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श्री कृष्णाष्टकम ्

कृष्णदासी सुतपा दे वी
||मेरे आराध्य के चरणों में||

यह दे वी सुतपा जी कृत भक्ततरस से पररपूणण गन्ृ थ प्रकाशित करते हुए, अतत हर्ण के साथ एक
और भावपूणण पुष्पाांजशि गुरुमायी जी के श्री चरणों में अर्पणत है , इस गन्ृ थ का सार तया है इसे
जानने के शिए श्री कृष्ण जी के उद्धव जी को कहे िब्द इन िब्दों का उल्िेख यहााँ आवश्यक
है :-

जब तुम समझकर अनुभव कर िोगे कक मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पि हूाँ, तो तया तुम कुछ भी
गित या बरु ा कर सकोगे? तम
ु तनक्श्चत रूप से कुछ भी बरु ा नहीां कर सकोगे। जब तम
ु यह भि
ू जाते हो और
यह समझने िगते हो कक मझ
ु से छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फाँसते हो!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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विषय सचू च

1. इस सक्ृ ष्टरूर्पणी वनमािा को आप तनशिणप्तरूप से धारण करते हैं---------------------------4


2. मैं जानती थी कक ये रे त के घरौंदे गड्
ु डे-गड़ु िया इन सभी को मैं ढहाने के शिये ही बनायी
थी---------------------------------------------------------------------------------------------------7
3. जैसी एक छोटी-सी बाशिका होती है तनष्किांक, अबोध कामादद र्वकारों से अछूती---------10
4. ककांतु यह पथ्
ृ वी नहीां जानती मैं नहीां जानती---------------------------------------------------13
5. मेरे दिदयेश्वर की िक्तत से ही ईन्रादद दे वता सभी असुरों पर र्वजय प्राप्त करते हैं---16
6. आज हौं एक-एक करर िररहौं। कै हमहीां कै तम
ु हीां माधव अपन
ु भरोसे िररहौं--------------19
7. मैं उनसे डरती हूाँ अगर तो उचचत आचरण ही कर पाऊाँगी और उसका पररणाम उचचत ही
शमिेगा---------------------------------------------------------------------------------------------22
8. पाप तो वो है जो आप बिाक्ककसी के िरीर को छूना चाहते हैं-----------------------------25
9. व्यक्तत पररवार नगर राष्र और र्वश्वके दहताथण ये पााँच प्रकारकी प्राथणनायें मेरे र्प्रयतमजी से
अवस्य ही करनी चादहये!------------------------------------------------------------------------------------28

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -१
इस सष्ृ ष्टरूविणी िनमाला को आि ननर्लिप्तरूि से धारण करते हैं!!

हे र्प्रय!! मेरे दिदयवल्िभ माधिजी की प्रेरणा से उनके श्रीचरणों में स्तोत्र सांगह
ृ -श्रञ्ृ खिा के अांतगणत
भगवद्पादाचायण आद्य श्रीमत ् िाँड़्कराचायणजी र्वरचचत कृष्णाष्टकम ् का अपनी छुर मतत के अनुसार भाव
तनवेदन करने का प्रयास कर रही हूाँ, इस सांदभण में इसका प्रथम-श्िोक-पुष्प अर्पणत कर रही हूाँ ।यह अकयांत ही
सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत अष्टक है --

चश्रयाष्ललष्टो विष्णणुः ष्थिरचरििणिेदविषयो। चधयाां साक्षी शणद्धो हरररसणरहन्ताब्जनयनुः।।

गदी शञ्खी चक्री विमलिनमाली ष्थिररुचचुः। शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।१|

मेरे र्वट्ठि जी बिे ही कामारररर्सक हैं!! वे तो "चश्रयाक्लिष्टो" अथाणत सदै व ही अपनी र्प्रयतमा श्रीजी के
साथ आशिड़्गनबद्ध रहते हैं!! और ऐसा हो भी तयूाँ न!! वो तो "र्वष्णुजी" हैं न!! इस सक्ृ ष्ट के अणु-अणु में
वे ही तो श्री के साथ सदै व र्वद्यमान हैं।

हे मेरे र्प्रयतमजी! मेरा अांतःकरण तो कहे ता ही है कक-

प्रीनत जो मेरे िीिकी िैठी विांजर माांहह।

रोम-रोम विि-विि करै दाद ू दस


ू र नाांहह।।

और वैसे भी तो इस पावन मधरु रतत में -

एकमेिाद्वितीयम ् मेरे र्पयाजी के मुझसे शमिन में द्िैत की कल्पना भिा कैसे हो सकती है ?

और सभी श्रनण तयााँ िेद ही तो उनके विषय हैं

हे र्प्रय!! र्वर्य िब्द के अनेक अथण हो सकते हैं!! तथार्प यहााँ पर "र्वर्य"का अथण "भोगों" से तो नहीां ही
होगा न!! यहााँ तो र्वर्य का का अथण है -"उन्हें " (र्प्रयतमजी को) जानने की चेष्टा, साधन, तद् सम्बांचधत

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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ज्ञान!! उन्हें इन श्रतु तयों से ही थोिा सा जानने का प्रयास मैं और आप कर सकते हैं!! अथाणत परमाथण पथ-
पचथकों को वो चाहे जो भी हों-उन्हें वेदादद श्रतु त वर्णणत र्वर्यों से उन्हें जानने का प्रयास करना चादहये, हे
र्प्रय "चधयाां साक्षी िुद्दौ" के द्वारा आप स्पष्ट कहते हैं कक इस हे तु मेरी बुद्चधको िुद्ध होना परम
आवश्यक है !!

अपात्र एवम ् दर्ु र्त बद्


ु चध के द्वारा!! भेदाकमक बद्
ु चध के द्वारा!! िौककक पदाथाणञ्काांक्षक्षणी बद्
ु चध के
द्वारा!! श्रतु तयों को समझना सांभव नहीां है ! और कफर!! मेरे श्रीनाथ जी!! "हरररसरु हन्ताब्जनयनः" भी तो
है !! वे हरर- िालनकताि और हर विलयकताि हैं!! तयों कक वे कमि नयन हैं!! जैसे कक कमि!! जि में रहते
हुवे भी जि से तनशिणप्त रहता है !! कमि-पत्र पर जि की बाँद
ू ें ठहे र ही नहीां सकतीां!! आप कल्पना तो करो- हे
र्प्रय!! साांसाररक दृक्ष्ट "से पािनकताण भिा यदद-महाकाल बन जाये यह सांभव है तया?

