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ौीमद्भगवद्गीता

भगवद्गीता िहन्द ू धमर् की पिवऽतम मन्थों में से एक है । ौी कृ ंण ने गीता का सन्दे श पाण्डव


र् को सुनाया था । ये एक ःमृित मन्थ है । इसमें एकेश्वरवाद की बहुत सुन्दर ढं ग
राजकुमार अजुन
से चचार् हुई है ।

ौीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूिम महाभारत का युद्घ है । िजस ूकार एक सामान्य मनुंय अपने जीवन
की समःयाओं में उलझकर िकंकतर्व्यिवमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात ् जीवन के समरांगण
से पलायन करने का मन बना लेता है । उसी ूकार अजुन
र् जो िक महाभारत का महानायक है अपने
सामने आने वाली समःयाओं से भयभीत होकर जीवन और कमर्क्षेऽ से िनराश हो गया है । अजुन
र्
की तरह ही हम सभी कभी-कभी अिनश्चय की िःथित में या तो हताश हो जाते हैं और या िफर
अपनी समःयाओं से उिद्वग्न होकर कतर्व्य िवमुख हो जाते हैं । भारत वषर् के ऋिषयों नें गहन िवचार
के पश्चात ् िजस ज्ञान को आत्मसात ् िकया उसे उन्होंने वेदों का नाम िदया। इन्हीं वेदों का अंितम
भाग उपिनषद कहलाता है । मानव जीवन की िवशेषता मानव को ूाप्त बौिद्धक शिक्त है और
उपिनषदों में िनिहत ज्ञान मानव की बौिद्धकता की उच्चतम अवःथा तो है ही, अिपतु बुिद्ध की
सीमाओं के परे मनुंय क्या अनुभव कर सकता है यह हमारे उपिनषद् एक झलक िदखा दे ते हैं ।
उसी औपिनषदीय ज्ञान को महिषर् वेदव्यास ने सामान्य जनों के िलए गीता में संिक्षप्त रूप में ूःतुत
िकया है । वेदव्यास की महानता ही है , जो िक 11 उपिनषदों के ज्ञान को एक पुःतक में बाँध सके
और मानवता को एक आसान युिक्त से परमात्म ज्ञान का दशर्न करा सके।
ूथमोअध्यायः


ौीपरमात्मने नमः
ौीमद्भगवतगीता
अथ ूथमोध्यायः

धृतराष्टर् उवाच

धमर्क्षेऽे कुरूक्षेऽे समवेता युयत्


ु सवः। मामकाः पाण्डवाच्चैव िकमकुवर्त संजय।।

धृतराष्टर् बोले- हे संजय ! धमर्भिू म कुरूक्षेऽ में एकिऽत, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुऽों
ने क्या िकया ? ।। 1।।

संजय उवाच

दृष्टर्ा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दय


ु ोर्धनःतदा। आचायर्मप
ु सडग्म्य राजा वचनमॄवीत ्।।

ु ोर्धन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को दे खकर और िोणाचायर्


संजय बोले- उस समय राजा दय
के पास जाकर यह वचन कहा ।। 2।।

पँयैतां पाण्डु पुऽाणामाचायर् महतीं चमूस ्। व्यूढ़ां िप


ु दपुऽेण तव िशंयेण धीमता।।

ु दपुऽ धृष्टद्युॆ द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुऽों की


हे आचायर् ! आपके बुिद्धमान िशंय िप
इस बड़ी भारी सेना को दे िखये।। 3।।

अऽ शूरा महे ंवासा भीमाजुन


र् समा युिध। युयुधानो िवराटच्ौ िप
ु दच्ौ महारथः।।
धृष्टकेतुच्ौेिकतानः कािशराजच्ौ वीयर्वान ्। पुरूिजत्कुिन्तभोजच्ौ शैब्यच्ौ नरपुग्ङवः।।
युधामन्युच्ौ िवबान्त उत्तमौजाच्ौ वीयर्वान ्। सौभिो िौपदे याच्ौ सवर् एव महारथाः।।

इस सेना में बड़े -बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अजुन
र् के समान शूरवीर साित्यक और िवराट
ु द, धृष्टकेतु और चेिकतान तथा बलवान ् कािशराज, पुरूिजत ्, कुिन्तभोज और
तथा महारथी राजा िप
मनुंयों में ौेष्ठ शैब्य, पराबमी युधामन्यु तथा बलवान ् उत्तमौजा, सुभिापुऽ अिभमन्यु एवं िौपदी
के पाँचों पुऽ- ये सभी महारथी हैं ।। 4-6।।
अःमाकं तु िविशष्टा ये तािन्नबोध िद्वजोत्तम। नायका मम सैन्यःय सज्ज्ञाथर् तान ् ॄवीिम ते।।

हे ॄाह्मण ौेष्ठ ! अपने पक्ष में जो भी ूधान हैं , उनको आप समझ लीिजए। आपकी जानकारी के
िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं , उनको बतलाता हूँ।। 7।।

भवान ् भींमच्ौ कणर्च्ौ कृ पच्ौ सिमितज्जयः। अश्वत्थामा िवकणर्च्ौ सौमदित्तःतथैव च।।

आप- िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही
अश्वत्थामा, िवकणर् और सोमदत्त का पुऽ भूिरौवा।। 8।।

अन्ये च बहवः शूरा मदथेर् त्यत्तजीिवताः। नानाशस्तर्ूहरणाः सवेर् युद्धिवशारदाः।।

और भी मेरे िलए जीवन की आशा त्याग दे ने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक ूकार के शास्तर्ों से
सुसिज्जत और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं ।। 9।।

अपयार्प्तं तदःमाकं बलं भींमािभरिक्षतम ्। ूयार्प्तं ित्वदमेतेषां बलं भीमािबरिक्षतम ्।।

भींम िपतामह द्वारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम द्वारा रिक्षत इन लोगों
की यह सेना जीतने में सुगम है ।। 10।।

अयनेषु च सवेर्षु यथाभागमविःथताः। भींममेवािभरक्षन्तु भवन्तः सवर् एव िह।।

इसिलए सब मोचोर्ं पर अपनी-अपनी जगह िःथत रहते हुए आपलोग सभी िनःसन्दे ह भींम
िपतामह की ही सब ओर से रक्षा करें ।। 11।।

तःय सज्जनयन ् हषर् कुरूवृद्धः िपतामहः। िसंहनादं िवनद्योच्चैः शंख्ङ दध्मौ ूतापवान ्।।

कौरवों में वृद्ध बड़े ूतापी िपतामह भींम ने उस दय


ु ोर्धन के ॑दय में हषर् उत्पन्न करते हुए उच्च
ःवर से िसंह की दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया।। 12।।

र् ौ पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दःतुमुलोऽभवत ्।।


ततः शंखाच्ौ भेयच्

इसके पश्चात ् शंख और नगाडे ़ तथा ढोल, मृदग्ङ और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज उठे ।
उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।
ततः श्र्वेतैहर्यैयक्त
ुर् े महित ःयन्दने िःथतौ। माधवः पाण्डवच्ौैव िदव्यौ शन्खौं ूदध्मतुः।।

इसके अन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए ौीकृ ंण महाराज और अजुन
र् ने भी अलौिकक
शंख बजाये।। 14।।

पाच्ञजन्यं ह्वषीकेसो दे वदत्तं धनज्जयः। पौण्सं दध्मौ महाशंख्ङौ भीमकमार् वृकोदरः।।

ौीकृ ंण महाराज ने पाच्ञजन्य-नामक, अजुन


र् ने दे वदत्त नामक और भयानक कमर्वाले भीमसेन
ने पौण्स-नामक महाशंख्ङ बजाया।। 15।।

अनन्तिवजयं राजा कुन्तीपुऽो युिधिष्ठरः। नकुलः सहदे वश्र्च सुघोषमिणपुंपकौ।।

कुन्तीपुऽ राजा युिधिष्ठर ने अनन्तिवजय-नामक और नकुल तथा सहदे व ने सुघोष और


मिणपुंपक-नामक शंख्ङ बजाये।। 16।।

काँयश्र्च परमेंवासः िशखण्डी च महारथः। धृष्टद्युॆो िवराटश्र्च सात्यिकच्ौापरािजतः।।


ु दो िौपदे याश्र्च सवर्शः पृिथवीपते। सौभिश्र्च महाबाहुः शंखन्दध्मुः पृथक्पृथक् ।।
िप

ौेष्ट धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा िवराट और अजेय
साित्यक, राजा िप
ु द एवं िौपदी के पाँचों पुऽ और बड़ी भुजावाले सुभिापुऽ अिभमन्यु- इन सभी
ने, हे राजन ् ! सब ओर से अलग-अलग शंख्ङ बजाये।। 17-18।।

स घोषो धातर्राष्टर्ाणां ॑दयािन व्यदारयत ्। नभश्र्च पृिथवीं चैव तुमल


ु ो व्यनुनादयन ्।।

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धातर्राष्टर्ों के अथार्त ् आपके पक्षवालों
के ॑दय िवदीणर् कर िदये।। 19।।
अथ व्यिःथतान्दृष्टर्ा धातर्राष्टर्ान ् किपध्वजः। ूवृत्ते शॐसम्पाते धनुरूद्यम्य पाण्डवः।।
॑षीकेशं तदा वाक्यिमदमाह महीपते।
अजुन
र् उवाच
सेनयोरूभयोमर्ध्ये रथं ःथापय मेऽच्युत।।

र् ने मोचार् बाँधकर डटे हुए धृतराष्टर्-सम्बिन्धयों को दे खकर,


हे राजन ् ! इसके बाद किपध्वज अजुन
उस शस्तर् चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ॑षीकेश ौीकृ ंण महाराज से यह वचन कहा-
हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीचमें खड़ा कीिजये।। 20-21।।

यावदे तािन्नरीक्षेऽहं योद्दाकामानविःथतान ्। कैमर्या सह योद्धव्यमिःमन ् रणसमुद्यमे।।

और जब तक िक मैं युद्धक्षेऽ में डटे हुए युद्ध के अिभलाषी इन िवपक्षी योद्धाओं को भली ूकार
दे ख लूँ िक इस युद्धरूप व्यापार में मुझे िकन-िकन के साथ युद्ध करना योग्य है , तब तक उसे खड़ा
रिखये।। 22।।

योत्ःयमानानवेक्षेऽहं य एतेऽऽ समागताः। धातर्राष्टर्ःय दब


ु ुद्ध
र् े यद्ध
ुर् े िूयिचकीषर्वः।।

दब ु ोर्धन का युद्ध में िहत चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है , इन युद्ध
ु िुर् द्ध दय
करनेवालों को दे खूँगा।। 23।।

संजय उवाच
एवमुक्तो ॑षीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरूभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथोत्तमम ्।।
भींमिोणूमुखतः सवेर्षां च महीिक्षताम ्। उवाच पाथर् पँयैतान ् समवेतान ् कुरूिनित।।

संजय बोले- हे धृतराष्टर् ! अजुन


र् द्वारा इस ूकार कहने पर, महाराज ौीकृ ंणचन्ि ने दोनों सेनाओं
के बीच में भींम और िोणाचायर् के सामने तथा सम्पूणर् राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके
इस ूकार कहा िक हे पाथर् ! युद्ध के िलये जुटे हुए इन कौरवों को दे ख।। 24-25।।

तऽापँयित्ःथतान ् पाथर्ः िपतृनथ िपतामहान ्। आचायार्न्मातुलान्ॅातृन्पुऽान्पौऽान्सखींःतथा।।


श्र्वशुरान ् सु॑दश्र्चैव सेनयोरूभयोरिप।

र् ने उन दोनों ही सेनाओं में िःथत ताऊ-चाचाको, दादों-परदादोंको,


इसके बाद पृथापुऽ अजुन
गुरूओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुऽोको, पौऽोंको तथा िमऽोंको, ससुरोंको और सु॑दोंको भी दे खा।।
26।। और 27 वें का पूवार्ध।र् ।
तान ् समीआय स कौन्तेयःसवार्न ् बन्धूनविःथतान ्।। कृ पया परयािवष्टो िवषीदिन्नदमॄवीत ्।

उन उपिःथत सम्पूणर् बन्धुओं को दे खकर वे कुन्तीपुऽ अजुन


र् अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक
करते हुए यह वचन बोले।। 27वेंका उत्तराधर् और 28वेंका पूवार्ध।र् ।

अजुन
र् उवाच

दृष्टेमं ःवजनं कृ ंण युयत्


ु सुं समुपिःथतम ्।। सीदिन्त मम गाऽािण मुखं च पिरशुंयित।
वेपथुश्र्च शरीरे में रोमहषर्श्र्च जायते।।

र् बोले- हे कृ ंण ! युद्धक्षेऽ में डटे हुए युद्ध के अिभलाषी इस ःवजनसमुदाय को दे खकर मेरे
अजुन
अग्ङ िशिथल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो
रहा है ।। 28 वेंका उत्तराधर् और 29।।

गाण्डीवं ॐंसते हःतात्त्वक्चैव पिरदह्मते। न च शबोम्यवःथातुं ॅमतीव च में मनः।।

हाथसे गाण्डीव धनुष िगर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन ॅिमत सा हो
रहा है , इसिलए मै खड़ा रहने को भी समथर् नहीं हूँ।। 30।।

िनिमत्तािन च पँयािम िवपरीतािन केशव। न च ौेयोऽनुपँयािम हत्वा ःवजनमाहवे।।

हे केशव ! मैं लक्षणों को भी िवपरीत ही दे ख रहा हूँ तथा युद्ध में ःवजन-समुदायको मारकर कल्याण
भी नहीं दे खता।। 31।।

न काङक्षे िवजयं कृ ंण न च राज्यं सुखािन च। िकं नो राज्येन गोिवन्द िकं भोगैजीर्िवतेन वा ।।

हे कृ ंण ! मै न तो िवजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही। हे गोिवन्द ! हमें ऐसे राज्य
से क्या ूयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ।। 32।।

येषामथेर् कािङक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखािन च। त इमेऽविःथता युद्धे ूाणांःत्यक्त्वा धनािन च।।

हमें िजनके िलए राज्य, भोग और सुखािद अभीष्ट है , वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको


त्यागकर युद्धमें खड़े हैं ।। 33।।
आचायार्ः िपतरः पुऽाःतथैव च िपतामहाः। मातुलाः श्र्चशुराः पौऽाः ँयालाः सम्बिन्धनःतथा।।

गुरूजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी ूकार दादे , मामे, ससुर, पौऽ, साले तथा और भी संबंधी लोग
है ।। 34।।

ू न। अिप ऽैलोक्यराज्यःय हे तोः िकं नु महीकृ ते।।


एतान्न हन्तुिमच्छािम यतोऽिप मधुसद

हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको मारना
नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए कहना ही क्या है ? ।। 35।।

िनहत्य धातर्राष्टर्ान्नः का ूीितः ःयाज्जनादर् न। पापमेवाौयेदःमान ् हत्वैतानातताियनः।।

हे जनादर् न ! धृतराष्टर् के पुऽोंको मारकर हमें क्या ूसन्नता होगी ? इन आततािययों को मारकर
तो हमें पाप ही लगेगा।। 36।।

तःमान्नाहार् वयं हन्तुं धातर्राष्टर्ान ् ःवबान्धवान ्। ःवजनं िह कथं हत्वा सुिखनः ःयाम माधव।।

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्टर् के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं हैं , क्योिकं
अपने ही कुटु म्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।। 37।।

यद्यप्येते न पँयिन्त लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृ तं दोषं िमऽिोहे च पातकम ्।।


कथं न ज्ञेयमःमािभः पापादःमािन्नवितर्तुम ्। कुलक्षयकृ तं दोषं ूपँयिद्धजर्नादर् न।।

यद्यिप लोभ से ॅष्टिचत्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोषको और िमऽों से िवरोध करने
में पाप को नहीं दे खते, तो भी हे जनादर् न ! कुल के नाशसे उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों
को इस पाप से हटने के िलये क्यों नहीं िवचार करना चािहए ? ।। 38-39।।

कुलक्षये ूणँयिन्त कुलधमार्ः सनातनाः। धमेर् नष्टे कुलं कृ त्ॐमधमोर्ऽिभभवत्यतु।।

कुल के नाश से सनातन कुल-धमर् नष्ट हो जाते हैं , धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कुल में पाप
भी बहुत फैल जाता है ।। 40।।
अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंु यित कुलिॐयः। ॐीषु दष्ट
ु ासु वांणेर्य जायते वणर्संक्ङरः।।

हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कुल की िस्तर्याँ अत्यन्त दिू षत हो जाती हैं और हे वांणेर्य
! िस्तर्यों के दिू षत हो जाने पर वणर्संक्ङर उत्पन्न होता है ।। 41।

संक्ङरो नरकायैव कुलयानां कुलःय च । पतिन्त िपतरो ह्वोषां लुप्तिपण्डोदकिबयाः।।

वणर्संक्ङर कुलघाितयों को कुल को नरक में ले जाने के िलए हीहोता है । लुप्त हुई िपण्ड और जल
की िबया वाले अथार्त ् ौाद्ध और तपर्णसे विञ्चत इनके िपतरलोग भी अधोगित को ूाप्त होते हैं ।।
42।।

दोषैरेतैः कुलयानां वणर्सक्


ं ङरकारकैः। उत्साद्यन्ते जाितधमार्ः कुलधमार्श्र्च शाश्र्वताः।।

इन वणर्संक्ङरकारक दोषों से कुलघाितयों के सनातन कुल-धमर् और जाित-धमर् नष्ट हो जाते हैं ।।


43।।

उत्सन्नकुलधमार्णां मनुंयणां जनादर् न। नरकेऽिनयतं वासो भवतीत्यनुशुौम


ु ।।

हे जनादर् न ! िजनका कुल धमर् नष्ट हो गया है , ऐसे मनुंयों का अिनिश्चत कालतक नरक में वास
होता है , ऐसा हम सुनते आये हैं ।। 44।।

अहो बत महत्पापं कतुर् व्यविसता वयम ्। यिाज्यसुखलोभेन हन्तुं ःवजनमुद्यताः।।

हा ! शोक ! हमलोग बुिद्धमान होकर भी महान ् पाप करने को तैयार हो गया हैं , जो राज्य और
सुख के भोग से ःवजनों को मारने के िलए उद्यत हो गये हैं ।। 45।।

यिद मामूतीकारमशस्तर्ं शस्तर्पाणयः। धातर्राष्टा रणे हन्युःतन्मे क्षेमतरं भवेत ्।।

यिद मुझ शस्तर्रहित एवं सामना न करने वाले को धृतराष्टर् के पुऽ रण में मार डालें तो वह मारना
भी मेरे िलए अिधक कल्याणकारक होगा।। 46।।
संजय उवाच

एवमुक्त्वाजुन
र् ः सऔख्ये रथोपःथ उपािवशत ्। िवसृज्य सशरं चापं शोकसंिवममानसः।।

संजय बोले- रणभूिम में शोक से उिद्वम मनवाले अजुन


र् इस ूकार कहकर, बाणसिहत धनुष को
त्यागकर रथ के िपछले भाग में बैठ गये।। 47।।

ૐ तत्सिदित ौीमद्भगवतगीतासूपिनषत्सु ॄह्मिवद्यायां योगशास्तर्े ौीकृ ंणाजुन


र्
संवादे ऽजुन
र् िवषादयोगो नाम ूथमोअध्यायः।। 1।।
दस
ू रा अध्याय

संजय बोले

तं तथा कृ पयािवष्टमौुपूणार्कुलेक्षणम ् ।
िवषीदन्तिमदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥
तब िचंता और िवशाद में डू बे अजुन
र् को, िजसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह
वाक्य कहे ॥

ौीभगवान बोले

कुतःत्वा कँमलिमदं िवषमे समुपिःथतम ् ।


अनायर्जुष्टमःवग्यर्मकीितर्करमजुन
र् ॥२- २॥
हे अजुन
र् , यह तुम िकन िवचारों में डू ब रहे हो जो इस समय गलत हैं और ःवगर् और कीतीर् के
बाधक हैं ॥

क्लैब्यं मा ःम गमः पाथर् नैतत्त्वय्युपपद्यते ।


क्षुिं हृदयदौबर्ल्यं त्यक्त्वोित्तष्ठ परन्तप ॥२- ३॥
तुम्हारे िलये इस दब
ु ल
र् ता का साथ लेना ठीक नहीं । इस नीच भाव, हृदय की दब
ु ल
र् ता, का त्याग
करके उठो हे परन्तप ॥

अजुन
र् बोले

कथं भींममहं संख्ये िोणं च मधुसद


ू न ।
इषुिभः ूित योत्ःयािम पूजाहार्विरसूदन ॥२- ४॥
हे अिरसूदन, मैं िकस ूकार भींम, संख्य और िोण से युध करुँ गा । वे तो मेरी पूजा के हकदार
हैं ॥

गुरूनहत्वा िह महानुभावान ् ौेयो भोक्तुं भैआयमपीह लोके ।


हत्वाथर्कामांःतु गुरूिनहै व भुञ्जीय भोगान ् रुिधरूिदग्धान ् ॥२- ५॥
इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा । इन को मारकर जो
भोग हमें ूाप्त होंगे वे सब तो खून से रँ गे होंगे ॥
न चैतिद्वद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यिद वा नो जयेयःु ।
यानेव हत्वा न िजजीिवषाम- ःतेऽविःथताः ूमुखे धातर्राष्टर्ाः ॥२- ६॥
हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या
है , उनका जीतना या हमारा, क्योंिक िजन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहें गे वही धातर्राष्टर् के
पुऽ हमारे सामने खड़ें हैं ॥

कापर्ण्यदोषोपहतःवभावः पृच्छािम त्वां धमर्सम्मूढचेताः ।


यच्ले यः ःयािन्निश्चतं ॄूिह तन्मे िशंयःतेऽहं शािध मां त्वां ूपन्नम ् ॥२- ७॥
इस दख
ु िचंता ने मेरे ःवभाव को छीन िलया है और मेरा मन शंका से िघरकर सही धमर् को नहीं
हे ख पा रहा है । मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे िलये िनिंचत ूकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये
॥ मैं आप का िशंय हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ ॥

न िह ूपँयािम ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणिमिन्ियाणाम ् ।


अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामिप चािधपत्यम ् ॥२- ८॥
मुझे नहीं िदखता कैसे इस दख
ु ः का, जो मेरी इन्िीयों को सुखा रहा है , अन्त हो सकता है , भले
ही मुझे इस भूमी पर अित समृद्ध और शऽुहीन राज्य यां दे वतायों का भी राज्यपद क्यों न िमल
जाऐ ॥

संजय बोले

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।


न योत्ःय इित गोिवन्दमुक्त्वा तूंणीं बभूव ह ॥२- ९॥
र् , गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये िक मैं युध नहीं
हृिषकेश, ौी गोिवन्द जी को परन्तप अजुन
करुँ गा ॥

तमुवाच हृषीकेशः ूहसिन्नव भारत ।


सेनयोरुभयोमर्ध्ये िवषीदन्तिमदं वचः ॥२- १०॥
हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दख र् को ूसन्नता से हृषीकेश ने यह
ु से िघरे अजुन
बोला ॥
ौीभगवान बोले

अशोच्यानन्वशोचःत्वं ूज्ञावादांश्च भाषसे ।


गतासूनगतासूश्च
ं नानुशोचिन्त पिण्डताः ॥२- ११॥
िजन के िलये शोक नहीं करना चािहये उनके िलये तुम शोक कर रहे हो और बोल तुम बुद्धीमानों
की तरहँ रहे हो । ज्ञानी लोग न उन के िलये शोक करते है जो चले गऐ और न उन के िलये जो
हैं ॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनािधपाः ।


न चैव न भिवंयामः सवेर् वयमतः परम ् ॥२- १२॥
न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो िदख रहे हैं इनका कभी नाश होता है ॥ और यह भी
नहीं की हम भिवंय मे नहीं रहें गे ॥

दे िहनोऽिःमन्यथा दे हे कौमारं यौवनं जरा ।


तथा दे हान्तरूािप्तधीर्रःतऽ न मुह्यित ॥२- १३॥
आत्मा जैसे दे ह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है उसी ूकार दे ह का अन्त होने
पर भी वैसी ही रहती है ॥ बुद्धीमान लोग इस पर व्यिथत नहीं होते ॥

माऽाःपशार्ःतु कौन्तेय शीतोंणसुखदःु खदाः ।


आगमापाियनोऽिनत्याःतांिःतितक्षःव भारत ॥२- १४॥
हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दख
ु ः यह सब तो केवल ःपशर् माऽ हैं । आते जाते रहते हैं , हमेशा
नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत ॥

यं िह न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ ।


समदःु खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२- १५॥
हे पुरुषषर्भ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यिथत नहीं होता, जो दख
ु और सुख में एक सा रहता है ,
वह अमरता के लायक हो जाता है ॥
नासतो िवद्यते भावो नाभावो िवद्यते सतः ।
उभयोरिप दृष्टोऽन्तःत्वनयोःतत्त्वदिशर्िभः ॥२- १६॥
न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता । इन होनो की ही असलीयत वह
दे ख चुके हैं जो सार को दे खते हैं ॥
अिवनािश तु तिद्विद्ध येन सवर्िमदं ततम ् ।
िवनाशमव्ययःयाःय न किश्चत्कतुम
र् हर् ित ॥२- १७॥
तुम यह जानो िक उसका नाश नहीं िकया जा सकता िजसमे यह सब कुछ िःथत है । क्योंिक
जो अमर है उसका नाश करना िकसी के बस में नहीं ॥

अन्तवन्त इमे दे हा िनत्यःयोक्ताः शरीिरणः ।


अनािशनोऽूमेयःय तःमाद्युध्यःव भारत ॥२- १८॥
यह दे ह तो मरणशील है , लेिकन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है । इस आत्मा का
न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है , इसिलऐ युद्ध करो हे भारत ॥

य एनं वेित्त हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम ् ।


उभौ तौ न िवजानीतो नायं हिन्त न हन्यते ॥२- १९॥
जो इसे मारने वाला जानता है या िफर जो इसे मरा मानता है , वह दोनों ही नहीं जानते । यह
न मारती है और न मरती है ॥

न जायते िॆयते वा कदािच- न्नायं भूत्वा भिवता वा न भूयः ।


अजो िनत्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२- २०॥
यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है । यह तो अजन्मी, अन्तहीन, शाश्वत और अमर
है । सदा से है , कब से है । शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता ॥

वेदािवनािशनं िनत्यं य एनमजमव्ययम ् ।


कथं स पुरुषः पाथर् कं घातयित हिन्त कम ् ॥२- २१॥
हे पाथर्, जो पुरुष इसे अिवनाशी, अमर और जन्महीन, िवकारहीन जानता है , वह िकसी को कैसे
मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है ॥

