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BA PROGRAMME 1

PRINCIPLES OF MICROECONOMICS 1

Ans:
उपभोक्ता का संतुलन - उपभोक्ता के संतुलन से अभिप्राय उस स्थिति से होता है जिस पर
उपभोक्ता को अधिकतम संतुष्टि प्राप्त होती है और दी गई कीमतों और उसकी दी गई
आय पर वह इसमें कोई परिवर्तन नहीं करना चाहता है ।
बजट रे खा और अनधिमान मानचित्र के विश्लेषण से उपभोक्ता के संतुलन के बिंद ु को
प्राप्त किया जाता है । अनधिमान वक्र के विश्लेषण के रूप में उपभोक्ता संतुलन की
स्थिति में तब होगा जब संतुलन की दोनों शर्ते परू ी होती हैं।
उपभोक्ता के संतल
ु न की शर्तें
 बजट रे खा तथा अनधिमान वक्र एक दस
ू रे को स्पर्श करनी चाहिए। अर्थात बजट
रे खा का ढाल तथा अनधिमान वक्र का ढाल दोनों बराबर होने चाहिए।
MRS=Px/Py
 MRS लगातार गिरती हो। अर्थात अनधिमान वक्र मूल बिंद ु की ओर उन्नतोदर हो।
उपरोक्त चित्र में IC1, IC2 और IC3 तीन अनधिमान वक्र है और AB बजट रे खा है यह
तीनों अनधिमान वक्र संतुष्टि के विभिन्न स्तर को दर्शाते हैं IC3 वक्र संतुष्टि के
अधिकतम स्तर को दर्शाता है परं तु बजट रे खा के अवरोध के कारण उपभोक्ता जिस
उच्चतम अनधिमान वक्र पर पहुंच सकता है वह IC2 है 'E' बिंद ु बजट रे खा और
अनधिमान वक्र IC2 का स्पर्श बिंद ु है यह उपभोक्ता के संतुलन का बिंद ु है जहां उपभोक्ता
को उसकी सीमित आय से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त होती है उपभोक्ता X वस्तु की OM
और Y वस्तु की ON मात्रा खरीदता है E बिंद ु उपभोक्ता के संतल
ु न का बिंद ु है जहां
उपभोक्ता के संतल
ु न की दोनों शर्तें परू ी होती हैं
 MSR=Px/Py अर्थात बजट रे खा और अनधिमान वक्र एक दस
ू रे को स्पर्श करती
है ।
 अनधिमान वक्र मूल बिंद ु की ओर उन्नतोदर है अर्थात MRS गिरती है ।
बजट रे खा पर स्थित F और G बिंद ु भी उपभोक्ता के संतुलन की शर्तों को परू ा करते हैं
परं तु यह निम्न अनधिमान वक्र IC1 पर स्थित हैं इस कारण यह संतुष्टि के निम्न स्तर
को दर्शाते हैं इस वजह से उपभोक्ता को अधिकतम संतुष्टि प्राप्त नहीं होती है इसलिए
IC1 पर स्थित F और G बिंद ु पर उपभोक्ता संतल
ु न की स्थिति नहीं हो सकती है E बिंद ु
पर ही उपभोक्ता संतल
ु न की स्थिति में होगा जहां उसे अधिकतम संतष्टि
ु प्राप्त होती है ।
बजट रे खा
बजट रे खा दो वस्तुओं के उन सभी संयोगों का ग्राफीय निरूपण होता है जिन्हें उपभोक्ता
दी गई कीमतों तथा अपनी आय को व्यय करके खरीद सकता है । बजट रे खा को कीमत
रे खा भी कहते हैं।
बजट रे खा की चित्रमय व्याख्या
 माना कि एक उपभोक्ता के पास दोनों वस्तुओं केले(X) और संतरे (Y) पर व्यय
करने के लिए ₹20 का बजट उपलब्ध है ।
 केले की कीमत ₹4 प्रति इकाई है और संतरे की कीमत ₹2 प्रति इकाई है ।
 उपभोक्ता को केले और संतरे के निम्नलिखित संयोग/बंडल प्राप्त होता है ।
 जो उपभोक्ता अपने दी गई आय और वस्तुओं की दी गई कीमत के द्वारा खरीद
सकता है ।
 इन विभिन्न संयोग से ही बजट रे खा बनती है ।
 उपरोक्त वक्र में X-अक्ष पर केले और Y-अक्ष पर संतरे की गायों को दर्शाया गया है ।
 बिन्द ु A पर उपभोक्ता अपने समस्त आय को व्यय करके केले की अधिकतम 5
इकाइयां ही खरीद सकता है ।
 इसके विपरीत बिंद ु एफ पर उपभोक्ता अपनी समस्त आय को संतरे पर व्यय करके
10 इकाइयां खरीद सकता है ।
 A और F के बीच B,C,D और E ऐसे ही विभिन्न बिन्द ु है ।
 इन सभी बिंदओ
ु ं को मिलाने से एक सरल रे खा AF रे खा प्राप्त होती है जिससे बजट
रे खा या कीमत रे खा कहते हैं।
 बजट रे खा पर स्थित सभी बिंद ु केले और संतरे के उन सभी बंडलों को दर्शाता है
जिन्हें उपभोक्ता दोनों वस्तुओं की दी कीमतों पर अपनी समस्त आय ₹20 को
व्यय करके खरीद सकता है ।
बजट रे खा में खिसकाव
 बजट रे खा उपभोक्ता की स्थिर आय और वस्तओ
ु ं की स्थिर कीमतों के आधार पर
बनाई जाती है ।
 यदि उपभोक्ता की आय में परिवर्तन हो या वस्तुओं की कीमतों में परिवर्तन हो तो
बजट रे खा खिसक जाती है ।
उपभोक्ता की आय में परिवर्तन 
 यदि केले और संतरे की कीमतों में कोई परिवर्तन ना हो परं तु उपभोक्ता की आय में
परिवर्तन से बजट रे खा खिसक जाएगी।
 उपभोक्ता की आय में वद्धि
ृ से वे दोनों वस्तओ
ु ं की अधिक मात्रा खरीद सकता है ।
 जिससे बजट रे खा AB से खिसक कर अदाएं और A1B1 हो जाएगी।

