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ीमद राजच
पु पमाला
१ रा बीत गई, भात आ, न ासे मु ए । भाव न ाको र करनेका य न कर।
२ तीत रा और अतीत जीवन पर डाल जाय।
३ सफल ए समयके लये आन द मान, और आजका दन भी सफल कर। न फल ए दनके
लये प ा ाप करके न फलताको व मृत कर।
४. ण ण करके अन त काल तीत आ, तो भी स नही हई।
५ य द तुझसे एक भी कृ य सफल न बन पाया हो तो बार-बार शरमा ।
६ य द तुझसे अघ टत कृ य ए हो तो ल जत होकर मन, वचन और कायके योगसे उ हे न ।
करनेक त ा ले।
७ य द तू वत हो तो ससार-समागममे अपने आजके दनके न न ल खत वभाग कर-
(१) १ हर-भ कत ।
(२) १ हर-धमकत ।
(३)१ हर-आहार योजन ।
(४)१ हर- व ा योजन ।
(५)२ हर- न ा।
(६) २ हर-ससार योजन ।
८ हर
८ य द तू यागी हो तो वचार हत व नताके व पका वचार करके ससारक ओर कर ।
९ य द तुझे धमका अ त व अनुकूल न आता हो तो नीचेके कथन पर वचार कर दे ख-
(१) तू जस थ तको भोग रहा है वह कस माणसे ?
(२) आगामी कालक बातको यो नही जान सकता?
(३) तू जो चाहता है वह यो नही मलता?
(४) च व च ताका योजन या है ? ।
१०. य द तुझे धमका अ त व माणभूत लगता हो, और उसके मूल त वमे आशका हो तो नीचे
कहता - ँ
११ सव ा णयोमे सम ,-
१२ अथवा कसी ाणोको ाणर हत नही करना, श से अ धक उससे काम नह लेना।
१३ अथवा स पु ष जस माग पर चले, उस मागको हण कर ।
१४ मूल त वमे कही भी भेद नह है, मा मे भेद है, ऐसा मानकर और आशयको समझ.
कर प व धममे वृ कर ।
१५ तू चाहे जस धमको मानता हो, मुझे उसका प पात नह है। मा कहनेका ता पय यह है
क जस मागसे संसारमलका नाश हो, उस भ , उस धम और उस सदाचारका तू सेवन कर।
१६ तू चाहे जतना परत हो तो भी मनसे प व ताका व मरण कये बना आजका दन
रमणीय कर।
१७. य द आज तू कृतक ओर जा रहा हो, तो मरणका मरण कर ।


१७व वषसे पहले
१८. य द आज कसीको ःख दे नेमे त पर हो तो अपने खसुखक घटना क सूची याद
कर ले।
१९. तु राजा हो या रक हो, चाहे जो हो, परंतु यह वचार करके सदाचारक और आ क इस
कायाके पु ल थोडे समयके लये मा साढे तीन हाथ भू म माँगनेवाले है।
२० तू राजा हो तो फ नही, पर तु माद न कर, यो क नीचसे नीच, अधमसे अधम, भ-
चारका, गभपातका, नवंशका, चा डालका, कसाईका और वे याका कण तू खाता है। तो फर?
२१ जाके ख, अ याय और करक जाँच करके आज कम कर | तू भी हे राजन् । कालके
घर आया आ अ त थ है।
२२ य द तु वक ल हो तो इससे आधे वचारका मनन कर जा।
२३. य द तू ीमत हो तो पैसेके उपयोगका वचार कर | कमानेका कारण आज खोजकर कह ।
२४ धा या दके ापारमे होनेवाली अस य हसाका मरण करके आज यायसप ापारमे
अपने च को लगा।
२५. य द तू कसाई हो तो अपने जीवके सुखका वचार करके आजके दनमे वेश कर।
२६ य द तू समझदार बालक हो तो व ा और आ ाक ओर कर ।
२७ य द तू युवान हो तो उ म और चयक ओर कर ।
२८ य द तु वृ हो तो मृ युको ओर करके आजके दनमे वेश कर ।
२९ य द तू ी हो तो अपने प त स ब धी धमकत को याद कर,-दोष ए हो उनक मा

ॉ औ ओ
मॉग और कुटु बक ओर कर।।
३० य द तू क व हो तो असंभ वत शसाका मरण करके आजके दनमे वेश कर ।
३१ य द तू कृपण हो तो,- .
३२ य द तू अमलम त हो तो नेपो लयन बोनापाटका, दोनो थ तयोसे मरण कर ।
३३ य द कल कोई काय अपूण रह गया हो तो उसे पूण करनेका सु वचार करके आजके दनमे
वेश कर।
३४ य द आज कसी कृ यका आरभ करना चाहता हो तो समय, श और प रणामका ववेक-
पूवक वचार करके आजके दनमे वेश कर ।
- ३५ कदम रखनेमे पाप है, दे खनेमे जहर है, और सर पर मौत सवार है, यह वचार करके
आजके दनमे वेश कर। .
३६ य द आज तुझे अघोर कम करनेमे वृ होना हो तो, राजपु हो तो भी भ ाचया मा य
करके आजके दनमे वेश कर।
३७. य द तू भा यशाली हो तो उसके आनदमे सरेको भी भा यशाली कर, परतु भा यशाली
हो तो सरेका बुरा करनेसे ककर आजके दनमे वेश कर।
३८ धमाचाय हो तो अपने अनाचारक ओर कटा करके आजके दनमे वेश कर ।
३९. अनुचर हो तो यसे य ऐसे शरीरको नभानेवाले अपने अ धराजक नमकहलाली चाह-
कर आजके दनमे वेश कर।
४० राचारी हो तो अपने आरो य, भय, परत ता, थ त और सुखका वचार करके आजके
दनमे वेश कर।
४१ ःखी हो तो ( आजक ) आजी वका जतनी आशा रखकर आजके दनमे वेश कर ।
४२. धमकमके लये अव य समय नकालकर तू आजक वहार स मे वेश कर ।


ीमद् राजच
४३ कदा चत् थम वेशमे अनुकूलता न हो तो भी रोज जाते ए दनके व पका वचार
करके आज कभी भी उस प व व तुका मनन कर।
४४ आहार, वहार और नहार सबधी अपनी याक जॉच करके आज के दनमे वेश कर ।
४५ य द तू कारीगर हो तो आल य और श के पयोगका वचार करके आजके दनमे
वेश कर।
४६ तू चाहे जो धधा करता हो, परतु आजी वकाके लये अ यायसप का उपाजन मत कर।
४७ यह मृ त हण करनेके बाद शौच यायु होकर भगव मे लीन होकर मा मांग।
४८ य द तू ससार योजनमे अपने हतके लये यमुक समुदायका अ हत कर डालता हो तो
क जा।
४९ अ याचारी, कामी और अनाडीको उ ेजन दे ता हो तो क जा ।
५० कमसे कम आधा हर भी धमकत और व ासपादनमे लगा।
५१ जदगी छोट है और जजाल ल बा है, इस लये जजाल कम कर, तो सुख पसे जदगी लबी
लगेगी।
५२ ी, पु , कुटु ब, ल मी इ या द सभी सुख तेरे घरमे हो तो भी इन सुखोमे गौणतासे
ःख रहा आ है, ऐसा मानकर आजके दनमे वेश कर ।
५३ प व ताका मूल सदाचार है।
५४ चचल हो जाते ए मनको सँभालनेके लये,-
५५ शात, मधुर, कोमल, स य और प व वचन बोलनेक सामा य त ा लेकर आजके दनमे
वेश कर।
५६ काया मलम का प ड है, इसके लये 'म यह या अयो य काय करके आनद मानता , ँ ऐसा
आज वचार कर।
५७ तेरे ारा आज कसीक आजी वका न होनेवाली हो तो,-
५८ अब तूने आहार यामे वेश कया । मताहारी अकबर सव म बादशाह माना गया है।
५९ य द आज दनमे सोनेका तेरा मन हो, तो उस समय ई रभ -परायण हो जा, अथवा
स शा का लाभ उठा ले।
६. म समझता ँ क ऐसा होना कर है, तो भी अ यास सबका उपाय है।
६१ चला आता आ वैर आज नमूल कया जाये तो उ म, नह तो उसक सावधानी रख ।
६२. इस तरह नया वैर मत बढा, यो क वैर करके कतने समयका सुख भोगना है यह वचार
त व ानी करते ह।
६३. आज महारभी एव हसायु ापारमे लगना पडता हो तो क जा।
६४ ब त ल मी मलने पर भी आज अ यायसे कसीक जान जाती हो तो क जा।
६५ समय अमू य है, इस बातका वचार करके आजके दनके २,१६,००० वपलोका उपयोग
कर।
६६ वा त वक सुख मा वरागमे है, इस लये आज जजालमोहनीसे अ यतरमोहनीको मत बढा ।
६७ फुरसतका दन हो तो आगे कही ई वत ताके अनुसार चल ।

ो ो ोई े े े ो
६८ कसो कारका न पाप वनोद कवा अ य कोई न पाप साधन आजके आनदके लये खोज ।
६९. सुयोजक कृ य करनेमे वृ होना हो तो वल ब करनेका आजका दन नह है, यो क
आज जैसा मगलदायक दन सरा नह है।


१७ वषसे पहले
७० अ धकारी हो तो भी जा हतको मत भूल, यो क जसका ( राजाका ) तू नमक खाता है,
वह भी जाका य सेवक है।
७१ ावहा रक योजनमे भी उपयोगपूवक ववेको रहनेको स त ा लेकर आजके दनम
वृ कर।
७२ सायंकाल होनेके बाद वशेष शा त ले।
७३ आजके दनमे इतनी व तुओको बाधा न आये तभी वा त वक वच णता मानी जाये-
१ आरो य, २ मह ा, ३ प व ता और ४ कत ।
७४ य द आज तुझसे कोई महान काय होता हो, तो अपने सव सुखका याग भी कर दे ।
७५ करज यह नीच रज (क+रज) है, * करज यह यमके हाथसे उ प व तु है, (कर+ज) कर
यह रा सी राजाका ू र कर उगाहनेवाला है । यह हो तो आज चुका दे , और नया करते ए क जा।
७६ दै नक कृ यका हसाब अब दे ख जा।
७७ सवेरे याद दलायी है, फर भी कुछ अयो य आ हो तो प ा ाप कर और श ा ले।
७८ कोई परोपकार, दान, लाभ अथवा सरेका हत करके आया हो तो आन द मान और
नर भमान रह ।
७९ जाने-अनजाने भी य द कुछ वपरीत आ हो तो अब ऐसा काम मत कर ।
८० वहारका नयम रख और अवकाशमे ससारक नवृ खोज ।
८१ आज तूने जैसा उ म दन भोगा है वैसा अपना जीवन भोगनेके लये तू आन दत हो, तो
ही आ०-
८२ आज जस पलमे तू मेरी कथाका मनन करता है, उसीको अपनी आयु समझकर स मे
लग जा।
८३ स पु ष व रके कहे अनुसार आज ऐसा कृ य कर क रातमे सुखसे सोया जा सके।
८४. आजका दन सुनहरा है, प व है, कृतकृ य होने प है, ऐसा स पु षोने कहा है, इस लये
मा य कर।
८५ जैसे हो सके वैसे आजके दनमे और वप नीमे भी वषयास कम रहना ।
८६ आ मक और शारी रक श क द ताका वह मूल है, यह शा नयोका अनुभव स
वचन है।
८७ त बाकू सूंघने जैसा छोटा सन भी हो तो आज उसे छोड दे ।-(0) नवीन सन
करनेसे क जा।
८८ दे श, काल, म इन सबका वचार सभी मनु योको इस भातमे यथाश करना उ चत है।
८९ आज कतने स पु षोका समागम आ, आज वा त वक आन द व प या आ? यह
च तन वरले पु ष करते है।
९० आज तू चाहे जैसे भयकर कतु उ म कृ यके लये त पर हो तो ह मत मत हार ।
९१ शु , स चदानद, क णामय परमे रक भ आजके तेरे स कृ यका जीवन है।
९२ तेरा, तेरे कुटु बका, म का, पु का, प नीका, माता पताका, गु का, व ानका, स पु षका
यथाश हत, स मान, वनय और लाभका कत आ हो ता वह आजके दनको सुगव है ।
९३ जसके घर यह दन लेशर हत, व छतासे, शु चतासे, एकतासे, सतोषसे, सौ यतासे,
नेहसे, स यतासे और सुखसे बीतेगा उसके घरमे प व ताका वास है।
* करज ( कर+ज)


ीमद राजच
९४ कुशल और आ ाकारी पु , आ ावलंबी धमयु अनुचर, स णी सु दरी, मेलजोलवाला
कुट ब, स पु ष जैसी अपनी दशा जस पु षक होगी उसका आजका दन हम सबके लए व दनीय है।
९५ इन सब ल णोसे सयु होने के लये जो पु ष वच णतासे य न करता है, उसका दन
हमारे लये माननीय है।
९६ इससे वपरीत बताव जहाँ हो रहा है वह घर हमारी कटा क रेखा है।
९७ भले ही तू अपनी आजी वका जतना ा त करता हो, पर तु य द न पा धमय हो तो उस
उपा धमय राजसुखक इ छा करके अपने आजके दनको अप व मत कर।
९८ कसीने तुझे कटु वचन कहा हो तो उस समय सहनशीलता- न पयोगी भी,
। ९९. दनक भूलके लये रातमे हँसना, परतु वैसा हँसना फरसे न हो, यह यानमे रख ।
१०० आज कुछ बु भाव बढाया हो, आ मक श उ वल क हो, प व कृ यक वृ क
हो तो वह,-
१०१ आज अपनी कसी श का अयो य री तसे उपयोग मत कर,-मयादालोपनसे करना पड़े
ो ी
तो पापभी रह।
१०२ सरलता धमका बीज व प है। ापूवक सरलताका सेवन कया गया हो तो आजका
दन सव म है।
१०३ ी, राजप नी हो या दोनजनप नी हो, पर तु मुझे उसक कोई परवा नही है । मयादासे
चलनेवालीक , मैने तो या परतु प व ा नयोने भी शसा क है।
१०४ स णके कारण य द आप पर जगतका श त मोह होगा तो हे ी । मै आपको वंदन
करता ँ।
१०५ ब मान, न भाव और वशु अ त करणसे परमा माका गुणसबधी च तन, वण, मनन,
क तन, पूजा, अचा-इनक ानी पु षोने शसा क है, इस लये आजके दनको सुशो भत कर ।
१०६ सत्-शोलवान् सुखी है, राचारी खी है, यह वात य द मा य न हो तो अभीसे आप
यान रखकर इस बातका वचार कर दे खे ।
१०७ इन सबका सरल उपाय आज कहे दे ता है क दोपको पहचानकर दोषको र करना।
१०८ लबी छोटो या मानु म चाहे जस व पमे यह मेरी कही ई, प व ताके पु प से गूंथो
ई माला ातःकाल, सायंकाल और अ य अनुकूल नवृ के समय वचार करनेसे मगलदा यका होगी।
वशेष या क ँ?
काळ कोईने न ह मुके!
ह रगीत
*मोतीतणी माळा गळामा मू यवंती मलकती,
हीरातणा शुभ हारथी ब कंठका त झळकती;
आभूषणोथी ओपता भा या मरणने जोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥१॥
___ काल कसीको नह छोड़ता!
*भावाथ-१ जनके गले म मो तयोक मू यवती माला सुशो भत हो रही थी, जनक कठका त हीरेके
उ म हारसे ब त का शत हो रही थी, और जो अनेक आभूषण से वभु षत हो रहे थे, वे भी मृ युको दे खकर


१७व वषसे पहले
म णमय मुगट माये धरीने कण कुंडल नाखता,
कांचन कडां करमां घरी कशीये कचाश न राखता;
पळमां प या पृ वीप त ए भान भूतळ खोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मुके कोईने ॥२॥
दश आंगळ मां मांग लक मु ा ज डत मा ण यथी,
जे परम ेमे पेरता पोची कळा बारीकथी;
ए वेढ वीटो सव छोडी चा लया मुख धोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥३॥
मूछ वांकडी करी फाकडा थई ल बु धरता ते परे,
कापेल राखो कातरा हरकोईनां हैयां हरे;
ए साकडीमां आ वया छट या तजी स सोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥४॥
छो खंडना अ धराज जे चंडे करीने नीप या,
ांडमां बळवान थईने भूप भारे ऊप या;
ए चतुर च चा लया होता नहोता होईने,
जन जाणोए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥५॥
जे राजनी त नपुणतामां यायवंता नीव ा,
अवळा कय जेना बघा सवळा सदा पासा प ा;
ए भा यशाळ भा गया ते खटपटो सौ . खोईने,
जन जाणोए मन मानीए नव काळ मुके कोईने ॥६॥
भाग गये । अथात् कालकव लत हो गये । इस लये हे मनु यो | इसे भली भां त जाने और मनम ठान क काल
कसीको नह छोड़ता।
२. जो म तक पर म णमय मुकुट धारण करते थे, कानोम कु डल पहनते थे, हाथ म सोनेके कडे पहनते
थे, और य पालकारसे सुशो भत होने म कोई कमी न रखते थे, ऐसे पृ वीप त भी णभरम बेहोवा होकर भूतल पर
गर पड़े । इस लये हे मनु यो । इसे भली भां त जाने और मनम ठान क काल कसीको नह छोडता । '
३. जो दसो अगु लयोमे मा णकसे ज दत माग लक अंग ठयाँ पहनते थे, और कलाइयोमे सू म कलामय
प ं चयाँ परम ेमसे पहनते थे, वे ॲग ठय आ द सब छोडवर, मुंह धोकर चल बसे । इस लये है मनु यो! इसे
भली भां त जान ओर मनम ठान क काल कसीको नह छोडता ।
४ जो मूंछे बांक कर, फ कड बनकर मूंछोपर नबू रखते थे, और जो सुदर कटे ए वाल से हर कसीके
मनको हरते थे, वे भी संकटम आ गये और सब सु वधाएँ छोडकर चल दये । इस लये हे मनु यो । इमे भली
भां त जान ओर मनम ठान क काल कसीको नह छोडता ।
५ जो अपने तापसे छ खंडके अ वराज बने ए थे, और ा डम बलवान होकर महान स ाट् कहलाते
थे, ऐसे चतुर च वत भी इस तरह चल बसे क मानो वे ए ही न थे। इस लये है मनु यो । इसे भली भां त

औ ी ो ी ो
जान और मनम ठान क काल कसीको नही छोडता।
६ जो राजनी तको नपुणताम यायवान् स ए थे, और जनके उलटे पामे सदा सीवे ही पड़ते थे,
ऐसे भा यशाली भी सब खटपट छोडकर भाग नकले। इस लये हे मनु यो । इसे भली भा त जाने और मनम ठाने
क काल कसोको नह छोडता ।

१०
ीमद राजच
तरवार बहा र टे कधारी पूणतामा पे खया,
हाथी हणे हाथे करी ए केशरी सम दे खया;
एवा भला भडवीर ते अंते रहेला रोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥७॥
धम वषे
कव
* सा बी सुखद होय, मानतणो मद होय,
खमा खमा खुद होय, ते ते कशा कामनु ?
जुवानीनुं जोर होय, एशनो अंकोर होय,
दोलतनो दोर होय, ए ते सुख नामनु;
व नता वलास होय, ौढता काश होय,
द जेवा दास होय, होय सुख घामनु,
वदे रायचंद एम, स मने धाया वना,
जाणी लेजे सुख ए तो, बेए ज बवामनु ! ॥१॥
मोह मान मोडवाने, फेलपणुं फोडवाने,
जाळफंद तोडवाने, हेते नज हाथथी%B
कुम तने कापवाने, सुम तने थापवाने,
मम वने मापवाने, सकल स ांतथी;
महा मो माणवाने, जगद श जाणवाने,
अज मता आणवाने, वळ भली भातथी;
अलौ कक अनुपम, सुख अनुभववाने,
धम धारणाने धारो, खरेखरी खांतथी ॥२॥
७ जो तलवार चलानेमे बहा र थे, जो अपनी टे कपर मरनेवाले थे, सब कारसे प रपूण द खते थे, जो
अपने हाथोसे हाथीको मारकर केसरीके समान दखायी दे ते थे, ऐसे सुभटवीर भी अतम रोते ही रह गये। इस लये
हे मनु यो ! इसे भली भां त जाने और मनम ठाने क काल कसीको नही छोडता ।
धम वषयक
* भावाथ-१. सुखद वैभव हो, मानका मद हो, 'जीते ह', 'जीते रह' के उ ार से बधाई मलती
हो-यह सब कस कामके ? जवानीका जोर हो, ऐशका सामान हो, दौलतका दौर हो-यह सब सुख तो नामका
है । व नताका वलास हो, ौढताका काश हो, द जैसे दास हो, सु वधायु घर हो । रायचद यह कहते ह क
सबमको धारण कये बना यह सब सुख दो ही कौडीका है।
२ अपने ही हाथसे ेमपूवक मोह और मानको र करनेके लये, ढोगको मटाने के लये, कपटजालके
फदको तोडनेके लये, सकल स ा तको सहायतासे कुम तको काटनेके लये, सुम तको था पत करनेके लये और
मम वको मापनेके लये, भली भां त महामो को भोगनेके लये, जगद शको जानने के लये, अज मताको ा त करनेके
लये, तथा अलौ कक एव अनुपम सुखका अनुभव करनेके लये स चे उ साहसे धमको धारण कर।

११
१७व वषसे पहले
दनकर वना जेवो, दननो दे खाव द से,
शशी वना जेवी रीते, शवरी सुहाय छे ,
जाप त वना जेवी, जा पुरतणी पेखो,
सुरस वनानी जेवी, क वता कहाय छे
स लल वहीन जेवी, स रतानी शोभा अने,
भतार वहीन जेवी, भा मनी भळाय छे ;
वदे रायचंद वीर, स मने धाया वना,
मानवी महान तेम, कुकम कळाय छे ॥३॥
चतुरो चोपेथी चाही चताम ण च गणे,
पं डतो माणे छे , पारसम ण ेमथी;
क वओ क याणकारी, क पत कथे जेने,
सुधानो सागर कथे, साधु शुभ ेमथी;
आ मना उ ारने उमंगथी अनुसरो जो,
नमळ थवाने काजे, नमो नो त नेमथी;
े ी ी
वदे रायचंद वीर, एवु धम प जाणी,
"धमवृ यान धरो, वलखो न वे'मथी" ॥४॥
बोधवचन
१ आहार नह करना।
२ य द आहार करना तो पु लके समूहको एक प मानकर करना, परंतु लु ध नह होना।
३ आ म ाघाका च तन नह करना ।
४. वरासे नर भमान होना।
५ ीका प नही दे खना।
६ ीका प दे खा जाये तो रागयु नही होना, परंतु अ न यभावका वचार करना ।
७ य द कोई नदा करे तो उसपर े षबु नह रखना ।
८ मतमतातरमे नही पड़ना ।
९ महावीरके पथका वसजन नही करना ।
१०. पदके उपयोगका अनुभव करना।
३ इस प का भावाथ पृ ३ पर दे ख ।
४ जसे चतुर लोग उ कठासे चाहकर च मै चताम ण मानते है, जसे ेमसे प डत लोग पारसम ण
मानते है, जसे क व क याणकारी क पत कहते है, जसे साधु शुभ ेमसे सुधाका सागर कहते ह-ऐसा धमका
व प है। य द उ साहपूवक आ माका उ ार करना चाहते हो तो नमल होनेके लये नयमपूवक नी त-धमका
पालन कर। रायच द वीर कहते है क ऐसा धमका व प जानकर धमवृ म यान रखे और ा त मा यताले
.सी न हो।

१२
ीमद् राजच
११ अना दका जो मृ तमे है उसे भूल जाना।
१२ जो मृ तमे नह है उसे याद करे।
१३ वेदनीय कमका उदय आ हो तो पूवकम व पका वचार करके घबराना नही ।
१४ वेदनीयका उदय हो तो न य प 'अवेद' पदका चतन करना।
१५ पु ष वेदका उदय हो तो ीका शरीर पृथ करणपूवक दे खना- ानदशासे ।
१६ वरासे आ ह-व तुका याग करना, वरासे आ ह 'स' दशाका हण करना ।
१७ परंतु बा उपयोग नह दे ना ।
१८ मम व ही बध है।
१९ वध हो ख है।
२० खसुखसे परा ख होना।
२१. सक प- वक पका याग करना।
२२ आ म-उपयोग कम यागका उपाय हे ।
२३ रसा दक आहारका याग करना ।
२४ पूव दयसे न छोड़ा जाये तो अवध पसे भगना ।
२५ जो जसक है उसे वह सौप दे ( वपरीत प रण त )।
२६ जो है सो है परतु मन वचार करनेके लये श मान नह है ।
२७. णक सुख पर लु ध नह होना ।
२८. सम के लये गजसुकुमारके च र का वचार करना ।
२९ रागा दसे वर होना यही स य ान है ।
३० सुगधी पु लोको नही सूचना । वभावत. वैसी भू मकामे आ गये तो राग नह करना ।
३१ गधसे े प नह करना।
३२ पु लक हा नवृ से खेद ख या स नह होना ।
३३ आहार अनु मसे कम करना ( लेना)।
३४. हो सके तो कायो सग अहोरा करना, नह तो एक घटा करनेसे नह चूकना ।
३५ यान एक च से राग े ष छोड़कर करना।
३६ यान करनेके बाद चाहे जैसा भय उ प हो तो भी नह डरना। अभय आ म व पका
वचार करना । 'अमर दशा जानकर चल वचल नह होना।'
३७ अकेले शयन करना।
३८ अतरंगमे सदा एकाक वचार लाना।
३९ शका, कखा या व त ग छा नही करना । ऐसेक सग त करना क जससे शी आ म हत
हो।
४० गुण दे खकर भी राजी नही होना।
४१ पड् के गुणपयायका वचार कर।
४२ सबको सम से दे ख। .
४३ बा म से जो जो इ छा रखते हो, उसक अपे ा अ यंतर म को शी चाहे। .
४४ बा ीक जस कारसे इ छा रखते हो, उससे वपरीत कारसे आ माक ी त प

. वही चाहे। -

े े ो ो
४५. बाहर लड़ते ह, उसक अपे ा तो अ यंतर महाराजाको हराय ।

१३
४६. अहंकार न कर।
४७. भले कोई े ष करे परतु आप वैसा न कर।
४८. ण णमे मोहका सग छोड़।
४९ आ मासे कमा दक अ य है, तो मम व प प र हका याग कर।
५० स के सुख मृ तमे लाय।
१ ५१ एक च से आ माका यान कर। य अनुभव होगा।
५२. बा कुटु ब पर राग न कर।
५३. अ यतर कुटु ब पर राग न कर।
५४ ी पु षा दक पर अनुरक न हो।
५५. व तुधमको याद करे।
५६ कोई बाँधनेवाला नही है, अपनी भूलसे बँधता है।
५७ एकको उपयोगमे लायेगे तो सब श ु र हो जायग।
५८. गीत और गायनको वलापतु य जाने।
५९ आभरण ही भार (भाव) भारकम।
६० माद ही भय है।
६१. अ माद भाव ही अभयपद है।
६२. जैसे भी हो, वरासे माद छोड़।
६३ वषमता छोड।
६४. कमयोगसे आ मा नयी नयी दे ह धारण करते ह।
६५ अ यंतर दयाका च तन करना। -
६६ व और परके नाथ बने ।
६७ बा म आ म हतका माग बताये, उसे अ यंतर म के पम-
६८ जो बा म पौ लक बातो और पर व तुका संग कराय, उ हे वरासे छोडा जा सके
तो छोड़े और कदा चत् छोडा न जा सके तो अ यतरसे लु ध एवं आस न हो। उ हे भी,
जो जानते हो उसका बोध द।
६९ जैसे चेतनर हत का का छे दन करनेसे का ख नह मानता, वैसे आप भी सम
___ र खये।
७०. यतनासे चलना।
७१. वकारको घटाय।
७२ स पु षके समागमका चतन करे और मल जाने पर दशनलाभसे न चूक।
७३. कुटुं बप रवारके त आ त रक चाह न रख।
७४. अ यत न ा न ल।
७५. थ समय न जाने द।
७६. ावहा रक कामसे जस समय मु हो जाय, उस समय एकातमे जाकर आ मदशाका
वचार कर।
७७ सकट आने पर भी धम न चूक।
७८. अस य न बोल।
७९. आत एवं रौ यानका शी याग कर।

१४
ीमद राजच
८० धम यानके उपयोगमे चलना।
८१ शरीर पर मम व न रख।
८२ आ मदशा न य अचल है, इसमे संशय न करे।
८३ कसीक गु त बात कसीसे न करे। .'
८४ कसी पर ज म पय त े षबु न रखे ।
८५ य द कसीको कुछ े पवश कहा गया हो, तो अ त प ाताप करे, और मा मांग। फर
कभी वैसा न कर।
८६ कोई तुझसे े षबु करे, परतु तू वैसा नह करना !
८७ जैसे भी हो, यान शी कर।
८८ य द कसीने कृत नता क हो तो उसे भी सम से दे ख।
८९ सरेको उपदे श दे नेका ल य है, इसक अपे ा नजधममे अ धक ल य दे ना।
९०. कथनक अपे ा मथनपर अ धक यान दे ना ।
९१ वीरके मागमे सशय न कर।
९२ ऐसा न हो तो केवलीग य है, ऐसा चतन कर, जससे ा बदलेगी नह ।
९३ बा करनीक अपे ा अ यतर करनी पर अ धक यान दे ना ।
ै ँ े ै ँ ँ े ै े े
९४ 'मै कहाँसे आया ?' 'मै कहाँ जाऊँगा?' 'मुझे या बंधन है ?' ' या करनेसे बधन चला
जाये?' 'कैसे छू टना हो? ये वा य मृ तमे रख।
९५. योके प पर यान रखते ह, इसक अपे ा आ म व प पर यान द तो हत होगा।
९६ यानदशा पर यान रखते है, इसक अपे ा आ म व प पर यान दगे तो उपशम भाव
सहजतासे होगा और सम त आ माओको एक से दे खगे। एक च से अनुभव होगा तो
आपके लये यह इ छा अ तरसे अमर हो जायेगी । यह अनुभव स वचन है।
९७ कसीके अवगुणोक ओर यान न दे ना। पर तु अपने अवगुण हो तो उन पर अ धक
रखकर गुण थ हो जाना।
९८ ब आ माको जैसे बाँधा उससे वपरीत वतन करनेसे वह छू ट जायेगा।
९९ व थानक पर प ँचनेका उपयोग रख।
१०० महावीर ारा उप द वारह भावनाएँ भावे ।
१०१. महावीरके उपदे शवचनोका मनन कर।
१०२ महावीर भु जस मागसे तरे और उ होने जैसा तप कया वैसा तप नम हतासे करना।
१०३. परभावसे वर हो।
१०४ जैसे भी हो, आ माका आराधन वरासे कर।
१०५ सम, दम, खमका अनुभव करे।।
१०६ वराज पदवी वतप आ माका ल रखे (द)।
१०७ रहन-सहन पर यान दे ना ।
१०८. व और अ य को भ - भ दे खे।
१०९ व के र क शी हो।
११० व के ापक शी हो ।
१११. व के धारक शी हो।
११२. व के रमक शो हो।

१५
१७व वषसे पहले
११३. व के ाहक शी हो।
११४. व को र कता पर यान रखे (दे )।
११५ पर क धारकता शी छोड।
११६ पर क रमणता शी छोड ।
११७ पर क ाहकता शी छोड़।
११८ जब यानक मृ त हो तब थरता कर, उसके बाद सद , गम , छे दन, भेदन इ या द-
इ या द दे हके मम वका वचार न करे।
११९ जब यानक मृ त हो तब थरता कर, उसके बाद दे व, मनु य, तयंचके प रषह आय
तो एक उपयोगसे, आ मा अ वनाशी है, ऐसा वचार लाये, तो आपको भय नह होगा,
और शी कमबधसे मु होगे। आ मदशाको अव य दे खगे। अनत- ान, अनत दशन
इ या द-इ या द ऋ ा त करगे।
१२० फुसतके व थ कूट और नदा करते ह, इसक अपे ा वह व ान यानमे लगाय तो
कैसा यो य गना जाये।
१२१ दे नदार मल जाये क तु आप कज सोच-बझ कर लेना।।
१२२ दे नदार च वृ ाज लेनेके लये कज दे , परतु आप उस पर याल रख।
१२३ य द तू कजका याल नही रखेगा तो बादमे पछतायेगा। ,
१२४ ऋणको चुकानेक चता करते है, इसक अपे ा भावऋण चुकानेक अ धक
त परता रख।
१२५ कज चुकानेके लये अ धक शी ता कर।
जहाँ उपयोग वहाँ धम है।
महावीरदे वको नम कार।
१ अ तम नणय होना चा हये।
२ सव कारका नणय त व ानमे है।
३ आहार, वहार, नहारक नय मतता। ,
४ अथको स ।
आयजीवन -
उ म पु षोने आचरण कया है।
न य मृ त
१ जस महान कायके लये तु ज मा है, उस महान कायका अनु े ण कर ।
२ यान धारण कर, समा ध थ हो जा।
३ वहारकायका वचार कर ले । जसका माद आ है, उसके लये अब माद न हो. ऐसा
___कर । जसमे साहस आ हो, उससे ऐसा बोध ले क अब वैसा न हो।
४ तू ढ योगी है, वैसा ही रह ।
५. कोई भी अ प भूल तेरी मृ तमेसे नही जाती यह महाक याण है।
१६
५ । ।
७ महागभीर हो।
८. , े , काल और भावका वचार कर ले।
९ यथाथ कर।
१० काय स करके चला जा।
सहज कृ त
१ पर हतको ही नज हत समझना, और पर खको अपना ःख समझना ।
२ सुख ःख दोन मनक क पनाएँ है।
३. मा ही मो का भ ार है।
४. सबके साथ न भावसे रहना ही स चा भूषण है।
५. शा त वभाव ही स जनताका स चा मूल है।
६ स चे नेहीक चाह स जनताका वशेष ल ण है।
७. जनका कम सहवास।
८ ववेकवु से सब आचरण करना।
९. े षभावको वष प समझना।
१० धमकममे वृ रखना।
११. नी तके वधान पर पैर नह रखना।
१२. जते य होना।
१३. ानचचा और व ा वलासमे तथा शा वा ययनमे जुट जाना ।
१४ गभीरता रखना।
१५. संसारमे रहते ए भो तथा उसे नी तसे भोगते ए भी वदे ही दया रखना।
१६. परमा माक भ मे रत होना।
१७. पर नदाको ही बल पाप मानना।
१८ जनता करके जीतना यही हारना है, ऐसा मानना ।
१९ आ म ान और स जन-सग त रखना।

१ जगतमे आदरणीय या है ?
२ शी करने यो य या?
३ मो त का बीज या?
४ सदा या य या?
५ सदा प व कौन?
६ सदा यौवनवान् कौन?
ो र
उ र
१ स का वचन ।
२ कमका न ह।
३ यास हत स य ान ।
४. भकाय काम।
५ जसका अ त करण पापर हत हो।
६. तृ णा (लोभ दशा)।

.
१७व वषसे पहले
१७
७ शूरवीर कौन?
। ७ जो ीके कटा से बीधा न जाये।
८ मह ाका मूल या?
. ८ कसीसे ाथना ( याचना) नह करना ।
९ सदा जागृत कौन ?
९. ववेक ।
१० इस ससारमे नरक जैसा ःख या? १० परत ता (परवश रहना )।
११ अ थर व तु या?
११ यौवन, ल मी और आयु ।'
१२ इस जगतमे अ त गहन या?
१२ ीच र और उससे अ धक पु षच र ।
१३ च मांक करणोके समान ेत क तके १३ सुम त और स जन ।
धारक कौन ?
१४ जसे चोर भी न ले सके वह खज़ाना कौनसा? १४ व ा, स य और शीलवत ।
ी े ौ औ ौ
१५ जीवका सदा अनथ करनेवाला कौन ? १५ आतं और रौ यान ।।
१६ अधा कौन ?
१६ कामी तथा रागी ।
१७ बहरा कौन?
१७ जो हतकारी वचन न सुने ।
१८. गूंगा कौन? -
१८ जो अवसर आने पर य - वचन न
बोल सके।
। १९ श यक भॉ त सदा ःखदायी या? १९. गु त कया आ काम ।
-२० अ व ास करने यो य कौन? . . २० युवती और अस जन ( जन ) मनु य।
२१. सदा यान रखने यो य या? । २१ ससारक असारता ।
२२ सदा पूजनीय कौन ? - २२ वीतराग दे व, सुसाधु और सुधम ।
' ादशानु े ा
. आ माके लये परम हतकारी ादशानु े ा अथात् वैरा या द भाव-भा वत बारह च तनाओके
व पका च तन करता ँ। ...
। १ अ न य, २ अशरण, ३ ससार, ४ एक व, ५. अ य व, ६ अशु च, ७ आ व, ८. सवर,
९ नजरा, १० लोक, ११ . बो ध लभ और १२ धम। इन बारह च तनाओके नाम थम कहे ह।
भगवान तीथकर भी इनके वभावका च तन करके संसार, दे ह एव भोगसे वर ए है । ये च तनाएँ
वैरा यक माता ह। सम त जीवोका हत करनेवाली है। अनेक .खोसे ा त ससारी जीव के लये ये
च तनाएँ अ त उ म शरण ह । ःख प अ नसे सत त जीवोके लये शीतल प वनके म यमे नवासके
समान ह । परमाथ मागको दखानेवाली ह । त वका नणय करानेवाली है। स य व उ प करनेवाली
ह। अशुभ यानका नाश करनेवाली ह। इन ादश च तनाओके समान इस जीवका हत करनेवाला
सरा कोई नही है। ये ादशागका रह य ह । इस लये इन बारह अनु े ाओमेसे अब अ न य अनु े ाका
भावस हत च तन करते ह।
अ न य अनु े ा
दे व, मनु य और तयच, यह सब दे खते ही दे खते पानीक बूद और ओसके पुजक भां त वन
हो जाते ह । दे खते ही दे खते वलीयमान होकर चले जाते ह। और यह सब ऋ , सपदा और प रवार
व -समान ह। जस तरह व मे दे खी ई व तु पुन' दखायी नह दे ती, उसी तरह ये वनाशको
• र नकरड ापकाचारमसे थम तीन अनु े ाओका यह अनुवाद है, जो अपूण है।

१८
ीमद् राजच
ा त होते है। इस जगतमे धन, यौवन, जीवन और प रवार सब णभंगरु है। संसारी म या
जीव इ ह अपना व प, अपना हत मानता है। अपने व पक पहचान हो तो परको अपना व प
यो माने ? सम त इ यज नत सुख जो गोचर होता है, वह इ धनुषके रगोक भां त दे खते ही
दे खते न हो जाता है। जवानीका जोश स याकालक लालीक भाँ त ण णमे वनाशको ा त
होता है । इस लये, यह मेरा गाव, यह मेरा रा य, यह मेरा घर, यह मेरा धन, यह मेरा कुटु ब, इ या द
वक प करना ही महामोहका भाव है। जो-जो पदाथ आँखसे दे खनेमे आते है, वे सब न हो जायगे,
इ हे दे खने जाननेवाली इ याँ भी अव य न हो जायेगी। इस लये आ म हतके लये ही शी उ म
कर। जैसे एक जहाजमे अनेक दे शो और अनेक जा तयोके मनु य इक े होकर बैठते है और फर
कनारे पर प ँचकर व वध दे शोक ओर चले जाते है, वैसे कुल प जहाजमे अनेक ग तयोसे आये ए
ाणी एक साथ रहते है, फर आयु पूरी होने पर अपने-अपने कमानुसार चारो ग तयोमे जाकर उ प
होते ह । जस दे हसे ी, पु , म , भाई आ दके साथ सबध मानकर रागी हो रहा है, वह दे ह अ नसे
भ म हो जायेगी, फर म ोमे मल जायेगी। तथा इसे जीव खायगे तो व ा एव कृ मकलेवर प हो
जायेगी। इसके परमाणु एक-एक करके जमीन और आकाशमे अनत वभाग पमे बखर जायेग, े फर
कहाँसे मलगे ? इस लये यह न त समझ क इसका संबंध फर ा त नह होगा। ी, पु , म ,
कूटु ब आ दमे ममता करके धम बगाडना, यह महान अनथ है। जन पु , ी भाई, म , वामी,
सेवक आ दके सहवासके सुखसे जीवन चाहते ह, वह सम त कुटु ब शर कालके बादलोक तरह बखर
जायेगा। यह संबध जो इस समय दखायी दे ता है वह नही रहेगा, ज र बखर जायेगा, ऐसा नयम
समझ । जस रा यके लये और जमीनके लये तथा हाट, हवेली, मकान एव आजी वकाके लये हसा,
अस य, छल-कपटमे वृ करते ह, भोले भालोको ठगते है, वय बलवान होकर नबलको मारते ह,
उस सम त प र हका सबध आपसे अव य बछड जायेगा। अ प जीवनके लये नरक व तयंचग तके
अनतकाल पयत अनत खसतानको हण न कर। उनके वा म वका अ भमान करके अनेक चले गये,
और अनेक य चले जाते ए दे खते है। इस लये अब तो ममता छोडकर, अ यायका प रहार करके
अपने आ माके क याणके कायमे वृ कर। जैसे ी म ऋतुमे चौराहेके वृ क छायामे अनेक दे श के
राहगीर वधाम लेकर अपने-अपने थानको चले जाते है, वैसे कुल प वृ को छायामे साथमे रहे एं
भाई, म , पु , कुटु ब आ द कमानुसार अनेक ग तय मे चले जाते ह। जनसे आप अपनी ी त मानते
ह वे सभी मतलबके है। आँखके रागको भाँ त णमा मे ी तका राग न हो जाता है। जैसे प ी
पूव सकेत कये बना ही एक वृ पर आकर बसते है, वैसे ही कुटु बके मनु य सकेत कये बना कम-

े ो े ऐ औ ो े ो
वंश इक े होकर बखर जाते ह। यह सब धन, संपदा, आ ा, ऐ य, रा य और इ योके वषयोक
साम ी दे खते हा दे खते अव य ही वयोगको ा त हो जायेगी। युवानी म या क छायाक तरह ढल
जायेगा, थर नही रहेगी। च . सूय, ह, न आ द तो अ त होकर पुनः उ दत होते है, और
हेमत , वसत आ द ऋतुएँ भी चली जाकर फर आ जाती ह; परतु गई ई इ याँ, युवानी, आयु, काया
आ द वापस नह आती। जैसे पवतसे गरनेवाली नद को तरगे के बना चली जाती है, वैसे ही आयु
के बना ण णमे तीत होती है। जस दे हके अधीन जीना है उस दे हको जज रत करनेवाली
वृ ाव था त समय आती है। यह वृ ाव था युवानी प वृ को द ध करनेके लये दावा नके समान
है। यह भा य प पु पो ( मौर) के नाशक कुहरेक वृ के समान है। ीक ी त प ह रणीके लये
ा के समान है। ानने को अ ध करनेके लये धूलक वृ के समान है। तप प कमलवनके लये
हमके समान है। द नताक जननी है। तर कारको बढ़ानेवाली धायके समान है। उ साह घटानेके
लये तर कार जैसी है। पंधनको चुरानेवाली है। बलका नाश करनेवाली है। जंघावलको बगाडने-

१९
१७व वषसे पहले
वाल है। आल यको बढानेवाली है। मृ तका नाश करनेवाली है। ऐसी यह वृ ाव था है। मीतसे
मलाप करानेवाली ती जैसी वृ ाव थाको ा त होनेसे अपने आ म हतका व मरण करके थर हो
रहे ह, यह महान अनथ है। वारवार मनु यज मा द साम ो नह मलती। ने आ द इ योका जो तेज
है उसका ण- णमे नाश होता है। सम त सयोग वयोग प समझे। इन इ योके वषयोमे राग करके
कौन-कौन न नही ए? ये सभी वषय भी न हो जायगे, और इ यां भी न हो जानेवाली ह।
कसके लये आ म हतको छोड़कर घोर पाप प अशुभ यान कर रहे है ? वषयोमे राग करके
अ धका धक लीन हो रहे है ? सभी वषय आपके दयमे ती दाह उ प करके वनाशको ा त होगे ।
इस शरीरको सदा रोगसे ा त जान। जीवको मरणसे घरा आ जान। ऐ यको वनाशके स मुख
जाने । यह जो सयोग है उसका नयमसे वयोग होगा। ये सम त वषय आ म व पको भुलानेवाले
है। इनमे अनुर होकर लोक न हो गया है। जन वषयोके सेवनसे सुख चाहते ह, वह जीनेके
लये वष पीना है, शीतल होनेके लये अ नमे वेश करनेके समान है, मीठे भोजनके लये जहरके वृ -
को पानी दे ना है। वषय महामोहमदक उ पादक है, उनका राग छोडकर आ मक याण करनेका य न
कर। अचानक मृ यु आयेगी, फर यह मनु यज म तथा जने का धम चले जानेके बाद पुन ा त होने
अनतकालमे लभ है। जैसे नद का वाह नरतर चला जाता है, फर नह आता, वैसे आयु, काया, प,
बल, लाव य और इ यश चले जानेके बाद वापस नह आते। जो ये य माने ए ी, पु
आ द नजरसे दखायी दे ते है, उनका संयोग नही रहेगा। व -संयोगके समान जान कर, इनके लये
अनी त-पाप छोडकर शी ही सयमा द धारण कर। वह इ जालक भाँ त लोगोमे म पैदा करनेवाला
है। इस ससारमे धन, यौवन, जीवन, वजन और परजनके समागममे जीव अंधा हो रहा है । यह धन-
सप च व तय के यहाँ भी थर नह रही, तो फर सरे पु यहीनके यहाँ कैसे थर रहेगी? यौवन
वृ ाव थासे न होगा । जीवन मरणस हत है । वजन परजन वयोगके स मुख है। कसमे थर बु
करते ह ? इस दे हको न य नान कराते ह, सुग ध लगाते ह, आभरण, व आ दसे वभू षत करते है,
व वध कारके भोजन कराते है, वारवार इसीक दासतामे समय तीत करते ह, श या, आसन,
कामभोग, न ा, शीतल, उ ण आ द अनेक उपचारोसे इसे पु करते है। इसके रागमे ऐसे अधे हो गये
ह क भ य-अभ य, यो य-अयो य, याय-अ यायके वचारसे र हत होकर, आ मधमको बगाडना, यशका
वनाश करना, मरणको ा त होना, नरकमे जाना, नगोदमे वास करना-इन सबको नही गनते ।
इस शरीरका जलसे भरे ए क चे घडेक तरह शी वनाश हो जायेगा। इस दे हका उपकार कृत नके
उपकारक भां त वपरीत फ लत होगा। सपको ध- मसरोका पान करानेके समान अपनेको महान ख,
रोग, लेश, यान, असयम, कुमरण और नरकके कारण प शरीरका मोह है, ऐसा न यपूवक जान ।
इस शरीरको यो- यो वषया दसे पु करगे यो यो यह आ माका नाश करनेमे समथ होगा। एक
दन इसे आहार नह दगे तो यह ब त ख दे गा। जो-जो शरीरके रागी ए ह, वे-वे ससारमे न
होकर एव आ मकायको बगाडकर अनतानत काल नरक और नगोदमे मण करते ह। ज होने इस
शरीरको तपसयममे लगाकर कृश कया है उ होने अपना हत कया है। ये इ याँ यो यो वषयोको
भोगती है, यो यो तृ णाको बढाती है। जैसे अ न धनसे तृ त नह होती, वैसे ही इ याँ वषयोसे
तृ त नही होती । एक-एक इ यके वषयक वाछा करके बडे-बडे च वत राजा होकर नरकमे जा
प ंचे है, तो फर सरोका तो या कहना ? इन इ योको खदायी, पराधीन करनेवाली, नरकमे
प ँचानेवाली जानकर, इन इ योका राग छोडकर इ हे वश कर।
ससारमे हम जतने न कम करते ह, वे सब इ योके अधीन होकर करते है। इस लये इ य-
पी सपके वपमे आ माक र ा कर। यह ल मी णभगुर है। यह ल मी कुलीनमे नही रमती । धीरमे,

२०
ीमद राजच
गुरमे, प डतमे, मूखम, पवानमे, कु पमे, परा मीमे, कायरमे, धमा मामे, अधम मे, पापीमे, दानीमे,
कृपणमे-कही भी नही रमती। यह तो पूव ज ममे जसने पु य कया हो उसक दासी है। कुपा
दाना द एव कुतप करके उ प ए जीवको, बुरे भोगमे, कुमागमे, मदमे लगाकर ग तमे प ँचानेवाली
ै े ो े े ी ै ो ी ै ो ी
है। इस पचमकालमे तो कुपा दान करके, कुतप या करके ल मी पैदा होती है। यह बु को बगाड़ती
है, महा खसे उ प होती है, महा खसे भोगी जाती है। पापमे लगाती है। दानभोगमे खच कये
बना मरण होने पर, आत यानसे ल मीको छोड़कर जीव तयच ग तमे उ प होता है। इस लये
ल मीको तु णा बढानेवाली और मद उ प करनेवाली जानकर खत और द र के उपकारमे, धम-
वधक धम थानोमे, व ादानमे, वीतराग- स ा तके लखवानेमे लगाकर सफल कर। यायके ामा णक
भोगमे, जैसे धम न बगडे वैसे लगाय । यह ल मी जलतरगवत् अ थर है । अवसर पर दान एव उपकार
कर ल। यह परलोकमे साथ नही आयेगी। इसे अचानक छोडकर मरना पड़ेगा। जो नरतर ल मीका
सचय करते है, दान-भोगमे इसका उपयोग नही कर सकते, वे अपने आपको ठगते ह। पापका आरंभ
करके, ल मीका सं ह करके, महामूछासे जसका उपाजन कया है, उसे सरेके हाथमे दे कर, अ य
दे शोमे ापारा दसे बढानेके लये उसे था पत करके, जमीनमे अ त र गाडकर, और दनरात उसीका
चतन करते-करते यानसे मरकर ग तमे जा प ँचते है। कृपणको ल मीका रखवाला और दास सम-
झना । र जमीनमे गाड़कर ल मीको प थर-सा कर दया है। जैसे जमीनमे सरे प थर पड़े रहते है,
वेसे ल मीको समझ । राजाके, उ रा धकारीके तथा कुटु बके काय स कये, परतु अपनी दे ह तो भ म
होकर उड़ जायेगी, इसे य नही दे खते? इस ल मीके समान आ माको ठगनेवाला सरा कोई नह
है। जीव अपने सम त परमाथको भूलकर ल मीके लोभका मारा रात और दन घोर आरभ करता है।
समय पर भोजन नह करता। सद -गम क वेदना सहन करता है। रागा दकके खको नह जानता।
चतातुर होकर रातको नीद नही लेता । ल मीका लोभी यह नही समझता क मेरा मरण हो जायेगा।
वह स ामके घोर सकटमे चला जाता है। समु मे वेश करता है। घोर भयानक वीरान पवत पर जाता
है। धमर हत दे शमे जाता है, जहाँ अपनी जा त, कुल या घरका कोई दे खनेमे नही आता । ऐसे
थानमे केवल ल मीके लोभसे मण करता-करता मरकर ग तमे जा प ंचता है। लोभी नह करने
यो य और नीच भीलके करने यो य काम करता है। अत तू अब जन के धमको पाकर संतोष धारण
पर। अपने पु यके अनु प यायमागको ा त होकर, धनका संतोषी होकर, तीन राग छोड़कर, यायके
वपय भोगोमे और खत, बुभु त, द न एव अनाथके उपकारके लये दान एव स मानमे ल मीको
लगा । इस ल मीने अनेकोको ठग कर ग तमे प ँचाया है। ल मीका सग करके जगतके जीव अचेत हो
रहे है । पु यके अ त होते ही यह भी अ त हो जायेगी । ल मीका सं ह करके मर जाना ऐसा ल मीका
फल नह है । इसके फल ह केवल उपकार करना और धमका माग चलाना। जो इस पाप प ल मीको
हण नह करते वे ध य है। और ज होने इसे हण करके इसक ममता छोड़कर ण मा मे इसका याग
कर दया हे वे ध य ह। वशेष या लखे ? इस धन, यौवन, जीवन, कुटु बके सगको पानीके बुलबुलेके
समान अ न य जानकर आ म हत प कायमे वृ कर। ससारके जतने- जतने स ब ध है उतने-उतने
सभी वनाशी ह।
इस कार अ न य भावनाका वचार कर। पु , पौ , ी, कुटु ब आ द कोई परलोकमे न तो
साथ गया हे और न जायेगा । अपने उपा जत कये ए पु यपापा द कम साथ आयगे। यह जा त, कुल,
प आ द तथा नगर आ दका सवध दे हके साथ ही न हो जायेगा। इस अ न य अनु े ाका ण
मान भी व मरण न हो, जससे परका मम व छू ट कर आ मकायमे वृ हो ऐसी अ न य भावनाका
वणन कया ||

२१
१७व वषसे पहले
अशरण अनु े ा
अब अशरण अनु े ाका च तन करते ह-
इस ससारमे कोई दे व, दानव, इ , मनु य ऐसा नही है क जसपर यमराजक फॉसी न पडी
हो । म युके वश होने पर कोई आ य नह है। आयु पूण हो जानेके समय इ का पतन ण मा मे हो
जाता है। जसके अस यात दे व आ ाकारी सेवक ह, जो सह ो ऋ योवाला है, जसका वगमे
अस यात कालसे नवास है, जसका शरीर रोग, ुधा, तृषा द उप वोसे र हत है, जो अस यात बल-
परा गका धारक है, ऐसे इ का पतन हो जाये वहाँ भी अ य कोई शरण नह है। जैसे उजाड बनमे शेरसे
पकडे ए हरनके ब चेक र ा करनेके लये कोई समथ नह है, वैसे मृ युसे ाणीक र ा करनेके लये
कोई समथ नही है। इस ससारमे पहले अन तान त पु ष लयको ा त हए है। कोई शरण है? कोई
ऐसा औषध, म , य अथवा दे वदानव आ द नह ह क जो एक ण मा भी कालसे र ा करे । य द
कोई दे व, दे वी, वै , म , त आ द एक मनु यक मरणसे र ा कर पाते तो मनु य अ य हो जाता।
इस लये म या बु को छोडकर अशरण अनु े ाका च तन कर। मूढ मनु य ऐसा वचार करता है क
मेरे सगेका हतकारी इलाज नह आ, औष ध न द , दे वताको शरण नह ली, उपाय कये बना मर
गया, इस कार अपने वजनका शोक करता है। पर तु अपनी च ता नह करता क मै यमक दाढोके
बीच बैठा ह। जस कालको करोडो उपायोसे भी इ जैसे भी न रोक सके, उसे बेचारा मनु य भला
या रोकेगा? जैसे हम सरेका मरण होते ए दे खते है वैसे हमारा भी अव य होगा।
जैसे सरे जीवोका ी, पु ा दसे वयोग होता दे खते ह, वैस.
े हमारे लये भी वयोगमे कोई शरण
नह है । अशुभ कमक उद रणा होने पर बु नाश होता है, बल कम दय होने पर एक भी उपाय काम
नही आता । अमृत वषमे प रण मत हो जाता है, तृण भी श मे प रणत हो जाता है, अपना य म
भी श ु हो जाता है, अशुभ कमके बल उदयसे बु वपरीत होकर वयं अपना ही घात करता है।
जब शुभ कमका उदय होता है, तब मूखको भी बल बु उ प होती है । कये बना अनेक सुखकारी
उपाय अपने आप गट होते है। श ु म हो जाता है, वष भी अमृतमे प रणत हो जाता है। जब

ो ै ी ँ े े े ी ो ी ै
पु यका उदय होता है तब सम त उप वकारी व तुएँ नाना कारके सुख दे नेवाली हो जाती है। यह
पु यकमका भाव है।
पापके उदयसे हाथमे आया आ धन ण मा मे न हो जाता है। पु यके उदयसे ब त ही
रक व तु भी ा त हो जाती है। जब लाभातरायका योपशम होता है तब यलके बना न धर न
गट होता है । जब पापोदय होता है तब सु दर आचरण करनेवालेको भी दोष एव कलक लग जाते ह,
अपवाद तथा अपयश होते है । यश नाम कमके उदयसे सम त अपवाद र होकर दोप गुणमे प रणत हो
जाते है।
यह ससार पु यपापके उदय प है।
परमाथसे दोनो उदयो (पु यपाप) को परकृत और आ मासे भ जानकर उनके ाता अथवा
सा ी मा रहे, हष एवं खेद न करे। पूवमे बाँधे ए कम अब उदयमे आये ह। अपने कये ए कम
र नह होते। उदयमे आनेके बाद उपाय नह है। कमके फल जो ज म, जरा, मरण, रोग, चता, भय,
वेदना, .ख आ द है, उनके आने पर म , त , दे व, दानव, आपध आ द कोई उनसे र ा करनेके लये
समथ नह है। कमका उदय आकाश, पाताल अथवा कही भी नह छोड़ता। औपधा द बा नम ,
अशुभ कमका उदय म द होने पर उपकार करते ह ! , चोर, भील, वैरी तथा सह, वाघ, सप आ द
गाँवमे या वनमे मारते है, जलचरा द जोव पानीमे मारते है, पर तु अशुभ कमका उदय तो जल मे

२२
ीमद् राजच
गलम, यन म, मम , पवतम, गडम, घरमे, श याम, कुटु बमे, राजा द साम तोके बीचमे श से र ा
करने हए भी कही भी नह छोड़ता। इस लोकमे ऐसे थान है क जहाँ सूय व च का काश, पवन
तथा वै क यक ऋ वाले नही जा मकते, पर तु कमका उदय तो मव जाता है। बल कमका उदय
होने पर व ा, म , बल, औष ध, परा म, य म , साम त, हाथी, घोडे, रथ, पैदल सेना, गढ,
कोट, श ब, साम दाम दड भेद आ द मभी उपाय शरण प नही होते । जैसे उ दत होते ए सूयको
क न रोक सकता हे? बंम कमके उदयको नह रोका जा सकता, ऐसा समझकर समताभावक शरण
रहण कर, तो अगभ कमको नजरा होनी है और नया बंध नह होता। रोग, वयोग, दा र य,
मरण आ दका भय छोडकर परम धैय हण कर, अपना वीतराग भाव, सतोषभाव, और परम समताभाव
ही गरण हे. अ य कोई शरण नह है। इस जीवके उ म मा द भाव वयमेव शरण प है।
कोवा द भाव इस लोक एव परलोकमे इस जीवके घातक ह। इस जीवके लये कपायक मदता
इम लोकमे हजारो व नोका नाश करनेवाली परम शरण प है, और परलोकमे नरक व तयंच ग तसे
र ा करती है । म दकपायी जीव दे वलाक तथा उ म मनु यजा नमे उ प होता है। य द पूवकमक
उदयके समय आनं एव रौ प रणाम करगे तो उद रणाको ा त ए कम को रोकनेमे कोई समथ
नह है। केवल गं तके कारण नवीन कम और वढे गे। कम दयके लये अपे त बा नम - े ,
काल और भावके मलनेके बाद उस कम दयको इ , जने , म ण, म , औषध आ द कोई भी रोकनेमे
समथ नह है। रोगके इलाज तो औपचा द जगतमे हम दे खते है, पर तु वल कम दयको रोकनेके लये
औषध आ द समथ नह है, युत वे वपरीत पसे प रणत होते है।
इम जीवको जब असातावेदनीय कमका उदय तीन होता है तब औषध आ द वपरीत पसे
प रणत होने है । असाताका मद उदय हो अथवा उपशम हो तब औपध आ द उपकार करते ह । यो क
म द उदयको रोकनेमे समथ तो अ प श वाले भी होते ह। बल श वालेको रोकनेमे अ प श -
वाला ममथ नह है। इस पचम कालमे अ प मा वा , े ा द साम ी है, अ प मा ाना द,
है, अ प मा पु षाथ हे । और अशुभका उदय आनेसे वा साम ी वल है, तो वह अ प साम ी अ प
पु पाथसे वल असाताके उदयको कैसे जीत सकती है? बड़ो न दयोका वाह वल तरगोको उछालता
आ चला आता हो तो उसमे तैरनेक कलामे समथ पु प भी तैर नह सकता। जब नद के वाहका
वेग म द होता जाता है तब तैरनेक व ाका जानकार तैर कर पार हो जाता है, उसी कार बल
कमादयमे अपनेको अशरण जाने । पृ वी और समु दोनो वशाल है, पर तु पृ वीका छोर पानेके लये
और मम को तेरनेके लये ब तसे समथ दे खे जाते है, पर तु कम दयको तैरनेके लये समथ दखायी
नह दे ते । इन ससारमे म यक ान, स यक् दशन, म यक् चा र तथा स यक् तप-सयम शरण है।
इन चार आराधना के बना और कोई शरण नह है। तथा उ म मा द दश धम इस लोकमे सम त
पलेश, ख, मरण, अपमान और हा नस य र ा करनेवाले है। मद कषायके फल वाधीन सुख,
आ मर ा, उ वल यश, लेगाभाव तथा उ चता इस लोकमे य दे खकर उसक शरण हण कर।
परलोकमे उसका फल वगलोक है। वशेषत वहारमे चार शरण है-अहंत, स , साध और केवल
सानो ारा र पत वम। द होको शरण जाने । इस कार यहाँ इनक शरणके बना आ माक उ वलता
ा त नह होती, ऐमा बतानवाली अशरण अनु े ाका वचार कया ||२||
ससार अनु े ा
व नगार अनु े ाकं व पका वचार करते है-
मगमाग अना द काटकं म ा वके उदयसे अचेत आ जीव, जने सव वीतराग ारा
अ पत ग याय धमको ा त न होकर चारो ग तयोमे मण करता है। ससारमे कम प ढ ब धनसे

२३
१७ व वषसे पहले
बँध कर पराधीन होकर, स थावरमे नर तर घार खको भोगता आ वारवार ज ममरण करता है।

ो ो े ै े ो ी ी े ो ो
जो-जो कमका उदय आकर रस दे ता है, उस उदयमे त मय होकर अ ानी जीव अपने व पको छोड-
कर नया-नया कमबंध करता है। कमबधके अधीन ए ाणोके लये ऐसी कोई खक जा त बाक
नही रही क जसे उसने न भोगा हो। सभी खोको अनतानत वार भोगकर अन तानत काल तीत
हो गया है। इस कार इस ससारमे इस जीवके अन त प रवतन ए है। ससारमे ऐसा कोई पु ल
नही रहा क जसे इस जीवने शरीर पसे, आहार पसे हण न कया हो। अन त जा तके अन त
पु लोके शरीर धारणकर आहार प (भोजनपान प) कया है।
तीन सौ ततालोस घनर जु माण लोकमे ऐसा कोई एक भी दे श नह है क जहाँ ससारी जीवने
अनतानत ज म-मरण नही कये हो । उ स पणी अवस पणी कालका ऐसा एक भी समय बाक नही रहा
क जस समयमे यह जीव अनतवार ज मा नही हो और मरा नह हो । नरक, तयच, मनु य और दे व,
इन चारो पयायोमे इस जीवने जघ य आयुसे लेकर उ कृ आयु पयत सम त आयुओके माण धारण
करके अनतवार ज म हण कया है। केवल अनु दश. अनु र वमानमे वह उ प नही आ, यो क
इन चौदह वमानोमे स य के बना अ यका ज म नह होता। स य को ससार- मण नही है।
कमक थ तबधके थान और थ तबधके कारण अस यात लोक माण कपाया यवसाय थान, उसके
कारण असं यात लोक माण अनुभाग बधा यवसाय थान तथा जगत ेणीके सं यातव भाग जतने योग-
थानोमेसे ऐसा कोई भाव बाक नही रहा क जो ससारी जीवको न आ हो । केवल स य दशन, ान,
चा र के योगभाव नह ए। अ य सम त भाव ससारमे अनतानत बार ए ह। जने के वचनके अव-
ल बनसे र हत पु षको म या ानके भावसे अना दसे वपरीत बु हो रही है इस लये स य मागको
हण न करके ससार प वनमे न होकर जीव नगोदमे जा गरता है । कैसी है नगोद ? अनतानत काल
बीत जाने पर भी जसमेसे नकलना ब त मु कल है। कदा चत् पृ वीकाय, अ काय, अ नकाय, वायु-
काय, येक वन प तकाय और साधारण वन प तकायमे लगभग सम त ानका नाश होनेसे जड प
होकर, एक पग य ारा कम दयके अधीन होकर आ मश र हत, ज ा, ना सका, ने , कणा द
इ यसे र हत होकर खमे द घकाल तीत करता है। और य, ी य, चतु र य प वकल य
जीव, आ म ानर हत केवल रसना आ द इ योके वषयोक अ त तृ णाके मारे उछल-उछलकर वषयोके
लये गर- गर कर मरते ह । अस यात काल वकल यमे रहकर पुन एक यमे फर- फर कर वारंवार
कुएँके रहँटक घट क भां त नयी-नयी दे ह धारण करते-करते चारो ग तयोमे नरतर ज म, मरण, भूख,
यास, रोग, वयोग और सताप भोगकर अनतकाल तक प र मण करते ह । इसका नाम ससार है।
जैसे उबलते ए अदहनमे चावल सब तरफ फरते हए भी सीझ जाते ह, वैसे ससारी जीव कमसे
त तायमान होकर प र मण करते ह । आकाशमे उडते ए प ीको सरा प ी मारता है, जलमे वचरते
ए म या दको सरे म या द मारते ह, थलमे वचरते ए मनु य, पशु आ दको थलचारी सह, वाघ,
सप आ द तयच तथा भील, ले छ चोर, लुटेरे तथा महान नदय मनु य मारते है। इस ससारमे
सभी थानोमे नरतर भयभीत होकर नरतर खमय प र मण करते है। जैसे शकारीके उप वसे भय-
भीत ए जीव मुंह फाडकर बैठे ए अजगरके मुंहमे बल समझकर वेश करते है, वैसे अ ानी जीव भूख,
यास, काम, कोप इ या द तथा इ य के वषयोक तृ णाके आतापसे सत त होकर, वपया द प अज-
गरके मुंहमे वेश करते है। वषयकषायमे वेश करना ससार प अजगरके मुंहमे वेश करना है। इसमे
वेश करके अपने ान, दशन, सुख, स ा आ द भाव ाणोका नाश करके, नगोदमे अचेतन तु य होकर,
अनतवार ज म-मरण करते ए अनतानत काल तीत करते है । वहाँ आ मा अभाव तु य है, जब ाना-
दका अभाव आ तब नाश भी आ।

२४
ीमद् राजच
नगोदमे अ रका अनतवाँ भाग ान है, यह सव ने दे खा है। बस पयायम जतने ःखके कार
है वे सब ख जीव अनतवार भोगता है। .खक ऐसी कोई जा त बाक नही रही, क जसे इस जीवने
ससारमे नही पाया। इस ससारमे यह जीव खमय अनत पयाय पाता है, तब कही एक बार इं य-
ज नत सुखका पयाय ा त करता है, और वह भी वषयोके आताप स हत, भय शंकासे सयु अ पकाल-
के लये ा त करता है । प ात् अनत पयाय खके, फर इ यज नत सुखका कोई एक पयाय कदा चत्
ा त होता है।
अब चतुग तके कुछ व पका परमागमके अनुसार चतन करते है। नरकक सात पृ वयाँ ह,
उनमे उनचास भू मकाएँ ह। उन भू मकाओमे चौरासी लाख वल है, ज हे नरक कहते है। उनक
व मय भू म द वारक भाँ त छजी ई है। कतने ही बल स यात योजन लंबे-चौडे है और कतने ही
बल अस यात योजन लवे-चौडे है। उस एक एक वलक छतमे नारक के उ प थान है। वे ऊँटके
मुखके आकार आ द वाले, तग मुखवाले और उलटे मुंह होते है। उनमे नारक जीव उ प होकर नीचे
सर और ऊपर पैर कये ए आकर व ा नमय पृ वीमे पडकर नारक जोरसे गरी ई गेदक तरह इधर-
उधर उछलते और लोटते है। कैसी है नरकभ म ? अस यात ब छु के एक साथ काटनेसे जो वेदना होती
है, उससे भी अस यातगुनी अ धक वेदना दे नेवाली है।
ऊपरक चार प वयोके चालीस लाख बल और पाँचवी पृ वीके दो लाख बल, यो बयालीस
लाख बलोमे तो केवल आताप, अ नक उ ण वेदना है। उस नरकक उ णता बतानेके लये यहाँ कोई
पदाथ दे खने-जाननेमे नही आता क जसक उपमा द जा सके। तो भी भगवानके आगममे उ णताका
ऐसा अनुमान कराया गया है क य द लाख योजन माण मोटा लोहेका गोला छोडे तो वह नरकभू ममे न
प ँचकर, प ँचनेसे पहले ही नरक े को उ णतासे रस प होकर बह जाता है।
( अपूण)
मु नसमागम
राजा-हे म नराज | आज म आपके दशन करके कृताथ हआ ह। एक बार मेरा अभी और आगे
घ टत सुनने यो य च र सुननेके बाद आप मझे अपने प व जैन धमका स वगुणी उपदे श द। इतना
वोलनेके बाद वह चुप हो गया।
मु न-हे राजन् । तेरा च र धम सबंधी हो तो भले आनदके साथ कह सुना ।
. राजा--( वगत ) अहो । इन महान म नराजने 'मै राजा , ँ 'ऐसा कहांसे जाना | भले, यह
बात फर । अभी तो अबसरके ही गीत गाऊँ । ( कट ) हे भगवन् । मैने एकके बाद एक इस तरह अनेक
धम दे ख । परतु उम येक धममेसे कुछ कारणोसे मेरी आ था उठ गयी। म जब येक धमका हण
करता तब उसके गुण वचार कर, परतु बादमे न मालूम या हो जाता क जमी ई आस एकदम न "
हो जाती । य प ऐसा होनेके कुछ कारण भी थे। केवल मेरी मनोवृ ही ऐसी थी, यह बात नह थी।
कसी धममे धमगु ओक धूतता दे ख कर, उस धमको छोड़कर मैने सरा वीकार कया, फर उसमे
कोई भचार जैसी गध दे खकर उसे छोडकर तीसरा हण कया । फर उसमे हसायु स ात दे खने-
से, उसे छोडकर चीथा हण कया । फर कसी कारणसे उसे छोड़ दे नेका फरज आ पडनेसे उसे छोडकर
पाँचवाँ धम वीकार कया। इस तरह जैन धमके सवाय अनेक धम अपनाये और छोड़े। जैन धमका
केवल वेरा य ही दे खकर मूलत. उस धम पर मुझे भाव आ ही नह था। ब तसे धम क उधेड़बुनमे
आ खर मने ऐसा स ात न त कया क सभी धम म या हे। धमाचाय ने अपनी-अपनी चके अनुसार

२५
१७व वषसे पहले
पाखंडी जाल फैला रखे ह। बाक कुछ भी नह है। य द धमपालन करनेका सृ का वाभा वक नयम
होता तो सारी सृ मे एक ही धम यो न होता? ऐसी-ऐसी तरगोसे मै केवल ना तक हो गया । ससारी
शृगारको ही मैने मो ठहरा दया । न पाप है और न पु य है, न धम है और न कम है, न वग है और
न नरक है, ये सब पाखड है। ज मका कारण मा ीपु षका सयोग है । और जैसे जीण व काल मसे
नाशको ा त होता है, वैसे यह काया धीरे-धीरे ीण होकर अतमे न ाण होकर न हो जाती है। बाक
सब म या है । इस कार मेरे अत करणमे ढ हो जानेसे मुझे जैसा चा, जैसा अ छा लगा, जैसा रास
आया वैसा करने लगा । अनी तके आचरण करने लगा। बेचारी द न जाको पी ड़त करनेमे मैने कसी
भी कारक कसर नही रखी । शीलवतो सु द रयोका शीलभग कराकर मैने हाहाकार मचानेमे कसी भी
कारक कसर नह छोड़ी। स जनोको द डत करनेमे, सतोको सतानेमे और जनोको सुख दे नेमे मने
इतने पाप कये है क कसी भी कारको यूनता नह रहने द । मै मानता है क मने इतने पाप कये है
क उन पापोका एक बल पवत खड़ा कया जाये तो वह मे पवतसे भी सवाया हो। यह सब होनेका
कारण मा धूत धमाचाय थे। ऐसीक ऐसी मेरी चाडालम त अभी तक रही है। मा अ त कौतुक
आ क जससे मुझमे शु आ तकता आ गयी । अब मै यह कौतुक आपके सम नवेदन करता है-
___मै उ ज यनी नगरीका अ धप त ँ । मेरा नाम च सह है। वशेषत दयालुओका दल खानेके
लये मै बल दलके साथ शकारके लये नकला था। एक रक हरनके पीछे दौडते ए म सै यसे बछु ड़
गया। और उस हरनके पीछे अपने घोडेको दौडाता-दौडाता इस तरफ नकल पडा । अपनी जान बचाने-
क कसे इ छा न हो? और वैसा करनेके लये उस बेचारे हरनने दौडनेमे कुछ भो कसर नह रखी।
पर तु इस पापी ाणीने अपना जु म गुजारनेके लये उस बेचारे हरनके पीछे घोडा दौडाकर उसके
नजद क आनेमे कुछ कम यास नह कया। आ खर उस हरनको इस बागमे वेश करते ए दे खकर
मैने धनुष पर बाण चढा कर छोड दया। उस समय मेरे पापी अ त करणमे लेशमा भी दयादे वीका अश
न था। सारी नयाके धीवरो और चा डालोका सरदार म ही न होऊँ, ऐसा मेरा कलेजा करावेशमे
बॉसो उछल रहा था। मने ताककर मारा आ तीर थ जानेसे मुझे गुना पापावेश आ गया । इस
लये मने अपने घोडेको एडी मार कर इस तरफ खूब दौडाया। दौडाते-दौडाते यो ही इस सामनेवाली
झाडीके गहरे म य भागमे आया यो ही घोडा ठोकर खाकर लड़खडाया। लड़खडानेके साथ वह चौक
गया । और चौकते ही खडा रह गया । जैसे ही घोडा लडखडाया था वैसे ही मेरा एक पैर एक ओर क
रकाब पर और सरा पैर नीचे भू मसे एक ब ा र लटक रहा था। यानमेसे चमकती तलवार भी
नकल पड़ी थी। जससे य द म घोडे पर चढने जाऊँ तो वह तेज तलवार मेरे गलेके आर-पार होनेमे
एक पलक भी दे र करनेवाली न थी। और नीचे जहाँ करके दे खता ँ वहाँ एक काला एव भयकर
नाग नजर आया । मुझ जैसे पापीका ाण लेनेके लये ही अवत रत उस काले नागको दे खकर मेरा कलेजा
काँप उठा। मेरा अग-अग थरथराने लगा। मेरी छाती धडकने लगी । मेरी ज दगी अब पूरी हो जायेगी।
हाय । अब पूरी हो जायेगी ऐसा भय मुझे लगा । हे भगवान् । ऊपर कहे अनुसार, उम समय म न तो
नीचे उतर सकता था और न घोडे पर चढ सकता था। इसी लये अब म कोई उपाय खोजनेमे नम न
आ । पर तु नरथक । केवल थ और बेकार ।। धीरे से आगे खसक कर रा ता ढूं , ऐसा वचार
करके म यो ही उठाकर सामने दे खता ँ यो ही वहाँ एक वकराल सहराज नजर आया । रे । अब
तो म जाडेक ठडसे भी सौगुना चर न लग गया। और फर वचारमे पड़ गया, ' खसक कर पीछे मुड़
तो कैसा ?' ऐसा लगा, वहाँ तो उस तरफ घोडेक पीठ पर नगी पौनी तलवार दे खी । इस लये यहाँ अब
मेरे वचार तो पूरे हो चुके । जहाँ दे खू वहाँ मौत । फर वचार कम कामका ? चारो दशाओमे मौतने
अपना जबरद त पहरा बठा दया । हे महामु नराज ! ऐसा चम का रक पर तु भयकर य दे खकर मुझे

२६


ीमद् राजच
अपने जीवनक का होने लगी। मेरा यारा जीव क जससे मै सारे ा डके रा य जैसा वैभव भोग
रहा है, वह अब इस नरदे हको छोड कर चला जायेगा। रेचला जायेगा | अरे । अव मेरी कैसी वपरीत
ग त हो गयी। मेरे जैसे पापीको ऐसा ही उ चत है। ले पापी जीव | तू ही अपने कत को भोग । तूने
अनेकोके कलेजे जलाये है। तूने अनेक रक ा णयोका दमन कया है, तूने अनेक सतोको सत त कया
है। तूने अनेक मती सु द रयोका गील भग कया है। तूने अनेक मनु योको अ यायसे द डत कया है।
स ेपमै तुने कसी भी कारके पापमे कमी नही रखी। इस लये रे पापी जीव । अब तू ही अपना फल
भोग । तू अपनी इ छानुसार वृ करता रहा, और साथ ही मदाध होकर ऐसा भी मानता था क म
या खी होनेवाला था? मुझे या क आने वाले थे ? पर तु रे पापी ाण | अव दे ख ले । तू अपने
इम म या मदका फल भोग ले । तू मानता था क पापका फल है ही नह । पर तु दे ख ले, अब यह या
है ? इस तरह मै प ा ापमे डू ब गया। अरे हाय । मै अव वक़ेगा ही नह ? यह वड बना मुझे हो
गयी। इस समय मेरे पापी अ त करणमे यह आया क य द अभी कोई आकर मुझे एकदम बचा ले तो
कसा माग लक हो । वह ाणदाता इसी ण जो माँगे उसे दे नेके लये बँध जाऊँ। वह मेरे सारे मालवा
दे शका रा य माँगे तो दे नेमे ढ ल न क ँ । और इतना सब दे ते ए भी और माँगे तो अपनी एक हजार
नव-यौवना रा नयाँ दे ँ । वह माँगे तो अपनी वपूल राजल मी उसके चरणकमलोमे धर ं । और इतना
सब दे ते ए भी वह कहता हो तो मै जीवन पयत उसके ककरका ककर होकर र ँ। पर तु मुझे इस
समय कौन जीवनदान दे ? ऐसी-ऐसी तरगोमे झोके खाता-खाता मै आपके प व जैन धमके च तनमे
पड़ गया। इसके कथनका मुझे उस समय भान हो आया। इसके प व स ा त उस समय मेरे अ त:-
करणमे भावक ढगसे अ कत हो गये । और उसने उनका यथाथ मनन शु कर दया, क जससे आपके
सम आनेके लये यह पापी ाणी समथ आ।
१ अभयदान-यह सव कृ दान है । इसके जैसा एक भी दान नह है। इस स ातका थम
मेरा अ त करण मनन करने लगा। अहो । इसका यह स ात केसा नमल और प व है। कसी भी
ाणीभूतको पीडा दे ना महापाप है। यह बात मेरे रोम-रोममे ा त हो गयी- ा त ई तो ऐसी क
हजार ज मातरमे भी न छटके | ऐसा वचार भी आया क कदा चत् पुनज म न हो, ऐसा णभरके लये
मान ले, तो भी क गयी हसाका क चत् फल भी इस ज ममे मलता ज र है। नह तो तेरी ऐसी
वपरीत दशा कहाँसे होती? तुझे सदा शकारका पापी शौक लगा था, और इसी लये तूने आज जान-
बूझकर दयालुओका दल खानेका उपाय कया था, तो अब यह उसका फल तुझे मला । तू अब केवल
पापी मीतके पजेमे फंसा । तुझमे केवल हसाम त न होती, तो ऐसा व तुझे मलता ही यो ? मलता ही
नह । केवल यह तेरी नीच मनोवृ का फल है । हे पापी आ मन् । अव तू यहाँसे अथात् इस दे हसे मु
होकर चाहे कही जा, तो भी इस दयाका ही पालन करना । अब तेरे और इस कायाके अलग होनेमे या दे र
हे ? इस लये इस स य, प व और अ हसायु जैन धभके जतने स ात तुझसे मनन कये जा सक उतने कर
और अपने जीवक शा त चाह। इसके सभी स ांत, ान से दे खते ए और सू म बु से वचार
करते ए स य ही ह। जैसे अभयदान सबधी इसका अनुपम स ात इस समय तुझे अपने इस अनुभवसे
यथाथ तीत आ, बस इसके सरे स ात भी सू मतासे मनन करनेसे यथाथ ही तीत होगे।
इसमे कुछ यूना धक है ही नह । सभी धम म दया संवधी थोडा-थोडा बोध ज र है, पर तु इसमे जैन
तो जैन ही है। हर कसी कारसे भी सू ममे सू म ज तुओक र ा करना, उ हे कसी भी कारसे
ख न दे ना ऐसे जैनके बल और प व स ा तोसे सरा कौनसा धम अ धक स चा था।
तूने एकके बाद एक ऐसे अनेक धम अपनाये और छोडे, परतु तेरे हाथ जैन धम आया ही नह । रे ।
कहासे आये ? नेरे चुर पु य के उदयके वना कहाँसे आये? यह धम तो गदा है.। नह नही, ले छ जेसा

२७
है। इस धमको भला कौन हण करे ? ऐसा मानकर ही तूने इस धमक ओर त नक तक भी
नह क । अरे । तू या कर सके? अपने अनेक भवोके तपके कारण तू राजा आ। तो अब
नरकमे जानेसे कैसे के ? 'तपे री सो राजे री और राजे री सो नरके री' यह कहावत, तेरे हाथ
यह धम आनेसे म या ठहरती। और तू नरकमे जानेसे क जाता। हे मूढा मन् । यह सब वचार अव
तुझे रह रहकर सूझते ह। परतु अब यह सूझा आ कस कामका? कुछ भी नही । थमसे ही सूझा होता
तो यह दशा कहाँमे होती? होनेवाला आ । परतु अब अपने अत करणमे ढ कर क यही धम स चा
है, यही धम प व है । और अब इसके सरे स ातोका अवलोकन कर ।
२. तप-इस वपय सबंधी भी इसने जो उपदे श दया है, वह अनुपम है। और तपके महान योगसे
मने मालवा दे शका रा य पाया है, ऐसा कहा जाता है, यह भी स चा ही है। मनोगु त, वचनगु त और
कायगु त, ये तीन इसने तपके भाग कये है। ये भी स चे है। ऐसा करनेसे उ प होनेवाले सभी वकार
शात होते-होते काल मसे वलीन हो जाते है । जससे बँधनेवाला कमजाल क जाता है। वैरा य स हत
धम भी पाला जा सकता है। और अतमे यह महान सुख द स होता है। दे ख | इसका यह स ात
भो कैसा उ कृ है |
३. भाव-भावके वपयमे इसने कैसा उपदे श दया है । यह भी स चा ही है। भावके बना धम
कैसे फलीभूत हो ? भावके बना धम हो ही कहाँसे ? भाव तो धमका जीवन है। जब तक भाव न हो
तब तक कौनसी व तु भली तीत हो सकती थी? भावके बना धमका पालन नह हो सकता। तब
धमके पालनके बना मु कहाँसे हो सकती है ? इसका यह स ात भी स चा और अनुपम है।
४. चय-अहो । चय सबधी इसका स ात भी कहाँ कम है ? सभी महा वकारोमे काम
वकार अ ेसर है। उसका दमन करना महा घट है। इसे दहन करनेसे फल भी महा शा तकारक होता

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है, इसमे अ तशयो या? कुछ भी नह । सा य वषयको स करना तो घट ही है। इसका यह
स ात भी कैसा उपदे शजनक है।
५. संसार याग-साधू होने सबधी इसका उपदे श कुछ लोग थ मानते है। परंतु यह उनक
केवल मूखता है। वे ऐसा मत द शत करते है क तब ीपु पका जोडा उ प होनेक या आव-
यकता थी? परतु यह उनक ा त है। सारी सृ कही मो जानेवाली नह है, ऐसा जेनका एक
वचन मने सुना था। तदनुसार थोडे ही जीव मो वासी हो सकते है, ऐसा मेरी अ पबु मे आता है।
फर संसारका याग भी थोडे ही जीव कर सकते है, यह बात कौन नह जानता ? ससार याग कये बना
मु कहाँसे हो ? ीके शृगारमे लु ध हो जानेसे कतने ही वषयोमे लु ध हो जाना पड़ता है। सतान
उ प होती है । उसका पालन-पोषण और सवधन करना पड़ता है। मेरा-तेरा करना पड़ता है । उदर-
भरणा दके लये पचसे ापारा दमे छलकपटका आयोजन करना पड़ता है। मनु योका ठगनेके लये
'सोलह पाँचे बयासी और दो गये छू टके' ऐसे पंच करने पड़ते है । अरे । ऐसी तो अनेक झझटोमे जुटना
पडता है । तब फर ऐसे पचोमेसे मु को कौन स कर सकनेवाला था? और ज म, जरा, मरणके
खोको कहाँसे र करने वाला था? पचमे रहना ही वधन है। इस लये इसका यह उपदे श भी महा
मगलदायक है।
६.सुदेवभ -इसका यह स ात भी जैसा-तैसा नह है। जो केवल संसारसे वर होकर,
स य धमका पालन करके अखड मु म वराजमान ए ह, उनक भ यो न सुख द हो? उनक
भ के वाभा वक गुण अपने सरसे भववधनके ख र कर द, यह बात कोई सशवा मक नह है। ये
अखड परमा मा कुछ राग या े षवाले नह है, परतु परम भ का यह फल वत होता है। अ नका
वभाव जैसे उ णता हे वैस,े ये तो राग े षर हत हे परतु इनक भ याय से गुणदायक है। परतु जो

२८
भगवान ज म, जरा तथा मरणके खमे डु ब कय लगाया करते है, वे या तार सकते है ? प थर प थर-
को कैसे तारे? इस लये इसका यह उपदे श भी ढ दयसे मा य करने यो य है।
७. नः वाथ गु - जसे कसी भी कारका वाथ नह है वैसा गु धारण करना चा हये, यह
बात इसक एकदम स ची ही है। जतना वाथ होता है उतना धम और वैरा य कम होता है। सभी
धमे मैने धमगु ओका वाथ दे खा, केवल एक जैन धमके सवा | उपा यमे आते व चपट चावल या
आधी अज ल वार लानेका भी इ होने बोध नही दया और इसी तरह इ होने कसी भी कारका वाथ
नही चलाया। तब ऐसे धमगु ओके आ यसे मु यो न मले ? मले ही। इनका यह उपदे श महा
धेय कर है। नाव प थरको तारती है, इसी तरह सुगु उपदे श दे कर अपने श योको तार सकता है, इसमे
अस य या?
८. कम-सुख और ख, ज म और मरण आ द सब कमके अधीन है। जीव अना दकालसे जैसे
कम करता आ रहा है वैसे फल पा रहा है। यह उपदे श भी अनुपम ही है। कुछ कहते है क भगवान अपराध
मा करे तो यह हो सकता है। पर तु नह । यह उनक भूल है। इससे वह परमा मा भी राग े षवाला
स होता है। और इससे काल मसे मनमाना बरताव करना होता है। इस तरह इन सभी दोषोका
कारण परमे र होता है। तब यह बात स य कैसे कही जाय? जै नयोका स ात है क फल कमानुसार
होता है, यही स य है। ऐसा ही मत उनके तीथकरोने भी द शत कया है। इ होने अपनी शसा नह
चाही । और य द चाहे तो वे मानवाले ठहर। इस लये उ होने स य पत कया है। क तके बहाने
धमवृ नह क । तथा उ होने कसी भी कारसे अपने वाथक ग ध तक भी नह आने द । कम
सभीके लये बाधक है । मुझे भी कये ए कम नह छोडते और उ हे भोगना पडता है। ऐसे वमल वचन
भगवान ी वधमानने कहे है। और फर ा त स हत वणन करके उ हे ढ कया है। भरते रजीने
भगवान ीऋषभदे वजीसे पूछा-'हे भगवन् । अब अपने वशमे कोई तीथकर होगा?' तब आ द तीथकर
भगवानने कहा-'हाँ, यह बाहर बैठा आ वदडी वतमान चौबीसीमे चौबीसवाँ तीथकर होगा।' यह
सुनकर भरते रजी आन दत हए, और वनययु अ भव दन करके वहाँसे उठे । बाहर आकर दडीको
वदन कया और सू चत कया-'तेरा अभीका परा म दे खकर मै कुछ वदन नह करता; परतु तू
वतमान चौवीसीमे भगवान वधमानके नामसे अ तम तीथकर होनेवाला है, उस परा मके कारण वदन
करता ँ।' यह सुनकर दडीजीका मन फु लत आ, और अह आ गया-'मै तीथकर होऊँ इसमे या
आ य ? मेरा दादा कौन है ? आ तीथकर ीऋपभदे वजी। मेरा पता क न है ? छ ख डके राजा-
धराज च वत भरते र । मेरा कूल कौनसा है ? इ वाकु। तब मै तीथकर होऊँ इसमे या ?' इस
कार अ भमानके आवेशमे हँस, े खेले और उछले-कदे , जससे स ाईस े व अ न भव बाँधे और उन
भवोको भोगनेके बाद वतमान चौबीसीके अ तम तीथकर भगवान महावीर वामी ए। य द उ होने
वाथ या क तके लये धम वतन कया होता नो वे इस बातको गट भी करते ? पर तु उनका धम
वाथर हत था। इस लये सच कहनेसे यो कते ? दे खो भाई | मुझे भी कम नह छोड़ते, तो आपको
कैसे छोडगे? इस लये इनका यह कम स ात भी स चा है। य द उनका वाथ और क तके बहाने
भुलावा दे नेवाला धम होता तो वे यह बात द शत भी करते ? ज हे वाथ हो वे तो ऐसी बातको
केवल भू ममे ही दफना दे , और दखावे क, नही नह , मुझे कम पीडा नह दे ते। मै सबको जैसे चा ँ
वसे कर सकता ँ, तरनतारन ँ ऐसी शान बघारते। परंतु भगवान वधमान जैसे न वाथ और
स य न को अपनी झूठ शसा कहना-करना छाजे ही यो ? ऐसे न वकारी परमा मा ही यथाथ उपदे श दे
सकते है। इस लये इनका यह स ात भी कसी भी कारसे शका करने यो य नह है।
९. स य -स य अथात् भली । न प तासे सदसद्का वचार करना । इसका नाम
२९
ववेक और दवेक अथात् स य । इनका यह बोध सपूण स य ही है। ववेक के बना स य
कहाँसे सूझे? और स य सूझे बना स यका हण भी कहाँसे हो? इस लये सभी कारसे स य का
उपयोग करना चा हये । यह भी इसका सूचन या कम ेय कर है?
हे पापी आ मन् । तूने अनेक थलो पर जैन मुनी रोको हसा स हत इन नौ स ातोका उप-
दे श दे ते ए सुना था। पर तु उस समय तुझे भली ही कहाँ थी? इसके ये नवो स ात केसे नमल
है । इसमे तलभर बढती या जी भर घटती नह है। इनके धममे क चत् वरोध नह है। इसमे जतना
कहा है उतना स य ही है। मन, वचन और कायाका दमन करके आ माक शा त चाहो । यही इसका
थल- थल पर उपदे श है। इसका येक स ात सृ नयमका वाभा वक पसे अनुसरण करता है।
इसने शील सबधी जो उपदे श दया है, वह कैसा भावशाली है। पु षोको एक प नी त और योको
एक प त तका तो (ससार न छोडा जा सके, और कामका दहन न हो सके तो) पालन करना ही चा हये।
इसमे उभय प मे कतना फल है । एक तो मु माग और सरा ससारमाग, इन दोनोमे इससे लाभ है।
आज केवल ससारका लाभ तो दे ख । एक प नी त ( ीको प त त) को पालते ए य मे भी उसक
सुमनोकामना धारणानुसार पूरी हो जाती है। यह क तकर और शरीरसे भी आरो य द है। यह भी
ससारी लाभ है। पर ीगामी कल कत होता है। आतशक, मेह, और य आ द रोग सहन करने पड़ते
ह। और सरे अनेक राचार लग जाते है। यह सब ससारमे भी खकारक है, तो वे मु मागमे कस-
लये ःख द न हो ? दे ख, कसोको अपनी पुनीत ीसे वैसा रोग आ सुना है ? इस लये इसके स ात
दोनो प ोमे ेय कर है। स चा तो सव अ छा ही हो न? गरम पानी पीने सबधी इसका उपदे श
सभीके लये है और अ तमे जो वैसा न कर सके वह भी छाने बना तो पानी न ही पये। यह स ात
दोनो प मे लाभदायक है। पर तु हे रा मन् | तु मा ससारप ही ( तेरी अ पबु है तो) दे ख ।
एक तो रोग होनेका सभव कम ही रहता है। अनछना पानी पीनेसे कतने- कतने कारके रोगोक उ प
होतो है । ना , हैजा आ द अनेक कारके रोगोक उ प इसीसे होती है। जब यहाँ प व पसे
लाभकारक है, तब मु प मे कस लये न हो? इन नौ स ातोमे कतना अ धक त व रहा है। जो
एक स ा त है वह एक जवाहरातक लड़ी है। वैसे नौ स ातोसे बनी ई यह नौलडी माला जो अंत -
करण पी गलेमे पहने वह कस लये द सुखका भोका न हो ? यथाथ एव न वाथ धम तो यह एक
ही है। हे रा मन् । यह काला नाग अब करवट बदल कर तेरी ओर ताकनेको तैयार आ है।
इस लये तू अब इस धमके 'नवकार तो 'का मरण कर। और अब आगेके ज ममे भी इसी धमको
मॉग । ऐसा जब मेरा मन हो गया और “नमो अ रहताण" यह श द मुखसे कहता ँ तब सरा कौतुक
आ । जो भयकर नाग मेरे ाण लेनेके लये करवट बदल रहा था वह काला नाग वहाँसे धीरेसे खसक-
कर बाबीक ओर जाता आ मालूम आ। इसके मनसे ही ऐसी इ छा उ प ई क मै धीरे-धीरे
खसक जाऊँ, नही तो यह बेचारा पामर ाणी अब भयमे ही कालधमको ा त हो जायेगा । ऐसा सोच
कर वह खसककर र चला गया। र जाते ए वह बोला-'हे राजकुमार । तेरे ाण लेनेमे म एक
पलक भी दे र करनेवाला न था, पर तु तुझे शु वैरा य और जैनधममे नम न दे खकर मेरा दल धीरे-
धीरे पघलता गया । वह ऐसा तो कोमल हो गया क हद हो गयी। यह सब होनेका कारण मा जैन-
धम ही है। तेरे अत'करणमे जब उस धमक तरगे उठ रही थी तब मेरे मनमे उसी धमक तरगसे तुझे
न मारना ऐसा फु रत हो आया था। जैसे-जैसे धीरे-धीरे तुझपर उस धमका असर बढता गया वैस- े
वैसे मेरी सुमनोवृ तेरी ओर होती गयी । अ तमे तूने जब “नमो अ रहताण" इतना कहा तब तुझे पूरा
जैना तक आ दे खकर मने अपना शरीर खसका दया । इस लये तु मन, वचन और कायासे उस धमका
पालन करना । तू यह मान क म जैनधमके तापसे ही अब तुझे जदा छोड़ रहा ँ। यह धम तो धम

३०
ीमद् राजच
ही है। रे। मुझे मनु यज म मला नह है। नह तो इस धमका ऐसा सेवन करता क बस | परत जैसा
मेरा कम भाव । तो भी मुझसे जैसे हो सकेगा वैसे मै इस धमका शु आचरण क ँ गा । हे राजकुमार ।
अब तू आनदसे पैर नीचे रख कर अपनी तलवारको यानमे डाल | जनशासनके शृंगार- तलक प महा-
मुनी र यहाँ सामनेवाले सु दर बागमे बराजते है। इस लये तु वहाँ जा। उनके मुखकमलसे प व
उपदे शका वण करके अपना मानवज म कृताथ कर।' हे महामु नराज | म णधरके ऐसे वचन सुनकर
म तो दग रह गया। कैसा जैनधमका ताप । मै मौतके पजेसे छटक गया । तब मै सचमुच दं ग तो रह
गया, परतु उस आ यके साथ अहो । जीवनदान दे नेवाला तो यही जैनधम है। उस समय मेरे आनदका
कोई पार नह रहा। मेरा सारा शरीर ही मानो हषसे बना आ हो ऐसा हो गया, और तुरत ही म उस
दया करनेवाले नागदे वको णाम करके और तलवारको यानमे रखकर सरे रा तेसे होकर आपका
प व दशन करनेके लये इस तरफ मुडा । अब मुझे उस धमक यथाथ सू मताका उपदे श कर। एक
नवकार म के तापसे मैने जीवनदान पाया तो इस सारे धमका पालन करते ए या नह हो सकेगा?
हे भगवन् । अब आप मुझे उस नौलडी मालाका अनुपम उपदे श दे ।
शा ल व डतवृ
"पा या मोद मु न सुणी मन वषे, वृ ांत राजा तणो,
पाछ नज च र ते वरण ु, उ साह राखी घणो;
थाशे यां मन भूपने ढ दया, ने बोध जारी थशे,
ीजो खंड खचीत मान सुखदा, आ मो माला वषे।
(अपूण)
१२
ी परमा मने नमः।
ॐ नमः स चदानंदाय ।
स जनता तीन भुवनका तलक प है। -
स जनता स ची ी तके मू यसे भरपूर चमकदार हीरा है।
स जनता आनदका प व धाम है।
स जनता मो का सरल और उ म राजमाग है।
स जनता धम वषयक यारी जननी है।
स जनता ानीका परम एव द भूषण है।
स जनता सुखका ही केवल थान है।
स जनता ससारक अ न यतामे मा न यता प है।
स जनता मनु यके द भागका का शत सूय है।
स जनता नी तके मागमे समझदार मागदशक है।
स जनता नरतर तु तपा ल मी है।
स जनता सभी थलोमे ेम करनेका बल मूल है ।
स जनता भव एव परभवमे अनुसरणके यो य सुदर सड़क है।'
( सरे थलमे इसका ववेचन करनेका वचार है।)
'भावाथ-राजाका वृ ात सुनकर मु न मनमे मु दत ए, और प ात् अ त उ साहसे अपना च रत
सुनाया । उधर राजाके मनम दया ढ होगी और इधर मु नराजका उपदे श जारी होगा। इस तरह इस मो -
मालाके तीसरे खउको सुखकारी अव य मानो।

१७व वषसे पहले


३१
आप इस स जनताका स मान करते है यह सचमुच इस लेखकके अतःकरणको ठडा करनेके लये
प व औषध है।
___ यारे भाई। इस स जनता सबंधी मुझमे कुछ भी ान नह है, तो भी जो वाभा वक पसे
लखना सूझा उसे यहाँ द शत करता ँ।
वृ दसतसईमे एक दोहा ऐसे भावाथसे सुशो भत है क-"कानको बीध कर बढ़ाया जा सकता
है। परतु ऑखके लये वैसा नह हो सकता।" इसी तरह व ा बढानेसे बढती है, परंतु स जनता बढाये
नही बढती ।
___ इस महान क वराजके मतका ब धा हम अनुसरण करेगे तो कुछ अयो य नही माना जायेगा । मेरे
मतके अनुसार तो स जनता ज मके साथ ही जोडी जानी चा हये । ई रकृपासे अ त य नसे भी ा त
अव य होती है । मन जीतनेक यह स ची कसौट है ।
स जनताके लये शंकराचायजी एक ोकमे ऐसा भावाथ द शत करते है क (स सगका) एक
ण भी, मूखके ज मभरके सहवासक अपे ा, उ म फलदायक स होता है।
ससारम स जनता ही सुख द है ऐसा यह ोक बताता है-
___ संसार वषवृ य े फले अमृतोपमे।
- का ामृतरसा वाद आलापः स जनैः सह ॥'
इसके बना भी यह समझा जा सकता है क जो नी त है वह सकल आनदका वधान है।
१३
ी शां तनाथ भगवान
तु त
'प रपूण ाने प रपूण याने,
प रपूण चा र बो ध व दाने;
नीरागी महाशांत मू त तमारी,
भु ाथना शा त लेशो अमारी।
वऊ उपमा तो अ भमान मा ,
अ भमान टा या तणुं त व ता ं ;
छतां बाल पे र ो शर नामी,
वीकारो घणी शु ए शां त वामी।
व पे रही शातता शा त नामे,
बरा या महा शा त आनंद घामे।
(अपूण)
*ससार पी वषवृ के अमृततु य दो फल है-एक का ामतका रसा वाद और सरा स जनोके साथ वातालाप ।
'भावाथ-हे शा तनाथ भगवन् । माप ान, यान, और चा रमम प रपूण है एव बो ध व दे नेम प रपूण
है, आप वीतराग है और आपक मू त महाशात है। हे शा त भो । हमारी ाथना वीकार कर। य द म आपके
लये कोई उपमा ँ, तो यह मेरा अ भमान ठहरता है, और आपका त ववोध तो अ भमानका नाशक है। फर भी म
बाल पम अ त शु भावसे सर झुकाकर व दना कर रहा ँ। हे शा तनाथ । मेरी व दना वीकार कर। आपके
व प म शातता है, आपके नामम शा त है, और आप महाशा त एव आन दके धाम म वराजमान है।
३२
भावनाबोध
( ादशानु े ा- व पदशन)
उपो ात
स चा सुख कसम है ?
चाहे जैसे तु छ वषयमे वेश होनेपर भी उ वल आ माओक सहज वृ बैरा यमे जुट जाने
क होती है। बा से जब तक उ वल आ मा ससारके मा यक पंचमे दखायी दे ते ह तब तक
इस कथनक स कदा चत् लभ है, तो भी सू म से अवलोकन करनेपर इस कथनका माण सवथा
सुलभ है, यह नःसशय है।
एक छोटे से छोटे ज तुसे लेकर एक मदो म हाथी तक सभी ाणी, मनु य और दे वदानव इन
सबक वाभा वक इ छा सुख और आनद ा त करनेक है। इस लये वे उसक ा तके उ ोगमे जुटे
रहते ह, परतु ववेक वु के उदयके बना वे उसमे व मको ा त होते है । वे ससारमे नाना कारके
सुखोका आरोप करते है । अ त अवलोकनसे यह स है क वह आरोप वृथा है । इस आरोपको अनारोप
करनेवाले वरले मनु य ववेकके काश ारा अ त पर तु अ य वषयको ा त करनेके लये कहते
आये है । जो सुख भयवाले ह वे सुख नह है पर तु ख है। जस व तुको ा त करनेमे महाताप है, जस
व तुको भोगनेमे इससे भी वशेष ताप है, तथा प रणाममे महाताप, अन त शोक और अन त भय है, उस
व तुका सुख मा नामका सुख है, अथवा है ही नही । इस लये ववेक उसमे अनुर नह करते । संसार
के येक सुखसे वरा जत राजे र होनेपर भी, स य त व ानक साद ा त होनेसे, उसका याग करके
योगमे परमान द मानकर स य मनोवीरतासे अ य पामर आ माओको भतृह र उपदे श दे ते ह क-
भोगे रोगभयं कूले यु तभय व े नृपाला यं,
माने दै यभय बले रपुभयं पे त या भयम् । ।
शा े वादभयं गुणे खलभयं काये कृतांता यं,
सव ब तु भया वतं भु व नृणां बैरा यमेवाभयम् ॥
भावाय-भोगमे रोगका भय है, कुलमे पतनका भय है, ल मीमे राजाका भय है। मानमे द नता
का भय है, बलमे श का भय है, पसे ीको भय है। शा मे वादका भय है, गुणमे खलका भय है, और
काया पर कालका भय है, इस कार सभी व तुएँ भयवाली है, एकमा वैरा य ही अभय है ।
महायोगी भतृह रका यह कथन सृ मा य अथात् सभी उ वल आ माओको सदै व मा य रखने
यो य है। इसमे सारे त व ानका दोहन करनेके लये इ होने सकल त ववे ा के स ातरह य प और
संसारशोकका वानुभूत ता श च तुत कया है। इ ह ने जन- जन व तुओपर भयक छाया द शत

३३
१७वे वषसे पहले
ानी के अ ानी जन, सुख ःख र हत न कोय ।
ानी वेदे धैययो, अ ानी वेदे रोय ॥
मं तं औषध नह , जेयी पाप पलाय।
वीतराग वाणी वना, अवर न कोई उपाय ॥
वचनामृत वीतरागनां, परम शांतरस मूल ।
औषष जे भवरोगनां, कायरने तकूल ॥
ज म, जरा ने मृ यु, मु य ःखना हेतु ।
कारण तेनां बे कयां, राग े ष अणहेतु ॥
नयी पय वेह वषय वधारवा।
नयी पय दे ह प र ह धारवा ॥
भावाथ-जानी या अ ानी कोई भी मनु य सुख खसे र हत नह है। ानी सुख खको धैयसे भोगता
है और अ ानी रो रोकर भोगता है।
ससारम कोई भी म , त और औषध नह है क जससे पाप र कया जाये । वीतरागक वाणीके सवाय
पापका नाशक अ य कोई उपाय नही है ।
वीतरागके वचनामृत परम शातरसके मूल ह, जो भवरोगके औषध है, पर तु कायरके लये तकूल है ।
ज म, जरा और मृ यु सके मु य हेतु ह । अनाव यक राग और े ष ही उनके दो कारण कहे ह।
हे जीव । तूने वषयको बढानेके लये दे ह धारण नह क है, और प र हको अपनानेके लये भी दे ह धारण
नही क है।

३५
क है वे सब व तुएँ ससारमे मु यत. सुख प मानी गयी ह । ससारका सव म सुखका साधन जो भोग
है वह तो रोगका धाम ठहरा । मनु य ऊँचे कुलसे सुख मानता है, वहाँ पतनका भय दखाया। ससारच
मे वहारका ठाठ चलानेके लये दड प ल मी है वह राजा इ या दके भयसे भरपूर है। कोई भी कृ य
करके यश-क तसे मान ा त करना या मानना, ऐसो ससारके पामर जीवोक अ भलाषा है, तो उसमे
महाद नता और द र ताका भय है । बल-परा मसे भी ऐसी हो उ कृ ता ा त करनेक चाह रही है, तो
उसमे श ुका भय रहा आ है । प-का त भोगीके लये मो हनी प है तो उसे धारण करनेवाली याँ
नरतर भययु ही ह। अनेक कारसे गूंथी ई शा जालमे ववादका भय रहा है । कसी भी सासा रक
े े ो ै े ै
सुखका गुण ा त करनेसे जो आनद माना जाता है, वह खल मनु यक नदाके कारण भया वत है।
जसमे अनत यता रही है वह काया एक समय काल पी सहके मुखमे पडनेके भयसे भरी है। इस कार
ससारके मनोहर परतु चपल सुख-साधन भयसे भरे ए है। ववेकसे वचार करनेपर जहाँ भय है वहाँ
केवल शोक ही है, जहाँ शोक हो वहाँ सुखका अभाव है, और जहाँ सुखका अभाव है वहाँ तर कार करना
यथो चत है।
योगी भतह र एक हो ऐसा कह गये ह ऐसा नही है। कालानुसार सृ के नमाण समयसे लेकर
भतृह रसे उ म, भतृह रके समान और भतृह रसे क न ऐसे अस य त व ानी हो गये है। ऐसा कोई
काल या आय दे श नह है जसमे त व ा नयोक उ प बलकुल न ई हो । इन त ववे ाओने ससार-
सुखक येक साम ोको शोक प बताया है, यह इनके अगाध ववेकका प र गाम है। ास, वा मी क,
शकर, गौतम, पतज ल, क पल और युवराज शु ोदनने अपने वचनोमे मा मक री तसे और सामा य
रो तसे जो उपदे श दया है, उसका रह य नीचेके श दोमे कुछ आ जाता है -
___ "अहो लोगो | समार पी समु अनत एव अपार है। इसका पार पानेके लये पु षाथका उपयोग
करो | उपयोग करो ।।"
ऐसा उपदे श करनेमे इनका हेतु येक ाणीको शोकसे मु करनेका था। इन सब ा नयोक
अपे ा परम मा य रखने यो य सव महावीरके वचन सव यही है क ससार एकात और अनत शोक प
तथा ख द है। अहो भ लोगो | इसमे मधुरी मो हनी न लाकर इससे नवृ होओ। नवृ होओ।।
महावीरका एक समयमा के लये भी ससारका उपदे श नह है। इ होने अपने सभी वचनोमे यही
द शत कया है तथा वाचरणसे वैसा स भी कर दया है | कचनवण काया, यशोदा जैसी रानी, अपार
सा ा यल मी और महा तापो वजन प रवारका समूह होनेपर भी उनक मो हनीका यागकर ान-
दशनयोगपरायण होकर इ होने जो अ तता द शत क है वह अनुपम है। यहीका यही रह य कट
करते ए प व उ रा ययनसू के आठव अ ययनक पहलो गाथामे महावीर क पल केवलीके समोप
त वा भलाषीके मुखकमलसे कहलवाते ह :-
अधवे असासय म ससार म खपउराए।
क नाम ज क मं जेणाहं गई न ग छ जा ॥
'अ ुव एव अशा त ससारमे अनेक कारके ःख ह, मै ऐसी कौनसी करनी क ं क जस करनी
से ग तमे न जाऊँ ?" इस गाथामे इस भावसे होनेपर क पलमु न फर आगे उपदे श चलाते ह -
अधुवे असासप म-ये महान त व ान साद भूत वचन वृ मु योगी रके सतत वेरा यवेगके
है। अ त बु शा लयोको ससार भी उ म पसे मा य रखता है, फर भी वे बु शाली उसका याग करते
है, यह त व ानका तु तपा चम कार है। वे अ त मेधावी अतमे पु पाथक फुरणा कर महायोग
साधकर आ माके त मरपटको र करते है । ससारको शोका ध कहनेमे त व ा नयोक ा त नही
है, परतु ये सभी त व ानी कही त व ानचं को सोलह कलाओसे पूण नह होते, इसी कारणसे सव

३६
ीमद् राजच
महावीरके वचन त व ानके लये जो माण दे ते ह वे मह वपूण, सवमा य और सवथा मगलमय ह।
महावीरके तु य ऋषभदे व जैसे जो जो सव तीथकर ए ह, उ होने न पृहतासे उपदे श दे कर जगत्-
हतैषीक पदवी ा त क है।
ससारमे जो एकात और अनत भरपूर ताप है वह ताप तीन कारका है-आ ध, ा ध और
उपा ध । इससे मु होनेके लये सभी त व ानी कहते आये है। ससार याग, शम, दम, दया, शा त,
मा, धृ त, अ भु व, गु जनोक वनय, ववेक, न पृहता, चय, स य व और ान, इन सबका
सेवन करना, ोध, लोभ, मान, माया, अनुराग, अनबन, वषय, हसा, शोक, अ ान और म या व, इन
सबका याग करना। यही सभी दशनोका सामा यत. सार है । नीचेके दो चरणोमे इस सारका समावेश
हो जाता है-
भु भजो नी त सजो, परठो परोपकार ,
सचमुच । यह उपदे श तु तपा है । यह उपदे श दे नेमे कसीने कसी कारक और कसीने कसी
कारक वच णता द शत क है । यह सब उ े शक से तो समतु लत-से दखायी दे ते है। परंतु
सू म उपदे शकके तौरपर स ाथ राजाके पु मण भगवान थम पदवीके धनी हो जाते ह। नवृ के
लये जन- जन वषयोको पहले बताया है उन-उन वषयोके स चे व पको समझकर सवाशमे मगलमय
बोध दे नेमे ये राजपु बाजी ले गये ह। इसके लये उ ह अनत ध यवाद छाजता है।
इन सब वषयोका अनुकरण करनेका या योजन अथवा या प रणाम है ? अब इसका नणय
कर। सभी उपदे शक यो कहते आये है क इसका प रणाम मु ा त करना, और योजन खक
नवृ है । इसी लये सब दशनोमे सामा यतः मु को अनुपम े कहा है। तीय अग सू कृतागके
थम ुत कधके छठे अ ययनक चौबीसवी गाथाके तीसरे चरणमे कहा है क-
न वाणसे ा जह स वध मा।
सभी धम मे मु को े कहा है।
साराश यह है क मु अथात् ससारके शोकसे मु होना । प रणाममे ानदशना द अनुपम
व तुओको ा त करना । जसमे परम सुख और परमानदका अखंड नवास है, ज म-मरणक वडबनाका
अभाव है, शोक एव खका य है, ऐसे इस वै ा नक वषयका ववेचन अ य सगमे करगे। ।
यह भी न ववाद मा य रखना चा हये क उस अनंत शोक एव अनत खक नवृ इह
सांसा रक वषयोसे नह है । धरसे धरका दाग नह जाता, परतु जलसे वह र हो जाता है, इसी

े े ी ो ी ी े ै
तरह शृगारसे या शृगार म त धमसे ससारक नवृ नही होती । इसी लये वैरा यजलक आव यकता
न'सशय स होती है, और इसी लये वीतरागके वचनोमे अनुर होना उ चत है । नदान इससे वषय-
प वषका ज म नह होता। प रणाममे यही मु का कारण है। इन वीतराग सव के वचनोका
ववेकबु से वण, मनन और न द यासन करके हे मनु य | आ माको उ वल कर।
थम दशन
इसमे वैरा यबो धनी कुछ भावनाओका उपदे श करगे । वैरा य एव आ म हतैषी वषयोक सु ढता
होनेके लये त व ानी बारह भावनाएं बताते ह-
१. अ न यभावना-शरीर, वैभव, ल मी, कुटु ब-प रवार आ द सव वनाशी ह। जीवका मूल
धम अ वनाशी हे, ऐसा च तन करना, यह पहली अ न यभावना ।

३७
१७ वाँ वष
२. अशरणभावना-संसारमे मरणके समय जीवको शरणमे रखनेवाला कोई नही है, मा एक शुभ
धमक शरण ही स य है, ऐसा चतन करना, यह सरी अशरणभावना ।
३. संसारभावना-इस आ माने ससारसमु मे पयटन करते-करते सव भव कये ह। इस ससार
बेड़ीसे म कब छु टूं गा? यह संसार मेरा नह है, म मो मयी ,
ँ इस तरह चतन करना, यह तीसरी
संसारभावना।
४. एक वभावना-यह मेरा आ मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा, अपने कये
ए कम को अकेला भोगेगा, अंत करणसे इस तरह चतन करना, यह चौथी एक वभावना ।
५. अ य वभावना-इस ससारमे कोई कसीका नह है, इस तरह चतन करना, यह पाँचवी,
अ य वभावना।
६. अशु चभावना-यह शरीर अप व है, मल-म क खान है, रोग-जराका नवासधाम है, इस
शरीरसे म यारा है, इस तरह चतन करना, यह छठ अशु चभावना ।
७. आ वभावना-राग, े ष, अ ान, म या व इ या द सव आ व ह, इस तरह चतन करना,
यह सातवी आ वभावना।
८. संवरभावना- ान, यानमे वतमान होकर जीव नये कम नह बाँधता, यह आठवी सवर-
भावना।
९. नजराभावना- ानस हत या करना यह नजराका कारण है, इस तरह चतन करना, यह
नौवी नजराभावना।
१०. लोक व पभावना-चौदह राजूलोकके व पका वचार करना, यह दसवी लोक व प-
भावना।
११. बो षतुलभभावना-संसारमे मण करते ए आ माको स य ानको साद ा त होना
लभ है, अथवा स य ान ा त आ तो चा र -सव वर तप रणाम प धम ा त होना लभ है, इस
तरह चतन करना, यह यारहवी बो ध लभभावना ।
१२. धम लभभावना-धमके उपदे शक तथा शु शा के बोधक गु और उनके उपदे शका वण
मलना लभ है, इस तरह चतन करना, यह बारहवी धम लभभावना ।
इस कार मु सा य करनेके लये जस वैरा यक आव यकता है उस वैरा यको ढ़ करनेवाली
बारह भावनागोमेसे कुछ भावनाओका इस दशनके अ तगत वणन करगे । कुछ भावनाएं कुछ वषयोमे बांट
द गयी ह, और कुछ भावनाओके लये अ य सगको आव यकता है, अतः यहाँ उनका व तार नह
कया है।
थम च
अ न यभावना
( उपजा त ) .
व ुत ल मी भुता पतंग, -
__ आयु य ते तो जळना तरंग;
पुरंदरी चाप अनंग रंग,
शुं राचीए यां णनो संग!