वासांिस जीणार्िन यथा िवहाय नवािन गृह्णाित नरोऽपरािण ।


तथा शरीरािण िवहाय जीणार् न्यन्यािन संयाित नवािन दे ही ॥२- २२॥
जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है , वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा
पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर ूाप्त करती है ॥
नैनं िछन्दिन्त शस्तर्ािण नैनं दहित पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयित मारुतः ॥२- २३॥
न शस्तर् इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है । न पानी इसे िभगो सकता है
और न ही हवा इसे सुखा सकती है ॥

अच्छे द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोंय एव च ।
िनत्यः सवर्गतः ःथाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२- २४॥
यह अछे द्य है , जलाई नहीं जा सकती, िभगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती । यह हमेशा
रहने वाली है , हर जगह है , िःथर है , अन्तहीन है ॥

अव्यक्तोऽयमिचन्त्योऽयमिवकायोर्ऽयमुच्यते ।
तःमादे वं िविदत्वैनं नानुशोिचतुमहर् िस ॥२- २५॥
यह िदखती नहीं है , न इसे समझा जा सकता है । यह बदलाव से रिहत है , ऐसा कहा जाता है
। इसिलये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चािहऐ ॥

अथ चैनं िनत्यजातं िनत्यं वा मन्यसे मृतम ् ।


तथािप त्वं महाबाहो नैवं शोिचतुमहर् िस ॥२- २६॥
हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो, तब भी, तुम्हें शोक
नहीं करना चािहऐ ॥

जातःय िह ीुवो मृत्युीव


ुर् ं जन्म मृतःय च ।
तःमादपिरहायेर्ऽथेर् न त्वं शोिचतुमहर् िस ॥२- २७॥
क्योंिक िजसने जन्म िलया है , उसका मरना िनिंचत है । मरने वाले का जन्म भी तय है । िजसके
बारे में कुछ िकया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चािहऐ ॥

अव्यक्तादीिन भूतािन व्यक्तमध्यािन भारत ।


अव्यक्तिनधनान्येव तऽ का पिरदे वना ॥२- २८॥
हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद िफर अव्यक्त हो जाते हैं । इस
में दख
ु ी होने की क्या बात है ॥
आश्चयर्वत्पँयित किश्चदे न- माश्चयर्वद्वदित तथैव चान्यः ।
आश्चयर्वच्चैनमन्यः शृणोित ौुत्वाप्येनं वेद न चैव किश्चत ् ॥२- २९॥
कोई इसे आश्चयर् से दे खता है , कोई इसके बारे में आश्चयर् से बताता है , और कोई इसके बारे में
आश्चयर्िचत होकर सुनता है , लेिकन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं जानता ॥

दे ही िनत्यमवध्योऽयं दे हे सवर्ःय भारत ।


तःमात्सवार्िण भूतािन न त्वं शोिचतुमहर् िस ॥२- ३०॥
हे भारत, हर दे ह में जो आत्मा है वह िनत्य है , उसका वध नहीं िकया जा सकता । इसिलये िकसी
भी जीव के िलये तुम्हें शोक नहीं करना चािहये ॥

ःवधमर्मिप चावेआय न िवकिम्पतुमहर् िस ।


धम्यार्िद्ध युद्धाच्ले योऽन्यत्क्षिऽयःय न िवद्यते ॥२- ३१॥
अपने खुद के धमर् से तुम्हें िहलना नहीं चािहये क्योंिक न्याय के िलये िकये गये युद्ध से बढकर
ऐक क्षऽीय के िलये कुछ नहीं है ॥

यदृच्छया चोपपन्नं ःवगर्द्वारमपावृतम ् ।


सुिखनः क्षिऽयाः पाथर् लभन्ते युद्धमीदृशम ् ॥२- ३२॥
हे पाथर्, सुखी हैं वे क्षिऽय िजन्हें ऐसा युद्ध िमलता है जो ःवयंम ही आया हो और ःवगर् का खुला
दरवाजा हो ॥

अथ चेत्त्विममं धम्यर्ं संमामं न किरंयिस ।


ततः ःवधमर्ं कीितर्ं च िहत्वा पापमवाप्ःयिस ॥२- ३३॥
लेिकन यिद तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धमर् और यश की हािन करोगे और पाप
ूाप्त करोगे ॥

अकीितर्ं चािप भूतािन कथियंयिन्त तेऽव्ययाम ् ।


सम्भािवतःय चाकीितर्मरर् णादितिरच्यते ॥२- ३४॥
तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करें गे । ऐसी अकीतीर् एक ूतीिष्ठत मनुंय के िलये मृत्यु
से भी बढ कर है ॥
भयािणादप
ु रतं मंःयन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा याःयिस लाघवम ् ॥२- ३५॥
महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें । िजनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों
में िगर जाओगे ॥

अवाच्यवादांश्च बहून्विदंयिन्त तवािहताः ।


िनन्दन्तःतव सामथ्यर्ं ततो दःु खतरं नु िकम ् ॥२- ३६॥
अिहत की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे िवपक्षी तुम्हारे सामथ्यर् की िनन्दा
करें गें । इस से बढकर दख
ु दायी क्या होगा ॥

हतो वा ूाप्ःयिस ःवगर्ं िजत्वा वा भोआयसे महीम ् ।


तःमादिु त्तष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृ तिनश्चयः ॥२- ३७॥
यिद तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें ःवगर् िमलेगा और यिद जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे
। इसिलये उठो, हे कौन्तेय, और िनश्चय करके युद्ध करो ॥

सुखदःु खे समे कृ त्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।


ततो युद्धाय युज्यःव नैवं पापमवाप्ःयिस ॥२- ३८॥
ु को, लाभ हािन को, जय और हार को ऐक सा दे खते हुऐ ही युद्ध करो । ऍसा करते हुऐ
सुख दख
तुम्हें पाप नहीं िमलेगा ॥

एषा तेऽिभिहता सांख्ये बुिद्धयोर्गे ित्वमां शृणु ।


बुद्ध्या युक्तो यया पाथर् कमर्बन्धं ूहाःयिस ॥२- ३९॥
यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया । अब तुम कमर् योग की दृष्टी से सुनो । इस बुद्धी
को धारण करके तुम कमर् के बन्धन से छुटकारा पा लोगे ॥

नेहािभबमनाशोऽिःत ूत्यवायो न िवद्यते ।


ःवल्पमप्यःय धमर्ःय ऽायते महतो भयात ् ॥२- ४०॥
न इसमें की गई मेहनत व्यथर् जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है । इस धमर् का
जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है ॥
व्यवसायाित्मका बुिद्धरे केह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसाियनाम ् ॥२- ४१॥
इस धमर् का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह िःथर रहती है । लेिकन िजनकी बुद्धी इस धमर् में
नहीं है वह अन्तहीन िदशाओं में िबखरी रहती है ॥

यािममां पुिंपतां वाचं ूवदन्त्यिवपिश्चतः ।


वेदवादरताः पाथर् नान्यदःतीित वािदनः ॥२- ४२॥
कामात्मानः ःवगर्परा जन्मकमर्फलूदाम ् ।
िबयािवशेषबहुलां भोगैश्वयर्गितं ूित ॥२- ४३॥
हे पाथर्, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है , वेदों का भाषण करते हैं और िजनके िलये उससे
बढकर और कुछ नहीं है , िजनकी आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और ःवगर् िजनका मकःद है
ू रा जनम है । तरह तरह के कमोर्ं में फसे हुऐ और भोग
वह ऍसे कमर् करते हैं िजनका फल दस
ऍश्वयर् की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ िखचते हैं ॥

भोगैश्वयर्ूसक्तानां तयापहृतचेतसाम ् ।
व्यवसायाित्मका बुिद्धः समाधौ न िवधीयते ॥२- ४४॥
भोग ऍश्वयर् से जुड़े िजनकी बुद्धी हरी जा चुकी है , ऍसी बुद्धी कमर् योग मे िःथरता महण नहीं करती

ऽैगुण्यिवषया वेदा िनस्तर्ैगुण्यो भवाजुन


र् ।
िनद्वर् न्द्वो िनत्यसत्त्वःथो िनयोर्गक्षेम आत्मवान ् ॥२- ४५॥
वेदों में तीन गुणो का व्यखान है । तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अजुन
र् । द्वन्द्वता और
भेदों से मुक्त हो । सत में खुद को िःथर करो । लाभ और रक्षा की िचंता छोड़ो और खुद में िःथत
हो ॥

यावानथर् उदपाने सवर्तः संप्लुतोदके ।


तावान्सवेर्षु वेदेषु ॄाह्मणःय िवजानतः ॥२- ४६॥
हर जगह पानी होने पर िजतना सा काम ऐक कूँऐ का होता है , उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी
वेदों से है ॥ मतलब यह की उस बुिद्धमान पुरुष के िलये जो सत्य को जान चुका है , वेदों में बताये
भोग ूाप्ती के कमोर्ं से कोई मतलब नहीं है ॥
कमर्ण्येवािधकारःते मा फलेषु कदाचन ।
मा कमर्फलहे तुभम
ूर् ार् ते सङ्गोऽःत्वकमर्िण ॥२- ४७॥
कमर् करना तो तुम्हारा अिधकार है लेिकन फल की इच्छा से कभी नहीं । कमर् को फल के िलये
मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो ॥

योगःथः कुरु कमार्िण सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।


िसद्ध्यिसद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२- ४८॥
योग में िःथत रह कर कमर् करो, हे धनंजय, उससे िबना जुड़े हुऐ । काम सफल हो न हो, दोनो
में ऐक से रहो । इसी समता को योग कहते हैं ॥

दरू े ण ह्यवरं कमर् बुिद्धयोगाद्धनंजय ।


बुद्धौ शरणमिन्वच्छ कृ पणाः फलहे तवः ॥२- ४९॥
इस बुद्धी योग के द्वारा िकया काम तो बहुत ऊँचा है । इस बुिद्ध की शरण लो । काम को फल
िक इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं ॥

बुिद्धयुक्तो जहातीह उभे सुकृतदंु कृ ते ।


तःमाद्योगाय युज्यःव योगः कमर्सु कौशलम ् ॥२- ५०॥
इस बुिद्ध से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कमर् दोनो से छुटकारा पा लोगे । इसिलये योग को
धारण करो । यह योग ही काम करने में असली कुशलता है ॥

कमर्जं बुिद्धयुक्ता िह फलं त्यक्त्वा मनीिषणः ।


जन्मबन्धिविनमुक्त
र् ाः पदं गच्छन्त्यनामयम ् ॥२- ५१॥
इस बुिद्ध से युक्त होकर मुिन लोग िकये हुऐ काम के नतीजों को त्याग दे ते हैं । इस ूकार जन्म
ु से परे ःथान ूाप्त करते हैं ॥
बन्धन से मुक्त होकर वे दख

यदा ते मोहकिललं बुिद्धव्यर्िततिरंयित ।


तदा गन्तािस िनवेर्दं ौोतव्यःय ौुतःय च ॥२- ५२॥
जब तुम्हारी बुिद्ध अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है
उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहे गा ॥
ौुितिवूितपन्ना ते यदा ःथाःयित िनश्चला ।
समाधावचला बुिद्धःतदा योगमवाप्ःयिस ॥२- ५३॥
ऐक दस
ू रे को काटते उपदे श और ौुितयां सुन सुन कर जब तुम अिडग िःथर रहोगे, तब तुम्हारी
बुद्धी िःथर हो जायेगी और तुम योग को ूाप्त कर लोगे ॥

अजुन
र् बोले
िःथतूज्ञःय का भाषा समािधःथःय केशव ।
िःथतधीः िकं ूभाषेत िकमासीत ोजेत िकम ् ॥२- ५४॥
हे केशव, िजसकी बुिद्ध ज्ञान में िःथर हो चुिक है , वह कैसा होता है । ऍसा िःथरता ूाप्त िकया
व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, िफरता है ॥

ौीभगवान बोले
ूजहाित यदा कामान्सवार्न्पाथर् मनोगतान ् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः िःथतूज्ञःतदोच्यते ॥२- ५५॥
हे पाथर्, जब वह अपने मन में िःथत सभी कामनाओं को िनकाल दे ता है , और अपने आप में ही
अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है , तब उसे ज्ञान और बुिद्धमता में िःथत कहा जाता है ॥

दःु खेंवनुिद्वग्नमनाः सुखेषु िवगतःपृहः ।


वीतरागभयबोधः िःथतधीमुिर् नरुच्यते ॥२- ५६॥
ु ः से िवचिलत नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे नहीं उठतीं, इच्छा
जब वह दख
और तड़प, डर और गुःसे से मुक्त, ऐसे िःथत हुऐ धीर मनुंय को ही मुिन कहा जाता है ॥

यः सवर्ऽानिभःनेहःतत्तत्ूाप्य शुभाशुभम ् ।
नािभनन्दित न द्वे िष्ट तःय ूज्ञा ूितिष्ठता ॥२- ५७॥
िकसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और
न उससे नफरत करता है उसकी बुिद्ध ज्ञान में िःथत है ॥

यदा संहरते चायं कूमोर्ऽङ्गानीव सवर्शः ।


इिन्ियाणीिन्ियाथेर्भ्यःतःय ूज्ञा ूितिष्ठता ॥२- ५८॥
जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है , वैसे ही िजसने अपनी इन्िीयाँ को उनके
िवषयों से िनकाल कर खुद में समेट रखा है , वह ज्ञान में िःथत है ॥
िवषया िविनवतर्न्ते िनराहारःय दे िहनः ।
रसवजर्ं रसोऽप्यःय परं दृंट्वा िनवतर्ते ॥२- ५९॥
िवषयों का त्याग के दे ने पर उनका ःवाद ही बचता है । परम ् को दे ख लेने पर वह ःवाद भी मन
से छूट जाता है ॥

यततो ह्यिप कौन्तेय पुरुषःय िवपिश्चतः ।


इिन्ियािण ूमाथीिन हरिन्त ूसभं मनः ॥२- ६०॥
हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के मन को भी उसकी चंचल इन्िीयाँ
बलपूवक
र् छीन िलती हैं ॥

तािन सवार्िण संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।


वशे िह यःयेिन्ियािण तःय ूज्ञा ूितिष्ठता ॥२- ६१॥
उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चािहये, क्योंिक िजसकी इन्िीयाँ वश में है वही ज्ञान
में िःथत है ॥

ध्यायतो िवषयान्पुस
ं ः सङ्गःतेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्बोधोऽिभजायते ॥२- ६२॥
चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुंय को उन से लगाव हो जाता है । इससे उसमे इच्छा पौदा
होती है और इच्छाओं से गुःसा पैदा होता है ॥

बोधाद्भवित संमोहः संमोहात्ःमृितिवॅमः ।


ःमृितॅंशाद्बिु द्धनाशो बुिद्धनाशात्ूणँयित ॥२- ६३॥
गुःसे से िदमाग खराब होता है और उस से यादाँत पर पड़दा पड़ जाता है । यादाँत पर पड़दा
पड़ जाने से आदमी की बुिद्ध नष्ट हो जाती है और बुिद्ध नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश
कर बौठता है ॥

रागद्वे षिवयुक्तैःतु िवषयािनिन्ियैश्चरन ् ।


आत्मवँयैिवर्धेयात्मा ूसादमिधगच्छित ॥२- ६४॥
इन्िीयों को राग और द्वे ष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुंय िवषयों को संयम से महण
करता है , तो वह ूसन्नता और शान्ती ूाप्त करता है ॥
ूसादे सवर्दःु खानां हािनरःयोपजायते ।
ूसन्नचेतसो ह्याशु बुिद्धः पयर्वितष्ठते ॥२- ६५॥
शान्ती से उसके सारे दख
ु ों का अन्त हो जाता है क्योंिक शान्त िचत मनुंय की बुिद्ध जलिद ही
िःथर हो जाती है ॥

नािःत बुिद्धरयुक्तःय न चायुक्तःय भावना ।


न चाभावयतः शािन्तरशान्तःय कुतः सुखम ् ॥२- ६६॥
जो संयम से युक्त नहीं है , िजसकी इन्िीयाँ वश में नहीं हैं , उसकी बुिद्ध भी िःथर नही हो सकती
और न ही उस में शािन्त की भावना हो सकती है । और िजसमे शािन्त की भावना नहीं है वह
शान्त कैसे हो सकता है । जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा ॥

इिन्ियाणां िह चरतां यन्मनोऽनु िवधीयते ।


तदःय हरित ूज्ञां वायुनार्विमवाम्भिस ॥२- ६७॥
मन अगर िवचरती हुई इन्िीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो वह बुिद्ध को भी अपने साथ वैसे
ही खीँ च कर ले जाता है जैसे एक नाव को हवा खीच ले जाती है ॥

तःमाद्यःय महाबाहो िनगृहीतािन सवर्शः ।


इिन्ियाणीिन्ियाथेर्भ्यःतःय ूज्ञा ूितिष्ठता ॥२- ६८॥
इसिलये हे महाबाहो, िजसकी सभी इन्िीयाँ अपने िवषयों से पूरी तरह हटी हुई हैं , िसमटी हुई हैं ,
उसी की बुिद्ध िःथर होती है ॥

या िनशा सवर्भत
ू ानां तःयां जागितर् संयमी ।
यःयां जामित भूतािन सा िनशा पँयतो मुनेः ॥२- ६९॥
जो सब के िलये रात है उसमें संयमी जागता है , और िजसमे सब जागते हैं उसे मुिन रात की तरह
दे खता है ॥

आपूयम
र् ाणमचलूितष्ठं समुिमापः ूिवशिन्त यद्वत ् ।
तद्वत्कामा यं ूिवशिन्त सवेर् स शािन्तमाप्नोित न कामकामी ॥२- ७०॥
निदयाँ जैसे समुि, जो एकदम भरा, अचल और िःथर रहता है , में आकर शान्त हो जाती हैं , उसी
ूकार िजस मनुंय में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं , वह शान्ती ूाप्त करता है । न िक
वह जो उनके पीछे भागता है ॥
िवहाय कामान्यः सवार्न ् पुमांश्चरित िनःःपृहः ।
िनमर्मो िनरहं कारः स शािन्तमिधगच्छित ॥२- ७१॥
सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुंय ःपृह रिहत रहता है , जो मै और मेरा रूपी अहं कार को
भूल िवचरता है , वह शान्ती को ूाप्त करता है ॥

एषा ॄाह्मी िःथितः पाथर् नैनां ूाप्य िवमुह्यित ।


िःथत्वाःयामन्तकालेऽिप ॄह्मिनवार्णमृच्छित ॥२- ७२॥
ॄह्म में िःथत मनुंय ऍसा होता है , हे पाथर् । इसे ूाप्त करके वो िफर भटकता नहीं । अन्त समय
भी इसी िःथित में िःथत वह ॄह्म िनवार्ण ूाप्त करता है ॥

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


तीसरा अध्याय

अजुन
र् बोले
ज्यायसी चेत्कमर्णःते मता बुिद्धजर्नादर् न ।
तित्कं कमर्िण घोरे मां िनयोजयिस केशव ॥३- १॥
हे केशव, अगर आप बुिद्ध को कमर् से अिधक मानते हैं तो मुझे इस घोर कमर् में क्यों न्योिजत
कर रहे हैं ॥

व्यािमौेणेव वाक्येन बुिद्धं मोहयसीव में ।


तदे कं वद िनिश्चत्य येन ौेयोऽहमाप्नुयाम ् ॥३- २॥
िमले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुिद्ध शंिकत हो रही है । इसिलये मुझे वह एक रःता बताईये जो िनिंचत
ूकार से मेरे िलये अच्छा हो ॥

ौीभगवान बोले
लोकेऽिःमिन्द्विवधा िनष्ठा पुरा ूोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कमर्योगेन योिगनाम ् ॥३- ३॥
हे ि़नंपाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो ूकार की िनष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास
से जुड़े लोगों के िलये और कमर् योग उनके िलये जो कमर् योग से जुड़े हैं ॥

न कमर्णामनारम्भान्नैंकम्यर्ं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादे व िसिद्धं समिधगच्छित ॥३- ४॥
कमर् का आरम्भ न करने से मनुंय नैंकमर् िसद्धी नहीं ूाप्त कर सकता अतः कमर् योग के अभ्यास
में कमोर्ं का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर दे ने से िसद्धी ूाप्त होती है ॥

न िह किश्चत्क्षणमिप जातु ितष्ठत्यकमर्कृत ् ।


कायर्ते ह्यवशः कमर् सवर्ः ूकृ ितजैगण
ुर् ैः ॥३- ५॥
कोई भी एक क्षण के िलये भी कमर् िकये िबना नहीं बैठ सकता । सब ूकृ ित से पैदा हुऐ गुणों
से िववश होकर कमर् करते हैं ॥
कमेर्िन्ियािण संयम्य य आःते मनसा ःमरन ् ।
इिन्ियाथार्िन्वमूढात्मा िमथ्याचारः स उच्यते ॥३- ६॥
कमर् िक इन्िीयों को तो रोककर, जो मन ही मन िवषयों के बारे में सोचता है उसे िमथ्या अतः
ढोंग आचारी कहा जाता है ॥

यिःत्विन्ियािण मनसा िनयम्यारभतेऽजुन


र् ।
कमेर्िन्ियैः कमर्योगमसक्तः स िविशंयते ॥३- ७॥
हे अजुन
र् , जो अपनी इन्िीयों और मन को िनयिमत कर कमर् का आरम्भ करते हैं , कमर् योग का
आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं ॥

िनयतं कुरु कमर् त्वं कमर् ज्यायो ह्यकमर्णः ।


शरीरयाऽािप च ते न ूिसद्ध्येदकमर्णः ॥३- ८॥
जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंिक कमर् से ही अकमर् पैदा होता है , मतलब कमर् योग द्वारा
कमर् करने से ही कमोर्ं से छुटकारा िमलता है । कमर् िकये िबना तो यह शरीर की याऽा भी संभव
नहीं हो सकती । शरीर है तो कमर् तो करना ही पड़े गा ॥

यज्ञाथार्त्कमर्णोऽन्यऽ लोकोऽयं कमर्बन्धनः ।


तदथर्ं कमर् कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥३- ९॥
केवल यज्ञा समझ कर तुम कमर् करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कमर् बन्धन का कारण बनता
है । उसी के िलये कमर् करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो ॥

सहयज्ञाः ूजाः सृंट्वा पुरोवाच ूजापितः ।


अनेन ूसिवंयध्वमेष वोऽिःत्वष्टकामधुक् ॥३- १०॥
यज्ञ के साथ ही बहुत पहले ूजापित ने ूजा की सृिष्ट की और कहा की इसी ूकार कमर् यज्ञ करने
से तुम बढोगे और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी ॥

दे वान्भावयतानेन ते दे वा भावयन्तु वः ।
परःपरं भावयन्तः ौेयः परमवाप्ःयथ ॥३- ११॥
तुम दे वताओ को ूसन्न करो और दे वता तुम्हें ूसन्न करें गे, इस ूकार परःपर एक दस
ू रे का
खयाल रखते तुम परम ौेय को ूाप्त करोगे ॥
इष्टान्भोगािन्ह वह दे वा दाःयन्ते यज्ञभािवताः ।
तैदर्त्तानूदायैभ्यो यो भुङ्क्ते ःतेन एव सः ॥३- १२॥
यज्ञों से संतुष्ट हुऐ दे वता तुम्हें मन पसंद भोग ूदान करें गे । जो उनके िदये हुऐ भोगों को उन्हें
िदये िबना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥

यज्ञिशष्टािशनः सन्तो मुच्यन्ते सवर्िकिल्बषैः ।


भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात ् ॥३- १३॥
जो यज्ञ से िनकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं लेिकन जो पापी खुद
पचाने को िलये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं ॥

अन्नाद्भविन्त भूतािन पजर्न्यादन्नसम्भवः ।


यज्ञाद्भवित पजर्न्यो यज्ञः कमर्समुद्भवः ॥३- १४॥
जीव अनाज से होते हैं । अनाज िबिरश से होता है । और िबिरश यज्ञ से होती है । यज्ञ कमर् से
होता है ॥ (यहाँ ूाकृ ित के चलने को यज्ञ कहा गया है )

कमर् ॄह्मोद्भवं िविद्ध ॄह्माक्षरसमुद्भवम ् ।


तःमात्सवर्गतं ॄह्म िनत्यं यज्ञे ूितिष्ठतम ् ॥३- १५॥
कमर् ॄह्म से सम्भव होता है और ॄह्म अक्षर से होता है । इसिलये हर ओर िःथत ॄह्म सदा ही
यज्ञ में ःथािपत है ।

एवं ूवितर्तं चबं नानुवतर्यतीह यः ।


अघायुिरिन्ियारामो मोघं पाथर् स जीवित ॥३- १६॥
इस तरह चल रहे इस चब में जो िहःसा नहीं लेता, सहायक नहीं होता, अपनी ईन्िीयों में डू बा
हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यथर् ही, हे पाथर्, जीता है ॥

यःत्वात्मरितरे व ःयादात्मतृप्तश्च मानवः ।


आत्मन्येव च सन्तुष्टःतःय कायर्ं न िवद्यते ॥३- १७॥
लेिकन जो मानव खुद ही में िःथत है , अपने आप में ही तृप्त है , अपने आप में ही सन्तुष्ट है , उस
के िलये कोई भी कायर् नहीं बचता ॥
नैव तःय कृ तेनाथोर् नाकृ तेनेह कश्चन ।
न चाःय सवर्भत
ू ेषु किश्चदथर्व्यपाौयः ॥३- १८॥
न उसे कभी िकसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से । और न ही वह िकसी
भी जीव पर िकसी भी मतलब के िलये आौय लेता है ॥

तःमादसक्तः सततं कायर्ं कमर् समाचर ।


असक्तो ह्याचरन्कमर् परमाप्नोित पूरुषः ॥३- १९॥
इसिलये कमर् से जुड़े िबना सदा अपना कमर् करते हुऐ समता का अचरण करो ॥ िबना जुड़े कमर्
का आचरण करने से पुरुष परम को ूाप्त कर लेता है ॥

कमर्णैव िह संिसिद्धमािःथता जनकादयः ।


लोकसंमहमेवािप संपँयन्कतुम
र् हर् िस ॥३- २०॥
कमर् के द्वारा ही जनक आिद िसद्धी में ःथािपत हुऐ थे । इस लोक समूह, इस संसार के भले के
िलये तुम्हें भी कमर् करना चािहऐ ॥

यद्यदाचरित ौेष्ठःतत्तदे वेतरो जनः ।


स यत्ूमाणं कुरुते लोकःतदनुवतर्ते ॥३- २१॥
क्योंिक जो ऐक ौेष्ठ पुरुष करता है , दस
ू रे लोग भी वही करते हैं । वह जो करता है उसी को ूमाण
मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं ॥

