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अरुन्धतीदर्शनन्याय - ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना

र्ाखाचंद्रन्याय -
काकतलीयन्याय -
अजाकृषाणीन्याय -
अन्धचटकन्याय - अन्धे के हाथ बटेर लगना
अन्धगजन्याय - अन्धा और हाथी
अन्धगालांलन्याय - अन्धा और गाय की पूँछ
अन्धपंगुन्याय - अन्धा और लंगडा
अन्धदपशणन्याय - अन्धा और दपपण
नष्टाश्वदग्धरथन्यास - नष्ट अश्व और जला हुआ रथ
अन्धपरम्परान्याय - अन्ध परम्परा
अरण्यरोदनन्याय - वन में रोना
स्थूणाननखनन्याय - खूँटे को हहलाकर पक्का करना
अधशकुक्कुटीन्याय - आधी मगु ी खाने के हलये, आधी अण्डे देने के हलये
अर्ोकवननकान्याय - अशोक वाहटका न्याय (सीता को अशोक वाहटका में ही क्यों रखा?)
अश्मलोष्टन्याय - पत्थर से ईटं (ढेला) नरम होता है। यह न्याय यह दशापने के हलये उपयक्त
ु होता है हक शेर को भी कभी 'सवा शेर'
हमल जाता है। रूई की अपेक्षा ढेला बहुत कठोर है हकन्तु पत्थर उससे भी अहधक कठोर होता है।
दृषनदनष्टकान्याय -
कण्ठचामीकरन्याय - गले में जेवर का न्याय
कदम्बकोरक (कदम्बगोलक) न्याय - कदम्ब की कली का न्याय ; यह न्याय तब उपयक्त ु होता है जब उदय के साथ ही हवकास
आरम्भ हो जाय। ज्ञातब्य है हक कदम्ब का कली/फल से फल बनने की प्रहिया एकसाथ ही होती है।
कफोणीगुडन्याय - कोहनी पर लगे गडु का न्याय (चाट भी नहीं सकते)
कम्बलननणेजनन्याय - कंबल धोने का न्याय (काम कुछ, पररणाम कुछ और)
काकदन्तपरीक्षान्याय (काकदन्तगवेषणन्याय) - कौवे के दांत हगनना (ब्यथप का काम करना)
काकानक्षगोलकन्याय - कौवे के आंख के गोलक का न्याय (दो हभन्न अथप सहचत करने वाले शब्द या शब्द-समह)
कूपखानकन्याय - कुआूँ खोदने वाले का न्याय (अंगों पर हमट्टी लगी हो तो भी कुएं से पानी हनकलने पर धो सकते है)
कूपमण्डूकन्याय - कुएं का मेढक (हजसकी सोच सीहमत और सक ं ु हचत हो)
कूपयन्रघनटकान्याय - रहट की बाल्टी (घहटका) का न्याय
खलेकपोतन्याय - खहलहान पर कबतर (एक साथ धावा बोलते हैं)
गडु नजनहिकान्याय - गडु और जीभ (मीठा लेप की हुई औषहध)
घट्टकुटीप्रभातन्याय - चंगु ी नाके की प्रभात
घुणाक्षरन्याय - दीमक और अक्षर का न्याय (दीमक के काटने से अक्षर बनना)
चोरापराधेमाण्डहयदण्डन्याय - चोर करे अपराध और सन्ं यासी को फासं ी
तमोदीपन्याय - अंधेरे को देखने के हलये दीया (दीप)
देिलीदीपन्याय - दहलीज पर रखा हुआ दीया
तष्ु यतदु ु जशनन्याय - दजु पनों का तष्टु ीकरण
तृणजलौकान्याय - घास और जोंक का न्याय
दण्डापूपन्याय - लकडी पर लगी हमठाई (लकडी के साथ ही गई)
क्षीरनीरन्याय x नतलतण्डुलन्याय (िस ं क्षीरन्याय) - दध का दध, पानी का पानी
नवषकृनमन्याय - हवष के कृ हम (हवष में ही हजंदा रहते हैं)
स्वानमभृत्यन्याय - माहलक और नौकर (संबंध)
वीनचतरंन्याय - लहरों से लहर पैदा होती है।
वृध्दकुमारीवाक्य (वर) न्याय - वृद्ध कुमारी का वाक्य (प्रस्ताव)
सूचीकटािन्याय - सईु और कडाही
नपृ नानपतन्याय - राजा और नाई
नपष्टपेषणन्याय - आटे को पीसना (से क्या लाभ?)
