You are on page 1of 16

कल चक्र

1 पूर्व - 84 लाख X 84 लाख वर्ष

असंख्या समय – 1 आवलिका


संख्यात आवलिका - एक वास
सवावा

संख्यात आवलिका - एक उच्छवास

एक श्वासोच्छवास - एक प्राण
सात प्राण - एक स्तोक
सात स्तोक - एक लव (दो काष्ठा का माप)

77 लव - एक मुहुर्त
30 मुहुर्त - एक अँहोरात्रि

15 अँहोरात्रि - एक पक्ष

2 पक्ष - एक मास

2 मास - । ऋतु

3 ऋतु - 1 अयन
2 अयन – 1 साल
5 साल - एक युग

2 युग- 1 द ब्दी
ब्
दीशा
10 द ब्दी
ब्
दीशा- 1 शताब्दी

गणना योग्य - सबसे बड़ा अंक-शीर्ष प्रहेलिका

10194 - 54 numbers , 140 zeroes

1
( Page 2 )
मनुष्य या निर्यच का छोटा से छोटा भव - 256 आवलिका
1 second 58250 आवलिका
(256 आवलिका का 1 pulse यानी एक नाड़ी के खटके में 17 1⁄2 बाद जन्म-मरण)
(256 आपलिका का एकेंद्रिय जीवों का एक मुहुर्त में 65536 बार भव )
मनुष्य से मनुष्य continue 8 भव
एक मुहर्त्त में कितनी आवलिका ?
तीन साता दो आगा आगल पाछल सोल
इतने आवलिका एक मुहुर्त में बोल
1 मुहूर्त - 16777216 आवलिका
10000000 X 10000000 = 1 कोटा कोटी

एक पूल्योपम –

एक योजन (12 km) लम्बा, एक, योजन चौड़ा एक योजन गहरा कुआ हो, उसमें
देवकुर, उत्तरकुरु मनुष्यों के बालों के असंख्य खंड तल से लगाकर ऊपर तक
ठूस ठूस कर इस प्रकार भर जाएं कि उसके ऊपर से चक्रवर्ती की सेना निकल
जाए तो भी वह दबे नहीं। नदी का प्रवाह उसके ऊपर से गुजर जाए पर एक बूंद
पानी अंदर न भर सके। अग्नि का प्रवेश भी न हो। उस कुएं मे से सौ-सौ वर्ष
बाद

( Page 3 )
एक एक, बाल खंड, निकाले इस प्रकार करने से जितने समय में वह कुंआ खाली
हो. जाए, उतने समय को एक पल्योपम कहते है।

10 कोड़ा कोडी, पत्योपम - 1 सागरोपम


सागरापम (20 कोडाकोडी) - 1 कालचक्र

1 अवसर्पिणी – 1 उत्सर्पिणी = 10 कोटाकोटी सागरोपम

जो एक करोड़ पूर्व से अधिक जीए वे युगलिक

2
काल चक्र - अवसर्पिणी काल

अवसर्पिणी स्थिति मनुष्यों की आयु शरीर की उचाई आहार का


कालके 6 आरे अंतर

1 सुषम - सुषम 4 कोडाकोड़ी 3 पल्य से 2 3 कोस से 2 अटठम ( 3


सागरोपम पल्योपम कोस तक दिन )

2 सुषम 3 कोडाकोड़ी 2 पल्य से 1 2 कोस से 1 छठ


सागरोपम पल्योपम कोस तक ( 2 दिन )

3 सुषम - दुषम 2 कोडाकोड़ी 1 पल्य से कोटी 1 कोस से चउत


सागरोपम वर्ष पूर्व 500 धनुष ( 1 दिन )

4 दुःषम - सुषम 42000 वर्ष काम 1 क्रोड पूर्वी वर्ष 500 धनुष से प्रतिदिन
कोडा कोड़ी 100 वर्ष झाझेरा 7 हाथ तक एक बार
सागरोपम
5 दुःषम 21000 वर्ष तक 100 वर्ष झाझेरा 7 हाथ से 2 अनेक बार
से 20 वर्ष तक हाथ तक

