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भगवत गीता यथारूप 3.

श्रेयान्स्वधर्मो ववगुणः
परधर्माात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे वनधनं श्रेयः
परधर्मो भयावहः ॥
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भगवत गीता यथारूप 3.

शब्दाथा
श्रेयान्—अष्ठधक श्रेयस्कर;
स्व-धर्मा:—अपने
वनयतकर्मा; ववगुण:—
दोषयुक्त भी; पर धर्माात्—
अन्यों के लिए उल्लिखित
कायों की अपेक्षा; सु-
अनुष्ठितात्—भिीभााँवत
भगवत गीता यथारूप 3. 35
सम्पन्न; स्व-धर्मे—अपने
वनयतकर्मों र्में; वनधनर्म्—
ववनाश, र्मृत्यु; श्रेय:—
श्रेितर; पर धर्मा:—अन्यों के
लिए वनयतकर्मा; भय-
आवह:—ितरनाक,
डरावना ।.
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भगवत गीता यथारूप 3.

अन्वय-स्वनुष्ठितात्
(भिीभााँवत अनुष्ठित)
परधर्माात् (परधर्माकी
अपेक्षा) ववगुणः स्वधर्माः
(ककञ्चित् दोषयुक्त अनुष्ठित
स्वधर्मा) श्रेयान् (श्रेि है )
स्वधर्मे (अपने अपने
वणााश्रर्मोचित धर्मार्में)
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भगवत गीता यथारूप 3.

वनधनर्म् श्रेयः ( वनधन अच्छा


है ) परधर्माः भयावहः (परधर्मा
उसकी अपेक्षा भयावह है ) ।

अनुवाद
अपने वनयतकर्मों को
दोषपूणा ढं ग से सम्पन्न करना
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भगवत गीता यथारूप 3.

भी अन्य के कर्मों को
भिीभााँवत करने से श्रेयस्कर
है । स्वीय कर्मों को करते हुए
र्मरना पराये कर्मों र्में प्रवृत्त
होने की अपेक्षा श्रेितर है ,
क्योंकक अन्य ककसी के र्मागा
का अनुसरण भयावह होता
है ।
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भगवत गीता यथारूप 3.

श्रीधरी 3.35
इसलिए इस प्रकार की
स्वाभाववकी पशु-आदद-
सदृश प्रवृष्ठत्त को त्याग कर
स्व-धर्मे र्में प्रवृवतत होना
िादहए यह कहा गया | तब
स्व धर्मा के अथाात युद्ध आदद
के दुःि रूप कर्मा को यथावत्
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भगवत गीता यथारूप 3.

करना अशक्य है और पर धर्मा


अथाात अदहिंसा आदद के
सुकर होने से उसको करना
शक्य है और दोनों ही धर्मा
होने के कारण सर्मान रूप से
ववशेष हैं तो वहां परधर्मा र्में
प्रववतित होने की इच्छा करने
वािे अर्ुान के प्रवत यह
भगवत गीता यथारूप 3.35
श्लोक भगवान् श्री कृष्ण कह
रहे हैं |
ककञ्चिद् अङ्ग – हीन होने पर
भी स्व-धर्मा श्रेयान् अथाात
प्रशस्यतर है | स्वनुष्ठितात्
अथाात सवा अंग की सम्पूवति
के साथ ककया र्ाने वािे पर
धर्मा से भी यह स्व धर्मा श्रेष्ट है
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भगवत गीता यथारूप 3.

| उसका हे तु है की स्व-धर्मे
अथाात युद्ध आदद र्में
प्रवतार्मान के वनधनर्म् अथाात
र्मरण ही श्रेष्ट है क्योंकक यह
स्वगा आदद की प्रावि कराता
है | पर धर्मा तो स्वयर्म के लिए
भयावह है क्योंकक इसका
वनषेद्ध ककये र्ाने के कारण
भगवत गीता यथारूप 3. 35
यह नरक की प्रावि कराता है
|
श्रीपाद रार्मानुर्ािाया 3.35
अतः प्रकृ ततसंसर्गयुक्त जीवके तिये कर्गयोर् सुखसाध्य होनेके कारण स्वधर्ग ह रर तवर्ुण होनेरर
भी प्रर्ादसे रतहत ह; इसतिये वह ( कर्गयोर् ) कु छ काि साधन ककये हुए उस ज्ञान- योर्की
अरेक्षा कहीं श्रेष्ठ ह, जो कक र्ुणयुक्त होनेरर भी प्रकृ ततस्थ रुरुषके तिये दुःसाध्य होने के कारण
ररधर्ग रर प्रर्ादयुक्त ह ।