प्रधानमल्लननबशिणन्याय - मख्ु य योद्धा (मल्ल) का हार जाना
मण्डूकप्लुनतन्याय - मेंढक की छलांग
वटे यक्षन्याय - बरगद का भत (सनु ी-सनु ाई बात)
समुद्रतरंग्न्याय - समद्रु और तरंग (एक ही चीज के रूप)
स्थालीपुलाकन्याय - पके भात की परीक्षा के हलये एक दाने की परीक्षा ही काफी है।
• (१) अजाकृपाणीय न्याय—कहीं तलवार लटकती थी, नीचे से बकरा गया और वह सयं ोग से उसकी गदपन पर हगर पडी। ी़
जहाूँ दैवसयं ोग से कोई हवपहि आ पड़ती है वहाूँ इसका व्यवहार होता है।
• (२) अजातपुरनामोत्कीतशन न्याय—अथापत् पत्रु न होने पर भी नामकरण होने का न्याय। जहाूँ कोई बात होने पर भी आशा
के सहारे लोग अनेक प्रकार के आयोजन बाूँधने लगते हैं वहाूँ यह कहा जाता है।
• (३) अध्यारोप न्याय—जो वस्तु जैसी न हो उसमें वैसे होने का (जैसे रज्जु मे सपप हीने का) आरोप। वेदांत की पस्ु तकों में
इसका व्यवहार हमलता है।
• (४) अंधकूपपतन न्याय—हकसी भले आदमी ने अंधे को रास्ता बतला हदया और वह चला, पर जाते जाते कएूँ में हगर पडा। ी़
जब हकसी अनहधकारी को कोई उपदेश हदया जाता है और वह उसपर चलकर अपने अज्ञान आहद के कारण चक जाता है या
अपनी हाहन कर बैठता है तब यह कहा जाता है।
• (५) अंधगज न्याय—कई जन्मांधों ने हाथी कै सा होता है यह देखने के हलये हाथी को टठोला। हजसने जो अंग टटोल पाया
उसने हाथी का आकार उसी अंग का सा समझा। हजसने पूँछ टटोली उसने रस्सी के आकार का, हजसने पैर टटोला उसने खंभे
के आकार रस्सी के आकार का, हजसने पैर टटोला उसने खभं े के आकार का समझा। हकसी हवषय के पणु प अंग का ज्ञान न होने
पर उसके सबं धं में जब अपनी अपनी समझ के अनसु ार हभन्न हभन्न बाते कही जाती हैं तब इस उहक्त का प्रयोग करते हैं।
• (६) अंधगोलांगूल न्याय—एक अंधा अपने घर के रास्ते से भटक गया था। हकसी ने उसके हाथ में गाय की पूँछ पकडाकर ी़
कह हदया हक यह तम्ु हें तम्ु हारे स्थान पर पहुचूँ ा देगी। गाय के इधर उधर दौड़ने से अधं ा अपने घर तो पहुचूँ ा नहीं, कष्ट उसने भले
ही पाया। हकसी दष्टु या मखप के उपदेश पर काम करके जब कोई कष्ट या दुःु ख उठाता है तब यह कहा जाता है।
• (७) अंधचटक न्याय—अधं े के हाथ बटेर।
• (८) अंधपरंपरा न्याय—जब कोई परुु ष हकसी को कोई काम करते देखकर आप भी वही काम करने लगे तब वहाूँ यह कहा
जाता है।
• (९) अंधपंगु न्याय—एक ही स्थान पर जानेवाला एक अंधा और एक लूँगडा यहद ी़ हमल जायूँ तो एक दसु रे की सहायता से
दोनों वहाूँ पहुचूँ सकते हैं। सांख्य में जड़ प्रकृ हत और चेतन परुु ष के संयोग से सृहष्ट होने के दृष्टांत में यह उहक्त कही गई है।
• (१०) अपवाद न्याय—हजस प्रकार हकसी वस्तु के संबंध में ज्ञान हो जाने से भ्रम नहीं रह जाता उसी प्रकार। (वेदांत)।
• (११) अपराह्नच्छाया न्याय— हजस प्रकार दोपहर की छाया बराबर बढती जाती है उसी प्रकार सज्जनों की प्रीहत आहद के
सबं धं में यह न्याय कहा जाता है।
• (१२) अपसाररतानिभूतल न्याय— जमीन पर से आग हटा लेने पर भी हजस प्रकार कुछ देर तक जमीन गरम रहतौ है उसी
प्रकार धनी धन के न रह जाने पर भी कृ छ हदनों तक अपनी अकड रखता है।
• (१३) अरण्यरोदन न्याय— जंगल में रोने के समान बात। जहाूँ कहने पर कोई ध्यान देनेवाला न हो वहाूँ इसका प्रयोग होता
है।
• (१४) अकश मधु न्याय— यहद मदार से ही मधु हमल जाय तो उसके हलये अहधक पररश्रम व्यथप है। जो कायप सहज में हो उसके
हलये इधर उधर वहूत श्रम करने की आवश्यकता नहीं।
• (१५) अर्द्शजरतीय न्याय— एर ब्राह्मण देवता अथपकष्ट से दुःु ख हो हनत्य अपनी गाय लेकर बाजार में बेचने जाते पर वह न
हबकती। बात यह थई हक अवस्था पछने पर वे उसकी बहुत अवस्था बतलाते थे। एक हदन एक आदमी ने उनेस न हबकने का
कारण पछा। ब्राह्णण ने कहा हजस प्रकार आदमी की अवस्था अहधक होने पर उसकी कदर बढ जाती है उसी प्रकार मैंने गाय
के सबं धं में भी समझा था। उसने आगे ऐसा न कहने की सलाह दी। ब्राह्मण ने कोचा हक एक बार गाय को बडु ् ढी कहकर अब
हफर जवान कै से कहू।ूँ अंत में उन्होंने हस्थर हकया हक आत्मा तो बडु ् ढी होती नही देह बडु ् ढी होती है। अतुः इसे मैं 'आधी बडु ् ढी
