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श्री कृष्णाष्टकम्
श्री कृष्णाष्टकम्
कृष्णदासी सुतपा दे वी
||मेरे आराध्य के चरणों में||
यह दे वी सुतपा जी कृत भक्ततरस से पररपूणण गन्ृ थ प्रकाशित करते हुए, अतत हर्ण के साथ एक
और भावपूणण पुष्पाांजशि गुरुमायी जी के श्री चरणों में अर्पणत है , इस गन्ृ थ का सार तया है इसे
जानने के शिए श्री कृष्ण जी के उद्धव जी को कहे िब्द इन िब्दों का उल्िेख यहााँ आवश्यक
है :-
जब तुम समझकर अनुभव कर िोगे कक मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पि हूाँ, तो तया तुम कुछ भी
गित या बरु ा कर सकोगे? तम
ु तनक्श्चत रूप से कुछ भी बरु ा नहीां कर सकोगे। जब तम
ु यह भि
ू जाते हो और
यह समझने िगते हो कक मझ
ु से छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फाँसते हो!
हे र्प्रय!! मेरे दिदयवल्िभ माधिजी की प्रेरणा से उनके श्रीचरणों में स्तोत्र सांगह
ृ -श्रञ्ृ खिा के अांतगणत
भगवद्पादाचायण आद्य श्रीमत ् िाँड़्कराचायणजी र्वरचचत कृष्णाष्टकम ् का अपनी छुर मतत के अनुसार भाव
तनवेदन करने का प्रयास कर रही हूाँ, इस सांदभण में इसका प्रथम-श्िोक-पुष्प अर्पणत कर रही हूाँ ।यह अकयांत ही
सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत अष्टक है --
मेरे र्वट्ठि जी बिे ही कामारररर्सक हैं!! वे तो "चश्रयाक्लिष्टो" अथाणत सदै व ही अपनी र्प्रयतमा श्रीजी के
साथ आशिड़्गनबद्ध रहते हैं!! और ऐसा हो भी तयूाँ न!! वो तो "र्वष्णुजी" हैं न!! इस सक्ृ ष्ट के अणु-अणु में
वे ही तो श्री के साथ सदै व र्वद्यमान हैं।
एकमेिाद्वितीयम ् मेरे र्पयाजी के मुझसे शमिन में द्िैत की कल्पना भिा कैसे हो सकती है ?
हे र्प्रय!! र्वर्य िब्द के अनेक अथण हो सकते हैं!! तथार्प यहााँ पर "र्वर्य"का अथण "भोगों" से तो नहीां ही
होगा न!! यहााँ तो र्वर्य का का अथण है -"उन्हें " (र्प्रयतमजी को) जानने की चेष्टा, साधन, तद् सम्बांचधत
सांक्षेप में कहूाँ तो "मै" उन्हें र्प्रय नहीां हूाँ, िे ही मैं को र्प्रय हैं!! मैं उन्हें मानाँू या न मानाँ!ू ! मैं उनकी सत्ता पर
र्वश्वास करती हूाँ अथवा नहीां भी करती-तो भी उन पर इसका कोई भी प्रभाव नहीां पिता!! वे तो तनशिणप्त
भाव से मुझसे प्यार और मेरा सांहार भी करते ही रहते हैं!! यही तो अिौककक सत्ता का ताकपयण है।
मैं तो यही समझी हूाँ कक जो उद्धव जी गोर्पयों को योगहदक्षा दे ने का प्रयास करते करते स्वयम ् ही उनके
शिष्य बन गये, स्त्रीकव को धारण करने को र्ववि हो गये!! वे "गदी" अथाणत भार को धारण करने वािे
शेषनाग भार स्वरूप भी हैं!! वे "िञ्खी" अथाणत नादके धारक नाद-स्वरूप" हैं!! वे "चक्री" सक्ृ ष्ट के सतत ्
पररवततणत स्वरूप, सदृश्य और उसके चक्रमण कताण भी हैं!! िेककन- तीनलोक बथतीमें बसाये आि बसे
जा खद
ण बन में !