सांक्षेप में कहूाँ तो "मै" उन्हें र्प्रय नहीां हूाँ, िे ही मैं को र्प्रय हैं!! मैं उन्हें मानाँू या न मानाँ!ू ! मैं उनकी सत्ता पर
र्वश्वास करती हूाँ अथवा नहीां भी करती-तो भी उन पर इसका कोई भी प्रभाव नहीां पिता!! वे तो तनशिणप्त
भाव से मुझसे प्यार और मेरा सांहार भी करते ही रहते हैं!! यही तो अिौककक सत्ता का ताकपयण है।

इसे ककतने साँद


ु र से िब्दों में कहते हैं कक-

कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय।

हहयमें न जानन िरै कान्ह हैं कक प्रान है ।।

मैं तो यही समझी हूाँ कक जो उद्धव जी गोर्पयों को योगहदक्षा दे ने का प्रयास करते करते स्वयम ् ही उनके
शिष्य बन गये, स्त्रीकव को धारण करने को र्ववि हो गये!! वे "गदी" अथाणत भार को धारण करने वािे
शेषनाग भार स्वरूप भी हैं!! वे "िञ्खी" अथाणत नादके धारक नाद-स्वरूप" हैं!! वे "चक्री" सक्ृ ष्ट के सतत ्
पररवततणत स्वरूप, सदृश्य और उसके चक्रमण कताण भी हैं!! िेककन- तीनलोक बथतीमें बसाये आि बसे
जा खद
ण बन में !

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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हे र्प्रय!! इस सक्ृ ष्ट रूर्पणी वनमािा को आप तनशिणप्त रूप से धारण करते हुवे भी--"क्स्थररुचचः" हैं!!
आपकी रुचच!! आपका पुरुर्ाथण!! इस सक्ृ ष्ट-क्रम के "उकपर्त्त- पोर्ण और र्विय" में सदै व ही क्स्थर है । हे
मेरे दिदयनाथ!! मैं आपकी िरण में आयी हूाँ!! हे तनर्खि बम्
ृ हाण्डाचधपतत!! क्जस प्रकार "पाथण" को िात्र
मानकर आपने उसे अपने ऐसे "र्वश्व-रूप" का दिणन कराया था-वैसे ही आप मेरे भी नयनों में दृक्ष्ट-गोचर
हों। और इस प्रकार इस श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करती हुाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -२
मैं जानती िी कक ये रे त के घरौंदे गणड्डे-गणड़िया इन सभी को मैं ढहाने के र्लये ही बनायी िी!!

हे र्प्रय!! अब पुनश्च इसका द्र्वतीय श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ।

यतुः सिं जातां वियदननलमणख्यां जगहददां । ष्थितौ ननुःशेषां योऽिननत ननजसणखाांशन


े मधह
ण ा।

लये सिंथिष्थमन हरनत कलया यथतण स विभुःण । शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।२।

हे र्प्रय!! पूनश्च ् श्री िड़्कराचायणजी कहते हैं कक--

"र्वयदतनिमुख्यां" इस सक्ृ ष्टके प्रारां भ में आकाि-पवनादद क्जनसे उकपन्न हुवे हैं!! वे र्वराट-पुरुर्!! मैं इसे
आपसे समझने का प्रयास करती हूाँ---

अन्न से पुरुर्ों में वियि का तनमाणण होता है !!

िेककन वीयण से जीि का तनमाणण नहीां होता!!

अन्न से स्त्री में रज का तनमाणण होता है!!

िेककन रज से जीि का तनमाणण नहीां होता!!

मांिन से "वीयण और रज"के सांयोग से!! स्त्री के गभण- स्थान-िून्य में , अथाणत आकािमें !! "समान" वायु का
कायण है "गभण-स्थापन" और यह—समान िायण मांिन का प्रनतफल है !! और यह मांथन अन्न की िक्ततसे
होता है!! अथाणत अन्न ही िक्तत का स्रोत है!! "वीयण" अथवा "रज भौनतक पदाथण हैं , ये अन्न से ही तनशमणत
हैं, यह "पदाथण और िक्तत ही र्पण्ड में चैतन्य के प्रक्षेपक या स्थापक हैं!! वे इस चैतन्य र्पण्ड के कताण नहीां
हैं!! कताण तो अन्न है!! वह अन्न भी वर्ाण, पथ्
ृ वी, सांयोग से उकपन्न होता है!! और वर्ाण सूयण की रक्श्मयों से

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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वाक्ष्पत जि से होती है !! अथाणत तेज शष्तत से होती है !! और यह "तेज"-आकाि में वायु के भम
ृ ण, मांथन से
होता है!!

और हे र्प्रय!! यह आकाश क्जस आकाि में समाया हुवा है वही तो मेरे सााँिरे जी हैं! तभी तो कहते हैं कक-
"क्स्थतौ तनःिेर्ां योऽवनतत तनजसुखाांिन
े मधह
ु ा"

क्स्थतत के समय वही इस सांसार की रक्षा करते हैं!!

बम्
ृ हाण्ड के सभी पदाथों, जीवों की रक्षा करते हैं!!

पोर्ण करते हैं!! जीवोंका, पदाथोंका पोर्ण-वायु और अन्न में तनदहत िक्तत अथाणत तेज से ही तो होता है !
गभि का िोषण मााँ द्वारा गदृ हत अन्न की िक्तत से होता है -यह तो गौि है !! तयों कक अन्न से "गभण-र्पण्ड"
का पोर्ण तो हो सकता है!! ककांतु उसमें ब्याप्त "चैतन्यता" तो वायु अथाणत प्राणािान पर ही तनभणर है !! और
यह प्राण- वायु आकाि में व्याप्त है !! और- सखी यह आकाश ही आनांदघन है !!

इस आकाि में ही तो वायु-रूपी पुरुर् को मांथन, भम


ृ ण, के शिये योतन-मागण में क्स्थत ् िून्य-आकाि में
मदनाड़्कणश के द्वारा- नवीन सक्ृ ष्टयों के तनमाणणमें सहायक बनने का अवसर प्राप्त होता है ! इस आकाि
रूपी गभण में ही तो यह प्रकृतत अथवा स्त्री "गभण" रूपी आनांद को धारण-कर उसे पोर्र्त करने जैसे आनांद में
सहातयका होती है!! और पुनः--

''िये सवंस्वक्स्मन हरतत किया यस्तु स र्वभुः"

िय के समय मेरे र्प्रयतमजी अपनी िीिा मात्रसे इस सक्ृ ष्ट को अपने में र्विीन कर िेते हैं!! और प्यारी
सर्खयों! मैं आपको एक बात और बताना चाहती हूाँ!!

मैं बचपन में नदी ककनारे रे त के घरौंदे बनाती थी!! घर, कमरे , खेत, और उसमें गड्
ु डे-गड़ु िया भी बनाती थी!
और बहुत आनांददत होती थी उसे बनाने में!! यदद बीचमें कोई दस
ू री सहे िी आ भी जाती तो उसे बबल्कुि
हस्तक्षेप नहीां करने दे ती थी!! और स्वयां कफर उसे बबगाि भी दे ती थी!!