न में पाथार्िःत कतर्व्यं िऽषु लोकेषु िकंचन ।


नानवाप्तमवाप्तव्यं वतर् एव च कमर्िण ॥३- २२॥
हे पाथर्, तीनो लोकों में मेरे िलये कुछ भी करना वाला नहीं है । और न ही कुछ पाने वाला है लेिकन
िफर भी मैं कमर् में लगता हूँ ॥

यिद ह्यहं न वतेर्यं जातु कमर्ण्यतिन्ितः ।


मम वत्मार्नुवतर्न्ते मनुंयाः पाथर् सवर्शः ॥३- २३॥
हे पाथर्, अगर मैं कमर् में नहीं लगूँ तो सभी मनुंय भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे ॥
उत्सीदे यिु रमे लोका न कुयार्ं कमर् चेदहम ् ।
संकरःय च कतार् ःयामुपहन्यािममाः ूजाः ॥३- २४॥
अगर मै कमर् न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी और मैं इस ूजा का नाशकतार् हो जाऊँगा

सक्ताः कमर्ण्यिवद्वांसो यथा कुवर्िन्त भारत ।


कुयार्िद्वद्वांःतथासक्तिश्चकीषुल
र् ोर्कसंमहम ् ॥३- २५॥
जैसे अज्ञानी लोग कमोर्ं से जुड़ कर कमर् करते हैं वैसे ही ज्ञानमन्दों को चािहये िक कमर् से िबना
जुड़े कमर् करें । इस संसार चब के लाभ के िलये ही कमर् करें ।

न बुिद्धभेदं जनयेदज्ञानां कमर्सिङ्गनाम ् ।


जोषयेत्सवर्कमार्िण िवद्वान्युक्तः समाचरन ् ॥३- २६॥
जो लोग कमोर् के फलों से जुड़े है , कमोर्ं से जुड़े हैं ज्ञानमंद उनकी बुिद्ध को न छे दें । सभी कामों
को कमर्योग बुिद्ध से युक्त होकर समता का आचरण करते हुऐ करें ॥

ूकृ तेः िबयमाणािन गुणैः कमार्िण सवर्शः ।


अहं कारिवमूढात्मा कतार्हिमित मन्यते ॥३- २७॥
सभी कमर् ूकृ ित में िःथत गुणों द्वारा ही िकये जाते हैं । लेिकन अहं कार से िवमूढ हुआ मनुंय
ःवय्म को ही कतार् समझता है ॥

तत्त्विवत्तु महाबाहो गुणकमर्िवभागयोः ।


गुणा गुणेषु वतर्न्त इित मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥
हे महाबाहो, गुणों और कमोर्ं के िवभागों को सार तक जानने वाला, यह मान कर की गुण ही गुणों
से वतर् रहे हैं , जुड़ता नहीं ॥

ूकृ तेगण
ुर् संमूढाः सज्जन्ते गुणकमर्सु ।
तानकृ त्ःनिवदो मन्दान्कृ त्ःनिवन्न िवचालयेत ् ॥३- २९॥
ूकृ ित के गुणों से मूखर् हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कमोर्ं से जुड़े रहते है । सब जानने वाले को
चािहऐ िक वह अधूरे ज्ञान वालों को िवचिलत न करे ॥
मिय सवार्िण कमार्िण संन्यःयाध्यात्मचेतसा ।
िनराशीिनर्मम
र् ो भूत्वा युध्यःव िवगतज्वरः ॥३- ३०॥
सभी कमोर्ं को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ । आशाओं से मुक्त होकर, "मै" को
भूल कर, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो ॥

यह में मतिमदं िनत्यमनुितष्ठिन्त मानवाः ।


ौद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽिप कमर्िभः ॥३- ३१॥
मेरे इस मत को, जो मानव ौद्धा और िबना दोष िनकाले सदा धारण करता है और मानता है ,
वह कमोर्ं से मु ्क्ती ूाप्त करता है ॥

यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुितष्ठिन्त में मतम ् ।


सवर्ज्ञानिवमूढांःतािन्विद्ध नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥
जो इसमें दोष िनकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता, उसे तुम सारे ज्ञान से वंिचत, मूखर्
हुआ और नष्ट बुद्धी जानो ॥

सदृशं चेष्टते ःवःयाः ूकृ तेज्ञार्नवानिप ।


ूकृ ितं यािन्त भूतािन िनमहः िकं किरंयित ॥३- ३३॥
सब वैसा ही करते है जैसी उनका ःवभाव होता है , चाहे वह ज्ञानवान भी हों । अपने ःवभाव से
ही सभी ूाणी होते हैं िफर सयंम से क्या होगा ॥

इिन्ियःयेिन्ियःयाथेर् रागद्वे षौ व्यविःथतौ ।


तयोनर् वशमागच्छे त्तौ ह्यःय पिरपिन्थनौ ॥३- ३४॥
इिन्ियों के िलये उन के िवषयों में खींच और घृणा होती है । इन दोनो के वश में मत आओ क्योंिक
यह रःते के रुकावट हैं ॥

ौेयान्ःवधमोर् िवगुणः परधमार्त्ःवनुिष्ठतात ् ।


ःवधमेर् िनधनं ौेयः परधमोर् भयावहः ॥३- ३५॥
अपना काम ही अच्छा है , चाहे उसमे किमयाँ भी हों, िकसी और के अच्छी तरह िकये काम से
। अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है , िकसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो ॥
अजुन
र् बोले
अथ केन ूयुक्तोऽयं पापं चरित पूरुषः ।
अिनच्छन्निप वांणेर्य बलािदव िनयोिजतः ॥३- ३६॥
लेिकन, हे वांणेर्य, िकसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है , अपनी मरजी के िबना भी, जैसे
िक बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो ॥

ौीभगवान बोले
काम एष बोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा िवद्ध्येनिमह वैिरणम ् ॥३- ३७॥
इच्छा और गुःसा जो रजो गुण से होते हैं , महा िवनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दँु मन जानो ॥

धूमेनािोयते विह्नयर्थादशोर् मलेन च ।


यथोल्बेनावृतो गभर्ःतथा तेनेदमावृतम ् ॥३- ३८॥
जैसे आग को धूआँ ढक लेता है , शीशे को िमट्टी ढक लेती है , िशशू को गभर् ढका लेता है , उसी
तरह वह इनसे ढका रहता है ॥ (क्या ढका रहता है , अगले श्लोक में है )

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञािननो िनत्यवैिरणा ।


कामरूपेण कौन्तेय दंु पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥
यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है , इच्छा का रूप िलऐ, हे कौन्तेय, िजसे
पूरा करना संभव नहीं ॥

इिन्ियािण मनो बुिद्धरःयािधष्ठानमुच्यते ।


एतैिवर्मोहयत्येष ज्ञानमावृत्य दे िहनम ् ॥३- ४०॥
इन्िीयाँ मन और बुिद्ध इसके ःथान कहे जाते हैं । यह दे हिधिरयों को मूखर् बना उनके ज्ञान को
ढक लेती है ॥

तःमात्त्विमिन्ियाण्यादौ िनयम्य भरतषर्भ ।


पाप्मानं ूजिह ह्येनं ज्ञानिवज्ञाननाशनम ् ॥३- ४१॥
इसिलये, हे भरतषर्भ, सबसे पहले तुम अपनी इन्िीयों को िनयिमत करो और इस पापमयी, ज्ञान
और िवज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो ॥
इिन्ियािण पराण्याहुिरिन्ियेभ्यः परं मनः ।
मनसःतु परा बुिद्धयोर् बुद्धेः परतःतु सः ॥३- ४२॥
इन्िीयों को उत्तम कहा जाता है , और इन्िीयों से उत्तम मन है , मन से ऊपर बुिद्ध है और बुिद्ध
से ऊपर आत्मा है ॥

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संःतभ्यात्मानमात्मना ।


जिह शऽुं महाबाहो कामरूपं दरु ासदम ् ॥३- ४३॥

इस ूकार ःवयंम को बुिद्ध से ऊपर जान कर, ःवयंम को ःवयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस
इच्छा रूपी शऽु, पर जीत ूाप्त कर लो, िजसे जीतना किठन है ॥

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


चौथा अध्याय

ौीभगवानुवाच

इमं िववःवते योगं ूोक्तवानहमव्ययम ् ।


िववःवान्मनवे ूाह मनुिरआवाकवेऽॄवीत ् ॥४-१॥
इस अव्यय योगा को मैने िववःवान को बताया । िववःवान ने इसे मनु को कहा । और मनु ने
इसे इआवाक को बताया ॥

एवं परम्पराूाप्तिममं राजषर्यो िवदःु ।


स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥४-२॥
हे परन्तप, इस तरह यह योगा परम्परा से राजषीर्यों को ूाप्त होती रही । लेिकन जैसे जैसे समय
बीतता गया, बहुत समय बाद, इसका ज्ञान नष्ट हो गया ॥

स एवायं मया तेऽद्य योगः ूोक्तः पुरातनः ।


भक्तोऽिस मे सखा चेित रहःयं ह्येतदत्त
ु मम ् ॥४-३॥
वही पुरातन योगा को मैने आज िफर तुम्हे बताया है । तुम मेरे भक्त हो, मेरे िमऽ हो और यह
योगा एक उत्तम रहःय है ॥

अजुन
र् उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म िववःवतः ।
कथमेतिद्वजानीयां त्वमादौ ूोक्तवािनित ॥४-४॥
आपका जन्म तो अभी हुआ है , िववःवान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ िक आप
ने इसे शुरू मे बताया था ॥

ौीभगवानुवाच

बहूिन मे व्यतीतािन जन्मािन तव चाजुन


र् ।
तान्यहं वेद सवार्िण न त्वं वेत्थ परन्तप ॥४-५॥
र् , मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं और तुम्हारे भी । उन सब को मैं तो जानता हूँ पर तुम
अजुन
नहीं जानते, हे परन्तप ॥
अजोऽिप सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽिप सन ् ।
ूकृ ितं ःवामिधष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥४-६॥
यद्यिप मैं अजन्मा और अव्यय, सभी जीवों का महे श्वर हूँ, तद्यिप मैं अपनी ूकृ ित को अपने वश
में कर अपनी माया से ही संभव होता हूँ ॥

यदा यदा िह धमर्ःय ग्लािनभर्वित भारत ।


अभ्युत्थानमधमर्ःय तदात्मानं सृजाम्यहम ् ॥४-७॥
हे भारत, जब जब धमर् का लोप होता है , और अधमर् बढता है , तब तब मैं सवयंम सवयं की रचना
करता हूँ ॥

पिरऽाणाय साधूनां िवनाशाय च दंु कृ ताम ् ।


धमर्सः
ं थापनाथार्य सम्भवािम युगे युगे ॥४-८॥
साधू पुरुषों के कल्याण के िलये, और दंु किमर्यों के िवनाश के िलये, तथा धमर् िक ःथापना के
िलये मैं युगों योगों मे जन्म लेता हूँ ॥

जन्म कमर् च मे िदव्यमेवं यो वेित्त तत्त्वतः ।


त्यक्त्वा दे हं पुनजर्न्म नैित मामेित सोऽजुन
र् ॥४-९॥
मेरे जन्म और कमर् िदव्य हैं , इसे जो सारवत जानता है , दे ह को त्यागने के बाद उसका पुनजर्न्म
नहीं होता, बिल्क वो मेरे पास आता है , हे अजुन
र् ॥

वीतरागभयबोधा मन्मया मामुपािौताः ।


बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥४-१०॥
लगाव, भय और बोध से मुक्त, मुझ में मन लगाये हुऐ, मेरा ही आौय िलये लोग, ज्ञान और तप
से पिवऽ हो, मेरे पास पहुँचते हैं ॥

ये यथा मां ूपद्यन्ते तांःतथैव भजाम्यहम ् ।


मम वत्मार्नुवतर्न्ते मनुंयाः पाथर् सवर्शः ॥४-११॥
जो मेरे पास जैसे आता है , मैं उसे वैसे ही िमलता हूँ । हे पाथर्, सभी मनुंय हर ूकार से मेरा
ही अनुगमन करते हैं ॥
काङ्क्षन्तः कमर्णां िसिद्धं यजन्त इह दे वताः ।
िक्षूं िह मानुषे लोके िसिद्धभर्वित कमर्जा ॥४-१२॥
जो िकये काम मे सफलता चाहते हैं वो दे वताओ का पूजन करते हैं । इस मनुंय लोक में कमोर्ं
से सफलता शीय ही िमलती है ॥

चातुवण्र् यर्ं मया सृष्टं गुणकमर्िवभागशः ।


तःय कतार्रमिप मां िवद्ध्यकतार्रमव्ययम ् ॥४-१३॥
ये जारों वणर् मेरे द्वारा ही रचे गये थे, गुणों और कमोर्ं के िवभागों के आधार पर । इन कमोर्ं का
कतार् होते हुऐ भी पिरवतर्न रिहत मुझ को तुम अकतार् ही जानो ॥

न मां कमार्िण िलम्पिन्त न मे कमर्फले ःपृहा ।


इित मां योऽिभजानाित कमर्िभनर् स बध्यते ॥४-१४॥
न मुझे कमर् रं गते हैं और न ही मुझ में कमोर्ं के फलों के िलये कोई इच्छा है । जो मुझे इस ूकार
जानता है , उसे कमर् नहीं बाँधते ॥

एवं ज्ञात्वा कृ तं कमर् पूवैर्रिप मुमुक्षिु भः ।


कुरु कमैर्व तःमात्त्वं पूवैर्ः पूवत
र् रं कृ तम ् ॥४-१५॥
पहले भी यह जान कर ही मोक्ष की इच्छा रखने वाले कमर् करते थे । इसिलये तुम भी कमर् करो,
जैसे पूवोर्ं ने पुरातन समय में िकये ॥

िकं कमर् िकमकमेर्ित कवयोऽप्यऽ मोिहताः ।


तत्ते कमर् ूवआयािम यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात ् ॥४-१६॥
कमर् कया है और अकमर् कया है , िवद्वान भी इस के बारे में मोिहत हैं । तुम्हे मैं कमर् कया है ,
ये बताता हूँ िजसे जानकर तुम अशुभ से मुिक्त पा लोगे ॥

कमर्णो ह्यिप बोद्धव्यं बोद्धव्यं च िवकमर्णः ।


अकमर्णश्च बोद्धव्यं गहना कमर्णो गितः ॥४-१७॥
कमर् को जानना जरूरी है और न करने लायक कमर् को भी । अकमर् को भी जानना जरूरी है , क्योंिक
कमर् रहःयमयी है ॥
कमर्ण्यकमर् यः पँयेदकमर्िण च कमर् यः ।
स बुिद्धमान्मनुंयेषु स युक्तः कृ त्ःनकमर्कृत ् ॥४-१८॥
कमर् करने मे जो अकमर् दे खता है , और कमर् न करने मे भी जो कमर् होता दे खता है , वही मनुंय
बुिद्धमान है और इसी बुिद्ध से युक्त होकर वो अपने सभी कमर् करता है ॥

यःय सवेर् समारम्भाः कामसंकल्पविजर्ताः ।


ज्ञानािग्नदग्धकमार्णं तमाहुः पिण्डतं बुधाः ॥४-१९॥
िजसके द्वारा आरम्भ िकया सब कुछ इच्छा संकल्प से मुक्त होता है , िजसके सभी कमर् ज्ञान रूपी
अिग्न में जल कर राख हो गये हैं , उसे ज्ञानमंद लोग बुिद्धमान कहते हैं ॥

त्यक्त्वा कमर्फलासङ्गं िनत्यतृप्तो िनराौयः ।


कमर्ण्यिभूवृत्तोऽिप नैव िकंिचत्करोित सः ॥४-२०॥
कमर् के फल से लगाव त्याग कर, सदा तृप्त और आौयहीन रहने वाला, कमर् मे लगा हुआ होकर
भी, कभी कुछ नहीं करता है ॥

िनराशीयर्तिचत्तात्मा त्यक्तसवर्पिरमहः ।
शारीरं केवलं कमर् कुवर्न्नाप्नोित िकिल्बषम ् ॥४-२१॥
मोघ आशाओं से मुक्त, अपने िचत और आत्मा को वश में कर, घर सम्पित्त आिद िमनिसक पिरमहों
को त्याग, जो केवल शरीर से कमर् करता है , वो कमर् करते हुऐ भी पाप नहीं ूाप्त करता ॥

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो िवमत्सरः ।


समः िसद्धाविसद्धौ च कृ त्वािप न िनबध्यते ॥४-२२॥
सवयंम ही चल कर आये लाभ से ही सन्तुष्ट, िद्वन्द्वता से ऊपर उठा हुआ, और िदमागी जलन से
मुक्त, जो सफलता असफलता मे एक सा है , वो कायर् करता हुआ भी नहीं बँधता ॥

गतसङ्गःय मुक्तःय ज्ञानाविःथतचेतसः ।


यज्ञायाचरतः कमर् सममं ूिवलीयते ॥४-२३॥
संग छोड़ जो मुक्त हो चुका है , िजसका िचत ज्ञान में िःथत है , जो केवल यज्ञ के िलये कमर् कर
रहा है , उसके संपूणर् कमर् पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं ॥
ॄह्मापर्णं ॄह्म हिवॄर्ह्माग्नौ ॄह्मणा हुतम ् ।
ॄह्मैव तेन गन्तव्यं ॄह्मकमर्समािधना ॥४-२४॥
ॄह्म ही अपर्ण करने का साधन है , ॄह्म ही जो अपर्ण हो रहा है वो है , ॄह्म ही वो अिग्न है िजसमे
अपर्ण िकया जा रहा है , और अपर्ण करने वाला भी ॄह्म ही है । इस ूकार कमर् करते समय जो
ॄह्म मे समािधत हैं , वे ॄह्म को ही ूाप्त करते हैं ॥

दै वमेवापरे यज्ञं योिगनः पयुप


र् ासते ।
ॄह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनव
ै ोपजुह्वित ॥४-२५॥
कुछ योगी यज्ञ के द्वारा दे वों की पूजा करते हैं । और कुछ ॄह्म की ही अिग्न मे यज्ञ िक आहुित
दे ते हैं ॥

ौोऽादीनीिन्ियाण्यन्ये संयमािग्नषु जुह्वित ।


शब्दादीिन्वषयानन्य इिन्ियािग्नषु जुह्वित ॥४-२६॥
अन्य सुनने आिद इिन्ियों की संयम अिग्न मे आहुित दे ते हैं । और अन्य शब्दािद िवषयों िक
इिन्ियों रूपी अिग्न मे आहूित दे ते हैं ॥

सवार्णीिन्ियकमार्िण ूाणकमार्िण चापरे ।


आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वित ज्ञानदीिपते ॥४-२७॥
और दस
ू रे कोई, सभी इिन्ियों और ूाणों को कमर् मे लगा कर, आत्म संयम द्वारा, ज्ञान से जल
रही, योग अिग्न मे अिपर्त करते हैं

िव्ययज्ञाःतपोयज्ञा योगयज्ञाःतथापरे ।
ःवाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संिशतोताः ॥४-२८॥
इस ूकार कोई धन पदाथोर्ं द्वारा यज्ञ करते हैं , कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं , कोई कमर् योग द्वारा
यज्ञ करते हैं और कोई ःवाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं , अपने अपने ोतों का सावधािन से पालन
करते हुऐ ॥
अपाने जुह्वित ूाणं ूाणेऽपानं तथापरे ।
ूाणापानगती रुद्ध्वा ूाणायामपरायणाः ॥४-२९॥
और भी कई, अपान में ूाण को अिपर्त कर और ूाण मे अपान को अिपर्त कर, इस ूकार ूाण
और अपान िक गितयों को िनयिमत कर, ूाणायाम मे लगते हैँ ॥

अपरे िनयताहाराः ूाणान्ूाणेषु जुह्वित ।


सवेर्ऽप्येते यज्ञिवदो यज्ञक्षिपतकल्मषाः ॥४-३०॥
अन्य कुछ, अहार न ले कर, ूाणों को ूाणों मे अिपर्त करते हैं । ये सभी ही, यज्ञों द्वारा क्षीण
पाप हुऐ, यज्ञ को जानने वाले हैं ॥

यज्ञिशष्टामृतभुजो यािन्त ॄह्म सनातनम ् ।


नायं लोकोऽःत्ययज्ञःय कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥४-३१॥
यज्ञ से उत्पन्न इस अमृत का जो पान करते हैं अथार्त जो यज्ञ कर पापों को क्षीण कर उससे
उत्पन्न शािन्त को ूाप्त करते हैं , वे सनातन ॄह्म को ूाप्त करते हैं । जो यज्ञ नहीं करता, उसके
िलये यह लोक ही सुखमयी नहीं है , तो और कोई लोक भी कैसे हो सकता है , हे कुरुसत्तम ॥

एवं बहुिवधा यज्ञा िवतता ॄह्मणो मुखे ।


कमर्जािन्विद्ध तान्सवार्नेवं ज्ञात्वा िवमोआयसे ॥४-३२॥
इस ूकार ॄह्म से बहुत से यज्ञों का िवधान हुआ । इन सभी को तुम कमर् से उत्पन्न हुआ जानो
और ऍसा जान जाने पर तुम भी कमर् से मोक्ष पा जाओगे ॥

ौेयान्िव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सवर्ं कमार्िखलं पाथर् ज्ञाने पिरसमाप्यते ॥४-३३॥
हे परन्तप, धन आिद पदाथोर्ं के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है । सारे कमर् पूणर् रूप से ज्ञान
िमल जाने पर अन्त पाते हैं ॥

तिद्विद्ध ूिणपातेन पिरूश्नेन सेवया ।


उपदे आयिन्त ते ज्ञानं ज्ञािननःतत्त्वदिशर्नः ॥४-३४॥
सार को जानने वाले ज्ञानमंदों को तुम ूणाम करो, उनसे ूशन करो और उनकी सेवा करो ॥ वे
तुम्हे ज्ञान मे उपदे श दें गे ॥
यज्ज्ञात्वा न पुनमोर्हमेवं याःयिस पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण िआयःयात्मन्यथो मिय ॥४-३५॥
हे पाण्डव, उस ज्ञान में, िजसे जान लेने पर तुम िफर से मोिहत नहीं होगे, और अशेष सभी जीवों
को तुम अपने में अन्यथा मुझ मे दे खोगे ॥

अिप चेदिस पापेभ्यः सवेर्भ्यः पापकृ त्तमः ।


सवर्ं ज्ञानप्लवेनव
ै वृिजनं सन्तिरंयिस ॥४-३६॥
यिद तुम सभी पाप करने वालों से भी अिधक पापी हो, तब भी ज्ञान रूपी नाव द्वारा तुम उन सब
पापों को पार कर जाओगे ॥

यथैधांिस सिमद्धोऽिग्नभर्ःमसात्कुरुतेऽजुन
र् ।
ज्ञानािग्नः सवर्कमार्िण भःमसात्कुरुते तथा ॥४-३७॥
जैसे समृद्ध अिग्न भःम कर डालती है , हे अजुन
र् , उसी ूकार ज्ञान अिग्न सभी कमोर्ं को भःम
कर डालती है ॥

न िह ज्ञानेन सदृशं पिवऽिमह िवद्यते ।


तत्ःवयं योगसंिसद्धः कालेनात्मिन िवन्दित ॥४-३८॥
ज्ञान से अिधक पिवऽ इस संसार पर और कुछ नहीं है । तुम सवयंम ही, योग में िसद्ध हो जाने
पर, समय के साथ अपनी आत्मा में ज्ञान को ूाप्त करोगे ॥

ौद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेिन्ियः ।


ज्ञानं लब्ध्वा परां शािन्तमिचरे णािधगच्छित ॥४-३९॥
ौद्धा रखने वाले, अपनी इिन्ियों का संयम कर ज्ञान लभते हैं । और ज्ञान िमल जाने पर, जलद
ही परम शािन्त को ूाप्त होते हैं ॥

अज्ञश्चाौद्दधानश्च संशयात्मा िवनँयित ।


नायं लोकोऽिःत न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४-४०॥
ज्ञानहीन और ौद्धाहीन, शंकाओं मे डू बी आत्मा वालों का िवनाश हो जाता है । न उनके िलये ये
लोक है , न कोई और न ही शंका में डू बी आत्मा को कोई सुख है ॥
योगसंन्यःतकमार्णं ज्ञानसंिछन्नसंशयम ् ।
आत्मवन्तं न कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय ॥४-४१॥
योग द्वारा कमोर्ं का त्याग िकये हुआ, ज्ञान द्वारा शंकाओं को िछन्न िभन्न िकया हुआ, आत्म मे
िःथत व्यिक्त को कमर् नहीं बाँधते, हे धनंजय ॥

तःमादज्ञानसम्भूतं हृत्ःथं ज्ञानािसनात्मनः ।


िछत्त्वैनं संशयं योगमाितष्ठोित्तष्ठ भारत ॥४-४२॥
इसिलये अज्ञान से जन्मे इस संशय को जो तुम्हारे हृदय मे घर िकया हुआ है , ज्ञान रूपी तल्वार
से चीर डालो, और योग को धारण कर उठो हे भारत ॥

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


पाँचवां अध्याय

अजुन
र् उवाच
संन्यासं कमर्णां कृ ंण पुनयोर्गं च शंसिस ।
यच्ले य एतयोरे कं तन्मे ॄूिह सुिनिश्चतम ् ॥५- १॥
हे कृ ंण, आप कमोर्ं के त्याग की ूशंसा कर रहे हैं और िफर योग द्वारा कमोर्ं को करने की भी
। इन दोनों में से जो ऐक मेरे िलये ज्यादा अच्छा है वही आप िनिश्चत कर के मुझे किहये ॥

ौीभगवानुवाच
संन्यासः कमर्योगश्च िनःौेयसकरावुभौ ।
तयोःतु कमर्संन्यासात्कमर्योगो िविशंयते ॥५- २॥
संन्यास और कमर् योग, ये दोनो ही ौेय हैं , परम की ूािप्त कराने वाले हैं । लेिकन कमोर्ं से संन्यास
की जगह, योग द्वारा कमोर्ं का करना अच्छा है ॥

ज्ञेयः स िनत्यसंन्यासी यो न द्वे िष्ट न काङ्क्षित ।


िनद्वर् न्द्वो िह महाबाहो सुखं बन्धात्ूमुच्यते ॥५- ३॥
उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और न इच्छा करता है । हे महाबाहो, िद्वन्दता
से मुक्त व्यिक्त आसानी से ही बंधन से मुक्त हो जाता है ॥

