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ौीमद्भगवद्गीता
ौीमद्भगवद्गीता
ौीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूिम महाभारत का युद्घ है । िजस ूकार एक सामान्य मनुंय अपने जीवन
की समःयाओं में उलझकर िकंकतर्व्यिवमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात ् जीवन के समरांगण
से पलायन करने का मन बना लेता है । उसी ूकार अजुन
र् जो िक महाभारत का महानायक है अपने
सामने आने वाली समःयाओं से भयभीत होकर जीवन और कमर्क्षेऽ से िनराश हो गया है । अजुन
र्
की तरह ही हम सभी कभी-कभी अिनश्चय की िःथित में या तो हताश हो जाते हैं और या िफर
अपनी समःयाओं से उिद्वग्न होकर कतर्व्य िवमुख हो जाते हैं । भारत वषर् के ऋिषयों नें गहन िवचार
के पश्चात ् िजस ज्ञान को आत्मसात ् िकया उसे उन्होंने वेदों का नाम िदया। इन्हीं वेदों का अंितम
भाग उपिनषद कहलाता है । मानव जीवन की िवशेषता मानव को ूाप्त बौिद्धक शिक्त है और
उपिनषदों में िनिहत ज्ञान मानव की बौिद्धकता की उच्चतम अवःथा तो है ही, अिपतु बुिद्ध की
सीमाओं के परे मनुंय क्या अनुभव कर सकता है यह हमारे उपिनषद् एक झलक िदखा दे ते हैं ।
उसी औपिनषदीय ज्ञान को महिषर् वेदव्यास ने सामान्य जनों के िलए गीता में संिक्षप्त रूप में ूःतुत
िकया है । वेदव्यास की महानता ही है , जो िक 11 उपिनषदों के ज्ञान को एक पुःतक में बाँध सके
और मानवता को एक आसान युिक्त से परमात्म ज्ञान का दशर्न करा सके।
ूथमोअध्यायः
ૐ
ौीपरमात्मने नमः
ौीमद्भगवतगीता
अथ ूथमोध्यायः
धृतराष्टर् उवाच
धृतराष्टर् बोले- हे संजय ! धमर्भिू म कुरूक्षेऽ में एकिऽत, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुऽों
ने क्या िकया ? ।। 1।।
संजय उवाच
इस सेना में बड़े -बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अजुन
र् के समान शूरवीर साित्यक और िवराट
ु द, धृष्टकेतु और चेिकतान तथा बलवान ् कािशराज, पुरूिजत ्, कुिन्तभोज और
तथा महारथी राजा िप
मनुंयों में ौेष्ठ शैब्य, पराबमी युधामन्यु तथा बलवान ् उत्तमौजा, सुभिापुऽ अिभमन्यु एवं िौपदी
के पाँचों पुऽ- ये सभी महारथी हैं ।। 4-6।।
अःमाकं तु िविशष्टा ये तािन्नबोध िद्वजोत्तम। नायका मम सैन्यःय सज्ज्ञाथर् तान ् ॄवीिम ते।।
हे ॄाह्मण ौेष्ठ ! अपने पक्ष में जो भी ूधान हैं , उनको आप समझ लीिजए। आपकी जानकारी के
िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं , उनको बतलाता हूँ।। 7।।
आप- िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही
अश्वत्थामा, िवकणर् और सोमदत्त का पुऽ भूिरौवा।। 8।।
और भी मेरे िलए जीवन की आशा त्याग दे ने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक ूकार के शास्तर्ों से
सुसिज्जत और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं ।। 9।।
भींम िपतामह द्वारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम द्वारा रिक्षत इन लोगों
की यह सेना जीतने में सुगम है ।। 10।।
इसिलए सब मोचोर्ं पर अपनी-अपनी जगह िःथत रहते हुए आपलोग सभी िनःसन्दे ह भींम
िपतामह की ही सब ओर से रक्षा करें ।। 11।।
तःय सज्जनयन ् हषर् कुरूवृद्धः िपतामहः। िसंहनादं िवनद्योच्चैः शंख्ङ दध्मौ ूतापवान ्।।
इसके पश्चात ् शंख और नगाडे ़ तथा ढोल, मृदग्ङ और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज उठे ।
उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।
ततः श्र्वेतैहर्यैयक्त
ुर् े महित ःयन्दने िःथतौ। माधवः पाण्डवच्ौैव िदव्यौ शन्खौं ूदध्मतुः।।
इसके अन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए ौीकृ ंण महाराज और अजुन
र् ने भी अलौिकक
शंख बजाये।। 14।।
ौेष्ट धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा िवराट और अजेय
साित्यक, राजा िप
ु द एवं िौपदी के पाँचों पुऽ और बड़ी भुजावाले सुभिापुऽ अिभमन्यु- इन सभी
ने, हे राजन ् ! सब ओर से अलग-अलग शंख्ङ बजाये।। 17-18।।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धातर्राष्टर्ों के अथार्त ् आपके पक्षवालों
के ॑दय िवदीणर् कर िदये।। 19।।
