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स्वधा स्तोत्र

Lyrics in Hindi
ब्रह्मोवाच
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नर:।
मुच्यते सवथपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्।।1।।
अर्थ – ब्रह्मा जी बोले – ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारण से मानव तीर्थ स्नायी हो
जाता है। वह सम्पूणथ पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का
अधधकारी हो जाता है।

n
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत।्

f.i
श्राद्धस्य फलमाप्नोदत कालस्य तपथणस्य च।।2।।
अर्थ – स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण दकया जाए
pd
तो श्राद्ध, काल और तपथण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं।

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं य: श्रृणोदत समादहत:।


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लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न सं शय:।।3।।


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अर्थ – श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा िे वी के स्तोत्र


In

का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का पुण्य पा लेता है, इसमें सं शय नहीं


है।
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं दत्रसन्ध्यं य: पठे न्नर:।
दप्रयां दवनीतां स लभेत्साध्ीं पुत्रं गुणाधितम्।।4।।

अर्थ – जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस पदवत्र नाम का दत्रकाल


सन्ध्या समय पाठ करता है, उसे दवनीत, पदतव्रता एवं दप्रय पत्नी प्राप्त होती
है तर्ा सद्गुण सं पन्न पुत्र का लाभ होता है।
दपतृणां प्राणतुल्या त्वं दिजजीवनरूदपणी।
श्राद्धाधधष्ठातृिेवी च श्राद्धािीनां फलप्रिा।।5।।

अर्थ – अर्थ – िे दव! तुम दपतरों के धलए प्राणतुल्य और ब्राह्मणों के धलए


जीवनस्वरूदपणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधधष्ठात्री िे वी कहा गया है। तुम्हारी
ही कृ पा से श्राद्ध और तपथण आदि के फल दमलते हैं।
बदहगथच्छ् मन्मनस: दपतृणां तुदिहेतवे।

n
सम्प्रीतये दिजातीनां गृदहणां वृदद्धहेतवे।।6।।

f.i
अर्थ – तुम दपतरों की तुदि, दिजादतयों की प्रीदत तर्ा गृहस्ों की अधभवृदद्ध
के धलए मुझ ब्रह्मा के मन से दनकलकर बाहर जाओ।
pd
दनत्या त्वं दनत्यस्वरूपाधस गुणरूपाधस सुव्रते।
आदवभाथवस्तस्तरोभाव: सृिौ च प्रलये तव।।7।।
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अर्थ – सुव्रते! तुम दनत्य हो, तुम्हारा दवग्रह दनत्य और गुणमय है। तुम सृदि
के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा दतरोभाव हो जाता है।
In

ऊँ स्वस्तस्तश्च नम: स्वाहा स्वधा त्वं िधिणा तर्ा।


दनरूदपताश्चतुवेिे षट् प्रशस्ताश्च कदमथणाम्।।8।।

अर्थ – तुम ऊँ, नम:, स्वस्तस्त, स्वाहा, स्वधा एवं िधिणा हो। चारों वेिों
िारा तुम्हारे इन छ: स्वरूपों का दनरूपण दकया गया है, कमथकाण्डी लोगों में
इन छहों की मान्यता है।
पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधधकासखी।
धृतोरधस स्वधात्मानं कृ तं तेन स्वधा स्मृता।।9।।

अर्थ – हे िे दव! तुम पहले गोलोक में ‘स्वधा’ नाम की गोपी र्ी और
राधधका की सखी र्ी, भगवान कृ ष्ण ने अपने वि: स्ल पर तुम्हें धारण
दकया इसी कारण तुम ‘स्वधा’ नाम से जानी गई।
इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च सं सदि।

n
तस्ौ च सहसा सद्य: स्वधा सादवबथभूव ह।।10।।

f.i
अर्थ – इस प्रकार िे वी स्वधा की मदहमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में
दवराजमान हो गए। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो
pd
गई।
तिा दपतृभ्य: प्रििौ तामेव कमलाननाम्।
तां सम्प्राप्य ययुस्ते च दपतरश्च प्रहदषथता:।।11।।
a

अर्थ – तब दपतामह ने उन कमलनयनी िे वी को दपतरों के प्रदत समपथण


st

कर दिया। उन िे वी की प्रादप्त से दपतर अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने लोक को


चले गए।
In

स्वधास्तोत्रदमिं पुण्यं य: श्रृणोदत समादहत:।


स स्नात: सवथतीर्ेषु वेिपाठफलं लभेत्।।12।।

अर्थ – यह भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समादहत धचत्त से


इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूणथ तीर्ों में स्नान कर धलया
और वह वेि पाठ का फल प्राप्त कर लेता है।

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