6 दुःषम – दुःषम 21000 वर्ष तक 20 वर्ष झाझेरा 2 हाथ से 1 बार – बार


से 16 वर्ष तक हाथ तक

3
उत्सर्पिणी काल

उवसर्पिणी ke स्थिति मनुष्यों की शरीर की उचाई वर्ष कल आहार


आयु का अंतर

1 दुःषम – दुःषम 21000 वर्ष तक 16 वर्ष से 20 1 हाथ से 2 श्याम बार – बार


वर्ष तक हाथ

2 दुःषम 21000 वर्ष तक 20 वर्ष से 100 2 हाथ से 7 रक्ष अनेक बार


वर्ष झाझेरा हाथ
तक
3 दुःषम - सुःषम 42000 वर्ष काम 100 वर्ष 7 हाथ से पाचों प्रतिदिन
1 कोडा कोड़ी झाझेरा से 500 धनुष एक बार
सागरोपम पूर्व कोटी वर्ष

4 सुःषम – दुःषम 2 कोडाकोड़ी पूर्व कोटी वर्ष 500 धनुष से प्रियंगु चउत
सागरोपम से 1 पल्योपम 1 कोस के ( 1 दिन )
समान
5 सुःषम 3 कोडाकोड़ी 1 पल्योपम से 1 कोस से चन्द्रम छठ
सागरोपम 2 कोस तक के ( 2 दिन )
2 पल्योपम
समान
6 सुःषम - सुःषम 4 कोडाकोड़ी 2 पल्योपम से 2 कोस से 3 सूर्य अटठम ( 3
सागरोपम कोस तक के दिन )
3 पल्योपम
समान

(Page 5 )
पल्योपम
काल का सबसे छोटा निरंश अंश परमाणु कहा जाता है। वह अतीन्द्रिय होता है।

4
1. इस प्रकार के अनन्त सूक्ष्म परमाणु से एक व्यवहार परमाणु बनता है।
2. अनन्त व्यवहार परमाणुओं से एक उष्ण स्निग्ध परमाणु होता है।
3. अनन्त उष्ण - स्निग्ध परमाणुओं से एक शीत स्निग्ध परमाणु होता है।
4. आठ शीत - स्निग्ध परमाणु से एक ऊर्ध्वरेणु होता है।
5. आठ ऊर्व रेणु से एक त्रसरेणु होता है।
6. आठ त्रसरेणु से एक रथरेणु होता है।
7. आठ त्यरेणु से देवकुर - उत्तरकुर के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है ।
8. आठ देवकुर-उत्तरकुरू के मनुष्यों के बालाग्रों से हरीरम्यक वर्ष के
मनुष्यों का एक बालाग्र होता है।
9. इनके आठ बालाग्र से हेवय हिरण्यवत मनुष्यों का एक बालाग्रा ।
10. इनके आठ बालाग्र से पूर्व विदेह-पचिम मश्चिविदेह मनुष्यों का एक बालाग्र
11. इनके आठ बालाय से भरत रावत के मनुष्यों का एक बालाग्र
12. इनके आठ बालाग्र से एक लीख होती है।
( Page 6)
13. आठ लीख की एक युका (जूं)।
14. आठ चुका का एक अध्यत ।
15. आठ अध्यव का एक उत्सधु अंगुल ।
16. दह उत्सेध अंगुल का एक पैर का पना (चौड़ाई) ।
17. दो पैर के पने का एक बेंत ।
18. दो दा बेत का एक हाथ ।
19. दो हाथ की एक कुक्षि ।
20. दो कुक्षि का एक धनुष ।
21. दो हज़ार धनुष का एक कोस (गाऊ)।
22. चार कोस का एक योजन |

कल्पना कीजिए कि एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा कुआ हो,
उसमें देवकुर, उत्तरकुर मनुष्यों के बालों के असंख्य खण्ड तल से लगाकर
ऊपर तक ठूस ठूस कर इस प्रकार भरे जाएं कि उसके ऊपर से चक्रवर्ती की
सेना निकल जाए तो भी वह नमे नहीं। नदी का प्रवाह उस पर से गुजर जाएं
परन्तु एक बूढ़ पानी अंदर न भर सके। अग्नि का प्रवेश भी न हो। उस कुएं में
से सौ-सौ वर्ष बाद एक- एक बालखण्ड निकाले। इस प्रकार करने से जितने
समय में वह कूप खाली हो जाए, उतने समय को एक पत्योपम कहते हैं।
अनन्तकालचक्र बीतने पर एक पुदगल परावर्तन होता है

