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मज्जा सिद्ध तेल

घटक द्रव्य:-
● मटन की लम्बी अस्थियां
● तिल तेल

निर्माण विधि:-
● सर्वप्रथम हड्डियों को फोडकर मज्जा निकालनी है ।
● अन्यथा एक पात्र मे इतना पानी लेना है कि हड्डियां
डूब जाये जिससे हड्डियों को अच्छे से उबालने पर
मज्जा पानी मे निकल जाये।
● फिर तिल तैल गर्म करके पानी वाली मज्जा को
उसमे डालना है ।
● पानी परू ी तरह से खत्म होने तक उसे मंदाग्नि पर
उबालें।
● वर्ति परिक्षण सिद्ध होने तक तैल को उबालें।

उपयोग:-
● बहं ृ ण के लिये
● स्नायग ु त दोष के लिये
● बीजदष्टि ु
● अस्थिक्षय
● पक्षाघात

● दशमल
ू ादि मज्जस्नेह का प्रयोग:- (च. चि.
28/125…)
ग्राम्यानप ू ौदकानां तु भित्त्वाऽथीनि पचेज्जले ॥
तं स्नेहं दशमल ू स्य कषायेण पन ु ः पचेत ् ।
जीवकर्षभकास्फोताविदारीकपिकच्छुभिः ॥
वातघ्नैर्जीवनीयैश्च कल्कैर्द्विक्षीरभागिकम ् ।
तत्सिद्धं नावनाभ्यङ्गात्तथा पानानव ु ासनात ् ॥
सिरापर्वास्थिकोष्ठस्थं प्रणद ु त्याशु मारुतम ्।
ये स्यःु प्रक्षीणमज्जानः क्षीणशक्र ु ौजसश्च ये ॥
बलपष्टि ु करं तेषामेतत ् स्यादमत ृ ोपमम ् ।
ग्राम्य (बकरे , भेड़ आदि पशओ ु ं के),
आनप ू (सअ ु र, भैंस आदि पशओ ु ं के) और औदक
(मछली, कछुआ, मगर आदि) जीवों की हड्डियों को
कुचल कर जल में पकाएँ। प्राप्त स्नेह को दशमल ू
क्वाथ तथा जीवक, ऋषभक, आस्फोता (सारिवा),
विदारीकन्द और केवाँच-इनके तथा अन्य वातनाशक
औषधियों एवं जीवनीय गण के दश अनव ु ासन
औषधियों के कल्क से द्विगण ु (कल्क से) दग्ु ध
मिलाकर पन ु ः पकाएँ।
● स्नेह सिद्ध हो जाने पर नस्य, अभ्यङ्ग, पान
और बस्ति के द्वारा, इसका प्रयोग करने से
सिरा पर्व (गाँठ), हड्डी और कोष्ठ में कुपित वायु
का शीघ्र ही नाश हो जाता है ।
● जिन व्यक्तियों की मज्जा नष्ट हो गयी है , शक्रु
और ओज क्षीण हो गए हैं।उन व्यक्तियों के लिए
यह स्नेह बल और पष्टि ु करने वाला होता है तथा
अमत ृ के समान लाभ करने वाला है ।।

मज्जा के गण ु :- (च. स.ू 13/17)


बलशक्र
ु रसश्लेष्ममेदोमज्जविवर्धनः|
मज्जा विशेषतोऽस्थ्नां च बलकृत ् स्नेहने हितः||
मज्जा का सेवन करने से शरीर मे
बल, वीर्य, रस, कफ, मेदा, और मज्जा की वद् ृ धि
होती है । विशेषकर मज्जा का प्रयोग अस्थियों को
बल दे ने और शरीर का स्नेहन करने मे हितकर होता
है ।

मधरु ो बहृ नो वष्ृ यो बल्यो मज्जा व वसा ।


यथासत्वं तू शैत्योष्णे वसमज्योर्विनिर्दिशेत ् ॥
(च. स.ू 27/295)
मधरु , बह
ं ृ ण, वष्ृ य, बल्य।
शीतता या ऊष्णता प्राणियों के ऊपर
(आनपू /ग्राम्य/औदक) निर्भर करती है ।