 वहीं अगर उपभोक्ता की आय में कमी हो जाए तब बजट रे खा बाई और खिसक


जाएगी।
 आय में कमी से उपभोक्ता दोनों वस्तओ
ु ं के कम बंडल खरीद सकेगा जिससे बजट
रे खा AB से खिसककर A2B2 हो जाएगी।
सापेक्षिक कीमतों में परिवर्तन
 यदि उपभोक्ता की आय में कोई परिवर्तन ना हो परं तु दोनों वस्तुओं की कीमत में
परिवर्तन हो तब बजट रे खा भी परिवर्तित हो जाती है ।
 कीमत में परिवर्तन से बजट रे खा के ढाल परिवर्तन हो जाएगा।
 क्योंकि दोनों वस्तुओं की कीमत का अनुपात बदल जाएगा।
X-अक्ष वस्तु (केले) की कीमत में परिवर्तन
 X अक्ष की वस्तु (केले) की कीमत गिरने से उपभोक्ता X अक्ष की वस्तु केले की
पहले के अपेक्षा अधिक मात्रा खरीद सकता है ।
 जिससे बजट रे खा एबी से घूम कर दाएं और A1B हो जाएगी।

 नई बजट रे खा Y अक्ष को उसी बिंद ु B पर मिलती है क्योंकि संतरे की कीमत में


कोई परिवर्तन नहीं हुआ है ।
 जबकि X अक्ष की वस्तु केले की कीमत बढ़ने पर उपभोक्ता केले की पहले की
अपेक्षा कम मात्रा खरीद सकता है ।
 जिससे बजट रे खा AB से बाई और घूमकर A2B हो जाएगी।
Y अक्ष की वस्तु (संतरे ) की कीमत में परिवर्तन
 Y अक्ष की वस्तु अर्थात संतरे की कीमत में कमी से उपभोक्ता संतरे की पहले की
अपेक्षा अधिक मात्रा खरीद सकता है ।
 जिससे बजट रे खा AB से दाई और घूमकर AB1 हो जाएगी।

 नई बजट रे खा X अक्ष को उसी बिंद ु A पर मिलती है क्योंकि केले की कीमत में कोई
परिवर्तन नहीं हुआ है ।
 वहीं अगर Y अक्ष की वस्तु संतरे की कीमत में वद्धि
ृ से उपभोक्ता उसी आय पर
संतरे की पहले की अपेक्षा कम मात्रा खरीद सकता है ।
 जिससे बजट रे खा AB बाएं और घूमकर AB2 हो जाएगी।
 अनधिमान वक्र दो वस्तुओं के ऐसे संयोगों का ग्राफीय निरूपण है जोकि उपभोक्ता
को समान संतुष्टि प्रदान करते हैं।
 अनधिमान वक्र को तटस्थता वक्र और उदासीनता वक्र भी कहा जाता है ।
 अनधिमान वक्र विश्लेषण क्रमवाचक उपयोगिता पर आधारित है ।
 इसमें उपयोगिता को सांख्यिकी रूप में नहीं मापा जाता है ।
अनधिमान तालिका
 केले और
केले   संतरों
संतरे के
(इकाईयां) (इकाईयां)
संयोग
 A  1  25
 B 2 20 
 C  3  16
D  4   13
 E  5  11

