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प्रभावशाली अह स

िं क हिहकत्सा पद्धहियााँ

स्वकथन

स्वावलम्बी उपिार क्यों हवश्वसनीय?


स्वयं द्वारा स्वयं का उपचार कर स्वस्थ होने की वववि को स्वावलम्बी वचवकत्सा कहते हैं।
इसमें यथा सम्भव दवा एवं वचवकत्सक पर वनभभ र रहने की आवश्यकता नहीं रहती। वबना वकसी जीव
को प्रत्य्ष थथवा परो्ष क्ट पहचचाए सहज ूपप से उपल्ि पर्भत थवहंसक एवं द्ष प्रभाव से रवहत
सािन का सहयोग वलया जाता है। इसमें शरीर, मन और आत्मा में जो वजतना महत्त्वपर्भ होता है,
उसको उसकी ्ष मता के थनूप ष प महत्त्व एवं प्राथवमकता दी जाती है। प्रकृवत के सनातन वसद्धान्त
की उपे्ष ा नहीं हो, इस बात का ववशेष ध्यान रखा जाता है। शरीर ववज्ञान के ववशेष जानकारी की
आवश्यकता नहीं होती है। ये उपचार सहज, सरल, सस्ते, सवभ त्र उपल्ि होने से व्यवि को सजग,
स्वतंत्र, स्वावलंबी एवं सम्यक् सोच वाला बनाते हैं।
ये वचवकत्सा पद्धवतया वहंसा पर नहीं थवहंसा पर, ववषमता पर नहीं समता पर, सािन पर
नहीं सािना पर, दस र र पर नहीं स्वयं पर, ्ष व्क राहत पर नहीं, थवपतष थंवतम प्रभावशाली स्थायी
परर्ाम पर आिाररत होती है। रोग के ल्ष ् की थपे्ष ा रोग के मरल कार् को न्ट करती है, जो
शरीर के साथ-साथ मन एवं आत्मा के ववकार को दरर करने में स्ष म होती है। ये पद्धवतया प्रकृवत के
सनातन वसद्धान्त पर आिाररत होने के कार् थविक प्रभावशाली, वैज्ञावनक, मौवलक एवं वनदोष
होती है।

वचवकत्सा पद्धवतय को मख्ष य ूपप से दो भाग में ववभावजत वकया जा सकता है। प्रथम तो
वबना दवा वाली स्वावलंबी वचवकत्सा पद्धवतया तथा दरसरी दवाओं के माध्यम से उपचार वाली
परावलंबी वचवकत्सा पद्धवतया। स्वावलंबी वचवकत्सा पद्धवतय में स्वयं का उपचार स्वयं द्वारा वकया
जाता है। उसमें उपचार हेतष दवा थथवा वचवकत्सक पर पर्भतया वनभभ र रहने की आवश्यकता नहीं
होती। मात्र थपने आसपास के वातावर् में सहजता से उपल्ि सािन का वबना वकसी को क्ट
पहचचाए सहयोग वलया जा सकता है। ऐसा उपचार करते समय आवश्यक होता है वक रोगी स्वयं की
्ष मताओं के प्रवत सजग हो, रोग के मरल कार् को समझ उनसे बचने हेतष आवश्यक जीवन शैली
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का सम्यक् आचर् करे। रोग में स्वयं की भरवमका का सही वचन्तन हो तथा ऐसे उपचार की उपे्ष ा
करे जो शरीर की प्रवतरोिक ्ष मता कम करते ह , द्ष प्रभाव पैदा कर भवव्य में थविक परेशानी पैदा
करते ह , उपचार रोग के कार् को दरर वकए वबना मात्र राहत वदलाते ह , उपचार हेतष वहंसा, क्रररता,
वनदभ यता को प्रत्य्ष -परो्ष प्रोत्साहन देते ह , वजससे मन और आत्मा के ववकार बढ़ते ह ।
दवष नया में जब दो व्यवि एक जैसे नहीं हो सकते हैं, तब दो रोगी शत-प्रवतशत एक जैसे कै से
हो सकते हैं? प्रत्येक रोगी का खान-पान, रहन-सहन, आचार-ववचार, वचन्तन-मनन, आसपास का
वातावर् एवं पररवस्थवतया थलग-थलग होने से उसके रोग का पररवार थलग-थलग होता हैं। थच्छे
से थच्छे डाॅक्टर और दवा का प्रभाव बाह्य ूपप से एक जैसा लगने वाले दो रोवगय का एक जैसा
कै से हो सकता है, जो सभी वचन्तनशील प्राव्य के वलए वचन्तन का ववषय है? स्वावलंबी वचवकत्सा
में व्यवि का स्ववववेक जागतृ रहने से उपचार से पड़ने वाले सरक्ष्मतम प्रभाव की थनभष रवत होती है।
इसी कार् स्वावलंबी वचवकत्सा थविक मौवलक, थविक वैज्ञावनक और थविक प्रभावशाली होती है
क्य वक उसमें पर्भ शरीर के साथ-साथ मन और आत्मा को एक ईकाई के ूपप में मानकर उपचार
वकया जाता है।
उपचार करते समय परावलंबन चाहे दवा का हो या डाॅक्टर का, उपकर् का हो थथवा
ववववि यांवत्रक परी्ष ् का, परावलम्बन तो परािीन ही बनाता है। थत जबतक दस र रा कोई
प्रभावशाली ववकल्प ह , परािीनता से यथा संभव बचना ही श्रेयस्कर होता है।
स्वावलिंबी हिहकत्सा पद्धहियााँ क्यों प्रभावशाली?
वबना दवा उपचार की स्वावलंबी वचवकत्सा पद्धवतया, सहज, सरल, सस्ती, स्थायी, द्ष प्रभाव
से रवहत, शरीर की प्रवतकारात्मक ्ष मता को बढ़ाने वाली होती हैं। जो व्यवि का स्ववववेक जागतृ
कर, स्वयं की ्ष मताओं के सदपष योग की प्रेर्ा देती है। रोग के ल्ष ् की थपे्ष ा रोग के मल र
कार् को न्ट करती हैं जो शरीर के साथ-साथ मन एवं आत्मा के ववकार को दरर करने में स्ष म
होती हैं। जो वजतना महत्त्वपर्भ होता है। उसको उसकी ्ष मता के थनूप
ष प महत्त्व एवं प्राथवमकता देती
हैं। यह प्रकृवत के सनातन वसद्धान्त पर आिाररत होने के कार् थविक प्रभावशाली, वैज्ञावनक,
मौवलक एवं वनदोष होती हैं।
क्या शरीर हवज्ञान की हवस्िृि जानकारी आवश्यक ै?
हम साल के 365 वदन में थपने घर में वबजली के तकनीवशयन को प्राय 8 से 10 बार से
थविक नहीं बल
ष ाते। 355 वदन जैसे स्वीच चालर करने की कला जानने वाला वबजली के उपकर्
का उपयोग आसानी से कर सकता है। उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती वक वबजली का

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आवव्कार वकसने, कब और कहा वकया? वबजलीघर से वबजली कै से आती है? वकतना वोल्टेज,
करेन्ट और विक्वेन्सी है? मात्र वस्वच चालर करने की कला जानने वाला उपल्ि वबजली का
उपयोग कर सकता है। वववभन्न वचवकत्सा पद्धवतय की ऐसी सािार् जानकारी से व्यवि न के वल
स्वयं थपने आपको स्वस्थ रख सकता है, थवपतष थसाध्य से थसाध्य रोग का वबना वकसी द्ष प्रभाव
प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है। ऐसी ही चन्द प्रभावशाली वचवकत्सा पद्धवतय की
सामान्य सैद्धावन्तक जानकारी का संकलन है पस्ष तक ‘‘प्रभावशाली थवहंसक वचवकत्सा पद्धवतया’’।
ववस्ततृ जानकारी के वलए लेखक की पस्ष तक ‘‘आरोग्य आपका’’ एवं थन्य पस्ष तकें पढ़े।
सभी का मंगल हो, सभी का कल्या् हो, सभी सख ष ी एवं शांत ह , इसी मंगल भावना के
साथ..........।
डा. ििंिलमल िोरहडया

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Table of Contents
चम्ष बक वचवकत्सा ................................................................................ 9

वशवाम्बष (स्वमरत्र) वचवकत्सा .................................................................... 13

स्वर वचवकत्सा ................................................................................. 18

सरयभ वकर् वचवकत्सा .......................................................................... 22

जल वचवकत्सा ................................................................................. 28

वखंचाव (कवपंग) वचवकत्सा ..................................................................... 33

मद्रष ा वचवकत्सा ................................................................................ 35

मेथी वचवकत्सा ................................................................................. 44

तेल वचवकत्सा ................................................................................. 48

चेतन्य वचवकत्सा ............................................................................... 50

स्वास््य हेतष पैर का बराबर होना आवश्यक ................................................... 53

स्वास््यर्ष क व्यायाम ‘स्वायसो’ .............................................................. 55

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एक्यप्रष ेशर वचवकत्सा
हवश्वसनीय हनदान की सरलिम पद्धहि एक्यप्रु श
े र
शरीर के सरक्ष्म से सरक्ष्म भाग का संबंि पररे शरीर से होता है। इसी कार् जब शरीर के वकसी
भाग में तीव्र पीड़ा होती है थथवा क्ट होता है तो, हमें कषछ भी थच्छा नहीं लगता। शरीर में प्रत्येक
थंग, उपांग, थवयव, थन्त श्रावी गंॅ्रवथय आवद से संबंवित कषछ महत्त्वपर्भ प्रवतवेदन वबन्दष हमारी
हथेली और पगथली में होते हैं। वजस प्रकार वकसी भवन की वबजली का सारा वनयन्त्र् मख्ष य वस्वच
बोडभ से होता है। ठीक उसी प्रकार ये प्रवतवेदन वबन्दष शरीर के वकसी न वकसी भाग का प्रवतवनवित्व
करते हैं।
वजस प्रकार कोई व्यवि वकसी का वपता, वकसी का भाई, वकसी का पवत तो थन्य वकसी का
दादा, नाना, पत्रष , चाचा, मामा, वमत्र आवद भी हो सकता है। यवद वकसी व्यवि का फोट थलग-थलग
स्थान से वलया जायें तो एक ही व्यवि के फोट में थन्तर हो सकता है। ठीक उसी प्रकार से ये
प्रवतवेदन वबन्दष भी शरीर के थलग-थलग भाग से संबंवित हो सकते हैं। यानी एक ही प्रवतवेदन वबन्दष
के शरीर में थनेक संबंि हो सकते हैं।
सजष ोक और ररफ्लेक्सोलाॅजी एक्यप्रष ेशर के वसद्धान्तानस ष ार हथेली और पगथली में दबाव
देने पर वजन स्थान पर ददभ होता है, उसका मतलब उन स्थान पर ववकार थथवा थनावश्यक
ववजातीय तत्त्व का जमाव हो जाना होता है। परर्ाम स्वूपप शरीर में प्रा् ऊजाभ के प्रवाह में
थवरोि हो जाता है। ये प्रवतवेदन वबन्दष वबजली के पंख , बल्ब या थन्य उपकर् के वस्वच की भांवत
शरीर के थलग-थलग भाग से संबवं ित होते हैं। वजस प्रकार वस्वच में खराबी होने से उपकर् तक
वबजली का प्रवाह सही ढंग से नहीं पहचचता, ठीक उसी प्रकार इन प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर ववजातीय
तत्त्व के जमा होने से संबंवित थंग, उपांग, थवयव आवद में प्रा् ऊजाभ के प्रवाह में थवरोि हो जाने
से व्यवि रोगी बनने लगता है।
एक्युप्रश
े र द्वारा रोग हनदान का हसद्धान्ि-
हथेली और पगथली में आगे पीछे सरक्ष्म से सरक्ष्म भाग में थथाभ त पररी हथेली और पगथली के
पररे ्ष ेत्रफल में थंगवष लय या थंगरठे से हम सहनीय गहरा दबाव देने पर जहा-जहा जैसा-जैसा ददभ
आता है, वे सारे ददभ वाले प्रवतवेदन वबन्दष एक्यप्रष ेशर के वसद्धान्तानस ष ार रोग से संबंवित होते हैं।
थथाभ त् वे शरीर में रोग के पररवार के सदस्य होते हैं।
एक्यप्रु श
े र द्वारा हनदान क्यों हवश्वसनीय?

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1. प्रत्येक व्यवि की हथेली और पगथली उसके स्वयं की होती है। थत इस वववि द्वारा उस व्यवि
का स्वयं से संबंवित शरीर के सभी रोग का वनदान होता है। जबवक ल्ष ् पर आिाररत वनदान
पर्भ शरीर का नहीं हो सकता। वकसी भी दो हृदय रोवगय , मिमष ेह के रोवगय थथवा और वकसी
नाम से पक ष ारे जाने वाले रोवगय के रोग का पररवार कभी भी पर्भ ूपप से एक सा नहीं हो सकता।
थत ल्ष ् एवं यंत्र पर आिाररत रोग का वनदान करते समय सहयोगी रोग की उपे्ष ा होना
स्वाभाववक है। परन्तष एक्यप्रष ेशर पद्धवत द्वारा वजतना सही और ववश्वसनीय वनदान होता है, थन्यत्र
प्राय संभव नहीं होता।
2. कभी-कभी रोग के कार् कषछ और होते हैं और उसके ल्ष ् कहीं दस र रे थंग पर प्रकट होते हैं।
जैसे मिमष ेह का कार् पाचन तंत्र का वबगड़ना भी हो सकता है, न वक पेवन्क्रयाज का खराब
होना। हृदय शरल का कार् छोटी आंत में बनी गैस का प्रभाव भी हो सकता है, न वक हृदय की
कमजोरी का होना। थस्थमा का कार् बड़ी आंत का बराबर कायभ न करना, न वक फे फड़ का
खराब होना। जब वनदान ही थिरर ा होता है तो उपचार कै से स्थायी एवं प्रभावशाली हो सकता है?
आिवष नक वचवकत्सक ऐसे रोग को प्राय थसाध्य बतला देते हैं। परन्तष हथेली और पगथली के
समस्त प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर दबाव देने से जहा ज्यादा ददभ आता है, वे ही रोग का मख्ष य कार्
होते हैं, भले ही रोग के ल्ष ् कहीं थन्य भाग में प्रकट क्य न ह ? इसी कार् एक्यप्रष ेशर
थसाध्य रोग के वनदान की प्रभावशाली वचवकत्सा पद्धवत होती है।
3. रोग की प्रारवम्भक थवस्था में ही इस वववि द्वारा वनदान संभव होता है। जहा-जहा पर दबाव देने
से ददभ आता है, वे सभी प्रवतवेदन वबन्दष भवव्य में शरीर में रोग की वस्थवत बनाते हैं। यवद रोग हो
गया ह तो वे उसके कार् होते हैं, परन्तष यवद रोग के ल्ष ् प्रत्य्ष बाह्य ूपप से प्रकट न हचयें ह
तो, भवव्य में होने वाले रोग का कार् उन्हीं प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं में से होता है। रोग आने से परवभ
उसकी प्रारवम्भक थवस्था का वनदान वजतना सरल इस पद्धवत द्वारा होता है, उतना प्राय
थन्यत्र कवठन होता है।
4. शरीर में रोग कभी थके ला आ ही नहीं सकता। वजन ल्ष ् के आिार पर आज रोग का नाम
कर् वकया जाता है, वे वास्तव में रोग के नेता होते हैं, वजन्हें सैकड़ थप्रत्य्ष रोग का समथभ न
और सहयोग प्राप्त होता है। परन्तष इस वववि द्वारा रोग के पररे पररवार का वनदान होने से वनदान
सही और ववश्वसनीय होता हैं, जो थन्य वचवकत्सा पद्धवतय में प्राय संभव नहीं होता।
5. हथेली और पगथली में दबाव देने पर वजतने कम प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर थथवा वजतना कम ददभ
आता है, उतना ही व्यवि स्वस्थ होता है। वजतने ज्यादा ददभ वाले प्रवतवेदन वबन्दष उतना परष ाना
रोग और स्वास््य खराब होता है। इस प्रकार इस वनदान पद्धवत द्वारा जो रोग आिवष नक
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पेथालोवजकल टेस्ट थथवा यंत्र की पकड़ में नहीं आते, उन रोग के कार् का सरलता परवभक
वनदान वकया जा सकता है। उपयभ ि ष वनदान थविक सही और ववश्वसनीय होता है। थत उस
वनदान पर आिाररत उपचार-प्रभावशाली, द्ष प्रभाव से रवहत और थल्पकालीन होता है, वजस
पर वकसी को भी आंशका नहीं होनी चावहयें।
वनदान वबल्कषल सरल, सस्ता, सहज, पर्भ थवहंसक, द्ष प्रभाव से रवहत, स्वावलम्बी, सवभ त्र
थपने साथ उपल्ि होता है। शरीर ववज्ञान के ववशेष ज्ञान की आवश्यकता नहीं होने से सभी व्यवि
स्वयं भी आत्मववश्वास के साथ उपचार कर सकते हैं। पररे शरीर का वनदान होने से शरीर के साथ-
साथ, मन और वा्ी के ववकार का भी, वनदान करने वाला एवं थन्त स्रावी ग्रवन्थय का सरलतम
वनदान इस पद्धवत द्वारा होता है।
हनदान में मूल हसद्धान्िों की उपेक्षा अनुहिि-
आजकल हम आिवष नक वचवकत्सा पद्धवत के वनदान से इतने थविक प्रभाववत होते हैं वक जब
तक उनके द्वारा रोग प्रमाव्त नहीं हो जाता, तब तक हम रोग को रोग ही नहीं मानते। थविकांश
एक्यप्रष ेशर वचवकत्सक भी प्राय उन्हीं रोग से संबंवित प्रमख
ष प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर उपचार कर रोगी
को राहत पहचचाने तक ही थपने आपको सीवमत रखते हैं। सज ष ोक और ररफ्लोक्सोलोजी के वचत्र में
बतलाये गये प्रमख ष वबन्दओ
ष ं में ददभ की वस्थवत देख थविकांश एक्यप्रष ेशर वचवकत्सक भी कभी-कभी
रोग के नाम से वनदान करते संकोच नहीं करते। जैसे वकसी व्यवि के हृदय के प्रमख ष प्रवतवेदन वबन्दष
पर दबाव देने से ददभ आने की वस्थवत में उसे हृदय का रोगी कह देते हैं। परन्तष ऐसा सदैव सही नहीं
होता। हृदय में रोग होने पर वनवित ूपप से हृदय के प्रमख ष प्रवतवेदन वबन्दष पर दबाने से ददभ आता है।
परन्तष इसका ववपरीत कथन कभी-कभी गलत भी हो सकता है, क्य वक उस प्रवतवेदन वबन्दष का
शरीर के थन्य भाग से भी कषछ न कषछ संबंि थवश्य होता है। जैसे वकसी व्यवि के वपता की मत्ृ यष
होने पर पत्रष रोता है। इस कार् पत्रष को वकसी थन्य कार् से रोते हचये देख यह कहना वक क्या
आपके वपताजी की मत्ृ यष हो गयी है? कहा तक तकभ संगत है? थत एक्यप्रष ेशर की इस पद्धवत में
आिवष नक वचवकत्सा द्वारा कवथत रोग के नाम से वनदान करना उसके मरल वसद्धान्त के ववपरीत
होता है। वनदानकत्र्ता मात्र इतना कह सकता है वक, ददभ वाले प्रवतवेदन वबन्द,ष शरीर में उपवस्थत रोग
का प्रवतवनवित्व करते हैं, भले ही वे वकसी भी नाम से क्य न पक ष ारे जाते ह ?
एक्युप्रश
े र द्वारा उपिार की हवहि-
हथेली और पगथली के सभी भाग में ददभ वाले प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं का पता लगाने के पिात्,
प्रत्येक ददभ वाले प्रवतवेदन वबन्दष पर वदन में एक या दो बार बीस से तीस सैकण्ड तक, सभी प्रवतवेदन

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वबन्दओष ं पर जमा हचये ववजातीय पदाथों को दरर करने हेत,ष थपनी थंगवष लय और थंगरठे से सहनीय
घमष ावदार दबाव देने से, िीरे-िीरे ववजातीय तत्त्व वहा से दरर होने लगते हैं। परर्ाम स्वूपप शरीर के
संबंवित रोग ग्रस्त भाग में प्रा् ऊजाभ का प्रवाह वनयवमत और संतवष लत होने लगता है तथा रोगी रोग
मि ष होने लगता है, तथा प्रत्य्ष रोग न भी हो तो भवव्य में रोग होने की सम्भावनाए नहीं रहती है।
उपचार यथा संभव सािक को स्वयं ही करना चावहये। स्वयं द्वारा वनदान और उपचार करने
से व्यवि सभी ददभ स्थ प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर समान दबाव दे सकता है और रोग में जैसे-जैसे राहत
वमलती जाती है, उसका आत्म ववश्वास और सजगता बढ़ती जाती है। दरसरा व्यवि प्राय सभी ददभ स्थ
वबन्दओ ष ं पर दबाव नहीं देता। थत यथा संभव वजतना उपचार रोगी स्वयं कर सकें , उतना तो कम से
कम उसको स्वयं ही करना चावहये, थन्य सािक तथा वचवकत्सक का रोग से संबंवित प्रमख ष
प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं के दबाव हेतष शीध्र राहत वमलने तक ही सहयोग लेना चावहए। क्य वक थविकांश
वचवकत्सक भी एक्यप्रष ेशर वसद्धान्त के थनस ष ार न तो रोग का पर्भ वनदान ही करते हैं और न
उपचार। आिवष नक वचवकत्सा के वनदान को आिार मानकर ही प्राय नामिारी रोग के प्रमख ष
प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं का उपचार करते हैं। सहयोगी रोग की उपे्ष ा करने से उनका उपचार कभी-कभी
आंवशक और थस्थायी भी होता है एवं थविक समय ले सकता है।
परन्तष आजकल हम नामिारी रोग को सीिा वनयन्त्र् में करने का प्रयास करते हैं, जो
न्यायोवचत नहीं होता। सहयोवगय को दरर वकये वबना वजस प्रकार नेता पर वनयन्त्र् करना कवठन
होता है। प्राय हम थखबार में पढ़ते हैं और टी.वी. पर देखते हैं वक प्रदशभ न के समय प्रदशभ नकाररय
के नेता को पवष लस सीिा कै द नहीं करती। पहले प्रदशभ नकाररय को प्राथभ ना कर शान्त करने का
प्रयास करती है, वफर लाठी चलाती है, थश्रष गैस छोड़ती हैं और जब सारी भीड़ चली जाती है तो
नेता को आसानी से कै द वकया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार रोग के पररवार के सहायक रोग से
संबंवित सभी प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं का उपचार करने से मख्ष य रोग की ताकत स्वत समाप्त हो जाती है
तथा वह शीघ्र वनयन्त्र् में लाया जा सकता है। वजस प्रकार जनतंत्र में सहयोवगय का समथभ न न
वमलने से नेता की ताकत समाप्त हो जाती है, नेता को पद त्याग करना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार
थप्रत्य्ष सहयोगी रोग के दरर हो जाने से मख्ष य रोग से शीघ्र एवं स्थायी मवष ि वमल जाती है। यही
एक्यप्रष ेशर वचवकत्सा का मरल वसद्धान्त है।
उपसिं ार-
स्वास््य ववज्ञान जैसे ववस्ततृ ववषय को सम्प्र भ ूपप से थवभव्यि करना बड़ा कवठन है। वफर
भी वहंसा द्वारा वनवमभ त दवाओं का उपयोग न लेने का संकल्प करने वाले प्रत्येक सािक को

