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निचाट गगन के नीचे ऊसर भूमि पर खाट पड़ी है। आँगन में छाँह को बबूल कोई पीले तो कोई

गुलाबी
कु सुमों से उत्फु ल्ल, पाँव यदि धरती पर नंगा पड़े तो गोखरू के झंखाड़ दूर खज़ूर और दूर, दूर दीठ
जाए तो आमों के बाग़ों की साँवली छाँहें। कु एँ में रीता डोल डु लने की ढनढन से जब जी उचटता तो वह
नौजवान गवैया खटिया के नीचे ढु रकती लुटिया उठाकर घूँट भरता, बबूल के फू लों के झुरमुट में बैठी
कोयल पंचम में बोलती उड़ती जाती। उसकी घरवाली भानुमती अपने पिटारे से निकाल कोई दुर्लभ
जड़ी उसे खवाती और निरास नज़र नभ निहारती रहती। एक फे फड़े की हवा निकल गयी थी, फु ग्गा
फ़ु जुल हुआ। अब दूसरे फे फड़े के भरोसे ही उसके आदमी को गाना, खाना और उसके संग संसार
करना है। संझा होते हल्का सा ज्वर चढ़ जाता, ऐसा ताप जो जिसे लगे उसे चिड़चिड़ाए और उस
ज्वरग्रस्त का जो आलिंगन करे उसे सुखद आँच लगे। रातें मालवा की शीतल होती अँधेरा होते ही सुदूर
मोर बोलने लगते। शुद्ध षडज की टेर रात भर जगाए रखती, भानुमती पति का जागना सोते हुए भी
समझ जाती, चिढ़कर पूछती, जागते रहोगे तो ठीक कै से होगे? “ठीक कै से हूँगा? ठीक कै से
हूँगा?” गवैया दोहराता जाता। चार बजे पपीहे जब बोलने लगते तो दोनों मियाँ-बीवी जाग जाते। भोर
की खटपट शुरू हो जाती।

बाज़ारों में लग्नसरा की रौनक़ें थी, गए बरस हुए अपने ब्याह का स्मरण गायक को हो आता। बस पीछे
यक्ष्मा ने पकड़ा और देवास आ पड़े। देवास- देवी का टीला और उसके आसपास बसी पंवारों की
रियासत, चलते चलते ईएम फ़ॉर्स्टर की कोठी तक पहुँच जाते। देश में आज़ादी मिलने को लेकर बड़ा
उल्लास है मगर गायक को अपना अंतर सुन्न महल सा अनुभव होता जहाँ जो आता गुड़ुप से डू ब जाता।
जीने के दो सम्बल थे- एक जो भीतर कोई राग विलंबित चलता था वह और दूसरी उसकी घरवाली
भानुमती। बीस की उमर में ही भारत-व्यापी ख्यात अपने पति को दूर से आता देखकर भानुमती हताश
हो जाती थी। “उनका नाम गंधर्व है मगर वे गा नहीं सकते। एक सुर तक लगाने की मनाही, डॉक्टरों
और हकीमों का हठ और उससे बड़ी टीबी रोग की तानाशाही थी।

उस दिन आखातीज थी, आते ग्रीष्म का पर्व। ख़रबूज़ों, सत्तू की बहारें थी, कोई ख़स तो कोई
फालसों का शर्बत पी रहा था। शिप्रा में डु बकियाँ लगाकर स्त्री-पुरुष आनेवाले निदाघ के लिए ख़ुद को
तैयार कर रहे थे। माथे पर ठंडे चंदन का तिलक लगाए तर्पण-दान और अर्चना-आराधन में मशगूल थे
यह विचार कि आज का किया अनन्त काल तक अक्षय रहता है, शाम को उस्ताद रजब अली खाँ की
राजदरबार में महफ़िल थी, उनके घर से आते जाते रुद्रवीणा पर बजता सारंग सुनायी दे जाता- कु मार
गंधर्व के जीवन में उतना ही संगीत शेष था। नाम गंधर्व और गूँगा! क्या कोई बाजा पकड़ ले? कं ठ से
बढ़कर जगत में कौन सा बाजा था जिसमें शहनाई की तरह श्वास भी और बीन की भाँति तंत्री भी
जिसमें मृदंग का घन गर्जन और सारंगी का धर्षणी रुदन भी शामिल। न कोई बाजा न उठाऊँ गा, मेरा
बाजा मेरा कं ठ अब चाहे बजे या अनन्तकाल तक शान्त रहे।

