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॥ ॐ श्री कुल-कुण्डललन्यै नमः॥ Date:11-10-2019.


॥ श्री-महा-कुल-कुण्डललनी-सहस्रनाम-स्तोत्रम ,"क"-कार ॥
( ३६-पटलः रुद्रयामल उत्तर-तन्त्र से)
यह कुण्डललनी-देवी माता का एक बहुत ही गप्तु , प्रभावशाली, लदव्य और शलिशाली नाम-स्तोत्र है । इसमे
९५% से उपर सभी शब्द "क"-कार से शरुु हुए हैं । इसका पाठ करने से सभी देवी-देवताओ ं की असीम
कृ पा प्राप्त होती है । साधक के सभी कायय लसद्ध होते हैं ।

कुण्डललनी-देवी माता के मन्त्र-जप आलद से, देवी-माता का १०८-नाम स्तोत्र, १००८-नाम स्तोत्र, कवच
पाठ, ज्यादा सरु लित रहता है, इसमे लकसी तरह का ज्यादा खतरा नहीं होता है ।
कुण्डललनी रुप मे यह अलत गप्तु और उग्र शलि हैं, पर इनके सहस्त्रनाम का पाठ करने से, साधक के उपर
इनकी सौम्य दृलि रहती है - और असीम कृ पा बरसती है ।
अतः साधक को बहुत ही सावधान होकर, शद्ध ु मन और भलि से ही यह पाठ करना चालहये, और इस
सहस्त्रनाम के साथ माता का, कोई भी एक अन्य शलिशाली कवच ( दगु ाय-चण्डी-काली, दश-महालवद्या,
लशव, मृत्यञ्ु जय आलद) का पाठ भी कर लेना चालहये । इससे लकसी भी तरह के अलनि से अपनी रिा होती
है ।
इस सहस्रनाम के श्लोक संख्या ( १७० से १९३ ) बीच-बीच में इनके अपने कवच का भाग भी इसी में
समालवि है । लजससे इसका पाठ और सरु लित माना जा सकता है ।

माता का यह स्तोत्र लबना स्नान, ध्यान, तीथय, तप, दान आलद के लबना भी लसद्ध होता है ।
देखें पवू -य पीलठका / श्लोक सख्ं या (३)
विना यजन-योगेन, विना ध्यानेन यत्फलम ।
तत्फलं लभते सद्यो विद्यायााः सकृु पा भिेत ॥३॥
लकसी भी पजू ा मे पहले, गणेश, गरुु , लशव जी की पजू ा जरूर कर लेनी चालहये। अपने कुलदेवता को भी
स्मरण कर लेना चालहये ।
संस्कृ त में तंत्र-मंत्र - कथा-स्तोत्र - कवच-सहस्त्रनाम आलद की रचना करते समय जान-बझू कर वणो और
शब्दों को जोड़-जोड़ कर बड़ा रखा गया है, तालक इसका सही अथय योग्य लोगों को ही गरुु -और-लवद्वान लोगों
के द्वारा सही लोगों को ही लमले । जो भी रचनायें की गयी है , वह जन-कल्याण के ललये ही की गयी है । परन्तु
दिु ों और इसका दरुू पयोग करने वालों से ही गप्तु रखने ( लकसी भी कीमत पर) को कहा गया है । सभी से गप्तु
रखने को नहीं । लबं े-लबं े शब्दों को बीच से जैसे-तैसे तोड़ने से उसका अथय का अनथय हो जाता है। गलत
शब्दों के बार-बार-उच्चारण से फायदा के जगह पाठक को नक ु सान होता है । लजससे पाठक का भरोसा
देवी-देवता, पजू ा-पाठ से उठ जाता है ।
इसललये इस देवी-सहत्रनाम को सरल-सल ु भ करने के साथ-साथ सही अथय ही लनकले, लदखे इसका प्रयास
लकया गया है । शब्द सरल हो जाने से बहुत से अथय समझने मे आसानी हो जाती है, जैसे-

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कै लासविखरारूढा = कै लास-विखर-आरूढा

मैने यहां कलठन लगने वाले शब्दों को -


"-" लगाकर छोटा और सरल करने का प्रयास लकया है ।
कामरूपपद्ममध्यवनिावसनी = कामरूप-पद्म-मध्य-वनिावसनी

कुछ कलठन शब्द * लचलन्हत कर, करीब में ही सरल करने का प्रयास लकया है, साधक लोग दोनों शब्दों को
एक ही जगह पर देख कर, ठीक से पढ़ सकें , तलु ना करें , समझें और गलत लगे तो ठीक कर लें , जैसे -
कोविकविघण्िविनोविनी * । *कोवि-कवि-घण्ि-विनोविनी

कुछ ही शब्दों का संलध-लवच्छे द लकया गया है, उसका मल ू अथय साफ-२ लदखे, ऐसा प्रयास है, तालक साधक
गण देखें, शब्द कै से छुपे हुए है । यह भी ध्यान रखें यह बहुत ही गढ़ू लवद्या है, अतः शब्दों के अन्य अथय
(या बहुत से अथय) भी हो सकते है ।
कमााकमा = कमा-अकमा, कुण्डिालङ्कृताकृ ता* ॥१४१॥ *कुण्डिा-अलङ्कृता-कृ ता

कुछ शब्दों मे "?" लगाकर सरल करने के प्रयास के साथ-साथ, कुछ और(अन्य) अथय भी हो सकते है, अतः
पाठकों के उपर छोड़ लदया ।
काकपक्षकपावलका ? = काक-पक्षक-पावलका? = काक-पक्ष-कपावलका ? ॥६५॥

कहीं कोई त्रलु ट न हो, इसका ध्यान रखने का पणू य प्रयास लकया गया है । लफर भी कुछ गलती हो, त्रलु ट हो, तो
उसमें उलचत सधु ार कर लें ।
यह लसफय देखने, पढ़ने, समझने और प्रैलटटस करने के ललये है । माता का नाम ज्यादा-से-ज्यादा पढ़ने से, कोई
हालन नहीं होती, पर प्रैलटटस के बाद आप अपना मल ू पाठ ही पजू ा में उपयोग करें ॥ कोई भी पाठ गलत नहीं
है, पर अलग-अलग पस्ु तकों में नाम में कुछ न कुछ लवलभन्नता लमलती ही है । सब माता का ही नाम है ।
आपकी श्रद्धा-भलि और आपका लवश्वास बड़ी बात है । " जय माता दी "

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This Article is Prepared / Formatted by : V. K. Rakesh (MSc, B.Ed, PG DCA)
Email : VIKY1966@YAHOO.CO.IN
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|| Shri Maha-Kula-Kundalini SahasranAma-Stotram ("Ka"-Kara ||


॥ श्री-महा-कुल-कुण्डवलनी-सहस्रनाम-स्तोत्रम , "क"-कार ॥
( अथ षडस्त्रिंिाः(३६)-पिलाः (रुद्रयामल उत्तर-तन्त्र से)

