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आगम-१
आचार
आगमसू ह द अनुवाद
आगमसू - १- ‘आचार’
अंगसू - १- ह द अनुवाद
कहां या दे खे ?
म वषय पृ म वषय पृ
ुत क -१ ००५ ुत क -२ चालु ---
1 अ ययन-१-श पर ा ००५ … . . चू लका- १… … … … चालु ---
2 अ ययन-२-लोक वजय ०१२ 16 अ ययन-७ अव ह तमा ०९९
3 अ ययन-३ शीतो णीय ०१९
4 अ ययन-४ स यक व ०२३ … . . चू लका- २… … … … १०३
5 अ ययन-५ लोकसार ०२६ 17 अ ययन-८ ान-स तका-१ १०३
6 अ ययन-६ धूत ०३१ 18 अ ययन-९ नषी धका-स तका-२ १०४
7 अ ययन-७-महाप र ा ( व )है ०३७ 19 अ ययन-१० उ ार वण-सo- १०५
8 अ ययन-८- वमो ०३७ 20 ३
अ ययन-११ श दस तका-४ १०७
9 अ ययन-९- उपधान ुत ०४६ 21 अ ययन-१२ प स तका-५ १०९
---x ---x ---x --- 22 अ ययन-१३ पर या-स तका-६ ११०
ुत क -२ ०५२ 23 अ ययन-१४ अ यो य या-स0-९ ११२
… . . चू लका- १… … … … ०५२
10 अ ययन-१ पडेषणा ०५२ … . . चू लका- ३… … … … ११३
11 अ ययन-२ श येषणा ०६९ 24 अ ययन-१५ भावना ११३
12 अ ययन– ३ ईया ०७९
13 अ ययन-४ भाषाजात ०८७ … . . चू लका- ४… … … … १२४
14 अ ययन-५ व ैषणा ०९१ 25 अ ययन-१६ वमु १२४
15 अ ययन-६ पा ैषणा ०९६ ---x ---x ---x ---
४५ आगम वग करण
म आगम का नाम सू म आगम का नाम सू
मु न द पर नसागरजी का शत सा ह य
आगम सा ह य आगम सा ह य
म सा ह य नाम बू स म सा ह य नाम बू स
1 मूल आगम सा ह य:- 147 6 आगम अ य सा ह य:- 10
-1- आगमसु ा ण-मूलं print [49] ુ ોગ
-1- આગમ કથા ય 06
-2- आगमसु ा ण-मूलं Net [45] -2- आगम संबंधी सा ह य 02
-3- आगमम ूषा (मूल त) [53] -3- ऋ षभा षत सू ा ण 01
2 आगम अनुवाद सा ह य:- 165 -4- आग मय सू ावली 01
-1- આગમ ૂ ુ રાતી અ વ
જ ુ ાદ [47] आगम सा ह य- कुल पु तक 516
-2- आगमसू ह द अनुवाद Net [47]
-3- AagamSootra English Trans० [11]
-4- આગમ ૂ સટ ક ુ રાતી અ વ
જ ુ ાદ [48]
-5- आगमसू ह द अनुवाद print [12] अ य सा ह य:-
3 आगम ववेचन सा ह य:- 171 1 ત વા યાસ સા હ ય- 13
-1- आगमसू सट कं [46] 2 ૂ ા યાસ સા હ ય- 06
-2- आगमसू ा ण सट कं ताकार-1 [51] 3 યાકરણ સા હ ય- 05
-3- आगमसू ा ण सट कं ताकार-2 [09] 4 યા યાન સા હ ય- 04
-4- आगम चू ण सा ह य [09] 5 જનભ ત સા હ ય- 09
-5- सवृ क आगमसू ा ण-1 [40] 6 િવિધ સા હ ય- 04
-6- सवृ क आगमसू ा ण-2 [08] 7 આરાધના સા હ ય 03
-7- सचू णक आगमसु ा ण [08] 8 પ રચય સા હ ય- 04
4 आगम कोष सा ह य:- 14 9 ૂજન સા હ ય- 02
-1- आगम स कोसो [04] 10 તીથકર સં ત દશન 25
-2- आगम कहाकोसो [01] 11 ક ણ સા હ ય- 05
-3- आगम-सागर-कोष: [05] 12 ુ ોધિનબંધ
દ પર નસાગરના લ શ 05
-4- आगम-श दा द-सं ह ( ा-सं-गु) [04] આગમ િસવાય ંુ સા હ ય લ
ૂ ુ તક 85
5 आगम अनु म सा ह य:- 09
-1- આગમ િવષયા ુ મ- ( ૂળ) 02 1-आगम सा ह य (कुल पु तक) 516
-2- आगम वषयानु म (सट कं) 04 2-आगमेतर सा ह य (कुल पु तक) 085
-3- आगम सू -गाथा अनु म 03 द पर नसागरजी के कुल काशन 601
[१] आचार
अंगसू -१- ह द अनुवाद
ुत क – १
अ ययन-१ – श पर ा
उ े शक-१
सू – १,२
आयु मन् ! मने सूना है । उन भगवान (महावीर वामी) ने यह कहा है– ..... संसारम कुछ ा णय को यह
सं ा ( ान) नह होती । जैसे – ‘ ‘ म पूव दशा से आया ँ, द ण दशा से आया ँ, प म दशा से आया ँ, उ र
दशा से आया ँ, ऊ व दशा से आया ँ, अधो दशा से आया ँ अथवा व दशा से आया ँ ।
सू -३
इसी कार कुछ ा णय को यह ान नह होता क मेरी आ मा औपपा तक है अथवा नह ? म पूव ज मम
कौन था ? म यहाँ से युत होकर अगले ज म म या होऊंगा ?
सू -४
कोई ाणी अपनी वम त, वबु से अथवा य ा नय के वचन से, अथवा उपदे श सूनकर यह जान
लेता है, क म पूव दशा, या द ण, प म, उ र, ऊ व अथवा अ य कसी दशा या व दशा से आया ँ । कुछ
ा णय को यह भी ात होता है – मेरी आ मा भवा तर म अनुसंचरण करने वाली है, जो इन दशा , अनु दशा
म कमानुसार प र मण करती है । जो इन सब दशा और व दशा म गमनागमन करती है, वही म (आ मा) ँ ।
सू -५
(जो उस गमनागमन करनेवाली प रणामी न य आ मा जान लेता है) वही आ मवाद , लोकवाद , कमवाद
एवं यावाद है ।
सू – ६, ७
(वह आ मवाद मनु य यह जानता/मानता है क)– मने या क थी । म या करवाता ँ । म या करने
वाले का भी अनुमोदन क ँ गा । लोक-संसार म ये सब याएं ह, अतः ये सब जानने तथा यागने यो य ह ।
सू – ८-१०
यह पु ष, जो अप र ातकमा है वह इन दशा व अनु दशा म अनुसंचरण करता है । अपने कृत-कम
के साथ सब दशा /अनु दशा म जाता है । अनेक कार क जीव-यो नय को ा त होता है । ..... वहाँ व वध
कार के श का अनुभव करता है । ..... इस स ब म भगवान् ने प र ा ववेक का उपदे श कया है ।
सू - ११
अपने इस जीवन के लए, शंसा व यश के लए, स मान क ा त के लए, पूजा आ द पाने के लए, ज म-
स तान आ द के ज म पर, अथवा वयं के ज म न म से, मरण-स ब ी कारण व संग पर, मु के ेरणा या
लालसा से, ःख के तीकार हेत–ु रोग, आतंक, उप व आ द मटाने के लए ।
सू - १२
लोक म (उ हेतु से होने वाले) ये सब कमसमारंभ के हेतु जानने यो य और यागने यो य होते ह ।
सू - १३
लोक म ये जो कमसमारंभ के हेतु ह, इ ह जो जान लेता है वही प र ातकमा मु न होता है । ऐसा म कहता ँ
अ ययन-१ – उ े शक-७
सू - ५६
अतः वायुका यक जीव क गंछा करने म समथ होता है ।
अ ययन-३ – उ े शक-३
सू - १२५
साधक (धमानु ान क अपूव) स समझकर माद करना उ चत नह है । अपनी आ मा के समान बा -
जगत को दे ख ! (सभी जीव को मेरे समान ही सुख य है, ःख अ य है) यह समझकर मु न जीव का हनन न करे
और न सर से घात कराए ।
जो पर र एक- सरे क आशंका से, भय से, या सरे के सामने ल ा के कारण पाप कम नह करता, तो
या ऐसी त म उसका कारण मु न होता है ? (नह )
सू - १२६
इस त म (मु न) समता क से पयालोचन करके आ मा को साद रखे । ानी मु न अन य परम के
त कदा प माद न करे । वह साधक सदा आ मगु त और वीर रहे, वह अपनी संयम-या ा का नवाह प र मत
आहार से करे ।
वह साधक छोटे या बड़े प – ( यमान पदाथ ) के त वर त धारण करे ।
सू - १२७
सम त ा णय क ग त और आग त को भलीभाँ त जानकर जो दोन अ त (राग और े ष) से र रहता है,
वह सम त लोक म कसी से (कह भी) छे दा नह जाता, भेदा नह जाता, जलाया नह जाता और मारा नह जाता ।
सू - १२८
कुछ (मूढ़म त) पु ष भ व यकाल के साथ पूवकाल का मरण नह करते । वे च ता नह करते क इसका
अतीत या था, भ व य या होगा ? कुछ ( म या ानी) मानव य कह दे ते ह क जो इसका अतीत था, वही भ व य
होगा ।
सू - १२९
क तु तथागत (सव ) न अतीत के अथ का मरण करते ह और न ही भ व य के अथ का च तन करते ह।
( जसने कम को व वध कार से धूत कर दया है, ऐसे) वधूत समान क पवाला मह ष इ ह के दशन का अनुगामी
होता है, अथवा वह पक मह ष वतमान का अनुदश हो (पूव सं चत) कम का शोषण करके ीण कर दे ता है ।
सू - १३०
उस (धूत-क प)योगी के लए भला या अर त है और या आन द है? वह इस वषय म बलकुल हण
र हत होकर वचरण करे । वह सभी कार के हा य आ द याग करके इ य न ह तथा मन-वचन-काया को तीन
गु तय से गु त करते ए वचरण करे । हे पु ष ! तू ही मेरा म है, फर बाहर अपने से भ म य ढूँ ढ़ रहा है ?