लये सिंथिष्थमन हरनत कलया यथतण स विभुःण । शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।२।
"र्वयदतनिमुख्यां" इस सक्ृ ष्टके प्रारां भ में आकाि-पवनादद क्जनसे उकपन्न हुवे हैं!! वे र्वराट-पुरुर्!! मैं इसे
आपसे समझने का प्रयास करती हूाँ---
मांिन से "वीयण और रज"के सांयोग से!! स्त्री के गभण- स्थान-िून्य में , अथाणत आकािमें !! "समान" वायु का
कायण है "गभण-स्थापन" और यह—समान िायण मांिन का प्रनतफल है !! और यह मांथन अन्न की िक्ततसे
होता है!! अथाणत अन्न ही िक्तत का स्रोत है!! "वीयण" अथवा "रज भौनतक पदाथण हैं , ये अन्न से ही तनशमणत
हैं, यह "पदाथण और िक्तत ही र्पण्ड में चैतन्य के प्रक्षेपक या स्थापक हैं!! वे इस चैतन्य र्पण्ड के कताण नहीां
हैं!! कताण तो अन्न है!! वह अन्न भी वर्ाण, पथ्
ृ वी, सांयोग से उकपन्न होता है!! और वर्ाण सूयण की रक्श्मयों से
और हे र्प्रय!! यह आकाश क्जस आकाि में समाया हुवा है वही तो मेरे सााँिरे जी हैं! तभी तो कहते हैं कक-
"क्स्थतौ तनःिेर्ां योऽवनतत तनजसुखाांिन
े मधह
ु ा"
बम्
ृ हाण्ड के सभी पदाथों, जीवों की रक्षा करते हैं!!
पोर्ण करते हैं!! जीवोंका, पदाथोंका पोर्ण-वायु और अन्न में तनदहत िक्तत अथाणत तेज से ही तो होता है !
गभि का िोषण मााँ द्वारा गदृ हत अन्न की िक्तत से होता है -यह तो गौि है !! तयों कक अन्न से "गभण-र्पण्ड"
का पोर्ण तो हो सकता है!! ककांतु उसमें ब्याप्त "चैतन्यता" तो वायु अथाणत प्राणािान पर ही तनभणर है !! और
यह प्राण- वायु आकाि में व्याप्त है !! और- सखी यह आकाश ही आनांदघन है !!
िय के समय मेरे र्प्रयतमजी अपनी िीिा मात्रसे इस सक्ृ ष्ट को अपने में र्विीन कर िेते हैं!! और प्यारी
सर्खयों! मैं आपको एक बात और बताना चाहती हूाँ!!
मैं बचपन में नदी ककनारे रे त के घरौंदे बनाती थी!! घर, कमरे , खेत, और उसमें गड्
ु डे-गड़ु िया भी बनाती थी!
और बहुत आनांददत होती थी उसे बनाने में!! यदद बीचमें कोई दस
ू री सहे िी आ भी जाती तो उसे बबल्कुि
हस्तक्षेप नहीां करने दे ती थी!! और स्वयां कफर उसे बबगाि भी दे ती थी!!
हे र्प्रय!! अब इसका तत
ृ ीय श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ--
हे र्प्रय!! अब पन
ु ः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक--"असन
ू ायम्यादौ यमतनयममख्
ु यैः सक
ु रणे"
क्जन स्तवनीय मायापतत को!! अब सांसार में स्तुकय तो वही हो सकता है न जो कक मायापतत हो!! स्वयां ही
"मााँ" ने सप्तिती में यह स्पष्ट ककया है कक- यो मे दिो ब्यिो हनत" और कफर माया का तो एक ही दपण है!