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः ूवदिन्त न पिण्डताः ।


एकमप्यािःथतः सम्यगुभयोिवर्न्दते फलम ् ॥५- ४॥
संन्यास अथवा सांख्य को और कमर् योग को बालक ही िभन्न िभन्न दे खते हैं , ज्ञानमंद नहीं ।
िकसी भी एक में ही िःथत मनुंय दोनो के ही फलों को समान रूप से पाता है ॥

यत्सांख्यैः ूाप्यते ःथानं तद्योगैरिप गम्यते ।


एकं सांख्यं च योगं च यः पँयित स: पँयित ॥५- ५॥
सांख्य से जो ःथान ूाप्त होता है , वही ःथान योग से भी ूाप्त होता है । जो सांख्य और कमर् योग
को एक ही दे खता है , वही वाःतव में दे खता है ॥
संन्यासःतु महाबाहो दःु खमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुिनॄर्ह्म निचरे णािधगच्छित ॥५- ६॥
संन्यास अथवा त्याग, हे महाबाहो, कमर् योग के िबना ूाप्त करना किठन है । लेिकन योग से युक्त
मुिन कुछ ही समय मे ॄह्म को ूाप्त कर लेते है ॥

योगयुक्तो िवशुद्धात्मा िविजतात्मा िजतेिन्ियः ।


सवर्भत
ू ात्मभूतात्मा कुवर्न्निप न िलप्यते ॥५- ७॥
योग से युक्त हुआ, शुद्ध आत्मा वाला, सवयंम और अपनी इिन्ियों पर जीत पाया हुआ, सभी जगह
और सभी जीवों मे एक ही परमात्मा को दे खता हुआ, ऍसा मुिन कमर् करते हुऐ भी िलपता नहीं
है ॥

नैव िकंिचत्करोमीित युक्तो मन्येत तत्त्विवत ् ।


पँयञ्ौृण्वन्ःपृशिञ्जयन्नश्नन्गच्छन्ःवपञ्श्वसन ् ॥५- ८॥
ूलपिन्वसृजन्गृह्णन्नुिन्मषिन्निमषन्निप ।
इिन्ियाणीिन्ियाथेर्षु वतर्न्त इित धारयन ् ॥५- ९॥
सार को जानने वाला यही मानता है िक वो कुछ नहीं कर रहा । दे खते हुऐ, सुनते हुऐ, छूते हुऐ,
ँ ते हुऐ, खाते हुऐ, चलते िफरते हुऐ, सोते हुऐ, साँस लेते हुऐ, बोलते हुऐ, छोड़ते या पकड़े हुऐ,
सूघ
यहाँ तक िक आँखें खोलते या बंद करते हुऐ, अथार्त कुछ भी करते हुऐ, वो इसी भावना से युक्त
रहता है िक वो कुछ नहीं कर रहा । वो यही धारण िकये रहता है िक इिन्ियाँ अपने िवषयों के
साथ वतर् रही हैं ॥

ॄह्मण्याधाय कमार्िण सङ्गं त्यक्त्वा करोित यः ।


िलप्यते न स पापेन पद्मपऽिमवाम्भसा ॥५- १०॥
कमोर्ं को ॄह्म के हवाले कर, संग को त्याग कर जो कायर् करता है , वो पाप मे नहीं िलपता, जैसे
कमल का पत्ता पानी में भी गीला नहीं होता ॥

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैिरिन्ियैरिप ।


योिगनः कमर् कुवर्िन्त सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५- ११॥
योगी, आत्मशुिद्ध के िलये, केवल शरीर, मन, बुिद्ध और इिन्ियों से कमर् करते हैं , संग को त्याग
कर ॥
युक्तः कमर्फलं त्यक्त्वा शािन्तमाप्नोित नैिष्ठकीम ् ।
अयुक्तः कामकारे ण फले सक्तो िनबध्यते ॥५- १२॥
कमर् के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम शािन्त पाता है । लेिकन जो
ऍसे युक्त नहीं है , इच्छा पूितर् के िलये कमर् के फल से जुड़े होने के कारण वो बँध जाता है ॥

सवर्कमार्िण मनसा संन्यःयाःते सुखं वशी ।


नवद्वारे पुरे दे ही नैव कुवर्न्न कारयन ् ॥५- १३॥
सभी कमोर्ं को मन से त्याग कर, दे ही इस नौं दरवाजों के दे श मतलब इस शरीर में सुख से बसती
है । न वो कुछ करती है और न करवाती है ॥

न कतृत्र् वं न कमार्िण लोकःय सृजित ूभुः ।


न कमर्फलसंयोगं ःवभावःतु ूवतर्ते ॥५- १४॥
ूभु, न तो कतार् होने िक भावना की, और न कमर् की रचना करते हैं । न ही वे कमर् का फल
से संयोग कराते हैं । यह सब तो सवयंम के कारण ही होता है ।

नादत्ते कःयिचत्पापं न चैव सुकृतं िवभुः ।


अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यिन्त जन्तवः ॥५- १५॥
न भगवान िकसी के पाप को महण करते हैं और न िकसी के अच्छे कायर् को । ज्ञान को अज्ञान
ढक लेता है , इिसिलये जीव मोिहत हो जाते हैं ॥

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नािशतमात्मनः ।


तेषामािदत्यवज्ज्ञानं ूकाशयित तत्परम ् ॥५- १६॥
िजन के आत्म मे िःथत अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर िदया है , वह ज्ञान, सूयर् की तरह, सब ूकािशत
कर दे ता है ॥
तद्बद्ध
ु यःतदात्मानःतिन्नष्ठाःतत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृित्तं ज्ञानिनधूत
र् कल्मषाः ॥५- १७॥
ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुिद्ध लगाये, उसी मे आत्मा को लगाये, उसी
मे ौद्धा रखते हुऐ, और उसी में डू बे हुऐ, वे ऍसा ःथान ूाप्त करते हैं िजस से िफर लौट कर नहीं
आते ॥

िवद्यािवनयसंपन्ने ॄाह्मणे गिव हिःतिन ।


शुिन चैव श्वपाके च पिण्डताः समदिशर्नः ॥५- १८॥
ज्ञानमंद व्यिक्त एक िवद्या िवनय संपन्न ॄाह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते को और एक नीच
व्यिक्त को, इन सभी को समान दृिष्ट से दे खता है ।
इहै व तैिजर्तः सगोर् येषां साम्ये िःथतं मनः ।
िनदोर्षं िह समं ॄह्म तःमाद्ॄह्मिण ते िःथताः ॥५- १९॥
िजनका मन समता में िःथत है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं । क्योंिक ॄह्म िनदोर्ष
है और समता पूणर् है , इसिलये वे ॄह्म में ही िःथत हैं ।

न ूहृंयेित्ूयं ूाप्य नोिद्वजेत्ूाप्य चािूयम ् ।


िःथरबुिद्धरसंमढ
ू ो ॄह्मिवद्ॄह्मिण िःथतः ॥५- २०॥
न िूय लगने वाला ूाप्त कर वे ूसन्न होते हैं , और न अिूय लगने वाला ूाप्त करने पर व्यिथत
होते हैं । िःथर बुिद्ध वाले, मूखत
र् ा से परे , ॄह्म को जानने वाले, एसे लोग ॄह्म में ही िःथत हैं ।

बाह्यःपशेर्ंवसक्तात्मा िवन्दत्यात्मिन यत ् सुखम ् ।


स ॄह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥५- २१॥
बाहरी ःपशोर्ं से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है । एसी, ॄह्म योग से युक्त, आत्मा,
कभी न अन्त होने वाले िनरन्तर सुख का आनन्द लेती है ।

ये िह संःपशर्जा भोगा दःु खयोनय एव ते ।


आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥५- २२॥
बाहरी ःपशर् से उत्तपन्न भोग तो दख
ु का ही घर हैं । शुरू और अन्त हो जाने वाले ऍसे भोग, हे
कौन्तेय, उनमें बुिद्धमान लोग रमा नहीं करते ।

शक्नोतीहै व यः सोढु ं ूाक्शरीरिवमोक्षणात ् ।


कामबोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥५- २३॥
यहाँ इस शरीर को त्यागने से पहले ही जो काम और बोध से उत्तपन्न वेगों को सहन कर पाले
में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है ।

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामःतथान्तज्योर्ितरे व यः ।
स योगी ॄह्मिनवार्णं ॄह्मभूतोऽिधगच्छित ॥५- २४॥
िजसकी अन्तर आत्मा सुखी है , अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है , और िजसका अन्त करण
ूकाशमयी है , ऍसा योगी ॄह्म िनवार्ण ूाप्त कर, ॄह्म में ही समा जाता है ।
लभन्ते ॄह्मिनवार्णमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
िछन्नद्वै धा यतात्मानः सवर्भत
ू िहते रताः ॥५- २५॥
ॠषी िजनके पाप क्षीण हो चुके हैं , िजनकी िद्वन्द्वता िछन्न हो चुकी है , जो संवयम की ही तरह
सभी जीवों के िहत में रमे हैं , वो ॄह्म िनवार्ण ूाप्त करते हैं ।

कामबोधिवयुक्तानां यतीनां यतचेतसाम ् ।


अिभतो ॄह्मिनवार्णं वतर्ते िविदतात्मनाम ् ॥५- २६॥
काम और बोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने िचत को िनयिमत िकये, आत्मा का ज्ञान िजनहें
हो चुका है , वे यहाँ होते हुऐ भी ॄह्म िनवार्ण में ही िःथत हैं ।

ःपशार्न्कृ त्वा बिहबार्ह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ॅुवोः ।


ूाणापानौ समौ कृ त्वा नासाभ्यन्तरचािरणौ ॥५- २७॥
यतेिन्ियमनोबुिद्धमुिर् नमोर्क्षपरायणः ।
िवगतेच्छाभयबोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥५- २८॥
बाहरी ःपशोर्ं को बाहर कर, अपनी दृिष्ट को अन्दर की ओर ॅुवों के मध्य में लगाये, ूाण और
अपान का नािसकाओं में एक सा बहाव कर, इिन्ियों, मन और बुिद्ध को िनयिमत कर, ऍसा मुिन
जो मोक्ष ूािप्त में ही लगा हुआ है , इच्छा, भय और बोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है ।

भोक्तारं यज्ञतपसां सवर्लोकमहे श्वरम ् ।


सुहृदं सवर्भत
ू ानां ज्ञात्वा मां शािन्तमृच्छित ॥५- २९॥
मुझे ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर, और सभी जीवों का सुहृद
जान कर वह शािन्त को ूाप्त करता है ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


छटा अध्याय

ौीभगवानुवाच
अनािौतः कमर्फलं कायर्ं कमर् करोित यः ।
स संन्यासी च योगी च न िनरिग्ननर् चािबयः ॥६- १॥
कमर् के फल का आौय न लेकर जो कमर् करता है , वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं
जो अिग्नहीन है , न वह जो अिबय है ।

यं संन्यासिमित ूाहुयोर्गं तं िविद्ध पाण्डव ।


न ह्यसंन्यःतसंकल्पो योगी भवित कश्चन ॥६- २॥
िजसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव । क्योंिक सन्यास अथार्त त्याग
के संकल्प के िबना कोई योगी नहीं बनता ।

आरुरुक्षोमुन
र् ेयोर्गं कमर् कारणमुच्यते ।
योगारूढःय तःयैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥
एक मुिन के िलये योग में िःथत होने के िलये कमर् साधन कहा जाता है । योग मे िःथत हो जाने
पर शािन्त उस के िलये साधन कही जाती है ।

यदा िह नेिन्ियाथेर्षु न कमर्ःवनुषज्जते ।


सवर्सक
ं ल्पसंन्यासी योगारूढःतदोच्यते ॥६- ४॥
जब वह न इिन्ियों के िवषयों की ओर और न कमोर्ं की ओर आकिषर्त होता है , सभी संकल्पों का
त्यागी, तब उसे योग में िःथत कहा जाता है ।

उद्धरे दात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत ् ।


आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव िरपुरात्मनः ॥६- ५॥
सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं । मनुंय सवयंम ही अपना िमऽ होता
है और सवयंम ही अपना शऽू ।
बन्धुरात्मात्मनःतःय येनात्मैवात्मना िजतः ।
अनात्मनःतु शऽुत्वे वतेर्तात्मैव शऽुवत ् ॥६- ६॥
िजसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके िलये उसका आत्म उसका िमऽ है । लेिकन सवयंम
पर जीत नही ूाप्त की है उसके िलये उसका आत्म ही शऽु की तरह वतर्ता है ।

िजतात्मनः ूशान्तःय परमात्मा समािहतः ।


शीतोंणसुखदःु खेषु तथा मानापमानयोः ॥६- ७॥
अपने आत्मन पर जीत ूाप्त िकया, सरदी गरमी, सुख दख
ु तथा मान अपमान में एक सा रहने
वाला, ूसन्न िचत्त मनुंय परमात्मा मे बसता है ।

ज्ञानिवज्ञानतृप्तात्मा कूटःथो िविजतेिन्ियः ।


युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाँमकाञ्चनः ॥६- ८॥
ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-िहल, अपनी इन्िीयों पर जीत ूाप्त कीये, इस ूकार युक्त
व्यिक्त को ही योगी कहा जाता है , जो लोहे , पत्थर और सोने को एक सा दे खता है ।

सुहृिन्मऽायुद
र् ासीनमध्यःथद्वे ंयबन्धुषु ।
साधुंविप च पापेषु समबुिद्धिवर्िशंयते ॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, िमऽ को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, िबचोले को, घृणा करने
वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुिद्ध से दे खता
है वह उत्तम है ।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहिस िःथतः ।


एकाकी यतिचत्तात्मा िनराशीरपिरमहः ॥६- १०॥
योगी को एकान्त ःथान पर िःथत होकर सदा अपनी आत्मा को िनयिमत करना चािहये । एकान्त
मे इच्छाओं और घर, धन आिद मािन्सक पिरमहों से रिहत हो अपने िचत और आत्मा को िनयिमत
करता हुआ ।
शुचौ दे शे ूितष्ठाप्य िःथरमासनमात्मनः ।
नात्युिच्लतं नाितनीचं चैलािजनकुशोत्तरम ् ॥६- ११॥
उसे ऍसे आसन पर बैठना चािहये जो साफ और पिवऽ ःथान पर िःथत हो, िःथर हो, और जो
न एयादा ऊँचा हो और न एयादा नीचा हो, और कपड़े , खाल या कुश नामक घास से बना हो ।

तऽैकामं मनः कृ त्वा यतिचत्तेिन्ियिबयः ।


उपिवँयासने युञ्ज्याद्योगमात्मिवशुद्धये ॥६- १२॥
वहाँ अपने मन को एकाम कर, िचत्त और इन्िीयों को अिबय कर, उसे आत्म शुिद्ध के िलये ध्यान
योग का अभ्यास करना चािहये ।

समं कायिशरोमीवं धारयन्नचलं िःथरः ।


सम्ूेआय नािसकामं ःवं िदशश्चानवलोकयन ् ॥६- १३॥
अपनी काया, िसर और गदर् न को एक सा सीधा धारण कर, अचल रखते हुऐ, िःथर रह कर, अपनी
नाक के आगे वाले भाग की ओर एकामता से दे खते हुये, और िकसी िदशा में नहीं दे खना चािहये

ूशान्तात्मा िवगतभीॄर्ह्मचािरोते िःथतः ।


मनः संयम्य मिच्चत्तो युक्त आसीत मत्परः ॥६- १४॥
ूसन्न आत्मा, भय मुक्त, ॄह्मचायर् के ोत में िःथत, मन को संयिमत कर, मुझ मे िचत्त लगाये
हुऐ, इस ूकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ ।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी िनयतमानसः ।


शािन्तं िनवार्णपरमां मत्संःथामिधगच्छित ॥६- १५॥
इस ूकार योगी सदा अपने आप को िनयिमत करता हुआ, िनयिमत मन वाला, मुझ मे िःथत
होने ने कारण परम शािन्त और िनवार्ण ूाप्त करता है ।

नात्यश्नतःतु योगोऽिःत न चैकान्तमनश्नतः ।


न चाित ःवप्नशीलःय जामतो नैव चाजुन
र् ॥६- १६॥
र् , न बहुत खाने वाला योग ूाप्त करता है , न वह जो बहुत ही कम खाता है । न वह जो
हे अजुन
बहुत सोता है और न वह जो जागता ही रहता है ।
युक्ताहारिवहारःय युक्तचेष्टःय कमर्सु ।
युक्तःवप्नावबोधःय योगो भवित दःु खहा ॥६- १७॥
जो िनयिमत आहार लेता है और िनयिमत िनर-आहार रहता है , िनयिमत ही कमर् करता है ,
ु ों का अन्त कर दे ने वाली हो जाती
िनयिमत ही सोता और जागता है , उसके िलये यह योगा दख
है ।

यदा िविनयतं िचत्तमात्मन्येवावितष्ठते ।


िनःःपृहः सवर्कामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥६- १८॥
जब सवंयम ही उसका िचत्त, िबना हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी आत्मा मे
िवराजमान रहता है , तब उसे युक्त कहा जाता है ।

यथा दीपो िनवातःथो नेङ्गते सोपमा ःमृता ।


योिगनो यतिचत्तःय युञ्जतो योगमात्मनः ॥६- १९॥
जैसे एक दीपक वायु न होने पर िहलता नहीं है , उसी ूकार योग द्वारा िनयिमत िकया हुआ योगी
का िचत्त होता है ।

यऽोपरमते िचत्तं िनरुद्धं योगसेवया ।


यऽ चैवात्मनात्मानं पँयन्नात्मिन तुंयित ॥६- २०॥
जब उस योगी का िचत्त योग द्वारा िवषयों से हट जाता है तब वह सवयं अपनी आत्मा को सवयं
अपनी आत्मा द्वारा दे ख तुष्ठ होता है ।

सुखमात्यिन्तकं यत्तद् बुिद्धमाह्यमतीिन्ियम ् ।


वेित्त यऽ न चैवायं िःथतश्चलित तत्त्वतः ॥६- २१॥
वह अत्यन्त सुख जो इिन्ियों से पार उसकी बुिद्ध मे समाता है , उसे दे ख लेने के बाद योगी उसी
मे िःथत रहता है और सार से िहलता नहीं ।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नािधकं ततः ।


यिःमिन्ःथतो न दःु खेन गुरुणािप िवचाल्यते ॥६- २२॥
तब बड़े से बड़ा लाभ ूाप्त कर लेने पर भी वह उसे अिधक नहीं मानता, और न ही, उस सुख में
िःथत, वह भयानक से भयानक दख
ु से भी िवचिलत होता है ।
तं िवद्याद्दःु खसंयोगिवयोगं योगसंिज्ञतम ् ।
स िनश्चयेन योक्तव्यो योगोऽिनिवर्ण्णचेतसा ॥६- २३॥
दख
ु से जो जोड़ है उसके इस टु ट जाने को ही योग का नाम िदया जाता है । िनश्चय कर और
पूरे मन से इस योग मे जुटना चािहये ।

संकल्पूभवान्कामांःत्यक्त्वा सवार्नशेषतः ।
मनसैवेिन्ियमामं िविनयम्य समन्ततः ॥६- २४॥
शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग दे ने का संकल्प कर, मन से सभी इिन्ियों को हर ओर
से रोक कर ।

शनैः शनैरुपरमेद्बद्
ु ध्या धृितगृहीतया ।
आत्मसंःथं मनः कृ त्वा न िकंिचदिप िचन्तयेत ् ॥६- २५॥
धीरे धीरे बुिद्ध की िःथरता मरण करते हुऐ मन को आत्म मे िःथत कर, कुछ भी नहीं सोचना
चािहये ।

यतो यतो िनश्चरित मनश्चञ्चलमिःथरम ् ।


ततःततो िनयम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत ् ॥६- २६॥
जब जब चंचल और अिःथर मन िकसी भी ओर जाये, तब तब उसे िनयिमत कर अपने वश में
कर लेना चािहये ।

ूशान्तमनसं ह्येनं योिगनं सुखमुत्तमम ् ।


उपैित शान्तरजसं ॄह्मभूतमकल्मषम ् ॥६- २७॥
ऍसे ूसन्न िचत्त योगी को उत्तम सुख ूाप्त होता है िजसका रजो गुण शान्त हो चुका है , जो पाप
मुक्त है और ॄह्म मे समा चुका है ।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी िवगतकल्मषः ।


सुखेन ॄह्मसंःपशर्मत्यन्तं सुखमश्नुते ॥६- २८॥
अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी से ॄह्म से ःपशर् होने का
अत्यन्त सुख भोगता है ।
सवर्भत
ू ःथमात्मानं सवर्भूतािन चात्मिन ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सवर्ऽ समदशर्नः ॥६- २९॥
योग से युक्त आत्मा, अपनी आत्मा को सभी जीवों में दे खते हुऐ और सभी जीवों मे अपनी आत्मा
को दे खते हुऐ हर जगह एक सा रहता है ।

यो मां पँयित सवर्ऽ सवर्ं च मिय पँयित ।


तःयाहं न ूणँयािम स च मे न ूणँयित ॥६- ३०॥
जो मुझे हर जगह दे खता है और हर चीज़ को मुझ में दे खता है , उसके िलये मैं कभी ओझल नहीं
होता और न ही वो मेरे िलये ओझल होता है ।

सवर्भत
ू िःथतं यो मां भजत्येकत्वमािःथतः ।
सवर्था वतर्मानोऽिप स योगी मिय वतर्ते ॥६- ३१॥
सभी भूतों में िःथत मुझे जो अन्नय भाव से िःथत हो कर भजता है , वह सब कुछ करते हुऐ
भी मुझ ही में रहता है ।

आत्मौपम्येन सवर्ऽ समं पँयित योऽजुन


र् ।
सुखं वा यिद वा दःु खं स योगी परमो मतः ॥६- ३२॥
हे अजुन
र् , जो सदा दस
ू रों के दख
ु सुख और अपने दख
ु सुख को एक सा दे खता है , वही योगी सबसे
परम है ।

अजुन
र् उवाच
योऽयं योगःत्वया ूोक्तः साम्येन मधुसद
ू न ।
एतःयाहं न पँयािम चञ्चलत्वाित्ःथितं िःथराम ् ॥६- ३३॥
हे मधुसद
ू न, जो आपने यह समता भरी योगा बताई है , इसमें मैं िःथरता नहीं दे ख पा रहा हूँ, मन
की चंचलता के कारण ।

चञ्चलं िह मनः कृ ंण ूमािथ बलवद्दढम


ृ ्।
तःयाहं िनमहं मन्ये वायोिरव सुदंु करम ् ॥६- ३४॥
हे कृ ंण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है । उसे रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त
किठन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना ।
ौीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दिु नर्महं चलम ् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥६- ३५॥
बेशक, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना किठन है , लेिकन हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य
से इसे काबू िकया जा सकता है ।

असंयतात्मना योगो दंु ूाप इित मे मितः ।


वँयात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमप
ु ायतः ॥६- ३६॥
मेरे मत में, आत्म संयम िबना योग ूाप्त करना अत्यन्त किठन है । लेिकन अपने आप को वश
मे कर अभ्यास द्वारा इसे ूाप्त िकया जा सकता है ।

अजुन
र् उवाच
अयितः ौद्धयोपेतो योगाच्चिलतमानसः ।
अूाप्य योगसंिसिद्धं कां गितं कृ ंण गच्छित ॥६- ३७॥
हे कृ ंण, ौद्धा होते हुए भी िजसका मन योग से िहल जाता है , योग िसिद्ध को ूाप्त न कर पाने
पर उसको क्या पिरणाम होता है ।

किच्चन्नोभयिवॅष्टिँछन्नाॅिमव नँयित ।
अूितष्ठो महाबाहो िवमूढो ॄह्मणः पिथ ॥६- ३८॥
क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टू टे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता । हे महाबाहो, अूितिष्ठत
और ॄह्म पथ से िवमूढ हुआ ।

एतन्मे संशयं कृ ंण छे त्तुमहर् ःयशेषतः ।


त्वदन्यः संशयःयाःय छे त्ता न ह्युपपद्यते ॥६- ३९॥
हे कृ ंण, मेरे इस संशय को आप पूरी तरह िमटा दीजीऐ क्योंिक आप के अलावा और कोई नहीं
है जो इस संशय को छे द पाये ।
ौीभगवानुवाच
पाथर् नैवेह नामुऽ िवनाशःतःय िवद्यते ।
न िह कल्याणकृ त्किश्चद्दग
ु िर् तं तात गच्छित ॥६- ४०॥
हे पाथर्, उसके िलये िवनाश न यहाँ है और न कहीं और ही । क्योंिक, हे तात, कल्याण कारी कमर्
करने वाला कभी दग
ु िर् त को ूाप्त नहीं होता ।

ूाप्य पुण्यकृ तां लोकानुिषत्वा शाश्वतीः समाः ।


शुचीनां ौीमतां गेहे योगॅष्टोऽिभजायते ॥६- ४१॥
योग पथ में ॅष्ट हुआ मनुंय, पुन्यवान लोगों के लोकों को ूाप्त कर, वहाँ बहुत समय तक रहता
है और िफर पिवऽ और ौीमान घर में जन्म लेता है ।

अथवा योिगनामेव कुले भवित धीमताम ् ।


एतिद्ध दल
ु भ
र् तरं लोके जन्म यदीदृशम ् ॥६- ४२॥
या िफर वह बुिद्धमान योिगयों के घर मे जन्म लेता है । ऍसा जन्म िमलना इस संसार में बहुत
मुिँकल है ।

तऽ तं बुिद्धसंयोगं लभते पौवर्देिहकम ् ।


यतते च ततो भूयः संिसद्धौ कुरुनन्दन ॥६- ४३॥
वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुिद्ध से िफर से संयोग ूाप्त होता है । िफर दोबारा अभ्यास
करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह िसिद्ध ूाप्त करता है ।

पूवार्भ्यासेन तेनव
ै ि॑यते ह्यवशोऽिप सः ।
िजज्ञासुरिप योगःय शब्दॄह्माितवतर्ते ॥६- ४४॥
पुवर् जन्म में िकये अभ्यास की तरफ वह िबना वश ही िखच जाता है । क्योंिक योग मे िजज्ञासा
रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है ।

ूयत्नाद्यतमानःतु योगी संशुद्धिकिल्बषः ।


अनेकजन्मसंिसद्धःततो याित परां गितम ् ॥६- ४५॥
अनेक जन्मों मे िकये ूयत्न से योगी िवशुद्ध और पाप मुक्त हो, अन्त में परम िसिद्ध को ूाप्त कर
लेता है ।
तपिःवभ्योऽिधको योगी ज्ञािनभ्योऽिप मतोऽिधकः ।
किमर्भ्यश्चािधको योगी तःमाद्योगी भवाजुन
र् ॥६- ४६॥
योगी तपिःवयों से अिधक है , िवद्वानों से भी अिधक है , कमर् से जुड़े लोगों से भी अिधक है , इसिलये
हे अजुन
र् तुम योगी बनो ।

