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देवदास समीक्षा

निर्माता- भरत शाह


निर्देशक- संजय लीला भंसाली
रिलीज़ की तारीख:12 जल
ु ाई, 2002
बजट – ₹ 500 मिलियन (US$10.29 मिलियन) 
लेखक - शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
अभिनेता गण- शाह रुख़ खान, ऐश्वर्या राय, माधरु ी दीक्षित , जैकी श्रॉफ, किरण खेर इत्यादि।
रेटिंग - 3.5/5

कहानी -एक समृद्ध जमींदार के बेटे, देवदास (शाहरुख खान) ने एक ऐसी दनिु या के लिए अपनी आँखें
खोलीं जहाँ धन उसके अस्तित्व पर हावी था। वह अपनी प्यारी दोस्त पारो (ऐश्वर्या राय) से प्यार करता था। ।
यह एक खास बचपन था और ऐसा लगता था कि देवदास और पारो ही एक दसू रे के ही बनाये गए हों ।
देवदास को जब बड़ों ने शिक्षा के लिए लंदन भेजा तो उसकी सधु -बधु टूट गई। जब देवदास लौटा, तो पारो
की माँ (किरण खेर) ने देवदास और पारो की शादी का प्रस्ताव रखा। लेकिन लदं न से लौटे बेटे की माँ का
गरुु र बेटे के पार के आड़े आ जाता है।
दिल टूटने वाली पारो ने एक धनी, उम्रदराज व्यक्ति, जमींदार भवु न (विजयेंद्र घाटगे) के साथ एक पवित्र (?)
विवाह में प्रवेश किया, जबकि एक टूटे हुए देवदास ने शराब और चंद्रमख ु ी (माधरु ी दीक्षित), एक वेश्या की
शरण ली।
देवदास की किस्मत अजीब थी। दो महिलाओ ं से बेहद प्यार करता था, जो कभी उसकी होने के लिए नहीं
बनी थीं। एक, जिसे वह कभी प्यार नहीं कर सकता था और दसू रा, जिसे वह कभी प्यार करने से बाज़ नहीं
आ सकता था ।
पटकथा एवं संवाद - देवदास उपन्यास को दसू री बार पढ़ने के बाद, भंसाली इस उपन्यास को फिल्म में
बदलने के लिए प्रेरित हुए और उन्होंने नवबं र 1999 में इस परियोजना की घोषणा की। पटकथा उनके और
प्रकाश रंजीत कपाड़िया द्वारा लिखी गई थी, जिन्होंने सवं ाद भी लिखा था। पटकथा में कहीं- कहीं तर्क की
कमी दिखाई पड़ती है और संवाद नहीं काफी प्रभावित नहीं कर पाते। चन्ु नीलाल और वेश्यालय के बहुत सारे
दृश्य फिल्म में बिना जरुरत के दिखाए गए हैं। सजं य लीला भसं ाली देवदास की कहानी से भटक कर ग्लैमर
की दनिु या दिखने लगते हैं , कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है।