आधी जवान' कहूगूँ ा। जब हकसी की कोई बात इस पक्ष में भई और उस पक्ष में भी हो तब यह उहक्त कही जाती है।
• (१६) अर्ोकवननका न्याय— अशोक बन में जाने के समान (जहाूँ छाया सौरम आहद सब कुछ प्राप्त हो)। चब हकसी एक
ही स्थान परसब कुछ प्राप्त हो लाय और कहीं जाने की आवश्यकता न हो तब यह कहा जाता है।
• (१७) अश्मलोष्ट न्याय— अथापत् तराज पर रखने के हलये पत्थर तो ढेले से भी भारी है। यह हवषमता सहचत करने के अवसर
पर ही कहा जाता है। जहाूँ दो वस्तओ
ु ं में सापेहक्षकता सहचत करनी होती है। वहाूँ 'पाषाणेहष्टक न्याय' कह जाता है।
• (१८) अस्नेिदीप न्याय— हबना तेल के दीये की सी बात। थोडे ही काल रहनेवाली बात देखकर यड कहा जाता है।
• (१९) अस्नेिदप न्याय— साूँप के कंु डल मारकर बैठने के समान। हकसी स्बाभाहवक बात पर।
• (२०) अनि नकुल न्याय— साूँप नेवले के समान। स्वाभाहवक हवरोध या बैर सहचत करने के हलये।
• (२१) आकार्ापररनच्छन्नत्व न्याय— आकाश के समान अपररहछछन्न।
• (२२) आभ्राणक न्याय—लोकप्रवाद के समान।
• (२३) आम्रवण न्याय—हजस प्रकार हकसी वन में यहद आम के पेड़ अहधक होते हैं तो उसे 'आम का वन' ही कहते हैं, यद्यहप
और भी पेड़ उस वन में रहते हैं, उसी प्रकार जहाूँ औरों को छोड़ प्रधान वस्तु का ही उल्लेख हकया जाता है वहाूँ यह उहक्त कही
जाती है।
• (२४) उत्पानटतदतनाग न्याय—दाूँत तोडेी़ हुए साूँप के समान। कुछ करने धरने या हाहन पहुचूँ ाने में असमथप हुए मनष्ु य के
सबं धं में।
• (२५) उदकननमज्जन न्याय—कोई दोषी है या हनदोष इसकी एक हदव्य परीक्षा प्राचीन काल में प्रचहलत थी। दोषी को पानी
में खडा करके
ी़ हकसी ओर बाणा छोड़ते थे और बाण छोड़ने के साथ ही अहभयक्त ु को तबतक डवे रहने के हलये कहते थे
जबतक वह छोडा हुी़ आ बाण वहाूँ से हफर छटने पर लौट न आवे। यहद इतने बीच में डबनेवाले का कोई अगं बाहर न हदखाई
पडा तो
ी़ उसे हनदेष समझते थे। जाहाूँ सत्या- स्तय की बात आती है वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (२६) उभयतः पार्रज्जु न्याय—जहाूँ दोनों ओर हवपहि हो अथापत् दो कतपव्यपक्षों में से प्रत्येक में दुःु ख हो वहाूँ इसका
व्यवहार होता है। 'साूँप छछूँ दर की गहत'।
• (२७) उष्टूकंटक भक्षण न्याय—हजस प्रकार थोडेी़ से सख
ु के हलये ऊूँट काूँटे खाने का कष्ट उठाता है उसी प्रकार जहाूँ थोडेी़ से
सखु के हलये अहधक कष्ट उठाया जाता है वहाूँ यह कहावत कही जाती है।
• (२८) ऊपरवृनष्ट न्याय—हकसी बात का जहाूँ कोई फल न हो वहाूँ कहा जाता है।
• (२९) कंठचामीकर न्याय—गले में सोने का हार हो और उसे इधर उधर ढढूँता हफरे । आनंदस्वरूप ब्रह्म के अपने में रहते भी
अज्ञानवश सख
ु के हलये अनेक प्रकार के दुःु ख भोगने के दृष्टांत में वेदांती कहते हैं।
• (३०) कदबं गोलक न्याय—हजस प्रकार कदंब के गोले में सब फल एक साथ हो जाते हैं, उसी प्रकार जहाूँ कई बातें एक साथ
हो जाती हैं वहाूँ इसे कहते हैं। कुछ नैयाहयक शब्दो- त्पहि में कई वणों के उछचारण एक साथ मानकर उसके दृष्टांत में यह कहते
हैं। यह भी कहते हैं हक हजस प्रकार कदबं में सब तरफ हकजल्क होते हैं वैसे सब्द जहाूँ उत्पन्न होता है उसके सभी ओर उसकी
तरंगों का प्रसार होता है।
• (३१) कदलीफल न्याय—के ला काटने पर ही फलता है इसी प्रकार नीच सीधे कहने से नहीं सनु ते।
• (३२) कफोननगडु न्याय—सत न कपास जल
ु ाहों से मटकौवल।
• (३३) करकंकण न्याय—'कंकण' कहने से ही हाथ के गहने का बोध हो जाता है, 'कर' कहने की आवश्यकता नहीं। पर कर
कंकण कहते हैं हजसका अथप होता है 'हाथ में पडा हुी़ आ कडा'।ी़ इस प्रकार का जहाूँ अहभप्राय होता है वहाूँ यह न्याय कहा जाता
है।
• (३४) काकतालीय न्याय—हकसी ताड़ के पेड़ के नीचे कोई पहथक लेटा था और ऊपर एक कौवा बैठा था। कौवा हकसी
ओरको उडा औरी़ उसके उड़ने के साथ ही ताड़ का एक पका हुआ फल नीचे हगरा। यद्यहप फल पककर आपसे आप हगरा था
तथाहप पहथक ने दोनों बातों को साथ होते देख यही समझा हक कौवे के उड़ने से ही तालफल हगरा। जहाूँ दो बातें संयोग से इस
प्रकार एक साथ हो जाती हैं वहाूँ उनमें परस्पर कोई संबंध न होते दएु भी लोग संबंध समझ लेते हैं। ऐसा संयोग होने पर यह
कहावत कही जाती है।
