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गुरुकु ल

ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरु के


परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है।[1]
भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत
महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकु ल में पढ़े हुए छात्रों
का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि
वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार
पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की
थी।
प्राचीन भारत के गुरुकु लों के अंतर्गत तीन प्रकार की
शिक्षा संस्थाएँ थीं-

(१) गुरुकु ल- जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ


रहकर विद्याध्ययन करते थे,
(२) परिषद- जहाँ विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी,
(३) तपस्थली- जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे और
सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था।
नैमिषारण्य ऐसा ही एक स्थान था।
गुरुकु ल आश्रमों में अनादिकाल से ही करोड़ों विद्यार्थी
विद्या-अध्ययन करते रहे हैं। भारतवर्ष के गुरुकु ल
आश्रमों के आचार्यों को उपाध्याय और प्रधान आचार्य
को 'कु लपति' या महोपाध्याय कहा जाता था । रामायण
काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप
तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त
हुआ था। इस प्रकार का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग
में भारद्वाज मुनि का था।[2]

गुरुकु ल शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ ये थीं-

गुरुकु ल पूर्णतः आवासीय शिक्षा प्रदान करने का


एकांत स्थान होता था, जहाँ आठ से दस वर्ष की आयु
में बच्चा गुरु के सानिध्य मे रह कर विद्या अध्ययन
करता था।
विद्यार्थीब गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करते थे।
गुरुकु ल मे बच्चे स्वयं दिनचर्या के सभी कार्य करते
थे। वे अपने उपयोग की सामाग्री का निर्माण स्वयं
करते थे। अपने खाने की व्यवस्था स्वयं खेती या
भिक्षाटन से करते थे।
गुरुकु ल मे श्रुति अर्थात सुन कर याद करते थे,
लिपिबद्ध करने का परम्परा नहीं थी।

परिचय
'गुरुकु ल' का शाब्दिक अर्थ है 'गुरु का परिवार' अथवा
'गुरु का वंश'। परन्तु यह सदियों से भारतवर्ष में
शिक्षासंस्था के अर्थ में व्यवहृत होता रहा है। गुरुकु लों के
इतिहास में भारत की शिक्षाव्यवस्था और ज्ञानविज्ञान की
रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय संस्कृ ति के
विकास में चार पुरुषार्थों, चार वर्णों और चार आश्रमों की
मान्यताएँ तो अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए
अन्योन्याश्रित थी ही, गुरुकु ल भी उनकी सफलता में
बहुत बड़े साधक थे। यज्ञ और संस्कारों द्वारा ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य और शूद्र सभी कु ल, वर्ण और समाज
के बालक 6, 8 अथवा 11 वर्ष की अवस्थाओं में
गुरुकु लों में ले जाए जाते थे (यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा
उपवीत) और गुरु के पास बैठकर ब्रह्मचारी के रूप में
शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उनके मानस और बौद्धिक
संस्कारों को पूर्ण करता हुआ उन्हें सभी शास्त्रों एवं
उपयोगी विद्याओं की शिक्षा देता तथ अंत में दीक्षा देकर
उन्हें विवाह कर गृहस्थाश्रम के विविध कर्तव्यों का पालन
करने के लिए वापस भेजता। यह दीक्षित और
समावर्तित स्नातक ही पूर्ण नागरिक होता और समाज के
विभिन्न उत्तरदायित्वों का वहन करता हुआ त्रिवर्ग की
प्राप्ति का उपाय करता। स्पष्ट है, भारतीय सभ्यता और
संस्कृ ति के विकास में गुरुकु लों का महत्वपूर्ण योग था।

