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।। युग्ममाला व सूक्तिसुधा ।।

१)यथा चिुर्भिःकनकं परीक्ष्यिे ननघर्षणच्छे दनिापिाडनिः। िथा चिुर्भिः पुरुर्िः


परीक्ष्यिे श्रुिेन शीलेन गुणेन कमषणा ।।

अर्थ- ज्याप्रमाणे सोन्याची परीक्षा चार प्रकाराांनी करतात घासून; तुकडा पाडू न;

तापवून आणण आघात करून तसांच माणसाांची परीक्षा त्याच णिक्षण; चाणरत्र्य; घराणां

आणण काम यावर करतात.

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२) यत्र नवद्वज्जनो नाक्ति श्लाघ्यतित्राल्पधीरनप। ननरतिपादपे दे शे एरण्डोऽनप


दृमायिे ।।

अर्थ- जेर्े णवद्वान नाहीत, णतर्े बेताची अक्कल असणाऱ्या माणसाचां कौतुक होत.

णजर्े मोठमोठी झाडे नाहीत, अिा प्रदे िात एरां डा [सारख्या झुडपाला] सुद्धा वृक्ष

असा मान णमळतो.

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३)यदा नकक्चचज्ञोऽहं नद्वप इव मदान्धिः समभवं िदा सवषञोऽतमीत्यभवदवनलप्िं

मम मनिः। यदा नकक्चचक्त्कक्चचद् बुधजनसकाशादवगिं िदा मुर्खोऽतमीनि ज्वर इव


मदो मे व्यपगििः ।।

अर्थ- जेंव्हा मी अगदी र्ोडे से णिकलो तेंव्हा मी अगदी सवथज्ञ आहे असा मला गवथ

झाला. मी हत्तीप्रमाणे मदाांध झालो. [नांतर] जेंव्हा मी, र्ोडा र्ोडा ज्ञानी

लोकाांच्या सहवासात आलो, तेंव्हा मला समजलां [की खरां तर] मी मूखथच आहे . [आणण]

ताप ज्याप्रमाणे उतरतो त्याप्रमाणे माझा उन्मत्तपणा णनघून गेला.

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४) िावद्भयाद् नह भे िव्यं यावद्भयमनागिम्। आगिं िु भयं वीक्ष्य प्रहिष व्यमभीिवत्।।


अर्थ-जो पयंत भीतीदायक पणरस्थर्ती आली नाही तोपयंतच आपण घाबरावां. पण तिी
पणरस्थर्ती आल्यावर अगदी न भीता उलट प्रणतकार करावा.
।। युग्ममाला व सूक्तिसुधा ।।
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५)उत्तमो नानि वतिा तयादधमो बहु भार्िे । सुवणें न ध्वननतिादृग्यादृतकांतये


प्रजायिे ।

अर्थ- र्ोर माणूस फार बोलत नाही. अणत बडबड करणारा माणूस क्षुद्र असतो. कािाचा

जेवढा आवाज येतो तेवढा सोन्याचा येत नाही.

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६)यादृशं वपिे बीजं क्षे त्रमासाद्य कर्षकिः। सुकृिे दुष्कृ िे वानप िादृशं लभिे
फलम्।। (महाभारि, अनुशानपवष 6/6)

अर्थ- िेतकरी जसा िेतात जाऊन बी पेरतो तश्याच फळाची त्याला प्राप्ती होते.

तश्याच प्रकारे (मनुष्याला) चाांगल्या-वाईट कामाची फळे प्राप्त होतात.

ज्यांना या पूवी पाठवलेली भार्ांिरे नमळाली नाहीि


त्यांच्या कनरिा पुन्हा सूक्तिसुधा दे ि आहे .
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।। ३.सूक्तिसुधा ।।
१)नवद्या नाम नरतय रूपमनधकं प्रच्छन्नगुप्िं धनं नवद्या भोगकरी यशिःसुर्खकरी नवद्या
गुरूणां गुरु: । नवद्या बन्धुजनो नवदे शगमने परं दे विं नवद्या राजसु पूज्यिे न नह धनं
नवद्यानवहीनिः पशु: ।।