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एक्यप्रष ेशर, सज
ष ोक, वशवाम्ब,ष स्वर, स्फवटक, नावभ,वखंचाव, रेकी, मद्रष ाओं, प्राव्क-वहलींग, दरर स्थ,
डाउवजंग, वपरामीड, सरयभ वकर्, रंग एवं चम्ष बक जैसी वबना दवा उपचार एवं स्वास््य सरष ्ष ा की
स्वावलंबी, प्रभावशाली, थवहंसात्मक, वनदोष, द्ष प्रभाव से रवहत वचवकत्सा पद्धवतय की सािार्
सैद्धावन्तक जानकारी थवश्य रखनी चावहए तावक वे स्वावलंबी बन समावि में रह सके ।

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िुम्बक हिहकत्सा
सिंिुलन ी स्वास््य का मूलािार ै:-
रोग की रोकथाम के वलये आवश्यक है वक शरीर में जमें थनावश्यक तत्त्व को बाहर वनकाला
जावे एवं शरीर के सभी थंग उपांग को संतवष लत रख शारीररक वक्रयाओं को वनयंवत्रत रखा जाये। जो
थविक सवक्रय हैं, उन्हें शान्त वकया जावे तथा जो थसवक्रय हैं, उन्हें सवक्रय वकया जावे। चम्ष बक का
उपचार इन सभी कायो में प्रभावशाली होता है। शरीर में चम्ष बकीय ऊजाभ का थसंतल ष न एवं कमी
थनेक रोग का मख्ष य कार् होती है। यवद इस थसंतल ष न को दरर कर थन्य माध्यम से पनष चम्ष बकीय
ऊजाभ उपल्ि करा दी जावे तो रोग दरर हो सकते हैं। चम्ष बकीय वचवकत्सा का यहीं वसद्धान्त है।
पृ्वी के िुम्बक का मारे जीवन पर प्रभाव:-
जब तक प्ृ वी के चम्ष बक का हमारी चम्ष बकीय ऊजाभ पर संतल ष न और वनयंत्र् रहता है तब
तक हम प्राय स्वस्थ रहते हैं। वजतने-वजतने हम प्रकृवत के समीप खल ष े वातावर् में रहते हैं, हमारे
स्वास््य में वनवित ूपप से सिष ार होता है। प्ृ वी और हमारे मध्य वजतने थविक लोह उपकर् होते
हैं, उतना ही कम प्ृ वी के चम्ष बक से हमारा सम्पकभ रहता है। इसी कार् खल ष े वातावर् में ववचर्
करने वाले, गाव में रहने वाले, कषए का पानी पीने वाले, पैदल चलने वाले, थपे्ष ाकृत थविक स्वस्थ
रहते हैं। वजतना-वजतना प्ृ वी के चम्ष बकीय ्ष ेत्र से संपकभ बढ़ता है, उतनी-उतनी शरीर की सारी
वक्रयायें संतवष लत एवं वनयवन्त्रत होती है, उतने-उतने हम रोग मि
ष होते जाते हैं।
िुम्बक का शरीर पर प्रभाव:-
चम्ष बक का थोड़ा या ज्यादा प्रभाव प्राय सभी पदाथो पर पड़ता है। चम्ष बक की ववशेषता है वक
वह वकसी भी थवरोिक को पार कर थपना प्रभाव छोड़ने की ्ष मता रखता है। वजस प्रकार बेटरी
चाजभ करने के पिात् पनष उपयोगी बन जाती है, उसी प्रकार शारीररक चम्ष बकीय प्रभाव को चम्ष बक
द्वारा संतवष लत एवं वनयवन्त्रत वकया जा सकता है। चम्ष बक का प्रभाव हड्डी जैसे कठोरतम भाग को
पार कर सकता है, थत हड्डी सम्बन्िी ददभ वनवार् में चम्ष बकीय वचवकत्सा रामबा् के तल्ष य वसद्ध
होती है।
चम्ष बक वचवकत्सा शरीर से पीड़ा दरर करने में बहचत प्रभावशाली होती है। चम्ष बक घाव को शीघ्र
भरता है। रि संचार ठीक करता है एवं हड्वडय को जोड़ने में मदद करता है। रोग ग्रस्त थंग पर
आवश्यकतानस ष ार चम्ष बक का स्पशभ करने से, चम्ष बकीय ऊजाभ उस ्ष ेत्र में संतवष लत की जा सकती है।
स्थायी रोग , ददभ आवद में इससे काफी राहत वमलती हैं। चम्ष बकीय उपचार करते समय इस बात का

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ध्यान रहे वक, रोगी को वसर में भारीपन न लगें, चक्कर आवद न आवें। ऐसी वस्थवत में तरष न्त चम्ष बक
हटाकर िरती पर नंगे पैर घरमना चावहये थथवा एल्यरवमवनयम या जस्ते पर खड़े रहने थथवा स्पशभ
करने से शरीर में चम्ष बक वचवकत्सा द्वारा वकया गया थवतररि चम्ष बकीय प्रभाव कम हो जाता है।
िम्ु बक का हसद्धान्ि:-
छड़ी वाले चम्ष बक को िागे से बांि सीिा लटकाने पर जो वकनारा भौगोवलक उत्तर की तरफ
वस्थर होता है, यावन जो प्ृ वी के उत्तरी ध्रवष की तरफ आकवषभ त होता है, चम्ष बकीय वचवकत्सा में उस
ध्रवष को दव्ष ्ी ध्रवष कहते हैं। दरसरा वकनारा उससे ववपरीत यानी उत्तरी ध्रवष (True North Pole)
होता है। दो चम्ष बक के ववपरीत ध्रवष में आकषभ ् होता है तथा समान ध्रवष एक दस र रे को दरर फें कते हैं।
दव्ष ्ी ध्रवष का प्रभाव गमी बढ़ाना, फै लाना, उत्तेवजत करना, सवक्रयता बढ़ाना होता है, जबवक
उत्तरी ध्रवष का प्रभाव इसके ववपरीत शरीर में गमी कम करना, थंग वसकोड़ना, शांत करना, सवक्रयता
को वनयवन्त्रत एवं सन्तवष लत करना आवद होता है।
िम्ु बकीय उपिार की िीन हवहियााँ:-
हमारे शरीर के चार तरफ चम्ष बकीय प्रभाव ्ष ेत्र होता है। वजसे आभा मण्डल भी कहते हैं।
प्राय दावहने हाथ से हम थविक कायभ करते हैं। थत दावहने भाग में दव्ष ्ी ध्रवष के ग्ष वाली ऊजाभ
तथा बांयें भाग में उत्तरी ध्रवष के ग्ष वाली ऊजाभ का प्राय थविक प्रभाव होता है। थत चम्ष बकीय
ऊजाभ के संतल ष न होने हेतष बायीं हथेली पर दव्ष ्ी ध्रवष एवं दावहनी हथेली पर चम्ष बक के उत्तरी ध्रवष
का स्पशभ करने से बहचत लाभ होता है। शरीर के चम्ष बक का, उपचार वाले उपकर् चम्ष बक से
आकषभ ् होने लगता है और शरीर में चम्ष बकीय ऊजाभ का संतल ष न होने लगता है। परन्तष यह वसद्धान्त
सदैव सभी पररवस्थवतय में ववशेषकर रोगावस्था में लागर हो, आवश्यक नहीं? थत स्थानीय रोग में
चम्ष बकीय ग्ष की आवश्यकतानस ष ार चम्ष बक का स्पशभ भी करना पड़ सकता है। वफर भी चम्ष बकीय
उपचार की वनम्न तीन मख्ष य ववविया मख्ष य होती है।
1. रोगग्रस्त थंग पर आवश्यकतानस ष ार चम्ष बक का स्पशभ करने से, चम्ष बकीय ऊजाभ उस ्ष ेत्र में
संतवष लत की जा सकती है। स्थायी रोग , ददभ आवद में इससे काफी राहत वमलती हैं।
2. एक्यप्रष ेशर की ररफलेक्सोलोजी के वसद्धान्तानस ष ार शरीर की सभी नावडय के थंवतम वसरे दोन
हथेली एवं दोन पगथली के आसपास होते हैं। इन ्ष ेत्र को चम्ष बकीय प्रभाव ्ष ेत्र में रखने से वहां
पर जमें ववजातीय पदाथभ दरर हो जाते हैं तथा रि एवं प्रा् ऊजाभ का शरीर में प्रवाह संतवष लत होने
लगता है, वजससे रोग दरर हो जाते हैं। इस वववि के थनस ष ार दोन हथेली एवं दोन पगथली के
नीचे कषछ समय के वलये चम्ष बक को स्पशभ कराया जाता है। दावहनी हथेली एवं पगथली के नीचे

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सवक्रयता को संतवष लत करने वाला उत्तरी ध्रवष तथा बांयी पगथली एवं हथेली के नीचे शरीर में
सवक्रयता बढ़ाने वाला दव्ष ्ी ध्रवष लगाना चावहये।
3. चम्ष बकीय प्रभाव ्ष ेत्र में वकसी पदाथभ थथवा द्रव्य, तरल पदाथों को रखने से उसमें चम्ष बकीय ग्ष
प्रकट होने लगते हैं जैसे- जल, दरि, तेल आवद तरल पदाथो में चम्ष बकीय ऊजाभ का प्रभाव
बढ़ाकर उपयोग करने से काफी लाभ पहचचं ता है।
िुम्बकीय जल का उपयोग:-
चम्ष बक के प्रभाव को पानी, दरि, तेल एवं थन्य द्रव में डाला जा सकता है। शविशाली चम्ष बक
पर ऐसे द्रव रखने से थोड़े समय में ही उनमें चम्ष बकीय ग्ष आने लगते हैं। वजतनी देर उसको
चम्ष बकीय प्रभाव में रखा जाता है, चम्ष बक हटाने के पिात् लगभग उतने लम्बे समय तक उसमें
चम्ष बकीय प्रभाव रहता है। प्रारम्भ के 10-15 वमनट में 60 से 70 प्रवतशत चम्ष बकीय प्रभाव आ जाता
है। परन्तष पर्भ प्रभाववत करने के वलये द्रव को कम से कम शविशाली चम्ष बक के 6 से 8 घंटे तक
प्रभाव में रखना पड़ता है। चम्ष बक को हटाने के पिात् िीरे-िीरे द्रव में चम्ष बकीय प्रभाव ्ष ी् होता
जाता है। चम्ष बकीय जल बनाने के वलये पानी को स्वच्छ कांच की वगलास थथवा बोतल में भर,
लकड़ी के पट्टे पर शविशाली चम्ष बक के ऊपर रख वदया जाता है। 8 से 10 घंटे चम्ष बकीय ्ष ेत्र में
रहने से उस पानी में चम्ष बकीय ग्ष आ जाते हैं। उत्तरी ध्रवष के सम्पकभ वाला उत्तरी ध्रवष का पानी तथा
दव्ष ्ी ध्रवष के सम्पकभ वाला दव्ष ्ी ध्रवष के ग्ष वाला पानी बन जाता है। दोन के संपकभ में रखने से
जो पानी बनता है उसमें दोन ध्रवष के ग्ष आ जाते है। तांबे के बतभ न में S Pole (दव्ष ्ी ध्रवष ) तथा
चांदी के बतभ न में N Pole (उत्तरी ध्रवष ) द्वारा ऊजाभ प्राप्त पानी थविक प्रभावशाली एवं ग्ष कारी होता
है।
चम्ष बकीय जल की मात्रा का सेवन रोग एवं रोगी की वस्थवत के थनस ष ार वकया जाता है। स्वस्थ
व्यवि भी यवद चम्ष बकीय जल का वनयवमत सेवन करें तो, शरीर की रोग वनरोिक ्ष मता बढ़ जाती है।
रोग की थवस्थानस ष ार चम्ष बकीय जल का प्रयोग प्रवतवदन 2-3 बार वकया जा सकता है। हमें इस बात
का ध्यान रखना चावहये वक चम्ष बकीय प्रभाव से पानी दवाई बन जाता है। थत उसको सादे पानी की
तरह आवश्यकता से थविक मात्रा में नहीं पीना चावहये।
चम्ष बक के थन्य उपचार के साथ आवश्यकतानस ष ार चम्ष बकीय पानी पीने से उपचार की
प्रभावशालीता बढ़ जाती है। थत चम्ष बकीय उपचार से आिा घंटे परवभ शरीर की आवश्यकतानस ष ार
चम्ष बकीय पानी थवश्य पीना चावहये।

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चम्ष बकीय जल की भांवत यवद दिर को भी चंद वमनट तक चम्ष बकीय प्रभाव वाले ्ष ेत्र में रखा
जाये तो, वह शविवद्धभ क बन जाता है। इसी प्रकार वकसी भी तेल को 45 से 60 वदन तक उच्च
्ष मता वाले चम्ष बक के चम्ष बकीय ्ष ेत्र में लगातार रखने से उसकी ताकत बढ़ जाती है। ऐसा तेल बाल
में इस्तेमाल करने से बाल सम्बन्िी रोग जैसे गंजापन, समय से परवभ सफे द होना ठीक होते हैं।
चम्ष बकीय तेल की मावलश भी सािार् तेल से ज्यादा प्रभावकारी होती है। वजतने लम्बे समय तक
तेल को चम्ष बकीय प्रभाव ्ष ेत्र में रखा जाता है, उतनी लम्बी थववि तक उसमें चम्ष बकीय ग्ष रहते हैं।
थोड़े-थोड़े समय पिात् पनष थोड़े समय के वलये चम्ष बकीय ्ष ेत्र में ऐसा तेल रखने से उसकी शवि
पनष बढ़ायी जा सकती है। जोड़ के ददभ में ऐसे तेल की मावलश थत्यविक लाभप्रद होती है। दव्ष ्ी
ध्रवष से प्रभाववत दरि ववकवसत होते हचए बच्च के वलये बहचत लाभप्रद होता है। दोन ध्रवष से प्रभाववत
दिर शविविभ क होता है। दोन ध्रवष से प्रभाववत तेल बाल की सभी ववसंगवतयां दरर करता है।
वसर पर लगाने थथवा मानवसक रोग के वलये चम्ष बकीय ऊजाभ से ऊवजभ त नाररयल का तेल
तथा जोड़ के ददभ हेतष सरयभमख ष ी, सरस थथवा वतल्ली का चम्ष बकीय तेल थविक ग्ष कारी होता है।

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हशवाम्बु (स्वमूत्र) हिहकत्सा
मानव शरीर थपने आप में पररपर्भ होता है। इसमें थपने आपको स्वस्थ रखने की ्ष मता होती
है। आवश्यकता है थपनी ्ष मताओं को पहचानने, समझने की तथा आवश्यकतानस ष ार उसका सही
उपयोग करने की। थज्ञान थथवा थिरर ा ज्ञान एवं उसके साथ एक प्ष ीय ज्ञान का पवर ाभ ग्रह तथा
थपनी-थपनी पद्धवतय पर सम्यक् वचन्तन के थभाव में आवश्यकता से थविक ववश्वास, थविकांश
थसफल उपचार का मख्ष य कार् होता है।
रोग अनेक दवा एक:-
दवष नयां में रोग मि
ष करने के वलए हजार दवाईयां उपल्ि हैं, वजनका रोग की रोकथाम,
उपचार एवं परहेज के ूपप में उपयोग वकया जाता है। सभी दवाओं का शरीर के थंग पर थपना
थलग-थलग प्रभाव थथवा द्ष प्रभाव पड़ता है। आंख के रोग की दवा कान में नहीं डाली जा सकती।
नाक में डालने वाली दवा मंहष से नहीं ली जा सकती। परन्तष वशवाम्बष वबना वकसी द्ष प्रभाव, रोग
प्रवतरोिक ्ष मता बढ़ाने वाली, स्वयं के द्वारा स्वयं के शरीर से थनेक रोग की आवश्यकतानस ष ार
वनवमभ त ऐसी दवा है, वजसका उपयोग चाहें कान ह या आंख, नाक ह या मंहष , त्वचा के रोग ह थथवा
शवष द्ध के वलए वदए जाने वाला एवनमा ही क्य न हो थथवा स्वस्थ थवस्था में रोग के बचाव हेतष और
रोगावस्था में उसके वनवार् के वलए सभी पररवस्थवतय में बेवहचक प्रयोग में वलया जा सकता है।
इसी कार् वशवाम्बष का वनयवमत सेवन करने वाला वकसी भी छरत की बीमारी ह थथवा वकसी
संक्रामक रोग से प्रभाववत नहीं होता। वफर वह रोग स्वाइन फ्लष का ह या वचकनगवष नया, चेचक का हो
या थन्य कोई महामारी।
हशवाम्बु ाहनकारक ित्व न ीं -
आज वैज्ञावनक प्रयोग द्वारा यह वसद्ध हो चकष ा है वक वशवाम्बष शरीर से गदष ो द्वारा रि के
शवष द्धकर् से प्राप्त जीवनोपयोगी जल का वह भाग है, वजसमें शरीर के वलए उपयोगी सैंकड़ ऐ ेसे तत्त्व
होते हैं, जो रि में होते हैं परन्तष वजनका शरीर तत्काल उपयोग नहीं कर पाता और उनको संचय
करने तथा रखने के वलए शरीर में थलग व्यवस्था नहीं होने से उसको ववसवजभ त करना पड़ता है। ऐसे
उपयोगी तत्व जो आवश्यकता से ज्यादा होते हैं, वशवाम्बष के माध्यम से शरीर के बाहर चले जाते हैं।
वशवाम्बष गंदा, खराब, ववषैला, हावनकारक, ववजातीय तत्त्व नहीं है, थवपतष स्वास््यवद्धभ क,
जीवनोपयोगी, शरीर द्वारा वनवमभ त रासायवनक प्रय ग द्वारा बना जल है। वशवाम्बष में सैकड़ उपयोगी
खवनज, रसायन, हारमोन्स, एन्जाईमास, ववटामीन, ्ष ार, पोषक तत्त्व, ववष नाशक पदाथभ तथा रोग
वनवारक, पीड़ा को शान्त करने वाले, शरीर की प्रवतरोिक ्ष मता और ताकत बढ़ाने वाले तत्त्व होते
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हैं, जो वनव्क्रय थंग को सवक्रय बनाने, रि के शवष द्धकर्, पाचन एवं श्वसन तंत्र जैसे वववभन्न
शारीररक वक्रयाओं को सव्ष यववस्थत वनवयवन्त्रत और संतवष लत रखने में महत्त्वपर्भ भरवमका वनभाते हैं।
दवाओिं के उत्पादन में हशवाम्बु का प्रयोग -
वशवाम्बष में उपकारक तथा रोग प्रवतकारक ऐसे वनदोष रासायवनक तत्त्व वमले हैं जो रोगी और
वनरोगी दोन के वलये उपयोगी होते हैं। फलस्वूपप ववश्व के आिवष नक दवा वनमाभ ताओं ने वशवाम्बष से
प्राप्त जीवनोपयोगी आवश्यक तत्त्व तथा थन्य भौवतक तत्त्व के योग से कै न्सर, एड्स, टी.बी., हृदय
रोग, दमा, नपस ष क
ं ता, गदष ाभ आवद के थसाध्य रोग के उपचार हेतष बहचमरल्य प्रा्दावयनी दवाइय और
इंजेक्शन का व्यापक पैमाने पर वनमाभ ् प्रारम्भ कर वदया है। हृदय रोवगय को वदया जाने वाला
Urokine, जो मवहलाए गभभ वती नहीं होती, उनके वलए दी जाने वाली Proafisi तथा थन्य थसाध्य
रोग के वलए उपयोगी Serocruption, Bromocriptione, Meprate, uidon, Pergonal (11
mg) Metrodin HP Urofollitrophin (FHS) आवद थनेक दवाईय के वनमाभ ् में वशवाम्बष का
प्रयोग होता है।
सौन्दयय प्रसािनों में हशवाम्बु का प्रयोग -
वशवाम्बष सवोत्तम एन्टीबायोटीक, सेववंग क्रीम, सेववंग का साबनष , दाढ़ी बनाने के वलए कायभ में
आने वाला साबनष तथा बाद में उपयोग में वलया जाने वाला सेव-लोशन, बाल को मल ष ायम बनाने
वाला शैम्पर, दांत को साफ करने वाला दंत मंजन है। इसी कार् ववदेश में सौन्दयभ प्रसािन तथा
दंत मंजन में वशवाम्बष का प्रयोग वनरंतर बढ़ता जा रहा है। आज सौंदयभ प्रसािन के नाम पर जीव पर
जो वनदभ यता, क्रररता, वहंसा हो रही है, उन सबका वशवाम्बष एक मात्र सस्ता, सन्ष दर, प्रभावशाली
द्ष प्रभाव से रवहत थवहंसक ववकल्प है।
हशवाम्बु से रोग हनदान-
स्वाद हीन, सगष ंि हीन, प्रात कालीन प्रथम ववसवजभ त होने वाला वशवाम्बष थच्छे पाचन एवं
स्वास््य का प्रतीक होता है। वशवाम्बष वचवकत्सा में रोग के वनदान की भी आवश्यकता नहीं होती।
क्य वक शरीर में रोग की आवश्यकतानस ष ार ही इसका वनमाभ ् होता है। इसी कार् रोगी को जहा
तक ह , थपने वशवाम्बष का ही सेवन करना चावहये, भले ही मिमष ेह के कार् मरत्र में सगष र थथवा
कैं सर आवद रोग के कार्, उसमें पस थथवा बदबर भी क्य नहीं आती हो?
हशवाम्बु का स्वभाव पर प्रभाव:-
वशवाम्बष में वववभन्न प्रकार के हारमोन्स होने से इसके सेवन से शारीररक एवं मानवसक ववकार
दरर होने से मानव का स्वभाव बदलता है। व्यवि होवशयार व मेिावी बनता है। स्मर् शवि तेज होती
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है। बवष द्ध ववकवसत होती है। तनाव घटता है। वनभभ यता एवं साहस ववकवसत होता है। चेहरे का तेज,
वा्ी में जोश, इवन्द्रय की ्ष मता बढ़ती है व मनोबल दृढ़ होता है। जीवन में उत्साह बना रहता है।
मन में शांवत बढ़ती है। मांसाहारी को शाकाहारी बनने तथा दव्र्ष यसनी को वनव्र्यसनी बनने की स्वत
प्रेर्ा वमलने लगती है और व्यवि सद्ग्ष की तरफ प्रेररत होने लगता है। मन की शांवत बढ़ती है,
वजससे व्यवि का वचन्तन एवं ववचार प्रभाववत होते हैं। सािक, ध्यान, तप आवद आत्म सािना में
प्रगवत करने लगता है थथाभ त् वशवाम्बष का ववविवत सेवन करने से शारीररक, मानवसक एवं आवत्मक
ववकास में मदद वमलती है। इसी कार् वशवाम्बष पान करने वाल के दव्र्ष यसन आसानी से छरटने लगते
हैं।
हशवाम्बु के प्रयोग की हवहियााँ-
वशवाम्बष का प्रयोग थलग-थलग रोग में थथवा रोग के रोकथाम हेतष थलग-थलग ढंग से
वकया जाता है। पीने के वलये प्रात कालीन प्रथम वशवाम्बष सवभ श्रेष्ठ होता है। रात में वनद्रा में व्यवि
थपने मानवीय स्वभाव में ही होता है। कोई व्यवि वकतना भी क्ररर, वहंसक, क्रोिी, वनदभ यी, थशान्त
क्य न हो, वनद्रा में तो वह शांत और तनाव मि ष ही होता है। थत उस समय शरीर में जो हारमोन्स
के वनमाभ ् होते हैं, वे ववशेष स्वास््य विभ क होते हैं। थत प्रात कालीन वशवाम्बष थविक लाभदायक
होता है। परन्तष जो शान्त, तनाव मि ष , सामावयक- स्वाध्याय द्वारा समभाव की सािना करने वाले,
ध्यान थथवा भवि में सदैवलीन रहते हैं, वे कभी भी थपने वशवाम्बष का प्रयोग कर सकते हैं।
वशवाम्बष औषवि ही नहीं रसायन है। उपवास के साथ वशवाम्बष का सेवन करने से ववशेष लाभ
होता है। वशवाम्बष पीने के बाद कम से कम एक घंटे तक कषछ भी खाना पीना नहीं चावहये। आंख में,
कान में, मंहष में, एवनमा आवद के ूपप में ताजा वशवाम्बष को ही उपयोग में लेना चावहये, परन्तष त्वचा
सम्बन्िी रोग में वजतना परष ाना वशवाम्बष होता है उतना थविक प्रभावशाली होता है। थसाध्य रोग में
वशवाम्बष पीना, वशवाम्बष का एवनमा लेना, रोगग्रस्त वनव्क्रय भाग पर वशवाम्बष का लगाना थथवा
मसाज करना, बवासीर वाले भाग को वशवाम्बष से गीला रखना लाभदायक होता है।
हशवाम्बु कब और हकिना सेवन करें?- वशवाम्बष गमभ प्रकृवत का होने से वशवाम्बष पान की एक
जैसी वववि का न्याय संगत नहीं हो सकता। सदी की मौसम में थथवा कफ प्रकृवत वाले उसका
थविकाविक प्रयोग कर सकते हैं। वषाभ की मौसम में वशवाम्बष की मात्रा सदी की थपे्ष ा थोड़ी कम
तथा गमी के मौसम में तथा वपत्त प्रकृवत वाल को वशवाम्बष का पान थपे्ष ाकृत कम करना चावहए।
जो व्यवि दव्र्ष यसन से ग्रवसत हैं, थथवा वकसी प्रकार की दवा ले रहा है थथवा वजसका
खानपान तामवसक है, उसको वशवाम्बष का थविक सेवन करना चावहए, तावक थोड़े समय में ही