ॐ गणेिाय नमाः। ॐ श्री कुल-कुण्डवलन्य ै नमाः॥


श्री-आनन्द-भरै िी उिाच-
अथ कान्त प्रिक्ष्यावम कुण्डली-चेतनाविकम* । * चेतना-आविकम
सहस्रनाम-सकलं कुण्डवलन्यााः वप्रयं सखम
ु ॥१॥
ु साक्षात वसवि-प्रिायकम ।
अष्टोत्तरं महा-पण्यं
ु तत ॥२॥
ति प्रेम-ििे-न ैि कथयावम शृणष्व
विना यजन-योगेन, विना ध्यानेन यत्फलम ।
तत्फलं लभते सद्यो विद्यायााः सकृु पा भिेत ॥३॥
ु िानी त्रैलोक्य-पवरपूवजता ।
या विद्या भिने
सा िेिी कुण्डली माता त्रैलोक्यं पावत सिािा ॥४॥
तस्या नाम सहस्रावण अष्टोत्तर-ितावन च ।
श्रिणात्पठनान्मन्त्री* महाभक्तो भिेविह* ॥५॥ *श्रिणात-पठनान-मन्त्री, भिेि-इह
ु ो महाबली ॥६॥
एवहके स भिेन्नाथ जीिन्मक्त

विवनयोगाः (मूल)- अस्य श्रीमन्महाकुण्डलीसाष्टोत्तरसहस्रनामस्तोत्रस्य


ब्रह्मषीजागतीच्छन्दो भगिती श्रीमन्महाकुण्डलीिेिता सिायोगसमृविवसियथे विवनयोगाः॥

विवनयोगाः (सरल िब्दों में) - अस्य श्री मन-महा-कुण्डलीाः-अष्टोत्तर-सहस्रनाम-स्तोत्रस्य


ब्रह्मषीाः-जगतीाः-छन्दो भगिती श्रीमन-महाकुण्डली-िेिता सिा-योग-समृवि-वसियथे
विवनयोगाः॥

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( मूल पाठ )
कुलेश्वरी कुलानन्दा कुलीना कुल-कुण्डली ।
श्रीमन-महाकुण्डली च कुल-कन्या कुलवप्रया ॥७॥
कुलक्षेत्र-विता कौली कुलीनाथ ा*-प्रकाविनी । *कुलीन-अथ ा
कुलाख्या कुलमागा-िा कुल-िािंाथ ा-पावतनी ॥८॥
कुलज्ञा कुल-योग्या च कुल-पष्प-प्रकाविनी

कुलीना च कुलाध्यक्षा* कुल-चन्दन-लेवपता ॥९॥ *कुल-अध्यक्षा
कुलरूपा कुलोद्भूता* कुल-कुण्डवल-िावसनी । *कुलोि-भूता
कुलावभन्ना कुलोत्पन्ना कुलाचार-विनोविनी ॥१०॥
कुल-िृक्ष-समद्भ
ु ू ता कुलमाला कुलप्रभा ।
कुलज्ञा कुल-मध्यिा कुल-कङ्कण-िोवभता ॥११॥
कुलोत्तरा कौलपूजा कुलालापा कुलविया ।
कुलभेिा कुलप्राणा कुलिेिी कुल-स्तवु ताः ॥१२॥
कौवलका कावलका काल्या कवल-वभन्ना कलाकला* । *कला-अकला
कवल-कल्मष-हन्त्री च कवल-िोष-विनाविनी ॥१३॥
कङ्काली के िलानन्दा कालज्ञा कालधावरणी ।
ु ी कौमिु ी के का काका काक-लयान्तरा ॥१४॥
कौतक
कोमलाङ्गी करालास्या कन्द-पूज्या च कोमला ।

कै िोरी काक-पच्छिा कम्बलासन-िावसनी ॥१५॥
ु कवप-ध्वजा ।
कै केयी-पूवजता कोला कोलपत्री
कमला कमलाक्षी च कम्बलाश्ितर-वप्रया ॥१६॥
कवलका-भङ्ग-िोषिा कालज्ञा काल-कुण्डली ।
काव्यिा कविता िाणी काल-सन्दभा-भेविनी ॥१७॥
कुमारी करुणाकारा कुरु-स ैन्य-विनाविनी ।
कान्ता कुलगता कामा कावमनी काम-नाविनी ॥१८॥
कामोद्भिा* काम-कन्या के िला काल-घावतनी । *कामोि-भिा
कै लासविखरारूढा* कै लास-पवत-सेविता ॥१९॥ *कै लास-विखर-आरूढा

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कै लास-नाथ-नवमता के यूर-हार-मवण्डता ।
कन्दपाा कवठना-नन्दा कुलगा कीचकृ त्यहा ॥२०॥
कमलास्या कठोरा च कीि-रूपा कवि-विता ।
कन्देश्वरी* कन्द-रूपा कोवलका कन्द-िावसनी ॥२१॥ *कन्द-ईश्वरी
कू ििा कू िभक्षा च काल-कू ि-विनाविनी ।
कामाख्या कमला काम्या कामराज-तनूद्भिा* ॥२२॥ *तनूि-भिा
कामरूप-धरा कम्रा कमनीया कविवप्रया ।
कञ्जानना कञ्ज-हस्ता कञ्ज-पत्राय-तेक्षणा ॥२३॥
कावकनी काम-रूपिा काम-रूप-प्रकाविनी ।
कोला-विध्वंवसनी कङ्का कलङ्काका -कलवङ्कनी ॥२४॥
महा-कुल-निी कणाा कणा-काण्ड-विमोवहनी ।
काण्डिा काण्ड-करुणा कमाकिा कुिुवम्बनी ॥२५॥
कमलाभा भिा कल्ला करुणा करुणामयी ।
करुणेिी कराकत्री कतृ-ा हस्ता कलोिया ॥२६॥
कारुण्य-सागरोद्भूता* कारुण्य-वसन्ध-ु िावसनी । *सागरोि-भूता
कात्ती-के िी कात्तीक-िा कात्तीक-प्राण-पालनी ॥२७॥
करुणा-वनवध-पूज्या च करणीया विया कला ।
कल्पिा कल्प-वनलया कल्पातीता च कवल्पता ॥२८॥
कुलया कुल-विज्ञाना कषीणी काल-रावत्रका ।
कै िल्यिा कोकरिा कल-मञ्जीर-रञ्जनी ॥२९॥
कलयन्ती काल-वजह्वा वकङ्करासन-कावरणी ।
कुमिु ा कुिलानन्दा कौिल्याकाि-िावसनी ॥३०॥

कसाप-हास-हन्त्री च कै िल्य-गण-सम्भिा ।
एकावकनी अका रूपा कुिला कका ि-विता ॥३१॥
ककोिका कोष्ठरूपा कू ि-िविकर-विता ।
कू जन्ती मधरु -ध्वानं कामयन्ती सलक्षणम
ु ॥३२॥
के तकी कुसमानन्दा
ु ु
के तकी-पण्य-मवण्डता ।

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ा र-रुवचरा कपूरा -भक्षण-वप्रया ॥३३॥