बबगािने में भी तो एक अिग ही आनांद आता था!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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मैं जानती थी कक ये रे त के घरौंदे , गुड्डे-गुड़िया!! इन सभी को मैं ढहाने के शिये ही बनायी थी!! यह मेरी
िीिा मात्र थी!! और यही तो मेरे "सााँवरे जी" भी करते हैं!! यह उनकी लीला मात्र है !! हे मेरे दिदयनाथजी!!
मैं आपकी िरण में आयी हूाँ!! हे तनर्खि बम्
ृ हाण्डाचधपतत!! क्जस प्रकार मीरा को िात्र मानकर आपने उसे
अपने ऐसे "र्वश्व-रूप" का दिणन कराया था- वैसे ही आप मेरे भी नयनों में दृक्ष्ट-गोचर हों। और इस प्रकार
इस श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करते हुाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -३
जैसी एक छोटी सी बार्लका होती है ननष्कलांक, अबोध कामाहद विकारों से अछूती!

हे र्प्रय!! अब इसका तत
ृ ीय श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ--

असूनायम्यादौ यमननयममणख्यैुः सणकरणे। ननिरूध्येदां चचत्तां ह्रहद विमलमानीय सकलम ्।।

यमीड्यां िलयष्न्त प्रिरमतयो मानयनमनसौ। शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।३।

हे र्प्रय!! अब पन
ु ः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक--"असन
ू ायम्यादौ यमतनयममख्
ु यैः सक
ु रणे"

क्जन स्तवनीय मायापतत को!! अब सांसार में स्तुकय तो वही हो सकता है न जो कक मायापतत हो!! स्वयां ही
"मााँ" ने सप्तिती में यह स्पष्ट ककया है कक- यो मे दिो ब्यिो हनत" और कफर माया का तो एक ही दपण है!
प्रकृतत का, स्त्री, अथवा या कफर मेरा भी एक ही दपण है !! कक मैं उसीके अनक
ु ू ि चिाँ !ू ! क्जसका मैंने स्वयम ् ही
स्वयम्वर ककया हो!! मोदहत आप ककस पर हैं, कोई भी परू
ु र् ककस स्त्री पर मोदहत है ! महकव की बात ये
बबल्कुि भी है ही नहीां!!

चाहनहारे सणख-यौिन के जग में र्मलत घनेरे।

कोऊ एक र्मलत कहहां प्रेमी गगरबगर सब हे रे।। जहााँतक मैं समझती हूाँ कक-िक्ष्मी ने नारायण का,
सीता ने राम का और राचधका, गोर्पयों ने कान्हाजी का स्वयम ् ही चयन ककया था!! तभी तो--

जेहह रहीम तन-मन हदयौ ककयौ हहये बबच भौन।

तासों सणख-दख
ण कहनकी रही बात अब कौन।।

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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हे र्प्रय!! उसका भी कारण है!! िणरूष-तत्त्ि तो स्वाशभमान, अहां कार, बि अथवा ज्ञान के सागर होते है , और
इसी कारण वो दिदय हीन होते हैं!! सक्ृ ष्ट सांचिन क्ययदय नहीां ज्ञान से ही सांभव होती है !! और पोर्ण,
सांस्कार, प्रेमादद प्रदान करना प्रकृनत थत्री के कायण हैं ये क्ययदयके कायण हैं!! अथाणत मन के कायण हैं!

हे र्प्रय!! मन ही तो माया, स्त्रीकव, प्रकृतत, मैं हूाँ है न!!

मन के अनुकूि मैं चिाँ ू!! अब आप ध्यान दें !! उपरोतत वचन "मााँ" ने िुम्भ-तनिुम्भ से कहे थे!! असुरों से
कहे थे! अथाणत काम-क्रोधादद आसुरी वर्ृ त्तयों का अनुकरण करने वािे मायािनत को र्प्रय हो ही नहीां सकते!!
मेरे र्प्रयतम को र्प्रय होने के शिये तो मन को-

"यमतनयममुख्यैः सुकरणे" यम-तनयमादद सुकमों के द्वारा "िुद्ध" करना ही होगा। और अब पुनः कहते हैं
कक-"तनणरूध्येदां चचत्तां िदद" यदद मैं अपने प्राण-प्यारे की र्प्रयतमा बनना चाहती हूाँ तो पहिे तया करूाँ!!

अब एक बात कहती हूाँ-मैं अपने र्पया जी!! को तया दे ना चाहती हूाँ? ककसी भी कन्या की एक ही ईच्छा होती
है कक वह अपने तनष्किांक िरीर को अपने र्प्रयतम जी को सौंप दे --

दास कबीर जतन से ओढी जैसी की तैसी धर दीन्हीां चदररया"

तो हे र्प्रय!! जैसी एक छोटी सी बाशिका होती है !!

तनष्किांक, अबोध, कामादद-र्वकारों से अछूत! साांसाररकता से अज्ञानी! बस एकमात्र अपनी "मााँ"पर


आचश्रत!!अपने प्राण उनको ही सौंप चक
ु ी होती है !!

वे चाहें तो जीर्वत रखें-वे चाहें तो असमय ही सुिा दें !! बस वैसे ही-मैं अपने चचत्त को अपने प्यारे जी को सौंप
दाँ ।ू

और कफर पन
ु ः कहते हैं कक--

"यमीड्यां पश्यक्न्त प्रवरमतयो मातयनमनसौ"

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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जब मेरा र्विुद्ध हुवा चचत्त!! मेरे प्राण!! मैं अपने प्यारे "प्राणों से भी प्यारे " र्प्रयतम जी को दे दाँ ग
ू ी!! जब
उनके ही श्री चरणों को अहतनणिा दे खती रहूाँगी! तब उनसे पथ
ृ क कुछ ददखेगा ही नहीां!! सिि िासणदेिम ् जगत ्"
सवणत्र वे ही और मात्र िे ही ददखेंगे!!

और अब पुनः कहते हैं कक-----

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है

मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को!!! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी
ही मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें ! सक्ृ ष्ट के कण- कण में बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करती हूाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -४
ककांतण यह िथ्
ृ िी नहीां जानती मैं नहीां जानती!!