अर्थ- णवद्या हे च पुरुषाचां (थरी-पुरुष मतभेद नाही हा, नर= मनुष्य) सगळ्यात चाांगलां रूप
आहे , जणू ते एक गुप्तधनच आहे .णवद्येमळ
ु े माणूस अनेकणवध भोग भोगू िकतो (णवद्येच्या
जोरावर अर्ाजथन करता येते, ज्यातून अनेकणवध भोग भोगता येऊ िकतात) णवद्येने
यिप्राप्ती होते आणण ते सुखाचां एक कारण आहे . णवद्या ही सगळ्यात मोठी गुरू आहे .
परदे िात (ककवा परराज्यातही) णवद्या ही एखाद्या भावासारखी (ककवा नातेवाइकासारखी)
असते. अिी णवद्या हे सवात श्रेष्ठ दै वत आहे . (म्हणूनच) राजे लोक णवद्येला (णवद्या
असणार्याला) पुजतात, धनाला नाही. त्यामुळे ज्याच्याकडे णवद्या नाही तो पिूच समजला
पाणहजे.
।। युग्ममाला व सूक्तिसुधा ।।
२)ननन्दन्िु नीनिननपुणा यनद वा तिुवन्िु, लक्ष्मीिः क्तथरा भविु गच्छिु वा यथे ष्टम्
।अद्यव वा मरणमतिु युगान्िरे वा न्याय्यात्पथिः प्रनवचलक्न्ि पदं न धीरािः॥

अर्थ- णनतीिाथराचे जाणकार कनदा करोत अर्वा थतुती करोत, सांपत्ती स्थर्र राहो वा खुिाल
जावो, मृत्यू आजच येवो अर्वा दीघथ काळाने , धाडसी माणसाांचे पाय मार न्याय/
सन्मागावरून कधीही णवचणलत होत नाहीत.

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३)आत्मनो मुर्खदोर्ेण बध्यन्िे शुकसानरका: । बकातित्र न बध्यं िे मौनं


सवाथष साधनम् ॥

अर्थ-पोपट आणण साळुां क्या थवत:च्या गोड आवाजाच्या [खरां तर गुण पण लोकाांनी
पकडण्याच्या दष्ृ टीने] दोषामुळे बांधनात पडतात. बगळे [काही आवाज करत नसल्यामुळे]
पकडले जात नाहीत [म्हणून] मौन हे सवथ हव्या असलेल्या गोष्टी णमळवण्याचे साधन आहे .

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४)रथतयकं चक्रं भुजगयानमिा: सप्ििुरगािः । ननरालम्बो मागषश्चरणनवकलिः


सारनथरनप ।रनवयात्यन्िं प्रनिनदनमपारतय नभसिः । नक्रयानसनधिः सत्त्वे भवनि महिां
नोपकरणे ।।

अर्थ- रर्ाला एकच चाक आहे , रर् हाकणारे साती घोड़े सापाने वेढलेले आहे त, काहीही
आधार नसलेला रथता आहे आणण रर्ाचा सारर्ी एका पायाने अधू आहे , (अिा सगळ्या
अडचणी असताना दे खील ) सूयथ अनांत अिा आकािातून रोज मागथक्रमण करीत असतो.
महान लोकाांची कायथणसद्धी खरोखर त्याांना उपलब्ध असलेल्या साधनाांवर अवलांबन
ू नसून
त्याांच्या थवतःच्या पराक्रमावर अवलांबन
ू असते.

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५) अल्पानामनप वतिूनां संहनििः कायष सानधका । िृणगुषणत्वमापन्नबष ध्यन्िे


मत्तदक्न्िनिः।। अर्थ- अगदी लहान वथतूांच्या समूहामुळे काम यिथवी होऊन जाते. [अगदी
कमी मजबुती असलेल्या ] गवताचा दोर वळला की त्याने माजलेले हत्ती [एवढे िस्क्तमान
असूनही ] सुद्धा बाांधता येतात.
।। युग्ममाला व सूक्तिसुधा ।।
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६)प्रथमवयनस पीिं िोयमल्पं तमरन्ििः नशरनस नननहिभारा नानरकेला नराणाम्।ददनि


जलमनल्पातवादमाजीनविान्िं न नह कृ िमुपकारं साधवो नवतमरक्न्ि।।

अर्थ- बालवयात प्यायलेले र्ोडे से पाणी लक्षात ठे वत नारळाांचा भार आयुष्यभर डोक्यावर
धारण करुन मनुष्याांना अवीट गोडीचे पाणी दे तात. खरोखरच सज्जन लोक (त्याांच्यावर)
केलेले उपकार कधीही णवसरत नाहीत.

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७)घटं नभन्द्यात् पटं नछन्द्यात् कुयाद्रासभरोहणम् । ये न केन प्रकारे ण प्रनसद्ध: पुरुर्ो


भवेत् ।।

अर्थ- भाांडी फोडावीत, कपडे फाडावेत अगदी गाढवावर सुद्धा बसावे, पण या ना त्या प्रकारे
मनुष्याने प्रणसद्ध व्हावे!

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सूचना- हा सरलाथष उदाहरणासाठी नदलेला आहे . अश्या प्रकारे नवद्यार्थ्यांनी मनाने


भार्ांिर नलनहण्याचा सराव करावा. – श्री.अमेय दीपक कानडे (अ.ए.सो.चे.
भाऊसाहे ब नफरोनदया हायतकूल,अहमदनगर) ९७६३७७६३३९

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