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हिंदी कथा सहित्य History lekhpal
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1
इकाई-1
इकाई-2
इकाई-3
इकाई-4
कहानी
पर्ाा (यशपाल)
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(क) िाटक उस िक्त 'पास' ोता ै, िब रहसक समाि उसे पसन्द कर िेता ै । बारात का
िाटक उस िक्त पास ोता ै . िब रा चिते आदमी उसे पसन्द कर िेते ैं । िाटक की परीक्षा
चार-पााँच घिंटे तक ोती र ती ै , बारात की परीक्षा के हिए केिि इतिे ी हमिटोिं का समय
ोता ै । सारी सिािट, सारी दौड़-धू प और तै यारी का हिबटारा पााँच हमिटोिं में ो िाता ै ।
अगर सबके माँ से 'िा िा ' हिकि गया, तो तमाशा पास, ि ी िं फेि! रुपया, मे ित, हफक्र,
सब अकारथ।
प्रसिंग - प्रेमचन्द द्वारा दलच्चखत 'गबन' उपन्यास समाज के मध्यवगा की अनेक समस्याओं को प्रस्तु त
करता है । दजनका एक पक्ष है -दववाह में दकया गया आदथा क र्ु रुपयोग। दववाह के समय लड़के की
बारात एक नाटक के समान है । यहााँ ले खक ने रं गमं च पर प्रस्तु त दकए जाने वाले नाटक और बारात के
व्याख्या - नाटक एक दृश्य काव्य है और रदसक-समाज, यादन जो इसका आनन्द उठाना चाहते हैं ,
उनके दलए नाटक रं गमं च पर प्रस्तुत दकया जाता है। उस नाटक की सफलता इसी बात में दनदहत होती
है दक र्शाक उसे इतना पसन्द करें , दक उनके मुाँ ह से अनायास ही 'वाह वाह' दनकले । प्रायः नाटक
तीन-चार घंटे के होते हैं और अंदतम दृश्य तक अगर नाटक की प्रस्तु दत र्शाक को दजज्ञासा और आनंर्
से बााँ धे रखती है तो नाटक सफल कहलाता है । र्ू सरी ओर बारात का 'नाटक' है। इसकी तै यारी भी
असली नाटक की तरह बहुत समय पहले से ही शुरू हो जाती है । पैसों को दजतना खुले हाथों में लुटाया
जाय, इस नाटक में उतना ही आनंर् आता है । बाजे -गाजे, फुलवाररयों के तख्त, जगह-जगह छूटती हुई
हवाइयााँ , आदतशबाजी आदर् राह-चलते लोगों का मनोरं जन करती हैं । अगर यह सारा धू म धड़ाका
लोगों को पसन्द आ गया तो समझो नाटक सफल है ।
यहााँ इन पंच्चियों के माध्यम से बारात की तै यारी में की गई दफजूलखची पर व्याय दकया गया है ।
बाह्याडम्बर मध्यवगीय समाज की ऐसी मनोवृदि है , जो उसके अपने ही संकट का कारण बनती है ।
रमानाथ की इच्छापूदता के दलए र्यानाथ इस दर्खावे में न चाहते हुए भी पूरा साथ र्े ते हैं और इसी के
हिशेष - दकसी साधारण बात को असाधारण ढं ग से प्रस्तु त करने में प्रेमचन्द सफल रहे हैं । यहााँ बारात
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(ि) हिस दे श में खियोिं की हितिी अहधक स्वाधीिता ै , ि दे श उतिा ी सभ्य ै । खियोिं को
कैद में, या परदे में, परुषोिं से कोसोिं दू र रििे का तात्पयय य ी हिकिता ै हक आपके य ााँ
ििता इतिी आचार-भ्रष्ट ै हक खियोिं का अपमाि करिे में िरा भी सिंकोच ि ी िं करती।।
प्रसिंग - प्रस्तु त पंच्चियााँ प्रेमचं र् द्वारा दलच्चखत उपन्यास 'गबन' से ली गई हैं । प्रस्तु त संवार् रतन के पदत
वकील इन्द्रभू षण द्वारा कहा गया है , दजसमें च्चियों की वता मान र्शा पर दवस्तार से दवचार प्रस्तु त दकया
गया है ।
व्याख्या - रमानाथ के यह कहने पर दक योरप में च्चियों का आचरण बहुत अच्छा नहीं है , वकील
इन्द्रभू षण कहता है दक च्चियों को स्वाधीनता र्े ने से र्े श का गौरव बढ़ता है । क्ोंदक स्वाधीनता उनके
व्यच्चित्व में दनखार लाती है , उन्हें उन्नदत के नए-नए अवसर प्रर्ान करती है । अत: र्े श की सभ्यता के
दवकास के दलए च्चियों को स्वतन्त्र दचंतन, मनन और आचरण का पूरा अदधकार दमलना ही चादहए।
च्चियों को अनुशासन और सामादजक मयाा र्ा के नाम पर कैर् करना, परर्े में रखना या पुरुषों से अलग
करना उनका अपमान है । च्चियों को अगर स्वतन्त्र जीवन जीने की प्रेरणा र्ी जाय तो वे भी पुरुषों के
समान राजनीदत, धमा -कला, सादहत्य आदर् दवदभन्न र्े शों में अपनी प्रदतभा प्रर्दशात कर सकती है ।
यहााँ वकील के इस. संवार् के माध्यम से प्रेमचन्द की नारी दवषयक भावना को स्पष्टतः जाना जा सकता
हिशेष - एक वकील के माध्यम से प्रस्तु त यह संवार् तादकाक एवं चु स्त भाषा शैली का उत्कृष्ट उर्ाहरण
है
उत्तर - 'उपन्यास' शब्द का अथा होता है – 'सामने रखना'। उपन्यास में मानव जीवन का समस्त दचत्रण
दकया जाता है । इसमें अनेक प्रासंदगक कथाओं और घटनाओं का वणान दकया जाता है ।
उपन्यास को पररभादषत करते हुए डॉक्टर भागीरथ दमश्र ने दलखा है – "युग की गदतशील पृष्ठभू दम पर
सहज शैली में स्वाभादवक जीवन की एक पूणा झााँ की प्रस्तु त करने वाला गद्य, उपन्यास कहलाता है ।"
ह िं दी उपन्यास का जन्म और दवकास आधु दनक काल में हुआ था। दहं र्ी के उपन्यासों की रचना
सवाप्रथम भारतें र्ु काल में की गई थी।
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उपन्यास के सन्दभा में दकसी दनकष में से पूणा कदतपय पाश्चात्य दवद्वानों की एतत सम्बन्धी धारणा की
राल्फ फॉक्स के अिसार- "उपन्यास केवल काल्पदनक गद्य नहीं है , यह मानव जीवन का गद्य हैं ।"
बेकर िे क ा ै दक उपन्यास वह रचना है दजसमें दकसी कच्चल्पत गद्य कथा के द्वारा मानव जीवन की
उपन्यास के स्वरूप :-
उपन्यास का मु ख्य स्रोत अदत प्राचीन काल से चली आई रही कथा-कहादनयााँ हैं । दजसका जन्म
मनुष्य की कौतु हल वृदि एवं मनोरं जन वृदि को शान्त करने के दलए हुआ है ।
वता मान में यद्यदप बौच्चिकता ने मनुष्य की कौतू हल वृदि को कम दकया है । अतः आज वे ही
उपन्यास मनुष्य के दवकास के साथ-साथ दवकदसत होने वाली कथा परम्परा का एक सुगदठत रूप
है । मानव मन की अतल गहराई से ले कर उसकी समस्त सां साररक दृष्यमान ऊाँचाई, दवस्तार एवं
वास्तदवकता का प्रदतपार्न नाटक और गीत भी करते हैं , परन्तु उपन्यास अदधक दवस्तृ त, गहन एवं
पैना होता है । उपन्यास जीवन के लघुतम और साधारणतम् तथ्ों को भी पूणा स्वच्छन्दता तथा
स्पटता के साथ प्रस्तु त करता है ।
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अब दलपटे रहना और जीवन की प्रत्ये क प्रेरणा उनमें र्े खना स्वयं को अन्धकार में रखने के