हे र्प्रय!! अब इसका चतथ


ु ण -श्िोक-पष्ु प चढा रही हूाँ-

िचृ िवयाां नतष्ठन्योयमयनत महीां िेद न धरा।

यर्मत्यादौ िेदो िदनत जगतामीशममलम ्।।

ननयन्तारां ध्येयां मन
ण स
ण रण नण
ृ ाां मोक्षदमसौ ।

शरण्यो लोकेशो ममभितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।।

हे र्प्रय!! अब पुनः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक-"पचृ थव्याां ततष्ठन ् यो यमयतत महीां वेद न धरा"

मेरे स्वामीजी!! इसी पथ्ृ वी पर रहकर हमारे आपके बीच में रहकर, िायद आपके ही स्वरूप में रहते हुवे

ृ वीयों का तनयमन करते हैं ककांतु यह पथ्


सक्ृ ष्ट, पथ् ृ वी नहीां जानती!! मैं नहीां जानती!! मैं इसे एक उदारहण के
द्वारा समझती हूाँ-यह मेरा ही अपना िरीर!! क्जसके भीतर नाड़ियोंमें रतत दौि रहा है !! न जाने ककतनी
हड्ड़डयों का ढााँचा अांदर क्स्थत है !!

मााँस, मज्जा, रज, पीब, र्वशभन्न रसायन भीतर ही भीतर प्रवादहत हो रहे हैं!!

दिदय, यकृत, वत
ृ क, स्वर-यांत्र, गभाणिय, मक्स्तष्क आदद हजारों यांत्र भीतर सतत ् चि रहे हैं!! न जाने
ककतने कृशम, अमीबा, मि, मत्र
ू , मैिादद का भांडार तनरां तर बनता-प्रवादहत होता रहता है !! र्वर्य, वासना,
सांस्कारादद का सैिाब भीतर उमि-घम
ु ि रहा है !! प्राण-अपानादद तनरां तर आते-जाते रहते हैं!! और यह सब

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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सतत ् अबाध गततसे हो रहा है ! और ककतने आश्चयण की बात है कक यह सब मेरे ही भीतर हो रहा है ! और इसे
मैं नहीां जानती! मैं इसका अपनी इच्छानुसार सांचािन भी नहीां कर सकती! तो!! यह सांचाशित तो हो ही रहा
है ! यह उन्हीां के द्वारा सांचाशित हो रहा है !!

"यशमकयादौ वेदो वदतत जगतामीिममिम ्"

कहते हैं कक, वेद क्जन श्रतु तयों में अमि-स्वरूपको जगतका स्वामी कहते हैं! हे र्प्रय! मानसमें कहते हैं कक

चेतन सहज अमल सणखराशी यहजो "चेतन" है !! वही सहज है -अथाणत कृततम नहीां है !! यह िरीर एवम ्
इसके सभी अवयव!! यह ब्रम्हाण्ड एवम ् इसके सभी सय
ू -ण चांर-नक्षत्रादद अवयव!! कृततम ् हैं असहज हैं!! जि
एवम ् पराविम्बी हैं!! हे र्प्रय!! यह तो आप भी समझते हैं कक सक्ृ ष्ट, प्रकृतत, जीवकव, अपना उकथान करने में
प्रयकन-रत हों उसी में उसका ध्येय नीदहत है , और ऐसी आकमाओांको ही वेदों ने स्वाहा, स्वधा, स्वरा, अक्षरा,
सुधा तथा श्रेया कहा भी है-

श्रेय: प्राष्प्तननर्मत्ताय नम: सोमाद्िधधाररणे

त्िां थिाहा त्िां थिधा त्िां हह िषट्कार: थिराष्त्मका

सणधा त्िमक्षरे ननत्ये बत्रधा मात्राष्त्मका ष्थिता।।

और जो इनको अमि में िाता है ! चिाता है ! सांचाशित करता है ! वे मेरे श्री िनत थिामी जी ही हैं!! यह
"चैतन्य" ही तो मेरे र्प्रयतमजी हैं, इसी कारण कहते हैं कक--

धरा धरे न्र नांहदनी विलास बन्ध-ण बन्धरण ।

थफणरद्हदगन्त सन्तनत प्रमोद मानमानसे।।

कृिा कटाक्ष धोरणी ननरुद्ध दध


ण रि ािहद।

तिचचद्हदगम्बरे मनो विनोदमेतण िथतणनन||

और इसे और भी स्पष्ट करते हैं कक--

"तनयन्तारां ध्येयां मुनुसुरनण


ृ ाां मोक्षदमसौ"

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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और सर्खयों! वही मेरे दिदयाधार ही सबके तनयामक, ध्येय और दे व-मानवादद "मुतनगणों" को मोक्ष प्रदाता
भी हैं!! जब मेरे सांचािक मेरे स्वामीजी हैं!! और मैं मूखाण!! अधमाधम नारी!! अपने तनयामक को ही भूि-
गयी!! अपने को ही अपना तनयामक मान बैठी!!

मैं उनकी यांत्री हूाँ!! मैं उनकी वाहन हूाँ!! सेर्वका हूाँ उनकी!!

मेरा तो बस एक ही िक्ष्य होना चादहये था कक मैं!! उन्हें "जानाँू" पहे चानने का यकन करूाँ-यही तो मेरा ध्येय
है !! और कदाचचत आप ऐसा करते हैं तो यही ददव्यता है दे ित्ि है !! मानव जीवन का परमाथण है !! और ऐसे
मुतन-जनों का यह दे हाशभमान से मोह क्षय। हो जाता है !! मोक्ष ही जाता है!! और अब पुनः कहते हैं कक-

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है

मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में मैं बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानव
ु ाद पण
ू ण करती हूाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -५
मेरे हह्रदयेलिर की शष्तत से ही ईन्राहद दे िता सभी असरण ों िर विजय प्राप्त करते हैं!

हे र्प्रय!! अब इसका पांञ्चम-श्िोक-पष्ु प चढा रही हूाँ-

महे न्राहदि देिो जयनतहदनतजान्यथय बलतो।

न कथय थिातन््यां तिचचदवि कृतौ यत्कृनतमत


ृ े

कवित्िादे गि
ि ं िररहरनत योऽसौ विजनयनुः।

शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः||

हे र्प्रय!! अब पुनः भगवान श्री िड़्कराचायण जी कहते हैं कक- "महे न्राददण देवो जयततददततजान्यस्य बितो"

मेरे दिदयेश्वर की िक्तत से ही ईन्रादद दे वता सभी असुरों पर र्वजय प्राप्त करते हैं!! अथाणत र्वर्यों की
तरफ स्वभावतः ही प्रवादहत होने वािी मेरी ईक्न्रयााँ मेरे प्रभु कामेलिर। की ही कृपा रूर्पर्ण आध्याक्कमक
मागण की उजाण को प्राप्तकर उनकी तरफ मख
ु ाक्न्वत होती है !! वे मेरे र्प्रयजी के सातनध्य में काम, क्रोधादद
आसुरी वर्ृ त्तयों पर र्वजय प्राप्त कर िेती हैं!! उनके बि और सांबि के बबना सांसार का कोई भी कायण नहीां हो
पाता, मैं उनकी ही िार्ना में हूाँ!! सम्पूणण ब्रम्हाण्ड उनके बि से िार्र्त हो रहा है । मैं ककसी कायण हे तु स्वतांत्र
नहीां हूाँ!! यह तो मेरी मूखत
ण ा ही है कक मैं यह सोचकर पाप करती हूाँ कक वे दे ख नहीां रहे !!