• (३५) काकदध्युपघातक न्याय—'कौवे से दही बचाना' कहने से हजस प्रकार 'कुिे, हबल्ली आहद सब जंतओ ु ं से बचाना'
समझ हलया जाता है उसी प्रकार जहाूँ हकसी वाक्य का अहभप्राय होता है वहाूँ यह उहक्त कहीं जाती है।
• (३६) काकदतं गवेषण न्याय—कौवे का दाूँत ढूँढना हनष्फल है अतुः हनष्फल प्रयत्न के सबं धं में यह न्याय कहा जाता है।
• (३७) काकानक्षगोलक न्याय—कहते हैं, कौवे के एक ही पतु ली होती है जो प्रयोजन के अनसु ार कभी इस आूँख में कभी
उस आूँख में जाती है। जहाूँ एक ही वस्तु दो स्थानों में कायप करे वहाूँ के हलये यह कहावत है।
• (३८) कारणगुणप्रक्रम न्याय—कारण का गणु कायप में भी पाया जाता है। जैसे सत का रूप आहद उससे बनु े कपडेी़ में।
• (३९) कुर्कार्ावलंबन न्याय—जैसे डबता हुआ आदमी कुश काूँस जो कुछ पाता है उसी को सहारे के हलये पकड़ता है,
उसी प्रकार जहाूँ कोई दृढ आधार न हमलने पर लोग इधर उधर की बातों का सहारा लेते हैं वहाूँ के हलये यह कहावत है। 'डबते
को हतनके का सहारा' बोलते भी हैं।
• (४०) कूपखानक न्याय—जैसे कआूँ खोदनेवाले की देह में लगा हुआ कीचड़ उसी कएूँ के जल में साफ हो जाता है उसी
प्रकार राम, कृ ष्ण आहद को हभन्न हभन्न रूपों में समझने से ईश्वर में भेद बहु द्ध का जो देष लगता है वह उन्हीं की उपासना द्वारा
ही अद्वैतबहु द्ध हो जाने पर हमट जाता है।
• (४१) कूपमंडूक न्याय—समद्रु का मेढक हकसी कएूँ में जा पडा। ी़ कएूँ कै मेढक ने पछा 'भाई ! तम्ु हारा समद्रु हकतना बडा हैी़ ।'
उसने कहा 'बहुत बडा'।ी़ कएूँ के मेढक ने पछा 'इस कएूँ के इतना बडा'।ी़ समद्रु के मेढक ने कहा 'कहाूँ कआूँ, कहाूँ समद्रु '। समद्रु
से बडी कोई
ी़ वस्तु पृथ्वी पर नहीं। इसपर कएूँ का मेढक जो कएूँ से बडी कोई
ी़ वस्तु जानता ही न था हबगड़कर बोला 'तमु झठे
हो, कएूँ से बडी कोई
ी़ वस्तु हो नहीं सकती'। जहाूँ पररहमत ज्ञान के कारण कोई अपनी जानकारी के ऊपर कोई दसरी बात मानता
ही नहीं वहाूँ के हलये यह उहक्त है।
• (४२) कूमाशग न्याय—हजस प्रकार कछुआ जब चाहता है तब अपने सब अंग भीतर समेट लेता है और जब चाहता है बाहर
करता है उसी प्रकार ईश्वर सृहष्ट और लय करता है।
• (४३) कै मुनतक न्याय—हजसने बडेी़ बडेी़ काम हकए उसे कोई छोटा काम करते क्या लगता है। उसी के दृष्टांत के हलये यह उहक्त
कही जाती है
• (४४) कौंनडन्य न्याय—यह अछछा है पर ऐसा होता तो और भी अछछा होता।
• (४५) गजभक्त
ु कनपत्थ न्याय—हाथी कै खाए हुए कै थ के समान ऊपर से देखने में ठीक पर भीतर भीतर हनुःसार और शन्य।
• (४६) गडुनलकाप्रवाि न्याय—भेहडया धसान।
• (४७) गणपनत न्याय—एक बार देवताओ ं में हववाद चला हक सबमें पज्य कौन है। ब्रह्मा ने कहा जो पृथ्वी की प्रदहक्षणा पहले
कर आवे वही श्रेष्ठ समझा जाय। सब देवता अपने अपने वाहनों पर चले। गणेश जी चहे पर सवार सबके पीछे रहे। इतने में हमले
नारद। उन्होंनें गणेश जी को यहु क्त बताई हक राम नाम हलखकर उसी की प्रदहक्षणा करके चटपट ब्रह्मा के पास पहुचूँ जाओ।
गणपहत ने ऐसा ही हकया और देवताओ ं में वे प्रथम पज्य हुए। इसी से जहाूँ थोडी सी
ी़ यहु क्त से बडी भारी
ी़ बात हो जाय वहाूँ
इसका प्रयोग करते हैं।
• (४८) गतानुगनतक न्याय—कुछ ब्राह्मण एक घाट पर तपपण हकया करते थे। वे अपना अपना कुश एक ही स्थान पर रख देते
थे हजससे एक का कुश दसरा ले लेता था। एक हदन पहचान के हलये एक ने अपने कुश को ईटूँ से दबा हदया। उसकी देखा देखी
दसरे हदन सबने अपने कुश पर ईटं रखी। जहाूँ एक की देखादेखी लोग कोई काम करने लगते हैं वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (४९) गुड़नजनिका न्याय—हजस प्रकार बछचे को कड़वी औषध हखलाने के हलये उसे पहले गड़ु देकर फुसलाते हैं उसी प्रकार
जहाूँ अरुहचकर या कहठन काम कराने के हलये पहले कुछ प्रलोभन हदया जाता है वहाूँ इस उहक्त का प्रयोग होता है।
• (५०) गोवलीरवदश न्याय—'वलीवदप' शब्द का अथप है बैल। जहाूँ यह शब्द गो के साथ हो वहाूँ अथप और भी जल्दी खल

जाता है। ऐसे शब्द जहाूँ एक साथ होते हैं वहाूँ के हलये यह कहावत है।
• (५१) घट्टकुटीप्राभात न्याय—एक बहनया घाट के महसल से बचने के हलये ठीक रास्ता छोड़ ऊबड़खाबड़ स्थानों में रातभर