Source- -जिणधम्मो pg 372

5
||||( Page 7 )
न में संख्यात, असंख्यात और अनंत
जैन दर्नर्श

न में अंकों को तीन विभागों में बाँटा गया है - संख्यात् (numerable) ,


जैन दर्नर्श
असंख्यात् (innumerable) और अनत (infinite)

संख्यात- गिनती, तो 1(1) से शुरु होती है, पर 1 की संख्याते में नहीं गिना जाता
है क्योंकि 1 का square करने से 1 की संख्या नहीं. बढ़ती और 1 के square root को
1 से घटाने पर संख्या शून्य हो जाती है। कम से कम संख्यात् 2 है, अधिक से
अधिक संख्यात, कम से कम असंख्यात से एक कम होगा 2. और अधिक से अधिक
संख्यात के बीच में जितने अक है उन्ह, मध्यम संख्यात् कहा जाता है। तो
संख्यात अक तीन तरह के होते हैं। जघन्य संख्यात्, 2 मध्यम संख्यात और 3
उत्कृष्ट संख्यात

6
|||| ( Page 8 )

असंख्यात- तीन तरह के असंख्यात होते हैं –

1 परिता संख्यात्,
2 युक्ता संख्यात
3) असंख्याता संख्यात। इन तीनों के जघुन्य, मध्यम और उत्कृष्ट होते हैं। इस
नो तरह के असंख्यात होते है

जघन्य परितासंख्यात - इस संख्या को निकालने के लिए हमें एक लाख योजन


के डायामीटर और एक हज़ार योजन गहराई वाले चार कुओं की कल्पना करनी
पड़ेगी। (1 योजन = 4 कोस = 9 miles ) पहले कुएं का नाम है अववस्थित जिसे A
कह सकते है , ||| ( Page 9 ) दूसरे कुएं का नाम है शलाका, जिसे B कह सकते ।
तीसरे कुएं का नाम है, प्रतिशलाका, जिसे C कह सकते हैं, और चौथे कुएं का
नाम है महाशलाका, जिसे कह D सकते हैं।

कुएं A को राई के दानों से इस तरह भर दिया जाए कि कुओं A पूरी तरह


भर जाए और कुएं A में राई का conical shape ऊपर में बन जाए और एक भी दाना
और ज़्यादा उसमें नहीं आ पाए। इस कुएं A में इस तरह से जितने राई के
दाने भरे जा सकते है उसका गणित के द्वारा यह पता लगाया गया है कि वह
एक 46 digit का अंक होगा। इस अंक को (x) कह सकते हैं। अब कुएं A में से
एक राई का दाना निकाल के एक लाख योजन वाले डायामीटर के टापू में डाला।
इसके बाद दूसरा दाना उस टापू को घेरते हुए कोन्सेंट्रिक शेप वाले समुद्र में
डाला जिसकी चौड़ाई 2 लाख योजन है। इसके बाद तीसरा बीज उस समुद्र को
कान्सेंट्रिक शेप में घेरते हुए ढापे में डाला जिसकी चौड़ाई चार 4 लाख
योजन है। इस तरह कुट A में से क्रमानुसार एक-एक बीज डाल रहे है। ऐसे जो

7
आखिरी बीज होगा वह किसी किसी गुमला - टाप या समुद्र में डाला जाएगा, जिसकी
चैड़ाई 2x योजन होगा। जब कुएं A में से इस तरह

101 = 10 , 103 20 = 1 22 = 4 2 4 = 16
102= 100 21 = 2 23 = 8

|||| ( Page 10 ) सारे बीज खाली हो जाएंगे तो कुएं B में एक बीज डाला जाएगा।
अब अनवस्थित कुएं की कल्पना कीजिए, जिसका डायामीटर उन सब समुद्र और टापू
की चौड़ाई का जोड़ है जिनमें अभी पहले हमने राई के दाने कुएं A से
डाले थे। इस कुएं की भी गहराई 1000 योजन है। इस कुएं का नाम अनुवस्थित है
क्योंकि इसका माप बढ़ता जाता है। इस कुएं अनवस्थित का डायामीटर, इस series का
जोड़ होगा जो इस प्रकार है

