसिलभ ोगा ास होता ह। ेद कराने वाला ऄज्ञान होता ह। आन दोनों
का ऄज्ञान नष्ट हो िक र ा ह। ऄज्ञान के नष्ट होने पर ज्ञान ही शेष रह जाता ह।, विर ेद का ‍या र्मतलब
सर्मिर का जल शांत रहे ऄथवा लहरें ईठ रही हों, दोनों ही दशाओ ं र्में जल की रूपता र्में कोइ िकलभ नहीं
होता ह। ऄथालभत् वकसी प्रकार का ऄंतर नहीं होता ह। आसी प्रकार शरीर के रहते हुए और शरीर के न रहने पर
र्म‍र त परू र ष की वथथवत एक सी ही होती ह। जीवन्र्मक्त र और ववदेहर्म‍र त र्में थोड़ा-सा ी ेद नहीं ह। ज।से
वायर गवतशील रहे ऄथवा शांत रहे, दोनों दशाओ ं र्में वह वायर ही ह। सांसाररक दृवष्ट से देखने पर दोनों
परूर षों की बाह्य दशाओ ं र्में ऄंतर वदखाइ देता ह।, र्मगर दोनों परू र षों के ऄंतःकरण सद।व ब्रह्म ऄनर वर त र्में
ओत-प्रोत रहते हैं जीवन्र्मरक्त परू र ष संसार र्में व्यवहार करता रहता ह। वह एक र्मार बोध वनषठा ् को प्राप्त
हुअ राग-द्रेष, हषलभ-शोक अवद से रवहत ह। ईसे प्रारब्ध के ऄनसर ार जो करछ वर्मल जाए ईसी पर ऄपना
जीवन वनवालभह करता रहता ह। तथा ऄपने वनज थवरूप र्में गहरी वनिा की ााँवत वथथत रहता ह। ऄज्ञान रूपी
वनिा से जाग जाने के कारण ऄथालभत् ऄज्ञान नष्ट हो जाने के कारण सद।व जागता रहता ह। ऄथालभत् तत्त्वज्ञान
र्में वथथत रहता ह। वह कर्मलभ करते सर्मय कतृलभत्व और न करते सर्मय ऄकतृलभत्व के ऄव र्मान से वलप्त नहीं
होता ह। वह वित्त यक्त र होते हुए ी वित्त से शन्र य ह।, ऐसा जीवन्र्मक्त
र परूर ष होता ह। ववदेह र्म‍र त परू र ष को
ब्रह्म कहा जाता ह। यह संसार के व्यवहार र्में वलप्त नहीं होता ह। ोजन करते सर्मय ईसे वकसी प्रकार की
ऄनर वर त नहीं होती ह। र्मार करछ सर्मय के वलए ( ोजन करने के सर्मयद व्यत्र थान ऄवथथा र्में अता ह।, विर
ऄपनी अत्र्मा र्में वथथत हो जाता ह।
क। वकय र्मवर ‍त की प्रावप्त ही र्मानव जीवन का र्मख्र य ईदेश्य होना िावहए क। वकय र्मवर ‍त प्राप्त होने
पर दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त हो जाती ह। दःर खों के नष्ट हो जाने पर दबर ारा दःर खों की ईत्पवत्त न होने को
ही ऄत्यन्त वनवृवत्त कहते हैं क। वकय प्राप्त होने पर जीव को विर जन्र्म ्र हण नहीं करना पड़ता ह। र्मोक्ष
और र्मवर ‍त आन दोनों शब्दों का ऄथलभ छरटकारा होता ह। यहााँ पर छरटकारा का ाव दःर ख से ह। ऄथालभत् दःर खों
से छरटकारा तथा आसका ऄथलभ बन्धन से ी लगाया जा सकता ह। ऄब र्मोक्ष और र्मवर ‍त का ऄथलभ ‘दःर खों
तथा बन्धन का छरटकारा’ कह वदया जाए तो शायद गलत नहीं होगा, ऄथालभत् दःर खों से छरट जाना दःर खों
से ऄत्यन्त वनवृवत्त होना ही र्मोक्ष कहा जाता ह।
श्री रार्मिररतर्मानस र्में कइ जगह ‘ऄपवगलभ’ शब्द अया ह। ‘ऄपवगलभ’ र्मोक्ष का ही पयायलभवािी
शब्द ह। ऄपवगलभ का ऄथलभ ी दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त से ही ह। जब ब्रह्मानंद की प्रावप्त होती ह।, त ी

तत्त्वज्ञान 244
दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त होती ह। दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त के वलए परू र षों को योग का ऄभ्यास करना
होगा, त ी वनवृवत्त सम् व हो सकती ह। ज।से गन्दे वथर का र्म।ल धो वदया जाए तो र्म।ल धल र ने के बाद वथर
थवर्मेव थवच्छ हो जाएगा वथर की थवच्छता के वलए ऄन्य परू र षाथलभ की जरूरत नहीं ह।, वसिलभ र्म।ल दरर
करने की जरूरत ह। थवच्छता तो थवर्मेव प्रकावशत हो जाती ह। आसी प्रकार दःर खों की वनवृवत्त होते ही
अनन्द की प्रावप्त हो जाती ह।
क। वकय शब्द का ऄथलभ होता ह। ‘के वल वही होना’, ऄथालभत् अत्र्मा ऄपने अप र्में हो, ईसका
वकसी के साथ सम्बन्ध न हो क। वकय दःर ख वनवृवत्त के बाद की ऄवथथा ववशेष पर ्यान अकवषलभत करता
ह। बौि धर्मलभ के ऄनयर ायी वनवालभण शब्द का प्रयोग करते हैं वनवालभण शब्द का ऄथलभ ह। ‘बझर जाना’ वजस
तरह से दहकता हुअ ऄंगारा शांत होकर (बझर करद राख का ढेर हो जाता ह।, राख सद।व शांत होती ह।
आसी प्रकार वित्त र्में वथथत स ी प्रकार की सांसाररक आच्छाएाँ शांत हो जाना ही वनवालभण ह। वजस दीपक र्में
तेल की सर्मावप्त होने पर दीपक बझर जाता ह।, आसी प्रकार वित्त पर से आच्छाओ ं ऄथालभत् र्मन के वनरुि हो
जाने पर वित्त परर्म् शांत हो जाता ह। वित्त ऄत्यन्त शन्र य होकर ब्रह्म थवरूप हो जाता ह।
संथकारों का र्मन र्में, र्मन का ऄहक
ं ार र्में, ऄहक
ं ार का वित्त र्में और वित्त का र्मल
र प्रकृ वत र्में ववलीन
हो जाना ऄथालभत् कायलभ गणर ों का ऄपने कारण गणर ों र्में ववलीन हो जाना क। वकय कहा जाता ह। प्रकृ वत का
जीवात्र्मा के ोग और र्मवर ‍त के कायलभ से वनवृत्त होकर र्मन और वित्त का ऄपने कारण र्में लीन हो जाना
क। वकय ह। दसर रे शब्दों र्में कहा जा सकता ह। वक जीवात्र्मा का ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाना क। वकय ह।
अत्र्मा को ोग ईपलब्ध कराने के वलए प्रवृत्त हुइ प्रकृ वत जब ऄपने थवरूप को कायलभ रूप र्में पररवणत
करती ह।, तब गणर ों र्में क्रर्मशः कारण-कायलभ ाव ईत्पन्न होकर कायलभ क्षर्मता अ जाती ह। आस सर्मय
विवतशव‍त ही प्रकृ वत के ोग की ऄनर वर त करती ह। जीव ऄज्ञानता वश प्रकृ वत को ऄपना सर्मझता ह।
शि र अत्र्मा तो ववकार से रवहत ह। जब गणर र्मोक्ष वदलाने का कायलभ करते हैं तो क्रर्मशः ऄपने-ऄपने कारण
र्में लीन हो जाते हैं, ईसे क। वकय कहते हैं जीवात्र्मा के ोग सर्माप्त हो जाने पर र्मन और वित्त से वकसी
प्रकार का सम्बन्ध नहीं रह जाता ह।, तब जीवात्र्मा ऄपने वनजथवरूप र्में वथथत हो जाता ह। जीवात्र्मा का
ऄपने वनज थवरूप र्में वथथत हो जाने को क। वकय कहते हैं योग के ऄभ्यास के द्रारा वित्त की वृवत्तयों का
वनरोध हो जाता ह।, तब जीवात्र्मा के ोग शेष नहीं रह जाते हैं, ‍योंवक वह वृवत्तयों के द्रारा ही ोग करता
ह। जब वृवत्तयााँ ही वनरुि हो गइ तो ोग वकसका करें , ‍योंवक ो‍य पदाथलभ ही नहीं रह गया ऐसी ऄवथथा
र्में िेतन शव‍त ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाती ह। अत्र्मा का ऄपने थवरूप र्में वथथत होना ही क। वकय ह।
क। वकय का ऄथलभ ह।– ‘के वल ईसी का होना’ ऄथालभत् ईसके साथ वकसी ऄन्य का न होना

तत्त्वज्ञान 245
जब अत्र्मा ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाती ह।, तब ईसे वकसी प्रकार की ऄनर वर त नहीं होती ह।
ऄपने थवरूप र्में वथथत होने को क। वकय कहा जाता ह। वकसी-वकसी जगह वलखा वर्मलता ह।- ब्रह्मानंद र्में
वथथत होना ऄथवा वनजानन्द र्में वथथत होना अवद जब वसिलभ ब्रह्म ही होता ह। ऄथवा वसिलभ अत्र्मा ही
ऄपने थवरूप र्में ऄके ले होता ह।, विवतशव‍त ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाती ह।, तब ोग की ऄनर वर त
कौन करे गा? वनगलभणर ब्रह्म र्में अनन्द नहीं ह।, ब्रह्म र्में वथथत होना ही र्मोक्ष ह। आससे वसि होता ह। वक र्मोक्ष र्में
अनन्द की प्रावप्त नहीं ह।, ‍योंवक सख र -दःर ख की ऄनर वर त तो विवत शव‍त द्रारा होती ह। र्मगर
वनरूिावथथा र्में तो वित्त ऄत्यन्त सक्ष्र र्म होकर अत्र्माकार हो जाता ह। ऄथवा अत्र्मा र्में ववलीन हो जाता
ह।, विर अनन्द की ऄनर वर त क। से हो सकती ह।, कौन अनन्द की ऄनर वर त कराएगा? अत्र्मा का वित्त के
साथ वकसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता ह। यवद वकसी प्रकार का सम्बन्ध र्मानेंगे तो वह वर्मथ्या ज्ञान
हुअ वर्मथ्याज्ञान के रहते र्मोक्ष प्राप्त करना ऄसम् व ह। िेतन की ऄनर वर त ही नहीं की जा सकती ह।
िेतन को वकस कारण के द्रारा जानें ऐसा वनयर्म ह।- कारण के द्रारा ऄपने से व न्न पदाथलभ की ऄनर वर त की
जाती ह। िेतनता ऄपने थवरूप ऄथवा ऄपनी सत्ता के ज्ञान को वकस कारण के द्रारा जाने जो सबको
जानता ह।, ईसे वकसके द्रारा जाना जाए आसका र्मतलब हुअ- के वल िेतन रूप वथथवत को क। वकय कहते
हैं दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त और अनन्द की प्रावप्त ये दोनों क। वकय र्में ववलीन हो जाते हैं
सगणर ब्रह्म और इश्वर दोनों पयायलभवािी शब्द हैं इश्वर को सवच्िदानन्द थवरुप कहा जाता ह।,
‍योंवक ईसके ऄन्दर ये गणर पाये जाते हैं जबवक वह गणर ों व ववकारों से परे ह। अत्र्मा को सवच्िदानन्द
थवरूप र्मानना ईवित नहीं ह। हााँ, वकसी को सर्मझाने की दृवष्ट से ऐसा कहा जा सकता ह।, र्मगर स।िावन्तक
रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता ह।
सविच्दानन्द का ऄथलभ ह।– सत् स्वरूप, दचत्त स्वरूप, और आनन्द स्वरूप का होना इश्वर
सत्त थवरूप तथा अनन्द थवरूप वाला ह। र्मगर वनगलभणर ब्रह्म ही सगणर ब्रह्म ऄथालभत् इश्वर थवरूप वाला बन
जाता ह। इश्वर द्रारा ही सारी सृवष्टयााँ ऄपने ईदर र्में की जाती हैं ईदर र्में आसवलए कहा ‍योंवक वह
सवलभव्यापक ह।, ऄसीवर्मत हैं आसवलए सारी सृवष्टयााँ ईसके ऄन्दर ही ववद्यर्मान हैं र्मैंने थवयं ी ऄनर वर त के
द्रारा जाना ह। वक इश्वर सारी सृवष्ट ऄपने ईदर के ऄन्दर करता ह। एक वा‍य ी ह। ‘साक्षी िेता के वल
वनगलभणर श्ि’, ऄथालभत् साक्षी अत्र्मा के वल िेतन थवरूप ह। ईसका वकसी गणर के साथ वकसी प्रकार का कोइ
सम्बन्ध नहीं ह। अत्र्मा का वाथतववक थवरूप के वल िेतन ह।
क। वकय थवरूप की ईपलवब्ध होने पर सर्मथत ‍लेश कर्मलभ नष्ट हो जाते हैं ऄभ्यासी ऄपने को
सवलभथा र्म‍र त ऄनर व करता ह। गणर ों का ऄपना कायलभ ोग और ऄपवगलभ वसि होने पर गणर ऄपना कायलभ

तत्त्वज्ञान 246
बन्द कर देते हैं, ‍योंवक जीवात्र्मा को ोग ईपलब्ध कराने के वलए गणर ों का कोइ प्रयोजन नहीं रह जाता
ह। आसवलए गणर ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं, ऄब ईसके वलए तर काल और ववष्य काल वतलभर्मान र्में
वर्मल जाते हैं, आससे प्रत्येक वथतर वतलभर्मान हो जाती ह। क। वकय प्राप्त योगी के ज्ञान के सार्मने ौवतक ज्ञान
करछ ी नहीं ह।
व‍त योग के साधक को ईसकी ावना के ऄनसर ार क्रर्म र्मवर ‍त वर्मलती ह। ये र्मवर ‍तयााँ िार प्रकार
की होती हैं- सालो‍य, सार्मीप्य, सारूप्य और सायज्र य व‍त योगी आस क्रर्म र्मवर ‍त को प्राप्त करने पर
इश्वर के लोक र्में रहता ह। वह वहााँ पर ऄपनी ावना के ऄनसर ार ऄनन्त काल तक रहता ह।, विर इश्वर
के थवरूप र्में ववलीन हो जाता ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष आस प्रकार की क्रर्म र्मवर ‍त को प्राप्त नहीं होता ह। वह
वकसी लोक र्में नहीं जाता ह।, बवकक वह थथल र शरीर त्यागने के पश्िात ब्रह्म र्में लीन हो जाता ह।
योगी जब ऄपने िेतन थवरूप र्में सद।व वथथत रहता ह।, ईसे वथथत प्रज्ञ कहते हैं आस ऄवथथा को
‘वनरोध वथथवत’, ‘थवरूप वथथत’ ऄथवा ‘वथथर वित्त’ ी कहते हैं गीता र्में आस ऄवथथा को वकसी-वकसी
थथान पर वथथर बवर ि वाला ी कहा गया ह। यह ऄवथथा योगी को तब प्राप्त होती ह।, जब वह वनबीज
सर्मावध का ऄभ्यास कर रहा होता ह। सर्मावध ऄवथथा र्में व्यत्र थान के संथकार दब जाते हैं र्मगर जब
सर्मावध गं होती ह।, तब वनरोध के सथं कार दब जाते हैं तथा व्यत्र थान के सथं कार प्रबल हो जाते हैं ऐसा
धर्मी वित्त के कारण होता ह। ऐसा आसवलए होता ह।, ‍योंवक वनबीज सर्मावध र्में वृवत्तयों का वनरोध हो जाता
ह। र्मगर व्यत्र थान के सथं कारों का वनरोध नहीं होता ह।, ‍योंवक ये सथं कार वित्त के धर्मलभ हैं आसवलए वृवत्तयों
के रुकने पर सथं कार नहीं रुकते ह।, धर्मी वित्त र्में बने रहते हैं आसी प्रकार वनरोध के सथं कार ी (पर-व।रा‍य
के सथं कारद वित्त के धर्मलभ हैं वनबीज-सर्मावध के सर्मय वनरोध पररणार्म होता ह। ईस सर्मय व्यत्र थान के
सथं कार दबते हैं और वनरोध के सथं कार प्रकट होते हैं
वनबीज सर्मावध के सर्मय पर-व।रा‍य की वृवत्त का ी वनरोध हो जाता ह।, ‍योंवक वनबीज-सर्मावध के
सर्मय स ी प्रकार की वृवत्तयों का वनरोध हो जाता ह। तब वनरोध के सथं कार क। से शेष रह जाते हैं? यह तो
र्मालर्मर हो िक र ा होगा वक वृवत्तयों से सथं कार ईत्पन्न होते हैं वृवत्तयााँ थथल र ह। और सथं कार सक्ष्र र्म हैं
आसवलए वृवत्तयााँ सथं कारों की वनवर्मत्त कारण हुइ, र्मगर सथं कारों का ईपादान कारण वित्त ही ह। ईपादान
कारण को धर्मी कहते हैं तथा ईसके कायलभ को धर्मलभ कहते हैं आसवलए जब तक वित्त ववद्यर्मान ह।, तब तक
वनरोध के संथकार (पर-व।रा‍य के संथकारद ववद्यर्मान रहेंगे जब योगी को क। वकय की प्रावप्त होती ह।, तब
वित्त ऄपने ईपादान कारण र्में (प्रकृ वतद लय हो जाता ह।, तब ईसके साथ वित्त के धर्मलभ, वनरोध के संथकार
वनवृत्त हो जाते हैं जब वनरोध के संथकार सर्मावध ऄवथथा र्में प्रबल हो जाते हैं, तब व्यत्र थान के संथकार

तत्त्वज्ञान 247
पणर लभ रूप से दब जाते हैं व्यत्र थान के संथकार रूपी र्मल से रवहत वनर्मलभल संथकारों ऄथालभत् वनरोध के संथकारों
का प्रवाह रहता ह। वित्त के आसी प्रवाह को ‘प्रशांत वावहता वथथवत’ कहते हैं ऄथवा वित्त की प्रशांत
ऄवथथा कहते हैं र्मगर सर्मावध ंग होने पर यह प्रवाह सर्माप्त हो जाता ह।, ‍योंवक व्यत्र थान के संथकार
प्रकट हो जाते हैं
योगी जब कािी सर्मय तक वनबीज सर्मावध का कठोर ऄभ्यास करता रहता ह।, तब बार-बार की
आस ऄवथथा से क ी वनरोध के संथकार प्रकट होते हैं तो क ी व्यत्र थान के संथकार वनरोध के संथकारों को
दबाकर प्रकट होते हैं आससे वनरोध के संथकार पष्र ट (शव‍तशालीद होते रहते हैं ज।से-ज।से वनरोध के
संथकार पष्र ट होते जाएाँगे, व।से-व।से व्यत्र थान के संथकार कर्मजोर होते जाएाँगे आस वक्रया से व्यत्र थान के
संथकार धीरे -धीरे क्षीण होकर कर्म होते जाएाँगे एक सर्मय ऐसा अता ह। जब व्यत्र थान के संथकार पणर लभ रूप
से दब जाते हैं वनरोध के संथकारों का वित्त र्में लगातार प्रवाह बना रहता ह। वित्त र्में वनरोध के पररणार्म के
कारण अत्र्मा बाह्य दृश्य का िष्टा नहीं रहता ह।, तब ऄपने शि र परर्मात्र्म-थवरूप र्में ऄववथथत हो जाता ह।
और वित्त अत्र्मा को दृश्य वदखाने का कायलभ बन्द करके ऄपने थवरूप से अत्र्माकार हो जाता ह। वित्त को
बनाने वाले गणर वनरोधावथथा र्में ऄपने ‘सत्त्ववित्त’ र्में ऄववथथत रहते हैं सत्त्व वित्त र्में के वल अंतररक
पररणार्म होता रहता ह।
जब वनरोध पररणार्म के सर्मय अत्र्मा बाह्य दृश्य का िष्टा नहीं रहता ह।, ईस सर्मय वित्त र्में जो
ववव न्न प्रकार की वृवत्तयों र्में बाह्य पररणार्म होता ह।, वह बन्द हो जाता ह। ईस बाह्य पररणार्म के बन्द होने
पर वित्त अत्र्मा को वकसी प्रकार का दृश्य नहीं वदखा पाता ह। अत्र्मा आन्हीं वृवत्तयों द्रारा बाह्य दृश्य
(सासं ाररक दृश्यद देखता ह। जब गणर ों का बाह्य पररणार्म ही होना बन्द हो जाएगा, तब वृवत्तयााँ रुक जाती
हैं, ‍योंवक वित्त के ऄन्दर वृवत्तयों को रोकने का पररणार्म होता रहता ह। जब वृवत्तयााँ रुक जाती हैं, तब
अत्र्मा बाह्य दृश्य नहीं देख पाता ह। ऄथालभत् िष्टा रूप र्में नहीं रहता ह। तब अत्र्मा ऄपने शि र थवरूप
परर्मात्र्मा र्में ऄववथथत हो जाता ह। जब वित्त र्में बाह्य पररणार्म होना बन्द हो जाता ह।, तब योगी को
सर्मावध ऄवथथा र्में आससे सम्बवन्धत ऄनर व ी अता ह। ऄनर व दो प्रकार का अता ह।- एक- ऄंडों के
रूप र्में, दूसरा- छोटे-छोटे बच्िों के रूप र्में ऄनर व र्में वदखाइ देता ह। वक एक ऄंडे के उपर दो ऄंडे रखे
हैं ऄथवा तीन छोटे -छोटे एक सर्मान बच्िे वदखाइ देते हैं एक बच्िे को नीिे दबाकर ईसके उपर दो
बच्िे सो रहे होते हैं ऄथालभत् तीनों बच्िे सो रहे होते हैं बच्िों वाला यह दृश्य बहुत ऄच्छा होता ह। ये
दोनों ऄनर व अप हर्मारे ऄनर वों पढ़ सकें गे ये तीनों ऄंडे ऄथवा बच्िे गणर ों के प्रतीक हैं आस प्रकार
ऄनर व अने का कारण यह ह। वक वववेक-ख्यावत के बाद तर्मोगणर सत्त्वगणर का साथ देने लगता ह।

तत्त्वज्ञान 248
तर्मोगणर आस ऄवथथा र्में वसिलभ नार्म र्मार का होता ह। ऄववद्या ‍लेश अवद नर े हुए बीज के सर्मान हो जाते
हैं, ‍योंवक नर े हुए बीज ऄंकरररत नहीं होते हैं तर्मोगणर ऄब सत्त्वगणर का सहायक बनकर अत्र्मा और
वित्त की व न्नता का ज्ञान कराने वाली वृवत्त (वववेक-ख्यावतद को वथथर बनाए रखता ह। आसवलए वनरोध
पररणार्म के सर्मय सत्त्वगणर व तर्मोगणर एक साथ वर्मलकर रजोगणर को दबाए रहते हैं आसी कारण वथथत-
प्रज्ञ योगी ऄथवा वनबीज सर्मावध का ऄभ्यास करने वाले योगी की अाँखों र्में िंिलता नहीं होती ह।
ईसकी दृवष्ट र्में वथथरता अ जाती ह।, ‍योंवक रजोगणर शांत हो जाता ह। रजोगणर के शांत हुए वबना वित्त र्में
वथथरता नहीं अ सकती ह।
वित्त र्में दो प्रकार के पररणार्म होते हैं एक– अतं ररक पररणार्म, दूसरा– बाह्य पररणार्म बाह्य
पररणार्म के ववषय र्में हर्म ऄ ी-ऄ ी वलख िक र े हैं अंतररक पररणार्म के ववषय र्में पहले थोड़ा-सा वलखा
जा िक र ा ह।, जो धर्मी वित्त र्में होता ह। व्यत्र थान के संथकारों व वनरोध के संथकारों का प्रकट होना व दबना
धर्मी वित्त का अंतररक पररणार्म ह। वनबीज सर्मावध काल र्में वनरोध के संथकारों का प्रकट होना तथा
व्यत्र थान के संथकारों का दब जाना, अंतररक पररणार्म र्में ऄभ्यास के द्रारा व्यत्र थान के संथकारो को क्षीण
कर-कर के सवलभथा दबा वदए जाते हैं विर एक सर्मय ऐसा ी अता ह। जब वनरोध के संथकारों का प्रवाह
वबना सर्मावध के बराबर बना रहता ह।, ‍योंवक व्यत्र थान के सथं कार क्षीण होकर दबे रहते हैं आस ऄवथथा
को वथथत-प्रज्ञ कहते हैं थवरूपाववथथवत जब थवा ाववक रूप से रहने लगे ऄथवा वबना प्रयास वकए ही
बनी रहे, ईसे थवरूप वथथवत ऄथवा वथथत-प्रज्ञ कहते हैं जब सर्मावध ऄवथथा र्में वनरूिावथथा प्राप्त होती
ह।, ईसे थवरूप र्में ‘ऄववथथत’ कहते हैं जब प्रयास करने पर यह ऄवथथा प्राप्त हो ईसे ऄववथथवत कहा
जाता ह। जब वबना प्रयास के यह ऄवथथा बनी रहे तब ‘वथथवत’ कहते हैं आसवलए थवरूप र्में ऄववथथवत
और ‘थवरूप वथथवत’ र्में बहुत ऄतं र ह।
योगी को शरू र अत र्में ‘थवरूप र्में ऄववथथत’ या वनरूिावथथा र्मार करछ क्षणों के वलए प्राप्त होती
ह। विर धीरे -धीरे आस ऄवथथा का सर्मय बढ़ता रहता ह। आस ऄवथथा को वथथत-प्रज्ञ नहीं कहा जा सकता
ह।, र्मगर जब ऄभ्यास के पररप‍व हो जाने पर सहज रूप से ही वनरूिावथथा रहने लगे, तब ईसे वथथत-प्रज्ञ
कहते हैं वथथत-प्रज्ञ ऄवथथा को प्राप्त योगी के वित्त र्में व्यत्र थान के सथं कार प्रकट नहीं होते हैं वथथत-प्रज्ञ
ऄवथथा प्राप्त हो जाने पर योगी ऄपने ौवतक कायलभ क। से करता ह।, ‍योंवक ईसे जीववत रहने के वलए
ोजन अवद ्र हण करने की जरुरत होती ह।, तब ईसे व्यत्र थान की ऄवथथा र्में अना पड़ता ह। ोजन
अवद ्र हण करने के पश्िात वह ऄपनी पवर लभ वथथवत र्में विर से हो जाता ह। आससे योगी को वकसी प्रकार
का ऄवरोध नहीं होता ह।, ‍योंवक वह सद।व वथथत-प्रज्ञ या ‘थवरूप वथथवत’ र्में रहता ह।

तत्त्वज्ञान 249
वथथत-प्रज्ञ योगी के द्रारा वकए गये कर्मलभ असव‍त से रवहत वनष्कार्म ाव के द्रारा होते हैं प्रत्यक्ष
देखने र्में योगी ले ही साधारण र्मनष्र यों की ााँवत कर्मलभ कर रहा हो, र्मगर योगी सद।व असव‍त से रवहत
होकर कर्मलभ कर रहा होता ह। आसवलए ऐसे कर्मलभ योगी को बन्धन के संथकार ईत्पन्न नहीं करता ह।, ‍योंवक
ईस सर्मय योगी की वथथवत व्यत्र थान की नहीं होती ह।, बककी व्यत्र थान र्में ऄववथथवत होती ह। वथथवत तो
ईसकी वनरोध की ही रहती ह।, आसवलए साधारण र्मनष्र यों को भ्रर्म हो जाता ह। र्मगर वाथतव र्में योगी ऄपने
कर्मलभ इश्वर की अज्ञा सर्मझकर ऄथवा प्रावणयों के ककयाण हेतर करता ह।
र्मोक्ष के सम्बन्ध र्में द्र।त ाव व ऄद्र।त ाव वाले योगी शब्दों का ऄथलभ वनकालने र्में थोड़ा ऄलग-
ऄलग ऄथलभ रखते हैं ऄद्र।तवादी र्मोक्ष की ऄवथथा र्में अत्र्मतत्त्व और परर्मात्र्मा की व न्नता नहीं र्मानते ह।
ईनके ऄनसर ार व्यवहार की दशा र्में अत्र्मतत्त्व के रूप र्में परर्मात्र्म-तत्त्व का ही व्यवहार होता ह। र्मोक्ष की
ऄवथथा र्में अत्र्मतत्त्व परर्मात्र्म-तत्त्व र्में, जो आसका ही वाथतववक थवरूप ह।, ईसर्में ऄववथथत रहता ह।
द्र।तवादी योगी अत्र्मतत्त्व और परर्मात्र्म-तत्त्व र्में जड़-तत्त्व-सा ववजातीय ेद र्मानते हैं अत्र्मा और
परर्मात्र्मा अपस र्में जड़ तत्त्व के सर्मान व न्न नहीं हैं, वकन्तर एक जातीय होते हुए ी ऄपनी-ऄपनी
ऄलग-ऄलग सत्ता रखते हैं र्म‍र त की ऄवथथा र्में अत्र्मा परर्मात्र्मा को प्राप्त होकर ईसी के सर्मान हो
जाता ह। आसी प्रकार ऄद्र।तवादी योगी का जड़ तत्त्व के सम्बन्ध र्में ी र्मत ेद ह। ऄद्र।तवादी जड़ तत्त्व की
सत्ता परर्मात्र्म-तत्त्व से व न्न नहीं र्मानते हैं, बवकक ईसी र्में अरोवपत करते हैं ज।से- रथसी र्में सााँप और सीप
र्में िााँदी की सत्ता अरोवपत ह।, परन्तर वाथतववक नहीं ह। जड़-तत्त्व को ऄवनवलभिनीय र्माया ऄथवा ऄववद्या
र्मानते हैं, जो न सत्य ह। और न ही ऄसत्य ह। सत्य आस कारण से नहीं ह।, ‍योंवक र्मोक्ष की ऄवथथा र्में
ईसका वनतातं ऄ ाव (जड़ तत्त्व काद हो जाता ह। और ऄसत्य आस कारण नहीं ह।, ‍योंवक सारा व्यवहार
आसी र्में (जड़ तत्त्व र्मेंद िल रहा ह। यहााँ पर के वल शब्दों का ईकट-िे र ह। वाथतव र्में जगत् का ईपादान
कारण तो र्माया (ऄववद्याद ही वसि होती ह। र्माया को िाहे सत् कहो या ऄसत् कहो, िाहे सत् और
ऄसत् दोनों से ववलक्षण कहो र्माया रूपी र्मेघ से जगत् रूपी पानी बरस रहा ह। और अकाश के सर्मान
िेतन तत्त्व की करछ ी हावन नहीं ह। वह अकाश रूपी ब्रह्म ीगता नहीं ह। द्र।तवाद र्में जड़ तत्त्व प्रकृ वत
को एक थवतंर तत्त्व के रूप र्में र्मानते हैं वसिलभ र्मोक्ष की ऄवथथा र्में प्रकृ वत का नाश के वल र्मोक्ष वालों को
होता ह। आसका ऄपने थवरूप से ऄ ाव नहीं होता ह।, ‍योंवक वजन्हें र्मोक्ष नहीं वर्मला ऄथालभत् वजनका ोग-
ऄपवगलभ का प्रयोजन वसि नहीं हुअ ह।, ईनके वलए प्रकृ वत बनी रहती ह।
दःर खों की ऄत्यन्त वनवृवत्त ऄथालभत् थवरूप वथथवत द्र।त-ऄद्र।त दोनों ही वसिान्तों का ऄवन्तर्म लक्ष्य
ह। वह थवरूप वथथवत ब्रह्म सदृश हो ऄथवा ब्रह्म थवरूप होना हो आसी प्रकार दःर ख का कारण जड़ तत्त्व

तत्त्वज्ञान 250
ह। आसका अत्र्म-तत्त्व से संयोग हटाना दोनों वसिान्त वालों का ्येय ह। ऄद्र।तवावदयों ने आसको रथसी र्में
सपलभ के सदृश परर्मात्र्म-तत्त्व र्में अरोवपत एक कवकपत वथतर बताकर अत्र्म-तत्त्व से आसका संयोग छरड़ाया
ह। द्र।तवावदयों ने जड़तत्त्व को सवलभथा व न्न एक ऄलग तत्त्व वदखाकर ईसर्में से अत्र्म-तत्त्व का ऄ्याय
हटाया ह। दःर ख की वनवृवत्त का साधन परर्मात्र्म-तत्त्व का ज्ञान दोनों वसिान्त वालों के वलए सर्मान रूप से
र्माननीय ह। जो कार्मनाओ ं से रवहत ह।, जो कार्मनाओ ं से बाहर वनकल गया ह।, वजसकी कार्मनाएं परर ी हो
गइ हैं ऄथवा वजनको के वल अत्र्मा की कार्मना ह।, वह ब्रह्म ही हुअ आस प्रकार की र्मवर ‍त ही क। वकय ह।
ब्रह्म के सबल थवरूप की (इश्वर कीद ईपासना और साक्षात्कार कारण शरीर ऄथवा वित्त से होता ह।
शि र िेतन तत्त्व र्में कारण शरीर व कारण जगत् परे रह जाता ह। वहााँ द्र।त ी नहीं रह जाता ह। और न ऄद्र।त
रह जाता ह।, ऐसा ईपवनषदों र्में वणलभन वर्मलता ह। थवरूप ऄववथथवत र्में पहुिाँ कर वित्त के सारे संथकारों का
नाश कर लेने पर ी योगी सब प्रावणयों के ककयाण का संककप ऄपने वित्त र्में बनाए रखते हैं आनके वित्तों
को बनाने वाले गणर ऄपने कारण र्में लीन नहीं होते हैं ये वित्त ऄपने ववशाल, सावत्वक, शि र थवरूप से
इश्वर के ववशि र , सत्त्वर्मय वित्त र्में वजसर्में सारे प्रावणयों के ककयाण का संककप ववद्यर्मान ह।, र्में लीन रहते
हैं इश्वरीय वनयर्मानसर ार संसार के ककयाण र्में जब-जब ईनकी अवश्यकता होती ह।, तब-तब वे ऄपने
शि र थवरूप से आस ौवतक जगत् र्में ऄवतीणलभ होते हैं आन्हीं को ऄवतार कहते हैं, ज।से- रार्म और कृ ष्ण
अवद
र्मोक्ष और बन्धन वाथतव र्में प्रकृ वत के कायलभ वित्त र्में ही होते हैं अत्र्मा ऄपने थवरूप से सदा
ऄसगं ह। वह न तो बन्धन र्में पड़ता ह। और न ही र्म‍र त होता ह। आसवलए न कोइ बन्धन र्में पड़ता ह। और न
कोइ छरटता ह। और न ही कोइ जन्र्मान्तरों र्में घर्मर ता ह। प्रकृ वत ही ववव न्न (देवता, र्मनष्र यों, पश-र पक्षी अवद
के शरीर र्मेंद अश्रय वाली घर्मर ती ह। प्रकृ वत ही बाँधती और छरटती ह। ऄज्ञान जो बन्धन का कारण ह। और
ज्ञान जो र्मोक्ष का कारण ह।, आसका साक्षात् सम्बन्ध वित्त से ह।, ‍योंवक गणर ों का पररणार्म वित्त र्में होता ह।
न वक ऄपररणार्मी अत्र्मा र्में होता ह। धर्मलभ-ऄधर्मलभ जो ससं ार का कारण ह।, ये सब वित्त के धर्मलभ हैं आसवलए
आनका िल, बन्धन, र्मोक्ष और ससं ार का सम्बन्ध वित्त से ह। अत्र्मा बन्धन, र्मोक्ष और ससं ार र्में सदा एक
सा रहता ह।, जबवक वित्त र्में ेद होता ह। ऄज्ञान र्में जो ऄवथथा वित्त की ह।, ज्ञान र्में ईससे व न्न हो जाती
ह। ववषर्मावथथा वाली, वनम्नगर्मन वाली व्यवष्ट प्रकृ वत दःर खों व बन्धनों से यक्त र ह। आन्हीं दःर खों व बन्धनों
से र्म‍र त होने को र्मोक्ष या र्मरव‍त कहते हैं दःर ख व बन्धन रूपी प्रकृ वत से जब तक योगी परे नहीं होगा, तब
तक र्मोक्ष वर्मलना सम् व नहीं ह। आसवलए वरगणर ात्र्मक प्रकृ वत से छरटकारा प्राप्त करने पर ही र्मोक्ष की
प्रावप्त हो पायेगी

तत्त्वज्ञान 251
गणर ों की प्रवृवत्त जीवात्र्मा के ोग-ऄपवगलभ के वलए ह। जब यह प्रयोजन वसि हो जाता ह।, तब ईस
जीवात्र्मा के प्रवत गणर ों का कोइ कतलभव्य शेष नहीं रहता ह।, आसवलए वह ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं
आस प्रकार जीवात्र्मा का ऄवन्तर्म लक्ष्य ऄपवगलभ सम्पादन करने के पश्िात गणर ों का ऄपने कारण र्में लीन हो
जाने का नार्म क। वकय ह। ऄथवा यह सर्मझना िावहए वक धर्मी वित्त के पररणार्म क्रर्म बनाने वाले गणर ों का
ऄपने कारण र्में लीन हो जाने पर जीवात्र्मा का वित्त से वकसी प्रकार का सम्बन्ध न रहने पर ऄपने शि र
थवरूप र्में ऄववथथत हो जाने का नार्म क। वकय ह। जो योगी थवरूप वथथवत को प्राप्त कर िक र े हैं, वे दो
प्रकार के होते हैं एक– वजनके कर्मलभ के वल ोग वनवृवत्त के वलए ही होते हैं, दूसरे – वे योगी वजनके कर्मलभ
ोग वनवृवत्त तथा वनष्कार्म ाव से करने के वलए होते हैं वे असव‍त रवहत परर्मात्र्मा की अज्ञा पालन
करते हुए सर्मथत प्रावणयों के ककयाणाथलभ इश्वर परायण होते हैं आसी के ऄनसर ार आन दोनों प्रकार के थवरूप
वथथवत वाले योवगयों की र्मवर ‍त ी दो प्रकार ही होती ह। प्रथम प्रकार की र्मवर ‍त र्में योवगयों के वित्त को
बनाने वाले गणर ऄपने कारण र्में लीन हो जाते हैं, यही क। वकय ह। दूसरे प्रकार के योवगयों को र्मवर ‍त र्में
सत्त्व वित्त ऄपने थवरूप सवहत इश्वर के ववशि र सत्त्वर्मय वित्त र्में (इश्वर के लोक र्मेंद ऄववथथत रहता ह।
इश्वरीय वनयर्मानसर ार जब ईनकी अवश्यकता होती ह।, तब वे सम्पणर लभ प्रावणयों के ककयाणाथलभ तथा संसार
र्में धर्मलभ की र्मयालभदा थथावपत करने के वलए शि र ि।तन्य थवरूप से ौवतक जगत् र्में ऄवतार ्र हण करते हैं
वजस जीवात्र्मा का प्रयोजन वसि हो गया ह। ऄथालभत् ोग और ऄपवगलभ का प्रयोजन वसि हो गया
ह।, ईसके वलए यह दृश्यर्मान जगत् नष्ट होने के सर्मान होकर ी नष्ट नहीं होता ह।, ‍योंवक वह दसर रे
जीवात्र्माओ ं के साथ साझे की वथतर ह। ऄथालभत् आस सारे दृश्यर्मान जगत् की सरं िना सर्मथत जीवात्र्माओ ं
के ोग ऄपवगलभ के वलए ह। न वक वकसी ववशेष जीवात्र्मा के वलए ह। आसवलए वजसका प्रयोजन वसि हो
गया ह।, ईसके वलए यह दृश्यर्मान जगत् का कायलभ सर्माप्त और नाश होने के तकर य हो जाता ह। र्मगर
दृश्यर्मान जगत् नाश नहीं होता ह।, ‍योंवक एक जीवात्र्मा के र्म‍र त हो जाने से स ी जीवात्र्माएाँ र्म‍र त नहीं
हो जाती हैं यह दृश्यर्मान जगत् दसर रों के आसी प्रयोजन ( ोग और ऄपवगलभद को साधने र्में लगा रहता ह।
वित्त जीवात्र्मा का दृश्य रूप ह।, वही वृवत्त रूप से ऄन्य सब दृश्यों को जीवात्र्मा का बोध कराने का साधन
ह। एक वित्त के नष्ट हो जाने से ईससे दृश्यर्मान सारा जगत् ी ईसके प्रवत नष्ट होने के तरकय ह।, वकन्तर
ऄनन्त जीवों के वित्त वजन्होंने जीवात्र्माओ ं के ोग-ऄपवगलभ का प्रयोजन वसि नहीं वकया ह।, ईनके ववषय
सारे दृश्यर्मान जगत् सवहत वतलभर्मान रहते हैं
वेदान्त र्में र्मोक्ष के र्मख्र य रूप से दो प्रकार के ेद र्माने गये हैं एक– वे वनष्कार्म कर्मलभ योगी जो
सबल ब्रह्म का (इश्वर काद साक्षात्कार कर िक र े हैं, वकन्तर शि
र ब्रह्म (वनगणर लभ ब्रह्मद का साक्षात्कार करने से

तत्त्वज्ञान 252
पवर लभ ही आस लोक से थथल र शरीर को त्याग कर िल देते हैं, वे इश्वर के लोक र्में पहुिाँ कर वहााँ शि र ब्रह्म
का साक्षात् करके र्म‍र त हो जाते हैं ऄथालभत् वनबीज सर्मावध की वर र्म को प्राप्त वकए हुए वे योगी जो वनरोध
के संथकारों द्रारा बहुत ऄंश र्में व्यत्र थान के संथकारों को नष्ट कर िक र े हैं, ऄथवा करछ शेष रह गये हैं वजस
ऄवथथा र्में ईन्होंने थथल र शरीर त्यागा ह।, वे इश्वर के लोक को प्राप्त होते हैं विर वहााँ सर्मावध के द्रारा
व्यत्र थान के शेष संथकार वनवृत्त हो जाने पर क। वकय को प्राप्त होते हैं इश्वर का लोक इश्वर का ववशि र
सत्त्वर्मय वित्त ह। जो सारे सक्ष्र र्म लोकों से सक्ष्र र्मतर्म कारण लोक (र्महाकारण लोकद ऄथालभत् कारण जगत् ह।
दूसरा– वे वनष्कार्म कर्मलभ योगी जो वनगणर लभ ब्रह्म को पणर तलभ या साक्षात् कर िक र े हैं ऄथालभत् वनबीज सर्मावध को
प्राप्त वकए हुए वे योगी जो व्यत्र थान के संथकारों को सवलभथा वनरुि कर िक र े हैं, ईन्हें इश्वर के लोक र्में जाने
की जरूरत नहीं ह। वे थथल र शरीर त्यागते ही र्म‍र त हो जाते हैं
वित्त और जीवात्र्मा की सर्मान शवर ि होने पर क। वकय होता ह। सत्त्व वित्त का जीवात्र्मा के सर्मान
शि र होना यह ह। वक ईसर्में रजोगणर व तर्मोगणर का र्म।ल यहााँ तक दरर हो जाए वक अत्र्मा और वित्त का ेद
वदखाकर, गणर ों के पररणार्म का यथाथलभ ज्ञान कराकर, जीवात्र्मा को ऄपना थवरूप साक्षात् कराने यो‍य हो
जाए जीवात्र्मा की शवर ि यह ह। वक वित्त र्में अत्र्म-ऄ्यास के कारण ईसके ोग को ईपिार से ऄपना
सर्मझ रहा था ईसका वित्त और अत्र्मा के ेद के यथाथलभ ज्ञान से सवलभथा ऄ ाव हो जावे, यही क। वकय ह।
परूर षाथलभ से शन्र य हुए गणर ों का ऄपने कारण र्में लीन होना क। वकय ह। ऄथवा जीवात्र्मा का ऄपने थवरूप र्में
ऄववथथत हो जाना क। वकय ह। गणर ों की प्रवृवत्त जीवात्र्मा के ोग-ऄपवगलभ के वलए ह।, आसी परू र षाथलभ के
वलए गणर वित्त-आवन्िय-शरीर अवद र्में पररवणत हो रहे हैं वजस जीवात्र्मा का प्रयोजन वसि हो गया ह।
ईसके प्रवत कोइ कायलभ शेष नहीं रहता ह।, तब ईस जीवात्र्मा के वलए ोग ऄपवगलभ रूप परू र षाथलभ के सम्पादन
के कृ ताथलभ हुए गणर ऄपने कारण र्में प्रवतलोर्म पररणार्म से लीन हो जाते हैं ऄथालभत् व्यत्र थान सर्मावध और
वनरोध के सथं कार र्मन र्में लीन हो जाते हैं र्मन ऄहक ं ार र्में, ऄहक
ं ार वित्त र्में तथा वित्त र्मल र प्रकृ वत र्में लीन
हो जाता ह। जीवात्र्मा का ऄवन्तर्म लक्ष्य ऄपवगलभ सम्पादन करने के पश्िात गणर ों का ऄपने कारण र्में लीन
हो जाने का नार्म क। वकय ह। ऄथवा वित्त को बनाने वाले गणर ों का ऄपने कारण र्में लीन हो जाने पर
जीवात्र्मा का वित्त से वकसी प्रकार का सम्बन्ध न रहने पर ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत हो जाने का नार्म
क। वकय ह।

तत्त्वज्ञान 253
दितीय अध्याय
सन् 1999
समादध अवस्था में आए कुछ अनुभव
आस वद्रतीय ऄ्याय र्में सर्मावध ऄवथथा र्में अने वाले करछ र्महत्वपणर लभ ऄनर वों को वलख रहा हाँ
आससे ऄभ्यास करने वाले साधकों व पाठकों को यह जानकारी प्राप्त हो जाएगी वक योग का ऄभ्यास
करते सर्मय ऄभ्यावसयों को वकस ऄवथथा र्में क। से ऄनर व अते हैं तथा ईनका ऄथलभ ‍या होता ह।? प्रत्येक
ऄभ्यासी को ईसके वित्त वृवत्तयों के ऄनसर ार व न्न-व न्न प्रकार के ऄनर व अते हैं जरूरी नहीं ह। वक
स ी ऄभ्यावसयों को एक ज।से ही ऄनर व अएाँ योग र्में ऄवथथानसर ार करछ ऐसे ऄनर व अते हैं जो स ी
ऄभ्यावसयों के ऄनर वों के ऄथलभ सक्ष्र र्मरूप से एक ज।से ही होते हैं करछ शाथरीय ऄनर व ऐसे होते हैं जो
व न्न-व न्न ऄभ्यावसयों को एक ज।से ही अते हैं ये ऄनर व र्महत्वपणर लभ होते हैं आस सर्मय र्मैं वसिलभ ईन्हीं
ऄनर वों को वलखना िाहता हाँ वजन ऄनर वों को पढ़कर ऄभ्यावसयों एवं वजज्ञासओ र ं को आस र्मागलभ के
ववषय र्में ज्ञान प्राप्त हो सके र्मैंने ऄपनी वपछली पथर तक ‘योग कै से करें ’ र्में वसतम्बर 1984 से र्मइ 1999
तक के ऄनर व वलखे थे आस पथर तक को पढ़कर हर्मारे पास बहुत साधक व वजज्ञासर अए हर्मसे योग के
ववषय र्में र्मागलभदशलभन ी वलया र्मगर 28 र्मइ सन् 1999 के ऄनर व के ववषय र्में बहुत से साधकों ने प्रश्न
वकए ईस ऄनर व र्में र्मैंने वलखा ह।– ‚तुम्हें (हमें) अगला जन्म लेना अदनवायय है ‛ आस ववषय पर बहुत
से वजज्ञासओ र ं की आच्छा ह। वक र्मैं ववथतार से बोलं,र ‍योंवक वतलभर्मान सर्मय र्में र्मैं तत्त्वज्ञानी हाँ र्मैं ऄपने
थवरूप र्में ऄववथथत रहता हाँ तथा संसार र्में व्यवहार ी ऐसे करता हाँ वजससे संसारी परू र ष भ्रवर्मत रहते हैं
बहुत से लोग प्रश्न करते हैं वक पथर तक र्में अपने वलखा ह।, “तुम्हें अगला जन्म लेना अदनवायय है ‛
र्मगर वतलभर्मान सर्मय र्में अपकी ऄवथथा जीवन्र्मक्त र ह। जीवन्र्मक्त
र परू
र ष तत्त्वज्ञानी होता ह।, ईसकी ऄववद्या
नष्ट हो िक र ी होती ह।, वह जन्र्म धारण नहीं करता ह।, विर अप ऄगला जन्र्म क। से ्र हण करें गे? र्मैं यहााँ पर
प्रश्न का ईत्तर वलख रहा हाँ 28 र्मइ सन् 1999 र्में जो ऄनर व अया ईस ऄनर व के ऄनसर ार जन्र्म लेना
ऄवनवायलभ था र्मगर वतलभर्मान सर्मय र्में र्मैं तत्त्वज्ञान से यक्त
र ह,ाँ आसवलए ववष्य र्में जन्र्म ्र हण करने का कोइ
र्मतलब ही नहीं ह। हर्मारी ऄववद्या नष्ट हो िक र ी ह। तथा संसार नष्ट हुए के सर्मान हो गया ह। ऄपरा-प्रकृ वत

तत्त्वज्ञान 254
के ववषय र्में ज्ञान हो िक
र ा ह।, ‍योंवक थथल र तर से लेकर प्रकृ वत पयलभन्त पदाथों का साक्षात्कार कर िक र ा हाँ
आन ऄनर वों र्में अप पढ़ेंगे वक र्मैंने योग के ऄभ्यास से ईस ऄंडे को िोड़ वदया ह। ईस सर्मय र्मझर े करछ
सर्मय तक घोर ऄपर्मान, वनन्दा व कष्ट सहना पड़ा ऄब ईस ऄण्डा का प्र ाव सर्माप्त हो िक र ा ह।, ईसके
प्र ाव से र्म‍र त हाँ ऄथालभत् र्मैं स ी प्रकार के बन्धनों से र्म‍र त ह,ाँ पणर लभ थवतंर हाँ ऄब ऄगला जन्र्म ्र हण
करने का कोइ कारण नहीं रह गया ह। ऄब थथल र शरीर ऄपनी आच्छानसर ार ही त्यागंगर ा तथा थथल र शरीर
त्यागने के पश्िात इश्वर के लोक की प्रापवत ् होगी यवद इश्वर ऄथवा परा-प्रकृ वत र्मझर से जन्र्म ्र हण करने
के वलए कहेंगी, तब ईनका सम्र्मान करते हुए ईनकी बात हर्में थवीकार होगी ईस सर्मय ल र ोक पर जन्र्म
्र हण करने के वलए ऄवश्य अ जाउाँगा ऄगला जन्र्म ्र हण करना पड़ा तो ऄवश्य ही ऄपने संककप से
सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने ऄवधकार र्में वकए रहगाँ ा परा-प्रकृ वत हर्में जो ी कायलभ सौंपेगी ईस कायलभ को

र ोक पर ऄवश्य पणर लभ करुाँगा
शरू र अती ऄवथथा से लेकर ईच्ितर ऄवथथा तक जो ऄनर व 15 वषलभ र्में अए ईन ऄनर वों को
ईस पथर तक र्में वलखा ह। साधक को ऄभ्यास के सर्मय वकस प्रकार के ऄनर व अते हैं, ईनका ऄथलभ ‍या
होता ह।, यह वलखा गया ह। आसके अगे अने वाले ऄनर वों को यहााँ पर वलख रहा हाँ सबीज सर्मावध की
ईच्ितर ऄवथथा, ईच्ितर्म ऄवथथा, वववेक-ख्यावत ऄवथथा अवद के ऄनर व संक्षेप र्में पाठक गण पढ़
सकते ह। र्मैंने वपछली पथर तक र्में जो ऄनर व वलखे हैं, ईस ऄवथथा के ऄनर व तो वतलभर्मान सर्मय र्में बहुत-
सी पथर तकों र्में पढ़ने को वर्मल जाएाँगे र्मगर जो आसके अगे की ऄवथथा र्में ऄनर व अते हैं, वह पाठकों को
पढ़ने के वलए शायद ही वर्मल पायें, ‍योंवक स ी ऄभ्यावसयों को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता ह। तत्त्वज्ञान
की प्रावप्त ऄत्यन्त दल र लभ ह। हजारों साधकों र्में से वकसी एक को यह ऄवथथा प्राप्त होती ह। वतलभर्मान
सर्मय र्में बहुत से प्रविनकतालभ तत्त्वज्ञान के ववषय र्में प्रविन करते वर्मल जाएाँगे, ईनका यह ज्ञान पथर तकीय
ज्ञान होता ह। तत्त्वज्ञान की ऄवथथा ईन्होंने ऄभ्यास के द्रारा प्राप्त नहीं की होती ह। अत्र्मा के ववषय र्में
ईपदेश करने का ऄवधकार वसिलभ ईन्हीं परू र षों को ह। वजन्होंने ऄभ्यास के द्रारा अत्र्मा की ऄनर वर त की हो
ऐसे ईपदेशक को कर्म से कर्म वववेक-ख्यावत की ऄवथथा प्राप्त कर लेनी िावहए
ऄभ्यास के द्रारा सबसे पहले थथल र पिं तर ों का साक्षात्कार करने का प्रयास वकया जाता ह।
आसवलए कइ वषों तक ऄभ्यासानसर ार ऄभ्यासी को थथल र पंि तर ों से सम्बवन्धत ऄनर व अते रहते हैं
थथल
र पंि तर ों के ऄन्तगलभत थथल
र पदाथों से बनी वथतओ र ं व थथलर जगत् का ी ऄनर व अ सकता ह।
यह ऄवथथा कइ वषों तक बनी रहती ह। आसवलए साधक को थथल र पदाथों, ईनसे बनी वथतओ
र ं व थथल

तत्त्वज्ञान 255
जगत् से असव‍त को सर्माप्त करने तथा ऄपना शरीर शि र करने का प्रयास करना िावहए शरीर शि र
करने के वलए नशीले पदाथों का सेवन पणर लभ रूप से त्याग देना िावहए प्राणायार्म का कठोर ऄभ्यास वदन र्में
दो-तीन बार ऄवश्य करना िावहए साधना र्में ईन्नवत प्राप्त करने के वलए स ी वनयर्मों का पालन करना
िावहए विर ऄभ्यास के द्रारा अगे का र्मागलभ ऄवश्य ही प्रशथत होने लगेगा थथरल पंि तर ों के साक्षात्कार
के सर्मय व न्न-व न्न प्रकार के ऄनर व साधक को अते हैं ये ऄनर व साधक के वित्त र्में वथथत वृवत्तयों
के ऄनसर ार अते हैं ऐसी वृवत्तयााँ वित्त की उपरी वर र्म पर प्रधान रूप से ववद्यर्मान रहती हैं जब तर्मोगणर
की ऄवधकता से वृवत्त द्रारा ऄनर व अएगा, ईस सर्मय दृश्य र्में धाँधर ला ऄंधकार ऄथवा कर्म प्रकाश
वदखाइ देगा डरावनी काली व ववकृ वत अकृ वतयााँ ी वदखाइ दे सकती हैं, वजसे साधक ने क ी नहीं देखा
होता ह। जब सत्त्वगणर की ऄवधकता से ऄथवा सावत्वक वृवत्त द्रारा ऄनर व अता ह।, तब दृश्य र्में प्रकाश
ि। ला होता ह। आसी प्रकाश र्में ववव न्न प्रकार के सावत्वक दृश्य वदखाइ देते हैं सन्त-र्महात्र्माओ,ं देवी-
देवताओ ं अवद के दशलभन होते हैं यवद साधक सावत्वक व कठोर ऄभ्यास करने वाला ह। व वपछले जन्र्म र्में
ी साधना की ह।, तब ्यानावथथा र्में थथल र जगत् से सम्बवन्धत ववष्य का ी दृश्य वदखाइ दे सकता ह।
विर दृश्य के ऄनसर ार ही थथल र जगत् र्में घटना घटेगी साधक को पहले से जानकारी हो जाने का यह
कारण यह ह। वक थथल र जगत् र्में प्रधान रूप से जो घटनाएाँ घवटत होती हैं, वह सक्ष्र र्म रूप से थथलर र्में
ववद्यर्मान रहती हैं ऐसी घटनाएाँ ईवित सर्मय अने पर प्रत्यक्ष हो जाती हैं सक्ष्र र्म रूप से थथल र जगत् र्में
ववद्यर्मान घटना साधक सक्ष्र र्म तर ों के ववषय र्में ज्ञान होने पर देख लेता ह।, ऐसा क ी-क ी होता ह। योग के
ऄभ्यास का ऄथलभ यह नहीं ह। वक साधक को ववष्य की जानकारी होती ह। ऄथवा नहीं होती ह। ईसका
लक्ष्य होना िावहए– ऄन्तर्मलभख र ी होकर प्रकृ वत की ववकृ वतयों का साक्षात्कार करता हुअ वववेक-ख्यावत
ऄवथथा प्राप्त करने का प्रयास करे विर ऄगली ऄवथथा थवयं प्राप्त कर लेता ह। पहले की ऄवथथाओ ं
को प्राप्त करने का प्रयास करना होता ह।
थथल र पंि तर ों के साक्षात्कार के बाद सक्ष्र र्म पंि तर ों का साक्षात्कार करने के वलए साधक को वित्त
की दसर री वर र्म के ऄन्तगलभत ऄभ्यास करना होता ह। आस वर र्म पर प्रथर्म वर र्म की ऄपेक्षा ऄवधक सक्ष्र र्म
वृवत्तयााँ वथथत रहती हैं वित्त की दसर री वर र्म के ऄन्तगलभत सक्ष्र र्म पंि तर ों से लेकर पंि तन्र्माराओ ं तक की
ऄवथथा अती ह। सक्ष्र र्म तर ों से लेकर तन्र्माराओ ं तक सक्ष्र र्म रूप से तारतम्य ववद्यर्मान रहता ह। यह
तारतम्य घनत्व के द्रारा होता ह। सक्ष्र र्म तर ों से तन्र्माराएाँ ऄवधक सक्ष्र र्म होती हैं, ‍योंवक तन्र्माराओ ं से ही
सक्ष्र र्म तर ों की ईत्पवत्त हुइ ह। तन्र्माराओ ं की ऄपेक्षा सक्ष्र र्म- तर थथल र ह।, विर ी सक्ष्र र्म- तर से लेकर
तन्र्माराओ ं तक घनत्व र्में व न्नता होते हुए ी सक्ष्र र्म रुप से तारतम्य बना रहता ह। जब साधक ऄभ्यास के

तत्त्वज्ञान 256
द्रारा सक्ष्र र्म तर ों व तन्र्माराओ ं का साक्षात्कार करने का प्रयास करता ह।, तब साधक को सक्ष्र र्म जगत् से
सम्बवन्धत ववव न्न प्रकार के ढेरों ऄनर व अते हैं, ‍योंवक सक्ष्र र्म पंि तर ों से सक्ष्र र्म जगत् का वनर्मालभण हुअ
ह। सक्ष्र र्म जगत् के ऄन्तगलभत ल र ोक को छोड़कर पाताल लोक से लेकर ब्रह्म लोक तक अता ह। ये लोक
अपस र्में घनत्व की व न्नता के कारण ऄपना-ऄपना ऄलग-ऄलग ऄवथतत्व रखते हैं जब साधक का
ऄभ्यास वित्त की दसर री वर र्म पर होता ह।, तब सक्ष्र र्म तर ों के ऄन्तगलभत ऄभ्यास करने के कारण ईसका
सम्बन्ध सक्ष्र र्म जगत् से सम्बवन्धत यो‍यतानसर ार व न्न-व न्न प्रकार के ऄनर व अते रहते हैं आस ऄवथथा
र्में अने वाले ऄनर वों र्में ज्यादातर प्रकाश से यक्त र ऄनर व अते हैं यवद साधक के वित्त र्में पवर लभ जन्र्म के
कर्मालभनसर ार तर्मोगणर ी कर्मलभ सक्ष्र र्म रूप से ववद्यर्मान हैं, तब धाँधर ले प्रकाश या ऄंधकार से यक्तर ी दृश्य वदखाइ
देते हैं ऐसे दृश्य डरावने ऄथवा गन्दे ी हो सकते हैं साधक को ऐसे दृश्य देखकर डरना नहीं िावहए और
न ही दःर खी होना िावहए, बवकक दृढ़ता के साथ ऄनर वों का ऄवलोकन करते रहना िावहए तथा ईसे यह
सर्मझना िावहए वक ईसके वित्त की यह वर र्म शि र हो रही ह। सक्ष्र र्म कर्मालभशय आस रूप र्में बाहर वनकल रहे
हैं
आस ऄवथथा र्में साधक ऄत्यन्त प्रसन्न रहता ह।, ‍योंवक ईसे ईसकी आच्छानसर ार ववव न्न लोकों के
ऄनर व अने लगते हैं ईसके ऄन्दर ज।से वविार होते हैं, ईन्हीं वविारों के ऄनसर ार लोकों के दृश्य अते हैं
तथा क ी-क ी वविारों के ऄनसर ार काकपवनक दृश्य ी वदखाइ देते हैं, जो सत्य नहीं होते हैं ववव न्न
लोकों के दृश्य देखने र्में साधक की वदव्य दृवष्ट सहायता करती ह।, ‍योंवक संककप के द्रारा देखे गये दृश्यों
को वदव्य-दृवष्ट ही वदखाने का कायलभ करती ह। साधक को ऐसा लगता ह। ज।से ईसने सम्पणर लभ जगत् (थथल र व
सक्ष्र र्मद ऄपने ऄन्दर सर्मेट वलया ह। आसी ऄवथथा र्में साधक भ्रर्म र्में ी पड़ जाता ह। ऄज्ञानता वश ऄपने
अपको देवी-देवताओ ं का ऄवतार ी सर्मझने लगता ह। तथा गरू र पद पर ववराजर्मान होकर ढेरों वशष्य
बनाने लगता ह। वित्त की आस वर र्म पर छोटी-छोटी ढेरों वसवियााँ ी प्राप्त होती हैं साधक को ऐसी
वसवियों से बिना िावहए ईसे आस ऄवथथा र्में अने वाले ऄनर वों र्में ही अस‍त नहीं होना िावहए,
बवकक अगे बढ़ने का प्रयास करना िावहए नहीं तो साधक का पतन होने की सम् ावना हो जाएगी,
‍योंवक वसवियााँ साधक के वलए ऄवरोध थवरूप होती हैं ऄगर ऄभ्यासी वसवियों र्में पड़ गया तो वह
ऄपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पायेगा सक्ष्र र्म पंि तर व तन्र्माराओ ं का साक्षात्कार करने के पश्िात साधक
वित्त की तीसरी वर र्म पर ऄभ्यास करता ह।

तत्त्वज्ञान 257
वित्त की तीसरी वर र्म के ऄन्तगलभत ऄहक ं ार अता ह। यह सर्मावध की ईच्ितर ऄवथथा होती ह। आस
वर र्म पर कर्मालभशयों की वृवत्तयााँ सक्ष्र र्म रूप से ववद्यर्मान रहती हैं ऄवत सक्ष्र र्म होने के कारण सत्त्वगणर की
र्मारा बढ़ जाती ह। आस सत्त्वगणर के कारण सर्मावध ऄवथथा र्में अनन्द की ऄनर वर त होती ह। सक्ष्र र्म होने के
कारण ये वृवत्तयााँ ऄत्यन्त शव‍तशाली होती हैं ऄत्यन्त शव‍तशाली होने के कारण ऄहक ं ार की ही
सावत्वक वृवत्त ऄभ्यासी के वित्त पर सर्मावध ऄवथथा र्में दीपवशखा के सर्मान जलती हुइ वदखाइ देती ह।
आस ज्योवत को देखकर साधक भ्रर्म र्में पड़ जाता ह। वह सोिने लगता ह। वक यह अत्र्मा का थवरूप ह।, ईसे
अत्र्म साक्षात्कार हुअ ह। जबवक वाथतववकता यह ह। वक यह वित्त की ही ऄत्यन्त सावत्वक वृवत्त होती
ह।, जो आस प्रकार का थवरूप धारण करके वदखाइ दे रही ह। आस दृश्य को वदखाने र्में ऄन्य वृवत्तयााँ ी
ईसका सहयोग करती हैं बहुत से साधक यहीं पर ऄभ्यास करना बन्द कर देते हैं अगे का र्मागलभ तय करने
का प्रयास नहीं करते हैं तथा ऄपने को वसि परू र ष सर्मझने लगते हैं साधक को ऄभ्यास करना बन्द नहीं
करना िावहए, बवकक ऄगली ऄवथथा प्राप्त करने के वलए ऄभ्यास करते रहना िावहए तावक ऄहक ं ार का
साक्षात्कार हो सके
ऄहक ं ार का साक्षात्कार करने के बाद साधक वित्त की िौथी वर र्म पर ऄभ्यास करता ह। आस िौथी
वर र्म पर ऄवथर्मता से सम्बवन्धत सक्ष्र र्म रूप से कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं यह सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा
होती ह। ऄवथर्मता के साक्षात्कार का ऄभ्यास करने वाले साधक बहुत ही कर्म होते हैं ऐसे साधकों को
आस ससं ार र्में बहुत ही ऄवधक कष्ट व ‍लेश सहने पड़ते हैं आन ‍लेशों का कारण थवयं ईसके वित्त पर
वथथत ‍लेशात्र्मक सथं कार होते हैं, आन्हें ‘शेष सथं कार’ ी कहते हैं ऄभ्यास करते सर्मय र्मझर े ये
‍लेशात्र्मक सथं कार ोग कर सर्माप्त करने पड़े हैं आन ‍लेशात्र्मक सथं कारों को ोगते सर्मय साधक को
ौवतक जगत् ही नहीं, बवकक सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत की वाथतववकता का ज्ञान हो जाता ह। वित्त र्में अत्र्मा
का ऄ्यास=ऄभ्यास होने के कारण वित्त िेतन-सा प्रतीत होने लगता ह। अत्र्मा और वित्त की
ऄव न्नता के ज्ञान को ही ऄवथर्मता कहते हैं यही ऄवथर्मता सारे दःर खों की जड़ ह। तथा िेतन और जड़ की
्र वन्थ ी ह। ऄभ्यास के द्रारा जब यह ्र वन्थ खल र ती ह।, तब ईसे बहुत सर्मय तक ववव न्न प्रकार के ‍लेश
ोगने पड़ते ह। यह ‍लेश ऄत्यन्त कष्टदायी होते हैं अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान वववेक-
ख्यावत के द्रारा होता ह। जब आस वववेक-ख्यावत का प्रवाह वनरन्तर बहता ह।, तब ‍लेशों की सर्मावप्त हो
जाती ह। तथा ऄन्त र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। ऄवथर्मता के साक्षात्कार के सर्मय साधक को बहुत
ऄनर व अते हैं आन ऄनर वों को र्मैंने आस लेख र्में वलखा ह। आस लेख र्में ऄहक ं ार से लेकर (वित्त की
तीसरी वर र्मद तत्त्वज्ञान प्रावप्त तक के ऄनर व वलखे हैं यह ऄनर व सन् 2000 से लेकर 2010 तक के