कपूर-पू
कपाल-पात्र-हस्ता च कपाल-चन्द्र-धावरणी ।

कामधेन-स्वरूपा च कामधेनाःु वियाविता ॥३४॥
कश्यपी काश्यपा कुन्ती के िान्ता के ि-मोवहनी ।
कालकत्री कू पकत्री कुलपा कामचावरणी ॥३५॥
कुङ्कुमाभा* कज्जल-िा कवमता कोप-घावतनी । *कुङ्कुम-आभा = कं ु कुम-आभा
के वलिा के वल-कवलता कोपना कप ाि-विता ॥३६॥

कलातीता कालविद्या कालात्म-परुषोद्भिा* ु
। *परुषोि -भिा
कष्ट-िा, कष्ट-कुष्ठ-िा, कुष्ठहा कष्टहा कुिा ॥३७॥
कावलका स्फुि-कत्री च काम्बोजा कामला कुला ।
कुिलाख्या काक-कुष्ठा कमािा कू मा-मध्यगा ॥३८॥
कुण्डलाकार*-चििा कुण्ड-गोलोद्भिा कफा । *कुण्डल-आकार
कवपत्थाग्र-िसाकािा कवपत्थ-रोध-कावरणी ॥३९॥
काहोड काहड काड कङ्कला भाषकावरणी ।
कनका कनकाभा च कनकावद्र-वनिावसनी ॥४०॥
कापाास-यज्ञ-सूत्रिा कू ि-ब्रह्माथ ा-सावधनी ।
कलञ्ज-भवक्षणी िू रा िोध-पञ्ु जा कवप-विता ॥४१॥
कपाली साधन-रता कवनष्ठाकाि*-िावसनी । *? कवनष्ठ-आकाि
कुञ्जरेिी कुञ्जर-िा कुञ्जरा कुञ्जरा-गवताः ॥४२॥
कुञ्ज-िा कुञ्ज-रमणी कुञ्ज-मवन्दर-िावसनी ।
कुवपता कोप-िून्या च कोपाकोप*-वििजीता ॥४३॥ *कोपाकोप = कोप-अकोप
कवपञ्जल-िा कावपञ्जा कवपञ्जल-तरूि-भिा ।
कुन्ती-प्रेम-कथा-विष्टा कुन्ती-मानस-पूवजता ॥४४॥
कुन्तला कुन्त-हस्ता च कुल-कुन्तल-लोवहनी ।
कान्ताङ्घ्र-सेविका कान्त-कुिला कोिलािती ॥४५॥
के वि-हन्त्री ककुत्स्था च ककुत्स्थ-िन-िावसनी ।
कै लास-विखरानन्दा कै लास-वगवर-पूवजता ॥४६॥

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कीलाल-वनमालाकारा(?) कीलाल-मग्ु ध-कावरणी । (*कीलाल : पानी, रक्त, मीठा पेय)


कुतनु ा कुट्टही कुट्ठा कू िना मोि-कावरणी ॥४७॥
िौङ्कारी िौङ्करी कािी कुहु-िब्दिा वकरावतनी ।
(*िौङ्कारी िौङ्करी =िौङ-कारी िौङ-करी, िौङ= िौम=वबज मन्त्र)
कू जन्ती सिा-िचनं कारयन्ती कृ ता-कृ तम ॥४८॥
कृ पा-वनवध-स्वरूपा च कृ पा-सागर-िावसनी ।
के िलानन्द-वनरता के िलानन्द-कावरणी ॥४९॥
कृ वमला कृ वम-िोषघ्नी कृ पा कपि-कुवट्टता ।
कृ िाङ्गी िम-भङ्गिा वकङ्कर-िा कि-विता ॥५०॥
कामरूपा कान्त-रता कामरूपस्य वसवििा ।
कामरूप-पीठिेिी कामरूपाङ-कुजा कुजा ॥५१॥
कामरूपा कामविद्या कामरूपावि*-कावलका । *कामरूप-आवि
कामरूप-कला काम्या कामरूप-कुलेश्वरी ॥५२॥
कामरूप-जनानन्दा कामरूप-कुिाग्रधीाः ।
कामरूप-कराकािा कामरूप-तरु-विता ॥५३॥
कामात्मजा कामकला कामरूप-विहावरणी ।
काम-िािंाथ ा-मध्यिा कामरूप-वियाकला ॥५४॥
कामरूप-महाकाली कामरूप-यिोमयी ।
कामरूप-परमानन्दा कामरूपावि-कावमनी ॥५५॥
कू लमूला कामरूपपद्ममध्यवनिावसनी । *कामरूप-पद्म-मध्य-वनिावसनी
कृ ताञ्जवल-वप्रया कृ त्या कृ त्या-िेिी-विता किा ॥५६॥
किका कािका कोविकविघण्िविनोविनी * । *कोवि-कवि-घण्ि-विनोविनी

कवि-िूल-तरा काष्ठा कात्यायन-सवसवििा ॥५७॥
कात्यायनी काचलिा कामचन्द्रा-नना कथा ।
काश्मीर-िेि-वनरता काश्मीरी कृ वष-कमाजा ॥५८॥
कृ वषकमा-विता कौमाा कू मा-पृष्ठ-वनिावसनी ।
काल-घण्िा नाि-रता कल-मञ्जीर-मोवहनी ॥५९॥

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ु णम
कलयन्ती ित्र-ु िगाान िोध-यन्ती गणाग ु * । *गण-अग
ु ु
णम
कामयन्ती सिाकामं काियन्ती जगत-त्रयम ॥६०॥
कौल-कन्या कालकन्या कौल-काल-कुलेश्वरी
कौल-मवन्दर-संिा च कुल-धमा-विडवम्बनी ॥६१॥
कुल-धमा-रताकारा कुलधमा-विनाविनी*। ?? कुल-अधमा-विनाविनी
कुलधमा-पवण्डता च कुलधमा-समृवििा ॥६२॥
कौल-भोग-मोक्षिा च कौल-भोगेन्द्र-योवगनी ।
कौलकमाा निकुला श्वेत-चम्पक-मावलनी ॥६३॥
कुल-पष्प-माल्या-कान्ता,
ु कुल-पष्प-भिोद्भिा
ु ।
कौल-कोलाहल-करा कौलकमा-वप्रया परा ॥६४॥
कािी-विता काि-कन्या कािी चक्षाःु वप्रया कुथा ।
काष्ठासन-वप्रया काका काकपक्षकपावलका* ॥६५॥
( *काक-पक्षक-पावलका? = काक-पक्ष-कपावलका? )
कपाल-रस-भोज्या च कपाल-नि-मावलनी ।
कपालिा च कापाली कपाल-वसवि-िावयनी ॥६६॥
कपाला कुलकत्री च कपाल-विखर-विता । *कपाल-विखर ?= सहत्रार चि ?
कथना कृ पण-श्रीिा कृ पी कृ पण-सेविता ॥६७॥
कमाहन्त्री कमागता कमााकमा*-वििजीता । *कमााकमा = कमा-अकमा
कमा-वसविरता कामी कमाज्ञान-वनिावसनी ॥६८॥

