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Kriya Sharir Final
Kriya Sharir Final
क्रिरुक्ति
क्रियते अन्या असौ अक्तिि इक्रत वा | (आयुवेद शब्दकोश)
भकसी के द्वतरत भकर्त गर्त कतर्ा , कोई भवशेष कतर्ा र्त भवशेष संदिा में |
प्रवृक्रतस्तु खलु चेष्टा कायाथाा , सैव क्रिया , कमा , यत्न: कायासमारम्भश्च
| (च. क्रव. 8/77)
आर्ुवेद में भिर्त कत अर्ा शरीर के अंग द्वतरत भकसी भवशे ष समर् में की
जतने वतली भिर्त को प्रवृभत कहत जततत है | भजसमे भिर्त र्त कमा पर्ता र्वतची
शब्द होते हैं |
पयााय
आरम्भो क्रिष्कृक्रत: क्रशक्षा पू जिं संप्रधारणं उपाय: कमा चेष्टा च
क्रचक्रकत्सा च िव क्रिया: (भा.प्र. 6/13)
आरम्भ , भनष्कृभत , भशक्षत , पूजनं ,संप्रधतण , उपतर् , कमा , चेष्टत , भचभकत्सत
शारीर
क्रिरुक्ति
शरीररमक्रधकृत्य कृतो ग्रन्थ: शारीर: | (अ.हृ.शत.1/1)
अर्ता त शरीर की प्रतकृत रचनत एवं भिर्त कत ज्ञतन करतने वतलत शतस्त्र
‘शतरीर’ कहलततत है | इस प्रकतर शतरीर के दो िेद र्र्त – रचनत शतरीर एवं
भिर्त शतरीर भकए गए हैं |
आर्ुवेद के अनुसतर ‘भिर्त शरीर’ शरीर के उपदतनिूत दोष , धततु , मलों की
प्रतकृत भिर्तओं कत भनरूपण करतत है | इसके ज्ञतनितव में सफलतत संशर्
पूणा हो जतती है |
शरीरस्ये दम् , शरीरसम्बक्ति , शरीर संजात: - शारीर | (आयुवेद
शब्दकोश)
पं चमहाभूतशरीररसमवाय: शरीरमुिं....| (सु.शा.5/2)
शरीर का प्रयोजि
शरीरं पं चमहाभूतक्रवकारत्मकमात्मिो भोगायतिम्,.... | (च.सू.1/42)
शरीर की पररभाषा
व्युत्पक्रि
शरीर शब्द की उत्पभि ‘शृ हरन् ’ धततु से होती है |
क्रिरुक्ति:
दोषधातुमलमू लं क्रह शरीरं ,.... |
तत्र शरीरं िाम चेटिाक्रधष्ठािभूतं पंचमहाभूतक्रवकारसमुदयात्मक समयोगवाक्रह |
(च. शत. 6/4)
पयााय
गात्रं
वपुस्संहििं शरीरं वर्ष्ा क्रवग्रह: कायो दे ह: क्लीबपुंसो: क्तियां मूक्रतास्तिुस्तिू: |
(अमरकोश)
स यदा हस्तपादक्रजह्वाघ्राणकणाक्रितंबआक्रदक्रभरं गै रुपे तस्तदा ‘शरीरं ’
इक्रत लभते | (सु.सू.5/3)
शीयाते रोगादीिां यत् तत् शरीरम् || (शब्दरत्नतवली)
क्रिया शारीर
शरीरं
अक्रधकृत्य कृतं तं त्रम शारीरम् ; रचिाप्रक्रतपदकं शारीरं
रचिाशारीरं ; क्रियाप्रक्रतपादकं शारीरं क्रियशारीरम् |
र्ह आर्ुवेद की शतखत है जो शरीर के भवभिन्न तत्त्ों जेसे दोष , धततु , मल और पतचन ,
पररसंचरण , श्वसन , उत्सजान आभद जैसी महत्त्पूणा शतरीररक प्रभिर्तओ के बतरे में भवशेष
ज्ञतन से संबंभधत है |
शारीररक दोष
वायु : क्रपिं कफश्चे ती त्रयो दोषा: समासत: ||
क्रवकृताक्रवकृत दे हं घ्नक्ति ते वता यिी च || (अ. हृ. सू. 1/6-7)
दोष तीन हैं – वतत , भपि और कफ र्े तीन शतरीररक दोष हैं | वे दोष
भवकृत होते हुए दे ह को नष्ट कर दे ते हैं और अभवकृत अवस्र्त में रहते
हुए शरीर की वृद्धि करते हैं |