तत्त्वज्ञान 258
बीि र्में अए हैं ऄपनी वपछली पथर तक र्में वसतम्बर 1984 र्में र्मइ 1999 तक के ऄनर व वलखे थे सर्मावध
की ईच्ितर ऄवथथा से लेकर तत्त्वज्ञान प्रावप्त तक हर्में बहुत ऄनर व अए हैं, र्मगर वसिलभ र्मख्र य-र्मख्र य
ऄनर व यहााँ पर वलख रहा हाँ आससे ऄभ्यावसयों को र्मागलभदशलभन ी वर्मलेगा

तत्त्वज्ञान 259
सन् 2000
माता आददशद‍त िारा तत्त्वज्ञान प्राद‍त का आशीवायद
र्मझर े सन् 2000 र्में दो बार ्यानावथथा र्में एक ज।से ही ऄनर व अए र्मैं वकसी थरी का थतनपान कर
रहा हाँ करछ क्षणों बाद थतनों से दधर वनकलना धीरे -धीरे बन्द हो गया थतनों का अकार ी वसकरड़ने-सा
लगा बाह्य त्विा र्में वसकरड़न पड़ने लगी, तब र्मैंने थतनपान करना बन्द कर वदया हर्मने ईस थरी के िेहरे
की ओर दृवष्ट की जो हर्में थतनपान करा रही थी र्मैं ईसका िेहरा देखते ही िौंक पड़ा, ‍योंवक ईस थरी
की अयर लग ग 20 वषलभ की होगी वह ऄवद्रतीय सन्र दर थी ईसके वसर पर िर्मकता हुअ छोटा-सा र्मक र रट
था ईसने लाल रंग की वसतारोंदार साड़ी पहन रखी थी ईसे देखते ही र्मैं सर्मझ गया वक यह वदव्य थरी ह।
ऄनर व र्में हर्मारी अयर लग ग 40 वषलभ की होगी आतनी ही र्मेरी वतलभर्मान अयर ह। वह थरी ई्र र्में हर्मसे
अधी लग रही थी, विर ी र्मैं ईसे र्मााँ कहकर सम्बोधन कर रहा था हर्म दोनों एक दसर रे को वनष् ाव से
देख रहे थे त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया
र्मैंने ऄपनी वपछली पथर तक ‘योग कै से करें ’ र्में कइ जगह पर वलखा ह। वक र्मझर े ऄनर व र्में एक
वदव्य थरी थतनपान कराती ह। आस ऄनर व का ऄथलभ र्मैंने ईसी जगह पर वलखा हुअ ह। पहले के ऄनर वों
और आन ऄनर वों र्में िकलभ आतना ह। वक पहले थतनपान करते सर्मय थतनों से दधर वनकलना बन्द नहीं होता
था र्मैं थतनपान करना बन्द कर देता था तथा हर्मारी अयर ी बहुत कर्म होती थी करछ ऄनर वों र्में र्मैं
वबककरल छोटा-सा बच्िा ही था वह थरी र्मझर े ऄपने गोद र्में वलटा लेती थी तथा थतनपान करवाने लगती
थी ऐसा ऄनर व सबसे पहले जनवरी 1986 र्में अया था आस ऄनर व र्में र्मैं बहुत छोटा-सा बच्िा था
वतलभर्मान ऄनर वों र्में र्मैं वयथक हाँ तथा थतनों से दधर वनकलना बन्द हो जाता ह। और थतनों र्में वसकरड़न पड़ने
लगती ह। थरी की अयर पहले के सर्मान ही थी ऄथालभत् ईसकी अयर लग ग 20 वषलभ ही होगी
अथय– र्माता अवदशव‍त द्रारा तत्त्वज्ञान प्रावप्त का अशीवालभद देना वजस साधक को आस प्रकार के
ऄनर व अते हैं, ईसे ऄवश्य ही तत्त्वज्ञान की प्रावप्त होती ह। दधर का ऄथलभ ज्ञान होता ह। थतनपान कराने
का ऄथलभ ज्ञान प्रदान करना ह। थतनपान कराने वाली थरी प्रकृ वत का ही थवरूप ह। थवयं प्रकृ वत ईस साधक
को तत्त्वज्ञान प्राप्त कराने र्में सहायता करती ह। पहले के ऄनर वों र्में थतनों से दधर वनकल रहा ह।, विर बाद
के ऄनर वों र्में थतनों से दधर वनकलना बन्द हो गया ऄथालभत् पहले के ऄनर वों के सर्मय प्रकृ वत द्रारा धीरे -

तत्त्वज्ञान 260
धीरे ज्ञान प्रदान वकया जा रहा था विर पणर लभ ज्ञान प्राप्त हो जाने पर थतनों से दधर वनकलना बन्द हो जाता
ह। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ईस साधक के वलए प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान हो जाती ह। र्मगर दसर रे जीवों के
वलए, वजनका ोग-ऄपवगलभ का सम्पादन नहीं हो पाया ह।, ईनके वलए प्रकृ वत ववद्यर्मान रहती ह। आसवलए
ऄनर वों र्में थतनों का अकार वसकरड़ने लगा तथा दधर वनकलना बन्द हो गया श्रेष्ठ साधकों को ही ऐसे
ऄनर व अते हैं ऐसे साधकों पर र्माता अवदशव‍त प्रसन्न रहती ह। तथा साधक को परर रूप र्में थतनपान
कराती ह।
अवरोधक टूट गया
यह ऄनर व 16 जनवरी को ्यानावथथा र्में अया र्मैं वकसी जगह पर खड़ा हुअ कह रहा ह–ाँ ‚आस
थथान पर ी पानी र जाए तो ऄच्छा ह। ‛ र्मैं ऄपने अप को देखता हाँ वक र्मैं वकसी खेतनर्मर ा जगह र्में
खड़ा हाँ खेत कािी बड़ा ह।, खेत के पास नाली बनी ह। आसी नाली से खेत र्में पानी अ रहा ह। पानी को
देखकर र्मैं बोला– खेत की र्मेड़ तो ऄपने अप टरट गइ, पानी ी अने लगा ह। र्मगर पानी अने की गवत
धीर्मी ह। यवद आसी गवत से पानी अया तो खेत रने र्में बहुत सर्मय लग जाएगा र्मैं पानी के बहाव को देख
रहा हाँ ऄनर व सर्माप्त हो गया
अथय– यह ऄनर व पढ़ने र्में करछ ववशेष नहीं लगता ह।, र्मगर आस ऄनर व का ऄथलभ बहुत ही
र्महत्वपणर लभ ह। वजस खेत र्में र्मैं खड़ा था वह हर्मारा ही वित्त ह। खेत र्में पानी अ रहा ह।– पानी धर्मलभ का
प्रतीक ह। ऄथालभत् वित्त की वर र्म धर्मलभ अवद से री जा रही ह। पानी को देखकर र्मैं बोला– खेत की र्मेड़
ऄपने अप टरट गइ र्मेड़ ऄधर्मलभ रूपी ऄवरोधक होती ह। जो ऄपने अप टरट गइ ऄधर्मलभ रूपी ऄवरोध के
टरटने पर ही धर्मलभ अवद से वित्त की वर र्म र रही ह। र्मगर धर्मलभ अवद का प्रवाह धीर्मा होने के कारण वित्त
की वर र्म रने र्में सर्मय लग जाएगा, ‍योंवक जब ईस धर्मलभ के ववरोधी ऄधर्मलभ का नाश वकया जाता ह।, तब
प्रवतबन्धक के न रहने पर प्रकृ वतयााँ ऄपने कायलभ को करने र्में सर्मथलभ होती ह। ज।से वकसान जब एक खेत से
दसर रे खेत र्में पानी ले जाने की आच्छा करता ह।, तो पानी के ऄवरोधक र्मेड़ को हटा देता ह।, तब पानी
थवर्मेव ि। लकर खेत र्में िला जाता ह। पानी को खेत र्में ि। लाने र्में वकसान का कोइ ी प्रयत्न ऄपेवक्षत नहीं
ह। आसी प्रकार धर्मलभ अवद वनवर्मत्त ऄधर्मलभ अवद को हटाने र्मार हैं ऄब ऄनर व का ऄथलभ वलख रहा ह–ाँ
वित्त र्में करछ कर्मालभशय वनिली वर र्म पर होते हैं तथा करछ उपरी वर र्म पर होते हैं उपरी वर र्म पर वथथत
कर्मालभशय प्रधान कर्मालभशय कहे जाते हैं आन प्रधान कर्मालभशयों को साधक वतलभर्मान जन्र्म र्में ोगता ह। ये
कर्मालभशय सश‍त रूप र्में रहते हैं वनिली वर र्म वाले कर्मालभशय सषर प्र त व कर्मजोर रूप र्में रहते हैं आसवलए

तत्त्वज्ञान 261
उपरी वर र्म वाले कर्मालभशय ऄवरोधक के रूप र्में ऄपने ववरोधी वनिली वर र्म वाले कर्मालभशयों को दबाए
रखते हैं आसी ऄवरोधक का आस ऄनर व र्में टरट जाना वदखाया ह। आसके टरट जाने पर वनिली वर र्म वाले
कर्मालभशय उपरी वर र्म पर अकर प्रधान कर्मालभशयों का रूप धारण कर लेते हैं तथा प्रधान कर्मालभशयों के
आच्छानसर ार धर्मलभ ्र हण कर लेते हैं ऐसा ऄपने अप होता ह। यवद र्मनष्र य के प्रधान कर्मालभशय धर्मालभत्र्मा वाले
हैं, तब वह धर्मालभत्र्मा बन जाएगा ऄगर प्रधान कर्मलभ ऄधर्मी हैं, तब वह ऄधर्मी बन जाएगा आसवलए क ी-
क ी देखा गया ह। वक ऄधर्मी परू र ष धर्मालभत्र्मा बन जाता ह। और धर्मालभत्र्मा परू
र ष ऄधर्मी बन जाता ह। जब
र्मनष्र य के प्रधान कर्मलभ ऄधर्मी के शेष रह जाते हैं (िाहे वह धर्मालभत्र्मा होद, तब वनिली वर र्म वाले कर्मालभशय
ऄवरोधक के हटते ही प्रधान कर्मालभशयों के साथ वर्मलकर प्रधान कर्मालभशय बनने लगते हैं आस सर्मय प्रधान
कर्मालभशय वजस रूप र्में होंगे (ऄधर्मी या धर्मालभत्र्मा वालेद व।से ही स ी कर्मालभशय बन जाते हैं आसवलए देखा
गया ह। वक क ी-क ी दष्र ट थव ाव वाला र्मनष्र य ी धर्मालभत्र्मा बन जाता ह। और धर्मालभत्र्मा दष्र ट थव ाव
वाला बन जाता ह। ऐसा पवर लभ जन्र्मों के कर्मों के कारण होता ह।

सबीज समादध की उच्चतम अवस्था


र्मैं एक खेत र्में खड़ा हाँ वह खेत पानी से र गया ह। र्मार थोड़ा-सा रह गया ह।, त ी र्मैं बोल पड़ा–
यह खेत तो परर ा र गया ह।, वसिलभ नार्मर्मार का रह गया ह। ये ऄनर व सबीज सर्मावध की ईच्ितर्म
ऄवथथा र्में अया ह। आस ऄनर व के बाद हर्मारे वित्त र्में ारी पररवतलभन ऄवश्य अएगा र्मैं शीघ्र ही ऄगली
ऄवथथा प्राप्त करुाँगा

तीनों गुण
यह ऄनर व 18 जल र ाइ को अया र्मैं झल र े पर ब।ठा हुअ ऄत्यन्त प्रसन्न हाँ सार्मने तीन छोटे-छोटे
बच्िे हैं आन तीनों बच्िों की ई्र व शरीर एक सर्मान ही हैं आन तीनों बच्िों की ई्र दो वषलभ के बच्िे के
सर्मान ह। ौवतक रूप से दो साल का बच्िा ऄबोध-सा होता ह। तथा ठीक ढंग से बात ी नहीं कर
सकता ह। ये तीनों बच्िे छोटे वदखाइ पड़ते हैं र्मगर ईनका हाव- ाव यवर कों के सर्मान ह। ईन तीनों बच्िों
र्में एक बच्िा शांत थव ाव वाला वदखाइ दे रहा ह। हर्मारी दृवष्ट जब ईसके शरीर पर पड़ी तब र्मैंने देखा
वक ईसके हाथों व ववव न्न ऄंगों पर करछ शब्द वलखे हैं र्मैंने ईन शब्दों को पढ़ना िाहा तो वसिलभ आतना ही

तत्त्वज्ञान 262
पढ़ सका– वेदों के नार्म व वदशाओ ं के नार्म वलखे थे त ी हर्मारा ्यान दसर रे बच्िे पर गया वह बच्िा
करछ कायलभ कर रहा था र्मैं नहीं सर्मझ सका वक वह ‍या कर रहा ह।? त ी तीसरा बच्िा ऄत्यन्त क्रोध र्में
दावहने हाथ की तजलभनी ईाँगली से दसर रे बच्िे की ओर आशारा करके बोला– ‚यह दष्र ट ह। ‛ र्मैं बोला- ‚नहीं,
ऐसा नहीं कहते हैं ‛ तीसरा बच्िा विर बोला- ‚शायद अपको र्मालर्मर नहीं ह।, यही दष्र ट ह।, ‍योंवक यही
स ी कायों को करता ह। ‛ ईसी सर्मय र्मैं सोिने लगा वक तीसरा बच्िा दसर रे बच्िे को दष्र ट ‍यों कह रहा
ह।? र्मगर दसर रे बच्िे पर आन शब्दों का वकसी प्रकार का कोइ प्र ाव नहीं पड़ा वह ऄपना कायलभ करने र्में
व्यथत था शांत थव ाव वाला बच्िा हर्मारी ओर देखकर र्मथर करा रहा था
अथय– यह तीनों बच्िे वित्त के बाह्य पररणार्म (वृवत्तयों र्में होने वाले पररणार्मद वाले तीनों गणर ह।
तीनों गणर बच्िों के रूप र्में वदखाइ दे रहे हैं वजस प्रकार तीनों गणर सद।व एक साथ रहते हैं, ईसी तरह
व न्न-व न्न थव ाव होने पर ी ये बच्िे एक साथ ही ऄनर वों र्में वदखाइ देते हैं आन तीनों बच्िों की ई्र
सद।व एक सर्मान वदखाइ देती ह। आनके शरीर ी एक ज।से ही होते हैं, वसिलभ थव ाव र्में ऄंतर होता ह।
साधक को पहले ये तीनों गणर तीन कबतर रों के रूप र्में वदखाइ देते हैं ईस सर्मय साधक सबीज सर्मावध की
ईच्ितर ऄवथथा ऄथालभत् वित्त की तीसरी वर र्म के ऄन्तगलभत ऄभ्यास कर रहा होता ह। आस ऄभ्यास के
ऄन्तगलभत ऄहक ं ार का साक्षात्कार होता ह। यह ऄनर व (कबतर रों वालाद पहली पथर तक (योग कै से करें द र्में
वलख िक र ा हाँ र्मगर साधक जब सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा (वित्त की िौथी वर र्मद के ऄन्तगलभत
ऄभ्यास करता ह।, तब ईसे तीनों गणर तीन छोटे-छोटे बच्िों के रूप र्में वदखाइ देते हैं, ‍योंवक आस ऄवथथा
र्में ऄवथर्मता का साक्षात्कार होता ह। यह तीनों बच्िे वबककरल एक सर्मान थवरूप तथा शरीर वाले होते हैं
आस ऄनर व र्में जो बच्िा शांत थवरूप वाला ह।, वजसके शरीर पर वेदों के नार्म वलखे थे, वह सत्त्वगणर का
प्रतीक ह। दसर रा बच्िा जो कायलभ करने र्में व्यथत था, वह रजोगणर का प्रतीक ह। रजोगणर का थव ाव ह।
कायलभ करना, कंपन करना तथा वक्रया करना अवद तीसरा क्रोधी थव ाव वाला बच्िा तर्मोगणर का प्रतीक
ह। क्रोध तर्मोगणर का थव ाव ह। वेदों और वदशाओ ं की ईत्पवत्त सत्त्वगणर के द्रारा हुइ ह। वदशा का
तत्त्वरूप से ऄवथतत्व नहीं ह। जब तक साधक को सर्मावध ऄवथथा र्में वित्त का ान होता रहेगा, तब तक
ईसे वदशाएाँ ावसत होती रहेंगी ऊतम् रा-प्रज्ञा के ईदय होते सर्मय ी साधक को वदशाओ ं का ान होता
ह। जब वित्त की वृवत्तयााँ वनरुि हो जाती हैं, तब ईसे वदशाओ ं का ज्ञान नहीं रहता ह। यह वनबीज सर्मावध
की ऄवथथा ह। ऄथालभत् जब तक वित्त र्में बाह्य पररणार्म (वृवत्तयााँद होगा, तब तक ईसे वदशाएाँ ावसत होती
रहेंगी वेदों की ईत्पवत्त सत्त्वगणर की प्रधानता से हुइ ह।

तत्त्वज्ञान 263
भेदज्ञान रूपी अश्वशाला
यह ऄनर व 7 ऄगथत को अया र्मैं एक घोड़े को हााँकता हुअ वलए जा रहा हाँ घोड़े की पीठ पर
करछ सार्मान लदा ह। र्मैं ऄपने दवहने हाथ र्में एक डण्डा वलए हुए घोड़े को हााँकता हुअ ईसके पीछे िल
रहा हाँ घोड़े का रंग लाल ह। तथा कद उाँिा ह। करछ क्षणों बाद हर्मारे सार्मने बहुत बड़ा र्महलनर्मर ा बना
हुअ र्मकान वदखाइ वदया ईस र्महलनर्मर ा र्मकान का िाटक खल र ा हुअ था र्मैं घोड़े को हााँकता हुअ ईस
खल र े हुए िाटक के ऄन्दर ले गया ऄन्दर जाने पर र्मालर्मर हुअ वक यह र्महलनर्मर ा र्मकान बहुत ही सन्र दर
ह। घोड़ा ऄपने अप दावहने ओर र्मड़र गया अगे िलकर वह कर्मरे नर्मर ा जगह के ऄन्दर खड़ा हो गया
विर र्मैं जोर से बोला– ‚आसका सार्मान ईतारो और यह ऄपना घोड़ा लो, ऄब हर्में आसकी जरूरत नहीं ह। ‛
त ी एक ओर से अवाज अइ– ‚घोड़े को आधर ेज दो, र्मैं आधर हाँ ‛ र्मैंने अवाज की ओर देखा तो हर्मसे
थोड़ी दरर ी पर एक परू र ष ब।ठा हुअ था, ईसी ने हर्मसे ये शब्द कहे थे र्मैं ईस परू र ष से लापरवाही से
बोला– ‚ऄपनी िीज खदर सम् ालो ‛ आतना कहकर र्मैं एक ओर िल वदया
अथय– घोड़ा र्मन का प्रतीक हैं घोड़े की पीठ पर लदा सार्मान वित्त र्में वथथत आच्छाएाँ अवद हैं र्मैं
डण्डा वलए घोड़े को हााँक रहा हाँ र्मैं ऄपने र्मन को ऄपने ऄनसर ार िला रहा हाँ ऄथालभत् र्मन को ऄपने
ऄधीन वकए हाँ ऄपने ऄधीन करके ईसे वनदेश दे रहा हाँ घोड़े का रंग लाल ह। लाल रंग रजोगणर का
प्रतीक ह। वित्त और जीवात्र्मा का जो ऄनावद थव-थवार्मी- ाव-सम्बन्ध िला अ रहा ह।, आस घोड़े (वित्त
या र्मनद का र्मख्र य प्रयोजन ऄपने थवार्मी जीवात्र्मा को ोग रूपी र्मागलभ को परर ा कराकर ऄपवगलभ रूप लक्ष्य
तक पहुिाँ ा देना ह। यह र्मागलभ (वजस पर घोड़ा िल रहा ह।द िार ागों र्में वव ‍त ह।– पहला– थथल र तर ,
दूसरा– सक्ष्र र्म तर ों से तन्र्माराओ ं तक, तीसरा– ऄहक ं ार, चौथा– ऄवथर्मता ऄवन्तर्म वकनारे पर ेदज्ञान
रूपी एक ऄश्वशाला ह। आस ऄश्वशाला र्में घोड़े को छोड़ देना पड़ता ह। और ऄवन्तर्म लक्ष्य रूपी ऄपवगलभ
परर्मात्र्मा थवरूप ववशाल सन्र दर राज वन ह। प्राणायार्म, प्रत्याहार द्रारा ऄ्यात्र्म रूपी प‍की सड़क की
ओर र्माँहर िे रना धारणा ह। घोड़े को (र्मन कोद ईस ओर िलाना अरम् कर देना ्यान ह। सड़क के वनकट
पहुिाँ जाना सर्मावध ह। ववतलभक, वविार, अनन्द और ऄवथर्मता ऄनगर त रूपी एका्र ता की ऄवथथाएाँ
क्रर्मानसर ार ोग रूपी र्मागलभ के थथल र , सक्ष्र र्म ऄहक
ं ार और ऄवथर्मता रूपी ोगों को सर्माप्त करता ह।
वववेक-ख्यावत द्रारा घोड़े को ऄश्वशाला र्में छोड़ कर सवलभववृ त वनरोध ऄपवगलभ नार्मक शि र परर्मात्र्मा रूपी
ववशाल राज वन र्में पहुिाँ ता ह। आस ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक ववष्य र्में शीघ्र ही वववेक-ख्यावत
ऄवथथा प्राप्त होगी, ‍योंवक घोड़े रूपी र्मन का त्याग कर वदया ह।

तत्त्वज्ञान 264
आत्मा एक दचत्त अनेक
यह ऄनर व 1 वसतम्बर को अया र्मैंने देखा वक िारों ओर प्रकावशत जगह ह। आस प्रकाश र्में हर्में
ढेर सारे अले (NICHEद वदखाइ दे रहे हैं दो-तीन अलों के ऄन्दर लौ जल रही ह। लौ का थवरूप बहुत
सन्र दर ह। लौ का प्रकाश अले से बाहर नहीं जा रहा ह।, परन्तर सम्पणर लभ अला प्रकावशत ह। वहीं पर सनर हले
रंग का परू र ष खड़ा ह। वह परू
र ष लौ से रवहत अलों के ऄन्दर (वजन अलों के ऄन्दर लौ प्रकावशत नहीं
ह।द हाथ बढ़ाकर लौ प्रज्ववलत कर देता ह।, त ी ईस अले के ऄन्दर ी लौ जलती हुइ वदखाइ देने लगती
ह। ऄ ी और ी लौ से रवहत अले थे, त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया
अथय– हर्में ऄनर व र्में जो ढेर सारे अले वदखाइ दे रहे थे, वह स ी वित्त थे वित्त के उपर अत्र्मा
का प्रवतवबम्ब पड़ने के कारण वित्त थवप्रकावशत-सा वदखाइ देने लगता ह। अले के रूप र्में हर्में एक बार र्में
ही ढेर सारे वित्त वदखाइ दे रहे थे वित्त की ी सीर्माएं होती हैं, आसवलए एक बार र्में ही ढेर सारे वित्त
वदखाइ दे रहे थे वह सनहर ले रंग वाला परू र ष वहरण्य-ग लभ ( गवान् ब्रह्माद थे, आन्हें प्रजापवत व वहरण्यर्मय
परूर ष ी कहते हैं यह वित्त के ऄवधष्ठाता हैं यही वित्त के ऄन्दर अत्र्मा के प्रवतवबम्ब (विवतशव‍तद को
प्रवतवष्ठत कर रहे थे, वजससे वित्त थवप्रकावशत व ि।तन्य-सा वदखाइ दे रहा ह। वजस प्रकार एक ही सयर लभ का
प्रवतवबम्ब पानी से रे ढेर सारे घड़ों के ऄन्दर ऄलग-ऄलग वदखाइ पड़ता ह।, ईसी प्रकार वित्त के ववषय
र्में ी सर्मझना िावहए आस ऄनर व का ऄथलभ ह।– अत्र्मा एक ह। और वित्त ऄनेक हैं
एक बार र्मैंने गवान् गौतर्म बि र से पछर ा– ‚प्र र ! ‍या अप नावथतक थे?‛ गवान् गौतर्म बि र
बोले– ‚योगी, ये कौन कहता ह। वक र्मैं नावथतक था ‛ र्मैं बोला– ‚प्र !र अपके ववषय र्में र्मैंने पथर तकों र्में
पढ़ा ह। ‛ गवान् गौतर्म बि र जी बोले– ‚हर्मारे करछ ऄनयर ाआयों को हर्मारे ववषय र्में सही जानकारी नहीं ह।,
आसवलए ऐसी भ्रावन्त ह। सि तो यह ह। वक र्मैं सद।व से अवथतक था ऄब ी इश्वर को ही र्मानता हाँ ‛ र्मैं
बोला– ‚प्र !र ‍या अप अत्र्मा को नहीं र्मानते थे?‛ बि र जी बोले– ‚र्मैं ऄब ी अत्र्मा के ऄवथतत्व को
र्मानता हाँ हााँ, र्मैं यह नहीं र्मानता हाँ वक अत्र्मा जन्र्म लेती ह। ‛ र्मैं बोला– ‚प्र !र जब कोइ बच्िा जन्र्म
लेता ह।, तब वह वक्रया करता ह।, ज।से– रोना, हाथ-प।र िलाना अवद, ईसे शव‍त कहााँ से वर्मलती ह।,
‍योंवक प्रकृ वत तो जड़ ह।, वह शव‍त दे नहीं सकती ह।?‛ गवान् गौतर्म बि र जी बोले– ‚योगी, तम्र हारा
प्रश्न ईवित ह। ईस बच्िे को ि।तन्यता अत्र्मा से ही वर्मलती ह।, परन्तर अत्र्मा जन्र्म नहीं लेती ह। वजस
प्रकार एक जलते हुए दीपक से दसर रा दीपक जलाया जाता ह।, विर ढेरों दीपक जलाए जा सकते हैं, आसी
प्रकार अत्र्मा का प्रवतवबम्ब स ी वित्तों पर (व्यवष्ट वित्तों परद पड़ रहा ह। आसी अत्र्मा के प्रवतवबम्ब के

तत्त्वज्ञान 265
कारण वित्त थवप्रकावशत व ि।तन्य-सा वदखाइ देता ह। तथा वित्त र्में कायलभ करने की शव‍त अती ह। ‛ आसी
प्रकार हर्में गवान् गौतर्म बि
र ने बहुत वशक्षायें दी थी ईनर्में से एक वशक्षा यह ी थी वजसका ईकलेख र्मैंने
ऄ ी वकया ह। ईन्होंने बौि धर्मलभ के ववषय र्में ी ढेर सारी वशक्षायें दी थी
अहुंकार
यह ऄनर व वदसम्बर र्माह के प्रथर्म सप्ताह र्में अया हरे रंग की वसतारोंदार साड़ी पहने एक वदव्य
थरी खड़ी ह। वह थरी ऄपने र्माँहर र्में काला नाग दबाए हुए हैं यह दृश्य देखकर र्मैंने सोिा- यह थरी बड़ी
ववविर ह।, नाग के शरीर का बीि का वाला ाग ईसने ऄपने दांतो र्में दबा रखा ह। नाग वबककरल शांत
नीिे की ओर लटका हुअ ह। तथा नाग का र्माँहर हर्मारी ओर ह। र्मैं ईस थरी से बोला– अप आस नाग को
र्मार डावलए तावक यह सर्माप्त हो जाए ईस थरी ने ऐसा कायलभ करने के वलए वसर वहलाकर र्मना कर वदया
अथय– नाग ऄहक
ं ार ह।, थरी प्रकृ वत ह। प्रकृ वत ने ऄहक
ं ार को ऄपने ऄवधकार र्में ले वलया ह।

तत्त्वज्ञान 266
सन् 2001
सभी वस्तुओ ुं का त्याग
यह ऄनर व जनवरी के प्रथर्म सप्ताह र्में अया प्राणायार्म करते सर्मय करण्डवलनी शव‍त की
अवाज सनर ाइ दी–‚र्मैं तर्मर से नाराज नहीं हाँ और न ही तर्मर से दरर हाँ हर्मारे तम्र हारे बीि यही ऄशि
र ता व
ऄज्ञानता ह। तर्मर स ी प्रकार की वथतओ र ं का त्याग कर दो तथा कठोर साधना करके हर्में प्राप्त कर लो‛
विर अवाज अनी बन्द हो गइ करछ क्षणों बाद हर्में वदखाइ वदया– एक सन्र दर पक्षी ह।, ईसका रंग सिे द
ईजला ह। ईसके उपर िारों ओर सन्र दर व र्मजबतर जाल ह। पक्षी जाल से वनकलने के वलए जोर लगा रहा
ह। तथा खबर िड़िड़ा रहा ह।
अथय– करण्डवलनी शव‍त जीवात्र्मा के वलए कह रही ह।– ऄशि र ता व ऄज्ञानता की दीवार हर्मारे
बीि ह। आसके वलए सम्पणर लभ सासं ाररक पदाथों का त्याग कर दो, विर र्मैं सवं गनी रूप र्में र्मैं तम्र हें वर्मल
जाउाँगी पक्षी जीवात्र्मा का प्रतीक ह।, जाल बन्धन ह। जीव बन्धन से बाहर वनकलना िाहता ह।, वजससे
वह र्मोक्ष को प्राप्त कर सके

माता काली की कृपा


यह ऄनर व जनवरी के वद्रतीय सप्ताह र्में अया र्मैं तीव्र गवत से ईड़ता हुअ अगे की ओर िला
जा रहा था सार्मने की ओर दो वसहांसन वदखाइ वदए वसंहासनों पर राजाओ ं के सर्मान दो परू र ष ब।ठे हुए
थे ईनके हाथों र्में गदा थी र्मैं ईन्हीं के सार्मने खड़ा हो गया हर्मने ईन दोनों से वकसी प्रकार की बातवित
नहीं की करछ क्षणों बाद दोनों परू र ष वसंहासन सवहत ऄदृश्य हो गये जहााँ दोनों परू र ष ब।ठे थे ईस थथान पर
एक बड़ा-सा दरवाजा वदखाइ देने लगा, विर दरवाजा ऄपने अप खल र गया र्मैं ऄपने थथान पर खड़ा था
ईसी सर्मय हर्मारा शरीर ईड़ता हुअ तीव्र गवत से दरवाजे के ऄन्दर प्रवेश कर गया ऄन्दर प्रवेश करते ही
एक और बन्द दरवाजा वदखाइ वदया ज।से ही र्मैं ईड़ता हुअ बन्द दरवाजे के पास पहुिाँ ा, दरवाजा ऄपने
अप खल र गया र्मैं ऄन्दर प्रवेश कर गया आसी प्रकार पााँि दरवाजे और वर्मले करल वर्मलाकर सात
दरवाजे वर्मले और र्मैं सातों दरवाजे पार कर गया विर ऄपने अपको थवप्रकावशत ववथतृत क्षेर र्में पाया

तत्त्वज्ञान 267
ज।से ही र्मैंने ऄपनी दृवष्ट सार्मने की त ी र्मैं िौंक पड़ा, ‍योंवक हर्मारे सार्मने ऄत्यन्त ववशालकाय थवरूप
र्में र्माता काली खड़ी थीं र्माता काली के वसर पर एक घड़ा रखा था ईनकी अाँखें ऄंगारों के सर्मान लाल
थी तथा वसर के बाल वबखरे हुए थे र्मैं ईनके थवरूप को देख ही रहा था वक ईनके वसर पर रखे घड़े से
थवच्छ पानी की धार वनकलकर हर्मारे प।रों पर वगरने लगी सारा पानी प।रों के पंजों पर वगर कर ऄदृश्य
होता जाता था पानी की धार हर्मारे प।रों से शरीर के उपरी ाग र्में वगरती हुइ ब्रह्मरन्र र्में अ गइ घड़े से
वगरा हुअ पानी हर्मारा शरीर सोख गया ऄब पानी की धार हर्मारे ब्रह्मरन्र र्में वगर रही थी पानी ब्रह्मरन्र
के ऄन्दर सर्माकर ऄदृश्य हो जाता था, विर पानी ज।सा गाढ़ा पदाथलभ वगरना बन्द हो गया र्मैं ईड़ता हुअ
वापस अने लगा जब र्मैं वापस दरवाजे से वनकल अता था, तब दरवाजा ऄपने अप बन्द हो जाता था
आसी प्रकार र्मैं बाहर अ गया
अथय– यह ऄनर व सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में अया र्माता काली तर्मोगणर की देवी ह। ईसने
हर्म पर कृ पा की ह। ऄब हर्मारे वित्त पर तर्मोगणर की र्मारा धीर-धीरे नष्ट होकर नार्मर्मार की रह जाएगी
विर यही नार्मर्मार का तर्मोगणर हर्मारा सहायक हो जाएगा अथालभत हर्मारा वित्त ऄब शीघ्र ही शि र होने
लगेगा

चारों शरीर
यह ऄनर व 6 िरवरी को अया उपर दरर ऄंतररक्ष र्में वतल के सर्मान नीला वबन्दर ह। आस वबंदर के
िारों ओर काले रंग का ऄंडाकार वलय ह। काले रंग के वलय के बाहर की ओर हकके सिे द रंग का
ऄंडाकार वलय ह। आस सिे द वलय के बाहर की ओर पीला व लाल वर्मवश्रत रंग का ऄंडाकार वलय ह।
सबसे र्म्य र्में जो वतल के सर्मान नीले रंग का वबन्दर ह।, ईसके र्म्य र्में सइर की नोक के सर्मान अकार का
ऄत्यन्त तेजथवी रंगहीन प्रकाश वबन्दर ह। आसका प्रकाश अाँखों को िकािौंध कर देने वाला ह। आसी पर
हर्मारी दृवष्ट करछ पलों के वलए ठहर गइ, त ी र्मैंने देखा वक आन िारों रंग के वलयों से गोलाकार रूप र्में
प्रकाशर्मान छकले बाहर की ओर लगातार वनकल रहे थे ये गोलाकार प्रकाशर्मान छकले ज।से-ज।से दरर होते
जाते थे, व।स-े व।से छकलों का अकार ववथतृत होता जाता था विर ये प्रकाशर्मान छकले सम्पणर लभ ऄंतररक्ष र्में
व्याप्त हो जाते थे यही वक्रया बार-बार लगातार हो रही थी करछ सर्मय बाद नीले रंग के वबन्दर के र्म्य
वाला प्रकाश वबन्दर धीरे -धीरे ऄदृश्य हो गया विर क्रर्मशः नीले, काले, सिे द व लाल रंग के वलय
ऄदृश्य हो गये

तत्त्वज्ञान 268
अथय– िारों रंग के वलय हर्मारे िारों शरीर हैं लाल रंग का बाहरी वलय हर्मारा थथल र शरीर ह।
सिे द रंग का वलय हर्मारा सक्ष्र र्म शरीर ह। काले रंग का वलय हर्मारा कारण शरीर ह। तथा नीले रंग का
वतल के अकार का वबन्दर हर्मारा र्महाकारण शरीर ह। ऄत्यन्त तेजथवी रंगहीन प्रकाश वबन्दर जो सइर की
नोक के अकार के सर्मान ह।, ईसका सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से ह। गोल-गोल वनकलने वाले छकले हर्मारी
वृवत्तयााँ ह। ये िारों क्रर्मश: लाल, सिे द, काले, नीले रंग के वलय एक दसर रे के ऄन्दर सर्माये हुए हैं आसी
प्रकार ये वलय क्रर्मशः छकलों के रूप र्में व्यापक होते जाते हैं हर्में याद अया थवार्मी र्मक्त
र ानन्द जी (गणेश
परर ी बम्बइ के पासद लाल रंग के वलय को र‍तेश्वरी, सिे द वलय को श्वेतेश्वरी, काले रंग के वलय को
कृ ष्णेश्वरी तथा नीले रंग के वबन्दर को नीलेश्वरी कहते थे

प्रकृदत
यह ऄनर व 12 िरवरी को अया हर्मारे वनकट थोड़ी उाँिाइ पर एक वितकबरी बकरी सख र ी
पतली-पतली टहवनयााँ खा रही ह। सख र ी टहवनयााँ खाते देखकर र्मैं जोर-जोर से हाँसने लगा, ‍योंवक बकरी
का थव ाव होता ह। र्मल
र ायर्म हरा िारा खाना र्मगर यहााँ पर बकरी सख र ी लकड़ी खा रही ह।
अथय– वितकबरी बकरी का ऄथलभ ह।– लाल, सिे द, काले रंग की बकरी बकरी का ऄथलभ प्रकृ वत ह।
प्रकृ वत तीन गणर ों से यक्त
र होती ह। सिे द रंग सत्त्वगणर का प्रतीक ह।, लाल रंग रजोगणर का प्रतीक ह। तथा
काला रंग तर्मोगणर का प्रतीक ह। सख र ी टहवनयााँ खाने का ऄथलभ ह।– कठोर साधना करने के कारण र्मैं
अजकल ऄपनी बनाइ सख र ी रोवटयााँ खाता हाँ वही ऄनर व आस रूप र्में वदखाइ दे रहा ह। हर्मारा शरीर
प्रकृ वत (ऄपराद ही तो ह। वितकबरी बकरी वरगणर ात्र्मक प्रकृ वत का प्रतीक ह।

धमय रूपी वषाय का होना


यह ऄनर व 13 िरवरी को अया हकके नीले रंग का िर्मकदार थवच्छ असर्मान ह। र्मैं असर्मान
की थवच्छता देख रहा था वक त ी जोर से वषालभ होने लगी वषालभ होते देख र्मैं अश्ियलभिवकत हो गया विर
र्मैं बोला– यह क। सी वषालभ ह।? असर्मान र्में वबककरल बादल नहीं हैं असर्मान थवच्छ ह। विर ी र्मसर लाधार
वषालभ हो रही ह। जब र्मैंने असर्मान को गौर पवर लभक देखना शरू
र वकया तो ज्ञात हुअ वक वषालभ वाला पानी
थवच्छ असर्मान से ऄपने अप प्रकट हो रहा ह। वषालभ को देखकर र्मैं ऄवत प्रसन्न हाँ उपर की ओर र्माँहर

तत्त्वज्ञान 269
करके र्मैं जोर-जोर से हाँसने लगा तथा वषालभ का अनन्द ईठाने लगा वषालभ का पानी जो असर्मान से वगर
रहा था वह वर र्म को गीला नहीं कर रहा था, बवकक वर र्म पर वगरकर ऄदृश्य हो जाता था आसी प्रकार वषालभ
का पानी हर्मारे शरीर के उपर वगर रहा था वह पानी हर्मारे शरीर को गीला नहीं कर रहा था, बवकक हर्मारे
शरीर के उपर वगर कर ऄदृश्य हो जाता था यही देखकर र्मैं प्रसनन् हो रहा था
अथय– थवच्छ नीले रंग का प्रकावशत असर्मान हर्मारा ही वित्ताकाश ह। हर्मारे वित्त र्में वषालभ हो रही
ह।– ऄवत ईत्तर्म पाप-पण्र य से रवहत परर्म-प ् रू
र षाथलभ की वित्त र्में जो वषालभ होती ह।, ईसे धर्मलभ रूपी वषालभ कहते
हैं साधक के वित्त र्में आस प्रकार की धर्मलभ रूपी वषालभ त ी होती ह। जब ज्ञान से ी वह वकसी प्रकार की िल
की आच्छा नहीं रखता ह। आस ज्ञान की पररप‍व ऄवथथा को धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं धर्मलभर्मेघ सर्मावध की
पराकाष्ठा पर-व।रा‍य ह। ऄ ी धर्मलभर्मेघ सर्मावध हर्मारी नहीं लगती ह।, वसिलभ ऄनर व अया ह। धर्मलभर्मेघ
सर्मावध की ऄवथथा ववष्य र्में अएगी

बन्धन से मु‍त हुआ


यह ऄनर व 13 िरवरी को अया र्मैं वकसी थथान पर खड़ा हाँ हर्मारे िारों ओर तथा उपर की
ओर लोहे की तारों का जाल लगा हुअ ह। र्मैंने िारों ओर देखा जाल र्मजबतर तारों का बना हुअ ह। र्मैं
सर्मझ गया वक यह जाल आतने र्मजबतर तारों का ‍यों बना ह।, तावक र्मैं आस जाल से बाहर न जा सकाँर र्मैंने
वनश्िय वकया वक र्मैं आस जाल को तोड़कर ऄवश्य आससे बाहर जाउाँगा आच्छा करते ही र्मेरा शरीर उपर
की ओर तीर की ााँवत िल वदया, विर जाल र्में जोरदार ट‍कर र्मारी ट‍कर आतनी जोरदार थी वक हर्मारा
वसर जाल को तोड़कर उपर की ओर वनकल गया तथा शेष शरीर जाल र्में िाँ स गया शरीर जाल र्में िाँ सने
के कारण र्मैं जाल के तारों को तोड़ने लगा हर्मारा शरीर कर्मर से उपर तक जाल से वनकल गया तथा त ी
वसर के उपरी वहथसे र्में (सहथरार र्मेंद कोइ वथतर जोर से टकराइ वजसके कारण सहथरार िक्र र्में जोरदार
कंपन हुअ ऄब र्मैंने उपर की ओर देखा– हर्मारे वसर के उपरी ाग र्में एक ववशेष प्रकार की शव‍त (हाइ
टेंशन तार की तरहद टकराइ आसी शव‍त के कारण हर्मारे सहथरार िक्र र्में कंपन हो रहा था र्मैं बोला– यह
शव‍त कहााँ से अ गइ आसके टकराने से हर्मारी र्मृत्यर हो जानी िावहए थी तब एक बार र्मैंने ऄपना वसर
विर से ईस शव‍त से थपशलभ वकया थपशलभ करते ही सहथरार िक्र र्में कंपन होने लगा विर र्मैं जोर से हाँसा
र्मैंने ऄपना वसर एक ओर को वकया और ऄतं ररक्ष र्में उपर की ओर तीव्रगवत से िला गया

तत्त्वज्ञान 270
अथय– र्मजबतर लोहे के तारों का जाल सांसाररक बन्धन (जीव का बन्धनद ह। र्मैंने आस बन्धन को
तोड़ वदया, विर आस बन्धन से परे िला गया यह ऄवथथा ववष्य र्में अएगी, ऄ ी नहीं ह। जाल से बाहर
वनकलते सर्मय वसर पर एक शव‍त टकराइ थी यह शव‍त हाइ टेंशन तार की तरह थी आसे ऄपरा-प्रकृ वत
की सीर्मा ऄथवा वायर तत्त्व की सीर्मा सर्मझना िावहए अकाश तत्त्व (परर्म् अकाशद र्में ऄपरा-प्रकृ वत
थवयं ऄपनी रिना करती ह। यह रिना वायर तत्त्व के द्रारा होती ह। वायर तत्त्व ही शव‍त का प्रतीक ह। आसी
वायर तत्त्व से ववव न्न प्रकार की शव‍त ईत्पन्न होती ह। ऄनर व र्में टकराइ शव‍त ऄपरा-प्रकृ वत की
अवखरी सीर्मा थी, वजसने ऄवरोध डालने का प्रयास वकया र्मगर र्मैं आस शव‍त से एक ओर से वनकल कर
अगे िला गया ऄनर व से वनवश्ित हो रहा ह। वक जीवात्र्मा बन्धन से र्म‍र त होकर र्मोक्ष को प्राप्त होगी

अदस्मता का साक्षात्कार
यह ऄनर व 14 िरवरी को ्यानावथथा र्में अया– र्मैंने देखा वक सनर हरे रंग के प्रकाश र्में ऄपने
सार्मने वबककरल नजदीक काले नाग का वसिलभ र्माँहर और अाँखें वदखाइ दे रही थी अाँखों का वपछला
वहथसा, नाग का िन व ईसका शरीर नहीं था र्मैं ईस सनर हरे ऄत्यन्त तेज प्रकाश र्में नाग का र्माँहर व अाँखें
देखकर सोिने लगा– आस तेजथवी प्रकाश र्में नाग का वसिलभ र्माँहर वाला ाग ही ‍यों वदखाइ दे रहा ह।? ईस
प्रकाश के र्म्य र्में नाग का र्माँहर ऄच्छा नहीं लग रहा था विर र्मैं सर्मावध की गहराइ र्में िला गया तीन
घण्टे बाद सर्मावध टरटी
अथय– हर्म पहले ी वलख िक र े हैं वक काला नाग ऄहक ं ार का प्रतीक होता ह। ऄनर व र्में नाग का
र्माँहर वदखाइ दे रहा ह। यह नाग का र्माँहर ऄवथर्मता का प्रतीक ह। वतलभर्मान सर्मय र्में र्मैं ईच्ितर्म ऄवथथा के
(सर्मावध के द ऄन्तगलभत ऄभ्यास कर रहा हाँ ऄथालभत् वित्त की िौथी वर र्म पर ऄभ्यास कर रहा हाँ आसवलए
आस ऄनर व र्में ऄवथर्मता का साक्षात्कार हुअ ह। सनर हरा िकािौंध कर देने वाला तेज प्रकाश वित्त पर
पड़ने वाला अत्र्मा का प्रवतवबम्ब ह। आसी प्रकाश के कारण वित्त थवप्रकावशत-सा वदखाइ देता ह। ऄथालभत्
िेतन तथा जड़ (वित्तद की ऄव न्नता ही ऄवथर्मता कहलाती ह। आसी ऄवथर्मता र्में ऄववद्या बीज रूप र्में
रहती ह। ऄवथर्मता के कारण ही जीवात्र्मा वित्त को ऄपना सर्मझने लगता ह। तथा अत्र्मा और वित्त का
ेद ज्ञान नहीं रह जाता ह। ऄवथर्मता ऄहक ं ार से ी सक्ष्र र्म ह। आस वर र्म पर ऄभ्यास करने वाले साधकों के
‍लेश ी ऄवत सक्ष्र र्म होते हैं हर्म स ी जानते ह। वक कोइ पदाथलभ वजतना सक्ष्र र्म होगा, वह ईतना ही ऄवधक

तत्त्वज्ञान 271
शव‍तशाली होगा आसवलए आस ऄवथथा को प्राप्त साधक को ऄत्यन्त ‍लेश ोगना पड़ता ह। ऄवथर्मता
का साक्षात्कार होने पर साधक के ‍लेश व कर्मालभशय सर्माप्त होने लगते हैं

ऋतम्भरा-प्रज्ञा का उदय होना


यह ऄनर व 18 िरवरी को अया र्मैं वकसी थथान पर खड़ा हाँ ईसी सर्मय पवर लभ वदशा की ओर
ऄत्यन्त तेज प्रकाश प्रकट होने लगा र्मैंने दृवष्ट पवर लभ वदशा की ओर वथथर कर दी ईस प्रकट हुए तेज
प्रकाश के ऄन्दर ऄत्यन्त ववथतृत क्षेर र्में ि। ला हुअ सयर लभ के सर्मान गोलाकार प्रकाश प्रकट हो गया यह
गोलाकार ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश सम्पणर लभ पवर लभ वदशा र्मैं ि। ला हुअ था ईसका प्रकाश सम्पणर लभ ऄंतररक्ष व
सम्पणर लभ वर र्म पर ि। ला हुअ था र्मैंने ऐसा ऄवद्रतीय प्रकाश पहले क ी नहीं देखा था र्मैं सोिने लगा वक
यह क। सा प्रकाश ह। वजससे ऄतं ररक्ष र्में व सम्पणर लभ वर र्म पर प्रकाश ही प्रकाश ि। ल गया ईसी सर्मय ईस
गोलाकार प्रकाश से एक प्रकाश वकरण वनकलकर हर्मारे र्माँहर पर पड़ी ज।से ही प्रकाश वकरण र्माँहर पर पड़ी,
हर्मारी अाँखें िकािौंध हो गइ तथा हर्मारे शरीर र्में झटका सा लगा झटका लगते ही हर्मारी सर्मावध गं
हो गइ तथा अाँखें खल र गइ
सर्मावध खल
र ने के बाद र्मैं सोिने लगा वक यह क। सा वदव्य प्रकाश ह। वजसे र्मैं पहली बार देख रहा हाँ
ईसके द्रारा वनकली वकरण र्माँहर पर पड़ते ही सर्मावध ंग हो गइ तथा हर्मारे र्मवथतष्क र्में ववशेष प्रकार की
हलिल होने लगी यह गोलाकार प्रकाश सयर लभ के सर्मान था सयर लभ का अकार छोटा होता ह।, यह ईससे
बड़ा था आसका वकनारा वर र्म को थपशलभ कर रहा था ऐसा लगता था र्मानों वर र्म के ऄन्दर से वनकलकर
अया ह। सयर लभ का प्रकाश आस प्रकाश के सार्मने जगर नर के सर्मान ह। यह ऄनर व र्मार करछ क्षणों के वलए ही
अया था बाद र्में हर्में र्मालर्मर हुअ वक यह ऊतम् रा-प्रज्ञा का दशलभन हुअ ह। आस ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय
त ी होता ह। जब साधक वनववलभिार सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में प्रवीणता प्राप्त कर लेता ह। वनववलभिार
सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा र्में रजोगणर व तर्मोगणर रूपी र्मल और अवरण के नष्ट होने पर सत्त्वगणर की
प्रधानता से प्रकाश र्मान वित्त का थवच्छ वथथर रूपी एका्र प्रवाह वनरन्तर बहता रहता ह। आसी को
प्रवीणता कहते हैं आसी प्रवीणता र्में साधक को प्रकृ वत पयलभन्त सब पदाथों का एक ही सर्मय र्में साक्षात्कार
हो जाता ह। आस साक्षात्कार को प्रज्ञा-प्रसाद ी कहते हैं आस प्रज्ञा के प्रकट होने तथा ववनाश होने पर
प्रज्ञा-लोक का (परा-प्रकृ वत का या इश्वर के लोक काद ववकास होता ह। व्यास जी का कहना ह।– प्रज्ञा

तत्त्वज्ञान 272
रूपी प्रसाद को प्राप्त कर शोक से रवहत प्राज्ञ (योगीद शोक र्में पड़े जनों को ऐसे देखता ह।, ज।से पहाड़ की
िोटी पर खड़ा र्मनष्र य नीिे की ओर पृथ्वी पर खड़े र्मनष्र य को देखता ह।
अथय– ऊतम् रा प्रज्ञा का ऄथलभ ह।– सच्िाइ को धारण करने वाली ऄववद्या से रवहत ज्ञान आस प्रज्ञा
के प्राप्त होने से कइ जन्र्मों के योग के ऄभ्यास का िल वर्मलता ह। व्यास जी कहते हैं– वेद वववहत श्रवण
से, ऄनर्मर ान से तथा ्यान के ऄभ्यास से प्रज्ञा का सम्पादन करता हुअ साधक ईत्तर्मयोग को प्राप्त करता
ह।

ऋतम्भरा-प्रज्ञा का दशयन
यह ऄनर व ्यानावथथा र्में एक र्मािलभ को अया र्मैं वर र्म पर खड़ा हाँ हर्मसे थोड़ी दरर ी पर वर र्म पर
एक छोटा- सा गढ़ानर्मर ा जगह ह। ईस गड्ढे र्में पानी रा हुअ ह। र्मैं ईसी पानी को देख रहा हाँ ईसी पानी
के ऄन्दर नीिे की ओर ऄत्यन्त तेजथवी ऊतम् रा-प्रज्ञा प्रकट हो गइ आस प्रज्ञा से प्रकाश की एक वकरण
वनकली यह वकरण गड्ढे के पानी को पार करती हुइ हर्मारे र्माँहर पर पड़ी प्रकाश वकरण र्माँहर पर पड़ते ही
हर्मारी अाँखें िकािौंध हो गइ तथा शरीर को झटका लगा झटके के साथ ही हर्मारी सर्मावध टरट गइ
अथय– थवच्छ पानी हर्मारे वित्त की वृवत्तयााँ ह। वृवत्तयों के नीिे वर र्म पर प्रज्ञा प्रकट हो गइ पानी
रूपी वृवत्तयााँ प्रज्ञा के वकरण रूपी प्रकाश को रोक नहीं पाइ ईसके ज्ञान का प्रकाश हर्मारे र्माँहर पर पड़ा
ज्ञान का प्रकाश र्माँहर पर पड़ते ही हर्मारे शरीर र्में कंपन सा हुअ, विर सर्मावध गं हो गइ आस प्रज्ञा से
ईत्पन्न होने वाले सथं कार ऄन्य स ी व्यत्र थान के सथं कारों के बाधक हैं

दचत्त के बाह्य पररणाम वाले तीनों गुण


यह ऄनर व 4 र्मािलभ का ह। र्मैं वकसी थथान पर खड़ा हाँ सार्मने की ओर तीन छोटे-छोटे लग ग दो
वषलभ की ई्र के लड़के वदखाइ वदए ये तीनों लड़के गहरी वनिा र्में सो रहे थे एक लड़का नीिे सो रहा था
और दो लड़के नीिे वाले लड़के के उपर सो रहे थे लेटने का तरीका ऐसा था ज।से उपर वाले दोनों
लड़कों ने नीिे वाले लड़कों को तवकया बना रखा हो तवकया लगाते सर्मय वसिलभ वसर तवकए पर रखते हैं,
र्मगर दोनों लड़कों ने ऄपना अधा-अधा शरीर नीिे वाले लड़के के उपर रखा हुअ था ऐसा लगता था

तत्त्वज्ञान 273
ज।से नीिे वाले लड़के को दोनों लड़को ने वर्मलकर जबरदथती दबा रखा हो जब र्मैंने ईन तीनों लड़कों के
सोने का तरीका देखा, तब र्मझर े नीिे वाले लड़के पर दया अ गइ र्मैं बोला– नीिे वाले लड़के को
तकलीि होती होगी ईसी सर्मय हर्मारे बगल र्में खड़ा परू
र ष बोला, ‚नहीं, आसे वकसी प्रकार की तकलीि
नहीं होती ह।, ‍योंवक आनका थव ाव ही ऐसा ह। ‛
अथय– ये तीनों लड़के वित्त के बाह्य पररणार्म वाले तीनों गणर हैं आससे पहले ऄनर व र्में ी ये तीनों
गणर लड़कों के रूप र्में वदखाइ दे िक र े हैं ईस ऄनर व र्में लड़के ऄपना-ऄपना कायलभ कर रहे थे ऄथालभत् वित्त
की वृवत्तयों र्में (बाह्य पररणार्मद पररणार्म हो रहा था ऄबकी बार लड़के गहरी वनिा र्में सो रहे थे ऄथालभत् गणर
ऄपना कायलभ करके शातं हो गये हैं आस ऄनर व र्में एक ववशेषता ह।– एक लड़का नीिे ह। और दो लड़के
ईसे दबाए हुए ईसके उपर लेटे हैं ऄथालभत् एक गणर नीिे ह। और दो गणर ईसे दबाए हुए हैं जब गणर ों का
पररणार्म क्रर्म होता रहता ह।, तब एक गणर प्रधान रहता ह। तथा दो गणर गौण रूप से रहते हैं एक गणर प्रधान
रूप से रहकर ऄपना कायलभ (पररणार्मद करता रहता ह। जब गणर ऄपना पररणार्म क्रर्म सर्माप्त करते हैं, तब
दो गणर एक साथ होकर एक गणर को दबा लेते हैं आससे पररणार्म क्रर्म वनरुि हो जाता ह। यह ऄवथथा
साधक को वसिलभ सर्मावध ऄवथथा र्में प्राप्त होती ह।, आसे अत्र्माववथथवत कहते हैं सर्मावध ंग होने पर गणर ों
का पररणार्म क्रर्म विर शरू र हो जाता ह। ऄनर व र्में नीिे वाला लड़का रजोगणर ह। उपर के दोनों लड़के
सत्त्वगणर व तर्मोगणर के प्रतीक हैं ऄ ी वसिलभ ऄनर व अया ह। यह ऄवथथा करछ सर्मय बाद अएगी

दचत्त की भूदम
यह ऄनर व 4 र्मािलभ को योगवनिा र्में अया, आसवलए यह ऄवथथा करछ सर्मय बाद अएगी िारों
ओर प्रकाश ि। ला था र्मैं प्रसन्न र्मिर ा र्में अगे की ओर िला जा रहा था हर्मारी दृवष्ट नीिे की ओर वर र्म
पर पड़ी प।रों के पास की वर र्म वबककरल थवच्छ थी दावहनी ओर थोड़ी दरर ी से ऄत्यन्त वनर्मलभल पानी की
धारा बहकर हर्मारे प।रों के पास तक अ रही थी पानी हर्मारे प।रों के नीिे ववलीन हो रहा था वजस जगह
पानी वर र्म पर ववलीन हो रहा था ईस थथान पर नर्मी का नार्मोवनशान नहीं था र्मैं बोला– यह क। सी वर र्म ह।,
पानी होने के बावजदर नर्मी न होकर वबककरल सख र ी तथा ऄत्यन्त कठोर ह। ईस थथान के अस-पास की
वर र्म उसर वर र्म ज।सी थी ज।से ही र्मैंने अगे बढ़ने के वलए प।र ईठाया, वहााँ की वर र्म थोड़ी-सी उाँिी हो
गइ र्मैंने दसर रा ऄथवा तीसरा प।र ज।से ही अगे की ओर रखा, ईसी सर्मय तीव्र झटके के साथ र्मैं पीछे अ
गया र्मैं िौंक पड़ा– ये ‍या हो गया? हर्मारे शरीर र्में थोड़ी-सी वेदना सी हुइ र्मैं सर्मझ गया वक ईस थथान

तत्त्वज्ञान 274
पर ऄवश्य ही करछ ऄदृश्य रूप र्में ह। ज।से ही र्मैंने अगे बढ़ने के वलए ईस पर प।र रखा, ईसी सर्मय वर र्म के
ऄन्दर से ऄदृश्य रूप र्में शव‍त ज।सी वथतर वनकलने का अ ास होने लगा विर र्मैंने अगे की ओर प।र
नहीं बढ़ाया, बवकक थोड़ा-सा दावहनी ओर से होकर अगे बढ़ गया सार्मने छोटी सी दीवार के सर्मान
उाँिाइ ज।सी थी र्मैं ईस उाँिाइ के पास पहुिाँ ा, वह थथान और उाँिा हो गया र्मैंने वनवश्ित वकया वक र्मैं
आसी उाँिाइ को पार करके अगे की ओर जाउाँगा र्मैं बड़ी र्मवर श्कल से ईस उाँिाइ पर िढ़ पाया ज।से ही र्मैं
ईस उाँिाइ पर खड़ा हुअ ईसी सर्मय हर्में एक झटका लगा झटके के साथ ही र्मैं ऄपने अप अगे की
ओर िला गया अगे वकसी प्रकार की वर र्म नहीं थी, बककी प्रकाश ही प्रकाश ि। ला हुअ था ऄब र्मैं
ऄत्यन्त तेज प्रकाश र्में खड़ा था र्मैंने िारों ओर दृवष्ट करके देखा तो प्रकाश के ऄवतरर‍त करछ ी नहीं
था जब र्मैंने नीिे की ओर देखा तो वर र्म बहुत नीिे वदखाइ दी तथा वह वर र्म ी वदखाइ दी वजस पर
पहले खड़ा था
अथय– पानी की धारा– वित्त वृवत्तयों का प्रवाह वर र्म– वित्त की वर र्म वजस जगह वर र्म गीली नहीं
हो रही ह।, उसर ज।सी लगती ह।– ईस थथान से वित्त की वृवत्तयााँ प्रकट नहीं हो सकती हैं वजस जगह
शव‍त का के न्ि ह।, ईस जगह को लक्ष्य बनाकर यवद ववशेष प्रकार का ऄभ्यास वकया जाए तो साधक को
ववशेष प्रकार की शव‍तयााँ (वसवियााँद प्राप्त होती हैं र्मैंने ईस थथान का त्याग कर वदया तथा एक ओर से
अगे वनकल गया वित्त की वर र्म की अवखरी सीर्मा पार करते सर्मय थोड़ी-सी परे शानी हुइ आसके बाद र्मैं
ज्ञान के प्रकाश र्में वथथत हो गया यह ऄवथथा पणर लभ रूप से प्राप्त करने र्में करछ वषलभ लग जाएाँगे ऄनर व से
थपष्ट होता ह। वक हर्में वसवियों र्में कोइ वदलिथपी नहीं ह।, बवकक ऄपने थवरूप र्में वथथत होना ह। वित्त की
वर र्म की अवखरी सीर्मा पार करते सर्मय संसार से ऄपनी वनंदा का कष्ट सहना होगा, ‍योंवक अवखरी
सीर्मा पर दीवार खड़ी ह। आस दीवार को पार करते सर्मय प्रकृ वत ऄपना प्र ाव वदखाएगी र्मगर र्मैं प्रकृ वत के
प्र ाव को थवीकार नहीं करुाँगा तथा ऄवरोधों को पार करता जाउाँगा

तत्त्वों का साक्षात्कार
जब योगी को वनववलभिार सर्मावध की ईच्ित्तर्म ऄवथथा र्में प्रवीणता प्राप्त हो जाती ह।, तब योगी का
वित्त ऄत्यन्त वनर्मलभल हो जाता ह। आसी वनर्मलभलता र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होता ह। आसी ऊतम् रा-प्रज्ञा
द्रारा प्रकृ वत के पदाथों (तत्त्वोंद के सार्मान्य व ववशेष रूप का साक्षात्कार होता ह। पदाथों के ववशेष रूप के
साक्षात्कार के ववषय र्में वणलभन नहीं वकया जा सकता ह।, ‍योंवक यह ऄनर वर त का ववषय ह। विर ी र्मैं

तत्त्वज्ञान 275
वलखने का प्रयास कर रहा हाँ अजकल र्मैं ौवतक रूप से ऄवधक संयवर्मत रहता हाँ आस सर्मय र्मैं एकातं
र्में रहकर थवयं ोजन बनाता हाँ तथा एक बार ही थोड़ा ोजन करता हाँ आससे हर्मारे वित्त र्में शिर ता
बढ़ेगी, ‍योंवक वतलभर्मान सर्मय र्में वित्त का शि
र होना अवश्यक ह।

पृथ्वी तत्त्व के सामान्य व दवशेष रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व 4 र्मािलभ को अया हर्में ऄपने सार्मने हकके पीले रंग के िौकोर वगालभकार ढेर सारे कण
वदखाइ दे रहे थे आन कणों का ऄपने अप र्में घनत्व बहुत ज्यादा था ये कण अपस र्में एक-दसर रे से वर्मले
हुए तथा एक-दसर रे के उपर रखे हुए थे तथा एक वनवश्ित क्षेर र्में वदखाइ दे रहे थे र्मैं आन कणों को
्यानपवर लभक देख रहा था, त ी हर्मारे र्माँहर से वनकला, ‚यह तो पृथ्वी तत्त्व के कण हैं‛ करछ क्षणों बाद ईस
थथान पर -र ाग वदखाइ देने लगा र्मैं तरर न्त सर्मझ गया वक ये कण पृथ्वी तत्त्व के ही थे ऄनर व र्में जो
कण वदखाइ दे रहे थे, वह पृथ्वी तत्त्व का ववशेष रूप ह। यह ववशेष रुप वसिलभ योगी वनववलभिार सर्मावध की
ईच्ितर्म ऄवथथा र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा ही साक्षात्कार कर सकता ह। ववशेष रूप के साक्षात्कार से
पृथ्वी तत्त्व (जड़ तत्त्वद के ववषय र्में ज्ञान हो जाता ह।
प्रत्येक पदाथलभ के दो रूप होते हैं– एक- सार्मान्य रूप, दूसरा- ववशेष रूप आस ववषय र्में र्मैं पहले
ववथतार से वलख िक र ा हाँ के वल प्रत्यक्ष प्रर्माण ही वथतर के ववशेष रूप को वदखलाने र्में सर्मथलभ हेाता ह।
आवन्िय जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान ी थथल र वथतओ र ं के प्रत्यक्ष रूप को ही वदखला सकता ह।, सक्ष्र र्म और ऄतीवन्िय
पदाथों को नहीं वदखला सकता ह। पंितन्र्माराएाँ, ऄहक ं ार, वित्त अवद सक्ष्र र्म पदाथों र्में प्रत्यक्ष की पहुिाँ
नहीं ह। अगर्म प्रर्माण और ऄनर्मर ान प्रणार्म से आसके सार्मान्य रूप का ही पता लगा सकते हैं, आनके ववशेष
रूप को नहीं बतलाया जा सकता ह। वनववलभिार सर्मावध की प्रवीणता र्में होने वाली ऊतम् रा-प्रज्ञा से ही आन
सक्ष्र र्म पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार हो सकता ह।, ऄन्य वकसी प्रर्माण से नहीं हो सकता ऄनर व र्में
हर्में पृथ्वी तत्त्व के सार्मान्य और ववशेष रूप का साक्षात्कार ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा हुअ ह। पृथ्वीतत्त्व का
सार्मान्य रूप तो हर्म स ी वदन र र्में देखते हैं, र्मगर आसके ववशेष रूप का साक्षात्कार सांसाररक र्मनष्र य
नहीं कर सकता ह। प्रकृ वत र्में जो तीन गणर हैं, ईनके वाथतववक थवरूप का साक्षात्कार नहीं वकया जा
सकता ह। वृवत्त के द्रारा ईनका साक्षात्कार कबतर रों व बच्िों के रूप र्में होता ह।