अथ व्यिःथतान्दृष्टर्ा धातर्राष्टर्ान ् किपध्वजः। ूवृत्ते शॐसम्पाते धनुरूद्यम्य पाण्डवः।।
॑षीकेशं तदा वाक्यिमदमाह महीपते।
अजुन
र् उवाच
सेनयोरूभयोमर्ध्ये रथं ःथापय मेऽच्युत।।
और जब तक िक मैं युद्धक्षेऽ में डटे हुए युद्ध के अिभलाषी इन िवपक्षी योद्धाओं को भली ूकार
दे ख लूँ िक इस युद्धरूप व्यापार में मुझे िकन-िकन के साथ युद्ध करना योग्य है , तब तक उसे खड़ा
रिखये।। 22।।
दब ु ोर्धन का युद्ध में िहत चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है , इन युद्ध
ु िुर् द्ध दय
करनेवालों को दे खूँगा।। 23।।
संजय उवाच
एवमुक्तो ॑षीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरूभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथोत्तमम ्।।
भींमिोणूमुखतः सवेर्षां च महीिक्षताम ्। उवाच पाथर् पँयैतान ् समवेतान ् कुरूिनित।।
अजुन
र् उवाच
र् बोले- हे कृ ंण ! युद्धक्षेऽ में डटे हुए युद्ध के अिभलाषी इस ःवजनसमुदाय को दे खकर मेरे
अजुन
अग्ङ िशिथल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो
रहा है ।। 28 वेंका उत्तराधर् और 29।।
हाथसे गाण्डीव धनुष िगर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन ॅिमत सा हो
रहा है , इसिलए मै खड़ा रहने को भी समथर् नहीं हूँ।। 30।।
हे केशव ! मैं लक्षणों को भी िवपरीत ही दे ख रहा हूँ तथा युद्ध में ःवजन-समुदायको मारकर कल्याण
भी नहीं दे खता।। 31।।
हे कृ ंण ! मै न तो िवजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही। हे गोिवन्द ! हमें ऐसे राज्य
से क्या ूयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ।। 32।।
येषामथेर् कािङक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखािन च। त इमेऽविःथता युद्धे ूाणांःत्यक्त्वा धनािन च।।
गुरूजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी ूकार दादे , मामे, ससुर, पौऽ, साले तथा और भी संबंधी लोग
है ।। 34।।
हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको मारना
नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए कहना ही क्या है ? ।। 35।।
हे जनादर् न ! धृतराष्टर् के पुऽोंको मारकर हमें क्या ूसन्नता होगी ? इन आततािययों को मारकर
तो हमें पाप ही लगेगा।। 36।।
तःमान्नाहार् वयं हन्तुं धातर्राष्टर्ान ् ःवबान्धवान ्। ःवजनं िह कथं हत्वा सुिखनः ःयाम माधव।।
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्टर् के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं हैं , क्योिकं
अपने ही कुटु म्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।। 37।।
यद्यिप लोभ से ॅष्टिचत्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोषको और िमऽों से िवरोध करने
में पाप को नहीं दे खते, तो भी हे जनादर् न ! कुल के नाशसे उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों
को इस पाप से हटने के िलये क्यों नहीं िवचार करना चािहए ? ।। 38-39।।
कुल के नाश से सनातन कुल-धमर् नष्ट हो जाते हैं , धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कुल में पाप
भी बहुत फैल जाता है ।। 40।।
अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंु यित कुलिॐयः। ॐीषु दष्ट
ु ासु वांणेर्य जायते वणर्संक्ङरः।।
हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कुल की िस्तर्याँ अत्यन्त दिू षत हो जाती हैं और हे वांणेर्य
! िस्तर्यों के दिू षत हो जाने पर वणर्संक्ङर उत्पन्न होता है ।। 41।
वणर्संक्ङर कुलघाितयों को कुल को नरक में ले जाने के िलए हीहोता है । लुप्त हुई िपण्ड और जल
की िबया वाले अथार्त ् ौाद्ध और तपर्णसे विञ्चत इनके िपतरलोग भी अधोगित को ूाप्त होते हैं ।।
42।।
हे जनादर् न ! िजनका कुल धमर् नष्ट हो गया है , ऐसे मनुंयों का अिनिश्चत कालतक नरक में वास
होता है , ऐसा हम सुनते आये हैं ।। 44।।
हा ! शोक ! हमलोग बुिद्धमान होकर भी महान ् पाप करने को तैयार हो गया हैं , जो राज्य और
सुख के भोग से ःवजनों को मारने के िलए उद्यत हो गये हैं ।। 45।।
यिद मुझ शस्तर्रहित एवं सामना न करने वाले को धृतराष्टर् के पुऽ रण में मार डालें तो वह मारना
भी मेरे िलए अिधक कल्याणकारक होगा।। 46।।