सभा चित्रलिखित सुन रही थी, अच्छे ख़ासे कानसेन अवाक् थे। उस्ताद रजब अली खाँ मारवा गा रहे
थे। सुनना क्या शून्य का अपभ्रंश है? कु मार गंधर्व ने सोचा। सुननेवाला नीरव हो जाता है, शून्य हो
जाता है। भाषाविद् श्रवण से सुनना चाहे माने तजुर्बे से गंधर्व ने आज जाना कि गायक शून्य में गाता है।
शून्य के बिना संगीत सम्भव नहीं पर संगीत तो संगति के बिना भी सम्भव नहीं। हलाफ़ियों के ईसा से
छह हज़ार वर्ष पूर्व जब तेल गुज़ाना में मिट्टी का पहला पहिया गढ़ा होगा, सिफ़र की तरह दिखनेवाला
पहिया और उसे पथरीली ज़मीन पर ढरकाते हुए कोई आविष्कारक ले गया होगा तब हलाफ़ियों ने पहले
क्या पाया होगा? संगीत या शून्य? हलाफ़ियों के हिसाब किताब में शून्य कहीं नहीं मिलता और वे
क्या गाते बजाते थे इसका भी पता नहीं मगर कु छ गाते तो होंगे ही। ढरकते पहिए से उन्हें एक राग
चलता हुआ तो सुनाई दिया ही होगा।

जागरण, स्वप्न और निद्रा के बाद तुरीय अर्थात् चौथा अर्थात् शून्य है इसलिए चौथा हमारे यहाँ पहला
है। ब्रह्मा ने तिथियों में सबसे पहले चतुर्थी गढ़ी। जब दूसरा नहीं तब तुरीयावस्था है। इसका अर्थ है जब
दूसरा नहीं तब पहला न होकर शून्य होता है तो जब सुननेवाले शून्य होते है तब गानेवाला भी नहीं
बचता। शून्य गुणा शून्य बराबर शून्य। तब न कोई गाता है न सुनता है। शून्य से पूर्व बस गिनती और
शून्य के संग गणना। सिफ़र जो नहीं है उसका हिसाब है मगर जो है, जो हो सकता है उसका हिसाब भी
सिफ़र के कारण बाएँ हाथ का खेल है। शून्य से कल्पना खुलती है, उपज का मूल शून्य में है नहीं तो
दस अंगुलियों से आगे मानुषजात की क्या बिसात। शून्य के भरोसे यदि गौतम ने गोपा का हाथ माँगते
समय एक योजन में कितने अणु होते है यह बता दिया था तो क्या कु मार गंधर्व अपने सुन्न हो चुके
फे फड़े के बल पर गा नहीं सकता? आर्यभट्ट ने शून्य को ख कहा और छान्दोग्य ब्राह्मण के ऋषि ने
कहा प्राणो ब्रह्म कं ब्रह्म खं ब्रह्मेति, प्राण ब्रह्म है , आनंद ब्रह्म और आकाश ब्रह्म है। ख अर्थात् शून्य
अर्थात् आकाश और आकाश का गुणधर्म है नाद। संगीत शून्य की सन्तति है। कु मार गंधर्व को यह सब
सोचते हुए चक्कर आ गए- सुननेवाले शून्य, गायक शून्य और अब संगीत भी शून्य। जो पीछे लगी गादी
से लुढ़कने को हुए तो सभा में हल्ला मच गया। शून्य से सहसा संसार प्रकट हो गया।

“बैठे बैठे पाँव सुन्न हो गया जो लुढ़क पड़े?” किसी ने पूछा। कोई चिल्लाया, “बचाओ, पाँव सुन्न नहीं
हुआ है माथा शून्य की तरह घूम गया है जवान का”। “अरे पकड़ो, सम्भालो, उठाओ” दो लोगों ने
दूसरे कमरे में ले जाकर तकिया लगाया और एक षोडशी कु मार गंधर्व को बेना डु लाने लगी। “न, यह
तुरीयावस्था नहीं यह तो कोई पाँचवी ही स्थिति है” बड़बड़ाते कु मार गंधर्व को हवास हुआ तो षोडशी ने
कहा, “मूर्च्छा थी। आप अचेतन हो गए थे”।