३८
ीमद् राजच
वशेषाथ-ल मी वजलीके समान है। जैसे बजलीका चमकारा हाकर वलीन हो जाता है,
वैसे ल मी आकर चली जाती है । अ धकार पतंगके रंगके समान है। पतगका रंग जैसे चार दनक चाँदनी
है. वैसे अ धकार मा थोडा समय रहकर हाथसे चला जाना है। आयु य पानीक हलोरके समान है।
जैसे पानोक हलोर आयो क गयी वैसे ज म पाया और एक दे हमे रहा या न रहा, इतनेमे सरी दे हमे
जाना पड़ता है। कामभोग आकाशमे उ प होनेवाले इ धनुषके सदश है। जैसे इ धनुप वषाकालमे
उ प होकर णभरमे वलीन हो जाता है वैसे यौवनमे काम वकार फलीभूत होकर राव थामे चले
जाते है । स ेपमे हे जीव । इन सभी व तुओका स ब ध णभरका है, इनमे ेमबधनक सॉकलसे बधकर
या स होना ? ता पय क ये सब चपल एव वनाशी ह, तू अखड एव अ वनाशी है, इस लये अपने
जैसी न य व तुको ा त कर ।

ी े
भखारीका खेद
ांत-इस अ न य और व वत् सुखके वषयमे एक ात कहते है-
एक पामर भखारी जगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी। इस लये वह बचारा लडखड़ाता
आ एक नगरमे एक सामा य मनु यके घर प ंचा। वहाँ जाकर उसने अनेक कारक आ जजी क ।
उसक गड़ गडाहटसे क णा होकर उस गृहप तको ीने घरमेसे जीमनेसे बचा आ म ा लाकर
उसे दया। ऐसा भोजन मलनेसे भखारी बहत आन दत होता आ नगरके बाहर आया । आकर एक
वृ के नीचे बैठा । वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओरं अपना बहत पुराना पानीका घड़ा रख दया, एक
ओर अपनी फटो पुरानी म लन गुदडो रखो और फर एक ओर वह वयं उस भोजनको लेकर बैठा ।
खुशी-खुशीसे उसने कभी न दे खे ए भोजनको खाकर पूरा कया। भोजनको वधाम प ँचानेके बाद सरहाने
एक प थर रखकर वह सो गया। भोजनके मदसे जरासी दे रमे उसक आँखे मच गयी । वह न ावश आ
क इतनेमे उसे एक व आया । मानो वह वयं महा राजऋ को ा त आ है, इस लये उसने सु दर
व ाभूषण धारण कये ह, सारे दे शमे उसक वजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आ ाका पालन
करनेके लये अनुचर खडे ह, आसपास छड़ीदार 'खमा । खमा !" पुकार रहे है, एक उ म महालयमे,
सु दर पलंगपर उसने शयन कया है, दे वांगना जैसी याँ उसक पॉव-च पी कर रही है, एक ओरस
मनु य पखेसे सुग धी पवन कर रहे है, इस कार उसने अपूव सुखक ा तवाला व दे खा। व ा।।
व थामे उसके रोमाच उ ल सत हो गये। वह मानो वयं सचमुच वैसा सुख भोग रहा है ऐसा वह मानने
लगा। इतनेमे सूयदे व बादलोसे ढं क गया, बजलो-क धने लगी, मेव महाराज चढ आये, सव अंधेरा छा
गया, मूसलधार वषा होगो ऐसा य हो गया, और घनगजनाके साथ बजलीका एक बल कडाका
मा । कडाकेक बल आवाजसे भयभीत हो वह पामर भखारी शी जाग उठा। जागकर दे खता है तो
न है वह दे श क न है वह नगरी, न है वह महालय क न है वह पलग, न ह वे चामरछ धारी क न है वे
छड़ीदार, न है वह ीवृ द क न है वे व ालंकार, न हे वे पखे क न है वह पवन, न है वे अनुचर क
न है वह आ ा, न हे वह सुख वलास क न है वह मदो म ता । दे खता है तो जस जगह पानीका पुराना
घड़ा पड़ा था उसी जगह वह पडा है, जस जगह फट -पुरानी गुदड़ी पड़ी थी उसी जगह वह फट -पुरानी
गुदड़ी पड़ी है। महाशय तो जैसे थे वैसेके वैसे दखायी दये । वय जैसे म लन और अनेक जाली-झरोखेवाल
व पहन रखे थे वेसेके वैसे वही व शरीरपर वराजते है । न तलभर घटा क न र ीभर बढा। यह
सब दे खकर वह अ त शोकको ा त आ। जस सुखाडबरसे मैने आन द माना, उस मुखमेसे तो यहाँ कुछ
भी नह है । अरे रे । मने व के भोग तो भोगे नही और मुझे म या खेद ा त आ। इस कार वह
वचारा भखारी ला नमे आ पड़ा।

३९
माण श ा- व मे जैसे उस भखारीने सुखसमुदायको दे खा, भोगा और आन द माना; वैसे
पामर ाणी संसारके व वत् सुखसमुदायको महान द प मान बैठे है। जैसे वह सुखसमुदाय जाग तमे
उस भखारीको म या तीत आ, वैसे त व ान पी जागृ तसे ससारके सुख म या तीत होते ह।
व के भोग न भोगे जानेपर भी जैसे उस भखारीको शोकक ा त ई, वैसे पामर भ जीव ससारमे
सुख मान बैठते ह, और भोगे एके तु य मानते है, पर तु उस भखारोक भाँ त प रणाममे खेद, प ा-
ाप और अधोग तको ा त होते है। जैसे व क एक भी व तुका स य व नही है, वैसे ससारक एक
भी व तुका स य व नह है। दोनो चपल और शोकमय है । ऐसा वचार करके बु मान पु ष आ मशेयको
खोजते ह।
इ त ी 'भावनाबोघ' यके थम दशनका थम च 'अ न यभावना' इस वषयपर स ा त वैरा यो-
पदे शाथ समा त आ।
तीय च
अशरणभावना
( उपजा त)
सव नो धम सुशण जाणी,
आरा य आरा य भाव आणी।
अनाथ एकात सनाथ थाशे,
एना वना कोई न बां सहाशे ॥
वशेषाथ-सव जने रदे वके ारा न पृहतासे उप द धमको उ म शरण प जानकर,
__ मन, वचन और कायाके भावसे हे चेतन | उसका तू आराधन कर, आराधन कर। तू केवल अनाथ प
है सो सनाथ होगा। इसके बना भवाटवी मणमे तेरी बाँह पकडनेवाला कोई नही है।
जो आ मा ससारके मा यक सुखको या अवदशनको शरण प मानते ह, वे अधोग तको ा त
करते ह, तथा सदै व अनाथ रहते है, ऐसा बोध करनेवाले भगवान अनाथी मु नका च र ार भ करते है,
इससे अशरणभावना सु ढ होगी।
अनाथी मु न
ा त-अनेक कारको लीलाओसे यु मगध दे शका े णक राजा अ डाके लये म डकु
नामके वनमे नकल पडा । वनक व च ता मनोहा रणी थी। नाना कारके त कु वहाँ नजर आ रहे
थे, नाना कारक कोमल व लकाएँ घटाटोप छायी ई थी, नाना कारके प ी आन दसे उनका सेवन
कर रहे थे, नाना कारके प योके मधुर गान वहाँ सुनायो दे रहे थे, नाना कारके फूलोसे वह वन छाया
आ था, नाना कारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, स ेपमे सृ सौदयका दशन प होकर वह वन
नंदनवनक तु यता धारण कर रहा था। वहाँ एक त के नीचे महान समा धमान पर सुकुमार एव सुखो-

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चत मु नको उस े णकने बैठे ए दे खा । उनका प दे खकर बह राजा अ य त आन दत ना। उस
अतु य उपमार हत पसे व मत होकर मनमे उनक शसा करने लगा-'अहो । इस मु नका कैसा
अ त वण है। अहो । इसका कैसा मनोहर प है। अहो । इस आयको फैसो अ त सौ यता है।
अहो । यह कैसी व मयकारक माके धारक है। अहो ! इसके अगसे वैरा यक कैसी उ म फरणारे।
अहो । इसक कैसी नल भता मालूम होती है | अहो | यह संय त कैसा नभय अ भु व न ता धारण
कये ए है | अहो | इसक भोगको न सगता कतनो सु ढ़ है।" यो चतन करते-करते मु दत होते-होते.
तु त करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, द णा दे कर उस मु नको वदन करके, न अ त समीप

•••••
४०
ीमद् राजच
अ त र वह बैठा। फर अंज लब होकर वनयसे उसने मु नको पूछा- "हे आय | आप शंसा करने
यो य त ण ह: भोग वलासके लये आपक वय अनुकूल है, ससारमे नाना कारके सुख है; ऋतु-
ऋतुके कामभोग, जलसंबंधी कामभोग, तथा मनोहा रणी योके मुखवचनोका मधुर वण होने
पर भी इन सबका याग करके मु न वमे आप महान उ म कर रहे ह, इसका या कारण? यह मुझे
अनु हसे क हये।"
__राजाके ऐसे वचन सुनकर मु नने कहा, "म अनाथ था। हे महाराजन् । मुझे अपूव व तुको ा त
करानेवाला तथा योग ेमका करनेवाला, मुझपर अनुकपा लानेवाला, क णा करके परम सुखका दे नेवाला
सु त्- म लेशमा भी कोई न आ । यह कारण मेरी अनाथताका था।"
े णक, मु नके भाषणसे मु कराया। "अरे! आप जैसे महान ऋ मानको नाथ यो न हो ?
ली जये, कोई नाथ नह है तो म होता ँ। हे भय ाण | आप भोग भो गये । हे संय त । म | जा तसे
लभ ऐसे अपने मनु य-भवको सफल क जये।"
अनाथीने कहा-"पर तु अरे े णक, मगधदे शके राजन् | तू वयं अनाथ है तो मेरा नाथ या
होगा ? नधन धना कहाँसे बना सके ? अवुध बु दान कहाँसे दे सके ? अ व ा कहाँसे दे सके ?
व या सतान कहाँसे दे सके ? जब तू वय अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा?" मु नके बचन से
राजा अ त आकुल और अ त व मत आ। जन वचनोका कभी वण नह आ, उन वचनोका य त-
मुखसे वण होनेसे वह शका त आ और बोला-“म अनेक कार के अ ोका भोगी , ँ अनेक कारके
मदो म हा थयोका धनी , ँ अनेक कारक सेना मेरे अधीन ह, नगर, नाम, अत.पुर, तथा चतु पादक
मेरे कोई यूनता नह है, मनु यस व धी सभी कारके भोग मुझे ा त ह, अनुचर मेरी आ ाका भली-
भाँ त पालन करते ह, पाँचो कारक सप मेरे घरमे है, सव मनोवा छत व तुएँ मेरे पास रहती ह।
ऐसा म जा व पमान होते ए भी अनाथ कैसे हो सकता है ? कही हे भगवन् | आप मृषा बोलते हो।"
मु नने कहा-“हे राजन् । मेरे कहे ए अथक उपप को तूने ठ क नही समझा । तू वय अनाथ है, पर तु
त स ब धी तेरी अ ता है। अब म जो कहता ँ उसे अ एव सावधान च से तू सुन, सुनकर फर
अपनी शंकाके स यास यका नणय करना । मने वय जस अनाथतासे मु न वको अंगीकृत कया है उसे म
थम तुझे कहता - ँ
कौशा बी नामक अ त ाचीन और व वध कारके भेदोको उ प करनेवाली एक सु दर नगरी
थी । वहाँ ऋ से प रपूण धनसचय नामके मेरे पता रहते थे । थम यौवनाव थामे हे महाराजन् । मेरी
आँखोमे अतु य एव उपमार हत वेदना उ प ई। ःख द दाह वर सारे शरीरमे वतमान आ।
श से भी अ तशय ती ण वह रोग वैरोक भां त मुझपर कोपायमान आ । आँखोक उस अस वेदनासे
मेरा म तक खने लगा । इ के व के हार सरीखी, अ यको भी रो भय उ प करानेवाली उस
अ यत-परम दा ण वेदनासे म ब त शोकातं था । शारी रक व म नपुण, अन य मं मूलके सु वै राज
मेरी उस वेदनाका नाश करनेके लये आये, अनेक कारके औषधोपचार कये परंतु वे वृथा गये । वे
महा नपुण गने जानेवाले वै राज मुझे उस रोगसे मु नह कर सके। हे राजन् । यही मेरी अनाथता
थी। मेरी आँखोक वेदनाको र करनेके लये मेरे पता सारा धन दे ने लगे, पर तु उससे भी मेरी वह वेदना
र नह ई। हे राजन् ! यही मेरी अनाथता थी। मेरी माता पु के शोकसे अ त खात ई, पर तु वह
भी मुझे उस रोगसे नही छु ड़ा सक , हे महाराजन् । यही मेरी अनायता थी। एक उदरसे उ प ए मेरे
ये एव क न भाई भरसक य न कर चुके परंतु मेरी वेदना र नह ई, हे राजन् । यही मेरी
अनायता थी। एक उदरसे उ प ई मेरी ये ा एवं क न ा भ ग नय से मेरा ःख र नह आ।
हे महाराजन् । यही मेरो अनाथता थी। मेरी ी जो प त ता, मुझपर अनुर और ेमवती थी, वह

४१
१७ वाँ वष
अ ुपूण आँख से मेरे दयको सोचती और भगोती थी। उसके अ -पानी दे नेपर और नाना कारके
उबटन, चूवा आ द सुगंधी तथा अनेक कारके फूल-चंदना दके ात अ ात वलेपन कये जानेपर
भी म उस यौवनवती ीको भोग नही सका। जो मेरे पाससे णभर भी र नह रहती थी, अ य
जाती नही थी, हे महाराजन् । ऐसी वह ी भी मेरे रोगको र नही कर सको, यही मेरी अनाथता
थी। यो कसीके ेमसे, कसीक औष धसे, कसोके वलापसे या कसीके प र मसे वह रोग उपशात नह
आ। मने उस समय पुन' पुन अस वेदना भोगी।
फर म अनंत ससारसे ख हो गया । य द एक बार म इस महा वडबनामय वेदनासे मु हो
जाऊँ तो खती, दतो और नरारभी याको धारण क ँ , यो च तन करता आ म शयन कर गया।
जब रा तीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका य हो गया, और मै नीरोग हो गया ।
मात, तात और वजन, बाधव आ दसे भातमे पूछकर मने महा मावान, इ य न हो और आरभो-
पा धसे र हत अनगार वको धारण कया। त प ात् म आ मा परा माका नाथ आ। सव कारके
जीवोका म नाथ ँ।" अनाथी मु नने इस कार उस े णकराजाके मनपर अशरण भावनाको ढ कया।
अब उसे सरा अनुकूल उपदे श दे ते ह-
"हे राजन् । यह अपना आ मा ही खसे भरपूर वैतरणीको करनेवाला है। अपना आ मा ही ू र
शा मली वृ के .खको उ प करनेवाला है । अपना आ मा ही मनोवा छत व तु पी ध दे नेवाली काम-
धेनु गायके सुखको उ प करनेवाला है। अपना आ मा ही नदनवनको भाँ त आनदकारी है। अपना
आ मा ही कमका करनेवाला है। अपना आ मा ही उस कमको र करनेवाला है। अपना आ मा ही
ो े ै ी ो े ै ी औ
खोपाजन करनेवाला है। अपना आ मा ही सुखोपाजन करनेवाला है। अपना आ मा ही म और
अपना आ मा ही वैरी है। अपना आ मा ही नकृ आचारमे थत और अपना आ मा ही नमल
आचारमे थत रहता है।" इस कार तथा अ य अनेक कारसे उस अनाथी मु नने े णक राजाको
ससारक अनाथता कह सुनायी। इससे घे णकराजा अ त सतु आ। वह अज लब होकर यो बोला,
"हे भगवन् । आपने मुझे भलीभाँ त उपदे श दया । आपने जैसी थी वैसी अनाथता कह सुनायी। हे मह ष ।
आप सनाथ, आप सबाधव और आप सधम ह, आप सव अनाथोके नाथ है। हे प व सय त । मै आपसे
मा माँगता ँ। ान पी आपक श ाको चाहता ँ। धम यानमे व न करनेवाले भोग भोगने सबधी,
हे महाभा यवान् | मने आपको जो आम ण दया त सबधी अपने अपराधक नत-म तक होकर मा
माँगता ँ।" इस कार तु त करके राजपु ष-केसरी परमान दको पाकर रोमाचस हत द णा दे कर
स वनय वदन करके व थानको चला गया।
माण श ा--अहो भ ो । महातपोधन, महामु न, महा ावान, महायश वी, महा न ंथ और
महा ुत अनाथी मु नने मगधदे शके राजाको अपने बीते ए च र मे जो बोध दया है वह सचमुच
अशरणभावना स करता है । महामु न अनाथीके ारा सहन कये गये खोके तु य अथवा इससे अ त
वशेष अस .ख अनंत आ मा सामा य से भोगते ए दखायी दे ते ह। त सवधी तुम क चत्
वचार करो । ससारमे छायी ई अन त अशरणताका याग करके स य शरण प उ म त व ान और
परम सुशीलका सेवन करो, अ तमे ये हो मु के कारण प ह। जस कार संसारमे रहे ए अनाथी
अनाथ थे, उसी कार येक आ मा त व ानको उ म ा तके बना सदै व अनाथ ही हे। सनाथ होनेके
लये पु षाथ करना यही ेय है।
इ त ी 'भावनावोघ' यके थम दशनके तीय च मे 'अशरणभावना' के उपदे शाथ महा न ंथका
च र समा त आ।

४२
ीमद् राजच
तृतीय च
एक वभावना
( उपजा त ).
शरीरमा ा ध य थाय,
ते कोई अ ये लई ना शकाय।
ए भोगवे एक व-आ म पोते, '
एक व एथी नयसु गोते ॥
वशेषाथ-शरीरमे य द खनेवाले रोग आ द जो उप व होते है वे नेही, कुटु बी, प नी या
पु कसीसे लये नही जा सकते, उ हे मा एक अपना आ मा वय ही भोगता है। इसमे कोई भी भागी
नही होता । तथा पाप-पु य आ द सभी वपाक अपना आ मा ही भोगता है। यह अकेला आता है. अकेला
जाता है, ऐसा स करके ववेकको भलीभाँ त जाननेवाले पु ष एक वको नर तर खोजते ह।
ांत-महापु षके इस यायको अचल करनेवाले न मराज ष और शक का वैरा योपदे शक सवाद
यहॉपर द शत करते है । न मराज ष म थला नगरीके राजे र थे । ी, पु आ दसे वशेष .ख-समूह
को ा त न होते ए भी एक वके व पको प रपूण पहचाननेमे राजे रने क चत् व म कया नही
है। श े पहले जहाँ न मराज प नवृ मे वराजते ह, वहाँ व पमे आकर परी ा हेतुसे अपना
ा यान शु करता है -
व -हे राजन् । म थला नगरीमे आज बल कोलाहल ा त हो रहा है। दय एवं मनको
उ े ग करनेवाले वलापके श द से राजम दर और सामा य घर छाये ए है। मा तेरी द ा ही इन सब
खोका हेतु है । परके आ माको जो ख अपनेसे होता है उस ःखको संसारप र मणका कारण मान-
कर तू वहाँ जा, भोला न बन ।
न मराज-(गौरवभरे वचनोसे) हे व । तू जो कहता है वह मा अ ान प है । म थला नगरी
मे एक बगीचा था, उसके म यमे एक वृ था, शीतल छायाके कारण वह रमणीय था, प , पु प और
फलसे वह यु था, नाना कारके प योको वह लाभदायक था, वायु ारा क पत होनेसे उस वृ मे
रहनेवाले प ी खात एवं शरणर हत हो मानेसे आ द करते है। वे वय वृ के लये वलाप करते नह
ह, अपना सुख नए हो गया, इस लये वै शोकात है।
व -पर तु यह दे ख | अ न और वायुके म णसे तेरा नगर, तेरे अ त'पुर और म दर जल
रहे है, इस लये वहाँ जा और उस अ नको ात कर ।
न मराज-हे व | म थला नगर , उन अ त पुरो और उन म दरोके जलनेसे मेरा कुछ भी
नही जलता है, जैसे सुखो प है वैसे मै वतन करता ँ। उन म दर आ दमे मेरा अ पमा भी नह है।
मैने पु , ी आ दके वहारको छोड दया है। मुझे इनमेसे कुछ य नह है और अ य भी नह है।
___ व -पर तु हे राजन् । तू अपनी नगरीके लये सघन कला बनाकर, सह ार, कोठे , कवाड़
और भुगाल बनाकर और शत नी खाई बनवानेके बाद जाना।
___ न मराज-(हेत- ु कारण- े० ) हे, व ! म शु ा पी नगरी बनाकर, सवर पी भुंगाल
बनाकर, मा पी शुभ गढ बनाऊँगा, शुभ, मनोयोग पी कोठे बनाऊँगा, वचनयोग पी खाई बनाऊँगा,
कायायोग पी शत नी बनाऊँगा, परा म पी धनुष क ँ गा, ईयास म त पी पनच क ँ गा, धीरता पी
कमान पकड़नेक मूठ क गा, स य पो चापसे धनु को बाँधूंगा, तप पी बाण क ं गा और कम पी
वैरीक सेनाका भेदन क ं गा । लौ कक स ामक मुझे च नह है । म मा वैसे भावसं ामको चाहता ँ।
१. हेतु और कारणसे े रत ।
४३
१७ व वष
व -हेत-ु कारण- े०) हे राजन् । शखरबध ऊँचे आवास करवाकर, म णकचनमय गवा ा द
रखवाकर और तालाबमे डा करनेके मनोहर महालय बनवाकर फर जाना।
। न मराज-हेतु कारण- े०) तूने जस कारके आवास गनाये है उस उस कारके आवास मुझे
अ थर एव अशा त मालम होते है । वे मागके घर प लगते है। इस लये जहाँ वधाम है, जहाँ शा तता
ह, और जहाँ थरता है वहाँ म नवास करना चाहता ँ। .
व -(हेतु-कारण- े०) हे य शरोम ण । अनेक कारके त करोके उप वको र करके, और
इस तरह नगरीका क याण करके तू जाना।
- न मराज-हे व । अ ानी मनु य अनेक बार म या दड़ दे ते ह । चोरी न करनेवाले जो शरीरा-
दक पु ल है वे लोकमे बाँचे जाते है, और चोरो करनेवाले जो इ य वकार है उ ह कोई बाँध नह
सकता । तो फर ऐसा करनेको या आव यकता?
व -हे य | जो राजा तेरी आ ाका पालन नह करते ह और जो नरा धप वत तासे
चलते है उ हे तू अपने वशमे करनेके बाद जाना।
न गराज-(हेतु-कारण- े०) दस लाख सुभटोको स ाममे जीतना कर गना जाता है, तो भी
ऐसी वजय करनेवाले पु ष अनेक मल जाते है, पर तु एक वा माको जीतनेवाला मलना अ य त लभ
है। उन दस लाख सुभटोपर वजय पानेवालेको अपे ा एक वा माको जीतनेवाला पु ष परमो कृ है।
आ माके साथ यु करना उ चत है। ब हयु का या योजन है ? ान प आ मासे ोधा द यु आ मा
को जीतनेवाला तु तपा है। पांचो इ योको, ोधको, मानको, मायाको तथा लोभको जीतना कर
है । जसने मनोयोगा दको जीता उसने सबको जीता ।,. .
व -हेत- ू कारण े०) समथ य करके, मण, तप वी, ा ण आ दको भोजन दे कर, सुवण
आ दका दान दे कर, मनो भोगोको भोगकर हे य | तू बादमे जाना।
. न मराज-(हेतु-कारण- े०) हर महीने य द दस लाख गायोका दान दे तो भी उस दस लाख
गायोके दानक अपे ा जो सयम हण करके सयमक आराधना करता है, वह उसको अपे ा वशेष मगल
ा त करता है।
व - नवाह करनेके लये भ ासे सुशील न यामे अस प र म सहना पड़ता है, इस लये
उस व याका याग करके अ य व यामे च होती है, इस लये इस उपा धको र करनेके लये तु
गृह था ममे रहकर पौषधा द तमे त पर रहना । हे मनु या धप त । मै ठ क कहता ँ।
न मराज-(हेतु-कारण- े०) हे व । बाल अ ववेक चाहे जैसा उ तप करे परतु वह स यक-
ुतधम तथा चा र धमके तु य नह हो सकता । एकाध कला सोलह कलाओ जैसी कैसे मानो जाये?
व -अहो य । सुवण, म ण, मु ाफल, व ालकार और अ ा दक वृ करके पीछे
जाना।
न मराज-(हेतु-कारण- े०) मे पवत जैसे कदा चत् सोने-चाँद के अस यात पवत हो तो भी लोभी
मनु यक तृ णा नह बुझती। वह क चत् मा सतोषको ा त नह होता। तृ णा आकाश जैसी अनत
है। धन, सुवण, चतु पाद इ या दसे सकल लोक भर जाये इतना सब लोभी मनु यको तृ णा र करनेके
लये समथ नह है। लोभक ऐसी नकृ ता है। इस लये सतोष नवृ प तपका ववेक पु प आचरण
करते ह।
. व -(हेतु-कारण- े०) हे य | मुझे अ त आ य होता है क तू व मान भोगोको छोड़ता
है। फर अ व मान कामभोगके सक प- वक प करके होगा। इस लये इस सारी मु न वसवधी
उपा धको छोड़। -

४४
ीमद् राजच
न मराज-(हेतु-कारण- े०) कामभोग श य सरीखे ह, कामभोग वष सरीखे है, कामभोग सपके
तु य है, जनक इ छा करनेसे जीव नरका दक अधोग तमे जाता है, तथा ोध एव मानके कारण ग त
होती है, मायाके कारण स तका वनाश होता है, लोभसे इस लोक व परलोकका भय होता है । इस लये
हे व । इसका तू मुझे बोध न दे । मेरा दय कभी भी वच लत होनेवाला नह है, इस म या मो हनीमे
अ भ च रखनेवाला नही है । जानबूझ कर जहर कौन पये ? जानबूझ कर द पक लेकर कुएँमे कौन गरे ?
जानबूझकर व ममे कौन पड़े? म अपने अमृत जैसे वैरा यके मधुर रसको अ य करके इस वषको
य करनेके लये म थलामे आनेवाला नही ँ।
मह ष न मराजको सु ढ़ता दे खकर शक को परमानंद आ, फर ा णके पको छोडकर इ का
प धारण कया। तदन करनेके बाद मधुर वाणीसे वह राजष रक तु त करने लगा-'हे महा-
यश वन् । बडा आ य है क तूने ोधको जीता । आ य, तूने अहकारका पराजय कया । आ य,
तने मायाको र कया। आ य, तूने लोभको वशमे कया। आ य, तेरी सरलता। आ य, तेरा
नमम व । आ य, तेरी धान मा । आ य, तेरी नल भता। हे पू य । तू इस भवमे उ म है, और
परभवमे उ म होगा। तू कमर हत होकर धान स ग तमे जायेगा।" इस कार तु त करते-करते
द णा दे त-े दे ते ाभ से उस ऋ षके पादावुजको वंदन कया। तदनतर बह सुदर मुकुटवाला
शक आकाशमागसे चला गया।

े ै ो े े े ै ी
माण श ा- व पमे न मराजक वैरा यको परखनेमे इं ने या यूनता क है ? कुछ भी नह
क । ससारक जो-जो लोलुपताएँ मनु यको वच लत करनेवाली है, उन-उन लोलुपताओ सबधी महागौरव
से करनेमे उस पुरदरने नमल भावसे तु तपा चातुय चलाया है। फर भी नरी ण तो यह करना
है क न मराज सवथा कचनमय रहे है। शु एव अखड वैरा यके वेगमे अपने बहनेको उ होने उ रम
द शत कया है-"हे व | तू जन- जन व तुओको मेरी कहलवाता है वे-वे ब तुएँ मेरी नह है। म एक
ही , ँ अकेला जानेवाला है, और मा शसनीय एक वको हो चाहता ँ।" ऐसे रह यमे न मराज अपने
उ र और वैरा यको ढ भूत करते गये है। ऐसी परम माण श ासे भरा आ उन मह षका च र है। दोनो
महा माओका पार प रक सवाद शु एक वको स करने के लये तथा अ य व तुओका याग करनेके उप-
दे शके लये यहाँ द शत कया है। इसे भी वशेष ढ भूत करनेके लये न मराजने एक व कैसे ा त कया,
इस वषयमे न मराजके एक व-सबधको क चत् मा तुत करते ह।
वे वदे ह दे श जैसे महान रा यके अ धप त थे। अनेक यौवनवती मनोहा रणी योके समुदायसे
घरे ए थे। दशनमोहनीयका उदय न होनेपर भी वे ससारलु ध प दखायी दे ते थे। कसी समय उनके
शरीरमे दाह वर नामके रोगक उ प ई। सारा शरीर मानो व लत हो जाता हो ऐसी जलन ात
हो गयी। रोम-रोममे सह ब छू ओको दशवेदनाके समान ख उ प हो गया। वै - व ामे वीण
-पु षोके औषधोपचारका अनेक कारसे सेवन कया, पर तु वह सब वृथा गया। लेशमा भी वह ाध
कम न होकर अ धक होती गयी। औषधमा दाह वरके हतैषी होते गये। कोई औषध ऐसा न
मला क जसे दाह वरसे क चत् भो े ष हो ! नपुण वै हताश हो गये, और राजे र भी उस महा-
ा धसे तग आ गये । उसे र करनेवाले पु षक खोज चारो तरफ चलती थी। एक महाकुशल वै
मला, उसने मलय ग र चदनका वलेपन करनेका सूचन कया । मनोरमा रा नयाँ च दन घसनेमे लग गयी।
चदन घसनेसे येक रानीके हाथोमे पहने ए ककणोका समुदाय खलभलाहट करने लग गया । म थलेकर
के अगमे एक दाह वरक अस वेदना तो थी ही और सरी उन ककणोके कोलाहलसे उ प
खलभलाहट सहन नह कर सके, इस लये उ होने रा नयोको आ ा क , "तुम चदन न घसो
मन खल-
और
भलाहट करती हो ? मुझसे यह खलभलाहट सहन नह हो सकती । एक तो म महा ा ध ""

४५
१७ वा वष
ह सरा ा धतु य कोलाहल होता है सो अस है।" सभी रा नयोने मगलके तौर पर एक एक ककण
खकर ककण-समुदायका याग कर दया, जससे वह खलभलाहट शात हो गयी। न मराजने रा नय से
हा, "तुमने या चदन घसना ब द कर दया ?" रा नयोने बताया, "नही, मा कोलाहल शात करनेके
लये एक एक ककण रखकर, सरे ककणोका प र याग करके हम चदन घसती ह । ककणके समूहको
ब हमने हाथमे नही रखा है, इससे खलभलाहट नही होती।" रा नयोके इतने वचन सुनते ही न मराज
रोम-रोममे एक व फु रत आ, ा त हो गया और मम व र हो गया-"सचमुच | बहतोके मलनेसे
त उपा ध होती है। अब दे ख, इस एक ककणसे लेशमा भी खलभलाहट नह होती, ककणके समूहके
कारण सर चकरा दे नेवाली खलभलाहट होती थी। अहो चेतन तू मान क एक वमे ही तेरी स है।
रा धक मलनेसे अ धक उपा ध है। ससारमे अन त आ माओके स ब धसे तुझे उपा ध भोगनेक या
आव यकता है? उसका याग कर और एक वमे वेश कर। दे ख | यह एक ककण अब खलभलाहटके
बना कैसी उ म शा तमे रम रहा है ? जब अनेक थे तब यह कैसी अशा त भोगता था? इसी तरह
(भी ककण प है। इस ककणक भां त तू जब तक नेही कुटु बी पी ककणसमुदायमे पडा रहेगा तब
क भव पी खलभलाहटका सेवन करना पडेगा, और य द इस कंकणक वतमान थ तक भां त
एक वका आराधन करेगा तो स ग त पी महा प व शा त ा त करेगा।" इस तरह वैरा यमे
उ रो र वेश करते ए उन न मराजको पूवजा तको मृ त हो आयी । या धारण करनेका न य
करके वे शयन कर गये। भातमे माग य प बाजोक व न- गूंज उठ , दाह वरसे मु ए। एक वका
प रपूण सेवन करनेवाले उन ीमान् न मराज ऋ षको अ भव दन हो ।
(शा ल व डत )
राणी सव मळ सुचंदन घसी, ने चचवामां हती,
बु यो या ककळाट कंकणतणो, ोती न म भूप त ।
सवादे पण इ यी ढ़ र ो, एक व साचुं । कयु, ।
एवा ए म थलेशनु च रत आ, संपूण अ े थयु ॥ ।
वशेषाथ-रा नयोका समुदाय चदन घसकर वलेपन करनेमे लगा आ था, उस समय ककणक
बलभलाहटको सुनकर न मराज तबु ए । वे इ के साथ सवादमे भी अचल रहे, और उ होने एक व
को स कया।
ऐसे उन मु साधक महावैरागीका च र 'भावनावोघ' थके तृतीय च म पूण मा ।
चतुथ च
अ य वभावना
(शा ल व डत)
ना मारा तन प का त युवती, ना पु के ात ना,
ना मारा भृत नेहीजओ वजन के, ना गो के ात ना।
ना मारा धन धाम यौवन धरा, ए मोह अ ा वना; '

े े ी
रे!रे! जीव वचार एम ज सदा, अ य वदा भावना.॥ ।
वशेषाथ-यह शरीर मेरा नहो, यह प मेरा नह , यह का त मेरी नह , यह ी मेरी नही, ये
पू मेरे नही, ये भाई मेरे नह , ये दास मेरे नह , ये नेहो मेरे नह , ये संबधी मेरे नह , यह गो मेरा
नही, यह जा त मेरी नह , यह ल मी मेरी नह , ये महालय मेरे नह , यह यौवन मेरा नही और यह भु म

४६
ीमद राजच
मेरी नह , यह मोह मा अ ानताका है। स ग त साधनेके लये हे जीव | अ य वका बोध दे नेवाली
अ य वभावनाका वचार कर | वचार कर।
म या मम वको ा त र करनेके लये और वैरा यक वृ के लये उ म भावसे मनन करने
यो य राजराजे र भरतका च र यहाँ पर उ त करते ह .-
ांत- जसक अ शालामे रमणीय, चतुर और अनेक कारके तेज अ ोका समूह शोभा
दे ता था, जसक गजशालामे अनेक जा तके मदो म ह ती झूम रहे थे, जसके अत पुरमे नवयौवना,
सुकुमारी और मु धा सह ो याँ वरा जत हो रही थी, जसक न धमे समु क पु ी ल मी, जसे
व ान चचलाक उपमासे जानते है, थर हो गयी थी, जसक आ ाको दे वदे वागनाएँ अधीन होकर
मुकुटपर चढा रहे थे, जसके ाशनके लये नाना कारके पडस भोजन पल-पलमे न मत होते थे,
जसके कोमल कणके वलासके लये बारीक एव मधुर वरसे गायन करनेवाली वारागनाएँ त पर थी,
जसके नरी ण करनेके लये अनेक कारके नाटक चेटक थे; जसको यश क त वायु पसे फैलकर
आकाशको तरह ा त थी, जसके श ुओको सुखसे शयन करनेका व नही आया था, अथवा जसके
वै रयोक व नताओके नयनोसे सदै व आँसू टपकते थे, जससे कोई श ुता दखानेके लये तो समथन
था, पर तु जसक ओर नद षतासे उँगली उठानेमे भी कोई समथ न था, जसके सम अनेक म यो
का समुदाय उसक कृपाक याचना करता था, जसके प, का त और सौदय मनोहारी थे, जसके अंगमे
महान बल, वीय, श और उ परा म उछल रहे थे, जसके ोडा करनेके लये महासुग धमय बाग-
बगीचे और वनोपवन थे, जसके यहाँ धान कुलद पक पु ोका समुदाय था, जसक सेवामे लाखो अनुचर
स ज होकर खडे रहते थे, वह पु ष जहाँ-जहाँ जाता था वहाँ-वहाँ खमा-खमाके उ ार से, कचनके फूलो
से और मो तय के थाल से उसका वागत होता था; जसके कुकुमवण पादपकजका पश करनेके लये
इ जैसे भी तरसते रहते थे, जसक आयुधशालामे महायश वी द च क उप ई थी, जसके यहाँ
सा ा यका अखड द पक काशमान था, जसके सरपर महान छ खडक भुताका तेज वी और •
काशमान मुकुट सुशो भत था। कहनेका आशय यह है क जसके दलक , जसके नगर-पुरप नक ,
जसके वैभवक और जसके वलासक ससारको से कसी भी कारको यूनता न थी, ऐसा वह
ीमान् राजराजे र भरत अपने सु दर आदशभुवनमे व ाभूषणोसे वभू षत होकर मनोहर सहासनपर
बैठा था। चारो ओरके ार खुले थे, नाना कारके घूपोका धू सू म री तसे फैल रहा था, नाना कारके
सुग धी पदाथ खूब महक रहे थे, नाना कारके सु वरयु बाजे या क कलासे बज रहे थे, शीतल,
मंद और सुगधी यो वध वायुक लहर उठ रही थी, आभूपण आ द पदाथ का नरी ण करते-करते वह
ीमान् राजराजे र भरत उस भुवनमे अपूवताको ा त आ।
उसके हाथक एक उंगलीमेसे अगूठ नकल पडी। भरतका यान उस ओर आकृ आ और
उँगली सवथा शोभाहीन दखायी द । नौ उँग लयाँ अगू ठयोसे जो मनोहरता रखती थी उस मनोहरतासे
र हत इस उँगलीको दे खकर भरते रको अ त मूलभूत वचारको ेरणा ई। कस कारणसे यह उँगली
ऐसी लगती है ? यह वचार करनेपर उसे मालूम आ क इसका कारण अगुठ का नकल जाना है। इस
वातको वशेष मा णत करनेके लये उसने सरी उँगलीको अगूठ खोच नकाली । यो ही सरी उँगली-
मेसे अगूठ नकली यो ही वह उँगली भी शोभाहोन दखायी द , फर इस बातको स करनेके लये
उसने तीसरी उँगलीमेसे भो अंगठ ू सरका ली, इससे यह बात और अ धक मा णत ई। फर चौथो
उँगलीमेसे अगूठो नकाल लो, जससे यह भी वैसी ही दखायी द । इस कार अनु मसे दसो उँग लय
खाली कर डाली, खाली हो जानेसे सभीका दे खाव शोभाहीन मालूम आ। शोभाहीन द खनेसे राजराजे-
र अ य वभावनासे ग द होकर इस कार बोला-

४७
१७ वॉ वष
'अहोहो | कैसी व च ता है क भू ममे उ प ई व तुको पीटकर कुशलतासे घडनेसे मु का
बनी; इस मु कासे मेरी उँगली सु दर दखायी द , इस उँगलीमेसे मु का नकल पड़नेसे वपरीत य
नजर आया, वपरीत यसे उँगलीको शोभाहीनता और बे दापन खेदका कारण आ। शोभाहीन लगने
का कारण मा अंगठ ू नही, यही ठहरा न? य द अँगठ ू होती तब तो ऐसी अशोभा म न दे खता। इस
मु कासे मेरी यह उँगली शोभाको ा त ई, इस उँगलीसे यह हाथ शोभा पाता है, और इस हाथसे यह
शरीर शोभा पाता है। तब इसमे म कसक शोभा मान ? अ त व मयता | मेरी इस मानी जानेवाली
मनोहर का तको वशेष द त करनेवाले ये म णमा ण या दके अलकार और रग- बरगे व ठहरे। यह
का त मेरी वचाक शोभा ठहरी । यह वचा शरीरको गु ताको ढं ककर उसे सु दर दखाती है । अहोहो ।
यह महा वपरीतता है । जस शरीरको मै अपना मानता है, वह शरीर मा वचासे, वह वचा का तसे और
वह का त व ालकारसे शोभा पाती है। तो फर या मेरे शरीरक तो कुछ शोभा ही नही न ? धर,
मास और ह डयोका ही केवल यह ढाँचा है या? और इस ढाँचेको म सवथा अपना मानता ँ। कैसी

ै ी औ ै ी ै े ो े ो ो ँ ी े
भूल । कैसी ा त । और कैमी व च ता है । म केवल पर पु लक शोभासे शो भत होता ँ। कसीसे
रमणीयता धारण करनेवाले इस शरीरको म अपना कैसे मान ? और कदा चत् ऐसा मानकर मै इसमे
मम वभाव रखू तो वह भी केवल ख द और वृथा है। इस मेरो आ माका इस शरीरसे एक समय
वयोग होनेवाला है | आ मा जब सरी दे हको धारण करनेके लये जायेगा तब इस दे हके यही रहनेमे
कोई शंका नह है। यह काया मेरी न ई और न होगी तो फर म इसे अपनी मानता ँ या माने, यह
केवल मूखता है। जसका एक समय वयोग होनेवाला है, और जो केवल अ य वभाव रखती है उसमे
मम वभाव या रखना? यह जब मेरी नह होतो तब मुझे इसका होना या उ चत है? नह , नह , यह
जब मेरी नही तब मै इसका नह , ऐसा वचार क , ढ क , और वतन क ँ , यह ववेकवु का
ता पय है। यह सारी सृ अनत व तुओसे और पदाथ से भरी ई है, उन सब पदाथ क अपे ा जसके
जतनी कसी भी व तुपर मेरी ी त नह है, वह व तु भी मेरी न ई, तो फर सरी कौनसी व तु मेरी
होगी ? अहो । म ब त भूल गया । म या मोहमे फंस गया । वे नवयौवनाएं, वे माने ए कुलद पक पु ,
वह अतुल ल मी, वह छ खडका महान रा य, ये मेरे नह ह । इनमेसे लेशमा भी मेरा नह है। इनम
मेरा क चत् भाग नह है। जस कायासे मै इन सब व तुओका उपभोग करता है, वह भो य व तु जब
मेरी न ई तब अपनी मानो ई अ य व तुए- ँ नेही, कुटु बी इ या द- या मेरी होनेवाली थी? नही,
कुछ भी नह । यह मम वभाव मुझे नही चा हये । ये पु , ये म , ये कल , यह वैभव और यह ल मी,
इ हे मुझे अपना मानना ही नह है । म इनका नही और ये मेरे नही । पु या दको साधकर मने जो जो
व तुएँ ा त क वे व तुएँ मेरी न ई, इसके जैसा संसारमे या खेदमय है ? मेरे उ पु य वका प रणाम
यही न ? अतमे इन सबका वयोग ही न? पु य वका यह फल ा त कर इसक वृ के लये मैने जो जो
पाप कये वह सब मेरे आ माको हो भोगना है न ? और वह अकेले ही न? इसमे कोई सहभो ा नह
ही न ? नह नह । इन अ य वभाववालोके लये मम वभाव दखाकर आ माका अ हतैषी होकर म इसे
रौ नरकका भो ा बनाऊँ इसके जैसा कौनसा अ ान है ? ऐसी कौनसी ा त है ? ऐसा कौनसा अ ववेक
है ? ेसठ शलाकापु षोमे मै एक गना गया, फर भी मै ऐसे कृ यको र न कर सकूँ और ा त भुताको
खो बैठू, यह सवथा अयु है। इन पु ोका, इन मदाओका, इस राजवैभवका और इन वाहन आ दके
सुखका मुझे कुछ भी अनुराग नह है | मम व नह है ।"
राजराजे र भरतके अ त करणमे वैरा यका ऐसा काश पड़ा क त मरपट र हो गया । शु ल-
यान ा त आ। अशेषकम जलकर भ मीभूत हो गये । महा द और सह करणसे भी अनुपम
का तमान केवल ान कट आ। उसी समय इ होने पचमु केशलुचन कया। शासनदे वीने इ हे सत-

४८
ीमद् राजच
साज दया, ओर ये महा वरागी सव सवदश होकर चतुग त, चौबीस दं डक, तथा आ ध, ा ध एवं
उपा धसे वर ए। चपल ससारके सकल सुख- वलाससे इ होने नवृ ली, या यका भेद चला
गया, और ये नर तर तवन करने यो य परमा मा हो गये।
माण श ा-इस कार ये छ खंडके भु, दे व के दे व जैस, े अतुल सा ा यल मीके भो ा,
महायुके धनी, अनेक र नोके धारक, राजराजे र भरत आदशभुवनमे केवल अ य वभावना उ प होनेसे
शु वरागी ए।
सचमच भरते रका मनन करने यो य च र संसारक शोकातता और उदासीनताका पूरा-पूरा
भाव, उपदे श और माण द शत करता है। क हये । इनके यहाँ या कमी थी? न थी इ हे नवयौवना
योक कमी क न थी राजऋ को कमी, न थी वजय स क कमी क न थी नव न धको कमी, न
थी पु समुदायक कमी क न थी कुटु ब-प रवारक कमी, न थी पका तक कमी क न थो यश क त-
क कमी।
इस तरह पहले कही ई इनक ऋ का पुनः मरण कराकर माणसे श ा साद का लाभ दे ते
है क भरते रने ववेकसे अ य वके व पको दे खा, जाना और सपकचुकवत् ससारका प र याग करके
उसके म या मम वको स कर दया । महावैरा यक अचलता, नममता और आ मश क फु लतता,
यह सब इस महायोगी रके च र मे ग भत है।
एक पताके सौ पु ोमेसे न यानव पु पहलेसे ही आ म स को साधते थे। सौव इन भरते रने
आ मस साधी । पताने भो यही स साधी । उ रो र आनेवाले भरते री रा यासनके भोगी इसो
आदशभुवनमे इसी स को ा त ए ह ऐसा कहा जाता है। यह सकल स साधक मंडल अ य वको
ही स करके एक वमे वेश कराता है । अ भव दन हो उन परमा माओको ।
(शा ल व डत )
दे खी आगळ आप एक अडवी, वैरा य वेगे गया,
छांडी राजसमाजने भरतजी, कैव य ानी थया ।
चोथु च प व ए ज च रते, पा युं अह पूणता,
ानीना मन तेह रंजन करो, वैरा य भावे यथा ॥
वशेषाथ- जसने अपनी एक उँगलोको शोभाहीन दे खकर वैरा यके वाहमे वेश कया, और
जसने राजसमाजको छोडकर केवल ान ा त कया, ऐसे उस भरते रके च र को धारण करके यह
चौथा च पूणताको ा त आ । यह यथो चत वैरा य भाव द शत करके ानीपु षोके मनको रजन
करनेवाला हो।
भावनावोध अ यम अ य वभावनाके उपदे शके लये थम दशनके चतुथ च मे भरते रका ा त और
माण श ा पूणताको ा त ए ।
पंचम च
अश चभावना
(गी तवृ )
खाण मू ने मळनी, रोग जरानु नवासन धाम।
काया एवी गणीने, मान यजीने कर साथक आम ॥

४९
१७ वॉ वष
वशेषाथ हे चैत य | इस कायाको मल और मु क खान प, रोग और वृ ताके रहनेके धाम
जैसी मानकर उसका म या मान याग करके सन कुमारक भां त उसे सफल कर ।
इस भगवान सन कुमारका च र अशु चभावनाक ामा णकता बतानेके लये यहाँ पर शु
कया जाता है।
ा त-जो जो ऋ , स और वैभव भरते रके च र मे व णत कये, उन सब वैभवा दसे
यु सन कुमार च वत थे । उनका वण और प अनुपम था। एक बार सुधमसभामे उस पक तु त
ई । क ही दो दे वोको यह बात न ची । बादमे वे उस शकाको र करनेके लये वपके पमे सनत्-
कुमारके अतःपुरमे गये। सन कुमारक दे हमे उस समय उबटन लगा आ था, उसके अगोपर मदना दक
पदाथ का मा वलेपन था । एक छोट अ ोछो पहनी ई थी। और वे नानम जन करनेके लये बैठे
थे। वपके पमे आये ए दे वता उनका मनोहर मुख, कचनवण कागा और च जैसी का त दे खकर
ब त आन दत ए और जरा सर हलाया। इसपर च वत ने पूछा, "आपने सर यो हलाया ?"
दे वोने कहा, "हम आपके प और वणका नरी ण करनेके लये ब त अ भलाषी थे। हमने जगह-जगह
आपके वण, पक तु त सुनी थी, आज वह बात हमे मा णत ई, अत हमे आन द आ, और सर
इस लये हलाया क जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका प है। उससे अ धक है पर तु कम
नह ।" सन कुमार व पवणक तु तसे गवमे आकर बोले, "आपने इस समय मेरा प दे खा सो ठ क
है, पर तु मै जब राजसभामे व ालकार धारण करके सवथा स ज होकर सहासनपर बैठता है, तब मेरा
प और मेरा वण दे खने यो य है, अभी तो म शरीरमे उबटन लगाकर बैठा ँ। य द उस समय आप
मेरा प वण दे खगे तो अ त चम कारको ा त होगे और च कत हो जायेगे।" दे वोने कहा, "तो फर
हम राजसभामे आयेगे," यो कहकर वे वहाँसे चले गये।
त प ात् सन कुमारने उ म और अमू य व ालंकार धारण कये। अनेक साधनोसे अपने
शरीरको वशेष आ यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सहासनपर बैठे । आसपास समथ म ी,
सुभट, व ान और अ य सभासद अपने-अपने आसनोपर बैठ गये थे। राजे र चमरछ से और खमा-
समाके उ ारोसे वशेष शो भत तथा स का रत हो रहे थे। वहाँ वे दे वता फर वपके पमे आये।
अ त पवणसे आन दत होनेके बदले मानो ख ए हो ऐसे ढगसे उ होने सर हलाया। च वत न
पूछा, "अहो ा णो । गत समयक अपे ा इस समय आपने और ही तरहसे सर हलाया है, इसका
या कारण है सो मुझे बताय ।' अव ध ानके अनुसार व ोने कहा, "हे महाराजन् । उस पमे और
इस पमे भू म-आकाशका फक पड़ गया है।" च वत न उसे प समझानेके लये कहा । ा णोने
कहा, "अ धराज । पहले आपक कोमल काया अमृततु य थी, इस समय वपतु य है। इस लये जब
अमृततु य अग था तब हमे आन द आ था। इस समय वषतु य है अत हमे खेद आ है। हम जो
कहते ह उस बातको स करना हो तो आप अभी तावूल यूके, त काल उस पर म का बैठेगी और
परधामको ा त होगी।"
सन कुमारने यह परी ा को तो स य स ई। पूव कमके पापके भागमे इस कायाके मदका
म ण होनेसे इस च वत क काया वषमय हो गयी थी। वनाशी और अशु चमय कायाका ऐसा पच
दे खकर सन कुमारके अत करणमे वैरा य उ प आ। यह ससार सवथा याग करने यो य है। ऐसीक
ऐसी अशु च ी, पू , म आ दके शरीरमे है । यह सब मोह-मान करने यो य नह है, यो कहकर वे छ
ख डक भुताका याग करके चल नकले। वे जब साघु पमे वचरते थे तब महारोग उ प आ।
उनके स य वक परी ा लेनेके लये कोई दे व वहाँ दै वके पमे आया। साधुको कहा, "म ब त कुशल
राजवै ँ, आपक काया रोगका भोग बनी ई है, य द इ छा हो तो त काल मै उस रोगको र कर

५०
ीमद् राजच
ं ।" साधु बोले, "हे वै | कम पी रोग महो म है, इस रोगको र करनेक य द आपक समथता हो तो
भले मेरा यह रोग र करे। यह समथता न हो तो यह रोग भले रहे ।" दे वताने कहा, "इस रोगको र
करनेको समथता तो म नह रखता।" बादमे साधुने अपनी ल धके प रपूण बलसे थकवाली अगु ल करके
उसे रोगपर लगाया क त काल वह रोग न हो गया और काया फर जैसी थी वैसी हो गयी। बादमे
उस समय दे वने अपना व प गट कया, ध यवाद दे कर, बदन करके वह अपने थानको चला गया।
माण श ा-र प जैसे सदै व खुन-पीपसे खदबदाते ए महारोगक उ प जस कायाम है,
पलभरमे वन हो जानेका जसका वभाव है, जसके येक रोममे पौने दो दो रोगोका नवास है, वैसे
साढे तीन करोड़ रोमोसे वह भरी होनेसे करोडो रोगोका वह भडार है, ऐसा ववेकसे स है । अ ा दक
यूना धकतासे वह येक रोग जस कायामे गट होता है; मल, मू , व ा, ह ी, मास, पीप और
े मसे जसका ढाँचा टका आ है, मा वचासे जसक मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच ।

ी ै े े ी े े
व म ही है । सन कुमारने जसका लेशमा मान कया वह भी जससे सहन नह आ उस कायामे
अहो पामर | तू या मोह करता है ? 'यह मोह मगलदायक नह है।"
ऐसा होनेपर भी आगे चलकर मनु यदे हको सव-दे हो म कहना पडेगा । इससे स ग तक स
है, यह कहनेका आशय है । वहाँपर नःशंक होनेके लये यहाँ नाममा का ा यान कया है।
आ माके शभ कमका जब उदय आता है तब उसे मनु यदे ह ा त होती है। मनु य अथात् दो
हाथ, दो पैर, दो आँखे, दो कान, एक मुख, दो ओ और एक नाकवाली दे हका अधी र ऐसा नह है।
पर तु उसका ममं कुछ और ही है। य द इस कार अ ववेक दखाय तो फर वानरको मनु य माननेमे
या दोष है? उस बेचारेने तो एक पूंछ भी अ धक ा त क है। पर नह , मनु य वका मम यह है-
ववेकब जसके मनमे उ दत ई है, वही मनु य है, बाक सभी इसके बना दो पैरवाले पशु ही ह।
मेधावी पु ष नरतर इस मानव वका मम इसी कार का शत करते है। ववेकबु के उदयसे मु के
राजमागमे वेश कया जाता है। और इस मागमे वेश यही मानवदे हक उ मता है। फर भी इतना
मृ तमे रखना उ चत है क यह दे ह केवल अशु चमय और अशु चमय ही है। इसके वभावमे और कुछ
भी नह है।
___ भावनावोध थम अशु धभावनाके उपदे शके लये थम दशनके पांचव च म सनतकुमारका ात और
माण श ा पूण ए।
अंतदशन : ष च
नवृ बोध
(नाराच छद)
अनंत सौ य नाम ःख यां रही न म ता!
अनंत ःख नाम सौ य ेम यां, व च ता!!
उघाड याय ने ने नहाळ रे! नहाळ तुं;
नवृ शी मेव धारी ते वृ बाळ तुं ॥
वशेषाथ- जसमे एकात और अनत सुखको तरगे उछलती ह ऐसे शील, ानको नाममा के
खसे तग आकर, म प न मानते ए उनमे अ ी त करता है; और केवल अनत ःखमय ऐसे जो
१ ० आ० पाठा०-'यह क चत् तु तपा नह है।' २. दे खये मो माला श ापाठ ४-मानवदे ह ।

५१
१७ वाँ वष
ससारके नाममा के सुख' है, उनमे तेरा प रपूण ेम है, यह कैसी व च ता है | अहो चेतन । अब तू अपने
याय पी ने ोको खोलकर दे ख | रे दे ख । ।। दे खकर शी मेव नवृ अथात् महावैरा यको धारण कर,
और म या कामभोगक वृ को जला दे ।
ऐसी प व महा नव को दढ भत करनेके लये उ च वरागी युवराज मुगापु का मनन करने
यो य च र यहाँ तुत करते है । तूने कैसे खको सुख माना है ? और कैसे सुखको ःख माना है ? इसे
युवराजके मुखवचन ता श स करगे।
ा त-नाना कारके मनोहर वृ से भरे ए उ ान से सुशो भत सु ीव नामक एक नगर
है। उस नगरके रा यासनपर बलभ नामका एक राजा रा य करता था। उसक यवदा पटरानीका
नाम मृगा था। इस द पतीसे बल ी नामके एक कुमारने ज म लया था। वे मृगापु के नामसे यात
ये। वे माता पताको अ य त य थे। उन युवराजने गृह था ममे रहते ए भी सय तके गुणोको ा त
कया था, इस लये वे दमी र अथात् य तयोमे अ ेसर गने जाने यो य थे। वे मृगापु शखरबद
आन दकारी ासादमे अपनी ाण या स हत दोगुदक दे वताक भां त वलास करते थे। वे नरतर
मु दत मनसे रहते थे। ासादका द वानखाना च काता द म णयो तथा व वध र नोसे ज ड़त था । एक
दन वे कुमार अपने झरोखेमे बैठे ए थे। वहाँसे नगरका प रपूण नरी ण होता था । जहाँ चार राज-
माग मलते थे ऐसे चौकमे उनक वहाँ पड़ी क जहाँ तीन राजमाग मलते थे। वहां उ होने महा-
तप, महा नयम, महासयम, महाशील, और महागुणोके धाम प एक शा त तप वी साधुको दे खा । यो-
यो समय बीतता जाता है य - यो मृगापु उस मु नको खूब गौरसे दे ख रहे ह।
इस नरी णसे वे इस कार बोले-"जान पड़ता है क ऐसा प मने कही दे खा है।" और यो
बोलते-बोलते वे कुमार शुभ प रणामको ा त ए । मोहपट र आ और वे उपशमताको ा त ए । जा त-
मृ त ान का शत आ। पूवजा तको मृ त उ प होनेसे महाऋ के भो ा उन मुगापु को पूवके
चा र का मरण भी हो आया । शी मेव वे वषयमे अनास ए और सयममे आस ए। माता-
पताके पास आकर वे बोले, "पूव भवमे मने पाँच महा त सुने थे, नरकमे जो अन त ख है वे भी मने
सुने थे, तयचमे जो अन त ख ह वे भी मने सुने थे। उन अन त खोसे ख होकर मै उनसे नवृ
होनेका अ भलाषी आ ँ। ससार पी समु से पार होनेके लये हे गु जनो | मुझे उन पांच महा तोको
धारण करनेक अनु ा द जये।"
___कुमारके नवृ पूण वचन सुनकर माता पताने उ हे भोग भोगनेका आम ण दया । आम ण-वचनसे
ख होकर मृगापु यो कहते है-"अहो मात | और अहो तात | जन भोगोका आप मुझे आम ण दे ते
ह उन भोगोको मै भोग चुका ँ। वे भोग वषफल- कपाक वृ के फलके समान ह, भोगनेके बाद कडवे
वपाकको दे ते है और सदै व खो प के कारण है । यह शरीर अ न य और केवल अशु चमय है, अशु च
से उ प आ है, यह जीवका अशा त वास है, और अन त खोका हेतु है। यह शरीर रोग, जरा
और लेशा दका भाजन है, इस शरीरमे म कैसे र त क ं ? फर ऐसा कोई नयम नह है क यह शरीर
बचपनमे छोडना है या बुढापेमे । यह शरीर पानीके फेनके बुलबुले जैसा है, ऐसे शरीरमे नेह करना कैसे

ो ो ै े ी ी ो ो े े
यो य हो सकता है ? मनु यभवमे भी यह शरीर कोढ, वर आ द ा धयोसे तथा जरा-मरणमे सत
होना स भा है। इससे म कैसे ेम क ं ?
ज मका ख, जराका ख, रोगका ःख, मृ युका ख, इस तरह केवल खके हेतु संसारमे ह।
भू म, े , आवास, कंचन, कुटु ब, पु , मदा, बाघव, इन सबको छोडकर मा ले शत होकर इस
शरीरसे अव यमेव जाना है। जैसे कपाक वृ के फलका प रणाम सुखदायक नह है वैसे भोगका प रणाम

५२
ीमद् राजच
भी सुखदायक नह है । जैसे कोई पु ष महा वासमे अ -जल साथमे न ले तो धा तपासे खी होता
है वैसे ही धमके अनाचरणसे परभवमे जानेपर वह पु ष खी होता है, ज म-जरा दक पीड़ा पाता है।
महा वासमे जाता आ जो पु ष अ -जला द साथमे लेता है वह पु ष ुधा-तृषासे र हत होकर सुख
पाता है उसी कार धमका आचरण करनेवाला पु ष परभवमे जानेपर सुख पाता है, अ प कमर हत होता
है और असातावेदनीयसे र हत होता है । हे गु जनो । जैसे कसी गृह थका घर व लत होता है तब
उस घरका मा लक अमू य व ा दको ले जाकर जीण व ा दको वही छोड़ दे ता है, वैसे ही लोकको
जलता दे खकर जीण व प जरामरणको छोडकर अमु य आ माको उस दाहसे (आप आ ा द तो म)
बचाऊंगा।"
मृगापु के वचन सुनकर उसके माता पता शोकात होकर बोले, "हे पु | यह तू या कहता है ?
चा र का पालन अ त कर है। य तको मा दक गुण धारण करने पड़ते ह, नभाने पड़ते ह, और
य नासे संभालने पडते है । सय तको म और श ुमे समभाव रखना पडता है, सय तको अपने आ मा
और परा मापर समवु रखनी पडती है, अथवा सव जगतपर समान भाव रखना पड़ता है। ऐसा
पालनेमे कर ाणा तपात वर त थम त, उसे जीवनपय त पालना पड़ता है। सय तको सदे व अ -
म तासे मृषा वचनका याग करना और हतकारी वचन बोलना, ऐसा पालनेमे कर सरा त धारण
करना पड़ता है। सय तको दत-शोधनके लये एक सलाईके भी अद का याग करना और नरव एव
दोषर हत भ ाका हण करना, ऐसा पालनेमे कर तीसरा त धारण करना पड़ता है। कामभोग
वादको जानने और अ चयके धारण करनेका याग करके चय प चौथा त सय तको धारण
करना तथा उसका पालन करना ब त कर है। धनधा य, दास-समुदाय, प र हके मम वका वजन और
सभी कारके आरंभका याग करके केवल नमम वसे यह पाँचवा महा त सय तको धारण करना अ त
वकट है। रा भोजनका वजन तथा घृता द पदाथ के वासी रखनेका याग करना अ त कर है।
हे पु । तू चा र चा र या करता है ? चा र जैसी .ख द व तु सरी कौनसी है ? ुधा
का प रषह सहन करना, तुषाका प रषह सहन करना, शीतका प रषह सहन करना, उ ण तापका प रषह
सहन करना, डॉस-म छरका प रषह सहन करना, आ ोशका प रषह सहन करना, उपा यका प रषह
सहन करना, तृणा दके पशका प रषह सहन करना, तथा मैलका प रषह सहन करना, हे पु । न य
मान क ऐसा चा र कैसे पाला जा सकता है ? वधका प रषह और ब धका प रषह कैसे वकट ह?
भ ाचरी कैसी कर है ? याचना करना कैसा कर है ? याचना करनेपर भी ा त न हो, यह अलाभ-
प रषह कैसा कर है ? कायर पु षके दयका भेदन कर डालनेवाला केशलुचन कैसा वकट है ? तू
वचार कर, कमवैरीके लये रौ ऐसा चय त कैसा कर है ? सचमुच । अधीर आ माके लये यह
सब अ त-अ त वकट है।
य पु । तू सुख भोगनेके यो य है । तेरा सुकुमार शरीर अ त रमणीय री तसे नमल नान करनेके
यो य है । य पु | न य ही तू चा र पालनेके लये समथ नह है । जीवन पय त इसमे वधाम नह
है । सय तके गुणोका महासमुदाय लोहेक भाँ त ब त भारी है। सयमका भार वहन करना अ त अ त
वकट है। जैसे आकाशगगाके वाहके सामने जाना कर है वैसे ही यौवनवयमे सयम महा कर है।
जैसे त ात जाना कर है, वैसे ही यौवनम सयम महा कर है। भुजाओसे जैसे समु को तरना कर
है वैसे ही यौवनमे सयम-गुणसमु पार करना महा कर है। जैसे रेतका कौर नीरस है वैसे ही सयम
भी नीरस है। जैसे खड् ग-धारापर चलना वकट है वैसे ही तपका आचरण करना महा वकट है। जस
सपं एकात से चलता है, वैसे ही चा र मे ईयास म तके लये एका तक चलना महा कर है। है

५३
१७ वाँ वष
य पु । जैसे लोहेके चने चबाना कर है वैसे ही संयमका आचरण करना कर है । जैसे अ नक
शखाको पीना कर है, वैसे ही यौवनमे य त व अगीकार करना महा कर है। सवथा मद सहननक
धनी कायर पु षके लये य त व ा त करना तथा पालना कर है। जैसे तराजूसे मे पवतका तौलना कर
है वैसे ही न लतासे, न शकतासे दश वध य तधमका पालन करना कर है। जैसे भुजाओसे वयभू-
रमणसमु को पार करना कर है वैसे ही उपशमहोन मनु यके लये उपशम पी समु को पार करना
कर है।
हे पु । श द, प, गध, रस और पश इन पांच कारसे मनु यसबधी भोगोको भोगकर भु -
भोगी होकर तू वृ ाव थामे धमका आचरण करना।"
माता पताका भोगसबधी उपदे श सुनकर वे मुगापु माता पतासे इस तरह बोल उठे -
" जसे वषयको वृ न हो उसे संयम पालना कुछ भी कर नह है। इस आ माने शारी रक
एव मान सक वेदना असाता पसे अनत बार सहन क है, भोगी है। महा .खसे भरी, भयको उ प

े ी ौ े ँ े ो ी ै े े
करनेवाली अ त रौ वेदनाएँ इस आ माने भोगी है। ज म, जरा, मरण-ये भयके धाम ह । चतुग त प
ससाराटवीमे भटकते ए अ त रौ ःख मैने भोगे ह । हे गु जनो । मनु यलोकमे जो अ न अ तशय
उ ण मानी गयो है, उस अ नसे अनत गुनी उ ण तापवेदना नरकमे इस आ माने भोगो है। मनु यलोकमे
जो ठं ड अ त शीतल मानी गयी है उस ठडसे अनत गुनी ठड नरकमे इस आ माने असातासे भोगी है।
लोहमय भाजनमे ऊपर पैर बाँधकर और नीचे म तक करके दे वतासे वै य क ई धाय धाय जलती ई
अ नमे आ दन करते ए इस आ माने अ युन ख भोगे है। महा दवक अ न जैसे म दे शमे जैसी बाल
है उस बालू जैसी वजमय बालू कदब नामक नद को बालू ह, उस सरीखी उ ण बालूमे पूवकालमे मेरे
इस आ माको अनत बार जलाया है।
आकदन करते ए मुझे पकानेके लये पकानेके बरतनमे अनत बार डाला है। नरकमे महारौ
परमाधा मयोने मुझे मेरे कडवे वपाकके लये अनत बार ऊँचे वृ क शाखासे बांधा था। बा धवर हत
मुझे ल बी करवतसे चीरा था । अ त ती ण काँटोसे ा त ऊँचे शा म ल वृ से बाँधकर मुझे महाखेद दया
था । पाशमे बांधकर आगे-पोछे खीचकर मुझे अ त खी कया था । अ य त अस को मे ईखक भां त
आ दन करता आ मै अ त रौ तासे पेला गया था। यह सब जो भोगना पडा वह मा मेरे अशुभ कम-
के अनत बारके उदयसे ही था । साम नामके परमाधामीने मुझे कु ा बनाया, शबल नामके परमाधामीने
उस कु ेके पमे मुझे जमीन पर पटका, जीण व क भाँ त फाडा, वृ क भाँ त छे दा, उस समय म
अतीव तडफडाता था।
वकराल खड़गसे, भालेसे तथा अ य श से उन चडोने मुझे वख डत कया था। नरकमे पाप
कमसे ज म लेकर वषम जा तके खंडोका ख भोगनेमे कमी नही रही। परत तासे अनंत व लत रथ
मे रोझक भाँ त बरबस मुझे जोता था । म हषक भां त दे वताक वै य क ई अ नमे मै जला था ।
म भुरता होकर असातासे अ यु वेदना भोगता था । ढक-गीध नामके वकराल प योक सडसे जैसी
चोच से चूंथा जाकर अनत बल बलाहटसे कायर होकर मै वलाप करता था। तृपाके कारण जलपानके
च तनसे वेगमे दौडते ए, वैतरणीका छरपलाक धार जैसा अनत खद पानी मुझे ा त आ था। जसके
प े खड् गक तीन धार जैसे ह, जो महातापसे तप रहा है, वह अ सप वन मुझे ा त आ था, वहाँ पूव-
कालमे मुझे अन त बार छे दा गया था। मु रसे, तीन श से, शूलसे, मूसलसे तथा गदासे मेरे शरीरके
टु कडे कये गये थे । शरण प सुखके बना मैने अशरण प अन त ख पाया था। व क भां त मझे
छरपलाको ती ण धारसे, छु रीसे और केचीसे काटा गया था। मेरे खड खड टु कड़े कये गये थे। मझे

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ीमद् राजच
तरछा छे दा गया था। चररर श द करती हई मेरी वचा उतारी गयी थी। इस कार मने अनत ःख
पाया था।
मै परवशतासे मुगक भाँ त अनत बार पाशमे पकडा गया था। परमाधा मयोने मुझे मगर-म छ
के पमे जाल डालकर अनत बार ख दया था। बाजके पमे प ीक भाँ त जालमे बांध कर मुझे
अन त वार मारा था । फरसा इ या द श ोसे मुझे अन त बार वृ क तरह काटकर मेरे सू म टु कडे
कये गये थे। जैसे लुहार धनसे लोहेको पीटता है वैसे ही मुझे पूव कालमे परमाधा मयोने अन त बार
पीटा था। तॉवे, लोहे और सीसेको अ नसे गला कर उनका उबलता आ रस मुझे अन त बार पलाया
था । अ त रौ तासे वे परमाधामी मुझे यो कहते थे क पूव भवमे तुझे मॉस य था, अव ले यह मॉस । इस
तरह मैने अपने ही शरीरके ख ड-ख ड टु कडे अन त वार नगले थे। म क यताके कारण भी मुझे इससे
कुछ कम ख उठाना नह पडा । इस कार मने महाभयसे, महावाससे और महा खसे कंपायमान काया
ारा अन त वेदनाएँ भोगी थी । जो वेदनाएँ सहन करनेमे अ त तीन, रौ और उ कृ काल थ तवाली
ह, और जो सुननेमे भी अ त भयकर है, वे मने नरकमे अन त बार भोगी थी। जैसी वेदना मनु यलोकमे
है वैसी दोखती पर तु उससे अन त गुनी अ धक असातावेदना नरकमे थी। सभी भवोमे असातावेदना मने
भोगी है । नमेषमा भी वहाँ साता नही है।"
इस कार मृगापु ने वैरा य भावसे ससार प र मणके ख कह सुनाये। इसके उ रमे उसके माता
पता इस कार बोले-"हे पु | य द तेरी इ छा द ा लेनेक है तो द ा हण कर, पर तु चा र मे
रोगो प के समय च क सा कौन करेगा? ख- नवृ कौन करेगा? इसके बना अ त कर है।"
मुगापु ने कहा-"यह ठोक है, पर तु आप वचार क जये क अटवीमे मग तथा प ी अकेले होते है। उ हे
रोग उ प होता है तब उनक च क सा कौन करता है ? जैसे वनमे मृग वहार करता है वैसे ही म
चा र वनमे वहार क ँ गा, और स ह कारके शु सयमका अनुरागी बनूगा, बारह कारके तपका
आचरण क ँ गा, तथा मृगचयासे वच ँ गा। जब मृगको वनमे रोगका उप व होता है, तब उसक
च क सा कौन करता है ?" ऐसा कहकर वे पुन बोले, "कौन उस मृगको औषध दे ता है ? कौन उस मृग
को आन द, शा त और सुख पूछता है ? कौन उस मृगको आहार जल लाकर दे ता है ? जैसे वह मृग उप-
वमु होनेके वाद गहन वनमे जहाँ सरोवर होता है वहाँ जाता है, तुण-पानी आ दका सेवन करके फर
जैसे वह मृग वचरता है वैसे ही म वच ं गा। साराश यह क म त प ू मृगचयाका आचरण क ं गा।
इस तरह म भी मृगक भॉ त सयमवान बनूंगा। अनेक थलोमे वचरता आ य त मुगक भाँ त अ त-
ब रहे। मृगक तरह वचरण करके, मृगचयाका सेवन करके और साव को र करके य त वचरे ।
जैसे मृग तृण, जल आ दक गोचरी करता है वैसे ही य त गोचरी करके संयमभारका नवाह करे। रा-
हारके लये गृह थक अवहेलना न करे, नदा न करे, ऐसे सयमका मै आचरण क ं गा।"
"एवं पु ा जहासुख-हे पु | जैसे तु हे सुख हो वैसे करो।" इस कार माता पताने अनु ा
द । अनु ा मलनेके बाद मम वभावका छे दन करके जैसे महा नाग कचुकका याग करके चला जाता है

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वैसे ही वे मृगापु ससारका याग कर सयम धममे सावधान ए । कचन, का मनी, म , पु , जा त और
सगे सब धयोके प र यागी ए। जैसे व को झटक कर धूलको झाड़ डालते ह वैसे ही वे सब पचका
याग कर द ा लेनेके लये नकल पडे। वे प व पाँच महा तसे युक ए, पच स म तसे सुशो भत ए,
गु तसे अनुगु त ए, बा ा यतर ादश तपसे सयु ए, मम वर हत ए, नरहकारी ए। वी
आ दके सगसे र हत ए, और सभी ा णयोमे उनका समभाव आ। आहार जल ा त हो या न हो,
सुख ा त हो या ख, जीवन हो या मरण, कोई तु त करे या कोई न दा करे, कोई मान दे या कोई
अपमान करे, उन सब पर वे समभावी ए। ऋ , रस और सुख इस गारवके अहपदसे वे वर ए।

५५
१७ वाँ वष
मनदड, वचनदड और तनदं डको र कया। चार कषायसे वमु हए। मायाश य, नदानश य तथा
म या वश य इस श यसे वरागी ए। स त महाभवसे वे अभय ए। हा य और शोकसे नवृ ए ।
नदानर हत ए । राग े ष पी ब धनसे छू ट गये । वाठार हत ए। सभी कारके वलासोसे र हत ए।
कोई तलवारसे काटे और कोई च दनका वलेपन करे, उसपर समभावी ए। उ होने पाप आनेके सभी
ार रोक दये। शु अ त करणस हत धम याना दके ापारमे वे श त ए। जने के शासनत वमे
परायण ए। ानसे, आ मचा र से, स य वसे, तपसे, येक महा तक पाँच भावनाओसे अथात् पाँच
महा तोक प चीस भावना से और नमलतासे वे अनुपम वभू षत ए। स यक कारसे ब त वष तक
आ मचा र का प रसेवन करके एक मासका अनशन करके उन महा ानी युवराज मृगापु ने धान मो -
ग तमे गमन कया।
माण श ा-त व ा नयो ारा स माण स क ई ादश भावनाओमेसे ससार भावनाको
ढ करनेके लये मृगापु के च र का यहाँ वणन कया है। ससाराटवीमे प र मण करते ए अन त
.ख है, यह ववेक स है, और इसमे भी, नमेषमा भी जसमे सुख नह है ऐसी नरकाधोग तके अन त
खोका वणन युव ानी योगी मृगापु ने अपने माता पताके सम कया है, वह केवल ससारसे मु
होनेका वरागी उपदे श द शत करता है। आ मचा र को धारण करनेमे तपप रषहा दके ब ह ःखको
ख माना है, और महाधोग तके प र मण प अन त खको ब हभावमो हनीसे सुख माना है, यह दे खो,
कैसी म व च ता है ? आ मचा र का ःख ख नही पर तु परम सुख है, और प रणाममे अन त
सुखतरगक ा तका कारण है, और भोग वलासा दका सुख जो णक एव ब ह सुख है वह केवल
ःख ही है, और प रणाममे अन त .खका कारण है, इसे स माण स करनेके लये महा ानी मृगापु -'
का वैरा य यहाँ द शत कया है। इन महा भावक, महायश वी मृगापु क भां त जो तपा दक और
आ मचा र ा दक शु ाचरण करे, वह उ म साधु लोकमे स और धान परम स दायक स -
ग तको पाये। ससारमम वको खवृ प मानकर त व ानी इन मृगापु को भाँ त परम सुख और
परमान दके लये ानदशनचा र प द च ताम णक आराधना करते ह।
मह ष मृगापु का सव म च र (ससारभावना पसे) ससार प र मणको नवृ का और उसके
साथ अनेक कारक नवृ का उपदे श दे ता है । इस परसे अतदशनका नाम नवृ बोध रखकर आ म-
चा र क उ मताका वणन करते ए मृगापु का यह च र यहाँ पूण होता है । त व ानी ससारप र-
मण नवृ और साव उपकरण नवृ का प व वचार नरतर करते ह।
इ त अ तदशनके ससारभावनाम छठे च म मृगापु च र समा त आ।
स तम च
आ वभावना
ादश अ वर त, षोडश कषाय, नव नोकषाय, पच म या व, और पंचदश योग यह सब मलकर
स ावन आ व- ार अथात् पापके वेश करनेके णाल है।
ा त-महा वदे हमे वशाल पुडरी कणी नगरीके रा य सहासनपर पुडरीक और कुंडरीक नामके
दो भाई आ थे। एक बार वहाँ महात व ानी मु नराज वहार करते ए आये। मु नके वैरा य वचना-
मृतसे कुडरीक द ानुर आ और घर आनेके वाद पुडरीकको रा य स पकर चा र अगीकार कया।
सरस-नौरस आहार करनेसे थोडे समयमे वह रोग त आ, जससे वह चा र प रणामसे हो गया ।

५६
ीमद राजच
परी कणी महानगगेको अशोकवा टकामे आकर उसने ओघा, मुखपट वृ पर लटका दये । वह नर तर
यह प र चतन करने लगा क पुडरीक मुझे राज दे गा या नह ? वनर कने कुडरीकको पहचान लया।
उसने जाकर पुडरीकको व दत कया क आकुल ाकुल होता आ आपका भाई अशोकवागमे ठहरा आ
है। पुडरोकने आकर कुडरीकके मनोभाव दे खे और उसे चा र से डगमगाते ए दे खकर कुछ उपदे श दे नेके
बाद राज सापकर घर आया।
कुडरीकक आ ाको मामत या म ी कोई भी नही मानते थे, ब क वह हजार वष तक या
पालकर प तत आ, इस लये उसे व कारते थे। कुडरीकने रा यमे आनेके बाद अ त आहार कया।
इम कारण वह रा मे अ त पी डत आ और वमन आ। अ ी तके कारण उसके पास कोई आया नही,
इससे उनके मनमे च ड ोध आया। उसने न य कया क इस पीडासे य द मुझे शा त मले तो फर
भातमे इन सबको मे दे ख लूंगा। ऐसे महा यानसे मर कर वह सातबी नरकमे अपयठाण पाथडमे तेतीस
सागरोपमक आयुके साथ अन त खमे जाकर उ प आ । कैसा वपरीत आ व ार ।।

ो ई
इ त स तम च ो आ वभावना समा त ई।
अ म च
संवरभावना
संवरभावना-उपयु आ व ार और पाप णालको सवथा रोकना (आते ए कम-समूहको
रोकना) यह सवरभाव है।
ांत-(१) (कुडरीकका अनुसवध) कुंडरीकके मुखपट इ या द उपकरणोको हण करके पुडरीक-
ने न य कया क मुझे पहले मह ष गु के पास जाना चा हये और उसके बाद ही अ -जल हण करना
चा हये । नगे पैरोसे चलने के कारण पैरोमे ककर एव काँटे चुभनेसे लहको धाराएँ बह नकली, तो भी वह
उ म यानमे समताभावसे रहा । इस कारण यह महानुभाव पुंडरीक मृ यु पाकर समथ सवाथ स वमान-
मे ततीस सागरोपमको उ कृ आयुस हत दे व आ। आ वसे कुडरोकक कैमी खदशा । और सवरसे
पुडरीकक कैसी सुखदशा ||
ात-(२) थी वज वामी कचनका मनीके भावसे सवथा प र यागी थे। एक ीमतक
मणी नामक मनोहा रणी पु ी बज वामीके उ म उपदे शको सुनकर उनपर मो हत हो गयी। घर
आकर उसने माता पतासे कहा, "य द मै इस दे हसे प त क ँ , तो मा बन वामीको ही क ँ , अ यके
साथ सलान न होनेक मेरी त ा हे।" मणीको उसके माता पताने ब त ही कहा, "पगली | वचार
तो महो क या मु नराज भी कभी ववाह करते है। उ होने तो आनव ारक स य त ा हण क
है।" तो भी मणोने कहना नह माना । न पाय होकर धनावा सेठने कुछ और सु पा मणीको
साथ लया, और जहाँ वव वामी वराजते थे वहाँ आकर कहा, "यह ल मी है, इसका आप यथा च
उपयोग करे, और वैभव वलासमे लगाय, और इस मेरी महासुकोमला मणी नामक पु ीसे पा ण हण
करे ।" यो कहकर वह अपने घर चला आया।
__ यौवनमागरमे तैरती ई परा श मणीने बच वामीको अनेक कारसे भोगसबंधी उपदे श
कया, भोगो मुसोका अनेक कारमे वणन कया, मनमोहक हावभाव तथा अनेक कारके अ य च लत
परने उपाय पये, परतु वे मवथा वृथा गये, महासुदरी मणी अपने मोहकटा मे न फल ई। उ -
च र वजयमान यज यानी मेहक भा त अचल और अडोल रहे। मणोके मन, वचन और तनके

१७ वौ वष
५७
सभी उपदे शो तथा हावभावोसे वे लेशमा न पघले। ऐसी महा वशाल ढ़तासे मणीने बोध ा त
करके न य कया क ये समथ जत य महा मा कभी च लत होनेवाले नह है। लोहे और प थरको
पघलाना सरल है, पर तु इन महाप व साधु वच वामीको पघलानेक आशा नरथक होते ए भी
अधोग तका कारण प है । इस कार सु वचार करके उस मणीने पताक द ई ल मीको शुभ े मे
लगाकर चा र हण कया, मन, वचन और कायाका अनेक कारसे दमन करके आ माथ साधा। इसे
त व ानी सवरभावना कहते ह।
इ त अ म च म सवरभावना समा त ई।
नवम च
नजरा भावना
ादश कारके तपसे कम-समूहको जलाकर भ मीभुत कर डालनेका नाम नजराभावना है। तपके
बारह कारमे छ बा और छः अ यत र कार है । अनशन, ऊनोदरी, वृ स ेप, रस-प र याग, काय-
लेश और संलीनता ये छ बा तप है। ाय , वनय, वैयावृ य, शा -पठन, यान और कायो सग
ये छ. अ यंतर तप है । नजरा दो कारक है-एक अकाम नजरा और सरी सकाम नजरा । नजरा-
भावनापर एक व -पु का ात कहते है।
ांत- कसी ा णने अपने पु को स त सनभ जानकर अपने घरसे नकाल दया। वह
वहाँसे नकल पडा और जाकर उसने त करमडलोसे नेहसबंध जोडा । उस मडलीके अ ेसरने उसे अपने
काममे परा मी जानकर पु बनाकर रखा। वह व पु दमन करनेमे ढ हारी तीत आ । इससे
उसका उपनाम ढ हारी रखा गया । वह ढ हारी त करोमे अ ेसर आ । नगर, ामका नाश करनेमे
वह बल हमतवाला स आ। उसने ब तसे ा णयोके ाण लये । एक बार अपने सग त समुदायको
लेकर उसने एक महानगरको लूटा । ढ हारी एक वपके घर बैठा था। उस वपके यहाँ ब त ेमभावसे
ीरभोजन बना था । उस ीरभोजनके भाजनको उस वपके मनोरथी बाल-ब चे घेरे बैठे थे। ढ हारी
उस भाजनको छू ने लगा, तब ा णीने कहा, "हे मूखराज | इसे यो छू ता है ? यह फर हमारे काम नह
आयेगा, इतना भी तू नही समझता ?" ढ हारीको उन वचनोसे चड ोध आ गया और उसने उस
दन ीको मौतके घाट उतार दया । नहाता नहाता ा ण सहायताके लये दौड आया, उसे भी उसने
परभवको प ँचा दया । इतनेमे घरमेसे गाय दौडती ई आयी, और वह सीगोसे ढ हारीको मारने लगी।
उस महा ने उसे भी कालके हवाले कर दया। उस गायके पेटमेसे एक बछड़ा नकल पडा, उसे तड़-
फडाता दे खकर ढ हारीके मनमे ब त ब त प ा ाप आ। "मुझे ध कार है क मने महाघोर हसाएँ
कर डाली । मेरा इस महापापसे कब छु टकारा होगा? सचमुच । आ मक याण साधनेमे ही ेय है।"
ऐसी उ म भावनासे उसने पचमु केशलुचन कया । नगरके ार पर आकर वह उ कायो सगमे
थत रहा। वह प हले सारे नगरके लये सताप प आ था, इस लये लोग उसे ब वध सताप दे ने लगे।
आते जाते ए लोग के धूल-हॅलो, ट-प थरो और तलवारक मूठ से वह अ त सतापको ा त आ।
वहाँ लोगोने डेढ महीने तक उसे तर कृत कया, फर थके और उसे छोड दया । ढ हारी वहाँसे कायो-

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सग पुरा कर सरे ार पर ऐसे ही उ कायो सगमे थत रहा। उस दशाके लोग ने भी उसी तरह तर कृत
कया, डेढ महीने तक छे डछाड कर छोड दया । वहाँसे कायो सग पूरा कर ढ हारी तीसरे ारपर थत
रहा । वहाँके लोगोने भी ब त तर कृत कया । डेढ महीने बाद छोड दे नेसे वह वहांसे चौथे ार पर डेढ
मास तक रहा । वहाँ अनेक कारके प रषह सहन करके वह माधर रहा । छठे मासमे अन त कम-सम-

५८
ीमद् राजच
दायको जलाकर उ रो र शु होकर वह कमर हत आ। सव कारके मम वका उसने याग कया।
अनुपम केवल ान पाकर वह मु के अनत सुखानंदसे यु हो गया । यह नजराभावना ढ ई । अब-
दशम च
लोक व पभावना
लोक व पभावना-इस भावनाका व प यहाँ स ेपमे कहना है। जैसे पु ष दो हाथ कमरपर
रखकर पैरोको चौडा करके खडा रहे, वैसा ही लोकनाल कवा लोक व प जानना चा हये। बह लोक-
व प तरछे थालके आकारका है। अथवा खड़े मदलके समान है। नीचे भवनप त, तर और सात
नरक ह । म य भागमे अढाई प है। ऊपर वारह दे वलोक, नव वेयक, पाँच अनु र वमान और उन-
पर अन त सुखमय प व स ोको स शला है। यह लोकालोक काशक सव , सवदश और न पम
केवल ा नयोने कहा है । स ेपमे लोक व पभावना कही गयी।
पाप णालको रोकनेके लये आ वभावना और संवरभावना, महाफली तपके लये नजराभावना
और लोक व पका क चत् त व जाननेके लये लोक व पभावना इस दशनके इन चार च ोमे
पूण ई।
दशम च समा त।
' ान यान वैरा यमय, उ म जहां वचार ।
ए भावे शुभ भावना, ते ऊतरे भव पार ॥
१ भावाय-शान, यान ओर बैरा यमय उ म वचारोके साथ जो इन शुभ भावनाओका चतन करता है।
पह समार चे पार हो जाता है।
या माई का समाज और पाया दया गया
भागाला दन का है।

५९
(वालावबोध )
उपो ात
न ंथ वचनके अनुसार अ त स ेपमे इस थक रचना करता है। येक श ा वषय पी म
केसे इसक पूणा त होगी । आडबरी नाम ही गु वका कारण है, यो समझते ए भी प रणाममे अ भु
रहा होनेसे इस कार कया है, सो उ चत स होओ | उ म त व ान और परम सुशीलका उपदे
करनेवाले पु ष कुछ कम नह ए ह, और फर यह थ उससे कुछ उ म अथवा समान नह है; पर
वनय पमे उन उपदे शकोके धुरधर वचनोके आगे यह क न है । यह भो माणभूत है क धान पु ष
समीप अनुचरक आव यकता है, उसी तरह वैसे धुरधर थोके उपदे शबीजको बोनेके लये तथा अत
करणको कोमल करनेके लये ऐसे थका योजन है।
इस थम दशन और सरे अ य दशनोमे त व ान और सुशीलको ा तके लये और प रण
मत अनत सुखतरगको ा त करनेके लये जो-जो सा य-साधन मण भगवान शातपु ने का शत क
है, उनका व पतासे क चत् त वसंचय करके उसमे महापु षोके छोटे -छोटे च र एक करके इस
भावनाबोध और इस मो मालाको वभू षत कया है। यह-" वद धमुखमडन भवतु ।"
[ सवत् १९४३]
-कता पु
श णप त और मुखमु ा
यह एक या ाद त वावबोध वृ का बीज है। यह थ त व ा तक ज ासा उ प कर सकने
क कुछ अशमे भी साम य रखता है। यह समभावसे कहता ँ। पाठक और वाचक वगसे मु य अनुरोध
यह है क श ापाठोको मुखा करनेक अपे ा यथाश मनन करे, उनके ता पयका अनुभव कर, जनक
समझमे न आता हो वे ाता श क या मु नयोसे समझे और ऐसा योग न मले तो पाँच सात बार उन
पाठोको पढ़ जाय। एक पाठ पढ़ जानेके बाद आधी घडो उसपर वचार करके अ त करणसे पूछे क या
ता पय मला ? उस ता पयमेसे हेय, ेय और उपादे य या है ? ऐसा करनेसे पूरा थ समझा जा सकेगा।
दय कोमल होगा, वचारश खलेगी और जैन त वपर स यक् ा होगी । यह थ कुछ पठन करने-
के लये नह है, मनन करनेके लये है। इसमे अथ प श ाक योजना को है । यह योजना 'बालावबोध'
प है। ' ववेचन' और ' ाववोध' भाग भ ह, यह उनका एक ख ड हे, फर भी सामा य
त व प है।
ज हे वभाषासवधी अ छा ान है, और नव त व तथा सामा य करण थोको जो समझ
सकते है, उ हे यह थ वशेष बोधदायक होगा। इतना तो अव य अनुरोध है क छोटे बालकोको इन
श ापाठोका ता पय स व ध समझाय।
६०
ीमद् राजच
ानशालाके व ा थयोको श ापाठ मुखा कराय और वारंवार समझाये। जन- जन थोक
इसके लये सहायता लेनो यो य हो वह ली जाये। एक-दो बार पु तकको पूरा सीख लेनेके बाद उसका
अ यास उलटे से कराय।
___ म मानता ँ क सु वग इस पु तकक ओर कटा से नही दे खेगा। वहत गहराईसे मनन
करनेपर यह मो माला मो का कारण प हो जायेगी। इसमे म य थतासे त व ान और शीलका बोध
दे नेका उ े य है।
इस पु तकको स करनेका मु य हेतु यह भी है क जो उगते ए बाल युवक अ ववेक व ा
ा त करके आ म स से होते है, उनक ता रोक जाये।
मनमाना उ ेजन नह होनेसे लोगोक भावना कैसी होगी इसका वचार कये बना ही यह साहस
कया है, म मानता ँ क यह फलदायक होगा। शालामे पाठकोको भट प दे नेमे उ सा हत होनेके लये
और जैनशालामे अव य इसका उपयोग करनेके लये मेरा अनुरोध है। तभी पारमा थक हेतु स होगा।
श ापाठ १: वाचकसे अनुरोध
बाचक | मै आज तु हारे ह तकमलमे आती ँ। मुझे य नापूवक पढ़ना । मेरे कहे ए त वको
दयमे धारण करना । मै जो-जो बात क ँ उस-उसका ववेकसे वचार करना। य द ऐसा करोगे तो तुम
ान, यान, नी त, ववेक, स ण और आ मशा त पा सकोगे।
तुम जानते होगे क कतने ही अ ानी मनु य न पढने यो य पु तक पढकर अपना व खो दे ते है,
और उ टे रा ते पर चढ़ जाते ह। वे इस लोकमे अपक त पाते है, तथा परलोकमे नीच ग तमे जाते है।
तुमने जन पु तकोको पढा है, और अभी पढते हो, वे पु तक मा ससारक है, पर तु यह पु तक
तो भव और परभव दोनोमे तु हारा हत करेगी। भगवानके कहे ए वचनोका इसमे थोडा उपदे श
कया है।
तुम कसी कारसे इस पु तकक अ वनय न करना, इसे न फाडना, इसपर दाग न लगाना या
सरी कसी भी तरहसे न वगाडना । ववेकसे सारा काम करना । वच ण पु षोने कहा है क जहां
ववेक है वही धम है।
तुमसे एक यह भी अनुरोध है क ज ह पढना न आता हो और उनक इ छा हो तो यह पु तक
अनु मसे उ ह पढ सुनाना।
तुम जस वातको न समझ पाओ उसे सयाने पु षसे समझ लेना। समझनेमे आल य या मनमे
शका न करना।
तु हारे आ माका इससे हत हो, तु हे ान, शा त और आनद मले, तुम परोपकारी, दयालु,
मावान, ववेक और बु शाली बनो, ऐसी शुभ याचना अहत भगवानसे करके यह पाठ पूण करता ँ।
श ापाठ २ : सवमा य धम
चौपाई
*धमत व जो पूछ मने, तो संभळावू नेहे तने;
जे स ात सकळनो सार, सवमा य स ने हतकार ॥१॥
*भावाथ- य द तूने धमत व मुझसे पूछा है, तो उसे तुझे नेहसे सुनाता ँ। जो सकल स ातका सार
है, सवमा य और सव हतकर है ॥१॥
..

६१
भा यं भाषणमां भगवान, धम न बीजो दया समान;
अभयवान साये संतोष, ो ाणीने, दळवा दोष ॥२॥
स य शीळ ने सघलां दान, दया होईने या माण;
या नह तो ए नह एक, वना सूय कण न ह दे ख ॥ ३ ॥
पु पपांखडी यां भाय, जनवरनी त न ह आ ाय;
सव जीवनुं इ छो सुख, महावीरनं श ा मु य ॥४॥
सव दशने ए उपवेश, ए एकत, नह वशेष;
सव कारे जननो बोष, या दय मळ अ वरोध ! ॥५॥
ए भवतारक सुंदर राह, प रने तरये करी उ साह
धम सकळनु ए शुभ मूळ, ए वण धम सदा तकूळ ॥६.
त व पयो ए ओळखे, ते जन पह चे शा त सुखे;
शां तनाथ भगवान स , रजचं क णाए स ॥७॥
श ापाठ ३ : मके चम कार
म तु ह ब तसी सामा य व च ताएँ बताये दे ता ,
ँ इनपर वचार करोगे तो तु ह परभवक
ा ढ होगी।
एक जीव सु दर पलगपर पु पश यामे शय करता है, और एकको फट -पुरानी गुदड़ी भी नसीब
नह होती। एक भाँ त-भां तके भोजन से त त हता है और एक दाने-दानेको तरसता है। एक अग णत
ल मीका उपभोग करता है और एक फूट कौर के लये दर-दर भटकता है। एक मधुर वचन से मनु यका
मन हरता है और एक मूक-सा होकर रहता/। एक सु दर व ालकारसे वभू षत होकर फरता है और
एकको कड़े जाड़ेमे चीथडा भी ओढनेको नह मलता। एक रोगी है और एक बल है। एक बु शाली
ै औ ै ो ै औ ै ै औ
है और एक जडभरत है। एक मनोहर नयनाला है और एक अधा है। एक लूला है और एक लगडा
है। एक क तमान है और एक अपयश भोता है। एक लाखो अनुचरोपर म चलाता है और एक
लाखोके ताने सहन करता है। एकको दे कर आन द होता है और एकको दे खकर वमन होता है। एकक
भगवानने वचनम कहा है क दया समान परा धम नह है । दोषोका नाश करने के लये ा णयोको
अभयदानके साथ सोष दो ॥२॥
पील और सभी वान दयाके होनेपर ही मा णत ह । जैसे सूयके बना करण नह है, वैसे ही दयाके
जलपर स य, शील, दान आ द एक भी गुण नह है । ३ ।।
जससे पु पक एक पखडीको भी ख होता है, वह करनेक जनवरक आ ा ही नह है। सब जीवोका
सुख चाहो यही महावीरको मु य श ा है ।।४॥
सब दशनोम दयाका उपदे श है । यह एकात है, वशेष नही । सव कारसे जन भगवानका यही बोध है
क दया एव वरोषर हत नमल दया परम धम है ॥ ५॥
यह ससारसे पार करनेवाला सुदर माग है, इसे उ साहसे अपनाओ और ससार-सागरको तर जाबो । यह
सकल धमका शुभ मुल है। इसके बना धम सदा अधम है ॥ ६ ॥
__ जो मनु य इसे त व पसे जान-समझ लेते ह, वे इसके आचरणसे शा त सुखको ा त करते है । राजच
कहते है क शा तनाथ भगवान क णासे स ए है यह बात स है ॥७॥

६२
ीमद् राजव
इ याँ स पूण ह और एकको अपूण है। एकको द न नयाका लेश भान नह है और एकके ख
अ त भी नह है।
एक गभमे आते ही मर जाना है, एक ज म लेते ही मर जाता है एक मरा आ ज म लेता
और एक सौ वषका वृ होकर मरता हे।
कसीका मुख, भापा और थ त समान नह है। मुख राजग पर खमा-खमाके उ ारोसे अ]ि◌
न दन पाते है और समथ व ान ध के खाते है।
इस कार सारे जगतक व च ता भ - भ कारसे तुम दे खते हो, इस परसे तु ह कुछ वचा
आता हे ? मैने कहा है, फर भी वचार आता हो तो कहो क यह सब कस कारणसे होता है?
अपने बाँधे ए शुभाशुभ कमसे । कमसे सारे ससारमे मण करना पड़ता है। परभव नह मानने
वाला वय यह वचार कससे करता है ? यह वचार करे तो अपनी यह बात बह भी मा य रखे ।
' श ापाठ ४ : मानवदे ह
'तुमने सुना तो होगा क व ान मानवदे हको सरी सभी दे होक अपे ा उ म कहते ह। पर
उ म कहनेका कारण तुम नही जानते होगे इस लये मै उसे कहता है।
__यह ससार ब त खसे भरा आ है। ानी इसमेसे तरकर पार होनेका य न करते है । मो क
साधकर वे अनत सुखमे वराजमान होते ह। यह मो सरी कसी दे हस मलनेवाला नही है। दे व
तयं च या नरक इनमेसे एक भी ग तसे मो नह है; मा मानवदे हसे मो है।
अब तुम पूछोगे क सभी मानवोका मो यो नही होता? इसका उ र भी मै कह ं । जो
मानवताको समझते ह वे ससारशोकसे पार हो जाते ह। जनमे ववेकबु का उदय आ हो उनमे व ान
मानवता मानते ह । उससे स यास यका नणय समझकर परम त व, उ म आचार और स मका सेवन
करके वे अनुपम मो को पाते ह। मनु यके शरीरके दे खावसे व ान उसे मनु य नह कहते, परतु उसके
ववेकके कारण उसे मनु य कहते है। जसके दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान, एक मुख, दो होठ
और एक नाक हो उसे मनु य कहना, ऐसा हमे नही समझना चा हये। य द ऐसा समझ तो फर बदरको
भी मनु य मानना चा हये । उसने भी तदनुसार सब ा त कया है। वशेप पसे उसके एक पूछ भी है।
तब या उसे महामनु य कह ? नही, जो मानवता समझे बही मानव कहलाये।
ानी कहते है क यह भव ब त लभ है, अ त पु यके भावसे यह दे ह मलती है, इस लये इससे
शोन आ मसाथकता कर लेनी चा हये। अयमतकुमार, गजसुकुमार जैसे छोटे बालक भी मानवताको
समझनेसे मो को ा त ए । मनु यमे जो श वशेष है उस श से बह मदो म हाथी जैसे ाणीको
भी वशमे कर लेता है, इसी श से य द वह अपने मन पी हाथीको वशमे कर ले तो कतना क याण हो!
कसी भी अ य दे हमे पूण स वेकका उदय नह होता और मो के राजमागमे वेश नह हो
सकता । इस लये हमे मली ई अ त लभ मानवदे हको सफल कर लेना आव यक है। ब तसे मूख रा-
चारम, अ ानमे, वपयमे और अनेक कारके मदमे, मली ई मानवदे हको वृथा गँवा दे ते है। अमू य
कौ तुभ खो बठते है । ये नामके मानव गने जा सकते है, वाक तो वे वानर प ही ह।
मीतके पलको न त पसे हम नह जान सकते, इस लये यथा-सभव धममे वरासे सावधान
होना चा हये।
१ दे खये 'भावनावोध', पचम च - माण श ा ।

६३
१७वाँ वष
श ापाठ ५ : अनाथी मु न--भाग १
अनेक कारक ऋ वाला मगधदे शका े णक नामक राजा अ नीडाके लये म डकु नामके
वनमे नकल पडा । वनक व च ता मनोहा रणी थी। नाना कारके वृ वहाँ नजर आ रहे थे, नाना
ो ो े े ो ी ई ी े ी े े े े
कारको कोमल वेले घटाटोप छायी ई थी, नाना कारके प ी आनदसे उसका सेवन कर रहे थे; नाना
कारके प योके मधुर गान वहाँ सुनायी दे रहे थे, नाना कारके फूलोसे वह वन छाया आ था;
नाना कारके जलके झरने वहाँ बह रहे थे, सं ेपमे वह वन नदनवन जैसा लग रहा था । उस वनमे एक
वृ के नीचे महान् समा धमान्, पर सुकुमार एवं सुखो चत मु नको उस े णकने बैठे ए दे खा । उसका
प दे खकर वह राजा अ य त आन दत आ। उपमार हत पसे व मत होकर मनमे उसक शसा
करने लगा-"इस मु नका कैसा अ त वण है । इसका कैसा मनोहर प है। इसक केसी अ त
सौ यता है । यह कैसी व मयकारक माका धारक है। इसके अगसे वैरा यका केसा उ म काश
नकल रहा है । इसक कैसी नल भता मालूम होती है ! यह सय त कैसी नभय न ता धारण कये ए
है । यह भोगसे कैसा वर है।" यो चतन करते करते. मु दत होते-होते, तु त करते-करते, धीरे-
से चलते-चलते, द णा दे कर उस मु नको व दन करके, न अ त समीप और न अ त र वह े णक
बैठा । फर अड लब होकर वनयसे उसने उस मु नसे पूछा- "हे आय । आप शसा करने यो य त ण
ह; भोग वलासके लये आपक वय अनुकूल है, ससारमे नाना कारके सुख ह, ऋतु-भातुके कामभोग,
जलसबधी वलास, तथा मनोहा रणी योके मुखवचनोका मधुर वण होनेपर भी इन सबका याग
करके मु न वमे आप महान् उ म कर रहे है, इसका या कारण? यह मुझे अनु हसे क हये।" राजाके
ऐसे वचन सुनकर मु नने कहा-“हे राजन् । म अनाथ था। मुझे अपूव व तुको ा त करानेवाला तथा
योग ेमका करनेवाला, मुझ पर अनुकंपा लानेवाला, क णासे परम सुखका दे नेवाला ऐसा मेरा कोई म
नह आ, यह कारण था मेरी अनाथताका ।"
श ापाठ ६ : अनाथी मु न-भाग २
े णक, म नके भाषणसे मु कराकर बोला-"आप जैसे महान ऋ मानको नाथ यो न हो?
य द कोई नाथ नह है तो म होता ँ। हे भय ाण- I आप भोग भो गये । हे सय त । म , जा तसे लभ
ऐसे अपने मनु यभवको सफल क जये।" अनाथीने कहा-"अरे णक राजन् । परतु तू वय अनाथ है
तो मेरा नाथ या होगा ? नधन धना कहाँसे बना सके ? अबुध वृ दान कहाँसे दे सके ? अ व ा
कहाँसे दे सके ? व या सतान कहांसे दे सके? जब तू वय अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा ?"
मु नके वचनोसे राजा अ त आकुल और अ त व मत आ। जन वचनोका कभी वण नही आ उन
वचन का य त मुखसे वण होनेसे वह श कत आ और बोला-"म अनेक कारके अ का भोगी ह:
अनेक कारके मदो म हा थयोका धनी ; ँ अनेक कारक सेना मेरे अधीन है, नगर, ाम, अ त:-
पुर और चतु पादक मेरे कोई यूनता नह है, मनु य संबंधी सभी कारके भोग मने ा त कये ह; अन-
चर मेरी आ ाका भलीभां त आराधन करते ह, पाँच कारको सप मेरे घरमे ह, अनेक मनोवा छत
व तुएँ मेरे पास रहती है। ऐसा मै महान होते ए भी अनाथ कैसे हो सकता ँ? कही हे भगवन् । आप
मषा बोलते हो।" मु नने कहा-"राजन् । मेरा कहना तू यायपूवक समझा नही है । अब म जैसे अनाथ
आ; और जैसे मने ससारका याग कया वह तुझे कहता ँ। उसे एका एवं सावधान च से सुन.
सुनकर फर अपनी शंकाके स यास यका नणय करना-
कौशा बी नामको अ त ाचीन और व वध कारक भ तासे भरी ई एक सु दर नगरी ची।
वहाँ ऋ से प रपूण धनसचय नामके मेरे पता रहते थे। हे महाराजन् । योवनवयके थम भागमे मेरी

६४
ीमद् राजच
आँख अ त वेदनासे त ई, सारे शरीरमे अ न जलने लगी, श से भी अ तशय ती ण वह रोग
वेरीक भाँ त मुझ पर कोपापमान आ। आँखोक उस अस वेदनासे मेरा म तक खने लगा । व के
हार सरीखी, सरेको भी रौ भय उ प करानेवाली उस दा ण वेदनासे म अ य त शोकमे था।
वहतसे वै शा - नपुण वै राज मेरी य वेदनाका नाश करने के लये आये, अनेक औषधोपचार कये,
पर तु वे वृथा गये | वे महा नपुण गने जानाले वे राज मुझे उस रोगसे मु नह कर सके, यही हे
राजन मेरी अनाथता थी। मेरी आँखक वेदनको दर करनेके लये मेरे पता सारा धन दे ने लगे;
पर तु उससे भी मेरी बह वेदना र नह , हे राजन्' यही मेरी अनाथता थी । मेरी माता पु के शोकसे.
अ त ःखातं हई, पर तु वह भी मुझे उस रोगसे छु डा नह पको, यही हे राजन् । मेरी अनाथता थी।
एक पेटसे ज मे हए मेरे ये और क न भाई भरसक य न र चुके, पर तु मेरी वह बेदना र नह
हई, हे राजन् । यही मेरी अनाथता थी । एक पेटसे ज मी ई मेरी अंगठा और क न ा भ ग नय से मेरा
वह ख र नह आ, हे महाराजन् । यही मेरी अनाथता थी। मेरी जो प त ता, मुझपर अनुर
और ेमवती थी वह ऑसुओसे मेरे दयको भगोती थी। उसके अ -पान दे नेपर भी और नाना
कारके उबटन, चूवा आ द सुगंधी पदाथ तथा अनेक कारके फूल-चदना दके ात अ ात वलेपन कये
जानेपर भी मै उन वलेपनोसे अपना रोग शात नह कर सका, णभर भी र न रहताथी ऐसी वह ी
भी मेरे रोगको मटा न सक , यही हे महाराजन् । मेरी अनाथता थी। इस कार कसीके रेमसे, कसी-
के औषधसे, कसीके वलापसे या कसीके प र मसे वह रोग शात नही आ। उस समय मने पुन पुनः
अस वदना भोगी। फर मै पची ससारसे ख हो गया । एक बार य द इस महान् वड बना-
मय वेदनासे मु हो जाऊँ तो खती, दती और नरारंभी व यको धारण क ँ , यो च तन करके म
शयन कर गया। जब रा तीत हो गयी तब हे महाराजन् । मेरो उस वेदनाका य हो गया, और
म नीरोग हो गया। माता, पता, वजन, बाधव आ दसे पूछकर भातमे मैने महा मावान, इ य-
न ही, और आरंभोपा धसे र हत अनगार वको धारण कया।
श ापाठ ७ अनाथी मु न--भंग ३

े े ै े ी ो
हे े णक राजन् । तदन तर मै आ मा परा माका नाथ आ। अब म सव कारके जीवोका
नाथ ह। तुझे जो शका ई थी वह अब र हो गयी होगी। इस कार सारा जगत च वत पय त
अशरण और अनाथ हे । जहाँ उपा ध है वहाँ अनाथता है। इस लयेमै जो कहता ँ उस कथनको तू
मनन कर जाना । न यसे मानता क अपना आ मा ही खसे भरपूर वेनरणीको करनेवाला है, अपना
आ मा ही ु र शा मली वृ के ःखको उ प करनेवाला है। अपना आरंग ही वा छत व तु पी ध
दे नेवाली कामधेनु गायके सुखको उ प करनेवाला है, अपना आ मा ही न दावनक तरह आन दकारी
है; अपना आ मा ही कमको करनेवाला है, अपना आ मा ही इस कमको र करनेवाला है। अपना
आ मा ही खोपाजन करनेवाला है । अपना आ मा ही सुखोपाजन करनेवाला है। पना आ मा ही म
ओर अपना आ मा ही वैरी है। अपना आ मा ही नकृ आचारमे थत और अपन• आ मा ही नमल
आचारमे थत रहता है।"
__इस कार उन अनाथी मु नने े णकको आ म काशक बोध दया। े णक राज ब त सतु
आ । अज लब होकर वह इस कार बोला- हे भगवन् | आपने मुझे भलीभाँ त उप दया।
आपने जैसी थी वैमी अनाथता कह सुनायी। मह ष | आप सनाथ, आप सवाधव, और आप गम है,
आप पव अनाथ के नाथ है। हे प व सय त । म आपसे मा मांगता ँ। आपक ानपूण वगसे

६५
१७वां वष
मुझे लाभ आ है। धम यानमे व न करनेवाले भोग भोगने स ब धी, हे महाभा यवान् । मैन आपको जो
आम ण दया त स ब धी अपने अपराधक नतम तक होकर मा मांगता ँ।" इस कारसे तु त
करके राजपु षकेसरी े णक वनयसे द णा करके अपने थानको गया।
___ महातपोधन, महामु न महा ावान्, महायश वी, महा न थ और महा ुत अनाथी मु नने
मगध दे शके राजा े णकको अपने बीते ए च र से जो बोध दया है वह सचमुच अशरणभावना स
करता है। महामु न अनाथीसे भोगी ई वेदना जैसी अथवा उससे अ त वशेष वेदनाको भोगते हए
अन त आ माओको हम दे खते ह, यह कैसा वचारणीय है । ससारमे अशरणता और अन त अनाथता
छाद ई है, उसका याग उ म त व ान और परम शीलका सेवन करनेसे ही होता है। यही मु का
कारण प है। जैसे ससारमे रहते ए अनाथी अनाथ थे, वैसे ही येक आ मा त व ानक ा तके बना
सदै व अनाथ ही है। सनाथ होनेके लये स े व, स म और स को जानना आव यक है।
श ापाठ ८ : सदे वत व
तीन त व हमे अव य जानने चा हये। जब तक इन त वोके स ब धमे अ ानता रहती है तब
तक आ म हत नह होता । ये तीन त व है-स े व, स म और स । इस पाठमे स े व व पके
वषयमे कुछ कहता ँ।
ज हे केवल ान और केवलदशन ा त होता है, जो कमसमुदायको महो तपोप यानसे वशोधन
करके जला डालते ह, ज होने च और शखसे भी उ वल शु ल यान ा त कया है, च वत
राजा धराज अथवा राजपु होते ए भी जो ससारको एकात अनत शोकका कारण मानकर उसका याग
करते ह; जो केवल दया, शा त, मा, वीतरागता और आ मसमृ से वध तापका नाश करते है,
संसारमे मु य माने जानेवाले ानावरणीय, दशनावरणीय, मोहनीय और अतराय इन चार कम को
भ मीभूत करके जो व- व पमे वहार करते ह, जो सव कम के मूलको जला डालते है, जो केवल
मो हनीज नत कमका याग करके न ा जैसी ती व तुको एकातत र करके श थल कम के रहने तक
उ म शीलका सेवन करते है, जो वरागतासे कम ी मसे अकुलाते ए पामर ा णयोको परम शा त
ा त होनेके लये शु बोधबीजका मेघधारा वाणीसे उपदे श करते ह, कसी भी समय क च मा भी
ससारी वैभव वलासका व ाश भी जनको नही रहा है, जो कमदलका य करनेसे पहले छ थता
मानकर ीमुखवाणीसे उपदे श नह करते, जो पाँच कारके अतराय, हा य, र त, अर त, भय, जुगु सा,
शोक, म या व, अ ान, अ ा यान, राग, े ष, न ा और काम इन अठारह षण से र हत ह, जो
स चदान द व पमे वराजमान ह, और जनमे महो ोतकर बारह गुण कट होते ह, जनका ज म,
मरण और अन त ससार चला गया है, उ हे न थ आगममे सदे व कहा है। वे दोषर हत शु आ म-
व पको ा त होनेसे पूजनीय परमे र कहलाते है । जहाँ अठारह दोषोमेसे एक भी दोष होता है वहाँ
स े वका व प नही है। इस परम त वको उ म सू से वशेष जानना आव यक है।
श ापाठ ९ : स मत व
अना दकालसे कमजालके ब धनसे यह आ मा ससारमे भटका करता है । समयमा भी इसे स चा
सुख नह है। यह अधोग तका सेवन कया करता है, और अधोग तमे गरते ए आ माको धारण करने-
वाली जो व तु है उसका नाम 'धम' है। इस धमत वके सव भगवानने भ - भ भेद कहे ह। उनमेसे
मु य दो है-१. वहार धम, २ न य धम ।

६६
ीमद राजच
वहार धममे दया मु य है । शेष चार महावत भी दयाक र ाके वा ते है। दयाके आठ भेद
ह- पदया, २ भावदया, ३ वदया, ४ परदया, ५ व पदया, ६ अनुब धदया, ७ वहारदया,
८ न यदया।
१ थम दया- कसी भी कामको य नापूवक जीवर ा करके करना यह ' दया' है।

ी े ी ो े े े े े े
...२ सरी भावदया- सरे जीवको ग तमे जाते दे खकर अनुकपाबु से उपदे श दे ना यह
'भावदया है।
। ३ तीसरी वदया-यह आ मा अना दकालसे म या वसे सत है, त वको नह पाता है,
जना ाको पाल नह सकता है, इस कार च तन करके धम मे वेश करना यह ' वदया' है।
। ४ चौथी परदया-छ.काय जीवक र ा करना यह 'परदया' है।
५ पाँचवी व पदया-सू म ववेकसे व पका वचार करना यह ' व पदया' है।
६ छठ अनुब धदया- गु या श कका श यको कड़वे वचनसे उपदे श दे ना, यह दे खनेमे तो
अयो य लगता है, परतु प रणाममे क णाका कारण है, इसका नाम 'अनुव धदया है।
७ सातवी वहारदया-उपयोगपूवक और व धपूवक दया पालनेका नाम ' वहारदया' है।
८ आठवी न यदया-शु सा य उपयोगमे एकता भाव और अभेद उपयोगका होना यह
' न यदया' है।
इन आठ कारक दयायु वहार धम भगवानने कहा है । इसमे सव जीवोका सुख, संतोष और
अभयदान, ये सब वचारपूवक दे खनेसे आ जाते है।
सरा, न यधम-अपने व पका म र करना, आ माको आ मभावसे पहचानना । 'यह
ससार मेरा नह है, मै इससे भ , परम असंग स स श शु आ मा ' ँ , ऐसी आ म वभाववतना यह
न यधम है।
- जसमे कसी ाणीका ख, अ हत या असतोष रहा है वहाँ दया नह है, और जहाँ दया नह है
वहाँ धम नह है । अहत भगवानके कहे ए धमत वसे सव ाणी अभय होते है।
श ापाठ १० : स त व--भाग १
पता-पु । तू जस शालामे अ यास करने जाता है उस शालाका श क कौन है ?
पु - पताजी | एक व ान और समझदार ा ण है।
पता-उसक वाणी, चाल-चलन आ द कैसे है ?
- पु -उनक वाणी ब त मधुर है । वे कसीको अ ववेकसे नही बुलाते और ब त गभीर है। जब
बोलते है तब मानो मुखसे फूल झडते है। वे कसीका अपमान नह करते, और हमे समझपूवक श ा
दे ते ह।
पता-तू वहाँ कस लये जाता है ? यह मुझे कह तो सही।
पु -आप ऐसा यो कहते है, पताजी ? ससारमे वच ण होनेके लये यु याँ समझू, वहार-
नी त सीखू, इसी लये तो आप मुझे वहाँ भेजते है।
पता-तेरे ये श क राचारी अथवा ऐसे होते तो?
पु -तब तो ब त बुरा होता । हमे अ ववेक और कुबचन बोलना आता, वहारनी त तो फर
सखाता भी कौन ?