Y = 20+21+22+23+………..+2x
अब इस अनवस्थित कई कुएं को राई के दाना से उसी तरह भरना है जैसे कुएं
A का भरा था। अब इस A कुएं यानी अनवस्थित कुएं में पिछली बार से कई ज्यादा
राई के दाने होंगे क्योंकि पहले अनवस्थित कुएं यानी A का डायामीटर 1 लाख
योजन था पर अब कुएं का डायामीटर y है। तो इस कुएं A से एक एक दाना पहले
की तरह ही टाप और समुद्र में डालेंगे। जब कुए. A से सारे दाने खत्म हो
जाएंगे तब फिर से. एक दाना कुए. B में डालेंगे। अब जौ, टापू और समुद्रों का
कुल डायामीटर

||| ( Page 11 ) यानी Y है, वह भी पहले से काफी बड़ी संख्या होगी। ऐसे अनवस्थित
कुए यानी कुए A का डायामीटर हर बार बढ़ता जाएगा। इस तरह करते हुए कुए B यानी
शलाका कुएं को पूरा भरेंगे। जब कुआ B पूरा भर जाएगा और एक दाना भी Extra नहीं
आ पाएगा, कुएं A पे पहाड़ बन जाएगा तो कुए C यानि प्रति, शलाका कुएं में एक
राई का दाना डालेंगे। अब पूरा काम फिर से करेंगे जो अनवस्थित कुएं का
नया डायामीटर आया है, उस ड्रायामीटर के अनवस्थित , कुएं मे राई के दाने
का पूरा ढेर बनाके भरेंगे और फिर उससे उन ही पहले वाले दीप और समुद्र
म एक-एक दाना डालक फिर से , कुएं B का भरेंगे । , कुएं B को पूरा भरने के.
बाद कुएं c में फिर एक दाना डालेंगे और ऐसे कुए c को पूरा भरग। जूब , कुएं c
यानी प्रतिशलाको पूरी तरह से भर जाएगा तो कुएं D यानी महाशलाका मे एक, राई,
का दाना डालेंगे। इसी तरह से करते हुए बारबार अनवस्थित कुएं के नए

8
डायॉमीटर वाले कुए से राई के दाने खाली करेंगे उनके खाली होने पे कुए b
मे एक दाना डालेंगे। कुआ B जब |||| ( Page 12 ) पूरा हाई के ढेर के साथ भर
जाएगा तो कुएं c मे राई का एक दोना डालेंगे और जब कुएं c पूरा तरह से भर
जाएगा राई के ढेर के, साथ, तो कुएं D में एक दाना डालगू और ऐसे कर D को राई
के ढेर के साथ पूरा भरंगे। जो द्वीप और समुद्रों का कॉसेंट्रिक circles का
क्षेत्र बना है इस आखरी कुएं D यांनी महारालाका को राई के ढेर के साथ पूरा
भरने में इस क्षेत्र में जितने राई के दाने हर द्वीप और समुद्र में डाल
है , उन सब राई के दानों का कुल जोड़ जो है वह जघन्य पारिता संख्यात है । इस
जघुन्य पारतासख्यात को JP नाम दे सकते है ।

जूधन्य युक्ता संख्यात् को JY कह सकते हैं। JY = Jpjp

उत्कृष्ट परितासंख्यात हैं। JY-1


परितासंख्यात और उत्कृष्ट परितासंख्यात के बीच में जितने अंक है वे मध्यम
परिता संख्या हैं।

जघन्य असंख्यातासंख्यात = JA = JY2


उत्कृष्ट युक्तासंख्यात= JA-1
||| ( Page 13) जघन्य, सुक्तासंख्यात और उत्कृष्ट युनतासख्यात के बीच में जितने
अंक वे मध्यम युक्तासंख्यात हैं।

उत्कृष्ट असख्यातासंख्यात = जघन्य परितानंत 1


जघन्य असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असख्याता संख्यात के बीच में जितने
अंक हैं वे मध्यम असख्याता सख्यात है।