तत्त्वज्ञान 276
जल तत्त्व के सामान्य व दवशेष रूप का साक्षात्कार
आसका साक्षात्कार 4 र्मािलभ को ही हुअ ऄनर व र्में हर्में ऄत्यन्त थवच्छ जल वदखाइ देने लगा
करछ क्षणों र्में जल र्में पररवतलभन होने लगा तथा जल कणों के रूप र्में पररववतलभत होने लगा जल के थथान पर
कण रखे वदखाइ दे रहे थे ये कण हकके सिे द रंग के थे आन कणों की बनावट बड़ी ववविर-सी थी ऐसा
लगता था ज।से गोलाकार कणों के बीि र्में से दो ाग कर वदए गये हैं आन कणों का घनत्व पृथ्वी तत्त्व के
कणों से बहुत कर्म था र्मैं तरर न्त सर्मझ गया वक ये जलतत्त्व के कण ह। जलतत्त्व के कण (परर्माणदर ी
पृथ्वी तत्त्व के कणों (परर्माणदर के सर्मान ठोस थे, वसिलभ रंग और बनावट र्में िकलभ था वजस सर्मय र्मैं पृथ्वी
तथा जल तत्त्व का साक्षात्कार कर रहा था, ईस सर्मय र्मैं ऄपने अपको दरर उपर की ओर ऄनर तर कर रहा
था

अदग्न तत्त्व के सामान्य रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व 5 र्मािलभ का ह। र्मैंने देखा वक हर्मसे थोड़ी दरर ी पर ऄव‍न जल रही थी ऄव‍न कािी
ववथतृत और उाँिी थी, वजसकी एक ज्वाला (लौद कािी उाँिाइ तक थी जलती हुइ ऄव‍न की लपटें वायर
र्में लहराती हुइ उपर की ओर ईठती हुइ वदखाइ दे रही थी, र्मगर करछ ही क्षणों र्में ऄव‍न परर ी तरह से वथथर
हो गइ ऄथालभत् ऄव‍न की लपटें जो उपर की ओर ईठी हुइ वायर र्में लहरा रही थी, ईन लपटों का लहराना
बन्द हो गया ऄव‍न के वथथर होने पर वह जड़ रूप र्में ावसत होने लगी ईसी सर्मय र्मैं बोला, ‚यह तो जड़
रूप र्में पररववतलभत हो गइ‛ र्मैं हसं रहा था और कह रहा था– ‚ऄव‍न जड़ रूप र्में पररववतलभत हो गइ‛
अथय– आस ऄनर व र्में ऄव‍न के सार्मान्य रूप का साक्षात्कार हुअ ह। ऄव‍न के सार्मान्य रूप से स ी
पररवित हैं, ‍योंवक ऄव‍न के वबना व्यवहार की दशा र्में र्मानव जीवन ऄसम् व ह। जब ऄव‍न जलती हुइ
वदखाइ देती ह।, तब ईसकी ज्वाला (लपटेंद हवा र्में लहराती हुइ उपर की ओर ईठती वदखाइ देती हैं
लपटों के हवा र्में लहराने से ऄव‍न र्में िेतनता ी ावसत होती ह। जब लपटों का लहराना बन्द हो गया,
तब ऄव‍न वथथर जल की ााँवत जड़ वदखाइ देने लगी ईस सर्मय ऄव‍न तथा वथथर जल र्में कोइ िकलभ
र्महससर नहीं होता था िकलभ वसिलभ आतना सा था वक ऄव‍न उपर की ओर ईठी हुइ थी तथा रंग लाल था
ऄव‍न की आस ऄवथथा को वसिलभ ्यानावथथा र्में देखा जा सकता ह।, ‍योंवक ऄव‍न ऄवथथा (थथल र
ऄवथथा र्मेंद र्में वबना वायर के नहीं जल सकती ह।

तत्त्वज्ञान 277
अदग्न तत्त्व के दवशेष रूप का साक्षात्कार
यह ऄनर व 5 र्मािलभ का ह। हर्मारे सार्मने सख र लभ लाल अग सी दहकती हुइ पैंवसल की र्मोटाइ के
बराबर लाइन (रे खाद सी ह। हर्मारी दृवष्ट आस सख र लभ लाल अग सी दहकती हुइ रे खा के वनिले वसरे पर गइ,
त ी ईस रे खा के वनिले वसरे से सख र लभ लाल रंग के गोल-गोल र्माँगर े के सर्मान परर्माणर बड़ी तेजी से वनकलने
लगे ये स ी परर्माणर (कणद नीिे वर र्म पर एकर होने लगे र्मैं ईन परर्माणओ र ं के वनकलने का तरीका
देखकर अश्ियलभ िवकत हो रहा था र्मार करछ क्षणों र्में ढेर सारे परर्माणर एकर हो गये ये परर्माणर ईस रे खा
के वनिले वसरे से ऄपने अप वनकल रहे थे र्मैंने ईन परर्माणओ र ं से दृवष्ट हटाइ और सोिा वक आस लाल
रंग की दहकती हुइ रे खा का उपरी वसरा कहााँ ह।? र्मैंने ऄपनी दृवष्ट उपर की ओर की तो देखा वक ईसका
उपरी वसरा हर्मारे वसर के ऄन्दर से वनकला था त ी र्मैं िौंक पड़ा, हर्मारे िौंकते ही वह दहकती हुइ रे खा
ऄदृश्य हो गइ र्मगर ऄ ी ईसके द्रारा वनकले परर्माणर ईसी थथान पर एकर थे पहले र्मझर े लगा वक शायद
ये परर्माणर गर्मलभ होंगे र्मगर आन परर्माणओ र ं को छरने पर र्मालर्मर हुअ वक ये वबककरल ी गर्मलभ नहीं थे, वसिलभ
साधारण पदाथलभ के सर्मान थे देखने र्में ये परर्माणर बहुत सन्र दर थेतथा दहकती हुइ रे खा खड़े अकार (रूपद
र्में थी
र्मैंने जो दहकती हुइ सख र लभ लाल रंग की रे खा का वणलभन वकया ह।, यह रे खा (लाइनद ऄत्यन्त ववलक्षण
कोइ वथतर थी वे परर्माणर र्माँगर े के सर्मान थे, र्मगर पणर लभ रूप से र्माँगर ो के सर्मान नहीं थे ईनकी बनावट र्में िकलभ
था, वसिलभ र्माँगर ो से तरलना की ह। ये ऄव‍न के परर्माणर होते हुए ी गर्मलभ नहीं थे, वसिलभ ईनका थवरूप गर्मलभ-सा
वदखाइ दे रहा था ये परर्माणर छरने पर जड़ वथतर के सर्मान थे आन परर्माणओ र ं का घनत्व बहुत कर्म था यह
ऄव‍न तत्त्व का ववशेष रूप था

वायु तत्त्व के सामान्य रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व 13 र्मािलभ को अया र्मैं ऄनर व र्में अगे की ओर िला जा रहा हाँ वजस र्मागलभ पर िल
रहा ह,ाँ वहााँ की वर र्म तेज प्रकाश से यक्त
र ह। िारों ओर प्रकाश ही प्रकाश ह। जाते सर्मय र्मागलभ र्में एक थथान
से अवाज सी सनर ाइ दी ऐसा लगा ज।से वायर की सरसराहट की अवाज ह। र्मैंने अवाज की ओर देखा
लेवकन हर्में करछ ी वदखाइ नहीं वदया अवाज ईत्पन्न होने के थथान पर एक ववशेष प्रकार का क्षेर
ऄवश्य वदखाइ वदया यह क्षेर हर्मसे लग ग 8-10 र्मीटर की दरर ी पर था ईस क्षेर र्में हर्में करछ ववशेषता-

तत्त्वज्ञान 278
सी वदखाइ दी आसवलए र्मैं खड़ा होकर ईस क्षेर को देखने लगा, ईसी सर्मय ईस क्षेर से एक र्मानव अकृ वत
प्रकट होने लगी करछ क्षणों र्में वह र्मानव अकृ वत एक सन्र दर देवता के रूप र्में पररववतलभत हो गइ वह देवता
हर्मारी ओर देख रहा था करछ ही क्षणों र्में ईस देवता के शरीर र्में पररवतलभन होने लगा ईस ि।तन्यर्मय देवता
का शरीर धीरे -धीरे जड़ रूप र्में पररववतलभत होने लगा विर वह पत्थर की र्मवर तलभ के सर्मान हो गया ऄथालभत् पणर लभ
रूप से जड़ रूप र्में पररववतलभत हो गया र्मैं बोला, ‚यह देवता तो जड़ रूप र्में पररववतलभत हो गये ‛ र्मार करछ
क्षणों र्में ईस देवता का जड़ शरीर वायर रूप र्में धीरे -धीरे पररववतलभत होने लगा र्मैं हाँसा और बोला– यह
देवता तो वायर रूप र्में पररववतलभत हो गये ऄब हर्में वथथर वायर खड़ी हुइ थपष्ट वदखाइ दे रही थी वायर का
अकार गोलाकार रूप र्में उपर की ओर ईठी हुए र्मोटे खम् े के अकार ज।सा था विर वह वायर गोलाकार
िक्रवात के सर्मान घर्मर ती हुइ तथा वतरछी गवत करती हुइ अगे की ओर थोड़ी दरर ी पर वथथत प्रकाश र्में
ववलीन हो गइ र्मैं यह वक्रया देखकर र्मथर करा रहा था और सोि रहा था वक वायर हर्में जड़ रूप र्में पारदशी
वदख रही ह।
वजस थथान पर देवता प्रकट हुअ था, ईसी थथान पर दसर री र्मानव अकृ वत प्रकट होने लगी, विर
वह अकृ वत थपष्ट होने लगी र्मैंने ईस अकृ वत को शीघ्र ही पहिान वलया और बोला, ‚ऄरे ! बजरंगबली
जी अप ‛ र्मैं आतना ही कह पाया था वक बजरंगबली जी शीघ्र ही थथल र रूप र्में (पत्थर की र्मवर तलभ ज।से
अकार र्मेंद पररववतलभत हो गये करछ क्षणों बाद थथल र रूप से वायर रूप र्में पररववतलभत हो गये ऄब र्मैं
गोलाकार रूप र्में खम्बे ज।से अकार र्में वायर का वथथर वपण्ड देख रहा था वक त ी वह वायर ऄपनी ही
जगह पर गोलाकार िक्रवात के सर्मान घर्मर ने लगी तथा घर्मर ती हुइ अगे की ओर वतरछी गवत करती हुइ
ईस थथान पर पहुिाँ गइ, जहााँ पहले वाली वायर ववलीन हो गइ थी वह वायर ी ईस प्रकाश र्में ववलीन हो
गइ वजस जगह पर वायर ववलीन होती थी वह थथान दावहनी ओर था ऄब विर पहले वाले थथान पर एक
र्मानव अकृ वत प्रकट होने लगी करछ ही क्षणों र्में र्मानव अकृ वत देवता गणेश जी के रूप र्में प्रकट हो गइ
र्मैं हाँसा और बोला, ‚ऄरे ! गवन् अप ‛ त ी ईनका शरीर बड़ी शीघ्रता से वायर रूप र्में पररववतलभत हो
गया वायर की उाँिी वपंडाकार अकृ वत ऄपनी जगह पर तेजी से घर्मर ने लगी, विर हर्मारी ओर वतरछी गवत
करती हुइ अने लगी र्मैं ऄवत प्रसन्न था, वायर का अकार (वपण्डद कािी उाँिा व कािी ववथतृत
गोलाकार रूप र्में था यह गवत करती हुअ हर्मारे पास अ गया, विर वायर ने हर्में ऄपने घेरे र्में ले वलया र्मैं
वायर वपण्ड के बीि खड़ा उपर की ओर देख रहा था वायर ऄपने ही थथान पर ऄवत तीव्र गवत से
गोलाकार रूप र्में घर्मर रही थी र्मैं वायर को पकड़े वायर वपण्ड के ऄन्दर खड़ा था र्मैं वायर के ऄन्दर ी खड़ा

तत्त्वज्ञान 279
था तथा वायर गवत ी कर रही थी, र्मगर हर्में वायर के थपशलभ की ऄनर वर त नहीं हो रही थी विर वायर वपण्ड
का अकार छोटा होकर ऄन्त र्में हर्मारे शरीर र्में व्याप्त हो गया
यह ऄनर व छोटा था र्मगर वलखने र्में बड़ा हो गया यह वायर तत्त्व का सार्मान्य रूप था साधारण या
सासं ाररक र्मनष्र य वायर के सार्मान्य रूप को क ी नहीं देख सकते हैं वे वसिलभ त्विा आवन्िय के द्रारा थपशलभ
की ऄनर वर त से वायर तत्त्व के सार्मान्य रूप का ऄनर्मर ान (ईसकी गवत काद कर सकते हैं वायर का रंग
पारदशी धएंर ाँ के बादल के सर्मान था वायर सद।व वतरछी गवत करती ह।, आसवलए ऄनर व र्में वतरछी गवत
करती हुइ वदखाइ दे रही थी वह िक्रवात के सर्मान िल रही थी ऄथालभत् गवत कर रही थी, ‍योंवक वायर
का थव ाव होता ह। गवत करना ऄथवा कंपन करना वायर थपष्ट रूप से जड़ वदखाइ दे रही थी ऄनर व के
ऄंत र्में र्मैं वायर तत्त्व के ऄन्दर खड़ा था वायर ऄपनी जगह पर घर्मर रही थी तथा बायें हाथ से वायर का
सहारा वलए र्मैं अरार्म से खड़ा था वजस प्रकार र्मनष्र य पेड़ के तने का सहारा लेकर वतरछा खड़ा हो जाता
ह।, व।से ही र्मैं वायर के ऄन्दर वायर का सहारा लेकर खड़ा था वायर परर ी तरह से जड़ रूप र्में ावसत हो रही
थी, ‍योंवक र्मैं ईसका सहारा लेकर खड़ा था ऄन्त र्में वायर तत्त्व हर्मारे ऄन्दर ववलीन हो गया जो वायर
हर्मारे ऄन्दर ववलीन हो गइ, वह श्री गणेश जी का बदला हुअ थवरूप (वायदर थी
ईस ववशेष थथान पर क्रर्मशः तीन देवता प्रकट हुए विर थथल र रूप (पत्थर रूपद र्में पररववतलभत होकर
वायर रूप र्में पररववतलभत हो गये, विर प्रकाश र्में (अकाश तत्त्व र्मेंद ववलीन हो गये र्मगर गणेश जी थथल र रूप
र्में (पत्थर रूप र्मेंद पररववतलभत नहीं हुए, बवकक वायर तत्त्व र्में पररववतलभत हो गये पहले र्मैं ईस वायर के ऄन्दर
खड़ा रहा, विर ऄन्त र्में सम्पणर लभ वायर हर्मारे शरीर के ऄन्दर व्याप्त हो गइ आन देवताओ ं का जन्र्म वायर तत्त्व
के द्रारा हुअ ह। ऄन्त र्में ये स ी अकाश तत्त्व (प्रकाशद र्में ववलीन हो जाते हैं र्मगर श्री गणेश नार्म का
देवता आन दोनों देवताओ ं से वनश्िय ही श्रेष्ठ ह।, वह ऄन्त र्में हर्मारे ऄन्दर ववलीन हो गया र्मैं ी ऄन्त र्में
ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाउाँगा श्री गणेश जी देवताओ ं र्में आसवलए पजर नीय हैं, ‍योंवक वे सद।व सवलभर
व्याप्त हैं

ऋतम्भरा-प्रज्ञा का साक्षात्कार
यह ऄनर व 13 र्मािलभ को अया पवर लभ वदशा र्में वनर्मलभल प्रज्ञा ईदय होकर उपर ऄंतररक्ष र्में अगे की
ओर गवत करने लगी ऄंतररक्ष र्में उपर जाकर प्रज्ञा वथथर हो गइ र्मैं ईस प्रज्ञा को देख रहा था

तत्त्वज्ञान 280
आस ऄनर व र्में दो बातें ववशेष हैं एक– प्रज्ञा पवर लभ वदशा र्में सयर लभ के सर्मान ईदय होकर ऄंतररक्ष र्में
जाती वदखाइ दी वजस प्रकार सयर लभ पवर लभ से ईदय होकर उपर ऄंतररक्ष की ओर जाता वदखाइ देता ह।, आसी
प्रकार प्रज्ञा ी ऄतं ररक्ष र्में जाती वदखाइ दी, विर उपर ऄतं ररक्ष र्में जाकर वथथर हो गइ दो– पहले
ऄनर वों र्में जब प्रज्ञा का ईदय होता था, ईस प्रज्ञा की प्रकाश वकरण ज।से ही हर्मारे िेहरे पर पड़ती थी,
त ी अाँखें िकािौंध हो जाती थी तथा आसी के साथ हर्मारी सर्मावध ंग हो जाती थी आस ऄनर व र्में र्मैं
ऊतम् रा-प्रज्ञा को देख रहा था, र्मगर न ही र्मेरी अाँखें िकािौंध हुइ और न ही हर्मारी सर्मावध ंग हुइ

वायु तत्त्व के अन्दर अदग्न तत्त्व, जल तत्त्व व पृथ्वी तत्त्व


यह ऄनर व 13 र्मािलभ को अया र्मैंने देखा वक वायतर त्त्व उाँिा गोलाकार वपण्डनर्मर ा ऄपने थथान
पर गोलाकार रूप र्में घर्मर रहा ह। आस दृश्य को देखकर र्मैं प्रसन्न हो रहा हाँ करछ क्षणों र्में वायर का घर्मर ना
बन्द हो गया और वायर ऄपने थथान पर वथथर हो गइ ज।से ही वायर ऄपने थथान पर वथथर हुइ, ईसी सर्मय
दरर से ऄव‍न तत्त्व अता हुअ वदखाइ वदया और तीव्र गवत से वायर तत्त्व के ऄन्दर प्रवेश कर गया
ऄव‍नतत्त्व वायर तत्त्व के ऄन्दर के न्ि र्में वथथत हो गया वायर तत्त्व के अकार से ऄव‍नतत्त्व का अकार
कािी छोटा था ऄव‍नतत्त्व के वथथत होते ही जल तत्त्व बड़ी तीव्र गवत से दरर से अता हुअ वदखाइ वदया,
विर वह ऄव‍न तत्त्व के ऄन्दर के न्ि र्में वथथत हो गया जल तत्त्व का अकार ऄव‍न तत्त्व की ऄपेक्षा छोटा
था जल तत्त्व के वथथत होते ही पृथ्वी तत्त्व बड़ी तीव्रता से अता हुअ वदखाइ वदया तथा जल तत्त्व के
के न्ि र्में वथथत हो गया पृथ्वी तत्त्व का अकार जल तत्त्व के अकार से छोटा था ऄब र्मैं वायर तत्त्व, ऄव‍न
तत्त्व, जल तत्त्व तथा पृथ्वी तत्त्व को एक साथ देख रहा था वह वायर तत्त्व के ऄन्दर क्रर्मशः वथथत थे
वायर तत्त्व का घनत्व सबसे कर्म था तथा व्यापकता सबसे ऄवधक थी ऄव‍न तत्त्व का घनत्व वायर तत्त्व से
ज्यादा था तथा वायर तत्त्व से व्यापकता ी कािी कर्म थी जल तत्त्व का घनत्व ऄव‍न तत्त्व से ऄवधक था
तथा ऄव‍न तत्त्व से व्यापकता ी कािी कर्म थी पृथ्वी तत्त्व का घनत्व जल घनत्व से ऄवधक था तथा
जल तत्त्व से व्यापकता ी कर्म थी र्मैं िारों तत्त्वों को एक साथ क्रर्मशः एक दसर रे के ऄन्दर वथथत हुअ
देख रहा था
अथय– ऄनर व र्में िारों तत्त्वों की व्यापकता और घनत्व वदखाया गया जो व्यापकता और घनत्व के
ऄनसर ार क्रर्मशः एक-दसर रे के ऄन्दर वथथत वदखाइ दे रहे थे वायर तत्त्व के ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से ऄव‍न तत्त्व
रहता ह। तथा ऄव‍न तत्त्व के ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से जल तत्त्व रहता ह। जल तत्त्व के ऄन्दर सक्ष्र र्म रूप से पृथ्वी

तत्त्वज्ञान 281
तत्त्व रहता ह। आसी प्रकार सृवष्ट के सर्मय क्रर्मशः वायर तत्त्व से ऄव‍न तत्त्व, ऄव‍न तत्त्व से जल तत्त्व, जल
तत्त्व से पृथ्वी तत्त्व प्रकट हो जाता ह। सृवष्ट का कायलभ आन्हीं िारों तत्त्वों द्रारा अकाश तत्त्व के ऄन्दर होता
ह।

आकाश तत्त्व के सामान्य रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व उपर वलखे ऄनर व के बाद अया र्मैं एक थथान पर अधारहीन खड़ा हाँ र्मैंने ऄपनी
दृवष्ट िारों ओर घर्मर ाइ, तब र्मझर े लगा यह थथान बहुत कर्म घनत्व वाला ह। हर्मारे सार्मने हर्मसे एक िीट
की दरर ी पर एक छोटा-सा वायर तत्त्व का वपण्ड था र्मैं आस वपण्ड को देखकर पहिान गया वक यह वपण्ड
वायर तत्त्व का ह। आस वपण्ड का अकार हर्मारे प।र के तलवे के बराबर था र्मैंने ऄपना दावहना प।र अगे
बढ़ाकर वायर वपण्ड के उपर रख वदया और विर दसर रा प।र ी ईठाकर वायर तत्त्व के उपर रख वदया ऄब
र्मैं वायर तत्त्व के उपर खड़ा हो गया वायर तत्त्व का अकार हर्मारे प।र के तलवे के बराबर ही था र्मैंने अगे
बढ़ने का प्रयास वकया, वकन्तर ज।से ही र्मैंने ऄपना दावहना प।र ईठाकर अगे रखा तो र्मझर े प।र के तलवे के
नीिे वकसी प्रकार का अधार ही र्महससर नहीं हुअ विर र्मैंने बााँया प।र ईठाकर अगे की ओर रखा, ईसी
सर्मय र्मैं अगे की ओर झक र गया र्मैं सोिने लगा वक यह क। सा थथान ह।, र्मैं खड़ा ही नहीं हो पा रहा हाँ विर
र्मैंने ऄपना दावहना प।र अगे की ओर रखा, ईसी सर्मय र्मैं दावहनी ओर झक र गया र्मेरे ऄन्दर वविार अया,
‚यह क। सा थथान ह।‛, र्मैं तो िल ही नहीं पा रहा हाँ आसी प्रकार क ी अगे झक र ता, क ी दावहनी ओर
झक र ता, क ी बायीं ओर झक र ता हुअ अगे बढ़ रहा था विर र्मैं सर्मझ गया वक यह थथान रर‍त ह।,
आसवलए र्मैं आस प्रकार िल पा रहा हाँ करछ क्षणों र्में र्मैं सार्मान्य रूप से खड़ा हो गया और उपर की ओर
दृवष्ट करके र्मथर कराने लगा
आस ऄनर व र्में अकाश तत्त्व के सार्मान्य रूप का साक्षात्कार हुअ ह। अकाश का ऄथलभ ह।- रर‍तता
ऄथवा ऄवकाश आसी रर‍तता के कारण ही र्मैं अकाश र्में िल नहीं पा रहा था अकाश तत्त्व पंि तर ों
र्में सबसे ऄवधक सक्ष्र र्म (कर्म घनत्व वालाद तथा व्यापक ह। अकाश तत्त्व के ऄन्दर वायर तत्त्व वथथत
रहता ह। आसवलए ऄनर व र्में वायर तत्त्व का अकार (सीर्माएंद वबककरल छोटा-सा ही ह। वायर तत्त्व की
सीर्माएं हर्मारे प।र के तलवे के बराबर थी ऄथालभत् अकाश तत्त्व की ऄपेक्षा वायर तत्त्व की सीर्माएं बहुत ही
छोटी होती हैं तथा अकाश तत्त्व की ऄपेक्षा वायर तत्त्व का घनत्व बहुत ऄवधक होता ह। आसवलए वायर
तत्त्व ठोस-सा वदखाइ दे रहा ह। आस ऄनर व र्में वायर तत्त्व जड़ रूप र्में वदखाइ दे रहा ह।, ‍योंवक र्मैं वायर तत्त्व

तत्त्वज्ञान 282
के उपर खड़ा हो गया हाँ वायर तत्त्व बहुत ही छोटा अकार (सीर्माओदं वाला ह। वपछले ऄनर व र्में जब
वायर तत्त्व का साक्षात्कार हुअ था, तब र्मैं आसके ऄन्दर खड़ा था विर ऄन्त र्में छोटा अकार वाला होकर
हर्मारे ऄन्दर व्याप्त हो गया था आसका कारण ह।– वित्त र्में वनर्मलभलता वजतनी ज्यादा बढ़ेगी, सक्ष्र र्मता ी
ईतनी ज्यादा बढ़ेगी और वजतनी ज्यादा सक्ष्र र्मता बढ़ेगी ईतनी ही ज्यादा व्यापकता ी बढ़ेगी ऄनर व र्में
अकाश तत्त्व की सीर्माएं थपष्ट वदखाइ दे रही हैं ऄथालभत् अकाश तत्त्व ी सीवर्मत वदखाइ दे रहा था र्मैं
वायर तत्त्व को ऄपने प।रों के नीिे दबाए हुए खड़ऺा था अकाश तत्त्व के ऄन्दर क ी अगे की ओर, क ी
दावहनी ओर, क ी बायीं ओर आसवलए झक र कर िल रहा ह,ाँ ‍योंवक अकाश तत्त्व की गवत का थव ाव
िारों तत्त्वों की वर्मवश्रत गवत ह। अकाश तत्त्व के ऄन्दर िारों तत्त्व (वायर तत्त्व, ऄव‍न तत्त्व, जल तत्त्व,
पृथ्वी तत्त्वद ववद्यर्मान रहते हैं
पाठकों! र्मैं आन तत्त्वों के साक्षात्कार के ववषय र्में वलख रहा हाँ यह वलखने का ववषय नहीं ह। थपष्ट
रूप से आस ववषय पर वलखा ी नहीं जा सकता ह। र्मैं वसिलभ वलखने का प्रयास कर रहा हाँ तावक पाठकों
और ऄभ्यावसयों को आस ववषय र्में जानकारी व र्मागलभदशलभन वर्मल सके यह वसिलभ ऄनर वर त का ववषय ह। आन
तत्त्वों के ववषय र्में वसिलभ वही ऄच्छी तरह से सर्मझ सकता ह। वजसने ऄभ्यास के द्रारा साक्षात्कार करके
ऄनर वर त की प्रावप्त की ह।

अदस्मता का साक्षात्कार
यह ऄनर व 16 र्मािलभ को अया र्मैं प्रकाश से यक्त र वर र्म देख रहा हाँ ऐसा लगता ह। ज।से यह वर र्म
प्रकाश की बनी ह। यह प्रकाश कइ रंगों से वर्मवश्रत-सा लग रहा था हर्मारे देखते ही वर र्म पर धीरे -धीरे
लहरें ईठने लगी र्मैंने सोिा यह वर र्म क। सी ह। जो कपड़े की ााँवत लहरा रही ह। आस वर र्म पर हकके काले
रंग की एक लाइन (रे खाद सी होने का अ ास हो रहा था र्मैं आस दृश्य को देख रहा था, विर करछ क्षणों
बाद प्रकाश बढ़ने लगा तथा वर र्म का वहलना ी बन्द हो गया प्रकाश हर क्षण बढ़ता जा रहा था करछ
क्षणों र्में प्रकाश सयर लभ के सर्मान तेज हो गया, वर र्म ी पणर लभ रूप से थवच्छ वदखाइ दे रही थी
अथय– अत्र्मा से प्रवतवबवम्बत ऄथवा प्रकावशत वित्त की संज्ञा का नार्म ऄवथर्मता ह। ऄवथर्मता
ऄहकं ार व ऄववद्या की जननी ह। आस ऄनर व र्में वित्त थवच्छ होकर ऄवधक प्रकावशत वदखाइ दे रहा ह।
ऄवथर्मता र्में रजोगणर के कारण वर र्म लहराती हुइ वदखाइ दे रही थी र्मगर जब र्मैं लहराती हुइ वर र्म को

तत्त्वज्ञान 283
वथथर दृवष्ट से देखने लगा, तब वर र्म का लहराना बन्द हो गया ऄथालभत् रजोगणर का प्र ाव शि र होकर शांत
हो गया, ‍योंवक वक्रया करना ईसका थव ाव ह। प्रकाश र्में हकके काले रंग की लाइन (रे खाद का जो
अ ास हो रहा ह।, वह तर्मोगणर ह। धीरे -धीरे प्रकाश बढ़ने लगा, ऄन्त र्में प्रकाश सयर लभ के सर्मान हो गया
सत्त्वगणर प्रकाशक ह।, सत्त्वगणर की र्मारा बढ़ने पर रजोगणर व तर्मोगणर की र्मारा घटने लगती ह। आसी
कारण वर र्म का वहलना बन्द हो गया तथा हकके काले रंग की रे खा ऄदृश्य हो गइ ऄब वित्त र्में रजोगणर
वक्रया र्मार ह। तथा तर्मोगणर आस वक्रया को रोकने र्मार रह गया ह। सत्त्वगणर प्रधान रूप से ववद्यर्मान ह।

तीनों तापों का साक्षात्कार


यह ऄनर व 19 र्मािलभ र्में योगवनिा र्में अया र्मैं कर्मरे नर्मर ा जगह के ऄन्दर हाँ हर्मारे सार्मने कर्मरे नर्मर ा
जगह र्में तीन िीते प्रकट हो गये आन तीनों िीतों का थव ाव ई्र लग रहा ह। ऐसा लगता ह। ज।से ये हर्में
खा जाएाँगे तीनों िीते हर्मारे िारों ओर ि‍कर काट रहे हैं तथा र्माँहर खोलकर यंकर गजलभना कर रहे हैं र्मैं
बड़े अरार्म से वर र्म पर लेट जाता हाँ और ऄपनी अाँखें ी बन्द कर लेता हाँ त ी एक िीता ऄपने दोनों
अगे वाले प।रों को हर्मारे सीने पर रखकर यंकर गजलभना करता ह। विर दसर रा िीता ी हर्मारे सीने के उपर
दोनों प।र रखकर यंकर गजलभना करता ह। दोनों िीते गजलभना करने के बाद हर्मारे शरीर के उपर से प।र हटा
लेते हैं, विर र्मैं ईठकर ब।ठ जाता हाँ हर्में कर्मरे नर्मर ा जगह के ऄन्दर एक ही िीता ब।ठा वदखाइ देता ह।, वे
दोनों िीते नहीं थे र्मैं ईस कर्मरे नर्मर ा जगह से बाहर वनकल कर देखता हाँ वक वह दोनों िीते र्मरे पड़े हुए
वदखाइ देते हैं र्मैं विर कर्मरे के ऄन्दर अ जाता ह,ाँ त ी तीसरा िीता दरवाजे के पास खड़ा वदखाइ देता
ह। ईसी सर्मय िीते का थवरूप बदल जाता ह। और वह परू र ष रूप र्में हो जाता ह। वह परू र ष हर्मसे बोला,
‚यह लो, आसे ्र हण करो‛ ईसके हाथ र्में लोटे के अकार ज।सा एक पार था र्मैं ईस पार को ले लेता हाँ
ईस पार र्में पानी ज।से रंग का तरल गाढ़ा पदाथलभ होता ह।
अथय– तीनों िीते तीनों तापों के प्रतीक हैं तीनों तापों के नार्म आस प्रकार हैं एक– द।वहक
(अ्यावत्र्मकद, दूसरा– ौवतक, तीन– द।ववक आन तीनों तापों के ववषय र्में ववथतार से दःर ख वाले पाठ र्में
पढ़ सकते हैं आन तीनों प्रकार के तापों से (दःर खों सेद प्रत्येक प्राणी वकसी-न-वकसी ताप (दःर खद की वनवृवत्त
का यत्न करते रहते हैं, विर ी तापों से छरटकारा नहीं वर्मलता ह। र्मृगतृष्णा की ााँवत वजन ववषयों के पीछे
र्मनष्र य सख
र सर्मझकर दौड़ते रहते हैं, वह प्राप्त होने पर दःर ख ही वसि होते हैं ऄनर व र्में दो िीते र्मर जाते
हैं, ईसके पहले हर्मारे उपर प।र रखकर गजलभना करते हैं ऄथालभत् दो प्रकार के ताप करछ सर्मय बाद (करछ वषों

तत्त्वज्ञान 284
बादद ऄपना प्र ाव वदखा कर सद।व के वलए शांत हो जाएाँगे तीसरा िीता परू र ष बनकर पार र्में करछ देता
ह।– यह ताप अ्यावत्र्मक ताप ह। आसका प्र ाव ऄववद्या की अवखरी सीर्मा तक होता ह।, यह ी र्म‍र त
कर देगा तीनों तापों से र्म‍र त होने का ऄथलभ ह।– आसी जीवन र्में र्मोक्ष ऄवश्य प्राप्त होगा तीनों तापों का
साक्षात्कार वृवत्तयों के द्रारा योगवनिा र्में हुअ ये तीनों ताप वकसी प्रकार के तत्त्व रूप र्में नहीं होते हैं यह
ऄनर व योगवनिा र्में अया, आसका प्र ाव हर्मारे उपर बहुत सर्मय बाद पड़ेगा

वायु तत्त्व के दवशेष रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व 22 र्मािलभ को अया र्मैं ऄंतररक्ष र्में ऄवत तीव्र गवत से िला जा रहा था हर्मारी गवत
र्मन के सर्मान तीव्र थी त ी र्मैंने देखा वक हर्मारे सार्मने ऄंतररक्ष र्में वायर तत्त्व (सार्मान्य रूप र्मेंद वथथर रूप
र्में ववद्यर्मान ह। विर वायर तत्त्व का सार्मान्य रूप ऄदृश्य हो गया वायर के सार्मान्य रूप की जगह कण ही
कण (परर्माणर ही परर्माणदर ऄंतररक्ष र्में प्रकट हो गये र्मैं तीव्र गवत से ईन वायर कणों के बीि र्में प्रवेश कर
गया र्मैं वायर तत्त्व के कणों के बीि से होकर तीव्र गवत से अगे िला जा रहा था तीव्र गवत के कारण
वायर तत्त्व के कण हर्मारे शरीर से टकरा रहे थे र्मगर वायर कणों का थपशलभ हर्में र्महससर नहीं हो रहा था जो
वायर कण हर्मारे शरीर से टकरा रहे थे, ईनके टकराने की अवाज हर्में जोर से सनर ाइ पड़ रही थी ऐसा
लगता था ज।से र्मैं रे त के कणों के बीि र्में ऄत्यन्त तीव्र गवत से अगे िला जा रहा ह,ाँ त ी हर्मारी गवत
सर्माप्त हो गइ र्मैंने वायर कणों के क्षेर को पार कर वलया था ऄब र्मैं थवच्छ व ऄत्यन्त कर्म घनत्व वाले
थथान पर खड़ा था
अथय– वायर तत्त्व के सार्मान्य रूप का साक्षात्कार 13 र्मािलभ व 16 र्मािलभ को हुअ था ईन ऄनर वों र्में
वायर तत्त्व गवत करती हुइ वदखाइ दे रही थी आस ऄनर व र्में वायर तत्त्व के ववशेष रूप का साक्षात्कार हुअ
ह। वायर तत्त्व वजन परर्माणओ र ं से बने हैं, वही परर्माणर (कणद हर्में ऄनर व र्में वदखाइ दे रहे थे र्मैं ईन
परर्माणओ र ं के ऄन्दर गवत करता हुअ अगे िला जा रहा था यह परर्माणर हर्में रे त के कणों के सर्मान
वदखाइ दे रहे थे, र्मगर रे त के कणों तथा ईन परर्माणओ र ं की बनावट र्में ऄंतर था आन परर्माणओ र ं के थपशलभ
की ऄनर वर त (टकराने कीद हर्में नहीं हो रही थी, जबवक यह परर्माणर हर्मसे टकरा रहे थे ऄथालभत् थपशलभ
तन्र्मारा की ऄनर वर त नहीं हो रही थी परर्माणर टकराने की अवाज अ रही थी ऄथालभत् शब्द तन्र्मारा की
ऄनर वर त हो रही थी र्मैं वायर तत्त्व के ववशेष रूप के ऄन्दर से होकर पार होता हुअ अकाश तत्त्व र्में खड़ा

तत्त्वज्ञान 285
हो गया वायर तत्त्व के परर्माणर की बनावट न ही िौकोर थी और न ही गोल थी, बवकक ईनकी बनावट
षटकोण ज।सी थी

आकाश तत्त्व के दवशेष रूप का साक्षात्कार


यह ऄनर व 25 र्मािलभ को अया आस ऄनर व को शब्दों र्में बााँधना ईवित नहीं ह।, ‍योंवक शब्दों र्में
व्य‍त करना र्मवर श्कल-सा हो रहा ह। र्मैंने देखा वक र्मैं वकसी जगह पर लेटा हुअ हाँ वजस जगह पर लेटा
हुअ हाँ वह थथान रर‍त ह। र्मैं थवयं ऄपने अप से कर रहा ह,ाँ ‘यह तो रर‍त स्थान है ’ हर्मारी दृवष्ट
उपर की ओर गइ तो देखा वक अकाश उपर की ओर ईठा हुअ ह। तथा अकाश की सीर्माएं ी हैं उपर
ईठे हुए अकाश के (रर‍त थथान के द र्म्य र्में कोइ छोटी-सी वथतर (पदाथलभद वथथर रूप र्में हैं आस वथथर
पदाथलभ का थवरूप बंदर ज।सा ह। अकाश जो उपर की ओर ईठा हुअ वदखाइ दे रहा ह।, वह थपष्ट रूप से
जड़ रूप र्में ावसत हो रहा ह। र्मैं सोि रहा हाँ वक यह रर‍त थथान उपर की ओर ‍यों ईठा हुअ ह।? करछ
सर्मय बाद र्मैं रर‍त थथान से बाहर अ गया
आस ऄनर व र्में हर्में अकाश तत्त्व के ववशेष रूप का साक्षात्कार हुअ ह। अकाश का ऄथलभ ह।–
रर‍तता ऄथवा ऄवकाश आस रर‍तता के ववषय र्में शब्दों द्रारा ज्यादा वणलभन नहीं वकया जा सकता ह। वक
रर‍तता क। सी होती ह।? यह के वल ऄनर वर त का ववषय ह। आसे अकाश तत्त्व के ववशेष रूप का साक्षात्कार
करने वाला योगी ही सर्मझ सकता ह। ऄनर व र्में जो अकाश तत्त्व के र्म्य बंदर के अकार ज।सी कोइ
वथतर रखी ह।, वह अकाश तत्त्व का परर्माणर ह। वजससे अकाश तत्त्व बना हुअ ह। ऄनर व र्में र्मैं अकाश
तत्त्व के ऄन्दर लेटा हुअ हाँ तथा अकाश तत्त्व की सीर्माएं ी वदखाइ दे रही थी र्मगर अकाश तत्त्व को
बनाने वाले परर्माणओ र ं की संख्या र्मार एक ही थी, वजनका थवरूप बंदर ज।सा था आसवलए पााँिों तर ों र्में
अकाश ही सबसे सक्ष्र र्म ह।, ‍योंवक ईसके परर्माणओ र ं की संख्या का धनत्व बहुत ही कर्म होता ह। धनत्व
कर्म होने के कारण व्यापकता सबसे ज्यादा ह। सबसे ऄवधक सक्ष्र र्म होने के कारण वह स ी के ऄन्दर
सर्मा जाता ह।

तत्त्वज्ञान 286
तत्त्वों की पहचान
साधक जब सर्मावध ऄवथथा र्में प्रकृ वत के पदाथों के ववशेष रूप का साक्षात्कार करता ह।, तब ईस
पदाथलभ र्में परर्माणओ
र ं के रंग ऄलग-ऄलग वदखाइ देते हैं, ‍योंवक स ी पदाथों के परर्माणओ र ं का रंग
ऄलग-ऄलग होता ह। आन तत्त्वों के परर्माणओ र ं के रंग, गवत, बनावट और तत्त्वों के परर्माणओ
र ं के ववषय र्में
अपस र्में व न्नता वदखाइ दी थी, यही व न्नता र्मैं वलख रहा हाँ
सबसे पहले र्मैं तत्त्वों के रंग के ववषय र्में वलख रहा हाँ तत्त्वों का रंग बताने के वलए र्मैं ौवतक रंगों से
तल र ना कर रहा हाँ ौवतक रंगों की ऄपेक्षा तत्त्वों के रंग ववलक्षण होते हैं पृथ्वी तत्त्व का रंग हकका पीला
होता ह।, जल तत्त्व का रंग हकके सिे द रंग ज।सा होता ह।, ऄव‍न तत्त्व का रंग लाल होता ह।, वायर तत्त्व का
रंग धएर ाँ के बादल के रंग के सर्मान होता ह। तथा अकाश तत्त्व का रंग रंगहीन ऄथवा स ी तत्त्वों के
वर्मवश्रत रंगों ज।सा होता ह।
ऄनर व र्में पढ़ा होगा वक जब र्मैं अकाश तत्त्व का साक्षात्कार कर रहा था, तब अकाश तत्त्व र्में
गवत कर रहा था गवत करते सर्मय क ी अगे की ओर झक र ता था, क ी दावहने ओर व बायीं ओर झक र ता
था ऄथालभत् वतरछा होकर गवत कर रहा था आसका कारण ह।– हर तत्त्व की गवत ऄलग-ऄलग होती ह।
पृथ्वी तत्त्व की गवत अगे की ओर ऄथालभत् सार्मने की ओर होती ह।, जल तत्त्व की गवत नीिे की ओर होती
ह।, आसवलए जल नीिे की ओर बहता ह। ऄव‍न तत्त्व की गवत उपर की ओर होती ह।, आसवलए ऄव‍न सद।व
उपर की ओर जलती ह। वायर की गवत वतरछी होती ह।, आसवलए वायर सदा वतरछी िलती ह। ऄनर व र्में
वायर वतरछी िल रही थी अकाश तत्त्व की गवत स ी तत्त्वों की वर्मवश्रत गवत होती ह।
आसी प्रकार स ी तत्त्वों का थव ाव ी ऄलग-ऄलग होता ह। पृथ्वी तत्त्व का थव ाव ारी होता ह।,
जल तत्त्व का थव ाव शीतल होता ह।, ऄव‍न तत्त्व का थव ाव गरर्म होता ह।, वायर तत्त्व का थव ाव िंिल
होता ह। तथा अकाश तत्त्व का थव ाव स ी तत्त्वों के थव ावों का वर्मवश्रत ह।
तत्त्वों का साक्षात्कार करते सर्मय आन तत्त्वों के परर्माणओ
र ं की बनावट र्में िकलभ था आन परर्माणओ
र ं
की बनावट पर हर्मने ज्यादा गौर नहीं वकया, विर ी हर्में जो याद अ रहा वह वलख रहा हाँ पृथ्वी तत्त्व के
परर्माणओर ं की बनावट िौकोर-सी थी, जल तत्त्व के परर्माणओ र ं की बनावट ऄधलभ-िन्िाकार थी, ज।से
गोलाकार र्माँगर े को बीि से तोड़कर दो बराबर-बराबर एक ज।से टरकड़े कर वदए जाएाँ ऄव‍न तत्त्व के
परर्माणओ र ं की बनावट गोलाकार ज।सी वदखाइ दी थी वायर तत्त्व के परर्माणओ र ं की बनावट न तो

तत्त्वज्ञान 287
गोलाकार थी और न ही िौकोर थी ऐसा लगता था ज।से आन दोनों की बनावट (िौकोर व गोलाकारद के
बीि वाली बनावट थी, ऐसा सर्मझो षटकोण के सर्मान थी अकाश तत्त्व के परर्माणर की बनावट पानी
की बंदर के सर्मान थी ऄनर व र्में हर्में अकाश तत्त्व का र्मार एक ही परर्माणर वदखाइ वदया था आन तत्त्वों के
साक्षात्कार के सर्मय तत्त्व का थवाद ी र्महससर होता ह। साधक सर्मावध के द्रारा वजस तत्त्व का साक्षात्कार
कर रहा होता ह।, ईस तत्त्व का प्र ाव साधक पर प्रधान रूप से होता ह। साधक के ऄन्दर ईस तत्त्व की
प्रधानता के कारण ईसका थवाद ईसकी वजह्वा पर सक्ष्र र्म रूप से र्महससर होता ह। जब र्मैं आन तत्त्वों का
साक्षात्कार कर रहा था, ईस सर्मय हर्मने ऄलग-ऄलग थवादों पर गौर नहीं वकया, र्मगर हर्में थवाद ऄवश्य
याद ह। ये थवाद थे– र्मीठा, कस।ला, खट्टा और कड़वा र्मझर े याद अ रहा ह। वक कस।ला और कड़वा थवाद
ऄवधक सर्मय तक बना रहा था

अपरा-प्रकृदत और परा-प्रकृदत की सदुं ध होना


यह ऄनर व 30 र्मािलभ को अया र्मैं ऄत्यन्त प्रकावशत र्मागलभ र्में अगे की ओर िला जा रहा हाँ यह
र्मागलभ बहुत ही उाँिाइ पर वथथत ह। ऐसा लग रहा ह। र्मानों यह र्मागलभ पहाड़ की िोटी पर बना ह। र्मागलभ के
बायीं ओर कािी बहुत नीिे सर्मतल थवच्छ प्रकावशत वर र्म ह। र्मैं पवर लभ वदशा की ओर ऄपने र्मागलभ पर अगे
की ओर िला जा रहा था, त ी हर्में रुकना पड़ा र्मैं ऄपने र्मागलभ पर अगे नहीं जा सकता था, ‍योंवक अगे
र्मागलभ ही नहीं था, वसिलभ ऄत्यन्त तेज प्रकाश ववद्यर्मान था ईस प्रकाश र्में वर र्म तथा अकाश वदखाइ नहीं दे
रहे थे ऐसा लगता था ज।से वसिलभ प्रकाश ही प्रकाश ह। र्मैं र्मागलभ की ऄवन्तर्म सीर्मा पर खड़ा था हर्मारे पीछे
की ओर से एक थरी ने बायीं ओर नीिे के वलए छलााँग लगा दी र्मैंने ईस थरी को नीिे वगरते हुए देखा
ज।से ही वह थरी वर र्म पर वगरी, वगरते ही वह वर र्म के ऄन्दर धसने (सर्मानेद लगी ऐसा लग रहा था ज।से
वर र्म ठोस नहीं ह।, बवकक दलदल के सर्मान ह। र्मगर वर र्म ठोस ज।सी वदखाइ दे रही ह। करछ क्षणों र्में वह
थरी वर र्म र्में सर्मा (ववलीनद गइ ईस थरी के ववलीन होते ही एक परू र ष ने हर्मारे पीछे से नीिे की ओर
छलााँग लगा दी वह परू र ष ी ईसी थथान पर वगरा जहााँ पर पहले वह थरी वगरी थी वह परू र ष ईस वर र्म
पर पानी के सर्मान त।रने लगा करछ क्षणों र्में वह परू र ष ी ईस वर र्म के ऄन्दर सर्मा गया ऄब र्मैंने सार्मने
की ओर देखा तो सार्मने प्रकाश ही प्रकाश रा था जब र्मैंने दावहनी ओर को देखा तो दावहनी ओर का
दृश्य देखकर र्मैं िौंक पड़ा नीिे की ओर ववथतृत क्षेर र्में (छोटा-सा तालाब ज।से क्षेर र्मेंद ऄत्यन्त थवच्छ
पानी रा हुअ था ईस थवच्छ पानी के ऄन्दर उपरी सतह पर शवासन र्मिर ा र्में वही थरी गहरी वनिा र्में

तत्त्वज्ञान 288
सोइ हुइ थी, वजसने करछ क्षणों पहले बायीं ओर नीिे के वलए छलााँग लगाइ थी, विर वर र्म र्में सर्मा गइ थी
वह बड़े अरार्म से शवासन र्मिर ा र्में सो रही थी ईसके शरीर पर एक ी वथर नहीं था वह पणर लभ रूप से
वनवलभथर थी ईसके खल र े हुए लम्बे-लम्बे के श शरीर के नीिे तक ि। ले हुए थे र्मैं ईसके न‍न शरीर को
टकटकी लगाकर देख रहा था वह बहुत ही सन्र दर थी ईसका िेहरा (र्मख र द वबककरल शांत था करछ क्षणों
तक ईस थरी को वनष् ाव से देखता रहा ईसका वसर पवश्िर्म वदशा की ओर तथाप।र पवर लभ वदशा की ओर
थे त ी हर्मारी दृवष्ट थवच्छ पानी र्में गहराइ की ओर गइ पानी की गहराइ र्में ी एक थरी शवासन र्मिर ा र्में
लेटी हुइ थी वह थरी धीरे -धीरे पानी की उपरी सतह पर अ रही थी ज।से-ज।से वह पानी की उपरी सतह
पर अ रही थी, ईसके शरीर पर झटके से लग रहे थे आस थरी का वसर पवर लभ वदशा की ओर तथा प।र पवश्िर्म
वदशा की ओर थे यह थरी ी पणर लभ रूप से वनवलभथर थी तथा आसके शरीर पर ी एक ी वथर नहीं था र्मैं
आस थरी को गौरपवर लभक देख रहा था तथा ईसके िेहरे के ावों को पढ़ रहा था ऐसा लग रहा था र्मानों वह
ऄ ी जाग जाएगी ज।से-ज।से थरी उपरी सतह की ओर अ रही थी, ईसके शरीर पर ी झटके जोर-जोर
से तथा शीघ्र-शीघ्र लग रहे थे वह करछ क्षणों र्में पानी की उपरी सतह पर अ गइ, र्मगर सम्पणर लभ शरीर पानी
र्में डरबा हुअ था पानी की उपरी सतह पर अते ही आस थरी के प।रों के तलवे पहले वाली थरी के प।रों के
तलवों से विपक गये, ‍योंवक पहले वाली थरी का वसर पवश्िर्म वदशा की ओर था तथा प।र पवर लभ वदशा की
ओर थे दसर री थरी (जो पानी की गहराइ से अइ थीद का वसर पवर लभ वदशा की ओर था और प।र पवश्िर्म
वदशा की ओर थे यह दृश्य बहुत ही अश्ियलभजनक था दोनों वस्त्रयों के प।रों के तलवे अपस र्में विपक रहे
थे देखने र्में 180 ऄश ं का कोण बना रही थी ऄथालभत् सीधी रे खा र्में लेटी हुइ थीं दोनों वस्त्रयों का थवरूप व
शरीर वबककरल एक ज।सा ही था दोनों वस्त्रयााँ पवर लभ रूप से न‍न थी तथा वसर के खल र े हुए बाल पीठ के नीिे
तक थे पहली वाली थरी गहरी वनिा र्में सोइ हुइ थी तथा दसर री थरी गहरी वनिा से जाग रही थी दोनों
वस्त्रयााँ ऄत्यन्त सन्र दर थी ईनकी सन्र दरता की बराबरी कोइ थरी नहीं कर सकती ह। र्मैं ऄपने र्मागलभ के
ऄवन्तर्म वसरे पर खड़ा हुअ उपर से नीिे की ओर देख रहा था
अथय– यह ऄनर व ऄत्यन्त र्महत्वपणर लभ ह। आसर्में ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत की सवं ध वदखाइ गइ
ह। दसर रे शब्दों र्में ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत का अवलंगन ी कहते हैं जब तक साधक के ऄन्दर
परा-प्रकृ वत का ऄवतरण नहीं होगा, तब तक ऄपरा-प्रकृ वत से छरटकारा वर्मलना पणर लभ रूप से ऄसम् व ह।
आसवलए ऄभ्यासी के ऄन्दर परा-प्रकृ वत का ववकास होना अवश्यक ह। आस ववकास के वलए सबसे पहले
परा-प्रकृ वत का संवध होना अवश्यक ह। जब तक परा-प्रकृ वत की साधक की ऄपरा-प्रकृ वत से संवध नहीं
होगी, तब तक ईसके ऄन्दर परा-प्रकृ वत का ववकास होना क। से सम् व हो सकता ह।? संसारी ऄथालभत्

तत्त्वज्ञान 289
ऄज्ञानी र्मनष्र यों के वलए परा-प्रकृ वत गहरी वनिा र्में सोइ हुइ के सर्मान ह। आस ऄनर व र्में परा-प्रकृ वत गहरी
वनिा से जागते हुए वदखाइ दे रही ह। तथा गहराइ से अकर ऄपरा-प्रकृ वत से संवध कर लेती ह। ईस सर्मय
ऄपरा-प्रकृ वत गहरी वनिा र्में िली जाती ह।
परा-प्रकृ वत का ऄवतरण साधक के ऄन्दर त ी होता ह।, जब वह ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा पदाथों के
ववशेष रूप का साक्षात्कार कर लेता ह। तब साधक के वलए ऄपरा-प्रकृ वत व ईससे बने पदाथों से
असव‍त सर्माप्त होने लगती ह।, ‍योंवक ईसे ऄपरा-प्रकृ वत की वाथतववकता के ववषय र्में ज्ञान हो जाता ह।
आसवलए ऄनर व र्में ऄपरा-प्रकृ वत गहरी वनिा र्में सोइ हुइ वदखाइ दे रही ह। र्मैं वजस र्मागलभ पर िला जा रहा
ह,ाँ वह बहुत उाँिाइ पर ह। ऄवथर्मता का साक्षात्कार हो जाने के कारण सबसे उाँिाइ पर बना हुअ र्मागलभ
वदखाइ दे रहा ह। र्मैं र्मागलभ की अवखरी सीर्मा पर खड़ा हाँ यह वित्त की वर र्म की अवखरी सीर्मा ह। र्मैं
सबीज सर्मावध की सबसे उाँिी सीर्मा पर ऄभ्यास कर रहा ह,ाँ आसवलए र्मागलभ की अवखरी सीर्मा पर खड़ा
हाँ पीछे की ओर से एक थरी ने बायीं ओर नीिे की ओर छलााँग लगा दी तथा वर र्म के ऄन्दर ऄदृश्य हो
गइ- वह ऄपरा-प्रकृ वत ह।, जो हर्मारे वलए नष्ट हुए के सर्मान हो गइ र्महत्वपणर लभ बात यह ह। वक प्रकृ वत हर्मारे
पीछे थी और र्मैं प्रकृ वत से अगे खड़ा था थरी के बाद नीिे की ओर करदने वाला परू र ष प्राकृ वतक बन्धन
ह। सार्मने की ओर जो प्रकाश ववद्यर्मान वदखाइ दे रहा ह।, वह परा-प्रकृ वत का प्रकाश ह। यह वृवत्त द्रारा
वदखाया जा रहा ह।
दावहनी तरि नीिे की ओर जो ऄत्यन्त थवच्छ पानी रा ह।, वह हर्मारे ही वित्त की सावत्वक
वृवत्तयााँ हैं ऄपरा-प्रकृ वत (थरीद बायीं ओर वर र्म र्में ववलीन हो गइ थी करछ क्षणों बाद दावहनी ओर थवच्छ
पानी र्में उपरी सतह पर पानी र्में डरबी हुइ गहरी वनिा र्में वदखाइ दे रही थी– ऄपरा-प्रकृ वत हर्मारे वलए सोइ
हुइ के सर्मान हो गइ ईसका वसर पवश्िर्म वदशा की ओर था यह प्रकृ वत नीिे की ओर प्रवाह वाली
अथालभत् वनम्नर्मखर ी होती ह। सृवष्ट ईन्र्मख
र होने के कारण जीव के ोग के वलए प्रथततर रहती ह।, आसवलए
यह प्रकृ वत जीव को भ्रवर्मत वकए रहती ह। थरी पणर लभ रूप से न‍न ह। ऄथालभत् र्मैं ववकारों से रवहत हाँ आसवलए
वह थरी (ऄपरा-प्रकृ वतद न‍न वदखाइ दे रही थी जब तक साधक के ववकार ईसके वित्त से पणर लभ रूप से नष्ट
नहीं हो जाते हैं, तब तक ईसके वलए ऄपरा-प्रकृ वत बनी रहेगी साधक का ववकारों से रवहत होना
अवश्यक ह।, त ी ईसका वित्त ऄत्यन्त शि र होता ह। वित्त के ऄत्यन्त शि र होने पर ऄपरा-प्रकृ वत ईसके
वलए नष्ट हुए के सर्मान हो जाएगी, तब जीव का जीवत्व नष्ट हो जाएगा तथा जीवात्र्मा ऄपने थवरूप र्में
वथथत हो जाएगी

तत्त्वज्ञान 290
ऄनर व र्में पानी की गहराइ से उपर की ओर एक थरी धीरे -धीरे िली अ रही ह। वह ी शवासन
र्मिर ा र्में लेटी ह। ईसका वसर पवर लभ की ओर ह। तथा प।र पवश्िर्म की ओर हैं यह थरी परा-प्रकृ वत ह। जो ऄ ी
तक हर्मारे वलए गहरी वनिा र्में सोइ हुइ के सर्मान थी र्मगर ऄब ऄपरा-प्रकृ वत जीव के वलए ोग देने का
कायलभ पणर लभ करके थवयं शांत हो गइ ह। आसवलए जीव के वलए परा-प्रकृ वत का ववकास होने का सर्मय अ
गया ह। आसी कारण परा-प्रकृ वत उपर की ओर अती हुइ वदखाइ दे रही ह।, ईसके शरीर र्में झटके ी लग
रहे हैं आससे वह जीव के वलए जा्र त ऄवथथा र्में अ जाएगी, त ी परा-प्रकृ वत का ववकास जीव के वलए
होगा जीव के वलए परा-प्रकृ वत वनष्प्रयोजन ह।, ईसर्में वकसी प्रकार का पररणार्म नहीं होता ह। वह
साम्यावथथा र्में तथा ई्वलभर्मख र ी रहती ह। ऄनर व र्में ईसका वसर पवर लभ वदशा की ओर ह।, जबवक ऄपरा-
प्रकृ वत (थरीद का वसर पवश्िर्म वदशा की ओर ह। दोनों प्रकृ वतयों का प्रवाह अपस र्में ववरोधी ह। ऄपरा-
प्रकृ वत वनम्नर्मख र ी व सृवष्ट ईन्र्मख
र ी ह। तथा जीव को भ्रर्म र्में डाले रखती थी यह ऄववद्या से यक्त
र ह।, जबवक
परा-प्रकृ वत ई्वलभर्मख र ी व क। वकय ईन्र्मख र ह। तथा जीवात्र्मा को सद।व ज्ञान से यक्त
र बनाए रखती ह। वह ज्ञान
थवरूप वाली ह।
वह गहरे पानी से ज।से-ज।से उपर की ओर अती जा रही थी, व।स-े व।से ईसके शरीर र्में ज्यादा जोर से
तथा शीघ्रता से झटके लग रहे थे करछ क्षणों र्में वह थरी पानी की उपरी सतह पर अ गइ, र्मगर ईसका
शरीर पानी र्में डरबा रहा उपर अते ही थरी के प।रों के तलवे पहले वाली थरी के प।रों के तलवों से ऄपने
अप विपक गये ऄब दोनों वस्त्रयााँ एक सीध र्में (180 ऄंश के कोण र्मेंद उपर की ओर र्माँहर वकए हुए
शवासन र्मिर ा र्में लेटी थी दोनों वस्त्रयााँ पणर लभ रूप से न‍न थी, वसर के बाल खल
र े हुए पीठ के नीिे थे तथा
दोनों का थवरूप एक सर्मान था िकलभ वसिलभ आतना था वक एक थरी का वसर पवर लभ वदशा की ओर था तथा
दसर री थरी (ऄपरा-प्रकृ वतद का वसर पवश्िर्म वदशा की ओर था तथा गहरी वनिा र्में सो रही थी र्मगर पवर लभ
वदशा की ओर वसर वकए (परा-प्रकृ वतद थरी के िेहरे का ाव ऐसा था र्मानों ऄ ी जाग जाएगी परा-
प्रकृ वत से ही ऄंशरूप र्में ऄपरा-प्रकृ वत का प्राकट्य (प्रकट होनाद हुअ ह। आसवलए दोनों का थवरूप एक
ज।सा ह।, र्मगर थव ाव र्में व न्नता ह। परा-प्रकृ वत का वसर प्रकाश की ओर (पवर लभ वदशाद ह। तथा ऄपरा-
प्रकृ वत का वसर पवश्िर्म की ओर (वजधर से र्मैं अया हदाँ ह।
प्रत्येक र्मनष्र य का कतलभव्य ह। वक ऄववद्या से यक्त
र र्माया रूपी ऄपरा-प्रकृ वत के वनम्नगार्मी प्रवाह को
योग के ऄभ्यास द्रारा रोक दे तथा ऄपरा-प्रकृ वत को (वित्त कोद शि र बना दे, त ी परा-प्रकृ वत से आसकी
संवध हो सके गी परा-प्रकृ वत से संवध होना ऄवनवायलभ ह। जब तक परा-प्रकृ वत से संवध नहीं होगी, तब तक

तत्त्वज्ञान 291
जीवात्र्मा के वलए क। वकय का र्मागलभ प्रशथत नहीं होगा, ‍योंवक ऄपरा-प्रकृ वत का प्रवाह जीव के ोग के
वलए ह। यह ोग क। वकय के ववरोधी हैं आसवलए ऄपरा-प्रकृ वत के प्रवाह को रोक देना अवश्यक ह।, तब
साधक को ऄपना वित्त ई्वलभर्मख र ी बनाने का प्रयास करना िावहए जब ईसका सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से हो
जाएगा, तब वित्त का प्रवाह क। वकय की ओर जाता ह।
ऄपरा-प्रकृ वत वकसी ी तरह से हर्म स ी की र्माता नहीं हो सकती ह।, ‍योंवक र्माता ईसे कहते हैं जो
बच्िे का (परर काद पालन-पोषण करे , ईसे सदर्मागलभ पर ले जाए तथा परर को ईसके वपता से वर्मलवा दे
र्मगर यह प्रकृ वत सद।व भ्रर्म र्में डाले रखती ह। तथा जन्र्म, अयर और र्मृत्यर के िक्र र्में िंसाये रखती ह। यह
पररणावर्मनी व नश्वर ह। आस प्रकृ वत को र्माता सर्मझना हर्म स ी की बहुत बड़ी ल र ह। जब वकसी
जीवात्र्मा का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से हो जाता ह।, तब ईसका क ी पतन नहीं होता, ‍योंवक ईसका प्रवाह
क। वकय ईन्र्मख र ऄथालभत् ई्वलभर्मख र ी रहता ह। परा-प्रकृ वत र्में वकसी प्रकार का पररणार्म नहीं होता ह। वह
साम्यावथथा वाली ह।, आसवलए यही प्रकृ वत हर्म स ी की वाथतववक र्माता ह। ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत की
ऄंश र्मार ह। साधक जब ऄपरा-प्रकृ वत के वाथतववक थवरूप को जान लेता ह।, तब ईसके प्रवत तथा ईससे
बने पदाथों के प्रवत असव‍त सर्माप्त हो जाती ह। असव‍त सर्माप्त होने पर ऄववद्या ी नष्ट हो जाती ह।,
तब ऄपरा-प्रकृ वत ईस जीवात्र्मा के वलए नष्ट हुए के सर्मान हो जाती ह। साधक के वित्त र्में संसार के वलए
सम्पणर लभ ववकार सर्माप्त हो जाते हैं ववकार सर्माप्त होने के कारण ऄपरा-प्रकृ वत वनवलभथर वदखाइ दे रही ह।
परा-प्रकृ वत जीवात्र्मा के वलए वनष्प्रयोजन ह।, ईसर्में वकसी प्रकार का ववकार नहीं हो सकता ह।, आसवलए यह
प्रकृ वत ी वनवलभथर वदखाइ दे रही ह। आस संसार की स ी शव‍त थवरूपा देववयााँ परा-प्रकृ वत की ऄंश र्मार
ही हैं र्मलर प्रकृ वत (परा-प्रकृ वतद का साक्षात्कार नहीं वकया जा सकता ह।, ‍योंवक वह ऄनर्मर ानगम्य ह। यह
ऄनर व वृवत्तयों के द्रारा वदखाया गया ह।

दशवदलुंग रूपी ब्रह्माण्ड


यह ऄनर व 2 ऄप्र।ल को अया र्मैं ऄपने सार्मने वशववलंग को देख रहा हाँ करछ क्षणों र्में वशववलंग
का थवरूप छोटे से घड़े के रूप र्में पररववतलभत होने लगा वशववलंग का वनिला वसरा घड़े के र्माँहर के अकार
ज।सा वदखाइ देने लगा घड़े के र्माँहर के असपास काले रंग के कण ि। ले थे आन कणों के द्रारा घड़े का र्माँहर
ढका हुअ था ये काले कण एक तरि से ऄदृश्य होते जा रहे थे और घड़े का र्माँहर खल र ता जा रहा था
करछ क्षणों बाद काले रंग के कण ऄदृश्य हो गये तथा घड़े का र्माँहर खल
र गया