प्रकृतत का, स्त्री, अथवा या कफर मेरा भी एक ही दपण है !! कक मैं उसीके अनक
ु ू ि चिाँ !ू ! क्जसका मैंने स्वयम ् ही
स्वयम्वर ककया हो!! मोदहत आप ककस पर हैं, कोई भी परू
ु र् ककस स्त्री पर मोदहत है ! महकव की बात ये
बबल्कुि भी है ही नहीां!!
कोऊ एक र्मलत कहहां प्रेमी गगरबगर सब हे रे।। जहााँतक मैं समझती हूाँ कक-िक्ष्मी ने नारायण का,
सीता ने राम का और राचधका, गोर्पयों ने कान्हाजी का स्वयम ् ही चयन ककया था!! तभी तो--
तासों सणख-दख
ण कहनकी रही बात अब कौन।।
मन के अनुकूि मैं चिाँ ू!! अब आप ध्यान दें !! उपरोतत वचन "मााँ" ने िुम्भ-तनिुम्भ से कहे थे!! असुरों से
कहे थे! अथाणत काम-क्रोधादद आसुरी वर्ृ त्तयों का अनुकरण करने वािे मायािनत को र्प्रय हो ही नहीां सकते!!
मेरे र्प्रयतम को र्प्रय होने के शिये तो मन को-
"यमतनयममुख्यैः सुकरणे" यम-तनयमादद सुकमों के द्वारा "िुद्ध" करना ही होगा। और अब पुनः कहते हैं
कक-"तनणरूध्येदां चचत्तां िदद" यदद मैं अपने प्राण-प्यारे की र्प्रयतमा बनना चाहती हूाँ तो पहिे तया करूाँ!!
अब एक बात कहती हूाँ-मैं अपने र्पया जी!! को तया दे ना चाहती हूाँ? ककसी भी कन्या की एक ही ईच्छा होती
है कक वह अपने तनष्किांक िरीर को अपने र्प्रयतम जी को सौंप दे --
वे चाहें तो जीर्वत रखें-वे चाहें तो असमय ही सुिा दें !! बस वैसे ही-मैं अपने चचत्त को अपने प्यारे जी को सौंप
दाँ ।ू
और कफर पन
ु ः कहते हैं कक--
मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को!!! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी
ही मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें ! सक्ृ ष्ट के कण- कण में बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करती हूाँ!!
ननयन्तारां ध्येयां मन
ण स
ण रण नण
ृ ाां मोक्षदमसौ ।
हे र्प्रय!! अब पुनः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक-"पचृ थव्याां ततष्ठन ् यो यमयतत महीां वेद न धरा"
मेरे स्वामीजी!! इसी पथ्ृ वी पर रहकर हमारे आपके बीच में रहकर, िायद आपके ही स्वरूप में रहते हुवे
मााँस, मज्जा, रज, पीब, र्वशभन्न रसायन भीतर ही भीतर प्रवादहत हो रहे हैं!!
दिदय, यकृत, वत
ृ क, स्वर-यांत्र, गभाणिय, मक्स्तष्क आदद हजारों यांत्र भीतर सतत ् चि रहे हैं!! न जाने
ककतने कृशम, अमीबा, मि, मत्र
ू , मैिादद का भांडार तनरां तर बनता-प्रवादहत होता रहता है !! र्वर्य, वासना,
सांस्कारादद का सैिाब भीतर उमि-घम
ु ि रहा है !! प्राण-अपानादद तनरां तर आते-जाते रहते हैं!! और यह सब
कहते हैं कक, वेद क्जन श्रतु तयों में अमि-स्वरूपको जगतका स्वामी कहते हैं! हे र्प्रय! मानसमें कहते हैं कक
चेतन सहज अमल सणखराशी यहजो "चेतन" है !! वही सहज है -अथाणत कृततम नहीां है !! यह िरीर एवम ्
इसके सभी अवयव!! यह ब्रम्हाण्ड एवम ् इसके सभी सय
ू -ण चांर-नक्षत्रादद अवयव!! कृततम ् हैं असहज हैं!! जि
एवम ् पराविम्बी हैं!! हे र्प्रय!! यह तो आप भी समझते हैं कक सक्ृ ष्ट, प्रकृतत, जीवकव, अपना उकथान करने में
प्रयकन-रत हों उसी में उसका ध्येय नीदहत है , और ऐसी आकमाओांको ही वेदों ने स्वाहा, स्वधा, स्वरा, अक्षरा,
सुधा तथा श्रेया कहा भी है-
और जो इनको अमि में िाता है ! चिाता है ! सांचाशित करता है ! वे मेरे श्री िनत थिामी जी ही हैं!! यह
"चैतन्य" ही तो मेरे र्प्रयतमजी हैं, इसी कारण कहते हैं कक--
मैं उनकी यांत्री हूाँ!! मैं उनकी वाहन हूाँ!! सेर्वका हूाँ उनकी!!
