You are on page 1of 126

आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

नमो नमो न मलदं सण स


बाल चारी ी ने मनाथाय नम:
पू य आन द- मा-ल लत-सुशील-सुधमसागर-गु यो नम:

आगम-१

आचार
आगमसू ह द अनुवाद

अनुवादक एवं स ादक

आगम द वाकर मु न द पर नसागरजी


[ M.Com. M.Ed. Ph.D. ुत मह ष ]

‘ आगम’ ह द -अनुवाद- ेणी पु प- १

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 1


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

आगमसू - १- ‘आचार’
अंगसू - १- ह द अनुवाद
कहां या दे खे ?
म वषय पृ म वषय पृ
ुत क -१ ००५ ुत क -२ चालु ---
1 अ ययन-१-श पर ा ००५ … . . चू लका- १… … … … चालु ---
2 अ ययन-२-लोक वजय ०१२ 16 अ ययन-७ अव ह तमा ०९९
3 अ ययन-३ शीतो णीय ०१९
4 अ ययन-४ स यक व ०२३ … . . चू लका- २… … … … १०३
5 अ ययन-५ लोकसार ०२६ 17 अ ययन-८ ान-स तका-१ १०३
6 अ ययन-६ धूत ०३१ 18 अ ययन-९ नषी धका-स तका-२ १०४
7 अ ययन-७-महाप र ा ( व )है ०३७ 19 अ ययन-१० उ ार वण-सo- १०५
8 अ ययन-८- वमो ०३७ 20 ३
अ ययन-११ श दस तका-४ १०७
9 अ ययन-९- उपधान ुत ०४६ 21 अ ययन-१२ प स तका-५ १०९
---x ---x ---x --- 22 अ ययन-१३ पर या-स तका-६ ११०
ुत क -२ ०५२ 23 अ ययन-१४ अ यो य या-स0-९ ११२
… . . चू लका- १… … … … ०५२
10 अ ययन-१ पडेषणा ०५२ … . . चू लका- ३… … … … ११३
11 अ ययन-२ श येषणा ०६९ 24 अ ययन-१५ भावना ११३
12 अ ययन– ३ ईया ०७९
13 अ ययन-४ भाषाजात ०८७ … . . चू लका- ४… … … … १२४
14 अ ययन-५ व ैषणा ०९१ 25 अ ययन-१६ वमु १२४
15 अ ययन-६ पा ैषणा ०९६ ---x ---x ---x ---

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 2


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

४५ आगम वग करण
म आगम का नाम सू म आगम का नाम सू

०१ आचार अंगसू -१ २५ आतुर या यान पय ासू -२


०२ सू कृत् अंगसू -२ २६ महा या यान पय ासू -३
०३ ान अंगसू -३ २७ भ पर ा पय ासू -४
०४ समवाय अंगसू -४ २८ तं लवैचा रक पय ासू -५
०५ भगवती अंगसू -५ २९ सं तारक पय ासू -६
०६ ाताधमकथा अंगसू -६ ३०.१ ग ाचार पय ासू -७
०७ उपासकदशा अंगसू -७ ३०.२ च वे यक पय ासू -७
०८ अंतकृत् दशा अंगसू -८ ३१ गणव ा पय ासू -८
०९ अनु रोपपा तकदशा अंगसू -९ ३२ दे वे तव पय ासू -९
१० ाकरणदशा अंगसू -१० ३३ वीर तव पय ासू -१०
११ वपाक ुत अंगसू -११ ३४ नशीथ छे दसू -१
१२ औपपा तक उपांगसू -१ ३५ बृह क प छे दसू -२
१३ राज य उपांगसू -२ ३६ वहार छे दसू -३
१४ जीवाजीवा भगम उपांगसू -३ ३७ दशा ुत क छे दसू -४
१५ ापना उपांगसू -४ ३८ जीतक प छे दसू -५
१६ सूय त उपांगसू -५ ३९ महा नशीथ छे दसू -६
१७ च त उपांगसू -६ ४० आव यक मूलसू -१
१८ जंबू प त उपांगसू -७ ४१.१ ओघ नयु मूलसू -२
१९ नरयाव लका उपांगसू -८ ४१.२ पड नयु मूलसू -२
२० क पवतं सका उपांगसू -९ ४२ दशवैका लक मूलसू -३
२१ पु पका उपांगसू -१० ४३ उ रा ययन मूलसू -४
२२ पु पचू लका उपांगसू -११ ४४ नद चू लकासू -१
२३ वृ णदशा उपांगसू -१२ ४५ अनुयोग ार चू लकासू -२
२४ चतु:शरण पय ासू -१ --- --------------- -----

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 3


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

मु न द पर नसागरजी का शत सा ह य
आगम सा ह य आगम सा ह य
म सा ह य नाम बू स म सा ह य नाम बू स
1 मूल आगम सा ह य:- 147 6 आगम अ य सा ह य:- 10
-1- आगमसु ा ण-मूलं print [49] ુ ોગ
-1- આગમ કથા ય 06
-2- आगमसु ा ण-मूलं Net [45] -2- आगम संबंधी सा ह य 02
-3- आगमम ूषा (मूल त) [53] -3- ऋ षभा षत सू ा ण 01
2 आगम अनुवाद सा ह य:- 165 -4- आग मय सू ावली 01
-1- આગમ ૂ ુ રાતી અ વ
જ ુ ાદ [47] आगम सा ह य- कुल पु तक 516
-2- आगमसू ह द अनुवाद Net [47]
-3- AagamSootra English Trans० [11]
-4- આગમ ૂ સટ ક ુ રાતી અ વ
જ ુ ાદ [48]
-5- आगमसू ह द अनुवाद print [12] अ य सा ह य:-
3 आगम ववेचन सा ह य:- 171 1 ત વા યાસ સા હ ય- 13
-1- आगमसू सट कं [46] 2 ૂ ા યાસ સા હ ય- 06
-2- आगमसू ा ण सट कं ताकार-1 [51] 3 યાકરણ સા હ ય- 05
-3- आगमसू ा ण सट कं ताकार-2 [09] 4 યા યાન સા હ ય- 04
-4- आगम चू ण सा ह य [09] 5 જનભ ત સા હ ય- 09
-5- सवृ क आगमसू ा ण-1 [40] 6 િવિધ સા હ ય- 04
-6- सवृ क आगमसू ा ण-2 [08] 7 આરાધના સા હ ય 03
-7- सचू णक आगमसु ा ण [08] 8 પ રચય સા હ ય- 04
4 आगम कोष सा ह य:- 14 9 ૂજન સા હ ય- 02
-1- आगम स कोसो [04] 10 તીથકર સં ત દશન 25
-2- आगम कहाकोसो [01] 11 ક ણ સા હ ય- 05
-3- आगम-सागर-कोष: [05] 12 ુ ોધિનબંધ
દ પર નસાગરના લ શ 05
-4- आगम-श दा द-सं ह ( ा-सं-गु) [04] આગમ િસવાય ંુ સા હ ય લ
ૂ ુ તક 85
5 आगम अनु म सा ह य:- 09
-1- આગમ િવષયા ુ મ- ( ૂળ) 02 1-आगम सा ह य (कुल पु तक) 516
-2- आगम वषयानु म (सट कं) 04 2-आगमेतर सा ह य (कुल पु तक) 085
-3- आगम सू -गाथा अनु म 03 द पर नसागरजी के कुल काशन 601

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 4


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

[१] आचार
अंगसू -१- ह द अनुवाद
ुत क – १
अ ययन-१ – श पर ा
उ े शक-१
सू – १,२
आयु मन् ! मने सूना है । उन भगवान (महावीर वामी) ने यह कहा है– ..... संसारम कुछ ा णय को यह
सं ा ( ान) नह होती । जैसे – ‘ ‘ म पूव दशा से आया ँ, द ण दशा से आया ँ, प म दशा से आया ँ, उ र
दशा से आया ँ, ऊ व दशा से आया ँ, अधो दशा से आया ँ अथवा व दशा से आया ँ ।
सू -३
इसी कार कुछ ा णय को यह ान नह होता क मेरी आ मा औपपा तक है अथवा नह ? म पूव ज मम
कौन था ? म यहाँ से युत होकर अगले ज म म या होऊंगा ?
सू -४
कोई ाणी अपनी वम त, वबु से अथवा य ा नय के वचन से, अथवा उपदे श सूनकर यह जान
लेता है, क म पूव दशा, या द ण, प म, उ र, ऊ व अथवा अ य कसी दशा या व दशा से आया ँ । कुछ
ा णय को यह भी ात होता है – मेरी आ मा भवा तर म अनुसंचरण करने वाली है, जो इन दशा , अनु दशा
म कमानुसार प र मण करती है । जो इन सब दशा और व दशा म गमनागमन करती है, वही म (आ मा) ँ ।
सू -५
(जो उस गमनागमन करनेवाली प रणामी न य आ मा जान लेता है) वही आ मवाद , लोकवाद , कमवाद
एवं यावाद है ।
सू – ६, ७
(वह आ मवाद मनु य यह जानता/मानता है क)– मने या क थी । म या करवाता ँ । म या करने
वाले का भी अनुमोदन क ँ गा । लोक-संसार म ये सब याएं ह, अतः ये सब जानने तथा यागने यो य ह ।
सू – ८-१०
यह पु ष, जो अप र ातकमा है वह इन दशा व अनु दशा म अनुसंचरण करता है । अपने कृत-कम
के साथ सब दशा /अनु दशा म जाता है । अनेक कार क जीव-यो नय को ा त होता है । ..... वहाँ व वध
कार के श का अनुभव करता है । ..... इस स ब म भगवान् ने प र ा ववेक का उपदे श कया है ।
सू - ११
अपने इस जीवन के लए, शंसा व यश के लए, स मान क ा त के लए, पूजा आ द पाने के लए, ज म-
स तान आ द के ज म पर, अथवा वयं के ज म न म से, मरण-स ब ी कारण व संग पर, मु के ेरणा या
लालसा से, ःख के तीकार हेत–ु रोग, आतंक, उप व आ द मटाने के लए ।
सू - १२
लोक म (उ हेतु से होने वाले) ये सब कमसमारंभ के हेतु जानने यो य और यागने यो य होते ह ।
सू - १३
लोक म ये जो कमसमारंभ के हेतु ह, इ ह जो जान लेता है वही प र ातकमा मु न होता है । ऐसा म कहता ँ

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 5


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-१ – उ े शक-२
सू - १४
जो मनु य आतै है, वह ान दशन से प रजीण रहता है । य क वह अ ानी जो है । अ ानी मनु य इस
लोक म था-पीड़ा का अनुभव करता है । काम, भोग व सुख के लए आतुर बने ाणी ान- ान पर पृ वीकाय
आ द ा णय को प रताप दे ते रहते ह । यह तू दे ख ! समझ !
सू - १५
पृ वीका यक ाणी पृथक्-पृथक् शरीर म आ त रहते ह । तू दे ख ! आ मसाधक, ल मान है – ( हसा से
वयं को संकोच करता आ संयममय जीवन जीता है ।) कुछ साधु वेषधारी ‘ हम गृह यागी ह’ ऐसा कथन करते ए
भी वे नाना कार के श से पृ वीस ब ी हसा- या म लगकर पृ वीका यक जीव क हसा करते ह तथा
पृ वीका यक जीव क हसा के साथ तदा रत अ य अनेक कार के जीव क भी हसा करते ह ।
सू - १६
इस वषय म भगवान महावीर वामी ने प र ा/ ववेक का उपदे श कया है । कोई इस जीवन के लए,
शंसा-स मान और पूजा के लए, ज म-मरण और मु के लए, ःख का तीकार करने के लए, वयं
पृ वीका यक जीव क हसा करता है, सर से हसा करवाता है, तथा हसा करने वाल का अनुमोदन करता है ।
सू - १७
वह ( हसावृ ) उसके अ हत के लए होती है । उसक अबो ध के लए होती है । वह साधक हसा के उ
प रणाम को अ तरह समझता आ, संयम-साधना म त पर हो जाता है । कुछ मनु य के या अनगार मु नय
के समीप धम सूनकर यह ात होता है क, ‘ यह जीव हसा है, यह मोह है, यह मृ यु है और यही नरक है ।’
फर भी) जो मनु य सुख आ द के लए जीव हसा म आस होता है, वह नाना कार के श से पृ वी -
(
स ब ी हसा- या म संल न होकर पृ वीका यक जीव क हसा करता है और तब वह न केवल पृ वीका यक
जीव क हसा करता है, अ पतु अ य नाना कार के जीव क भी हसा करता है ।
म कहता ँ– जैसे कोई कसी के पैर म, टखने पर, घूटने, उ , क ट, ना भ, उदर, पसली पर, पीठ, छाती,
दय, तन, कंधे, भूजा, हाथ, अंगुली, नख, ीवा, ठु ी, होठ, दाँत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, आँख, भ हे,
ललाट और शर का भेदन छे दन करे, (तब उसे जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा पृ वीका यक जीव को होती है ।)
जैसे कोई कसी को गहरी चोट मारकर, मू त कर दे , या ाण- वयोजन ही कर दे , उसे जैसी क ानुभू त
होती है, वैसी ही पृ वीका यक जीव क वेदना समझना चा हए ।
जो यहाँ (लोकम) पृ वीका यक जीव पर श समारंभ करता है, वह वा तव म इन आरंभ से अनजान है ।
सू - १८
जो पृ वीका यक जीव पर श का समारंभ नह करता, वह वा तव म इन आरंभ का ाता है । यह
(पृ वीका यक जीव क अ वेदना) जानकर बु मान मनु य न वयं पृ वीकाय का समारंभ करे, न सर से
पृ वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे । जसने पृ वीकाय स ब ी
समारंभ को जान लया वही प र ातकमा ( हसा का यागी) मु न होता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-३
सू – १९, २०
म कहता ँ – जस आचरण से अनगार होता है । जो ऋजुकृत् हो, नयाग- तप -मो माग के त
एक न होकर चलता हो, कपट र हत हो ।
जस ा के साथ संयम-पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी ा के साथ संयम का पालन करे । व ोत-
सका-अथात् ल य के त शंका व च क चंचलता के वाहम न बह, शंका का याग कर दे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 6


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - २१
वीर पु ष महापथ के त णत– अथात् सम पत होते ह ।
सू - २२
मु न क आ ा से लोक को– अथात् अ काय के जीव का व प जानकर उ ह अकुतोभय बना दे । संयत रहे
सू - २३
म कहता ँ– मु न वयं, लोक-अ का यक जीव के अ त व का अपलाप न करे । न अपनी आ मा का
अपलाप करे । जो लोक का अपलाप करता है, वह वा तव म अपना ही अपलाप करता है । जो अपना अपलाप
करता है, वह लोक के अ त व को अ वीकार करता है ।
सू - २४
तू दे ख ! स े साधक हसा (अ काय क ) करने म ल ा अनुभव करते ह । और उनको भी दे ख, जो अपने
आपको ‘ अनगार’ घो षत करते ह, वे व वध कार के श ारा जल स ब ी आरंभ-समारंभ करते ए जल-काय
के जीव क हसा करते ह । और साथ ही तदा त अ य अनेक जीव क भी हसा करते ह ।
इस वषय म भगवान ने प र ा का न पण कया है । अपने इस जीवन के लए, शंसा, स मान और पूजा
के लए, ज म-मरण और मो के लए ःख का तकार करने के लए कोई वयं अ काय क हसा करता है, सर
से भी अ काय क हसा करवाता है और अ काय क हसा करने वाल का अनुमोदन करता है । यह हसा, उसके
अ हत के लए होती है तथा अबो ध का कारण बनती है ।
वह साधक यह समझते ए संयम-साधन म त पर हो जाता है ।
भगवान से या अनगार मु नय से सूनकर कुछ मनु य को यह प र ात हो जाता है, जैस–े यह अ का यक
जीव क हसा है, मोह है, सा ात् मृ यु है, नरक है ।
फर भी मनु य इसम आस होता है । जो क वह तरह-तरह के श से उदककाय क हसा- या म
संल न होकर अ का यक जीव क हसा करता है । वह केवल अ का यक जीव क ही नह , क तु उसके आ त
अ य अनेक कार के जीव क भी हसा करता है ।
म कहता ँ– जल के आ त अनेक कार के जीव रहते ह ।
सू - २५
हे मनु य ! इस अनगार-धम म, जल को ‘ जीव’ कहा है । जलकाय के जो श ह, उन पर च तन करके दे ख
सू - २६
भगवान ने जलकाय के अनेक श बताए ह ।
सू - २७
जलकाय क हसा, सफ हसा ही नह , वह अद ादान भी है ।
सू - २८
हम क पता है । अपने स ा त के अनुसार हम पीने के लए जल ले सकते ह । ‘ हम पीने तथा नहाने के
लए भी जल का योग कर सकते ह ।’
सू - २९
इस तरह अपने शा का माण दे कर या नाना कार के श ारा जलकाय के जीव क हसा करते ह।
सू - ३०
अपने शा का माण दे कर जलकाय ही हसा करने वाले साधु, हसा के पाप से वरत नह हो सकते ।
सू - ३१
जो यहाँ, श - योग कर जलकाय के जीव का समार करता है, वह इन आरंभ से अन भ है । जो

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 7


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
जलका यक जीव पर श - योग नह करता, वह आरंभ का ाता है, वह हसा-दोष से मु होता है । बु मान
मनु य यह जानकर वयं जलकाय का समारंभ न करे, सर से न करवाए, उसका समारंभ करने वाल का अनुमोदन
न करे । जसको जल-स ब ी समारंभ का ान होता है, वही प र ातकमा (मु न) होता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-४
सू - ३२
म कहता ँ– वह कभी भी वयं लोक (अ नकाय) के अ त व का, अपलाप न करे । न अपनी आ मा के
अ त व का अपलाप करे । य क जो लोक (अ नकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता
है । जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है ।
सू - ३३
जो द घलोकश (अ नकाय) के व प को जानता है, वह अश (संयम) का व प भी जानता है । जो
संयम का व प जानता है वह द घलोक-श का व प भी जानता है ।
सू - ३४
वीर ने, ान-दशनावरण आ द कम को वजय कर यह (संयम का पूण व प) दे खा है । वे वीर संयमी,
सदा यतनाशील और सदा अ म रहने वाले थे ।
सू – ३५, ३६
जो म है, गुण का अथ है, वह हसक कहलाता है । ..... यह जानकर मेधावी पु ष (संक प करे) – अब
म वह ( हसा) नह क ँ गा जो मने माद के वश होकर पहले कया था ।
सू - ३७
तू दे ख ! संयमी पु ष जीव- हसा म ल ा का अनुभव करते ह । और उनको भी दे ख, जो हम ‘ अनगार ह’
यह कहते ए भी अनेक कार के श से अ नकाय क हसा करते ह । अ नकाय के जीव क हसा करते ए
अ य अनेक कार के जीव क भी हसा करते ह ।
इस वषय म भगवान ने प र ा का न पण कया है । कुछ मनु य इस जीवन के लए शंसा, स मान, पूजा
के लए, ज म-मरण और मो के न म , तथा ःख का तीकार करने के लए, वयं अ नकाय का समारंभ करते
ह । सर से अ नकाय का समारंभ करवाते ह । अ नकाय का समारंभ करने वाल का अनुमोदन करते ह ।
यह ( हसा) उनके अ हत के लए होती है । यह उनक अबो ध के लए होती है ।
वह उसे भली भाँ त समझे और संयम-साधना म त पर हो जाए । तीथकर आ द य ानी अथवा ुत-
ानी मु नय के नकट से सूनकर कुछ मनु य को यह ात हो जाता है क जीव- हसा- है, यह मोह है, यह मृ यु
है, यह नरक है ।
फर भी मनु य जीवन, मान, वंदना आ द हेतु म आस ए व वध कार के श से अ नकाय का
समारंभ करते ह । और अ नकाय का समारंभ करते ए अ य अनेक कार के ाण क भी हसा करते ह ।
सू - ३८
म कहता ँ – ब त से ाणी-पृ वी, तृण, प , का , गोबर और कूड़ा-कचरा आ द के आ त रहते ह । कुछ
सँपा तम ाणी होते ह जो उड़ते-उड़ते नीचे गर जाते ह । ये ाणी अ न का श पाकर संघात को ा त होते ह ।
शरीर का संघात होने पर अ न क उ मा से मू त हो जाते ह । बाद म मृ यु को ा त हो जाते ह ।
सू - ३९
जो अ नकाय के जीव पर श - योग करता है, वह इन आरंभ-समारंभ या के कटु प रणाम से
अप र ात होता है । जो अ नकाय पर श -समारंभ नह करता है, वा तव म वह आरंभ का ाता हो जाता है ।
जसने यह अ न-कम-समारंभ भली भाँ त समझ लया है, वही मु न है, वही प र ात-कमा है । ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 8


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-१ – उ े शक-५
सू - ४०
म संयम अंगीकार करके वह हसा नह क ँ गा । बु मान संयम म र होकर मनन करे और ‘ येक जीव
अभय चाहता है’ यह जानकर ( हसा न करे) जो हसा नह करता, वही ती है । इस अहत्-शासन म जो ती है, वह
अनगार है ।
सू - ४१
जो गुण ( वषय) है, वह आवत/संसार है । जो आवत है वह गुण है ।
सू – ४२, ४३
ऊंचे, नीचे, तीरछे , सामने दे खने वाला प को दे खता है । सूनने वाला श द को सूनता है । ऊंचे, नीचे,
तीरछे , व मान व तु म आस करने वाला, प म मू त होता है, श द म मू त होता है । यह (आस )
ही संसार है । जो पु ष यहाँ ( वषय म) अगु त है । इ य एवं मन से असंयत है, वह आ ा-धम-शासन के बाहर है ।
सू – ४४, ४५
जो बार-बार वषय का आ वाद करता है, उनका भोग-उपभोग करता है, वह व समाचार अथात्
असंयममय जीवनवाला है । ..... वह म है तथा गृह यागी कहलाते ए भी वा तव म गृहवासी ही है ।
सू - ४६
तू दे ख ! ानी हसा से ल त/ वरत रहते ह । ‘ हम गृह यागी ह’ , यह कहते ए भी कुछ लोग नाना कार
के श से, वन तका यक जीव का समारंभ करते ह । वन तकाय क हसा करते ए वे अ य अनेक कार के
जीव क भी हसा करते ह ।
इस वषयम भगवान ने प र ा क है – इस जीवन के लए, शंसा, स मान, पूजा के लए, ज म, मरण और
मु के लए, ःख का तीकार करने के लए, वह वयं वन तका यक जीव क हसा करता है, सर से हसा
करवाता है, करनेवाले का अनुमोदन करता है । यह उसके अ हत के लए होता है । उसक अबो ध के लए होता है ।
यह समझता आ साधक संयम म र हो जाए । भगवान से या यागी अनगार के समीप सूनकर उसे इस
बात का ान हो जाता है – ‘ यह ( हसा) है, यह मोह है, यह मृ यु है, यह नरक है ।’ फर भी मनु य इसम आस
आ, नाना कार के श से वन तकाय का समारंभ करता है और वन तकाय का समारंभ करता आ अ य
अनेक कार के जीव क भी हसा करता है ।
सू - ४७
म कहता ँ – यह मनु य भी ज म लेता है, यह वन त भी ज म लेती है । यह मनु य भी बढ़ता है, यह
वन त भी बढ़ती है । यह मनु य भी चेतना यु है, यह वन त भी चेतना यु है । यह मनु य शरीर छ होने पर
लान हो जाता है । यह वन त भी छ होने पर लान होती है । यह मनु य भी आहार करता है, यह वन त भी
आहार करती है । यह मनु य शरीर भी अ न य है, यह वन त शरीर भी अ न य है । यह मनु य शरीर भी अशा त
है, यह वन त शरीर भी अशा त है । यह मनु य शरीर भी आहार से उप चत होता है, आहार के अभाव म अप चत
होता है, यह वन त का शरीर भी इसी कार उप चत-अप चत होता है । यह मनु य शरीर भी अनेक कार क
अव ा को ा त होता है । यह वन त शरीर भी अनेक कार क अव ा को ा त होता है ।
सू - ४८
जो वन तका यक जीव पर श का समारंभ करता है, वह उन आरंभो/आरंभज य कटु फल से अनजान
रहता है । जो वन तका यक जीव पर श का योग नह करता, उसके लए आरंभ प र ात है । यह जानकर
मेधावी वयं वन त का समारंभ न करे, न सर से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वाल का अनुमोदन करे
जसको यह वन त स ब ी समारंभ प र ात होते ह, वही प र ातकमा ( हसा यागी) मु न है । ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 9


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-१ – उ े शक-६
सू – ४९, ५०
म कहता ँ– ये सब स ाणी ह, जैसे– अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, सं वेदज, स मू म, उद् भ और
औपपा तक । यह संसार कहा जाता है । मंद तथा अ ानी जीव को यह संसार होता है ।
म च तन कर, स यक् कार दे खकर कहता ँ– येक ाणी प र नवाण चाहता है ।
सू - ५१
सब ा णय , सब भूत , सब जीव और सब स व को असाता और अप र नवाण ये महाभयंकर और
ःखदायी ह । म ऐसा कहता ँ । ये ाणी दशा और व दशा म, सब ओर से भयभीत/ त रहते ह ।
सू - ५२
तू दे ख, वषय-सुखा भलाषी आतुर मनु य ान- ान पर इन जीव को प रताप दे ते रहते ह ।
सका यक ाणी पृथक्-पृथक् शरीर म आ त रहते ह ।
सू - ५३
तू दे ख ! संयमी साधक जीव हसा म ल ा का अनुभव करते ह और उनको भी दे ख, जो ‘ हम गृह यागी ह’
यह कहते ए भी अनेक कार के उपकरण से सकाय का समारंभ करते ह । सकाय क हसा करते ए वे अ य
अनेक ाण क भी हसा करते ह । इस वषय म भगवान ने प र ा है ।
कोई मनु य इस जीवन के लए शंसा, स मान, पूजा के लए, ज म-मरण और मु के लए, ःख का
तीकार करने के लए, वयं भी सका यक जीव क हसा करता है, सर से हसा करवाता है तथा हसा करते
ए का अनुमोदन भी करता है । यह हसा उसके अ हत के लए होती है । अबो ध के लए होती है ।
वह संयमी, उस हसा को/ हसा के कुप रणाम को स यक् कार से समझते ए संयमम त पर हो जाए ।
भगवान से या गृह यागी मण के समीप सूनकर कुछ मनु य यह जान लेते ह क यह हसा है, मृ यु है, मोह है,
नरक है । फर भी मनु य इस हसा म आस होता है । वह नाना कार के श से सका यक जीव का समारंभ
करता है । सकाय का समारंभ करता आ अ य अनेक कार के जीव का भी समारंभ करता है ।
सू - ५४
म कहता ँ– कुछ मनु य अचा के लए जीव हसा करते ह । कुछ मनु य चम के लए, माँस, र , दय, प ,
चब , पंख, पूँछ, केश, स ग, वषाण, दाँत, दाढ़, नख, नायु, अ और अ म ा के लए ा णय क हसा करते
ह । कुछ योजन-वश, कुछ न योजन ही जीव का वध करते ह । कुछ (इ ह ने मेरे वजना द क ) हसा
क , इस कारण हसा करते ह । कुछ (यह मेरे वजन आ द क ) हसा करता है, इस कारण से हसा करते ह ।
कुछ (यह मेरे वजना द क हसा करेगा) इस कारण हसा करते ह ।
सू - ५५
जो सका यक जीव क हसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभज नत कुप रणाम ) से अनजान ही रहता है
जो सका यक जीव क हसा नह करता है, वह इन आरंभ से सुप र चत है । यह जानकर बु मान् मनु य वयं
सकाय-श का समारंभ न करे, सर से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वाल का अनुमोदन भी न करे।
जसने सकाय-स ब ी समारंभ ( हसा के हेतु /उपकरण /कुप रणाम ) को जान लया, वही प र ात
कमा मु न होता है । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-१ – उ े शक-७
सू - ५६
अतः वायुका यक जीव क गंछा करने म समथ होता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 10


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५७
साधनाशील पु ष हसा म आतंक दे खता है, उसे अ हत मानता है । जो अ या म को जानता है, वह बा को
भी जानता है । जो बा को जानता है, वह अ या म को जानता है । इस तुला का अ वेषण कर, च तन कर ।
सू - ५८
इस ( जन शासन म) जो शा त ा त– (कषाय जनके उपशा त हो गए ह) और दया दय वाले मु न ह, वे
जीव- हसा करके जीना नह चाहते ।
सू - ५९
तू दे ख ! येक संयमी पु ष हसा म ल ा का अनुभव करता है । उ ह भी दे ख, जो ‘ हम गृह यागी ह’ यह
कहते ए व वध कार के श से वायुकाय का समारंभ करते ह । वायुकाय-श का समारंभ करते ए अ य
अनेक ा णय क हसा करते ह ।
इस वषय म भगवान ने प र ा न पण कया है । कोई मनु य, इस जीवन के लए, शंसा, स मान और
पूजा के लए, ज म, मरण और मो के लए, ःख का तीकार करने के लए वयं वायुकाय-श का समारंभ
करता है, सर से वायुकाय का समारंभ करवाता है तथा समारंभ करने वाल का अनुमोदन करता है । वह हसा,
उसके अ हत के लए होती है । वह हसा, उसक अबो ध के लए होती है ।
वह अ हसा-साधक, हसा को समझता आ संयम म सु र हो जाता है ।
भगवान के या गृह यागी मण के समीप सूनकर उ ह यह ात होता है क यह हसा है, यह मोह है,
यह मृ यु है, यह नरक है । फर भी मनु य हसा म आस आ, व वध कार के श से वायुकाय क हसा करता
है । वायुकाय क हसा करता आ अ य अनेक कार के जीव क हसा करता है ।
सू - ६०
म कहता ँ– संपा तम- ाणी होते ह । वे वायु से ता ड़त होकर नीचे गर जाते ह । वे ाणी वायु का श
होने से सकुड़ जाते ह । जब वे वायु- श से संघा तत होते ह, तब मू त हो जाते ह । जब वे जीव मू ा को ा त
होते ह तो वहाँ मर भी जाते ह । जो वहाँ वायुका यक जीव का समारंभ करता है, वह इन आरंभ से वा तव म
अनजान है ।
जो वायुका यक जीव पर श -समारंभ नह करता, वा तव म उसने आरंभ को जान लया है । यह जानकर
बु मान मनु य वयं वायुकाय का समारंभ न करे । सर से वायुकाय का समारंभ न करवाए । वायुकाय का
समारंभ करने वाल का अनुमोदन न करे । जसने वायुकाय के श -समारंभ को जान लया है, वही मु न
प र ातकमा ( हसा का यागी) है ऐसा म कहता ँ ।
सू - ६१
तुम यहाँ जानो ! जो आचार म रमण नह करते, वे कम से बंधे ए ह । वे आरंभ करते ए भी वयं को
संयमी बताते ह अथवा सर को वनय-संयम का उपदे श करते ह । ये व दचारी और वषय म आस होते ह।
वे आरंभ म आस रहते ए पुनः पुनः कम का संग करते ह ।
सू - ६२
वह वसुमान् ( ान-दशन-चा र - प धनयु ) सब कार के वषय पर ापूवक वचार करता है, अ तः
करण से पापकम को अकरणीय जाने, तथा उस वषय म अ वेषण भी न करे । यह जानकर मेधावी मनु य वयं षट् -
जीव नकाय का समारंभ न करे । सर से समारंभ न करवाए । समारंभ करने वाल का अनुमोदन न करे ।
जसने षट् -जीव नकाय-श का योग भलीभाँ त समझ लया, याग दया है, वही प र ातकमा मु न
कहलाता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 11


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-२ – लोक वजय


उ े शक-१
सू - ६३
जो गुण (इ य वषय) ह, वह (कषाय प संसार का) मूल ान है । जो मूल ान है, वह गुण है । इस कार
वषयाथ पु ष, महान प रताप से म होकर, जीवन बीताता है । वह इस कार मानता है, ‘ ‘ मेरी माता है, मेरा पता
है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी प नी है, मेरा पु है, मेरी पु ी है, मेरी पु -वधू है, मेरा सखा- वजन-स ब ी-
सहवासी है, मेरे व वध चुर उपकरण, प रवतन, भोजन तथा व है । इस कार – मेरप
े न म आस आ पु ष,
म होकर उनके साथ नवास करता है ।
वह म तथा आस पु ष रात- दन प रत त/ च ता एवं तृ णा से आकुल रहता है । काल या अकाल म
य नशील रहता है, वह संयोग का अथ होकर, अथ का लोभी बनकर लूटपाट करने वाला बन जाता है ।
सहसाकारी– ःसाहसी और बना वचारे काय करने वाला हो जाता है । व वध कार क आशा म उसका च
फँसा रहता है । वह बार-बार श - योग करता है । संहारक बन जाता है ।
इस संसार म कुछ-एक मनु य का आयु य अ प होता है । जैसे–
सू - ६४
ो - ान के प रहीन हो जाने पर, इसी कार च ु- ान के, ाण- ान के, रस- ान के और श
ान के प रहीन होने पर (वह अ प आयु म ही मृ यु को ा त हो जाता है ।) वय– अव ा को तेजी से जाते ए
दे खकर वह चता त हो जाता है और फर वह एकदा मूढ़भाव को ा त हो जाता है ।
सू - ६५
वह जनके साथ रहता है, वे वजन उसका तर कार करने लगते ह, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते
ह । बाद म वह भी उन वजन क नदा करने लगता है । हे पु ष ! वे वजन तेरी र ा करने म या तुझे शरण दे ने म
समथ नह ह । तू भी उ ह ाण, या शरण दे ने म समथ नह है । वह वृ पु ष, न हँसी- वनोद के यो य रहता है, न
खेलने के, न र त-सेवन के और न शृंगार के यो य रहता है ।
सू - ६६
इस कार च तन करता आ मनु य संयम-साधना के लए तुत हो जाए । इस जीवन को एक व णम
अवसर समझकर धीर पु ष मु भर भी माद न करे । अव ाएं बीत रही ह । यौवन चला जा रहा है ।
सू - ६७
जो इस जीवन के त म है, वह हनन, छे दन, भेदन, चोरी, ामघात, उप व और उत् ास आ द वृ य
म लगा रहता है । ‘ अकृत काम म क ँ गा’ इस कार मनोरथ करता रहता है । जन वजन आ द के साथ वह रहता
है, वे पहले कभी उसका पोषण करते ह । वह भी बाद म उन वजन का पोषण करता है । इतना नेह-स ब होने
पर भी वे ( वजन) तु हारे ाण या शरण के लए समथ नह ह । तुम भी उनको ाण व शरण दे ने म समथ नह हो ।
सू - ६८
(मनु य) उपभोग म आने के बाद बचे ए धन से, तथा जो वण एवं भोगोपभोग क साम ी अ जत-सं चत
करके रखी है उसको सुर त रखता है । उसे वह कुछ गृह के भोग के लए उपयोग म लेता है । ( भूत
भोगोपभोग के कारण फर) कभी उसके शरीर म रोग क पीड़ा उ प होने लगती है ।
जन वजन- नेहीय के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आ द के कारण धृणा करके) पहले छोड़ दे ते
ह । बाद म वह भी अपने वजन- नेहीय को छोड़ दे ता है ।
हे पु ष ! न तो वे तेरी र ा करने और तुझे शरण दे ने म समथ ह, और न तू ही उनक र ा व शरण के लए
समथ है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 12


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू – ६९, ७०
येक ाणी का सुख और ःख ..... अपना-अपना है, यह जानकर (आ म ा बने) ।
सू - ७१
जो अव ा (यौवन एवं श ) अभी बीती नह है, उसे दे खकर, हे प डत ! ण (समय) को/अवसर को
जान ।
सू - ७२
जब तक ो - ान प रपूण है, इसी कार ने - ान, ाण- ान, रसना- ान और श- ान प रपूण
ह, तब तक – इन नाना प ान के प रपूण रहते ए आ म हत के लए स यक् कार से य नशील बने । ऐसा म
कहता ँ ।
अ ययन-२ – उ े शक-२
सू - ७३
जो अर त से नवृ होता है, वह बु मान है । वह बु मान वषय-तृ णा से णभर म ही मु हो जाता है ।
सू - ७४
अना ा म– (वीतराग व हत- व ध के वपरीत) आचरण करने वाले कोई-कोई संयम-जीवन म परीषह आने
पर वापस गृहवासी भी बन जाते ह । वे मंदबु -अानी मोह से आवृ रहते ह ।
कुछ – ‘ हम अप र ही ह गे’ – ऐसा संक प करके संयम धारण करते ह, क तु जब काम-सेवन
(इ य वषय के सेवन) का संग उप त होता है, तो उसम फँस जाते ह । वे मु न वीतराग-आ ा से बाहर ( वषय
क ओर) दे खने/ताकने लगते ह ।
इस कार वे मोह म बार-बार नम न हो जाते ह । इस दशा म वे न तो इस तीर (गृहवास) पर आ सकते ह
और न उस पार ( मण व) जा सकते ह ।
सू - ७५
जो वषय के दलदल से पारगामी होते ह, वे वा तव म वमु ह । अलोभ (संतोष) से लोभ को परा जत
करता आ साधक काम-भोग ा त होने पर भी उनका सेवन नह करता (लोभ- वजय ही पार प ँचने का माग है)
सू - ७६
जो लोभ से नवृ होकर या लेता है, वह अकम होकर (कमावरण से मु होकर) सब कुछ जानता है,
दे खता है । जो तलेखना कर, वषय-कषाय आ द के प रणाम का वचार कर उनक आकां ा नह करता, वह
अनगार कहलाता है ।
(जो
वषय से नवृ नह होता) वह रात- दन प रत त रहता है । काल या अकाल म सतत य न करता
रहता है । वषय को ा त करने का ई ु क होकर धन का लोभी बनता है । चोर व लूटेरा बनता है । उसका च
ाकुल व चंचल बना रहता है । और वह पुनः-पुनः श - योग करता रहता है । वह आ म-बल, ा त-बल, म -बल,
े य-बल, दे व-बल, राज-बल, चोर-बल, अ त थ-बल, कृपण-बल और मण-बल के सं ह के लए अनेक कार के
काय ारा द ड योग करता है ।
कोई कसी कामना से एवं कोई भय के कारण हसा आ द करता है । कोई पाप से मु पाने क भावना से
हसा करता है । कोई कसी आशा से हसा- योग करता है ।
सू - ७७
यह जानकर मेधावी पु ष पहले बताए गए योजन के लए वयं हसा न करे, सर से हसा न करवाए
तथा हसा करने वाले का अनुमोदन न करे । यह माग आय पु ष ने बताया है । कुशलपु ष इन वषय म ल त न ह
ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 13


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-२ – उ े शक-३
सू - ७८
यह पु ष अनेक बार उ गो और अनेकबार नीच गो को ा त हो चूका हो । इस लए यहाँ न तो कोई हीन
है और न कोई अ त र है । यह जानकर उ गो क ृहा न करे । यह जान लेने पर कौन गो वाद होगा? कौन
मानवाद होगा ? और कौन कस एक गो म आस होगा ? इस लए ववेकशील मनु य उ गो ा त होने पर
ह षत न हो और नीचगो ा त होने पर कु पत न हो । येक जीव को सुख य है ।
सू - ७९
यह तू दे ख, इस पर सू मतापूवक वचार कर । जो स मत है वह इसको दे खता है । जैसे– अ ापन, बहरा-
पन, गूँगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चतकबरापन आ द क ा त अपने माद
के कारण होती है । वह अपने माद के कारण ही नाना कार क यो नय म जाता है और व वध कार के आघात -
ख का अनुभव करता है ।
सू - ८०
वह माद पु ष कम- स ा त को नह समझाता आ शारी रक ःख से हत तथा मान सक पीड़ा से
उपहत – पुनः पुनः पी ड़त होता आ ज म-मरण के च म बार-बार भटकता है । जो मनु य, े – खुली भू म तथा
वा तु-भवन-मकान आ द म मम व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही य लगता है । वे रंग- बरंगे म ण,
कु डल, हर य- वण और उनके साथ य का प र ह कर उनम अनुर रहते ह ।
प र ही पु ष म न तप होता है, न दम-इ य- न ह होता है और न नयम होता है । वह अ ानी, ऐ य पूण
स जीवन जीने क कामना करता रहता है । बार-बार सुख- ा त क अ भलाषा करता रहता है । क तु सुख क
अ- ा त व कामना क था से पी ड़त आ वह मूढ़ वपयास को ही ा त होता है ।
सू - ८१
जो पु ष ुवचारी होते ह, वे ऐसा वपयासपूण जीवन नह चाहते । वे ज म-मरण के च को जानकर
ढ़तापूवक मो के पथ पर बढ़ते रह ।
सू - ८२
काल का अनागमन नह है, मृ यु कसी ण आ सकती है । सब को आयु य य है । सभी सुख का वाद
चाहते ह । ःख से धबराते ह । वध अ य है, जीवन य है । वे जी वत रहना चाहते ह । सब को जीवन य है ।
वह प र ह म आस आ मनु य, पद और चतु पद का प र ह करके उनका उपयोग करता है । उनको
काय म नयु करता है । फर धन का सं ह करता है । अपने, सर के और दोन के स म लत य न से उसके
पास अ प या ब त मा ा म धनसं ह हो जाता है । वह उस अथ म गृ हो जाता है और भोग के लए उसका संर ण
करता है । प ात् वह व वध कार से भोगोपभोग करने के बाद बची ई वपुल अथ-स दा से महान् उपकरण
वाला बन जाता है ।
एक समय ऐसा आता है, जब उस स म से दायाद ह सा लेते ह, चोर चूरा लेते ह, राजा उसे छ न लेते ह
या वह न - वन हो जाती है । या कभी गृह-दाह के साथ जलकर समा त हो जाती है ।
इस कार वह अ ानी पु ष, सर के लए ू र कम करता आ अपने लए ःख उ प करता है, फर उस
ःख से त हो वह सुख खोजता है, पर अ त म उसके हाथ ःख ही लगता है । वह मूढ़ वपयास को ा त होता है ।
भगवान ने यह बताया है । ये मूढ़ मनु य संसार- वाह को तैरने म समथ नह होते । वे अतीरंगम ह, तीर-
कनारे तक प ँचने म समथ नह होते । वे अपारंगम ह, पार प ँचने म समथ नह होते ।
वह (मूढ) आदानीय (संयम-पथ) को ा त करके भी उस ान म त नह हो पाता । अपनी मूढ़ता के
कारण वह अस माग को ा त कर उसी म ठहर जाता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 14


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ८३
जो ा है, (स यदश है) उसके लए उपदे श क आव यकता नह होती ।
अ ानी पु ष, जो नेह के बंधन म बंधा है, काम-सेवन म अनुर है, वह कभी ःख का शमन नह कर पाता
। वह ःखी होकर ःख के आवत म बार-बार भटकता रहता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-२ – उ े शक-४
सू - ८४
तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अथ-सं ही मनु य के शरीर म अनेक कार के रोग-उ पात
उ प हो जाते ह । वह जनके साथ रहता है, वे ही व-जन एकदा उसका तर कार व नदा करने लगते ह । बाद म
वह भी उनका तर कार व नदा करने लगता है । हे पु ष ! वजना द तुझे ाण दे ने म, शरण दे ने म समथ नह ह । तू
भी उ ह ाण या शरण दे ने म समथ नह है । ःख और सुख– येक आ मा का अपना-अपना है, यह जानकर
(इ य पर वजय ा त करे) । कुछ मनु य, जो इ य पर वजय ा त नह कर पाते, वे बार-बार भोग के वषय म
ही सोचते रहते ह ।
सू - ८५
यहाँ पर कुछ मनु य को अपने, सर के अथवा दोन के स म लत य न से अ प या ब त अथ-मा ा हो
जाती है । वह फर उस अथ-मा ा म आस होता है । भोग के लए उसक र ा करता है । भोग के बाद बची ई
वपुल संप के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है । फर जीवन म कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद
ह सा बँटाते ह, चोर उसे चूरा लेते ह, राजा उसे छ न लेता है, वह अ य कार से न - वन हो जाती है । गृह-दाह
आ द से जलकर भ म हो जाती है ।
अ ानी मनु य इस कार सर के लए अनेक ू र कम करता आ ( ःख के हेतु का नमाण करता है) फर
ःखोदय होने पर वह मूढ़ बनकर वपयास भाव को ा त होता है ।
सू - ८६
हे धीर पु ष ! तू आशा और व दता याग दे । उस भोगे ा प श य का सृजन तूने वयं ही कया है ।
जस भोगसाम ी से तुझे सुख होता है उससे सुख नह भी होता है । जो मनु य मोहक सघनतासे आवृत ह, ढ़ं के ह, वे
इस त य को क पौद्ग लक साधन से कभी सुख मलता है, कभी नह , वे ण-भंगुर ह, तथा वे ही श य नह जानते
यह संसार य के ारा परा जत है । हे पु ष ! वे ( य से परा जत जन) कहते ह – ये याँ आयतन ह
( क तु उनका) यह कथन, ःख के लए एवं मोह, मृ यु, नरक तथा नरक- तयच ग त के लए होता है ।
सतत मूढ़ रहने वाला मनु य धम को नह जान पाता । भगवान महावीर ने कहा है – महामोह म अ म रहे ।
बु मान पु ष को माद से बचना चा हए । शा त और मरण को दे खने वाला ( माद न करे) यह शरीर भंगरु धमा हे,
यह दे खने वाला ( माद न करे) ।
ये भोग (तेरी अतृ त क यास बुझाने म) समथ नह है । यह दे ख । तुझे इन भोग से या योजन है ?
सू - ८७
हे मु न ! यह दे ख, ये भोग महान भय प ह । भोग के लए कसी ाणी क हसा न कर । वह वीर
शंसनीय होता है, जो संयम से उ न नह होता । ‘ यह मुझे भ ा नह दे ता’ ऐसा सोचकर कु पत नह होना चा हए
थोड़ी भ ा मलने पर दाता क नदा नह करनी चा हए । गृह वामी दाता ारा तबंध करने पर शा त भाव से
वापस लौट जाए । मु न इस मौन (मु नधम) का भलीभाँ त पालन करे ।
अ ययन-२ – उ े शक-५
सू - ८८
असंयमी पु ष अनेक कार के श ारा लोक के लए कम समारंभ करते ह । जैसे– अपने लए, पु ,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 15


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
पु ी, पु -वधू, ा तजन, धाय, राजा, दास-दासी, कमचारी, कमचा रणी, पा ने आ द के लए तथा व वध लोग को
दे ने के लए एवं सायंकालीन तथा ातःकालीन भोजन के लए । इस कार वे कुछ मनु य के भोजन के लए स ध
और स चय करते रहते ह ।
सू - ८९
संयम-साधना म त पर आ आय, आय और आयदश अनगार येक या उ चत समय पर ही करता
है । वह ‘ यह श ा का समय-सं ध है’ यह दे खकर ( भ ा के लए जाए) । वह सदोष आहार को वयं हण न करे, न
सर से हण करवाए तथा हण करने वाले का अनुमोदन नह करे ।
वह (अनगार) सब कार के आमगंध (आधाकमा द दोषयु आहार) का प रवजन करता आ नद ष
भोजन के लए प र जन करे ।
सू - ९०
वह व तु के य- व य म संल न न हो । न वयं य करे, न सर से य करवाए और न य करने वाले
का अनुमोदन करे । वह भ ु काल है, बल है, मा है, े है, ण है, वनय है, समय है, भाव है ।
प र ह पर मम व नह रखने वाला, उ चत समय पर उ चत काय करने वाला अ त है ।
सू - ९१
वह राग और े ष– दोन का छे दन कर नयम तथा अनास पूवक जीवन या ा करता है । वह (संयमी) व ,
पा , क बल, पाद छन, अव ह और कटासन आ द (जो गृह के लए न मत ह ) उनक याचना करे ।
सू - ९२
आहार ा त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसक मा ा का ान होना चा हए । ई त आहार
आ द ा त होने पर उसका मद नह करे । य द ा त न हो तो शोक न करे । य द अ धक मा ा म ा त हो, तो उसका
सं ह न करे । प र ह से वयं को र रखे ।
सू - ९३
जस कार गृह प र ह को मम व भाव से दे खते ह, उस कार न दे खे – अ य कार से दे खे और प र ह
का वजन करे । यह माग आय ने तपा दत कया है, जससे कुशल पु ष (प र ह म) ल त न हो । ऐसा म कहता ँ
सू - ९४
ये काम ल य है । जीवन बढ़ाया नह जा सकता, यह पु ष कामभोग क कामना रखता है ( क तु यह
प रतृ त नह होती, इस लए) वह शोक करता है फर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और प रताप
से ःखी होता रहता है ।
सू - ९५
वह आयतच ु– द घदश लोकदश होता है । यह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊ व भाग को जानता है,
तीरछे भाग को जानता है । (कामभोग म) गृ आ आस पु ष संसार म अनुप रवतन करता रहता है ।
यहाँ (संसार म) मनु य के, (मरणधमाशरीर क ) सं ध को जानकर ( वर हो) ।
वह वीर शंसा के यो य है जो (कामभोग म) ब को मु करता है । (यह दे ह) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है,
जैसा बाहर है वैसा भीतर है । इस शरीर के भीतर-भीतर अशु भरी ई है, साधक इसे दे ख । दे ह से झरते ए अनेक
अशु च- ोत को भी दे ख । इस कार पं डत शरीर क अशु चता को भली-भाँ त दे ख ।
सू - ९६
वह म तमान् साधक (उ वषय को) जानकर तथा यागकर लार को न चाटे । अपने को तयक्माग म,
(कामभोग के बीच म) न फँसाए । यह पु ष सोचता है – मने यह काय कया, यह काय क ँ गा (इस कार) वह सर
को ठगता है, माया-कपट रचता है, और फर अपने रचे मायाजाल म वयं फँसकर मूढ़ बन जाता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 16


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
वह मूढ़भाव से त फर लोभ करता है और ा णय के साथ अपना वैर बढ़ाता है । जो म यह कहता ँ वह
इस शरीर को पु बनाने के लए ही ऐसा करता है । वह कामभोग म महान ा रखता आ अपने को अमर क
भाँ त समझता है । तू दे ख, वह आत तथा ःखी है । प र ह का याग नह करने वाला दन करता है ।
सू - ९७
तुम उसे जानो, जो म कहता ँ । अपने को च क सा-पं डत बताते ए कुछ वै , च क सा म वृ होते ह ।
वह अनेक जीव का हनन, भेदन, लु न, वलु न और ाण-वध करता है । ‘ जो पहले कसी ने नह कया, ऐसा म
क ँ गा, ’ यह मानता आ (जीव-वध करता है) । जसक च क सा करता है (वह भी जीव-वध म सहभागी होता है) ।
(इस कार क हसा- धान च क सा करने वाले) अ ानी क संग त से या लाभ है ? जो ऐसी च क सा करवाता
है, वह भी बाल-अ ानी है । अनगार ऐसी च क सा नह करवाता । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-२ – उ े शक-६
सू - ९८
वह उसको स यक् कार से जानकर संयम साधना से समु त होता है । इस लए वह वयं पापकम न करे,
सर से न करवाए (अनुमोदन भी न करे) ।
सू - ९९
कदा चत् कसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छह जीव-काय म (सभी का) समारंभ कर
सकता है । वह सुख का अ भलाषी, बार-बार सुख क ई ा करता है, ( क तु) व-कृत कम के कारण, मूढ़ बन जाता
है और वषया द सुख के बदले ःख को ा त करता है । वह अपने अ त माद के कारण ही अनेक यो नय म मण
करता है, जहाँ पर क ाणी अ य त ःख भोगते ह । यह जानकर प र ह का संक प याग दे वे । यही प र ा
कहा जाता है । इसी से (प र ह- याग से) कम क शा त होती है ।
सू - १००
जो मम व-बु का याग करता है, वह मम व का याग करता है ।
वही -पथ मु न है, जीसने मम व का याग कर दया है । यह जानकर मेधावी लोक व प को जाने ।
लोक-सं ा का याग करे, तथा संयम म पु षाथ करे । वा तव म उसे ही म तमान् कहा गया है – ऐसा म कहता ँ।
सू - १०१
वीर साधक अर त को सहन नह करता, और र त को भी सहन नह करता । इस लए वह वीर इन दोन म ही
अ वमन क रहकर र त-अर त म आस नह होता ।
सू - १०२
मु न (मधुर एवं कटु ) श द ( प, रस, ग ) और श को सहन करता है । इस असंयम जीवन म होने वाले
आमोद आ द से वरत होता है ।
मु न मौन (संयम) को हण करके कम-शरीर को धुन डालता है ।
सू - १०३
वे सम वदश वीर साधक खे-सूखे का समभाव पूवक सेवन करते ह । वह मु न, ज म-मरण प संसार
वाह को तैर चूका है, वह वा तव म मु , वरत कहा जाता है । ऐसा म कहता ँ ।
सू - १०४
जो पु ष वीतराग क आ ा का पालन नह करता वह संयम-धन से र हत है । वह धम का कथन करने म
ला न का अनुभव करता है, ( य क) वह चा र क से तु जो है । वह वीर पु ष (जो वीतराग क आ ा के
अनुसार चलता है) सव शंसा ा त करता है और लोक-संयोग से र हट जाता है, मु हो जाता है । यही या य
(तीथकर का) माग कहा जाता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 17


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - १०५
यहाँ (संसार म) मनु य के जो ःख बताए ह, कुशल पु ष उस ःख को प र ा- ववेक बताते ह । इस कार
कम को जानकर सव कार से ( नवृ करे) । जो अन य (आ मा) को दे खता है, वह अन य म रमण करता है । जो
अन य म रमण करता है, वह अन य को दे खता है ।
(आ मदश ) साधक जैसे पु यवान को धम-उपदे श करता है, वैसे ही तु को भी धम उपदे श करता
है और जैसे तु को धम पदे श करता है, वैसे ही पु यवान को भी धम पदे श करता है ।
सू - १०६
कभी अनादर होने पर वह ( ोता) उसको (धमकथी को) मारने भी लग जाता है । अतः यहाँ यह भी जाने
धमकथा करना ेय नह है । पहले धम पदे शक को यह जान लेना चा हए क यह पु ष कौन है ? कस दे वता को
मानता है ?
वह वीर शंसा के यो य है, जो ब मनु य को मु करता है । वह ऊंची, नीची और तीरछ दशा म, सब
कार से सम प र ा/ ववेक ान के साथ चलता है । वह हसा- ान से ल त नह होता ।
वह मेधावी है, जो अ हसा का सम व प जानता है, तथा जो कम के बंधन से मु होने क अ वेषणा
करता है । कुशल पु ष न बंधे ए ह और न मु ह।
सू - १०७
उन कुशल साधक ने जसका आचरण कया है और जसका आचरण नह कया है (यह जानकर मण)
उनके ारा अनाच रत वृ का आचरण न करे । हसा को जानकर उसका याग कर दे । लोक-सं ा को भी सव
कार से जाने और छोड़ दे ।
सू - १०८
ा के लए कोई उ े श (अथवा उपदे श) नह है । बाल बार-बार वषय म नेह करता है । काम-ई ा और
वषय को मनो समझकर (सेवन करता है) इसी लए वह ःख का शमन नह कर पाता । वह ःख से ःखी बना
आ ःख के च म ही प र मण करता रहता है । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-२ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 18


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-३ – शीतो णीय


उ े शक-१
सू - १०९
अमु न (अ ानी) सदा सोये ए ह, मु न ( ानी) सदै व जागते रहते ह ।
सू – ११०, १११
इस बात को जान लो क लोक म अ ान अ हत के लए होता है । लोक म इस आचार को जानकर (संयम म
बाधक) जो श ह, उनसे उपरत रहे ।
जस पु ष ने श द, प, ग , रस और श को स यक् कार से प र ात कया है– (जो उनम राग े ष न
करता हो) । वह आ मवान्, ानवान्, वेदवान्, धमवान् और वान् होता है ।
जो पु ष अपनी ा से लोक को जानता है, वह मु न कहलाता है । वह धमवे ा और ऋजु होता है । (वह)
संग को आवत- ोत (ज म-मरणा द च ोत) के प म ब त नकट से जान लेता है ।
सू - ११२
वह न शीत और उ ण (सुख और ःख) का यागी (इनक लालसा से) मु होता है तथा वह अर त और
र त को सहन करता है तथा शज य सुख- ःख का वेदन नह करता । जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस कार
ःख से मु पा जाएगा ।
बुढ़ापे और मृ यु के वश म पड़ा आ मनु य सतत मूढ़ बना रहता है । वह धम को नह जान पाता ।
सू - ११३
(सु
त) मनु य को ःख से आतुर दे खकर साधक सतत अ म होकर वचरण करे । हे म तमान् ! तू
मननपूवक इन ( खय ) को दे ख । यह ःख आर ज है, यह जानकर (तू नरार होकर अ म भाव से आ म हत
म वृ रह) । मया और माद के वश आ मनु य बार-बार ज म लेता है ।
श द और प आ द के त जो उपे ा करता है, वह ऋजु होता है, वह मार के त सदा आशं कत रहता है
और मृ यु से मु हो जाता है । जो कामभोग के तअ म है, पाप कम से उपरत है, वह पु ष वीर और
आ मगु त होता है और जो (अपने आप म सुर त होता है) वह खेद होता है, अथवा वह े होता है ।
जो (श दा द वषय क ) व भ पयायसमूह के न म से होने वाले श (असंयम) के खेद को जानता है,
वह अश के खेद को जानता है, वह ( वषय के व भ ) पयाय से होने वाले श के खेद को जानता है ।
कम से मु आ मा के लए कोई वहार नह होता । कम से उपा ध होती है । कम का भलीभाँ त पया-
लोचन करके (उसे न करने का य न करे) ।
सू - ११४
कम का मूल जो ण- हसा है, उसका भलीभाँ त नरी ण करके (प र याग करे) । इन सबका स यक्
नरी ण करके संयम हण करे तथा दो (राग और े ष) अ त से अ य होकर रहे ।
मेधावी साधक उसे (राग- े षा द को) ात करके ( प र ा से जाने और या यानप र ा से छोड़े ।) वह
म तमान् साधक (रागा द से मूढ़) लोक को जानकर लोकसं ा का याग करके (संयमानु ान म) परा म करे । ऐसा
म कहता ँ ।
अ ययन-३ – उ े शक-२
सू - ११५
हे आय ! तू इस संसार म ज म और बु को दे ख । तू ा णय को (कमब और उसके वपाक प ःख
को) जान और उनके साथ अपने सुख ( ःख) का पयालोचन कर । इससे ै व या अ त व बना आ साधक परम
(मो ) को जानकर (सम वदश हो जाता है) । सम वदश पाप नह करता ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 19