६७
पता-दे ख पु , इसपरसे मै अव तुझे एक उ म श ा दे ता है। जैसे संसारमे पड़नेके लये
वहारनी त सीखनेका योजन है, वैसे ही परभवके लये धमत व और धमनी तमे वेश करनेका यो-
जन है। जैसे यह वहारनी त सदाचारी श कसे उ म मल सकती है, वैसे ही परभवमे ेय कर
धमनी त उ म गु से मल सकती है। वहारनी तके श क तथा धमनी तके श कमे ब त भेद है।
ब लौरके टु कडे जैसा वहार- श क है और अमु य कौ तुभ जैसा आ मधम श क है।
पु - सरछ | आपका कहना वा जब है। धमके श कक संपूण आव यकता है। आपने
वारवार ससारके अन त खोके सबधमे मुझे कहा है । इससे पार पानेके लये धम ही सहायभूत है । तब
धम कैसे गु से ा त कया जाये तो वह ेय कर स हो, यह मुझे कृपा करके क हये ।
श ापाठ ११ : स त व--भाग २ -
पता-पु | गु तीन कारके कहे जाते है-१. का व प, २ कागज व प, ३ प थर व प।
१ का व प गु सव म है, यो क ससार पी समु को का व प गु ही तरते है, और तार
सकते है । २ कागज व प गु म यम है। ये ससारसमु को वय तर नह सकते, परतु कुछ पु य उपा-
जन कर सकते है । ये सरेको तार नही सकते । ३. प थर व प गु वय डू बते है और परको भी डु बाते
है। का व प गु मा जने र भगवानके शासनमे है । बाक दो कारके जो गु है वे कमावरणक
वृ करनेवाले है। हम सब उ म व तुको चाहते है, और उ मसे उ म व तु मल सकती है। गु
य द उ म हो तो वे भवसमु मे ना वक प होकर स मनावमे बैठाकर पार प ंचा द। त व ानके भेद,
व- व पभेद, लोकालोक वचार, ससार व प यह सब उ म गु के बना मल नह सकते। अब
तुझे करनेक इ छा होगी क ऐसे गु के ल ण कौन-कौनसे है ? उ हे मै कहता ँ। जो जने र
भगवानक कही ई आ ाको जान, उसे यथात य पाले, और सरेको उसका उपदे श कर, कचनका मनी
के सवभावसे यागी हो, वशु आहार-जल लेते हो, वाईस कारके प रषह सहन करते हो, ात, दात,
नरारभी और जते य ह , सै ा तक ानमे नम न रहते हो, मा धमके लये शरीरका नवाह
करते ह , न थ पथ पालते ए कायर न हो, सलाई मा भी अद न लेते हो, सव कारके रा -
भोजनके यागी हो, समभावी हो और नीरागतासे स योपदे शक हो। स ेपमे उ हे का व प स
जानना । पु | ग के आचार एव ानके सबधमे आगममे बहत ववेकपूवक वणन कया है। यो यो तू
आगे वचार करना सीखता जायेगा, यो यो फर मै तुझे उन वशेष त वोका उपदे श करता जाऊँगा।
पु - पताजी | आपने मुझे स ेपमे भी ब त उपयोगी और क याणमय बताया है। मै नर तर
इसका मनन करता र ँगा।
श ापाठ १२ उ म गृह थ
ससारमे रहते ए भी उ म ावक गृहा मसे आ मसाधनको सा य करते है, उनका गृहाधम
भी सराहा जाता है।
ये उ म पु ष सामा यक, मापना, चौ वहार- या यान इ या द यम नयमोका सेवन करते है।
परप नीक ओर माँ बहनक रखते ह।
यथाश स पा मे दान दे ते ह।
शात, मधुर और कोमल भाषा बोलते है।
स शा का मनन करते है।

६८
ीमद् राजच
यासभव उपजी वकामे भी माया, कपट इ या द नही करते।
ी, पु , माता, पता, मु न ओर गु इन सबका यथायो य स मान करते है।
माँ-बापको धमका वोध दे ते ह।
यलासे घरको व छता, राँधना, शयन इ या दको कराते है।
वय वच णतासे आचरण करके ा-पु को वनयी और धम बनाते है।
सारे कुटु बमे ऐ यको वृ करते है।
आये ए अ त थका यथायो य स मान करते ह ।
याचकको ुधातुर नह रखते।
स पु षोका समागम और उनका बोध धारण करते ह।
नर तर मयादास हत और स तोषयु रहते है ।
यथाश घरमे शा सचय रखते है।
अ प आर भसे वहार चलाते ह।
ऐसा गृह था म उ म ग तका कारण होता है, ऐसा ानी कहते है।
श ापाठ १३ . जने रको भ -भाग १
ज ासु- वच ण स य | कोई शकरक , कोई ाको, कोई व णुक , कोई सूयक , कोइ
अ नक , कोई भवानीक , कोई पैग बरक और कोई ईसाको भ करता है। ये भ करके या आशा
रखते होगे?
स य- य ज ासु । ये भा वक मो ा त करनेक परम आशासे इन दे वोक भ करते है।
ज ासु-तब क हये, या आपका ऐसा मत है क ये इससे उ म ग त ा त करगे?
स य-ये उनक भ से मो ा त करगे, ऐसा मै नही कह सकता। जनको ये परमे र
कहते है वे कुछ मो को ा त नह ए है, तो फर वे उपासकको मो कहाँसे दे गे? शकर इ या द
कम य नही कर सके ह और षणस हत है, इस लये वे पूजनीय नह ह।
ज ासु-वे षण कौन-कौनसे ह ? यह क हये ।
स य-"अ ान, काम, हा य, र त, अर त इ या द मलकर अठारह' षणोमेसे एक षण हो तो
भी वे अपू य है। एक समथ प डतने भी कहा है क, 'म परमे र ह' यो म या री तसे मनानेवाले
पु ष वय अपनेको ठगते है, यो क पासमे ी होनेसे वे वषयी ठहरते है, श धारण कये होनेसे वे
े षी ठहरते ह। जप माला धारण करनेसे यह सू चत होता है क उनका च न है । 'मेरी शरणम
आ, मै सब पापोको हर लंगा', यो कहनेवाले अ भमानी और ना तक ठहरते ह। ऐसा है तो फर व
सरेको कैसे तार सकते ह ? और कतने ही अवतार लेनेके पमे अपनेका परमे र कहलवाते ह, तो
* ऐसी थ तमे यह स होता है क अमुक कमका योजन शेष है।'
ज ासु-भाई । तब फर पू य कौन और भ कसक करनो क जससे आ मा वश का
काश करे?
____ . आ. पाठा०-१ 'अ ान, न ा, म या व, राग, े ष, अ वर त, भय, शोक, जुगु सा, दानातराय,
लाभा तराय, वीया तराय, भोगातराय और उपभोगावराय, काम, हा य, र त और अर त, ये अठारह ।'
२ 'एंसी थ तम यह स होता है क उनके लये अमुक कमका भोगना बाक है।'

६९
स य - शु स चदान द व प "अन त स को' भ से तथा सव षणर हत, कममलहीन, मु ,
नीराग, सकलभयर हत, सव , सवदश जने र भगवानक भ से आ मश का शत होती है।
ज ासु-इनक भ करनेसे ये हमे मो दे ते ह, ऐसा मानना ठोक है?
स य-भाई ज ासु । ये अन त ानी भगवान तो नीराग और न वकार है। इ ह तु त- नदाका
हमे कुछ भी फल दे नेका योजन नह है। हमारा आ मा जो कमदलसे घरा आ है, तथा अ ानी एव
मोहाध बना आ है, उसे र करनेके लये अनुपम पु षाथक आव यकता है। सव कमदलका य करके
"अन त जीवन, अन त वीय, अन त ान और अन त दशनसे व व पमय हए' ऐसे जने रोका व प
आ माक न यनयसे ऋ होनेसे "यह पु षाथता दे ता है', वकारसे वर करता है, शा त और
नजरा दे ता है। जैसे हाथमे तलवार लेनेसे शौय और भांगसे नशा उ प होता है, वैसे ही इस गुण-
च तनसे आ मा व व पानदक े ण पर चढता जाता है। हाथमे दपण लेनेसे जैसे मुखाकृ तका भान
ो ै ै े ी े े े ो ै
होता है वैसे ही स या जने र- व पके च तन प दपणसे आ म व पका भान होता है।
श ापाठ १४ : जने रको भ -भाग २
ज ासु-आय स य | स व पको ा त जने र तो सभी पू य है, तो फर नामसे भ
करनेको कुछ ज रत है ?
स य-हाँ, अव य है । अन त स व पका यान करते ए जो शु व पका वचार आता
है वह तो काय है, पर तु वे जनसे उस व पको ा त ए वे कारण कौनसे ह ? इसका वचार करते
ए उन तप, महान वैरा य, अन त दया, महान यान, इन सबका मरण होगा । अपने अहत तीथकर-
पदम जस नामसे वे बहार करते थे उस नामसे उनके प व आचार और प व च र का अ त करणमे
उदय होगा, जो उदय प रणाममे महा लाभदायक है। जैसे महावीरका प व नाम मरण करनेसे वे कौन
थकब ए ? उ होने कस कारसे स पायी? इन च र ोक मृ त होगी, और इससे हमे वैरा य,
ववेक इ या दका उदय होगा।
ज ासु-पर तु 'लोग स' मे तो चौबीस जने रोके नाम सू चत कये ह, इसका या हेतु है ?
यह मुझे समझाइये।
__ स य-इस कालमे इस े मे जो चौबीस जने र हए, उनके नाम और च र का मरण
करनेसे शु त वका लाभ हो, यह इसका हेतु है। वैरागीका च र वैरा यका बोध दे ता है। अन त
चौबीसीके अन त नाम स व पमे सम त आ जाते है। वतमानकालके चौबीस तीथकरोके नाम इस
कालमे लेनेसे कालक थ तका अ त सू म ान भी याद आ जाता है। जैसे इनके नाम इस कालमे लये
जाते ह वैसे ही चीबीसी चौबीसीके नाम, काल और चौबीसी बदलने पर लये जाते रहते है । इस लये
अमुक नाम लेना ऐसा कुछ न त नह है, पर तु उनके गुण और पु षाथक मृ तके लये वतमान
चौबीसीक मृ त करना, ऐसा त व न हत है। उनका ज म, वहार, उपदे श यह सव नाम न ेपसे
जाना जा सकता है। इससे हमारा आ मा काश पाता है। सप जैसे बाँसुरीके नादसे जागृत होता हे
वैसे ही आ मा अपनी स य ऋ सुननेसे मोह न ासे जागृत होता हे।
ज ासु-आपने मुझे जन रक भ स ब धी ब त उ म कारण बताया। आधु नक श ासे
जने रक भ कुछ फलदायक नह हे ऐसी मेरी आ था ई थी, वह न हो गयी है। जने र
भगवानक भ अव य करनी चा हये, यह म मा य रखता ँ।
० आ० पाठा-१ स भगवानक ।' २ 'अनत ान, अनत दशन, जनत चा रम, अनत वीय,
और व व पमय ए।' ३ 'उन भगवानका मरण, चतन, यान और भ ये पुरपाथता दे ते है।'

७०
ीमद् राजच
स य- जने र भगवानक भ से अनुपम लाभ है । इसके कारण महान है । 'उनके उपकारसे
उनक भ अव य करनी चा हये । उनके पु षाथका मरण होता है, जससे क याण होता है। इ या द
इ या द मा सामा य कारण मैने यथाम त कहे ह । वे अ य भा वकोके लये भी सुखदायक हो।"
श ापाठ १५ : भ का उपदे श
तोटक छ द
*शुभ शीतळतामय छाय रही, मनवा छत या फळपं कही।
जनभ हो त क प अहो, भजीने भगवंत भवत लहो ॥१॥
नज आ म व प मुदा गटे , मनताप उताप तमाम मटे ।
अ त नजरता वणवाम हो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥२॥
समभावी सदा प रणाम थशे, जड मंद अधोग त ज म जशे।
शुभ मंगळ आ प रपूण चहो, भजीने भगवंत अवंत लहो ॥३॥
शुभ भाव बडे मन शु करो, नवकार महापदने समरो।
न ह एह समान सुम कहो, भजीने भगवंत भवंत लहो ॥४॥
करशो य केवल रागकथा, घरशो शुभ त व व प यथा।
नृपचं पंच अनंत दहो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥५॥
श ापाठ १६ : स ची मह ा
कतने मानते है क ल मोसे मह ा मलती है, कतने मानते है क महान कुटु बसे मह ा मलती
है, कतने मानते ह क पु से मह ा मलती है, कतने मानते है क अ धकारसे मह ा मलती है।
परतु उनका यह मानना ववेक से म या स होता है। वे जसमे मह ा मानते ह उसमे मह ा नह ,
पर तु लघुता है। ल मीसे ससारमे खानपान, मान, अनुचरोपर आ ा, वैभव, ये सब मलते है और यह
१ व० आ० पाठा०-'उनके परम उपकारके कारण भी उनक भ अव य करनी चा हये । और
उनके पु षाथका मरण होनेसे भी शुभ वृ योका उदय होता है। यो-यो बी जने के व पम वृ का लय हाता
है, या- यो परम शा त गट होती है। इस कार जन के कारण यहाँ स ेपमै कहे ह, वे आ मा थयांक
लये वशेष पसे मनन करने यो य ह।'
भावाय- जसक शुभ शीतलतामय छाया है, जसमे मनोवा छत फलोक प लगी है। अहो भ यो ।
तुम क पत पी जनभ का आ य लो और भगव करके भवात ा त करो ॥१॥
इससे अपने आ म व पका आनद गट होता है, मनका ताप एवं अ य सब उ ाप मट जात ह'
मु तमे कम क अ त नजरा होती है। तुम भगव करके भवात ा त करो ॥॥
इससे प रणाम सदा समभावी होगे, जड, मद और अधोग तके ज म न होगे, इस प रपूण शुभ मंगलना
इ छा करो और भगवद्-भ करके भवात ा त करो ॥३॥

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शुभ भावसे मनको शु करो, नवकार महाम का मरण करो, इसके समान सरा कोई सुम नह है । तुम
भगव करके भवात ा त करो ॥४॥
रागकथाका मपंथा य कर , यथाथ शुभ त व व पको धारण करो। राजच कहते है क भगव से
ससारके अनत पचका दहन करो, और भगव करके भवात ा त करो ।।५।।

७१
मह ा है, ऐसा तुम मानते होगे, पर तु इतनेसे उसे मह ा माननेक ज रत नह है । ल मी अनेक पापोसे
पैदा होती है। आनेके बाद यह अ भमान, बेभानता और मूढता लाती है। कुटु बसमुदायक मह ा पानेके
लये उसका पालन-पोषण करना पड़ता है। उससे पाप और ख सहन करने पड़ते ह। हमे उपा धसे
पाप करके उसका उदर भरना पडता है। पु से कोई शा त नाम नह रहता। इसके लये भी अनेक
कारके पाप और उपा ध सहने पड़ते ह, फर भी इससे अपना या मगल होता है ? अ धकारसे परत ता
या स ामद आता है और इससे जु म, अनी त, र त तथा अ याय करने पड़ते ह अथवा होते ह। तब
क हये, इसमेसे मह ा कसक होती है ? मा पापज य कमक । पापकमसे आ माक नीच ग त होती है,
जहाँ नीच ग त है वहाँ मह ा नही है पर तु लघुता है।
. आ माक मह ा तो स य वचन, दया, मा, परोपकार और समतामे रही है। ल मी आ द तो
कममह ा है । ऐसा होने पर भी सयाने पु ष ल मीको दानमे दे ते है, उ म व ाशालाएँ था पत करके
पर खभजन होते ह। एक ीसे ववाह करके' मा उसमे वृ रोककर पर ीक ओर पु ीभावसे
दे खते ह । कुटु ब ारा अमुक समुदायका हतकाम करते ह । पु होनेसे उसे ससारभार दे कर वय धम-
मागमे वेश करते ह। अ धकार ारा चतुराईसे आचरण करके राजा- जा दोनोका हत करके धम-
नी तका काश करते ह। ऐसा करनेसे कुछ स ची मह ा ा त होती है, फर भी यह मह ा न त
नही है। मरण-भय सर पर सवार है। धारणा धरी रह जाती है। यो जत योजना या ववेक शायद
दयमेसे चला जाय, ऐसी ससारमो हनी है, इस लये हमे यह न सशय समझना चा हये क स य वचन,
दया, मा, चय और समता जैसी आ ममह ा कसी भी थलमे नह है। शु पच महा तधारी
भ ुकने जो ऋ और मह ा ा त क है उसे द जैसे च वत ने ल मी, कुटु ब, पु या अ धकारसे
ा त नह क , ऐसा मेरा मानना है।
श ापाठ १७ : बा बल
बा बल अथात् अपनी भुजाका बल यह अथ यहाँ नही करना है, यो क बा बल नामके महा-
पु षका यह एक छोटा पर तु अ त च र है।
ऋषभदे वजी भगवान सवसगका प र याग करके भरत और बा बल नामके अपने दो पु ोको
रा य स प कर वहार करते थे। तव भरते र च वत आ। आयुधशालामे च को उ प होनेके
बाद उसने येक रा य पर अपना आ नाय था पत कया और छ: खडक भुता ा त क । मा
बा बलने ही यह भुता अगीकार नह क । इसस प रणाममे भरते र और बा वलके बीच यु शु
आ । ब त समय तक भरते र या वा बल इन दोनोमस एक भी पीछे नह हटा, तब ोधावेशमे आकर
भरते रने बा वल पर च छोडा । एक वीयसे उ प ए भाई पर वह च भाव नह कर सकता,
इस नयमसे वह च फरकर वापस भरत वरले हालम आया। भरतके च छोडनेसे बा वलको ब त
ोध आया । उसने महावलव र मु उठायो । त काल वहाँ उसक भावनाका व प बदला । उसने
वचार कया, "म यह ब त नदनीय कम करता ँ। इसका प रणाम कैसा खदायक है। भले भरते र
रा य भोगे । थ ही पर परका नाश कस लये करना? यह मु मारनी यो य नह है, तथा उठायी
है तो इसे अब पीछे हटाना भी यो य नह है।" यो कहकर उसने पचमु केशलुचन कया, और वहासे
मु न वभावसे चल नकला । उसने, भगवान आदो र जहाँ अठानवे द त पु ो और आयआय क साथ
वहार करते थे, वहा जानेक इ छा क , पर तु मनमे मान आया। 'वहाँ म जाऊँगा तो अपनेसे छोटे
१ व० मा पाटा-'एक ववा हता ी हो ।'

७२
ीमद् राजच
अठानवे भाइयोको वदन करना पडेगा | इम लये वहाँ तो जाना यो य नह ।" फर बनमे वह एका
यानमे रहा। धीरे-धीरे बारह मास हो गये | महातपसे काया ह योका ढाँचा हो गयी। वह सूखे पेड
जेमा द खने लगा, परतु जब नक मानका अकुर उसके अत'करणसे हटा न था तब तक उसने स नही
पायी । ा ी ओर मुंदरीने आकर उसे उपदे श दया, "आय वीर। अब मदो म हाथीसे उत रये, इसके
कारण तो ब त महन कया ।" उनके इन वचनोसे बा वल वचारमे पड़ा । वचार करते-करते उसे भान
हआ, "स य हे । म मान पी मदो म हाथीने अभी कहाँ उतरा ँ ? अब इससे उतरना ही मगलकारक
है।" ऐसा कहकर उसने बदन करनेके लये कदम उठाया क वह अनुपम द केव यकमलाको ा त आ।
पाठक ! दे खो, मान कसी रत व तु है ।।
श ापाठ १८ चार ग त
• 'सातावेदनीय और अमातावेदनीयका बेदन करता हा शभाशभ कमका फल भोगने के लये इस
ममारवनमे जीब चार ग तयोमे मण करता रहता है।' ये चार ग त अव य जाननी चा हये।
१. नरकग त-महारभ, म दरापान, मासभ ण इ या द तीन हमाके करनेवाले जीव भयानक
नरकमे पड़ते ह । वहाँ लेशमा भी साता, व ाम या सुख नह है। महान अंधकार ा त है । अगछे दन
सहन करना पड़ता है, अ नमे जलना पड़ता है, और छरपलाक धार जैसा जल पीना पड़ता है। जहाँ

े ी ो ो ी औ ो ै ो ो
अनत खसे ाणीभूतोको तगी, अमाता और वल वलाहटको महन करना पड़ता है, जन खोको
केवल ानी भी नह कह सकते | अहोहो || वे ख अनत वार इस आ माने भोगे ह।
२ तयचग त-छल, झूठ, पच इ या दके कारण जीव सह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भस, बैल
इ या द तयचके शरीर धारण करता है। इस तयंचग तमे भूख, यास, ताप, वब, बंबन, ताडन, भार-
वाहन इ या दके ख सहन करता है।
3 मनु यग त-खा , अखा के वषयमे ववेकर हत है, ल जाहीन, माता-पु ीके साथ कामगमन
करनेमे ज ह पापापापका भान नह है, नरतर मास-भ ण, चोरी, पर ीगमन इ या द महापातक कया
करते ह, ये तो मानो अनाय दे शके अनाय मनु य है। आय दे शमे भी य, ा ण, व य आ द म तहीन,
द र , अ ान और रोगसे पी डत मनु य है । मान-अपमान इ या द अनेक कारके ख वे भोग रहे है।
४ दे वग त-पर पर वैर, े प, लेश, गोक, म सर, काम, मद, ुधा, इ या दसे दे वता भी आयु
तीत कर रहे ह, यह दे वग त है।
इस कार चार ग त मामा य पसे कही। इन चारो ग नयोमे मनु यग त सबसे े और लभ
है। आ माका परम हत मो इस ग तसे ा त होता है। इस मनु यग तमे भी कतने ही ख और
आ ममाधन करनेमे अतराय ह। .
एक त ण मुकुमारका रोम रोममे लाल अंगारे सएँ भोकनेसे जो अस वेदना उ प होती है,
उसमे आठ गुनी वेदना गभ थानमे रहते ए जीव पाता हे। मल, मू , ल , पीप आ दमे लगभग
नी महीने अहोरा मूत गत थ तमे वेदना भोग भोगकर ज म पाता है। ज मके समय गभ थानक
वेदनासे अनत गुनी वेदना उ प होती है। उसके बाद बा याव था ा त होती है। मल, मू , धूल
और न नाव थाम नासमझीमे रो-भटककर यह बा याव था पूण होती है, और युवाव था आती है। धन
उपाजन करनेके लये नाना कारकं पाप करने पड़ते ह । जहाँसे उ प आ है वहाँ अथात् वषय
वकारम वृ जाती है। उ माद, आल य, अ भमान, न , सयोग, वयोग आ दके च करम युवा.
१ ० आ० पाठा०-'ममारवनम जीव मातावेदनीय-असातावेदनीयका बेदन करता आ शुभाशुभ कमफल
भोगनेके लये इन चार ग तयोम मण करता रहता है।'

७३
१७वॉ वष
व था चली जाती है। फर वृ ाव था आती है। शरीर काँपता है, मुखसे लार झरती है, वचा पर झुस
पड़ जाती है, सूघने, सुनने और दे खनेक श याँ सवथा मंद हो जाती ह, केश सफेद होकर झडने लगते
है। चलनेक श नह रहती, हाथमे लकडी लेकर लडखडाते ए चलना पडता है, या तो जीवनपयत
खाट पर पड़ा रहना पड़ता है । ास, खासी इ या द रोग आकर घेर लेते ह, और थोडे कालमे काल
आकर कव लत कर जाता है । इस दे हमेसे जीव चल नकलता है। काया ई न ई हो जाती है। मरण
के समय कतनी अ धक वेदना होती है ? चतुग तमे े जो मनु य-दे ह है उसमे भी कतने अ धक ख
रहे ए ह । फर भी ऊपर कहे अनुसार अनु मसे काल आता है ऐसा नह है। चाहे जब वह आकर ले
जाता है। इसी लये वच ण पु ष माद कये बना आ मक याणक आराधना करते ह।
श ापाठ १९ : संसारक चार उपमाएँ'-भाग १
१ महात व ानी ससारको एक समु क उपमा भी दे ते है। संसार पी समु अनत और अपार
है। अहो लोगो | इसका पार पानेके लये पु षाथका उपयोग करो। उपयोग करो | इस कार उनके
थान- थान पर वचन है । ससारको समु क उपमा छाजती भी है। समु मे जैसे मोजोक उछाले उछला
करती है, वैसे ससारमे वषय पी अनेक मौज उछलती ह। समु का जल जैसे, ऊपरसे सपाट दखाई दे ता
है वैसे ससार भी सरल दखायी दे ता है । समु जैसे कही ब त गहरा है, और कही भवरोमे डाल दे ता
है, वैसे ससार काम वषय पंचा दमे ब त गहरा है, वह मोह पी भंवरोमे डाल दे ता है। थोडा जल होते
ए भी समु मे खडे रहनेसे जैसे क चडमे फँस जाते है, वैसे संसारके लेशभर सगमे वह तृ णा पी क चड-
मे फंसा दे ता है। समु जैसे नाना कारक च ानो और तूफान से नाव या जहाजको हा न प ंचाता है,
वैसे यो पी च ानो और काम पी तुफानोसे ससार आ माको हा न प ंचाता है। समु जैसे अगाध
जलसे शीतल दखायी दे ने पर भी उसमे वडवानल नामक अ नका वास है, वैसे ससारमे माया पी अ न
जला ही करती है। समु जैसे चौमासेमे अ धक जल पाकर गहरा हो जाता है, वैसे पाप पी जल पाकर
ससार गहरा हो जाता है, अथात् जड जमाता जाता है।
२ ससारको सरी उपमा अ नक छाजती है। अ नसे जैसे महातापक उ प होती है, वैसे
ससारसे भी वध तापक उ प होती है । अ नसे जला आ जीव जैसे महान बल बलाहट करता है,
वैसे ससारसे जला आ जीव अनत ख प नरकसे अस बल बलाहट करता है। अ न जैसे सब
व तुओका भ ण कर जाती है वैसे अपने मुखमे पढ़े ओको ससार भ ण कर जाता है। अ नमे यो- यो
घी और धा होमे जाते ह यो यो वह वृ पाती है, वैसे ससारमे यो- यो तीन मो हनी पी घी
और वपय पी ईधन होमे जाते ह यो- यो वह वृ पाता है।'
३ ससारको तीसरी उपमा अधकारक छाजती है । अधकारमे जैसे र सी सपका ान कराती है,
वैसे ससार स यको अस य प बताता है। अंधकारमे जैसे ाणी इधर-उधर भटक कर वप भोगते ह,
वैसे ससारमे वेभान होकर अनत आ मा चतुग तमे इधर-उधर भटकते ह ! अधकारमे जैसे कांच और
हीरेका ान नह होता, वैसे ससार पी अधकारमे ववेक-अ ववेकका ान नह होता। जैसे अधकारमे
ाणी आँख होने पर भी अधे बन जाते ह, वैसे श के होनेपर भी ससारमे वे मोहाध बन जाते है । अध-
कारमे जैसे उ लू इ या दका उप व वढ जाता है, वैसे ससारमे लोभ, माया आ दका उप व बढ जाता है।
अनेक कारसे दे खते ए ससार अधकार प ही तीत होता है।

ी ी ी ो ी ी ी औ ी ो
१ ० ० पाठा--'उसी कार ससार पी अ नम तीन मो हनी पी घी और वषय पी इंधन होमा
जानेसे वह वृ पातो है।'

७४
ीमद् राजच
श ापाठ २० संसारक चार उपमाएँ--भाग २
४ ससारको चौथी उपमा शकटच अथात् छकड़ेके प हयेक छाजती है। चलता आ शकटच क
जैसे घूमता रहता है, वैसे ससारमे वेश करनेसे वह फरता रहता है। शकटच जैसे धुराके बना नह
चल सकता, वैसे ससार म या व पी धुराके बना नह चल सकता। शकटच जैसे आरोसे टका आ है,
वैसे संसार शका, माद आ द आर से टका आ है। इस तरह अनेक कारसे शकटच क उपमा भी
ससारको लागू हो सकती है।
"ससारको' जतनी हीन उपमाएँ दे उतनी थोडी ह। हमने ये चार उपमाएँ जानी। अब इनमे-
से त व लेना यो य है।
१ जैसे सागर मजबूत नाव और जानकार ना वकसे तैरकर पार कया जाता है, वैसे स म पी
नाव और स पी ना वकसे ससारसागर पार कया जा सकता है। सागरमे जैसे चतुर पु षोने
न व न माग खोज नकाला होता है, वैसे जने र भगवानने त व ान प उ म माग बताया है, जो
न व न है।
२ जैसे अ न सबका भ ण कर जाती है पर तु पानीसे बुझ जाती है, वैसे वैरा यजलसे
संसारा न बुझाई जा सकती है।
३ जैसे अधकारमे द या ले जानेसे काश होनेपर दे खा जा सकता है, वैसे त व ान पी न
बुझनेवाला द या ससार पी अधकारमे काश करके स य व तुको बताता है।
४. जैसे शकटच बैलके बना नह चल सकता, वैसे ससारच राग े षके बना नह चल सकता।
इस कार इस ससार रोगका नवारण उपमा ारा अनुपानके साथ कहा है। आ म हतेषी
नरतर इसका मनन करे और सरोको उपदे श दे ।
- श ापाठ २१: बारह भावना
वैरा यक और ऐसे आ म हतेषी वषयोक सु ढताके लये त व ानी बारह भावनाओका च तन
करनेको कहते ह-
१ शरीर, वैभव, ल मी, कुटु ब, प रवार आ द सव वनाशी ह। जीवका मूल धम अ वनाशी
है, ऐसा च तन करना, यह पहली 'अ न यभावना' ।
२. संसारमे मरणके समय जीवको शरण दे नेवाला कोई नह है; मा एक शुभ धमक ही शरण
स य है, ऐसा च तन करना, यह सरी 'अशरणभावना'।
३ इस आ माने ससारसमु मे पयटन करते-करते सव भव कये है । इस संसारक बेडीसे म कब
छू टूं गा? यह ससार मेरा नह है, म मो गयी ,ँ ऐसा चतन करना, यह तीसरी 'ससारभावना' ।
४ यह मेरा आ मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा, अपने कये ए कम को अकेला
भोगेगा, ऐसा चतन करना, यह चौथी 'एक वभावना' ।
५ इस संसारमे कोई कसीका नह है, ऐसा च तन करना, यह पांचवी 'अ य वभावना' ।
६ यह शरीर अप व है, मलमू क खान है, रोग-जराके रहनेका धाम है, इस शरीरसे म भ
ँ, ऐसा च तन करना, यह छठ 'अशु चभावना' ।
७ राग, े ष, अ ान, म या व इ या द सव आ व ह, ऐसा च तन करना, यह सातवी 'आ व-
भावना'।
१ ० आ० पाठा---'इस कार ससारको' ।

७५
१७वां वष
८ ान, यानमे व मान होकर जीव नये कम नही बाँधता, ऐसा च तन करना, यह आठवी
'सवरभावना'।
९ ानस हत या करना यह नजराका कारण है, ऐसा च तन करना, यह नीवी ' नजराभावना'।
१० लोक व पक उ प , थ त और वनाशके व पका वचार करना, यह दसवी 'लोक-
व पभावना'।
११ संसारमे प र मण करते हए आ माको स य ानक साद ा त होना दलभ है. अथवा
स य ान ा त आ तो चा र -सव वर तप रणाम प धम- ा त होना लभ है, ऐसा च तन करना,
यह यारहव 'बो ध लभभावना' ।
१२ धमके उपदे शक तथा शु शा के बोधक गु तथा उनके उपदे शका वण मलना लभ
है, ऐसा च तन करना, यह बारहवी 'धम लभभावना'।
इन बारह भावनाओका मननपूवक नर तर वचार करनेसे स पु ष उ म पदको ा त ए है,
ा त होते ह, और ा त होगे।
श ापाठ २२ : कामदे व ावक .
महावीर भगवानके समयमे ादश तको वमल भावसे धारण करनेवाला, ववेक और न ंथ-
े े े े
वचनानुर कामदे व नामका एक ावक उनका श य था। एक समय इ ने सुधमासभामे कामदे वक
धम-अचलताक शसा क । उस समय वहाँ एक तु छ बु मान दे व बैठा आ था। "वह बोला-
"यह तो समझमे आया, जब तक नारी न मले तब तक चारी तथा जब तक प रषह न पडे हो तब
तक सभी सहनशील और धम ढ ।' यह मेरी बात म उसे चलायमान करके स य कर दखाऊँ।" धम ढ
कामदे व उस समय कायो सगमे लीन था। दे वताने व यासे हाथीका प धारण कया, और फर
कामदे वको खूब रौदा, तो भी वह अचल रहा, फर मूसल जैसा अंग बनाकर काले वणका सप होकर
भयकर फुकार कये, तो भो कामदे व कायो सगसे लेशमा च लत नह आ। फर अ हा य करते ए
रा सक दे ह धारण करके अनेक कारके प रषह कये, तो भी कामदे व कायो सगसे डगा नह । सह
आ दके अनेक भयकर प कये, तो भी कामदे वने कायो सगमे लेश हीनता नह आने दो। इस कार
दे वता रा के चारो हर उप व करता रहा, परतु वह अपनी धारणामे सफल नह आ। फर उसने
उपयोगसे दे खा तो कामदे वको मे के शखरक भाँ त अडोल पाया। कामदे वक अ त न लता जानकर
उसे वनयभावसे णाम करके अपने दोषोको मा माँगकर वह दे वता व थानको चला गया।
"कामदे व धावकक धम ढता हमे या बोध दे ती है, यह बना कहे भी समझमे आ गया होगा।
इसमेसे यह त व वचार लेना है क न ंथ- वचनमे वेश करके ढ रहना । कायो सग इ या द जो यान
करना है उसे यथासभव एका च से और ढतासे नद ष करना।' चल बचल भावसे कायो सग ब त
दोषयु होता है। 'पाईके लये धमको सौग ध खानेवाले धममे ढता कहाँसे रख ? और रख तो केसी
रख ?' यह वचारते ए खेद होता है।
० आ. पाठा०-१ 'उसने ऐसी सु ढताके त अ व ास बताया और कहा क जब तक प रषह न पडे
हो तब तक सभी सहनशील और धम ढ मालूम होते ह।' २ 'कामदे व थावकक धम ढता ऐसा बोध करती है क
स य धम और स य त ाम परम ढ रहना और कायो सगा दको यथासभव एका च से और सु ढ़तासे नदॉप
करना ।' ३ पाई जैसे लाभके लये धमक सौग ध खानेवालेको धमम ढता कहांसे रह सके और रह सके तो
कैसी रहे?

७६
ीमद् राजच
श ापाठ २३ : स य
सामा य कथनमे भी कहा जाता है क स य इस "सृ का आधार' है, अथवा स यके आधार पर
यह २'सृ टक है । इस कथनसे यह श ा मलती है क धम, नी त, राज और वहार ये सब स य
ारा चल रहे ह, और ये चार न हो तो जगतका प कैसा भयंकर हो? इस लये स य "सृ का
आधार' है, यह कहना कुछ अ तशयो जैसा या न मानने यो य नह है।
वसुराजाका एक श दका अस य बोलना कतना खदायक आ था, "उसे त व वचार करनेके
लये मै यहाँ कहता ँ।'
वसुराजा, नारद और पवत ये तीनो एक गु के पास व ा पढ़े थे। पवत अ यापकका पु था।
अ यापक चल बसा। इस लये पवत अपनी माँके साथ वसुराजाके राजमे आकर रहा था। एक रात
उसक माँ पासमे बैठ थी, और पवत तथा नारद शा ा यास कर रहे थे। इस दौरानपे पवतने
'अजेय म्' ऐसा एक वा य कहा। तब नारदने कहा, "अजका अथ या है, पवत ?" पवतने कहा,
"अज अथात् बकरा ।" नारद बोला, "हम तीनो जब तेरे पताके पास पढते थे तब तेरे पताने तो 'अज'
का अथ तीन वषके ' ी ह' बताया था, और तू उलटा अथ यो करता है ?" इस कार पर पर वचन-
ववाद बढा । तब पवतने कहा, "वसुराजा हमे जो कहे वह सही।" यह बात नारदने भी मान ली और
जो जीते उसके लये अमुक शत क । पवतक माँ जो पासमे बठो थी उसने यह सब सुना । 'अज' अथात्
'बी ह' ऐसा उसे भी याद था । शतमे अपना पु हार जायेगा इस भयसे पवतक माँ रातको राजाके पास
गयी और पूछा, 'राजन् । 'अज' का या अथ है ?" वसुराजाने सवधपूवक कहा, "अजका अथ ' ी ह'
है।" तब पवतक माने राजासे कहा, "मेरे पु ने अजका अथ बकरा कह दया है, इस लये आपको उसका
प लेना पडेगा । आपसे पूछनेके लये वे आयगे।" वसुराजा बोला, "मै अस य कैसे क ँ? मुझसे यह
नही हो सकेगा।" पवतक माताने कहा, "परतु य द आप मेरे पु का प नह लगे, तो म आपको
ह याका पाप ं गी।" राजा वचारमे पड गया--"स यके कारण मै म णमय सहासन पर अधरमे बैठता
ँ। लोकसमुदायका याय करता है। लोग भी यह जानते ह क राजा स य गुणके कारण सहासनपर
अत र मे बैठता है । अब या क ? य द पवतका प न ले तो ा णी मरती है, और यह तो मेरे
गु क ी है।" लाचार होकर अतमे राजाने ा णीसे कहा, "आप खुशीसे जाइये । मै पवतका प .
लूंगा।" ऐसा न य कराकर पवतक माता घर आयी । भातमे नारद, पवत और उसक माता ववाद
करते ए राजाके पास आये। राजा अनजान होकर पूछने लगा-"पवत, या है ?" पवतने कहा,
"राजा धराज | 'अज' का अथ या है? यह बताइये।" राजाने नारदसे पूछा-"आप या कहते है
नारदने कहा-"'अज' अथात् तीन वपके ' ी ह', आपको कहाँ याद नही है ?" वसुराजाने कहा-"अजका
अथ है बकरा, बी ह नही ।" उसी समय दे वताने उसे सहासनसे उछालकर नीचे पटक दया, वसु काल-
प रणामको ा त आ।
इसपरसे यह मु य बोध मलता है क "हम सबको स य और राजाको स य एवं याय दाना
हण करने यो य ह।'
१. ० आ० पाठा--'जगतका आधार।'
२. ० आ० पाठा०--'जगत टका है।'
३ ० आ० पाठा०--'वह संग वचार करनेके लये यही कहगे।'

ो ो ो औ ो ो
४ द० आ० पाठा०-'सामा य मनु योको स य तया राजाको यायम अप पात और स य दोनो हण
करने यो य ह।

७७
१७वां वष
भगवानने जो पाँच महा त णीत कये ह, उनमेसे थम महानतक र ाके लये शेष चार त
बाड प ह, और उनमे भी पहली बाड स य महा त है । इस स यके अनेक भेदोको स ातसे वण करना
आव यक है।
श ापाठ २४ स संग
स संग सव सुखका मूल है। "स सग मला' क उसके भावसे वा छत स हो ही जाती है।
चाहे जैसा प व होनेके लये स सग े साधन है। स संगक एक घडी जो लाभ दे ती है वह लाभ
कुसंगके एक करोड वष भी नही दे सकते, अ पतु वे अधोग तमय महापाप कराते ह, तथा आ माको म लन
करते है । स संगका सामा य अथ यह क उ मका सहवास । जहाँ अ छ हवा नह आती वहाँ रोगक
वृ होती है, वैसे जहाँ स संग नही वहाँ आ मरोग बढता है। गधसे तग आकर जैसे नाक पर व रख
लेते ह, वैसे ही कुसंगका सहवास बंद करना आव यक है। ससार भी एक कारका संग है, और वह
अनत कुसग प एव खदायक होनेसे याग करने यो य है। चाहे जस कारका सहवास हो परतु जससे
आ मस नह है वह स सग नह है । आ माको जो स यका रग चढ़ाये वह स सग है । जो मो का माग
बताये वह मै ी है। उ म शा मे नरतर एका न रहना यह भी स सग है, स पु षोका समागम भी
स सग है। म लन व को जैसे साबुन तथा जल व छ करते ह वैसे आ माक म लनताको, शा बोध
और स पु षोका समागम र करके शु करते है। जसके साथ सदा प रचय रहकर राग, रग, गान,
तान और वा द भोजन से वत होते हो वह तु हे चाहे जैसा य हो, तो भी न त मानो क वह
स सग नह युत कुसग है । स सगसे ा त आ एक वचन अमू य लाभ दे ता है। त व ा नयोने मु य
बोध यह दया है क सबंसगका प र याग करके, अंतरमे रहे ए सव वकारसे भी वर रहकर एकातका
सेवन करो । इसमे स सगक तु त आ जाती है। सवथा एकात तो यानमे रहना या योगा यासमे रहना
यह है, परंतु सम वभावीका समागम, जसमेसे एक ही कारक वतनताका वाह नकलता है वह, भावसे
एक ही प होनेसे ब त मनु योके होने पर भी और पर परका सहवास होनेपर भी एकात प ही है और
एसा एकात मा सत समागममे रहा है। कदा चत् कोई ऐसा वचार करेगा क वषयोमडल मलता है
वहाँ समभाव होनेसे उसे एकात यो न कहा जाये? इसका समाधान त काल हो जाता है क वे एक-
वभावी नह होते। उनमे पर पर वाथबु और मायाका अनुसधान होता है, और जहाँ इन दो कारणो-
से समागम होता है वह एक वभावी या नद ष नह होता। नद ष और सम वभावी समागम तो पर पर
शात मुनी रोका है, तथा धम- यान श त अ पारभी पु षोका भी कुछ अशमे है। जहाँ वाथ और
माया-कपट ही ह वहाँ सम वभावता नह है और वह स सग भी नह है। स सगसे जो सुख, आन द
मलता है वह अ त तु त-पा है । जहाँ शा ोके सु दर होते हो, जहाँ उ म ान- यानक सुकथा
होती हो, जहाँ स पु षोके च र पर वचार कया जाता हो, जहाँ त व ानके तरगक लहर उठती हो,
जहाँ सरल वभावसे स ात वचारक चचा होती हो और जहाँ मो जनक कथनपर पु कल ववेचन
होता हो, ऐसा स सग महा लभ है। कोई यो कहे क स सगमडलमे या कोई मायावी नह होता? तो
इसका समाधान यह हे-जहां माया और वाथ होता है वहाँ स सग ही नह होता | राजहसक सभामे
काग दे खावसे कदा चत् न भांपा जाये तो रागसे अव य भांपा जायेगा, मौन रहा तो मुखमु ासे ताडा
जायेगा, पर तु वह छपा नह रह पायेगा । उसी कार मायावी वाथसे स संगमे जाकर या करगे?
वहाँ पेट भरनेक बात तो होती नह । दो घडो वहाँ जाकर ववा त लेते हो तो भले ल क जससे रग
लगे, और रग न लगे, तो सरी बार उनका आगमन नह होगा । जैसे पृ वी पर तेरा नह जाता, वैसे ही
१. ० आ० पाठा०-'स सगका लाभ मला'

७८
ीमद् राजच
स सगसे डू बा नह जाता, ऐसी स सगमे चम कृ त है। नरतर ऐसे नद प समागममे माया लेकर आये
भी कौन ? कोई भागी ही, और वह भी असभव है। स सग आ माका परम हतैषी औषध है।
श ापाठ २५ प र हको मया दत करना
जस ाणीको प र हक मयादा नह है, वह ाणी सुखी नही है। उसे जो मला वह कम है।
यो क उसे जतना मलता जाये उतनेसे वशेष ा त करनेक उसक इ छा होती है। प र हक बलतामे
जो कुछ मला हो उसका सुख तो भोगा नह जाता, पर तु जो होता है वह भी कदा चत् चला जाता है।
प र हसे नर तर चल बचल प रणाम और पापभावना रहती है, अक मात् योगसे ऐसी पापभावनामे
य द आयु पूण हो जाये तो ब धा अधोग तका कारण हो जाता है। सपूण प र ह तो मुनी र याग
सकते ह, पर तु गृह थ उसक अमुक मयादा कर सकते ह। मयादा हो जानेसे उससे अ धक प र हक
उप नह है, और इसके कारण वशेष भावना भी बहधा नही होती, और फर जो मला है उसमे
स तोप रखनेक था पडती है, जससे सुखमे समय बीतता है। न जाने ल मी आ दमे कैसी व च ता है
क यो- यो लाभ होता जाता है यो यो लोभ बढता जाता है। धमसबधी कतना ही ान होने पर,
धमक दढता होने पर भी प र हके पाशमे पडा आ पु प कोई वरल ही छू ट सकता है, वृ इसीमे
लटक रहती है, पर तु यह वृ कसी कालमे सुखदायक या आ म हतैषी नह ई है। ज ह ने इसक

ी े े ो ी
मयादा कम नही क वे ब त खके भोगी ए ह।
छ खंडोको जीतकर आ ा मनानेवाले राजा धराज च वत कहलाते ह । इन समथ च व तयोमे
सुभूम नामक एक च वत हो गया है। उसने छ खड जीत लये इस लये वह च वत माना गया, पर तु
इतनेसे उसक मनोवाछा तृ त न ई, अभी वह यासा रहा । इस लये धातक खडके छ. खड जीतनेका
उसने न य कया। "सभी च वत छ खड जीतते है, और म भी इतने ही जीतं, इसमे मह ा कौनसी ?
बारह खड जीतनेसे म चरकाल तक नामा कत र ँगा, और उन खडोपर जीवनपयत समथ आ ा चला
सकूँगा।" इस वचारसे उसने समु मे चमर न छोड़ा, उसपर सव सै या दका आधार था। चमर नके
एक हजार दे वता सेवक कहे जाते है, उनमेसे थम एकने वचार कया क न जाने कतने ही वष मे
इससे छु टकारा होगा? इस लये दे वागनासे तो मल आऊँ, ऐसा सोचकर वह चला गया, फर सरा
गया, तीसरा गया, और यो करते-करते हजारके हजार दे वता चले गये। तव चमर न डू ब गया, अ ,
गज और सव सै यस हत सुभूम नामका वह च वत भी डू ब गया। पापभावनामे और पापभावनामे मर-
कर वह अन त खसे भरे ए सातवे तमतम भा नरकमे जाकर पड़ा। दे खो। छ. खडका आ धप य
तो भोगना एक ओर रहा, पर तु अक मात् और भयकर री तसे प र हक ी तसे इस च वत क मृ यु
ई, तो फर सरेके लये तो कहना ही या ? प र ह पापका मूल है, पापका पता है, अ य एकादश
तको महा पत कर दे ऐसा इसका वभाव है। इस लये आ म हतैषीको यथासभव इसका याग करके
मयादापूवक आचरण करना चा हये।
श ापाठ २६ : त वको समझना
ज हे शा ोके शा मुखा हो, ऐसे पु ष ब त मल सकते ह परतु ज होने थोडे वचनोपर
ौढ़ और ववेकपूवक वचार करके शा जतना ान दयगत कया हो, ऐसे पु ष मलने लभ है।
त वको पा जाना यह कोई छोट बात नह है, कूदकर समु लाँध जाना है।
अथ अथात् ल मी, अथ अथात् त व और अथ अथात् श दका सरा नाम । इस कार 'अथ'
श दके ब त अथ होते ह । परंतु यहाँ 'अथ' अथात् 'त व' इस वषयपर कहना है। जो न ंथ- वचनमे

७९
१७ वो वष
आये ए प व वचन को मुखा करते ह, वे अपने उ साहके बलसे स फलका उपाजन करते ह, परतु
य द उनका मम पाया हो तो इससे वे सुख, आन द, ववेक और प रणाममे महान फल पाते है । अनपढ़
पु ष सु दर अ र और खीची ई म या लक र इन दोन के भेदको जतना जानता है, उतना ही मुखपाठ
अ य थ- वचार और न य- वचनको भेद प मानता है, यो क उसने अथपूवक न ंथ-वचनामृतको
धारण नह कया है और उस पर यथाथ त व- वचार नही कया है। य प त व वचार करनेमे समथ
बु भावक आव यकता है. तो भी कुछ वचार कर सकता है, प थर पघलता नही तो भी पानीसे भीग
जाता है। इसी कार जो वचनामृत कंठ थ कये हो, वे अथस हत हो तो ब त उपयोगी स हो सकते
ह, नही तो तोतेवाला रामनाम । तोतेको कोई प रचयसे रामनाम कहना सखला दे , पर तु तोतेक बला
जाने क राम अनार है या अगूर । सामा य अथक समझे बना ऐसा होता है। क छ वे योका एक ात
कहा जाता है, वह कुछ हा यु ज र है पर तु इससे उ म श ा मल सकती है। इस लये उसे यहाँ
कह दे ता ँ।
क छके कसी गाँवमे धावक धमको पालते ए रायसी, दे वसी और खेतसी नामके तीन ओसवाल
रहते थे। वे स याकाल और ात कालमे नय मत त मण करते थे। ात कालमे रायसी और स या-
कालमे दे वसी त मण कराते थे। रा सबधी त मण रायसी कराता था और रा के सबधसे,
'रायसी प ड कमणु ठाय म' इस तरह उसे बुलवाना पडता था । इसी तरह दे वसीको दनका सबध होनेसे
'दे वसी प ड कमणु ठाय म' ऐसा बुलवाना पडता था। योगानुयोगसे ब त के आ हसे एक दन स या-
कालमे खेतसीको त मण बुलवानेके लये बैठाया। खेतसीने जहाँ 'दे वसी प ड कमणु ठाय म', ऐसा आया,
वहाँ 'खेतसी प ड कमणु ठाय म' यह वा य लगा दया। यह सुनकर सब हा य त हो गये और पूछा,
ऐसा यो? खेतसी बोला, " यो, इसमे या हो गया?" वहाँ उ र मला, 'खेतसी प ड कमणु ठाय म'
ऐसा आप यो बोलते ह ? खेतसीने कहा, "म गरीब ह इस लये मेरा नाम आया क तुर त ही तकरार
खड़ी कर द , पर तु रायसी और दे वसीके लये तो कसी दन कोई बोलता भी न था। ये दोनो यो
'रायसी प ड कमणु ठायं म' और 'दे वसी प ड कमण ठाय म' ऐसा कहते ह, तो फर म 'खेतसी प ड कमणु
ठाय म' यो यो न क ँ ?" इसक भ कताने तो सबका मन बहलाया, बादमे उसे त मणका कारण
स हत अथ समझाया, जससे खेतसी अपने रटे ए त मणसे श म दा आ।
यह तो एक सामा य वाता है, पर तु अथक खूबी यारी है। त व उसपर ब त वचार कर
सकते है। बाक तो गुड जैसे मीठा ही लगता है वैसे न थ-वचनामृत भी स फल ही दे ते ह। अहो ।
पर तु मम पानेक बातक तो ब लहारी ही है।
श ापाठ २७ : य ना
जैसे ववेक धमका मूलत व है, वैसे ही यला धमका उपत व है। ववेकरो धमत वको हण
कया जाता है और य नासे वह त व शु रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण कया जा सकता
है। पांच स म त प य ला तो ब त े ह, पर तु गृह था मोसे वह सव भावसे पाली नही जा सकती,
फर भी जतने भावाशमे पाली जा सके उतने भावाशमे भी असावधानीसे वे पाल नह सकते। जने र
भगवान ारा बो धत थूल और सू म दयाके त जहाँ बेपरवाहो है वहाँ ब त दोषसे पाली जा सकती
है। इसका कारण य नाक यूनता है। उतावली ओर वेगभरी चाल, पानी छानकर उसक जीवानी

े े े े ो े े ओ
रखनेक अपूण व ध, का ा द धनका वना झाडे, बना दे खे उपयोग, अनाजमे रहे ए सू म ज तुओक
अपूण दे खभाल, पोछे -मांजे वना रहने दये ए बरतन, अ व छ रखे ए कमरे, आँगनमे पानीका

८०
ीमद् राजच
गराना, जूठनका रख छोडना, पटरेके बना खूब गरम थालीका नीचे रखना, इनसे अपनेको अ व छता,
असु वधा, अनारो य इ या द फल मलते है, और ये महापापके कारण भी हो जाते है। इस लये कहनेका
आशय यह है क चलनेमे, बैठनेम, े उठनेम.े जीमनेमे और सरी येक यामे य नाका उपयोग करना
चा हये । इससे एव भाव दोनो कारसे लाभ है। चाल धीमो और ग भीर रखनी,- घर व छ
रखना, पानी व धस हत छनवाना, का ा द इंधन झाड़कर डालना, ये कुछ हमारे लये असु वधाजनक
काय नह ह और इनमे वशेष व भी नही जाता। ऐसे नयम दा खल कर दे नेके बाद पालने मु कल
नही है । इनसे वचारे अस यात नरपराधी ज तु बचते है।
। येक काय य नापूवक ही करना यह ववेक ावकका कत है।
श ापाठ २८ : रा भोजन
अ हसा दक पच महा त जैसा भगवानने रा भोजन याग त कहा है। रा मे जो चार कारका
आहार है वह अभ य प है। जस कारका आहारका रग होता है उम कारके तम काय नामके जीव
उस आहारमे उ प होते ह। रा भोजनमे इसके अ त र भी अनेक दोप। । रा मे भोजन करने-
वालेको रसोईके लये अ न जलानी पड़ती है, तव समीपक भीतपर रहे हए नरपराधी सू म ज तु न
होते ह। इंधनके लये लाये हए का ा दकमे रहे हए ज तु रा मे न द खनेसे न होते ह, तथा सपके
वषका, मकडीक लारका और म छरा दकं सू म ज तुओका भी भय रहता है। कदा चत् यह कुटु ब
आ दको भयङ् कर रोगका कारण भी हो जाता है।
- पुराण आ द मतोमे भी सामा य आचारके लये रा भोजनके यागका वधान है, फर भी उनम
पर परागत ढसे रा भोजन घुस गया है, पर तु ये नषेधक तो है हो ।
शरीरके अ दर दो कारके कमल है, वे सूया तसे स चत हो जाते ह; इस लये रा भोजनमे
सू म जीवोका भ ण होने प अ हत होता है, जो महारोगका कारण है, ऐसा कई थलोपर आयुवदका
भी मत है।
स पु ष तो दो घडी दन रहनेपर ालू करते है, और दो घडी दन चढनेसे पहले कसी भी
कारका आहार नह करते। रा भोजनके लये वशेप वचार मु न-समागममे या शा से जानना
चा हये। इस स ब धमे व त सू म भेद जानने आव यक है। रा मे चारो कारके आहारका याग
करनेसे महान फल है, यह जन-वचन है ।
श ापाठ २९ : सव जीव क र ा-भाग १
दया जैसा एक भी धम नही है। दया ही धमका व प है। जहाँ दया नही वहाँ धम नही ।
जगतीतलमे ऐसे अनथकारक धममत व मान है जो, जीवका हनन करनेमे लेश भी पाप नही होता,
ब त तो मनु यदे हक र ा करो, ऐसा कहते ह। इसके अ त र ये धममतवाले जनूनी और मदा ध ह,
अ र दयाका लेश व प भी नही जानते । य द ये लोग अपने दयपटको काशमे रखकर वचार कर
तो उ ह अव य मा म होगा क एक सू मसे सू म ज तुके हननमे भी महापाप है। जैसा मुझे अपना
आ मा य है, वैसा उसे भी अपना आ मा य है। मै अपने थोड़ेसे सनके लये या लाभके लये ऐसे
अस यात जीवोका वेधडक हनन करता , ँ यह मुझे कतने अ धक अन त खका कारण होगा? उनम
बु का वीज भी न होनेसे वे ऐसा वचार नही कर सकते। वे दन-रात पाप ही पापमे म न रहते है ।
वेद और वै णव आ द प थोमे भी सू म दया स ब धी कोई वचार दे खनेम नही आता, तो भी ये दयाको

८१
१७ वा वष
सवथा न समझनेवालोक अपे ा बहत उ म है। थूल जीवोक र ा करनेमे ये ठोक समझे है, पर तु
इन सबक अपे ा हम कैसे भा यशाली ह क जहाँ एक पु पपङ् खडीको भी पीडा हो वहां पाप है, इस
यथाथ त वको समझे है और य -यागा दको हसासे तो सवथा वर रहे है। जहाँ तक हो सके वहाँ
तक जीवोको बचाते ह, फर भी जानबूझकर जीव हसा करनेक हमारी लेशमा इ छा नह है।
अन तकाय अभ यसे ाय हम वर ही है। इस कालमे यह सम त पु य ताप स ाथ भूपालके पु
महावीरके कहे ए परम त वबोधके योगवलसे बढा ह। मनु य ऋ पाते ह, सु दर ी पाते है,
आ ाकारी पु पाते है, बडा कुटु ब-प रवार पाते है, मान त ा और अ धकार पाते है, और यह सब
पाना कुछ लभ नही है, पर तु यथाथ धमत व या उसक ा या उसका थोड़ा अश भी माना महा लभ
है। यह ऋ इ या द अ ववेकसे पापका कारण होकर अन त खमे ले जाती है पर तु यह थोड़ी
ाभावना भी उ म पदवीपर प ंचाती है। ऐसा दयाका स प रणाम है। हमने धमत वयु कुलमे
ज म पाया है, तो अव यथास भव हमे वमल दयामय वतनको अपनाना चा हये। वार वार यह यानमे
रखना चा हये क सब जीवोक र ा करनी है। सरोको भी यु - यु से ऐसा ही बोध दे ना चा हये ।
सव जीवोक र ा करनेके लये एक बोधदायक उ म यु बु शाली अभयकुमारने क थी उसे मै
अगले पाठमे कहता है। इसी कार त वबोधके लये यौ क यायसे अनाय जैसे धममतवा दयोको श ा
दे नेका अवसर मले तो हम कैसे भा यशाली ।
श ापाठ ३० : सव जीव क र ा-भाग २
मगध दे शक राजगृही नगरीका अ धराज े णक एक बार सभा भरकर बैठा था। सगोपा बात-

ी े ौ ो े े ो े े ै
चीतके दौरान जो मासलु ध सामत थे वे बोले क आजकल मास वशेष स ता है । यह बात अभयकुमार-
ने सुनी । इस लये उसने उन हसक सामतोको बोध दे नेका न य कया। साय सभा वस जत ई,
राजा अत पुरमे गया। उसके बाद अभयकुमार कत के लये जस- जसने मासक बात कही थी उस-
उसके घर गया। जसके घर गया वहाँ वागत करनेके बाद उसने पूछा-"आप कस लये प र म
उठा कर मेरे घर पधारे है ?" अभयकुमारने कहा-"महाराजा े णकको अक मात् महारोग उ प
आ है। वै ोको इक े करनेपर उ होने कहा क कोमल मनु यके कलेजेका सवा टकभर मास हो तो
यह रोग मटे । आप राजाके यमा य ह, इस लये आपके यहाँ यह मास लेने आया ँ।" सामतने वचार
कया-“कलेजेका मास म मरे बना कस तरह दे सकूँ ?" इस लये अभयकुमारसे पूछा-"महाराज,
यह तो कैसे हो सके ?" ऐसा कहनेके बाद अपनी बात राजाके आगे कट न करनेके लये अभयकुमारको
ब तसा " दया जसे वह' अभयकुमार लेता गया । इस कार अभयकुमार सभी सामतोके घर फर
आया। सभी मास न दे सके और अपनी बातको छु पाने के लये उ होने दया ।
फर जब सरे दन सभा मली तब सभी सामत अपने-अपने आसनपर आकर बैठे। राजा भी
सहासनपर वराजमान था। सामृत आ-आकर राजासे कलको कुशल पूछने लगे। राजा इस बातसे
व मत आ। अभयकुमारक ओर दे खा। तब अभयकुमार बोला-"महाराज | कल आपके सामंत
सभामे वोले थे क आजकल मास स ता मलता है, इस लये म उनके यहाँ मास लेने गया था, तब सबने
मुझे ब त दया, परतु कलेजेका सवा पैसा भर मास नह दया। तब यह मास स ता या महँगा ?"
यह सुनकर सब सामत शरमसे नीचे दे खने लगे, कोई कुछ बोल न सका। फर अभयकुमारने कहा-
"यह मैने कुछ आपको ख दे नेके लये नही कया परतु बोध दे नेके लये कया है। य द हमे अपने
१ ० आ० पाठा० ' येक सामत दे ता गया और वह'

८२
ीमद राजच
शरीरका मास दे ना पडे तो अनत भय होता है, यो क हमे अपनी दे ह य है। इसी कार जस जीवका
वह मास होगा उसे भी अपना जीव यारा होगा। जैसे हम अमू य व तुएँ दे कर भी अपनी दे हको बचाते
है वैसे ही उन वचारे पामर ा णयोको भी होना चा हये। हम समझवाले, बोलते-चालते ाणी ह, वे
वचारे अवाचक और नासमझ ह। उ हे मौतका ख द यह कैसा पापका बल कारण है ? हमे इस
वचनको नरतर यानमे रखना चा हये क सब ा णयोको अपना जीव यारा है, और सब जीवोक
र ा करना इसके जैसा एक भी धम नह है।' अभयकुमारके भाषणसे े णक महाराजा संतु ए, सभी
सामत भी तबु ए। उ होने उस दनसे मास न खानेक त ा को, यो क एक तो यह अभ य है,
और कसी जीवको मारे वना मलता नही है, यह बड़ा अधम है। इस लये अभय म ीका कथन सुनकर
उ होने अभयदानमे यान दया, जो आ माके परम सुखका कारण है ।
श ापाठ ३१ : या यान
‘प च खान' श द वारंवार तु हारे सुननेमे आया है। इसका मूल श द ' या यान' है, और यह
अमुक व तुक ओर च न जाने दे नेका जो नयम करना उसके लये यु होता है। या यान करने
का हेतु अ त उ म तथा सू म है। या यान न करनेसे चाहे कसी व तुको न खाओ अथवा उसका
भोग न करो तो भी उससे सवर नही होता, कारण क त व पसे इ छाका नरोध नह कया है। रातमे
हम भोजन न करते हो, पर तु उसका य द या यान पसे नयम न कया हो तो वह फल नही दे ता,
यो क अपनी इ छाके ार खुले रहते ह। जैसे घरका ार खुला हो और ान आ द ाणी या मनु य
भीतर चले आते है वैसे ही इ छाके ार खुले हो तो उनमे कम वेश करते ह। अथात् उस ओर अपने
वचार यथे छ पसे जाते ह, यह कमवधनका कारण है। और य द या यान हो तो फर उस ओर
करनेक इ छा नही होती। जैसे हम जानते है क पीठका म य भाग हमसे दे खा नही जा सकता,
इस लये उस ओर हम भी नही करते, वैसे ही या यान करनेसे अमुक व तु खायी या भोगी नही
जा सकती, इस लये उस ओर अपना यान वाभा वक पसे नही जाता। यह कम को रोकनेके लये
बीचमे ग प हो जाता है। या यान करनेके बाद व मृ त आ दके कारण कोई दोष लग जाये तो
उसके नवारणके लये महा माओने ाय भी बताये ह।
या यानसे एक सरा भी बड़ा लाभ है, वह यह क अमुक व तुओमे ही हमारा यान रहता
है, बाक सब व तुओका याग हो जाता है । जस- जस व तुका याग कया है, उस-उस व तुके सबधमे
फर वशेष वचार, उसका हण करना, रखना अथवा ऐसी कोई उपा ध नही रहती। इससे मन ब त
वशालताको पाकर नयम पी सड़कपर चला जाता है। अ य द लगाममे आ जाता है तो फर चाहे
जैसा वल होनेपर भी उसे इ छत रा तेसे ले जाया जाता है, वैसे ही मन इस नयम पी लगाममे आने-
के वाद चाहे जैसी शुभ राहमे ले जाया जाता है. और उसमे वारंवार पयटन करानेसे वह एका , वचार-
शील और ववेक हो जाता है । मनका आनद शरीरको भी नीरोग बनाता है। और अभ य, अनतकाय,
पर ट आ दका नयम करनेसे भी शरीर नीरोग रह सकता है। मादक पदाथ मनको उलटे रा तेपर ले
जाते ह, परतु या यानसे मन वहाँ जाता आ कता है, इससे वह वमल होता है।
या यान यह कैसी उ म नयम पालनेक त ा है, यह बात इस परसे तुम समझे होगे।
वशेप स के मुखसे और शा ावलोकनसे समझनेका म बोध करता ँ।

८३
श ापाठ ३२ वनयसे त वक स है
ी ी े े ी े
राजगृही नगरीके रा यासनपर जब े णक राजा वराजमान था तब उस नगरीमे एक चाडाल रहता
था। एक बार उस चाडालक ीको गभ रहा तब उसे आम खानेक इ छा उ प ई। उसने आम
ला दे नेके लये चाडालसे कहा। चाडालने कहा, "यह आमका मौसम नह है, इस लये म न पाय , ँ
नही तो मै आम चाहे जतने ऊँचे थानपर हो वहाँसे अपनी व ाके वलसे लाकर तेरी इ छा पूण क ँ ।"
चाडालोने कहा, "राजाक महारानीके बागमे एक असमयमे आम दे नेवाला आ वृ है, उसपर अभी
आम लचक रहे होगे, इस लये वहां जाकर आम ले आओ।" अपनी ीक इ छा पूरी करनेके लये
चाडाल उस बागमे गया। गु त पसे आ वृ के पास जाकर म पढकर उसे झुकाया और आम तोड़
लये। सरे म से उसे जैसाका तैसा कर दया। बादमे वह घर आया और अपनी ीक इ छापू तके
लये नर तर वह चाडाल व ाके बलसे वहाँसे आम लाने लगा। एक दन फरते- फरते मालोक
आ वृ क ओर गयी। आमोक चोरी ई दे खकर उसने जाकर े णक राजाके सामने न तापूवक
कहा । े णकक आ ासे अभयकुमार नाम बु शाली म ीने यु से उस चाडालको खोज नकाला।
चांडालको अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सब मनु य बागमे रहते ह, फर भी तू कस तरह चढकर
आम ले गया क यह बात कसीके भांपनेमे भी न आई ? सो कह ।" चाडालने कहा, "आप मेरा अप-
राध मा करे। म सच कह दे ता ँ क मेरे पास एक व ा है, उसके भावसे मै उन आमोको ले
सका।' अभयकुमारने कहा, "मुझसे तो मा नह द जा सकती, पर तु महाराजा े णकको तू यह
व ा दे तो उ हे ऐसी व ा लेनेक अ भलाषा होनेसे तेरे उपकारके बदलेमे म अपराध मा करा
सकूँ।" चाडालने वैसा करना वीकार कया। फर अभयकुमारने चाडालको जहाँ े णक राजा सहासन-
पर बैठा था वहाँ लाकर सामने खड़ा रखा, और सारी बात राजाको कह सुनायी। इस बातको राजाने
वीकार कया। फर चाडाल सामने खडे रहकर थरथराते पैर से े णकको उस व ाका बोध दे ने लगा,
प तु वह बोध लगा नही। तुर त खडे होकर अभयकुमार बोले, "महाराज | आपको य द यह व ा
__ अव य सीखनी हो तो सामने आकर खडे रहे, और इसे सहासन दे ।" राजाने व ा लेनेके लये वसा
कया तो त काल व ा स हो गयी।
यह बात केवल बोध लेनेके लये है। एक चाडालक भी वनय कये बना े णक जैसे राजाको
व ा स न ई, तो इसमेसे यह त व हण करना है क, स ाको स करनेके लये वनय करनी
चा हये । आ म व ा पानेके लये य द हम न ंथ गु क वनय कर तो कैसा मगलदायक हो।
वनय यह उ म वशीकरण है। भगवानने उ रा ययनमे वनयको धमका मूल कहकर व णत
कया है। गु क , मु नक , व ानक , माता- पताक , और अपनेसे बडोक वनय करनी यह अपनी
उ मताका कारण है।
श ापाठ ३३ सुदशन सेठ
ाचीन कालमे शु एकप नी तको पालनेवाले अस य पु ष हो गये ह, उनमेसे सकट सहन करके
स होनेवाला सुदशन नामका एक स पु प भी है । वह धना , सु दर मुखाकृ तवाला, का तमान और
युवाव थामे था। जस नगरमे वह रहता था, उस नगरके राजदरवारके सामनेसे कसी काय- सगके
कारण उसे नकलना पड़ा। वह जब वहाँसे नकला तब राजाक अभया नामक रानी अपने आवासके
झरोखेमे बैठ थी। वहाँसे सुदशनक ओर उसक गयी। उसका उ म प और काया दे खकर
उसका मन ललचाया। एक अनुचरीको भेजकर कपटभावसे नमल कारण बताकर सुदशनको ऊपर

८४
बुलाया। अनेक कारक बातचीत करनेके वाद अभयाने सुदशनको भोग भोगनेका आम ण दया।
सुदशनने ब त-सा उपदे श दया तो भी उसका मन शात नही आ। आ खर तग आकर सुदशनने यु से
कहा, “व हन । म पु ष वहीन ँ " तो भी रानीने अनेक कारके हावभाव कये । परतु उन सारी काम-
चे ाओसे सुदशन वच लत नही आ, इससे तग आकर रानीने उसे जाने दया।
एक वार उस नगरमे उ सव था, इस लये नगरके वाहर नगरजन आनदसे इधर-उधर घूमते थे।
धूमधाम मची ई थी । सुदशन सेठके छ दे वकुमार जैसे पु भी वहाँ आये थे । अभया रानी क पला नाम-
क दासीके साथ ठाटवाटसे वहाँ आयी थी। सुदशनके दे वपुतले जैसे छः पु उसके दे खनेमे आये । उसने
क पलासे पूछा, "ऐसे र य पु कसक ह ?" क पलाने सुदशन सेठका नाम लया। यह नाम सुनते ही
रानीक छातीमे मानो कटार भोक गयो, उसे घातक चोट लगी। सारी धूमधाम बीत जानेके बाद माया-
कथन गढकर अभया और उसक दासीने मलकर राजासे कहा-"आप मानते होगे क मेरे रा यमे याय
और नो तका वतन है, जनोसे मेरी जा ःखी नही है, परतु यह सब म या है। अत पुरमे भी जन
वेश करे यहाँ तक अभी अधेर है । तो फर सरे थानोके लये तो पूछना हो या ? आपके नगरके
सुदशन नामके सेठने मुझे भोगका आम ण दया, न कहने या य कथन मुझे सुनने पडे, परतु मने उसका
तर कार कया। इससे वशेष अधेर कौनसा कहा जाय ।" राजा मूलतः कानके क चे होते ह, यह बात
तो य प सवमा य ही है, उसमे फर ीके मायावी मधुर वचन या असर न कर ? त े तेलम ठडे जल
जैसे वचन से राजा ोधायमान हआ। उसने सुदशनको शलोपर चढा दे नेक त काल आ ा कर दा, आर
तदनुसार सब कुछ हो भी गया । मा सुदशनके शूली पर चढ़नेको दे र थी।
चाहे जो हो पर तु "सृ के' द भ डारमे उजाला है। स यका भाव ढका नह रहता।
सुदशनको शलीपर बठाया क शूली मट कर जगमगाता हआ सोनेका सहासन हो गयो, आर
__ दे व- भका नाद आ, सव आन द छा गया। सुदशनका स य शील व म डलमे झलक उठा । स य
शीलको सदा जय है । गोल और सुदशनको उ म दढ़ता ये दोनो आ माको प व े णपर चड़ाते है ।
श ापाठ ३४ : चय स ब धी सुभा षत
(दोहे) .

ौ ी े ौ े
* नौरखीने नवयौवना, लेश न वषय नदान ।
गणे का नी पूतळ , ते भगवान समान ॥१॥
आ सघळा संसारनी, रमणी नायक प ।
ए यागी, या यु बघु, केवळ शोक व प ॥२॥
एक वषयने जीततां, जी यो सौ संसार।
नृप त जीततां जी तये, दळ, पुर ने अ धकार ॥३॥
१ ० आ० पाठा०-'जगतके'
* भावाथ-नवयौवनाको दे खकर जसके मनम वषय- वकारका लेश भी उदय नही होता और जो उसे
काठक पुतली समझता है, वह भगवानके समान है ॥१॥
इस सारे ससारक नायक प रमणी सवथा ख- व प है, जसने इसका याग कर दया उसने सब कुछ
याग दया ॥२॥
जैसे एक नृप तको जीतनेसे उसका सै य, नगर और अ धकार जीते जाते ह, वैसे एक वषयको जीतनेसे सारा
समार जीता जाता है ॥३॥

८५
वषय प अंकुरथी, टळे ान ने यान ।
लेश म दरापानथी, छाके यम अ ान ॥४॥
जे नव वाड वशु थी, घरे शयल सुखदाई।
भव तेनो लव पछ रहे, त ववचन ए भाई ॥५॥
सु दर शयल सुरत , मन वाणी ने दे ह ।
जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह ॥६॥
पा वना व तु न रहे, पा े आ मक ान ।
पा थवा सेवो सदा, चय म तमान ॥७॥
श ापाठ ३५ : नवकारमं
नमो अ रह ताणं।
नमो स ाण।
नमो आय रयाणं।
नमो उव झायाणं।
नमो लोए स वसा ण।
इन प व वा योको न थ वचनमे नवकारम , नम कारम या पचपरमे ीम कहते है।
अहंत भगवानके बारह गुण, स भगवानके आठ गुण, आचायके छ ीस गुण, उपा यायके प चीस
गुण, और साधुके स ाईस गुण मलकर एक सौ आठ गुण होते है। अंगठ ू े के बना बाक क चार
अंगु लयोक बारह पोर होती है, और इनसे इन गुणोका च तन करनेक योजना होनेसे बारहको नौसे
गुणा करनेपर १०८ होते है। इस लये नवकार कहनेमे ऐसा सूचन भी ग भत मालूम होता है क हे
भ | अपनी अंगु लयोक पोरोसे नवकार म नौ बार गन । 'कार' श दका अथ 'करनेवाला' भी होता
है। बारहको नौसे गुणा करनेपर जतने हो उतने गुण से भरा आ म , इस कार नवकारम के
तौरपर इसका अथ हो सकता है। और पचपरमे ो अथात इस सकल जगतमे पाँच व तुएँ परमो कृ
ह, वे कौन-कौनसी ? तो कह बतायी क अ रह त, स , आचाय, उपा याय और साधु । इ हे नम कार
करनेका जो म वह परमे ीम , और पांच परमे योको एक साथ नम कार होनेसे 'पचपरमे ीम '
ऐसा श द आ। यह म अना द स माना जाता है, कारण क पचपरमे ी अना द स है अथात्
ये पाँचो पा आ द प नह ह । ये वाहसे अना द है. और उसके जपनेवाले भी अना द स है, इस लये
यह जाप भी अना द स ठहरता है।
-इस पचपरमे ीम को प रपूण जाननेसे मनु य उ म ग त पाता है, ऐसा स पु ष कहते
ह । इस वषयमे आपका या मत है ?
जैसे लेश भर म दरापानसे मनु य ान खोकर नशेसे उ म हो जाता है, वैसे योडी-सी वषय चासनासे ान
और यान न हो जाते ह ॥४॥
जो नौ बाडपूवक वशु एव सुखदायी चयका पालन करता है, उसका भवनमण लवलेश रह जाता है।
। हे भाई । यह त ववचत है ॥५॥
जो नर-नारी मन-वचन-कायासे शील प सु दर क पवृ का सेवन करगे वे अनुपम फलको पायगे ।।६।।
पा के बना व तु नही रहती, पा म ही आ म ान होता है । हे म तमान मनु यो । पा बनने के लये सदा
चयका सेवन करो ॥७॥
•••••
८६
उ र-यह कहना यायपूवक है, ऐसा म मानता ँ।
-इसे कस कारणसे यायपूवक कहा जा सकता है ?
उ र-हाँ । यह मै तु हे समझाता -ँ मनके न हके लये एक तो सव म जग षणके स य
गुणोका यह च तन है तथा त वसे दे खनेपर अहत व प, स व प, आचाय व प, उपा याय व प
और साधु व प, इनका ववेकपूवक वचार करनेका भी यह सूचक है। यो क वे स कारणसे पूजने
यो य है ? ऐसा वचार करनेपर इनके व प, गुण इ या दका वचार करनेको स पु षको तो स ची
आव यकता है। अब कहो क इससे यह म कतना क याणकारक है?
कता-स पु ष नवकारम को मो का कारण कहते है, इसे इस ा यानसे मै भी मा य
रखता ँ।
अहत भगवान, स भगवान, आचाय, उपा याय और साधु इनका एक-एक थम अ र लेनेसे
"अ सआउसा" यह महान वा य बनता है। जसका ॐ ऐसा योग ब का व प होता है। इस लये हमे
इस म का अव य ही वमलभावसे जाप करना चा हये।
श ापाठ ३६ : अनानुपूव
xxxxx
पता-इस कारके को कसे भरी ई एक छोट पु तक है उसे तूने दे खा है ?
पु -हाँ, पताजी।
पता-इसमे उलटे -सीधे अक रखे ह उसका कुछ भी कारण तेरी समझमे आता है ?
पु -नही पताजी, मेरी समझमे नही आता । इस लये आप वह कारण बताइये।
पता-पु | यह य है क मन एक ब त चंचल व तु है, और इसे एका करना अ य त
वकट है। वह जब तक एकान नही होता तब तक आ मम लनता नही जाती, पापके वचार कम नही
होते । इस एका ताके लये बारह त ा आ द अनेक महान साधन भगवानने कहे है। मनको एका तासे
महायोगक े णपर चढनेके लये और उसे अनेक कारसे नमल करनेके लये स पु षोने यह एक
को कावली बनायी है । इसमे पहले पचपरमे ी म के पांच अक रखे है, और फर लोम वलोम व पमे
ल यब इ ही पाँच अकोको रखकर भ - भ कारसे को क बनाये ह। ऐसा करनेका कारण भी
यही है क मनको एका ता ा त करके नजरा क जा सके।
पु - पताजी, अनु मसे लेनेसे ऐसा यो नही हो सकता ?
पता-य द लोम वलोम हो तो उ हे व थत करते जाना पडे और नाम याद करते जाना
पडे । पाँचका अक रखनेके बाद दोका अंक आये क 'नमो लोए स वसा ण के बाद 'नमो अ रह ताणं'

८७
यह वा य छोडकर 'नमो स ाण' यह वा य याद करना पडे । इस कार पुन पुनः ल यक ढ़ता
रखनेसे मन एका तापर प ंचता है। य द ये अक अनु मब हो तो वैसा नह हो सकता, यो क वचार
करना नह पड़ता। इस सू म समयमे मन परमे ीम मेसे नकलकर ससारत क खटपटमे जा पडता
है, और कदा चत् धम करते ए अनथ भी कर डालता है, इस लये स पु षोने इस अनानुपूव क योजना
क है, यह ब त सु दर और आ मशा तको दे नेवाली है।
श ापाठ ३७ : सामा यक वचार-भाग १
आ मश का काश करनेवाला, स य ानदशनका उदय करनेवाला, शु समा ध-भावमे वेश
करानेवाला, नजराका अमू य लाभ दे नेवाला, राग े षमे म य थवृ करनेवाला ऐसा सामा यक नामका
श ा त है। सामा यक श दक ुप सम + आय + इक इन श दोसे होती है। 'सम' अथात् राग े ष-
र हत म य थ प रणाम, 'आय' अथात् उस समभावसे उ प होनेवाला ानदशनचा र प मो मागका
लाभ, और 'इक'का अथ भाव होता है। अथात् जससे मो के मागका लाभदायक भाव उ प हो वह
'सामा यक' | आतं और रौ इन दो कारके यानका याग करके, मन, वचन और कायाके पाप
भावोको रोककर ववेक ावक सामा यक करता है।
मनके पु ल' दोरगे है। सामा यकमे जब वशु प रणामसे रहना कहा है तब भी यह मन
आकाश-पातालको योजनाएं बनाया करता है । इसी तरह भूल, व मृ त, उ माद इ या दसे वचनकायामे
भी षण आनेसे सामा यकमे दोष लगता है। मन, वचन और कायाके मलकर ब ीस दोष उ प होते
ह। दस मनके, दस वचनके और बारह कायाके इस कार ब ीस दोषोको जानना आव यक है। ज हे
जाननेसे मन सावधान रहता है।
मनके दस दोष कहता - ँ
१. अ ववेकदोष-सामा यकका व प न जाननेसे मनमे ऐसा वचार करे क इससे या फल
होनेवाला है ? इससे तो कौन तरा होगा? ऐसे वक पोका नाम 'अ ववेकदोष' है।
२. यशोवाछादोष- वय सामा यक करता है यह अ य मनु य जाने तो शसा करे, इस इ छासे
सामा यक करे इ या द, यह 'यशोवाछादोष' है।।
३. धनवाछादोष-धनको इ छासे सामा यक करना, यह 'धनवाछादोष' है।
४. गवदोष-मुझे लोग धम कहते ह और म सामा यक भी वैसी ही करता , ँ यह 'गवदोष' है।
५. भयदोष-मै धावक कुलमे ज मा , ँ मुझे लोग बड़ा समझकर स मान दे ते है, और य द म
सामा यक नही क ं तो कहेगे क इतना भी नह करता, इससे नदा होगी, यह 'भयदोष' है।

ो े े े ी े
६. नदानदोष-सामा यक करके उसके फलसे धन, ी, पु आ द ा त करनेक इ छा करना,
यह ' नदानदोष' है।
७. संशयदोष-सामा यकका प रणाम होगा या नही ? यह वक प करना 'सशयदोप' है।
८. कषायदोष- ोध आ दसे सामा यक करने बैठ जाय अथवा कसी कारणसे फर ोध, मान,
माया और लोभमे वृ रखे, यह 'कषायदोष' है।
९. अ वनयदोष- वनयर हत सामा यक करे, यह 'अ वनयदोष है।
१०. अब मानदोष-भ भाव और उमगपूवक सामा यक न करे, यह 'अब मानदोष है।
१. ० आ० पाठा०-तरगी।

८८
ीमद् राजच
श ापाठ ३८ : सामा यक वचार-भाग २
मनके दस दोष कहे, अब वचनके दस दोष कहता ँ :-
१. कुवचनदोष-सामा यकमे कुवचन बोलना, यह 'कुवचनदोप' है।
२ सहसा कारदोष-सामा यकमे साहससे अ वचारपूवक वा य बोलना, यह 'सहसा कारदोष' है।
३. असदारोपणदोष- सरेको खोटा उपदे श दे , यह 'असदारोपणदोष' है।
४. नरपे दोय-सामा यकमे शा क अपे ा बना वा य बोले, यह ' नरपे दोष है।
५. सं ेपदोष-सू के पाठ इ या दक स ेपमे बोल डाले, और यथाथ उ चारण नही करे, यह
स ेपदोष' है।
६. लेशदोष- कसीसे झगडा करे, यह ' लेशदोष' है।
७. वकथादोष-चार कारको वकथा ले बैठे यह ' वकथादोष' है।
८ हा यदोष-सामा यकमे कसीक हँसो, मसखरी करे, यह 'हा यदोष' है।
९. अशु दोष-सामा यकमे सू पाठ यूना धक और अशु वोले, यह 'अशु दोष' है।
१० मुणमुणदोष-सामा यकमे गडबडीसे सू पाठ बोले, जसे वयं भी पूरा मु कलसे समझ
सके, यह 'मुणमुणदोष' है।
ये वचनके दस दोष कहे, अब कायाके बारह दोष कहता है:-
१. अयो यासनदोष-सामा यकमे पैरपर पैर चढाकर वैठे यह गुवा दकका अ वनय प आसन है,
इस लये यह पहला 'अयो यासनदोष' है।
२. चलासनदोष-डगमगाते आसनसे बैठकर सामा यक करे, अथवा जहाँसे वारवार उठना पड़े
ऐसे आसनपर बैठे यह 'चलासनदोष' है।
३. चल दोष-कायो सगमे आँखे चंचल रख, यह 'चल दोष' है।
४. सावध यावोष-सामा यकमे कोई पाप या या उसक स ा करे, यह 'सावध यादोष' है।
५. आलंबनदोष-भीत आ दका सहारा लेकर बैठे, इससे वहाँ बैठे ए ज तु आ दका नाश हो
और खुदको माद हो, यह 'आलवनदोष' है।
६. आकुचन सारणदोष-हाथ-पैरको सकोडे, ल बा करे आ द, यह "आकुचन सारणदोष' है।
७. आलसदोष-अंगको मरोडे, उँग लयाँ चटकावे आ द, यह 'आलसदोष' है।
८. मोटनदोष-उँगली आ दको टे ढ करे, उसे चटकावे यह 'मोटनदोष' है।
९. मलदोष- घस- घस कर सामा यकमे खुजाकर मैल उतारे, यह 'मलदोष' है ।
१०. वमासणदोष-गलेमे हाथ डालकर बैठे इ या द, यह ' वमासणदोष' है।
११. न ादोष-सामा यकमे ऊँघ आना, यह ' न ादोष' है।
१२. व संकोचनदोष-सामा यकम ठड आ दको भी तसे व से शरीरको सकोडे, यह 'व -
सकोचनदोप' है।
इन ब ीस पण से र हत सामा यक करनी चा हये और पांच अ तचार टालने चा हये ।
श ापाठ ३९ . सामा यक वचार-भाग ३
एका ता और सावधानीके बना इन व ीस दोपोमेसे कोई न कोई दोष लग हो जाते है । व ान-
वे ाओने सामा यकका जघ य माण दो घड़ीका बाँधा है। यह त सावधानीपूवक करनेसे परम शा त
दे ता है। कतने ही लोगोका यह दो घड़ीका काल जब नही बीतता तब वे ब त तग आ जाते ह। सामा-

८९
यकमे नठ ले बैठनेसे काल बीते भी कहाँसे ? आधु नक कालमे सावधानीसे सामा यक करनेवाले ब त
ही थोडे है। त मण सामा यकके साथ करना होता है तब तो व गुजरना सुगम पड़ता है। य प
ऐसे पामर ल पूवक त मण नही कर सकते, फर भी केवल नठ ले बैठनेक अपे ा इसमे ज र कुछ
अ तर पड़ता है। ज हे सामा यक भी पूरी नह आती वे बचारे फर सामा यकमे ब त ाकुल हो
जाते है। ब तसे ब लकमी इस अवसरमे वहारके पच भी गढ़ रखते है। इससे सामा यक ब त षत
होती है।
व धपूवक सामा यक न हो यह ब त खेदकारक और कमक बहलता है। साठ घडीका अहोरा
थ चला जाता है। अस यात दनोसे भरपूर अनत कालच तीत करते ए भी जो साथक नही
हमा उसे दो घडोक वशु सामा यक साथक कर दे ती है। ल पूवक सामा यक होनेके लये सामा यकमे
वेश करनेके बाद चार लोग ससे अ धक लोग सका कायो सग करके च क कुछ व थता लाना । फर
ै े ो े े े
सू पाठ या उ म थका मनन करना । वैरा यके उ म का बोलना। पछले अ ययन कये येका
मरण कर जाना । नूतन अ यास हो सके तो करना। कसीको शा ाबारसे बोध दे ना । इस तरह
सामा यकका काल तीत करना । 'य द मु नराजका समागम हो तो आगमवाणी सूनना और उसका
मनन करना, वैसा न हो और शा प रचय न हो तो वच ण अ यासीसे वैरा यबोधक कथन वण
करना, अथवा कुछ अ यास करना । यह सारा योग न हो तो कुछ समय ल पूवक कायो सगमे लगाना,
और कुछ समय महापु षोक च र कथामे उपयोगपूवक लगाना । पर तु जैसे बने वैसे ववेक और उ साह
से सामा यकका काल तीत करना। कोई साधन न हो तो पचपरमे ीम का जप ही उ साहपूवक
करना । पर तु कालको थ नह जाने दे ना । धैयसे, शा तसे और य नासे सामा यक करना। जैसे बने
वैसे सामा यकमे शा प रचय बढाना।
साठ घडीके व मेसे दो घडी अव य बचाकर सामा यक तो स ावसे करना।
श ापाठ ४० : त मण वचार
त मण अथात् सामने जाना- मरण कर जाना- फरसे दे ख जाना-ऐसा इसका अथ है
सकता है। " जस दन जस समय त मण करनेके लये बैठे उस समयसे पहले उस दन जो-जो दोष ४५
है उ हे एकके बाद एक दे ख जाना और उनका प ा ाप करना या दोषोका मरण कर जाना इ या द
सामा य अथ भी है।'
उ म म न और भा वक ावक स याकालमे और रा के पछले भागमे दन और रा मे यो
अनुकमसे ए दोषोका प ा ाप या मापना करते है, इसका नाम यहाँ त मण है। यह त मण
हमे भी अव य करना चा हये, यो क आ मा मन, वचन और कायाके योगसे अनेक कारके कम बांधता
है। त मणसू मे इसका दोहन कया आ है, जससे दन-रातमे ए पापोका प ा ाप उसके ारा
हो सकता है। शु भावसे प ा ाप करनेमे लेश पाप होते ए परलोकभय और अनुकपा गट होते है
आ मा कोमल होता है। याग करने यो य व तुका ववेक आता जाता है। भगवानक सा ीसे, अ ान
इ या द जन- जन दोषोका व मरण आ हो उनका प ा ाप भी हो सकता है। इस कार यह नजरा
करनेका उ म साधन है।
१ ० आ० पाठा०-'भावको अपे ासे जस दन जस ममय त मण करना हो, उस ममयसे पहले
अथवा उस दन जो-जो दोप ए हो उ ह एकके बाद एक अतरा मभावसे दे ख जाना और उनका प ा ाप करके दोप मे
पीछे हटना, यह त मण है।'

९०
इसका 'आव यक' ऐसा भी नाम है। आव यक अथात् अव य करने यो य, यह स य है। इससे
आ माक म लनता र होती है, इस लये अव य करने यो य ही है।
सायकालमे जो त मण कया जाता है, उसका नाम 'दे व सय प ड कमण' अथात् दवससंबधी
पापका प ा ाप, और रा के पछले भागमे जो त मण कया जाता है, वह 'राइय प ड कमण'
कहलाता है। 'दे व सय' और 'राइय' ये ाकृत भापाके श द ह। प मे कया जानेवाला त मण पा क
और सव सरमे कया जानेवाला त मण साव स रक कहलाता है। स पु षोने योजनासे बाँधा आ
यह सु दर नयम है।
कतने ही सामा य बु मान ऐसा कहते है क दन और रा का सबेरे ाय प त मण
कया हो तो कुछ हा न नह है, परतु यह कहना ामा णक नही है। रा मे य द अक मात् कोई कारण
या मृ यु हो जाये तो दवससबधी भी रह जाये।
त मणसू क योजना ब त सु दर है। इसके मूल त व ब त उ म ह। जैसे बने वैसे त-
मण धैयसे, समझमे आये ऐसी भापासे, शा तसे, मनक एका तासे और यलापूवक करना चा हये ।
श ापाठ ४१ : भखारीका खेद-भाग १
एक पामर भखारी जंगलमे भटकता था । वहाँ उसे भूख लगी इस लये वह वचारा लड़खड़ाता
आ एक नगरमे एक सामा य मनु यके घर प ंचा। वहाँ जाकर उसने अनेक कारक आ जजी क , उसक
गड गडाहटसे क णा होकर उस गृह थक ीने उसे घरमेसे जीमनेसे बचा आ म ा भोजन लाकर
दया । भोजन मलनेसे भखारी बहत आन दत होता आ नगरके बाहर आया, आकर एक वृ के नीचे
बैठा, वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना ब त पुराना पानीका घड़ा रख दया। एक ओर
अपनी फट -पुरानी म लन गुदडी रखी और एक ओर वह वय उस भोजनको लेकर बैठा । ब त खुश
होते ए उसने वह भोजन खाकर पूरा कया। फर सरहाने एक प थर रखकर वह सो गया। भोजनके
मदसे जरासी दे रमे उसको आँख लग गयी। वह न ावश आ क इतनेमे उसे एक व आया। वह
वय मानो महा राजऋ को ा त आ है। उसने सु दर व ाभूषण धारण कये ह, सारे दे शमे उसक
वजयका डका बज गया है, समीपमे उसको आ ाका पालन करनेके लये अनुचर खड़े है, आसपास छड़ी-
दार खमा-खमा पुकार रहे ह, एक रमणीय महलमे सु दर पलगपर उसने शयन कया है, दे वागना जैसी
याँ उसक पांवच पी कर रही ह, एक ओरसे पखेसे मद-मद पवन दया जा रहा है, ऐसे व मे
उसका आ मा त मय हो गया। उस व का भोग करते ए उसके रोम उ ल सत हो गये। इतनेमे मेघ
महाराज चढ आये, बजली क धने लगी, सूयदे व बादल से ढक गया, सव अधकार छा गया, मूसलधार
वषा होगी ऐसा मालूम आ और इतनेमे धनगजनाके साथ बजलीका एक बल कडाका आ। कडाके-
क आवाजसे भयभीत होकर वह बचारा पामर भखारी जाग उठा ।
श ापाठ ४२ : भखारीका खेद-भाग २
_दे खता है तो जस जगह पानीका टू टा-फूटा घडा पड़ा था उसी जगह वह घडा पडा है, जहाँ फट -

ी ी ी ी ी ै े ै े औ ी ो े े े े े ै े
.* गुदडी पड़ी थी वही वह पड़ी है। उसने जैसे म लन और जाली झरोखेवाले कपडे पहन रखे थे वैसे
वैसे वे व शरीरपर वराजते है । न तलभर बढा क न जौभर घटा । न ह वह दे श क न है वह
नगरी, न है वह महल क न है वह पलग, न है वे चमरछ धारी क न ह वे छड़ीदार, न ह वे याँ

९१
क न ह वे व ालकार, न है वह पंखा क न है वह पवन, न है वे अनुचर क न है वह आ ा, न है वह
सुख- वलास क न है वह मदो म ता । महाशय तो वय जैसे थे वैसेके वैसे दखायी दये । इससे उस
दे खावको दे खकर वह खेदको ा त आ। व मे मैने म या आडबर दे खा, उससे आनद माना, उसमेसे
तो यहाँ कुछ भी नह है। मने व के भोग तो भोगे नही, और उसका प रणाम जो खेद है उसे म भोग
रहा ँ, इस कार वह पामर जीव प ा ापमे पड़ गया।
अहो भ ो। भखारीके व क भाँ त ससारके सुख अ न य है। जस कार व मे उस
भखारीने सुखसमुदायको दे खा और आनद माना, उसी कार पामर ाणी ससार व के सुखसमुदायमे
आनद मानते ह। जैसे वह सुखसमुदाय जागृ तमे म या मालूम आ वैसे ही ान ा त होने पर ससारके
सुख वैसे मालूम होते है। व के भोग न भोगनेपर भी जैसे भखारीको खेदक ा त ई, वैसे ही
मोहाध ाणी ससारमे सुख मान बैठते ह, और उ हे भोगे ओके समान मानते है, परतु प रणाममे खेद,
ग त और प ा ाप पाते है। वे चपल और वनाशी होनेपर भी उनका प रणाम व के खेद जैसा रहा
है । इस लये बु मान पु ष आ म हतको खोजते है । ससारक अ न यतापर एक का है क-
(उपजा त)
व ुत ल मी भुता पतंग, आयु य ते तो जळना तरंग;
पुरदरी नाप अनंगरंग, श रा चये या णनो सग?
वशेषाथ-ल मी बजली जैसी है। जैसे बजलीक चमक उ प होकर न हो जाती है, वैसे
ल मी आकर चली जाती है। अ धकार पतगके रग जैसा है। पतगका रग जैसे चार दनक चाँदनी है,
वैसे अ धकार मा थोडा समय रहकर हाथमेसे चला जाता है। आयु पानीक लहर जैसी है। जैसे पानीक
हलोर आयी क गयी वैसे ज म पाया, और एक दे हमे रहा या न रहा क इतनेमे सरी दे हमे जाना पड़ता
है। कामभोग आकाशमे उ प होनेवाले इ धनुष जैसे है। जैसे इ धनुष वषाकालमे उ प होकर ण-
भरमे वलीन हो जाता है, वैसे यौवनमे कामके वकार फलीभूत होकर जरावयमे चले जाते है। स ेपमे
हे जीव । इन सारी व तुओका सबध णभरका है। इसमे ेमबधनको साँकलसे बँधकर या स
होना ? ता पय यह क ये सब चपल और वनाशी है, तू अखड और अ वनाशी है, इस लये अपने जैसी
न य व तुको ा त कर | यह बोध यथाथ है।
श ापाठ ४३ : अनुपम मा
मा अतश ुको जीतनेका खड् ग है। प व आचारको र ा करनेका ब तर है। शु भावसे
अस ःखमे समप रणामसे मा रखनेवाला मनु य भवसागरको तर जाता है।
कृ ण वासुदेवके गजसुकुमार नामके छोटे भाई महा सु पवान एव सुकुमार मा बारह वषको
आयुम भगवान ने मनाथके पास ससार यागी होकर मशानमे उ यानमे थत थे, तब वे एक अ त
मामय च र से महा स को पा गये, उसे म यहाँ कहता ँ।
सोमल नामके ा णक सु पवणसप पु ीके साथ गजसुकुमारक सगाई ई थी। परतु ववाह
होनेसे पहले गजसुकुमार तो ससार यागकर चले गये । इस लये अपनी पु ीके सुखनाशके े षसे उस
सोमल ा णको भयकर ोध ा त हो गया। गजसुकुमारक खोज करता करता वह उस मशानमे
आ प ंचा जहाँ महा मु न गजसुकुमार एका वशु भावसे कायो सगमे थे । उसने कोमल गजसुकुमारके
माथेपर चकनी म क बाड बनाई और उसके अदर धधकते ए अगारे भरे और धन भरा
जससे महा ताप उ प आ। इससे गजसूकुमारको कोमल दे ह जलने लगी, तव सोमल वहांसे

९२
ीमद् राजच
जाता रहा । उस समय गजसुकूमारके अस खके बारेमे भला ण कहा जाये ? परतु तब वे समभाव
प रणाममे रहे । क चत् ोध या े ष उनके दयमे उ प नह आ। अपने आ माको व प थत
करके बोध दया, "दे ख | य द तूने इसक पु ीके साथ ववाह कया होता तो यह क यादानमे तुझे
पगडो दे ता। वह पगडी थोड़े समयमे फट जाने वाली तथा प रणाममे खदायक होती। यह इसका
बड़ा उपकार आ क उस पगडीके बदले इसने मो क पगड़ी बंधवायी।" ऐसे वशु प रणामोसे
अ डग रहकर समभावसे उस अस वेदनाको सहकर, सव सवदश होकर वे अनत जीवनसूखको ा त
ए । कैसी अनुपम मा और कैसा उसका सु दर प रणाम ! त व ा नयोके वचन है क आ मा मा
वस ावमे आना चा हये, और वह उसमे आया तो मो हथेलीमे ही है । गजसुकुमारक स मा
केसा वशु बोध दे ती है।
श ापाठ ४४ : राग
मण भगवान महावीरके अ ेसर गणधर गौतमका नाम तुमने ब त बार पढ़ा है । गौतम वामीके
बो धत कतने ही श य केवल ानको ा त ए, फर भी गौतम वय केवल ानको पाते न थे, यो क
भगवान महावीरके अगोपाग, वण, वाणी, प इ या द पर अभी गौतमको मोहनी थी। न थ वचन-
का न प याय ऐसा है क कसी भी व तुका राग खदायक है। राग ही मा हनी और मो हनी ही
ससार है। गौतमके दयसे यह राग जब तक र नह आ तब तक वे केवल ानको ा त नह ए।
े ो ौ े े े े
फर मण भगवान ातपु जब अनुपमेय स को ा त ए, तब गौतम नगरमेसे आ रहे थे।
भगवानके नवाणके समाचार सुनकर उ हे खेद आ। वे वरहसे अनुरागपूण वचन बोले, "हे महावीर ।
आपने मुझे साथ तो न लया, पर तु याद भी न कया। मेरी ी तक ओर आपने भी नही क ।
ऐसा आपको छाजता न था।" ऐसे वचार करते-करते उनका ल य बदला और वे नीराग े ण पर
आ ढ ए । "मै ब त मूखता करता ँ। ये वीतराग न वकारी और नीरागी भला मुझमे कैसे मो हनी
रखे ? इनक श ु और म पर सवथा समान थी। मै इन नीरागीका म या मोह रखता ँ। मोह
संसारका बल कारण है।" इस कार वचार करते-करते वे शोक छोड़कर नीरागी ए। तब उ हे
अनत ान का शत आ और अ तमे वे नवाण पधारे।
___गौतम मु नका राग हमे ब त सू म बोध दे ता है। भगवान पर का मोह गौतम जैसे गणधरको
खदायक ना, तो फर ससारका और वह भी पामर आ माओका मोह कैसा अन त ख दे ता होगा |
संसार पी गाडीके राग े ष प दो बैल ह। य द ये न हो तो ससारका रोध है। जहाँ राग नह है वहाँ
े ष नह है, यह मा य स ा त है । राग ती कमबंधका कारण है, इसके य से आ म स है ।
श ापाठ ४५ . सामा य मनोरथ
(सवया)
*मो हनीभाव वचार अधीन थई, ना नीरखु नयने परनारी ,
प यरतु य गणु परवैभव, नमळ ता वक लोभ समारी |
ादश त अने द नता धरी, सा वक थाउं व प वचारी;
ए मुज नेम सदा शुभ ेमक, न य अखंड रहो भवहारी ॥१॥
*भावाथ-मो ह नीभावके वचार के अधीन होकर नयन से परनारीको नह दे ख, ू लोभको नमल एव
ता वक बनाकर परवैभवको प थरतु य समझू । ादश त और द नता धारण कर व पका वचार करके सा वक
वनू । यह मेरा सदा शुभ ेमकारी और भवहारी नयम न य अखद रहे ।।१।।

९३
१७वां वष
ते शलातनये मन चतवी, ान, ववेक, वचार वधा ं ;
न य वशोध करी नव त वनो, उ म बोध अनेक उ चाएं।
संशयबीज ऊगे नही अ दर, जे जनना कथनो अवधा ,
रा य, सदा मुज ए ज मनोरथ, धार, थशे अपवग उतार ॥२॥
श ापाठ ४६ क पलमु न-भाग १
कौशा बी नामक एक नगरी थी। वहाँके राजदरवारमे रा यका आभूषण प का यप नामका
एक शा ी रहता था। उसक ीका नाम ीदे वी था। उसके पेटसे क पल नामका एक पु ज मा था।
जब वह प ह वषका आ तब उसके पताका वगवास हो गया । क पल लाड यारमे पला होनेसे वशेष
व ाको ा त नह आ था, इस लये उसके पताका थान कसी सरे व ानको मला। का यप
शा ी जो पूँजो कमाकर गये थे, उसे कमानेमे अश क पलने खाकर पूरी कर द । एक दन ीदे वी
घरके दरवाजेमे खडी थी क इतनेमे दो-चार नौकरो स हत अपने प तक शा ीय पदवीको ा त व ान
जाता आ उसके दे खनेमे आया। ब त मानसे जाते ए उस शा ीको दे खकर ीदे वीको अपनी पूव-
थ तका मरण हो आया । "जब मेरे प त इस पदवीपर थे तब म कैसा सुख भोगती थी । यह मेरा सुख
तो गया, पर तु मेरा पु भी पूरा पढा ही नही।" इस कार वचारमे डोलते-डोलते उसक आँखोमेसे
टपाटप आँसू गरने लगे। इतनेमे घूमता-घूमता क पल वहाँ आ प ँचा। ीदे वीको रोती ई दे खकर
उसका कारण पूछा। क पलके ब त आ हसे ीदे वीने जो था वह कह बताया। फर क पल बोला,
"दे ख माँ | मै बु शाली , ँ पर तु मेरो बु का उपयोग जैसा चा हये वैसा नह हो सका। इस लये
व ाके बना मने यह पदवी ा त नही क । तू जहाँ कहे वहाँ जाकर अब मै यथाश व ा स
क ं ।" ीदे वीने खेदपूवक कहा, "यह तुझसे नह हो सकेगा, नही तो आयावतको सीमापर थत
ाव ती नगरीमे इ द नामका तेरे पताका म रहता है, वह अनेक व ा थयोको व ादान दे ता है,
य द तू वहाँ जा सके तो अभी स अव य होगी।" एक दो दन क कर स ज होकर 'अ तु' कह
कर क पलजीने रा ता पकडाा।
अव ध बीतनेपर क पल ाव तीमे शा ीजीके घर आ प ंचा। णाम करके अपना इ तहास
कह सुनाया । शा ीजीने म पु को व ादान दे नेके लये ब त आन द द शत कया । पर तु क पलके
पास कोई पूंजी न थी क उसमेसे वह खाये और अ यास कर सके, इस लये उसे नगरमे भ ा मांगनेके
लये जाना पड़ता था। मांगते माँगते दोपहर हो जाती थी, फर रसोई बनाता और खाता क इतनेमे
स याका थोडा समय रहता था, इस लये वह कुछ भी अ यास नह कर सकता था। प डतजीने उसका
कारण पूछा तो क पलने सब कह सुनाया। प डतजो उसे एक गृह थके पास ले गये और उस गह यने
क पलपर अनुकपा करके एक वधवा ा णोके घर ऐसो व था कर द क उसे हमेशा भोजन
मलता रहे, जससे क पलको यह एक चता कम ई।
श ापाठ ४७. क पलमु न-भाग २
यह छोट च ता कम ई, वहाँ सरी बडी झझट खडी ई। भ क क पल अब जवान हो गया
था, और जसके यहाँ वह खाने जाता था वह वधवा ो भी जवान थी। उसके साथ उसके घरमै
उन शलातनयका मनम च तन करके ान, ववेक चौर वचारको बढ़ाऊँ, न य नव त वोका वयोग
करके अनेक कारके उ म बोपवचन मुखसे क ँ। जनभगवानके जो कयन है उनका अवधारण क ं ता क मनम
सशयबीजका उदय न हो । राजच कहते है क मेरा सदा यही मनोरय है, इसे धारण कर मो प चक गनु ॥२॥
९४
ीमद राजच
सरा कोई आदमी नही था। दन त दन पार प रक बातचीतका सबध बढा, बढकर हा य- वनोद-
पमे प रणत आ, यो होते होते दोनो ेमपाशमे बँध गये। क पल उससे लुभाया | एकात ब त अ न
व तु है।
वह व ा ा त करना भूल गया । गृह थक ओरसे मलने वाले सीधेसे दोनोका मु कलसे नवाह
होता था, पर तु कपडे ल े क तकलीफ ई । क पलने गृह था म बसा लेने जैसा कर डाला | चाहे जैसा
होनेपर भी लघुकम जीव होनेसे उसे ससारके अपचक वशेष जानकारी भी नह थी। इस लये वह
बेचारा यह जानता भी न था क पेसा कैसे पैदा करना। चचल ीने उसे रा ता बताया क ाकुल
हानेसे कुछ नह होगा, परतु उपायसे स है। इस गांवके राजाका ऐसा नयम है क सबेरे पहले जा
कर जो ा ण आशीवाद दे उमे वह दो माशा सोना दे ता है। वहाँ य द जा सको और थम आशीवाद दे
सको तो वह दो माशा सोना मले । क पलने यह बात मान लो । आठ दन तक ध के खाये पर तु समय
बीत जानेके बाद प ँचनेसे कुछ हाथ नही आता था। इस लये उसने एक दन न य कया क य द म
चौकमे सोऊँ तो सावधानी रखकर उठा जायगा। फर वह चौकमे सोया । आधी रात बीतनेपर च का
उदय आ । क पल भात समीप समझकर मु याँ बाँधकर आशीवाद दे नेके लये दौडते ए जाने लगा।
र पालने उसे चोर जानकर पकड लया । लेनेके दे ने पड गये। भात होने पर र पालने उसे ले जाकर
राजाके सम खडा कया। क पल बेसुध-सा खडा रहा, राजाको उसमे चोरके ल ण दखाई नह दये।
इस लये उससे सारा वृ ात पूछा । चं के काशको सूय के समान माननेवालेक भ कतापर राजाको दया
आयी । उसक द र ता र करनेक राजाक इ छा हई, इस लये क पलसे कहा, "आशीवाद दे नेके लये
य द तुझे इतनी झझट खडी हो गई है तो अब तू यथे माँग ले, मै तुझे ं गा।" क पल थोडी दे र मूढ
जैसा रहा । इससे राजाने कहा, " यो व | कुछ मॉगते नही हो ?" क पलने उ र दया, "मेरा मन
अभी थर नह आ है, इस लये या माँग यह नही सूझता।" राजाने सामनेके बागमे जाकर वहाँ
बैठकर व थतापूवक वचार करके क पलको माँगनेके लये कहा । इस लये क पल उस बागमे जाकर
वचार करने बैठा।
श ापाठ ४८ : क पलमु न-भाग ३
दो माशा सोना लेनेक जसक इ छा थी, वह क पल अब तृ णातरगमे बहने लगा। पांच मुहर
मांगनेक इ छा क , तो वहाँ वचार आया क पाँचसे कुछ पूरा होनेवाला नह है। इस लये प चीस
मुहर मॉगू। यह वचार भी बदला। प चीस मुहरोसे कही सारा वष नही नकलेगा, इस लये सौ मुहर
मांग लूँ । वहाँ फर वचार बदला । सौ मुहरोसे दो वष कट जायगे, वैभव भोगकर फर ःखका ःख,
इस लये एक हजार मुहरोक याचना करना ठ क है। पर तु एक हजार मुहर से, बाल-ब चोके दो चार
खच आ जाय, या ऐसा कुछ हो तो पूरा भी या हो । इस लये दस हजार मुहर मॉग लूं क जससे जोवन-
पयत भी च ता न रहे। वहाँ फर इ छा बदली। दस हजार मुहर ख म हो जायेगी तो फर पंजीहीन
होकर रहना पडेगा । इस लये एक लाख मुहरोक मांग क ं क जसके ाजमे सारा वैभव भोगू,
ं पर तु
जीव । ल ा धप त तो ब तसे ह, इनमे म नामा कत कहाँसे हो पाऊँगा? इस लये करोड़ मुहर मांग लूँ
क जससे म महान ीमान कहा जाऊं। फर रग बदला ! महती ीम ासे भी घरमे स ा नही कहलायेगी,
इस लये राजाका आधा रा य मांग।ू पर तु य द आधा रा य मागंगा तो भी राजा मेरे तु य गना
जायेगा; और फर म उसका याचक भी माना जाऊँगा। इस लये मागं तो पूरा रा य ही माँग लू । इस
तरह वह तृ णामे डू बा, पर तु वह था तु छ ससारी, इस लये फरसे पीछे लौटा। भले जीव । मुझे ऐसी
कृत नता कस लये करनी पड़े क जो मुझे इ छानुसार दे नेको त पर आ उसीका रा य ले लेना और

९५
१७व वष
उसीको करना ? यथाथ से तो इसमे मेरी हो ता है । इस लये आधा रा य माँगना, पर तु
यह उपा ध भी मुझे नही चा हये। तब पसेक उपा ध भी कहाँ कम है? इस लये करोड लाख छोडकर
सौ दो सौ मुहर ही मांग लूँ। जीव । सौ दो सौ मुहर अभी मलेगी तो फर वषय-वैभवमे व चला
जायेगा, और व ा यास भी धरा रहेगा, इस लये अभी तो पांच मुहर हो ले जाऊँ, पीछे क बात पीछे ।
अरे । पाँच मुहरोक भी अभी कुछ ज रत नही है, मा दो माशा सोना लेने आया था वही मांग ले ।
जीव । यह तो हद हो गई। तृ णासमु मे तूने ब त गोते खाये। स पूण रा य माँगते ए भी जो तृ णा
नही बुझती थी, मा संतोष एव ववेकसे उसे घटाया तो घट गई। यह राजा य द च वत होता तो
फर म इससे वशेष या मांग सकता था? और जब तक वशेष न मलता तब तक मेरी तृ णा शात
भी न होती, जब तक तृ णा शात न होती तब तक मै सुखी भो न होता । इतनेसे भी मेरी तृ णा र न
हो तो फर दो माशेसे कहाँसे र होगी? उसका आ मा सुलटे भावमे आया और वह बोला, "अब मझे
दो माशे सोनेका भी कुछ काम नही, दो माशेसे बढकर मै कस हद तक प ँचा | सुख तो सतोषमे ही
है। यह तृ णा ससारवृ का बीज है। इसक हे जीव | तुझे या आव यकता है ? व ा हण करते ए
तू वषयमे पड गया, वषयमे पड़नेसे इस उपा धमे पडा, उपा धके कारण तू अनत तृ णासमु क तरगोमे
पडा । इस कार एक उपा धसे इस संसारमे अनत उपा धयाँ सहनी पडती है। इस लये इसका याग
करना उ चत है। स य संतोष जैसा न पा ध सुख एक भी नह है।" यो वचार करते करते तृ णाको
शा त करनेसे उस क पलके अनेक आवरण य हो गये। उसका अ त करण फु लत और ब त

े ी ो े ी े े े े
ववेकशील हो गया। ववेक ही ववेकमे उ म ानसे वह वा माका वचार कर सका । अपूव े णपर
चढकर वह केवल ानको ा त आ ऐसा कहा जाता है।
तृ णा कैसी क न व तु है। ानी ऐसा कहते है क तृ णा आकाश जैसी अनत है। नरतर
वह नवयौवना रहती है। कुछ चाह जतना मला क वह चाहको बढा दे ती है। सतोष ही क पवृ है,
और यही मा मनोवाछाको पूण करता है ।
श ापाठ ४९ : तृ णाक व च ता
___ मनहर छद
(एक गरीबक बढती ई तृ णा)
महती द नताई यारे ताको पटे लाई अने,
मळ पटे लाई यारे ताक छे शेठाईने;
सांपडी शेठाई यारे ताको मं ताई अने,
आवो म ताई यारे ताक नृपताईने
मळो नपताई यारे ताक दे वताई अने,
दौठो दे वताई यारे ताको शंकराईने;
अहो ! राजचं मानो मानो शंकराई मळ ,
वघे तुषनाई तोय जाय न मराईने ॥१॥
*भावाय-जव गरीब या तब मु खया होनेको इ छा ई, जब मु खया हो गया तव नगरसेठ होनेक इ छा
ई, जब नगरसेठ आ तब म ी होनेक इ छा ई, जब म ी ना तव राजा होनेक इ छा ई, जब राजा इमा
तब दे व होनेक इ छा ई, जब दे व मा तव शकर -महादे व होनको इ छा ई। राजचद् कहते है क यह आ य
है क य द वह शंकर हो जाये तो भी उसक तृ णा वढती ही रहे, मरे नही ॥१॥

ीमद् राजच
करोचली पड़ी बाढ डाचां तणो दाट वळयो,
काळ केशपट ववे ेतता छवाई गई;
संघ, सांभळवं, ने दे खवं ते माडी वाळचं,
तेम दांत आवली ते, खरी के खवाई गई।
वळ केड वांक , हाड गयां, अंगरग गयो,
ऊठवानी आय जतां लाकडी लेवाई गई;
अरे! राजचं एम, युवानी हराई पण,
मनथी न तोय रांड ममता मराई गई ॥२॥
करोडोना करजना शर पर डंका वागे,
रोगथी ं धाई गयु, शरीर सुकाईने;
पुरप त पण माथे, पीडवाने ताक र ो,
पेट तणी वेठ पण, शके न पुराईने ।
पतृ अने परणी ते, मचावे अनेक घंध,
पु , पु ी भाखे खाउँ खाउं ःखदाईने,
अरे | राजचं तोय जीव झावा दावा करे,
जंजाळ छडाय नह , तजी तृषनाईने ॥३॥ .
थई ीण नाडी अवाचक जेवो र ो पडी,
जीवन द पक पा यो केवळ झखाईने;
छे ली ईसे प ो भाळ भाईए यां एम भा युः
हवे टाढ माट थाय तो तो ठ क भाईने।
हायने हलावी यां तो खीजी बु े सूच ु ए,
बो या वना बेस बाळ तारो चतुराईने !
अरे ! राजचं दे खो दे खो आशापाश केवो?
जतां गई नही डोशे ममता मराईने ॥४॥
मुंहपर झु रयां पड गई, गाल पचक गये, काली केशप य सफेद हो गई, सूंघने, सुनने और दे खनेक श
जाती रही, दाँत गर गये या सड़ गये, कमर टे ढ हो गई, ह याँ कमजोर हो गई, शरीरक शोभा जाती रही,
उठने-बैठनेक श जाती रही, और चलने- फरनेम लकडी लेनी पड़ी। राजच कहते ह क यह आ य है क
इस तरह जवानी तो चली गई, पर तु फर भी मनसे यह राड ममता नही मरी ।।२।।
करोडोके कजका सरपर डका बज रहा है शरीर सूखकर रोगोका घर हो गया है, राजा भी पीडा दे नेके
लये मौका ताक रहा है और पेट भी पूरी तरहसे भरा नह जा सकता, माता- पता और ी अनेक उप व मचाते
है, पु -पु ी खदायीको खानेको दौडते ह। राजच कहते है क यह आ य है क तो भी यह जीव म या
य न करता रहता है पर तु इससे तृ णाको छोडकर जजाल नही छोडा जाता ।।३।।
___ नाडी ीण हो गई है, अवाचकको भां त पड़ा आ है, जीवनका द या बुझनेको है, इस अ तम अव थाम
पड़ा दे खकर भाईने यो कहा क अब म ठडी हो जाय तो ठ क है। इतनेम उस बु ेने खीजकर हाथको हलाकर
ईशारेसे कहा--"अरे मूख । चुप रह, अपनी चतुराईको चू हेम डाल।" राजच कहते ह क यह आ य है
क दे खये, दे खये आपापाश कैसा है | मरते-मरते भी बु ेक ममता नही मरी ||४||
१७व वष
श ापाठ ५०: साद
धमका अनादर, उ माद, आल य और कषाय ये सब मादके ल ण है।
भगवानने उ रा ययनसू मे गौतमसे कहा-"ह गौतम । मनु य क आयु कुशक अनीपर पड़े ए
जलके ब जैसी है। जैसे उस ब के गरनेमे दे र नह लगती, वैसे इस मनु यक आयुके बीत जानेमे
दे र नह लगती।" इस बोधके का मे चौथी प मरणमे अव य रखने यो य है । 'समय गोयम मा
पमायए।' इस प व वा यके दो अथ होते है। एक तो यह क हे गौतम | समय अथात् अवसर पाकर
माद नही करना, और सरा यह क नमेषो मेषमे बीतते ए कालका अस यातवा भाग जो समय
कहलाता है उतने वकका भी माद नह करना । यो क दे ह णभगुर है। काल शकारी सरपर
धनुषबाण चढाकर खड़ा है। उसने शकारको लया अथवा लेगा यह वधा हो रही है; वहाँ मादसे
धमकत का करना रह जायेगा।
अ त वच ण पु ष ससारक सव पा धका याग करके अहोरा धममे सावधान होते ह, पलका
भी माद नह करते। वच ण पु ष अहोरा के थोडे भागको भी नर तर धमकत मे बताते है, और
अवसर अवसरपर धमकत करते रहते है। पर तु मूढ पु ष न ा, आहार, मौज-शौक और वकथा
एवं रागरगमे आयु तीत कर डालते है । इसके प रणाममे वे अधोग तको ा त करते ह।
___ यथास भव यला और उपयोगसे धमको स करना यो य है। साठ घड़ीके अहोरा मे बीस
घडी तो हम न ामे बता दे ते ह। बाक क चालीस घडी उपा ध, गपशप और बेकार घूमने- फरनेमे
गुजार दे ते ह । इसक अपे ा साठ घडीके समयमेसे दो चार घडी वशु धमकत के लये उपयोगमे ल
तो यह आसानीसे हो सकता है । इसका प रणाम भी कैसा सु दर हो ?
पल एक अमू य व तु है। च वत भी य द एक पल पाने के लये अपनी सारी ऋ दे दे तो भी
वह उसे पा नह सकता । एक पल थ खोनेसे एक भव हार जाने जैसा है, यह ता वक से स है ।
श ापाठ ५१ : ववेक कसे कहते ह ?
लघु श य-भगवन् | आप हमे थान- थानपर कहते आये ह क ववेक महान ेय कर है।
ववेक अ धकारमे पडे ए आ माको पहचाननेका दोपक है। ववेकसे धम टकता है। जहाँ ववेक नह
वहाँ धम नह , तो ववेक कसे कहते ह ? यह हमे क हये।
गु -आयु मानो | स यास यको अपने-अपने व पसे समझना, इसका नाम ववेक है।
लघु श य--स यको स य और अस यको अस य कहना तो सभी समझते ह । तब महाराज |
वे धमके मूलको पा गये ऐसा कहा जा सकता है ?
गु -तुम जो बात कहते हो उसका एक ात भी तो दो।
लघु श य-हम वय कडवेको कड़वा ही कहते है, मधुरको मधुर कहते ह, जहरको जहर और
अमृतको अमृत कहते ह।
गु -आयु मानो । ये सब पदाथ ह। पर तु आ माको कोनसी कटु ता और कौनसी
मधुरता, कौनसा वप और कौनसा अमृत है इन भावपदाथ को इससे या परी ा हो सकती है?
लघु श य-भगवन् । इस ओर तो हमारा ल य भी नही है।
गु -तब यही समझना है क ानदशन प आ माके स य भावपदाथको अ ान और अदशन प
असत् व तुने घेर लया है। इसमे इतनी अ धक म ता हो गई है क परी ा करना अ त अ त कर
है। आ माने ससारके सुख अन त वार भोगे फर भी उसमेसे अभी तक मोह र नह आ और उसे
अमृत जैसा माना यह अ ववेक है, यो क ससार कडवा है, कड़वे वपाकको दे ता है। इसी कार

ीमद् राजच
वैरा य जो इस कडवे वपाकको औषध है, उसे कड़वा माना, यह भी अ ववेक है। ान, दशन आ द
गणोको अ ान और अदशनने घेरकर जो मथता कर डाली है उसे पहचान कर भाव अमृतमे आना,
इसका नाम ववेक है । अब कहो क ववेक कैसी व तु ठहरी?
लघु श य-अहो । ववेक ही धमका मूल और धमर क कहलाता है, यह स य है । आ म-
व पको ववेकके बना पहचाना नह जा सकता, यह भी स य है। ान, शील, धम, त व और तप ये
सब ववेकके बना उदयको ा त नही होते, यह आपका कहना यथाथ है। जो ववेक नह है वह
अ ानी और म द है। वही पु ष मतभेद और म यादशनमे लपटा रहता है। आपक ववेकस ब धी
श ाका हम नर तर मनन करगे।
श ापाठ ५२ : ा नयोने वैरा यका बोध य दया?
ससारके व पके स ब धमे पहले कुछ कहा गया है वह तु हारे यानमे होगा।
ा नयोने इसे अन त खेदमय, अन त खमय, अ व थत, चल वचल और अ न य कहा है।
ये वशेषण लगानेसे पहले उ होने ससारस ब धी स पूण वचार कया है, ऐसा मालूम होता है । अन त
भवोका पयटन, अन त कालका अ ान, अन त जीवनका ाघात, अन त मरण और अन त शोकसे
आ मा ससारच मे मण कया करता है। ससारक द खती ई इ वा णी जैसी सु दर मो हनीने
आ माको स पूण लीन कर डाला है। इस जैसा सुख आ माको कही भी भा सत नह होता। मो हनीसे
स य सुख और उसके व पको दे खनेक इसने आका ा भी नह क है। पतगक जैसे द पकके त
मो हनी है वैसे आ माक ससारके त मो हनी है। ानी इस ससारको णभरके लये भी सुख प नह
कहते । इस ससारक तलभर जगह भी जहरके बना नह रही है। एक सूअरसे लेकर एक च वत
तक भावक अपे ासे समानता है, अथात् च वत क ससारमे जतनी मो हनी है उतनी ही ब क उससे
अ धक मो हनी सूअरको है। च वत जैसे सम न जापर अ धकार भोगता है वैसे उसक उपा ध भी

ो ै ो े े ी ो े े े ै
भोगता है । सूअरको इसमेसे कुछ भी भोगना नह पड़ता । अ धकारक अपे ा उलटे उपा ध वशेष है।
च वत का अपनी प नीके त जतना ेम होता है, उतना ही ब क उससे वशेष सूभरका अपनी
सूअरनीके त ेम रहा है। च वत भोगमे जतना रस लेता है उतना ही रस सूअर भी मान बैठा
है। च वत को जतनी वैभवक ब लता है, उतनी ही उपा ध है। सूअरको उसके वैभवके अनुसार
उपा ध है। दोनो उ प ए ह और दोनो मरनेवाले ह। इस कार अ त सू म वचार करनेपर
णकता, रोग और जरासे दोनो सत है। से च वत समथ है, महापू यशाली है, सातावेदनीय
भोगता है, और सूअर बेचारा असातावेदनीय भोग रहा है। दोनोको असाता-साता भी है, पर तु च वत
महासमथ है। पर तु य द वह जीवनपय त मोहाध रहा तो सारी बाजी हार जाने जैसा करता है।
सूअरका भी यही हाल है। च वत शलाकापु ष होनेसे सूअरसे इस पम उसक तुलना ही नह है,
पर तु इस व पमे है। भोग भोगनेमे भी दोनो तु छ ह, दोन के शरीर मांस, म जा आ दके है। ससार-
क यह उ मो म पदवी ऐसी है, उसमे ऐसा ख, णकता, तु छता और अ धता रहे है तो फर
अ य सुख कस लये मानना चा हये? ये सुख नही ह, फर भी सुख मानो तो जो सुख भयवाले और
णक है ये .ख ही है। अन त ताप, अन त शोक, अन त ख दे खकर ा नयोने इस संसारको पीठ
द है, यह स य है। इस ओर पीछे मुडकर दे खने जैसा नही है, वहाँ .ख, ःख और .ख ही है।
खका यह समु है।
वैरा य ही अनत सुखमे ले जानेवाला उ कृ गगदशक है।

