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Kakaar Kundalini 1000 Stotra LEARN 2019-10-11 v1 Sans Only To Share
Kakaar Kundalini 1000 Stotra LEARN 2019-10-11 v1 Sans Only To Share
कुण्डललनी-देवी माता के मन्त्र-जप आलद से, देवी-माता का १०८-नाम स्तोत्र, १००८-नाम स्तोत्र, कवच
पाठ, ज्यादा सरु लित रहता है, इसमे लकसी तरह का ज्यादा खतरा नहीं होता है ।
कुण्डललनी रुप मे यह अलत गप्तु और उग्र शलि हैं, पर इनके सहस्त्रनाम का पाठ करने से, साधक के उपर
इनकी सौम्य दृलि रहती है - और असीम कृ पा बरसती है ।
अतः साधक को बहुत ही सावधान होकर, शद्ध ु मन और भलि से ही यह पाठ करना चालहये, और इस
सहस्त्रनाम के साथ माता का, कोई भी एक अन्य शलिशाली कवच ( दगु ाय-चण्डी-काली, दश-महालवद्या,
लशव, मृत्यञ्ु जय आलद) का पाठ भी कर लेना चालहये । इससे लकसी भी तरह के अलनि से अपनी रिा होती
है ।
इस सहस्रनाम के श्लोक संख्या ( १७० से १९३ ) बीच-बीच में इनके अपने कवच का भाग भी इसी में
समालवि है । लजससे इसका पाठ और सरु लित माना जा सकता है ।
माता का यह स्तोत्र लबना स्नान, ध्यान, तीथय, तप, दान आलद के लबना भी लसद्ध होता है ।
देखें पवू -य पीलठका / श्लोक सख्ं या (३)
विना यजन-योगेन, विना ध्यानेन यत्फलम ।
तत्फलं लभते सद्यो विद्यायााः सकृु पा भिेत ॥३॥
लकसी भी पजू ा मे पहले, गणेश, गरुु , लशव जी की पजू ा जरूर कर लेनी चालहये। अपने कुलदेवता को भी
स्मरण कर लेना चालहये ।
संस्कृ त में तंत्र-मंत्र - कथा-स्तोत्र - कवच-सहस्त्रनाम आलद की रचना करते समय जान-बझू कर वणो और
शब्दों को जोड़-जोड़ कर बड़ा रखा गया है, तालक इसका सही अथय योग्य लोगों को ही गरुु -और-लवद्वान लोगों
के द्वारा सही लोगों को ही लमले । जो भी रचनायें की गयी है , वह जन-कल्याण के ललये ही की गयी है । परन्तु
दिु ों और इसका दरुू पयोग करने वालों से ही गप्तु रखने ( लकसी भी कीमत पर) को कहा गया है । सभी से गप्तु
रखने को नहीं । लबं े-लबं े शब्दों को बीच से जैसे-तैसे तोड़ने से उसका अथय का अनथय हो जाता है। गलत
शब्दों के बार-बार-उच्चारण से फायदा के जगह पाठक को नक ु सान होता है । लजससे पाठक का भरोसा
देवी-देवता, पजू ा-पाठ से उठ जाता है ।
इसललये इस देवी-सहत्रनाम को सरल-सल ु भ करने के साथ-साथ सही अथय ही लनकले, लदखे इसका प्रयास
लकया गया है । शब्द सरल हो जाने से बहुत से अथय समझने मे आसानी हो जाती है, जैसे-
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कै लासविखरारूढा = कै लास-विखर-आरूढा
कुछ कलठन शब्द * लचलन्हत कर, करीब में ही सरल करने का प्रयास लकया है, साधक लोग दोनों शब्दों को