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ११६
इस संसार म मनु य के साथ पाश है, उसे तोड़ ड़ाल; य क ऐसे लोग हसा द पाप प आरंभ करके जीते
ह और आरंभजीवी पु ष इहलोक और परलोक म शारी रक, मान सक कामभोग को ही दे खते रहते ह, अथवा
आरंभजीवी होने से वह द ड आ द के भय का दशन करते ह । ऐसे कामभोग म आस जन (कम का) संचय करते
रहते ह । (कम क जड़) बार-बार स ची जाने से वे पुनः पुनः ज म धारण करते ह ।
सू - ११७
वह (काम-भोगास मनु य) हा य- वनोद के कारण ा णय का वध करके खुशी मनाता है । बाल-अ ानी
को इस कार के हा य आ द वनोद के संग से या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीव के साथ) अपना वैर ही
बढ़ाता है ।
सू - ११८
इस लए अ त व ान् परम-मो पद को जानकर जो ( हसा आ द पाप म) आतंक दे खता है, वह पाप नह
करता । हे धीर ! तू (इस आतंक- ःख के) अ और मूल का ववेक कर उसे पहचान ! वह धीर (रागा द ब न को)
पर करके वयं न कमदश हो जाता है ।
सू - ११९
वह ( न कमदश ) मरण से मु हो जाता है । वह मु न भय को दे ख चूका है । वह लोक म परम (मो ) को
दे खता है । वह राग- े ष र हत शु जीवन जीता है । वह उपशा त, स मत, ( ान आ द से) स हत होता । (अत एव)
सदा संयत होकर, मरण क आकां ा करता आ वचरण करता है ।
(इस जीव ने भूतकाल म) अनेक कार के ब त से पापकम का ब कया है ।
सू - १२०
(उन
कम को न करने हेतु) तू स य म धृ त कर । इस म र रहने वाला मेधावी सम त पापकम का
शोषण कर डालता है ।
सू - १२१
वह (असंयमी)पु ष अनेक च वाला है । वह चलनी को (जल से) भरना चाहता है। (तृ णा क पू त के लए)
सर के वध, प रताप, तथा प र ह के लए तथा जनपद के वध, प रताप और प र ह के लए ( वृ करता है) ।
सू - १२२
इस कार क इस अथ का आसेवन करके संयम-साधना म संल न हो जाते ह । इस लए वे फर
बारा उनका आसेवन नह करते ।
हे ानी ! वषय को न सार दे खकर (तू वषया भलाषा मत कर) । केवल मनु य के ही, ज म-मरण नह ,
दे व के भी उपपात और यवन न त ह, यह जानकर ( वषय-सुख म आस मत हो) । हे माहन ! तू अन य का
आचरण कर । वह (अन यसेवी मु न) ा णय क हसा वयं न करे, न सर से हसा कराए और न हसा करने वाले
का अनुमोदन करे ।
तू (कामभोग-ज नत) आमोद- मोद से वर कर । जा ( य ) म अर रह । अनवमदश (स यग्
दशन- ान-चा र प मो दश साधक) पापकम से उदासीन रहता है ।
सू - १२३
वीर पु ष कषाय के आ द अंग– ोध और मान को मारे, लोभ को महान् नरक के प म दे खे । इस लए
लघुबूत बनने का अ भलाषी, वीर हसा से वरत होकर ोत को छ - भ कर डाले ।
सू - १२४
हे वीर ! इस लोकम (प र ह) को प र ा से जानकर या यानप र ा से आज ही अ वल ब छोड़ दे ,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 20


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
इसी कार (संसार के) ोत भी जानकर दा त बनकर संयमम वचरण कर । यह जानकर क यह (मनु य ज मम)
मनु य ारा उ म न या कम-उ मु होने का अवसर मलता है, मु न ाण का समार न करे। ऐसा म कहता ँ

अ ययन-३ – उ े शक-३
सू - १२५
साधक (धमानु ान क अपूव) स समझकर माद करना उ चत नह है । अपनी आ मा के समान बा -
जगत को दे ख ! (सभी जीव को मेरे समान ही सुख य है, ःख अ य है) यह समझकर मु न जीव का हनन न करे
और न सर से घात कराए ।
जो पर र एक- सरे क आशंका से, भय से, या सरे के सामने ल ा के कारण पाप कम नह करता, तो
या ऐसी त म उसका कारण मु न होता है ? (नह )
सू - १२६
इस त म (मु न) समता क से पयालोचन करके आ मा को साद रखे । ानी मु न अन य परम के
त कदा प माद न करे । वह साधक सदा आ मगु त और वीर रहे, वह अपनी संयम-या ा का नवाह प र मत
आहार से करे ।
वह साधक छोटे या बड़े प – ( यमान पदाथ ) के त वर त धारण करे ।
सू - १२७
सम त ा णय क ग त और आग त को भलीभाँ त जानकर जो दोन अ त (राग और े ष) से र रहता है,
वह सम त लोक म कसी से (कह भी) छे दा नह जाता, भेदा नह जाता, जलाया नह जाता और मारा नह जाता ।
सू - १२८
कुछ (मूढ़म त) पु ष भ व यकाल के साथ पूवकाल का मरण नह करते । वे च ता नह करते क इसका
अतीत या था, भ व य या होगा ? कुछ ( म या ानी) मानव य कह दे ते ह क जो इसका अतीत था, वही भ व य
होगा ।
सू - १२९
क तु तथागत (सव ) न अतीत के अथ का मरण करते ह और न ही भ व य के अथ का च तन करते ह।
( जसने कम को व वध कार से धूत कर दया है, ऐसे) वधूत समान क पवाला मह ष इ ह के दशन का अनुगामी
होता है, अथवा वह पक मह ष वतमान का अनुदश हो (पूव सं चत) कम का शोषण करके ीण कर दे ता है ।
सू - १३०
उस (धूत-क प)योगी के लए भला या अर त है और या आन द है? वह इस वषय म बलकुल हण
र हत होकर वचरण करे । वह सभी कार के हा य आ द याग करके इ य न ह तथा मन-वचन-काया को तीन
गु तय से गु त करते ए वचरण करे । हे पु ष ! तू ही मेरा म है, फर बाहर अपने से भ म य ढूँ ढ़ रहा है ?
सू - १३१
जसे तुम उ भू मका पर त समझते हो, उसका घर अ य त र समझो, जसे अ य त र समझते हो
उसे तुम उ भू मका पर त समझो ।
हे पु ष ! अपना ही न ह कर । इसी व ध से तू ःख से मु ा त कर सकेगा । हे पु ष ! तू स य को ही
भलीभाँ त समझ ! स य क आ ा म उप त रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है ।
स य या ाना द से यु साधक धम हण करके ेय (आ म- हत) का स यक् कार से अवलोकन करता है
सू - १३२
राग और े ष (इन) दोन से कलु षत आ मा जीवन क व दना, स मान और पूजा के लए वृ होता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 21


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
कुछ साधक भी इन के लए माद करते ह ।
सू - १३३
ाना द से यु साधक ःख क मा ा से ृ होने पर ाकुल नह होता । आ म ा वीतराग पु ष लोक
म आलोक के सम त पंच से मु हो जाता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-३ – उ े शक-४
सू - १३४
वह (साधक) ोध, मान, माया और लोभ का वमन कर दे ता है । यह दशन हसा से उपरत तथा सम त कम
का अ त करने वाले सव -सवदश का है । जो कम के आदान का नरोध करता है, वही व-कृत का भे ा है ।
सू - १३५
जो एक को जानता है, वह सब को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है ।
सू - १३६
म को सब ओर से भय होता है, अ म को कह से भी भय नह होता । जो एक को झुकाता है, वह
ब त को झुकाता है, जो ब त को झुकाता है, वह एक को झुकाता है ।
साधक लोक के ःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का याग करे)
वीर साधक लोक के संयोग का प र याग कर महायान को ा त करते ह । वे आगे से आगे बढ़ते जाते ह,
उ ह फर जीवन क आकां ा नह रहती ।
सू - १३७
एक को पृथक् करने वाला, अ य (कम ) को भी पृथक् कर दे ता है, अ य को पृथक् करने वाला, एक को भी
पृथक् कर दे ता है । (वीतराग क ) आ ा म ा रखने वाला मेधावी होता है ।
साधक आ ा से लोक को जानकर ( वषय ) का याग कर दे ता है, वह अकुतोभय हो जाता है । श
(असंयम) एक से एक बढ़कर ती ण से ती णतर होता है क तु अश (संयम) एक से एक बढ़कर नह होता ।
सू - १३८
जो ोधदश होता है, वह मानदश होता है, जो मानदश होता है; जो मानदश होता है, वह मायादश होता
है, जो मायादश होता है, वह लोभदश होता है; जो लोभदश होता है, वह ेमदश होता है; जो म
े दश होता है, वह
े षदश होता है; जो े षदश होता है, वह मोहदश होता है; जो मोहदश होता है, वह गभदश होता है; जो गभदश
होता है, वह ज मदश होता है, जो ज मदश होता है, वह मृ युदश होता है; जो मृ युदश होता है, वह नरकदश होता
है; जो नरकदश होता है, वह तयचदश होता है; जो तयचदश होता हे, वह ःखदश होता है
(अतः) वह मेधावी ोध, मान, माया, लोभ, म
े , े ष, मोह, गभ, ज म, मृ यु, नरक, तयच और ःख को
वापस लौटा दे । यह सम त कम का अ त करने वाले, हसा-असंयम से उपरत एवं नरावरण ा का दशन है ।
जो पु ष कम के आदान को रोकता है, वही कम का भेदन कर पाता है ।
या सव- ा क कोई उप ध होती है ? नह होती । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-३ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 22


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-४ – स य व
उ े शक-१
सू - १३९
म कहता ँ – जो अह त भगवान अतीत म ए ह, जो वतमान म ह और जो भ व य म ह गे– वे सब ऐसा
आ यान करते ह, ऐसा भाषण करते ह, ऐसा ापन करते ह, ऐसा पण करते ह– सम त ा णय , सव भूत ,
सभी जीव और सभी स व का हनन नह करना चा हए, बलात् उ ह शा सत नह करना चा हए, न उ ह दास बनाना
चा हए, न उ ह प रताप दे ना चा हए और न उनके ाण का वनाश करना चा हए ।
यह अ हसा धम शु , न य और शा त है । खेद अह त ने लोक को स यक् कार से जानकर इसका
तपादन कया है । जैसे क–
जो धमाचरण के लए उठे ह, अथवा अभी नह उठे ह; जो धम वण के लए उप त ए ह, या नह ए ह; जो
द ड दे ने से उपरत ह, अथवा अनुपरत ह; जो उप ध से यु ह, अथवा उप ध से र हत ह, जो संयोग म रत ह, अथवा
संयोग म रत नह ह । वह (अह पत धम) स य है, त य है यह इस म स यक् कार से तपा दत है ।
सू - १४०
साधक उस (अहत् भा षत-धम) को हण करके (उसके आचरण हेतु अपनी श य को) छपाए नह और
न ही उसे छोड़े । धम का जैसा व प है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे) । (इ -अ न ) प (इ य वषय ) से
वर ा त करे । वह लोकैषणा म न भटके ।
सू - १४१
जस मुमु ु म यह बु नह है, उससे अ य (साव ा ) वृ कैसे होगी ? अथवा जसम स य व ा त
नह है या अ हसा बु नह है, उसम सरी ववेक बु कैसे होगी ? यह जो (अ हसा धम) कहा जा रहा है, वह इ ,
ुत, मत और वशेष प से ात है । हसा म (गृ पूवक) रचे-पचे रहने वाले और उसी म लीन रहने वाले मनु य
बार-बार ज म लेते रहते ह ।
सू - १४२
(मो माग म) अह नश य न करने वाले, सतत ावान्, धीर साधक ! उ ह दे ख जो म ह, (धम से) बाहर
ह । इस लए तू अ म होकर सदा (धम म) परा म कर । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-४ – उ े शक-२
सू - १४३
जो आ व (कमब ) के ान ह, वे ही प र व-कम नजरा के ान बन जाते ह, जो प र व ह, वे आ व
हो जाते ह, जो अना व- त वशेष ह, वे भी अप र व-कम के कारण हो जाते ह, (इसी कार) जो अप र व, वे भी
अना व नह होते ह । इन पद को स यक् कार से समझने वाला तीथकर ारा तपा दत लोक को आ ा के
अनुसार स यक् कार से जानकर आ व का सेवन न करे ।
सू - १४४
ानी पु ष, इस वषयम, संसारम त, स यक् बोध पाने को उ सुक एवं व ान- ा त मनु य को उपदे श
करते ह। जो आत अथवा म होते ह, वे भी धम का आचरण कर सकते ह । यह यथात य-स य है, ऐसा म कहता ँ
जीव को मृ यु के मुख म जाना नह होगा, ऐसा स व नह है । फर भी कुछ लोग ई ा ारा े रत और
व ता के घर बने रहते ह । वे मृ यु क पकड़ म आ जाने पर भी कम-संचय करने या धन-सं ह म रचे-पचे रहते ह।
ऐसे लोग व भ यो नय म बारंबार ज म हण करते रहते ह ।
सू - १४५
इस लोक म कुछ लोग को उन-उन ( व भ मतवाद ) का स क होता है, (वे) लोक म होनेवाले ःख का

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 23


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
संवेदन करते ह । जो अ य त गाढ़ अ यवसायवश ू र कम से वृ होता है, वह अ य त गाढ़ वेदना वाले
ान म उ प नह होता ।
यह बात चौदह पूव के धारक ुतकेवली आ द कहते ह या केवल ानी भी कहते ह । जो यह बात केवल-
ानी कहते ह वही ुतकेवली भी कहते ह ।
सू - १४६
इस मत-मता तर वाले लोक म जतने भी, जो भी मण या ा ण ह, वे पर र वरोधी भ - भ मतवाद
का तपादन करते ह । जैसे क कुछ मतवाद कहते ह–‘ हमने यह दे ख लया है, सून लया है, मनन कर लया है और
वशेष प से जान भी लया है, ऊंची, नीची और तरछ सब दशा म सब तरह से भली-भाँ त इसका नरी ण भी
कर लया है क सभी ाणी, सभी जीव, सभी भूत और सभी स व हनन करने यो य ह, उन पर शासन कया जा
सकता है, उ ह प रताप प ँचाया जा सकता है, उ ह गुलाम बनाकर रखा जा सकता है, उ ह ाणहीन बनाया जा
सकता है । इसके स ब म यही समझ लो क हसा म कोई दोष नह है ।’ यह अनाय लोग का कथन है ।
इस जगत म जो भी आय ह, उ ह ने ऐसा कहा है – ‘ ओ हसावा दय ! आपने दोषपूण दे खा है, दोषयु सूना
है, दोषयु मनन कया है, आपने दोषयु ही समझा है, ऊंची-नीची- तरछ सभी दशा म सवथा दोषपूण होकर
नरी ण कया है, जो आप ऐसा कहते ह, ऐसा भाषण करते ह, ऐसा ापन करते ह, ऐसा पण करते ह क
सभी ाण, भूत, जीव और स व हनन करने यो य ह, यावत् ाणहीन बनाया जा सकता है; यह न त समझ लो क
हसा म कोई दोष नह ।’ यह सरासर अनाय-वचन है ।
हम इस कार कहते ह, ऐसा ही भाषण करते ह, ऐसा ही ापन करते ह, ऐसा ही पण करते ह क सभी
ाण, भूत, जीव और स व क हसा नह करनी चा हए, उनको जबरन शा सत नह करना चा हए, उ ह पकड़कर
दास नह बनाना चा हए, न ही प रताप दे ना चा हए और न उ ह डराना-धमकाना, ाणर हत करना चा हए । इस
सब म न त समझ लो क अ हसा का पालन सवथा दोषर हत है । यह आयवचन है ।
पहले उनम से येक दाश नक को, जो-जो उसका स ा त है, उसे हम पूछगे– ‘ ‘ हे दाश नक ! आपको
ःख य है या अ य ? य द आप कह क हम ःख य है, तब वह उ र य - व होगा, य द आप कह क
हम ःख य नह है, तो आपके ारा इस स यक् स ा त के वीकार कए जान पर हम आपसे यह कहना चाहगे
क, जैसे आपको ःख य नह है, वैसे ही सभी ाणी, भूत, जीव और स व को ःख असाताकारक है, अ य है,
अशा तजनक है और महाभयंकर है ।’ ’ ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-४ – उ े शक-३
सू - १४७
इस (पूव अ हसा द धम से) वमुख जो लोग ह, उनक उपे ा कर ! जो ऐसा करता है, वह सम त मनु य
लोक म अ णी व है । तू अनु च तन करके दे ख– ज ह ने द ड का याग कया है, (वे ही े व ान होते ह ।) जो
स वशील मनु य धम के स यक् वशेष होते ह, वे ही कम का य करते ह । ऐसे मनु य धमवे ा होते ह, अतएव वे
सरल होते ह, शरीर के त अनास या कषाय पी अचा को वन कये ए होते ह ।
इस ःख को आर से उ प आ जानकर (सम त हसा का याग करना चा हए) ऐसा सम वद शय ने
कहा है । वे सब ावा दक होते ह, वे ःख को जानने म कुशल होते ह । इस लए वे कम को सब कार से जानकर
उनको याग करने का उपदे श दे ते ह ।
सू - १४८
यहाँ (अह वचनम) आ ा का आकां ी प डत अनास होकर एकमा आ मा को दे खता आ, शरीर को
क त कर डाले । अपने कषाय-आ मा को कृश करे, जीण कर डाले । जैसे अ न जीण का को शी जला डालत
है, वैसे ही समा हत आ मा वाला वीतराग पु ष क त, कृश एवं जीण ए कषाया मा को शी जला डालता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 24


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - १४९
यह मनु य-जीवन अ पायु है, यह स े ा करता आ साधक अक त रहकर ोध का याग करे ।
( ोधा द से) वतमानम अथवा भ व यम उ प होनेवाले ःख को जाने । ोधी पु ष भ - भ नरका द ान म
वभ ःख का अनुभव करता है । ाणीलोक को इधर-उधर भाग-दौड़ करते दे ख ! जो पु ष पापकम से नवृ ह,
वे अ नदान कहे गए ह। इस लए हे अ त व ान् ! तू ( वषय-कषाय क अ न से) व लत मत हो। – ऐसा म कहता ँ
अ ययन-४ – उ े शक-४
सू - १५०
मु न पूव-संयोग का याग कर उपशम करके (शरीर का) आपीड़न करे, फर पीड़न करे और तब न पीड़न
करे । मु न सदा अ वमना, स मना, वारत, स मत, स हत और वीर होकर (इ य और मन का) संयमन करे ।
अ म होकर जीवन-पय त संयम-साधन करने वाले, अ नवृ गामी मु नय का माग अ य त रनुचर होता
है । (संयम और मो माग म व न करने वाले शरीर का) माँस और र ( वकट तप रण ारा) कम कर ।
यह (उ वकट तप वी) पु ष संयमी, राग े ष का वजेता होने से परा मी और सर के लए अनुकर-णीय
आदश तथा मु गमन के यो य होता है । वह चय म ( त) रहकर शरीर या कमशरीर को (तप रण आ द से)
धुन डालता है ।
सू - १५१
ने आ द इ य पर नयं ण का अ यास करते ए भी जो पुनः कम के ोत म गृ हो जाता है तथा जो
ज म-ज म के कमब न को तोड़ नह पाता, संयोग को छोड़ नह सकता, मोह-अ कार म नम न वह बाल-
अ ानी मानव अपने आ म हत एवं मो ोपाय को नह जान पाता । ऐसे साधक को आ ा का लाभ नह ा त होता ।
ऐसा म कहता ँ ।
सू - १५२
जसके (अ तःकरण म भोगास का) पूव-सं कार नह है और प ात् का संक प भी नह है, बीच म उसके
(मन म वक प) कहाँ से होगा ? ( जसक भोगकां ाएं शा त हो गई ह ।) वही वा तव म ानवान् है, बु है और
आर से वरत है । यह स यक् है, ऐसा तुम दे खो– सोचो ।
(भोगास के कारण) पु ष ब , वध, घोर प रताप और दा ण ःख पाता है ।
(अतः)
पापकम के बा एवं अ तरंग ोत को ब द करके इस संसार म मरणधमा ा णय के बीच तुम
न कमदश बन जाओ ।
कम अपना फल अव य दे ते ह, यह दे खकर ानी पु ष उनसे अव य ही नवृ हो जाता है ।
सू - १५३
हे आय ! जो साधक वीर ह, स मत ह, स हत ह, संयत ह, सतत शुभाशुभदश ह, (पापकम से) वतः उपरत
ह, लोक जैसा है उसे वैसा ही दे खते ह, सभी दशा म भली कार स य म त हो चूके ह, उन के स यग् ान का
हम कथन करगे, उसका उपदे श करगे ।
(ऐसे) स य ा वीर के कोई उपा ध होती है ? नह होती । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-४ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 25


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-५ – लोकसार
उ े शक-१
सू - १५४
इस लोक म जतने भी कोई मनु य स योजन या न योजन जीव क हसा करते ह, वे उ ह जीव म
व वध प म उ प होते ह । उनके लए श दा द काम का याग करना ब त क ठन होता है ।
इस लए (वह) मृ यु क पकड़ म रहता है, इस लए अमृत (परमपद) से र होता है । वह (कामना का
नवारण करने वाला) पु ष न तो मृ यु क सीमा म रहता है और न मो से र रहता है ।
सू - १५५
वह पु ष (कामना यागी) कुश क न क को छु ए ए (बारंबार सरे जलकण पड़ने से) अ र और वायु के
झ के से े रत होकर गरते ए जल ब क तरह जीवन को (अ र) जानता-दे खता है । बाल, म द का जीवन भी
इसी तरह अ र है, पर तु वह (जीवन के अ न य व) को नह जान पाता । वह बाल– हसा द ू र कम उ कृ प से
करता आ तथा उसी ःख से मूढ़ उ न होकर वह वपरीत दशा को ा त होता है । उस मोह से बार-बार गभ म
आता है, ज म-मरणा द पाता है । इस (ज म-मरण क परंपरा) म उसे बारंबार मोह उ प होता है ।
सू - १५६
जसे संशय का प र ान हो जाता है, उसे संसार के व प का प र ान हो जाता है । जो संशय को नह
जानता, वह संसार को भी नह जानता ।
सू - १५७
जो कुशल है, वह मैथुन सेवन नह करता । जो ऐसा करके उसे छपाता है, वह उस मूख क सरी मूखता है।
उपल कामभोग का पयालोचन करके, सव कार से जानकर उ ह वयं सेवन न करे और सर को भी कामभोग
के कटु फल का ान कराकर उनके अनासेवन क आ ा दे , ऐसा म कहता ँ ।
सू - १५८
हे साधको ! व वध कामभोग म गृ जीव को दे खो, जो नरक- तयच आ द यातना- ान म पच रहे ह–
उ ह वषय से खचे जा रहे ह । इस संसार वाह म उ ह ान का बारंबार श करते ह । इस लोक म जतने भी
मनु य आर जीवी ह, वे इ ह ( वषयास य ) के कारण आर जीवी ह । अ ानी साधक इस संयमी जीवन म
भी वषय- पपासा से छटपटाता आ अशरण को ही शरण मानकर पापकम म रमण करता है ।
इस संसार के कुछ साधक अकेले वचरण करते ह । य द वह साधक अ य त ोधी ह, अतीव अ भमानी ह,
अ य त मायी ह, अ त लोभी ह, भोग म अ यास ह, नट क तरह ब पया ह, अनेक कार क शठता करता है,
अनेक कार के संक प करता है, हसा द आ व म आस रहता है, कम पी पलीते से लपटा आ है, ‘ म भी साधु
,ँ धमाचरण के लए उ त आ ँ’ , इस कार से उ तवाद बोलता है, ‘ मुझे कोई दे ख न ले’ इस आशंका से छप-
छपकर अनाचार करता है, वह यह सब अ ान और माद दोष से सतत मूढ़ बना (है), वह मोहमूढ़ धम नह जानता ।
हे मानव ! जो लोग जा ( वषय-कषाय ) से आ -पी ड़त ह, कमब न करने म ही चतुर ह, जो आ व से
वरत नह ह, जो अ व ा से मो ा त होना बतलाते ह, वे संसार के भंवर-जाल म बराबर च कर काटते रहते ह । –
ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-२
सू - १५९
इस मनु य लोक म जतने भी अनार जीवी ह, वे (अनार - वृ गृह ) के बीच रहते ए भी अना-
र जीवी ह । इस साव से उपरत अथवा आहत्शासन म त अ म मु न खयह स ह । – ऐसा दे खकर उसे
ीण करता आ ( णभर भी माद न करे) ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 26


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
‘ इस
औदा रक शरीर का यह वतमान ण है, ’ इस कार जो णा वेषी है, (वह सदा अ म रहता है) । यह
(अ माद का) माग आय ने बताया है ।
(साधक मो साधना के लए) उ त होकर माद न करे । येक का ःख और सुख (अपना-अपना वतं
होता है) यह जानकर माद न करे ।
इस जगत म मनु य पृथक्-पृथक् व भ अ यवसाय वाले होते ह, (इस लए) उनका ःख भी पृथक्-पृथक्
होता है – ऐसा तीथकर ने कहा है ।
वह साधक कसी भी जीव क हसा न करता आ, व तु के व प को अ यथा न कहे । परीषह और
उपसग का श हो तो उनसे होने वाले ःख श को व वध उपाय से े रत होकर समभावपूवक सहन करे ।
सू - १६०
ऐसा साधक श मता या समता का पारगामी, कहलाता है ।
जो साधक पापकम म आस नह है, कदा चत् उ ह आतंक श करे, ऐसे संग पर धीर (वीर) तीथकर
महावीर न कहा क ‘ उन ःख श को (समभावपूवक) सहन करे ।’
यह य लगने वाला शरीर पहले या पीछे अव य छू ट जाएगा । इस प-दे ह के व प को दे खो, छ - भ
और व वंस होना, इसका वभाव है । यह अ ुव, अ न य, अशा त है, इसम उपचय-अपचय होता है, प रवतन होते
रहना इसका वभाव है ।
सू - १६१
जो आ म-रमण प आयतन म लीन है, मोह ममता से मु है, उस हसा द वरत साधक के लए संसार-
मण का माग नह है – ऐसा म कहता ँ ।
सू - १६२
इस जगत म जतने भी ाणी प र हवान ह, वे अ प या ब त, सू म या ल ू , स च या अ च व तु का
प र हण करते ह । वे इनम (मू ा के कारण) ही प र हवान ह । यह प र ह ही प र हय के लए महाभय का
कारण होता है । साधक ! असंयमी-प र ही लोग के व – या वृ को दे खो । (इ ह भी महान भय प समझो) ।
जो (प र हज नत) आस य को नह जानता, वह महाभय को पाता है ।
सू - १६३
(प र ह महाभय का हेतु है) यह स यक् कार से तबु है और सुक थत है, यह जानकर परमच ु मान्
पु ष! तू (प र ह से मु होने) पु षाथ कर । (जो प र ह से वरत ह) उनम ही चय होता है । ऐसा म कहता ँ ।
मने सूना है, मेरी आ मा म यह अनुभूत हो गया है क ब और मो तु हारी आ मा म ही त ह । इस
प र ह से वरत अनगार परीषह को मृ युपय त जीवनभर सहन करे ।
जो म ह, उ ह न धम से बाहर समझ (दे ख) । अतएव अ म होकर प र जन- वचरण कर । (और)
इस (प र ह वर त प) मु नधम का स यक् प रपालन कर । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-३
सू - १६४
इस लोक म जतने भी अप र ही साधक ह, वे इन धम पकरण आ द म (मू ा-ममता न रखने के कारण) ही
अप र ही ह । मेधावी साधक (आगम प) वाणी सूनकर तथा प डत के वचन पर च तन-मनन करके (अप र ही)
बने । आय (तीथकर ) ने ‘ समता म धम कहा है ।’
(भगवान महावीर ने कहा) जैसे मने ान-दशन-चा र -इन तीन क स प साधना क है, वैसी साधना
अय ःसा य है । इस लए म कहता ँ – (तुम मो माग क इस सम वत साधना म परा म करो), अपनी श को
छपाओ मत ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 27


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - १६५
(इस मु नधम म मो -माग साधक तीन कार के होते ह) – एक वह होता है, जो पहले साधना के लए उठता
है और बाद म (जीवन पय त) उ त ही रहता है । सरा वह है – जो पहले साधना के लए उठता है, क तु बाद म
गर जाता है । तीसरा वह होता है – जो न तो पहले उठता है और न ही बाद म गरता है ।
जो साधक लोक को प र ा से जान और याग कर पुनः उसी का आ य लेता या ढूँ ढ़ता है, वह भी वैसा ही
(गृह तु य) हो जाता है ।
सू - १६६
इस (उ ान-पतन के कारण) को केवल ानालोक से जानकर मु न ने कहा– मु न आ ा म च रखे, वह
प डत है, अतः नेह से र रहे । रा के थम और अ तम भाग म ( वा याय म) य नवान रहे, सदा शील का
स े ण करे (लोक म सारभूत त व को) सूनकर काम और लोभे ा से मु हो जाए ।
इसी (कम-शरीर) के साथ यु कर, सर के साथ यु करने म तुझे या मलेगा ?
सू - १६७
(अ तर-भाव) यु के योग अव य ही लभ है । जैसे क तीथकर ने इस (भावयु ) के प र ा और ववेक
(ये दो श ) बताए ह ।
(मो -साधना के लए उ त होकर) होनेवाला अ ानी साधक गभ आ द म फँस जाता है । इस अहत्
शासनम यह कहा जाता है – प (तथा रसा द)म एवं हसाम (आस होनेवाला उ त होकर भी प तत हो जाता है)
केवल वही एक मु न मो पथ पर अ य त रहता है, जो लोक का अ यथा उ े ण करता रहा है अथवा जो
लोक क उपे ा करता रहता है ।
इस कार कम को स यक् कार जानकर वह सब कार से हसा नह करता, संयम का आचरण करता है,
(अकायम वृ होने पर) धृ ता नह करता । येक ाणी का सुख अपना-अपना होता है, यह दे खता आ (वह
कसी क हसा न करे) ।
मु न सम त लोक म कुछ भी आर तथा शंसा का अ भलाषी होकर न करे । मु न अपने एकमा ल य –
मो क ओर मुख करके (चले), वह (मो माग से) वपरीत दशा का तेजी से पार कर जाए, वर होकर चले,
य के त अरत रहे ।
सू - १६८
संयमधनी मु न के लए सव सम वागत ा प अ तःकरण से पापकम अकरणीय है, अतः साधक उनका
अ वेषण न करे । जस स यक् को दे खते हो, वह मु न व को दे खते हो, जस मु न व को दे खते हो, वह स यक् को
दे खते हो । (स य व) का स यक् प से आचरण करना उन साधक ारा श य नह है, जो श थल ह, आस -
मूलक नेह से आ बने ए ह, वषया वादन म लोलुप ह, व ाचारी ह, माद ह, जो गृहवासी ह ।
मु न मु न व हण करके ल
ू और सू म शरीर को क त कर ।
सम वदश वीर ा त और खा आहारा द सेवन करते ह ।
इस ज म-मृ यु के वाह को तैरने वाला मु न तीण, मु और वरत कहलाता है । – ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-४
सू - १६९
जो भ ु (अभी तक) अ अव ाम है, उसका अकेले ामानु ाम वहार करना यात् और परा म है
सू - १७०
क मानव थोड़े-से तकूल वचन सूनकर भी कु पत हो जाते ह । वयं को उ त मानने वाला अ भमानी
मनु य बल मोह से मूढ़ हो जाता है । उसको एकाक वचरण करते ए अनेक कार क उपसगज नत एवं रोग-

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 28


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
आतंक आ द परीषहज नत संबाधाएं बार-बार आती ह, तब उस अ ानी के लए उन बाधा को पार करना अ यंत
क ठन होता है । (ऐसी अ अप रप व अव ा म – म अकेला वचरण क ँ ), ऐसा वचार तु हारे मन म भी न हो
यह कुशल (महावीर) का दशन/उपदे श है । अतः प रप व साधक उस (वीतराग महावीर के दशनम) ही
एकमा रखे, उसी के ारा पत वषय-कषायास से मु म मु माने, उसी को आगे रखकर वचरण
करे, उसीका सं ान सतत सब काय म रखे, उसीके सा य म त लीन होकर रहे । मु न यतनापूवक वहार करे,
च को ग त म एका कर, माग का सतत अवलोकन करते ए चले । जीव-ज तु को दे खकर पैर को आगे बढ़ने से
रोक ले और माग म आने वाले ा णय को दे खकर गमन करे ।
सू - १७१
वह भ ु जाता आ, वापस लौटता आ, अंग को सकोड़ता आ, फैलाता सम त अशुभ वृ य से
नवृ होकर, स यक् कार से प रमाजन करता आ सम त याएं करे ।
कसी समय (यतनापूवक) वृ करते ए गुणस मत अ माद मु न के शरीर का सं श पाकर ाणी
प रताप पाते ह । कुछ ाणी ला न पाते ह अथवा कुछ ाणी मर जाते ह, तो उसके इस ज म म वेदन करने यो य
कम का ब हो जाता है । ( क तु) आकु से वृ करते ए जो कमब होता है, उसका ( य) प र ा से
जानकर दस कार के ाय म से कसी ाय से करे ।
इस कार उसका (कमब का) वलय अ माद (से यथो चत ाय से) होता है, ऐसा आगमवे ा
शा कार कहते ह ।
सू - १७२
वह भूतदश , भूत प र ानी, उपशा त, स म त से यु , स हत, सदा यतनाशील या इ यजयी अ म
मु न (उपसग करने) के लए उ त ीजन को दे खकर अपने आपका पयालोचन करता है – ‘ यह ीजन मेरा या
कर लेगा ? ’ वह याँ परम आराम ह । ( क तु म तो सहज आ मक-सुख से सुखी ँ, ये मुझे या सुख दगी?)
ामधम– (इ य- वषयवासना) से उ पी ड़त मु न के लए मु न तीथकर महावीर भगवान ने यह उपदे श
दया है क– वह नबल आहार करे, ऊनोद रका भी करे, ऊ व ान होकर कायो सग करे– (आतापना ले),
ामानु ाम वहार भी करे, आहार का प र याग करे, य के त आकृ होने वाले मन का प र याग करे ।
( ी-संग म रत अत वद शय को कह -कह ) पहले द ड मलता है और पीछे ( ःख का) श होता है,
अथवा कह -कह पहले ( ी-सुख) श मलता है, बाद म उसका द ड (मार-पीट, आ द) मलता है ।
इस लए ये काम-भोग कलह और आस पैदा करने वाले होते ह । ी-संग से होने वाले ऐ हक एवं पार-
लौ कक प रणाम को आगम के ारा तथा अनुभव ारा समझकर आ मा को उनके अनासेवन क आ ा दे ।
ऐसा म कहता ँ ।
चारी कामकथा– न करे, वासनापूवक से य के अंगोपांग को न दे खे, पर र कामुक भाव का
सारण न करे, उन पर मम व न करे, शरीर क साज-स ा से र रहे, वचनगु त का पालक वाणी से कामुक
आलाप न करे, मन को भी कामवासना क ओर जाते ए नयं त करे, सतत पाप का प र याग करे । इस
(अ चय- वर त प) मु न व को जीवन म स यक् कार से बसा ले । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-५
सू - १७३
म कहता –ँ जैसे एक जलाशय जो प रपूण है, समभूभाग म त है, उसक रज उपशा त है, (अनेक
जलचर जीव का) संर ण करता आ, वह जलाशय ोत के म य म त है । (ऐसा ही आचाय होता है) । इस
मनु यलोक म उन (पूव व प वाले) सवतः गु त मह षय को तू दे ख, जो उ कृ ानवान् (आगम ुत- ाता) ह,
बु ह और आर से वरत ह । यह (मेरा कथन) स यक् है, इसे तुम अपनी तट बु से दे खो ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 29


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
वे काल ा त होने क कां ा-समा ध-मरण क अ भलाषा से (जीवन के अ तम ण तक मो माग म)
प र जन (उ म) करते ह । ऐसा म कहता ँ ।
सू - १७४
व च क सा- ा त आ मा समा ध ा त नह कर पाता । कुछ लघुकमा सत (ब ) आचाय का अनुगमन
करते ह, कुछ अ सत (अ तब ) भी व च क सा द र हत होकर (आचाय का) अनुगमन करते ह । इन अनुगमन
करने वाल के बीच म रहता आ अनुगमन न करने वाला कैसे उदासीन नह होगा ?
सू - १७५
वही स य है, जो तीथकर ारा पत है ।
सू - १७६
ावान् स यक् कार से अनु ा शील एवं या को स यक् वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मु न
जनो त व को स यक् मानता है और उस समय (उ रकाल म) भी स यक् (मानता) रहता है । (२) कोई
याकाल म स यक् मानता है, क तु बाद म कसी समय उसका वहार अस यक् हो जाता है । (३) कोई मु न
( याकाल म) अस यक् मानता है क तु एक दन स यक् हो जाता है । (४) कोई साधक उसे अस यक् मानता है
और बाद म भी अस यक् मानता रहता है । (५) (वा तव म) जो साधक स यक् हो या अस यक्, उसक स यक्
उ े ा के कारण वह स यक् ही होती है । (६) जो साधक कसी व तु को अस यक् मान रहा है, वह स यक् हो या
अस यक्, उसके लए वह अस यक् ही होती है ।
(इस कार) उ े ा करने वाला उ े ा नह करने वाले से कहता है – स यक् भाव समभाव – मा य भाव
से उ े ा करो । इस (पूव ) कार से वहार म होने वाली स यक्-अस यक् क गु ी सुलझाई जा सकती है ।
तुम (संयम म स यक् कार से) उ त और त क ग त दे खो । तुम बाल भाव म भी अपने-आपको
द शत मत करो ।
सू - १७७
तू वही है, जसे तू हनन यो य मानता है; तू वही है, जसे तू आ ा म रखने यो य मानता है; तू वही है, जसे तू
प रताप दे ने यो य मानता है; तू वही है, जसे तू दास बनाने हेतु हण करने यो य मानता है; तू वही है, जसे तू मारने
यो य मानता है । ानी पु ष ऋजु होते ह, वह तबोध पाकर जीने वाला होता है । इसके कारण वह वयं हनन
नह करता और न सर से हनन करवाता है । (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है ।) कृत-कम के अनु प
वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इस लए कसी का हनन करने क ई ा मत करो ।
सू - १७८
जो आ मा है, वह व ाता है और जो व ाता है, वह आ मा है । य क ान से आ मा जानता है, इस लए
वह आ मा है । उस ( ान क व भ प रण तय ) क अपे ा से आ मा क ती त होती है । यह आ म-वाद
स य ता का प रगामी कहा गया है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-५ – उ े शक-६
सू - १७९
कुछ साधक अना ा म उ मी होते ह और कुछ साधक आ ा म अनु मी होते ह । यह तु हारे जीवन म न हो
। यह (अना ा म अनु म और आ ा म उ म) मो माग-दशन-कुशल तीथकर का दशन है ।
साधक उसी म अपनी नयो जत करे, उसी मु म अपनी मु माने, सब काय म उसे आगे करके
वृ हो, उसी के सं ान मरण म संल न रहे, उसी म च को र कर दे , उसी का अनुसरण करे ।
सू - १८०
जसने परीषह-उपसग -बाधा तथा घा तकम को परा जत कर दया है, उसीने त व का सा ा कार कया

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 30


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
है । जो ईससे अ भभूत नह होता, वह नराल बनता पाने म समथ होता है ।
जो महान् होता है उसका मन (संयम से) बाहर नह होता ।
वाद (सव तीथकर के वचन) से वाद ( व भ दाश नक या ती थक के बाद) को जानना चा हए ।
(अथवा) पूवज म क मृ त से, तीथकर से का उ र पाकर, या कसी अ तशय ानी या नमल ुत ानी
आचाया द से सूनकर (यथाथ त व को जाना जा सकता है ।)
सू - १८१
मेधावी नदश (तीथकरा द के आदे श) का अ त मण न करे । वह सब कार से भली-भाँ त वचार करके
स ूण प से पूव जा त- मरण आ द तीन कार से सा य को जाने ।
इस स य (सा य) के प रशीलन म आ म-रमण क प र ा करके आ मलीन होकर वचरण करे । मो ाथ
अथवा संयम-साधना ारा न ताथ वीर मु न आगम- न द अथ या आदे श के अनुसार सदा परा म करे । ऐसा म
कहता ँ ।
सू - १८२
ऊपर नीचे, और म य म ोत ह । ये ोत कम के आ व ार ह, जनके ारा सम त ा णय को आस
पैदा होती है, ऐसा तुम दे खो ।
सू - १८३
(राग- े ष प) भावावत का नरी ण करके आगम वद् पु ष उससे वरत हो जाए । वषयास य के या
आ व के ोत हटाकर न मण करनेवाला यह महान् साधक अकम होकर लोक को य जानता, दे खता है ।
(इस स य का) अ त नरी ण करनेवाला साधक इस लोकम संसार- मण और उसके कारण क प र ा
करके उन ( वषय-सुख ) क आकां ा नह करता ।
सू - १८४
इस कार वह जीव क ग त-आग त के कारण का प र ान करके ा यानरत मु न ज म-मरण के वृ
माग को पार कर जाता है ।
(उस मु ा मा का व प या अव ा बताने के लए) सभी वर लौट जाते ह– वहाँ कोई तक नह है । वहाँ
म त भी वेश नह कर पाती, वह (बु ा नह है) । वहाँ वह सम त कममल से र हत ओज प त ान से र हत
और े (आमा) ही है ।
वह न द घ है, न व है, न वृ है, न कोण है, न चतु कोण है और न प रम डल है । वह न कृ ण है, न
नीला है, न लाल है, न पीला है और न शु ल है । न सुग (यु ) है और न ग (यु ) है । वह न त है, न कड़वा है,
न कसैला है, न ख ा है और न मीठा है, वह न ककश है, न मृ है, न गु है, न लघु है, न ठ डा है, न गम है, न चकना
है, और न खा है । वह कायवान् नह है । वह ज मधमा नह है, वह संगर हत है, वह न ी है, न पु ष है और न
नपुंसक है ।
वह (मु ा मा) प र है, सं है । वह सवतः चैत यमय है । (उसके लए) कोई उपमा नह है । वह अ पी
(अमू ) स ा है । वह पदातीती है, उसको बोध कराने के लए कोई पद नह है ।
सू - १८५
वह न श द है, न प है, न ग है, न रस है और न श है । बस इतना ही है । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-५ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 31


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-६ – धूत
उ े शक-१
सू - १८६
इस म यलोक म मनु य के बीच म ाता वह पु ष आ यान करता है । जसे ये जीव-जा तयाँ सब कार से
भली-भाँ त ात होती ह, वही व श ान का स यग् आ यान करता है ।
वह (स बु पु ष) इस लोक म उनके लए मु -माग का न पण करता है, जो (धमाचरण के लए)
स यक् उ त है, मन, वाणी और काया से ज ह ने द ड प हसा का याग कर वयं को संय मत कया है, जो
समा हत ह तथा स यग् ानवान ह । कुछ ( वरले लघुकमा) महान् वीर पु ष इस कार के ान के आ यान को
सूनकर (संयमम) परा म भी करते ह। ( क तु) उ ह दे खो, जो आ म ा से शू य ह, इस लए (संयमम) वषाद पाते ह
म कहता ँ– जैसे एक कछु आ होता है, उसका च (एक) महा द म लगा आ है । वह सरोवर शैवाल और
कमल के प े से ढका आ है । वह कछु आ उ मु आकाश को दे खने के लए (कह ) छ को भी नह पा रहा है ।
जैसे वृ अपने ान को नह छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग ह (जो अनेक सांसा रक क , आ द बार-बार पाते ए भी
गृहवास को नह छोड़ते) ।
इसी कार क (गु कमा) लोग अनेक कुल म ज म लेते ह, क तु पा द वषय म आस होकर (अनेक
कार के ःख से, उप व से आ ा त होने पर) क ण वलाप करते ह, (ले कन गृहवास को नह छोड़ते)। ऐसा
ःख के हेतुभूत कम से मु नह हो पाते ।
अ ा तू दे ख वे (मूढ़ मनु य) उन कुल म आ म व के लए न नो रोग के शकार हो जाते ह ।
सू – १८७-१८९
ग डमाला, कोढ़, राजय मा, अप मार, काण व, जड़ता, कु ण व, कुबड़ापन । उदररोग, मूकरोग, शोथरोग,
भ मकरोग, क नवात, पंगत
ु ा, ीपदरोग और मधुमेह ।
ये सोलह रोग मशः कहे गए ह । इसके अन तर आतंक और अ या शत ( ःख के) श ा त होते ह।
सू - १९०
उन मनु य क मृ यु का पयालोचन कर, उपपात और यवन को जानकर तथा कम के वपाक का भली-
भाँ त वचार करके उसके यथात य को सूनो । (इस संसार म) ऐसे भी ाणी बताए गए ह, जो अंधे होते ह और
अ कार म ही रहते ह । वे ाणी उसीको एक बार या अनेक बार भोगकर ती और म द श का तसंवेदन करते
ह । बु (तीथकर ) ने इस त
य का तपादन कया है ।
(और भी अनेक कार के) ाणी होते ह, जैसे– वषज, रसज, उदक प– एके य अ का यक जीव या जल
म उ प होने वाले कृ म या जलचर जीव, आकाशगामी प ी आ द वे ाणी अ य ा णय को क दे ते ह ।
(अतः) तू दे ख, लोक म महान् भय है ।
सू - १९१
संसार म जीव ब त ःखी ह । मनु य काम-भोग म आस ह । इस नबल शरीर को सुख दे ने के लए
ा णय के वध क ई ा करते ह । वेदना से पी ड़त वह मनु य ब त ःख पाता है । इस लए वह अ ानी ा णय को
क दे ता है ।
इन (पूव ) अनेक रोग को उ प ए जानकर आतुर मनु य ( च क सा के लए सरे ा णय को)
प रताप दे ते ह । तू ( ववेक से) दे ख । ये ( ा णघातक- च क सा व धयाँ कम दयज नत रोग का शमन करने म)
समथ नह ह । (अतः ।) इनसे तुमको र रहना चा हए ।
मु नवर ! तू दे ख ! यह ( हसामूलक च क सा) महान् भय प है । (इस लए च क सा के न म भी) कसी
ाणी का अ तपात/वध मत कर ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 32


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - १९२
हे मुने ! समझो, सूनने क ई ा करो, म धूतवाद का न पण क ँ गा । (तुम) इस संसार म आ म व से े रत
होकर उन-उन कुल म शु -शो णत के अ भषेक-से माता के गभ म कलल प ए, फर अबुद और पेशी प बने,
तदन तर अंगोपांग- नायु, नस, रोम आ द से म से अ भ न प ए, फर सव होकर संव त ए, त प ात्
अ भस बु ए, फर धम- वण करके वर होकर अ भ न मण कया । इस कार मशः महामु न बनते ह ।
सू - १९३
मो माग-संयम म परा म करते ए उस मु न के माता- पता आ द क ण वलाप करते ए य कहते ह– तुम
हम मत छोड़ो, हम तु हारे अ भ ाय के अनुसार वहार करगे, तुम पर हम मम व है । इस कार आ द करते ए
वे दन करते ह । ..... (वे दन करते ए वजन कहते ह) जसने माता- पता को छोड़ दया है, ऐसा न मु न हो
सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता है ।
वह मु न (पा रवा रक जन का वलाप सूनकर) उनक शरण म नह जाता । वह त व पु ष भला कैसे उस
(गृहवास) म रमण कर सकता है ? मु न इस ान को सदा अ तरह बसा ले । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-६ – उ े शक-२
सू - १९४
(काम-रोग आ द से) आतुर लोक (सम त ा णजगत) को भलीभाँ त जानकर, पूव संयोग को छोड़कर,
उपशम को ा त कर, चय म बास करके बसे (संयमी साधु) अथवा (सराग साधु) धम को यथाथ प से जानकर
भी कुछ कुशील उस धम का पालन करने म समथ नह होते ।
सू - १९५
वे व , पा , क बल एवं पाद- छन को छोड़कर उ रो र आने वाले ः सह परीषह को नह सह सकने
के कारण (मु न-धम का याग कर दे ते ह) ।
व वध कामभोग को अपनाकर गाढ़ मम व रखने वाले का त काल ( या-प र याग के) अ त-
मु म या अप र मत समय म शरीर छू ट सकता है ।
इस कार वे अनेक व न और या अपूणता से यु कामभोग से अतृ त ही रहते ह ।
सू - १९६
यहाँ क लोग, धम को हण करके नमम वभाव से धम पकरणा द से यु होकर, अथवा धमाचरण म
इ य और मन को समा हत करके वचरण करते ह । वह अ ल त/अनास और सु ढ़ रहकर (धमाचरण करते ह)
सम आस को छोड़कर वह (धम के त) णत महामु न होता है, (अथवा) वह महामु न संयम म या
कम को धूनने म वृ होता है । ( फर वह महामु न) सवथा संग का ( याग) करके (यह भावना करे क) , ‘ मेरा कोई
नह है, ’ इस लए ‘ म अकेला ँ ।’
वह इस (तीथकर के संघ) म त, वरत तथा (समाचारी म) यतनाशील अनगार सब कार से मु डत
होकर पैदल वहार करता है, जो अ पव या नव है, वह अ नयतवासी रहता है या अ त- ा तभोजी होता है, वह
भी ऊनोदरी तप का स यक् कार से अनुशीलन करता है ।
(कदा चत्) कोई वरोधी मनु य उसे गाली दे ता है, मारता-पीटता है, उसके केश उखाड़ता या ख चता है,
पहले कये ए कसी घृ णत कम क याद दलाकर कोई बकझक करता है, कोई त यहीन श द ारा
(सबो धत करता है), हाथ-पैर आ द काटने का झूठा दोषारोपण करता है; ऐसी त म मु न स यक् च तन ारा
समभाव से सहन करे । उन एकजातीय और भ जातीय परीषह को उ प आ जानकर समभाव से सहन करता
आ संयम म वचरण करे । (वह मु न) ल ाकारी और अल ाकारी (परीषह को स यक् कार से सहन करता
आ वचरण करे) ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 33


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - १९७
स य दशन-स मु न सब कार क शंकाएं छोड़कर ःख- श को समभाव से सहे । हे मानवो ! धम-
े म उ ह ही न न कहा गया है, जो मु नधम म द त होकर पुनः गृहवास म नह आते ।
आ ा म मेरा धम है, यह उ र बाद इस मनु यलोक म मनु य के लए तपा दत कया है । वषय से उपरत
साधक ही इसका आसेवन करता है ।
वह कम का प र ान करके पयाय (संयमी जीवन) से उसका य करता है । इस ( न संघ) म कुछ
लघुकम साधु ारा एकाक चया वीकृत क जाती है । उसम वह एकल- वहारी साधु व भ कुल से शु -
एषणा और सवषणा से संयम का पालन करता है ।
वह मेधावी ( ाम आ द म) प र जन करे । सुग या ग से यु (जैसा भी आहार मले, उसे समभाव से
हण करे) अथवा एकाक वहार साधना से भयंकर श द को सूनकर या भयंकर प को दे खकर भयभीत न हो ।
ह ाणी तु हारे ाण को लेश प ँचाए, (उससे वच लत न हो) । उन परीषहज नत- ःख का श होने
पर धीर मु न उ ह सहन करे । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-६ – उ े शक-३
सू - १९८
सतत सु-आ यात धम वाला वधूत क पी (आचार का स यक् पालन करने वाला) वह मु न आदान (मयादा
से अ धक व ा द) का याग कर दे ता है ।
जो भ ु अचेलक रहता है, उस भ ु को ऐसी च ता उ प नह होती क मेरा व सब तरह से जीण हो
गया है, इस लए म व क याचना क ँ गा, फटे व को सीने के लए धागे क याचना क ँ गा, फर सूई क याचना
क ँ गा, फर उस व को साँधूँगा, उसे सीऊंगा, छोटा है इस लए सरा टु कड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊंगा, बड़ा है
इस लए फाड़कर छोटा बनाऊंगा, फर उसे पहनूँगा और शरीर को ढकूँगा ।
अथवा अचेल व-साधनाम परा म करते ए नव मु न को बार-बार तनक का श, सद और गम का
तथा डाँस तथा म र का श पी ड़त करता है । अचेलक मु न उनम से एक या सरे, नाना कार के श को
सहन करे । अपने आपको लाघवयु जानता आ वह अचेलक एवं त त ु भ ु तप से स होता है ।
भगवान ने जस प म अचेल व का तपादन कया है उसे उसी प म जान-समझकर, सब कार से
सवा मना स य व जाने । ..... जीवन के पूव भाग म जत होकर चरकाल तक संयम म वचरण करनेवाले,
चा र -स तथा संयम म ग त करने वाले महान वीर साधु ने जो (परीषहा द) सहन कये ह, उसे तू दे ख ।
सू - १९९
ावान मु नय क भुजाएं कृश होती ह, उनके शरीर म र -माँस ब त कम हो जाते ह ।
संसार-वृ क राग- े ष-कषाय प ेणी को ा से जानकर छ - भ करके वह मु न तीण, मु एवं
वरत कहलाता है, ऐसा म कहता ँ ।
सू - २००
चरकाल से मु नधम म जत, वरत और संयम म ग तशील भ ु का या अर त धर दबा सकती है ?
(आ मा के साथ धम का) संधान करने वाले तथा स यक् कार से उ त मु न को (अर त अ भभूत नह कर सकती)
जैसे असंद न प (या य के लए) आ ासन- ान होता है, वैसे ही आय ारा उप द धम (संसार-समु पार करने
वाल के लए आ ासन- ान) होता है ।
मु न (भोग क ) आकां ा तथा ाण- वयोग न करने के कारण लोक य, मेधावी और प डत कहे जाते ह ।
जस कार प ी के ब े का पालन कया जाता है, उसी कार धम म जो अभी तक अनु त ह, उन श य का वे
मशः वाचना आ द के ारा रात दन पालन-संव न करते ह । ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 34