मेरा तो बस एक ही िक्ष्य होना चादहये था कक मैं!! उन्हें "जानाँू" पहे चानने का यकन करूाँ-यही तो मेरा ध्येय
है !! और कदाचचत आप ऐसा करते हैं तो यही ददव्यता है दे ित्ि है !! मानव जीवन का परमाथण है !! और ऐसे
मुतन-जनों का यह दे हाशभमान से मोह क्षय। हो जाता है !! मोक्ष ही जाता है!! और अब पुनः कहते हैं कक-
मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में मैं बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करती हूाँ!!
कवित्िादे गि
ि ं िररहरनत योऽसौ विजनयनुः।
हे र्प्रय!! अब पुनः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक- "महे न्राददण देवो जयततददततजान्यस्य बितो"
मेरे दिदयेश्वर की िक्तत से ही ईन्रादद दे वता सभी असुरों पर र्वजय प्राप्त करते हैं!! अथाणत र्वर्यों की
तरफ स्वभावतः ही प्रवादहत होने वािी मेरी ईक्न्रयााँ मेरे प्रभु कामेलिर। की ही कृपा रूर्पर्ण आध्याक्कमक
मागण की उजाण को प्राप्तकर उनकी तरफ मख
ु ाक्न्वत होती है !! वे मेरे र्प्रयजी के सातनध्य में काम, क्रोधादद
आसुरी वर्ृ त्तयों पर र्वजय प्राप्त कर िेती हैं!! उनके बि और सांबि के बबना सांसार का कोई भी कायण नहीां हो
पाता, मैं उनकी ही िार्ना में हूाँ!! सम्पूणण ब्रम्हाण्ड उनके बि से िार्र्त हो रहा है । मैं ककसी कायण हे तु स्वतांत्र
नहीां हूाँ!! यह तो मेरी मूखत
ण ा ही है कक मैं यह सोचकर पाप करती हूाँ कक वे दे ख नहीां रहे !!
"कर्वकवादे गव
ण ं पररहरतत योऽसौ र्वजतयनः"
कक वे मुझ कवि जैसी तथाकचथत िास्त्र-ज्ञातनयों के तोतों जैसे ज्ञान के अशभमान को!! र्शिोऽहम के
तथाकचथत मनको बहिानेवािे!! अपने आपको ही धोखा दे ने वािे ज्ञान को!! मेरी क्षमता को समझते हैं,
और मेरी इस शमथ्याऽशभमानी र्वचार िीिता पर मन ही मन हाँ सते भी हैं!! और हे र्प्रय!! अांत समय के
तराजू में जब मैं अपनी भावनाओां को कसौटी पर कसाँग
ू ी तो सब तनबांध शिखना भूि जाऊाँगी!!
कर्वकवादे गव
ण -ं हे र्प्रय!! आज कुछ ददनों से मझ
ु े ज्वर, खााँसी आदद है ! मैं जानती हूाँ कक यह तो सामान्य सी
व्याचधयााँ हैं, ककांतु कफरभी मेरी पूरी ददनचयाण अस्त- व्यस्त हो गयी है , मैं सुनी ही नहीां दे खी भी हूाँ कक अांत
काि में भयांकर वेदनायें, व्याचधयााँ चारों तरफ से मुझे घेर िेंगी, हे र्प्रय-मैं जानती हूाँ कक-ये शमथ्या प्रिाप!