तत्त्वज्ञान 292
अथय– वशववलंग ईकटे घड़े के रूप र्में पररववतलभत हो गया यह ईकटा घड़ा वजसका र्माँहर नीिे की
ओर ह।, ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप ह। ऄपरा-प्रकृ वत का प्रवाह नीिे की ओर होता ह। घड़े का र्माँहर ी नीिे
की ओर ही ह। वशववलंग के थवरूप को ऄनर व र्में वदखाया गया ह। वशव का ऄथलभ होता ह।–
‘ककयाणकारी देवता’ तथा वलंग का ऄथलभ ह।- ‘विन्ह ऄथवा व्य‍त ’ ऐसा ककयाणकारी देवता (इश्वरद
वजसके व्य‍त रूप र्में सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड (ऄपरा-प्रकृ वतद सर्माया हुअ ह। ऄथवा सक्ष्र र्म रूप से सम्पणर लभ
ब्रह्माण्ड र्में व्याप्त ह। वित्त का थवरूप ी ईकटे घड़े के रूप र्में वदखाइ देता ह। साधक का जब ब्रह्मरन्र
खल र ने वाला होता ह।, तब ईसे वसर के उपरी ाग र्में ईकटा घड़ा वदखाइ देता ह। ऄथालभत् साधक के वित्त
(प्रकृ वतद का प्रवाह संसार की ओर रहता ह। दसर रे शब्दों र्में सक्ष्र र्म शरीर ी ईकटे घड़े के रूप र्में वदखाइ देता
ह। आसी सक्ष्र र्म शरीर र्में साधक के कर्मालभशय वथथत रहते हैं जब वित्त का थवरूप नष्ट हो जाता ह।, तब यह
घड़ा िोड़ वदया जाता ह। आसके िोड़ने का कायलभ थवयं सगणर ब्रह्म (इश्वरद द्रारा होता ह।, तब साधक की
जीवन्र्मक्त र ऄवथथा की शरू र अत होती ह। आस ऄनर व र्में वदखाया गया ह। वक वशववलंग ऄपरा-प्रकृ वत का
ही दसर रा थवरूप ह। ऄपरा-प्रकृ वत वशववलंग के सर्मान वपण्डाकार होती ह।, आसी ऄपरा-प्रकृ वत के ऄन्दर
जीव का वित्त ऄपरा-प्रकृ वत के थवरूप ज।सा ववद्यर्मान रहता ह। घड़े के र्माँहर के असपास काले कण रखे
हैं यह कण घड़े का र्माँहर ढके हुए हैं काले कण तर्मोगणर हैं ऄब तर्मोगणर सर्माप्त हो गया ह। ऄथालभत् घड़े के
र्माँहर के असपास का बाहरी क्षेर थवच्छ हो गया ह। ऄथालभत् वित्त पर वथथत तर्म रूपी र्मल ऄब नष्ट हो जाने
के कारण ईसका र्माँहर खल र गया ह। सासं ाररक ऄज्ञानता नष्ट हो गइ ह। और वित्त पर ज्ञान का प्रकाश ि। ल
गया ह। ऄब आस घड़े का र्माँहर उपर की ओर हो जाना िावहए ऄथालभत् वित्त ई्वलभर्मख र ी होना िावहए
ई्वलभर्मख र ी होने का ऄथलभ होता ह।- क। वकय ईन्र्मख
र होना
10 ऄप्र।ल को सबर ह ्यानावथथा र्में दधर के सार्मान्य व ववशेष रूप का साक्षात्कार हुअ जब ववशेष
रूप का साक्षात्कार हुअ, तब दधर के ऄन्दर वथथत ब।‍टीररया वदखाइ वदए थे ऄनर व अने के करछ वदनों
बाद तक र्मैंने दधर नहीं वपया, ‍योंवक ईसके वाथतववक थवरूप का साक्षात्कार हुअ था
उपर वलखे ऄनर व के बाद ऄनर व अया वक र्मैं गोलाकार पहाड़ी की िोटी पर सहजासन र्मिर ा र्में
ब।ठा हुअ हाँस कर कह रहा हाँ वक ऄब र्मैं र्माथटर बन गया हाँ िष्टा के रूप र्में र्मैं दरर से सारा दृश्य देख रहा
हाँ तथा सोिा वक यह ऐसा ‍यों कह रहा ह। वक र्मैं र्माथटर बन गया हाँ त ी ज्ञान ने बताया वक ऄपरा-
प्रकृ वत के ववषय र्में आसे ज्ञान हो गया ह।, आसवलए ऐसा कह रहा ह। आस ऄनर व र्में हर्मारे दो रूप हैं, एक
िष्टा के रूप र्में और दसर रा पहाड़ की छोटी पर सहजासन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ ह।

तत्त्वज्ञान 293
11 ऄप्र।ल को ऊतम् रा-प्रज्ञा का साक्षात्कार हुअ र्मैं पाठकों को बताना िाहता हाँ वक ऄगर
ऊतम् रा-प्रज्ञा के साक्षात्कार के सर्मय ऄभ्यासी और प्रज्ञा के बीि पेड़ ऄथवा र्मकान अ जाएाँ ऄथवा
बादल अवद अ जाएाँ तो सर्मझ लेना िावहए वक ईसके ऄभ्यास र्में ऄथवा जीवन र्में सांसाररक ऄवरोध
अ गया ह।, आसवलए सतकलभ रहें
आस ऄवथथा र्में साधक की आवन्ियों से लेकर ऄहक ं ार तक शि र हो जाते हैं ऄथालभत् आनके ऄन्दर
वथथत तर्मोगणर व रजोगणर का र्म।ल धल
र जाता ह।, विर थवच्छ हो जाने के कारण प्रकावशत हो जाते हैं
आवन्ियााँ अवद साधक के ऄनसर ार ही कायलभ करती हैं, ‍योंवक वह ज्ञान से यक्त
र हो जाती हैं आन स ी का
ऄनर व साधक को अता ह। र्मझर े ी ऄनर व अए र्मगर लेख का थवरूप ज्यादा बड़ा न हो जाए, आसवलए
यह ऄनर व नहीं वलख रहा हाँ

मैं अपरा-प्रकृदत को खा गया


यह ऄनर व 26 र्मइ को अया र्मैं वकसी थथान पर ब।ठा हाँ हर्मारे सार्मने एक थाली ज।सा पार
प्रकट हो गया ईस पार र्में नवजात वशशर (बच्िाद र्मृत ऄवथथा र्में लेटा हुअ था, वह नवजात वशशर
लड़की थी ईसके शरीर पर वथर नहीं थे ऐसा लगता था र्मानों ईसे ाप से हकका-सा ईबाल वदया गया
हो पार र्में एक िम्र्मि ी रखा था जब र्मैंने ईस िम्र्मि को ईठाकर ईस लड़की के शरीर से लगाया त ी
ईस लड़की का शरीर ऄपने अप िट कर पार के ऄन्दर वबखर गया लड़की के शरीर के ऄन्दर र्मााँस,
हड्डी अवद करछ ी न था पार र्में वबखरे पदाथलभ से ऐसा लगता था र्मानों आस सन्र दर लड़की का शरीर
अटे ज।से पदाथलभ का बना था, र्मगर ईसका शरीर बाहर की ओर से देखने पर सार्मान्य सांसाररक लड़वकयों
के सर्मान था पार र्में वबखरे हुए पदाथलभ से थपष्ट हो रहा था वक आस लड़की के शरीर का वनर्मालभण ववशेष
प्रकार के पदाथों से हुअ ह। िम्र्मि के द्रारा र्मैं ईस लड़की के शरीर (वबखरे पदाथलभ कोद खाने लगा, परन्तर
ज।से ही र्मैं िम्र्मि से ईस पदाथलभ को र्माँहर तक ले जाता, र्माँहर से थोड़ी दरर पहले ही िम्र्मि र्में रखा पदाथलभ
ऄदृश्य हो जाता र्मगर र्मझर े लगता था वक र्मैं आस पदाथलभ को खा रहा हाँ र्मार करछ क्षणों र्में र्मैं ईस नवजात
वशशर (लड़कीद को खा गया त ी ईस पार र्में एक गोलाकार वपण्ड प्रकट हो गया वपण्ड का अकार बड़े
लड्डर के सर्मान था तब र्मैंने ईसी िम्र्मि को ईस वपण्ड र्में िर ो वदया यह वपण्ड ी ऄपने अप
थालीनर्मर ा पार र्में वबखर गया वबखरा हुअ पदाथलभ वबककरल व।सा ही था ज।सा लड़की के शरीर का पदाथलभ
था र्मैं वपण्ड को ी क्षण र र्में ही खा गया िम्र्मि र्माँहर तक ले जाते ही िम्र्मि र्में रखा पदाथलभ ऄदृश्य हो

तत्त्वज्ञान 294
जाता था लड़की के शरीर का थवाद तथा वपण्ड का थवाद वबककरल एक ज।सा था आन दोनों र्में वकसी
प्रकार का थवाद नहीं था, बवकक वह पदाथलभ थवाद से रवहत था
अथय– र्मझर े आस ऄनर व का ऄथलभ जानने के वलए सर्मावध का सहारा लेना पड़ा वह नवजात वशशर
(बच्िाद तथा वपण्ड ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप था ऄपरा-प्रकृ वत दो थवरूपों र्में होती ह।, एक– थरी रूप र्में
तथा दूसरा– वपण्ड रूप र्में र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत के दोनों थवरूपों को खा गया, आसवलए ईस लड़की के शरीर
के ऄन्दर वकसी प्रकार के ऄगं नहीं थे वह वसिलभ पााँिों तत्त्वों का वर्मश्रण था वही पााँिों तत्त्वों का वर्मश्रण
वपण्ड रुप र्में था, आसवलए थवाद से रवहत था थवाद थथल र पदाथों र्में होता ह। ईन दोनों र्में ऄत्यन्त सक्ष्र र्म
पदाथों का वर्मश्रण था, आसवलए िम्र्मि र्माँहर तक जाते ही पदाथलभ ऄदृश्य हो जाता था, वसिलभ ावसत होता
था वक र्मैं करछ खा रहा हाँ र्मैंने ज्ञान से पछ
र ा– ऄनर व र्में नवजात वशशर तथा वपण्ड खाने का ऄथलभ ‍या ह।?
ज्ञान ने बताया– वह लड़की ऄपरा-प्रकृ वत ह।, ईसे खाने के बाद वही वपण्ड रूप र्में प्रकट हो गइ, ईसे ी
अप ने खा वलया यह वपण्ड ब्रह्माण्ड रूपी वपण्ड ह।, आसर्में िौदह लोक वथथत हैं खाने का ऄथलभ ह।–
ऄपरा-प्रकृ वत को अपने ऄपने ऄन्दर लीन कर वलया ह। अप आस प्रकृ वत से परे हो गये हैं तथा आस प्रकृ वत
पर ववजय प्राप्त कर ली ह। ऄ ी अपकी यह ऄवथथा नहीं ह।, करछ वदनों बाद यह ऄवथथा प्राप्त हो
जाएगी वपछले ऄनर व र्में प्रकृ वत गहरी वनिा र्में वदखाइ दे रही थी आस ऄनर व र्में वह र्मरी हुइ बच्िी के
सर्मान ह। ऄथालभत् ऄब यह ऄपरा-प्रकृ वत हर्मारे वलए नष्ट हुए के सर्मान हो गइ ह। ऄब प्रश्न ईठता ह। वक
‍या साधक के ऄन्दर सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड वथथत हो सकता ह।? ईत्तर ह।– ‘हााँ’ जब ऊतम् रा-प्रज्ञा द्रारा प्रकृ वत
पयलभन्त स ी पदाथों का साक्षात्कार हो जाता ह।, तब प्रकृ वत की वाथतववकता का ज्ञान हो जाता ह। ईस
सर्मय ज्ञान के प्रकाश र्में ज्ञेय वथतर ऄकप हो जाती ह। तथा जीवात्र्मा के ज्ञान का प्रकाश ऄपरा-प्रकृ वत की
सीर्माओ ं से ऄवधक हो जाता हैं ऄथालभत् ज्ञान के प्रकाश के ऄन्दर ऄपरा-प्रकृ वत का क्षेर छोटा-सा रह
जाता ह। विर ऄभ्यासी सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने ही ऄन्दर देखता ह। ज।सा की ऄनर व र्में वदखाइ
वदया, हर्मने सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत ऄपने ऄन्दर सर्मेट ली ऄथालभत् खा वलया साधक ऄभ्यास के द्रारा ऄपने
वित्त को आतना व्यापक बना लेते हैं वक ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने ऄन्दर ही सर्मेट लेते हैं ऄथालभत् वित्त को
ऄपरा-प्रकृ वत से ऄवधक व्यापक कर लेते हैं ऐसा वृवत्तयों के द्रारा होता ह।

तत्त्वज्ञान 295
दववेक-ख्यादत
यह ऄनर व 27 ऄगथत को अया र्मैं नीिे की ओर देख रहा था कािी नीिे की ओर से एक
घड़ा उपर की ओर अता हुअ वदखाइ वदया र्मैं ईस घड़े को उपर की ओर (ऄपनी ओरद अते हुए
गौरपवर लभक देख रहा था घड़ा जब उपर की ओर अ रहा था तो ईस घड़े का र्माँहर उपर की ओर देखकर र्मैं
प्रसन्न हो रहा था जब घड़ा थोड़ा उपर हर्मारे नजदीक अया, तब हर्में घड़े के ऄन्दर का सम्पणर लभ ाग
वदखाइ देने लगा वह घड़ा पणर लभ रूप से खाली तथा ऄन्दर से वबककरल थवच्छ था घड़ा ऄन्दर व बाहर से
परर ी तरह पानी से गीला था ऐसा लग रहा था र्मानों पानी र्में डरबकर अया हो र्मैं घड़े के ऄन्दर देख ही
रहा था वक त ी र्मैं ऄिानक बोला, ‚र्मैं कौन ह‛ाँ ? ईसी सर्मय र्मैंने ऄनर वर त की वक र्मेरे र्माँहर , हाथ, प।र,
अाँखें अवद नहीं हैं हर्मारा वकसी प्रकार का शरीर ी नहीं ह। सम्पणर लभ असर्मान हर्मारा शरीर ह।, ऐसा
ऄनर तर हो रहा था सम्पणर लभ असर्मान जो उपर की ओर ईठा हुअ ह।, वह र्मेरा शरीर ह। वनिला दृश्य
(घड़ाद र्मैं नहीं हाँ र्मैं ऄत्यन्त ववथतृत अकार र्में ि। ले असर्मान के वकसी ी थथान से देख सकता था,
वकसी ी थथान से बोल सकता था, र्मगर र्मैं ऄपने अपको (अकाश रूपी शरीर कोद देख नहीं पा रहा
था ऐसा लग रहा था ज।से र्मैं उपर की ओर ि। ला हुअ सम्पणर लभ अकाश हाँ हर्मारी दृवष्ट विर घड़े पर वथथर
हो गइ, घड़ा ऄब ी हर्मारी ओर धीरे -धीरे िला अ रहा था
अथय– आस ऄनर व र्में अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान कराया गया ह। घड़ा वित्त का थवरूप
ह। घड़े का र्माँहर उपर की ओर ह। तथा घड़ा उपर की ओर अ रहा ह। वित्त ई्वलभर्मख र ी हो गया ह। ऄथालभत्
वित्त का प्रवाह क। वकय ईन्र्मख
र हो गया ह। वपछले ऄनर व र्में (2 ऄप्र।ल 2001) घड़े का र्माँहर नीिे की ओर
था ईस सर्मय वित्त का प्रवाह वनम्नर्मख
र ी था ऄथालभत् सृवष्ट ईन्र्मख
र था ऄब आस घड़े का र्माँहर उपर की ओर
हो गया ह। ऄथालभत् क। वकय ईन्र्मख
र हो गया ह। ऄनर व र्में अकाश को र्मैं ऄपना थवरूप र्मानता हाँ सि तो
यह ह। वक वह अकाश नहीं, बवकक िेतन थवरूप अत्र्मा ह।, ‍योंवक ईस सर्मय र्मैं ऄनर वर त करता हाँ वक र्मैं
वकसी ी थथान से देख सकता ह,ाँ वकसी ी थथान से बोल सकता हाँ यह गणर वसिलभ िेतन अत्र्मा र्में होता
ह।, जड़ अकाश तत्त्व र्में नहीं होता आसका र्मतलब यह हुअ वक ऄनर व र्में र्मैं अत्र्मा र्में वथथत था तथा
घड़े के रूप र्में वित्त को ऄपने से ऄलग देख रहा था र्मैं वित्त (दृश्य घड़ाद नहीं हाँ ऄनर व र्में अत्र्मा और
वित्त की व न्नता का ज्ञान वदखाया गया तथा ऄ ी तक जो ऄपने अपको शरीर, आवन्ियााँ, तन्र्मारा,
ऄहक ं ार तथा वित्त र्मानता था, वाथतव र्में वह र्मेरा भ्रर्म था ऐसा ऄववद्या और र्माया के कारण था ऄब
अत्र्मा और वित्त की व न्नता का ज्ञान हो जाने पर ज्ञात हो गया तथा ऄनर वर त ी हुइ वक र्मैं िेतन तत्त्व

तत्त्वज्ञान 296
(अत्र्माद ह,ाँ जड़ तत्त्व नहीं हाँ संसारी र्मनष्र य ऄज्ञानता के कारण ऄपने को शरीर अवद र्मानते हैं, ऐसा
ऄवथर्मता के द्रारा होता ह। वववेक-ख्यावत के पहले अत्र्मा ऄज्ञानता के कारण वित्ताकार ज।सी वदखती ह।,
र्मगर वववेक-ख्यावत के बाद वित्त अत्र्माकार हो जाता ह। (वववेक-ख्यावत के ववषय र्में वववेक-ख्यावत
वाला पाठ पवढ़एद

दचत्त का ईश्वर के दचत्त में अन्तमयुखी होना


यह ऄनर व 18 वसतम्बर को अया एक घड़ा प्रकाश पंजर के उपर रखा ह। घड़े का र्माँहर उपर की
ओर ह। ईसके र्माँहर के असपास ी प्रकाश ह।, वजसके कारण ईस घड़े का र्माँहर िर्मक रहा ह। ऐसा लगता
ह। र्मानों यह घड़ा थथल र पदाथलभ से नहीं, बवकक वकसी ऄच्छे पदाथलभ से वनवर्मलभत ह। विर घड़े के असपास का
क्षेर वदखाइ देने लगा र्मेरा कोइ थवरूप नहीं ह। र्मैं ऄपने अप को उपर की ओर अकाश र्में व्यापक रूप
र्में ऄनर वर त कर रहा हाँ ऐसा लगता ह। र्मानों सम्पणर लभ अकाश र्मेरा थवरूप ह। हर्मारी दृवष्ट घड़े की ओर गइ
तो वदखाइ वदया वक घड़ा बहुत बड़ी गफ़ र ा के ऄन्दर की ओर र्महर ाने पर रखा ह। गफ़ र ा के ऄन्दर का दृश्य
वदखाइ नहीं वदया, गफ़ र ा के ऄन्दर प्रकाश ह।
अथय– र्मैं पहले ऄनर व र्में वलख िक र ा हाँ वक घड़ा वित्त का थवरूप ह। आस गफ़ र ा को ह्रदय गफ़ र ा
कहते हैं आस गफ़ र ा के ववषय र्में शाथरों व ईपवनषदों र्में बहुत वणलभन वकया गया ह। आस गफ़र ा र्में ि।तन्य परू
र ष
रहता ह। ऄथालभत् आसका सम्बन्ध इश्वर तथा परा-प्रकृ वत से ह। वजस साधक का वित्त आस गफ़ र ा र्में ऄन्तर्मलभख
र ी
हो जाता ह।, वह साधक वनश्िय ही ऄभ्यासानसर ार सगणर ब्रह्म का दशलभन करता ह। साधक आसी ऄवथथा से
जीवन्र्मक्त
र कहा जाने लगता ह।, र्मगर ऄ ी वाथतववक जीवन्र्मक्त र ऄवथथा नहीं अइ ह।, ऄ ी तो के वल
शरू
र अत हुइ ह। ऄ ी ईसे बहुत लम्बा सिर तय करना ह। 27 ऄगथत की ऄपेक्षा आस ऄनर व र्में वित्त
की शि र ता बहुत ज्यादा हो गइ ह। कहा जाता ह। वक ऄंतःकरण र्में इश्वर रहता ह। ऄनर व र्में घड़ा ह्रदय
गफ़
र ा र्में ई्वलभर्मख
र ी हुअ रखा ह। ऄथालभत् वित्त ई्वलभर्मरखी होकर, ऄज्ञानता को त्यागकर तथा ज्ञान से यक्त र
होकर इश्वर की ओर ईन्र्मख र हो गया ह।

तत्त्वज्ञान 297
मृत्यु से साक्षात्कार
ऄ‍तबर र र्माह का प्रथर्म सप्ताह था र्मैं ऄपने वबथतर पर बीर्मारी के कारण लेटा हुअ था रावर के
10 बजे का सर्मय था र्मैं ऄ ी जाग ही रहा था वक त ी हर्मारी अाँखें ऄपने अप बन्द हो गइ र्मैंने देखा
वक हर्मारे शरीर से एक सांवली सी थरी वनकल कर हर्मसे करछ दरर ी पर खड़ी हो गइ र्मैं िौंका वक यह थरी
कौन ह।? वह थरी बोली, ‚योगी! र्मैं र्मृत्यर ह‛ाँ ज।से ही र्मृत्यर का नार्म ईस थरी के र्माँहर से सनर ा तो र्मैं
र्मथर करराया और ऄपने दोनों हाथ जोड़कर ईस थरी से कहा, ‚र्माते! ऄगर हर्मारा थथल र शरीर त्यागने का
सर्मय अ िक र ा ह।, तो र्मैं त।यार हाँ हर्में अप ऄपने प्र ाव र्में ले लीवजए ‛ वह थरी थोड़े से क्रोध व रुखे
ाव से बोली, ‚योगी! र्मैं तम्र हारी र्माता नहीं, बवकक दासी ह,ाँ वबना अपकी आच्छा के र्मैं अपको थपशलभ
नहीं करुाँगी ‛ र्मैं बोला, ‚र्माते! र्मेरे द्रारा र्माते कहे जाने पर नाराजगी ‍यों ह।? र्मेरे वलए तो सर्मथत थरी जावत
र्माता ही ह।, विर अप तो हर्मारी ‍या सर्मथत िौदह लोकों के प्रावणयों की र्माता हैं जब अप रौि रूप
धारण करती हैं तो िौदह लोक अपके अिं ल र्में सर्मा जाते हैं ‛ र्मगर ऄबकी बार वह थरी करछ नहीं
बोली, बवकक र्मथर करा कर बड़ी-बड़ी अाँखें वदखाने लगी ईस थरी की आस ावना र्में प्यार ी था और
अाँखें वदखाने का ऄथलभ हककी-सी नाराजगी ी था त ी ईस थरी का थवरूप ऄपने अप बदलने लगा
करछ क्षणों र्में डरावनी, रौि व ववकृ त रूप वाली हो गइ र्मैंने पछर ा, ‚र्माते! अपने ऄपना थवरूप बदल ‍यों
वलया?‛ वह थरी बोली, ‚आस रूप से करछ कायलभ करने हैं, तम्र हें तो हर्मारा कायलभ र्मालर्मर ही ह। ‛ र्मैं बोला,
‚र्माते! अपको रूप बदलने की ‍या अवश्यकता ह।?‛ वह थरी बोली, ‚योगी, वजस प्राणी की र्मृत्यर वजस
प्रकार से होनी होती ह।, र्मैं व।सा ही थवरूप ईसके वलए धारण कर लेती हाँ ‛ र्मैं बोला, ‚र्माते! एक बात
पछर र ाँ , अपका यह ववकराल रूप वकस क्षेर र्में प्रलय र्मिाएगा?‛ र्मेरे यह कहते ही र्मेरे सार्मने पृथ्वी गोल-
गोल घर्मर ने लगी करछ क्षणों र्में पृथ्वी का घर्मर ना बन्द हो गया ऄब र्मझर े ऄपने सार्मने पहावड़यों से यक्त र -र
ाग वदखाइ देने लगा ईस -र ाग को देखकर र्मैं बोल पड़ा वक यह तो ऄिगावनथतान देश का -र ाग
ह। र्मैं सर्मझ गया वक आस देश के बहुत से र्मनष्र यों की जाने (र्मृत्यदर जाएाँगी र्मैंने कहा, ‚र्माते!‛ परन्तर ईसी
सर्मय वह थरी हर्मारी बात काटती हुइ रूखे ाव से बोली, ‚योगी! ऄब अगे प्रश्न न करना, तर्मर ज्ञानी हो
र्मझर े र्मालर्मर ह। तम्र हारे प्रश्न का ईत्तर ह।– पाप जब ऄपनी सीर्मा से ऄवधक बढ़ने लगता ह।, तब वकसी-न-
वकसी रूप र्में पण्र य प्रकट होने का सर्मय अ जाता ह। ‛ ऄच्छा र्मैं िलती ह,ाँ आतना कहते ही वह डरावनी
अकृ वत (थवरूपद वाली थरी ऄदृश्य हो गइ

तत्त्वज्ञान 298
अथय– आस ऄनर व के सर्मय र्मैं बहुत बीर्मार था, आसवलए लेटा हुअ था ऄनर व र्में र्मृत्यर थरी रूप र्में
वदखाइ दे रही थी आसका यह ऄथलभ नहीं ह। वक र्मृत्यर का थवरूप थरी रूप र्में ह। आसवलए र्मृत्यर ने बताया–
वजस प्राणी की र्मृत्यर वजस प्रकार से होनी होती ह।, र्मैं ईस प्राणी के वलए व।सा ही थवरूप धारण कर लेती हाँ
प्रकृ वत के वनयर्म के ऄनसर ार जन्र्म लेने से पवर लभ ही प्राणी की र्मृत्यर वनवश्ित हो जाती ह। आसवलए र्मृत्यर के
संथकार ईस प्राणी के वित्त पर वथथत रहते हैं तथा ईवित सर्मय अने पर र्मृत्यर के संथकार प्रधान रूप से
प्रकट हो जाते हैं, विर प्राणी की र्मृत्यर हो जाती ह। प्राणी की र्मृत्यर ईसी तरह से होगी वजस प्रकार के
संथकार ईसके वित्त पर ववद्यर्मान रहते हैं ऄनर व र्में जब र्मैंने र्माते कहा, तब र्मृत्यर देवी नाराज हो गइ और
बोली वक र्मैं तम्र हारी र्माता नहीं बवकक दासी हाँ वप्रय पाठकों! ईस थरी ने सत्य ही कहा था, ‍योंवक र्मृत्यर
ईसे अती ह। वजस प्राणी की जीवात्र्मा जन्र्म, अय,र र्मृत्यर के िक्र के बन्धन र्में बंधी होती ह। वजस
जीवात्र्मा ने ऄपने वाथतववक थवरूप को जान वलया ह।, ईसका र्मृत्यर से ‍या लेना देना ह। यह ऄवथथा
वववेक-ख्यावत के बाद अती ह।, ‍योंवक ऄभ्यासी को वित्त और अत्र्मा की व न्नता का ज्ञान हो जाता ह।
तथा वह ऄपने थथल र शरीर का त्याग कर देता ह। ऐसा साधक र्मृत्यर को ऄपने ऄवधकार र्में रखता ह।
ऄथालभत् वह र्मृत्यर से परे हो जाता ह। आसीवलए र्मृत्यर देवी ऄनर व र्में र्मझर से दासी शब्द का प्रयोग कर रही
थी र्मृत्यर ऄज्ञावनयों की होती ह। ईन्हें प्राणी ी कहा जाता ह।, ‍योंवक वे प्राण के सहारे वजन्दा रहते हैं
ज्ञावनयों की र्मृत्यर नहीं होती ह।, वह ऄपने वाथतववक थवरूप र्में (अत्र्मा र्मेंद ऄववथथत रहते हैं ईनका वसिलभ
सथं कारों के वेग से शरीर सधा रहता ह। वेग सर्माप्त होने पर शरीर शांत हो जाता ह। ऄथालभत् ईसका सम्बन्ध
शरीर से ऄलग हो जाता ह। र्मझर े ऄपना थथल र शरीर त्यागने का सर्मय ऄच्छी तरह से ज्ञात ह।, र्मैं ऄ ी
करछ वषलभ तक आस थथल र शरीर र्में और रहगाँ ा

स्थूल शरीर बेकार हो चुका है


यह ऄनर व 10 ऄ‍टरबर का ह। र्मैं इश्वर का वितं न कर रहा था ईसी सर्मय हर्मारी अाँखें बन्द हो
गइ र्मैंने देखा वक घास-िरस का बना हुअ एक परर ाना छप्पर ह। यह छप्पर परर ी तरह से सड़ िक र ा ह। हवा
ी कािी तेज िल रही ह।, तेज हवा के कारण छप्पर का सड़ा हुअ घास-िरस छप्पर से वनकलकर हवा र्में
ईड़ रहा ह।, वजसके कारण छप्पर कइ जगह से वबककरल नष्ट हो िक र ा ह। बार-बार छप्पर र्में हवा के तेज
झोंके लग रहे हैं तथा छप्पर का घास-िरस हवा के झोंकों के साथ ईड़ जाता ह। र्मैं यही वक्रया देख रहा हाँ
ईसी सर्मय र्मैंने देखा वक वजस-वजस थथान से छप्पर का घास-िरस ज्यादा ईड़ गया ह।, ईसी थथान से छप्पर

तत्त्वज्ञान 299
के ऄन्दर बहुत तेज प्रकाश वदखाइ दे रहा ह। ईस तेज प्रकाश से थपष्ट सर्मझ र्में अ रहा ह। वक छप्पर के
ऄन्दर ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश रा ह। यह दृश्य देखकर र्मैं अश्ियलभिवकत हो गया और बोला, ‚यह क। सा
छप्पर ह।, आसके ऄन्दर तो ऄत्यन्त तेजथवी प्रकाश रा ह।‛ ईस छप्पर के ऄन्दर वथथत तेजथवी प्रकाश से
अवाज अइ, ‚योगी तरम्हारा थथल र शरीर आस छप्पर के सर्मान वबककरल बेकार हो िक र ा ह।, तर्मर आसे बहुत
ज्यादा वदन तक धारण नहीं कर सकते हो‛
अथय– छप्पर शरीर ह। आसी प्रकार यवद साधक को ऄनर व र्में झोपड़ी वदखाइ दे तब ईसे ईसका ऄथलभ
शरीर से लेकर वित्त तक लगाना िावहए ऄनर व र्में छप्पर हर्मारा शरीर ह। ऄन्दर का प्रकाश ऄथालभत् रज
और तर्म से रवहत सत्त्वगणर से प्रकावशत (ज्ञान थवरूपद हो रहा ह। ऄज्ञानता नष्ट होने पर सवलभर ज्ञान का
प्रकाश ि। ल जाता ह। ौवतक दृवष्ट से देखने पर योगी का शरीर र्मााँस व हड्वडयों का बना वदखाइ देता ह।
ौवतक नेर ज्ञान के प्रकाश को देख नहीं पाता हैं योगी परू
र ष को जानने के वलए वदव्य दृवष्ट का होना
अवश्यक ह।

तुम्हें प्रकृदत के कुछ कायय करने हैं


ऄ‍तबर र के दसर रे सप्ताह र्में यह ऄनर व अया र्मैं ऄंतररक्ष र्में लेटा हुअ हाँ र्मेरे शरीर की लम्बाइ
बहुत ऄवधक ह। र्मैं संपणर लभ ऄंतरवक्ष र्में सर्माया हुअ हाँ ईसी सर्मय उपर की ओर से कइ परू र ष तीव्र गवत से
अकर हर्मारे दावहने ओर खड़े हो गये स ी परू र ष हर्में देख रहे थे र्मैंने ी क्रर्मशः ईन स ी परूर षों को
देखा वे वगनती र्में लग ग 8-10 थे स ी परू र ष ई्र र्में 20 वषलभ के लग ग लग रहे थे, त ी हर्मारे ज्ञान ने
हर्में बताया– ‚यह स ी परू र ष ऄपने वाथतववक थवरूप र्में नहीं हैं ‛ ये शब्द सनर कर र्मैं िौंका र्मैंने सोिा ये
र्महापरूर ष कौन हैं? आन्होंने ऄपना थवरूप ‍यों बदला हुअ ह।, आन्हें थवरूप बदलने की ‍या अवश्यकता
थी? र्मैं लेटे हुए ही ईन र्महापरू
र षों से बोला, ‚अप स ी र्महापरुर ष कौन हैं, हर्मारे पास अकर हर्में दशलभन
देने का ईदेश्य ‍या ह।?‛ वह स ी हर्मारे शब्द सनर कर र्मथर कराए, विर एक साथ बोले, ‚योगी, हर्म अपके
शर विन्तक हैं, अपको देखने अए हैं तथा यह बताने अए हैं वक ऄ ी अपको पृथ्वी पर ..........वषलभ
और रहना ह।, ‍योंवक अपको प्रकृ वत के करछ कायलभ करने हैं थथल र शरीर त्यागने के पश्िात इश्वर के लोक
(परा-प्रकृ वतद की प्रावप्त होगी ‛ ईत्तर र्में र्मैंने र्मथर करा कर ईन स ी का अ ार व्य‍त वकया विर र्मैंने पछ र ा,
‚र्मेरे शर विन्तको, ‍या अप स ी ऄपने वाथतववक थवरूप का दशलभन करायेंगे?‛ र्मेरे आस प्रकार कहने पर

तत्त्वज्ञान 300
पहले वह स ी िौंक पड़े, ‍योंवक ईन परू र षों को ऐसी अशा नहीं हुइ होगी वक र्मैं आस प्रकार के शब्द ी
कहगाँ ा ऄगर ज्ञान हर्में न बताता तो र्मैं जान ही नहीं पाता वक ये स ी र्महापरू र ष ऄपना वाथतववक थवरूप
वछपाए हुए हैं र्मैंने ईनसे पछ र ा, ‚‍या र्मैं संककप करके अप स ी के वाथतववक थवरूप को जान सकता
ह?ाँ ‛ ईत्तर र्में बीि र्में खड़ा हुअ एक परू र ष बोला, ‚अपको हर्मारे वाथतववक थवरूप का दशलभन करने के
वलए संककप करने की अवश्यकता नहीं ह।, ऄच्छा हर्म िलते हैं, हर्म अपको के वल यही संदश े देने अए
थे‛, ईसी व‍त स ी नवयवर क ऄदृश्य हो गये
आस ऄनर व के सर्मय र्मैं बहुत बीर्मार था र्मैं सोि रहा था वक आस शरीर का त्याग हो जाए तो ऄच्छा
ही ह।, तब यह ऄनर व अया था र्मैंने ऄनर व र्में यह नहीं वलखा ह। वक र्मझर े पृथ्वी पर वकतने वषलभ और
रहना ह।, ‍योंवक पहले से वकसी को आस ववषय र्में बताना नहीं िाहता हाँ

तत्त्वज्ञान 301
सन् 2002
अजकल हर्मारी सर्मावध बहुत सर्मय के वलये लगती ह।, ‍योंवक वदन र र्मैं ्यान, र्मंर जाप और
प्राणायार्म वकया करता हाँ र्मंर जाप सबर ह-शार्म अधा-अधा घण्टा और प्राणायार्म एक वदन र्में पााँि बार
वकया करता हाँ ोजन र्में रोटी और गड़र वलया करता ह,ाँ यह ोजन ऄकप र्मारा र्में लेता हाँ ोजन र्मैं दो
बार ऄवश्य लेता हाँ तावक र्मेरा थथल र शरीर कायलभ करने लायक बना रहे, ‍योंवक ऄवधक ्यान व ऄकप
ोजन करने के कारण थथल र शरीर र्में हड्वडयााँ र्मार ही रह गयी थी वदन के सर्मय र्में तेज प्रकाश देखने पर
हर्मारी अाँखें परर ी तरह से खलर ती नहीं थी, ‍योंवक ऄवधक ्यान करने से और ऄत्यवधक गर्मी बढ़ जाने के
कारण अाँखों की पलकों र्में जख्र्म से हो गये थे आसवलए ज्यादा से ज्यादा ऄभ्यास करने र्में ही लगा रहता
था

इज
ुं न की आवाज
बहुत सर्मय तक सर्मावध ऄवथथा र्में बने रहने के बाद र्मझर े ऐसा लगता था र्मानो दरर कहीं से आजं न
िलने की अवाज अ रही ह। र्मैं सोिने लगा वक आजं न की अवाज कहााँ से अ रही ह।? र्मैं ईस अवाज
को सर्मझने का प्रयास करने लगा, र्मगर र्मैं नहीं सर्मझ पाया वक यह अवाज कहााँ से अ रही ह। ईसी
सर्मय र्मझर े ऄपना ऄ ास होने लगा वक र्मैं सर्मावध र्में ब।ठा हुअ हाँ त ी हर्मारी अाँखें खल
र गयी
र्मैं असन पर ब।ठा हुअ सोिने लगा वक र्मझर े सर्मावध ऄवथथा र्में आजं न की अवाज ‍यों सनर ाइ दे
रही थी? र्मैंने सोिा– कहीं र्मझर े भ्रर्म तो नहीं हो गया ह। र्मगर ऐसा ी नहीं था र्मझर े भ्रर्म नहीं हुअ था,
‍योंवक र्मैं सर्मावध ऄवथथा र्में ईस अवाज को करछ क्षणों तक सनर ता ी रहा हाँ आसी आजं न की अवाज के
कारण के कारण हर्मारी सर्मावध ी गं हो गयी थी आजं न की अवाज ऐसी थी र्मानो 10HP का पवम्पगं
सेट िल रहा हो आस प्रकार के आजं न ऄपने यहााँ गााँवों र्में वकसान खेतों की वसिाइ के वलए, ट्यवर वेल,
अटे की छोटी ि‍की िलाने अवद के वलये प्रयोग करते ह। वकसी-वकसी क्षेर र्में वकसान बोझा ढ़ोने के
वलए जगर ाड़ गाड़ी बनाकर आसी आजं न का प्रयोग करते ह। यह डीजल आजं न होने के कारण आससे जोर-जोर
से धक-धक की अवाज वनकलती ह। ्यानावथथा र्में र्मझर े यही धक-धक की अवाज सनर ाइ दे रही थी

तत्त्वज्ञान 302
बााँस
्यानावथथा र्में र्मझर े सार्मने की ओर ऄच्छा-सा सर्मतल खेत वदखाइ दे रहा था ऐसा लगता था,
र्मानों आस खेत की जतर ाइ ऄ ी-ऄ ी हुइ ह। ईस जरते हुए खेत र्में एक जगह पर हर्मारी दृवि ऄपने अप
वथथर हो गयी र्मझर े ऐसा लग रहा था ज।से र्मैं ईस खेत र्में करछ देखने का प्रयास कर रहा हाँ करछ क्षणों बाद
ईस जगह से वर्मट्टी ऄपने अप एक ओर को होने लगी वजस जगह से वर्मट्टी ऄपने अप हटकर एक ओर
को हुइ थी, वहााँ पर एक छोटा-सा लग ग एक िीट गहरा गड्ढा बन गया था र्मझर े ईस गड्ढे र्में करछ
वदखाइ देने लगा ऐसा लग रहा था वक आस वर्मट्टी के ऄन्दर करछ दबा हुअ ह। गौर करने पर र्मालर्मर हुअ
वक वर्मट्टी के ऄन्दर हरा बााँस दबा हुअ ह। त ी हर्मारी सर्मावध ंग हो गयी
सर्मावध ऄवथथा र्में अये ऄनर व का ऄथलभ ईस सर्मय सर्मझ नहीं सका वक ईस जतर े हुए खेत र्में
वर्मट्टी के ऄन्दर वह हरा बााँस ‍यों दबा हुअ था? आस ववषय र्में र्मैं वकसी से पछ र ी नहीं सकता था,
‍योंवक ईस ऄवथथा र्में र्मझर े कौन र्मागलभ दशलभन करे गा? र्मझर े र्मागलभ दशलभन करने वाला तो तत्त्वज्ञानी (जीवन्र्मक्त

परुर षद ही हो सकता ह।, जो आस ऄवथथा को पार कर िक र ा ह। र्मैं वतलभर्मान वकसी ी ऐसे योगी को नहीं
जानता ह,ाँ वजसने ऄभ्यास के द्रारा यह ऄवथथा प्राप्त की हो

इज
ुं न की आवाज
्यानावथथा र्में र्मझर े विर आजं न की अवाज सनर ाइ देने लगी र्मझर े लग रहा था वक आजं न हर्मारे
अस-पास थोड़ी दरर ी पर िल रहा ह।, ‍योंवक ईसकी धक-धक की अवाज से ऄनर्मर ान हो रहा था वक
अवाज दरर से नहीं अ रही ह। करछ क्षणों तक र्मैं अवाज सनर ता रहा, विर हर्मारी गहरी सर्मावध लग गयी,
सर्मावध लग ग तीन से साढ़े तीन घण्टे की लगी थी विर हर्मारी अाँखें खल र गयी
र्मझर े याद अ गया वक करछ वदनों पहले ी ्यानावथथा र्में आजं न की अवाज सनर ाइ दी थी ईस
सर्मय ऐसा लग रहा था, र्मानो कहीं दरर आजं न िल रहा ह। र्मगर ऄबकी बार थपि सर्मझ र्में अ रहा था वक
आजं न की अवाज हर्मारे पास से अ रही ह। शायद थोड़ी दरर ी पर आजं न िल रहा ह। ऐसी ऄनर वर त
्यानावथथा र्में हो रही थी

तत्त्वज्ञान 303
करछ वदनों बाद एक वदन ्यानावथथा र्में र्मझर े आजं न की अवाज पहले की ााँवत सनर ाइ देने लगी र्मैं
आजं न की धक-धक की अवाज ्यानावथथा र्में सनर ने लगा करछ क्षणों तक अवाज सनर ने के बाद र्मेरा
गहरा ्यान लग गया विर हर्में आजं न की अवाज सनर ाइ देने की याद नहीं रही करछ सर्मय बाद र्मझर े एक
ऄनर व अया– र्मैं सर्मतल वर र्म पर ब।ठा हुअ हाँ वह वर र्म खेत ज।सी ह।, ‍योंवक सार्मने जतर ा हुअ खेत
वदखाइ दे रहा था, त ी र्मझर े आजं न की अवाज सनर ाइ देने लगी र्मैं अवाज की ओर देखने लगा, वजधर से
अवाज अ रही थी र्मैं सर्मझ गया वक अवाज आधर से अ रही ह। अवाज वजस वदशा से अ रही थी र्मैं
ईसी ओर िलने लगा आजं न की अवाज बढ़ती जा रही थी, ईसी सर्मय सार्मने की ओर साधारण-सा एक
काँर अ वदखाइ वदया ईसर्में इटों द्रारा वकनारा नहीं बना हुअ था, बवकक काँर अ वर र्म के बराबर प्लेन
(सपाटद था अवाज काँर ए के ऄन्दर से अ रही थी, आसवलए र्मैंने काँर ए के ऄन्दर झााँक कर देखने का प्रयास
वकया, तो देखा आजं न काँर ए के ऄन्दर िल रहा ह।, जबवक आजं न काँर ए के बाहर उपर वर र्म पर रखा होना
िावहए काँर ए र्में झााँकने पर र्मझर े करछ ी नहीं वदखाइ वदया काँर अ गहरा था तथा नीिे की ओर ऄंधकार
था, आसवलए थपि करछ ी नहीं वदखाइ दे रहा था काँर ए र्में पानी नहीं था त ी र्मेरा ्यान टरटा गया और र्मैंने
ऄपनी अाँखें खोल दी
ऄब असन पर ब।ठा हुअ र्मैं सोिने लगा- आजं न की धक-धक की अवाज काँर ए के ऄन्दर से अ
रही ह। काँर ए र्में पानी नहीं ह।, बवकक आजं न की अवाज अ रही ह।, यह अश्चयलभ की बात ह। र्मैं जानता हाँ आस
प्रकार ्यानावथथा र्में ऄभ्यासी को जब काँर अ वदखाइ दे तब सर्मझ लेना िावहये वक यह काँर अ वित्त का
प्रतीक ह। र्मगर काँर ए र्में पानी नहीं ह।, यह ऄनर व तो वबलकरल व न्न प्रकार का ह। र्मैं आसका ऄ ी ऄथलभ
नहीं सर्मझ पाया र्मैंने वनश्चय वकया ऄब र्मैं और कठोर साधना करूाँगा तथा प्राणायार्म का सर्मय और
ऄवधक बढ़ा दगाँर ा, आससे हर्मारे वित्त की शि र ता और बढ़ेगी तब यह दृश्य ी थपि वदखाइ देने लगेगा तथा
आसका ऄथलभ ी र्मालर्मर हो जायेगा

ऋतम्भरा-प्रज्ञा का ददखाई देना


र्मैंने ्यान का सर्मय और ज्यादा बढ़ा वदया तथा प्राणायार्म ी वदन र्में पााँि बार करने लगा, आससे
ऊतम् रा-प्रज्ञा र्मझर े ्यानावथथा र्में करछ वदनों बाद ही वदखाइ देने लगती थी शायद ऐसा वित्त र्में और
शि
र ता के कारण हुअ होगा ्यानावथथा र्में र्मैं देखता था वक ऊतम् रा-प्रज्ञा ईदय होकर ऄंतररक्ष र्में उपर

तत्त्वज्ञान 304
की ओर धीरे -धीरे िढ़ती हुइ िली जा रही ह। ज।से– सयर लभ सबर ह ईग कर धीरे -धीरे अकाश र्में उपर की
ओर िढ़ता जाता ह।
अथय– ऊतम् रा-प्रज्ञा– सत्य को रने वाला ज्ञान यही प्रज्ञा (ज्ञानद स ी ज्ञानों का र्मल
र अधार ह।,
तथा ऄज्ञान की ववरोधी ह। यह ऄज्ञान को धीरे -धीरे र्मल
र से नि कर देती ह।

इज
ुं न की आवाज
करछ वदनों बाद ्यानावथथा र्में विर आजं न की अवाज सनर ाइ देने लगी त ी ऄनर व र्में वदखाइ
वदया– र्मैं एक काँर ए के ऄन्दर झााँक (देखद रहा ह,ाँ ईसी काँर ए से आजं न की अवाज अ रही थी र्मझर े काँर ए के
ऄन्दर नीिे की वर र्म थपि वदखाइ दे रही थी काँर ए र्में पानी नहीं था तथा काँर अ वबलकरल सख र ा हुअ था
काँर ए के ऄन्दर वर र्म र्में एक आजं न वर्मट्टी र्में दबा हुअ वदखाइ दे रहा था आजं न का उपरी ाग थोड़ा-सा र्मझर े
थपि वदखाइ दे रहा था ऐसा लगता था र्मानों यह आजं न बहुत परर ाना ह।, आसकी क ी सिाइ नहीं की गयी
ह। वर्मट्टी र्में दबे होने के बाद ी ईसके कल-पजर े बड़े अरार्म से वक्रयाशील थे ऄथालभत् िल रहे थे त ी
ऄनर व सर्माप्त हो गया

बााँस
्यानावथथा र्में देखा– र्मैं सार्मने की ओर जतर ा हुअ खेत देख रहा हाँ खेत र्में वकसी प्रकार का
खरपतवार (घास अवदद नहीं ह। खेत की वर्मट्टी रर रर ी तथा थवच्छ ह। त ी र्मझर े खेत के बीि र्में वर्मट्टी के
ऄन्दर लग ग 6 आिं नीिे की ओर दबा हुअ बााँस वदखाइ वदया बााँस की लम्बाइ लग ग छ: से साढ़े
छ: िीट रही होगी र्मझर े दरर से ही वर्मट्टी के ऄन्दर दबा हुअ सख र ा-सा बााँस वदखाइ दे रहा था जबवक
जा्र त ऄवथथा र्में वर्मट्टी के ऄन्दर दबी हुइ वथतर वदखाइ नहीं दे सकती ह। ऄनर व सर्माप्त हुअ
अथय– ऄनर व र्में जो वर्मट्टी के ऄन्दर दबा हुअ सख
र ा-सा बााँस वदखाइ दे रहा था, वह वदव्यदृवि के
द्रारा देखा जा रहा था

तत्त्वज्ञान 305
इज
ुं न की आवाज
ऄब र्मैं रात-वदन कठोर ऄभ्यास करने र्में लगा रहता था सर्माज र्में वकसी से ी वर्मलता जल
र ता
नहीं था आसवलए सर्मावध का सर्मय ी बहुत ऄवधक बढ़ गया था 5-6 घण्टे की सर्मावध अरार्म से लगी
रहती थी वनबीज सर्मावध के ऄभ्यास के कारण सर्मय का ान नहीं रहता था जब वनबीज सर्मावध
कर्मजोर पड़ने लगती थी, तब सबीज सर्मावध की ऄवथथा र्में ऄनर व अ जाता था
्यानावथथा र्में वदखाइ वदया– र्मैं वर र्म पर खड़ा हुअ काँर ए के ऄन्दर झााँक रहा हाँ काँर ए के ऄन्दर
एक आजं न ऄपने अप िल रहा ह। आजं न परर ाना व गन्दा-सा ह।, ईसर्में वर्मट्टी ी लगी हुइ ह। ऄब धीरे -धीरे
वर्मट्टी ऄपने अप छरट-छरट कर ऄलग हो रही ह। ऄथालभत् आजं न ऄपने अप थवच्छ होता जा रहा ह। ऐसा
लगने लगा ह। र्मानों आजं न बहुत ज्यादा परर ाना नहीं ह। दृश्य बहुत ऄच्छा लग रहा ह।, काँर ए के ऄन्दर नीिे
वर र्म पर आजं न ऄपने अप िल रहा ह। विर ऄनर व सर्माप्त हो गया र्मैं सर्मझ गया हर्मारा ऄभ्यास बढ़
जाने के कारण वित्त र्में शि र ता की र्मारा बढ़ गयी ह। आसवलए यह दृश्य थपि वदखाइ देने लगा ह।
करछ वदनों बाद विर आजं न का ही ऄनर व अया ईस ऄनर व र्में र्मझर े वदखाइ वदया– आजं न काँर ए के
र्म्य र्में अधारहीन ही वथथर ह।, वह ऄपने अप िल रहा ह। बहुत ही अश्चयलभजनक दृश्य था– काँर ए के
र्म्य र्में ऄथालभत् अधा काँर अ नीिे की ओर ह।, तथा अधा काँर अ उपर की ओर ह। आजं न ऄपने अप
अधारहीन ही अकाश र्में वथथर ह। ईस आजं न र्में फ्लाआगं व्हील के बगल र्में एक छोटी-सी 10-12 आिं
व्यास वाली पल र ी लगी हुइ ह।, आस पल
र ी र्में एक पट्टा िढ़ा हुअ ह।, यह पट्टा नीिे दसर रे व्हील को घर्मर ा रहा
ह। नीिे वाला व्हील ट्यवर वेल के पंखे का व्हील ह।, आस पख ं े से जर्मीन के ऄन्दर से पानी-वनकालते हैं
आजं न ऄपने अप िल रहा ह।
एक दो र्माह बाद विर आसी प्रकार का ऄनर व अया ऄबकी बार दृश्य काँर ए का नहीं था र्मैंने
देखा– एक आजं न िल रहा ह।, ईस आजं न की पल र ी (व्हीलद पर पट्टा िढ़ा हुअ ह।, वह पट्टा दसर री ओर थोड़ी
दरर ी पर एक लम्बी-सी साफ्टीन र्में बंधी पल र ी के उपर िढ़ा हुअ ह।, यह साफ्टीन पट्टे के द्रारा तीव्र गवत से
घर्मर रही हैं ऄथालभत् आजं न से पट्टे द्रारा लम्बी-सी साफ्टीन घर्मर ाइ जा रही ह।, ईस साफ्टीन र्में ढेरों पल
र ी
(व्हीकसद कसे हुए ह।, आन स ी पवर लयों (पवहयोंद पर ी पट्टे िढ़े हुए ह।, वह दसर रे पल र ी (पवहयाद को घर्मर ा
रहा ह। ईसके द्रारा ववव न्न प्रकार के कायलभ हो रहे ह। देखने र्में ऐसा लगता ह।, र्मानों बहुत बड़ा कारख़ाना
िल रहा ह। त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया

तत्त्वज्ञान 306
अथय– र्मझर े ऄनर व र्में कइ र्महीनों से आजं न की अवाज सनर ाइ दे रही थी, विर आजं न वदखाइ देने
लगा और ऄन्त र्में एक कारखाना-सा िलता हुअ वदखाइ वदया ऄब र्मैं आसका ऄथलभ वलख रहा हाँ काँर अ–
हर्मारा ही वित्त का प्रतीक ह। ऄथालभत् आजं न अवद की हर्मारे वित्त र्में ही वक्रया हो रही ह। सत्य तो यह ह।–
सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड एक कारखाने की तरह ह। आस कारखाने के सम्पणर लभ कल-पजर े वायर तत्त्व के द्रारा िल रहे ह।,
‍योंवक अकाश तत्व र्में वायतर त्व के द्रारा ही प्रकृ वत ने ऄपना सृजन वकया ह। आस कारखाने को िलाने
वाले आजं ीवनयर वहरण्यग लभ (वहरण्य परुर ष ऄथवा गवान ब्रह्माद ह। वजस प्रकार वतलभर्मान सर्मय र्में आजं न
पेरोल या डीजल से िलते ह। आसी प्रकार ब्रह्माण्ड रूपी कारखाना वायतर त्त्व के द्रारा िल रहा ह।

बााँस
वदसम्बर र्माह र्में यह ऄनर व अया र्मैं सार्मने ओर जतर ा हुअ एक खेत देख रहा ह,ाँ त ी र्मझर े
वदखाइ वदया– खेत ऄपने अप जतर ता िला जा रहा ह। खेत को जोतने वाला कोइ व्यवक्त नहीं ह।, हल ी
नहीं िल रहा ह।, वर्मट्टी ऄपने अप जतर ती िली जा रही ह। त ी हर्मारी दृवि खेत के र्म्य की ओर गयी,
‍योंवक वहीं पर वर्मट्टी ऄपने अप जतर रही थी र्मैं वर्मट्टी को जतर ते हुए देख रहा था, ईसी सर्मय लग ग छ:
से साढ़े छ: िीट लम्बा सख र ा बााँस वर्मट्टी के उपर अ गया र्मैं ऄपने थथान से िल कर खेत के र्म्य र्में पड़े
हुए सखर े बााँस के पास गया, र्मैंने बााँस को गौर पवर लभक देखा– वह परर ी तरह से सख
र ा हुअ था पहले र्मैं ईसे
देखकर र्मथर कराया विर र्मैंने ऄपने दावहने हाथ से बााँस को पकड़ कर ईठा वलया ज।से ही र्मैंने बााँस को
पकड़कर ईठाया ईसी सर्मय हर्मारी सर्मावध ंग हो गयी, झटके के साथ हर्मारी अाँखें खल र गयी
अथय– वजस तरह से बााँस ऄन्दर और बाहर से सख र ा और रसहीन ह।, आसी प्रकार आस संसार का
थवरूप होता ह। सत्य तो यही ह। संसार ी ऄन्दर और बाहर से रसहीन ही होता ह।, ऐसा तत्त्वज्ञानी परुर ष
संसार का ऄनर वर त करते ह। र्मगर ऄज्ञानी परुर ष आस रसहीन संसार र्में रस ढराँढता रहता ह। और आसी र्में जीवन
सर्माप्त हो जाता ह। र्मगर तत्त्वज्ञानी परुर ष आस संसार को रसहीन सर्मझकर त्याग देता ह। बााँस ऄन्दर से
पोला होता ह।– आसी प्रकार संसार पोला (खोखलाद के सर्मान ह। ऄथालभत् यहााँ पर वकसी प्रकार का सख र
अवद नहीं हैं बााँस र्में ऄन्दर बाहर िााँसे होती ह।– आसी प्रकार संसार र्में सवलभर िााँसो के सर्मान दख
र ही दख र
ह।

तत्त्वज्ञान 307
सन् 2003
भगवान् दशव िारा आदद शद‍त मुंत्र ददया जाना
यह ऄनर व 15 जनवरी को अया ्यानावथथा र्में हर्में सनर ाइ वदया– स ी प्रकार की आच्छाओ ं का
त्याग करो तम्र हें वकसी ने हावन नहीं पहुिाँ ाइ ह।, बवकक वह तम्र हारा कर्मलभ था ईनके प्रवत दोषारोपण न करो,
‍योंवक ये सारे कायलभ प्रकृ वत ने करवाये हैं र्मैंने पछर ा– ‚अप कौन हैं?‛ ईत्तर वर्मला–‚र्मैं तम्र हारा आष्ट हाँ र्मैंने
जो बातें तम्र हें बताइ हैं, ईनको दृढ़तापवर लभक वनकाल दो, विर ये ऄपरा-प्रकृ वत तम्र हारा करछ नहीं वबगाड़
पायेगी ज।से ही ये कवर्मयााँ तम्र हारे ऄन्दर से वनकल जाएाँगी, तब प्रकृ वत तरम्हारे सार्मने घटर ने टेक देगी आन्हीं
कवर्मयों के कारण प्रकृ वत तरर्म पर ऄवधकार कर लेती ह।, जब ये कवर्मयााँ तर्मर पर प्र ावी होने लगे तो ईस
सर्मय तर्मर ‘ॎ आददशद‍त ॎ’ र्मंर का जाप करना शरू र कर दो आससे अवदशव‍त (परा-प्रकृ वतद का
प्र ाव बढ़ने लगेगा, तम्र हें ईसी को प्राप्त करना ह। ‛ विर अवाज अनी बन्द हो गइ
र्मैंने अवदशव‍त र्मंर का बहुत जाप वकया करछ सर्मय बाद आस र्मंर के प्र ाव की ऄनर वर त होने लगी
ऄथालभत् हर्मारे ऄन्दर परा-प्रकृ वत का ऄवतरण शीघ्रता से होने लगा आसके ऄवतरण से ऄपरा-प्रकृ वत शीघ्र
ही शिर होने लगी

अपरा-प्रकृदत का नष्ट हुए के समान होना


आस प्रकार के करछ ऄनर व वदसम्बर 2002 तथा जनवरी 2003 र्में बहुत अए पहले आस प्रकार के
ऄनर वों पर र्मैंने गौर नहीं वकया, र्मगर जब 18 जनवरी को ईसी प्रकार का ऄनर व अया, तब हर्में ज्ञान ने
बताया- ‚योगी, ये ऄनर व तम्र हारे वलए बहुत र्महत्वपणर लभ हैं, आन पर गौर करो ‛ तब हर्मारी सर्मझ र्में अया
वक ये ऄनर व हर्मारे वलए वनश्िय ही र्महत्वपणर लभ हैं यहााँ पर एक ऄनर व वलख रहा हाँ र्मैं वकसी थथान पर
लेटा हुअ ह,ाँ हर्में र्महससर हुअ वक हर्मारे प।रों व कर्मर के उपर करछ रखा हुअ ह। र्मैंने ऄपनी दृवष्ट प।रों
की ओर की, तो र्मैं ईधर का दृश्य देखकर अश्ियलभिवकत हो गया, ‍योंवक हर्मारे प।रो व कर्मर के उपर एक
लड़की के प।र रखे हुए थे हर्मारा वसर पवर लभ वदशा की ओर था तथा लड़की का वसर पवश्िर्म वदशा की ओर
हर्म दोनों एक ही सीध र्में (180 ऄंश कोण र्मेंद लेटे हुए थे हर्म दोनों पीठ के बल लेटे हुए थे लड़की के

तत्त्वज्ञान 308
प।रों ने हर्मारे प।रों व कर्मर को नीिे दबा रखा था लड़की के प।रों के तलवे हर्मारी ओर होने के कारण थपष्ट
नजर अ रहे थे र्मैंने ऄपने हाथों से लड़की के प।रों के पंजे पकड़ रखे थे ऄब हर्में ईस लड़की का सम्पणर लभ
शरीर वदखाइ देने लगा ईसकी लम्बाइ हर्मारी लम्बाइ से कािी ज्यादा थी ईसकी अाँखें ी बन्द थी
ऐसा लगता था ज।से वह गहरी वनिावथथा र्में िली जाएगी ईसके खल र े हुए वसर के बाल ईसकी पीठ के
नीिे दबे हुए थे तथा ईसके शरीर पर एक ी वथर नहीं था, वह वनवलभथर थी ईसके शरीर के सारे ऄंग
थपष्ट वदखाइ दे रहे थे ईसका शरीर वदव्य था तथा शरीर का रंग तपे हुए सोने के सर्मान था ईसके संपणर लभ
शरीर से हकका प्रकाश (तेजद वनकल रहा था र्मैं सोिने लगा वक आस ऄवद्रतीय सन्र दर लड़की ने र्मझर े ऄपने
प।रों से आस तरह ‍यों दबा रखा ह।?
आसी प्रकार का ऄनर व 18 जनवरी को अया आस ऄनर व र्में थोड़ा-सा िकलभ था ऄबकी बार हर्मारे
प।रों के तलवे और ईस लड़की के प।रों के तलवे अपस र्में विपके हुए थे हर्मारा वसर पवर लभ की ओर था तथा
लड़की का वसर ईत्तर वदशा की ओर था, विर ी प।रों के तलवे अपस र्में विपके हुए थे दोनों के शरीर 90
ऄंश का कोण बना रहे थे लड़की के प।रो के पंजों व एड़ी वाला ाग थोड़े-थोड़े र्मड़र े हुए थे र्मैंने ऄपने प।र
वहलाए तो लड़की के ी प।र वहलने लगे लड़की पहले वाली ही थी, आस ऄनर व र्में ी वह पणर लभ रूप से
वनवलभथर थी
अथय– दोनों ऄनर वों र्में वदखाइ देने वाली लड़की ऄपरा-प्रकृ वत ह। र्मैंने ऄपना वसर पवर लभ की ओर
वकया हुअ ह। ऄथालभत् क। वकय ईन्र्मख र ह,ाँ र्मेरा वित्त क। वकय ईन्र्मख
र ह। ऄपरा-प्रकृ वत ऄथालभत् लड़की का
वसर पवश्िर्म की ओर ह। ऄपरा-प्रकृ वत वनम्नर्मख र ी होने के कारण सृवष्ट ईन्र्मख
र रहती ह।, वह गहरी वनिा र्में
जाने वाली ह। आसका ऄथलभ ह। वक ऄपरा-प्रकृ वत हर्मारे वलए गहरी वनिा र्में जाने के सर्मान हो गइ ह। ऄथालभत्
नष्ट हुए के सर्मान हो गइ ह। ऄ ी वह हर्में ऄपने प्र ाव से दबाए हुए ह। ऄनर व र्में ईसके प।र हर्मारी कर्मर
के उपर रखे हैं र्मैंने ईसके प।रों के पजं े पकड़ रखे थे ऄथालभत् र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत को पकड़े हुए हाँ वह वनवलभथर
ह।– आसका ऄथलभ ह। ववकारों से रवहत होना ईसका शरीर थवणलभ के सर्मान ह।– ऄथालभत् वह शि र ता को प्राप्त
हो गइ ह। ईसके प।र हर्मारे प।रों व कर्मर को दबाए हुए हैं– ऄपरा-प्रकृ वत का प्र ाव र्मार थोड़ा रह गया शेष
शरीर र्में (शरीर से लेकर वित्त तकद परा-प्रकृ वत का ऄवतरण हो िक र ा ह। दसर रे ऄनर व र्में लड़की के प।रों
के तलवे हर्मारे प।रों के तलवों से विपके हैं– ऄपरा-प्रकृ वत का प्र ाव हर्मारे उपर नहीं रह गया ह।, वसिलभ
नार्मर्मार का सम्पकलभ ह।, ‍योंवक थथल र शरीर ऄ ी बना हुअ ह। लड़की का वसर ईत्तर वदशा की ओर ह।
ऄथालभत् ऄपरा-प्रकृ वत लीनता की ओर ह। आस ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक हर्मारे ऄन्दर परा-प्रकृ वत का

तत्त्वज्ञान 309
ऄवतरण हो रहा ह।, ऄपरा-प्रकृ वत शि
र होती जा रही ह। वजतनी ऄपरा-प्रकृ वत शि
र होती जाएगी, ईतना
ही परा-प्रकृ वत का ऄवतरण होता जाएगा

अपरा-प्रकृदत सुंदगनी के रूप में


यह ऄनर व 12 नवम्बर को अया सनर हरा तेज प्रकाश ि। ला हुअ ह। र्मैं पवर लभ वदशा की ओर िला
जा रहा हाँ तथा र्मैं दरर से िष्टा रूप से यह दृश्य ी देख रहा हाँ वक अनन्द करर्मार पवर लभ वदशा की ओर िला
जा रहा ह। ईसे र्मालर्मर नहीं ह। वक ईसके पीछे -पीछे कोइ थरी िली अ रही ह। र्मैं (िष्टा रूप सेद बोला,
‚यह तो अनन्द करर्मार की संवगनी ह।‛ र्मेरे आतना कहते ही ईस थरी ने र्मेरी ओर देखा ज।से ही ईस थरी ने
र्मेरी ओर देखा र्मैं तररन्त बोल पड़ा, ‚यह तो प्रकृ वत (ऄपराद ह।‛, प्रकृ वत ने ी र्मरथकरा वदया
अथय– आस ऄनर व र्में र्मैं दो थवरूप र्में हाँ पहला स्वरूप– र्मैं पवर लभ वदशा की ओर िला जा रहा ह,ाँ
विर ऄपने को दृश्य से दरर उपर की ओर से देख रहा था ईस सर्मय र्मझर े ऄपना थवरूप वदखाइ नहीं दे रहा
था, वसिलभ दृवष्ट के द्रारा देख रहा था अनन्द करर्मार पवर लभ वदशा की ओर िला जा रहा ह।, ईसके पीछे -पीछे
एक थरी िली जा रही ह। र्मगर अनन्द करर्मार को यह र्मालर्मर नहीं ह। थरी की पीठ हर्मारी ओर थी, त ी
र्मेरे द्रारा ्ववन वनकली, ‚यह तो अनन्द करर्मार की संवगनी ह। ‛ र्मैंने ऄभ्यास के द्रारा ऄपरा-प्रकृ वत को
नष्ट हुए के सर्मान कर वदया ह। ऄथालभत् र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत से परे हो गया ह,ाँ आसवलए ऄपरा-प्रकृ वत हर्मारे
पीछे -पीछे िल रही ह। र्मेरा िेतन थवरूप (िष्टारूप र्मेंद कह रहा ह।– ‚यह अनन्द करर्मार की संवगनी ह। ‛ ये
शब्द कहते ही थरी ने र्मथर करा कर सहर्मवत प्रदान कर दी तब र्मैं कहता ह–ाँ ‚यह तो प्रकृ वत ह। ‛ ऄनर व र्में
दोनों थवरूपों र्में ऄपनी ऄनर वर त कर रहा हाँ पहले अनन्द करर्मार के रूप र्में जो पवर लभ वदशा की ओर िला
जा रहा ह। ऄथालभत् ऄभ्यास के द्रारा क। वकय की ओर जा रहा ह। दसर रे थवरूप से र्मैं िष्टा रूप र्में हाँ
करण्डवलनी वाला पाठ पवढ़ए ईसर्में पढ़ने को वर्मलेगा वक जीव ऄपनी संवगनी के साथ जन्र्म ्र हण करता
ह। पाठकों को यह अश्ियलभ नहीं होना िावहए वक योग के ऄभ्यासी की संवगनी ऄपरा-प्रकृ वत बन सकती
ह। ऄभ्यास के द्रारा जीव ऄपना आतना ववकास कर सकता ह। वक वह जीवेश्वर बन सकता ह। ऄथालभत् इश्वर
के सर्मान बन सकता ह। आस ववषय र्में अगे ी पढ़ेंगे जब ऄभ्यासी को आस प्रकार का ऄनर व अए वक
ऄपरा-प्रकृ वत ईसकी संवगनी के रूप र्में ईसके साथ ह।, तब ऄभ्यासी को ऄपरा-प्रकृ वत सद।व सहयोग
करती रहेगी र्मगर व्यत्र थान के संथकारोंके कारण ऄभ्यासी को थथल र संसार से ऄपर्मान, वनंदा व ‍लेश