तभी तो आगे कहते हैं कक---

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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"न कस्य स्वातन््यां तवचचदर्प कृतौ यककृततमत
ृ "े

मैं अपने से बारम्बार कहती हूाँ कक "अरी सत


ु पा" ताँू घट-घट, नहीां कण-कण के वासी से पाप करके कहााँ
छुपायेगी! मैं यहााँपर यह कहना जरूर चाहूाँगी! और वो भी अपने और आप जैसे अपनों के शिये-ककये कमों को
करने में तो मैं स्वतांत्र मान बैठी अपने आपको!! तो कफर जब उन पाप-कमों का फि शमिता है तो माफी की
गुहार तयों िगाती हूाँ?

तभी तो पुनः आगे कहते हैं कक---

"कर्वकवादे गव
ण ं पररहरतत योऽसौ र्वजतयनः"

कक वे मुझ कवि जैसी तथाकचथत िास्त्र-ज्ञातनयों के तोतों जैसे ज्ञान के अशभमान को!! र्शिोऽहम के
तथाकचथत मनको बहिानेवािे!! अपने आपको ही धोखा दे ने वािे ज्ञान को!! मेरी क्षमता को समझते हैं,
और मेरी इस शमथ्याऽशभमानी र्वचार िीिता पर मन ही मन हाँ सते भी हैं!! और हे र्प्रय!! अांत समय के
तराजू में जब मैं अपनी भावनाओां को कसौटी पर कसाँग
ू ी तो सब तनबांध शिखना भूि जाऊाँगी!!

कर्वकवादे गव
ण -ं हे र्प्रय!! आज कुछ ददनों से मझ
ु े ज्वर, खााँसी आदद है ! मैं जानती हूाँ कक यह तो सामान्य सी
व्याचधयााँ हैं, ककांतु कफरभी मेरी पूरी ददनचयाण अस्त- व्यस्त हो गयी है , मैं सुनी ही नहीां दे खी भी हूाँ कक अांत
काि में भयांकर वेदनायें, व्याचधयााँ चारों तरफ से मुझे घेर िेंगी, हे र्प्रय-मैं जानती हूाँ कक-ये शमथ्या प्रिाप!
ऊफ्प्प्फ्प्फ और उसिर भी सााँसाररक मोह-सांबांधोंकी प्रेतछाया तो और भी भयानक रूि से सताती
हैं!!

मेरे गवण को तोणने वािे हे मेरे र्प्रयजी!! मैं आपसे व्याचधयों से मक्ु तत नहीां चाहती, आप मझ
ु े और भी
भयाँड़्कर कष्ट दो!! शिचथि और तनष्क्रीय कर दो मेरे अांगों को, सााँसाररक रूप से मझ
ु े अपमातनत, सम्पर्त्त,
सांबांध र्वहीन कर दो आप मझ
ु े िेककन बस एक प्राथणना मेरी स्वीकार कर िो--तोण दो मेरे अहां कार को!!
ककसी कााँच की ककरचचिी की तरह नष्ट कर दो मुझ-े -

मेरा हाल काबबलेदीद है कक न आस है न उम्मीद है ।

मेरी घणटके हसरतें मर गयीां मैं उन हसरतों की मजार हूाँ|

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 17
हे र्प्रय!! बडे-बडे पक्ृ थ्वपतत हुवे अपने सैन्य और बुद्चध-बि से न जाने ककतनों ने पथ्ृ वीको जीता पर मेरे
र्प्रयतमजी ने जब "यम से" सांदेर्ा भेजा-तो वो खाक में शमि गये। तो प्यारी सखी!! र्वजेताओां को अपने
एक कटाक्ष से पराक्जत करने वािे मेरे "र्प्रयतमजी"-

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है

मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -६
आज हौं एक-एक करर लररहौं। कै हमहीां कै तणमहीां माधि अिणन भरोसे लररहौं।।

हे र्प्रय!! अब इसका र्ष्ठम ्-श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ। यह अकयांत ही सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत
अष्टक है --

विना यथय ध्यानां व्रजनत िशणताां सूकरमणखाां।

विना यथय ज्ञानां जननमनृ तभयां यानतजनता।।

विना यथय थमत्ृ या कृर्मशतजननां यानत स विभुः।

शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।।

और अब पुनः कहते हैं कक-----

'' र्वना यस्य ध्यानां व्रजतत पित


ु ाां सक
ू रमख
ु ाां"

हे "माधव" जब आपकी इस अहै तुकी कृपासे मुझे मानव योतनकी प्राक्प्त आज हुयी है !! और मैं यह आपकी
ही दयार दृक्ष्ट के कारण कुछ धमणगांथ
ृ ों और आपके कृपा-पात्र सांतवांद
ृ और सद्गरु
ु की कृपासे आपकी तरफ
थोडा सा उन्मुख हो पायी हूाँ!! न जाने ककतनी बार कूकरी, िूकरी, राक्षसण, िता और वक्ष
ृ ादद योतनयोंमें
कोदट-कोदट वर्ण पयंत भटकती मैं मूढमतत!! यह जो मानव जन्म पा सकी तो यह आपकी ही कृपा है -और
ततसपर भी यदद आपका ध्यान अहतनणिा नहीां करती तो पुनः उन्हीां योतनयों में जाना भी तनक्श्चत ही है।

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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हे र्प्रय!! यह मैं भावावेि में नहीां कहती, और न ही पढी सुनी बातों के आधार पर कहती हूाँ!! आप सभी तो
र्वद्वान ् हैं,यह समझ सकते हैं कक-

जातथय ध्रि
ू ोमत्ृ यू ध्रि
णि ो जन्म मत
ृ थय च क्जनका जन्म हुवा उनकी मौत होनी ही है , और क्जनकी मकृ यु
हुयी-पुनः-पुनः वे जन्म िेंगे ही!! और मैं आपको स्मरण ददिाना चाहूाँगी कक मुझे मारने की क्षमता मौत में

ु े बार-बार मारता है !! ककांतु मेरे र्प्रयतमजी!! आपकी कानन


नदहां है , बक्ल्क मेरा अहां कार ही मझ ू की सब
ककताबें, तनयम, धमण मैं तयाँू पढूाँ, मैं तो पार्पयों की शसरमौयाण हूाँ!! अब ये तो गिती आपकी है कक आपने मेरा
सज
ृ न ककया, और-अिनी बााँकी चचतिन के प्रहारसे मेरे हह्रदय को घायल कर हदया!