संजय उवाच
एवमुक्त्वाजुन
र् ः सऔख्ये रथोपःथ उपािवशत ्। िवसृज्य सशरं चापं शोकसंिवममानसः।।
संजय बोले
तं तथा कृ पयािवष्टमौुपूणार्कुलेक्षणम ् ।
िवषीदन्तिमदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥२- १॥
तब िचंता और िवशाद में डू बे अजुन
र् को, िजसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह
वाक्य कहे ॥
ौीभगवान बोले
अजुन
र् बोले
संजय बोले
अच्छे द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोंय एव च ।
िनत्यः सवर्गतः ःथाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२- २४॥
यह अछे द्य है , जलाई नहीं जा सकती, िभगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती । यह हमेशा
रहने वाली है , हर जगह है , िःथर है , अन्तहीन है ॥
अव्यक्तोऽयमिचन्त्योऽयमिवकायोर्ऽयमुच्यते ।
तःमादे वं िविदत्वैनं नानुशोिचतुमहर् िस ॥२- २५॥
यह िदखती नहीं है , न इसे समझा जा सकता है । यह बदलाव से रिहत है , ऐसा कहा जाता है
। इसिलये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चािहऐ ॥
भोगैश्वयर्ूसक्तानां तयापहृतचेतसाम ् ।
व्यवसायाित्मका बुिद्धः समाधौ न िवधीयते ॥२- ४४॥
भोग ऍश्वयर् से जुड़े िजनकी बुद्धी हरी जा चुकी है , ऍसी बुद्धी कमर् योग मे िःथरता महण नहीं करती
॥
अजुन
र् बोले
िःथतूज्ञःय का भाषा समािधःथःय केशव ।
िःथतधीः िकं ूभाषेत िकमासीत ोजेत िकम ् ॥२- ५४॥
हे केशव, िजसकी बुिद्ध ज्ञान में िःथर हो चुिक है , वह कैसा होता है । ऍसा िःथरता ूाप्त िकया
व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, िफरता है ॥
ौीभगवान बोले
ूजहाित यदा कामान्सवार्न्पाथर् मनोगतान ् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः िःथतूज्ञःतदोच्यते ॥२- ५५॥
हे पाथर्, जब वह अपने मन में िःथत सभी कामनाओं को िनकाल दे ता है , और अपने आप में ही
अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है , तब उसे ज्ञान और बुिद्धमता में िःथत कहा जाता है ॥
यः सवर्ऽानिभःनेहःतत्तत्ूाप्य शुभाशुभम ् ।
नािभनन्दित न द्वे िष्ट तःय ूज्ञा ूितिष्ठता ॥२- ५७॥
िकसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और
न उससे नफरत करता है उसकी बुिद्ध ज्ञान में िःथत है ॥
ध्यायतो िवषयान्पुस
ं ः सङ्गःतेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्बोधोऽिभजायते ॥२- ६२॥
चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुंय को उन से लगाव हो जाता है । इससे उसमे इच्छा पौदा
होती है और इच्छाओं से गुःसा पैदा होता है ॥
या िनशा सवर्भत
ू ानां तःयां जागितर् संयमी ।
यःयां जामित भूतािन सा िनशा पँयतो मुनेः ॥२- ६९॥
जो सब के िलये रात है उसमें संयमी जागता है , और िजसमे सब जागते हैं उसे मुिन रात की तरह
दे खता है ॥
आपूयम
र् ाणमचलूितष्ठं समुिमापः ूिवशिन्त यद्वत ् ।
तद्वत्कामा यं ूिवशिन्त सवेर् स शािन्तमाप्नोित न कामकामी ॥२- ७०॥
निदयाँ जैसे समुि, जो एकदम भरा, अचल और िःथर रहता है , में आकर शान्त हो जाती हैं , उसी
ूकार िजस मनुंय में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं , वह शान्ती ूाप्त करता है । न िक
वह जो उनके पीछे भागता है ॥
िवहाय कामान्यः सवार्न ् पुमांश्चरित िनःःपृहः ।
िनमर्मो िनरहं कारः स शािन्तमिधगच्छित ॥२- ७१॥
सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुंय ःपृह रिहत रहता है , जो मै और मेरा रूपी अहं कार को
भूल िवचरता है , वह शान्ती को ूाप्त करता है ॥
अजुन
र् बोले
ज्यायसी चेत्कमर्णःते मता बुिद्धजर्नादर् न ।
तित्कं कमर्िण घोरे मां िनयोजयिस केशव ॥३- १॥
हे केशव, अगर आप बुिद्ध को कमर् से अिधक मानते हैं तो मुझे इस घोर कमर् में क्यों न्योिजत
कर रहे हैं ॥
ौीभगवान बोले
लोकेऽिःमिन्द्विवधा िनष्ठा पुरा ूोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कमर्योगेन योिगनाम ् ॥३- ३॥
हे ि़नंपाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो ूकार की िनष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं । ज्ञान योग सन्यास
से जुड़े लोगों के िलये और कमर् योग उनके िलये जो कमर् योग से जुड़े हैं ॥