आज के जीवन के सूत्र है - यथाथा ता, स्पष्टता, ध्रु वता, मां सलता, बौच्चिकता और स्तरीय दनबान्धता।
इन तत्वों के सार से ही उपन्यास का स्परूप् गदठत हुआ है ।
उपन्यास में प्रायः हमारा वह अदत समीपी और आन्तररक जीवन दचदत्रत होता हैं जो हमारा होते हुए
उपन्यास वता मान युग की लोकदप्रय सादहच्चत्यक दवधा है। आज की युग चे तना इतनी गुदफत और
असाधारण हो गई हैं , दक इसे सादहत्य के दकसी अन्य रूप में इतने आकषाक और सहज रूप में
प्रस्तु त करना र्ु ष्कर है । उसे उपन्यास पूरी सम्भावना और सजीवता के साथ उपच्चथथत करता है ।
उत्तर – गबि उपन्यास का प्रमि परुष पात्र रमािाथ ै । उपन्यास का नायक होने के साथ साथ वह
वता मान युग के युवा वगा का प्रदतदनदध भी है दजसके माध्यम से उपन्यासकार ने युवा वगा का चररत्र-
दचत्रण दकया है । रमानाथ एक ऐसा नायक है दजसमें कुछ अच्छाई है तो कुछ मानव जदनत सहज
आरम्भ में यह पात्र एक र्ु बाल व्यखक्तत्व, आडिं बर यक्त, झूठ से ओत-प्रोत, हमथ्या प्रदशयि,
फैशनपरस्त एवं अहं कार से युि हमारे समक्ष आता है वह मुं शी र्यानाथ के तीन पुत्रों में सबसे बड़ा
पुत्र है । उसका व्यच्चित्व आकषाक है । जालपा उसकी पत्नी है जो उसके आकषा व्यच्चित्व से प्रभादवत
हििासोन्मिी – युवावथथा से रमानाथ सैर-सपाटे , खेल-कूर् एवं फैशन परस्ती में ही लगा रहा, र्ोस्तों
से उधार कपड़े ले कर पहनना, उनकी गाड़ी पर घूमना, लोगों पर इन दवलास वस्तु ओं से अपना झूठा
रौब जमाना यह सब उसके स्वभाव में शादमल है । घर के र्ादयत्व में के प्रदत गैर दजम्मेर्ारी का भाव
उसके दपता र्यानाथ को बहुत खलता था। उसकी यह उसकी बरबार्ी का कारण बनती है । जीवन के
झंझावातों में उलझकर जब उसकी दकस्मत उसे कलकिा ले गई वहााँ भी वह चाय की र्ु कान के चलते
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जोहरा से उसका संबंध इसकी कारण जुड़ता है । उसे जब भी अवसर दमलता वह दवलादसता के समं र्र
सिंकोची प्रिृ हत्त – रमानाथ सर्ै व अपनी संतोषी प्रवृदि के कारण ही अनेक संकटों में पड़ता है । उसकी
सबसे बड़ी कमजोरी ही यह है दक वह अपने मन की बात दनकट से दनकट व्यच्चि को भी नहीं बताता।
यथा घर के आदथा क हालात वह संकोचवश अपनी पत्नी जालपा से भी नहीं कहता, इसी का पररणाम है
दक वह गबन जैसी घटना को अंजाम र्े बैठता है । यदर् वह जालपा को घर के सही हालातों से अवगत
करा र्े ता तो यह च्चथथदत कभी न आती। न ही जालपा उससे गहनों की मााँ ग करती। उसी तरह वह जज
के सामने अपनी झूठी गवाही की बात कहने में संकोच करता है । जालपा द्वारा धै या बंधाने पर दक जज
के सामने पुदलस के हथकंड़ों का भण्डा फोड़ करे , अपनी झूठी गवाही की बात स्वीकारे , ले दकन अपनी
कायरता – रमानाथ स्वयं ही उलझनों को आमं त्रण र्े कर वह उनका सामना करने के बजाय उनके
सामने घुटने टे क र्े ता है । मु सीबतों से भागना उसका स्वभाव है । पहले वह जालपा के सामने घर के
सिे हालात रखने से भागता है । दफर जालपा की खुशी के दलए गहने उधार ले कर मु सीबत को न्यौता
र्े ता है , उससे बचने के दलए रतन के जेवर र्ााँ व पर लगाता है , सरकारी पैसों का गबन करता है और
इन हालातों का सामना करने के बजाय भागकर कलकिा चला जाता है । वहााँ पुदलस से बचने के
चक्कर में वह झूठी गवाही र्े बैठता है । तब जालपा उसकी कायरता पर उसे दधक्कारती है । इस तरह
अकमयण्य और आिारा यिक - कथानक के प्रारं भ में रमानाथ एक अकमा ण्य और आवारा युवक के
रूप में पाठकों के समक्ष आता है । उसे अच्छे व फैशनेबल पररधान पहनने का बेहर् शौक है । अपने
आत्मप्रर्शान की तृ च्चि के दलए वह दमत्रों से वि व अन्य वस्तु एाँ मााँ गकर अपनी अदभलाषा पूरी करता
है ।
उसकी यही आडं बर दप्रयता और दवलादसता का शौक ही उसे जीवन में अनेक कष्टों में डाल र्े ता है ।
उसकी अकमा ण्यता से उसके दपता बेहर् परे शान हैं । युवा पुत्र दपता का बााँ या हाथ होता है। यही अपेक्षा
मुं शी र्यानाथ रमानाथ से रखते हैं दक युवा होकर वह अपना र्ादयत्व बोध संभाले , दकन्तु रमानाथ
उनकी उम्मीर्ों पर खरा नहीं उतरता।
अिन्य प्रेमी - प्रत्ये क व्यच्चि में जीवन की तमाम बुराइयों के साथ-साथ कुछ अच्छाइयााँ भी होती हैं।
दनःसंर्ेह रमानाथ संवेगी एवं कायर पुरुष है । दमथ्ा आडं बर, आत्मप्रर्शान उसकी कमजोरी है दकन्तु
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आभू षण उधार ले आया। वह जालपा से सिा प्रेम करता है इसदलए उसकी प्रत्ये क इच्छा पूरी करना
उसकी मााँ ने कहा था दक गले में दववाह का जुाँआ पड़ जाए तो सब ठीक हो जाएगा। जो एक बार तो
रमानाथ के बारे में सच ही सादबत होती है दक दववाह के पश्चात रमानाथ को र्ादयत्वबोध होता है और
वह नौकरी करता है , यद्यदप छोटे पर् पर नौकरी करना उसे पसंर् नहीं है दकन्तु वह जालपा के दलए
हिबयि चररत्र - रमानाथ का लापरवाहपूणा व्यच्चित्व उसके चररत्र को दनबाल बनाता हैं । बड़ा बेटा होने
के नाते घर के प्रदत उसकी दजम्मेर्ाररयााँ हैं दकन्तु अपने दमथ्ा प्रर्शान, डींग हााँ कने की प्रवृदि के चलते
वह घर में अपने सम्मान को खो चु का है । यहााँ तक दक पत्नी द्वारा उसके दववाह करने के प्रस्ताव को भी
र्यानाथ यह कहकर ठु करा र्े ते हैं दक, “जो आर्मी अपने पेट की दिक नहीं कर सकता, उसका
दववाह करना मु झे तो अधमा सा मालू म होता है ।” उपरोि दववेचना से स्पष्ट है दक रमानाथ कथानक का
नायक अवश्य है परन्तु उसके व्यच्चित्व का कोई दनजत्व नहीं है उसमें एक नायक के उज्जवल पक्ष को
सादबत करने के कोई गुण नहीं हैं । वह र्ु बाल चररत्र का व्यच्चि है ।
उत्तर - मिंशी प्रेमचन्द के अिसार - ‘‘गल्प (कहानी) एक ऐसी गद्य रचना है , जो दकसी एक अंग या
मनोभाव को प्रर्दशात करती है । कहानी के दवदभन्न चररत्र, कहानी की शैली और कथानक उसी एक
मनोभाव को पुष्ट करते हैं । यह रमणीय उद्यान न होकर, सुगच्चन्धत फूलों से युि एक गमला है।’’
"लघु कहानी में केवल ही मू ल भाव होता है । उस मूल भाव का दवकास तादकाक दनष्कषों के साथ
लक्ष्य की एकदनष्ठता से सरल, स्वाभादवक गदत से दकया जाना चादहए। एले री ने कहानी की
सदियता पर अदधक बल दर्या है और कहा दक, “वह घुड़र्ौड़ के समान होती है । दजस प्रकार