एक ही जगह पर देख कर, ठीक से पढ़ सकें , तलु ना करें , समझें और गलत लगे तो ठीक कर लें , जैसे -
कोविकविघण्िविनोविनी * । *कोवि-कवि-घण्ि-विनोविनी
कुछ ही शब्दों का संलध-लवच्छे द लकया गया है, उसका मल ू अथय साफ-२ लदखे, ऐसा प्रयास है, तालक साधक
गण देखें, शब्द कै से छुपे हुए है । यह भी ध्यान रखें यह बहुत ही गढ़ू लवद्या है, अतः शब्दों के अन्य अथय
(या बहुत से अथय) भी हो सकते है ।
कमााकमा = कमा-अकमा, कुण्डिालङ्कृताकृ ता* ॥१४१॥ *कुण्डिा-अलङ्कृता-कृ ता
कुछ शब्दों मे "?" लगाकर सरल करने के प्रयास के साथ-साथ, कुछ और(अन्य) अथय भी हो सकते है, अतः
पाठकों के उपर छोड़ लदया ।
काकपक्षकपावलका ? = काक-पक्षक-पावलका? = काक-पक्ष-कपावलका ? ॥६५॥
कहीं कोई त्रलु ट न हो, इसका ध्यान रखने का पणू य प्रयास लकया गया है । लफर भी कुछ गलती हो, त्रलु ट हो, तो
उसमें उलचत सधु ार कर लें ।
यह लसफय देखने, पढ़ने, समझने और प्रैलटटस करने के ललये है । माता का नाम ज्यादा-से-ज्यादा पढ़ने से, कोई
हालन नहीं होती, पर प्रैलटटस के बाद आप अपना मल ू पाठ ही पजू ा में उपयोग करें ॥ कोई भी पाठ गलत नहीं
है, पर अलग-अलग पस्ु तकों में नाम में कुछ न कुछ लवलभन्नता लमलती ही है । सब माता का ही नाम है ।
आपकी श्रद्धा-भलि और आपका लवश्वास बड़ी बात है । " जय माता दी "
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( मूल पाठ )
कुलेश्वरी कुलानन्दा कुलीना कुल-कुण्डली ।
श्रीमन-महाकुण्डली च कुल-कन्या कुलवप्रया ॥७॥
कुलक्षेत्र-विता कौली कुलीनाथ ा*-प्रकाविनी । *कुलीन-अथ ा
कुलाख्या कुलमागा-िा कुल-िािंाथ ा-पावतनी ॥८॥
कुलज्ञा कुल-योग्या च कुल-पष्प-प्रकाविनी
ु
कुलीना च कुलाध्यक्षा* कुल-चन्दन-लेवपता ॥९॥ *कुल-अध्यक्षा
कुलरूपा कुलोद्भूता* कुल-कुण्डवल-िावसनी । *कुलोि-भूता
कुलावभन्ना कुलोत्पन्ना कुलाचार-विनोविनी ॥१०॥
कुल-िृक्ष-समद्भ
ु ू ता कुलमाला कुलप्रभा ।
कुलज्ञा कुल-मध्यिा कुल-कङ्कण-िोवभता ॥११॥
कुलोत्तरा कौलपूजा कुलालापा कुलविया ।
कुलभेिा कुलप्राणा कुलिेिी कुल-स्तवु ताः ॥१२॥
कौवलका कावलका काल्या कवल-वभन्ना कलाकला* । *कला-अकला
कवल-कल्मष-हन्त्री च कवल-िोष-विनाविनी ॥१३॥
कङ्काली के िलानन्दा कालज्ञा कालधावरणी ।
ु ी कौमिु ी के का काका काक-लयान्तरा ॥१४॥
कौतक
कोमलाङ्गी करालास्या कन्द-पूज्या च कोमला ।
ु
कै िोरी काक-पच्छिा कम्बलासन-िावसनी ॥१५॥
ु कवप-ध्वजा ।
कै केयी-पूवजता कोला कोलपत्री
कमला कमलाक्षी च कम्बलाश्ितर-वप्रया ॥१६॥
कवलका-भङ्ग-िोषिा कालज्ञा काल-कुण्डली ।
