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श्री मच्छङ्कराचार्य विरचचतं श्री कालिकाष्टकं

कालिका नामो हि धमाा


कालिका सेवा हि धमाा
कालिका हि सवात्र
कालिका हि सवास्व

सज्जा एवं संकिन: रमा कान्त लसंि (Devotional Manav)

॥ ा र तं प की प्रस्ततत॥
॥ सादर आभार – श्री महें द्र लसंह, श्री पखराज मेिाड़ा, श्री संजर् D जो ी, श्रीमती मीनाक्षी लसंह ॥
श्री मच्छङ्कराचार्य विरचचतं श्री कालिकाष्टकं

श्री मच्छङ्कराचार्य विरचचतं श्री कालिकाष्टकं

॥ध्र्ानम ्॥

गिद्रक्तमण्डाििीकण्ठमािा महाघोररािा सदं ष्रा करािा ।


वििस् ा श्म ानािर्ा मक्तके ी महाकािकामाकिा कालिकेर्म ् ॥१॥

ये भगवती कालिका गिे में रक्त टपकते िुए मुण्ड समूिों की मािा िैं, ये अत्यन्त घोर शब्द कर रिी िैं, इनकी
सन्
ु दर दाढें िैं तथा स्वरुप भयानक िै, ये वस्त्ररहित िैं ये श्मशानमें ननवास करती िैं, इनके केश बिखरे िुए िैं
और ये मिाकािके साथ कामिीिा में ननरत िैं ॥१॥

भजे िामर्ग्मे ल रोsलसं दधाना िरं दक्षर्ग्मेsभर्ं िै तथैि ।


समध्र्ाsवप तङ्गस्तनाभारनम्रा िसद्रक्तसक्
ृ कद्िर्ा सस्स्मतास्र्ा ॥२॥
ये अपने दोनों िाएं िाथों में नरमण्
ु ड और खड्ग धारण ककये िुए िैं तथा अपने दोनों दाहिने िाथों में वर और
अभयमद्र
ु ा धारण ककये िुये िैं । ये सन्
ु दर कहटप्रदे शवािी िै , ये उन्नत स्तनोंके भारसे झक
ु ी िुई सी िैं इनके
ओष्ठ द्वयका प्रान्त भाग रक्त से सश
ु ोलभत िै और इनका मख
ु -मण्डि मधरु मस्
ु कानसे यक्
ु त िै ॥२॥

िद्िन्दद्िकर्ायितंसा सके ी िसत्प्प्रेतपाणर्ं प्रर्क्तैककाञ्ची ।


िाकारमञ्चाचधरूढा ल िालभ-श्चतर्दय क्ष ब्दार्मानाsलभरे जे ॥३॥

इनके दोनों कानों में दो शवरूपी आभष


ू ण िैं, ये सन्
ु दर केशवािी िैं, शवों से िनी सश
ु ोलभत करधनी धारण ककये
िुए िैं, शवरूपी मंचपर ये आसीन िैं और चारों हदशाओं में भयानक शब्द करती िुई लशवा शक्क्तयों से नघरी िुई
सुशोलभत िैं ॥३॥

॥स्ततत:॥

विरञ्च्र्ार्ददे िास् र्स्ते गर्ांस् ीन ् समाराध्र् कािीं प्रधाना भूि: ।


॥ ा र तं प की प्रस्ततत॥
॥ सादर आभार – श्री महें द्र लसंह, श्री पखराज मेिाड़ा, श्री संजर् D जो ी, श्रीमती मीनाक्षी लसंह ॥
श्री मच्छङ्कराचार्य विरचचतं श्री कालिकाष्टकं

अनार्दं सरार्दं मखार्दं भिार्दं स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥४॥

ब्रह्मा आहद तीनों दे वता आपके तीनों गुणोंका आश्रय िेकर तथा आप भगवती कािी की िी आराधना कर
प्रधान िुए िैं । आपका स्वरूप आद्य िै , दे वताओंमें अग्रगण्य िै तथा आप प्रधान यज्ञ स्वरूप िैं और ववश्व का
मूि िैं, आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥४॥

जगन्दमोहनीर्ं त िाग्िार्दनीर्ं सहृत्प्पोविर्ी संहारर्ीर्म ् ।


िचस्तम्भनीर्ं ककमच्चाटनीर्ं स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥५॥

आपका यि स्वरूप सारे ववश्वको मुग्ध करनेवािा िै , वाणीद्वारा स्तुनत ककये जानेयोग्य िै , आप ननज दास का
सि भांनत पोषण करने वािी तथा शत्रओ
ु ं का संिार करने वािी िैं, आपकी कृपा से शत्रग
ु ण की वाणी का
स्तम्भन एवं उच्चाटन िो जाता िै, आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥५॥