घुड़र्ौड़ का आदर् और अंत महत्त्वपूणा होता है उसी प्रकार कहानी का आदर् और अंत ही दवशेष
महत्त्व का होता है ।"
इन पररभाषाओं पर यदर् हम दवचार करें तो पाते हैं दक कहानी में संदक्षिता और मू ल भाव का ही
महत्त्व होता है , जबदक कहानी के वास्तदवक स्वरूप को ये पूणा नहीं करती। अतः यहााँ सर ह्यू
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बालपोल के दवचार को समझना जरूरी हो जाता है । उन्होंने कहानी के दवषय में थोड़ा दवस्तार से
बताया है ।
“छोटी कहानी एक कहानी होनी चादहए, दजसमें घटनाओं, र्ु घाटनाओं, तीव्र काया व्यापार और
वस्तु तः ये पररभाषाएाँ पदश्चम की सादहच्चत्यक प्रवृदियों एवं दवधा के अनुरूपों को उर्् घादटत करती हैं।
दहन्दी सादहत्य में कहानी, बैंग्ला कहानी सादहत्य के माध्यम से आई। अतः कहानी में यहााँ का पुट भी
शादमल हो गया। भारतीय समाज और संस्कृदत का प्रभाव उसके स्वरूप में दर्खाई र्े ना स्वाभादवक
था।
क ािी का स्वरूप :-
गद्य के भीतर कहानी, उपन्यास, नाटक, एकां की, दनबन्ध, यात्रावृि, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण,
समीक्षा आदर् दवधाएं आती हैं। इनमें से कहानी, उपन्यास और नाटक को हम कथा - सादहत्य
कहते हैं ।
कथा-सादहत्य में दकसी न दकसी घटना िम के सन्दभा में प्रेम, ईष्याा , रहस्य, रोमां च, दजज्ञासा और
मनोरं जन संबधी भाव दमले -जुले होते हैं । कहानी का सम्बन्ध सृदष्ट के प्रारम्भ से ही जोड़ा जाता है।
मानव ने दजस दर्न से भाषा द्वारा अपने भावों की अदभव्यच्चि आरम्भ की होगी सम्भवतः उसी दर्न
प्रारम्भ में कहानी में व्यच्चि के अनुभव सीधे -सीधे कहे गये होंगे। यादन घटना या अनुभव को बॉटने
की दिया ही कहानी बन गयी होगी। वास्तव में र्ो लोगों के बीच भू ख-प्यास, सुख-र्ु ःख,
भयआशंका, प्रेम-ईया, जीवन और सुरक्षा की भावना समान और सामान्यतः पायी जाती है । दनदश्चत
ही र्ू सरों के साथ हुई घटना को सुनने और अपने अनुभवों को सुनाने की इच्छा आज भी हर एक
मनुष्य में एक समान रूप से पायी जाती है । इसी सुनने की इच्छा ने कहने अथाा त् कहानी का
दवकास का जो िम रहा वही कहानी के दवकास का भी रहा है । दजस प्रकार आज मनुष्य का जीवन
सरल से अत्यन्त जदटलता की ओर बढ़ा, कहानी का रुप भी उसी अनुरूप जदटल हो गया है । आज
का जीवन तका प्रधान, बुच्चि प्रधान है , इसदलए कहादनयां भी बुच्चि प्रधान हो गयी हैं ।
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कहानी का वता मान स्वरुप आधु दनक युग की र्े न है । भारत में कहादनयां अपने अत्यन्त प्राचीनतम
रुप में दमलती हैं। वेर्ों में हम भले ही कहानी के मू ल रुप का आभास न पाएाँ दकन्तु उनमें कहादनयों
की व्यापक परम्परा रही हैं । महाभारत, बौि सादहत्य, पुराण, दहतोपर्े श, पंचतन्त्र आदर् कहादनयों
के भण्डार हैं । पन्चतं त्र तो वास्तव में दवश्व की कहादनयों का स्रोत माना जाता है ।
र्ू सरे शब्दों में कहा जाए तो आधु दनक कहानी का यह स्वरूप अंग्रेजी सादहत्य से होते हुए बाँगला के
माध्यम से दमला है । अपने प्राचीन रूप में गल्प, कथा, आख्यादयका, लघु कथा नाम से जानी जाने
उत्तर - 'उपन्यास' शब्द का अथा होता है – 'सामने रखना'। उपन्यास में मानव जीवन का समस्त दचत्रण
दकया जाता है । इसमें अनेक प्रासंदगक कथाओं और घटनाओं का वणान दकया जाता है ।
उपन्यास को पररभादषत करते हुए डॉक्टर भागीरथ दमश्र ने दलखा है – "युग की गदतशील पृष्ठभू दम पर
सहज शैली में स्वाभादवक जीवन की एक पूणा झााँ की प्रस्तु त करने वाला गद्य, उपन्यास कहलाता है ।"
ह िं दी उपन्यास का जन्म और दवकास आधु दनक काल में हुआ था। दहं र्ी के उपन्यासों की रचना
सवाप्रथम भारतें र्ु काल में की गई थी।
उपन्यास के तत्व :-
मू ल्ां कन की दृदष्ट से उपन्यास के कुछ तत्व दनधाा ररत दकये गये है । तत्त्वों की दृदष्ट से दवद्वानों ने उपन्यास
के छह तत्त्व माने हैं
1. कथािक
दकसी उपन्यास की मू ल कहानी को कथावस्तु कहा जाता है । कथावस्तु तत्व उपन्यास का अदनवाया तत्व
हैं । कथा सादहत्य में घटनाओं के संगठन को कथावस्तु या कथानक की संज्ञा र्ी जाती है । जीवन में
अनेक प्रकार की घटनाएाँ घटती रहती है । उपन्यासकार अपने उद्दे श्य के अनुसार उनमें एक प्रकार की
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कथासूत्र, मख्य कथािक, प्रासिंहगक कथाएाँ या अर्न्यकथाएाँ , उपकथानक, पत्र, समाचार, ले ख तथा
डायरी के पन्ने आदर् कथानक के उपकरण या संसाधन हैं । दजनका उपन्यासकार अपनी आवश्यकता
अनुसार उपयोग करता हैं । अनावश्यक घटनाओं का समावेश कथावस्तु को दशदथल, दवकृत और
सारहीन बना र्े ता हैं । अतः इस घटना का उर्य, दवकास और अन्त व्यवच्चथथत और दनदश्चत होता हैं ।
उपन्यास में घटनािम में एकता और संगठन अदनवाया है यदर् इनमें से एक को भी अलग दकया तो मूल
कथा दबखरी प्रतीत होती है। परन्तु आज के नवीन उपन्यासकारों का मानना है दक सां साररक जीवन में
घटने वाली घटनाओं का कोई भी िम नहीं होता, जीवन में घटनाएाँ असंबि होकर घटती है इसदलए
कथानक तत्व के पश्चात् उपन्यास का दद्वतीय महत्त्वपूणा तत्व चररत्र दचत्रण अथवा पात्र योजना है । जैसा
दक अब आप जानते है , उपन्यास का मूल दवषय मानव और उसका जीवन होता है । अतः पात्रों के
माध्यम से उपन्यासकार सजीवता, सत्यता और स्वभादवकता के साथ जीवन के इन पहलू ओं को समाज
के समक्ष रखता है । । वैसे तो उपन्यास के सभी तत्व अपना-अपना अलग महत्त्व रखते हैं परन्तु
कथानक और पात्र एकर्ू सरे की सफलता के दलए अदधक दनकट होते हैं । इसदलए इनका पारस्पररक
कथािस्त के अिरूप पात्र का के चयि होना आवश्यक हैं । इतना ही नहीं वह दजस वगा के पात्र का
चयन करता है , उसके आं तररक और बाह्य व्यच्चित्व की सामान्य और सूक्ष्म दवषेशताओं, उसकी
आकृदत, वेशभू षा, वाताा लाप और भाषा-शैली आदर् कथावस्तु के अनुरूप होना आवश्यक हैं । अन्यथा
र्ोनों का दवरोध रचना को असफल कर र्े ता हैं । इस युग में पात्र सम्बन्धी प्राचीन और नवीन धारणा में
पयाा ि अन्तर आया है । पहले मु ख्य पात्र नायक और नादयका पर दवशेष बल दर्या जाता था। आज अन्य