ऊफ्प्प्फ्प्फ और उसिर भी सााँसाररक मोह-सांबांधोंकी प्रेतछाया तो और भी भयानक रूि से सताती
हैं!!
मेरे गवण को तोणने वािे हे मेरे र्प्रयजी!! मैं आपसे व्याचधयों से मक्ु तत नहीां चाहती, आप मझ
ु े और भी
भयाँड़्कर कष्ट दो!! शिचथि और तनष्क्रीय कर दो मेरे अांगों को, सााँसाररक रूप से मझ
ु े अपमातनत, सम्पर्त्त,
सांबांध र्वहीन कर दो आप मझ
ु े िेककन बस एक प्राथणना मेरी स्वीकार कर िो--तोण दो मेरे अहां कार को!!
ककसी कााँच की ककरचचिी की तरह नष्ट कर दो मुझ-े -
मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!
हे र्प्रय!! अब इसका र्ष्ठम ्-श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ। यह अकयांत ही सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत
अष्टक है --
हे "माधव" जब आपकी इस अहै तुकी कृपासे मुझे मानव योतनकी प्राक्प्त आज हुयी है !! और मैं यह आपकी
ही दयार दृक्ष्ट के कारण कुछ धमणगांथ
ृ ों और आपके कृपा-पात्र सांतवांद
ृ और सद्गरु
ु की कृपासे आपकी तरफ
थोडा सा उन्मुख हो पायी हूाँ!! न जाने ककतनी बार कूकरी, िूकरी, राक्षसण, िता और वक्ष
ृ ादद योतनयोंमें
कोदट-कोदट वर्ण पयंत भटकती मैं मूढमतत!! यह जो मानव जन्म पा सकी तो यह आपकी ही कृपा है -और
ततसपर भी यदद आपका ध्यान अहतनणिा नहीां करती तो पुनः उन्हीां योतनयों में जाना भी तनक्श्चत ही है।
जातथय ध्रि
ू ोमत्ृ यू ध्रि
णि ो जन्म मत
ृ थय च क्जनका जन्म हुवा उनकी मौत होनी ही है , और क्जनकी मकृ यु
हुयी-पुनः-पुनः वे जन्म िेंगे ही!! और मैं आपको स्मरण ददिाना चाहूाँगी कक मुझे मारने की क्षमता मौत में
मेरे पापों का ककिा बिा सुदृढ है नाथ जी! आपके शसवा मेरे इस िािी गढ को ढहाने की क्षमता ककसी में नहीां
है !! आपका मैं आयवाहन करती हूाँ कक आओ मेरे स्वामी, अपनी इस पार्पनी की पापों की िांका को जिा दो-
कै हमहीां कै तम
ु हीां माधव अपन
ु भरोसे िररहौं।।
हे मेरे प्राणाधारजी मैं तो आपकी एक कमजोरी जानती हूाँ कक- आि मणझे टूट-टूट कर प्यार करते हो!!
और मेरे प्यारे !! अब मझ
ु े तो कीट-पतञ्गादद योतनयों में नहीां जाना है !! मैं तो बस अब आपकी ही सेवा करती
रहूाँ!! आपके-शिये आप पर ही बार-बार मरूाँ!!
तयाँकू क मझ
ु े आपकी सेवा के शिये बार-बार जन्म िेना ही र्प्रय है !!