अनंत

जघन्य परितानन्त - जघन्य असंख्याता संख्या को एक नाम देते हैं - x


श्री

तो मान लेते हैं कि – y = x^xx

फिर Z = y^yy

9
और A = z^zZ
ये तीनों अंक y, z और A मध्यम असंख्याता संख्यात' हैं।
अब इस अंक A में एक नया अंक जोड़ते तैं है। वह नया अंक हे लोकाकाश
में जितने प्रदेश है उस संख्या का 4 गुना। ( लोकाकाश में जितने प्रदेश है
उनको कुल |||| ( Page 14 ) जोड़ असंख्यात ही है अनंत नहीं है। ऐसा शास्त्रो में कहा
गया है। लोकाकाश का हर एक प्रदेश उतनी जगह है जितनी जगह में लोक का
हर एक परमाणु आएगा। यह लोक का जो परमाणु है, वह बिना विज्ञान के atom से
बहुत छोटा है।) अब इस अंक में एक नयी चीज जोड़ेंगे। वह नया अंक है
लोक में जितने वनस्पती के जीव हैं उन सबका जोड़। लोक में जितने
वनस्पती के जीव हैं वो संख्या लोकाकाश में जितने, प्रदेश हैं, उसका
असंख्यात गुना ज्यादा है। इन दो चीज़ों को A में जोड़के एक नया अंक बनता
है जिसका नाम B रखते हैं।

तो C = B^BB
और D = C^CC

और E = D^DD

अब भी यह जो अंक E है यह मध्यम असख्याता सख्यात ही है


अब इस अंक E. में चार, और नई संख्याए जोड़ेंगे। वे चार संख्याएं हैं

1 ) 20 कौडाकोडी सागरोपम जितने काल में “ समय “ की जितनी भी इकाइयाँ हैं।


यहाँ सागरोपम काल या समय की गणना करने के काल्पनिक इकाई है और यह
बहुत बड़ी संख्या की ||| ( Page 15 ) इकाई है। समय नाम |||| इकाई काल या समय को
नापने की सबसे छोटी इकाई है। यह इकाई जैन धर्म में मानी जाती है. और
यह second से बहुत छोटी होती है। बद कोड़ाकोड़ी का अर्थ है (1010) 20
कोड़ाकोडी को कल्प काल कहा जाता और यह काल चक्र की एक पूरी अवधि है।

2) स्थिति बंध अध्यवसाय स्थान जो अभी यहाँ 1 नम्बर पे संख्या बताई उससे
असंख्यात गुना ज़्यादा है।

3) अनुभाग बंध अध्यवसाय स्थान जो अभी यहाँ (2) नम्बर पे संख्या, आई है


उससे असंख्यात गुना ज्यादा है

10
4) योग के उत्कृष्ट की जो अविभाग प्रतिच्छेद संख्या है। यह संख्या अभी यहाँ
जो 3 नम्बर पे संख्या आई है उससे असंख्यात गुना ज़्यादा हा

थे ऊपर बतार बताई सभी संख्याएं जैन धर्म, को अलग-अलग वषयों में आती
है और ये बहुत बड़े असंख्यात अंक हैं।

इन सब असंख्यात संख्याओं को भी E में ||| ( Page 16 ) जोड़ेंगे तो भी एक


मध्यम असंख्यात अंक बनेगा जिसे F कह सकते हैं।

तो मान लेते हैं G =FF

यह जघन्य परितानंत है।

जघन्य युक्तानंत है -> (जधन्य परितानंत ) (जधन्य परितानंत )

उत्कृष्ट परितानंत है - > (जघन्य युक्तानंत) - 1

जघन्य परिवानंत और उत्कृष्ट परितानंत के बीच में जितने भी अंक हैं वे


(मध्यम परितानंत ) हैं

जघन्य अनंतानंत = (जघन्य युक्तानंत)2 = H

उत्कृष्ट युक्तानंत = जिधन्य अनंतानंती – 1


(जघन्य युक्तानंत) और ( उत्कृष्ट युक्तानंत) के बीच में जितने अंक है वे
मध्यम युक्तानंत है।

मध्यम अनंतानंत -> ( उत्कृष्ट अनंतानंत-1)