पात्रों को भी महत्त्वपूणा माना जाता है । इसका कारण मनोदवज्ञान का िाच्चन्तकारी अन्वेषण है
आज पात्रों के बाहरी और भीतरी व्यखक्तत्व का मिािै ज्ञाहिक हिश्लेषण दकया जाता है दजससे उनके
चररत्र में अदधक स्वाभादवकता और यथाथाता आ जाती हैं। इसके अदतररि आज पात्रों को कठपुतली
बनाकर नहीं बच्चि उन्हें स्वतन्त्र व्यच्चित्व के रूप में प्रस्तु त दकया जाता है। पात्रोिं के चार प्रकार ैं -
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इसे इस प्रकार समझ सकते हैं : प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोर्ान' का 'होरी' पहले प्रकार का पात्र है क्ोंदक
वह एक दवशेष वगा को र्शाा रहा है । जबदक 'अज्ञेय' के उपन्यास शेखर एक जीवन' का शेखर र्ू सरे
प्रकार का पात्र यादन दवदशष्टता दलए हुए है । आज वही उपन्यास श्रेष्ठ माने जाते हैं , दजनके पात्र जीवन की
यथाा थ च्चथथदत का संवेर्नशील और प्रभावपूणा प्रस्तु तीकरण करते हैं ।
3 कथोपकथि :-
उपन्यास में यह कथावस्तु के दवकास तथा पात्रों के चररत्र-दचत्रण में सहायक होता है। इससे कथावस्तु
में नाटकीयता और सजीवता आ जाती है । पात्रों की आन्तररक मनोवृदियों के स्पष्टीकरण में भी यह
सहायक होता है । इसका दवधान पात्रों के चररत्र, स्वभाव, र्े श, च्चथथदत, दशक्षा, अदशक्षा, आदर् के अनुसार
होना चादहए। पात्रों के वाताा लाप में स्वाभादवकता का होना अत्यन्त आवश्यक हैं ।
4 दे शकाि िातािरण:-
पात्रों के दचत्रण को पूणाता और स्वाभादवकता र्े ने के दलए र्े शकाल या वातावरण का ध्यान रखना
जरूरी है । घटना का थथान समय, तत्कालीन दवदभन्न पररच्चथथदतयों का पूणा ज्ञान उपन्यासकार के दलए
और रचना हास्यास्पर् हो जाऐगी। र्े शकाल-वातावरण का वणान सन्तु दलत होना चादहए, जहााँ तक वह
कथा-प्रभाव में आवश्यक हो तथा पाठक को वह काल्पदनक न होकर यथाा थ लगे। अनावश्यक अंशों
5 भाषा शैिी :-
उपन्यास को अपने भाव एवं दवचारों को व्यि करने के दलए सरस और सरल भाषा शैली का प्रयोग
करना चादहए। सम्पू णा उपन्यास की रचना-शैली एक सी है । प्रारच्चम्भक सभी उपन्यास रूदढ़गत शैली में
ही दलखे गये। तृतीय पुरुष के रूप में वणानात्मक शैली ही का प्रयोग प्रायः अदधकां श उपन्यासों में दकया
गया है ।
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6 उद्दे श्य:-
उपन्यास में उद्दे श्य या बीज से तात्पया जीवन की व्याख्या अथवा आलोचना से है । प्राचीन काल में
उपन्यास की रचना के प्रायः र्ो मू ल उद्दे श्य हुआ करते थे - एक तो उपर्े श की वृदि, दजसके अन्तगात
नैदतक दशक्षा प्रर्ान करना था र्ू सरा केवल कोरा मनोरं जन, दजसका आधार कौतू हल अथवा कल्पना
हुआ करता था। आज उपन्यास में जीवन का यथाा थ दचत्रण होता है । इसदलए उपन्यासकार, जीवन के
साधारण और असाधारण व्यापारों का मानव जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है , इसका आकलन करता
हैं । अतः सभी उपन्यासों में कुछ दवशेष दवचार और दसद्वान्त स्वतः ही आ जाते हैं ।
उत्तर – ह िं दी में क ािी की सिंरचिा का अध्ययन दवकदसत रूप में नहीं है । प्रायः इसमें कोई
मौदलकता अथवा नया प्रथथान दर्खाई नहीं र्े ता। सादहत्यशाि के प्रारं दभक आलोचकों - आचाया
हजारीप्रसार् दद्ववेर्ी, श्यामसुंर्र र्ास, गुलाब राय आदर् ने कहानी के छह तत्वों की चचाा की एवं इन
तत्वों की दवशेषता को र्शाा या। डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल का शोध-ग्रंथ 'दहं र्ी कहादनयों की दशल्प-दवदध
स्वतं त्रता के पूवा लगभग यही च्चथथदत है । दहं र्ी कहानी की दवषय-वस्तु , संरचना में युगां तकारी पररवता न
करने वाले प्रेमचं र् भी कहानी की संरचना पर कोई दवस्तृ त दवचार नहीं र्े ते। वे कहानी को 'एक घटना'
एवं 'मनोवैज्ञादनक दवश्लेषण' से जोड़ते हैं । अपने प्रदसि दनबंध 'कहानी कला' में उन्होंने कहानी के दलए
'आख्यादयका' शब्द का प्रयोग दकया है
"उपन्यास घटनाओं, पात्रों और चररत्रों का समू ह है ; आख्यादयका केवल एक घटना है - अन्य बातें सब
उसी घटना के अंतगात होती हैं ।"
"वता मान आख्यादयका मनोवैज्ञादनक दवश्लेषण और जीवन के यथाथा और स्वाभादवक दचत्रण को अपना
ध्येय समझती है । उसमें कल्पना की मात्रा कम, अनुभूदतयों की मात्रा अदधक होती है , इतना ही नहीं,
स्वातं त्र्योिर र्ौर में कहानी के छह तत्वों के आधार पर दवश्लेषण का दवरोध हआ। रमे श बक्षी ने इस
शैली से अपनी असहमदत जादहर करते हुए दलखा, "दकसी आलोचक ने दवर्े शी समीक्षा से उधार ले कर,
उन्हें दबना समझे-बूझे, कहानीउपन्यास के छह शािीय तत्व बना दर्ए - यह सब उसी तरह का काया है
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ले दकन इस र्ौर में भी कोई वैकच्चल्पक पिदत नहीं उभरी। मोहन राकेश ने सां केदतकता की पुरजोर
वकालत की, "जहााँ तक कहानी की आं तररक उपलच्चियों का संबंध है , उनमें सां केदतकता को कहानी
िामिर हसिं िे कथािक में मौदलक पररवता न एवं कथानक के हास की बात उठाई, "कहानी में जो
चीज पहले कथानक के नाम से जानी जाती थी, उसमें कहीं न कहीं कोई मौदलक पररवता न हुआ है । इसे
यों भी कह सकते हैं दक कथानक की धारणा (कन्सेप्ट) बर्ल गई है दकसी समय मनोरं जक, नाटकीय
र्रअसल इस र्ौर की कहादनयों में संवेर्ना, सरोकार, यथाथा को ले कर जो नई जद्दोजहर् शुरू हुई,
उसने अदभव्यच्चि को नई भं दगमा र्ी। डॉ. इं र्ु रच्चि ने अपनी शोध-पुस्तक 'नई कहानी का स्वरूप
दववेचन' में रमे श बक्षी के हवाले से 16 प्रकार के दशल्प का उल्लेख दकया है ( ािााँहक पिंद्र की सूची
ी दी ै ) :
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'ह िं दी क ािी : पाठ और प्रदिया में , सुरेंद्र चौधरी ने 'कथानक', 'दनबंधना (Layout)' एवं कहानी की
आं तररक दवदशष्टता की जो बात की है , उससे कहानी के दशल्प पर प्रकाश पड़ता है । सुरेंद्र चौधरी
प्रां रभ, मध्य और अंत वाली परं परागत धारणा का खंडन करते हैं , "अदधकां शतः हम दनरथा क चीजों की
ओर अपना ध्यान ले जाते हैं , क्ोंदक कहानी की रचना-प्रदिया से उसका कोई संबंध नहीं होता।
मसलन कहानी की रचना-प्रदिया में हम कथा-वस्तु के प्रारं भ, मध्य और अंत की चचाा तो करते हैं दकंतु