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - २०१
इस कार वे श य दन और रात म उन महावीर और ानवान ारा मशः श त कये जाते ह ।
उनसे वशु ान पाकर उपशमभाव को छोड़कर कुछ श य कठोरता अपनाते ह । वे चय म नवास
करके भी उस आ ा को ‘ यह (तीथकरक आ ा) नह है’ , ऐसा मानते ए (गु जन के वचन क अवहेलना करते ह ।)
कुछ (आचाया द ारा) क थत ( प रणाम ) को सून-समझकर ‘ हम (आचाया द से) स मत या
उ कृ संयमी जीवन जीएंगे’ इस कार के संक प से जत होकर वे (मोहोदयवश) अपने संक प के त सु र
नह रहते । वे व वध कार से जलते रहते ह, कामभोग म गृ या रचे-पचे रहकर (तीथकर ारा) पत समा ध
को नह अपनाते, शा ता को भी वे कठोर वचन कह दे ते ह ।
सू - २०२
शीलवान, उपशा त एवं संयम-पालन म परा म करने वाले मु नय को वे अशीलवान कहकर बदनाम करते
ह। यह उन म दबु लोग क मूढ़ता है ।
सू - २०३
कुछ संयम से नवृ ए लोग आचार- वचार का बखान करते ह, ( क तु) जो ान से हो गए, वे स यग्
दशन के व वंसक होकर ( वयं चा र - हो जाते ह ।)
सू - २०४
क साधक नत (सम पत) होते ए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बगाड़ दे ते ह । कुछ साधक
(परीषह से) ृ होने पर केवल जीवन जीने के न म से (संयम और संयमीवेश से) नवृ हो जाते ह ।
उनका गृहवास से न मण भी न मण हो जाता है, य क साधारण जन ारा भी वे न दनीय हो
जाते ह तथा (आस होने से) वे पुनः पुनः ज म धारण करते ह ।
ान-दशन-चा र म वे नीचे के तर के होते ए भी अपने आपको ही व ान् मानकर ‘ म ही सवा धक
व ान् ँ’ , इस कार से ड ग मारते ह । जो उनसे उदासीन रहते ह, उ ह वे कठोर वचन बोलते ह । वे (उन म य
मु नय के पूव-आच रत) कम को लेकर बकवास करते ह, अथवा अस य आरोप लगाकर उ ह बदनाम करते ह ।
बु मान् मु न (इन सबको अ एवं धम-शू य जन क चे ा समझकर) अपने धम को भलीभाँ त जाने-पहचाने ।
सू - २०५
(धम से
प तत को इस कार अनुशा सत करते ह– ) तू अधमाथ है, बाल है, आर ाथ है, (आर -कता
का) अनुमोदक है, (तू इस कार कहता है– ) ा णय का हनन करो, ा णय का वध करने वाल का भी अ तरह
अनुमोदन करता है । (भगवान ने) घोर धम का तपादन कया है, तू आ ा का अ त मण कर उसक अपे ा कर
रहा है । वह (अधमाथ ) वष ण और वतद ( हसक) कहा गया है । ऐसा म कहता ँ ।
सू - २०६
ओ (आ मन् !) इस वाथ वजन का म या क ँ गा ? यह मानते और कहते ए (भी) कुछ लोग माता,
पता, ा तजन और प र ह को छोड़कर वीर वृ से मु न धम म स यक् कार से जत होते ह; अ हसक, सु ती
और दा त बन जाते ह । द न और प तत बनकर गरते ए साधक को तू दे ख ! वे वषय से पी ड़त कायर जन ( त
के) व वंसक हो जाते ह ।
उनम से कुछ साधक क ाघा प क त पाप प हो जाती है, ‘ यह मण व ा त है, व ा त है ।’
दे ख ! संयम से होने वाले क मु न उ कृ आचार वाल के बीच श थलाचारी, सम पत मु नय के बीच
असम पत, वरत मु नय के बीच अ वरत तथा साधु के बीच (चा र हीन) होते ह । (इस कार संयम- साधक
को) नकट से भलीभाँ त जानकर प डत, मेधावी, न ताथ वीर मु न सदा आगम के अनुसार (संयम म) परा म
करे । ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 35


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-६ – उ े शक-४
सू - २०७
वह (धूत/ मण) घर म, गृहा तर म, ाम म, ामा तर म, नगर म, नगरा तर म, जनपद म या जन-
पदा तर म (आहारा द के लए वचरण करते ए) कुछ व े षी जन हसक हो जाते ह । अथवा (परीषह के) श
ा त होते ह । उनसे ृ होने पर धीर मु न उन सबको सहन करे ।
राग और े ष से र हत स य दश एवं आगम मु न लोक पर दयाभाव पूवक सभी दशा और व दशा
म( त) जीवलोक को धम का आ यान करे । उसका वभेद करके, धमाचरण के सुफल का तपादन करे ।
वह मु न सद् ान सूनने के ई ु क य के बीच, फर वे चाहे उ त ह या अनु त, शा त, वर त,
उपशम, नवाण, शौच, आजव, मादव, लाघव एवं अ हसा का तपादन करे । वह भ ु सम त ा णय , सभी भूत ,
सभी जीव और सम त स व का हत च तन करके धम का ा यान करे ।
सू - २०८
भ ु ववेकपूवक धम का ा यान करता आ अपने आपको बाधा न प ँचाए, न सरे को बाधा प ँचाए
और न ही अ य ाण , भूत , जीव और स व को बाधा प ँचाए । कसी भी ाणी को बाधा न प ँचाने वाला तथा
जससे ाण, भूत, जीव और स व का वध हो, तथा आहारा द क ा त के न म भी (धम पदे श न करने वाला) वह
महामु न संसार- वाह म डू बते ए ाण , भूत , जीव और स व के लए असंद न प क तरह शरण होता है ।
इस कार वह (संयम म) उ त, ता मा, अ नेह, अनास , अ वचल, चल, अ यवसाय को संयम से
बाहर न ले जाने वाला मु न होकर प र जन करे । वह स य मु न प व उ म धम को स यक् प म जानकर
(कषाय और वषय ) को सवथा उपशा त करे । इसके लए तुम आस को दे खो ।
ी म गृ और उनम नम न बने ए, मनु य काम से आ ा त होते ह । इस लए मु न नःसंग प संयम
से उ न-खेद ख न हो ।
जन संग प आर से हसक वृ वाले मनु य उ न नह होते, ानी मु न उन सब आर को सब
कार से, सवा मना याग दे ते ह । वे ही मु न ोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाले होते ह ।
ऐसा मु न ोटक कहलाता है । ऐसा म कहता ँ ।
सू - २०९
शरीर के ापात को ही सं ामशीष कहा गया है । (जो मु न उसम हार नह खाता), वही (संसार का)
पारगामी होता है ।
आहत होने पर भी मु न उ न नह होता, ब क लकड़ी के पा टये क भाँ त रहता है । मृ युकाल नकट
आने पर ( व धवत् संलेखना से) जब तक शरीर का भेद न हो, तब तक वह मरणकाल क ती ा करे । ऐसा म
कहता ँ ।

अ ययन-६ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 36


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-७ – महाप र ा
इस अ ययन का नाम ‘ महाप र ा’ है, जो वतमान म अनुपल (व ) है ।

अ ययन-८ – वमो
उ े शक-१
सू - २१०
म कहता ँ – समनो या असमनो साधक को अशन, पान, खा , वा ,व , पा , कंबल या पाद- छन
आदरपूवक न दे , न दे ने के लए नमं त करे और न उनका वैयावृ य करे ।
सू - २११
असमनो भ ु कदा चत् मु न से कहे – (मु नवर !) तुम इस बात को न त समझ लो – (हमारे मठ या
आ म म त दन) अशन, पान, खा , वा , व , पा , क बल या पाद छन ( मलता है) । तु ह ये ा त ए ह या
न ए ह तुमने भोजन कर लया हो या न कया हो, माग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भ धम का पालन करते ए भी
तु ह (यहाँ अव य आना है) । (यह बात) वह (उपा य म) आकर कहता हो या चलते ए कहता हो, अथवा उपा य म
आकर या माग म चलते ए वह अशन-पान आ द दे ता हो, उनके लए नमं त करता हो, या वैयावृ य करता हो, तो
मु न उसक बात का बलकुल अनादर करता आ (चूप रहे) । ऐसा म कहता ँ ।
सू - २१२
इस मनु य लोक म क साधक को आचार-गोचर सुप र चत नह होता । वे इस साधु-जीवन म आर के
अथ हो जाते ह, आर करने वाले के वचन का अनुमोदन करने लगते ह । वे वयं ाणीवध करते ह, सर से
ा णवध कराते ह और ा णवध करने वाले का अनुमोदन करते ह । अथवा वे अद का हण करते ह ।
अथवा वे व वध कार के वचन का योग करते ह । जैसे क लोक है, लोक नह है । लोक ुव है, लोक
अ ुव है । लोक सा द है, लोक अना द है । लोक सा त है, लोक अन त है । सुकृत है, कृत है । क याण है, पाप है ।
साधु है, असाधु है । स है, स नह है । नरक है, नरक नह है ।
इस कार पर र व वाद को मानते ए अपने-अपने धम का पण करते ह, इनम कोई भी हेतु नह
है, ऐसा जानो । इस कार उनका धम न सु-आ यात होता है और न ही सु पत ।
सू - २१३
जस कार से आशु भगवान महावीर ने इस स ा त का तपादन कया है, वह (मु न) उसी कार से
पणस य वाद का न पण करे; अथवा वाणी वषयक गु त से (मौन) रहे । ऐसा म कहता ँ । (वह मु न उन
मतवा दय से कहे– ) (आप के दशन म आर ) पाप सव स मत है । म उसी (पाप) का नकट से अ त- मण करके
( त ँ) यह मेरा ववेक ( वमो ) कहा गया है ।
धम ाम म होता है, अथवा अर य म ? वह न तो गाँव म होता है, न अर य म, उसी (स यग् आचरण) को धम
जानो, जो म तमान् महामाहन भगवान ने वे दत कया (बतलाया) है ।
(उस धम के) तीन याम– १. ाणा तपात- वरमण, २. मृषावाद- वरमण, ३. अद ादान- वरमण प तीन
महा त कहे गए ह, उन (तीन याम ) म ये आय स बो ध पाकर उस याम प धम का आचरण करने के लए
स यक् कार से उ त होते ह; जो शा त हो गए ह; वे (पापकम के) नदान से वमु कहे गए ह ।
सू - २१४
ऊंची, नीची एवं तीरछ , सब दशा म सब कार से एके या द जीव म से येक को लेकर कम-

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 37


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
समार कया जाता है । मेधावी साधक उसका प र ान करके, वयं इन षट् जीव नकाय के त द ड समार न
करे, न सर से इन जीव नकाय के त द ड समार करवाए और न ही जीव नकाय के त द ड समार करने
वाल का अनुमोदन करे । जो अ य ( भ ु) इन जीव नकाय के त द डसमार करते ह, उनके काय से भी हम
ल त होते ह । इसे द डभी मेधावी मु न प र ात करके उस द ड का अथवा मृषावाद आ द कसी अ य
द ड का समार न करे । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-२
सू - २१५
वह भ ु कह जा रहा हो, मशान म, सून मकान म, पवत क गुफा म, वृ के नीचे, कु ारशाला म या गाँव
के बाहर कह खड़ा हो, बैठा हो या लेटा आ हो अथवा कह भी वहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहप त उसके
पास आकर कहे– ‘ ‘ आयु मन् मण ! म आपके लए अशन, पान, खा , व , पा , क बल या पाद छन; ाण,
भूत, जीव और स व का समार करके आपके उ े य से बना रहा ँ या खरीद कर, उधार लेकर, कसी से छ नकर,
सरे क व तु को उसक बना अनुम त के लाकर, या घर से लाकर आपको दे ता ँ अथवा आपके लए उपा य
बनवा दे ता ँ । हे आयु मन् मण ! आप उसका उपभोग कर और (उस उपा य म) रह ।’ ’
भ ु उस सुमनस् एवं सुवचस् गृहप त का नषेध के वर से कहे– आयु मन् गृहप त ! म तु हारे इस वचन को
आदर नह दे ता, न ही तु हारे वचन को वीकार करता ँ, जो तुम ाण , भूत , जीव और स व का समार करके
मेरे लए अशन, पान, खा , वा , व , पा , यावत् समारंभ से मुझे दे ना चाहते हो, मेरे लए उपा य बनवाना
चाहते हो । हे आयु मन् गृह !म वरत हो चूका ँ । यह (मेरे लए) अकरणीय होने से, (म वीकार नह कर सकता)
सू - २१६
वह भ ु जा रहा है, यावत् लेटा आ है, अथवा कह भी वचरण कर रहा है, उस समय उस भ ु के पास
आकर कोई गृहप त अपने आ मगत भाव को कट कये बना ाण , भूत , जीव और स व के समार पूवक
अशन, पान आ द बनवाता है, साधु के उ े य से मोल लेकर, यावत् घर से लाकर दे ना चाहता है या उपा य कराता है,
वह उस भ ु के उपभोग के या नवास के लए (करता है) ।
उस (आर ) को वह भ ु अपनी सद्बु से सर से सूनकर यह जान जाए क यह गृहप त मेरे लए
समार से अशना द या व ा द बनवाकर या मेरे न म यावत् उपा य बनवा रहा है, भ ु उसक स यक् कार
से पयालोचना करके, आगम म क थत आदे श से या पूरी तरह जानकर उस गृह को साफ-साफ बता दे क ये सब
पदाथ मेरे लए सेवन करने यो य नह है । इस कार म कहता ँ ।
सू - २१७
भ ु से पूछकर या बना पूछे ही कसी गृह ारा ये (आहारा द पदाथ) भ ु के सम भट के पम
लाकर रख दे ने पर (जब मु न उ ह वीकार नह करता), तब वह उसे प रताप दे ता है; मारता है, अथवा अपने नौकर
को आदे श दे ता है क इसको पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर आ द काट डालो, उसे जला दो, इसका माँस
पकाओ, इसके व ा द छ न लो या इसे नख से न च डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबद ती करो, इसे
अनेक कार से पी ड़त करो । उन सब ःख प श के आ पड़ने पर धीर रहकर मु न उ ह सहन करे।
अथवा वह आ मगु त मु न अपने आचार-गोचर क मशः स यक् े ा करके उसके सम अपना अनुपम
आचार-गोचर कहे । अगर वह रा ही और तकूल हो, या वयं म उसे समझाने क श न हो तो वचन का
संगोपन करके रहे । बु -तीथकर ने इसका तपादन कया ।
सू - २१८
वह समनो मु न असमनो साधु को अशन-पान आ द तथा व -पा आ द पदाथ अ य त आदरपूवक न
दे , न उ ह दे ने के लए नम त करे और न ही उनका वैयावृ य करे । ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 38


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - २१९
म तमान् महामाहन ी व मान वामी ारा तपा दत धम को भली-भाँ त समझ लो क समनो साधु
समनो साधु को आदरपूवक अशन, पान, खा , वा , व , पा , क बल, पाद छन आ द दे , उ ह दे ने के लए
मनुहार करे, उनका वैयावृ य करे । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-३
सू - २२०
कुछ म यम वय म भी संबो ध ा त करके मु नधम म द त होने के लए उ त होते ह । तीथकर
तथा ुत ानी आ द प डत के वचन सूनकर, मेधावी साधक (समता का आ य ले, य क) आय ने समता म धम
कहा है, अथवा तीथकर ने समभाव से धम कहा है ।
वे कामभोग क आकां ा न रखनेवाले, ा णय का अ तपात और प र ह न रखते ए सम लोकम
अप र हवान होते ह । जो ा णय के लए द ड- याग करके पाप कम नह करता, उसे ही महान् अ कहा गया है
ओज अथात् राग- े ष र हत ु तमान् का े , उपपात और यवन को जानकर (शरीर क ण-भंगुरता
का च तन करे) ।
सू - २२१
शरीर आहार से उप चत होते ह, परीषह के आघात से भ न हो जाते ह; क तु तुम दे खो, आहार के अभाव म
क साधक ुधा से पी ड़त होकर सभी इ य से लान हो जाते ह । राग- े ष से र हत भ ु दया का पालन करता है
सू - २२२
जो भ ु स धान– (आहारा द के संचय) के श (संयमघातक वृ ) का मम है । वह भ ु काल ,
बल , मा , ण , वनय , समय होता है । वह प र ह पर मम व न करने वाला, उ चत समय पर अनु ान
करने वाला, कसी कार क म या आ हयु त ा से र हत एवं राग और े ष के ब न को छे दन करके न त
जीवन यापन करता है ।
सू - २२३
शीत- श से काँपते ए शरीर वाले उस भ ु के पास आकर कोई गृहप त कहे– आयु मान् मण ! या
तु ह ामधम (इ य- वषय) तो पी ड़त नह कर रहे ह ? (इस पर मु न कहता है) आयु मन् गृहप त ! मुझे ाम-धम
पी ड़त नह कर रहे ह, क तु मेरा शरीर बल होने के कारण म शीत- श को सहन करने म समथ नह ँ (इसी लए
मेरा शरीर शीत से क त हो रहा है) । अ नकाय को उ व लत करना, व लत करना, उससे शरीर को थोड़ा-
सा भी तपाना या सर को कहकर अ न व लत करवाना अक पनीय है ।
(कदा चत् वह गृह ) इस कार बोलने पर अ नकाय को उ व लत- व लत करके साधु के शरीर को थोड़ा
तपाए या वशेष प से तपाए । उस अवसर पर अ नकाय के आर को भ ु अपनी बु से वचारकर आगम के ारा
भलीभाँ त जानकर उस गृह से कहे क अ न का सेवन मेरे लए असेवनीय है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-४
सू - २२४
जो भ ु तीन व और चौथा पा रखने क मयादा म त है, उसके मन म ऐसा अ यवसाय नह होता क
‘म चौथे व क याचना क ँ गा । वह यथा-एषणीय व क याचना करे और यथाप रगृहीत व को धारण करे ।
वह उन व को न तो धोए और न रंग,े न धोए-रंगे ए व को धारण करे । सरे ाम म जाते समय वह
उन व को बना छपाए ए चले । वह मु न व प और अ तसाधारण व रखे । व धारी मु न क यही साम ी है
सू - २२५
जब भ ु यह जान ले क ‘ हेम त ऋतु’ बीत गई है, ी म ऋतु आ गई है, तब वह जन- जन व को जीण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 39


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
समझे, उनका प र याग कर दे । उन यथाप रजीण व का प र याग करके या तो एक अ तर (सूती) व और उ र
(ऊनी) व साथ म रखे; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे । अथवा वह अचेलक हो जाए ।
सू - २२६
(इस कार) लाघवता को लाता या उसका च तन करता आ वह उस व प र यागी मु न के (सहज म ही)
तप सध जाता है ।
सू - २२७
भगवान ने जस कार से इस (उप ध- वमो ) का तपादन कया है, उसे उसी प म गहराई-पूवक
जानकर सब कार से सवा मना (उसम न हत) सम व को स यक् कार से जाने व काया वत करे ।
सू - २२८
जस भ ु को यह तीत हो क म आ ा त हो गया ँ, और म इस अनुकूल परीषह को सहन करने म
समथ नह ँ, (वैसी त म) कोई-कोई संयम का धनी भ ु वयं को ा त स ूण ान एवं अ तःकरण से उस
उपसग के वश न हो कर उसका सेवन न करने के लए र हो जाता है ।
उस तप वी भ ु के लए वही ेय कर है, ऐसी त म उसे वैहानस आ द से मरण वीकार करना–
ेय कर है । ऐसा करने म उसका वह काल-पयाय-मरण है ।
वह भ ु भी उस मृ यु से अ त याकता भी हो सकता है ।
इस कार यह मरण ाण– मोह से मु भ ु का आयतन, हतकर, कालोपयु , नः ेय कर, परलोक म
साथ चलने वाला होता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-५
सू - २२९
जो भ ु दो व और तीसरे पा रखने क त ाम त है, उसके मन म यह वक प नह उठता क म
तीसरे व क याचना क ँ । वह अपनी क पमयादानुसार हणीय व क याचना करे । इससे आगे व - वमो
के स ब म पूववत् समझ लेना चा हए ।
य द भ ु यह जाने क हेम त ऋतु तीत हो गई है, ी म ऋतु आ गई है, तब वह जैसे-जैसे व जीण हो
गए ह , उनका प र याग कर दे । यथा प रजीण व का प र याग करके या तो वह एक शाटक म रहे, या वह अचेल
हो जाए । वह लाघवता का सवतोमुखी वचार करता आ ( मशः व - वमो ा त करे) । (इस कार) मु न को
तप सहज ही ा त हो जाता है ।
भगवान ने इस (व - वमो के त व) को जस प म तपा दत कया है, उसे उसी प म जानकर सब
कार से मम व को स यक् कार से जाने व या वत करे ।
जस भ ु को ऐसा तीत होने लगे क म बल हो गया ँ । अतः म भ ाटन के लए एक घर से सरे घर
जाने म समथ नह ँ । उसे सूनकर कोई गृह अपने घर से अशन, पान, खा लाकर दे ने लगे तब वह भ ु पहले ही
गहराई से वचारे – ‘ आयु मन् गृहप त ! यह अ या त अशन, पान, खा या वा मेरे लए सेवनीय नह है, इसी
कार सरे (दोष से षत आहारा द भी मेरे लए गृहणीय नह है) ।’
सू - २३०
जस भ ु का यह क प होता है क म लान ँ, मेरे साध मक साधु अ लान ह, उ ह ने मुझे सेवा करने का
वचन दया है, य प मने अपनी सेवा के लए उनसे नवेदन नह कया है, तथा प नजरा क अ भकां ा से
साध मक ारा क जाने वाली सेवा म चपूवक वीकार क ँ गा । (१)
(अथवा) मेरा साध मक भ ु लान है, म अ लान ँ; उसने अपनी सेवा के लए मुझे अनुरोध नह कया है,
(पर) मने उसक सेवा के लए उसे वचन दया है । अतः नजरा के उ े य से उस साध मक क म सेवा क ँ गा। जस

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 40


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
भ ु का ऐसा क प हो, वह उसका पालन करता आ ाण याग कर दे , ( त ा भंग न करे) । (२)
कोई भ ु ऐसी त ा लेता है क म अपने लान साध मक भ ु के लए आहारा द लाऊंगा, तथा उनके
ारा लाये ए आहारा द का सेवन भी क ँ गा । (३)
(अथवा) कोई भ ु ऐसी त ा लेता है क म अपने लान साध मक भ ु के लए आहारा द लाऊंगा,
ले कन उनके ारा लाये ए आहारा द का सेवन नह क ँ गा । (४)
(अथवा) कोई
भ ु ऐसी त ा लेता है क म साध मक के लए आहारा द नह लाऊंगा, क तु उनके ारा
लाया आ सेवन क ँ गा । (५)
(अथवा) कोई भ ु त ा करता है क न तो म साध मक के लए आहारा द लाऊंगा और न ही म उनके
ारा लाये ए आहारा द का सेवन क ँ गा । (६)
(य उ छः कार क त ा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उ सग कर दे ।)
आहार- वमो साधक को अनायास ही तप का लाभ ा त हो जाता है । भगवान ने जस प म इसका
तपादन कया है, उसे उसी प म नकट से जानकर सब कार से सवा मना सम व या स य व का सेवन करे।
इस कार वह भ ु तीथकर ारा जस प म धम पत आ है, उसी प म स यक् प से जानता
और आचरण करता आ, शा त वरत और अपने अ तःकरण क श त वृ य म अपनी आ मा को सुसमा हत
करने वाला होता है । उसक वह मृ यु काल-मृ यु है । वह अ त या करने वाला भी हो सकता है ।
इस कार यह शरीरा द मोह से वमु भ ु का अयतन है, हतकर है, सुखकर है, स म है, नः ेय कर
है और परलोक म भी साथ चलने वाला है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-६
सू - २३१
जो भ ु एक व और सरा पा रखने क त ा वीकार कर चूका है, उसके मन म ऐसा अ यवसाय
नह होता क म से व क याचना क ँ गा ।
वह यथा-एषणीय व क याचना करे । यहाँ से लेकर आगे ‘ ी मऋतु आ गई’ तक का वणन पूववत् ।
भ ु यह जान जाए क अब ी म ऋतु आ गई है, तब वह यथाप रजीण व का प र याग करे । यथा-
प रजीण व का प र याग करके वह एक शाटक म ही रहे, (अथवा) वह अचेल हो जाए । वह लाघवता का सब
तरह से वचार करता आ (व प र याग करे) । व - वमो करने वाले मु न को सहज ही तप ा त हो जाता है
भगवान ने जस कार से उसका न पण कया है, उसे उसी प म नकट से जानकर यावत् सम व को
जानकर आचरण म लाए ।
सू - २३२
जस भ ु के मन म ऐसा अ यवसाय हो जाए क ‘ म अकेला ँ, मेरा कोई नह है, और न म कसी का ँ, ’
वह अपनी आ मा को एकाक ही समझे । (इस कार) लाघव का सवतोमुखी वचार करता आ (वह सहाय- वमो
करे तो) उसे तप सहज म ा त हो जाता है । भगवान ने इसका जस प म तपादन कया है, उसे उसी पम
जानकर सब कार से, यावत् स यक् कार से जानकर या वत करे ।
सू - २३३
वह भ ु या भ ुणी अशन आ द आहार करते समय आ वाद लेते ए बाँए जबड़े से दा हने जबड़े म न ले
जाए, दा हने जबड़े से बाँए जबड़े म न ले जाए । यह अना वाद वृ से लाघव का सम च तन करते ए (आहार
करे) । ( वाद- वमो से) वह तप का सहज लाभ ा त करता है ।
भगवान ने जस प म वाद- वमो का तपादन कया है, उसे उसी प म जानकर सब कार से
सवा मना (उसम न हत) स य व या सम व को जाने और स यक् प से प रपालन करे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 41


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - २३४
जस भ ु के मन म ऐसा अ यवसाय हो जाता है क सचमुच म इस समय इस शरीर को वहन करने म
मशः लान हो रहा ँ, वह भ ु मशः आहार का संवतन करे और कषाय को कृश करे । समा धयु ले या वाला
तथा फलक क तरह शरीर और कषाय दोन ओर से कृश बना आ वह भ ु समा धमरण के लए उ त होकर
शरीर के स ताप को शा त कर ले ।
सू - २३५
मशः ाम म, नगर म, खेड़े म, कबट म, मडंब म, प न म, ोणमुख म, आकर म, आ म म, स वेश म,
नगम म या राजधानी म वेश करके घास क याचना करे । उसे लेकर एका त म चला जाए । वहाँ जाकर जहाँ क ड़े
आ द के अंडे, जीव-ज तु, बीज, ह रयाली, ओस, उदक, च टय के बल, फफूँद , काई, पानी का दलदल या मकड़ी
के जाले न ह , वैसे ान का बार-बार तलेखन करके, माजन करके, घास का संथारा करे । उस पर त हो, उस
समय इ व रक अनशन हण कर ले ।
वह स य है । वह स यवाद , राग- े ष र हत, संसार-सागर को पार करने वाला, ‘ इं गतमरण क त ा नभेगी या
नह ?’ इस कार के लोग के कहकहे से मु या कसी भी रागा मक कथा-कथन से र जीवा द पदाथ का सांगोपांग
ाता अथवा सब बात से अतीत, संसार पारगामी इं गतमरण क साधना को अंगीकार करता है ।
वह भ ु त ण वनाशशील और शरीर को छोड़कर नाना कार के परीषह और उपसग पर वजय
ा त करके इसम पूण व ास के साथ इस घोर अनशन का अनुपालन करे । तब ऐसा करने पर भी उसक , वह
काल-मृ यु होती है । उस मृ यु से वह अ त या करने वाला भी हो सकता है ।
इस कार यह मोहमु भ ु का आयतन हतकर, सुखकर, मा प या कालोपयु , नः ेय कर और
भवा तर म साथ चलने वाला होता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-७
सू - २३६
जो भ ु अचेल-क प म त है, उस भ ु का ऐसा अ भ ाय हो क म घास के श सहन कर सकता ँ,
गम का श सहन कर सकता ँ, डाँस और म र के काटने को सह सकता ँ, एक जा त के या भ - भ जा त,
नाना कार के अनुकूल या तकूल श को सहन करने म समथ ँ, क तु म ल ा नवारणाथ त- ादन को
छोड़ने म समथ नह ँ । ऐसी त म वह भ ु क टब न धारण कर सकता है ।
सू - २३७
अथवा उस (अचेलक प) म ही परा म करते ए ल ाजयी अचेल भ ु को बार-बार घास का श
चूभता है, शीत का श होता है, गम का श होता है, डाँस और म र काटते ह, फर भी वह अचेल उन एक-
जातीय या भ - भ जातीय नाना कार के श को सहन करे । लाघव का सवागीण च तन करता आ (वह
अचेल रहे) ।
अचेल मु न को तप का सहज लाभ मल जाता है । अतः जैसे भगवान ने अचेल व का तपादन कया है,
उसे उसी प म जानकर, सब कार से, सवा मना स य व या सम व को भलीभाँ त जानकर आचरण म लाए ।
सू - २३८
जस भ ु को ऐसी त ा होती है क म सरे भ ु को अशन आ द लाकर ँ गा और उनके ारा लाये
ए का सेवन क ँ गा । (१)
अथवा जस भ ु क ऐसी त ा होती है क म सरे भ ु को अशन आ द लाकर ँगा, ले कन उनके
ारा लाये ए का सेवन नह क ँ गा । (२)
अथवा जस भ ु क ऐसी त ा होती है क म सरे भ ु को अशन आ द लाकर नह ँगा, ले कन

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 42


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
उनके ारा लाये ए का सेवन क ँ गा । (३)
अथवा जस भ ु क ऐसी त ा होती है क म सरे भ ु को अशन आ द लाकर नह ँ गा और न ही
उनके ारा लाये ए का सेवन क ँ गा । (४)
(अथवा जस भ ु क ऐसी त ा होती है क) म अपनी आव यकता से अ धक, अपनी क पमयादा-
नुसार एषणीय एवं हणीय तथा अपने यथोपल लाये ए अशन आ द म से नजरा के उ े य से साध मक मु नय
क सेवा क ँ गा, (अथवा) म भी उन साध मक मु नय क जाने वाली सेवा को चपूवक वीकार क ँ गा। (५)
वह लाघव का सवागीण वचार करता आ (सेवा का संक प करे ।) उस भ ु को तप का लाभ अनायास ही
ा त हो जाता है । भगवान ने जस कार से इस का तपादन कया है, उसे उसी प म जानकर सब कार से
सवा मना स य व या सम व को भलीभाँ त जानकर आचरण म लाए ।
सू - २३९
जस भ ु के मन म यह अ यवसाय होता है क म वा तव म इस समय इस शरीर को मशः वहन करने म
लान हो रहा ँ । वह भ ु मशः आहार का सं ेप करे । आहार को मशः घटाता आ कषाय को भी कृश करे ।
य करता आ समा धपूण ले या वाला तथा फलक क तरह शरीर और कषाय, दोन ओर से कृश बना आ वह
भ ु समा धमरण के लए उ त होकर शरीर के स ताप को शा त कर ले ।
इस कार संलेखना करने वाला वह भ ु ाम, यावत् राजधानी म वेश करे घास क याचना करे । उसे
लेकर एका त म चला जाए । वहाँ जाकर जहाँ क ड़ के अंडे, यावत् तलेखन कर फर उसका क बार माजन
करके घास का बछौना करे । शरीर, शरीर क वृ और गमनागमन आ द ईया का या यान करे (इस कार
ायोपगमन अनशन करके शरीर वमो करे) ।
यह स य है । इसे स यवाद वीतराग, संसार-पारगामी, अनशन को अ त तक नभाएगा या नह ? इस कार
क शंका से मु , यावत् प र तय से अ भा वत (अनशन- त-मु न ायोपगमन-अनशन को वीकार करता है)
वह भ ु त ण वनाशशील शरीर को छोड़कर, नाना कार के उपसग और परीषह पर वजय ा त करके इस
घोर अनशन क अनुपालना करे । ऐसा करने पर भी उसक यह काल-मृ यु होती है । उस मृ यु से वह अ त या
करने वाला भी हो सकता है ।
इस कार यह मोहमु भ ु का आयतन हतकर यावत् ज मा तर म भी साथ चलने वाला है । ऐसा म
कहता ँ ।
अ ययन-८ – उ े शक-८
सू - २४०
जो (भ या यान, इं गतमरण एवं ायोपगमन, ये तीन) वमोह मशः ह, धैयवान्, संयम का धनी एवं
म तमान् भ ु उनको ा त करके सब कुछ जानकर एक अ तीय (समा धमरण को अपनाए) ।
सू - २४१
वे धम के पारगामी बु भ ु दोन कार से हेयता का अनुभव करके म से वमो का अवसर जान-कर
आरंभ से स ब तोड़ लेते ह ।
सू - २४२
वह कषाय को कृश करके, अ पाहारी बनकर परीषह एवं वचन को सहन करता है, य द ला न को ा त
होता है, तो भी आहार के पास न जाए ।
सू - २४३
(संलेखना एवं अनशन-साधना म त मण) न तो जीने क आकां ा करे, न मरने क अ भलाषा करे ।
जीवन और मरण दोन म भी आस न हो ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 43


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - २४४
वह म य और नजरा क भावना वाला भ ु समा ध का अनुपालन करे । आ त रक तथा बा पदाथ
का ु सग करके शु अ या मएषणा करे ।
सू - २४५
य द अपनी आयु के ेम म जरा-सा भी उप म जान पड़े तो उस संलेखना काल के म य म ही प डत भ ु
शी प डतमरण को अपना ले ।
सू - २४६
(संलेखन-साधक) ाम या वन म जाकर डलभू म का तलेखन करे, उसे जीव-ज तुर हत ान
जानकर मु न (वह ) घास बछा ले ।
सू - २४७
वह वह नराहार हो कर लेट जाए । उस समय परीषह और उपसग से आ ा त होने पर सहन करे ।
मनु यकृत उपसग से आ ा त होने पर भी मयादा का उ लंघन न करे ।
सू - २४८
जो रगने वाले ाणी ह, या जो आकाश म उड़ने वाले ह, या जो बल म रहते ह, वे कदा चत् अनशनधारी
मु न के शरीर का माँस नोचे और र पीए तो मु न न तो उ ह मारे और न ही रजोहरणा द से माजन करे ।
सू - २४९
(वह मु न ऐसा च तन करे) ये ाणी मेरे शरीर का वघात कर रहे ह, (मेरे ाना द आ मगुण का नह , वह
उस ान से उठकर अ य न जाए ।) आ व से पृथक् हो जाने के कारण तृ त अनुभव करता आ (उन उपसग
को) सहन करे ।
सू - २५०
उस संलेखना-साधक क याँ खुल जाती ह, आयु य के काल का पारगाम हो जाता है ।
सू - २५१
ात-पु ने भ या यान से भ इं गतमरण अनशन का यह आचार-धम बताया है । इसम कसी भी
अंगोपांग के ापार का, कसी सरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत-का रत-अनुमो दत प से याग
करे ।
सू - २५२
वह ह रयाली पर शयन न करे, डल को दे खकर वहाँ सोए । वह नराहार उप ध का ु सग करके
परीषह तथा उपसग से ृ होने पर उ ह सहन करे ।
सू - २५३
आहारा द का प र यागी मु न इ य से लान होने पर स मत होकर हाथ-पैर आ द सकोड़े । जो अचल है
तथा समा हत है, वह प र मत भू म म शरीर-चे ा करता आ भी न दा का पा नह होता ।
सू - २५४
वह शरीर-संधारणाथ गमन और आगमन करे, सकोड़े और पसारे । इसम भी अचेतन क तरह रहे ।
सू - २५५
बैठा-बैठा थक जाए तो चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाए, या लेट जाए । खड़े होने
म क होता हो तो अ त म बैठ जाए ।
सू - २५६
इस अ तीय मरण क साधना म लीन मु न अपनी इ य को स यक् प से संचा लत करे । घुन-द मक

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 44


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
वाले का - त या प े का सहारा न लेकर घुन आ द र हत व न छ का - त या प े का अ वेषण करे ।
सू - २५७
जससे व वत् कम उ प हो, ऐसी व तु का सहारा न ले । उससे या यान से अपने आपको हटा ले और
उप त सभी ःख श को सहन करे ।
सू - २५८
यह अनशन व श तर है, पार करने यो य है । जो व ध से अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने
पर भी अपने ान से च लत नह होता ।
सू - २५९
यह उ म धम है । यह पूव ान य से कृ तर ह वाला है । साधक डल ान का स यक् नरी ण
करके वहाँ र होकर रहे ।
सू - २६०
अ च को ा त करके वहाँ अपने आपको ा पत कर दे । शरीर का सब कार से ु सग कर दे । परीषह
उप त होने पर ऐसी भावना करे– ‘ ‘ यह शरीर ही मेरा नह है, तब परीषह (ज नत ःख मुझे कैसे ह गे ?)
सू - २६१
जब तक जीवन है, तब तक ही ये परीषह और उपसग ह, यह जानकर संवृ शरीरभेद के लए ा भ ु
उ ह (समभाव से) सहन करे ।
सू - २६२
श द आ द काम वनाशशील ह, वे चुरतर मा ा म हो तो भी भ ु उनम र न हो । ुव वण का स यक्
वचार करके भ ु ई ा का भी सेवन न करे ।
सू - २६३
आयुपय त शा त रहने वाले वैभव या कामभोग के लए कोई भ ु को नमं त करे तो वह उसे (माया-
जाल) समझे । दै वी माया पर भी ा न करे । वह साधु उस सम त माया को भलीभाँ त जानकर उसका प र- याग
करे ।
सू - २६४
सभी कार के वषय म अनास और मृ युकाल का पारगामी वह मु न त त ा को सव े जानकर
हतकर वमो वध वमो म से कसी एक वमो का आ य ले । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-८ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 45


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-९ – उपधान ुत
उ े शक-१
सू - २६५
मण भगवान महावीर ने द ा लेकर जैसे वहारचया क , उस वषय म जैसा मने सूना है, वैसा म तु ह
बताऊंगा । भगवान ने द ा का अवसर जानकर हेम त ऋतु म जत ए और त काल वहार कर गए ।
सू - २६६
‘महेम त ऋतु म व से शरीर को नह ढकूँगा ।’ वे इस त ा का जीवनपय त पालन करने वाले और
संसार या परीषह के पारगामी बन गए थे । यह उनक अनुध मता ही थी ।
सू - २६७
भ रे आ द ब त-से ा णगत आकर उनके शरीर पर चढ़ जाते और मँडराते रहते । वे होकर नाचने लगते
यह म चार मास से अ धक समय तक चलता रहा ।
सू - २६८
भगवान ने तेरह महीन तक व का याग नह कया । फर अनगार और यागी भगवान महावीर उस व
का प र याग करके अचेलक हो गए ।
सू - २६९
भगवान एक-एक हर तक तरछ भीत पर आँख गड़ा कर अ तरा मा म यान करते थे । अतः उनक आँख
दे खकर भयभीत बनी ब क म डली ‘ मारो-मारो’ कहकर च लाती, ब त से अ य ब को बुला लेती।
सू - २७०
गृह और अ यती थक साधु से संकुल ान म ठहरे ए भगवान को दे खकर, कामाकुल याँ वहाँ
आकर ाथना करती, क तु कमब का कारण जानकर सागा रक सेवन नह करते थे । अपनी अ तरा मा म वेश
कर यान म लीन रहते ।
सू - २७१
कभी गृह से यु ानम भी वे उनम घुलते- मलते नह थे। वे उनका संसग याग करके धम यानम म न
रहते । वे कसी के पूछने पर भी नह बोलते थे । अ य चले जाते, क तु अपने यान का अ त मण नह करते थे ।
सू - २७२
वे अ भवादन करने वाल को आशीवचन नह कहते थे, और उन अनाय दे श आ द म डंड से पीटने, फर
उनके बाल ख चने या अंग-भंग करने वाले अभागे अनाय लोग को वे शाप नह दे ते थे । भगवान क यह साधना
अ य साधक के लए सुगम नह थी ।
सू - २७३
अ य त ःस , तीखे वचन क परवाह न करते ए उ ह सहन करने का परा म करते थे । वे आ या-
यका, नृ य, गीत, यु आ द म रस नह लेते थे ।
सू - २७४
पर र कामो ेजक बात म आस लोग को ातपु भगवान महावीर हषशोक से र हत होकर दे खते थे।
वे इन दमनीय को मरण न करते ए वचरते थे ।
सू - २७५
(माता-
पता के वगवास के बाद) भगवान ने दो वष से कुछ अ धक समय तक गृहवास म रहते ए भी
स च जल का उपभोग नह कया । वे एक वभावना से ओत ोत रहते थे, उ ह ने ोध- वाला को शा त कर लया
था, वे स य ान-दशन को ह तगत कर चूके थे और शा त च हो गए थे । फर अ भ न मण कया ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 46


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू – २७६, २७७
पृ वीकाय, अ काय, तेज काय, वायुकाय, नगोद-शैवाल आ द, बीज और नाना कार क हरी वन त एवं
सकाय – इ ह सब कार से जानकर । ‘ ये अ त ववान् है’ यह दे खकर ‘ ये चेतनावान् है’ यह जानकर उनके व प
को भलीभाँ त अवगत करके वे उनके आर का प र याग करके वहार करते थे ।
सू - २७८
ावर जीव स के पम उ प हो जाते ह और स जीव ावर के पम उ प हो जाते ह अथवा संसारी
जीव सभी यो नय म उ प हो सकते ह । अ ानी जीव अपने-अपने कम से पृथक्-पृथक् प से संसार म त ह ।
सू - २७९
भगवान ने यह भलीभाँ त जान-मान लया था क -भाव-उप ध से यु अ ानी जीव अव य ही लेश
का अनुभव करता है । अतः कमब न सवाग प से जानकर कम के उपादान प पाप का या यान कर दया था
सू - २८०
ानी और मेधावी भगवान ने दो कार के कम को भलीभाँ त जानकर तथा आदान ोत, अ तपात ोत
और योग को सब कार से समझकर सर से वल ण ( नद ष) या का तपादन कया है ।
सू - २८१
भगवान ने वयं पाप-दोष र हत नद ष अनाकु का आ य लेकर सर को हसा न करने क ( ेरणा द ) ।
जह याँ प र ात ह, उन भगवान महावीर ने दे ख लया था क ’ कामभोग सम त पापकम के उपादान कारण ह’
सू - २८२
भगवान ने दे खा क आधाकम आ द दोषयु आहार हण सब तरह से कमब का कारण है, इस लए
उ ह ने आधाकमा द दोषयु आहार का सेवन नह कया । वे ासुक आहार हण करते थे ।
सू - २८३
सरे के व का सेवन नह करते थे, सरे के पा म भी भोजन नह करते थे । वे अपमान क परवाह न
करके कसी क शरण लए बना पाकशाला म भ ा के लए जाते थे ।
सू - २८४
भगवान अशन-पान क मा ा को जानते थे, वे रस म आस नह थे, वे (भोजन-स ब ी) त ा भी नह
करते थे, मु न महावीर आँखम रजकण आ द पड़ जाने पर भी उसका माजन नह करते थे और न शरीर को
खुजलाते थे ।
सू - २८५
भगवान चलते ए न तरछे और न पीछे दे खते थे, वे मौन चलते थे, कसी के पूछने पर बोलते नह थे ।
यतनापूवक माग को दे खते ए चलते थे ।
सू - २८६
भगवान उस व का भी ु सग कर चूके थे । अतः श शर ऋतु म वे दोन बाँह फैलाकर चलते थे, उ ह
क पर रखकर खड़े नह होते थे ।
सू - २८७
ानवान महामाहन महावीर ने इस व ध के अनु प आचरण कया । उपदे श दया । अतः मुमु ज
ु न इसका
अनुमोदन करते ह । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-९ – उ े शक-२
सू - २८८
‘भ ते ! चया के साथ-साथ आपने कुछ आसन और वास ान बताए थे, अतः मुझे आप उन शयनासन को

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 47


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
बताएं, जनका सेवन भगवान ने कया था ।’
सू - २८९
भगवान कभी सूने ख डहर म, कभी सभा , याऊ , प य-शाला म नवास करते थे । अथवा कभी
लुहार, सुथार, सुनार आ द के कम ान म और पलालपुँज के मंच के नीचे उनका नवास होता था ।
सू - २९०
भगवान कभी या ीगृह म, आरामगृह म, गाँव या नगर म अथवा कभी मशान म, कभी शू यगृह म तो कभी
वृ के नीचे ही ठहर जाते थे ।
सू - २९१
जगत्वे ा मुनी र इन वास ान म साधना काल के बारह वष, छह महीने, प ह दन म शा त और
स य वयु मन से रहे । वे रात- दन येक वृ म यतनाशील रहते थे तथा अ म और समा हत अव ा म
यान करते थे ।
सू - २९२
भगवान न ा भी ब त नह लेते थे । वे खड़े होकर अपने आपको जगा लेते थे । (कभी जरा-सी न द ले लेते
क तु सोने के अ भ ाय से नह सोते थे ।)
सू - २९३
भगवान णभर क न ा के बाद फर जागृत होकर यान म बैठ जाते थे । कभी-कभी रात म मु भर
बाहर घूमकर पुनः यान-लीन हो जाते थे ।
सू – २९४, २९५
उन आवास म भगवान को अनेक कार के भयंकर उपसग आते थे । कभी साँप और नेवला आ द ाणी
काट खाते, कभी ग आकर माँस नोचते ।
कभी उ ह चोर या पारदा रक आकर तंग करते, अथवा कभी ामर क उ ह क दे त,े कभी कामास
याँ और कभी पु ष उपसग दे ते थे ।
सू - २९६
भगवान ने इहलौ कक और पारलौ कक नाना कार के भयंकर उपसग सहन कये । वे अनेक कार के
सुग और ग म तथा य और अ य श द म हष-शोक र हत म य रहे ।
सू - २९७
उ ह ने सदा स म त यु होकर अनेक कार के श को सहन कया । वे अर त और र त को शांत कर दे ते
थे । वे महामाहन महावीर ब त ही कम बोलते थे ।
सू - २९८
कुछ लोग आकर पूछते– ‘ तुम कौन हो ? यहाँ य खड़े हो ? ’ कभी अकेले घूमने वाले लोग रात म आकर
पूछते – तब भगवान कुछ नह बोलते, इससे होकर वहार करते, फर भी भगवान समा ध म लीन रहते, पर तु
तशोध लेने का वचार भी नह उठता ।
सू - २९९
अ तर म त भगवान से पूछा – ‘ अ दर कौन है ? ’ भगवान ने कहा – ‘ म भ ु ँ ।’ य द वे ोधा होते
तब भगवान वहाँ से चले जाते । यह उनका उ म धम है । वे मौन रहकर यान म लीन रहते थे ।
सू - ३००
श शरऋतु म ठ डी हवा चलने पर क लोग काँपने लगते, उस ऋतु म हमपात होने पर कुछ अनगार भी
नवात ान ढूँ ढ़ते थे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 48


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ३०१
हमज य शीत- श अ य त ःखदायी है, यह सोचकर कोई साधु संक प करते थे क चादर म घूस जाएंगे
या का जलाकर कवाड़ को ब द करके इस ठं ड को सह सकगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे ।
सू - ३०२
क तु उस श शर ऋतु म भी भगवान ऐसा संक प नह करते । कभी-कभी रा म भगवान उस मंडप से
बाहर चले जाते, मु भर ठहर फर मंडप म आते । उस कार भगवान शीता द परीषह समभाव से सहन करने म
समथ थे ।
सू - ३०३
म तमान महामाहन महावीर ने इस व ध का आचरण कया जस कार अ तब वहारी भगवान ने ब त
बार इस व ध का पालन कया, उसी कार अ य साधु भी आ म- वकासाथ इस व ध का आचरण करते ह – ऐसा म
कहता ँ ।
अ ययन-९ – उ े शक-३
सू - ३०४
भगवान घास का कठोर श, शीत श, गम का श, डाँस और म र का दं श; इन नाना कार के
ःखद श को सदा स यक् कार से सहते थे ।
सू - ३०५
गम लाढ़ दे श के व भू म और सु ह भू म नामक दे श म उ ह ने ब त ही तु वास ान और क ठन
आसन का सेवन कया था ।
सू - ३०६
लाढ़ दे श के े म भगवान ने अनेक उपसग सहे । वहाँ के ब त से अनाय लोग भगवान पर ड ड आ द से
हार करते थे; भोजन भी ायः खा-सूखा ही मलता था । वहाँ के शकारी कु े उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे
सू - ३०७
कु े काटने लगते या भ कते तो ब त से लोग इस मण को कु े काँटे, उस नीयत से कु को बुलाते और
छु छकार कर उनके पीछे लगा दे ते थे ।
सू - ३०८
उस जनपद म भगवान ने पुनः पुनः वचरण कया । उस जनपद म सरे मण लाठ और ना लका लेकर
वहार करते थे ।
सू - ३०९
वहाँ वचरण करने वाले मण को भी पहले कु े पकड़ लेते, काट खाते या न च डालते । उस लाढ़ दे श म
वचरण करना ब त ही कर था ।
सू - ३१०
अनगार भगवान महावीर ा णय त होनेवाले द ड का प र याग और अपने शरीर त मम व का ु सग
करके ( वचरण करते थे) अतः भगवान उन ा यजन के काँट समान तीखे वचन को ( नजरा हेतु सहन) करते थे ।
सू - ३११
हाथी जैसे यु के मोच पर ( व होने पर भी पीछे नह हटता) यु का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान
महावीर उस लाढ़ दे शम परीषह-सेना को जीतकर पारगामी ए । कभी-कभी लाढ़ दे शम उ ह अर यम भी रहना पड़ा
सू - ३१२
आव यकतावश नवास या आहार के लए वे ाम क ओर जाते थे । वे ाम के नकट प ँचते, न प ँचते,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 49


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से नीकलकर भगवान को रोक लेते, उन पर हार करते और कहते – ‘ यहाँ से आगे
कह र चले जाओ ।’
सू - ३१३
उस लाढ़ दे श म ब त से लोग ड डे, मु के अथवा भाले आ द से या फर म के ढे ले या ख पर से मारते,
फर ‘ मारो-मारो’ कहकर होह ला मचाते थे ।
सू - ३१४
उन अनाय ने पहले एक बार यान खड़े भगवान के शरीर को पकड़कर माँस काट लया था । उ ह
परीषह से पी ड़त करते थे, कभी-कभी उन पर धूल फकते थे ।
सू - ३१५
कुछ लोग यान भगवान को ऊंचा उठाकर नीचे गरा दे ते थे, कुछ लोग आसन से र धकेल दे ते थे,
क तु भगवान शरीर का ु सग कये ए णब , क स ह णु त ा से यु थे । अतएव वे इन परीषह से
वच लत नह होते थे ।
सू - ३१६
जैसे कवच पहना आ यो ा यु के मोच पर श से व होने पर भी वच लत नह होता, वैसे ही संवर
का कवच पहने ए भगवान महावीर लाढ़ा द दे श म परीषहसेना से पी ड़त होने पर भी कठोरतम क का सामना
करते ए मे पवत क तरह यान म न ल रहकर मो पथ म परा म करते थे ।
सू - ३१७
( ान और आसन के स ब म) त ा से मु म तमान, महामाहन भगवान महावीर ने इस व ध का
अनेक बार आचरण कया; उनके ारा आच रत एवं उप द व ध का अ य साधक भी इसी कार आचरण करते ह।
ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-९ – उ े शक-४
सू – ३१८, ३१९
भगवान रोग से आ ा त न होने पर भी अवमौदय तप करते थे । वे रोग से ृ ह या अ ृ , च क सा म
च नह रखते थे ।
वे शरीर को आ मा से अ य जानकर वरेचन, वमन, तैलमदन, नान और मदन आ द प रकम नह करते थे,
तथा द त ालन भी नह करते थे ।
सू - ३२०
महामाहन भगवान वरत होकर वचरण करते थे । वे ब त बुरा नह बोलते थे । कभी-कभी भगवान श शर
ऋतु म र होकर यान करते थे ।
सू - ३२१
भगवान ी म ऋतु म आतापना लेते थे । उकडू आसन से सूय के ताप के सामने मुख करके बैठते थे । और
वे ायः खे आहार को दो – को व व बेर आ द का चूण, तथा उड़द आ द से शरीर- नवाह करते थे ।
सू - ३२२
भगवान ने इन तीन का सेवन करके आठ मास तक जीवन यापन कया । कभी-कभी भगवान ने अध मास
या मासभर तक पानी नह पया ।
सू - ३२३
उ ह ने कभी-कभी दो महीने से अ धक तथा छह महीने तक भी पानी नह पया । वे रातभर जागृत रहते,
क तु मन म न द लेने का संक प नह होता था । कभी-कभी वे वासी भोजन भी करते थे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 50


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ३२४
वे कभी बेले, कभी तेले, कभी चौले कभी पंचौले के अन तर भोजन करते थे । भोजन त त ार हत
होकर समा ध का े ण करते थे ।
सू - ३२५
वे भगवान महावीर (दोष को) जानकर वयं पाप नह करते थे, सर से भी पाप नह करवाते थे और न
पाप करने वाल का अनुमोदन करते थे ।
सू - ३२६
ाम या नगर म वेश करके सरे के लए बने ए भोजन क एषणा करते थे । सु वशु आहार हण करके
भगवान आयतयोग से उसका सेवन करते थे ।
सू - ३२७
भ ाटन के समय, रा ते म ुधा से पी ड़त कौ तथा पानी पीने के लए आतुर अ य ा णय को लगातार
बैठे ए दे खकर–
सू - ३२८
अथवा ा ण, मण, गाँव के भखारी या अ त थ, चा डाल, ब ली या कु े को माग म बैठा दे खकर–
सू - ३२९
उनक आजी वका व े द न हो, तथा उनके मन म अ ी त या अ ती त उ प न हो, इसे यान म रखकर
भगवान धीरे-धीरे चलते थे । कसीको जरा-सा भी ास न हो, इस लए हसा न करते ए आहार क गवेषणा करते थे।
सू - ३३०
भोजन सूखा हो, अथवा ठं डा हो, या पुराना उड़द हो, पुराने धान को ओदन हो या पुराना स ु हो, या जौ से
बना आ आहार हो, पया त एवं अ े आहार के मलने या न मलने पर इन सब म संयम न भगवान राग- े ष नह
करते थे ।
सू - ३३१
भगवान महावीर उकडू आ द आसन म त होकर यान करते थे । ऊंचे, नीचे और तरछे लोक म त -
पयाय को यान का वषय बनाते थे । वे अस ब बात से र रहकर आ म-समा ध म ही के त रहते थे ।
सू - ३३२
भगवान ोधा द कषाय को शा त करके, आस को यागकर, श द और प के त अमू त रहकर
यान करते थे । छ अव ा म सदनु ान म परा म करते ए उ ह ने एक बार भी माद नह कया ।
सू - ३३३
आ म-शु के ारा भगवान ने वयमेव आयतयोग को ा त कर लया और उनके कषाय उपशा त हो गए
उ ह ने जीवन पय त माया से र हत तथा स म त-गु त से यु होकर साधना क ।
सू - ३३४
कसी त ार हत ानी महामाहन भगवानने अनेकबार इस व ध का आचरण कया, उनके ारा आच रत
एवं उप द व ध का अ य साधक भी अपने आ म- वकास के लए इसी कार आचरण करते थे । ऐसा म कहता ँ
अ ययन-९ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

आचार सू आगम -१ के त ु क -१– का


मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 51


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

ुत क –२
चू लका– १
अ ययन-१ – पडेषणा
उ े शक-१
सू - ३३५
कोई भ ु या भ ुणी भ ा म आहार- ा त के उ े य से गृह के घर म व होकर यह जाने क यह
अशन, पान, खा तथा वा रसज आ द ा णय से, फफुंद से, गे ँ आ द के बीज से, हरे अंकुर आ द से संस है,
म त है, स च जल से गीला है तथा स च म से सना आ है; य द इस कार का अशन, पान, खा , वा
दाता के हाथ म हो, पर (दाता) के पा म हो तो उसे अ ासुक और अनेषणीय मानकर, ा त होने पर हण न करे ।
कदा चत् वैसा आहार हण कर लया हो तो वह उस आहार को लेकर एका त म चला जाए या उ ान या
उपा य म ही जहाँ ा णय के अंडे न ह , जीव-ज तु न ह , बीज न ह , ह रयाली न हो, ओस के कण न ह , स च
जल न हो तथा च टयाँ, लीलन-फूलन, गीली म या दलदल, काई या मकड़ी के जाले एवं द मक के घर आ द न
ह , वहाँ उस संस आहार से उन आग तुक जीव को पृथक्-पृथक् करके उस म त आहार को शोध-शोधकर फर
यतनापूवक खा ले या पी ले ।
य द वह उस आहार को खाने-पीने म असमथ हो तो उसे लेकर एका त ान म चला जाए । वहाँ जाकर
दध डलभू म पर, ह य के ढ़े र पर, लोह के कूड़े के ढ़े र पर, तुष के ढ़े र पर, सूखे गोबर के ढ़े र पर या इसी कार
के अ य नद ष एवं ासुक डल का भलीभाँ त नरी ण करके, उसका अ तरह माजन करके, यतनापूवक
उस आहार को वहाँ प र ा पत कर दे ।
सू - ३३६
गृह के घर म भ ा ा त होने क आशा से व आ भ ु या भ ुणी य द इन औष धय को जाने क
वे अख डत ह, अ वन यो न ह, जनके दो या दो से अ धक टु कड़े नह ए हो, जनका तरछा छे दन नह आ है,
जीव र हत नह है, अभी अधपक फली है, जो अभी स च या अभ न है या अ न म भुँजी ई नह है, तो उ ह
दे खकर उनको अ ासुक एवं अनेषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
सू - ३३७
गृह के घर म भ ा लेने के लए व भ ु या भ ुणी य द ऐसी औष धय को जाने क वे अख डत
नह है, यावत् वे जीव र हत ह, क ी फली अ च हो गई है, भ न ह या अ न म भुँजी ई ह, तो उ ह दे खकर, उ ह
ासुक एवं एषणीय समझकर ा त होती ह तो हण कर ले ।
गृह के घर भ ा न म गया आ भ ु या भ ुणी य द यह जान ले क शाली, धान, जौ, गे ँ आ द म
सच रज ब त है, गे ँ आ द अ न म भूज
ँ े ए – अधप व ह । गे ँ आ द के आटे म तथा धान-कूटे चूण म भी
अख ड दाने ह, कणस हत चावल के ल बे दाने सफ एक बार भूने ए ह या कूटे ए ह, तो उ ह अ ासुक और
अनेषणीय मानकर मलने पर भी हण न करे ।
अगर...वह भ ु या भ ुणी यह जाने क शाली, धान, जौ, गे ँ आ द रज वाले नह ह, आग म भुँजे ए गे ँ
आ द तथा गे ँ आ द का आटा, कुटा आ धान आ द अख ड दान से स हत है, कण स हत चावल के ल बे दाने, ये सब
एक, दो या तीन बार आग म भुने ह तो उ ह ासुक और एषणीय जानकर ा त होने पर हण कर ले।
सू - ३३८
गृह के घर म भ ा के न म वेश करने के ई ु क भ ु या भ ुणी अ यती थक या गृह के साथ
तथा प डदोष का प रहार करने वाला साधु अपा रहा रक साधु के साथ भ ा के लए गृह के घर म न तो वेश
करे, और न वहाँ से नीकले ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 52