तत्त्वज्ञान 310
प्राप्त होगा आससे ईसका वित्त और वनर्मलभल होकर पर-व।रा‍य के संथकार प्रकट करे गा, वजससे व्यत्र थान के
संथकार दबते जाएाँगे ऄथवा नष्ट होते जाएाँगे ऄभ्यास से पहले जीव प्रकृ वत के बन्धन र्में बाँधा हुअ
जीवत्व को प्राप्त होता ह। ऄथालभत् पवर लभ जन्र्म के कर्मों के ऄनसर ार सख
र -दःर ख को ोगता ह। वववेक-ख्यावत
के बाद जीव प्रकृ वत का थवार्मी बन जाता ह। तथा जीव ज्ञान से यक्त र हो जाता ह।

प्रकृदत बकरी के रूप में


7 वदसम्बर के ऄनर व र्में र्मैंने देखा वक र्मैं कही िला जा रहा हाँ और एक बकरी हर्मारे पीछे -पीछे
अ रही ह। बकरी ने करछ क्षणों बाद हर्मसे करछ कहा र्मैं िौंका और सोिने लगा वक यह बकरी तो र्मनष्र यों
की ााँवत बोलती ह। र्मैं अगे-अगे िला जा रहा था तथा बकरी पीछे -पीछे बात करती िली अ रही थी
ईसने हर्मसे कहा, ‚अप विंवतत न होइए, र्मैं अपको र्मागलभ बताती हाँ ‛ विर वह र्मझर े एक ओर ले गइ, त ी
बकरी ने ऄपना थवरूप बदल वलया और 16-17 साल की एक लड़की बन गइ ईसी थथान पर वहााँ दो
परूर ष ी अ गये वह लड़की ईन दोनों परू र षों से बोली, ‚यह र्मेरा पवत ह।‛ र्मैं ये शब्द सनर कर िौंक पड़ा,
‍योंवक र्में जान िक र ा था वक यह ऄपरा-प्रकृ वत ह। तथा 16-17 साल की यवर ती होकर र्मझर े ऄपना पवत कह
रही ह। विर यह प्रकृ वत हर्मारा हाथ पकड़ कर उाँिी सीवढ़यों पर िढ़ती हुइ एक कर्मरे ज।से थथान पर ले
गइ वहााँ सार्मने की ओर उाँिे वसंहासन पर एक सन्र दर थरी ववराजर्मान थी, ईसके सार्मने र्मझर े खड़ा कर
वदया, विर थवयं ऄदृश्य हो गइ सार्मने वसंहासन पर ब।ठी थरी हर्में देखकर र्मथर करा रही थी र्मैंने सोिा हर्में
देखकर यह र्मथर करा ‍यों रही ह।? र्मैंने ऄपने शरीर पर दृवष्ट डाली तो देखा वक हर्मारे शरीर पर एक ी वथर
नहीं था, र्मैं पणर लभ रूप से वनवलभथर था र्मैं ऄपने को वनवलभथर देखकर वनष् ाव से खड़ा रहा, वह थरी ऄब ी
र्मथर करा रही थी
अथय– बकरी=ऄपरा-प्रकृ वत तथा पवत=थवार्मी, वसंहासन पर ब।ठी थरी= परा-प्रकृ वत ऄपरा-प्रकृ वत
का जीव के वलए कायलभ सर्माप्त हो गया, आसवलए वह ऄदृश्य हो गइ ईसने हर्में परा-प्रकृ वत तक पहुिाँ ा
वदया वनवलभथर होना ऄथालभत् ववकारों से रवहत होना र्मझर ें ववकारों से रवहत देखकर परा-प्रकृ वत र्मथर करा रही
ह। परा-प्रकृ वत का साक्षात्कार नहीं वकया (वाथतववक थवरूप काद जा सकता ह।, यह के वल वृवत्तयों के
द्रारा वदखाया गया बकरी का ऄथलभ होता ह।– प्रकृ वत क ी-क ी साधक को तीन रंगों वाली बकरी वदखाइ

तत्त्वज्ञान 311
देती ह। ये तीनों रंग काले, सिे द, लाल हैं काले रंग का ऄथलभ तर्मोगणर होता ह।, सिे द रंग सत्त्वगणर का
प्रतीक होता ह। तथा लाल रंग तर्मोगणर का प्रतीक होता ह। आसका वववरण शाथरों र्में ी वर्मलता ह।

अब तुम दकराएदार हो गये हो


यह ऄनर व 24 वदसम्बर का ह। र्मैं तेज प्रकाश से यक्त र ववशेष प्रकार के क्षेर र्में खड़ा था, त ी एक
सन्र दर थरी हर्मारे पास अइ ईसके हाथ र्में एक टोकरी थी वह थरी बोली, ‚यह लो (टोकरी के वलए कहाद
आसे ईधर रखो ‛ र्मैंने ईस लड़की के हाथ से टोकरी ली, विर ईस टोकरी को र्मैंने एक तरि रख वदया ईस
टोकरी र्में करछ था, टोकरी वर र्म पर रखते सर्मय हर्मारे ऄन्दर वविार अया वक यह टोकरी र्मेरी नहीं ह।
टोकरी रखकर जब र्मैं खड़ा हुअ तो वह थरी बोली, ‚ऄब तर्मर र्मेरे वकराएदार हो गये हो, पहले तर्मर ईसके
वकराएदार थे ‛ र्मैं ईस थरी का र्माँहर देखने लगा और र्मन र्में सोिने लगा वक यह थरी हर्में ऐसा ‍यों कह रही
ह।? वह थरी कहकर एक ओर िली गइ
अथय– थरी ऄथालभत् परा-प्रकृ वत यवद र्मैं टोकरी ऄपने वलए ले लेता तो ऄवश्य ही करछ-न-करछ ोग
करना पड़ता र्मगर र्मेरे ऄन्दर वविार अया वक यह र्मेरी नहीं ह। पहले र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत का वकराएदार था,
ऄब परा-प्रकृ वत का वकराएदार हो गया हाँ ऄपरा-प्रकृ वत से तो ऄभ्यास के द्रारा परे हो गया ह,ाँ ऄब बहुत
सर्मय तक थथल र शरीर त्यागने के पश्िात परा-प्रकृ वत के क्षेर र्में रहगाँ ा आसवलए वह थरी कह रही थी वक
ऄब तर्मर र्मेरे वकराएदार हो गये हो ऄ ी तक र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत के क्षेर र्में बना रहा आस प्रकृ वत र्में रहना
वकराएदार की तरह ही ह। वकराएदार सद।व वकराए के र्मकान र्में नहीं रह सकता ह।, ‍योंवक र्मकान ईसके
थवार्मी का होता ह। ऄब हर्मारा वित्त परा-प्रकृ वत र्में ऄन्तर्मलभख र ी ह। तथा थथल र शरीर त्यागने के बाद परा-
प्रकृ वत के क्षेर र्में रहगाँ ा परा-प्रकृ वत िाहे वजतनी थिरवतलभ वाली ‍यों न हो र्मगर वह जड़ ही ह। ऄपने थवरूप
र्में (वनगणर लभ ब्रह्म र्मेंद जब सद।व के वलए लीन हो जाउाँगा, तब र्मझर े परा-प्रकृ वत का ी त्याग करना होगा
वनगलभणर ईपासकों को परा-प्रकृ वत (र्मल र प्रकृ वत या इश्वर का लोकद का त्याग क ी-न-क ी ऄवश्य करना
होता ह।
यह ऄनर व 27 वदसम्बर को अया र्मैं सबर ह ऄपने असन पर सर्मावध र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ था करछ
सर्मय बाद हर्मारी सर्मावध टरट गइ, त ी हर्में ऄपने थथलर शरीर की ऄनर वर त होने लगी हर्मारा ्यान
जननेंविय की ओर गया त ी र्मैं िौंका, ‍योंवक हर्मारा वलगं सीधा होकर पेट से विपक हुअ था वलगं का

तत्त्वज्ञान 312
ऄ्र ाग नाव से नीिे विपका हुअ था र्मैंने ऄपना असन बदल वलया ऄब र्मैं वज्रासन लगाकर ब।ठ
गया, र्मगर वलंग शांत न हुअ वह विर उपर की ओर होकर नाव के पास विपक गया र्मझर े ऐसा लगा
ज।से आसके ऄन्दर बहुत शव‍त अ गइ ह। ऐसी ऄवथथा होकर ी हर्मारे ऄन्दर कार्मेच्छा नहीं थी, बवकक
ऐसा लग रहा था ज।से आस थथान पर ि।तन्यता ही नहीं ह।, वलंग वसिलभ जड़ र्मार ह। करछ सर्मय तक यही
वक्रया होती रही, विर सर्मावध की गहराइ र्में िला गया
अथय– आस प्रकार की वक्रया हर्में 20 वषलभ पवर लभ साधना काल र्में हुइ थी आस वक्रया का ऄथलभ ववशेष
प्रकार का होता ह। यवद योग का ऄभ्यासी नया ह। और ईसे र्मार करछ वषलभ ही ऄभ्यास करते हुए हैं, ऐसे
साधक को सर्मझ लेना िावहए वक ववष्य र्में वह र्महान बनेगा, यश प्राप्त करे गा तथा गरू र पद ी प्राप्त
कर सकता ह। दसर रा ऄथलभ यह ी ह। वक साधक को यह ऄनर व यवद ईच्िावथथा र्में अता ह। तो ऄवश्य
ही पणर लभता को प्राप्त करे गा वलंग का कायलभ होता ह।– र्मरर ववसजलभन तथा प्रकृ वत की सृवष्ट ईन्र्मख
र वक्रया को
अगे बढ़ाना जब ऄभ्यासी को आस ऄवथथा र्में यह वक्रया हो तब आसका ऄथलभ ह।- प्रकृ वत की सृवष्ट ईन्र्मख र
व प्रलय ईन्र्मख
र ऄवथथाओ ं से पणर लभरूप से वनवृत हो जाना

तत्त्वज्ञान 313
सन् 2004
सरल बनो
यह ऄनर व एक जनवरी को अया ्यान पर ब।ठते ही अवाज अइ– ‚परर ! वबककरल सरल हो
जाओ, जब पणर लभ रूप से सरल हो जाओगे, ईसी सर्मय र्महान बन जाओगे ‛ र्मैंने पछर ा अप कौन हैं?
अवाज अइ, ‚र्मैं तम्र हारा परर्म् वपता हाँ ‛ र्मैं बोला, ‚प्र !र प्रणार्म ‛ अवाज अइ, ‚शीघ्र र्महान बनो ‛
विर अवाज अनी बन्द हो गइ र्मैं बोला, ‚र्मैं ब्रह्माण्ड की सर्मथत वदव्य शवक्तयों, योवगयों, तपवथवयों को
प्रणार्म करता हाँ ‛ ईसी सर्मय बहुत सारी अवाज़ें एक साथ गंजर ने लगी– ‚योगी, तर्मर र्महान हो, योगी, तर्मर
र्महान हो ‛ करछ क्षणों बाद ऄत्यन्त र्मधरर अवाज सनर ाइ दी– ‚कहो परर , क। से हो?‛ र्मैं बोला– ‚ऄच्छा
हाँ ‛ ‍या हर्मारी र्माता बोल रही हैं? अवाज अइ- ‚हााँ, तम्र हारी र्माता बोल रही हाँ परर पहले तर्मर पणर लभ रूप
से सरल हो जाओ तम्र हें कोइ ईकटा-सीधा कहे तो तर्मर ईसे ईत्तर र्में करछ ी नहीं कहोगे तर्मर वसिलभ सनर ोगे,
कहोगे करछ नहीं जब तर्मर ऐसा करने लगोगे त ी र्महान बन जाओगे, ‍योंवक सरलता ही र्मनष्र य को श्रेष्ठ
बनाती ह। तम्र हें वकसी के यहााँ जाकर व क्षा नहीं र्मााँगनी ह। तरम्हारा ऄहक ं ार पणर लभ रूप से ऄन्तर्मलभख
र ी हो
िक र ा ह। ऄब तर्मर वन लभय या प्रसन्न होकर रहो, तम्र हें वकसी बात की विंता करने की अवश्यकता नहीं ह। ‛
विर अवाज अनी बन्द हो गइ
अथय– यह अवाज प्रेरणा के द्रारा परर्म्-वशव व परा-प्रकृ वत की थी प्रत्यक्ष रूप से बात करना
ऄथवा सर्मवध ऄवथथा र्में वृवत्तयों के द्रारा बात करना सम् व नहीं ह। प्रेरणा के द्रारा वसिलभ ्ववन सनर ाइ
देती ह।

च‍की का चलना
यह ऄनर व 5 जनवरी को अया कर्म घनत्व वाला प्रकावशत ऄतं ररक्ष ह। आसी ऄतं ररक्ष र्में एक
ि‍की िल रही ह। ऄनाज रखने वाला पार ि‍की के उपर न होकर ि‍की से एक तरि उपरी ओर
वथथत ह। आसी पार के वनिले ाग से ऄनाज बड़ी तेजी से वगरता हुअ ि‍की के ऄन्दर िला जाता ह।
ऄनाज गेहाँ के सर्मान ह।

तत्त्वज्ञान 314
अथय– आस ऄनर व का ऄथलभ गढ़र ह। कबीर दास जी ने आस ि‍की के ववषय र्में बहुत ऄच्छा वणलभन
वकया ह। ि‍की के दोनों पाटों का ऄथलभ र्माया और ब्रह्म से ह। ऄनाज कर्मालभशय ह।, कर्मालभशय का ोग जीव
करता ह।

वायु तत्त्व आकाश तत्त्व में दवलीन होने की ओर


यह ऄनर व 8 जनवरी को अया र्मैं िार-पााँि वषीय सल र हने बच्िे को दोनों हाथों र्में ईठाये हुए
प्यार कर रहा था र्मैं आस बच्िे को ऄपना परर र्मान रहा हाँ बच्िे के पेट पर र्मैं ऄपने र्माँहर का दबाव देकर
ईसे गदर गदर ी कर रहा हाँ बच्िा पणर लभ रूप से वनवलभथर ह। र्मैं ईसका र्माँहर नहीं देख रहा हाँ ऄथालभत् बच्िे का र्माँहर
वदखाइ नहीं दे रहा ह।, ‍योंवक हर्मारा र्माँहर ईसके पेट के पास था क ी-क ी बच्िे के पेट पर ऄपने र्माँहर का
दबाव देकर गदर गदर ी कर रहा था, त ी बच्िे को हककी-सी खााँसी अ गइ खााँसते ही ईसके र्माँहर से पीले
रंग के कपड़े ज।सी जंजीर नर्मर ा विट (विता साद सी लग ग एक िीट लम्बी वनकल अइ र्मैंने ज।से ही
बच्िे का र्माँहर देखा तो र्मैं अश्ियलभिवकत हो गया, ‍योंवक वह बच्िा देवता गणेश जी थे र्मैं गणेश जी को
बच्िे के रूप र्में वखला रहा था ऄब ी र्मैं ईन्हें ऄपना परर र्मान रहा था तथा वखलाते सर्मय ऄनर वर त कर
रहा था वक र्मैं ऄपने परर को वखला रहा हाँ गणेश जी ऄपना र्माँहर िला रहे थे (ज।से कोइ पशर जगर ाली करता
ह।द र्माँहर िलाने के साथ ही ईनके र्माँहर से जंजीर नर्मर ा कपड़े की विट वनकल रही थी विट लग ग दो र्मीटर
वनकल अइ होगी, त ी र्मैंने बायीं और खड़ी एक थरी से कहा, ‚देख, बच्िे के र्माँहर से ‍या वनकल रहा ह।,
आसे वनकाल दे ‛ वह थरी बच्िे के र्माँहर से विट तीव्र गवत से खींिने लगी तीव्र गवत से विट खींिने के
कारण बच्िे का र्माँहर र्मरर झाने लगा तब र्मैं थरी से बोला, ‚धीरे -धीरे खींि, ईसे तकलीि हो रही ह। ‛ ज।से-
ज।से बच्िे के र्माँहर से विट बाहर वनकलती जाती, ईसका पेट वपिकता और िेहरा र्मरर झाता जाता र्मैं ईस
थरी से बोला वक बच्िा तो र्मर जाएगा विर बच्िे को वर र्म पर वबठा वदया और ईस थरी की ओर र्मड़र ा र्मैं
ईसे ऄपनी पत्नी सर्मझ रहा था
अथय– ऄनर व पढ़ने र्में ववविर ह। गणेश जी वायर तत्त्व से ईत्पन्न हुए हैं पहले के ऄनर वों र्में वायर
रूप र्में पररववतलभत होकर हर्मारे ऄन्दर ववलीन हो गये थे गणेश जी वायर तत्त्व के प्रतीक हैं र्मैं ईन्हें बच्िे की
ााँवत वखला रहा ह,ाँ र्मतलब वायर तत्त्व र्में ऄ ी हर्मारी हककी-सी असव‍त ह। ऄथालभत् ऄपरा-प्रकृ वत र्में
कहीं-न-कहीं सक्ष्र र्म रुप से थोड़ी सी असव‍त ह। गणेश जी के र्माँहर से विट वनकल रही ह।– र्मतलब हर्में

तत्त्वज्ञान 315
प्रकृ वत र्में (व्यवहार की दशा र्मेंद ऄ ी करछ ओर ोगना होगा यवद ऄनर व र्में वह लड़का र्मर जाता तो
ऄच्छा था आससे र्मैं वायर तत्त्व से परे हो जाता तथा अकाश तत्त्व र्में पणर लभ रूप से वथथत हो जाता आसका
ऄथलभ हुअ वक जीवन्र्मक्त र ऄवथथा की पररप‍वता वर्मलने र्में ऄ ी सर्मय लगेगा ऄनर व र्में गणेश जी बच्िे
के रूप र्में बहुत ही सन्र दर वदखाइ दे रहे थे ईनके शरीर का रंग तपे हुए सोने की ााँवत था बहुत से साधक
आसी प्रकार के ऄनर वों को देखकर भ्रवर्मत हो जाते हैं वक र्मैं ऄर्मक
र देवता का ऄवतार ह,ाँ ऐसा सर्मझ लेना
ऄज्ञानता होती ह। कारण यह ह।– देवताओ ं की ईत्पवत्त ऄव‍न तत्त्व से हुइ ह। ब्रह्मा, ववष्ण,र र्महेश की
ईत्पवत्त अकाश तत्त्व से हुइ ह। जब साधक को आन तत्त्वों की ऄनर वर त होती ह।, तब ईस तत्त्व से सम्बंवधत
देवताओ ं के थवरूप को वृवत्तयााँ (सावत्वक वृवत्तद धारण कर लेती हैं, ज।सा वक आसी ऄनर व र्में वदखाया
गया ह। र्मैं ऄनर व र्में कह रहा ह–ाँ बच्िा र्मर जाएगा ऄथालभत् वायतर त्त्व अकाश तत्त्व र्में ववलीन हो जाएगा
ववलीन होना अवश्यक ह।, त ी अत्र्मा र्में ऄववथथवत की पररप‍वता अएगी ऄपरा-प्रकृ वत वायर तत्त्व के
द्रारा ही अकाश तत्त्व से सृवष्ट की रिना करती ह। ऄगर र्मैं वायर तत्त्व र्में जरा ी अस‍त रहा तो ऄपरा-
प्रकृ वत से सम्पकलभ बना रहेगा वतलभर्मान सर्मय के वलए र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत से परे हो गया ह,ाँ र्मगर क ी-क ी
करछ सर्मय के वलए ऄपरा-प्रकृ वत र्में (संसार र्मेंद बना रहता हाँ आसवलए ऄनर व र्में गणेश जी को ऄथालभत्
वायर तत्त्व को पकड़े हुए हाँ धीरे -धीरे ऄभ्यास के द्रारा वायर तत्त्व को पणर लभ रूप से अकाश तत्त्व र्में
ऄन्तर्मलभख
र ी कर दगाँर ा साधकों के वलए हर्मारी राय ह। वक ऐसे ऄनर वों को देखकर क ी भ्रवर्मत न हों वक वह
ऄर्मक र देवता के ऄवतार हैं और न ही क ी वकसी के कहने र्में अएं वक ऄर्मक र सतं ईस देवता का
ऄवतार ह।

प्रज्ञा के तीन स्वरूपों का साक्षात्कार


यह ऄनर व 15 वदसम्बर 2003 को अया था, र्मगर ईस सर्मय वलख नहीं पाया थवच्छ ऄतं ररक्ष
र्में (अकाश र्मेंद पवश्िर्म वदशा र्में शरद ऊतर र्में ईगते हुए सयर लभ के अकार से बड़ी प्रज्ञा देखी ईसी सर्मय पवर लभ
वदशा र्में दसर री प्रज्ञा देखी र्मैं एक साथ पवश्िर्म और पवर लभ वदशा र्में दो प्रज्ञाएं देख रहा था र्मैं बोला, ‚एक
साथ दो-दो प्रज्ञाएं देख रहा ह,ाँ बड़ा ववविर दृश्य ह। ‛ त ी ईत्तर वदशा र्में एक और प्रज्ञा प्रकट होकर थोड़ा
उपर की ओर ऄतं ररक्ष र्में जाने लगी ऄतं ररक्ष र्में थोड़ा उपर की ओर िढ़कर दवक्षण वदशा की ओर गवत
करने लगी प्रज्ञा तीव्र गवत से दवक्षण वदशा र्में पहुिाँ ी, विर वापस होकर ईत्तर वदशा र्में अ गइ आस प्रकार
ईसने दो-तीन बार ि‍कर लगाए ईत्तर वदशा से दवक्षण वदशा र्में जाती, विर दवक्षण वदशा से ईत्तर वदशा र्में

तत्त्वज्ञान 316
अती थी हर्में आस प्रकार की वक्रया पर हाँसी अ गइ र्मगर पवश्िर्म वदशा व पवर लभ वदशा वाली प्रज्ञाएं ऄपनी
जगह पर वथथर थी
अथय– ऄनर व र्में एक साथ तीन प्रज्ञा प्रज्ञाएं वदखाइ दी आन तीनों प्रज्ञाओ ं के ववषय र्में गवान् श्री
व्यास जी कहते हैं, ‚वेद वववहत श्रवण से, ऄनर्मर ान (र्मननद से और ्यानाभ्यास र्में अदर से, तीन प्रकार से
प्रज्ञा का सम्पादन करता हुअ योगी ईत्तर्म योग को प्राप्त होता ह। ‛
बौि धर्मलभ र्में ी तीन प्रकार की प्रज्ञाओ ं के ववषय र्में आस प्रकार का ईकलेख वर्मलता ह। सर्मावध का
िल ह।– प्रज्ञा का ईदय व-िक्र के र्मल र र्में ‘ऄववद्या’ ववद्यर्मान ह। जब तक प्रज्ञा का ईदय नहीं होता,
तब तक ऄववद्या का नाश नहीं हो सकता ह। साधक का प्रधान लक्ष्य आसी प्रज्ञा की ईपलवब्ध र्में होता ह।
प्रज्ञा तीन प्रकार की हेाती ह। 1. श्रवर तर्मय प्रज्ञा, 2. विन्तार्मयी प्रज्ञा, 3. ावनार्मयी प्रज्ञा श्रदु तमय प्रज्ञा–
अप्त प्रर्माणों से ईत्पन्न वनश्िय, दचन्तामयी प्रज्ञा– यवर ‍त से ईत्पन्न वनश्िय तथा, भावनामयी प्रज्ञा–
सर्मावध जन्य वनश्िय श्रवर त विन्ता-प्रज्ञा से संपन्न शीलवान परू र ष ावना (्यानद का ऄवधकारी होता ह।
प्रज्ञावान परूर ष नाना प्रकार की वसवियााँ ही नहीं पाता ह।, प्रत्यतर प्रावणयों के पवर लभ जन्र्म का ज्ञान, पर
वित्तज्ञान, वदव्य श्रोत, वदव्य िक्षर तथा दःर ख क्षय ज्ञान से सम्पन्न हो जाता ह। ईसकी वित्त ोग की आच्छा,
जन्र्म लेने की आच्छा, ऄज्ञान र्मल से सदा के वलए ववर्म‍र त हो जाती ह। ऐसा साधक वनवालभण प्राप्त कर
ऄहलभत की र्महनीय ईच्ि पदवी को पा लेता ह।
साधक को ऊतम् रा-प्रज्ञा का साक्षात्कार कइ वषों तक होता रहता ह। आसका कारण यह ह। वक योग
र्में वनिली वर र्मयों को सावत्वक बनाते हुए उाँिी वर र्मयों र्में अरोह होता ह। ईन उाँिी वर र्मयों र्में
सावत्वकता की ऄवधकता के ऄनसर ार ही वदव्यता की वृवि होती ह। ईन उाँिी वर र्मयों की सावत्वकता और
वदव्यता को लेकर ऄवरोह र्में नीिी वर र्मयों को सावत्वक और वदव्य बनाया जाता ह। आस प्रकार नीिी और
उाँिी सारी वर र्मयााँ, सारे ऄंग और ईनकी वक्रयाएाँ ऄथालभत् बाह्य ऄभ्यन्तर, सारा ही जीवन सावत्वक और
वदव्य बन जाता ह।

अपरा प्रकृदत का स्वरूप


ऄब र्मैं आस वछि से सम्बंवधत ऄनर व वलख रहा हाँ यह ऄनर व हर्में 11 र्मािलभ को सबर ह अया र्मैं
तेज प्रकाशर्मान क्षेर र्में खड़ा हाँ आस प्रकाशर्मान क्षेर र्में ववशेषता यह थी वक तेज प्रकाश के कारण वर र्म

तत्त्वज्ञान 317
और ऄंतररक्ष एक ज।से थवरूप वाले वदखाइ दे रहे थे हर्मसे थोड़ी दरर ी पर उाँिे अकार र्में एक थथल
र वपण्ड
वथथत था हर्मने थथल र वपण्ड पर गहराइ से दृवष्ट डाली तो ऄन्दर से पारदशी अवरण द्रारा िार ागों र्में
ावसत होने लगा, जबवक बाहर से एक ही वपण्ड था र्मैं आस वपण्ड को देख रहा था, त ी हर्मारी अाँखें
खल र गइ र्मैं िपर िाप असन पर ही लेट गया
अथय– थथल र वपण्ड ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप ह। िारों ाग वायर तत्त्व, ऄव‍न तत्त्व, जल तत्त्वतथा
जड़ तत्त्व हैं ऄपरा-प्रकृ वत आन्हीं िारों तत्त्वों के द्रारा अकाश तत्त्व र्में सृवष्ट का कायलभ करती ह। वपण्ड के
रूप र्में ऄपरा-प्रकृ वत ही ह। वजस प्रकाशर्मान क्षेर र्में र्मैं खड़ा ह,ाँ वह अकाश तत्त्व ह।

उपर वलखे ऄनर व के बाद करछ क्षणों र्में हर्मारी अाँखें ऄपने अप बन्द हो गइ र्मैं ऄपने अपको

र गया जब यह ऄनर व अया– र्मैं एक बड़े वछि से नीिे की ओर देख रहा ह,ाँ नीिे प्रकाश रा हुअ
ह। वजस क्षेर र्में र्मैं वथथत हाँ (वछि के उपरद, वहााँ का प्रकाश नीिे के प्रकाश की ऄपेक्षा ज्यादा तेज
प्रकाश ह। हर्मारी दृवष्ट वछि पर ही के वन्ित ह।, ईसी सर्मय र्मैं कहता ह,ाँ ‚यह वछि तो खल र गया, त ी
ऄनर व सर्माप्त हो गया ‛ र्मैं होश र्में अ गया और र्मैंने ऄपनी अाँखें खोल दी र्मैं ऄब ी वबना वहले-डरले
ऄपने असन पर लेटा हुअ था ज।से ही र्मैंने ईठकर ब।ठने का प्रयास वकया, र्मैं विर बेहोश होकर वगर
पड़ा करछ सर्मय बाद होश अने पर जब र्मैंने दबर ारा ईठकर ब।ठने का प्रयास वकया, विर ि‍कर अ गया
और र्मैं बेहोश हो गया आस प्रकार र्मैं तीन बार बेहोश हुअ र्मैं नहीं सर्मझ पा रहा था वक ऐसी वक्रया ‍यों
हो रही ह।? लग ग डेढ़-दो घण्टे बाद र्में ईठकर ब।ठ गया विर वकसी कायलभ के वलए िल वदया िलते
सर्मय ऐसा लग रहा था र्मानों र्मैं ऄपने शरीर र्में नहीं हाँ हर्मारा शरीर एक लाश के सर्मान ऄपने अप िल
रहा था
अथय– र्मैं वछि के उपर िला गया ह,ाँ आसवलए वछि से नीिे की ओर देख रहा हाँ उपर का क्षेर परा-
प्रकृ वत का ह।, वछि से वनिला क्षेर ऄपरा-प्रकृ वत का ह। ऄनर व र्में सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत प्रकाश थवरूप र्में
वदखाइ दे रही ह। जब ऄपरा-प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान हो जाती ह।, तब ईस योगी के वलए सम्पणर लभ ऄपरा-
प्रकृ वत प्रकावशत (ज्ञान के प्रकाश सेद हो जाती ह। परा-प्रकृ वत के क्षेर का प्रकाश ऄवधक तेज होने का
कारण ह।– परा-प्रकृ वत र्में सत्त्वगणर ववशि
र ता को वलए हुए ह। तथा ऄपरा-प्रकृ वत र्में सत्त्वगणर ववशि र ता को
छोड़े हुए ह। आस ऄनर व र्में र्मैं थवयं परा-प्रकृ वत र्में ऄववथथत हो गया हाँ परा-प्रकृ वत के क्षेर र्में ऄपरा-

तत्त्वज्ञान 318
प्रकृ वत बीज रूप र्में ववद्यर्मान हो जाती ह।, जब वह र्महाप्रलय को प्राप्त होती ह। यह ऄनर व योगवनिा र्में
अया था

ददव्यदृदि
11 र्मािलभ को दोपहर को ्यान करने के वलए ब।ठा तो र्मरझे ि‍कर अ गया और र्मैं ऄपने असन पर
वगर पड़ा र्मझर े लगा हर्मारा वसर गोल-गोल घर्मर रहा ह। हर्में होश नहीं रहा, ईसी सर्मय हर्में ऄनर व अया
वक र्मैं एक अाँख देख रहा हाँ अाँख खल र ी हुइ ह। तथा अाँख का अकार कािी बड़ा ह। आस अाँख के
ऄन्दर एक और अाँख प्रकट हो गइ करछ क्षणों र्में आस अाँख के ऄन्दर ी एक और अाँख वदखाइ देने
लगी करछ क्षणों तक र्मैं आन तीनों अाँखों को देखता रहा, विर ऄनर व सर्माप्त हो गया और विर र्मझर े होश
अ गया र्मैं ईठकर ब।ठने लगा त ी असन पर ि‍कर खाकर वगर पड़ा और बेहोश-सा हो गया, तब यह
ऄनर व अया
र्मैं ऄत्यन्त तेज प्रकाश वाले क्षेर र्में लेटा हुअ हाँ वह क्षेर गोल-गोल घर्मर रहा ह। र्मैं ईस तेजथवी
प्रकाश को देख रहा हाँ जब होश अया तब र्मैंने विर ईठकर ब।ठने की कोवशश की र्मगर र्मैं विर वगर कर
बेहोश हो गया
अथय– तीनों अाँखें क्रर्मशः ौवतक, सक्ष्र र्म और कारण शरीर की थी सक्ष्र र्म और कारण शरीर की
अाँखों को वदव्य दृवष्ट कहते हैं दसर रे शब्दों र्में– तीनों अाँखें सक्ष्र र्म, कारण और र्महाकारण थी कारण
शरीर ही ऄवधक शि र होकर र्महाकारण बन जाता ह। ऄथवा कहते हैं वक करछ परू र ष र्महाकारण शरीर को
नहीं र्मानते हैं, ‍योंवक कारण शरीर ही बाद र्में र्महाकारण कहलाता ह। दसर रे ऄनर व र्में र्मैं परा-प्रकृ वत के
क्षेर र्में गोल-गोल घर्मर रहा हाँ
ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत के बीि र्में वकसी प्रकार का वछि नहीं ह।, ऐसा दृश्य र्में वसिलभ ावसत
होता ह। र्मैंने शाथर र्में वकसी जगह पढ़ा था वक क्षीर सागर के वनिले तल पर एक वछि ह।, आस वछि से
नीिे के लोक र्में जाया जाता ह। वाथतव र्में परा-प्रकृ वत के ऄन्दर ही सीवर्मत क्षेर र्में ऄपरा-प्रकृ वत सृवष्ट का
कायलभ करती रहती ह। दोनों प्रकृ वतयों के बीि र्में घनत्व का ऄंतर ह।

तत्त्वज्ञान 319
आकाश तत्त्व में अवदस्थत
8 जल र ाइ को सबर ह ्यानावथथा र्में र्मैंने देखा वक र्मझर े ऄपने सार्मने ऄत्यन्त व्यापक अकाश वदखाइ
दे रहा ह। ईस अकाश के र्म्य र्में वथथर पारदशी गेंद के अकार र्में वायर तत्त्व वथथत ह। र्मैं िष्टा रूप से आन
दोनों तत्त्वों को देख रहा हाँ र्मैं बोला, ‚यह तो अकाश तत्त्व के ऄन्दर वायर तत्त्व वथथत ह। ‛ त ी वायर
तत्त्व का अकार धीरे -धीरे बढ़ने लगा तथा अकाश के ऄन्दर वायर गवत करने लगी र्मैं वायर तत्त्व का गवत
करने का तरीका देख रहा था, त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया करछ क्षणों बाद विर ऄनर व अया वायर
तत्त्व वथथर होकर ऄत्यन्त छोटे अकार र्में अकाश तत्त्व र्में वथथत हो गया
जल
र ाइ के दसर रे सप्ताह र्में ऄनर व अया– र्मैं थवच्छ अकाश तत्त्व को देख रहा हाँ ईस व्यापक
अकाश र्में वायर तत्त्व नींबर के अकार का जड़ व गन्दा-सा (अकाश की ऄपेक्षाद वदखाइ दे रहा ह।
अथय– अकाश तत्त्व व वायर तत्त्व दोनों ही जड़ रूप र्में वदखाइ दे रहे थे वायर तत्त्व का बरर ा हाल था

स्थूल शरीर का ददव्य प्रकाश रूप में पररवदतयत होना


10 ऄगथत सायंकाल को र्मैं ्यान करने ब।ठा र्मैंने ऄपनी अाँखें बन्द ही की थी वक त ी वदखाइ
वदया वक गदलभन से नीिे का हर्मारा थथल र शरीर ऄदृश्य हो गया र्मैं जोर से बोला, ‚यह ‍या हो गया, हर्मारा
शरीर कहााँ िला गया?‛ र्मगर र्मैं ऄपनी अाँखें खोल नहीं सका, त ी हर्मारा वसर ी ऄदृश्य हो गया र्मैंने
देखा वक हर्मारा थथल र शरीर पणर लभ रूप से ऄदृश्य हो गया ह। र्मैं ऄपने ऄदृश्य शरीर से दरर खड़ा था (सक्ष्र र्म
शरीर र्मेंद, र्मगर र्मझर े थथल र शरीर वदखाइ नहीं वदया विर र्मझर े ऄपनी याद नहीं रही ऄथालभत् सर्मावध र्में वथथत
हो गया करछ सर्मय बाद हर्में ऄपने ऄवथतत्व का ान होने लगा ऄथालभत् सर्मावध टरटने लगी र्मैंने देखा वक
हर्मारा थथल र शरीर ही नहीं ह। वजस थथान पर थथल र शरीर ्यान के वलए ब।ठा था, ईस थथान पर वदव्य तेज
प्रकाश वथथत था ऄपने ऄन्दर र्मझर े झटका-सा लगा वक हर्मारा थथल र शरीर कहााँ िला गया? ईसी सर्मय
वदव्य तेज प्रकाश थथल र शरीर के रुप र्में पररववतलभत होने लगा विर र्मैं थथल
र शरीर र्में प्रवेश कर गया, ऄब र्मैं
अाँखें खोले ब।ठा था, विर ी हर्मारा थथल र शरीर पत्थर के सर्मान वथथर था करछ सर्मय बाद हर्में िेतना सी
अइ, तब र्मझर े लगा वक हर्मारा थथल र शरीर वायर के सर्मान हकका ह।

तत्त्वज्ञान 320
वप्रय पाठकों! ऐसा ऄनर व जीवन र्में पहली बार अया, बड़ी ववविर साक्षात् ऄनर वर त थी ्यान
करने के वलए र्मैंने अाँखें बन्द ही की थी वक त ी र्मझर े ऐसी ऄनर वर त हुइ वक र्मैं ्यान नहीं कर रहा था
ऄथालभत् जा्र त ऄवथथा र्में था विर र्मैंने ऄपने अपको थथल र शरीर से दरर खड़ा पाया ऄथालभत् सक्ष्र र्म शरीर
द्रारा ऄलग हो गया ऄब र्मैं सक्ष्र र्म शरीर से थथल
र शरीर को देखने का प्रयत्न करने लगा जब सर्मावध टरटने
लगी तब ऄपने ऄवथतत्व का ान हुअ (ऄथालभत् सक्ष्र र्म शरीर र्मेंद ईस सर्मय र्मैंने देखा (आस सक्ष्र र्म शरीर र्में
वथथत थोड़ी दरर ी पर खड़ा थाद वक थथल र शरीर के थथान पर छोटे से अकार र्में वदव्य प्रकाश वथथत हो गया
ह। ऐसा आसवलए वदखाइ वदया, ‍योंवक वित्त की स ी प्रकार की वर र्मयााँ अरोह व ऄवरोह क्रर्म से शि र हो
रही हैं ईसी के ऄनसर ार थथल र शरीर से लेकर वित्त तक, वित्त से लेकर थथल र शरीर तक सर्मान शवर ि होनी
िावहए यह शवर ि थथल र नेरों से नहीं वदखाइ देती ह।, ‍योंवक ज्ञान का प्रकाश सद।व वदव्य दृवष्ट से वदखाइ
देता ह। जब योगी के वलए सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान होकर विर ज्ञान के प्रकाश से प्रकावशत
हो जाती ह। ईस सर्मय थथल र जगत् ईसे वदखाइ ही नहीं देता ह।, ईसे वसिलभ प्रकाश ही प्रकाश वदखाइ देता
ह। जब वह व्यत्र थान की दशा र्में होता ह। तथा संसार र्में व्यवहार करता ह।, आससे ईसकी ऄवथथा र्में वकसी
प्रकार का िकलभ नहीं पड़ता ह।, ‍योंवक ईसका वित्त इश्वर के वित्त र्में ऄन्तर्मलभख र ी रहता ह। ऄथालभत् संसारी
र्मनष्र यों को योगी का प्रकावशत शरीर क। से वदखाइ दे सकता ह।? ईनके वित्त र्में (ससं ारी र्मनष्र यों के द रज तर्म
का र्म।ल व ऄववद्या का अवरण रहता ह।, यही ऄवरोध होता ह। तत्त्वज्ञानी परू र ष का थथल र जगत् र्में थथल र
शरीर ही रहेगा, र्मगर यह थथल र शरीर ज्ञान के प्रकाश से प्रकावशत होता ह।, त ी जीवन्र्मक्त र ऄवथथा
पररप‍व होती ह। योगी ही दसर रे के ववषय र्में देख तथा जान सकता ह। ससं ारी र्मनष्र य ऐसा नहीं कर सकता
ह।

सहस्त्र-दल कमल (सहस्त्रार चक्र) का दवकास होना शुरू हुआ


यह ऄनर व ऄगथत र्माह र्में अया र्मैंने देखा वक ऄतं ररक्ष बहुत कर्म घनत्व वाला, थवच्छ तथा
वनर्मलभल ह। आसी ऄंतररक्ष के र्म्य र्में उपर की ओर िरल की बहुत बड़ी कली ह। कली का थवरूप बहुत
बड़ा ह। ऐसा लगता ह। वक जब यह कली ववकवसत होगी, तब िरल का थवरूप बहुत ही बड़ा होगा कली
का उपरी ाग खल र ने-सा लगा ह।, कली के नीिे छोटी सी डण्डी ी थी

तत्त्वज्ञान 321
अथय– यह कली सहथर-दल की ह।, ऄ ी आसका ववकास नहीं हुअ ह। कली का उपरी ाग खल र ने
लगा ह। ऄब यह कली शीघ्र ही ववकवसत होनी शरू र हो जाएगी सहथर-दल कर्मल सहथरार िक्र ह। ऄब
यह िक्र खल र ने लगा ह। ऄभ्यास के ऄनसर ार आसका ववकास होता जाएगा सहथर-दल कर्मल के ववकास
का ऄथलभ ह। परा-प्रकृ वत का ववकास ज।से-ज।से आस कर्मल का ववकास होगा, व।स-े व।से साधक के वलए परा-
प्रकृ वत का ी ववकास होगा

सहस्त्र-दल कमल का दवकास


यह ऄनर व 17ऄ‍तबर र को अया हर्में लग ग एक िीट लम्बी कर्मल की नाल व ईसके उपरी
ाग पर तीन-िार पत्ते लगे वदखाइ वदए ईसके उपर िरल वखला था हर्मारी दृवष्ट ईस कर्मल की वखली
हुइ पंखवर ड़यों की ओर गइ ईस िरल र्में खल र ी हुइ ऄनवगनत ढेरों पंखवर ड़यााँ थी र्मैं ईन पंखवर ड़यों के उपर
खड़ा होकर अगे की ओर गवत करने लगा ईस सर्मय ऐसा लग रहा था र्मानों ऄत्यन्त ववथतृत क्षेर र्में
खल र ी हुइ पंखवर ड़यााँ ि। ली हुइ हैं ऄथालभत् ईस वखले हुए िरल की सीर्माएं ऄनन्त थी र्मैंने िरल पर खड़े होकर
िारों ओर दृवष्ट दौड़ाइ हर्में िरल की वखली हुइ (ववकवसतद पंखवर ड़यााँ ही सवलभर वदखाइ दी र्मैं िरल के
उपर तीव्र गवत से अगे बढ़ता िला जा रहा था विर एक जगह हर्में ठहरना पड़ा, ‍योंवक अगे की ओर
करछ पंखवर ड़यााँ बन्द थी र्मैंने एक बार विर िारों ओर दृवष्ट दौड़ाइ र्मझर े िरल की पंखवर ड़यों के ऄवतरर‍त
करछ ी वदखाइ नहीं दे रहा था हर्मारा ऄनर व सर्माप्त हो गया
यह ऄनर व सहथर-दल कर्मल (सहस्त्रार िक्रद का ह। शाथरों के ऄनसर ार आस कर्मल के िरल र्में एक
हजार पंखवर ड़यााँ (दलद होती हैं र्मैंने पंखवर ड़यों की वगनती तो नहीं की र्मगर आतना ऄवश्य कह सकता हाँ वक
एक हजार पंखवर ड़यााँ ऄवश्य होंगी आसवलए आस कर्मल के वलए सहथर (हजारद शब्द का प्रयोग वकया गया
ह। आस िरल की पंखवर ड़यों का रंग हकका पीला, हकका नीला तथा हकका लाल (गल र ाबीद था यह िरल
ऄ ी परर ी तरह से ववकवसत नहीं हुअ था, ‍योंवक िरल के र्म्य र्में करछ पंखवर ड़यााँ बन्द थी शाथरों के
ऄनसर ार आस सहथर-दल कर्मल पर परर्म-वशव ् ऄपनी परा-शव‍त के साथ ववराजर्मान रहते हैं यही परर्म-्
वशव इश्वर ववधाता व जीवों के परर्म् वपता हैं यह सहथर-दल कर्मल परा-प्रकृ वत र्में पणर लभ रूप से व्याप्त
रहता ह। जब ऄभ्यास के द्रारा साधक के वित्त र्में वनर्मलभल ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय होकर पदाथलभ के ववशेष
रूप का साक्षात्कार हो जाता ह।, विर करछ सर्मय तक ऄभ्यास करने के बाद (वववेक-ख्यावत के बादद

तत्त्वज्ञान 322
सषर प्र तावथथा र्में वथथत हुअ सहथर-दल कर्मल का पणर लभ ववकास होना सम् व हो पाता ह। ऐसा त ी होता
ह। जब साधक के वित्त र्में वथथत व्यत्र थान के संथकार पर-व।रा‍य व ऄभ्यास के द्रारा नष्ट होने लगते हैं यह
जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा होती ह। ज।से-ज।से आस सहथर-दल कर्मल का ववकास होना शरू र होता ह।, व।स-े व।से
साधक के वलए परा-प्रकृ वत का ववकास होना शरू र हो जाता ह।, ‍योंवक आस सहथर-दल कर्मल का सीधा
सम्बन्ध परा-प्रकृ वत की व्यापकता से ह। जब सहथर-दल पणर लभ ववकवसत हो जाता ह। ऄथालभत् सर्मथत
पंखवर ड़यााँ खल
र जाती हैं, ईस सर्मय ऄभ्यासी के वलए परा-प्रकृ वत का पणर लभ ववकास हो जाता ह।
ईन साधकों के वलए एक अवश्यक बात बता द,ाँर वजन साधकों का ब्रह्मरन्र खल र िक र ा ह। तथा
करण्डवलनी ी पणर लभ यारा करके वथथर हो िक र ी ह। ऐसे साधक यह न सर्मझें वक ईनका सहथरार िक्र खल र ा
हुअ ह। वतलभर्मान सर्मय र्में बहुत से साधक गरू
र पद वथथत हैं जो स।कड़ों वशष्य बनाकर बड़े -बड़े अश्रर्मों र्में
रहते हैं ऐसे साधकों की वनववलभककप सर्मावध तो लगती ह।, र्मगर सहथरार िक्र पणर लभ रूप से ऄववकवसत
ऄथालभत् सषर प्र तावथथा र्में रहता ह।
सहथरार िक्र जीवन्र्मक्त र ऄवथथा र्में खल र ता (ववकवसतद ह। सहथरार िक्र (सहथर-दल कर्मलद
खल र ने का ऄथलभ– जीव का जीवत्व पीछे छरट गया तथा जीव वशव रूप र्में वथथत हो जाता ह। ऄथालभत् वशवत्व
की पदवी प्राप्त कर लेता ह। ववदेह र्म‍र त ऄवथथा र्में वित्त का ऄरूप ी नहीं रहता ह। ब्रह्मरन्र खल र ने पर
जो ऄत्यन्त तेज प्रकाश वदखाइ देता ह। वह ब्रह्म के थवरूप का प्रकाश नहीं होता ह। ज।सा वक कहा जाता
ह।– यह ब्रह्म का प्रकाश ह।, बवकक यह ऄहक ं ार की सावत्वक सश‍त वृवत्त प्रकाश रूप र्में होती ह। यही
वृवत्त ब्रह्म की ओर से ईसके थवरूप का वनदेशन करती ह। आस ऄवथथा र्में साधक ऄहक ं ार की वर र्म पर
प्रवेश करता ह। आस ऄवथथा र्में तत्त्वज्ञान की प्रावप्त के वलए साधक को ढेरों वषलभ ऄथवा कइ जन्र्म लग
जाते हैं तत्त्वज्ञान की प्रावप्त प्रकृ वतलय ऄवथथा को प्राप्त वकए हुए (जन्र्म से हीद साधकों को होती ह।
आसवलए ब्रह्मरन्र खल र ने पर साधक को यह नहीं सर्मझना िावहए वक ईसका सहथरार िक्र खल र गया ह।
सहथरार िक्र का सम्बन्ध इश्वर के लोक (परा-प्रकृ वतद से ह। सहथरार िक्र खल र े हुए योगी आस ससं ार र्में
वतलभर्मान सर्मय र्में र्मार करछ ही होंगे
सहथरार िक्र र्में एक हजार दलों का कर्मल ह।, यह जो कहा गया ह। वह आस प्रकार ह।– र्मल र ाधार
िक्र से अज्ञा िक्र तक 50 दल ऄथवा 50 र्मारकाएाँ हैं सहथरार िक्र र्में करल 20 वववर हैं, एक वववर र्में
50 र्माराकाएाँ वगनी जाएाँ तो एक हजार दल हो जाते हैं सर्मावध ऄवथथा र्में र्मैंने आन वववरों को देखा ह। ये
वववर काँर ए ज।से थवरूप र्में वदखाइ देते हैं आन वववरों र्में ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक संथकार रे रहते हैं आन

तत्त्वज्ञान 323
‍लेशात्र्मक संथकारों को साधक धीरे -धीरे ोगकर नष्टकरता ह। वजस वववर के ‍लेशात्र्मक संथकार
ोगकर नष्ट कर लेता ह।, तब आस वववर के ऄन्दर सवलभर ज्ञान का प्रकाश र जाता ह। यह वक्रया साधक
्यानावथथा र्में देखता ह। आसी प्रकार धीरे -धीरे संथकारों को ोगकर वववर ज्ञान के प्रकाश से रते रहते हैं
आन वववरों को रने र्में साधक को वषों लग जाते हैं आन वववरों के र जाने पर सहथर-दल कर्मल पणर लभ
ववकवसत हो जाता ह। ऐसा जीव जीवत्व त्याग कर जीवेश्वर बन जाता ह। ऄथालभत् वशवत्व की पदवी प्राप्त
कर लेता ह।, आसे ही पणर लभता कहते हैं आस सहथरार िक्र के ववषय र्में र्मैं पहले ी वलख िक
र ा हाँ
सहथरार िक्र के पणर लभ ववकास के वलए अवश्यक ह।– तर्मोगणर ी ऄहक ं ार को पणर लभ रूप से त्याग देना
िावहए परन्तर आस ऄहक ं ार का त्याग त ी हो सकता ह।, जब ऊतम् रा-प्रज्ञा के द्रारा थथल र से लेकर प्रकृ वत
पयलभन्त तक सारे पदाथों का एक साथ साक्षात्कार हो जाता ह। विर वववेक-ख्यावत के ईत्पन्न होने पर
अत्र्मा ऄनात्र्मा ववषयक ज्ञान होने से तर्मोगणर ी ऄहकं ार क्षीण होने लगता ह। विर धीरे -धीरे ऄभ्यास के
द्रारा तर्मोगणर ी ऄहकं ार (जो देहाव र्मान का कारण ह।द से वनवृत्त हो जाता ह।, तब सावत्वक ऄहक ं ार का
ईदय होता ह। आसी सावत्वक ऄहक ं ार का ववथतार होने पर सहथर-दल कर्मल का ववकास होता ह। आसवलए
ऄभ्यासी को िावहए वक देहाव र्मान का कारण ऄथालभत् सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत व ईससे बने पदाथों के पणर लभ
रूप ऄहर्म् र्मर्म् वाले ाव से वनवृत होकर परर्म् ऄहकं ार (सत्त्वगणर ीद का ईदयकर पणर लभ ववथतार (ववकासद
करना होगा, त ी सहथर-दल कर्मल का पणर लभ ववकास होना सम् व हो पायेगा
र्मैं ईन ऄभ्यावसयों के वलए दो शब्द वलखना िााँहगा वजनके वित्त र्में ऊतम् रा-प्रज्ञा का ईदय हो
िकर ा ह। वसिलभ एक-दो बार प्रज्ञा के ईदय हो जाने पर (साक्षात्कार हो जाने परद व प्रकृ वत के पदाथों के
ववशेष रूप का साक्षात्कार हो जाने पर जीव को जीवत्व से र्म‍र त न सर्मझें, बवकक सर्मावध का ऄभ्यास
करते रहें वित्त र्में प्रज्ञा का ईदय होना व वछपना (ऄथत होनाद कइ बार होता ह। तथा प्रज्ञा ऄलग-ऄलग
वदशाओ ं से ईदय होकर ऄलग-ऄगल वदशाओ ं र्में ऄथत होती वदखाइ देती ह। आस वक्रया से वित्त की
वनिली व उपरी वर र्म (थथल र से लेकर वित्त तकद अरोह-ऄवरोह क्रर्म से सर्मान रुप से शवर ि होती रहती
ह। यह वक्रया तब तक िलती रहती ह। जब तक अरोह-ऄवरोह क्रर्म के सर्मान शवर ि नहीं हो जाती ऄथालभत्
ईच्ितर्म ऄवथथा और थथरल ऄवथथा सर्मान रूप से शि र नहीं हो जाती ह। यह प्रवक्रया वषों तक िलती
रहती ह। आस ऄवथथा र्में ज।से-ज।से वित्त की शि र ता बढ़ेगी, व।से-व।से जीव के वलए परा-प्रकृ वत का ववकास
सम् व होगा जीव और वित्त की सर्मान शि र ता होने पर सहथरार िक्र का पणर लभ ववकास हो जाता ह।

तत्त्वज्ञान 324
सहथर-दल कर्मल के पणर लभ ववकास के वलए थथल र व सक्ष्र र्म रूप से सम्पणर लभ संसार से असव‍त का
त्याग करना होगा र्माता-वपता, पत्नी-परर , ाइ-बहन, वर्मर-ररश्तेदार अवद ऄभ्यासी के वलए बन्धन
थवरूप ही हैं ऄत आन स ी के र्मोह से उपर ईठना होगा वरना परा-प्रकृ वत का ऄभ्यासी के ऄन्दर
ऄवतरण व ईसका ववकास होना सम् व नहीं हो पायेगा आन स ी से ऄहर्म् र्मर्म वाला बन्धन तोड़ना ही
होगा बन्धन तोड़ते सर्मय बन्धन अपके र्मागलभ र्में ऄवरोध ी डाल सकता ह।, परन्तर आस ऄवरोध को पीछे
छोड़कर अगे बढ़ना होगा आसके बाद ही जीव का जीवत्व नष्ट होगा और तब सहथर-दल कर्मल का पणर लभ
ववकास होगा

सहस्त्र-दल का कमल पूणय रूप से दवकदसत हो गया


यह ऄनर व 29 नवम्बर को अया र्मैं देख रहा था वक सहथर-दल कर्मल ववथतृत क्षेर र्में
ववकवसत हो गया ह। ईसी सर्मय थपष्ट वदखाइ वदया वक सहथर-दल कर्मल के र्म्य र्में िार पंखवर ड़यााँ बन्द
हैं आन पखं वर ड़यों पर हर्मारी दृवष्ट पड़ते ही एक-एक करके िारों पख
ं वर ड़यााँ खल
र गइ पख
ं वर ड़यााँ खल
र ते ही
र्म्य ाग र्में ब।ठा हुअ एक परू र ष वदखाइ वदया आस परू
र ष का थवरूप थपष्ट नजर नहीं अ रहा था र्मैं आस
परूर ष को देखने का प्रयास कर रहा था
अथय– कर्मल के र्म्य र्में पखं वर ड़यों के ऄन्दर ब।ठा हुअ परू र ष हर्मारा ही थवरूप ह। आस ऄनर व र्में
वदखाया गया वक हर्मारे वलए ऄब आस सहथर-दल कर्मल का ववकास हो गया ह। आस ऄनर व का ऄथलभ र्मैं
ऄनर व र्में ही सर्मझ रहा था वक र्मैंने परा-प्रकृ वत का ववकास कर वलया ह। र्मैंने ऄपनी अाँखें बन्द की, विर
इश्वर से प्राथलभना की हे इश्वर! र्मैं अपको प्रणार्म करता ह,ाँ कृ पया अप हर्में बताएं वक जो ऄनर व हर्मने
देखा ह।, ‍या वह सत्य ह।? विर ी अपके द्रारा सनर ना िाहता हाँ ‍या अप र्मेरी अवाज सनर रहे हैं?
अवाज अइ, ‚हााँ, र्मैं तम्र हारी अवाज सनर रहा हाँ और देख ी रहा हाँ वक तरम्हें जो यह ऄनर व अया,
आस ऄनर व वाली ऄवथथा करछ वदनों बाद पररप‍व होगी संसार र्में थोड़ा-सा दःर ख तो वर्मलता ही रहता
ह। श्री रार्म और कृ ष्ण ने ी ल र ोक पर अकर बहुत दःर ख ईठाये थे ‍या जानना िाहोगे? लो थवयं जान
लो, कृ ष्ण के ववषय र्में जानो ‛ ईसी सर्मय र्मैं कृ ष्ण के ववषय र्में देखने लगा– वासदर वे जी कृ ष्ण को टोकरी
र्में रखे रावर के सर्मय यर्मनर ा नदी पार कर रहे हैं त ी अवाज अइ– ‚ऄरे ! यह ‍या कर रहे हो, दृश्य
देखने लगे, वसिलभ ऄंतीवन्िय ज्ञान से जानों वक कृ ष्ण ने वकतने दःर ख सहे हैं रार्म तो राजा के परर बने विर

तत्त्वज्ञान 325
ी दःर ख ईठाना पड़ा ईन्हें बिपन र्में दःर ख नहीं वर्मला, र्मगर बाद र्में जंगल र्में बहुत दःर ख ईठाये ऄन्त र्में
ऄपनी पत्नी सीता को ी त्यागना पड़ा ‛ विर अवाज अनी बन्द हो गइ और रार्म और सीता की
अवाज अने लगी रार्म कह रहे थे–‚सीते! र्मझर े गलत र्मत सर्मझना, ऄब तर्मर को त्यागने का सर्मय अ
गया ह। शायद तर्मर हर्मारी बात को नहीं सर्मझ रही होगी, तो ऄपने वनज थवरूप से पछर लो ‛ सीता बोली–
‚हााँ थवार्मी! हर्में र्मालर्मर ह।, वववध का ववधान यही ह। हर्म वबछरड़ कहााँ रहे हैं, हर्में संसार के सार्मने तर्मर से दरर
जाना ह। यह कायलभ लक्ष्र्मण को सौंप दो, र्मझर े जंगल र्में छोड़ अए, शेष कायलभ र्मैं खदर कर लंगर ी ‛ ईसी सर्मय
र्मैं सोिने लगा वक ऐसा तो शाथरों र्में नहीं वलखा ह। त ी श्रीकृ ष्ण की अवाज अने लगी वह राधा से
कह रहे थे– ‚हर्मारा तम्र हारा साथ तो ऄनन्त काल से ह।, ‍या तरम्हें याद नहीं ह।? परन्तर ऄब वबछरड़ने का
सर्मय अ गया ह।, यह कष्ट तम्र हें सहना ही होगा ऄब हर्मारा सर्मय करछ लीलाएं करने का अ गया ह।
तम्र हारे ववरह के सर्मय र्मैं तम्र हारे पास ही रहगाँ ा (गढ़र शब्दों र्में कहाद ‛ राधा की अवाज वसिलभ वससकने की
अ रही थी विर र्मैंने ऄपनी अाँखें खोल दी और सोिने लगा वक ऐसा ी शाथरों र्में क ी नहीं पढ़ा ह। हो
सकता ह। वाकर्मीवक जी व व्यास जी ने ये शब्द न वलखें हों, नहीं तो हर्में ऐसे शब्द नहीं सनर ाइ देते इश्वर
हर्में आन शब्दों के द्रारा वशक्षा ‍यों देते? रार्म और कृ ष्ण का ऄपनी-ऄपनी संवगनी त्यागने के ववषय र्में ही
‍यों बताया, यह हर्मारी सर्मझ र्में नहीं अया
सहथर-दल कर्मल ज्ञान का अयतन ह।, यही परा-प्रकृ वत या इश्वर का लोक ह। ऄनर व र्में सहथर-
दल कर्मल पणर लभ ववकवसत होते हुए वदखाया गया ह। सहथर-दल कर्मल के र्म्य र्में जो परू र ष ब।ठा हुअ
वदखाइ वदया वह परू र ष जीवेश्वर रूप र्में र्मैं ही हाँ आसका ऄथलभ ह। वक जीव ने ऄपना जीवत्व पीछे छोड़
वदया ह। तथा ऄपने वाथतववक थवरूप जीवेश्वर रूप र्में वथथत होकर वशवत्व की पदवी प्राप्त करने वाला
ह। यही थथान परर्म-वशव
् व पराशव‍त का ह। जीव इश्वर का ऄंश ह।, आसवलए यह इश्वर के सर्मान ह। जब
जीव ऄज्ञानता वश ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपनी ोग वथतर सर्मझकर ोगने लगता ह।, तब जीव जीवत्व को
प्राप्त हो जाता ह। तथा ऄभ्यास के द्रारा वववेक-ख्यावत ऄवथथा प्राप्त होने पर ऄपरा-प्रकृ वत का त्याग
करने लगता ह। ऄपरा-प्रकृ वत से असव‍त की सर्मावप्त होने पर जीव का जीवत्व छरट जाता ह।, विर
जीवेश्वर रूप को प्राप्त हो जाता ह। आस ऄवथथा र्में जीव को इश्वर के सर्मान सम्पणर लभ शव‍तयााँ प्राप्त हो
जाती हैं आसका ऄथलभ यह नहीं सर्मझ लेना िावहए वक वह इश्वर बन जाता ह। सद।व याद रखना िावहए वक
जीव इश्वर का ऄंश र्मार ह।, आसवलए सम्पणर लभ शव‍तयााँ इश्वर की ऄपेक्षा ऄंशर्मार ही प्राप्त होती हैं इश्वर
को शव‍तयााँ वनत्य प्राप्त हैं, जीव को शव‍तयााँ पररणार्म द्रारा प्राप्त हुइ हैं जगत् की ईत्पवत्त-वथथवत प्रलय
का ऄवधकार वसिलभ इश्वर के ही पास ह।, जीव को प्राप्त नहीं होता ह। जीवेश्वर को ि।तन्य ऄलौवकक

तत्त्वज्ञान 326
ऄक्षरात्र्मक देह (र्महाकारण शरीरद की प्रावप्त होती ह। यह ि।तन्य ऄलौवकक ऄक्षरात्र्मक देह इश्वर के
सर्मान थवरूप वाली होती ह। यह ऄवथथा र्मझर े ऄभ्यासानसर ार ववष्य र्में क्रर्मश: धीरे -धीरे प्राप्त होगी

ईश्वर के समान स्वरूप व शदक्तयों का प्रा‍त होना


यह ऄनर व 5 वदसम्बर को अया र्मैं लेटा हुअ ह,ाँ र्मेरा थवरूप ऄत्यन्त ववशाल व ऄनन्त सीर्मा
वाला ह। र्मझर े सवलभर ऄपना ही शरीर वदखाइ दे रहा ह। र्मैं ऄपना शरीर नाव तक ही देख पा रहा ह,ाँ नाव
से वनिला ाग हर्में नहीं वदखाइ दे रहा ह। नाव के पास ही िौड़े काँर ए के अकार र्में ऄपरा-प्रकृ वत वदखाइ
दी काँर ए के ऄन्दर प्रकाश (थथल र -साद रा हुअ ह। ईसी सर्मय र्मैं बोला, ‚लो आसका ोग करो ‛ हर्मारे
द्रारा आन शब्दों को कहते ही हर्मारे दावहने ओर के वक्ष से हर्मारे ही सर्मान तेजथवी वबककरल छोटा-सा
र्मानव अकार प्रकट हो गया यह र्मानव अकार हर्मारे शरीर के उपर िलता हुअ नाव की ओर जाने
लगा र्मैं ईस र्मानव अकार को देखते ही बोला, ‚यह तो र्मैं ही ह‛ाँ , जबवक ईस र्मानव अकार का पीठ
वाला ाग वदखाइ दे रहा था वह र्मानव अकार हर्मारे पेट के उपर िलता हुअ (वक्ष-थथलद नाव की
ओर जा रहा था नाव के पास पहुिाँ कर वह कािी िौड़े काँर ए नर्मर ा क्षेर के ऄन्दर वथथत ऄपरा-प्रकृ वत के
उपर पेट के बल वगर पड़ा ऄथालभत् काँर ए के ऄन्दर वगर पड़ा ऄपरा-प्रकृ वत के उपर वगरने पर ईसने सम्पणर लभ
ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने थवरूप के (शरीरद नीिे दबा वलया आसका र्माँहर ऄपरा-प्रकृ वत की ओर (नीिे की
ओरद था र्मझर े ईस र्मानव अकार का पीठ वाला ाग वदखाइ दे रहा था, त ी दृश्य बदल गया वबककरल
ऄपरा-प्रकृ वत ज।सा दृश्य ईससे हटकर दसर रा बना गया आस दृश्य र्में सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत के उपर एक
काला सपलभ व्यास रे खा के सर्मान सीधा लेटा हुअ था आस काले सपलभ का र्माँहर नीिे की ओर ऄथालभत् ऄपरा-
प्रकृ वत की ओर था सपलभ के शरीर पर दो-तीन र्मोटी-र्मोटी सिे द रे खाएं अड़े रूप र्में थी र्मैं यह दृश्य देख
कर हाँस पड़ा, ‍योंवक वजस प्रकार र्मझर से प्रकट हुए र्मानव ने सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने नीिे दबा
वलया था, ठीक ईसी प्रकार आस काले सपलभ ने सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को नीिे दबा रखा था यह दोनों दृश्य
सर्माप्त हो जाने के बाद ी र्मैं ऄत्यन्त ववशाल व ऄनन्त थवरूप र्में ऄथालभत् सम्पणर लभ क्षेर र्में लेटा हुअ था
ईसी सर्मय हर्में ऄपने थथलर शरीर की याद अ गइ र्मैंने देखा वक र्मैं अाँखें बन्द वकए हुए (थथल र शरीर र्मेंद
ब।ठा था हर्में ऄनर वर त हो रही थी वक क्षिर थथल र शरीर व ऄनन्त ववशाल थवरूप दोनों र्में र्मैं ही हाँ बड़ी
ववविर ऄनर वर त थी ऄत्यन्त ववशाल थवरूप से र्मैं सम्पणर लभ क्षेर र्में वथथत था आसी ववशाल थवरूप के
ऄन्दर ऄपरा-प्रकृ वत र्मार थोड़े से क्षेर के ऄन्दर वथथत थी आसी ऄपरा-प्रकृ वत र्में ऄत्यन्त छोटे से रूप र्में