सू - १३१
जसे तुम उ भू मका पर त समझते हो, उसका घर अ य त र समझो, जसे अ य त र समझते हो
उसे तुम उ भू मका पर त समझो ।
हे पु ष ! अपना ही न ह कर । इसी व ध से तू ःख से मु ा त कर सकेगा । हे पु ष ! तू स य को ही
भलीभाँ त समझ ! स य क आ ा म उप त रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है ।
स य या ाना द से यु साधक धम हण करके ेय (आ म- हत) का स यक् कार से अवलोकन करता है
सू - १३२
राग और े ष (इन) दोन से कलु षत आ मा जीवन क व दना, स मान और पूजा के लए वृ होता है ।
अ ययन-४ – स य व
उ े शक-१
सू - १३९
म कहता ँ – जो अह त भगवान अतीत म ए ह, जो वतमान म ह और जो भ व य म ह गे– वे सब ऐसा
आ यान करते ह, ऐसा भाषण करते ह, ऐसा ापन करते ह, ऐसा पण करते ह– सम त ा णय , सव भूत ,
सभी जीव और सभी स व का हनन नह करना चा हए, बलात् उ ह शा सत नह करना चा हए, न उ ह दास बनाना
चा हए, न उ ह प रताप दे ना चा हए और न उनके ाण का वनाश करना चा हए ।
यह अ हसा धम शु , न य और शा त है । खेद अह त ने लोक को स यक् कार से जानकर इसका
तपादन कया है । जैसे क–
जो धमाचरण के लए उठे ह, अथवा अभी नह उठे ह; जो धम वण के लए उप त ए ह, या नह ए ह; जो
द ड दे ने से उपरत ह, अथवा अनुपरत ह; जो उप ध से यु ह, अथवा उप ध से र हत ह, जो संयोग म रत ह, अथवा
संयोग म रत नह ह । वह (अह पत धम) स य है, त य है यह इस म स यक् कार से तपा दत है ।
सू - १४०
साधक उस (अहत् भा षत-धम) को हण करके (उसके आचरण हेतु अपनी श य को) छपाए नह और
न ही उसे छोड़े । धम का जैसा व प है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे) । (इ -अ न ) प (इ य वषय ) से
वर ा त करे । वह लोकैषणा म न भटके ।
सू - १४१
जस मुमु ु म यह बु नह है, उससे अ य (साव ा ) वृ कैसे होगी ? अथवा जसम स य व ा त
नह है या अ हसा बु नह है, उसम सरी ववेक बु कैसे होगी ? यह जो (अ हसा धम) कहा जा रहा है, वह इ ,
ुत, मत और वशेष प से ात है । हसा म (गृ पूवक) रचे-पचे रहने वाले और उसी म लीन रहने वाले मनु य
बार-बार ज म लेते रहते ह ।
सू - १४२
(मो माग म) अह नश य न करने वाले, सतत ावान्, धीर साधक ! उ ह दे ख जो म ह, (धम से) बाहर
ह । इस लए तू अ म होकर सदा (धम म) परा म कर । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-४ – उ े शक-२
सू - १४३
जो आ व (कमब ) के ान ह, वे ही प र व-कम नजरा के ान बन जाते ह, जो प र व ह, वे आ व
हो जाते ह, जो अना व- त वशेष ह, वे भी अप र व-कम के कारण हो जाते ह, (इसी कार) जो अप र व, वे भी
अना व नह होते ह । इन पद को स यक् कार से समझने वाला तीथकर ारा तपा दत लोक को आ ा के
अनुसार स यक् कार से जानकर आ व का सेवन न करे ।
सू - १४४
ानी पु ष, इस वषयम, संसारम त, स यक् बोध पाने को उ सुक एवं व ान- ा त मनु य को उपदे श
करते ह। जो आत अथवा म होते ह, वे भी धम का आचरण कर सकते ह । यह यथात य-स य है, ऐसा म कहता ँ
जीव को मृ यु के मुख म जाना नह होगा, ऐसा स व नह है । फर भी कुछ लोग ई ा ारा े रत और
व ता के घर बने रहते ह । वे मृ यु क पकड़ म आ जाने पर भी कम-संचय करने या धन-सं ह म रचे-पचे रहते ह।
ऐसे लोग व भ यो नय म बारंबार ज म हण करते रहते ह ।
सू - १४५
इस लोक म कुछ लोग को उन-उन ( व भ मतवाद ) का स क होता है, (वे) लोक म होनेवाले ःख का
अ ययन-५ – लोकसार
उ े शक-१
सू - १५४
इस लोक म जतने भी कोई मनु य स योजन या न योजन जीव क हसा करते ह, वे उ ह जीव म
व वध प म उ प होते ह । उनके लए श दा द काम का याग करना ब त क ठन होता है ।
इस लए (वह) मृ यु क पकड़ म रहता है, इस लए अमृत (परमपद) से र होता है । वह (कामना का
नवारण करने वाला) पु ष न तो मृ यु क सीमा म रहता है और न मो से र रहता है ।
सू - १५५
वह पु ष (कामना यागी) कुश क न क को छु ए ए (बारंबार सरे जलकण पड़ने से) अ र और वायु के
झ के से े रत होकर गरते ए जल ब क तरह जीवन को (अ र) जानता-दे खता है । बाल, म द का जीवन भी
इसी तरह अ र है, पर तु वह (जीवन के अ न य व) को नह जान पाता । वह बाल– हसा द ू र कम उ कृ प से
करता आ तथा उसी ःख से मूढ़ उ न होकर वह वपरीत दशा को ा त होता है । उस मोह से बार-बार गभ म
आता है, ज म-मरणा द पाता है । इस (ज म-मरण क परंपरा) म उसे बारंबार मोह उ प होता है ।
सू - १५६
जसे संशय का प र ान हो जाता है, उसे संसार के व प का प र ान हो जाता है । जो संशय को नह
जानता, वह संसार को भी नह जानता ।
सू - १५७
जो कुशल है, वह मैथुन सेवन नह करता । जो ऐसा करके उसे छपाता है, वह उस मूख क सरी मूखता है।
उपल कामभोग का पयालोचन करके, सव कार से जानकर उ ह वयं सेवन न करे और सर को भी कामभोग
के कटु फल का ान कराकर उनके अनासेवन क आ ा दे , ऐसा म कहता ँ ।
सू - १५८
हे साधको ! व वध कामभोग म गृ जीव को दे खो, जो नरक- तयच आ द यातना- ान म पच रहे ह–
उ ह वषय से खचे जा रहे ह । इस संसार वाह म उ ह ान का बारंबार श करते ह । इस लोक म जतने भी
मनु य आर जीवी ह, वे इ ह ( वषयास य ) के कारण आर जीवी ह । अ ानी साधक इस संयमी जीवन म
भी वषय- पपासा से छटपटाता आ अशरण को ही शरण मानकर पापकम म रमण करता है ।
इस संसार के कुछ साधक अकेले वचरण करते ह । य द वह साधक अ य त ोधी ह, अतीव अ भमानी ह,
अ य त मायी ह, अ त लोभी ह, भोग म अ यास ह, नट क तरह ब पया ह, अनेक कार क शठता करता है,
अनेक कार के संक प करता है, हसा द आ व म आस रहता है, कम पी पलीते से लपटा आ है, ‘ म भी साधु
,ँ धमाचरण के लए उ त आ ँ’ , इस कार से उ तवाद बोलता है, ‘ मुझे कोई दे ख न ले’ इस आशंका से छप-
छपकर अनाचार करता है, वह यह सब अ ान और माद दोष से सतत मूढ़ बना (है), वह मोहमूढ़ धम नह जानता ।
हे मानव ! जो लोग जा ( वषय-कषाय ) से आ -पी ड़त ह, कमब न करने म ही चतुर ह, जो आ व से
वरत नह ह, जो अ व ा से मो ा त होना बतलाते ह, वे संसार के भंवर-जाल म बराबर च कर काटते रहते ह । –
ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-२
सू - १५९
इस मनु य लोक म जतने भी अनार जीवी ह, वे (अनार - वृ गृह ) के बीच रहते ए भी अना-
र जीवी ह । इस साव से उपरत अथवा आहत्शासन म त अ म मु न खयह स ह । – ऐसा दे खकर उसे
ीण करता आ ( णभर भी माद न करे) ।
अ ययन-६ – धूत
उ े शक-१
सू - १८६
इस म यलोक म मनु य के बीच म ाता वह पु ष आ यान करता है । जसे ये जीव-जा तयाँ सब कार से
भली-भाँ त ात होती ह, वही व श ान का स यग् आ यान करता है ।
वह (स बु पु ष) इस लोक म उनके लए मु -माग का न पण करता है, जो (धमाचरण के लए)
स यक् उ त है, मन, वाणी और काया से ज ह ने द ड प हसा का याग कर वयं को संय मत कया है, जो
समा हत ह तथा स यग् ानवान ह । कुछ ( वरले लघुकमा) महान् वीर पु ष इस कार के ान के आ यान को
सूनकर (संयमम) परा म भी करते ह। ( क तु) उ ह दे खो, जो आ म ा से शू य ह, इस लए (संयमम) वषाद पाते ह
म कहता ँ– जैसे एक कछु आ होता है, उसका च (एक) महा द म लगा आ है । वह सरोवर शैवाल और
कमल के प े से ढका आ है । वह कछु आ उ मु आकाश को दे खने के लए (कह ) छ को भी नह पा रहा है ।
जैसे वृ अपने ान को नह छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग ह (जो अनेक सांसा रक क , आ द बार-बार पाते ए भी
गृहवास को नह छोड़ते) ।
इसी कार क (गु कमा) लोग अनेक कुल म ज म लेते ह, क तु पा द वषय म आस होकर (अनेक
कार के ःख से, उप व से आ ा त होने पर) क ण वलाप करते ह, (ले कन गृहवास को नह छोड़ते)। ऐसा
ःख के हेतुभूत कम से मु नह हो पाते ।
अ ा तू दे ख वे (मूढ़ मनु य) उन कुल म आ म व के लए न नो रोग के शकार हो जाते ह ।
सू – १८७-१८९
ग डमाला, कोढ़, राजय मा, अप मार, काण व, जड़ता, कु ण व, कुबड़ापन । उदररोग, मूकरोग, शोथरोग,
भ मकरोग, क नवात, पंगत
ु ा, ीपदरोग और मधुमेह ।
ये सोलह रोग मशः कहे गए ह । इसके अन तर आतंक और अ या शत ( ःख के) श ा त होते ह।
सू - १९०
उन मनु य क मृ यु का पयालोचन कर, उपपात और यवन को जानकर तथा कम के वपाक का भली-
भाँ त वचार करके उसके यथात य को सूनो । (इस संसार म) ऐसे भी ाणी बताए गए ह, जो अंधे होते ह और
अ कार म ही रहते ह । वे ाणी उसीको एक बार या अनेक बार भोगकर ती और म द श का तसंवेदन करते
ह । बु (तीथकर ) ने इस त
य का तपादन कया है ।
(और भी अनेक कार के) ाणी होते ह, जैसे– वषज, रसज, उदक प– एके य अ का यक जीव या जल
म उ प होने वाले कृ म या जलचर जीव, आकाशगामी प ी आ द वे ाणी अ य ा णय को क दे ते ह ।
(अतः) तू दे ख, लोक म महान् भय है ।
सू - १९१
संसार म जीव ब त ःखी ह । मनु य काम-भोग म आस ह । इस नबल शरीर को सुख दे ने के लए