कमा-धमा-सिीला च कमा-धमा-ििङ्करी ।
ु णमहास्त्रसहासनविता ॥६९॥
कनकाब्जसवनमाा
ु ण-महा-स्त्रसहासन-विता ॥६९॥ )
(* कनकाब्ज-सवनमाा
कनक-ग्रवि-माल्याढ्या कनक-ग्रवि-भेविनी ।
कनकोद्भि-कन्या च कनकाम्भोज-िावसनी ॥७०॥
कालकू िावि*-कू ििा वकवि-िब्दान्तर-विता । *? कालकू ि-आवि
ु ा कामधेनिू -भिा कला ॥७१॥
कङ्क-पवक्ष-नाि-मख
कङ्कणाभा* धरा कर्द्ाा कर्द्ामा कर्द्ाम-विता । *कङ्कण-आभा

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कर्द्ामि-जलाच्छन्ना कर्द्ामि-जनवप्रया ॥७२॥


ाु -िा कम्रिा कं स-नाविनी ।
कमठिा कामक
कं सवप्रया कं स-हन्त्री कं साज्ञान-करावलनी ॥७३॥ *कं साज्ञान =कं स-अज्ञान
काञ्चनाभा काञ्चनिा कामिा िमिा किा ।
कान्त-वभन्ना कान्त-वचन्ता कमलासन-िावसनी ॥७४॥
कमलासन-वसवििा कमलासन-िेिता ।
कुविता कुवित-रता कुिा िाप-वििजीता ॥७५॥
कुपत्र-रवक्षका
ु कुल्ला कुपत्र-मानसापहा
ु ।
कुज-रक्ष-करी कौजी कुब्जाख्या कुब्ज-विग्रहा ॥७६॥
कुनखी कू पिीक्ष-ु िा कुकरी कुधनी कुिा ।
कुवप्रया कोवकलानन्दा कोवकला कामिावयनी ॥७७॥
कुकावमना कुबवु ि-िा कू प ा-िाहन मोवहनी ।
कुलका कुल-लोकिा कुिासन-सवसवििा
ु ॥७८॥

कौविकी िेिता कस्या कन्नाि-नाि-सवप्रया ।
कुसौष्ठिा कुवमत्रिा कुवमत्र-ित्र-ु घावतनी ॥७९॥
कुज्ञान-वनकरा कुिा कुवजिा कजािावयनी ।
क-कजाा कज्जा-कवरणी कजािि-विमोवहनी ॥८०॥
कजा-िोधन-कत्री च कालािं-धावरणी सिा ।
कुगवताः काल-सगवताः
ु कवल-बवु ि-विनाविनी ॥८१॥
कवल-काल-फलोत्पन्ना* कवल-पािन-कावरणी । *फलोत्पन्ना=फल-उत्पन्ना
ु क्ष्मिा ॥८२॥
कवल-पाप-हरा काली कवल-वसवि-स-सू

कावलिास-िाक्यगता कावलिास-सवसवििा ।
कवलविक्षा कालविक्षा कन्दविक्षा-परायणा ॥८३॥

कमनीय-भािरता कमनीय-सभवक्तिा ।
करकाजन-रूपा च कक्षािाि-करा करा ॥८४॥

कञ्च-िणाा काक-िणाा िोष्ट-ु रूपा कषामला ।
िोष्ट-नाि-रता
र कीता कातरा कातर-वप्रया ॥८५॥

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कातरिा कातराज्ञा कातरानन्द-कावरणी ।


कािमर्द्ा-तरूद्भूता* कािमर्द्ा-विभवक्षणी ॥८६॥ *तरूि-भूता
कष्टहावनाः कष्टिात्री कष्ट-लोक-विरवक्तिा ।
कायागता कायवसविाः कायानन्द-प्रकाविनी ॥८७॥
काय-गन्धहरा कुम्भा काय-कुम्भा कठोवरणी ।
कठोर-तरु-संिा च कठोर-लोक-नाविनी ॥८८॥
कुमागा-िावपता कुप्रा कापाास-तरु-सम्भिा ।
कापाास-िृक्ष-सूत्रिा कुिगािा करोत्तरा ॥८९॥
कणााि-कणा-सम्भूता काणाािी कणा-पूवजता ।
कणाािं-रवक्षका कणाा कणाहा कणा-कुण्डला ॥९०॥
कुन्तलािेि-नवमता कुिुम्बा कुम्भ-कावरका ।

कणाासरासना कृ ष्टा कृ ष्ण-हस्ताम्बजा-जीता ॥९१॥
कृ ष्णाङ्गी कृ ष्ण-िेहिा कुिेििा कुमङ्गला ।
िू रकमा-विता कोरा वकरात कुल-कावमनी ॥९२॥
कालिावर-वप्रया कामा काव्य-िाक्य-वप्रया िुधा ।
कञ्ज-लता कौमिु ी च कुज्योत्स्ना कलन-वप्रया ॥९३॥
कलना सिा-भूतानां कवपत्थ-िन-िावसनी ।
किु-वनम्ब-विता काख्या क-िगााख्या किगीका ॥९४॥
वकरातच्छेविनी कायाा कायााकाया*-वििजीता । *काया-अकाया

कात्यायनावि*-कल्पिा कात्यायन-सखोिया ॥९५॥ *कात्यायन-आवि
कु-क्षेत्रिा कुलाविघ्ना* करणावि-प्रिेविनी । *कुल-अविघ्ना
काङ्काली वकङ्कला काला वकवलता सिाकावमनी ॥९६॥
कीवलता-पेवक्षता कू िा कू ि-कुङ्कुम-चचीता ।
कुङ्कुमा-गन्ध-वनलया कुिुम्ब-भिन-विता ॥९७॥
कुकृ पा करणानन्दा कवि-तार-समोवहनी ।
काव्य-िािंानन्द*-रता काव्य-पूज्या किीश्वरी ॥९८॥ *िािं-आनन्द
किकाविहवस्तरथहयदुन्दुवभिवब्दनी* ।

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(* किक-आवि-हवस्त-रथ-हय-दुन्दुवभ-िवब्दनी । )
ा ा के का-िब्द-वनिावसनी ॥९९॥
वकतिा िू र-धूति