से जधन्य अनंतानंत +1

11
उत्कृष्ट अनतानत

मान लेते हैं -> I = H^HH = मध्यम अनंतानंत अक

|| ( Page 17) इस I संख्या में 6 नई संख्याओं को जोड़ेंगे


1) जितनी सिद्ध आत्माएं हैं उन सबकी कुल राख्या। यह संख्या इस लोक में
जितने जीव है उस संख्या से अनंत गुना कम है।

2) लोक में जितने भी निगोद के जीव हैं उनकी कुल संख्या। (निगोद के जीव
एकेंदिन जीव होते है जो बहुत ही ज्यादा छोटे होते हैं और पूरे लोक मे
फैले हुए हैं और बहुत ही छोटे आकार के है। ये जीव वनस्पती काय में भी
ष बात यह है कि ये निगोद के जीवों, एक के
होते हैं। इन जीवों की वि$षशे
अनंत जीव एक साथ जन्मते हैं और एक साथ मरते एक ही शरीर में रहकर।) इन
जीवों की संख्या अनंत होती है।

3) वनस्पती के जितने जीव हैं, निगोद के जीवों को मिलाके।


4) लोक में पुद्गल की जितनी संख्या है। यानी लोक में पुद्गल के परमाणुओं की
जितनी संख्या है। लोक में पुदगल के पर परमाणुओं ||| (page18) की जो संख्या
है वह, लोक में जितने जीव है उससे अनंत गुना ज्यादा है।

5) भूत काल, वर्तमान काल और भविष्यत्काल में समय की जितनी इकाइयाँ हैं,
उसका कुल जोड़। यह संख्या, यहाँ, जो 4 नम्बर की संख्या है उससे अनंत गुना
ज्यादा है।

6 ) अलोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उन सब की कुल संख्या। यह संख्या यहाँ


(5) नम्बर में जो संख्या आई है उससे अनन्त गुना ज्यादा है! (लोकाकाश लोक
स्तिकायशाके
का वह भाग है जिसमें सारे जीव रहते हैं और इसमें आका स्तिकाय
साथ पांच और द्रव्य होते हैं, और यह finite और घिरा हुआ क्षेत्र है।
अलोकावराश लोकाकांश के बाहर का क्षेत्र है जो लोकाकाश को धरता है पर
इसको कुछ नहीं घेरता लोकाकाश और अलोकाकाश का मिलाकर आकाश बनता है।
ऐसा जैन शास्त्रों में कहा है।

12
तो इससे यह I संख्या बन जाती है

|||( Page 19 ) K संख्या

ती होता है –

L = kkk
यह जो संख्या L हैं इसमे नए चीजे अबर जोड़ेंगे। वे नई चीजें हैं धर्म
और अधर्म द्रव्य के अगुरलघु गुणो के quality units (शायद लक्षणों की इकाइयों )

तो अब यह संख्या L बन जाती है -

मनले N = M^MM यह भी मध्यम अनंतानंत है।

शास्त्र ऐसा कहते हैं कि यह सब करने के बाद, भी हम उस संख्या तक नहीं


पाहुचे है जा एक सके। जो उत्कृष्ट अनंतानंत को देख सकते हैं तो ऐसे में
क्या करें? शास्त्र क्या करें कहते है कि यह सब करके जो मध्यम अनंतान अंक
आया, जिसे हम N कह रहे है, इसकी उत्कृष्ट अनंतानंत से घटाओं और जो बचे
उसको इस मध्यम अनंतानं अंक N में जोड़ दी तो उत्कृष्ट अनंतानंत संख्या
प्राप्त हो जाएंगी। इससे यह कह 1 सकते हैं कि उत्कृष्ट अनंतानंत के सामने
||| ( Page 20 ) यह जो मध्यम अनंतानंत अंक N आया है, यह अंक N बहुत छोटा है।

उत्कृष्ट अनंतानंत का क्या अर्थ है ?

हमने अभी उत्कृष्ट अनंतानंत की गणना करने के लिए कई सारी अलग अलग
संख्याओं को जाना। जैसे-

1) लोक में जीवों की कुल संख्या क्या है?

2) लोक में पुद्गल के परमाणुओं की कुल संख्या क्या है?


3) लोकाकाश और अलोकाकाश में सभी प प्रदे शा की कुल संख्या क्या है?
4) भूत काल, वर्तमान काल और भविष्यत्काल में समय की कुल संख्या क्या है?