ा णय के वध क ई ा करते ह । वेदना से पी ड़त वह मनु य ब त ःख पाता है । इस लए वह अ ानी ा णय को
क दे ता है ।
इन (पूव ) अनेक रोग को उ प ए जानकर आतुर मनु य ( च क सा के लए सरे ा णय को)
प रताप दे ते ह । तू ( ववेक से) दे ख । ये ( ा णघातक- च क सा व धयाँ कम दयज नत रोग का शमन करने म)
समथ नह ह । (अतः ।) इनसे तुमको र रहना चा हए ।
मु नवर ! तू दे ख ! यह ( हसामूलक च क सा) महान् भय प है । (इस लए च क सा के न म भी) कसी
ाणी का अ तपात/वध मत कर ।
अ ययन-७ – महाप र ा
इस अ ययन का नाम ‘ महाप र ा’ है, जो वतमान म अनुपल (व ) है ।
अ ययन-८ – वमो
उ े शक-१
सू - २१०
म कहता ँ – समनो या असमनो साधक को अशन, पान, खा , वा ,व , पा , कंबल या पाद- छन
आदरपूवक न दे , न दे ने के लए नमं त करे और न उनका वैयावृ य करे ।
सू - २११
असमनो भ ु कदा चत् मु न से कहे – (मु नवर !) तुम इस बात को न त समझ लो – (हमारे मठ या
आ म म त दन) अशन, पान, खा , वा , व , पा , क बल या पाद छन ( मलता है) । तु ह ये ा त ए ह या
न ए ह तुमने भोजन कर लया हो या न कया हो, माग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भ धम का पालन करते ए भी
तु ह (यहाँ अव य आना है) । (यह बात) वह (उपा य म) आकर कहता हो या चलते ए कहता हो, अथवा उपा य म
आकर या माग म चलते ए वह अशन-पान आ द दे ता हो, उनके लए नमं त करता हो, या वैयावृ य करता हो, तो
मु न उसक बात का बलकुल अनादर करता आ (चूप रहे) । ऐसा म कहता ँ ।
सू - २१२
इस मनु य लोक म क साधक को आचार-गोचर सुप र चत नह होता । वे इस साधु-जीवन म आर के
अथ हो जाते ह, आर करने वाले के वचन का अनुमोदन करने लगते ह । वे वयं ाणीवध करते ह, सर से
ा णवध कराते ह और ा णवध करने वाले का अनुमोदन करते ह । अथवा वे अद का हण करते ह ।
अथवा वे व वध कार के वचन का योग करते ह । जैसे क लोक है, लोक नह है । लोक ुव है, लोक
अ ुव है । लोक सा द है, लोक अना द है । लोक सा त है, लोक अन त है । सुकृत है, कृत है । क याण है, पाप है ।
साधु है, असाधु है । स है, स नह है । नरक है, नरक नह है ।
इस कार पर र व वाद को मानते ए अपने-अपने धम का पण करते ह, इनम कोई भी हेतु नह
है, ऐसा जानो । इस कार उनका धम न सु-आ यात होता है और न ही सु पत ।
सू - २१३
जस कार से आशु भगवान महावीर ने इस स ा त का तपादन कया है, वह (मु न) उसी कार से
पणस य वाद का न पण करे; अथवा वाणी वषयक गु त से (मौन) रहे । ऐसा म कहता ँ । (वह मु न उन
मतवा दय से कहे– ) (आप के दशन म आर ) पाप सव स मत है । म उसी (पाप) का नकट से अ त- मण करके
( त ँ) यह मेरा ववेक ( वमो ) कहा गया है ।
धम ाम म होता है, अथवा अर य म ? वह न तो गाँव म होता है, न अर य म, उसी (स यग् आचरण) को धम
जानो, जो म तमान् महामाहन भगवान ने वे दत कया (बतलाया) है ।
(उस धम के) तीन याम– १. ाणा तपात- वरमण, २. मृषावाद- वरमण, ३. अद ादान- वरमण प तीन
महा त कहे गए ह, उन (तीन याम ) म ये आय स बो ध पाकर उस याम प धम का आचरण करने के लए
स यक् कार से उ त होते ह; जो शा त हो गए ह; वे (पापकम के) नदान से वमु कहे गए ह ।
सू - २१४
ऊंची, नीची एवं तीरछ , सब दशा म सब कार से एके या द जीव म से येक को लेकर कम-
अ ययन-९ – उपधान ुत
उ े शक-१
सू - २६५
मण भगवान महावीर ने द ा लेकर जैसे वहारचया क , उस वषय म जैसा मने सूना है, वैसा म तु ह
बताऊंगा । भगवान ने द ा का अवसर जानकर हेम त ऋतु म जत ए और त काल वहार कर गए ।
सू - २६६
‘महेम त ऋतु म व से शरीर को नह ढकूँगा ।’ वे इस त ा का जीवनपय त पालन करने वाले और
संसार या परीषह के पारगामी बन गए थे । यह उनक अनुध मता ही थी ।
सू - २६७
भ रे आ द ब त-से ा णगत आकर उनके शरीर पर चढ़ जाते और मँडराते रहते । वे होकर नाचने लगते
यह म चार मास से अ धक समय तक चलता रहा ।
सू - २६८
भगवान ने तेरह महीन तक व का याग नह कया । फर अनगार और यागी भगवान महावीर उस व
का प र याग करके अचेलक हो गए ।
सू - २६९
भगवान एक-एक हर तक तरछ भीत पर आँख गड़ा कर अ तरा मा म यान करते थे । अतः उनक आँख
दे खकर भयभीत बनी ब क म डली ‘ मारो-मारो’ कहकर च लाती, ब त से अ य ब को बुला लेती।
सू - २७०
गृह और अ यती थक साधु से संकुल ान म ठहरे ए भगवान को दे खकर, कामाकुल याँ वहाँ
आकर ाथना करती, क तु कमब का कारण जानकर सागा रक सेवन नह करते थे । अपनी अ तरा मा म वेश
कर यान म लीन रहते ।
सू - २७१
कभी गृह से यु ानम भी वे उनम घुलते- मलते नह थे। वे उनका संसग याग करके धम यानम म न
रहते । वे कसी के पूछने पर भी नह बोलते थे । अ य चले जाते, क तु अपने यान का अ त मण नह करते थे ।
सू - २७२
वे अ भवादन करने वाल को आशीवचन नह कहते थे, और उन अनाय दे श आ द म डंड से पीटने, फर
उनके बाल ख चने या अंग-भंग करने वाले अभागे अनाय लोग को वे शाप नह दे ते थे । भगवान क यह साधना
अ य साधक के लए सुगम नह थी ।
सू - २७३
अ य त ःस , तीखे वचन क परवाह न करते ए उ ह सहन करने का परा म करते थे । वे आ या-
यका, नृ य, गीत, यु आ द म रस नह लेते थे ।
सू - २७४
पर र कामो ेजक बात म आस लोग को ातपु भगवान महावीर हषशोक से र हत होकर दे खते थे।
वे इन दमनीय को मरण न करते ए वचरते थे ।
सू - २७५
(माता-
पता के वगवास के बाद) भगवान ने दो वष से कुछ अ धक समय तक गृहवास म रहते ए भी
स च जल का उपभोग नह कया । वे एक वभावना से ओत ोत रहते थे, उ ह ने ोध- वाला को शा त कर लया
था, वे स य ान-दशन को ह तगत कर चूके थे और शा त च हो गए थे । फर अ भ न मण कया ।
ुत क –२
चू लका– १
अ ययन-१ – पडेषणा
उ े शक-१
सू - ३३५
कोई भ ु या भ ुणी भ ा म आहार- ा त के उ े य से गृह के घर म व होकर यह जाने क यह
अशन, पान, खा तथा वा रसज आ द ा णय से, फफुंद से, गे ँ आ द के बीज से, हरे अंकुर आ द से संस है,
म त है, स च जल से गीला है तथा स च म से सना आ है; य द इस कार का अशन, पान, खा , वा
दाता के हाथ म हो, पर (दाता) के पा म हो तो उसे अ ासुक और अनेषणीय मानकर, ा त होने पर हण न करे ।
कदा चत् वैसा आहार हण कर लया हो तो वह उस आहार को लेकर एका त म चला जाए या उ ान या
उपा य म ही जहाँ ा णय के अंडे न ह , जीव-ज तु न ह , बीज न ह , ह रयाली न हो, ओस के कण न ह , स च
जल न हो तथा च टयाँ, लीलन-फूलन, गीली म या दलदल, काई या मकड़ी के जाले एवं द मक के घर आ द न
ह , वहाँ उस संस आहार से उन आग तुक जीव को पृथक्-पृथक् करके उस म त आहार को शोध-शोधकर फर
यतनापूवक खा ले या पी ले ।
य द वह उस आहार को खाने-पीने म असमथ हो तो उसे लेकर एका त ान म चला जाए । वहाँ जाकर
दध डलभू म पर, ह य के ढ़े र पर, लोह के कूड़े के ढ़े र पर, तुष के ढ़े र पर, सूखे गोबर के ढ़े र पर या इसी कार
के अ य नद ष एवं ासुक डल का भलीभाँ त नरी ण करके, उसका अ तरह माजन करके, यतनापूवक
उस आहार को वहाँ प र ा पत कर दे ।
सू - ३३६
गृह के घर म भ ा ा त होने क आशा से व आ भ ु या भ ुणी य द इन औष धय को जाने क
वे अख डत ह, अ वन यो न ह, जनके दो या दो से अ धक टु कड़े नह ए हो, जनका तरछा छे दन नह आ है,
जीव र हत नह है, अभी अधपक फली है, जो अभी स च या अभ न है या अ न म भुँजी ई नह है, तो उ ह
दे खकर उनको अ ासुक एवं अनेषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
सू - ३३७
गृह के घर म भ ा लेने के लए व भ ु या भ ुणी य द ऐसी औष धय को जाने क वे अख डत
नह है, यावत् वे जीव र हत ह, क ी फली अ च हो गई है, भ न ह या अ न म भुँजी ई ह, तो उ ह दे खकर, उ ह
ासुक एवं एषणीय समझकर ा त होती ह तो हण कर ले ।
गृह के घर भ ा न म गया आ भ ु या भ ुणी य द यह जान ले क शाली, धान, जौ, गे ँ आ द म
सच रज ब त है, गे ँ आ द अ न म भूज
ँ े ए – अधप व ह । गे ँ आ द के आटे म तथा धान-कूटे चूण म भी
अख ड दाने ह, कणस हत चावल के ल बे दाने सफ एक बार भूने ए ह या कूटे ए ह, तो उ ह अ ासुक और
अनेषणीय मानकर मलने पर भी हण न करे ।
अगर...वह भ ु या भ ुणी यह जाने क शाली, धान, जौ, गे ँ आ द रज वाले नह ह, आग म भुँजे ए गे ँ
आ द तथा गे ँ आ द का आटा, कुटा आ धान आ द अख ड दान से स हत है, कण स हत चावल के ल बे दाने, ये सब
एक, दो या तीन बार आग म भुने ह तो उ ह ासुक और एषणीय जानकर ा त होने पर हण कर ले।
सू - ३३८
गृह के घर म भ ा के न म वेश करने के ई ु क भ ु या भ ुणी अ यती थक या गृह के साथ
तथा प डदोष का प रहार करने वाला साधु अपा रहा रक साधु के साथ भ ा के लए गृह के घर म न तो वेश
करे, और न वहाँ से नीकले ।
गृह वामी, उसक प नी, उसक पु ी या पु , उसक पु वधू या गृहप त के दास-दासी या नौकर-नौकरा नय म से
कसी को, पहले अपने मन म वचार करके कहे– आयु मन् गृह इसम से कुछ भोजन मुझे दोगे ?