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उसके दव्र्ष यसन छरट जाते हैं। दवा बंद हो जाती है तथा सावत्त्वक खाने के प्रवत आकषभ ् बढ़ने लगता
है। इसी प्रकार वजनके शरीर में मोटापा थथवा चबी ज्यादा है, उन्हें वशवाम्बष का सेवन थविक मात्रा में
करना चावहये तथा जो दबष ले पतले हैं, उन्हें वशवाम्बष का सीवमत मात्रा में ही सेवन करना चावहये।
हवहवि हिहकत्साओिं के साथ हशवाम्बु का प्रयोग-
हथेली और पगथली में वशवाम्बष का मदभ न करने से वहा जमें ववकार थपना स्थान छोड़ने लगते
हैं। थत उसके पिात वकया गया एक्यप्रर ेशर उपचार, थविक प्रभावशाली हो जाता है। वशवाम्बष को
चम्ष बक पर रखने से उसमें चम्ष बकीय ग्ष , रंगीन बोतल में िरप में रखने से थथवा थन्य वववि द्वारा
रंग की प्रकाश वकर्ें डालने से रंग के ग्ष , वपरावमड पर रखने से वपरावमड ऊजाभ का संचय होने से,
उसकी प्रभावशालीता बढ़ जाती है, तथा एक साथ थनेक वचवकत्सा पद्धवतय का लाभ वमलने लगता
है।
हशवाम्बु से ोने वाले िात्काहलक उपिार-
1. वहलते हचए दांत को पनष मजबतर करने के वलये तथा दांत संबिं ी थन्य रोग (खड्डे भरने के
थलावा) में ताजे वशवाम्बष को मंहष में भरकर वदन में तीन-चार बार पंद्रह बीस वमनट घमष ाने से रोग
ठीक हो जाते हैं।
2. आंख के सभी रोग में, नेत्र ज्योवत बढ़ाने के वलए, चश्में के नम्बर कम करने के वलए, रोजाना
तीन-चार बार आंख को ताजे वशवाम्बष को तीन-चार वमनट ठंडा होने के पिात् िोने से काफी
लाभ होता है।
3. सांप, वबच्छष थथवा शरीर में थन्य जहर फै लने पर वशवाम्बष पीने से ववष का प्रभाव समाप्त हो
जाता है। यवद रोगी का वशवाम्बष उपल्ि न ह तो थन्य स्वस्थ व्यवि का वशवाम्बष तरष तं वपलाया
जा सकता है।
4. यवद रोगी का पेशाब बंद हो तो, थन्य स्वस्थ व्यवि का वशवाम्बष वपलाने से मरत्र में आया थवरोि
दरर हो जाता है। उसके पिात् रोगी थपने स्वयं के वशवाम्बष का सेवन कर सकता है।
5. रोगी को जहा तक हो, थपने वशवाम्बष का ही सेवन करना चावहये, भले ही मिमष ेह के कार् मरत्र
में सगष र थथवा कें सर आवद रोग के कार्, उसमें पस थथवा बदबर वकतनी ही क्य नहीं आती
हो।
6. उषापान करने वाल को प्रात प्रथम वशवाम्बष का पान करना चावहए। उसके आिा घंटें पिात्
उषापान कर भ्रम् करने थथवा पेट का हलका व्यायाम करने से आंत की सफाई प्रभावशाली
ढंग से हो जाती है।

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7. महष में 20 वमनट तक वशवाम्बष रख थन्दर ही थन्दर घमष ाने के साथ-साथ, आंख को वशवाम्बष से
िोने तथा कान में वशवाम्बष डालने से आंख और कान की कायभ ्ष मता बढ़ती है।
8. नासाग्र से स्वमरत्र पान करने से श्वसन तंत्र मजबरत होता है तथा दमा, तपेवदक आवद रोग जल्दी
ठीक होते हैं।
9. हथेली और पगथली में वशवाम्बष का मसाज करने से वहां जमें ववजातीय तत्त्व दरर होने लगते हैं
और व्यवि को थनेक रोग से सहज राहत वमलने लगती है।
10. श्वास की बीमारी वाल को सीने पर वनयवमत वशवाम्बष का मसाज करने से फें फड़ में जमा कफ
और ववजातीय थवरोिक तत्त्व दरर होने लगते हैं। फलत श्वास रोग में राहत वमलती है।
हशवाम्बु के प्रहि जन जागरण-
वजस घर में स्वमरत्र वचवकत्सा को पाररवाररक वचवकत्सा के ूपप में मान्यता वमल जाती है
थथाभ त् सभी पररजन थपना लेते हैं, वह पररवार बड़ा भाग्यशाली होता है। उस घर में वचवकत्सकीय
खचभ बंद हो जाता है, उपचार हेतष समय का दूप ष पयोग समाप्त हो जाता है। घर के बालक-बावलका,
प्रोढ़-प्रोढ़ा-वद्ध
ृ ा सभी रोग मिष हो दीघाभ यष को प्राप्त करते हैं।
आज सैकड़ आिवष नक वचवकत्सा ववशेषज्ञ, राजनेता, वफल्म थवभनेता, वश्ष ाववद् वशवाम्बष के
प्रवत जन जागर् कर थपने स्वास््य हेतष स्वमरत्र पान कर रहे हैं।
सरकारी उपेक्षा एविं मारा दाहयत्वः-
भारत जैसे गरीब देश के वलए वशवाम्बष जैसी सरल, सस्ती, थवहंसक, वैज्ञावनक, प्रभावशाली,
सहज, सल ष भ, स्वावलम्बी पद्धवत जो सबके वलए सभी स्थान पर उपल्ि होती है, परन्तष सही
जानकारी एवं भ्रामक िार्ाओं के कार् उपयोग में न ली जाए, हमारा दभष ाभ ग्य ही समझना चावहए।
थत मानवतावादी दृव्ट को् वाले सभी सवास््य प्रेवमयो का यह परम कतभ व्य हो जाता है वक, जन-
जन तक वशवाम्बष सम्बन्िी जानकारी पहचचावे तथा गरीब, थवशव्ष त स्वास््य प्रेवमय को रोग मि ष
जीवन व्यतीत करने के पनष ीत सेवा कायभ में थपनी थहं भरवमका वनभाए। ‘‘वशवाम्बष वचवकत्सा में रोग के
वनदान की भी आवश्यकता नहीं होती। क्य वक शरीर में रोग की आवश्यकतानस ष ार ही इसका वनमाभ ्
होता है। वशवाम्बष का सम्यक् उपयोग थपने आप में वचवकत्सा है तथा आिवष नक वचवकत्सा में कायभ में
ली जाने वाली थनेक दवाईय का एक मात्र प्रभावशाली ववकल्प।’’

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स्वर हिहकत्सा
स्वर क्या ै?
नावसका द्वारा श्वास के थन्दर जाने और बाहर वनकलते समय जो थव्यि ध्ववन होती है, उसी
को स्वर कहते हैं।
जब श्वसन वक्रया बांयें नथनष े से होती है तो उसे चंद्र स्वर का चलना, जब दावहने नथनष े से होती
है तो सरयभ स्वर का चलना और जब दोन नथनष से बराबर होती है तो सषष म्ष ना स्वर का चलना कहा
जाता है।
स्वरों का प्रभाव-
स्वर और मख्ष य नावडय का आपस में एक दरसरे से सीिा सम्बन्ि होता है। ये व्यवि के
सकारात्मक और नकारात्मक भाव का प्रवतवनवित्व करती हैं जो, उसके भौवतक थवस्तत्व से
सम्बवन्ित होते हैं। उनके सम्यक् संतल ष न से ही शरीर के ऊजाभ चक्र जागतृ और सजग रहते हैं।
थन्त स्त्रावी ग्रवन्थया वक्रयाशील होती हैं।
चन्द्र स्वर और सरयभ स्वर वनयवमत ूपप से शरीर की प्रववृ त्तय के थनस ष ार बदलते रहते हैं। यह
पररवतभ न हमारी शारीररक और मानवसक वस्थवत पर वनभभ र करता है। जब हम शांत, वस्थर और
थन्तमभ ख ष ी होते हैं, उस समय प्राय चन्द्र स्वर तथा जब हम बाह्य प्रववृ त्तय में सवक्रय होते हैं तो सरयभ
स्वर थविक प्रभावी होता है। यवद चन्द्र स्वर की सवक्रयता के समय हम शारीररक श्रम थथवा बाह्य
प्रववृ त्तय के कायभ करें तो उस कायभ में प्राय मन नहीं लगता। उस समय मन थन्य कषछ सोचने लग
जाता है। ऐसी वस्थवत में यवद मानवसक कायभ करें तो, वबना वकसी कवठनाई के वे कायभ सरलता से हो
जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जब सरयभ स्वर चल रहा हो और उस समय यवद हम मानवसक कायभ करते हैं
तो उस कायभ में मन नहीं लगता। एकाग्रता नहीं आती। इसके बावजरद भी जबरदस्ती कायभ करते हैं तो,
वसर ददभ होने लगता है। कभी-कभी सही स्वर चलने के कार् मानवसक कायभ वबना वकसी प्रयास के
होते चले जाते हैं, तो कभी-कभी शारीररक कायभ भी पर्भ ूपवच और उत्साह के साथ होते हैं।
यवद सही स्वर में सही कायभ वकया जाए तो हमें प्रत्येक कायभ में थपेव्ष त सफलता सरलता से
प्राप्त हो सकती है। जैसे थविकांश शारीररक श्रम वाले साहवसक कायभ वजसमें थविक ऊजाभ की
आवश्यकता होती है, सरयभ स्वर में ही करना थविक लाभदायक होता है। सरयभ स्वर में व्यवि की
शारीररक कायभ ्ष मता बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार जब चन्द्र स्वर चलता है, उस समय व्यवि में
वचन्तन, मनन और ववचार करने की ्ष मता बढ़ती है।

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शरीर में कषछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लग जाता है। वनयवमत ूपप से सही स्वर
थपने वनिाभ ररत समयानसष ार तब तक नहीं चलने लगता, जब तक शरीर पर्भ ूपप से रोग मि
ष नहीं हो
जाता।
स्वर द्वारा शरीर में गमी का सन्िल
ु न-
जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गमी का प्रभाव घटने लगता है। थत गमी सम्बवन्ित
रोग एवं बख ष ार के समय चन्द्र स्वर को चलाया जाये तो बख
ष ार शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक इसी
प्रकार भरख के समय जठरावग्न, भोग के समय कामावग्न और क्रोि, उत्तेजना के समय प्राय मानवसक
गमी थविक होती है। थत ऐसे समय चन्द्र स्वर को सवक्रय रखा जावे तो उन पर सहजता से
वनयन्त्र् पाया जा सकता है। जब दोन स्वर बराबर थववि में चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के
थनूप ष प चलते हैं, तब ही व्यवि स्वस्थ रहता है।
वदन में सरयभ के प्रकाश और गमी के कार् प्राय शरीर में भी रावत्र की थपे्ष ा गमी थविक
रहती है। थत सरयभ स्वर से सम्बवन्ित कायभ सरयभ स्वर में करने के थलावा वजतना ज्यादा चन्द्र स्वर
सवक्रय होता हैं, उतना स्वास््य थच्छा होता है। इसी प्रकार रावत्र में वदन की थपे्ष ा ठण्डक ज्यादा
रहती है। चांदनी रावत्र में इसका प्रभाव और थविक बढ़ जाता है। श्रम की कमी थथवा वनद्रा के कार्
भी शरीर में वनव्क्रयता रहती है। थत उसको संतवष लत रखने के वलए सरयभ स्वर को थविक चलाना
चावहए। इसी कार् वजन व्यविय के वदन में चन्द्र स्वर और रात में सरयभ स्वर स्वाभाववक ूपप से
थविक चलते हैं वे मानव प्राय दीघाभ यष होते हैं।
चन्द्र और सरयभ स्वर का थसन्तल ष न ही थकावट, वचंता तथा थन्य रोग को जन्म देता है।
थत दोन का संतल ष न और सामन्जस्य स्वस्थता हेतष थवनवायभ है। लम्बे समय तक रावत्र में लगातार
चन्द्र स्वर चलना और वदन में सरयभ स्वर चलना, रोगी के खराब स्वास््य का सरचक होता है। वनरन्तर
चलते हचए सरयभ या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यवद स्वर न बदले तो रोग
थसाध्य होता है तथा उस व्यवि की मत्ृ यष समीप होती है। दोन स्वर में वजतना ज्यादा थसंतल ष न
होता है उतना ही व्यवि थस्वस्थ थथवा रोगी होता है। संक्रामक और थसाध्य रोग में यह थन्तर
काफी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यवि की मत्ृ यष शीघ्र होने की संभावाना
रहती है। थत सजगता परवभक स्वर चलने की थववि को समान कर थसाध्य एवं संक्रामक रोग से
मवष ि पाई जा सकती है। सजगता का मतलब जो स्वर कम चलता है उसको कृवत्रम तररक से
थविकाविक चलाने का प्रयास वकया जाए तथा जो स्वर ज्यादा चलता है, उसको कम चलाया जाये।
कायों के थनूप ष प स्वर का वनयन्त्र् और संचालन वकया जाए।

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सषु ुम्ना स्वर का प िान-
चन्द्र और सरयभ नाड़ी में जब श्वांस का प्रवाह शांत हो जाता है तो सषष म्ष ना में प्रवावहत होने
लगता है। इस थवस्था में व्यवि की सप्तष शवियां सव्ष यववस्थत ूपप से जागतृ होने लगती है। थत वह
समय थन्तमभ ख ष ी ध्यान सािना हेतष सवाभ विक उपयभ ि ष होता है। ध्यान की सफलता के वलए प्रा्
ऊजाभ का सषष म्ष ना में प्रवाह आवश्यक होता है। इस पररवस्थवत में व्यवि न तो शारीररक ूपप से
थत्यविक वक्रयाशील होता है और न ही मानवसक ूपप से ववचार से थवत ववव्ष प्त। प्रा्ायाम एवं
थन्य ववविय द्वारा इस थवस्था को थपनी इच्छानस ष ार प्राप्त वकया जा सकता है। यही कार् है वक
योग सािना में प्रा्ायाम को इतना महत्त्व वदया जाता है। प्रा्ायाम ध्यान हेतष ठोस आिार बनाता है।
कपाल भावत थथवा नाड़ी शोिन प्रा्ायाम करने से सषष म्ष ना स्वर शीघ्र चलने लगता है।
स्वरों की प िान कै से करें?- नथरने के पास थपनी थंगवष लयां रख श्वसन वक्रया का थनभष व करें।
वजस समय वजस नथरने से थपे्ष ाकृत थविक श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमख ष ता
होती है। बांयें नथरने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दावहने नथरने से श्वास चलने पर सरयभ स्वर तथा
दोन नथरने से श्वास चलने की वस्थवत को सषष म्ष ना स्वर का चलना कहते हैं।
स्वर को पहचानने का दस र रा तरीका है वक हम बारी-बारी से एक नथरना बंद कर दस र रे नथरने से
श्वास लें और छोड़ें। वजस नथरने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्बवन्ित स्वर
प्रभावी होता है।
स्वर बदलने की हवहियािं:-
थस्वाभाववक थथवा प्रववृ त्त की आवश्यकता के ववपरीत स्वर शरीर में थस्वस्थता का सरचक
होता है। वनम्न ववविय द्वारा स्वर को सरलतापरवभक कृवत्रम ढंग से बदला जा सकता है, तावक हमें
जैसा कायभ करना हो उसके थनूप ष प स्वर का संचालन कर प्रत्येक कायभ को सम्यक् प्रकार से पर्भ
्ष मता के साथ कर सकें ।
1. जो स्वर चलता हो, उस नथरने को थंगवष ल से या थन्य वकसी वववि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये
रखने से, ववपरीत इवच्छत स्वर चलने लगता है।
2. चालर स्वर वाले नथरने से पररा श्वास ग्रह् कर, बन्द नथरने से श्वास छोड़ने की वक्रया बार-बार
करने से बन्द स्वर चलने लगता है।
3. जो स्वर चालर करना हो, शरीर में उसके ववपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने तथा वसर को
जमीन से थोड़ा ऊपर रखने से इवच्छत स्वर चलने लगता है।

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4. वजस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाव देने से चालर स्वर बंद हो जाता है
तथा इसके ववपरीत दरसरा स्वर चलने लगता है।
5. जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैर पर दबाव देकर, थोड़ा झक ष कर उसी तरफ खड़ा रहने
से या उिर गदभ न को घमष ाकर ठोडी पर रखने से कषछ वमनट में उस तरफ का स्वर बंद हो जाता
है।
6. घी थथवा शहद जो भी बराबर पाचन हो सके , पीने से चालर स्वर तरष न्त बंद हो जाता है। परन्तष
सािार् थवस्था में दिर या थन्य तरल पदाथभ पीने से भी स्वर बदली हो जाता है।
7. चवलत स्वर में स्वच्छ ूपई डालकर नथरने में थवरोि उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।
स्वरों से रोगोपिार
1. गमी सम्बन्िी रोग- गमी, प्यास, बख
ष ार, पीत्त सम्बन्िी रोग में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में
शीतलता बढ़ती है, वजससे गमी से उत्पन्न थसंतल
ष न दरर हो जाता है।
2. कफ सम्बन्िी रोग- सदी, जकष ाम, खांसी, दमा आवद कफ सम्बन्िी रोग में सरयभ स्वर
थविकाविक चलाने से शरीर में गमी बढ़ती है। सदी का प्रभाव दरर होता है।
3. आकहस्मक रोग- जब रोग का कार् समझ में न आये और रोग की थसहनीय वस्थवत हो, ऐसे
समय रोग का उपद्रव होते ही जो स्वर चल रहा है उसको बन्द कर ववपरीत स्वर चलाने से
तरष न्त राहत वमलती है।

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सूयय हकरण हिहकत्सा
सूयय हकरण हिहकत्सा अहि प्रािीन:-
सरयभ ताप, प्रकाश एवं ऊजाभ का सबसे बड़ा प्राकृवतक स्रोत है। जो प्राव्मात्र को सहज
उपल्ि है। सरयभ थपने थमरल्य स्रोत के उपयोग के बदले में थन्य वबजली उत्पादन कम्पवनय की
भांवत हमारे पास भगष तान हेतष वबल नहीं वभजवाता और न हमारे से कषछ भी थपे्ष ाए रखता है थथवा
थपने प्रभत्ष व पर गवभ करता है। सरयभ तथा प्रा्ी मात्र का आपस में घवन्ट तम संबंि होता है। सरयभ के
वबना प्ृ वी पर वकसी भी प्रा्ी, पशष और वनस्पवत के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
थथभ वेद, सरयोपवनषद आवद उपवनषद, समस्त परष ा्, महाभारत, रामाय् आवद प्राचीन ग्रन्थ सरयभ
ववज्ञान से भरे पड़े हैं। वैवदक काल में भारतीय सरयभ के ग्ष से इतने थविक प्रभाववत थे वक उन्ह ने
सौर परष ा् की रचना कर डाली। सौर सम्प्रदाय बनाया तथा थनेक सरयभ मवन्दर का वनमाभ ् वकया।
थनावद काल से सरयभ नमस्कार एवं सरयभ स्नान का हमारे रा्र में प्रचलन है।
भगवान महावीर की कठोर सािना में सरयभ की आतापना (िरप सेवन) का ववशेष उल्लेख
वमलता है। जैन सािओ ष ं को वदन के तीसरे प्रहर थथाभ त् िरप में आहार एवं ववहार हेतष आने जाने का
शास्त्रीय वविान है, भले ही आिवष नक यगष में उस वनदेश की प्राय पालना कम होती है। परन्तष आज
हम सरयभ की ऊजाभ का स्वास््य हेतष लाभ लेना नहीं जानते। घर एवं व्यवसावयक स्थल पर दरवाजे
बंद कर, पदे लगाये जाते हैं और वबजली की रोशनी में कायभ करने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है।
वजसके परर्ाम स्वूपप वहां रहने एवं कायभ करने वाल की रोग प्रवतरोिक ्ष मता ्ष ी् होती जा रही
है।
कठोर पररश्रम करने वाले गांव के वकसान एवं मजदरर को काफी ज्यादा के लोरी खचभ करनी
पड़ती है। परन्तष उनके भोजन में प्राय बहचत कम के लोरी ही उपल्ि होती है। बाकी सारी आवश्यक
ऊजाभ उन्हें सरयभ की रोशनी से ही प्राप्त होती है।
प्रािःकालीन उहदि सयू य दशयन से लाभ:-
सरयोदय के समय वायमष ण्डल में थदृश्य परा बैंगनी वकर् (Ultra Violet Rays) का ववशेष
प्रभाव होता है जो ववटामीन डी का सवोत्तम स्रोत होती है। ये वकर्े रि में लाल और श्वेत क् की
ववृ द्ध करती है। श्वेत क् बढ़ने से शरीर में रोग प्रवतकारात्मक शवि बढ़ने लगती है। पेरा बैंगनी वकर्े
तपेवदक, वहवस्टररया, मिमष ेह और मवहलाओं के मावसक िमभ संबंिी रोग में बहचत लाभकारी होती है।
ये शरीर में ववकारनाशक शवि पैदा करती है तथा रि में कै लवशयम की मात्रा भी बढ़ाती है, वजससे