“आप कौन है?” कु मार गंधर्व उठकर बैठ गए। षोडशी ने जल से भरा लोटा आगे किया, “मैं
महाश्वेता हूँ”। अपरिचित पुरुष अतिथि का भी चिर परिचित की भाँति स्वागत करनेवाली शुद्धमना
महाश्वेता। श्वेताम्बरी, और स्फटिक की अक्षमाला कं ठ में धारण करनेवाली उस महाश्वेता से कु मार
गंधर्व ने पूछा, “तुम क्या करती हो?” महाश्वेता ने निकट धरी बीन की ओर संके त करते हुए कहा,
“रुद्रवीणा बजाकर भगवान महादेव को प्रसन्न करती हूँ”। कु मार गंधर्व ने महाश्वेता को धन्यवाद कहकर
प्रणाम किया और पाँव पाँव घर लौट आए।

पति के आने से पूर्व उनके अचेत होने का संदेश भानुमती तक पहुँच गया था। द्वार से लगी ही खड़ी थी।
आले में दीपक जल रहा था और रास्ते पर नई नई बनी भारतीय सरकार के बिजली के लट्टू। “मन को
इतना कष्ट दोगे, मगज पर इतना ज़ोर डालोगे तो शरीर ठीक होगा?” भानुमती ने पति के पैर धुलाते
हुए कहा। पानी गरम करके रखा था। कु मार गंधर्व को गरम पानी भी ठंडा लगा, हरारत थी। कीटाणु
पँसलियाँ खा रहे थे मगर दूर बकरी का रोना सुनकर मन वहाँ अटक गया, कै सा शुद्ध स्वर। मोर,
पपीहे, बकरी, कौएँ सब गाते है। नाली में बहता अशुद्ध जल तक सुरीला छोड़ एक मुझे। बैंगन के भर्ते
के साथ ज्वार की भाकरी भानुमती ने बनाई थी मगर ज्वार की तासीर शीतल होती है यह सोचकर
दूसरा आटा गूँधने बैठ गई थी।

खटराग में जीवन खँप जाता है तो क्या एक ही राग में पाँच साल नहीं कट सकते। कट सकते हैं और
कटें। स्ट्रेप्टोमाइसिन की वटी भी पहिए की तरह, शून्य की भाँति, गोल थी जो लुढ़कते-ढु रकते किसी
प्रकार देवास तक कु मार गंधर्व की जान बचाने पहुँच गई थी। जैसे सिफ़र की ईजाद भले मगरिब में हुई
हो उसे नम्बर के आगे लगाकर हिंदुस्तानियों ने उसकी बड़ाई को दस गुना कर दिया उसकी तरह
कीटाणु को कीटाणु से मारनेवाली इस गोली ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में शान्तरस को स्थापित
किया।
शान्तरस का स्थायी भाव है सम और जब गवैया सम पर आता है समय थम जाता है, नीरवता छा
जाती है। संगीत में शान्तरस कै सा? जब सब शान्त है तो संगीत कहाँ है? महाभारत से सहृदयों को
आनंदित करनेवाले शान्तरस की स्थापना देनेवाले अभिनवगुप्त से ठीक हज़ार साल बाद कु मार गंधर्व के
संगीत में शान्तरस ऐसे घुल जाता है जैसे ब्राह्मी से भरे जल में विद्वता और स्मृति घुल जाती है। इतने
दिन जो शान्त रहा उसके राग से किसी दीग़र रस की निष्पत्ति कै से सम्भव है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय
संगीत के प्राण तो भई शृंगार नामक शुक में बसते है, यह शान्तरस किस चिड़िया का नाम है?
गीतगोविन्द की भूमि पर जैसे महापरिनिब्बनसुत्त कोई गाने लगे- गौतम बुद्ध के देह त्यागने का गान।
निर्वेद, मति, विबोध, स्मृति, वैराग्य, तर्क , अनिच्छा, निरहंकार, तप, समदृष्टि, जगत के भंगुर
होने की प्रतीति, ब्रह्मज्ञान इत्यादि शान्तरस के व्यभिचारी भाव है। शृंगार, अद्भुत, वीर आदि का गायन
तो भारतीय शास्त्रीय संगीत में होता रहा था, जिसकी निष्पत्ति हेतु सांगीतिक अलंकारों की योजना
भगवान हनुमान से लेकर शास्त्रीय संगीत के नवीनतम आचार्यों ने कर रखी थी। शान्तरस चर्वणा के लिए
राग से क्या घटाना और क्या जोड़ना है यह ज्ञान कु मार गंधर्व ने बहुत श्रम, समय और भानुमती के
सन १९५६ में हुए देहान्त से पाया था। बीस की वय में जो उनकी शिष्या बनी और बाईस में संगिनी।
अभिनवगुप्त ध्वन्यालोक की लोचन में बताते है कि शृंगार से सीधे शान्तरस में नहीं जाना चाहिए। एक
मध्यस्थ रस आवश्यक है जो शृंगार का भी सखा हो शान्तरस से भी जिसकी मैत्री हो। यह के वल अद्भुत
रस हो सकता है। ईश्वर चाहे तब भी षडज पंचम की भाँति सुनाई नहीं दे सकता और इसलिए शुद्ध स्वर
दिव्य होता है, उसके दर्शन से सहृदयों में आश्चर्य नामक स्थायीभाव प्रकट होता है। स्वकीया से शृंगार
और पश्चात् उसकी मृत्यु में अद्भुत कु मार गंधर्व ने देखा ही होगा।