उस भ ु के ऐसा कहने पर य द वह गृह अपने हाथ को, म के बतन को, दव को या कांसे आ द के
बतन को ठं डे जल से या ठं डे ए उ णजल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भ ु पहले उसे
भली-भाँ त दे खकर कहे– ‘ आयु मन् गृह ! तुम इस कार हाथ, पा , कुड़छ या बतन को स च पानी से मत
धोओ । य द मुझे भोजन दे ना चाहती हो तो ऐसे ही दे दो ।’
साधु के इस कार कहने पर य द वह शीतल या अ प उ णजल से हाथ आ द को एक बार या बार-बार
धोकर उ ह से अशना द आहार लाकर दे ने लगे तो उस कार के पुरः कमरत हाथ आ द से लाए गए अशना द
चतु वध आहार को अ ासुक और अनेषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
य द साधु यह जाने क दाता के हाथ, पा आ द भ ा दे ने के लए नह धोए ह, क तु पहले से ही गीले ह;
उस कार के स च जल से गीले हाथ, पा , कुड़छ आ द से लाकर दया गया आहार भी अ ासुक-अनेष-णीय
जानकर ा त होने पर भी हण न करे । य द यह जाने क हाथ आ द पहले से गीले तो नह ह, क तु स न ध ह, तो
उस कार लाकर दया गया आहार...भी हण न करे ।
य द यह जाने क हाथ आ द जल से आ या स न ध तो नह ह, क तु मशः स च म , ार, हड़ताल,
हगलू, मेन सल, अंजन, लवण, मे , पीली म , ख ड़या म , सौरा का, बना छाना आटा, आटे का चोकर,
पीलुप णका के गीले प का चूण आ द म से कसी से भी हाथ आद संसृ ह तो उस कार के हाथ आ द से लाकर
दया गया आहार...भी हण न करे । य द वह यह जाने क दाता के हाथ आ द स च जल से आ , स न ध या
स च म आ द से असंसृ तो नह ह, क तु जो पदाथ दे ना है, उसी से हाथ आ द संसृ ह तो ऐसे हाथ या बतन
आ द से दया गया अशना द आहार ासुक एवं एषणीय मानकर ा त होने पर हण कर सकता है(अथवा) य द वह
भ ु यह जाने क दाता के हाथ आ द स च जल, म आ द से संसृ नह ह, क तु जो पदाथ दे ना है, उसी से
संसृ ह, तो ऐसे हाथ या बतन आ द से दया गया आहार ासुक एवं एषणीय समझ-कर ा त होने पर हण करे ।
सू - ३६८
गृह के घर म आहार के लए व साधु-सा वी को यह ात हो जाए क शा ल-धान, जौ, गे ँ आ द म
स च रज ब त है, गे ँ आ द अ न म भूँजे ए ह, क तु वे अधप व ह, गे ँ आ द के आटे म तथा कुटे ए धान म भी
अख ड दाने ह, कण-स हत चावल के ल बे दाने सफ एक बार भुने ए या कुटे ए ह, अतः असंयमी गृह भ ु के
उ े य से स च शला पर, स च म के ढे ले पर, घुन लगे ए ल कड पर, या द मक लगे ए जीवा- ध त पदाथ
पर, अ डे स हत, ाण-स हत या मकड़ी आ द के जाल स हत शला पर उ ह कूट चूका है, कूट रहा है या कूटे गा;
उसके प ात् वह उन– अनाज के दान को लेकर उपन चूका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस कार के चावल आ द
अ को अ ासुक और अनैषणीय जानकर साधु हण न करे ।
सू - ३६९
गृह के घर म आहाराथ व साधु-सा वी य द यह जाने क असंयमी गृह कसी व श खान म
अ ययन-२ – श येषणा
उ े शक-१
सू - ३९८
साधु या सा वी उपा य क गवेषणा करना चाहे तो ाम या नगर यावत् राजधानी म वेश करके साधु के
यो य उपा य का अ वेषण करते ए य द यह जाने क वह उपा य अंड से यावत् मकड़ी के जाल से यु है तो वैसे
उपा य म वह साधु या सा वी ान, श या और नषी धका न करे । वह साधु या सा वी जस उपा य को अंड
यावत् मकड़ी के जाले आ द से र हत जाने; वैसे उपा य का यतनापूवक तलेखन एवं माजन करके उसम
काय सग, सं तारक एवं वा याय करे ।
य द साधु ऐसा उपा य जाने, जो क इसी त ा से ाणी, भूत, जीव और स व का समार करके बनाया
गया है, उसीके उ े य से खरीदा गया है, उधार लया गया है, नबल से छ ना गया है, उसके वामी क अनुम त के
बना लया गया है, तो ऐसा उपा य; चाहे वह पु षा तरकृत हो या अपु षा तरकृत यावत् वामी ारा आसे वत हो
या अनासे वत, उसम कायो सग, श या-सं तारक या वा याय न करे । वैसे ही ब त-से साध मक साधु , एक
साध मणी सा वी, ब त-सी साध मणी सा वीय के उ े य से बनाये ए आ द उपा य म कायो स-गा द का नषेध
समझना चा हए ।
वह साधु या सा वी य द ऐसा उपा य जाने, जो ब त-से मण , ा ण , अ त थय , द र एवं भखा रय
के उ े य से ाणी आ द का समार करके बनाया गया है, वह अपु षा तरकृत आ द हो, तो ऐसे उपा य म
कायो सग आ द न करे ।
वह साधु या सा वी य द ऐसा उपा य जाने; जो क ब त-से मण , ा ण , अ त थय , द र एवं
भखमंग के खास उ े य से बनाया तथा खरीदा आ द गया है, ऐसा उपा य अपु षा तरकृत आ द हो, अनासे वत
हो तो, ऐसे उपा य म कायो सगा द न करे ।
इसके वपरीत य द ऐसा उपा य जाने, जो मणा द को गन- गन कर या उनके उ े य से बनाया आ द
गया हो, क तु वह पु षा तरकृत है, उसके मा लक ारा अ धकृत है, प रभु तथा आसे वत है तो उसका त-
लेखन तथा माजन करके उसम यतनापूवक कायो सग, श या या वा याय करे ।
वह भ ु या भ ुणी य द ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह ने साधु के न म बनाया है, का ा द
लगा कर सं कृत कया है, बाँस आ द से बाँधा है, घास आ द से आ ा दत कया है, गोबर आ द से लीपा है, संवारा
है, घसा है, चकना कया है, या ऊबड़खाबड़ ान को समतल बनाया है, सुग त से सुवा सत कया है, ऐसा
उपा य य द अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो उनम कायो सग, श यासं तारक और वा याय न करे । य द
वह यह जान जाए क ऐसा उपा य पु षा तरकृत यावत् आसे वत है तो तलेखन एवं माजन करके यतनापूवक
उसम ान आ द या करे ।
सू - ३९९
वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह ने साधु के लए जसके छोटे ार को बड़ा
बनाया है, जैसे प डैषणा अ ययन म बताया गया है, यहाँ तक क उपा य के अ दर और बाहर ही ह रयाली ऊखाड़-
ऊखाड़ कर, काट-काट कर वहाँ सं तारक बछाया गया है, अथवा कोई पदाथ उसम से बाहर नीकाले गए ह, वैसा
उपा य य द अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो वहाँ कायो सगा द याएं न कर ।
य द वह यह जाने क ऐसा उपा य पु षा तरकृत है, यावत् आसे वत है तो उसका तलेखन एवं माजन
करके यतनापूवक ान आ द करे ।
वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह , साधु के न म से पानी से उ प ए क द,
मूल, प , फूल या फल को एक ान से सरे ान म ले जा रहा है, भीतर से क द आ द पदाथ को बाहर
अ ययन-३ – ईया
उ े शक-१
सू - ४४५
वषाकाल आ जाने पर वषा हो जाने से ब त-से ाणी उ प हो जाते ह, ब त-से बीज अंकु रत हो जाते ह,
माग म ब त-से ाणी, ब त-से बीज उ प हो जाते ह, ब त ह रयाली हो जाती है, ओस और पानी ब त ान म
भर जाते ह, पाँच वण क काई, लीलण-फूलण आ द हो जाती है, ब त-से ान म क चड़ या पानी से म गीली हो
जाती है, क जगह मकड़ी के जाले हो जाते ह । वषा के कारण माग क जाते ह, माग पर चला नह जा सकता ।
इस त को जानकर साधु को (वषाकाल म) एक ाम से सरे ाम वहार नह करना चा हए। अ पतु वषाकाल म
यथावसर ा त वस त म ही संयत रहकर वषावास तीत करना चा हए ।
सू - ४४६
वषावास करने वाले साधु या सा वी को उस ाम, नगर, खेड़, कबट, मड ब, प ण, ोणमुख, आकर, नगम,
आ म, स वेश या राजधानी क त भलीभाँ त जान लेनी चा हए । जस ाम, नगर यावत् राजधानी म एका त
म वा याय करने के लए वशाल भू म न हो, मलमू याग के लए यो य वशाल भू म न हो, पीठ, फलक, श या एवं
सं तारक क ा त भी सुलभ न हो, और न ासुक, नद ष एवं एषणीय आहार-पानी ही सुलभ हो, जहाँ ब त-से
मण, ा ण, अ त थ, द र और भखारी लोग आए ए ह , और भी सरे आने वाले ह , जससे सभी माग म
भीड़ हो, साधु-सा वी को भ ाटन, वा याय, शौच आ द आव यक काय से अपने ान से सुखपूवक नीकलना
और वेश करना भी क ठन हो, वा याय आ द या भी न प व न हो सकती हो, ऐसे ाम, नगर आ द म
वषाकाल ारंभ हो जाने पर भी साधु-सा वी वषावास तीत न करे ।
वषावास करने वाला साधु या सा वी य द ाम यावत् राजधानी के स ब म यह जाने क इस ाम यावत्
राजधानी म वा याय-यो य वशाल भू म है, मल-मू - वसजन के लए वशाल डलभू म है, यहाँ पीठ, फलक,
श या एवं सं तारक क ा त भी सुलभ है, साथ ही ासुक, नद ष एवं एषणीय आहार-पानी भी सुलभ है, यहाँ
ब त-से मण- ा ण आ द आये ए नह ह और न आएंग,े यहाँ के माग पर जनता क भीड़ भी इतनी नह है,