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शरीर में हड्वडया मजबतर होती है। आंत में थम्ल-्ष ार का संतल
ष न एवं शरीर में फास्फोरस-कै वल्शयम
का संतल
ष न बना रहता है।
सूयय हकरणों का स्वास््य वियक प्रभाव:-
प्रात कालीन सरयोदय के सामने चन्द वमनट तक देखने से नेत्र ज्योवत बढ़ती है, परन्तष
सरयोदय के 40-50 वमनट पिात् सरयभ को खल ष े नेत्र से देखना हावनप्रद हो सकता है। उवदत होते हचए
सरयभ दशभ न से शरीर से सभी आवश्यक तत्त्व का पोष् होता है। हृदय रोग, मवस्त्क ववकार, आंख
का ववकार आवद थनेक व्याविया दरर होती है।
प्रात कालीन हल्की िपर में सरयभ की तरफ मख ष कर तथा आंखे बंद कर शरीर को दाएं-बाएं,
आगे-वपछे िीरे-िीरे चार तरफ घमष ाने, झरमने से गदभ न के रोग दरर होते है। मवस्त्क में रि का संचार
सव्ष यववस्थत होता है तथा तनाव दरर होता है। सरयोदय के सामने वज्रासन में बैठ वसंहासन मद्रष ा में
जीभ को वजतना वनकाल सकें , बाहर वनकाल कर, आंखे पररी खोलकर, नाक से श्वास लेते हचए, सरयभ
को वनहारते हचए यथा शवि जोर से दहाड़ने से गले, नाक, कान, मंहष , छाती, फें फड़ आवद के रोग दरर
होते हैं तथा वायष नली, स्वर नली और भोजन नली सशि होती है।
सरयभ वकर्ें जीवनी बढ़ाती है, स्नायष दबष भ लता कम करती है, पाचन और मल वन्कासन की
वक्रयाओं को बल देती है, पेट की जठरावग्न प्रदीप्त करती है, रि पररभ्रम् संतवष लत रखती है,
हड्वडय को मजबरत बनाती है। रि में कै वल्शयम फास्फोरस और लोहे की मात्रा बढ़ाती है, थन्त
श्रावी ग्रवन्थय के श्राव बनाने में सहयोग करती है।
सूयय हकरणों में हवहभन्न रिंग:-
सरयभ की वकर् में सात दृश्यमान एवं दो थदृश्यमान रंग की वकर्ें होती है। दृश्यमान सात
रंग वनवित क्रम से होते हैं, वजन्हें इन्द्र िनषष के समय थथवा ववशेष प्रयोग द्वारा आसानी से देखा जा
सकता है। वववभन्न रंग का मानव के शारीररक एवं मानवसक स्वास््य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
प्रत्येक रंग के थपने ववशेष स्वास््यविभ क ग्ष होते हैं। सरयभ की वकर् से होने वाले सात रंग बैंगनी
(Violet), नीला (Indigo), आसमानी (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange),
लाल (Red) के क्रम से होते हैं।
पहले तीन रंग शरीर में गमी को वनयंवत्रत करने तथा क्ट में शांवत पहचंचाने में सहायक होते हैं।
ये रंग शरीर के थवयव में रसायवनक पररवतभ न करने में थहं भरवमका वनभाते हैं। थत सरयभ की इन
तीन रंग की वकर् तथा पराबैंगनी वकर् को रसायवनक वकर्ें भी कहते हैं। मध्य वाला हरा रंग
गमी एवं सदी के प्रभाव को संतवष लत रखने में स्ष म होता है। थवन्तम तीन रंग शरीर में गमी पहचचाने

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वाले होते हैं। वतभ मान में सरयभ वकर् वचवकत्सा में सात रंग के स्थान पर प्रत्येक समहर में से एक रंग
का ही उपयोग करने का थविक प्रचलन हैं। वजससे वचवकत्सा पद्धवत थविक सरल बन गयी हैं। प्रथम
तीन रंग के समरह में से प्राय नीला रंग, थंवतम रंग के समहर में से नारंगी एवं बीच के हरे रंग का
थविकतर उपयोग वकया जाता है। परन्तष ववशेष एवं लम्बे रोग की वस्थवत में बैंगनी एवं लाल रंग का
भी उपयोग वकया जा सकता हैं। रोगी के वलये कौनसी वकर् का उपचार वकया जाये, यह रोग की
वस्थवत पर वनभभ र करता है।
आयुवेद के हत्र-दोष हसद्धान्ि से समानिा:-
आयवष ेद के आिारभरत वत्रदोष वसद्धान्त के थनस
ष ार कफ, वात एवं वपत्त ूपपी तीन दोष का
थसन्तल ष न ही रोग उत्पवत्त का प्रमख
ष कार् होता है। सरयभ वकर् वचवकत्सा में कफ प्रिान थथवा
सदी के कार् होने वाले रोग में नारंगी तथा लाल रंग का, वात प्रिान या शरीर में गन्दगी बढ़ जाने
एवं उसका सही ववसजभ न न होने से उत्पन्न होने वाले रोग में हरे रंग का तथा वपत्त प्रदान थथवा
गमी की थविकता से होने वाले रोग में नीले रंग के ववविवत् प्रयोग द्वारा कफ, वात एवं वपत्त को
संतवष लत कर रोगी को रोगमि ष वकया जा सकता है। सरयभ वकर् वचवकत्सा शारीररक रोग के साथ-
साथ हमारे स्वभाव तथा मानवसक वस्थवत बदलने में भी सहायक होती हैं, वजससे क्रोिी व्यवि शान्त
एवं सस्ष त व्यवि, फषतीला बन सकता है।
िीन रिंग की हवशेषिाएाँ
नारिंगी रिंग की हवशेषिाएाँ:-
आमाशय, वतल्ली, लीवर, आंत फें फड़ व हाथ पैर के रोग में इसका थविक थनक ष र ल प्रभाव
पड़ता है। यह आयोडीन की कमी को वमटाता है। रि में लाल क् बढ़ाता है। मांसपेवशया स्वस्थ
बनाता है और झरष रभ यां वमटाने में सहायक होता है। रि संचालन एवं स्नायष संस्थान को सवक्रय बनाता
है। गवतहीन थंग की जड़ता दरर कर उसमें गवत लाने की ्ष मता रखता है। भरख न लगना, गैस, जोड़
का ददभ , खांसी, दमा, बच्च की वबस्तर में पेशाब करने की आदत, वनम्न रि चाप, स्नायष दबष भ लता
आवद रोग को वमटाने की थद्भतष ्ष मता रखता हैं। सस्ष ती आने, जम्भाइया लेने, थविक नींद आने,
नाखरन नीले पड़ जाने आवद रोग में नारंगी रंग काफी लाभप्रद होता है।
नारंगी रंग के सेवन से पेट की गैस दरर होती है। थम्लता वाले रोवगय को ववशेष लाभ होता है।
खरन में लाल क् की ववृ द्ध होती है। वद्ध ृ के वलये ताकत की दवा के समान होता है। वस्त्रय की
माहवारी के समय ददभ होने थथवा कम आने पर नारंगी पानी पीने तथा लाल तेल की मावलश नल
और कमर पर करने से लाभ होता है। नारंगी पानी पीने से मलेररया से बचाव होता है। बारी-बारी के
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थन्तराल से बख ष ार आने पर वजस वदन बख ष ार नहीं आया हचआ हो महंष फीका हो, उस वदन नारंगी रंग
का पानी देना चावहए, परन्तष बखष ार वाले वदन नीला पानी देना थविक प्रभावशाली होता है।
नारंगी रंग मानवसक प्रभाव की दृव्ट से साहस, उत्साह एवं इच्छाशवि बढ़ाने में सहायक होता
है। नारंगी रंग की दवा का प्रयोग सदैव भोजन या नाश्ते के 15 वमनट बाद और 30 वमनट के भीतर
करना चावहये।
रे रिंग की हवशेषिाएाँ:-
हरा रंग गमभ और ठण्डे रंग के बीच का रंग होने से गमी तथा सदी के प्रभाव को संतवष लत
करता है। यह शरीर की गन्दगी बाहर वनकालने, शरीर का ताप सन्तवष लत रखने, क्जी वमटाने तथा
खरन को साफ करने में ववशेष सहायक होता है। मानवसक दृव्ट से हरा रंग राग एवं द्वेष को घटाकर
समभाव लाने में सहायक तथा मन को प्रसन्न रखने वाला होता है। शरीर के ववषैले तत्त्व को शरीर
से बाहर वनकाल फैं कने की थद्भरत ्ष मता के कार् छरत की बीमाररय के वनवार् में यह बहचत ही
उपयोगी होता है।
थल्सर, टाईफाइड, चेचक, सरखी खासी, खल ष े घाव, दाद, पथरी, रिचाप, वमगी, वहस्टीररया,
मंहष में छाले तथा शरीर के वकसी भी भाग में पीब पड़ने की थवस्था में उनको न्ट करने में काफी
लाभप्रद होता है। आत , गदष ो, मरत्राशय, त्वचा, कमर व पीठ के नीचे के थंग से संबंवित रोग में हरा
रंग थविक प्रभावशाली होता है। शरीर में इस रंग की कमी से वववभन्न चमभ रोग तथा दोष की
सम्भावनायें बढ़ जाती है। नेत्र रोग में भी यह ववशेष लाभकारी होता है।
मोवतया वबम्ब पकने से परवभ वनयवमत हरे पानी से आंखें िोने से मोवतया वबम्ब (Cataract)
होने की संभावनाए कम हो जाती है। चमभ रोग में हरा पानी तथा नीला तेल रोग ग्रस्त त्वचा पर थथवा
दाद पर लगाने से रोग जड़ मरल से न्ट हो जाता है।
हरे रंग की बोतल में बनाई गई दवा का प्रयोग सदैव प्रात काल खाली पेट या आिा घण्टे से
एक घण्टे भोजन के पहले करना चावहये।
नीले रिंग की हवशेषिा:-
नीला रंग ठण्ड़ा, शावन्तदायक, कीटा्नष ाशक एवं वसकषड़न वाले स्वभाव का होने से गमी के
प्रकोप से उत्पन्न रोग में ववशेष प्रभावशाली होता है। इसके उपयोग से मानवसक तनाव कम होता है
तथा सािक आध्यावत्मक ववकास एवं ध्यान में सरलता परवभक ववकास कर सकता है। कीटा्नष ाशक
होने के कार् मवाद पड़ने की थवस्थाओं में काफी लाभप्रद होता है। शरीर की गमी, हाथ पैर की
जलन, प्यास की थविकता, तेज बख ष ार, हैजा, थजी्भ , दस्त, थवनद्रा, वमगी, पागलपन, वहस्टीररया,

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उच्च रिचाप मरत्रावरोि, मरत्र में जलन, शरीर में वकसी प्रकार का जहर फै ल जाना, जैसे रोग में नीले
रंग की दवा काफी लाभप्रद होती है। नीले रंग की दवा शरीर के थन्दर थथवा बाहर से बहने वाले
खरन को बन्द करती है। गमी से गला पड़ने पर नीले पानी के गरारे से लाभ होता है। गले, गदभ न, महष
मवस्त्क एवं वसर से संबंवित रोग पर नीले रंग का थविक थनक ष र ल प्रभाव पड़ता है। नीले रंग का
प्रयोग सदैव भोजन या नाश्ते के आिा घण्टे परवभ करना चावहए।
लकवा, सवन्िप्रवाह, छोटे जोड़ का ददभ (गंवठया), वववभन्न वात, कम्पनजन्य रोग व ठण्ड से
उत्पन्न ववकार और थविक क्ज की वशकायत में नीले रंग का प्रयोग नहीं करना चावहए। नीले रंग के
दरुष पयोग में होने वाले क्ट और ववकार नारंगी या लाल रंग के उवचत प्रयोग से दरर हो जाते हैं।
दवा बनाने की हवहि:-
सरयभ वकर् वचवकत्सा में पानी की दवा, चीनी थथवा वमश्री की दवा, सरयभतप्त तेल, वग्लसरीन
की दवा, सरयभतप्त हवा एवं सरयभ की वकर् का सीिा उपयोग करने से रोग का उपचार वकया जा
सकता है।
पानी की दवा िैयार करने की हवहि:-
रोग के थनस ष ार वजस रंग का पानी तैयार करना हो, उस रंग की बोतल लेकर उसको प्र भ तया
साफ कर लें। यवद कोई कागज वचपके हचये ह तो, उन्हें हटा दें, थगर ववशेष रंग की कांच की बोतल न
वमले तो सफे द रंग की बोतल पर इवच्छत रंग का सेलोफे न कागज दोहरा कर लपेट लें। बोतल को
तीन चौथाई शद्धष पानी से भर लें। बोतल का महष बन्द कर वकसी लकड़ी के पट्टे पर रख, उसे िरप
वदखाने से सरयभ की वकर् का प्रभाव पानी में आने लगता है। 6 से 8 घण्टे िरप में रखने से सािार्
पानी दवा का ूपप ग्रह् कर लेता है। सरयभतप्त पानी को िरप जाने के पिात् सरष व्ष त स्थान पर रख
स्वयं ठण्डा होने देना चावहए। एक बार पानी दवा बनने के बाद तीन वदन तक उसमें रोग वनवारक
शवि रहती है, परन्तष जो बोतल रोजाना िपर में रखी जाती है, उसका पानी थविक शविशाली बन
जाता है।
सफे द रिंग की बोिल में िैयार हकया गया पानी:-
पीवलया या महामारी के वदन में सफे द बोतल का िपर में रखा हचआ पानी पीने से महामारी से
बचा जा सकता है। यह पानी बच्च को ताकत देता है एवं दांत वनकलते समय इस पानी को देने से
दांत सरलता से वनकल जाते है। हड्डी टरटने की वस्थवत में सफे द पानी पीने से हड्डी के जड़ष ने में
सहायता वमलती है।
जल बनाने में साविानी:-
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सरयाभ स्त होते होते बोतल को िपर से हटा देना चावहए। चन्द्रमा, तार या दीपक आवद थन्य
प्रकार का प्रकाश (सरयभ के थलावा) बोतल पर पड़ जाने से वह कभी-कभी वनूपपयोगी ही नहीं, थवपतष
हावनकारक भी हो सकता है। थत उसे सफे द कपड़े से ढ़क कर रखना चावहए। थलग-थलग रंग की
बोतले िरप में पास-पास में नहीं रखनी चावहए।
िेल, िीनी या अन्य दवा बनाने की हवहि:-
पानी की भांवत सरयभ तप्त तेल, वमश्री, चीनी, वगवलसरीन आवद से भी तैयार वकया जा सकता है,
परन्तष ये दवाईया लगातार 50 से 60 वदन तक सरयभ की िरप में रखने से तैयार होती है। दवा का प्रभाव
भी दो तीन माह तक रहता है। तीन माह पिात् पनष तीन वदन तक उसी रंग की िरप में रख देने से
उसमें पनष रोग नाशक प्रभाव उत्पन्न वकया जा सकता है। वैसे बीच में समय-समय पर िरप वदखाने
से उनकी रोग वनवारक ्ष मता बढ़ जाती है।
नीले िेल के हवशेष लाभ:-
1. नाररयल के नीले रंग के तेल की वसर में मावलश करने से वसर ददभ , थवनद्रा, बख ष ार दरर होता है।
वदमागी कायभ की ्ष मता बढ़ती है। स्नायष तंत्र शांत होता है।
2. मच्छर थथवा ववषैले जानवर के काटने पर थथवा जलने पर नीला तेल लगाने से तरष न्त आराम
वमलता है।
3. नीला तेल गमभ करके कान में डालने से कान का ददभ शीघ्र ठीक होता है।
4. बवासीर के मस पर नीला तेल बहचत ग्ष कारी होता है।
5. बच्च के दांत वनकलते समय नीले तेल की वसर में मावलश करने से दांत आराम से वनकल जाते
हैं।
सयू य की हकरणों को सीिा डालने की हवहि:- 15 से 30 वमनट तक सहनशवि के थनसष ार
रोगग्रस्त थंग पर सीिी रंगीन सरयभ वकर्ें डालने से शीघ्र प्रभाव पड़ता है। परष ानी तथा कठोर सरजन
में लाल या नारंगी रंग का प्रभाव व जलन वाली तथा लालीयि ष सरजन की थवस्था में नीले प्रकाश से
आराम वमलता है। आख की बीमारी में हरे रंग की वकर्ें डालना लाभप्रद होता है। चीनी पंच तत्त्व के
वसद्धान्तानस
ष ार हरे रंग वक वकर् से यकृत एवं वपत्ताशय, लाल रंग की वकर् से हृदय और छोटी
आंत, पीले रंग की वकर् से वतल्ली, पेवन्क्रयाज और आमाशय, सफे द रंग की वकर् से फे फडें
और बड़ी आंत तथा नीले रंग की वकर् से गदष े एवं मरत्राशय सशि होते हैं।

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जल हिहकत्सा
शरीर में जल के कायय:- हवा के पिात् शरीर में दसर री सबसे बड़ी आवश्यकता पानी की होती है।
पानी के वबना जीवन लम्बे समय तक नहीं चल सकता। शरीर में लगभग दो वतहाई भाग पानी का
होता है। शरीर के थलग-थलग भाग में पानी की आवश्यकता भी थलग-थलग होती हैं। जब पानी के
आवश्यक थनपष ात में थसंतल ष न हो जाता है तो शारीररक वक्रयाए प्रभाववत होने लगती हैं।
हमारे शरीर में जल का प्रमख ष कायभ भोजन पचाने वाली वववभन्न प्रवक्रयाओं में शावमल होना
तथा शरीर संरचना में सहयोगी थवयव का वनमाभ ् करना होता हैं। जल शरीर के भीतर ववद्यमान
गंदगी को पसीने एवं मलमरत्र के माध्यम से बाहर वनकालने, शरीर के तापक्रम को वनयंवत्रत करने तथा
शारीररक शवष द्ध के वलए बहचत उपयोगी तथा लाभकारी होता हैं। शरीर में जल की कमी से क्ज,
थकान, ग्री्म ऋतष में लरं आवद की थविक संभावना रहती हैं। जल के कार् ही हमें, छ प्रकार के
रस -मीठा, खट्टा, कड़वा, तीखा और कषैला आवद का थलग-थलग स्वाद थनभष व होता है। थत हमें
यह जानना और समझना आवश्यक है वक पानी का उपयोग हम कब और कै से करें? पानी वकतना,
कै सा और कब पीये?उसका तापमान वकतना हो?
पानी कै सा पीयें?
स्वच्छ, शद्ध
ष , हल्का, छना हचआ, थथवा उबला हचआ पानी स्वास््य के वलए उपयोगी होता है।
छने हचए पानी में भी जलवायष एवं वातावर् के थनस ष ार वनवित समय पिात जीव के उत्पवत्त की पनष
सम्भावना रहती है। थत उपयोग लेते समय इस त्य की छानबीन कर लेनी चावहए, एवं आशंका
होने पर पीने से परवभ पनष छानकर ही पीना चावहए। परन्तष आजकल पविम के थन्िा नक ष र् एवं
भ्रामक ववज्ञापन से प्रभाववत स्वयं की रोग प्रवतरोिक ्ष मता ठीक न होने के कार् वमनरल वाटर के
नाम से परष ाना, थनछना, हावनकारक प्लाव्ट क बोतल में बंद महंगा पानी पीने का प्रचलन बढ़ता जा
रहा है, जो सबके वलए आवश्यक नहीं है। इस त्य पर परवाभ ग्रह छोड़ समग्र दृव्ट को् से वचन्तन
आवश्यक है। जैन थनयष ायी गोबर की राख वमश्रीत िोवन पानी का उपयोग करते हैं जो
स्वास््यविभ क होता है। रोग प्रवतकारात्मक ्ष मता बढ़ाता है। इस संबंि में शोिपर्भ सावहत्य भी
उपल्ि है। वजसका थध्ययन कर सत्य को स्वीकारना चावहए।
पानी कै से पीयें?
पानी को िीरे-िीरे, घरंट-घरंट, बैठकर, चन्द्र स्वर में पीना लाभ प्रद होता है। घरंट-घरंट पानी पीने
के साथ थरक वमल जाने से वह पानी पाचक बन जाता है। इसी कार् हमारे यहा लोकोवि प्रवसद्ध है

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‘‘खाना पीओ और पानी खाओं’’ थथाभ त् िीरे-िीरे पानी पीओ। खड़े-खड़े पानी पीने से गैस, वात
ववकार, घटष ने तथा थन्य जोड़ का ददभ , दृव्ट दोष एवं श्रव् ववकार पनपने की संभावना रहती है।
पानी कब पीएिं?
भोजन पाचन की आमाशय में प्रारवम्भक वक्रया के पिात् पानी पीना स्वास््यविभ क होता है।
भोजन पाचन से परवभ पानी पीने से आंव की ववृ द्ध, थपच और क्ज होने की संभावना रहती है। भोजन
के दो घंटे पिात् वजतनी आवश्यकता हो खरब पानी पीना चावहए, वजससे शरीर में पानी की कमी न
ह । भोजन के 1-1/2 से 2 घंटे पहले पयाभ प्त मात्रा में जल पीना उत्तम रहता है। ऐसा करने से पेट के
थन्दर थपवचत आहार जो सड़ता रहता है, पानी में पर्भतया घल ष जाता है। पाचन संस्थान एवं पाचक
रस ग्रवन्थया सबल एवं स्वस्थ बनती है। वदन में दो तीन घंटे के थन्तर पर पानी थवश्य पीना चावहए,
क्य वक इससे थन्त स्रावी ग्रवन्थय का श्राव पयाभ प्त मात्रा में वनकलता रहता है।
उच्च थम्लता में थविक पानी पीना चावहए, क्य वक वह पेट तथा पाचन नली के थन्दर की
कोमल सतह को जलन से बचाता है। पयाभ प्त मात्रा में जल पीने से वपत्ताशय व गदष े की पथरी तथा
जोड़ की सज ष न व ददभ ठीक होते हैं। रि में वमवश्रत ववकार घल ष कर बाहर वनकल जाते है। भय, क्रोि,
मरच्र्छा, शोक व चोट लग जाने के समय थन्त श्रावी ग्रवन्थय द्वारा छोड़े गये हावनकारक श्राव के
प्रभाव को कम करने के वलये पानी पीना लाभप्रद होता है। डायररया, हैजा व उल्टी, दस्त के समय
उबाल कर ठंडा वकया हचआ पानी पीना चावहये। उपवास के समय पाचन थंग को भोजन पचाने का
कायभ नहीं करना पड़ता। थत थविक पानी पीने से शरीर से ववजातीय तत्त्व के वन्कासन में मदद
वमलती है।
स्वास््य वियक उषापान
प्रात काल वबना कषछ खाये पीये वबना दांतनष एवं कषल्ला कीये, भर पेट पानी पीने को उषा पान
कहते हैं। रात भर में वन श्वास के साथ जीभ पर ववजातीय तत्व जमा हो जाते है। इसी कार् वदन भर
कायभ करने के बावजरद महष में वजतनी बदबर नहीं आती, उतनी वनद्रा में वबना कषछ खायें ही आती है। ये
ववजातीय तत्त्व जब पानी के साथ घल ष कर पेट में पनष जाते हैं तब औषवि का कायभ करते हैं। थत
उषापान का पर्भ लाभ वबना दांतनष पानी पीने से ही वमलता है। उसके पिात् टहलने थथवा पेट का
हलन-चलन वाला व्यायाम (संकषचन और फै लाना) करने से पेट में आतें एक दम साफ हो जाती है,
वजससे पाचन संबंिी सभी प्रकार के रोग में शीघ्र राहत वमलती है। पानी पीने का श्रेष्ठतम समय
प्रात काल भरखे पेट होता है। रावत्र के ववश्राम काल में चयापचय वक्रया द्वारा जो ववजातीय थनावश्यक
तत्त्व शरीर में रात भर में जमा हो जाते हैं, उनका वन्कासन गदष ,े आंते, त्वचा थथवा फें फड़ द्वारा