मेरे दिदयेश्वर मझ
ु पार्पनी को!! मझ
ु िरण में आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ।
हे र्प्रय!! अब इसका सप्तम-श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ। यह अकयांत ही सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत
अष्टक है --
थियम्भभ
ू त
ूि ानाां जनक उचचताचारसख
ण दुः।
मैं एक बात स्पष्ट रूप से समझ सकती हूाँ कक जो मेरे "र्प्रयतम जी" से डरते हैं!! वह कभी स्वप्न में भी ऐसा
कोई कायण कर ही नहीां सकते कक उसे ककसी अन्य से डरने की आवश्यकता हो!! मैं जानती हूाँ कक "मकृ यु" से
बिा कोई भय नहीां होता!! और यह "मकृ यु" तो उनको एक-बार दे खने का महोकसव है !! अतः उससे तो अब मैं
मेघिणिम्शभ
ण ाड़्गम ्" वे सााँिरे हैं!! ज्ञानी से ज्ञानी जन भी उन्हें पण
ू ण रूपेण नहीां जानते!! और अज्ञानी जन भी
उन्हें कुछ न कुछ तो जानते ही हैं!! ककांतु एक बात है !! वे हम गोवियों के समियथक हैं!! गोर्पयों की
क्जतनी आयु है !! मेरी आपकी क्जतनी आयु है !! उनकी भी उतनी ही आयु है !! मैं आपको उसका कारण
अपनी अल्पमततसे बताती हूाँ!! हम गोर्पयााँ साक्षात अपने र्प्रयतमजी की प्रकृतत स्वरूपा हैं!! जैसे मेरे
दिदयेि अनादद-अनांत हैं!! वैसे ही प्रकृतत भी अनादद-अनांत है !! वे अपनी गोर्पयों के स्वामी हैं!! और भी-
ककांतु मैं एक बात अनुभव की हूाँ कक जीवन में तो तया िगभग प्रततददन ही मैं जाने-अांजाने में अनेक अपराध
करती ही रहती हूाँ, अांजाने में हुवे पापों को तो नहीां कह सकती िेककन क्जन पापों को जानते हुवे भी करती हूाँ
तो ननरा समाचधष्थििनतुः जब उनके आगोि में जाती हूाँ तो उनके पााँव पकि कर बोि दे ती हूाँ कक-र्प्रयतमजी
छमा कर दो-आज भी मैंने ये पाप ककया है !! और कफर तो र्पघि जाते हैं वे भी-
या तनते बबछणरे तौ कहा मनतें अनतें जण बसौ तब जानौं। आर्खर मैं उनकी प्रेयसी जो हूाँ, मेरे हाथों को
छुिाकर भिे ही वो नाराज होने का नाटक कर िें पर मेरे क्ययदय से भिा कहााँ जा पायेंगे!! हे र्प्रयतमजी-
तो मैं उनसे डरती हूाँ "अगर" तो उचचत आचरण ही कर पाऊाँगी!! और उसका पररणाम उचचत ही शमिेगा!!
और अब पन
ु ः कहते हैं कक--
मेरे दिदयेश्वर मझ
ु पार्पनी को!! मझ
ु िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!
हे र्प्रय!! और अब पन
ु ः कहते हैं कक--
जब प्रकृतत का गित प्रकार से दोहन होता है !! जब स्त्रीयों की कीततण (मयाणदा) भांड़्ग होती है !! जब नैततक
परम्पराओां का िास होता है!! जब अन्यायोपाक्जणत धन और सत्ता बि से मदाांध िोग न्योपाक्जणत वर्ृ त्त का
आश्रय िेने वािों का िोर्ण करते हैं!! जब "स्त्री-पुरुर्" के सम्बांध पुत्रक्े ष्ट अथवा योग साधना के यज्ञ न
होकर वासना की क्रीिा मात्र होकर रह जाते हैं!! यहााँ पर एक बात मैं अवस्य ही कहना चाहूाँगी!! िासना
जतनत सांम्बांधों के सांदभण में मेरे र्वचार कुछ उन्मुतत से हैं!! जैसे कक एक गरीब मजदरू क्जनके पास
मनोरां ञ्जन के कोई भी साधन नहीां हैं!!