न कमर्णामनारम्भान्नैंकम्यर्ं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादे व िसिद्धं समिधगच्छित ॥३- ४॥
कमर् का आरम्भ न करने से मनुंय नैंकमर् िसद्धी नहीं ूाप्त कर सकता अतः कमर् योग के अभ्यास
में कमोर्ं का करना जरूरी है । और न ही केवल त्याग कर दे ने से िसद्धी ूाप्त होती है ॥
दे वान्भावयतानेन ते दे वा भावयन्तु वः ।
परःपरं भावयन्तः ौेयः परमवाप्ःयथ ॥३- ११॥
तुम दे वताओ को ूसन्न करो और दे वता तुम्हें ूसन्न करें गे, इस ूकार परःपर एक दस
ू रे का
खयाल रखते तुम परम ौेय को ूाप्त करोगे ॥
इष्टान्भोगािन्ह वह दे वा दाःयन्ते यज्ञभािवताः ।
तैदर्त्तानूदायैभ्यो यो भुङ्क्ते ःतेन एव सः ॥३- १२॥
यज्ञों से संतुष्ट हुऐ दे वता तुम्हें मन पसंद भोग ूदान करें गे । जो उनके िदये हुऐ भोगों को उन्हें
िदये िबना खुद ही भोगता है वह चोर है ॥
ूकृ तेगण
ुर् संमूढाः सज्जन्ते गुणकमर्सु ।
तानकृ त्ःनिवदो मन्दान्कृ त्ःनिवन्न िवचालयेत ् ॥३- २९॥
ूकृ ित के गुणों से मूखर् हुऐ, गुणों के कारण हुऐ उन कमोर्ं से जुड़े रहते है । सब जानने वाले को
चािहऐ िक वह अधूरे ज्ञान वालों को िवचिलत न करे ॥
मिय सवार्िण कमार्िण संन्यःयाध्यात्मचेतसा ।
िनराशीिनर्मम
र् ो भूत्वा युध्यःव िवगतज्वरः ॥३- ३०॥
सभी कमोर्ं को मेरे हवाले कर, अध्यात्म में मन को लगाओ । आशाओं से मुक्त होकर, "मै" को
भूल कर, बुखार मुक्त होकर युद्ध करो ॥
ौीभगवान बोले
काम एष बोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा िवद्ध्येनिमह वैिरणम ् ॥३- ३७॥
इच्छा और गुःसा जो रजो गुण से होते हैं , महा िवनाशी, महापापी इसे तुम यहाँ दँु मन जानो ॥
इस ूकार ःवयंम को बुिद्ध से ऊपर जान कर, ःवयंम को ःवयंम के वश में कर, हे महाबाहो, इस
इच्छा रूपी शऽु, पर जीत ूाप्त कर लो, िजसे जीतना किठन है ॥
ौीभगवानुवाच
अजुन
र् उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म िववःवतः ।
कथमेतिद्वजानीयां त्वमादौ ूोक्तवािनित ॥४-४॥
आपका जन्म तो अभी हुआ है , िववःवान तो बहुत पहले हुऐ हैं । कैसे मैं यह समझूँ िक आप
ने इसे शुरू मे बताया था ॥
ौीभगवानुवाच
िनराशीयर्तिचत्तात्मा त्यक्तसवर्पिरमहः ।
शारीरं केवलं कमर् कुवर्न्नाप्नोित िकिल्बषम ् ॥४-२१॥
मोघ आशाओं से मुक्त, अपने िचत और आत्मा को वश में कर, घर सम्पित्त आिद िमनिसक पिरमहों
को त्याग, जो केवल शरीर से कमर् करता है , वो कमर् करते हुऐ भी पाप नहीं ूाप्त करता ॥
िव्ययज्ञाःतपोयज्ञा योगयज्ञाःतथापरे ।
ःवाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संिशतोताः ॥४-२८॥
इस ूकार कोई धन पदाथोर्ं द्वारा यज्ञ करते हैं , कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं , कोई कमर् योग द्वारा
यज्ञ करते हैं और कोई ःवाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं , अपने अपने ोतों का सावधािन से पालन
करते हुऐ ॥
अपाने जुह्वित ूाणं ूाणेऽपानं तथापरे ।
ूाणापानगती रुद्ध्वा ूाणायामपरायणाः ॥४-२९॥
और भी कई, अपान में ूाण को अिपर्त कर और ूाण मे अपान को अिपर्त कर, इस ूकार ूाण
और अपान िक गितयों को िनयिमत कर, ूाणायाम मे लगते हैँ ॥
ौेयान्िव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सवर्ं कमार्िखलं पाथर् ज्ञाने पिरसमाप्यते ॥४-३३॥
हे परन्तप, धन आिद पदाथोर्ं के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है । सारे कमर् पूणर् रूप से ज्ञान
िमल जाने पर अन्त पाते हैं ॥
यथैधांिस सिमद्धोऽिग्नभर्ःमसात्कुरुतेऽजुन
र् ।
ज्ञानािग्नः सवर्कमार्िण भःमसात्कुरुते तथा ॥४-३७॥
जैसे समृद्ध अिग्न भःम कर डालती है , हे अजुन
र् , उसी ूकार ज्ञान अिग्न सभी कमोर्ं को भःम
कर डालती है ॥
अजुन
र् उवाच
संन्यासं कमर्णां कृ ंण पुनयोर्गं च शंसिस ।
यच्ले य एतयोरे कं तन्मे ॄूिह सुिनिश्चतम ् ॥५- १॥
हे कृ ंण, आप कमोर्ं के त्याग की ूशंसा कर रहे हैं और िफर योग द्वारा कमोर्ं को करने की भी
। इन दोनों में से जो ऐक मेरे िलये ज्यादा अच्छा है वही आप िनिश्चत कर के मुझे किहये ॥
ौीभगवानुवाच
संन्यासः कमर्योगश्च िनःौेयसकरावुभौ ।
तयोःतु कमर्संन्यासात्कमर्योगो िविशंयते ॥५- २॥