काव्यिा कविता िाणी काल-सन्दभा-भेविनी ॥१७॥
कुमारी करुणाकारा कुरु-स ैन्य-विनाविनी ।
कान्ता कुलगता कामा कावमनी काम-नाविनी ॥१८॥
कामोद्भिा* काम-कन्या के िला काल-घावतनी । *कामोि-भिा
कै लासविखरारूढा* कै लास-पवत-सेविता ॥१९॥ *कै लास-विखर-आरूढा
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कै लास-नाथ-नवमता के यूर-हार-मवण्डता ।
कन्दपाा कवठना-नन्दा कुलगा कीचकृ त्यहा ॥२०॥
कमलास्या कठोरा च कीि-रूपा कवि-विता ।
कन्देश्वरी* कन्द-रूपा कोवलका कन्द-िावसनी ॥२१॥ *कन्द-ईश्वरी
कू ििा कू िभक्षा च काल-कू ि-विनाविनी ।
कामाख्या कमला काम्या कामराज-तनूद्भिा* ॥२२॥ *तनूि-भिा
कामरूप-धरा कम्रा कमनीया कविवप्रया ।
कञ्जानना कञ्ज-हस्ता कञ्ज-पत्राय-तेक्षणा ॥२३॥
कावकनी काम-रूपिा काम-रूप-प्रकाविनी ।
कोला-विध्वंवसनी कङ्का कलङ्काका -कलवङ्कनी ॥२४॥
महा-कुल-निी कणाा कणा-काण्ड-विमोवहनी ।
काण्डिा काण्ड-करुणा कमाकिा कुिुवम्बनी ॥२५॥
कमलाभा भिा कल्ला करुणा करुणामयी ।
करुणेिी कराकत्री कतृ-ा हस्ता कलोिया ॥२६॥
कारुण्य-सागरोद्भूता* कारुण्य-वसन्ध-ु िावसनी । *सागरोि-भूता
कात्ती-के िी कात्तीक-िा कात्तीक-प्राण-पालनी ॥२७॥
करुणा-वनवध-पूज्या च करणीया विया कला ।
कल्पिा कल्प-वनलया कल्पातीता च कवल्पता ॥२८॥
कुलया कुल-विज्ञाना कषीणी काल-रावत्रका ।
कै िल्यिा कोकरिा कल-मञ्जीर-रञ्जनी ॥२९॥
कलयन्ती काल-वजह्वा वकङ्करासन-कावरणी ।
कुमिु ा कुिलानन्दा कौिल्याकाि-िावसनी ॥३०॥
ु
कसाप-हास-हन्त्री च कै िल्य-गण-सम्भिा ।
एकावकनी अका रूपा कुिला कका ि-विता ॥३१॥
ककोिका कोष्ठरूपा कू ि-िविकर-विता ।
कू जन्ती मधरु -ध्वानं कामयन्ती सलक्षणम
ु ॥३२॥
के तकी कुसमानन्दा
ु ु
के तकी-पण्य-मवण्डता ।
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ु णम
कलयन्ती ित्र-ु िगाान िोध-यन्ती गणाग ु * । *गण-अग
ु ु
णम
कामयन्ती सिाकामं काियन्ती जगत-त्रयम ॥६०॥
कौल-कन्या कालकन्या कौल-काल-कुलेश्वरी
कौल-मवन्दर-संिा च कुल-धमा-विडवम्बनी ॥६१॥
कुल-धमा-रताकारा कुलधमा-विनाविनी*। ?? कुल-अधमा-विनाविनी
कुलधमा-पवण्डता च कुलधमा-समृवििा ॥६२॥
कौल-भोग-मोक्षिा च कौल-भोगेन्द्र-योवगनी ।
कौलकमाा निकुला श्वेत-चम्पक-मावलनी ॥६३॥
कुल-पष्प-माल्या-कान्ता,
ु कुल-पष्प-भिोद्भिा
ु ।
कौल-कोलाहल-करा कौलकमा-वप्रया परा ॥६४॥
कािी-विता काि-कन्या कािी चक्षाःु वप्रया कुथा ।
काष्ठासन-वप्रया काका काकपक्षकपावलका* ॥६५॥
( *काक-पक्षक-पावलका? = काक-पक्ष-कपावलका? )
कपाल-रस-भोज्या च कपाल-नि-मावलनी ।
कपालिा च कापाली कपाल-वसवि-िावयनी ॥६६॥
कपाला कुलकत्री च कपाल-विखर-विता । *कपाल-विखर ?= सहत्रार चि ?