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
वह भ ु या भ ुणी बाहर वचारभू म या वहारभू म से लौटते या वहाँ वेश करते ए अ यती थक या
पर प डोपजीवी गृह के साथ तथा पा रहा रक, अपा रहा रक साधु के साथ न लौटे , न वेश करे ।
एक गाँव से सरे गाँव जाते ए भ ु या भ ुणी अ यती थक या गृह के साथ तथा उ म साधु पा
आ द साधु के साथ ामानु ाम वहार न करे ।
सू - ३३९
गृह के घर म भ ा के लए व भ ु या भ ुणी अ यती थक या पर प डोपजीवी याचक को तथैव
उ म साधु पा ा द श थलाचारी साधु को अशन, पान, खा , वा तो वयं दे और न कसी से दलाए ।
सू - ३४०
गृह के घर म भ ा के लए व भ ु या भ ुणी जब यह जाने क कसी भ गृह ने अ कचन
न के लए एक साध मक साधु के उ े य से ाण, भूत, जीव और स व का समार करके आहार बनाया है,
साधु के न म से आहार मोल लया, उधार लया है, कसी से जबरन छ नकर लाया है, उसके वामी क अनुम त के
बना लया आ है तथा सामने लाया आ आहार दे रहा है, तो उस कार का, अशन, पान, खा और वा प
आहार दाता से भ पु ष ने बनाया हो अथवा दाता ने बनवाया हो, घर से बाहर नीकाला गया हो, या न नीकाला गया
हो, उस दाता ने वीकार कया हो या न कया हो, उसी दाता ने उस आहार म से ब त-सा खाया हो या न खाया हो;
अथवा थोड़ा-सा सेवन कया हो, या न कया हो; इस कार के आहार को अ ासुक और अनेष- णक समझकर ा त
होने पर भी हण न करे ।
इसी कार ब त से साध मक साधु के उ े य से, एक साध मणी सा वी के उ े य से तथा ब त सी
साध मणी सा वी के उ े य से बनाया ए आहार हण न कर; य मशः चार आलापक इसी भाँ त कहने चा हए
सू - ३४१
वह भ ु या भ ुणी यावत् गृह के घर व होने पर जाने क यह अशना द आहार ब त से मण ,
माहन , अ त थय , कृपण , याचक को गन- गनकर उनके उ े य से बनाया आ है । वह आसेवन कया कया गया
हो या न कया गया हो, उस आहार को अ ासुक अनेषणीय समझकर मलने पर हण न करे ।
सू - ३४२
वह भ ु या भ ुणी यावत् गृह के घर व होने पर जाने क यह चतु वध आहार ब त-से मण ,
माहन , अ त थय , द र और याचक के उ े य से ाणा द आ द जीव का समार करके यावत् लाकर दे रहा है,
उस कार के आहार को जो वयं दाता ारा कृत हो, बाहर नीकाला आ न हो, दाता ारा अ धकृत न हो, दाता ारा
उपभु न हो, अनासे वत हो, उसे अ ासुक और अनेषणीय समझकर मलने पर भी हण न करे । य द वह इस
कार जाने क वह आहार सरे पु ष ारा कृत है, घर से बाहर नीकाला गया है, अपने ारा अ धकृत है, दाता ारा
उपभु तथा आसे वत है तो ऐसा आहार को ासुक और एषणीय समझकर मलने पर वह हण कर ले ।
सू - ३४३
गृह घरम आहार- ा त क अपे ा से वेश करने के ई ु क साधु सा वी ऐसे कुल को जान ल क इन
कुल म न य प ड दया जाता है, न य अ प ड दया जाता है, त दन भाग या उपा भाग दया जाता है; इस
कार के कुल, जो न य दान दे ते ह, जनम त दन भ ाचर का वेश होता है, ऐसे कुल म आहारपानी के लए
साधु-सा वी वेश एवं नगमन न कर । यह उस भ ु या भ ुणी के लए सम ता है, क वह सम त पदाथ म संयत
या पंचस म तय से यु , ाना द-स हत अथवा व हत परायण होकर सदा य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-२
सू - ३४४
वह भ ु या भ ुणी गृह के घर म आहार- ा त के न म व होने पर अशन आ द आहार के वषय

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 53


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
म यह जाने क यह आहार अ मी पौषध त के उ सव के उपल य म तथा अ मा सक, मा सक, मा सक,
ैमा सक, चातुमा सक, पंचमा सक और षा मा सक उ सव के उपल य म तथा ऋतु , ऋतुस य एवं ऋतु-
प रवतन के उ सव के उपल य म (बना है, उसे) ब त-से मण, माहन, अ त थ, द र एवं भखा रय को एक बतन
से परोसते ए दे खकर, दो बतन से, या तीन बतन से एवं चार बतन से परोसते ए दे खकर तथा संकड़े मुँह वाली
कु ी और बाँस क टोकरी म से एवं सं चत कए ए गोरस आ द पदाथ को परोसते ए दे ख-कर, जो क
पु षा तरकृत नह है, यावत् आसे वत नह है, तो ऐसे आहार को अ ासुक और अनेषणीय समझकर मलने पर भी
हण न करे ।
और य द ऐसा जाने क यह आहार पु षा तरकृत् यावत् आसे वत है तो ऐसे आहार को ासुक और
एषणीय समझकर मलने पर हण कर ले ।
सू - ३४५
वह भ ु या भ ुणी गृह के घर म आहार ा त के लए व होने पर जन कुल को जाने वे इस कार
ह– उ कुल, भोगकुल, रा यकुल, यकुल, इ वाकुकुल, ह रवंशकुल, गोपाला दकुल, वै यकुल, ना पत-कुल, बढ़ई-
कुल, ामर ककुल या त तुवायकुल, ये और इसी कार के और भी कुल, जो अ न दत और अग हत ह , उन कुल
से ासुक और एषणीय अशना द चतु वध आहार मलने पर हण करे ।
सू - ३४६
वह भ ु या भ ुणी भ ा के लए गृह के घर म व होते समय वह जाने क यहाँ मेला, पतृ प ड के
न म भोज तथा इ -महो सव, क , , मुकु द, भूत, य , नाग-महो सव तथा तूप, चै य, वृ , पवत, गुफा,
कूप, तालाब, द, नद , सरोवर, सागर या आकार स ब ी महो सव एवं अ य इसी कार के व भ कार के
महो सव हो रहे ह, अशना द चतु वध आहार ब त-से मण- ा ण, अ त थ, द र , याचक को एक बतन म से, दो,
तीन, या चार बतन म से परोसा जा रहा है तथा घी, ध, दह , तैल, गुड़ आ द का संचय भी संकड़े मुँह वाली कु पी म
से तथा बाँस क टोकरी या पटारी से परोसा जा रहा है । इस कार का आहार पु षा तरकृत, घर से बाहर नीकाला
आ, दाता ारा अ धकृत, प रभु या आसे वत नह है तो ऐसे आहार को अ ासुक और अनेषणीय समझकर
मलने पर भी हण न करे ।
य द वह यह जाने क जनको (जो आहार) दे ना था, दया जा चूका है, अब वहाँ, गृह भोजन कर रहे ह,
ऐसा दे खकर (आहार के लए वहाँ जाए), उस गृहप त क प नी, बहन, पु , पु ी या पु वधू, धायमाता, दास या दासी
अथवा नौकर या नौकरानी को पहले से ही (भोजन करती ई) दे खे, (तब) पूछे– ‘ आयु मती ! या मुझे इस भोजन म
से कुछ दोगी ? ’ ऐसा कहने पर वह वयं अशना द आहार लाकर साधु को दे अथवा वह गृह वयं दे तो उस आहार
को ासुक एषणीय जानकर मलने पर हण करे ।
सू - ३४७
वह भ ु या भ ुणी अध योजन क सीमा से पर संख ड़ हो रही है, यह जानकर संख ड़ म न प आहार
लेने के न म जाने का वचार न करे ।
य द भ ु या भ ुणी यह जाने क पूव दशा म संख ड़ हो रही है, तो वह उसके त अनादर भाव रखते ए
प म दशा को चला जाए । य द प म दशा म संख ड़ जाने तो उसके त अनादर भाव से पूव दशा म चला जाए
इसी कार द ण दशा म संख ड़ जाने तो उ र दशा म चला जाए और उ र दशा म संख ड़ होती जाने तो उसके
त अनादर बताता आ द ण दशा म चला जाए ।
संख ड़ जहाँ भी हो, जैसे क गाँव म हो, नगर म हो, खेड़े म हो, कुनगर म हो, मड ब म हो, प न म हो,
ोणमुख म हो, आकर म हो, आ म म हो, स वेश म हो, यावत् राजधानी म हो, इनम से कह भी संख ड़ जाने तो
संख ड़ के न म मन म संक प लेकर न जाए । केवल ानी भगवान कहते ह यह कमब न का ान है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 54


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
संख ड़ म संख ड़ के संक प से जाने वाले भ ु को आधाक मक, औ े शक, म जात, तकृत, ा म य,
बलात् छ ना आ, सरे के वा म व का पदाथ उसक अनुम त के बना लया आ या स मुख लाकर दया आ
आहार सेवन करना होगा । य क कोई भावुक गृह भ ु के संख ड़ म पधारने क स ावना से छोटे ार को बड़ा
बनाएगा, बड़े ार को छोटा बनाएगा, वषम वास ान को सम बनाएग तथा सम वास ान को वषम बनाएगा ।
इसी कार अ धक वातयु वास ान को नवात बनाएगा या नवात वात ान को अ धक वात यु बनाएगा । वह
भ ु के नवास के लए उपा य के अ दर और बाहर ह रयाली को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़ कर वहाँ सं तारक
बछाएगा । इस कार संख ड़ म जाने को भगवान ने म जात दोष बताया है ।
इस लए संयमी न इस कार नामकरण ववाह आ द के उपल य म होने वाली पूव-संख ड़ अथवा
मृतक के पीछे क जाने वाली प ात्-संख ड़ को (अनेक दोषयु ) संख ड़ जानकर जाने का मन म संक प न करे।
यह उस भ ु या भ ुणी क सम ता है क वह सम त पदाथ म संयत या स मत व ाना द स हत होकर सदा
य नशील रहे । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-३
सू - ३४८
कदा चत् भ ु अथवा अकेला साधु कसी संख ड़ म प ँचेगा तो वहाँ अ धक सरस आहार एवं पेय खाने-
पीने से उसे द त लग सकता है, या वमन हो सकता है अथवा वह आहार भलीभाँ त पचेगा नह ; कोई भयंकर ःख
या रोगांतक पैदा हो सकता है ।
इस लए केवली भगवान न कहा–‘ यह (संख ड़गमन) कम का उपादान कारण है ।’
सू - ३४९
यहाँ भ ु गृह -गृह प नीय अथवा प र ाजक-प र ा जका के साथ एक च व एक त होकर
नशीला पेय पीकर बाहर नीकलकर उपा य ढूँ ढ़ने लगेगा, जब वह नह मलेगा, तब उसी को उपा य समझकर
गृह ी-पु ष व प र ाजक-प र ा जका के साथ ही ठहर जाएगा । उनके साथ धुल मल जाएगा । वे गृह -
गृह प नीयाँ आ द म एवं अ यमन क होकर अपने आपको भूल जाएंग,े साधु अपने को भूल जाएगा । अपने को
भूलकर वह ी शरीर पर या नपुंसक पर आस हो जाएगा । अथवा याँ या नपुंसक उस भ ु के पास आकर
कहगे– आयु मन् मण ! कसी बगीचे या उपा य म रात को या वकाल म एका त म मल । फर कहगे– ाम के
नकट कसी गु त, , एका त ान म हम मैथुन-सेवन करगे । उस ाथना का कोई एकाक अन भ साधु
वीकार भी कर सकता है ।
यह (साधु के लए सवथा) अकरणीय है यह जानकर (संख ड़ म न जाए) । संख ड़ म जाना कम के आ व
का कारण है, अथवा दोष का आयतन है । इसम जाने से कम का संचय बढ़ता जाता है; इस लए संयमी न
संख ड़ को संयम ख डत करने वाली जानकर उसम जान का वचार भी न करे ।
सू - ३५०
वह भ ु या भ ुणी पूव-संख ड़ या प ात्-संख ड़ म से कसी एक के वषय म सूनकर मन म वचार करके
वयं ब त उ सुक मन से ज द -ज द जाता है । य क वहाँ न त ही संख ड़ है । वह भ ु उस संख ड़ वाले ाम
म संख ड़ से र हत सरे- सरे घर से एषणीय तथा वेश से ल उ पादना द दोषर हत भ ा से ा त आहार को
हण करके वह उसका उपभोग नह कर सकेगा । य क वह संख ड़ के भोजन-पानी के लए लाला यत है । वह
भ ु मातृ ान का श करता है । अतः साधु ऐसा काय न करे ।
वह भ ु उस संख ड़ वाले ाम म अवसर दे खकर वेश करे, संख ड़ वाले घर के सवाय, सरे- सरे घर से
सामुदा नक भ ा से ा त एषणीय तथा केवल वेष से ा त– धा ी प डा द दोषर हत प डपात को हण करके
उसका सेवन कर ले ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 55


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ३५१
वह भ ु या भ ुणी यह जाने क अमुक गाँव, नगर यावत् राजधानी म संख ड़ है । तो संख ड़ को (संयम
को ख डत करने वाली जानकर) उस गाँव यावत् राजधानी म संख ड़ क त ा से जाने का वचार भी न करे ।
केवली भगवान कहते ह– यह अशुभ कम के ब का कारण है ।
चरका द भ ाचर क भीड़ से भरी– आक ण– और हीन– अवमा ऐसी संख ड़ म व होने से ( न नो
दोष के उ प होने क स ावना है– ) सव थम पैर से पैर– टकराएंगे या हाथ से हाथ संचा लत ह गे; पा से पा
रगड़ खाएगा, सर से सर का श होकर टकराएगा अथवा शरीर से शरीर का संघषण होगा, ड डे, ह ी, मु , ढे ला-
प थर या ख पर से एक सरे पर हार होना भी संभव है । वे पर रसच , ठ डा पानी भी छ ट सकते ह, स च
म भी फक सकते ह । वहाँ अनैषणीय आहार भी उपभोग करना पड़ सकता है तथा सर को दए जाने वाले
आहार को बीच म से लेना भी पड़ सकता है । इस लए वह संयमी न इस कार क जनाक ण एवं हीन संख ड़ म
संख ड़ के संक प से जाने का बलकुल वचार न करे ।
सू - ३५२
भ ा ा त के उ े य से व भ ु या भ ुणी यह जाने क यह आहार एषणीय है या अनैषणीय ? य द
उसका च व च क सा यु हो, उसक ले या अशु आहार क रही हो, तो वैसे आहार मलने पर भी हण न करे
सू - ३५३
जो भ ु या भ ुणी गृह के घर म व होना चाहता है, वह अपने सब धम पकरण लेकर आहार- ा त
उ े य से गृह के घर म वेश करे या नीकले ।
साधु या सा वी बाहर मलो सगभू म या वा यायभू म म नीकलते या वेश समय अपने सभी धम पकरण
लेकर वहाँ से नीकले या वेश करे । एक ाम से सरे ाम वचरण करते समय अपने सब धम पकरण साथ म लेकर
ामानु ाम वहार करे ।
सू - ३५४
य द वह भ ु या भ ुणी यह जाने क ब त बड़े े म वषा बरसती है, वशाल दे श म अ कार प धुंध
पड़ती दखाई दे रही है, अथवा महावायु से धूल उड़ती दखाई दे ती है, तरछे उड़ने वाले या स ाणी एक साथ
मलकर गरते दखाई दे रहे ह, तो वह ऐसा जानकर सब धम पकरण साथ म लेकर आहार के न म गृह के घर
म न वेश करे और न नीकले । इसी कार बाहर वहार भू म या वचार भू म म भी न मण या वेश न करे; न ही
एक ाम से सरे ाम को वहार करे ।
सू - ३५५
भ ु एवं भ ुणी इन कुल को जाने, जैसे क च वत आ द य के कुल, उनसे भ अ य राजा के
कुल, कुराजा के कुल, राजभृ य द डपा शक आ द के कुल, राजा के मामा, भानजा आ द स ब ीय के कुल, इन
कुल के घर से, बाहर या भीतर जाते ए, खड़े ए या बैठे ए, नमं ण कये जान पर या न कये जाने पर, वहाँ से
ा त होने वाले अशना द आहार को हण न करे ।
अ ययन-१ – उ े शक-४
सू - ३५६
गृह के घर म भ ा के लए वेश करते समय भ ु या भ ुणी यह जो क इस संख ड़ के ार म माँस
या म य पकाया जा रहा है, अथवा माँस या म य छ लकर सूखाया जा रहा है; ववाहो र काल म नववधू के वेश
या पतृगृह म वधू के पुनः वेश के उपल य म भोज हो रहा है, या मृतक-स ब ी भोज हो रहा है, अथवा प रजन के
स मानाथ भोज हो रहा है । ऐसी संख ड़य से भ ाचर को भोजन लाते ए दे खकर संयम-शील भ ु को वहाँ
भ ा के लए नह जाना चा हए । य क वहाँ जाने म अनेक दोष क स ावना है, जैसे क ----

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 56


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
माग म ब त-से ाणी, ब त-सी ह रयाली, ब त-से ओसकण, ब त पानी, ब त-से क ड़ीनगर, पाँच वण क
नीलण-फूलण है, काई आ द नगोद के जीव ह, स च पानी से भीगी ई म है, मकड़ी के जाले ह, उन सबक
वराधना होगी; वहाँ ब त-से मण, ा ण, अ त थ, द र , याचक आ द आये ए ह, आ रहे ह तथा आएंगे,
संख ड़ ल चरक आ द जनता क भीड़ से अ य त घरा आ है; इस लए वहाँ ा साधु का नगमन- वेश का
वहार उ चत नह है; य क वहाँ ा भ ु क वाचना, पृ ना, पयटना, अनु े ा और धमकथा प वा याय
वृ नह हो सकेगी । अतः इस कार जानकर वह भ ु पूव कार क माँस धाना द पूवसंख ड़ या प ात्
संख ड़ क त ा से जाने का मन म संक प न करे ।
वह भ ु या भ ुणी, भ ा के लए गृह के यहाँ वेश करते समय यह जाने क नववधू वेश आ द के
उपल य म भोज हो रहा है, उन भोज से भ ाचर भोजन लाते दखाई दे रहे ह, माग म ब त-से ाणी यावत् मकड़ी
का जाला भी नह है तथा वहाँ ब त-से भ ु- ा णा द भी नह आए ह, न आएंगे और न आ रहे ह, लोग क भीड़
भी ब त कम है । वहाँ ा नगमन– वेश कर सकता है तथा वहाँ ा साधु के वाचना-पृ ना आ द धमानुयोग
च तन म कोई बाधा उप त नह होगी, ऐसा जान लेने पर संख ड़ क त ा से जाने का वचार कर सकता है ।
सू - ३५७
भ ु या भ ुणी गृह के घर म भ ा के लए वेश करना चाहते ह ; यह जान जाए क अभी धा
गाय को हा जा रहा है तथा आहार अभी तैयार कया जा रहा है, उसम से कसी सरे को दया नह गया है । ऐसा
जानकर आहार ा त क से न तो उपा य से नीकले और न ही उस गृह के घर म वेश करे ।
क तु वह भ ु उसे जानकर एका तम चला जाए और जहाँ कोई आता-जाता न हो और न दे खता हो, वहाँ
ठहर जाए । जब वह यह जान ले क धा गाएं ही जा चूक ह और आहार तैयार हो गया है तथा उसम से सर
को दे दया गया है, तब वह संयमी साधु – आहार ा त क से वहाँ से नीकले या उस गृह के घर म वेश करे ।
सू - ३५८
जंघा द बल ीण होने से एक ही े म रवास करने वाले अथवा मासक प वहार करने वाले कोई
भ ु, अ त थ प से अपने पास आए ए, ामानु ाम वचरण करने वाले साधु से कहते ह– पू यवरो ! यह गाँव
ब त छोटा है, ब त बड़ा नह है, उसम भी कुछ घर सूतक आ द के कारण के ए ह । इस लए आप भ ाचरी के
लए बाहर ( सरे) गाँव म पधार ।
मान लो, इस गाँव म रवासी मु नय म से कसी मु न के पूव-प र चत अथवा प ात् प र चत रहते ह, जैसे
क– गृहप त, गृहप नीयाँ, गृहप त के पु एवं पु याँ, पु वधूए,ं धायमाताएं, दास-दासी, नौकर-नौकरा नयाँ, वह साधु
यह सोचे क मेरे पूव-प र चत और प ात् प र चत घर ह, वैसे घर म अ त थ साधु ारा भ ाचरी करने से पहले
ही म भ ाथ वेश क ँ गा और इन कुल म अभी व तु ा त कर लूँगा, जैसे क–‘ शाली के ओदन आ द, वा द
आहार, ध, दह , नवनीत, घृत, गुड़, तेल, मधु, म या माँस अथवा जलेबी, गुड़राब, मालपुए, शख रणी आ द । उस
आहार को म पहले ही खा-पीकर पा को धो-प छकर साफ कर लूँगा । इसके प ात् आग तुक भ ु के साथ
आहार- ा त के लए गृह के घर म वेश क ँ गा और वहाँ से नीकलूँगा ।’
इस कार का वहार करने वाला साधु माया-कपट का श करता है । साधु को ऐसा नह करना चा हए।
उस ( रवासी) साधु को भ ा के समय उन भ ु के साथ ही उसी गाँव म व भ उ -नीच और म यम कुल
से सामुदा नक भ ा से ा त एषणीय, वेष से उपल नद ष आहार को लेकर उन अ त थ साधु के साथ ही
आहार करना चा हए । यही संयमी साधु-सा वी के ाना द आचार क सम ता है ।
अ ययन-१ – उ े शक-५
सू - ३५९
वह भ ु या भ ुणी गृह के घर म भ ा के न म वेश करने पर यह जाने क अ प ड नीकाला

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 57


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
जाता आ, रखा जाता दखाई दे रहा है, (कह ) अ प ड ले जाया जाता, बाँटा जाता, सेवन कया जाता दख रहा है,
कह वह फका या डाला जाता गोचर हो रहा है तथा पहले, अ य मण- ा णा द भोजन कर गए ह एवं कुछ
भ ाचर पहले इसे लेकर चले गए ह, अथवा पहले यहाँ सरे मण, ा ण, अ त थ, द र , याचक आ द ज द -
ज द आ रहे ह, (यह दे खकर) कोई साधु यह वचार करे क म भी ज द -ज द (अ प ड लेने) प ँचुं, तो (ऐसा
करने वाला साधु) माया- ान का सेवन करता है । वह ऐसा न करे ।
सू - ३६०
वह भ ु या भ ुणी गृह के यहाँ आहाराथ जाते समय रा ते के बीच म ऊंचे भू-भाग या खेत क या रयाँ
ह या खाईयाँ ह , अथवा बाँस क टाट हो, या कोट हो, बाहर के ार (बंद) ह , आगल ह , अगला-पाशक ह तो उ ह
जानकर सरा माग हो तो संयमी साधु उसी माग से जाए, उस सीधे माग से न जाए; य क केवली भगवान कहते ह–
यह कमब का माग है ।
उस वषय-माग से जाते ए भ ु फसल जाएगा या डग जाएगा, अथवा गर जाएगा । फसलने, डगने या
गरने पर उस भ ु का शरीर मल, मू , कफ, ल ट, वमन, प , मवाद, शु और र से लपट सकता है । अगर
कभी ऐसा हो जाए तो वह भ ु मल-मू ा द से उप ल त शरीर को स च पृ वी से, स च चकनी म से, स च
शला से, स च प थर या ढ़े ले से, या धुन लगे ए का से, जीवयु का से एवं अ डे या ाणी या जाल आ द
से यु का आ द से अपने शरीर को न एक बार साफ करे और न अनेक बार घसकर साफ करे । न एक बार रगड़े
या घसे और न बार-बार घसे, उबटन आ द क तरह मले नह , न ही उबटन क भाँ त लगाए । एक बार या अनेक
बार धूप म सुखाए नह ।
वह भ ु पहले स च -रज आ द से र हत तृण, प ा, का , कंकर आ द क याचना करे । याचना से ा त
करके एका त ान म जाए । वहाँ अ न आ द के संयोग से जलकर जो भू म अ च हो गई है, उस भू म क या
अ य उसी कार क भू म का तलेखन तथा माजन करके य नाचारपूवक संयमी साधु वयमेव अपने शरीर को
प छे , मले, घसे यावत् धूप म एक बार व बार-बार सुखाए और शु करे ।
सू - ३६१
वह साधु या सा वी जस माग से भ ा के लए जा रहे ह , य द वे वह जाने क माग म सामने मदो म साँड़
है, या भसा खड़ा है, इसी कार मनु य, घोड़ा, हाथी, सह, बाघ, भे ड़या, चीता, र छ, ा , अ ापद, सयार,
ब ला, कु ा, महाशूकर, लोमड़ी, च ा, च लडक और साँप आ द माग म खड़े या बैठे ह, ऐसी त म सरा माग
हो तो उस माग से जाए, क तु उस सीधे माग से न जाए ।
साधु-सा वी भ ा के लए जा रहे ह , माग म बीच म य द ग ा हो, खूँटा हो या ढूँ ठ पड़ा हो, काँट ह , उतराई
क भू म हो, फट ई काली जमीन हो, ऊंची-नीची भू म हो, या क चड़ अथवा दलदल पड़ता हो, (ऐसी त म)
सरा माग हो तो संयमी साधु वयं उसी माग से जाए, क तु जो सीधा माग है, उससे न जाए ।
सू - ३६२
साधु या सा वी गृह के घर का ार भाग काँट क शाखा से ढँ का आ दे खकर जनका वह घर, उनसे
पहले अव ह माँगे बना, उसे अपनी आँख से दे खे बना और मा जत कये बना न खोले, न वेश करे और न
उसम से नीकले; क तु जनका घर है, उनसे पहले अव ह माँग कर अपनी आँख से दे खकर और मा जत करके
उसे खोले, उसम वेश करे और उसम से नीकले ।
सू - ३६३
वह भ ु या भ ुणी भ ा के लए गृह के घर म वेश करते समय जाने क ब त-से शा या द मण,
ा ण, द र , अ त थ और याचक आ द उस गृह के यहाँ पहले से ही ह, तो उ ह दे खकर उनके सामने या जस
ार से वे नीकलते ह, उस ार पर खड़ा न हो । केवली भगवान कहते ह यह कम का उपादान है कारण है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 58


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
पहली ही म गृह उस मु न को वहाँ खड़ा दे खकर उसके लए आर -समार करके अशना द
चतु वध आहार बनाकर, उसे लाकर दे गा । अतः भ ु के लए पहले से ही न द यह त ा है, यह हेतु है, यह
उपदे श है क वह भ ु उस गृह और शा या द भ ाचर क म आए, इस तरह सामने और उनके नगमन
ार पर खड़ा न हो ।
वह (उन मणा द को उप त) जानकर एका त ान म चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो
और दे खता न हो, इस कार से खड़ा रहे । उस भ ु को उस अनापात और असंलोक ान म खड़ा दे खकर वह
गृह अशना द आहार लाकर दे , साथ ही वह य कहे ‘ ‘ आयु मन् मण ! यह अशना द चतु वध आहार म आ सब
के लए दे रहा ँ । आप च के अनुसार इस आहार का उपभोग कर और पर र बाँट ल ।’ ’
इस पर य द वह साधु उस आहार को चूपचाप लेकर यह वचार करता है क ‘ ‘ यह आहार मुझे दया है,
इस लए मेरे ही लए है, ’ ’ तो वह माया- ान का सेवन करता है । अतः उसे ऐसा नह करना चा हए । वह साधु उस
आहार को लेकर वहाँ (उन शा या द मण आ द के पास) जाए और उ ह वह आहार दखाए, और यह कहे– ‘ ‘ हे
आयु मन् ! मणा द ! यह अशना द चतु वध आहार गृह ने हम सबके लए दया है । अतः आप सब इसका
उपभोग कर और पर र वभाजन कर ल ।’ ’
ऐसा कहने पर य द कोई शा या द भ ु उस साधु से कहे क ‘ ‘ आयु मन् मण ! आप ही इसे हम सबको
बाँट द । उस आहार का वभाजन करता आ वह साधु अपने लए ज द -ज द अ ा-अ ा चुर मा ा म
वणा दगुण से यु सरस भाग, वा द , मनो , न ध, आहार और उनके लए खा-सूखा आहार न रखे, अ पतु
उस आहार म अमू त, अगृ , नरपे एवं अनास होकर सबके लए समान वभाग करे ।
य द सम- वभाग करते ए उस साधु को कोई शा या द भ ु य कहे क–‘ ‘ आयु मन् मण ! आप वभाग
मत कर । हम सब एक त होकर यह आहार खा-पी लगे ।’ ’ ( ऐसी वशेष प र त म) वह उनके साथ आहार करता
आ अपने लए चुर मा ा म सु दर, सरस आ द आहार और सर के लए खा-सूखा; (ऐसी वाथ -नी त न रखे);
अ पतु उस आहार म वह अमू त, अगृ , नरपे और अनास होकर बलकुल सम मा ा म ही खाए- पए ।
सू - ३६४
वह भ ु या भ ुणी य द यह जाने क वहाँ शा या द मण, ा ण, ाम प डोलक या अ त थ आ द
पहले से व ह, तो यह दे ख वह उ ह लाँघकर उस गृह के घर म न तो वेश करे और न ही दाता से आहारा द क
याचना करे पर तु एकांत ान म चला जाए, वहाँ जाकर कोई न आए-जाए तथा न दे खे, इस कार से खड़ा रहे ।
जब यह जान ले क गृह ने मणा द को आहार दे ने से इ कार कर दया है, अथवा उ ह दे दया है और वे
उस घर से नपटा दये गए ह; तब संयमी साधु वयं उस गृह के घर म वेश करे, अथवा आहारा द क याचना करे
यही उस भ ु अथवा भ ुणी के लए ान आ द के आचार क सम ता-स ूणता है ।
अ ययन-१ – उ े शक-६
सू - ३६५
वह भ ु या भ ुणी आहार के न म जा रहे ह , उस समय माग म यह जाने क रसा वेषी ब त-से ाणी
आहार के लए एक त होकर ( कसी पदाथ पर) टू ट पड़े ह, जैसे क– कु कुट जा त के जीव, शूकर जा त के जीव,
अथवा अ - प ड पर कौए झु ड के झु ड टूट पड़े ह; इन जीव को माग म आगे दे खकर संयत साधु या सा वी अ य
माग के रहते, सीधे उनके स मुख होकर न जाएं ।
सू - ३६६
आहारा द के लए व भ ु या भ ुणी उसके घर के दरवाजे क चौखट पकड़कर खड़े न ह , न उस
गृह के गंदा पानी फकने के ान या उनके हाथ-मुँह धोने या पीने के पानी बहाये जाने क जगह खड़े न ह और न
ही नानगृह, पेशाबघर या शौचालय के सामने अथवा नगमन- वेश ार पर खड़े ह । उस घर के झरोखे आ द को,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 59


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
मर मत क ई द वार आ द को, द वार क सं ध को, तथा पानी रखने के ान को, बार-बार बाह उठाकर अंगु लय
से बार-बार उनक ओर संकेत करके, शरीर को ऊंचा उठाकर या नीचे झुकाकर, न तो वयं दे ख और न सरे को
दखाए । तथा गृह को अंगु ल से बार-बार नदश करके याचना न करे और न ही अंगु लय से भय दखाकर
गृहप त से याचना करे । इसी कार अंगु लय से शरीर को बार-बार खुजलाकर या गृह क शंसा या तु त करके
आहारा द क याचना न करे । गृह को कठोर वचन न कहे ।
सू - ३६७
गृह के यहाँ आहार के लए व साधु या सा वी कसी को भोजन करते ए दे खे, जैसे क –

गृह वामी, उसक प नी, उसक पु ी या पु , उसक पु वधू या गृहप त के दास-दासी या नौकर-नौकरा नय म से
कसी को, पहले अपने मन म वचार करके कहे– आयु मन् गृह इसम से कुछ भोजन मुझे दोगे ?
उस भ ु के ऐसा कहने पर य द वह गृह अपने हाथ को, म के बतन को, दव को या कांसे आ द के
बतन को ठं डे जल से या ठं डे ए उ णजल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भ ु पहले उसे
भली-भाँ त दे खकर कहे– ‘ आयु मन् गृह ! तुम इस कार हाथ, पा , कुड़छ या बतन को स च पानी से मत
धोओ । य द मुझे भोजन दे ना चाहती हो तो ऐसे ही दे दो ।’
साधु के इस कार कहने पर य द वह शीतल या अ प उ णजल से हाथ आ द को एक बार या बार-बार
धोकर उ ह से अशना द आहार लाकर दे ने लगे तो उस कार के पुरः कमरत हाथ आ द से लाए गए अशना द
चतु वध आहार को अ ासुक और अनेषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
य द साधु यह जाने क दाता के हाथ, पा आ द भ ा दे ने के लए नह धोए ह, क तु पहले से ही गीले ह;
उस कार के स च जल से गीले हाथ, पा , कुड़छ आ द से लाकर दया गया आहार भी अ ासुक-अनेष-णीय
जानकर ा त होने पर भी हण न करे । य द यह जाने क हाथ आ द पहले से गीले तो नह ह, क तु स न ध ह, तो
उस कार लाकर दया गया आहार...भी हण न करे ।
य द यह जाने क हाथ आ द जल से आ या स न ध तो नह ह, क तु मशः स च म , ार, हड़ताल,
हगलू, मेन सल, अंजन, लवण, मे , पीली म , ख ड़या म , सौरा का, बना छाना आटा, आटे का चोकर,
पीलुप णका के गीले प का चूण आ द म से कसी से भी हाथ आद संसृ ह तो उस कार के हाथ आ द से लाकर
दया गया आहार...भी हण न करे । य द वह यह जाने क दाता के हाथ आ द स च जल से आ , स न ध या
स च म आ द से असंसृ तो नह ह, क तु जो पदाथ दे ना है, उसी से हाथ आ द संसृ ह तो ऐसे हाथ या बतन
आ द से दया गया अशना द आहार ासुक एवं एषणीय मानकर ा त होने पर हण कर सकता है(अथवा) य द वह
भ ु यह जाने क दाता के हाथ आ द स च जल, म आ द से संसृ नह ह, क तु जो पदाथ दे ना है, उसी से
संसृ ह, तो ऐसे हाथ या बतन आ द से दया गया आहार ासुक एवं एषणीय समझ-कर ा त होने पर हण करे ।
सू - ३६८
गृह के घर म आहार के लए व साधु-सा वी को यह ात हो जाए क शा ल-धान, जौ, गे ँ आ द म
स च रज ब त है, गे ँ आ द अ न म भूँजे ए ह, क तु वे अधप व ह, गे ँ आ द के आटे म तथा कुटे ए धान म भी
अख ड दाने ह, कण-स हत चावल के ल बे दाने सफ एक बार भुने ए या कुटे ए ह, अतः असंयमी गृह भ ु के
उ े य से स च शला पर, स च म के ढे ले पर, घुन लगे ए ल कड पर, या द मक लगे ए जीवा- ध त पदाथ
पर, अ डे स हत, ाण-स हत या मकड़ी आ द के जाल स हत शला पर उ ह कूट चूका है, कूट रहा है या कूटे गा;
उसके प ात् वह उन– अनाज के दान को लेकर उपन चूका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस कार के चावल आ द
अ को अ ासुक और अनैषणीय जानकर साधु हण न करे ।
सू - ३६९
गृह के घर म आहाराथ व साधु-सा वी य द यह जाने क असंयमी गृह कसी व श खान म

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 60


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
उ प नमक या समु के कनारे खार और पानी के संयोग से उ प उद् भ लवण के स च शला, स च म
के ढे ले पर, घुन लगे ल कड़ पर या जीवा ध त पदाथ पर अ डे, ाण, ह रयाली, बीज या मकड़ी के जाले स हत
शला पर टु कड़े कर चूका है, कर रहा है या करेगा, या पीस चूका है, पीस रहा है या पीसेगा तो साधु ऐसे स च या
सामु क लवण को अ ासुक– अनैषणीय समझकर हण न करे ।
सू - ३७०
गृह के घर आहार के लए व साधु-सा वी य द यह जान जाए क अशना द आहार अ न पर रखा
आ है, तो उस आहार को अ ासुक– अनैषणीय जानकर ा त होने पर हण न करे । केवली भगवान कहते ह– यह
कम के आने का माग है, य क असंयमी गृह साधु के उ े य से अ न पर रखे ए बतन म से आहार को
नीकालता आ, उफनते ए ध आ द को जल आ द के छ टे दे कर शा त करता आ, अथवा उसे हाथ आ द से एक
बार या बार-बार हलाता आ, आग पर से उतारता आ या बतन को टे ढ़ा करता आ वह अ नका यक जीव क
हसा करेगा । अतः भ ु के लए तीथकर भगवान ने पहले से ही तपा दत कया है क उसक यह त ा है,
यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदे श है क वह (साधु या सा वी) अ न पर रखे ए आहार को अ ासुक और
अनैषणीय जानकर ा त होने पर हण न करे ।
यह (आहार- हण- ववेक) ही उस भ ु या भ ुणी क सम ता है ।
अ ययन-१ – उ े शक-७
सू - ३७१
गृह के घर म भ ा के लए व साधु या सा वी य द यह जाने क अशना द चतु वध आहार गृह के
यहाँ भ त पर, त पर, मंच पर, घर के अ य ऊपरी भाग पर, महल पर, ासाद आ द क छत पर या अ य उस
कार के कसी ऊंचे ान पर रखा आ है, तो इस कार के ऊंचे ान से उतारकर दया जाता अशना द चतु वध
आहार अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर साधु हण न करे ।
केवली भगवान कहते ह– यह कमब का उपादान– कारण है; य क असंयत गृह भ ु को आहार दे ने
के उ े य से चौक , प ा, सीढ़ या ऊखल आ द को लाकर ऊंचा करके उस पर चढ़े गा । ऊपर चढ़ता आ वह गृह
फसल सकता है या गर सकता है । उसका हाथ, पैर, भुजा, छाती, पेट, सर या शरीर का कोई अंग टूट जाएगा,
अथवा उसके गरने से ाणी, भूत, जीव और स व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीच दब जाएंग,े पर र चपककर
कुचल जाएंगे, पर र टकरा जाएंगे, उ ह पीड़ाजनक श होगा, उ ह संताप होगा, वे हैरान हो जाएंगे, वे त हो
जाएंगे, या एक ान से सरे ान पर उनका सं मण हो जाएगा, अथवा वे जीवन से भी र हत हो जाएंगे । अतः
इस कार के माला त अशना द चतु वध आहार के ा त होने पर भी साधु उसे हण न करे ।
आहार के लए गृह के घर म व साधु या सा वी को यह ात हो जाए क असंयत गृह साधु के लए
अशना द चतु वध आहार म आ द बड़ी कोठ म से या ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े भू मगृह म से नीचा होकर,
कुबड़ा होकर या टे ढ़ा होकर कर दे ना चाहता है, तो ऐसे अशना द चतु वध आहार को माला त जान कर ा त होने
पर भी वह साधु या सा वी हण न करे ।
सू - ३७२
साधु या सा वी यह जाने क वहाँ अशना द आहार म से लीपे ए मुख वाले बतन म रखा आ है तो इस
कार का आहार ा त होने पर भी हण न करे ।
केवली भगवान कहते ह– यह कम आने का कारण है । य क असंयत गृह साधु को आहार दे ने के लए
म से लीपे आहार के बतन का मुँह खोलता आ पृ वीकाय का समार करेगा तथा अ नकाय, वायुकाय,
वन तकाय और सकाय तक का समार करेगा । शेष आहार क सुर ा के लए फर बतन को ल त करके वह
प ा कम करेगा । इसी लए तीथकर भगवान ने पहले से ही तपा दत कर दया है क साधु-सा वी क यह त ा

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 61


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदे श है क वह म से ल त बतन को खोल कर दये जाने वाले अशना द
चतु वध आहार को अ ासुक एवं अनैषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
गृह के घर म आहार के लए व भ ु या भ ुणी य द यह जाने क यह अशना द चतु वध आहार
पृ वीकाय पर रखा आ है, तो इस कार का आहार अ ासुक और अनैषणीय समझकर साधु-सा वी हण न करे ।
वह भ ु या भ ुणी यह जाने क– अशना द आहार अ काय (स च जल आ द) पर अथवा अ नकाय पर
रखा आ है, तो ऐसे आहार को अ ासुक तथा अनैषणीय जानकर हण न करे ।
केवली भगवान कहते ह– यह कम के उपादान का कारण है, य क असंयत गृह साधु के उ े य से–
अ न जलाकर, हवा दे कर, वशेष व लत करके या व लत आग म से ई न नीकाल कर, आग पर रखे ए
बतन को उतारकर, आहार लाकर दे दे गा, इसी लए तीथकर भगवान ने साधु-सा वी के लए पहले से बताया है, यही
उनक त ा है, यही हेतु है यही कारण है और यही उपदे श है क वे स च – पृ वी, जल, अ न आ द पर त त
आहार को अ ासुक और अनैषणीय मानकर ा त होने पर हण न करे ।
सू - ३७३
गृह के घर म भ ा के लए व साधु या सा वी को यह ात हो जाए क साधु को दे ने के लए यह
अ य त उ ण आहार असंयत गृह सूप से, पँखे से, ताड़प , खजूर आ द के प ,े शाखा, शाखाख ड से, मोर के
पंख से अथवा उससे बने ए पंखे से, व से, व के प ले से, हाथ से या मुँह से, पँखे आ द से हवा करके ठं डा
करके दे ने वाला है । वह पहले वचार करे और उ गृह से कहे– आयु मन् गृह ! तुम इस अ य त गम आहार को
सूप, पँखे यावत् हवा करके ठं डा न करो । अगर तु हारी ई ा इस आहार को दे ने क हो तो, ऐसे ही दे दो । इस पर भी
वह गृह न माने और उस अ यु ण आहार को यावत् ठ डा करके दे ने लगे तो उस आहार को अ ासुक और
अनैषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
सू - ३७४
गृह के घर म आहार के लए व साधु या सा वी यह जाने क यह अशना द चतु वध आहार
वन तकाय पर रखा आ है तो उस कार के वन तकाय त त आहार को अ ासुक और अनैषणीय
जानकर ा त होने पर न ले । इसी कार सकाय से त त आहार हो तो उसे भी हण न करे ।
सू - ३७५
गृह के घर म पानी के लए व साधु या सा वी य द पानी के इन कार को जाने– जैसे क– आटे के
हाथ लगा आ पानी, तल धोया आ पानी, चावल धोया आ पानी, अथवा अ य कसी व तु का इसी कार का
त काल धोया आ पानी हो, जसका वाद च लत– (प रव तत) न आ हो, जसका रस अ त ा त न आ (बदला न)
हो, जसके वण आ द का प रणमन न आ हो, जो श -प रणत न आ हो, ऐसे पानी को अ ासुक और अनैषणीय
जानकर मलने पर भी साधु-सा वी हण न करे ।
इसके वपरीत य द वह यह जाने के यह ब त दे र का चावल आ द का धोया आ धोवन है, इसका वाद
बदल गया है, रस का भी अ त मण हो गया है, वण आ द भी प रणत हो गए ह और श -प रणत भी ह तो उस
पानक को ासुक और एषणीय जानकर ा त होने पर साधु-सा वी हण करे ।
गृह के यहाँ पानी के लए व साधु-सा वी अगर जाने, क तल का उदक; तुषोदक, यवोदक, उबले
ए चावल का ओसामण, कांजी का बतन धोया आ जल, ासुक उ णजल अथवा इसी कार का अ य– धोया आ
पानी इ या द जल पहले दे खकर ही साधु गृह से कहे– ‘ ‘ आयु मन् गृह ! या मुझे इन जल म से कसी जल को
दोगे ?’’ साधु गृह से य द कहे क–‘ ‘ आयु मन् मण ! जल पा म रखे ए पानी को अपने पा से आप वयं
उलीच कर या उलटकर ले ली जए ।’ ’ गृह के इस कार कहने पर साधु उस पानी को वयं ले ले अथवा गृह
वयं दे ता हो तो उसे ासुक और एषणीय जानकर ा त होने पर हण कर ले ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 62


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ३७६
गृह के यहाँ पानी के लए व साधु या सा वी य द इस कार का पानी जाने क गृह ने ासुक जल
को वधान र हत स च पृ वी पर यावत् मकड़ी के जाल से यु पदाथ पर रखा है, अथवा स च पदाथ से यु
बतन से नीकालकर रखा है । असंयत गृह भ ु को दे ने के उ े य से स च जल टपकते ए अथवा जरा-से गीले
हाथ से, स च पृ वी आ द से यु बतन से, या ासुक जल के साथ स च उदक मलाकर लाकर दे तो उस कार
के पानक को अ ासुक और अनैषणीय मानकर साधु उसे मलने पर भी हण न करे । यह (आहार-पानी क गवेषणा
का ववेक) उस भ ु या भ ुणी क ( ान-दशन-चा र ा द आचार स ब ी) सम ता है ।
अ ययन-१ – उ े शक-८
सू - ३७७
गृह के घर म पानी के लए व साधु या सा वी य द इस कार का पानक जाने, जैसे क आ फल का
पानी, अंबाड़क, क प , बीजौरे, ा ा, दा ड़म, खजूर, ना रयल, करीर, बेर, आँवले अथवा इमली का पानी, इसी
कार का अ य पानी है, जो क गुठली स हत है, छाल आ द स हत है, या बीज स हत है और कोई असंयत गृह
साधु के न म बाँस क छलनी से, व से, एक बार या बार-बार मसल कर, छानता है और लाकर दे ने लगता है, तो
साधु-सा वी इस कार के पानक को अ ासुक और अनैषणीय मानकर मलने पर भी न ले ।
सू - ३७८
वह भ ु या भ ुणी आहार ा त के लए जाते प थक– गृह म, उ ानगृह म, गृह के घर म या प र-
ाजक के मठ म अ क , पेय पदाथ क , तथा क तूरी इ आ द सुग त पदाथ क सौरभ सूँघ कर उस सुग के
आ वादन क कामना से उसम मू त, गृ , त एवं आस होकर– उस ग क सुवास न ले ।
सू - ३७९
गृह के घर म भ ा के लए व साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ कमलक द, पालाशक द, सरस
क बाल तथा अ य इसी कार का क ा क द है, जो श -प रणत नह आ है, ऐसे क द आ द को अ ासुक
जानकर मलने पर भी हण न करे । य द यह जाने के वहाँ प पली, प पली का चूण, मच या मच का चूण, अदरक
या अदरक का चूण तथा इसी कार का अ य कोई पदाथ या चूण, जो क ा और अश -प रणत है, उसे अ ासुक
जानकर मलने पर भी हण न करे ।
गृह के यहाँ आहार के लए व साधु या सा वी य द वहाँ ये जाने क आ ल ब-फल, अ बाडग-फल,
ताल- ल ब-फल, सुर भ- ल ब-फल, श यक का ल ब-फल तथा इसी कार का अ य ल ब फल का कार, जो
क ा और अश -प रणत है, उसे अ ासुक और अनैषणीय समझकर मलने पर हण न करे ।
गृह के घर म आहाराथ व साधु या सा वी अगर वहाँ जाने– क पीपल का वाल, वड़ का वाल,
पाकड़ वृ का वाल, न द वृ का वाल, श यक वृ का वाल, या अ य उस कार का कोई वाल है, जो
क ा और अश -प रणत है, तो ऐसे वाल को अ ासुक और अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे ।
साधु या सा वी य द जाने– क शलाद फल, क प फल, अनार फल, बेल फल अथवा अ य इसी कार का
कोमल फल क ा और अश -प रणत है, तो उसे अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर ा त होने पर भी हण न करे ।
गृह के घर म भ ा के लए व साधु या सा वी य द जाने, क– उ बर का चूण वड़ का चूण, पाकड़ का
चूण, पीपल का चूण अथवा अ य इसी कार का चूण है, जो क ा व थोड़ा पीसा आ है और जसका यो न-बीज
व व त नह आ है, तो उसे अ ासुक और अनैषणीय जान कर ा त होने पर भी न ले ।
सू - ३८०
साधु या सा वी य द जाने क वहाँ भाजी है; सड़ी ई खली है, मधु, म , घृत और म के नीचे का क ट ब त
पुराना है तो उ ह हण न करे, य क उनम ाणी पुनः उ प हो जाते ह, उनम ाणी ज मते ह, संव धत होते ह,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 63


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
इनम ा णय का ु मण नह होता, ये ाणी श -प रणत नह होते, न ये ाणी व व त होते ह । अतः उसे
अ ासुक और अनैषणीय जानकर ा त होने पर भी उसे हण न करे ।
सू - ३८१
गृह के घर म भ ाथ व साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ इ ुख ड– है, अंककरेलु, न खा-रक,
कसे , सघाड़ा एवं पू तआलुक नामक वन त है, अथवा अ य इसी कार क वन त वशेष है, जो अप व तथा
अश -प रणत है, तो उसे अ ासुक और अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे ।
गृह के यहाँ भ ा के लए व साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ नीलकमल आ द या कमल क
नाल है, प क दमूल है, या प क द के ऊपर क लता है, प केसर है, या प क द है तो इसी कार का अ य क द
है, जो क ा है, श -प रणत नह है तो उसे अ ासुक व अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे ।
सू - ३८२
साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ अ बीज वाली, मूलबीज वाली, क बीज वाली तथा पवबीज वाली
वन त है एवं अ जात, मूलजात, क जात तथा पवजात वन त है, तथा क दली का गूदा क दली का तबक,
ना रयल का गूदा, खजूर का गूदा, ताड़ का गूदा तथा अ य इसी कार क क ी और अश -प रणत वन त है,
उसे अ ासुक और अनैषणीय समझकर मलने पर भी हण न करे ।
गृह के यहाँ भ ाथ व साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ ईख है, छे द वाला कान ईख है तथा
जसका रंग बदल गया है, जसक छाल फट गई है, सयार ने थोड़ा-सा खा भी लया है ऐसा फल है तथा बत का
अ भाग है, कदली का म य भाग है एवं इसी कार क अ य कोई वन त है, जो क ी और अश -प रणत है, तो
उसे साधु अ ासुक और अनैषणीय समझकर मलने पर भी हण न करे ।
गृह के घर म आहाराथ व साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ लहसून है, लहसून का प ा, उसक
नाल, लहसून का क द या लहसून क बाहर क छाल, या अ य कार क वन त है जो क ी और अश -प रणत
है, तो उसे अ ासुक और अनैषणीय मानकर मलने पर भी हण न करे ।
साधु या सा वी य द यह जाने के वहाँ आ क वृ के फल, टै ब के फल, ट ब का फल, ीपण का फल,
अथवा अ य इसी कार के फल, जो क ग े म दबा कर धूएं आ द से पकाए गए ह , क े तथा श -प रणत नह है,
ऐसे फल को अ ासुक और अनैषणीय समझकर मलने पर भी नह लेना चा हए ।
साधु या सा वी य द यह जाने के वहाँ शाली धान आ द अ के कण ह, कण से म त छाणक है, कण से
म त क ी रोट , चावल, चावल का आटा, तल, तलकूट, तलपपड़ी है, अथवा अ य उसी कार का पदाथ है जो
कक ा और अश -प रणत है, उसे अ ासुक और अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे ।
यह (वन तका यक आहार-गवेषणा) उस भ ु या भ ुणी क ( ान-दशन-चा र ा द आ द से स ब ीत)
सम ता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-९
सू - ३८३
यहाँ पूव म, प म म, द ण म या उ र दशा म क सद्गृह , उनक गृहप नीयाँ, उनके पु -पु ी, उनक
पु वधू, उनक दास-दासी, नौकर-नौकरा नयाँ होते ह, वे ब त ावान् होते ह और पर र मलने पर इस कार
बात करते ह– ये पू य मण भगवान शीलवान्, त न , गुणवान्, संयमी, आ व के नरोधक, चारी एवं
मैथुनकम से नवृ होते ह । आधाक मक अशन आ द खाना-पीना इ ह क पनीय नह है । अतः हमने अपने लए जो
आहार बनाया है, वह सब हम इन मण को दे दगे और हम बाद म अशना द चतु वध आहार बना लगे । उनके इस
वातालाप को सूनकर तथा जानकर साधु या सा वी इस कार के (दोषयु ) अशना द आहार को अ ासुक और
अनैषणीय मानकर मलने पर हण न करे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 64


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ३८४
एक ही ान पर रवास करनेवाले या ामानु ाम वचरण करनेवाले साधु या सा वी कसी ाम म यावत्
राजधानीम भ ाचया के लए जब गृह के यहाँ जाने लगे, तब य द वे जान जाए क इस गाँव यावत् राजधानी म
कसी भ ु के पूव-प र चत या प ात्-प र चत गृह , गृह प नी, उसके पु -पु ी, पु वधू, दास-दासी, नौकर-
नौकरा नयाँ आ द ालुजन रहते ह तो इस कार के घर म भ ाकाल से पूव आहार-पानी के लए जाए-आए नह
केवली भगवान कहते ह– यह कम के आने का कारण है, य क समय से पूव अपने घर म साधु या सा वी
को आए दे खकर वह उसके लए आहार बनाने के सभी साधन जुटाएगा । अतः भ ु के लए तीथकर ारा
पूव प द यह त ा है, यह हेतु, कारण या उपदे श है क वह इस कार के प र चत कुल म भ ाकाल से पूव
आहार-पानी के लए जाए-आए नह । ब क वजना द या ालु प र चत घर को जानकर एका त ान म चला
जाए, कोई आता-जाता और दे खता न हो, ऐसे एका त म खड़ा हो जाए । ऐसे वजना द स ब ाम आ द म भ ा
के समय वेश करे और वजना द से भ अ या य घर से सामुदा नक प से एषणीय तथा वेषमा से ा त नद ष
आहार उपभोग करे ।
य द कदा चत् भ ा के समय व साधु को दे खकर वह गृह उसके लए आधाक मक आहार बनाने के
साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे, उसे दे खकर भी वह साधु इस अ भ ाय से चूपचाप दे खता रहे क ‘ जब यह
आहार लेकर आएगा, तभी उसे लेने से इ कार कर ँ गा,’ यह माया का श करना है । साधु ऐसा न करे। वह पहले
से ही इस पर यान दे और कहे– ‘ आयु मन् ! इस कार का आधाक मक आहार खाना या पीना मेरे लए क पनीय
नह है । अतः मेरे लए न तो इसके साधन एक त करो और न इसे बनाओ ।’ उस साधु के इस कार कहने पर भी
य द वह गृह आधाक मक आहार बनाकर लाए और साधु को दे ने लगे तो वह साधु उस आहार को अ ासुक एवं
अनैषणीय जानकर मलने पर भी न ले ।
सू - ३८५
गृह के घरम साधु-सा वी के वेश करने पर उसे यह ात हो जाए क वहाँ कसी अ त थ के लए माँस
या म य भूना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाए जा रहे ह, इसे दे खकर वह अ तशी ता से पास म जाकर याचना
न करे । ण साधु के लए अ याव यक हो तो कसी प यानुकूल सा वक आहार क याचना कर सकता है ।
सू - ३८६
गृह के यहाँ आहार के लए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुग त आहार वयं खा लेता है और
ग त आहार बाहर फक दे ता है, वह माया- ान का श करता है । उसे ऐसा नह करना चा हए । जैसा भी
आहार ा त हो, साधु उसका समभावपूवक उपभोग करे, उसम से क चत् भी फके नह ।
सू - ३८७
गृह के यहाँ पानी के लए व जो साधु-सा वी वहाँ से यथा ा त जल लेकर वण-ग -यु पानी को पी
जाते ह और कसैला पानी फक दे ते ह, वे माया ान का श करते ह । ऐसा नह करना चा हए । जैसा भी जल ा त
आ हो, उसे समभाव से पी लेना चा हए, उसम से जरा-सा भी बाहर नह डालना चा हए ।
सू - ३८८
भ ा के लए गृह के घर म व साधु-सा वी उसके यहाँ से ब त-सा नाना कार का भोजन ले आए
तब वहाँ जो साध मक, सांभो गक, समनो तथा अप रहा रक साधु-सा वी नकटवत रहते ह , उ ह पूछे बना एवं
नमं त कये बना जो साधु-सा वी उस आहार को परठ दे ते ह, वे माया ान का श करते ह ।वह साधु उस
आहार को लेकर उन साध मक, समनो साधु के पास जाए । वहाँ जाकर सव थम उस आहार को दखाए और
इस कार कहे– आयु मन् मण ! यह चतु वध आहार हमारी आव यकता से ब त अ धक है, अतः आप इसका
उपभोग कर, और अ या य भ ु को वत रत कर द । इस कार कहने पर कोई भ ु य कहे क–‘ आयु मन्