दूसरे सभी आठ रसों का आविर्भाव शान्तरस से ही होता है और पूर्वस्मृतियों के कारण शान्त में कभी
शृंगार या कभी वीर कभी बीभत्स का अध्यास होता है। कु मार गंधर्व के फे फड़ा खोने के पश्चात् गाए
रागों और भजनों से श्रोताओं को अन्य सभी रस अध्यास है ऐसा ही प्रतीत हुआ। यह संगीत का
ब्रह्मज्ञान था। अब तक जो रस्सी है वह सर्पवत् दिखाई देती थी, अब तक शान्त शृंगार, करुण, अद्भुत
सुनाई पड़ता था। शान्तरस का यह ज्ञान कितना अशान्त करनेवाला था। शान्तरस यथार्थ में अशान्त
करनेवाला ही होता है। जैसे शृंगार में रस की पूर्ण परिणति रतिक्रीड़ा का प्रदर्शन निषेध है उसी प्रकार
शान्त की परिणति का गायन या प्रदर्शन भी सम्भव नहीं। यह मात्र अनुभव ही किया जा सकता है और
यह भीतर उत्पन्न अशांति से ही अनुभव होता है। भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश ग्रंथ शान्तरस प्रदीप्त
है चाहे वे उपनिषद हो, भाष्य, वार्तिक, टीका इत्यादि हो या महाभारत। गाँधी का सम्पूर्ण साहित्य
और भारतीय संविधान का मूल रस शान्त ही है ऐसा कहते मुझे गुरेज़ नहीं, कु मार गंधर्व को भी न
होता। कु मारजीव द्वारा चीनी में अनूदित नागार्जुन की संस्कृ त जीवनी भी तो मूलतः शान्तरस की कृ ति
है।

राग संगीतकार के कारण है तब यदि राग नहीं है तो संगीतकार नहीं है। इस प्रकार मूलतः न राग है न
संगीतकार है। यदि दोनों नहीं है तो दोनों का अभाव भी नहीं हो सकता। जो होता है उसी का अभाव
होता है। जो हुआ ही नहीं उसका अभाव कै से सम्भव है। इस प्रकार गाते गाते कु मार गंधर्व जब जब सम
पर पहुँचते वहाँ शून्य सुनाई देता। शून्य में भी चतुष्कोटि न्याय से कोई शून्यता नहीं है।
कु मार गंधर्व के गाए राग शंकरा की बड़ी धूम है। एक बार उन्होंने के दार गाया। के दार मतलब चारों
दिशाओं से जल से भलीभाँति भरा हुआ खेत, जिसके नाथ भगवान शंकर है। तीव्र और शुद्ध दोनों
मध्यम जिसमें उमापति के दो नेत्रों की भाँति शोभा पाते है और तीसरा नेत्र उसे सुननेवालों के भीतर
खुलता है। बताते है के दार विलुप्त राग दीपक का पुत्र है, इसे सीधे नहीं सुनना चाहिए। गायक दूर बैठा
हो तब सुनना चाहिए। एक बार विष्णु उमा-महेश्वर से मिलने पहुँचे, देर हो गई थी और कपाट लगाकर
पति-पत्नी सोने चले गए। चंदन का किवाड़ पकड़े विष्णु ने के दार गाया। इसमें वियोग भी है और भीतर
उमा महेश्वर का संयोग भी। माध्यमकों के शून्य को भरने के लिए कु मार गंधर्व ने संगीत में शून्य की
खोज की। अंद्रे मर्लू के वचन “Les grands artistes ne sont pas
les transcripteurs du monde ; ils en sont les ri-
vaux” के अनुसार कलाकार दुनिया को बहियों में दर्ज करनेवाला मुनीम न होकर दुनिया का
रक़ीब है। एक शून्य के बरक्स दूसरे शून्य को गढ़नेवाले गंधर्व ने अनूपराग विलास नाम्नी एक पुस्तक भी
लिखी थी।

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