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होता है। थत उषापान से ये थंग, सवक्रय होकर समस्त ववजातीय पदाथो को बाहर वनकालने में
सवक्रय हो जाते हैं। जब तक रात भर में एकवत्रत ववष भली भांवत वन्कावशत नहीं होता और ऊपर से
आहार वकया जाये तो वववभन्न प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है। उषापान से बवासीर, सरजन
संग्रह्ी, ज्वर, उदर रोग, क्ज, आंत्ररोग, मोटापा, गदष े संबंिी रोग, यकृत रोग, नावसका आवद से
रि स्राव, कमर ददभ , आख, कान आवद वववभन्न थंग के रोग से मवष ि वमलती है। नेत्र ज्योवत में ववृ द्ध,
बवष द्ध वनमभ ल तथा वसर के बाल जल्दी सफे द नहीं होते थथाभ त् थनेक रोग में लाभ होता है।
पानी कब न ीं पीना िाह ए?
वचकनाई वाले पदाथभ थथवा मीठा खाने के तरष न्त बाद पानी पीने से खांसी और गले के रोग
होने की संभावना रहती है। िरप में चलकर आने पर थथवा व्यायाम के पिात् जब तक पसीना सरख
नहीं जायें पानी नहीं पीना चावहये, थन्यथा तरष न्त जक ष ाम होने की संभावना रहती हैं। वचवकत्सक
की दृव्ट से शौच के तरष न्त पिात् भी पानी नहीं पीना चावहये। सोने के लगभग दो घंटे परवभ तक पानी
नहीं पीना चावहये। ववशेषकर ऐसे व्यविय को वजन्हें रावत्र में पेशाब के वलए बार-बार उठना पड़ता है।
सोते समय पानी पीने से वनद्रा में पेशाब की शंका बनी रहने के कार् गहरी वनद्रा आने में बािा
पहचचती है। एक बार वनद्रा भंग होने के पिात् पनष वनद्रा सरलता से नहीं आती। थत। ऐसे व्यविय को
थविक समय तक सोये रहना पड़ता है। परर्ाम स्वूपप प्रात समय पर जल्दी नहीं उठ पाते।
खाना खाने के पिात् आमाशय में लीवर, वपत्ताशय, पेवन्क्रयाज आवद के श्राव और थम्ल के
वमलने से जठरावग्न प्रदीप्त होती हैं। थत प्राय जनसािार् को पानी पीने की इच्छा होती है परन्तष
पानी पीने से पाचक रस पतले हो जाते हैं, वजसके कार् आमाशय में भोजन का पर्भ पाचन नहीं हो
पाता। फलत भोजन से जो ऊजाभ वमलनी चावहए, प्राय नहीं वमलती। आहार के ूपप में ग्रह् वकये
गये वजन पौव्ट क तत्त्व से रि, वीयभ आवद थवयव का वनमाभ ् होना चावहये नहीं हो पाता। थपाच्य
भोजन, आमाशय और आंत में ही पड़ा रहता है, वजससे मंदावग्न, क्जी, गैस आवद वववभन्न पाचन
संबंिी रोग के होने की संभावना रहती है। दस र री तरफ थपाच्य भोजन को मल द्वारा वन्कावशत
करने के वलये शरीर को व्यथभ में थविक ऊजाभ की आवश्यकता होती है। भोजन के पिात् पानी पीना
थवत आवश्यक हो तो गरम-गरम पीने योग्य थोड़ा पानी घरंट-घरंट पी सकते हैं वजससे आमाशय की
पाचन ्ष मता कम नहीं होती।

गरम पानी औषहि ै

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ठण्डे पेय तथा िीज में रखा थथवा बफभ वाला पानी स्वास््य के वलये हावनकारक होता है।
स्वस्थ थवस्था में हमारे शरीर का तापक्रम 98.4 वडग्री फारहनाइट के लगभग होता है। वजस प्रकार
वबजली के उपकर् एयर कं डीशनर, करलर आवद चलाने से वबजली खचभ होती है। उसी प्रकार ठण्डे
पेय पीने थथवा खाने से शरीर को थपना तापक्रम वनयवन्त्रत रखने के वलये थपनी संवचत ऊजाभ व्यथभ
में खचभ करनी पड़ती है। थत पानी यथा संभव शरीर के तापक्रम के आसपास तापक्रम जैसा पीना
चावहये। आजकल सामरवहक भोज में भोजन के पिात् आइसक्रीम और ठण्डे पेय पीने को जो प्रचलन
है, वह स्वास््य के वलये बहचत हावनकारक होता है।
गमी स्वयं एक प्रकार की ऊजाभ है और शारीररक गवतववविय में उसका व्यय होता है। थत
जब कभी हम थकान थथवा कमजोरी का थनभष व करते हैं तब गरम पीने योग्य पानी पीने से शरीर में
स्फरवतभ आती है। वजन व्यविय को लगातार थविक बोलने का थथाभ त् भाष् थथवा प्रवचन देने का
कायभ पड़ता है, जब वे थकान थनभष व करें, तब ऐसा पानी पीने से पनष ऊजाभ का प्रवाह सवक्रय हो
जाता है। लम्बी तपस्या करने वाल के वलये ऐसा पानी ववशेष उपयोगी होता है, वजससे शवि का
संचार होता है। गरम पानी कफ एवं सदी संबंिी रोग में ्ष ी् ऊजाभ को पनष प्राप्त करने का सरलतम
उपाय होता हैं।
गरम पानी पीने से पेट में भारीपन, खट्टी डकारें आना, पेट की जलन तथा पाचन सिष रता है
और उपरोि रोग में राहत वमलती है। गरम जल सख ष ी खांसी की प्रभावशाली औषवि है। सहनीय
एक वगलास गमभ जल में थोड़ा सेंिा नमक डालकर पीने से कफ पतला हो जाता है और थंत में खांसी
का वेग बहचत कम हो जाता है। खाली पेट गमभ पानी पीने से मरत्र का थवरोि दरर हो जाता है। हृदय की
जलन कम होती है। वजनके मरत्र पीला थथवा लाल आता हो, मरत्र नली में जलन हो, उनको गमभ जल
पीने से लाभ होता है।
पानी की दवा कै से बनाएाँ?
पानी वववभन्न प्रकार की ऊजाभ ओ ं को सरलता से थपने थन्दर समावहत कर लेता है। थत
आजकल वववभन्न वचवकत्सा पद्धवतय में पानी में आवश्यक ऊजाभ संवचत कर रोगी को देने से उपचार
को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। शरीर में वजस रंग की आवश्यकता होती है, उस रंग की कांच
की बोतल या बतभ न में पानी को वनवित वववि तथा िपर में रखने से पानी में उस रंग के ग्ष आ जाते
हैं। चम्ष बक पर पानी को रखने से पानी चम्ष बकीय ऊजाभ वाला बन जाता है। इसी प्रकार वपरामीड के
थन्दर थथवा वपरामीड के ऊपर रखने से पानी में स्वास््यविभ क ग्ष उत्पन्न हो जाते हैं। पानी को
रेकी, रत्न , मंत्र , वववभन्न प्रकार के रंग के प्रकाश, थलग-थलग िातष के सम्पकभ में रखने से

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वपरामीड, रंग, रेकी, रत्न, मंत्र की तरंग के प्रभाव से पानी में उनसे संबंवित ग्ष का समावेश हो
जाता है। उस पानी को वववभन्न पद्धवतय के वचवकत्सक उपचार हेतष दवा के ूपप में उपयोग में लेने
का परामशभ देते हैं। पानी को जैसे बतभ न थथवा िातष के सम्पकभ में रखा जाता है, उसमें उस िातष के
ग्ष उत्पन्न होने लगते हैं। प्रत्येक िातष का स्वास््य की दृव्ट से थपना थलग-थलग प्रभाव होता है।
सोने से ऊवजभ त जल पीने से श्वसन प्र्ाली के रोग, जैसे-दमा, श्वास फरलना, फें फड़ संबंिी रोग ,
हृदय और मवस्त्क संबंिी रोग में लाभ होता है। चांदी से पाचन वक्रया के थवयव , जैसे-आमाशय,
लीवर, वपत्ताशय, आंत के थनेक रोग एवं मरत्र प्र्ाली के रोग में आराम वमलता है। तांबे में ऊवजभ त
जल सेवन से जोड़ के रोग, पोवलयो, कषष्ठरोग, रि चाप, घटष न का ददभ , मानवसक तनाव आवद में
काफी लाभ होता है। स्नायष संस्थान शविशाली होता है। इसी कार् पीने के पानी को प्लावस्टक के
बतभ न में संग्रह नहीं करना चावहए क्य वक उसमें हावनकारक रसायन के प्रभाव की संभावना रहती है।
सारांश यही है वक पानी के वववेकपर्भ एवं आवश्यकतानस ष ार सही उपयोग से हम स्वस्थ
जीवन जी सकते हैं, रोग से बच सकते हैं, तथा रोग होने की वस्थवत में पनष स्वस्थ हो सकते हैं।

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ह िंिाव (कहपगिं ) हिहकत्सा
शरीर में बहचत सी मांसपेवशया ऐसी होती है, वजनका हलन-चलन इच्छानस ष ार करना आसान
नहीं होता है। ऐसी मांसपेवशय पर हल्का-हल्का मसाज कर ववकार को हटाया जा सकता है। उन
ववकार को दरर करने का एक थन्य सरल तररका और भी है, जो वखंचाव (Suction) के वसद्धान्त पर
आिाररत होता है। टेवनस की गेंद के दो बराबर भाग करने से कप के आकार के दो भाग हो जाते हैं।
उपचार हेतष ऐसे कप का प्रयोग करने से उपचार की इस वववि को कवपंग वचवकत्सा भी कहते हैं।
वकसी भी स्थान की सफाई करने के वलए प्राय आंगन पर झाड़़ू लगाया जाता है। ववशेष
थवसर पर थविक स्वच्छता हेतष आंगन को पानी, साबनष थथवा थन्य रसायन द्वारा स्वच्छ वकया
जाता है। परन्तष जहा ऐसा करना संभव नहीं होता, वहा वायष के दबाव द्वारा सफाई की जाती है। परन्तष
आगन पर वबछे गलीचे, फे ल्ट, दरी आवद पर जमीं िरल को हटाने के वलये आजकल वेक्यरम क्लीनर
से वखंचाव द्वारा वमट्टी को दरर वकया जाता है। इसी प्रकार वजन मांसपेवशय पर ववकार जमा हो जाते
हैं, वहा गेंद के कप को त्वचा पर रख, दबाने से उनके थन्दर की वायष वनकल जाती है। कप के थन्दर
शरन्यता हो जाने से कप त्वचा पर वचपक वखंचाव पैदा करने लगता है। उस स्थान पर वखंचाव बढ़ने से
प्रा् ऊजाभ और रि का प्रवाह बढ़ने लगता है। थवरोि के कार् रि वावहवनया जो वसकषड़ जाती
है, पनष फै लने लगती है। परर्ाम स्वूपप ववजातीय तत्त्व उस स्थान से दरर होने लगते हैं और रोगी
स्वस्थ होने लगता है।
कमर, सीना, घटष न , हाथ-पैर, एवं थन्य मांसपेवशय सम्बन्िी रोग में यह उपचार बहचत
प्रभावशाली एवं शीघ्र राहत वदलाता है। मेरु दण्ड सम्बन्िी रोग ववशेष कर स्लीप वडस्क एवं
साईवटका में बहचत लाभदायक होता है। वात संबंिी रोग में कवपंग उपचार से शीघ्र आराम वमलने
लगता है। फं सी हचई वायष थथवा गैस शीघ्र थपना स्थान छोड़ देती है। वात रोग में कप द्वार वखंचाव,
रोगी को प्राय थच्छा लगता है। जो ववजातीय तत्त्व दबाव और मसाज द्वारा दरर नहीं होते हैं, उन्हें दरर
करने में वखंचाव से थच्छे परर्ाम आते हैं।
सीने पर इस प्रयोग से फें फड़े मजबरत होते हैं। उन पर जमा कफ दरर होने लगता है। हृदय और
डायािाम की कायभ ्ष मता बढ़ती है। वखंचाव उतना ही देना चावहए जो सहनीय ह । प्रारम्भ में 10
वमनट तक कप लगाकर उसके प्रभाव का थनभष व करना चावहए। वजसे िीरे-िीरे बढ़ाया भी जा
सकता है। आवश्यकतानस ष ार इस प्रवक्रया को कषछ समय के पिात् पनष पनष दोहराया भी जा सकता
है।

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शरीर के कोमल थंग थथवा बहचत छोटे बच्च वजनकी त्वचा थविक कोमल होती है, कवपंग
उपचार जहा तक हो नहीं करना चावहए। थल्सर, घाव, चोट एवं िे क्चर के समय, उन स्थान पर
कप नहीं लगाना चावहए।
साविाहनयााँ:-
कोई भी उपचार करते समय रोगी की थवस्था एवं उपचार से होने वाली प्रवतवक्रया का वववेक
एवं सजगता परवभक ध्यान आवश्यक होता है। उसके थभाव में उपचार से थपेव्ष त परर्ाम नहीं
वमलते। उपचार करते समय रोगी को उपचार का वसद्धान्त समझाने से उसका आत्मववश्वास, श्रद्धा
और सजगता बढ़ जाती है और उपचार थविक प्रभावशाली बन जाता है। थश्रद्धा और थनचाहा
जबरदस्ती वकया गया उपचार थपेव्ष त परर्ाम नहीं दे सकता। त्वचा पर कप लगाते समय इस बात
का ध्यान रखना चावहए वक उस स्थान पर बाल न ह । बाल होने से कप में वायष की शरन्यता नहीं हो
सकती। फलत कप आवश्यक वखंचाव पैदा नहीं कर सकता। थत बाल साफ करना आवश्यक होता
है थथवा जहा मामरली बाल हो उस स्थान पर पानी, लगाना चावहये तावक कप में शरन्यता की जा
सके ।
उपचार के पिात कप को हटाने हेतष कप पर ताकत से सीिा वखंचाव नहीं देना चावहए। परन्तष
कप के चार तरफ के पास वाली त्वचा को दबाने से कप में वायष चली जाती है और थन्दर शरन्यता
समाप्त होने से कप से त्वचा का वखंचाव स्वत समाप्त हो जाता है और कप वहा से स्वत हट जाते हैं।
ह ििं ाव के अन्य उपकरण:-
आजकल इसी वसद्धान्त पर आिाररत थनेक उपकर् बाजार में उपल्ि हैं। जैसे स्तन पम्प,
आगभ न डेवलेपर, कटोरी के आकार के वेक्यरम कप इत्यावद। वजनसे आवश्यकतानस ष ार वनयंवत्रत
वखंचाव वदया जा सकता है। वजन र वगय के शरीर पर चबी थविक होती है, उन स्थान पर इन
उपकर् का उपयोग ववशेष प्रभावशाली होता है। नावभ का स्पन्दन थपने के न्द्र में लाने के वलये भी
इसी प्रवक्रया से उपचार वकया जाता है।

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मद्रु ा हिहकत्सा
शरीर की संरचना में आकाश, वाय,ष थवग्न, प्ृ वी, जल आवद पांच महाभरत तत्त्व की थहं
भरवमका होती है। शरीर के प्रत्येक भाग में ये पांच तत्त्व होते हैं, वफर भी थलग-थलग भाग में इन
पांच तत्त्व का थनपष ात थलग-थलग होता है। पंच तत्त्व के आवश्यक थनपष ात के थसंतल ष न से रोग
और संतल ष न से शरीर में आरोग्य की प्रावप्त होती है।
पृ्वी ित्त्वः- शरीर में ठोस थवयव होते हैं उनमें प्ृ वी तत्त्व थपे्ष ाकृत थविक होते हैं। जैसे
हड्वडयां, मांसपेवशया, त्वचा, नाखनर , बाल इत्यावद। पगथली से लेकर गदष ा तक शरीर में प्ृ वी तत्त्व
थपे्ष ाकृत थविक सवक्रय होता है। थत शरीर के इस भाग के रोग में प्ृ वी तत्त्व के थसंतल ष न की
संभावनाए थविक रहती है।
जल ित्त्वः- शरीर में वजतने तरल पदाथभ होते हैं, जैसे रि, वीयभ , लार, लावसका, पसीना, आंसर,
थरक, मल, मरत्र, मज्जा आवद का जल तत्त्व से ववशेष संबंि होता है। शरीर के गदष ा से लेकर नावभ तक
के भाग में जल तत्त्व थपे्ष ाकृत थविक होता है। थत इस भाग से संबंवित थंग के रोग में जल तत्त्व
की प्राय थहं भरवमका होती है।
अहनन ित्त्वः- थवग्न तत्त्व शरीर के तापक्रम को वस्थर रखने, थंग को सवक्रय रखने, शरीर के आभा
मंडल तथा स्वभाव पर वनयन्त्र् रखता है। इसकी थविकता से बख ष ार, शरीर में जलन, वपत्त का
बढ़ना, भरख और प्यास ज्यादा लगना, क्रोि थविक आना, भोग की इच्छा होना जैसे ल्ष ् प्रकट
होने लगते हैं। इसके थसंतल ष न से भरख और प्यास बराबर नहीं लगती। स्वभाव में वचड़वचड़ापन,
शारीररक ताकत में बदलाव, आंख का तेज कम होने लगता है। शरीर में नावभ से लेकर हृदय तक के
भाग में यह तत्त्व थपे्ष ाकृत थविक होता है।
वायु ित्त्वः- शरीर में गवत संबंिी प्रत्येक कायभ में इस तत्त्व का ववशेष योगदान होता है। जैसे श्वशन,
हलन-चलन, वचंतन-मनन, वसकषड़ना-फै लाना, रि एवं लावसका प्रवाह, मल-मरत्र एवं थन्य ववजातीय
तत्त्व के ववसजभ न, िार् करना, फें कना इत्यावद। शरीर में हृदय से लेकर कं ठ तक वायष तत्त्व
थपे्ष ाकृत थविक होता है।
आकाश ित्त्वः- आकाश तत्त्व चार तत्त्व को स्थान देता है। हमारे शरीर में पांच (आंख, कान,
नाक, जीभ, स्पशभ ) ज्ञानेवन्द्रय के माध्यम से जो ग्रह् वकया जाता है, उसकी प्रवतवक्रया स्वूपप जो
कषछ होता है उसका संबंि इस तत्त्व से होता है। जैसे काम, क्रोि, मोह, लोभ, लज्जा इत्यावद।