 उपरोक्त चित्र में X-अक्ष पर केले की इकाइयों तथा Y-अक्ष पर संतरों की इकाइयों
को दर्शाया गया है ।
  तालिका तथा वक्र पर स्थित A,B,C,D तथा E केले और संतरे के विभिन्न संयोगों
को दर्शाते हैं।
 यह संयोग संतुष्टि के समान स्थल को प्रदर्शित करते हैं।
 A संयोग भी उतनी ही उपयोगिता दे ता है जितनी B तथा C या कोई अन्य दे ते हैं।
 इन सभी संयोगों का ग्राफीय रूप से प्रदर्शित करने पर हमें अनधिमान वक्र प्राप्त
होता है ।
सीमांत विस्थापन की दर (MRS)
 सीमांत विस्थापन की दर से अभिप्राय उस दर से होता है जिस पर वस्तुओं को एक
दस
ू रे से प्रतिस्थापित किया जाता है ताकि उपभोक्ता की कुल संतुष्टि एक समान
रहे ।
 MRS =संतरे (X)की त्यागी जाने वाली इकाइयां।   केले (Y) की प्राप्त की जाने
वाली इकाइयां 
 तालिका में संतरे की वह मात्रा दिखाई गई है जो कि उपभोक्ता केले की एक
अतिरिक्त इकाई को प्राप्त करने के लिए त्याग करने को तैयार है ।
 केले(X) के दस
ू री इकाई अर्थात संयोग A से B आने के लिए उपभोक्ता संतरे (Y) की
5 इकाइयों का त्याग करने को तैयार है इस प्रकार MRS = 5Y : 1X होगी।
 इसी प्रकार केले(X) कि तीसरी इकाई का उपभोग अर्थात संयोग C उपभोक्ता एक
अतिरिक्त इकाई के लिए संतरे (Y) की चार इकाइयों का त्याग करने को तैयार हैं
अतः MRS = 4Y : 1X होगी।
 MRS  प्रत्येक एकत्रित इकाई के लिए क्रमशः घटती जाती है ।
 घटी हुई सीमांत उपयोगिता के नियम के कारण MRS गिरती है ।
 जैसे-जैसे उपभोक्ता केले की मात्रा बढ़ाता जाता है वैसे वैसे केले से प्राप्त होने वाली
सीमांत उपयोगिता गिरती जाती है ।
 परिणाम स्वरूप उपभोक्ता प्रत्येक केले के लिए कम से कम संतरों की इकाइयों का
त्याग करना चाहता है ।

अनधिमान वक्र की विशेषताएं


 अनधिमान वक्र बाएं से दाएं नीचे की ओर गिरता है
 एक उपभोक्ता एक वस्तु का अधिक उपभोग करता है ।
 तब उसे दस
ू री वस्तु (केले) का उपभोग पहली वस्तु (संतरे ) के उपभोग को कम
करते ही कर सकता है ।
 ताकि उपभोक्ता की कुल उपयोगिता एक समान रहे ।
 इस वजह से अनधिमान वक्र बाएं से दाएं नीचे की ओर गिरता है ।
अनधिमान वक्र मल
ू बिंद ु की ओर उन्नतोदर/उत्तल होता है
 घटती हुई सीमांत विस्थापन की दर(MRS) के कारण अनधिमान वक्र मल
ू बिंद ु की
ओर उन्नतोदर/उत्तल होता है ।
 MRS घटने का अर्थ है X वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के लिए Y वस्तु की
त्यागी गई इकाइयां क्रमशः घटती जाती हैं।
 घटती हुई सीमांत उपयोगिता के नियम के कारण MRS लगातार गिरती है ।
 MRS अनधिमान वक्र ढाल को दर्शाती है ।
ऊंचा अनधिमान वक्र संतष्टि
ु के उच्च स्तर को दर्शाता है
 ऊंचा अनधिमान वक्र वस्तओ
ु ं की बड़ी इकाइयों को दर्शाता है ।
 एकादिष्ट अनधिमान मान्यता के आधार पर अधिक इकाइयां अधिक उपयोगिता
को दर्शाती है ।

