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Atmanushasan
Folder No. 004018
Granth Name Atmanushasan
Author Gunbhadrasuri, Pt. Todarmal,
Fulchandra Shastri
Publisher Ganesh Varni Digambar Jain Sansthan
Edition 1
Year 1983
Pages 250

आत्मानुशासन

फोल्डर नं. ००४०१८


ग्रन्थ आत्मानुशासन
लेखक गुणभद्रसूरर, पं. टोडरमल, फू लचन्द्र शास्त्री
प्रकाशक गणेश वणी ददगम्बर जैन संस्थान
आवृत्ति १
प्रकाशन वषष १९८३
पृष्ठ २५०

मुख्य टाइटल
प्रकाशकीय
प्रोलोग्यु
प्रस्तावना ------------------------------------------------------------------------------------------------------------ १
दो शब्द ------------------------------------------------------------------------------------------------------------ ३३
त्तवषय सूची--------------------------------------------------------------------------------------------------------- ३५
मंगलाचरणपूवषक आत्मानुशासन के कथनकी प्रत्ततज्ञा ----------------------------------------------------------------- १
पापहारी सुखकारी त्तशक्षा देनेकी सूचना ------------------------------------------------------------------------------ २
गणी वक्ताका स्वरूप ------------------------------------------------------------------------------------------------- ५
मूढतारत्तहत सम्यग्दशषन और उसके भेद-प्रभेद ----------------------------------------------------------------------- १०
धमष जीवनका आवश्यक अंग है इसकी त्तसत्ति ----------------------------------------------------------------------- १८
धमषको भूलना ही पापका कारण है, सुखानुभव नहीं ---------------------------------------------------------------- २७
इत्तन्द्रयसुखकी अनुपादेयताकी सकारण त्तसत्ति ----------------------------------------------------------------------- ३४
पात्र बनना उत्तचत नहीं --------------------------------------------------------------------------------------------- ४०
भावी जीवनकी त्तचन्ता दकये त्तबना कामी पुरुष क्या क्या त्तनन्य कायष नहीं करता ----------------------------------- ५१
बन्दीगृहके समान शरीरमें प्रीत्तत करना व्यथष है --------------------------------------------------------------------- ५९
स्वाधीन सुखके कारण तपत्तस्वयों की प्रशंसा ------------------------------------------------------------------------ ६६
स्त्री शरीर प्रीत्ततके योग्य नहीं --------------------------------------------------------------------------------------- ८०
घोर तपश्चरणका उदाहरणपूवषक त्तनदेश----------------------------------------------------------------------------- ८८
सुबुत्तिको पाकर प्रमाद करना त्तववेकका लक्षण है ------------------------------------------------------------------- ९४

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इस प्राणीकी अजाकृ पाणीय और सुखके त्तलये अन्धकवतषकीयकी सी दशा हो रही है ------------------------------- १००
अज्ञा आददकी प्रवृत्तिका और त्तवरत्तक्तका फलत्तनरूपण ------------------------------------------------------------- १०६
परमाथषसे समाधइ में कष्टका लेश नहीं ---------------------------------------------------------------------------- ११२
उदाहरणद्वारा अधोगत्ततके कारण रागका त्तनषेध ------------------------------------------------------------------ १२४
स्थानभ्रष्ट पुष्पके समान गुणक्षत्तत लघुताका कारण --------------------------------------------------------------- १३९
दकसके द्वारा की गई त्तनन्दा प्रीत्ततकर और दकसके द्वारा की गई स्तुत्तत अप्रीत्ततकर होती है इस बातका त्तनदेश ----- १४४
तराजूके उदाहरणद्वारा याचक और अयाचकमें भेदका समथषन ---------------------------------------------------- १५३
तपश्चयाषके फलस्वरूप लौदकक अल्प फलमें क्यों सन्तुष्ट होता है -------------------------------------------------- १६१
बाह्य शत्रुके समान राग-द्वेष अन्तरं ग शत्रुको भी जीतो ----------------------------------------------------------- १६९
तत्त्वज्ञानका अभ्यास ही मोक्षका कारण -------------------------------------------------------------------------- १८०
त्तवषयत्तवरत्तक्त ही अध्यातमी होने का उपाय ---------------------------------------------------------------------- १९३
शरीर में अभेद बुत्तिका फल ही संसार में भटकना है ------------------------------------------------------------- २००
जो अपने खोटे आचरणसे आत्माको अपूज्य बना देता है उस शरीरको त्तधक्कार हो --------------------------------- १०९
वतषमान में गुण रत्तहत होकर भी अहंकार से अत्तभभूत पाये जाते हैं ------------------------------------------------ २१८
ज्ञानके गवषवश आशारूप शत्रुको अल्प त्तगनना योग्य नहीं --------------------------------------------------------- २३०
कौन भावना भाने योग्य है और कौन नहीं ------------------------------------------------------------------------ २३८
बन्ध और मोक्षका क्रम -------------------------------------------------------------------------------------------- २४५
अनादद कालीन मोहके त्यागीका ही परलोक त्तवशुि होता है ----------------------------------------------------- २५५
मोक्षाथी त्तनस्पृह साधुओंका जीवन और मंगलकामना ------------------------------------------------------------ २५९
आत्मानुशासनको जानकर उसके त्तचन्तवनका फल ---------------------------------------------------------------- २६८
आददत्तजन हम सबके त्तलये मंगल स्वरूप होनेकी कामना ---------------------------------------------------------- २७०

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