जससे क साधु-सा वी को भ ाटन, वा याय, शौच आ द आव यक काय के लए अपने ान से नीकलना और
वेश करना क ठन हो, वा याया द या भी न प व हो सके, तो ऐसे ाम यावत् राजधानी म साधु या सा वी
संयमपूवक वषावास तीत करे ।
सू - ४४७
साधु या सा वी यह जाने क वषाकाल तीत हो चूका है, अतः वृ न हो तो चातुमा सक काल समा त होते
ही अ य वहार कर दे ना चा हए । य द का तक मास म वृ हो जाने से माग आवागमन के यो य न रहे तो हेम त
ऋतु के पाँच या दस दन तीत हो जाने पर वहाँ से वहार करना चा हए । य द माग बीच-बीच मे अंडे, बीज,
ह रयाली, यावत् मकड़ी के जाल से यु हो, अथवा वहाँ ब त-से मण- ा ण आ द आए ए न ह , न ही आने
वाले ह , तो यह जानकर साधु ामानु ाम वहार न करे ।
य द साधु या सा वी यह जाने क वषाकाल के चार मास तीत हो चूके ह, और वृ हो जाने से मु न को
हेम त ऋतु के पाँच अथवा दश दन तक वह रहने के प ात् अब माग ठ क हो गए ह, बीच-बीच म अब अ डे यावत्
मकड़ी के जाले आ द नह ह, ब त-से मण- ा ण आ द भी उन माग पर आने-जाने लगे ह, या आने वाले भी ह,
तो यह जानकर साधु यतनापूवक ामानु ाम वहार कर सकता है ।
सू - ४४८
साधु या सा वी एक ाम से सरे ाम वहार करते ए अपने सामने क युगमा भू म को दे खते ए चले
और माग म सजीव को दे खे तो पैर के अ भाग को उठाकर चले । य द दोन ओर जीव ह तो पैर को सकोड़ कर
अ ययन-४ – भाषाजात
उ े शक-१
सू - ४६६
संयमशील साधु या सा वी इन वचन (भाषा) के आचार को सूनकर, दयंगम करके, पूव-मु नय ारा
अनाच रत भाषा-स ब ी अनाचार को जाने । जो ोध से वाणी का योग करते ह, जो अ भमानपूवक, जो छल-
कपट स हत, अथवा जो लोभ से े रत होकर वाणी का योग करते ह, जानबूझकर कठोर बोलते ह, या अनजाने म
कठोर वचन कह दे ते ह– ये सब भाषाएं साव ह, साधु के लए वजनीय ह । ववेक अपनाकर साधु इस कार क
साव एवं अनाचरणीय भाषा का याग करे । वह साधु या सा वी ुव भाषा को जानकर उसका याग करे, अ ुव
भाषा को भी जानकर उसका याग करे । ‘ वह अशना द आहार लेकर ही आएगा, या आहार लए बना ही आएगा,
वह आहार करके ही आएगा, या आहार कये बना ही जाएगा, अथवा वह अव य आया था या नह आया था, वह
आता है, अथवा नह आता है, वह अव य आएगा, अथवा नह आएगा; वह यहाँ भी आया था, अथवा वह यहाँ नह
आया था; वह यहाँ अव य आता है, अथवा कभी नह आता, अथवा वह यहाँ अव य आएगा या कभी नह आएगा ।
संयमी साधु या सा वी वचारपूवक भाषा स म त से यु न तभाषी एवं संयत होकर भाषा का योग करे
जैसे क यह १६ कार के वचन ह– एकवचन, वचन, ब वचन, ी लग-कथन, पु लंग-कथन, नपुंसक- लगकथन,
अ या म-कथन, उपनीत-कथन, अपनीत-कथन, अपनीताऽपनीत-कथन, अपनीतोपनीत-कथन, अतीतवचन,
वतमानवचन, अनागत वचन, य वचन और परो वचन ।
य द उसे ‘ एकवचन’ बोलना हो तो वह एकवचन ही बोले, यावत् परो वचन पय त जस कसी वचन को
बोलना हो, तो उसी वचन का योग करे । जैसे– यह ी है, यह पु ष है, यह नपुंसक है, यह वही है या यह कोई अ य
है, इस कार वचारपूवक न य हो जाए, तभी न यभाषी हो तथा भाषा-स म त से यु होकर संयत भाषाम बोले
इन पूव भाषागत दोष- ान का अ त मण करके (भाषा योग करना चा हए) । साधु को भाषा के चार
कार को जान लेना चा हए । स या, मृषा, स यामृषा और अस यामृषा( वहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है ।
जो म यह कहता ँ उसे– भूतकाल म जतने भी तीथकर भगवान हो चूके ह, वतमान म जो भी तीथकर
भगवान ह और भ व य म जो भी तीथकर भगवान ह गे, उन सबने इ ह चार कार क भाषा का तपादन कया
है, तपादन करते ह और तपादन करगे अथवा उ ह ने पण कया है, पण करते ह और पण करगे ।
तथा यह भी उ ह ने तपादन कया है क ये सब भाषा अ च ह, वण, ग , रस और श वाले ह, तथा चय-
उपचय वाले एवं व वध कार के प रणमन धम वाले ह ।
सू - ४६७
संयमशील साधु-सा वी को भाषा के स ब म यह भी जान लेना चा हए क बोलने से पूव भाषा अभाषा
होती है, बोलते समय भाषा भाषा कहलाती है और बोलने के प ात् बोली ई भाषा अभाषा हो जाती है ।
जो भाषा स या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा स यामृषा है अथवा जो भाषा अस यामृषा है, इन चार
भाषा म से (केवल स या और अस यामृषा का योग ही आचरणीय है ।) उसम भी य द स यभाषा साव ,
अनथद ड यायु , ककश, कटु क, न ु र, कठोर, कम क आ वका रणी तथा छे दनकारी, भेदनकारी, प रता-
पका रणी, उप वका रणी एवं ा णय का वघात करने वाली हो तो वचारशील साधु को मन से वचार करके ऐसी
स यभाषा का भी योग नह करना चा हए । जो भाषा सू म स य स हो तथा जो अस यामृषा भाषा हो, साथ ही
असाव , अ य यावत् जीव के लए अघातक हो तो संयमशील साधु मन से पहले पयालोचन करके इ ह दोन
भाषा का योग करे ।
सू - ४६८
साधु या सा वी कसी पु ष को आमं त कर रहे ह और आमं त करने पर भी वह न सूने तो उसे इस
अ ययन-५ – व ैषणा
उ े शक-१
सू - ४७५
साधु या सा वी व क गवेषणा करना चाहते ह, तो उ ह व के स ब म जानना चा हए । वे इस कार
ह– जांग मक, भां गक, सा नक, पो क, लो मक और तूलकृत । तथा इसी कार के अ य व को भी मु न हण कर
सकता है । जो न मु न त ण है, समय के उप व से र हत है, बलवान, रोगर हत और र संहनन है, वह एक ही
व धारण करे, सरा नह । जो सा वी है, वह चार संघा टका धारण करे– उसम एक, दो हाथ माण व तृत, दो तीन
हाथ माण और एक चार हाथ माण ल बी होनी चा हए । इस कार के व के न मलने पर वह एक व को
सरे के साथ सले ।
सू - ४७६
साधु-सा वी को व - हण करने के लए आधे योजन से आगे जाने का वचार करना नह चा हए ।
सू - ४७७
साधु या सा वी को य द व के स ब म ात हो जाए क कोई भावुक गृह धन के मम व से र हत
न साधु को दे ने क त ा करके कसी एक साध मक साधु का उ े य रखकर ाणी, भूत, जीव और स व का
समार करके यावत् ( प डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मलने पर भी न ले ।
तथा प डैषणा अ ययन म जैसे ब त-से साध मक साधु, एक साध मणी सा वी, ब त-सी साध मणी
सा वीयाँ, एवं ब त-से शा या द मण- ा ण आ द को गन- गन कर तथा ब त-से शा या द मण- ा णा द का
उ े य रखकर जैसे त आ द तथा पु षा तरकृत आ द वशेषण से यु आहार हण का नषेध कया गया है,
उसी कार यहाँ सारा वणन समझ लेना ।
सू - ४७८
साधु या सा वी य द कसी व के वषय म यह जान जाए क असंयमी गृह ने साधु के न म से उसे
खरीदा है, धोया है, रंगा है, घस कर साफ कया है, चकना या मुलायम बनाया है, सं का रत कया है, सुवा सत कया
है और ऐसा वह व अभी पु षा तरकृत यावत् दाता ारा आसे वत नह आ है, तो हण न करे । य द साधु या
सा वी यह जान जाए क वह व पु षा तरकृत यावत् आसे वत है तो मलने पर हण कर सकता है ।
सू - ४७९
साधु-सा वी य द ऐसे नाना कार के व को जाने, जो क महाधन से ा त होने वाले व ह, जैसे क–
आ जनक, ण, ण क याण, आजक, कायक, ौ मक कूल, प रेशम के व , मलयज के सूते से बने व ,
व कल त तु से न मत व , अंशक, चीनांशुक, दे शराग, अ मल, गजल, टक तथा अ य इसी कार के
ब मू य व ा त होने पर भी वचारशील साधु उ ह हण न करे । साधु या सा वी य द चम से न प ओढ़ने के
व जाने जैसे क औ , पेष, पेषलेश, वणरस म लपटे व , सोने कही का त वाले व , सोने के रस क प याँ
दये ए व , सोने के पु प गु से अं कत, सोने के तार से ज टत और वण च का से शत, ा चम,
चीते का चम, आभरण से म डत, आभरण से च त ये तथा अ य इसी कार के चम- न प व ा त होने पर
भी हण न करे ।
सू - ४८०
इन दोष के आयतन को छोड़कर चार तमा से व ैषणा करनी चा हए । पहली तमा– वह साधु या
सा वी मन म पहले संक प कये ए व क याचना करे, जैसे क– जांग मक, भां गक, सानज, पो क, ौ मक या
तूल न मत व , उस कार के व क वयं याचना करे अथवा गृह वयं दे तो ासुक और एषणीय होने पर
हण करे ।
अ ययन-६ – पा ैषणा
उ े शक-१
सू - ४८६
संयमशील साधु या सा वी य द पा हण करना चाहे तो जन पा को जाने वे इस कार ह– तु बे का पा ,
लकड़ी का पा और म का पा । इन तीन कार के पा को साधु हण कर सकता है । जो न त णब ल