गुरुकु ल प्रायः ब्राह्मण गृहस्थों द्वारा गाँवों अथवा नगरों के


भीतर तथा बाहर दोनों ही स्थानों में चलाए जाते थे।
गृहस्थ विद्वान और कभी कभी वानप्रस्थी भी दूर-दूर से
शिक्षार्थियों को आकृ ष्ट करते और अपने परिवार में और
अपने साथ रखकर अनेक वर्षों तक (आदर्श और विधान
पच्चीस वर्षों तक का था) उन्हें शिक्षा देते। पुरस्कार
स्वरुप ब्रह्मचारी बालक या तो अपनी सेवाएँ गुरू और
उसके परिवार को अर्पित करता या संपन्न होने की
अवस्था में अर्थशुल्क ही दे देता। परंतु ऐसे आर्थिक
पुरस्कार और अन्य वस्तुओं वाले उपहार दीक्षा के बाद
ही दक्षिणास्वरूप दिए जाते और गुरु विद्यादान प्रारम्भ
करने के पूर्व न तो आगंतुक विद्यार्थियों से कु छ माँगता
और न उनके बिना किसी विद्यार्थी को अपने द्वार से
लौटाता ही था। धनी और गरीब सभी योग्य विद्यार्थियों के
लिए गुरुकु लों के द्वार खुले रहते थे। उनके भीतर का
जीवन सादा, श्रद्धापूर्ण, भक्तिपरक और त्यागमय होता
था। शिष्य गुरु का अंतेवासी होकर (पास रहकर) उसके
व्यक्तित्व और आचरण से सीखता। गुरु और शिष्य के
आपसी व्यवहारों की एक संहिता होती और उसका
पूर्णत: पालन किया जाता। गुरुकु लों में तब तक जाने हुए
सभी प्रकार के शास्त्र और विज्ञान पढ़ाए जाते और शिक्षा
पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की परीक्षा लेता, दीक्षा देता
और समावर्तन संस्कार संपन्न कर उसे अपने परिवार को
भेजता। शिष्यगण चलते समय अपनी शक्ति के अनुसार
गुरु को दक्षिणा देते, किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त भी
कर दिए जाते थे।

आर्यसमाज के गुरुकु ल में छात्र होम करते हुए (१९१५ ई)


भारतवर्ष में गुरुकु लों की व्यवस्था बहुत दिनों तक जारी
रही। राज्य अपना यह कर्तव्य समझता था कि गुरुओं
और गुरुकु लों के भरण पोषण की सारी व्यवस्था करें।
वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने अत्यन्त गरीब होते हुए भी
उनसे कु छ दक्षिणा लेने का जब आग्रह किया तो गुरु ने
क्रु द्ध होकर एक असंभव राशि चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ-
माँग दीं। कौत्स ने राजा रघु से वह धनराशि पाना अपना
अधिकार समझा और यज्ञ में सब कु छ दान दे देने वाले
उस अकिंचन राजा ने उस ब्राह्मण बालक की माँग पूरी
करने के लिए कु बेर पर आक्रमण करने की ठानी। रघुवंश
की इस कथा में अतिमानवीय पुट चाहे भले हों, शिक्षा
संबंधी राजकर्तव्यों का यह पूर्णरूपेण द्योतक है। पालि
साहित्य में ऐसी अनेक चर्चाएँ मिलती हैं, जिनसे ज्ञात
होता है कि प्रसेनजित जैसे राजाओं ने उन वेदनिष्णात
ब्राह्मणों को अनेक गाँव दान में दिए थे, जो वैदिक शिक्षा
के वितरण के लिए गुरुकु ल चलाते। यह परंपरा प्राय:
अधिकांश शासकों ने आगे जारी रखी और दक्षिण भारत
के ब्राह्मणों को दान में दिये गए ग्रामों में चलने वाले
गुरुकु लों और उनमें पढ़ाई जाने वाली विद्याओं के अनेक
अभिलेखों में वर्णन मिलते हैं। गुरुकु लों के ही विकसित
रूप तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वलभी के
विश्वविद्यालय थे। जातकों, ह्वेनसांग के यात्राविवरण तथा
अन्य अनेक संदर्भों से ज्ञात होता है कि उन
विश्वविद्यालयों में दूर-दूर से विद्यार्थी वहाँ के विश्वविख्यात
अध्यापकों से पढ़ने आते थे। वाराणसी अत्यन्त प्राचीन
काल से शिक्षा का मुख्य के न्द्र थी और अभी हाल तक
उसमें सैकड़ों गुरुकु ल, पाठशालाएँ रही हैं और उनके
भरण पोषण के लिए अन्नक्षेत्र चलते रहे। यही अवस्था
बंगाल और नासिक तथा दक्षिण भारत के अनेक नगरों
में रही। 19वीं शताब्दी में प्रारंभ होने वाले भारतीय
राष्ट्रीय और सांस्कृ तिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन
गुरुकु लों की परम्परा पर अनेक गुरुकु ल स्थापित किए
गए और राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योग
रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकु लों की
व्यवस्था को यथावत पुन: प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा
सकता, तथापि उनके आदर्शों को यथावश्यक परिवर्तन
के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।