दजस स्वाभादवक प्रदिया में कहानी एक पूणा थथापत्य ग्रहण करती है , उसकी चचाा हम नहीं करते ।"वे
प्रदियाओं से भी-पररणाम है ।" पो की 'प्रभावाच्चन्वदत' को दकसी न दकसी रूप में सुरेंद्र चौधरी भी
स्वीकार करते हैं । वे कहानी को घटनाओं का पुंज नहीं मानते , बच्चि उसकी संच्चश्लष्टता की बात करते
हुए 'आं तररक दवदशष्टता' को थथापत्य का सबसे अदनवाया गुण मानते हैं , "कहानी घटनादश्रत प्रभावों का
दनमाा णहीन समु िय नहीं है । जब घटनादश्रत प्रभाव पाठक के मन में एक संच्चश्लष्टता ले कर उभरते हैं
तब कहानी का एक ढााँ चा हमें प्राि होता है। इसे आप कहानी की थथापत्य संबंधी आं तररक दवदशष्टता
उत्तर - भाषा-शैिी –
यशपाल ने कहानी 'परर्ा' में सहज, सरल और सजीव भाषा का रूप प्रस्तु त दकया है । इन्होंने कहानी में
भाषा का प्रयोग प्रसंग और पात्र के अनुकूल दकया है । यथाथा वार्ी होने के कारण वे जनवार्ी भाषा के
समथा क हैं । अपने कथा-सादहत्य में सादहच्चत्यक भाषा की अपेक्षा बोलचाल की भाषा का प्रयोग दकया है ।
यशपाल ने अपनी भाषा को जीवंत बनाने के दलए जीवन के दवदभन्न क्षे त्रों और समाज के दवदभन्न स्तरों से
शब्द-चयन दकया है ।
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बहु-भाषादवर् होने के कारण वे पात्र, पररच्चथथदत तथा अनुभूदत और दवचारों के अनुरूप सभी रूपों से
शब्द ग्रहण करते हैं -तत्सम, तद्भव, र्े शी और दवर्े शी शब्दों का प्रयोग हुआ है ।
चौधरी की तनख्वाह पंद्रह बरस में बारह से अठारह हो गयी। खुर्ा की बरकत होती है तो रूपये -पैसे
"कौन बड़ी रकम थमा र्े ते हो? र्ो रुपल्ली दकराया और वह भी छ:-छ: महीने का बकाया। जानते हो
लकड़ी का क्ा भाव है । न हाँ मकान छोड़ जाओ।"
इन पंच्चियों में ले खक यशपाल अपनी भाषा के द्वारा पात्रों पर व्यं ग्य कस कर कथा की दर्शा और र्शा
की ओर संकेत प्रकट कर रहे है ।
उद्दे श्य -
उद्दे श्य की दृदष्ट यह कहानी यथाथा वार्ी है । आदथा क दवषमता के कारण व्यच्चि कदठन पररश्रम करके भी
र्ो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाता। पीरबक्श आदथा क समस्या के कारण पाररवाररक बोझ उठाने में
समथा रहता है , दजसके कारण अनेक कदठनाइयों का सामना करना पड़ता है । आदथा क दवषमता व्यच्चि
को दकस स्तर तक संवेर्नशून्य और जड़ बना सकती है। 'परर्ा' में ले खक यशपाल ने दनम्नवगीय
पररवार उनकी बढ़ती हुई आदथा क कदठनाइयााँ तथा पुरुष के साथ-साथ उन्हें झेलती हुई नारी का दृश्य
यथाथा की जमीन पर प्रस्तु त दकया गया है । आज की आदथा क पररच्चथथदतयों के आधु दनक युग में र्ो
आत्मबल और इच्छा शच्चि के अभाव में पात्र अपनी झूठी परं परा का ठीक दर्शा-बोध न होने के कारण
उसमें संघषा और अंतरद्वं द्व दछड़ जाता है । पात्र दकसी न दकसी रूप में दनश्चय भी कर ले ते हैं तो अनमने
भाव से । ले खक का मू ल उद्दे श्य हैं , झूठी प्रदतष्ठा, दमथ्था और व्यथा के आडं बरों का दचत्रण | 'परर्ा'
कहानी में ले खक यशपाल ने आदथा क अभावों के कारण परं परा, मान्यता और अपनी झूठी शान के पीछे
अपनी दववशता का नकारात्मक भाव का दचत्रण दकया है । कहानी का अंत बहुत मादमा क और गहरा है ।
" घर की लड़दकयााँ और औरतें परर्े के र्ू सरी और घटती घटना के आतं क से आाँ गन के बीचों-बीच
इकट्ठी हो खड़ी कााँ प रही थीं। सहसा परर्ा हट जाने से औरतें ऐसे दसकुड़ गयीं, जैसे उनके शरीर का
आदथा क तं गी के कारण पात्र पीरबक्श अपनी असमथाता, दवषमता और हीनता की भावना को व्यि
कर रहा हैं । अपनी जरूरतों को पूरा करने के दलए रुपया ले तो ले ते हैं पर र्े ने के समय चु का नहीं
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पाते । खान आए दर्न र्रवाजे पर र्स्तक र्े ता है तो उसे बग्लाया जाता है । ले खक व्यं ग्य द्वारा अपनी
भावदभव्यच्चि को व्यि कर आिोश उत्पन्न करता है और साथ में कमा करते रहने की दनयदत पर जोर
र्े ता है ।
समग्रत -
'हरी दबंर्ी' कहानी में नारी स्वातं त्र्य की बात कही गयी है दजसमें नारी अपनी गृहथथी के बीच आधु दनक
दजंर्गी तथा मशीनी युग में व्यस्त अपने पदत के अनुसार नहीं बच्चि उन्मु ि भाव से अपना जीवन-
कहानीकार मृ र्ुला गगा ने मान्यताओं, परम्पराओं, मयाा र्ाओं का दवरोध कर वैयच्चिक मू ल्ों की
थथापना कर उन्हें अपनी कहानी के माध्यम से र्शाा या है | वैवादहक जीवन में समझौता न करके अपनी
स्वतन्त्रता को अदधक महत्त्व दर्या है | मानदसक और शारीररक स्तर पर मू ल्ों का दवधटन दकया है |
कहानी में आधु दनक नारी के मू ल्ों को एक नई दर्शा की और संकेत दर्या है | शोषण एवं स्वतंत्रता की
चाह में अपने आप को थथान र्े कर मृ र्ुला गगा ने कहानी में नए मू ल्ों और संवेर्ना का रूप स्पष्ट दकया
है |
क ािी ' री हबिंदी' की िाहयका समाि की तय की गई दजंर्गी के अनुसार नहीं अपनी सोच के
अनुसार अपना जीवन जीना चाहती है | कहानी के केंद्र में िी पात्र है | पदत के शहर से बहार जाने के
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आज जब पदत जब घर में नहीं है तो अपने दर्न को अपनी इच्छा से जीने का िम रखती है | मीरा
अपना पूरा दर्न कैसे व्यतीत करना है उसकी रुपरे खा नहीं बनाती बच्चि स्वच्छं र् भाव से जैसा-जैसा
दर्न जाता है उसी के अनुसार दबताती है सवाप्रथम-अपने मनपसंर् वेशभू षा का चयन कर सजती-
संवरती है और हरी दबंर्ी लगाती है | र्ू सरा- 'जहां गीर आटा गैलरी जाकर अपनी पसंर् की चीजों को
र्े खकर आनंर् उठती है | तीसरे - रे स्तरां में जाकर अपने स्वार् अनुसार खाना खाती है | चौथे – दसनेमा
में जाकर अपनी इच्छानुसार दफल्म र्े खती है और अन्य पुरुष के साथ समय व्यतीत करती है |
उत्तर – ग़बि प्रेमचन्द के एक दवशेष दचन्ताकुल दवषय से सम्बच्चन्धत उपन्यास है । यह दवषय है , गहनों
के प्रदत पत्नी के लगाव का पदत के जीवन पर प्रभाव। गबन में टू टते मू ल्ों के अंधेरे में भटकते मध्यवगा
का वास्तदवक दचत्रण दकया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकां क्षा से पूणा मनोवृदि तथा पुदलस
के चररत्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दर्या गया है ।