पाप तो वो है जो आप बिात ् ककसी के िरीर को छूना चाहते हैं!! और यदद ऐसे पाप होते हैं, बिाककार होते हैं,
मेरा मानना तो यह भी है कक यदद १०० बिाककार होते हैं तो उनमें ८०% बिाककार यदद पुरुर् करते हैं तो २०%
बिाककार क्स्त्रयााँ भी करती शमिेंगी आपको!! मात्र परू
ु र् समाज को ही दोर्ी मान िेने की जो अवधारणा है
वो बबल्कुि ही गित है !! तब जगत र्वक्षुब्ध हो जाता है !! सकय, क्षमा, अस्तेय, यम-तनयमादद का िास सा
ददख-पिता है , तब-
वे ऐसे नहीां हो सकते, वैसे नहीां हो सकते!! जैसे अनगणि र्वर्यों-पर सोचने के पूवण यह नहीां समझ पाती कक वे
कैसे भी हो सकते हैं!! मैं आपको इतना ही कह सकती हूाँ, कक मुझे आपको "उनतक" पहुाँचने का उन्हें बताने
का!! जो मागण-दिणन करते हैं!! वे ही सांत हैं!!
मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!
थिगणणित
ृ उदारुः शड़्खचक्राब्जहथतुः।।
हे र्प्रय!! अब पुनश्च आद्याचायणजी इस कृष्णाष्टकम ् के उपसांहार करते हैं-और इस सांदभण में मैं आपसे यह
स्पष्ट कर दाँ ू कक इस स्तोत्र की रचना उन्होंने भगवान कर्पि की तरह अपनी जन्मदात्री मााँ की मुक्तत हे तु
की है !! वे कहते हैं कक-"इतत हरररर्खिाकमाराचधतः"
अर्खि ब्रम्हाण्डाचधपतत ककन्हीां भी मत-मताांतरों की सीमा से परे हैं और- प्राििना में िो अिररर्मत शष्तत
है जो उन्हें आकवषित करती ही है !!
हे र्प्रय!! इस सांदभण में मैं आपको अथवण वेद का•२०• १०८•२▪वााँ मांत्र अवस्य ही ददखाना चाहूाँगी--
अधाते सन्
ण नमीमहे ।।
अकयांत ही सार गशभणत प्राथणना की है ऋर्र्यों ने इस मांत्र में , वे कहते हैं कक- िसो अथाणत ् तू ही हमारा है ,
शतक्रतो अथाणत ् तू ही हमारी मााँ है !!
मैं आपसे बारम्बार कहूाँगी कक- "व्यक्तत, पररवार, नगर, राष्र और र्वश्व के दहताथण "ये पााँच प्रकार की
प्राथणनायें मेरे र्प्रयतमजी से अवस्य ही करनी चादहये”!! आप स्वयम ् ही दे ख िें , ऋग्वेद•७• १००• ७•में
स्पष्ट कहते हैं कक-
सष
ण ारचिरलिाननि यन्मनष्ण यान्नेनीयतेऽभीषर्ण भिािष्जन इिह्रतप्रनतष्ठां यदष्जरां जविष्ठां तन्मेमनुः
र्शिसांकल्िमथतण।
और हे र्प्रय!! इस प्रकार प्राथणना करने से उचचत पात्र होने के कारण मेरे र्प्रयतमजी ने अपने चतूभज
ुण स्वरूप
में प्रकट होकर! "स्वगुणवत
ृ उदारः िड़्खचक्राब्जहस्तः" अद्वैताचायण की र्वशिष्टाऽद्वैतोपासना के—र्शि
अिाित्कल्याणमयी सांकल्िानणसार तत्क्षण ही उनकी मााँ को िरमाश्रय की प्राष्प्त प्रदान की!!
और इस प्रकार इस श्रीकृष्णाष्टकम ् का मैं भावानुवाद पूणण करती हूाँ!! और आिकी दीदी सणतिा आिसे
विदा लेती है !!