 चित्र में IC1 की तुलना में IC2 ऊंचा है ।


 IC1 में बिंद ु उपभोक्ता वस्तु X की 4 इकाइयां तथा वस्तु Y की 5 इकाइयां प्राप्त
करता है ।
 जबकि IC2 में बिंद ु B पर उपभोक्ता वस्तु X की 6 इकाईयां तथा वस्तु Y की 5
इकाइयां प्राप्त करता है ।
 अतः उपभोक्ता बिंद ु B पर वस्तु X की 2 अतिरिक्त इकाइयां प्राप्त करता है ।
 एकदिष्ट अनधिमान की मान्यता (अधिक उपभोग, संतष्टि
ु के उच्च स्तर को
दर्शाती है ) के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि बिंद ु A की तुलना में बिंद ु B
संतुष्टि के उच्च स्तर को दर्शाता है ।
 जिसका अर्थ है IC1 की तुलना में IC2 संतुष्टि के उच्च स्तर को दर्शाता है ।
अनधिमान वक्र कभी भी एक दस
ू रे को नहीं काट सकते
 एक अनधिमान वक्र पर स्थित सभी बिंद ु संतुष्टि के समान स्तर को दर्शाते हैं।
 यदि दो अनधिमान वक्र एक दस
ू रे को किसी बिंद ु पर काटते हैं।
 तो यह बिंद ु दर्शाता है कि दोनों वक्रों की उपयोगिता समान है ।
 दो अनधिमान वक्र संतष्टि
ु के समान स्तर को नहीं दशा सकते।
 अतः वह एक दस
ू रे को नहीं काट सकते हैं।


 IC1 पर स्थित बिंद ु A और B संतुष्टि के समान स्तर को दर्शाते हैं।
 इसी प्रकार IC2 पर स्थित A और C बिंद ु भी संतुष्टि के समान स्तर को दर्शाते हैं।
 क्योंकि A=B तथा A=C है इसलिए B=C होगा।
 परं तु यह संभव नहीं है क्योंकि B और C दो विभिन्न अनधिमान वक्रों पर स्थित हैं
और संतष्टि
ु के विभिन्न स्तर को दर्शाते हैं।
 इस प्रकार दो अनधिमान वक्र एक दस
ू रे को नहीं काट सकते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के उस रूप का नाम है जिसमें विक्रेताओं की संख्या की कोई सीमा
नहीं होती। फ़लतः कोई भी एक उत्पादक (विक्रेता) बाजार में वस्तु की कीमत पर प्रभाव
नहीं डाल सकता। अर्थशास्त्र में बाजार को मख्
ु त्यः दो रूपों में बांटा जाता है : पर्ण