उपन्यास :-
उपन्यास शब्द 'उप' उपसगा और 'न्यास' पर् के योग से बना है । दजसका अथा है उप= समीप, न्याय
रखना थथादपत रखना (दनकट रखी हुई वस्तु )। अथाा त् वह वस्तु या कृदत दजसको पढ़कर पाठक को ऐसा
लगे दक यह उसी की है , उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा मे कही गई हैं । उपन्यास मानव जीवन
की काल्पदनक कथा है । प्रेमचं र् के अनुसार "मैं उपन्यास को मानव जीवन का दचत्रमात्र समझता हाँ ।
मानव चररत्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मू ल तत्व है।
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1. कथावस्तु
3. कथोपकथन
5. र्े श-काल
6. उद्दे श्य
1. कथािस्त : -
'गबन' की मु ख्य कथावस्तु जालपा और रमानाथ के जीवन को घेर कर चलती है । जालपा की आभू षण-
दप्रयता और रमे श के दमथ्ादभमान तथा आत्म प्रशंसा से कथा का आरं भ होता है। पुदलस के माया-
महल में उसका दवकास होता है । जालपा की त्याग-भावना र्े खकर रमानाथ आाँ खें खोलता है । यहााँ
कहानी का अन्त होता है ।
रतनबाई और इन्र्ु भूषण की कथा, र्े वीर्ीन और जग्गो की कथा तथा जोहरा की कथा गबन की
अप्रासंदगक कथायें है । ये कथावस्तु के प्रवाह में बाधक न होकर उसके दवकास में सहायक बन पडी हैं ।
2. पात्र और चररत्र-हचत्रण :-
'गबन' के पुरुष पात्रों में रामनाथ, र्े वीर्ीन, रमे श बाबू र्ीनर्याल, इन्र्ु भूषण, मदणभू षण आदर् हैं । िी
पात्रों में जालपा, रतन, जग्गो, जोहरा, रामे श्वरी, जानेश्वरी आदर् हैं । इस प्रकार 'गबन' में प्रेमचन्द जी के
अन्य उपन्यासों की अपेक्षा पात्रों की संख्या कम है। इसदलए पात्रों का व्यच्चित्व पूणा रूप से उभरकर
पात्रों के अन्तद्वा न्द्व का दचत्रण सजीव बन पड़ा है ।'गबन के पात्र वगा के प्रदतदनदध होते हुए भी व्यच्चिमत
दवशेषताओं से युि हैं । रमानाथ मध्य वगा का प्रदतदनदध है । दर्खावा, दमथ्ादभमान, घूसखोरी आदर्
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उसकी व्यच्चिगत दवशेषताएाँ हैं । र्े वीर्ीन दनम्न वगा का प्रदतदनदध है । उसकी दवशेषताएाँ हैं आलस्य,
प्रेमचन्द जी ने अन्य उपन्यासों की भााँ दत 'गबन' में भी पुरुष पात्रों की अपेक्षा िी-पात्रों के चररत्र- दचत्रण
में अर्् भु त कौशल दर्खाया है । उन्होंने नारी-पात्रों को पुरुष-पात्रों की प्रेरक -शच्चि ठहरायी है । जालपा,
रतन और जग्गो स्वयं कष्ट झेलकर िमशः रमा, इन्र्ु भूषण और र्े वीर्ीन के जीवन को आलोकमय
बनाती है ।
3. कथोपकथि –
'गबन' में कथोपकथन प्रचु र मात्रा में प्रयुि है । वे अतीव सुन्दर, संदक्षि तथा कथा को आगे बढाने वाले
है । उनमें कहीं कहीं नाटकीयता भी र्े खने को दमलती है। 'गबन' उपन्यास का आरम्भ ही नाटकीयता
दलए हुए है । र्े च्चखए -
कहार : तो का चार हाथ मोड कर लई, कामे से तो गया रदहन बाबू मे म साहब
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प्रेमचन्द जी की भाषा सादहच्चत्यक व पररमादजात है । उर्ू ा शब्दों के प्रयोग से भाषा में स्वाभादवकता आ
गयी है । सुगदठत वाक्-रचना के कारण भाषा की रमणीयता बढ़ गयी है । भाषा गंगा-प्रवाह की तरह
सुन्दर बन पड़ी है । एक उर्ाहरण र्े च्चखये - "रमा के पररदचतों में एक रमे शबाबू म्युदनदसपल बोडा में
हे ड़कलका थे । उम्र तो चालीस के ऊपर थी। पर वे बड़े रदसक। शतरं ज खेलने बैठ जाते तो सबरा कर
र्े ते, र्फतर भी भू ल जाते।"
प्रेमचन्द जी की भाषा प्रां जल है। शैली सुन्दर, सरस और मनोज्ञ है । यही नहीं, जालपा और रमानाथ जैसे
मध्यवगा के लोगों की भाषा न संस्कृत शब्दों से बोदझल हुई और न उर्ू ा शब्दों से। मु हावरों और कहावतों
के प्रयोग से भाषा सरस, स्वाभादवक और सुरुदचपूणा बन पडी है । कुछ उर्ाहरण र्े च्चखये
1. तु म तो जले पर नमक दछड़कती हो, बुरा मालूम होता । है तो लाओ एक हजार दनकालकर र्े र्ो।
2 .विाभू षण कोई दमठाई तो नहीं, दजसका स्वार् एकान्त में दलया जा सके।
3. वाह, तु म अपना कंगन र्े र्ो तो क्ा कहना है । मू सलों ढोल बजाऊाँ।
5. दे श-काि का िणयि :-
'गबन में अंग्रेजों के शासन काल में भारतवादसयों के धादमा क व सामादजक जीवन का अच्छा दचत्रण
दकया गया है । भारतीय सभ्यता और समाज पर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण भारत में मध्य वगा
का जन्म हुआ। यह वगा अंग्रेजी पढे हुए बाबू लोगों का था । यह वगा बुच्चिजीवी वगा था। आदथा क अभावों
के कारण इस वगा पर दर्खावे का रं ग चढ़ गया था। 'गबन का रमानाथ मध्यवगा का प्रदतदनदध है । उसमें
सम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।
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6. उद्दे श्य :-
'गबन' का मु ख्य उद्दे श्य भारतीय मदहला के आभू षण-प्रेम से उत्पन्न होनेवाल भीषण पररणामों को
दर्खाना रहा है । साथ ही इसमें ररश्वत खोरी, वेश्या-समस्या आदर् पर भी ले खक ने पाठकों की दृदष्ट
आकदषात की है ।
‘दाज्यू' शेखर जोशी रदचत एक ऐसी कहानी है दजसमें पहाड़ी क्षे त्र में रहने वाले मर्न नामक लड़के
और उसी क्षे त्र से शहर आए जगर्ीश बाबू के माध्यम से व्यच्चि की स्वाथा परता एवं सम्बन्धों के
खोखले पन को बहुत सुन्दरता से उजागर दकया गया है । व्यच्चि अपने स्वाथा के वशीभूत सम्बन्ध बनाता
है और उनके पूरा होने पर दकतनी आसानी से उन्हें तोड़ र्े ता है यह जगर्ीश बाबू के चररत्र के माध्यम
से ध्वदनत है ।
िगदीश बाबू पवातीय क्षे त्र के दनवासी हैं । काम के दसलदसले में वे शहर आते हैं । शहर में उन्हें सभी
अजनबी जान पड़ते हैं और इस कारण उन्हें घर से र्ू र एक अकेले पन की अनुभूदत होती है । जीवन
उन्हें सूना-सूना लगने लगता है । एक दर्न जगर्ीश बाबू जब कैफे में आते हैं तो उन्हें बेयरे का काम
उसके गााँ व का नाम और उसका नाम पूछने पर वह उन्हें अपने गााँ व के पास का दनवासी बतलाता है ।
यह बात उन्हें लड़के के नज़र्ीक लाती है और मर्न भी उनमें अपने बड़े भाई की छदव र्े खकर उन्हें
'र्ाज्यू ' बुलाता है। जब तक जगर्ीश बाबू का शहर में कोई पररदचत नहीं होता तब तक 'र्ाज्यू '
सम्बोधन से उन्हें कोई आपदि नहीं होती वरन् वह उन्हें अपनत्व का ही अहसास कराता है परन्तु जैसे