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 65


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
मण ! इस आहार म से जतना हम खा-पी सकगे, खा-पी लगे, अगर हम यह सारा का सारा उपभोग कर सके तो
सारा खा-पी लगे ।’ यही उस भ ु या भ ुणी क ( ान-दशनाद क ) सम ता है । ऐसा म कहता ँ ।
सू - ३८९
साधु या सा वी य द जाने क सरे के उ े य से बनाया गया आहार दे ने के लए नीकाला गया है, यावत्
अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर वीकार न करे । य द गृह वामी आ द ने उ आहार ले जाने क भलीभाँ त
अनुम त दे द है । उ ह ने वह आहार उ ह अ तरह से स प दया है यावत् तुम जसे चाहे दे सकते हो तो उसे यावत्
ासुक और एषणीय समझकर हण कर लेवे । – यही उस भ ु या भ ुणी क सम ता है । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-१ – उ े शक-१०
सू - ३९०
कोई भ ु साधारण आहार लेकर आता है और उन साध मक साधु से बना पूछे ही जसे चाहता है, उसे
ब त दे दे ता है, तो ऐसा करके वह माया- ान का श करता है । उसे ऐसा नह करना चा हए ।
असाधारण आहार ा त होने पर भी आहार को लेकर गु जना द के पास जाए, कहे– ‘ ‘ आयु मन् मण !
यहाँ मेरे पूव-प र चत तथा प ात्-प र चत, जैसे क आचाय, उपा याय, वतक, वर, गणी, गणधर या गणाव-
े दक आ द, अगर आपक अनुम त हो तो म इ ह पया त आहार ँ ।’ ’ उसके इस कार कहने पर य द गु -जना द
कह– ‘ आयु मन् मण ! तुम अपनी ई ानुसार उ ह यथापयास आहार दे दो ।’ वह साधु जतना वे कह, उतना
आहार उ ह दे । य द वे कह क ‘ सारा आहार दे दो’ , तो सारा का सारा दे दे ।
सू - ३९१
य द कोई भ ु भ ा म सरस वा द आहार ा त करके उसे नीरस तु आहार से ढँ क कर छपा दे ता है,
ता क आचाय, उपा याय, यावत् गणाव े दक आ द मेरे य व े आहार को दे खकर वयं न ले ले, मुझे इसम से
कसी को कुछ भी नह दे ना है । ऐसा करने वाला साधु माया ान का श करता है । साधु को ऐसा नह करना
चा हए । वह साधु उस आहार को लेकर आचाय आ द के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोलकर
पा को हाथ म ऊपर उठाकर एक-एक पदाथ उ ह बता दे । कोई भी पदाथ जरा-भी न छपाए । य द कोई भ ु
गृह के घर से ा त भोजन को लेकर माग म ही कह , सरस-सरस आहार को वयं खाकर शेष बचे तु एवं नीरस
आहार को लाता है, तो ऐसा करने वाला साधु माया ान का सेवन करता है । साधु को ऐसा नह करना चा हए ।
सू - ३९२
साधु या सा वी य द यह जाने क वहाँ ई के पव का म य भाग है, पवस हत इ ुख ड है, पेरे ए ईख के
छलके ह, छला आ अ भाग है, ईख क बड़ी शाखाएं ह, छोट डा लयाँ ह, मूँग आ द क तोड़ी ई फली तथा चौले
क फ लयाँ पक ई ह, पर तु इनके हण करने पर इनम खाने यो य भाग ब त थोड़ा और फकने यो य भाग ब त
अ धक है, इस कार के अ धक फकने यो य आहार को अक पनीय और अनैषणीय मानकर मलने पर भी न ले ।
साधु या सा वी य द यह जाने क इस गूदेदार पके फल म ब त गुठ लयाँ ह, या इस अन ास म ब त काँट ह,
इसे हण करने पर इस आहार म खाने यो य भाग अ प है, फकने यो य भाग अ धक है, तो इस कार के गूदेदार
फल के ा त होने पर उसे अक पनीय समझकर न ले ।
भ ु या भ ुणी आहार के लए वेश करे, तब य द वह ब त-सी गुठ लय एवं बीज वाले फल के लए
आमं ण करे तो इस वचन सूनकर और उस पर वचार करके पहले ही साधु उससे कहे ब त-से बीज-गुठली से यु
फल लेना मेरे लए क पनीय नह है । य द तुम मुझे दे ना चाहते हो तो इस फल का जतना गूदा है, उतना मुझे दे दो,
बीज-गुठ लयाँ नह । भ ु के इस कार कहने पर भी वह गृह अपने बतन म से उपयु फल लाकर दे ने लगे तो
जब उसी गृह के हाथ या पा म वह हो तभी उसको अ ासुक और अनैषणीय मानकर लेने से मना कर दे । इतने
पर भी वह गृह हठात् साधु के पा म डाल दे तो फर न तो हाँ- ँ कहे, न ध कार कहे और न ही अ यथा कहे,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 66


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
क तु उस आहार को लेकर एका तम जाए । वहाँ जाकर जीव-ज तु, काई, लीलण-फूलण, गीली म , मकड़ी जाले
आ द से र हत कसी नरव उ ान म या उपा य म बैठकर उ फल के खाने यो य सार भाग का उपभोग करे और
फकने यो य बीज, गुठ लय एवं काँट को लेकर वह एका त ल म चला जाए यावत् माजन करके उ ह परठ दे ।
सू - ३९३
साधु या सा वी को य द गृह बीमार साधु के लए खांड आ द क याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे
ए बतन म से बड़-लवण या उद् भज-लवण को वभ करके उसम से कुछ अंश नीकालकर, दे ने लगे तो वैसे
लवण को जब वह गृह के पा म या हाथ म हो तभी उसे अ ासुक, अनैषणीय समझकर लेने से मना कर दे ।
कदा चत् सहसा उस नमक को हण कर लया हो, तो मालूम होने पर वह गृह य द नकटवत हो तो, लवणा द को
लेकर वा पस उसके पास जाए । वहाँ जाकर कहे– आयु मन् गृह ! तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दया है या
अनजाने म ? य द वह कहे– अनजाने म ही दया है, क तु आयु मन् ! अब य द आपके काम आने यो य है तो म
आपको वे ा से जानबूझ कर दे ता ँ । आप अपनी ई ानुसार इसका उपभोग कर या पर र बाँट ल । घर वाल
के ारा इस कार क अनु ा मलने तथा वह व तु सम पत क जाने पर साधु अपने ान पर आकर (अ च हो
तो) उसे यतनापूवक खाए तथा पीए ।
य द वयं उसे खाने या पीने म असमथ ह तो वहाँ आस-पास जो साध मक, सांभो गक, समनो एवं
अप रहा रक साधु रहते ह , उ ह दे दे ना चा हए । य द वहाँ आस-पास कोई साध मक आ द साधु न ह तो उस पयास
से अ धक आहार को जो प र ापन व ध बताई है, तदनुसार एका त नरव ान म जाकर परठ दे । यही उस भ ु
या भ ुणी क सम ता है ।
अ ययन-१ – उ े शक-११
सू - ३९४
रवासी सम-समाचारी वाले साधु अथवा ामानु ाम वचरण करनेवाले साधु भ ाम मनो भोजन ा त
होने पर कहते ह– जो भ ु लान है, उसके लए तुम यह मनो आहार ले लो और उसे दे दो । अगर वह रोगी भ ु न
खाए तो तुम खा लेना । उस भ ुने उनसे वह आहार को अ तरह छपाकर रोगी भ ु को सरा आहार दखलाते
ए कहता है– भ ु न आपके लए यह आहार दया है । क तु यह आहार आपके लए प य नह है, यह है,
तीखा है, कड़वा है, कसैला है, ख ा है, अ धक मीठा है, अतः रोग बढ़ानेवाला है । इससे आपको कुछ भी लाभ नह
होगा । इस कार कपटाचरण करनेवाला भ ु मातृ ान श करता है । भ ु को ऐसा कभी नह करना चा हए ।
क तु जैसा भी आहार हो, उसे वैसा ही दखलाए– रोगी को वा य लाभ हो, वैसा प य आहार दे कर उसक सेवा करे
सू - ३९५
य द समनो रवासी साधु अथवा ामानु ाम वचरण करने वाले साधु को मनो भोजन ा त होने
पर य कहे क ‘ जो भ ु रोगी है, उसके लए यह मनो आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भ ु इसे न खाए तो यह
आहार वापस हमारे पास ले आना, य क हमारे यहाँ भी रोगी साधु है । इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे
कहे क य द मुझे आने म कोई व न उप त न आ तो यह आहार वापस ले आऊंगा । उसे उन पूव कम के
आयतन का स यक् प र याग करके (यथात य वहार करना चा हए) ।
सू - ३९६
अब संयमशील साधु को सात प डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चा हए ।
( १)
पहली प डैषणा– असंसृ हाथ और असंसृ पा । हाथ और बतन (स च ) व तु से असंसृ हो तो
उनसे अशना द आहार क वयं याचना करे अथवा गृह दे तो उसे ासुक जानकर हण कर ले । यह पहली
प डैषणा है ।
( २) सरी प डैषणा है– संसृ हाथ और संसृ पा । य द दाता का हाथ और बतन (अ च व तु से) ल त

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 67


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
है तो उनसे वह अशना द आहार क वयं याचना करे या वह गृह दे तो उसे ासुक जानकर हण कर ले। यह
सरी प डैषणा है ।
( ३) तीसरी प डैषणा है– इस े म पूव, आ द चार दशा मक ालु रहते ह, जैसे क वे
गृहप त, यावत् नौकरा नयाँ ह । उनके यहाँ अनेक वध बतन म पहले से भोजन रखा आ होता है, जैसे क थाल म,
तपेली या बटलोई म, सरक म, परक म, वरक म । फर साधु यह जाने क गृह का हाथ तो (दे य व तु से) ल त नह
है, बतन ल त है, अथवा हाथ ल त है, बतन अ ल त है, तब वह पा धारी या पा णपा साधु पहले ही उसे दे खकर
कहे तुम मुझे असंसृ हाथ म संसृ बतन से अथवा संसृ हाथ से असंसृ बतन से, हमारे पा म या हाथ पर व तु
लाकर दो । उस कार के भोजन को या तो वह साधु वयं माँग ले, या फर बना माँगे ही गृह लाकर दे तो उसे
ासुक एवं एषणीय समझकर मलने पर ले ले । यह तीसरी प डैषणा है ।
(४) चौथी प डैषणा है– भ ु यह जाने क यहाँ कटकर तुष अलग कये ए चावल आ द अ है, यावत् भुने
शा ल आ द चावल ह, जनके हण करने पर प ात्-कम क स ावना नह है और न ही तुष आ द गराने पड़ते ह,
इस कार के धा य यावत् भुने शा ल आ द चावल या तो साधु वयं माँग ले; या फर गृह बना माँगे ही उसे दे तो
ासुक एवं एषणीय समझकर ा त होने पर ले ले । यह चौथी प डैषणा है ।
( ५)
पाँचवी प डैषणा है– ...साधु यह जाने क गृह के यहाँ अपने खाने के लए कसी बतन म या भोजन
रखा आ है, जैसे क सकोरे म, काँसे के बतन म, या म के कसी बतन म ! फर यह भी जान जाए क उसके हाथ
और पा जो स च जल से धोए थे, अब क े पानी से ल त नह है । उस कार के आहार को ासुक जानकर या
तो साधु वयं माँग ले या गृह वयं दे ने लगे तो वह हण कर ले । यह पाँचवी प डैषणा है ।
( ६) छठ प डैषणा है– ... भ ु यह जाने क गृह ने अपने लए या सरे के लए बतन म से भोजन
नीकाला है, पर तु सरे ने अभी तक उस आहार को हण नह कया है, तो उस कार का भोजन गृह के पा म
हो या उसके हाथ म हो, उसे ासुक और एषणीय जानकर मलने पर हण करे । यह छठ प डैषणा है ।
(७) सातव प डैषणा है– गृह के घर म भ ा के लए व आ साधु या सा वी वहाँ ब -उ झत-
ध मक भोजन जाने, जसे अ य ब त से पद-चतु पद मण, ा ण, अ त थ, द र और भखारी लोग नह
चाहते, उस कार के भोजन क वयं याचना करे अथवा वह गृह दे तो उसे ासुक एवं एषणीय जानकर मलने
पर ले ले । यह सातव प डैषणा है ।
(८) इसके प
ात् सात पानैषणाएं ह । इन सात पानैषणा म से थम पानैषणा इस कार है– असंसृ हाथ
और असंसृ पा । इसी कार शेष सब पानैषणा का वणन समझना । इतना वशेष है क चौथी पानैषणा म
नाना व का न पण है– वह भ ु या भ ु ण जन पान के कार के स ब म जाने, यथा– तल का धोवन, तुष का
धोवन, जौ का धोवन (पानी), चावल आ द का पानी, कांजी का पानी या शु उ णजल । इनम से कसी भी कार के
पानी के हण करने पर न य ही प ा कम नह लगता हो तो उस कार के पानी को ासुक और एषणीय मानकर
हण कर ले ।
सू - ३९७
इन सात प डैषणा तथा सात पानैषणा म से कसी एक तमा को वीकार करने वाला साधु इस
कार न कहे क ‘ इन सब साधु-भद त ने म या प से तमाएं वीकार क ह, एकमा मने ही तमा को
स यक् कार से वीकार कया है ।’ ( अ पतु कहे) जो यह साधु-भगवंत इन तमा को वीकार करके वचरण
करते ह, जो म भी इस तमा को वीकार करके वचरण करता ँ, ये सभी जना ा म उ त ह और इस कार
पर र एक- सरे क समा धपूवक वचरण करते ह । इस कार जो साधु-सा वी प डैषणा-पानैषणा का व धवत्
पालन करते ह, उ ह म भ ुभाव क या ाना द आचार क सम ता है ।
अ ययन-१ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 68


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-२ – श येषणा
उ े शक-१
सू - ३९८
साधु या सा वी उपा य क गवेषणा करना चाहे तो ाम या नगर यावत् राजधानी म वेश करके साधु के
यो य उपा य का अ वेषण करते ए य द यह जाने क वह उपा य अंड से यावत् मकड़ी के जाल से यु है तो वैसे
उपा य म वह साधु या सा वी ान, श या और नषी धका न करे । वह साधु या सा वी जस उपा य को अंड
यावत् मकड़ी के जाले आ द से र हत जाने; वैसे उपा य का यतनापूवक तलेखन एवं माजन करके उसम
काय सग, सं तारक एवं वा याय करे ।
य द साधु ऐसा उपा य जाने, जो क इसी त ा से ाणी, भूत, जीव और स व का समार करके बनाया
गया है, उसीके उ े य से खरीदा गया है, उधार लया गया है, नबल से छ ना गया है, उसके वामी क अनुम त के
बना लया गया है, तो ऐसा उपा य; चाहे वह पु षा तरकृत हो या अपु षा तरकृत यावत् वामी ारा आसे वत हो
या अनासे वत, उसम कायो सग, श या-सं तारक या वा याय न करे । वैसे ही ब त-से साध मक साधु , एक
साध मणी सा वी, ब त-सी साध मणी सा वीय के उ े य से बनाये ए आ द उपा य म कायो स-गा द का नषेध
समझना चा हए ।
वह साधु या सा वी य द ऐसा उपा य जाने, जो ब त-से मण , ा ण , अ त थय , द र एवं भखा रय
के उ े य से ाणी आ द का समार करके बनाया गया है, वह अपु षा तरकृत आ द हो, तो ऐसे उपा य म
कायो सग आ द न करे ।
वह साधु या सा वी य द ऐसा उपा य जाने; जो क ब त-से मण , ा ण , अ त थय , द र एवं
भखमंग के खास उ े य से बनाया तथा खरीदा आ द गया है, ऐसा उपा य अपु षा तरकृत आ द हो, अनासे वत
हो तो, ऐसे उपा य म कायो सगा द न करे ।
इसके वपरीत य द ऐसा उपा य जाने, जो मणा द को गन- गन कर या उनके उ े य से बनाया आ द
गया हो, क तु वह पु षा तरकृत है, उसके मा लक ारा अ धकृत है, प रभु तथा आसे वत है तो उसका त-
लेखन तथा माजन करके उसम यतनापूवक कायो सग, श या या वा याय करे ।
वह भ ु या भ ुणी य द ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह ने साधु के न म बनाया है, का ा द
लगा कर सं कृत कया है, बाँस आ द से बाँधा है, घास आ द से आ ा दत कया है, गोबर आ द से लीपा है, संवारा
है, घसा है, चकना कया है, या ऊबड़खाबड़ ान को समतल बनाया है, सुग त से सुवा सत कया है, ऐसा
उपा य य द अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो उनम कायो सग, श यासं तारक और वा याय न करे । य द
वह यह जान जाए क ऐसा उपा य पु षा तरकृत यावत् आसे वत है तो तलेखन एवं माजन करके यतनापूवक
उसम ान आ द या करे ।
सू - ३९९
वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह ने साधु के लए जसके छोटे ार को बड़ा
बनाया है, जैसे प डैषणा अ ययन म बताया गया है, यहाँ तक क उपा य के अ दर और बाहर ही ह रयाली ऊखाड़-
ऊखाड़ कर, काट-काट कर वहाँ सं तारक बछाया गया है, अथवा कोई पदाथ उसम से बाहर नीकाले गए ह, वैसा
उपा य य द अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो वहाँ कायो सगा द याएं न कर ।
य द वह यह जाने क ऐसा उपा य पु षा तरकृत है, यावत् आसे वत है तो उसका तलेखन एवं माजन
करके यतनापूवक ान आ द करे ।
वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क असंयत गृह , साधु के न म से पानी से उ प ए क द,
मूल, प , फूल या फल को एक ान से सरे ान म ले जा रहा है, भीतर से क द आ द पदाथ को बाहर

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 69


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
नीकाला गया है, ऐसा उपा य य द अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो उसम साधु कायो सगा द याएं न कर
य द वह यह जाने क ऐसा उपा य पु षा तरकृत यावत् आसे वत है तो उसका तलेखन एवं माजन
करके यतनापूवक ाना द काय कर सकता है ।
वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क असंयत-गृह साधु को उसम ठहराने क से चौक , प े ,
नसैनी या ऊखल आ द सामान एक ान से सरे ान पर ले जा रहा है, अथवा क पदाथ बाहर नीकाल रहा है,
य द वैसा उपा य-अपु षा तरकृत यावत् अनासे वत हो तो साधु उसम कायो सगा द काय न करे ।
य द फर वह जान जाए क वह उपा य पु षा तरकृत यावत् आसे वत है, तो उनका तलेखन- माजन
करके यतनापूवक उसम ाना द काय करे ।
सू - ४००
वह साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने, जो क एक त पर है, या मचान पर है, सरी आ द मं जल
पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा ासाद के तल पर बना आ है, अथवा ऊंचे ान पर त है, तो कसी
अ यंत गाढ़ कारण के बना उ उपा य म ान- वा याय आ द काय न करे ।
कदा चत् कसी अ नवाय कारणवश ऐसे उपा य म ठहरना पड़े, तो वहाँ ासुक शीतल जल से या उ ण
जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुँह एक बार या बार-बार न धोए, वहाँ मल-मू ा द का उ सग न करे, जैसे क उ ार,
वण, मुख का मल, नाक का मैल, वमन, प , मवाद, र तथा शरीर के अ य कसी भी अवयव के मल का याग
वहाँ न करे, य क केवल ानी भु ने इसे कम के आने का कारण बताया है ।
वह (साधु) वहाँ से मलो सग आ द करता आ फसल जाए या गर पड़े । ऊपर से फसलने या गरने पर
उसके हाथ, पैर, म तक या शरीर के कसी भी भाग म, या इ य पर चोट लग सकती है, ऊपर से गरने से ावर एवं
स ाणी भी घायल हो सकते ह, यावत् ाणर हत हो सकते ह । अतः भ ु के लए तीथकर आ द ारा पहले से
ही बताई ई यह त ा है, हेतु है, कारण है और उपदे श है क इस कार के उ ान म त उपा य म साधु
कायो सग आ द काय न करे ।
सू - ४०१
वह भ ु या भ ुणी जस उपा य को य से, बालक से, ु ा णय से या पशु से यु जाने तथा
पशु या गृह के खाने-पीने यो य पदाथ से जो भरा हो, तो इस कार के उपा य म साधु कायो सग काय न करे ।
साधु का गृहप तकुल के साथ नवास कमब का उपादान कारण है । गृह प रवार के साथ नवास करते
ए हाथ पैर आ द का कदा चत् त न हो जाए अथवा सूजन हो जाए, वशु चका या वमन क ा ध उ प हो
जाए, अथवा अ य कोई वर, शूल, पीड़ा, ःख या रोगांतक पैदा हो जाए, ऐसी त म वह गृह क णाभाव से
े रत होकर उस भ ु के शरीर पर तेल, घी, नवनीत अथवा वसा से मा लश करेगा । फर उसे ासुक शीतल जल या
उ ण जल से नान कराएगा अथवा क क, लोध, वणक, चूण या प से घसेगा, शरीर पर लेप करेगा, अथवा शरीर
का मैल र करने के लए उबटन करेगा । तदन तर ासुक शीतल जल से या उ ण जल से एक धोएगा या, मल-
मलकर नहलाएगा, अथवा म तक पर पानी छ टे गा तथा अरणी क लकड़ी को पर र रगड़ कर अ न उ व लत-
व लत करके साधु के शरीर को थोड़ा अ धक तपाएगा ।
इस तरह गृह कुल के साथ उसके घर म ठहरने से अनेक दोष क संभावना दे खकर तीथकर भु ने भ ु
के लए पहले से ही ऐसी त ा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदे श दया है क वह ऐसे गृह कुलसंस मकान
म न ठहरे, न ही कायो सगा द याएं करे ।
सू - ४०२
साधु के लए गृह -संसगयु उपा य म नवास करना अनेक दोष का कारण है य क उसम गृहप त,
उसक प नी, पु याँ, पु वधूए,ं दास-दा सयाँ, नौकर-नौकरा नयाँ आ द रहती ह । कदा चत् वे पर र एक- सरे को

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 70


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
कटु वचन कह, मारे-पीटे , बंद करे या उप व करे । उ ह ऐसा करते दे ख भ ु के मन म ऊंचे-नीचे भाव आ सकते ह ।
इस लए तीथकर ने पहले से ही साधु के लए ऐसी त ा बताई है, हेत,ु कारण या उपदे श दया है क वह
गृह संसगयु उपा य म न ठहरे, न कायो सगा द करे ।
सू - ४०३
गृह के साथ एक मकान म साधु का नवास करना इस लए भी कमब का कारण है क उसम गृह-
वामी अपने योजन के लए अ नकाय को उ व लत- व लत करेगा, व लत अ न को बुझाएगा । वहाँ रहते
ए भ ु के मन म कदा चत् ऊंचे-नीचे प रणाम आ सकते ह क ये गृह अ न को उ व लत करे अथवा
उ व लत न करे, तथा ये अ न को व लत करे अथवा व लत न करे, अ न को बुझा दे या न बुझाए ।
इसी लए तीथकर ने पहले से ही साधु के लए ऐसी त ा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदे श दया है क
वह उस उपा य म न ठहरे, न कायो सगा द या करे ।
सू - ४०४
गृह के साथ एक जगह नवास करना साधु के लए कमब का कारण है । जैसे क उस मकान म
गृह के कु डल, करधनी, म ण, मु ा, चाँद , सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तीनलड़ा-हार, फूलमाला, अठारह
लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, मु ावली हार, या कनकावली हार, र नावली हार, अथवा व ा-भूषण
आ द से अलंकृत और वभू षत युवती या कुमारी क या को दे खकर भ ु अपने मन म ऊंच-नीच संक प- वक प
कर सकता है क ये आभूषण आ द मेरे घर म भी थे, एवं मेरी ी या क या भी इसी कार क थी, या ऐसी नह थी ।
इसी लए तीथकर ने पहले से ही साधु के लए ऐसी त ा का नदश दया है, ऐसा हेतु, कारण और उपदे श दया
है क साधु ऐसे उपा य म न ठहरे, न कायो सगा द याएं करे ।
सू - ४०५
गृह के साथ एक ान म नवास करने वाले साधु के लए क उसम गृहप नीयाँ, गृह क पु याँ,
पु वधूए,ं उसक धायमाताएं, दा सयाँ या नौकरा नयाँ भी रहगी । उनम कभी पर र ऐसा वातालाप भी होना स व
है क, ‘ ये जो मण भगवान होते ह, वे शीलवान, वय क, गुणवान, संयमी, शा त, चारी एवं मैथुन धम से सदा
उपरत होते ह । अतः मैथुन-सेवन इनके लए क पनीय नह है । पर तु जो ी इनके साथ मैथुन- ड़ा म वृ होती
है, उसे ओज वी, तेज वी, भावशाली, पवान और यश वी तथा सं ाम म शूरवीर, चमक-दमक वाले एवं दशनीय
पु क ा त होती है । यह बात सूनकर, उनम से पु - ा त क ई ु क कोई ी उस तप वी भ ु को मैथुन-सेवन
के लए अ भमुख कर ले, ऐसा स व है । इसी लए तीथकर ने साधु के लए पहले से ही ऐसी त ा बताई है,
यावत् साधु ऐसे गृह से संस उपा य म न ठहरे, न कायो सगा द या करे ।
अ ययन-२ – उ े शक-२
सू - ४०६
कोई गृह शौचाचार-परायण होते ह और भ ु के नान न करने के कारण तथा मोकाचारी होने के
कारण उनके मोक ल त शरीर और व से आने वाली वह ग उस गृह के लए तकूल और अ य भी हो
सकती है । इसके अ त र वे गृह जो काय पहले करते थे, अब भ ु क अपे ा से बाद म करगे और जो काय
बाद म करते थे, वे पहले करने लगगे अथवा भ ु के कारण वे असमय म भोजना द याएं करगे या नह भी
करगे । अथवा वे साधु उ गृह के लहाज से तलेखना द याएं समय पर नह करगे, बाद म करगे, या नह भी
करगे । इस लए तीथकरा द ने भ ु के लए पहले से ही यह त ा बताई है, यह हेत,ु कारण और उपदे श दया है
क वह गृह -संस उपा य म कायो सग, यान आ द याएं न कर ।
सू - ४०७
गृह के साथ म नवास करने वाले साधु के लए वह कमब का कारण हो सकता है, य क वहाँ गृह

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 71


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
ने अपने लए नाना कार के भोजन तैयार कये ह गे, उसके प ात् वह साधु के लए अशना द चतु वध आहार
तैयार करेगा । उस आहार को साधु भी खाना या पीना चाहेगा या उस आहार म आस होकर वह रहना चाहेगा ।
इस लए भ ु के लए तीथकर ने पहले से यह त ा बताई है, यह हेत,ु कारण और उपदे श दया है क वह
गृह -संस उपा य म ाना द काय न करे ।
सू - ४०८
गृह के साथ ठहरने वाले साधु के लए वह कमब का कारण हो सकता है, य क वह गृह अपने
वयं के लए पहले नाना कार के का - धन को काटे गा, उसके प ात् वह साधु के लए भी व भ कार के धन
को काटेगा, खरीदे गा या कसी से उधार लेगा और का से का का घषण करके अ नकाय को उ व लत एवं
व लत करेगा । ऐसी तम स व है वह साधु भी गृह क तरह शीत नवारणाथ अ न का आताप और
ताप लेना चाहेगा तथा उसम आस होकर वह रहना चाहेगा । इसी लए तीथकर भगवानने पहले से ही भ ु के
लए यह त ा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदे श दया है क वह गृह संस उपा यम ाना द काय न करे
सू - ४०९
वह भ ु या भ ुणी रात म या वकाल म मल-मू ा द क बाधा होने पर गृह के घर का ारभाग खोलेगा,
उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर म व हो जाएगा, तो उस समय साधु को मौन रखना होगा । ऐसी त
म साधु के लए ऐसा कहना क पनीय नह है क यह चोर वेश कर रहा है, या वेश नह कर रहा है, यह छप रहा है
या नह छप रहा है, नीचे कूद रहा है या नह कूदता है, बोल रहा है या नह बोल रहा है, इसने चूराया है, या कसी
सरे ने चूराया है, उसका धन चूराया है अथवा सरे का धन चूराया हैद यही चोर है, या यह उसका उपचारक है, यह
घातक है, इसी ने यहाँ यह काय कया है । और कुछ भी न कहने पर जो वा तव म चोर नह है, उस तप वी साधु पर
चोर होने क शंका हो जाएगी । इसी लए तीथकर भगवान ने पहले से ही साधु के लए यह त ा बताई है यावत्
वहाँ कायो सगा द या करे ।
सू - ४१०
जो साधु या सा वी उपा य के स ब म यह जाने क उसम घास के ढ़े र या पुआल के ढ़े र, अंडे, बीज,
ह रयाली, ओस, स च जल, क ड़ीनगर, काई, लीलण-फूलण, गीली म या मकड़े के जाल से यु ह, तो इस
कार के उपा य म वह ान, शयन आ द काय न कर । य द वह साधु या सा वी ऐसा उपा य जाने क उसम घास
के ढ़े र या पुआल का ढ़े र, अंड , बीज यावत् मकड़ी के जाल से यु नह है तो इस कार के उपा य म वह ान-
शयना द काय करे ।
सू - ४११
प थकशाला म, उ ान म न मत व ामगृह म, गृह के घर म, या तापस के मठ आ द म जहाँ (–
अ य स दाय के) साधु बार-बार आते-जाते ह , वहाँ न साधु को मासक प आ द नह करना चा हए ।
सू - ४१२
हे आयु मन् ! जन प थकशाला आ दम साधु भगवंत ने ऋतुब मासक प या वषावास क प बीताया है,
उह ान म अगर वे बना कारण पुनः पुनः नवास करते ह, तो उनक वह श या काला त ा त दोषयु होती है ।
सू - ४१३
हे आयु मन् ! जन प थकशाला आ द म, जन साधु भगवंत ने ऋतुब क प या वषावास क प बीताया
है, उससे गुना- गुना काल अ य बीताये बना पुनः उ ह म आकर ठहर जाते ह तो उनक वह श या उप ान
दोषयु हो जाती है ।
सू - ४१४
आयु मन् ! इस संसार म पूव, प म, द ण अथवा उ र दशा म क ालु ह जैसे क गृह वामी, गृह-

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 72


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
प नी, उसक पु -पु याँ, पु वधूए,ं धायमाताएं, दास-दा सयाँ या नौकर-नौकरा नयाँ आ द; उ ह ने न साधु
के आचार- वहार के वषय म तो स यक्तया नह सूना है, क तु उ ह ने यह सून रखा है क साधु-महा मा को
नवास के लए ान आ द का दान दे ने से वगा द फल मलता है । इस बात पर ा, ती त एवं अ भ च रखते
ए उन गृह ने ब त से शा या द मण , ा ण , अ त थ-द र और भखा रय आ द के उ े य से वशाल
मकान बनवा दए ह । जैसे क लुहार आ द क शालाएं, दे वालय क पा वत धमशालाएं, सभाएं, पाएं, कान,
मालगोदाम, यानगृह, रथा द बनाने के कारखाने, चूने के कारखाने, दभ, चम एवं व कल के कारखाने, कोयले के
कारखाने, का -कमशाला, मशान भू म म बने ए घर, पवत पर बने ए मकान, पवत क गुफा से न मत
आवासगृह, शा तकमगृह, पाषाणम डल, उस कार के गृह न मत आवास ान म, न आकर ठहरते ह, तो
वह श या अ भ ा त या से यु हो जाती है ।
सू - ४१५
हे आयु मन् ! इस संसार म पूवा द दशा म अनेक ालु होते ह, जैसे क गृहप त यावत् नौकरा नयाँ।
न साधु के आचार से अन भ इन लोग ने ा, ती त और अ भ च से े रत होकर ब त से मण,
ा ण आ द के उ े य से वशाल मकान बनवाए ह, जैसे क लोहकारशाला यावत् भू मगृह । ऐसे लोहकारशाला
यावत् भू मगृह म चरका द प र ाजक शा या द मण इ या द पहले नह ठहरे ह । ऐसे मकान म अगर न
मण आकर पहले ठहरते ह, तो वह श या अन भ ा त या यु हो जाती है ।
सू - ४१६
इस संसार म पूवा द दशा मक ाभ से यु जन ह, जैसे क गृहप त यावत् उसक नौकरा नयाँ
। उ ह पहले से ही यह ात होता है क ये मण भगवंत शीलवान् यावत् मैथुनसेवन से उपरत होते ह, इन भगवंत के
लए आधाकमदोष से यु उपा य म नवास करना क पनीय नह है । अतः हमने अपने योजन के लए जो ये
लोहकारशाला यावत् भू मगृह आ द बनवाए ह, वे सब हम इन मण को दे दगे, और हम अपने योजन के लए
बाद म सरे लोहकारशाला आ द बना लगे ।
गृह का इस कार का वातालाप सूनकर तथा समझकर भी जो न मण गृह ारा द उ
कार के लोहकारशाला आ द मकान म आकर ठहरते ह, वे अ या य छोटे -बड़े उपहार प घर का उपयोग करते ह,
तो आयु मन् श य ! उनक वह श या व य या से यु हो जाती है ।
सू - ४१७
इस संसार म पूवा द दशा मक ालुजन होते ह, जैसे क गृहप त, यावत् दा सयाँ आ द । वे उनके
आचार- वहार से तो अन भ होते ह, ले कन वे ा, ती त और च से े रत होकर ब त से मण, ा ण यावत्
भ ाचर को गन- गन कर उनके उ े य से जहाँ-तहाँ लोहकारशाला यावत् भू मगृह आ द वशाल भवन बनवाते ह । जो
न साधु उस कार के लोहकारशाला आ द भवन म आकर रहते ह, वहाँ रहकर वे अ या य छोटे -बड़े उपहार पम
द घर का उपयोग करते ह तो वह श या उनके लए महाव य या से यु हो जाती है ।
सू - ४१८
इस संसार म पूवा द दशा म क ालु होते ह, जैसे क– गृहप त, उसक प नी यावत्
नौकरा नयाँ आ द । वे उनके आचार- वहार से तो अ ात होते ह, ले कन मण के त ा, ती त और च से
यु होकर सब कार के मण के उ े य से लोहकारशाला यावत् भू मगृह बनवाते ह । सभी मण के उ े य से
न मत उस कार के मकान म जो न मण आकर ठहरते ह, तथा गृह ारा यावत् गृह का उपयोग करते
ह, उनके लए वह श या साव या दोष से यु हो जाती है ।
सू - ४१९
इस संसार म पूवा द दशा म गृहप त, उनक प नी, पु ी, पु वधू आ द क ा-भ से ओत ोत
ह उ ह ने साधु के आचार- वहार के स ब म तो जाना-सूना नह है, क तु उनके त ा, ती त और
मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 73
आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
च से े रत होकर उ ह ने कसी एक ही कार के न मण वग के उ े य से लोहकारशाला यावत् भू मगृह
आ द मकान जहाँ-तहाँ बनवाए ह । उन मकान का नमाण पृ वीकाय के यावत् सकाय के महान संर समार
और आरंभ से तथा नाना कार के महान् पापकमजनक कृ य से आ है जैसे क साधु वग के लए मकान पर छत
आ द ड़ाली गई है, उसे लीपा गया है, सं तारक क को सम बनाया गया है, ार के ढ कन लगाया गया है, इन काय
म शीतल स च पानी पहले ही डाला गया है, अ न भी पहले व लत क गई है । जो न मण उस कार के
आर - न मत लोहकारशाला आ द मकान म आकर रहते ह, भट प म द छोटे -बड़े गृह म ठहरते ह, वे प
( से साधु प और भाव से गृह प) कम का सेवन करते ह । यह श या महा-साव या से यु होती है ।
सू - ४२०
इस संसार म पूवा द दशा म क तपय गृहप त यावत् नौकरा नयाँ ालु ह । वे साधु के
आचार- वहार के वषय म सून चूके ह, वे साधु के त ा, ती त और च से े रत भी ह, क तु उ ह ने
अपने नजी योजन के लए य -त मकान बनवाए ह, जैसे क लोहकारशाला यावत् भू मगृह आ द । उनका
नमाण पृ वीकाय के यावत् सकाय के महान् संर -समार एवं आर से तथा नाना कार के पापकमजनक
कृ य से आ है । जो पू य न मण उस कार के लोहकारशाला यावत् भू मगृह आ द वास ान म आकर
रहते ह, अ या य श त उपहार प पदाथ का उपयोग करते ह वे एकप (भाव के साधु प) कम का सेवन करते ह
। हे आयु मन् ! यह श या अ पसाव या प होती है । यह (श यैषणा ववेक) ही उस भ ु या भ ुणी के लए
सम ता है ।
अ ययन-२ – उ े शक-३
सू - ४२१
वह ासुक, उं छ और एषणीय उपा य सुलभ नह है । और न ही इन साव कम के कारण उपा य शु
मलता है, जैसे क कह साधु के न म उपा य का छ पर छाने से या छत डालने से, कह उसे लीपने-पोतने से,
कह सं तारकभू म सम करने से, कह उसे ब द करने के लए ार लगाने से, कह श यातर गृह ारा साधु के
लए आहार बनाकर दे ने से एषणादोष लगाने के कारण ।
क साधु वहार चया-परायण ह, क कायो सग करने वाले ह, क वा यायरत ह, क साधु श या-
सं तारक एवं प डपात क गवेषणा म रत रहते ह । इस कार संयम या मो का पथ वीकार कये ए कतने ही
सरल एवं न कपट साधु माया न करते ए उपा य के यथाव त गुण-दोष बतला दे ते ह ।
क गृह पहले से साधु को दान दे ने के लए उपा य बनवाकर रख लेते ह, फर छलपूवक कहते ह–‘ ‘ यह
मकान हमने चरक आ द प र ाजक के लए रख छोड़ा है, या यह मकान, हमने पहले से अपने लए बनवा कर रख
छोड़ा है, अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीज को दे ने के लए रखा है, सर ने भी पहले इस मकान का उपयोग
कर लया है, नापसंद होने के कारण ब त पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है । पूणतया नद ष होने के
कारण आप इस मकान का उपयोग कर सकते ह ।’ ’ वच ण साधु इस कार के छल को स यक् तया जानकर उस
उपा य म न ठहरे ।
‘ ‘ गृह के पूछने पर जो साधु इस कार उपा य के गुण-दोष को स यक् कार से बतला दे ता है,
या वह स यक् है ? ’ ’ ‘ हाँ, वह स यक् है ।’
सू - ४२२
वह साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने, जो छोटा है, या छोटे ार वाला है, तथा नीचा है, या न य
जसके ार बंध रहते ह, तथा चरक आ द प र ाजक से भरा आ है । इस कार के उपा य म वह रा म या
वकाल म भीतर से बाहर नीकलता आ या भीतर वेश करता आ पहले हाथ से टटोल ले, फर पैर से संयम पूवक
नीकले या वेश करे । केवली भगवान कहते ह (अ यथा) यह कमब का कारण है, य क वहाँ पर शा य आ द

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 74


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
मण के या ा ण के जो छ , पा , दं ड, लाठ , ऋ ष-आसन, ना लका, व , च ल मली मृगचम, चमकोश, या
चम-छे दनक ह, वे अ तरह से बंधे ए नह ह, अ त- त रखे ए ह, अ र ह, कुछ अ धक चंचल ह । रा म
या वकाल म अ दर से बाहर या बाहर से अ दर (अयतना से) नीकलता-जाता आ साधु य द फसल पड़े या गर पड़े
(तो उनके उ उपकरण टू ट जाएंगे) अथवा उस साधु के फसलने या गर पड़ने से उसके हाथ, पैर, सर या अ य
इ य के चोट लग सकती है या वे टू ट सकते ह, अथवा ाणी, भूत, जीव और स व को आघात लगेगा, वे दब
जाएंगे यावत् वे ाण र हत हो जाएंगे ।
इस लए तीथकर आ द आ तपु ष ने पहले से यह त ा बताई है, यह हेत,ु कारण और उपदे श दया है क
इस कार के उपा य म रात को या वकाल म पहले हाथ से टटोल कर फर पैर रखना चा हए तथा यतना पूवक
गमनागमन करना चा हए ।
सू - ४२३
वह साधु प थकशाला , आरामगृह , गृहप त के घर , प र ाजक के मठ आ द को दे ख-जान कर और
वचार करके क यह उपा य कैसा है ? इसका वामी कौन है ? फर उपा य क याचना करे । जैसे क वहाँ पर या
उस उपा य का वामी है, सम ध ाता है, उससे आ ा माँगे और कहे– ‘ आयु मन् ! आपक ई ानुसार जतने काल
तक और जतना भाग आप दे ना चाह, उतने काल तक, उतने भाग म हम रहगे ।’
गृह यह पूछे क ‘ ‘ आप कतने समय तक यहाँ रहगे ? ’ ’ इस पर मु न उ र दे – ‘ ‘ आयु मन् सद्गृह !
आप जतने समय तक और उपा य के जतने भाग म ठहरने क अनु ा दगे, उतने समय और ान तक म रहकर
फर हम वहार कर जाएंगे । इसके अ त र जतने भी साध मक साधु आएंगे, वे भी आपक अनुम त के अनुसार
उतने समय और उतने भाग म रहकर फर वहार कर जाएंगे ।’ ’
सू - ४२४
साधु या सा वी जस गृह के उपा य म नवास कर, उसका नाम और गो पहले से जान ले । उसके
प ात् उसके घर म नमं त करने या न करने पर भी उसके घर या अशना द चतु वध आहार अ ासुक-अनैषणीय
जानकर हण न कर ।
सू - ४२५
वह साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने, जो गृह से संस हो, अ न से यु हो, स च जल से
यु हो, तो उसम ा साधु-सा वी को नगमन- वेश करना उ चत नह है और न ही ऐसा उपा य वाचना, यावत्
च तन के लए उपयु है । ऐसे उपा य म कायो सग आ द काय न करे ।
सू - ४२६
वह साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने, जसम नवास के लए गृह के घर म से होकर जाना पड़ता
हो, अथवा जो उपा य गृह के घर से तब है, वहाँ ा साधु का आना-जाना उ चत नह है और न ही ऐसा
उपा य वाचना द वा याय के लए उपयु है । ऐसे उपा य म साधु ाना द काय न करे ।
सू - ४२७
य द साधु या सा वी ऐसे उपा य को जाने क इस उपा य– ब ती म गृह- वामी, उसक प नी, पु -पु याँ
पु वधूए,ं दास-दा सयाँ आ द पर र एक सरे को कोसती ह– झड़कती ह, मारती-पीटती, यावत् उप व करती ह,
ावान साधु को इस कार के उपा य म न तो नगमन- वेश ही करना यो य है, और न ही वाचना द वा याय
करना उ चत है । यह जानकर साधु इस कार के उपा य म ाना द काय न करे ।
सू - ४२८
साधु या सा वी अगर जाने क इस उपा य म गृह , उसक प नी, पु ी यावत् नौकरा नयाँ एक- सरे के
शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मदन करती ह या चुपड़ती ह, तो ा साधु का वहाँ जाना-आना ठ क नह है

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 75


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
और न ही वहाँ वाचना द वा याय करना । साधु इस कार के उपा य म ाना द काय न करे ।
सू - ४२९
साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने, क इस उपा य म गृह वामी यावत् नौकरा नयाँ पर र एक
सरे के शरीर को नान करने यो य पानी से, कक से, लो से, वण से, चूण से, प से मलती ह, रगड़ती ह, मैल
उतारती ह, उबटन करती ह; वहाँ ा साधु का नीकलना या वेश करना उ चत नह है और न ही वह ान वाचना द
वा याय के लए उपयु है । ऐसे उपा य म साधु ाना द काय न करे ।
सू - ४३०
वह भ ु या भ ुणी य द जाने क इस उपा य म गृह वामी, यावत् नौकरा नयाँ पर र एक सरे के शरीर
पर ासुक शीतल जल से या उ ण जल से छ टे मारती ह, धोती ह, स चती ह, या नान कराती ह, ऐसा ान ा के
जाने-आने या वा याय के लए उपयु नह है । इस कार के उपा य म साधु ाना द या न करे ।
सू - ४३१
साधु या सा वी ऐसे उपा य को जाने, जसक ब ती म गृहप त, उसक प नी, पु -पु याँ यावत् नौकरा-
नयाँ आ द न न खड़ी रहती ह या न न बैठ रहती ह, और न न होकर गु त प से मैथुन-धम वषयक पर र
वातालाप करती ह, अथवा कसी रह यमय अकाय के स ब म गु त-मं णा करती ह; तो वहाँ ा – साधु का
नगमन- वेश या वाचना द करना उ चत नह है । इस कार के उपा य म साधु कायो सगा द या न करे ।
सू - ४३२
वह साधु या सा वी य द ऐसे उपा य को जाने जो गृह ी-पु ष आ द के च से सुस त है, तो ऐसे
उपा य म ा साधु को नगमन- वेश करना या वाचना आ द करना उ चत नह है । इस कार के उपा य म साधु
ाना द काय न करे ।
सू - ४३३
कोई साधु या सा वी सं तारक क गवेषणा करना चाहे और वह जस सं तारक को जाने क वह अ ड से
यावत् मकड़ी के जाल से यु है तो ऐसे सं तारक को मलने पर भी हण न करे । जस सं तारक को जाने क वह
अ ड यावत् मकड़ी के जाल से तो र हत है, क तु भारी है, वैसे सं तारक को भी मलने पर हण न करे ।
वह साधु या सा वी, जस सं तारक को जाने क वह अ ड यावत् मकड़ी के जाल से र हत है, हलका भी है,
क तु अ ा तहा रक है, तो ऐसे सं तारक को भी मलने पर हण न करे । जस सं तारक को जाने क वह अ ड
यावत् मकड़ी के जाल से र हत है, हलका भी है, ा तहा रक भी है, क तु ठ क से बंधा आ नह है, तो ऐसे
सं तारक को भी मलने पर हण न करे ।
वह साधु या सा वी, सं तारक को जाने क वह अ ड यावत् मकड़ी के जाल से र हत है, हलका है,
ा तहा रक है और सु ढ़ बंधा आ भी है, तो ऐसे सं तारक को मलने पर हण करे ।
सू - ४३४
इन दोष के आयतन को छोड़कर साधु इन चार तमा से सं तारक क एषणा करना जान ले– पहली
तमा यह है– साधु-सा वी अपने सं तरण के लए आव यक और यो य व तु का नामो लेख कर-कर के सं तारक
क याचना करे, जैसे इ कड, क ढणक, जंतुक, परक, सभी कार का तृण, कुश, कूचक, ववक नामक तृण वशेष,
या पराल आ द । साधु पहले से ही इ कड आ द कसी भी कार क घास का बना आ सं तारक दे खकर गृह के
नामो लेख पूवक कहे या तुम मुझे इन सं तारकम से अमुक सं तारक को दोगे ? इस कार के ासुक एवं नद ष
सं तारक क वयं याचना करे अथवा गृह ही बना याचना कए दे तो साधु उसे हण कर ले । यह थम तमा है
सू - ४३५
सरी तमा यह है साधु या सा वी गृह के मकान म रखे ए सं तारक को दे खकर उनक याचना करे क

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 76


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
या तुम मुझे इन सं तारक म से कसी एक सं तारक को दोगे ? इस कार के नद ष एवं ासुक सं तारक क वयं
याचना करे, य द दाता बना याचना कए ही दे तो ासुक एवं एषणीय जानकर उसे हण करे ।
इसके अन तर तीसरी तमा यह है– यह साधु-सा वी जस उपा य म रहना चाहता है, य द कसी उपा य
म इ कड यावत् पराल तक के सं तारक ह तो गृह वामी क आ ा लेकर उस सं तारक को ा त करके वह साधना
म संल न रहे । य द सं तारक न मले तो वह उ कटु क आसन, प ासन आ द आसन म बैठकर रा तीत करे ।
सू - ४३६
चौथी तमा यह है– वह साधु या सा वी उपा य म पहले से ही सं तारक बछा आ हो, जैसे क वहाँ
तृणश या, प थर क शला या लकड़ी का त त, तो उस सं तारक क गृह वामी से याचना करे, उसके ा त होने पर
वह उस पर शयन आ द या कर सकता है । य द वहाँ कोई भी सं तारक बछा आ न मले तो वह उ कटुक आसन
तथा प ासन आ द आसन से बैठकर रा तीत करे । यह चौथी तमा है ।
सू - ४३७
इन चार तमा म से कसी एक तमा को धारण करके वचरण करने वाला साधु, अ य तमाधारी
साधु क न दा या अवहेलना करता आ य न कहे– ये सब साधु म या प से तमा धारण कये ए ह, म ही
अकेला स यक् प से तमा वीकार कए ए ँ । ये जो साधु भगवान इन चार तमा म से कसी एक को
वीकार करके वचरण करते ह, और म जस तमा को वीकार करके वचरण करता ँ, ये सब जना ा म
उप त ह । इस कार पार रक समा धपूवक वचरण करे ।
सू - ४३८
वह भ ु या भ ुणी य द सं तारक वापस लौटाना चाहे, उस समय य द उस सं तारक को अ ड यावत्
मकड़ी के जाल से यु जाने तो इस कार का सं तारक (उस समय) वापस न लौटाए ।
सू - ४३९
वह भ ु या भ ुणी य द सं तारक वापस स पना चाहे, उस समय उस सं तारक को अ ड यावत् मकड़ी
के जाल से र हत जाने तो, उस कार के सं तारक को बार-बार तलेखन तथा माजन करके, सूय क धूप दे कर
एवं यतनापूवक झाड़कर गृह को संय नपूवक वापस स पे ।
सू - ४४०
जो साधु या सा वी रवास कर रहा हो, या उपा य म रहा आ हो, अथवा ामानु ाम वहार करता आ
आकर ठहरा हो, उस ावान, साधु को चा हए क वह पहले ही उसके प रपा म उ ार- वण- वसजन भू म को
अ तरह दे ख ले ।
केवली भगवान ने कहा है– यह अ तले खत उ ार- वण-भू म कमब का कारण है । कारण यह है क
वैसी भू म म कोई भी साधु या सा वी रा म या वकाल म मल-मू ा द का प र ापन करता आ फसल या गर
सकता है । उसके पैर फसलने या गरने पर हाथ, पैर, सर या शरीर के कसी अवयव को गहरी चोट लग सकती है,
अथवा वहाँ त ाणी, भूत, जीव या स व को चोट लग सकती है, ये दब सकते ह, यहाँ तक क मर सकते ह ।
इसी कारण तीथकरा द आ त पु ष ने पहले से ही भ ु के लए यह त ा बताई है, यह हेत,ु कारण
और उपदे श दया है क साधु को उपा य म ठहरने से पहले मल-मू -प र ापन करने हेतु भू म क आव यक
तलेखना कर लेनी चा हए ।
सू - ४४१
साधु या सा वी श या-सं तारकभू म क तलेखना करना चाहे, वह आचाय, उपा याय, वतक, वर,
गणी, गणधर, गणाव े दक, बालक, वृ , शै , लान एवं अ त थ साधु के ारा वीकृत भू म को छोड़कर उपा य
के अ दर, म य ान म या सम और वषम ान म, अथवा वातयु और नवात ान म भू म का बार-बार

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 77


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
तलेखन एवं माजन करके अ य त ासुक श या-सं तारक को यतनापूवक बछाए ।
सू - ४४२
साधु या सा वी अ य त ासुक श या-सं तारक बछाकर उस श या-सं तारक पर चढ़ना चाहे तो उस पर
चढ़ने से पूव म तक स हत शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक भली-भाँ त माजन करके फर यतनापूवक उस
श यासं तारक पर आ ढ़ हो । उस अ त ासुक श यासं तारक पर आ ढ़ होकर यतनापूवक उस पर शयन करे ।
सू - ४४३
साधु या सा वी उस अ त ासुक श यासं तारक पर शयन करते ए पर र एक सरे को, अपने हाथ से
सरे के हाथ क , अपने पैर से सरे के पैर क और अपने शरीर से सरे के शरीर को आशातना नह करना चा हए ।
अ पतु एक सरे क आशातना न करते ए यतनापूवक सोना चा हए । वह साधु या सा वी उ ् वास या न ास लेत
ए, खाँसते ए, छ कते ए, या उबासी लेते ए, डकार लेते ए, अथवा अपानवायु छोड़ते ए पहले ही मुँह या गुदा
को हाथ से अ तरह ढाँक कर यतना से उ ् वास आ द ले यावत् अपानवायु को छोड़े ।
सू - ४४४
संयमशील साधु या सा वी को कसी समय सम श या मले या वषम मले, कभी हवादार नवास- ान
ा त हो या नवात हो, कसी दन धूल से भरा उपा य मले या व मले, कदा चत् उपसगयु श या मले या
उपसग र हत मले । इन सब कार क श या के ा त होने पर जैसी भी सम- वषम आ द श या मली, उसम
सम च होकर रहे, मन म जरा भी खेद या ला न का अनुभव न करे ।
यही (श यैषणा– ववेक) उस भ ु या भ ुणी का स ूण भ ुभाव है, क वह सब कार से ान-दशन-
चा र और तप के आचार से यु होकर सदा समा हत होकर वचरण करने का य न करता है । – ऐसा म कहता ँ

अ ययन-२ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 78


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-३ – ईया
उ े शक-१
सू - ४४५
वषाकाल आ जाने पर वषा हो जाने से ब त-से ाणी उ प हो जाते ह, ब त-से बीज अंकु रत हो जाते ह,
माग म ब त-से ाणी, ब त-से बीज उ प हो जाते ह, ब त ह रयाली हो जाती है, ओस और पानी ब त ान म
भर जाते ह, पाँच वण क काई, लीलण-फूलण आ द हो जाती है, ब त-से ान म क चड़ या पानी से म गीली हो
जाती है, क जगह मकड़ी के जाले हो जाते ह । वषा के कारण माग क जाते ह, माग पर चला नह जा सकता ।
इस त को जानकर साधु को (वषाकाल म) एक ाम से सरे ाम वहार नह करना चा हए। अ पतु वषाकाल म
यथावसर ा त वस त म ही संयत रहकर वषावास तीत करना चा हए ।
सू - ४४६
वषावास करने वाले साधु या सा वी को उस ाम, नगर, खेड़, कबट, मड ब, प ण, ोणमुख, आकर, नगम,
आ म, स वेश या राजधानी क त भलीभाँ त जान लेनी चा हए । जस ाम, नगर यावत् राजधानी म एका त
म वा याय करने के लए वशाल भू म न हो, मलमू याग के लए यो य वशाल भू म न हो, पीठ, फलक, श या एवं
सं तारक क ा त भी सुलभ न हो, और न ासुक, नद ष एवं एषणीय आहार-पानी ही सुलभ हो, जहाँ ब त-से
मण, ा ण, अ त थ, द र और भखारी लोग आए ए ह , और भी सरे आने वाले ह , जससे सभी माग म
भीड़ हो, साधु-सा वी को भ ाटन, वा याय, शौच आ द आव यक काय से अपने ान से सुखपूवक नीकलना
और वेश करना भी क ठन हो, वा याय आ द या भी न प व न हो सकती हो, ऐसे ाम, नगर आ द म
वषाकाल ारंभ हो जाने पर भी साधु-सा वी वषावास तीत न करे ।
वषावास करने वाला साधु या सा वी य द ाम यावत् राजधानी के स ब म यह जाने क इस ाम यावत्
राजधानी म वा याय-यो य वशाल भू म है, मल-मू - वसजन के लए वशाल डलभू म है, यहाँ पीठ, फलक,
श या एवं सं तारक क ा त भी सुलभ है, साथ ही ासुक, नद ष एवं एषणीय आहार-पानी भी सुलभ है, यहाँ
ब त-से मण- ा ण आ द आये ए नह ह और न आएंग,े यहाँ के माग पर जनता क भीड़ भी इतनी नह है,
जससे क साधु-सा वी को भ ाटन, वा याय, शौच आ द आव यक काय के लए अपने ान से नीकलना और
वेश करना क ठन हो, वा याया द या भी न प व हो सके, तो ऐसे ाम यावत् राजधानी म साधु या सा वी
संयमपूवक वषावास तीत करे ।
सू - ४४७
साधु या सा वी यह जाने क वषाकाल तीत हो चूका है, अतः वृ न हो तो चातुमा सक काल समा त होते
ही अ य वहार कर दे ना चा हए । य द का तक मास म वृ हो जाने से माग आवागमन के यो य न रहे तो हेम त
ऋतु के पाँच या दस दन तीत हो जाने पर वहाँ से वहार करना चा हए । य द माग बीच-बीच मे अंडे, बीज,
ह रयाली, यावत् मकड़ी के जाल से यु हो, अथवा वहाँ ब त-से मण- ा ण आ द आए ए न ह , न ही आने
वाले ह , तो यह जानकर साधु ामानु ाम वहार न करे ।
य द साधु या सा वी यह जाने क वषाकाल के चार मास तीत हो चूके ह, और वृ हो जाने से मु न को
हेम त ऋतु के पाँच अथवा दश दन तक वह रहने के प ात् अब माग ठ क हो गए ह, बीच-बीच म अब अ डे यावत्
मकड़ी के जाले आ द नह ह, ब त-से मण- ा ण आ द भी उन माग पर आने-जाने लगे ह, या आने वाले भी ह,
तो यह जानकर साधु यतनापूवक ामानु ाम वहार कर सकता है ।
सू - ४४८
साधु या सा वी एक ाम से सरे ाम वहार करते ए अपने सामने क युगमा भू म को दे खते ए चले
और माग म सजीव को दे खे तो पैर के अ भाग को उठाकर चले । य द दोन ओर जीव ह तो पैर को सकोड़ कर