कें के िलावम्बता के ता के तकी-पष्प-मोवहनी ।

कैं कै िल्य-गणोद्वास्या* ु -िास्या
कै िल्य-धन-िावयनी ॥१००॥ *गणोि
करी धनीन्द्र-जननी, काक्ष-ताक्ष-कलवङ्कनी ।
कुडुिान्ता कावन्त-िान्ता कांक्षा पारम-हं स्यगा ॥१०१॥
कत्री वचत्ता कान्त-वित्ता कृ षणा कृ वष-भोवजनी ।
कुङ्कम
ु ािक्तहृिया* के यूर-हार-मावलनी ॥१०२॥ *कुङ्कुम-आिक्त-हृिया
कीश्वरी के ििा कुम्भा कै िोर-जन-पूवजता ।
कवलका-मध्य-वनरता कोवकल-स्वर-गावमनी ॥१०३॥
कुर-िेह-हरा कुम्बा कुडुम्बा कुरभेविनी ।
कुण्डलीश्वर-संिािा कुण्डलीश्वर-मध्यगा ॥१०४॥ *कुण्डली-ईश्वर
काल-सूक्ष्मा कालयज्ञा कालहार-करी कहा ।
कहल-िा कलह-िा कलहा कलहाङ्करी ॥१०५॥
कुरङ्गी श्रीकुरङ्ग-िा कोरङ्गी कुण्डलापहा ।
कु-कलङ्की कृ ष्ण-बवु िाः, कृ ष्णा-ध्यान-वनिावसनी ॥१०६॥
कुतिा काष्ठि-लता कृ ताथ ा-करणी कुसी ।
कलनकिा कस्वरिा कवलका िोष-भङ्गजा ॥१०७॥
कुसमाकार-कमला
ु कुसमस्रग
ु -विभूषणा ।
वकञ्जल्का कै तिाका िा कमनीय-जलोिया ॥१०८॥
ककार-कू ि-सिााङ्गी ककाराम्बर-मावलनी ।
कालभेि-करा कािा कप ािासा ककुत्स्थला ॥१०९॥
कुिासा कबरी किाा कू सिी कुरुपालनी ।
कुरुपृष्ठा कुरुश्रेष्ठा कुरूणां ज्ञान-नाविनी ॥११०॥
कुतूहल-रता कान्ता कुव्याप्ता कष्ट-बन्धना ।
कषायण-तरुिा च कषायण-रसोद्भिा ॥१११॥
कवतविद्या कुष्ठ-िात्री कुवष्ठ-िोक-विसजानी ।

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काष्ठासन-गता कायााश्रया काश्रय-कौवलका ॥११२॥


कावलका कावल-सन्त्रस्ता कौवलक-ध्यान-िावसनी ।
कॢप्तिा कॢप्त*-जननी कॢप्तच्छन्ना कवलध्वजा ॥११३॥ *कॢप्त=क-ऌप्त
के ििा के ििानन्दा के श्यावि-िानिापहा ।
के ििाङ्गज-कन्या च के ििाङ्गज-मोवहनी ॥११४॥
वकिोराचान-योग्या च वकिोर-िेि-िेिता ।
कान्तश्री-करणी कुत्या कपिा-वप्रय-घावतनी ॥११५॥
कुकाम-जवनता कौञ्चा कौञ्चिा कौञ्च-िावसनी ।
कू पिा कू प-बवु ििा कू पमाला-मनोरमा ॥११६॥

कू प-पष्पाश्रया कावन्ताः िमिािमिािमा । *िमिा-िमिा-िमा
कुवििमा कुिमिा कुण्डली-कुण्ड-िेिता ॥११७॥
कौवण्डल्य-नगरोद्भूता कौवण्डल्य-गोत्र-पूवजता ।
कवपराज-विता कापी कवप-बवु ि-बलोिया ॥११८॥
ु ा कुव्यििा कुसावक्षिा ।
कवप-ध्यानपरा मख्य
कुमध्यिा कुकल्पा च कुल-पवि-प्रकाविनी ॥११९॥
कुल-भ्रमर-िेहिा, कुल-भ्रमर-नाविनी ।
कुलासङ्गा कुलाक्षी च कुलमत्ता कुलावनला ॥१२०॥
कवल-वचन्हा काल-वचन्हा कण्ठ-वचन्हा किीन्द्रजा ।
करीन्द्रा कमलेि-श्रीाः कोवि-कन्दप-ा िप ाहा ॥१२१॥
कोवि-तेजोमयी कोट्या कोिीर-पद्म-मावलनी ।
कोिीर-मोवहनी कोविाः कोविकोवि-विधूद्भिा* ॥१२२॥ *विधूि-भिा
कोवि-सूय-ा समानास्या कोवि-कालानलोपमा* । *?कालानल-उपमा
कोिीर-हार-लवलता कोवि-पिात-धावरणी ॥१२३॥
कुच-यग्ु म-धरा-िेिी कुच-काम-प्रकाविनी ।
कुचानन्दा कुचाच्छन्ना कुच-कावठन्य-कावरणी ॥१२४॥
कुच-यग्ु म-मोहनिा कुचमायातरु ा कुचा ।
कुच-यौिन-सम्मोहा, कुच-मर्द्ान-सौख्यिा ॥१२५॥

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काचिा काचिेहा च काचपूर-वनिावसनी ।


काचग्रिा* काच-िणाा कीचक-प्राण-नाविनी ॥१२६॥ *काच-अग्रिा

कमला लोचन-प्रेमा कोमलाक्षी मनवप्रया ।
कमलाक्षी कमलजा कमलास्या करालजा ॥१२७॥
कमलाविरद्वया* काम्या कराख्या करमावलनी । *कमलाङ-वघर-द्वया
कर-पद्म-धरा कन्दा कन्द-बवु ि-प्रिावयनी ॥१२८॥
ु च
कमलोद्भिपत्री* ु
कमला-पत्र-कावमनी । ु
*कमलोि-भिपत्री
वकरन्ती वकरणाच-छन्ना वकरण-प्राण-िावसनी ॥१२९॥
काव्य-प्रिा काव्य-वचत्ता काव्य-सार-प्रकाविनी ।
कलाम्बा कल्प-जननी कल्प-भेिासन-विता ॥१३०॥
कालेच्छा कालसार-िा काल-मारण-घावतनी ।
वकरण-िम-िीपिा कमािा िम-िीवपका ॥१३१॥
काल-लक्ष्मीाः काल-चण्डा कुल-चण्डेश्वर-वप्रया ।
कावकनी-िवक्त-िेहिा वकतिा वकन्त-कावरणी ॥१३२॥
ु िौञ्चा, काक-चञ्च-प
करञ्चा कञ्चका ु
ु ि-विता ।
काकाख्या काक-िब्दिा कालावि-िहनाथीका ॥१३३॥
कुचक्ष-वनलया कुत्रा कुपत्रा
ु ित-ु रवक्षका ।
कनक-प्रवतभाकारा करबन्धाकृ वत*-विता ॥१३४॥ *करबन्ध-आकृ वत
कृ वतरूपा कृ वतप्राणा कृ वत-िोध-वनिावरणी ।
कुवक्ष-रक्षाकरा कुक्षा कुवक्ष-ब्रह्माण्ड-धावरणी ॥१३५॥
कुवक्ष-िेि-विता कुवक्षाः वियािक्षा वियातरु ा ।
ु माा वियावप्रया ॥१३६॥
वियावनष्ठा वियानन्दा ितक
कुिलासि-संिक्ता कुिावर-प्राण-िल्लभा ।
कुिावर-िृक्ष-मविरा कािीराज-ििोद्यमा ॥१३७॥
कािीराज-गृहिा च कणा-भ्रातृ-गृहविता ।
कणााभरण-भूषाढ्या कण्ठभूषा च कवण्ठका ॥१३८॥
कण्ठ-िान-गता कण्ठा कण्ठ-पद्म-वनिावसनी । ु -चि
*कण्ठ-पद्म = ?? वििि

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कण्ठ-प्रकाि-कवरणी कण्ठ-मावणक्य-मावलनी ॥१३९॥


कण्ठ-पद्म-वसविकरी कण्ठाकाि-वनिावसनी
कण्ठ-पद्म-सावकनीिा कण्ठ-षोडि-पवत्रका ॥१४०॥ कण्ठ-षोडि= १६-िल चि