ही शहर में उनकी जान-पहचान बढ़ती है वैसे ही यह सम्बन्ध और 'र्ाज्यू ' सम्बोधन उन्हें अखरने लगता
मर्न इस घटना से आहत होता है , रोता है परन्तु जल्दी ही सामान्य हो जाता है। और अगले दर्न जब
जगर्ीश बाबू कैफे में आते हैं तो वह एक तटथथ व्यच्चि की तरह व्यवहार करता है । जगर्ीश बाबू के
दमत्र हे मन्त के द्वारा नाम पूछने पर कहता है दक 'बॉय कहते हैं शाब मु झे।'
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शेखर जोशी स्वयं पवातीय क्षे त्र के दनवासी हैं और उस क्षेत्र से शहर आने वाले लोगों का र्र्ा क्ा और
कैसा हो सकता है इसे वे बखूबी समझते हैं और व्यि करते हैं । मध्यवगीय व्यच्चि कैसे अपने स्वाथा के
वशीभू त होकर सम्बन्ध को बनाता और चलाता है और उसके पश्चात् कैसे उन्हें झटकने में भी उसे र्े र
नहीं लगती इसका व्यं ग्यात्मक वणान ले खक इस कहानी में करता है ।
साथ ही मध्यवगा का व्यच्चि खोखली प्रदतष्ठा के थोथे अहं में कैसे जीवन जीता है इसका भी यथाथा
दचत्रण प्रस्तु त कहानी में दकया गया है। आज के समय में सम्बन्ध दकतने बनावटी और खोखले होते जा
रहे हैं इसका एक प्रभावपूणा दचत्र प्रस्तुत कहानी में खींचा गया है । झूठी मान-मयाा र्ा, प्रदतष्ठा की भू ख
शेखर जोशी प्रस्तु त कहानी में सम्बन्धों के बीच बढ़ती स्वाथा परता को उर्् घादटत करते हैं । यही
स्वाथा परता सम्बन्धों के टू टने दबखरने का कारण बनती है ले खक इसे बड़ी गहराई से परन्तु सार्गी से
दवडम्बना को व्यि करने में पूणातः समथा है । ले खक की अंग्रेजी और उर्ू ा दमदश्रत शब्दावली से जहााँ
एक सहजता का समावेश हुआ है , वहीं वह सम्बन्धों और च्चथथदतयों का बेबाकी से दचत्रण करने में भी
समथा है । वाक् छोटे -छोटे हैं परन्तु अपार व्यं जना से युि है । सम्बन्धों की गरमाई और सम्बन्धों की
दतिता र्ोनों को ही ये छोटे -छोटे वाक् सहजता से व्यि कर र्े ते है । दनष्कषातः शेखर जोशी की
'र्ाज्यू ' कहानी आज के समाज के स्वाथा पूणा सम्बन्धों के खोखले पन को गहराई से व्यि करने वाली
सशि कहानी है ।
उत्तर - समकालीन कथा-सादहत्य के इदतहास में नई कहानी की जो नींव तै यार हुई उसमें कमिेश्वर
है । 'हदल्ली में एक मौत' कहानी शहरी बौच्चिक वगा के अंर्र बैठी अमानवीयता और अवसरवादर्ता
को दचदत्रत करते हुए उनके अंर्र की दनमा मता को व्यि करती है । यहााँ मृ त्यु केवल एक घटना है ।
इस शवयात्रा में शादमल होने वालों के मन और हृर्य यहााँ नहीं हैं केवल उनके तन की उपच्चथथदत है ।
इस कहानी में कमले श्वर ने दर्ल्ली के बहाने र्े शभर के महानगरों में ध्वस्त होते होते पारं पररक मू ल्ों
को रे खां दकत दकया है । यह कहानी शहरी सभ्यता के टू टते प्रदतमान पर सवाल खड़ा करती है दजसका
हल हम सभी को दमलकर ढूाँढना है ।
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‘हदल्ली में एक मौत' कहानी जीवन में व्याि सभ्यता की कृदत्रमता और संवेर्नशून्यता को अदधक
तीव्रता के साथ स्पष्ट करती है । शहर की स्वाथी , संवेर्नशून्य और व्यापारी मनोवृदि का यह प्रमाण है ,
' दपछले साल ही र्ीवानचं र् ने अपनी लड़की की शार्ी की थी तो हजारों की भीड़ थी।' आज उसके शव
के साथ जाने से भी वही लोग कतराते हैं । यदर् शमशान भू दम पर सैंकड़ों लोग इकट्ठे हो भी गये हैं , तो
उनमें से अदधकतर औपचाररकता के कारण आये हैं , कुछ लोग वहां दकसी और से दमलने तथा अपना
काम करा ले ने के दलए आये हैं । च्चियां ऐसे समय भी अपने सौन्दया एवं विों का प्रर्शान करने से नहीं
चू कती। मृ त्यु जैसे समय में भी मनुष्य मू ल् हीनता का ही पररचय र्े ता है । इसी कथ् का प्रकाशन
ले खक ने यहां दकया है ।
शवयात्रा में सच्चम्मदलत होने के मू ल में न शोक संति पररवार के प्रदत करुणा है न सहानुभूदत। वास्तव में
सिी संवेर्नाओं को ले कर शवयात्रा में सच्चम्मदलत होने वालों की यात्रा नगण्य हो गयी है। जीते जी
हजारों की भीड़ और मरने के पश्चात् लोगों का उसी व्यच्चि की शव यात्रा में न जाना , यह अन्तर जीवन
जीवन मू ल्ों का ऐसा दवघटन हुआ है दक कृदत्रमता , फैशन और तड़क - भड़क की इस संस्कृदत में
शोक भी एक फैशन बन गया हैं । िशान घाट पर लोग दर्वंगत आत्मा के दलए प्राथा ना करने के थथान
पर भदवष्य की योजनाएं बनाते हैं । अतु ल दभवानी अपने कागज दनकाल कर वासवानी को दर्खाते हैं ।
च्चियां अपने मे कअप तथारात की पाटी की बातें करती हैं । र्ू सरों के र्ु ःख को अपना समझने वाली
हमारी मानदसकता इतनी पतनशील हो गई हैं दक आज हमारे पास दकसी के शोक में सच्चम्मदलत होने
का भी समय नहीं है ।
इस कहानी में म ािगरीय मिोिृ हत्त की अहभव्यखक्त हुई ै । सेठ की मृत्यु की खबर से ले कर उसके
है । शहरों का सम्पन्न वगा इस याच्चन्त्रकता के प्रर्शान का सबसे ज्यार्ा दशकार है । शहरी जीवन की
कठोर यथाथा कता का दचत्रण , फैशन , शोक की अदभव्यच्चि , मध्यवगीय व्यच्चियों, च्चियों आदर् सभी
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उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द नारी को सर्ै व त्याग, मं गल और पदवत्रता की अदधष्ठात्री र्े वी के रूप में मानते
थे । इसी प्रेरणा के वशीभू त होकर अपने गोर्ान' में उन्होंने मालती का चररत्र उज्जवल रूप में दचदत्रत
दकया है । मालती का चररत्र न केवल िी-पात्रों में वरन् पुरुष पात्रों में भी अदधक दवकासमान है । मालती
का चररत्र बडा ही आकषाक और रहस्यात्मक है दक पाठक उपन्यास के प्रारम्भ से अन्त तक उसे
दजज्ञासु की भााँ दत बडे कौतु हल से र्े खता रहता है । जहााँ प्रारम्भ में वह घृणा की पात्र बनती है वहीं बार्
में वह पाठकों की श्रिा का पात्र बन जाती है । गोदाि में उसकी हिम्नहिखित चाररहत्रक हिशेषताएाँ
सौम्य व्यखक्तत्व:-
मालती कमल की भााँदत च्चखली, र्ीपक की भााँ दत प्रकाशवती, स्फूदता एवं उल्लास की प्रदतमा तथा
दन:शंक सौम्य व्यच्चित्व वाली िी है। उसे यह पूणा दवश्वास है दक संसार में उसके दलये आर्र और सुख
का द्वार सवाथा खुला हुआ है । वह इं ग्लैण्ड से डॉक्टरी पास करके आयी है और लखनऊ में अपनी