कथना कृ पण-श्रीिा कृ पी कृ पण-सेविता ॥६७॥
कमाहन्त्री कमागता कमााकमा*-वििजीता । *कमााकमा = कमा-अकमा
कमा-वसविरता कामी कमाज्ञान-वनिावसनी ॥६८॥
ु
कमा-धमा-सिीला च कमा-धमा-ििङ्करी ।
ु णमहास्त्रसहासनविता ॥६९॥
कनकाब्जसवनमाा
ु ण-महा-स्त्रसहासन-विता ॥६९॥ )
(* कनकाब्ज-सवनमाा
कनक-ग्रवि-माल्याढ्या कनक-ग्रवि-भेविनी ।
कनकोद्भि-कन्या च कनकाम्भोज-िावसनी ॥७०॥
कालकू िावि*-कू ििा वकवि-िब्दान्तर-विता । *? कालकू ि-आवि
ु ा कामधेनिू -भिा कला ॥७१॥
कङ्क-पवक्ष-नाि-मख
कङ्कणाभा* धरा कर्द्ाा कर्द्ामा कर्द्ाम-विता । *कङ्कण-आभा
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(* किक-आवि-हवस्त-रथ-हय-दुन्दुवभ-िवब्दनी । )
ा ा के का-िब्द-वनिावसनी ॥९९॥
वकतिा िू र-धूति
ु
कें के िलावम्बता के ता के तकी-पष्प-मोवहनी ।
ु
कैं कै िल्य-गणोद्वास्या* ु -िास्या
कै िल्य-धन-िावयनी ॥१००॥ *गणोि
करी धनीन्द्र-जननी, काक्ष-ताक्ष-कलवङ्कनी ।
कुडुिान्ता कावन्त-िान्ता कांक्षा पारम-हं स्यगा ॥१०१॥
कत्री वचत्ता कान्त-वित्ता कृ षणा कृ वष-भोवजनी ।
कुङ्कम
ु ािक्तहृिया* के यूर-हार-मावलनी ॥१०२॥ *कुङ्कुम-आिक्त-हृिया
कीश्वरी के ििा कुम्भा कै िोर-जन-पूवजता ।
कवलका-मध्य-वनरता कोवकल-स्वर-गावमनी ॥१०३॥
कुर-िेह-हरा कुम्बा कुडुम्बा कुरभेविनी ।
कुण्डलीश्वर-संिािा कुण्डलीश्वर-मध्यगा ॥१०४॥ *कुण्डली-ईश्वर
काल-सूक्ष्मा कालयज्ञा कालहार-करी कहा ।
कहल-िा कलह-िा कलहा कलहाङ्करी ॥१०५॥
कुरङ्गी श्रीकुरङ्ग-िा कोरङ्गी कुण्डलापहा ।
कु-कलङ्की कृ ष्ण-बवु िाः, कृ ष्णा-ध्यान-वनिावसनी ॥१०६॥
कुतिा काष्ठि-लता कृ ताथ ा-करणी कुसी ।
कलनकिा कस्वरिा कवलका िोष-भङ्गजा ॥१०७॥
कुसमाकार-कमला
ु कुसमस्रग
ु -विभूषणा ।
वकञ्जल्का कै तिाका िा कमनीय-जलोिया ॥१०८॥
ककार-कू ि-सिााङ्गी ककाराम्बर-मावलनी ।
कालभेि-करा कािा कप ािासा ककुत्स्थला ॥१०९॥
कुिासा कबरी किाा कू सिी कुरुपालनी ।
कुरुपृष्ठा कुरुश्रेष्ठा कुरूणां ज्ञान-नाविनी ॥११०॥
कुतूहल-रता कान्ता कुव्याप्ता कष्ट-बन्धना ।
कषायण-तरुिा च कषायण-रसोद्भिा ॥१११॥
कवतविद्या कुष्ठ-िात्री कुवष्ठ-िोक-विसजानी ।
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ु ोपमाः॥२०४॥
स एि खेचरो भक्तो नारि-आवि-िक
ु
यो लोकाः प्रजपत्येि*ं स वििो न च मानषाः। *प्र-जपत्य-एिं
स समावधगतो वनत्यो ध्यानिो योवग-िल्लभाः॥२०५॥
ु हू ा -गतो िेिाः सहसा नात्र संियाः।