भटकता रहा पर सबेरा होते होते हफर उसी महसल की छावनी पर पहुचूँ ा और उसे महसल देना पडा। ी़ जहाूँ एक कहठनाई से
बचने के हलये अनेक उपाय हनष्फल हों और अतं में उसी कहठनाई में फूँ सना पडेी़ वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (५२) घटप्रदीप न्याय—धडा अपनेी़ भीतर रखे हुए दीप का प्रकाश बाहर नहीं जाने देता। जहाूँ कोई अपना ही भला चाहता
है दसरे का उपकार नहीं करता यहाूँ यह प्रयक्त
ु होता है।
• (५३) घुणाक्षर न्याय—घनु ों के चालने से लकडी मेंी़ अक्षरों के से आकार बन जाते हैं, यद्यहप घनु इन उद्देश्य से नहीं काटते
हक अक्षर बनें। इसी प्रकार जहाूँ एक काम करने में कोई दसरी बात अनायस हो जाय वहाूँ यह कहा जाता है।
• (५४) चंपकपटवास न्याय—हजस कपडेी़ में चंपे का फल रखा होउसमें फलों के न रहने पर भी बहुत देर तक महूँक रहती है।
इसी प्रकार हवषय भोग का संस्कार भी बहुत काल तक बना रहता है।
• (५५) जलतरंग न्याय—अलग नाम रहने पर भी तरंग जल से हभन्न गणु की नहीं होती। ऐसा ही अभेद सहचत करने के हलये
इस उहक्त का व्यवहार होता है।
• (५६) जलतुंनबका न्याय—(क) तूँबी पानी में नहीं डबती, डुबाने से ऊपर आ जाती है। जहाूँ कोई बात हछपाने से हछपनेवाली
नहीं होती वहाूँ इसे कहते हैं। (ख) तूँबी के ऊपर हमट्टी कीचड़ आहद लपेटकर उसे पानी में डाले तो वह डब जाती है पर कीजड़
धोकर पानी में डालें तो नहीं डबती। इसी प्रकार जीव देहाहद के नलों से यक्त
ु रहने पर संसार सागर में हनमग्न हो जाता है और
मल आहद छटने पर पार हो जाता है।
• (५७) जलानयन न्याय—पानी 'लाओ'ं कहने से उसकै साथ बरतन का लाना भी समझ हलया जाता है क्योंहक बरतन के हबना
पानी आवेगा हकसमें।
• (५८) नतलतंडुल न्याय—चावल और हतल की तरह हमली रहने पर भी अलग हदखाई देनेवाली वस्तओ
ु ं के संबंध में इसका
प्रयोग होता है।
• (५९) तृणजलौका न्याय—दे०'तृणजलौका' शब्द।
• (६०) दडं चक्र न्याय—जैसे घडा बनने
ी़ में दडं , चि आहद कई कारण हैं वैसे ही जहाूँ कोई बात अनेक कारणों से होती है वहाूँ
यह उहक्त कही जाती है।
• (६१) दडं ापपू न्याय—कोई डंडे में बूँधे हुए मालपए छोड़कर कहीं गया। आने पर उसने देखा हक डंडे का बहुत सा भाग चहे
खा गए हैं। उसने सोचा हक जब चहे डंडा तक खा गए तब मालपए को उन्होंने कब छोडा होगा।
ी़ जब कोई दष्ु कर और कष्टसाध्य
कायप हो जाता है तब उसके साथ ही लगा हुआ सख ु द और सहज कायप अवश्य ही हुआ होगा यही सहचत करने के हलये यह
कहावत कहते हैं।
• (६२) दर्म न्याय—दस आदमी एक साथ कोई नदी तैरकर पार गए। पार जाकर वे यह देखने के हलये सबको हगनने लगे हक
कोई छटा या वह तो नहीं गया। पर जो हगनता वह अपने को छोड़ देता इससे हगनने में नौ ही ठहरते। अंत में उस एक खोए हुए
के हलये सबने रोना शरू
ु हकया। एक चतुर पहथक ने आकर उनसे हफर से हगनने के हलये कहा। जब एक उठकर नौ तक हगन
गया तब पहथक ने कहा 'दसवें तमु '। इसपर सब प्रसन्न हो गए। वेदांती इस न्याय का प्रयोग यह हदखाने के हलये करते हैं हक गरुु
के 'तत्वमहस' आहद उपदेश सनु ने पर अज्ञान और तज्जहनत दुःु ख दर हो जाता है।
• (६३) देिलीदीपक न्याय—देहली पर दीपक रखने से भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला रहता है। जहाूँ एक ही आयोजन
से दो काम सधें या एक शब्द या बात दोनों ओर लगे वहाूँ इस न्याय का प्रयोग होता है।
• (६४) नष्टाश्वरदग्धरथ न्याय—संस्कृ त शास्त्रों में प्रहसद्ध एक न्याय हजसका तात्पयप है, दो आदहमयों का इस प्रकार हमलकर
काम करना हजसमें दोनों एके दसरे की चीजों का उपयोग करके अपना उद्देश्य हसद्ध करें । यह न्याय हनम्नहलहखत घटना या
कहानी के आधार पर है। दो आदमी अलग अलग रथ पर सवार होकर हकसी वन में गए। वहाूँ सयं ोगवश आग लगने के कारण
एक आदमी का रथ जल गया और दसरे का घोडा जल ी़ गया। कुछ समय के उपरातं जब दोनों हमले तब एक के पास के वल
घोडा और
ी़ दसरे के पास के वल रथ था। उस समय दोनों ने हमलकर एक दसरे की चीज का उपयोग हकया। घोडा रथ ी़ में जोता
गया और वे दोनों हनहदपष्ट स्थान तक पहुचूँ गए। दोनों ने हमलकर काम चला हलया। इस प्रकार जहाूँ दो आदमी हमलकर एक