तत्त्वज्ञान 327
(थथलर शरीर र्मेंद र्मैं वथथत हाँ ऄथालभत् ऄत्यन्त ववशाल थवरूप के ऄन्दर वबककरल व।सा ही ऄत्यन्त छोटा-सा
शरीर वथथत ह। र्मैं क ी छोटे थवरूप र्में ऄपनी ऄनर वर त करता, विर ऄत्यन्त ववशाल थवरूप र्में ऄपनी
ऄनर वर त करता, क ी दोनों थवरूपों र्में एक साथ ऄनर वर त करता यह ऄनर वर त ऄत्यन्त अनन्ददायक थी
यह ऄनर वर तयााँ र्मैं जा्र त ऄवथथा र्में कर रहा था, वसिलभ हर्मारे थथरल नेर बन्द थे त ी र्मेरा ववशाल थवरूप
छोटे थवरूप से बोला, ‚एक बात याद रखना, आस संसार र्में तम्र हारा ऄब करछ ी नहीं ह। ‛ ऄनर व सर्माप्त
हो गया
अथय– र्मैं आस ऄनर व र्में इश्वर के सर्मान थवरूप वाला बन गया र्मैंने ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने शरीर
के ऄन्दर ही र्मार थोड़ी-सी जगह के ऄन्तगलभत ववद्यर्मान देखा र्मेरे द्रारा जीव की ईत्पवत्त ी हुइ तथा यह
ी वदखाया गया वक जीव वकस प्रकार इश्वर के शरीर से प्रकट होकर ऄपरा-प्रकृ वत र्में जन्र्म ्र हण करने
अ जाता ह। जीव प्रकट होकर इश्वर के िेहरे को नहीं देखता ह।, बवकक इश्वर की अज्ञानसर ार ऄपरा-
प्रकृ वत की ओर िल देता ह। विर ऄपरा-प्रकृ वत र्में अता हुअ (वगरता हुअद वदखाइ देता ह। जीव सम्पणर लभ
ऄपरा-प्रकृ वत ऄपने को नीिे दबा लेता ह।, त ी ईसके ऄन्दर ववकार अ जाता ह। ‘यह र्मेरी ह।’, यही
ईसके पतन का कारण ह। विर ऄहक ं ार (सपलभ के रूप र्मेंद प्रकट हो जाता ह। ऄथालभत् बवहर्मलभख
र ी हो जाता ह।,
ऄन्त र्में थथल
र जगत् र्में थथल
र शरीर को प्राप्त होता ह। जीव इश्वर से वकस प्रकार प्रकट होता ह।, यह र्मझर े
पहली बार ऄनर व के द्रारा ज्ञात हुअ आससे पहले र्मैंने क ी शाथरों र्में नहीं पढ़ा शायद गवान् व्यास
जी ने आस ववषय पर वलखना ईवित नहीं सर्मझा होगा
आस ऄनर व से थपष्ट हो गया वक ऄपरा-प्रकृ वत इश्वर के ऄन्दर ही ववद्यर्मान रहती ह। ऄथालभत् सम्पणर लभ
ब्रह्माण्ड इश्वर के ऄन्दर वथथत ह। ईसी र्में सृवष्ट और प्रलय होती रहती ह।, इश्वर पर आसका कोइ िकलभ नहीं
पड़ता ह। इश्वर के ऄन्दर ऄपरा-प्रकृ वत ववद्यर्मान होने के कारण इश्वर कण-कण र्में ववद्यर्मान रहता ह।,
‍योंवक ऄपरा-प्रकृ वत इश्वर के शरीर र्में ही ववद्यर्मान ह। जीव इश्वर का ऄश ं होने के कारण इश्वर के ही
सर्मान ह। र्मगर ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपना सर्मझ लेने के कारण ऄथालभत् असव‍त के कारण बन्धन से र्मोह
वश बधं जाता ह। विर वह ऄपने थवरूप को ल र जाता ह। तथा सद।व दःर ख ईठाता रहता ह। इश्वर ने जीव
को प्रकृ वत का ोग करने के वलए कहा था, परन्तर यह नहीं कहा था वक आस प्रकृ वत को ऄपना सर्मझो
ऄथवा आसर्में ऄज्ञानता वश अस‍त हो जाओ जीव इश्वर के विनों के ऄनसर ार नहीं िला, आसवलए यहााँ
दःर ख की ऄनर वर त करता रहता ह। आस प्रकृ वत का वनयर्म ह।– पररवतलभन पररवतलभनशील वथतर वकसी एक की
होकर नहीं रह सकती ह।, यही जीव के दःर ख का कारण ह।

तत्त्वज्ञान 328
ऄनर व र्में ऄपरा-प्रकृ वत काँर ए के सर्मान नीिे की ओर वदखाइ दे रही ह। जब ऄपने से कर्म घनत्व
वाला क्षेर वदखाइ देता ह।, तब वह उपर की ओर ावसत होता ह। जब ऄपने से ऄवधक घनत्व वाला क्षेर
वदखाइ देता ह।, तब वह नीिे की ओर ावसत होता ह। आसवलए ऄपरा-प्रकृ वत नीिे की ओर (काँर ए के
सर्मानद वदखाइ दे रही ह।, जबवक वह काँर ए ज।सा क्षेर नहीं ह।, बवकक ावसत हो रहा ह। परा-प्रकृ वत की
ऄपेक्षा ऄपरा-प्रकृ वत बहुत ऄवधक घनत्व वाली ह। सि तो यह ह। वक परा-प्रकृ वत के क्षेर के ऄन्दर ही
ऄपरा-प्रकृ वत ववद्यर्मान ह। जीव जब ऄपरा-प्रकृ वत र्में अया तब ईसका र्माँहर नीिे की ओर था प्रकृ वत
वनम्न र्मख
र ी ह। ऄथालभत् सृवष्ट ईन्र्मख
र रहती ह। जीव ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपना सर्मझने के कारण नीिे की
ओर दृवष्ट वकए ह। आसी प्रकार ऄहक ं ार (सपलभद नीिे की ओर बवहलभर्मख
र ह।, त ी तो सृवष्ट र्में ईन्र्मख
र प्रवाह
बहता ह।

अपरा प्रकृदत की सीमाएाँ


यह ऄनर व 18 वदसम्बर का ह। ऄनर व र्में र्मैं सहजासन र्मिर ा र्में ब।ठा हाँ सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत के
कायलभ हर्मारे ऄन्दर (पेट वाले ाग र्मेंद ही हो रहे हैं, ऐसा र्मैं देख रहा हाँ विर र्मैं दरर वथथत होकर देखने
लगा– हर्मारा सक्ष्र र्म शरीर ई्वलभ होने लगा, थोड़ा-सा ई्वलभ होकर अगे की ओर गवत करने लगा यह शरीर
ऄब ी सहजासन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ था यह शरीर अगे की ओर िला जा रहा था हर्में सम्पणर लभ क्षेर की
सीर्माएं वदखाइ दे रही थी यह गोलाकार क्षेर था, जब सक्ष्र र्म शरीर अगे की ओर गवत करता हुअ सीर्मा
पर पहुिाँ ा अवखरी सीर्मा पर पहुिाँ ते ही शरीर ऄपने अप ऄदृश्य हो गया शरीर के ऄदृश्य होते ही क्षेर
ी ऄदृश्य हो गया ऄब र्मैं िष्टा रुप र्में ऄके ला सवलभर व्याप्त था
अथय– ऄपने शरीर के ऄन्दर सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत का व्यवहार देख रहा था, विर िष्टा रूप से सक्ष्र र्म
शरीर को देख रहा था सक्ष्र र्म शरीर के नष्ट होते ही ऄपरा-प्रकृ वत ी नष्ट हुए के सर्मान हो गइ आसवलए
ऄपरा-प्रकृ वत का क्षेर ऄदृश्य होता वदखाइ वदया

तत्त्वज्ञान 329
अुंडे के रूप में दस्थत कमायशय नष्ट हुए
यह ऄनर व 25 वदसम्बर का ह। हर्मारे सार्मने थोड़ा नीिे की ओर पार र्में रखा हुअ एक ऄंडा
वदखाइ वदया र्मैंने आस ऄंडे को पार से ईठाकर हाथों र्में ले वलया, विर दोनों हाथों से एक बार र्में ही ऄंडे
के वछलके को ऄलग कर वदया ऄंडे का उपरी अवरण ऄपने अप अधा-अधा होकर बीि से ऄलग
हो गया ऄंडे के ऄन्दर वाला ाग पार र्में वपण्ड रूप र्में वगर गया ऄंडे के वछलके को (उपरी अवरण
कोद र्मैं हाथों र्में पकड़े था त ी ऄनर व सर्माप्त हो गया
यह वही ऄंडा ह।, वजसका ईकलेख र्मैंने ऄपनी पथर तक ‘योग कै से करें ’ र्में वकया ह। यह ऄनर व 22
र्मइ 1999 को अया था तब यह ऄंडा हर्मारे ह्रदय से वनकलकर ऄंतररक्ष र्में िला गया था तथा ऄंडे के
ऄन्दर से अवाज अइ थी, ‚तम्र हें ऄगला जन्र्म लेना ऄवनवायलभ ह। ‛ ऄब यही ऄंडा ऄनर व र्में वदखाइ
वदया ऄब र्मेरे ऄन्दर परा-प्रकृ वत का ववकास क्रर्म होना शरू र हो गया ह। जीव जीवेश्वर रूप र्में वथथत होता
वदखाइ वदया ऐसी ऄवथथा र्में वजन सक्ष्र र्म कर्मालभशयों ने ऄंडे का थवरूप धारण कर रखा ह।, ये ऄपने
अपको वकस क्षेर र्में वछपा सकते हैं, र्मैं तो सवलभर ववद्यर्मान हाँ अवखरकार आन कर्मालभशयों को प्रकट होना
पड़ा ऄब र्मैंने ऄंडे का उपरी अवरण ऄलग कर वदया ह।, आससे ऄन्दर वथथत आस रूप र्में कर्मालभशय ऄब
नष्ट हो जाएाँगे

कमायशयों से मुक्त होना तय


यह ऄनर व 30 वदसम्बर को ्यानवथथा र्में अया हर्मारे सार्मने ऄंडे के ऄन्दर का गीला गाढ़ा
वपण्ड रूपी ाग (वबना अवरण के द प्रकट हो गया र्मैंने ऄपने दावहने हाथ की हथेली वबना अवरण वाले
ऄंडे के उपर दे र्मारी जोर से हथेली लगते ही ऄंडे का गीला गाढ़ा पदाथलभ वबखर कर िारों ओर ि। ल गया
वबखरा हुअ पदाथलभ हर्मारे उपर शरीर के वनिले ाग पर ी वगरा, त ी सर्मावध ंग हो गइ
अथय– ऄंडे का गीला गाढ़ा पदाथलभ िारों ओर वबखर गया= आन कर्मालभशयों को ोगकर ऄब र्मैं
कर्मालभशयों से र्म‍र त हो जाउाँगा ऄथालभत् र्मैं पणर लभ रूप से सद।व के वलए कर्मालभशयों से रवहत हो जाउाँगा
हर्मसे आस ववषय र्में बहुत से लोगों ने ववव न्न तरह के प्रश्न वकए वक अप ऄनर व र्में वलख रहे हैं,
‘ऄगला जन्र्म लेना ऄवनवायलभ ह।’, र्मगर अपने तो तत्त्वज्ञान प्राप्त कर वलया ह। तत्त्वज्ञानी परू
र ष जन्र्म-र्मृत्यर

तत्त्वज्ञान 330
के अवागर्मन से र्म‍र त हो जाता ह।? र्मैंने आस ऄनर व र्में ईस ऄंडे को नष्ट कर वदया ह।, विर ी यवद हर्मसे
जन्र्म ्र हण करने के वलए परा-प्रकृ वत ने कहा तो र्मैं ऄवश्य जन्र्म ्र हण करने लर ोक पर अ जाउाँगा वह
जन्र्म हर्मारा ववशेष प्रकार का होगा, ‍योंवक र्मैं ऄ ी से तत्त्वज्ञान से यक्त
र हाँ

तत्त्वज्ञान 331
सन् 2005
श्री हरर के स्वरूप में अनन्त ब्रह्माण्ड
16 जनवरी को ्यान करने के पश्िात यह ऄनर व अाँखें बन्द करने पर अया र्मैं ब।ठा हुअ ह,ाँ
हर्मारे सार्मने एक र्महापरू
र ष ऄत्यन्त ववशाल थवरूप र्में लेटा हुअ ह। ईसके शरीर पर वथर नहीं हैं ईसके
सम्पणर लभ शरीर पर ढेरों ब्रह्माण्ड ववद्यर्मान हैं आन ब्रह्माण्डों की वगनती नहीं की जा सकती ह। सम्पणर लभ
ब्रह्माण्डों का थवरूप एक ज।सा ही ह। ऐसा लग रहा ह। र्मानों ईस र्महापरू र ष के शरीर पर साबदर ाना के
अकार के सर्मान ऄनन्त ब्रह्माण्ड वथथत हैं ईसके वसर, गला, गले से नीिे के क्षेर पर (वक्ष थथलद
ब्रह्माण्ड वथथत नहीं थे, शेष सम्पणर लभ क्षेर पर ब्रह्माण्ड वथथत थे ईस ववशालकाय र्महापरू र ष का सम्पणर लभ
शरीर गौरवपवर लभक देखने के बाद र्मैं बोल पड़ा, ‚ये तो श्री हरर हैं ‛ ईनके शरीर पर ऄनन्त ब्रह्माण्ड ववद्यर्मान
हैं
अथय– ब्रह्माण्ड= ऄपरा-प्रकृ वत ह। श्री हरर के शरीर (ईनके वित्त र्में ऄथवा परा-प्रकृ वत र्मेंद पर ढेरों
ब्रह्माण्ड वथथत हैं आस ऄनर व र्में ईन्होंने र्मक
र र ट, र्माला तथा वथर अवद नहीं पहने थे, ईनका शरीर प्रकाश
द्रारा बना था शाथरों र्में वणलभन वर्मलता ह। वक श्री हरर के रोर्म-रोर्म र्में ब्रह्माण्ड व्याप्त हैं ऄथालभत् ऄनन्त
ब्रह्माण्ड वथथत हैं यह दृश्य देखकर लगता ह। वक हर्मारे ब्रह्माण्ड ज।से ऄनन्त ब्रह्माण्ड हैं ईस सर्मय हर्म यह
नहीं जान सके वक आन ऄनन्त ब्रह्माण्डों र्में हर्म कौन से ब्रह्माण्ड के ऄन्दर वथथत हैं?

श्री हरर का आशीवायद


16 जनवरी सायं काल 7 बजे ्यान करने के वलए अाँखें बन्द करके ब।ठ गया त ी अवाज सनर ाइ
दी, ‚परर , तम्र हें हर्मारे थवरूप का दशलभन हो गया ह। ‛ र्मेरी शव‍त योगर्माया के द्रारा वनवर्मलभत ब्रह्माण्डों को र्मेरे
थवरुप र्में वथथत देखे र्मेरे आस थवरुप का वजस जीव को दशलभन हो जाता ह।, विर ईसे क ी ी हर्मारी
योगर्माया प्र ाववत नहीं करती ह। ऄब तर्मर जन्र्म ्र हण करने से र्म‍र त हो गये हो तम्र हें हर्मारे वजस थवरूप
का वितं न करना हो करो, िाहे र्मेरे आस थवरूप का, िाहे अत्र्म थवरूप का तम्र हें अत्र्म थवरूप ऄच्छा
लगता ह। ईसी का विंतन करो और सर्मावध लगाओ र्मैं ईसी सर्मय सर्मावध र्में वथथत हो गया श्री हरर की

तत्त्वज्ञान 332
अवाज अइ, ‚ई्वलभ हो जाओ‛, क्षण र रुक कर विर अवाज अइ, ‚और ई्वलभ हो जाओ‛ं , विर र्मैं
ऄपने अप को ल
र गया तथा सर्मावध र्में लीन हो गया
अथय– आस ऄनर व र्में थवंय श्री हरर ने कहा वक वजस जीव को र्मेरा दशलभन (आस थवरूप काद हो जाता
ह।, विर वह जन्र्म ्र हण नहीं करता ह। तथा आस र्मागलभ पर अगे जाने के वलए अशीवालभद ी वदया

माया िारा अपने स्वरूप का दशयन


यह ऄनर व 18 जनवरी को अया र्मैंने देखा वक र्मैं असन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ हाँ हर्मारे सार्मने
ऄत्यन्त ईज्जवल सिे द कपड़े पहने हुए एक थरी अइ ईसने हर्में गौरपवर लभक देखा और विर बोली,
‚तम्र हारी ऄवथथा तो बहुत अगे पहुिाँ गइ ह।‛ ईत्तर र्में र्मैं करछ ना बोला, वसिलभ ईसे देखता ही रहा वह
थरी विर बोली, ‚र्मझर े यह बताआए‛, परन्तर त ी र्मैंने ईसकी बात काटते हुए कहा, ‚अप हर्मारी र्माता हैं,
हर्मारी गरू
र हैं, हर्म अपको ‍या बता सकते हैं, अप तो श्रेष्ठ हैं ‛ ईत्तर र्में वह थरी करछ न बोली, बवकक
हर्मारे असन के सार्मने थोड़ी दरर ी पर नीिे वर र्म पर लेट गइ ईसका शरीर शवासन र्मिर ा र्में था विर ईसका
शरीर बदलने-सा लगा, ईसके िेहरे की सन्र दरता पहले ज।सी नहीं रही, ईसके िेहरे व शरीर का तेज ी
कर्म हो गया ईसके शरीर के कपड़े व बाह्य त्विा ऄदृश्य हो गइ त्विा के ऄदृश्य होते ही शरीर का र्मााँस
व रक्त वावहनी नावड़यााँ थपष्ट रुप से वदखाइ देने लगी आन नावड़यों के ऄन्दर रक्त प्रवाह अता और जाता
हुअ वदखाइ दे रहा था क्षण र र्में र्मााँस व रक्तवावहनी नावड़यााँ ी ऄदृश्य हो गइ ऄब सम्पणर लभ शरीर की
हड्वडयााँ व गले से लेकर कर्मर तक के अंतररक ऄंग ऄथालभत् ोजन नली, अर्माशय, ह्रदय, िे िड़े,
यकृ त, अाँते अवद वदखाइ दे रहे थे ये स ी ऄंग व्यवथथापवर लभक वक्रया ी कर रहे थे गले से उपर वाला
ाग वसिलभ हड्वडयों का ढााँिा था त ी वह थरी बोली, ‚देखो र्मेरा अंतररक थवरूप क। सा ह। ‛ र्मैं वथथर
दृवष्ट वकए हुए ईन ऄंगों व ईन ऄंगों की वक्रया प्रणाली को देख रहा था करछ क्षण बाद स ी ऄंग
(अतं ररकद ऄदृश्य हो गये, ऄब वसिलभ हड्वडयों का ढााँिा रह गया था हड्वडयों का ढािं ा रूपी थरी
बोली, ‚देखो ऄब र्मैं क। सी लगती हाँ ‛ वबना कोइ ईत्तर वदए र्मैं वनष् ाव रूप से करछ क्षणों तक देखता रहा,
विर असन को त्यागकर एक ओर िल वदया, त ी हर्मारा ्यान टरट गया
ऄनर व र्में यह थरी र्माया का थवरूप ह। आस र्माया ने पहले ऄपने थवरूप की सन्र दरता वदखाइ, विर
अतं ररक ऄगं व ईनकी कायलभ प्रणाली वदखाइ यह आसी थवरूप के बल पर तथा जगत् के र्मोहक होने से

तत्त्वज्ञान 333
जीव सर्महर ों को ऄज्ञानता के द्रारा बांधे रखती ह। जीव बड़े अरार्म से र्मजबतर बन्धनों र्में बंधता रहता ह।
र्मैंने आसे र्माता व गरू
र ी कहा था वह थरी हर्मसे ‍या पछर ना िाहती थी, यह र्मझर े र्मालर्मर नहीं ह।, ‍योंवक
र्मैंने ईसकी बात काट दी थी जब थरी शवासन र्मिर ा र्में लेटकर शांत हो गइ, तब ईसका िेहरा थोड़ा-सा
बदल गया ईसकी ई्र ज्यादा लगने लगी तथा िेहरे का तेज व लावण्यता सर्माप्त हो गइ थी ऄनर व के
ऄन्त र्में र्मैं असन से ईठकर िल वदया ऄथालभत् हर्में आस थवरूप से पणर लभ रूप से ववरव‍त हो गइ

तुम पूणय हो
यह ऄनर व 25 जनवरी को अया हर्मारी अाँखें ऄपने अप बन्द हो गइ विर हर्में अवाज सनर ाइ
दी, ‚तर्मर आस व्यास रे खा के सर्मान पणर लभ हो ‛ आन्हीं शब्दों के साथ हर्में सार्मने की ओर वृत्ताकार रूप र्में क्षेर
वदखाइ वदया आस वृत्ताकार क्षेर के बीि र्में एक व्यास रे खा प्रिण्ड तेजथवी रूप र्में वदखाइ दी र्मैं आस रे खा
को (व्यास रे खाद करछ क्षणों तक देखता रहा, विर प्रसन्नता से ईछल पड़ा
अथय– व्यास का ऄथलभ होता ह।– ‘पणर ’लभ ऄथालभत् जो ऄपने अप र्में पणर लभ हो वृत्ताकार क्षेर अकाश
तत्त्व द्रारा वनवर्मलभत था ऄथालभत् वह क्षेर हर्में कर्म घनत्व वाला थवच्छ वदखाइ दे रहा था जो व्यास रे खा
वदखाइ दे रही थी ईस रे खा का ऄथलभ पणर लभता से होता ह। वजस प्रकार वह रे खा वृत्त के ऄन्दर पणर लभ ह।, ईसी
प्रकार हर्मसे कहा गया वक तर्मर ी पणर लभ हो

दचत्त की भूदम का शुध होना


यह ऄनर व 27 ऄप्र।ल को अया ऄनर व अश्ियलभजनक ह। र्मैं वकसी खल र े हुए र्मकान के ऄन्दर
असन र्में ब।ठा हाँ ईस वर र्म पर सयर लभ के प्रकाश के सर्मान प्रकाश ि। ला हुअ ह। तथा दीवारों का ी
प्रवतवबम्ब वदखाइ दे रहा ह। हर्मारी दृवष्ट असर्मान की ओर गइ असर्मान ऄत्यन्त थवच्छ, नीला व कर्म
घनत्व वाला था तथा असर्मान र्में रावर के सर्मान तारे वनकले हुए थे र्मैं यह देखकर अश्ियलभिवकत हो
गया वक असर्मान र्में तारे वनकले हुए हैं और वर र्म पर वदन के सर्मान प्रकाश ि। ला हुअ ह। ऄथालभत् रावर
और वदन दोनों एक साथ ववद्यर्मान थे वर र्म पर एक बकरी लाल और सिे द रंग की बंधी हुइ ह।, त ी

तत्त्वज्ञान 334
पवश्िर्म वदशा र्में असर्मान र्में जोरदार वबजली िर्मकी वबजली के िर्मकते ही र्मैं सोिने लगा वक असर्मान
थवच्छ ह।, बादल ी नहीं ह।, विर ी वबजली िर्मक रही ह।
अथय– वर र्म पर प्रकाश ह।, असर्मान पर रावर के सर्मान तारे वनकले हुए हैं हर्म पहले ी वलख िक रे
हैं वक जब ऊतम् रा-प्रज्ञा का वित्त र्में ईदय होता ह।, तब वित्त की वनिली वर र्म और उाँिी वर र्म अरोह-
ऄवरोह व ऄवरोह-अरोह क्रर्म से शि र हुअ करती ह। ऄथालभत् थथल र से लेकर वित्त तक, वित्त से लेकर
थथल र तर ों (थथलर शरीर तकद की क्रर्म से शवर ि होती रहती ह। वित्त की वर र्म पर प्रज्ञा का प्रकाश ि। ला
हुअ ह। ऄनर व र्में वदखाइ देने वाला अकाश वित्ताकश ह।, ईसर्में प्रज्ञा का प्रकाश कर्म ह।, ‍योंवक
पवश्िर्म वदशा र्में वबजली िर्मकी, ऐसी करण्डवलनी जा्र त होते सर्मय िर्मकती ह। तब साधक सक्ष्र र्म तर ों
के ऄन्तगलभत साधना करने की शरू र अत करता ह। ऄथालभत् दृश्य र्में वदखाइ देने वाली वर र्म व असर्मान र्में
वदखाइ देने वाले तारों का अपस र्में वर र्म की ऄवथथा र्में पररवतलभन ह। वित्त र्में वथथत थथल
र पंि तर व सक्ष्र र्म
पंि तर , तन्र्माराओ,ं ऄहक ं ार अवद की वर र्मयााँ व न्न होती हैं ऄनर व का ऄथलभ ह।– वित्त का अरोह-
ऄवरोह क्रर्म से विर ऄवरोह-अरोह क्रर्म से शि र होना, वजससे थथल र से लेकर वित्त तक सर्मान रूप से
शवर ि हो जाए यह प्रवक्रया वषों तक ऄभ्यास के ऄनसर ार िलेगी बकरी प्रकृ वत का प्रतीक ह।, लाल रंग-
रजोगणर , सिे द रंग- सत्त्वगणर ह।

स्थूल जगत नि हुए के समान


यह ऄनर व 20 जनर का ह। ज।से ही ्यान करने के वलए अाँखें बन्द की त ी वदखाइ वदया– र्मेरी
करवटया के असपास वथथत पेड़ अवद क्रर्मशः ऄदृश्य होते जा रहे हैं ऄदृश्य हुए थथान पर प्रकाश ही
प्रकाश वदखाइ दे रहा था यह प्रकाश ऄत्यन्त थवच्छ व वनर्मलभल था र्मेरी करवटया व असपास का दरर -दरर
तक का क्षेर प्रकाश से यक्त
र था वहााँ पर करवटया नहीं थी जो बड़े-बड़े ढेरों पेड़ हैं, वह ी नहीं थे हर्मारा
थथल र शरीर ी नहीं था, वसिलभ प्रकाश ही प्रकाश ववद्यर्मान था र्मैं ऄ ी के वल अाँखें बन्द वकए हुए था,
्यान नहीं कर रहा था ऄथालभत् सर्मावध नहीं लगी थी र्मैं यह दृश्य देखकर सोिने लगा वक र्मेरी कृ वटया
और र्मैं तथा असपास के पेड़ अवद कहााँ गये? सम्पणर लभ अश्रर्म ही ऄदृश्य था, वसिलभ प्रकाश ऄत्यन्त
थवच्छ व वनर्मलभल था

तत्त्वज्ञान 335
अथय– ऄनर व र्में ऄसत् की सत्ता ऄदृश्य हो गइ ईस थथान पर वनर्मलभल वनखरा हुअ प्रकाश
ववद्यर्मान देखा ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक ऄसत् (ऄपरा-प्रकृ वतद की सत्ता ह। ही नहीं, वसिलभ ब्रह्म ही
सवलभर ववद्यर्मान ह। गीता र्में श्री कृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– ‚हे अजथनु ! असत् वस्तु का अलस्तत्व नहीं है ओर
सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों को तत्त्वज्ञानी परू ु षों द्वारा देखा गया है। (गीता-2/16)।”

सहस्त्र-दल कमल
यह ऄनर व 14 ऄगथत को अया र्मैं ऄनन्त पंखवर ड़यों वाला कर्मल का िरल देख रहा था र्मैंने िरल
का वनिला ाग देखा वनिले ाग र्में पंखवर ड़यों के वकनारों पर काला-काला पदाथलभ सा लगा ह। करछ
क्षणों तक र्मैं यहीं पर देखता रहा विर बोला वक यह काला रंग सर्माप्त होना िावहए
अथय– यह सहथर-दल कर्मल ह। वनिले ाग र्में काला पदाथलभ लगा ह। वह वित्त पर वथथत तर्मोगणर
ह। आस तर्मोगणर को ोगकर व ऄभ्यास के द्रारा सर्माप्त करना होगा

परम-् शाुंदत की अवस्था


यह ऄनर व 16 ऄगथत को अया िारों ओर तेज प्रकाश ि। ला हुअ ह। र्मैं बड़े अरार्म से
असर्मान की ओर र्माँहर करके लेटा हुअ हाँ विर र्मैं ईठकर ब।ठकर गया, तो देखा वक र्मैं कािी र्मोटी
खम्बेनर्मर ा जगह के उपर लेटा हुअ हाँ आसकी उाँिाइ कइ र्मीटर होगी नीिे िारों ओर सर्मतल वर र्म ह। जो
प्रकाश से िर्मक रही ह।
अथय- आस गोलाकार खम्बे का थवरूप उपर की ओर ईठे हुए गदा के सर्मान ह। वजस प्रकार गदा
का उपरी ाग गोलाकार रूप र्में होता ह। तथा वनिला ाग गोल, पतला व लम्बा सा होता ह।, ईसी प्रकार
उपर गोलाकार िौड़े थथान पर लेटा था नीिे वाला ाग खम्बेनर्मर ा, गोलाकार तथा पतला था र्मैं लेटा
हुअ अकाश की ओर देख रहा था नीिे सर्मतल प्रकावशत वर र्म वित्त की ह। जो उपर की ओर गंदा-सा
ईठा हुअ ह।, ईसके उपर लेटना ऄथालभत् ऄपरा-प्रकृ वत से परे ई्वलभर्मख
र ी होकर परर्म-् शांवत को प्राप्त हाँ
वेदान्त के ऄनसर ार यह जगह इश्वर की होती ह। तथा आस उपर ईठे थथान पर वथथत होकर स ी जीवों पर
शासन करता ह।

तत्त्वज्ञान 336
सभी धमों की आदखरी सीमा एक ही है
यह ऄनर व 19 ऄगथत का ह। हर्मारे सार्मने थवार्मी विदानन्द जी ब।ठे थे र्मैं ईनके पास गया और
बोला, ‚थवार्मी जी! अप यहााँ ब।ठे हुए हैं?, र्मैं अपके दशलभन के वलए अपके अश्रर्म र्में तीन बार गया र्मगर
अपके सेवकों ने र्मना कर वदया ‛ र्मैं थवार्मी जी को दण्डवत प्रणार्म करने लगा वजस सर्मय र्मैं वर र्म पर
लेटा था, थवार्मी जी ने हर्मारे वसर को दोनों हाथों से थपथपाया व अशीवालभद वदया ईस सर्मय र्मैं वदव्य
दृवष्ट से ऄपना सम्पणर लभ शरीर देख रहा था र्मैंने देखा वक र्मेरे शरीर पर एक ी वथर नहीं ह।, र्मैं पणर लभ रूप से
न‍न था विर र्मैं ईठकर ब।ठ गया थवार्मी विदानन्द जी बोले, ‚र्मैं वर्मलने के वलए वकसी को र्मना नहीं
करता हाँ ‛ विर ईन्होंने हर्में एक र्मोटी-सी पथर तक दी और बोले, ‚यह पथर तक लो, आसे पढों और ऄपने
पास रखो ‛ र्मैंने पथर तक को खोलकर देखा, ईसर्में गीता वलखी हुइ थी र्मैं सर्मझ गया वक यह गीता ह।
थवार्मी जी ईठकर खड़े हो गये विर ईन्होंने ी ऄपने वथर ईतार वदए और न‍न हो गये विर वह ऄपनी
जगह पर ब।ठ गये हर्म दोनों एक दसर रे के सार्मने न‍न ब।ठे हुए थे करछ क्षणों बाद र्मैं वहााँ से िल वदया
ऄब र्मैं (र्महलनर्मर ाद र्मकान के ऄन्दर अगे की ओर िल रहा था यह बहुत सन्र दर बना था विर र्मैं अगे
का दृश्य देखकर ठहर गया सार्मने की ओर ज।न धर्मलभ के साधक ववशेष प्रकार की साधना कर रहे थे र्मैं
सर्मझ गया वक ये साधक ज।नी हैं दसर री ओर देखा तो पजं ाबी साधक ब।ठे साधना कर रहे थे र्मैं ओर अगे
बढ़ा तो एक ओर र्मसर लर्मान थरी-परू र ष नर्माज पढ़ रहे थे र्मैं सोिने लगा वक यह क। सी जगह ह।, जहााँ स ी
धर्मों के लोग ईपवथथत हैं र्मैं ओर अगे बढ़ा तो ईधर ऄ्र ं ेज परू र ष ऄपनी प्राथलभना कर रहे थे विर अगे
की ओर बढ़ा तो वहााँ पर छोटे -छोटे से सर्महर र्में परूर ष ववव न्न प्रकार की साधना कर रहे थे ऄब र्मैं सर्मझ
गया वक स ी धर्मों के साधक ऄपने-ऄपने ढंग से साधना कर रहे हैं ईस ववशाल वन र्में उपर छत थी
र्मगर वहीं पर एक ओर से जाने पर उपर की ओर असर्मान वदखाइ वदया, ईधर सीवढ़यााँ नहीं थी
असर्मान की ओर पतले-पतले तार थे उपर की ओर जाना र्मवर श्कल था, र्मगर जोर लगाकर र्मैंने ईन तारों
को पकड़ वलया, विर तारों को तोड़ता हुअ र्मैं तारों के उपर से वनकलने लगा विर अाँखें बन्द करके
इश्वर का थर्मरण करने लगा, त ी यंकर ववथिोट हुअ, ववथिोट की अवाज सनर कर र्मैं िौंक पड़ा
हर्मारी अाँखें खलर गइ, र्मैंने देखा वहााँ ववशाल वन नहीं था ववथिोट की अवाज के साथ र्महलनर्मर ा
र्मकान ऄदृश्य हो गया था स ी धर्मों के परू र ष न जाने कहााँ िले गये थे ऄब र्मैं वसिलभ ऄके ला था, िारों
ओर वबककरल शांत थवच्छ अकाश था

तत्त्वज्ञान 337
अथय– यह थवार्मी विदानन्द जी ऊवषके श के वशवानन्द अश्रर्म र्में रहते हैं न‍न होना– ववकारों से
रवहत होना ह। दोनों एक-दसर रे के सार्मने ववकारों से रवहत ब।ठे थे र्महलनर्मर ा जगह ऄपरा-प्रकृ वत का क्षेर
ऄपरा-प्रकृ वत की अवखरी सीर्मा के ऄन्दर स ी धर्मों की अवखरी सीर्माएं ह। ल र ोक पर ऄज्ञानता के
कारण र्मनष्र य एक-दसर रे के धर्मलभ की बरर ाइ करता ह। स ी धर्मलभ बराबर हैं तथा ऄन्त र्में स ी धर्मों के
ऄनयर ायी एक ही थथान पर पहुिाँ ते हैं आसवलए स ी र्मनर ष्यों को दसर रों के धर्मलभ का सम्र्मान करना िावहए
ऄपरा-प्रकृ वत की सीर्मा से परे वकसी धर्मलभ का ऄवथतत्व नहीं ह।, ‍योंवक इश्वर के यहााँ स ी जीव सर्मान हैं
ऄनर व र्में वदखाइ देने वाले पतले-पतले तार जाल के सर्मान थे यह जाल बन्धन का थवरूप ह। तथा
ऄपरा-प्रकृ वत की अवखरी सीर्मा ह। स ी धर्मलभ ऄपरा-प्रकृ वत के ऄन्तगलभत अते हैं इश्वर को प्राप्त करने के
वलए धर्मलभ रूपी बन्धन से परे जाना होगा इश्वर के लोक र्में स ी जीवात्र्माएाँ सर्मान हैं र्मेरे द्रारा बन्धन नष्ट
करते ही सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप नष्ट हो गया

तत्त्वज्ञान 338
सन् 2006
आवा
यह ऄनर व 6 जनवरी को अया िारों ओर तेज प्रकाश ि। ला हुअ ह। सार्मने की ओर उाँिा-सा
अवा लगा ह। अवा के बाहरी ओर गीली वर्मट्टी का ऄच्छी तरह से लेप लगाया गया ह। अवा के
उपरी ाग से धअ
र ाँ तेजी से वनकल रहा ह। ऄथालभत् अवा के ऄन्दर बतलभन पकाने के वलए अग लगा दी गइ
ह।
अथय– अवा– वजसर्में करम्हार घड़ा पकाता ह। घड़े के सर्मान हर्में आस संसार र्में पकना होगा ऄथालभत्
वतलभर्मान र्में जो हर्मारी जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा ह।, ईस जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा को आस ससं ार रूपी अवा र्में हर्में
ऄभ्यास द्रारा पररप‍व बनाना होगा

नाव
यह ऄनर व 3 िरवरी को अया र्मैं दरर से ब।ठा देख रहा हाँ वक एक नाव नदी पार कर रही ह। नाव
धीरे -धीरे अगे की ओर िली जा रही ह। नाव के उपर एक परू र ष ब।ठा हुअ ह। जब नाव नदी के ईस पार
वकनारे पर पहुिाँ गइ, तब वह परू
र ष नाव से ईतर कर ईस पार खड़ा हो गया
अथय– नदी– ससं ार का थवरूप ह। तथा नाव- ज्ञान का थवरूप नाव पर ब।ठा हुअ परू र ष र्मैं हाँ र्मैं ज्ञान
रूपी नाव पर ब।ठकर संसार से पार हो गया आस नाव के ववषय र्में शाथरों र्में व गीता र्में ईकलेख वर्मलता ह।

तीर
यह ऄनर व 14 िरवरी का ह। र्मैं वकसी थथान पर खड़ा हुअ हाँ तथा िारों ओर प्रकाश ही प्रकाश
ि। ला हुअ ह। त ी हर्मारे बायीं ओर वर र्म के उपर अकाश र्में ववथिोट की अवाज सनर ाइ दी ववथिोट
के साथ असपास के सम्पणर लभ परू र षों व ऄन्य जीवों की र्मृत्यर हो गइ र्मैंने ववथिोट की ओर देखा तो ववविर
सा दृश्य वदखाइ वदया र्मैंने देखा वक एक परू र ष वर र्म से कािी उपर तीरों के उपर खड़ा था तीर के उपर

तत्त्वज्ञान 339
वाला वसरा वर र्म के उपर था तथा दसर रा वाला वसरा ईसके प।रों के तलवों र्में विपका था जब वह प।र
ईठाकर िलता था तब तीर की नोक वाला ाग वर र्म से थपशलभ होता था नोक वाला ाग वर र्म पर थपशलभ
होते ही वर र्म पर ववथिोट होता था ववथिोट के साथ अस-पास के प्राणी र्मर जाते थे वह दो तीरों के
उपर खड़ा हुअ तीरों के सहारे अगे की ओर (पवर लभ की ओरद िला जा रहा था
अथय– वह परू र ष र्मैं ह,ाँ तीर का ऄथलभ ज्ञान होता ह। योग रूपी तरकस होता ह। वह परू र ष ज्ञान के
उपर सवार ह। ववथिोट होना व प्रावणयों का र्मरना- ज्ञान के द्रारा वित्त की वृवत्तयााँ नष्ट होती जा रही हैं,
आससे वनबीज सर्मावध का ऄभ्यास बढ़ाने र्में सहायता वर्मलेगी
ऄनर वों र्में कइ बार वदखाइ देता ह। वक कोइ परू र ष तीर कर्मान वलए ह।, वह तीर के द्रारा उपर
ऄंतररक्ष की ओर वनशाना लगा रहा ह। आसका ऄथलभ होता ह।– ऄभ्यासी ज्ञान के द्रारा ब्रह्म प्रावप्त का लक्ष्य
प्राप्त करने का प्रयास (ऄभ्यासद कर रहा ह। ऄथालभत् ज्ञान के द्रारा ब्रह्म प्रावप्त का लक्ष्य ेद रहा ह। क ी-
क ी तीर की नोक उपर की ओर वदखाइ देती ह।, ईसका ी यही ऄथलभ होता ह। जब ऄनर व र्में वदखाइ दे
वक कोइ तीर कर्मान वलए हुए हो तथा तीर की नोक नीिे ओर ह। ऄथालभत् वर र्म की ओर ह।, तब ऄभ्यासी
को सर्मझ लेना िावहए वक ईसका ऄभ्यास रुक जाएगा या ऄवरोध अ जाएगा ऄथवा वह संसार की
ओर अस‍त होकर व्यवहार र्में वलप्त हो जाएगा

दचत्त की भूदम पर दछर


पाठकों! आस प्रकार के कइ ऄनर व 2005 र्में अए, र्मगर यहााँ पर र्मैं एक ही ऄनर व वलख रहा हाँ
साधकों! आस प्रकार के कइ ऄनर व करछ र्महीनों तक अते रहते हैं र्मैं सर्मावध ऄवथथा र्में ऄपने असन पर
ब।ठा था सर्मावध ऄवथथा र्में बहुत जोर से ववथिोट की अवाज सनर ाइ दी ववथिोट के कारण हर्मारी
सर्मावध खलर गइ और र्मैं अाँखें खोलकर ब।ठ गया र्मगर यह नहीं सर्मझ पाया वक ववथिोट की अवाज
कहााँ से अइ?
एक वदन र्मैं सर्मावध पर ब।ठा था हर्में ववथिोट की अवाज सनर ाइ दी अवाज के साथ ही हर्में होश-
सा अने लगा, त ी हर्में ऄनर व र्में वदखाइ देने लगा वक र्मैं वर र्म पर ब।ठा हुअ वर र्म की ओर देख रहा था
वर र्म पर दो-ढाइ िीट िौड़ा एक वछि था र्मैं वछि के ऄन्दर झााँककर देखने लगा वछि के ऄन्दर देखने पर
र्मैं िौंक पड़ा, ‍योंवक वछि अर-पार था वछि के नीिे की ओर ईस पार ऄत्यन्त थवच्छ असर्मान वदखाइ

तत्त्वज्ञान 340
दे रहा था ऐसा लग रहा था वक वजस वर र्म पर र्मैं ब।ठा हुअ हाँ वह ठोस पदाथलभ से बनी हुइ परत ह। ज।सा
उपर की ओर अकाश ह।, व।सा ही नीिे ी अकाश ह। करछ क्षणों र्में एक जोरदार ववथिोट विर से हुअ,
र्मैं विर िौंक पड़ा यह ववथिोट वबककरल व।सा ही था ज।सा पहले सनर ा था ववथिोट के साथ वहीं एक
ओर वर र्म पर एक ओर वछि हो गया र्मैं वछि के पास गया, ईस दो-ढाइ िरट िौड़े वछि के ऄन्दर झााँकने
लगा ईस वछि के नीिे ईस पार थवच्छ असर्मान ववद्यर्मान था, जो ऄब थपष्ट वदखाइ देने लगा वर र्म
ठोस पदाथलभ से बनी हुइ र्मोटी परत थी, यह र्मोटी परत अकाश र्में ववद्यर्मान ह। वर र्म की र्मोटाइ 8-10 िरट
रही होगी ऄब ववथिोट के द्रारा वछि हो रहे हैं आस प्रकार वछि हो-हो कर वर र्म नष्ट हो जाएगी, विर
वसिलभ अकाश शेष रह जाएगा आस वर र्म के ऄन्दर र्मोटी-र्मोटी लकवड़यों का जाल वदखाइ (वछि के द्रारद
दे रहा था वछि होते सर्मय वर्मट्टी ज।सा पदाथलभ ऄदृश्य हो जाता था लकवड़यों का जाल-सा बना रहता
था ये लकवड़यााँ वर र्म को र्मजबतर ी प्रदान कर रही थी, वजस प्रकार र्मकान की प‍की छत (लेंटर र्मेंद र्में
लोहे के सररयों का जाल र्मजबतर ी प्रदान करता ह।
ऐसे ऄनर व लगातार करछ र्महीनों से अ रहे थे ऄब वर र्म पर वछि ही वछि हो गये थे ऐसा लगता
था ज।से करछ वदनों बाद वछि हो-हो कर यह वर र्म ही नष्ट हो जाएगी, विर उपर-नीिे ऄथालभत् सवलभर
अकाश ही अकाश रह जाएगा
अथय– वर र्म– वित्त की वर र्म, वछि होने का ऄथलभ ह।– वित्त की वर र्म का नष्ट हो जाना वछि के
ऄन्दर वथथत लकवड़यों का ऄथलभ ह।- ऄत्यन्त ‍लेशात्र्मक कर्मालभशय आन ऄनर वों र्में वित्त की वर र्म थोड़ी-
थोड़ी करके टरट रही ह। नीिे की ओर अकाश का वदखाइ देना- वित्त की वर र्म वित्ताकाश के ऄन्दर ही
ववद्यर्मान ह। वर र्म टरटने पर वित्ताकाश वदखाइ देने लगता ह। आस वर र्म पर कर्मालभशय ववद्यर्मान रहते हैं सि
तो यह ह। वक कर्मालभशयों के द्रारा ही आस वर र्म का वनर्मालभण हुअ ह। आस वर र्म के नष्ट हो जाने पर जीवन्र्मक्त

ऄवथथा पररप‍व हो जाएगी
आवश्यक जानकारी– वववेक-ख्यावत ऄवथथा प्राप्त होने के बाद जब तक वववेक-ख्यावत का
प्रवाह वनरन्तर वित्त र्में बहता रहता ह।, तब तक ईसकी ऄववथथवत अत्र्मा र्में रहती ह। जब वववेक-ख्यावत
का प्रवाह रुक जाता ह। ऄथालभत् जब वित्त र्में व्यत्र थान की वृवत्तयााँ प्रकट हो जाती ह।, तब साधक ऄपरा-
प्रकृ वत के (व्यत्र थान ऄवथथा र्मेंद ऄन्तगलभत अ जाता ह। ईसी ऄवथथा र्में ऄपरा-प्रकृ वत से सम्बंवधत
ऄनर व अते हैं जब ईसके वित्त र्में विर वववेक-ख्यावत का प्रवाह वनरन्तर बहने लगता ह।, तब
अत्र्मानर वर त होने लगती ह। आस प्रकार के ऄभ्यास से पर-व।रा‍य के संथकार पष्र ट होते हैं व्यत्र थान के

तत्त्वज्ञान 341
सथं कार कर्मजोर हो-हो कर दबते रहते हैं वे व्यत्र थान के संथकार (वृवत्तयााँद व्यत्र थान ऄवथथा से लेकर
सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा तक के होते हैं, आसवलए अत्र्मानर वर त के बाद ी ऄपरा-प्रकृ वत की
ऄनर वर त होने लगती ह। आसवलए ऄभ्यास के द्रारा वववेक-ख्यावत का वनरन्तर प्रवाह बनाए रखने का प्रयत्न
करते रहना िावहए वनबीज सर्मावध जब पररप‍व हो जाती ह।, तब व्यत्र थान के संथकार पणर लभ रूप से दब
जाते हैं

मैं दशवदलुंग के ऊपर


यह ऄनर व 7 ऄ‍तबर र का ह। ऄनर व र्में देखा वक र्मैं वशववलंग के उपर सहजासन र्मिर ा र्में ब।ठा हाँ
वदव्य दृवष्ट के द्रारा हर्में ऄपने नीिे वशववलंग का थवरूप वदखाइ दे रहा था काले रंग के वशववलंग की
उाँिाइ लग ग एक-डेढ़ िरट होगी वशववलंग का उपरी वसरा हर्मारे गदर ा द्रार को थपशलभ कर रहा था ऄथालभत्
वशववलंग के उपर ब।ठे सर्मय हर्में ऄनर वर त सी हो रही थी वक हर्मारा गदर ा द्रार वशववलंग के उपर रखा ह। र्मैं
ईस सर्मय हाँस रहा था
अथय– वशववलंग ऄपरा-प्रकृ वत का प्रतीक ह। प्रकृ वत के िार थवरूप होते हैं– 1. ऄवलंग 2. वलंग 3.
ववशेष 4. ऄववशेष ऄवलंग (ऄव्य‍तद रूप र्में परा-प्रकृ वत होती ह।, ‍योंवक आसर्में गणर साम्यावथथा र्में रहते
हैं वलंग, ववशेष, ऄववशेष रूप र्में ऄपरा-प्रकृ वत रहती ह। यह व्य‍त रूप र्में होती ह।, ‍योंवक आसर्में गणर
ववषर्मावथथा को प्राप्त होने के कारण पररणार्म को प्राप्त होते हैं सम्पणर लभ प्रकृ वत (परा-प्रकृ वत और ऄपरा-
प्रकृ वतद के थवार्मी परर्म-वशव
् ही हैं वही इश्वर हैं, सगणर ब्रह्म हैं वनगलभणर ब्रह्म ही सगणर ब्रह्म का थवरूप
धारण करता ह। ब्रह्म ही प्रकृ वत के रूप र्में (परा-शव‍त के रूप र्मेंद प्रकट हो जाते हैं ऄव्य‍त होने के
कारण परा-प्रकृ वत को ऄवलंग कहते हैं, आसी ऄवलंग से वलंग रूप र्में (व्य‍त रूप र्मेंद ऄपरा-प्रकृ वत प्रकट
हो जाती ह। ऄथालभत् ऄवलंग और वलंग रूप र्में परर्म-वशव
् ही होते हैं
ऄनर व र्में र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत के (वशववलंगद उपर ब।ठा हाँ ऄथालभत् र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत से परे हो गया हाँ
यहााँ पर वशववलगं का ऄथलभ परर्म-वशव ् से नहीं लगाया जा सकता ह। पहले के ऄनर वों र्में वशववलगं का
थवरूप वदखाया जा िक र ा ह। प्रकृ वत की वाथतववकता जानने के बाद वशववलगं का वाथतववक ज्ञान हो
पाता ह।

तत्त्वज्ञान 342
सन् 2007
सगुण ब्रह्म (परम-दशव)
् का दशयन
यह ऄनर व 11 जनवरी को अया र्मैंने ऄपने सार्मने थोड़ा नीिे की ओर एक घड़ा देखा, वजसका
र्माँहर नीिे की ओर था हर्मारी दृवष्ट घड़े के र्म्य ाग पर पड़ी, ईसर्में एक वछि था घड़े के र्म्य र्में अड़े
रूप र्में गोलाकार गहरी रे खा बनी थी यह रे खा घड़े के जजलभर हो जाने के कारण बनी थी घड़ा र्म्य ाग र्में
परर ाना हो जाने के कारण वबककरल कर्मजोर हो गया था ऐसा लगा रहा था र्मानों घड़ा वकसी ी व‍त टरट
कर र्म्य ाग से दो टरकड़ों र्में बंट जाएगा, ‍योंवक घड़ा परर ाना होने के कारण कर्मजोर हो गया था त ी र्मैं
बोला– ‚आस घड़े का र्माँहर नीिे की ओर ‍यों ह।?‛ ऄब हर्मारी दृवष्ट घड़े के र्माँहर पर पड़ी, तब र्मैं देखकर
िौंका वक वह वकसी की हथेली पर रखा था र्मैंने हथेली देखनी शरू र की, ईसी सर्मय हर्में गवान् वशव
वदखाइ वदए गवान् वशव अगे की ओर हाथ वकए ऄपनी हथेली पर ईकटा घड़ा (नीिे की ओर र्माँहर द रखे
हुए खड़े थे ईनके वसर के बाल खल र े हुए थे, बाल िारों ओर वबखरे हुए थे तथा नीिे प।रों की वपन्डवलयों
तक लटके हुए थे हर्मारी और गवान् वशव की दृवष्ट एक दसर रे से टकराइ ऄथालभत् एक दसर रे को देखा
ईनके शरीर पर नाग नहीं थे, वसिलभ कर्मर र्में व्याघ्र िर्मलभ पहने थे ईसी क्षण गवान् वशव ने ईस घड़े को नीिे
की ओर दे र्मारा (वकसी वथतर पर पटक वदयाद घड़ा टरट कर ढेरों टरकड़ों के रूप र्में वबखर गया सारे दृश्य र्में
वित्त की वर र्म नहीं थी नीिे की ओर ऄनन्त गहराइ तक थवच्छ वनर्मलभल अकाश था तथा उपर ी थवच्छ
वनर्मलभल अकाश था गवान् वशव के शरीर की लम्बाइ सौ (100 र्मीटरद र्मीटर के लग ग होगी नीिे की
ओर ईनके सम्पणर लभ प।र वदखाइ नहीं दे रहे थे ईनके प।र अकाश के ऄन्दर थे तथा ईनका िेहरा बहुत सन्र दर
था शरीर पर वसिलभ कर्मर पर व्याघ्र िर्मलभ-सा पहने थे यह ऄनर व करछ क्षणों का ही था
अथय– आस ऄनर व र्में सगणर ब्रह्म का साक्षात्कार हुअ ह।, आसी को परू र ष दशलभन ी कहते हैं आसका
वणलभन शाथरों र्में वर्मलता ह। यह परर्म्-वशव थे जो स ी प्रावणयों के वित्त र्में ह्रदय गफ़र ा र्में रहते हैं आनका
थवरूप शंकर के सर्मान था, ‍योंवक स ी रूि (शंकरद आन्हीं परर्म्-वशव के तीसरे नेर से प्रकट होते हैं
गवान् शंकर के गले र्में नाग रहता ह।, र्मगर ये नाग व वरशल र अवद से रवहत थे नाग ऄहक ं ार का थवरूप
होता ह।, परन्तर ये परर्म-वशव
् तर्मोगणर ी ऄहक
ं ार से परे हैं यह वनगलभणर ब्रह्म का सगणर थवरूप होता ह। शंकर
पर तर्मोगणर ी ऄहक ं ार का प्र ाव नहीं पड़ता ह।, वे ऄहक ं ार को (नाग कोद बाहर से लपेटे रहते हैं वजस

तत्त्वज्ञान 343
ऄभ्यासी को सगणर ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता ह।, ईसे इश्वर के लोक की थथल र शरीर त्यागने के
पश्िात प्रावप्त ऄवश्य होती ह। ऄथालभत् र्मोक्ष वर्मलना वनवश्ित ह।, यही जीवन्र्मक्त र ऄवथथा होती ह। ऄनर व
र्में वर र्म नहीं ह।, नीिे की ओर ी थवच्छ अकाश ह। तथा वित्त की वर र्म नष्ट हो िक र ी ह। ऄथालभत् वित्त का
थवरूप नष्ट हो गया ह।, वजसर्में परर्म-वशव ् का साक्षात्कार हुअ ह। घड़ा वित्त का थवरूप था, वह थवरूप
परर्म-वशव् ने नष्ट कर वदया घड़ा रूपी वित्त परर ाना व जजलभर हो िक र ा था वजस घड़े र्में वछि हो जाता ह। वह
ईपयोगी नहीं रह जाता ह।, बवकक नष्ट हुए के सर्मान हो जाता ह। आसवलए ईसे नष्ट कर वदया गया दसर रे
शब्दों र्में यह सक्ष्र र्म शरीर का प्रतीक ह।, ‍योंवक प्रावणयों के कर्मालभशय सक्ष्र र्म शरीर र्में ही ववद्यर्मान रहते हैं
सक्ष्र र्म शरीर का सम्बन्ध वित्त की वर र्म से होता ह। वित्त की वर र्म नष्ट होने के बाद साधक को जगत् का
अ ास र्मार ही होता ह। परर्म-वशव ् सगणर होने के कारण सवलभर व्याप्त हैं, आसवलए ईनका थवरूप ऄत्यन्त
व्यापक वदखाइ दे रहा ह।

कलयुग ने हमसे माफी मााँगी


यह ऄनर व 14 जनवरी को अया ्यान र्में हर्में कररूप िेहरे वाला एक परू र ष वदखाइ वदया करछ
सर्मय तक र्मैं ईसकी कररूपता को देखता रहा, विर र्मन र्में सोिा की यह क। सा कररूप िेहरे वाला परू र ष ह।?
र्मैंने ईस कररूप िेहरे वाले परू र ष से पछर ा, ‚अप कौन ह।?‛ ईस परू र ष ने ईत्तर वदया, ‚र्मैं कलयगर हाँ योगी,
हर्में क्षर्मा कर दो ‛ र्मैंने कलयगर से पछ र ा वक अप वकस बात की क्षर्मा र्मााँग रहे हैं? कलयगर बोला वक र्मैंने
अपके साथ ऄन्याय वकया ह। र्मैं ऄपने प्र ाव का प्रयोग करके अपको कष्ट देता रहा, ऄधर्मलभ का सहारा
लेकर अप पर वर्मथ्या अरोप लगवाए तथा ऄपर्मावनत करवाया कलयगर आसी प्रकार ढेरों शब्द बोले जा
रहा था र्मैं ईसके शब्दों को सनर कर हाँसने लगा जब कलयगर िपर हो गया, तब र्मैं कलयगर से बोला वक
तर्मर ने कोइ ी कायलभ गलत नहीं वकया ह।, बवकक तम्र हारे द्रारा वकए गये सारे कायलभ हर्मारे वहत र्में ही सावबत
हुए हैं र्मैं तम्र हें ऄपना ववरोधी नहीं र्मानता हाँ और न ही तम्र हारे कायों से दःर खी ह,ाँ बवकक सि तो यह ह। वक
तर्मर ने हर्मारा सहयोग ही वकया ह। कलयगर तर ऄपने कायों पर दःर खी र्मत हो, र्मैं तर्मर पर प्रसन्न हाँ ऄ ी तर्मर
ऄपना कायलभ आसी प्रकार करते रहो तावक हर्मारा ईदेश्य पणर लभ हो सके कलयगर दःर खी ाव से िपर िाप खड़ा
हर्मारी बातें सनर रहा था, र्मैं हाँसे जा रहा था अवखरकार र्मैं ‍यों न हाँसता, ईसने हर्मारा लक्ष्य असान जो
कर वदया था विर कलयगर ऄदृश्य हो गया

तत्त्वज्ञान 344
अथय– कलयगर हर्मसे आसवलए र्मािी र्मााँग रहा था, ‍योंवक ईसी से प्रेररत होकर सर्माज ने हर्म पर
करछ झठर े अरोप लगाए, र्मगर ऐसे अरोपों से र्मैं वविवलत नहीं हुअ हााँ, वदखावे के वलए र्मैं क ी-क ी
क्रोध र्में अ जाता था तावक अरोपी प्रसन्न हो जाएाँ और ऄपना कायलभ करते रहें परन्तर ऐसे अरोपों से र्मैं
क ी दःर खी नहीं हुअ, बवकक र्मैं एकांत र्में जाकर हाँसा करता था ऐसे लोग र्मेरे कर्मालभशयों को सर्माप्त कर
वित्त की शवर ि कर रहे हैं तथा वे लोग थवयं ऄपना ही वित्त र्मवलन करते जा रहे हैं ऄथालभत् वे दसर रे रूप र्में
र्मेरा वित्त शिर करने के कारण र्मेरे शर विंतक ज।से ही हैं आसवलए हर्मने कलयगर से कहा, ‚ऄ ी करछ वदन
और ऐसे ही कायलभ करवाते रहो ‛ कलयगर ऄपने प्र ाव से ऐसे लोगों को ऄधर्मी बना देता ह। ऐसे
ऄधवर्मलभयों के वित्त र्में सद।व तर्मोगणर ी वृवत्तयों का प्रवाह बहता रहता ह। र्मैं कलयगर को ऄपना वर्मर र्मानता
हाँ ऐसे ऄवरोधों से साधक का ककयाण ही होता ह।, ‍योंवक ऄकारण ऄपर्मान सहने व वनन्दा सनर ने से
वित्त र्में वथथत र्मल जलकर नष्ट हो जाता ह। तथा वित्त वनर्मलभल व शि र होने लगता ह। र्मैं ऄपना वित्त शि र
करने के वलए आसी प्रकार से सर्माज का सहयोग ले लेता हाँ तथा अरोवपयों के वलए र्मन र्में इश्वर से प्राथलभना
करता हाँ वक प्र र ये लोग स।दव र्मेरी तरह प्रसन्न रहें

सवोच्च अवस्था पर
यह ऄनर व 17 जनर को अया ऄनर व र्में र्मैं असन लगाए हुए ब।ठा हाँ र्मैंने अाँखें खोलकर देखा
(ऄनर व र्मेंद वक र्मैं ऄत्यन्त थवच्छ अकाश र्में असन लगाए हुए ब।ठा हाँ र्मझर े ऄपने असन के नीिे का
दृश्य वदखाइ देने लगा, तब वदखाइ वदया वक र्मैं बहुत उाँिी पवलभत की िोटी के उपर असन लगाए हुए ब।ठा
हाँ पवलभत की िोटी का उपरी ाग नोक के सर्मान था र्मझर े अश्ियलभ हुअ वक र्मैं आतने उाँिे पवलभत की
नोकदार िोटी के उपर ब।ठा हाँ
अथय– आस ऄनर व र्में र्मैं वित्त की सवोच्ि ऄवथथा पर असन लगाए हुए ववद्यर्मान हाँ

तत्त्वज्ञान 345
सन् 2008
नाग ने काटा
यह ऄनर व 27 िरवरी का ह। िारों ओर प्रकाश ि। ला हुअ था र्मैं र्महलनर्मर ा घर के अाँगन र्में ब।ठा
हुअ हाँ घर के बारह की ओर से हर्मारे पास बहुत लम्बा व हकका काला नाग अता हुअ वदखाइ वदया
नाग हर्मारे पास अकर ऄपना िन उपर ईठाने लगा, तब र्मैं बोला, ‚कृ पया अप ऄपना थवरूप छोटा कर
लीवजए, आतने ववशाल थवरूप से हर्में डर लगता ह। ‛ र्मेरे कहते ही नाग ने ऄपना थवरूप छोटा कर वलया,
परन्तर विर ी ईसका थवरूप ववशालकाय था ईस नाग ने ऄपना िन उपर की ओर ईठाया र्मैं बड़े
अरार्म से ब।ठा हुअ बोला, ‚र्मझर े र्मालर्मर ह।, अप र्मरझे काटोगे ‛ ईस नाग के िन की लम्बाइ एक र्मीटर
रही होगी ईसके िन को देखकर र्मैं डरा नहीं, बवकक सोिा की आसका िन वकतना बड़ा ह। नाग की
लम्बाइ 18-20 िीट की रही होगी नाग ने ऄपना र्माँहर खोला और हर्मारे दावहने हाथ के ऄंगठर े और तजलभनी
के बीि वाला ाग ऄपने र्माँहर के ऄन्दर र वलया र्मैंने ऄपना हाथ वहलाया नहीं, ‍योंवक वह ऄपने र्माँहर
से हर्मारा हाथ दबाए हुअ था ईस सर्मय ईसके दााँतो का दबाव हर्में र्महससर हो रहा था, र्मगर ववष वाले
दााँतो की ऄनर वर त नहीं हो रही थी करछ क्षणों बाद नाग ने हर्मारा हाथ छोड़ वदया, विर वहीं पर ऄदृश्य हो
गया हर्मारे हाथ पर ईसके छोटे -छोटे दााँतो के वनशान वदखाइ दे रहे थे
अथय– सन् 1985 से 1986 के बीि तीन बार आसी प्रकार के ऄनर व अए थे यवद वकसी साधक
को ्यानावथथा र्में नाग काट ले तो ईस साधक को आसी जन्र्म र्में र्मोक्ष वर्मलना वनवश्ित हो जाता ह।
वतलभर्मान र्में र्मैं जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा र्में हाँ र्मैं तो ऄ ी से र्मोक्ष की ऄनर वर त कर रहा हाँ

बााँस
यह ऄनर व 21 र्मािलभ का ह। ्यानावथथा र्में र्मैंने देखा वक सार्मने थोड़ी दरर ी पर एक कटा हुअ
बााँस वदखाइ दे रहा ह। बााँस खड़े अकार र्में तथा सखर ा हुअ था कटे हुए ाग से थपष्ट वदखाइ दे रहा था
वक बााँस ऄन्दर से खोखला ह। र्मैंने बााँस के ऄन्दर झााँक कर देखा तो वदखाइ वदया वक ऄन्दर की ओर
गााँठे ी पोली (खोखलीद थी

तत्त्वज्ञान 346
अथय– थथलर संसार बााँस के सर्मान बाहर व ऄन्दर से नीरस ही ह। वजस प्रकार सख
र ा हुअ बााँस
ऄन्दर व बाहर से रसहीन होता ह।, ईसी प्रकार र्म‍र त परू
र ष के वलए यह संसार रसहीन ही ह। जीवन्र्मक्त

ज्ञानी परू
र ष को आस जगत् का जीवन बााँस के सर्मान बाहर व ीतर से शन्र य, रसहीन तथा वासना रवहत
प्रतीत होता ह।

सस
ुं ार चक्र
यह ऄनर व 19 ऄप्र।ल का ह। हर्में ऄपने वसर का उपरी ाग (बाहर की ओर सेद वदखाइ देने
लगा र्मैं उपरी ाग को देख रहा था वक त ी वसर के उपर र्म्य- ाग र्में वथथत कील के उपर िाक-सा
घर्मर ने लगा यह िाक करम्हार के िाक के सर्मान था ऄब ऐसा लग रहा था र्मानों करम्हार का िाक हर्मारे
वसर के उपर घर्मर रहा हो र्मझर े यह ी वदखाइ दे रहा था वक हर्मारे वसर र्में वर्मट्टी री ह। करछ क्षणों बाद
िाक की गवत धीरे -धीरे कर्म होती गइ िाक ऄपनी जगह पर ठहर गया तथा ऄपनी धरर ी पर गवत करता
हुअ हर्मारे सार्मने अ गया ऄब र्मैं ईस िाक को ऄपनी दृवष्ट के सार्मने देख रहा था देखते-ही-देखते
िाक टरट कर वछन्न-व न्न हो गया तथा टरटे हुए टरकड़े धीरे -धीरे ऄदृश्य हो गये ऄब र्मैं ऄत्यन्त प्रसन्न
र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ था
अथय– करम्हार के िाक के सर्मान यह संसार िक्र ऄज्ञावनयों के वलए गवत करता रहता ह।, र्मगर
तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर यह संसार िक्र नष्ट हो जाता ह।, विर पनर जलभन्र्म िक्र सर्माप्त हो जाता ह। जब
संककप रूपी नाव का ली प्रकार ऄवरोध कर वदया जाता ह।, तब यह संककप रूपी िक्र रुक जाता ह।
वकन्तर संककपात्र्मक र्मनोरूप नाव को राग-द्रेष अवद के क्षोव त करने पर आस संसार रूपी िक्र को रोकने
की िेष्टा करने पर ी वेग के कारण िलता रहता ह।