व और र-सहन वाला है, वह इस कार का एक ही पा रखे, सरा नह । वह साधु, सा वी अ योजन के
उपरांत पा लेने के लए जाने का मन म वचार न करे ।
साधु या सा वी को य द पा के स ब म यह ात हो जाए क कसी भावुक गृह ने धन के स ब से
र हत न साधु को दे ने क त ा ( वचार) करके कसी एक साध मक साधु के उ े य से समार करके पा
बनवाया है, यावत् ( प डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मलने पर भी न ले । जैसे यह सू एक साध मक साधु के
लए है, वैसे ही अनेक साध मक साधु , एक साध मणी सा वी एवं अनेक साध मणी सा वीय के स ब म शेष
तीन आलापक समझ लेने चा हए । और पाँचवा आलापक ( प डैषणा अ ययन म) जैसे ब त से शा या द मण,
ा ण आ द को गन गन कर दे ने के स ब म है, वैसे ही यहाँ भी समझ लेना चा हए ।
य द साधु-सा वी यह जाने के असंयमी गृह ने भ ु को दे ने क त ा करके ब त-से शा या द मण,
ा ण, आ द के उ े य से पा बनाया है उसका भी शेष वणन व ैषणा के आलापक के समान समझ लेना चा हए
साधु या सा वी य द यह जाने क नाना कार के महामू यवान पा ह, जैसे क लोहे के पा , रांगे के पा ,
तांबे के पा , सीसे के पा , चाँद के पा , सोने के पा , पीतल के पा , हारपुट धातु के पा , म ण, काँच और कांसे के
पा , शंख और स ग के पा , दाँत के पा , व के पा , प थर के पा , या चमड़े के पा , सरे भी इसी तरह के नाना
कार के महा-मू यवान पा को अ ासुक और अनैषणीय जानकर हण न करे ।
साधु या सा वी फर भी उन पा को जाने, जो नाना कार के महामू यवान ब न वाले ह, जैसे क वे लोहे
के ब न ह, यावत् चम-बंधन वाले ह, अथवा अ य इसी कार के महामू यवान ब न वाले ह, तो उ ह अ ासुक और
अनैषणीय जानकर हण न करे ।
इन पूव दोष के आयतन का प र याग करके पा हण करना चा हए ।
साधु को चार तमा पूवक पा ैषणा करनी चा हए । पहली तमा यह है क साधु या सा वी क पनीय पा
का नामो लेख करके उसक याचना करे, जैसे क तू बे का पा , या लकड़ी का पा या म का पा ; उस कार के
पा क वयं याचना करे, या फर वह वयं दे और वह ासुक और एषणीय हो तो ा त होने पर उसे हण करे ।
सरी तमा है– वह साधु या सा वी पा को दे खकर उनक याचना करे, जैसे क गृहप त यावत् कम-
चा रणी से । वह पा दे खकर पहले ही उसे कहे– या मुझे इनम से एक पा दोगे ? जैसे क तू बा, का या म का
पा । इस कार के पा क याचना करे, या गृह दे तो उसे ासुक एवं एषणीय जानकर ा त होने पर हण करे ।
तीसरी तमा इस कार है– वह साधु या सा वी य द ऐसा पा जाने क वह गृह के ारा उपभु है
अथवा उसम भोजन कया जा रहा है, ऐसे पा क पूववत् याचना करे अथवा वह गृह दे दे तो उसे ासुक एवं
एषणीय जानकर मलने पर हण करे ।
चौथी तमा यह है– वह साधु या सा वी कस उ झतधा मक पा क याचना करे, जसे अ य ब त-से
शा य भ ु, ा ण यावत् भखारी तक भी नह चाहते, उस कार के पा क पूववत् वयं याचना करे, अथवा वह
गृह वयं दे तो ासुक एवं एषणीय जानकर मलने पर हण करे । इन चार तमा म से कसी एक तमा का
हण...जैसे प डैषणा-अ ययन म वणन है, उसी कार जाने ।
साधु को इसके ारा पा -गवेषणा करते दे खकर य द कोई गृह कहे क ‘ ‘ अभी तो तुम जाओ, तुम एक
मास यावत् कल या परस तक आना. . .’ ’ शेष सारा वणन व ैषणा समान जानना । इसी कार य द कोई गृह कहे
अ ययन-७ – अव ह तमा
उ े शक-१
सू - ४८९
मु नद ा लेते समय साधु त ा करता है– ‘ ‘ अब म मण बन जाऊंगा । अनगार, अ कचन, अपु , अपशु,
एवं परद भोजी होकर म अब कोई भी हसा द पापकम नह क ँ गा ।’ ’ इस कार संयम पालन के लए उ त
होकर (कहता है– ) ‘ भ ते ! म आज सम त कार के अद ादान का या यान करता ँ ।’
वह साधु ाम यावत् राजधानी म व होकर वयं बना दये ए पदाथ को हण न करे, न सर से हण
कराए और न अद हण करने वाले का अनुमोदन-समथन करे ।
जन साधु के साथ या जनके पास वह जत आ है, या वचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी
छ क, दं ड, पा क यावत् चम े दनक आ द उपकरण क पहले उनसे अव ह-अनु ा लये बना तथा तलेखन -
माजन कये बना एक या अनेक बार हण न करे । अ पतु उनसे पहले अव ह-अनु ा लेकर, प ात् उसका
तलेखन- माजन करके फर संयमपूवक उस व तु को एक या अनेक बार हण करे ।
सू - ४९०
साधु प थकशाला , आरामगृह , गृह के घर और प र ाजक के आवास म जाकर पहले साधु के
आवास यो य े भलीभाँ त दे ख-सोचकर अव ह क याचना करे । उस े या ान का जो वामी हो, या जो वहाँ
का अ ध ाता हो उससे इस कार अव ह क अनु ा माँगे ‘ ‘ आपक ई ानुसार– जतने समय तक रहने क तथा
जतने े म नवास करने क तुम आ ा दोगे, उतने समय तक, उतने े म हम नवास करगे । यहाँ जतने समय
तक आप क अनु ा है, उतनी अव ध तक जतने भी अ य साधु आएंगे, उनके लए भी जतने े -काल क
अव हानु ा हण करगे वे भी उतने ही समय तक उतने ही े म ठहरगे, प ात् वे और हम वहार कर दगे ।
अव ह के अनु ापूवक हण कर लेने पर फर वह साधु या करे ? वहाँ कोई साध मक, सा ो गक एवं
समनो साधु अ त थ प म आ जाए तो वह साधु वयं अपने ारा गवेषणा करके लाये ए अशना द चतु वध
आहार को उन साध मक, सांभो गक एवं समनो साधु को उप नमं त करे, क तु अ य साधु ारा या अ य
णा द साधु के लए लाये आहारा द को लेकर उ ह उप नमं त न करे ।
सू - ४९१
प थकशाला आ द अव ह को अनु ापूवक हण कर लेने पर, फर वह साधु या करे ? य द वहाँ अ य
सा ो गक, साध मक एवं समनो साधु अ त थ प म आ जाए तो जो वयं गवेषणा करके लाए ए पीठ, फलक,
श यासं तारक आ द ह , उ ह उन व तु के लए आमं त कर, क तु जो सरे के ारा या णा द अ य साधु के
लए लाये ए पीठ, फलक आ द ह , उनके लए आमं त न करे ।
उस धमशाला आ द को अव हपूवक हण कर लेने के बाद साधु या करे ? जो वहाँ आसपास म गृह या
गृह के पु आ द ह, उनसे कायवश सूई, कची, कानकुरेदनी, नहरनी-आ द अपने वयं के लए कोई साधु
ा तहा रक प से याचना करके लाया हो तो वह उन चीज को पर र एक सरे साधु को न दे -ले । अथवा वह सरे
साधु को वे चीज न स पे । उन व तु का यथायो य काय हो जाने पर वह उन ा तहा रक चीज को लेकर उस
गृह के यहाँ जाए और ल बा हाथ करके उन चीज को भू म पर रखकर गृह से कहे– यह तु हारा अमुक पदाथ है,
यह अमुक है, इसे संभाल लो, दे ख लो । पर तु उन सूई आ द व तु को साधु अपने हाथ से गृह के हाथ पर रख
कर न स पे ।
सू - ४९२
साधु या सा वी य द ऐसे अव ह को जाने, जो स च , न ध पृ वी यावत्, जीव-ज तु आ द से यु हो, तो
इस कार के ान क अव ह-अनु ा एक बार या अनेक बार हण न करे । साधु या सा वी य द ऐसे अव ह को
[चू लका– २]
अ ययन-८ (१) – ानस तका
सू - ४९७
साधु या सा वी य द कसी ान म ठहरना चाहे तो तो वह पहले ाम, नगर यावत् स वेश म प च
ँ े । वहाँ
प च
ँ कर वह जस ान को जाने क यह अंड यावत् मकड़ी के जाल से यु है, तो उस कार के ान को
अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे । इसी कार यहाँ से उदक सूत कंदा द तक का
ानैषणा स ब ी वणन श यैषणा म न पत वणन के समान जान लेना ।
इन पूव तथा व यमाण कम पादान प दोष ान को छोड़कर साधु इन (आगे कही जाने वाली) चार
तमा का आ य लेकर कसी ान म ठहरने क ई ा करे–
थम तमा है– म अपने कायो सग के समय अ च ान म नवास क ँ गा, अ च द वार आ द का शरीर
से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आ द सकोड़ने-फैलाने के लए प र दन आ द क ँ गा, तथा वह थोड़ा-सा स वचार
पैर आ द से वचरण क ँ गा ।
सरी तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म र ँगा और अ च द वार आ द का शरीर से सहारा
लूँगा तथा हाथ-पैर आ द सकोड़ने-फैलाने के लए प र दन आ द क ँ गा, क तु पैर आ द से थोड़ा-सा भी
वचरण नह क ँ गा ।
तृतीय तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म र ँगा, अ च द वार आ द का शरीर से सहारा लूँगा,
क तु हाथ-पैर आ द का संकोचन- सारण एवं पैर से मया दत भू म म जरा-सा भी मण नह क ँ गा ।
चौथी तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म त र ँगा । उस समय न तो शरीर से द वार आ द
का सहारा लूँगा, न हाथ-पैर आ द का संकोचन- सारण क ँ गा और न ही पैर से मया दत भू म म जरा-सा भी मण