दसरे की त्रहु ट की पहतप करके काम चलाते हैं वहाूँ इसे कहते हैं।
• (६५) नाररके लफलांबु न्याय—नाररके ल के फल में हजस प्रकार न जाने कहाूँ से कै से जल आ जाता है उसी प्रकार लक्ष्मी
हकस प्रकार आती है नहीं जान पड़ता।
• (६६) ननम्नगाप्रवाि न्याय—नदी का प्रवाह हजस ओर को जाता है उधर रुक नहीं सकता। इसी प्रकार के अहनवायप िम के
दृष्टांत में यह कहावत है।
• (६७) नृपनानपतपुर न्याय—हकसी राजा के यहाूँ एक नाई नौकर था। एक हदन राजा ने उससे कहा हक कहीं से सबसे संदु र
बालक लाकर मझु े हदखाओ। नाई को अपने पत्रु से बढकर और कोई संदु र बालक कहीं न हदखाई पडा और ी़ वह उसी को लेकर
राजा के सामने आया। राजा उस काले कलटे बालक को देख बहुत िुद्ध हुआ, पर पीछे उसने सोचा हक प्रेम या राग के वश
इसे अपने लड़के सा संदु र और कोई हदखाई ही न पडा। ी़ राग के वश जहाूँ मनष्ु य अंधा हो जाता है और उसे अछछे बरु े की
पहचान नहीं रह जाती वहाूँ इस न्याय का प्रयोग होता है।
• (६८) पंकप्रक्षालन न्याय—कीचड़ लग जायगा तो धो डालेंगे इसकी अपेक्षा यही हवचार अछछा है हक कीचड़ लगने ही न
पावे।
• (६९) पंजरचालन न्याय—दस पक्षी यहद हकसी हपंजडेी़ में बंद कर हदए जायूँ और वे सब एक साथ यत्न करें तो हपजडेी़ को
इधर उधर चला सकते हैं। दस ज्ञानेहद्रयाूँ और दस कमेंहद्रयाूँ प्राणरूप हिया उत्पन्न करके देह को चलाती हैं इसी के दृष्टांत में
साख्यवाले उक्त न्याय करते हैं।
• (७०) पाषाणेष्टक न्याय—ईट भारी होती है पर उससे भी भारी पत्थर होता है।
• (७१) नपष्टपेषण न्याय—पीसे को पीसना हनरथंक है। हकए हुए काम को व्यथप जहाूँ कोई हफर करता है वहाूँ के हलये यह उहक्त
है।
• (७२) प्रदीप न्याय—हजस प्रकार तेल, बिी और आग इन हभन्न हभन्न वस्तओ ु ं के मेल से दीपक जलता है उसी प्रकार सत्व,
रज और तम इन परस्पर हभन्न गणु ों के सहयोग से देह- धारण का व्यापार होता है। (सांख्य)।
• (७३) प्रापाणक न्याय—हजस प्रकार घी, चीनी आहद कई वस्तओ ु ं के एकत्र करने से बहढया हमठाई बनती है उसी प्रकार
अनेक उपादानों के योग से संदु र वस्तु तैयार होने के दृष्टांत में यह उहक्त कही जाती है। साहहत्यवाले हवभाव, अनभु ाव आहद
द्वारा रस का पररपाक सहचत करने के हलये इसका प्रयोग प्रायुः करते हैं।
• (७४) प्रासादवानस न्याय—महल में रहनेवाला यद्यहप कामकाज के हलये नीचे उतरकर बाहर इधर उधर भी जाता है पर उसे
प्रसादवासी ही कहते है इसी प्रकार जहाूँ हजस हवषय की प्रधानता होती है वहाूँ उसी का उल्लेख होता है।
• (७५) फलवत्सिकार न्याय—आम के पेड़ के नीचे पहथक छाया के हलये ही जाता है पर उसे फल भी हमल जाता है। इसी
प्रकार जहाूँ एक लाभ होने से दसरा लाभ भी हो वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (७६) बिुवृकाकृष्ट न्याय—एक हहरन को यहद बहुत से भेहड़ए लगें तो उसके अंग एक स्थान पर नहीं रह सकते। जहाूँ हकसी
वस्तु के हलये बहुत से लोग खींचाखींची करते हैं वहाूँ वह यथास्थान वा समची नही रह सकती।
• (७७) नवलवनतशगोधा न्याय—हजस प्रकार हबल में हस्थत गोह का हवभाग आहद नहीं हो सकता उसी प्रकार जो वस्तु अज्ञात
है उसके सबं धं में भला बरु ा कुछ नहीं कहा जा सकता।
• (७८) ब्राह्मणिाम न्याय—हजस ग्राम में ब्राह्मणों की बस्ती अहधक होती है उसे ब्राह्मणों का गाूँव करते है यद्यहप उसमें कुछ
और लोग भी बसते हैं। औरों को छोड़ प्रधान वस्तु का ही नाम हलया जाता है, यही सहचत करने के हलये यह कहावत है।
• (७९) ब्राह्मणअमण न्याय—ब्राह्मण यहद अपना धमप छोड़ श्रमण (बौद्ध हभक्षक
ु ) भी हो जाता है तब भी उसे ब्रह्मण श्रमण
कहते हैं। एक वृहि को छोड़ जब कोई दसरी वृहि ग्रहण करता है तब भी लोग उसकी पवपवहृ ि का हनदेश करते हैं।
• (८०) मज्जनोन्मज्जन न्याय—तैरना न जाननेवाला हजस प्रकार जल में पड़कर डबता उतरता है उसी प्रकार मखप या दष्टु वादी
प्रमाण आहद ठीक न दे सकने के कारण क्षब्ु ध ओर व्याकुल होता है।
• (८१) मंडूकतोलन न्याय—एक धतप बहनया तराज पर सौदे के साथ मेढक रखकर तौला करता था। एक हदन मेढक कदकर
भागा और वह पकडा गया।
ी़ हछपाकर की हुई बरु ाई का भडा एक हदन फटता है।