योिगनामिप सवेर्षां मद्गतेनान्तरात्मना ।


ौद्धावान ् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥६- ४७॥
और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मुझ में ही बसा कर ौद्धा से मुझे याद करता है , वही
सबसे उत्तम है ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


सातवाँ अध्याय

ौीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पाथर् योगं युञ्जन्मदाौयः ।
असंशयं सममं मां यथा ज्ञाःयिस तच्छृणु ॥७- १॥
मुझ मे लगे मन से, हे पाथर्, मेरा आौय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम िबना शक के मुझे पूरी
तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो ।

ज्ञानं तेऽहं सिवज्ञानिमदं वआयाम्यशेषतः ।


यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमविशंयते ॥७- २॥
मैं तुम्हे ज्ञान और अनुभव के बारे सब बताता हूँ, िजसे जान लेने के बाद और कुछ भी जानने
वाला बािक नहीं रहता ।

मनुंयाणां सहॐेषु किश्चद्यतित िसद्धये ।


यततामिप िसद्धानां किश्चन्मां वेित्त तत्त्वतः ॥७- ३॥
हजारों मनुंयों में कोई ही िसद्ध होने के िलये ूयत्न करता है । और िसिद्ध के िलये ूयत्न करने
वालों में भी कोई ही मुझे सार तक जानता है ।

भूिमरापोऽनलो वायुः खं मनो बुिद्धरे व च ।


अहं कार इतीयं मे िभन्ना ूकृ ितरष्टधा ॥७- ४॥
भूिम, जल, अिग्न, वायु, आकाश, मन, बुिद्ध और अहं कार – यह िभन्न िभन्न आठ रूपों वाली
मेरी ूकृ ित है ।

अपरे यिमतःत्वन्यां ूकृ ितं िविद्ध मे पराम ् ।


जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायर्ते जगत ् ॥७- ५॥
यह नीचे है । इससे अलग मेरी एक और ूाकृ ित है जो परम है – जो जीवात्मा का रूप लेकर,
हे महाबाहो, इस जगत को धारण करती है ।
एतद्योनीिन भूतािन सवार्णीत्युपधारय ।
अहं कृ त्ःनःय जगतः ूभवः ूलयःतथा ॥७- ६॥
यह दो ही वह योिन हैं िजससे सभी जीव संभव होते हैं । मैं ही इस संपूणर् जगत का आरम्भ हूँ
औऱ अन्त भी ।

मत्तः परतरं नान्यित्कंिचदिःत धनंजय ।


मिय सवर्िमदं ूोतं सूऽे मिणगणा इव ॥७- ७॥
मुझे छोड़कर, हे धनंजय, और कुछ भी नहीं है । यह सब मुझ से वैसे पुरा हुआ है जैसे मिणयों
में धागा पुरा होता है ।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय ूभािःम शिशसूयय


र् ोः ।
ूणवः सवर्वेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥७- ८॥
मैं पानी का रस हूँ, हे कौन्तेय, चन्ि और सूयर् की रौशनी हूँ, सभी वेदों में विणर्त ॐ हूँ, और पुरुषों
का पौरुष हूँ ।

पुण्यो गन्धः पृिथव्यां च तेजश्चािःम िवभावसौ ।


जीवनं सवर्भत
ू ेषु तपश्चािःम तपिःवषु ॥७- ९॥
पृथिव की पुन्य सुगन्ध हूँ और अिग्न का तेज हूँ । सभी जीवों का जीवन हूँ, और तप करने वालों
का तप हूँ ।

बीजं मां सवर्भत


ू ानां िविद्ध पाथर् सनातनम ् ।
बुिद्धबुिर् द्धमतामिःम तेजःतेजिःवनामहम ् ॥७- १०॥
हे पाथर्, मुझे तुम सभी जीवों का सनातन बीज जानो । बुिद्धमानों की बुिद्ध मैं हूँ और तेजिःवयों
का तेज मैं हूँ ।

बलं बलवतां चाहं कामरागिवविजर्तम ् ।


धमार्िवरुद्धो भूतेषु कामोऽिःम भरतषर्भ ॥७- ११॥
बलवानों का वह बल जो काम और राग मुक्त हो वह मैं हूँ । ूािणयों में वह इच्छा जो धमर् िवरुद्ध
न हो वह मैं हूँ हे भारत ौेष्ठ ।

ये चैव साित्त्वका भावा राजसाःतामसाश्च ये ।


मत्त एवेित तािन्विद्ध न त्वहं तेषु ते मिय ॥७- १२॥
जो भी सत्तव, रजो अथवा तमो गुण से होता है उसे तुम मुझ से ही हुआ जानो, लेिकन मैं उन
में नहीं, वे मुझ में हैं ।
िऽिभगुण
र् मयैभार्वैरेिभः सवर्िमदं जगत ् ।
मोिहतं नािभजानाित मामेभ्यः परमव्ययम ् ॥७- १३॥
इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोिहत हुआ, मुझ अव्यय और परम को नहीं जानता

दै वी ह्येषा गुणमयी मम माया दरु त्यया ।


मामेव ये ूपद्यन्ते मायामेतां तरिन्त ते ॥७- १४॥
गुणों का रूप धारण की मेरी इस िदव्य माया को पार करना अत्यन्त किठन है । लेिकन जो मेरी
ही शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं ।

न मां दंु कृ ितनो मूढाः ूपद्यन्ते नराधमाः ।


माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमािौताः ॥७- १५॥
बुरे कमर् करने वाले, मूख,र् नीच लोग मेरी शरण में नहीं आते । ऍसे दंु कृ त लोग, माया द्वारा िजनका
ज्ञान िछन चुका है वे असुर भाव का आौय लेते हैं ।

चतुिवर्धा भजन्ते मां जनाः सुकृितनोऽजुन


र् ।
आतोर् िजज्ञासुरथार्थीर् ज्ञानी च भरतषर्भ ॥७- १६॥
र् , चार ूकार के सुकृत लोग मुझे भजते हैं । मुसीबत में जो हैं , िजज्ञासी, धन आिद के
हे अजुन
इच्छुक, और जो ज्ञानी हैं , हे भरतषर्भ ।

तेषां ज्ञानी िनत्ययुक्त एकभिक्तिवर्िशंयते ।


िूयो िह ज्ञािननोऽत्यथर्महं स च मम िूयः ॥७- १७॥
उनमें से ज्ञानी ही सदा अनन्य भिक्तभाव से युक्त होकर मुझे भजता हुआ सबसे उत्तम है । ज्ञानी
को मैं बहुत िूय हूँ और वह भी मुझे वैसे ही िूय है ।

उदाराः सवर् एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम ् ।


आिःथतः स िह युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गितम ् ॥७- १८॥
यह सब ही उदार हैं , लेिकन मेरे मत में ज्ञानी तो मेरा अपना आत्म ही है । क्योंिक मेरी भिक्त
भाव से युक्त और मुझ में ही िःथत रह कर वह सबसे उत्तम गित - मुझे, ूाप्त करता है ।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां ूपद्यते ।


वासुदेवः सवर्िमित स महात्मा सुदल
ु भ
र् ः ॥७- १९॥
बहुत जन्मों के अन्त में ज्ञानमंद मेरी शरण में आता है । वासुदेव ही सब कुछ हैं , इसी भाव में
िःथर महात्मा िमल पाना अत्यन्त किठन है ।
कामैःतैःतैहृर्तज्ञानाः ूपद्यन्तेऽन्यदे वताः ।
तं तं िनयममाःथाय ूकृ त्या िनयताः ःवया ॥७- २०॥
इच्छाओं के कारण िजन का ज्ञान िछन गया है , वे अपने अपने ःवभाव के अनुसार, नीयमों का
पालन करते हुऐ अन्य दे वताओं की शरण में जाते हैं ।

यो यो यां यां तनुं भक्तः ौद्धयािचर्तुिमच्छित ।


तःय तःयाचलां ौद्धां तामेव िवदधाम्यहम ् ॥७- २१॥
जो भी मनुंय िजस िजस दे वता की भिक्त और ौद्धा से अचर्ना करने की इच्छा करता है , उसी
रूप (दे वता) में मैं उसे अचल ौद्धा ूदान करता हूँ ।

स तया ौद्धया युक्तःतःयाराधनमीहते ।


लभते च ततः कामान्मयैव िविहतािन्ह तान ् ॥७- २२॥
उस दे वता के िलये (मेरी ही दी) ौद्धा से युक्त होकर वह उसकी अराधना करता है और अपनी इच्छा
पूतीर् ूाप्त करता है , जो मेरे द्वारा ही िनरधािरत की गयी होती है ।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम ् ।


दे वान्दे वयजो यािन्त मद्भक्ता यािन्त मामिप ॥७- २३॥
अल्प बुिद्ध वाले लोगों को इस ूकार ूप्त हुऐ यह फल अन्तशील हैं । दे वताओं का यजन करने
वाले दे वताओं के पास जाते हैं लेिकन मेरा भक्त मुझे ही ूाप्त करता है ।

अव्यक्तं व्यिक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।


परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम ् ॥७- २४॥
मुझ अव्यक्त (अदृँय) को यह अवतार लेने पर, बुिद्धहीन लोग दे हधारी मानते हैं । मेरे परम भाव
को अथार्त मुझे नहीं जानते जो की अव्यय (िवकार हीन) और परम उत्तम है ।

नाहं ूकाशः सवर्ःय योगमायासमावृतः ।


मूढोऽयं नािभजानाित लोको मामजमव्ययम ् ॥७- २५॥
अपनी योग माया से ढका मैं सबको नहीं िदखता हूँ । इस संसार में मूखर् मुझ अजन्मा और िवकार
हीन को नहीं जानते ।

वेदाहं समतीतािन वतर्मानािन चाजुन


र् ।
भिवंयािण च भूतािन मां तु वेद न कश्चन ॥७- २६॥
हे अजुन
र् , जो बीत चुके हैं , जो वतर्मान में हैं , और जो भिवंय में होंगे, उन सभी जीवों को मैं जानता
हूँ, लेिकन मुझे कोई नहीं जानता ।
इच्छाद्वे षसमुत्थेन द्वन्द्वमोहे न भारत ।
सवर्भत
ू ािन संमोहं सगेर् यािन्त परन्तप ॥७- २७॥
हे भारत, इच्छा और द्वे ष से उठी द्वन्द्वता से मोिहत हो कर, सभी जीव जन्म चब में फसे रहते
हैं , हे परन्तप ।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकमर्णाम ् ।


ते द्वन्द्वमोहिनमुक्त
र् ा भजन्ते मां दृढोताः ॥७- २८॥
लेिकन िजनके पापों का अन्त हो गया है , वह पुण्य कमर् करने वाले लोग द्वन्द्वता से िनमुक्त
र् होकर,
दृढ ोत से मुझे भजते हैं ।

जरामरणमोक्षाय मामािौत्य यतिन्त ये ।


ते ॄह्म तिद्वदःु कृ त्ःनमध्यात्मं कमर् चािखलम ् ॥७- २९॥
बुढापे और मृत्यु से छुटकारा पाने के िलये जो मेरा आौय लेते हैं वे उस ॄह्म को, सारे अध्यात्म
को, और संपूणर् कमर् को जानते हैं ।

सािधभूतािधदै वं मां सािधयज्ञं च ये िवदःु ।


ूयाणकालेऽिप च मां ते िवदय
ु क्त
ुर् चेतसः ॥७- ३०॥
वे सभी भूतों में, दै व में, और यज्ञ में मुझे जानते हैं । मृत्युकाल में भी इसी बुिद्ध से युक्त िचत्त
से वे मुझे ही जानते हैं ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


आठवाँ अध्याय

अजुन
र् उवाच
िकं तद्ॄह्म िकमध्यात्मं िकं कमर् पुरुषोत्तम ।
अिधभूतं च िकं ूोक्तमिधदै वं िकमुच्यते ॥८- १॥
हे पुरुषोत्तम, ॄह्म क्या है , अध्यात्म क्या है , और कमर् क्या होता है । अिधभूत िकसे कहते हैं और
अिधदै व िकसे कहा जाता है ।

अिधयज्ञः कथं कोऽऽ दे हेऽिःमन्मधुसूदन ।


ूयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽिस िनयतात्मिभः ॥८- २॥
ू न, इस दे ह में जो अिधयज्ञ है वह कौन है । और सदा िनयिमत िचत्त वाले कैसे मृत्युकाल
हे मधुसद
के समय उसे जान जाते हैं ।

ौीभगवानुवाच
अक्षरं ॄह्म परमं ःवभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो िवसगर्ः कमर्सिं ज्ञतः ॥८- ३॥
िजसका क्षर नहीं होता वह ॄह्म है । जीवों के परम ःवभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है । जीवों
की िजससे उत्पित्त होती है उसे कमर् कहा जाता है ।

अिधभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चािधदै वतम ् ।


अिधयज्ञोऽहमेवाऽ दे हे दे हभृतां वर ॥८- ४॥
इस दे ह के क्षर भाव को अिधभूत कहा जाता है , और पुरूष अथार्त आत्मा को अिधदै व कहा जाता
है । इस दे ह में मैं अिधयज्ञ हूँ - दे ह धारण करने वालों में सबसे ौेष्ठ ।

अन्तकाले च मामेव ःमरन्मुक्त्वा कलेवरम ् ।


यः ूयाित स मद्भावं याित नाःत्यऽ संशयः ॥८- ५॥
अन्तकाल में मुझी को याद करते हुऐ जो दे ह से मुिक्त पाता है , वह मेरे ही भाव को ूाप्त होता
है , इस में कोई संशय नहीं ।

यं यं वािप ःमरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम ् ।


तं तमेवैित कौन्तेय सदा तद्भावभािवतः ॥८- ६॥
ूाणी जो भी ःमरन करते हुऐ अपनी दे ह त्यागता है , वह उसी को ूाप्त करता है हे कौन्तेय, सदा
उन्हीं भावों में रहने के कारण ।
तःमात्सवेर्षु कालेषु मामनुःमर युध्य च ।
मय्यिपर्तमनोबुिद्धमार्मेवैंयःयसंशयम ् ॥८- ७॥
इसिलये, हर समय मुझे ही याद करते हुऐ तुम युद्ध करो । अपने मन और बुिद्ध को मुझे ही अिपर्त
करने से, तुम मुझ में ही रहोगे, इस में कोई संशय नहीं ।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगािमना ।


परमं पुरुषं िदव्यं याित पाथार्निु चन्तयन ् ॥८- ८॥
किवं पुराणमनुशािसतारमणोरणीयांसमनुःमरे द्यः ।
सवर्ःय धातारमिचन्त्यरूपमािदत्यवणर्ं तमसः परःतात ् ॥८- ९॥
हे पाथर्, अभ्यास द्वारा िचत्त को योग युक्त कर और अन्य िकसी भी िवषय का िचन्तन न करते
हुऐ, उन पुरातन किव, सब के अनुशासक, सूआम से भी सूआम, सबके धाता, अिचन्त्य रूप, सूयर्
के ूकार ूकाशमयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही िचन्तन करते हुऐ, उस िदव्य परम-पुरुष
को ही ूाप्त करोगे ।

ूयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।


ॅुवोमर्ध्ये ूाणमावेँय सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैित िदव्यम ् ॥८- १०॥
इस दे ह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भिक्त भाव से युक्त हो, ॅुवों
के मध्य में अपने ूाणों को िटका कर जो ूाण त्यागता है वह उस िदव्य परम पुरुष को ूाप्त करता
है ।

यदक्षरं वेदिवदो वदिन्त िवशिन्त यद्यतयो वीतरागाः ।


यिदच्छन्तो ॄह्मचयर्ं चरिन्त तत्ते पदं संमहे ण ूवआये ॥८- ११॥
िजसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं , और िजसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर ूवेश करते
हैं , िजसकी ूाप्ती की इच्छा से ॄह्मचारी ॄह्मचयार् का पालन करते हैं , तुम्हें मैं उस पद के बारे में
बताता हूँ ।

सवर्द्वारािण संयम्य मनो हृिद िनरुध्य च ।


मूध्न्यार्धायात्मनः ूाणमािःथतो योगधारणाम ् ॥८- १२॥
ओिमत्येकाक्षरं ॄह्म व्याहरन्मामनुःमरन ् ।
यः ूयाित त्यजन्दे हं स याित परमां गितम ् ॥८- १३॥
अपने सभी द्वारों (अथार्त इिन्ियों) को संयमशील कर, मन और हृदय को िनरोद्ध कर (िवषयों से
िनकाल कर), ूाणों को अपने मिँतंक में िःथत कर, इस ूकार योग को धारण करते हुऐ । ॐ
से अक्षर ॄह्म को संबोिधत करते हुऐ, और मेरा अनुःमरन करते हुऐ, जो अपनी दे ह को त्यजता
है , वह परम गित को ूाप्त करता है ।
अनन्यचेताः सततं यो मां ःमरित िनत्यशः ।
तःयाहं सुलभः पाथर् िनत्ययुक्तःय योिगनः ॥८- १४॥
अनन्य िचत्त से जो मुझे सदा याद करता है , उस िनत्य युक्त योगी के िलये मुझे ूाप्त करना आसान
है हे पाथर् ।

मामुपेत्य पुनजर्न्म दःु खालयमशाश्वतम ् ।


नाप्नुविन्त महात्मानः संिसिद्धं परमां गताः ॥८- १५॥
मुझे ूाप्त कर लेने पर महात्माओं को िफर से, दख
ु का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना
पड़ता, क्योंिक वे परम िसिद्ध को ूाप्त कर चुके हैं ।

आॄह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावितर्नोऽजुन
र् ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनजर्न्म न िवद्यते ॥८- १६॥
ॄह्म से नीचे िजतने भी लोक हैं उनमें से िकसी को भी ूाप्त करने पर जीव को वािपस लौटना पड़ता
है (मृत्यु होती है ), लेिकन मुझे ूाप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, िफर दोबारा जन्म नहीं होता ।

सहॐयुगपयर्न्तमहयर्द्ॄह्मणो िवदःु ।
रािऽं युगसहॐान्तां तेऽहोराऽिवदो जनाः ॥८- १७॥
जो जानते हैं की सहॐ (हज़ार) युग बीत जाने पर ॄह्म का िदन होता है और सहॐ युगों के अन्त
पर ही राऽी होती है , वे लोग िदन और रात को जानते हैं ।

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सवार्ः ूभवन्त्यहरागमे ।


रात्र्यागमे ूलीयन्ते तऽैवाव्यक्तसंज्ञके ॥८- १८॥
िदन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (िदखते हैं ) होते हैं , और रािऽ के आने
पर ूलय को ूाप्त हो, िजसे अव्यक्त कहा जाता है , उसी में समा जाते हैं ।

भूतमामः स एवायं भूत्वा भूत्वा ूलीयते ।


रात्र्यागमेऽवशः पाथर् ूभवत्यहरागमे ॥८- १९॥
हे पाथर्, इस ूकार यह समःत जीव िदन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं , और रात होने पर
बार बार वशहीन ही ूलय को ूाप्त होते हैं ।

परःतःमात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सवेर्षु भूतेषु नँयत्सु न िवनँयित ॥८- २०॥
इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है , जो सभी जीवों का अन्त
होने पर भी नष्ट नहीं होता ।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तःतमाहुः परमां गितम ् ।
यं ूाप्य न िनवतर्न्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥
िजसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है , और िजसे परम गित बताया जाता है , िजसे ूाप्त करने
पर कोई िफर से नहीं लौटता वही मेरा परम ःथान है ।

पुरुषः स परः पाथर् भक्त्या लभ्यःत्वनन्यया ।


यःयान्तःःथािन भूतािन येन सवर्िमदं ततम ् ॥८- २२॥
हे पाथर्, उस परम पुरुष को, िजसमें यह सभी जीव िःथत हैं और जीसमें यह सब कुछ ही बसा
हुआ है , तुम अनन्य भिक्त से पा सकते हो ।

यऽ काले त्वनावृित्तमावृित्तं चैव योिगनः ।


ूयाता यािन्त तं कालं वआयािम भरतषर्भ ॥८- २३॥
हे भरतषर्भ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ िजसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी लौट कर नहीं आते
और िजसमें वे लौट कर आते हैं ।

अिग्नज्योर्ितरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम ् ।


तऽ ूयाता गच्छिन्त ॄह्म ॄह्मिवदो जनाः ॥८- २४॥
रौशनी में, अिग्न की ज्योित के समीप, िदन के समय, या सुयर् के उत्तर में होने वाले छः महीने
(गरमी), उस में जाने वाले ॄह्म को जानने वाले, ॄह्म को ूाप्त करते हैं ।

धूमो रािऽःतथा कृ ंणः षण्मासा दिक्षणायनम ् ।


तऽ चान्िमसं ज्योितयोर्गी ूाप्य िनवतर्ते ॥८- २५॥
धूऐं, रािऽ, अंधकार और सूयर् के दिक्षण में होने वाले छः महीने (सदीर्), उस में योगी चन्ि की
ज्योित को ूाप्त कर पुनः लौटते हैं ।

शुक्लकृ ंणे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।


एकया यात्यनावृित्तमन्ययावतर्ते पुनः ॥८- २६॥
इस जगत में सफेद और काला - ये दो शाश्वत पथ माने जाते हैं । एक पर चलने वाले िफर लौट
कर नहीं आते और दस
ू रे पर चलने वाले िफर लौट कर आते हैं ।

नैते सृती पाथर् जानन्योगी मुह्यित कश्चन ।


तःमात्सवेर्षु कालेषु योगयुक्तो भवाजुन
र् ॥८- २७॥
हे पाथर्, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद िफर कभी मोिहत हुआ हो । इसिलये,
हे अजुन
र् , तुम हर समय योग-युक्त बनो ।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत ् पुण्यफलं ूिदष्टम ् ।
अत्येित तत्सवर्िमदं िविदत्वा योगी परं ःथानमुपैित चाद्यम ् ॥८- २८॥
इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल ूाप्त होते हैं उन सब
से ऊपर उठकर, पुरातन परम ःथान ूाप्त कर लेता है ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


नौंवा अध्याय

ौीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं ूवआयाम्यनसूयवे ।
ज्ञानं िवज्ञानसिहतं यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात ् ॥९- १॥
मैं तुम्हे इस परम रहःय के बारे में बताता हूँ क्योंिक तुममें इसके ूित कोई वैर वहीं है । इसे
ज्ञान और अनुभव सिहत जान लेने पर तुम अशुभ से मुिक्त पा लोगे ।

राजिवद्या राजगुह्यं पिवऽिमदमुत्तमम ् ।


ूत्यक्षावगमं धम्यर्ं सुसुखं कतुम
र् व्ययम ् ॥९- २॥
यह िवद्या सबसे ौेष्ठ है , सबसे ौेष्ठ रहःय है , उत्तम से भी उत्तम और पिवऽ है , सामने ही िदखने
वाली है (टे ढी नहीं है ), न्याय और अच्छाई से भरी है , अव्यय है और आसानी से इसका पालन
िकया जा सकता है ।

अौद्दधानाः पुरुषा धमर्ःयाःय परन्तप ।


अूाप्य मां िनवतर्न्ते मृत्युसस
ं ारवत्मर्िन ॥९- ३॥
हे परन्तप, इस धमर् में िजन पुरुषों की ौद्धा नहीं होती, वे मुझे ूाप्त न कर, बार बार इस मृत्यु
संसार में जन्म लेते हैं ।

मया ततिमदं सवर्ं जगदव्यक्तमूितर्ना ।


मत्ःथािन सवर्भूतािन न चाहं तेंवविःथतः ॥९- ४॥
मैं इस संपूणर् जगत में अव्यक्त (जो िदखाई न दे ) मूितर् रुप से िवरािजत हूँ । सभी जीव मुझ में
ही िःथत हैं , मैं उन में नहीं ।

न च मत्ःथािन भूतािन पँय मे योगमैश्वरम ् ।


भूतभृन्न च भूतःथो ममात्मा भूतभावनः ॥९- ५॥
लेिकन िफर भी ये जीव मुझ में िःथत नहीं हैं । दे खो मेरे योग ऍश्वयर् को, इन जीवों में िःथत
न होते हुये भी मैं इन जीवों का पालन हार, और उत्पित्त कतार् हूँ ।

यथाकाशिःथतो िनत्यं वायुः सवर्ऽगो महान ् ।


तथा सवार्िण भूतािन मत्ःथानीत्युपधारय ॥९- ६॥
जैसे सदा हर ओर फैले हुये आकाश में वायु चलती रहती है , उसी ूकार सभी जीव मुझ में िःथत
हैं ।
सवर्भत
ू ािन कौन्तेय ूकृ ितं यािन्त मािमकाम ् ।
कल्पक्षये पुनःतािन कल्पादौ िवसृजाम्यहम ् ॥९- ७॥
हे कौन्तेय, सभी जीव कल्प का अन्त हो जाने पर (1000 युगों के अन्त पर) मेरी ही ूकृ ित में
समा जाते हैं और िफर कल्प के आरम्भ पर मैं उनकी दोबारा रचना करता हूँ ।

ूकृ ितं ःवामवष्टभ्य िवसृजािम पुनः पुनः ।


भूतमामिममं कृ त्ःनमवशं ूकृ तेवश
र् ात ् ॥९- ८॥
इस ूकार ूकृ ित को अपने वश में कर, पुनः पुनः इस संपूणर् जीव समूह की मैं रचना करता हूँ
जो इस ूकृ ित के वश में होने के कारण वशहीन हैं ।

न च मां तािन कमार्िण िनबध्निन्त धनंजय ।


उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कमर्सु ॥९- ९॥
यह कमर् मुझे बांधते नहीं हैं , हे धनंजय, क्योंिक मैं इन कमैर्ं को करते हुये भी इनसे उदासीन (िजसे
कोई खास मतलब न हो) और संग रिहत रहता हूँ ।

मयाध्यक्षेण ूकृ ितः सूयते सचराचरम ् ।


हे तुनानेन कौन्तेय जगिद्वपिरवतर्ते ॥९- १०॥
मेरी अध्यक्षता के नीचे यह ूकृ ित इन चर और अचर (चलने वाले और न चलने वाले) जीवों को
जन्म दे ती है । इसी से, हे कौन्तेय, इस जगत का पिरवतर्न चब चलता है ।

अवजानिन्त मां मूढा मानुषीं तनुमािौतम ् ।


परं भावमजानन्तो मम भूतमहे श्वरम ् ॥९- ११॥
इस मानुषी तन का आौय लेने पर (मानव रुप अवतार लेने पर), जो मूखर् हैं वे मुझे नहीं पहचानते
। मेरे परम भाव को न जानते िक मैं इन सभी भूतों का (संसार और ूाणीयों का) महान ् ईश्वर
हूँ ।
मोघाशा मोघकमार्णो मोघज्ञाना िवचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव ूकृ ितं मोिहनीं िौताः ॥९- १२॥
व्यथर् आशाओं में बँधे, व्यथर् कमोर्ं में लगे, व्यथर् ज्ञानों से िजनका िचत्त हरा जा चुका है , वे िवमोिहत
करने वाली राक्षसी और आसुरी ूकृ ित का सहारा लेते हैं ।