तीर
एक परू
र ष पवर लभ वदशा की ओर तीव्र गवत से तीर र्मारे जा रहा था वह परू
र ष तीर वकसे र्मार रहा था,
यह तो गौर नहीं वकया हर्मारी दृवष्ट ईस परू
र ष की ओर थी वजसके हाथों र्में तीर कर्मान थी वह परू र ष

तत्त्वज्ञान 347
तीव्रगवत से कर्मान से तीर छोड़े जा रहा था कर्मान पर तीर ऄपने अप िढ़ा हुअ प्रकट हो जाता था वह
परू
र ष िलता हुअ अगे की ओर बढ़ रहा था
अथय– वह परू र ष र्मैं हाँ तथा तीर िलाने का ऄथलभ ह।– ज्ञान के द्रारा लक्ष्य को ेदना वह परू
र ष वसिलभ
ऄपने लक्ष्य को देख रहा ह। तथा ईसी को ही ेद रहा ह। लक्ष्य ेदते हुए अगे की ओर बढ़ता जा रहा ह।
लक्ष्य का ऄथलभ– ‘ब्रह्म प्रावप्त’ ह।

सहस्त्र-दल कमल पर परम-दशव


् व परा-शद‍त एक साथ दवराजमान
यह ऄनर व 25 ऄप्र।ल को अया र्मैं बहुत ही ववथतृत गफ़ र ा ज।सी जगह के ऄन्दर खड़ा हाँ हर्मसे
थोड़ी दरर ी पर एक बहुत बड़ा कर्मल का िरल वखला हुअ ह। आस कर्मल के िरल को देखकर र्मैं हाँसा और
बोला, ‚यह तो सहथर-दल कर्मल ह।‛ र्मैं आन शब्दों को कह ही पाया था वक सहथर-दल कर्मल पर
गवान् परर्म-वशव
् ब।ठी हुइ र्मिर ा र्में प्रकट हो गये गवान् वशव को र्मैंने क्षण र देखा ही था वक त ी
ईनकी बायीं ओर एक बहुत ही सन्र दर थरी ब।ठी हुइ वदखाइ दी ऄब सहथर-दल कर्मल पर गवान् परर्म्-
वशव तथा ईनकी परा-शव‍त (परा-प्रकृ वतद एक साथ ब।ठे वदखाइ दे रहे थे यह सहथर-दल कर्मल गफ़ र ा के
ऄन्दर की ओर सम्पणर लभ क्षेर र्में ववद्यर्मान था र्मैं गफ़
र ा के र्महर ाने पर थवच्छ वनर्मलभल अकाश र्में खड़ा था
अथय– सहथर-दल कर्मल के उपर परर्म-वशव ् और ईनकी सवं गनी परा-शव‍त एक साथ ववराजर्मान
थे सहथर-दल कर्मल का सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से होता ह। वजस जगह र्मैं खड़ा था वह गफ़ र ा का र्महर ाना था
सहथर-दल कर्मल गफ़ र ा के ऄन्दर सवलभर व्याप्त था यह गफ़ र ा ह्रदय गफ़
र ा ह।, आसका सम्बन्ध परा-प्रकृ वत से
होता ह। आस ह्रदय गफ़ र ा का वणलभन शाथरों र्में बहुत वकया गया ह। सहथर-दल कर्मल पर परर्म्-वशव व परा-
प्रकृ वत को एक साथ ववराजर्मान देखने का ऄथलभ होता ह। वक योगी शीघ्र ही ऄभ्यास के द्रारा पणर लभता को
प्राप्त करे गा यही परर्म-वशव
् र्महेश्वर ऄथालभत् सगणर ब्रह्म हैं

मैं भगवान् शुंकर के रूप में


यह ऄनर व 16 ऄगथत का ह। ्यानावथथा र्में र्मैं शंकर के रुप वाला बन गया र्मैं ऄपने अप को
गवान् शक
ं र र्मान रहा था हर्में ऄपना थवरूप वदखाइ दे रहा था र्मैं अगे की ओर थोड़ा-सा िला, विर

तत्त्वज्ञान 348
ऄपने हाथ से कोइ वथतर सार्मने की ओर दी ओर बोला, ‚यह लो ‛ आन शब्दों के कहते ही हाथ से एक
र्मीटर वगालभकार पारदशी वथतर (क्षेरद सार्मने की ओर दी वह वथतर हाथ से ऄलग होते ही ऄपने अप
सार्मने की ओर िली गइ सार्मने कोइ वदखाइ नहीं दे रहा था ऄथालभत् कोइ नहीं था जब र्मैंने कहा, ‚यह
लो‛, ईस वथतर को देने के बाद बोला, ‚हााँ, ऄब र्मैं जा रहा ह‛ाँ , विर र्मैं एक ओर को िल वदया थोड़ा-सा
ही िला था विर ठहर गया र्मैंने नीिे की ओर देखा तो नीिे ऄंधकार ही ऄंधकार था ऄंधकार देखकर र्मैं
बोला, ‚आस सर्मय सृवष्ट र्में तो रावर िल रही ह।, ब्रह्मा शांत होकर सर्मावध र्में लीन हो गये हैं ‛ वहीं पर
सर्मावध र्मिर ा र्में गवान् ब्रह्मा जी ब।ठे थे ईनका शरीर तपे हुए सोने के सर्मान रंग वाला था र्मैं गवान्
शंकर के थवरूप र्में खड़ा था हर्मारे थथल र शरीर से झटका-सा लगा और हर्मारी सर्मावध टरट गइ र्मैं बोला,
‚र्मैं तो गवान् शंकर बन गया हाँ ‛
अथय– गवान् शंकर हर्मारे आष्ट हैं र्मैं ऄपने आष्ट के थवरूप वाला बन गया ऄथालभत् र्मैं ब्रह्म ाव को
प्राप्त हो गया यह ऄनर व हर्में वृवत्तयों द्रारा वदखाया गया करछ साधक आस प्रकार के ऄनर व अने से
भ्रर्म र्में पड़ जाते हैं वक वह ऄर्मक
र देवता ह। ऄथवा ऄर्मक र देवता का ऄवतार ह। ब्रह्म ाव प्राप्त होने के
कारण वृवत्त ईसी ाव के ऄनसर ार ही थवरूप धारण कर लेती ह। आस प्रकार के ऄनर व का ऄथलभ वनकालते
सर्मय ऄभ्यासी की यो‍यता का ी ्यान रखना पड़ता ह। वक ईसका ऄभ्यास वकस ऄवथथा पर िल रहा
ह।? आस ऄनर व का ऄथलभ ह।– ‘र्मैं ब्रह्म ाव को प्राप्त हो गया हाँ ’ नीिे की ओर देखने पर सवलभर रावर
वदखाइ दे रही ह। ऄथालभत् साधक के वलए ऄपरा-प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान हो गइ ह। ऄपरा-प्रकृ वत र्में प्रलय
होने पर गवान् ब्रह्मा सर्मावध र्में लीन हो जाते हैं तथा सृवष्ट का सर्मय अने पर सर्मावध से ईठ जाते हैं,
विर सृवष्ट का कायलभ करने लगते हैं एक र्मीटर वगालभकार पारदशी क्षेर हर्मारे वित्त का थवरूप ह। यह
ऄनर व पणर लभता की ओर आशारा कर रहा ह। वित्त ऄथालभत् क्षेर देने का ऄथलभ ह।– ‘वित्त का त्याग कर देना ’
जीवात्र्मा का सम्बन्ध जब वित्त से ऄलग हो जाता ह।, तब वह ऄपने शि र थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।
यह ऄवथथा करछ सर्मय बाद अएगी

सक
ुं कप करो हमारी सोई हुई सारी शद‍तयााँ जाग्रत हो जाएाँ
यह वनदेश हर्में 28 ऄ‍तरबर को ्यानावथथा र्में वदया गया र्मझर े र्मवथतष्क र्में ्ववन सनर ाइ देने
लगी– ‚संककप करो, हर्मारी सोइ हुइ सारी शव‍तयााँ जा्र त हो जाएाँ, ऐसा प्र र ने कहा ह। ‛ र्मझर े शब्दों पर

तत्त्वज्ञान 349
अश्ियलभ हुअ वक प्र र ने हर्में ऐसा करने के वलए वनदेश वदया ह। र्मैंने संककप वकया ओर बोला, ‚हे परर्म्-
वपता, ‍या यह संदेश अपकी प्रेरणा से हर्म तक अ रहा ह।?‛ विर अवाज अइ– ‚हााँ, ऐसा संककप करो
तावक तम्र हारी सम्पणर लभ शव‍तयााँ जा्र त ही जाएाँ ‛ र्मैंने संककप वकया, ‚हर्मारी सोइ हुइ सारी शव‍तयााँ
जा्र त हो जाएाँ, ऐसा प्र र ने कहा ह। ‛ करछ क्षणों बाद हर्में थपष्ट रूप से वदखाइ वदया वक एक थरी हर्मारे
पास अइ ओर सार्मने खड़ी हो गइ तथा बोली, ‚तम्र हारी सोइ हुइ शव‍तयााँ धीरे -धीरे क्रर्मशः जा्र त होंगी,
आसके वलए करछ सर्मय लगेगा ‛
अथय– पाठकों! अप सोि सकते हैं वक आस ऄवथथा को प्राप्त होने पर आस प्रकार की शवक्तयों को
जा्र त करने को ‍यों कहा गया ह।? ‍या ऄ ी शव‍तयााँ जा्र त नहीं ह।? सर्माधान– करछ शव‍तयााँ
(वसवियााँद योग की ऄवन्तर्म सीर्मा पर प्राप्त होती हैं ऐसी वसवियााँ प्रत्येक ऄभ्यासी को प्राप्त नहीं होती
हैं, वसिलभ ईन्हें ही प्राप्त होती हैं जो पणर लभता प्राप्त कर लेते हैं र्मैंने ऄपने जीवन र्में वसवियों का प्रयोग बहुत
ही कर्म वकया ह। थोड़ा बहुत वसवियों का प्रयोग हर्मने वसिलभ अ्यावत्र्मक कायों के वलए ही वकया ह। र्मेरी
रूवि आन वसवियों के प्रवत बहुत ही कर्म रही ह।

सहनशीलता की देवी
यह ऄनर व 4 नवम्बर का ह।, ्यानावथथा र्में एक थरी का िेहरा वदखाइ वदया िेहरा जड़ रूप र्में
ावसत हो रहा था र्मैंने पछ
र ा, ‚अप कौन हैं?‛ ईत्तर वर्मला, ‚र्मैं सहनशीलता की देवी हाँ ‛ र्मैंने ऄपने र्मन
र्में बोला, ‚सहनशीलता की देवी ‛ वह विर बोली, ‚र्मझर र्मे कोइ श्रिा नहीं रखता ह।, र्मगर तर्मर ने र्मझर र्मे
श्रिा की ह। आसवलए तरम्हें र्मेरा सद।व अशीवालभद ह।, र्मझर े धारण कर तर्मर र्महान बनोगे ‛ विर ईस थरी का
िेहरा ऄदृश्य हो गया
अथय– र्मझर े घोर कष्ट वदए गये, परे शावनयााँ अइ, यहााँ तक की सब करछ नष्ट हो गया, र्मगर र्मैं बड़े
अरार्म से सहन करता रहा वकसी ी प्राणी के वलए ऄन्त:करण से बरर ा नहीं सोिा सासं ाररक वदखावे र्में
ले ही िाहे जो वदखा ह,ाँ र्मगर र्मेरा र्मन इश्वर से प्राथलभना करता रहा वक ऄर्मक
र का ककयाण हो र्मैं ऄब ी
सहनशीलता को धारण वकए हाँ क ी-क ी बाहर से करछ ओर वदखाता ह,ाँ आससे ससं ार धोखे र्में अ जाता
ह। अवखरकार हर्में पणर लभता प्राप्त करके इश्वर के पास जाना ह।

तत्त्वज्ञान 350
‍या तुम्हें दशवत्व पद ददया जाना चादहए
11 नवम्बर को सबर ह र्मैं करसी पर शांत ब।ठा हुअ था वक त ी हर्में ्ववन सनर ाइ दी– ‚‍या तम्र हें
वशवत्व पद वदया जाना िावहए?‛ र्मैं आन शब्दों को सनर कर िौंक पड़ा, अाँखें बन्द करके र्मैं ्यान र्मिर ा र्में
ब।ठ गया विर से अवाज सनर ाइ दी, ‚‍या तम्र हें वशवत्व पद वदया जाना िावहए?‛ र्मैं बोला, ‚प्र र
प्रणार्म ‛ विर अवाज सनर ाइ दी, ‚ये शब्द तम्र हें प्रेरणा के द्रारा सनर ाइ दे रहे हैं ‛ र्मैं बोला, ‚यह अपकी
आच्छा पर वन लभर ह।, ज।सा अप ईवित सर्मझें जब अप हर्में आसके यो‍य सर्मझें तब यह पद दे दें र्मेरी आच्छा
ऄवश्य ह। वक जब र्मैं थथल र शरीर त्यागंर तब यह पद र्मेरे पास हो ऄथालभत् र्मैं वशवत्व प्राप्त करके ही शरीर
त्यागना िाहता हाँ ऄत: हााँ, र्मैं यह अपसे र्मााँगता हाँ वक हर्मारा वित्त वनर्मलभल हो जाए, तावक र्मैं सर्मथत
प्रावणयों को एक साथ सर्मान रूप से देख सकाँर तथा स ी प्रावणयों र्में हर्मारी सर्मबवर ि हो ‛ ईसी सर्मय ढेर
सारी अवाज़ें गजंर ईठी– ‚योगी, तम्र हारी जय हो योगी, तम्र हारी जय हो ‛ यह शब्द कइ बार कहे गये
विर अवाज अइ, ‚तम्र हें करछ सर्मय बाद वशवत्व पद वदया जाएगा‛, त ी हर्मारी अाँखें खल र गइ
अथय– वशवत्व को प्राप्त करना ऄथालभत् इश्वर तत्त्व को प्राप्त करना– पणर लभता को प्राप्त करना ऐसा
तब होता ह। जब पहले जड़ प्रकृ वत को त्याग कर ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाए, विर जड़ प्रकृ वत को
ऄपना थवरूप सर्मझकर ईसे ऄपना लेना तब सर्मथत प्रावणयों र्में ऄपनी ऄनर वर त होने लगती ह। ऄथालभत्
सर्मथत ाषर्मान शरीर र्मेरे ही थवरूप हैं यही वशवत्व का ववकास होना या पणर लभता कहलाता ह। जो साधक
व्यवतरे क योग व ऄन्वय योग दोनों प्रकार का ऄभ्यास करता ह।, वह आस संसार र्में रहते हुए वशव के सर्मान
ही ह। वशवत्व के ववषय र्में हर्म पीछे वलख अए हैं

तत्त्वज्ञान 351
सन् 2009
प्रकृदत देवी की प्रेरणा से कायय करना
यह ऄनर व 2 र्मािलभ को सबर ह ्यानावथथा र्में अया र्मैं वकसी थथान पर खड़ा ह,ाँ वहााँ प्रकाश ही
प्रकाश ि। ला हुअ ह। हर्मारे र्माँहर के सार्मने ऄवत नजदीक एक थरी का िेहरा प्रकट हो गया र्मैं ईस थरी का
िेहरा देख रहा था वह अाँखों को नीिे की ओर वकए हुए थी ईसके िेहरे पर प्रकाश की वकरणें पड़ रही
थी र्मैं ईस थरी से बोला, ‚हे देवी! अप कौन हैं?‛ परन्तर ईसने कोइ ईत्तर नहीं वदया र्मैं विर बोला– ‚हे
देवी! र्मैं अपको प्रणार्म करता ह,ाँ अप कौन हैं, कृ पया हर्में ऄपना पररिय दीवजये ‛ तब वह थरी बोली–
‚र्मैं ब्रह्माण्ड की रिना करती हाँ तथा ब्रह्माण्ड का नाश ी करती हाँ जो तर्मर पर ईाँगली ईठाते हैं ऄथवा
गलत बोलते हैं, ईन्हें ऄवश्य दण्ड वर्मलेगा तर्मर ने र्मेरी प्रेरणा से ही सारे कायलभ वकए हैं, यही र्मैं तम्र हें बताने
अइ हाँ ‛ र्मैं बोला– ‚हे र्माता! र्मैं अपको प्रणार्म करता हाँ ‛ त ी वह िेहरा ऄदृश्य हो गया
अथय– यह थरी प्रकृ वत देवी ह। वे हर्में यह बताने अइ थीं वक र्मैंने सारे कायलभ ईन्ही की प्रेरणा से वकए
हैं सर्माज के वजन लोगों ने हर्में ऄकारण ऄपर्मावनत व वनवं दत वकया ह। ईन्हें ववष्य र्में दण्ड ऄवश्य
वर्मलेगा, त ी वे ऄदृश्य हो गइ र्मैं ईस प्रकृ वत देवी से कहना िाहता था वक वजन लोगों ने हर्मारे साथ
ऄनवर ित व्यवहार वकया ह।, अप ईन्हें र्माि कर दीवजये, बवकक हर्मारी ओर से ईन्हें शर अशीवालभद
दीवजये, ‍योंवक ईनके व्यवहार से हर्में ऄ्यात्र्म र्मागलभ र्में बहुत बड़ा ला वर्मला ह। ऄत: हर्म ईन स ी के
अ ारी हैं

दचत्त का साक्षात्कार
यह ऄनर व 28 र्मािलभ को अया र्मैं वर र्म पर खड़ा ह,ाँ सार्मने की ओर का वक्षवतज (जहााँ वर र्म और
अकाश सार्मने वदशा की ओर वर्मलते हैंद देख रहा था वक त ी हर्मारी दृवष्ट ऄपने अप ‍लॉक वाआज घर्मर
गइ ऄब र्मैं िारों ओर का वक्षवतज देख रहा था, जबवक र्मैं ऄपनी ही जगह पर वथथर खड़ा था र्मैंने ऄपना
वसर वथथर रखा हुअ था विर ी र्मझर े ‍लॉक वाआज सम्पणर लभ क्षेर (पीछे का ीद वदखाइ दे रहा था करछ
क्षणों र्में दसर री बार विर ‍लॉक वाआज वक्षवतज वदखाइ देने लगा जब तीसरी बार ‍लॉक वाआज वदखाइ देने

तत्त्वज्ञान 352
लगा, त ी पीछे से वक्षवतज संकरा होने लगा ऄथालभत् पीछे का वक्षवतज वसकरड़ता हुअ हर्मारी ओर अने
लगा वह आतना वसकरड़ा वक वक्षवतज र्मेरे पास ही अ गया र्मैं सीर्मा पर खड़ा वदखाइ देने लगा, विर
सम्पणर लभ क्षेर वसकरड़ने लगा ऄब सम्पणर लभ क्षेर गोलाकार रूप र्में वसकरड़ रहा था (संकरवित हो रहा थाद वजस
जगह पर र्मैं खड़ा था वह क्षेर सार्मने अ गया ऄथालभत् ऄब र्मैं ईस क्षेर से ऄलग खड़ा था क्षेर तीव्रता से
छोटा हो रहा था ऄन्त र्में ईसका थवरूप िरटबाल के बराबर रह गया, वह छोटे से वपण्ड रूप र्में वदखाइ दे
रहा था ऄब र्मेरा कोइ थवरूप नहीं था, र्मैं दरर वथथत ईस गोलाकार वपण्ड को देख रहा था आसी वपण्ड र्में र्मैं
पहले ववद्यर्मान था, ऄब ईससे दरर िष्टा रूप र्में ईस छोटे से वपण्ड को देख रहा था
अथय– वजस क्षेर र्में र्मैं खड़ा था, वह वित्त था र्मैंने ऄपने वित्त को पहली बार पणर लभरूप से देखा, त ी
ईसका थवरूप छोटा हो गया विर र्मैं ऄपने थवरूप र्में ववद्यर्मान हो गया वित्त छोटे से क्षेर के रूप र्में
पहली बार वदखाइ दे रहा था यह वित्त का साक्षात्कार होना कहा जाएगा वित्त के साक्षात्कार के बाद
जीवात्र्मा ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत हो जाता ह।

मैं सहस्त्रार चक्र व अहुंकार के ऊपर आसन लगाकर बैठा


यह ऄनर व 23 र्मइ को अया र्मैं िष्टा रूप र्में सार्मने दरर ब।ठे हुए परू
र ष को देख रहा था वक त ी
र्मेरे ऄन्दर से र्मेरा छोटा थवरूप असन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ बाहर की ओर वनकल पड़ा वह असन र्मिर ा र्में
ब।ठा हुअ सार्मने की ओर ऄपने अप िला जा रहा था सार्मने दरर ब।ठे परू र ष के वसर के उपर ऄपने अप
ब।ठ गया जो परू र ष पहले से ब।ठा हुअ था वह ी असन र्मिर ा र्में ही ब।ठा था हर्मारा छोटा थवरूप ी
असन लगाए ऄपने अप ईसके उपर ब।ठ गया करछ क्षणों तक हर्मारा छोटा थवरूप ईस परू र ष के वसर के
उपर (सहथरार िक्र के उपरद ्यान र्मिर ा र्में ब।ठा रहा विर करछ क्षणों बाद ्यान र्मिर ा र्में ही ब।ठा हुअ वह
थवरूप ईड़ता हुअ सा असन लगाए हुए ही एक ओर हो गया ऄब सार्मने की ओर एक काला नाग िन
ईठाये हुए खड़ा था आस नाग का र्माँहर पवर लभ वदशा की ओर था तथा हर्मारी ओर िन का वपछला वाला ाग
था र्मेरा छोटा थवरूप नाग के िन के उपर ब।ठकर ्यान करने लगा र्मैं दरर से िष्टा रूप र्में ववद्यर्मान यह
दृश्य देख रहा था करछ क्षणों के बाद र्मेरा छोटा थवरूप जो नाग के िन के उपर ब।ठा ्यान कर रहा था,
वह ऄदृश्य हो गया

तत्त्वज्ञान 353
अथय– आस ऄनर व र्में र्मैं िष्टा रूप से सारा दृश्य ी देख रहा था तथा हर्मारा छोटा थवरूप ईस परू र ष
के वसर के उपर ऄथालभत् सहथरार िक्र के उपर ्यान ी कर रहा था, विर नाग के िन के उपर ी ब।ठकर
्यान वकया र्मेरा छोटा थवरूप र्मानव अकार र्में था सहथरार िक्र के उपर ्यान करना= जीवेश्वर रुप
को प्राप्त करना नाग– ऄहक ं ार ऄहक ं ार के उपर ्यान करना= ऄहक ं ार पर ववजय प्राप्त करना
ऄंहकार को ऄपने ऄवधकार र्में लेना= ऄहक ं ार से परे होना ऄथालभत् जीवेश्वर थवरूप र्में वथथत होना आस
ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक र्मैं ऄवश्य वशवत्व प्राप्त करुाँगा गवान् श्री हरर ने ऄपने नीिे नाग को दबा
रखा ह।, ईसी को ऄपनी श।य्या बना रखी ह। वाथतव र्में ईन्होंनें ऄहक ं ार को नीिे दबा रखा ह। देवता शंकर
ऄपने गले र्में नाग लपेटे हैं ऄथालभत् ऄहकं ार को लेपेटे हैं ऄथवा ऄहक ं ार को ऄपने ऄवधकार र्में वलए हैं

सहस्त्र-दल कमल के ऊपर दवद्यमान हुआ


यह ऄनर व 15 जनर का ह। हर्मारे सार्मने कर्मल के िरल का थोड़ा-सा ाग वदखाइ दे रहा था आस
थोड़े से ाग र्में ढेर सारी पंखवर ड़यााँ थी र्मैं सर्मझ गया वक यह सहथर-दल कर्मल का वहथसा वदखाइ दे रहा
ह।, त ी कर्मल का शेष ाग ी प्रकट हो गया ऄब र्मैं आस सहथर-दल कर्मल को पणर लभ थवरूप र्में देख रहा
था िरल बहुत ही सन्र दर, पारदशी ज।सा तथा बहुत हकका गल र ाबी रंग का था र्मैं आसे देखकर र्मथर करा रहा
था र्मैं ऄपनी जगह से ऄपने अप अगे की ओर ईड़ता हुअ सा गया, विर सहथर-दल कर्मल के र्म्य र्में
खड़ा हो गया र्मैं सहथर-दल कर्मल के र्म्य र्में खड़ा हुअ िारों ओर देख रहा था सवलभर कर्मल की
पंखवर ड़यााँ वदखाइ दे रही थी वक त ी दृश्य बदला तथा हर्में दसर रा ऄनर व अ गया र्मैं ऄपने हाथ र्में र्मोटी
सी कर्मल की डण्डी वलए था कर्मल की डण्डी ऄन्दर से पोली थी, ईसकी लम्बाइ डेढ़ िरट रही होगी
अथय– सहथर-दल कर्मल ज्ञान का अयतन तथा परा-प्रकृ वत का क्षेर ह। कर्मल के उपर खड़ा
होना– परा-प्रकृ वत का पणर लभ ववकास होना कर्मल की डण्डी हाथ र्में लेना तथा ऄन्दर से वह पोली ह।–
संसार का थवरूप डण्डी की ााँवत ह। ज।सी डण्डी ऄन्दर से पोली होती ह।, व।सा ही यह संसार ऄन्दर से
सार-रवहत ह। ऄथालभत् ज।सा बाहर होता ह।, व।सा ही ऄन्दर ी होता ह। आस ऄवथथा र्में ऄभ्यासी संसार के
वाथतववक थवरूप को जान लेता ह। तथा प्रकृ वत के दोषों के ववषय र्में ी ज्ञान हो जाता ह।
ऄभ्यासी को वशवत्व (पणर लभताद त ी प्राप्त होता ह।, जब सहथर-दल कर्मल के उपर ईसके साथ
शव‍त ी ववराजर्मान हो शव‍त त ी ईसके साथ ववराज होती ह।, जब ऄभ्यासी सर्मथत प्रकृ वत को ऄपना

तत्त्वज्ञान 354
ही थवरूप ऄथालभत् ब्रह्म थवरूप सर्मझता ह। तब वह ऄन्वय योग को ी पणर लभ कर लेता ह। ऄ ी हर्में ऄन्वय
योग का ऄभ्यास करना ह। व।से र्मैं ऄन्वय योग का ऄभ्यास करने लगा ह,ाँ पररप‍व होने र्में सर्मय लगेगा

सहस्त्र-दल कमल
यह ऄनर व 13 जल र ाइ का ह। र्मैं ऄपनी करवटया र्में लेटा हुअ था हर्मारी अाँखें ऄपने अप बन्द
हो गइ अाँखें बन्द होते ही वदखाइ वदया वक हर्मारे वसर के बायीं ओर एक बहुत बड़ी कर्मल की कली ह।
ज।से ही हर्मारी दृवष्ट ईस कली पर पड़ी, कली तरर न्त तीव्र गवत से ववकवसत होने लगी ईसकी पंखवर ड़यााँ
तीव्रता से खल र रही थी र्मार 5-10 स।वकण्ड र्में िरल पणर लभ रूप से ववकवसत हो गया ऄब वह िरल बहुत
बड़ा वदखाइ दे रहा था ईस िरल र्में ऄनन्त पंखवर ड़यााँ थी र्मैं बोला– ‚यह तो सहथर-दल कर्मल ह। ‛ त ी
िरल हर्मारे वसर के ऄन्दर प्रवेश कर गया वसर के ऄन्दर प्रवेश करते ही हर्मारा वसर ऄदृश्य हो गया वसर
की जगह ऄब सहथर-दल कर्मल था सहथर-दल कर्मल हर्मारी गदलभन के उपर वथथत था र्मैं बोला- ‚यह
‍या हो गया, र्मेरा वसर कहााँ गया?‛ र्मैंने अाँखें खोल दी और सोिने लगा– अवखरकार सहथर-दल
कर्मल र्मार अाँखें बन्द करने पर वदखाइ दे रहा था, वसर ऄदृश्य हो गया था अाँखें खोले र्मैं जाग रहा था
वक त ी हर्मारी अाँखें विर बन्द हो गइ र्मझर े पहले ज।सा दृश्य विर वदखाइ वदया कली का तीव्रता से
ववकवसत होना, विर िरल का हर्मारे वसर के ऄन्दर प्रवेश होना, वसर का ऄदृश्य होना ऄब सहथर-दल
कर्मल हर्मारी गदलभन के उपर वथथत था, वजस प्रकार वसर गदलभन के उपर वथथत ह। र्मैंने ऄपनी अाँखें विर
खोल दी ओर सोिने लगा– ‚सहथर-दल कर्मल आस प्रकार ‍यों वदखाइ देता ह। ‛ करछ क्षणों बाद र्मेरी
अाँखें विर बन्द हो गइ, विर वही दृश्य पहले ज।सा वदखाइ वदया एक ही दृश्य तीनों बार वदखाइ वदया र्मैं
लेटा हुअ था, ईठकर ब।ठ गया असन लगाकर ्यान करने लगा, विर ज्ञान से पछर ा आस प्रकार के
ऄनर व का ऄथलभ ‍या ह।? तब र्मालर्मर हुअ- सहथर-दल कर्मल ज्ञान का अयतन ह। आसका सम्बन्ध परा-
प्रकृ वत से ह। यह सहथर-दल कर्मल परा-प्रकृ वत र्में पणर लभ रूप से व्याप्त ह। आस ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक
अपके शरीर र्में परा-प्रकृ वत का ऄवतरण हो गया ह। ऄथालभत् थथल र शरीर से लेकर वित्त तक सर्मान रूप से
शवर ि होना िावहए, वही शवर ि हो रही ह। अपकी ऄपरा-प्रकृ वत (वित्तद की पणर लभ रूप से शवर ि होने की यह
एक प्रवक्रया ह। जब ऄभ्यासी के वलए थथल र से लेकर प्रकृ वत पयलभन्त सर्मान शवर ि हो जाती ह।, तब वह
सद।व के वलए पणर लभता र्में वथथत हो जाता ह। ऄथालभत् ऄपने थवरूप र्में वथथत हो जाता ह। सहथर-दल कर्मल

तत्त्वज्ञान 355
का रंग पारदशी तथा हकका गल र ाबी था साधक के ऄन्दर परा-प्रकृ वत का ऄवतरण धीरे -धीरे ही होता ह।
ऄशि र प्रकृ वत (ऄपरा-प्रकृ वतद वजतनी शि र होगी, ईतना ही परा-प्रकृ वत का ऄवतरण होता जाएगा

जगत् का अदस्तत्व न जाने कहााँ दवलीन हो गया


यह ऄनर व 31 जल र ाइ का ह। र्मार अाँखें बन्द करने पर ही यह ऄनर व अया ऄंतररक्ष र्में िारों
ओर प्रकाश ि। ला हुअ ह। थटील के एक पार र्में (तसले ज।से पार र्मेंद थवच्छ राख री हुइ ह। यह पार
ऄंतररक्ष (अकाशद र्में ऄपने अप वथथत ह। आसी से राख ईड़ रही ह।, र्मानों कोइ राख को ईड़ा रहा ह। पार
ऄपने अप वतरछा होकर वहल रहा ह।, र्मानों कोइ आसे वहला रहा हो तसले से ढेर सारी राख नीिे की ओर
वगर रही ह।, वायर का वेग ी बहुत तेज ह। वायर के वेग के कारण राख तीव्र गवत से ईड़ती जा रही ह। और न
जाने ईड़कर राख कहााँ ववलीन होती जा रही ह।?
अथय– राख- कर्मालभशयों का जला हुअ ऄवशेष यह राख ईड़कर न जाने कहााँ (ज्ञान-रूपी प्रकाश
र्मेंद ववलीन होती जा रही ह। वृवत्तयों के द्रारा ही जगत् का ऄवथतत्व ह। वृवत्तयों के नष्ट हो जाने पर जगत्
का ऄवथतत्व ी नष्ट हो जाता ह। यह राख वित्त की वृवत्तयों की ह। ऐसा सर्मझो, कर्मालभशय जब योगाव‍न
द्रारा जलते हैं, तब राख रूपी ऄवशेष रह जाता ह। ऄनर व र्में राख ी ईड़कर ऄदृश्य हो गइ जीवन्र्मक्त र
ज्ञानी परूर ष के वलए भ्रावन्त की शांवत हो जाने पर जगत् का थवरूप ी नष्ट हो जाता ह। ईसकी दृवष्ट र्में
एक र्मार ब्रह्म ही ववद्यर्मान वदखाइ देता ह। ज।से खबर जले हुए घास-िरस की थर्म रावश (राखद वायर के वेग
से ईड़कर न जाने कहााँ िली जाती ह।, व।से ही अत्र्म थवरूप र्में ववश्रार्म प्राप्त हो जाने पर आस जगत् का
ऄवथतत्व न जाने कहााँ ववलीन हो जाता ह।

समता का अभ्यास करो


13 वसतम्बर को यह ऄनर व अया हर्में प्रकाश से यक्त र अकाश वदखाइ दे रहा था अकाश का
घनत्व बहुत ही कर्म था, त ी अकाश के ऄन्दर से अवाज अइ, ‚ऄब सर्मता का ऄभ्यास करो, तर्मर
आस यो‍य हो गये हो ‛ र्मैं आन शब्दों को सनर रहा था तथा वनर्मलभल थवच्छ अकाश ी देख रहा था एक बार

तत्त्वज्ञान 356
विर अकाश से अवाज अइ, ‚ऄब सर्मता का ऄभ्यास करो ‛ र्मैं बोला, ‚र्मैं सर्मता का ऄभ्यास
करुाँगा ‛
अथय– सर्मथत प्रावणयों को सर्मान रूप से देखना ऄथालभत् सर्मथत प्रावणयों के ऄन्दर ब्रह्म का दशलभन
करना ऄथालभत् ऄपना ही थवरूप र्मानना सर्मता कहलाता ह। यह ऄन्वय योग के द्रारा सम् व होता ह।
ऄन्वय योग र्में जड़ प्रकृ वत ब्रह्म थवरूप वदखाइ देती ह। सगणर ब्रह्म के साक्षात्कार के बाद ही सर्मता का
ऄभ्यास करना सम् व होता ह।

योगी तुम ऋदष हो


यह ऄनर व 21 वदसम्बर का ह। ऄत्यन्त थवच्छ कर्म घनत्व वाला अकाश ह। र्मैं अकाश की ओर
देख रहा हाँ वक त ी अकाश से अवाज अइ, ‚योगी तर्मर ऊवष हो, ऊवष क ी ी ससं ार के व्यवहार का
वितं न नहीं करता ह। तर्मर ने तो सम्पणर लभ ववश्व को र्माि कर वदया ह।, ऄब वसिलभ ऄपने र्में वथथत रहने का
प्रयास करो ‛ र्मैं शातं होकर सनर ता रहा, करछ नहीं बोला
अथय– ऄनर व र्में कहा गया वक तर्मर ऊवष हो, ऊवष संसार का वितं न नहीं करता ह। र्मैं शायद ससं ार
के व्यवहार से क्षब्र ध हो गया था ऄथवा ईसके ववषयों का विंतन करने लगा था, त ी ये शब्द हर्मसे
्यानावथथा र्में कहे गये ऊवष की यो‍यता हर्मारे ऄन्दर कब अइ, यह तो हर्में र्मालर्मर ही नहीं हुअ ऄपने
अपको ऄपने र्में वथथत करना, अत्र्मा को अत्र्मा र्में वथथत करना, यह ऄवथथा वथथत-प्रज्ञ की होती ह।
ऄ ी हर्मारी ऄवथथा जीवन्र्मक्त
र की ह।

तत्त्वज्ञान 357
सन् 2010
दचत्ताकाश से आगे
यह ऄनर व 4 जनवरी का ह। र्मैं अकाश र्में खड़ा ह,ाँ अकाश वबककरल वनर्मलभल व थवप्रकावशत-सा
ह। र्मैं शायद अकाश के र्म्य र्में खड़ा ह,ाँ हर्मारी दृवष्ट उपर की ओर ह। र्मैं पणर लभ रूप से शांत होकर
टकटकी लगाए वथथर दृवष्ट से उपर की ओर देख रहा था वक त ी उपर का अकाश बीि से िट गया
अकाश र्में र्मोटी दरार पड़ गइ, ईस दरार से ववशेष प्रकार का ि।तन्यर्मय प्रकाश-सा वदखाइ वदया ऐसी
ि।तन्यता र्मैंने पहली बार देखी थी अकाश बीि र्में से िट कर ईसके दोनों वकनारे ऄपनी-ऄपनी ओर को
हटते जा रहे थे ऄथालभत् वसकरड़ते जा रहे थे ऄथवा ऄदृश्य होते जा रहे थे र्मैं ईस िेतन तत्त्व को देख रहा
था अकाश का ऄवथतत्व नष्ट होता जा रहा था
अथय– पाठकों! आस ऄनर व को शायद शब्दों र्में नहीं वलख सकता ह,ाँ विर ी प्रयास कर रहा हाँ र्मैं
अकाश तत्त्व र्में शातं ाव से खड़ा उपर की ओर देख रहा हाँ जब अकाश उपर की ओर बीि से िट
गया तो लग ग एक वकलोर्मीटर लम्बी दरार सी पड़ गइ आतना ही लम्बा सम्पणर लभ अकाश वदखाइ दे रहा
था अकाश व।से ी थवच्छ व वनर्मलभल था र्मगर जब वह िट गया तब ावसत हुअ वक अकाश कपड़े
की ााँवत ह। तथा पणर लभ रूप से जड़ ह। र्मैं दरार के ईस पार वथथत (अकाश के ईस पारद ऄत्यन्त थवच्छ
वनर्मलभल वनखरे हुए प्रकाश को देख रहा था प्रकाश का थवरूप (अकारद दरार िौड़ी होते जाने के कारण
और ज्यादा वदखाइ देता जा रहा था अकाश का थवरूप घटता जा रहा था ऄनर व से थपष्ट होता ह। वक
अकाश रूपी अवरण हर्मारे तथा प्रकाश के बीि र्में पदे ज।सा ऄवरोध ह। ऄ ी तक यही अकाश (सक्ष्र र्म
अकाशद ऐसा वदखाइ देता था र्मानों यही ि।तन्य-सा ह। ऄथालभत् थवप्रकावशत ह। आस ऄनर व र्में अकाश
तत्त्व र्मार कपड़े ज।सा वदखाइ दे रहा था र्मैं प्रकाश के ववषय र्में करछ नहीं वलख सकता ह,ाँ ‍योंवक यह
वसिलभ ऄनर वर त का ववषय ह। आस प्रकार का प्रकाश र्मैंने पहली बार देखा था वववेक-ख्यावत के सर्मय ी
ऐसा थवरूप नहीं देखा था आस ऄनर व र्में वित्ताकाश से अगे की ऄवथथा वदखाइ दे रही ह।
र्मझर े वनबीज सर्मावध बहुत सर्मय से लगती ह।, तब र्मैं ऄपने थवरूप र्में ऄववथथत हो जाता ह,ाँ र्मगर
वित्ताकाश से अगे का दशलभन ऄब हुअ ह। आसके ववषय र्में के वल ऄनर वर त करने वाला ही जान सकता ह।
आसवलए क्षर्मा करना, र्मैं वलख नहीं पा रहा हाँ र्मैं आतना ऄवश्य वलख सकता हाँ वक सम्पणर लभ अकाश एक

तत्त्वज्ञान 358
कपड़े की ााँवत र्मैं ओढ़ सकता हाँ ऄथवा ओढ़ता हाँ यह ऄनर व वृवत्त के द्रारा वदखाया गया यह वृवत्त
की व्यापकता की िरर्म सीर्मा ह।

अपना जीवन मुझे दे दो


यह ऄनर व 4 जनवरी का ह। दोपहर का सर्मय था र्मैं ऄपनी करवटया र्में लेटा हुअ था, त ी हर्मारी
अाँखें बन्द हो गइ र्मैंने देखा वक सार्मने की ओर से एक परू र ष िला अ रहा ह। वह करवटया के दरवाजे से
ऄन्दर अ गया ईसने सिे द वथर पहने हुए थे, सिे द लम्बी सी दाढ़ी थी, वसर के बाल ी सिे द से थे
वह परुर ष ज।से ही करवटया के ऄन्दर अया तररन्त ऄदृश्य हो गया त ी अवाज अइ– ‚र्मैं अपसे करछ
र्मााँगने अया ह,ाँ ‍या अप र्मझर े दोगे?‛ र्मैं ईत्तर र्में िपर रहा तथा सोिने लगा वक र्मालर्मर नहीं ये परू
र ष ‍या
र्मााँगना िाहता ह। तथा ये कौन ह।? विर अवाज अइ– ‚र्मैं अपसे करछ र्मााँगने अया ह,ाँ ‍या अप देंगे?‛
र्मैं बोला– ‚र्मैं ऄवश्य दगाँर ा, अपको ‍या िावहए?‛ अवाज अइ– ‚र्मैं अपका जीवन र्मााँगता ह,ाँ हर्में
अपका जीवन िावहए ‛ ये शब्द सनर कर र्मैं िौंक पड़ा, सोिा वक ऄ ी र्मेरी र्मृत्यर तो नहीं हो सकती ह।,
विर ये र्मेरा जीवन ‍यों िाहते ह।? अवाज सनर ाइ दी- ‚र्मझर े अपका जीवन िावहए, ‍या दोगे?‛ र्मैं बोला-
‚र्मैं ऄपना जीवन अपको देता हाँ ‛ अवाज अइ– ‚ठीक ह।, ऄब अपका जीवन र्मेरा हुअ, ऄब आस
जीवन र्में जो ी प्राप्त होगा वह र्मेरा होगा िाहे अपको सम्र्मान प्राप्त हो, िाहे ऄपर्मान, वह सब र्मेरा
हुअ, र्मझर े प्राप्त होगा ‛ र्मैंने पछर ा– ‚अप कौन ह।?‛ अवाज अइ– ‚र्मैं तम्र हारा आष्ट हाँ ‛ ये शब्द सनर कर
र्मझर े अश्ियलभ हुअ तथा सोिा वक प्र र हर्मारा जीवन र्मााँग रहे हैं र्मैंने पछर ा- ‚सर्मावध ऄवथथा र्में ऄपने
थवरूप को ‍यों नहीं वदखाया?‛ अवाज अइ– ‚र्मैं ेष बदलकर ही आस प्रकार के कायलभ करता ह,ाँ परन्तर
वाथतववक थवरूप से र्मैं ऄपने अप र्में ववद्यर्मान रहता ह,ाँ आसवलए ऄब सद।व ्यान रखना वक अपका यह
जीवन ऄब र्मेरा ह। ‛
अथय– यह ऄनर व जा्र त ऄवथथा का ह। जब यह ऄनर व अया ईस व‍त र्मेरी अाँखें बन्द थी
जो परू
र ष करवटया के ऄन्दर अया, वह सक्ष्र र्म शरीर धारण वकए हुए था ईसे इश्वर का थवरूप ही कहा जा
सकता ह। इश्वर कहीं अता-जाता नहीं ह।, वह तो सवलभर ववद्यर्मान ह। इश्वर से प्रेरणा के द्रारा बात की थी
ऄनर व का ऄथलभ ह। वक संसार िाहे ज।सा व्यवहार करे र्मगर तर्मर संसार के व्यवहार से प्र ाववत र्मत होना
जब ऄभ्यासी इश्वर ऄथवा वनगलभणर ब्रह्म का सद।व र्मनन करता रहता ह। ऄथवा ऄववथथत रहता ह।, तब

तत्त्वज्ञान 359
ससं ार द्रारा वकया गया वकसी प्रकार का व्यवहार ईसे प्राप्त नहीं होता ह।, ‍योंवक वह सांसाररक पदाथों को
्र हण नहीं करता ह। वह तो ऄपरा-प्रकृ वत से पणर लभ रूप से परे होता ह। तथा ईसका वित्त इशवर ् के वित्त र्में
सद।व ऄन्तर्मलभखर ी रहता ह। ‚ऄब सब करछ इश्वर को ऄपलभण कर दो‛, यह ाव ऄनर व का ह।, र्मगर र्मैं तो
बहुत पहले ही सब करछ इश्वर को ऄपलभण कर िक र ा हाँ

सभी प्राणी तुम्हारे अुंश हैं


यह ऄनर व 30 जनवरी का ह। ्यानावथथा र्में र्मझर े सनर ाइ वदया– ‚स ी प्राणी तरम्हारे ही ऄंश हैं ‛
यह शब्द सनर ते ही हर्मारी अाँखें खल र गइ र्मैं सोिने लगा वक र्मैं यह ऄनर वर त क। से कर सकाँर गा वक स ी
प्राणी हर्मारे ही ऄंश हैं संसार र्में ववव न्न प्रकार के प्राणी हैं, वजनर्में करछ तो ऄत्यन्त ऄधर्मी हैं, तो आन्हें र्मैं
ऄपना ऄंश क। से र्मान सकता ह?ाँ त ी ज्ञान ने बताया– ‚अपके शरीर के ऄंग ी ववव न्न प्रकार के हैं,
ईन ऄंगों के कायलभ ी व न्नता को वलए हुए हैं, विर ी अप ईन्हें ऄपना र्मानते हैं ‛
अथय– आस प्रकार की ऄनर वर त ऄन्वय योग के द्रारा प्राप्त होती ह।, र्मैं आसका ऄभ्यास कर रहा हाँ
ज्ञान के द्रारा तो सब करछ र्मालर्मर ह।, र्मगर ौवतक जगत् र्में ऐसा र्मानने र्में हर्मारे र्मन को ी हर्मारा साथ
देना िावहए

आहट
यह ऄनर व 1 र्मािलभ का ह। ्यानावथथा र्में सनर ाइ वदया- ‚हे ज्ञानी परू र ष! ‍या तम्र हें करछ अहट
सनर ाइ नहीं दे रही ह।?‛ र्मैं अश्ियलभिवकत हुअ और बोला- ‚अहट, क। सी अहट! र्मैं आस शब्द का ऄथलभ
नहीं सर्मझा ‛ अवाज अइ- ‚ ववष्य की अहट, जो तम्र हारे ववष्य र्में अने वाला ह। तम्र हारा ववष्य
ऄत्यन्त ईज्ज्वल ह।, ववष्य र्में तर्मर ज्ञान के प्रकाश से सराबोर हो जाओगे, आन्तजार करो ववष्य का,
छोड़ो ईन सब बातों को वजन्होंने तरम्हारे साथ ऄधर्मलभ से यक्तर होकर व्यवहार वकया, यहााँ पर तम्र हारा कोइ
नहीं ह। पणर लभ रूप से प्रकाश र्में वथथत होकर ऄपने जीवन को थोड़े र्में सर्मेट लो, करछ सर्मय बाद ल र ोक को
त्याग कर ऄपने लोक र्में वथथत हो जाना ‛ हर्मसे और ी करछ कहा गया था र्मगर हर्में याद नहीं ह।

तत्त्वज्ञान 360
योगी की उपादध दी गई
यह ऄनर व 17 र्मािलभ को अया र्मैंने ्यानावथथा र्में देखा वक बहुत उपर ऄंतररक्ष र्में पवर लभ वदशा की
ओर एक परू र ष िला जा रहा ह।, ईसकी पीठ हर्मारी ओर थी वह दावहने हाथ र्में लाठी के सर्मान हरा वृक्ष
पकड़े हुए था वह पेड़ को आस प्रकार पकडेऺ था, ज।से बजर गर लभ (वृिद परू र ष लाठी लेकर िलता ह। सार्मने
बहुत उाँिाइ पर एक परू र ष प्रकट हो गया ईसके प्रकट होते ही र्मैं ऄपनी ऄनर वर त लाठी वाले परू र ष के
ऄन्दर करने लगा ऄब वह परू र ष हर्मारे सर्माने खड़ा था जो उपर ऄंतररक्ष र्में प्रकट हुअ था ईसकी
सिे द दाढ़ी लम्बी सी थी, वसर के बाल लम्बे-लम्बे थे, ईसने सिे द रंग के ढीले कपड़े पहने थे वह हर्मसे
बोला- ‚कौन कहता ह। वक तर्मर योगी नहीं हो, तर्मर योगी हो, प्रज्ज्ववलत दीप के सर्मान तर्मर प्रकाशर्मान
हो ‛ र्मैं ईसका र्माँहर देखता रहा, परन्तर ईससे करछ नहीं बोला
अथय– पवर लभ वदशा की ओर जाने वाला परू र ष र्मैं ही हाँ यह दृश्य कर्म घनत्व के ऄंतररक्ष र्में अया र्मैं
पहले दरर से यह दृश्य िष्टा रूप से देख रहा था, विर र्मैं ईसी परू र ष के ऄन्दर ऄपनी ऄनर वर त करने लगा,
‍योंवक वह र्मेरा ही थवरूप था लाठी की तरह एक हरा पेड़ पकड़े ह–ाँ यह पेड़ लाठी के सर्मान ही था
आसर्में र्मार करछ पवत्तयााँ लगी थी यह कटी हुइ डाली के सर्मान था आसका ऄथलभ ह। वक र्मैं संसार को पकड़े
हुए हाँ यह संसार हर्मारी यही पथर तक ह। वजसे र्मैं वलख रहा ह,ाँ ‍योंवक आस पथर तक (लेखद का सम्बन्ध
संसार से ही ह। आसवलए दृश्य र्में ऐसा वदखाइ वदया वजस सर्मय र्मैं यह लेख वलख लाँगर ा, तब यह लाठी
ज।सा पेड़ नष्ट हो जाएगा ईस परू र ष ने हर्में योगी की ईपावध दी ह।, त ी वह कह रहा ह। वक कौन कहता ह।
वक तर्मर योगी नहीं हो ऄथालभत् तर्मर योगी हो जब जीव और वशव एक हो जाते हैं, तब योगी की ईपावध
प्राप्त हो जाती ह। जब साधक को जीवन्र्मक्त र ऄवथथा प्राप्त हो जाती ह। तब वह योगी ही होता ह।, ‍योंवक
वह यह ी कह रहा ह। वक तर्मर दीपक के सर्मान प्रकाशर्मान हो ऄथालभत् प्रकाश देने वाले हो

परा-प्रकृदत का अवतरण
यह ऄनर व 3 जल र ाइ को सबर ह ्यानावथथा र्में अया र्मैंने देखा वक र्मैं ्यानावथथा र्में ब।ठा हुअ ह,ाँ
विर ी हर्में वदव्य दृवष्ट के द्रारा ऄपने वसर के उपर ऄंतररक्ष वदखाइ दे रहा था करछ क्षणों र्में देखा वक दरर
उपर की ओर ऄंतररक्ष से एक वदव्य थरी असन र्मिर ा र्में ब।ठी हुइ नीिे की ओर िली अ रही ह। नीिे
्यानावथथा र्में हर्मारा शरीर ब।ठा हुअ था वह वदव्य थरी सीधे नीिे अकर हर्मारे वसर के उपर (ऄथालभत्

तत्त्वज्ञान 361
सहथरार िक्र र्मेंद से हर्मारे ऄन्दर प्रवेश कर गइ, विर आस देवी के ऄनेकों थवरूप लगातार हर्मारे वसर के
उपरी ाग से हर्मारे ऄन्दर प्रवेश करते जा रहे थे ज।से पानी की धार नीिे की ओर वगराइ जाती ह।, ईसी
प्रकार आस देवी के ऄनन्त थवरूप तीव्रता से हर्मारे सहथरार िक्र र्में प्रवेश करते जा रहे थे देवी का प्रत्येक
थवरूप असन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ था तथा ईसके वसर पर बहुत ही सन्र दर र्मक र र ट लगा हुअ था र्मैं आस वक्रया
को देख रहा था आस देवी के वदव्य थवरूप को देखकर र्मैं बोला–‚यह तो गायरी देवी ह। ‛ गायरी देवी के
ऄनन्त थवरूप वनरन्तर हर्मारे वसर के ऄन्दर प्रवेश करते जा रहे थे त ी र्मझर े ऄपना सम्पणर लभ थवरूप वदखाइ
देने लगा हर्मारा थवरूप थिवटक र्मवण के सर्मान थवच्छ पारदशी अवरण र्मार था, अवरण के वसवाय
करछ ी नहीं था शरीर ऄन्दर से पणर लभ रूप से खोखला था हर्मारे शरीर के ऄन्दर धीरे -धीरे पानी के सर्मान
तरल पदाथलभ रता जा रहा था ज।से कााँि के वगलास र्में पानी रने पर बाहर से वदखाइ देता ह। वक वगलास
के ऄन्दर वकतना पानी रा ह।, ईसी तरह हर्मारे शरीर के ऄन्दर पानी ज।से तरल पदाथलभ का थतर उपर की
ओर बढ़ता हुअ वदखाइ दे रहा था यह पानी ज।सा तरल पदाथलभ हर्मारे शरीर र्में गले तक र गया था, विर
धीरे -धीरे वसर के उपरी ाग तक अ गया र्मझर े विर वदखाइ वदया वक गायरी देवी के थवरूपों का प्रवाह
वसर के उपरी ाग से हर्मारे शरीर के ऄन्दर अ रहा ह।
अथय– ऄनर व र्में हर्में गायरी देवी का ऄवतरण वदखाया गया ह।, व।से योगी के ऄन्दर परा-प्रकृ वत
का ऄवतरण होता ह। ऄनर व र्में ईस देवी को र्मैं गायरी देवी कहता हाँ परा-प्रकृ वत ही आस थवरूप से
ऄवतररत हुइ ह। परा-प्रकृ वत का प्रवाह हर्मारे शरीर के ऄन्दर अ रहा था लगातार प्रवाह अने के कारण
गायरी देवी के ऄनन्त थवरूप वनरन्तर हर्मारे सहथरार िक्र के क्षेर र्में प्रवेश करते जा रहे थे ऄनर व र्में र्मेरा
थवरूप अवरण र्मार था यह अवरण आतना थवच्छ था वक आसकी तल र ना थिवटक र्मवण से कर रहा हाँ
परा-प्रकृ वत का ऄवतरण हर्मारे शरीर के ऄन्दर ऄत्यन्त थवच्छ पारदशी तरल पदाथलभ के सर्मान वदखाइ दे
रहा था र्मैंने आस तरल पदाथलभ की तल र ना थवच्छ पानी से की ह। आस ऄनर व का ऄथलभ ह।- परा-प्रकृ वत का
पणर लभ ऄवतरण हर्मारे ऄन्दर हो िक र ा ह।, आसकी ऄनर वर त हर्में धीरे -धीरे होगी

समस्त ब्रह्माण्ड को धारण कर दलया


यह ऄनर व जल र ाइ के प्रथर्म सप्ताह र्में अया र्मैं सर्मावध ऄवथथा र्में कह रहा हाँ वक सर्मथत प्रावणयों
र्में ब्रह्म के विंतन का प्रवाह बहे सर्मथत प्राणी ब्रह्मर्मय हो जाएाँ, स ी प्रावणयों का ककयाण हो, संसार के

तत्त्वज्ञान 362
सर्मथत प्राणी हर्मारे ही थवरूप हैं, र्मैं सर्मथत प्रावणयों के ऄन्दर ववद्यर्मान हाँ विर र्मैं िपर हो गया करछ क्षणों
के बाद हर्में वदखाइ वदया वक सार्मने की ओर एक परू र ष सहजासन र्मिर ा र्में ब।ठा हुअ ह।, आस परूर ष की गोद
र्में एक गोलाकार वपण्ड रखा हुअ ह। वह परू र ष वपण्ड को दोनों हाथों से पकड़े हुए ह। यह वपण्ड तीव्र गवत
से घर्मर (‍लॉक वाइजद रहा ह।
अथय– गोलाकार वपण्ड को धारण करने वाला परू र ष र्मैं ही हाँ गोलाकार वपण्ड ऄपरा-प्रकृ वत का
थवरूप ह।, र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत को धारण वकए हुए हाँ

समस्त ब्रह्माण्ड मेरे चारों ओर घूम रहा है


यह ऄनर व जल र ाइ के प्रथर्म सप्ताह र्में ्यानावथथा र्में अया र्मैंने नीिे की ओर देखा तो वदखाइ
वदया वक हर्मारे िारों ओर ररंग के अकार र्में िौड़ा क्षेर तीव्र गवत से घर्मर रहा ह। र्मैं के न्ि र्में वथथत वथथर
रूप से ववद्यर्मान हाँ र्मझर े ऄपने थवरूप की याद अइ, तब र्मैंने ऄपने अप को देखा तो वदखाइ वदया वक र्मैं
र्मानव थवरूप वाला नहीं ह,ाँ बवकक ऄतं ररक्ष के र्म्य र्में गोलाकार लम्बा-सा उपर की ओर उाँिा ईठा
हुअ वपण्ड ज।सा वथथत हाँ देखने र्में खड़े रूप र्में लट्ठे के सर्मान ह,ाँ वपण्ड के उपरी ाग से र्मैं िारों ओर
तथा नीिे की ओर देख रहा हाँ नीिे की ओर हर्मारे िारों ओर का क्षेर ररंगाकार र्में घर्मर रहा ह।
अथय– ऄनर व र्में ऄतं ररक्ष के र्म्य र्में लट्ठे के सर्मान खड़ा हुअ र्मैं ब्रह्म थवरूप वाला हाँ हर्मारे िारों
ओर ऄपरा-प्रकृ वत ि‍कर लगा रही ह। ब्रह्म थवरूप होने के कारण र्मैं कहीं से ी देख सकता हाँ आस
प्रकार के ऄनर व कइ बार अए

तुम्हारे अन्दर ब्रह्मऋदष के गुण आने लगे हैं


यह ऄनर व जल र ाइ के प्रथर्म सप्ताह का ह। सबर ह 10 बजे र्मैं करछ कायलभ कर रहा था वक त ी र्मैं जोर
से बोल पड़ा- ‚तम्र हारे ऄन्दर ब्रह्मऊवष के गणर अने लगे हैं ‛ ऄपने र्माँहर से ये शब्द सनर कर र्मैं िौंक पड़ा
करछ क्षणों बाद र्मेरे र्माँहर से विर यही शब्द वनकले- ‚तरम्हारे ऄन्दर ब्रह्मऊवष के गणर अने लगे हैं ‛ विर र्मैं
अाँखें बन्द करके ्यान र्मरिा र्में ब।ठ गया, तब र्मझर े ऄंतररक्ष से ये शब्द सनर ाइ देने लगे- ‚तम्र हारे ऄन्दर
ब्रह्मऊवष के गणर अने लगे हैं ‛ विर र्मैंने पछर ा- ‚हर्मारे र्माँहर से ऐसे शब्द ‍यों वनकल रहे थे ऄथवा ऄब

तत्त्वज्ञान 363
‍यों सनर ाइ दे रहे हैं?‛ ईत्तर वर्मला- ‚हााँ, यह सि ह।, यह गणर अपके ऄन्दर अने लगे हैं, ‍योंवक ऄब
अप स ी को क्षर्मा कर देते हैं, स ी से वनन्दा सनर लेते हो तथा सर्मथत प्रावणयों के ककयाण की कार्मना
रखते हो अप स ी प्रावणयों को ऄपना ही थवरूप र्मानते हैं ‛ विर र्मैं करछ न बोला

सम्पूणय इच्छाओ ुं से रदहत होना


9 जलर ाइ को सायंकाल र्मैं ऄपने अश्रर्म र्में गवान शंकर के िबतर रे पर ब।ठा हुअ ्यान कर रहा
था वक त ी ऄनर व र्में देखा– िबतर रे पर बने वशववलंग के थथान पर काँर अ बना हुअ ह। काँर ए के ऄन्दर
का दृश्य नीिे तक हर्में वदखाइ नहीं दे रहा ह।, ‍योंवक र्मैं काँर ए से थोड़ा दरर ब।ठा हुअ ह,ाँ र्मगर काँर ए की ओर
देख रहा हाँ काँर ए के ऄन्दर एक-डेढ़ र्मीटर की गहराइ तक वदखाइ दे रहा था वक त ी अवाज अइ- ‚काँर ए
के ऄन्दर झााँक कर देखो तो ‛ र्मगर र्मैंने झााँक कर नहीं देखा विर से अवाज अइ– ‚ काँर ए के ऄन्दर
झााँक कर देखो ‛ र्मैंने आस बार ी झााँक कर नहीं देखा तथा ऄपने ऄन्दर सोिा– ‚‍या देखं,र आसके ऄन्दर
तो राख री ह। ‛ त ी वदखाइ वदया की काँर अ नीिे की ओर से उपर की ओर रता अ रहा ह।, ईसर्में
शिर साि राख री ह। करछ ही क्षणों र्में उपर तक राख र अइ
यह काँर ए वाला दृश्य तब अया जब ्यान पर ब।ठते ही र्मैं बोला- ‚आन वर्मट्टी के वपण्डों ऄथालभत् र्मााँस
के वपण्डों र्में ‍या रखा ह।, ये तो वसिलभ िलते-विरते र्मााँस के वपण्ड हैं जीव ऄकारण ही भ्रर्म र्में पड़ा हुअ
ह। ‛
अथय– काँर अ ऄपरा-प्रकृ वत व वित्त ह। राख स ी प्रकार की आच्छाओ ं का शांत हो जाना ह। यह
राख जले हुए कर्मालभशयों का ऄवशेष ह।

अपरा-प्रकृदत का स्वरूप
यह ऄनर व 16 जल र ाइ को ्यानावथथा र्में अया सार्मने की ओर छोटा-सा क्षेर ‍लॉक वाइज
घर्मर ता हुअ वदखाइ दे रहा था ईस क्षेर के र्म्य र्में काला नाग िन ईठाए खड़ा हुअ था सम्पणर लभ क्षेर
घर्मर ने के कारण नाग ी ऄपनी जगह पर घर्मर रहा था नाग जड़ रूप र्में थपष्ट वदखाइ दे रहा था ऐसा लग

तत्त्वज्ञान 364
रहा था र्मानों वह काली वर्मट्टी का बना हो सम्पणर लभ क्षेर ्र ार्मोिोन के ररकाडलभ के सर्मान ‍लॉक वाइज घर्मर
रहा था करछ सर्मय तक र्मैं यह ऄनर व देखता रहा
विर आसी प्रकार का वर्मलता-जल र ता ऄनर व 3 ऄगथत को अया सार्मने थोड़ा नीिे की ओर एक
प्रकाशर्मान थरी का िेहरा व गदलभन वदखाइ दे रहा था ईस थरी का िेहरा दावहनी करवट के बल सो रहा
था यह दृश्य एक-डेढ़ िीट व्यास के गोलाकार क्षेर के ऄन्दर वदखाइ दे रहा था आस गोलाकार क्षेर के
बाहर िारों ओर तेज प्रकाश ि। ला हुअ था थरी का िेहरा प्रकाश द्रारा बना था गोलाकार क्षेर र्में घर्मर ते
सर्मय ईसका िेहरा ी घर्मर रहा था ऐसा लगता था र्मानों यह िेहरा गहरी वनिा र्में सो रहा हो र्मैं आस दृश्य
को टकटकी लगाए देख रहा था वक त ी थरी के िेहरे के थथान पर िन ईठाये हुए नाग वदखाइ देने लगा
ऄथालभत् थरी का िेहरा िन ईठाये हुए नाग के रूप र्में पररववतलभत हो गया यह ी थरी के िेहरे के सर्मान
प्रकाश द्रारा बना हुअ था नाग एक िीट उाँिा व िन ईठाये हुए था नाग का शरीर नहीं वदखाइ दे रहा
था, वसिलभ िन व िन से लगा हुअ थोड़ा-सा शरीर का ाग वदखाइ दे रहा था वह गोलाकार क्षेर पहले
की ााँवत घर्मर रहा था ऄ ी ईस क्षेर ने ‍लॉक वाइज दो ही ि‍कर लगाए थे, त ी नाग ऄदृश्य हो गया
ईस थथान पर विर से पहले वाला थरी का िेहरा प्रकट हो गया, वह िेहरा गहरी नींद र्में सो रहा था
गोलाकार क्षेर तीव्र गवत से ‍लॉक वाइज ऄपनी जगह पर ऄब ी घर्मर रहा था
अथय– आस ऄनर व र्में सम्पणर लभ दृश्य बहुत ही कर्म घनत्व वाला था, आसवलए प्रकाश द्रारा बना था
थरी का िेहरा ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप ह। तथा नाग ऄहक ं ार का थवरूप ह। ‍लॉक वाइज घर्मर ना ऄथालभत्
गवत करना ह।, यह ऄपरा-प्रकृ वत का थव ाव ह। आस ऄनर व र्में ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप र्मार थोड़ा-सा ही
ह।, वह ी ऄत्यन्त शि र ह। तथा सषर प्र तावथथा र्में ह। ऄथालभत् नष्ट हुए के सर्मान ह। ऄपरा-प्रकृ वत से प्रकट
हुअ ऄहक ं ार ही सृवष्ट का कारण बनता ह। सर्मथत सृवष्ट ऄहक ं ार के द्रारा ईत्पन्न हुइ ह।, आसवलए ऄनर व
र्में थरी के िेहरे के थथान पर नाग वदखाइ दे रहा था यह ऄवथथा हर्मारे वित्त की ह।

मैं सवोच्च दस्थदत के पास


यह ऄनर व 3 ऄगथत को ्यानावथथा र्में अया र्मैं सीढ़ी के उपर खड़ा ह,ाँ सम्पणर लभ सीढ़ी ऄत्यन्त
तेज प्रकाश के द्रारा बनी हुइ ह। सीढ़ी के वजस पायदान पर र्मैं खड़ा ह,ाँ ईस पायदान से उपर की ओर दो
पायदान और हैं र्मैंने नीिे की ओर देखा तो वदखाइ वदया वक नीिे ववशाल र्महलनर्मर ा र्मकान बना हुअ ह।