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सभी द्ष प्रववृ त्तय , शारीररक आवश्यकताओं और रोग संबंिी थवयव के थसंतल ष न को
संबंवित महाभरत तत्त्व को संतवष लत कर आसानी से दरर वकया जा सकता है। वजससे व्यवि रोग मि ष ,
सजग बन सख ष ी जीवन जीते हचये थपने उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
मद्रु ाओिं द्वारा पिंि ित्त्वों का सिंिलु नः- हस्त योग मद्रष ाओं द्वारा पंच तत्त्व को सरलता से संतवष लत
वकया जा सकता है। ये मद्रष ाए शरीर में चेतना के शवि के न्द्र में ररमोट कण्रोल के समान स्वास््य
र्ष ा और रोग वनवार् करने में प्रभावशाली कायभ करती है। वजससे मानव भौवतक, मानवसक और
आध्यावत्मक उन्नवत की तरफ थग्रसर होता है।
मद्रु ा हवज्ञान:- हाथ की पाच थंगवष लय का सम्बन्ि पंच महाभरत तत्त्व से होता है। प्रत्येक थंगलष ी
थलग-थलग तत्त्व का प्रवतवनवित्व करती है। जैसे- कवनवष्ठका जल तत्त्व से, थनावमका, प्ृ वी तत्त्व
से, मध्यमा थवग्न तत्त्व से, तजभ नी वायष तत्त्व से और थंगठष ा आकाश तत्त्व से। परन्तष बहचत से योगी
थंगरठे को थवग्न और मध्यमा को आकाश तत्त्व का प्रतीक मानते हैं। परन्तष ऐसा इसवलए उवचत नहीं
लगता क्य वक आकाश तत्त्व ही सभी तत्त्व को आश्रय देता है, उसके सहयोग के वबना वकसी भी तत्त्व
का थवस्तत्त्व नहीं रहता।
मद्रष ा ववज्ञान के थनसष ार हमारी थंगवष लया ऊजाभ का वनयवमत स्रोत होने के साथ-साथ एन्टीना
का कायभ भी करती है। शरीर में पंच तत्त्व की घटत-बढ़त से व्याविया होती हैं। थंगवष लय एवं थंगरठे
को वमलाने, दबाने, स्पशभ करने, म ड़ने तथा ववशेष आकृवत में कषछ समय तक बनाए रखने से शरीर
में तत्त्व के थनपष ात में पररवतभ न वकया जा सकता है। उसका स्नायष मण्डल और यौवगक चक्र पर भी
गहरा प्रभाव पड़ता है।
थंगरठे को तजभ नी, मध्यमा, थनावमका और कवनवष्ठका के मरल में लगाने से उस थंगवष ल से
सम्बवन्ित तत्त्व की ववशेष ववृ द्ध होती है। थंगवष लय के प्रथम पौर में स्पशभ करने से तत्त्व सन्तवष लत
होता है तथा इन थंगवष लय को मोड़ कर थंगरठे के मरल पर स्पशभ कर थंगरठे से दबाने से उस तत्त्व की
कमी होती है। इस प्रकार वववभन्न मद्रष ाओं के माध्यम से पंच तत्त्व को इच्छानस ष ार घटाया थथवा
बढ़ाकर संतवष लत वकया जा सकता है। हथेली में थंगवष लय एवं थंगठर की थलग वस्थवतय द्वारा
थलग-थलग मद्रष ाऐ ं बनती है, जो पंच तत्त्व को संतवष लत कर सािक को स्वस्थ रखने में सहयोग
करती है।
िन्द उपयोगी मदु ाएाँ
ज्ञान मुद्राः- थंगष्ठष व तजभ नी के ऊपरी पौर के स्पशभ करने से जहा हल्का सा नाड़ी स्पन्दन हो, ज्ञान
मद्रष ा बनती है। इस मद्रष ा से स्मर् शवि तेज होती है, एकाग्रता बढ़ती है और बवष द्ध वनमभ ल एवं मन
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वनयवन्त्रत होता है। आज्ञा चक्र सवक्रय होने से शरीर में हारमोनस का संतल ष न एवं सभी थन्त श्रावी
ग्रवन्थय की सवक्रयता बढ़ने लगती है। परर्ामस्वूपप सभी कायभ व्यववस्थत होने लगते हैं।
वायु मद्रु ाः- थंगष्ठष से तजभ नी को दबाने से वायष मद्रष ा बनती है जो शरीर में वायष के बढ़ने से होने वाले
वात रोग का शमन करती है, जैसे शरीर में कम्पन्न होना, जोड़ का ददभ , गंवठया, रीढ़ की हड्डी
संबंिी ददभ , वात रोग, लकवा आवद के समय इस मद्रष ा को करने से रोग में राहत वमलती है।
आकाश मुद्रा:- थंगष्ठष के ऊपरी पौर को मध्यमा के ऊपरी पौर से स्पशभ करने से आकाश मद्रष ा
बनती है। इससे थवग्न तत्त्व संतवष लत होता है। हड्वडयां मजबतर होती है। मख ष का तेज ओर कावन्त
सिष रती है। ववचार ्ष मता बढती है। श्रव् शवि ठीक रहती है एवं कान के रोग ठीक होते हैं। मानवसक
संकी्भ ता कम होती है। हृदय रोग में भी यह मद्रष ा प्रभावकारी होती है। मानवसक एवं शारीररक
ववकलांगता के वलए यह मद्रष ा बहचत थच्छी है।
शून्य मद्रु ा:- मध्यमा के ऊपरी पौर को थंगष्ठष के मरल पर स्पशभ कर थंगष्ठष से दबाकर बाकी थंगवष लया
सीिी रखने से बनती है। इस मद्रष ा से शरीर में मव्परष चक्र से ववशवष द्ध चक्र तक के सभी चक्र प्रभाववत
होते हैं। बहरापन, गले के रोग,कान का ददभ , वहचकी, गरंगापन, वसर ददभ , ववचार एवं शारीररक शरन्यता
दरर होती है। काम वासना वनयवन्त्रत होती है। मरत्रावरोि दरर होता है। रि संचार सिष रता है।
पृ्वी मद्रु ा:- थंगष्ठष को थनावमका के ऊपरी पौर से स्पशभ से यह मद्रष ा बनती है। प्ृ वी तत्त्व
सन्तवष लत होने से शरीर की ताकत और पैर की शवि बढ़ती है। हड्वडयां एवं मांसपेवशयां शविशाली
होती है। रि की कमी दरर होती है। नावभ के आसपास वस्थत प्राय सभी थंग से संबवं ित रोग में
लाभ होता है। भरख वनयवन्त्रत होती है।
सयू य मद्रु ा:- थनावमका के ऊपरी पौर को थगरठे के मरल पर रख कर थंगरठे से दबाने पर यह मद्रष ा
बनती है। इस मद्रष ा से मोटापा व भारीपन घटता है। मानवसक तनाव में कमी आती है। सदी एवं जल
तत्त्व की थविकता वाले उवल्टयें, दस्तें संबवं ित रोग ठीक होते हैं। नेत्र ज्योवत बढ़ती है और
प्रारवम्भक स्तर का मोवतया वबन्द भी ठीक होता है। पाचन वक्रया ठीक होती है वजससे कोलस्रोल भी
कम होता है।
जल मद्रु ा (वरुण मद्रु ा):- थंगष्ठष का कवनष्ठ थंगवष ल के ऊपरी पौर पर स्पशभ करने से यह मद्रष ा बनती
है। कवनवष्ठका जो शरीर में जल तत्त्व का संतल ष न करती है। जल तत्त्व की कमी से होने वाले रोग में
जैसे- मांसपेवशय में वखचांव, चमभ रोग, शरीर में रु्ष ता आवद ठीक होते हैं। रि शवष द्ध और त्वचा में
वस्नग्िता लाने के वलए वरु् मद्रष ा लाभदायक होती है। लर नहीं लगती। बाईट (Cramps) में इस मद्रष ा
से तरष न्त आराम वमलता है। आकवस्मक दघष भ टना में इस मद्रष ा से चमत्कारी लाभ होता है।
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जलोदर नाशक मद्रु ा:- कवनवष्ठका को पहले थंगरठे की जड़ से लगा कर वफर थंगरठे से कवनवष्ठका
को दबाने से जलोदर नाशक मद्रष ा बनती है। इस मद्रष ा से शरीर से जल की ववृ द्ध से होने वाले रोग ठीक
होते हैं। जैसे फे फड़ थथवा पेट में पानी भरना, शरीर के वकसी भाग में सरजन, नाक से पानी आना,
आंख से पानी आना, मंहष से लार टपकना आवद। इस मद्रष ा को करने से शरीर के ववजातीय द्रव्य
बाहर वनकलने लगते है, वजससे शरीर वनमभ ल बनता है, पसीना आता है, मरत्रावरोि ठीक होता है।
प्राण मद्रु ा:- कवनवष्ठका और थनावमका के ऊपरी पौर को थंगरठे के ऊपरी पौर से स्पशभ करने से यह
मद्रष ा बनती है, जो जल और प्ृ वी तत्त्व को शरीर में सन्तल ष न करने में सहयोग करती है। इस मद्रष ा से
चेतना शवि जागतृ होती है। शरीर की रोग प्रवतरोिक ्ष मता बढ़ती है। भरख प्यास सहन हो जाती है।
रि संचार सिष रता है। आख के रोग में राहत वमलती है। नेत्र ज्योवत सिष रती है। हस्त रेखा ववज्ञान
के थनस ष ार सरयभ की थंगवष ल थनावमका समस्त प्रा्शवि का के न्द्र मानी जाती है। बद्ध ष की थंगवष ल
कवनवष्ठका यवष ा शवि का प्रवतवनवित्व करती है। थत इस मद्रष ा के थभ्यास से शरीर में प्रा् शवि का
संचार तेज होता हैं रि संचार ठीक होने से रि नवलकाओं का थवरोि दरर होता है। सािक को भरख
प्यास की तीव्रता नहीं सताती। थकावट दरर होती है। वाक् शवि सिष रती है।
अपान मद्रु ा:- मध्यमा और थनावमका थंगलष ी के वसरे को थंगरठे के वसरे से स्पशभ करने से बनती है।
इस मद्रष ा से शरीर से वववभन्न प्रकार के ववजातीय तत्त्व की ववसजभ न वक्रया वनयवमत होती है, तावक
थनावश्यक, थनपष योगी पदाथभ सरलता परवभक शरीर से बाहर वनकल जाते हैं।
इससे पेट में वायष का वनयन्त्र् होने से पेट संबंिी वात रोग में ववशेष लाभ होता है। इस मद्रष ा
से मरत्राशय की कायभ प्र्ाली सिष रती है। गदष ो के रोग, क्ज और बवासीर में यह मद्रष ा ववशेष लाभ
दायक होती है। यह मद्रष ा दांत को भी स्वस्थ रखती है। इस मद्रष ा से पसीना वनयवमत ढंग से आने
लगता है। शरीर में प्रा् और थपान वायष संतवष लत होती है।
व्यान मद्रु ाः- थंगठष ा, तजभ नी और मध्यमा के थग्र भाग को स्पशभ कर शेष दोन थंगवष लयां सीिी रखने
से बनती है। इस मद्रष ा से वात, वपत्त और कफ का संतल ष न होता है। उच्च एवं वनम्न रि चाप में ववशेष
तथा हृदय रोग में लाभ होता है।
उदान मद्रु ाः- थंगठष ा, तजभ नी, मध्यमा एवं थनावमका के थग्र भाग को वमलाने से यह मद्रष ा बनती है।
इस मद्रष ा से गले संबंिी रोग दरर होते हैं। स्मर् शवि एवं सजगता ववकवसत होती है। मानवसक शावन्त
एवं वस्थरता बढ़ती है।
समान मद्रु ाः- थंगरठे एवं हथेली की चार थंगवष लय के थग्र भाग को वमलाने से यह मद्रष ा बनती है।
इस मद्रष ा से पांच तत्त्व का संतल ष न होता है। ददभ स्थ एवं शरीर के कमजोर भाग पर यह मद्रष ा बना
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थंगवष लय का स्पशभ करने से ददभ में आराम तथा वनव्क्रय भाग सवक्रय होने लगता है। इस मद्रष ा से
शरीर, मन और बवष द्ध में थच्छा तालमेल रहने लगता है।
अपान वायु मुद्रा:- इस मद्रष ा को मतृ संजीवनी मद्रष ा भी कहते है। तजभ नी को थंगष्ठष के मरल से स्पशभ
कर थंगरठे का थग्रभाग मध्यमा और थनावमका के ऊपरी पौर से स्पशभ करने व कवनवष्ठका को सीिी
रखने से बनती है। इस मद्रष ा से हृदयघात, हृदय रोग, हृदय की कमजोरी िड़कन, प्रा् ऊजाभ की
कमी, उच्च रि चाप, वसर ददभ , बैचेनी, पेट की गैस, घबराहट दरर होती है। वदल का दौरा पड़ने पर
यह मद्रष ा इंजेक्शन के समान तरष न्त प्रभाव वदखलाती है। हृदय के रोवगय को सीवढया चढ़ते समय
यवद श्वास फरलता हो तो सीवढया चढ़ने से परवभ 10-15 वमनट इस मद्रष ा को करने से श्वास नहीं फरलता।
वहचकी, दमा एवं दांत के ददभ में आराम वमलता है। भोजन करते समय यवद भोजन का थंश श्वास
नली में चला जाए तो तरष न्त राहत वदलाती है।
शिं मद्रु ा:- बांये हाथ के थंगरठे को दांये हाथ की मट्ठष ी में बन्द कर बांये हाथ की तजभ नी को दावहने
हाथ के थगरठे से वमला, बाकी तीन थंगवष लय को मट्ठष ी के ऊपर रखने से शंख मद्रष ा बनती है।
इस मद्रष ा से वा्ी संबंिी रोग जैसे ततष लाना, आवाज में भारीपन, गले के रोग और थायरायड
संबंिी रोग में ववशेष लाभ होता है। भरख थच्छी लगती है। वज्रासन में बैठकर यह मद्रष ा करने से
थविक प्रभावकारी हो जाती है। हृदय के पास इस मद्रष ा को हथेवलया रख कर करने से हृदय रोग में
शीघ्र लाभ होता है। रि चाप कम होने लगता है।
हलिंग मद्रु ा:- दोन हाथ की थंगवष लय को आपस में फं साकर दायें थंगरठे को ऊपर खड़ा रखने से
यह मद्रष ा बनती है। इस मद्रष ा से शरीर में गमी बढ़ती है। मोटापा कम होता है। कफ, नजला, जक ष ाम,
खांसी, सदी संबंिी रोग , फें फड़ के रोग, वनम्न रिचाप आवद में कमी, होती है। इस मद्रष ा से शरीर में
मौसम पररवतभ न से होने वाले सदी जन्य रोग में शीघ्र राहत वमलती है तथा शरीर की प्रवतरोिक
्ष मता बढ़ती है।
प्रभावशाली नमस्कार मद्रु ा
दोन हाथ की हथेवलय की पाच थंगवष लय से कोहनी तक के भाग को स्पशभ करने से
नमस्कार मद्रष ा बनती है। हथेली में सज
ष ोक एवं हैण्ड ररफ्लेक्सोलाॅजी एक्यरप्रेशर के वसद्धान्तानस
ष ार
शरीर के प्रत्येक भाग के प्रवतवेदन वबन्दष होते हैं और जब दोन हथेवलय को वमलाते हैं तो हथेली के
चार तरफ का आभा मंडल संतवष लत होने लगता है, वजससे सभी थंग में प्रा् ऊजाभ का प्रवाह
संतवष लत होने लगता है, आवेग शांत होने लगते हैं। मन की चंचलता शांत होती है, श्वास की गवत मंद
हो जाती है। वजससे थहं का ववसजभ न एवं क्रोि शांत होता है। सकारात्मक सोच ववकवसत होने लगती
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है। इसी कार् हमारे यहा एक लोकोवि है- ‘‘हाथ जोड़ो - गस्ष सा छोड़ो’’ थथाभ त् हाथ जोड़कर क्रोि
नहीं वकया जा सकता।
दोन हाथ को वमलाने से चन्द्र और सरयभ स्वर सम होने लगता है और सषष न्ष ना स्वर चलने
लगता है। वसद्धान्तानस ष ार फलत वात, कफ और वपत्त आवद ववकार पर थंकषश लगने लगता है।
आयवष ेद के थनस ष ार वात-कफ एवं वपत्त के थसंतल ष न से ही रोग की उत्त्पवत होती हैं।
ज्योवतष में रेखा ववज्ञान के थनस ष ार हथेली में व्यवि के सम्पर्भ ग्रह की वस्थवत होती है। हस्त
रेखा ववशेषज्ञ हथेली का आकार एवं वववभन्न रेखाओं की वस्थवत देखकर मन्ष य के जीवन में घवटत
होने वाली घटनाओं को बताने में स्ष म होते हैं। जब दोन हथेवलय को आपस में वमलाते हैं तो
थशभष ग्रह का प्रभाव कम होने लगता है। हथेली की थंगवष लय में तरह-तरह के रत्न एवं वववश्ट पत्थर
थंगरवठय में पहनने से रत्न वचवकत्सा के वसद्धान्तानस ष ार उन रत्न की तरंग का प्रभाव सभी स्तर पर
पड़ने लगता है। वजससे न के वल रोग का उपचार होता है थवपतष प्रवतकरल ग्रह-न्ष त्र की वस्थवत को
भी वनयवन्त्रत वकया जा सकता है।
हथेली की पाच थंगवष लया पंच महाभरत तत्त्व (प्ृ वी, जल, थवग्न, वायष और आकाश) का
प्रवतवनवित्व करती है। थत नमस्कार मद्रष ा से बायें-दायें पंच तत्त्व का संतल ष न होने लगता है। पंच
तत्त्व का थसंतल ष न ही थविकांश रोग का मरल कार् होता है। मद्रष ा-सािक हाथ की थंगवष लय और
थंगरठ को थलग-थलग ढंग से आपस में वनवित समय तक स्पशभ कर पंच महाभरत तत्त्व को संतवष लत
कर वववभन्न रोग का उपचार करते हैं।
िातष ववशेषज्ञ थलग-थलग ग्रह की शांवत के वलए हथेली की थंगवष लय में सोने, चादी, तांबें,
लोहे जैसी थलग-थलग िातओ ष ं की बनी थंगरवठय में थलग-थलग रत्न को पहनने पर जोर देते हैं।
नाखरन की बनावट एवं उनके रंग के आिार पर मन्ष य के स्वभाव के बारे में जाना जा सकता
है।
नमस्कार मद्रष ा से वपरावमड का आकार बनता है वजससे डायािाम के ऊपर का भाग ऊजाभ का
सवक्रय ्ष ेत्र बनने लगता है। आभा मण्डल शद्ध ष होने लगता है। थशभष सोच शभष में बदलने लगती है।
चीनी पंच तत्त्व वसद्धान्तानसष ार हृदय, फें फड़े, पेरीकावडभ यन (मवस्त्क) मेरवे डयन एवं उसके
सहयोगी पररक थंग छोटी आंत, बड़ी आंत, वरपल वामभ र (मेरुदण्ड) की पाच प्रमख ष ऊजाओं (वाय,ष
ताप, नमी, श्ष कता एवं ठण्डक) के मख्ष य प्रवतवेदन वबन्दष हथेली और कोहनी के बीच होते हैं।
मेरवे डयन की दायें और बायें शरीर में समान वस्थवत होने से उनमें प्रवावहत ऊजाभ ओ ं का थसंतल ष न
रोग का मख्ष य कार् होता है। परन्तष नमस्कार मद्रष ा द्वारा जब दोन हथेवलय से कोहनी तक के भाग
को आपस में वमलाया जाता है तो इन मेरवे डयन में पाच ऊजाभ ओ ं का संतल ष न होने लगता है।
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परर्ामस्वूपप शरीर में दायें-बायें संतल ष न होने लगता है। रिचाप सामान्य हो जाता है। श्वसन तंत्र
बराबर कायभ करने लगता है। इस मद्रष ा से डायािाम के ऊपर वस्थत हृदय, फें फड़े और मवस्त्क
संबंिी सभी रोग में ववशेष लाभ होता है। हाथ एवं कं ि के रोग में इस मद्रष ा के ववशेष चमत्काररक
परर्ाम आते हैं।
हथेली की थंगवष लय में प्रा् ऊजाभ का ववशेष प्रवाह होता हैं। इसी कार् रेकी, प्राव्क हीवलंग
द्वारा उपचार एवं आशीवाभ द हथेली से ही वदया जाता है। आभा मंडल के फोटोग्राफ्स से इसे स्प्ट
देखा जा सकता है।
वैसे तो थविकांश मद्रष ाओं को लगभग 48 वमनट करने से पर्भ लाभ प्राप्त होता है। रोग की
थवस्था में सािार् लगने वाली इस मद्रष ा के करने के चन्द वमनट पिात् कोहनी से कं ि के बीच
रोग की वस्थवतनस ष ार ददभ होने लगता है। थत प्रारम्भ में थभ्यास के ूपप में वजतनी देर ददभ सहन कर
सकें उतना ही करें एवं थभ्यास के पिात् िीरे-िीरे समय को बढ़ाया जा सकता है। जब तक पर्भ
थभ्यास न हो, थोड़े-थोड़े थन्तराल में इस मद्रष ा को पनष पनष वकया जा सकता है। इस मद्रष ा में गदभ न
को बायें, दायें, ऊपर कर, शरीर को थलग-थलग वस्थवत में मोड़कर कषछ देर तक करने से कं ि ,
हाथ एवं डायािाम के ऊपर वाले भाग में प्रा् ऊजाभ के थवरोि के थनूप ष प तनाव आता है। वजतना
तनाव सहन वकया जा सके उतने समय तक ही नमस्कार मद्रष ा करनी चावहए। शरीर के दावहने एवं
बायें भाग की हृदय,फें फड़े, पेरीकावडभ यन मेरवे डयन में प्रा् ऊजाभ का प्रवाह संतवष लत होने लगता है
वजससे उत्पन्न तनाव दरर होते हैं। वापस सािार् वस्थवत में आते ही, तनावग्रस्त भाग में रि का
प्रवाह ठीक होने लगता है। संबंवित मांसपेवशय में लचीलापन बढ़ने लगता है। ददभ स्थ और कं ि से
मांसपेवशय से संबंवित हाथ संबंवित एक्यरप्रेशर प्रवतवेदन वबन्दओ ष ं पर दबाव वदया जाये या दा्ा
मेथी टेप पर वचपका कर उस स्थान पर लगा दी जाये या वखंचाव के कप कषछ देर लगाए जाए थथवा
सािार् या चम्ष बकीय मसाज और थन्य संबंवित उपचार वकया जाये तो ददभ स्थ भाग से ददभ कम
होने लगता है और परष ाने थसाध्य रोग में शीघ्र राहत होने लगती है।
गोदु ासन में नमस्कार मद्रु ाः-
दोन घटष न को वमलाकर पंज पर बैठने की वस्थवत को गोदहष ासन कहते हैं। पैर की थंगवष लया
और थंगरठा स्ववनयवन्त्रत नाड़ी संस्थान को वनयवन्त्रत करते हैं। इस आसन में बैठने से मेरुदण्ड प्राय
सीिा रहता है। नाड़ी संस्थान पर दबाव पड़ने से उससे संबंवित थसंतल ष न दरर होता है और नाड़ी
संबंिी सभी रोग में आराम वमलता है। कमर, घटष न , पैर तथा गदभ न संबंिी सभी रोग में इस आसन
से लाभ होता है। गोदहष ासन से पैर, रीढ़, कं ि का संतल ष न ठीक होता है और मानवसक एकाग्रता

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बढ़ती है। भगवान् महावीर को के वलज्ञान इसी आसन में ध्यान करते हचए हचआ। इस आसन का
थभ्यास भी िीरे-िीरे बढ़ाया जा सकता है। इस आसन में नमस्कार मद्रष ा करने से सभी रोग का
उपचार और थविक प्रभावशाली हो जाता है।
नमस्कार मद्रु ा में नमस्कार मिंत्र के उच्िारण से उपिार अत्यहिक प्रभावशाली-
मंत्र में चयवनत श्द के समरह का ध्ववन की तरंग की वनवित गवत एवं ताल के साथ उच्चार्
होता है, वजससे ववशेष प्रकार की ऊजाभ का प्रवाह होता है। मंत्रोच्चार् से आभा-मंडल शद्ध
ष होता है।
फलत मन, मवस्त्क एवं शरीर के ववकार दरर होने लगते हैं। मंत्र न के वल स्थरल, थवपतष सरक्ष्म शरीर
को भी प्रभाववत करता है।
शरीर में ऊजाभ चक्र की ऊजाभ के प्रवाह में आए हचए थवरोि मंत्र की तरंग से दरर होने लगते हैं।
नावभ से मवस्त्क में ्म की ध्ववन के कं पन से मतृ प्राय कोवशकाए पनष भ वजववत होने लगती है। नई
कोवशकाओं के वनमाभ ् की गवत बढ़ जाती है। रि प्रवाह सामान्य होने लगता है। प्राय हम थपनी
्ष मताओं का एक प्रवतशत भी उपयोग नहीं करते। मंत्रोच्चार् से मवस्त्क का वनव्क्रय भाग सवक्रय
होने लगता है, वजससे हमारी प्रवतरोिक ्ष मता, समझ एवं सजगता बढ़ने लगती है। ‘मंत्र’ शरीर और
मानवसक स्वास््य को थच्छा रखने का सरल आध्यावत्मक उपाय है।
समझपूवयक मिंत्रोच्िार अहिक प्रभावशाली ोिा ै-
मंत्रोच्चार का प्रभाव व्यवि के श्रद्धापवर भ क उच्चार् एवं आन्तररक उत्साह के थनूप
ष प होता है।
मंत्रोच्चार् वदखावटी और थोपा हचआ नहीं होना चावहए। थ्ष र पौद्गावलक होते हैं उनमें स्वयं में कोई
चेतना शवि नहीं होती। परन्तष जब उसके साथ मन की श्रद्धा का संयोग हो जाता है तो उसमें चेतना
शवि का प्रादभष ाभ व होने लगता है। मन की एकाग्रता, वनष्ठा, श्रद्धा ही मंत्र की शवि को जागतृ करने में
सवाभ विक भरवमका वनभाती है।
्मो थररहंता्ं, ्मो वसद्धा्ं, ्मो आयररया्ं, ्मो उवज्झाया्, ्मो लोए सव्वसाहू्ं
‘्मो’ ववनय एवं नम्रता का प्रतीक है। पंच परमेष्ठी के पांच पद थध्यात्म जगत में थपने लक्ष्य के प्रवत
पर्भूपपे् समवपभ त आत्माओं का प्रवतवनवित्व करते हैं। फलत मंत्र महामंत्र बन जाता है।
इन पाच पद में ‘्मो’ के ‘मो’ श्द को एवं पाच पद में थंवतम श्द ‘्ं’ को वजतना लम्बा
उच्चार् कर सकें , उच्चार् करें। ्मो के उच्चार् के पिात् पर्भ श्वास लेने के पिात् प्रत्येक पद
का उच्चार् करें। ऐसा उच्चार् प्रा्ायाम का ही एक ववशेष प्रकार हो जाता है।
इस वववि द्वारा उच्चार् करने से गले में वस्थत थायराइड एवं पेराथायराइड ग्रवन्थया तथा
वसर में वस्थत पीयरष और पीवनयल ग्रवन्थया सवक्रय होने लगती हैं। वजन्हें पाच पद याद न ह वे मात्र

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‘्मो थररहंता्ं’ का इस वववि से जाप करने पर मंत्र वचवकत्सा का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इससे
व्यवि की सोच सकारात्मक, मनोबल दृढ़ एवं रोग प्रवतरोिक ्ष मता बढ़ जाती है और शरीर में सरष ्ष ा
कवच का वनमाभ ् होने लगता है। उच्चार् में वकसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती नहीं करनी चावहए।
एक लय में सहज िीरे-िीरे उच्चार् को बढ़ाने का थभ्यास करना चावहए। वजतना लम्बा उच्चार्
होगा, उतना ही थविक लाभ वमलेगा। इस तरह वजतनी देर कर सकें वनरन्तर थभ्यास करें, परन्तष
कम से कम समय बढ़ाते-बढ़ाते 15 वमनट का जाप थवश्य करना चावहए।
नमस्कार मद्रष ा एवं गोदहष ासन में नमस्कार मंत्र के उच्चार् से सभी प्रकार के शारीररक एवं
मानवसक रोग चन्द वदन में ही समाप्त होने लगते हैं। स्वस्थ व्यवि यवद नमस्कार मद्रष ा का वनयवमत
थभ्यास करें तो हृदय, फें फड़े एवं मवस्त्क संबंवित थंग में रोग प्रवतरोिक ्ष मता बढ़ने लगती है।
मंत्रोच्चार् से थशभष कमों की वनजभ रा होती है, थत स्वस्थ एवं रोगी कोई भी थपनी ्ष मतानस ष ार
इस आसन, मद्रष ा और मंत्रोच्चार् के साथ थथवा थलग-थलग कर सकते हैं। थन्य वचवकत्सा करते
हचए भी इसे वकया जा सकता है। वजससे वे उपचार थत्यविक प्रभावशाली हो सकते हैं। वजनको
नमस्कार मंत्र का उच्चार् करने में कवठनाई हो वे थपनी श्रद्धानस ष ार ओम् थथवा थल्ला हो, जैसे
वकसी थन्य लघष मंत्र का चयन करें। मंत्र का उच्चार् वजतना लम्बा करेंगे उतना ज्यादा एवं जल्दी
लाभ वमलेगा। शरीर में डायािाम से ऊपर वाले भाग हृदय, फें फड़े, मवस्त्क, गले, मेरुदण्ड एवं हाथ
संबंिी रोग में यह प्रवक्रया थत्यविक प्रभावशाली होती है। दमा, खांसी, श्वास एवं हृदय रोवगय के
वलए तो गोदहष ासन और नमस्कार मंत्र जाप के साथ नमस्कार मद्रष ा के थभ्यास से चन्द वदन में ही
संतोषजनक परर्ाम आने लगते है और थविकांश हृदय रोगी Bye-Pass को Bye-Pass कर
सकते हैं।
सारांश यही है वक नमस्कार मद्रष ा में वकए गए आसन, प्रा्ायाम, थंग-व्यायाम, ध्यान,
कायोत्सगभ , भजन, कीतभ न, जप आवद शारीररक एवं मानवसक स्वास््य की दृव्ट से थविक
प्रभावशाली हो जाते हैं एवं इसका प्रभाव तत्काल थनभष व वकया जा सकता है। चाहे बालक हो या
वद्ध
ृ , संत हो या गहृ स्थ, यह मद्रष ा सबके वलए कर्ीय है। पानी पीने से प्यास और खाना खाने से भरख
शांत होती है, ठीक उसी प्रकार नमस्कार मद्रष ा का लाभ भी उसका थभ्यास करने वाले को ही वमल
सकता है। पाठकग् इस मद्रष ा का प्रयोग कर थपनी प्रवतवक्रया से थवगत करायेंगे तो जनवहतकारी
इस सरल मद्रष ा की जानकारी जन-जन तक पहचचाने की प्रेर्ा वमलेगी।