निर्देशन - संजय लीला भंसाली एक शिल्पकार, एक महान कहानीकार हैं । देवदास, साल 2002 की
उत्सक ु ता से प्रतीक्षित फ़िल्मों में से एक रही है । शरतचंद्र की लिखी कहानी देवदास पर कई निर्देशक पहले भी
फिल्में बना चक ु े हैं तो प्लाट के हिसाब से यह कहानी कोई बहुत आकर्षित करने वाली कहानी नहीं कही जा
सकती। फिर भी भंसाली आत्मविश्वास के साथ कई दृश्यों को संभालने के लिए बधाई के पात्र हैं ।
किरन खेर और स्मिता जयकर बीच की टक्कर विशेष तारीफ की हकदार हैं। माधरु ी दीक्षित और मिलिंद
गणु ाजी के बीच के सीन के लिए भी ऐसा ही है, जब मिलिदं गनु ाजी उन्हें चनु ौती देते हैं।
माधरु ी और ऐश्वर्या का टकराव और 'डोला डोला' के तरु ं त बाद का नाटकीय क्रम, जब माधरु ी का मिलिदं से
सामना होता है, कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि भंसाली अपने काम में सर्वश्रेष्ठ हैं ।
लेकिन फिल्म में दर्शकों के ध्यान को बाधं े रखने में कामयाब नहीं हो पायी है, जो वास्तव में भसं ाली के
पिछले प्रयास हम दिल दे चक ु े सनम का एक मजबतू बिंदु था। यह स्पष्ट है कि इस बार भंसाली ने फ्रेम को
शानदार बनाने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरती है, लेकिन स्क्रीनप्ले में गड़बड़ियां हैं ।
अभिनय - शाहरुख खान कुछ दृश्यों में उत्कृ ष्ट हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वे खदु को दोहराते हैं । माधरु ी
दीक्षित आकर्षक दिखती हैं लेकिन इस तरह की भमि ू का निभाने के लिए उनमें जोश की कमी है। कई जगहों
पर वह यात्रि
ं क( Mechanically) रूप से अपनी भमि ू का(role) से गजु रती है। दसू री तरफ ऐश्वर्या राय
परू ी फिल्म को अपने ऐसे प्रदर्शन से चरु ा लेती हैं जो आपको आश्चर्यचकित कर देता है।
वह फिल्म पर हावी दिखती हैं जिसके लिए उनको प्रशंसा मिलनी चाहिए । जैकी श्रॉफ और किरण खेर का
अभिनय भी अव्वल दर्जे का है, स्मिता जयकर ठीक हैं। देवदास की भाभी के रूप में अनन्या शानदार है ।
गीत- संगीत- इस्माइल दरबार का संगीत फिल्म के मिजाज से मेल खाता है । नसु रत बद्र के बोल काफी
अच्छे हैं। फिल्म के गाने और नृत्य की कोरिओग्राफी दर्शकों को काफी पसंद आएगी। भारतीय दर्शकों की
नृत्य और गानों के प्रति रुझान को सजं य लीला भसं ाली खबू समझते हैं यही वजह है की उनकी फिल्मों में ऐसे
दृश्य (Scenes) भरपरू मिलते हैं। इस फिल्म के गीत लोगो को काफी सालों तक याद रहने वाले हैं , यह
तय है।
फिल्म का कमजोर पक्ष - फ़र्स्ट हाफ़ में हल्के -फुल्के पलों और नाटकीय दृश्यों का आनदं दायक मिश्रण है
और बड़े सेकेंड हाफ़ की उम्मीदों को बढ़ाता है। लेकिन इटं रवल के बाद के हिस्से आपका ध्यान खींचने में
विफल रहते हैं और इसके कई कारण हैं ।
एक, चन्ु नीलाल ट्रैक (जैकी श्रॉफ) प्लॉट में एक बड़ी बाधा के रूप में आता है। हालांकि पटकथा में उनका
महत्व जरूरी है, फिर भी आप चन्ु नीलाल के चरित्र और उनकी प्रस्तति ु पर ध्यान नहीं देते हैं। उन्हें कहानी को
आगे बढ़ाने के लिए एक मात्र प्रॉप के रूप में इस्तेमाल किया गया है और उनके द्वारा बोली जाने वाली लाइनें
काफी परे शान करती हैं।
दसू रे , माधरु ी और शाहरुख के बीच के सीक्वेंस जादईु से बहुत दरू हैं । माधरु ी बिना किसी कारण के तरु ं त
शाहरुख के प्यार में क्यों पड़ जाती है, यह दर्शकों को हैरान कर देता है। बाद में, पारो और चंद्रमख
ु ी की दोस्ती
और उन्हें एक साथ नचाना ('डोला रे डोला') मजबरू ी लगता है।

इसके अलावा, दसू रा भाग बहुत लंबा है और इसे कम से कम 20 मिनट कम करने की आवश्यकता है।
मिसाल के तौर पर 'शीशे से शीशा टकराए' गाने की जरूरत ही नहीं थी। साथ ही इस हाफ में फिल्म कछुआ
गति (slow motion) से आगे बढ़ती है ।
इसके अलावा s बिनोद प्रधान की सिनेमटै ोग्राफी शानदार है। सवं ाद जगह-जगह शानदार हैं। सेट, प्रॉप्स और
समग्र रूप विशेष उल्लेख के पात्र हैं। वेशभषू ा और मेकअप इत्यादि उत्तम हैं।

क्यों देखें - देवदास के पास बजट है, कै नवास है, माउंटिंग है जो हिदं ी की ज्यादातर फिल्मों के पास नहीं
होता । भव्य सेट, भव्य रूप, माउंटिंग और माहौल आपको आश्चर्यचकित कर देता है , यह फिल्म पारिवारिक
कही जा सकती है एवं एक टिपिकल हिदं ी फिल्म की कसौटी पर खरी उतरे गी। । पर सजं य लीला भंसाली की
देवदास में दर्शकों को उत्तेजित करने, सम्मोहित करने, मोहित करने और मत्रं मग्ु ध करने की शक्ति का अभाव
है।

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