महात्मानःतु मां पाथर् दै वीं ूकृ ितमािौताः ।


भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतािदमव्ययम ् ॥९- १३॥
लेिकन महात्मा लोग, हे पाथर्, दै वी ूकृ ित का आौय लेकर मुझे ही अव्यय (िवकार हीन) और
इस संसार का आिद जान कर, अनन्य मन से मुझे भजते हैं ।
सततं कीतर्यन्तो मां यतन्तश्च दृढोताः ।
नमःयन्तश्च मां भक्त्या िनत्ययुक्ता उपासते ॥९- १४॥
ऍसे भक्त सदा मेरी ूशंसा (कीितर्) करते हुये, मेरे सामने नतमःतक हो और सदा भिक्त से युक्त
हो दृढ ोत से मेरी उपासने करते हैं ।

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।


एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा िवश्वतोमुखम ् ॥९- १५॥
ू रे कुछ लोग ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे उपासते हैं । अलग अलग रूपों में एक ही दे खते हुये,
और दस
और इन बहुत से रुपों को ईश्वर का िवश्वरूप ही दे खते हुये ।

अहं बतुरहं यज्ञः ःवधाहमहमौषधम ् ।


मन्ऽोऽहमहमेवाज्यमहमिग्नरहं हुतम ् ॥९- १६॥
मैं बतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, ःवधा मैं हूँ, मैं ही औषधी हूँ । मन्ऽ मैं हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं अिग्न हूँ
और यज्ञ में अिपर्त करने का कमर् भी मैं ही हूँ ।

िपताहमःय जगतो माता धाता िपतामहः ।


वेद्यं पिवऽमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥९- १७॥
मैं इस जगत का िपता हूँ, माता भी, धाता भी और िपतामहः (दादा) भी । मैं ही वेद्यं (िजसे जानना
चािहये) हूँ, पिवऽ ॐ हूँ, और ऋग, साम, और यजुर भी मैं ही हूँ ।

गितभर्तार् ूभुः साक्षी िनवासः शरणं सुहृत ् ।


ूभवः ूलयः ःथानं िनधानं बीजमव्ययम ् ॥९- १८॥
मैं ही गित (पिरणाम) हूँ, भतार् (भरण पोषण करने वाला) हूँ, ूभु (ःवामी) हूँ, साक्षी हूँ, िनवास
ःथान हूँ, शरण दे ने वाला हूँ और सुहृद (िमऽ अथवा भला चाहने वाला) हूँ । मैं ही उत्पित्त हूँ, ूलय
हूँ, आधार (ःथान) हूँ, कोष हूँ । मैं ही िवकारहीन अव्यय बीज हूँ ।

तपाम्यहमहं वषर्ं िनगृह्णाम्युत्सृजािम च ।


अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमजुन
र् ॥९- १९॥
मैं ही भूिम को (सूयर् रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वषार् करता हूँ । मैं अमृत
भी हूँ, मृत्यु भी, हे अजुन
र् , और मैं ही सत ् भी और असत ् भी ।
ऽैिवद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैिरंट्वा ःवगर्ितं ूाथर्यन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्िलोकमश्निन्त िदव्यािन्दिव दे वभोगान ् ॥९- २०॥
तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्ि) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग
ःवगर् ूािप्त की इच्छा से यज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं । उन पुण्य कमोर्ं के फल ःवरूप वे दे वताओं
के राजा इन्ि के लोक को ूाप्त कर, दे वताओं के िदव्य भोगों का भोग करते हैं ।

ते तं भुक्त्वा ःवगर्लोकं िवशालं क्षीणे पुण्ये मत्यर्लोकं िवशिन्त ।


एवं ऽयीधमर्मनुूपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥९- २१॥
वे उस िवशाल ःवगर् लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर िफर से मृत्यु लोक पहुँचते
हैं । इस ूकार कामी (इच्छाओं से भरे ) लोग, तीन शीखाओं वाले धमर् (तीन वेदों) का पालन कर,
अपनी इच्छाओं को ूाप्त कर बार बार आते जाते हैं ।

अनन्यािश्चन्तयन्तो मां ये जनाः पयुप


र् ासते ।
तेषां िनत्यािभयुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ् ॥९- २२॥
िकसी और का िचन्तन न कर, अनन्य िचत्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं , उन िनत्य अिभयुक्त
(सदा मेरी भिक्त से युक्त) लोगों को मैं योग और क्षेम (जो नहीं है उसकी ूािप्त और जो है उसकी
रक्षा - लाभ की ूािप्त और अलाभ से रक्षा) ूदान करता हूँ ।

येऽप्यन्यदे वताभक्ता यजन्ते ौद्धयािन्वताः ।


तेऽिप मामेव कौन्तेय यजन्त्यिविधपूवक
र् म ् ॥९- २३॥
जो (अन्य दे वताओं के) भक्त अन्य दे वताओं का ौद्धा से पूजन करते हैं , वे भी, हे कौन्तेय, मेरा
ही पूजन करते हैं लेिकन अिविध पूणर् ढँ ग से ।

अहं िह सवर्यज्ञानां भोक्ता च ूभुरेव च ।


न तु मामिभजानिन्त तत्त्वेनातश्च्यविन्त ते ॥९- २४॥
मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और ूभु हूँ । वे मुझे सार तक नहीं जानते, इसी िलये
वे िगर पड़ते हैं ।

यािन्त दे वोता दे वािन्पतॄन्यािन्त िपतृोताः ।


भूतािन यािन्त भूतेज्या यािन्त मद्यािजनोऽिप माम ् ॥९- २५॥
दे वताओं (के अचर्न) का ोत रखने वाले दे वताओं के पास जाते हैं , िपतृ पूजन वाले िपतरों को ूाप्त
करते हैं , जीवों का पूजन करने वाले जीवों को ूाप्त करते हैं , और मेरी भिक्त करने वाले मुझे ही
ूाप्त करते हैं ।
पऽं पुंपं फलं तोयं यो मे भक्त्या ूयच्छित ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नािम ूयतात्मनः ॥९- २६॥
मेरा भक्त शुद्ध मन से मुझे जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अिपर्त करता है , उस भिक्त भरे
मन से अिपर्त की वःतु को मैं भोगता (िःवकार करता) हूँ ।

यत्करोिष यदश्नािस यज्जुहोिष ददािस यत ् ।


यत्तपःयिस कौन्तेय तत्कुरुंव मदपर्णम ् ॥९- २७॥
हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो,
जो भी तप करते हो, वह सब मुझे ही अपर्ण कर दो ।

शुभाशुभफलैरेवं मोआयसे कमर्बन्धनैः ।


संन्यासयोगयुक्तात्मा िवमुक्तो मामुपैंयिस ॥९- २८॥
इस ूकार शुभ और अशुभ फलों से और कमर् बन्धन से मुिक्त पा कर, सन्यास (त्याग) और योग
युक्त आत्मा द्वारा िवमुक्त हो तुम मुझे ूाप्त कर लोगे ।

समोऽहं सवर्भत
ू ेषु न मे द्वे ंयोऽिःत न िूयः ।
ये भजिन्त तु मां भक्त्या मिय ते तेषु चाप्यहम ् ॥९- २९॥
मेरे िलये सभी जीव एक से हैं - न मुझे िकसी से द्वे ष है और न ही कोई िूय है । लेिकन जो
भिक्त भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ ।

अिप चेत्सुदरु ाचारो भजते मामनन्यभाक् ।


साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यविसतो िह सः ॥९- ३०॥
यिद बहुत दरु ाचारी व्यिक्त भी अनन्य भाव से मुझे भजता है तो उसे साधु पुरूष ही समझना चािहये
क्योंिक उसने उत्तम िनणर्य कर िलया है ।

िक्षूं भवित धमार्त्मा शश्वच्छािन्तं िनगच्छित ।


कौन्तेय ूित जानीिह न मे भक्तः ूणँयित ॥९- ३१॥
वह जल्द ही धमार्त्मा (सदाचार करने वाला) बन शाश्वत शािन्त को ूाप्त कर लेता है । कौन्तेय,
तुम एकदम जानो की मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता ।

मां िह पाथर् व्यपािौत्य येऽिप ःयुः पापयोनयः ।


िस्तर्यो वैँयाःतथा शूिाःतेऽिप यािन्त परां गितम ् ॥९- ३२॥
हे पाथर्, मेरा ही आौय लेकर वे लोग जो पाप योिनयों से उत्पन्न हुये हैं , और िस्तर्याँ, वैँय और
शूि भी परम गित को ूाप्त कर लेते हैं ।
िकं पुनॄार्ह्मणाः पुण्या भक्ता राजषर्यःतथा ।
अिनत्यमसुखं लोकिममं ूाप्य भजःव माम ् ॥९- ३३॥
िफर पुण्य और भिक्तमान ॄाह्मण और राज (क्षिऽय) ऋिषयों की तो बात ही क्या है । इसिलये,
इस अिनत्य (अन्तशील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भिक्त करो ।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमःकुरु ।


मामेवैंयिस युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥९- ३४॥
मुझी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत ् मःतक
हो । इस ूकार युक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मुझे ही ूाप्त करोगे ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


दसवाँ अध्याय

ौीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं ूीयमाणाय वआयािम िहतकाम्यया ॥१०- १॥
िफर से, हे महाबाहो, तुम मेरे परम वचनों को सुनो । क्योंिक तुम मुझे िूय हो इसिलय मैं तुम्हारे
िहत के िलये तुम्हें बताता हूँ ।

न मे िवदःु सुरगणाः ूभवं न महषर्यः ।


अहमािदिहर् दे वानां महषीर्णां च सवर्शः ॥१०- २॥
न मेरे आिद (आरम्भ) को दे वता लोग जानते हैं और न ही महान ् ऋिष जन क्योंिक मैं ही सभी
दे वताओं का और महिषर्यों का आिद हूँ ।

यो मामजमनािदं च वेित्त लोकमहे श्वरम ् ।


असंमढ
ू ः स मत्येर्षु सवर्पापैः ूमुच्यते ॥१०- ३॥
जो मुझे अजम (जन्म हीन) और अन-आिद (िजसका कोई आरम्भ न हो) और इस संसार का
महान ईश्वर (ःवािम) जानता है , वह मूखत
र् ा रिहत मनुंय इस मृत्यु संसार में सभी पापों से मुक्त
हो जाता है ।

बुिद्धज्ञार्नमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।


सुखं दःु खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥१०- ४॥
अिहं सा समता तुिष्टःतपो दानं यशोऽयशः ।
भविन्त भावा भूतानां मत्त एव पृथिग्वधाः ॥१०- ५॥
बुिद्ध, ज्ञान, मोिहत होने का अभाव, क्षमा, सत्य, इिन्ियों पर संयम, मन की सैम्यता (संयम),
ु , होना और न होना, भय और अभय, ूािणयों की िहं सा न करना (अिहं सा), एक सा
सुख, दख
रहना एक सा दे खना (समता), संतोष, तप, दान, यश, अपयश - ूािणयों के ये सभी अलग अलग
भाव मुझ से ही होते हैं ।

महषर्यः सप्त पूवेर् चत्वारो मनवःतथा ।


मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः ूजाः ॥१०- ६॥
पुवक
र् ाल में उत्पन्न हुये सप्त (सात) महिषर्, चार ॄह्म कुमार, और मनु - ये सब मेरे द्वारा ही मन
से (योग द्वारा) उत्पन्न हुये हैं और उनसे ही इस लोक में यह ूजा हुई है ।
एतां िवभूितं योगं च मम यो वेित्त तत्त्वतः ।
सोऽिवकम्पेन योगेन युज्यते नाऽ संशयः ॥१०- ७॥
मेरी इस िवभूित (संसार के जन्म कतार्) और योग ऍश्वयर् को सार तक जानता है , वह अचल (भिक्त)
योग में िःथर हो जाता है , इसमें कोई शक नहीं ।

अहं सवर्ःय ूभवो मत्तः सवर्ं ूवतर्ते ।


इित मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमिन्वताः ॥१०- ८॥
मैं ही सब कुछ का आरम्भ हूँ, मुझ से ही सबकुछ चलता है । यह मान कर बुिद्धमान लोग पूणर्
भाव से मुझे भजते हैं ।

मिच्चत्ता मद्गतूाणा बोधयन्तः परःपरम ् ।


कथयन्तश्च मां िनत्यं तुंयिन्त च रमिन्त च ॥१०- ९॥
मुझ में ही अपने िचत्त को बसाऐ, मुझ में ही अपने ूाणों को संजोये, परःपर एक दस
ू रे को मेरा
बोध कराते हुये और मेरी बातें करते हुये मेरे भक्त सदा संतुष्ट रहते हैं और मुझ में ही रमते हैं

तेषां सततयुक्तानां भजतां ूीितपूवक


र् म ् ।
ददािम बुिद्धयोगं तं येन मामुपयािन्त ते ॥१०- १०॥
ऍसे भक्त जो सदा भिक्त भाव से भरे मुझे ूीित पूणर् ढं ग से भजते हैं , उनहें मैं वह बुिद्ध योग (सार
युक्त बुिद्ध) ूदान करता हूँ िजसके द्वारा वे मुझे ूाप्त करते हैं ।

तेषामेवानुकम्पाथर्महमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावःथो ज्ञानदीपेन भाःवता ॥१०- ११॥
उन पर अपनी कृ पा करने के िलये मैं उनके अन्तकरण में िःथत होकर, अज्ञान से उत्पन्न हुये
उनके अँधकार को ज्ञान रूपी दीपक जला कर नष्ट कर दे ता हूँ ।

अजुन
र् उवाच
परं ॄह्म परं धाम पिवऽं परमं भवान ् ।
पुरुषं शाश्वतं िदव्यमािददे वमजं िवभुम ् ॥१०- १२॥
आप ही परम ॄह्म हैं , आप ही परम धाम हैं , आप ही परम पिवऽ हैं , आप ही िदव्य शाश्वत पुरुष
हैं , आप ही हे िवभु आिद दे व हैं , अजम हैं ।
आहुःत्वामृषयः सवेर् दे विषर्नार्रदःतथा ।
अिसतो दे वलो व्यासः ःवयं चैव ॄवीिष मे ॥१०- १३॥
सभी ऋिष, दे विषर् नारद, अिसत, व्याल, व्यास जी आपको ऍसे ही बताते हैं । यहाँ तक की ःवयं
आपने भी मुझ से यही कहा है ।

सवर्मेतदृतं मन्ये यन्मां वदिस केशव ।


न िह ते भगवन्व्यिक्तं िवदद
ु ेर् वा न दानवाः ॥१०- १४॥
हे केशव, आपने मुझे जो कुछ भी बताया उस सब को मैं सत्य मानता हूँ । हे भगवन, आप के
व्यक्त होने को न दे वता जानते हैं और न ही दानव ।

ःवयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।


भूतभावन भूतेश दे वदे व जगत्पते ॥१०- १५॥
ःवयं आप ही अपने आप को जानते हैं हे पुरुषोत्तम । हे भूत भावन (जीवों के जन्म दाता) । हे
भूतेश (जीवों के ईश) । हे दे वों के दे व । हे जगतपित ।

वक्तुमहर् ःयशेषेण िदव्या ह्यात्मिवभूतयः ।


यािभिवर्भूितिभलोर्कािनमांःत्वं व्याप्य ितष्ठिस ॥१०- १६॥
आप िजन िजन िवभूितयों से इस संसार में व्याप्त होकर िवराजमान हैं , मुझे पुरी तरहं (अशेष)
अपनी उन िदव्य आत्म िवभूितयों का वणर्न कीिजय (आप ही करने में समथर् हैं ) ।

कथं िवद्यामहं योिगंःत्वां सदा पिरिचन्तयन ् ।


केषु केषु च भावेषु िचन्त्योऽिस भगवन्मया ॥१०- १७॥
हे योगी, मैं सदा आप का पिरिचन्तन करता (आप के बारे में सोचता) हुआ िकस ूकार आप को
जानूं (अथार्त िकस ूकार मैं आप का िचन्तन करूँ) । हे भगवन, मैं आपके िकन िकन भावों में
आपका िचन्तन करूँ ।

िवःतरे णात्मनो योगं िवभूितं च जनादर् न ।


भूयः कथय तृिप्तिहर् शृण्वतो नािःत मेऽमृतम ् ॥१०- १८॥
हे जनादर् न, आप आपनी योग िवभूितयों के िवःतार को िफर से मुझे बताइये, क्योंिक आपके वचनों
रुपी इस अमृत का पान करते (सुनते) अभी मैं तृप्त नहीं हुआ हूँ ।
ौीभगवानुवाच
हन्त ते कथियंयािम िदव्या ह्यात्मिवभूतयः ।
ूाधान्यतः कुरुौेष्ठ नाःत्यन्तो िवःतरःय मे ॥१०- १९॥
मैं तुम्हें अपनी ूधान ूधान िदव्य आत्म िवभूितयों के बारे में बताता हूँ क्योंिक हे कुरु ौेष्ठ मेरे
िवसतार का कोई अन्त नहीं है ।

अहमात्मा गुडाकेश सवर्भत


ू ाशयिःथतः ।
अहमािदश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥१०- २०॥
मैं आत्मा हूँ, हे गुडाकेश, सभी जीवों के अन्तकरण में िःथत । मैं ही सभी जीवों का आिद (जन्म),
मध्य और अन्त भी हूँ ।

आिदत्यानामहं िवंणुज्योर्ितषां रिवरं शुमान ् ।


मरीिचमर्रुतामिःम नक्षऽाणामहं शशी ॥१०- २१॥
आिदत्यों (अिदित के पुऽों) में मैं िवंणु हूँ । और ज्योितयों में िकरणों युक्त सूयर् हूँ । मरुतों (49
मरुत नाम के दे वताओं) में से मैं मरीिच हूँ । और नक्षऽों में शिश (चन्ि) ।

वेदानां सामवेदोऽिःम दे वानामिःम वासवः ।


इिन्ियाणां मनश्चािःम भूतानामिःम चेतना ॥१०- २२॥
वेदों में मैं साम वेद हूँ । दे वताओं में इन्ि । इिन्ियों में मैं मन हूँ । और जीवों में चेतना ।

रुिाणां शंकरश्चािःम िवत्तेशो यक्षरक्षसाम ् ।


वसूनां पावकश्चािःम मेरुः िशखिरणामहम ् ॥१०- २३॥
रुिों में मैं शंकर (िशव जी) हूँ, और यक्ष एवं राक्षसों में कुबेर हूँ । वसुयों में मैं अिग्न (पावक)
हूँ । और िशखर वाले पवर्तों में मैं मेरु हूँ ।

पुरोधसां च मुख्यं मां िविद्ध पाथर् बृहःपितम ् ।


सेनानीनामहं ःकन्दः सरसामिःम सागरः ॥१०- २४॥
हे पाथर् तुम मुझे पुरोिहतों में मुख्य बृहःपित जानो । सेना पितयों में मुझे ःकन्ध जानो और
जलाशयों में सागर ।

महषीर्णां भृगुरहं िगरामःम्येकमक्षरम ् ।


यज्ञानां जपयज्ञोऽिःम ःथावराणां िहमालयः ॥१०- २५॥
महषीर्यों में मैं भृगु हूँ, शब्दों में मैं एक ही अक्षर ॐ हूँ । यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ और न िहलने
वालों में िहमालय ।
अश्वत्थः सवर्वक्ष
ृ ाणां दे वषीर्णां च नारदः ।
गन्धवार्णां िचऽरथः िसद्धानां किपलो मुिनः ॥१०- २६॥
सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ, और दे व ऋिषर्यों में नारद । गन्धवोर्ं में मैं िचऽरथ हूँ और िसद्धों में
भगवान किपल मुिन ।

उच्चैःौवसमश्वानां िविद्ध माममृतोद्भवम ् ।


ऐरावतं गजेन्िाणां नराणां च नरािधपम ् ॥१०- २७॥
सभी घोड़ों में से मुझे तुम अमृत के िलये िकये सागर मंथन से उत्पन्न उच्चैौव समझो । हाथीयों
का राजा ऐरावत समझो । और मनुंयों में मनुंयों का राजा समझो ।

आयुधानामहं वळं धेनूनामिःम कामधुक् ।


ूजनश्चािःम कन्दपर्ः सपार्णामिःम वासुिकः ॥१०- २८॥
शस्तर्ों में मैं वळ हूँ । गायों में कामधुक । ूजा की बढौित करने वालों में कन्दपर् (काम दे व) और
सपोर्ं में मैं वासुिक हूँ ।

अनन्तश्चािःम नागानां वरुणो यादसामहम ् ।


िपतॄणामयर्मा चािःम यमः संयमतामहम ् ॥१०- २९॥
नागों में मैं अनन्त (शेष नाग) हूँ और जल के दे वताओं में वरुण । िपतरों में अयार्मा हूँ और िनयंिऽत
करने वालों में यम दे व ।

ूह्लादश्चािःम दै त्यानां कालः कलयतामहम ् ।


मृगाणां च मृगेन्िोऽहं वैनतेयश्च पिक्षणाम ् ॥१०- ३०॥
दै त्यों में मैं भक्त ूह्लाद हूँ । पिरवतर्न शीलों में मैं समय हूँ । िहरणों में मैं उनका इन्ि अथार्त
शेर हूँ और पिक्षयों में वैनतेय (गरुड) ।

पवनः पवतामिःम रामः शस्तर्भृतामहम ् ।


झषाणां मकरश्चािःम ॐोतसामिःम जाह्नवी ॥१०- ३१॥
पिवऽ करने वालों में मैं पवन (हवा) हूँ और शस्तर् धारण करने वालों में भगवान राम । मछिलयों
में मैं मकर हूँ और नदीयों में जाह्नवी (गँगा) ।
सगार्णामािदरन्तश्च मध्यं चैवाहमजुन
र् ।
अध्यात्मिवद्या िवद्यानां वादः ूवदतामहम ् ॥१०- ३२॥
सृिष्ट का आिद, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ हे अजुन
र् । सभी िवद्याओं मे से अध्यात्म िवद्या मैं
हूँ । और वाद िववाद करने वालों के वाद में तकर् मैं हूँ ।

अक्षराणामकारोऽिःम द्वन्द्वः सामािसकःय च ।


अहमेवाक्षयः कालो धाताहं िवश्वतोमुखः ॥१०- ३३॥
अक्षरों में अ मैं हूँ । मैं ही अन्तहीन (अक्षय) काल (समय) हूँ । मैं ही धाता हूँ (पालन करने वाला),
मैं ही िवश्व रूप (हर ओर िःथत हूँ) ।

मृत्युः सवर्हरश्चाहमुद्भवश्च भिवंयताम ् ।


कीितर्ः ौीवार्क्च नारीणां ःमृितमेर्धा धृितः क्षमा ॥१०- ३४॥
सब कुछ हर लेने वीली मृत्यु भी मैं हूँ और भिवंय में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्पित्त भी
मैं ही हूँ । नारीयों में कीितर् (यश), ौी (धन संपित्त सत्त्व), वाक शिक्त (बोलने की शिक्त), ःमृित
(यादाँत), मेधा (बुिद्ध), धृित (िःथरता) और क्षमा मैं हूँ ।

बृहत्साम तथा साम्नां गायऽी छन्दसामहम ् ।


मासानां मागर्शीषोर्ऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥१०- ३५॥
गाये जाने वाली ौुितयों (सामों) में मैं बृहत्साम हूँ और वैिदक छन्दों में गायऽी । महानों में मैं
मागर्-शीषर् हूँ और ऋतुयों में कुसुमाकर (फूलों को करने वाली अथार्त वसन्त) ।

द्यूतं छलयतामिःम तेजःतेजिःवनामहम ् ।


जयोऽिःम व्यवसायोऽिःम सत्त्वं सत्त्ववतामहम ् ॥१०- ३६॥
छल करने वालों का जुआ मैं हूँ और तेजिःवयों का तेज मैं हूँ । मैं ही िवजय (जीत) हूँ, मैं ही
सही िनश्चय (सही मागर्) हूँ । मैं ही साित्वकों का सत्त्व हूँ ।

वृंणीनां वासुदेवोऽिःम पाण्डवानां धनंजयः ।


मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना किवः ॥१०- ३७॥
वृिंणयों में मैं वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय (अजुन
र् ) । मुिनयों में मैं भगवान व्यास मुिन
हूँ और िसद्ध किवयों में मैं उशना किव (शुबाचायर्) हूँ ।
दण्डो दमयतामिःम नीितरिःम िजगीषताम ् ।
मौनं चैवािःम गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम ् ॥१०- ३८॥
दमन (लागू) करने वालों में दण्ड नीित मैं हूँ और िवजय की इच्छा रखने वालों में न्याय (नीित)
मैं हूँ । गोपनीय बातों में मौनता मैं हूँ और ज्ञािनयों का ज्ञान मैं हूँ ।

यच्चािप सवर्भत
ू ानां बीजं तदहमजुन
र् ।
न तदिःत िवना यत्ःयान्मया भूतं चराचरम ् ॥१०- ३९॥
र् , उन सबका बीज मैं हूँ । ऍसा कोई भी चर अचर (चलने या न चलने
िजतने भी जीव हैं हे अजुन
वाला) जीव नहीं है जो मेरे िबना हो ।

नान्तोऽिःत मम िदव्यानां िवभूतीनां परन्तप ।


एष तूद्देशतः ूोक्तो िवभूतेिवर्ःतरो मया ॥१०- ४०॥
मेरी िदव्य िवभूितयों का कोई अन्त नहीं है हे परन्तप । मैने अपनी इन िवभूितयों की िवःतार
तुम्हें केवल कुछ उदाहरण दे कर ही बताया है ।

यद्यिद्वभूितमत्सत्त्वं ौीमदिू जर्तमेव वा ।


तत्तदे वावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम ् ॥१०- ४१॥
जो कुछ भी (ूाणी, वःतु आिद) िवभूित मयी है , सत्त्वशील है , ौी युक्त हैं अथवा शिक्तमान है , उसे
तुम मेरे ही अंश के तेज से उत्पन्न हुआ जानो ।

अथवा बहुनैतेन िकं ज्ञातेन तवाजुन


र् ।
िवष्टभ्याहिमदं कृ त्ःनमेकांशेन िःथतो जगत ् ॥१०- ४२॥
और इस के अितिरक्त बहुत कुछ जानने की तुम्हें क्या आवँयकता है हे अजुन
र् । मैंने इस संपूणर्
जगत को अपने एक अंश माऽ से ूवेश करके िःथत कर रखा है ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ॥