• (८२) रज्जस ु पश न्याय—जबतक दृहष्ट ठीक नहीं पड़ती तबतक मनष्ु य रस्सी को साूँप समझता है इसी प्रकार जबतक ब्रह्मज्ञान
नहीं होता तबतक मनष्ु य दश्ु य जगत् को सत्य समझता है, पीछे ब्रह्मज्ञान होने पर उसका भ्रम दर होता है और वह समझता है
हक ब्रह्म के अहतररक्त और कुछ नहीं है। (वेदांती)।
• (८३) राजपरु हयाध न्याय—कोई राजपत्रु बचपन में एक ब्याध के घर पड़ गया और वहीं पलकर अपने को व्याधपत्रु ही
समझने लगा। पीछे जब लोगों ने उसे उसका कुल बताया तब उसे अपना ठीक ठीक ज्ञान हुआ। इसी प्रकार जबतक ब्रह्मज्ञान
नहीं होता तबतक मनष्ु य अपने को न जाने क्या समझा करता है। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर वह समझता है हक 'में ब्रह्म हू'ूँ । (वेदांती)।
• (८४) राजपरु प्रवेर् न्याय—राजा के द्वार पर हजस प्रकार बहुत से लोगों की भीड़ रहती है पर सब लोग हबना गड़बड़ या हल्ला
हकए चपु चाप कायदे से खडेी़ रहते हैं उसी प्रकार जहाूँ सव्ु यवस्थापवपक कायप होता है वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (८५) रानरनदवस न्याय—रात हदन का फकप । भारी फकप ।
• (८६) लूतातंतु न्याय—हजस प्रकार मकडी अपने ी़ शरीर से ही सत हनकालकर जाला बनाती है और हफर आप ही उसका संहार
करती है इसी प्रकार ब्रह्म अपने से ही सृहष्ट करता है और अपने में उसे लय करता है।
• (८७) लोष्रलगुड न्याय—ढेला तोड़ने के हलये जैसे डंडा होता है उसी प्रकार जहाूँ एक का दमन करनेवाला दसरा होता है
वहाूँ यह कहावत कही जाती है।
• (८८) लोि चुंबक न्याय—लोहा गहतहीन और हनहष्िय होने पर भी चंबु क के आकषपण से उसके पास जाता है उसी प्रकार
परुु ष हनहष्िय होने पर भी प्रकृ हत के साहचयप से हिया में तत्पर होता है। (सांख्य)।
• (८९) वरगोष्ठी न्याय—हजस प्रकार वरपक्ष और कन्यापक्ष के लोग हमलकर हववाह रूप एक ऐसे कायप का साधन करते हैं
हजससे दोनों का अभीष्ट हसद्ध होता है उसी प्रकार जहाूँ कई लोग हमलकर सबके हहत का कोई काम करते हैं वहाूँ यह न्याय
कहा जाता है।
• (९०) वनह्नधूम न्याय—धमरूप कायप देखकर हजस प्रकार कारण रूप अहग्न का ज्ञान होता है उसी प्रकार कायप द्वारा कारण
अनमु ान के संबंध में यह उहक्त है (नैयाहयक)।
• (९१) नवल्वखल्लाट (खल्वाट) न्याय—धप से व्याकुल गंजा छाया के हलये बेल के पेड़ के नीचे गया। वहाूँ उसके हसर पर
एक बेल टटकर हगरा। जहाूँ इष्टसाध्न के प्रयत्न में अहनष्ट होता है वहाूँ यह उहक्त कही जाती है।
• (९२) नवषवृक्ष न्याय—हवष का पेड़ लगाकर भी कोई उसे अपने हाथ से नहीं काटता। अपनी पाली पोसी वस्तु का कोई अपने
हाथ से नाश नहीं करता।
• (९३) वीनचतरंग न्याय—एक के उपरांत दसरी, इस िम से बरा- बर आनेवाली तरंगों के समान। नैयाहयक ककाराहद वणों
की उत्पहि वीहचतरंग न्याय से मानते हैं।
• (९४) वीजांकुर न्याय—बीज से अक ं ु र या अक
ं ु र से बीज है यह ठीक नहीं कहा जा सकता। न बीज के हबना अक ं ु र हो सकता
है न अंकुर के हबना। बीज और अंकुर का प्रवाह अनाहद काल से चला आता है। दो संबद्ध वस्तओ ु ं के हनत्य प्रवाह के दृष्टांत
में वेदांती इस न्याय को कहते हैं।
• (९५) वृक्षप्रकंपन न्याय—एक आदमी पेड़ पर चढा। ी़ नीचे से एक ने कहा हक यह डाल हहलाओ, दसु रे ने काहा यह डाल
हहलाओ। पेड़ पर चढा हुी़ आ आदमी कुछ हस्थर न कर सका हक हकस डाल को हहलाऊूँ। इतने में एक आदमी ने पेड़ का धड़
ही पकड़कर हहला डाला हजससे सब डालें हहल गई। जहाूँ कोई एक बात सबके अनक ु ल हो जाती है वहाूँ इसका प्रयोग होता
है।
• (९६) वृर्द्कुमाररका न्याय या वृर्द्कुमारी वाक्य न्याय— कोई कुमारी तप करतो करती बडु ् ढी हो गई। इद्रं ो ने उससे कोई
एक वर माूँगने के हलये कहा। उसने वर माूँगा हक मेरे बहुत से पत्रु सोने के बरतनों में खब धी दध और अन्न खायूँ। इस प्रकार
उसने एक ही वाक्य में पहत, पत्रु गोधन धान्य सब कुछ माूँग हलया। जहाूँ एक की प्राहप्त से सब कुछ प्राप्त हो वहाूँ यह कहावत
कही जाती है।
• (९७) र्तपरभेद न्याय—सौ पिे एक साथ रखकर छे दने से जान पड़ता हैं हक सब एक साथ एक काल में ही हछद गए पर
वास्तव में एक एक पिा हभन्न हभन्न समय में हछदा। कालातं र की सक्ष्मता के कारण इसका ज्ञान नहीं हुआ। इस प्रकार जहाूँ