१७व वष
श ापाठ ५३ महावीरशासन
अभी जो शासन वतमान है वह मण भगवान महावीरका णीत कया आ है । 'भगवान
महावीरको नवाण पधारे २४१४ वष हो गये। मगध दे शके यकु ड नगरमे वशलादे वो याणीक
कोखसे स ाथ राजासे भगवान महावीर ज मे थे। महावीर भगवानके बड़े भाईका नाम न दवधन था।
महावीर भगवानक ीका नाम यशोदा था। ये तीस वष गृह थाधममे रहे। एका तक वहारमे साढे
बारह वष एक प , तपा दक स यक् आचारसे इ होने अशेष घनघाती कम को जलाकर भ मीभूत कया;
और अनुपमेय केवल ान तथा केवलदशन ऋजुवा लका नद के कनारे ा त कया। कुल लगभग ७२
वषक आयु भोगकर सब कम को भ मीभूत करके स व पको ा त कया। वतमान चौबीसीके ये
अ तम जने र थे।
इनका यह धमतीथ वतमान है। यह २१००० वष अथात् पंचम कालक पूणता तक वतमान
रहेगा, ऐसा भगवतीसू मे वचन है।
___यह काल दस अपवादोसे यु होनेसे इस धमतीथपर अनेक वप याँ आ गयी ह, आती है और
वचनके अनुसार आयगी भी सही।
जैन समुदायमे पर पर मतभेद ब त पड़ गये है। पर पर नदा थ से जजाल मॉड बैठे ह । म य थ
पु ष ववेक- वचारसे मतमतातरमे न पड़ते ए जैन श ाके मूल त व पर आते है, उ म शीलवान
मु नयोपर भ रखते है, और स य एका तासे अपने आ माका दमन करते है।
समय समयपर शासन कुछ सामा य काशमे आता है, पर तु काल भावके कारण वह यथे
फु लत नह हो पाता।
__ 'वंक जडा य प छमा' ऐसा उ रा ययनसु मे वचन है, इसका भावाथ यह है क अ तम तीथकर
(महावीर वामो) के श य वक एव जड़ होगे, और उनक स यताके वपयमे कसीको कुछ बोलने जैसा
नह रहता । हम कहाँ त वका वचार करते है ? कहाँ उ म शीलका वचार करते ह ? नय मत समय
धममे कहाँ तीत करते है ? धमतीथके उदयके लये कहाँ यान रखते ह ? कहाँ लगनसे धमत वक
खोज करते ह ? ावककुलमे ज मे इस लये ावक, यह बात हमे भावक से मा य नह करनी
चा हये, इसके लये आव यक आचार, ान, खोज अथवा इनमेसे कोई वशेष ल ण जसमे हो उसे ावक
मान तो वह यथायो य है। अनेक कारक ा दक सामा य दया ावकके घर ज म लेती है और वह
उसका पालन भी करता है, यह बात शसा करने यो य है, पर तु त वको कोई वरले ही जानते ह,
जाननेक अपे ा अ धक शका करनेवाले अघद ध भी ह, जानकर अहकार करनेवाले भी ह, पर तु जान-
कर त वके कांटेमे तोलनेवाले कोई वरले ही है। परपर आ नायसे केवल, मन पयय और परमाव ध-
ानका व छे द हो गया । वादका व छे द हो गया, स ातके ब तसे भागका व छे द हो गया, मा
थोड़े रहे ए भागपर सामा य समझसे शका करना यो य नह है। जा सका हो उसे वशेप जानकारसे
पूछना चा हये । वहाँसे मनमाना उ र न मले तो भी जन-वचनक ा चल वचल नह करनी चा हये।
अनेकात शैलीके व पको वरले जानते ह।
भगवानके कथन प म णके घरमे कई पामर ाणी दोष पी छ को खोजनेका मथन करके अधो-
ग तजनक कम बाँधते है। हरी शाकभाजीके बदलेमे उसे सुखाकर उपयोगमे लेनेक बात कसने और कस
वचारसे ढूँ ढ नकाली होगी?
यह वषय ब त बड़ा है। इस सबधमे यहाँ कुछ कहना यो य नह है। स ेपमे कहना यह है क
१. मोदामालाक थमावृ वीर सवत् २४१४ अथात् व म संवत् १९४४ मे छपी थी।

१००
ीमद राजच
हमे अपने आ माक साथकताके लये मतभेदमे नही पडना चा हये । उ म और शात मु नका समागम,

े े े ो े ो ी ी े े े
वमल आचार, ववेक, दया, माका सेवन करना चा हये। हो सके तो महावीर तीथके लये ववेक
बोध कारण स हत दे ना चा हये । तु छ बु से श कत नही होना चा हये, इसमे अपना परम मगल है,
इसका वसजन नह करना चा हये।
श ापाठ ५४ : अशु च कसे कहना ?
ज ासु-मुझे जैन मु नय के आचारक बात ब त अ छ लगी है। इनके जैसा कसी दशनके
सतोका आचार नह है। चाहे जैसे जाडेको ठडमे इ हे अमुक व ोसे नभाना पड़ता है, गरमीमे चाहे
जैसा ताप पडनेपर भी ये पैरमे जूते अथवा सरपर छ ी नही रख सकते। इ हे गरम रेतमे आतप लेना
पडता है । याव जीवन गरम पानी पीते है। गृह थके घर ये बैठ नह सकते । शु चय पालते है।
फूट कौडी भो पासमे नही रख सकते । ये अयो य वचन नही बोल सकते । ये वाहन नह ले सकते । ऐसे
प व आचार, सचमुच । मो दायक है। परंतु नी बाड़मे भगवानने नान करनेका नषेध कया है यह
वात तो मुझे यथाथ नही जंचती।।
स य- कस लये नही जंचती ?
ज ासु- यो क इससे अशु च बढ़ती है।
स य-कौनसी अशु च बढ़ती है ?
ज ासु-शरीर म लन रहता है यह ।
स य-भाई । शरीरक म लनताको अशु च कहना, यह बात कुछ वचारपूण नह है । शरीर वय
कसका बना है, यह तो वचार करो। र . प , मल, मू , े मका यह भडार है । इसपर मा वचा
है तब फर यह प व कैसे हो? और फर साधुओने ऐसा कोई ससारी कत कया नह होता क
जससे उ हे नान करनेक आव यकता रहे।
ज ासु-परतु नान करनेसे उ हे हा न या है ?
स य-यह तो थूल बु का ही है । नहानेसे अस यात ज तुओका वनाश, कामा नक
द तता, तका भग, प रणामका बदलना, यह सारी अशु च उ प होती है और इससे आ मा महा
म लन होता है। थम इसका वचार करना चा हये । शरीरक , जीव हसायु जो म लनता है वह
अशु च है। अ य म लनतासे तो आ माक उ वलता होती है, इसे त व वचारसे समझना है। नहानेसे
त भग होकर आ मा म लन होता है, और आ माक म लनता ही अशु च है।
ज ासु-मुझे आपने ब त सु दर कारण बताया । सू म वचार करनेसे जने रके कथनसे बोध
और अ यानद ा त होता है। अ छा, गृह था मयोको जीव हसा या ससार-कत से ई शरीरको
अशु च र करनी चा हये या नह ?
___स य-समझपूवक अशु च र करनी ही चा हये । जैन जैसा एक भी प व दशन नह है, और
वह अप व ताका बोध नह करता । पर तु शौचाशीचका व प समझना चा हये।
श ापाठ ५५ : सामा य न य नयम
भातसे पहले जागृत होकर नम कार मं का मरण करके मन वशु करना चा हये । पाप-
ापारक वृ को रोककर रा -सवधी ए दोपोका उपयोगपूवक त मण करना चा हये।
त मण करनेके बाद ययावसर भगवानको उपासना, तु त तथा वा यायसे मनको उ वल
करना चा हये।

१७वॉ वष
१०१
माता- पताक वनय करके, आ म हतका ल व मृत न हो इस तरह य नासे ससारी काममे
वृ करनी चा हये।
वयं भोजन करनेसे पहले स पा मे दान दे नेक परम आतुरता रखकर वैसा योग मलनेपर यथो-
चत वृ करनी चा हये ।
आहार- वहारका नय मत समय रखना चा हये, तथा स शा के अ यासका और ता वक
थके मननका भी नय मत समय रखना चा हये ।
सायकालमे स याव यक उपयोगपूवक करना चा हये।
चौ वहार या यान करना चा हये ।
नय मत न ा लेनी चा हये ।।
सोनसे पहले अठारह पाप थान, ादशवतदोष और सव जीवोसे मा मांगकर, पचपरमे ी म -
का मरण करके महा शा तसे समा धभावसे शयन करना चा हये।
ये सामा य नयम ब त लाभदायक होगे। ये तु हे स ेपमे कहे है । सू म वचारसे और तदनुसार
वतन करनेस ये वशेष मंगलदायक होगे।
श ापाठ ५६ मापना
हे भगवन् । म ब त भूल गया, मने आपके अमू य वचनोको यानमे लया नही । आपके कहे ए
अनुपम त वांका मेने वचार कया नही । आपके णीत कये ए उ म शीलका सेवन कया नह ।
आपको कही ई दया, शा त, मा और प व ताको मने पहचाना नही । हे भगवन् । मै भूला, भटका,
धूमा- फरा और अनत ससारक वडबनामे पड़ा ँ। म पापी ँ। मै ब त मदो म और कमरजसे म लन
ँ। हे परमा मन् | आपके कहे ए त व के बना मेरा मो नह । म नरतर पचमे पडा ँ। अ ानसे
अध आ , ँ मुझमे ववेकश नह है और मै मूढ , ँ म नरा त ँ, अनाथ ँ । नीरागी परमा मन् ।
म अब आपक , आपके धमक और आपके मु नयोक शरण लेता ँ। मेरे अपराधोका य होकर मै उन सब
पापोसे मु होऊँ यह मेरी अ भलाषा है। पूवकृत पापोका म अब प ा ाप करता ँ। यो- यो मै सू म

े ँ ो ो े े े े े ी ी
वचारसे गहरा उतरता ँ यो यो आपके त व के चम कार मेरे व पका काश करते ह । आप नीरागी,
न वकारी, स चदानद व प, सहजानंद , अनत ानी, अनतदश और ैलो य काशक ह । म मा अपने
हतके लये आपक सा ीमे मा चाहता ँ। एक पल भी आपके कहे ए त वोक शका न हो, आपके
बताये ए मागमे अहोरा म र , ं यही मेरी आका ा और वृ हो । हे सव भगवन् । आपसे मै वशेष
या क ँ ? आपसे कुछ अ ात नह है । मा प ा ापसे मै कमज य पापक मा चाहता ँ।
___ॐ शा त. शा त शा त.।
श ापाठ ५७ : वैरा य धमका व प है
एक व खूनसे रगा गया । उसे य द खूनसे धोय तो वह धोया नह जा सकता, परतु अ धक
रगा जाता है। य द पानीसे उस व को धोय तो वह म लनता र होना सभव है । इस ातसे आ मा-
का वचार करे । आ मा अना दकालसे ससार प खूनसे म लन आ है। यह म लनता रोम-रोममे ात
हो गई है । इस म लनताको हम वषयशृगारसे र करना चाहे तो यह र नह हो सकती। खूनसे जैसे
खून नह धोया जाता, वेसे शृगारसे वषयज य आ म-म लनता र होनेवाली नही हे यह मानो न त
ही है। अनेक धममत इस जगतमे च लत ह, उनके सवधमे अप पातसे वचार करते ए पहले इतना
वचार करना आव यक हे क, जहाँ याँ भोगनेका उपदे श कया हो, ल मी-लीलाक श ा द

१०२
ीमद् राजच
हो, रग, राग, मौज-शौक और ऐशो-आराम करनेका त व बताया हो वहाँसे अपने आ माको सत्-शा त
नह है। कारण क इसे धममत माना जाये तो सारा ससार धममतयु ही है। येक गृह थका घर
इसी योजनासे भरपूर होता है। बाल-ब चे, ी, राग-रग, गान-तान वहाँ जमा रहता है, और उस घर-
को धम-म दर कहे तो फर अधम- थान कौन-सा ? और फर जैसे हम वरताव करते है वैसे बरताव
करनेसे बुरा भी या? य द कोई यो कहे क उस धम-म दरमे तो भुक भ हो सकती है तो उनके लये
खेदपूवक इतना ही उ र दे ना है क वे परमा मत व और उसक वैरा यमय भ को जानते नह ह।
चाहे जो हो पर तु हमे अपने मूल वचारपर आना चा हये। त व ानक से आ मा ससारमे वपया-
दक म लनतासे पयटन करता है । उस म लनताका य वशु भावजलसे होना चा हये । अहतके कहे
ए त व पी सावुन और वैरा य पी जलसे उ म आचार प प थरपर रखकर आ मव को धोनेवाला
न थ गु हे । इसमे य द वैरा यजल न हो तो सभी साधन कुछ नही कर सकते, इस लये वैरा यको धम-
का व प कहा जा सकता है। य द अहत णीत त व वैरा यका ही बोध दे ते ह तो वही धमका व प
है ऐसा समझना चा हये।
श ापाठ ५८ धमके मतभेद--भाग १
इस जगतीतलपर अनेक कारके धममत व मान है। ऐसे मतभेद अना दकालसे है, यह याय-
स है। पर तु ये मतभेद कुछ-कुछ पा त रत होते रहते है। इस स ब धमे कुछ वचार कर।
कतने मतभेद पर पर मलते ए और कतने पर पर व ह, कतने ही मतभेद केवल ना तको
ारा फैलाये ए भी ह। कतने सामा य नी तको धम कहते ह । कतने ानको ही धम कहते ह। कतने
अ ानको धममत कहते है । कतने भ को कहते है, कतने याको कहते है, कतने वनयको कहते है
और कतने शरीरक र ा करना इसे धममत कहते ह।
इन धममत थापकोने ऐसा उपदे श कया मालूम होता है क हम जो कहते ह वह सव वाणी प
और स य है, बाक के सभी मत अस य और कुतकवाद है, इस लये उन मतवा दयोने पर पर यो य या
अयो य खडन कया है । वेदा तके उपदे शक यही उपदे श दे ते ह, सा यका भी यही उपदे श है, बु का भी
यही उपदे श है, याय-मतवालोका भी यही उपदे श है, वैशे षकोका यही उपदे श है, श पथीका यही उपदे श
है, वै णवा दकका यही उपदे श है, इ लामका यही उपदे श है, और ईसा मसीहका यही उपदे श है क यह
हमारा कथन आपको सव स दे गा। तब हमे अव या वचार करना ?
वाद तवाद दोनो स चे नह होते और दोनो झूठे भी नह होते। व त आ तो वाद कुछ
अ धक स चा और तवाद कुछ कम झूठा होता है। दोनोक वात सवथा झूठ नह होनी चा हये ।
ऐसा वचार करने पर तो एक धममत स चा ठहरता है और बाक के झूठे ठहरते है।
ज ासु-यह एक आ यकारक बात है । सबको अस य और सबको स य कसे कहा जा सकता
है ? य द सबको अस य कहे तो हम ना तक ठहरते है और धमक स चाई जाती रहती है। यह तो
न त है क धमक स चाई है, और सृ पर उसक आव यकता है । एक धममत स य और बाक के
सब अस य ऐसा कहे तो इस बातको स करके बतलाना चा हये। सबको स य कहे तो फर यह
बालूक भीत ई, यो क फर इतने सारे मतभेद कस लये हो ? सब एक ही कारके मत था पत
करनेका य न कस लये न कर? इस तरह अ यो यके वरोधाभासके वचारसे थोड़ी दे र कना
पडता है।
१ तीयावृ मे यह पाठ वयोप है-'अथवा तवाद कुछ अ धक स चा और वाद कुछ कम झूठा होता है।'

१७वा वष
१०३
तो भी त संबधी यथाम त म कुछ प ता करता ँ। यह प ता स य और म य थ-भावनाको
है, एका तक या मता ही नह है, प पाती या अ ववेक नही है, पर तु उ म और वचार करने यो य
है। दे खनेमे यह सामा य लगेगी, पर तु सू म वचारसे ब त ममवाली लगेगी।

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श ापाठ ५९ धमके मतभेद-भाग २
इतना तो तु हे प मानना चा हये क कोई भी एक धम इस सृ पर संपूण स यता रखता
है। अब एक दशनको स य कहते ए बाक के धममतोको सवथा अस य कहना पड़े, पर तु म ऐसा नही
कह सकता। शु आ म ानदाता न यनयसे तो वे अस य प स होते है, पर तु वहारनयसे वे
अस य नही कहे जा सकते । एक स य और बाक के अपूण और सदोष है ऐसा म कहता ँ। तथा कतने
ही कुतकवाद और ना तक है वे सवथा अस य है, पर तु जो परलोकसंबधी या पापसबधी कुछ भी
बोध या भय बताते ह उस कारके धममतोको अपूण और सदोष कहा जा सकता है। एक दशन जसे
नद ष और पूण कहनेका है उसक बात अभी एक ओर रखे ।
अब तु हे शंका होगी क सदोष और अपूण कथनका उपदे श उसके वतकने कस लये दया
होगा? उसका समाधान होना चा हये। उन धममतवालोको जहाँ तक बु क ग त प ँची वहाँ तक
उ होने वचार कये । अनुमान, तक और उपमा आ दके आधारसे उ हे जो कथन स तीत आ वह
य पसे मानो स है ऐसा उ होने बताया । जो प लया उसमे मु प एका तकवाद लया, भ ,
व ास, नी त, ान या या इनमेसे एक वषयका वशेष वणन कया, इससे सरे मानने यो य
वषयोको उ होने षत कर दया। फर जन वपयोका उ होने वणन कया वे सव भावभेदसे उ होने
कुछ जाने नही थे, फर भी अपनी महाबु के अनुसार उनका ब त वणन कया । ता कक स ात तथा
ात आ दसे मामा य बु वालो या जडभरतोके आगे उ होने स कर बताया। क त, लोक हत या
भगवान मनवानेक आका ा इनमेसे एकाध भी उनके मनका म होनेसे अ यु न उ मा दसे वे वजयको
ा त ए । कतनोने शृगार और लहरी' साधनोसे मनु योक मन जीत लये । नया मो हनीमे तो मूलत.
डू वी पड़ी है, इस लये ऐसे लहरी दशनसे भे डयाधसान प होकर उ होने स होकर उनका कहना
मा य रखा। कतनोने नी त तथा कुछ वैरा य आ द गुण दे खकर उस कथनको मा य रखा । वतकक
बु उनक अपे ा वशेष होनेसे उसे फर भगवान प ही मान लया। कतनोने वैरा यसे धममत फैला-
कर पीछे से कुछ सुखशील सावनोका बोध घुसेड़ दया। अपने मतका थापन करनेके महान मसे और
अपनी अपूणता इ या द चाहे जस कारणसे सरेका कहा आ वयको न चा इस लये उसने अलग
ही माग नकाला । इस कार अनेक मतमतातरोका जाल फैलता गया। चार-पाँच पी ढयो तक एकका
एक धमका पालन आ इस लये फर वह कुलधम हो गया। इस कार थान- थानपर होता गया ।
श ापाठ ६० : धमके मतभेद--भाग ३
य द एक दशन पूण और स य न हो तो सरे धममतोको अपूण और अस य कसी माणसे नही
कहा जा सकता, इस लये जो एक दशन पूण और स य है उसके त व माणसे सरे मतोक अपूणता और
एका तकता दे खे।
इन सरे धममतोमे त व ानसवधी यथाथ सू म वचार नह है। कतने ही जग कताका उपदे श
करते ह, पर तु जग कता माणसे स नह हो सकता। कतने ानसे मो है ऐसा कहते ह वे एका तक
है, इसी कार कयासे मो हे, ऐसा कहनेवाले भी एका तक है। ान और या इन दोनोसे मो
१ ० आ० पाठा० लोके छत ।

१०४
ीमद् राजच
कहनेवाले उसके यथाथ व पको नह जानते और वे इन दोनोके भेदको े णब नह कह सके, इसीसे
उनक सव ताक कमी स होती है। स े वत वमे कहे ए अठारह पणोसे वे धममत थापक र हत नह
थे ऐसा उनके रचे ए च र ोसे भी त वको से दखायी दे ता है। कतने ही मतोमे हसा, अ चय
इ या द अप व वपयोका उपदे श है वे तो सहज ही अपूण और सरागी ारा था पत दखायी दे ते है।
इनमेसे कसीने सव ापक मो , कसीने शू य प मो , कसीने साकार मो , कसीने अमुक काल तक
रहकर प तत होने प मो माना है, पर तु इनमेसे उनक कोई भी बात स माण नही हो सकती।
"उनके अपूण वचारोका खडन व तुत दे खने जैसा हे और वह न ंथ आचाय के रचे हए शा ोमे
मल सकेगा।
वेदके अ त र सरे मतोके वतक, उनके च र , वचार इ या द पढनेसे वे अपूण है ऐसा मालूम
हो जाता है। "वेदने वतकोको भ - भ करके बेधडकतासे वातको मममे डालकर गभीर डील भी
कया है। फर भी उसके पु कल मतोको पढनेसे यह भी अपूण और एका तक मालम हो जायेगा।'
जस पूण दशनके वपयमे यहाँ कहना है वह जैन अथात् नीरागीके थापन कये ए दशनके
वपयमे है । इसके बोधदाता मव और सवदश थे । कालभेद है तो भी यह बात सै ा तक तीत होती
है। दया, चय, शील, ववेक, वैरा य, ान, या आ दका इनके जैसा पूण वणन एकने भी नह
कया है। उसके साथ शु आ म ान, उसक को टयाँ, जीवके यवन, ज म, ग त, वग त, यो न ार,
दे श, काल और उनके व पके वपयमे ऐसा सू म बोध है क जससे उनक सव ताक नशंकता होती
हे । कालभेदसे पर परा नायसे केवल ाना द ान दे खनेमे नही आते, फर भी जो जो जने रके रहे ए
सै ा तक वचन ह वे अखड है। उनके क तपय स ात ऐसे सू म ह क जनमेसे एक एकका वचार करते
ए सारी जदगी बीत जाये ऐसा है । आगे इस सवधमे ब त कुछ कहना है।
जने रके कहे ए धमत वोसे कसी भी ाणीको लेशमा खेद उ प नह होता। पव
आ माओको र ा और सवा मश का वाश इसम न हत है । इन भेदोको पढनेस, े समझनेसे और इन
पर अ त अ त सू म वचार करनेसे आ मश काश पाकर जैनदशनक सव ताके लये, सव कृ ता-
के लये हाँ कहलवाती है। ब त मननपूवक सभी धममतोको जानकर फर तुलना करनेवालेको यह कथन
अव य स य स होगा।

े ो औ े ो े ो े े ँ े े ी
इस सव दशनके मूल त वो और सरे मतोके मूल त वोके वषयमे यहाँ वशेष कह सकने जतनी
जगह नह है।
श ापाठ ६१ सुखसंबधी वचार--भाग १ .
एक ा ण द र ाव थासे ब त पी डत था। उसने तग आकर आ खर दे वक उपासना करके
ल मी ा त करनेका न य कया। वय व ान होनेसे उसने उपासना करनेसे पहले वचार कया क
कदा चत् कोई दे व तो सतु होगा, पर तु फर उससे कौन-सा सुख मांगना ? तप करनेके बाद मांगनेमे
कुछ सूझे नही, अथवा यूना धक सूझे तो कया आ तप भी नरथक हो जाये, इस लये एक बार सारे
दे शमे वास क ं । ससारके महापु पोके धाम, वैभव और सुख दे ख । ऐसा न य करके वह वासमे
नकल पडा। भारतके जो जो रमणीय और ऋ मान शहर थे वे दे खे । यु - यु से राजा धराजोके
अ त.पुर सुख और वैभव दे खे । ीमानोके आवास, कारोबार, बाग-बगीचे और कुटु ब प रवार दे ख,

० मा० पाठा०-१ 'उनके वचारोक पूणता न पही त ववे ामोने बतायी है उसे यथा थत जानना
यो य है।' २ 'वतमानम जो वेद है वे ब त ाचीन य ह, इस लये उस. मतक ाचीनता है। परतु वे भी
हसाके कारण पत होनेसे अपूण है, और सरागी के वा य है, ऐसा प तीत होता है।'

१७वा वष
१०५
पर तु इससे उनका मन कसी तरह माना नही । कसीको ोका .ख, कसीको प तका ख, कसीको
अ ानसे .ख, कसीको यजनोके वयोगका ख, कसीको नधनताका .ख, कसीको ल मीक
उपा धका ख, कसीको शरीरसबधी ख, कसीको पु का ःख, कसोको श ुका ख, कसीको
जडताका ख, कसीको माँ-बापका ख, कसीको वैध ख, कसीको कुटु बका .ख, कसीको अपने
नीच कूलका ख, कसीको ी तका ख, कसीको ई याका ख, कसीको हा नका ख, इस कार
एक, दो, अ धक अथवा सभी ख थान थानपर उस ा णके दे खनेमे आये । इससे उसका मन कसी
थानमे नही माना, जहाँ दे खे वहाँ ख तो था ही। कसी भी थानमे सपूण सुख उसके दे खनेमे नही
आया । अब फर या माँगना ? यो वचार करते-करते एक महाधना को शसा सुनकर वह ा रकामे
आया । ा रका महाऋ स प , वैभवयु , वागबगीचोसे सुशो भत और ब तीसे भरपूर शहर उसे
लगा । सु दर एव भ आवासोको दे खता आ और पूछता-पूछता वह उस महाधना के घर गया।
ीमान् द वानखानेमे बैठा आ था। उसने अ त थ जानकर ा णका स मान कया, कुशलता पूछ
और उसके लय भोजनको व था करवाई | थोडी दे रके बाद सेठने धीरजसे ा णको पूछा, "आपके
आगमनका कारण य द मुझे कहने यो य हो तो क हये ।" ा णने कहा, "अभी आप मा क जये । पहले
आपको अपने सभी कारके वैभव, धाम, बागबगीचे इ या द मुझे दखाने पडगे, उ हे दे खनेके बाद मै
अपने आगमनका कारण क ँगा।" सेठने इसका कुछ मम प कारण जानकर कहा, "भले आनदपूवक
अपनी इ छाके अनुसार क रये।" भोजनके बाद ा णने सेठको वय साथ चलकर धामा दक बतानेके
लये वनती क । धना ने उसे मा य रखा, और वय साथ जाकर बागबगीचा, धाम, वैभव यह सब
दखाया । सेठक ी, पु भी वहाँ ा णके दे खनेमे आये । उ होने यो यतापूवक उस ा णका स कार
कया । उनके प, वनय व छता तथा मधुरवाणीसे ा ण स आ। फर उसक कानका कारो-
बार दे खा । सौ एक का रदे वहाँ बैठे ए दे खे। वे भी मायालु, वनयी और न उस ा णके दे खनेमे
आये । इससे वह ब त सतु आ। उसके मनको यहाँ कुछ सतोष आ। सुखी तो जगतमे यही मालूम
होता है ऐसा उसे लगा।
श ापाठ ६२ : सुखस ब धी वचार-भाग २
कैसे सु दर इसके भवन ह। इनक व छता और सभाल कैसो सु दर है।- कैसी सयानी और
मनो ा इसक सुशील ी है। इसके कैसे का तमान और आ ाकारी पु है। कैसा मेलजोलवाला
इसका कुटु ब ह । ल मीको कृपा भी इसके यहाँ कैसी है।। सारे भारतमे इसके जैसा सरा कोई सुखी
नही है। अब तप करके य द म माँगू तो इस महाधना जैसा ही सब माँग,ू सरी चाह न क ं ।
दन बीत गया और रा ई। सोनेका वक आ ।' धना और ा ण एकातमे बैठे थे, फर
धना ने व से आगमनका कारण कहनेक वनती क ।
व -मै घरसे ऐसा वचार करके नकला था क सबसे अ धक सुखी कौन है यह दे ख और
तप करके फर उस जैसा सुख ा त क ं । सारा भारत और उसके सभी रमणीय थल दे ख, े पर तु
कसी राजा धराजके वहाँ भी स पूण सुख मेरे दे खनेमे नही आया । जहाँ दे खा वहाँ आ ध, ा ध और
उपा ध दे खनेमे आई । इस ओर आने पर आपक शसा सुनी, इस लये मै यहाँ आया, और स तोष भी
पाया। आपके जैसी ऋ , स पु , कमाई, ी, कुटु ब, घर आ द मेरे दे खनेमे कही भी नह आये।
आप वय भी धमशील, स णी और जने रके उ म उपासक है। इससे म ऐसा मानता ँ क आपके
जैसा सुख अ य नह है। भारतमे आप वशेप सुखी ह। उपासना करके कदा चत् दे वसे मांग तो
आपके जैसी सुख थ त माँग ।
१०६
ीमद् राजच
धना -प डतजी, आप एक बडे ममभरे वचारसे नकले ह, इस लये म अव य आपसे अपने
अनुभवक बात यो क यो कहता , ँ फर आपक जैसी इ छा हो वैसा कर। मेरे यहाँ आपने जो-जो
सुख दे खे वे वे सुख भारत भरमे कही भी नही ह यह आपने कहा, तो वैसा होगा, पर तु सचमुच यह
मुझे स भव नह लगता । मेरा स ा त ऐसा है क जगतमे कसी थानमे वा त वक सुख नह है।
जगत खसे जल रहा है । आप मुझे सुखी दे खते है पर तु व तुत मै सुखी नही ह।
व -आपका यह कहना कोई अनुभव- स और मा मक होगा। मने अनेक शा दे खे है, फर
भी ऐसे ममपूवक वचार यानमे लेनेका मैने प र म ही नही उठाया और मुझे ऐसा अनुभव सबके लये
नही आ । अव आपको या ख है, वह मुझसे क हये।
___ धना -प डतजी, आपक इ छा है तो म कहता , ँ वह यानपूवक मनन करने यो य है,
और इस पर से कोई मागदशन मल सकता है।
श ापाठ ६३ सुखस ब धी वचार--भाग ३
आप अभी मेरी जैसी थ त दे खते ह वैसी थ त ल मी, कुटु ब और ीके स ब धमे पहले
भी थी। जस समयक मै बात कर रहा , ँ उस समयको लगभग बीस वष हो गये । ापार और
वैभवक ब लता यह सब कारोबार उलटा पडनेसे घटने लगी। करोडप त कहलानेवाला मै लगातार
घाटे का भार वहन करनेसे मा तीन वषमे ल मीहीन हो गया । जहाँ सवथा सीधा समझकर दाव लगाया
था वहाँ उलटा दाव पडा। उस अरसेमे मेरो ी भी गुजर गई। उस समय मेरे कोई स तान न थी।
बल हा नयोके कारण मुझे यहाँसे नकल जाना पड़ा। मेरे कुटु बयोने यथाश र ा क , पर तु वह
आकाश फटनेपर थगली लगाना था । अ और दाँतमे वैर होनेक थ तमे मै ब त आगे नकल पड़ा।
जब मै वहाँसे नकला तब मेरे कुटु बी मुझे रोककर कहने लगे-"तूने गाँवका दरवाजा भी नह दे खा,
इस लये तुझे जाने नही दया जा सकता। तेरा कोमल शरीर कुछ भी कर नही सकेगा, और तू वहाँ
जाये और सुखी हो जाये तो फर वापस भी नही आयेगा, इस लये यह वचार तुझे छोड दे ना चा हये ।"
मने अनेक कारसे उ हे समझाया और य द म अ छ थ त ा त क ं गा तो यहाँ अव य आऊँगा
ऐसा वचन दे कर म जावाब दरके पयटनमे नकल पडा।
ार ध पलटनेक तैयारी ई । दै वयोगसे मेरे पास एक दमडी भी रही न थी। एक या दो महीने
उदरपोपण चलाने जतना साधन भी रहा न था। फर भी मै जावामे गया। वहाँ मेरी बु ने मेरे
ार धको चमकाया जस जहाजमे म बैठा था उस जहाजके ना वकने मेरी चपलता और न ता दे ख-
कर अपने सेठसे मेरे खको बात क । उस सेठने मुझे बुलाकर एक काममे लगा दया, जसमे म अपने
पोपणसे चौगुना पैदा करता था । इस ापारमे मेरा च जब थर हो गया तब भारतके साथ इस
ापारको बढानेका मने य न कया और उसमे सफल आ। दो वषमे पाँच लाख जतनी कमाई ई।
फर सेठसे राजी-खुशीसे आ ा लेकर मै कुछ माल खरीदकर ा रकाक ओर चल दया । थोडे समयमे
वहाँ आ प ंचा, तब बहतसे लोग मेरा वागत करने आये थे। म अपने कुटु बयोसे आन दपूवक जाकर
मला । वे मेरे भा यक शसा करने लगे । जावेमे लये ए मालने मुझे एकके पाँच कराये । प डतजी ।
वहाँ अनेक कारसे मुझे पाप करने पड़े थे, पेटभर खानेको भी मुझे नही मला था, पर तु एक वार ल मी
स करनेक जो मने त ा क थी वह ार धयोगसे पूण ई । जस .खदायक थ तमे म था
उसमे खक या कमी थी? ी, पु ये तो य प थे ही नही, मां-बाप पहलेसे परलोक सधार गये
थे। कुटु बयोके वयोगसे और वना दमडीके जस समय म जावा गया था उस समयक थ त अ ान-
से आँखोमे आँसू ला दे ती है। ऐसे समयमे भी मने धममे यान रखा था, दनका अमुक भाग उसमे

१७व वष
१०७
लगाता था, वह ल मी या ऐसी कसी लालचसे नह , पर तु यह मानकर क यह ससार ःखसे पार करने-
वाला साधन है । मौतका भय णभर भी र नह है, इस लये यथास भव यह कत कर लेना चा हये,
यह मेरी मु य नी त थी। राचारसे कोई सुख नह है, मनक तृ त नह है, और आ माक म लनता
है। इस त वक ओर मने अपना यान लगाया था।
श ापाठ ६४: सुखस ब धी वचार--भाग ४
यहाँ आनेके बाद मने अ छे घरक क या ा त क । वह भी सुल णी और मयादाशील नकली।
उससे मेरे तीन पु ए। कारोबार बल होनेसे और पैसा पैसेको खीचता है इस यायसे म दस वषमे
महान करोडप त हो गया। पु ोक नी त, वचार और बु को उ म रखनेके लये मैने ब त सु दर
साधनोक व था क , जससे वे इस थ तको ा त ए है। अपने कुटु बयोको यथायो य थानोमे
लगाकर उनक थ तको सुधारा । कानके मैने अमुक नयम बनाये । उ म मकान बनवानेका आर भ
कर दया। यह मा एक मम वके लये कया । गया आ फर ा त कया, और कुल परपराक स -
को जानेसे रोका, ऐसा कहलवानेके लये मैने यह सब कया । इसे म सुख नह मानता । य प म सरोक
अपे ा सुखी ँ, तो भी यह सातावेदनीय है, स सुख नही है। जगतमे ब धा असातावेदनीय है। मैने धम-
मे अपना समय बताने का नयम रखा है । स शा ोका वाचन, मनन, स पु षोका समागम, यम नयम,
एक मासमे बारह दन चय, यथाश गु तदान, इ या द धममे अपना समय बताता ँ। सव व-
हारसबधी उपा धयोमेसे कतना ही भाग मैने अ धकतर छोड दया है। पु ोको वहारमे यथायो य
बनाकर मै न ंथ होनेक इ छा रखता ँ। अभी न ंथ हो सकू ऐसी थ त नही है, इसमे ससारमो हनी
या ऐसा कोई कारण नह है, पर तु वह भी धमसबधी कारण है। गृह थधमके आचरण ब त नकृ हो
े औ े े ो े ो े ै े ी
गये ह, और मु न उ हे सुधार नह सकते। गृह थ गृह थको वशेष बोध दे सकता है, आचरणसे भी
असर डाल सकता है। इसी लये म गृह थवगको ाय धमसबधो बोध दे कर यम नयममे लगाता ँ। त
स ताह अपने यहाँ लगभग पाँचसी स ह थोक सभा होती है। उ हे आठ दनके नये अनुभव और
वाक के पछले धमानुभवका दो-तीन मु ं तक बोध दे ता ँ । मेरो ी धमशा क कुछ जानकार होने-
से वह भी ीवगको उ म यम नयमका बोध दे कर सा ता हक सभा करती है। पु भी शा ोका यथा-
श प रचय रखते है। व ानोका स मान, अ त थका स मान, वनय और सामा य स यता, एक ही
भाव-ऐसे नयम ब धा मेरे अनुचर भी पालते है । इस लये ये सब साता भोग सकते है । ल मीके साथ-
साथ मेरी नी त, धम, स ण और वनयने जनसमुदायपर ब त अ छा असर कया है। राजा तक भी
मेरी नी तक बातको अ कार करे, ऐसी थ त हो गयी है। यह सब मै आ म शसाके लये कहता नह
ँ, यह आप यान रख, मा आपको पूछो ई वातको प ताके लये यह सब स ेपमे कह रहा ँ।
श ापाठ ६५ : सुखसंबंधी वचार-भाग ५
इन सब बातोसे आपको ऐसा लग सकेगा क मै सुखी ँ और सामा य वचारसे आप मुझे ब त
सुखी मान तो माना जा सकता है। धम, शील और नी तसे तथा शा ावधानसे मुझे जो आन द ा त
होता है वह अवणनीय है । पर तु त व से मै सुखो न माना जाऊँ। जब तक मैने बा और अ य तर
प र हका सब कारसे याग नह कया तब तक रागदोषका भाव है। य प वह ब त अंशमे नही है,
परतु है सही, तो वहां उपा ध भो हे। सवंसगप र याग करनेको मेरी स पूण आका ा है, पर तु जब तक
ऐसा नह आ हे तब तक अभी कसो माने गये यजनका वयोग, वहारमे हा न और कुटु बीका
.ख ये थोडे अशमे भी उपा ध दे सकते है। अपनो दे हमे मौतके सवाय भी नाना कारके रोगोका

१०८
ीमद राजच
होना मभव है। इस लये जब तक सवथा न ंथ वा ा य तर प र हका याग, अ पारंभका याग यह सब
नही आ तब तक म अपनेक मवथा सुखी नही मानता। अब आपको त व से वचार करनेपर
मालूम होगा क ल मी, ी, पु या कुटु बसे मुख नह है, और इसे य द सुख मान तो जब मेरी
थ त प तत ई थी तब यह सुख कहाँ गया था? जसका वयोग है, जो णभगुर है और जसम
एक व या अ ाबाध व नह है वह मुख स पूण नही है । इस लये मै अपनेको सुखी नह कह
सकता । म ब त वचार वचारकर ापार कारोबार करता था, तो भी मुझे आर भोपा ध,
अनी त और लेश भी कपटका सेवन करना नह पड़ा, ऐसा तो है हो नह । अनेक कारके
आर भ और कपटका मुझे सेवन करना पड़ा था। आप य द मानते हो क दे वोपासनासे ल मी
ा त करना, तो वह य द पु य न हो तो कदा प मलनेवाली नह है। पु पसे ल मी ा त करके
महारभ, कपट और मान इ या द बढाना ये महापापके कारण है, पाप नरकमे डालता है। पापसे आ मा,
ाम क ई महान मनु यदे हको थ गवॉ दे ता है। एक तो मानो पु यको खा जाना, और फर पापका
वध करना, ल मीक और उसके ारा सारे ससारको उपा ध भोगना, यह बात ववेक आ माको मा य
नही होगी ऐसा मै मानता ँ। मने जस कारणसे ल मीका उपाजन कया था, वह कारण मने पहले
आपको बताया था । जैसी आपक इ छा हो वैसा कर। आप व ान है, म व ानको चाहता ँ। आपक
अ भलाषा हो तो धम यानमे स होकर सहकुटु ब यहाँ भले रहे । आपक आजी वकाक सरल
योजना जैसे कहे वैसे म चपूवक करा ँ। यहाँ शा ा ययन और स तुका उपदे श कर। म या-
रभोपा धक लोलुपतामे, मै समझता ँ क न पडे, फर आपक जैसी इ छा।
पं डत-आपने अपने अनुभवक ब त मनन करने जैसी आ या यका कही। आप अव य कोई
महा मा है, पु यानुवधी पु यवान जीव ह, ववेक है, आपको श अ त है। म द र तासे तग आकर
जो इ छा रखता था वह एका तक थी। ऐसे सव कारके ववेक वचार मैने कये नह थे। ऐसा
अनुभव, ऐसो ववेकश , मै चाहे जैसा व ान ह फर भी मुझमे है ही नह । यह मै स य ही कहता
ँ। आपने मेरे लये जो योजना बताई है उसके लये आपका ब त उपकार मानता ँ, और न तापूवक
उसे अगीकार करनेके लये म हष कट करता ँ। मै उपा धको नह चाहता। ल मीका फदा उपा ध
ही दे ता है। आपका अनुभव स कथन मुझे ब त अ छा लगा है। ससार जलता ही है, इसमे सुख नही
है। आपने न पा धक मु नसुखक शसा क वह स य है। वह स माग प रणाममे सव पा ध, आ ध,
ा ध और सव अ ानभावसे र हत ऐसे शा त मो का हेतु है।
श ापाठ ६६ सुखसंबंधी वचार-भाग ६
धनाढय-आपको मेरी बात अ छ लगी इससे मुझे नर भमानपूवक आन द होता है। आपके
लये म यो य योजना क ं गा। मै अपने सामा य वचार कथानु प यहाँ कहनेक आ ा चाहा ँ।
जो केवल ल मीको उपाजन करनेमे कपट, लोभ और मायामे उलझ पड़े है वे ब त खी है।
वे उसका पूरा या अधूरा उपयोग नह कर सकते, मा उपा ध ही भोगते है । वे अस यात पाप करते है।
उ हे काल अचानक उठा ले जाता है । अधोग तको पाकर वे जीव अनत ससारको वृ करते ह। ा त
मनु यदे हको वे नमू य कर डालते है, जससे वे नरतर .सी ही है।
जसने अपनी आजी वका जतने ही साधन अ पारभसे रखे है, शु एकपलीनत सदोष परा मा-
क र ा, यम, नयम, परोपकार, अ पराग, अ प माया और स य तथा शा वा ययन रखे है, जो
म पु षोक सेवा करता है, जसने नगथताका मनोरथ रखा है, जो ब त कारसे नहा रस पक जेसा
है, जसके वैरा य और ववेक उ कृ है, वह प व तामे सुखपूवक काल नगमन करताह
१७वां वष
१०९
जो सव कारके आरभ और प र हसे र हत ए ह, से, े से, कालसे और भावसे जो
अ तवध पसे वचरते है, श - ु म के त जो समान वाले है और शु आ म- यानमे जनका समय
तीत होता है, अथवा वा याय एव यानमे जो लीन है, ऐसे जते य और जतकषाय न ंथ परम
सुखी है।
सव घनघाती कम का ज होने य कया है, जनके चार कम बल पड गये ह, जो मु है, जो
अनत ानी और अनतदश ह, वे तो स पूण सुखी ही है। वे मो मे अनत जीवनके अनत सुखमे सव
कम वर तासे वराजते ह।
इस कार स पु षो ारा कहा आ मत मुझे मा य है। पहला तो मुझे या य है, सरा अभी
मा य है, और ाय इसे हण करने का मेरा बोध है। तीसरा ब मा य है । और चौथा तो सवमा य
तथा स चदानद व प ही है।
इस कार प डतजी | आपक और मेरी सुखसबधी बातचीत ई। सगोपा इस बातक
चचा करते रहेगे और इसपर वचार करेगे । ये वचार आपको कहने से मुझे ब त आन द आ है। आप
ऐसे वचार के अनुकूल ए इससे तो आनदमे और वृ ई है । पर पर यो बातचीत करते करते हषके
साथ वे समा धभावसे शयन कर गये।
जो ववेक यह सुखस ब धी वचार करगे वे ब त त व और आ म े णक उ कृ ताको ा त
करगे। इसमे कहे ए अ पारभी, नरारभी और सवमु के ल ण ल यपूवक मनन करने यो य है।
यथासभव अ पारभी होकर समभावसे जनसमुदायके हतक ओर लगना, परोपकार, दया, शा त, मा
और प व ताका सेवन करना यह ब त सुखदायक है। न ंथताके वषयमे तो वशेष कहनेक ज रत
ही नही है । मु ा मा तो अनतं सुखमय ही है।।
श ापाठ ६७ अमू य त व वचार
(ह रगीत छद)
*ब पु यकेरा पुंजयी शुभ दे ह मानवनो मळयो,
तोये अरे! भवच नो आटो न ह ए के टळयो .. .
सुख ा त करतां सुख टळे छे लेश ए ल े लहो,
ण ण भयंकर भावमरणे का अहो राची रहो? ॥१॥
ल मी अने अ धकार वधतां, शं व यं ते तो कहो?
शुं कुटुं ब के प रवारथी वघवापणु, ए नय हो;
वघवापणुं संसारनु नर दे हने हारी जवो,
एनो वचार नह अहोहो ! एक पळ तमने हवो । !!॥२॥ -
*भावाय-ब त पु यके पुजसे यह शुभ मानवदह मली, तो भी यह खेदक बात है क भवच का एक भी
च कर र नही ना । इसे जरा यानमे लो क सुख ा त करते ए सुख र होता है। यह आ य है क ण-
णम होनेवाले भावमरणम तुम यो खुश हो रहे हो? ॥१॥ .
भला यह तो बताओ क ल मी और अ धकार बडनेसे तु हारा पया बढा' कुटु ब और प रवार बढ़नेसे
तु हारी यया बढ़ती ई इस रह यको समझो । यो क ससारका बढना तो मनु यदे हको हार जाना है। यह
कतना आ य है क तु ह इसका वचार एक णभरको भी नही आ। ! ॥२॥
नद प सुख और नद पानद चाहे जह त भले लो, जससे यह द श मान आ मा बघनसे मु हो।

१०
नद ष सुख नद ष आनद, यो गमे यांथी भले,
ए द श मान जेयो जंजीरेथी नीकळे ;
परव तुमा न ह मंझवो, एनी दया मुजने रही,
ए यागवा स ात के प ा .ख ते सुख नह ॥३॥
ँ कोण छु ? याथी थयो ? शु व प छे मा ख ?
कोना संबंधे वळगणा छे ? राखु के ए परह ?
एना वचार ववेकपूवक शांत भावे जो कया,
तो सव आ मक ानना स ांतत व अनुभ ा ॥४॥
ते ा त करवा वचन कोन स य केवळ मानव ?
नद ष नरनं कथन मानो 'तेह जेणे अनुभ
रे! आ म तारो । आ म तारो। शी एने ओळखो,
सवा ममां सम ो आ वचनने दये लखो ॥५॥
श ापाठ ६८: जते यता
जब तक जीभ वा द भोजन चाहती है, जब तक ना सका सुगध चाहती है, जब तक कान
वारागनाके गायन और वा चाहते है, जब तक आँख वनोपवन दे खनेका ल रखती ह, जब तक वचा
सुग धीलेपन चाहती है, तब तक यह मनु य नीरागी, न ंथ, न प र ही, नरारभी और चारी नह
हो सकता। मनको वश करना यह सव म है। इससे सभी इ याँ वश क जा सकती ह। मनको
जीतना ब त ब त कर है। एक समयमे अस यात योजन चलनेवाला अ यह मन है। इसे थकाना
ब त कर है । इसक ग त चपल और पकडमे न आ सकनेवाली है। महा ा नयोने ान पी लगामसे

े े ै
इसे त भत करके सब पर वजय ा त क है।
उ रा ययनसू मे न मराज मह पने शवे से ऐसा कहा क दस लाख सुभटोको जीतनेवाले कई
पड़े है, पर तु वा माको जीतनेवाले ब त लभ है, और वे दस लाख सुभटोको जीतनेवालोक अपे ा
अ त उ म है।
___ मन ही स पा धक ज मदा ी भू मका है। मन हो बध और मो का कारण है। मन ही सव
ससारक मो हनी प है। यह वश हो जानेपर आ म व पको पाना लेशमा कर नह है।
___ मनसे इ योक लोलुपता है । भोजन, वा , सुग ध, ीका नरी ण, सु दर वलेपन यह सब
मन ही मांगता है। इस मो हनीके कारण यह धमको याद तक नह करने दे ता । याद आनेके बाद साव-
धान नह होने दे ता। सावधान होनेके बाद प तत करनेमे वृ होता है अथात् लग जाता है। इसमे
परव तुम तुम मोह मत करो। परव तुमे तुम मोह कर रहे हो इसक मुझे दया आती है । परव तुके मोहको छोडनेके .
लये इस स ातको यानम रखो क जस व तुके अतमे ख है वह मुख नही है ॥३॥
म कौन है ? कहाँसे आया ँ? मेरा स चा व प या है ? ये सारे लगाव कसके सबघसे है ? इ ह रखू
या छोड़ ं ? य द ववेकपूवक और शातभावसे इन बातोका वचार कया तो आ म ानके सभी स ातत व अनुभव.
आ गये ॥४॥
इसे ा त करनेके लये कसके वचनको सवथा स य मानना? जसने इसका अनुभव कया है उस नद ष
पुरषके कथनको स य मानो । हे भ ो। अपने आ माको तारो | अपने आ माको तारो। उसे शीध पहचानो, और
सभी आ माओम सम रखो, इस वचनको दयम अ कत करो ॥५॥

१७वाँ वष
१११
सफल नह होता तो सावधानीमे कुछ यूनता प ँचाता है। जो इस यूनताको भी न पाकर अ डग रहकर
मनको जीतते ह वे सव स को ा त करते ह।
मन अक मात् कसीसे ही जीता जा सकता है, नह तो अ यास करके ही जीता जाता है । यह
अ यास न ंथतामे ब त हो सकता है, फर भी गृह था ममे हम सामा य प रचय करना चाहे तो
उसका मु य माग यह है क यह जो र छा करे उसे भूल जाय, वैसा न कर। यह जब श द, पश
आ द वलासक इ छा करे तब इसे न द। स ेपमे, हम इससे े रत न हो, पर तु हम इसे े रत करे
और वह भी मो मागमे । जते यताके वना सव कारक उपा ध खडी ही रहती है । यागने पर भी
न यागने जैसा हो जाता है, लोक-ल जासे उसे नभाना पड़ता है। इस लये अ यास करके भो मनको
जीतकर वाधीनतामे लाकर अव य आ म हत करना च हाये।
श ापाठ ६९ · चयको नौ बाड़
ा नयोने थोडे श दोमे कैसे भेद और कैसा व प बताया है ? इससे कतनी अ धक आ मो त
होती है ? चय जैसे गभीर वषयका व प स ेपमे अ त चम कारी ढगसे दया है। चय पी
एक सु दर वृ और उसक र ा करनेवाली जो नौ व धयाँ ह उसे बाडका प दे कर ऐसी सरलता कर
द है क आचारके पालनमे वशेष मृ त रह सके । ये नौ बा. जैसी ह वैसी, यहाँ कह जाता ँ।
१. वस त-जो चारी साधु है वह जहाँ ी, पशू या प डग से सयु वस त हो वहाँ न रहे।
ी दो कारक ह - मनु यणी और दे वागना । इस येकके फर दो-दो भेद है एक तो मूल और
सरी ीको मू त या च । इस कारका जहाँ वास हो वहां चारी साधु न रहे। पशु अथात्
तय चणी गाय, भस इ या द जस थान हो उस थानमे न रहे, और जहाँ प डग अथात् नपुसकका
वास हो वहाँ भी न रहे। इस कारका वास चयको हा न करता है। उनक कामचे ा, हावभाव
इ या दक वकार मनको करते है।
२ कथा-केवल अकेली योको ही या एक ही ीको चारी धम पदे श न करे। कथा
मोहक जननी है । ीके पस ब धी थ, काम वलासस ब धी अ य चारी न पढे , या जससे च
च लत हो ऐसी कसी भी कारको शृ ारस ब धी कथा चारी न करे। -
३ आसन- य के साथ एक आसनपर न बैठे । जहाँ ी बैठ हो वहाँ दो घडी तक चारी
न बैठे। यह योको मृ तका कारण है, इससे वकारको उ प होती है, ऐसा भगवानने कहा है।
४ इ य नरी ण- चारी साधु य के अगोपाग न दे खे, उनके अमुक अंगपर एका
होनेसे वकारको उ प होती है।
- ५ कु ांतर-भीत, कनात अथवा टाटका वधान बोचमे हो और जहां ी-पु ष मैथुन करते
हो वहाँ चारी न रहे । यो क श द चे ा दक वकारके कारण ह।
६. पूवक ड़ा- वय गृह यावासमे चाहे जस कारके शृगारसे वषय डा क हो उसक मृ त
न करे, वैसा करनेसे चयका भग होता है।
७. णोत- ध, दही, घृता द मधुर और चकने पदाथ का ब धा आहार न करे। इससे
वीयको वृ और उ माद होते ह और उससे कामको उ प होती है। इस लये चारी वैमा न करे।
८ अ तमा ाहार-पेट भरकर आहार न करे तथा जससे अ त मा ाक उ प हो ऐसा न
करे । इससे भी वकार बढता है।
९ वभूषण- नान, वलेपन, पु प आ दको चारी हण न करे। इससे चयको हा न
होती है।

११२


ीमद राजच
- इस कार भगवानने नौ बा. वशु चयके लये कही ह। ब वा ये तु हारे सुननेमे आयी.
होगी। पर तु गृह थाबासमे अमुक अमुक दन चय धारण करनेमे अ या सयोके यानमे रहनेके लये
यहाँ कुछ समझाकर कही है।
श ापाठ ७० . सन कुमार-भाग १
च वत क वैभवमे या कमी हो? सन कुमार च वत थे । उनका वण और प अ यु म था।
कबार सधमसभामे उस पक तु त ई। क ही दो दे वोको यह बात न ची। फर वे उस शकाको
करनेके लये वपके पमे सन कुमारके अत पुरमे गये । सन कुमारक दे हमे उस समय उबटन लगा
आ था। उसके अगोपर मदना दक पदाथाका मा वलेपन था.। एक छोट अगीछ पहनी ई थी और
व नानम जन करनेके लये बैठे थे। वपके पमे आये ए दे वता उनका मनोहर मुख, कचनवण
काया और च जैसी का त दे खकर ब त आन दत ए और सर हलाया । इस पर च वत ने पूछा,
"आपने सर यो हलाया ? ' दे वोने कहा, "हम आपके प और वणका नरी ण करनेके लये ब त
अ भलापो थे। हमने थान- थानपर आपके वण- पक तु त सुनी थी, आज उसे हमने य दे खा,
इससे हमे पूण आनद आ। सर हलानेका कारण यह है क जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका
प है, उससे अ धक है, पर तु कम नह ।" सन कुमार व पवणक तु तसे गवमे आकर बोले, "आपने
इस समय मेरा प दे खा सो ठ क है, पर तु मै जव राजसभामे व ालकार धारण करके सवथा स ज
होकर सहासनपर बैठता , ँ तब मेरा प और मेरा वण दे खने यो य है। अभी तो मै शरीरमे उबटन
लगाकर बैठा ँ। य द उस समय आप मेरे प-वणको दे खगे तो अ त चम कारको ा त होगे और
च कत हो जायगे।" दे वोने कहा, "तो फर हम राजसभामे आयगे" ऐसा कहकर वे वहाँसे चले गये।
त प ात् सन कुमारने उ म व ालकार धारण कये । अनेक साधन से अपने गरीरको वशेप
आ यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सहासनपर बैठे । आसपास समथ मं ी, सुभट, व ान
और अ य सभासद अपने-अपने यो य आसनोपर बैठे ए थे। राजे र चमरछ से और खमा खमाके
उ ार से वशेप शो भत तथा स का रत हो रहे थे। वहाँ वे दे वता फर वपके पमे आये। अ त
प-वणसे आन दत होनेके बंदले मानो ख हए हो ऐसे ढगसे उ होने सर हलाया। च वत ने पूछा,
"अहो ा णो । गत समयक अपे ा इस ममय आपने और ही तरहसे सर हलाया है, इसका या
कारण है सो मुझे बताय ।" अव ध ानके अनुसार व ोने कहा, "हे महाराजन् । उस प और इस पमे
भू म-आकाशका फक पड़ गया है।" च वत ने उसे प समझाने के लये कहा । ा णोने कहा, "अ ध-
राज | पहले आपक कोमल काया अमृततु य थी, इस समय वपतु य है। जब अमृततु य अग था तब
हमे आनद आ था और इस समय वपतु य है अत. हमे खेद आ है। हम जो कहते है उस बातको
स करना हो तो आप ता बूल यूक । त काल उसपर म खी वैठेगी और परलोक प ँच जायेगी।"
श ापाठ ७१ : सनंतकुमार-भाग २
सन कुमारने यह परी ा क तो स य स ई। पूव कमके पापके भागमे इस कायाके मदका
म ण होनेसे इस च वत को काया वषमय हो गई थी। वनाशी और अशु चमय कायाका ऐसा पच
दे खकर सन कुमारके अत करणमे वैरा य उ प आ। यह ससार सवथा याग करने यो य है । ऐसीक
ऐसी अशु च ी, पु , म आ दके शरीरमे रही है। यह सब मोह-मान करने यो य नह है, यो कहकर
वे छ खडक भुताका याग करके चल नकले। वे जब साधु पमे वचरते थे तब महारोग उ प

११३
१७ वॉ वष
आ। उनके स य वक परी ा लेनेके लये कोई दे व वहाँ वै पमे आया । साधुसे कहा, "म ब त कुशल
राजवं है, आपक काया रोगका भोग बनी ई है, य द इ छा हो नो त काल म उस रोगको र कर ं ।"
सांघु बोले, "हे वै ! कम पी रोग महो म है, इस रोगको र करनेक आपक समथता हो तो भले
मेरा यह रोग र कर। यह समथता न हो तो यह रोग भले रहे।" दे वताने कहा, "इस रोगको र
करनेको समथता तो म नह रखता।" साधुन अपनी ल धके प रपूण बलसे थकवाली अगु ल करके उसे
रोग पर लगाया क त काल वह रोग न हो गया, और काया फर जैसी थी वैसी हो गई। बादमे उस
समय दे वने अपना व प कट कया, ध यवाद दे कर वदन करके वह अपने थानको चला गया।
र प जैसे सदै व खून-पीपसे खदबदाते ए महारोगक उ प जस कायामे है, पलभरमे
वन हो जानेका जसका वभाव है, जसके येक रोममे पौने दो दो रोगोका नवास है, ऐसे साढे तीन
करोड रोम से भरी होनेसे वह रोगोका भंडार है. ऐसा ववेकसे स है। अ आ दक यूना धकतासे
वह येक रोग जस कायामे गट होता है, मल, मू , व ा, ह ी, मास, पीप और े मसे जसका
ढांचा टका आ है, मा वचासे जसक मनोहरता है, उस कायाका मोह सचमुच व म ही है | सनत्-
कुमारने जसका लेशमा मान कया, वह भी जससे सहन नह आ, उस कायामे अहो पामर । तू या
मोह करता है ? यह मोह मगलदायक नह है।
श ापाठ ७२ : ब ीस योग
स पु ष नीचेक ब ीस योगोका सं ह करके आ माको उ वल करनेके लये कहते ह-
१ ' श य अपने जैसा हो इसके लये उसे ुता दका ान दे ना।"
२ 'अपने आचाय वका जो ान हो उसका सरेको बोध दे ना और उसे का शत करना ।
३ आप कालमे भी धमक ढताका याग नह करना।
४. लोक-परलोकके सुखके फलको इ छाके बना तप करना।
५ जो श ा मली है उसके अनुसार य नासे वतन करना, और नयी श ाको ववेकसे
• हण करना।
६. मम वका याग करना।
७-गु त तप करना।
८ नल भता रखना।
९ प रषहउपसगको जीतना ।
१०. सरल च 'रखना।
११ आ मसयम शु पालना ।
१२ स य व शु रखना।
१३, च को एका समा ध रखना।
१४ कपटर हत आचार पालना ।
१५ वनय करने यो य पु षोक यथायो य वनय करनी।
१६ सतोषसे तृ णाक मयादा कम कर डालना।
१७ वैरा यभावनामे नम न रहना।
१८ मायार हत वतन करना।
व० आ० पाठा०-१, 'मो साधक योगके लये श य आचायके पास आलोचना करे।' २ 'आचाय
आलोचनाको सरेके पास का शत न करे ।'

११४
ीमद् राजच
१९ शु करनीमे सावधान होना।
२० सवरको अपनाना और पापको रोकना।
२१ अपने दोषोको समभावपूवक र करना ।
२२ सव कारके वषयसे वर रहना ।
-२३ मूल गुणोपे पचमहा तोको वशु पालना ।
२४ उ र गुणोमे पचमहा तोको वशु पालना।
२५ उ साहपूवक कायो सग करना।
२६ मादर हत ान व यानमे वतन करना ।
२७ सदै व आ मचा र मे सू म उपयोगसे वृ रहना ।
२८ जते यताके लये एका तापूवक यान करना।
२९. मरणात खसे भी भयभीत नह होना ।
३० ी आ दके सगका याग करना।
३१ ाय से वशु करना।
३२ मरणकालमे आराधना करना।
यह एक एक योग अमू य है । इन सबका स ह करनेवाला प रणाममे अनत सुखको ा त होता है।
श ापाठ ७३ : मो सुख
इस सृ मंडलमे भी कतनी ही ऐसी व तुएँ और मनक इ छाएँ रही ह क ज हे कुछ अशमे
जानते ए भी कहा नह जा सकता। फर भी ये व तुएँ कुछ स पूण शा त या अनत भेदवाली नह
ह। ऐसी व तुका जब वणन नही हो सकता तब अन त सुखमय मो स ब धी उपमा तो कहाँसे मलेगी ?
गौतम वामीने भगवानसे मो के अन त सुखके वषयमे कया तब भगवानने उ रमे कहा-
"गोतम | यह अनतसुख । मै जानता है, पर तु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नह है।
जगतमे इस सुखके तु य कोई भी व तु या सुख नह है ।" ऐसा कहकर उ होने न न आशयका एक भील-
का ा त दया था।
एक जगलमे एक भ क भील अपने बालब चो स हत रहता था । शहर आ दको समृ क
उपा धका उसे लेश भान भी न था। एक दन कोई राजा अ डाके लये घूमता घूमता वहाँ आ
नकला। उसे ब त यास लगी थी, जससे उसने इशारेसे भोलसे पानी माँगा। भीलने पानी दया ।
शीतल जलसे राजा स तु आ । अपनेको भीलक तरफसे मले ए अमू य जलदानका बदला चुकानेके
लये राजाने भीलको समझाकर अपने साथ लया। नगरमे आनेके बाद राजाने भीलको उसने ज दगीमे
न दे खी ई व तुओमे रखा। सु दर महल, पासमे अनेक अनुचर, मनोहर छ पलग, वा द भोजन,
मंद मद पवन और सुग धी वलेपनसे उसे आन दमय कर दया । व वध कारके हीरा, मा णक, मौ क,
म णर न और रंग- बरगी अमू य व तुएँ नर तर उस भीलको दे खनेके लये भेजा करता था, और उसे
बाग-बगीचोमे घूमने- फरनेके लये भेजा करता था। इस कार राजा उसे सुख दया करता था। एक
रात जब सब सो रहे थे तब उस भीलको बालब चे याद आये, इस लये वह वहाँसे कुछ लये कये बना
एकाएक नकल पड़ा। जाकर अपने कुटु बयोसे मला । उन सबने मलकर पूछा, "तू कहाँ था ?"
भोलने कहा, "ब त सुखम । वहाँ मने ब त शसा करने यो य व तुएँ दे खी।"
कुटु बी-परतु वे कैसी थी? यह तो हमे बता।

११५
भील- या क ँ ? यहाँ वैसो एक भी व तु नही है।
ी ऐ ो े ो ौ ै े ो े ै ँ ऐ ी ोई े े
कुटु बी-भला ऐसा हो या ? ये शख, सोप, कौड़ा कैसे मनोहर पड़े है । वहाँ ऐसी कोई दे खने
लायक व तु थी?
. भील-नही, नह भाई, ऐसी व तु तो यहाँ एक भी नह है । उनके सौवे या हजारवे भाग जतनी
भी मनोहर व तु यहाँ नही है।
कुटु बी-तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे म आ है, भला, इससे अ छा और या होगा?
हे गौतम | जैसे यह भील राजवैभवसुख भोगकर आया था, और जानता भी था, फर भी उपमा-
यो य व तु न मलनेसे वह कुछ कह नह सकता था, वैसे हो अनुपमेय मो को, स चदान द व पमय
न वकारी मो के सुखके अस यातव भागके भी यो य उपमेय न मलनेसे म तुझे नह कह सकता।
मो के व पके वषयमे शका करनेवाले तो कुतकवाद ह, उ हे णक सुखसंबधी वचारके
कारण स सुखका वचार नह आता । कोई आ मक ानहीन यो भी कहता है क इससे कोई वशेष सुख-
का साधन वहाँ है नह , इस लये अनत अ ावाध सुख कह दे ते ह। उसका यह कथन' ववेकपूण नह
है। न ा येक मानवको य है, पर तु उसमे वह कुछ जान या दे ख नह सकता, और य द कुछ
जाननेमे आये तो मा व ोपा धका म यापना आता है जसका कुछ असर भी हो। वह व र हत
न ा जसमे सू म एव थूल सब जाना और दे खा जा सके, और न पा धसे शात ऊँघ ली जा सके तो
उसका वह वणन या कर सकता है ? उसे उपमा भी या दे सकता है ? यह तो थूल ात है, पर तु
बाल, अ ववेक इस परसे कुछ वचार कर सके, इस लये कहा है।
भोलका ात, समझानेके लये भाषाभेदके फेरफारसे तु हे कह बताया।
श ापाठ ७४ : धम यान-भाग १
भगवानने चार कारके यान कहे है-आत, रौ , धम और शु ल । पहले दो यान यागने
यो य है । पछले दो यान आ मसाथक प है । ुत ानके भेदोको जाननेके लये, शा वचारमे कुशल
होनेके लये, न ंथ वचनका त व पानेके लये, स पु पोके ारा सेवन करने यो य, वचारने यो य और
हण करने यो य धम यानके मु य सोलह भेद है। पहले चार भेद कहता ँ। १. आणा वजय (आ ा-
वचय), २ अवाय वजय (अपाय वचय), ३ ववाग वजय ( वपाक वजय), ४ सठाण वजय (स थान-
वचय)।
१. आ ा वचय-आ ा अथात् सव भगवानने धमत व स ब धी जो-जो कहा है वह वह स य है,
इसमे शका करने यो य नह है । कालक हीनतासे, उ म ानका व छे द होनेस, े बु का मदतासे या ऐसे
अ य कसी कारणसे मेरी समझमे वह त व नह आता। पर तु अहंत भगवानने अशमा भी मायायु
या अस य कहा हो नह है, यो क वे नीरागी, यागी और न पृहो थे। मृषा कहनेका उ हे कोई कारण
न था, और वे सव , सवदश होनेसे अ ानसे भी मघा नह कहेगे । जहाँ अ ान ही नह है, वहां
त सवधी मृषा कहांसे होगा ? ऐसा जो चतन करना वह 'आ ा वचय' नामका थम भेद है।
२. अपाय वचय-राग, े ष, काम, ोध इनसे जो ख उ प होता है उसका जा चतन करना
वह 'अपाय वचय' नामका सरा भेद है । अपाय अथात् ख।
३. वपाक वचय-म ण- णमे जो जो ःख सहन करता , ँ भवाटवीमे पयटन करता ,

अ ाना दक पाता ँ, वह सब कमके फलके उदयसे है, इस कार जो चतन करना वह धम यानका
तीसरा भेद है।

११६
6. स थान वचय-तीन लोकके व पका चतन करना। लोक व प सु त कके आकारका
है, जीव-जीवमे म पूण भरपूर है। अम यात योजनक कोटानुको टसे तरछा लोक हे, जहाँ अस यात
प-समु है । अस यात यो तषी, वाण तर आ दके नवास है। उ पाद, य और धौ क व च ता
इसम लगी ई है। ढाई पमे जघ य तीथकर वीस, उ कृ एक सौ स र होते है, तथा केवली भगवान
और न ंथ मु नराज वचरते है, उ हे "वदा म, नमसा म, स कारे म, स माणे म, क लाणं, मगल,
दे वय, चेइय, प जुवासा म" इस कार तथा वहां रहनेवाले ावक ा वकाओका गुणगान कर। उस
तरछे लोकसे अस यातगुना अ धक ऊवलोक हे। वहाँ अनेक कारके दे वता के नवास है। फर
ईपत् ा भारा है। उसके बाद मु ा मा वराजते है, उ हे "वंदा म, यावत् प जुवासा म ।" उस
ऊचलोकसे कुछ वशेष अधोलोक है, वहाँ अन त खसे भरे ए नरकावास ह और भवनप तके भवना-
दक है। इन तीन लोकके सव थानकोको इस आ माने स प वर हत करनीसे अनतवार ज ममरण
करके पश कया है, ऐसा जो चतन करना वह 'स थान वचय' नामका धम यानका चौथा भेद है। इन
चार भेदोको वचारकर स य वस हत त और चा र धमक आराधना करनी चा हये जससे ये अनंत
ज ममरण र हो । धम यानके इन चार भेदोको मरणमे रखना चा हये ।
श ापाठ ७५ : धम यान-भाग २
धम यानके चार ल ण कहता है । १. आ ा च-अथात् वीतराग भगवानक आ ा अगीकार
करनेक च उ प होना । २. नसग च-आ मा वाभा वक पसे जा त मरणा द ानसे ुतस हत
चा र धमको धारण करनेक च ा त करे उसे नसग च कहते ह । ३. सू च- ुत ान और
अनत त वके भेदोके लये कहे ए भगवानके प व वचनोका जनमे गूंथन आ है, उन सू ोका वण
करने, मनन करने और भावसे पठन करनेक च उ प हो, उसे सू च कहते ह । ४. उपदे श च-
अ ानसे उपा जत कम को हम ानसे खपाय, तथा ानसे नये कम को न बाँचे, म या वसे उपा जत
कमाको स य भावसे खपाय और स यक् भावसे नये कम को न बांधे, अवैरा यसे उपा जत कम को
वैरा यसे खपाय और वैरा यसे फर नये कम को न वाँध,े कपायसे उपा जत कम को कपायको र करके
लपाय और मा दसे नये कम को न बांधे, अशुभयोगसे उपा जत कम को शुभयोगसे खपाय और शुभयोग-

े े ो े ँ ो े े ो े औ
से नये कम को न बांधे, पाँच इ योके वाद प आ वसे उपा जत कम को सवरसे खपाय, और तप प
सवरसे नये कम को न बाँच, इसके लये अ ाना दक आ व माग छोड़कर ाना दक सवर माग हण
करने के लये तीथकर भगवानके उपदे शको सुननेक च उ प हो, उसे उपदे श च कहते ह। ये धम-
यानके चार ल ण कहे गये ।
धम यानके चार आलबन कहता ँ। १ वाचना. २ पृ छना, ३ परावतना, ४ धमकथा ।
१. वाचना-अथात् वनय स हत नजरा तथा ान ा त करनेके लये सू - स ातके ममके जानकार
गु अथवा स पु षके समीप सू त वका वाचन ल, उसका नाम वाचनालवन है । . २. पृ छना-अपूव
शान ा त करने के लये, जने र भगवानके मागको रोशन करनेके लये तथा शकाश पके नवारणके
लये नथा अ य त वांक म य थ परी ाके लये यथायो य वनय स हत गु आ दको पूछे. उसे
पृ छना दवन पाहते है। ३. परावतना-पूवमे जो जनभा षत सू ाथं पढे हो उ ह मरणमे रखनेके
लये, नजसके लये शु उपयोग स हत शु सू ायका वारवार वा याय कर, उसका नाम पराव ना-
लपन है। ४. धमकया-वीतराग भगवानने जो भाव जैसे णीत कये है. उन भायोको उसी तरह नमन
कार, गण करके, वशेष पसे न य करके, गका, कंपा और व त ग छार हत पसे, अपनी नजंराके
नभाने उन भाव को उसी तरह णीत कर, उसे धम यालबन कहते ह। इससे सुननेवाला और

११७
ा करनेवाला दोनो भगवानक आ ाके आराधक होते है। ये धम यानके चार आलबन कहे गये।
धम यानक चार अनु े ा कहता ं। १ एक वानु े ा, २ अ न यानु े ा, ३. अशरणानु े ा, ४. ससा-
रानु े ा । इन चारोका बोध बारह भावनाके पाठमे कहा जा चुका है वह तु हे मरणमे होगा।
श ापाठ ७६ : धम यान-भाग ३
धम यानको पूवाचाय ने और आधु नक मुनी रोने भी व तारपूवक ब त समझाया है । इस
यानसे आ मा मु न वभावमे नरतर वेश करता है।
जो जो नयम अथात् भेद, आलबन और अनु े ा कहे है वे ब त मनन करने यो य है। अ य
मुनी रोके कथनानुसार मने उ हे सामा य भाषामे तु हे कहा है, इसके साथ नरतर यह यान रखनेक
आव यकता है क इनमेसे हमने कौनसा भेद ा त कया, अथवा कस भेदक ओर भावना रखी है ? इन
सोलह भेदोमेसे कोई भी भेद हतकारी और उपयोगी है, परतु जस अनु मसे लेना चा हये उस अनु मसे
लया जाये तो वह वशेष आ मलाभका कारण होता है।
कतने ही लोग सू - स ातके अ ययन मुखा न करते ह, य द वे उनके अथ और उनमे कहे ए
मूलत वोक ओर यान द तो कुछ सू मभेदको पा सकते ह। जैसे केलेके प मे, प मे प को चम कृ त है
वैसे ही सू ाथमे चम कृ त है। इस पर वचार करनेसे नमल और केवल दयामय मागका जो वीतराग-
णीत त वबोध है उसका बीज अत.करणमे अकु रत हो उठे गा । वह अनेक कारके शा ावलोकनसे,
ो रसे, वचारसे और स पु षके समागमसे पोषण पाकर बढकर वृ प होगा। फर वह वृ नजरा
और आ म काश प फल दे गा।
वण, मनन और न द यासनके कार वेदातवा दयोने बताये है, परतु जैसे इस धम यानके
पृथक-पृथक् सोलह भेद यहाँ कहे है वैसे त वपूवक भेद कसी थानमे नह है, ये अपूव है । इनसे शा को
वण करनेका, मनन करनेका, वचारनेका, अ यको बोध करनेका शंका कसा र करनेका, धमकथा
करनेका, एक व वचारनेका, अ न यता वचारनेका, अशरणता वचारनेका, वैरा य पानेका, ससारके
अनत खका मनन करनेका और वीतराग भगवानक आ ासे सारे लोकालोकका वचार करनेका अपूव
उ साह मलता है । भेद- भेद करके इनके फर अनेक भाव समझाये ह।
इनमेसे क तपय भावोको समझनेसे तप, शा त, मा, दया, वैरा य और ानका ब त ब त
उदय होगा। ।
तुम कदा चत् इन सोलह भेदोका पठन कर गये होगे, फर भी पुन पुन उसका परावतन करना ।
श ापाठ ७७ : ानसंबधी दो श द--भाग १
जसके ारा व तुका व प जाना जाता है वह ान है। ान श दका यह अथ हे । अब यथा-
म त यह वचार करना है क इस ानक कुछ आव यकता है? य द आव यकता है तो इसक ा तके
कुछ साधन है? य द साधन है तो उसके अनुकूल दे श, काल और भाव है ? य द दे शकाला द अनकल
ह तो कहाँ तक अनुकूल है ? वशेषमे यह भी वचार करना है क इस ानके भेद कतने है ? जानने
यो य या है ? इसके फर कतने भेद ह ? जाननेके साधन कौन कौनसे है ? उन साधनोको कस- कस
मागसे ा त कया जाता है ? इस ानका उपयोग या प रणाम या है ? यह सब जानना आव यक है।
१ ानक या आव यकता है? पहले इस वषयमे वचार कर। इस चतुदश र वा मक लोक-
मे चतुगं तमे अना दकालसे सकम थ तमे इस आ माका पयटन है। नमेपमा भी सुखका जहाँ भाव

११८
ीमद् राजच
नही है ऐसे नरक- नगोदा दक थानोका इस आ माने ब त ब त काल तक वार वार सेवन कया है,
अस खोको पुन पुन अथवा यो क हये क अनतवार सहन कया है । इस उ ापसे नरंतर संत त
होता आ आ मा मा वकम वपाकसे पयटन करता है । पयटनका कारण अनत खद ानावरणीया द
कम है, जनके कारण आ मा व व पको पा नह सकता, और वषया दक मोह बधनको व व प मान
रहा है । इन सबका प रणाम मा ऊपर कहा वही है क अनत ःखको अनत भाव से सहन करना, चाहे
े औ े ौ ो े ी ो े
जतना अ य, चाहे जतना खदायक और चाहे जतना रौ होनेपर भी जो ख अनतकालसे अनत-
वार सहन करना पड़ा, वह ख मा उस अ ाना दक कमके कारण सहन कया, उस अ ाना दकको
र करनेके लये ानक प रपूण आव यकता है।
श ापाठ ७८ : ानसंबधी दो श द- भाग २
२ अव ान ा तके साधनोके वषयमे कुछ वचार करे । अपूण पया तसे प रपूण आ म ान
स नह होता, इस लये छ पया तसे यु दे ह ही आ म ानको स कर सकती है। ऐसी दे ह एक
मा मानवदे ह है। यहा पर यह उठे गा क मानवदे हको ा त तो अनेक आ मा ह, तो वे सब
आ म ानको यो नही ा त करते ? इसके उ रमे हम यह मान सकेगे क ज होने सपूण आ म ानको
ा त कया है उनके प व वचनामृतको उ हे ु त नही है । ु तके बना स कार नह है । य द स कार
नह है तो फर ा कहाँसे होगी? और जहाँ यह एक भी नह है वहाँ ान ा त कहाँसे होगी ? इस-
लये मानवदे हके साथ सव वचनामृतक ा त और उसको ा यह भी साधन प है। सव वचनामृत
अकमभू म या केवल अनायभू ममे नही मलते, तो फर मानवदे ह कस उपयोगक ? इस लये आयभू म
भी साधन प है। त वक ा उ प होनेके लये और बोध होनेके लये न थ गु क आव यकता
है। से जो कुल म या वी है उस कुलमे आ ज म भी आ म ानक ा तमे हा न प ही है। यो क
धममतभेद अ त .खदायक है। परपरासे पूवजो ारा हण कये ए दशनमे ही स यभावना बनती है,
इससे भी आ म ान कता है। इस लये उ म कूल भी आव यक है। इन सबको ा त करनेके लये
भा यशाली होना चा हये। इसमे स पु य अथात् पु यानुवधी पु य इ या द उ म साधन है । यह तीय
साधनभेद कहा।
३ य द साधन है तो उनके अनुकूल दे श और काल ह ? इस तीसरे भेदका वचार कर । भारत,
महा वदे ह इ या द कमभू म और उसमे भी आयभू म यह दे शक अपे ासे अनुकूल है। ज ासु भ ।
तुम सब इस कालमे भारतमे हो, इस लये भारत दे श अनुकूल है । कालक अपे ासे म त और ुत ा त
कये जा सके इतनी अनुकूलता है; य क इस दषम पचमकालमे पर परा नायसे परमाव ध, मन पयय
और केवल ये प व ान दे खनेमे नही आते, इ लये कालक प रपूण अनुकूलता नह है।
४ दे श, काल आ द य द अनुकूल है ना कहाँ तक है ? इसका उ र है क शेष रहा आ सै ा-
तक म त ान, ुत ान सामा यमतसे कालक अपे ासे इ क स हजार वष तक रहेगा। इनमेसे ढाई
हजार वष वोत गये, बाक साढे अठारह हजार वप रहे, अथात् पचमकालक पूणता तक कालको अनु-
कूलता हे । इस लये दे श, काल अनुकूल ह।
श ापाठ ७९ ानसबंधी दो श द--भाग ३
अव वशेष वचार कर -
१ आव यकता या है ? इस महान वचारका मंथन पुन वशेपतासे कर। मु य आव यक यह
है क व व प थ तक े णपर चढना । जससे अनत ःखका नाश हो, .खके नाशसे आ माका

११९
ेय कर सुख है, और सुख नरंतर आ माको य ही है, परतु जो व व पसुख है वह । दे श, काल और
भावक अपे ासे ा, ान इ या द उ प करनेक आव यकता है । स य भावस हत उ चग त, वहा-
से महा वदे हमे मानवदे हके पमे ज म, वहाँ स यगभावको पुन उ त, त व ानक वशु ता और वृ ,
अ तमे प रपूण आ मसाधन ान और उसका स य प रणाम सवथा सव खका अभाव अथात् अखंड,
अनुपम, अनंत शा त प व मो को ा त, इस सबके लये ानक आव यकता है।
२ ानके भेद कतने ह त सबधी वचार कहता है । इस ानके भेद अनत है, परतु सामा य
समझ सके इस लये सव भगवानने मु य पाँच भेद कहे ह। उ हे म यो का यो कहता है। थम म त,
तीय ुत, तृतीय अव ध, चतुथ मन पयय और पचम संपूण व प केवल । इनके पुनः तभेद है ।
और फर उनके अती य व पसे अनत भग जाल ह।
३ जानने यो य या है ? इसका अब वचार करे । व तुके व पको जाननेका नाम जव ान है,
तब व तुएँ तो अनत ह, उ हे कस मसे जानना ? सव होनेके बाद सवद शतासे वे स पु प उन अनत
व तुओके व पको सव भेद से जानते है और दे खते है, परतु वे कन कन व तुओको जाननेसे इस सव -
े णको ा त ए? जब तक अनत े णयोको नही जाना तब तक कन व तुओको जानते-जानते उन
अनत व तुओको अनंत पसे जान सक ? इस शकाका समाधान अब कर। जो अनंत व तुएं मानी है वे
अनत भगोक अपे ासे ह, पर तु मु य व तु व- व पसे उनक दो े णयाँ है-जीव और अजीव ।
वशेष व तु व- व पसे नव त व कवा षड् को े णयाँ जानने यो य हो जाती ह। इस मसे चढते-
चढते सव भावसे ात होकर लोकालोक व प ह तामलकवत् जाना दे खा जा सकता है। इस लये जानने
यो य पदाथ जीव और अजीव ह । ये जानने यो य मु य दो े णयाँ कही गई।
श ापाठ ८०: ानसंबंधी दो श द-भाग ४
४ इनके उपभेदोको स ेपमे कहता है। 'जीव' चैत य ल णसे एक प है, दे ह व पसे और -
व पसे अनतानंत है। दे ह व पसे उसको इ य आ द जानने यो य है, उसक ग त, वग त इ या द
जानने यो य है, उसक ससगऋ जानने यो य है। इसी कार 'अजीव', उसके पी-अ पी पु ल,
आकाशा दक व च भाव, कालचक इ या द जानने यो य ह। कारा तरसे जीव-अजीवको जाननेके लये
सव सवदश ने नौ ेणो प नौ त व कहे है।
जीव, अजीव, पु य, पाप, आ व, सवर; नजरा, बध और मो । इनमेसे कुछ हण करने यो य,
कुछ जानने यो य और कुछ यागने यो य है । ये सभी त व जानने यो य तो ह ही।

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५ जाननेके साधन-य प सामा य वचारसे इन साधनोको जान तो लया है, तो भी वशेष प-
से कुछ जान । भगवानक आ ा और उसका शु व प यथात य जानना चा हये। वय तो कोई ही
जानता है, नह तो न ंथ ानी गु बता सकते है । नीरागी ाता सव म ह। इस लये ाके वीजका
रोपण करनेवाले या उसका पोषण करनेवाले गु साधन प ह । इस साधन आ दके लये ससारको नवृ
अथात् शम, दम, चय आ द अ य साधन है। य द इ हे साधन ा त करनेका माग कहे तो भो
यो य है।
६ इस ानके उपयोग अथवा प रणामके उ रका आशय ऊपर आ गया है, परतु कालभेदसे कुछ
कहना है, और वह इतना ही क दनमे दो घडीका समय भी नय मत रखकर जने र भगवानके कहे ए
त ववोधका प रशोलन करो। वीतरागके एक सै ा तक श दसे ानावरणीयका ब त योपशम होगा यह
म ववेकसे कहता ँ।

२०
ीमद् राजच
श ापाठ ८१ : पंचमकाल
कालच के वचार अव य जानने यो य ह। जने रने इस कालच के दो भेद कहे ह-
१ उ स पणी, २ अवस पणी। एक-एक भेदके छ छ आरे है । आधु नक वतमान आरा पचमकाल
कहलाता है और वह अव पणी कालका पाँचवाँ आरा है। अवस पणी अथात् उतरता आ काल । इस
उतरते ए कालके पाँचव आरेमे इस भरत े मे कैसा वतन होना चा हये इसके बारेमे स पु ष ने कुछ
वचार बताये है, वे अव य जानने यो य है।
वे पचमकालके व पको मु यत इस आशयमे कहते है। न ंथ वचनमे मनु योक ा ीण
होती जायेगी। धमके मूल त वोमे मतमतातर बढगे । पाखडी और पची मतोका मडन होगा। जनसमूहको
च अधमक ओर जायेगी। म य, दया धीरे-धीरे पराभवको ा त होगे। मोहा दक दोषोक वृ होती
जायेगी । दभी और पा प गु पू य होगे । वृ के मनु य अपने पचमे सफल होगे । मीठे परंतु धूत
व ा प व माने जायगे । शु चय आ द शीलसे यु पु प म लन कहलायेगे। आ मक- ानके भेद
न होते जायगे । हेतुहीन याएँ बढतो जायगी। अ ान याका ब धा सेवन कया जायेगा । ाकुल
करनेवाले वपयोके साधन बढते जायगे । एका तक प स ाधीश होगे । शृगारसे धम माना जायेगा।
स चे योके बना भू म शोक त होगी। न स व राजवंशी वे याके वलासमे मो हत होगे।
धम, कम और स ची राजनी तको भल जायेगे, अ यायको ज म दे ग, े जैसे लूट सकगे वैसे जाको लूटगे ।
वयं पा प आचरणोका सेवन करके जासे उनका पालन करायगे। राजबीजके नामपर शू यता आती
जायेगी । नोच म योक मह ा बढती जायगी। वे द न जाको चूसकर भडार भरनेका राजाको उपदे श'
दगे। शील भग करनेका धम राजाको अगीकार करायगे। शौय आ द स णोका नाश करायगे। मृगया
आ द पापोमे अध बनायगे। रा या धकारी अपने अ धकारसे हजारगुना अहंकार रखगे। व लालची
और लोभी हो जायगे। वे स ाको दबा दे गे, ससारी साधनोको धम ठहरायगे। वै य मायावी, केवल
वाथ और कठोर दयके होते जायगे। समन मनु यवगक स याँ घटती जायेगी। अकृ य और
भयकर कृ य करते ए उनक वृ नह केगी। ववेक, वनय, सरलता इ या द स ण घटते जायगे।
अनुकपाके नामपर हीनता होगी। माताक अपे ा प नीमे ेम बढे गा, पताक अपे ा पु मे ेम बढे गा,
नयमपूवक प त त पालनेवाली सु द रयां घट जायगी । नानसे प व ता मानी जायेगी, धनसे उ म कुल
माना जायेगा । श य गु से उलटे चलगे। भू मका रस घट जायेगा। स ेपमे कहनेका भावाथ यह है क
उ म व तुओक ीणता होगी और नकृ व तुओका उदय होगा। पंचमकालका व प इनका य
सूचन भी कतना अ धक करता है ?
. . मनु य स मत वमे प रपूण ावान नह हो सकेगा, सपूण त व ान नही पा सकेगा, ज बू वामी-
के नवाणके बाद दस नवाणी व तुओका इस भरत े से व छे द हो गया।
पचमकालका ऐसा व प जानकर ववेको पु प त वको हण करगे, कालानुसार धमत व ाको
पाकर उ चग तको साधकर प रणाममे मो को साधेगे। न थ वचन, न थ गु इ या द धमत वक
ा तके साधन है । इनक आराधनासे कमको वराधना है।
श ापाठ ८२ : त वावबोध-भाग १
दशबैका लकसू मे कथन है क जसने जीवाजीवके भावोको नही जाना वह अबुध सयममे कैसे
थर रह सकेगा?' इस वचनामृतका ता पय यह है क तुम आ मा एव अना माके व पको जानो, इसे
जाननेक प रपूण आव यकता है।

१२१
आ मा-अना माका स य व प न थ वचनमेसे ा त हो सकता है, अनेक मतोमे इन दो त व के
वषयमे वचार द शत कये है वे यथाथ नह है। महा ावान आचाय ारा कये गये ववेचन स हत
कारातरसे कहे ए मु य नव त वोको जो ववेकबु से जानता है, वह स पु ष आ म व पको पहचान
सकता है।
या ादशैली अनुपम और अनत भेदभावसे भरपूर है। इस शैलीको प रपूण पसे तो सव और
सवदश ही जान सकते है, फर भी उनके वचनामृतोके अनुसार आगमक सहायतासे यथाम त नव
त वके व पको जानना आव यक है। इस नव त वको य ाभावसे जाननेसे परम ववेकबु , शु
स य व और भावक आ म ानका उदय होता है। नैव त वमे लोकालाकका सपूण व प आ जाता है।
ी ै े ी ो ओ े औ े
जनक जतनी बु क ग त है वे उतनी त व ानको ओर प ंचाते ह, और भावानुसार उनके
आ माक उ वलता होती है। इससे वे आ म ानके नमल रस का अनुभव करते ह। जनका त व ान
उ म और सू म है, तथा जो सुशोलयु त व ानक उपासना करते ह वे पु ष बड़भागी है।
इन नव त वोके नाम मै पछले श ापाठमे कह गया है, इनका वशेष व प ावान आचाय के
महान थ से अव य जानना चा हये, यो क स ातमे जो जो कहा है उन सबको वशेष भेदसे समझनेके
लये ावान आचाय ारा वर चत थ सहायभूत ह। ये गु ग य प भी है। नव त वके ानमे नय,
न ेप और माणके भेद आव यक है, और उनका यथाथ बोध उन ावानोने दया है।
श ापाठ ८३ : त वावबोध-भाग २
सव भगवानने लोकालोकके सपूण भावोको जाना और दे खा । उसका उपदे श भ लोगोको
कया। भगवानने अनत ानसे लोकालोकके व प वषयक अनत भेद जाने थे, परतु सामा य मनु योको
उपदे शसे ेणी चढनेके लये उ होने मु य द खते ए नौ पदाथ बताये। इससे लोकालोकके सवभावोका
इसमे समावेश हो जाता है । न थ वचनका जो जो सू म बोध है वह त वको से नव त वमे समा
जाता है, तथा सभी धममतोका सु म वचार इस नव त व व ानके एक दे शमे आ जाता है। आ माक
जो अनत श याँ आव रत हो रही है उ हे का शत करनेके लये अहत भगवानका प व बोध है।
ये अनत श याँ तब फु लत हो सकती है जब आ मा नवत व व ानमे पारगत ानी हो ।
सू म ादशागीका ान भी इन नवत वके व प ानमे सहाय प है। यह भ - भ कारसे
नवत वके व प ानका बोध करता है, इस लये यह न शक मानने यो य है क जसने नव त वको अनत
भाव-भेदसे जाना, वह सव और सवदश आ।
इन नव त वोको पद क अपे ासे घटाना यो य है। हेय, ेय और उपादे य अथात् याग करने
यो य, जानने यो य और हण करने यो य-ये तीन भेद नव-त व व पके वचारमे न हत ह।
-जो यागने यो य है उसे जानकर या करना? जस गाँवको जाना नहो उसका माग
कस लये पूछना? '
उ र-आपक इस शकाका समाधान सहजमे हो सकता है । यागने यो यको भी जानना आव यक
है। सव भी सब कारके पचोको जान रहे है। यागने यो य व तुको जाननेका मूलत व यह है क
य द उसे न जाना हो तो अ या य समझकर कसी समय उसका सेवन हो जाय । एक गाँवसे सरे गांवमे
प ँचने तक रा तेमे जो जो गाँव आनेवाले हो उनका रा ता भी पूछना पड़ता है, नह तो जहाँ जाना हे
वहाँ नही प ँचा जा सकता। जैसे वे गाँव पूछे परतु वहाँ वास नह कया, वैसे ही पापा द त वोको

१२२
ीमद् राजच
जानना तो चा हये पर तु हण नह करना चा हये । जैसे रा तेपे आनेवाले गाँबोका याग कया वैसे
उनका भी याग करना आव यक है।
श ापाठ ८४ : त वावबोध-भाग ३
जो स पु ष गु ग यतासे वण, मनन और न द यासनपूवक नवत वका ान कालभेदसे ा त
करते है, वे स पु ष महापु यशाली तथा ध यवादके पा है। येक सु पु षको मेरा वनयभावभू षत
यही बोध है क वे नव त वको ववृ के अनुसार यथाथ जान ।
महावीर भगवानके शासनमे ब त मतमतातर पड गये है, उसका एक मु य कारण यह भी है क
त व ानक ओर उपासक वगका यान नही रहा । वह मा याभावमे अनुर रहा, जसका प रणाम
गोचर है। वतमान खोजमे आई ई पृ वीक आबाद लगभग डेढ अरब मानी गयी है, उसमे सब
ग छोको मलाकर जैन जा केवल बीस लाख है। यह जा मणोपासक है। मै मानता ँ क इसमेसे
दो हजार पु ष भी मु कलसे नवत वको पठन पसे जानते होगे । मनन और वचारपूवक जाननेवाले तो
उँग लक नोक पर गने जा सके उतने पू प भी नही होगे। जव त व ानक ऐसी प तत थ त हो गयी
है तभी मतमतातर बढ गये है। एक लौ कक कथन है क 'सौ सयाने एक मत' । इस तरह अनेक त व-
वचारक पु पोके मतमे ब धा भ ता नह आती।
इस नवत वके वचारके सबधमे येक मु नसे मेरी व त है क वे ववेक और गु ग यतासे इसके
ानक वशेष वृ कर। इससे उनके प व पाँच महा त ढ़ होगे, जने रके वचनामृतके अनुपम
आनंदक साद मलेगी, म न वके आचारका पालन सरल हो जायेगा, ान और या वशु रहनस
स य वका उदय होगा; प रणाममे भवात हो जायेगा।
श ापाठ ८५ : त वावबोध-भाग ४
जो जो मणोपासक नव त वको पठन पसे भी नह जानते वे उसे अव य जान | जाननेके बाद
ब त मनन कर। जतना समझमे आ सके, उतने ग भीर आशयको गु ग यतासे स ावसे समझ। इससे
आ म ान उ वलताको ा त होगा, और यम नयम आ दका पालन होगा।
नवत व अथात् नवत व नामक कोई र चत सामा य पु तक नही, परतु जस जस थलमे जो जो
वचार ा नयोने णीत कये ह वे सब वचार नवत वमेसे कसी एक दो या अ धक त वके होते ह।
कवली भगवानने इन े णयोसे सकल जगतमडल दखा दया है, इससे यो यो नय आ दके भेदसे यह
त व ान मलेगा यो यो अपूव आनद और नमलताक ा त होगी, मा ववेक, गु ग यता और
अ माद चा हये । यह नवत व ान मुझे ब त य है । इसके रसानुभवी भी मुझे सदे व य ह।
कालभेदसे इस समय भरत े मे मा म त और ुत ये दो ान व मान है, बाक के तीन ान
परपरा नायमे दे खनेमे नही आते, फर भी यो यो पूण ाभावसे इस नवत व ानके वचारोक गुफामे
उतरा जाता है, यो यो उसके अदर अ त आ म काश, आनद, समथ त व ानक फुरणा, उ म

ो औ ी े े े ै
वनोद और गंभीर चमक च कत करके वे वचार शु स य ानका ब त उदय करते है। या ाद-
वचनामृतके अनत सु दर आगयोको समझनेक पर परागत श का इस कालमे इस े से व छे द हो
गया है, फर भी उम मबधी जो जो सु दर आशय समझमे आते है वे सब आशय अ त अ त गभीर त वसे
भरे ए ह। उन आशयोका पुन पुनः मनन करनेसे चावाकम तके चचल मनु य भी स ममे थर हो

१२३
जाते ह । स ेपमे सव कारको स , प व ता, महाशील, नमल गहन और गभीर वचार, व छ
वैरा यक भट ये सब त व ानसे मलते है।
श ापाठ ८६ : त वावबोध-भाग ५
एक बार एक समथ व ानसे न ंथ वचनक चम कृ तके सबधमे बातचीत ई। उसके सबधमे
उस व ानने बताया-"मै इतना तो मा य रखता ँ क महावीर एक समथ त व ानी पु प थे, उ होने
जो बोध दया है, उसे हण करके ावान पु षोने अग, उपागक योजना क है, उनके जो वचार है वे
चम कृ तसे भरे ए है, पर तु इससे मै यह नह कह सकता क इनमे सारी सृ का ान न हत है । ऐसा
होने पर भी य द आप इस सबधमे कुछ माण दे ते हो तो म इस बात पर कुछ ा कर सकता ँ।"
इसके उ रमे मने यह कहा क म कुछ जैन वचनामृतको यथाथ तो या पर तु वशेष भेदसे भी नही
जानता, पर तु सामा य भावसे जो जानता ँ उससे भी माण अव य दे सकता ँ। फर नवत व व ान-
सबधी बातचीत नकली। मैने कहा क इसमे सारी सृ का ान आ जाता है, पर तु यथाथ समझनेक
श चा हये । फर उ होने इस कथनका माण मांगा, तब मैने आठ कम कह बताये। उसके साथ यह
सू चत कया क इनके सवाय इनसे भ भाव बतानेवाला कोई नौवाँ कम खोज नकाले । पाप और
पु यक कृ तयोको बताकर कहा क इनके सवाय एक भी अ धक कृ त खोज नकाल । यो कहते कहते
अनुकमसे बात चलायी। पहले जीवके भेद कहकर पूछा क या इनमे आप कुछ यूना धक कहना चाहते ह ?
अजीव के भेद कहकर पूछा क या आप इससे कुछ वशेष कहते ह ? यो नवत वसवधी बातचीत ई
तब उ होने थोडी दे र वचार करके कहा-“यह तो महावीरक कहनेक अ त चम कृ त है क जीवका
एक भी नया भेद नह मलता, इसी तरह पापपु य आ दको एक भी वशेष कृ त नह मलती, और
नौवाँ कम भी नह मलता। ऐसे ऐसे त व ानके स ात जैनदशनमे है यह मेरे यानमे नह था। इसमे
सारो सृ का त व ान कुछे क अशोमे अव य आ सकता है।"
श ापाठ ८७ : त वावबोध-भाग ६ .
इसका उ र हमारी ओरसे यह दया गया क अभी आप जो इतना कहते है वह भी तब तक
क जब तक आपके दयमे जैनधमके त व वचार नह आये है, पर तु मै म य थतासे स य कहता ँ क
इसमे जो वशु ान बताया है वह कही भी नह है, और सव मतोने जो ान बताया है वह महावीरके
त व ानके एक भागमे आ जाता है। इनका कथन या ाद है, एकप ो नह ।
___ आपने यो कहा क इसमे सारी सृ का त व ान कुछे क अशोमे अव य आ सकता है. परतु यह
म वचन है। हमारी समझानेको अ प तासे ऐसा अव य हो सकता है, पर तु इससे इन त वोमे कुछ
अपूणता है ऐसा तो है ही नह । यह कुछ प पाती कथन नह है। वचार करनेपर सारी सृ मेसे इनके
सवाय कोई दसवाँ त व खोजनेसे कभी मलनेवाला नही है। इस सबधमे सगोपा हमारी जब बात-
चीत और म य थ चचा होगी तब न.शकता होगी।
___उ रमे उ होने कहा क इसपरसे मुझे यह तो न.शकता है क जैन एक अ त दशन है।
आपने मुझे बे णपूवक नवत वके कुछ भाग कह बताये, इससे मै यह वेधडक कह सकता ँ क
महावीर गु तभेदको ा त पु ष थे। इस कार थोडीसी बात करके 'उ प े वा', ' वगमे वा', 'धुवेइ
वा' यह ल धवा य उ होने मुझे कहा। यह कहनेके बाद उ होने यो बताया-"इन श दोके सामा य
अथमे तो कोई चम कृ त नह द खती। उत◌्प होना, नाश होना और अचलता ऐसा इन तीन

१२४
ीमद राजच
श दोका अथ है । पर तु ीमान गणधरोने तो ऐसा उ लेख कया है क इन वचनोको गु मुखसे वण
करनेसे पहलेके भा वक श योको ादशागीका आशयपूण ान हो जाता था। इसके लये मने ब त कुछ
वचार कये, फर भी मुझे तो ऐसा लगा क यह होना असभव है, यो क अतीव सू म माना आ सै ा-
तक ान इसमे कहाँसे समा सकता है ? इस सबधमे आप कुछ काश डाल सकगे ?"
श ापाठ ८८: त वावबोध-भाग ७
मैने उ रमे कहा क इस कालमे तीन महा ान पर परा नायसे भारतमे दे खनेमे नही आते, ऐसा
होनेपर भी म कोई सव या महा ावान नह , ँ फर भी मै सामा य बु से जतना वचार कर सकूँगा,
उतना वचार करके कुछ समाधान कर सकूँगा ऐसा मुझे सभव लगता है। तब उ होने कहा क य द
ऐसा सभव हो तो यह पद जीवपर 'ना' और 'हाँ' के वचारसे घ टत करे । वह यो क जीव या
उप प है ? नह । जीव या य प है ? नही । जीव या ुव प है ? नह । इस तरह एक बार
घ टत कर। और सरी बार, जीव या उ प प है? हाँ। जीव या य प है ? हाँ। जीव या ुव-
प है ? हाँ । इस तरह घ टत कर। ये वचार सारे मडलने एक करके यो जत कये है । य द ये यथाथ
न कहे जा सक तो अनेक कारसे पण आ सकते ह । जो व तु य प हो वह ुव प न हो, यह पहली
शका । य द उ प , य और ुवता नही है तो जीवको कन माण से स करगे? यह सरी
शका | य और ुवतामे पर पर वरोधाभास है, यह तीसरी शका। जीव केवल ुव है तो उ प मे
ो ँ ी े ी ौ ो ी े ो
जो 'हाँ' कही वह अस य ठहरेगी, यह चौथा वरोध । उ प यु जीवका ुवभाव कहे तो उ प
कसने क ? यह पाँचवाँ वरोध । अना दता जाती रहती है यह छठ शका । केवल ुव- य प है ऐसा
कहे तो चावाक म वचन आ, यह सातवाँ दोष । उ प और य प कहेगे तो केवल चावाकका
स ात होगा, यह आठवाँ दोष । उ प क ना, यक ना और ुवताको ना कहकर फर तीनोक हाँ
कही इसके पुन पमे छ दोष । इस कार कुल मलाकर चौदह दोष ए। केवल ुवता चली जानेसे
तीथकरके वचन ख डत हो जाते ह, यह प हवाँ दोष । उ प , ुवता लेनेपर कताक स हो जानेसे
सव वचन ख डत हो जाते है, यह सोलहवां दोष । उ प - य पसे पापपु या दकका अभाव अथात्
धमाधम सबका लोप हो जाता है, यह स हवाँ दोष । उ प , य और सामा य थ तसे (केवल
अचलता नही) गुणा मक माया स होती है, यह अठारहवाँ दोष ।।
श ापाठ ८९ : त वावबोध-भाग ८
ये कथन स न होनेसे इतने दोष आते है। एक जैनम नने मुझे और मेरे म मडलसे यो कहा
था क जैन स तभगो नय अपूव है, और इससे सव पदाथ स होते है। इसमे ना त-अ तके अग य
भेद न हत है। यह कथन सुनकर हम सब घर आये, फर योजना करते-करते इस ल धवा यको जीवपर
यो जत कया । मै मानता ँ क ऐसे ना त-अ तके दोनो भाव जीवपर घ टत नह हो सकते । ल ध-
वा य भी लेश प हो पडेगे । य प इस ओर मेरी कोई तर कारक नह है। इसके उ रमे मने
कहा क आपने जो ना त और अ त नय जीवपर घ टत करनेका सोचा है वह स न ेप शैलीसे नह है,
इस लये कदा चत् इसमेसे एका तक प भी लया जा सकता हे । और फर म कोई या ाद शैलीका
यथाथ ाता नह ँ। म दम तसे लेश भाग जानता ँ। ना त-अ त नयको भी आपने शैलीपूवक घ टत
नह कया है; इस लये मै तकसे जो उ र दे सकता , ँ उसे आप सुन।

१२५
उ प मे 'ना त' क जो योजना क है वह यो यथाथ हो सकती है क 'जीव अना द अन त है।'
यमे 'ना त'क जो योजना क है वह यो यथाथ हो सकती है क 'इसका कसी कालमे नाश नह है।'
ुवतामे 'ना त'क जो योजना को है वह यो यथाथ हो सकती क 'एक दे हमे वह सदै वके लये
रहनेवाला नह है।'
श ापाठ ९० : त वावबोध--भाग २
उ प मे 'अ त'क जो योजना क है वह यो यथाथ हो सकती है क 'जोनका मोश होने नक
एक दे हमेसे युत होकर वह सरी दे हमे उ प होता है।'
यमे 'अ त'क जो याजना क है वह यो यथाथ हो सकती है क 'वह जस दे हमेसे आया वहाँ
से यको ा त आ. अथवा त ण इसको आ मक ऋ वषया द म णसे ख हो रही है', इस
कार यको घ टत कर सकते ह।
, ुवतामे 'अ त'क जो योजना क है वह यो यथाथ हो सकती है क ' क अपे ा जीव
कसी कालमे नाश प नह है, काल स है।'
म समझता है क अब इस कारसे यो जत दोष भी र हो जायगे।
१ जीव य प नह ह, इस लये ुवता स ई । यह पहला दोष र आ।
२. उ प , य और ुवता ये यायसे भ भ स ए, इस लये जीवका म य व स
आ, यह सरा दोष र आ।
३ जीवक स य व पसे ुवता स ई इस लये य चला गया। यह तीसरा दोष र आ।
४. भावसे जीवक उ प अस ई। यह चौथा दोष र आ।
५ जीव अना द स आ, इस लये उ प सबधी पाँचवाँ दोष र आ।
६ उप अस ई इस लये कतासबधी छठा दोष र आ।
७ ुवताके साथ य लेनेमे अबाध आ इस लये चावाक म वचनका साना दोष र आ।
८ उप और य पृथक् पृथक् दे हमे स आ, इस लये केवल चावाक स ात नामका गाठता
दोष र आ।
९. से १४ शकाका पार प रक वरोधाभास र हो जानेसे चौदह तकके दोष र हो गये।
१५ अना द अनतता स हो जानेसे या ादवचन स य आ, यह पहा दोष र आ।
१६ कत नह है, यह स होनेसे जनवचनक स यता स ई, यह सोलहवाँ दोष र आ।
१७ धम, अधम, दे ह आ दका पुनरावतन स होनेसे स हवाँ दोष र आ ।
१८ ये सब बात स होनेसे गुणा मक माया अ स ई, यह अठारहवाँ दोष र आ।
श ापाठ ९१ त वावबोध-भाग १०
म समझता ँ क आपको यो जत योजनाका इससे समाधान आ होगा। यह कोई यथाथ शैली
घ टत नही क है, तो भी इसमे कुछ भी वनोद मल सकता है। इसपर वशेप ववेचन करनेके लये
ब तसा व चा हये, इस लये अ धक नह कहता, पर तु एक दो स त बात आपसे कहनी है, सो य द
इससे यो य समाधान आ हो तो क ँ। बादमे उनक ओरसे मनमाना उ र मला और उ ह ने कहा
क एक दो बात जो आपको कहनी हो उ हे सहष कहे।

१२६
ीमद् राजच
फर मैने अपनी वातको सजी वत करके ल धके सवधमे कहा । आप इस ल धके संवधमे शंका

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कर या इसे लेश प कहे तो इन वचनोके त अ याय होता है। इसमे अ त-अ त उ वल आ मक
श , गु ग यता और वैरा यक आव यकता है। जब तक ऐसा नही है तब तक ल धके वपयमे शका
अव य रहेगी। परतु मै समझता ँ क इस समय इस सवधमे कहे ए दो श द नरथक नही होगे । वे ये
ह क जैसे इस योजनाको ना त-अ तपर यो जत करके दे खा, वैसे इसमे भी ब त सू म वचार करना
है। येक दे हको पृथक्-पृथक् उ प , यवन, व ाम, गभाधान, पया त, इ य, स ा, ान, सं ा,
आयु, वषय इ या द अनेक कम कृ तयोको येक भेदसे लेनेपर जो वचार इस ल धसे नकलते है वे
अपूव है । जहाँ तक ल प ँचता है वहाँ तक सभी वचार करते है, परतु ा थक और भावा थक नयसे
सारी सृ का ान इन तीन श दोमे न हत है उसका वचार कोई वरला ही करता है, वह स मुख-
क प व ल धके पमे जब आये तब ादशागीका ान कस लये न हो ? 'जगत' ऐसा कहनेसे जैसे
मनु य, एक घर, एक वास, एक गाँव, एक शहर, एक दे श, एक खड, एक पृ वी इन सबको छोडकर
अस यात प समु आ दसे भरपूर व तु एकदम कैसे समझ जाता है ? इसका कारण मा इतना ही है
क इस श दक वशालताको उसने समझा है, कवा ल क अमुक वशालताको समझा है, जससे 'जगत'
यो कहते हो इतने बडे ममको समझ सकता है, इसी तरह ऋजु और सरल स पा श य न थ गु से
इन तीन श दोक ग यता लेकर ादशागीका ान ा त करते थे। और वह ल ध अ प तासे भी
ववेकपूवक दे खनेपर लेश प भी नही है ।
श ापाठ ९२ : त वावबोध-भाग ११
इसी कार नव त वके सबधमे है । जस म यवयके यपु ने 'जगत अना द है', यो बेधडक
कहकर क ाको उडाया होगा, उस पु पने या कुछ सव ताके गु त भेदके बना कया होगा? इसी तरह
जब आप इनक नद पताके वषयमे पढ़गे तब अव य ऐसा वचार करगे क ये परमे र थे । कता न
था और जगत अना द था, इस लये ऐसा कहा । इनके अप पाती और केवल त वमय वचार आपको
अव य वशोधन करने यो य ह। जैनदशनके अवणवाद मा जैनदशनको नही जानते इस लये अ याय
करते है । म समझता ँ क वे मम वसे अधोग तको ा त करगे।
इसके बाद बहत-सी बातचीत ई। सगोपा इस त वका वचार करनेका वचन लेकर मै सहष
वहाँसे उठा था।
त वावबोधके सवधमे यह कथन कहा गया । अनंत भेदसे भरे ए ये त व वचार जतने कालभेदसे
जतने ेय तीत हो उतने ेय करना, जतने ा हो उतने हण करना और जतने या य दखायी
द उतने यागना।
इन त वोको जो यथाथ जानता है वह अनत चतु यसे वराजमान होता है यह मै स यतासे
कहता ँ। इन नव त वोके नाम रखनेमे भी मो क नकटताका अध सूचन मालूम होता है।
श ापाठ ९३ : त वाववोध-भाग १२
यह तो आपके यानमे है क जीव, अजीव-इस अनु मसे अतमे मो का नाम आता है। अब इ हे
एकके वाद एक रखते जाय तो जीव और मो को अतु मसे आ त रहना पड़ेगा।
जीव, अजीव, पु य, पाप, आ व, सवर, नजरा, वध, मो ।

१७ वो वष
१२७
मने पहले कहा था क इन नामोके रखनेमे जीव और मो क नकटता है । फर भी यह नकटता
तो न ई, पर तु जीव और अजीवक नकटता ई, पर तु ऐसा नह है। अ ानसे तो इन दोनोक ही
नकटता है । ानसे जीव और मो क नकटता है, जैसे क :-
अब दे खो, इन दोनोमे कुछ नकटता आई है ? हाँ, कही ई नकटता आ गई है। परतु यह
नकटता तो प है। जब भावसे नकटता आये तब सव स हो। इस नकटताका साधन
स परमा मत व, स त व और स मत व है। केवल एक ही प होनेके लये ान, दशन और
चा र हे।
इस च से ऐसी भी आशंका हो सकती है क जब दोनो नकट ह तब या बाक का याग करना?
उ रमे यो कहता ँ क य द सबका याग कर सकते हो तो याग कर दो, जससे मो प ही हो जाओगे।
नही तो हेय, ेय, उपादे यका बोध लो, इससे आ म स ा त होगी।
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श ापाठ ९४ : त वावबोध-भाग १३
जो जो म कह गया ँ वह सब केवल जैनकुलमे ज म पानेवाले पु षोके लये नही है पर तु सबके
लये है। इसी तरह यह भी नशक माना क मै जो कहता ँ वह अप पातसे और परमाथबु से
कहता ँ।
तुमसे जो धमत व कहना है वह प पात या वाथवु से कहनेका मुझे कोई योजन नही है।
प पात या वाथसे म तु हे अधमत वका बोध दे कर अधोग तको कस लये साधू ? वारवार म तुमसे
न थके वचनामृतके लये कहता ँ, उसका कारण यह है क वे वचनामृत त वमे प रपूण ह । जने रो-
के लये ऐसा कोई भी कारण न था क जसके न म से वे मृपा या प पाती वोध दे त, े और वे अ ानी
भी न थे क जससे मृषा उपदे श दया जाय । आशका करगे क वे अ ानी नही थे यह कस माणसे
मालूम हो ? तो इसके उ रमे कहता ँ क उनके प व स ा त के रह यका मनन करो; और जो ऐसा
करेगा वह तो फर लेश भी आशका नही करेगा। जनमत वतकोने मुझे कोई भूरसी द णा नही द है.
और वे मेरे कोई कुटु ब-प रवारी भी नही ह क उनके प पातसे म तु हे कुछ भी कह ं । इसी तरह
अ यमत वतंकोके त मेरी कोई वैरवु नही है क म या ही उनका खडन क ँ । दोनोके त म तो

ँ े े औ े ी ँ ी ँ े े
मदम त म य थ प ँ। ब त ब त मनन करनेसे और मेरी म त जहाँ तक प ंची वहाँ तक वचार करनेसे

१२८
ीमद राजच
मै दनयगवक इतना कहता है क य भ ो । जेन जैसा एक भी पूण और प वन दशन नह है, वीतराग
जेन, 14 मी दे व नही , तैरकर अनत खसे पार पाना हो तो इस सव -दशन प क पवृ का सेवन
श ापाठ ९५ : त दावबोध--भाग १४
मैनदशन इतनी अ धक सू म वचारसकलनासे भग या दशन है क जसमे वश करनेमे भी
बहत उ चा हये। ऊपर-ऊपरसे या कसी तप ीके कहनेसे अमक व तुसबधी अ भ ाय वना लेना या
अ भ ाय दे दे ना, यह ववेक का कत नह है। एक तालाव सपूण भरा आ हो, उसका जल ऊपरसे
समान लगता है, पर तु यो- यो आगे चलते है यो यो अ धक-अ धक गहराई आती जाती है, फर भी
ऊपर तो जल मपाट ही रहता है, इसी कार जगतके सभी धममत एक तालाब प है। उ हे ऊपरसे
सामा य सतह दे खकर समान कह दे ना यह उ चत नह है। यो कहनेवाले त वको पाये ए भी नही है ।
जैनके एक एक प व स ा तपर वचार करते ए आयु भी पूण हो जाये तो भी पार न पाये, ऐसी
थ त है। बाकोके सभी धममतोके वचार जन णीत वचनामृत सधुके आगे एक ब प भी नही ह।
जसने जैनदशनको जाना और सेवन कया वह सवथा नीरागी और मव हो जाता है। इसके पवतक
कैसे प व पु ष थे? इसके स ात कैमे अखड, संपूण और दयामय है ? इसमे षण कोई भी नही है ।
सवथा नद ष तो मा इनका दशन है। ऐसा एक भी पारमा थक वषय नही है क जो जैनदशनमे न हो
और ऐसा एक भी त व नह है क जो जैनदशनम नह है। एक वषयको अनत भेद से प रपूण कहने.
वाला तो जैनदशन ही है। योजनमत त व इसके जैसे कही भी नह ह। एक दे हमे दो आ मा नही है
इसी कार सारी सृ मे दो जैन अथात् जैनके तु य एक भी दशन नही है। ऐसा कहनेका कारण या ?
मा उसक प रपूणता, नीरा गता, स यता और जग हतै षता।
श ापाठ १६ : त वावबोध-भाग १५
यायपूवक इतना मुझे भी मा य रखना चा हये क जब एक दशनको प रपूण कहकर बात स
करनी हो तब तप को म य थव से अपूणता दखानी चा हये । और इन दो बातोपर ववेचन करने
जतना यहा थान नह है, तो भी थोड़ा थोडा कहता आया ँ। मु यत. जो बात है वह यह है क मेरी
यह बात जसे चकर न लगती हो या अस भव लगती हो' उसे जनत व व ानी शा ोको और अ य
त व व ानी शा ोको म य थबु से मनन करके यायके काटे पर तौलना चा हये । इसपरसे अव य ही
इतना महावा य फ लत होगा क जो पहले डकेक चोटसे कहा गया था वह सच था ।
__ जगत भे डयाधसान है। धमके मतभेदस ब धी श ापाठमे द शत कये अनुसार अनेक धममतो-
का जाल फैला आ है। वशु आ मा कोई ही होता है। ववेकसे कोई ही त वको खोजता है । इस लये
मुझे कुछ वशेप खेद नही है क अ य दाश नक जैनत वको कस लये नही जानते ? यह आशका करने
यो य नही है।
फर भी मुझे ब त आ य लगता है क केवल शु परमा मत वको पाये ए, पकल षणर हत,
मृपा कहनेका ज हे कोई न म नही है ऐसे पु षोके कहे ए प व दशनको वय तो जाना नह , अपने
आ माका हत तो कया नही, पर तु अ ववेकसे मतभेदमे पडकर सवथा नद ष और प व दशनको
ना तक कस लये कहा होगा ? म समझता ँ क ऐसा कहनेवाले इसके त वोको जानते न थे। तथा
इसके त वोको जाननेसे अपनी ा बदल जायेगी, तब लोग फर अपने पहले कहे ए मतको नह मानगे,

१२९
जस लो कक मतसे अपनी आजी वका चल रही है, ऐसे वेदोक मह ा घटानेसे अपनो महता घटे गो,
अपना म या था पत कया आ परमे रपद नही चलेगा, इस लये जैनत वमे वेश करनेक वको
मूलसे ही बद करनेके लये लोगोको ऐसी मभ म द क जैनदशन ना तक है। लोग तो बेचारे भोले
भेड ह, इस लये वे फर वचार भी कहाँसे करे? यह कहना कतना अनथकारक और मृषा है, इसे दे ही
जानते है ज होने वीतराग णीत स ा त ववेकसे जाने ह। सभवतः मदबु मेरे कहनेको प पातपूण
मान ल।
श ापाठ ९७ : त वावबोध-भाग १६
प व जैनदशनको ना तक कहलवानेमे वे एक दलीलसे थ ही मफल होना चाहते है क जेन-
दशन इस जगतके कता परमे रको नही मानता, और जो परमे रको नह मानता वह तो ना तक ही
है। यह बात भ क जनोको शी जम जाती है, यो क उनमे यथाथ वचार करनेको ेरणा नह है।
पर तु य द इस परसे यह वचार कया जाये क फर जैन जगतको अना द अनत तो कहता है तो कस
यायसे कहता है ? जगतकता नही है यो कहनेमे इसका कारण या है ? यो एकके बाद एक भेद प
वचारसे वे जैनक प व ताको समझ सकते ह। जगतको रचनेक परमे रको या आव यकता थी?
रचा तो सुख- ख रखनेका या कारण था ? रचकर मौत कस लये रखी ? यह लोला कसे दखानी
थी? रचा तो कस कमसे रचा? उससे पहले रचनेको इ छा यो नही थी? ई र कान है ? जगतके
पदाथ या है ? और इ छा या है ? रचा तो जगतमे एक ही धमका वतन रखना था, यो ममे
डालनेक या आव यकता थी ? कदा चत् मान ल क यह सब उस बेचारेसे भूल ई । खैर, मा कर,
पर तु ऐसी सवाई बु कहाँसे सूझी क उसने अपनेको ही जड-मूलसे उखाड़नेवाले महावीर जैसे पु षोको
ज म दया ? इनके कहे ए दशनको जगतमे यो व मान रखा ? अपने हो हाथसे अपने ही पाँव पर
कु हाडी मारनेक उसे या आव यकता थी ? एक तो मानो इस कारले वचार और बाक सरे कार-

े े ै े ो ो े ोई े ो ो ो े े े
से ये वचार क जैनदशनके वतकोको इससे कोई े ष था ? यह जग का होता तो यो कहनेसे उनके
लाभको कोई हा न प ँचती थी ? जगतकता नही है, जगत अना द अनत हे वो कहनेमे उ हे कुछ मह ा
भल जाती थी ? ऐसे अनेक वचार करनेसे मालूम होगा क जैसा जगतका व प था वैसा ही उन प व
पु षोने कहा है। इससे भ पमे कहनेका उ हे लेशमा योजन नही था। सू मसे सू म जीवक
र ाका ज होने वधान कया है, एक रजकणसे लेकर सारे जगतके वचार ज होने सव भेद से कहे है,
ऐसे पु ष के प व दशनको ना तक कहनेवाले कस ग तको ा त होगे यह सोचते ए दया आती है।
श ापाठ ९८ : त वावबोध-भाग १७
जो यायसे जय ा त नही कर सकता वह फर ना लयाँ दे ने लगता है, इसी तरह जब शकराचाय,
दयान द सं यासी इ या द प व जैनदशनके अख ड त व- स ा तोका ख डन नही कर सके तव फर वे
'जैन ना तक है', 'वह चावाकमेसे उ प आ है', ऐसा कहने लगे। पर तु यहाँ कोई करे क
महाराज । यह ववेचन आप बादमे करे । ऐसे श द कहनेमे कुछ समय, ववेक या ानक ज रत नही
है, पर तु इसका उ र द क जैनदशन वेदसे कस बातमे कम है, इसका ान, इसका बोध, इसका
रह य और इसका स शील कैसा है उसे एक बार कहे | आपके वेद वचार कस वपयमे जैनदशनसे
उ म ह ? इस कार जब बात मम थानपर आती हे तव मौनके सवाय उनके पास सरा कोई साधन
नही रहता। जन स पु पोके वचनामृत और योगवलसे इस सृ मे स य, दया, त व ान और महाशील

१३०
ीमद् राजच
उदयको ा त होते है, उन पु षोक अपे ा जो पु ष शृगारमे रचे पचे पडे है, सामा य त व ानको भो
नही जानते, जनका आचार भी पूण नह है, उ हे उ म कहना, परमे रके नामसे था पत करना,
स य व पक न दा करना तथा परमा म व पको ा त पु षोको ना तक कहना, यह सब उनक कतनी
अ धक कमक ब लताका सूचन करता है । पर तु जगत मोहा ध है, जहाँ मतभेद है वहाँ अँधेरा है, जहाँ
मम व या राग है वहाँ स यत व नही है यह बात हम कस लये न वचार?
म एक मु य बात तुमसे कहता ँ क जो मम वर हत और याययु है। वह यह है क तुम
चाहे जस दशनको मानो, फर चाहे जो तु हारी मे आये वैसे जैनदशनको कहो, सब दशन के
शा त वको दे खो उसी तरह जैनत वको भी दे खो। वत आ मक श से जो यो य लगे उसे
अगीकार करो। मेरी या कसी सरेक बातको भले एकदम तुम मा य न करो, पर तु त वका
वचार करो।
श ापाठ ९९ : समाजक आव यकता
आ लभौ मक ससारस ब धी अनेक कला-कौशलमे कस कारणसे वजयको ा त ए ? यह
वचार करनेसे हमे त काल मालम होगा क उनका ब त उ साह और उस उ साहमे अनेकोका मल
जाना उनक वजयका कारण है। कला-कौशलके इस उ साही काममे उन अनेक पु षोक खडी ई
सभा या समाजने या प रणाम पाया ? तो उ रमे यह कहा जायेगा क ल मी, क त और अ धकार ।
उनके इस उदाहरणसे उस जा तके कला-कौशलोक खोज करनेका म यहाँ उपदे श नही करता, पर तु यह
बतलाता ँ क सव भगवानका कहा आ गु त त व माद थ तमे आ पड़ा है, उसे का शत करनेके
लये तथा पूवाचाय के रचे ए महान शा ोको एक करनेके लये, ग छोके पड़े ए मतमता तरको
र करनेके लये तथा धम व ाको फु लत करनेके लये सदाचारी ीमान और धीमान दोनोको
मलकर एक महान समाजक थापना करनेक आव यकता है। प व या ादमतके ढं के ए त वको
स मे लानेका जब तक य न नही होता तब तक शासनक उ त भी नही होगी। संसारी कला-
कौशलसे ल मी, क त और अ धकार मलते ह, पर तु इस धमकलाकौशलसे तो सव स स ात
होगी। महान समाजके अ तगत उपसमाज था पत करना। सा दा यक बाडेमे बैठे रहनेक अपे ा
मतमता तर छोडकर ऐसा करना उ चत है। मै चाहता ँ क इस कृ यक स होकर जैनके अ तग छ-
मतभेद र हो, स य व तुपर मनु य म डलका यान आओ और मम व जाओ।
श ापाठ १०० : मनो न हके व न
वारवार जो बोध करनेमे आया है उसमेसे मु य ता पय यह नकलता है क आ माको तारो और
तारनेके लये त व ानका काश करो तथा स शीलका सेवन करो। इसे ा त करनेके लये जो-जो माग
वतलाये है वे सब माग मनो न हके अधीन है। मनो न हके लये ल यक वशालता करना यथो चत है।
इसमे न न ल खत दोष व न प है .-
१ आल य
७ अकरणीय वलास
२ अ नय मत न ा
८ मान
३ वशेष आहार
९ मयादासे अ धक काम
४ उ माद कृ त
१० आ म शसा
५ माया पच
११ तु छ व तुसे आन द
६. अ नय मत काम
१२. रसगारवलु धता
१३१
१३ अ तभोग
१६. ब तोका नेह
१४ सरेका अ न चाहना
१७ अयो य थानमे जाना
१५ न कारण कमाना
१८ एक भी उ म नयमको स नही करना।
अ ादश पाप थानकका य तव तक नही होगा जब तक इन अ ादश व न से मनका स ब ध
है। ये अ ादश दोप न होनेसे मनो न ह और अभी स हो सकती है। जब तक ये दोष मनसे
नकटता रखते है तब तक कोई भी मनु य आ मसाथकता नही कर सकता। अ त भोगके थानपर
सामा य भोग नही पर तु जसने सवथा भोग यागवत धारण कया है तथा जसके दयमे इनमेसे एक
भी दोषका मूल नही है वह स पु ष बडभागी है ।
श ापाठ १०१ : मृ तम रखने यो य महावा य
१ एक भेदसे नयम ही इस जगतका वतक है।
२ जो मनु य स पु षोके च र रह यको पाता है वह मनु य परमे र हो जाता है।
३ चचल च हो सव वषम खोका मूल है।
४ ब तोका मलाप और थोडोके साथ अ त समागम ये दोनो समान खदायक है।
५ सम वभावीका मलना इसे ानी एका त कहते ह।
६ इ यां तु हे जीत और तुम सुख मानो इसक अपे ा उ हे जीतनेमे हो तुम सुख, आन द
और परमपद ा त करोगे ।
७ रागके वना ससार नही और ससारके बना राग नही ।
८ युवाव थाका सवसगप र याग परमपदको दे ता है।
९ उस व तुके वचारमे लगो क जो व तु अती य व प है।
१० गुणोके गुणमे अनुर होओ।
श ापाठ १०२ व वध -भाग १
आज मै तुमसे कतने ही न थ वचनके अनुसार उ र दे नेके लये पूछता ँ।
०-कहो धमक आव यकता या है ?
उ०-अना दकालीन आ माके कमजालको र करनेके लये ।
०-जीव पहले या कम?
उ०-दोनो अना द ही है, य द जीव पहले हो तो इस वमल व तुको मल लगनेका कोई न म
चा हये । कम पहले कहो तो जीवके वना कम कये कसने ? इस यायसे दोनो अना द ही है।
०-जीव पी या अ पी?
उ०- पी भी है और अ पी भी है।
०-- पी कस यायसे और अ पी कस यायसे ? यह कहो ।
उ.-दे हके न म से पी और व व पसे अ पी है।
०-दे ह न म कस कारणसे है ?
उ०- वकमके वपाकसे ।
०-कमक मु य कृ तयाँ कतनी ह ?
उ०-आठ।

१३२
ीमद् राजच
.-कौन कौन-मी?
उ०- ानावरणीय, दशनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गो , आयु और अ तराय ।
०-इन आठो कम क सामा य जानकारी दो।
उ०- ानावरणीय आ माक ानस ब धी जो अन त श है उसका आ छादन करता है।
दशनावरणीय आ माक जो अन त दशनश है उसका आ छादन करता है। वेदनीय अथात् दे ह न म से
साता असाता दो कारके वेदनीय कम से अ ाबावसुख प आ माक श जससे अव रहती है
वह । मोहनीय कमसे आ मचा र प श अव रही है। नामकमसे अमूत प द श अव
रही है। गो कमसे अटल अवगाहना प आ मश अव रही है। आयुकमसे अ य थ त गुण अव
रहा है । अ तरायकमसे अन त दान, लाभ, वीय, भोग और उपभोगक श अव रही है।
श ापाठ १०३ : व वध - भाग २
०-इन कौके र होनेसे आ मा कहाँ जाता है ?
उ.--अन त और शा त मो मे ।
०-इस आ माका मो कभी आ है ?
उ०-नही।
०-कारण ?
उ०--मो ा त आ मा कममलर हत है, इस लये उसका पुनज म नह है।
०--कवलीके ल ण या ह ?