अरने आर ही सुर्र्तासे सम्रादन करने योग्य होनेके कारण जो स्वधर्ग ह, ऐसे कर्गयोर्र्ें िर्े
हुए रुरुषका एक ही जन्र्र्ें र्ोक्षरूर फिको प्राप्त न होकर र्र जाना भी उत्तर् ह, क्योंकक तवघ्नोंसे
नष्ट न होनेके कारण दूसरे जन्र् र्ें भी सावधानी के साथ कर्गयोर्का आरम्भ होना सम्भव ह ररन्तु
प्रकृ ततसंसर्गयुक्त जीवके तिये अरने-आर प्राप्त करना अशक्य होने के कारण जो ररधर्गरूर ह, ऐसा
ज्ञान- योर् तो प्रर्ादभरा होनेसे भयदायक ( ही ) ह

गीता भूषण टीका3.35


भगवत गीता यथारूप 3.35
“आपने कहा की हर्में अपनी
प्रकृवत से वनष्ठर्मित पश्वादद
रागद्वे षर्मयी साधारणी प्रवृवत
को त्याग कर शास्त्रोक्त धर्मा
र्में वतार्मान होना िादहए
यह प्रवृवत धर्मा आिरण
करने के द्वारा ह्रदय शुद्ध
होने से वनवृत हो र्ानी
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भगवत गीता यथारूप 3.

िादहए| युद्ध और अदहिंसा इन


दोनों धर्मों का वणानन शास्त्रों
र्में है | क्योंकक युद्ध करने के
धर्मा को र्मैं राग और द्वे ष के
वबना सम्पाददत नहीं कर
सकता हाँ इसलिए अदहिंसा
रुपी धर्मा लर्सर्मे चभक्षाटन के
द्वारा र्ीवन धारण करना
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भगवत गीता यथारूप 3.

होता है वह र्मेरे लिए युद्ध


करने की अपेक्षा श्रेयस्कर
होगा ।" यदद यह शंका हो तो
भगवान् इस पर यह श्लोक
कहते हैं |
र्ो भी धर्मा, वेद र्में वणा और
आश्रर्म के अनुसार वखणित है ,
यद्यवप वह पूणा रूप से
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भगवत गीता यथारूप 3.

संपाददत न भी हो पाए
क्योंकक उसके कुछ अंग पूणा
नहीं हो पाए हैं (ववगुणः)
किर भी वह दूसरों के धर्मा का
सम्पादन करने से श्रेष्ट है
यद्यवप वह पर धर्मा सारे अंगों
के साथ संपाददत ही क्यों न
हुआ हो (स्वनुष्ठितात)|
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भगवत गीता यथारूप 3.

उहदारण के लिए ब्राह्मण का


स्वाभाववक धर्मा अदहिंसा है
और क्षविय का दहिंसा| वेद की
र्मान्यता के परे ककसी को भी
धर्मा आिरण नहीं करना
िादहए | ऐसा करना वैसा
होगा र्ैसा आाँिों की किया
को ककसी अन्य अंग से
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भगवत गीता यथारूप 3.

करना| र्ैष्ठर्मनी का कथन है :


िोदना-िक्षणो धर्माः अथाात
धर्मा का िक्षण है वनयर्म
|अपने धर्मा का पािन करना
क्यों श्रेष्ट है ?
उसको किर कहा र्ा रहा है |
अपने धर्मा के आिरण को
करते हुए र्मृत्यु को प्राि हो
भगवत गीता यथारूप 3.35
र्ाना श्रेष्टतर है | यह सवाश्रेष्ट
िि देने वािा होता है
क्योंकक इसर्में अपूणाता के
कारण कोई पाप के द्वारा
क्षवत नहीं है और क्योंकक
अगिे र्न्म र्में वह इस धर्मा
का आिरण ठीक से कर
पायेगा | दूसरे का धर्मा करने
भगवत गीता यथारूप 3.35
से दुभााग्य का वनर्मााण होता है
क्योंकक इसर्में पाप सृष्ठष्ट होती
है और क्योंकक यह शास्त्र के
द्वारा वनषेष्ठधत है |
और परशुरार्म ववश्वाष्ठर्मि के
सम्बन्ध र्में कोई व्याचभिार
नहीं है | यद्यवप परशुरार्म और
ववश्वाष्ठर्मि िर्मशः ब्राह्मण
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भगवत गीता यथारूप 3.

और क्षिीय कुि र्में र्न्म


लिए थे किर भी उन्होंने अपने
र्महान गुणों के द्वारा कर्मा
संपाददत ककये तथावप
उनकी वनिंदा हुई और उनको
कष्ट हुआ | साथ ही द्रोण
इत्यादद को क्षविय धर्मा के
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भगवत गीता यथारूप 3.