क ँ गा । म कायो सग पूण होने तक अपने शरीर के त भी मम व का ु सग करता ँ । केश, दाढ़ , मूँछ, रोम और
नख आ द के त भी मम व वसजन करता ँ और कायो सग ारा स यक् कार से काया का नरोध करके इस
ान म त र ँगा ।
साधु इन चार तमा से कसी एक तमा को हण करके वचरण करे । पर तु तमा हण न करने
वाले अ य मु न क नदा न करे, न अपनी उ कृ ता क ड ग हाँके । इस कार क कोई भी बात न कहे ।
अ ययन-११ – श दस तका-४
सू - ५०२
साधु या सा वी मृदंगश द, नंद श द या झलरी के श द तथा इसी कार के अ य वतत श द को कान से
सूनने के उ े य से कह भी जाने का मन म संक प न करे । साधु या सा वी क श द को सूनते ह, जैसे क वीणा के
श द, वपंची के श द, ब सक के श द, तूनक के श द या ढोल के श द, तु बवीणा के श द, ढं कुण के श द, या इसी
कार के तत-श द, क तु उ ह कान से सूनने के लए कह भी जाने का वचार न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क ताल के श द, कंसताल के श द, ल तका के श द,
गो धका के श द या बाँस क छड़ी से बजने वाले श द, इसी कार के अ य अनेक तरह के तालश द को कान से
सूनने क से कसी ान म जाने का मन म संक प न करे । साधु-सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क
शंख के श द, वेणु के श द, बाँस के श द, खरमुही के श द, बाँस आ द क नली के श द या इसी कार के अ य
शु षर श द, क तु उ ह कान से वण करने के योजन से कसी ान म जाने का संक प न करे ।
सू - ५०३
वह साधु या सा वी क कार के श द वण करते ह, जैसे क– खेत क या रय म तथा खाईय म होने
वाले श द यावत् सरोवर म, समु म, सरोवर क पं य या सरोवर के बाद सरोवर क पं य के श द, अ य इसी
कार के व वध श द, क तु उ ह कान से वण करने के लए जाने के लए मन म संक प न करे ।
साधु या सा वी क तपय श द को सूनते ह, जैसे क नद तट य जलब ल दे श (क ) म, भू मगृह या
ान म, वृ म, सघन एवं गहन दे श म, वन म, वन के गम दे श म, पवत या पवतीय ग म तथा
इसी कार के अ य दे श म, क तु उन श द को कान से वण करने के उ े य से गमन करने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द वण करते ह, जैस–े गाँव म, नगर म, नगम म, राजधानी म, आ म,
प न और स वेश म या अ य इसी कार के नाना प म होने वाले श द क तु साधु-सा वी उ ह सूनने क
लालसा से न जाए ।
साधु या सा वी के कान म क कार के श द पड़ते ह, जैसे क– आरामगार म, उ ान म, वन म, वन-
ख ड म, दे वकुल म, सभा म, याऊ म, या अ य इसी कार के ान म, क तु इन श द को सूनने क
उ सुकता से जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– अटा रय म, ाकार से स ब अ ालय म, नगर के
म यम त राजमाग म; ार म या नगर- ार तथा इसी कार के अ य ान म, क तु इन श द को सूनने के
हेतु कसी भी ान म जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– तराह पर, चौको म, चौराह पर, चतुमुख माग म तथा
इसी कार के अ य ान म, पर तु इन श द को वण करने के लए कह भी जाने का संक प न करे । साधु या
सा वी क कार के श द वण करते ह, जैसे क– भस के ान, वृषभशाला, घुड़साल, ह तशाला यावत् क पजल
प ी आ द के रहने के ान म होने वाले श द या इसी कार के अ य श द को, क तु उ ह वण करने हेतु कह
जाने का मन म वचार न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– जहाँ भस के यु , साँड़ के यु , अ यु , यावत्
क पजल-यु होते ह तथा अ य इसी कार के पशु-प य के लड़ने से या लड़ने के ान म होने वाले श द, उनको
सूनने हेतु जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी के कान म क कार के श द पड़ते ह, जैसे क– वर-वधू युगल आ द के मलने के ान म
या वरवधू-वणन कया जाता है, ऐसे ान म, अ युगल ान म, ह तयुगल ान म तथा इसी कार के अ य
कुतूहल एवं मनोरंजक ान म, क तु ऐसे -गेया द श द सूनने क उ सुकता से जाने का संक प न करे।
अ ययन-१२ – प स तका-(५)
सू - ५०५
साधु या सा वी अनेक कार के प को दे खते ह, जैसे– गूँथे ए पु प से न प , व ा द से वे त या
न प पुतली आ द को, जनके अ दर कुछ पदाथ भरने से आकृ त बन जाती हो, उ ह, संघात से न मत चोलका-
दक , का कम से न मत, पु तकम से न मत, च कम से न मत, व वध म णकम से न मत, दं तकम से न मत,
प छे दन कम से न मत, अथवा अ य व वध कार के वे न से न प ए पदाथ को तथा इसी कार के अ य
नाना पदाथ के प को, क तु इनम से कसी को आँख से दे खने क ई ा से साधु या सा वी उस ओर जाने का
मन म वचार न करे ।
इस कार जैसे श द स ब ी तमा का वणन कया गया है, वैसे ही यहाँ चतु वध आतो वा को छोड़कर
प तमा के वषय म भी जानना चा हए ।
अ ययन-१३ – पर या स तका-६
सू - ५०६
पर (गृह के ारा) आ या मक मु न के ारा काय ापार पी या (सां े षणी) कमब न जननी है,
(अतः) मु न उसे मन से भी न चाहे, न उसके लए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह धम- ावश मु न के चरण को व ा द से थोड़ा-सा प छे अथवा बार-बार प छ कर,
साधु उस पर या को मन से न चाहे तथा वचन और काया से भी न कराए ।
कदा चत् कोई गृह मु न के चरण को स मदन करे या दबाए तथा बार-बार मदन करे या दबाए, य द कोई
गृह साधु के चरण को फूँक मारने हेतु श करे, तथा रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से
कराए ।
य द कोई गृह साधु के चरण को तेल, घी या चब से चुपड़े, मसले तथा मा लश करे तो साधु उसे मन से
भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के चरण को लोध, कक, चूण या वण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु
मन से भी उसम रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के चरण को ासुक शीतल जल से या उ ण जल से ालन करे अथवा अ
तरह से धोए तो मु न उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए । य द कोई गृह साधु के पैर का इसी कार
के क ह वलेपन से एक बार या बार-बार आलेपन- वलेपन करे तो साधु उसम मन से भी च न ले, न ही
वचन और शरीर से उसे कराए ।
य द कोई गृह साधु के पैर म लगे ए खूँटे या काँटे आ द को नीकाले या उसे शु करे तो साधु उसे मन से
भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए ।
य द कोई गृह साधु के पैर म लगे र और मवाद को नीकाले या उसे नीकाल कर शु करे तो साधु उसे
मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर को एक या बार-बार प छकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न
वचन और काया से कराए ।
मु न के शरीर को दबाए तथा मदन करे, तो साधु उसे मन से भी न चाहे न वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर पर तेल, घी आ द चुपड़े, मसले या मा लश करे तो साधु न तो उसे मन से ही
चाहे, न वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर पर लोध, कक, चूण या वण का उबटन करे, लेपन करे तो साधु न तो उसे मन
से ही चाहे और न वचन और काया से कराए ।
साधु के शरीर को ासुक शीतल जल से या उ ण जल से ालन करे या अ तरह धोए तो साधु न तो
उसे मन से चाहे और न वचन और काया से कराए ।
साधु के शरीर पर कसी कार के व श वलेपन का एक बार लेप करे या बार-बार लेप करे तो साधु न तो
उसे मन से चाहे और न उसे वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर को कसी कार के धूप से धू पत करे या धू पत करे तो साधु न तो उसे मन
से चाहे और न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए ण को एक बार प छे या बार-बार अ तरह से प छकर
साफ करे तो साधु उसे मन से न चाहे न वचन और काया से उसे कराए । कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए
ण को दबाए या अ तरह मदन करे तो साधु उसे मन से न चाहे न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के शरीर म ए ण के ऊपर तेल, घी या वसा चुपड़े मसले, लगाए या मदन करे
[चू लका– ३]
अ ययन-१५ – भावना
सू - ५०९
उस काल और उस समय म मण भगवान महावीर के पाँच क याणक उ राफा गुनी न म ए।