ी े औ े ो े ो ो
उ०-चार पनघाती कमाका य करके और शेष चार कम को बल करके जो पु ष योदश
गुण थानमे वहार करता है।
०-गुण यानक कतने ?
उ०-चौदह ।
०-उनके नाम कहो।
उ०- १ म या व गुण थानक
८ अपूवकरण गुण थानक
२ मा वादन गुण थानक
९ अ नवृ बादर गुण थानक
३ म गुण थानक
१० सू मसापराय गुण थानक
४ अ वर तस य गुण थानक ११ उपशातमोह गुण थानक
५ दे श वर त गुण थानक
१२ ीणमोह गुण थानक
६ म संयत गुण थानक १३ सयोगीकेवली गुण थानक
७ अ म सयत गुण थानक १४ अयोगीकेवली गुण थानक
श ापाठ १०४ : व वध -भाग ३
० केवली और तीथकर इन दोनोमे या अ तर है?
उ०-केवली और तीथकर श मे समान है, पर तु तीथकरने पूवमे तीथकरनामकमका उपाजन
कया है, इस लये वे वशेष पसे बारह गुण और अनेक अ तशय ा त करते ह।
०-तीथकर पयटन करके कस लये उपदे श दे ते है ? वे तो नीरागी है।
उ०–पूवमे जो तीथकरनामकम बाँधा है उसे वेदन करनेके लये उ हे अव य ऐसा करना
पड़ता है।

१३३
१७ वाँ वष
०-अभी वतमान शासन कसका है ?
उ०- मण भगवान महावीरका ।
०-महावीरसे पहले जैनदशन था ?
उ०-हाँ।
०-उसे कसने उ प कया था ?
उ०-उनसे पहलेके तीथकरोने ।
०-उनके और महावीरके उपदे शमे कोई भ ता है या?
उ०-त व व पसे एक ही है । पा को लेकर उपदे श होनेसे और कुछ कालभेद होनेसे सामा य
मनु यको भ ता अव य मालूम होती है, पर तु यायसे दे खते ए यह भ ता नही है ।
०-उनका मु य उपदे श या है ?
उ.-आ माको तारो, आ माक अनत श योका काश करो और उसे कम प अनंत .खसे
मु करो।
०-इसके लये उ होने कौनसे साधन बताये ह ?
उ०- वहारनयसे सदे व, स म और स का व प जानना, सदे वका गुणगान करना,
वध धमका आचरण करना और न थ गु से धमका बोध पाना ।
०- वध धम कौनसा ?
उ०-स य ान प, स य दशन प और स य चा र प ।
श ापाठ १०५ : व वध -भाग ४
०-ऐसा जैनदशन जब सव म है तब सभी आ मा इसके वोधको यो नही मानते ?
उ०-कमको ब लतासे, म या वके जमे ए दलसे और स समागमके अभावसे ।
०—जैनमु नय के मु य आचार या है ?
उ.-पाँच महा त, दश वध य तधम, स तदश वध सयम, दश वध वैयावृ य, नव वध चय,
ादश कारका तप, ोधा दक चार कारके कषायका न ह, इनके अ त र ान, दशन और चा र -
का आराधन इ या द अनेक भेद हे ।
.-जैनम नयोके जैसे ही स या सयोके पांच याम है, बौ धममे पाँच महाशील है। इस लये इस
आचारमे तो जैनमु न, स यासी तथा बौ मु न एक-से है न ?
उ०-नही।
०— यो नही?
उ.-उनके पाँच याम और पाँच महाशील अपूण है । महा तके तभेद जैनमे अ त सू म ह।
उन दोन के थूल ह।
०-सू मताके लये कोई ा त भी तो दो ।
उ०— ा त य ही है । पचयामी कदमूला दक अभ य खाते है, सुखश यामे सोते है, व वध
कारके वाहनो और पु पोका उपभोग करते ह, केवल शीतल जलसे वहार करते है, रा मे भोजन
करते है । इसमे होनेवाला अस यात जतुओका वनाश, चयका भग इ या दक सू मता वे नही जानते ।
१९ वाँ वष
१८
.
ववा णया, म २६-१-८-१९
मुकुटम ण रवजीभाई दे वराजको प व सेवामे,
ववा णया बदरसे व० रायचंद व० रवजीभाई मेहताका ेमपूवक णाम मा य क जयेगा। य
मै धम- भाव वृ से कुशल ँ। आपक कुशलता चाहता ँ। आपका द ेमभावभू पत प मझे मल
पढकर अ यानदाणवतरग उमड आई है । द ेमका अवलोकन करके आपका परम मरण हो आया है
ऐसे ेम भरे प नरतर मलते रहनेका नवेदन है, और उसे वीकृत करना आपके हाथक बात है। इन
लये च ता जैसा नही है। आपके ारा पूछे गये ोके उ र यहाँ तुत करनेक अनुम त लेता ँ।
वेशक.-आपका लखना उ चत है। व व पका च ण करते ए मनु य झझकता ज र है
परतु व व पमे जब आ म तु तका क चत् अश मल जाये तब, नही तो कदा प नही, ऐसा मेरा अ भ ा
है । आ म तु तका सामा य अथ भी ऐसा होता है क अपनी झूठ आपबडाई च त करना, अ यथा व
आ म तु तका उपनाम ा त करती है, परतु यथाथ च ण वैसा नही कहा जाता। और य द यथा
व पको आ म तु त माना जाये तो फर महा मा या तमे आवे ही कैसे ? इस लये आपके पूछनेप
व व पक स यता क चत् बताते ए यहाँ मने सकोच नही कया है, और तदनुसार करते ए म याय
पूवक दोषी भी नही आ ँ।
अ-ब बई- नवासी प डत लालाजीके अवधानोके सवधमे आपने ब त-कुछ पढा होगा । ये प डत
राज अ ावधान करते है, जो हद स है।
यह लखनेवाला बावन अवधान खुले आम एक बार कर चुका है, और उसमे यह वजयी स ह
सका है। वे बावन अवधान-
१ तीन योके साथ चौपड खेलते जाना
२ तीन योके साथ ताश खेलते जाना
३ एक के साथ शतरज खेलते जाना
४ झालरके बजते टकोरे गनते जाना
५ जोड, बाक , गुणाकार एव भागाकार मनमे गनते जाना
६ मालाके मनकेपर यान रखकर गनती करना
७ आठे क नयी सम याओक पू त करना।
८ ववादकोसे न द सोलह नये वषयोपर न द छदोमे रचना करते जाना
९ ीक, अं ेजी, स कृत, अरबी, ले टन, उ , गुजराती, मराठ , बगालो, मारवाडी, जाडेजी
आ द सोलह भाषाओके अनु म वहीन चारसी श द कता-कमस हत पुन. अनु मब ं
कह सुनाना, बीचमे सरे काम भी करते जाना
१० व ाथ को समझाना
११ क तपय अलकारोका वचार ।

१३४
ीमद राजच
इसी कार बौ मु न मासा दक अभ य और सुखशील साधन से यु ह। जैनमु न तो इनसे सव
वर हो ह।
श ापाठ १०६ : व वध -भाग ५
०-वेद और जैनदशनमे तप ता है या ?
उ०-जैनदशनक वेदसे कसी े षसे तप ता नही है, पर तु जैसे स यका अस य तप
गना जाता है वैसे जैनदशनसे वेदका सबध है।
०-इन दोनोमे आप कसे स य प कहते ह ?
उ०-प व जनदशनको। -
०-वेददशनवाले वेदको कहते ह, उसका या ?
उ०-यह तो मतभेद और जैनदशनके तर कारके लये है। पर तु यायपूवक दोन के मूलतत
आप दे ख जाइये।
०-इतना तो मुझे लगता है क महावीरा दक जने रोका कथन यायके कॉटे पर है, परन
जगतकताका वे नषेध करते है, और जगत अना द अनत है ऐसा कहते है, इस वषयमे कुछ कुछ शव
होती है क यह अस यात प-समु यु जगत बना बनाये कहाँसे आ ?
उ०—आपको जब तक आ माक अनत श क लेश भी द साद नही मली तब तक ऐस
लगता है, पर तु त व ानसे ऐसा नही लगेगा। 'स म ततक' थका आप प रशीलन करगे तो यह शंक
र हो जायेगी।
०-परतु समथ व ान अपनी मृषा बातको भी ाता दकसे सै ा तक कर दे ते है, इस लए
वह ख डत नही हो सकती, पर तु वह स य कैसे कही जाये ?
उ०-पर तु उ हे कुछ मृषा कहनेका योजन न था, और थोडी दे रके लये यो माने क हमे ऐसे
शंका ई क यह कथन मषा होगा तो फर जगतकताने ऐसे पु षको ज म भी यो दया ? नामडु बाउ
पु को ज म दे नेका या योजन था ? और फर वे स पु ष सव थे, जगतकता स होता तो ऐस
े े े ी
कहनेसे उ हे कुछ हा न न थी।
श ापाठ १०७ : जने रको वाणी
( मनहर छ द)
*अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली,
अनंत अनंत नय न ेपे ा यानी छे ;
सकल जगत हतका रणी हा रणी मोह,
ता रणी भवा ध मो चा रणी माणी छे ;
उपमा आ यानी जेने तमा राखवी ते थ,
आपवाथी नज म त मपाई मे मानी छे ;
*भावाथ- जने रक वाणी अनतानत भावभेद से भरी ई है, इस लये मनोहर है, अनतानत नय- न ेपो-
से जसक ा या क गई ह, जो सकल जगतका हत करनेवाली, मोहको हरनेवाली, भवसागरसे तारनेवाली है और
जसे मो दे नेके लये समध एव माणभूत माना है, जसे उपमा दे नेक लालसा रखना थ है, और उपमा दे नसे े

१७ वॉ वष
१३५
अहो ! राजच , बाळ याल नथी पामता ए,
जने र तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे ॥१॥
श ापाठ १०८ : पूणमा लका मंगल
(उपजा त )
*तपोप याने र व प थाय,
ए साधीने सोम रही सुहाय;
महान ते मंगळ पं पामे,
आवे पछ ते बुधना णामे ॥१॥
न थ ाता गु स दाता,
कां तो वयं शु पूण याता;
योग यां केवळ मंद पामे,
व प स े वचरी वरामे ॥२॥
अपनी म तका माप नकल जाता है, ऐसा मने माना है। राजच कहते ह क यह कतना आ य है क अ ानी
जीवोको जनवाणीका याल भी नही आता अथात् वे उसक म हमाको नही जानते ह। जने रक वाणीको जसने
जाना है उसीने जाना है ॥१॥
*भावाय-आ मा तप और यानसे सूयक भां त तेज वी होता है। तप और यानक स से शा त तथा
शीतल होकर आ मा च फ तरह शोभता है। फर महामगलक महापदवीको ा त होता है। फर वह बुधफे प र-
णामम आता है अथात् वो घ व प हो जाता है ।। १ ।।
फर वह स दाता एव ाता न थ गु अथवा पूण ा याता वय शु का थान हण करता है। उस
दशाम योग सवथा मद हो जाते ह। प रणामत आ मा व प स होनेपर ऊ वगमन करके स ालयम
वराजता है ॥२॥

१९वां वष
१३७
इस कार कये गये बावन अवधानोके सवधमे लखनेक यहाँपर पूणा त होती है।
ये बावन काम एक समयमे एक साथ मनःश मे धारण करने पड़ते है। अ ात भाषाके वकृत
अ र सुकृत करने पड़ते ह। स ेपमे आपसे कह दे ता ँ क यह सब याद ही रह जाता है। (अभी तक
कभी व मृ त नही ई है ।) इसमे ब त-कुछ मम समझना रह जाता है। पर तु दलगीर ँ क वह समझाना
य मे ही सभव है। इस लये यहाँ लखना वृथा है। आप न य क जये क यह एक घटे का कतना
कौश य है ? स त हसाब गन तो भी बावन ोक तो एक घंटेमे याद रहे या नही? सोलह नये
( वषय), आठ सम याएँ, सोलह भ - भ भाषाके अनु म वहीन अ र और बारह सरे काम कुल
मलाकर एक व ानने गनती करनेपर मा य रखा था क ५०० ोकोका मरण एक घटे मे रह सकता
है। यह बात अब यहॉपर इतनेसे ही समा त कर दे ते है।
आ-तेरह महीने हए दे होपा ध और मान सक ा धके प रचयसे कतनी ही श दबाकर रखने
जैसी ही हो गई है। ( बावन जैसे सौ अवधान तो अभी भी हो सकते है। ) नही तो आप चाहे जस
भाषाके सौ ोक एक बार बोल जाये तो उ हे पुनः उसी कार मृ तमे रखकर कह सुनानेक समथता
इस लेखकमे थी। और इसके लये तथा अवधानोके लये इस मनु यको 'सर वतीका अवतार' ऐसा उप-
नाम मला हआ है। अवधान आ मश का काय है, यह मुझे वानुभवसे तीत हआ है। आपका परत
ऐसा है क "एक घटे मे सौ ोक मरणमे रह सकते है ?" इसक मा मक प ता तो उपय वषय
कर ही दगे, ऐसा मानकर उसे यहाँ नही लखा है। आ य, आन द और सदे हमेसे अब आपको जो यो य
लगे उसे हण कर।
इ-मेरी या श है ? कुछ भी नही। आपको श अ त है । आप मेरे लये आ यच कत
होते है और मै आपके लये आन दत होता ँ।
आप सर वती स करनेके लये काशी े क ओर पधारनेवाले है, यह पढकर मै अ यानद-कुशल

ँ ौ े े ै ौ
आ ँ। अ तु । आप कौनसे यायशा क बात करते है ? गौतम मु नका या मनु मृ त, ह धमशा .
मता रा, वहार, मयूख आ द ाचीन याय थ या आधु नक टश लॉ करण ? इसक प ता
मुझे नही ई। मु नका यायशा मु - करणमे समा व होने यो य है । सरे थ रा य- करणमे-
" टशमा माठा"-समा व होते ह । तीसरा खास टशके लये ही है, पर तु वह अं ेजीमे है। तो
अब आपने इनमेसे कसे पस द कया है ? यह मम खुलना चा हये । य द मु नशा और ाचीन शा के
सवाय गना हो तो इसका अ यास काशीमे नही होता । पर तु मे युलेशन पास होनेके बाद ब बई और
पूनामे होता है। सरे शा समयानुकूल नही ह। आपका वचार जाने बना ही यह सब लख डाला
है। पर तु लख डालनेमे भी एक कारण है। वह यह है क आपने साथमे अं ेजी व ा यासक बात
लखी है, तो म मानता ँ क इसमे आप कुछ भूल करते होगे। ब बईक अपे ा काशीक तरफ अं ेजी-
अ यास कुछ उ कृ नही है; जब उ कृ न हो तव र जानेका हेतु कुछ और होगा। आप लख तो
जान, तब तक शंका त ँ।
१ मुझे अ यासके बारेमे पूछा है इसक जो प ता मुझे करनी है, वह उपयु वातक प ता
ए बना नह क जा सकती; और जो प ता म करनेवाला ँ वह दलील से क ँ गा।
ानवधक सभाके व थापकका उपकार मानता , ँ यो क वे इस अनुचरके लये क उठाते ह।
यह सारी प ता स ेपमे कर द है। वशेषक आव यकता हो तो पू छये।
१ यह कसी थका नाम है।

२० वाँ वष
१९
- 'महानी त
(वचन स तशती)
१. स य भी क णामय बोलना।
२. नद ष थ त रखना।
३. वैरागी दय रखना।
४. दशन भी वैरागी रखना।
५ पहाड़क तलहट मे अ धक योग साधना ।
६ बारह दन प नी संसगका याग करना।
७ आहार, वहार, आल य, न ा इ या दको वशमे करना।
८. संसारक उपा धसे यथासंभव वर रहना।
९. सव-संगउपा धका याग करना।
१०. गृह था मको ववेक वनाना।
११. त वधमको सव तासे णीत करना।
१२ वैरा य और ग भीरभावसे बैठना।
'१३. सारी थ त वैसी हो।।
१४. ववेक , वनयी ओर य भी मया दत बोलना।
१५. साह सक काय करनेसे पहले वचार करना । .
१६. येक कारसे मादको र करना ।
१७ सभी काय नय मत हो रखना।
१८. श ल भावसे मनु यका मन हरना ।
१९. सर जाते ए भी त ा भंग न करना।
२०. मन, वचन और कायाके योगसे परप नीका याग ।
२१. इसी कार वे या, कुमारी, वधवाका याग।।
२२ मन, वचन और कायाका अ वचारसे उपयोग न क ँ ।
, - । २३. नरी ण नह क ँ ।
२४. हावभावसे मो हत न होऊँ।
२५. वातचीत नही क ँ ।
२६. एका तमे नही र ँ।
-
२७ तु त नही क ँ ।
१. दे ख आक २१ म न० १६ तथा आक २७ ।

२०वाँ वष
१३९
२८ चतन नही क ँ ।
२९ ृंगार-सा ह य नही पढूँ ।
३०. वशेष साद नही लूँ।
३१ वा द भोजन नही ल।
३२. सुगंधी का उपयोग नही क ं ।
३३. नान व मजन नह क ं ।
३४.
३५. काम वषयको ल लत भावसे नही चा ँ।
३६. वीयका ाघात नही क ँ ।
३७ अ धक जलपान नही क ं ।
३८ कटा से ीको नही दे खू ।
३९ हँसकर बात नही क ं । ( ीसे)
४० शृ ारी व नह दे खू ।
४१ दपती-सहवासका सेवन नही क ँ ।
४२. मोहनीय थानकमे नही र ँ।
४३. इस कार महापु षोको पालन करना चा हये । मै पालन करनेमे य नशील ँ।
४४ लोक नदासे नह ड ।
४५. रा यभयसे त न होऊँ।
४६ अस य उपदे श नही ँ।
४७ सदोष या नह क ं ।
४८ अहंपद रखू या बोलू नही ।
४९ स यक् कारसे व क ओर क ँ।
५० न वाथभावसे वहार क ँ ।
५१ अ यमे मोहनी उ प करनेवाला दे खाव नही क ।
५२ धमानुर दशनसे वचरण क ं ।
५३. सब ा णयोमे समभाव रखू।
५४. ोधी वचन नही बोलूं।
५५ पापी वचन नही बोलू।
५६ अस य आ ा नही ँ।
५७. अप य त ा नही ँ।
५८ सृ सौदयमे मोह नही रखू।
५९ सुख- ःखमे समभाव रखू।
६०. रा भोजन नही क ं ।
६१ नशीली व तुका सेवन नही क ।
६२ ाणीको ख दे नेवाला अस य नही बोलू। .
६३ अ त थका स मान क ँ ।
६४ परमा माक भ क ं।
६५. येक वयबु को भगवान मानूं।

१४०
ीमद राजच
६६. उसक त दन पूजा क ं ।
६७ व ानोका स मान क ं ।
६८. व ान से माया नही क ँ ।
६९ मायावीको व ान नही क ँ।
७० कसी दशनक नदा नही क ं ।
७१. अधमक तु त नही क ं ।
७२ एक प ीय मतभेद नही बनाऊँ ।
७३ अ ान प क आराधना नही क ँ ।
७४ आ म शसा नही चा ँ।
७५ कसी कृ यमे माद नही क ं ।
७६. मासा दक आहार नही क ं ।
७७. तृ णाको शांत क ं ।
७८ तापसे मु होनेमे मनो ता मान ।
७९ उस मनोरथको पूरा करनेके लये परायण होऊँ।
८० योगसे दयको शु ल क ँ ।।
८१. अस य माणसे वातापू त नही क ँ ।
८२ असंभव क पना नही क ँ ।
८३ लोक-अ हतका वधान नही क ँ ।
८४. ानीक नदा नही क ं ।
८५ वैरीके गुणक भी तु त क ं ।
८६. कसीसे वैरभाव नही रखू।
८७. माता- पताको मु मागपर चढाऊँ।
८८. सुमागसे उनका बदला चुकाऊँ।
८९ उनक म या आ ा नही मान।
९०. व ीसे समभावसे वताव क ं ।

े ी
९२ ज द से नही चल।
९३ ती वेगसे नही चलूं।
९४ ठकर नही चलू।
९५. उ छृ ङ् खल व नही पहन।
९६ व का अ भमान नही क ँ ।
९७. अ धक बाल नही रखू ।
९८ तग व नही पहन।
९९. अप व व नही पहनूं।
१०० ऊनके व पहननका य न क । । -- - ... ...
१०१ रेशमी व का याग क ं ।
१०२ शात चालसे चलूं।
१०३ म या आडंबर नही क ं ।
.

१४१
२०वां वष
१०४. उपदे शकको े षसे नही दे खू ।
१०५. े षमा का याग क ँ ।
१०६ राग से एक भी व तुका आराधन नही क ।
१०७. वैरीके स य वचनका मान क ं ।
११६ बाल नही रखू । (गृ०)
११७ कचरा नही रखू।
११८. क चड नही क ं -आँगनके पास ।
११९. मुह लेमे अ व छता नही रखू। (साधु)
१२० फटे कपडे नही रखू।।
१२१. अनछना पानी नही पीऊँ।
१२२. पापी जलसे नही नहाऊँ।
१२३. अ धक जल नही गराऊँ।
१२४ वन प तको ख नही ँ।
१२५ अ व छता नही रखू।
१२६ हरका पकाया आ भोजन नही क ँ ।
१२७. रस यक वृ नह क ं ।
१२८. रोगके बना औषधका सेवन नही क ।
१२९ वषयका औषध नही खाऊँ ।
१३०. म या उदारता नही क ं ।
१३१. कृपण नही होऊँ।
१३२. आजी वकाके सवाय कसीमे माया नही क ं ।
१३३ आजी वकाके लये धमका उपदे श नह क ँ ।
१३४ समयका अनुपयोग नही क ँ ।
१३५. बना नयम काय नही क ं ।
१३६. त ा- त नही तोडू ं।
१३७. स य व तुका खडन नही क ं ।
१३८. त व ानमे श कत नही होऊँ ।
१३९ त वका आराधन करते ए लोक नदासे नही ड ँ ।
१४०. त व दे ते ये माया नही क ं ।
१४१. वाथको धम नही क ँ।

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१४२
ीमद् राजच
१४२. चारो वगका मंडन क ँ ।
१४३ धमसे वाथ स नही क ँ ।
१४४ धमपूवक अथ कमाऊँ।
१४५ जड़ता दे खकर रोष नही क ं ।
१४६. खेदक मृ त नही लाऊँ ।
१४७. म या वका वसजन क ं । "
१४८. अस यको स य नही क ँ।
१४९. शृंगारको उ ेजन नही ँ।
१५०. हसासे वाथ नही चा ँ।
१५१. सृ का खेद नही बढाऊँ।
१५२. म या मोह उ प नही करे।
१५३. व ाके बना मूख नही र ँ।
१५४ वनयक आराधना करके र ँ।
१५५. माया वनयका याग क ँ ।
१५६ अद ादान नही ल।
१५७. लेश नही क ँ ।
१५८. द ा अनी त नही लूं।
१५९ ःखी करके धन नही लू।
१६०. झूठा तौल नही तौलूं।
१६१. झूठ गवाही नही ँ।
१६२. झूठ सौगंध नही खाऊँ ।
१६३. हँसी नही क ँ ।
१६४. मृ युको समभावसे दे खू ।
१६५. मौतसे हष मानना ।
१६६ कसीक मौतपर नही हँसना ।
१६७. दयको वरागी करता जाऊं।
१६८ व ाका अ भमान नही क ँ ।
१६९. गु का गु नही बन।।
१७० अपू य आचायक पूजा नही क ँ ।
१७१. उसका म या अपमान नही क ँ ।
१७२ अकरणीय ापार नही क ँ ।
१७३. गुणहीन व ृ वका सेवन नही क ँ ।
१७४. ता वक तप अका लक नही क ँ ।
१७५ शा पढूं ।
१७६. अपने म या तकको उ ेजन नही ं ।
१७७ सव कारक मा चा ँ।
१७८ सतोषक याचना क ं ।
१७९. वा मभ क ं।
१८०. सामा य भ क ं।

१४३
१८१. अनुपासक होऊँ।
१८२. नर भमानी होऊ ।
१८३. मनु यजा तमे भेद न गन ।
१८४. जडक दया खाऊँ ।
१८५. वशेषसे नयन ठं डे क ं ।
१८६ सामा यसे म भाव रखू ।
१८७ येक व तुका नयम क ँ ।
१८८. साद पोशाकको चा ँ।
१८९. मधुर वाणी बोलू।
१९०. मनोवीर वक वृ क ँ।
१९१ येक प रषह सहन क ँ ।
१९२ आ माको परमे र माने।
१९३ पु को तेरे मागपर चढाऊँ । ( पता इ छा करता है।)
१९४ खोटे लाड़ नही लड़ाऊँ ।
१९५ म लन नही रख ।
१९६. उलट बातसे तु त नही क ।
१९७ मोहभावसे नही दे खू।
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१९८ पु ीक सगाई यो य गुणवालेसे क ँ ।,
१९९. समवय क दे खू ।
२०० समगुणी दे खू ।
२०१ तेरे स ातका भग करनेवाला ससार वहार न चलाऊँ।
२०२ येकको वा स यका उपदे श दं ।
२०३ त वसे नही उकताऊँ ।
२०४ वधवा ँ। तेरे धमको अगीकार क ँ । ( वधवा इ छा करती है।)
२०५ सुवा सनी साज नही सजूं।
२०६. धमकथा क ं ।
२०७ नठ ली नही र ँ।
२०८. तु छ वचारपर नही जाऊँ।
२०९ सुखक ई या नही क ं ।
२१० ससारको अ न य मानूं ।
२११. शु चयका सेवन क ।
२१२. परघरमे नही जाऊँ।
२१३ कसी पु षके साथ बात नही क ँ ।
२१४ चचलतासे नही चले।
२१५ ताली दे कर बात नही क ं ।
२१६ पु ष-ल ण नही रखू ।
२१७ कसीके कहनेसे रोष नही लाऊँ।
२१८ दडसे खेद नही मायूँ ।

१४४
ीमद् राजच
२१९. मोह से व तुको नही दे खू ।
२२० दयसे सरा प नही रखू।
२२१ से क शु भ क ं । (सामा य)
२२२ नी तसे चलू।
२२३. तेरी आ ाका भ नही क ं ।
२२४. अ वनय नही क ं ।
२२५ छाने बना ध नही पीऊँ।
२२६ तेरे ारा न ष व तु उपयोगमे नही लाऊँ।
२२७. पापसे जय करके आन द नही मान ।
२२८ गायनमे अ धक अनुर नही होऊँ।
२२९. नयम तोड़नेवाली व तु नही खाऊँ।
२३० गृहसौदयक वृ क ं।
२३१ अ छे थानोक इ छा नही क ँ ।
२३२ अशु आहार-जल नही लू । ( मु न व भाव)
२३३ केशलुचन क ँ ।
२३४ येक कारसे प रषह सहन क ँ ।
२३५ त व ानका अ यास क ँ ।।
२३६ कदमूलका भ ण नही क ँ ।
२३७ कसी व तुको दे खकर स न होऊ ।
२३८ आजी वकाके लये उपदे शक नही बनूँ (२)
२३९. तेरे नयमको नही तोडू ं।
२४० ुत ानक वृ क ं।
२४१ तेरे नयमका मडन क ।
२४२ रसगारव नही होऊँ।
२४३ कषाय धारण नही क ँ ।
२४४ ब धन नही रखू ।
२४५ अ चयका सेवन नही क ं ।
२४६ आ मा परा माको समान मान । (२)
२४७ लये ए यागका याग नही क ं ।
२४८ मृषा इ या द भापण नही क ं ।
२४९ कसी पापका सेवन नही क ं ।
२५० अवध पापक मापना क ँ ।
२५१. मायाचनामे अ भमान नही रखू। (मु न सामा य)
२५२ गु के उपदे शका भ नही क ं ।
२५३ गु का अ वनय नही क ं ।
२५४ गु के आसनपर नही बैठे।

े ी ो ी
२५५ उससे कसी कारक मह ाका भोग नही क ं ।
२५६, उससे शु ल दयसे त व ानक वृ क ँ ।

१४५
२० वॉ वष
२५७ मनको अंतः थर रख।
२५८. वचनको रामबाण रखू ।
२५९, कायाको कूम प रखू ।
२६०. दयको मर प रखू ।
२६१ दयको कमल प रख।
२६२ दयको प थर प रखू।
२६३ दयको नबू प रखू ।
२६४. दयको जल प रख।
२६५ दयको तेल प रखू।
२६६ दयको अ न प रखू ।
२६७ दयको आदश प रखू।
२६८. दयको समु प रखू ।
२६९ वचनको अमृत प रखू।
२७०. वचनको न ा प रख।
२७१. वचनको तृषा प रखू।
२७२ वचनको वाधीन रखू।
२७३ कायाको कमान प रखू।
२७४. कायाको चचल रखू।
२७५ कायाको नरपराधी रखू।
२७६ कसी कारको चाह नही रखं । (परमहस) ,
२७७ तप वी , ँ वनमे तप या कया क ं । (तप वीक इ छा) .
२७८ शीतल छाया लेता ँ।
२७९ समभावसे सव सुखका संपादन करता ँ। -
२८० मायासे र रहता ँ।
२८१ पचका याग करता ँ। ..
२८२ सव यागव तुको जानता ँ।
२८३ म या शसा नही क ं । (मु०, ७०, उ०, गृ०, सामा य)
२८४ झूठा कलंक नही लगाऊँ।
२८५ म या व तु णीत नही क ं ।
२८६ कुटु ब लेश नह क ं । (गृ०, उ०)
२८७ अ या यान धारण नह क ं । (सा०)
२८८ पशुन नही बन।
२८९ अस यसे स नही होऊ । (२)
२९० खल खलाकर नही हँसू । ( ी)
२९१. बना कारण नही मु कराऊँ। .
२९२ कसी समय नही हँस ।
२९३ मनके आन दको अपे ा आ मान दको चा ँ।
२९४ सबको यथात य मान ं । (गृह थ)
.

१४६
ीमद राजच
२९५ थ तका गव नही क ँ । (गृ०, मु०)
२९६ थ तका खेद नही क ं ।
२९७ म या उ म नही क ँ ।
२९८ अनु मी नही र ँ।
२९९. खोट सलाह नही ँ। (गृ०)
३०० पापी सलाह नही ँ।
३०१. याय व कृ य नही क ं । (२-३)
३०२ कसीको झूठ आशा नही ँ। (गृ०, मु०, ०, उ०)
३०३. अस य वचन नही ं ।
३०४. स य वचनका भग नही क ।
३०५ पांच स म तको धारण क ं । (मु०)
३०६ अ वनयसे नही बैठे।
३०७ बुरे म डलमे नही जाऊँ। (गृ०, मु०)
े ओ ी
३०८ वे याक ओर नही क ।
३०९ इसके वचनोका वण नही क ँ ।
३१० वा नही सुनूं।
३११ ववाह व ध नही पूव ।
३१२ इसक शसा नही क ं ।
३१३. मनोरममे मोह नही मान ।
३१४ कमाधम नही क ँ । (गृ०)
३१५. वाथसे कसीक आजी वकाका नाश नही क ँ । (गृ०)
३१६. वधबंधनक श ा नही क ँ ।।
३१७ भय तथा वा स यसे रा य चलाऊँ । (रा०)
३१८ नयमके बना वहार नही क ं । (मु०)
३१९ वषयक मृ त होनेपर यान कये बना न र ँ। (मु०, गृ०, ०, उ०)
३२० वषयक व मृ त ही क ं । (मु०, गृ०, ७०, ८०)
३२१. सव कारक नी त सीख । (मु०, गृ०, ०, उ०)
३२२ भयभाषा नही बोलू।
३२३ अपश द नही बोलू।।
३२४. कसीको नही सखाऊँ ।
३२५. अस य ममभाषा नही बोलूँ।
३२६ लया आ नयम कण पक णकाक री तसे नही तोडू ं।
३२७ पीठचौय नही क ँ ।
३२८ अ त थका तर कार नही क ँ । (गृ०, उ०) . .
३२९ गु त बातको स नही क ं । (गृ०, उ०) ।
३३० स करने यो यको गु त नही रखू।
३३१ उपयोगके बना नही कमाऊँ । (गृ०, उ०, ७०)
३३२ अयो य करार नही कराऊँ। (गृ०) ।

१४७
३३३. अ धक ाज नही लूँ।
३३४. हसाबमे नही भुलाऊँ।
३३५ थूल हसासे आजी वका नही चलाऊँ ।
३३६. का पयोग नही क ँ ।।
३३७. ना तकताका उपदे श नही ँ। (उ०)
३३८. वयमे ववाह नही क ँ । (गृ०)
३३९. वयके बाद ववाह नह क ँ ।
३४०. वयके बाद ीका भोग नही क ँ ।
३४१. वयमे ीका भोग नह क ं ।
३४२. कुमार प नीको नही बुलाऊँ ।
३४३ ववा हतपर अभाव नह लाऊँ ।
३४४. वैरागी अभाव नही गनूं । (गृ०, मु०)
३४५. कटु वचन नही क ँ।।
३४६ हाथ नही उठाऊँ।
३४७. अयो य पश नही क ँ ।
३४८ बारह दन पश नही क ।
३४९ अयो य उलाहना नही ँ।
३५०. रज वलाका भोग नही क ँ ।
३५१. ऋतुदानमे अभाव नही लाऊँ । '
३५२ शृ ार भ का सेवन नही क ं ।
३५३. सबपर यह नयम, याय लागू क ं ।
३५४ नयममे खोट दलीलसे नही छू टू । .
३५५. खोट री तसे नही उकसाऊँ।
३५६. दनमे भोग नही भोग।
३५७. दनमे पश नही क ं ।
३५८ अवभाषासे नही बुलाऊँ।
३५९ कसीका तभग नही कराऊँ ।
३६०. अ धक थानोमे नही भटकं ।
३६१. वाथके बहानेसे कसीका याग नही छु ड़ाऊँ।
३६२. याशीलक नदा नही क ं ।
३६३ न न च नही दे ख।
३६४. तमाक नदा नही क ं ।
३६५. तमाको नही दे ख।।

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३६६. तमाक पूजा क ं । (केवल गृह थ थ तमे)
३६७ पापसे धम नही मानूं । (सव)
३६८ स य वहारको नह छोडू ं। (सव)
३६९. छल नही क ं ।
३७०. न न नही सोऊँ।
.
१४८
ीमद राजच
३७१. न न नही नहाऊँ।
३७२ महीन कपड़े नही पहन।
३७३. अ धक अलंकार नही पहनूं। '
३७४. अमयादासे नही चलूं।
३७५. तेज आवाजसे नही बोलू ।
३७६. प तपर दबाव नही रख। ( ी)
३७७. तु छ संभोग नही भोगना । (गृ०, उ०) . -
३७८. खेदमे भोग नही भोगना।
३७९ सायंकालमे भोग नही भोगना।
३८०. सायकालमे भोजन नही करना ।
३८१. अ णोदयमे भोग नही भोगना ।
३८२ ऊँघमेसे उठकर भोग नही भोगना ।
३८३. ऊँघमेसे उठकर भोजन नही करना।
३८४. शौच यासे पहले कोई या नही करना।
३८५ याक कोई आव यकता नही है । (परमहस)
३८६ यानके बना एकातमे नही र ँ। (मु०, गृ०, ७०, उ०, ५०)
३८७. लघुशकामे तु छ नही होऊँ ।
३८८. द घशकामे समय नह लगाऊँ।
३८९. येक ऋतुके शरीरधमक र ा क । (गृ०)
३९०. मा आ माक ही धमकरनीक र ा क ँ । (मु०)
३९१ अयो य मार, बधन नह क ँ ।।
३९२. आ म वत ता नही खोऊँ । (मु०, गृ०, ०)
३९३ बधनमे पड़नेसे पहले वचार क ं । (सा०)
३९४ पूवकृत भोगको याद नही क ँ । (मु०, गृ०)
३९५. अयो य व ा नही साधू । (मु०, गृ०, ०, उ०) ।।
३९६. बोध भी नही ँ।
३९७ अनुपयोगी व तु नही ल।
३९८. नही नहाऊँ । (मु०)
३९९. दातुन नही क ं ।
४०० संसार-सुख नही चा ँ।
४०१. नी तके बना संसारका भोग नही क ं । (गृ.)
४०२ कट पमे कु टलतासे भोगका वणन नही क ँ । (ग०) , .
४०३. वरह ंथ नही रचूं । (मु०, गृ०, ७०)
४०४ अयो य उपमा नही ँ। (मु०, गृ०, ०, उ०) . ,
४०५. वाथके लये ोध नही क ं । (मु०, गृ०) । , ,
४०६. वादयश ा त नही क । (उ०) ...
.
४०७. अपवादसे खेद नही क ं ।
४०८. धम का उपयोग नह कर सकू। (गृ०)
, .

१४९
४०९. दशाश या-धममे नकालूं। (ग०)
४१० सवसंगका प र याग क ं । (परमहंस)
४११ तेरा कहा आ अपना धम नही भूलूं । (सव)
४१२. व ानदखेद नही क ं ।
४१३. आजी वक व ाका सेवन नह क ं । (मु०)
४१४. तपको नह बेचूं । (गृ०, ७०)
४१५. दो बारसे अ धक नही खाऊँ । (गृ०, मु०, , उ०)
४१६. ीके साथ नही खाऊँ । (गृ०, उ०)
४१७. कसीके साथ नही खाऊँ । (स०)
४१८. पर पर कवल नही ढूँ , नही लूं। (स.)
४१९. यूना धक प यका साधन नही क ँ । (स.)

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४२०. नीरागीके वचनोको पू यभावसे मान ँ। -
४२१. नीरागी ंथोको पढूं ।
४२२. त वको ही हण क ँ ।
४२३. नःसार अ ययन नही क ं ।
४२४. वचारश का वकास क ं ।
४२५. ानके बना तेरे धमको अगीकार नही क ँ ।
४२६. एकातवादको नही अपनाऊँ ।
४२७ नीरागी अ ययनोको मुखा क ँ ।
४२८ धमंकथाका वण क ँ ।
४२९ नय मत कत नही चूकू।
४३० अपराध श ाका भंग नही क ं ।
४३१. याचकको हँसी नही क ँ ।
४३२. स पा मे दान ँ।
४३३ द नपर दया क ं ।
४३४. ःखीको हँसी नही क ।
४३५. मापनाके बना शयन नही क ं ।
४३६. आल यको उ ेजन नही ँ।
४३७. सृ म- व कम नही क ं ।
४३८ ीश याका याग क ं ।
४३९ नवृ -साधनके सवाय सबका याग करता ँ।
४४० ममलेख नही लखू।
४४१ पर .खसे खी होऊँ।
४४२ अपराधीको भी मा क ँ ।
४४३ अयो य लेख नही लखू।
४४४. आशु क वनयको संभालू ।
४४५. धमकत मे दे ते ए माया नही क ।
४४६ न वोर वसे त वका उपदे श क ं ।

१५०
ीमद राजच
४४७. परमहसक हँसी नही उड़ाऊँ।
४४८ आदश नही दे ख ।
४४९ आदशमे दे खकर नही हँस। .
४५० वाही पदाथमे मुख नही दे खू।
४५१ तसवीर नही खचवाऊँ।
४५२. अयो य तसवोर नही खचवाऊँ ।
४५३ अ धकारका पयोग नही क ँ ।
४५४ झूठ हाँ नही क ँ।
४५५ लेशको उ ेजन नही ं ।
४५६ नदा नही क ँ ।
४५७ कत नयम नही चूकूँ ।
४५८ दनचयाका पयोग नही क ँ ।
४५९ उ म श को स क ँ ।
४६० बना श का कृ य नही क ँ ।
४६१ दे श, काल आ दको पहचान।
४६२ कृ यका प रणाम दे ख।
४६३. कसीके उपकारका लोप नही क ँ ।
४६४. म या तु त नही क ँ ।
४६५. कुदे वक थापना नही क ं ।
४६६. क पत धमको नही चलाऊँ।
४६७ सृ वभावको अधम नही क ँ।
४६८. सव े त वको लोचनदायक मानू।
४६९. मानता नही मान।
४७०. अयो य पूजन नह क ँ ।
४७१. रातमे शीतल जलसे नही नहाऊँ ।
४७२ दनमे तीन बार नही नहाऊँ ।
४७३. मानक अ भलाषा नही रखू ।
४७४ आलापा दका सेवन नही क ं ।
४७५ सरेके पास बात नह क ं ।
४७६ छोटा ल य नही रख ।


४७७. उ मादका सेवन नह क ं ।
४७८. रौ ा द रसका उपयोग नही क ं ।
४७९. शात रसक नदा नह क ँ ।
४८०. स कमके आड़े नही आऊँ । (मु०, गृ०)
४८१. पोछे हटानेका य ल नही क ं ।
४८२. म या हठ नह पकड़।
४८३. अवाचकको ःख नही ं ।।
४८४. अपगक सुखशा त बढ़ाऊँ।
४८५ नी तशा को मान ं ।

२० वाँ वष
१५१
४८६. हसक धमको हण नही क ं ।
४८७ अनाचारी धमसे लगाव नही रखू।
४८८ म यावाद से लगाव नही रखू।
४८९. शृ ारी धमको हण नह क ं ।
४९० अ ान धमसे र र ँ।
४९१ केवल को नही पकड़।
४९२ केवल उपासनाका सेवन नही क ं ।
४९३. नय तवादका सेवन नही क ं ।
४९४ भावसे सृ को अना द अनंत नही क ँ।.
४९५. से सृ को सा दसात नही क ँ।
४९६ पु षाथको नदा नही क ं ।
४९७ न पापको चचलतासे नही छलू।
४९८ शरीरका भरोसा नह क ं ।
४९९. अयो य वचनसे नह बुलाऊँ।
५००. आजी वकाके लये नाटक नही क ँ ।
५०१ मां, बहनके साथ एकातमे नही र ँ।
५०२ पूवके ने हय के यहाँ आहार लेने नही जाऊँ।
५०३ त वधमानंदकपर भी रोष नही करना।
५०४. धैयको नह छोड़ना।
५०५ च र को अ त बनाना।
५०६ सव प ी वजय, क त और यश ा त करना।
५०७ कसीके घरसंसारको नही तोडना।
५०८ अतराय नही डालना।
५०९ शु लधमका खंडन नही करना।
५१० न काम शीलका आराधन करना ।
५११ व रत भाषा नह बोलना।
५१२. पाप ंथ नही रचूँ।
५१३. ौरके समय मौन रहे।
५१४ वषयके समय मौन र ँ।
५१५ लेशके समय मौन र ँ।
५१६ जल पोते ए मौन र ँ।
५१७. खाते ए मौन र ँ।
५१८. पशु प तसे जलपान नही क ं ।
५१९ छलाग मारकर जलमे नही पड़।
५२० मशानमे व तुमा को नही चलूँ।
५२१ औधे शयन नही क ं ।
५२२. दो पु ष साथमे न सोएँ।
५२३ दो याँ साथमे न सोएँ।

१५२
ीमद राजच
५२४ शा क आशातना नही क ं ।
५२५. उसी कार गु आ दक भी।
५२६ वाथसे योग और तप नही साधू । '
५२७ दे शाटन क ं ।
५२८. दे शाटन नही क ं ।
५२९ चातुमासमे थरता क ँ ।
े ी ँ
५३० सभामे पान नही खाऊँ।
५३१ व ीके साथ मयादाके सवाय नही फ ।
५३२ भूलक व मृ त नही करना।
५३३ क० कलाल, सुनारको कानपर नही बैलूं। .,
५३४. कारीगरके यहाँ (गु भावसे) नही जाना।
५३५. त बाकूका सेवन नही करना ।
५३६ सुपारी दो बार खाना ।
५३७ गोल कूपमे नहानेके लये नही पड़े।
५३८ नरा तको आ य ँ।
५३९ समयके बना वहारक बात नही करना ।
५४० पु का ववाह क ं ।
५४१ पु ीका ववाह क ं ।
५४२. पुन ववाह नही क ं ।
५४३ पु ीको पढाये बना नही र ँ।
५४४ ी व ाशाली ँढू , क ं ।
५४५. उ हे धमपाठ सखलाऊँ।
५४६ येक घरमे शा त वराम रखना।
५४७ उपदे शकका स मान क ।
५४८ अनंत गुणधमसे भरपूर सृ है, ऐसा मान।
५४९ कसी समय त व ारा नयामेसे ःख चला जायेगा ऐसा माने ।
५५०. ख और खेद म ह ।
५५१ मनु य चाहे सो कर सकता है।
५५२ शौय, वु इ या दका सुखद उपयोग क ं ।
५५३ कसी समय अपनेको खी नही मानूं।
५५४ सृ के .खोका णाशन क ं ।
५५५ सव सा य मनोरथ धारण क ं ।
५५६ येक त व ानीको परमे र मानूं ।
५५७ येकका गुणत व हण क ।
५५८ येकके गुणको फु लत क ं ।।
५५९ कुटु वको वग बनाऊ ।
५६० सृ को वग बनाऊँ तो कुटवको मो बनाऊँ। .
५६१ त वाथ से सृ को सुखी करते ए म वाथका याग क ।
५६२ सृ के येक (-) गुणक वृ क ँ।

१५३
५६३ सृ के वेश होने तक पाप पु य है ऐसा मानूं।
५६४ यह स ात त वधमका है, ना तकताका नही ऐसा मानूं।
५६५. दयको शोकातुर नही क ँ ।
५६६ वा स यसे वैरीको भी वश क ँ । ।
५६७. तू जो करता है उसमे असभव नही मान।
५६८. शंका न क ं , ख डन न क ं , मंडन क ।
५६९ राजा होनेपर भी जाको तेरे मागपर लगाऊँ।
५७०. पापीका अपमान क ँ ।
५७१. यायको चाह और पाल।
५७२. गुण न धका मान क ं ।
५७३ तेरा माग सव कारसे मा य रखू ।
५७४ धमालय था पत क ं ।
५७५ व ालय था पत क ं ।
५७६ नगर व छ रखू।
५७७ अ धक कर नही लगाऊँ ।
५७८ जापर वा स य रखू।
५७९ कसी सनका सेवन नही क ं ।
५८० दो य से ववाह नही क ं ।
५८१ त व ानके ायोज नक अभावमे सरा ववाह क ं तो यह अपवाद ।
५८२ दोनो ( )पर समभाव रख।
५८३ त व सेवक रख।
५८४. अ ान याको छोड़ ं ।
५८५ ान याका सेवन करनेके लये ।
५८६ कपटको भी जानना।
५८७. असूयाका सेवन नही क ँ ।

ो े ँ
५८८ धमक आ ाको सव े मानता ँ।
५८९ स त मूलक धमका ही सेवन क ं गा।
५९० स ात मानूंगा, णोत क ं गा।
५९१ धम महा माओका स मान क ं गा।
५९२ ानके सवाय सभो याचनाएं छोड़ता ँ।
५९३ भ ाचरी याचनाका सेवन करता ँ।
५९४ चातुमासमे वास नही क ं ।
५९५ जसका तुने नषेध कया उसे नही खोज या उसका कारण नही पूछ ।
५९६ दे हधात नही क ं ।
५९७ ायामा दका सेवन क ं गा।
५९८ पौषधा दक तका सेवन करता ँ।
५९९ अपनाये ए आ मका सेवन करता ँ।
६०० अकरणीय या और ानक साधना नही क ँ ।

१५४
ीमद राजच
६०१ पाप वहारके नयम नही बनाऊँ। .
६०२ धुतरमण नही क ँ ।
६०३ रातमे ौरकम नही कराऊँ।
६०४. पैरसे सर तक खूब खीचकर नही ओढूं ।
६०५ अयो य जागृ तका सेवन नही क ।
६०६ रसा वादसे तनधमको म या नही क ं ।
६०७ शारी रक धमका एकात आराधन नही क ँ ।
६०८. अनेक दे वोक पूजा नही क ं ।
६०९ गुण तवनको सव म मान।
६१०. स णका अनुकरण क ं ।
६११. शृंगारी ाता भु नही मानूं।
६१२ सागर- वास नही क ँ ।
६१३ आ मके नयमोको जान।
६१४ ौरकम नय मत रखना।
६१५ वरा दमे नान नही करना ।
६१६ जलमे डु बक नही लगाना ।
६१७ कृ णा द पाप ले याका याग करता ँ।
६१८. स यक समयमे अप यानका याग करता ँ।
६१९. नामभ का सेवन नह क ं गा।
६२० खड़े खडे पानी नही पीऊँ।
६२१ आहारके अंतमे पानी नही पीऊँ ।
६२२ चलते ए पानी नही पीऊ ।।
६२३ रातमे छाने बना पानी नही पीऊँ ।
६२४ म या भाषण नही क ँ ।
६२५ सतश दोका स मान क ं ।
६२६ अयो य आँखसे पु ष नही दे खू ।
६२७ अयो य वचन नही बोलूँ।
६२८ नगे सर नही बैलूं।
६२९. वारवार अवयवोको नही दे खू ।
६३० व पक शंसा नही क ं ।
६३१ कायापर गृ भावसे स नही होऊँ।
६३२. भारी भोजन नही क ं ।
६३३. ती दय नही रखू।
६३४. मानाथ कृ य नही क ं ।
६३५. क तके लये पु य नही क ँ ।
६३६ क पत कथा- ातको स य नही क ँ।
६३७ अ ात मागपर रातमे नही चलूं।
६३८. श का पयोग नही क ं ।

१५५
६३९. ी प से धन ा त नह क ं ।
६४०. वं याका मातृभावसे स कार क ं ।


६४१. अकृतधन नही ल।
६४२. बलदार पगड़ी नही बांधूं।
६४३ बलदार-चूड़ीदार पायजामा नही पहनूं ।
६४४. म लन व पहनूं।
६४५ मृ युपर रागसे नही रोऊँ ।
६४६ ा यानश क आराधना क ँ ।
६४७. धमके नामपर लेशमे नही पड़े।
६४८ तेरे धमके लये राज ारमे केस नही चलाऊँ ।
६४९ यथासंभव राज ारमे नही जाऊँ।
६५० ीमताव थामे व० शालासे क ँ ।
६५१ नधनाव थाका शोक नही क ँ ।
६५२ पर ःखमे हष नही मान।
६५३ यथासंभव धवल व पहनूं ।
६५४. दनमे तेल नही लगाऊँ।
६५५ ी रातमे तेल न लगाये।
६५६ पापपवका सेवन नही क ं ।
६५७ धम , यश वी एक कृ य करनेका मनोरथ रखता ँ।
६५८ गाली सुनूं पर तु गाली ँ नही।
६५९ शु ल एकातका नरंतर सेवन करता ँ।
६६० सभी धूमधाममे नही जाऊँ।
६६१ रातमे वृ के नीचे नही सोऊँ ।
६६२ रातमे कुएंके कनारे नही बैठू।
६६३ ऐ य नयमको नही तोडू ं।
६६४ तन, मन, धन, वचन और आ माका समपण करता ँ।
६६५ म या पर का याग करता ँ।
६६६. अयो य शयनका याग करता ँ।
६६७ अयो य दानका याग करता ँ।
६६८ बु को वृ के नयमोको नह छोडू ं।
६६९. दास व-परम-लाभका याग करता ँ।
६७० धमधूतताका याग करता ँ।
६७१ मायासे नवृ होता ँ।
६७२ पापमु मनोरथका मरण करता ँ।
६७३ व ादान दे ते ए छलका याग करता ँ।
६७४. संतको सकट नही ँ।
६७५ अनजानको रा ता बताऊँ ।
६७६ दो भाव नही रखे।

१५६
ीमद् राजच
६७७ व तुमे मलावट नही क ँ ।
६७८ जीव हसक ापार नही क ँ ।
६७९ न ष अचार आ द नही खाऊँ ।
६८० एक कुलमे क या नही ं , नही लूं।
६८१. सरे प के सगे (सबंधी) वधम ही ढूं ढुंगा ।
६८२ धमक मे उ साह आ दका उपयोग क ं गा।
६८३ आजी वकाके लये सामा य पाप करते ए भी डरता र ँगा।
६८४ धम म से माया नही क ं ।
६८५. चातुव य धमको वहारमे नही भूलूंगा।
६८६ स यवाद का सहायक वनूंगा।
६८७ धूत यागका याग करता ँ।
६८८ ाणीपर कोप नही करना।
६८९ व तुका त व जानना ।
६९०. तु त, भ और न यकमका वसजन नही क ।
६९१. अनथ पाप नही क ँ ।
६९२ आरभोपा धका याग करता ँ।
६९३ कुसगका याग करता ँ।
६९४. मोहका याग करता ँ।
६९५ दोषका ाय क ं गा।
६९६. ाय आ दको व मृ त नही क ं । . .
६९७. सबक अपे ा धमवगको य मानूंगा।

े े े े े ी ँ
६९८. तेरे धमका करण शु सेवन करनेमे माद नही क ँ गा।
६९९.
७००,
२०
हे वा दयो । मुझे आपके लये एकातवाद ही ानक अपूणताका ल ण दखाई दे ता है, यो क
"नौ स खये" क व का मे जैसे तैसे दोष दबानेके लये 'ही' श दका उपयोग करते ह, वैसे आप भी 'ही'
अथात् ' न तता', 'नौ स खया' ानसे कहते ह। मेरा महावीर ऐसा कभी नही कहेगा, यही इसक
स क वक भाँ त चम कृ त है !!!
वचनामृत
१. इसे तो अख ड स ात मा नये क सयोग, वयोग, सुख, ःख, खेद, आन द, अराग, अनुराग
| इ या दका योग कसी व थत कारणपर आधा रत है।
२ एकात भावी अथवा एकात यायदोषका स मान न क जये।
___३. कसीका भी समागम करना यो य नह है, फर भी जब तक वैसी दशा न हो तब तक स पु ष-
का समागम अव य करना यो य है।

१५७
२० वॉ वष
४. जस कृ यके प रणाममे .ख है उसका स मान करनेसे पहले वचार कर।
५ कसीको अ तःकरण न द जयेगा, जसे द उससे भ ता न र खयेगा, भ ता रखे तो अतः-
करण दया न दया समान है।
६. एक भोग भोगता है फर भी कमको वृ नह करता, और एक भोग नही भोगता फर भी
कमक वृ करता है, यह आ यकारक परतु समझने यो य कथन है।
७ योगानुयोगसे बना आ कृ य ब त स दे ता है।
८ आपने जससे अतभद पाया उसे सव व अपण करते हए न कयेगा।
९ तभी लोकापवाद सहन करना क जससे वे ही लोग अपने कये ए अपवादका पुन
प ा ाप कर।
१० हजारो उपदे श-वचन और कथन सुननेक अपे ा उनमेसे थोडे भी वचनोका वचार करना
वशेष क याणकारी है।
११ नयमसे कया आ काय वरासे होता है, नधा रत स दे ता है, और आनदका कारण
हो जाता है।
१२ ा नयो ारा एक क ई अ त न धके उपभोगी बने ।
१३. ी जा तमे जतना मायाकपट है उतना भोलापन भी है।
१४ पठन करनेक अपे ा मनन करनेको ओर अ धक यान द जये ।
१५. महापु षके आचरण दे खनेको अपे ा उनका अतःकरण दे खना, यह अ धक परी ा है।
१६ वचनस तशतीको' पुनः पुन. मरणमे रख।
१७ महा मा होना हो तो उपकारबु रख, स पु षके समागममे रहे, आहार, वहार आ दमे ।
अलु ध और नय मत रहे, स शा का मनन कर, और ऊँची े णमे यान रख।
१८ इनमेसे एक भी न हो तो समझकर आनद रखना सीखे।।
१९ वतनमे बालक बन, स यमे युवक बन और ानमे वृ बन।
२० राग नही करना, करना तो स पु षसे करना, े ष नही करना, करना तो कुशीलसे करना।
२१ अनंत ान, अनंतदशन, अनतचा र और अनतवीयसे अ भ ऐसे आ माका एक पल भी
वचार कर।
२२ जसने मनको वश कया उसने जगतको वश कया।
२३ इस ससारको या करे ? अनत बार ई मॉको आज हम ी पसे भोगते है।
२४ न थता धारण करनेसे पहले पूण वचार क जये, इसे अपनाकर दोष लगानेको अपे ा
अ पार भी बने।
२५ समथ पु ष क याणका व प पुकार पुकारकर कह गये ह, पर तु कसी वरलेको ही वह
यथाथ समझमे आया है।
२६ ीके व पपर होनेवाले मोहको रोकनेके लये उसके वचार हत पका वार वार चतन
करना यो य है।
२७ कुपा भी स पु पके रखे ए हाथसे पा हो जाता है, जैसे छाछसे शु कया आं स खया
शरीरको नोरोग करता है।
२८ आ माका स य व प केवल शु स चदानदमय है, फर भी ा तसे भ भा सत होता
है, जैसे क तरछ आँख करनेसे चं दो दखायी दे ते ह।
१ दे ख महानी त, आक १९

१५८
ीमद् राजच
२९ यथाथ वचन हण करनेमे दभ न र खयेगा या दे नेवालेके उपकारका लोप न क जयेगा।
े े ो ै ी े े
३० हमने ब त वचार करके यह मूल त व खोजा है क,-गु त चम कार ही सृ के यानमे
नही है।
३१ लाकर भी ब चे के हाथमे रहा आ स खया ले लेना।
३२. नमल अंत करणसे आ माका' वचार करना यो य है।
३३ जहाँ 'म' मानता है वहाँ 'तू नही है, जहाँ 'तू' मानता है वहाँ 'तू' नह है।
३४ हे जीव । अब भोगसे शात हो, शात । वचार तो सही क इसमे कौनसा सुख है ?
३५ ब त परेशान होकर ससारमे मत रहना।
३६ स ान और स शीलको साथ-साथ बढ़ाना।
३७. एकसे मै ी न कर, करना हो तो सारे जगतसे कर ।
३८ महा स दयसे प रपूण दे वांगनाके डा वलासका नरी ण करते ए भी जसके अंतःकरणमे
कामसे वशेषा त वशेष वराग फु रत होता है, वह ध य है, उसे काल नम कार है।
३९. भोगके समय योग याद आये यह लघुकम का ल ण है।
४०. इतना हो तो म मो क इ छा नही करता-सारी सृ स शील का सेवन करे, नय मत
आयु, नोरोग शरीर, अचल ेमी मदा, आ ाकारी अनुचर, कुलद पक पु , जीवनपय त बा याव था
और आ मत वका चतन । '
४१ ऐसा कभी होनेवाला नह है, इस लये मै तो मो को ही चाहता ँ।
४२ सृ सव अपे ासे अमर होगी?
४३ कसी अपे ासे म ऐसा कहता ँ क य द सृ मेरे हाथसे चलती होती तो ब त ववेक
तरसे परमानदमे वराजमान होती।
४४ शु ल नजनाव थाको म ब त मा य करता ँ।
४५ सृ लीलामे शातभावसे तप या करना यह भी उ म है।
४६ एका तक कथन करनेवाला ानी नही कहा जा सकता।
४७. शु ल अंतःकरणके बना मेरे कथनको कौन दाद दे गा?
४८ ातपु भगवानके कथनक ही ब लहारी है।
४९ म आपक मूखतापर हँसता ँ क-नही जानते गु त चम कारको फर भी गु पद ा त
करनेके लये मेरे पास यो पधार ?
__५०. अहो | मुझे तो कृत नी ही मलते मालूम होते ह, यह कैसी व च ता है ।
५१. मुझ पर कोई राग करे इससे मै स नही , ँ पर तु कटाला दे गा तो म त ध हो जाऊँगा
और यह मुझे पुसायेगा भी नह ।
५२ मै कहता ँ ऐसा कोई करेगा? मेरा कहा आ सब मा य रखेगा ? मेरा कहा आ
श दशः अंगीकृत करेगा? हाँ हो तो ही हे स पु ष । तू मेरी इ छा करना।
५३. संसारी जीवोने अपने लाभके लये पसे मुझे हँसता-खेलता लीलामय मनु य बनाया !
५४ दे वदे वीको तु यमानताको या करगे? जगतक तु यमानताको या करेगे ? तु यमानता तो
स पु षक चाहे ।
५५ मै स चदानद परमा मा ँ।
१. पाठा० गु त चम कारका ।

१५९
२० वाँ वष
५६ ऐसा समझे क आपको अपने आ माके हतक ओर जानेक अ भलाषा रखते ए भी नराशा
ा त ई तो वह भी आपका आ म हत ही है।
५७ आप अपने शुभ वचारमे सफल होव, नही तो थर च से ऐसा समझ क सफल ए ह।
५८ ानी अंतरंग खेद और हषसे र हत होते है ।
५९ जब तक उस त वक ा त न हो तब तक मो क ता पयता नही मली।
६० नयम पालनको ढ करते ए भी वह नही पलता यह पूवकमका ही दोष है ऐसा ा नयोका
कहना है।
६१. ससार पी कुटु बके घरमे अपना आ मा अ त थ तु य है।
६२ वही भा यशाली है क जो भा यशालीपर दया करता है।
६३ मह ष कहते ह क शुभ शुभ भावका न म है।
६४ थर च होकर धम और शु ल यानमे वृ कर।
६५ प र हक मूछा पापका मूल है।
६६ जस कृ यको करते समय ामोहसयु खेदमे ह और प रणाममे भी पछताते है, तो उस
कृ यको ानी पूवकमका दोष कहते है।
६७ जडभरत और वदे ही जनकक दशा मुझे ा त हो ।
६८. स पु षके अत करणने जसका आचरण कया अथवा जसे कहा वह धम है।
६९ जसक अतरग मोह ं थ चली गई वह परमा मा है।
७०. त लेकर उ ला सत प रणामसे उसका भग न कर।
७१ एक न ासे ानीक आ ाका आराधन करनेसे त व ान ा त होता है।
७२ या ही कम, उपयोग ही धम, प रणाम ही वध, म ही म या व, ही आ मा और
शका ही श य है । शोकका मरण न कर; यह उ म व तु ा नय ने मुझे दो।

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७३ जगत जैसा है वैसा त व ानको से दे ख।
७४ ी गौतमको पठन कये ए चार वेद दे खनेके लये ीमान महावीर वामीने स यकने
दये थे।
७५ भगवतीमे कही ई 'पु ल नामके प र ाजकक कथा त व ा नयोका कहा आ सु दर
रह य ह।
७६ वीरके कहे ए शा ोमे सुनहरी वचन जहाँ तहाँ अलग-अलग और गु त है।
७७ स य ने ा त करके आप चाहे जस धमशा का वचार करे तो भी आ म हत ा त होगा।।
७८ हे कुदरत | यह तेरा बल अ याय है क मेरी नधा रत नी तसे मेरा काल तीत नही
कराती | [कुदरत अथात् पूवकृत कम]
७९ मनु य परमे र होता है ऐसा ानी कहते है।
८० उ रा ययन नामके जैनसू का त व से पुन पुनः अवलोकन कर।
८१ जोते ए मरा जाये तो फर मरना न पड़े ऐसे मरणको इ छा करना यो य है।
८२ कृत नता जैसा एक भी महा दोष मुझे नह लगता।
८३ जगतमे मान न होता तो यही मो होता।
८४ व तुको व तु पसे दे ख।
१ शतक ११, उ े श १२ म।

१६०
ीमद् राजच
८५ धमका मूल व० है।
८६ उसका नाम व ा है क जससे अ व ा ा त न हो।
८७ वीरके एक वा यको भी समझ।
८८ अहपद, कृत नता, उ सू पणा और अ ववेकधम ये ग तके ल ण है।
८९ ीका कोई अग लेशमा भी सुखदायक नही है, फर भी मेरी दे ह उसे भोगती है।
९० दे ह और दे हाथमम व यह म या वका ल ण है।
९१. अ भ नवेशके उदयमे उ सू पणा न हो उसे मै ा नय के कहनेसे महाभा य कहता ँ।
१. ९२ या ाद शैलीसे दे खते ए कोई मत अस य नही है।
(९३ ानी वादके यागको आहारका स चा याग कहते है।
९४ अ भ नवेश जैसा एक भी पाखंड नही है।
९५ इस कालमे इतना बढ़ा-अ तशय मत, अ तशय ानी, अ तशय माया और अ तशय प र ह-
वशेष।
९६ त वा भलाषासे मुझे पूछे तो मै आपको नीरागीधमका उपदे श ज र कर सकगा।
९७ जसने सारे जगतका श य होने प का वेदन नही कया वह स होने यो य नही है।
९८. कोई भी शु ाशु धमकरनी करता हो तो उसे करने द।
१ ९९ आ माका धम आ मामे ही है।
१०० मुझपर सभी सरल भावसे म चलाये तो मै राजी ँ।
१०१. म संसारसे लेश भी रागसयु नही, फर भी उसीको भोगता , ँ मैने कुछ याग नह कया।
१०२ न वकारी दशासे मुझे अकेला रहने द।
। १०३ महावीरने जस ानसे इस जगतको दे खा है वह ान सब आ माओमे है, परतु उसका
आ वभाव करना चा हये।
१०४ ब त बहक जाएँ तो भी महावीरक आ ाका भग न को जयेगा। चाहे जैसी शका हो तो
भी मेरी ओरसे वीरको न शक मा नये ।
१०५ पा नाथ वामीके यानका मरण यो गयोको अव य करना चा हये । न-नागक छ -
छायाके समयका वह पा नाथ और ही था।
१०६ गजसकुमारक मा और राजेमती रहनेमीको जो बोध दे ती है वह बोध मुझे ा त होव ।
१०७ भोग भोगने तक [जब तक वह कम है तब तक] मुझे योग हो ा त रहे।
६ १०८ सब शा ोका एक त व मुझे मला है ऐसा क ँ तो यह मेरा अहपद नही है।
१ १०९ याय मुझे ब त य है। वीरको शैली हो याय है, समझना कर है।।
११० प व पु षोक कृपा ही स य दशन है। ।
१११ भतृह रका कहा आ याग, वशु बु से वचार करनेसे ब त ऊ व ानदशा होने तक
रहता है।
११२ म कसी धमसे व नही ँ। मै सव धम का पालन करता ँ। आप सभी धम से व
है यो कहनेमे मेरा उ म हेतु है। ।
११३. आपके माने ए धमका उपदे श मुझे कस माणसे दे ते ह उसे जानना मेरे लये
आव यक है।
११४ श थल वध से नीचे आकर ही वखर जाये (-य द नजरामे आये तो)
११५ कसी भी शा मे मुझे शका न हो।

१६१
११६ खके मारे वैरा य लेकर ये लोग जगतको ममे डालते ह।
११७ अभी मै कौन ह इसका मुझे पूण भान नही है।
११८ तू स पु षका श य है।
११९. यही मेरी आका ा है।
१२० मेरे लये गजसुकुमार जैसा कोई समय आये।
१२१ राजेमती जैसा कोई समय आये।
१२२ स पु ष कहते नही, करते नही, फर भी उनको स पु पता न वकार मुखमु ामे न हत है।
१२३ स थान वचय यान पूवधा रयोको ा त होता होगा, ऐसा मानना यो य लगता है । आप,
भी उसका यान करे।।
१४१२४ आ मा जैसा कोई दे व नही है।
१२५ भा यशाली कौन ? अ वर त स य द या वर त ?
१२६ कसीक आजी वका न न कर।
२२
बबई, का तक, १९४३
वरोदय ान
यह ' वरोदय ान' थ पाठकके करकमलमे रखते ए इस वषयमे कुछ तावना लखना यो य
मानकर उसे लखता ँ। हम यह दे ख सकगे क ' वरोदय ान'क भाषा आधी ह द और आधी
गुजराती है। इसके कता एक आ मानुभवी थे, पर तु ऐसा कुछ मालूम नही होता क उ होने
दोनोमेसे कसी एक भी भाषाका व धपूवक पढा हो। इससे उनक आ मश या योगदशामे कोई
बाधा नही आती। और यह बात भी नही है क वे भाषाशा ी होनेक कुछ इ छा भी रखते थे।
इस लये उ हे वय जो कुछ अनुभव स आ है उसमेसे लोगोको मयादापूवक कुछ भी बोध दे दे नेको
उनक अ भलाषासे इस थक उ प ई है। और ऐसा होनेसे ही भाषा या छ दको ट मटाम अथवा
यु - यु का अ धक दशन इस थमे नही कर सकते ।
___जगत जब अना द अन त कालके लये है तब फर उसको व च ताके लये या व मय कर ?
आज जडवादके बारेमे जो शोधन चल रहा है वह कदा चत् आ मवादको उडा दे नेका य न है, पर तु ऐसे
भी अन त काल आये ह क जब आ मवादका ाधा य था, और इसी तरह कभी जडवादका भी बोलवाला
था। इसके लये त व ानी कसी वचारमे नही पड जाते, यो क जगतक ऐसी ही थ त है, तो फर
वक पसे आ माको खी यो करना ? पर तु सब वासनाओका याग करनेके बाद जस व तुका अनुभव
आ, वह व तु या है, अथात् व और पर या है ? अथवा इस बातका नणय कया क व तो व हे,
फर तो भेदवृ रही नह । इस लये स यकदशनसे उनक यही स म त रही क मोहाधीन आ मा अपने-
आपको भूलकर जड व वीकार करता है, इसमे कुछ आ य नह है। फर उसका वीकार करना
श दक तकरारमे--
वतमान शता द मे और फर उसके भी कतने ही वष तीत होने तक आ म चदान दजी
व मान थे। ब त ही समीपका समय होनेसे ज हे उनके दशन ए थे, समागम आ था और ज हे उनक
दशाका अनुभव आ था उनमेसे कुछ ती तवाले मनु योसे उनके वषयमे जाना जा सका है, तथा अव
भी वैसे मनु योसे जाना जा सकता है।
१६२
ीमद राजच
जैन मु न होने के बाद अपनी न वक प दशा हो जानेसे उ हे ऐसा तीत आ क वे अब मपूवक
, े , काल और भावसे यम- नयमोका पालन नह कर सकेगे। जस पदाथक ा तके लये यम-
नयमका मपूवक पालन करना होता है, उस व तुक ा त हो गयी तो फर उस े णसे वृ करना
और न करना दोनो समान है ऐसी त व ा नयोको मा यता है । जसे न थ वचनमे अ म गुण थान-
वत मु न माना है, उसमेसे सव म जा तके लये कुछ कहा नह जा सकता। पर तु एकमा उनके
वचनोका मेरे अनुभव ानके कारण प रचय होनेसे ऐसा कहा जा सका है क वे ायः म यम अ म -
दशामे थे। फर उस दशामे यम- नयमका पालन गौणतासे आ जाता है। इस लये अ धक आ मान दके
लये उ होने यह दशा मा य रखी । इस कालमे ऐसी दशाको प ँचे ए ब त ही थोड़े मनु योक ा त भी
लभ है । उस अव थामे अ म ता वषयक वातका अस भव वरासे होगा ऐसा मानकर उ होने अपना
जीवन अ नयत पसे और गु त पसे बताया। य द एसी ही दशामे वे रहे होते तो ब तसे मनु य उनके
मु नपनेक थ त श थलता समझते और ऐसा समझनेसे उनपर ऐसे पु पका अभी भाव नह पड़ता।
ऐसा हा दक नणय होनेसे उ होने यह दशा वीकार क ।-
xx
णमो जह यव थुवाईणं।
पातीत तीतमल, पूणानंद ईस।
चदान द ताक नमत, वनय स हत नज शीस ॥'
जो पसे र हत ह, कम पी मल जनका न हो गया है, और जो पूणानदके वामी है, उ हे
चदान दजी अपना म तक झुकाकर वनयस हत नम कार करते ह।
पातीत-इस श दसे यह सू चत कया क परमा म-दशा पर हत है।
तीतमल-इस श दसे यह सू चत कया क कमका नाश हो जानेसे वह दशा ा त होती है।
पूणान द ईस-इस श दसे उस दशाका सुख बताया क जहाँ स पूण आन द है, अथात् यह
सू चत कया क परमा मा पूण आन दके वामी है। फर पर हत तो आकाश भी है, इस लये कममलके
नाशसे आ मा जड प स हो जाये । इस शंकाको र करनेके लये यह कहा क उस दशामे आ मा
पूणान दका ई र है, और ऐसी उसक पातीतता है।
चदान द ताकं नमत-इन श दोसे अपनी उनपर नाम लेकर अन य ी त बतायी है । सवा
नम कार करनेक भ मे अपना नाम लेकर अपना एक व बता करके वशेष भ का तपादन
कया है।
वनयस हत-इस श दसे यथायो य व धका बोध दया। यह सू चत कया क भ का मूल
वनय है।
नज शोस-इन श दोसे यह बताया क दे हके सव अवयवोमे म तक े है, और उसके झुकानेसे
सवा नम कार आ । तथा यह भी सू चत कया क म तक झुकाकर नम कार करनेक व ध े है।
' नज' श दसे आ म व भ बताया क मेरे उपा धज य दे हका जो उ माग वह (शीस)
___ काल ाना दक थक , लही आगम अनुमान ।
गु क ना करी कहत , ँ शु च वरोदय ान ॥
'काल ान' नामके थ इ या दसे, जैन स ातमे कहे ए बोधके अनुमानसे और गु क कृपाके
तापसे वरोदयका प व ान कहता ँ।
१. प स या ८
२. प स या ९

१६३
'काल ान' इस नामका अ य दशनमे आयुका बोधक उ म थ है और उसके सवाय 'आ द'
श दसे सरे थोका भी आधार लया है, ऐसा कहा।
आगम अनुमान-इन श द से यह बताया क जैनशा मे ये वचार गौणतासे द शत कये है,
इस लये मने अपनी से जहाँ जहाँ जैसा बोध लया वैसा शत कया है। मेरी से अनुमान है,
यो क मै आगमका य ानी नही , ँ यह हेतु है।
गु क ना-इन श दोसे यह कहा क काल ान और आगमके अनुमानसे कहनेक मेरी समथता
न होती, यो क वह मेरी का प नक का ान था, पर तु उस ानका अनुभव करा दे नेवाली जो गु
महाराजको कृपा -
वरका उदय पछा नये, अ त थरता च धार ।
ताथी शुभाशुभ क जये, भा व व तु वचार ॥
च क अ तशय थरता करके भावी व तुका वचार करके "शुभाशुभ" यह,
अ त थरता च घार-इस वा यसे यह सू चत कया क च क व थता करनी चा हये ता क
वरका उदय यथायो य हो।
शुभाशुभ भा व व तु वचार-इन श दोसे यह सू चत कया क वह ान तीतभूत है, अनुभव
कर दे ख।
अब वषयका ारभ करते ह-
नाड़ी तो तनमे घणी, पण चौबीस धान ।
तामे नव पु न ता मे, तीन अ धक कर जान ॥२
ी े ँ ो ै ो े ौ ी ै औ े ौ औ
शरीरमे ना ड़याँ तो ब त है, पर तु उन ना ड़योमे चौबीस मु य है, और उनमे नौ मु य ह और
उनमे भी तीनको तो वशेष जान।
अब उन तीन ना डय ने नाम कहते है-
इंगला पगला सुषुमना, ये तीनके नाम ।
भ भ अब कहत ँ, ताके गुण अ धाम ॥
इगला, पगला, सुषु ना ये तीन ना डय के नाम है। अब उनके भ भ गुण और रहनेके थान
कहता ँ।
अ पाहार न ा वश करे,
हेत नेह जगयी प रहरे।
लोकलाज न व धरे लगार,
एक च भुथी ीत धार ॥
अ प आहार करनेवाला, न ाको वशमे करनेवाला अथात् नय मत न ा लेनेवाला, जगतके हेत-
ेमसे र रहनेवाला, (काय स के तकूल ऐसे) लोकक जसे त नक ल जा नह है, च को एका
करके परमा मामे ी त रखनेवाला ।
आशा एक मो को होय,
जी वधा न व च कोय ।
१ प स या १० इसका पूरा अथ यह है- च को अ त थर करके वरके उदय एव ज तको पहचान ।
फर उसके आधारसे भावी व तुका वचार करके शुभाशुभ काय क जये । २ प स या ११ ३ प स या १२
४. प स या ८२

१६४
ीमद् राजच
यान जोग जाणो ते जीत;
जे भव ःखथी डरत सद व ॥'
__ जसने मो के अ त र सभी कारक आशाका याग कया है, और जो ससारके भयकर ःखो ने कांचर
नरतर कॉपता है, ऐसे जीवा माको यान करने यो य जान।
अथात् =
पर नदा मुखथी न व करे,
मनसे
नज नदा सुणी समता धरे।
करे स वकथा प रहार,
रोके कम आगमन ार॥
जसने अपने मुखसे परक नदाका याग कया है, अपनी नदा सुनकर जो समता धारण करके हर
रहता है, ी, आहार, राज, दे श इ या द सबक कथाओका जसने नाश कर दया है, और कमके वेश हवस
करनेके ार जो अशुभ मन, वचन और काया है, उ हे जसने रोक रखा है।
이트
रोदके
अह नश अ धका ेम लगावे, जोगानल घटमा ह जगावे।
अ पाहार आसन ढ करे, नयन थक न ा प रहरे॥
दनरात यान वषयमे ब त ेम लगाकर घटमे योग पी अ न (कमको जला दे नेवाली) जगाये ।
(यह मानो यानका जीवन है।) अब इसके अ त र उसके सरे साधन बताते है।
थोड़ा आहार और आसनक ढता करे । प , वीर, स अथवा चाहे जो आसन क जससे मन
वारवार वच लत न हो ऐसा आसन यहाँ समझाया है । इस कार आसनका जय करके न ाका प र याग
कर। यहाँ प र यागको दे शप र याग बताया है। जस न ासे योगमे बाधा आती हे उस न ा अथात्
म ताका कारण और दशनावरणक वृ इ या दसे उ प होनेवाली अथवा अका लक न ाका
याग करे।
मेरा मेरा मत करे, तेरा न ह है कोय ।
चदान द प रवारका, मेला है दन दोय ॥
चदानदजी अपने आ माको उपदे श दे ते है क हे जीव । मेरा मेरा मत कर, तेरा कोई नही है।
हे चदानद । प रवारका मेला तो दो दनका है।
ऐसा भाव नहार नत, कोजे ान वचार ।
मटे न ान बचार बन, अतर भाव- वकार ॥
ऐसा णक भाव नरंतर दे खकर हे आ मन् । ानका वचार कर । ान वचार कये बना
(मा अकेली बा यासे) अतरमे भाव-कमके रहे ए वकार नही मटते।
ान-र व वैरा य 'जस, हरदे चंद समान ।
तास नकट कहो यो रहे, म यातम ख जान ॥६
जीव । समझ क जसके दयमे ान पी सूयका काश आ है, और जसके दयमे वैरा य पी
च का उदय आ है, उसके समीप योकर रह सकता है ?-- या ? म या म पी अधकारका .ख ।
१ प स या ८३ २ प स या ८४ ३ प स या ८८
६. प स या ३८३
४ प स या ३८१ ५. प स या ३८२

१६५
२०वा वष
जैसे कंचुक- यागसे, बनसत नह भुजंग।
दे ह यागसे जीव पु न, तैसे रहत अभंग ॥'
जैसे काँचलीका याग करनेसे साँपका नाश नही होता, वैसे दे हका याग करनेसे जीव भी अभग
रहता है अथात् न नही होता । यहाँ इस बातक स क है क जीव दे हसे भ है।
ब तसे लोग कहते है क दे ह और जीवक भ ता नही है, दे हका नाश होनेसे जीवका भी नाश
हो जाता है। यह मा वक प प है, पर तु माणभूत नही है, यो क वे कॉचलीके नाशसे साँपका भी
नाश आ समझते है। और यह बात तो य है क सांपका नाश काँचलीके यागसे नही है। उसी
कार जीवके लये है।
दे ह तो जीवक काँचली मा है। जब तक काँचली सॉपके साथ लगी ई है तब तक जैसे साँप
चलता है वैसे वह उसके साथ चलती ह, उसक भॉ त मुडती है और उसको सभी याएँ सॉपक याके
अधीन ह। सॉपने उसका याग कया क फर उनमेसे एक भी या काँचली नही कर सकती। पहले
वह जन याओको करती थी, वे सब याएं मा सॉपक थी, उनमे काँचलीका मा सबध था । इसी
कार जैसे जीव कमानुसार या करता है वैसे दे ह भी या करती है-चलती है, बैठती है, उठती है-
यह सब होता है जोव प ेरकसे, उसका वयोग होनेके बाद कुछ नही होता,
[ अपूण ]
२३
___ जीवत वस ब धी वचार
एक कारसे, दो कारसे, तीन कारसे, चार कारसे, पाँच कारसे और छ कारसे जीवत व
समझा जा सकता है।
सब जीवोको कमसे कम ुत ानका अनतवाँ भाग का शत रहनेसे सब जीव चैत यल णसे एक
ही कारके है।
__अस जीव अथात् जो धूपमेसे छायामे आय, छायामेसे धूपमे आय, चलनेक श वाले हो और भय
दे खकर ास पाते हो, ऐसे जीवोक एक जा त है । सरे थावर जीव अथात् जो एक ही थलमे थ त-
वाले हो, ऐसे जीवोक सरी जा त है। इस तरह सब जीव दो कारसे समझे जा सकते है।
सब जीवोको वेदसे जांचकर दे ख तो ी, पु प और नपुसक वेदमे उनका समावेश होता है।
कोई जीव ीवेदमे, कोई जीव पु षवेदमे और कोई जीव नपु सकवेदमे होते है। इनके अ त र चौथा
वेद न होनेसे वेद से सब जीव तीन कारसे समझे जा सकते है।
__ कतने ही जीव नरकग तमे, कतने ही तयचग तमे, कतने ही मनु यग तमे और कतने ही
दे वग तमे रहते ह। इनके अ त र पाँचवी ससारी ग त न होनेसे जीव चार कारसे समझे जा
सकते है।
[ अपूण]
१ प स या ३८६ ।
२ नव त व करण, गाथा ३-
एग वह वह त वहा, चउ वहा पच छ वहा जीवा ।
चेयण-तस-इयर ह, वेय-गई-करण-काए ह ॥३॥
भावाथ-जीव अनु मसे चेतन प एक हो भेद ारा एक कारके है, अस और थावर पसे दो कारके
ह, वेद पसे तीन कारके, ग त पसे चार कारके, इ य पसे पांच कारके और कायाके भेदसे छ कारके भी
कहलाते ह।

१६६
ीमद् राजच
२४
जीवाजीव वभ
जीव और अजीवके वचारको एका न मनसे वण कर। जसे जानकर भ ु स यक् कारसे
सयममे यल करते ह।
जीव और अजीव ( जहाँ हो उसे ) लोक कहा है। अजीवके आकाश नामके भागको अलोक
कहा है।
, े , काल और भावसे जीव और अजीवका बोध हो सकता है।
पी और अ पी इस कार अजीवके दो भेद होते ह। अ पीके दस कार और पीके चार
कार कहे ह।
धमा तकाय, उसका दे श, और उसके दे श, अधमा तकाय, उसका दे श, और उसके दे श,
आकाश, उसका दे श, और उसके दे श, अ ासमय कालत व, इस कार अ पीके दस कार होते ह ।
धम और अधम ये दोनो लोक माण कहे ह।

ो ो औ े ै औ े
आकाश लोकालोक माण और अ ासमय समय े '- माण है। धम, अधम और आकाश ये
अना द अपयव थत ह।
नरंतरक उ प को अपे ासे समय भी इसी कार ह। सत त एक कायक अपे ासे सा द-
सात है।
कंध, कधदे श, उसके दे श और परमाणु इस तरह पी अजीव चार कारके ह।
जसमे परमाणु एक होते ह और जससे परमाणु पृथक होते ह वह कंध है। उसका वभाग
दे श और उसका अ तम अ भ अश दे श है।
वह लोकके एक दे शम े ी है । उसके कालके वभाग चार कारके कहे जाते ह।
नर तर उ प क अपे ासे अना द अपयव थत है। एक े क थ तको अपे ासे सा दसपय-
व थत है।
[अपूण]
__ ( उ रा ययनसू , अ ययन ३६ )
२५
का तक, १९४३
१ मादके कारण आ मा ा त ए व पको भूल जाता है।
२ जस जस कालमे जो जो करना है उसे सदा उपयोगमे रखे रहे।
३ फर मसे उसक स कर।
४ अ प आहार, अ प वहार, अ प न ा, नय मत वाचा, नय मत काया और अनुकूल थान,
ये मनको वश करनेके उ म साधन है।
५ े व तुक अ भलाषा करना ही आ माक े ता है । कदा चत् वह अ भलाषा पूरी न ई
तो भी वह अ भलाषा भो उसीके अंशके समान है।
६ नये कम को नही वाँधना और पुरानोको भोग लेना, ऐसी जसक अचल अ भलाषा है, वह
तदनुसार वतन कर सकता है।
... ७ जस कृ यका प रणाम धम नह है, उस कृ यको करनेक इ छा मूलसे ही नही रहने दे नी
चा हये।
१. मनु य े -ढाई प माण ।

२०वाँ वष ,
१६७
८ य द मन शकाशील हो गया हो तो ' ानुयोग' का वचार करना यो य है; माद हो गया
हो तो 'चरणकरणानुयोग' का वचार करना यो य है, और कषायी हो गया हो तो 'धमकथानुयोग' का
वचार करना यो य है; और जड हो गया हो तो 'ग णतानुयोग' का वचार करना यो य है।
९ कसी भी कामक नराशा चाहना, प रणाममे फर जतनी स ई उतना लाभ; ऐसा
करनेसे सतोषी रहा जायेगा।
१०. पृ वीसवधी लेश हो तो यो समझ लेना क वह साथ आनेवाली नह है, युत मै उसे दे ह दे कर
चला जानेवाला ँ, और वह कुछ मू यवान नही है। ीसबधी लेश, शका भाव हो तो यो समझकर
अ य भो ाके त हंसना क वह मल-मू क खानमे मो हत हो गया, ( जस व तुका हम न य याग करते
ह उसमे 1 ) धनस ब धी नराशा या लेश हो तो वे ऊँची जा तके ककर ह यो समझकर सतोष रखना,
तो मसे तू न. पृही हो सकेगा।
११ उसका तू बोध ा त कर क जससे समा धमरणक ा त हो।
१२ एक बार य द समा धभरण आ तो सव कालके असमा धमरण र हो जायगे।
१३ सव म पद सव यागीका है।
२६
ववा णया बदर, १९४३
सु ी च भुज बेचर,
प का उ र नही लख सका। यह सब मनक व च दशाके कारण है। रोष या मान इन दोमेसे
कोई नही है। कुछ ससार भावक ख ता तो ज र है। इससे आपको परेशान नह होना चा हये ।
मा चाहते है । बातका व मरण करनेके लये वनती है।
x
सावधानी शूरवीरका भूषण है।
जनाय नमः
२७
बबई, सं० १९४३
महाशय,
आपक प का मली थी । समाचार व दत ए । उ रमे नवेदन है क मुझे कसी भी कारसे
बुरा नही लगा । वैरा यके कारण अपे त प ीकरण लख नही सकता । य प अ य कसीको तो प ँच
भी नह लख सकता, तो भी आप मेरे दय प ह, इस लये प ँच इ या द लख सकता ँ। म केवल
दय यागी ह। थोडे समयमे कुछ अ त करनेके लये त पर ँ। ससारसे तग आ गया ँ।
म दसरा महावीर है, ऐसा मुझे आ मक श से मालूम आ है। दस व ानोने मलकर मेरे

ो ो े ै ँ ै ी े ँ ै े
होको परमे र ह ठहराया है। स य कहता ँ क म सव जैसी थ तमे ँ। वैरा यमे झूमता ह।
___आशु राजच
नया मतभेदके वधनसे त वको पा नही सक । इसमे स य सुख और स य आनद नह ह। उसके
था पत होनेके लये और एक स चे धमको चलानेके लये आ माने साहस कया है। उस धमका वतन
क ँ गा ही।
__ महावीरने अपने समयमे मेरा धम कुछ अशोमे च लत कया था। अब वेसे पु ष के मागको हण
करके े धमको थापना क ं गा।

१६८
ीमद् राजच
"यहाँ इस धमके श य बनाये है । यहाँ इस धमक सभाक थापना कर ली है।
'सात सौ महानी त अभी इस धमके श योके लये एक दनमे तैयार क है।
सारी सृ मे पयटन करके भी इस धमका वतन करगे। आप मेरे दय प और उ क ठत है,
इस लये यह अ त वात वतायी है । अ यको न वताइयेगा।
अपनी ज मकु डली मुझे लौटती डाकसे भेज द जये। मुझे आशा है क उस धमका चार करनेम
आप मुझे ब त सहायक स होगे, और मेरे महान श योमे आप अ ेसरता भोगेगे। आपक श
अ त होनेसे ऐसे वचार लखनेमे मने सकोच नही कया है।
अभी जो श य वनाये है उ हे ससार छोडनेके लये कहे तो खुशीसे छोड़ सकते ह। अभी भी
उनक ना नही है, ना हमारी है। अभी तो सौ दो सौ चौतरफा तैयार रखना क जनक श
अ त हो।
धमके स ातोको ढ करके, मै ससारका याग करके, उनसे याग कराऊँगा । कदा चत् मै परा-
मके लये थोड़े समय तक याग न क ँ तो भी उनसे याग करवाऊँगा ।
सव कारसे अब म सव के समान हो चुका ँ ऐसा क ँ तो चले।
दे ख तो सही | सृ को कस पमे बदलते ह |
प मे अ धक या बताऊँ ? ब मे लाखो वचार वताने ह। सव अ छा ही होगा। मेरे य
महाशय, ऐसा ही मान।
ह पत होकर लौटती डाकसे उ र लखे । बातको सागर रम होकर सुर त र खयेगा।
यागीके यथायो य ।
२८
. वंवई बदर, सोम, १९४३
य महाशय,
र ज टड प के साथ ज मकु डली मली है।
अभी मेरे धमको जगतमे वतन करनेके लये कुछ समय वाक है। अभी मै ससारमे आपक
नधा रत अव धसे अ धक रहनेवाला ँ। हमे ज दगी ससारमे अव य गुजारनी पडेगी तो वैसा करगे।
अभी तो इससे अ धक अव ध तक रहनेका वन पायेगा । मरण र खये क कसीको नराश नह क ं गा।
धमस ब धी आपने-अपने वचार वतानेका प र म उठाया यह उ म कया है। कसी कारक अडचनं
नही आयेगी । पचमकालमे वतन करनेके लये जो जो चम कार चा हये वे सव एक त ह और होते जाते
ह । अभी इन सब वचारोको पवनसे भी सवथा गु त र खये। यह कृ य सृ मे वजयी होनेवाला ही है।
आपक ज मकु डली, दशनसाधना, धम इ या द स ब धी वचार समागममे वताऊँगा । मै थोडे
समयमे ससारी होनेके लये वहाँ आनेवाला ँ। आपको पहलेसे ही मेरा आम ण है।
अ धक लखनेक सहज आदत न होनेसे ेमकुशल और शु ल ेम चाहकर प का पूण करता ँ।
ल० रायच ।
१. दे ख आक १९

१६९
। बंबई, का तक सुद ५, १९४४
रा. रा च भुज बेचरक सेवामे स वनय वनती है क :-
मेरे स ब धमे नरतर न त र हयेगा । आपके लये मै चतातुर रहँगा।
जैसे बने वैसे अपने भाइयोमे ी त, एकता और शा तक वृ कर। ऐसा करनेसे मुझपर बडी
कृपा होगी।
समयका स पयोग करते र हयेगा, गांव छोटा है तो भी।
' वीणसागर' क व था करके भजवा ं गा।
नरतर सभी कारसे न त र हयेगा।
ल• रायचदके जनाय नमः
३०
बंबई, पौष वद १०, बुध, १९४४
ववाह सबधी उ होने जो मती न त क है, उसके वषयमे उनका आ ह है तो भले वह
मती न त रहे।
ल मीपर ी त न होनेपर भी कसी भी परा थक कायमे वह ब त उपयोगी हो सकती हे ऐसा

े े ौ ँ े े ी
लगनेसे मौन धारणकर यहाँ उसक सु व था करनेमे लगा आ था। उस व थाका अभी प रणाम
आनेमे ब त समय नही था । पर तु इनक ओरका केवल मम वभाव शी ता कराता है, जससे उस सव-
को छोडकर वद १३ या १४ (पौषक ) के दन यहाँसे रवाना होता ँ। पराथ करते ए कदा चत् ल मी
अधता, ब धरता और मूकता दे दे ती है, इस लये उसक परवाह नह है।
, हमारा अ यो य स ब ध कोई कौटु वक र ता नही है, पर तु दलका र ता है। पर पर लोह-
चु बकका गुण ा त आ है, यह य है, तथा प मै तो इससे भी भ पसे आपको दय प करना
चाहता ँ। जो वचार सारे स ब धोको र कर, ससार योजनाको र कर त व व ान पसे मुझे बताने
ह, और आपको वय उनका अनुकरण करना है। इतना सकेत व त सुख द होनेपर भी मा मक पमे
आ म व पके वचारसे यहाँ लखे दे ता ँ।
१ स १९४४ माघ सुद १२-गृह था ममे वेश ।

१७०
ीमद् राजच
वे शुभ सगमे स वेक स हो और ढसे तकूल रहे जससे पर पर कौटु बक नेह
न प हो सके-ऐसी सुदर योजना उनके दयमे है या? आप ठसायगे या? कोई सरा ठसायेगा
या ? यह वचार पुन पुन दयमे आया करता है।
नदान, साधारण ववेक जन वचारोको हवाई समझ, वैसे वचार, जो व तु और जो पद आज
स ा ी व टो रयाके लये लभ-केवल असभ वत ह-उन वचारो, उस व तु और उस पदक ओर
सपूण इ छा होनेसे, ऊपर लखा है उससे लेश मा भी तकूल हो तो उस पदा भलापी पु षके च र को
परम लाछन लगने जैसा है। ये सारे हवाई ( अभी लगनेवाले ) वचार केवल आपको ही बताता ँ।
अत करण शु ल-अ त- वचार से भरपूर है । पर तु आप वहाँ रहे और मै यहाँ रहा ।
३१ ववा णया, ० चै सुद ११॥ र व, १९४४
णभगुर नयामे स पु षका समागम ही अमू य और अनुपम लाभ है ।
३२ ववा णया, आपाढ वद ३, बुध, १९४४
__ यह एक अ त बात है क चार पाँच दन ए बायी आँखमे एक छोटे च जैसा बजलीके समान
चमकारा आ करता है, जो आँखसे जरा र जाकर अ य हो जाता है। लगभग पाँच म नट होता है
या दखायी दे ता है। मेरी मे वारवार यह दे खनेमे आता है । इस बारेमे कसी कारक ा त नही
है। इसका कोई न म कारण मालूम नही होता । ब त आ यकारी है। आँखमे सरा कसी भी
कारका असर नह है। काश और द ता वशेष रहते है। चारेक दन पहले दोपहरके २-२०
म नटपर एक आ यभूत व आनेके वाद यह आ हो ऐसा मालूम होता है। अ त करणमे ब त
काश रहता है, श ब त तेज वी है। यान समा ध थ रहता है। कोई कारण समझमे नही आता।
यह पात गु त रखनेके लये ही बता दे ता ँ। अब इस स ब धमे वशेष फर ललूँगा।
... ३३ . ववा णया, आषाढ वद ४, शु , १९४४
* आप भी आ थक बेपरवाही न र खयेगा। शरीर और आ मकसुखक इ छा करके, यका कुछ
सकोच करगे तो म मानूँगा क मुझपर उपकार आ | भ वत ताका भाव होगा तो मै आपके अनुकूल
सु वधायु समागमका लाभ उठा सकूँगा।
' '.. .
३४ ववा णया, ावण वद १३, सोम, १९४४
' ' ' 'वामने स ब धी चम कारसे आ मश मे अ प प रवतन आ है।
ववा णया, ावण वद ३०, १९४४
उपा ध कम है, यह आन दजनक है । धमकरनीके लये कुछ समय मलता होगा।
धमकरनीके लये थोडा समय मलता है, आ म स के लये भी थोडा समय मलता है, शा -
पठन और अ य वाचनके लये भी थोडा समय मलता है, थोड़ा समय लेखन यामे जाता है, थोडा समय
आहार- वहार- या ले लेती है, थोड़ा समय शौच यामे जाता है, छ घटे न ा ले लेती है, थोडा समय
मनोराज ले जाता है, फर भी छ. घटे बचते ह। स संगका लेश अंश भी न मलनेसे वचारा यह आ मा
ववेक- वकलताका वेदन करता है।

२१ वा वष
१७१
३६ व वई, भा पद वद १, श न, १९४४
__ वदा म भुव मानपादम्
तमाके कारण यहाँ समागममे आनेवाले लोग ब त तकूल रहते है । यो ही मतभेदसे अन तकाल
और अन त ज ममे भी आ माने धम नही पाया। इस लये स पु ष उसे नही चाहते, पर तु व प-
े णको चाहते ह।
३७ ब बई ब दर, आसोज वद २, गु , १९४४
पा नाथ परमा माको नम कार
य भाई स या भलाषी उजमसी, राजनगर ।
आपका ह त ल खत शुभ प मुझे ' कल सायकाल मला । आपक त व ज ासाके लये वशेष
स तोष आ।
___ जगतको अ छा दखानेके लये अन त वार य न कया, फर भी उससे अ छा नही आ । यो क
औ े े ी े े ी
प र मण और प र मणके हेतु अभी य व मान ह। य द एक भव आ माका भला करनेमे तीत
हो जायेगा, तो अन त भवोका बदला मल जायेगा, ऐसा म लघु वभावसे समझा , ँ और वैसा करनेमे
ही मेरी वृ है। इस महाव धनसे र हत होनेमे जो-जो साधन और पदाथ े लग, उ हे हण
करना, यही मा यता है, तो फर उसके लये जगतक अनुकूलता- तकूलता या दे खनी ? वह चाहे जैसे
बोले, पर तु आ मा य द ब धनर हत होता हो, समा धमय दशा पाता हो तो वैसे कर लेना। जससे
सदाके लये क त-अपक तसे र हत आ जा सकेगा।
अभी उनके और इनके प के लोग के जो वचार मेरे वषयम ह, वे मेरे यानमे ह ही, पर तु
उ हे व मृत कर दे ना ही ेय कर है। आप नभय र हये । मेरे लये कोई कुछ कहे उसे सुनकर मौन
र हये, उनके लये कुछ शोक-हष न क जयेगा। जस पु षपर आपका श त राग है, उसके इ दे व
परमा मा जन, महायोगी पा नाथ आ दका मरण र खये और यथास भव नम ही होकर मु
दशाक इ छा क रये । जी वत या जीवनपूणता स ब धी कुछ सक प- वक प न क जयेगा। उपयोगको
शु करनेके लये इस जगतके सक प- वक पोको भूल जाइये, पा नाथ आ द योगी रक दशाका मरण
क रये, और वही अ भलाषा रखे र हये, यही आपको पुन पुन आशीवादपूवक मेरी श ा है। यह अ प
आ मा भी उस पदका अ भलाषी और उस पु षके चरणकमलमे त लीन आ द न श य है। आपको
वैसी ाक ही श ा दे ता है। वीर वामी ारा उप द , े , काल और भावसे सव व प
यथात य है, इसे न भू लयेगा। उनक श ाक कसी भी कारसे वराधना ई हो तो उसके लये
प ा ाप क जये । इस कालक अपे ासे मन, वचन और कायाको आ मभावसे उनक गोदमे अपण
कर, यही मो का माग है। जगतके सव दशनोक -मतोक ाको भूल जाइये, जैनस ब धी सब वचार
भूल जाइये, मा उन स पु पोके अ त, योग फु रत च र मे ही उपयोगको े रत को जयेगा।
इस आपके माने ए 'पू य के लये कसी भी कारसे हष-शोक न क जयेगा; उसको इ छा मा
सक प- वक पसे र हत होनेक ही है, उसका इस व च जगतसे कुछ स ब ध या लेना-दे ना नह है।
इस लये उसमे उसके लये चाहे जो वचार कये जाये या कहे जाये उनक ओर अब यान दे नेक इ छा
नही है। जगतमेसे जो परमाणु पूवकालमे इक े कये है उ हे धीरे-धीरे उसे दे कर ऋणमु होना, यही
उसक सदा उपयोगस हत, य, े और परम अ भलाषा है, बाक उसे कुछ नही आता, वह सरा
कुछ नही चाहता, पूवकमके आधारसे उसका सारा वचरना है, ऐसा समझकर परम स तोष र खये, यह

१७२
ीमद् राजच
बात गु त र खये । हम या मानते ह ? अथवा कैसे बरताव करते है ? उसे जगतको दखानेक ज रत
नह है, पर तु आ माको इतना ही पूछनेक ज रत है क य द तू मु को चाहता है तो सक प- वक प,
राग े ष को छोड़ दे और उसे छोडनेमे तुझे कुछ बाधा हो तो उसे कह । वह अपने आप मान जायेगा और
वह अपने आप छोड़ दे गा।
जहाँ-तहाँसे राग े षर हत होना यही मेरा धम है, और वह अभी आपको बताये दे ता ँ। पर पर मलगे
तब फर आपको कुछ भी आ म-साधना बता सकूँगा तो बताऊँगा। बाक धम तो वही है जो मने ऊपर
कहा है और उसीमे उपयोग र खये। उपयोग ही साधना है। वशेष साधना मा स पु षके चरणकमल
है, यह भी कहे दे ता ँ।
____ आ मभावमे सब कुछ र खये, धम यानमे उपयोग र खये, जगतके कसी भी पदाथ, सगे सबधी,
कुटु बी और म का कुछ हष-शोक करना यो य ही नह है। - परमशा तपदक इ छा करे यही हमारा
सवस मत धम है और यही इ छा करते-करते वह मल जायेगा, इस लये न त रहे । मै कसी ग छमे
नही ँ, पर तु आ मामे , ँ इसे न भू लयेगा.।।
जसक दे ह धम पयोगके लये है, उस दे हको रखनेके लये जो य न करता है, वह भी धमके
लये ही है।
व० रायच
३८
व० स० १९४४
- (१) सहज वभावसे मु , अ यत य अनुभव व प आ मा है, तो फर ानी पु षोको आ मा
है, आ मा न य है, बध है, मो है इ या द अनेक कारका न पण करना यो य न था।
(२) आ मा य द अगम अगोचर है तो फर वह कसीको ा त होने यो य नही है, और य द
सुगम सुगोचर है तो फर य न करना यो य नही है।
व० स० १९४४
ने ोक यामता वषे जो पुत लयाँ प थत है, अ पको दे खता है, सा ीभूत है, सो अंतर कैसे
नही दे खता ? जो वचा वषे पश करता है, शीतउ णा दकको जानता है, ऐसा सव अग वषे ापक
अनुभव करता है, जैसे तलो वषे तेल ापक होता है, तसका अनुभव कोऊ नही करता। जो श द
वणइ यके अ तर हण करता है, तस श दश को जाननेहारी स ा है, जस वषे श दश का
वचार होता है, जसक र रोम खडे होई आते ह, सो स ा र कैसे होवे ? जो ज ाके अ वषे
रस वादको हण करता है, तस रसका अनुभव करनेहारी अलेप स ा है, सो स मुख कैसे न होवे ?
वेद वेदात, स त स ात, पुराण, गीता क र जो ेय, जानने यो य आ मा है तसको जब जा या तव
व ाम कैसे न होवे ?
४०
बबई, १९४४

औ े े े ो े े
वशालवु , म य थता, सरलता और जते यता इतने गुण जस आ मामे हो, वह त व पानेके
लये उ म पा है।
____ अनत ज ममरण कर चुकनेवाले इस आ माक क णा वैसे अ धकारीको उ प होती है और
वही कममु होनेका अ भलाषी कहा जा सकता है । वही पु ष यथाथ पदाथको यथाथ व पसे समझकर
मु होनेके पु षाथमे लग जाता है।

२१ वां वष
१७३
जो आ मा मु ए है वे आ मा कुछ व छदवतनसे मु नह ए है, पर तु आ त पु ष ारा
उप द मागके बल अवलबनसे मु ए ह।
अना दकालके महाश ु प राग, े ष और मोहके बधनमे वह अपने स ब धमे वचार नही कर
सका । मनु य व, आयदे श, उ मकुल और शारी रक सप ये अपे त साधन है, और अ तर साधन
मा मु होनेक स ची अ भलापा है।
। इस कार य द आ मामे सुलभबो धताक यो यता आयी हो तो वह, जो पु प मु ए ह, अथवा
वतमानमे मु पसे या आ म ानदशासे वचरते है, उनके उप द मागमे न सदे ह ाशील होगा।
जसमे राग, े ष और मोह नही है, वह पु ष इन तीन दोषोसे र हत मागका उपदे श कर
सकता है अथवा तो उसी प तसे नःसंदेह पसे आचरण करनेवाले स पु ष उस मागका उपदे श
दे सकते है।
' सभी दशनोक शैलीका वचार करनेपर राग, े ष और मोह र हत पु षका उप द न ंथदशन
वशेष मानने यो य है।
इन तीन दोषोसे र हत, महा तशयसे तापी तीथकरदे वने मो के कारण प जस धमका उपदे श
दया है, उस धमको चाहे जो मनु य वीकार करते हो, पर तु वह एक प तसे होना चा हये, यह
बात नशक है।
अनेक प तसे अनेक मनु य उस धमका तपादन करते हो और वह मनु योमे पर पर मतभेद
का कारण होता हो तो उसमे तीथकरदे वक एक प तका दोष नही है पर तु उन मनु योक समझश का
दोष माना जा सकता है।
__ इस तरह हम न ंथधम वतक है, यो भ - भ मनु य कहते हो, तो उनमेसे उन मनु योको
माणाबा धत गना जा सकता है क जो वीतरागदे वक आ ाके स ावसे पक और वतक हो।
यह काल ' षम' नामसे यात है। पम काल उसे कहा जाता है क जस कालमे मनु य ।
महा खसे आयु पूण करते हो, और धमाराधनाके पदाथ को ा त करनेमे .पमता अथात् महा व न ।
आते हो।
हालमे वीतरागदे वके नामसे जैनदशनमे इतने अ धक मत च लत है क वे मत, केवल मत प है,
पर तु जब तक वीतरागदे वक आ ाका अवलवन करके उनका वतन न होता हो तब तक वे सत प
नही कहे जा सकते।
इस मत वतनमे इतने मु य कारण मुझे स भा लगते है-(१) अपनी श थलताके कारण कतने ।
ही पु षोने न ंथदशाक धानता कम कर द हो, (२) पर पर दो' आचाय का वाद- ववाद, (३) मोहनीय ।
कमका उदय और तदनु प वतन हो जाना, (४) हण करनेके बाद उस वातका माग मलता हो तो भी
उसे लभबो धताके कारण हण न करना, (५) म तको यूनता, (६) जसपर राग हो उसको इ छानुसार
वतन करनेवाले अनेक मनु य, (७) षम काल और (८) शा ानका घट जाना।
इन सब मतोके सबवमे समाधान होकर न.शकतासे वीतरागक आ ा प माग व त हो तो
महाक याण हो, पर तु ऐसी सभावना कम है । जसे मो क अ भलाषा है उसको वतना तो उसी माग-
म होती है, पर तु लोक अथवा ओघ षटसे वतन करनेवाले पु प, और पूवके घट कमके उदयके
कारण मतक ामे पड़े ए मनु य उस मागका वचार कर सके, या वोव ले सक, ऐसा उनके कतने
ही लभबोधी गु करने दे और मतभेद र होकर परमा माको आ ाका स यकपसे आराधन करते

१७४
ीमद् राजच
जा उन मतवा दयोको दे खे, यह ब त असभ वत है। सबमे एकसी बु गट होकर, उसका सशोधन होकर,
वीतरागक आ ा प मागका तपादन हो, यह य प सवथा असभव जैसा है, फर भी सुलभबोधी आ मा
अव य इसके लये य न करते रहे तो प रणाम े आये यह बात मुझे सभ वत लगती है। .
- षम कालके तापसे जो लोग व ाका बोध ले सके है , उ हे धमत वपर मूलसे ही ा दखाई
नही दे ती। जस सरलताके कारण कुछ ा होती है उसे इस वषयक कुछ सूझबूझ नही होती। य द
कोई सूझबूझवाला नकल आये तो उसे उस व तुक वृ मे व नकता मलेग, े पर तु सहायक नही होगे,
ऐसी आजक कालचया है । इस कार श त के लये धमक लभता हो गयी है।
___ अ श त लोगोमे यह एक वाभा वक गुण रहा है क हमारे बापदादा जस धमको मानते आये है,
उस धममे ही हमे वतन करना चा हये, और वही मत स य होना चा हये, और अपने गु के वचनोपर
ही हमे व ास रखना चा हये, फर चाहे वह गु शा ोके नाम भी न जानता हो, पर तु वही महा ानी
है ऐसा मानकर वृ करनी चा हये। और हम जो मानते है वही वीतरागका उप द धम है, बाक
जो जैन नामसे च लत है वे सभी मत असत् है। ऐसी उनक समझ होनेसे वे बचारे उसी मतमे रचेपचे
े े े े ो ी ो ी ै
रहते ह । अपे ासे दे ख तो उनका भी दोष नही है।
__ जो जो मत जैनमे च लत है उनमे ाय जैनस ब धी ही याएँ हो यह मानी ई बात है।
तदनुसार वृ दे खकर जस मतमे वय द त ए हो, उस मतमे ही द त पु षोका रचा-पचा रहना
होता है। द तोमे भी भ कताके कारण ली ई द ा, या भ ा माँगने जैसी थ तसे घबराकर हण
क गई द ा, या मशानवैरा यसे ली गयी द ा होती है। श ाक मापे फुरणासे ा त ई द ा-
वाला पु ष आप वरल ही दे खेग, े और दे खगे तो वह मतसे तग आकर वीतरागदे वक आ ामे राचनेक
लये अ धक त पर होगा।
जसे श ाको सापे फरणा हई है, उसके सवाय सरे जतने मनु य द त या गृह थ ह वे
सब जस मतमे वय पडे होते ह उसीमे रागी होते ह, उ हे वचारक ेरणा दे नेवाला कोई नही मलता।
अपने मतसबधी नाना कारके आयो जत वक प (चाहे फर उनमे यथाथ माण हो या न हो) समझाकर
गु अपने पंजेमे रखकर उ हे चला रहे है।
इसी कार यागी गु ओके अ त र बरबस बन बैठे महावीरदे वके मागर क गने जानेवाले
य त ह, उनक तो माग वतनक शैलीके लये कुछ कहना ही नही रहता। यो क गृह थके तो अणु त
भी होते है, परतु ये तो तीथकर दे वक भाँ त क पातीत पु ष हो बैठे ह।
सशोधक पु ष ब त कम है। मु होनेक अत करणमे अ भलाषा रखनेवाले और पु षाथ करने-
वाले ब त कम ह। उ हे साधन जैसे क स , स सग या स शा मलने लभ हो , गये है। ,जहाँ
पूछने जाय वहाँ सब अपना अपना राग आलापते है। फर वह स चा या झूठा इसका कोई भाव नही
पूछता। भाव पूछनेवालेके आगे म या वक प करके अपनी ससार थ त बढाते है और सरेको वैसा
न म बनाते है।
अधूरेमे पूरा कोई सशोधक आ मा होगा तो वह अ योजनभूत पृ वी इ या दक वषयोमे शका होने-
से क गया है। अनुभव धम पर आना उसके लये भी कर हो गया है।
___ इस परसे म ऐसा नही कहता क वतमानमे कोई भी जैनदशनके आराधक नही ह, , है सही, पर तु
ब त ही थोड़े, ब त ही थोडे, और जो है वे ऐसे क ज हे मु होनेके अ त र और कोई अ भलाषा
नही है, और ज होने अपना आ मा वीतरागक आ ामे सम पत कर दया है और वे भी अगु लयो पर गने