प्रतियोगिता और अपूर्ण प्रतियोगिता। बाजार संरचना के दो चरम बिन्दओ
ु ं पर पूर्ण
प्रतियोगिता और एकाधिकार हैं। .
पूर्ण प्रतियोगिता के होने के लिये कुछ पूर्वानुमान लिये जाते हैं जो इस प्रकार हैं :
१. प्रत्येक उत्पादक बाजार की पूरी आपूर्ति का इतना छोटा हिस्सा प्रदान करता है की वो
अकेला बाजार में वस्तु की कीमत पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता।
२. प्रत्येक उत्पादक के द्वारा बनाई गयी वस्तु समान होती है ।
३. प्रत्येक उत्पादक बाजार में उप्लब्ध उत्पादन तकनीक तक पहुंच रखता है ।
४. किसी भी नये उत्पादक के बाजार में आने पर अथवा बाजार में उपस्थित किसी
उत्पादक के बाजार से निकलने पर कोई रोक टोक नहीं है ।
५. बाजार में विद्यमान प्रत्येक क्रेता और विक्रेता को बाजार का पूर्ण ज्ञान है ।
यद्यपि पूर्ण प्रतियोगिता व्यावहारिक जीवन में सम्भव नहीं है , पर शेयर बाजार इसकी
विशेषताओं की दृष्टि से बहुत पास पहुंच जाता है । कृषि क्षेत्र(चावल, गेहूं आदि) में भी
प्रतियोगिता पूर्ण प्रतियोगिता के समान ही होती है ।
पूर्ण प्रतियोगिता में कोई भी विक्रेता वस्तू का मूल्य स्वंय निर्धारित नहीं कर सकता। अतः
वस्तु का मूल्य बाजार में निर्धारित होता है । मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया को समझने के
लिये मांग और आपूर्ति को समझना आवश्यक है ।
मांग: एक निश्चित मल्
ू य पर किसी वस्तु की जितनी मात्रा लोग खरीदना कर उपयोग
करना चाहते हैं उसे वसतू की मांग कहते हैं।
आपर्ति
ू : किसी वस्तु के उत्पादक उसकी जितनी मात्रा एक निर्धारित मल्
ु य पर बाजार में
बेचना चाहते हैं उसे वस्तू की बाजार में आपूर्ति कहते हैं।
जब बाजार में कोइ वस्तु आती है तो उसके मांग और उसकी आपूर्ति में सम्बन्ध स्थापित
होता है और मूल्य का निर्धारण होता है ।
विक्रेता द्वारा उपयुक्त विक्रय परिमाण का निर्धारण
पूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेता का मांग-वक्र पुर्णतः लोचशील होता है क्योंकि वह बाजार
निर्धारित मल्
ू य पर जितना चाहे उत्पादन कर सकता है और उसे बेच सकता है । अतः उसे
उप्यक्
ु त परिमाण निर्धारित करने के लिये अपने सीमांत लागत वक्र का निर्धरण करना
होता है । सीमांत लागत का अर्थ है वर्तमान स्थिति में एक और वस्तु के उत्पाद करने का
लागत। सीमांत लागत वक्र अंग्रज
े ी के अक्षर 'U' के आकार का होता है । इस्का अर्थ है कि
जब उत्पादन क्षमता का परू ा प्रयोग नहीं हो रहा है तब सीमांत लागत घट रहा होता है , एक
निश्चित क्षमता तक पहुंचने के बाद यह बढ़ने लगता है । जिस बिन्द ु पर सीमांत लागत
वक्र उत्पादक के मांग वक्र को काटता है , उस बिन्द ु पर उपयुक्त उत्पादन का निर्धारण
होता है ।
जब उत्पादक एक वस्तु का उत्पादन करता है तो उसका मख्
ु य उद्देश्य होता है लाभ। जब
सीमांत लागत अर्थात एक इकाई के उत्पादन का लागत बाजार में स्थापित वस्तु के मल्
ु य
से ऊपर चला जाता है तो इसका अर्थ है कि विक्रेता को उसके उत्पादन से घाटा होगा। अतः
जिस बिन्द ु पर सीमांत लागत वक्र, विक्रेता के मांग वक्र को काट कर उसके ऊपर चला
जाता है , उस बिन्द ु के पार उत्पादन करने से विक्रेता को अपना उत्पाद लागत से कम भाव
पर बेचना होगा। अतः उत्पादक इस बिन्द ु पर पहुंचने के उपरान्त उत्पादन रोक दे ता है ।
अल्पकाल में पूर्ण प्रतियोगी फर्म का सन्तुलन (Short-Term Equilibrium of
Perfectly Competitive Firm):
हम यह अध्ययन कर चुके हैं कि अल्पकाल वह समयावधि है जिसमें उत्पत्ति के समस्त
साधनों को परिवर्तित नहीं किया जा सकता । अल्पकाल में उत्पत्ति के कुछ साधन स्थिर
एवं अपरिवर्तनीय रहते हैं ।
अल्पकाल की इस समयावधि में केवल परिवर्तनशील साधन (जैसे – श्रम, कच्चा माल
आदि) में परिवर्तन करके ही उत्पादन स्तर में कमी या वद्धि
ृ की जा सकती है । अल्पकाल
इतनी सूक्ष्म समयावधि है कि उद्योग में न तो अतिरिक्त फर्में प्रवेश कर सकती हैं और न
ही उद्योग में कार्य कर रही फर्में उद्योग को छोड़ सकती हैं ।
सन्तुलन की शर्तों के आधार पर एक पूर्ण प्रतियोगी फर्म अल्पकाल में निम्नलिखित
दशाओं में रह सकती है :
(i) लाभ की दशा (Profit Situation)
(ii) सामान्य लाभ की दशा (Normal Profit Situation)
(iii) हानि की दशा (Loss Situation)
(i) फर्म का अल्पकालीन सन्तल ु न : लाभ की दशा (Short-Term Equilibrium of
Firm : Profit Situation):
चित्र 14 में पूर्ण प्रतियोगी फर्म के अल्पकालीन लाभ की दशा स्पष्ट की गयी है ।

SAC तथा SMC क्रमशः अल्पकालीन औसत लागत वक्र तथा अल्पकालीन सीमान्त
आगम वक्र को प्रदर्शित करते हैं । पर्ण
ू प्रतियोगिता की दशाओं के अनस
ु ार सीमान्त आगम
(MR) तथा औसत आगम (AR) बराबर होते हैं जिसे चित्र में X-अक्ष के समानान्तर पड़ी
रे खा के रूप में दिखाया गया है ।

सन्तुलन की शर्तों के अनुसार बिन्द ु E पर फर्म सन्तुलन प्राप्त करे गी क्योंकि इस बिन्द ु पर
MR और MC बराबर हैं तथा SMC वक्र MR वक्र को नीचे से काट रहा है ।
सन्तल
ु न बिन्द ु E पर,
उत्पादन मात्रा = OQ
प्रति इकाई कीमत = OP अथवा EQ
औसत लागत = OR अथवा TQ
प्रति इकाई लाभ = EQ – TQ = ET (अथवा PR)
फर्म का कुल लाभ = प्रति इकाई लाभ × उत्पादन = PRET क्षेत्रफल
(ii) फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन: सामान्य लाभ की दशा (Short-Term
Equilibrium of Firm: Normal Profit Situation):