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 79


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
चले अथवा दोन पैर को तरछे -टे ढ़े रखकर चले । य द कोई सरा साफ माग हो, तो उसी माग से यतनापूवक जाए,
क तु जीवज तु से यु सरल माग से न जाए । साधु या सा वी ामानु ाम वचरण करते ए यह जाने क माग म
ब त से स ाणी ह, बीज बखरे ह, ह रयाली है, स च पानी है या स च म है, जसक यो न व व त नह ई
है, ऐसी त म सरा नद ष माग हो तो साधु-सा वी उसी माग से यतनापूवक जाएं, क तु उस सरल माग से न
जाए ।
सू - ४४९
ामानु ाम वचरण करते ए साधु या सा वी को माग म व भ दे श क सीमा पर रहने वाले द यु के,
ले के या अनाय के ान मले तथा ज ह बड़ी क ठनता से आय का आचार समझाया जा सकता है, ज ह
ःख से, धमबोध दे कर अनायकम से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल म जागने वाले, कुसमय म खाने-पीने वाले
मनु य के ान मले तो अ य ाम आ द म वहार हो सकता है या अ य आयजनपद व मान हो, तो ासुक-भोजी
साधु उन ले ा द के ान म वहार करने क से जाने का मन म संक प न करे ।
केवली भगवान कहते ह– वहाँ जाना कमब का कारण है, य क वे ले अ ानी लोग साधु को दे खकर–
‘ यह चोर है, यह हमारे श ु के गाँव से आया है’ , य कहकर वे उस भ ु को गाली-गलौच करगे, कोसगे, र स से
बाँधगे, कोठरी म बंद कर दगे, डंड से पीटगे, अंगभंग करगे, हैरान करगे, यहाँ तक क ाण से र हत भी कर सकते
ह, इसके अ त र वे उसके व , पा , क बल, पाद- छन आ द उपकरण को तोड़-फोड़ डालगे, अपहरण कर
लगे या उ ह कह र फक दगे । इसी लए तीथकर आ द आ त पु ष ारा भ ु के लए पहले से ही न द यह
त ा, हेत,ु कारण और उपदे श है क भ ु उन सीमा- देशवत द यु ान तथा ले , अनाय, ब य आ द लोग
के ान म, अ य आय जनपद तथा आय ाम के होते ए जाने का संक प भी न करे । अतः इन ान को
छोड़कर संयमी साधु यतनापूवक ामानु ाम वहार करे ।
सू - ४५०
साधु या सा वी ामानु ाम वहार करते ए माग म यह जाने क ये अराजक दे श है, या यहाँ केवल युवराज
का शासन है, जो क अभी राजा नह बना है, अथवा दो राजा का शासन है, या पर र श ु दो राजा का
रा या धकार है, या धमा द- वरोधी राजा का शासन है, ऐसी त म वहार के यो य अ य आय जनपद के होते, इस
कार के दे श म वहार करने क से गमन करने का वचार न करे ।
केवली भगवान ने कहा है– ऐसे अराजक आ द दे श म जाना कमब का कारण है । य क वे अ ानी
जन साधु के त शंका कर सकते ह क ‘ यह चोर है, यह गु तचर है, यह हमारे श ु राजा के दे श से आया है’ तथा इस
कार क कुशंका से त होकर वे साधु को अपश द कह सकते ह, मार-पीट सकते ह, यहाँ तक क उसे जान से भी
मार सकते ह । इसके अ त र उसके व , पा , कंबल, पाद- छन आ द उपकरण को तोड़फोड़ सकते ह, लूँट
सकते ह और र फक सकते ह । इन सब आप य क संभावना से तीथकर आ द आ त पु ष ारा साधु के
लए पहले से ही यह त ा, हेत,ु कारण और उपदे श न द है क साधु अराजक आ द दे श म जाने का संक प न
करे । अतः साधु को इन दे श को छोड़कर यतनापूवक ामानु ाम वहार करना चा हए ।
सू - ४५१
ामानु ाम वहार करते ए साधु या सा वी यह जाने क आगे ल बा अटवी-माग है । य द उस अटवी के
वषय म वह यह जाने क यह एक, दो, तीन, चार, या पाँच दन म पार कया जा सकता है अथवा पार कया जा
सकता है, तो वहार के यो य अ य माग होते, उस अनेक दन म पार कये जा सकने वाले भयंकर अटवी-माग से
जाने का वचार न करे । केवली भगवान कहते ह– ऐसा करना कमब का कारण है, य क माग म वषा हो जाने से
य आ द जीव क उ प हो जाने पर, माग म कोई लीलन-फूलन, बीज, ह रयाली, स च पानी और
अवव त म आ द के होने से संयम क वराधना होनी संभव है । इसी लए भ ु के लए तीथकरा द ने पहले

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 80


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
से इस त ा हेत,ु कारण और उपदे श का नदश कया है क साधु अ य साफ और एकाद दन म ही पार कया जा
सके ऐसे माग के रहते इस कार के अटवी-माग से जाने का संक प न करे । अतः साधु को प र चत और साफ माग
से ही यतनापूवक ामानु ाम वहार करना चा हए ।
सू - ४५२
ामानु ाम वहार करते ए साधु या सा वी यह जाने क माग म नौका ारा पार कर सकने यो य जलमाग
है; पर तु य द वह यह जाने क नौका असंयत के न म मू य दे कर खरीद कर रहा है, या उधार ले रहा है, या नौका
क अदला-बदली कर रहा है, या ना वक नौका को ल से जल म लाता है, अथवा जल से उसे ल म ख च ले
जाता है, नौका से पानी उलीचकर खाली करता है, अथवा क चड़ म फँसी ई नौका को बाहर नीकाल कर साधु के
लए तैयार करके साधु को उस पर चढ़ने के लए ाथना करता है; तो इस कार क नौका (पर साधु न चढ़े ।) चाहे
वह ऊ वगा मनी हो, अधोगा मनी हो या तयग्गा मनी, जो उ कृ एक योजन माण े म चलती है, या अ
योजन माण े म चलती है, गमन करने के लए उस नौका पर साधु सवार न हो ।
(कारणवश नौका म बैठना पड़े तो) साधु या सा वी सव थम तयग्गा मनी नौका को जान-दे ख ले । यह
जानकर वह गृह क आ ा को लेकर एका त म चला जाए । वहाँ जाकर भा डोपकरण का तलेखन करे,
त प ात् सभी उपकरण को इक े करके बाँध ले । फर सर से लेकर पैर तक शरीर का माजन करे । आगार
स हत या यान करे । यह सब करके एक पैर जल म और एक ल म रखकर यतनापूवक उस नौका पर चढ़े ।
सू - ४५३
साधु या सा वी नौका पर चढ़ते ए न नौका के अगले भाग म बैठे, न पछले भाग म बैठे और न म य भागम।
तथा नौका के बाजु को पकड़-पकड़ कर या अंगुली से बता-बताकर या उसे ऊंची या नीची करके एकटक जल को
न दे खे ।
य द ना वक नौका म चढ़े ए साधु से कहे क ‘ ‘ आयु मन् मण ! तुम इस नौका को ऊपर क ओर
ख चो, अथवा अमुक व तु को नौका म रखकर नौका को नीचे क ओर ख चो, या र सी को पकड़कर नौका को
अ तरह से बाँध दो, अथवा र सी से कस दो ।’ ’ ना वक के इस कार के वचन को वीकार न करे, क तु
मौन बैठा रहे ।
य द नौका ढ़ साधु को ना वक यह कहे क–‘ ‘ आयु मन् मण ! य द तुम नौका को ऊपर या नीचे क ओर
ख च नह सकते, या र सी पकड़कर नौका को भलीभाँ त बाँध नह सकते या जोर से कस नह सकते, तो नाव पर
रखी ई र सी को लाकर दो । हम वयं नौका को ऊपर या नीचे क ओर ख च लगे, जोर से कस दगे ।’ ’ इस पर भी
साधु ना वक के इस वचन को वीकार न करे, चूपचाप उपे ाभाव से बैठा रहे ।
य द ना वक यह कहे क–‘ ‘ आयु मन् मण ! जरा इस नौका को तुम डांड से, पीठ से, बड़े बाँस से, ब ली से
और अबलुक से तो चलाओ ।’ ’ ना वक के इस कार के वचन को मु न वीकार न करे, ब क उदासीन भाव से मौन
होकर बैठा रहे ।
नौका म बैठे ए साधु से अगर ना वक यह कहे क ‘ ‘ इस नौका म भरे ए पानी को तुम हाथ से, पैर से,
भाजन से या पा से, उलीच कर बाहर नीकाल दो ।’ ’ पर तु साधु ना वक के इस वचन को वीकार न करे, वह मौन
होकर बैठा रहे ।
य द ना वक नौका ढ़ साधु से यह कहे क ‘ ‘ नाव म ए इस छ को तो तुम अपने हाथ से, पैर से, भुजा से,
जंघा से, पेट से, सर से या शरीर से, अथवा नौका के जल नीकालने वाले उपकरण से, व से, म से, कुशप से,
तृण वशेष से ब द कर दो, रोक दो ।’ ’ साधु ना वक के इस कथन को वीकार न करके मौन धारण करके बैठा रहे ।
वह साधु या सा वी नौका म छ से पानी आता आ दे खकर, नौका को उ रो र जल से प रपूण होती
दे खकर, ना वक के पास जाकर य न कहे क ‘ ‘ तु हारी इस नौका म पानी आ रहा है, उ रो र नौका जल से प रपूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 81


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
हो रही है ।’ ’ इस कार से मन एवं वचन को आगे-पीछे न करके साधु रहे । वह शरीर और उपकरण आ द पर मू ा
न करके तथा अपनी ले या को संयमबा वृ म न लगाता आ अपनी आ मा को एक व भाव म लीन करके
समा ध म त अपने शरीर-उपकरण आ द का ु सग करे ।
इस कार नौका के ारा पार करने यो य जल को पार करने के बाद जस कार तीथकर ने व ध बताई है
उस व ध का व श अ यवसायपूवक पालन करता आ रहे ।
यही (ईया वषयक वशु ही) उस भ ु और भ ुणी क सम ता है । जसके लए सम त अथ म स मत,
ाना द स हत होकर वह सदै व य न करता रहे । ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-३ – उ े शक-२
सू - ४५४
नौका म बैठे ए गृह आ द य द नौका ढ़ मु न से यह कहे क आयु मन् मण ! तुम जरा हमारे छ ,
भाजन, बतन, द ड, लाठ , योगासन, न लका, व , यव नका, मृगचम, चमड़े क थैली, अथवा चम-छे दनक श को
तो पकड़ रखो; इन व वध श को तो धारण करो, अथवा इस बालक या बा लका को पानी पीला दो; तो वह साधु
उसके उ वचन को सूनकर वीकार न करे, क तु मौन धारण करके बैठा रहे ।
सू - ४५५
य द कोई नौका ढ़ नौका पर बैठे ए कसी अ य गृह से इस कार कहे– ‘ आयु मन् गृह ! यह
मण जड़ व तु क तरह नौका पर केवल भारभूत है, अतः इसक बाँह पकड़कर नौका से बाहर जलम फक दो ।’
इस कार क बात सूनकर और दय म धारण करके य द वह मु न व धारी है तो शी ही फटे -पुराने व को
खोलकर अलग कर दे और अ े व को अपने शरीर पर अ तरह बाँधकर लपेट ले, तथा कुछ व अपने सर
के चार ओर लपेट ले ।
य द वह साधु यह जाने क ये अ य त ू रकमा अ ानी जन अव य ही मुझे बाँह पकड़ नाव से बाहर पानी म
फैकगे तब वह फके जाने से पूव ही उन गृह को स बो धत करके कहे ‘ ‘ आप लोग मुझे बाँहे पकड़ कर नौका से
बाहर जल म मत फको; म वयं ही जल म वेश कर जाऊंगा ।’ ’ कोई अ ानी ना वक सहसा बलपूवक साधु को बाँह
पकड़ कर नौका से बाहर जल म फक दे तो साधु मन को न तो हष से यु करे और न शोक से त । वह मन म
कसी कार का ऊंचा-नीचा संक प- वक प न करे और न ही उन अ ानी जन को मारने-पीटने के लए उ त हो ।
वह उनसे कसी कार का तशोध लेने का वचार भी न करे । इस कार वह जल ला वत होता आ मु न जीवन-
मरण म हष-शोक से र हत होकर, अपनी च वृ को शरीरा द बा व तु के मोह म समेट कर, अपने आपको
आ मैक वभाव म लीन कर ले और शरीर-उपकरण आ द का ु सग करके आ मसमा ध म र हो जाए । फर वह
यतनापूवक जल म वेश कर जाए ।
सू - ४५६
जलम डू बते समय साधु-सा वी अपने एक हाथ से सरे हाथ का, एक पैर से सरे पैर का, तथा शरीर के
अ य अंग पांग का भी पर र श न करे। वह पर र श न करता आ इसी तरह यतनापूवक जलम बहता
चला जाए । साधु या सा वी जल म बहते समय उ म न- नम न भी न करे और न इस बात का वचार
करे क यह पानी मेरे कान म, आँख म, नाक म या मुह
ँ म न वेश कर जाए । ब क वह यतनापूवक जल म
(समभाव के साथ) बहता जाए ।
य द साधु या सा वी जल म बहते ए बलता का अनुभव करे तो शी ही थोड़ी या सम त उप ध का याग
कर दे , वह शरीरा द पर से भी मम व छोड़ दे , उन पर कसी कार क आस न रखे । य द वह यह जाने क म
उप ध स हत ही इस जल से पार होकर कनारे प ँच जाऊंगा, तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला
रहे, तब तक वह नद के कनारे पर ही खड़ा रहे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 82


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
साधु या सा वी जल टपकते ए, जल से भीगे ए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से श न करे, न उसे
एक या अ धक बार सहलाए, न उसे एक या अ धक बार घसे, न उस पर मा लश करे और न ही उबटन क तरह शरीर
से मैल उतारे । वह भीगे ए शरीर और उप ध को सूखाने के लए धूप से थोड़ा या अ धक गम भी न करे ।
जब वह यह जान ले क अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल क बूँद या जल का लेप भी नह
रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का श करे, उसे सहलाए, उसे रगड़े, मदन करे यावत् धूप म खड़ा रहकर उसे
थोड़ा या अ धक गम भी करे । तदन तर संयमी साधु यतनापूवक ामानु ाम वचरण करे ।
सू - ४५७
साधु या सा वी ामानु ाम वहार करते ए गृह के साथ अ धक वातालाप करते न चल, क तु ईया-
स म त का यथा व ध पालन करते ए वहार करे ।
सू - ४५८
ामानु ाम वहार करते ए साधु या सा वी को माग म जंघा- माण जल पड़ता हो तो उसे पार करने के लए
वह पहले सर स हत शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक माजन करे । इस कार सर से पैर तक का माजन
करके वह एक पैर को जल म और एक पैर को ल म रखकर यतनापूवक जल को, भगवान के ारा क थत
ईयास म त क व ध अनुसार पार करे । शा ो व ध के अनुसार पार करते ए हाथ से हाथ का, पैर से पैर का
तथा शरीर के व वध अवयव का पर र श न करे । इस कार वह भगवान ारा तपा दत ईया-स म त व ध
अनुसार जल को पार करे ।
साधु या सा वी जंघा- माण जल म शा ो व ध के अनुसार चलते ए शारी रक सुख-शा त क अपे ा
से या दाह उपशा त करने के लए गहरे और व तृत जल म वेश न करे और जब उसे यह अनुभव होने लगे क म
उपकरणा द-स हत जल से पार नह हो सकता, तो वह उनका याग कर दे , शरीर-उपकरण आ द के ऊपर से ममता
का वसजन कर दे । उसके प ात् वह यतनापूवक शा ो व ध से उस जंघा- माण जल को पार करे ।
य द वह यह जाने क म उप ध-स हत ही जल से पार हो सकता ँ तो वह उपकरण स हत पार हो जाए ।
पर तु कनारे पर आने के बाद जब तक उसके शरीर से पानी क बूँद टपकती हो, उसका शरीर जरा-सा भी भीगा है,
तब तक वह कनारे ही खड़ा रहे ।
वह साधु-सा वी जल टपकते ए या जल से भीगे ए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से श न करे, न
उसे एक या अ धक बार घसे, न उस पर मा लश करे, और न ही उबटन क तरह उस शरीर से मैल ऊतारे । वह भीगे
ए शरीर और उप ध को सूखाने के लए धूप म थोड़ा या अ धक गम भी न करे । जब वह यह जान ले क शरीर पूरी
तरह सूख गया है, उस पर जल क बूँद या जल का लेप भी नह रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का श करे,
यावत् धूप म खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अ धक गम करे । त प ात् वह साधु यतनापूवक ामानु ाम वचरण करे ।
सू - ४५९
ामानु ाम वचरण करते ए साधु या सा वी गीली म एवं क चड़ से भरे ए अपने पैर से ह रतकाय का
बार-बार छे दन करके तथा हरे प को मोड़-मोड़ कर या दबा कर एवं उ ह चीर-चीर कर मसलता आ म न उतारे
और न ह रतकाय क हसा करने के लए उ माग म इस अ भ ाय से जाए क ‘ पैर पर लगी ई इस क चड़ और
गीली म को यह ह रयाली अपने आप हटा दे गी’ , ऐसा करने वाला साधु माया ान का श करता है । साधु को
इस कार नह करना चा हए । वह पहले ही ह रयाली से र हत माग का तलेखन करे, और तब उसी माग से
यतनापूवक ामानु ाम वचरे ।
ामानु ाम वहार करते ए साधु या सा वी के माग म य द टे करे ह , खाइयाँ, या नगर के चार ओर नहर ह ,
कले ह , या नगर के मु य ार ह , अगलाएं ह , आगल दये जाने वाले ान ह , ग े ह , गुफाएं ह या भूगभ -माग ह
तो अ य माग के होने पर उसी अ य माग से यतनापूवक गमन करे, ले कन ऐसे सीधे माग से गमन न करे। केवली

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 83


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
भगवान कहते ह– यह माग कमब का कारण है ।
ऐसे वषम माग से जाने से साधु-सा वी का पै आ द फसल सकता है, वह गर सकता है । शरीर के कसी
अंग-उपांग को चोट लग सकती है, सजीव क भी वराधना हो सकती है, स च वृ आ द का अवल बन ले तो भी
अनु चत है ।
वहाँ जो भी वृ , गु , झा ड़याँ, लताएं, बेल, तृण अथवा गहन आ द हो, उन ह रतकाय का सहारा ले लेकर
चले या ऊतरे अथवा वहाँ जो प थक आ रहे ह , उनका हाथ माँगे । उनके हाथ का सहारा मलने पर उसे पकड़ कर
यतनापूवक चले या ऊतरे । इस कार साधु या सा वी को संयमपूवक ही ामानु ाम वहार करना चा हए ।
साधु या सा वी ामानु ाम वहार कर रहे ह , माग म य द जौ, गे ँ आ द धा य के ढे र ह , बैलगा ड़याँ या रथ
पड़े ह , वदे श-शासक या परदे श-शासक क सेना के नाना कार के पड़ाव पड़े ह , तो उ ह दे खकर य द कोई सरा
माग हो तो उसी माग से यतनापूवक जाए, क तु उस सीधे, ( क तु दोषाप यु ) माग से न जाए ।
उसे दे खकर कोई सै नक कसी सरे सै नक से कहे– ‘ ‘ आयु मन् ! यह मण हमारी सेना का गु त भेद ले
रहा है, अतः इसक बाँह पकड़ कर ख चो । उसे घसीटो ।’ ’ इस पर वह सै नक साधु को बाँह पकड़ कर ख चने या
घसीटने लगे, उस समय साधु को अपने मन म न ह षत होना चा हए, न ; ब क उसे समभाव एवं समा धपूवक
सह लेना चा हए । इस कार उसे यतनापूवक एक ाम से सरे ाम वचरण करते रहना चा हए ।
सू - ४६०
ामानु ाम वहार करते ए साधु या सा वी को माग म सामने से आते ए प थक मले और वे साधु से पूछे
‘ ‘ यह गाँव कतना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है ? यहाँ पर कतने घोड़े, हाथी तथा भखारी ह,
कतने मनु य नवास करते ह ? या इस गाँव यावत् राजधानी म चुर आहार, पानी, मनु य एवं धा य ह, अथवा थोड़े
ही ह ? ’ ’ इस कार पूछे जाने पर साधु उनका उ र न दे । उन ा तप थक से भी इस कार के न पूछे । उनके
ारा न पूछे जाने पर भी वह ऐसी बात न करे । अ पतु संयमपूवक ामानु ाम वहार करता रहे । यही (संयमपूवक
वहारचया) उस भ ु या भ ुणी क साधुता क सवागपूणता है; जसके लए सभी ाना द आचार प अथ से
स मत होकर साधु सदा य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-३ – उ े शक-३
सू - ४६१
ामानु ाम वहार करते ए भ ु या भ ुणी माग म आने वाले उ त भू-भाग या टे करे, खाइयाँ, नगर को
चार ओर से वे त करने वाली नहर, कले, नगर के मु य ार, अगला, अगलापाशक, ग े, गुफाएं या भूगभ माग
तथा कूटागार, ासाद, भू मगृह, वृ को काटछांट कर बनाए ए गृह, पवतीय गुफा, वृ के नीचे बना आ चै य-
ल, चै यमय तूप, लोहकार आ द क शाला, आयतन, दे वालय, सभा, याऊ, कान, गोदाम, यानगृह, यान-शाला,
चूने का, दभकम का, घास क चटाइय आ द का, चमकम का, कोयले बनाने का और का कम का कारखाना, तथा
मशान, पवत, गुफा आ द म बने ए गृह, शा तकम गृह, पाषाणम डप एवं भवनगृह आ द को बाँह बार-बार ऊपर
उठाकर, यावत् ताक-ताक कर न दे खे, क तु यतनापूवक ामानु ाम वहार करने म वृ रहे।
ामानु ाम वहार करते ए साधु-सा वीय के माग म य द क , घास के सं हाथ राजक य य भू म,
भू मगृह, नद आ द से वे त भू-भाग, ग ीर, नजल दे श का अर य, गहन गम वन, गहन गम पवत, पवत पर
भी गम ान, कूप, तालाब, ह न दयाँ, बाव ड़याँ, पु क र णयाँ, द घकाएं, जलाशय, बना खोदे तालाब, सरोवर,
सरोवर क पं याँ और ब त से मले ए तालाब ह तो अपनी भुजाएं ऊंची उठाकर, यावत् ताक-ताक कर न दे खे ।
केवली भगवान कहते ह– यह कमब का कारण है; ( य क) ऐसा करने से जो इन ान म मृग, पशु, प ी, साँप,
सह, जलचर, लचर, खेचर जीव रहते ह, वे साधु क इन असंयम-मूलक चे ा को दे खकर ास पायगे, व त
ह गे, कसी वाड़ क शरण चाहगे, वहाँ रहने वाल को साधु के वषय म शंका होगी । यह साधु हम हटा रहा है, इस

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 84


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
कार का वचार करगे ।
इसी लए तीथकरा द आ तपु ष ने भ ु के लए पहले से ही ऐसी त ा, हेतु, कारण और उपदे श का
नदश कया है क बाँह ऊंची उठाकर या अंगु लय से नदश करके या शरीर को ऊंचा-नीचा करके ताक-ताक कर न
दे खे । अ पतु यतनापूवक आचाय और उपा याय के साथ ामानु ाम वहार करता आ संयम का पालन करे ।
सू - ४६२
आचाय और उपा याय के साथ ामानु ाम वहार करने वाले साधु अपने हाथ से उनके हाथ का, पैर से
उनके पैर का तथा अपने शरीर से उनके शरीर का श न करे । उनक आशातना न करता आ साधु ईयास म त
पूवक ामानु ाम वहार करे ।
आचाय और उपा याय के साथ ामानु ाम वहार करने वाले साधु को माग म य द सामने से आते ए कुछ
या ी मले, और वे पूछे क–‘ ‘ आयु मन् मण ! आप कौन ह ? कहाँ से आए ह ? कहाँ जाएंगे ? ’ ’ ( इस पर) जो
आचाय या उपा याय साथ म ह, वे उ ह सामा य या वशेष प से उ र दगे । आचाय या उपा याय उ र दे रहे ह ,
तब वह साधु बीच म न बोले । क तु मौन रहकर ईयास म त का यान रखता आ र ना धक म से उनके साथ
ामानु ाम वचरण करे ।
र ना धक साधु के साथ ामानु ाम वहार करता आ मु न अपने हाथ से र ना धक साधु के हाथ को, पैर से
उनके पैर को तथा शरीर से उनके शरीर का श न करे । उनक आशातना न करता आ साधु ईयास म त पूवक
ामानु ाम वहार करे ।
सू - ४६३
र ना धक साधु के साथ ामानु ाम वहार करने वाले साधु को माग म य द सामने से आते ए कुछ
ा तप थक मले और वे य पूछे क–‘ ‘ आप कौन ह ? कहाँ से आए ह ? और कहाँ जाएंगे ? ’ ’ ( ऐसा पूछने पर) जो उन
साधु म सबसे र ना धक वे उनको सामा य या वशेष प से उ र दगे । तब वह साधु बीच म न बोले । क तु मौन
रहकर ईयास म त का यान रखता आ उनके साथ ामानु ाम वहार करे ।
संयमशील साधु या सा वी को ामानु ाम वहार करते ए रा ते म सामने से कुछ प थक नकट आ जाएं
और वे य पूछे ‘‘ या आपने इस माग म कसी मनु य को, मृग को, भसे को, पशु या प ी को, सप को या कसी
जलचर ज तु को जाते ए दे खा है ? वे कस ओर गए ह ? ’ ’ साधु न तो उ ह कुछ बतलाए, न मागदशन करे, न ही
उनक बात को वीकार करे, ब क कोई उ र न दे कर उदासीनतापूवक मौन रहे । अथवा जानता आ भी म नह
जानता, ऐसा कहे । फर यतनापूवक ामानु ाम वहार करे ।
ामानु ाम वहार करते ए साधु को माग म सामने से कुछ प थक नकट आ जाएं और वे साधु से य पूछे
‘‘या आपने इस माग म जल म पैदा होने वाले क द, या मूल, अथवा छाल, प ,े फूल, फल, बीज, ह रत अथवा सं ह
कया आ पेयजल या नकटवत जल का ान, अथवा एक जगह रखी ई अ न दे खी है ? ’ ’ साधु न तो उ ह कुछ
बताए, त प ात् यतनापूवक ामानु ाम वहार करे ।
ामानु ाम वहार करते ए साधु-सा वी को माग म सामने से आते ए प थक नकट आकर पूछे क ‘ ‘ या
आपने इस माग म जौ, गे ँ आ द धा य का ढ़े र, रथ, बैलगा ड़याँ, या वच या परच के शासन के सै य के नाना
कार के पड़ाव दे खे ह ? इस पर साधु उ ह कुछ भी न बताए, तदन तर यतनापूवक ामानु ाम वहार करे ।
ामानु ाम वहार करते ए साधु-सा वी को य द माग मं कह ा तप थक मल जाएं और वे उससे पूछे क
यह गाँव कैसा है, या कतना बड़ा है ? यावत् राजधानी कैसी है या कतनी बड़ी है ? यहाँ कतने मनु य यावत्
ामयाचक रहते ह ? तो उनक बात को वीकार न करे, न ही कुछ बताए । मौन धारण करके रहे । संयमपूवक
ामानु ाम वहार करे ।
ामानु ाम वहार करते समय साधु-सा वी को माग म स मुख आते ए कुछ प थक मल जाए और वे उससे

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 85


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
पूछे– ‘ आयु मन् मण ! यहाँ से ाम यावत् राजधानी कतनी र ह ? तथा यहाँ से ाम यावत् राजधानी का माग अब
कतना शेष रहा है ? ’ साधु इन के उ र म कुछ भी न कहे, न ही कुछ बताए, वह उनक बात को वीकार न करे,
ब क मौन धारण करके रहे । और फर यतनापूवक ामानु ाम वहार करे ।
सू - ४६४
ामानु ाम वचरण करते ए साधु या सा वी को माग म मदो म साँड़, वषैला साँप, यावत् च े, आ द
हसक पशु को स मुख-पथ से आते दे खकर उनसे भयभीत होकर उ माग से नह जाना चा हए, और न ही एक
माग से सरे माग पर सं मण करना चा हए, न तो गहन वन एवं गम ान म वेश करना चा हए, न ही वृ पर
चढ़ना चा हए और न ही उसे गहरे और व तृत जल म वेश करना चा हए । वह ऐसे अवसर पर सुर ा के लए
कसी बाड़ क शरण क , सेना क या श क आकां ा न करे; अ पतु शरीर और उपकरण के त राग- े ष र हत
होकर काया का ु सग करे, आ मैक वभाव म लीन हो जाए और समा धभाव म र रहे । त प ात् यतनापूवक
ामानु ाम वचरण करे ।
ामानु ाम वहार करते ए साधु-सा वी जाने क माग म अनेक दन म पार करने यो य अटवी-माग है ।
य द उस अनेक दन म पार करने यो य अटवी-माग के वषय म वह यह जाने क इस अटवी-माग म अनेक चोर
(लूटेरे)
इक े होकर साधु के उपकरण छ नने क से आ जाते ह, य द सचमुच उस अटवीमाग म वे चोर इक े
होकर आ जाएं तो साधु उनसे भयभीत होकर उ माग म न जाए, न एक माग से सरे माग पर सं मण करे, यावत्
समा ध भाव म र रहे । त प ात् यतनापूवक ामानु ाम वचरण करे ।
सू - ४६५
ामानु ाम वचरण करते ए साधु के पास य द माग म चोर संग ठत होकर आ जाएं और वे कह क ‘ ‘ ये
व , पा , क बल और पाद छन आ द लाओ, हम दे दो, या यहाँ पर रख दो ।’ इस कार कहने पर साधु उ ह वे न
दे , और न नीकाल कर भू म पर रखे । अगर वे बलपूवक लेने लगे तो उ ह पुनः लेने के लए उनक तु त करके हाथ
जोड़कर या द न-वचन कहकर याचना न करे । य द माँगना हो तो उ ह धम-वचन कहकर– समझाकर माँग,े अथवा
मौनभाव धारण करके उपे ाभाव से रहे ।
य द वे चोर साधु को गाली-गलौच कर, अपश द कह, मारे-पीटे , हैरान करे, यहाँ तक क उसका वध करने
का य न करे और उसके व ा द को फाड़ डाले, तोड़फोड़ कर र फक द, तो भी वह साधु ाम म जाकर लोग से
उस बात को न कहे, न ही फ रयाद करे, न ही कसी गृह के पास जाकर कहे क ‘ ‘ चोर ने हमारे उपकरण छ नने
के लए अथवा हम कोसा है, मारा-पीटा है, हम हैरान कया है, हमारे उपकरणा द न करके र फक दए ह ।’ ऐसे
कु वचार को साधु मन म भी न लाए और न वचन से करे । क तु नभय, न और अनास होकर आ म-
भाव म लीन होकर शरीर और उपकरण का ु सग कर दे और राग- े ष र हत होकर समा धभाव म वचरण करे ।
यही उस साधु या सा वी के भ ु जीवन क सम ता है क वह सभी अथ म स यक् वृ यु होकर संयम
पालन म सदा य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-३ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 86


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-४ – भाषाजात
उ े शक-१
सू - ४६६
संयमशील साधु या सा वी इन वचन (भाषा) के आचार को सूनकर, दयंगम करके, पूव-मु नय ारा
अनाच रत भाषा-स ब ी अनाचार को जाने । जो ोध से वाणी का योग करते ह, जो अ भमानपूवक, जो छल-
कपट स हत, अथवा जो लोभ से े रत होकर वाणी का योग करते ह, जानबूझकर कठोर बोलते ह, या अनजाने म
कठोर वचन कह दे ते ह– ये सब भाषाएं साव ह, साधु के लए वजनीय ह । ववेक अपनाकर साधु इस कार क
साव एवं अनाचरणीय भाषा का याग करे । वह साधु या सा वी ुव भाषा को जानकर उसका याग करे, अ ुव
भाषा को भी जानकर उसका याग करे । ‘ वह अशना द आहार लेकर ही आएगा, या आहार लए बना ही आएगा,
वह आहार करके ही आएगा, या आहार कये बना ही जाएगा, अथवा वह अव य आया था या नह आया था, वह
आता है, अथवा नह आता है, वह अव य आएगा, अथवा नह आएगा; वह यहाँ भी आया था, अथवा वह यहाँ नह
आया था; वह यहाँ अव य आता है, अथवा कभी नह आता, अथवा वह यहाँ अव य आएगा या कभी नह आएगा ।
संयमी साधु या सा वी वचारपूवक भाषा स म त से यु न तभाषी एवं संयत होकर भाषा का योग करे
जैसे क यह १६ कार के वचन ह– एकवचन, वचन, ब वचन, ी लग-कथन, पु लंग-कथन, नपुंसक- लगकथन,
अ या म-कथन, उपनीत-कथन, अपनीत-कथन, अपनीताऽपनीत-कथन, अपनीतोपनीत-कथन, अतीतवचन,
वतमानवचन, अनागत वचन, य वचन और परो वचन ।
य द उसे ‘ एकवचन’ बोलना हो तो वह एकवचन ही बोले, यावत् परो वचन पय त जस कसी वचन को
बोलना हो, तो उसी वचन का योग करे । जैसे– यह ी है, यह पु ष है, यह नपुंसक है, यह वही है या यह कोई अ य
है, इस कार वचारपूवक न य हो जाए, तभी न यभाषी हो तथा भाषा-स म त से यु होकर संयत भाषाम बोले
इन पूव भाषागत दोष- ान का अ त मण करके (भाषा योग करना चा हए) । साधु को भाषा के चार
कार को जान लेना चा हए । स या, मृषा, स यामृषा और अस यामृषा( वहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है ।
जो म यह कहता ँ उसे– भूतकाल म जतने भी तीथकर भगवान हो चूके ह, वतमान म जो भी तीथकर
भगवान ह और भ व य म जो भी तीथकर भगवान ह गे, उन सबने इ ह चार कार क भाषा का तपादन कया
है, तपादन करते ह और तपादन करगे अथवा उ ह ने पण कया है, पण करते ह और पण करगे ।
तथा यह भी उ ह ने तपादन कया है क ये सब भाषा अ च ह, वण, ग , रस और श वाले ह, तथा चय-
उपचय वाले एवं व वध कार के प रणमन धम वाले ह ।
सू - ४६७
संयमशील साधु-सा वी को भाषा के स ब म यह भी जान लेना चा हए क बोलने से पूव भाषा अभाषा
होती है, बोलते समय भाषा भाषा कहलाती है और बोलने के प ात् बोली ई भाषा अभाषा हो जाती है ।
जो भाषा स या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा स यामृषा है अथवा जो भाषा अस यामृषा है, इन चार
भाषा म से (केवल स या और अस यामृषा का योग ही आचरणीय है ।) उसम भी य द स यभाषा साव ,
अनथद ड यायु , ककश, कटु क, न ु र, कठोर, कम क आ वका रणी तथा छे दनकारी, भेदनकारी, प रता-
पका रणी, उप वका रणी एवं ा णय का वघात करने वाली हो तो वचारशील साधु को मन से वचार करके ऐसी
स यभाषा का भी योग नह करना चा हए । जो भाषा सू म स य स हो तथा जो अस यामृषा भाषा हो, साथ ही
असाव , अ य यावत् जीव के लए अघातक हो तो संयमशील साधु मन से पहले पयालोचन करके इ ह दोन
भाषा का योग करे ।
सू - ४६८
साधु या सा वी कसी पु ष को आमं त कर रहे ह और आमं त करने पर भी वह न सूने तो उसे इस

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 87


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
कार न कहे– अरे होल रे गोले ! या हे गोल ! अय वृषल ! हे कुप ! अरे घटदास ! या ओ कु े ! ओ चोर ! अरे गु तचर
अरे झूठे ! ऐसे ही तुम हो, ऐसे ही तु हारे माता- पता ह । साधु इस कार क साव , स य यावत् जीवोपघा तनी
भाषा न बोले ।
संयमशील साधु या सा वी कसी पु ष आमं त करने पर भी वह न सूने तो उसे इस कार स बो धत करे –
हे अमुक ! हे आयु मन् ! ओ ावकजी ! हे उपासक ! धा मक ! या हे धम य ! इस कार क नरव यावत्
भूतोपघातर हत भाषा वचारपूवक बोले ।
साधु या सा वी कसी म हला को बुला रहे ह , ब त आवाझ दे ने पर भी वह न सूने तो उसे ऐसे नीच
स बोधन से स बो धत न करे– अरी होली ! अरी गोली ! अरी वृषली ! हे कुप े ! अरी घटदासी ! कु ी ! अरी चोरट !
हे गु तचरी ! अरी माया वनी ! अरी झूठ ! ऐसी ही तू है और ऐसे ही तेरे माता- पता ह ! वचारशील साधु -सा वी इस
कार क साव स य यावत् जीवोपघा तनी भाषा न बोले ।
साधु या सा वी कसी म हला को आमं त कर रहे ह , वह न सूने तो– आयु मती ! भवती, भगवती ! ा वके
उपा सके ! धा मके ! धम ये ! इस कार क नरव यावत् जीवोपघात-र हत भाषा वचारपूवक बोले।
सू – ४६९
साधु या सा वी इस कार न कहे क ‘ नभोदे व है, गज दे व है, या व ुतदे व है, वृ दे व है, या नवृ दे व है,
वषा बरसे तो अ या न बरसे तो अ ा, धा य उ प ह या न ह , रा सुशो भत हो या न हो, सूय उदय हो या न
हो, वह राजा जीते या न जीते ।’ साधु इस कार क भाषा न बोले । साधु या सा वी को कहने का संग उप त हो
तो आकाश को गु ानुच रत– कहे या दे व के गमनागमन करने का माग कहे । यह पयोधर जल दे नेवाला है, संमू म
जल बरसता है, या वह मेघ बरसता है, या बादल बरस चूका है, इस कार क भाषा बोले ।
यही उस साधु और सा वी क साधुता क सम ता है क वह ाना द अथ से तथा स म तय से यु होकर
सदा इसम य न करे । – ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-४ – उ े शक-२
सू - ४७०
संयमशील साधु या सा वी य प अनेक प को दे खते ह तथा प उ ह दे खकर इस कार न कहे । जैसे क
ग डी माला रोग से त या जसका पैर सूझ गया हो को ग डी, कु -रोग से पी ड़त को को ढ़या, यावत् मधुमेह से
पी ड़त रोगी को मधुमेही कहकर पुकारना, अथवा जसका हाथ कटा आ है उसे हाथकटा, पैरकटे को पैरकटा, नाक
कटा आ हो उसे नकटा, कान कट गया हो उसे कानकटा और ओठ कटा आ हो, उसे ओठकटा कहना । ये और
अ य जतने भी इस कार के ह , उ ह इस कार क भाषा से स बो धत करने पर वे ःखी या कु पत हो
जाते ह । अतः ऐसा वचार करके उन लोग को उ ह (जैसे ह वैसी) भाषा से स बो धत न करे।
साधु या सा वी य प कतने ही प को दे खते ह, तथा प वे उनके वषय म इस कार कह । जैसे क
ओज वी, तेज वी, वच वी, उपादे यवचनी या ल यु कह । जसक यशःक त फैली ई हो उसे यश वी, जो
पवान् हो उसे अ भ प, जो त प हो उसे त प, ासाद गुण से यु हो उसे ासाद य, जो दशनीय हो, उसे
दशनीय कहकर स बो धत करे । ये और जतने भी इस कार के अ य ह , उ ह इस कार क भाषा से
स बो धत करने पर वे कु पत नह होते । अतः इस कार नरव भाषा का वचार करके साधु-सा वी नद ष
भाषा बोले ।
साधु या सा वी य प क प को दे खते ह, जैसे क खेत क या रयाँ, खाइयाँ या नगर के चार ओर बनी
नहर, ाकार, नगर के मु य ार, अगलाएं, ग े, गुफाएं, कूटागार, ासाद, भू मगृह, वृ ागार, पवतगृह, चै य यु
वृ , चै ययु तूप, लोहा आ दके कारखाने, आयतन, दे वालय, सभा, याऊ, कान, मालगोदाम, यानगृह, धम-
शालाएं, चूने, दभ, व क के कारखाने, वन कमालय, कोयले, का आ द के कारखाने, मशान-गृह, शा त-कमगृह,

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 88


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
ग रगृह, गृहागृह, भवन आ द; इनके वषय म ऐसा न कहे; जैसे क यह अ ा बना है, भलीभाँ त तैयार कया गया
है, सु दर बना है, यह क याणकारी है, यह करने यो य है; इस कार क साव यावत् जीवोपघातक भाषा न बोले ।
साधु या सा वी य प क प को दे खते ह, जैसे क खेत क या रयाँ यावत् भवनगृह; तथा प इस कार
कह– जैसे क यह आर से बना है, साव कृत है, या यह य न-सा य है, इसी कार जो सादगुण से यु हो, उसे
ासाद य, जो दे खने यो य हो, उसे दशनीय, जो पवान हो उसे अ भ प, जो त प हो उसे त प कहे । इस
कार वचारपूवक असाव यावत् जीवोपघात से र हत भाषा का योग करे ।
सू - ४७१
साधु या सा वी अशना द चतु वध आहार को दे खकर भी इस कार न कहे जैसे क यह आहारा द पदाथ
अ ा बना है, या सु दर बना है, अ तरह तैयार कया गया है, या क याणकारी है और अव य करने यो य है । इस
कार क भाषा साधु या सा वी साव यावत् जीवोपघातक जानकर न बोले ।
इस कार कह सकते ह, जैसे क यह आहारा द पदाथ आर से बना है, साव कृत् है, य नसा य है या
भ है, उ कृ है, र सक है, या मनो है; इस कार असाव यावत् जीवोपघात र हत भाषा योग करे ।
वह साधु या सा वी प रपु शरीर वाले कसी मनु य, साँड़, भसे, मृग या पशु-प ी, सप या जलचर अथवा
कसी ाणी को दे खकर ऐसा न कहे क वह ूल है, इसके शरीर म ब त चब है, यह गोलमटोल है, यह वध या वहन
करने यो य है, यह पकाने यो य है । इस कार क साव यावत् जीवघातक भाषा का योग न करे ।
सू - ४७२
संयमशील साधु या सा वी प रपु शरीर वाले कसी मनु य, बैल, यावत् कसी भी वशालकाय ाणी को
दे खकर ऐसे कह सकता है क यह पु शरीर वाला है, उप चतकाय है, ढ़ संहनन वाला है, या इसके शरीर म र -माँस
सं चत हो गया है, इसक सभी इ याँ प रपूण ह । इस कार क असाव यावत् जीवोपघात से र हत भाषा बोले ।
साधु या सा वी नाना कार क गाय तथा गोजा त के पशु को दे खकर ऐसा न कहे क ये गाय हने यो य
ह अथवा इनको हने का समय हो रहा है, तथा यह बैल दमन करने यो य है, यह वृषभ छोटा है, या यह वहन करने
यो य है, यह रथ म जोतने यो य है, इस कार क साव यावत् जीवोपघातक भाषा का योग न करे ।
इस कार कह सकता है, जैसे क– यह वृषभ जवान है, यह गाय ौढ़ है, धा है, यह बैल बड़ा है, यह
संवहन यो य है । इस कार असाव यावत् जीवोपघात र हत भाषा का योग करे ।
संयमी साधु या सा वी कसी योजनवश क ह बगीच म, पवत पर या वन म जाकर वहाँ बड़े-बड़े वृ
को दे खकर ऐसे न कहे, क– यह वृ (काटकर) मकान आ द म लगाने यो य है, यह तोरण– नगर का मु य ार बनाने
यो य है, यह घर बनाने यो य है, यह फलक (त त) बनाने यो य है, इसक अगला बन सकती है, या नाव बन सकती
है, पानी क बड़ी कुंड़ी अथवा छोट नौका बन सकती है, अथवा यह वृ चौक का मयी पा ी, हल, कु लक, यं य
ना भ, का मय, अहरन, का का आसन आ द बनाने के यो य है अथवा का श या रथ आ द यान, उपा य आ द के
नमाण के यो य है । इस कार साव यावत् जीवोपघा तनी भाषा साधु न बोले । इस कार कह सकते ह क ये वृ
उ म जा त के ह, द घ ह, वृ ह, ये महालय ह, इनक शाखाएं फट गई ह, इनक शाखाएं र तक फैली ई ह, ये
वृ ासाद य ह, दशनीय ह, अ भ प ह, त प ह । इस कार क असाव यावत् जीवोपघात-र हत भाषा का
योग करे ।
साधु या सा वी चुर मा ा म लगे ए वन फल को दे खकर इस कार न कहे जैसे क– ये फल पक गए ह,
या पराल आ द म पकाकर खाने यो य ह, ये पक जाने से हण कालो चत फल ह, अभी ये फल ब त कोमल ह,
य क इनम अभी गुठली नह पड़ी है, ये फल तोड़ने यो य या दो टु कड़े करने यो य है । इस कार साव यावत्
जीवोपघा तनी भाषा न बोले । इस कार कह सकता है, जैसे क ये फल वाले वृ असंतृत ह, इनके फल ायः
न प हो चूके ह, ये वृ एक साथ ब त-सी फलो प वाले ह, या ये भूत प– कोमल फल ह । इस कार असाव

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 89


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
यावत् जीवोपघात-र हत भाषा वचारपूवक बोले ।
साधु या सा वी ब त मा ा म पैदा ई औष धय को दे खकर य न कहे, क ये पक गई ह, या ये अभी क ी
या हरी ह, ये छ व वाली ह, ये अब काटने यो य ह, ये भूनने या सेकने यो य ह, इनम ब त-सी खाने यो य ह। इस कार
साव यावत् जीवोपघा तनी भाषा साधु न बोले । इस कार कह सकता है, क इनम बीज अंकु रत हो गए ह, ये अब
जम गई ह, सु वक सत या न प ायः हो गई ह, या अब ये र हो गई ह, ये ऊपर उठ गई ह, ये भु , सर , या
बा लय से र हत ह, अब ये भु आ द से यु ह, या धा य-कणयु ह । साधु या सा वी इस कार नरव यावत्
जीवोपघात र हत भाषा बोले ।
सू - ४७३
साधु या सा वी क श द को सूनते ह, तथा प य न कहे, जैसे क– यह मांग लक श द है, या यह अमांग लक
श द है । इस कार क साव यावत् जीवोपघातक भाषा न बोले । कभी बोलना हो तो सुश द को ‘ यह सुश द है’
और ःश द को ‘ यह ःश द है’ ऐसी नरव यावत् जीवोपघातर हत भाषा बोले । इसी कार प के वषय म–
कृ ण को कृ ण, यावत् ेत को ेत कहे, ग के वषय म सुग को सुग और ग को ग कहे, रस के
वषय म त को त , यावत् मधुर को मधुर कहे, श के वषय म ककश को ककश यावत् उ ण को उ ण कहे ।
सू - ४७४
साधु या सा वी ोध, मान, माया और लोभ का वमन करके वचारपूवक न ाभासी हो, सून-समझकर बोले,
अ व रतभाषा एवं ववेकपूवक बोलने वाला हो और भाषास म त से यु संयत भाषा का योग करे ।
यही वा तव म साधु-सा वी के आचार का साम य है, जसम वह सभी ाना द अथ से यु होकर सदा
य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-४ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 90


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-५ – व ैषणा
उ े शक-१
सू - ४७५
साधु या सा वी व क गवेषणा करना चाहते ह, तो उ ह व के स ब म जानना चा हए । वे इस कार
ह– जांग मक, भां गक, सा नक, पो क, लो मक और तूलकृत । तथा इसी कार के अ य व को भी मु न हण कर
सकता है । जो न मु न त ण है, समय के उप व से र हत है, बलवान, रोगर हत और र संहनन है, वह एक ही
व धारण करे, सरा नह । जो सा वी है, वह चार संघा टका धारण करे– उसम एक, दो हाथ माण व तृत, दो तीन
हाथ माण और एक चार हाथ माण ल बी होनी चा हए । इस कार के व के न मलने पर वह एक व को
सरे के साथ सले ।
सू - ४७६
साधु-सा वी को व - हण करने के लए आधे योजन से आगे जाने का वचार करना नह चा हए ।
सू - ४७७
साधु या सा वी को य द व के स ब म ात हो जाए क कोई भावुक गृह धन के मम व से र हत
न साधु को दे ने क त ा करके कसी एक साध मक साधु का उ े य रखकर ाणी, भूत, जीव और स व का
समार करके यावत् ( प डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मलने पर भी न ले ।
तथा प डैषणा अ ययन म जैसे ब त-से साध मक साधु, एक साध मणी सा वी, ब त-सी साध मणी
सा वीयाँ, एवं ब त-से शा या द मण- ा ण आ द को गन- गन कर तथा ब त-से शा या द मण- ा णा द का
उ े य रखकर जैसे त आ द तथा पु षा तरकृत आ द वशेषण से यु आहार हण का नषेध कया गया है,
उसी कार यहाँ सारा वणन समझ लेना ।
सू - ४७८
साधु या सा वी य द कसी व के वषय म यह जान जाए क असंयमी गृह ने साधु के न म से उसे
खरीदा है, धोया है, रंगा है, घस कर साफ कया है, चकना या मुलायम बनाया है, सं का रत कया है, सुवा सत कया
है और ऐसा वह व अभी पु षा तरकृत यावत् दाता ारा आसे वत नह आ है, तो हण न करे । य द साधु या
सा वी यह जान जाए क वह व पु षा तरकृत यावत् आसे वत है तो मलने पर हण कर सकता है ।
सू - ४७९
साधु-सा वी य द ऐसे नाना कार के व को जाने, जो क महाधन से ा त होने वाले व ह, जैसे क–
आ जनक, ण, ण क याण, आजक, कायक, ौ मक कूल, प रेशम के व , मलयज के सूते से बने व ,
व कल त तु से न मत व , अंशक, चीनांशुक, दे शराग, अ मल, गजल, टक तथा अ य इसी कार के
ब मू य व ा त होने पर भी वचारशील साधु उ ह हण न करे । साधु या सा वी य द चम से न प ओढ़ने के
व जाने जैसे क औ , पेष, पेषलेश, वणरस म लपटे व , सोने कही का त वाले व , सोने के रस क प याँ
दये ए व , सोने के पु प गु से अं कत, सोने के तार से ज टत और वण च का से शत, ा चम,
चीते का चम, आभरण से म डत, आभरण से च त ये तथा अ य इसी कार के चम- न प व ा त होने पर
भी हण न करे ।
सू - ४८०
इन दोष के आयतन को छोड़कर चार तमा से व ैषणा करनी चा हए । पहली तमा– वह साधु या
सा वी मन म पहले संक प कये ए व क याचना करे, जैसे क– जांग मक, भां गक, सानज, पो क, ौ मक या
तूल न मत व , उस कार के व क वयं याचना करे अथवा गृह वयं दे तो ासुक और एषणीय होने पर
हण करे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 91


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सरी तमा– वह साधु या सा वी व को पहले दे खकर गृह- वामी यावत् नौकरानी आ द से उसक याचना
करे । आयु मन् गृह भाई ! अथवा बहन ! या तुम इन व म से कसी एक व को मुझे दोगे/दोगी ? इस कार
साधु या सा वी पहले वयं व क याचना करे अथवा वह गृह दे तो ासुक एवं एषणीय होने पर हण करे ।
तीसरी तमा– साधु या सा वी व के स ब म जाने, जैसे क– अ दर पहनने के यो य या ऊपर पहनने के
यो य । तदन तर इस कार के व क याचना करे या गृह उसे दे तो उस व को ासुक एवं एषणीय होने पर
मलने पर हण करे ।
चौथी तमा– वह साधु या सा वी उ झतधा मक व क याचना करे । जस व को ब त से अ य
शा या द भ ु यावत् भखारी लोग भी लेना न चाह, ऐसे व क याचना करे अथवा वह गृह वयं ही साधु को दे
तो उस व तु को ासुक और एषणीय जानकर हण कर ले । इन चार तमा के वषय म जैसे प डैषणा
अ ययन म वणन कया गया है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चा हए ।
कदा चत् इन (पूव ) व -एषणा से व क गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृह कहे क–
आयु मन् मण ! तुम इस समय जाओ, एक मास, या दस या पाँच रात के बाद अथवा कल या परस आना, तब हम
तु ह एक व दगे । ऐसा सूनकर दय म धारण करके वह साधु वचार कर पहले ही कह दे मेरे लए इस कार का
संकेतपूवक वचन वीकार करना क पनीय नह है । अगर मुझे व दे ना चाहते हो तो दे दो ।
उस साधु के इस कार कहने पर भी य द वह गृह य कहे क– आयु मन् मण ! अभी तुम जाओ । थोड़ी
दे र बाद आना, हम तु ह एक व दे दगे । इस पर वह पहले मन म वचार करके उस गृह से कहे मेरे लए इस
कार से संकेतपूवक वचन वीकार करना क पनीय नह है । अगर मुझे दे ना चाहते हो तो इसी समय दे दो ।
साधु के इस कार कहने पर य द वह गृह घर के कसी सद य को य कहे क ‘ वह व लाओ, हम उसे
मण को दगे । हम तो अपने नजी योजन के लए बाद म भी समार करके और उ े य करके यावत् और व
बनवा लगे । ऐसा सूनकर वचार करके उस कार के व को अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर हण न करे।
कदा चत् गृह वामी घर के कसी से य कहे क ‘ ‘ वह व लाओ, तो हम उसे नानीय पदाथ से,
च दन आ द उ तन से, लो से, वण से, चूण से या प आ द सुग त पदाथ से, एक बार या बार-बार घसकर
मण को दगे । ऐसा सूनकर एवं उस पर वचार करके वह साधु पहले से ही कह दे – तुम इस व को नानीय पदाथ
से यावत् प आ द सुग त से आघषण या घषण मत करो । य द मुझे वह व दे ना चाहते हो तो ऐसे ही दे
दो । साधु के ारा इस कार कहने पर भी वह गृह नानीय सुग त से एक बार या बार-बार घसकर उस
व को दे ने लगे तो उस कार के व को अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर भी हण न करे ।
कदा चत् गृहप त घर के कसी सद य से कहे क ‘ ‘ उस व को लाओ, हम उसे ासुक शीतल जल से या
ासुक उ ण जल से एक बार या क बार धोकर मण को दगे ।’ ’ इस कार क बात सूनकर एवं उस पर वचार
करके वह पहले ही दाता से कह दे – ‘ ‘ इस व को तुम ासुक शीतल जल से या ासुक उ ण जल से एक बार या क
बार मत धोओ । य द मुझे इसे दे ना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो । इस कार कहने पर भी य द वह गृह उस व को
ठ डे या गम जल से एक बार या क बार धोकर साधु को दे ने लगे तो वह उस कार के व को अ ासुक एवं
अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे ।
य द वह गृह अपने घर के कसी से य कहे क ‘ ‘ उस व को लाओ, हम उसम से क द यावत् हरी
नीकालकर साधु को दगे ।’ ’ इस कार क बात सूनकर, उस पर वचार करके वह पहले ही दाता से कह दे – ‘ ‘ इस व
म से क द यावत् हरी मत नीकालो, मेरे लए इस कार का व हण करना क पनीय नह है ।’ ’ साधु के ारा इस
कार कहने पर भी वह गृह क द यावत् हरी व तु को नीकाल कर दे ने लगे तो उस कार के व को अ ासुक एवं
अनैषणीय समझकर ा त होने पर भी हण न करे ।
कदा चत् वह गृह वामी व को दे , तो वह पहले ही वचार करके उससे कहे– तु हारे ही इस व को म