मेरे पापों का ककिा बिा सुदृढ है नाथ जी! आपके शसवा मेरे इस िािी गढ को ढहाने की क्षमता ककसी में नहीां
है !! आपका मैं आयवाहन करती हूाँ कक आओ मेरे स्वामी, अपनी इस पार्पनी की पापों की िांका को जिा दो-

आज हौं एक-एक करर िररहौं।

कै हमहीां कै तम
ु हीां माधव अपन
ु भरोसे िररहौं।।

"र्वना यस्य ज्ञानां जतनमतृ तभयां यातत जनता"

मेरे प्यारे र्प्रयतमजी!! सत


ु पा आपको यह प्रेमपत्र शिखती है कक वह अब जान चक
ु ी है कक!! साांसाररक ज्ञान
सब शमथ्या हैं, यह सब जान कर भी मैं अगर आपको नहीां जानती!! तो कुछभी नहीां जानती!!

इन करोणों करोण रोज जन्मने और मरने वािे र्वनािी दल्


ू होंकी भीि में !! मेरे तो अर्वनािी दल्
ू हा आप ही
तो हैं!! मैं तो आपके शिये ही जन्मी हूाँ, और आप-पर ही मरती हूाँ!! आपको सच बोिाँ ू तो मैं बहूत बिी झूठी
और धोखेबाज भी हूाँ!! मैं मात्र आिको ही चाहती हूाँ ऐसी बात नहीां है हााँ आिको भी िोिा-िोिा सा
चाहती जरूर हूाँ!!

हे मेरे प्राणाधारजी मैं तो आपकी एक कमजोरी जानती हूाँ कक- आि मणझे टूट-टूट कर प्यार करते हो!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 20
"र्वना यस्य स्मकृ या कृशमितजतनां यातत स र्वभः"

और मेरे प्यारे !! अब मझ
ु े तो कीट-पतञ्गादद योतनयों में नहीां जाना है !! मैं तो बस अब आपकी ही सेवा करती
रहूाँ!! आपके-शिये आप पर ही बार-बार मरूाँ!!

तयाँकू क मझ
ु े आपकी सेवा के शिये बार-बार जन्म िेना ही र्प्रय है !!

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है

मेरे दिदयेश्वर मझ
ु पार्पनी को!! मझ
ु िरण में आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ।

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -७
मैं उनसे डरती हूाँ अगर तो उचचत आचरण ही कर िाऊाँगी और उसका िररणाम उचचत ही
र्मलेगा!

हे र्प्रय!! अब इसका सप्तम-श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ। यह अकयांत ही सारगशभणत एवम ् भक्ततसे ओत-प्रोत
अष्टक है --

नरातड़्कोत्तड़्कुः शरणशरणो भ्राष्न्तहरणो।

घनलयामुः कामो व्रजर्शशणियथयोऽजन


णि सखुः||

थियम्भभ
ू त
ूि ानाां जनक उचचताचारसख
ण दुः।

शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।।

हे र्प्रय!! अब आगे कहते हैं कक--

"नरातड़्कोत्तड़्कः िरणिरणो भ्राक्न्तहरणो"

मैं एक बात स्पष्ट रूप से समझ सकती हूाँ कक जो मेरे "र्प्रयतम जी" से डरते हैं!! वह कभी स्वप्न में भी ऐसा
कोई कायण कर ही नहीां सकते कक उसे ककसी अन्य से डरने की आवश्यकता हो!! मैं जानती हूाँ कक "मकृ यु" से
बिा कोई भय नहीां होता!! और यह "मकृ यु" तो उनको एक-बार दे खने का महोकसव है !! अतः उससे तो अब मैं

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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थोिी-थोिी सी अभय होती जा रही हूाँ!! जबसे मैंने उनकी िरण िी है -तबसे मेरी इस भ्राांतत को उन्होंने
वास्तव में कुछे क सीमा तक नष्ट कर ददया है ।

''घनश्यामः कामो व्रजशििुवयस्योऽजन


ुण सखः"

मेरे दिदयेि "घनीभूत स्याम" हैं!! वो इसशिये कक

मेघिणिम्शभ
ण ाड़्गम ्" वे सााँिरे हैं!! ज्ञानी से ज्ञानी जन भी उन्हें पण
ू ण रूपेण नहीां जानते!! और अज्ञानी जन भी
उन्हें कुछ न कुछ तो जानते ही हैं!! ककांतु एक बात है !! वे हम गोवियों के समियथक हैं!! गोर्पयों की
क्जतनी आयु है !! मेरी आपकी क्जतनी आयु है !! उनकी भी उतनी ही आयु है !! मैं आपको उसका कारण
अपनी अल्पमततसे बताती हूाँ!! हम गोर्पयााँ साक्षात अपने र्प्रयतमजी की प्रकृतत स्वरूपा हैं!! जैसे मेरे
दिदयेि अनादद-अनांत हैं!! वैसे ही प्रकृतत भी अनादद-अनांत है !! वे अपनी गोर्पयों के स्वामी हैं!! और भी-

िािोित्सुः सणचधभोतताुः" वे आप अजन


ुण जैसे ज्ञानीजनों के सखा हैं-"स्वयम्भूभत
ूण ानाां जनक
उचचताचारसख
ु दः" और आगे कहते हैं कक-वे स्वयांभःू हैं!! चराचर जगत ् के र्पता हैं!! "उचचताचारसख
ु दः" जो
उचचत आचरण करते हैं उन्हें ही सख
ु दे ते हैं!! अथाणत मेरे "दःु खों" का कारण मेरे अनचु चत आचरण ही हैं!! हे
र्प्रय!! मैं बस एक बात कहूाँगी! कक मैं अपनी मााँ, र्पता या पती के समक्ष यदद कोई गित आचरण करूाँगी
तो वे भी मुझे दण्ड दे ते हैं!! और श्रेष्ठ आचरण करने पर पुरस्कृत भी करते हैं!! ककांतु मैं उनसे भी छुपकर तो
गित आचरण करती ही हूाँ!! और मेरे प्रभु जी!! तो सम्पूणण ब्रम्हाण्ड के र्पता और स्वामी हैं!!

ककांतु मैं एक बात अनुभव की हूाँ कक जीवन में तो तया िगभग प्रततददन ही मैं जाने-अांजाने में अनेक अपराध
करती ही रहती हूाँ, अांजाने में हुवे पापों को तो नहीां कह सकती िेककन क्जन पापों को जानते हुवे भी करती हूाँ
तो ननरा समाचधष्थििनतुः जब उनके आगोि में जाती हूाँ तो उनके पााँव पकि कर बोि दे ती हूाँ कक-र्प्रयतमजी
छमा कर दो-आज भी मैंने ये पाप ककया है !! और कफर तो र्पघि जाते हैं वे भी-

या तनते बबछणरे तौ कहा मनतें अनतें जण बसौ तब जानौं। आर्खर मैं उनकी प्रेयसी जो हूाँ, मेरे हाथों को
छुिाकर भिे ही वो नाराज होने का नाटक कर िें पर मेरे क्ययदय से भिा कहााँ जा पायेंगे!! हे र्प्रयतमजी-

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 23
हथतमणष्त्क्षप्य ननयािर्स बलात्कृष्ण ककमद्भणतम ् ?