यदि बाजार में कीमत (माँग एवं पूर्ति दशाओं द्वारा निर्धारित उद्योग की कीमत) फर्म की
लागत दशाओं की तल
ु ना में केवल इतनी ही है कि फर्म की औसत लागत (AC) तथा वस्तु
की कीमत (AR) बराबर हों तो ऐसी स्थिति फर्म के लिए सामान्य लाभ (Normal Profit)
अथवा शून्य लाभ (Zero Profit) की होगी । इस स्थिति को चित्र 15 में दिखाया गया है ।
उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत OP है । औसत लागत वक्र तथा सीमान्त लागत वक्र
क्रमशः SAC तथा SMC द्वारा दिखाये गये हैं । सन्तुलन की शर्तों के अनुसार फर्म का
सन्तुलन बिन्द ु E पर होगा ।
सन्तल
ु न बिन्द ु E पर,

उत्पादन मात्रा = OQ
वस्तु की कीमत = OP अथवा EQ
प्रति इकाई औसत लागत = OP अथवा EQ
अर्थात ्, औसत लागत = औसत आगम

AC = AR
बिन्द ु E पर, AR = MR = SMC = SAC
(iii) अल्पकालीन फर्म सन्तुलन : हानि की दशा (Short-Term Equilibrium of
Firm : Loss Situation):

कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी हो सकती हैं कि प्रचलित बाजार कीमत फर्म की लागत से भी
कम हो अर्थात ् AR वक्र रे खा औसत तथा सीमान्त लागत वक्रों से भी नीचे स्थित हो । ऐसी
स्थिति में फर्म को हानि होगी । चित्र 16 में अल्पकालीन हानि की स्थिति को दिखाया गया
है । सन्तुलन की शर्तों के अनुसार फर्म का सन्तुलन बिन्द ु E पर होगा जहाँ MR= MC ।

सन्तल
ु न बिन्द ु E पर,
उत्पादन मात्रा = OQ
प्रति इकाई वस्तु की कीमत = OP अथवा EQ
प्रति इकाई औसत लागत = OR अथवा TQ
प्रति इकाई हानि = PR अथवा TE
कुल हानि = RTEP क्षेत्र
RTEP क्षेत्र फर्म की कुल हानि को प्रदर्शित करता है । हानि के कारण समान लागतों के
अन्तर्गत कार्य कर रही सभी फर्में हानि उठायेंगी । अनेक फर्में उद्योग से अलग होना
चाहें गी कि अल्पकाल फर्मों को उद्योग से अलग होने की अनम
ु ति नहीं दे गा ।
यहाँ एक बात ध्यान दे ने योग्य यह है कि फर्म E बिन्द ु पर सन्तल
ु न में होने के कारण
न्यूनतम हानि (Minimum Loss) ही उठा रही है । बिन्द ु E पर उत्पादन OQ है । यदि फर्म
उत्पादन मात्रा OQ में परिवर्तन का प्रयास करती है तो निश्चित रूप से यह अपेक्षाकृत
अधिक हानि उठायेगी ।
अल्पकालीन हानि : उत्पादन बन्द होने का बिन्द ु (Short-Term Loss : Shut
Down Point) :
अब प्रश्न यह उठता है कि हानि की स्थिति में फर्म क्यों उत्पादन जारी रखेगी ? फर्म क्यों
नहीं उत्पादन बन्द कर दे ती ? वास्तविकता यह है कि फर्म अल्पकाल में एक विशेष बिन्द ु
तक उत्पादन में सलग्न रहती है किन्तु उस बिन्द ु विशेष के बाद भी यदि कीमत कम होती है
तो फर्म उत्पादन को अल्पकाल में भी बन्द कर दे गी ।
अल्पकाल में एक फर्म हानि की स्थिति में उद्योग से अलग नहीं हो सकती । अल्पकाल में
उत्पत्ति के समस्त साधन परिवर्तनशील नहीं होते । अल्पकाल इतनी लम्बी समयावधि
नहीं होती कि फर्म उत्पत्ति के समस्त साधनों को अपनी आवश्यकता तथा इच्छानुसार
परिवर्तित कर सके ।
फर्म अल्पकाल में स्थिर उत्पत्ति साधनों, जैसे – भूमि, पँज
ू ी, उपकरण तथा मशीनें आदि
को नहीं बदल सकती । फर्म की उत्पादन लागत के अन्तर्गत अल्पकाल में परिवर्तनशील
लागत (Variable Cost) तथा स्थिर लागत (Fixed Cost) दोनों सम्मिलित होती हैं ।
इस प्रकार अल्पकाल में ,
औसत लागत = औसत स्थिर लागत + औसत परिवर्तनशील लागत
या, AC = AFC + AVC
अल्पकाल में फर्म यदि हानि की स्थिति में उत्पादन बन्द भी कर दे ती है तब भी उसे स्थिर
लागत वहन करनी पड़ेगी । इसलिए यदि फर्म अल्पकाल में वस्तु की इतनी कीमत प्राप्त
कर रही है कि उसकी परिवर्तनशील लागतें उसे प्राप्त हो रही हों अर्थात ् यदि अल्पकाल में
वस्तु की कीमत औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) से अधिक है , तब फर्म हानि की
स्थिति में भी उत्पादन जारी रखेगी ।
वस्तु की कीमत AVC से जितनी अधिक होगी वह औसत स्थिर लागत (AFC) को सचि
ू त
करे गी । यदि वस्तु की कीमत AVC से ऊपर AFC का आंशिक भाग भी परू ा करती है तब
फर्म के लिए यह हितकर होगा कि वह हानि की स्थिति में भी उत्पादन जारी रखे ।
यदि अल्पकाल में फर्म उत्पादन बन्द कर दे ती है तो फर्म को स्थिर लागत के बराबर हानि
उठानी पड़ेगी । जब तक फर्म अल्पकाल में वस्तु की कीमत औसत परिवर्तनशील लागत
(AVC) के बराबर अथवा उससे अधिक प्राप्त करती रहे गी तब तक फर्म हानि की स्थिति में
भी उत्पादन जारी रखेगी ।
किन्तु जब वस्तु की कीमत इतनी कम हो जाती है कि फर्म को उसकी परिवर्तनशील लागतें
भी प्राप्त नहीं होतीं तब ऐसी स्थिति में फर्म के लिए यही हितकर होगा कि वह अल्पकाल में
अपना उत्पादन तुरन्त बन्द कर दे । ऐसा करने से फर्म परिवर्तनशील लागतों द्वारा
उत्पन्न हानि से अपने को बचा पायेगी ।
जिस बिन्द ु पर वस्तु की कीमत परिवर्तनशील लागत के बराबर या उससे थोड़ा भी कम हो
जाती है वहीं उत्पादन बन्द बिन्द ु (Shut Down Point) प्राप्त होता है । कहने का अभिप्राय
यह है कि फर्म अल्पकाल में वस्तु की कीमत औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) से कम
होते ही उत्पादन बन्द कर दे गी ।
अल्पकाल में उत्पादन बन्द होने की दशा की व्याख्या चित्र 17 में की गई है । चित्र में
अल्पकालीन औसत लागत वक्र (SAC Curve) तथा अल्पकालीन सीमान्त लागत वक्र
(SMC Curve) दिखाये गये हैं । चित्र में औसत परिवर्तनशील लागत वक्र (AVC Curve)
भी प्रदर्शित किया गया है ।