चतव्य
ु ॥२०६॥
याः प्र-धारयते भक्त्या कण्ठे िा मस्तके भजे
ु विद्यानाथाः स्वयं-भवि
स भिेत कावलका-पत्रो ु ।
ु
धनेिाः पत्रिान योगी यतीिाः सिागो भिेत ॥२०७॥
िामा िामकरे धृत्त्वा सिा-वसिीश्वरो भिेत ॥२०८॥
ु मानषी
यवि पठवत मनष्यो ु िा महत्या ।
ु
सकल-धन-जनेिी पवत्रणी जीि-ििा ।
कुलपवतवरह* लोके स्वगा-मोक्ष ैक-हेताःु , *कुलपवतर-इह
स भिवत भिनाथो योवगनी-िल्लभेिाः॥२०९॥
पठवत य इह वनत्यं भवक्त-भािेन मत्यो
हरणमवप* करोवत प्राण-विप्राण-योगाः। *हरणम-अवप
ु कोवि-जन्माघ-नाि।
स्तिन-पठन-पण्यं
कवथतमु -अवप न िक्तोऽहं महा-मांस-भक्षा ॥२१०॥
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इस सहस्त्रनाम के पाठ के ललये पजू ा-पाठ , ध्यान -जप की कोई जरूरत नहीं है, यह बहुत ही गप्तु
लवद्या है , और इसका पाठ ही काफी है । ( श्लोक 3- देख)ें
लवलनयोगः- में यह लकस देवी या देवता का स्तोत्र, कवच या सहस्रनाम है, इसके ऋलिः कौन हैं ।
इसका छन्द टया है (बोलने का तरीका, सरु , लय और ताल), बीज-टया है, शलि -टया है, कौन
सी है । कीलक - टया है। और आप लकस ललये पाठ कर रहें हैं । यह सारी जानकारी पाठ करने
वाले को अच्छी तरह से होनी चालहये, लक वो लकस देवी या देवता का पाठ कर रहा है, और टयों
कर रहा है, इत्यालद ।
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हमें जब एक बार से ज्यादा पाठ करना है तो स्तोत्र, सहस्रनाम, या कवच का एक बार परू ा पाठ
करते हैं, और अतं में एक बार लफर परू ा पाठ करते हैं । बीच में बार -बार मख्ु य स्तोत्र, सहस्रनाम,
या कवच का पाठ करतें है
उदाहरण के ललये - अगर हमने ७ या ११ या २१-पाठ प्रलतलदन पढ़ने का सक ं ल्प ललया है तो,
प्रथम बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
लफर बीच में ५ या ९-या-१९-बार के वल मख्ु य सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
अंत में लफर एक बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे ।
तो कुल ७ -या-११ या २१- पाठ हो जायेगा । ऐसा ही आप अपनी सक ं लल्पत सख्ं या में करें और
समझें ।
बहुत बार पवू य भाग या फलश्रतु ी उप्लब्ध नहीं होता है , तो कोई बात नहीं , या अगर यह दोनो
भाग बहुत लंबा-चौड़ा है, तो लोग समय की कमी से इसे छोड़ देते हैं । पर जब भी समय हो, लवशेि
लदनों मे, कभी-२ जरूर पढ़ें ।
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