अभ्यास करने के कारण की


कई बार वनन्दित होना पडा |
“परन्तु र्मैंने सुना है की
दैवराती इत्यादद क्षवियों ने
र्गत का त्याग ककया था
इसलिए अदहिंसा को र्मेरे लिए
परधर्मा क्यों र्माना र्ाएगा?
अपने पूवा आश्रर्म के
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भगवत गीता यथारूप 3.

वनयत कर्मों को करने से


व्यवक्त वासनाओं को तब
तक क्षीण करता है र्ब तक
वह वैराग्य के लिए योग्य नहीं
हो र्ाता |उसके उपरान्त
व्यवक्त अदहिंसा का पािन कर
पाता है क्योंकक तब वही
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भगवत गीता यथारूप 3.

उसका वनयत कर्मा हो र्ाता है


तो इसलिए तब
अपने वनयत धर्मा र्में स्थित
व्यवक्त के लिए अदहिंसा का
पािन करना उचित होता है
।"
नोटः दैवराती र्महारार्
र्नक का ही एक और
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भगवत गीता यथारूप 3.

नार्म है | वृद्धा अविा र्में


उन्होंने संन्यास िे लिया था
यद्यवप सार्मान्यतः क्षविय
संन्यास न िेकर वानप्रि
को स्वीकार करते हैं |
तात्पया
अत: र्मनुष्य को िादहए कक
वह अन्यों के लिए वनयतकर्मों
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भगवत गीता यथारूप 3.

की अपेक्षा अपने वनयतकर्मों


को कृष्णभावनार्मृत र्में करे ।
भौवतक दृष्ठष्ट से वनयतकर्मा
र्मनुष्य की र्मनोवैज्ञावनक दशा
के अनुसार भौवतक प्रकृवत के
गुणों के अधीन आददष्ट कर्मा
हैं । आध्यात्मिक कर्मा गुरु
द्वारा कृष्ण की ददव्यसेवा के
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लिए आदेलशत होते हैं । ककन्तु


िाहे भौवतक कर्मा हों या
आध्यात्मिक कर्मा, र्मनुष्य को
र्मृत्युपयान्त अपने वनयतकर्मों
र्में दृढ रहना िादहए। अन्य के
वनधााररत कर्मों का अनुकरण
नहीं करना िादहए।
आध्यात्मिक तथा भौवतक
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भगवत गीता यथारूप 3.

स्तरों पर ये कर्मा चभन्न-चभन्न हो


सकते हैं , ककन्तु कताा के लिए
ककसी प्रार्माखणक वनदेशन के
पािन का लसद्धान्त उत्तर्म
होगा। र्ब र्मनुष्य प्रकृवत के
गुणों के वशीभूत हो तो उसे
उस ववशेष अविा के लिए
वनयर्मों का पािन करना
भगवत गीता यथारूप 3. 35
िादहए, उसे अन्यों का
अनुकरण नहीं करना
िादहए। उदाहरणाथा,
सतोगुणी ब्राह्मण कभी
दहिंसक नहीं होता, ककन्तु
रर्ोगुणी क्षविय को दहिंसक
होने की अनुर्मवत है । इस तरह
क्षविय के लिए दहिंसा के
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वनयर्मों का पािन करते हुए


ववनष्ट होना लर्तना श्रेयस्कर
है उतना अदहिंसा के वनयर्मों
का पािन करने वािे ब्राह्मण
का अनुकरण नहीं। हर व्यवक्त
को एकाएक नहीं, अवपतु
िर्मश: अपने हृदय को स्वच्छ
बनाना िादहए। ककन्तु र्ब
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भगवत गीता यथारूप 3.

र्मनुष्य प्रकृवत के गुणों को


िााँघकर कृष्णभावनार्मृत र्में
पूणातया िीन हो र्ाता है , तो
वह प्रार्माखणक गुरु के
वनदेशन र्में सब कुछ कर
सकता है । कृष्णभावनार्मृत
की पूणा स्थिवत र्में एक क्षविय
ब्राह्मण की तरह और एक
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ब्राह्मण क्षविय की तरह कर्मा


कर सकता है । ददव्य अविा
र्में भौवतक र्गत् का भेदभाव
नहीं रह र्ाता। उदाहरणाथा,
ववश्वाष्ठर्मि र्मूित: क्षविय थे,
ककन्तु बाद र्में वे ब्राह्मण हो
गये। इसी प्रकार परशुरार्म
पहिे ब्राह्मण थे, ककन्तु बाद
भगवत गीता यथारूप 3. 35
र्में वे क्षविय बन गये। ब्रह्म र्में
स्थित होने के कारण ही वे
ऐसा कर सके, ककन्तु र्ब
तक कोई भौवतक स्तर पर
रहता है , उसे प्रकृवत के गुणों
के अनुसार अपने कर्मा करने
िादहए। साथ ही उसे
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कृष्णभावनार्मृत का पूरा बोध


होना िादहए।

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