कृ ष्णा-वजनधरा विद्या कृ ष्णावजन-सिाससी ।
कुतक-िा कुखेल-िा कुण्डिालङ्कृताकृ ता* ॥१४१॥ *कुण्डिा-अलङ्कृता-कृ ता
कलगीता कालघजा कलभङ्ग-परायणा ।
काली-चन्द्रा कला काव्या कुचिा कुचल-प्रिा ॥१४२॥
कुचौर-घावतनी कच्छा कच्छाि-िा कजातना ।
ु ी कञ्जा कञ्ज-तण्ु डा कजीिली ॥१४३॥
कञ्जाछि-मख
कामराभासराु -िाद्यिा वकयधंकार-नाविनी ।
कणाि-यज्ञ-सूत्रिा कीलाल-यज्ञ-सञ्ज्ञका ॥१४४॥
किुहासा कपाििा किधूम-वनिावसनी ।
कविनाि-घोरतरा कुट्टला पािवल-वप्रया ॥१४५॥
कामचाराब्ज-नेत्रा च कामचोद्गार-संिमा ।
काष्ठ-पिात-संिाहा कुष्ठाकुष्ठ* वनिावरणी ॥१४६॥( * कुष्ठाकुष्ठ = कुष्ठा-कुष्ठ ? =कुष्ठ-अकुष्ठ ?)
कहोड-मन्त्र-वसििा काहला वडवण्डम-वप्रया ।
कुल-वडवण्डम-िाद्यिा काम-डामर-वसवििा ॥१४७॥
कुलामरि-ध्यिा कुलके का-वननाविनी ।
कोजागर-ढोलनािा कास्य-िीर-रणविता ॥१४८॥
कालावि*-करण-वच्छद्रा करुणा-वनवध-ििला । *काल-आवि
ित-ु श्रीिा कृ ताथ-ा श्रीाः कालतारा कुलोत्तरा ॥१४९॥
कथापूज्या कथानन्दा कथना कथन-वप्रया ।
काथ ा-वचन्ता काथ-ा विद्या काम-वमथ्यापिाविनी* ॥१५०॥
*वमथ्याप-िाविनी ? = वमथ्या-अपिाविनी ?

किम्ब-पष्प-सङ्कािा ु
किम्ब-पष्प-मावलनी ।
कािम्बरी पानतष्टु ा काय-िम्भा किोद्यमा* ॥१५१॥ *किोि-यमा
कुङ्कुले-पत्र-मध्यिा कुलाधारा-धरवप्रया ।

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कुलिेि-िरीराधाा कुलधामा कलाधरा ॥१५२॥



कामरागा-भूषणाढ्या कावमनीर-गणवप्रया ।
कुलीना-नाग-हस्ता च कुलीन-नाग-िावहनी ॥१५३॥
कामपूर-विता कोपा कपाली-बकुलोद्भिा* । *बकुलोि-भिा
कारागार-जनापाल्या कारागार-प्रपावलनी ॥१५४॥
विया-िवक्ताः काल-पविाः काणा-पविाः कफोिया ।
कामफुल्लारविन्दिा कामरूप-फलाफला ॥१५५॥
(*? कामफुल्ला-अरविन्द-िा कामरूप-फलाफला ॥१५५॥)
कायफला कायफे णा कान्ता-नाडी-फलीश्वरा ।
कमफे रु-गता-गौरी कायिाणी कुिीरगा ॥१५६॥
कबरी-मवणबन्ध-िा कािेरी-तीथ ा-सङ्गमा ।
कामभीवत-हरा कान्ता काम-िाकु-भ्रमातरु ा ॥१५७॥
कवि-भाि-हरा-भामा कमनीय-भयापहा ।
कामगभा-िेिमाता काम-कल्प-लतामरा ॥१५८॥
कमठ-वप्रय-मांसािा कमठा मका ि-वप्रया ।
वकमाकारा वकमाधारा कुम्भकार-मनविता ॥१५९॥
काम्य-यज्ञ-विता-चण्डा काम्य-यज्ञोपिीवतका ।

काम-याग-वसविकरी काम-मैथन-यावमनी ॥१६०॥
कामाख्या-यमलाििा कालयामा कुयोवगनी ।
कुरुयाग-हता-योग्या कुरुमांस-विभवक्षणी ॥१६१॥
कुरु-रक्त-वप्रयाकारी वकङ्कर-वप्रय-कावरणी ।
कत्रीश्वरी कारणात्मा कविभक्षा कविवप्रया ॥१६२॥
कवि-ित्र-ु प्रष्ठ-लिा कै लासोपिन*-विता । *कै लास-उपिन
कवलवत्रधा वत्र-वसवििा कवल-वत्रविन-वसवििा ॥१६३॥
कलङ्क-रवहता काली कवल-कल्मष-कामिा ।
कुल-पष्प-रङ्ग-सू
ु ु
त्र-मवण-ग्रवि-सिोभना ॥१६४॥
कम्बोज-िङ्ग-िेििा कुल-िासवक-रवक्षका
ु ।

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कुल-िािं-विया िावन्ताः कुल-िावन्ताः कुलेश्वरी ॥१६५॥


कुिल-प्रवतभा कािी कुल-षट्चि*-भेविनी । *षि-चि = कुण्डली-६-चि-भेिनेिाली
कुल-षि-पद्म-मध्यिा, कुल-षि-पद्म-िीवपनी ॥१६६॥
कृ ष्ण-माजाार-कोलिा कृ ष्ण-माजाार-षवष्ठका ।
कुल-माजाार-कुवपता कुल-माजाार-षोडिी ॥१६७॥
कालान्तक-िलोत्पन्ना कवपलान्तक-घावतनी ।
कलहासा कालहश्री कलहाथाा कलामला ॥१६८॥
कक्षपपक्षरक्षा* च कुक्षेत्र-पक्ष-संक्षया । *कक्षप-पक्ष-रक्षा
काक्ष-रक्षा-सावक्षणी च महामोक्ष-प्रवतवष्ठता ॥१६९॥
अका -कोवि-ितच्छाया आिीवक्षवक-कराचीता ।
कािेरी-तीर-भूवमिा आिेयाका -अिं-धावरणी ॥१७०॥
इं स्त्रक श्रीं काम-कमला पात ु कै लास-रवक्षणी ।
मम श्रीं ईं बीजरूपा पात ु काली विर-िलम ॥१७१॥
उरु-िलाब्जं सकलं तमोल्का पात ु कावलका ।
ऊडुम्बन्यका -रमणी उष्ट्रेग्रा कुल-मातृका ॥१७२॥
कृ तापेक्षा कृ वतमती कुङ्कारी* स्त्रक-वलवपविता । *कुङ-कारी
कं ु -िीघा-स्वरा कॢप्ता च कें कै लास-कराचीका ॥१७३॥
कै िोरी कैं करी कैं कें बीजाख्या नेत्र-यग्ु म-कम ।
कोमा* मतङ्ग-यवजता कौिल्यावि कुमावरका ॥१७४॥ *कोमा ?= क-ऊमा
पात ु मे कणा-यग्ु मन्त ु िौं िौं जीि-करावलनी ।
गण्ड-यग्ु मं सिा पात ु कुण्डली अङ्क-िावसनी ॥१७५॥
अका कोवििताभासा* अक्षराक्षर-मावलनी । * अका -कोवि-ित-आभासा
आितु ोष-करी हस्ता कुलिेिी वनरञ्जना ॥१७६॥
पात ु मे कुल-पष्पाढ्या
ु पृष्ठिेि ं सकृु त्तमा ।
कुमारी कामना-पूणाा पाश्वा-िेि ं सिाित ु ॥१७७॥
िेिी कामाख्य-का िेिी पात ु प्रत्यवङ्गरा कविम ।
कविि-िेिता पात ु वलङ्ग-मूलं सिा मम ॥१७८॥