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मेथी हिहकत्सा
मेथी के औषहिय गुण-
दा्ा मेथी हमारे रसोइघर में दैवनक उपयोग में आने वाली वस्तष है, जो थनेक औषविय-ग्ष
से भरपरर होती है। प्राचीन काल से ही इसका प्रयोग खाद्य और औषवि के ूपप में हमारे घर में होता
आ रहा है। आयवष ेद के ग्रन्थ भावप्रकाश में कहा गया है वक मेथी वात को शान्त करती है, कफ और
ज्वर का नाश करती है। राज वनघन्टष में मेथी को वपत्त नाशक, भरख बढ़ाने वाली, रि शोिक, कफ
और वात का शमन करने वाली बतलाया गया है। मेथी में प्रोटीन, वसा, काबोहाइड्रेटस, खवनज,
ववटावमन, के वल्शयम, फासफोरस, लोह तत्त्व, के रोटीन, थायवमन, ररवाफलेवबन, ववटावमन सी आवद
प्रचरष मात्रा में होते हैं। लोह तत्त्व की थविकता के कार् मेथी रि की कमी वाल के वलये ववशेष
लाभप्रद होती है। मेथी दान से शरीर की आन्तररक सफाई होती है। मेथी का उबला पानी बख ष ार को
कम करने में बहचत ही लाभप्रद होता है।
मेथी सेवन से पाचन तंत्र सिष रता है। पेट में कवमभ य की उत्पवत्त नहीं होती। आंत में भोजन का
पाचन बराबर होता है। बड़ी आंत में, मल में कषछ गाढ़ापन आता है और मल आसानी से बड़ी आंत में
गमन करने लगता हैं। मेथी खाने से भरख थच्छी लगती है। मेथी सेवन से गंि और स्वाद इवन्द्रया
थविक संवेदनशील होती हैं। यह शरीर का आन्तररक शोिन करती है। शले्मा को घोलती है तथा
पेट और आंत की सरजन ठीक करने में सहायक होती है। मेथी सेवन से मंहष की दगष भ न्ि दरर होती है।
कफ, खांसी, इनफ्लेन्जा, वनमोवनया, दमा आवद श्वसन संबंिी रोग में लाभ होता है। गले की खराश
में मेथी दाने के पानी से गरारे करने से बहचत लाभ होता है।
मेथी सेवन की हवहभन्न हवहियााँ-
थलग-थलग रोग के उपचार हेतष मेथी का प्रयोग थनेक प्रकार से वकया जाता है। जैसे- मेथी
दा्ा वभग कर उसका पानी पीना, उसे थंकषररत कर खाना, उबालकर उसका पानी पीना, स्जी
बनाकर खाना, वववभन्न थचार , सव्जय थथवा थन्य खाद्य पदाथों के साथ पकाकर सेवन करना,
मेथी दान को चरसना, चबाना थथवा पानी के साथ वनगलना, मेथी की चाय थथवा काढ़ा बनाकर
पीना, उसका पाउडर बना पानी के साथ लेना, थथवा लेप करना, मेथी की पवष डये बनाकर खाना
थथवा पकवान बनाकर उपयोग करना इत्यावद, कई तरीक से मेथी का प्रयोग हमारे घर में होता
रहता है।
स्वयिं करें मेथी स्पन्दन का अनभ
ु व-
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कागज की वचपकाने वाली टेप पर मेथी दान को वचपका कर हथेली के थंगरठें के नाखनर वाले
ऊपरी पोरवे में उस टेप को लगा दें वजससे थंगरठे को मेथी का स्पशभ होता रहे। कषछ ही ्ष ् में हमें
उस स्थान पर स्पंदन की थनभष रवत होनी प्रारम्भ हो जाती है। इससे प्रमाव्त होता है वक मेथी का
उसके ग्ष के थनूपष प बाह्य उपयोग भी लाभप्रद हो सकता है।
मेथी स्पशय हिहकत्सा का हसद्धान्ि-
शरीर में थविकांश ददभ और थंग की कमजोरी का कार् आयवष ेद के वसद्धान्तानस ष ार प्राय
वात और कफ संबंिी ववकार होते हैं। मेथी वात और कफ का शमन करती है। थत वजस स्थान पर
मेथी का स्पशभ वकया जाता है, वहा वात और कफ ववरोिी कोवशकाओं का सज ृ न होने लगता हैं,
शरीर की रोग प्रवतरोिक ्ष मता बढ़ने लगती है। ददभ वाले थथवा कमजोर भाग में ववजातीय तत्त्व की
थविकता के कार् शरीर के उस भाग का आभा मंडल ववकृत हो जाता है। मेथी थपने ग्ष वाली
तरंगें शरीर के उस भाग के माध्यम से थन्दर में भेजती है। वजसके कार् शरीर में उपवस्थत
ववजातीय तत्त्व थपना स्थान छोड़ने लगते हैं, प्रा् ऊजाभ का प्रवाह संतवष लत होने लगता है। फलत
रोगी स्वस्थ होने लगता है।
मेथी रि शोिक है, रोगग्रस्त भाग का रि प्राय पर्भ शद्ध
ष नहीं होता। वजस प्रकार सोडा कपड़े
की गंदगी थलग कर देता है, मेथी की तरंगे रोग ग्रस्त थथवा कमजोर भाग में शद्ध ष रि का संचार
करने में सहयोग करती है वजससे उपचार थत्यविक प्रभावशाली हो जाता है।
मेथी का स्पशय क्यों प्रभावशाली?
मेथी के प्रत्येक दानें में हजार दाने उत्पन्न करने की ्ष मता होती है। थत उसके सम्पकभ से
मतृ प्राय कोवशकाए पनष सवक्रय होने लगती है। मेथी के औषविय ग्ष की तरंगें कमजोर थंग को
शविशाली बनाने, शरीर के ददभ वाले भाग की वेदना कम करने, जलन वाले भाग की जलन दरर करने
में चमत्कारी प्रभाव वाली वसद्ध हो रही है।
मेथी जो कायभ पेट में जाकर करती है, उससे थविक एवं शीघ्र लाभ उसके बाह्य प्रयोग से
संभव होता है, क्य वक उससे रोगग्रस्त भाग का मेथी की तरंग से सीिा सम्पकभ होता है। वकसी भी
प्रकार के द्ष प्रभाव की संभावना प्राय नहीं रहती। रोगग्रस्त भाग को मेथी के औषविय ग्ष का पर्भ
लाभ वमलता है जबवक मेथी सेवन से रोगग्रस्त भाग तक उसका आवशंक लाभ ही वमलता है। परर्ाम
स्वूपप मेथी का बाह्य स्पशभ वववभन्न थसाध्य स्थानीय रोग का सहज, सरल, स्वावलंबी प्रभावशाली
उपचार के ूपप में ववकवसत हो रहा है। थनेक रोग के उपचार में यांवत्रक एवं रसायवनक परी्ष ् एवं

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थनभष वी वचवकत्सक के परामशभ की भी आवश्यकता नहीं रहती। मात्र रोगग्रस्त भाग थथवा कमजोर
थंग का मेथी से स्पशभ रखना पड़ता है।

मेथी स्पशय द्वारा हवहवि उपिार-


मेथी दान को शरीर के ददभ वाले भाग पर लगाने से ददभ में तरष न्त राहत वमलती है। शरीर के
कमजोर थंग पर लगाने से वह थंग पनष सवक्रय और ताकतवर होने लगता है। जलन, सरजन, दाद,
खज ष ली वाले स्थान पर मेथी लगाने से तरष न्त लाभ वमलता है। मेथी दान को चरसते रहने से दांत का
ददभ ठीक होता है और गले संबंवित रोग में आराम वमलता है। थन्त स्रावी ग्रवन्थय एवं ऊजाभ चक्र
पर मेथी दाना लगाने से उसके आसपास जमे ववकार दरर होने से उनकी सवक्रयता बढ़ जाती है।
हथेली और पगथली में मेथी दान के मसाज से सारे शरीर से संबंवित एक्यरप्रेशर प्रवतवेदन वबन्दर
सवक्रय होने लगते हैं। एक्यरप्रेशर के ददभ स्थ प्रवतवेदन वबन्दओ
ष ं पर मेथी स्पशभ से वहा जमें ववजातीय
तत्त्व दरर होने लगते हैं और एक्यरप्रेशर वचवकत्सा वबना ददभ वाली स्वावलंबी प्रभावशाली उपचार
पद्धवत से हो जाता है।
1. थंगरठे के ऊपर वाले पोरवे पर मेथी लगाने से चक्कर एवं वसर ददभ संबंिी वववभन्न रोग में तरष न्त
आराम वमलता हैं। रिचाप बराबर होने लगता है। तनाव, भय, थिीरता, क्रोि कम होने लगता है।
2 रावत्र में सोते समय हाथ के थंगरठ के पहले पोरवे पर मेथी लगाने से थवनद्रा के रोग से छषटकारा
वमलता है।
3. मेथी का हल्का सा मसाज सीने पर करने से फें फड़े मजबरत होते हैं। कफ, खांसी, दमा में आराम
वमलता है।
4. हृदय रोवगय के हृदय वाले स्थान पर मेथी दा्ा लगाने से हृदय शल र और हृदय संबंिी थन्य
ववकार शीघ्र दरर होने लगते हैं।
5. स्पलीन पर मेथी स्पशभ करने से मिमष ेह ठीक होता है। शरीर में लावसका तंत्र बराबर कायभ करने
लगता हैं। वजससे सरजन नहीं आती। आमाशय पर लगाने से पाचन थच्छा होता है। लीवर,
वपत्ताशय, गदष ों, आंत पर मेथी लगाने से संबंवित थंग से ववजातीय तत्व दरर होने लगते हैं और वे
सारे थंग थपनी ्ष मतानस ष ार कायभ करने लगते हैं।
शरीर के वजस स्थान पर बाल हो और टेप से मेथी दान का स्पशभ संभव न ह वहा मेथी का
लेप कर उपचार वकया जा सकता है। आग से जलने पर दानेदार मेथी को पानी में पीस कर लेप करने
से जलन दरर होती है, फफोले नहीं पड़ते। मेथी का वसर पर लेप करने से बाल नहीं वगरते तथा गंज

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के बाल आने लगते हैं। बाल थपने प्राकृवतक रंग में मल
ष ायम बने रहते हैं। बाल की लम्बाई बढ़ती है।
ताजा पवत्तय का पेस्ट रोज नहाने से परवभ चेहरे पर लेप करने से चेहरे का रुखापन, झरष रया, गमी से
होने वाले फोड़े फषवन्सया आवद ठीक होते हैं।
पगथली के थंगरठ और थंगवष लय में मेथी लगाने से नाड़ी संस्थान संबिं ी रोग में शीघ्र राहत
वमलती है।
मेथी कै से और हकिनी देर लगायें-
बाजार में थलग-थलग माप की वचपकाने वाली कागज की टेप वमलती है। आवश्यकतानस ष ार
माप की टेप पर मेथीदा्ा को वचपका दें। चार तरफ थोड़ा स्थान खाली छोड़ दें तावक टेप त्वचा पर
आसानी से वचपक सकें । मेथी दा् का स्पशभ तब तक शरीर पर रहने दें, जब तक उस स्थान पर
वकसी प्रकार की प्रवतकरलता थथवा वसर में भारीपन थनभष व न ह । मेथी थपना प्रभाव लगाने के
तरष न्त बाद थनभष व कराने लग जाती है। मात्र तीन वदन के वनयवमत प्रयोग से उसके चमत्कारी प्रभाव
का थनभष व होना प्रारम्भ होने लगता है।
उपसिं ार-
सारांश यही है वक मेथी स्पशभ वचवकत्सा सहज, सरल, सस्ती, प्रभावशाली, द्ष प्रभाव से
रवहत,वैज्ञावनक, पर्भ स्वावलंबी एवं थवहंसक होती है, वजसका शरीर के रोगग्रस्त भाग पर शीघ्र प्रभाव
पड़ता है। मेथी ददभ नाशक एवं रि शोिक होती है। ववजातीय तत्त्व को दरर कर शरीर की रोग
प्रवतरोिक ्ष मता को बढ़ाती है। वजससे वनव्क्रय थंग सवक्रय एवं रोगग्रस्त भाग रोग मि
ष होने लगते
हैं। थत भवव्य में दवाओं के बढ़ते द्ष प्रभाव का प्रभावशाली ववकल्प मेथी स्पशभ वचवकत्सा के
समान दवाओं के शरीर पर स्पशभ से हो तो आियभ नहीं?

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िेल हिहकत्सा
शरीर में रि ताप एवं रोग प्रवतरोिक ऊजाभ का प्रमख
ष स्रोत होता है। थत रि शवष द्ध से शरीर
की प्रवतकारात्मक शवि बढ़ती है। रि ववकार सभी रोग का प्रमख ष कार् होता है। थत यवद वकसी
सरल प्रभावशाली वववि द्वारा रि में से उसके ववकार को थलग कर वदया जाये तो थनेक रोग से
राहत वमल सकती हैं।
सूययमु ी िेल की हवशेषिाएाँ-
चीनी पंच तत्त्व के वसद्धान्तानस ष ार रि का संबंि ताप ऊजाभ से होता है और उसमें ववकार
आने से रि- प्रवाह प्रभाववत होने लगता है। रिचाप बराबर नहीं रहता। सरयभमख ष ी तेल में ववटावमन ए,
डी तथा ई थविक मात्रा में होने से इसके सेवन से रि में कोलस्रोल जैसे ववकार की ववृ द्ध नहीं होती।
थत आिवष नक वचवकत्सक हृदय एवं रिचाप के रोवगय को घी के स्थान पर सरयभमख ष ी तेल का
भोजन में उपयोग करने का परामशभ देते हैं। आयवष ेद के थनस ष ार सरयभमख
ष ी का तेल कफ एवं वात-
नाशक होता है। त्वचा के ववकार, खज ष ली, दाद एवं कोढ दरर करने में सहायक होता है। खाने में
स्वावद्ट व पचने में आसान होता है।
तेल में भी आजकल शद्ध ष ता संवदग्ि होती है। तेल शवष द्धकर् के नाम पर प्राय ऐसे रासायवनक
पदाथों का वमश्र् होता है जो स्वास््य के वलए बहचत हावनकारक होते हैं। थत वबना छानबीन
सरयभमखष ी के तेल का खाने में उपयोग भी हृदय रोवगय के वलये लाभदायक नहीं होता, थवपतष कभी-
कभी हावनकारक भी हो सकता है। बाह्य प्रयोग द्वारा भी सरयभमख ष ी तेल का लाभ उपचार हेतष वबना
वकसी द्ष प्रभाव ववशेष वववि द्वारा प्राप्त वकया जा सकता है।
िेल गिंडूस का प्रभाव -
मंहष में तेल भरकर घमष ाने की प्रवक्रया को तेल गंडरस कहते हैं। सरयभमख
ष ी तेल में सरयभ की ऊजाभ
के ववशेष ग्ष होते हैं। वजस प्रकार चम्ष बक लोहे को आकवषभ त करता है, वफटकरी पानी से गंदगी
थलग करती है, ठीक उसी प्रकार सरयभमख ष ी तेल में रि के ववकार को रि से थलग करने की ्ष मता
होती है। एक चम्मच सरयभमख ष ी तेल को महष में भरकर 15 से 20 वमनट थन्दर ही थन्दर घमष ाने से
चेहरे की समस्त मासपेवशयां सवक्रय होने लगती है। रि भी सारे शरीर में लगभग 15 से 20 वमनट में
पररभ्रम् का एक चक्र पर्भ कर लेता है। चेहरे, जीभ और दात का संबिं शरीर के सभी प्रमख ष थंग
से सीिा होता है। थत जब रि महष की नावडय से होकर गज ष रता है तो वजस प्रकार चम्ष बक लोहे को
वखंचता है उसी प्रकार सरयभमख ष ी तेल थपने स्वभाव के कार् रि में से उपवस्थत रोगा्ओ ष ं और

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ववकार को थपनी तरफ आकवषभ त कर लेता है और रि-शवष द्ध में सहयोग करता है। परर्ामस्वूपप
रि-ववकार संबंिी सभी रोग में लाभ होता है।
त्वचा संबंिी रोग का मख्ष य कार् प्राय रि में खराबी होता है। थत उसमें भी इस प्रयोग से
शीघ्र लाभ होता है। दांत का संबंि शरीर में सभी हड्वडय से होता है। थत तेल गंडरस से जोड़ के
ददभ में भी ववशेष लाभ होता है। इस प्रवक्रया से थायराइड ग्रवन्थ संबंिी रोग भी ठीक होते हैं, चेहरे की
कावन्त बढ़ती है, स्वर सिष रता है, त्वचा की श्ष कता दरर होती है, भोजन में रुवच तथा स्वाद के प्रवत
सजगता बढ़ती है। कण्ठशोि, होठ का फटना, दात का वहलना एवं दात संबंिी रोग में भी तेल
गंडरस से बहचत लाभ होता है। इस वचवकत्सा में रोग के वनदान की आवश्यकता नहीं होती। स्वस्थ
व्यवि भी यवद इस प्रयोग को वनयवमत करें तो सभी प्रकार के रि-ववकार संबंिी रोग के होने की
संभावनाए कम हो जाती हैं। थत स्वस्थ और रोगी दोन तेल गंडरस का लाभ उठा सकते हैं। उच्च
थथवा वनम्न रिचाप, हृदय रोग, सफे द दाग, सोरायवसस, दाद, खज ष ली आवद चमभ -रोग एवं रि-
ववकार संबंिी थन्य रोवगय को यह प्रवक्रया कषछ सप्ताह तक वदन में दो से तीन बार करनी चावहये।
कषछ ही वदन के प्रयोग से चमत्कारी परर्ाम सामने आने लग जाते हैं।
15 से 20 वमनट उपयोग के पिात् तेल ववकृत हो जाता है। थत उसे ऐसे स्थान में थरकना
चावहए वजसे तरष न्त स्वच्छ वकया जा सके । तेल को जहा भी डालें उस स्थान को एकदम साफ कर
लें। थन्यथा उस तेल की गंि से जीव जन्तष उसका सेवन कर मर सकते हैं। साथ ही जीभ और दांत
को भी पानी से स्वच्छ कर लेना चावहये।
ूपस के डाॅक्टर कराच ने भी 1991 में न्यरयाकभ में आयोवजत थन्तराभ ्रीय कैं सर थविवेशन
में सरयभमखष ी तेल के वदन में 2-3 बार गंडरस द्वारा मात्र तीन से छ मास के थन्दर रि कैं सर जैसे रोग
के उपचार की पवष ्ट की है। उन्ह ने सैकड़ सभी प्रकार के रि सम्बवन्ित रोवगय पर प्रयोग करने के
पिात् थनभष व वकया वक उपयभ ि ष वववि से तेल गंडरस द्वारा वसरददभ , दमा, रिचाप, प्ष ाघात,
हृदयाघात, गदष ें एवं आत के रोग में, दात, रि एवं त्वचा संबंिी रोग में चंद वदन के प्रयोग से ही
थच्छे चमत्कारी परर्ाम आते हैं।

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िेिन्य हिहकत्सा
स्वास््य िे ु स ी श्वसन आवश्यक-
यवद वकसी व्यवि को चन्द वमनट के वलए लाख रुपय का प्रलोभन दे कर श्वास रोकने
थथवा बन्द करने का थनरष ोि करें तो भी शायद ही कोई थभागा थथवा मरखभ व्यवि हमारी बात को
स्वीकारेगा? श्वास बंद होते ही व्यवि की मत्ृ यष होती है तथा मत्ृ यष के पिात् प्राप्त उस थपार िन रावश
का स्वयं के वलए क्या उपयोग? ऐसी थमरल्य श्वास ऊजाभ हमें जीववत थवस्था में प्रकृवत से थनवरत
वबना कषछ मरल्य चक ष ाये प्रवत्ष ् प्राप्त होती है।
श्वास का िेिना से सीिा सिंबििं -
परन्तष प्राय हम हमारी थमरल्य श्वास का पर्भ सजगता के साथ सदपष योग नहीं करते। हमारी
चेतना थथवा प्रा् का श्वास के साथ घवनष्ठ संबंि होता है। दोन का एक-दस र रे के वबना थवस्तत्व
संभव नहीं होता। वजस प्रकार वबजली की ऊजाभ को आवश्यकतानस ष ार ूपपान्तररत कर एयर
कं डीशनर, करलर, िीज, पंखे आवद ठण्डक प्रदान कराने वाले और हीटर, ओवन, गीजर आवद गमी
पैदा करने वाले तथा ट्यरब, बल्ब आवद प्रकाश फै लाने वाले एवं वाहन आवद गवत करने वाले
उपकर् का उपयोग वकया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार शरीर में चेतना आंख के सहयोग से
देखने, कान के सहयोग से सनष ने, मन से मनन-वचंतन, नाक के सहयोग से सरघं ने, महष एवं जीभ के
सहयोग से बोलने तथा आहार ग्रह् करने इत्यावद की ्ष मता प्राप्त कर लेती है।
एकाग्रिा से रजाय ब़तिी -ं
हमारी थविकांश प्रववृ त्तया पाच इवन्द्रय और मन के माध्यम से संचावलत होती है। मन की
चेतना सभी प्रववृ त्तय में वन्ाभ यक भरवमका वनभाती है। पाच इवन्द्रय और मन के सकारात्मक
तालमेल एवं सदपष योग से हम स्वस्थ और संतवष लत होते हैं जबवक उनके नकारात्मक एवं दरुष पयोग
से हम थसंतवष लत एवं रोगी होते हैं। आत्माथी सािक इवन्द्रय का आलम्बन मन से हटाने हेतष पवभ त ,
गफष ाओं थथवा एकान्त स्थान का सािना हेतष चयन करते हैं।
थत यवद वकसी वववि द्वारा शरीर के वकसी भाग पर मन को के वन्द्रत कर वदया जाये तो उस
स्थान पर प्रा्-ऊजाभ को बढ़ाया जा सकता है। शरीर को स्वस्थ रखने के वलये प्रा् थथवा चौतन्य
ऊजाभ से थच्छा, प्रभावशाली और सशि कोई थन्य ववकल्प प्राय नहीं होता।
परन्तष मन को एकाग्र करना बहचत कवठन होता है और उस हेतष दीघभ कालीन ध्यान-सािना का
थभ्यास आवश्यक होता है, जो जनसािार् के वलये प्राय संभव नहीं होता। थत यवद हम आख से