२१ वॉ वष
१७५
जा सके उतने होगे। बाक तो दशनक दशा दे खकर क णा उ प होने जैसा है। आप थर च से
वचार कर दे खगे तो यह मेरा कथन आपको स माण लगेगा।
इन सभी मतोमे कतनोका तो साधारण-सा ववाद है। मु य ववाद यह है क एकका कथन
तमाक स के लये है, सरे उसका सवथा ख डन करते ह।
सरे प मे पहले म भी गना गया था। मेरी अ भलाषा वीतरागदे वक आ ाके आराधनको
ओर है । ऐसा स यताके लये कह कर बता दे ता ँ क थम प स य है, अथात् जन तमा और उसका
पूजन शा ो , माणो , अनुभवो और अनुभवमे लेने यो य है । मुझे उन पदाथ का जस पसे बोध
आ अथवा उस वषय स ब धी मुझे जो अ प शका थी वह र हो गयी, उस व तुका क चत् भी त-
पादन होनेसे कोई भी आ मा त स ब धी वचार कर सकेगा, और उस व तुक स तीत हो तो
त स ब धी उसके मतभेद र हो जायगे, यह सुलभदो धताका काय होगा ऐसा समझकर, स ेपमे कुछे क
वचार तमा स के लये द शत करता ँ।
मेरी तमामे ा है, इस लये आप सब ा कर, इसके लये मेरा कहना नही है, पर तु य द
उससे वोर भगवानक आ ाका आराधन होता दखाई दे , तो वैसा करे । पर तु इतना मरण रख क -
__ क तपय आगम माणोक स के लये परपरा, अनुभव इ या दक आव यकता है। य द आप कहे
तो कुतकसे पूरे जैनदशनका मी ख डन कर दखाऊँ, पर तु उसमे क याण नही है। जहाँ माणसे और
अनुभवसे स य व तु स हो गई हो, वहाँ ज ासु पु ष अपने चाहे जैसे हठको भी छोड़ दे ते ह ।
'य द ये महान ववाद इस कालमे न पड़े होते तो लोगोको धम ा त ब त सुलभ होतो।
स ेपमे मै इस बातको पाँच कारके माणोसे स करता - ँ
१ आगम माण, २ इ तहास माण, ३ परंपरा माण, ४ अनुभव माण, ५ माण माण । .
१. आगम माण
आगम कसे कहा जाये इसक पहले ा या होनेक ज रत है। जसका तपादक मूल पु ष
आ त हो और जसमे उसके वचन होते है वह आगम है।
गणधरोने वीतरागदे व ारा उप द अथक योजना करके स ेपमे मु य वचनोको लया, वे आगम
या सू के नामसे पहचाने जाते है । स ात, शा ये उसके सरे नाम ह।
गणधरोने तीथकरदे व ारा उप द शा ोक ादशागी पसे योजना क , उन बारह अगोके नाम
कह दे ता है-आचाराग, सू कृताग, थानाग, समवायाग, भगवतो, ाताधमकथाग, उपासकदशाग,
अतकृतदशाग, अनु रोपपा तक, ाकरण, वपाक और वाद ।
१ जससे वीतरागक कसी भी आ ाका पालन हो ऐसी वृ करना यह मु य मा यता है।
२ म पहले तमाको नही मानता था और अब मानता , ँ इसमे कोई प पाती कारण नही है,
पर तु मझे उसक स तीत ई इस लये मा य रखता , ँ और स होनेपर भी नह माननेसे पहलेक
मा यताक भी स नही है, और वैसा होनेसे आराधकता नही है।
३ मेरी इस मत या उस मतक मा यता नही है, पर तु राग े षर हत होनेको परमाका ा है, और
उसके लये जो जो साधन हो, उन सबको चाहना और करना ऐसी मा यता है, और इसके लये महा-
वीरके वचनोपर मुझे पूण व ास है।
१७६
ीमद राजच
४ अभी मा इतनी तावना करके तमासंबधी अनेक कारसे जो स मुझे तीत ई उसे
अब कहता ँ। उस स का मनन करनेसे पहले वाचक न न वचारोको कृपया यान रख-
, (अ) आप भी तरनेके इ छु क ह, और म भी ँ, दोनो महावीरके बोध, आ म हतैषी बोधको
चाहते है और वह याययु है। इस लये जहाँ स यता हो वहाँ दोनो अप पातसे स यता कहे।
' (आ) कोई भी बात जब तक यो य री तसे समझमे न आये तब तक उसे समझे, त संबधी कुछ
कहते ए मौन रख।' ,
(इ) अमुक बात स हो तभी ठ क है. ऐसा न चाहे, परतु स य, स य स हो ऐसा चाहे।
तमाको पूजनेसे ही मो है कवा उसे न माननेसे मो है, इन दोनो वचारोके बारेम, े इस पु तकका
यो य कारसे मनन करने तक मौन रहे।
(ई) शा क शैलीसे व अथवा अपने मानक र ाके लये कदानही होकर कोई भी बात
न कहे।
(उ) एक बातको अस य और सरीको स य माननेमे जब तक अटू ट कारण न दया जा सके, तब
तक अपनी बातको म य थवृ मे रोक रख।
(ऊ) कसी धमको माननेवाला सारा समुदाय कही मो मे चला जायेगा ऐसा शा कारका कहना
नही है, पर तु जसका आ मा धम वको धारण करेगा वह स स ा त होगा, ऐसा कहना है। इस लये
वा माको धमबोधक पहले ा त करानी चा हये। उसका एक साधन यह भी है, उसका परो या
य अनुभव कये बना खंडन कर डालना यो य, नही है।
(ए) य द आप तमाको माननेवाले है तो उससे जस हेतुको स करनेक परमा माक आ ा
है उसे स कर ले, और य द आप तमाके उ थापक है तो इन माणोको यो य री तसे वचारकर
दे ख ल। दोनो मुझे श ु या म कुछ भी न मान। चाहे जो कहनेवाला है, ऐसा समझकर थको
पढ जाय।
(ऐ) इतना ही स चा है अथवा इतनेमेसे ही तमाक स हो तो हम मान ऐसा आ ह न
र खयेगा । पर तु वीरके उप द शा ोसे स हो ऐसी इ छा क जयेगा।
(ओ) इसी लये पहले इस बातको यानमे लेना पडेगा क वीरके उप द शा कौनसे कहे जा
सकते है, अथवा माने जा सकते है, इस लये मै पहले इस सबधमे क ँगा।
__ (औ) मुझे स कृत, मागधी या कसी भाषाका अपनी यो यताके अनुसार प रचय नही है, ऐसा
मानकर मुझे अ ामा णक ठहरायेगे तो यायके तकूल जाना पडेगा । इस लये मेरे कथनक शा और
आ मम य थतासे जॉच क जयेगा।
• (अ) य द मेरे कोई वचार यो य न लगे.तो सहष पू छयेगा, परतु उससे पहले उस वषयमे अपनी
समझसे शकायु नणय न कर वै ठयेगा।
(अ) स ेपमे कहना यह है क जैसे क याण हो वैसे वतन करनेके सवधमे मेरा कहना अयो य
लगता हो, तो उसके लये यथाथ वचार करके फर जैसा हो वैसा मा य करे ।
शा -सू कतने ?
१ एक प यो कहता है क आजकल पैतालीस या उससे अ धक सू है। और उनक नयु ,
भा य, चू ण, टोका इन सबको मानना चा हये। सरा प कहता है क ब ीस ही सू है, और वे

२१ वां वष
१७७
ब ीस ही भगवानके उप द है, बाक म हो गये ह, और नयु इ या द भी वैसे ही है, इस लये
ब ीस मानना चा हये । इस मा यताके लये पहले अपनी समझमे आये ए वचार बताता ँ।
सरे प क उ प को आज लगभग चार सौ वष ए ह । वे जो ब ीस सू मानते है वे न न-
ल खत है :-
११ अग, १२ उपाग, ४ मूल, ४ छे द, १ आव यक
अं तम अनुरोध
अब इस वषयको स ेपमे पूण कया है। केवल तमासे ही धम है, ऐसा कहनेके लये अथवा
तमापूजनक ही स के लये मैने इस लघु थमे कलम नही चलायी। तमाके वषयमे मुझे जो जो
माण ात ए थे उ हे स ेपमे बतला दया। शा वच ण और यायसप पु षोको उसमे
औ च य अनौ च य दे खना है, और फर जैसे स माण लगे वैसे वृ करना या पण करना यह उनके
आ मापर आधार रखता है । इस पु तकको मै स न करता, यो क जस मनु यने एक बार तमा-
पूजनका वरोध कया हो, वही मनु य जब उसका समथन करे तब वह थम प वालोके लये ब त
खेद और कटा का वषय हो जाता है। म मानता ँ क आप भी मेरे त कुछ समय पहले ऐसी थ तमे
आ गये थे । य द उस समय इस पु तकको मैने स कया होता तो आपके अत करण अ धक .खी होते
और .खी करनेका न म म होता । इस लये मैने वैसा नही कया। कुछ समय बीतनेपर मेरे अत-
करणमे एक ऐसे वचारने ज म लया क तेरे लये उन लोगोको स ल वचार आते रहेग, े तूने जन
माणोसे इसे माना है वे भी केवल तेरे दयमे रह जायगे, इस लये उ हे स यतापूवक अव य. स
कया जाये । इस वचारको मने अपना लया । तब . उसमेसे ब त नमल वचारक ेरणा ई, उसे
स ेपमे बता दे ता ँ । तमाको मान इस आ हके लये यह पु तक लखनेका कोई हेतु नही है, तथा वे

ो े ो े ी ँ ी ो े े े
तमाको मान इससे म कुछ धनवान होनेवाला नही ,
ँ त संबंधी जो वचार मुझे आये थे
. (अपूण ा त)

१७८
४१ भ च, मागशीष सुद ३, गु , १९४५
प से समाचार मालूम हए । अपराध नही, परंतु परत ता है। नरंतर स पु षक कृपा चाहे
और शोकर हत रहे, यह मेरा परम अनुरोध है। उसे वीकार क जयेगा। वशेष न लखे तो भा इस
आ माको उसका यान है । बडोको स रख । स चा धैय रख । पूण खुशीमे ँ।
भ च, मागशीष सुद १२, १९४५
च० जूठाभाई,
जहाँ प दे ने जाते है, वहाँ नर तर कुशलता पूछते र हयेगा | भुभ मे त पर र हयेगा। नयम-
का पालन क जयेगा, और सब बडोक आ ाके अनुकूल र हयेगा, यह मेरा अनुरोध है।
जगतमे नीराग व, वनय और स पु षक आ ा न मलनेसे यह आ मा अना दकालसे भटकता
रहा, पर तु न पायता ई सो ई। अब हमे पु षाथ करना उ चत है । जय हो ।
यहाँ चारेक दन ठहरना होगा।
व० रायच द
बंबई, मागशीष वद ७, मंगल, १९४५
४३
जनाय नमः
आपका सूरतसे लखा आ प मुझे आज सवेरे ११ वजे मला । उसका योरा पढकर एक कार-
से शोच आ, यो क आपको न फल च कर काटना पड़ा। य प मैने यह बतलानेके लये पहलेसे एक
प लखा था क म सूरतमे कम ठहरनेवाला , ँ म मानता ँ क वह प आपको समय पर नही मला
होगा । अ तु । अब हम थोडे समयमे वतनमे मल सकगे। यहाँ म कुछ ब त समय कनेवाला नही ँ।
आप धैय रख, और शोचका याग कर, ऐसी वनती है । मलनेके बाद मै यह चाहता ँ क आपको ा त
आ नाना कारका खेद र हो । और ऐसा होगा । आप उदास न हो।
सायका च० का वनतीप मैने पढा था । उ हे भी धीरज दे । दोनो भाई धममे वृ करे।

२२ वाँ वष
१७९
मेरे त मोहदशा न रखे, म तो एक अ पश वाला पामर मनु य ँ। सृ मे अनेक स पु ष
गु त पमे मौजूद ह। गट पमे भी मौजूद ह। उनके गुणोका मरण करे । उनका प व समागम करे
और आ मक लाभसे मनु यभवको साथक करे यह मेरी नर तर ाथना है।
दोनो साथ मलकर यह प पढे । ज द होनेसे इतनेसे ही अटकता ह।
___ ल० रायच दके णाम व दत हो ।
. ४४ । बंबई, मागशीष वद १२, श न, १९४५
सु ,
. वशेष व दत आ होगा।
मै यहाँ समयानुसार आन दमे ँ। आपका आ मान द चाहता ँ। च० जूठाभाईका आरो य सुधरने-
के लये पूण धीरज द जयेगा । मै भी अब यहाँ कुछ समय रहनेवाला ँ।
... एक बड़ी व त है क प मे नर तर शोचस ब धी यूनता और पु षाथक अ धकता ा त हो,
इस तरह प लखनेका प र म लेते रह। वशेष अब फर । ' . '
। रायचंदके णाम ।
बबई, मागशीष वद ३०, १९४५
सु ,
जूठाभाईक थ त व दत ई । म न पाय ँ। य द न चले तो श त राग रख, पर तु मुझे
खुदको, आप सबको इस रा तेके अधीन न करे।।
णाम लखू इसक भी च ता न कर । अभी णाम करने लायक ही ँ, करवानेके नही।
व० रायचदके णाम ।
४५
। “मागशीष, १९४५
आपका श तभावभ षत पय मला। स ेपमे उ र यह है क जस मागसे आ म व ा त हो
उस मागको खोज। मुझपर श तभाव लाय ऐसा म पा नही , ँ फर भी य द आपको इस तरह शा त
मलती हो तो कर।
दसरा च पट तैयार नही होनेसे जो है वह भेजता ँ। मुझसे र रहनेमे आपके आरो यको हा न
हो ऐसा नही होना चा हये । सब कुछ आन दमय ही होगा। अभी इतना ही।
रायचदके णाम।
४७ घवा णया बदर, माघ सुद १४, बुध, १९४५
स पु षोको नम कार
सु ,
मेरी ओरसे एक प प ंचा होगा।

े े ो े े ी ै
आपके प का मने मनन कया । आपको वृ मे आ प रवतन मुझे आ म हतकारी लगता है।
__ अनतानुवधी ोध, अनतानुबधी मान, अनतानुवधी माया और अनतानुबंधी लोभ ये चार तथा
म या वमोहनीय, म मोहनीय और स य वमोहनीय ये तीन इस तरह इन सात कृ तयोका जव तक
योपशम, उपशम या य नह होता तब तक स य होना स भव नही है। ये सात कृ तयाँ यो
यो मद होती जाती ह यो यो स य वका उदय होता है। इन कृ तयोका यछे दन परम कर है।

१८०
ीमद राजच
जसका यह थछे दन हो गया उसे आ म ा त होना सुलभ हे । त व ा नयोने इसी थभेदनका पुन
पुनः उपदे श कया है । जो आ मा अ म तासे उस थमेदनक ओर रखेगा बह आ मा आ म वको
ा त होगा यह न सदे ह है ।
इस व तुसे आ मा अनत कालसे सवथा बढ् ध रहा है । इसपर होनेसे नजगृहपर उसक
यथाथ नही ई है । स ची तो पा ता हे, पर तु म इस कषाया दके उपगमनम आपके लये न म -
भूत आ ऐसा आप मानते हे, इस लये मुझे आन द माननेका यही कारण है क नरय शासनक कृपा
साद का लाभ लेनेका सु दर समय मुझे मलेगा ऐसा सभव है । ानी सो स चा ।
जगतमे म परमा माक भ , स , स सग, स या वा ययन , स य व और स योग, ये
कभी ा त नही ए । ए होते तो ऐसी दशा नही होती । पर तु 'जब जाग तभी सवेरा' यो स पु पोका
बोध वनयपूवक यानमे लेकर उस व तुके लये य न करना, यही अनत भवक न फलताका एक भवमे
र होना मेरी समझमे आता ह ।"
स के उपदे शके बना और जोवक स या ताके बना ऐसा होना का आ है । उसक ा त
करके ससारतापसे अ य त सत त आ माको शीतल करना , यही कृतकृ यता है ।
इस योजनमे आपका च आक षत आ, यह भा यका सव म अश हे । आशीवचन है क
इसमे आप फलोभूत होव ।
भ ासवधी य न अभी थ गत कर । जव तक ससारको जैसे भोगनेका न म होगा वैसे भोगना
पडेगा.। इसके बना छु टकारा भी नही है । अनायास यो य थान मल जाये तो ठ क, नही तो य न कर ।
और भ ाटनके स ब धमे यो य समय पर पुन. पूछ | व मानता होगी तो उ र ढूँ गा ।
"धम" यह ब तु ब त गु त रही है । यह वा शोधनसे मलनेवाली नही है । अपूव अ त शोधनसे
यह ा त होती है। यह अ त शोधन कोई एक महाभा य स के अनु हसे पाता है ।
आपके वचारोको
यहाँ बतानेसे सकारण क जाता ँ।
च० दयालभाईके पास जाय वे कुछ कहे तो मुझे बंताय ।
लखनेके स ब धमे अभी मुझे कुछ कटाला रहता है । इस लये जतना सोचा था उसके भाठव
भागका, भी उ र नही लख सकता ।
सु दर े णमे आये ए दे खकर मेरे अ त.करणने जो भाव उ प कया है उसे
यह मेरी वनयपूवक अ तम श ा यानमे र खयेगा .-
एक भवके थोडे सुखके लये अनत भवके अनत खको नही बढानेका य न स पु ष करते ह ।
या ाद शैलोसे यह बात भी मा य है क जो होनेवाला है वह वदलनेवाला नही है और जो वद-
लनेवाला है वह होनेवाला नही है। तो फर धम य नमे , आ म हतमे अ य उपा धके अधीन होकर माद
यो करना ? ऐसा है फर भी दे श, काल पा यौर भाव दे खने चा हये ।
स पु षोका योगवल जगतका क याण करे ।
ऐसी इ छा करके वापसी डाकसे प लखनेक वनती करके प तका पूण करता ँ।
मा
रवजी आ मज रायचंदके णाम -नीराग ेणी समु चयसे ।
१ धसे

२२ वा वष
१८१
४८
ववा णया, माघ, १९४५
ज ासु,
आपके को उ त करके अपनी यो यताके अनुसार आपके का उ र लखता है।
- वहारशु कैसे हो सकती है ?
उ र- वहारशु को आव यकता आपके यानमे होगी, फर भी वषयके ारभके लये आव यक
समझकर यह बतलाना यो य है क जो ससार वृ इस लोक और परलोकमे सुखका कारण हो उसका
नाम वहारशु है। सुखके सब अ भलाषी ह, जब वहारशु से सुख मलता है तब उसक आव य-
कता भी नःशक है।
१ जसे धमसबधी कुछ भी बोध आ है, और जसे कमानेक ज रत नह है, उसे उपा ध करके
कमानेका य न नही करना चा हये ।
२ जसे धमस ब धी बोध आ है, फर भी थ तका ख हो तो उसे यथाश उपा ध करके
े े
कमानेका य न करना चा हये।
( जसक अ भलाषा सवसगप र यागी होनेक है उसका इन नयमोसे स ब ध नही है।)
३. उपजीवन सुखसे-चल सके ऐसा होनेपर भी जसका मन ल मीके लये वेचैन रहता हो वह
पहले उसक व करनेका कारण अपने आपको पूछे । य द उ रमे परोपकारके सवाय कुछ भी तकूल
बात आती हो, अथवा पा रणा मक लाभको हा न प ंचनेके सवाय कुछ भी आता हो तो मनको सतोषी
बना ले, ऐसा होनेपर भी मन न मुड स नेको थ तमे हो तो अमुक मयादामे आ जाये । वह मयादा
ऐसी होनी चा हये क जो सुखका कारण हो ।
- ४ प रणामत. आत यान करनेक - ज रत पड़े, तो वैसा करके बैठ रहनेक अपे ा कमाना
अ छा है।
५ जसका उपजीवन अ छ तरह चलता है, उसे कसी भी कारके अनाचारसे ल मी ा त नही
करनी चा हये । जससे मनको सुख नही होता उससे काया या वचनको भी सुख नही होता । अनाचारसे
मन सुखी नही होता, यह वत अनुभवमे आने जैसा कथन है।'
६ लाचारीसे उपजीवनके लये कुछ भी अ प अनाचार ( अस य और सहज माया) का सेवन
करना पड़े तो महाशोचसे सेवन करना, ाय यानमे रखना । सेवन करनेमे न न ल खत दोष नही
आने चा हये -
१ कसीसे महान व ासघात
८ अ यायी भाव कहना
२ म से व ासघात
९. नद षको अ प मायासे भी ठगना
३. कसीक धरोहर हड़प कर जाना १० यूना धक तोल दे ना।
४ सनका सेवन करना
११ एकके बदले सरा अथवा म ण करके दे ना
५ म या दोषारोपण
१२ कमादानी धंधा।
६ झूठा द तावेज लखना
अथवा अद ादान
७. हसाबमे भुलाना ,
-इन माग से कुछ नी कमाना नही ।
यह मानो उपजीवनके लये सामा य वहारशु कह गया।
[ अपूण]
२००
ीमद् राजच
पु सवधी ख न समझे, क त सबंधी ख न समझे, भय सवधी ख न समझे, काया संवधी व न
समझो अथवा सवसे ख न समझे। मुझे ख अ य कारका है। वह ख वातका नही है, कफका नही
है या प का नह है, वह गरीरका नह है, वचनका नही है या मनका नही है। समझ तो सभीका है
और न समझ तो एकका भी नह है। परतु मेरी व ापना उसे न समझनेके लये है, यो क इसमे कोई
और मम न हत है। आप ज र मा नये क मै वना कसो पागलपनके यह कलम चला रहा ँ। मै
राजच नामसे पहचाना जानेवाला. ववा णया नामके छोटे गॉवका, ल मोमे साधारण परतु आय गने
जाते दशा ीमाली-वै यका पु माना जाता ँ। मैने इस दे हमे मु य दो भव कये है, अमु यका हसाव
नही है। बचपनक छोट समझमे कौन जाने कहाँसे वडी-वडी क पनाएँ आया करती थी । सुखक अ भ-
लापा भी कम न थी और सुखमे भो महालय , वागवगीचे, और लाडीवाड़ीके कुछ सुख माने थे। बडी
क पना इसक थी क यह सब या है। इस क पनाका एक बार ऐसा प रणाम दे खा क-पुनज म भी
नही है, पाप भी नह है, पु य भी नह है, सुखसे रहना और संसार भोगना, यही कृतकृ यता है। प रणाम-
व प सरी झझटमे न पडते ए धमक वामनाएं नकाल डाली। कसी धमके लये यूना धक भाव
या ाभाव नह रहा। कुछ समय बीतनेके बाद इसमेसे कुछ और ही आ। जसके होनेको मेने कोई
क पना नही क थी तथा उसके लये मेरा ऐसा कोई य न न था क जो मेरे यालमे हो, फर भी
अचानक प रवतन हो गया; कोई और अनुभव हआ, और यह अनुभव ऐसा था क जो ाय न तो
शा मे लखा है और न जडवा दयोक क पनामे भी है। वह मसे बढा, वढकर अव एक 'तू हो', 'तू
ही' का जाप करता है। अब यहाँ समाधान हो जायेगा। भूतकालमे न भोगे ए अथवा भ व य कालके
भय आ दके खोमेसे कोई ख नही है। ऐसा अव य समझमे आयेगा। ीके सवाय सरा कोई पदाथ
खास करके मुझे नह रोक सकता। सरा कोई भी ससारी साधन मेरी ी तका वषय नही बना, और
कसी भयने ब लतासे मुझे आ ात नह कया। ीके संवधमे मेरी अ भलापा कुछ और है तथा वतन
कुछ और है। एक प ने उसका कुछ काल तक सेवन करना स मत कया है। तथा प उसमे सामा य
ी त-अ ी त है । परतु ख यह है क अ भलापा नही होने पर भी पूवकम यो घेरते है ? इतनेसे पूरा
नही होता, पर तु उसके कारण अ चकर पदाथ को दे खना संघना और छू ना पडता है, और इसी
कारणसे ायः उपा धमे रहना पड़ता है।
महारभ, महा प र ह, ोध, मान, माया, लोभ या ऐसा तेसा जगतमे कुछ भी नही है, ऐसा
व मरण यान करनेसे परमानद रहता है। उसे उपयु कारणोसे दे खना पडता है यह महाखेद है।
अतरग चया भी कही गट नही क जा सकती, ऐसे पा मेरे लये लभ हो गये है, यही महा खक
वात है।
व स १९४५
यहां कुशलता है। आपक कुशलता चाहता ँ। आज आपका ज ासु प मला। उस ज ासु
प के उ रमे जो प भेजना चा हये वह प यह है - .
इस प मे गृहा मसवधी अपने कुछ वचार आपके सामने रखता ँ। इ हे रखनेका हेतु मा
इतना ही है क कसी भी कारके उ म ममे आपके जीवनका झुकाव हो, और उस मका जवसे
आरभ होना चा हये वह काल अभी आपके पास आया है, इस लये उस मको वतानेका उ चत समय है,
और बताये ए मके वचार अ त सा का रक होनेसे प ारा गट ए ह। आपको और कसी भी
आ मो त या श त मके इ छु कको वे अव य अ धक उपयोगी स होगे, ऐसी मेरी मा यता है।

२०१
२२ वाँ वष
त व ानक गहरी गुफाका दशन करने जाय तो वहाँ नेप यमेसे ऐसी व न ही नकलेगी क आप
कौन ह ? कहाँसे आये है ? यो आये हे ? आपके पास यह सब या है ? आपको अपनी ती त है ? आप
वनाशी, अ वनाशी अथवा कोई राशी है ? ऐसे अनेक उस व नसे दयमे वेश करगे । और
इन ोसे जब आ मा घर गया तब फर सरे वचारोके लये ब त ही थोडा अवकाश रहेगा । य प
इन वचारोसे ही अतमे स है, इ ही वचारोके ववेकसे जस अ ावाध सुखक इ छा है, उसक
ा त होती है, इ ही वचारोके मननसे अनतकालको उलझन र होनेवाली है, तथा प ये सबके लये
नही है । वा त वक से दे खनेपर उसे अत तक पानेवाले पा ोक यूनता ब त है, काल बदल गया है,
इस व तुका अधीरता अथवा अशौचतासे अत लेने जानेपर जहर नकलता है, और भा यहीन अपा दोनो
लोकोसे होता है। इस लये अमुक स तोको अपवाद प मानकर बाक को उस ममे आनेके लये
उस गफाका दशन करनेके लये बहत समय तक अ यासक ज रत है। कदा चत् उस गुफाके दशन
करनेक उसक इ छा न हो तो भी अपने इस भवके सुखके लये भी ज म और मरणके वीचके भागको
कसी तरह बतानेके लये भी इस अ यासक अव य ज रत है। यह कथन अनुभव स है, ब तोको
यह अनुभवमे आया है। बहतसे आय पु ष इसके लये वचार कर गये है, उ होने इसपर अ धका धक
मनन कया है। ज होने आ माक शोध करके, उसके अपार मागक ब तोको ा त करानेके लये,
अनेक म बाँधे ह, वे महा मा जयवान हो । और उ हे काल नम कार हो ।
हम थोडी दे रके लये त व ानक गुफाका व मरण करके आय ारा उप द अनेक मोपर
आनेके लये परायण ह. उस समयमे यह बता दे ना यो य ही है क जसे पूण आ ादकर माना है और
जसे परमसुखकर, हतकर और दयमय माना है, वह वैसा है, अनुभवग य है, वह तो उसी गुफाका
नवास है, और नर तर उसीक अ भलाषा है। अभी कुछ उस अ भलाषाके पूण होनेके च नही ह,
ो ी े े े ी ो ऐ ी ै औ
तो भी मसे, इसमे इस लेखकका भी जय होगा ऐसी उसक अव य शुभाका ा है, और यह अनुभवग य
भी है। अभीसे ही य द यो य री तसे उस मक ा त हो जाये, तो इस प के लखने जतनी दे र
करनेक इ छा नही है; पर तु कालक क ठनता है, भा यको मदता है, स तोक कृपा गोचर नही
है, स संगक कमी है, वहाँ, कुछ ही-
तो भी उस मका बीजारोपण दयमे अव य हो गया है, और यही सुखकर आ है। सृ के
राजसे जस सूखके मलनेक आशा न थी, तथा कसी भी तरह चाहे जैसे औषधसे, साधनसे, ीसे.
पू से, म से या दसरे अनेक उपचारसे जो अत शा त होनेवाली न थी, वह ई है । नरतरक -भ व य
कालक -भी त चली गई है और एक साधारण उपजीवनमे वृ करता आ ऐसा आपका यह
म इसीको लेकर जीता है, नही तो जीनेमे अव य शका ही थी, वशेप या कहना ? यह म नही है,
वहम नह है. अव य स य ही है। कालमे इस एक ही परम य और जीवनव तुक ा त, उसका
बीजारोपण यो और कैसे आ इस ा याका सग यहाँ नही है, पर तु अव य यही मुझे काल मा य
हो । इतना ही कहनेका सग है । यो क लेखन समय ब त थोडा है।
___इस यजीवनको सभी पा जाये, सभी इसके यो य हो, सभीको यह य लगे, सभीको इसमे च
हो, ऐसा भतकालमे हआ नही है, वतमानकालमे होनेवाला नही है, और भ व यकालमे भी होना अस भव
ह, और इसी कारणसे इस जगतको व च ता नकाल हे ।
मन यके सवाय दसरे ाणीक जा त दे खते है तो उसमे तो इस व तुका ववेक मालम नह होता,
अब जो मनु य रहे, उन सब मनु योमे भी वैसा नही दे ख सकगे।
[अपूण)

२०२
२३ वाँ वष
व० स० १९४६
भाई, इतना तो तेरे लये अव य करने यो य है .-
१. दे हमे वचार करनेवाला बैठा है वह दे हसे भ है ? वह सुखी है या .खी है ? यह याद
कर ले।
२. ःख लगेगा ही, और .खके कारण भी तुझे गोचर होगे, फर भी कदा चत् न हो त
मेरे कसी भागको पढ जा, इससे स होगा। उसे र करनेका जो उपाय है वह इतना ही क उससे
वा ा य तरर हत होना।
३ र हत आ जाता है, और ही दशाका अनुभव होता है, यह त ापूवक कहता ँ।
४ उस साधनके लये सवसगप र यागी होनेक आव यकता है। न थ स के चरणमे जाकर
पड़ना यो य है।
५ जैसे भावसे पड़ा जाये वैसे भावसे सवकाल रहनेका वचार पहले कर ले । य द तुझे पूवकम
बलवान लगते हो तो अ यागी, दे श यागी रहकर भी उस व तुको मत भुलाना।
६. थम चाहे जैसे करके तू अपने जीवनको जान । जानना कस लये ? भ व यसमा ध होनेके
लये । अब अ माद होना।
७ इस आयुका मान सक आ मोपयोग तो नवदमे रख ।
८ जीवन ब त छोटा है, उपा ध ब त है, और उसका याग नही हो सकता है, तो नीचेक बाते
पुन पुनः यानमे रख-
१ उस व तुक अ भलाषा रखना ।
२ ससारको बधन मानना ।
३ पूवकम नह है ऐसा मानकर येक धमका सेवन कये जाना। फर भी य द पूवकम
ःख दे तो शोक नही करना।
४. दे हक जतनी च ता रखता है उतनी नह पर तु उससे अन तगुनी चता आ माक
रख, यो क अन त भवोको एक भवमे र करना है।
५ न चले तो तधोती हो जा।
६. जसमेसे जतना हो उतना कर।
७. पा रणा मक वचारवाला हो जा।
८. अनु रवासी होकर रह ।।
९ अ तमको कसी भी समय न चू कयेगा । यही अनुरोध और यही धम ।

२३ वो वष
२०३
ब बई, व० स० १९४६
समझकर अ पभाषी होनेवालेको प ा ाप करनेका अवसर कम ही स भव है।
हे नाथ | सातवे तमतम भा नरकक वेदना मली होती तो शायद मा य करता, परतु जगतक
मो हनी मा य नह होती।
पूवके अशुभकमके उदय आनेपर वेदन करते ए शोक करते है तो अव यह भी यान रखे क नये
कम को बाँधते ए प रणाममे वैसे ही तो नही बंधते ?
आ माको पहचानना हो तो आ माका प रचयी होना और परव तुका यागी होना ।

ो ौ े ै े े ी े ो े
जो जतना अपना पौ लक बड़ पन चाहते है वे उतने ही हलके होने सभव ह।
श त पु षक भ करे, उसका मरण कर, गुण चतन कर।
स०१९४६
न पृह महा माओको अभेदभावसे नम कार
"जीवको प र मण करते ए अनतकाल आ, फर भी उसक नवृ यो नह होती, और वह
या करनेसे हो?' इस वा यमे अनेक अथ समाये ए ह। उनका वचार कये बना या ढ व ाससे
थत ए बना मागके अंशका अ प भान नह होता। सरे सब वक प र करके इस एक ऊपर लखे
ए स पु ष के वचनामृतका वारवार वचार कर ल।
ससारमे रहना और मो होना कहना यह होना असुलभ है।
मै ी-सब जीवोके त हत च तन ।
मोद-गुणी जीवके त उ लासप रणाम ।
क णा-कोई भी जीव ज म-मरणसे मु हो ऐसा य न करना।
म य थता- नगुणी जीवके त म य थता।
बबई, का तक सुद ७, गु , १९४६
'अ क' और 'योग ब ' नामक दो पु तक आपक से नकल जानेके लये म इसके साथ भेज
रहा ँ। 'योग ब ' का सरा प ा ढूं ढनेपर मल नही सका, तो भी बाक का भाग समझा जा सकता है
इस लये यह पु तक भेज रहा ँ। 'योग समु चय' बादमे भेजूंगा । परमत वको सामा य ानमे तुत
करनेक ह रभ ाचायक चम कृ त तु य है। कसी थलमे खडन-मडनका भाग सापे होगा, उस ओर
आपक नह होनेसे मुझे आन द है।
अथसे इ त तक अवलोकन करनेका समय नकालनेसे मेरे पर एक कृपा होगी। (जैनदशन ही मो -
का अख ड उपदे श करनेवाला और वा त वक त वमे ा रखनेवाला दशन है। फर भी कोई 'ना तक'
के उपनामसे उसका पहले ख डन कर गये ह, यह यथाथ नही आ, यह बात इस पु तक पढनेसे ाय
आपक मे आ जायेगी।)
म आपको जैनस ब धी कुछ भी अपना आ ह नह बताता । और आ मा जस पमे हो उस पमे
चाहे जससे हो जाये इसके सवाय सरी कोई मेरी अतरग अ भलाषा नह है, ऐसा कुछ कारणसे कहकर.
१. दे ख आक १९५। २ दे ख आक १५३ म भी यह वा य है।

२०४
ीमद् राजच
जैन भी एक प व दशन है ऐसा कहनेक आ ा लेता ँ। यह मा यो समझकर कहता ँ क जो व तु
जस पमे वानुभवमे आयी हो उसे उस पमे कहना चा हये।
सभी स पु ष मा एक ही मागसे तरे है, और वह माग वा त वक आ म ान और उसक अनु-
चा रणी दे ह थ तपयत स या या राग े ष और मोहसे र हत दशा होनेसे वह त व उ हे ा त आ हो
ऐसा मेरा नजी मत है।
आ मा ऐसा लखनेके लये अ भलाषी था, इस लये लखा है। इसक यूना धकता मापा है।
व० रायचदके वनयपूवक णाम |
८८
बबई, का तक, १९४६
यह पूरा कागज है, यह 'सव ापक चेतन है। उसके कतने भागमे माया समझनी ? जहाँ जहाँ
वह माया हो वहाँ-वहाँ चेतनको बध समझना या नह ? उसमे भ - भ जीव कस तरह मानने ?
और उन जीवोको बध कस तरह मानना? और उस बधक नव कस तरह माननी? उस बधक
नवृ होनेपर चेतनका कौनसा भाग मायार हत आ माना जाये ? जस जस भागमेसे पूवमे मु ए हो
उस उस भागको नरावरण समझना अथवा कस तरह? और एक जगह नरावरणता, तथा सरी जगह
आवरण, तीसरी जगह नरावरण ऐसा हो सकता है या नह ? इसका च बनाकर वचार कर।
सव ापक आ मा -
भासताह
माया
जगत
बोध-
लोक
वराट
घटाकाश, जीव, बोध,घट य, याफल।
o
ई र
वेतन
कोआवरण
.. इस तरह तो यह घ टत नही होता।
१ 'मानो क' अ याहार ।

२३ वा वष
२०५
(२)
काश व प धाम
उसमे,अनत अ काश भासमान अंत करण | .
- इससे या होता है ?
जहाँ जहाँ वे'अंतःकरण ा त हो वहाँ वहाँ माया भासमान हो, आ मा असग होनेपर भी सगवान
मालूम हो, अकता होनेपर भी कता मालूम हो, इ या द वपरीतताएं होती है ।'
इससे या होता है ? । । ।
आ माको बधक क पना होती है उसका या करना ?
अत'करणका स ब ध र करनेके लये उससे अपनी भ ता समझनी। . .
भ ता समझनेसे या होता है ? -
आ मा व व पमे अव थत रहता है।
एकदे श नरावरण होता है या सवदे श नरावरण होता है ?
. . ८९ , बबई, का तक सुद १५,१९४६
समु चयवयचया
' 'स वत् १९२४ को का तक सुद १५, र ववारको मेरा ज म होनेसे आज मुझे सामा य गणनासे
बाईस वष पूरे ए। बाईस वषक अ प वयमे मैने अनेक रग आ माके स ब धमे, मनके स ब धमे, वचनके
स ब धमे, तनके स ब धमे और धनके स ब धमे दे खे ह। नाना कारको सृ रचना, नाना कारको
सासा रक तरग, अनत खमूल, इन सबका अनेक कारसे मुझे अनुभव आ है। समथ त व ा नयोने
और समथ ना तकोने जो जो वचार कये ह उस कारके अनेक वचार इस अ प वयमे मैने कये है।
महान च वत ारा कये गये त णाके वचार और एक नः पृही महा मा ारा कये गये न पृहताके
वचार मने कये है। अमर वक स और णक वको स का खूब वचार कया है। अ प वयमे
महान वचार कर डाले है। महान व च ताक ा त ई है । यह सब ब त ग भीर भावसे आज मै
डालकर दे खता है तो पहलेक मेरी उगती ई वचार े ण, आ मदशा और आजक , दोनोमे आकाश-
पातालका अतर है, उसका सरा और इसका सरा कसी कालमे मानो मलाया मले वैसा नह है। पर तु
आप सोचगे क इतनी सारी व च ताका कसी थलपर कुछ लेखन- च ण कया है या नही ? तो इस
वषयमे इतना ही कह सकंगा क लेखन- च ण सब मृ तके च पट पर है। क तु प -लेखनीका
समागम करके जगतमे दशानेका य न नही कया है । य प म ऐसा समझ सकता ँ क वह वयचया
जनसमहके लये ब त उपयोगी, पुन पुन मनन करने यो य तथा प रणाममे उनक ओरसे मुझे ेयक
ा त हो वैसी है, पर तु मेरी मृ तने वह प र म उठानेक मुझे प ना कही थी, इस लये न पायतासे
मा मांग लेता है। पा रणा मक वचारसे उस मृ तको इ छाको दबाकर उसी मृ तको समझाकर, वह
वयचया धीरे धीरे सभव आ तो अव य धवल-प पर रखूगा, तो भी समु चयवयचयाको याद कर
जाता ँ:-.
सात वष तक बालवयको खेलकूदका अ यत सेवन कया था। उस समयक मुझे इतनी तो याद
आती है क व च क पना-क पनाका व प या हेतु समझे बना-मेरे आ मामे आ करती थी।
खेलकूदमे भी वजय पानेक और राजे र जैसी उ च पदवी ा त करनेक परम अ भलाषा थी । व
__ पहननेको, व छ रखनेको, खाने-पीनेक , सोने-बैठनेक , सारी वदे ही दशा थी, फर भी अत.करण कोमल

२०६
ीमद राजच
था। वह दशा आज भी ब त याद आती है । आजका ववेक ान उस वयमे होता तो मुझे मो के लये
वशेष अ भलाषा न रहती। ऐसी नरपराध दशा होनेसे पुन पुन वह याद आती है।
सात वषसे यारह वष तकका समय श ा लेनेमे बीता । आज मेरी मृ तको जतनी या त ा त
है, उतनी या त ा त होनेसे वह क चत् अपराधी ई है, पर तु उस समय नरपराध म त होनेसे एक
ही वार पाठका अवलोकन करना पडता था, फर भी या तका हेतु न था, अत उपा ध ब त कम थी।
मृ त ऐसी बलव र थी क वैसी मृ त ब त ही थोडे मनु योमे इस कालमे, इस े मे होगी। पढने-
मे माद ब त था । बातोमे कुशल, खेलकूदमे चवान और आनद था। जस समय श क पाठ पढाता,
मा उसी समय पढकर उसका भावाथ कह दे ता। इस ओरक न तता थी। उस समय मुझमे ी त-
सरल वा स यता-ब त थी, सवसे ऐ य चाहता, सबमे ातृभाव हो तभी सुख, इसका मुझे वाभा वक
ान था । लोगोमे कसी भी कारसे जुदाईके अकुर दे खता क मेरा अत.करण रो पडता। उस समय
क पत बात करनेक मुझे ब त आदत थी। आठव वषमे मने क वता क थी, जो वादमे जाँचनेपर
समाप थी।
___ अ यास इतनी वरासे कर सका था क जस ने मुझे थम पु तकका बोध दे ना आर भ
कया था उसीको गुजराती श ण भली भां त ा त कर उसी पु तकका पुन. मने बोध कया था । तब
कतने ही का थ मने पढे थे । तथा अनेक कारके इधर-उधरके छोटे -मोटे बोध थ मैने दे खे थे, जो
ाय अभी तक मृ तमे व मान है। तव तक मुझसे वाभा वक पसे भ कताका ही सेवन आ था।
मै मनु यजा तका ब त व ासी था । वाभा वक सृ रचनापर मुझे ब त ी त थी। ' .
मेरे पतामह कृ णक भ करते थे। उनसे उस वयमे कृ णक तनके पद मने सुने थे, तथा भ -
भ अवतारोके स ब धमे चम कार सूने थे, जससे मुझे भ के साथ-साथ उन अवतारोमे ी त हो गयी
थी, और रामदासजी नामके साधुके पास मैने बाललीलामे कठ बंधवाई थी। न य कृ णके दशन करने

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जाता, समय समयपर कथाएं सुनता, बार बार अवतारो स ब धी चम कारोमे मै मु ध होता और उ हे
परमा मा मानता, जससे उनके रहनेका थान दे खनेक परम अ भलाषा थी। उनके स दायके महंत
होव, जगह-जगहपर चम कारसे ह रकथा करते होवे और यागी होवे तो कतना आन द आये ? यही
क पना आ करती, तथा कोई वैभवी भू मका दे खता क समथ वैभवशाली होनेक इ छा होती । ' वीण-
सागर' नामका थ उस अरसेमे मने पढा था, उसे अ धक समझा नही था, फर भी ीस ब धी नाना
कारके सुखोमे लीन होव और न पा ध पसे कथाकथन वण करते होवे तो कैसी आनददायक दशा, यह
मेरी तृ णा थी। गुजराती भापाक वाचनमालामे जगतकतास ब धी कतने ही थलोमे उपदे श कया है
वह मुझे ढ हो गया था, जससे जैन लोग के त मुझे ब त जुगु सा आती थी, बना बनाये कोई पदाथ
नही बन सकता, इस लये जैन लोग मूख है, उ हे कुछ मालूम नह है। तथा उस समय तमाके अ ालु
लोगोक याएँ मेरे दे खनेमे आती थी, जससे वे याएँ म लन लगनेसे म उनसे डरता था अथात् वे मुझे
य न थी।
ज मभू ममे जतने व णक रहते है, उन सबक कुल ा भ भ होनेपर भी कुछ तमाके
अ ालु जैसी ही थी, इससे मुझे उन लोगोका ही ससग था । लोग मुझे पहलेसे ही समथ श शाली और
गांवका नामा कत व ाथ मानते थे, इस लये मै अपनी शसाके कारण जानबूझकर वैसे मडलमे बैठकर
अपनी चपलश दशानेका य न करता। कठ के लये वारवार वे मेरो हा यपूवक ट का करते, फर भी
मै उनसे वाद करता ओर उ हे समझानेका य न करता। पर तु धीरे-धीरे मुझे उनके त मणसू
इ या द पु तक पढनेके लये मली, उनमे ब त वनयपूवक जगतके सब जीवोसे म ता चाही है अतः मेरी

२३ वां वष
२०७
ो त इसमे भी ई और उसमे भी रही । धीरे- धीरे यह सग बढा | फर भी व छ रहनेके तथा सरे
आचार वचार मुझे वै णवोके य थे और जगतक ाक ा थी । उस अरसेमे कठ टू ट गई, इस लये उसे
फरसे मैने नही बाँधा । उस समय बाँधने, न बॉधनेका कोई कारण मने ढूँ ढा न था । यह मेरी तेरह वषक
वयचया है । फर म अपने पताक कानपर कैठता और अपने अ रोक छटाके कारण क छदरबारके
उतारेपर मुझे लखनेके लये बुलाते तब मै वहाँ जाता । कानपर मैने नाना कारक लीलालहर क है,
अनेक पु तके पढ ह; राम इ या दके च र ोपर क वताएँ रची ह, सासा रक तृ णाएँ क ह, फर भी कसी
को मने यूना धक दाम नही कहा या कसीको यून-अ धक तौल कर नही दया, यह मुझ न त याद है।
बबई, का तक, १९४६
९०
दो भेदोमे वभ धमको तीथकरने दो कारका कहा है-
१ सवसंगप र यागी ।
२ दे शप र यागी ।
सव प र यागी :-
भाव और ।
उसका अ धकारी ।
पा , े , काल, भाव ।
पा
वैरा य आ द ल ण, यागका कारण और पा रणा मक भावक ओर दे खना ।
े -
उस पु षक ज मभू म, यागभू म ये दो ।
काल-
अ धकारीक वय, मु य वतमान काल ।
भाव-
वनय आ द, उसक यो यता, श ।
गु उसे थम या उपदे श करे ?
'दशवैका लक', 'आचाराग' इ या द स ब धी वचार,
उसके नवद त होनेक कारण उसे वतं वहार करने दे नेक आ ा इ या द ।
न यचया ।
वष क प ।
अ तम अव था ।
( त स ब धी परम आव यकता है।)
दे श यागी :-
आव यक या ।
नय क प ।
भक त।
अणु त ।
दान-शील-तप-भावका व प ।
ानके लये उसका अ धकार ।
( त सवधी परम आव यकता है।)
२०८
ीमद राजच
ानका उ ार -
ुत ानका उदय करना चा हये।
योगस ब धी थ ।
यागस ब धी थ।
यास ब धी थ ।।
अ या मस ब धी थ ।
धमस ब धी थ ।
उपदे श थ ।
आ यान थ।
ानुयोगी थ ।
( इ या द वभाग करने चा हये । )
उसका म और उदय करना चा हये।
न ंथधम।
आचाय।
ग छ।
उपा याय ।
वचन ।
मु न ।
लगी।
गृह थ।
अ य दशन स ब ध ।
( इन सबक योजना करनी चा हये ।)
मतमतातर ।
मागक शैली।
उसका व प ।
जीवनका बताना।
उसको समझाना।
उ ोत।
( यह वचारणा ।)
९१
बंबई , का तक, १९४६
वह प व दशन होनेके बाद चाहे जैसा वतन हो, पर तु उसे ती बधन नह है, अन त ससार नह
है, सोलह भव नह है, अ यतर ख नह है, शकाका न म नह है, अतरग मो हनी नह है, सत् सत्
न पम, सव म, शु ल, शीतल, अमृतमय दशन ान, स यक् यो तमय, चरकाल आन दक ा त,
अ त स व पद शताक ब लहारी है।
जहाँ मतभेद नह है, जहाँ शका, कखा, व त ग छा, मढ इनमेसे कुछ भी नह है। जो है उसे
कलम लख नह सकती, वचन कह नही सकता, और मन जसका मनन नह कर सकता।
९२
बबई, का तक, १९४६
सब दशनोसे उ च ग त है। परतु ा नयोने मो का माग उन श दोमे प नह बताया है,
गौणतासे रखा है। उस गोणताका सव म त व यह मालूम होता है :-
न य, न ंथ ानी गु क ा त, उसक आ ाका आराधन, सदै व उसके पास रहना, अथवा
स सगक ा तमे रहना, आ मद शता तब ा त होगी।

२०९
नवपदके या नयोक वृ करनेक मेरो अ भलाषा है।
२०९
बबई,, का तक, १९४६
"
बंबई, मग सर सुद ९, र व, १९४६
सु ी,
आपने मेरे वषयमे जो जो शसा द शत क है, उस सबपर मने ब त मनन कया है। वैसे गुण
का शत हो ऐसी वृ करनेक अ भलाषा है। परंतु वैसे गुण कुछ मुझमे का शत ए हो, ऐसा मुझे
नह लगता । मा च उप ई है, ऐसा माने तो माना जा सकता है। हम यथासभव एक ही पदके
इ छु क होकर य नशील होते ह, वह यह क "बँधे ओको छु डाना।" यह बधन जससे छू टे उससे छोड़
लेना, यह सवमा य है।
व० रायचंदके णाम।

ई ौ
बबई, पौष, १९४६
इस कारसे ते. समागम मुझे कस लये आ? कहाँ तेरा गु त रहना आ था?
सवगुणांश स य व है।
९६
बबई, पौष सुद ३, बुध, १९४६
कोई ऐसा योजक पु ष (होना चाहे तो) धम, अथ, कामक एक ता ाय. एक प त-
एक समुदायमे, कतने ही उ कृ साधनोसे, साधारण े णमे लानेका य न करे, और वह य न
अनास भावसे-
१ धमका थम साधन. .. .
२. फर अथका साधन ।
३ कामका साधन ।
४. मो का साधन ।
बबई, पौष सुद ३, १९४६
स पु ष ने धम, अथ, काम और मो इन चार पु षाथ को ा त करनेका उपदे श दया है। ये
चार पु षाथ नीचेके दो कारसे समझमे आये है-
। .. १. व तुके वभावको धम कहा गया है।
२. जडचैत यस ब धी वचारोको अथ कहा है।
३. च नरोधको काम कहा है।
४. सव बधनसे मु होना मो हे।
. इस कार सवसगप र यागीको अपे ासे घ टत हो सकता है। सामा यतः न न कारसे है:-
धम-जो'ससारमे अधोग तमे गरनेसे रोककर धारण कर रखता है वह धम है।
अथ-वैभव, ल मी, उपजीवनम सासा रक साधन |
काम- नय मत पसे ी-सहवास करना काम है।
मो -सब ब धन से मु मो है।
'धम' को पहले रखनेका हेतु इतना ही है क 'अथ' और 'काम' ऐसे होने चा हये क जनका मल

२१०
ीमद् राजच
इसी लये 'अथ' और 'काम' बादमे रखे गये ह।
गृह था मी सवथा धमसाधन करना चाहे तो वैसा नही हो सकता, सवसगप र याग ही चा हये ।
गृह थके लये भ ा आ द कृ य यो य नह है।
और गृह था म य द-
[अपूण ]
९८
बंबई, पौष वद ९, मगल, १९४६
आपका प आज मला, समाचार व दत ए।
कसी कारसे उसमे शोक करने जैसा कुछ नही है। आप शरीरसे सुखी हो ऐसा चाहता ँ।
आपका आ मा स ावको ा त हो यही ाथना है।
मेरा आरो य अ छा है । मुझे समा धभाव श त रहता है। इसके लये भी न त र हयेगा।
एक वोतरागदे वमे वृ रखकर वृ करते र हयेगा।
आपका शुभ चतक रायच ।
९९
१००
बबई, पौष, १९४६
आय थकताओ ारा उप द चार आ म जस कालमे दे शक वभूषाके पके च लत थे उस
कालको ध य है।
चार आ मोका अनु म यह है-पहला चया म, सरा गृह था म, तीसरा वान था म
और चौथा स यासा म । परतु आ य के साथ यह कहना पड़ता है क य द जीवनका ऐसा अनु म हो
तो वे भोगनेमे आव। कुल मलाकर सौ वषको आयुवाला वैसे ही ढं गसे चलता आये तो वह
आ मोका उपभोग कर सकता है। ाचीनकालमे अका लक मौत कम होती होगी ऐसा इस आ म-
व थासे तीत होता है।
बबई, पौष, १९४६
ाचीनकालमे आयभू ममे चार आ म च लत थे, अथात् आ मधम मु यत चलता था । परम ष
ना भपु ने भारतमे न ंथधमको ज म दे नेसे पहले उस कालके लोग को वहारधमका उपदे श इसी
आशयसे कया था । उन लोगोका वहार क पवृ से मनोवा छत पदाथ मलनेसे चलता था, जो अब
ीण होता जाता था। उनमे भ ता और वहारको भी अ ानता होनेसे, क पवृ क स पूण ीणताके
समय वे ब त :ख पायगे, ऐसा अपूव ानी ऋषभदे वजीने दे खा। भुने अपनी परम क णा से उनके
वहारको ममा लका बना द ।
जब भगवान तीथकर पमे बहार करते थे, तब उनके पु भरतने वहारशु होनेके लये, उनके

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उपदे शका अनुसरण कर, त कालीन व ानोसे चार वेदोको योजना करायी और उसमे चार आ मधम और
चार वणको ना तरी तका समावेश कया। भगवानने परम क णासे जन लोगोको भ व यमे धम ा त होनेके
लये वहार श ा और वहारधम बताया था, उ हे भरतजीके इस कायसे परम सुगमता हो गयी।
इसपरसे चार वेद, चार आ म, चार वण और चार पु षाथ के स ब धमे यहाँ कुछ वचार करनेक
इ छा है, उसम भी मु यत. चार आ म और चार पु षाथके स ब धमे वचार करगे, और अतमे हेयो-
पादे यके वचारसे , े , काल और भावको दे खगे।
चार वेद, जनमे आयगृहधमका मु य उपदे श था, वे इस कार थे।

२११
बबई, पौष, १९४८
'जो मनु य धम, अथ, काम और मो इन चार पु षाथ क ा त कर सकना चाहते हो, उनके
वचारमे सहायक होना' इस वा यमे इस प को ज म दे नेका सब कारका योजन बता दया है। उसे
कुछ ेरणा दे ना यो य है।
इस जगतमे व च कारके दे हधारी ह, और य या परो माणसे यो स हो सका है, क
उनमे मनु य पमे वतमान दे हधारी आ मा इन चारो वग को स कर सकनेके लये वशेष यो य है।
मनु यजा तमे जतने आ मा है उतने सब कही एकसी वृ के, एकसे वचारके या समान ज ासा और
इ छावाले नह ह, ऐसा हम य दे ख सकते है। येकको सू म से दे खते ए वृ , वचार और
इ छाक इतनी अ धक व च ता लगती है क आ य होता है। इस आ यका ब त कारसे अवलोकन
करनेसे यह फ लत होता है क सव ा णयोक अपवादके बना सुख ा त करनेक जो इ छा है वह
अ धकाश मनु यदे हमे स हो सकती है, ऐसा होनेपर भी वे सुखके बदले ःख ले लेते ह, यह मा मोह-
से आ है।
१०२
ॐ यान
रंत तथा सारव जत इस अना द ससारमे गुणस हत मनु यज म जीवको ा य अथात्
लभ है।
हे आ मन् । तूने य द यह मनु यज म काकतालीय यायसे ा त कया है, तो तुझे अपनेमे अपना
न य करके अपना कत सफल करना चा हये। इस मनु य ज मके सवाय अ य कसी भी ज ममे
अपने व पका न य नह होता । इसी लये यह उपदे श है।
अनेक व ानोने पु षाथ करनेको इस मनु यज मका फल कहा है । यह पु षाथ धम आ द के भेदसे
चार कारका है। ाचीन मह षयोने धम, अथ, काम और मो यो चार कारका पु षाथ कहा है। इन
पु षाथ मे पहले तीन पु षाथ नाशस हत और ससाररोगसे षत ह ऐसा जानकर त व ानीपु ष अतके
परमपु षाथ अथात् मो का साधन करनेमे ही य न करते है। कारण क मो नाशर हत अ वनाशी है।
कृ त, दे श, थ त और अनुभाग प सम त कम के स ब धके सवथा नाश प ल णवाला तथा
जो ससारका तप ी है वह मो है। यह तरेक धानतासे मो का व प है। दशन और वीया द
गुणस हत तथा ससारके लेशोसे र हत चदानदमयी आ य तक अव थाको सा ात् मो कहा है। यह
अ वय धानतासे मो का व प कहा है।
जसमे अत य, इ योसे अ तकात, वषयोसे अतीत, उपमार हत और वाभा वक व छे द र हत
पारमा थक सुख हो उसे मो कहा जाता है। जसमे यह आ मा नमल, शरीरर हत, ोभर हत, शात-
व प, न प ( स प), अ यत अ वनाशी सुख प, कृतकृ य तथा समीचीन स य ान व प हो
जाता है उस पदको मो कहते ह।
धौर वीर पु ष इस अन त भाववाले मो प कायके न म सम त कारके मोको छोडकर,
कमबंधके नाश करनेके कारण प तपको अगीकार करते ह।
ी जन स यकदशन, ान और चा र को मु का कारण कहते है। अतएव जो मु को इ छा
करते है वे स यकदशन, ान और चा र को ही मो का साधन कहते ह।

२१२
ीमद राजच
मो के साधन जो स यकदशन आ द है उनमे ' यान' ग भत है। इस लये यानका उपदे श अब
कट करते ए कहते ह-“हे आ मन् । तू ससार खके वनाशके लये ान पी सुधारसको पी और
ससारसमु को पार करनेके लये यान प जहाजका अवलबन कर।
[अपूण]
१०३
- बबई, माघ, १९४६
कुटु ब पी काजलक कोठरीमे रहनेसे ससार बढता है। चाहे जतना उसका सुधार कर, तो भी
एका तवाससे जतना ससार य होनेवाला है उसका सौवां ह सा भी उस काजलगहमे रहनेसे नह
होनेवाला है। वह कषायका न म है, मोहके रहनेका अना दकालीन पवत है । वह येक अतर गुफामे
जा व यमान है । सुधार करते ए कदा चत् ा ो प ' होना संभव है, इस लये वहाँ अ पभाषी होना,
अ पहासी होना, अ प प रचयी होना, अ पस कारी होना, अ पभावना बताना, अ प सहचारी होना,
अ पगु होना, प रणामका वचार करना, यही ेय कर है। .
१०४
बबई, माघ वद २, शु , १९४६
आपका प कल मला । ख भातवाले भाई मेरे पास आते है। म उनक यथाश उपासना
करता ँ। वे कसी तरह मता ही हो ऐसा अभी तक उ होने मुझे नह दखलाया है। जीव धम ज ासु
मालूम होते है । स य केवलीग य ।
आपका आरो य चाहता ँ। आपक ज ासाके लये मै न पाय ह। वहार मको तोडकर म
कुछ भी नह लख सकता यह आपको अनुभव है, तो अब यो पुछवाते हो।
आपक आ मचया शु रहे ऐसी वृ कर।
जने के कहे ए पदाथ यथाथ ही है । अभी यही व ापन ।
- बबई, फागुन सुद ६, १९४६
महावीरके बोधका पा कौन ?
१ स पु षके चरणोका इ छु क,
- २ सदै व सू म बोधका अ भलाषी,
__ ३ गुणपर श त भाव रखनेवाला,
- ४ नतमे ी तमान,
५ जब वदोष दे खे तब उसे र करनेका उपयोग रखनेवाला,
६ एक पल भी उपयोगपूवक बतानेवाला,
७ एकातवासक शसा करनेवाला,
८ तीथा द वासका उमगो,
९ आहार, वहार और नहारका नयम रखनेवाला,
१० अपनी गु ताको छपानेवाला,
ऐसा कोई भी पु ष महावीरके वोधका पा है, स य दशाका पा है। पहले जैसा एक भी
नह है।
१ 'थाद' अथात् ावक धम और 'उ प ' अथात् गटता।

२३ वॉ वष
२१३
बंबई, फागुन सुद ८, १९४६
सु भाई ी,
आपके दोनो प मले थे। आपने प के लये तृषा द शत क उसे समय नकालकर लख सकूँगा।
वहारोपा ध चल रही है । रचनाको व च ता स य ानका उपदे श करनेवाली है।
भोवन यहाँसे सोमवारको रवाना होनेवाले थे। आपको मलने आ सके होगे। आप, वे और
सरे आपके मडलके साथी धमक इ छा रखते ह। यह य द सबक अतरा माक इ छा होगी तो परम
क याण प है। मुझे आपक धम-अ भलाषाका औ च य दे खकर सतोष होता है।
जनसमूहक अपे ासे यह ब त ही नकृ काल है। अ धक या कहना?
एक अतरा मा ानी सा ी है। _ व. रायचदके णाम-आपको और उ हे ।
बबई, फागुन वद १, १९४६
१. लोक पु षस थाने क ो, एनो भेद तमे कई ल ो?
एनुकारण सम या काई, के समजा ानी चतुराई ? ॥१॥
शरीर परथी ए उपदे श, ान दशने के उ े श ।
जेम जणावो सुणीए तेम, का तो लईए दईए ेम ॥२॥
२. शु करवाथी पोते सुखी ? शु करवाथी पोते .खी ?
पोते गुं? याथी छे आप? एनो मागो शी जवाप ॥१॥
- ३. या शका या गण संताप, ान तहा शंका न ह थाप।
भभ या उ म ान, भु मेळववा गु भगवान ॥१॥
गु ओळखवा घट वैरा य, ते ऊपजवा पू वत भा य।
- तेम नही तो कई स संग, तेम नही तो कई खरंग ॥ .
१०७
१"भावाथ-कमरसर दोनो हाथोको रखकर और पांवोको फैलाकर खड़े ए पु षके आकारके समान
लोकका व प बताया है। या आपने इसके रह यको समझा है ? इसके कारणको आपने समझा है? अथवा ठो
उपमा ारा उसे समझानेक चतुराई दखाई है या ? ||१॥ ' पडे सो ाडे' क उ यहाँ लागू होती है । 'पु ष'
अथात् मनु य शारीरपरसे लोक व पका बोध कराना है क पु ष अथात् आ मा, जसम आ माके ान-दशन गुण
आ माकार है, जनमे लोक व प तभा सत होता है; इ लये अ या म से लो को पु षाकार कहा है। इस
तरह दोनो कारसे जो होता है उसका समाधान आपको कुछ समझम आता है इस वषयम वचार करनेसे
आपने जो समझा हो वह कह तो सुन और हमने जो कुछ समझा है उसे हम कह । इस तरह पर पर वचार- व नमयसे
आ मक याण एव सुखशा तका आदान दान कर ॥२॥
२ भावाथ-या करनेसे हम सुखी है ? या करनेसे हम खी है? हम कौन है? हम कहाँसे आये।
इ या द अतरम खड़े होते ह । इनके यथाय उ र शी माग ॥१॥
३ भावाय-जहाँ शना है वहाँ सताप समझ, और जहाँ ान है वहां का नही रहती । जहाँ भुभ

ै ँ ै े े े ो े े े
है वहाँ उ म शान है । भु ा तके लये गु भगवानक शरण ले ॥१॥ गु को पहचानने के लये दयम बरा पक
आवषयकता है, और दस बरा यको उ प के लये पूवके पु य प भा यको आव य ा है। ग द भा योदय नही है
तो कुछ स सगको अपे ा है । य द स सग नह है तो कुछ खरग दे खनेपर यह आता है ।।२।।

२१४
ीमद् राजच
४. जे गायो ते सघळे एक, सकळ दशने एज ववेक।
समजा ानी शैली करी, यावाद समजण पण खरी ॥१॥
मूळ थ त जो पूछो मने, तो सोपी दउ योगी कने।
थम अंत ने म ये एक, लोक प अलोके दे ख ॥२॥
जीवाजीव थ तने जोई, ट यो ओरतो शका खोई।
एम ज थ त या नह उपाय, "उपाय कां नही?" शंका जाय ॥३॥
ए आ य जाणे ते जाण, जाणे यारे गटे भाण ।
समजे बधमु युत जीव, नीरखी टाळे शोक सद व ॥४॥
बंधयु जीव कम स हत, पु ल रचना कम खचीत।
पु ल ान थम ले जाण, नर दे हे पछ पामे यान ॥५॥
जो के पु लनो ए दे ह, तो पण ओर थ त यां छे ह ।
समजण बीजी पछ कहीश, यारे च े थर थईश ॥६॥
जहां राग अने वळ े ष, तहा सवदा मानो लेश ।
उदासीनतानो यां वास, सकळ .खनो छे यां नाश ॥१॥
सव कालनु छे या ान, दे ह छता यां छे नवाण ।
भव छे वटनो छे ए दशा, राम धाम आवीने व या ॥२॥
४ भावाथ-सब धम म एक परम त वका ही गुणगान है, और सब दशनोने भ - भ शैलीसे उसी परम
त वका ववेचन कया है । पर तु यावाद शैली स पूण एव यथाथ है ॥१॥ य द आप मुझे मूल थ त अथात् लोक-
व प अथवा आ म व पके बारेम पूछते ह तो म आपसे कहता ँ क आ म ानी योगी अथवा सयोगी केवलीने
जो लोक व प बताया है वही यथाय एव मा य करने यो य है । अलोकाकाशम जीव, पु ल आ द छः समूह प
लोक पु षाकारसे थत है और जो आ द, म य और अ तमे अथात् तीन कालम इसी पसे रहनेवाला है ॥२॥
उसम जीवाजीवक थ तको दे खकर त सवधी ज ासा शात ई, ाकुलता मट गई और शका र हो गई।
लोकक यही थ त है, उसे कसी भी उपायसे अ यथा करनेके लये कोई भी समथ नही है। उसे अ यथा करनेका
उपाय यो नही ? इ या द शकाओका समाधान हो गया ॥६॥ जो इस आ यकारी व पको जानता है वह ानी
है। और जब केवल ान पी भानु (सूय) का उदय हो तभी इस लोकका व प जाना जा सकता है । फर वह
समझ जाता है क जीव वध और मु से यु है। ससारक ऐसी थ त दे खकर हष-शोक सदाके लये रकर
वह वीतराग सदै व समता सुखम नम न हो जाता है ॥४॥ ससारी जीव वधयु है और वह बध पु ल वगणा प
कम से आ है । अनत श शाली जीवको पु ल परमाणुओक कम प रचनासे बघनक अव थाको ा त होकर
ससारमे अनत खद प र मण करना पडता है । इस लये पहले वह पु ल व पको जाने और अनु मसे धम यान
एव शु ल यानम एका न होकर परम पु षाथ मो म वृ करे। नरदे हम ही ऐसा पु षाथ हो सकता है ॥५॥
दे ह य प पु लका ही है, तो भी भेद ानको ा त होकर आ म ानी यानम एका होकर अपूव आनदको ा त
होता है । जब च सक प- वक पसे र हत होकर थर होगा तब फर सरा बोध ं गा ॥६॥
५ भावाथ-जहां राग और े ष होते ह वहां सदा लेश ही बना रहता है । जब जीव ससारसे उदासीन
एव वर हो जाता है तभी सव खोका अ त आता है ।।१।। उस दशाम जीव काल ानी होता है और दे ह होते
ए भी दे हातीत जीव मु दशाका अनुभव होता है। चरमशरीरी जीव ही ऐसी दशाको ा त करता है और वह
आ म व पम रमण करता आ सदाके लये परमपद मो मे थत हो जाता है ॥२॥

२१५
बबई, फागुन, १९४६
हे जीव ! तू ममे मत पड, तुझे हतको वात कहता ँ।
अतरमे सुख है, बाहर खोजनेसे नह मलेगा।
अतरका सुख अतरक सम ेणीमे है, उसमे थ त होनेके लये बा पदाथ का व मरण कर,
आ य भूल।
सम ेणी रहना ब त लभ है, न म ाधीन वृ पुन. पुन च लत हो जायेगी, च लत न होनेके
लये अचल गभीर उपयोग रख ।
यह म यथायो य पसे चलता आया तो तू जीवनका याग करता रहेगा, हताश नह होगा,
नभय होगा।
ममे मत पड, तुझे हतक बात कहता है।
यह मेरा है, ऐसे भावक ा या ायः न कर ।
यह उसका है ऐसा न मान बैठ ।
इसके लये ऐसा करना है यह भ व य नणय न कर रख ।
इसके लये ऐसा न आ होता तो सुख होना ऐसा मरण न कर ।
े ो ो ऐ
इतना इस कारसे हो तो अ छा, ऐसा आ ह न कर रख ।
इसने मेरे त अनु चत कया, ऐसा मरण करना न सीख ।
इसने मेरे त उ चत कया ऐसा मरण न रख ।
यह मुझे अशुभ न म है ऐसा वक प न कर ।
यह मुझे शुभ न म है ऐसी ढता न मान बैठ।
यह न होता तो म नही बंधता ऐसी अचल ा या न कर।
पूवकम बलवान है, इस लये ये सब सग मल गये ऐसा एका तक हण न कर।
पु षाथक जय नह ई ऐसी नराशाका मरण न कर।
सरेके दोषसे तुझे बधन है ऐसा न मान।
अपने न म से भी सरेको दोष करते ए रोक ।
तेरे दोषसे तुझे बंधन है यह सतक पहली श ा है।
तेरा दोष इतना ही क अ यको अपना मानना, और अपने आपको भूल जाना।
इन सबमे तेरा मनोभाव नह है इस लये भ भ थलोमे तूने सुखक क पना क है। हे मुढ ।
ऐसा न कर-
यह तूने अपनेको हतक बात कही।
अतरमे सुख है।
जगतमे ऐसी कोई पु तक या लेख या कोई ऐसा अप र चत सा ी तुझे यो नह कह सकता क
यह सुखका माग है, अथवा आप ऐसा वतन कर अथवा सबको एक ही मसे वचार आये; इसीसे सू चत
होता है क यहाँ कुछ वल वचारधारा रही है।
एक भोगी होनेका उपदे श करता है।
एक योगी होनेका उपदे श करता है।
इन दोनोमेसे कसे मा य करगे?
दोनो कस लये उपदे श करते ह ?

२१६
ीमद् राजच
दोनो कसको उपदे श करते है?
कसक ेरणासे करते है।
कसीको कसीका और कसीको कसीका उपदे श यो लगता है ?
इसके कारण या ह?
इसका सा ी कौन है?
आप या चाहते ह?
वह कहाँसे मलेगा ? अथवा कसमे है ?
उसे कौन ा त करेगा?
कहाँ होकर लायगे?
लाना कौन सखायेगा?
अथवा सीखे ए है?
सीखे ह तो कहाँसे सीखे ह ?
अपुनवृ पसे सीखे हे?
नही तो श ण म या ठहरेगा।
जीवन या है?
जीव या है?
आप या ह?
आपक इ छानुसार यो नही होता?
उसे कसे कर सकगे?
वाघता य है या नरावाधता य है ?
वह कहाँ कहाँ और कस कस कारसे है ?
इसका नणय करे।
अतरमे सुख है।
बाहरमे नही है।
स य कहता ँ।
हे जीव | भूल मत, तुझे स य कहता ँ।
सुख अ तरमे हे, वह बाहर खोजनेसे नह मलेगा।
अतरका सुख अतरक थ तमे है। थ त होनेके लये बा पदाथ का आ य भूल ।
थ त रहनी ब त वकट है, न म ाधीन वृ पुन पुन' च लत हो जाती है । इसका ढ उपयोग
रखना चा हये।
इस मको यथायो य नभाता चलेगा तो तु हताश नही होगा, नभय होगा।
हे जीव । तू भूल मत । समय-समयपर उपयोग चककर कसीको र जत करनेमे, कसीसे र जत
होनेमे अथवा मनको नबलताके कारण तू सरेके पास मद हो जाता है, यह भूल होती है। इसे न कर।
आ मा नाममा है या व तु व प है?

ै ो ी ी े े ो ै
य द व तु व प है तो कसी भी ल णा दसे वह जाना जा सकने यो य है या नह ?

२१७
२३ वॉ वष
य द वह ल णा दसे कसी भी कारसे जाना जा सकने यो य नही है ऐसा माने तो जगतमे
उपदे शमागक वृ कैसे हो सकती है ? अमुकके वचनसे अमुकको बोध होता है इसका हेतु या है ?
अमुकके वचनसे अमुकेको बोध होता है, यह सारी वात क पत है, ऐसा मान तो य व तुका
बाध होता है यो क वह वृ य दखायी दे ती है। केवल व यापु वत् नही है।
कसी भी आ मवे ासे कसी भी कारसे आ म व पका वचन ारा उपदे श-
[अपूण]
११०
आ मा च ुगोचर हो सकता है या नही ? अथात् आ मा कसी भी तरह. आँखसे दे खा जा सकता
है या नही?
आ मा सव ापक है या नही?
म या आप सव ापक ह या नही?
आ माका दे हातरमे जाना होता है या नही ? अथात् आ मा एक ग तमेसे सरी ग तमे जाता है
या नही ? जा सकने यो य है या नह ?
आ माका ल ण या है ?
कसी भी कारसे आ मा यानमे आ सकता है या नही ?
• सबसे अ धक ामा णक शा कौनसे है ?
__ १११
बबई, फागुन, १९४६
परम स य है।)
परम स य है। काल ऐसा ही है। . .
परम स य है ।।.
वहारके सगको सावधानीसे, मद उपयोगसे ओर समताभावसे नभाते आना। '
सरे तेरा यो नही मानते ऐसा तेरे अ तरमे न उठे । .
सरे तेरा मानते ह यह ब त यो य है, ऐसा मरण तुझे न हो।
तू सव कारसे वतः वृ कर ।
जीवन-अजीवनपर समवृ हो ।
जीवन हो तो इसी वृ से पूण हो ।
जब तक गृहवास ार धमे हो तब तक वहार सगमे भी स य सो स य ही हो।
गृहवासमे उसमे ही यान हो ।
गृहवासमे सगमे आनेवालोको उ चत वृ रखना सखा, सबको समान ही मान ।
तब तकका तेरा समय ब त हो उ चत बीते ।
अमुक वहार- सगका काल |
उसके सवाय त स ब धी कायकाल ।
पूवकृत कम दयकाल।
न ाकाल।
य द तेरी वत ता और तेरे मसे तेरा उपजीवन- वहारस ब धी स तोपयु हो तो उ चत
कारसे अपने वहारको चलाना।

२१८
ीमद् राजच
उसको इससे सरे चाहे जस कारणसे स तोषयु वृ न रहती हो तो तू उसके कहे अनुसार
वृ करके उस सगको पूरा करना, अथात् सगक पूणा त तक ऐसा करनेमे तू वषम नह होना।
तेरे कमसे वे स तु रहे तो औदासी यवृ ारा नरा हभावसे उनका भला हो वैसा करनेक
सावधानी तू रखना।
११२
बबई, चै , १९४६
मोहा छा दत दशासे ववेक न हो यह स य है, नह तो व तुतयह ववेक यथाथ है।
ब त ही सू म अवलोकन रख।
१ स यको तो स य ही रहने दे ना।
२ कर सके उतना कहे, अश यता न छपाएँ।
३. एक न रहे।
चाहे जस कसी श त कायमे एक न रहे।
वीतरागने स य कहा है।
अरे आ मन् । अ त थत दशा ले।
यह ख कसे कहना ? और कैसे र करना?

ै ी ै ी ी ै
आप अपना वैरी, यह कैसी स ची बात है।
११३
बबई, वैशाख वद १२, १९४६
सु भाई ी,
आज आपका एक प मला । यहाँ समय अनुकूल है। वहाँको समयकुशलता चाहता ँ। आपको
जो प भेजनेक मेरी इ छा थी, उसे अ धक व तारसे लखनेको आव यकता होनेसे और वैसा करनेसे
उसक उपयो गता भी अ धक स होनेस, े वैसा करनेक इ छा थी, और अब भी है। तथा प काय -
पा धक ऐसी बलता है क इतना शा त अवकाश मल नह सकता, मल नही सका और अभी कुछ
समय तक मलना भी स भव नह है। आपको इस समय यह प मला होता तो अ धक उपयोगी होता,
तो भी इसके बाद भी इसको उपयो गता तो आप भी अ धक ही मान सकेगे। आपक ज ासाको कुछ
शा त करनेके लये उस प का स त वणन दया है।
__म इस ज ममे आपसे पहले लगभग दो वष से कुछ अ धक समयसे गृहा मी आ , ँ यह आपको
व दत है। जसके कारण गृहा मो कहा जा सकता है, उस व तुका और मेरा इस अरसेमे कुछ अ धक
प रचय नह आ है, फर भी इससे म उसका का यक, वा चक और मान सक झुकाव ब त करके समझ सका
ँ, ओर इस कारणसे उसका और मेरा स ब ध अस तोषपा नही आ है, ऐसा बतलानेका हेतु यह है क
गृहा मका वणन अ प मा भी दे ते ए त स ब धी अनुभव अ धक उपयोगी होता है, मुझे कुछ सा का-
रक अनुभव फु रत हो आनेसे ऐसा कह सकता ँ क मेरा गहा म अभी तक जैसे अस तोषपा नह है,
वैसे उ चत स तोषपा भी नह है। वह मा म यम है, और उसके म यम होनेमे भी मेरी कतनी ही
उदासीनवृ को सहायता है।
त व ानक गु त गुफाका दशन करने पर गृहा मसे वर होना अ धकतर सुझता है, और अव य
ही उस त व ानका ववेक भी इसे उ दत आ था, कालक बलव र अ न ताके कारण, उसे यथायो य
समा धसगक अ ा तके कारण उस ववेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा, और सचमुच । य द
वैसा न हो सका होता तो उसके (इस प लेखकके) जीवनका अ त अ त आ जाता।
२१९
जस ववेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा है, उस- ववेकमे ही च वृ स रह जाती
है, उसको बा धानता नही रखी जा सकती, इसके लये अक य खेद होता है । तथा प जहाँ न पायता
है, वहाँ सहनशीलता सुखदायक है, ऐसी मा यता होनेसे मौन रखा है।
___कभी-कभी सगी और सगी तु छ न म हो पड़ते ह, उस समय उम ववेकपर कसी तरहका
आवरण आ जाता है, तब आ मा ब त ही वधामे पड़ जाता है। जोवनर हत होनेक , दे ह याग करनेक
ख थ तक अपे ा उस समय भयकर थ त हो जाती है, पर तु ऐसा अ धक समय तक नही रहता;
और ऐसा जब रहेगा तब अव य ही दे ह याग क ँ गा। पर तु असमा धसे वृ नही क ँ गा ऐसी अव
तकक त ा थर बनी ई है।
११४ मोरवी, आषाढ़ सुद ४, गु , १९४६
मोरबीका नवास वहारनयसे भी अ थर होनेसे उ र भेजा नही जा सकता था।
आपके श त भावके लये आन द होता है। उ रो र यह भाव आपके लये स फलदायक हो।
उ म नयमानुसार और धम यान श त वहार करे, यह मेरी वारवार मु य व त है । शु -
भावक ेणोको व मृत नही करते, यह एक आन दकथा है। ।
, ११५
बबई, आषाढ़ सुद ५, र व, १९४६
धम छु क भाई ी,
आपके दोनो प मले। पढ़कर स तोष हआ।
उपा धक बलता वशेष रहती है । जीवन कालमे ऐसा कोई योग आना न मत हो, तो मौनभाव-
उदासीनभावसे वृ कर लेना ही ेय कर है।
भगवतीजीके पाठके स ब धमे स त प ीकरण नीचे दया है :-
सुहजोगं पडु चं अणारंभी, असुहजोग पडु च आयारंभी, परारंभी, त भयारंभी।
शुभ योगक अपे ासे अनारंभी, अशुभयोगक अपे ासे आ मारभी, परारभी, त भयारभी (आ मा-
रभी और परारभी)।
यहाँ शुभका अथ पा रणा मक शुभ लेना चा हये, यह मेरी है। पा रणा मक अथात् जो प र-
णामम शुभ अथवा जैसा था वैसा रहना है।
यहां योगका अथ मन, वचन और काया है।
शा कारका यह ा यान करनेका मु य हेतु यथाथ दखानेका और शुभयोगमे वृ करानेका
है । पाठमे बोध बहत सुदर है।
आप मेरा मलाप चाहते ह, पर तु यह कोई अनु चत काल उदयमे आया है। इस लये आपके
लये मलापमे भी म ेय कर स हो सकूँ ऐसी आशा थोड़ी ही है।
ज होने यथाथ उपदे श कया है, ऐसे वीतरागके उपदे शमे परायण रहे, यह मेरा वनयपूवक आप
दोनो भाइयोसे और सरोसे अनुरोध है ।
मोहाधोन ऐसा मेरा आ मा वा ोपा धसे कतने कारसे घरा आ है, यह आप जानते है, इस लये
अ धक या लखू?
अभी तो आप अपनेसे ही धम श ा ले। यो य पा बन । मै भी यो य पा बन। अ धक फर
दे खगे।
व० रायच दके णाम।

२२०
बबई, वैशाख सुद ३, १९४६
इस उपा धमे पडनेके बाद य द मेरा लगदे हज य ान-दशन वैसा ही रहा हो, यथाथ हो रहा हो
तो जूठाभाई आषाढ सुद ९ गु क रातको समा धपूवक इस णक जीवनका याग कर जायगे, ऐसा वह
ान सू चत करता है।
११७
बबई, आषाढ सुद १०, १९४६
लगदे हज य ानमे उपा धके कारण य क चत् प रवतन मालूम आ । प व ा मा जूठाभाईके
उपयु त थको पर तु दनमे वगवासी होनेक आज खबर मली।
इस पावन आ माके गुणोका या मरण कर जहाँ व मृ तको अवकाश नही वहाँ मृ त ई मानी
ही कैसे जाये ?
इसका लौ कक नाम ही दे हधारी पसे स य था, यह आ मदशाके पमे स चा वैरा य था।
जसक म यावासना ब त ीण हो गई थी, जो वीतरागका परमरागी था, ससारसे परम जुगु सत
था, जसके अतरमे भ का ाधा य सदै व का शत था, स यकभावसे वेदनीय कम वेदन करनेक जसक
अ त समता थी, मोहनीय कमका ाब य जसके अतरमे ब त शू य हो गया था, जसमे मुमु ुता उ म
कारसे द पत हो उठ थी, ऐसा यह जूठाभाईका प व ा मा आज जगतके इस भागका याग करके चला
गया । इन सहचा रय से मु हो गया । धमके पूणा ादमे आयु य अचानक पूण कया।
___ अरेरे | इस कालमे ऐसे धमा माका अ प जीवन हो यह कुछ अ धक आ यकारक नही है । ऐसे
प व ा माक इस कालमे कहाँसे थ त हो ? सरे सा थयोके ऐसे भा य कहाँसे हो क ऐसे प व ा माके
दशनका लाभ उ हे अ धक काल तक मले ? मो मागको दे नेवाला स य व जसके अतरमे का शत
ऐ े ई ो ो ो
आ था, ऐसे प व ा मा जूठाभाईको नम कार हो । नम कार हो ।
११८ बबई, आषाढ सुद १५, बुध, १९४६
धम छु क भाइयो,
___ च० स यपरायणके वगवाससूचक श द भयंकर ह । पर तु ऐसे र नोका द घ जीवन कालको नही
पुसाता । धम छु कके ऐसे अन य सहायकको रहने दे ना मायादे वीको यो य नही लगा।
इस आ माके इस जीवनके रह यमय व ामको कालक बल ने खीच लया। ान से
शोकका अवकाश नही माना जाता, तथा प उसके उ मो म गुण वैसा करनेक आ ा करते है, ब त
मरण होता है, यादा नही लख सकता।
स यपरायणके मरणाथ य द हो सका तो एक श ा थ लखनेका वचार करता ँ।
न छ जइ । यह पाठ पूरा लखगे तो ठ क होगा। मेरी समझके अनुसार इस थलपर आ माका
श दवणन है “छे दा नही जाता, भेदा नही जाता", इ या द। . . . '
"आहार, वहार और नहारका नय मत" इस वा यका स ेपाथ इस कार है-
जसमे योगदशा आती है, उसमे आहार, वहार और नहार (शरीरके मलक याग या)
यह नय मत अथात् जैसी चा हये वैसी, आ माको नवाधक यासे यह वृ करनेवाला ।
१ यह लेख ीमद्को दै नक नोधका है। २. ी आचाराग, अ य० ३, उ े शक ३, दे ख आक २९६ ।

२३ वॉ वष
२२१
___ धममे स रहे यही वारवार अनुरोध है । स यपरायणके मागका सेवन करगे तो ज र सुखी होगे
- पार पायगे, ऐसा मै मानता ँ।
___ इस भवक और परभवक न पा धता जस रा तेसे क जा सके उस रा तेसे को जयेगा, ऐसी
ती है।
उपा ध त रायचदके यथायो य
११९ बंबई, आषाढ वद ७, मंगल, १९४६
नरतर नभयतासे र हत इस ा त प ससारमे वीतराग व ही अ यास करने यो य है; नरंतर
यतासे वचरना ही ेय कर है, तथा प कालक और कमक व च तासे पराधीनतासे यह
ह।
दोनो प मले । सतोष आ। आचाराग सू का पाठ दे खा । यथाश वचारकर अ य सगपर
लखूगा।
धम छु क वभोवनदासके का उ र भी सगपर दे सकूँगा।
जसका अपार माहा य है, ऐसी तीथकरदे वक वाणीक भ कर।
व० रायचद
१२०
बबई, आषाढ वद ३०, १९४६
आपक 'योगवा स ' पु तक इसके साथ भेजता ँ। उपा धका ताप शमन करनेके लये यह
|ल चदन है, इसके पढ़नेमे आ ध- ा धका आगमन स भव नही है। इसके लये आपका उपकार
ता ँ।
आपके पास कभी कभी आनेमे भी एक मा इसी वषयक अ भलाषा है। बहत वष से आपके
1.करणमे रही ई व ाका आपके ही मुखसे वण हो तो एक कारक शा त मले । कसी भी
तेसे क पत वासनाओका नाश होकर यथायो य थ तक ा तके सवाय अ य इ छा नही है.
तु वहारके स ब धमे कतनी ही उपा धयाँ रहती है, इस लये स समागमका यथे अवकाश नही
ता, तथा आपको भी कुछ कारणोसे उतना समय दे ना अश य समझता , ँ और इसी कारणसे अ त
णको अ तम वृ पुन पुनः आपको बता नही सकता, तथा त स ब धी अ धक बातचीत नही हो
ती। यह एक पु यक यूनता है, अ धक या ?
___आपके स ब धसे कसी तरह ावहा रक लाभ लेनेक इ छा व मे भी नही क है, तथा आप
' सरोसे भी इसक इ छा नही रखी है । एक ज म और वह भी थोडे ही कालका, ार धानुसार वता
I, उसमे द नता उ चत नही है, यह न य य है । सहज भावसे वहार करनेक अ यास णा लका
5 (थोड़ेसे) वष से आरभ क है; और इससे नवृ क वृ है। यह वात यहां बतानेका हेतु इतना ही
के आप अश कत होगे, तथा प पूवापरसे भी अश कत रहनेके लये जस हेतुसे आपक ओर मेरा दे खना
उसे बताया है, और यह अश कतता ससारसे औदासी य भावको ा त दशाके लये सहायक होगी
माना होनेसे (बताया है)।
___'योगवा स ' के स ब धमे आपको कुछ बताना चाहता ँ ( सग मलनेपर)।
जैनधमके आ हसे ही मो है, ऐसा मानना आ मा ब त समयसे भूल चुका है। मु भावमे (।)
म है ऐसी धारणा है, इस लये बातचीतके समय आप कुछ अ धक कहते ए न के ऐसी व त है।

२२२
ीमद् राजच
१२१
बबई, आषाढ, १९४६

े े े ी ै ो ी ो ऐ ी ोई ी
जस पु तकके पढनेसे उदासीनता, वैरा य या च क व थता होती हो ऐसी कोई भी पु तक
पढ़ना । जससे यो यता ा त हो ऐसी पु तक पढनेका वशेष प रचय रखना।
धमकथा लखनेके वपयमे लखा, तो वह धा मक कथा मु यत तो स सगमे ही न हत है। षम-
काल प इस कालमे स सगका माहा य भी जीवके यानमे नही आता।
क याणके मागके साधन कौनसे है उनका ान ब त ब त सी या द करनेवाले जीवको भी हो
ऐसा मालूम नही होता।
याग करने यो य व छद आ द जो कारण हे उनमे तो जीव चपूवक वृ हो रहे है। जनका
आराधन करना यो य हे ऐसे आ म व प स पु षोमे जीवको या तो वमुखता और या तो अ व ास रहता
है, और ऐसे अस स गयोके सहवासमे क ही क ही मुमु ुओको भी रहना पड़ता है। उन खयोमे आप
और मु न आ द भी कसी न कसी अशमे गनने यो य है । अस सग और वे छाचार न हो अथवा उनका
अनुसरण न हो ऐसे वतनसे अतवृ रखनेका वचार बनाये ही रखना यह सुगम साधन है।
१२२
बबई, आषाढ़, १९४६
पूवकमका उदय ब त व च है । अब 'जब जागे तभी सवेरा'।
तोवरससे और मदरससे कमका वध होता है। उसमे मु य हेतु राग े ष है। इससे प रणाममे
अ धक पछताना पड़ता है।
शु योगमे रहा आ आ मा अनारंभी है और अशु योगमे रहा आ आ मा आरभी है । यह वा य
वीरक भगवतोका है । मनन क जयेगा ।
पर पर ऐसा होनेस,
े धम- व मृत आ माको मृ तमे योगपद याद आता है। ब ल कमके योगसे
पचमकालमे उ प ए, परतु कुछ शुभके उदयसे जो योग मला है, वैसा ब त ही थोड़े आ माओको
ममवोध मलता है, और वह चकर होना ब त घट है। वह स पु षोक कृपा मे न हत है । अ प-
कमका योग होगा तो बनेगा। न सशय जस पु षका योग मला उस पु षको शुभोदय हो तो अव य
बनेगा; फर न बने तो ब ल कमका दोष ।
१२३
बबई, आषाढ़, १९४६
धम यान ल याथसे हो यही आ म हतका रा ता है। च के सक प- वक पसे र हत होना यह
महावीरका माग है । अ ल तभावमे रहना, यह ववेक का कत है।
१२४
ववा णया बदर, १९४६
जंण जंणं दसं इ छइ तं गं त णं दसं अ प डबधे।
जस जस दशाक ओर जाना चाहे वह वह दशा जसके लये अ तब अथात् खुली है ।
( रोक नही सकती।)
जब तक ऐसी दशाका अ यास न हो तब तक यथाथ यागक उ प होना कैसे स भव है ?
पौ लक रचनासे आ माको त भत करना उ चत नही ह।
व० रायचंदके यथायो य।

२३ या वष
२२३
१२५ ववा णया, ावण वद १३, बुध, १९४६
धम छु क भाई ी,
आज मतातरसे उ प आ पहला पयुषण आर भ आ। अगले मासमे सरा पयुपण आरभ
होगा। स यक से मतातर र करके दे खनेसे यही मतातर गुने लाभका कारण है, यो क गुना धम
स पादन कया जा सकेगा।।
च गुफाके यो य हो गया है । कमरचना व च है ।
व० रायचंदके यथायो य।
१२६ ववा णया, थम भादो सुद ३, सोम, १९४६
आपके दशनका लाभ लये लगभग एक माससे कुछ अ धक समय आ। बबई छोड़े एक प आ।
बबईका एक वषका नवास उपा ध त रहा। समा ध प तो एक आपका समागम था, उसका यथे
लाभ ा त न आ।
ा नयो ारा क पत सचमुच यह क लकाल ही है। जनसमुदायको वृ याँ वषय-कषाय आ दसे
वषमताको ा त ई ह। इसक बलव रता य है। राजसी वृ का अनुकरण उसे य आ है।
ता पय यह क ववे कयोक और यथायो य उपशमपा ोक छाया भी नही मलती। ऐसे वषमकालमे
ज मा आ यह दे हधारी आ मा अना दकालके प र मणक थकानसे व ा त लेनेके लये आया, युत
अ व ा त पाकर फंस गया है । मान सक चता कही भी कही नही जा सकती। कहने यो य पा ोक भी
कमी है। ऐसी थ तमे अब या करना ? य प यथायो य उपशमभावको ा त आ मा ससार और
मो मे समवृ वाला होता है । इस लये अ तब तासे वचर सकता है। पर तु इस आ माको तो अभी
वह दशा ा त नही ई है । उसका अ यास है । तो फर उसके पास यह वृ कस लये खड़ी होगी?
जसमे न पायता है उसमे सहनशीलता सुखदायक है और ऐसा ही वतन है, पर तु जीवन पूण
__ होनेसे पहले यथायो य पसे नोचेक दशा आनी चा हये-
१ मन, वचन और कायासे आ माका मु भाव ।

ी े
२ मनका उदासीनतासे वतन ।।
३ वचनक या ादता ( नरा हता )।
४ कायाक वृ दशा ( आहार- वहारक नय मतता)।
अथवा सव सदे होक नवृ , सव भयमु और सव अ ानका नाश ।
सतोने शा ो ारा अनेक कारसे उसका माग बताया है, साधन बताये है, योगा दकसे उ प
आ अपना अनुभव कहा है, तथा प उसमे यथायो य उपशमभाव आना कर है । वह माग है, पर तु
उपादानक बलवान थ त चा हये। उपादानक वलवान थ त होनेके लये नर तर स सग चा हये,
वह नही है।
शशुवयसे ही इस वृ का उदय होनेसे कसी कारका परभाषा यास न हो सका । अमक स दाय-
से शा ा यास न हो सका। संसारके बधनसे ऊहापोहा यास भी न हो सका, और वह न हो सका इसके
लये कोई सरा वचार नही है। उससे आ मा अ धक वक पी होता (सबके लये वक पता नही
पर तु मै केवल अपनी अपे ासे कहता ँ।) और वक पा दक लेशका तो नाश हो करना चाहा था, इस
लये जो आ वह क याणकारक ही है । पर तु अब जैसे महानुभाव व स भगवानने ीरामको इसी
दोषका व मरण कराया था वैसे कौन कराये ? अथात् भाषा यासके वना भी शा का वहत प रचय

२२४
ीमद् राजच
हआ है, धमके ावहा रक ाताओका भी प रचय आ है, तथा प इस आ माका आनंदावरण इससे र
नही हो सकता, मा स सगके सवाय और योगसमा धके सवाय, तब या करना ? इतना भी बतलानेके
लये कोई स पा थल नही था | भा योदयसे आप मले क ज हे रोम-रोममे यही चकर है।
__१२७ ववा णया, थम भादो सुद ४, १९४६
प मला।
सारे वषमे आपके त ए अपने अपराधक , न तासे, वनयसे और मन, वचन, कायाके श त
योगसे पुन: पुन. मा चाहता ँ। सब कारसे मेरे अपराधका व मरण कर आ म ेणीमे वतन करते
रहे, यह वनती है।
__ आजके प मे, मतातरसे गुना लाभ होता है ऐसा इस पयषण पवको स यकद से दे खते ए
मालूम आ, यह वात अ छ लगी । तथा प क याणके लये यह उपयोगी है । समुदायके क याणक
से दे खते ए दो पयुपण खदायक है । येक समुदायमे मतातर बढने नही चा हये, कम
होने चा हये।
व० रायचदके यथायो य
१२८ ववा णया, थम भादो सुद ६, १९४६
धम छक भाइयो,
थम सव सरीसे लेकर आजके दन तक कसी भी कारसे आपक अ वनय, आशातना, असमा ध
मेरे मन, वचन, कायाके कसी भी योगा यवसायसे ई हो उनके लये पुनः पुन मा चाहता ँ।
अत ानसे मरण करते ए ऐसा कोई काल ात नही होता अथवा याद नही आता क जस
कालमे, जस समयमे इस जीवने प र मण न कया हो, सक प- वक पको रटन न क हो, और इससे
'समा ध'को न भला हो । नरंतर यह मरण रहा करता है, और यह महावैरा यको दे ता है।
___ और मरण होता है क यह प र मण केवल व छदसे करते ए जीवको उदासीनता यो न
आई ? सरे जीवोके त ोध करते ए, मान करते ए, माया करते ए, लोभ करते ए या अ यथा
करते ए, यह बुरा है, ऐसा यथायो य यो न जाना? अथात् ऐसा जानना चा हये था, फर भी न जाना,
यह भी पुन प र मण करनेसे वर बनाता है।
__ और मरण होता है क जनके बना एक पल भी म न जी सके, ऐसे कतने ही पदाथ ( ी
आ द), उनको अनत वार छोडते, उनका वयोग ए अनत काल भी हो गया, तथा प उनके बना जी वत
रहा गया, यह कुछ कम आ यकारक नही है। अथात् जस जस समय वैसा ी तभाव कया था उस
उस समय वह क पत था। ऐसा ो तभाव यो आ? यह पुन पुन वैरा य दे ता है।
और जसका मुख कसी कालमे भी न दे ख, जसे कसी कालमे म हण ही न क ँ , उसके घर
पु के पमे, ीके पमे, दासके पमे, दासीके पमे, नाना जतुके पमे यो ज मा ? अथात् ऐसे
े पसे ऐसे पमे ज म लेना पडा | और वैसा करनेक तो इ छा न थी। क हये, यह मरण होने पर
इस ले शत आ माके त जुगु सा नही आती होगी ? अथात् आती है।
अ धक या कहना ? जो जो पूवके भवातरमे ा त पसे मण कया, उसका मरण होने पर
अव कैसे जीना यह चतना हो पडो है। फर ज म लेना ही नही और फर ऐसा करना ही नह
ऐसा ढ व आ मामे का शत होता है। परतु कतनी ही न पायता है वहाँ या करना ? जो ढता
है उसे पूण करना, अव य पूण करना यही रटन है, पर तु जो कुछ आड़े आता है उसे एक ओर करना

२२५
पड़ता है, अथात् खसकाना पडता है, और उसमे काल तीत होता है, जीवन चला जाता है, उसे न
जाने दे ना, जब तक यथायो य जय न हो तब तक, ऐसी ढता है, उसका या करना ? कदा प कसी
तरह उसमेसे कुछ करे तो वैसा थान कहाँ है क जहाँ जाकर रह ? अथात् वैसे सत कहाँ ह क जहाँ
जाकर इस दशामे बैठकर उसका पोपण ा त कर ? तो फर अब या करना ?
े ो ो े े ो े े ो े े
__ "चाहे जो हो, चाहे जतने ख सहो, चाहे जतने प रषह सहन करो, चाहे जतने उपसग
सहन करो, चाहे जतनी ा धयाँ सहन करो, चाहे जतनी उपा धयाँ आ पड़ो, चाहे जतनी आ धयाँ
आ पड़ो, चाहे तो जीवनकाल एक समय मा हो, और न म हो, परतु ऐसा करना ही।
तब तक हे जीव । छु टकारा नही है।"
इस कार नेप यमेसे उ र मलता है और वह यथायो य लगता है।
ण- णमे पलटनेवाली वभाववृ नही चा हये। अमुक काल तक शू यके सवाय कुछ नही
चा हये, वह न हो तो अमुक काल तक संतके सवाय कुछ नही चा हये, वह न हो तो अमुक काल तक
स संगके सवाय कुछ नही चा हये, वह न हो तो आयाचरण (आयपु षो ारा कये गये आचरण ) के
सवाय कुछ नही चा हये, वह न हो तो जनभ मे अ त शु भावसे लीनताके सवाय कुछ नही चा हये,
वह न हो तो फर मांगनेक इ छा भी नही है।
समझमे आये बना आगम अनथकारक हो जाते ह। स सगके बना यान तरग य हो जाता है।
सतके बना अतक वातका अत नही पाया जाता । लोकस ासे लोकानमे नही प ँचा जाता । लोक यागके
बना वैरा य यथायो य पाना लभ है।
“यह कुछ झूठा है ?" या ?
प र मण कया सो कया; अब उसका या यान ल तो?
' लया जा सकता है।
यह भी आ यकारक है।
अभी इतना ही, फर सुयोगसे मलगे।
यही व ापन ।
व० रायच दके यथायो य ।
१२९ ववा णया, थम भादो सुद ७, शु , १९४६
ब बई इ या द थलोमे सहन क ई उपा ध, यहाँ आनेके बाद एकाता दका अभाव (नही होना)
और व ताक अ यताके कारण यथास भव वरासे उधर आऊँगा ।
१३० ववा णया, थम भादो सुद ११, मंगल, १९४६
धम छु क भाई खीमजी,
कतने वष ए एक महती इ छा अ त करणमे रहा करती है, जसे कसी थलपर नही कहा,
कहा नही जा सका, कहा नह जा सकता, नही कहना आव यक है। महान प र मसे ाय उसे पूरा
कया जा सकता है, तथा प उसके लये यथे प र म नही हो पाता, यह एक आ य और म ता है।
यह इ छा सहज उ प ई थी। जब तक वह यथायो य री तसे पूरी न क जाये तब तक आ मा समा.
ध थ होना नही चाहता, अथवा नही होगा। य द कभी अवसर होगा तो उस इ छाको झांक करा
दे नेका य न क ं गा। इस इ छाके कारण जीव ायः वड बनदशाम ही जीवन तीत करता रहता है।

२२६
थोमद राजच
मानी । याणकारी है, तथा प नरो के त बेसी क याणकारक होनेमे कुछ
। । ...
को उ दत ने अ मय आपको ब त बार नमागममे बतायी है। सुनकर उ ह कुछ
! : ने को या होनी ई दे सनेमे आयो है । पुन अनुरोध है क जन जन थलामे
उन उग यलोम जानेपर पुन पुन उनका अ धक मरण अव य क जयेगा ।
। आ मा है।
२ वह बचा आ है।
३ वह कमका कता हे।
४ वह कमका भो ा है।
५ मो का उपाय है।
६ आ मा माध सकता है।
नोट महा वचन ह उनका नरतर शोधन करे।
दनरेती वडवनाका अनु ह न करके अपना अनु ह चाहनेवाला जय नही पाता ऐसा ाय होता
नये चाहता है क आपने वा माके अनुगहमे रखी हे उसक वृ करते र हये, और उससे
-177 परका अनगढ़ भी कर सकगे।
हो जसक अ थ और धम हो जसको म जा है, धम ही जसका धर है, धम ही जसका
जा मप , धम ही जनक वचा हे, धम ही जसक इ यां ह, धम ही जमका कम हे, धम ही जसका
नटना है, धम ही जमका बैटना है, धम ही जसका उठना है, धम ही जसका खडा रहना हे, धम ही
जगमा शयन हे, धम ही जसक जागृ त है, धम ही जसका आहार है, धम ही जमका वहार है, धम
ही जनका नहार [ 1 ] है, धम ही जसका वक प है, धम ही जसका सक प है, धम हो जसका सव व
है, पुरपको पा त लभ ह, और वह मनु यदे हमे परमा मा है । इस दशाको या हम नह चाहते ?
पाने , नवा प माद और स सगके आटे आनेसे उसमे नह दे ते।
आ मभावक वृ को जये, और दे हभावको कम क जये।
व. रायचदके यथो चत ।
१३१ जेतपर (मोरबी), थम भादो वद ५, वुध, १९४६
मा या,

ी ो ो ो े े ो ो ी े ी ो े े
__पनी पाठक नब यो दोनोके अथ मझे तो ठोर ही लगते ह। बालगीबोक अपे ासे
'
ग कया गया नथ हलता है, मुमु ुके लये आपका क पत अथ हतकारक है, सतोके
नामनु प ान, वये ग न कर उनके लये उन थलपर यार यानको या-
{ { है। य द यायो य ान क ा त न हो तो जो या यान कये हो वे दे व
मान
से जगमन त है। इस लये उ ह या यान कहा है। पर तु इस थलपर
iiii in◌ान ने होगी लागलेला रेनु नायंकर दे व त रहो नह । या यान आ द
तुम म2.3-7ीन और सायंदेश नम मलता है, तो फर ान क ा त होती
' करानो मा ननली मग उनी चा हये।
व. गगनदक पा रत।

२३ वाँ वष
२२७
१३२ ववा णया, थम भादो वद १३, शु , १९४६
" णम प स जनसंग तरेका भव त भवाणवतरणे नौका"
स पु षका णभरका भी समागम ससार पी समु तरनेके लये नौका प होता है । यह वा य
महा मा शकराचायजीका है, और यह यथाथ ही लगता है।
__आपने मेरे समागमसे आ आनद और वयोगसे आ अनानद द शत कया है, वैसा ही आपके
समागमके लये मुझे भी आ है।।
अत करणमे नरतर ऐसा ही आया करता है क परमाथ प होना, और अनेकको परमाथ स
करनेमे सहायक होना यही कत है, तथा प कुछ वैसा योग अभी वयोगमे है।
भ व य ानको जसमे आव यकता है, उस बातपर अभी यान नही रहा ।
१३३ ववा णया, तीय भादो सुद २, मगल, १९४६
आ म ववेकसप भाई ी सोभागभाई, मोरबी।
आज आपका एक प मला। पढकर परम सतोप आ । नरतर ऐसा ही सतोष दे ते रहनेके
लये व त है।
यहाँ जो उपा ध है, वह एक अमुक कामसे उ प ई है, और उस उपा धके लये या होगा,
ऐसी कुछ क पना भी नही होती, अथात् उस उपा धस ब धी कोई चता करनेक वृ नह रहती। यह
उपा ध क लकालके सगसे एक पहलेक सग तसे उ प ई है । और उसके लये जैसा होना होगा वैसा
थोडे समयमे हो रहेगा । इस स सारमे ऐसी उपा धयाँ आना यह कोई आ यक बात नही है।
__ई रपर व ास रखना यह एक सुखदायक माग है। जसका ढ व ास होता हे वह ःखी
नही होता, अथवा खी होता है तो खका वेदन नह करता। ख उलटा सुख प हो जाता है।
आ मे छा ऐसी ही रहती है क ससारमे ार धानुसार चाहे जैसे शुभाशुभ उदयमे आय, पर तु
उनमे ी त-अ ी त करनेका हम सक प भी न कर।
रात- दन एक परमाथ वषयका ही मनन रहता है । आहार भी यही है, न ा भी यही है, शयन
भी यही है, व भी यही है, भय भी यही है, भोग भी यही है, प र ह भी यही है, चलना भी यही है,
आसन भी यही है । अ धक या कहना ? हाड़, मास और उसक म जा सभी इसी एक ही रगमे रगे ए
ह । एक रोम भी मानो इसोका ही वचार करता है, और उसके कारण न कुछ दे खना भाता है, न कुछ
सूचना भाता है, न कुछ सुनना भाता है, न कुछ चखना भाता है क न कुछ छू ना भाता है, न बोलना
भाता हे क न मौन रहना भाता है, न बैठना भाता है क न उठना भाता है, न सोना भाता है क न
जागना भाता है, न खाना भाता है क न भूखे रहना भाता है, न असग भाता है क न सग भाता है, न
ल मी भाती है क न अल मी भाती है ऐसा है, तथा प उसके त आशा नराशा कुछ भी उ दत होती
मालूम नह होती। वह हो तो भी ठोक और न हो तो भी ठोक, यह कुछ खका कारण नह है । खका
कारण मा वषमा मा है, और वह य द सम हे तो सब सुख ही है। इस वृ कै कारण समा ध रहती
है । तथा प बाहरसे गृह थोक वृ नही हो सकती, दे हभाव दखाना नही पुसाता, आ मभावसे वृ
बाहरसे करनेमे कतना हो अतराय है । तो अब या करना ? कस पवतक गुफामे जाना और ओझल
हो जाना, यहो रटन रहा करती है। तथा प बाहरसे अमुक सासा रक वृ करनी पड़ती है। उसके
लये शोक तो नही हे तथा प जीव सहन करना नही चाहता । परमानदको छोडकर इसे चाहे भी यो?
और इसी कारणसे यो तष आ दक ओर अभी च नह है। चाहे जैसे भ व य ान अथवा स योक

२२८
ीमद राजच
इ छा नह है, तथा उनका उपयोग करनेमे उदासीनता रहती है। उसमे भी अभी तो अ धक ही रहती
ह । इस लये इस ानके स ब धमे च क व थतासे वचार करके पूछे ए ोके वषयमे लखूगा
अथवा समागममे बताऊँगा।
जो ाणी ऐसे ोके उ र पाकर आनद मानते ह वे मोहाधीन ह, और वे परमाथके पा होने
लभ है ऐसी मा यता है। इस लये वैसे सगमे आना भी नह भाता, पर तु परमाथ हेतुसे वृ करनी
पडेगी तो कसी सगसे क ँ गा । इ छा तो नही होती।
आपका समागम अ धकतासे चाहता ँ। उपा धमे यह एक अ छ व ा त है। कुशलता है,

चाहता ँ।
व० रायचदके णाम
१३४ ववा णया, तीय भादो सुद ८, र व, १९४६
दोनो भाइयो,
दे हधारीको वडबनाका होना तो एक धम है। उसमे खेद करके आ म व मरण यो करना ?
धमभ यु आपसे ऐसी याचना करनेका योग मा पूवकमने दया है। इसमे आ मे छा क पत है।
न पायताके आगे सहनशीलता ही सुखदायक है।
. इस े मे इस कालमे इस दे हधारीका ज म होना यो य न था। य प सब े ोमे ज म लेनेक
इ छा उसने रोक ही द है, तथा प ा त ए ज मके लये शोक द शत करनेके लये ऐसा दनवा य
लखा है। कसी भी कारसे वदे ही दशाके बनाका, यथायो य जीव मु दशा र हत और यथायो य
न ंथदशा र हत एक णका जीवन भी दे खना जीवको सुलभ नही लगता तो फर बाक रही ई अ धक
आयु कैसे बीतेगी यह वडबना आ मे छाक है।
यथायो य दशाका अभी मुमु ँ। कतनी तो ा त ई है। तथा प स पूण ा त ए बना यह
जीव शा त ा त करे ऐसी दशा तीत नही होती। एक पर राग और एक पर े ष ऐसी थ त एक
रोममे भी उसे य नही है। अ धक या कहे ? परके परमाथके सवायक तो दे ह ही नही भाती । आ म-
क याणमे वृ क जयेगा।
व० रायचदके यथायो य
१३५ ववा णया, तीय भादो सुद १४, र व, १९४६
धम छु क भाइयो,
___मुमु ुताके अशोसे गृहीत आ आपका दय परम स तोष दे ता है। अना दकालका प र मण अब
समा तको ा त हो ऐसी अ भलाषा, यह भी एक क याण ही है। कोई ऐसा यथायो य समय आ जायेगा
क जब इ छत व तुक ा त हो जायेगी।
नर तर वृ याँ लखते र हयेगा । अ भलाषाको उ ेजन दे ते र हयेगा। और नीचेक धमकथाका
वण कया होगा तथा प पुन पुन उसका मरण क जयेगा ।
स य दशाके पॉच ल ण है :-
शम
सवेग
अनुकपा
आ था
नवद

२२९
ोधा द कषायोका शात हो जाना, उदयमे आये ए कषायोमे मदता होना, मोड़ी जा सके ऐसी
आ मदशा होना अथवा अना दकालक वृ याँ शात हो जाना, यह 'शम' है।
मु होनेके सवाय सरी कसी भी कारक इ छाका न होना, अ भलाषाका न होना, यह
'सवेग' है।
जबसे यह समझ मे आया क ा तमे ही प र मण कया, तबसे अब ब त हो गया, अरे जीव ।
अब ठहर, यह ' नवद' है।।
जनका परम माहा य है ऐसे न: पृह पु षोके वचनमे हो त लीनता, यह ' ा' 'आ था' है।
इन सब ारा जीवोमे वा मतु य बु होना, यह अनुकंपा है।
ये ल ण अव य मनन करने यो य है, मरण करने यो य ह, इ छा करने यो य है, और अनुभव
___ करने यो य ह । अ धक अ य सगपर ।
व० रायचदके यथायो य ।
१३६ ववा णया, तीय भादो सुद १४, र व, १९४६
आपका सवेग-भरा प मला । प ोसे अ धक या बताऊँ ? जब तक आ मा आ मभावसे अ यथा
अथात् दे हभावसे वहार करेगा; म करता ँ, ऐसी बु करेगा, मै ऋ इ या दसे अ धक ँ यो मानेगा,
शा को जाल प समझेगा, ममके लये म या मोह करेगा, तब तक उसक शा त होना लभ है, यही
इस प से बताता ँ। इसीमे ब त समाया आ है। कई थलोमे पढा हो, सुना हो तो भी इसपर अ धक
यान र खयेगा। ,
रायचद
१३७ मोरबी, तीय भादो वद ४, गु , १९४६
प मला। 'शा त काश' नही मला। मलनेपर यो य सू चत क ँ गा । आ मशा तमे वृ
क जयेगा।
व० रायचदके यथायो य ।
१३८ मोरबी, तीय भादो वद ६, श न, १९४६
यो यता ा त कर।
इसी कार मलेगी।
१३९ मोरवी, तीय भादो वद ७, र व, १९४६
मुमु ु भाइयो,

े ो ँ े ै े े ो ो े
___ कल मले ए प को प ँच प से द है । उस प मे लखे ए ोका स त उ र नोचे यथा-
म त लखता - ँ
आपका थम आठ चक दे श स ब धी है।
उ रा ययन शा मे सव दे शोमे कमस ब ध बताया है, उसका हेतु यह समझमे आया है क यह
कहना उपदे शाथ है। 'सव दे शमे' कहनेसे, आठ चक दे श कमर हत नह ह, ऐसा शा कता
नषेध करते ह, यो समझमे नही आता। अस यात दे शो आ मामे जव मा आठ ही दे श कमर हत
ह, तब अस यात दे श के सामने वे कस गनतीमे है ? अस यातके आगे उनका इतना अ धक लघवी
क शा कारने उपदे शक अ धकताके लये यह वात अत करणमे रखकर बाहरसे इस कार उपदे श
कया, और ऐसी हो शैली नर तर शा कारक है।

२३०
ीमद् राजच
अ तमु त अथात् दो घडीके भीतरका कोई भी समय ऐसा साधारणत अथ होता है। पर तु
शा कारक शैलीके अनुसार इसका अथ ऐसा करना पड़ता है क आठ समयसे अ धक और दो घड़ीके
भीतरका समय अ तमुहत कहलाता है। पर तु ढमे तो जैसा पहले बताया है वैसा ही समझमे आता
है; तथा प शा कारक शैली ही मा य है। जैसे यहाँ आठ समयक बात ब त लघु ववाली होनेसे थल
थलपर शा मे नही बतायी है, वैसे आठ चक दे शक बात भी है ऐसा मेरा समझना है, और भगवती,
ापना, थानाग इ या द शा उसक पु करते ह।
फर मेरी समझ तो ऐसी है क शा कारने सभी शा ोमे न होनेवाली भी कोई बात शा मे
कही हो तो कुछ च ताक बात नही है। उसके साथ ऐसा समझ क सब शा ोक रचना करते ए उस
एक शा मे कही ई बात शा कारले यानमे ही थी। और सभी शा ोक अपे ा कोई व च बात
कसी शा मे कही हो तो इसे अ धक मा य करने यो य समझ, कारण क यह बात कसी वरले मनु यके
लये कही गयी होती है, बाक तो साधारण मनु योके लये ही कथन होता है। ऐसा होनेसे आठ चक-
दे श नबंधन है, यह बात अ न ष है, ऐसी मेरी समझ है। बाक के चार अ तकायके दे शोके थलपर
इन चक दे शोको रखकर समु ात करनेका केवलीस ब धी जो वणन है, वह कतनी ही अपे ामोसे
जीवका मूल कमभाव नही है, ऐसा समझानेके लये है। इस बातक सगवशात् समागममे चचा कर
तो ठ क होगा।
सरा - ' ानमे कुछ यून चौदह पूवधारी अन त नगोदको ा त होते ह और जघ य ान-
वाले भी अ धकसे अ धक प ह भवोमे मो मे जाते ह, इस बातका समाधान या है ?'
इसका उ र जो मेरे दयमे है, वही बताये दे ता ँ क यह जघ य ान सरा है और यह सग
भी सरा है। जघ य ान अथात् सामा यत क तु मूल व तुका ान, अ तशय स त होनेपर भी मो के
बीज प है, इस लये ऐसा कहा है, और 'एक दे श यून' चौदहपूवधारीका ान एक मूल व तुके ानके
सवाय सरा सब जाननेवाला आ, पर तु दे ह दे वालयमे रहे ए शा त पदाथका ाता न आ, और
यह न आ तो फर जैसे ल यके बना फका आ तीर ल याथका कारण नही होता वैसे यह भी आ।
जस व तुको ा त करनेके लये जने ने चौदह पूवके ानका उपदे श दया है वह व तु न मली तो
फर चौदह पूवका ान अ ान प ही आ। यहाँ 'दे श यून' चौदह पूवका ान समझना। 'दे श यून'
कहनेसे अपनी साधारण म तसे यो समझा जाये क पढ पढकर चौदह पूवके अ त तक आ प ँचनेमे
एकाध अ ययन या वैसा कुछ रह गया और इससे भटके, पर तु ऐसा तो नही है। इतने सारे ानका
अ यासी एक अ प भागके लये अ यासमे पराभवको ा त हो, यह मानने जैसा नही है। अथात् कुछ
भाषा क ठन या कुछ अथ क ठन नही है क मरणमे रखना उ हे कर हो । मा मूल व तुका ान न
मला इतनी ही यूनता, उसने चौदह पूवके शेष ानको न फल कर दया। एक नयसे यह वचार भी
हो सकता है क शा ( लखे ए प े) उठाने और पढने इसमे कोई अ तर नही है, य द त व न मला
तो, यो क दोनोने बोझ ही उठाया। जसने प े उठाये उसने कायासे बोझ उठाया, और जो पढ गया
उसने मनसे बोझ उठाया। पर तु वा त वक ल याथके बना उनक न पयो गता स होती है ऐसा
समझमे आता है। जसके घरमे सारा लवण समु है वह तृषातुरक तृषा मटानेमे समथ नह है, पर तु
जसके घरमे एक मीठे पानीको 'वीरडी'' है, वह अपनी और सरे कतनोक ही तृषा मटानेमे समथ है,
और ानद से दे खते ए मह व उसीका है, तो भी सरे नयपर अब करनी पड़ती है, और वह यह
क कसी तरह भी शा ा यास होगा तो कुछ पा होनेक अ भलाषा होगी, और काल मसे पा ता भी
१. नद या तालाबके जल वहीन भागम पानीके लये बनाई ई गढ़ ।

२३ वा वष
२३१
लेगी और सरोको भी पा ता दे गा। इस लये यहाँ शा ा यासके नषेध करनेका हेतु नही है, पर तु
ल व तुसे र जाया जाये ऐसे शा ा यासका नषेध करे तो एका तवाद नही कहलायगे। ,
इस तरह स ेपमे दो ोका उ र लखा है। लखनेको अपे ा वाचासे अ धक समझाना हो
कता है। तो भी आशा है क इससे समाधान होगा, और यह पा ताके क ही भी अशोको बढायेगा,
का त को घटायेगा, ऐसी मा यता है।
अहो । अन त भव के पयटनमे कसी स पु षके तापसे इस दशाको ा त इस दे हधारीको आप
वाहते ह, उससे धम चाहते ह, और वह तो अभी कसी आ यकारक उपा धमे पड़ा है | नवृ होता तो

ो ी ो ो े े ो ी ी ै ोई
त उपयोगी हो पड़ता । अ छा | आपको उसके लये जो इतनी अ धक ा रहती है उसका कोई मूल
कारण हाथ लगा है ? उसपर रखी ई ा, उसका कहा आ धम अनुभव करनेपर अनथकारक तो
ही लगगे? अथात् अभी उसक पूण कसौट को जये, और ऐसा करनेमे वह स है, साथ ही आपको
गो यताका कारण है, और कदा चत् पूवापर भी नशक ा ही रहेगी, ऐसा हो तो वैसा ही रखनेमे
क याण है, यो प कह दे ना आज उ चत लगनेसे कह दया है। आजके प मे ब त ही ामीण भापाका
पयोग कया है, तथा प उसका उ े श एक परमाथ ही है।
आपके समागमके इ छु क
रायच द (अनाम) के णाम ।
१४० मोरबी, तीय भादो वद ८, सोम, १९४६
वाला प मला । स आ। यु र लखूगा।
पा ता- ा तका यास अ धक कर।।
१४१ ववा णया, तीय भादो वद १२, शु , १९४६
सौभा यमू त सौभा य,
ास भगवान कहते ह-
'इ छा े ष वहीनेन सव समचेतसा।
भगव यु े न ा ता भागवती ग तः।
इ छा और े षसे र हत, सव सम से दे खनेवाले पु ष भगवानक भ से यु होकर भागवती
ग तको ा त ए अथात् नवाणको ा त ए।
आप दे ख, इस वचनमे कतना अ धक परमाथ उ होने समा दया है ? सगवशात् इस वा यका
मरण हो आनेसे लखा है । नरंतर साथ रहने दे नेमे भगवानको या हा न होती होगी ?
आ ाकारी
१४२ ववा णया, ० भाद वद १३, श न, १९४६
आ माका व मरण यो आ होगा?
धम ज ासु भाई भुवन, बंबई।
आप और सरे जो जो भाई मेरे पाससे कुछ आ मलाभ चाहते ह, वे सब लाभ ा त कर यह मेरे
अतःकरणक ही इ छा है । तथा प उस लाभको दे नेक मेरी यथायो य पा तापर अभी कुछ आवरण है,
१ ीम ागवत, क व ३, अ याय २४, ोक ४७

२३२
ीमद् राजच
और उम लाभको लेनेक इ छा करनेवालोक यो यताको भी मुझे अनेक कारसे यूनता मालूम आ
करती है। इस लये ये दोनो योग जब तक प रप वताको ा त न हो तब तक इ छत स मे वलब है,
ऐसी मेरी मा यता है । वारवार अनुकपा आ जाती है, पर तु न पायताके आगे या क ँ ? अपनी कसी
यूनताको पूणता कैसे क ँ ? इस लये ऐसी इ छा रहा करती है क अभी तो जैसे आप सव यो यता ा त
कर सक वैसा कुछ नवेदन करता र ँ, और जो कुछ प ीकरण पूछे सो यथाम त बताता र ँ, नह तो
यो यता ा त करते रहे, ऐसा बार-बार सू चत करता र ँ।
'सायमे खीमजोका प है, यह उ हे दे द। यह प आपको भी लखा है, ऐसा समझे ।
१४३ ववा णया, ० भादो वद १३, श न, १९४६
नीचेक वातोका अ याम तो करते ही रहे -
१. चाहे जस कारसे भी उदयमे आये ए और उदयमे आनेवाले कपायोको शात कर।
२ मभी कारक अ भलापाक नवृ करते रहे।
३ इतने काल तक जो कया उस सबसे नवृ हो, उसे करनेसे अब के ।
४ आप प रपूण मुखी ह, ऐसा मान, और वाक के ा णयोक अनुकपा कया कर।
५ कसी एक स पु पको खोजे, और उसके चाहे जैसे वचनोमे भी ा रखे।
ये पाँचो अ यास अव य यो यता दे ते ह। और पांचवेमे चारोका समावेश हो जाता है, ऐसा
अव य मान । अ धक या क ँ ? चाहे जस कालमे भी यह पाँचवाँ ा त ए वना इस पयटनका अ त
आनेवाला नह है । वाक के चार इस पाँचवक ा तमे सहायक है। पाँचवके अ यासके सवाय, उसक
ा तके सवाय सरा कोई नवाणमाग मुझे नह सूझता, और सभी महा मामओको भी ऐसा ही सूझा
होगा-(सूझा है)।
अव जैसे आपको यो य लगे वैसे कर। आप इन सबक इ छा रखते ह, तो भी अ धक इ छा
कर; शी ता न कर। जतनी शी ता उतनी कचाई और जतनी कचाई उतनी खटाई, इस सापे
कथनका मरण कर।
ार धजीवी रायचदके यथायो य |
१४४ ववा णया, ० भादो वद ३०, सोम, १९४६
आपका प मला | परमानंद आ।
चैत यका नर तर अ व छ अनुभव य है, यही चा हये है। सरी कोई पृहा नह रहती।
रहती हो तो भी रखनेको इ छा नही है। एक "तू हो, तू ही" यही यथाथ अ ख लत वाह चा हये।
अ धक या कहना ? यह लखनेसे लखा नही जाता और कहनेसे कहा नह जाता, मा ानग य है।
अथवा तो े णश. समझमे आने यो य है। बाक तो अ ता ही है । इस लये जस न पृह दशाको ही
रटन है, उसके मलनेपर मोर इस क पतको भूल जानेपर छु टकारा है।


कव आगमन होगा?
व० आ० रा०
१४५ ववा णया, आसोज सुद २, गु , १९४६
मेरा वचार ऐसा होता है क .. पास आप सदा जाय। हो सके तो जीभसे, नही तो लखकर
बता द क मेरा अ तःकरण आपके त न वक प ही है, फर भी मेरी कृ तके दोपसे कसी भी तरह
१ दे ख साथका आक १४३

२३ वॉ वष
२३३
आपको ःखो करनेका कारण न हो इस लये मने आगमनका प रचय कम रखा है, इसके लये मा
क जयेगा । इ या द जेसे यो य लगे वैसे करके आ म नवृ क जयेगा । अभी इतना ही।
. .
.' व० रायचदके यथायो य
१४६, . ववा णया, आसोज-सुद ५, श न, १९४६
'ऊचनीचनो अंतर नथी । सम या ते पा या स त ॥ 1.
तीथकरदे वने राग करनेका नषेध कया है, अथात् जब तक राग है तब तक मो नही होता।
तब फर इसके त राग आप सबके लये हतकारक कैसे होगा ? - I लखनेवाला अ दशा
-- १४७ ववा णया, आसोज सुद ६, र व, १९४६
सु भाई खीमजी,
आ ाके त अनु हदशंक सतोष द प मला।
। आ ामे हो एकतान ए बना परमाथके मागक ा त ब त ही असुलभ है। एकतान होना भी
ब त ही असुलभ है।
इसके लये आप या उपाय करगे ? अथवा या सोचा है ? अ धक या ? अभी- इतना भी
ब त है:।।
व० रायच दके यथायो य |
7
.
१४८ - ववा णया, आसोज सुद १०, गु , १९४६
, पाँचेक दन पहले प मला, जस प मे ल मी आ दक व च दशाका वणन कया है। ऐसे
अनेक कारके प र यागयु वचारोको, पलट पलटकर जब आ मा एक व बु को पाकर महा माके सगक
आराधना करेगा, अथवा वय कसी पूवके मरणको ा त करेगा तो इ छत., स को ा त करेगा।
यह न सशय है । व तारपूवक प लख सकूँ ऐसी दशा नही रहती। ।, व० रायच दके यथो चत ।
ववा णया, आसोज सुद १०, गु , १९४६
१४९-
धम यान, व ा यास इ या दक वृ कर।
१५०
ववा णया, आसोज, १९४६
यह म तुझे मौतका औषध दे ता ँ । उपयोग करनेमे भूल मत करना।
___ तुझे कौन य है ? मुझे पहचाननेवाला ।
।। ऐसा यो करते है ? अभी दे र है । या होनेवाला है ?
. , हे कम | तुझे न त आ ा करता ँ क नी त और नेकोपर मेरा पैर मत रखवाना।
आसोज, १९४६
तीन कारके वीयका वधान कया है-....-
(१) महावीय (२) म यवीयं... (३) अ पवीय ।।
------ -- महावीयका तीन कारसे वधान कया है-
(१) सा वक (२) राजसी (३) तामसी।
iT
१ भावाथ-ऊँचनीचका कोई अतर नही है । जो समझे वे स तको ा त ए ।

२३४
ीमद् राजच
सा वक महावीयका तीन कारसे वधान कया है-
(१) सा वक शु ल (२) सा वक धम (३) सा वक म ।
सा वक शु ल महावीयका तीन कारसे वधान कया है-
(१) शु ल ान (२) शु ल दशन - (३) शु ल चा र (शील) ।
सा वक धमको दो कारसे वधान कया है-
(१) श त (२) स शत ।
इसका भी दो कारसे वधान कया है-
(१) प ण े (२) अप ण े
सामा य केवली
-
तीथकर
यह अथ समथ है।
१५२ ववा णया, आसोज सुद ११; शु , १९४६
आज आपका कृपा प मला।
साथमे पद मला।
- सवाथ स क ही बात है। जैनमे ऐसा कहा है क सवाथ स महा वमानक वजासे बारह
योजन र मु शला है । कबीर भी वजासे आन द वभोर हो गये ह। उस पदको पढकर परमान द
आ। भातमे ज द उठा, तबसे कोई अपूव आन द रहा ही करता था। इतनेमे पद मला, और मूल-
पदका अ तशय मरण हो आया, एकतान हो गया। एकाकार वृ का वणन श दसे कैसे कया जा सकता
है ? दनके बारह बजे तक रहा। अपूव आन द तो वैसाका वैसा ही है। पर तु सरो वाता ( ानको)
करनेमे उसके बादका काल ेप कया। ' ।
- "केवल ान हवे पामशु, पामशं, पामश, पामशु रे के०" ऐसा एक पद बनाया । दय ब त
आन दमे है।
__ १५३ ,बवा णया, आसोज सुद १२, श न, १९४६
धम छु क भाइयो,
आज आपका एक प मला (अबालालका)।
उदासीनता अ या मक जननी है। ,
'ससारमे रहना और मो होना कहना, यह होना असुलभ है।
व० रायच दके यथायो य।
'मोरबी, आसोज, १९४६
*बीजां साधन ब कयाँ, करी क पना आप। .. .
अथवा अस थको, ऊलटो व यो उताप ।'
१ अथात् केवल ान अब पायगे, पायगे, पायगे रे के। '२. दे ख आक ८६ ।
--- --- * भावाय-अपनी क पनासे अथवा-अस के योगसे सुखके लये सरे ब तसे साधन कये, पर तु सुखके
बदले ख ही बढा। . . . . . .