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ु ि ं कावकनी मे वलङ्गाधाः* कुल-स्त्रसवहका ।


गह्यिे *वलङ्गाधाः = वलङ्ग-अधाः*
कुल-नागेश्वरी पात ु वनतम्ब-िेिम-उत्तमम ॥१७९॥
कङ्काल-मावलनी िेिी मे पात ु चारुमूलकम* । *? चारुमूलकम = च-उरु-मूलकम
जंघा-यग्ु मं सिा पात ु कीतीाः चिापहावरणी* ॥१८०॥ *चिाप-हावरणी
पाि-यग्ु मं पाक-संिा पाक-िासन-रवक्षका ।
कुलाल-चि-भ्रमरा पात ु पािाङ्गल
ु ीमाम* ॥१८१॥ *पाि-अङ्गल
ु ी-माम
नखाग्रावण* ििविधा तथा हस्त-द्वयस्य च । *नख-अग्रावण
स्त्रििरूपा कालनाक्षा सिािा पवर-रक्षत ु ॥१८२॥
कुलच्छत्राधार-रूपा कुल-मण्डल-गोवपता ।
कुल-कुण्डवलनी माता कुल-पवण्डत-मवण्डता॥१८३॥
काकाननी काक-तण्ु डी काकायाःु प्रखराका जा ।
काक-ज्वरा काक-वजह्वा काकावजज्ञा-सन-विता ॥१८४॥
कवपध्वजा कवपिोिा कवपबाला वहकस्वरा ।
कालकाञ्ची-स्त्रििवतिा सिा स्त्रििनखाग्रहम* ॥१८५॥ *स्त्रिि-नख-अग्रहम
पात ु िेिी कालरूपा कवलकालफलालया* । *कवल-काल-फलालया
ु थे ॥१८६॥ *िून्य-आगारे = सनसान
िाते िा पिात े िा-अवप िून्यागारे* चतष्प ु जगह
कुलेन्द्र-समयाचारा कुलाचार-जनवप्रया ।
कुलपिात-संिा च कुल-कै लास-िावसनी ॥१८७॥
महा-िािानले पात ु कुमागे कुवित-ग्रहे ।
राज्ञोऽवप्रये राजिश्ये महाित्र-ु विनािने ॥१८८॥
कवल-काल-महालक्ष्मीाः विया-लक्ष्मीाः कुलाम्बरा ।
कलीन्द्र-कीवलता कीला कीलाल-स्वगा-िावसनी ॥१८९॥
िि-विक्ष ु सिा पात ु इन्द्राविििलोकपा*। *इन्द्र-आवि-िि-लोकपा
निवच्छन्ने सिा पात ु सूयााविक-निग्रहा ॥१९०॥ *सूयााविक = सूय-ा आविक
पात ु मां कुल-मांसाढ्या कुलपद्म-वनिावसनी ।
कुल-द्रव्य-वप्रया मध्या षोडिी भिने
ु श्वरी ॥१९१॥
विद्यािािे वििािे च मत्तकाले महाभये ।

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दुभीक्षावि-भये च ैि व्यावध-सङ्कर-पीवडते ॥१९२॥


काली-कुल्ला कपाली च कामाख्या कामचावरणी ।
सिा मां कुल-संसगे पात ु कौले ससङ्गता
ु ॥१९३॥
े े च कुलरूपा सिाित ु ।
सिात्र सिािि
॥ फलश्रतु ी ॥
इत्येतत कवथतं नाथ माताःु प्रसाि-हेतनु ा ॥१९४॥
अष्टोत्तर-ितं नाम सहस्रं कुण्डली-वप्रयम ।
कुल-कुण्डवलनी-िेव्यााः सिा-मन्त्र-सवसिये
ु ॥१९५॥

सिाििे -मनूनाञ्च च ैतन्याय सवसिये ।
अवणमाद्यष्ट*-वसियथं साधकानां वहताय च ॥१९६॥ *अवणमा-आद्य-अष्ट:(अष्ट वसविाः)
ब्राह्मणाय प्रिातव्यं कुल-द्रव्य-पराय च ।
अकुलीनेऽब्राह्मणे* च न िेयाः कुण्डली-स्तिाः। *अकुलीने-अब्राह्मणे:
प्रिृत्त े कुण्डली-चिे सिे िणाा वद्वजातयाः॥१९७॥
वनिृत्त े भ ैरिी-चिे सिे िणाााः पृथक--पृथक ।
कुलीनाय प्रिातव्यं साधकाय वििेषताः ॥१९८॥
िानािेि* वह वसविाः स्यान्ममाज्ञा-बल-हेतनु ा । *िानािेि =िानाि-इि
ु न संियाः॥१९९॥
मम वियायां यवस्तष्ठेि (याःवतष्ठेि ) मे पत्रो
ु ाः स िासिाः।
स आयावत मम पिं जीिन्मक्त
आसिेन समांसने कुलििौ महावनवि ॥२००॥
( *आसिेन समांसने ? = आसि-एन, स-मांसने )

नाम प्रत्येकम-उच्चाया जहुयात काया-वसिये ।
े ा भिेि-यवताः॥२०१॥
पञ्चाचार-रतो भूत्त्वा ऊध्वारत
संििरान-मम िाने आयावत नात्र संियाः।
एवहके कायवसविाः स्यात िैवहके सिावसवि-िाः॥२०२॥
ििी भूत्त्वा वत्र-मागािााः स्वगा-भूतल-िावसनाः।
अस्य भृत्यााः प्रभिवन्त इन्द्र-आवि-लोकपालकााः॥२०३॥

स एि योगी परमो यस्याथेऽयं* स-वनश्चलाः। *यस्याथे-अयं

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ु ोपमाः॥२०४॥
स एि खेचरो भक्तो नारि-आवि-िक

यो लोकाः प्रजपत्येि*ं स वििो न च मानषाः। *प्र-जपत्य-एिं
स समावधगतो वनत्यो ध्यानिो योवग-िल्लभाः॥२०५॥
ु हू ा -गतो िेिाः सहसा नात्र संियाः।
चतव्य
ु ॥२०६॥
याः प्र-धारयते भक्त्या कण्ठे िा मस्तके भजे
ु विद्यानाथाः स्वयं-भवि
स भिेत कावलका-पत्रो ु ।

धनेिाः पत्रिान योगी यतीिाः सिागो भिेत ॥२०७॥
िामा िामकरे धृत्त्वा सिा-वसिीश्वरो भिेत ॥२०८॥
ु मानषी
यवि पठवत मनष्यो ु िा महत्या ।