वहीं वह एक दवचारशील िी है । दवर्े शी तड़क-भड़क तो उसका ऊपरी मु लम्मा प्रतीत होता है।
प्रेमचन्द की दृदष्ट में उसका स्वरूप आधु दनक सोसाइटी गला ' की समता रखता है । उसके वाह्य व्यवहार
से तो ऐसा प्रतीत होता है दक वह दकसी की भी अंकशादयनी बनने को उद्यत रहती हो परन्तु उसकी
उसे सम्पू णा वाह्य प्रर्शान केवल अपनी दवषम पररच्चथथदतयों द्वारा उत्पन्न समस्याओं के दनराकरण के दलए
ही करने पड़ते हैं । स्वयं प्रेमचन्द जी भी उसके सम्बन्ध में कहते हैं - "मालती बाहर से दततली है भीतर से
मधु मक्खी।" उसका यही व्यच्चित्व उसकी दववशताओं का अनुदचत लाभ उठाने की अदभलाषा वालों
को अपना जहरीला र्ं श मारकर र्ू र भगाने की पूणा सामथ्ा रखता है ।
िीरता की उपासक:-
यद्यदप पठान के वेश में मे हता उसे उठा ले जाने की धमकी र्े ते हैं और वह सभ्य समाज के पुरुषों को
र्े खकर एक बार तो दतलदमला उठती है । साथ ही वह यह भी र्े खती है दक खन्ना आदर् उसे एक पठान
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से बचाने में असमथा रहते हैं तो मालती अपना साहस नहीं छोड़ती। वह उठा ले जाने की धमकी से
आतं दकत नहीं होती। वह पठान के पौरुष से ओतप्रोत हो जाती है । नारी वीरता की उपासक होती है।
अत: वह भी ऐसे वीर पुरुष के शच्चिशाली रूप को र्े खकर उसके प्रदत समदपात हो उठने की नारी
सुलभ आकां क्षा से अपने हृर्य में दसहरन का अनुभव करने लगती है ।
मालती सिे पौरुष के प्रदत आकदषात होने वाली नारी है।वह प्राचीन नारी का आधु दनक संस्करण है ।
उसका जीवन पौरुष के खेलों में ही व्यतीत हुआ है । उसका यह आकषाण मे हता के पठान वेश में
प्रर्दशात पौरुष उसे उसकी ओर आकदषात कर र्े ता है । मालती अपने अन्य पुरुष दमत्रों के खोखले पन
को भली-भााँ दत जानती है । यही कारण है दक वह उन्हें सर्ै व उल्लू बनाया करती है । इसमें उसे कोई
सन्तोष या तृ च्चि प्राि नहीं होती। उसका नारीत्व तो एक दृढ़ और थथायी आश्रय चाहता है । मे हता में
उसे अपना वह आश्रय दर्खायी र्े ता है । वह उसके प्रदत आकदषात भी होती है परन्तु मे हता उसके बाह्य
यही कारण है दक वह उसकी अवहे लना करते हैं । मे हता उसके प्रेम में पूणा समपाण की आकां क्षा करते
हैं । वह स्वयं बबार प्रेम के पक्षधर हैं इसीदलए वह दबना शता आत्मसमपाण चाहते हैं । वह मालती में
अपनी जीवन-संदगनी के सवागुण नहीं र्े खते इसी कारण वह उसकी उपेक्षा भी करते हैं । मालती दफर
मालती अपने पररवार के प्रदत पूणारूप से समदपात है। वह अपनी सीदमत आय से अपने पररवार का
जीवनयापन करती है । उसके अपादहज माता-दपता - दबगडे रईसों की आर्तों से ग्रदसत हैं । उन्हें मां स-
मदर्रा के दबना भोजन भी नहीं रुचता। अपनी र्ोनों बहनों सरोज और वरर्ा की दशक्षा का भार भी उसे
वहन करना पड़ता है । उन सभी के जीवन और उज्जवल भदवष्य की कामना के दलए वह अपना दववाह
करके अपने में ही सीदमत रहना नहीं चाहती। वह तन, मन, धन से अपने पररवार की मयाा र्ा की रक्षा के
दलए सजग रहती है । इसके साथ ही वह क्षणभर के दलए अपना मन भी बहला ले ती है।
डॉ. मे हता के सम्पका में आने पर उसमें दजन गुणों का समावेश होता है वह तो उसके पाररवाररक
दवरासत में उसे दमले थे । अपने जीवन के बोदझल मन को थोड़ा-सा आनन्द प्रर्ान करने के दलए वह
अपनी दमत्र मण्डली में थोडा-सा चं चल और रदसक बन जाती है । खन्ना, डॉ. मे हता, रायसाहब, दमजाा
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खुशीर्, तं खा आदर् उसके दमत्र हैं । खन्ना तो उसके प्रदत अदधक अनुरि प्रतीत होता है , परन्तु मालती
इस प्रकार के लोगों के प्रदत बहुत सजग है क्ोंदक वह भली-भााँ दत जानती है दक ऐसे व्यच्चि केवल िी
उदारता :-
मालती का हृर्य उर्ार है । मे हता के द्वारा उपेदक्षत होने पर भी वह उसके प्रदत अपनी उर्ारता को नहीं
छोड़ती। मे हता भी उसकी वृदि को आच्चखर समझ ही लेते हैं । उनका मन सहज ही मालती की ओर
आकदषात होने लगता है । मालती में भी पररवता न होने लगता है और वह उसके प्रभाव से सेवा-वृदि को
अपनाने लगती है । अब वह गरीबों की उपेक्षा नहीं करती। वह मे हता को अपना आर्शा मानने लगती है
और त्याग और सेवा को अपने जीवन में अपनाने लगती है , परन्तु उसे दवलास से दवरच्चि हो उठती है।
मालती झुदनयााँ के बिे की मााँ के समान सेवा करती है ।गााँ व की च्चियों को, जोदक त्याग और श्रिा की
मे हता में अब भी उसकी उतनी ही अनुरच्चि है परन्तु सेवा-भाव से वह गम्भीर हो जाती है ।वह मे हता
की अदनयदमतताओं में सुधार लाने के दलये उन्हें अपने बंगले पर ले जाती है और उनकी पूरी र्े खभाल
भी करती है परन्तु एकान्त में दमलने का अवसर नहीं र्े ती।उसकी उर्ारता मे हता को उसका अनुरागी
बना र्े ती है ।
दू रदहशयता :-
मे हता उपास्य से उसके उपासक बन जाते हैं और उसके र्े वी रूप में ली.न हो जाना चाहते हैं परन्तु
मालती यह भलीभााँ दत जानती है दक मन के मोह में आसि होते ही मे हता की मानवता का क्षे त्र
संकुदचत हो जायेगा और उनकी सम्पू णा शच्चि नयी-नयी दजम्मेर्ाररयों को परा करने में ही व्यय होने
लगेगी। ऐसी च्चथथदत में वह त्याग और सेवा के काया पूणा नहीं कर पायेंगे।
इसीदलये मालती उनसे स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात को कह र्े ती है - "तु म्हारे जैसे दवचारवान,
प्रदतभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बन्द नहीं करना चाहती।" इस प्रकार उसकी
र्ू रर्दशाता से डॉ. मे हता का एक नया जन्म होता है और वह मालती के समक्ष अपना. आत्मसमपाण
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प्रेमचन्द का आदशयिाद :-
सारां शतः हम कह सकते हैं दक मालती के दचत्रां कन में प्रेमचन्द जी का आर्शावार्ी स्वरूप : स्पष्ट रूप
से मु खर हो उठा है । वह सर्ै व नारी को त्याग, मं गल और पदवत्रता की र्े वी मानते थे। यही कारण है दक
अपनी इसी प्रेरणा से प्रेररत होकर उन्होंने 'गोदाि' में मालती का इतना उज्जवल चररत्र प्रर्दशात दकया
है । श्री दजते न्द्रनाथ पाठक के यह शब्द इसी साथा कता को और भी बल प्रर्ान करते हैं - "कुल दमलाकर
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