ह्रदयाद्यहद ननयािर्स िौरूषां गणयार्म ते।।

वे तो अपने अदृश्य नेत्रोंसे मझ


ु े सदै व दे खते हैं!!

तो मैं उनसे डरती हूाँ "अगर" तो उचचत आचरण ही कर पाऊाँगी!! और उसका पररणाम उचचत ही शमिेगा!!
और अब पन
ु ः कहते हैं कक--

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है

मेरे दिदयेश्वर मझ
ु पार्पनी को!! मझ
ु िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को मैं दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 24
कृष्णाष्टकम ् -८
िाि तो िो है जो आि बलाष्त्कसी के शरीर को छूना चाहते हैं!!

हे र्प्रय!! अब इसका अष्टम ्-श्िोक-पुष्प चढा रही हूाँ-

यदा धमिग्लाननभििनत जगताां क्षोभकरणी।

तदा लोकथिामी प्रकहटतििणुः सेतणधग


ृ जुः।।

सताां धाता थिच्छो ननगमगणगीतो व्रजिनत:।

शरण्यो लोकेशो मम भितण कृष्णोऽक्षक्षविषयुः।।

हे र्प्रय!! और अब पन
ु ः कहते हैं कक--

"यदा धमणग्िातनभणवतत जगताां क्षोभकरणी"

जब प्रकृतत का गित प्रकार से दोहन होता है !! जब स्त्रीयों की कीततण (मयाणदा) भांड़्ग होती है !! जब नैततक
परम्पराओां का िास होता है!! जब अन्यायोपाक्जणत धन और सत्ता बि से मदाांध िोग न्योपाक्जणत वर्ृ त्त का
आश्रय िेने वािों का िोर्ण करते हैं!! जब "स्त्री-पुरुर्" के सम्बांध पुत्रक्े ष्ट अथवा योग साधना के यज्ञ न
होकर वासना की क्रीिा मात्र होकर रह जाते हैं!! यहााँ पर एक बात मैं अवस्य ही कहना चाहूाँगी!! िासना
जतनत सांम्बांधों के सांदभण में मेरे र्वचार कुछ उन्मुतत से हैं!! जैसे कक एक गरीब मजदरू क्जनके पास
मनोरां ञ्जन के कोई भी साधन नहीां हैं!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 25
ऑकफसों, दक
ु ानों अथवा अपने व्यावसातयक स्थिों पर ददन-भर हाण-तोि श्रम करने के बाद, दो जून की
रोदटयााँ कमाने के बाद!! थके-हारे पती-पकनी जब रात में शमिते हैं!! एक-दस
ू रे को थोिा सा सुख दे ने का
प्रयास करते हैं!! कुछ मनोरां ञ्जन करते हैं! तो मैं इसे कदार्प अनुचचत या अधमण नही मानती!! जो आपको
प्यार करती हैं-और क्जन्हें आप भी प्यार करते हैं! उनसे बने िारीररक सम्बांध पाप नहीां हो सकते!! हे र्प्रय!!
ककसी ने सच ही कहा है कक-

विया र्मलनकी बेरर छााँड़ि अजहूाँ लररकािन।

सूधे दृगसों हे रर-फेरर मणख ना दै तन-मन।।

जो पतत-पकनी या प्रेमी-प्रेशमका हैं!! यदद वे एक दस


ू रे की कोमि भावनाओां को स्वीकार करते हैं!! उन्हें तथा
अपने आपको िारीररक धराति पर कृबत्रम ् रूप से सांतुष्ट करते हैं तो यह भी—िाि नहीां है यह भी
सनातन धमि में थिीकृत सत्य है ।

पाप तो वो है जो आप बिात ् ककसी के िरीर को छूना चाहते हैं!! और यदद ऐसे पाप होते हैं, बिाककार होते हैं,
मेरा मानना तो यह भी है कक यदद १०० बिाककार होते हैं तो उनमें ८०% बिाककार यदद पुरुर् करते हैं तो २०%
बिाककार क्स्त्रयााँ भी करती शमिेंगी आपको!! मात्र परू
ु र् समाज को ही दोर्ी मान िेने की जो अवधारणा है
वो बबल्कुि ही गित है !! तब जगत र्वक्षुब्ध हो जाता है !! सकय, क्षमा, अस्तेय, यम-तनयमादद का िास सा
ददख-पिता है , तब-

"तदा िोकस्वामी प्रकदटतवपुः सेतुधग


ृ जः" हे र्प्रय! इन िोकों के स्वामी, अपने भततों के दिदयेश्वर!! िोकों
में पुनः मयाणदा की स्थापना करने हे त!ु ! अपनी प्यारी अनादद प्रेयसी ब्रम्हाण्ड रूर्पणी प्रकृतत की सुरक्षा हे तु
अचानक ककसी भी रूपमें प्रकट हो जाते हैं! मै समझती और कहती भी हूाँ कक अरी- “सत
ण िा"

वे ऐसे नहीां हो सकते, वैसे नहीां हो सकते!! जैसे अनगणि र्वर्यों-पर सोचने के पूवण यह नहीां समझ पाती कक वे
कैसे भी हो सकते हैं!! मैं आपको इतना ही कह सकती हूाँ, कक मुझे आपको "उनतक" पहुाँचने का उन्हें बताने
का!! जो मागण-दिणन करते हैं!! वे ही सांत हैं!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 26
हम अधोगाशमयों को उध्वणगामी बनाने वािे सांत-जन एक सेतु हैं, पुि है!! "सेतुधग
ृ जः" और ऐसे सांत जनों
की रक्षा हे त-ु "सताां धाता स्वच्छो तनगमगणगीतो व्रजपतत" वेदों में वर्णणत मेरे र्प्रय र्प्रयतम!! र्विुद्ध
आनांदकांद अपने "अजन्मा" िरीर को धारण करते हैं!! उनके वे--राम, कृष्ण, नरशसांह, वाराह, वामन,
मकस्यादद आभार् दे ने वािे िरीर रूपी र्वग्रह तो "अजन्मा" ही हैं!! िीिा मात्र!! एक कौतक
ु हैं!

और अब पुनः कहते हैं कक--

"िरण्यो िोकेिो मम भवतु कृष्णोऽक्षक्षर्वर्यः"

बस यही तो मेरी अब एक ही कामना अवशिष्ट है !!