सकल-धन-जनेिी पवत्रणी जीि-ििा ।
कुलपवतवरह* लोके स्वगा-मोक्ष ैक-हेताःु , *कुलपवतर-इह
स भिवत भिनाथो योवगनी-िल्लभेिाः॥२०९॥
पठवत य इह वनत्यं भवक्त-भािेन मत्यो
हरणमवप* करोवत प्राण-विप्राण-योगाः। *हरणम-अवप
ु कोवि-जन्माघ-नाि।
स्तिन-पठन-पण्यं
कवथतमु -अवप न िक्तोऽहं महा-मांस-भक्षा ॥२१०॥

इवत श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोर्द्ीपने वसिमन्त्रप्रकरणे षट्चिप्रकािे


भ ैरिीभ ैरिसंिािे महाकुलकुण्डवलनी अष्टोत्तरसहस्रनामस्तिकिचं नाम
षस्त्रिंित्तमाः पिलाः॥३६॥

इवत श्री-रुद्रयामले उत्तर-तन्त्रे महातन्त्र-उर्द्ीपने वसि-मन्त्र-प्रकरणे षि-चि-प्रकािे


भ ैरिी-भ ैरि-संिािे " महा-कुल-कुण्डवलनी अष्टोत्तर-सहस्रनाम-स्ति-किचं"
नाम षि-स्त्रत्रित-तमाः पिलाः॥३६॥

( * अथ ा- यह "महा-कुल-कुण्डवलनी अष्टोत्तर-सहस्रनाम-स्ति-किच" रुद्रयामल तन्त्र के ,


उत्तर-तन्त्र से, ३६-िें-अध्याय से है । यह भ ैरिी और भ ैरि के बीच संिाि के रुप में है)

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(Basic - Information About This Sahastranama )


लकसी भी सहस्त्रनाम, कवच या स्तोत्र में मख्ु यतः ३-भाग होतें हैं ।
१. पवू य पीलठका
२. मख्ु य भाग - ( लवलनयोग, ध्यान, न्यास के साथ, मख्ु य स्तोत्र का भाग)
३. फलश्रतु ी
॥ पवू य पीलठका - में कवच, सहस्रनाम को पहली बार कब, कहां लकस देवी-देवता-या ऋलि-मनु ी
ने, लकस देवी-देवता-या ऋलि-मनु ी से पछ ू ा, लकसने लकसको कब बताया- ये सब बताया जाता
है, इसकी जानकारी दी हुई होती है । पाठ की लवलध, कोई लवशेि बात, जैसे पाठ का टया-टया फल
है, इस सहस्त्रनाम, या कवच को टयों पढ़ना चालहये इत्यालद-२ ।

जैसे इस सहस्रनाम के पवू य भाग से पता चलता है की, आनन्द भैरव जी के पछ


ू ने पर आनन्द भैरवी
ने उन्हें बताया था ।

इस सहस्त्रनाम के पाठ के ललये पजू ा-पाठ , ध्यान -जप की कोई जरूरत नहीं है, यह बहुत ही गप्तु
लवद्या है , और इसका पाठ ही काफी है । ( श्लोक 3- देख)ें

लवलनयोगः- में यह लकस देवी या देवता का स्तोत्र, कवच या सहस्रनाम है, इसके ऋलिः कौन हैं ।
इसका छन्द टया है (बोलने का तरीका, सरु , लय और ताल), बीज-टया है, शलि -टया है, कौन
सी है । कीलक - टया है। और आप लकस ललये पाठ कर रहें हैं । यह सारी जानकारी पाठ करने
वाले को अच्छी तरह से होनी चालहये, लक वो लकस देवी या देवता का पाठ कर रहा है, और टयों
कर रहा है, इत्यालद ।

यहां इस लवलनयोग- में बताया गया है की, इस


सहस्रनाम के ऋलिः - ब्रह्मिीः हैं,
सहस्रनाम का छन्दः - जगतीः है ।
इस स्तोत्र की देवी- भगवती महाकुण्डली- माता है,
और साधक सवय-योग-लसलद्ध-समद्ध ृ ी के ललये कर रहा है । ।

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(( शलि-धमय-अथय-काम-मोि-प्राप्त कृपा प्राप्त करने के ललये इसका पाठ कर रहा है । ))


या जैसी इच्छा हो, साधक वैसे ही शब्दों का चयन करें और बोले, इससे आपकी साधना का फल
प्राप्त करने में सहायता लमलती है ॥
लवलनयोग - एक बार की पजू ा मे, एक बार शरुु में पढ़ते हैं ।
फलश्रतु ी -
में इसका पाठ पढ़ने का टया-२ फल प्राप्त होता है ।
पाठ कै से करना है । लकस लदन-पाठ करने का टया फल लमलता है । लकतने-२ पाठ का टया-२
फल है । इस स्तोत्र के पाठ का कोई लवशेि लदन है तो वह भी, इसमें लदया हुआ होता है ।
देव-या देवी को भोग में टया-टया देना चालहये, उन्हे टया-पसदं है, इत्यालद-२ जानकारी होती है,
आप बार-बार फलश्रतु ी को ध्यान से देखगें े तो उस स्तोत्र, कवच या सहस्रनाम की बहुत सी गप्तु
जानकारी आपको लमलेगी । इस ज्ञान से आपकी भलि और लवश्वास को बल लमलता है ।

हमें जब एक बार से ज्यादा पाठ करना है तो स्तोत्र, सहस्रनाम, या कवच का एक बार परू ा पाठ
करते हैं, और अतं में एक बार लफर परू ा पाठ करते हैं । बीच में बार -बार मख्ु य स्तोत्र, सहस्रनाम,
या कवच का पाठ करतें है

उदाहरण के ललये - अगर हमने ७ या ११ या २१-पाठ प्रलतलदन पढ़ने का सक ं ल्प ललया है तो,
प्रथम बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
लफर बीच में ५ या ९-या-१९-बार के वल मख्ु य सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
अंत में लफर एक बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे ।
तो कुल ७ -या-११ या २१- पाठ हो जायेगा । ऐसा ही आप अपनी सक ं लल्पत सख्ं या में करें और
समझें ।
बहुत बार पवू य भाग या फलश्रतु ी उप्लब्ध नहीं होता है , तो कोई बात नहीं , या अगर यह दोनो
भाग बहुत लंबा-चौड़ा है, तो लोग समय की कमी से इसे छोड़ देते हैं । पर जब भी समय हो, लवशेि
लदनों मे, कभी-२ जरूर पढ़ें ।

। नोट: यह एक साधारण सा लनयम और ज्ञान है, यह एक फामयल ू े की तरह, हर स्तोत्र, कवच या


सहस्रनाम पर, उसके अपने पवू य पीलठका, लवलनयोग, ध्यान, देवता, पाठ और फलश्रतु ी के साथ,
इसी तरह से लागू होगा ।
आप गरुु , गणेश, लशव जी का सलं िप्त पजू ा लकसी भी पजू ा के पहले कर सकते हैं ।

Kakaar_Kundalini_1000_Stotra(v1)

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