इर्ं स्िगयदा ी पन: कल्पिल्िी मनोजांस्त कामान्दर्थाथं प्रकर्ायत ् ।


तथा ते कृताथाय भिन्दतीतत तनत्प्र्ं स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥६॥

आप स्वगा को दे नेवािी और कल्पिताके समान िैं । और भक्तोंके मनमें उत्पन्न िोने वािी कामनाऔं को
यथाथा रूप में पूणा करने वािी िैं । और वे आपकी कृपा प्राप्त कर सदाके लिये कृताथा िो जाते िैं, आपके इस
स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥६॥

सरापानमत्प्ता सभक्तानरक्ता िसत्प्पूतचचत्प्ते सदाविभयित्प्ते ।


जपध्र्ानपूजासधाधौतपङ्का स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥७॥

आप सुरापनसे मत्त रिती िैं और अपने भक्तोंपर सदा स्नेि रखती िैं । भक्तोंके मनोिर तथा पववत्र हृदयमें िी
सदा आपका आववभााव िोता िै । जप, ध्यान तथा पूजारूपी अमत
ृ से आप भक्तोंके अज्ञानरूपी पंक (कीचड /
गन्दगी ) को धो डािनेवािी िैं, आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥७॥

चचदानन्ददकन्ददं हसन्दमन्ददमन्ददं रच्चन्दद्रकोर्टप्रभापञ्जब म् ं ।


मनीनां किीनां हृर्द द्र्ोतर्न्दतं स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा:॥८॥

आपका स्वरूप चचदानन्द, मन्द-मन्द मुसकान से युक्त, शरत्कािीन करोडों चन्द्रमाके प्रभासमूिके प्रनतबिम्ि-

॥ ा र तं प की प्रस्ततत॥
॥ सादर आभार – श्री महें द्र लसंह, श्री पखराज मेिाड़ा, श्री संजर् D जो ी, श्रीमती मीनाक्षी लसंह ॥
श्री मच्छङ्कराचार्य विरचचतं श्री कालिकाष्टकं

सदृश और मुननयों तथा कववयोंके हृदयको प्रकालशत करनेवािा िै , आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते
॥८॥

महामेघकािी सरक्तावप भ्रा कदाचचद्विचच ाकृततर्ोगमार्ा ।


न ािा न िद्ध
ृ ा न कामातरावप स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥९॥
आप प्रियकािीन घटाओंके समान कृष्णवणाा िैं आप कभी रक्तवणावािी तथा कभी उज्ज्विवणावािी भी िैं ।
आप ववचचत्र आकृनतवािी तथा योगमायास्वरूवपणी िैं आप न िािा िैं, न िी वद्ध
ृ ा और न कामातुरा युवती िी िैं,
आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥९॥

क्षमस्िापराधं महागप्तभािं मर्ा िोकमध्र्े प्रका ीकृतं र्त ् ।


ति ध्र्ानपूतेन चापल्र्भािात ् स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥१०॥

आपके ध्यान से पववत्र िोकर चंचितावश इस अत्यन्त गुप्तभावको जो मैंने संसारमें प्रकट कर हदया िै , मेरे इस
अपराधको आप क्षमा करें , आपके इस स्वरूपको दे वता भी निीं जानते ॥१०॥

॥फिश्रतत:॥

र्र्द ध्र्ानर्क्तं पठे द्र्ो मनष्र्-स्तदा सियिोके वि ािो भिेच्च ।


गह
ृ े चाष्टलसवद्धमत
यृ े चावप मस्क्त: स्िरूपं त्प्िदीर्ं न विन्ददस्न्दत दे िा: ॥११॥

यहद कोई मनुष्य ध्यानयुक्त िोकर सदै व इस स्तोत्र का पाठ करता िै , तो वि सारे िोकोंमे मिान ् िो जाता िै
उसे अपने घरमें आठों लसवद्धयााँ प्राप्त रिती िैं और मरणोपरांत मुक्क्त प्राप्त िोती िै , आपके इस स्वरूपको
दे वता भी निीं जानते ॥११॥

॥ इतत श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचचतं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्म


य ्॥

जय मााँ सवेश्वरी

॥ ा र तं प की प्रस्ततत॥
॥ सादर आभार – श्री महें द्र लसंह, श्री पखराज मेिाड़ा, श्री संजर् D जो ी, श्रीमती मीनाक्षी लसंह ॥

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