13
तो ऐसी क्या चीज़ है जिसको हमने गणना मैं अभी तक नहीं जोड़ा और जो इन
में सब संख्याओं से भी कई ज्यादा है ?

इसका उत्तर बहुत ही, रूचिकर है। जिस चीज़ की अभी तक इन सब में गणना नहीं
की गई है वह ज्ञान की इकाइयों की कुल संख्या। शास्त्रों के अनुसार जीव कभी भी
ज्ञान के बिना |||| ( Page 21 ) नहीं होता है।, चाहे जीव सबसे निम्न जाति यानी
निगोद की अवस्था में भी क्यों न हो। 'अगर जीव ज्ञान के बिना हो जाए तो जीव
पुदगल की तरह मृत और नपुंसक हो जाएगा। जो कभी हो नहीं सकता। जन्म-मरण
न का गुण खत्म नहीं होता।
में निरंतर गति करते हुए भी जीव का ज्ञान और दर्नर्श
कर्मों के कारण जीव का ज्ञान का गुण ढंक सकता है, पर ज्ञान का गुण खत्म
नहीं होता क्योंकि यह जीव का स्वभाव है। ज्ञान की कुल संख्या निगोद, जो स्क्रे
एकेंद्रिय जीव होते हैं, उनमें सबसे कम होती है और मनुष्य जो छह
इन्द्रियों वाला होता है उसमें सबसे ज्यादा होती है। ज्ञान को मापने की
इकाई है का, अविभाग प्रतिच्छेद' जो और कुछ नहीं बस ज्ञान की सूक्ष्मतर
अविभाजनीय संख्या है या इस, दूसरे शब्दों, में कहें तो जान की इकाई है। निगोद
के जीवों में ज्ञान की जो संख्या है (निगोद की अवस्था जीव की सबसे निम्न
अवस्था है। वह वर्णमाला के एक अक्षर के ज्ञान से भी अनंत गुना कम है पर
फिर भी वह ज्ञान भी ऊपर जो छह संख्यार बताई है उनसे अनंत |||| ( Page 22 )
गुना ज़्यादा है।

कोई यह भी सोच सकता है कि निगोद के जीती के ज्ञान को इतनी बड़ी


संख्या क्यों कही गई है? इसके पीछे कारण इस प्रकार है- एकेंद्रिय पर्याय
में ही अनंत जीव है और उन सब जीवों का ज्ञान आपस में एक समान नहीं
है और वह ज्ञान समय के अनुसार बदलता है। यह ज्ञान में बढ़ोतरी बहुत ही,
बहुत ही न्यून भी होती है, कुछ संख्यात संख्या जितनी भी होती है,. असंख्यात
संख्या जितनी भी होती है, और अनंत संख्या जितनी भी होती है। अर्थात सबसे
कम संख्या से बहुत ही न्यून या संख्यात या असंख्यात या अनंत गुना ज्यादा भी
होती है। अगर निगोद के जीवों के ज्ञान की सबसे निम्न पर्याय को एक मानते
तो दूसरे पर्यायों में जो बढ़ोतरी होती वह इस प्रकार के अंक से होती 1
divided by infinity in fraction form. जैन परंपरा में जो ज्ञान का सबसे छोटा अंक
है वही अनंत है और एकेंद्रिय जीवो में बढ़ौतरी होती है उसके बाद

14
दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में बढ़ौतरी होती है।
यह बढ़ौतरी बढ़ती |||| ( page 23 ) जाती है जब तक हम एक अक्षर के पूर जाने तक
पहुँचते है जिसे अक्षर ज्ञान कहत हा
इस अक्षर ज्ञान के बाद ज्ञान को अक्षरों के आधार पे, मापा जा
सकता है या शब्दों और वाक्यों के आधार पे भी मापा जा सकता है . इसलिए इसे
श्रुत ज्ञान कहते हैं क्योंकि, इसका मन में मनन किया जा सकता है और बोल
कर दूसरों को भी बताया जा सकता है। इसे श्रुत ज्ञान की संख्या कर गणना स
इतना बताया है 264-1. ऐसा इसलिए है क्यों क्योंकि हिंदी भाषा में कुल मिलाक
64 अक्षर है और 264-1 जो संख्या है वह कुल मिलाके उतने अक्षर है जो बिना
एक बार भी दुहराए जाने पर इन 64 अक्षरा से बन सकते इसलिए कुल श्रुत ज्ञान
इस संख्या से जादा नहीं हो सकता।

