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रूमा

राहुल उपाध्याय

-॰-
पात्र काल्पनिक हैं।
कहानी सच्ची है ।
विचार मेरे हैं।
जबसे मैं अमेरिका आई हूँ बहुत खश ु हूँ। सबसे पहले तो इस बात से
खशु थी कि दस वर्ष की उम्र में ही पासपोर्ट बन गया। बताओ ऐसे
कितने हैं जिनका इतनी कम उम्र में कुछ भी बना हो। अपने सारे
परिवार में , अपने सारे दोस्तों में , अपने आस-पड़ोस में दरू -दरू तक
कोई नहीं था जिसका पासपोर्ट बना हो। यहाँ तक कि व्हाट्सएप पर भी
जितने हैं सब के बच्चों के पास भी नहीं है ।

पापा है दराबाद में आय-टी फ़ील्ड में काम करते थे। उनकी कम्पनी का
एक प्रोजेक्ट अमेरिका में भी था। चँ कि
ू वे अपना काम परू ी मेहनत और
ईमानदारी से करते थे, उनके बॉस ने उनसे पछ ू ा कि क्या वो इस
प्रोजेक्ट पर काम करना चाहें गे?

पापा ने पहले घर पर बात की। सबकी इच्छा जाननी चाही। दादाजी,


दादीजी, बआु जी सब क्या सोचते हैं इस बारे में । और हाँ मम्मी से भी।

मझु से भी पछू ा। मैं तो पगला ही गई। यह भी कोई पछ ू ने की बात है ?


जिधर दे खो उधर अमेरिका छाया हुआ है । आय-फ़ोन कहाँ से आया?
अमेरिका से। एन्ड्रायड फ़ोन कहाँ से आया? अमेरिका से। गूगल
कम्पनी कहाँ है ? अमेरिका में । फ़ेसबक
ु कहाँ है ? अमेरिका में ।
अमेज़ॉन कहाँ है ? अमेरिका में । हॉलीवडु कहाँ है ? अमेरिका में ।
डिस्नेलेण्ड कहाँ है ? अमेरिका में ।

अमेरिका, अमेरिका, अमेरिका!

क्या नहीं है अमेरिका में ? सब कुछ तो है । पिज़्ज़ा। बर्गर। आईसक्रीम।


पेप्सी। चिप्स।
सब मतलब सब।

घर में भी सब राज़ी हो गए।

जल्दी-जल्दी पासपोर्ट बना। हम सब ने फ़ोटो खिंचवाए। वीसा के लिए


एम्बेसी गए। वहाँ मझ
ु से कुछ नहीं पछू ा गया। मैं तो बड़े अच्छे से
तैयार होकर गई थी। दो चोटी बनाई थी। अंग्रेज़ी बोल लेती थी, पर
कच्ची-पक्की। मम्मी ने बहुत तैयारी करवाई। व्हाट इज़ योर नेम।
माई नेम इज़ रूमा। वग़ैरह। वग़ैरह। कुछ काम नहीं आया। बेकार
इतनी मेहनत की।

बहुत सारी शॉपिंग हुई। छ: बड़े-बड़े सट ू केस भर कर हम लोग एयरपोर्ट


पहुँचे। इतने बड़े सट
ू केस कि मैं परू ी फ़िट हो जाऊँ। लम्बी लाईन। मैं
तो उतावली हो रही थी कि कब प्लेन में बैठूँ।

प्लेन में घस
ु ते ही ऐसा लगा जैसे स्वर्ग में आ गए। सब फ़्री। जितना
पेप्सी पीना हो पियो। जितना चॉकलेट खाना हो खाओ। आईसक्रीम
भी। खाना भी। ढे र सारी फ़िल्में । कार्टून। टीवी शो। सब फ़्री। कहीं एक
पैसे का खर्चा नहीं।