संन्यास और कमर् योग, ये दोनो ही ौेय हैं , परम की ूािप्त कराने वाले हैं । लेिकन कमोर्ं से संन्यास
की जगह, योग द्वारा कमोर्ं का करना अच्छा है ॥
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामःतथान्तज्योर्ितरे व यः ।
स योगी ॄह्मिनवार्णं ॄह्मभूतोऽिधगच्छित ॥५- २४॥
िजसकी अन्तर आत्मा सुखी है , अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है , और िजसका अन्त करण
ूकाशमयी है , ऍसा योगी ॄह्म िनवार्ण ूाप्त कर, ॄह्म में ही समा जाता है ।
लभन्ते ॄह्मिनवार्णमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
िछन्नद्वै धा यतात्मानः सवर्भत
ू िहते रताः ॥५- २५॥
ॠषी िजनके पाप क्षीण हो चुके हैं , िजनकी िद्वन्द्वता िछन्न हो चुकी है , जो संवयम की ही तरह
सभी जीवों के िहत में रमे हैं , वो ॄह्म िनवार्ण ूाप्त करते हैं ।
ौीभगवानुवाच
अनािौतः कमर्फलं कायर्ं कमर् करोित यः ।
स संन्यासी च योगी च न िनरिग्ननर् चािबयः ॥६- १॥
कमर् के फल का आौय न लेकर जो कमर् करता है , वह संन्यासी भी है और योगी भी । वह नहीं
जो अिग्नहीन है , न वह जो अिबय है ।
आरुरुक्षोमुन
र् ेयोर्गं कमर् कारणमुच्यते ।
योगारूढःय तःयैव शमः कारणमुच्यते ॥६- ३॥
एक मुिन के िलये योग में िःथत होने के िलये कमर् साधन कहा जाता है । योग मे िःथत हो जाने
पर शािन्त उस के िलये साधन कही जाती है ।
सुहृिन्मऽायुद
र् ासीनमध्यःथद्वे ंयबन्धुषु ।
साधुंविप च पापेषु समबुिद्धिवर्िशंयते ॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, िमऽ को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, िबचोले को, घृणा करने
वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुिद्ध से दे खता
है वह उत्तम है ।
संकल्पूभवान्कामांःत्यक्त्वा सवार्नशेषतः ।
मनसैवेिन्ियमामं िविनयम्य समन्ततः ॥६- २४॥
शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग दे ने का संकल्प कर, मन से सभी इिन्ियों को हर ओर
से रोक कर ।
शनैः शनैरुपरमेद्बद्
ु ध्या धृितगृहीतया ।
आत्मसंःथं मनः कृ त्वा न िकंिचदिप िचन्तयेत ् ॥६- २५॥
धीरे धीरे बुिद्ध की िःथरता मरण करते हुऐ मन को आत्म मे िःथत कर, कुछ भी नहीं सोचना
चािहये ।
सवर्भत
ू िःथतं यो मां भजत्येकत्वमािःथतः ।
सवर्था वतर्मानोऽिप स योगी मिय वतर्ते ॥६- ३१॥
सभी भूतों में िःथत मुझे जो अन्नय भाव से िःथत हो कर भजता है , वह सब कुछ करते हुऐ
भी मुझ ही में रहता है ।
अजुन
र् उवाच
योऽयं योगःत्वया ूोक्तः साम्येन मधुसद
ू न ।
एतःयाहं न पँयािम चञ्चलत्वाित्ःथितं िःथराम ् ॥६- ३३॥
हे मधुसद
ू न, जो आपने यह समता भरी योगा बताई है , इसमें मैं िःथरता नहीं दे ख पा रहा हूँ, मन
की चंचलता के कारण ।
अजुन
र् उवाच
अयितः ौद्धयोपेतो योगाच्चिलतमानसः ।
अूाप्य योगसंिसिद्धं कां गितं कृ ंण गच्छित ॥६- ३७॥
हे कृ ंण, ौद्धा होते हुए भी िजसका मन योग से िहल जाता है , योग िसिद्ध को ूाप्त न कर पाने
पर उसको क्या पिरणाम होता है ।
किच्चन्नोभयिवॅष्टिँछन्नाॅिमव नँयित ।
अूितष्ठो महाबाहो िवमूढो ॄह्मणः पिथ ॥६- ३८॥
क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टू टे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता । हे महाबाहो, अूितिष्ठत
और ॄह्म पथ से िवमूढ हुआ ।
पूवार्भ्यासेन तेनव
ै ि॑यते ह्यवशोऽिप सः ।
िजज्ञासुरिप योगःय शब्दॄह्माितवतर्ते ॥६- ४४॥
पुवर् जन्म में िकये अभ्यास की तरफ वह िबना वश ही िखच जाता है । क्योंिक योग मे िजज्ञासा
रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है ।
ौीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पाथर् योगं युञ्जन्मदाौयः ।
असंशयं सममं मां यथा ज्ञाःयिस तच्छृणु ॥७- १॥
मुझ मे लगे मन से, हे पाथर्, मेरा आौय लेकर योगाभ्यास करते हुऐ तुम िबना शक के मुझे पूरी
तरह कैसे जान जाओगे वह सुनो ।
अजुन
र् उवाच
िकं तद्ॄह्म िकमध्यात्मं िकं कमर् पुरुषोत्तम ।
अिधभूतं च िकं ूोक्तमिधदै वं िकमुच्यते ॥८- १॥
हे पुरुषोत्तम, ॄह्म क्या है , अध्यात्म क्या है , और कमर् क्या होता है । अिधभूत िकसे कहते हैं और
अिधदै व िकसे कहा जाता है ।
ौीभगवानुवाच