भगवान का उ राफा गुनी न म दे वलोक से यवन आ, यवकर वे गभ म उ प ए । उ राफा गुनी न म
गभ से गभा तर म संहरण कये गए । उ राफा गुनी न म भगवान का ज म आ । उ राफा गुनी न म ही
मु डत होकर आगार यागकर अनगार-धम म जत ए । उ राफा गुनी न म भगवान को स ण
ू - तपूण,
न ाघात, नरावरण, अन त और अनु र वर केवल ान केवलदशन समु प आ । वा त न म भगवान
प र नवाण को ा त ए ।
सू - ५१०
मण भगवान महावीर ने इस अवस पणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम-
षम आरक के तीत होने पर तथा षम-सुषम नामक आरक के अ धकांश तीत हो जाने पर और जब केवल
७५ वष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ी म ऋतु के चौथे मास, आठवे प , आषाढ़ शु ला ष ी क रा को;
उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग होने पर महा वजय स ाथ पु पो रवर पु डरीक, दक् व तक
व मान महा वमान से बीस सागरोपम क आयु पूण करके दे वायु, दे वभव और दे व त को समा त करके वहाँ से
यवन कया । यवन करके इस ज बू प म भारतवष के द णा , भारत के द ण- ा णकु डपुर स वेश म
कुडालगो ीय ऋषभद ा ण क जालंधर गो ीया दे वान दा नाम क ा णी क कु म सह क तरह गभ म
अवत रत ए ।
मण भगवान महावीर तीन ान से यु थे । वे यह जानते थे क म वग से यवकर मनु यलोक म जाऊंगा । म
वहाँ से यवकर गभ म आया ,ँ पर तु वे यवन समय को नह जानते थे, य क वह काल अ य त सू म होता है ।
दे वान दा ा णी के गभ म आने के बाद मण भगवान महावीर के हीत और अनुक ा से े रत होकर
‘ यह जीत आचार है’ , यह कहकर वषाकाल के तीसरे मास, पंचम प अथात्– आ न कृ णा योदशी के दन
उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग होने पर, ८२ वी रा दन के तीत होने पर और ८२ वे दन क रात
को द ण ा णकु डपुर स वेश से उ र यकु डपुर स वेश म ातवंशीय य म स का यप गो ीय
स ाथ राजा क वा श गो ीय प नी शला के अशुभ पुदग
् ल को हटाकर उनके ान पर शुभ पुदग
् ल का
ेपण करके उसक कु म गभ को ा पत कया और शाला का गभ लेकर द ण ा णकु डपुर स वेश म
कुडाल गो ीय ऋषभद ा ण क जालंधरगो ीया दे वान दा ा णी क कु म रखा ।
आयु मन् मण ! मण भगवान महावीर गभावासम तीन ानसे यु थे। म इस ान से संहरण कया
जाऊंगा, यह वे जानते थे, म सं त कया जा चूका ँ, यह भी जानते थे, यह भी जानते थे क मेरा संहरण हो रहा है ।
उस काल और उस समय म शला याणी ने अ यदा कसी समय नौ मास साढ़े सात अहोरा ायः पूण
तीत होने पर ी म ऋतु के थम मास के तय प म अथात् चै शु ला योदशी के दन उ राफा गुनी न
के साथ च मा का योग होने पर सुखपूवक ( मण भगवान महावीर को) ज म दया । जस रा को शला
याणीने सुखपूवक ज म दया, उसी रा म भवनप त, वाण तर, यो त क और वैमा नक दे व और दे वय के
वग से आने और मे पवत पर जाने– य ऊपर-नीचे आवागमन से एक महान् द दे वो ोत हो गया, दे व के एक
होने से लोकम एक हलचल मच गई, दे व के पर र हास प रहास के कारण सव कलकल नाद ा त हो गया ।
जस रा शला याणी ने व मण भगवान महावीर को सुखपूवक ज म दया, उस रा मब त
से दे व और दे वय ने एक बड़ी भारी अमृतवषा, सुग त पदाथ क वृ और सुवा सत चूण, पु प, चाँद और सोने
क वृ क ।
ज म के बाद मण भगवान महावीर का लालन-पालन पाँच धाय माता ारा होने लगा । जैसे क–
ीरधा ी, म नधा ी, मंडनधा ी, ड़ाधा ी, और अंकधा ी । वे इस कार एक गोद से सरी गोद म सं त होते
ए एवं म णम डत रमणीय आँगन म (खेलते ए) पवतीय गुफा म त च क वृ क तरह कुमार व मान
मशः सुखपूवक बढ़ने लगे ।
भगवान महावीर बा याव ा को पार कर युवाव ाम व ए । उनका प रणय स आ और वे
मनु य स ब ी उदार श द, प, रस, गंध और श से यु पाँच कार के कामभोग का उदासीनभाव से उपभोग
करते ए यागभाव पूवक वचरण करने लगे ।
सू - ५११
मण भगवान महावीर के पता का यप गो के थे । उनके तीन नाम कहे जाते ह, स ाथ, ेयांस और
यश वी । मण भगवान महावीर क माता वा श गो ीया थ । उनके तीन नाम कहे जाते ह– शला, वदे हद ा
और यका रणी । चाचा ‘ सुपा ’ थे, जो का यप गौ के थे । ये ाता न द व न थे, जो का यप गो ीय थे । बड़ी
बहन सुदशना थी, जो का यप गो क थी । प नी ‘ यशोदा’ थी, जो कौ ड य गो क थी । पु ी का यप गो क थी
उसके दो नाम इस कार कहे जाते ह, जैसे क– १. अनो ा, (अनव ा) और २. यदशना ।
मण भगवंत महावीर क दौ ह ी कौ शक गो क थी । उसके दो नाम इस कार कहे जाते ह, जैसे क– १.
शेषवती तथा २. यश वती ।
सू - ५१२
मण भगवान महावीर के माता पता पा नाथ भगवान के अनुयायी थे, दोन ावक-धम का पालन करने
वाले थे । उ ह ने ब त वष तक ावक-धम का पालन करके षड् जीव नकाय के संर ण के न म आलोचना,
आ म न दा, आ मगहा एवं पाप दोष का त मण करके, मूल और उ र गुण के यथायो य ाय वीकार
करके, कुश के सं तारक पर आ ढ़ होकर भ या यान नामक अनशन वीकार कया । आहार-पानी का
या यान करके अ तम मारणा तक संलेखना से शरीर को सूखा दया । फर कालधम का अवसर आने पर
आयु य पूण करके उस शरीर को छोड़कर अ युतक प नामक दे वलोक म दे व प म उ प ए। तदन तर दे व
स ब ी आयु, भव, (ज म) और त का य होने पर वहाँ से यव कर महा वदे ह े म चरम ासो ् वास ारा
स , बु , मु एवं प र नवृ ह गे और वे सब ःख का अ त करगे ।
चू लका– ४
अ ययन-१६ – वमु
सू - ५४१
संसार के सम त ाणी जन शरीर आ द म आ माएं आवास ा त करती ह, वे सब ान अ न य ह ।
सव े मौनी वचन म क थत यह वचन सूनकर गहराई से पयालोचन करे तथा सम त भय से मु बना आ
ववेक पु ष आगा रक बंधन का ु सग कर दे , एवं आर और प र ह का याग कर दे ।
सू - ५४२
उस तथाभूत अन त (एके या द जीव ) के त स यक् यतनावान अनुपसंयमी आगम व ान एवं
आगमानुसार एषणा करने वाले भ ु को दे खकर म या अस य वचन के तथा प थर आ द हार से उसी तरह
थत कर दे ते ह, जस तरह सं ाम म वीर यो ा, श ु के हाथी को बाण क वषा से थत कर दे ता है ।
सू - ५४३
असं कारी एवं अस य जन ारा क थत आ ोशयु श द तथा– े रत शीतो णा द श से पी ड़त
ानवान भ ु शा त च से सहन करे । जस कार वायु के बल वेग से भी पवत क ायमान नह होता, वैसे
मु न भी वच लत न हो ।
सू - ५४४
मा यम भाव का अवल बन करता आ वह मु न कुशल-गीताथ मु नय के साथ रहे । स एवं ावर
सभी ा णय को ःख अ य लगता है । अतः उ ह ःखी दे खकर, कसी कार का प रताप न दे ता आ पृ वी क
भाँ त सब कार के परीषहोपसग को सहन करने वाला महामु न जगत्- वभाववे ा होता है । इसी कारण उसे
सु मण कहा गया है ।
सू - ५४५
अनु र मणधमपद म वृ करने वाला जो व ान्-काल एवं वनीत मु न होता है, उस तृ णार हत,
धम यान म संल न समा हत– मु न के तप, ा और यश अ न शखा के तेज क भाँ त नरंतर बढ़ते रहते ह ।
सू - ५४६
षट्काय के ाता, अन त ाना द से स राग- े ष वजेता, जने भगवान से सभी एके या द भाव-
दशा म रहने वाले जीव के लए ेम ान, कम-ब न से र करने म समथ महान गु – महा त का उनके लए
न पण कया है । जस कार तेज तीन दशा के अ कार को न करके काश कर दे ता है, उसी कार
महा त प तेज भी अ कार प कमसमूह को न करके काशक बन जाता है ।
सू - ५४७
भ ु कम या रागा द नब नजनक गृहपाश से बंधे ए गृह के साथ आब – होकर संयम म वचरण
करे तथा य के संग का याग करके पूजा-स कार आ द लालसा छोड़े । इहलोक तथा परलोक म नः ृह होकर
रहे । कामभोग के कटु वपाक का दे खने वाला प डत मु न मनो -श दा द कामगुण को वीकार न करे ।
सू - ५४८
तथा सवसंग वमु , प र ा आचरण करने वाले, धृ तमान– ःख को स यक् कार से सहन करने म समथ,
भ ु के पूवकृत कममल उसी कार वशु हो जाते ह, जस कार अ न ारा चाँद का मैल अलग हो जाता है ।
सू - ५४९
जैसे सप अपनी जीण वचा-कांचली को याग कर उससे मु हो जाता है, वैसा ही जो भ ु प र ा- स ा त
म वृ रहता है, लोक स ब ी आशंसा से र हत, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम म वचरण करना, वह नरका द
ःखश या या कम ब न से मु हो जाता है ।
ुत क -२ का ह द अनुवाद पूण
(१) आचार– थम अ सू का
मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण
१
आचार
आगमसू ह द अनुवाद