और पता है , मझ ु े एक बैकपैक भी मिला। बहुत ही प्यारा। खब


ू सरू त।
रं ग-बिरं गा। उसके अंदर थी एक कलरिंग बकु और क्रेयॉन।

परू े रास्ते भर ख़ब


ू मौज रही। सरू ज डूबा ही नहीं। पता है हम सब
ु ह चार
बजे चले और शाम आठ बजे पहुँच गए।
और है रत की बात ये कि न्यू यॉर्क में सरू ज डूब रहा था और वहाँ
है दराबाद में दस
ू रे दिन का सरू ज निकल रहा था। न्य-ू यॉर्क में रविवार
की शाम की आठ बजी थी और है दराबाद में सोमवार की सब ु ह की
साड़े-पाँच बज रही थी। मेरा तो अभी भी सर चक्कर खा जाता है ये सब
घंटे जोड़ते-घटाते।

घर पहुँचे तो अलग ही ठाठ थे। यहाँ फ़्लैट कोई नहीं कहता। सब


अपार्टमें ट कहते हैं। लिफ़्ट कोई नहीं कहता। इलेवेटर कहते हैं।
बाथरूम नहीं कहते। रे स्ट रूम कहते हैं। भिंडी को ओकरा और बैंगन
को एग-प्लांट कहते हैं।

ऐसा लगा कि है तो अंग्रेज़ी पर कोई नहीं भाषा सीख रही हूँ। शरू
ु में
स्कूल में न बच्चों की न टीचर की, कोई बात समझ नहीं आती थी।
बोलने का लहजा इतना अलग कि सब सर के ऊपर से ही निकल जाता
था।

फिर यकायक सब समझने लगी। अब तो दादाजी भी शिकायत करते


हैं कि तू क्या बोलती रहती है , कुछ पल्ले नहीं पड़ता। पता नहीं कब मैं
भी यहाँ के बच्चों जैसी बोलने लगी। उनके जैसे कपड़े पहनने लगी।

यहाँ आटोरिक्शा नहीं चलता। उबर से टै क्सी कर सकते हैं। तीस डॉलर
तक खर्च हो जाता है कहीं भी जाना हो। भारत में तीस रूपये कुछ नहीं
होते। यहाँ तीस डॉलर बहुत होते हैं। एक डॉलर में पाँच केले आ जाते
हैं। एक ब्रेड का बड़ा पैकेट आ जाता है । सो हम कहीं नहीं जाते हैं जब
तक पापा दफ़्तर से नहीं आ जाते। जब तक वे आते हैं शाम हो जाती
है । दे र हो जाती है । थक जाते हैं। इसलिए कहीं नहीं जाते। हाँ, यह
अच्छी बात है कि शनिवार-रविवार दोनों ही दिन छुट्टी होती है । तब
बहुत मज़ा आता है । हम तीनों मिलकर ग्रोसरी ख़रीदने जाते हैं। आते
वक़्त चॉटहाऊस से डोसा-इडली-पाव-भाजी जैसा चटपटा खा कर आते
हैं।

यह अच्छी बात है कि हमारे पास एक ही कार है । कहीं जाना हो तो


साथ ही जाना पड़ता है । मझ ु े अकेले घर भी नहीं छोड़ सकते हैं।
ग़ैर-क़ानन
ू ी जो है । इसलिए हमारा परू ा परिवार हमेशा साथ रहता है । है
ना अच्छी बात?

शनिवार की शाम हम किसी के यहाँ तो कोई हमारे यहाँ आ जाता है ।


तब बहुत स्पेशियल खाना बनता है । खीर-पड़
ू ी। गाजर का हलवा।
सेवियाँ।

अमेरिकन खाना क्या होता है , हमें नहीं पता। हम अभी भी अपना उत्तर
भारतीय खाना ही खा रहे हैं। पिज़्ज़ा। बर्गर। पास्ता। ये सब तो हम
है दराबाद में भी खाते थे। लेकिन ये सब फ़ास्ट फ़ूड है । असली
अमेरिकी खाना नहीं है । स्कूल के कैफ़ेटे रिया में मिलता है अमेरिकन
खाना। ज़्यादातर में मीट होता है । या फीका। या बिलकुल बर्फ सा
ठं डा। सप
ू गर्म होता है । लेकिन मीट वाला। पिज़्ज़ा गर्म होता है ।
लेकिन मीट वाला।