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 92


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ दर-बाहर चार ओर से भलीभाँ त दे खूँगा, य क केवली भगवान कहते ह– व को तलेखना कये बना लेना
कमब न का कारण है । कदा चत् उस व के सरे पर कुछ बँधा हो, कोई कु डल बँधा हो, या धागा, चाँद , सोना,
म णर न, यावत् र न क माला बँधी हो, या कोई ाणी, बीज या हरी वन त बँधी हो । इसी लए तीथकर आ द
आ तपु ष ने पहले से ही इस त ा, हेत,ु कारण और उपदे श का नदश कया है क साधु व हण से पहले ही
उस व क अ दर-बाहर चार ओर से तलेखना करे ।
सू - ४८१
साधु-सा वी य द ऐसे व को जाने जो क अंड से यावत् मकड़ी के जाल से यु ह तो उस कार के व
को अ ासुक एवं अनैषणीय मानकर ा त होने पर भी हण न करे । साधु या सा वी य द जाने के यह व अंड से
यावत् मकड़ी के जाल से तो र हत है, क तु अभी काय करने म असमथ है, अ र है, या जीण है, अ ुव है, धारण
करने के यो य नह है, तो उस कार के व को अ ासुक और अनैषणीय समझकर मलने पर भी हण न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसा व जाने, जो क अ ड से, यावत् मकड़ी के जाल से र हत है, साथ ही वह व
अभी काय करने म समथ, र, ुव, धारण करने यो य है, दाता क च को दे खकर साधु के लए भी क पनीय
हो तो उस कार के व को ासुक और एषणीय समझकर ा त होने पर साधु हण कर सकता है ।
‘ मेरा
व नया नह है ।’ ऐसा सोचकर साधु या सा वी उसे थोड़े व ब त सुग त से यावत् प राग से
आघ षत- घ षत न करे । ‘ मेरा व नूतन नह है, ’ इस अ भ ाय से साधु या सा वी उस म लन व को ब त बार
थोड़े-ब त शीतल या उ ण ासुक जल से एक बार या बार-बार ालन न करे । ‘ मेरा व ग त है’ य सोचकर
उसे ब त बार थोड़े-ब त सुग त आ द से आघ षत- घ षत न करे, न ही शीतल या उ ण ासुक जल से उसे
एक बार या बार-बार धोए । यह आलापक भी पूववत् है ।
सू - ४८२
संयमशील साधु या सा वी व को धूप म कम या अ धक सूखाना चाहे तो वह वैसे व को स च पृ वी
पर, न ध पृ वी पर, तथा ऊपर से स च म गरती हो, तथा ऐसी पृ वी पर, स च शला पर, स च म के
ढे ले पर, जसम धुन या द मक का नवास हो ऐसी जीवा ध त लकड़ी पर ाणी, अ डे, बीज, मकड़ी के जाले आ द
जीवज तु ह , ऐसे ान म थोड़ा अथवा अ धक न सूखाए ।
संयमशील साधु या सा वी व को धूप म कम या अ धक सूखाना चाहे तो वह उस कार के व को ठूँ ठ
पर, दरवाजे क दे हली पर, ऊखल पर, नान करने क चौक पर, इस कार के और भी भू म से ऊंचे ान पर जो
भलीभाँ त बंधा आ नह है, ठ क तरह से भू म पर गाड़ा आ या रखा आ नह है, न ल नह है, हवा से इधर-उधर
चल वचल हो रहा है, (वहाँ, व को) आताप या ताप न दे ।
साधु या सा वी य द व को धूप म थोड़ा या ब त सूखाना चाहते ह तो घर क द वार पर, नद के तट पर,
शला पर, रोड़े-प थर पर, या अ य कसी उस कार के अंतरी (उ ) ान पर जो क भलीभाँ त बंधा आ, या
जमीन पर गड़ा आ नह है, चंचल आ द है, यावत् थोड़ा या अ धक न सूखाए । य द साधु या सा वी व को धूप म
थोड़ा या अ धक सूखाना चाहते ह तो उस व को त पर, मंच पर, ऊपर क मं जल पर, महल पर, भवन के
भू मगृह म, अथवा इसी कार के अ य ऊंचे ान पर जो क ब , न त, कं पत एवं चलाचल हो, थोड़ा या
ब त न सूखाए ।
साधु उस व को लेकर एका त म जाए; वहाँ जाकर (दे खे क) जो भू म अ से द ध हो, यावत् वहाँ अ य
कोई उस कार क नरव अ च भू म हो, उस नद ष ं डलभू म का भलभाँ त तलेखन एवं माजन करके
त प ात् यतनापूवक उस व को थोड़ा या अ धक धूप म सूखाए ।
यही उस साधु या सा वी का स ूण आचार है, जसम सभी अथ एवं ाना द आचार से स हत होकर वह
सदा य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 93


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ययन-५ – उ े शक-२
सू - ४८३
साधु या सा वी व ैषणा स म त के अनुसार एषणीय व क याचना करे, और जैसे भी व मले और
लए ह , वैसे ही व को धारण करे, पर तु न उ ह धोए, न रंगे और न ही धोए ए तथा रंगे ए व को पहने । उन
साधारण-से व को न छपाते ए ाम- ामा तर म समतापूवक वचरण करे । यही व धारी साधु का सम है ।
वह साधु या सा वी, य द गृह के घर म आहार-पानी के लए जाना चाहे तो सम त कपड़े साथ म लेकर
उपा य से नीकले और गृह के घर म भ ा के लए वेश करे । इसी कार ब ती के बाहर वा यायभू म या
शौचाथ ं डलभू म म जाते समय एवं ामानु ाम वहार करते समय सभी व को साथ लेकर वचरण करे ।
य द वह यह जाने क र- र तक ती वषा होती दखाई दे रही है तो यावत् प डैषणा-समान सब आचरण
करे । अ तर इतना ही है क वहाँ सम त उप ध साथ म लेकर जाने का व ध- नषेध है, जब क यहाँ केवल सभी व
को लेकर जाने का व ध- नषेध है ।
सू - ४८४
कोई साधु मु आ द नयतकाल के लए कसी सरे साधु से ा तहा रक व क याचना करता है और
फर कसी सरे ाम आ द म एक दन, दो दन, तीन दन, चार दन अथवा पाँच दन तक नवास करके वापस
आता है । इस बीच यह व उपहत हो जाता है । लौटाने पर व का वामी उसे वा पस लेना वीकार नह करे,
लेकर सरे साधु को नह दे वे; कसी को उधार भी नह दे वे, उस व के बदले सरा व भी नह लेवे, सरे के पास
जाकर ऐसा भी नह कहे क– आयु मन् मण ! आप इस व को धारण करना चाहते ह, इसका उपभोग करना
चाहते ह ? उस ढ़ व के टु कड़े-टु कड़े करके प र ापन भी नह करे । क तु उस उपहत व का वामी उसी
उपहत करने वाले साधु को दे , पर तु वयं उसका उपभोग न करे ।
वह एकाक साधु इस कार क बात सूनकर उस पर मन म यह वचार करे क सबका क याण चाहने वाले
एवं भय का अ त करने वाले ये पू य मण उस कार के उपहत व को उन साधु से, जो क इनसे मु भर
आ द काल का उ े य करके ा तहा रक ले जाते ह, और एक दन से लेकर पाँच दन तक कसी ाम आ द म
नवास करके आते ह, न वयं हण करते ह, न पर र एक सरे को दे ते ह, यावत् न वे वयं उन व का उपयोग
करते ह । इस कार ब वचन का आलापक कहना चा हए । अतः म भी मु आ द का उ े श करके इनसे
ा तहा रक व माँगकर एक दन से लेकर पाँच दन तक ामा तर म ठहरकर वापस लौट आऊं, जससे यह व
मेरा हो जाएगा । ऐसा वचार करने वाला साधु माया ान का श करता है, अतः ऐसा वचार न करे ।
सू - ४८५
साधु या सा वी सु दर वण वाले व को ववण न करे, तथा ववण व को सु दर वण वाले न करे । ‘ म
सरा नया व ा त कर लूँगा’ , इस अ भ ाय से अपना पुराना व कसी सरे साधु को न दे और न कसी से
उधार व ले, और न ही व क पर र अदलाबदली करे । सरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे– आयु मन् मण
! या तुम मेरे व को धारण करना या पहनना चाहते हो ? इसके अ त र उस सु ढ़ व को टुकड़े-टु कड़े करके
फके नह , साधु उसी कार का व धारण करे, जसे गृह या अ य अमनो समझे ।
(वह साधु) माग म सामने आते ए चोर को दे खकर उस व क र ा के लए चोर से भयभीत होकर साधु
उ माग से न जाए अ पतु जीवन-मरण के त हष-शोक र हत, बा ले या से मु , एक वभाव म लीन होकर दे ह
और व ा द का ु सग करके समा धभाव म र रहे । इस कार संयमपूवक ामानु ाम वचरण करे ।
ामानु ाम वचरण करते ए साधु या सा वी के माग के बीच म अटवी वाला ल बा माग हो, और वह जाने
क इस अटवीब ल माग म ब त से चोर व छ नने के लए इक े होकर आते ह, तो साधु उनसे भयभीत होकर
उ माग से न जाए, क तु दे ह और व ा द के त अनास यावत् समा धभाव म र होकर संयमपूवक

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 94


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
ामानु ाम वचरण करे ।
ामानु ाम वचरण करते ए साधु या सा वी के माग म चोर इक े होकर व हरण करने के लए आ जाए
और कहे क आयु मन् मण ! यह व लाओ, हमारे हाथ म दे दो, या हमारे सामने रख दो, तो जैसे ईयाऽ- ययन म
वणन कया है, उसी कार करे । इतना वशेष है क यहाँ व का अ धकार है ।
यही व तुतः साधु-सा वी का स ूण ाना द आचार है । जसम सभी अथ म ाना द से स हत होकर सदा
य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-५ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 95


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-६ – पा ैषणा
उ े शक-१
सू - ४८६
संयमशील साधु या सा वी य द पा हण करना चाहे तो जन पा को जाने वे इस कार ह– तु बे का पा ,
लकड़ी का पा और म का पा । इन तीन कार के पा को साधु हण कर सकता है । जो न त णब ल
व और र-सहन वाला है, वह इस कार का एक ही पा रखे, सरा नह । वह साधु, सा वी अ योजन के
उपरांत पा लेने के लए जाने का मन म वचार न करे ।
साधु या सा वी को य द पा के स ब म यह ात हो जाए क कसी भावुक गृह ने धन के स ब से
र हत न साधु को दे ने क त ा ( वचार) करके कसी एक साध मक साधु के उ े य से समार करके पा
बनवाया है, यावत् ( प डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मलने पर भी न ले । जैसे यह सू एक साध मक साधु के
लए है, वैसे ही अनेक साध मक साधु , एक साध मणी सा वी एवं अनेक साध मणी सा वीय के स ब म शेष
तीन आलापक समझ लेने चा हए । और पाँचवा आलापक ( प डैषणा अ ययन म) जैसे ब त से शा या द मण,
ा ण आ द को गन गन कर दे ने के स ब म है, वैसे ही यहाँ भी समझ लेना चा हए ।
य द साधु-सा वी यह जाने के असंयमी गृह ने भ ु को दे ने क त ा करके ब त-से शा या द मण,
ा ण, आ द के उ े य से पा बनाया है उसका भी शेष वणन व ैषणा के आलापक के समान समझ लेना चा हए
साधु या सा वी य द यह जाने क नाना कार के महामू यवान पा ह, जैसे क लोहे के पा , रांगे के पा ,
तांबे के पा , सीसे के पा , चाँद के पा , सोने के पा , पीतल के पा , हारपुट धातु के पा , म ण, काँच और कांसे के
पा , शंख और स ग के पा , दाँत के पा , व के पा , प थर के पा , या चमड़े के पा , सरे भी इसी तरह के नाना
कार के महा-मू यवान पा को अ ासुक और अनैषणीय जानकर हण न करे ।
साधु या सा वी फर भी उन पा को जाने, जो नाना कार के महामू यवान ब न वाले ह, जैसे क वे लोहे
के ब न ह, यावत् चम-बंधन वाले ह, अथवा अ य इसी कार के महामू यवान ब न वाले ह, तो उ ह अ ासुक और
अनैषणीय जानकर हण न करे ।
इन पूव दोष के आयतन का प र याग करके पा हण करना चा हए ।
साधु को चार तमा पूवक पा ैषणा करनी चा हए । पहली तमा यह है क साधु या सा वी क पनीय पा
का नामो लेख करके उसक याचना करे, जैसे क तू बे का पा , या लकड़ी का पा या म का पा ; उस कार के
पा क वयं याचना करे, या फर वह वयं दे और वह ासुक और एषणीय हो तो ा त होने पर उसे हण करे ।
सरी तमा है– वह साधु या सा वी पा को दे खकर उनक याचना करे, जैसे क गृहप त यावत् कम-
चा रणी से । वह पा दे खकर पहले ही उसे कहे– या मुझे इनम से एक पा दोगे ? जैसे क तू बा, का या म का
पा । इस कार के पा क याचना करे, या गृह दे तो उसे ासुक एवं एषणीय जानकर ा त होने पर हण करे ।
तीसरी तमा इस कार है– वह साधु या सा वी य द ऐसा पा जाने क वह गृह के ारा उपभु है
अथवा उसम भोजन कया जा रहा है, ऐसे पा क पूववत् याचना करे अथवा वह गृह दे दे तो उसे ासुक एवं
एषणीय जानकर मलने पर हण करे ।
चौथी तमा यह है– वह साधु या सा वी कस उ झतधा मक पा क याचना करे, जसे अ य ब त-से
शा य भ ु, ा ण यावत् भखारी तक भी नह चाहते, उस कार के पा क पूववत् वयं याचना करे, अथवा वह
गृह वयं दे तो ासुक एवं एषणीय जानकर मलने पर हण करे । इन चार तमा म से कसी एक तमा का
हण...जैसे प डैषणा-अ ययन म वणन है, उसी कार जाने ।
साधु को इसके ारा पा -गवेषणा करते दे खकर य द कोई गृह कहे क ‘ ‘ अभी तो तुम जाओ, तुम एक
मास यावत् कल या परस तक आना. . .’ ’ शेष सारा वणन व ैषणा समान जानना । इसी कार य द कोई गृह कहे

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 96


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अभी तो तुम जाओ, थोड़ी दे र बाद आना, हम तु ह एक पा दगे, आ द शेष वणन भी व ैषणा तरह समझ लेना ।
कदा चत् कोई गृहनायक पा ा वेषी साधु को दे खकर अपने प रवार के कसी पु ष या ी को बुलाकर य
कहे ‘ वह पा लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या वसा चुपड़कर साधु को दगे. . . ’ शेष सारा वणन, इसी कार
नानीय पदाथ आ द से घसकर... इ या द वणन, तथैव शीतल ासुक जल, उ ण जल से या धोकर... आ द अव श
सम वणन, इसी कार कंदा द उसम से नीकाल कर साफ करके... इ या द सारा वणन भी व ैषणा समान समझ
लेना । वशेषता सफ यही है क व के बदले यहाँ ‘ पा ’ श द कहना चा हए ।
कदा चत् कोई गृहनायक साधु से इस कार कहे– ‘ ‘ आयु मन् मण ! आप मु पय त ठह रए । जब तक
हम अशन आ द चतु वध आहार जुटा लगे या तैयार कर लगे, तब हम आपको पानी और भोजन से भरकर पा दगे,
य क साधु को खाली पा दे ना अ ा और उ चत नह होता ।’ ’ इस पर साधु उस गृह से कह दे – ‘ ‘ मेरे लए
आधाकम आहार खाना या पीना क पनीय नह है । अतः तुम आहार क साम ी मत जुटाओ, आहार तैयार न करो ।
य द मुझे पा दे ना चाहते हो तो ऐसे खाली ही दे दो ।’ ’
साधु के इस कार कहने पर य द कोई गृह अशना द चतु वध आहार क साम ी जुटाकर अथवा आहार
तैयार करके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पा दे ने लगे तो उस कार के पा को अ ासुक और अनैषणीय
समझकर मलने पर हण न करे ।
कदा चत् कोई गृहनायक पा को सुसं कृत आ द कये बना ही लाकर साधु को दे ने लगे तो साधु वचार-
पूवक पहले ही उससे कहे– ‘ ‘ म तु हारे इस पा को अ दर-बाहर चार ओर से भलीभाँ त तलेखन क ँ गा, य क
तलेखन कये बना पा हण करना केवली भगवान न कमब का कारण बताया है । स व है उस पा म जीव-
ज तु ह , बीज ह या हरी आ द हो । अतः भ ु के लए तीथकर आ द आ तपु ष ने पहले से ही ऐसी त ा का
नदश कया है या ऐसा हेत,ु कारण और उपदे श दया है क साधु को पा हण करने से पूव ही उस पा को अ दर-
बाहर चार ओर से तलेखन कर लेना चा हए ।
अ ड यावत् मकड़ी के जाल से यु पा हण न करे...इ या द सारे आलापक व ैषणा के समान जान
लेने चा हए । वशेष यह क य द वह तेल, घी, नवनीत आ द न ध पदाथ लगाकर या नानीय पदाथ से रगड़कर
पा को नया व सु दर बनाना चाहे, इ या द वणन ‘ अ य उस कार क डलभू म का तलेखन- माजन करके
यतनापूवक पा को साफ करे यावत् धूप म सूखाए’ तक व ैषणा समान समझना ।
यही (पा ष
ै णा ववेक ही) व तुतः उस साधु या सा वी का सम आचार है, जसम वह ान आ द सव अथ
से यु होकर सदा य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-६ – उ े शक-२
सू - ४८७
गृह के घर म आहार-पानी के लए वेश करने से पूव ही साधु या सा वी अपने पा को भलीभाँ त दे खे,
उसम कोई ाणी हो तो उ ह नीकालकर एका त म छोड़ दे और धूल को प छकर झाड़ दे । त प ात् साधु अथवा
सा वी आहार-पानी के लए उपा य से बाहर नीकले या गृह के घर म वेश करे । केवली भगवान कहते ह– ऐसा
करना कमब का कारण है, य क पा के अ दर य आ द ाणी, बीज या रज आ द रह सकते ह, पा का
तलेखन– माजन कये बना उन जीव क वराधना हो सकती है । इसी लए तीथकर आ द आ त-पु ष ने
साधु के लए पहले से ही इस कार क त ा, यह हेत,ु कारण और उपदे श दया है क आहार-पानी के लए
जाने से पूव साधु पा का स यक् नरी ण करके कोई ाणी हो तो उसे नीकाल कर एका त म छोड़ दे , रज आ द को
प छकर झाड़ दे और तब यतनापूवक से नीकले और गृह के घर म वेश करे ।
सू - ४८८
साधु या सा वी गृह के यहाँ आहार-पानी के लए गये ह और गृह घर के भीतर से अपने पा म स च

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 97


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
जल लाकर साधु को दे ने लगे, तो साधु उस कार के पर-ह तगत एवं पर-पा गत शीतल जल को अ ासुक और
अनैषणीय जानकर अपने पा म हण न करे । कदा चत् असावधानी से वह जल ले लया हो तो शी दाता के जल
पा म उड़ेल दे । य द गृह उस पानी को वापस न ले तो कसी न ध भू म म या अ य कसी यो य ान म उस
जल का व धपूवक प र ापन कर दे । उस जल से न ध पा को एका त नद ष ान म रख दे ।
वह साधु या सा वी जल से आ और न ध पा को जब तक उसम से बूँद टपकती रह, और वह गीला रहे,
तब तक न तो प छे और न ही धूप म सूखाए । जब वह यह जान ले क मेरा पा अब नगतजल और नेह-र हत हो
गया है, तब वह उस कार के पा को यतनापूवक प छ सकता है और धूप म सूखा सकता है ।
साधु या सा वी गृह के यहाँ आहारा द लेने के लए वेश करना चाहे तो अपने पा साथ लेकर वहाँ
आहारा द के लए वेश करे या उपा य से नीकले । इसी कार वपा लेकर व ती से बाहर वा याय भू म या
शौचाथ डलभू म को जाए, अथवा ामानु ाम वहार करे । ती वषा र- र तक हो रही हो यावत् तीरछे उड़ने
वाले स ाणी एक त हो कर गर रहे ह , इ या द प र तय म व ैषणा के नषेधादे श समान समझना। वशेष
इतना ही है क वहाँ सभी व को साथ म लेकर जाने का नषेध है, जब क यहाँ अपने सब पा लेकर जाने का
नषेध है ।
यही साधु-सा वी का सम आचार है, जसके प रपालन के लए येक साधु-सा वी को ाना द सभी अथ
म य नशील रहना चा हए । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-६ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 98


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-७ – अव ह तमा
उ े शक-१
सू - ४८९
मु नद ा लेते समय साधु त ा करता है– ‘ ‘ अब म मण बन जाऊंगा । अनगार, अ कचन, अपु , अपशु,
एवं परद भोजी होकर म अब कोई भी हसा द पापकम नह क ँ गा ।’ ’ इस कार संयम पालन के लए उ त
होकर (कहता है– ) ‘ भ ते ! म आज सम त कार के अद ादान का या यान करता ँ ।’
वह साधु ाम यावत् राजधानी म व होकर वयं बना दये ए पदाथ को हण न करे, न सर से हण
कराए और न अद हण करने वाले का अनुमोदन-समथन करे ।
जन साधु के साथ या जनके पास वह जत आ है, या वचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी
छ क, दं ड, पा क यावत् चम े दनक आ द उपकरण क पहले उनसे अव ह-अनु ा लये बना तथा तलेखन -
माजन कये बना एक या अनेक बार हण न करे । अ पतु उनसे पहले अव ह-अनु ा लेकर, प ात् उसका
तलेखन- माजन करके फर संयमपूवक उस व तु को एक या अनेक बार हण करे ।
सू - ४९०
साधु प थकशाला , आरामगृह , गृह के घर और प र ाजक के आवास म जाकर पहले साधु के
आवास यो य े भलीभाँ त दे ख-सोचकर अव ह क याचना करे । उस े या ान का जो वामी हो, या जो वहाँ
का अ ध ाता हो उससे इस कार अव ह क अनु ा माँगे ‘ ‘ आपक ई ानुसार– जतने समय तक रहने क तथा
जतने े म नवास करने क तुम आ ा दोगे, उतने समय तक, उतने े म हम नवास करगे । यहाँ जतने समय
तक आप क अनु ा है, उतनी अव ध तक जतने भी अ य साधु आएंगे, उनके लए भी जतने े -काल क
अव हानु ा हण करगे वे भी उतने ही समय तक उतने ही े म ठहरगे, प ात् वे और हम वहार कर दगे ।
अव ह के अनु ापूवक हण कर लेने पर फर वह साधु या करे ? वहाँ कोई साध मक, सा ो गक एवं
समनो साधु अ त थ प म आ जाए तो वह साधु वयं अपने ारा गवेषणा करके लाये ए अशना द चतु वध
आहार को उन साध मक, सांभो गक एवं समनो साधु को उप नमं त करे, क तु अ य साधु ारा या अ य
णा द साधु के लए लाये आहारा द को लेकर उ ह उप नमं त न करे ।
सू - ४९१
प थकशाला आ द अव ह को अनु ापूवक हण कर लेने पर, फर वह साधु या करे ? य द वहाँ अ य
सा ो गक, साध मक एवं समनो साधु अ त थ प म आ जाए तो जो वयं गवेषणा करके लाए ए पीठ, फलक,
श यासं तारक आ द ह , उ ह उन व तु के लए आमं त कर, क तु जो सरे के ारा या णा द अ य साधु के
लए लाये ए पीठ, फलक आ द ह , उनके लए आमं त न करे ।
उस धमशाला आ द को अव हपूवक हण कर लेने के बाद साधु या करे ? जो वहाँ आसपास म गृह या
गृह के पु आ द ह, उनसे कायवश सूई, कची, कानकुरेदनी, नहरनी-आ द अपने वयं के लए कोई साधु
ा तहा रक प से याचना करके लाया हो तो वह उन चीज को पर र एक सरे साधु को न दे -ले । अथवा वह सरे
साधु को वे चीज न स पे । उन व तु का यथायो य काय हो जाने पर वह उन ा तहा रक चीज को लेकर उस
गृह के यहाँ जाए और ल बा हाथ करके उन चीज को भू म पर रखकर गृह से कहे– यह तु हारा अमुक पदाथ है,
यह अमुक है, इसे संभाल लो, दे ख लो । पर तु उन सूई आ द व तु को साधु अपने हाथ से गृह के हाथ पर रख
कर न स पे ।
सू - ४९२
साधु या सा वी य द ऐसे अव ह को जाने, जो स च , न ध पृ वी यावत्, जीव-ज तु आ द से यु हो, तो
इस कार के ान क अव ह-अनु ा एक बार या अनेक बार हण न करे । साधु या सा वी य द ऐसे अव ह को

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 99


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
जाने, जो भू म से ब त ऊंचा हो, ठूँ ठ, दे हली, खूँट , ऊखल, मूसल आ द पर टकाया आ एवं ठ क तरह से बंधा आ
या गड़ा या रखा आ न हो, अ र और चल- वचल हो, तो ऐसे ान क भी अव ह-अनु ा एक या अनेक बार
हण न करे ।
ऐसे अव ह को जाने, जो घर क क ी पतली द वार पर या नद के तट या बाहर क भ त, शला या प थर
के टु कड़ पर या अ य कसी ऊंचे व वषम ान पर न मत हो, तथा ब , न त, अ र और चल- वचल हो
तो ऐसे ान क भी अव ह-अनु ा हण न करे । ऐसे अव ह को जाने जो, त , मचान, ऊपर क मं जल, ासाद
या तलघर म त हो या उस कार के कसी उ ान पर हो तो ऐसे ब यावत् चल- वचल ान क अव ह-
अनु ा हण न करे ।
य द ऐसे अव ह को जाने, जो गृह से संस हो, अ न और जल से यु हो, जसम याँ, छोटे ब े
अथवा ु रहते ह , जो पशु और उनके यो य खा -साम ी से भरा हो, ावान साधु के लए ऐसा आवास ान
नगमन- वेश, वाचना यावत् धमानुयोग- च तन के यो य नह है । ऐसा जानकर उस कार के उपा य क अव ह-
अनु ा हण नह करनी चा हए । जस अव ह को जाने क उसम जाने का माग गृह के घर के बीच बीच से है या
गृह के घर से बलकुल सटा आ है तो ावान साधु को ऐसे ान म नीकलना और वेश करना तथा वाचन
यावत् धमानुयोग- च तन करना उ चत नह है, ऐसा जानकर उस कार के उपा य क अव ह-अनु ा हण नह
करनी चा हए ।
ऐसे अव ह को जाने, जसम गृह वामी यावत् उसक नौकरा नयाँ पर र एक सरे पर आ ोश करती ह ,
लड़ती-झगड़ती ह तथा पर र एक सरे के शरीर पर तेल, घी आ द लगाते ह , इसी कार नाना द, जल से
गा सचन आ द करते ह या न न त ह इ या द वणन श याऽ ययन के आलापक क तरह यहाँ समझ लेना
चा हए । इतना ही वशेष है क वहाँ यह वणन श या के वषय म है, यहाँ अव ह के वषय म है ।
साधु या सा वी ऐसे अव ह- ान को जाने, जसम अ ील च आ द अं कत या आक ण ह , ऐसा
उपा य ावान साधु के नगमन- वेश तथा वाचना से धमानुयोग च तन के यो य नह है । ऐसे उपा य क
अव ह-अनु ा एक या अ धक बार हण नह करनी चा हए । यही वा तव म साधु या सा वी का सम सव व है,
जसे सभी योजनो एवं ाना द से यु , एवं स म तय से स मत होकर पालन करने के लए वह सदा य नशील ह।
– ऐसा म कहता ँ ।
अ ययन-७ – उ े शक-२
सू - ४९३
साधु धमशाला आ द ान म जाकर, ठहरने के ान को दे खभाल कर वचारपूवक अव ह क याचना
करे । वह अव ह क अनु ा माँगते ए उ ान के वामी या अ ध ाता से कहे क आपक ई ानुसार– जतने
समय तक और जतने े म नवास करने क आप हम अनु ा दगे, उतने समय तक और उतने ही े म हम ठहरगे
। हमारे जतने भी साध मक साधु यहाँ आएंग,े उनके नवास के लए भी जतने काल और जतने े तक इस ान
म ठहरने क आपक अनु ा होगी, उतने काल और े म वे ठहरगे । नयत अव ध के प ात् वे और हम यहाँ से
वहार कर दगे ।
उ ान के अव ह क अनु ा ा त हो जाने पर साधु उसम नवास करते समय या करे ? वहाँ (ठहरे
ए) शा या द मण या ा ण के द ड, छ , यावत् चम े दनक आ द उपकरण पड़े ह , उ ह वह भीतर से बाहर
न नीकाले और न ही बाहर से अ दर रखे, तथा कसी सोए ए मण या ा ण को न जगाए । उनके साथ क चत्
मा भी अ ी तजनक या तकूल वहार न करे, जससे उनके दय को आघात प ँचे ।
सू - ४९४
वह साधु या सा वी आम के वन म ठहरना चाहे तो उस आ वन का जो वामी या अ ध ाता हो, उससे

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 100


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अव ह क अनु ा ा त करे उतने समय तक, उतने नयत े म आ वन म ठहरगे, इसी बीच हमारे समागत
साध मक भी इसी का अनुसरण करगे । अव ध पूण होने के प ात् यहाँ से वहार कर जाएंगे ।
उस आ वन म अव हानु ा हण करके ठहरने पर या करे ? य द साधु आम खाना या उसका रस पीना
चाहता है, तो वहाँ के आम य द अ ड यावत् मकड़ी के जल से यु दे खे-जाने तो उस कार के आ फल को
अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर हण न करे ।
य द साधु या सा वी उस आ वन के आम को ऐसे जाने क वे ह तो अ ड यावत् मकड़ी के जाल से र हत,
क तु वे तीरछे कटे ए नह है, न ख डत ह तो उ ह अ ासुक एवं अनैषणीय मानकर ा त होने पर भी हण न करे
। य द साधु या सा वी यह जाने क आम अ ड यावत् मकड़ी के जाल से र हत ह, साथ ही तीरछे कटे ए ह और
ख डत ह, तो उ ह ासुक और एषणीय जानकर ा त होने पर हण करे ।
य द साधु या सा वी आम का आधा भाग, आम क पेशी, आम क छाल या आम का ग र, आम का रस, या
आम के बारीक टु कड़े खाना-पीना चाहे, क तु वह यह जाने क वह आम का अध भाग यावत् आम के बारीक टु कड़े
अंड यावत् मकड़ी के जाल से यु ह तो उ ह अ ासुक एवं अनैषणीय मानकर ा त होने पर भी हण न करे ।
य द साधु या सा वी यह जाने क आम का आधा भाग यावत् आम के छोटे बारीक टु कड़े अंड यावत् मकड़ी
के जाल से तो र हत ह, क तुं वे तीरछे कटे ए नह ह, और न ही ख डत ह तो उ ह भी अ ासुक एवं अनैषणीय
जानकर हण न करे ।
य द साधु या सा वी यह जान ले क आम क आधी फाँक से लेकर आम के छोटे बारीक टुकड़े तक अंड
यावत् मकड़ी के जाल से र हत ह, तीरछे कटे ए भी ह और ख डत भी ह तो उसको ासुक एवं एषणीय मानकर
ा त होने पर हण कर ले ।
वह साधु या सा वी य द इ ुवन म ठहरना चाहे तो जो वहाँ का वामी या उसके ारा नयु अ धकारी हो,
उससे े -काल क सीमा खोलकर अव ह क अनु ा हण करके वहाँ नवास करे । उस इ ुवन क अव -हानु ा
हण करने से या योजन ? य द वहाँ रहते ए साधु कदा चत् ईख खाना या उसका रस पीना चाहे तो पहले यह
जान ले क वे ईख अंड यावत् मकड़ी के जाल से यु तो नह है ? य द वैसे ह तो साधु उ ह अ ासुक अनैषणीय
जानकर छोड़ दे । य द वे अंड यावत् मकड़ी के जाल से यु तो नह ह, क तु तीरछे कटे ए या टुकड़े-टु कड़े कये
ए नह है, तब भी उ ह पूववत् जानकर न ले । य द साधु को यह ती त हो जाए क वे ईख अंड यावत् मकड़ी के
जाल से र हत ह, तीरछे कटे ए तथा टु कड़े-टुकड़े कये ए ह तो उ ह ासुक एवं एषणीय जानकर ा त होने पर
वह ले सकता है । यह सारा वणन आ वन क तरह समझना चा हए ।
य द साधु या सा वी ईख के पव का म यभाग, ईख क गँड़ेरी, ईख का छलका या ईख के अ दर का गभ,
ईख क छाल या रस, ईख के छोटे -छोटे बारीक टुकड़े, खाना या पीना चाहे व पहले वह जान जाए क वह ईख के पव
का म यभाग यावत् ईख के छोटे -छोटे बारीक टु कड़े अ ड यावत् मकड़ी के जाल से यु ह, तो उस कार के उन
इ -ु अवयव को अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर हण न करे । साधु सा वी य द यह जाने क वह ईख के पव का
म यभाग यावत् ईख के छोटे -छोटे कोमल टु कड़े अ ड यावत् मकड़ी के जाल से तो र हत ह, क तु तीरछे कटे ए
नह है, तो उ ह पूववत् जानकर हण न करे, य द वे इ -ु अवयव अ ड यावत् मकड़ी के जाल से र हत ह तथा
तीरछे कटे ए भी ह तो उ ह ासुक एवं एषणीय जानकर मलने पर वह हण कर सकता है ।
य द साधु या सा वी ( कसी कारणवश) लहसून के वन पर ठहरना चाहे तो पूव व ध से अव हानु ा
हण करके रहे । कसी कारणवश लहसून खाना चाहे तो पूव सू वत् पूव व धवत् हण कर सकता है । इसके
तीन आलापक पूव सू वत् समझना ।
य द साधु या सा वी ( कसी कारणवश) लहसून, लहसून का कंद, लहसून क छाल या छलका या रस
अथवा लहसून के गभ का आवरण खाना-पीना चाहे और उसे ात हो जाए क यह लहसून यावत् लहसून का बीज

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 101


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
अ ड यावत् मकड़ी के जाल से यु है, यावत् मकड़ी के जाल से र हत है, क तु तीरछा कटा आ नह तो भी उसे
न ले, य द तीरछा कटा आ हो तो पूववत् ासुक एवं एषणीय जानकर मलने पर ले सकता है ।
सू - ४९५
साधु या सा वी प थकशाला आ द ान म पूव व धपूवक अव ह क अनु ा हण करके रहे । पूव
अ ी तजनक तकूल काय न करे तथा व वध अव ह प ान क याचना भी व धपूवक करे । अव-गृहीत
ान म गृह तथा गृह पु आ द के संसग से स ब त ानदोष का प र याग करके नवास करे ।
भ ु इन सात तमा के मा यम से अव ह हण करना जाने–
पहली तमा यह है– वह साधु प थकशाला आ द ान का स यक् वचार करके अव ह क पूववत्
व धपूवक े -काल क सीमा के ीकरण स हत याचना करे । इसका वणन ान क नयत अव ध पूण होने के
प ात् वहार कर दगे तक समझना ।
सरी तमा यह है– जस भ ु का इस कार का अ भ ह होता है क म अ य भ ु के योजनाथ
अव ह क याचना क ँ गा और अ य भ ु के ारा या चत अव ह- ान म नवास क ँ गा । तृतीय तीमा य है–
जस भ ु का इस कार का अ भ ह होता है क म सरे भ ु के लए अव ह-याचना क ँ गा, पर तु सरे
भ ु के ारा या चत अव ह ान म नह ठह ँ गा ।
चौथी तमा यह है– जस भ ु के ऐसी त ा होती है क म सरे भ ु के लए अव ह याचना नह
क ँ गा क तु सरे ारा या चत अव ह ान म नवास क ँ गा । पाँचवी तमा यह है– जस भ ु को ऐसी त ा
होती है क म अपने योजन के लए ही अव ह क याचना क ँ गा, क तु सरे दो, तीन, चार और पाँच साधु के
लए नह ।
छठ तमा य है– जो साधु जसके अव ह क याचना करता है उसी अवगृहीत ान म पहले से ही रखा
आ श या-सं तारक मल जाए, जैसे क इ कड़ यावत् पराल आ द; तभी नवास करता है । वैसे श या-सं तारक न
मले तो उ कटु क अथवा नष ा-आसन ारा रा तीत करता है ।
सातवी तमा इस कार है– भ ुने जस ान क अव ह-अनु ा ली हो, य द उसी ान पर पृ वी- शला,
का शला तथा पराल आ द बछा आ ा त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज सं तृत पृ वी शला आ द न मले तो
वह उ कटुक या नष ा-आसन पूवक बैठकर रा तीत कर दे ता है । इन सात तमा म से जो साधु कसी
तमा को वीकार करता है, वह इस कार न कहे– म उ ाचारी ँ, सरे श थलाचारी ह, इ या द शेष सम त वणन
प डैषणा म कए गए वणन के अनुसार जान लेना ।
सू - ४९६
हे आयु मन् श य ! मने उन भगवान से इस कार कहते ए सूना है क इस जन वचन म वर भगवंत
ने पाँच कार का अव ह बताया है, दे वे -अव ह, राजाव ह, गृहप त-अव ह, सागा रक-अव ह और साध मक
अव ह । यही उस भ ु या भ ुणी का सम आचार है, जसके लए वह अपने सभी ाना द आचार एवं स म तय
स हत सदा य नशील रहे ।
अ ययन-७का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

थमा चू लका का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 102


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

[चू लका– २]
अ ययन-८ (१) – ानस तका
सू - ४९७
साधु या सा वी य द कसी ान म ठहरना चाहे तो तो वह पहले ाम, नगर यावत् स वेश म प च
ँ े । वहाँ
प च
ँ कर वह जस ान को जाने क यह अंड यावत् मकड़ी के जाल से यु है, तो उस कार के ान को
अ ासुक एवं अनैषणीय जानकर मलने पर भी हण न करे । इसी कार यहाँ से उदक सूत कंदा द तक का
ानैषणा स ब ी वणन श यैषणा म न पत वणन के समान जान लेना ।
इन पूव तथा व यमाण कम पादान प दोष ान को छोड़कर साधु इन (आगे कही जाने वाली) चार
तमा का आ य लेकर कसी ान म ठहरने क ई ा करे–
थम तमा है– म अपने कायो सग के समय अ च ान म नवास क ँ गा, अ च द वार आ द का शरीर
से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आ द सकोड़ने-फैलाने के लए प र दन आ द क ँ गा, तथा वह थोड़ा-सा स वचार
पैर आ द से वचरण क ँ गा ।
सरी तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म र ँगा और अ च द वार आ द का शरीर से सहारा
लूँगा तथा हाथ-पैर आ द सकोड़ने-फैलाने के लए प र दन आ द क ँ गा, क तु पैर आ द से थोड़ा-सा भी
वचरण नह क ँ गा ।
तृतीय तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म र ँगा, अ च द वार आ द का शरीर से सहारा लूँगा,
क तु हाथ-पैर आ द का संकोचन- सारण एवं पैर से मया दत भू म म जरा-सा भी मण नह क ँ गा ।
चौथी तमा है– म कायो सग के समय अ च ान म त र ँगा । उस समय न तो शरीर से द वार आ द
का सहारा लूँगा, न हाथ-पैर आ द का संकोचन- सारण क ँ गा और न ही पैर से मया दत भू म म जरा-सा भी मण
क ँ गा । म कायो सग पूण होने तक अपने शरीर के त भी मम व का ु सग करता ँ । केश, दाढ़ , मूँछ, रोम और
नख आ द के त भी मम व वसजन करता ँ और कायो सग ारा स यक् कार से काया का नरोध करके इस
ान म त र ँगा ।
साधु इन चार तमा से कसी एक तमा को हण करके वचरण करे । पर तु तमा हण न करने
वाले अ य मु न क नदा न करे, न अपनी उ कृ ता क ड ग हाँके । इस कार क कोई भी बात न कहे ।

अ ययन-८ (१) का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 103


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-९ – नषी धका-स तका-२


सू - ४९८
जो साधु या सा वी ासुक- नद ष वा याय-भू म म जाना चाहे, वह य द ऐसी वा याय-भू म को जाने, जो
अ ड , जीव-ज तु यावत् मकड़ी के जाल से यु हो तो उस कार क नषी धका को अ ासुक एवं अनैषणीय
समझकर मलने पर कहे क म इसका उपयोग नह क ँ गा । जो साधु या सा वी य द ऐसी वा याय-भू म को जाने,
जो अंड , ा णय , बीज यावत् मकड़ी के जाल से यु न हो, तो उस कार क नषी धका को ासुक एवं एषणीय
समझकर ा त होने पर कहे क म इसका उपयोग क ँ गा । नषी धका के स ब म यहाँ से लेकर उदक- सूत तक
का सम वणन श या अ ययन अनुसार जानना ।
य द वा यायभू म म दो-दो, तीन-तीन, चार-चार या पाँच-पाँच के समूह म एक त होकर साधु जाना चाहते
ह तो वे वहाँ जाकर एक सरे के शरीर का पर र आ लगन न कर, न ही व वध कार से एक सरे से चपट, न वे
पर र चु बन कर, न ही दाँत और नख से एक सरे का छे दन कर । यही उस भ ु या भ ुणी का आचार सव व
है; जसके लए वह सभी योजन , आचार से तथा स म तय से यु होकर सदा य नशील रहे और इसी को अपने
लए ेय कर माने । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-९ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 104


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-१० – उ ार वण-स तका-३


सू - ४९९
साधु या सा वी को मल-मू क बल बाधा होने पर अपने पादपु छनक के अभाव म साध मक साधु से
उसक याचना करे ।
साधु या सा वी ऐसी डल भू म को जाने, जो क अ ड यावत् मकड़ी के जाल से यु है, तो उस कार
के डल पर मल-मू वसजन न करे । साधु या सा वी ऐसे डल को जाने, जो ाणी, बीज, यावत् मकड़ी के
जाल से र हत ह, तो उस कार के डल पर मल-मू वसजन कर सकता है ।
साधु या सा वी यह जाने क कसी भावुक गृह ने न न प र ही साधु को दे ने क त ा से एक
साध मक साधु के उ े य से, या ब त से साध मक साधु के उ े य से, अथवा एक साध मणी सा वी के उ े य से
या ब त-सी साध मणी सा वी के उ े य से डल, अथवा ब त-से मण ा ण, अ त थ, द र या भखा रय
को गन- गनकर उनके उ े य से समार करके डल बनाया है तो इस कार का डल पु षा तरकृत हो या
अपु षा तरकृत, यावत् बाहर नीकाला आ हो, अथवा अ य कसी उस कार के दोष से यु डल हो तो वहाँ
पर मल-मू वसजन न करे ।
य द ऐसे डल को जाने, जो कसी गृह ने ब त-से शा या द मण, ा ण, द र , भखारी या
अ त थय के उ े य से समार करके औ े शक दोषयु बनाया है, तो उस कार के अपु षा तरकृत यावत् काम
म नह लया गया हो तो उस म या अ य कसी एषणा द दोष से यु डल म मल-मू वसजन न करे ।
य द वह यह जान ले क पूव डल पु षा तरकृत यावत् अ य लोग ारा उपभु है, और अ य उस
कार के दोष से र हत डल है तो साधु या सा वी उस पर मल-मू वसजन कर सकते ह ।
य द इस कार का डल जाने, जो न साधु को दे ने क त ा से कसी ने बनाया है, बनवाया है
या उधार लया है, छ पर छाया है या छत ड़ाली है, उसे घसकर सम कया है, कोमल, या चकना बना दया है, उसे
लीपापोता है, संवारा है, धूप आ द से सुग त कया है, अथवा अ य भी इस कार के आर -समार करके उसे
तैयार कया है तो उस कार के डल पर वह मल-मू वसजन न करे ।
सू - ५००
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जान क गृहप त या उसके पु क द, मूल यावत् हरी जसके अंदर से
बाहर ले जा रहे ह, या बाहर से भीतर ले जा रहे ह, अथवा उस कार क क ह स च व तु को इधर-उधर कर रहे
ह, तो वहाँ साधु-सा वी मल-मू वसजन न करे । ऐसे डल को जाने, जो क क पर, चौक पर, मचान पर,
ऊपर क मं जल पर, अटारी पर या महल पर या अ य कसी वषम या ऊंचे ान पर बना आ है तो वहाँ वह मल-
मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी ऐसे डल को जाने, जो क स च पृ वी पर, न ध पृ वी पर, स च रज से ल त या
संसृ पृ वी पर स च म से बनाई ई जगह पर, स च शला पर, स च प थर के टु कड़ पर, घुन लगे ए का
पर या द मक आ द या द जीव से अ ध त का पर या मकड़ी के जाल से यु है तो वहाँ मल-मू वसजन
न करे । य द ऐसे डल के स ब म जाने क यहाँ पर गृह या गृह के पु ने कंद, मूल यावत् बीज आ द
इधर-उधर फके ह या फक रहे ह, अथवा फैकगे, तो ऐसे अथवा इसी कार के अ य कसी दोषयु डल म मल-
मू ा द का याग न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसे डल के स ब म जाने क यहाँ पर गृह या गृह के पु ने शाली, ी ह, मूँग,
उड़द, तल, कुल , जौ और वार आ द बोए ए ह, बो रहे ह या बोएंग,े ऐसे अथवा अ य इसी कार के बीज बोए
डल म मल-मू ा द का वसजन न करे । य द ऐसे डल को जाने, जहाँ कचरे के ढे र ह , भू म फट ई या पोली
हो, भू म पर रेखाएं पड़ी ई ह , क चड़ ह , ठूँ ठ अथवा खीले गाड़े ए ह , कले क द वार या ाकार आ द हो, सम-

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 105


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
वषम ान ह , ऐसे अथवा अ य इसी कार के ऊबड़-खाबड़ डल पर मल-मू न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जाने, जहाँ मनु य के भोजन पकाने के चू हे आ द सामान रखे ह ,
तथा भस, बैल, घोड़ा, मूगा या कु ा, लावक प ी, बतक, तीतर, कबूतर, कप जल आ द के आ य ान ह , ऐसे
तथा अ य इसी कार के कसी पशु-प ी के आ य ान ह , तो इस कार के डल म मल-मू वसजन न करे
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जाने, जहाँ फाँसी पर लटकने के ान ह , गृ पृ मरण के– ान ह ,
वृ पर से गरकर या पवत से झंपापात करके मरने के ान ह , वषभ ण करने के या दौड़कर आग म गरने के
ान ह , ऐसे और अ य इसी कार के मृ युद ड दे ने या आ मह या करने के ान वाले डल ह तो वहाँ मल-
मू वसजन न करे । य द ऐसे डल को जाने, जैसे क बगीचा, उ ान, वन, वनख ड, दे वकुल, सभा या याऊ,
अथवा अ य इसी कार का प व या रमणीय ान हो, तो वहाँ वह मल-मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी ऐसे कसी डल को जाने, जैस–े कोट क अटारी ह , कले और नगर के बीच म माग ह ,
ार ह , नगर के मु य ार ह , ऐसे तथा अ य इसी कार के सावज नक आवागमन के ल ह , तो ऐसे डल म
मल-मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जाने, जहाँ तराहे ह , चौक ह , चौह े या चौराहे ह , चतुमुख ान ह ,
ऐसे तथा अ य इसी कार के सावज नक जनपथ ह , ऐसे डल म मल-मू वसजन न करे ।
ऐसे डल को जाने, जहाँ लक ड़याँ जलाकर कोयले बनाए जाते ह , जो का ा द जलाकर राख बनाने के
ान ह , मुद जलाने के ान ह , मृतक के तूप ह , मृतक के चै य ह , ऐसा तथा इसी कार का कोई डल हो,
तो वहाँ पर मल-मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जाने, जो क नद तट पर बने तीथ ान हो, पंकब ल आयतन हो,
प व जल वाह वाले ान ह , जल सचन करने के माग ह , ऐसे तथा अ य इसी कार के जो डल ह , उन पर
मल-मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी ऐसे डल को जाने, जो क म क नई खान ह , नई गोचर भू म ह , सामा य गाय के
चारागाह ह , खान ह , अथवा अ य उसी कार का कोई डल हो तो उसम उ ार- वण का वसजन न करे ।
य द ऐसे डल को जाने, वहाँ डाल धान, प धान, मूली, गाजर आ द के खेत ह, ह तंकुर वन त वशेष के
े ह, उनम तथा उसी कार के डल म मल-मू वसजन न करे ।
साधु या सा वी य द ऐसे डल को जाने, जहाँ बीजक वृ का वन है, पटसन का वन है, धातक वृ का
वन है, केवड़े का उपवन है, आ वन है, अशोकवन है, नागवन है, या पु ाग वृ का वन है, ऐसे तथा अ य उस कार
के डल, जो प , पु प , फल , बीज क ह रयाली से यु ह , उनम मल-मू वसजन न करे ।
सू - ५०१
संयमशील साधु या सा वी वपा क या परपा क लेकर एका त ान म चला जाए, जहाँ पर न कोई आता-
जाता हो और न कोई दे खता हो, या जहाँ कोई रोक-टोक न हो, तथा जहाँ य आ द जीव-ज तु, यावत् मकड़ी के
जाले भी न ह , ऐसे बगीचे या उपा य म अ च भू म पर साधु या सा वी यतनापूवक मल-मू वसजन करे ।
उसके प ात् वह उस (भरे ए मा क) को लेकर एका त ान म जाए, जहाँ कोई न दे खता हो और न ही
आता-जाता हो, जहाँ पर कसी जीवज तु क वराधना क स ावना न हो, यावत् मकड़ी के जाले न ह , ऐसे बगीचे
म या द धभू म वाले डल म या उस कार के कसी अ च नद ष पूव नष डल के अ त र
डल म साधु यतनापूवक मल-मू प र ापन करे ।
यही उस भ ु या भ ुणी का आचार सव व है, जसके आचरण के लए उसे सम त योजन से ाना द
स हत एवं पाँच स म तय से स मत होकर सदै व-सतत य नशील रहना चा हए ।
अ ययन-१० का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 106


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-११ – श दस तका-४
सू - ५०२
साधु या सा वी मृदंगश द, नंद श द या झलरी के श द तथा इसी कार के अ य वतत श द को कान से
सूनने के उ े य से कह भी जाने का मन म संक प न करे । साधु या सा वी क श द को सूनते ह, जैसे क वीणा के
श द, वपंची के श द, ब सक के श द, तूनक के श द या ढोल के श द, तु बवीणा के श द, ढं कुण के श द, या इसी
कार के तत-श द, क तु उ ह कान से सूनने के लए कह भी जाने का वचार न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क ताल के श द, कंसताल के श द, ल तका के श द,
गो धका के श द या बाँस क छड़ी से बजने वाले श द, इसी कार के अ य अनेक तरह के तालश द को कान से
सूनने क से कसी ान म जाने का मन म संक प न करे । साधु-सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क
शंख के श द, वेणु के श द, बाँस के श द, खरमुही के श द, बाँस आ द क नली के श द या इसी कार के अ य
शु षर श द, क तु उ ह कान से वण करने के योजन से कसी ान म जाने का संक प न करे ।
सू - ५०३
वह साधु या सा वी क कार के श द वण करते ह, जैसे क– खेत क या रय म तथा खाईय म होने
वाले श द यावत् सरोवर म, समु म, सरोवर क पं य या सरोवर के बाद सरोवर क पं य के श द, अ य इसी
कार के व वध श द, क तु उ ह कान से वण करने के लए जाने के लए मन म संक प न करे ।
साधु या सा वी क तपय श द को सूनते ह, जैसे क नद तट य जलब ल दे श (क ) म, भू मगृह या
ान म, वृ म, सघन एवं गहन दे श म, वन म, वन के गम दे श म, पवत या पवतीय ग म तथा
इसी कार के अ य दे श म, क तु उन श द को कान से वण करने के उ े य से गमन करने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द वण करते ह, जैस–े गाँव म, नगर म, नगम म, राजधानी म, आ म,
प न और स वेश म या अ य इसी कार के नाना प म होने वाले श द क तु साधु-सा वी उ ह सूनने क
लालसा से न जाए ।
साधु या सा वी के कान म क कार के श द पड़ते ह, जैसे क– आरामगार म, उ ान म, वन म, वन-
ख ड म, दे वकुल म, सभा म, याऊ म, या अ य इसी कार के ान म, क तु इन श द को सूनने क
उ सुकता से जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– अटा रय म, ाकार से स ब अ ालय म, नगर के
म यम त राजमाग म; ार म या नगर- ार तथा इसी कार के अ य ान म, क तु इन श द को सूनने के
हेतु कसी भी ान म जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– तराह पर, चौको म, चौराह पर, चतुमुख माग म तथा
इसी कार के अ य ान म, पर तु इन श द को वण करने के लए कह भी जाने का संक प न करे । साधु या
सा वी क कार के श द वण करते ह, जैसे क– भस के ान, वृषभशाला, घुड़साल, ह तशाला यावत् क पजल
प ी आ द के रहने के ान म होने वाले श द या इसी कार के अ य श द को, क तु उ ह वण करने हेतु कह
जाने का मन म वचार न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– जहाँ भस के यु , साँड़ के यु , अ यु , यावत्
क पजल-यु होते ह तथा अ य इसी कार के पशु-प य के लड़ने से या लड़ने के ान म होने वाले श द, उनको
सूनने हेतु जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी के कान म क कार के श द पड़ते ह, जैसे क– वर-वधू युगल आ द के मलने के ान म
या वरवधू-वणन कया जाता है, ऐसे ान म, अ युगल ान म, ह तयुगल ान म तथा इसी कार के अ य
कुतूहल एवं मनोरंजक ान म, क तु ऐसे -गेया द श द सूनने क उ सुकता से जाने का संक प न करे।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 107


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५०४
साधु या सा वी क कार के श द- वण करते ह, जैसे क कथा करने के ान म, तोल-माप करने के
ान म या घुड़-दौड़, कु ती तयो गता आ द के ान म, महो सव ल म, या जहाँ बड़े-बड़े नृ य, ना , गीत,
वा ,त ी, तल, ताल, ु टत, वा द , ढोल बजाने आ द के आयोजन होते ह, ऐसे ान म तथा इसी कार के अ य
श द, मगर ऐसे श द को सूनने के लए जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी क कार के श द सूनते ह, जैसे क– जहाँ कलह होते ह , श ु सै य का भय हो, रा का
भीतरी या बाहरी व लव हो, दो रा य के पर र वरोधी ान ह , वैर के ान ह , वरोधी राजा के रा य ह ,
तथा इसी कार के अ य वरोधी वातावरण के श द, क तु उन श द को सूनने क से गमन करने का संक प न
करे ।
साधु या सा वी क श दो को सूनते ह, जैसे क– व ाभूषण से म डत और अलंकृत तथा ब त-से लोग से
घरी ई कसी छोट बा लका को घोड़े आ द पर बठाकर ले जाया जा रहा हो, अथवा कसी अपराधी को वध
के लए वध ान म ले जाया जा रहा हो, तथा अ य कसी ऐसे क शोभाया ा नीकाली जा रही हो, उस संयम
होने वाले श दो को सूनने क उ सुकता से वहाँ जाने का संक प न करे ।
साधु या सा वी अ य नाना कार के महा व ान को इस कार जाने, जैसे क जहाँ ब त-से शकट, ब त
से रथ, ब त से ले , ब त से सीमा ा तीय लोग एक त ए ह , वहाँ कान से श द- वण के उ े य से जाने का
मन म संक प न करे ।
साधु या सा वी क ह नाना कार के महो सव को य जाने क जहाँ याँ, पु ष, वृ , बालक और युवक
आभूषण से वभू षत होकर गीत गाते ह , बाजे बजाते ह , नाचते ह , हँसते ह , आपस म खेलते ह , र त ड़ा करते
ह तथा वपुल अशन, पान, खा दम और वा दम पदाथ का उपभोग करते ह , पर र बाँटते ह या परोसते ह , याग
करते ह , पर र तर कार करते ह , उनके श द को तथा इसी कार के अ य ब त-से महो सव म होने वाले श द
का कान से सूनने क से जाने का मन म संक प न करे ।
साधु या सा वी इहलौ कक एवं पारलौ कक श द म, ुत– या अ ुत– श द म, दे खे ए या बना दे खे ए
श द म, इ और का त श द म न तो आस हो, न गृ हो, न मो हत हो और न ही मू त या अ यास हो ।
यही (श द- वण ववेक ही) उस साधु या सा वी का आचार-सव व है, जसम सभी अथ - योजन स हत
स मत होकर सदा वह य नशील रहे । ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-११ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 108


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-१२ – प स तका-(५)
सू - ५०५
साधु या सा वी अनेक कार के प को दे खते ह, जैसे– गूँथे ए पु प से न प , व ा द से वे त या
न प पुतली आ द को, जनके अ दर कुछ पदाथ भरने से आकृ त बन जाती हो, उ ह, संघात से न मत चोलका-
दक , का कम से न मत, पु तकम से न मत, च कम से न मत, व वध म णकम से न मत, दं तकम से न मत,
प छे दन कम से न मत, अथवा अ य व वध कार के वे न से न प ए पदाथ को तथा इसी कार के अ य
नाना पदाथ के प को, क तु इनम से कसी को आँख से दे खने क ई ा से साधु या सा वी उस ओर जाने का
मन म वचार न करे ।
इस कार जैसे श द स ब ी तमा का वणन कया गया है, वैसे ही यहाँ चतु वध आतो वा को छोड़कर
प तमा के वषय म भी जानना चा हए ।