प्राचीन भारतीय गुरुकु लों में कु लपति हुआ करते थे।


कालिदास ने वशिष्ठ तथा कण्व ऋषि को (रघुवंश, प्रथम,
95 तथा अभि॰ शा॰, प्रथम अंक) कु लपति की संज्ञा दी
है। गुप्तकाल में संस्थापित तथा हर्षवर्धन के समय में
अपनी चरमोन्नति को प्राप्त होने वाले नालंदा महाविहार
नामक विश्वविद्यालय के कु छ प्रसिद्ध तथा विद्वान
कु लपतियों के नाम ह्वेन्सांग के यात्राविवरण से ज्ञात होता
हैं। बौद्ध भिक्षु धर्मपाल तथा शीलभद्र उनमें प्रमुख थे।
प्राचीन भारतीय काल में अध्ययन अध्यापन के प्रधान
कें द्र गुरुकु ल हुआ करते थे, जहाँ दूर-दूर से ब्रह्मचारी
विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी अपनी
शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकु ल छोटे अथवा
बड़े सभी प्रकार के होते थे। परंतु उन सभी गुरुकु लों को
न तो आधुनिक शब्दावली में विश्वविद्यालय ही कहा जा
सकता है और न उन सबके प्रधान गुरुओं को कु लपति
ही कहा जाता था। स्मृतिवचनों के अनुसार

‘मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नदानादि पोषाणात।


अध्यायपति विप्रर्षिरसौ कु लपति: स्मृत:।’
स्पष्ट है, जो ब्राह्मण ऋषि दस हजार मुनि विद्यार्थियों को
अन्नादि द्वारा पोषण करता हुआ उन्हें विद्या पढ़ाता था,
उसे ही कु लपति कहते थे। ऊपर उद्धृत 'स्मृतः' शब्द के
प्रयोग से यह साफ दिखाई देता है कि कु लपति के इस
विशिष्टार्थग्रहण की परम्परा बड़ी पुरानी थी। कु लपति का
साधारण अर्थ किसी कु ल का स्वामी होता था। वह कु ल
या तो एक छोटा और अविभक्त परिवार हो सकता था
अथवा एक बड़ा और कई छोटे -छोटे परिवारों का समान
उद्गम वंशकु ल भी। अंतेवासी विद्यार्थी कु लपति के महान
विद्यापरिवार का सदस्य होता था और उसके मानसिक
और बौद्धिक विकास का उत्तरदायित्व कु लपति पर होता
था; वह छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और सुख की भी
चिंता करता था। आजकल इस शब्द का प्रयोग
विश्वविद्यालय के 'वाइसचांसलर' के लिए किया जाता है।

सन्दर्भ
1. प्रसाद, कालिका (2000). बृहत हिन्दी कोश.
वाराणसी भारत: ज्ञानमंडल लिमिटेड. पृ॰ 147.
पाठ "editor: राजबल्लभ सहाय, मुकु न्दीलाल
श्रीवास्तव" की उपेक्षा की गयी (मदद);
|access-date= दिए जाने पर |url=
भी दिया जाना चाहिए (मदद)
2. "महामना का स्वप्न". अभ्युदय.कॉम. पाठ
"http://www.abhyuday.org/xprajna/htm
l/bhanu_shankar.php " की उपेक्षा की गयी
(मदद); |access-date= में तिथि प्राचल
का मान जाँचें (मदद); गायब अथवा खाली
|url= (मदद); |access-date= दिए
जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए
(मदद)

पुस्तक-"गुरुकु ल - एक नजर में "लेखक- 'एस0 पी0


आर्य 'संस्थापक - 'आर्य ब्रदर्स के यर'

इन्हें भी देखें
कु लपति
गुरुकु ल कांगड़ी विश्वविद्यालय
प्राचीन भारतीय शिक्षा
आचार्यकु लम
एकल विद्यालय
अखाड़ा
उचि-देशी -- गुरुकु ल से मिलती-जुलती एक जापानी
पद्धति

बाहरी कड़ियाँ
गुरुकु ल की परम्परा फिर शुरू हो रही है (https://w
eb.archive.org/web/20140228025213/ht
tp://yb.arrowibc.com/ViewSprtNews_De
tail.aspx?sprtId=1049)
जानें कै से गुरुकु ल शिक्षा प्रणाली आधुनिक शिक्षा
प्रणाली से अलग है? (https://www.jagranjos
h.com/general-knowledge/how-gurukul-
education-system-is-different-from-mod
ern-education-system-in-hindi-15289659
49-2)

"https://hi.wikipedia.org/w/index.php?
title=गुरुकु ल&oldid=5643567" से प्राप्त

अन्तिम परिवर्तन 08:08, 20 सितंबर 2022। •


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उल्लेख ना किया गया हो।

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