अक्षरं ॄह्म परमं ःवभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो िवसगर्ः कमर्सिं ज्ञतः ॥८- ३॥
िजसका क्षर नहीं होता वह ॄह्म है । जीवों के परम ःवभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है । जीवों
की िजससे उत्पित्त होती है उसे कमर् कहा जाता है ।
आॄह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावितर्नोऽजुन
र् ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनजर्न्म न िवद्यते ॥८- १६॥
ॄह्म से नीचे िजतने भी लोक हैं उनमें से िकसी को भी ूाप्त करने पर जीव को वािपस लौटना पड़ता
है (मृत्यु होती है ), लेिकन मुझे ूाप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, िफर दोबारा जन्म नहीं होता ।
सहॐयुगपयर्न्तमहयर्द्ॄह्मणो िवदःु ।
रािऽं युगसहॐान्तां तेऽहोराऽिवदो जनाः ॥८- १७॥
जो जानते हैं की सहॐ (हज़ार) युग बीत जाने पर ॄह्म का िदन होता है और सहॐ युगों के अन्त
पर ही राऽी होती है , वे लोग िदन और रात को जानते हैं ।
परःतःमात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सवेर्षु भूतेषु नँयत्सु न िवनँयित ॥८- २०॥
इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है , जो सभी जीवों का अन्त
होने पर भी नष्ट नहीं होता ।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तःतमाहुः परमां गितम ् ।
यं ूाप्य न िनवतर्न्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥
िजसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है , और िजसे परम गित बताया जाता है , िजसे ूाप्त करने
पर कोई िफर से नहीं लौटता वही मेरा परम ःथान है ।
ौीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं ूवआयाम्यनसूयवे ।
ज्ञानं िवज्ञानसिहतं यज्ज्ञात्वा मोआयसेऽशुभात ् ॥९- १॥
मैं तुम्हे इस परम रहःय के बारे में बताता हूँ क्योंिक तुममें इसके ूित कोई वैर वहीं है । इसे
ज्ञान और अनुभव सिहत जान लेने पर तुम अशुभ से मुिक्त पा लोगे ।
समोऽहं सवर्भत
ू ेषु न मे द्वे ंयोऽिःत न िूयः ।
ये भजिन्त तु मां भक्त्या मिय ते तेषु चाप्यहम ् ॥९- २९॥
मेरे िलये सभी जीव एक से हैं - न मुझे िकसी से द्वे ष है और न ही कोई िूय है । लेिकन जो
भिक्त भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ ।
ौीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं ूीयमाणाय वआयािम िहतकाम्यया ॥१०- १॥
िफर से, हे महाबाहो, तुम मेरे परम वचनों को सुनो । क्योंिक तुम मुझे िूय हो इसिलय मैं तुम्हारे
िहत के िलये तुम्हें बताता हूँ ।
तेषामेवानुकम्पाथर्महमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावःथो ज्ञानदीपेन भाःवता ॥१०- ११॥
उन पर अपनी कृ पा करने के िलये मैं उनके अन्तकरण में िःथत होकर, अज्ञान से उत्पन्न हुये
उनके अँधकार को ज्ञान रूपी दीपक जला कर नष्ट कर दे ता हूँ ।
अजुन
र् उवाच
परं ॄह्म परं धाम पिवऽं परमं भवान ् ।
पुरुषं शाश्वतं िदव्यमािददे वमजं िवभुम ् ॥१०- १२॥
आप ही परम ॄह्म हैं , आप ही परम धाम हैं , आप ही परम पिवऽ हैं , आप ही िदव्य शाश्वत पुरुष
हैं , आप ही हे िवभु आिद दे व हैं , अजम हैं ।
आहुःत्वामृषयः सवेर् दे विषर्नार्रदःतथा ।
अिसतो दे वलो व्यासः ःवयं चैव ॄवीिष मे ॥१०- १३॥
सभी ऋिष, दे विषर् नारद, अिसत, व्याल, व्यास जी आपको ऍसे ही बताते हैं । यहाँ तक की ःवयं
आपने भी मुझ से यही कहा है ।
यच्चािप सवर्भत
ू ानां बीजं तदहमजुन
र् ।
न तदिःत िवना यत्ःयान्मया भूतं चराचरम ् ॥१०- ३९॥
र् , उन सबका बीज मैं हूँ । ऍसा कोई भी चर अचर (चलने या न चलने
िजतने भी जीव हैं हे अजुन
वाला) जीव नहीं है जो मेरे िबना हो ।
अजुन
र् उवाच
मदनुमहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंिज्ञतम ् ।
यत्त्वयोक्तं वचःतेन मोहोऽयं िवगतो मम ॥११- १॥
मुझ पर अनुमह कर आपने यह परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान जो मुझे बताया, आपके इन वचनों से
मेरा मोह (अन्धकार) चला गया है ।
ौीभगवानुवाच
पँय मे पाथर् रूपािण शतशोऽथ सहॐशः ।
नानािवधािन िदव्यािन नानावणार्कृतीिन च ॥११- ५॥
हे पाथर्, तुम मेरे रुपों का दशर्न करो । सैंकड़ों, हज़ारों, िभन्न िभन्न ूकार के, िदव्य, िभन्न िभन्न