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देखना, महष से खाना और बोलना बंद कर दें तथा शांत एकान्त स्थान पर चले जायें तो आवाज न
आने से कान और गंि पररवतभ न न होने से घ्रा्ेवन्द्रय को आराम वमल जाता है। ऐसे समय हम मन
को वजस स्थान पर एकाग्र करना चाहें, सरलता से कर सकते हैं। हम भवलभांवत जानते हैं वक जब
सरयभ की वकर्ें वकसी कांच के लेन्स के थन्दर से वनकाली जाती है तो वकर्ें एकाग्र होकर थपना
प्रभाव वदखाने लगती है। वजस स्थान पर वे वकर्ें फें की जाती है, वहा इतनी गमी पैदा होने लगती है
वक कषछ ही देर में वहा पड़ा कागज, कपड़ा थथवा थन्य ज्वलनशील पदाथभ जलने लगता है। जो कायभ
सरयभ की थसंख्य वकर्ें थलग-थलग नहीं कर सकती है, वही कायभ उनको एकाग्र करने से सहज हो
जाता है। कहने का तात्पयभ यही है वक एकाग्रता से ऊजाभ की ताकत बढ़ जाती है। वजस प्रकार रा्र
की ववकटतम समस्या के समािान हेतष जब सवोच्य नेता का ध्यान आकवषभ त हो जाता है, वे रुवच
लेने लगते हैं तथा उन समस्याओं को प्राथवमकता से सल ष झाने का प्रयास करते हैं तो उस समस्या
का थवश्य समािान हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जब रोगग्रस्त भाग से चेतना का सीिा सम्पकभ हो
जाता है, मन के दस र रे आलम्बन समाप्त हो जाते हैं तो प्रा्-ऊजाभ का प्रवाह उस भाग में बढ़ने लगता
है। वजससे शरीर के उस रोग-ग्रस्त भाग की ्ष ी् कायभ ्ष मता पनष बढ़ने लगती है। वहा से ववजातीय
तत्त्व एवं ववकार दरर होने लगते हैं। फलत रोगग्रस्त भाग रोग-मि ष होने लगता है।
कै से करें उपिार?-
प्रात काल हम इतना जल्दी उठें वक आसपास का वातावर् पर्भतया शांत ह तो हमारा घर
ही मन की एकाग्रता के वलये शांत और एकान्त स्थान बन सकता है। ऐसे समय घर के शद्ध ष वातावर्
में वस्थर आसन बैठ आख बंद कर ददभ वाले भाग को थपथपायें, उस भाग का संकषचन और फै लाव
करें या उस भाग पर सहनीय दबाव दें तो हमारा ध्यान उस स्थान पर के वन्द्रत होने लग जाता है।
परर्ामस्वूपप उस स्थान पर प्रा् ऊजाभ थविक मात्रा में प्रवावहत होने लगती है। वजससे ववजातीय
ववकार दरर होने लगते हैं और कमजोर भाग सशि एवं रोगग्रस्त भाग रोग-मि ष होने लगता है।
मांसपेवशय में हलन-चलन होने से सवक्रयता आने लगती है। वजस प्रकार जो स्प्रींग वक्रयाशील होती
है, उसमें जंग लगने की संभावनाएं कम रहती है, ठीक उसी प्रकार रोग वाले भाग पर मन को एकाग्र
करके गहरा श्वास लेने तथा तेजी से श्वास वनकालने थथवा जोर से मन ही मन वबना आवाज वकए
हसने से रोगग्रस्त भाग की मांसपेवशय में हलन-चलन होने तथा प्रा्-ऊजाभ का प्रवाह बढ़ने से उन
पर लम्बे समय से जमें ववकार दरर होने लगते हैं, वजससे तरष तं स्वास््य लाभ की प्रवक्रया प्रारम्भ होने
लग जाती है। मतृ कोवशकाए पनष भ जीववत होने लगती है। वजस प्रकार मावलक के जागते ही चोर भाग
जाता है, ठीक उसी प्रकार रोगग्रस्त भाग पर ध्यान करने से वहा से रोग के कार् दरर होने लगते हैं।

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डायािाम के आसपास हृदय, फें फड़ , वतल्ली, आमाशय आवद के रोग में यह वचवकत्सा ववशेष
लाभकारी होती है। हृदय की शल्य वचवकत्सा की मानवसकता वाले रोगी मात्र 10-15 रोज इस
प्रवक्रया के चमत्कारी परर्ाम का थनभष व कर सकते हैं एवं वनयवमत थभ्यास से थपने आपको
शल्य वचवकत्सा से बचा सकते हैं।
प्रा्-ऊजाभ से ज्यादा प्रभावशाली रोग वनवारक शवि बाजार में उपल्ि दवाईय में प्राय
वमलना थसंभव होता है। परन्तष जब रोगी की चेतना का ददभ थथवा कमजोर भाग से सीिा सम्पकभ हो
जाता है तो प्रा् ऊजाभ का प्रवाह आवश्यकतानस ष ार होने लगता है वजससे उपचार प्रभावशाली हो
जाता है। थंत स्रावी ग्रवन्थया आवश्यकतानस ष ार उस भाग में थपने स्राव के ूपप में मदद वभजवाने
लगती है, वजससे व्यवि रोग-मि ष होने लगता है।

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स्वास््य िे ु पैरों का बराबर ोना आवश्यक
हम प्रवतवदन हजार कदम चलते हैं। यवद हमारे दोन पैर बराबर न हचए, एक पैर बड़ा और
दरसरा छोटा हचआ तो वनवित ूपप से एक पैर पर थविक दबाव पड़ता है। फलत हमारे शरीर का
दावहना-बाया संतल ष न वबगड़ने लगता है। शरीर की चाल बदल जाती है और बाह्य शारीररक ववकास
थसंतवष लत होने लगता है। उठने, बैठने, खड़े रहने, सोने थथवा चलने वफरने की प्रवक्रयाओं पर
प्रवतकरल प्रभाव पड़ता है। शरीर के वकसी भाग पर थनावश्यक दबाव लगातार पड़ते रहने से वह भाग
रोग ग्रस्त हो सकता है। थविकांश पैर , कमर एवं गदभ न के रोग का प्रारम्भ इसी कार् होता है। वफर
चाहे उसे साइवटका, स्लीप वडस्क, घटष ने का ददभ , स्पोन्डोलायवसस आवद वकसी भी नाम से क्य न
पक ष ारा जाता हो? जैसे ही दोन पैर को बराबर कर वदया जाता है, ऐसे थनेक परष ाने थसाध्य रोग
का उपचार सहज एवं प्रभावशाली होने लगता है।
पैर बडे-छोटे क्यों ोिे ?ं
हमारा शरीर दावहने एवं बायें बाह्य दृव्ट से लगभग एक जैसा लगता है। परन्तष उठने-बैठने-खड़े
रहने, सोने थथवा चलते वफरते समय प्राय हम थपने बायें और दावहने भाग पर बराबर वजन नहीं
देते। जैसे खड़े रहते समय वकसी एक तरफ थोड़ा झक ष जाते हैं। बैठते समय सीिे नहीं बैठते। सोते
समय हमारे पैर सीिे और बराबर नहीं रहते। स्वत वकसी एक पैर को दरसरे पैर की सहायता और
सहयोग लेना पड़ता है। फलत एक पैर के ऊपर दरसरा पैर स्वत चला जाता है। ऐसा क्य होता है?
थविकांश व्यवि वकसी भी एक आसन में लम्बे समय तक वस्थरता परवभक क्य नहीं बैठ सकते?
इसका मतलब उनका शरीर थसंतवष लत होता है। उनके पर्भ वनयंत्र् में नहीं होता है। हम सीिे क्य
नहीं सो सकते? बार-बार करवटें क्य बदलनी पड़ती हैं? वनद्रा में पैर के ऊपर पैर क्य चला जाता
हैं?
पैर को सिंिुहलि करने की हवहि -
रोगी को सीिा सल ष ावें। दोन पैर के टखने को वमलाकर देखें वक दोन के के न्द्र बराबर हैं या
नहीं। टखन के साथ-साथ पैर के दोन पैर के थंगरठ की ऊचाई जमीन से बराबर ह तो दोन पैर
की लम्बाई बराबर होती है थन्यथा जो थंगरठें का ऊपरी भाग नीचा होता है वह पैर दस र रे पैर से छोटा
होता है। छोटे पैर के थंगरठे को िीरे-िीरे तब तक खींचे जब तक दोन पैर बराबर न हो जायें। चन्द
वदन तक वनयवमत यह प्रवक्रया करने से दोन पैर बराबर रहने लगते हैं।
बहचत बार वकसी भी कार् से संबंवित पैर के थंगरठे को खींचना संभव नहीं होता। ऐसी
पररवस्थवतय में वनम्न वववि द्वारा दोन पैर को बराबर वकया जा सकता है।
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रोगी को सीिा सल ष ावें, परवभ वववि के थनस
ष ार पता लगायें वक कौनसा पैर छोटा या बड़ा है।
वजस छोटे पैर को बराबर करना हो, उस घटष ने को पेट के वजतना नजदीक वबना वकसी ददभ ले जा
सकते हैं, ले जायें। एक हाथ से उस पैर के घटष ने पर हल्का सहनीय दबाव रखें। थब यवद वह पैर
छोटा हो और उसे बड़ा करना हो तो उस छोटे पैर की वपण्डली को दस र रे हाथ से पकड़ दरसरे घटष नें
की तरफ मोड़ें। ऐसा करने से छोटा पैर बड़ा हो जाता है। ददभ , िे क्चर, परवभ में की गई शल्य वचवकत्सा
आवद वकसी कार् वश यवद छोटे पैर को मोड़ना संभव न हो तो बड़े पैर को छोटा करने के वलए बड़े
पैर के घटष ने को पेट के पास वजतना ले जा सकते हैं, ले जावें। उसके पिात् उस बड़े पैर की वपण्डली
को एक हाथ से पकड़ उस पैर की वपण्डली को बाहर की तरफ वजतना वबना वकसी थसवष विा मोड़
सकते हैं, मोड़ें। ऐसा करने से बड़ा पैर छोटा हो जाता है।
पैरों को बराबर करना क्यों आवश्यक?
जब तक दोन पैर को बराबर नहीं वकया जाता कोई भी वचवकत्सा पद्धवत पर्भ प्रभावशाली ढंग
से कायभ नहीं कर सकती। वजस प्रकार फरटे हचए घड़े को भरने से परवभ वछद्र बन्द करना आवश्यक होता
है। वबना वछद्र बंद वकये, वकतना ही पानी क्य न डाले, घड़ा स्थायी ूपप से भरा हचआ नहीं रह
सकता। मोटर कार को चलाने से परवभ उसके चक्क में हवा का उवचत दबाव आवश्यक होता है। गाड़ी
बहचत ही थच्छी हो, चालक भी बहचत थनभष वी हो, परन्तष जैसे चक्क में वायष का दबाव बराबर न ह ,
ऐसी गाड़ी में वनववभ ध्न यात्रा कर गन्तव्य स्थान पर पहचचना संवदग्ि होता है। ठीक उसी प्रकार यवद
दोन पैर बराबर न ह तो प्रात कालीन भ्रम् जैसी थच्छी प्रववृ त भी लाभ के स्थान पर कभी-कभी
हावनकारक हो सकती है। वजस प्रकार खेती में बीज बोने से पवर भ खेत की सफाई एवं उस पर हल
जोतना तथा खाद देना आवश्यक होता है। ठीक उसी प्रकार उपचार से परवभ दोन पैर को बराबर
करने से उपचार प्रभावशाली और स्थायी हो जाता है। कभी-कभी तो थसंतल ष न दरर होते ही रोगी को
तत्काल जो राहत वमलती है वह थच्छी से थच्छी दवा से भी ज्यादा प्रभावशाली होती है। स्वस्थ
थवस्था में भी वनयवमत वनरी्ष ् कर दोन पैर को बराबर रखने से रोग होने की संभावना कम हो
जाती है।

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स्वास््यरक्षक व्यायाम ‘स्वायसो’
स्वायसो क्या ै?
स्वायसो एक थत्यन्त सरल एवं थल्प समय में वकया जा सकने वाला व्यायाम है। स्वायसो
का प्रारम्भ चीन में कषछ दशक परवभ ही हचआ। इसको बच्चे, यवष क, मवहलाए एवं वद्ध
ृ सभी कर सकते हैं।
इसमें वकसी प्रवश्ष क की भी आवश्यकता नहीं होती है। बहचत सािार् होते हचए भी सैंकड़ बीमाररय
में यह थत्यविक प्रभावशाली है। चीन एवं जापान में हजार लोग इसके द्वारा थसाध्य रोग से मवष ि
पा रहे हैं। इसी कार् यह पद्धवत चीन, जापान, हांगकांग, दव्ष ्-परवभ एवशया, थमेररका, कनाडा,
भारत आवद रा्र में वदन -वदन लोकवप्रय होती जा रही है।
स्वायसो व्यायाम हमारे शरीर में एकत्र हचए थवरोि, तनाव व ऐ ंठन को समाप्त कर देता है
वजससे रोग से बचना संभव होता है, तथा रोग से मवष ि वमलती है। इसके प्र्ेता एवं प्रचारक मासाओ
हयावशमा ने चन्द वषों परवभ जानबरझकर थपने शरीर में कै न्सर रोग उत्पन्न वकया तथा स्वायसो
कसरत द्वारा उसे ठीक भी कर वदया। स्वायसो व्यायाम तेओईस्ट के वसद्धान्त पर आिाररत है।
उनके थनस ष ार पविमी दवाइय के 170 साल और चीनी दवाइय के 1000 साल से ज्यादा
इवतहास में ऐसी कोई खबर नहीं है वक उन्ह ने वकसी पागल को ठीक वकया हो।
स्वायसो कै से करें?
स्वाय श्द का चीनी थथभ होता है झरलना या दरर फें कना। इस प्रकार स्वायसो का थथभ होता है
बाह को आगे व पीछे झल ष ाना। स्वायसो द्वारा शरीर के ववकार को बाहर झटक वदया जाता है। ये
ववकार ही शरीर में ्लोक्स व तनाव के कार् होते हैं। इसका प्राथवमक उद्देश्य शरीर की ववकृत
ऊजाभ को बाहर वनकालकर शरीर में शद्ध ष ऊजाभ का संचार करना होता है। इस प्रकार यह व्यायाम
शरीर में प्राकृवतक वस्थवत पैदा कर देता है। यह चीन में प्रचवलत सवाभ विक लोकवप्रय व्यायाम है जो
थनेक रोग में रामबा् वसद्ध हो रहा है।
स्वायसो व्यायाम कै से करें?
1. सवभ प्रथम पैर को सीिा रखते हचए जमीन पर तनकर खड़े हो जाएं। बाह को िरती के समानान्तर
फै लाएं एवं थंगवष लय को इस प्रकार रखें जैसे वक जमीन को पकड़ रखा हो।
2. दोन बाह को एक साथ आगे व पीछें झल ष ाए। बाह को पीछे की ओर िके लते समय ही शवि का
प्रयोग करें व आगे उन्हें स्वयं आने दें। कषहवनया सीिी रखें, हथेवलया पीछे की ओर मड़ष ी हचई ह ।

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आखें ठीक सामने की तरफ देख रही ह । मवस्त्क को वबल्कषल खाली छोड़ दें व तसल्ली से
वगनती करते जाएं।
3. पहली बार स्वायसो व्यायाम दो सौ थथवा तीन सौ से प्रारम्भ करें व िीरे-िीरे संख्या बढ़ाते
जाएं। थन्तत थपनी ्ष मता के थनस
ष ार एक हजार या दो हजार तक पहचचें।
हसद्धान्ि-
रपर भरा व हनिला ाली को रपर ाली व हनिला भरा में बदलना
मानव शरीर के महत्त्वपर्भ थंग शरीर के ऊपरी आिे भाग में होते हैं, जैसे मवस्त्क, हृदय,
फें फड़े आवद। वनचले आिे भाग में करल्हें व टागें आवद होती हैं। आज की तनावयि ष जीवन शैली एवं
थन्य कार् के परर्ामस्वूपप ऊपरी भाग को थत्यविक कायभ रत रहना पड़ता है तथा हम थपनी
थविकांश शवि एवं ध्यान इसी ऊपरी भाग पर लगाते हैं। इस प्रकार हमारा शरीर सदैव ऊपर से भरा
व वनचला खाली जैसी थवस्था में रहता है। जैसे थगर हम सात आठ घंटे लगातार पढ़ते रहेंगे तो
वसर भारी हो जाएगा, आखे लाल हो जाएगी और आगे पढ़ते रहना मवष श्कल हो जाएगा। इस थवस्था
हो हम वसर का थसािार् ूपप से भारी हो जाना कह सकते हैं। ऐसी वस्थवत में हम थक जाते हैं तथा
कोई भी रोग लग सकता है।
ऊपर भरा से तात्पयभ न के वल वसर से है, बवल्क पररे ऊपरी आिे शरीर से होता है। जब ऊपर
भरा व वनचला खाली होता है तो थकावट बढ़ती जाती है और वववभन्न रोग लग जाते हैं, क्य वक
ववकृत ऊजाभ भी शरीर में बढ़ती जाती है।
‘स्वायसो’ व्यायाम का सवाभ विक महत्त्वपर्भ कायभ यही होता है वक यह ऊपर-भरा व वनचला
खाली वाली थवस्था को उलट देती है इसके द्वारा ववकृत ऊजाभ बाहर वनकल जाती है, शद्ध ष ऊजाभ
का संचर् होता है तथा शरीर के वनचले थंग में बने हचए थवरोि व तनाव वबखर जाते हैं। स्वायसो
द्वारा जो 70 प्रवतशत ऊजाभ वनचले भाग में एकत्र हो जाती है उसे ऊपरी भाग में भेजना है तथा वसफभ
30 प्रवतशत ऊजाभ ही वनचले थंग में रखनी है।
स्वायसो करिे समय ध्यान र ने िे ु आवश्यक मागयदशयन:-
1. थपनी कमर सीिी रखें। शरीर के ऊपरी भाग को पर्भत वशवथल हो जाने दें। कन्ि में तनाव नहीं
लाए तथा बाह को घड़ी के पेण्डषलम की तरह झरलने दें।
2. शरीर के वनचले भाग में गरुष त्वाकषभ ् महसरस करें। तलवे पर मजबरती से खड़े रहें एवं पैर में जरता-
चप्पल नहीं पहनें। िरती को पकड़ने का प्रयास करें एवं थंगवष लय से जमीन की खदष ाई करने का
प्रयास करें। एवडय को जमीन पर इस प्रकार रखें जैसे वक वे भारी पत्थर ह ।

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3. ऐसा सोचें की आपका वसर वकसी रस्से द्वारा लटक रहा है एवं सारा शरीर ढ़ीला होकर झरल रहा
है, इस प्रकार कं ि का वशवथलीकर् हो जाएगा।
4. जबड़ को ढ़ीला छोड़ दें, महष बन्द रखें, परन्तष दात को नहीं भीचें।
5. मवस्त्क को वनिे्ट रखें एवं थपने ववचार को भटकने नहीं दे। थपने शरीर के ऊपरी भाग को
पर्भत खाली हो जाने दें।
6. पवहए की िरष ी की तरह थपने नावभ-प्रदेश को व्यायाम के वलए के न्द्र वबन्दष मानें।
7. कषहवनय को कं िे से थविक ऊचाई तक नहीं झल ष ाए।
8. थपनी बांहें ढ़ीली रखे। थपनी बांह को नाव के दो चप्पर समझें एवं इस प्रकार झल ष ाएं जैसे हवा को
िके ल रहे ह ।
9. थपना ध्यान नावभ के के न्द्र वबन्दष पर वस्थर करें। जांघ के भीतरी वहस्से को तनाव मि ष रखें। गदष ा
को वसकोड़ने का प्रयास करें।
10. जब आप बाहें झल ष ा रहे ह तो हथेवलय को नीचे की ओर रखें।
उपयभ ि
ष बात को ध्यान में रखकर स्वायसो करेंगे तो नीचे-सात, ऊपर-तीन की थवस्था प्राप्त
हो जाएगी थथाभ त् पहले जो ऊपरी वहस्से में सात वहस्से भार था वह वनचले वहस्से में उतर जाएगा एवं
ऊपरी वहस्सा हल्का हो जाएगा तथा इसी थनपष ात में शविशाली बनता जाएगा। स्वायसो करते समय
कल्पना करें वक आप एक परष ाने व्ष ृ हैं, वजसकी जड़ें जमीन में काफी गहरी पैठी हचई हैं। ऐसा करने से
हमारे तलवे में जो मेरवे डयन्स की ऊजाभ है वह जागतृ होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगेगी तथा
मांसपेवशय , त्वचा, हड्वडय व जोड़ को शवि वमलने लगेगी।
हालांवक स्वायसो बाह को झल ष ाने की कसरत है, परन्तष इसमें पैर का थविक योगदान होता
है व नावभ प्रदेश का महत्त्व होता है। स्वायसो में पैर व नावभ प्रदेश का कायभ बाह की थपे्ष ा थविक
जरुरी है। नावभ प्रदेश से बाहें ऊपर उठेंगी तथा नावभ प्रदेश का थवलम्बन पैर ह गे। इसी प्रकार
स्वायसो में पैर पर जोर देने को कहा जाता है, इसका कार् यह है वक हमारे तलवे में जो वकडनी,
लीवर एवं हृदय आवद के एक्यरप्रेशर के जो प्रवतवेदन वबन्दष हैं, वे दब जाते हैं एवं जागतृ हो जाते हैं।
स्वायसो के पररणाम-
उच्च तथा वनम्न रिचाप भी के वल स्वायसो करते रहने से वमट जाता है। हमारे शरीर में
थसंख्य िमवनया व वशराए हैं वजनमें रि प्रवाह होता रहता है। कई वशराए तो इतनी सरक्ष्म होती है वक
इनकी मोटाई सईर की न क के तीन सौ वे भाग के बराबर होती है। चरवक रि का घनत्व पानी की
थपे्ष ा थविक होता है। थत जब हम वकसी थंग से काम नहीं लेते हैं या कम काम लेते हैं तो वहा

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रि जमने व थक्के बनने की संभावना रहती है और यही रिचाप का कार् बन जाता है। स्वायसो
द्वारा हाथ-पैर गवतमान बने रहते हैं एवं रिचाप सही बना रहता है। जब स्वायसो वनयवमत ूपप से
वकया जाएगा तो शरीर में कषछ पररवतभ न होने लगेंगे। पसीने एवं तापक्रम में ववृ द्ध होगी। श्ले्मा बढ़ेगी
तथा तन्द्रा छाने लगेगी। ये ल्ष ् स्प्ट करते हैं वक शरीर से थशद्ध ष ऊजाभ बाहर वनकल रही है और
शरीर मजबरत बनता जा रहा है, बीमाररया दरर हो रही हैं। स्वायसो में जब हम थपनी बाह को चलाते
हैं तो कमर, छाती व पेट की मासपेवशय में वखंचाव आता है, नाड़ी संचार सही हो जाता है और
मेरवे डयन में ऊजाभ का प्रवाह सही हो जाता है।
मासाओ हवावशमा ने स्वायसो से वनम्नवलवखत रोग को ठीक करने में संतोषजनक परर्ाम
प्राप्त वकए हैं- (1) वववभन्न प्रकार के कैं सर, (2) उच्च एवं वनम्न रिचाप, (3) हृदय रोग, (4) गदष े के
रोग, (5) आख के रोग, (6) पाचन संबंिी रोग, (7) लीवर के रोग, (8) गवठया एवं (9) स्नायष रोग।
स्वायसो पद्धवत थपनाकर पागलपन एवं मंद बवष द्ध वाल के उपचार में सफलता प्राप्त की जा
सकती है।

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