ग्यारवाँ अध्याय

अजुन
र् उवाच
मदनुमहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंिज्ञतम ् ।
यत्त्वयोक्तं वचःतेन मोहोऽयं िवगतो मम ॥११- १॥
मुझ पर अनुमह कर आपने यह परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान जो मुझे बताया, आपके इन वचनों से
मेरा मोह (अन्धकार) चला गया है ।

भवाप्ययौ िह भूतानां ौुतौ िवःतरशो मया ।


त्वत्तः कमलपऽाक्ष माहात्म्यमिप चाव्ययम ् ॥११- २॥
हे कमलपऽ नयन, मैंने आपसे सभी ूािणयों की उत्पित्त और अन्त को िवःतार से सुना है और
हे अव्यय, आपके महात्मय का वणर्न भी ।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।


िष्टु िमच्छािम ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥११- ३॥
जैसा आप को बताया जाता है , है परमेश्वर, आप वैसे ही हैं । हे पुरुषोत्तम, मैं आप के ईश्वर रुप
को दे खना चाहता हूँ ।

मन्यसे यिद तच्छक्यं मया िष्टु िमित ूभो ।


योगेश्वर ततो मे त्वं दशर्यात्मानमव्ययम ् ॥११- ४॥
हे ूभो, यिद आप मानते हैं िक आपके उस रुप को मेरे द्वारा दे ख पाना संभव है , तो हे योगेश्वर,
मुझे आप अपने अव्यय आत्म ःवरुप के दशर्न करवा दीिजये ।

ौीभगवानुवाच
पँय मे पाथर् रूपािण शतशोऽथ सहॐशः ।
नानािवधािन िदव्यािन नानावणार्कृतीिन च ॥११- ५॥
हे पाथर्, तुम मेरे रुपों का दशर्न करो । सैंकड़ों, हज़ारों, िभन्न िभन्न ूकार के, िदव्य, िभन्न िभन्न
वणोर्ं और आकृ ितयों वाले ।

पँयािदत्यान्वसूुि
ु ानिश्वनौ मरुतःतथा ।
बहून्यदृष्टपूवार्िण पँयाश्चयार्िण भारत ॥११- ६॥
हे भारत, तुम आिदत्यों, वसुओं, रुिों, अिश्वनों, और मरुदों को दे खो । और बहुत से पहले कभी
न दे खे गये आश्चयोर्ं को भी दे खो ।
इहै कःथं जगत्कृ त्ःनं पँयाद्य सचराचरम ् ।
मम दे हे गुडाकेश यच्चान्यद् िष्टु िमच्छिस ॥११- ७॥
हे गुडाकेश, तुम मेरी दे ह में एक जगह िःथत इस संपूणर् चर-अचर जगत को दे खो । और भी जो
कुछ तुम्हे दे खने की इच्छा हो, वह तुम मेरी इस दे ह सकते हो ।

न तु मां शक्यसे िष्टु मनेनैव ःवचक्षुषा ।


िदव्यं ददािम ते चक्षुः पँय मे योगमैश्वरम ् ॥११- ८॥
लेिकन तुम मुझे अपने इस आँखों से नहीं दे ख सकते । इसिलये, मैं तुम्हे िदव्य चक्षु (आँखें) ूदान
करता हूँ िजससे तुम मेरे योग ऍश्वयर् का दशर्न करो ।

संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हिरः ।
दशर्यामास पाथार्य परमं रूपमैश्वरम ् ॥११- ९॥
यह बोलने के बाद, हे राजन, महायोगेश्वर हिरः ने पाथर् को अपने परम ऍश्वयर्मयी रुप का दशर्न
कराया ।

अनेकवक्ऽनयनमनेकाद्भत
ु दशर्नम ् ।
अनेकिदव्याभरणं िदव्यानेकोद्यतायुधम ् ॥११- १०॥
र् ने दे खा िक भगवान के अनेक मुख हैं , अनेक नेऽ हैं , अनेक अद्भत
अजुन ु दशर्न (रुप) हैं । उन्होंने
अनेक िदव्य अभुषण पहने हुये हैं , और अनेकों िदव्य आयुध (शस्तर्) धारण िकये हुये हैं ।

िदव्यमाल्याम्बरधरं िदव्यगन्धानुलेपनम ् ।
सवार्श्चयर्मयं दे वमनन्तं िवश्वतोमुखम ् ॥११- ११॥
उन्होंने िदव्य मालायें और िदव्य वस्तर् धारण िकये हुये हैं , िदव्य गन्धों से िलिपत हैं । सवर् ऍश्वयर्मयी
वे दे व अनन्त रुप हैं , िवश्व रुप (हर ओर िःथत) हैं ।

िदिव सूयस
र् हॐःय भवेद्युगपदिु त्थता ।
यिद भाः सदृशी सा ःयाद्भासःतःय महात्मनः ॥११- १२॥
यिद आकाश में हज़ार (सहॐ) सूयर् भी एक साथ उदय हो जायें, शायद ही वे उन महात्मा के समान
ूकाशमयी हो पायें ।
तऽैकःथं जगत्कृ त्ःनं ूिवभक्तमनेकधा ।
अपँयद्दे वदे वःय शरीरे पाण्डवःतदा ॥११- १३॥
तब पाण्डव (अजुन
र् ) ने उन दे वों के दे व, भगवान ् हिर के शरीर में एक ःथान पर िःथत, अनेक
िवभागों में बंटे संपूणर् संसार (कृ त्ःन जगत) को दे खा ।

ततः स िवःमयािवष्टो हृष्टरोमा धनंजयः ।


ूणम्य िशरसा दे वं कृ ताञ्जिलरभाषत ॥११- १४॥
तब िवःमय (आश्चयर्) पू ्णर् होकर िजसके रोंगटे खड़े हो गये थे, उस धनंजयः ने उन दे व को िसर
झुका कर ूणाम िकया और हाथ जोड़ कर बोले ।

अजुन
र् उवाच
पँयािम दे वांःतव दे व दे हे सवार्ंःतथा भूतिवशेषसंघान ् ।
ॄह्माणमीशं कमलासनःथमृषींश्च सवार्नरु गांश्च िदव्यान ् ॥११- १५॥
हे दे व, मुझे आप के दे ह में सभी दे वता और अन्य समःत जीव समूह, कमल आसन पर िःथत
ॄह्मा ईश्वर, सभी ऋिष, और िदव्य सपर् िदख रहे हैं ।

अनेकबाहूदरवक्ऽनेऽं पँयािम त्वां सवर्तोऽनन्तरूपम ् ।


नान्तं न मध्यं न पुनःतवािदं पँयािम िवश्वेश्वर िवश्वरूप ॥११- १६॥
अनेक बाहें , अनेक पेट, अनेक मुख, अनेक नेऽ, हे दे व, मैं आप को हर जगह दे ख रहा हूँ, हे अनन्त
रुप । ना मुझे आपका अन्त, न मध्य, और न ही आिद (शुरुआत) िदख रहा, हे िवश्वेश्वर (िवश्व
के ईश्वर), हे िवश्व रुप (िवश्व का रुप धारण िकये हुये) ।

िकरीिटनं गिदनं चिबणं च तेजोरािशं सवर्तो दीिप्तमन्तम ् ।


पँयािम त्वां दिु नर्रीआयं समन्ताद्दीप्तानलाकर्द्युितमूमेयम ् ॥११- १७॥
मुकुट, गदा और चब धारण िकये, और अपनी तेजोरािश से संपूणर् िदशाओं को दीप्त करते हुये,
हे भगवन ्, आप को मैं दे खता हूँ, लेिकन आपका िनरीक्षण करना अत्यन्त किठन है क्योंिक आप
समःत ओर से ूकाशमयी, अूमेय (िजसके समान कोई न हो) तेजोमयी हैं ।

त्वमक्षरं परमं वेिदतव्यं त्वमःय िवश्वःय परं िनधानम ् ।


त्वमव्ययः शाश्वतधमर्गोप्ता सनातनःत्वं पुरुषो मतो मे ॥११- १८॥
आप ही अक्षर (िजसका कभी नाश नहीं होता) हैं , आप ही परम हैं , आप ही जानना ज़रुरी है (िजन्हें
जाना जाना चािहये), आप ही इस िवश्व के परम िनधान (आौय) हैं । आप ही अव्यय (िवकार
हीन) हैं , मेरे मत में आप ही शाश्वत धमर् के रक्षक सनातन पुरुष हैं ।
अनािदमध्यान्तमनन्तवीयर्मनन्तबाहुं शिशसूयन
र् ेऽम ् ।
पँयािम त्वां दीप्तहुताशवक्ऽं ःवतेजसा िवश्विमदं तपन्तम ् ॥११- १९॥
आप आिद, मध्य और अन्त रिहत (अनािदमध्यान्तम), अनन्त वीयर् (पराबम), अनन्त बाहू
(बाजुयें) हैं । चन्ि (शिश) और सूयर् आपके नेऽ हैं । हे भगवन, मैं आपके आिग्न पूणर् ूज्विलत
वक्ऽों (मूह
ँ ों) को दे खता हूँ जो अपने तेज से इस िवश्व को तपा (गरमा) रहे हैं ।

द्यावापृिथव्योिरदमन्तरं िह व्याप्तं त्वयैकेन िदशश्च सवार्ः ।


ु ं रूपमुमं तवेदं लोकऽयं ूव्यिथतं महात्मन ् ॥११- २०॥
दृंट्वाद्भत
ःवगर् (आकाश) और पृिथवी के बीच में जो भी ःथान है , सभी िदशाओं में, वह केवल एक आप
के द्वारा ही व्याप्त है (ःवगर् से लेकर पृिथवी तक केवल आप ही हैं ) । आप के इस अद्भत
ु उम (घोर)
रूप को दे ख कर, हे महात्मा, तीनों लोक ूव्यिथत (भय व्याकुल) हो रहे हैं ।

अमी िह त्वां सुरसंघा िवशिन्त केिचद्भीताः ूाञ्जलयो गृणिन्त ।


ःवःतीत्युक्त्वा महिषर्िसद्धसंघाः ःतुविन्त त्वां ःतुितिभः पुंकलािभः ॥११- २१॥
आप ही में दे वता गण ूवेश कर रहे हैं । कुछ भयभीत हुये हाथ जोड़े आप की ःतुित कर रहे हैं
। महषीर् और िसद्ध गण ःविःत (कल्याण हो) उच्चारण कर उत्तम ःतुितयों द्वारा आप की ूशंसा
कर रहे हैं ।

रुिािदत्या वसवो ये च साध्या िवश्वेऽिश्वनौ मरुतश्चोंमपाश्च ।


गन्धवर्यक्षासुरिसद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां िविःमताश्चैव सवेर् ॥११- २२॥
रूि, आिदत्य, वसु, साध्य गण, िवश्वदे व, अिश्वनी कुमार, मरूत गण, िपतृ गण, गन्धवर्, यक्ष, असुर,
िसद्ध गण - सब आप को िवःमय से दे खते हैं ।

रूपं महत्ते बहुवक्ऽनेऽं महाबाहो बहुबाहूरुपादम ् ।


बहूदरं बहुदंष्टर्ाकरालं दृंट्वा लोकाः ूव्यिथताःतथाहम ् ॥११- २३॥
हे महाबाहो, बहुत से मुख, बहुत से नेऽ, बहुत सी बाहुयें, बहुत सी जँगाऐं (उरु), पैर, बहुत से उदर
(पेट), बहुत से िवकराल दांतो वाले इस महान ् रूप को दे ख कर यह संसार ूव्यिथत (भयभीत)
हो रहा है और मैं भी ।

नभःःपृशं दीप्तमनेकवणर्ं व्यात्ताननं दीप्तिवशालनेऽम ् ।


दृंट्वा िह त्वां ूव्यिथतान्तरात्मा धृितं न िवन्दािम शमं च िवंणो ॥११- २४॥
आकाश को छूते, अनेकों ूकार (वणोर्ं) वाले आपके दीप्तमान रूप, िजनके खुले हुये िवशाल मुख
हैं और ूज्विलत (िदप्तमान) िवशाल नेऽ हैं - आपके इस रुप को दे ख कर मेरी अन्तर आत्मा
भयभीत (ूव्यिथत) हो रही है । न मुझे धैयर् िमल रहा हैं , हे िवंणु, और न ही शािन्त ।
दं ष्टर्ाकरालािन च ते मुखािन दृंट्वैव कालानलसिन्नभािन ।
िदशो न जाने न लभे च शमर् ूसीद दे वेश जगिन्नवास ॥११- २५॥
आपके िवकराल भयानक दाँतो को दे ख कर और काल-अिग्न के समान भयानक ूज्विलत मुखों
को दे ख कर मुझे िदशाओं िक सुध नहीं रही, न ही मुझे शािन्त ूाप्त हो रही है । ूसन्न होईये
हे दे वेश (दे वों के ईश), हे जगन ्-िनवास ।

अमी च त्वां धृतराष्टर्ःय पुऽाः सवेर् सहै वाविनपालसंघःै ।


भींमो िोणः सूतपुऽःतथासौ सहाःमदीयैरिप योधमुख्यैः ॥११- २६॥
वक्ऽािण ते त्वरमाणा िवशिन्त दं ष्टर्ाकरालािन भयानकािन ।
केिचिद्वलग्ना दशनान्तरे षु संदृँयन्ते चूिणर्तैरुत्तमाङ्गैः ॥११- २७॥
धृतराष्टर् के सभी पुऽ और उनके साथ और भी राजा लोग, ौी भींम, िोण, तथा कणर् और हमारे
पक्ष के भी कई मुख्य योधा आप के भयानक िवकराल दाँतों वाले मुखों में ूवेश कर रहे हैं । और
आप के दाँतों मे बीच फसें कईयों के िसर चूणर् हुये िदखाई दे रहे हैं ।

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुिमेवािभमुखा िविन्त ।


तथा तवामी नरलोकवीरा िवशिन्त वक्ऽाण्यिभिवज्वलिन्त ॥११- २८॥
जैसे निदयों के अनेक जल ूवाह वेग से समुि में ूवेश करते हैं (की ओर बढते हैं ), वैसे ही नर
लोक (मनुंय लोक) के यह योद्धा आप के ूज्विलत मुखों में ूवेश करते हैं ।

यथा ूदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा िवशिन्त नाशाय समृद्धवेगाः ।


तथैव नाशाय िवशिन्त लोकाःतवािप वक्ऽािण समृद्धवेगाः ॥११- २९॥
जैसे जलती अिग्न में पतंगे बहुत तेज़ी से अपने ही नाश के िलये ूवेश करते हैं , उसी ूकार अपने
नाश के िलये यह लोग अित वेग से आप के मुखों में ूवेश करते हैं ।

लेिलह्यसे मसमानः समन्ताल्लोकान्सममान्वदनैज्वर्लिद्भः ।


तेजोिभरापूयर् जगत्सममं भासःतवोमाः ूतपिन्त िवंणो ॥११- ३०॥
अपने ूज्विलत मुखों से इन संपूणर् लोकों को िनगलते हुये और हर ओर से समेटते हुये, हे िवंणु,
आपका यह उम ूकाश संपूणर् जगत में फैल कर इन लोकों को तपा रहा है ।

आख्यािह मे को भवानुमरूपो नमोऽःतु ते दे ववर ूसीद ।


िवज्ञातुिमच्छािम भवन्तमाद्यं न िह ूजानािम तव ूवृित्तम ् ॥११- ३१॥
इस उम रुप वाले आप कौन हैं , मुझ से किहये । आप को ूणाम है हे दे ववर, ूसन्न होईये ।
हे आिददे व, मैं आप को अनुभव सिहत जानना चाहता हूँ । मैं आपकी ूवृित्त अथार्त इस रुप लेने
के कारण को नहीं जानता ।
ौीभगवानुवाच
कालोऽिःम लोकक्षयकृ त्ूवृद्धो लोकान्समाहतुिर् मह ूवृत्तः ।
ऋतेऽिप त्वां न भिवंयिन्त सवेर् येऽविःथताः ूत्यनीकेषु योधाः ॥११- ३२॥
मैं संसार का क्षय करने के िलये ूवृद्ध (बढा) हुआ काल हूँ । और इस समय इन लोकों का संहार
करने में ूवृत्त हूँ । तुम्हारे िबना भी, यहाँ तुम्हारे िवपक्ष में जो योद्धा गण िःथत हैं , वे भिवंय
में नहीं रहें गे ।

तःमात्त्वमुित्तष्ठ यशो लभःव िजत्वा शऽून ् भुङ्आव राज्यं समृद्धम ् ।


मयैवैते िनहताः पूवम
र् ेव िनिमत्तमाऽं भव सव्यसािचन ् ॥११- ३३॥
इसिलये तुम उठो और अपने शऽुयों को जीत कर यश ूाप्त करो और समृद्ध राज्य भोगो । तुम्हारे
यह शऽु मेरे द्वारा पैहले से ही मारे जा चुके हैं , हे सव्यसािचन ्, तुम केवल िनिमत्त-माऽ (कहने को)
ही बनो ।

िोणं च भींमं च जयिथं च कणर्ं तथान्यानिप योधवीरान ् ।


मया हतांःत्वं जिह मा व्यिथष्ठा युध्यःव जेतािस रणे सपत्नान ् ॥११- ३४॥
िोण, ौी भींम, जयिथ, कणर् तथा अन्य वीर योधा भी, मेरे द्वारा (पहले ही) मारे जा चुके हैं ।
व्यथा (गलत आमह) त्यागो और युध करो, तुम रण में अपने शऽुओं को जीतोगे ।

संजय उवाच
एतच्छर्ुत्वा वचनं केशवःय कृ ताञ्जिलवेर्पमानः िकरीटी ।
नमःकृ त्वा भूय एवाह कृ ंणं सगद्गदं भीतभीतः ूणम्य ॥११- ३५॥
ौी केशव के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अजुन
र् ने हाथ जोड़ कर ौी कृ ंण को नमःकार
िकया और काँपते हुये भयभीत हृदय से िफरसे ूणाम करते हुये बोले ।

अजुन
र् उवाच
ःथाने हृषीकेश तव ूकीत्यार् जगत्ूहृंयत्यनुरज्यते च ।
रक्षांिस भीतािन िदशो िविन्त सवेर् नमःयिन्त च िसद्धसंघाः ॥११- ३६॥
यह योग्य है , हे हृषीकेश, िक यह जगत आप की कीतीर् का गुणगान कर हिषर्त होतै है और
अनुरािगत (ूेम युक्त) होता है । आप से भयभीत हो कर राक्षस हर िदशाओं में भाग रहे हैं और
सभी िसद्ध गण आपको नमःकार कर रहे हैं ।
कःमाच्च ते न नमेरन्महात्मन ् गरीयसे ॄह्मणोऽप्यािदकऽेर् ।
अनन्त दे वेश जगिन्नवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत ् ॥११- ३७॥
और हे महात्मा, आपको नमःकार करें भी क्यों नहीं । आप ही सबसे बढकर हैं , ॄह्मा जी के भी
आिद कतार् हैं (ॄह्मा जी के भी आिद हैं ) । आप ही अनन्त हैं , दे व-ईश हैं , जगत ्-िनवास हैं । आप
ही अक्षर हैं , आप ही सत ् और असत ् हैं , और उन संज्ञाओं से भी परे जो है वह भी आप ही हैं

त्वमािददे वः पुरुषः पुराणःत्वमःय िवश्वःय परं िनधानम ् ।


वेत्तािस वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं िवश्वमनन्तरूप ॥११- ३८॥
आप ही आिद-दे व (पुरातन दे व) हैं , सनातन पुरुष हैं , आप ही इस संसार के परम आौय (िनधान)
हैं । आप ही ज्ञाता हैं और ज्ञेय (िजन्हें जानना चािहये) हैं । आप ही परम धाम हैं और आप से
ही यह संपूणर् संसार व्याप्त है , हे अनन्त रुप ।

वायुयम
र् ोऽिग्नवर्रुणः शशाङ्कः ूजापितःत्वं ूिपतामहश्च ।
नमो नमःतेऽःतु सहॐकृ त्वः पुनश्च भूयोऽिप नमो नमःते ॥११- ३९॥
आप ही वायु हैं , आप ही यम हैं , आप ही अिग्न हैं , आप ही वरुण (जल दे वता) हैं , आप ही चन्ि
हैं , ूजापित भी आप ही हैं , और ूिपतामहा (िपतामह अथार्त िपता-के-िपता के भी िपता) भी आप
हैं । आप को नमःकार है , नमःकार है , सहॐ (हज़ार) बार मैं आपको नमःकार करता हूँ । और
िफर से आपको नमःकार है , नमःकार है ।

नमः पुरःतादथ पृष्ठतःते नमोऽःतु ते सवर्त एव सवर् ।


अनन्तवीयार्िमतिवबमःत्वं सवर्ं समाप्नोिष ततोऽिस सवर्ः ॥११- ४०॥
हे सवर्, आप को आगे से नमःकार है , पीछे से भी नमःकार है , हर ूकार से नमःकार है । हे
अनन्त वीयर्, हे अिमत िवबमशाली, सबमें आप समाये हुये हैं (व्याप्त हैं ), आप ही सब कुछ हैं

सखेित मत्वा ूसभं यदक्त


ु ं हे कृ ंण हे यादव हे सखेित ।
अजानता मिहमानं तवेदं मया ूमादात्ूणयेन वािप ॥११- ४१॥
हे भगवन ्, आप को केवल आपना िमऽ ही मान कर मैंने ूमादवश (मूखत
र् ा कारण) यां ूेम वश
आपको जो हे कृ ंण, हे यादव, हे सखा (िमऽ) - कह कर संबोिधत िकया, आप के मिहमानता को
न जानते हुये ।
यच्चावहासाथर्मसत्कृ तोऽिस िवहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमूमेयम ् ॥११- ४२॥
और हाःय मज़ाक करते हुये, या चलते िफरते, लेटे हुये, बैठे हुये अथवा भोजन करते हुये, अकेले
में या आप के सामने मैंने जो भी असत ् व्यवहार िकया हो (िजतना आदर पूणर् व्यहार करना चािहये
उतना न िकया हो) उसके िलये, हे अूमेय, आप मुझे क्षमा कर दीिजये ।

िपतािस लोकःय चराचरःय त्वमःय पूज्यश्च गुरुगर्रीयान ् ।


न त्वत्समोऽःत्यभ्यिधकः कुतोऽन्यो लोकऽयेऽप्यूितमूभाव ॥११- ४३॥
आप इस चर-अचर लोक के िपता हैं , आप ही पूजनीय हैं , परम ् गुरू हैं । हे अूितम ूभाव, इन
तीनो लोकों में आप के बराबर (समान) ही कोई नहीं है , आप से बढकर तो कौन होगा भला ।

तःमात्ूणम्य ूिणधाय कायं ूसादये त्वामहमीशमीड्यम ् ।


िपतेव पुऽःय सखेव सख्युः िूयः िूयायाहर् िस दे व सोढु म ् ॥११- ४४॥
इसिलये मैं झुक कर आप को ूणाम करता, मुझ से ूसन्न होईये हे ईश्वर । जैसे एक िपता अपने
पुऽ के, िमऽ आपने िमऽ के, औप िूय आपने िूय की गलितयों को क्षमा कर दे ता है , वैसे ही
हे दे व, आप मुझे क्षमा कर दीिजये ।

अदृष्टपूवर्ं हृिषतोऽिःम दृंट्वा भयेन च ूव्यिथतं मनो मे ।


तदे व मे दशर्य दे व रूपं ूसीद दे वेश जगिन्नवास ॥११- ४५॥
जो मैंने पहले कभी नहीं दे खा, आप के इस रुप को दे ख लेने पर मैं अित ूसन्न हो रहा हूँ, और
साथ ही साथ मेरा मन भय से ूव्यिथत (व्याकुल) भी हो रहा है । हे भगवन ्, आप कृ प्या कर
मुझे अपना सौम्य दे व रुप (चार बाहों वाला रुप) ही िदखाईये । ूसन्न होईये, हे दे वेश, हे
जगिन्नवास (इस जगत के िनवास ःथान) ।

िकरीिटनं गिदनं चबहःतिमच्छािम त्वां िष्टु महं तथैव ।


तेनव
ै रूपेण चतुभज
ुर् ेन सहॐबाहो भव िवश्वमूतेर् ॥११- ४६॥
मैं आप को मुकुट धारण िकये, और हाथों में गदा और चब धारण िकये दे खने का इच्छुक हूँ ।
हे भगवन ्, आप चतुभज
ुर् (चार भुजाओं वाला) रुप धारण कर लीिजये, हे सहॐ बाहो (हज़ारों बाहों
वाले), हे िवश्व मूतेर् (िवश्व रूप) ।
ौीभगवानुवाच
मया ूसन्नेन तवाजुन
र् ेदं रूपं परं दिशर्तमात्मयोगात ् ।
तेजोमयं िवश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूवम
र् ् ॥११- ४७॥
र् , तुम पर ूसन्न होकर मैंने तुम्हे अपनी योगशिक्त द्वारा इस परम रूप का दशर्न कराया
हे अजुन
है । मेरे इस तेजोमयी, अनन्त, आिद िवश्व रूप को तुमसे पहले िकसी ने नहीं दे खा है ।

न वेदयज्ञाध्ययनैनर् दानैनर् च िबयािभनर् तपोिभरुमैः ।


एवंरूपः शक्य अहं नृलोके िष्टु ं त्वदन्येन कुरुूवीर ॥११- ४८॥
हे कुरुूवीर (कुरूओं में ौेष्ठ वीर), तुम्हारे अितिरक्त इस नर लोक में कोई भी वेदों द्वारा, यज्ञों द्वारा,
अध्ययन द्वारा, दान द्वारा, या बयाओं द्वारा (योग िबयाऐं आिद), या िफर उम तप द्वारा भी मेरे
इस रुप को नहीं दे ख सकता ।

मा ते व्यथा मा च िवमूढभावो दृंट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम ् ।


व्यपेतभीः ूीतमनाः पुनःत्वं तदे व मे रूपिमदं ूपँय ॥११- ४९॥
मेरे इस घोर रुप को दे ख कर न तुम व्यथा करो न मूढ भाव हो (अतः भयभीत और ःतब्ध न
हो) । तुम भयमुक्त होकर िफर से िूित पूणर् मन से (ूसन्न िचत्त से) मेरे इस (सौम्य) रूप को
दे खो ।

संजय उवाच
इत्यजुन
र् ं वासुदेवःतथोक्त्वा ःवकं रूपं दशर्यामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुमह
र् ात्मा ॥११- ५०॥
अजुन
र् को यह कह कर वासुदेव ने िफर से उन्हें अपने (सौम्य) रुप के दशर्न कराये । इस ूकार
र् को अपना सौम्य रूप िदखा कर आश्वासन िदया
उन महात्मा (भगवान ्) ने भयभीत हुये अजुन