जैन धर्म श्रुत ज्ञान से ऊपर,और तीन तरह के ज्ञान बताता है। जहाँ
इन्द्रियों से जाने हुए ज्ञान को अप्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता ||||| ( Page 24 ) है
वहीं ये जो श्रुत, ज्ञान से ऊपर के तीन, ज्ञान है इन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान कहा
जाता है जिसम आत्मा बिना किसी इन्द्रियों और साधनों का आलम्बन लिए सीधे
आपने ज्ञान से जानता है। उन तीन ज्ञानों में सबसे पहला है, अवधि ज्ञान
जिससे आत्मा लोक के पुद्गलों को बिना किसी इन्द्रियों से, सीधे अपने ज्ञान
से जान सकता है। दूसरा यानी पाँच ज्ञानों मे चौथा ज्ञान है मन:पर्यय ज्ञान
(clairvoyance ) जिससे बहुत ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए संत दूसरे मनुष्यों के
मन को पढ़ सकते है उन प्रत्यक्ष ज्ञानों में तीसरा यांनी पाँच ज्ञान में
पाँचवा ज्ञान क़वल, ज्ञान ह (omniscience) जिसमें लोक का पूरा ज्ञान हो जाता
है। सारे कर्मो को त्यागे हुए मुक्त और सिद्ध जीवों के ज्ञान की इतनी क्षमता
होती है कि वे लोक में जानने योग्य सभी द्रव्यों को जानते हैं। केवल
ज्ञानी, सभी छहों द्रव्यों में हल्के से हल्क बदलाव जो भूत काल, वर्तमान काल
और भविष्यत्काल में हुआ है, हो रहा है और होगा उन सबको एक साथ जानते
है। उत्कृष्ट अनंतानंत, केवल ज्ञान की अवस्था में ज्ञान की सबसे छोटी
अविभाजनाय इकाइयों का जितना संख्या है उसे |||| ( page 25 ) बताता है। यह
संख्या अनंत अनंत गुण बड़ी है दुसरा किसी भी कल्पना की जा सकने वाली सख्या
से। यह ज्ञान जीव का जन्मजात स्वभाव है जो उनके ... अपने अपने कर्मों के
कारण ढका हुआ था एक बार आत्म मुक्त हो जाता है तो सारा ज्ञान आवरण मुक्त
हो जाता है। ऐसे में आत्मा जब सब कुछ जानने लग जाता तो आत्मा उत्तेजित
या कषायों से खिन्न नहीं होता क्योंकि तब आत्मा को कुछ भी जानने की जरूरत

15
नहीं रहती। यह ना भी ध्यान देने योग्य बात है कि केवल ज्ञान श्रुत ज्ञान से
अनंत अनंत गुना ज्यादा है (श्रुत ज्ञान-शब्दों से होने वाल ज्ञान ) क्यूकी केवल
ज्ञान जितना जानता है उसका.. है उसका, सर्फ अनंतुवां भाग ही वे वेद ज्ञान
में दे सकते और उस ज्ञान का भी गणधर जा सूत्रबद्ध करत है वह भी उस
ज्ञान का अनुतवा भाग है। जिस हम श्रुत ज्ञान कहते है।
विज्ञान ने बहुत कुछ जाना है पर आत्मा, ज्ञान और उसक, सबसे छोट इकाई
या उसकी मापने की तरकी को नै जान पाई है । यह ऐसा अनंत जिसको |||| ( page 26)
विज्ञान नहीं जान पाया ह , ध्यान देने योग्या एक और बात यह है की ज्ञान की
इकाइयां लोक पे निर्भर नहीं हैं। शास्त्रों हैं। शास्त्रों के अनुसार जीव के जाने
की इतनी क्षमता है कि जीव कई सारे और लोकों को भी जान जाता अगर वे
होते तो इसका अर्थ है कि जाकी योग्य पदार्थों की सीमा है, पर केवल ज्ञान
के ज्ञान की सीमा नहीं है।

सकतनवा वेद ज्ञान म दे सकते ह

16

You might also like