चित्र में SAC तथा AVC वक्रों के मध्य खड़ी दरू ी (Vertical Distance) औसत स्थिर
लागत (AFC) को सचि
ू त करती है । दोनों वक्रों के मध्य खड़ी दरू ी उत्पादन के बढ़ने के
साथ-साथ कम होती जा रही है क्योंकि उत्पादन के बढ़ने पर औसत स्थिर लागत गिरती
जाती है । जब बाजार में वस्तु की कीमत OP1 है तब फर्म का सन्तुलन बिन्द ु E होगा तथा
फर्म OQ1 वस्तु का उत्पादन कर रही होगी ।
सन्तुलन बिन्द ु E पर,
वस्तु की कीमत = OP1 या EQ1
औसत लागत = KQ1
औसत परिवर्तनशील लागत = CQ1
औसत स्थिर लागत = KC
प्रति इकाई हानि = KE
कुल हानि = RKEP1 क्षेत्र
फर्म बिन्द ु E पर उत्पादन को जारी रखेगी क्योंकि फर्म को प्राप्त वस्तु की कीमत
OP1 स्थिर लागत का EC भाग परू ा कर रही है । यदि फर्म कुल हानि RKEP1 क्षेत्र के कारण
अल्पकाल में उत्पादन बन्द कर दे ती है तो वह प्रति इकाई KC हानि उठायेगी जबकि
उत्पादन करते हुए वह केवल KE हानि उठा रही है जो KC से कम है । इस प्रकार फर्म की
हानि उत्पादन जारी रखने पर उत्पादन बन्द कर दे ने की तल
ु ना में कम होगी ।
यदि वस्तु की कीमत घटकर OP2 हो जाती है तब फर्म का सन्तुलन बिन्द ु T पर होगा जहाँ
फर्म OQ उत्पादन कर रही है ।
बिन्द ु T पर,
वस्तु की कीमत = OP2 अथवा TQ
औसत परिवर्तनशील लागत = TQ
अर्थात ्, वस्तु की कीमत = औसत परिवर्तनशील लागत
इस प्रकार, बिन्द ु T पर फर्म स्थिर लागत का कोई भी भाग प्राप्त नहीं कर रही है । इस
बिन्द ु पर फर्म तटस्थ (Indifferent) रहे गी क्योंकि फर्म बिन्द ु T पर यदि उत्पादन बन्द
कर दे ती है तो उसे कुल स्थिर लागतों के बराबर हानि हो रही है ।
वस्तु की कीमत OP2 पर फर्म उत्पादन जारी भी रख सकती है और बन्द भी कर सकती है
क्योंकि दोनों स्थितियों में फर्म को एक समान हानि हो रही है किन्तु यदि वस्तु की कीमत
और घटकर OP3 हो जाये तो फर्म तुरन्त उत्पादन बन्द कर दे गी क्योंकि इस वस्तु की
कीमत पर फर्म अपनी परिवर्तनशील लागतों को भी पूरा नहीं कर रही है ।
इस बिन्द ु T को उत्पादन बन्द होने का बिन्द ु (Shut Down Point) कहा जाता है अर्थात ्
इस बिन्द ु से जैसे ही वस्तु की कीमत कम हो जाती है वैसे ही फर्म वस्तु का उत्पादन बन्द
कर दे ती है ।
(B) दीर्घकाल में पर्ण
ू प्रतियोगी फर्म का सन्तलु न (Equilibrium of Perfectly
Competitive Firm in Long-Term):
दीर्घकाल वह समयावधि है जिसमें उत्पत्ति के सभी साधन, उत्पादन तकनीक, प्लाण्ट का
आकार आदि पर्ण
ू तः आवश्यकतानस
ु ार परिवर्तित किये जा सकते हैं । पर्ण
ू प्रतियोगिता में
एक फर्म दीर्घकाल में उत्पादन को माँग के अनुसार पूर्णरूपेण समायोजित कर सकती है ।
दीर्घकाल इतनी लम्बी समयावधि है कि कोई भी फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है अथवा
उद्योग को छोड़कर अलग हो सकती है ।
अतः दीर्घकाल में उद्योग में काम कर रही प्रत्येक फर्म को सामान्य लाभ (Normal
Profit) ही प्राप्त होता है । दीर्घकाल में यदि फर्में लाभ अर्जित कर रही हैं तो अन्य फर्में लाभ
से आकर्षित होकर उस उद्योग में सम्मिलित होंगी जिसके कारण उद्योग की पर्ति
ू में वद्धि