२३५
२३ वॉ वष
'पूव पु यना उदयथी, मळयो स योग।
वचन सुधा वणे जतां, थयं दय गतशोग॥
२ न य एथी आ वयो, टळशे अह उताप ।
न य कय स संग मे, एक ल थी आप ॥
१५५
। बबई, १९४६
। कतनी ही बात ऐसी है क जो मा आ म ा ह, और मन, वचन एव कायासे पर है । कतनी
ही वात ऐसी ह क जो वचन और कायासे पर ह, पर तु है ।
ी भगवान ।
ी मघशाप ।
ी बखलाध।
१५६
___ बबई, १९४६
पहले तीन कालको मु मे लया, इस लये महावीरदे वने जगतको इस कार दे खा-
उसमे अन त चैत या मा मु दे खे ।
अन त चैत या मा ब दे खे ।
अन त मो पा दे खे।
अन त मो -अपा दे खे।
अन त अधोग तमे दे खे।
ऊ वग तमे दे खे।
उसे पु षाकारमे दे खा।
जड चैत या मक दे खा।
१५७ .. .
स० १९४६
दै नं दनी
(१) बबई, का तक वद १, शु , १९४६
नाना- कारका मोह ीण हो जानेसे आ माको अपने गुणसे उ प होनेवाले सुखको ओर
जाती है, और फर उसे ा त करनेका वह य न करती है। यही उसे उसक स दे ती है।
(२) , बबई, का तक वद ३, र व. १९४६
हमने आयुका माण नही जाना है । बालाव था नासमझोमे तीत ई। माने क ४६ वषको
आय होगी अथवा व ता दे ख सकगे इतनी आयु होगी। पर तु उसमे श थल दशाके सवाय और कुछ

ी े े ी े ो ी ो े
नही दे ख सकगे । अब मा एक युवाव था रही। उसमे य द मोहनीयवलव रता न घट तो सुखसे न ा
१ भावाथ पवप यके उदयसे स का योग मला, उनके वचनामृत कणगोचर होनेसे दय शोकर हत हो गया।
२ भावाय-इससे मझे न य आ क अव यही ःख र हो जायेगा । फर मने एक न ासे नर तर स सग कया।
३ वणमालाका पहला एक एक अ र पढनेसे 'भगवान' श द बनता है।
४ वणमालाका सरा एक एक अ र पढ़नेसे 'भगवान' श द बनता है।
५ सवत् १९४६ क दै न दनोम ीमद्ने अमुक त थयोम अपनी वचारचया लखो है। कसोने इस
दै न दनीमैसे कुछ प े फाड लये मालूम होते ह । उसम जतने प े व मान है वे यहां दये है।

२३६
ीमद् राजच
नही आयेगी, नोरोग रहा नही जायेगा, अ न सक प- वक प र नही होगे और जगह-जगह भटकना
पडेगा, और वह भी ऋ होगी तो होगा, नही तो पहले उसके लये य न करना पडेगा। वह इ छा-
नुसार मली या न मली यह तो एक ओर रहा, पर तु कदा चत् नवाह यो य मलनी भी लभ है । उसी-
क च तामे, उसीके वक पमे और उसे ा तकर सुख भोगेगे इसी सक पमे मा खके सवाय और
कुछ नही दे ख सकगे। इस वयमे कसी कायमे वृ करनेसे सफल हो गये तो एकदम घमड आ जायेगा।
सफल न ए तो लोगोका भेद और अपना न फल खेद ब त ःख दे गा। येक समय मृ युके भयवाला,
रोगके भयवाला, आजी वकाके.भयवाला, यश होगा तो उसक र ाके भयवाला, अपयश होगा तो उसे
र करनेके भयवाला, लेनदारी होगी तो उसे लेनेके भयवाला, ऋण होगा तो उसक च ताके भयवाला,
ी होगी तो उसक , के भयवाला, नही होगी तो उसे ा त करनेके वचारवाला, पु पौ ा द होगे
तो उनक कच कचके भयवाला, नही होगे तो उ हे ा त करनेके वचारवाला, कम ऋ होगी तो
अ धकके वचारवाला, अ धक होगी तो उसे स चत रखनेके वचारवाला, ऐसा ही सभी साधनोके लये
अनुभव होगा। मसे या अ मसे स ेपमे कहना यह है क अब सुखका समय कौनसा कहना? बालाव था ?
युवाव था ? जराव था ? नीरोगाव था ? रोगाव था ? धनाव था ? नधनाव था ? गृह थाव था ?
अगृह थाव था?
इस सब कारके बा प र मके बना अनुपम अ तरग वचारसे जो ववेक आ वही-हमे सरी
दे कर सव कालके लये सुखी करता है। इसका आशय या ? यही क अ धक जये तो भी सुखी,
कम जये तो भी सुखी, फर ज मना हो तो भो सुखी, न ज मना हो तो भी सुखी ।
(३) बंबई, मग सर सुद १-२, र व, १९४६
हे गौतम | उस काल और उस समयमे छ थ अव थामे, मै एकादश वषके पयायमे, ष भ से
ष भ हण करके, सावधानतासे, नर तर तप या और सयमसे आ मताको भावना करते ए, पूवा-
नुपूव से चलते ए, एक गॉवसे सरे गॉवमे जाते ए, जहाँ सुषुमारपुर नगर, जहाँ अशोक वनखड उ ान,
जहाँ अशोकवर पादप, जहाँ पृ वी शलाप था, वहाँ आया, आकर अशोकवर पादपके नीचे, पृ वो शला-
प पर अ मभ हण करके, दोनो पैरोको संकु चत करके, करोको ल बा करके, एक पु लमे को
थर करके, अ नमेष नयनसे, शरीरको जरा नीचे आगे झुकाकर, योगक समा धसे, सव इ योको गु त
करके, एक रा क महा तमा धारण करके, वचरता था । (चमर)' . .
बंबई, पौष सुद ३, बुध, १९४६
नीचेके नयमोपर ब त यान दे --::..:: :
... १ एक बात करते ए उसके पूरी न होने तक आव यकताके बना सरी बात नही करनी
चा हये।
..२.कहनेवालेक बात पूरी सुननी चा हये।.......... ... .
। । ३ वय धीरजसे उसका स र दे ना चा हये ।
४ जसमे आ म ाघा या आ महा न न हो वह बात कहनी चा हये। . . . ."
५ धमस ब धी अभी ब त ही कम बात करना।- .: . -7 : ---
६ लोगोसे धम वहारमे नही पड़ना।
"
___(४)
१. ी भगवती सू , शतक ३, उ े शक २

२३ वो वष
२३७
बंबई, वैशाख वद ४, गु , १९४६
*आज मने उछरग अनुपम, ज मकृताथ जोग जणायो।
वा त व तु, ववेक ववेचक-ते म प सुमाग गणायो॥
- (६) - बबई, वैशाख वद ५, शु , १९४६
इ छार हत कोई ाणी नही है । उसमे भी मनु य ाणी व वध आशाओसे घरा आ है। जब
तक इ छा-आशा अतृ त है तब तक वह ाणी अधोवृ वत् है । इ छाजयी ाणी ऊ वगामीवत् है।
(७)
बबई, जेठ सुद ४, गु , १९४६
हे प रचयो । आपसे मै अनुरोध करता ँ क आप अपनेमे यो य होनेक इ छा उ प कर । म
ो े े ो
उस इ छाको पूण करनेमे सहायक होऊंगा।
आप मेरी अनुयायी , और उसमे ज मातरके योगसे मुझे धानपद मलनेसे आप मेरी आ ाका
अवलंबन करके वहार कर यह उ चत माना है।
और मै भी आपके साथ उ चत पसे वहार करना चाहता ,
ँ सरी तरह नही।
य द आप पहले जीवन थ त पूण करे, तो धमाथ के लये मुझे चाहे, ऐसा करना उ चत मानता
ँ, और य द म क ँ तो धमपा के तौरपर मेरा मरण हो, ऐसा होना चा हये। ।
दोनो धमम होनेका य न कर, बडे हषसे य न कर।
आपक ग तसे मेरी ग त े होगी, ऐसा अनुमान कया है-म तमे । उसका लाभ आपको दे ना
चाहता , ँ यो क आप ब त ही नकटके स ब धी ह। वह लाभ आप लेना चाहती हो तो सरी धारामे
कहे अनुसार ज र करगी ऐसी आशा रखता ँ।
आप व छताको ब त ही चाहे । वीतराग भ को ब त ही चाहे । मेरी भ को समभावसे चाहे।
आप जस समय मेरी सग तमे हो उस समय ऐसे रहे क मुझे सभी कारसे आनंद हो ।
व ा यासी होव। मुझसे, व ायु वनोद सभाषण कर। म आपको यु बोध ं गा। उससे
आप पसप , गुणसप और ऋ तथा बु सप होगी। .
फर यह दशा दे खकर म परम स होऊँगा। ... ,
--
-
(८)
ववई, जेठ सुद ११, शु , १९४६
सबेरेका छ से आठ तकका समय समा धयु बीता था । अखाजीके वचार ब त व थ च से
पढे थे, मनन कये थे।
(९)
बबई, जेठ सुद १२, श न, १९४५
कल रेवाशकरजी आनेवाले ह, इस लये तबसे नीचे के मका पा भु पालन कराये-
१. काय वृ ।
२ साधारण भाषण-सकारण |
३ दोनोके अत करणक नमल ी त ।
*भावाथ-आज मुझे अनुपम आन द आ है, ज मक कृताथताका योग तीत ना है। व तुक यवायता,
ववेक और ववेचनके मका सुमाग प तासे तीत आ है।

२३८
ीमद् राजच
४ धमानु ान ।'
५ वैरा यक ती ता।
(१०) . बंबई, जेठ वद ११, शु , १९४६
तुझे अपना अ त व माननेमे कहाँ शका है ? शंका हो तो वह ठ क भी नही है ।
. (११). .. . बबई, जेठ वद , १२, श न, १९४६
कल रात एक अ त व आया था। जसमे दो एक पु षोके सामने इस जगतक रचनाके
व पका वणन कया था, पहले सब कुछ भुलाकर पीछे जगतका दशन कराया था। व मे महावीरदे वक
श ा स माण ई थी। इस व का वणन ब त सु दर और चम का रक होनेसे परमान द आ था।
अब फर त स ब धी अ धक ।
(१२) । बबई आषाढ सुद ४, श न, १९४६
क लकालने मनु यको वाथपरायण और मोहवश कया।
जसका दय शु है और जो सतक बतायी ई राहसे चलता है, उसे ध य है।
स सगके अभावसे चढ ई आ म ेणी ाय प तत होती है।
(१३) - बबई, आषाढ सुद ५, र व, १९४६
जब यह वहारोपा ध हण क तब उसे हण करनेका हेतु यह था -
भ व यकालमे जो उपा ध ब त समय लेगी, वह उपा ध अ धक खदायक हो तो भी थोडे समयमे
भोग लेनी यह अ धक ेय कर है। ।
यह उपा ध न न ल खत हेतुओसे समा ध प होगी ऐसा माना था -
धमस ब धी अ धक बातचीत इस कालमे गृह थाव थामे न हो तो अ छा ।। ।
भले तुझे वषम लगे, पर तु इसी ममे वृ कर । अव य ही इसी ममे वृ कर । खको
सहन करके, मक र ाके प रषहको सहन करके, अनुकूल- तकूल उपसगको सहन करके तू
अचल रह । अभी कदा चत् अ धकतर वषम लगेगा, पर तु प रणाममे वह वषम सम हो जायेगा। घेरेमे
तू मत फँसना । बार-बार कहता ँ मत फँसना, खी होगा, प ा ाप करेगा, इसक अपे ा अभीसे इन
वचनोको दयमे उतार- ी तपूवक उतार।।
१ कसीके भी दोष मत दे ख । जो कुछ होता है, वह तेरे अपने दोषसे होता है, ऐसा मान ।
२ तू अपनी (आ म) शसा मत करना, और करेगा तो तू ही हलका है ऐसा म मानता ँ।
३ जैसा सरोको य लगे वैसा अपना बताव रखनेका य न करना । उसमे तुझे एकदम स
नही मलेगी, अथवा व न आयगे, तथा प ढ आ हसे धीरे-धीरे उस मपरं अपनी न ा जमाये रखना।

े े ो े े े
४ तू वहारमे जसके साथ स ब आ हो उसके साथ अमुक कारसे बरताव करनेका नणय
करके उसे बता दे । उसे अनुकूल आ जाये तो वैस,े नही तो जैसे वह कहे वैसे बरताव करना । साथ ही
बता दे ना क आपके कायमे (जो मुझे स पेगे उसमे) कसी कारसे म अपनी न ाके कारण हा न नही
प ँचाऊँगा । आप मेरे स ब धमे सरी कोई क पना न कर, मुझे वहार स ब धी अ यथा भाव नह है,
ओर म आपसे वैसा बरताव करना भी नह चाहता। इतना ही नह , पर तु मनवचनकायासे मेरा कुछ

२३९
२३ वो वष
वपरीताचरण हो गया तो उसके लये प ा ाप क ं गा। ऐसा नही करनेके लये आगेसे ब त सावधानी
रतूंगा। आपका स पा आ काम करते ए मै नर भमानी र ँगा। मेरी भूलके लये मुझे उपाल भ दे गे
उसे सहन क ं गा। मेरा बस चलेगा वहाँ तक व मे भी आपका े ष या आपके 'स ब धमे कसी भी
कारक अ यथा क पना नही क ँ गा। आपको कसी कारक शका हो तो मुझे बताइयेगा, तो आपका
उपकार मानूँगा, और उसका स चा प ीकरण क ँ गा । प ीकरण न आ तो मौन र ँगा, पर तु
अस य नही बोलूँगा। आपसे मा इतना ही चाहता ँ क कसी भी कारसे आप मेरे न म से अशुभ
योगमे वृ न कर। आप अपनी इ छानुसार वतन कर, इसमे मुझे कुछ भी अ धक कहनेक ज रत नही
है । मा मुझे मेरी नवृ े णमे वृ करने दे ते ए कसी तरह अपना अ त करण छोटा न कर, और
य द छोटा करनेक आपको इ छा हो तो अव य मुझे पहलेसे कह द। उस े णको नभानेक मेरी इ छा
ह और उसके लये म यो य कर लँगा। मेरा बस चलेगा तब तक म आपको ःखी नही क ँ गा और
आ खर यही नवृ े ण आपको अ य होगी तो भी मै यथाश सावधानीसे, आपके समीपसे, आपको
कसी भी कारक हा न प ँचाये बना श य लाभ प ंचाकर, भ व यके चाहे जस कालके लये भी वैसी
इ छा रखकर खसक जाऊँगा ।
ब बई, आषाढ वद ४, र व, १९४६
व ाससे वहार करके अ यथा वहार करनेवाले आज पछतावा करते ह।'
- - (१५) . ब बई, आषाढ वद ११, श न, १९४६
, तु छ और वाचाहीन यह जगत तो दे ख।
.
(१६) । ब बई, आषाढ वद १२, र व, १९४६
ऐसी व छ करे क जसमे सू मसे सू म दोष भी दखायी दे सके, और दखायी दे नेसे
उनका य हो सके।
. :
(१७) ववा णया, आसोज सुद १०, गु , १९४६
बीज ान। ..
। । । भगवान महावीरदे व, ।,
| शोधे तो केवल ान।
कुछ कहा जा सके ऐसा यह व प नही है।
ानी र नाकर .
२ . ४
ये सब नय तयाँ कसने कही ?
हमने ानसे दे खकर फर जैसी यो य तीत ई वैसी ा या क ।
भगवान महावीरदे व ।।
१०, ९, ८, ७, ६, ४, ३, २, १ .
पाठा तर-१ कराते ह। .
२ अ व मान ।
३. अया चत ।

२४२
ीमद् राजच
प ा ३ परमा मसृ कसीको वषम होने यो य नही है।
प ा ४ जीवसृ जीवको वषमताके लये वीकृत है।
प ा ५-६ - परमा मसृ परम ानमय और परम
. ; आन दस प रपूण ा त है।
. . . . .
प ा ७ जीवको वसृ से उदासीन होना यो य है। ' . .
प ा ८
ह रक ा तके वना जीवका लेश र नह होता ।
प ा ९ ह रके गुण ामका अन य चतन नह है,
, यह चतन भी वषम है।
पं ा १० ह रमय ही हम होनेके यो य ह। .
प ा ११ ह रक माया है, उससे वह वृ होता है।
ह रको वह वृ कर सकने यो य है ही नही।
..;:.
.? -
प ा १२
वह माया भी होनेके यो य ही है।
प ा १३ - माया न होती तो ह रका अकल व कौन कहता।
प ा १४
प ा १५
माया ऐसी नय तसे यु है क उसका ेरक अबधन ही होने यो य है।
ह र ह र ऐसा ही सव हो, . . . , . , ..
वही तीत हो, उसोका भान हो।
उसीक स ा से शा मत दो। ' ' ''',
उसमे ही हमारा अन य, अख ड . .
. . ,
अभेद" होना यो य ही था। "
प ा १६
प ा १७
प ा १८
जीव अपनी सृ पूवक अना दकालसे प र मण करता है।
ह रको सृ से अपनी सृ का अ भमान मटता है।
ऐसा समझानेके लये, ना त होनेके लये ह रका अनु ह चा हये।
तप यावान ाणीको सतोष दे ना इ या द साधन उस परमा माके अनु हके कारण प
होते ह।

२४३
२३ वो वष
उस परमा माके अनु हसे पु ष वैरा य ववेक आ द साधनसंप होता है ।
प ा १९
प ा २०
इन साधनोसे यु ऐसा यो य पु ष स क आ ाको समु थत करने यो य है ।
-
-
-
प ा २१-२२ ये साधन जीवक परम यो यता और यही परमा माक ा तका सव म उपाय ह।
प ा २३ सभी कुछ ह र प ही है । इसमे, फ़र भेद कैसा? ...
भेद है ही नही।
सव आन द प ही है।
ा ी थ त।
था पतो वादो ह,
सव वेदातगोचरः।
प ा २४ यह सब प ही है, ही है ।
ऐसा हमारा ढ न य है। - -.
इसमे कोई भेद नही है, जो है वह सव ही है।।
सव है, सव प है। उसके सवाय कुछ नही है।
जीव है, जड है । ह र है, हर है।
ा है । ॐ है । वाणी है । गुण है। .
स व है । रजो है । तमो है । पंचभूत है।
आकांश है। वायु है । अ न है। जल भी है। ,
"पृ वी भी है । दे व है। मनु य है। तयच है।
नरक है। सव है। अ य नही है। .. . ,
प ा २५ काल है। कम है । वभाव है। नय त है।
ान है । यान है। जप है । तप है। सव है।
नाम है । प है । श द है । पश है। रस है।
गध है । सव है। - -
ऊँचे नीचे तरछे सव है।
एक है । अनेक ह।
एक है, अनेक भा सत होता है।
सव है।
सव है। -
सव है।
___ॐ शा त शा तः शा तः। ।
प ा २६ सव है, इसमे सशय नह ।
ै े
मै , तू , वह इसमे सशय नह ।

२४४
ीमद् राजच

हम , आप , वे इसमे संशय नह ।'
जो ऐसा जानता है वह , इसमे सशय नही।
जो ऐसा नही जानता वह भी , इसमे संशय नही।
जीव है, इसमे सशय नही ।
जड है, इसमे सशय नही ।
जीव प आ है, इसमे सशय नही।
जड प आ है, इसमे सशय नही। ' '
सव है, इसमे सशय नही।
ॐ ।
सव , सव ।
ॐ शा तः शा तः शा त।
प ा २७
सव ह र है, इसमे सशय नही।
प ा २८
प ा २९
यह सब आन द प ही है, आन द ही है, इसमे सशय नही ।
ह र ही सव प आ है।
-ह रका अंश ँ। ।
१ उसका परमदास व करने यो य ह, ऐसा दढ न य करना, इसे हम ववेक कहते ह।
२ ऐसे ढ न यको उस ह रक माया आकुल करनेवाली लगती है, वहां धय रखना।
३ वह सब रहनेके लये उस परम प ह रका आ य अगीकार करना अथात् 'म' के
___ थानपर ह रको था पत करके मै को दास व दे ना ;
४ ऐसे ई रा यी होकर वृ कर,
ऐसा हमारा न य आपको चे।
..
केवल पद . . .
. .
प ा ३०
क का केवळ पद उपदे श।
.
कहीशुं णमी दे व रमेश ॥
प ा ३१
१ कोई भी व तु कसी भी भावसे प रणत होती है।
२. जो कसी भी भावसे प रणत नही, वह अव तु है।
३ कोई भी व तु केवल परभावमे समवत रत नह होती।
४ जससे, जो सवथा मु हो सके वह वह न था, ऐसा जानते ह।
१ भावाथ -रमेशदे वको णाम करके हम कहते ह क क का केवल पदका उपदे श दे ता है।

२३ वाँ वष
___ २४५
हे सहजा म व पी | आप कहाँ-कहाँ और कस- कस तरह वधामे पडे है ? यह कह। ऐसी
व ात और द मूढ दशा यो ?
. म या क ँ ? आपको या उ र ँ ? म त वधामे पड गयी है, ग त नही चलती । आ मामे ।
'खेद ही खेद और क ही क हो रहा है। कही भी नही ठहरती और हम नराधार, नरा य हो
गये है। ऊँचे-नीचे प रणाम वा हत होते रहते है। अथवा लोका दके व पके वषयमे उलटे वचार
आया करते ह, कवा ा त और मूढता रहा करती है। कही नह प ँचती। ा त हो गयी है क
अब मुझमे कोई वशेष गुण दखायी नही दे ता। मै अब सरे मुमु ुओको भी स चे नेहसे य नही ँ।
वे स चे भावसे मुझे नह चाहते। अथवा कुछ अ न छासे और म यम नेहसे य समझते है । अ धक
'प रचय नही करना चा हये, वह मने कया, उसका भी खेद होता है।
सभी दशनोमे शका होती है । आ था नही आती।
य द ऐसा है तो भी च ता नही । आ माक आ था है अथवा वह भी नही है ?
उसक आ था है। उसका अ त व है, न य व है, और वह चैत यवान है । अ ानसे कताभो ा-
पन है। ानसे परयोगका कताभो ापन नही है।
ाना द उसका उपाय है। इतनी आ था है। पर तु उस आ थाके त अभी आ मवृ वचार-
शू यतावत् रहती है । इसका बडा खेद है।
ो ो ै ी ै े े े ै े े
यह जो आपको आ था है यही स य दशन है । कस लये वधामे पड़ते है ? वक पमे पड़ते ह ?
इस आ माक ापकताके लये, मु थानके लये, जनक थत केवल ान और वेदा तक थत
केवल ानके लये तथा शुभाशुभ ग त भोगनेके लोकके थान, तथा वैसे थानोके वभावतः शा त
अ त वके लये, तथा इसके मापके लये वारवार शंका और शका ही आ करती है, और इससे आ मा
थर नही हो पाता।
जो जने ने कहा है उसे माने न । ..
जगह-जगह शका होती है। तीन कोसके आदमो-च वत आ दके व प इ या द म या लगते
. ह । पृ थवी आ दके व प असभव लगते ह।
उसका वचार छोड दे ।
छोडे छू टता नही है।
कस लये ?
य द उसका व प उनके कहे अनुसार न हो तो उ ह जैसा केवल ान कहा है वैसा नही था, ऐसा
स होता है। तो या वैसा मानना ? तो फर लोकका व प कौन यथाथ जानता है ऐसा मानना ?
. कोई नही जानता ऐसा मानना ? और ऐसा जाने तो सबने अनुमान करके ही कहा है, ऐसा मानना पडता
है। तो फर बध मो आ द भावोक ती त या ?
योगसे वैसा दशन होता हो, तो कस लये अ तर पड़ेगा ?
'समा धमे छोट व तु बड़ी दखायी दे ती है और इससे मापमे वरोध आता है। समा धमे चाहे
जैसा दखायी दे ता हो पर तु मूल प इतना है और समा ध इस कार दखायी दे ता है, ऐसा कहनेमे
या हा न थी?

२४६
ीमद् राजच
वह कहा भी गया हो, पर तु वतमान शा मे वह नही रहा ऐसा समझनेमे या हा न ?
हा न कुछ नही, पर तु इस तरह थरता, यथाथ नही आती।
सरे भी ब तसे भावोमे जगह-जगह वरोध दखायी दे ता है।
आप वय भूलते हो तो?
यह भी स य है, पर तु हम स य समझनेके अ भलापी है। कुछ लाज-शम, मान, पूजा आ दके
अ भलापी नही है फर भी स य समझमे यो नही आता?' - ..
स क से समझमे आता है । वत यथाथ समझमे नही आता। '
स का योग तो मलता नही है। और हमको स के तौरपर माना जाता है। तो फर या
करना ? हम जस वषयमे शकावाले ह, उस वषयमे सरोको या समझाय ? कुछ. समझाया नही
जाता ओर समय बीतता जाता है। इस कारणसे तथा कुछ वशेष उदयसे याग भी नही होता। जससे
सारी थ त शका प हो गयी है। इसक अपे ा तो हमारे लये जहर पीकर मर जाना उ म है,
सव म है।
दशनप रपह इसी तरह भोगा जाता है या?
यह यो य है । पर तु हमको लोगोका प रचय "हम ानी है" ऐसी उनक मा यताके साथ न आ
होता तो या बुरा था?
__वही होनहार था।
अरे ! हे ा मन् । पूवमे उ चत स म त नही रखी और कमब ध कये तो अब तू ही उनके फल
भोगता है। तू या तो जहर पी और या तो उपाय त काल कर।
योगसाधन क ं ?
उसमे ब त अतराय दे खनेमे आते है । वतमानमे प र म करते ए भी वह उदयमे नही आता ।,
१६२
हे ी । आप शका प भँवरमे वारवार फंसते ह, इसका अथ या है ? न सदे ह होकर रहे,
और, यही आपका वभाव है।
हे अ तरा मा । आपने जो वा य कहा वह यथाथ है । न.सदे ह पसे थ त यह वभाव है, तथा प
जब तक सदे हके आवरणका सवथा य न कया जा सका हो तब तक वह वभाव'चलायमान अथवा
अ ा त रहता है और इस कारणसे हमे भी वतमान दशा ा त है।
हे ी । आपको जो कुछ सदे ह रहता हो उस सदे हका व वचारसे.अथवा स समागमसे
य कर।
हे अ तरा मा । वतमान आ मदशाको दे खते ए य द परम स समागम ा त आ हो और उसके
आ यमे व तव धको ा त ई हो तो वह सदे हक नवृ का हेतु होना सभव है । अ यथा सरा
कोई उपाय दखायी नही दे ता, और परम स समागम अथवा स समागम भी ा त होना अ यत क ठन है।
हे ी ' । आप कहते ह वैसे स समागमक ढु लभता है, इसमे सशय नही है, पर तु वह लभता
य द सुलभ न हो और वैसा वशेष अनागत कालमे भी आपको दखायी दे ता हो तो आप, श थलताका
याग करके व वचारका ढ अवल न हण करे, और परम पु षक आ ामे भ रखकर सामा य
स समागममे भी काल तीत करे।

२३ वो वष
२४७
हे अतरा मा । वे सामा य स समागमी हमे पूछकर सदे हक नवृ करना चाहते है, और हमारी
आ ासे वृ करना क याण प है ऐसा जानकर वशवत होकर वृ करते है। जससे हमे उनके समा-
गममे तो नज वचार करनेमे भी उनको सभाल लेनेमे पडना पडे, और तब ध होकर व वचारदशा ब त.
आगे न बढे , इस लये सदे ह तो वैसे ही रहे। ऐसा सदे हलाहचय जब तक हो तब तक सरे जीवोके अथात्
सामा य स समागम आ दमे भी आना यो य नही, इस लये या करना यह नही सूझता।
हे ह र । इस क लकालमे तेरे त अखड ेमका एक ण भी बीतना लभ है, ऐमी नवृ
लोग भूल गये ह। वृ मे वृ होकर नवृ का भान भी नही रहा । नाना कारके सुखाभासके लये
य न हो रहा है । चाव भी न ाय हो गया है । वृ मयादा नही रही । धममयादाका तर कार आ
. करता है। स सग या ? और यही एक कत प है ऐसा समझना केवल कर हो पड़ा है। स सगक
ा तमे भी जीवको उसक पहचान होनी महा वकट हो पड़ी है। जीव मायाक वृ का सग वारवार
कया करते ह। एक बार जन वचनोक ा त होनेसे जीव बधनमु हो और तेरे व पको ा त करे,
वसे वचन ब त बार कह जानेका भी कुछ ही फल नही होता। ऐसी अयो यता जीवोमे आ गयी है।
न कपटता हा नको ा त ई है। शा मे सदे ह उ प करना इसे ',जीवने एक ान मान लया है।
प र हक ा तके लये तेरे भ को भी ठगनेका काय उसे पाप प नही लगता । प र हका उपाजन
करनेवाले सगे स व धयोसे जीवने जैसा ेम कया है वैसा ेम तुझसे ,अथवा तेरे , भ से कया होता तो
जीव तुझे ा त कर लेता। सव भूतोमे दया रखनी और सबमे तू है ऐसा समझकर दास वभाव रखना,
• यह परम धम ख लत हो गया है। सव पोमे तेरा अ त व समान ही है, इस लये भेदभावका याग
करना, यह महा पु षोका अ तरग ान आज कही भी गोचर नही होता । हम क जो, तेरा मा
नरतर दास व ही अन य ेमसे चाहते है, उसे भी तू क लयुगका सगी सग दया करता है।
• अब हे ह र यह दे खा नही जाता, सुना नही जाता, यह न कराना यो य है। फर भी हमारे
त 'तेरी ऐसी ही इ छा हो तो ेरणा कर क जससे हम उसे केवल सुख प ही मान लगे । हमारे सगमे
आये हए जीव कसी कारसे खी न हो और हमारे े षो न ह (हमारे कारणसे) ऐसा मुझ शरणागतपर
अनु ह होना यो य हो तो कर | मुझे बडेसे बडा ख मा इतना ही है क जीव तेरेसे वमुख करनेवाली
वृ य से वृ करते ह । उनका सग होना और फर क ही कारणोसे उ हे तेरे स मुख होनेका कहने-
पर भी उसका अगीकार न होना यह हमे परम ःख है । और य द वह यो य होगा तो उसे र करनेके
लये हे नाथ | तू समथ है, समथ है । हे ह र । वारवार मेरा समाधान कर, समाधान कर।
१६४
अ त । अ त । अ त । परम अ च य ऐसा तेरा व प, हे ह र । म पामर ाणी उसका कैसे
पार पाऊँ? मै जो तेरे अनत ाडका एक अश वह तुझे कैसे जावू ? सवस ा मक ान जसके म यमे
ह ऐसे हे ह र ! तुझे चाहता ,ँ चाहता ँ । तेरी कृपा चाहता ँ। तुझे वारवार हे ह र | चाहता ँ । हे
ीमान पु षो म ! तू अनु ह कर । अनु ह कर !
२४८
१६५ . बबई, का तक सुद ५, सोम, १९४७
परम पू य-केवलबीज-स प ,
सव म उपकारी ी सौभा यभाई,
,
मोरबी।
आपके तापसे यहाँ आन दवृ है।
भुके तापसे उपा धज य वृ है।
भगवान प रपूण सवगुणस प कहलाते है। तथा प इनमे भी कुछ कम अपल ण नह है । व च
करना यही है इसक लीला | तो अ धक या कहना ।
सव समथ पु ष आपको ा त ए ानके ही गोत गा गये है। इस ानको दन त दन इस
, आ माको भी वशेषता होती जाती है। म मानता ँ क केवल ान तकका प र म थ तो नही जायेगा।
हमे मो क कोई ज रत नही है। नःशकताक , नभयताक , नराकुलताक और न. पृहताक ज रत
थी, वह अ धकाशमे ा त ई मालूम होती है, और पूणाशमे ा त करानेक गु त रहे ए क णासागरको
कृपा होगी, ऐसी आशा रहती है। फर भी इससे भी अ धक अलो कक दशाक इ छा रहती है, तो वशेष
या कहना?
अनहद व नमे कमी नही है । पर तु गाड़ी-घोड़ेक उपा ध वणका सुख थोडा दे ती है। नवृ के
सवाय यहाँ सरा सब कुछ है। . , , --- .
जगतको, जगतक लीलाको बैठे बैठे मु तमे दे ख रहे ह।
आपक कृपा चाहता ँ|
___ व० आ ाकारी रायच दका णाम ।
१६६ बबई, का तक सुद ६, मगल, १९४७
स पु षके एक-एक वा यमे, एक-एक श दमे अनत आगम न हत ह, यह बात कैसे होगी ?
न न ल खत वा य मने अस य स पु षोक स म तसे येक मुमु ुके लये मगल प माने ह,
मो के सव म कारण प माने ह .--
१ मा यक सुखक सव कारक वाछा चाहे जब भी छोड़े बना छु टकारा होनेवाला नह है, तो
जबसे इस वा यका वण कया, तभीसे उस मका अ यास करना यो य हो है, ऐसा समझे।

२४९
२. कसी भी कारसे स क शोध करे, शोध करके उसके त तन, मन, वचन और आ मा
अपणबु करे; उसीक आ ाका सवथा नःशकतासे आराधन करे, और तभी सव मा यक वासना
अभाव होगा, ऐसा समझ।
३. अना द कालके प र मणमे अनतवार शा वण, अनतवार व ा यास, अनंतवार जनद
और अनंतवार आचाय व ा त आ है । मा 'सत्' मला नही, 'सत्' सुना नही, और 'सत्'क ा व
नही, और इसके मलने, सुनने और ा करनेपर ही छु टकारेक गूंज आ मामे उठे गी।
, ४. मो का माग बाहर नही, पर तु आ मामे है । मागको ा त पु ष मागको ा त करायेगा।
५ माग दो अ रोमे न हत है और अना द कालसे इतना सब करनेपर भी यो ा त नही आ
इसका वचार कर।
१६७ बबई, का तक सुद १२, र व, १९४
ॐ सत्
हरी छा सुखदायक ही है।
न वक प ान होनेके बाद जस परमत वका दशन होता है,
उस परम त व प स यका यान करता ँ। .
भोवनका प और अंबालालका प ा त आ है।
धमज जाकर स समागम करनेक अनुम त है, पर तु आप तीनके सवाय और कोई न जाने ऐसा
य द हो सकता हो तो उस समागमके लये वृ कर, नही तो नही । इस समागमको य द गटतामे आने
दगे तो हमारी इ छानुसार नही, मा, ऐसा समझ।
धमज जानेका सग लेकर य द ख भातसे नकलगे तो स भव है क यह बात गट हो जायेगी
और आप कबीर आ द स दायमे मानते ह, ऐसी लोकचचा होगी अथात् आप उस कबीर स दायके न होनेपर
भी वैसे माने जायगे । इस लये कोई सरा संग लेकर नकलना और बीचमे धमजमे मलाप करते आना।
वहाँ भी अपने धम, कूल इ या द सबधी अ धक प रचय नही दे ना | तथा उनसे पूण ेमसे समागम करना,
भेदभावसे नही, मायाभावसे नह , पर तु स नेहभावसे करना । मलातज स ब धी अभी समागम करनेका
योजन नही है। ख भातसे धमजक ओर जानेसे पहले धमज एक प लखना, जसमे वनयस हत जताना
क कसी ानावतार पु षक अनुम त आपका स सग करनेके लये हमे मली है जससे आपके दशनके
लये • त थको आयगे। हम आपका समागम करते है यह वात अभी कसी भी तरहसे अ गट रखना
ऐसी उस ानावतार पु षने आपको और हमे सूचना द है। इस लये आप इसका पालन कृपया अव य
करगे ही।
उनका समागम होनेपर एक बार नम कार करके वनयसे बैठना । थोड़ा समय बीतनेके वाद
उनक व - ेमभावका अनुसरण करके बातचीत करना। (एक साथ तीन अथवा एकसे
अ धक न बोल ।) पहले यो कहे क आप हमारे स ब धमे न स दे ह रख। आपके दशनाथ
े ै ो ी ी े े े ी े े े
हम आये है। सो कमी भी तरहके सरे कारणसे नही, पर तु मा स सगक इ छासे । इतना कहनेके
बाद उ हे बोलने दे ना। उसके थोडे समय बाद आप वोलना। हमे कसी ानावतार पु पका समागम
आ था। उनक दशा अलौ क दे खकर हमे आ य आ था। हमारे जैन होनेपर भी उ होने न व-
सवाद पसे व करनेका उपदे श दया था। “स य एक है, दो कारका नही है । और वह ानीके
अनु हके बना ा त नह होता। इस लये मत मतातरका याग करके ानीक आ ामे अथवा स सगमे

२५०
ीमद राजच
वृ करना । जैसे जीवका वंधन नवृ हो वैसे करना यो य है। और इसके लये हमारे ऊपर कहे ए
सावन है।" इ या द कारसे उ होने हमे उपदे श दया था। और जैन आ द मतोका आ ह मटाकर उनके
आदे शानुसार वृ करनेक हमारी अ भलाषा उ प ई थी, और अब भी वैसी ही है क मा स यका
ही आ ह रखना। मतमे म य थ रहना। वे अभी व मान है। युवाव थाके पहले भागमे ह। अभी
उनक इ छा अ गट पसे वृ करनेक है। न सदे ह व प ानावतार है और वहारमे रहते ए
भी वीतराग है। उन कृपालुका समागम होनेके बाद हम वशेषत नरा ही रहते है। मतमतातर सवधी
ववाद खडा नही होता। न कपट भावसे स यका आराधन करनेक ही ढ अ भलाषा है। उन ानावतार
पु पने हमे बताया था-"हम अभी गट पसे माग बताये ऐसी ई रे छा नही है। इस लये हम आपसे
अभी कुछ कहना नह चाहते। पर तु यो यता आये और जीव यथायो य मुमु ुता ा त करे इसके लये
य न कर।" ओर इसके लये उ होने अनेक कारसे स ेपमे अपूव उपायोका उपदे श दया था। अभी
उनक इ छा अ गट ही रहनेक है, इस लये परमाथके स ब धमे वे ाय मौन ही रहते है। हम पर इतनी
अनुकपा ई क उ ह ने इस मौनको व मृत कया था और उ ही स पु पने आपका समागम करनेक
हमारी इ छाको ज म दया था, नही तो हम आपके समागमका लाभ कहाँसे पा सकते ? आपके गुणोको
परी ा कहाँसे होती ? ऐसी आप अपनो अ भलापा बताना क हमे आपसे कसी कारसे वोध ा त हो
और हमे मागक ा त हो तो इसमे वे ानावतार स ही है। हमने उनके श य होनेक इ छा रखी
थी। तथा प उ होने बताया था-"अभी गट पसे माग कहनेक हमे ई रा ा नह है, तो फर आप
चाहे जस स सगमे यो यता या अनुभव ा त कर इसमे हमे संतोष ही है।" आपके लये भी उनका ऐसा
ही अ भ ाय समझ क हम आपके श यके तौर पर वृ कर तो भी आप मेरे ही श य ह ऐसा उ होने
कहा है । आपके त उ होने परमाथयु ेमभाव हमे बताया था। य प उ हे कसीसे भेदभाव नही है,
तथा प आपके त नेहभाव कसी पूवके कारणसे बताया मालूम होता है। मु ा मा होनेसे व तुतः
उनका नाम, धाम, ाम कुछ भी नही है, तथा प वहारसे वैसा है। फर भी उ होने यह सब अ गट
रखनेक हमे आ ा क है। आपसे वे अ गट पसे वहार करते है । तथा प आप उनके पास गट है ।
अथात् आपको भी अभी तक उ होने गट समागम, नाम, धामके बारेमे कुछ भी कहनेके लये हमे े रत
नह कया है और ई रे छा होगी तो थोडे समयमे आपको उनका समागम होगा ऐसा हम समझते है।
इस कार सगानुसार बातचीत करना। कसी भी कारसे नाम, धाम और ाम गट करना
ही नह और उपयु वात आपको अपने दयमे समझनेक है। इसपरसे उस सगमे जो यो य लगे वह
वात करना । उसका भावाथ न जाना चा हये।
' ानावतार' स ब धी यो य उनक इ छा जागृत हो यो यो बातचीत करना । वे ानाव-
तारका ममागम चाहे इस कारसे बातचीत कर। पर तु ' ानावतार'को शसा करते ए उनका अ वनय
न हो जाये यह यान रखे । तथा ' ानावतार' क अन य भ भी यानमे रखे।
जव मनमेलका योग लगे तव वताइये क हम उनके श य है वैसे आपके श य ही है। हमे कसी
तरहसे मागक ा त हो ऐमा बताय इ या द बातचीत क जये। और हम कौनसे शा पढ ? या
ा रख ? कैसे वृ करे ? यो य लगे तो यह सव बताये । कृपया आपका हमारेसे भेदभाव न हो।
उनका स ात भाग पू छये । इ या द जान लेनेका सम बन जाये तो भी उ हे बताइये क हमने
जन ानावतार पु षको बताया है वे और आप हमारे लये एक हो ह। यो क ऐसी वु रखनेक उन
ानावतारक हमे आ ा है । माय अभी उनको अ गट रहने क इ छा होनेसे हमने उनक इ छाका अनु-
सरण कया है।

२५१
वशेष या लख? हरी छा जो होगी वह सुखदायक ही होगी।
एकाध दन कये । अ धक नही, फरसे म लये ।
मलनेक हाँ बताइये। हरी छा सुखदायक है।
ानावतार स ब धी वे पहले बात कहे तो इस प मे बतायी ई बातको वशेषतः ढ क जये ।
भावाथ यानमे र खये । इसके अनुसार चाहे जस सगमे इसमेसे कोई बात उनसे करनेक आपको
वत ता है।
- 'उममे ानावतारके लये अ धक ेम पैदा हो ऐसा य न क जये । हरी छा सुखदायक है।
१६८ बबई, का तक सुद १३, सोम, १९४७
'एन व े जो दशन पामे रे, तेनुं मन न चढ़े बीजे भामे रे।
थाय कृ णनो लेश सग रे, तेने न गमे संसारनो संग रे॥
हसतां रमतां गट ह र दे खं रे, मा जी ं सफळ तव लेख रे।
मु ान दनो नाथ वहारी रे, ओधा जीवनदोरी अमारी रे॥

औ ो
आपका कृपाप कल मला । परमान द और परमोपकार आ।
यारहव गुण थानसे गरा आ जीव कम-से-कम तीन और अ धक-से-अ धक प ह भव करे, ऐसा
अनुभव होता है । यारहवाँ गुण थान ऐसा है क वहाँ कृ तयाँ उपशम भावमे होनेसे मन, वचन और
कायाके योग बल शुभ भावमे रहते ह, इससे साताका बध होता है, और यह साता ब त करके पांच
अनु र वमानक ही होती है।
आ ाकारी
१६९ बबई, का तक सुद १३, सोम, १९४७
कल आपका एक प मला । सगात् कोई आनेपर अ धक लखना हो सकेगा।
च भोवनदासक अ भलापा सगोपा समझी जा सक तो है ही, तथा प अ भलाषाके लये
पु षाथ करनेक बात नही बतायी, जो इस समय बता रहा ँ।
१७०
बबई, का तक सुद १४, १९४७
परम पू य ी,
आज आपका एक प भूधर दे गया । इस प का उ र लखनेसे पहले कुछ ेमभ स हत
लखना चाहता ँ।
आ माने ान पा लया यह तो न सशय है, थभेद आ यह तीनो कालमे स य बात हे । सव .
ा नयोने भी इस बातका वीकार कया है। अब हमे अ तम न वक प समा ध ा त करना बाक है, .
१ भावाथ-य द कोई व मे भी इसका दशन पाता है तो उसका मन सरे मोहम नही पडता । जसे
कृ णका लेश मा भी सग हो जाता है, उसे फर ससारका सग अ छा नह लगता।
२ भावाथ-म जब हंसते-खेलते ए ह रको य दे खू तव अपने जीवनको सफल समझू। हे उ व ।
मु ान दके नाथ ओर वहारी ीकृ ण हमारे जीवनके माधार है। ३ यह प ी सोभागभाईको लखा है।

२५२
ीमद् राजच
जो सुलभ है। और उसे ा त करनेका हेतु भी यही है क कसी भी कारसे अमृतसागरका अवलोकन
करते ए अ प भी मायाका आवरण बाध न करे, अवलोकन सुखका अ प भी व मरण न हो, 'तू ही,
तू हो' के सवाय सरी रटन न रहे, मा यक भयका, मोहका, सक पका या वक पका एक भी अश न
रहे । य द यह एक बार यथायो य ा त हो जाये,तो फर चाहे जैसा वतन कया जाये, चाहे जैसा
बोला जाये, चाहे जैसा आहार- वहार कया जाये, तथा प उसे कसी भी कारक बाधा नही है । पर-
मा मा भी उसे पूछ नही सकता । उसका कया आ सब कुछ सुलटा है। ऐसी दशा ा त करनेसे परमाथ-
के लये कया आ य न सफल होता है। और ऐसी दशा ए बना गट माग का शत करनेक
परमा माक आ ा नही है ऐसा मुझे लगता है । इस लये ढ़ न य कया है क इस दशाको ा त करके
फर गट माग कहना-परमाथ कहना-तब तक नही, ओर इस दशाको पानेमे अब कुछ यादा व
भी नही है। प ह अशो तक तो प ँचा जा चुका है। न वक पता तो है ही, पर तु नवृ नह है,
' नवृ हो तो सरोके परमाथके लये या करना इसका वचार कया जा सकता है। उसके बाद याग
चा हये, और उसके बाद याग कराना चा हये ।
महापु षोने कैसी दशा ा त करके माग गट कया है, या या करके माग गट कया है, इस
बातका आ माको भलीभाँ त मरण रहता है, और यही गट माग कहने दे नेक ई री इ छाका ल ण
मालूम होता है।
इस लये अभी तो केवल गु त हो जाना ही यो य है। एक अ र भी इस वषयमे कहनेक इ छा
नह होती। आपक इ छाक र ाके लये कभी कभी वतन होता है, अथवा ब त प रचयमे आये ए
योगपु षक इ छाके लये कुछ अ रोका उ चारण या लेखन कया जाता है। बाक सव कारसे गु तता
रखी है। अ ानी होकर वास करनेक इ छा बना रखी है। वह ऐसी क अपूव कालमे ान गट करते
ए बाध न आये।
__इतने कारणोसे द पच दजी महाराज या सरेके लये कुछ नही लखता । गुण थान इ या द का
उ र नही लखता । सू का पश भी नह करता । वहारक र ा करनेके लये थोडीसी पु तकोके प े
पलटता ँ। बाक सब कुछ प थर पर पानीके च जैसा कर रखा है। त मय आ मयोगमे वेश है।
वही उ लास है, वहो याचना है, और योग (मन, वचन और काया) बाहर पूवकम भोगता है । वेदोदयका
नाश होने तक गृहवासमे रहना यो य लगता है। परमे र जान-बूझकर वेदोदय रखता है, यो क पचम
कालमे परमाथक वषाऋतु होने दे नेक उसक थोड़ी ही इ छा लगती है। .
तीथकरने जो समझा और पाया उसे इस कालमे न समझ सके अथवा न पा सके ऐसी कुछ भी
बात नही है। यह नणय ब त समयसे कर रखा है। य प तीथकर होनेक इ छा नही है, पर तु तीथकर-
के कये अनुसार करनेक इ छा है, इतनी अ धक उ म ता आ गयी है। उसे शात करनेक श भी
आ गयी है, पर तु जान-बूझकर शात करनेको इ छा नही रखी है।
आपसे नवेदन है क वृ मेसे युवान बन और इस अलख वाताके अ ेसरके अ ेसर बने ।
थोड़ा लखा ब त समझे । । ।
गुण थान समझनेके लये कहे ह । उपशम और पक ये दो कारक े णयाँ है । उपशममे य
दशनका स भव नही है, पकमे है। य दशनके स भवके अभावमे यारहव गुण थानसे जीव पीछे
लौटता है। उपशम ेणी दो कारक है। एक आ ा प और सरी मागके जाने बना वाभा वक उपशम
होने प । आ ा प उपशम ेणीवाला भी आ ाके आराधन तक प तत नही होता। सरी ेणीवाला

े े े ो ै ँ ो े ी े
अ त तक जानेके बाद मागक अ ानताके कारण प तत होता है | यह आँखो दे खी, आ मासे अनुभव क

२४ वा वष
२५३
ई बात है। कसी शा मेसे मल जायेगी, न मले तो कोई बाध नह है। तीथकरके दयमे यह बात
थी, ऐसा हमने जाना है।
दशपूवधारी इ या दक आ ाका आराधन करनेक महावीरदे वक श ाके वषयमे आपने जो
बताया है वह ठोक है। इसने तो ब त कुछ कहा था, पर तु रहा है थोड़ा और काशक पु ष गृह था-
व थामे ह । वाक के गुफामे ह। कोई कोई जानता है पर तु उतना योगबल नही है।
तथाक थत आधु नक मु नयोका सू ाथ वणके यो य भी नही है। सू लेकर उपदे श करनेक ।
आगे ज रत नही पड़ेगी। सू और उसके पहलू सब कुछ ात हो गये ह।
यही वनती।
व० आ० रायचद।
१७१ बबई, का तक सुद १४, बुध, १९४७
सु भाई ी अंबालाल इ या द,
खंभात।
ी मु नका प ' इसके साथ सल न है मो उ ह प ंचाइयेगा।
नर तर एक ही ेणी रहती है । ह रकृपा पूण है।
भोवन ारा व णत एक प क दशा मरणमे है । वारवार इसका उ र मु नके प मे बताया है
वही आता है। प लखनेका उ े श मेरे त भाव करानेके लये है, ऐसा जस दन मालूम हो उस
दनसे मागका म भूल गये ऐसा समझ ली जये । यह एक भ व य कालमे मरण करने यो य कथन है।
सत् ा पाकर
जो कोई आपको धम- न म से चाहे
उसका सग रख।
. व० रायच दके यथायो य।
१७२ मोहमयी, का तक सुद १४, बुध, १९४७
स ज ासु-मागानुसारी म त, खभात ।
- कल आपका परम भ सूचक प मला । वशेष आ ाद आ।
- अनतकालसे वयंको व वषयक ही ा त रह गयी है; यह एक अवा य और अ त वचारका
वषय है। जहाँ म तक ग त नही, वहां वचनक ग त कहाँसे हो?
नरतर उदासीनताके मका सेवन करना, स पु षक भ मे लीन होना, स पु षोके च रयोका
मरण करना, स पु षोके ल णका चतन करना, स पु षोक मुखाकृ तका दयसे अवलोकन करना, उनके
मन, वचन और कायाक येक चे ाके अ त रह योका वारवार न द यासन करना, और उनका मा य
कया आ सभी मा य करना ।
यह ा नयो ारा दयमे था पत, नवाणके लये मा य रखने यो य, ा करने यो य, वारवार
चतन करने यो य, त ण और त समय उसमे लीन होने यो य परम रह य है। और यही 'सव
शा ोका. सव सतोके दयका और ई रके घरका मम पानेका महामाग है। और इन सबका कारण
कसी व मान स पु षक ा त और उसके त अ वचल ा है।
१ साथका प न० १७२ ।

२५४
ीमद् राजच
अ धक या लखना ? आज, चाहे तो कल, चाहे तो लाख वषमे और चाहे तो उसके बादमे या
उससे पहले, यही सूझनेपर, यही ा त होनेपर छु टकारा है। सव दे शोमे मुझे तो यही मा य है।
संगोपा प लखनेका यान रखूगा। आप अपने स गयोमे ानवाता करते र हयेगा, और
उ हे प रणाममे लाभ हो इस तरह मलते र हयेगा।
अबालालसे यह प अ धक समझा जा सकेगा। आप उनक व मानतामे प का अवलोकन
क जयेगा और उनके तथा भोवन आ दके उपयोगके लये चा हये तो प क त ल प करनेके लये
द जयेगा।
यही व ापन।
सवकाल यही कहनेके लये जीनेके इ छु क
रायच दक वंदना।
१७३ बंबई, का तक वद ३, श न, १९४७
ज ासु भाई,
आपका पहले एक प मला था, जसका उ र अबालालके प से लखा था। वह आपको मला
होगा। नही तो उनके पाससे वह प मंगवाकर दे ख ली जयेगा।
समय नकालकर कसी न कसी अपूव साधनका कारणभूत यथास भव करते र हयेगा।
आप जो जो ज ासु ह, वे सब त दन अमुक समय, अमुक घड़ी तक धमकथाथ मलते रहे तो
प रणाममे वह लाभका कारण होगा।
ो ी ो ी े े ँ ी े
इ छा होगी तो कसी समय न य नयमके लये बताऊँगा। अभी न य नयममे साथ मलकर
एकाध अ छे थका अवलोकन करते हो तो अ छा। इस वषयमे कुछ पूछेगे तो अनुकूलताके अनुसार
उ र ं गा।
अंबालालके पास लखे ए प ोक पु तक है । उसमेसे कुछ भागका उ लासयु समयमे अवलोकन
करनेमे मेरी ओरसे आपके लये अब कोई इनकार नही है। इस लये उनसे यथासमय पु तक मंगवाकर
अवलोकन क जयेगा।
ढ़ व ाससे मा नये क इसे वहारका बंधन उदय कालमे न होता तो आपको और सरे कई
मनु योको अपूव हतकारी स होता। वृ है तो उसके लये कुछ असमता नही है; पर तु नवृ
होती तो अ य आ माओको माग ा तका कारण होता.। अभी उसे वलंब होगा । पंचमकालक भी वृ
है। इस भवमे मो गामी मनु योक सभावना भी कम है। इ या द कारणोसे ऐसा ही आ होगा। तो
इसके लये कुछ खेद नही है।
- आप सबको प बता दे नेक इ छा हो आनेसे बताता है क अभी तक मने आपको मागके ममका
(एक अंबालालके सवाय) कोई अंश नह बताया है, और जस मागको ा त कये बना कसी तरह कसी
कालमे जीवका छु टकारा होना स भव नही है। य द आपक यो यता होगी तो उस मागको दे नेमे समथ
कोई सरा पु ष आपको ढूँ ढना नही पडेगा । इसम कसी तरह मने अपनी तु त नही क है।
, इस आ माको ऐसा लखना यो य नही लगता, फर भी लखा है।
अंबालालका अभी प नह है, उनसे लखनेके लये कह।
व० रायच दके यथायो य ।

२४ वॉ वष
२५५
१७४ बबई, का तक वद ५, सोम, १९४७
. सतको शरणमे जा। ।
सु भाई ी अंबालाल,
आपका एक प मला । आपके पता ीका धम छु क प मला । सगवश उ हे यो य उ र दे ना
हो सकेगा। ऐसी.इ छा क ं गा।
स सग यह बडेसे बड़ा साधन है।
स पु षक ाके बना छु टकारा नही है।
"
, ,ये दो, वषय शा इ या दसे उ ह बताते र हयेगा । स सगक वृ क जयेगा।
- व० रायच दके यथायो य ।
बबई, का तक वद ८, गु , १९४७
सु भाई अबालाल,
यहॉ आनंदव है। आप सब स सगक वृ करे । छोटालालका आज, प मला । आप सबका
ज ासु भाव बढे यह नर तरक इ छा है।
परम समा ध है।
व० रायचदके यथायो य ।
१७५
१७६ बबई, का तक वद ९, शु , १९४७
जीव मु सौभा यमू त सौभा यभाई, मोरबी।
मु न द पचंदजीके स ब धमे आपका लखना यथाथ है। भव थ तक प रप वता ए बना,
द नबधुक कृपाके बना, सतचरणक सेवा कये बना कालमे माग मलना लभ है।
जीवके ससार प र मणके जो जो कारण ह, उनमे मु यं वय जस ानके लये श कत है, उस
ानका उपदे श करना, गटमे उस मागक र ा करना, दयमे उसके लये चल वचलता होते ए भी
अपने ालुओको उसी मागके यथायो य होनेका ही उपदे श दे ना, यह सबसे बड़ा कारण है । आप उस
मु नके स ब धमे वचार करगे तो ऐसा ही तीत हो सकेगा।
वयं शकामे गोते ,खाता हो, ऐसा जीव न शक मागका उपदे श दे नेका दम रखकर सारा जीवन
वता दे यह उसके लये परम शोचनीय है। मु नके स ब धमे यहाँ पर कुछ कठोर भाषामे लखा है ऐसा
लगे तो भी वैसा हेतु है ही नही । जैसा है वैसा क णाई च से लखा है। इसी कार सरे अनत जीव
पूवकालमे भटके ह, वतमानकालमे भटक रहे ह और भ व य कालमे भटकगे।
जो छटनेके लये ही जीता है वह बधनमे नही आता, यह वा य न शक अनुभवका है। वधनका
याग करनेसे छटा जाता है, ऐसा समझनेपर भी उसी बधनको वृ करते रहना, उसमे अपना मह व
था पत करना और पू यताका तपादन करना, यह जीवको ब त भटकानेवाला है । यह समझ समोप-
म गामी जीवको होती है, और ऐसे जीव समथ च वत जैसी पदवोपर आ ढ होते ए भी उसका याग
करके, करपा मे भ ा मांगकर जीनेवाले स तके चरणोको अनतानत ेमसे पूजते है, और वे अव यमेव
छू टते ह।
द नबधक द ही ऐसी है क छू टनेके कामोको बाँधना नही, और बंधनेके कामीको छोडना नही।
यहां वक पशील जोवको ऐसा वक प हो सकता है क जीवको बँधना पस द नही है, सभीको छटनेक

२५६

ीमद् राजच
इ छा है तो फर बँधता है यो ? इस वक पको नवृ इतनी ही है क ऐसा अनुभव आ है क जसे
छू टनेक ढ इ छा होती है उसे ब धनका वक प मट जाता है, और यह इस बातका स सा ी है।
एक ओर तो परमाथमागको शी तासे गट करनेक इ छा है, और एक ओर अलख 'लय' मे
समा जानेक इ छा रहती है । अलख 'लय' मे आ मासे समावेश आ है, योगसे करना यह एक रटन है।
परमाथके मागको ब तसे मुमु ु ा त करे, अलख समा ध ा त कर तो अ छा, और इसके लये कतना
ही मनन है । द नब धुक इ छानुसार हो रहेगा।
अ त दशा नर तर रहा करती है। अवधूत ए ह, अवधूत करनेके लये कई जीवोके त है।
महावीरदे वने इस कालको पचमकाल कहकर षम कहा, ासने क लयुग कहा; यो ब तसे महा-
पु षोने इस कालको क ठन कहा है, यह बात न.शक स य है। यो क भ और स संग वदे श गये ह
अथात् स दायोमे नही रहे और ये ा त ए बना जीवका छु टकारा नही है। इस कालमे ा त होने
कर हो गये है, इस लये काल भी षम है। यह बात यथायो य ही है। षमको कम करनेके लये
आ शष द जयेगा। ब त कुछ बतानेक इ छा होती है, पर तु लखने या बोलनेक अ धक इ छा नही
रही । चे ासे समझमे आये ऐसा आ ही करे, यह इ छा न ल है। ।
व० आ ाकारी रायचदके दडवत् ।
बबई, का तक वद १४, गु , १९४७
सु भाई ी भोवन,
आपका एक प मला । मनन कया।
अतरक परमाथवृ योको थोडे समय तक गट करने क इ छा नही होती। धम छु क ा णय के,
प , आ द तो अभी बधन प माने है यो क जन इ छाओको अभी गट करनेक इ छा नही है
उनके अश ( न पायतासे) उस कारणसे गट करने पड़ते ह।
न य नयममे आपको और सभी भाइयोको अभी तो इतना ही बताता ँ क जस जस राहसे
अनंतकालसे पकडे ए आ हका, अह वका और अस संगका नाश हो उस उस राहमे वृ लानी, यही
चतन रखनेस, े और परभवका ढ व ास रखनेसे कुछ अंशोमे उसमे सफलता ा त होगी। .
___..
. व० रायचदके यथायो य ।
. . 7 १७८ - बंबई, का तक वद ३०, शु , १९४७
सु भाई ी अंबालाल, . . . . . . .
यहाँ आनदवृ है । आपक और सरे भाइय क आन वृ चाहता ँ। आपके पताजीके धम-
वषयक दो प मले । इसका या उ र लखना ? इसका ब त वचार रहा करता है। '
. अभी तो म कसीको प पसे धम बतानेके यो य नही , ँ अथवा, वैसा करनेक मेरी इ छा नही
रहती । इ छा, न रहनेका, कारण उदयमान कम है। उनक वृ मेरो, ओर झुकनेका कारण आप. इ या द
ह, ऐसी क पना है । और म भी इ छा रखता ँ क कोई भी ज ासु हो वहा धम ा तोसे धम ा त करे,
तथा प मै वतमान कालमे रहता है, वह कालं ऐसा नही है। सगोपा मेरे कुछ प उ हे पढ़ाते,र हये
अथवा उनमे कही ई बातोका उ े श आपसे जतना समझाया जाये उतना समझाते र हये ।। 7.
पहले मनु यमे यथायो य ज ासुता आनी चा हये । पूवके आ ह और अस सग र होने चा हये।
इसके लये य न क जये । और उ हे ेरणा करते रहेगे तो कसी संगपर अव य स भाल लेतेका मरण
क ं गा । नही.तो नही। .. ... . . . . .
. ;-

२४ वा वष
२५७
. सरे भाइयोको भी, जसके पाससे धम ा त करना हो उस पु षके धम ा त होनेक पूण परी ा
करनी चा हये, यह संतक समझने जैसी बात है।
व० रायचदके यथायो य !
१७९ .
बंबई, का तक, १९४८
उपशम भाव
सोलह भावनाओसे भू षत होनेपर भी वयं जहाँ सव कृ माना गया है वहाँ सरेक उ कृ ता.
के कारण अपनी यूनता होती हो और कुछ म सरभाव आकर चला जाये तो उसे उपशम भाव था, ा यक
न था, यह नयम है।
१८०
बबई, मग सर सुद ४, सोम, १९४८
परम पू य ी,
___ कलके प मे सहज वहार चता बतायी थी, उसके लये सवथा नभय रहना । रोम रोमम भ
तो यही है क ऐसी दशा आनेपर अ धक स रहना । मा सरे जीव के दल खानेका कारण आ मा
हो वहाँ चता सहज करना । ढ ानक ा तका यही ल ण है।
'मु नको समझानेक माथाप चीमे आप न पड तो अ छा। जसे परमे र भटकने दे ना चाहता है,
उसे न कारण भटकनेसे रोकना यह ई रीय नयमका भंग करना कस लये न माना जाये ?
- रोम रोममे खुमारी आयेगी, अमरवरमय ही आ म हो जायेगी, एक 'तू ही, तू हो' का मनन
करनेका अवकाश भी नही रहेगा, तब आपको अमरवरके आन दका अनुभव होगा।

ँ ी ै े े े े
यहाँ यही दशा है । राम दयमे बसे ह, अना दके (आवरण) र ए ह। सुर त इ या दक खले
ह। यह भी एक वा यको बेगार क है। अभी तो भाग जानेक वृ है। इस श दका अथ भ
होता है।
नीचे एक वा यको त नक या ादमे घटाया है-
"इस कालमे कोई मो जाता ही नही है।"
"इस कालमे कोई इस े से मो जाता ही नही है।"
"इस कालमे कोई इस कालकाज मा आ इस े से मो जाता ही नही है।"
"इस कालमे कोई इस कालका ज मा आ सवथा मु नही होता।"
"इस कालमे कोई इस कालका ज मा मा सब कम से सवथा मु नह होता।"
अब इसपर त नक वचार कर। पहले एक वोला क इस कालमे कोई मो जाता ही नही
है। यो ही यह वा य नकला क शका ई-इस कालमे या महा वदे हसे मो मे जाता ही नही है ?
वहाँसे तो जाता है, इस लये फर वा य बोलो । तब सरी बार कहा, इस कालमे कोई इस े से मो मे
नही जाता। तब कया क जबु, सुधमा वामी इ या द कैसे गये ? वह भी तो यही काल था,
इस लये फर वह वचार करके बोला- इस कालमे कोई इस कालका ज मा आ इस े से मो .
मे नही जाता । तब कया क कसीका म या व जाता होगा या नह ? उ र दया, हो जाता है।
तब फर कहा क य द म या व जाता है तो म या वके जानेसे मो आ कहा जाये या नही
उसने हाँ कहो क ऐसा तो होता है। तब कहा-ऐसा नह पर तु ऐसा होगा क इस कालमे कोई इस
कालका ज मा आ सब कम से मु नही होता ।
१ मु न दोपच दजी। २ परमा ममय

२५८
ीमद राजच
इसमे भी अनेक भेद है, पर तु यहाँ तक कदा चत् साधारण या ाद मान तो यह जैनके शा के
लये प ीकरण आ माना जाये । वेदात आ द तो इस कालमे सवथा सब कम से छु डानेके लये कहते
ह । इस लये अभी भी आगे जाना होगा । उसके बाद वा य स होगी। इस तरह वा य बोलनेको अपे ा
रखना उ चत है । पर तु ान उ प ए बना इस अपे ाक मृ त रहना स भव नही है। या तो
स पु षक कृपासे स हो ।
अभी इतना ही। थोडा लखा ब त समझ । ऊपर लखी ई माथाप ची भी लखना पस द नही
है। श करके ीफलक सभीने शंसा क है, पर तु यहाँ तो अमृतका ना रयलका पूरा वृ है । तो यह
कहाँसे पस द आये ? नापस द भी नही कया जाता।
अ तमे आज, कल और सदाके लये यही कहना है क इसका सग होनेके बाद सवथा नभय रहना
सीख। आपको यह वा य कैसा लगता है ?
व० रायचद।
१८१ बबई, मग सर सुद २, श न, १९४७
सु भाई छोटालाल,
भाई भोवनका और आपका प मला | और भाई अबालालका प मला।
अभी तो आपका लखा आ पढनेक इ छा रखता ँ । कसी सगसे वृ (आ माको) होगी
तो मै भी लखता र ंगा।
आप जस समय समतामे हो उस समय अपनी अतरक उ मयोके वषयमे ल खयेगा।
यहाँ तीनो काल समान है। ा त वहारके त असमता नही है, और उसका याग करनेक
इ छा रखी है, पर तु पूव कृ तको र कये बना छु टकारा नही है।
कालको षमता · · से यह वृ माग ब तसे जीवोको स के दशन करनेसे रोकता है।
आप सबसे अनुरोध है क इस आ माके सबंधमे सर से कोई बातचीत न कर।
व० रायचंद।
१८२ बबई, मग सर सुद १३, बुध, १९४७
आपका कृपाप कल मला | पढकर परम सतोष ा त आ।
आप दयके जो जो उ ार लखते ह, उन सबको पढकर आपक यो यताके लये स होता ह,
परम स ता होती है, और वारंवार स युगका मरण होता है। आप भी जानते ह क इस कालमे
मनु य के मन मा यक सप क इ छावाले हो गये ह। कोई वरल मनु य नवाण-मागक ढ इ छावाला
रहना स भव है, अथवा वह इ छा कसी एकको ही स पु षके चरणसेवनसे ा त होती है ऐसा है।
महाधकारवाले इस कालमे हमारा ज म कसी कारणसे ही आ होगा, यह न.शक है, पर तु
या करे ? वह सपूणतासे तो वह सुझाये तब हो सकता है।
व० रायचद।
बबई, मग सर सुद १४, १९४७
___ आन दमू त स व पको अभेदभावसे काल नम कार करता ँ।
परम ज ासासे भरपूर आपका धमप परसो मला । पढकर सतोष आ। .
उसमे जो जो इ छाय बतायी ह, वे सब क याणकारक ही है, पर तु उन इ छाओक सब कारको
फुरणा तो स चे पु षके चरणकमलक सेवामे न हत है। और अनेक कारसे स सगमे न हत है । यह
सब अन त ा नयोका स मत कया आ नशंक वा य आपको लखा है।
१८३
२५९
२४ वौ वष
प र मण करते ए जीवने अना दकालसे अब तक अपूवको नही पाया है। जो पाया है वह सब
पूवानुपूव है । इन सबक वासनाका याग करनेका अ यास क जयेगा। ढ ेमसे और परमो लाससे यह
अ यास वजयी होगा, और वह काल मसे महापु षके योगसे अपूवक ा त करायेगा ।
सव कारक याका, योगका, जपका, तपका और इसके सवाय अ य कारका ल य ऐसा
र खये क यह सब आ माको छु डानेके लये ह, ब धनके लये नही ह। जनसे ब धन हो वे सब ( यासे
लेकर सम त योगा द तक) या य ह।
म यानामधारीके यथायो य ।
१८४
बंबई, मग सर सुद १५, १९४७
स व पको अभेद भ से नम कार ।
आपका प कल मला।
आपके मले। यथासमय उ र लखूगा। आधार न म मा ँ। आप न ाको सबल
करनेका य न कर यह अनुरोध है ।
बबई, मग सर वद ७, शु , १९४७
आज दय भर आया है। जससे वशेष ाय कल लखूगा। दय भर आनेका कारण भी
ावहा रक नही है।
सवथा न त रहनेक वनती है ।
व० आ० रायचंद।
१८६
बबई, मग सर वद १०, १९४७
सु भाई ी अबालाल,
यहाँ आनंदवृ है। जैसे मागानुसारी आ जाये वैसे य न करना यह अनुरोध है ।
वशेष या लखना ? यह कुछ सूझता नही है ।
रायचदके यथायो य।
१८७
बबई, मग सर वद ३०, १९४७
ा त ए स व पको अभेदभावसे अपूव समा धमे मरण करता ँ।
महाभा य, शातमू त, जीव मु ी सोभागभाई,
यहाँ आपक कृपासे आन द है, आप नर तर आन दमे रहे यह आ शष है।
अ तम व पके समझनेमे, अनुभव करनेमे अ प भी यूनता नही रही है। जैसा है वैसा सवथा ।।
समझमे आया है। सब कारोका एक दे श छोड़कर बाक सब अनुभवमे आया है। एक दे श भी समझमे ।
आनेसे नही रहा. पर तु योग (मन, वचन, काया) से असंग होनेके लये वनवासक आव यकता है, और
ऐसा होनेपर वह दे श भी अनुभवमे आ जायेगा, अथात् उसीमे रहा जायेगा, प रपूण लोकालोक ान उ प
होगा, और उसे उ प करनेक (वैस) े आका ा नही रही, फर भी उ प कैसे होगा ? यह भी आ य-
कारक है । प रपूण व प ान तो उ प आ ही है; और इस समा धमेसे नकलकर लोकालोकदशनके ।
त जाना कैसे होगा? यह भी एक मुझे नही पर तु प लखनेवालेको वक प होता है।

२६०
ीमद् राजच
कुनबी और कोली जैसी जा तमे भी थोडे ही वष मे माग- ा त ब त पु ष हो गये ह। उन
महा माओक जनसमुदायको पहचान न होनेके कारण कोई वरला ही उनसे साथकता स कर सका
है । जीवको महा माके त मोह ही नही आ, यह कैसी अ त ई रीय नय त है ?
__ वे सब कुछ अ तम ानको ा त नही ए थे, पर तु उसक ा त उनके ब त समीप थी। ऐसे
ब तसे पु षोके पद इ या द यहाँ दे ख। ऐसे पु षोके त रोमाच ब त उ ल सत होता है, और मानो
नर तर उनक चरणसेवा ही करते रहे, यह एकमा आका ा रहती है । ानीक अपे ा ऐसे मुमु ुओपर
अ तशय उ लास आता है, इसका कारण यही क वे नर तर ानीको चरणसेवा करते ह, और यही
उनका दास व उनके त हमारा दास व होनेका कारण है। भोजा भगत, नरात कोली इ या दक पु ष
योगी (परम यो यतावाले) थे । नरजन पदको समझनेवालेको नरजन कैसी थ तमे रखते है, यह वचार
करते ए अकल ग तपर ग भीर एव समा धयु हा य आता है | अब हम अपनी दशाको कसी भी
कारसे नही कह सकगे, तो फर लख कैसे सकगे? आपके दशन होनेपर जो कुछ वाणी कह सकेगी वह
कहेगी, बाक न पायता है। (कुछ) मु भी नही चा हये, और जस पु षको जैनका केवल ान भी
नही चा हये, उस पु षको अब परमे र कौनसा पद दे गा? यह कुछ आपके वचारमे आता है ? आये तो
आ य क जये, नही तो यहाँसे तो कसी तरह कुछ भी बाहर नकाला जा सके ऐसी स भावना मालूम
नही होती।
आप जो कुछ वहार-धम भेजते है, उनपर यान नही दया जाता। उनके अ र भी पूरे
पढनेके लये यान नह जाता, तो फर उनका उ र न लखा जा सका हो तो आप कस लये राह

े े ो े ी ी
दे खते ह ? अथात् वह अब कब हो सकेगा, उसक कुछ क पना नही क जा सकती।।
आप वारवार लखते ह क दशनके लये ब त आतुरता है, पर तु महावीरदे वने पचमकाल कहा
है और ास भगवानने क लयुग कहा है, वह कहाँसे साथ रहने दे ? और दे तो आपको उपा धयु
कस लये न रखे?
यह भू म उपा धक शोभाका स हालय है।
खीमजी इ या दको एक बार आपका स सग हो तो जहाँ एक ल ता करनी चा हये वहाँ होगी,
नही तो होनी लभ है, यो क हमारी अभी बा वृ कम है।
१८८
बबई, पौष सुद २, सोम, १९४७
कहने प जो मै उसे नम कार हो।
सव कारसे समा ध है।
१८१
बबई, पौष सुद ५, गु , १९४७
*अलखनाम धु न, लगी गगनमे, मगन भया मन मेरा जी।
आसन मारी सुरत ढ़ धारी, दया अगम घर डेरा जी॥
दर या अलख दे दारा जी।
*भावाथ-गगनम अलख नामक धुन लगी है, जसम मेरा मन म न हो गया है। आसन लगाकर सुरतको
ढतासे धारणकर अगमके घर डेरा जमाया है और अलखके व पका दशन कया है ।

२६१
१९०
बबई, पौष सुद ९, १९४७
च० भोवनका लखा प कल मला । आपको हमारे ऐसे ावहा रक काय-कथनसे भी वक प
न आ, इसके लये स तोष आ है । आप भी स तोप ही र खये।
पूवापर असमा ध प हो उसे न करनेक श ा पहले भी द है। और अब भी यही श ा वशेष
मरणमे रखने यो य है । यो क ऐसा रहनेसे भ व यमे धम ा त सुलभ होगी।
जैसे आपको पूवापर असमा ध ा त न हो वैसे आ ा होगी। चुनीलालका े प मा करने
यो य है।
समय समयपर कुवरजीको प लखते र हये, यो क वे प लखनेके लये लखते है ।
व० रायच दके यथायो य ।
१९१
बबई, पौष सुद १०, सोम, १९४७
महाभा य जीव मु ,
आपका कृपाप आज एक मला । उसे पढकर परम स तोष आ।
ाकरणमे स यका माहा य पढा है। मनन भी कया था। अभी ह रजनक सग तके
अभावसे काल क ठनतासे बीतता है, ह रजनक सग तमे भी उसक भ करना ब त य है।
आप परमाथके लये जो परम आका ा रखते ह, वह ई रे छा होगी तो कसी अपूव रा तेसे
पूरी होगी। ज हे ा तसे परमाथका ल मलना लभ हो गया है, ऐसे भारत े वासी मनु योपर
वह परमकृपालु परमकृपा करेगा, पर तु अभी कुछ समय तक उसक इ छा हो, ऐसा मालूम नही होता।
१९२
बंबई, पोष सुद १४, शु , १९४७
आयु मान भाई,
आज आपका एक प मला ।
आपको कसी भी कारसे पूवापर धम ा त असुलभ हो इस लये कुछ भी न करनेके लये आ ा
द थी, तथा अ तम प मे सू चत कया था क अभी इस वषयमे कोई व था न कर। य द ज रत
पड़ेगी तो त स ब धी कुछ करनेके लये इस तरह लखूगा क जससे आपको पूवापर असमा ध न हो।
यह वा य यथायो य समझमे आया होगा। तथा प कुछ भ दशानुयोगसे ऐसा कया मालूम होता है।
कदा चत् आपने इतना भी न कया होता तो यहाँ आन द ही या । ायः ऐसे सगमे भी सरे
ाणीको खी करनेका न होता हो तो आन द हो रहता है। यह वृ मो ा भलापीके लये तो वहत
उपयोगी है, आ मसाधन प है।
स को स ूपसे कहनेक जसक नर तर परम अ भलाषा थी ऐसे महाभा य कवीरका एक
पद इस वषयमे मरण करने यो य है । यहाँ एक उसक मू य कडी लखी है-
"करना फक री या दलगीरी, सदा मगन मन रहेना जी।"
मुमु ुओको इस वृ को अ धका धक बढाना उ चत है। परमाथ चता होना यह एक अलग
वषय है; वहारांचताका वेदन अ तरसे कम करना, यह माग ा तका एक साधन है।
आपने इस बार मेरे त जो कुछ कया है, वह एक अलग ही वपय है, तथा प व ापन हे
क कसी भी कारसे आपको असमा ध प जैसा मालूम हो तब इस वषयमे यहाँ लख भेजना जससे
यो य व था करनेका यथास भव यास होगा।
२६२
ीमद राजच
अब इस वषयको इतनेसे यहाँ छोड दे ता ँ।
हमारी वृ जो करना चाहती है, वह न कारण परमाथ है, त स ब धी आप वारवार जान
सके है, तथा प कुछ समवाय कारणक यूनताके कारण अभी तो वैसा कुछ अ धक नही कया जा
सकता। इस लये अनुरोध है क हम अभी कोई परमाथ ानी ह अथवा समथ ह ऐसी बात स न
कर, यो क यह हमे वतमानमे तकूल जैसा है।
___ आप जो समझे है वे मागको स करनेके लये नर तर स पु षके च र का मनन करते रहे।
सगात् वह वषय हमे पूछे । स शा , स कथा और स तका सेवन कर।
व० न म मा
१९३
बंबई, पौष वद २, सोम, १९४७
सु भाई,
हमे सभी मुमु ुओका दास व य है। जससे उ होने जो जो व ापन कया है, वह सब हमने
पढा है। यथायो य अवसर ा त होनेपर इस वषयमे उ र लखा जा सकता है, तथा अभी आ म
(जो थ त है वह थ त) छोड़ दे नेक आव यकता नही है। हमारे समागमक जो आव यकता बतायी
वह अव य हतकारी है। तथा प अभी उस दशाका योग आना श य नही है। यहा नर तर आन द
है। वहाँ धमयोगक वृ करनेके लये सभीसे वनती है।
व० रा०
१९४
बबई, पौष, १९४७
जीवको माग मला नह है, इसका या कारण ?
इसका वारवार वचार कर, यो य लगे तब साथका प पढ़।
अभी वशेष लख सकनेक या बतलानेक दशा नही है, तो भी एक मा आपक मनोवृ कुछ
खत होनेसे के इस लये यथावसर जो कुछ यो य लगा सो लखा है।
हमे लगता है क माग सरल है, परतु ा तका योग मलना लभ है।
स व पको अभेदभावसे और अन य भ से नमोनमः
___ जो नरतर भाव-अ तब तासे वचरते है ऐसे ानोपु षके चरणार वदके त अचल ेम ए बना
और स यक ती त आये बना स व पक ा त नही होती, और आने पर अव य वह मुमु ु, जसके ।
चरणार वदको उसने सेवा क है, उसक दशाको पाता है। सव ा नयोने इस मागका सेवन कया
है, सेवन करते ह और सेवन करगे। ान ा त इससे हमे ई थी, वतमानमे इसी मागसे होती है और
अनागतकालमे भी ान ा तका यही माग है.। सव शा ोका बोध-ल य दे खा जाये तो यही है। और जो
कोई भी ाणी छू टना चाहता है उसे अखड वृ से इसी मागका आराधन करना चा हये। इस मागका
आराधन कये बना जीवने अना द कालसे प र मण कया है। जब तक जीवको व छं द पी अध व है,
तब तक इस मागका दशन नही होता। (अध व र होनेके लये) जीवको इस मागका वचार करना चा हये,
ढ मो े छा करनी चा हये, इस वचारमे अ म रहना चा हये, तो मागक ा त होकर अंध व र
होता है, यह न शक माने । अना दकालसे जीव उलटे मागपर चला है । य प उसने जप, तप, शा ा-
ययन इ या द अनंत बार कया है, तथा प जो कुछ भी अव य करने यो य था, वह उसने कया नही है,
जो हमने पहले ही बताया है।

२६३
२४ वॉ वष
*सूयगडांगसू मे ऋषभदे वजी भगवानने जहाँ अ ानव पु ोको उपदे श दया है, मो मागपर
चढाया है वहाँ यही उपदे श कया है-
"हे आयु मानो | इस जीवने सब कुछ कया है एक इसके बना, वह या ? तो क न यपूवक
कहते ह क स पु पका कहा आ वचन, उसका उपदे श सुना नही है, अथवा स य कारसे उसका पालन
नही कया है। और इसे ही हमने मु नयोक सामा यक (आ म व पक ा त) कहा है।"
*सुधमा वामी ज बुवामीको उपदे श दे ते ह क सारे जगतका ज होने दशन कया है, ऐसे महावीर
भगवानने हमे इस कार कहा है- "गु के अधीन होकर आचरण करनेवाले अन त पु षोने माग पाकर।
मो ा त कया है।"
एक इस थलमे नही, पर तु सव थलो और सव शा ोमे यही बात कहनेका ल य है।
आणाए ध मो आणाए तवो।।
आ ाका आराधन ही धम और आ ाका आराधन ही तप है। (आचाराग सू )
सब जगह यही महापु षोके कहनेका ल य है । यह ल य जीवको समझमे नही आया। इसके कारणो-
मे सबसे धान कारण व छद है और जसने व छदको मद कया ह, ऐसे पु षके लये तव ता
(लोकस ब धी बधन, वजनकुटु ब बंधन, दे हा भमान प बंधन, सक प- वक प प ब धन) इ या द
ब धनको र करनेका सव म उपाय जो कोई हो उसका इसपरसे आप वचार क जये, और इसे वचारते
ए जो कुछ यो य लगे वह हमे पू छये, और इस मागसे य द कुछ यो यता ा त करगे तो चाहे जहाँसे भी
उपशम मल जायेगा। उपशम मले और जसक आ ाका आराधन कर ऐसे पु षक खोजमे र हये।
बाक सरे सभी साधन बादमे करने यो य है । इसके सवाय सरा कोई मो माग वचारने पर

ी ी ो े ी ो ो े ो ो ो
तीत नही होगा । ( वक पसे) तीत हो तो बताइयेगा ता क जो कुछ यो य हो वह बताया जा सक।
बंबई, पौष १९४७
स व पको अभेद पसे अन य भ से नम कार
जसे मागक इ छा उ प ई है, उसे सब वक पोको छोडकर इस एक वक पको वारवार
मरण करना आव यक है-
___ "अन तकालसे जीवका प र मण हो रहा है, फर भी उसको नवृ यो नही होती ? और वह
या करनेसे हो?"
इस वा यमे अनत अथ समाया आ है, और इस वा यमे कहो ई चतना कये बना, उसके लये
ढ होकर तरसे बना मागक दशाका भी अ प भान नही होता, पूवमे आ नही, और भ व यकालम भी
नही होगा। हमने तो ऐसा जाना है। इस लये आप सबको यही खोजना है। उसके बाद सरा या
जानना ? वह मालूम होता है ।
१९५
१९६
ववई, माघ सुद ७, र व, १९४७
'मु-पनसे रहना पड़ता है ऐसे ज ासु,
जीवके लये दो बडे बधन ह, एक व छद और सरा तवध जसक इ छा व छद र करनेक
है, उसे ानीक आ ाका आराधन करना चा हये, और जसक इ छा तबंध र करनेक है, उसे
* थम ुत क ध तीय अ ययन गाथा ३१-३२ १ दे ख आक ८६
२ मु न-मु न ी ल लुजी

२६४
ीमद् राजच
सवसगका यागी होना चा हये। ऐसा न हो तो वधनका नाश नह होता। जसका व छं द न आ है,
उसको जो तवध है, वह अवसर ा त होनेपर न होता है, इतनो श ा मरण करने यो य है।
यद ा यान करना पडे तो करे, पर तु इस कायक अभी मेरी यो यता नही है और यह मुझे
तवध है, ऐसा समझते ए उदासीन भावसे करे। उसे न करने के लये ोताओको चकर तथा यो य
लगे ऐसे य न करे, और फर भो जब करना पड़े तो उपयु के अनुसार उदासीन भाव समझकर करे।
१९७
बबई, माघ सुद ९, मगल, १९४७
आपका आनद प प मला । ऐसे प के दशनको तृषा अ धक है।
ानके परो -अपरो ' होनेके वपयमे प से लखा जा सकना स भव नही है, पर तु सुधाक
धाराके पीछे के कतने ही दशन ए है, और य द असगताके साथ आपका स सग हो तो अ तम व प
प रपूण का शत हो ऐसा है, यो क उसे ाय सव कारसे जाना है, और वही राह उसके दशनक है।
इस उपा वयोगमे भगवान इस दशनको नही होने दगे, ऐसा वे मुझे े रत करते है, इस लये जब एकातवासी
आ जायेगा तब जान-बूझकर भगवानका रखा आ परदा मा थोडे ही य नसे र हो जायेगा। इसके
अतर सरे प ीकरण प ारा नही कये जा सकते ।
अभी आपके समागमके बना आनदका रोध है।
व० आ ाकारी
१९८
बबई, माघ सुद ११, गु , १९४७
स को अभेद भावसे नमोनम.
प आज मला। यहाँ आन द है (वृ प)। आजकल कस कारसे काल ेप होता है सो
ल खयेगा।
सरी सभी वृ योक अपे ा जीवको यो यता ा त हो ऐसा वचार करना यो य है, और उसका
मु य साधन सव कारके कामभोगसे वैरा यस हत स सग है।
__ स सग (समवय क पु पोका, समगुणो पु पोका योग) मे, जसे स का सा ा कार है ऐसे पु षके
वचनोका प रशीलन करना क जससे काल मसे स को ा त होती है।
जीव अपनी क पनासे कसी भी कारसे स को ा त नही कर सकता । सजीवनमू तके ा त
होनेपर ही सत् ा त होता है, सत् समझमे आता है, स का माग मलता है और स पर यान आता है।
सजीवनमू तके ल के बना जो कुछ भी कया जाता है, वह सब जीवके लये ब धन है । यह मेरा हा दक
अ भमत है ।
__ यह काल सुलभबो धता ा त होनेमे व नभूत है। फर भी अभी उसक वषमता कुछ ( सरे
कालक अपे ा ब त) कम है, ऐसे समयमे जससे व ता व जडता ा त होती है ऐसे मा यक वहारमे
उदासीन होना ेय कर है स का माग कही भी दखायी नह दे ता।
आप सबको आजकल जो कुछ जैनक पु तक पढनेका प रचय रहता हो, उसमेसे जस भागमे
जगतका वशेष वणन कया हो उस भागको पढ़नेका ान कम रख; और जीवने या नही कया? और
अब या करना ? इस भागको पढने और वचारनेका वशेष यान रख।
___ कोई भी सरे धम याके नामसे जो आपके सहवासी ( ावक आ द) या करते हो, उसका नषेध
न कर । अभी जसने उपा ध प इ छा अगीकार क है, उस पु षको कसी भी कारसे गट न कर।
२४ वो वष
२६५
मा कोई ढ ज ासु हो उसका यान मागक ओर जाये ऐसी थोडे श दोमे धमकथा कर (और वह
भी य द वह इ छा रखता हो तो), बाक अभी तो आप सब अपनी-अपनी सफलताके लये म या धम-
वासनाओका, वषया दकक यताका, और तबधका याग करना सीख। जो कुछ य करने यो य है,
उसे जीवने जाना नही, और बाक का कुछ य करने यो य नही है, यह हमारा न य है।
___ आप जो यह बात पढे उसे सु मगनलाल और छोटालालको कसी भी कारसे सुना द जये,
पढवा द जये।
यो यताके लये चय एक बडा साधन है । अस सग एक बड़ा व न है। '
१९९
बबई, माघ सुद ११, गु , १९४७
उपा धयोगके कारण य द शा वाचन न हो सकता हो तो अभी उसे रहने द। पर तु उपा धसे
न य त थोडा भी अवकाश लेकर जससे च वृ थर हो ऐसो नवृ मे बैठनेक ब त आव यकता
है। और उपा धमे भी नवृ का यान रखनेका मरण र खये।
___ आयुका जतना समय है उतना ही समय य द जीव उपा धका रखे तो मनु य वका सफल होना कब
स भव है ? मनु यताक सफलताके लये जीना ही क याणकारक है, ऐसा न य करना चा हये । और
सफलताके लये जन जन साधनोक ा त करना यो य है उ हे ा त करनेके लये न य त नवृ
ा त करनी चा हये । नवृ के अ यासके बना जीवक वृ र नह होती यह य समझमे आने
जैसी बात है।
धमके पमे म या वासनाओसे जीवको वधन आ है, यह महान ल रखकर वैसी म या
वासनाये कैसे र हो इसके लये वचार करनेका अ यास र खयेगा।
२००
ववई माघ, सुद , १९४७
वचनावली
१ जीव वयको भूल गया है, और इस लये उसे स सुखका वयोग है, ऐसा सव धम स मत कथन है।
२ वयको भूल जाने प अ ानका नाश ान मलनेसे होता है, ऐसा न शक मानना। ।
३ ानको ा त ानीके पाससे होनी चा हये। यह वाभा वक पसे समझमे आता है, फर भी
जीव लोकल जा आ द कारणोसे अ ानीका आ य नही छोडता, यही अनतानुवधी कपायका मूल है।
४ जो ानक ा तक इ छा करता है, उसे ानीको इ छानुसार चलना चा हये, ऐसा जनागम
आ द सभी शा कहते है । अपनी इ छानुसार चलता आ जीव अना दकालसे भटक रहा है।
५ जब तक य ानीक इ छानुसार, अथात् आ ानुसार न चला जाये, तव तक अ ानक
नवृ होना सभव नही है।
६ ानीक आ ाका आराधन वह कर सकता है क जो एक न ासे, तन, मन और धनको
आस का याग करके उसको भ मे जुट जाये।
७ 'य प ानी भ को इ छा नह करते, पर तु मो ा भलापीको वह कये वना उपदे श प रण-
मत नही होता, और मनन तथा न द यासन आ दका हेतु नही होता, इस लये मुमु ुको ानीको भ
अव य करनी चा हये ऐसा स पु षोने कहा है।
१ पाठातर-य प ानी भ क इ छा नह करते, पर तु मो ा भलापीको वह कये बना मो को
ा त नह होती, यह अना द कालका गु त त व सतोके दयम रहा है, जसे यहां ल पब कया है।
२६६
ीमद् राजच
८. इसमे कही ई बात सव शा ोको मा य है।
९. ऋषभदे वजीने अ ानव पु ोको वरासे मो होनेका यही उपदे श कया था।
१० परी त राजाको शुकदे वजीने यही उपदे श कया है।
११. अनंत काल तक जीव व छदसे चलकर प र म करे तो भी अपने आप ान ा त नही
करता, पर तु ानीक आ ाका आराधक अ तमु तमे भी केवल ान ा त कर लेता है।
१२ शा मे कही ई आ ाएँ परो है और वे जीवको अ धकारी होनेके लये कही ह, मो -
ा तके लये ानीक य आ ाका आराधन करना चा हये। .
१३. यह ानमागक े ण कही, इसे ा त कये बना सरे मागसे मो नही है।
१४ इस गु त त वका जो आराधन करता है, वह य अमृतको पाकर अभय होता है।
॥ इ त शवम् ॥
२०१
बंबई, माघ वद ३, गु , १९४७
सवथा न वकार होनेपर भी पर ेममय पराभ के वश है, इसका ज ह ने
दयमे अनुभव कया है, ऐसे ा नयोक गु त श ा है।
यहाँ परमानद है। असगवृ होनेसे समुदायमे रहना ब त वकट है। जसका यथाथ आनद
कसी भी कारसे नह कहा जा सकता, ऐसा स व प जनके दयमे का शत आ है, उन महाभा य
ा नयोक और आपको हमपर कृपा रहे । हम तो आपको चरणरज है, और काल इसी ेमको नरंजन-
दे वसे याचना है।
___ आजके भातसे नरजनदे वका कोई अ त अनु ह का शत आ है, आज ब त दनोसे इ छत
पराभ कसी अनुपम पमे उ दत ई है। गो पयाँ भगवान वासुदेव (कृ णच ) को दहीक मटक मे
रखकर बेचने नकली थी ऐसी ीमद् भागव मे एक 'कथा है, वह सग आज ब त याद आ रहा है । जहाँ
अमृत बहता है वहाँ सह दल कमल है, यह दहीक मटक है, और आ दपु ष उसमे बराजमान है वह
भगवान वासुदेव है । उसको ा त स पु षक च वृ प गोपीको होनेपर वह उ लासमे आकर कसी
सरे मुमु ु आ माके त ऐसा कहती है-"कोई माधव ले; हॉरे कोई माधव ले ।" अथात् वह वृ
कहती है क हमे आ दपु षक ा त ई है और यह एक ही ा त करने यो य है, और कुछ भी ा त
करने यो य नही है, इस लये आप ा त करे । उ लासमे वारवार कहती है क आप उस पुराणपु षको
ा त कर, और य द उस ा तको अचल ेमसे चाहे तो हम वह आ दपु ष आपको दे द। हम इस मटक -
मे रखकर बेचने नकलो ह, ाहक दे खकर दे दे ती ह, कोई ाहक बने, अचल ेमसे कोई ाहक बने,
तो वासुदेवक ा त करा द।
मटक मे रखकर बेचने नकलनेका अथ यह है क सह दल कमलमे हमे वासुदेव भगवान मले है,
म खनका तो नाम मा है, य द सारी सृ को मथ कर म खन नकाल तो मा एक अमृत प वासुदेव
भगवान ही म खन नकलता है। ऐसे सू म व पको थूल बनाकर ासजीने अ त भ का गान
कया है । यह कथा और सम त भागवत इस एकको हो ा त करानेके लये अ रश भरपूर है । और वह
मुझे (हमे ब त समय पहले समझमे आ गया है, आज अ त अ त मरणमे है यो क सा ात् अनुभव ा त
है, और इसी कारण आजक परम अ त दशा है। ऐसी दशासे जीव उ म भी ए बना नही रहेगा,
और वासुदेव ह र जान-बूझकर कुछ समयके लये अ य भी हो जाय, ऐसे ल णके धारक है। इस लये हम
असगता चाहते है, और आपका सहवास भी असगता ही है, इस लये भी वह हमे वशेष य है।
१. ऐसी कोई कया ीमद् भागवतमे तो नह है । इस तरहको जन ु त अव य ह। -अनुवादक

२६७
२४ वा वष
स सगक यहाँ कमी है, और वकट वासमे नवास है। हरी छासे धूमने- फरनेक व है। इस-
लये कुछ खेद तो नही है, पर तु भेदका काश नही कया जा सकता, यह चतना नरतर रहा करती है।
आज भूधर एक प दे गये है। तथा आपका एक प सीधा मला है।
म णको भेजी ई 'वचनावलीमे आपको स तासे हमारी स ताको उ ेजन मला है। इसमे
सतका अ त माग गट कया है। य द म ण एक ही वृ से इन वा योका आराधन करेगा, और उसी
पु षक आ ामे लीन रहेगा तो अन त कालसे ा त आ प र मण मट जायेगा। म ण मायाका मोह
वशेष रखता है, क जो माग ा तमे बडा तबध गना गया है। इस लये ऐसी वृ को धीरे-धीरे कम
करनेके लये म णसे मेरी वनती है ।
____ आपको जो पूणपदोपदे शक अखरावट या पद भेजनेक इ छा है, वह कस ढालमे अथवा रागमे हो
इसके लये आपको जो यो य लगे वह लख।
अनेकानेक कारसे मनन करनेपर हमारा यह ढ न य है क भ सव प र माग है, और वह
स पु षके चरणोमे रहकर हो तो णभरमे मो ा त करा दे ऐसा साधन है।
वशेष कुछ नही लखा जाता । परमानद है, पर तु अस सग है अथात् स सग नही है।
वशेष आपक कृपा , बस यही ।
र - व० आ ाकारीके दडवत्
२०२
बबई, माघ वद ३, १९४७
सु मेहता च भुज,
जस मागसे जीवका क याण हो उसका आराधन करना ' ेय कर' है, ऐसा वारवार कहा है।
फर भी यहाँ इस बातका मरण कराता ँ।
अभी मुझसे कुछ भी लखा नही गया है, उसका उ े श इतना ही है क ससारी स ब ध अन त वार
आ है, और जो म या है उस मागसे ी त बढानेक इ छा नह है। परमाथ मागमे ेम उ प होना
यही धम है । उसका आराधन कर।
व० रायचदके यथायो य ।
२०३
वंबई, माघ वद ४, १९४७
ॐ स व प
सु भाई,
आज आपका एक प मला। इससे पूव तीन दन पहले एक स व तर प मला था। उसके
लये कुछ असतोष नही आ। वक प न क जयेगा।
आपने मेरे प के उ रमे जो स व तर प लखा है, वह प आपने वक पपूवक नही लखा।
मेरा वह लखा आ प मु यत मु नपर था । यो क उनक मांग नर तर रहती थी।
यहाँ परमानद है। आप और सरे भाई स के आराधनका य न कर। हमारा यथायो य मान।
और भाई भोवन आ दसे कहे।
व० रायचदके यथायो य ।
१. दे ख आक २००
२ म णलाल, ी सोभा यभाईके पु
३. दे ख आक १९८

२६८
ीमद् राजच
२०४
बबई, माघ वद ७, मंगल, १९४७
यहाँ परमानद वृ है । आपका भ पूण प आज ा त आ। "
आपको मेरे त परमो लास आता है, और वारवार इस वषयमे आप स ता गट करते ह,
पर तु अभी हमारी स ता हमपर नह होती, यो क यथे असगदशासे रहा नह जाता, और म या
तवधमे वास है। परमाथके लये प रपूण इ छा है, पर तु ई रे छाक अभी तक उसमे स म त नही
है, तब तक मेरे वषयमे अतरमे समझ र खयेगा, और चाहे जैसे मुमु ुओको भी नामपूवक मत
वताइयेगा । अभी ऐसी दशामे रहना हमे य है।
____ आपने खभात प लखकर मेरा माहा य गट कया, पर तु अभी वैसा नह होना चा हये । वे
सब ममु ु है । स चेको कतनी ही तरहसे पहचानते है, तो भी उनके सामने अभी गट होकर तवध
करना मुझे यो य नही लगता | आप सगोपा उ हे ानकथा ल खयेगा, तो मेरा एक तवध कम
होगा। और ऐसा करनेका प रणाम अ छा है। हम तो आपका समागम चाहते ह। कई बाते अतरमे
घूमती है, पर तु लखी नही जा सकती। ..
२०५
वंबई, माघ वद ११, शु , १९४७
त को मोहः कः शोकः एक वमनुप यतः
उसे मोह या ? शोक या ? क जो सव एक व (परमा म व प) को ही दे खता है ।
वा त वक सुख य द जगतको मे आया होता तो ानी पु पो ारा नयत कया आ मो
थान ऊ व लोकमे नही होता, पर तु यह जगत ही मो होता।
ानीको सव मो है, यह बात य प यथाथ है, तो भी जहाँ मायापूवक परमा माका दशन है
ऐसे जगतमे वचारकर पर रखने जैसा उ हे भी कुछ लगता है । - इस लये हम असगता चाहते है, या फर
आपका सग चाहते है, यह यो य ही है ।
. २०६. वबई, माघ वद १३, र व, १९४७
घट प रचयके लये आपने कुछ नही लखा सो ल खयेगा ।, तथा महा मा कबीरजीक सरी
पु तक मल सक तो भेजनेक कृपा क जयेगा।
पारमा थक वषयमे अभी मौन रहनेका कारण परमा माक इ छा है। जब तक असग नही होगे
और उसके बाद उसक इ छा नही होगी तब तक गट पसे माग नही कहेगे, और ऐसा सभी महा माओ.
का रवाज है । हम तो द न मा है।
भागवतवाली बात आ म ानसे जानी ई है।
२०७
बवई, माघ वद ३०, १९४७
य प कसी कारको याका उ यापन नही कया जाता तो भी उ हे जो लगता है उसका कुछ
कारण होना चा हये, जस कारणको र करना क याण प है।
प रणाममे 'सत्' को ा त करानेवाली और ार भमे 'सत्' क हेतुभूत ऐसी उनक चको स ता
दे नेवाली वैरा यकथाका सगोपा उनसे प रचय करना, तो उनके समागमसे भी क याणक ही वृ

ो ी औ ी ो
होगी, और वह कारण भी र होगा।
__ जनमे पृ वी आ दका व तारसे वचार कया गया है ऐसे वचनोको अपे ा 'वैतालीय' अ ययन
से वचन वैरा यक वृ करते ह, और सरे मतभेदवाले ा णयोको भी उनमे अ च नही होती।

२६९
जो साधु आपका अनुसरण करते ह, उ हे समय समयपर बताते रहना : "धम उसीको कहा जा।
सकता है क जो धम होकर प रणमे, ान उसोको कहा जा सकता है क जो ान होकर प रणमे । हम
ये सब याएँ, वाचन इ या द करते है, वे म या ह ऐसा कहनेका मेरा हेतु आप न समझ तो मै आपको
कुछ कहना चाहता , ँ " इस कार कहकर उ हे बताना क यह जो कुछ हम करते है, उसमे कोई ऐसी.
बात रह जाती है क जससे 'धम और ान' हममे अपने पसे प रण मत नह होते, और कपाय एव ।
म या व (सदे ह) का मद व नह होता, इस लये हमे जीवके क याणका पुन पुनः वचार करना यो य है ।
और उसका वचार करनेपर हम कुछ न कुछ फल पाये बना नही रहेगे। हम सब कुछ जाननेका य न
करते है, पर तु अपना 'स दे ह' कैसे र हो, यह जाननेका य न नह करते। यह जव तक नही करगे
तब तक 'सदे ह' कैसे र होगा ? और जब तक स दे ह होगा तब तक ान भी नही होगा, इस लये सदे हको
र करनेका य न करना चा हये । वह स दे ह यह है क यह जीव भ है या अभ ? म या है या
सय ? सुलभवोधी है या लभबोधी? अ पससारी है या अ धक ससारी ? यह सब हमे ात हो
ऐसा य न करना चा हये । इस कारक ानकथाका उनसे सग रखना यो य है।
परमाथपर ी त होनेमे स सग सव कृ और अनुपम साधन है, पर तु इस कालमे वैसा योग
होना ब त वकट है, इस लये जीवको इस वकटतामे रहकर सफलतापूवक पूरा करनेके लये वकट
पु षाथ करना यो य है, और वह यह क "अना द कालसे जतना जाना है उतना सभी अ ान ही है,
उसका व मरण करना।"
'सत्' सत् ही है, सरल है, सुगम है, सव उसक ा त होती है, पर तु 'सत्' को बतानेवाला
'सत्' चा हये।
नय अनत ह, येक पदाथमे अनत गुणधम ह, उनमे अनत नय प रण मत होते ह, तो फर एक
या दो चार नयपूवक बोला जा सके ऐसा कहाँ है ? इस लये नया दकमे समतावान रहना । ा नयोको
वाणी 'नय'मे उदासीन रहती है, उस वाणीको नम कार हो । वशेष कसी सगसे।
२०८
वबई, माघ वद ३०, १९४७
अनत नय ह, एक एक पदाथ अनत गुणसे और अनत धमसे यु है, एक एक गुण और एक एक
धममे अनत नय प रण मत होते ह, इस लये इस रा तेसे पदाथका नणय करना चाहे तो नही हो सकता,
इसका रा ता कोई सरा होना चा हये । ाय. इस बातको ानी पु प ही जानते ह, और वे उस नया-
दक मागके त उदासीन रहते ह, जससे कसी नयका एकात खडन नही होता, अथवा कसी नयका
एकात मडन नही होता । जतनी जसक यो यता है, उतनी उस नयक स ा ानी पु पोको मा य होती
है। ज हे माग नही ा त आ ऐसे मनु य 'नय' का आ ह करते ह, और उससे वषम फलक ा त
होती है । कोई नय जहाँ बा धत नही है ऐसे ानीके वचनोको हम नम कार करते है। जसने ानीके
मागक इ छा क हो ऐसा ाणी नया दमे उदासीन रहनेका अ यास करे, कसी नयमे आ ह न करे और
कसी ाणीको इस राहसे खी न करे, और यह आ ह जसका मट गया है, वह कसी राहसे भी
ाणीको खी करनेक इ छा नही करता।
२०९
महा माओने चाहे जस नामसे और चाहे जस आकारसे एक 'सत्' को ही का शत कया है।
उसीका ान करना यो य है। वही तीत करने यो य है, वही अनुभव प है और वही परम ेमसे
भजने यो य है।

२७०
ीमद् राजच
उस 'परमसत्' क ही हम अन य ेमसे अ व छ भ चाहते है।
उस 'परमसत्' को 'परम ान' कहे, चाहे तो 'परम ेम' कहे और चाहे तो 'सत्- चत्-आनद व प'
कहे, चाहे तो 'आ मा' कहे, चाहे तो 'सवा मा' कहे चाहे तो एक कहे, चाहे तो अनेक कहे, चाहे तो
एक प कहे, चाहे तो सव प कहे, पर तु सत् सत् ही है। और वही इस सब कारसे कहने यो य है,
कहा जाता है । सब यही है, अ य नह ।
ऐसा वह परमत व, पु षो म, ह र, स , ई र, नरजन, अलख, पर , परमा मा, परमे र
और भगवत आ द अनत नामोसे कहा गया है।
हम जब परमत व कहना चाहते है तो उसे क ही भी श दोमे कहे तो वह यही है, सरा नही।
२१०
बबई, माघ वद ३०, १९४७
स व पको अभेदभावसे नमोनमः
यहाँ आनद है । सव परमानद द शत है।
या लखना ? यह तो कुछ सूझता नही है, यो क दशा भ रहती है, तो भी सगसे कोई
सवृ पैदा करनेवाली पु तक होगी तो भेजूंगा। हमपर आपक चाहे जैसी भ हो, पर तु सब जो क
औ े ी े ो े े ी ै
और वशेषत धमजीवके तो हम कालके लये दास ही है।
सबको इतना ही अभी तो करना है क पुरानेको छोडे बना तो छु टकारा ही नह ह, और वह
छोडने यो य ही है ऐसा ढ करना।
माग सरल है, ा त लभ है।
*साथके प पढकर उनमे जो यो य लगे उसे लखकर मु नको दे द जये। उ ह मेरी ओरसे मृ त
और वदन क जये । हम तो सबके दास है । भोवनसे अव य कुशल ेम पू छये ।
२११
बबई, माघ नद ३०, १९४७
'सत्' कुछ र नही है, पर तु र लगता है, और यही जीवका मोह है।
'सत्' जो कुछ है, वह 'सत्' ही है, सरल है, सुगम है, और सव उसक ा त होती है, पर तु
जसपर ा त प आवरणतम छाया रहता है उस ाणीको उसक ा त कैसे हो ? अ धकारके चाहे
जतने कार कर, पर तु उनमे कोई ऐसा कार नही नकलेगा क जो काश प हो, इसी कार जस-
पर आवरण त मर छाया आ है उस ाणीक क पनाओमसे कोई भी क पना 'सत्' मालूम नही होती
और 'सत्'के नकट होना भी स भव नही है। 'सत्' है, वह ा त नही है, वह ा तसे सवथा तर
( भ ) है, क पनासे पर ( र) है, इस लये जसक उसे ा त करनेक ढ म त ई है वह पहले ऐसा
ढ न या मक वचार करे क वय कुछ भी नही जानता, और फर 'सत्' क ा तके लये ानीक
शरणमे जाये तो अव य मागक ा त होगी।
ये जो वचन लखे है वे सभी मुमु ुओके लये परम बाधव प है, परम र क प है, और इनका
स यक् कारसे वचार करनेपर ये परमपदको दे नेवाले है। इनमे न ंथ- वचनक सम त ादशागी,
षड् दशनका सव म त व और ानीके बोधका बीज स ेपमे कहा है, इस लये वारवार इनका मरण
क जये, वचार क जये, सम झये, समझनेका य न क जये, इनके बाधक अ य कारोमे उदासीन र हये,
* दे ख आक २११, २१२

