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हिंदी पोर्टफोलियो

नाम: सिद्धेश यादव


कक्षा: १०
रोल: 33
शिक्षक का नाम: सपना मैम
सेशन: 2020-2021
अभिस्वीकृ ति
मैं अपनी अध्यापिका (सपना राय) का सहृदय धन्यवाद करना चाहती हूं
की उन्होंने मुझे इतनी शिक्षाप्रद परियोजना बनाने का यह अवसर
प्रदान किया। इस परियोजना से मुझे (हिदं ी पोर्टफोलियो ) के बारे में
बहुत कु छ सीखने को मिला। मैं अपने माता -पिता का भी हार्दिक
धन्यवाद करना चाहू गं ा क्योंकि उनकी सहायता के बिना यह
परियोजना बनाना सफल नही हो पाता। मैं भविष्य में भी ऐसी
शिक्षाप्रद परियोजना बनाने की आशा करती हू ।ँ
धन्यवाद,
कर चले हम फिदा कविता
– कै फी आजमी

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो


अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कु छ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो


अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर


जान देने के रुत रोज़ आती नहीं
हस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वह जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
आज धरती बनी है दुलहन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

राह कु र्बानियों की न वीरान हो


तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले
फतह का जश्न इस जश्न‍के बाद है
ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले

बांध लो अपने सर से कफ़न साथियो


अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मी पर लकीर


इस तरफ आने पाए न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियो

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो


विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

उ सी उ दा र की क था स र स् व ती ब खा न वी ¸
उ सी उ दा र से ध रा कृ ता र्थ भा व मा न ती ।
उ सी उ दा र की स दा स जी व की र्ति कू ज ती ;
त था उ सी उ दा र को स म स् त सृ ष्टि पू ज ती ।
अ ख ण् ड आ त् म भा व जो अ सी म वि श् व में भ रे ¸
व ही म नु ष् य है कि जो म नु ष् य के लि ये म रे ।
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृ ता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸


समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸


पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸


विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढके लते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में


सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

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