वणोर्ं और आकृ ितयों वाले ।
पँयािदत्यान्वसूुि
ु ानिश्वनौ मरुतःतथा ।
बहून्यदृष्टपूवार्िण पँयाश्चयार्िण भारत ॥११- ६॥
हे भारत, तुम आिदत्यों, वसुओं, रुिों, अिश्वनों, और मरुदों को दे खो । और बहुत से पहले कभी
न दे खे गये आश्चयोर्ं को भी दे खो ।
इहै कःथं जगत्कृ त्ःनं पँयाद्य सचराचरम ् ।
मम दे हे गुडाकेश यच्चान्यद् िष्टु िमच्छिस ॥११- ७॥
हे गुडाकेश, तुम मेरी दे ह में एक जगह िःथत इस संपूणर् चर-अचर जगत को दे खो । और भी जो
कुछ तुम्हे दे खने की इच्छा हो, वह तुम मेरी इस दे ह सकते हो ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हिरः ।
दशर्यामास पाथार्य परमं रूपमैश्वरम ् ॥११- ९॥
यह बोलने के बाद, हे राजन, महायोगेश्वर हिरः ने पाथर् को अपने परम ऍश्वयर्मयी रुप का दशर्न
कराया ।
अनेकवक्ऽनयनमनेकाद्भत
ु दशर्नम ् ।
अनेकिदव्याभरणं िदव्यानेकोद्यतायुधम ् ॥११- १०॥
र् ने दे खा िक भगवान के अनेक मुख हैं , अनेक नेऽ हैं , अनेक अद्भत
अजुन ु दशर्न (रुप) हैं । उन्होंने
अनेक िदव्य अभुषण पहने हुये हैं , और अनेकों िदव्य आयुध (शस्तर्) धारण िकये हुये हैं ।
िदव्यमाल्याम्बरधरं िदव्यगन्धानुलेपनम ् ।
सवार्श्चयर्मयं दे वमनन्तं िवश्वतोमुखम ् ॥११- ११॥
उन्होंने िदव्य मालायें और िदव्य वस्तर् धारण िकये हुये हैं , िदव्य गन्धों से िलिपत हैं । सवर् ऍश्वयर्मयी
वे दे व अनन्त रुप हैं , िवश्व रुप (हर ओर िःथत) हैं ।
िदिव सूयस
र् हॐःय भवेद्युगपदिु त्थता ।
यिद भाः सदृशी सा ःयाद्भासःतःय महात्मनः ॥११- १२॥
यिद आकाश में हज़ार (सहॐ) सूयर् भी एक साथ उदय हो जायें, शायद ही वे उन महात्मा के समान
ूकाशमयी हो पायें ।
तऽैकःथं जगत्कृ त्ःनं ूिवभक्तमनेकधा ।
अपँयद्दे वदे वःय शरीरे पाण्डवःतदा ॥११- १३॥
तब पाण्डव (अजुन
र् ) ने उन दे वों के दे व, भगवान ् हिर के शरीर में एक ःथान पर िःथत, अनेक
िवभागों में बंटे संपूणर् संसार (कृ त्ःन जगत) को दे खा ।
अजुन
र् उवाच
पँयािम दे वांःतव दे व दे हे सवार्ंःतथा भूतिवशेषसंघान ् ।
ॄह्माणमीशं कमलासनःथमृषींश्च सवार्नरु गांश्च िदव्यान ् ॥११- १५॥
हे दे व, मुझे आप के दे ह में सभी दे वता और अन्य समःत जीव समूह, कमल आसन पर िःथत
ॄह्मा ईश्वर, सभी ऋिष, और िदव्य सपर् िदख रहे हैं ।
संजय उवाच
एतच्छर्ुत्वा वचनं केशवःय कृ ताञ्जिलवेर्पमानः िकरीटी ।
नमःकृ त्वा भूय एवाह कृ ंणं सगद्गदं भीतभीतः ूणम्य ॥११- ३५॥
ौी केशव के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अजुन
र् ने हाथ जोड़ कर ौी कृ ंण को नमःकार
िकया और काँपते हुये भयभीत हृदय से िफरसे ूणाम करते हुये बोले ।
अजुन
र् उवाच
ःथाने हृषीकेश तव ूकीत्यार् जगत्ूहृंयत्यनुरज्यते च ।
रक्षांिस भीतािन िदशो िविन्त सवेर् नमःयिन्त च िसद्धसंघाः ॥११- ३६॥
यह योग्य है , हे हृषीकेश, िक यह जगत आप की कीतीर् का गुणगान कर हिषर्त होतै है और
अनुरािगत (ूेम युक्त) होता है । आप से भयभीत हो कर राक्षस हर िदशाओं में भाग रहे हैं और
सभी िसद्ध गण आपको नमःकार कर रहे हैं ।
कःमाच्च ते न नमेरन्महात्मन ् गरीयसे ॄह्मणोऽप्यािदकऽेर् ।
अनन्त दे वेश जगिन्नवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत ् ॥११- ३७॥
और हे महात्मा, आपको नमःकार करें भी क्यों नहीं । आप ही सबसे बढकर हैं , ॄह्मा जी के भी
आिद कतार् हैं (ॄह्मा जी के भी आिद हैं ) । आप ही अनन्त हैं , दे व-ईश हैं , जगत ्-िनवास हैं । आप
ही अक्षर हैं , आप ही सत ् और असत ् हैं , और उन संज्ञाओं से भी परे जो है वह भी आप ही हैं
।
वायुयम
र् ोऽिग्नवर्रुणः शशाङ्कः ूजापितःत्वं ूिपतामहश्च ।
नमो नमःतेऽःतु सहॐकृ त्वः पुनश्च भूयोऽिप नमो नमःते ॥११- ३९॥
आप ही वायु हैं , आप ही यम हैं , आप ही अिग्न हैं , आप ही वरुण (जल दे वता) हैं , आप ही चन्ि
हैं , ूजापित भी आप ही हैं , और ूिपतामहा (िपतामह अथार्त िपता-के-िपता के भी िपता) भी आप
हैं । आप को नमःकार है , नमःकार है , सहॐ (हज़ार) बार मैं आपको नमःकार करता हूँ । और
िफर से आपको नमःकार है , नमःकार है ।
संजय उवाच
इत्यजुन
र् ं वासुदेवःतथोक्त्वा ःवकं रूपं दशर्यामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुमह
र् ात्मा ॥११- ५०॥
अजुन
र् को यह कह कर वासुदेव ने िफर से उन्हें अपने (सौम्य) रुप के दशर्न कराये । इस ूकार
र् को अपना सौम्य रूप िदखा कर आश्वासन िदया
उन महात्मा (भगवान ्) ने भयभीत हुये अजुन
।
अजुन
र् उवाच
दृंट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनादर् न ।
इदानीमिःम संवत्त
ृ ः सचेताः ूकृ ितं गतः ॥११- ५१॥
हे जनादर् न, आपके इस सौम्य (मधुर) मानुष रूप को दे ख कर शान्तिचत्त हो कर अपनी ूकृ ित
को ूाप्त हो गया हूँ (अथार्त अब मेरी सुध बुध वािपस आ गई है ) ।
ौीभगवानुवाच
सुदद
ु र् शिर् मदं रूपं दृष्टवानिस यन्मम ।
दे वा अप्यःय रूपःय िनत्यं दशर्नकािङ्क्षणः ॥११- ५२॥
मेरा यह रूप जो तुमने दे खा है , इसे दे ख पाना अत्यन्त किठन (अित दल र् ) है । इसे दे खने की
ु भ
दे वता भी सदा कामना करते हैं ।
अजुन
र् उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्ताःत्वां पयुप
र् ासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगिवत्तमाः ॥१२- १॥
दोनों में से कौन उत्तम हैं - जो भक्त सदा आपकी भिक्त युक्त रह कर आप की उपासना करते हैं ,
और जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं ।
ौीभगवानुवाच
मय्यावेँय मनो ये मां िनत्ययुक्ता उपासते ।
ौद्धया परयोपेताःते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥
जो भक्त मुझ में मन को लगा कर िनरन्तर ौद्धा से मेरी उपासना करते हैं , वे मेरे मत में उत्तम
हैं ।
क्लेशोऽिधकतरःतेषामव्यक्तासक्तचेतसाम ् ।
अव्यक्ता िह गितदर् ःु खं दे हविद्भरवाप्यते ॥१२- ५॥
लेिकन उन के पथ में किठनाई एयादा है , जो अव्यक्त में िचत्त लगाने में आसक्त हैं क्योंिक दे ह
धािरयों के िलये अव्यक्त को ूाप्त करना किठन है ।
अभ्यासेऽप्यसमथोर्ऽिस मत्कमर्परमो भव ।
मदथर्मिप कमार्िण कुवर्िन्सिद्धमवाप्ःयिस ॥१२- १०॥
और यिद तुम मुझ में िचत्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमथर् हो, तो मेरे िलये ही कमर्
करने की ठानो । इस ूकार, मेरे ही िलये कमर् करते हुये तुम िसिद्ध (योग िसिद्ध) ूाप्त कर लोगे
।
ये तु धम्यार्मत
ृ िमदं यथोक्तं पयुप
र् ासते ।
ौद्दधाना मत्परमा भक्ताःतेऽतीव मे िूयाः ॥१२- २०॥
और जो ौद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लआय मानते) हुये, इस बताये गये धमर् अमृत
की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं ), ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) िूय हैं
।
ौीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेऽिमत्यिभधीयते ।
एतद्यो वेित्त तं ूाहुः क्षेऽज्ञ इित तिद्वदः ॥१३- १॥
इस शरीर को, हे कौन्तेय, क्षेऽ कहा जाता है । और ज्ञानी लोग इस क्षेऽ को जो जानता है उसे
क्षेऽज्ञ कहते हैं ।
असिक्तरनिभंवङ्गः पुऽदारगृहािदषु ।
िनत्यं च समिचत्तत्विमष्टािनष्टोपपित्तषु ॥१३- ९॥
आसिक्त से मुक्त रहना (संग रिहत रहना), पुऽ, पत्नी और गृह आिद को ःवयं से जुड़ा न दे खना
(ऐकात्मता का भाव न होना), इष्ट (िूय) और अिनष्ट (अिूय) का ूािप्त में िचत्त का सदा एक
सा रहना ।
अध्यात्मज्ञानिनत्यत्वं तत्त्वज्ञानाथर्दशर्नम ् ।
एतज्ज्ञानिमित ूोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३- ११॥
सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना, तत्त्व (सार) का ज्ञान होना, और अपनी भलाई (अथर् अथार्त
भगवात ् ूािप्त िजसे परमाथर् - परम अथर् कहा जाता है ) को दे खना, इस सब को ज्ञान कहा गया
है , और बाकी सब अज्ञान है ।
सवेर्िन्ियगुणाभासं सवेर्िन्ियिवविजर्तम ् ।
असक्तं सवर्भच्
ृ चैव िनगुण
र् ं गुणभोक्तृ च ॥१३- १४॥
वह सभी इिन्ियों से विजर्त होते हुये सभी इिन्ियों और गुणों को आभास करता है । वह असक्त
होते हुये भी सभी का भरण पोषण करता है । िनगुण
र् होते हुये भी सभी गुणों को भोक्ता है ।
अनािदत्वािन्नगुण
र् त्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरःथोऽिप कौन्तेय न करोित न िलप्यते ॥१३- ३१॥
हे कौन्तेय, जीवात्मा अनािद और िनगुण
र् होने के कारण िवकारहीन (अव्यय) परमात्मा तत्व ही
है । यह शरीर में िःथत होते हुये भी न कुछ करती है और न ही िलपती है ।