अ ययन-१२ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 109


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

अ ययन-१३ – पर या स तका-६
सू - ५०६
पर (गृह के ारा) आ या मक मु न के ारा काय ापार पी या (सां े षणी) कमब न जननी है,
(अतः) मु न उसे मन से भी न चाहे, न उसके लए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह धम- ावश मु न के चरण को व ा द से थोड़ा-सा प छे अथवा बार-बार प छ कर,
साधु उस पर या को मन से न चाहे तथा वचन और काया से भी न कराए ।
कदा चत् कोई गृह मु न के चरण को स मदन करे या दबाए तथा बार-बार मदन करे या दबाए, य द कोई
गृह साधु के चरण को फूँक मारने हेतु श करे, तथा रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से
कराए ।
य द कोई गृह साधु के चरण को तेल, घी या चब से चुपड़े, मसले तथा मा लश करे तो साधु उसे मन से
भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के चरण को लोध, कक, चूण या वण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु
मन से भी उसम रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के चरण को ासुक शीतल जल से या उ ण जल से ालन करे अथवा अ
तरह से धोए तो मु न उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए । य द कोई गृह साधु के पैर का इसी कार
के क ह वलेपन से एक बार या बार-बार आलेपन- वलेपन करे तो साधु उसम मन से भी च न ले, न ही
वचन और शरीर से उसे कराए ।
य द कोई गृह साधु के पैर म लगे ए खूँटे या काँटे आ द को नीकाले या उसे शु करे तो साधु उसे मन से
भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए ।
य द कोई गृह साधु के पैर म लगे र और मवाद को नीकाले या उसे नीकाल कर शु करे तो साधु उसे
मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर को एक या बार-बार प छकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न
वचन और काया से कराए ।
मु न के शरीर को दबाए तथा मदन करे, तो साधु उसे मन से भी न चाहे न वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर पर तेल, घी आ द चुपड़े, मसले या मा लश करे तो साधु न तो उसे मन से ही
चाहे, न वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर पर लोध, कक, चूण या वण का उबटन करे, लेपन करे तो साधु न तो उसे मन
से ही चाहे और न वचन और काया से कराए ।
साधु के शरीर को ासुक शीतल जल से या उ ण जल से ालन करे या अ तरह धोए तो साधु न तो
उसे मन से चाहे और न वचन और काया से कराए ।
साधु के शरीर पर कसी कार के व श वलेपन का एक बार लेप करे या बार-बार लेप करे तो साधु न तो
उसे मन से चाहे और न उसे वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह मु न के शरीर को कसी कार के धूप से धू पत करे या धू पत करे तो साधु न तो उसे मन
से चाहे और न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए ण को एक बार प छे या बार-बार अ तरह से प छकर
साफ करे तो साधु उसे मन से न चाहे न वचन और काया से उसे कराए । कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए
ण को दबाए या अ तरह मदन करे तो साधु उसे मन से न चाहे न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह साधु के शरीर म ए ण के ऊपर तेल, घी या वसा चुपड़े मसले, लगाए या मदन करे

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 110


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न कराए । साधु के शरीर पर ए ण के ऊपर लोध, कक, चूण या वण आ द
वलेपन का आलेपन- वलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए ण को ासुक शीतल या उ ण जल से धोए तो साधु उसे मन से
भी न चाहे और न वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए ण को कसी कार के श से छे दन करे तो साधु उसे मन से
भी न चाहे, न ही उसे वचन और काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर पर ए ण को कसी वशेष श से थोड़ा-सा या वशेष प से छे दन
करके, उसम से मवाद या र नीकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से न चाहे न ही वचन एवं काया से कराए ।
कदा चत् कोई गृह , साधु के शरीर म ए गंड, अश, पुलक अथवा भगंदर को एक बार या बार-बार पपोल कर साफ
करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और शरीर से कराए ।
य द कोई गृह , साधु के शरीर म ए गंड, अश, पुलक अथवा भगंदर को दबाए या प रमदन करे तो साधु
उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह साधु के शरीर म ए गंड, अश, पुलक अथवा भगंदर पर तेल, घी, वसा चुपड़े, मले या
मालीश करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए । य द कोई गृह साधु के शरीर म ए गंड,
अश, पुलक अथवा भगंदर पर लोध, कक, चूण या वण का थोड़ा या अ धक वलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न
चाहे, न ही वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह , मु न के शरीर म ए गंड, अश, पुलक अथवा भगंदर को ासुक शीतल और उ ण जल से
थोड़ा या ब त बार धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह , मु न के शरीर म ए गंड, अश, पुलक अथवा भगंदर को कसी वशेष श से थोड़ा-सा
छे दन करे या वशेष छे दन करे, मवाद या र नीकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन
और काया से कराए ।
य द कोई गृह , साधु के शरीर से पसीना, या मैल से यु पसीने को मटाए या साफ करे तो साधु उसे मन
से भी न चाहे, और न ही वचन एवं काया से कराए ।
य द कोई साधु के आँख का, कान का, दाँत का, या नख का मैल नीकाले या उसे साफ करे, तो साधु उसे मन
से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए ।
य द कोई गृह , साधु के सर के लंबे केश , लंबे रोम , भौह एवं कांख के लंबे रोम , गु रोम को काटे
अथवा संवारे, तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए । य द कोई गृह , साधु के सर से जूँ या
लीख नीकाले या सर साफ करे, तो साधु मन से न चाहे न ही वचन और काया से ऐसा कराए ।
य द कोई गृह , साधु को अपनी गोद म या पलंग पर लटाकर या करवट बदलवा कर उसके चरण को
व ा द से एक बार या बार-बार भलीभाँ त प छकर साफ करे; साधु इसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से
उसे कराए । इसके बाद चरण से स ब त नीचे के पूव ९ सू म जो पाठ कहा गया है, वह सब पाठ यहाँ भी
कहना चा हए ।
य द कोई गृह साधु को अपनी गोद म या पलंग पर लटाकर या करवट बदलवा कर उसको हार, अ -
हार, व ल पर पहनने यो य आभूषण, गले का आभूषण, मुकूट, ल बी माला, सुवणसू बाँधे या पहनाए तो साधु
उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से उससे ऐसा कराए । य द कोई गृह साधु को आराम या उ ान म ले
जाकर उसके चरण को एक बार प छे , बार-बार अ तरह प छे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न वचन व
काया से कराए ।
इसी कार साधु क अ यो य या-पार रक या के वषयम भी ये सब सू पाठ समझ लेने चा हए ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 111


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५०७
य द कोई शु वा बल से अथवा अशु मं बल से साधु क ा ध उपशा त करना चाहे, अथवा कसी रोगी
साधु क च क सा स च कंद, मूल, छाल या हरी को खोदकर या ख चकर बाहर नीकाल कर या नीकलवा कर
च क सा करना चाहे, तो साधु उसे मन से पसंद न करे, न ही वचन से या काया से कराए ।
य द साधु के शरीर म कठोर वेदना हो तो सम त ाणी, भूत, जीव और स व अपने कये ए अशुभ कम के
अनुसार कटुक वेदना का अनुभव करते ह । यही उस साधु या सा वी का सम आचार सव व है, जसके लए सम त
इहलौ कक-पारलौ कक योजन से यु तथा ाना द-स हत एवं स म तय से सम वत होकर सदा य नशील रहे
और इसी को अपने लए ेय कर समझे । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-१३ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

अ ययन-१४ – अ यो य या-स तका-९


सू - ५०८
साधु या सा वी क अ यो य या जो क पर रमसब त है, कमसं ष
े जननी है, इस लए साधु या
सा वी इसको मन से न चाहे न वचन एवं काया से करने के लए े रत करे । साधु या सा वी पर र एक सरे के
चरण को प छकर एक बार या बार-बार अ तरह साफ करे तो मन से भी इसे न चाहे, न वचन और काया से करने
क ेरणा करे । इस अ ययन का शेष वणन तेरहव अ ययन के समान जानना चा हए ।
यही उस साधु या सा वी का सम आचार है; जसके लए वह सम त योजन , यावत् उसके पालन म
य नशील रहे । – ऐसा म कहता ँ ।

अ ययन-१४ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

चू लका– २ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 112


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

[चू लका– ३]
अ ययन-१५ – भावना
सू - ५०९
उस काल और उस समय म मण भगवान महावीर के पाँच क याणक उ राफा गुनी न म ए।
भगवान का उ राफा गुनी न म दे वलोक से यवन आ, यवकर वे गभ म उ प ए । उ राफा गुनी न म
गभ से गभा तर म संहरण कये गए । उ राफा गुनी न म भगवान का ज म आ । उ राफा गुनी न म ही
मु डत होकर आगार यागकर अनगार-धम म जत ए । उ राफा गुनी न म भगवान को स ण
ू - तपूण,
न ाघात, नरावरण, अन त और अनु र वर केवल ान केवलदशन समु प आ । वा त न म भगवान
प र नवाण को ा त ए ।
सू - ५१०
मण भगवान महावीर ने इस अवस पणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम-
षम आरक के तीत होने पर तथा षम-सुषम नामक आरक के अ धकांश तीत हो जाने पर और जब केवल
७५ वष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ी म ऋतु के चौथे मास, आठवे प , आषाढ़ शु ला ष ी क रा को;
उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग होने पर महा वजय स ाथ पु पो रवर पु डरीक, दक् व तक
व मान महा वमान से बीस सागरोपम क आयु पूण करके दे वायु, दे वभव और दे व त को समा त करके वहाँ से
यवन कया । यवन करके इस ज बू प म भारतवष के द णा , भारत के द ण- ा णकु डपुर स वेश म
कुडालगो ीय ऋषभद ा ण क जालंधर गो ीया दे वान दा नाम क ा णी क कु म सह क तरह गभ म
अवत रत ए ।
मण भगवान महावीर तीन ान से यु थे । वे यह जानते थे क म वग से यवकर मनु यलोक म जाऊंगा । म
वहाँ से यवकर गभ म आया ,ँ पर तु वे यवन समय को नह जानते थे, य क वह काल अ य त सू म होता है ।
दे वान दा ा णी के गभ म आने के बाद मण भगवान महावीर के हीत और अनुक ा से े रत होकर
‘ यह जीत आचार है’ , यह कहकर वषाकाल के तीसरे मास, पंचम प अथात्– आ न कृ णा योदशी के दन
उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग होने पर, ८२ वी रा दन के तीत होने पर और ८२ वे दन क रात
को द ण ा णकु डपुर स वेश से उ र यकु डपुर स वेश म ातवंशीय य म स का यप गो ीय
स ाथ राजा क वा श गो ीय प नी शला के अशुभ पुदग
् ल को हटाकर उनके ान पर शुभ पुदग
् ल का
ेपण करके उसक कु म गभ को ा पत कया और शाला का गभ लेकर द ण ा णकु डपुर स वेश म
कुडाल गो ीय ऋषभद ा ण क जालंधरगो ीया दे वान दा ा णी क कु म रखा ।
आयु मन् मण ! मण भगवान महावीर गभावासम तीन ानसे यु थे। म इस ान से संहरण कया
जाऊंगा, यह वे जानते थे, म सं त कया जा चूका ँ, यह भी जानते थे, यह भी जानते थे क मेरा संहरण हो रहा है ।
उस काल और उस समय म शला याणी ने अ यदा कसी समय नौ मास साढ़े सात अहोरा ायः पूण
तीत होने पर ी म ऋतु के थम मास के तय प म अथात् चै शु ला योदशी के दन उ राफा गुनी न
के साथ च मा का योग होने पर सुखपूवक ( मण भगवान महावीर को) ज म दया । जस रा को शला
याणीने सुखपूवक ज म दया, उसी रा म भवनप त, वाण तर, यो त क और वैमा नक दे व और दे वय के
वग से आने और मे पवत पर जाने– य ऊपर-नीचे आवागमन से एक महान् द दे वो ोत हो गया, दे व के एक
होने से लोकम एक हलचल मच गई, दे व के पर र हास प रहास के कारण सव कलकल नाद ा त हो गया ।
जस रा शला याणी ने व मण भगवान महावीर को सुखपूवक ज म दया, उस रा मब त
से दे व और दे वय ने एक बड़ी भारी अमृतवषा, सुग त पदाथ क वृ और सुवा सत चूण, पु प, चाँद और सोने
क वृ क ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 113


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
जस रा म शला याणी ने आरो यस मण भगवान महावीर को सुखपूवक ज म दया, उस
रा म भवनप त, वाण तर, यो त क और वैमा नक दे व और दे वय ने मण भगवान महावीर का कौतुक
मंगल, शु चकम तथा तीथकरा भषेक कया ।
जब से मण भगवान महावीर शला याणी क कु म गभ प म आए, तभी से उस कुल म चुर मा ा
म चाँद , सोना, धन, धा य, मा ण य, मोती, शंख, शला और वाल (मूँगा) आ द क अ यंत अ भवृ होने लगी ।
त प ात् मण भगवान महावीर के माता- पता ने भगवान महावीर के ज म के दस दन तीत हो जाने के
बाद यारहवे दन अशु च नवारण करके शुचीभूत होकर, चुर मा ा म अशन, पान, खा और वा पदाथ बनवाए
उ ह ने अपने म , ा त, वजन और स ब ी-वग को आमं त कया । उ ह ने ब त-से शा य आ द मण ,
ा ण,दर , भ ाचर , भ ाभोजी, शरीर पर भ म रमाकर भ ा माँगने वाल आ द को भी भोजन कराया,
उनके लए भोजन सुर त रखाया, क लोग को भोजन दया, याचक म दान बाँटा । अपने म , ा त, वजन,
स ब ीजन आ द को भोजन कराया । प ात् उनके सम नामकरण के स ब म कहा– जस दन से यह बालक
शलादे वी क कु म गभ प म आया, उसी दन से हमारे कुल म चुर मा ा म चाँद , सोना, धन, धा य, मा णक,
मोती, शंख, शला, वाल आ द पदाथ क अतीव अ भवृ हो रही है । अतः इस कुमार का गुण -स नाम
‘ व मान’ हो ।

ज म के बाद मण भगवान महावीर का लालन-पालन पाँच धाय माता ारा होने लगा । जैसे क–
ीरधा ी, म नधा ी, मंडनधा ी, ड़ाधा ी, और अंकधा ी । वे इस कार एक गोद से सरी गोद म सं त होते
ए एवं म णम डत रमणीय आँगन म (खेलते ए) पवतीय गुफा म त च क वृ क तरह कुमार व मान
मशः सुखपूवक बढ़ने लगे ।
भगवान महावीर बा याव ा को पार कर युवाव ाम व ए । उनका प रणय स आ और वे
मनु य स ब ी उदार श द, प, रस, गंध और श से यु पाँच कार के कामभोग का उदासीनभाव से उपभोग
करते ए यागभाव पूवक वचरण करने लगे ।
सू - ५११
मण भगवान महावीर के पता का यप गो के थे । उनके तीन नाम कहे जाते ह, स ाथ, ेयांस और
यश वी । मण भगवान महावीर क माता वा श गो ीया थ । उनके तीन नाम कहे जाते ह– शला, वदे हद ा
और यका रणी । चाचा ‘ सुपा ’ थे, जो का यप गौ के थे । ये ाता न द व न थे, जो का यप गो ीय थे । बड़ी
बहन सुदशना थी, जो का यप गो क थी । प नी ‘ यशोदा’ थी, जो कौ ड य गो क थी । पु ी का यप गो क थी
उसके दो नाम इस कार कहे जाते ह, जैसे क– १. अनो ा, (अनव ा) और २. यदशना ।
मण भगवंत महावीर क दौ ह ी कौ शक गो क थी । उसके दो नाम इस कार कहे जाते ह, जैसे क– १.
शेषवती तथा २. यश वती ।
सू - ५१२
मण भगवान महावीर के माता पता पा नाथ भगवान के अनुयायी थे, दोन ावक-धम का पालन करने
वाले थे । उ ह ने ब त वष तक ावक-धम का पालन करके षड् जीव नकाय के संर ण के न म आलोचना,
आ म न दा, आ मगहा एवं पाप दोष का त मण करके, मूल और उ र गुण के यथायो य ाय वीकार
करके, कुश के सं तारक पर आ ढ़ होकर भ या यान नामक अनशन वीकार कया । आहार-पानी का
या यान करके अ तम मारणा तक संलेखना से शरीर को सूखा दया । फर कालधम का अवसर आने पर
आयु य पूण करके उस शरीर को छोड़कर अ युतक प नामक दे वलोक म दे व प म उ प ए। तदन तर दे व
स ब ी आयु, भव, (ज म) और त का य होने पर वहाँ से यव कर महा वदे ह े म चरम ासो ् वास ारा
स , बु , मु एवं प र नवृ ह गे और वे सब ःख का अ त करगे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 114


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५१३
उस काल और उस समय म मण भगवान महावीर, जो क ातपु के नाम से स हो चूके थे, ात कुल
से व नवृ थे, दे हास र हत थे, वदे हजन ारा अचनीय थे, वदे हद ा के पु थे, सुकुमार थे । भगवान महावीर
तीस वष तक वदे ह प म गृह म नवास करके माता- पता के आयु य पूण करके दे वलोक को ा त हो जाने पर
अपनी ली ई त ा के पूण हो जाने से, हर य, वण, सेना, वाहन, धन, धा य, र न, आ द सारभूत, स वयु ,
पदाथ का याग करके याचक को यथे दान दे कर, अपने ारा दानशाला पर नयु जन के सम सारा धन खुला
करके, उसे दान प म दे ने का वचार कट करके, अपने स ब ी जन म स ूण पदाथ का यथायो य वभाजन
करके, संव सर दान दे कर हेम तऋतु के थम मास एवं थम मागशीष कृ ण प म, दशमी के दन उ राफा गुनी
न के साथ च मा का योग होने पर भगवान ने अ भ न मण करने का अ भ ाय कया।
सू - ५१४
ी जनवरे तीथकर भगवान का अ भ न मण एक वष पूण होते ही होगा, अतः वे द ा लेने से एक वष
पहले सांव स रक-वष दान ार कर दे ते ह । त दन सूय दय से लेकर एक हर दन चढ़ने तक उनके ारा अथ
का दान होता है ।
सू – ५१५, ५१६
त दन सूय दय से एक हर पय त, जब तक वे ातराश नह कर लेते, तब तक, एक करोड़ आठ लाख से
अ यून वणमु ा का दान दया जाता है ।
इस कार वष म कुल तीन अरब, ८८ करोड़, ८० लाख वणमु ा का दान भगवान ने दया ।
सू - ५१७
कु डलधारी वै मणदे व और महान् ऋ स लोका तक दे व पं ह कमभू मय म (होने वाले) तीथकर
भगवान को तबो धत करते ह ।
सू - ५१८
(लोक) क प म आठ कृ णरा जय के म य आठ कार के लोका तक वमान असं यात व तार वाले
समझने चा हए ।
सू - ५१९
ये सब दे व नकाय (आकर) भगवान वीर- जने र को बो धत ( व त) करते ह– हे अहन् दे व ! सव जगत के
लए हतकर धम-तीथ का वतन कर ।
सू - ५२०
तदन तर मण भगवान महावीर के अ भ न मण के अ भ ाय को जानकर भवनप त, वाण तर,
यो त क और वैमा नक दे व एवं दे वयाँ अपने-अपने प से, अपने-अपने व म और अपने-अपने च से यु
होकर तथा अपनी-अपनी सम त ऋ , ु त और सम त बल-समुदाय स हत अपने-अपने यान- वमान पर चढ़ते ह
फर सब अपने यान म बैठकर जो भी बादर पुदग
् ल ह, उ ह पृथक् करते ह । बादर पुदग
् ल को पृथक् करके सू म पुद ्
गल को चार ओर से हण करके वे ऊंचे उड़ते ह । अपनी उस उ कृ , शी , चपल, व रत और द दे व ग त से
नीचे ऊतरते मशः तयक्लोक म त असं यात प-समु को लाँघते ए जहाँ ज बू प है, वहाँ आते ह । जहाँ
उ र यकु डपुर स वेश है, उसके नकट आ जाते ह । उ र यकु डपुर स वेश के ईशानकोण दशा भाग
म शी ता से उतर जाते ह ।
दे व के इ दे वराज श ने शनैः शनैः अपने यान को वहाँ ठहराया । फर वह धीरे धीरे वमान से ऊतरा ।
वमान से उतरते ही दे वे सीधा एक ओर एका त म चला गया । उसने एक महान् वै य समुदघ
् ात करके इ ने
अनेक म ण- वण-र न आ द से ज टत- च त, शुभ, सु दर, मनोहर कमनीय प वाले एक ब त बड़े दे व ं दक का

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 115


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
व या ारा नमाण कया । उस दे व ं दक के ठ क म य-भाग म पादपीठ स हत एक वशाल सहासन क
व या क , जो नाना म ण- वण-र न आ द क रचना से च - व च , शुभ, सु दर और र य प वाला था । फर
जहाँ मण भगवान महावीर थे, वह वहाँ आया । उसने भगवान क तीन बार आद ण द कणा क , फर व दन
नम कार करके मण भगवान महावीर को लेकर वह दे व दक के पास आया । त प ात् भगवान को धीरे-धीरे
दे व दक म त सहासन पर बठाया और उनका मुख पूव दशा क ओर रखा ।
यह सब करने के बाद इ ने भगवान के शरीर पर शतपाक, सह पाक तेल से मा लश क , त प ात्
सुग त काषाय से उनके शरीर पर उबटन कया फर शु व जल से भगवान को नान कराया । बाद
उनके शरीर पर एक लाख के मू य वाले तीन पट को लपेट कर साधे ए सरस गोशीष र च दन का लेपन कया।
फर भगवान को, नाक से नीकलने वाली जरा-सी ास-वायु से उड़ने वाला, े नगर के ावसा यक प न म बना
आ, कुशल मनु य ारा शं सत, अ के मुँह क लार के समान सफेद और मनोहर चतुर श पाचाय ारा सोने के
तार से वभू षत और हंस के समान ेत व युगल पहनाया । तदन तर उ ह हार, अ हार, व ल का सु दर
आभूषण, एकावली, लटकती ई मालाएं, क टसू , मुकुट और र न क मालाएं पहना । ं थम, वे म, पू रम और
संघा तम– पु पमाला से क पवृ क तरह सुस त कया ।
उसके बाद इ ने बारा पुनः वै यसमुदघ
् ात कया और उससे त काल च भा नाम क एक वराट
सह वा हनी श बका का नमाण कया । वह श बका ईहामृग, वृषभ, अ , नर, मगर, प गण, ब दर, हाथी, ,
सरभ, चमरी गाय, शा ल सह आ द जीव तथा वनलता से च त थी । उस पर अनेक व ाधर के जोड़े यं योग
से अं कत थे । वह श बक सह करण से सुशो भत सूय- यो त के समान दे द यमान थी, उसका चम-चमाता
आ प भलीभाँ त वणनीय था, सह प म भी उसका आकलन नह कया जा सकता था, उसका तेज ने को
चकाच ध कर दे ने वाला था । उसम मोती और मु ाजाल परोये ए थे । सोने के बने ए े क -काकार आभूषण
से यु लटकती ई मो तय क माला उस पर शोभायमान हो रही थी । हार, अ हार आ द आभूषण से सुशो भत थी,
दशनीय थी, उस पर प लता, अशोकलता, कु दलता आ द तथा अ य अनेक वनमालाएं च त थ । शुभ, मनोहर,
कमनीय प वाली पंचरंगी अनेक म णय , घ टा एवं पताका से उसका अ शखर प रम डत था । वह अपने
आप म शुभ, सु दर और अ भ प, ासाद य, दशनीय और अ त सु दर थी।
सू - ५२१
जरा-मरण से वमु जनवर महावीर के लए श बका लाई गई, जो जल और ल पर उ प होने वाले
द पु प और दे व न मत पु पमाला से यु थी ।
सू - ५२२
उस श बका के म य म द तथा जनवर के लए े र न क परा श से च चत तथा पादपीठ से यु
महामू यवान् सहासन बनाया गया था ।
सू - ५२३
उस समय भगवान महावीर े आभूषण धारण कये ए थे, यथा ान द माला और मुकुट पहने ए थे,
उ ह ौम व पहनाए थे, जसका मू य एक ल वणमु ा था। इन सबसे भगवान का शरीर दे द यमान हो रहा था।
सू - ५२४
उस समय श त अ यवसाय से, ष भ या यान क तप या से यु शुभ ले या से वशु भगवान
उ म श बका म बराजमान ए ।
सू - ५२५
जब भगवान श बका म ा पत सहासन पर बराजमान हो गए, तब श े और ईशाने उसके दोन
ओर खड़े होकर म ण-र ना द से च - व च ह े-डंडे वाले चामर भगवान पर ढु लाने लगे ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 116


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५२६
पहले उन मनु य ने उ लासवश वह श बका उठाई, जनके रोमकूप हष से वक सत हो रहे थे । त प ात्
सूर, असुर, ग ड़ और नागे आ द दे व उसे उठाकर ले चले ।
सू - ५२७
उस श बका को पूव दशा क ओर से सुर (वैमा नक दे व) उठाकर ले चलते ह, जब क असुर द ण दशा क
ओर से, ग ड़ दे व प म दशा क ओर से और नागकुमार दे व उ र दशा क ओर से उठाकर ले चलते ह ।
सू - ५२८
उस समय दे व के आगमन से आकाशम डल वैसा ही सुशो भत हो रहा था, जैसे खले ए पु प से
वनख ड, या शर काल म कमल के समूह से प सरोवर ।
सू - ५२९
उस समय दे व के आगमन से गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरस , कचनार या कनेर या
च कवन फूल के झु ड से सुहावना तीत होता है ।
सू - ५३०
उस समय उ म ढोल, भेरी, झांझ, शंख आ द लाख वा का वर- ननाद गगनतल और भूतल पर परम-
रमणीय तीत हो रहा था ।
सू - ५३१
वह पर दे वगण ब त से– शता धक नृ य और ना के साथ अनेक तरह के तत, वतत, घन और शु षर, य
चार कार के बाजे बजा रहे थे ।
सू - ५३२
उस काल और उस समय म, जब क हेम त ऋतु का थम मास, थम प अथात् मागशीष मास का
कृ णप क दशमी त थ के सु त के वजय मु म, उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग होने पर, पूव
गा मनी छाया होने पर, तय पौ षी हर के बीतने पर, नजल ष भ - या यान के साथ एकमा (दे व य)
व को लेकर भगवान महावीर च भा नाम क सह वा हनी श बका म बराजमान ए थे; जो दे व , मनु य और
असुर क परीषद् ारा ले जाई जा रही थी । अतः उ परीषद् के साथ वे यकु डपुर स वेश के बीच बीच-
म यभाग म से होते ए जहाँ ातख ड नामक उ ान था, उसके नकट प ँचे । दे व छोटे से हाथ- माण ऊंचे भूभाग
पर धीरे-धीरे उस सह वा हनी च भा श बका को रख दे ते ह । तब भगवान उसम से शनैः शनैः नीचे उतरते ह;
और पूवा भमुख होकर सहासन पर अलंकार को उतारते ह । त काल ही वै मणदे व घुटने टे ककर मण भगवान
महावीर के चरण म झुकता है और भ पूवक उनके उन आभरणालंकार को हंसल ण स श ेत व म हण
करता है ।
प ात् भगवान ने दा हने हाथ से दा हनी ओर के और बाएं हाथ से बा ओर के केश का पंचमु क लोच
कया । दे वराज दे वे श मण भगवान महावीर के सम घुटने टे क कर चरण म झुकता है और उन केश को हीरे
के थाल म हण करता है । भगवान ! आपक अनुम त है, य कहकर उन केश को ीर समु म वा हत कर दे ता है
इधर भगवान दा हने हाथ से दा हनी और बाएं हाथ से बा ओर के केश का पंचमु क लोच पूण करके
स को नम कार करते ह; और ‘ आज से मेरे लए सभी पापकम अकरणीय है’ , य उ ारण करके सामा यक
चा र अंगीकार करते ह । उस समय दे व और मनु य -दोन क परीषद् च ल खत-सी न े - र हो गई थी ।
सू - ५३३
जस समय भगवान चा र हण कर रहे थे, उस समय श े के आदे श से शी ही दे व के द वर, वा
के ननाद और मनु य के श द गत कर दये ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 117


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५३४
भगवान चा र अंगीकार करके अह नश सम त ा णय और भूत के हत म संल न हो गए । सभी दे व ने
यह सूना तो हष से पुल कत हो उठे ।
सू - ५३५
मण भगवान महावीर को ायोपश मक सामा यकचा र हण करते ही मनःपयव ान समु प आ; वे
अढ़ाई प और दो समु म त पया त सं ीपंचे य, मन वाले जीव के मनोगत भाव को जानने लगे
। उधर मण भगवान महावीर ने जत होते ही अपने म , ा त, वजन-स ब ी वग को त व-स जत करके
इस कार का अ भ ह धारण कया क, ‘ ‘ म आज से बारह वष तक अपने शरीर का ु सग करता ँ । इस अव ध
म दै वक, मानु षक या तयच स ब ी जो कोई भी उपसग उ प ह गे, उन सब समु प उपसग को म स यक्
कार से या समभाव से स ग
ँ ा, माभाव रखूँगा, शा त से झेलूँगा ।’ ’ इस कार का अ भ ह धारण करने के प ात्
काया का ु सग एवं काया के त मम व का याग कये ए मण भगवान महावीर दन का मु शेष रहते कमार
ाम प ँच गए ।
उसके प ात् काया का ु सग एवं दे हा यास का याग कये ए मण भगवान महावीर अनु र वस त के
सेवन से, अनुपम वहार से, एवं अनु र संयम, उपकरण, संवर, तप, चय, मा, नल भता, संतु , स म त, गु त,
कायो सगा द ान, तथा अनुपम यानु ान से एवं सुच रत के फल व प नवाण और मु माग के सेवन से यु
होकर आ मा को भा वत करते ए वहार करने लगे ।
इस कार वहार करते ए यागी मण भगवान महावीर को द , मानवीय और तयचस ब ी जो कोई
उपसग ा त होते, वे उन सब उपसग के आने पर उ ह अकलु षत, अ थत, अद नमना एवं मन-वचन-काया क
वध कार क गु तय से गु त होकर स यक् कार के समभावपूवक सहन करते, उपसगदाता को मा करते,
स ह णुभाव धारण करते तथा शा त और धैय से झेलते थे ।
मण भगवान महावीर को इस कार से वचरण करते ए बारह वष तीत हो गए, तेरहवे वष के म य म
ी म ऋतु म सरे मास और चौथे प से अथात् वैशाख सुद म, दशमी के दन, सु त नामक दवस म वजय मु
म उ राफा गुनी न के साथ च मा का योग आने पर, पूवगा मनी छाया होने पर दन के सरे हर म
जृ क ाम नगर के बाहर ऋजुबा लका नद के उ र तट पर यामाकगृहप त के का करण े म वैयावृ यचै य के
ईशानकोण म शालवृ से न अ त र, न अ त नकट, उ कटु क होकर गोदोहासन से सूय क आतापना लेते ए,
नजल ष भ से यु , ऊपर घुटने और नीचा सर करके धम यानयु , यानको म व ए जब शु ल-
याना त रका म वतमान थे, तभी उ ह अ ान ःख से नवृ दलाने वाले, स ूण, तपूण अ ाहत नरावरण
अन त अनु र े केवल ान-केवलदशन उ प ए ।
वे अब भगवान अहत्, जन, ायक, केवली, सव , सवभावदश हो गए । अब वे दे व , मनु य और असुर
स हत सम त लोक के पयाय को जानने लगे । जैसे क जीव क आग त, ग त, त, यवन, उपपात, उनके भु
और पीत सभी पदाथ को तथा उनके ारा कृत तसे वत, कट एवं गु त सभी कम को तथा उनके ारा बोले ए,
कहे ए तथा मन के भाव को जानते, दे खते थे । वे स ूण लोक म त सब जीव के सम त भाव को तथा सम त
परमाणु पुदग
् ल को जानते-दे खते ए वचरण करने लगे । जस दन मण भगवान महावीर को अ ान- ःख-
नवृ दायक स ूण यावत् अनु र केवल ान-केवलदशन उ प आ, उस दन भवन-प त, वाण तर, यो त क एवं
वमानवासी दे व और दे वय के आने-जाने से एक महान द दे वो ोत आ, दे व का मेला-सा लग गया, दे व का कल-
कल नाद होने लगा, वहाँ का सारा आकाशमंडल हलचल से ा त हो गया ।
तदन तर अनु र ान-दशन के धारक मण भगवान महावीर ने केवल ान ारा अपनी आ मा और लोक
को स यक् कार से जानकर पहले दे व को, त प ात् मनु य को धम पदे श दया । त प ात् केवल ान-केवलदशन

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 118


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
के धारक मण भगवान महावीर ने गौतम आ द मण- न को भावना स हत पंच-महा त और षड्
जीव नकाय के व प का ा यान कया । सामा य- वशेष प से पण कया ।
सू - ५३६
‘भ ते ! म थम महा त म स ूण ाणा तपात का या यान– करता ँ । म सू म- ूल और स- ावर
सम त जीव का न तो वयं ाणा तपात क ँ गा, न सर से कराऊंगा और न ाणा तपात करने वाल का
अनुमोदन– क ँ गा; म याव ीवन तीन करण से एवं मन-वचन-काया से इस पाप से नवृ होता ँ । हे भगवन् ! म
उस पूवकृत पाप ( हसा) का त मण करता ँ, न दा करता ँ और गहाँ करता ँ, अपनी आ मा से पाप का
ु सग करता ँ ।’
उस थम महा त क पाँच भावनाएं होती ह– पहली भावना यह है– न -ईयास म त से यु होता है,
ईयास म त से र हत नह । केवली भगवान कहते ह– ईयास म त से र हत न ाणी, भूत, जीव और स व का
हनन करता है, धूल आ द से ढकता है, दबा दे ता है, प रताप दे ता है, चपका दे ता है, या पी ड़त करता है । इस लए
न ईयास म त से यु होकर रहे, ईयास म त से र हत होकर नह ।
सरी भावना यह है– मन को जो अ तरह जानकर पाप से हटाता है, जो मन पापकता, साव है,
या से यु है, आ वकारक है, छे दन-भेदनकारी हे, लेश- े षकारी है, प रतापकारक है, ा णय के ाण का
अ तपात करने वाला और जीव का उपघातक है, इस कार के मन को धारण न करे । मन को जो भलीभाँ त
जानकर पापमय वचार से र रखता है वही न है । जसका मन पाप से र हत है ।
तृतीय भावना यह है– जो साधक वचन का व प भलीभाँ त जानकर सदोष वचन का प र याग करता है,
वह न है । जो वचन पापकारी, साव , या से यु , यावत् जीव का उपघातक है; साधु इस कार के वचन
का उ ारण न करे । जो वाणी के दोष को भलीभाँ त जानकर सदोष वाणी का प र याग करता है, वही न है ।
उसक वाणी पापदोष र हत हो ।
चौथी भावना यह है– जो आदानभा डमा न ेपण-स म त से यु है, वह न है । केवली भगवान कहते
ह– जो न आदानभा ड न ेपणस म त से र हत है, वह ा णय , भूत , जीव और स व का अ भघात करता है,
यावत् पीड़ा प ँचाता है । इस लए जो आदानभा ड (मा ) न ेपणास म त से यु है, वही न है, जो
आदानभा ड न ेपणास म त से र हत है, वह नह ।
पाँचवी भावना यह है– जो साधक आलो कत पान-भोजन-भोजी होता है, वह न होता है । अनालो-
कतपानभोजन-भोजी नह । केवली भगवान कहते ह– जो बना दे खे-भाले ही आहार-पानी सेवन करता है, वह
न ाण , भूत , जीव और स व को हनन करता है यावत् उ ह पीड़ा प ँचाता है । अतः जो दे खभाल कर
आहार-पानी का सेवन करता है, वही न है, बना दे खे-भाले आहार-पानी करने वाला नह ।
इस कार पंचभावना से व श तथा ाणा तपात वरमण प थम महा त का स यक् कार काया से
श करने पर, पालन करने पर गृहीत महा त को पार लगाने पर, क तन करने पर उसम अव त रहने पर,
भगवदा ा के अनु प आराधन हो जाता है । हे भगवन् ! यह ाणा तपात वरमण प थम महा त है ।
सू - ५३७
इसके प ात् भगवन् ! म तय महा त वीकार करता ँ । आज म इस कार से मृषावाद और सदोष-
वचन का सवथा या यान करता ँ । साधु ोध से, लोभ से, भय से या हा य से न तो वयं मृषा बोले, न ही अ य
से अस य भाषण करो और जो अस य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस कार तीन करण
से तथा मन-वचन-काया से मृषावाद का सवथा याग करे । इस कार मृषावाद वरमण प तय महा त वीकार
करके हे भगवन् ! म पूवकृत मृषावाद प पाप का त मण करता ँ, आलोचना करता ँ, आ म न द करता ँ,
गहा करता ँ, जो अपनी आ मा से मृषावाद का सवथा ु सग करता ँ ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 119


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
उस तय महा त क ये पाँच भावनाएं ह । उन पाँच म से पहली भावना इस कार है– च तन करके
बोलता है, वह न है, बना च तन कये बोलता है, वह न नह । केवली भगवान कहते ह– बना वचारे
बोलने वाले न को म याभाषण का दोष लगता है । अतः च तन करके बोलने वाला साधक ही न कहला
सकता है, बना च तन कये बोलने वाला नह ।
इसके प ात् सरी भावना इस कार है– ोध का कटु फल जानेता है । वह न है । इस लए साधु को
ोधी नह होना चा हए । केवली भगवान कहते ह– ोध आने पर ोधी आवेशवश अस य वचन का योग
कर दे ता है । अतः जो साधक ोध का अ न व प जानता है, वही न कहला सकता है, ोधी नह ।
तदन तर तृतीय भावना यह है– जो साधक लोभ का प रणाम जानता है, वह न है; अतः साधु
लोभ त न हो । केवली भगवान का कथन है क लोभ ा त लोभावेशवश अस य बोल दे ता है । अतः जो
साधक लोभ का अ न व प जानता है, वही न है, लोभा व नह ।
इसके बाद चौथी भावना यह है– जो साधक भय का फल जानता है, वह न है । अतः साधक को
भयभीत नह होना चा हए । केवली भगवान का कहना है– भय ा त भी भया व होकर अस य बोल दे ता है
अतः जो साधक भय का यथाथ अ न व प जानता है, वही न है, न क भयभीत ।
इसके अन तर पाँचवी भावना यह है– जो साधक हा य के अ न प रणाम को जानता है, वह न है ।
अतएव न को हंसोड़ नह होना चा हए । केवली भगवान का कथन है– हा यवश हंसी करने वाला अस य
भी बोल दे ता है । इस लए जो मु न हा य का अ न व प जानता है, वह न है, न क हंसी-मजाक करने वाला ।
इस कार इन पंच भावना से व श तथा वीकृत मृषावाद- वरमण प, तय स यमहा त का काया
से स यक् श करने, पालन करने, गृहीत महा त को पार लगाने, क तन करने एवं अ त तक अव त रहने पर
भगवदा ा के अनु प आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह मृषावाद वरमण प तय महा त है ।
सू - ५३८
भगवन् ! इसके प ात् अब म तृतीय महा त वीकार करता ँ, इसके स दभ म म सब कार से अद ा-दान
का या यान करता ँ । वह इस कार– वह ( ा पदाथ) चाहे गाँव म हो, नगर म हो या अर य म हो, थोड़ा हो या
ब त, सू म हो या ूल, सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके वामी के बना दये न तो वयं हण क ँ गा, न सरे से
हण कराऊंगा और न ही अद - हण करने वाले का अनुमोदन क ँ गा, याव ीवन तीन करण से तथा मन-वचन-
काया से यह त ा करता ँ । साथ ही म पूवकृत अद ादान प पाप का त मण करता ँ, आ म न दा करता ँ,
गहा करता ँ और अपनी आ मा से अद ादान पाप का ु सग करता ँ ।
उस तीसरे महा त क ये पाँच भावनाएं ह–
उसम थम भावना इस कार है– जो साधक पहले वचार करके प र मत अव ह क याचना करता है, वह
न है, क तु बना वचार कये प र मत अव ह क याचना करने वाला नह । केवली भगवान कहते ह– जो बना
वचार कये मताव ह क याचना करता है, वह न अद हण करता है । अतः तदनु प च तन करके
प र मत अव ह क याचना करने वाला साधु न कहलाता है, न क बना वचार कये मया दत अव ह क
याचना करने वाला ।
इसके अन तर सरी भावना यह है– गु जन क अनु ा लेकर आहार-पानी आ द सेवन करने वाला न
होता है, अनु ा लये बना आहार-पानी आ द का उपभोग करने वाला नह । केवली भगवान कहते ह क जो न
गु आ द क अनु ा ा त कये बना पान-भोजना द का उपभोग करता है, वह अद ादान का सेवन करता है ।
इस लए जो अनु ा ा त करके आहार-पानी आ द का उपभोग करता है, वह न कहलाता है, अनु ा हण कये
बना आहार-पानी आ द का सेवन करने वाला नह ।
अब तृतीय भावना इस कार है– न साधु को े और काल के माणपूवक अव ह क याचना करनी

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 120


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
चा हए । केवली भगवान कहते ह– जो न इतने े और इतने काल क मयादापूवक अव ह क अनु ा नह
करता, वह अद का हण करता है । अतः न साधु े काल क मयादा खोल कर अव ह क अनु ा हण
करने वाला होता है, अ यथा नह ।
इसके अन तर चौथी भावना यह है– न अव ह क अनु ा हण करने के प ात् बार-बार अव ह
अनु ा- हणशील होना चा हए । य क केवली भगवान कहते ह– जो न अव ह क अनु ा हण कर लेने पर
बार-बार अव ह क अनु ा नह लेता, वह अद ादान दोष का भागी होता है । अतः न को एक बार अव ह क
अनु ा हण कर लेने पर भी पुनः पुनः अव हानु ा हणशील होना चा हए ।
इसके प ात् पाँचवी भावना यह है– जो साधक साध मक से भी वचार करके मया दत अव ह क याचना
करता है, वह न है, बना वचारे प र मत अव ह क याचना करने वाला नह । केवली भगवान का कथन है–
बना वचार कये जो साध मक से प र मत अव ह क याचना करता है, उसे साध मक का अद हण करने का
दोष लगता है । अतः जो साधक साध मक से भी वचारपूवक मया दत अव ह क याचना करता है, वही न
कहलाता है । बना वचारे साध मक से मया दत अव हयाचक नह ।
इस कार पंच भावना से व श एवं वीकृत अद ादान- वरमण प तृतीय महा त का स यक् कार
से काया से श करने, यावत् अंत तक अव त रहने पर भगवदा ा का स यक् आराधक हो जाता है ।
भगवन् ! यह अद ादान- वरमण प तृतीय महा त है ।
सू - ५३९
इसके प ात् भगवन् ! म चतुथ महा त वीकार करता ँ, सम त कार के मैथुन- वषय सेवन का या-
यान करता ँ । दे व-स ब ी, मनु य-स ब ी और तयच-स ब ी मैथुन का वयं सेवन नह क ँ गा, न सरे से
मैथुन-सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन क ँ गा । शेष सम त वणन अद ादान- वरमण
महा त म यावत् ु सग करता ँ तक के पाठ अनुसार समझना ।
उस चतुथ महा त क ये पाँच भावनाएं ह– उन म पहली भावना यह है– न साधु बार-बार य क
कामजनक कथा न कहे । केवली भगवान कहते ह– बार-बार य क कथा कहने वाला न साधु शा त प
चा र का और शा त प चय का भंग करने वाला होता है, तथा शा त प केवली- पत धम से हो
जाता है । अतः न साधु को य क कथा बार-बार नह करनी चा हए ।
इसके प ात् सरी भावना यह है– न साधु काम-राग से य क मनोहर एवं मनोरम इ य को
सामा य प से या वशेष प से न दे खे । केवली भगवान कहते ह– य क मनोहर एवं मनोरम इ य का
कामराग-पूवक सामा य या वशेष प से अवलोकन करने वाला साधु शा त प चा र का नाश तथा शा त प
चय का भंग करता है, तथा शा त प केवली- पत धम से हो जाता है । अतः न को य क
मनोहर एवं मनोरम इ य का कामरागपूवक सामा य या वशेष प से अवलोकन नह करना चा हए ।
इसके अन तर तीसरी भावना इस कार है क न साधु य के साथ क ई पूवर त एवं पूव काम
ड़ा का मरण न करे । केवली भगवान कहते ह क य के साथ म क ई पूवर त पूवकृत-काम ड़ा का मरण
करने वाला साधु शा त प चा र का नाश तथा शा त प चय का भंग करने वाला होता है तथा शा त प धम
से हो जाता है । अतः न साधु य के साथ क ई पूवर त एवं काम ड़ा का मरण न करे ।
चौथी भावना है– न अ तमा ा म आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस न ध- वा द भोजन
का उपभोग करे । केवली भगवान कहते ह क जो न माण से अ धक आहार-पानी का सेवन करता है तथा
न ध-सरस- वा द भोजन करता है, वह शा त प चा र का नाश करने वाला, यावत् हो सकता है। इस लए
अ तमा ा म आहार-पानी का सेवन या सरस न ध भोजन नह करना चा हए ।
इसके अन तर पंचम भावना है– न ी, पशु और नपुंसक से संस श या और आसन आ द का सेवन

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 121


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
न करे । केवली भगवान कहते ह– जो न ी-पशु-नपुंसक से संस श या और आसन आ द का सेवन करता है,
वह शा त प चा र को न कर दे ता है, यावत् हो जाता है । इस लए न को ी-पशु-नपुंसक संस श या
और आसन आ द का सेवन नह करना चा हए ।
इस कार इन पंच भावना से व श एवं वीकृत मैथुन- वरमण प चतुथ महा त का स यक् कार से
काया से श करने यावत् भगवदा ा के अनु प स यक् आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह मैथुन- वरमण प
चतुथ महा त है ।
सू - ५४०
इसके प ात् हे भगवन् ! म पाँचवे महा त को वीकार करता ँ । पंचम महा त के संदभ म म सब कार के
प र ह का याग करता ँ । आज से म थोड़ा या ब त, सू म या ूल, स च या अ च कसी भी कार के प र ह
को वयं हण नह क ँ गा, न सर से हण कराऊंगा, और न प र हण करने वाल का अनुमोदन क ँ गा । यावत्
प र ह का ु सग करता ँ, तक का सारा वणन पूववत् समझना ।
उस पंचम महा त क पाँच भावनाएं ह– उनम से थम भावना यह है– ोत से यह जीव मनो तथा अमनो
श द को सूनता है, पर तु वह उसम आस न हो, रागभाव न करे, गृ न हो, मो हत न हो, अ य त आस न करे ।
केवली भगवान कहते ह– जो साधु मनो -अमनो श द म आस होता है, रागभाव रखता है, यावत् अ य धक
आस हो जाता है, वह शा त प चा र का नाश करता है, शा त को भंग करता है, शा त प केवली त धम
से हो जाता है ।
कण दे शम आए ए श द- वण न करना श य नह है, क तु उनके सूनने पर उनम जो राग- ेष क
उप होती है, भ ु उसका प र याग करे । अतः ोत से जीव य और अ य सभी कार के श द को सूनकर
उनम आस , आर , गृ , मो हत, मू त एवं अ यास न हो और न राग- े ष ारा अपने आ मभाव न न करे ।
इसके अन तर तय भावना है– च ु से जीव मनो -अमनो सभी कार के प को दे खता है, क तु साधु
मनो -अमनो प म न आस हो, न आर हो, यावत् आ मभाव को न करे । केवली भगवान कहते ह – जो
न मनो -अमनो प को दे खकर आस , यावत् अपने आ मभाव को खो बैठता है, वह शा त प चा र
को वन करता है, यावत् हो जाता है । ने के वषय म बने ए प को न दे खना तो श य नह है, वे दख ही
जाते ह; क तु उनके दे खने पर जो राग- े ष उ प होता है, भ ु उनका प र याग करे । अतः ने से जीव मनो
प को दे खता है, क तु न भ ु उनम आस यावत् अपने आ मभाव का वघात न करे ।
इसके बाद तीसरी भावना है– ना सका से जीव य और अ य ग को सूँघता है, क तु भ ु मनो या
अमनो गंध पाकर आस न हो, न अनुर हो यावत् अपने आ मभाव का वघात न करे । केवली भगवान कहते
ह– जो न मनो या अमनो गंध पाकर आस , यावत् अपने आ मभाव को खो बैठता है, वह शा त प चा र
को न कर डालता है, यावत् हो जाता है । ऐसा नह हो सकता है क ना सका- दे श के सा य म आए ए
ग के परमाणु पुदग ् ल सूँघे न जाएं, क तु उनको सूँघने पर उनम जो राग- े ष समु प होता है, भ ु उनका
प र याग करे । अतः ना सका से जीव मनो -अमनो सभी कार के ग को सूँघता है, क तु बु भ ु को उन
पर आस , यावत् अपने आ मभाव का वनाश नह करना चा हए ।
इसके अन तर चौथी भावना यह है– ज ा से जीव मनो -अमनो रस का आ वादन करता है, क तु भ ु
को चा हए क वह मनो -अमनो रस म न आस ह , न रागभावा द हो, यावत् अपने आ मभाव का घात करे ।
केवली भगवान का कथन है क जो न मनो -अमनो रस म आस , यावत् अपना आ मभाव खो बैठता है,
वह शा त न कर दे ता है, यावत् हो जाता है । ऐसा तो हो नह सकता क रस ज ा दे श म आए और वह
उसको चखे नह ; क तु उन रस के त जो राग- े ष उ प होता है, भ ु उसका प र याग करे । अतः ज ा से
जीव मनो -अमनो सभी कार के रस का आ वादन करता है, क तु भ ु को उनम आस , यावत् आ मभाव

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 122


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
का वघात नह करना चा हए ।
पंचम भावना य है– शने य से जीव मनो -अमनो श का संवेदन करता है, क तु भ ु उन मनो -
अमनो श म न आस हो, न आर हो, न गृ हो, न मो हत-मू त और अ यास हो, और न ही इ ा न
श म राग- े ष करके अपने आ मभाव का नाश करे । केवली भगवान कहते ह– जो न मनो -अमनो श
को पाकर आस , यावत् आ मभाव का वघात कर बैठता है, वह शा त को न कर डालता है, शा त भंग करता है,
तथा वयं केवली पत शा तमय धम से हो जाता है ।
श य- वषय दे श म आए ए श का संवेदन न करना कसी तरह संभव नह है, अतः भ ु उन
मनो -अमनो श को पाकर उ प होने वाले राग या े ष का याग करे, यही अभी है । अतः श य से जीव
य-अ य अनेक श का संवेदन करता है; क तु भ ु को उन पर आस , यावत् अपने आ मभाव का वघात
नह करना चा हए ।
इस कार पंच भावना से व श तथा साधक ारा वीकृत प र ह- वरमण प पंचम महा त का काया
से स यक् श करने, पालन करने, वीकृत महा त को पार लगाने, क तन करने तथा अ त तक उसम अव त
रहने पर भगवदा ा के अनु प आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह है– प र ह- वरमण प पंचम महा त ।
इन (पूव ) पाँच महा त और उनक प ीस भावना से स अनगार यथा त ु , यथाक प और
यथामाग, इनका काया से स यक् कार से श कर, पालन कर, इ ह पार लगाकर, इनके मह व का क तन करके
भगवान क आ ा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है । – ऐसा म कहता ँ ।

चू लका– ३ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 123


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

चू लका– ४
अ ययन-१६ – वमु
सू - ५४१
संसार के सम त ाणी जन शरीर आ द म आ माएं आवास ा त करती ह, वे सब ान अ न य ह ।
सव े मौनी वचन म क थत यह वचन सूनकर गहराई से पयालोचन करे तथा सम त भय से मु बना आ
ववेक पु ष आगा रक बंधन का ु सग कर दे , एवं आर और प र ह का याग कर दे ।
सू - ५४२
उस तथाभूत अन त (एके या द जीव ) के त स यक् यतनावान अनुपसंयमी आगम व ान एवं
आगमानुसार एषणा करने वाले भ ु को दे खकर म या अस य वचन के तथा प थर आ द हार से उसी तरह
थत कर दे ते ह, जस तरह सं ाम म वीर यो ा, श ु के हाथी को बाण क वषा से थत कर दे ता है ।
सू - ५४३
असं कारी एवं अस य जन ारा क थत आ ोशयु श द तथा– े रत शीतो णा द श से पी ड़त
ानवान भ ु शा त च से सहन करे । जस कार वायु के बल वेग से भी पवत क ायमान नह होता, वैसे
मु न भी वच लत न हो ।
सू - ५४४
मा यम भाव का अवल बन करता आ वह मु न कुशल-गीताथ मु नय के साथ रहे । स एवं ावर
सभी ा णय को ःख अ य लगता है । अतः उ ह ःखी दे खकर, कसी कार का प रताप न दे ता आ पृ वी क
भाँ त सब कार के परीषहोपसग को सहन करने वाला महामु न जगत्- वभाववे ा होता है । इसी कारण उसे
सु मण कहा गया है ।
सू - ५४५
अनु र मणधमपद म वृ करने वाला जो व ान्-काल एवं वनीत मु न होता है, उस तृ णार हत,
धम यान म संल न समा हत– मु न के तप, ा और यश अ न शखा के तेज क भाँ त नरंतर बढ़ते रहते ह ।
सू - ५४६
षट्काय के ाता, अन त ाना द से स राग- े ष वजेता, जने भगवान से सभी एके या द भाव-
दशा म रहने वाले जीव के लए ेम ान, कम-ब न से र करने म समथ महान गु – महा त का उनके लए
न पण कया है । जस कार तेज तीन दशा के अ कार को न करके काश कर दे ता है, उसी कार
महा त प तेज भी अ कार प कमसमूह को न करके काशक बन जाता है ।
सू - ५४७
भ ु कम या रागा द नब नजनक गृहपाश से बंधे ए गृह के साथ आब – होकर संयम म वचरण
करे तथा य के संग का याग करके पूजा-स कार आ द लालसा छोड़े । इहलोक तथा परलोक म नः ृह होकर
रहे । कामभोग के कटु वपाक का दे खने वाला प डत मु न मनो -श दा द कामगुण को वीकार न करे ।
सू - ५४८
तथा सवसंग वमु , प र ा आचरण करने वाले, धृ तमान– ःख को स यक् कार से सहन करने म समथ,
भ ु के पूवकृत कममल उसी कार वशु हो जाते ह, जस कार अ न ारा चाँद का मैल अलग हो जाता है ।
सू - ५४९
जैसे सप अपनी जीण वचा-कांचली को याग कर उससे मु हो जाता है, वैसा ही जो भ ु प र ा- स ा त
म वृ रहता है, लोक स ब ी आशंसा से र हत, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम म वचरण करना, वह नरका द
ःखश या या कम ब न से मु हो जाता है ।

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 124


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक
सू - ५५०
कहा है– अपार स लल- वाह वाले समु को भुजा से पार करना तर है, वैसे ही संसार पी महासमु
को भी पार करना तर है । अतः इस संसार समु के व प को जानकर उसका प र याग कर दे । इस कार
प डत मु न कम का अ त करने वाला कहलाता है ।
सू - ५५१
मनु य ने इस संसार के ारा जस प से– कृ त- त आ द प से कम बांधे ह, उसी कार उन कम
का वमो भी बताया गया है । इस कार जो व ाता मु न ब और वमो का व प यथात य प से जानता है,
वह मु न अव य ही संसार का या कम का अंत करने वाला कहा गया है ।
सू - ५५२
इस लोक, परलोक या दोन लोक म जसका क च मा भी रागा द ब न नह है, तथा जो साधक
नराल ब है, एवं जो कह भी तब नह है, वह साधु न य ही संसार म गभा द के पयटन के पंच से वमु हो
जाता है । – ऐसा म कहता ँ ।

चू लका– ४ का मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

ुत क -२ का ह द अनुवाद पूण

(१) आचार– थम अ सू का
मु न द पर नसागर कृत् ह द अनुवाद पूण

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 125


आगम सू १, अंगसू -१, ‘ आचार’ ुत क /चू लका/अ ययन/उ े श/सू ांक

नमो नमो न मलदं सण स


પૂ યપાદ્ ી આનંદ- મા-લિલત-સુશીલ-સુધમસાગર ગુ યો નમ:


आचार
आगमसू ह द अनुवाद

[अनुवादक एवं संपादक]

आगम द वाकर मु न द पर नसागरजी


[ M.Com. M.Ed. Ph.D. ुत मह ष ]

વેબ સાઈટ:- (1) www.jainelibrary.org (2) deepratnasagar.in

ઈમેલ એડે સ:- jainmunideepratnasagar@gmail.com મોબાઇલ 09825967397

मु न द पर नसागर कृत् “ ( आचार)” आगमसू - ह द-अनुवाद” Page 126

You might also like