मेरे दिदयेश्वर मुझ पार्पनी को!! मुझ िरणमें आयी कृतघ्ना को! अपनी िरण में रखें !! वे मेरे स्वामी जी ही
मात्र मेरी इन "आाँखों" में ददखते रहें !! सक्ृ ष्ट के कण-कण में बस उन्हीां को दे खती रहूाँ। और इस प्रकार इस
श्िोक का भावानुवाद पूणण करती हूाँ!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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कृष्णाष्टकम ् -९
वयष्तत िररिार नगर राष्र और विलिके हहतािि ये िााँच प्रकारकी प्राििनायें मेरे वप्रयतमजी से अिथय ही
करनी चाहहये!

हे र्प्रय!! इस सांदभण में इसका नवम ्-श्िोक-पष्ु प चढा रही हूाँ--

इनत हरररखखलात्माराचधतुः शड़्करे ण,

श्रनण तविशदगणणोऽसौ मातम


ृ ोक्षाििमाद्य।

यनतिरननकटे श्रीयणतत आविबिभूि,

थिगणणित
ृ उदारुः शड़्खचक्राब्जहथतुः।।

हे र्प्रय!! अब पुनश्च आद्याचायणजी इस कृष्णाष्टकम ् के उपसांहार करते हैं-और इस सांदभण में मैं आपसे यह
स्पष्ट कर दाँ ू कक इस स्तोत्र की रचना उन्होंने भगवान कर्पि की तरह अपनी जन्मदात्री मााँ की मुक्तत हे तु
की है !! वे कहते हैं कक-"इतत हरररर्खिाकमाराचधतः"

अर्खि ब्रम्हाण्डाचधपतत ककन्हीां भी मत-मताांतरों की सीमा से परे हैं और- प्राििना में िो अिररर्मत शष्तत
है जो उन्हें आकवषित करती ही है !!

जैसे कक ऋचायें कहती हैं कक-

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


ु पा दे वी Page 28
ऊाँ श्रद्धा प्रातुः हििामहे आप श्रद्धा पूवक
ण उनका आयवाहन ् तो करें !! मैं एक बात कहूाँ, श्राद्ध आप अपने
माता-र्पता-पूवज
ण ों का जो करते हैं!! उसका प्रततफि चाँकू क आप उनके तनशमत्त करते हैं!! अतः कामना रदहत
तनष्काम-कमों की श्रेणी में आने के कारण आपको शमिता है !! तभी तो कहते हैं कक- जो श्रद्धा िूिक
ि ककये
कायि हैं िही श्राद्ध है !!

हे र्प्रय!! इस सांदभण में मैं आपको अथवण वेद का•२०• १०८•२▪वााँ मांत्र अवस्य ही ददखाना चाहूाँगी--

त्िांहहनुः विता िसो त्िां माता शतक्रतो बभूविि।

अधाते सन्
ण नमीमहे ।।

अधाते सणम्नम ् ईमहे ।।

अकयांत ही सार गशभणत प्राथणना की है ऋर्र्यों ने इस मांत्र में , वे कहते हैं कक- िसो अथाणत ् तू ही हमारा है ,
शतक्रतो अथाणत ् तू ही हमारी मााँ है !!

अधा ते सु म्नां अथाणत ् तेरी प्रिन्नता के शिये (अपनी खि


ु ी के शिये नहीां) हम तेरी प्राथणना करते हैं!! और वैसे
भी “िसण और क्रतण " ऐश्वयण, क्षमता, शसद्चध और साधना के पयाणयवाची कहे गये हैं!! हे र्प्रय!! तभी तो आगे
श्िोक में कहते हैं कक-

"श्रतु तर्विदगुणोऽसौ मातम


ृ ोक्षाथणमाद्य" मैं जब छोटी सी थी तो मेरे एक सखा थे, अमरजीत र्सांह उनके घर
में उनके र्पताजी सेना में थे, उनकी एक रायफि ददवाि पर िगी हुयी थी!! अतसर अमरजीत अपने
र्पताजी और मााँ से उस रायफि को मााँगते थे तो वे िोग ककन्ही भी प्रकारों से उन्हे बहे िा-फुसिा कर मना
कर दे ते थे!!

ककांतु जब अमरजीत बिे हो गये, ककिोर से यव


ु ा हो गये!! तो स्वयम ् ही उनके र्पता ने उन्हे वो बांदक
ू दे कर
सेना में भेज ददया!! आपकी प्राथणना में भी कुछ ऐसी ही बात है , यदद मेरे र्प्रयतमजी मेरी प्राथणना नहीां सुन रहे
तो इसका यही कारण है कक मैं अभी इस योग्य नहीां हुयी हूाँ कक मेरी प्राथणना स्वीकार की जाये!! मुझे अपने
माता-र्पता-र्प्रयतम स्वरूप कान्हा जी पर र्वश्वास करना चादहये कक जैसे ही वे मझ
ु े अपने योग्य समझेंगे-
तककाि ही अपनी िरण में िे िेंगे!!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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हे र्प्रय!! तभी तो ब•ृ उप▪१•३•२८में कहते हैं कक-

असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योनत गिमय मत्ृ योमाि अमत


ृ ां गमय।।

मैं आपसे बारम्बार कहूाँगी कक- "व्यक्तत, पररवार, नगर, राष्र और र्वश्व के दहताथण "ये पााँच प्रकार की
प्राथणनायें मेरे र्प्रयतमजी से अवस्य ही करनी चादहये”!! आप स्वयम ् ही दे ख िें , ऋग्वेद•७• १००• ७•में
स्पष्ट कहते हैं कक-

सष
ण ारचिरलिाननि यन्मनष्ण यान्नेनीयतेऽभीषर्ण भिािष्जन इिह्रतप्रनतष्ठां यदष्जरां जविष्ठां तन्मेमनुः
र्शिसांकल्िमथतण।

और हे र्प्रय!! इस प्रकार प्राथणना करने से उचचत पात्र होने के कारण मेरे र्प्रयतमजी ने अपने चतूभज
ुण स्वरूप
में प्रकट होकर! "स्वगुणवत
ृ उदारः िड़्खचक्राब्जहस्तः" अद्वैताचायण की र्वशिष्टाऽद्वैतोपासना के—र्शि
अिाित्कल्याणमयी सांकल्िानणसार तत्क्षण ही उनकी मााँ को िरमाश्रय की प्राष्प्त प्रदान की!!

और इस प्रकार इस श्रीकृष्णाष्टकम ् का मैं भावानुवाद पूणण करती हूाँ!! और आिकी दीदी सणतिा आिसे
विदा लेती है !!

श्री कृष्णाष्टकम ्-कृष्णदासी सत


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