Professional Documents
Culture Documents
Sanskrit
Sanskrit
आकण्याा िस्तु पतं िलमभूत्तन्नाररकेलान्तरं प्रायः कण्टपकतं तर्ैव िनसं िातं पद्वधोवाारकम् |
आस्तेऽधोमुखमेव कादलमलं द्राक्षार्फलं क्षुद्रतां श्यामत्वं बत िाम्बवं गतमहो मात्सया दोषापदह ||
र्फळांचा रािा असणाऱ्या आं ब्याची स्तु ती ऐकून..
नारळाच्या िोटात [मनात] िाणी झालं .
र्फणसाच्या अंगावर काटा उभा रापहला.
उं ब्राचं र्फळ तर र्फुटलंच.
केळ्यानी मानच खाली घातली.
द्राक्ष काळिट तर िडलीच आपण लहानही झाली.
िां भूळ [हेव्यानी] िां भळ िडलं .
हे सगळं मत्सरामुळे बरं .!
अर्ा- नैराश्यात धीर दे णारा सूयाासारखा तेिस्वी, दु ःखाच्या आगीत चंद्रासारखा शीतल आणी चुकलेल्या वाटे वर
दीिस्तं भासारखा मागा दशा क ...त्याला खरा पमत्र म्हणावे ...
05/02/2017, 10:14 - Supantha Bhattacharyya A+: गते शोको न कता व्यो भपवष्यं
नैव पचन्तये त् ।
वता मानेन काले न वतायन्तन्त पवचक्षणाः॥
One should not mourn over the past and should not remain worried
about the future. The wise operate in present.
कष्टस्य सुखस्य नकोपि दाता nobody gives sorrow or joy, they are both states
of mind.
नास्तेव्य तन्तस्मन तत्सु खसुन्तखतम in profane love happiness does not consist in
the happiness of others.
घना अंधकार र्फैल रहा हो, ऑंधी पसर िर बह रही हो तो हम िो पदया िलाएं , उसकी दीवट सत्य की हो,
उसमें ते ल ति का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। समाि में र्फैले अंधकार को नष्ट करने के
पलए ऐसा ही दीि प्रज्जवपलत करने की आवश्यकता है । आि सभी को इस दीिो के त्यौहार की शु भकामनाये ,
शु भ दीिावली!! आि को और सभी िररवार को दीिावली की ढे र सारी शुभकामनाये !
पतलवन्तिग्धं मनोऽस्तु वाण्यां गुडवन्माधुयां पतलगु ललड् डुकवत् सम्बन्धे अस्तु सुवृत्तत्वम्
अस्तु पवचारे शु भसङ्क्िमणं मङ्गलाय यशसे कल्याणी सङ्क्िापतरस्तु व: सदाहमाशासे ||
भावार्ा - मनुष्य का आभूषण उसका रूि होता है , रूि का आभूषण गु ण होता है , गु ण का आभूषण ज्ञान
होता है और ज्ञान का आभूषण क्षमा होता है ।
अर्ाा त् रूिवान् होना भी तभी सार्ाक है िब सच्चे गु ण, सच्चा ज्ञान और क्षमा मनुष्य के भीतर हो l
04/05/2017, 13:27 - Supantha Bhattacharyya A+: क: काल: कापन पमत्रापण को
दे श: को व्ययागमौ |
कस्याहं का च मे शन्तक्त: इपत पचन्त्यं मुहुमुाहु: ||
चाणक्य के अनुसार, मनुष्य को कुछ महत्विूणा बातों का ध्यान रखना चापहए। हमारा समय कैसा चल रहा है ,
कौन हमारा पमत्र और कौन हमारा शत्रु है , हमारा पनवास-स्र्ान कैसा है , हमारी आय और व्यय पकतना है ,
हमारी शन्तक्त पकतनी है - ये सब बाते ही मनुष्य के पचं तन और मनन का केंद्रपबंदु होनी चापहए। इन्हें ध्यान में
रखकर आचरण करनेवाला मनुष्य िीवन में कभी असर्फलता का मुख नहीं दे खता।
```पिस तरह सूया प्रकाश दे ता है, संवेदना करणा को िन्म दे ती है , िुष्प सदै व महकता रहता है , उसी तरह यह
नूतन वषा आिके पलए हर पदन, हर िल के पलए मंगलमय हो।```
आकण्याा िस्तु पतं िलमभूत्तन्नाररकेलान्तरं प्रायः कण्टपकतं तर्ैव िनसं िातं पद्वधोवाारकम् |
आस्तेऽधोमुखमेव कादलमलं द्राक्षार्फलं क्षुद्रतां श्यामत्वं बत िाम्बवं गतमहो मात्सया दोषापदह ||
र्फळांचा रािा असणाऱ्या आं ब्याची स्तु ती ऐकून नारळाच्या िोटात / [मनात] िाणी झालं . र्फणसाच्या अंगावर
काटा उभा रापहला. उं ब्राचं र्फळ तर र्फुटलंच. केळ्यानी मानच खाली घातली. द्राक्ष काळिट तर िडलीच
आपण लहानही झाली. िांभूळ [हे व्यानी] िां भळ िडलं . हे सगळं मत्सरामुळे बरं !
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडले न , दानेन िापणना तु कंकणेन , पवभापत कायः करणािराणां , िरोिकारै ना तु चन्दनेन ||
अर्ाा त् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हार् दान करने से सुशोपभत
होते हैं न पक कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यन्तक्तयों का शरीर चन्दन से नहीं बन्ति दू सरों का पहत करने से
शोभा िाता है |
शु भम करोपत कल्याणम,
अरोग्यम धन संिदा,
शत्रु -बु न्तद्ध पवनाशायः,
दीिःज्योपत नमोस्तु ते !