बहुत से कायप हभन्न हभन्न समयों में होते हुए भी एक ही समय में हुए जान पड़ते हैं वहाूँ यह दृष्टातं वाक्य कहा जाता है। (साख्ं य)।
• (९८) श्यामरक्त न्याय—हजस प्रकार कछचा काला धडा पकने
ी़ पर अपना श्याम गणु छोड़ कर रक्तगणु धारण करता है उसी
प्रकार पवप गणु का नाश और अपर गणु का धारण सहचत करने के हलये यह उहक्त कही जाती है।
• (९९) श्यालकर्ुनक न्याय—हकसी ने एक कुिा पाला था और उसका नाम अपने साले का नाम रखा था। जब वह कुिे का
नाम लेकर गाहलयाूँ देता तब उसकी स्त्री अपने भाई का आप- मान समझकर बहुत हचढती। हजस उद्देश्य से कोई बात नहीं की
जाती वह यहद उससे हो जाती है तो यह कहावत कही जाती हैं।
• (१००) सदं र् ं पनतत न्याय—सूँड़सी हजस प्रकार अपने बीच आई हुई वस्तु के पकड़ती है उसी प्रकार जहाूँ पवप ओर उिर
पदाथप द्वारा मध्यहस्थत पदाथप का ग्रहण होता है वहाूँ इस न्याय का व्यवहार होता है।
• (१०१) समुद्रवृनष्ट न्याय—समद्रु में पानी बरसने से जैसे कोई उपकार नहीं होता उसी प्रकार जहाूँ हजस बात की कोई
आवश्यकता या फल नहीं वहाूँ यहद वह की जाती है तो यह उक्ती चररताथप की जाती है।
• (१०२) सवाशपेक्षा न्याय—बहुत से लोगों का जहाूँ हनमंत्रण होता है वहाूँ यहद कोई सबके पहले पहूचूँ ता है तो उसे सबकी
प्रतीक्षा करनी होती है। इस प्रकार जहाूँ हकसी काम के हलये सबका आसरा देखना होता है वहाूँ उहक्त कही जाती है।
• (१०३) नसंिवलोकन न्याय—हसंह हशकार मारकर जब आगे बढता है तब पीछे हफर हफरकर देखता जाता है। इसी प्रकार
जहाूँ अगली और हपछली सब बातों की एक साथ आलोचना होती है वहाूँ इस उहक्त का व्यवहार होता है।
• (१०४) सचू ीकटाि न्याय—सई बनाकर कडाही़ बनाने के समान। हकसी लोहार से एक आदमी ने आकर कडाही़ बनाने को
कहा। थोडी देी़ र में एक दसरा आया, उसने सई बनाने के हलये कहा। लोहार ने पहले सई बनाई तब कडाह।ी़ सहज काम पहले
करना तब कहठन काम में हाथ लगाना, इसी के दृष्टांत में यह कहा जाता है।
• (१०५) सदुं ोपसुंद न्याय—संदु और उपसंदु दोनों भाई बडेी़ बली दैत्य थे। एक स्त्री पर दोनों मोहहत हुए। स्त्री ने कहा दोनों में
जो अहधक बलवान होगा उसी के साथ मैं हववाह करूूँगी। पररणाम यह हुआ हक दोनों लड़ मरे । परस्पर के फट से बलवान् से
बलवान् मनष्ु य नष्ट हो जाता हैं यही सहचत करने के हलये यह कहावत हैं।
• (१०६) सोपानारोिण न्याय—हजस प्रकार प्रासाद पर जाने के हलसे एक एक सीढी िम
ी़ से चढना होता है उसी प्रकार हकसी
बडेी़ काम के करने में िम िम से चलना पड़ता हैं।
• (१०७) सोपानावरोिण न्याय—सीहढयाूँ हजस िम से चढते हैं उसी के उलटे िम से उतरते हैं। इसी प्रकार जहाूँ हकसी िम
से चलकर हफर उसी के उलटे िम से चलना होता है (जैसे, एक बार एक से सौ तक हगनती हगनकर हफर सौ से हनन्नानवे,
अट्ठानबे इस उलटे िम से हगनना) वहाूँ यह न्याय कहा जाता है।
• (१०८) स्थनवरलगुड न्याय—बडु ् ढे के हाथ फें की हुई लाठी हजस प्रकार ठीक हनशाने पर नहीं पहुचूँ ती उसी प्रकार हकसी बात
के लक्ष्य तक न पहुचूँ ने पर यह उहक्त कही जाती है।
• (१०९) स्थूणाननखनन न्याय—हजस प्रकार घर के छप्पर में चाूँड़ देने के हलये खभं ा गाड़ने में उसे हमट्टी आहद डालकर दृढ
करना होता है उसी प्रकार यहु क्त उदाहरण द्वारा अपना पक्ष दृढ करना पड़ता है।
• (११०) स्थूलारुंधती न्याय—हववाह हो जाने पर वर और कन्या को अरुंधती तारा हदखाया जाता है जो दर होने के कारण
बहुत सक्ष्म हैं और जल्दी हदखाई नहीं देता। अरुंधती हदखाने में हजस प्रकार पहले सप्तहषप को हदखाते हैं जो बहुत जल्दी हदखाई
पड़ता है और हफर उूँगली से बताते हैं हक उसी के पास वह अरुंधती है देखो, इसी प्रकार हकसी सक्ष्म तत्व का पररज्ञान कराने
के हलये पहले स्थल दृष्टांत आहद देकर िमशुः उस तत्व तक ले जाते हैं।
• (१११) स्वानमभृत्य न्याय—हजस प्रकार माहलक का काम करके नौकर भी स्वामी की प्रसन्नता से अपने को कृ तकायप समझता
है उसी प्रकार जहाूँ दसरे का काम हो जाने से अपना भी काम या प्रसन्नता हो जाय वहाूँ के हलये यह उहक्त हैं।

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