होगी ।
पर्ति
ू अधिक होने पर कीमत घटे गी फलतः फर्मों का लाभ सामान्य लाभ में बदल जायेगा ।
इसके विपरीत यदि फर्मों को हानि हो रही है तो अनेक फर्में उद्योग छोड़ दें गी जिसके कारण
पूर्ति में कमी होगी जिसके फलस्वरूप वस्तु की कीमत बढ़े गी, फलतः फर्मों को हो रही हानि
सामान्य लाभ में बदल जायेगी ।
दीर्घकाल में सन्तुलन की दोहरी शर्तें परू ी होनी चाहिए:
(i) MR = MC
(ii) AR = AC
अर्थात ्, AR = MR = AC = MC
पर्ण
ू प्रतियोगी फर्म का दीर्घकालीन सन्तल
ु न चित्र 18 में दिखाया गया है । चित्र में
दीर्घकालीन सन्तल
ु न की शर्तें बिन्द ु E पर परू ी हो रही हैं ।
अर्थात ्, MR = AR = AC = MC
बिन्द ु E पर,
प्रति इकाई कीमत = OP अथवा EQ
कुल उत्पादन = OQ
औसत लागत = EQ
औसत लागत (AC) = औसत आगम (AR)
अर्थात ् फर्म केवल सामान्य लाभ प्राप्त कर रही है ।
यहाँ बात ध्यान दे ने योग्य है कि दीर्घकाल में वस्तु की कीमत OP से कम या अधिक नहीं हो
सकती क्योंकि इस कीमत पर फर्म को सामान्य लाभ प्राप्त हो रहा है । यदि वस्तु की कीमत
OP से अधिक होगी तो फर्म को अधिक लाभ प्राप्त होगा जिसके कारण अन्य फर्में उद्योग
में आकर लाभ को सामान्य लाभ में बदल दें गी ।
इसके विपरीत, यदि वस्तु की कीमत OP से कम है तो फर्म को हानि होगी जिसके कारण
कुछ फर्में उद्योग को छोड़ दें गी, फलतः हानि पुनः सामान्य लाभ में बदल जायेगी ।
इस प्रकार, संक्षेप में कहा जा सकता है कि दीर्घकाल में पर्ण
ू प्रतियोगी फर्म सदै व सामान्य
लाभ ही प्राप्त करे गी । दस
ू रे शब्दों में , दीर्घकालीन सन्तल
ु न औसत लागत वक्र (AC
Curve) के न्यूनतम बिन्द ु पर होगा अर्थात ् दीर्धकाल में फर्म अनुकूलतम प्लाण्ट के आकार
(Optimum Plant Size) पर कार्य करे गी ।

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