अजुन
र् उवाच
दृंट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनादर् न ।
इदानीमिःम संवत्त
ृ ः सचेताः ूकृ ितं गतः ॥११- ५१॥
हे जनादर् न, आपके इस सौम्य (मधुर) मानुष रूप को दे ख कर शान्तिचत्त हो कर अपनी ूकृ ित
को ूाप्त हो गया हूँ (अथार्त अब मेरी सुध बुध वािपस आ गई है ) ।
ौीभगवानुवाच
सुदद
ु र् शिर् मदं रूपं दृष्टवानिस यन्मम ।
दे वा अप्यःय रूपःय िनत्यं दशर्नकािङ्क्षणः ॥११- ५२॥
मेरा यह रूप जो तुमने दे खा है , इसे दे ख पाना अत्यन्त किठन (अित दल र् ) है । इसे दे खने की
ु भ
दे वता भी सदा कामना करते हैं ।

नाहं वेदैनर् तपसा न दानेन न चेज्यया ।


शक्य एवंिवधो िष्टु ं दृष्टवानिस मां यथा ॥११- ५३॥
न मुझे वेदों द्वारा, न तप द्वारा, न दान द्वारा और न ही यज्ञ द्वारा इस रूप में दे खा जा सकता है ,
िजस रूप में मुझे तुमने दे खा है हे अजुन
र् ।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंिवधोऽजुन


र् ।
ज्ञातुं िष्टु ं च तत्त्वेन ूवेष्टुं च परं तप ॥११- ५४॥
लेिकन अनन्य भिक्त द्वारा, हे अजुन
र् , मुझे इस ूकार (रूप को) जाना भी जा सकता है , दे खा भी
जा सकता है , और मेरे तत्व (सार) में ूवेष भी िकया जा सकता है हे परं तप ।

मत्कमर्कृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गविजर्तः ।


िनवैर्रः सवर्भत
ू ेषु यः स मामेित पाण्डव ॥११- ५५॥
जो मनुंय मेरे िलये ही कमर् करता है , मुझी की तरफ लगा हुआ है , मेरा भक्त है , और संग रिहत
ू री चीज़ों, िवषयों के िचन्तन में डू बा हुआ नहीं है ), सभी जीवों की तरफ वैर रिहत है , वह
है (दस
भक्त मुझे ूाप्त करता है हे पाण्डव ।

॥ ॐ नमः भगवते वासुदेवाय ॥


बारहवाँ अध्याय

अजुन
र् उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्ताःत्वां पयुप
र् ासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगिवत्तमाः ॥१२- १॥
दोनों में से कौन उत्तम हैं - जो भक्त सदा आपकी भिक्त युक्त रह कर आप की उपासना करते हैं ,
और जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं ।

ौीभगवानुवाच
मय्यावेँय मनो ये मां िनत्ययुक्ता उपासते ।
ौद्धया परयोपेताःते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥
जो भक्त मुझ में मन को लगा कर िनरन्तर ौद्धा से मेरी उपासना करते हैं , वे मेरे मत में उत्तम
हैं ।

ये त्वक्षरमिनदेर् ँयमव्यक्तं पयुप


र् ासते ।
सवर्ऽगमिचन्त्यं च कूटःथमचलं ीुवम ् ॥१२- ३॥
जो अक्षर, अिनदेर् ँय (िजसके ःवरुप को बताया नहीं जा सकता), अव्यक्त, सवर्ऽ गम्य (हर जगह
उपिःथत), अिचन्तीय, सदा एक ःथान पर िःथत, अचल और ीुव (पक्का, न िहलने वाला) की
उपासना करते हैं ।

संिनयम्येिन्ियमामं सवर्ऽ समबुद्धयः ।


ते ूाप्नुविन्त मामेव सवर्भत
ू िहते रताः ॥१२- ४॥
इिन्ियों के समूह को संयिमत कर, हर ओर हर जगह समता की बुिद्ध से दे खते हुये, सभी ूाणीयों
के िहतकर, वे भी मुझे ही ूाप्त करते हैं ।

क्लेशोऽिधकतरःतेषामव्यक्तासक्तचेतसाम ् ।
अव्यक्ता िह गितदर् ःु खं दे हविद्भरवाप्यते ॥१२- ५॥
लेिकन उन के पथ में किठनाई एयादा है , जो अव्यक्त में िचत्त लगाने में आसक्त हैं क्योंिक दे ह
धािरयों के िलये अव्यक्त को ूाप्त करना किठन है ।

ये तु सवार्िण कमार्िण मिय संन्यःय मत्पराः ।


अनन्येनव
ै योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥१२- ६॥
लेिकन जो सभी कमोर्ं को मुझ पर त्याग कर मुझी पर आसार हुये (मेरी ूािप्त का लआय िकये)
अनन्य भिक्त योग द्वारा मुझ पर ध्यान करते हैं और मेरी उपासना करते हैं ।
तेषामहं समुद्धतार् मृत्युसंसारसागरात ् ।
भवािम निचरात्पाथर् मय्यावेिशतचेतसाम ् ॥१२- ७॥
ऍसे भक्तों को मैं बहुत जिल्द (िबना िकसी दे र िकये) ही इस मृत्यु संसार रुपी सागर से उद्धार करने
वाला बनता हूँ िजनका िचत्त मुझ ही में लगा हुआ है (मुझ में ही समाया हुआ है ) ।

मय्येव मन आधत्ःव मिय बुिद्धं िनवेशय ।


िनविसंयिस मय्येव अत ऊध्वर्ं न संशयः ॥१२- ८॥
इसिलये, अपने मन को मुझ में ही ःथािपत करो, मुझ में ही अपनी बुिद्ध को लगाओ, इस ूकार
करते हुये तुम केवल मुझ में ही िनवास करोगे (मुझ में ही रहोगे), इस में को संशय नहीं है ।

अथ िचत्तं समाधातुं न शक्नोिष मिय िःथरम ् ।


अभ्यासयोगेन ततो मािमच्छाप्तुं धनंजय ॥१२- ९॥
और यिद तुम अपने िचत्त को मुझ में िःथरता से ःथािपत (मुझ पर अटू ट ध्यान) नहीं कर पा
रहे हो, तो अभ्यास (भगवान में िचत्त लगाने के अभ्यास) करो और मेरी ही इच्छा करो हे धनंजय

अभ्यासेऽप्यसमथोर्ऽिस मत्कमर्परमो भव ।
मदथर्मिप कमार्िण कुवर्िन्सिद्धमवाप्ःयिस ॥१२- १०॥
और यिद तुम मुझ में िचत्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमथर् हो, तो मेरे िलये ही कमर्
करने की ठानो । इस ूकार, मेरे ही िलये कमर् करते हुये तुम िसिद्ध (योग िसिद्ध) ूाप्त कर लोगे

अथैतदप्यशक्तोऽिस कतुर्ं मद्योगमािौतः ।


सवर्कमर्फलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान ् ॥१२- ११॥
और यिद, तुम यह करने में भी सफल न हो पाओ, तो मेरे बताये योग का आौय लेकर अपने
मन और आत्मा पर संयम कर तुम सभी कमोर्ं के फलों को छोड़ दो (त्याग कर दो) ।

ौेयो िह ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं िविशंयते ।


ध्यानात्कमर्फलत्यागःत्यागाच्छािन्तरनन्तरम ् ॥१२- १२॥
अभ्यास से बढकर ज्ञान (समझ आ जाना) है , ज्ञान (समझ) से बढकर ध्यान है । और ध्यान
से भी उत्तम कणर् के फल का त्याग है , क्योंिक ऍसा करते ही तुरन्त शािन्त ूाप्त होती है ।
अद्वे ष्टा सवर्भत
ू ानां मैऽः करुण एव च ।
िनमर्मो िनरहं कारः समदःु खसुखः क्षमी ॥१२- १३॥
जो सभी जीवों के ूित द्वे ष-हीन है , मैऽी (िमऽ भाव) है , करुणशाल है । जो 'मैं और मेरे' के िवचारों
से मुक्त है , अहं कार रिहत है , सुख और दख
ु ः को एक सा दे खता है , जो क्षमी है ।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढिनश्चयः ।


मय्यिपर्तमनोबुिद्धयोर् मद्भक्तः स मे िूयः ॥१२- १४॥
जो योगी सदा संतुष्ट है , िजसका अपने आत्म पर काबू है , जो दृढ िनश्चय है । जो मन और बुिद्ध
से मुझे अिपर्त है , ऍसा मनुंय, मेरा भक्त, मुझे िूय है ।

यःमान्नोिद्वजते लोको लोकान्नोिद्वजते च यः ।


हषार्मषर्भयोद्वे गम ुर् ो यः स च मे िूयः ॥१२- १५॥
ै क्त
िजससे लोग उिद्विचत (व्याकुल, परे शान) नहीं होते (अथार्त जो िकसी को परे शान नहीं करता,
उिद्वग्न नहीं दे ता), और जो ःवयं भी लोगों से उिद्विजत नहीं होता, जो हषर्, ईषार्, भय, उद्वे ग से
मुक्त है , ऍसा मनुंय मुझे िूय है ।

अनपेक्षः शुिचदर् क्ष उदासीनो गतव्यथः ।


सवार्रम्भपिरत्यागी यो मद्भक्तः स मे िूयः ॥१२- १६॥
जो आकाङ्क्षा रिहत है , शुद्ध है , दक्ष है , उदासीन (मतलब रिहत) है , व्यथा रिहत है , सभी आरम्भों
का त्यागी है , ऍसा मेरी भक्त मुझे िूय है ।

यो न हृंयित न द्वे िष्ट न शोचित न काङ्क्षित ।


शुभाशुभपिरत्यागी भिक्तमान्यः स मे िूयः ॥१२- १७॥
ु ी (द्वे ष) होता है , न शोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है
जो न ूसन्न होता है , न दख
। शुभ और अशुभ दोनों का िजसने त्याग कर िदया है , ऍसा भिक्तमान पुरुष मुझे िूय है ।

समः शऽौ च िमऽे च तथा मानापमानयोः ।


शीतोंणसुखदःु खेषु समः सङ्गिवविजर्तः ॥१२- १८॥
जो शऽु और िमऽ के ूित समान है , तथा मान और अपमान में भी एक सा है , िजसके िलये सरदी
गरमी एक हैं , और जो सुख और दख
ु में एक सा है , हर ूकार से संग रिहत है ।
तुल्यिनन्दाःतुितमौर्नी सन्तुष्टो येन केनिचत ् ।
अिनकेतः िःथरमितभर्िक्तमान्मे िूयो नरः ॥१२- १९॥
जो अपनी िनन्दा और ःतुित को एक सा भाव दे ता है (एक सा मानता है ), जो मौनी है , िकसी
भी तरह (थोड़े बहुत में) संतुष्ट है , घर बार से जुड़ा नहीं है । जो िःथर मित है , ऍसा भिक्तमान
नर मुझे िूय है ।

ये तु धम्यार्मत
ृ िमदं यथोक्तं पयुप
र् ासते ।
ौद्दधाना मत्परमा भक्ताःतेऽतीव मे िूयाः ॥१२- २०॥
और जो ौद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लआय मानते) हुये, इस बताये गये धमर् अमृत
की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं ), ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) िूय हैं

।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।


तेरहँ वां अध्याय

ौीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेऽिमत्यिभधीयते ।
एतद्यो वेित्त तं ूाहुः क्षेऽज्ञ इित तिद्वदः ॥१३- १॥
इस शरीर को, हे कौन्तेय, क्षेऽ कहा जाता है । और ज्ञानी लोग इस क्षेऽ को जो जानता है उसे
क्षेऽज्ञ कहते हैं ।

क्षेऽज्ञं चािप मां िविद्ध सवर्क्षेऽेषु भारत ।


क्षेऽक्षेऽज्ञयोज्ञार्नं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥१३- २॥
सभी क्षोऽों में तुम मुझे ही क्षेऽज्ञ जानो हे भारत (सभी शरीरों में मैं क्षेऽज्ञ हूँ) । इस क्षेऽ और
क्षेऽज्ञ का ज्ञान (समझ) ही वाःतव में ज्ञान है , मेरे मत से ।

तत्क्षेऽं यच्च यादृक्च यिद्वकािर यतश्च यत ् ।


स च यो यत्ूभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥१३- ३॥
वह क्षेऽ जो है और जैसा है , और उसके जो िवकार (बदलाव) हैं , और िजस से वो उत्पन्न हुआ
है , और वह क्षेऽज्ञ जो है , और जो इसका ूभाव है , वह तुम मुझ से संक्षेप में सुनो ।

ऋिषिभबर्हुधा गीतं छन्दोिभिवर्िवधैः पृथक् ।


ॄह्मसूऽपदै श्चैव हे तुमिद्भिवर्िनिश्चतैः ॥१३- ४॥
ऋिषयों ने बहुत से गीतों में और िविवध छन्दों में पृथक पृथक रुप से इन का वणर्न िकया है ।
तथा सोच समझ कर संपूणर् तरह िनिश्चत कर के ॄह्म सूऽ के पदों में भी इसे बताया गया है ।

महाभूतान्यहं कारो बुिद्धरव्यक्तमेव च ।


इिन्ियािण दशैकं च पञ्च चेिन्ियगोचराः ॥१३- ५॥
महाभूत (मूल ूाकृ ित), अहं कार (मैं का अहसास), बुिद्ध, अव्यक्त ूकृ ित (गुण), दस इिन्ियाँ (पाँच
इिन्ियां और मन और कमर् अंग), और पाँचों इिन्ियों के िवषय ।

इच्छा द्वे षः सुखं दःु खं संघातश्चेतना धृितः ।


एतत्क्षेऽं समासेन सिवकारमुदाहृतम ् ॥१३- ६॥
इच्छा, द्वे ष, सुख, दख
ु , संघ (दे ह समूह), चेतना, धृित (िःथरता) - यह संक्षेप में क्षेऽ और उसके
िवकार बताये गये हैं ।
अमािनत्वमदिम्भत्वमिहं सा क्षािन्तराजर्वम ् ।
आचायोर्पासनं शौचं ःथैयम
र् ात्मिविनमहः ॥१३- ७॥
अिभमान न होना (ःवयं के मान की इच्छा न रखना), झुठी िदखावट न करना, अिहं सा (जीवों
की िहं सा न करना), शािन्त, सरलता, आचायर् की उपासना करना, शुद्धता (शौच), िःथरता और
आत्म संयम ।

इिन्ियाथेर्षु वैराग्यमनहं कार एव च ।


जन्ममृत्युजराव्यािधदःु खदोषानुदशर्नम ् ॥१३- ८॥
इिन्ियों के िवषयों के ूित वैराग्य (इच्छा शून्यता), अहं कार का अभाव, जन्म मृत्यु जरा (बुढापे)
ु दोष है उसे ध्यान में रखना (अथार्त इन से मुक्त होने
और िबमारी (व्यािध) के रुप में जो दख
का ूयत्न करना) ।

असिक्तरनिभंवङ्गः पुऽदारगृहािदषु ।
िनत्यं च समिचत्तत्विमष्टािनष्टोपपित्तषु ॥१३- ९॥
आसिक्त से मुक्त रहना (संग रिहत रहना), पुऽ, पत्नी और गृह आिद को ःवयं से जुड़ा न दे खना
(ऐकात्मता का भाव न होना), इष्ट (िूय) और अिनष्ट (अिूय) का ूािप्त में िचत्त का सदा एक
सा रहना ।

मिय चानन्ययोगेन भिक्तरव्यिभचािरणी ।


िविवक्तदे शसेिवत्वमरितजर्नसंसिद ॥१३- १०॥
मुझ में अनन्य अव्यिभचािरणी (िःथर) भिक्त होना, एकान्त ःथान पर रहने का ःवभाव होना, और
लोगों से िघरे होने को पसंद न करना ।

अध्यात्मज्ञानिनत्यत्वं तत्त्वज्ञानाथर्दशर्नम ् ।
एतज्ज्ञानिमित ूोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३- ११॥
सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना, तत्त्व (सार) का ज्ञान होना, और अपनी भलाई (अथर् अथार्त
भगवात ् ूािप्त िजसे परमाथर् - परम अथर् कहा जाता है ) को दे खना, इस सब को ज्ञान कहा गया
है , और बाकी सब अज्ञान है ।

ज्ञेयं यत्तत्ूवआयािम यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।


अनािद मत्परं ॄह्म न सत्तन्नासदच्
ु यते ॥१३- १२॥
जो ज्ञेय है (िजसका ज्ञान ूाप्त करना चािहये), मैं उसका वणर्न करता हूँ, िजसे जान कर मनुंय
अमरता को ूाप्त होता है । वह (ज्ञेय) अनािद है (उसका कोई जन्म नहीं है ), परम ॄह्म है । न
उसे सत कहा जाता है , न असत ् कहा जाता है (वह इन संज्ञाओं से परे है ) ।
सवर्तः पािणपादं तत्सवर्तोऽिक्षिशरोमुखम ् ।
सवर्तः ौुितमल्लोके सवर्मावृत्य ितष्ठित ॥१३- १३॥
हर ओर हर जगह उसके हाथ और पैर हैं , हर ओर हर जगह उसके आँखें और िसर तथा मुख हैं ,
हर जगह उसके कान हैं । वह इस संपूणर् संसार को ढक कर (हर जगह व्याप्त हो) िवराजमान है

सवेर्िन्ियगुणाभासं सवेर्िन्ियिवविजर्तम ् ।
असक्तं सवर्भच्
ृ चैव िनगुण
र् ं गुणभोक्तृ च ॥१३- १४॥
वह सभी इिन्ियों से विजर्त होते हुये सभी इिन्ियों और गुणों को आभास करता है । वह असक्त
होते हुये भी सभी का भरण पोषण करता है । िनगुण
र् होते हुये भी सभी गुणों को भोक्ता है ।

बिहरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।


सूआमत्वात्तदिवज्ञेयं दरू ःथं चािन्तके च तत ् ॥१३- १५॥
वह सभी चर और अचर ूािणयों के बाहर भी है और अन्दर भी । सूक्षम होने के कारण उसे दे खा
नहीं जा सकता । वह दरु भी िःथत है और पास भी ।

अिवभक्तं च भूतेषु िवभक्तिमव च िःथतम ् ।


भूतभतृर् च तज्ज्ञेयं मिसंणु ूभिवंणु च ॥१३- १६॥
सभी भूतों (ूािणयों) में एक ही होते हुये भी (अिवभक्त होते हुये भी) िवभक्त सा िःथत है । वहीं
सभी ूािणयों का पालन पोषण करने वाला है , वहीं ज्ञेयं (िजसे जाना जाना चािहये) है , मिसंणु
है , ूभिवंणु है ।

ज्योितषामिप तज्ज्योितःतमसः परमुच्यते ।


ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृिद सवर्ःय िविष्ठतम ् ॥१३- १७॥
सभी ज्योितयों की वही ज्योित है । उसे तमसः (अन्धकार) से परे (परम) कहा जाता है । वही
ज्ञान है , वहीं ज्ञेय है , ज्ञान द्वारा उसे ूाप्त िकया जाता है । वही सब के हृदयों में िवराजमान है

इित क्षेऽं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।


मद्भक्त एतिद्वज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१३- १८॥
इस ूकार तुम्हें संक्षेप में क्षेऽ (यह शरीर आिद), ज्ञान और ज्ञेय (भगवान) का वणर्न िकया है
। मेरा भक्त इन को समझ जाने पर मेरे ःवरुप को ूाप्त होता है ।
ूकृ ितं पुरुषं चैव िवद्ध्यनादी उभाविप ।
िवकारांश्च गुणांश्चैव िविद्ध ूकृ ितसंभवान ् ॥१३- १९॥
तुम ूकृ ित और पुरुष दोनो की ही अनािद (जन्म रिहत) जानो । और िवकारों और गुणों को तुम
ूकृ ित से उत्पन्न हुआ जानो ।

कायर्करणकतृत्र् वे हे तुः ूकृ ितरुच्यते ।


पुरुषः सुखदःु खानां भोक्तृत्वे हे तुरुच्यते ॥१३- २०॥
कायर् के साधन और कतार् होने की भावना में ूकृ ित को कारण बताया जाता है । और सुख दख

के भोक्ता होने में पुरुष को उसका कारण कहा जाता है ।

पुरुषः ूकृ ितःथो िह भुङ्क्ते ूकृ ितजान्गुणान ् ।


कारणं गुणसङ्गोऽःय सदसद्योिनजन्मसु ॥१३- २१॥
यह पुरुष (आत्मा) ूकृ ित में िःथत हो कर ूकृ ित से ही उत्पन्न हुये गुणों को भोक्ता है । इन
गुणों से संग (जुडा होना) ही पुरुष का सद और असद योिनयों में जन्म का कारण है ।

उपिष्टानुमन्ता च भतार् भोक्ता महे श्वरः ।


परमात्मेित चाप्युक्तो दे हेऽिःमन्पुरुषः परः ॥१३- २२॥
यह पुरुष (जीव आत्मा) इस दे ह में िःथत होकर दे ह के साथ संग करता है इसिलये इसे उपिष्टा
कहा जाता है , अनुमित दे ता है इसिलये इसे अनुमन्ता कहा जा सकता है , ःवयं को दे ह का पालन
पोषण करने वाला समझने के कारण इसे भतार् कहा जा सकता है , और दे ह को भोगने के कारण
भोक्ता कहा जा सकता है , ःवयं को दे ह का ःवािम समझने के कारण महे ंवर कहा जा सकता है
। लेिकन ःवरूप से यह परमात्मा तत्व ही है अथार्त इस का दे ह से कोई संबंध नहीं ।

य एवं वेित्त पुरुषं ूकृ ितं च गुणैः सह ।


सवर्था वतर्मानोऽिप न स भूयोऽिभजायते ॥१३- २३॥
जो इस ूकार पुरुष और ूकृ ित तथा ूकृ ित में िःथत गुणों के भेद को जानता है , वह मनुंय सदा
वतर्ता हुआ भी दोबारा िफर मोिहत नहीं होता ।
ध्यानेनात्मिन पँयिन्त केिचदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कमर्योगेन चापरे ॥१३- २४॥
कोई ध्यान द्वारा अपने ही आत्मन से अपनी आत्मा को दे खते हैं , अन्य सांख्य ज्ञान द्वारा अपनी
आत्मा का ज्ञान ूाप्त करते हैं , तथा अन्य कई कमर् योग द्वारा ।

अन्ये त्वेवमजानन्तः ौुत्वान्येभ्य उपासते ।


तेऽिप चािततरन्त्येव मृत्युं ौुितपरायणाः ॥१३- २५॥
ू रे कई इसे न जानते हुये भी जैसा सुना है उस पर िवश्वास कर, बताये हुये की उपासना
लेिकन दस
करते हैं । वे ौुित परायण (सुने हुये पर िवश्वास करते और उसका सहारा लेते) लोग भी इस मृत्यु
संसार को पार कर जाते हैं ।

यावत्संजायते िकंिचत्सत्त्वं ःथावरजङ्गमम ् ।


क्षेऽक्षेऽज्ञसंयोगात्तिद्विद्ध भरतषर्भ ॥१३- २६॥
हे भरतषर्भ, जो भी ःथावर यां चलने-िफरने वाले जीव उत्पन्न होते हैं , तुम उन्हें इस क्षेऽ (शरीर
तथा उसके िवकार आिद) और क्षेऽज्ञ (आत्मा) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझो ।

समं सवेर्षु भूतेषु ितष्ठन्तं परमेश्वरम ् ।


िवनँयत्ःविवनँयन्तं यः पँयित स पँयित ॥१३- २७॥
परमात्मा सभी जीवों में एक से िःथत हैं । िवनाश को ूाप्त होते इन जीवों में जो अिवनाशी उन
परमात्मा को दे खता है , वही वाःतव में दे खता है ।

समं पँयिन्ह सवर्ऽ समविःथतमीश्वरम ् ।


न िहनःत्यात्मनात्मानं ततो याित परां गितम ् ॥१३- २८॥
हर जगह इश्वर को एक सा अविःथत दे खता हुआ जो मनुंय सवर्ऽ समता से दे खता है , वह अपने
ही आत्मन द्वारा अपनी िहं सा नहीं करता, इसिलये वह परम पित को ूाप्त करता है ।

ूकृ त्यैव च कमार्िण िबयमाणािन सवर्शः ।


यः पँयित तथात्मानमकतार्रं स पँयित ॥१३- २९॥
जो ूकृ ित को ही हर ूकार से सभी कमर् करते हुये दे खता है , और ःवयं को अकतार् (कमर् न करने
वाला) जानता है , वही वाःतव में सत्य दे खता है ।
यदा भूतपृथग्भावमेकःथमनुपँयित ।
तत एव च िवःतारं ॄह्म संपद्यते तदा ॥१३- ३०॥
जब वह इन सभी जीवों के िविवध भावों को एक ही जगह िःथत दे खता है (ूकृ ित में) और उसी
एक कारण से यह सारा िवःतार दे खता है , तब वह ॄह्म को ूाप्त हो जाता है ।

अनािदत्वािन्नगुण
र् त्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरःथोऽिप कौन्तेय न करोित न िलप्यते ॥१३- ३१॥
हे कौन्तेय, जीवात्मा अनािद और िनगुण
र् होने के कारण िवकारहीन (अव्यय) परमात्मा तत्व ही
है । यह शरीर में िःथत होते हुये भी न कुछ करती है और न ही िलपती है ।

यथा सवर्गतं सौआम्यादाकाशं नोपिलप्यते ।


सवर्ऽाविःथतो दे हे तथात्मा नोपिलप्यते ॥१३- ३२॥
जैसे हर जगह फैला आकाश सूक्षम होने के कारण िलपता नहीं है उसी ूकार हर जगह अविःथत
आत्मा भी दे ह से िलपती नहीं है ।

यथा ूकाशयत्येकः कृ त्ःनं लोकिममं रिवः ।


क्षेऽं क्षेऽी तथा कृ त्ःनं ूकाशयित भारत ॥१३- ३३॥
जैसे एक ही सूयर् इस संपूणर् संसार को ूकािशत कर दे ता है , उसी ूकार हे भारत, क्षेऽी (आत्मा)
भी क्षेऽ को ूकािशत कर दे ती है ।

क्षेऽक्षेऽज्ञयोरे वमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।


भूतूकृ ितमोक्षं च ये िवदय
ु ार्िन्त ते परम ् ॥१३- ३४॥
इस पकार्र जो क्षेऽ और क्षेऽज्ञ के बीच में ज्ञान दृिष्ट से भेद दे खते हैं और उन को अलग अलग
जानते हैं , वे इस ूकृ ित से िवमुक्त हो परम गित को ूाप्त करते हैं ।

।। ॐ नमः भगवते वासेदव


ु ाय ।।

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