मज्जावसे विशेषाद्वातघ्ने वष्ृ यसंमते चैव ।


बलिनां तत्सात्म्यानां प्रजाबलायःु स्थिरीकरणे ||
(का. स.ू 22/8)
मज्जा तथा वसा विशेषकर वातघ्न, वष्ृ य माने गये
हैं तथा बलवान ् एवं जिन्हें ये सात्म्य हों उन परुु षों में
सन्तानोत्पत्ति, बल एवं आयु को स्थिर करते हैं ।
चरक स० ू अ० १३ में इनके निम्न गण ु दिये हैं-
विद्वभग्नाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि । पौरुषोपचये
स्नेहे व्यायामै चेष्यते वसा ॥ बलशक्र ु रसश्लेष्म
मेदोमज्जविवर्धनः । मब्जा विशेषतोऽस्थ्नां च
बलकृत्स्नेहने हितः ॥ अर्थात ् इनका प्रयोग मख् ु य
रूप से बल एवं वीर्यवद्ृ धि के लिये होता है ।

मज्जा सेवन योग्य:- ( च. स.ू 13/50)


दीप्ताग्नयः क्लेशसहा घस्मराः स्नेहसेविनः|
वातार्ताः क्रूरकोष्ठाश्च स्नेह्या मज्जानमाप्नय
ु ःु ||
● जिन व्यक्तियों की अग्नि तीव्र हो,
● क्लेश को सहन करने वाला हो,
● अधिक भोजन करने वाला हो,
● सदा स्नेह सेवन करने वाला हो
● वात रोगी
● क्रूरकोष्ठी

वातातपाध्वभारस्त्रीव्यायाम क्षीणधातष ु ु।
रूक्षक्लेशक्षमात्यग्निवातावत
ृ पथेषु च ॥
(अ. हृ. सू 16/10)
● वात से, आतप से, अधिक चलने से, भार वहन
करने से, अधिक स्त्रीसेवन से, व्यायाम से
जिसके धातु क्षीण हो गये हो।
● रूक्ष
● क्लेशसहा
● अत्यग्नि
● वात से स्रोतस ् आवत ृ हो
उनमे (घी तेल के अलावा) वसा मज्जा
उपयोगी है ।

क्रूराशयाः क्लेशसहा वातार्ता दीप्तवह्नयः |


मज्जानमाप्नय ु ःु सर्वे सर्पिर्वा स्वौषधान्वितम ् ||
(सु चि 31/18)
● क्रूर कोष्ठी
● कष्ट सहने वाले
● वात व्याधिजन्य
● तीव्राग्नि वाले सभी आतरु ों को जिसके लिये जो
औषध अनक ु ू ल हो, उसमे सिद्ध मज्जा या
घत ृ पान करना चाहिये।

क्रूराशयाः क्लेशसहा वातार्त्ता दीप्तवह्नयः ।


मज्जानमाप्नय ु :ु सर्वे सर्पिर्वा स्वौषधान्वितम ्।।
(स.ु उ. 1/16)

मज्जा का अनप ु ान:- (च. स.ू 13/22)


वसामज्ज्ञोस्तु मण्डः स्यात ् सर्वेषष्ू णमथाम्बु वा||
● मंड
● गर्म जल

मज्जा सेवन काल:- (च. स.ू 13/18)


सर्पिः शरदि पातव्यं वसा मज्जा च माधवे|
तैलं प्रावषि
ृ नात्यष्ु णशीते स्नेहं पिबेन्नरः||
● मज्जा सेवन काल माधव माह में । (चरक)
● बसन्त ऋतु मे। (अ. हृ.स.ू 16/21) (का. स.ू
22/10)

मज्जा का स्थान:-
स्थलू ास्थिषु विशेषण
े मज्जा त्वभ्यन्तराश्रिता।
● स्थलू अस्थियों के मध्य में विशेष रूप से मज्जा
रहती है ।

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