मैं घर से ही लंच लेकर जाती हूँ। मम्मी सेण्डविच बना कर रख दे ती है ।


साथ में कोई फल काट कर रख दे ती है ।

टीवी पर बहुत बढ़िया प्रोग्राम आते हैं। घर में हाई स्पीड इंटरनेट है ।
वाईफ़ाई हमेशा चलता रहता है । जब जो मन चाहे शो दे खो। गाने
सनु ो। यट्
ू यब
ू दे खो। मौज ही मौज है ।
फल और मिठाईयों की कोई कमी नहीं। फ्रिज और डब्बे तरह-तरह के
व्यंजनों से भरे हुए हैं। ख़त्म हुए नहीं कि और आ जाते हैं। किसी बात
की कोई कमी नहीं।

बस एक दख ु हुआ। बहुत दखु हुआ। इतना दख ु हुआ कि बता नहीं


सकती। उधर बआ ु की शादी हो रही थी। सारी तैयारियाँ हो रही थी। मैं
व्हाट्सएप पर दे ख-दे ख कर ख़शु हो रही थी। और शादी में जाने की
ख़शु ी से फूली नहीं समा रही थी कि सारे सपनों पर पानी फिर गया।

हम शादी में नहीं जाएँगे। पापा ने कह दिया।

क्यों नहीं जाएँगे? हम तो ज़रूर जाएँगे।

पापा ने कहा तम ु बच्ची हो। कुछ नहीं समझती हो। बस कह दिया नहीं
जाएँगे तो नहीं जाएँगे।

मैं बहुत रोई। कभी कहते हैं इतनी बड़ी हो गई हो, अपना काम खद

किया करो। कल को तम् ु हारा ब्याह हो जाएगा तो कैसे घर चलाओगी।
कॉलेज की पढ़ाई कैसे करोगी। वग़ैरह। वग़ैरह।

और आज बच्चा बना दिया।

मैंने मम्मी से पछ ू ा। मम्मी ने कहा बेटा हम परदे स में हैं। कई सारे ऐसे
क़ानन ू होते हैं जो हम समझ कर भी नहीं समझ पाते हैं।
बस ये समझ ले कि हम चक्रव्यह ू में फँस गए हैं। पता है न अभिमन्यु
की कहानी? उसे चक्रव्यह
ू में घस
ु ने की कला आती थी। निकलने की
नहीं।

यह भी कुछ वैसा ही है । हमें अमेरिका आने का विसा तो मिल गया।


और हम खश ु ी-ख़श
ु ी आ भी गए। और हम खश ु भी हैं। बता कौनसा
दख
ु है यहाँ? एक भी नहीं।

और हम यहाँ से जब चाहें जा भी सकते हैं। कोई रोक-टोक नहीं।


लेकिन एक बार चले गए तो फिर लौट कर आ नहीं सकते। क्योंकि जो
विसा पहले मिला था। अब ऐसे नहीं मिलेगा। कई काग़ज़ात इकट्ठे
करने हैं। मोहर लगवानी है । अपाइंटमें ट लेने हैं। यही सब तू नहीं
समझेगी।

हम आज़ाद दे श में आज़ाद थे। पिंजरा खल ु ा था। हम स्वतंत्र रूप से उड़


सकते थे। लेकिन हमें पिंजरे का बाथरूम, किचन, 24 घंटे नल से
निकलता गर्म पानी, वातानक ु ू लित घर, चमचमाती कार, मक्खन सी
सड़क आदि सब इतने पसन्द आ गए थे, कि कहीं हम कल ये सारे
सख
ु खो न दें , इसी डर में आज के सख ु की बलि चढ़ा बैठें।

बआ
ु की शादी हमारे बिना हुई। हमारे बिना हो गई।

ु हूँ।
मैं आज भी ख़श

-॰-
27 जनवरी 2022
सिएटल

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