तत्त्वज्ञान 365
सीढ़ी आसी र्महलनर्मर ा र्मकान की छत के उपर वबककरल सीधी 90 ऄंश (नब्बे ऄंशद के कोण के सर्मान
ऄंतररक्ष र्में खड़ी हुइ ह। ऄब र्मैं उपर के दोनों पायदानों की ओर देख कर बोला– ‚ऄ ी दो पायदान
िढ़ना और शेष ह।, लो एक पायदान और िढ़ जाता हाँ ‛ त ी सीढ़ी पर एक पायदान और िढ़ गया आस
पायदान पर प।र रखते सर्मय थोड़ा-सा जोर लगाना पड़ा विर पायदान पर अरार्म से खड़े होकर आधर-ईधर
देखने लगा िारों ओर तेज प्रकाश ि। ल हुअ था ऐसा लग रहा था ज।से र्मैं बहुत उपर ऄंतररक्ष र्में खड़ा
हाँ ऄब सीढ़ी की सबसे उपर की पायदान िढ़ना शेष रह गया था, र्मगर ईस पायदान की ओर ्यान नहीं
वदया सीढ़ी के पायदान बहुत िौड़े थे, ईस पर खड़े होकर आधर-ईधर एक दो कदर्म घर्मर ा जा सकता था
अथय– सीढ़ी पर िढ़ना ईन्नवत का प्रतीक ह। यह सीढ़ी ज्ञान की ऄवथथाओ ं की प्रतीक ह।, आसवलए
ज्ञान की सातों ऄवथथाओ ं की प्रतीक हैं ऄनर व र्में र्मैं ज्ञान के पााँिवे पायदान पर खड़ा था, विर छटवें
पायदान पर खड़ा हो गया अखरी पायदान ऄथालभत् ज्ञान का सातवां पायदान ऄ ी शेष ह। र्मैं अवखरी
पायदान की ओर ्यान नहीं देता ह,ाँ ‍योंवक यह पायदान तरर ीयातीत ऄवथथा वाला ह। ऄ ी-ऄ ी र्मैं ज्ञान
की छटवीं पायदान पर अया हाँ यह ऄवथथा ऄभ्यास के द्रारा कइ वषों र्में पररप‍व कर पाउाँगा, तब
सातवीं पायदान की ऄवथथा प्राप्त की जा सकती ह। यह वनवश्ित ह। वक ज्ञान के सातवें पायदान पर
ऄभ्यास करके ही आस थथरल शरीर का त्याग करुाँगा ज्ञान की िौथी ऄवथथा प्राप्त होने पर जीवन्र्मक्त र
ऄवथथा प्राप्त हो जाती ह। िौथी, पााँिवी और छटवीं ऄवथथा वाले साधक को जीवन्र्मक्त र ऄवथथा वाला
कहा जाता ह। वजस ऄभ्यासी ने ऄपने वित्त की वृवत्तयााँ पणर लभ रुप से वनरुि कर दी हैं, ईसे ज्ञान की सातवीं
ऄवथथा वाला कहा जाता ह। आसी को वथथत-प्रज्ञ ऄथवा अत्र्मवथथत परू र ष कहते हैं ऄ ी आस प्रकार का
ऄभ्यास र्मैं नहीं कर सकता ह,ाँ ‍योंवक ऄ ी प्रकृ वत के करछ कायलभ करने हैं

आकाश तत्त्व
यह ऄनर व 28 ऄगथत को अया र्मैं अकाश र्में खड़ा हुअ उपर की ओर देख रहा था उपर
अकाश र्में एक काला नाग ववद्यर्मान था वह काला नाग काले रंग की वर्मट्टी का बना हुअ था देखने र्में
नाग पणर लभ रूप से जड़ रूप वाला वदखाइ दे रहा था ईसका अधा शरीर करण्डली के रूप र्में था तथा र्माँहर की
ओर वाला अधा शरीर नीिे की ओर लटका हुअ था ऄथालभत् ईस नाग का र्माँहर नीिे की ओर लटका
हुअ था र्मैं नाग को देख रहा था तथा सोि रहा था वक वकतने थवच्छ अकाश र्में यह गन्दा काला-सा

तत्त्वज्ञान 366
नाग ह। त ी देखा तो नीिे की ओर से अकाश िटाइ के सर्मान िोकड होने लगा (र्मड़र ने लगाद, ऐसा लग
रहा था र्मानों कोइ िटाइ र्मोड़ रहा हो वह अकाश र्मरड़ता हुअ ऄथालभत् िोकड होता हुअ उपर की ओर
िला गया ईसी के ऄन्दर नाग ी र्मड़र कर ऄन्दर बन्द हो गया हर्में जो थवच्छ अकाश वदखाइ दे रहा
था, ईसकी उपरी पतली परत ही र्मड़र रही थी (िोकड हो रही थीद अकाश की उपरी परत िोकड होने के
बाद ऄत्यन्त वनर्मलभल थवच्छ (पहले से ज्यादा वनर्मलभलद व शांत अकाश वदखाइ देने लगा था
अथय– नाग ऄहक ं ार का थवरूप ह। आस ऄहक ं ार के बवहर्मलभख
र होने पर सृवष्ट का कायलभ होना शरू
र हो
जाता ह। अकाश िटाइ के सर्मान नीिे से उपर की ओर िोकड हो गया, यह वित्त का अवरण था, आसे
वित्ताकाश कहते हैं वित्ताकाश पणर लभ रूप से नष्ट नहीं हुअ ह।, बवकक िटाइ के सर्मान र्मड़र ता हुअ उपर
की ओर िला गया वित्ताकाश के हटने के बाद अकाश ऄत्यन्त थवच्छ परर्म् शांत वदखाइ दे रहा था

अपरा-प्रकृदत को अपने दसर के नीचे दबा दलया


यह ऄनर व 28 वसतम्बर को अया था पीली साड़ी पहने, सन्र दर शरीर व गोरे रंग वाली थरी हर्मारे
सार्मने लेट गइ ईसका वसर पवश्िर्म वदशा की ओर था, ईसी से विपक कर पवर लभ वदशा की ओर र्माँहर करके
र्मैं ी लेट गया र्मैंने ईस थरी के दोनों प।रों को पकड़कर ऄपने वसर के नीिे दबा वलया ऄब र्मैं ईस थरी के
प।रों के पंजे ऄपने वसर के नीिे दबाए था, हर्म दोनों एक दसर रे का र्माँहर देख रहे थे वह थरी करछ बोले जा
रही थी, र्मगर र्मैं सर्मझ नहीं पा रहा था वक वह ‍या कह रही थी? यह दृश्य कर्म घनत्व वाले अकाश र्में
वदखाइ दे रहा था
अथय– यह थरी ऄपरा-प्रकृ वत थी, आसवलए ईसका वसर पवश्िर्म की ओर था पवश्िर्म वदशा का ऄथलभ
होता ह।, नीिे की ओर ईन्र्मख र ऄथवा सृवष्ट ईन्र्मख र होना र्मैं पवर लभ वदशा की ओर वसर वकए हाँ ऄथालभत्
क। वकय ईन्र्मख र हाँ ऄनर व र्में र्मैंने ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपने नीिे दबा रखा ह। वह थरी करछ कह रही ह।
ऄथालभत् हर्में ससं ार र्में करछ कायलभ करने होंगे

तत्त्वज्ञान 367
मैं दछर से उस पार चला गया
यह ऄनर व 16 ऄ‍तबर र को सबर ह ्यानावथथा र्में अया उपर की ओर ऄंतररक्ष र्में गोलाकार
वछि ह। र्मैं आस गोलाकार वछि से ऄपने अप उपर की ओर जाने लगा हर्मारा शरीर कर्मर तक उपर की
ओर िला गया शरीर का शेष वनिला ाग वछि से नीिे की ओर बना रहा वछि के उपरी क्षेर र्में देखा–
प्रकाश र्मान क्षेर र्में एक ववशेष प्रकार का क्षेर ह। ईसी क्षेर से पानी की पतली धारा प्रकट होकर वछि की
ओर अ रही ह। आसी धारा र्में एक र्मानव अकार बहता हुअ वछि की ओर अने लगा
अथय– आस वछि के ववषय र्में र्मैं पहले ी वलख िक र ा हाँ ऄपरा-प्रकृ वत और परा-प्रकृ वत के बीि र्में
वछिनर्मर ा ावसत होने वाली जगह ह। व।से वाथतव र्में वछि नहीं ह।, वसिलभ ावसत होता ह। आसके उपरी ाग
र्में परा-प्रकृ वत ह।, वनिले ाग र्में ऄपरा-प्रकृ वत ह। अधा शरीर हर्मारा परा-प्रकृ वत के क्षेर र्में िला गया
परा-प्रकृ वत र्में पानी की धारा प्रकट होकर वछि की ओर अ रही थी, यहीं से ऄपरा-प्रकृ वत का सक्ष्र र्म रूप
से प्राकट्य होता ह।, विर सृजन का कायलभ करती ह। ऄपरा-प्रकृ वत के प्रवाह र्में बहता हुअ जीव (र्मानव
अकारद जीवत्व के प्राप्त होने संसार र्में जन्र्म ्र हण करने के वलए अ जाता ह। योगी को परा-प्रकृ वत का
साक्षात्कार नहीं हो सकता ह।, आसवलए यह दृश्य वसिलभ ऄपरा-प्रकृ वत से सम्बंवधत वदखाया गया ह। आसी
ववशेष प्रकार के क्षेर र्में ऄपरा-प्रकृ वत र्महाप्रलय के सर्मय बीज रूप र्में ववद्यर्मान रहती ह।

दचत्त की चुंचलता शाुंत हो गई


यह ऄनर व 21 ऄ‍तबर र का ह। िारों ओर झील के सर्मान पानी रा हुअ ह।, पानी गहरा व शांत
ह। र्मैं पानी के उपर खड़ा ह,ाँ हर्मारे प।रों के पंजे पानी के ऄन्दर डरबे से ह। र्मैं पवर लभ वदशा की ओर र्माँहर करके
वकसी परू र ष से कह रहा ह-ाँ ‚र्मैं पानी के उपर िल सकता हाँ ‛ हर्मारे कहते ही पानी की उपरी परत बिलभ
के रूप र्में पररववतलभत होने लगी ऄब र्मैं बिलभ के उपर बड़े अरार्म से िल रहा था र्मैं वजस ओर पानी के
उपर िलता, ईसी ओर पानी की उपरी सतह बिलभ के रूप र्में बदल जाती थी
अथय– झील के सर्मान रा हुअ पानी संसार का थवरूप व वित्त वृवत्तयों का थवरूप ह। पानी के
उपर िलना ऄथालभत् संसार के उपर िलना पानी का बिलभ के सर्मान बनना ऄथालभत् वृवत्तयों का परर्म् शांत
होना या वनरुि हो जाना आस ऄनर व र्में वदखाया गया ह। वक हर्मारे वलए वित्त ऄब शांत हो गया ह। संसार
का थवरूप ववद्यर्मान रहते हुए ी र्मैं ईसके प्र ाव से परे हाँ

तत्त्वज्ञान 368
परम् शाुंत
यह ऄनर व 25 ऄ‍तरबर को ्यानावथथा र्में अया हर्मारी दृवष्ट नीिे की ओर थी, नीिे की ओर
हकके प्रकाश र्में यह दृश्य वदखाइ वदया दृश्य र्में हाइवे (िौड़ी सड़कद के सर्मान ऄण्डाकार थवरूप था
ऄथवा िौड़ा पट्टी-नर्मर ा क्षेर ऄण्डाकार रूप र्में था आसी िौड़े पट्टी-नर्मर ा क्षेर पर एक प्रकार का प्रवाह
बह रहा था वजतने क्षेर पर प्रवाह बह रहा था, वह क्षेर ऄन्य क्षेर से थोड़ा ऄवधक प्रकावशत था र्मैं आस
प्रवाह को ऄण्डाकार पररवध र्में बहते हुऐ देखकर ही सर्मझ गया था वक यह ऄपरा-प्रकृ वत का क्षेर ह। यही
प्रवाह सृवष्ट का थवरूप ह। ऄब र्मैंने ऄपनी दृवष्ट नीिे की ओर से हटा ली विर ऄपने अप र्में ऄववथथत
होकर सोिने लगा वक यही ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप ह।, वजसर्में सर्मथत प्रावणयों का जीवन िक्र घर्मर ता
रहता ह। ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप देखने के बाद र्मैं ऄपने अप र्में शातं हो गया, बहुत सर्मय तक वबककरल
शातं ब।ठा रहा करछ सर्मय बाद र्मैंने विर नीिे की ओर दृवष्ट की, हर्में विर से पहले ज।सा दृश्य वदखाइ
वदया र्मैं सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत से उपर वथथत (ऄपने थवरूप र्में वथथतद परर्म् शातं था
अथय– ऄनर व र्में ऄपरा-प्रकृ वत की सृवष्ट का प्रवाह ऄण्डाकार रूप र्में बह रहा था यह प्रवाह वायर
तत्त्व का था, यह सम्पणर लभ प्रवाह अकाश तत्त्व र्में वथथत था सम्पणर लभ सृवष्ट अकाश तत्त्व के ऄन्दर ही वायर
तत्त्व के द्रारा रिी जाती ह। सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत का क्षेर वबककरल छोटा-सा था र्मैं ऄपरा-प्रकृ वत के क्षेर
को ऄपने प।र के तलवे के नीिे दबा सकता था, ‍योंवक हर्मारा थवरूप बहुत ही ववशाल था आस ऄनर व
को देखकर हर्मारी आच्छा नहीं होती ह। वक दबर ारा जन्र्म ्र हण करने के वलए आस संसार र्में (सृवष्ट र्मेंद अउाँ
ऄब हर्मारा र्मन परर ी तरह से ऄपरा-प्रकृ वत से ईदासीन हो गया ह।

हे ईश्वर! इन सभी को माफ कर दो


यह ऄनर व 25 ऄ‍तबर र को रावर 11 बजे अया ्यानावथथा के सर्मय ऄपरा-प्रकृ वत र्में वथथत
प्रावणयों की याद अइ वक सम्पणर लभ प्राणी आसी ऄपरा-प्रकृ वत को ऄपना सर्मझकर दःर खों का ोग कर रहे हैं
हर्में सर्माज के बहुत से लोगों ने ऄकारण ही ऄपर्मावनत वकया र्मझर े र्मालर्मर ह। वक आन स ी को ईनके कर्मों
की सज़ा वर्मलेगी र्मझर े आन स ी र्मनष्र यों पर दया अइ, वजन्होंने हर्में ऄकारण ही ऄपर्मावनत वकया तथा
कष्ट पहुिाँ ाया र्मैंने इश्वर से प्राथलभना की– ‚हे इश्वर! आन स ी र्मनष्र यों को र्माि कर दो, वजन्होंने हर्में
ऄपर्मावनत वकया व कष्ट पहुिाँ ाया ह। ये स ी ऄज्ञानी ह।, आन्हें हर्मारी वाथतववकता का ज्ञान नहीं ह। ऄत:

तत्त्वज्ञान 369
हर्में आन स ी र्मनष्र यों से कोइ वशकायत नहीं ह। आसवलए आनके ऄपराध क्षर्मा कर वदए जाएाँ, ये स ी क्षर्मा
के पार हैं ‛ विर र्मैं शांत होकर ऄपने थवरूप र्में वथथत हो गया
अथय– जब र्मैंने ऄपरा-प्रकृ वत को उपर वलखे ऄनर व वाले थवरूप र्में देखा तथा ऄपने थवरूप की
ऄनर वर त की तब र्मझर े ईन र्मनष्र यों के प्रवत दया ाव अ गया वजन्होंने हर्में ऄकारण ही कष्ट पहुिाँ ाये थे
ऐसे र्मनष्र यों से हर्में वकसी प्रकार का कोइ व।र- ाव नहीं ह।, बवकक र्मैं आन स ी र्मनष्र यों का अ ारी ह,ाँ
‍योंवक आन्होंने हर्में योग के ऄभ्यास र्में आस ऄवथथा पर पहुिाँ ने र्में हर्मारी सहायता की ह।

मैं ही सदृ ष्ट वाला वृक्ष हाँ


यह ऄनर व 29 नवम्बर को ्यानावथथा र्में अया र्मैं सार्मने की ओर देख रहा हाँ हर्मारे यहााँ से दरर
तक वृक्ष की एक शाखा ववद्यर्मान ह। आस शाखा के अवखरी वसरे पर एक र्मगर े ने ऄपनी िोंि र्मारी र्मगर े के
द्रारा वृक्ष की शाखा पर िोंि र्मारते ही शाखा हर्मारी ओर को वसकरड़ने लगी र्मैं आस दृश्य को देखकर
अश्ियलभिवकत हुअ र्मगर ालभ ऄपने प।रों के द्रारा धीरे -धीरे ऄतं ररक्ष र्में िलता हुअ हर्मारी ओर िला अ रहा
था तथा शाखा के अवखरी वसरे पर िोंि ी र्मारता जा रहा था शाखा वसकरड़ती हुइ हर्मारी ओर िली
अ रही थी, त ी र्मैंने देखा वक सम्पणर लभ शाखा धीरे -धीरे हर्मारे शरीर के ऄन्दर प्रवेश करके ऄदृश्य हो गइ
ऄब र्मैंने ऄपने अप को देखा तो देखा वक हर्मारा शरीर नहीं था, बवकक शरीर के थथान पर बहुत र्मोटा
वृक्ष का तना था यह तना पणर लभ रूप से सख र ा हुअ था आसर्में बाहरी वछलका ी नहीं था तथा ऄन्दर की
ओर से परर ी तरह से खोखला था सख र े तने की लकड़ी की परत िार आिं र्मोटी रही होगी, तने का व्यास
बहुत ज्यादा था ऐसा लगता था ज।से यह ऄत्यन्त ववशाल वृक्ष का तना था तने का थवरूप पणर लभ रूप से
नष्ट हुए के सर्मान था, वसिलभ थवरूप र्मार ावसत-सा हो रहा था
अथय– वृक्ष की शाखा का ऄथलभ ह।– संसार र्में वकसी ववषय के सम्बन्ध का प्रतीक होना यह
सासं ाररक ववषय यही लेख ह। आस लेख को पथर तक के रूप र्में सर्माज का र्मागलभदशलभन करना ह। ऄब यह
कायलभ पणर लभ सा हो गया ऄथवा हो जाएगा यह कायलभ इश्वर से प्रेररत हुअ प्रकृ वत का ही कायलभ ह। वृक्ष ससं ार
का थवरूप ह। र्मझर े ऄपना शरीर वदखाइ नहीं दे रहा ह।, बवकक र्मैं थवयं वृक्ष के तने के रूप र्में हाँ ऐसा
आसवलए वदखाइ वदया, ‍योंवक र्मैं ऄब ऄपने थवरूप से सवलभर व्याप्त हाँ आस व्यापकता के कारण यह ससं ार
र्मझर े ऄपने थवरूप र्में वदखाइ दे रहा ह। तत्त्वज्ञान के द्रारा र्मझर े ज्ञात ह। वक ब्रह्म ही सवलभर व्याप्त ह।, सृवष्ट का

तत्त्वज्ञान 370
कोइ ऄवथतत्व नहीं ह। ऄभ्यास के द्रारा र्मैंने ऄपने अपको ऄपने थवरूप र्में वथथत कर वलया ह। तथा
ब्रह्मरस से ओत-प्रोत रहता हाँ ऐसी ऄवथथा र्में सृवष्ट ववद्यर्मान रहते हुए ी नष्ट हुए के सर्मान ह।, आसवलए
ऐसा ऄनर व अया ह। संसार का थवरूप ऄन्दर व बाहर से सख र े खोखले वृक्ष के तने के सर्मान ह। संसार
का ऐसा थवरूप तत्त्वज्ञानी के वलए होता ह। आस वृक्ष के ववषय र्में गीता के पन्िहवें ऄ्याय के पहले
शलोक र्में वणलभन वकया गया ह।

हमारा स्थूल शरीर प्रारब्ध वेग के िारा सधा हुआ है


यह ऄनर व 6 वदसम्बर को अया र्मैं एक ब।लगाड़ी के उपर खड़ा हुअ ह,ाँ ब।लगाड़ी ऄपने अप
अगे की ओर िली जा रही ह। ब।लगाड़ी र्में ब।ल नहीं जतर े हैं तथा ब।लगाड़ी र्में जरअाँ ी नहीं लगा हुअ ह।
ऄथालभत् ब।लगाड़ी जएर ाँ और ब।लों से रवहत ऄपने अप अगे की ओर िली जा रही ह। र्मैं ब।लगाड़ी के उपर
खड़ा हुअ र्मथर करा रहा हाँ करछ क्षणों बाद र्मैं ब।लगाड़ी से दरर थोड़ा उपर की ओर ऄंतररक्ष र्में वथथत हो
गया ऄब र्मैं जएर ाँ और ब।लों से रवहत थोड़ा सा नीिे की ओर खड़ी हुइ ब।लगाड़ी को देख रहा हाँ
र्मझर े आसी प्रकार का ऄनर व 24 नवम्बर को ी अया था ईस ऄनर व र्में र्मैंने देखा था वक सार्मने
की ओर एक ब।लगाड़ी खड़ी ह।, जो वबककरल खाली ह। ईसर्में वकसी प्रकार का सार्मान अवद नहीं ह।,
गाड़ीवान व ब।ल अवद ी नहीं हैं
अथय– ऄनर वों र्में वदखाइ देने वाली ब।लगाड़ी हर्मारा ही शरीर ह। आस ब।लगाड़ी र्में ब।ल नहीं जतर े हैं
ब।लगाड़ी को दो ब।ल खींिते हैं तथा जअ र ाँ ी नहीं ह। ऄथालभत् ब।लगाड़ी जऐर ं और ब।लों से रवहत ह। यह
दोनों ब।ल प्राण-शव‍त व र्मन शव‍त का प्रतीक होते हैं वजस प्रकार थथल र शरीर को प्राण और र्मन दोनों
एक साथ वर्मलकर व्यवथथा पवर लभक िलाने के वलए वक्रया करते हैं ब।लगाड़ी के ऄ्र ाग र्में अड़ी लकड़ी
के रूप र्में जअ र ाँ लगा रहता ह। यही अड़ी लकड़ी (जअ र ाँद दोनों ब।लों के कन्धों पर रखी रहती ह।, आसी के
सहारे ब।ल ऄपने शरीर का बल लगाकर ब।लगाड़ी को खीिते हैं जब ब।लगाड़ी र्में जअ र ाँ ही नहीं ह।, तो
ब।लगाड़ी को वकस प्रकार से खींिा जाए? जब ऄभ्यासी ऄभ्यास के द्रारा तथा ोगकर वित्त र्में वथथत
सम्पणर लभ कर्मालभशयों को नष्ट कर देता ह।, तब थथलर शरीर प्रारब्ध वेग के द्रारा सधा रहता ह। तब र्मन व प्राणों
के द्रारा आस शरीर को बनाए रखने का कोइ कारण नहीं ह।, ‍योंवक ऄभ्यासी के वित्त र्में प्रारब्ध रूप र्में

तत्त्वज्ञान 371
कर्मालभशय ही नहीं होते हैं आन्हीं कर्मालभशयों के कारण वित्त के ऄन्दर प्राणों का थपन्दन होता ह। प्राणों के
थपन्दन से वित्त र्में वथथत वृवत्तयााँ प्रकट होकर बाहर वनकलती ह।
कर्मालभशयों से रवहत होने पर शरीर का सधे रहने का कोइ ववशेष कारण नहीं होता ह।, बवकक प्रारब्ध
वेग के द्रारा शरीर सधा रहता ह। वजस प्रकार कर्मान से तीर छरटने के बाद अगे की ओर गवत करता रहता
ह।, तीर का अगे की ओर गवत करने का कारण कर्मान की ही शव‍त ही ह। कर्मान की शव‍त सर्माप्त हो
जाने पर तीर ऄपने अप वगर जाएगा ऄथवा करम्हार का िाक बतलभन बनाने के बाद ी गवत करता रहता ह।
बाद र्में गवत करने का कोइ कारण नहीं होता ह।, यह गवत करम्हार के द्रारा िाक को गवत देने के वलए लगाइ
गइ लकड़ी के डण्डे की शव‍त के द्रारा हो रही ह। जब डण्डे द्रारा लगाइ गइ शव‍त सर्माप्त हो जाएगी, तब
िाक की गवत थवर्मेव सर्माप्त हो जाएगी आसी प्रकार प्रारब्ध वेग सर्माप्त हो जाने पर आस शरीर का सधा
रहना सम् व नहीं हो पायेगा ऄथालभत् शरीर शांत हो जाएगा
यह ऄवथथा ऄभ्यासी को तब प्राप्त होती ह।, जब वह पणर लभ रूप से जीवन्र्मक्त
र ऄवथथा र्में पररप‍व हो
जाता ह। यह पररप‍वता ज्ञान की छटवीं ऄवथथा र्में प्राप्त होती ह। आस ऄवथथा र्में ऄववथथत ऄभ्यासी
ौवतक जगत् र्में रहता हुअ ी ब्रह्म थवरूप ही होता ह।, ‍योंवक ईसके वलए ऄब यह जगत् अ ास र्मार
ही ह। ब्रह्म थवरूप हुअ ऐसा परू र ष ससं ार के वकसी वनयर्म को र्मानने के वलए बा्य नहीं ह।, ‍योंवक वह
पणर लभ रूप से थवतंर होता ह। ईसका ऄन्त:करण ब्रह्म रस से ओत-प्रोत रहता ह। ऐसा परुर ष प्रकृ वत का
सम्र्मान करते हुए इश्वरीय कायों को गप्र त रूप से करता रहता ह।

जीवन्मुक्त अवस्था पररप‍व हो गई


यह ऄनर व वदसम्बर र्माह के अवखरी सप्ताह र्में अया नीिे की ओर छोटा सा प्रकावशत क्षेर
वदखाइ दे रहा था ईस प्रकावशत क्षेर के र्म्य र्में एक वशववलगं ववद्यर्मान था, ईस वशववलगं के उपर
थाली नर्मर ा पार रखा था थाली नर्मर ा पार के ऄन्दर एक छोटी सी िवकया (घर र्में गेहाँ पीसने वाली
िवकयाद ऄपने अप िल रही थी ईस िवकया के िारों ओर पार के ऄन्दर ही धीरे -धीरे अटा वगर रहा
था पार के ऄन्दर थोड़ा सा ही अटा था िवकया के उपरी ओर र्म्य वाले ाग र्में, वजसर्में लोहे की
र्मोटी कील िंसी होती ह। तथा पीसने के वलए ऄनाज डालते हैं, ईस गड्ढेनर्मर ा जगह के ऄन्दर थोड़ा सा
अटा रा था आस दृश्य को देखकर र्मैं सोिने लगा वक ऄनाज की जगह वपसा-वपसाया अटा पीसा जा
रहा ह। िवकया ऄपने अप िल रही थी, ईसे िलाने वाला कोइ नहीं था

तत्त्वज्ञान 372
अथय– सम्पणर लभ प्रकावशत क्षेर हर्मारा ही वित्त ह। वशववलंग का ऄथलभ वित्त व ऄपरा-प्रकृ वत होता ह।
िवकया के द्रारा ऄनाज पीसा जाता ह।, ऐसी िवकया गावों र्में ऄब ी देखने को वर्मल जाएगी, वजससे
वस्त्रयााँ घरों र्में ऄनाज पीसा करती हैं आस ऄनर व र्में तीन बातें र्महत्वपणर लभ हैं एक– वशववलगं के उपर
िवकया िल रही ह।, दो– िवकया ऄपने अप िल रही ह।, तीन– वपसे हुए अटे को पीसा जा रहा ह।
वशववलंग के उपर वथथत होकर िवकया िलने का ऄथलभ ह।– वशववलंग ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप होता ह।
तत्त्वज्ञानी के वलए ऄपरा-प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान हो जाती ह। ऄथालभत् वह आस प्रकृ वत से परे हो जाता ह।
ईसका वित्त व्यापक होकर इश्वर के वित्त र्में ऄन्तर्मलभख र ी हो जाता ह। ईसकी ऄवथथा ऄपरा-प्रकृ वत से परे
होने के कारण ऄनर व र्में िवकया वशववलंग के उपर से िलती हुइ वदखाइ दे रही ह। िवकया ऄपने अप
िल रही ह। आसका ऄथलभ ह।– तत्त्वज्ञानी का थथरल शरीर प्रारब्ध वेग के द्रारा सधा रहता ह।, वजस प्रकार
करम्हार का िाक बतलभन बनाने के बाद ी घर्मर ता रहता ह। और कर्मान से छरटा हुअ तीर ऄपने अप अगे
की ओर गवत करता रहता ह। ऄभ्यासी का थथल र शरीर प्रारब्ध ोग को ोगने के वलए ववद्यर्मान रहता ह।
प्रारब्ध की सर्मावप्त पर तत्त्वज्ञानी का शरीर प्रारब्ध वेग के द्रारा सधा रहता ह।, वेग की सर्मावप्त होने पर
शरीर वगर जाएगा तब वित्त से लेकर थथल र शरीर तक की सर्मथत िेष्टाएाँ सद।व के वलए शांत हो जाएाँगी,
तब िवकया िलना बन्द हो जाएगा तथा िवकया का थवरुप ी र्मेरे वलए नष्ट हो जाएगा वपसे हुए अटे
को पीसने का ऄथलभ ह।– कर्मों से परे होकर ऄथालभत् कर्मों से रवहत होकर ी ससं ार के ककयाण हेतर कर्मलभ
करना ऐसे कर्मलभ जीवों के ककयाण के वलए वकए जाते हैं तत्वज्ञानी के द्रारा कर्मलभ करने पर ी ईसके ऄन्दर
लेशर्मार ी कतालभ ाव नहीं अता ह।, ‍योंवक तत्त्वज्ञानी अत्र्मानन्द र्में सदा र्म‍न रहने के कारण ऄन्तर्मलभख
र ी
रहते हैं अप्तकार्म होने के सर्मय वह वकसी ी वथतर प्रावप्त के वलए िेष्टा नहीं करता ह। ईसका वित्त पणर लभ
रूप से वासना रवहत होता ह। यह ऄनर व हर्मारी जीवन्र्मक्त र ऄवथथा की पररप‍वता को दशालभ रहा ह।

अन्वय योग का पूणय होना


यह ऄनर व वदसम्बर र्माह के ऄवन्तर्म वदनों र्में अया– ‚र्मैं व्यापक थवरूप र्में ववद्यर्मान हाँ ‛ हर्मारे
नीिे दावहनी ओर से पानी की एक धारा प्रकट होकर थोड़ा-सा सार्मने की ओर जाकर विर नीिे की ओर
िली गइ ऄब र्मैं पानी के प्रवाह की ओर देखने लगा, तब र्मझर े वदखाइ वदया वक हर्मारे नीिे से पानी की
धारा प्रकट होकर थोड़ा-सा अगे की ओर िलकर नीिे की ओर सपालभकार गवत के रूप र्में िली जा रही ह।,
ज।से कोइ सपलभ लकड़ी के लट्ठे र्में िारों ओर वलपटा हुअ नीिे की ओर जाता ह। करछ क्षणों बाद र्मैं ही पानी

तत्त्वज्ञान 373
की धारा के थथान पर नीिे की ओर जाने लगा ईस सर्मय ऄनर वर त कर रहा था वक पानी की धारा र्मैं ही
ह,ाँ विर नीिे जाकर र्मैं ्यान र्मिर ा र्में ब।ठा गया ईस सर्मय सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत के क्षेर र्में ब।ठा हुअ र्मैं
ऄनर वर त कर रहा था– ‚सम्पणर लभ प्रावणयों के ऄन्दर र्मैं ही ववद्यर्मान ह,ाँ सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत र्मेरा ही थवरूप
ह। ‛ ऄब र्मैं ऄपनी ऄनर वर त दोनों थवरूपों र्में कर रहा था एक– उपर ब।ठे हुए थवरूप र्में वजससे पानी की
धारा प्रकट हुइ ह। दूसरा– ऄपने आस थवरूप र्में दोनों थवरूपों र्में ऄनर वर त के सर्मय अनवन्दत हो रहा था
विर वदखाइ देने लगा वक र्मेरे ऄन्दर ही दसर रा थवरूप ववद्यर्मान ह।, र्मैं ही सवलभर ववद्यर्मान ह,ाँ र्मैं ऄके ला ही
ऄपने अप र्में वथथत हाँ
अथय– पानी की धारा ऄपरा-प्रकृ वत का थवरूप ह। ऄभ्यासी को ऄनर व र्में संसार या ऄपरा-प्रकृ वत
नदी के रूप र्में वदखाइ देते हैं ऄपरा-प्रकृ वत का प्रवाह वनम्नर्मख र ी होता ह।, आसी कारण ऄनर व र्में पानी की
धारा नीिे की ओर जाती वदखाइ दे रही ह। पानी की धारा सपालभकार गवत करती हुइ नीिे की ओर जाती ह।
आसका ऄथलभ ह।– सम्पणर लभ सृवष्ट की रिना ऄहक ं ार द्रारा ही हुइ ह। ऄथालभत् ऄहक ं ार के कारण सम्पणर लभ प्रकृ वत
ववद्यर्मान सी रहती ह। ऄभ्यासी को ऄहक ं ार नाग के रूप र्में वदखाइ देता ह। दूसरा– करण्डवलनी शव‍त ही
ऄपरा-प्रकृ वत के रूप र्में ह। करणडवलनी
् शव‍त व प्राण शव‍त को साथ र्में लेकर ही जीव आस संसार र्में जन्र्म
्र हण करता ह। करण्डवलनी शव‍त ऄभ्यासी को सनर हले नाग के रूप र्में वदखाइ देती ह। आसवलए ऄनर व र्में
पानी की धारा सपालभकार गवत करती हुइ नीिे की ओर अती ह।, ज।से कोइ सपलभ खड़े हुए लट्ठे र्में वलपटता
हुअ नीिे की ओर अता ह। हर्मारा थवरूप वजस थथान पर ववद्यर्मान ह।, वह थथान ईकटे खड़े हुए गदा के
सर्मान ह। ऐसी ऄवथथा र्में गदा का गोल र्मोटा वाला ाग उपर की ओर हो जाएगा ऄथालभत् गोल िौड़ा
वाला ाग उपर की ओर ह।, ईसी के उपर र्मैं वथथत हाँ

वेदान्त दशयन में लेख दमलता है


ईकटे खड़े हुए गदा के सर्मान ईठे हुए थथान के उपर ब्रह्म ववद्यर्मान रहता ह। ईसी थथान पर वथथत
हुअ ब्रह्म सम्पणर लभ जीवों पर शासन करता ह। र्मैं ब्रह्म थवरूप र्में ईसी थथान पर ववद्यर्मान हाँ हर्मारे शरीर के
वनिले क्षेर से ऄपरा-प्रकृ वत पानी की धारा के रूप र्में प्रकट होकर नीिे की ओर अ रही ह। र्मैं ऄनर व र्में
दो थवरूपों र्में ववद्यर्मान हाँ ऄनर व र्में नीिे की ओर जाने वाला दसर रा थवरूप् ऄनर वर त कर रहा ह।– ‚र्मैं ही
ऄपरा-प्रकृ वत हाँ ‛ ऄपरा-प्रकृ वत र्में वथथत सम्पणर लभ ाषर्मान शरीर र्में र्मेरे ही थवरूप हैं ब्रह्म से ईत्पन्न होने
वाला ब्रह्म ही होता ह। ऄपरा-प्रकृ वत परा-प्रकृ वत के ऄन्दर ही ऄपनी रिना करती ह।, आसवलए हर्मारे ऄन्दर

तत्त्वज्ञान 374
ही हर्मारा दसर रा थवरूप ववद्यर्मान हुअ वदखाइ दे रहा ह। विर र्मैं ऄनर वर त करता ह–ाँ ‚र्मैं ऄके ला ही पणर लभ
रूप से सवलभर व्याप्त हाँ ‛ आस ऄनर व के ऄनसर ार ऄन्वय योग का ऄभ्यास पणर लभ हुअ ह। ऄन्वय योग र्में
ऄभ्यासी सम्पणर लभ ऄपरा-प्रकृ वत को ब्रह्म रूप र्में (ऄपने थवरूप र्मेंद ऄनर तर करता ह। आस ऄवथथा र्में
ऄभ्यासी ‘सर्मता’ र्में वथथत होता ह। यह योग के ऄभ्यास की िरर्म सीर्मा ह। यह ऄवथथा हर्में करछ सर्मय
बाद अएगी

मैं चरवाहा हाँ


यह ऄनर व वदसम्बर र्माह के ऄवन्तर्म वदनों र्में अया ्यानावथथा र्में र्मैंने देखा वक र्मैं प्रकाशर्मान
क्षेर र्में खड़ा ह,ाँ त ी हर्मारे सार्मने एक र्मानव अकृ वत प्रकट हो गइ वह र्मानव अकृ वत प्रकाश पजंर ज।सी
थी ईसका थवरूप थपष्ट वदखाइ नहीं दे रहा था ईसने हर्मसे पछर ा वक अप कौन ह।? र्मैं बोला वक र्मैं
िरवाहा ह,ाँ पशओ र ं को िराता हाँ विर वह र्मानव अकृ वत करछ न बोली, बवकक हर्मारे ही सार्मने प्रकाश र्में
ववलीन हो गइ ऄब र्मैंने ऄपनी दृवष्ट नीिे की ओर की, तब वदखाइ वदया वक नीिे की ओर कािी दरर ी पर
ईज्ज्वल सिे द रंग का र्महलनर्मर ा र्मकान बना हुअ ह। र्मैं उपर की ओर ऄतं ररक्ष र्में ववद्यर्मान था, ऄनर व
सर्माप्त हो गया
अथय– जीव को पशर कहा जाता ह।, ऐसा शाथरों र्में ी वणलभन वर्मलता ह। जीव र्में जब तक जीवत्व
रहेगा, तब तक ईसकी तरलना पशर से की जाती रहेगी जीव के ऄज्ञानी होने के कारण ईसे ऐसा कहा जाता
ह। गवान् वशव का नार्म पशपर वत ी ह।, ‍योंवक वह जीवों पर शासन करते हैं बाइबल र्में एक ईदाहरण
वर्मलता ह।– प्र र यीशर कहते हैं- ‚ ेड़ र्मत बनो, िरवाहा बनो र्मैं एक करशल िरवाहा ह,ाँ झण्र ड र्में अगे
िलने वाली ेड़ यवद खाइ र्में वगर जाए तो ईसके पीछे िलने वाली ऄन्य ेड़ें ी ईसी का ऄनसर रण
करें गी करशल िरवाहा ही ऄपने पशओ र ं का ईवित र्मागलभदशलभन कर सकता ह। ‛ आस ऄनर व का ऄथलभ ह।–
पणर लभता को प्राप्त होना ऄथालभत् ब्रह्मथवरूप हो जाना तत्त्वज्ञानी परू
र ष ही ऄज्ञानी जीवों का ईवित र्मागलभदशलभन
कर सकता ह। ऄज्ञानी जीव आस संसार र्में सद।व र्मोह के कारण टकता रहता ह। ऄनर व र्में नीिे की ओर
वदखाइ देने वाला र्मकान ऄपरा-प्रकृ वत ह।, र्मैं आससे परे प्रकाश र्में ववद्यर्मान हाँ
वप्रय पाठकों! उपर वलखी हुइ पंव‍तयों के बाद ही वलखने की हर्मारी क्षर्मता सर्माप्त सी हो गइ ह। र्मैं
ऄ ी 30-35 पेज का तीसरा ऄ्याय और वलखना िाहता था ईस ऄ्याय र्में ऄनर वों का सटीक ऄथलभ

तत्त्वज्ञान 375
क। से वनकाला जाए यह वलखना था, वजससे साधक ऄभ्यास करते सर्मय थवयं ऄपने ऄनर वों का ऄथलभ
वनकाल ले ईसे बार-बार वकसी से पछ र ने की अवश्यकता न पड़ती, र्मगर प्रकृ वत ने हर्मारा र्मागलभ ऄवरूि
कर वदया वलखने की र्मेरी क्षर्मता करछ सर्मय के वलए रोक दी गइ र्मैं सर्मझ गया वक हर्मारी वलखने की
क्षर्मता सर्माप्त कर दी गइ ह। र्मैं लेखनी छोड़ कर िपर िाप जाकर लेट गया, तब ऄनर व अया– 20-25
वषलभ की थरी हरे रंग के कपड़े पहने ह।, ईसका शरीर र्मााँसल ह। वह ऄपने दावहने हाथ र्में करकहाड़ी वलए ह।,
करकहाड़ी के लोहे वाला ाग उपर की ओर वकए ह। वह थरी अाँखें बन्द वकए हुए ऄपनी जगह पर खड़ी
ह।, ईसका शरीर क ी पीछे की ओर झक र ता ह। तो क ी अगे की झक र ता ह। ऐसा लगता ह। र्मानों वह थरी
ऄ ी वगर पड़ेगी और आसकी र्मृत्यर हो जाएगी, विर दृश्य सर्माप्त हो गया हर्में अवाज सनर ाइ दी- ‚वजस
परू
र ष के वलए प्रकृ वत नष्ट हुए के सर्मान हो जाती ह।, वह प्रकृ वत का ेद नहीं खोलता ह। ‛ विर र्मैं बोला-
‚र्मैं ककयाण करना िाहता ह,ाँ आसवलए ऐसा लेख वलखना िाहता हाँ ‛ हर्में अवाज सनर ाइ दी- ‚ककयाण
करना प्रकृ वत का कायलभ ह।, अपका नहीं ‛ र्मैं सर्मझ गया वक आसवलए हर्मारी वलखने क्षर्मता सर्माप्त कर दी
गइ ह। ऄनर व र्में वदखाइ देने वाली थरी प्रकृ वत ह।, वह नहीं िाहती वक र्मैं ईसका रहथय खोलंर र्मझर े प्रकृ वत
के ववषय र्में ज्ञान ह।, ‍योंवक र्मैंने प्रकृ वत का साक्षात्कार वकया ह। र्मैं नहीं िाहता वक योग का ऄभ्यास
करते सर्मय र्मागलभदशलभन के ववषय र्में जो हर्मे परे शानी अइ ह।, वह ऄन्य साधकों को प्राप्त न हो, र्मगर हर्में
ऄब प्रकृ वत के सम्र्मान का ्यान रखना ह। वजस कायलभ र्में प्रकृ वत की आच्छा न हो, ईस कायलभ को र्मैं क। से
करने का प्रयास करुाँ? ईसे ऄपनी व्यवथथा ऄपने ऄनसर ार करनी ह।
जब साधक सर्मावध की ईच्ितर्म ऄवथथा का ऄभ्यास कर रहा होता ह।, तब ईसे करछ ऄनर व कइ
बार अते हैं ऄगर ऐसे ऄनर वों को गौरपवर लभक देखें तो हर ऄनर व र्में थोड़ा-सा िकलभ होता ह। यह िकलभ
थवयं ईसके ऄभ्यास के कारण होता ह। ज।से-ज।से साधक ऄभ्यास करे गा, व।से-व।से ईसका वित्त शि र होगा
तथा ऄगली ऄवथथा धीरे -धीरे प्राप्त होगी ऄथालभत् साधक की ऄवथथा पररवतलभन के कारण ऄनर व र्में ी
पररवतलभन होता जाता ह। क ी-क ी साधक का साधना र्में (ऄभ्यास र्मेंद पतन ी हो जाता ह। आसवलए
साधक को सद।व सतलभक होकर ऄभ्यास करना िावहए तथा संसार र्में आस प्रकार का व्यवहार करें वक ईसकी
साधना सद।व अगे की ओर बढ़ती रहे यवद साधक के वित्त के ऄन्दर वथथत कर्मालभशयों के कारण ऄभ्यास
र्में रूकावट अ गइ ह।, तब ध।यपवर लभक ऄभ्यास करता रहे ऄभ्यास को वकसी ी ऄवथथा र्में न छोड़े
बीर्मारी अवद के सर्मय ी यवद थथल र शरीर ऄभ्यास के वलए साथ न दे रहा हो तो दःर खी न हो, बवकक र्मन
से इश्वर का विंतन करते रहे ऄथालभत् ऄभ्यास को रोके नहीं ऄब र्मैं आन ऄनर वों के ववषय र्में वलख रहा हाँ

तत्त्वज्ञान 376
इज
ुं न
्यानावथथा र्में क ी-क ी आजं न की अवाज सनर ाइ देती ह। ऐसा लगता ह। र्मानों कही आजं न िल
रहा ह। शरू र अत र्में साधक को आजं न की अवाज सनर ाइ देती ह।, र्मगर करछ सर्मय बाद आजं न वदखाइ देने
लगता ह। एक सर्मय ऐसा ी अता ह। जब ऄभ्यासी को थपष्ट रूप से सर्मझ र्में अ जाता ह। वक यह आजं न
हर्मारे ही शरीर के ऄन्दर ह। हर्मारा शरीर आजं न की ााँवत कायलभ करता ह। क ी-क ी आजं न से िवकया
(ि‍कीद िलती वदखाइ देती ह। यह ऄनर व ऄभ्यासी कइ बार देखता ह। हर बार ऄनर व र्में (दृश्य र्मेंद
थोड़ी सी व न्नता होती ह।
अथय– सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड कारखाने के सर्मान ह। (आजं न के सर्मान ह।द, वायर रूपी इधन
ं से आस कारखाने
के कलपजर े व्यवथथा-पवर लभक िला करते हैं आस कारखाने का आजं ीवनयर वहरण्यग लभ ऄथालभत् ब्रह्माजी हैं आसी
तरह हर्मारा शरीर ी आजं न की ााँवत ह। प्राण वायर रूपी इधन ं से आस आजं न के कलपजर े व्यवथथा-पवर लभक
िला करते हैं ऄथालभत् आस शरीर के ऄंग प्राण वायर के द्रारा व्यवथथा-पवर लभक कायलभ करते हैं

नाव
साधक को कइ बार (नौकाद वदखाइ देती ह।, नाव नदी के आसी वकनारे पर ह। नाव के उपर कोइ
ब।ठा हुअ ह। नाव नदी को पार कर रही ह। या नाव नदी को पार कर िक र ी ह। अवद साधक को यो‍यता के
ऄनसर ार ऄनर व अता ह। ऄभ्यास के द्रारा ज।से-ज।से ज्ञान की प्रावप्त होती ह।, ऄनर व र्में नाव पर ब।ठा
परू
र ष नदी को पार करता हुअ वदखाइ देता ह। तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर नाव नदी को पार कर जाती ह।,
विर यह दृश्य वदखाइ नहीं देता ह। ऄथालभत् दृश्य ी ऄदृश्य हो जाता ह। नाव का ऄथलभ ह।– यह ज्ञान रूपी
नौका (नावद ह।, नदी संसार ह। ज्ञान रूपी नौका पर सवार होकर साधक आस संसार को पार कर जाता ह।
आसका वणलभन गीता र्में ी वकया गया ह।

ऋतम्भरा-प्रज्ञा
प्रज्ञा के ववषय र्में र्मैं पहले ही वलख िक
र ा हाँ प्रज्ञा साधकों को कइ बार कइ वषों तक वित्त र्में ईदय
होकर गवत करती हुइ वदखाइ देती ह। आसका कारण ह।– थथल र शरीर से लेकर वित्त तक अरोह-ऄवरोह व

तत्त्वज्ञान 377
ऄवरोह-अरोह क्रर्म से शि र होना जब सर्मान रूप से शवर िकरण हो जाता ह।, यह शवर िकरण कइ वषों के
ऄभ्यास से होता ह।, तब प्रज्ञा रूपी वृवत्त धीरे -धीरे सक्ष्र र्म तथा व्यापक होकर ब्रह्म थवरूप ही हो जाती ह।
प्रज्ञा का ऄनर व कइ वषों तक अता ह।

झोपड़ी
ऄनर व र्में झोपड़ी कइ बार वदखाइ देती ह। झोपड़ी या छप्पर घास-िरस का बना होता ह।, ऄब यह
परर ाना हो गया ह।, ईसका िरस ईड़ रहा ह।, झोपड़ी धीरे -धीरे नष्ट हो रही ह।, झोपड़ी के ऄन्दर प्रकाश रा ह।
अवद आसी प्रकार के ऄनर व अते हैं साधक को झोपड़ी का थवरूप देखकर ऄपने ऄभ्यास की सिलता
व ऄवथथा का ऄथलभ लगा लेना िावहए आस झोपड़ी का ऄथलभ थथल र शरीर से लेकर वित्त तक होता ह।
झोपड़ी की ऄवथथा देखकर ऄपनी शि र ता से ऄथलभ लगा देना िावहए

योदन
साधक को आसका ऄनर व बहुत अता ह। ईसे थरी वदखाइ देती ह।, ईस थरी की योवन के असपास
का क्षेर वदखाइ देगा योवन के ववव न्न प्रकार के ऄनर व अएंगे, ऄन्त र्में वदखाइ देगा वक वह वकसी थरी
की योवन को देख रहा ह। साधक की दृवष्ट योवन पर ह।, विर योवन का पररवतलभन होना शरू र हो जाता ह।
योवन वित्त की वर र्म के रूप र्में पररववतलभत हो जाती ह। यह ऄनर व तब अता ह। जब साधक को इश्वर
(सगणर ब्रह्मद का साक्षात्कार हो जाता ह। साधक को ऄनर व र्में जब थरी की योवन वदखाइ दे, तब ईसे
ऄन्त:करण र्में (ह्रदय र्मेंद वकसी प्रकार का ववकार नहीं लाना िावहए, बवकक वनष् ाव से ईसका अलम्बन
करते रहना िावहए ऄन्त र्में जब योवन का थवरूप वित्त र्में पररववतलभत हो जाता ह।, तब आसका साक्षात्कार
नहीं होता ह। ौवतक दृवष्ट से योवन ईत्पवत्त का के न्ि ह।, आसी प्रकार वित्त ी ईत्पवत्त का के न्ि ह। वाथतव
र्में योवन वित्त ही ह।, आसवलए ऄनर व र्में योवन बार-बार वदखाइ देती ह।
गीता र्में गवान् श्रीकृ ष्ण ऄजलभनर से कहते हैं– ‚र्मेरी योवन (ग लभ रखने का थथानद वित्त ह। ईसी र्में र्मैं
ग लभ रखता हाँ ऄथालभत् ऄपने ज्ञान का प्रकाश डालता हाँ और ईसी जड़ िेतन के संयोग से सब तर ों की

तत्त्वज्ञान 378
ईत्पवत्त होती ह। सब योवनयों र्में जो शरीर ईत्पन्न होते हैं, ईन सबकी योवन वित्त ह। और ईसर्में बीज डालने
वाला र्मैं (िेतन तत्त्वद वपता हाँ ‛

दववर
वववर के ऄनर व ईन साधकों को अते हैं, वजनका सहथर-दल कर्मल ववकवसत होने लगता ह। आस
िक्र र्में 20 वववर होते हैं आन स ी वववरों को ऄभ्यास द्रारा ज्ञान के प्रकाश से रना होता ह। साधक को
ये वववर सर्मावध ऄवथथा र्में काँर ए के रूप र्में वदखाइ देते हैं आस काँर ए के ऄन्दर ऄंधकार-सा होता ह। र्मगर
पानी नहीं होता, वह आसर्में झााँककर देखता ह। क ी-क ी आसके ऄन्दर ी ईतर जाता ह। आस काँर ए (वववरद
के ऄन्दर दीवारों र्में वछि होते हैं आन वछिों र्में काला ऄंधकार रा होता ह। ये ऄंधकार ‍लेशात्र्मक
वृवत्तयााँ होती हैं ऄथवा आन वछिों र्में ‍लेशात्र्मक वृवत्तयााँ ववद्यर्मान रहती ह। आन वृवत्तयों को ऄवश्य ोगना
होता ह।, त ी ये नष्ट होती ह। एक वववर (काँर एद का ऄंधकार नष्ट होने र्में कइ र्महीनों का ऄभ्यास लग
जाता ह।, विर ऄंधकार नष्ट होने पर ज्ञान का प्रकाश रने लगता ह। ऄथालभत् काँर ए र्में प्रकाश रने लगता ह।
जब ज्ञान के प्रकाश से वववर परर ा र जाता ह।, तब वववर का थवरूप नष्ट हो जाता ह।, वहााँ प्रकाश
ववद्यर्मान हो जाता ह। आसी प्रकार एक-एक करके वववर को ज्ञान के प्रकाश से रना होता ह। सम्पणर लभ वववर
रने र्में (नष्ट करने र्मेंद कइ वषलभ लग जाते हैं वववर नष्ट करते सर्मय ऄभ्यासी को संसार से ‍लेश सहना
पड़ता ह।, ‍योंवक वववर के ऄन्दर वछिों र्में ‍लेशात्र्मक वृवत्तयााँ ववद्यर्मान रहती हैं आन ‍लेशात्र्मक वृवत्तयों
को ोगकर ही सर्माप्त करना होता ह। र्मैंने आस लेख र्में वववर का ऄनर व नहीं वलखा ह।

उकटा वृक्ष
आसके कइ ऄनर व साधक को अते हैं ऄनर व र्में वदखाइ देता ह। वक अकाश र्में ऄत्यन्त ववशाल
ईकटा वृक्ष लटका हुअ ह।, वजसकी जड़े उपर अकाश की ओर होती हैं तथा डावलयााँ नीिे की ओर होती
हैं आस दृश्य को देखकर अश्ियलभ होता ह। तथा हाँसी ी अती ह।, ‍योंवक सार्मने की ओर ईकटा वृक्ष होता
ह। आसका वणलभन गीता र्में पंिहवें ऄ्याय के पहले श्लोक र्में वकया गया ह।

तत्त्वज्ञान 379
साधक को ्यानावथथा र्में जो ऄनर व वदखाइ देते हैं, वह स ी ऄनर व ईसके वित्त र्में वथथत
वृवत्तयों के ऄनसर ार ही वदखाइ देते हैं वृवत्तयााँ ही दृश्य को धारण करती हैं ये ऄनर व थपष्ट नहीं होते हैं
आसवलए ऄनर वों का ऄथलभ वनकालना पड़ता ह। ऄनर वों का ऄथलभ नया साधक नहीं वनकाल सकता ह। ईसे
ऄपने र्मागलभदशलभक से पछर ना होगा, आसवलए र्मागलभदशलभक ऄनर वी होना िावहए क ी-क ी ऄनर वी
र्मागलभदशलभक ी सही ऄथलभ नहीं वनकाल पाता ह।, ‍योंवक वित्त र्में ववव न्न प्रकार की ऄनन्त वृवत्तयााँ होती हैं
आसवलए साधकों के ऄनर व ी व न्नता को वलए होते हैं, र्मगर आनका गढ़र ऄथलभ एक-सा होता ह।

धमयमेघ समादध
ऄभ्यास के द्रारा जब ऊतम् रा-प्रज्ञा का वित्त र्में ईदय होता ह। तथा प्रकृ वत के पदाथों के ववशेष
रूप का साक्षात्कार हो जाता ह।, त ी से साधक के वित्त पर पाप-पण्र य से रवहत धर्मलभ रूपी वषालभ होनी शरुर
होती ह। थवच्छ अकाश से पानी ऄपने अप प्रकट होकर वर र्म पर वषालभ करता ह। यह वषालभ वित्त के ऄन्दर
ही वित्ताकाश से वित्त की वर र्म पर होती ह। शरू
र अत के ऄनर वों र्में साधक आस वषालभ र्में ीगता ह। वषालभ
का पानी साधक का शरीर सोख लेता ह। तथा वर र्म पर वगरा पानी वर र्म सोख लेती ह। पानी वर र्म पर बहता
हुअ वदखाइ नहीं देता ह।, ‍योंवक सारा पानी सोख वलया जाता ह। आस प्रकार के ऄनर व बहुत अते हैं
ऄभ्यास के पररप‍व होने पर वषालभ का पानी वर र्म को गीला कर देता ह। गीली वर र्म पर साधक िलता ह।
ऄथवा देखता ह। जब तक वित्त की वर र्म रहती ह।, तब तक करछ वषों तक यह ऄनर व कइ बार अता ह।
हर ऄनर व करछ-न-करछ व न्नता से यक्त र होता ह।, आसे धर्मलभर्मेघ सर्मावध कहते हैं

तत्त्वज्ञान 380
इस लेख के अन्त में
र्मनष्र य जब वकसी से राग करे गा, तब वह दसर रे से द्रेष ऄवश्य करे गा, ‍योंवक जो वकसी से राग
करता ह। वह द्रेष ऄवश्य करता ह। र्मनर ष्य वकसी से राग न करे तो द्रेष ी नहीं करे गा वह सवलभर र्मंगलर्मय
देखने लग जाएगा, तब ईसका र्मन ऄपने अप शांत होने लगेगा ऄगर जीवन का पणर लभ अनन्द लेना िाहते
हैं तो ऐसा कायलभ र्मत करें वजससे वित्त वखन्न होने लगे वजस कायलभ से य, विंता अवद होने लगे ईस कायलभ
को ववष के सर्मान त्याग दो र्मन को ऄन्तर्मलभख र ी करो, जब र्मन ऄन्तर्मलभख र ी होने लगेगा तब वित्त िंिलता
छोड़कर अत्र्म ववश्रावन्त का ला लेने लगेगा वित्त वजतना सर्मावहत होता जाएगा, ईतना ही वित्त र्में
सत्त्वगणर का प्रकाश बढ़ता जाएगा आस सत्त्वगणर के प्रकाश को आतना बढ़ाओ वक तर्मोगणर व रजोगणर
लेशर्मार रह जाए, तब अत्र्मज्ञान की प्रावप्त होने लगेगी एक बात ्यान रहे वक अत्र्म ज्ञान के अगे सारे
ज्ञान छोटे हैं, अत्र्म पद के सार्मने (वथथत-प्रज्ञा के सर्मयद सम्पणर लभ ब्रह्माण्ड के सर्मथत पद छोटे रह जाते हैं
ऄपने को हीन सर्मझना और पररवथथवतयों के सार्मने झक र जाना परू र षों के वलए ईवित नहीं ह।
वजनका यह कहना ह। वक र्मनष्र य पररवथथवतयों का दास ह।, र्मैं ईनके आन शब्दों से सहर्मत नहीं हाँ ऐसा वसिलभ
वही कह सकते हैं, जो ऄपने अपको देह र्मार र्मानते हैं शंकाएाँ, विन्ताएाँ और य ही जीवन को नष्ट कर
रहे हैं ऄत: शंका, विंता और य को ऄपने ऄन्दर वजतना थथान दोगे, ईतना ही ईन्नवत से दरर रहोगे तथा
ऄपने थवरूप से दरर बने रहोगे प्रकृ वत अपको भ्रर्म र्में डाले रहेगी, ऄपना बन्धन और र्मजबतर करती
जाएगी आसवलए ऄज्ञावनयों के विनों और ईनके ऄवरोधों से य ीत वबककरल न होआए योवगयों का
जीवन िररर आस बात की पवर ि करता ह। वक अपके ऄन्दर इश्वरीय शव‍त ह। ईसे जा्र त करो विर ईस
शव‍त के द्रारा सब करछ करने र्में सार्मथलभवान हो जाओगे पररवथथवतयों को बदल देना अपके हाथ र्में
होगा अप हीन नहीं हैं और न ही अप वनबलभल हैं, बवकक अप सवलभशव‍तर्मान हैं ऄपने वित्त के वर्मथ्या
संथकार को ऄभ्यास द्रारा वनरुि करके र्महान बन जाओ आसर्में कोइ शक नहीं ह। वक अपका ही
वाथतववक थवरूप आस सर्मथत संसार का वपता ह।
प्रवतकरलता से क ी र्मत डरो विंता, य, शोक अवद को दरर िें क दो, आन पर वबककरल ्यान र्मत
दो स ी थवप्न र्मार हैं, ऐसा सर्मझो सारी शव‍तयााँ वन लभयता से प्राप्त होती हैं, आसवलए अप वबककरल
वन लभय हो जाआए, वकसी ी ऄनक र र लता की अस र्मत करो सांसाररक तच्र छ ववषयों के वलए वकसी के
सार्मने हाथ र्मत ि। लाआये, नहीं तो तम्र हारे ऄन्दर दीनता अ जाएगी दीन र्मत बनो, सांसाररक आच्छाओ ं का
त्याग कर दो ऐसा करने पर वह वदन दरर नहीं होगा, जब अपके ऄन्दर र्महानता अने लगेगी आवन्ियों के

तत्त्वज्ञान 381
ऄवधकार र्में न रहो, बवकक आवन्ियों को ऄपने ऄवधकार र्में ले लो आवन्ियााँ ववषयों को ोगने से क ी तृप्त
नहीं होती हैं, थवयं ववषय ही र्मनष्र य के जीवन को ोग डालते ह।
देहा्यास का त्याग करना र्मनष्र य के वलए ऄवत अवश्यक ह। र्मृत्यर से पवर लभ शरीर के प्रवत र्मर्मता से
रवहत होना पड़ेगा, नहीं तो कर्मों का बन्धन अपका पीछा नहीं छोड़ेगा जब तक आस शरीर व प्राण को
ऄपना र्मानते रहोगे तब तक जन्र्म-र्मृत्यर को प्राप्त होते रहोगे अज वजस वथतर को ऄपना सर्मझ रहे हो,
एक वदन सब यहीं छोड़कर जाओगे आसवलए वववेक द्रारा र्मोह और र्मर्मता को ऄलग करते रहो यवद
तर्मर ने शरीर के साथ र्मोह वकया तो य व्याप्त हो जाएगा, ‍योंवक शरीर की र्मृत्यर वनवश्ित ह। आस पररवतलभन
को तो थवयं सृवष्टकतालभ ी नहीं रोक सकता ह। यवद अपने ऄपने थवरूप को पहिान वलया, ईसका
साक्षात्कार कर वलया ऄथालभत् ऄपने थवरूप र्में वथथत हो गये, तो अपको र्मृत्यर का य क ी नहीं होगा,
बवकक र्मृत्यर अपकी दासी हो जाएगी
ऄपने वविारों के र्मोह और असव‍त से ऄपने अपको दरर रखो अपका यह दल र लभ शरीर थरी व
बच्िों के वलए नहीं ह। और न ही ौवतक वथतओ र ं के सं्र ह करने के वलए ह। बाहर के ररश्ते-नाते तथा
सांसाररक व्यवहार को ईतना ही र्महत्व दो, जहााँ तक साधना के र्मागलभ र्में ववघ्न न बने यह दल र लभ शरीर
अत्र्म ज्ञान प्राप्त करने के वलए प्राप्त हुअ ह। साधना करना ऄथालभत् योग का ऄभ्यास करना र्मनष्र य का
प्रर्मख
र कतलभव्य ह।, बाकी सब गौण ह। ऐसा दृढ़ वनश्िय करके ऄपने र्मागलभ र्में अगे बढ़ते जाआए पररणार्म व
भ्रर्म से यक्त
र क्षण गं रर संसार से र्मोह र्मत कीवजए थथलर शरीर यगर ों-यगर ों तक वथथर रहे ऄथवा आसी सर्मय
आसका नाश हो जाए, आसका य तर्मर र्मत करो ऄपने र्मन को वथथर करके ऄपने थवरूप र्में वथथत होने का
प्रयास कीवजये
देहावद ऄनात्र्म पदाथों र्में ऄपनेपन का ऄव र्मान करने वाले सांसाररक परू र षों का अश्रय लेना व्यथलभ
होता ह। ऄज्ञानी र्मनष्र य ऄज्ञावनयों को वजस ज्ञान का ईपदेश करता ह। वह तो ऄज्ञान ही ह। ईसके द्रारा
संसार रूपी घोर ऄंधकार से र्म‍र त होना ऄसम् व ही ह।, परन्तर वजस र्मनष्र य को तत्त्वज्ञानी र्मागलभदशलभक वर्मल
जाए, ईसके द्रारा बताए गये र्मागलभ पर िलने से ऄज्ञान नष्ट हो जाता ह।, ‍योंवक तत्त्वज्ञानी गरू र की कृ पा से
ऄज्ञानी र्मनष्र य ऄन्त:करण र्में वथथत ऄज्ञान रूपी गांठ कट जाती ह। ज।से ऄव‍न र्में तपाने से सोना-िााँदी के
र्मल दरर हो जाते हैं, ईनका सच्िा रूप वनखर अता ह।, व।से ही तत्त्वज्ञानी गरू र की सेवा से जीव ऄपने
ऄंतःकरण का ऄज्ञान रूपी र्मल त्याग देता ह। और ऄपने वाथतववक थवरूप र्में वथथत हो जाता ह।
कार्मनाओ ं के बन्धन र्में जकड़े हुए र्मनष्र यों को वकसी तत्त्वज्ञानी र्महापरू
र ष की शरण र्में जाना िावहए वजस

तत्त्वज्ञान 382
र्मनष्र य ने तत्त्वज्ञान प्राप्त न वकया हो, ऐसे ऄज्ञानी र्मनष्र य को ऄपना पथ-प्रदशलभक क ी नहीं बनाना िावहए
ऄज्ञानी र्मनष्र य की ईपर्मा ऄन्धे र्मनष्र य से की जाती ह।, ‍योंवक ऄज्ञानी र्मनष्र य खदर ही आस संसार र्में टक
रहा होता ह।, वह दसर रों को राथता ‍या बताएगा? यह सत्य ह। वक वतलभर्मान सर्मय र्में तत्त्वज्ञानी र्महापरूर ष की
प्रावप्त ऄत्यन्त दल र लभ ह। वजन र्महापरू
र षों ने तत्त्वज्ञान की प्रावप्त कर ली ह।, वह ऄपने अपको व्य‍त नहीं
करते हैं, ‍योंवक तत्त्वज्ञान प्रावप्त के कारण वे संसार र्में रहते हुए ी संसार से दरर रहते हैं ऐसी ऄवथथा र्में
ऄज्ञानी र्मनष्र य तत्त्वज्ञानी के ववषय र्में सर्मझ पाने र्में ऄक्षर्म ह।

-योगी आनन्द जी

तत्त्वज्ञान 383
हे अमृत के पुत्रों!
‚आप शरीर नहीं, इदन्रय नहीं, मन नहीं व
दचत्त नहीं हैं। कब तक अज्ञान रूपी दनरा में सोते
रहोगे। सुंयम व अभ्यास के िारा दचत्त में दस्थत
अज्ञान के आवरण को दछन्न-दभन्न कर दो।
आवरण के नि होते ही आपके दचत्त में ऋतम्भरा
-प्रज्ञा रूपी ज्ञान का उदय हो जायेगा। यही ज्ञान
अभ्यासानुसार धीरे-धीरे दचत्त की प्रशान्त वादहता
दस्थदत तक पहुच ाँ ाने में सहायक होगा अथायत्
अज्ञानता के नि होते ही सवयत्र व्यापक होकर
अपने चेतन स्वरूप में अवदस्थत हो जाओगे‛।
-योगी आनन्द जी

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तत्त्वज्ञान 384

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