२४ वां वष
२७१
इ हीमे वृ का लय क जये। यह आपको और कसी भी मुमु ुको गु त रीतसे कहनेका हमारा म है,
इनमे 'सत्' ही कहा है, यह समझनेके लये अ य धक समय लगाइये।
२१२
बंबई, माघ वद , १९४७
स को नमोनम.
वाछा-इ छाके अथमे 'काम' श द यु होता है, तथा पच य- वषयके अथमे भी यु
होता है।
_ 'अन य' अथात् जसके जैसा सरा नही, सव कृ । 'अन य भ भाव' अथात् जसके जैसा
सरा नही ऐसा भ पूवक उ कृ भाव। ।
- मुमु ु वै० योगमागके अ छे प रचयवाले ह ऐसा जानता ँ। स वाले यो य जीव है । जस
'पद' का आपने सा ा कार पूछा, वह अभी उ हे नही आ है।
पूवकालमे उ र दशामे वचरनेके बारेमे उनके मुखसे वण कया है । तो उस बारेमे अभी तो
कुछ लखा नह जा सकता । परतु इतना बता सकता ँ क उ होने आपसे म या नही कहा है।
जसके वचनबलसे जीव नवाणमागको पाता है, ऐसी सजीवनमृ तका योग पूवकालमे जीवको
ब त बार हो गया है, पर तु उसक पहचान नही ई है। जीवने पहचान करनेका य न व चत् कया भी।
होगा, तथा प जीवमे जड जमाई ई स योगा द, ऋ योगा द और सरी वैसी कामना से जीवक
अपनी म लन थी। य द म लन हो तो वैसी समू तके त भी बा ल य रहता है, जससे पह-
चान नह हो पाती, और जब पहचान होती है, तब जीवको कोई ऐसा अपूव नेह आता है, क उस मू तके
वयोगमे एक घडी भर भी जीना उसे वडबना प लगता है, अथात् उसके वयोगमे वह उदासीन भावसे
उसीमे वृ रखकर जीता है, अ य पदाथ का सयोग और मृ यु-ये दोनो उसे समान हो गये होते है। ऐसी
दशा जब आती है, तब जीवको माग ब त नकट होता है ऐसा समझ। ऐसी दशा आनेमे मायाक सग त
ब त वडवनामय है, पर तु यहो दशा लानेका जसका ढ न य है उसे ायः अ प समयमे वह दशा
ा त होती है।
आप सब अभी तो हमे एक कारका बधन करने लगे हे, इसके लये हम या कर यह कुछ सूझता
नही है । 'सजीवनमू त से माग मलता है ऐसा उपदे श करते ए हमने वय अपनेआपको वधनमे डाल लया
है क जस उपदे शका ल य आप हमको ही बना बैठे है । हम तो उस सजीवनमू तके दास है, चरणरज है।
हमारी ऐसी अलौ कक दशा भी कहा है क जस दशामे केवल असंगता ही रहती है ? हमारा उपा धयोग
तो, आप य दे ख सक, ऐसा है ।
ये अ तम दो बात तो हमने आप सबके लये लखी है। हमे अब कम वधन हो ऐसा करनेके लये
आप सबसे वनती है। सरी एक बात यह बतानी है क आप हमारे लये अव कसीसे कुछ न कहे । आप
उदयकाल जानते है।
२१३ ववई, फागुन सुद ४, श न, १९४७
पुराणपु षको नमोनमः
यह लोक वध तापसे आकुल ाकुल है। मृगतृ णाके जलको लेनेके लये दौडकर यास बुझाना
चाहता है ऐसा दोन है। अ ानके कारण व पका व मरण हो जानेसे उसे भयकर प र मण ा त आ
२७२
ीमद राजच
है। वह समय समय पर अतुल खेद, वरा द रोग, मरणा द भय और वयोग आ द .खोका अनुभव
करता है, ऐसे अशरण जगतके लये एक स पु ष हो गरण है। स पु पक वाणीके वना इस ताप और
तृपाको सरा कोई मटा नही सकता, ऐसा न य है। इस लये वारंवार उस स पु पके चरणोका हम
यान करते ह।
ससार केवल असातामय है । कसी भी ाणोको अ प भी साता है, वह भी स पु षका ही अनु ह है।
कसी भी कारके पु यके वना साताक ा त नह होती, और इस पु यको भी स पु षके उपदे शके बना
' कसीने नही जाना । ब त काल पूव उप द वह पु य ढके अधीन होकर व तत रहा है, इस लये मानो
वह या दसे ा त आ लगता है, पर तु उसका मूल एक स पु प ही है; इस लये हम ऐसा ही जानते ह
क एक अश मातासे लेकर पूणकामता तकक सव समा धका कारण स पु प ही है। इतनी अ धक सम-
थता होनेपर भी जसे कुछ भी पृहा नही है, उ म ता नही है, अहंता नही है, गव नह है, गौरव नही है,
ऐसे आ यक तमा प स पु षको हम पुनः पुनः नाम पसे मरण करते ह।
लोकके नाथ जसके वश ए है, ऐसा होनेपर भी वह ऐसी अटपट दशासे रहता है क जसक
सामा य मनु यको पहचान होना लभ है, ऐसे स पु पको हम पुन पुन. तु त करते है ।
एक समय भी सवथा असगतासे रहना लोकको वश करनेको अपे ा भी वकट काय है, ऐसी
असगतासे जो काल रहा है उस स पु पके अंत करणको दे खकर हम परमा य पाकर नमन करते है।
हे परमा मा । हम तो ऐसा ही मानते है क इस कालमे भी जीवका मो हो सकता है। फर भी
जैन थोमे व चत् तपादन हआ है, तदनुसार इस कालमे मो नही होता हो, तो इस े मे यह त-
पादन तू रख, और हमे मो दे नेक अपे ा ऐसा योग दान कर क हम स पु षके ही चरणोका यान
कर और उसके समीप ही रहे।
हे पु षपुराण । हम तेरेमे और स पु षमे कोई भेद ही नही समझते, तेरी अपे ा हमे तो स पु प ही
वशेष लगता है कारण क तू भी उसके अधीन ही रहा है और हम स पु पको पहचाने वना तुझे पहचान
नही सके, यही तेरी घटता हममे स पु पके त ेम उ प करती है। यो क तू वगमे होनेपर भी वे
उ म नही है, और तेरेसे भी सरल है, इस लये अब तू जैसा कहे वैसा कर।
। हे नाथ | तू बुरा न मानना क हम तेरी अपे ा भी स पु पक वशेप तु त करते है, सारा जगत
तेरी तु त करता है, तो फर हम एक तुझसे वमुख बैठे रहेगे तो उससे कहाँ तुझे यूनता भी है और
| उनको (स पु पको) कहाँ तु तक आका ा है ?
___ ानो पु प कालक वात जानते ए भी गट नही करते ऐसा आपने पूछा; इस स ब धमे ऐसा
लगता है क ई रीय इ छा ही ऐसी है क अमुक पारमा थक वातके सवाय ानी सरी का लक वात
स न करे, और ानीक भी अतरग इ छा ऐसी ही मालूम होती है। जनक कसी भी कारक
आका ा नह ह ऐसे ानीपु पके लये कुछ कत प न होनेसे जो कुछ उदयमे आता हे उतना ही करते है ।
हम तो कुछ वैसा ान नह रखते क जससे काल सवथा मालम हो, और हमे ऐसे ानका
कुछ वशेप यान भी नही है। हमे तो वा त वक जो व प उसक भ और असगता ही य है।
यही व ापन ।
'वेदा त य तावना' भेजी होगी, नही तो तुर त भे जयेगा।
व० आ ाकारी-

२७३
२१४
बबई, फागुन सुद ५, र व, १९४७
अभेददशा आये बना जो ाणी इस जगतक रचना दे खना चाहते ह वे वधे जाते है। ऐसी दशा
आनेके लये वे ाणी उस रचनाके कारणके त ी त कर और अपनी अह प ा तका प र याग करे ।
उस रचनाके उपभोगक इ छाका सवथा याग करना यो य है, और ऐसा होनेके लये स पु पक शरण
जैसा एक भी औषध नही है । इस न यवाताको न जानकर तापसे जलते ए बेचारे मोहाध ा णयोको
दे खकर परम क णा आती है और यह उ ार नकल पडता है-'हे नाथ | तू अनु ह करके इ हे अपनी
ग तमे भ दे ।'
आज कृपापूवक आपक भेजी ई वेदातक ' बोध शतक' नामक पु तक ा त ई। उपा धक
नवृ के समयमे उसका अवलोकन क ं गा।
उदयकालके अनुसार वतन करते है। व चत् मनोयोगके कारण इ छा उ प हो तो बात अलग
है पर तु हमे तो ऐसा लगता है क इस जगतके त हमारा परम उदासीन भाव रहता है, वह वलकुल
सोनेका हो तो भी हमारे लये तृणवत् है; और परमा माक वभू त प हमारा भ धाम है।
__आ ाकारी
२१५
बबई, फागुन सुद ८, १९४७
आपका कृपाप ा त आ । इसमे पूछे गये ोका स व तर उ र यथास भव शी लखूगा।
ये ऐसे पारमा थक ह क मुमु ु पु षको उनका प रचय करना चा हये। हजारो पु तकोके
पाठ को भी ऐसे नही उठते, ऐसा हम समझते है । उनमे भी थम लखा आ (जगतके व पमे

ो ै ो ी े ी
मतातर यो है ? ) तो ानी पु ष अथवा उनक आ ाका अनुसरण करनेवाला पु प ही खडा कर सकता
है। यहाँ मनमानी नवृ नही रहती, जससे ऐसी ानवाता लखनेमे जरा वलब करनेक ज रत
होती है। अ तम हमारे वनवासका पूछा है, यह भी ऐसा हे क ानीक ही अतवृ के जान-
कार पु षके सवाय कसी वरलेसे ही पूछा जा सकता है।
आपको सव म ाको नम कार करते ह। क लकालमे परमा माको क ही भ मान पु षोपर
स होना हो, तो उनमेसे आप एक है । हमे आपका बड़ा आ य इस कालमे मला और इसीसे
जी वत है।
२१६
'सत्'
यह जो कुछ दे खते है, जो कुछ दे खा जा सकता है, जो कुछ सुनते ह, जो कुछ सुना जा सकता है,
वह सब एक सत ही है।
__ जो कुछ है वह सत् ही हे, अ य नही।
वह सत् एक ही कारका हाने यो य है ।
वही सत् जगत पसे अनेक कारका आ है, पर तु इससे वह कही व पसे युत नही आ है।
व पमे ही वह एकाक होनेपर भी अनेकाको हो सकनेमे समथ है। एक सुवण, कुडल, कडा, सांकला,
वाजूव द आ द अनेक कारसे हो, इससे उसका कुछ सुवण व घट नह जाता। पयायातर भामता हे।
और वह उसक स ा है। इसी कार यह सम त व उस 'सत्'का पयायातर है, पर तु 'सत्' प ही है।

२७४
ीमद् राजच
२१७
बबई, माघ सुद , १९४७
परम पू य,
___आपके सहज वाचनके उपयोगाथ आपके ोके उ रवाला प इसके साथ भेज रहा ँ।
परमा मामे परम नेह चाहे जस वकट मागसे होता हो तो भी करना यो य ही है। सरल माग
मलनेपर भी उपा धके कारण त मय भ नह रहती, और एकतार नेह उमडता नही है। इस लये खेद
रहा करता है और वनवासक वारवार इ छा आ करती है। य प वैरा य तो ऐसा रहता है क ाय
आ माको घर और वनमे कोई भेद नही लगता, पर तु उपा धके सगके कारण उसमे उपयोग रखनेक
वारवार ज रत रहा करती है, क जससे परम नेहपर उस समय आवरण लाना पडता है, और ऐसा
परम नेह और अन य ेमभ आये बना दे ह याग करनेक इ छा नही होती। कदा चत् सवा माक
ऐसी ही इ छा होगी तो चाहे जैसी द नतासे भी उस इ छाको बदलगे। पर तु ेमभ का पूण लय आय
वना दे ह याग नह कया जा सकेगा ऐसा लगता है, और वारवार यही रटन रहनेसे 'वनमे जाये' 'वनमे
जाय ऐसा मनमे हो आता है। आपका नर तर स सग हो तो हमे घर भी वनवास ही है।
ीमद् भागवतमे गोपागनाक जैसी ेमभ का वणन है, ऐसी ेमभ इस क लकालमे ा त
होनी लभ है, ऐसा य प सामा य ल य है, तथा प क लकालमे न ल म तसे यही लय लगे तो
परमा मा अनु ह करके शी यह भ दान करता है।
ीमद् भागवतमे जडभरतजीक सुदर आ या यका द है। यह दशा वारवार याद आती है और
ऐसी उ म ता परमा म ा तका परम ार है। यह दशा वदे ह थी। भरतजीको ह रणके सगसे ज मक
वृ ई थी और इसी कारणसे वे जडभरतके ज ममे असग रहे थे। ऐसे कारणोसे मुझे भी असगता ब त
ही याद आती है, और कतनी ही बार तो ऐसा हो जाता है क उस असगताके बना परम ख होता
है । यम अतकालमे ाणीको खदायक नही लगता होगा, पर तु हमे सग खदायक लगता है । यो
अतवृ याँ ब तसी ह क जो एक ही वाहक है। लखी नही जाती, रहा नही जाता, और आपका
वयोग रहा करता है। कोई सुगम उपाय नह मलता । उदयकम भोगते ए द नता अनुकूल नही है ।
भ व यके एक णका भी ाय वचार भी नह रहता।
'सत्-सत्' इसक रटन है । और स का साधन 'आप' तो वहाँ है। अ धक या कहे ? ई रक
इ छा ऐसो है, और उसे स रखे बना छु टकारा नही है । नही तो ऐसी उपा धयु दशामे न रहे, और
मनमाना कर, परमपीयूषमय और ेमभ मय ही रहे | पर तु ार ध कम बलव र है ।
आज आपका एक प मला | पढकर दया कत कया । इस वपयमे हम आपको उ र न लख
इस हमारी स ाका उपयोग आपके लये करना यो य नही समझते, तथा प आपको, जो रह य मैने समझा
है उसे जताता ँ क जो कुछ होता है सो होने दे ना, न उदासीन होना, न अनु मी होना, न परमा मासे
भी इ छा करना, और न वधामे पडना, कदा चत् आपके कहे अनुसार अहता आडे आती हो तो यथा-
श उसका रोध करना, और फर भी वह र न होती हो तो उसे ई रापण कर दे ना, तथा प द नता न
आने दे ना। या होगा? ऐसा वचार नही करना, और जो हो सो करते रहना। अ धक उधेड-वुन
करनेका य न नही करना। अ प भी भय नही रखना, उपा धके लये भ व यके एक पलक भी च ता
नही करना, च ता करनेका जो अ यास हो गया है, उसे व मरण करते रहना, तभी ई र स
होगा, और तभी परमभ पानेका फल है, तभी हमारा-आपका संयोग आ यो य है। और उपा धमे
या होता है उसे हम आगे चलकर दे ख लगे । 'दे ख लगे' इसका अथ ब त गभीर है।

२७५
२४ वा वष
- सवा मा ह र समथ है। आप और महा पु पोक कृपासे नवल म त कम रहती है। आपके
उपा धयोगके स ब धमे य प यान रहा करता है, पर तु जो कुछ स ा है वह उस सवा माके हाथ है।
और वह स ा नरपे , नराका ानीको ही ा त होती है। जब तक उस सवा मा ह रक इ छा जैसी
हो उसी कार ानी भी चले यह आ ाकारी धम है, इ या द ब तसी बात है। श दोमे लखी नही जा
सकती, और समागमके सवाय यह बात करनेका अ य कोई उपाय हाथमे नही है, इस लये जब ई रे छा
होगी तव यह बात करगे।
ऊपर जो उपा धमेसे अह व र करनेके वचन लखे है, उन पर आप कुछ समय वचार करगे यो
ही वैसी दशा हो जायेगी ऐसी आपक मनोवृ है, और ऐसी पागल श ा लखनेक सवा मा ह रक
इ छा होनेसे मैने आपको लखी है, इस लये यथासभव इसे अपनाय । पुन पुनः आपसे अनुरोध है क
उपा धमे आप यथासभव न शकतासे रहकर उ म कर । या होगा ? यह वचार छोड दे ।
___ इससे वशेष प वात लखनेक यो यता अभी मुझे दे नेका अनु ह ई रने नही कया है, और
उसका कारण मेरी वैसी अधीन भ नही है । आप सवथा नभय रहे ऐसी मेरी पुनः पुन वनती है।
इसके सवाय मै और कुछ लखने यो य नही ँ। इस वषयमे समागममे हम वातचीत करगे । आप कसी
तरह ख न हो। यह खाली धीरज दे नेके लये ही स म त नह द है, परतु जैसी अ तरमे फु रत
ई वैसी स म त द है। अ धक लखा नह जा सकता, परतु आपको आकुल नही रहना चा हये.
इस वनतीको वारवार मा नये । बाक हम तो नबल ह। ज र मा नये क हम नबल ह; परतु ऊपर
नसानी ई - म त सवल है, जैसी-तैसी नही है, परतु स ची है। आपके लये यही माग यो य है।
आप ानकथा ल खयेगा । ' बोधशतक' अभी तो भाई रेवाशकर पढते है। र ववार तक वा पस
भेजना म भव होगा तो वा पस भेजंगा, नही तो रखनेके बारेमे लखूगा, और ऐसा होनेपर भी उसके
मा लकक ओरसे कुछ ज द हो तो ल खयेगा, तो भेज ं गा।
आपके सभी ोके यथे छ उ र उपा धयोगके कारण अपनी पूण इ छासे नही लख सका ँ,
परतु आप मेरे अतरको समझ लगे ऐसी मुझे न शकता है।
ल. आ ाकारी रायचद।
२१८ बबई, फागुन सुद १३, सोम, १९४७
सवा मा ह रको नम कार
'सत्' सत् है, सरल है, सुगम है, उसक ा त सव होती है।
सत् हे । कालसे उसे बाधा नही है । वह सबका अ ध ान है। वाणीसे अक य है। उसक ा त
होती है, और उस ा तका उपाय है।
चाहे जस स दाय, दशनके महा माओका ल य एक 'सत्' ही है। वाणीसे अक य होनेसे गंगेक
भां त समझाया गया है, जससे उनके कयनमे कुछ भेद लगता है, व तुत भेद नह है।
लोकका व प सव कालमे एक थ तका नही है, वह ण णमे पातर पाता रहता है, अनेक
प नये होते है, अनेक थर रहते ह और अनेक लय पाते ह । एक ण पहले जो प बा ानसे मालूम
नही आ था, वह दखायी दे ता है, और णमे ब त द घ व तारवाले प लयको ा त होते जाते ह।।
महा माक व मानतामे भासमान लोकके व पको अ ानीके अनु हके लये कुछ पातरपूवक कहा ।
जाता है, परतु जसक सव कालमे एकसी थ त नह है, ऐसा यह प 'सत्' नही होनेसे चाहे जस ।
पमे वणन करके उस समय ा त र क गयी है, ओर इसके कारण, सव यह व प हो हो, ऐसा

२७६
ीमद् राजच
नही है ऐसा समझमे आता है । बालजीव तो उम व पको शा त मानकर ा तमे पड़ जाते है, पर तु
कोई यो य जीव ऐसी अनेकताक कथनीसे परेशान होकर 'सत्' क ओर झुकता है। ाय. सभी मुमु ु
इसी कार मागको ा त ए है। ा त'का ही प ऐसे इस जगतका वारवार वणन करनेका महा
। पु पोका यही उ े श है क उस व पका वचार करते ए ाणी ा तको ा त हो क स चा या है ?
'यो अनेक कारसे कहा गया है, उसम या मानूं? और मेरे लये या क याणकारक हे ? यो वचार
करते करते इसे एक ा तका वपय मानकर जहाँसे 'सत्' क ा त होती ह ऐसे मतक शरणके वना
छु टकारा नह है, ऐसा समझकर, उसे खोजकर, शरणाप होकर, 'सत्' पाकर 'सत्' प हो जाता है।
जैनक वा शैलीको दे खते ए तो, तीथकरको सपूण ान होता हे यो कहते ए हम ा तमे
पड जाते है । इसका अथ यह है क जैनक अतशली सरी होनी चा हये। यो क इस जगतको
'अ ध ान' से र हत व णत कया गया है, और वह वणन अनेक ा णयो, वच ण आचाय को भी
ा तका कारण आ है। तथा प हम अपने अ भ ायसे वचार करते है, तो ऐसा लगता है क
तीथकरदे व तो ानी आ मा होने चा हये, परतु उस कालक अपे ासे जगतके पका वणन कया है।
और लोक सव कालके लये-ऐसा मान बैठे है, जससे ा तम पडे है। चाहे जो हो, परतु इस कालमै
जैनमे तीथङ् करके मागको जाननेक आका ावाले जीवोका होना लभ सभ वत हे, यो क च ानपर चढा
आ जहाज, और वह भी पुराना, यह भयकर है। उसी कार जैनक कथनी जीण शीण हो गयी है।
'अ ध ान' वपयक ा त प च ानपर उसका जहाज चढा है, जससे सुख प होना सभव नही है । यह
हमारी बात य पमे दखायी दे गी।
' तीथङ् करदे वके स ब धमे हमे वारवार वचार रहा करता है क उ होने 'अ ध ान' के बना इस
जगतका वणन कया है, उसका या कारण होगा ? या उ हे अ ध ान' का ान नह आ होगा?

ी ी ो ी े े ो े े े
अथवा अ ध ान' ही नही होगा ? अथवा कसी उ े शसे छपाया होगा? अथवा कथन भेदसे पर परासे
समझमे न आनेसे 'अ ध ान' वषयक कथन लयको ा त हआ होगा ? ये वचार आ करते है । य प
हम तीथङ् करको महा पु प मानते है, उ हे नम कार करते है, उनके अपूव गुणोपर हमारी परम भ है,
और इस लये हम समझते है क 'अ ध ान' तो उ होने जाना था, परतु लोगोने परपरासे मागक भूलसे
उसका लय कर डाला।
जगतका कोई 'अ ध ान' होना चा हये ऐसा ब तसे महा माओका कथन है। और हम भी यही
। कहते है क 'अ ध ान' है। और वह 'अ ध ान' ही ह र भगवान है, जसे पुन. पुनः दयदे शमे
दे खते ह।
'अ ध ान' एव उपयु कथनके वषयमे समागममे अ धक स कथा होगी। लेखनमे वैसी नही आ
सकेगी। इस लये इतनेसे ही क जाता ँ।
जनक वदे ही ससारमे रहते ए भी वदे ही रह सके यह य प एक वडा आ य है, महा महा
वकट है, तथा प जसका आ मा परम ानमे तदाकार है, वह जैसे रहता हे वैसे रहा जाता है । और जैसे
ार धकमका उदय वैसे रहते ए उसे वाध नही होता। जनका सदे ह होनेका अहभाव मट गया है ऐसे
उन महाभा यक दे ह भी मानो आ मभावमे ही रहती थी, तो फर उनक दशा भेदवाली कहाँसे होगी?
ीकृ ण महा मा थे और ानी होते ए भी उदयभावसे ससारमे रहे थे, इतना जैन शा से भी
जाना जा सकता है और यह यथाथ है, तथा प उनक ग तके वपयमे जो भेद बताया है उसका भ
कारण है। और भागवत आ दमे तो जन ीकृ णका वणन कया हे वे तो परमा मा ही ह। परमा माक
लीलाको महा मा कृ णके नामसे गाया है। और इस भागवत और इस कृ णको य द महापु पसे समझ

२४ वाँ वष
२७७
ले तो जीव ान ा त कर सकता है। यह बात हमे ब त य है। और आपके समागममे अब इसक
वशेष चचा करगे । लखा नही जाता।
वग, नरक आ दक ती तका उपाय योगमाग है। उसमे भी जसे रद शताक स ात
होती है, वह उसक ती तके लये यो य है। सवकाल यह ती त ाणीके लये लभ हो पडी है । ान-
मागमे इस वशेष बातका वणन नही है, पर तु यह सब ह अव य ।
मो जतने थानमे बताया है वह स य है । कमसे, ा तसे अथवा मायासे छू टना यह मो है।
यह मो क श द ा या है।
जीव एक भी है और अनेक भी है। अ ध ानसे एक है। जीव पसे अनेक है। इतना प ीकरण ।
लखा है, तथा प इसे ब त अधूरा रखा है। यो क लखते ए कोई वैसे श द नही मले। पर तु आप
समझ सकेगे ऐसी मुझे न शकता है।
तीथकरदे वके लये स त श द लखे गये ह, इस लये उ हे नम कार ।
२१९
बंबई, फागुन वद १, १९४७
"एक दे खये, जा नये'' इस दोहेके वषयमे आपने लखा, तो यह दोहा हमने आपक न.शकताक
ढताके लये नही लखा था, पर तु वभावतः यह दोहा श त लगनेसे लख भेजा था। ऐसा लय तो
गोपागनाओमे था। ीम ागवतमे महा मा ासने वासुदेव भगवानके त गो पयोक ेमभ का वणन
कया है वह परमा ादक और आ यकारक है।।
"नारद भ सू " नामका एक छोटा श ाशा मह ष नारदजीका रचा आ है, उसमे ेमभ -
का सव कृ तपादन कया है।
___ उदासीनता कम होनेके लये आपने दो तीन दन यहाँ दशन दे नेक कृपा द शत क , पर तु वह
उदासीनता दो तीन दनके दशनलाभसे र होनेवाली नह है । परमाथ उदासीनता है। ई र नर तरका
दशनलाभ दे ऐसा कर तो पधारना, नही तो अभी नह ।
२२०
बबई, फागुन वद ३, श न, १९४७
आज आपका ज मकु डलीस हत प मला। ज मकु डली स ब धी उ र अभी नह मल सकता,
भ स ब धी ोके उ र यथा सग लखूगा । हमने आपको जस स व तर प मे 'अ ध ान'के
वषयमे लखा था वह समागममे समझा जा सकता है।
'अ ध ान'का अथ यह है क जसमेसे व तु उ प ई, जसमे वह थर रही और जसमे वह
लयको ा त ई। इस ा याके अनुसार "जगतका अ व ान"का अथ सम झयेगा।
जैनदशनमे चैत यको सव ापक नही कहा है। इस वषयमे आपके यानमे जो कुछ हो सो
ल खयेगा।
२२१
ववई, फागुन वद ८, वुध, १९४७
ीम ागवत परमभ प ही है । इसमे जो जो वणन कया हे वह सव ल य पको सू चत करनेके
लये है।
१ एक दे खये जा नये, रमी र हये इक ठोर ।
समल वमल न वचा रये, यह स न ह और ॥ -समयमार नाटक, जीव ार ।
२७८
ीमद् राजच
मु नको सव ापक अ ध ान आ माके वषयमे कुछ पूछनेसे ल य प उ र नही मल सकेगा।
क पत उ रसे काय स नही है। आप अभो यो तषा दक भी इ छा न कर, यो क वह क पत है,
और क पतपर यान नही है।
पर पर समागम-लाभ परमा माक कृपासे हो ऐसा चाहता ँ। वैसे उपा धयोग वशेष रहता है,
तथा प समा धमे योगक अ यता कभी न हो ऐसा ई रका अनु ह रहेगा, ऐसा लगता है। वशेष
स व तर प लखूगा तब ।
व० रायचद।
२२२
बबई, फागुन वद ११, १९४७
यो तपको क पत कहनेका हेतु यह है क यह वषय पारमा थक ानक अपे ासे क पत ही है,
और पारमा थक ही सत् है, और उसीक रटन रहती है । अभी ई रने मेरे सरपर उपा धका बोझ वशेष
रख दया है, ऐसा करनेमे उसक इ छाको सुख प ही मानता ँ।
जैन थ इस कालको पचमकाल कहते है और पूराण थ इसे क लकाल कहते ह, यो इस
कालको क ठन काल कहा है, इसका हेतु यह है क जीवको इस कालमे 'स सग और स शा ' का
मलना लभ है, और इसी लये कालको ऐसा उपनाम दया है।
हमे भी पचमकाल अथवा क लयुग अभी तो अनुभव दे ता है। हमारा च न: पृह अ तशय है।
और जगतमे स पृहके पमे रह रहे ह, यह क लयुगक कृपा है ।
२२३
बबई, फागुन वद १४, बुध, १९४७
दे हा भमाने ग लते, व ाते परमा म न।।
य य मनो या त, त त समाधयः॥
मै कता, म मनु य, मै सुखी, म खी इ या द कारसे रहा आ दे हा भमान जसका ीण हो गया
है, और सव म पद प परमा माको जसने जान लया है, उसका मन जहाँ जहाँ जाता है वहाँ वहाँ उसे
समा ध ही है।
आपके प अनेक बार स व तर मलते ह, और उन प ोको पढकर पहले तो समागममे ही
रहनेक इ छा होती है। तथा प कारणसे उस इ छाका चाहे जस कारसे व मरण करना पडता
है, और प का स व तर उ र लखनेक इ छा होती है, तो वह इ छा भी ाय. व चत् ही पूरी हो
“पाती है । इसके दो कारण है । एक तो इस वषयमे अ धक लखने जैसी दशा नह रही है, और सरा
कारण है उपा धयोग । उपा धयोगक अपे ा वतमान दशाका कारण अ धक बलवान है । - जो दशा ब त
न पृह है, और उसके कारण मन अ य वषयमे वेश नही करता, और उसमे भी परमाथके वषयमे
लखते ए केवल शू यता जैसा आ करता है, इस वषयमे लेखनश तो इतनी अ धक शू यताको ा त
हो गयी है, वाणी सगोपा अभी इस वषयमे कुछ काय कर सकती है, और इससे आशा रहती है क
समागममे ई र अव य कृपा करेगा। वाणी भी जैसे पहले मपूवक बात कर सकती थी, वैसी अब नही
लगती । लेखनश श यताको ा त ई जैसी होनेका कारण एक यह भी है क च मे उ त बात ब त
नयोसे यु होती है, और वह लेखनमे नही आ सकती, जससे च वैरा यको ा त हो जाता है ।
__ आपने एक बार भ के स ब धमे कया था, उसके स ब धमे अ धक बात तो समागममे हो
सकती है, और ाय सभी बात के लये समागम ठ क लगता है। तो भी ब त ही स त उ र लखता ँ।

२४ वा वष
२७९
परमा मा और आ माका एक प हो जाना (1) यह पराभ क आ खरी हद है। एक यही लय
रहना सो पराभ है। परममहा या गोपागनाएँ महा मा वासुदेवक भ मे इसी कारसे रही थी।
परमा माको नरजन और नदह पसे चतन करनेपर यह लय आना वकट है, इस लये जसे परमा माका
सा ा कार आ है, ऐसा दे हधारी परमा मा उस पराभ का परम कारण है। उस ानी पु पके सव
च र मे ऐ यभावका ल य होनेसे उसके दयमे वराजमान परमा माका ऐ यभाव होता है, और यही
पराभ है । ानीपु ष और परमा मामे अतर ही नह है, और जो कोई अतर मानता है, उसे मागको
ा त परम वकट है । ानो तो परमा मा ही है, और उसक पहचानके बना परमा माक ा त नही ई
है, इस लये सवथा भ करने यो य ऐमी दे हधारी द मू त- ानी प परमा माक -का नम कार
आ द भ से लेकर पराभ के अत तक एक लयसे आराधन करना, ऐसा शा का आशय है । परमा मा
इस दे हधारी पसे उ प आ है ऐसी ही ानी पु पके त जीवको बु होनेपर भ उ दत होती
है, और वह भ मश. पराभ प हो जाती है। इस वपयमे ीम ागवतमे, भगव तामे
ब तसे भेद का शत करके इसी ल यक शसा क है, अ धक या कहना ? ानी तीथकरदे वमे ल य
होनेके लये जैनधममे भी पचपरमे ी म मे "णमो अ रहताण" पदके वाद स को नम कार कया है,
यही भ के लये यह सू चत करता है क पहले ानी पु पक भ , और यही परमा माक ा त
और भ का नदान है।
सरा एक (एकसे अ धक बार) आपने ऐसा लखा था क वहारमे ापार आ दके

े े ी औ ई ी ै
वषयमे यह वष यथे लाभदायक नही लगता, और क ठनाई रहा करती है।
परमा माक भ ही जसे य है, ऐसे पु षको ऐसी क ठनाई न हो तो फर ऐसा समझना
क उसे स चे परमा माक भ ही नही है। अथवा तो जान-बूझकर परमा माक इ छा प मायाने
वैसी क ठनाई भेजनेके कायका व मरण कया है। जनक वदे ही और महा मा कृ णके वपयमे मायाका
व मरण आ लगता है, तथा प ऐसा नही है। जनक वदे हीक क ठनाईके वपयमे यहाँ कुछ कहना
यो य नही है, यो क वह अ गट क ठनाई है, और महा मा कृ णक सकट प क ठनाई गट ही है।
इसी तरह अ महा स और नव न ध भी स ही है, तथा प क ठनाई तो यो य ही थी, और होनी
चा हये । यह क ठनाई मायाक है, और परमा माके ल यको तो यह सरलता ही है, और ऐसा ही हो।
x x x राजाने वकट तप करके परमा माका आराधन कया, और दे हधारी पसे परमा माने उसे
दशन दया और वर मांगनेको कहा तब xxx राजाने माँगा क हे भगवन् । ऐसो जो रा यल मी मुझे
द है वह ठ क ही नही है, तेरा परम अनु ह मुझपर हो तो यह वर दे क पच वषयक साधन प इस रा य-
ल मीका फरसे मझे व भी न आये । परमा मा दग रहकर 'तथा तु' कहकर वधामको चले गये।
___ कहनेका आशय यह है क ऐसा ही यो य है । भगव को क ठनाई और सरलता तथा साता
एव असाता यह सब समान हो है। और फर क ठनाई और असाता तो वशेष अनुकूल है क जहाँ
मायाके तबधका दशन ही नह होता।
आप तो इस बातको जानते ही ह, तथा प कुटु ब आ दके वपयमे क ठनाई होनी यो य नही है
ऐसा मनमे उठता हो तो उसका कारण यही है क परमा मा यो कहता है क आप अपने कुटु बके त
न नेह होव, और उसके त समभावी होकर तव ध र हत होव, वह आपका है ऐसा न मान, और
ार धयोगके कारण ऐसा माना जाता है, उसे र करनेके लये मने यह क ठनाई भेजी है। अ धक या
कहना? यह ऐसा ही है।

२८०
२२६
ीमद् राजच
२२४
ववई, फागुन वद २, १९४७
'योगवा स ' आ द वैरा य उपशम आ दके उपदे शक शा ह, उ हे पढनेका जतना अ धक
अ यास हो, उतना करना यो य है । अमुक याके वतनमे जो ल य रहता है उसका वशेपत समाधान
बतलाने सवधी भू मकामे अभी हमारी थ त नही है ।
२२५
बंबई, फागुन वद ३, श न, १९४७
सु भाई,
भाई भोवनका एक उ र दे ने यो य है । तथा प अभी कोई इस कारका उदयकाल रहता
है क ऐसा करनेमे न पायता हो रही है। इसके लये मा चाहता ँ।।
___ भाई भोवनके पताजीसे मेरे यथायो यपूवक कहना क आपके समागममे स ता है, परतु
कतनी ही ऐसी न पायता है क उस न पायताको भोगे बना सरे ाणोको परमाथके लये प
कह सकने जैसी दशा नही है । और इसके लये द नभावसे आपक मा चाही है।
योगवा स से वृ उपशम रहती हो तो पढने-सुननेमे तव ध नही है । अ धक उदयकाल बीतने-
पर । उदयकाल तक अ धक कुछ नही हो सकेगा। .
बंबई, फागुन, १९४७
स व पको अभेद भ से नम कार
सु भाई छोटालाल,
यहाँ आनदवृ है। सु अवालाल और भोवनके प मले ऐसा उ हे कहे । अवसर ा त
होनेपर यो य उ र दया जा सके ऐसा भाई भोवनका प है।
वासनाके उपशमाथ उनका व ापन है, और उसका सव म उपाय तो ानो पु षका योग
मलना है । ढ मुमु ुता हो और अमुक काल तक वैसा योग मला हो तो जीवका क याण हो जाये इसे
नशंक मा नये।
आप सब स सग, स शा आ द स ब धी आजकल कैसे योगमे रहते है सो लख। इस योगके
लये मादभाव करना यो य ही नही है, मा पूवक कोई गाढ तब ता हो, तो आ मा तो इस वषयमे
अ म होना चा हये।
आपक इ छाक खा तर कुछ भी लखना चा हये, इस लये यथा सग लखता ँ। बाक अभी
स कथा लखी जा सकने जैसी दशा ( इ छा ?) नही है।
दोनोके प न लखने पड, इस लये यह एक आपको लखा है। और यह जसे उपयोगी हो उसका
है। आपके पताजीसे मेरा यथायो य क हये, याद कया है ऐसा भी क हये। व० रायचद ।
२२७
__वबई, फागुन, १९४७
त काल या नय मत समयपर प लखना नही बन पाता। इस लये वशेष उपकारका हेतु होनेका
यथायो य कारण उपे त करना पडता है, जसके लये खेद हो तो भी ार धका समाधान होनेके लये
वे दोनो ही कार उपशम करने यो य है।
२२८


वंबई, फागुन, १९४७
स पदे शा मक सहज वचन लखने हो इसमे भी लखते लखते वृ सकु चतताको ा त हो जाती
है, यो क उन वचनोके साथ सम त परमाथ मागको स ध मली होती है, उसको हण करना पाठक के

२४ वां वष
२८१
लये कर होता है और व तारसे लखनेपर भी पाठकोको अपने योपशमक मतासे अ धक हण
करना क ठन होता है, और फर लखनेमे उपयोगको कुछ ब हमुख करना पड़ता है, वह भी नही हो
सकता । यो अनेक कारणोसे प ोक प ँच भी कतनी ही बार लखी नही जाती।
२२९
ववई, फागुन, १९४७
अनतकालसे जीवको असत् वासनाका अ यास है। इसमे एकदम स सवधी स कार थत नही
होते । जैसे म लन दपणमे यथायो य त बव-दशन नह हो सकता वैसे अस ासनायु च मे भी सत्-
स ब धी स कार यथायो य त ब बत नही होते । व चत् अशत होते है, वहाँ जीव फर अनतकालका
जो म या अ यास है, उसके वक पमे पड जाता है। इस लये व चत् उन स के अशोपर आवरण आ
जाता है । स सवधी स कारोक ढता होनेके लये सवथा लोकल जाक उपे ा करके स सगका प रचय
करना ेय कर है। लोकल जाको तो कसी बडे कारणमे सवथा छोडना पड़ता है। सामा यत. लोक-
समुदायमे स संगका तर कार नही है, जससे ल जा खदायक नह होती । मा च मे स सगके लाभका
वचार करके नरतर अ यास करे तो परमाथमे ढता होती है।
२३०
बबई, चै सुद ४, र व, १९४७
एक प मला क जसमे कतने ही जीव यो यता रखते है, पर तु माग बतानेवाला नही है' इ या द
ववरण लखा है। इस वषयमे पहले आपको ायः अ त गूढ भी प ीकरण कया है। तथा प आप
परमाथक उ सुकतामे अ य धक त मय है क जससे उस प ीकरणका व मरण हो जाये, इसमे आ यक
बात नही है फर भी आपको मरण रहनेके लये लखता ँ क जब तक ई रे छा नह होगी तब तक |
हमसे कुछ भी नही हो सकेगा। एक तनकेके दो टु कडे करनेक स ा भी हम नही रखते। अ धक या
कहे ? आप तो क णामय है । फर भी आप हमारी क णाके वषयमे यो यान नह दे ते, और ई रको
यो नही समझाते ?
:
२३१
बबई, चै सुद ७, बुध, १९४७
महा मा कबीरजी तथा नर सह मेहताक भ अन य, अलौ कक, अ त और सव कृ थी, फर
भी वह नः पहा थी । ऐसी खी थ त होनेपर भी उ होने व मे भी आजी वकाके लये और वहारके
लये परमे रके त द नता गट नही क । य प ऐसा कये बना ई रे छासे उनका वहार चलता
रहा है, तथा प उनक द र ाव था अभी तक जगत व दत है, और यही उनका वल माहा य है।
परमा माने उनका 'परचा' पूरा कया है और वह भी उन भ ोक इ छाको उपे ा करके, यो क भ ोक
ऐसी इ छा नही होती, और ऐसी इ छा हो तो उ हे रह यभ क भी ा त नह होती। आप हजारो
बात लख, पर तु जब तक न पृह न हो ( न बन ) तव तक वडवना ही है।
__ववई, चै सुद ९, शु , १९४७
परे छानुचारीको श दभेद नह है
सु भाई भोवन,
___ कायके जालमे आ पड़नेके बाद ाय येक जीव प ा ापयु होता है। कायके ज मसे पहले
वचार हो और वह ढ रहे, ऐसा होना ब त वकट है, ऐसा जो सयाने मनु य कहते ह वह सच है । तो
आपको भी इस सगमे खपूवक चतन रहता होगा, और ऐसा होना स भव हे। कायका जो प रणाम

२८२
ीमद् राजच
आया हो वह प ा ापसे तो अ यथा नही होता, तथा प सरे वैसे सगमे उपदे शका कारण होता है।
ऐसा ही होना यो य था, ऐसा मानकर शोकका प र याग करना और मा मायाक बलताका वचार
करना यह उ म है। मायाका व प ऐसा है क इसमे, जसे 'सत्' स ा त है ऐसे ानी पु पको भी रहना
वकट है, तो फर जसमे अभी मुमु ुताके अशोक भी म लनता है उसे इस व पमे रहना वकट,
भुलावेमे डालनेवाला और च लत करने वाला हो, इसमे कुछ आ य नही है ऐसा ज र सम झये।
- य प हमे उपा धयोग है, तथा प ऐसा कुछ नही है क अवकाश नह मलता, पर तु दशा ऐसी है
क जसमे परमाथ सवधी कुछ न हो सके, और च भी अभी तो वैसी ही रहती है।
मायाका पच ण णमे वाधकता है, उस पचके तापक नवृ कसी क प मक छाया है,
और या तो केवलदशा है, तथा प क प मको छाया श त है, उसके बना इस तापक नवृ नह है,
और इस क प मक वा त वक पहचानके लये जोवको यो य होना श त है। उस यो य होनेमे
बाधकता ऐसा यह माया- पच है, जसका प रचय जैसे कम हो वैसे चले बना यो यताके आवरणका
भग नही होता। कदम-कदमपर भययु अ ान भू मकामे जीव बना वचारे करोड़ो योजन चलता
रहता है, वहाँ यो यताका अवकाश कहाँसे हो ? ऐसा न होनेके लये कये ए काय के उप वको यथाश
े े ो े े ै
शा त करके, (इस वषयक ) सवथा नवृ करके यो य वहारमे आनेका य न करना उ चत है ।
'लाचार होकर' करना चा हये, और वह भी ार धवशात् न पृह बु से, ऐसे वहारको यो य वहार
मा नये | यहाँ ई रानु ह है।
व० रायच दके णाम ।
२३३
ब बई, चै सुद १०, १९४७
जबु वामीका ा त सगको बल करनेवाला और ब त आन ददायक दया गया है । लुटा
दे नेक इ छा होनेपर भी लोक वाह ऐसा माने क चोरो ारा ले जानेके कारण जबु वामीका याग है, तो
यह परमाथके लये कलक प है, ऐसा जो महा मा जबुका आशय था वह स य था ।
इस वातको यहाँ स त करके अब आपको करना यो य है क च क मायाके सगोमे
आकुलता- ाकुलता हो, और उसमे आ मा च तत रहा करता हो, यह ई रक स ताका माग है
या ? तथा अपनी बु से नही, पर तु लोक वाहके कारण भी कुटु ब आ दके कारणसे शोकातुर होना
यह वा त वक माग है या? हम आकुल होकर कुछ कर सकते ह या? और य द कर सकते है तो फर
ई रपर व ास या फलदायक है ? ।
यो तप जैसे क पत वषयक ओर सासा रक सगमे न पृह पु ष यान दे ते होगे या ? और
हम यो तष जानते ह, अथवा कुछ कर सकते है, ऐसा न माने तो अ छा, ऐसी अभी इ छा है। यह
आपको पस द है या ? सो ल खयेगा ।
२३४ ब बई, चै सुद १०, श न, १९४७
सवा म व पको नम कार
___ जसके लये अपना या पराया कुछ नही रहा है, ऐसी कसी दशाक ा त अव समीप ही है,
(इस दे हमे है); और इसी कारण परे छासे रहते है । पूवकालमे जस जस व ा, वोध, ान और याक
ा त हो गयी है उन सबको इस ज ममे ही व मरण करके न वक प ए वना छु टकारा नह है, और
इसी कारण इस तरह रहते ह। तथा प आपक अ धक आकुलता दे खकर कुछ कुछ आपको उ र दे ना
पड़ा है. वह भी वे छासे नही, ऐसा होनेसे आपसे वनती है क इस सव मा यक व ा अथवा मा यक

२४ वॉ वष
२८३
माग स ब धी आपक ओरसे मेरी सरी दशा होनेतक मरण न दलाया जाये, ऐसा यो य है। य प मै
आपसे भ नही , ँ तो आप सवथा नराकुल रहे । आपसे परम ेम है, पर तु न पायता मेरी है।
२३५
ब बई, चै सुद १४, गु , १९४७
स व तर प मेसे अमुक थोडा भाग छोडकर शेप भाग परमान दका, न म आ था। जो थोडा
भाग बाधकता प है, वह ई रानु हसे आपके दयसे व मृत होगा ऐसी आशा रहा करती है।
ानीक प रप व अव था (दशा) होनेपर सवथा राग- े षक नवृ हो जाती है ऐसी हमारी
मा यता है, तथा प इसमे भी कुछ समझने जैसी बात है, यह सच है । सगसे इस वषयमे लखेगा।
ई रे छाके अनुसार जो हो सो होने दे ना यह भ मानके लये सुखदायक है।
२३६
ब बई, चै सुद १५, गु , १९४७
सु भाई ी अबालाल,
यहाँ कुशलता है । आपका कुशलप ा त आ । रतलामसे लौटते ए आप यहाँ आना चाहते है,
उस इ छामे मेरो स म त है । वहाँसे वदा होनेका दन न त होनेपर यहाँ कानपर प ल खयेगा।
आप जब यहाँ आय तब, आपका हमारेमे जो परमाथ ेम है वह यथासभव कम ही गट हो
ऐसा क जयेगा। तथा न न ल खत बाते यानमे रखगे तो ेय कर है।
१ मेरी अ व मानतामे ी रेवाशंकर अथवा खीमजीसे कसी तरहक परमाथ वषयक चचा नही
करना ( व मानतामे अथात् म पास बैठा ँ तब)।
२ मेरी व मानतामे उनसे गभीरतापूवक परमाथ वषयक चचा हो सके तो ज र करे, कभी
रेवाशकरसे और कभी खीमजीसे ।
३ परमाथमे नीचे लखी बाते वशेष उपयोगी है-
(१) पार होनेके लये जीवको पहले या जानना चा हये ?
(२) जीवके प र मण होनेमे मु य कारण या ?
(३) वह कारण कैसे र हो ?
(४) उसके लये सुगमसे-सुगम अथात् अ पकालमे फलदायक हो ऐसा उपाय कौनसा है ?
(५) या ऐसा कोई पु ष होगा क जससे इस वषयका नणय ा त हो सके ? इस कालमे
ऐसा पु ष हो सकता है ऐसा आप मानते है ? और य द मानते है तो कन कारणोसे ?
ऐसे पु पके कोई ल ण होते ह या नह ? अभी ऐसा पु ष हमे कस उपायसे ा त हो
सकता है ?
(६) य द हमारे सबंधी कोई सग आये तो पूछना क 'मो माग' क इ हे ा त है, ऐसी
न शकता आपको है ? और है तो कन कारणोसे ? ये वृ वाली दशामे रहते हो, तो
पूछना क इस वषयमे आपको वक प नही आता ? इ हे सवथा न पृहता होगी या ?

ी े ो ो े
कसी तरहके स योग होगे या ?
(७) स पु पक ा त होनेपर जीवको माग न मले, ऐसा सभव हे या ? ऐसा हो तो इसका
या कारण ? य द जोवक 'अयो यता' बतानेमे आये तो वह अयो यता कस वपयक ?
(८) खीमजीसे करना क या आपको ऐसा लगता है क इस पु पके सगसे यो यता ा त
होनेपर इससे ान ा त हो सकती है ?

२८४
ीमद राजच
इ या द बातोक चचा सगानुसार कर। एक एक बातका कोई नणायक उ र उनक तरफसे
मलनेपर सरे सगपर सरी बातक चचा कर।
खीमजीमे कुछ समझनेको श ठ क है, पर तु यो यता रेवाशकरक वशेप है। यो यता ान-
ा तके लये अ त बलवान कारण है।
उपयु वातोमेसे आपको जो सुगम लगे वे पूछे । एकक भी सुगमता न हो तो एक भी न पूछे,
तथा इन बातोका ेरक कौन है ? यह मत बताना।
खभातसे ी भोवनदासक यहाँ आनेक इ छा रहती है, तो इस इ छामे म स मत ँ। आप
उ ह रतलामसे प लखे तो आपक बबईमे जब थ त हो, तब उ हे आनेक अनुकूलता हो तो आनेमे
मेरी स म त है, ऐसा ल खयेगा।
____ आप कोई मुझसे मलने आये ह, यह बात खीमजी आ दसे भी न कहना । यहाँ आनेका कोई
ावहा रक कारण हो तो उसे अव य खीमजीसे कहना ।
यह सब लखना पडता है इसका उ े श मा यह एक वृ योग है । ई रे छा बलवान है, और
सुखदायक है।
यह प वारवार मनन करने यो य है।
वारवार मनमे यह उठता है क या अवध वधनयु हो सकता है ? आप या मानते है ?
व० रायच दके णाम।
२३७
बबई, चै वद २, श न, १९४७
सु भाई भोवन,
"परे छानुचारीको श दभेद नह है।" इस वा यका अथ समागममे पू छये ।
परम समा ध प ानीको दशाको नम कार ।
व० रायचदके णाम ।
२३८
बबई, चै वद ३, र व, १९४७
उस पूणपदक ानी परम ेमसे उपासना करते ह।
चारेक दन पहले आपका प मला। परम व पके अनु हसे यहाँ समा ध हे । आपक इ छा
स योक ा तके लये रहती है, यह पढकर वारवार आनद होता है।
च क सरलता, वैरा य और 'सत्' ा त होनेक अ भलापा-ये ा त होने परम लभ है, और
उनक ा तके लये परम कारण प स सगका ा त होना तो परम परम लभ है। महान पु पोने इस
कालको क ठन काल कहा है, उसका मु य कारण तो यह है क जीवको स सगका योग मलना ब त
क ठन है, और ऐसा होनेसे कालको भी क ठन कहा है। मायामय अ नस चौदह राजूलोक व लत है ।
उस मायामे जीवको बु अनुरक हो रही है, और इस कारणसे जीव भी उस वध ताप-अ नसे
जला करता है, उसके लये परम का यम तका उपदे श ही परम शीतल जल है, तथा प जीवको चारो
आरसे अपूण पु यके कारण उसक ा त होना लभ हो गया है। पर तु इसी व तुका चतन रखना।
'सत्' म ी त, 'सत्' प सतमे परम भ , उसके मागक अ भलाषा, यही नरतर मरण करने यो य
ह। उनका मरण रहनेमे वैरा य आ द च र वाली उपयोगी पु तक, वैरागी एवं सरल च वाले मनु यो-
का सग और अपनी च शु , ये सु दर कारण है। इ हीक ा तक रटन रखना क याणकारक है।
यहा समा ध है।

२८५
२३९
वबई, चै वद ७, गु , १९४७
"आ यु सौने ते अ रधाम रे !!
कल एक कृपाप मला था । यहाँ परमान द है।
य प उपा धसयु बहतसा काल जाता है, क तु ई रे छाके अनुसार वृ करना ेय कर
है और यो य है, इस लये जैसे चल रहा है वैसे चाहे उपा ध हो तो ठ क, न हो तो भी ठ क, जो हो वह
समान ही है।
ानवाता स ब धी अनेक मं आपको बतानेको इ छा होती है, तथा प वरहकाल य है,
इस लये न पायता है। म अथात् गु तभेद । ऐसा तो समझमे आता है क भेदका भेद र होनेपर
वा त वक त व समझमे आता है। परम अभेद ऐसा 'सत्' सव है।
___ व० रायचद
२४०
बबई, चै वद ९, र व, १९४७
कल प और प० पू य ी सोभागभाईका प साथमे मला।
आप उ हे वनयपूण प सहष ल खये । साथ ही वलब होनेका कारण बताइये । साथ ही ल खये
क रायचदने इस वषयमे ब त स ता द शत क है।
अभी मुझे मुमु ुओका तब ध भी नही चा हये था, यो क अभी आपको पोषण दे नेक मेरी
अश यता रहती है । उदयकाल ऐसा ही है। इस लये सोभागभाई जैसे स पु षके साथका प वहार
आपको पोषण प होगा । यह मुझे बड़े सतोषका माग मला है। उ हे प लख । ानकथा लखे, तो म
वशेष स ँ।
बबई, चै वद १४, गु , १९४७
जसे लगी है, उसीको लगी है और उसीने जानी है, वही "पी पी" पुकारता है । यह ा ो वेदना
कैसे कही जाय? क जहाँ वाणीका वेश नह है। अ धक या कहना? जसे लगी है उसीको लगी है।
उसीके चरणसगसे लगती है, और जब लगती है तभी छु टकारा होता है। इसके बना सरा सुगम मो -
माग है ही नही । तथा प कोई य न नही करता | मोह बलवान है।
बवई, चे , १९४७
२४२
आपके प ा त ए है । इस प के आनेके वषयमे सवथा गभीरता र खये।
आप सब धीरज र खये और नभय र हये।
सु ढ वभावसे आ माथका य न करना । आ मक याण ा त होनेमे ाय वारवार बल प र-
पहोका आना वाभा वक है । पर तु य द उन प रपहोका वेदन गात च से करनेमे आता है, तो द घ
कालमे हो सकने यो य आ मक याण ब त अ प कालमे स हो जाता है।
आप सब ऐसे शु आचरणसे र हये क वपम से दे खनेवाले मनु योमेसे ब तोको, समय
बोतनेपर अपनी उस के लये प ा ाप करनेका व आये।
नराश न होना।
उपाधयमे जानेसे शा त होती हो तो वैसा कर । साण द जानेसे अगा न कम होती हो तो वैसा करे।
वदन, नम कार करनेमे आ ाका अ त म नह है । उपा यमे जानेक वृ न हो तो मनु योक भीडके समय
१. दया सबको वह अ रधाम रे ।

२८६
ीमद् राजच
नही जाना, एव सवथा एकातमे भी नही जाना । मा जब थोडे यो य मनु य हो तब जाना। और जाना
तो मशः जानेका रखना । व चत् कोई लेश करे तो सहन करना । जाते ही पहलेसे बलवान लेश
करनेक वृ दखायी दे तो कहना क "ऐसा लेश मा वषम वाले मनु य उ प कराते ह। और
य द आप धैय रखेगे तो अनु मसे वह कारण आपको मालूम हो जायेगा । अकारण नाना कारक क प-
नाओको फैलानेका जसे भय न हो उसे ऐसी वृ यो य है । आपको ोधातुर होना यो य नह है। वैसा
होनेसे बहतसे जीवोको मा स ता होगी। सघाडेक , ग छक और मागको अकारण अपक त होनेमे
साथ नह दे ना चा हये । और य द शात रहेगे तो अनु मसे यह लेश सवथा शात हो जायेग◌ा। लोग वही
बात करते हो तो आपको उसका नवारण करना यो य है, वहाँ उसे उ प करने जैसा अथवा बढाने
जैसा कोई कथन नह करना चा हये । फर जैसी आपक इ छा।"
मु न ल लुजीसे आपने मेरे लये जो बात कही है उस बातको मै स करना चाहता ँ ऐसा कहे
तो कहना क "वे महा मा पु ष और आप जब पुन मले तब उस बातका यथाथ प ीकरण ा त करके
मेरे त ोधातुर होना यो य लगे तो वैसा कौ जयेगा। अभी आपने उस वषयमे यथाथ प तासे वण
नह कया होगा ऐसा मालूम होता है।
____ आपके त े षबु करनेका मुझे नही कहा है। और आपके लये वसवाद फैलानेक बात भी
कसीके मुंहपर मैने नह क है। आवेशमे कुछ वचन नकला हो तो वैसा भी नह है। मा े षवान
जीवोक यह सारी खटपट है।
' ऐसा होनेपर भी य द आप कुछ आवेश करगे तो मै तो पामर ह, इस लये शात रहनेके सवाय
सरा कोई मेरा उपाय नह है । पर तु आपको लोगोके प का बल है, ऐसा मानकर आवेश करने जायगे
तो हो सकेगा । पर तु उससे आपको, हमे और ब तसे जोवोको कमका द घबध होगा, इसके सवाय कोई
सरा फल नही आयेगा। और अ य लोग स होगे । इस लये शात रखना यो य है।"
य द कसी सगमे ऐसा कहना उ चत लगे तो कहना, पर तु वे कुछ स तामे दखायी द तब.
कहना । और कहते ए उनको स ता बढ़ती जातो हो, अथवा अ स ता होती न, दखायी दे ती हो,
तब तक कहना।
अप र चत मनु यो ारा वे उलट सीधी बात फैलाये अथवा सरे वैसी बात लाये तो कहना क
आप सबका कषाय करनेका हेतु मेरो समझमे है । कसी ी या पु षपर कलक लगाते ए इतनी अ धक
स ता रखते है तो इसमे कही अ न हो जायेगा । मेरे साथ आप अ धक बात नह कर। आप अपनी
सँभाले । इस तरह यो य भाषामे जब अवसर दखायी दे तब कहना। बाक शातं रहना। मनमे आकुल
नही होना । उपाधयमे जाना, न जाना, साणद जाना, न जाना यह अवसरो चत जैसे आपको लगे वेसे
कर। पर तु मु यत शात रहे और स कर दे नेके स ब धमे कसी भी प ीकरणपर यान न द। ऐसा

ै े े
धैय रखकर, आ माथमे नभय र हये। .
बात कहनेवालेको कहना क मनक क पत बात कस लये चला रहे है ? कुछ परमे रका डर
रख तो अ छा, यो यो य श दोमे कहना, आ माथ म य ल करना।
. बबई, वैशाख सुद २, १९४७
सवा माके अनु हसे यहाँ समा ध है । बा ोपा धयोग रहता है । आपक इ छा मृ तमे है। और
उसके लये आपक अनुकूलताके अनुसार करनेको तैयार ह, तथा प ऐसा.तो.' रहता है क अबका हमारा.
समागम एकात अ ात थानमे होना क याणक है । और वैसा सग यानमे रखनेका य न है। नह तो

२८७
फर आपको अपनी अनुकूलताके अनुसार करना मा य है। ी भोवनको णाम कहे। आप सब जस
थलमे (पु षमे) ी त करते ह, वह या यथाथ कारणोको लेकर है ? स चे पु षको हम कैसे पहचान ?
बंबई, वैशाख सुद ७, शु , १९४७
पर आनंदमू त है, उसका कालमे अनु ह चाहते है।
कुछ नवृ का समय मला करता है, पर वचार तो योका यो रहा ही करता है. कभी तो
उसके लये आनंद करण ब त फु रत हो उठती ह, और कुछक कुछ (अभेद) बात समझमे आती है,
पर तु कसीसे कही नही जा सकती, हमारी यह वेदना अथाह है। वेदनाके समय साता पूछनेवाला
चा हये, ऐसा वहारमाग है, पर तु हमे इस परमाथमागमे साता पूछनेवाला नही मलता, और जो है
उससे वयोग रहता है । तो अब जसका वयोग है ऐसे आप हमे कसी भी कारसे साता पूछे ऐसी
इ छा करते है।
२४५
बबई, वैशाख सुद १३, १९४७
नमल ी तसे हमारा यथायो य वीकार क जये ।
ी भोवन और छोटालाल इ या दसे क हये, क ई रे छाके कारण उपा धयोग है, इस लये
आपके वा योके त उपे ा रखनी पड़ती है, और वह मा करने यो य है ।
बंबई, वैशाख वद ३, १९४७
वरह भी सुखदायक मानना।
ह रक वरहा न अ तशय जलनेसे सा ात् उसक ा त होती है। उसी कार सतके वरहानु-
भवका फल भी वही है । ई रे छासे अपने स ब धमे वैसा ही मा नयेगा।
पूणकाम ह रका व प है। उसमे जनका नरतर लय लग रहा है ऐसे पू प से भारत े ाय
शू यवत् आ है। माया, मोह ही सव दखायी दे ता है। व चत् मुमु ु दखाई दे ते ह, तथा प मतांतर
आ दके कारणोसे उ हे भी योगका मलना लभ होता है।
आप जो हमे वारवार े रत करते है, उसके लये हमारी जेसी चा हये वैसी यो यता नह है, और
ह र सा ात दशन दे कर जब तक उस बातके लये े रत नह करते तब तक इ छा नह होती और होगी
भो नह ।
२४७ ब बई, वैशाख वद ८, र व, १९४७
ह रके तापसे ह रका व प मलगे तब समझायगे (!)
उपा धयोग और च के कारण कतना ही समय स व तर प के बना तीत कया है. उसमे भी
च क दशा मु य कारण प है । आजकल आप कस कारसे समय तीत करते है सो ल खयेगा, और
या इ छा रहती है? यह भी ल खयेगा । वहारके कायमे या व है, और त सवधी या इ छा
रहती है ? यह भी व दत क जयेगा, अथात् वह वृ सुख प लगती है या ? यह भी ल खयेगा।
च क दशा चैत यमय रहा करती है, जससे वहारके सभी काय ाय. अ व थासे करते है।
हरी छाको सुखदायक मानते ह। इस लये जो उपा धयोग व मान है, उसे भी समा धयोग मानते ह।
च को अ व थाके कारण मु त मा मे कये जा सकनेवाले कायका वचार करनेमे भी पखवारा वता
दया जाता है और कभी उसे कये बना ही जाने दे ना होता है। सभी सगोम ऐसा हो तो भी हा न

२८८
ीमद् राजच
नही मानी है, तथा प आपसे कुछ कुछ ानवाता क जाये तो वशेप आन द रहता है, और उस सगमे
च को कुछ व थत करनेक इ छा रहा करती है, फर भी उस थ तमे भी अभी वेश नह कया
जा सकता। ऐसी च क दशा नरकुश हो रही है, और उस नरकुशताके ा त होनेमे ह रका परम
अनु ह कारण है ऐसा मानते है। इसी नरकुशताक पूणता कये बना च यथो चत समा धयु नही
होगा ऐसा लगता है । अभी तो सब कुछ अ छा लगता है, और सब कुछ अ छा नह लगता, ऐसी थ त
है । जब सब कुछ अ छा लगेगा तब नरकुशताको पूणता होगी । यह पूणकामता भी कहलाती है, जहाँ
ह र ही सव प भासता है । अभी कुछ अ प भासता है, पर तु प हे ऐसा अनुभव है।
जो रस जगतका जीवन है, उस रसका अनुभव होने के बाद ह रमे अ तशय लय आ है, और
' उसका प रणाम ऐमा आयेगा क जहाँ जस पमे चाहे उस पमे ह र आयेग, े ऐसा भ व यकाल
ई रे छाके कारण लखा है।
हम अपने अतरग वचार लख सकनेमे अ तशय अश हो गये है, जससे समागमक इ छा करते
है, पर तु ई रे छा अभी वैसा करनेमे अस मत लगती है, जससे वयोगमे रहते है।
े ै ऐ ोई ी े ी े
उस पूण व प ह रमे जसक परम भ है, ऐसा कोई भी पु प वतमानमे दखायी नह दे ता,
इसका या कारण होगा? तथा ऐसी अ त ती अथवा तीन मुमु ुता कसीमे दे खनेमे नह आयी इसका
या कारण होगा ? व चत् तीन मुमु ुता दे खनेमे आयी होगो तो वहाँ अनतगुण गभीर ानावतार पु ष-
का ल य यो दे खनेमे नह आया होगा? इस वषयमे आपको जो लगे सो ल खयेगा। सरी बड़ी
आ यकारक बात तो यह है क आप जैसोको स य ानके बीजको, पराभ के मूलक ा त हानेपर
भी उसके बादका भेद यो ा त नही होता? तथा ह रके त अख ड लय प वेरा य जतना चा हये
उतना यो वधमान नह होता ? इसका जो कुछ कारण समझमे आता हो सो ल खयेगा।
हमारे च क अ व था ऐसी हो जानेके कारण कसो काममे जैसा चा हये वैसा उपयोग नह
रहता, मृ त नह रहती, अथवा खबर भी नह रहती, इसके लये या करना ? या करना अथात् व-
हारमे रहते ए भी ऐसी सव म दशा सरे कसीको ख प नह होनी चा हये, और हमारे आचार
ऐसे ह क कभी वैसा हो जाता है। सरे कमीको भी आनद प लगनेमे ह रको चता रहती है, इस लये
वे रखेगे । हमारा काम तो उस दशाक पूणता करनेका है, ऐसा मानते है, तथा सरे कसीको सताप प
होनेका तो व मे भी वचार नह है । सभीके दास है, तो फर ख प कौन मानेगा ? तथा प वहार-
संगमे ह रको माया हमे नही तो सरेको भी कोई और ही आशय समझा दे तो न पायता हे, और इतना
भी शोक रहेगा । हम सव स ा ह रको अपण करते है, क है। अ धक या लखना ? परमानद प ह र-
को ण भर भी न भूलना, यह हमारी सव कृ त, वृ और लखनेका हेतु है।
.. २४८ ब बई, वैशाख वदो ८, र व, १९४७
ॐ नमः
कस लये कटाला आता है, आकुलता होती है ? सो लखे। हमारा समागम नही है, इस लये ऐसा
होता है, यो कहना हो तो हमारा समागम अभी कहा कया जा सकता है ? यहाँ करने दे नेक हमारी
इ छा नह होती । अ य कसी थानपर होनेका सग भ वत ताके,योगपर नभर है। खभात,आनेके लये
भो योग नह बन सकता।
पू य सोभागभाईका समागम करनेको इ छामे-हमारी अनुम त है। तथा प अभी उनका समागम
करनेका आपके लये अभी कारण नह है, ऐसा जानते है ।।

२८९
हमारा समागम आप (सब) कस लये चाहते है, इसका प कारण बताये तो उसे जाननेक
अ धक इ छा रहती है।
' बोधशतक' भेजा है, सो प ंचा होगा। आप सबके लये यह शतक वण, मनन और न द या-
सन करने यो य है। यह पु तक वेदातको ा करनेके लये नह भेजी है, ऐसा ल य सुननेवालेका पहले
होना चा हये। सरे कसी कारणसे भेजी है, जसे ाय वशेष वचार करनेसे आप जान सकगे। अभी
आपके पास कोई वैसा बोधक साधन नही होनेसे यह शतक ठोक साधन है, ऐसा मानकर इसे भेजा है।
इसमेसे आपको या जानना चा हये, इसका आप वय वचार करे। इसे सुननेपर कोई हमारे वषयमे
यह आशका न करे क इसमे जो कुछ आशय बताया गया है, वह मत हमारा है, मा च क थरताके
लये इस पु तकके ब तसे वचार उपयोगी है, इस लये भेजी है, ऐसा मानना।
ी दामोदर और मगनलालके ह ता रवाला प चाहते है ता क उसमे उनके वचार मालूम हो ।
२४९
ब बई, जेठ सुद ७, श न, १९४७
ॐ नमः
कराल काल होनेसे जीवको जहाँ वृ क थ त करनी चा हये, वहाँ वह कर नह सकता।
स मका ाय लोप ही रहता है । इस लये इस कालको क लयुग कहा गया है।
स मका योग स पु षके बना नह होता, यो क अस मे सत् नह होता।
ाय स पु षके दशन और योगक इस कालमे अ ा त दखायी दे ती है। जब ऐसा है, तब
स म प समा ध मुमु ु पु षको कहाँसे ा त हो ? और अमुक काल तीत होनेपर भी जब ऐसी समा ध
ा त नह होती तव मुमु ुता भी कैसे रहे ? ।
ाय जीव जस प रचयमे रहता है, उस प रचय प अपनेको मानता है। जसका य अनुभव
भी होता है क अनाय कूलमे प रचय रखनेवाला जीव अपनेको अनाय पमे ढ़ मानता है और आय वमे
म त नह करता।
इस लये महा पु षोने और उनके आधारपर हमने ऐसा ढ न य कया है क जीवके लये
स सग, यही मो का परम साधन है।
स मागके वषयमे अपनी जैसी यो यता है, वैसी यो यता रखनेवाले पु षोके सगको स सग कहा
है । महान पु षके सगमे जो नवास है, उसे हम परम स सग कहते है, यो क इसके समान कोई हतकारी
साधन इस जगतमे हमने न दे खा है और न सुना है।
पूवमे हो गये महा पु षोका च तन क याणकारक है, तथा प वह व प थ तका कारण नह हो
सकता, यो क जीवको या करना चा हये यह वात उनके मरणसे समझमे नही आती। य योग
होनेपर बना समझाये भी व प थ तका होना हम सभ वत मानते ह, और इससे यह न य होता हे
क उस योगका और उस य चतनका फल मो होता है, यो क स पु प हो 'मू तमान मो ' है।
मो गत (अहंत आ द) पु षोका चतन ब त समयमे भावानुसार मो ा द फलका दाता होता है।
स य व ा त पु षका न य होनेपर और यो यताके कारणसे जीव स य व पाता है।
२५०
ब बई, जेठ सुद १५, र व, १९४७
भ पूणता पानेके यो य तब होती हे क
एक तृणमा भी ह रसे न मॉगना,
सवदशामे भ मय ही रहना।

२९०
ीमद राजच
कल एक प और आज एक प च० केशवलालक ओरसे मला । पढ़कर कुछ तृषातुरता मट ।
और फर वैसे प क आतुरता वधमान ई।
वहार चतासे ाकुलता होनेसे स सगके वयोगसे कसी कारसे शा त नही होती ऐसा आपने
लखा वह यो य ही है । तथा प वहार चताक ाकुलता तो यो य नह है। सव हरी छा बलवान है,
यह ढ करानेके लये ह रने ऐसा कया है, ऐसा आप न शक समझे, इस लये जो हो उसे दे खा करे, और
फर य द आपको ाकुलता होगी, तो दे ख लेगे। अब समागम होगा तब इस वषयमे बातचीत करगे,
ाकुलता न रखे । हम तो इस मागसे तरे है।
च० केशवलाल और लालच द हमारे पास आते है। ई रे छासे टकटक लगाये हम दे खते ह।
ई र जब तक े रत नही करता तब तक हमे कुछ नही करना है और वह ेरणा कये बना कराना
चाहता है। ऐसा होनेसे घडो घडोमे परमा य प दशा आ करती है । केशवलाल और लालच द हमारी
दशाके अशक ा तक इ छा कर, इस वषयमे ेरणा रहती है। तथा प ऐसा होने दे नेमे ई रे छा
वलबवाली होगी। जससे उ हे आजी वकाक उपा धमे फंसाया है। और इस लये हमे भी मनमे यह
खटका करता है, पर तु न पायताका उपाय अभी तो नह कया जा सकता।
छोटम ानी पु ष थे। पदक रचना ब त े है।
'साकार पसे ह रक गट ा त' इस श दको मै ाय य दशन मानता ँ । आगे जाकर
आपके ानमे वृ होगी।
ल० आ ाकारी रायच द।
२५१
ब बई, जेठ वद ६, श न, १९४७
हरी छासे जीना है, और परे छासे चलना है। अ धक या कहे ?
ल० आ ाकारी।
२५२
ब बई, जेठ सुद , १९४७
अभी छोटमकृत पदस ह इ या द पु तक पढनेका प रचय र खये। इ या द श दसे ऐसी पु तक
समझ क जनमे स सग, भ और वीतरागताके माहा यका वणन कया हो ।
जनमे स सगके माहा यका वणन कया हो ऐसो पु तक, अथवा पद एव का हो उ हे वारवार
मनन करने यो य और मृ तमे रखने यो य समझे ।
__ अभी य द जैनसू ोके पढनेको इ छा हो तो उसे नवृ करना यो य है, यो क उ हे (जैनसू ोको)
पढने, समझनेमे अ धक यो यता होनी चा हये, उसके बना यथाथ फलको ा त नह होती । तथा प य द
सरी पु तक न हो, तो 'उ रा ययन' अथवा 'सूयगडाग' का सरा अ ययन पढ़, वचार।
२५३ ब बई, आषाढ सुद १, सोम, १९४७
जब तक गु गमसे भ का परम व प समझमे नही आया, और उसक ा त नह ई, तब तक
भ मे वृ करनेसे अकाल और अ च दोप होता है।
अकाल और अशु चका व तार बड़ा है, तो भी स ेपमे लखा है।
(एकात ) भात, थम हर, यह से भ के लये यो य काल है। व प चतनभ सव
कालमे से है।

२९१
। व थत मन सव शु चका कारण है। बा मला दर हत तन और शु एव प वाणी
यह शु च है।
व० रायचद
__२५४ वबई, आषाढ सुद ८, मगल, १९४७
नःशंकतासे नभयता उ प होती है।
और उससे नःसंगता ा त होती है।
कृ तके व तारसे जीवके कम अनत कारक व च तासे वतन करते है, और इससे दोषके
कार भी अनत भा सत होते है, पर तु सबसे बडा दोष यह है क जससे 'तीन मुमु ुता' उ प ही न
हो, अथवा 'मुमु ुता' ही उ प न हो ।
ाय मनु या मा कसी न कसी धममतमे होता है, और उससे वह धममतके अनुसार वतन
करता है ऐसा मानता है, पर तु इसका नाम 'मुमु ुता' नह है।
'मुमु ुता' यह है क सव कारक मोहाम से अकुलाकर एक मो के लये ही य न करना और
ी ै े े ो े े
'तीन मुमु ुता' यह है क अन य ेमसे मो के मागमे त ण वृ करना ।
'ती मुमु ुता' के वषयमे यहाँ कहना नह है पर तु 'मुमु ुता' के वषयमे कहना है, क वह
उ प होनेका ल ण अपने दोष दे खनेमे अप पातता है और उससे व छदका नाश होता है।
व छदक जहाँ थोडी अथवा ब त हा न ई है, वहाँ उतनी बोधबीज यो य भू मका होती है।
व छद जहाँ ाय. दब गया है. वहाँ फर 'माग ा त' को रोकनेवाले मु यत तीन कारण होते
ह, ऐसा हम जानते है।
इस लोकक अ प भी सुखे छा,' परम द नताक यूनता और पदाथका अ नणय ।
इन सब कारणोको र करनेका बीज अब आगे कहेगे। इससे पहले इ ही कारणोको अ धकतासे
कहते ह।
... 'इस लोकक अ प भी सुखे छा' यह ाय. तीन मुमु ुताक उ प होनेसे पहले होती है। उसके
हानक कारण ये है- न शकतासे यह 'सत' है ऐसा दढ नही आ है, अथवा यह 'परमान द प' हो है ऐसा भी
न य नह है, अथवा तो मुमु तामे भी कतने ही आनदका अनुभव होता है, इससे बा साताके कारण
भी कतनी ही बार य लगते ह (1) और इससे इस लोकको अ प भी सुखे छा रहा करती है, जससे
जीवक यो यता क जाती है।
___ स पु षमे ही परमे रबु , इसे ा नयोने परम धम कहा है, और यह बु परम द नताको सू चत
___ करती है, जससे सव ा णयोके त अपना दास व माना जाता है और परम यो यताको ा त होतो
है। यह 'परम द नता' जब तक आव रत रही है तब तक जीवक यो यता तव धयु होती है।
कदा चत् ये दोनो ा त हो गये हो तथा प वा त वक त व पानेक कुछ यो यताक यूनताके
कारण पदाथ- नणय न आ हो तो च ाकुल रहता है, और म या समता आती हे, क पत पदाथमे
'सत्' को मा यता होती है, जससे काल मसे अपूव पदाथमे परम ेम नह आता, और यही परम
यो यताक हा न हे।
१ पाठा तर-परम वनयको यूनता ।
२ पाठा तर-तथा प पहचान होनेपर स मै परमे रवृ रखकर उनक आ ासे वृ करना इसे
'परम वनय' कहा है। इससे परम यो यताक ा त होती है। यह परम वनय जब तक नह आती तब तक जीवमे
यो यता नह आती।

२९२
ीमद् राजच
ये तीनो कारण ाय. हमे मले ए अ धकाश मुमु ुओमे हमने दे खे है। मा सरे कारणक कुछ
यूनता कसी- कसीमे दे खी है, और य द उनमे सव कारसे ('परम द नताक कमीको) यूनता होनेका
य न हो तो यो य हो ऐसा जानते है । परम द नता इन तीनोमे बलवान साधन है, और इन तीनोका बीज
महा माके त परम ेमापंण है।
अ धक या कहे ? अनत कालमे यही माग है।
पहले और तीसरे कारणको र करनेके लये सरे कारणक हा न करना और महा माके योगसे
उसके अलौ कक व पको पहचानना । पहचाननेक परम ती ता रखना, तो पहचाना जायेगा। मुमु ुके
ने महा माको पहचान लेते है।
महा मामे जसे ढ न य होता है, उसे मोहास र होकर पदाथका नणय होता है। उससे
ाकुलता मटती है। उससे न शकता आती है जससे जीव सव कारके खोसे नभय हो जाता है और
उसीसे न.सगता उ प होती है, और ऐसा यो य है।
मा आप सब मुमु ुओके लये यह अ त स त लखा है, इसका पर पर वचार करके व तार
करना और इसे समझना ऐसा हम कहते है।
हमने इसमे ब त गूढ शा ाथ भी तपा दत कया है।
आप वारवार वचार क जये । यो यता होगी तो हमारे समागममे इस बातका व तारसे
वचार बतायेगे।
अभी हमारे समागमका सभव तो नह है, पर तु शायद ावण वद मे कर तो हो, पर तु वह कहाँ
होगा उसका अभी तक वचार नह कया है।
क लयुग है, इस लये ण भर भी व तु वचारके बना नही रहना यह महा माओक श ा है ।
आप सबको यथायो य प ंचे।
२५५
बवई, आषाढ सुद १३, १९४७
'सुखना सधु ी सहजानदजी, जगजीवन के जगवदजी।
शरणागतना सदा सुखकदजी, परम नेही छो (1) परमानदजी॥
अपूव नेहमू त आपको हमारा णाम प ँचे । ह रकृपासे हम परम स पदमे है । आपका स संग
नरतर चाहत है।
हमारी दशा आजकल कैसी रहती है, यह जाननेक आपक इ छा रहती है, परतु यथे ववरण-
पूवक वह लखी नह जा सकती, इस लये वारवार नही लखी है। यहाँ स ेपमे लखते ह।
___एक पुराणपु प और पुराणपु षक ेमसप के वना हमे कुछ भी अ छा नह लगता, हमे कसी
पदाथमे च मा नही रही है, कुछ ा त करनेक इ छा नही होतो, वहार कैसे चलता है इसका भान
नह ह, जगत कस थ तमे है इसक मृ त नह रहती, श - ु म मे कोई भेदभाव नही रहा, कौन श ु
है और कोन म है, इसका याल रखा नह जाता, हम दे हधारी ह या नह इसे जब याद करते ह तब

े े े ै ी े ी े
मु कलसे जान पाते ह, हमे या करना है, यह कसीसे जाना नह जा सकता, हम सभी पदाथ से उदास
१ पाठा तर-परम वनयक । २ पाठा तर-और परम वनयम रहना यो य है ।
३ भावाथ सहजानद व प परमा मा मुखके सागर, जगनके आधार, जगतब , सदा शरणागतको सुस
मूल कारण, परम नेही और परमानद प है।

२९३
हो जानेसे चाहे जैसे वतन करते है, त नयमोका कोई नयम नही रखा, जात-पातका कोई सग नह
है, हमसे वमुख जगतमे कसीको नह माना, हमारे स मुख ऐसे स सगी नह मलनेसे खेद रहा करता
है, सप पूण है इस लये सप क इ छा नह है, अनुभूत श दा द वषय मृ तमे आनेस- े अथवा
ई रे छासे उनक इ छा नही रही है, अपनी इ छासे थोडी ही वृ क जाती है, ह र इ छत म
जैसे चलाता है वैसे चलते है, दय ाय शू य जैसा हो गया है, पाँचो इ याँ शू य पसे वृ होती रहती
ह। नय, माण इ या द शा भेद याद नह आते, कुछ पढते ए च थर नह रहता, खानेक , पीनेक ,
बैठनेको, सोनेक , चलनेक और बोलनेक वृ याँ अपनी इ छानुसार वृ करती रहती है, मन अपने
अधीन है या नह , इसका यथायो य भान नह रहा। इस कार सवथा व च उदासीनता आनेसे चाहे
जैसी वृ क जाती है । एक कारसे पूरा पागलपन है । एक कारसे उस पागलपनको कुछ छपाकर
रखते है, और जतना छपाकर रखा जाता है उतनी हा न है । यो य वृ करते ह या अयो य इसका
कुछ हसाब नही रखा । आ दपु षमे अखड ेमके सवाय सरे मो ा द पदाथ क आका ाका भग हो
गया है। इतना सब होते ए भी मनमानी उदासीनता नह है, ऐसा मानते है। अखड ेमखुमारी जैसी
वा हत होनी चा हये वैसी वा हत नह होती, ऐसा समझते है। ऐसा करनेसे वह अखड ेमखुमारी
वा हत होगी ऐसा न लतासे जानते ह, पर तु उसे करनेमे काल कारणभूत हो गया है, और इस सबका
दोप हमे है या ह रको है, ऐसा ढ न य नही कया जा सकता । इतनी अ धक उदासीनता होनेपर भी
ापार करते है, लेते है, दे ते है, लखते ह, पढ़ते है, स भालते है और ख होते है, और फर हँसते
है- जसका ठकाना नही ऐसी हमारो दशा है। और इसका कारण मा यही है क जब तक ह रक
सुखद इ छा नह मानी तब तक खेद मटनेवाला नह है।
(अ) समझमे आता है, समझते ह, समझगे, परतु ह र ही सव कारण प है।
जस मु नको आप समझाना चाहते है, वह अभी यो य है, ऐसा हम नह जानते।
हमारी दशा अभी ऐसी नह है क मद यो यको लाभ करे, हम अभी ऐसा जजाल नह चाहते, उसे
नही रखा, और उन सबका कारोबार कैसे चलता है, इसका मरण भी नह है। ऐसा होनेपर भी हमे
उन सबक अनुकपा आया करती है, उनसे अथवा ाणीमा से मनसे भेदभाव नही रखा, और रखा भी
नह जा सकता । भ वाली पु तक कभी कभी पढते है, पर तु जो कुछ करते है वह सब वना ठकानेक
दशासे करते ह।
हम अभी ाय. आपके प ोका समयसे उ र नही लख सकते, तथा पूरी प ताके साथ भी नह
लखते । यह य प यो य तो नह है, पर तु ह रक ऐसी इ छा है, जससे ऐसा करते ह। अब जब समा-
गम होगा, तब आपको हमारा यह दोप मा करना पड़ेगा, ऐसा हमे भरोसा है।
और यह तब माना जायेगा क जब आपका सग फर होगा। उस सगक इ छा करते है, पर तु
जैसे योगसे होना चा हये वैसे योगसे होना लभ है । आप जो भादोमे इ छा रखते ह, उससे हमारी कुछ
तकूलता नह है, अनुकूलता है। पर तु उस समागममे जो योग चाहते है, उसे होने दे नेक य द ह रक
इ छा होगी और समागम होगा तभी हमारा खेद र होगा ऐसा मानते है।
___ दशाका स त वणन पढकर, आपको उ र न लखा गया हो उसके लये मा दे नेक व ापना
करता ँ।
भुक परम कृपा है। हमे कसीसे भेदभाव नही रहा, कसीके स ब धमे दोपवु नही आती,
मु नके वषयमे हमे कोई हलका वचार नह है, पर तु ह रक ा त न हो ऐसी वृ मे वे पड़े ह। अकेला
बीज ान ही उनका क याण करे ऐसी उनक और सरे ब तसे मुमु ुओक दशा नह है। साथमे ' स ात-

२९४
ीमद् राजच
ान' होना चा हये। यह ' स ांत ान' हमारे दयमे आव रत पसे पड़ा है। हरी छा य द गट होने
दे नेक होगी तो होगा । हमारा दे श ह र है, जा त ह र है, काल ह र है, दे ह ह र है, प ह र है, नाम ह र
है, दशा ह र है, सव ह र है, और फर भी इस कार कारोबारमे ह, यह इसक इ छाका कारण है।
ॐ शा त शा त' शा तः ।
२५६
बबई, आषाढ वद २, १९४७
"अथाह ेमसे आपको नम कार"
व तारसे लखे ए दो प आपक ओरसे मले । आप इतना प र म उठाते ह यह हमपर आपक
इनमे जन जन ोका उ र पूछा है वे समागममे ज र दगे। जीवके बढने घटनेके वषयमे,
एक आ माके वषयमे, अनत आ माके वषयमे, मो के वषयमे और मो के अनत सुखके वषयमे, आपको
इस बार समागममे सभी कारसे नणय बता दे नेका सोच रखा है। यो क इसके लये हमपर ह रक
कृपा ई है, पर तु वह मा आपको बतानेके लये, सरोके लये ेरणा नही क है।
२५७
__बबई, आषाढ वद ४, १९४७
यहाँ ई रकृपासे आन द है। आपका प चाहता ँ।
ब त कुछ लखना सूझता है, पर तु लखा नह जा सकता। उनमे भी एक कारण समागम होनेके
बाद लखनेका है। और समागमके बाद लखने जैसा तो मा ेम- नेह रहेगा, लखना भी वारंवार
आकुल होनेसे सूझता है । ब तसो धाराएँ बहती दे खकर, कोई कुछ पेट दे ने यो य मले तो ब त अ छा
हो, ऐसा तीत हो जानेसे, कोई न मलनेसे आपको लखनेक इ छा होती है। पर तु उसम उपयु
कारणसे वृ नह होती।
___ जीव वभावसे (अपनी समझक भूलसे) षत है, तो फर उसके दोषक ओर दे खना, यह अनु-
कंपाका याग करने जैसी बात है, और बडे पु ष ऐसा आचरण करना नह चाहते । क लयुगमे अस सगसे
और नासमझीसे भूलभरे रा तेपर न जाया जाये, ऐसा होना ब त मु कल है, इस बातका प ीकरण
फर होगा।
२५८
बबई, आषाढ, १९४७
' बना नयन पावे नही, बना नयनक बात।
सेवे स के चरन, सो पावे सा ात् ॥१॥
बुझी चहत जो यासको, है बूझनको रोत ।
पावे न ह गु गम बना, एही अना द थत गा
१ दे ख आक ८८३ ।
*भावाय-अत के बना इ यातीत शु आ माक ा त नही हो सकती अथात् उसका सा ा कार
नह हो सकता । जो स के चरणोक उपासना करता है उसे आ म व पक सा ात् ा त होती है ।।१।।
य द तू भा मवषानक यासको बुझाना चाहता है तो उसे बुझानेका उपाय है, जसक ा त गुरसे होती है,
यही अना द कालक थ त है ॥२॥

२९५
एही न ह है क पना, एही नह वभंग।
कई नर पंचमकाळमे, दे खो व तु अभंग ॥३॥
न ह दे तु उपदे शकु, थम ले ह उपदे श।
सबसे यारा अगम है, वो ानीका दे श ॥४॥
जप, तप और ता द सब, तहाँ लगी म प ।
जहाँ लगी न ह सतक , पाई कृपा अनूप ॥५॥
पायाको ए बात है, नज छं दनको छोड़।
पछे लाग स पु षके, तो सब बधन तोड ॥६॥
तृषातुरको पलानेक मेहनत क जये।
अतृषातुरमे तृषातुर होनेक अ भलाषा उ प क जये । जसमे वह उ प न हो सके उसके लये
उदासीन र हये।
आपका कृपाप आज और कल मला था। या ादक पु तक खोजनेसे नह मली। कुछ एक
वा य अब फर लख भेजगा।
उपा ध ऐसी है क यह काम नह होता। परमे रको पुसाता न हो तो इसमे या कर ? वशेष
फर कभी।
व० आ० रायचदके णाम
२५९ बबई, ावण सुद ११, बुध, १९४७
परम पू यजी,
आपका एक प कल केशवलालने दया। जसमे यह बात लखी है क नरतर समागम रहनेमे
ई रे छा यो न हो?
सवश मान ह रक इ छा सदै व सुख प ही होती है, और जसे भ के कुछ भी अश ा त ए
ह ऐसे पु षको तो ज र यही न य करना चा हये क "ह रक इ छा सदे व सुख प ही होती है।"
हमारा वयोग रहनेमे भी ह रक ऐसी ही इ छा है, और वह इ छा या होगी, यह हमे कसी
तरहसे भा सत होता है, जसे समागममे कहेगे।
ावण वद मे आपको समय मल सके तो पाँच-प ह दनके लये समागमक व था करनेक
इ छा क ँ ।
' ानधारा' स ब धी मूलमाग हम आपसे इस बारके समागममे थोडा भी कहेगे, और वह माग
पूरी तरह इसी ज ममे आपसे कहेगे यो हमे ह रक ेरणा हो ऐसा लगता है।
यह उपायक बात न तो क पना है और न ही अस य- म या है। इसी उपायसे इस पचम कालम अनेक
स पु षोने अभग व तु-अ वनाशी आ माके दशनसे अपने जीवनको कृताथ कया है ॥३॥
तू सरेको उपदे श न दे , तुझे तो पहले अपने आ मबोधके लये उपदे श लेनेक ज रत है। जानीका दे श ती
सबसे यारा और अगोचर है अथात् ानीका नवास तो आ माम है ॥४॥
जब तक सतक अनुपम कृपा ा त नह होती तब तक जप, तप, बत, नयम आ द सभी साधन म प ह
अयात् गु से जप, तप आ दका रह य समझकर उनक आ ासे ही इनक आराधना सफल होती है ।।५।।
खत (गु ) कृपाक ा तका यह मूल आधार है क तू व छ दको छोड दे , और स पु षका अनुयायी बन जा,

ो ी ो ो ो ो
तो सभी कमवषन तोडकर तू मो को ा त होगा ॥६॥

२९६
ीमद् राजच
आपने हमारे लये ज म धारण कया होगा, ऐसा लगता है। आप हमारे अथाह उपकारी ह ।
आपने हमे अपनी इ छाका सुख दया है, इसके लये हम नम कारके सवाय सरा या बदला द ?
पर तु हमे लगता है क ह र हमारे हाथसे आपको पराभ दलायगे, ह रके व पका ान
करायगे, और इसे ही हम अपना बडा भा योदय मानेगे |
हमारा च तो ब त ह रमय रहता है पर तु सग सब क लयुगके रहे ह। मायाके संगमे रात
दन रहना होता है, इस लये पूण ह रमय च रह सकना लभ होता है, और तब तक हमारे च का
उ े ग नही मटे गा।
हम ऐसा समझते ह क खभातवासी यो यतावाले जीव है, परतु ह रक इ छा अभी थोडा वलब
करनेक दखायी दे ती है। आपने दोहे इ या द लख भेजे यह अ छा कया। हम तो अभी कसीक
स भाल नही ले सकते । अश ब त आ गयी है, यो क च अभी बा वषयमे नही जाता।
ल. ई रापण।
२६०
ववई, ावण सुद ९, गु , १९४७
आपने नथुरामजीको पु तकोके वषयमे तथा उनके बारेमे लखा, वह मालूम आ। अभी कुछ
ऐसा जाननेमे च नह है । उनको एक दो पु तक छपी ह, उ हे मैने पढा है ।
चम कार बताकर योगको स करना, यह योगीका ल ण नही है। सव म योगी तो वह है
क जो सव कारको पृहासे र हत होकर स यमे केवल अन य न ासे सवथा 'सत्' का ही आचरण
करता है, और जसे जगत व मृत हो गया है । हम यही चाहते है ।
२६१
बंबई, ावण सुद ९, गु , १९४७
प प ंचा।
आपके गाँवसे (खभातसे) पाँच-सात कोसपर या कोई ऐसा गाँव है क जहाँ अ ात पसे रहना हो
तो अनुकूल आये? जहाँ जल, वन प त और सृ रचना ठ क हो, ऐसा कोई थल य द यानमे हो तो लख।
जैनके पयुपणसे पहले और ावण वद १ के बाद यहाँसे कुछ समयके लये नवृ होनेक इ छा है।
जहाँ हमे लोग धमके स ब धसे भी पहचानते हो ऐसे गाँवमे अभी तो हमने वृ मानी है,
जससे अभी खभात आनेका वचार स भव नह है।
___अभी कुछ समयके लये यह नवृ लेना चाहता ँ। सव कालके लये (आयुपयत) जब तक
नवृ ा त करनेका सग न आया हो तब तक धमसंबधसे भी गटमे आनेक इ छा नह रहती।
जहाँ मा न वकारतासे ( वृ र हत) रहा जाये, और वहाँ ज रत जतने ( वहारक
वृ दे खे ।) दो एक मनु य हो इतना ब त है। मपूवक आपका जो कुछ समागम रखना उ चत
होगा, वह रखगे। अ धक जजाल नह चा हये। उपयु बातके लये साधारण व था करना । ऐसा
नह होना चा हये क यह बात अ धक फैल जाये।
भ वत ताके योगसे अभी य द मलना आ तो भ और वनयके वषयमे सु भोवनने
जो प मे पूछा है उसका समाधान क ं गा।
आपके अपने भी जहाँ अ धक (हो सके तो एक भी नही) प र चत न हो ऐसे थानके लये
व था हो तो कृपा मानगे।
ल. समा ध

२९७
२६२
बबई, ावण सुद , १९४७
उपा धके उदयके कारण प ँच दे ना नह हो सका, उसके लये मा कर। यहाँ हमारी उपा धके
उदयके कारण थ त है । इस लये आपको समागम रहना लभ है।
इस जगतमे, चतुथकाल जैसे कालमे भी स सगक ा त होना ब त लभ है, तो इस षमकाल-
मे उसक ा त परम लभ होना स भव है, ऐसा समझकर जस जस कारसे स संगके वयोगमे भी
आ मामे गुणो प हो उस उस कारसे वृ करनेका पु षाथ वारवार, समय समय पर और सग
संगपर करना चा हये, और नरतर स सगक इ छा, अस संगमे उदासीनता रहनेमे मु य कारण वैसा
पु षाथ है, ऐसा समझकर जो कुछ नवृ के कारण हो उन सब कारणोका वारवार वचार करना यो य है।
हमे यह लखते ए ऐसा मरण होता है क " या करना?" अथवा " कसी कारसे नही हो
पाता ?" ऐसा वचार आपके च मे वारवार आता होगा, तथा प ऐसा यो य है क जो पु ष सरे सब
कारके वचारोको अकत प जानकर आ मक याणमे उ साही होता है, उसे, कुछ नही जाननेपर भी,
उसी वचारके प रणाममे जो करना यो य है, और कसी कारसे नह हो पाता , ऐसा भासमान होनेपर
उसके कट होनेको थ त जीवमे उ प होती है, अथवा कृतकृ यताका सा ात् व प उ प होता है।
दोष करते ह ऐसी थ तमै इस जगतके जीवोके तीन कार ानी पु षने दे खे ह। (१) कसी
ी े ी ो े ो ै े े
भी कारसे जीव दोष या क याणका वचार नह कर सका, अथवा करनेक जो थ त है उसमे बेभान
है, ऐसे जीवोका एक कार है । (२) अ ानतासे, अस सगके अ याससे भासमान बोधसे दोष करते है उस
याको क याण व प माननेवाले जीवोका सरा कार है। (३) उदयाधीन पसे मा जमक थत
है, सव पर व पका सा ी है ऐसा बोध व प जीव, मा उदासीनतासे कता दखायी दे ता है, ऐसे
जीवोका तीसरा कार है।
इस तरह ानी पु षने तीन कारका जीव-समूह दे खा है। ायः थम कार ी, पु , म ,
धन आ दक ा त-अ ा तके कारमे तदाकार-प रणामी जैसे भा सत होनेवाले जीवोका समावेश होता
है। भ - भ धम क नाम या करनेवाले जीव, अथवा व छद-प रणामी परमाथमागपर चलते ह
ऐसी बु रखनेवाले जीवोका सरे कारमे समावेश होता है। ी, पु , म , धन आ दक ा त-
अ ा त इ या द भावमे ज हे वैरा य उ प आ है अथवा आ करता है जनका व छद-प रणाम
ग लत आ है, और जो ऐसे भावके वचारमे नर तर रहते ह, ऐसे जीवोका समावेश तीसरे कारमे
होता है। जस कारसे तीसरा कार स हो ऐसा वचार है। जो वचारवान है उसे यथावु से,
सद् थसे और स संगसे वह वचार ा त होता है, और अनु मसे दोषर हत व प उसमे उ प होता
है। यह बात पुन. पुन सोते जागते और भ - भ कारसे वचार करने, मरण करने यो य है।
२६३
___ राळज, भादो सुदौ ८, शु , १९४७
वयोगसे ए .खके स ब धमे आपका एक प चारेक दन पहले ा त आ था। उसमे द शत
इ छाके वषयमे थोडे श दोमे बताने जतना समय है, वह यह है क आपको जैसी ानक अ भलापा है
वैसी भ कक नही है। ेम प भ के बना ान शू य ही है, तो फर उसे ा त करके या करना
हे ? जो का है वह यो यताको यूनताके कारण है, और आप ानीक अपे ा ानमे अ धक ेम रखते ह
उसके कारण है । ानौसे ानक इ छा रखनेक अपे ा बोध व प समझकर भ चाहना परम फल
है। अ धक या कहे?
मन, वचन और कायासे आपके त कोई भी दोष आ हो, तो द नतापूवक मा मांगता ँ।

२९८
ीमद् राजच
ई र जसपर कृपा करता है उसे क लयुगमे उस पदाथक ा त होती है । महा वकट है। कल यहाँसे
रखाना होकर ववा णयाक ओर जाना सोचा है।
२६४
राळज, भादो सुद ८, १९४७
( बोहे)
* हे भु! हे भु! शुं क ं, द नानाथ दयाळ ।
ं तो दोष अनतनु, भाजन छु क णाळ ॥१॥
शु भाव मुजमां नथी, नथी सव तुज प।
नयी लघुता के द नता, शुं क ं परम व प ? ॥२॥
नथी आ ा गु दे वनी, अचळ करी उरमांह ।
आप तणो व ास ढ, ने परमादर नाह ॥३॥
जोग - नथी स संगनो, नथी स सेवा जोग।
केवळ अपणता नथी, नथी आ य अनुयोग ॥४॥
' ँ पामर श करी शकु? एवो नयी ववेक ।
चरण शरण धीरज नथी, मरण सुषीनी छे क ॥५॥
अ च य तुज माहा यनो, नथी फु लत भाव।।
अंश न एके नेहनो, न मळे परम भाव ॥६॥
अचळ प आस न ह, नह वरहनो ताप ।
कया अलभ तुज ेमनी, न ह तेनो प रताप ॥७॥
भ माग वेश न ह, नह भजन बुढ भान।
समज नह नज धमनी, न ह शुभ दे शे थान ॥८॥ .
*भावाथ-है भु । हे दयालु द नानाथ ! या क ँ ? है क णा न ध | म तो अनत दोषोका भाजन ँ ॥१॥
मुझम शु भाव नही है । मुझे सबम तेरे पका दशन नह होता । न तो मुझम लघुता है और न ही बीनता
है। हे सहजा म व प परमा मा । म अपनी अपा ताका या वणन क ं -१ ||२॥
मने गु दे वक आशाको अपने दयम ढ़ नही कया है। मुझम न तो आपके त ढ़ व ास है और न
ही परम आदर है ॥३॥
मुझे न तो स सगका योग ा त है और न ही स सेवाका । फर मुझम सवथा समपणक भावना भी नह है,
और मुझे ानुयोग आ द शा ोका आ य भी ा त नही है ॥ ४ ॥
'म कमब पामर या कर सकता ? ँ " ऐसा ववेक मुझम नही है। और मुझम ठे ठ मरणपयत आपके
चरणोक शरणका धैय नह है ॥ ५॥
आपका माहा य अ च य एवं अ त है, पर तु उसके लये मुझम कोई उ लास नही है । उसके त
अन य ेमका एक अश भी मुझम नह है । इसी लये उसके परम भावसे व चत रहा है ॥६॥
___ आपम मेरी न ल आस नह है, और आपके वरहका सताप एव खेद नह है । आपके न कारण ेम-
क गुणगाथाका वण अ य त लभ हो गया है, इसका सताप तथा खेद नही रहता ।। ७ ॥

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मेरा भ मागम वेश नह है, और मुझे भजनक तनका ढ़ भान नह है। म नजधम अथात् भा म-
वभावको नही समझता है, और शभ दे शम मेरा थान नह है ॥८॥

२९९
काळदोष क ळयो थयो, न ह मयादाधम।
तोय नह ाकुळता, जुओ भु मुज कम ॥९॥
सेवाने तकूळ जे, ते बंधन नथी याग।
दे हे य माने नह , करे बा पर राग ॥१०॥
तुज वयोग फुरतो नथी, वचन नयन यम नाह ।।
न ह उदास अनभ थी, तेम गृहा दक मांह ॥११॥
अहंभावथो र हत न ह, वधम संचय नाह ।।
नथी नवृ नमळपणे, अ य धमनी कांई ॥१२॥
एम अन त कारथी, साधन र हत ंय।।
नह एक स ण पण, मुख बतातुं शुंय ? ॥१३॥
केवळ क णामू त छो, द नब धु द ननाथ ।
पापी परम अनाथ छु , हो भुजी हाथ ॥१४॥
अन त काळयी आयडयो, वना भान भगवान।
से ा न ह गु स तने, मू यु न ह अ भमान ॥१५॥
स त चरण आ य वना, साधन कया अनेक ।
पार न तेथी पा मयो, ऊ यो न अंश ववेक ॥१६॥
स साधन ब धन थया, र ो न कोई उपाय ।
सत् साधन सम यो नही, यां बधन शुं जाय ? ॥१७॥
क लकालसे काल पत हो गया है, और मयादाधम अथात् आ ा-आराघन प धम नही रहा है। फर भी
मुझम ाकुलता नही है । हे भु । मेरे कमको ब लता तो दे ख ॥९॥
स सेवाके तकूल जो वधन है उनका मैने याग नह कया है। दे ह और इ यां मेरे वशम नही ह, और
वे बा व तुओम राग करती रहती ह ॥ १० ॥
तेरे वयोगका ख अखरता नही है, वाणी और ने ोका सयम नही है अथात् वे भौ तक वषयोम अनुर
है । हे भु ! आपके जो भ नही है उनके त और गृहा द सासा रक ब धनोके त म उदासीन नही ँ ॥ ११ ॥
म अहभावसे मु नही आ ँ, इस लये वभाव प नजधमका सचय नही कर पाया , ँ और म नमल
भावसे परभाव प अ य धमसे नवृ नही आ ँ॥ १२ ॥
___ इस तरह म अनत कारसे साधन र हत ँ। मुझम एक भी स ण नह है। इस लये हे मु । म अपना
मुँह आपको या बताऊँ ? ॥ १३ ॥
हे भु ! आप तो द नवधु और दोननाय ह, तथा केवल क णामू त है, और म परम पापी एव अनाय ँ,
आप मेरा हाथ पकड और उ ार कर ॥ १४ ॥
हे भगवन् । म आ मभानके वना अनतकालसे भटक रहा है। मने आ म ानी सतको स मानकर न ा-
पूवक उसक उपासना नही क है और अ भमानका याग नही कया है ॥ १५ ॥
मंने सतके चरणोके आ यके वना साधन तो अनेक कये ह, पर तु सदसत् तया हेयोपादे यके ववेकके अश
मामका भी उदय नही आ, जससे वषम एव अनत ससार प र मणका बत नह आ है ॥ १६ ॥
हे भु ! सभी साधन तो वधन हो गये है, और कोई उपाय शेष नही रहा है। जब म सत् सापनको हो न
समस पाया तो फर मेरा वधन कैसे र होगा? ॥ १७ ॥

३००
ीमद् राजच
भु भु लय लागी नह , पडयो न स पाय।
दोठा न ह नज दोष तो, तरोए कोण उपाय ? ॥१८॥
अधमाधम अ धको प तत, सकल जगतमा ंय ।।
ए न य आ ा वना, साधन करशे शय ? ॥१९॥
पडी पडी तुज पदपंकजे, फरी फरी मागुंए ज।
स स त व प तुज, ए ढ़ता करी दे ज ॥२०॥
२६५
राळज, भादो सुद ८, १९४७
ॐ सत्
( तोटक छद)
+ यम नयम संजम आप कयो, पु न याग बराग अथाग ल ो।
वनवास लयो मुख मौन र ो, ढ आसन प लगाय वयो॥१॥
मन पौन नरोध वबोध कयो, हठजोग योग सु तार भयो।
जप भेद जपे तप यौ ह तपे, उरस ह उदासी लही सबप ॥२॥
सब शा नके नय धा र हये, मत मंडन खंडन भेद लये।
वह साधन बार अन त कयो, तद प कछु हाथ हजु न पय ॥३॥
ै औ े
अब य न वचारत है मनस, कछु और रहा उन साधनसे ?।
बन स कोय न भेद लहे, मुख आगल ह कह बात कहे ?॥४॥
क ना हम पावत हे तुमको, वह बात रही सुगु गमक ।
पलमे गटे मुख आगलस, जब स न सु ेम बस ॥५॥
तनस, मनस, धनस, सबस, गु दे वको आन वआ म बस।
तब कारज स बने अपनो, रस अमृत पाव ह ेम घनो ॥६॥
वह स य सुधा दरशाव हगे, चतुरांगल
ु हे गसे मलहे।।
रस दे व नरंजन को पवही, ग ह जोग जुगोजुग सो जीवही ॥७॥
पर ेम वाह बढ़े भुसे, सब आगमभेव सुउर बस।
वह केवलको बीज या न कहे, नजको अनुभौ बतलाई दये ॥८॥
हे भु । मुझे तेरी ही लगन नही लगी, मने स के चरणको शरण नही ली, और अ भमान आ द अपने
दोष मुझे दखायी नही दये, तो फर मै कस उपायसे ससारसागरको पार कर सकूँगा ? ॥ १८॥
म ही सम त जगतम अघमाधम और महा प तत , ँ यह न य ए वना साधन कस तरह सफल
होगे? ॥ १९॥
हे भगवन् ! तेरे चरणकमलम वारवार गर- गरकर यही माँगता ँ क स एव सत तेरा ही व प है
और परमाथसे वही मेरा व प ह, ऐसा ढ़ व ास मुझम उ प कर दे ॥ २० ॥
___ + इसका वशेषाथ ' न य नयमा द पाठ ( भावाथ स हत )' म दे ख।
••••••
३०२
मूळ उ प न ह, नह नाश पण तेम।
अनुभवथी ते स छे , , भाखे जनवर एम ॥९॥
होय तेहनो नाश, न ह, नही तेह न ह होय। ।
.एक. समय ते सौ ,समय, भेदः अव था जोय ॥१०॥
(२) 'परम पु ष भु स , परम ान 'सुखधाम ।
' जेणे आ यु' भान' नज, तेने "सदा णांम ॥१॥
२६७, राळज, भा पद, १९४७( ह रगीत )
• * जनवर कहे छे . ान तेने सव भ ो सांभळो।
.. जो होय पूव भणेल नव पण, जीवने जा यो नह ,
तो सव ते अ ान भा यं, सा ी छे आगम अही। .
ए पूव सव क ां , वशेष; जीव करवा नमळो,
जनवर कह छे जान तेने, सव, भ ो सांभळो ॥१॥
... न ह ंथमाही ान भा य, ान न ह क वचातुरी,
न ह मं तं ो ान दा या, ान न ह भाषा ठरी।
न ह अ य थाने ानं भा यु, ान ानीमां कळो,
" * जनवर 'कह छे ान तेन, े सव भ ो साभळो ॥२॥..
आ जीव ने,आ.; दे ह एवो, भेद जो भा यो नह ; , -- पचखाण क धा यां सुधी, मो ाथ ते भा या नह
इस व म जीव, पु ल आ द छः मूल ोको कसीने उ प नह कया है "अना दसे वय स ह, और
इनका कभी नाश भी नही होगा । यह स ात अनुभव स है ऐसा जन भगवानने 'कहाँ है ॥ ९॥ जन का अ त व है उनको
नाश'कभी संभव नह है, और जो पदाथ नही है, उसक उ प
सभव नही है । जस का अ त व एक समयके लये है उसको अ त व' सो समय अथात् सदाके लये है। पर तु
'मा को भ - भ अव थाएँ बदलती रहती है और मुलत उसका नाश कदा प नही होता ॥ १ ॥
.. न(२) परम पु ष"स भगवान परम ान तथा सुखके घाम ह। " ज होने इस पामरको अपने व पका
भान करानेका परम अन ह कया, उन क णाम त सदग को परम भ से णाम करता ँ॥१॥ "
भावाथ- जनवरं जसे ' ान कहते है उसे हे सव भ जनोआप यानपूवक सुन ।
य द जीवने अपने आ म व पको नही जाना, फर चाहे उसने नव पूव जतना शा ा यास कया हो तो
उस सारे ानको आगमम अ ान ही कहा है अथात् आ मत वके बोधके वना 'सम त शा ा यास' थ ही है ।
भगवानने पूव आ दका ान वशेषत' इस लये का शत कया है क जीव" अपने अ ान एवं राग े षा दको र कर
अपने नमल आ मत वको ा तकर कृतकृ य हो जाय । जनवर जसे ान कहते ह उसे सुन ॥ १॥
ानको कसी अ यमे नह बताया हा का रचना प क वको चतुराईमे भी ान नह है, अनेक कारके
मा , त आ दक साधना ान नही है, और भाषा ान वा पटु ता व ृ व आ द भी ान नह है और कसी अ य
थानम ान नही है । ानक ा त तो ानीसे ही होती है। जनवर ज.से' ान कहते है उसे" सुन ॥२॥

३०३
ए-पांचमे अंगे कहो, उ दे श केवळ नमळो,
जनवर कहे छे ान तेन, े सव भ ो सांभळो ॥३॥
केवळ नह चयथी,
केवळ नह संयम थक , पण ान केवळयी कळो,
जनवर कहे छे ान तेन, े सव भ ो सांभळो ॥४॥
'' शा ो वशेष स हत पण जो. जा णयं नज पने,
का तेहवो आ य करजो, भावथी साचा मने..!
तो ान तेने भा खयु, जो स म त आ द, थळो, ,
" जनवर कहे छे , ान तेने, सव भ ो सांभळो ॥ ५॥..
आठ स म त जाणीए जो, ानीना परमाथयो,
तो ान भा यु तेहने, अनुसार ते मो ाथथी;..
नज क पनाथो को ट शा ो, मा मननो आमळो,' '
जनवर कहे छे जान तेने, सव भ ो सांभळो ॥६॥",
चार वेद पुराण, आ द शा सौ म या वनां, .
- ीन द स े भा खया छे , भेद यां स ा तना;
पण' ानीने ते ान भा यां, ए ज ठे काणे ठरो,
: जनवरा-कह ॐ ान, तेने, सव भ ो सांभळो॥७॥
यह जीव है ओर यह दे ह है ऐसा भेद ान य द नही आ है अथात, जड दे हसे भ चैत य व प अपने
मा माका जब तक य अनुभव नह आ है तब तक प च खाण' या त आ दका अनु ान मो साधक नही होता।
आ म ानके अनतर ही यथाथ याग होता है और उससे मो स होती है। पांचव अग ी भगवतीसू म इस
वषयका नमल बोघ दया है । जनवर जसे ान कहते ह उसे सुन ॥ ३ ॥
५. पॉच महा तोम चय े त है, पर तु केवल उससे भी ान नही होता । उपल णसे पाँच महा तोको
धारणकर सव वर त प सयम हण करनेसे भी ानक ा त नही हो सकती। दे हा दसे भ केवल शु आ माके
ानको ही भगवानने स य ान, कहा है । जनवर जसे ान कहते है उसे सुन ।। ४ । ।
शा के व श एव व तृत ाजस हत, जसने अपने व पको जान लया है, अनुभव कया है वह सा ात्
ी ै औ ै औ ै े ी ै े ो ी
ानी है और उसका ान यथाथ स य ान है । और वैसा अनुभव जसे नही आ है पर तु जसे उसको ती इ छा
है और तदनुसार जो स चे. मनसे मा आ माथके लये अन य ेमसे वैसे ानीक आ ाका, आराधन करनेम सल न
रहता है वह भी शी ान ा त कर सकता है और उसका ान भी- यथाथ माना गया है। स म ततकः आ द
शा ोम इस वातका तपादन कया है,। ानीसे ही ान ा त होती है इसीको भगवानने- ान कहा है। जनवर
जसे ान कहते ह उसे सुन ॥५॥ ., . ,' ....
- य द आठ म म त (तीन गु त और पांच स म त) का रह य ानीसे समझा जाये तो वह मो साधक होनेसे
ान कहा जाता है। पर तु अपनी क पनासे करोडो शा ोका ान भी वीज ान कवा व व प ानर हत होनेसे
__ अ ान हो है । और वह ान मा अहका सूचक एव पोषक है । जनवर जसे ान कहते ह उसे : सुन ॥ ६ ॥
ी नद सूमम जहां स ातके भेद बताये ह वहां चार वेद तथा पुराण आ दको म या वके शा कहा है।
क तु वे भी आ म ानीको स य होनेसे ान प तीत होते ह। इस लये आ म ानीक उपासना ही ेय कर है।
जनवर जसे ान कहते ह उसे""सुन ।।७।।

३०४
ीमद् राजच
त नह पचखाण न ह, म ह याग व तु कोईनो,
. महाप तीथकर थशे, े णक ठाणंग जोई लो;
छे ो अन ता
अ तम प ीकरण यह है क अब इनमेसे,जो जो खडे ह उनका वचार कर तो उ र मल
जायेगा, अथवा हमे पूछ ल तो प ीकरण कर दगे । (ई रे छा होगी तो।)
२६९ · ववा णया, भा पद वद ३, सोम, १९४७
ई रे छा होगी तो वृ होगी, और उसे सुखदायक, मान लगे, पर तु मनमाने-स संगके बना
'काल ेप होना कर है। मो क अपे ा हम सतक . चरणसमीपता ब त य है, पर तु उस ह रक
'इ छाके आगे हम द न ह । पन
इ छाके आगे हम द न है । पुनः पुन. आपक मृ त होती है । २०० - वा णया,भादो वद ४, मंगल, १९४७ ॐ सत्-
ान वही क अ भ ाय एक ही हो; थोडा अथवा ब त काश, पर तु काश एक ही है ।। .
या शा ा दके ानसे नबटारा नह है पर तु अनुभव ानसे नबटारा है । े णक महारांजने अनाथी मु नसे सम कत ा त कया। तया प
पूव ार धसे वे थोडा भी त प च खाणं
या याग न कर सके । फर भी उस सम कतके तापसे वे आगामी चौबीसीम महाप नामके थम तीथकर होकर
अनेक जीवोका उ ार करके परमपद'मो को ा त करगे, ऐसा थानागसू म उ लेख ह। छे दन कया. अनंत "
१. यहाँ और उ र दोनो दये ह। पहला श द ‘फलदय' है, जसका मूल ' थम'श द है । "इस
थम श दसे ' लदय इस तरह बना है-~ ल न अ रोके पीछे का एक-एक अ र लया जाये । जैसे पु के पीछे
फ, र के पीछे ल, य के पीछे 'द, म् के पीछे ये ल। इस तरह अ रं लेनेसे " थम' से ' लदय' बन जाता है। इसी
तरह सरे श द भी बन जाते ह।। - अनवादक
,१२. पहले जीव कहाँसे आया ? अ रधामसे ( ीमत् प षो ममसे') .
'अ तमे,जीव कहाँ जायेगा? वहाँ। जायेगा
उसे कैसे पाया जाये?स से,

३०५
.संत..
ीमान पुरषो मको अन य भ को अ व छ चाहता है
--- 'ऐसा एक हो पदाथ प रचय करने यो य है क जससे अनंत कारका प रचय नवृ होता है;
{ कोनसा है ? और कस कारसे है ? इसका वचार मुमु ु करत ह। . . . . ल स मे अभेद । जस महापु षका चाहे जैसा
आचरण भी व दनीय'ही है। ऐसे महा माके ा त होनेपर य द उसक
वृ ऐसी तीत होती हो क जो नसदे ह पसे क ही नह जा सकती; तो मुमु ु कैसी रख, यह
त समझने यो य है। । . .
ल. अ गट सत।'
रही ह।'
२७३ ववा णया, भादो वंद ५, बुध, १९४७
आपने ववरण लखा सो मालूम आ। धैय रखना और हरी छाको सुखदायक मानना, इतना ही
मारे लये तो कत प है।
"क लयुगमे अपार क से स पु षक पहचान होती है। और फर कंचन और का मनीका मोह ऐसा .
क उसमे परम ेम नह होने दे ता।' पहचान होनेपर न लतास न रह सके ऐसी जीवक , वृ है,
और यह क लयुग है, इसमे जो वधामे नही पड़ता 'उसे नम कार है। ''
२७४' , , ववा णया, भादो वद ५, बुध, १९४७
'सत्' अभी तो केवल अ गट, रहा द खता है। भ भ चे ासे (योगा दक साधन, आ माका
यान, अ या म चतन, शु क वेदात इ या दसे) वह अभी गट जैसा माना जाता है, पर तु वह वैसा
जन भगवानका स ात है क जड़ कसी समय जीव नही होता, और जीव कसी समय जड नही
होता । इसी तरह 'सत्' कभी 'सत्' के सवाय सरे कसी. साधनसे उ प हो ही नह सकता। ऐसी
य समझमे आने जैसी बातमेउलझकर जीव अपनी क पनासे 'सत्' करनेको कहता है, 'सत्' का
ै े े ै ै
पण करता है, सत्, का उपदे श दे ता है। यह आ य है ।
जगतमे अ छा दखानेके लये मुमु ु कोई आचरण न करे, पर तु जो अ छा हो उसीका आचरण।
२७५ ववा णया, भादो वदो ५, बुध, १९४५.
आज आपका एक प मला। उसे पढकर सवा माका च तन अ धक याद आया है। हमारे .
लये स संगका वारंवार वयोग रखनेक ह रक इ छा सुखदायक कैसे मानी जाये ? तथा प, माननी
पडती है।
'को दास वभावसे वंदन करता ँ। य द इनक इ छा 'सत्' ा त करनेक ती रहती हो
तो भी स सगके बना उस ती ताका फलदायक होना' कर है। हमे तो कोई वाथ नह है, इस लये यह
कहना यो य है क वे ायः 'सत्' से सवथा वमुख माग वृ करते ह।

३०६.
ीमद राजच
, जो वैसे वृ नही ,करते वे अभी तो अ गट रहना चाहते ह। आ यकारक तो यह है क
क लकालने थोडे समयमे परमाथको घेरकर अनथको परमाथ बना दया है।
स व तर प और धमजवाला प ात आ ।
___अभी च परम उदासीनतामे रहता है ।- लखने-आ दमे वृ नह होती। जससे आपको
वशेप, व तारसे कुछ लखा नही जा सकता है। धमज लखना क आपसे मलनेके लये मै (अथात
अबालाल) उ क ठत ँ। आप जैसे पु षके स सगमे,आनेके लये मुझे, कसी े पु षक आ ा है । इस लये
यथासभव दशन करनेके लये आऊँगा । ऐसा होनेमे कदा चत् कसी कारणसे वल ब आ तो भी आपकार
स सग करनेक मेरी इ छा मद नही होगी। इस आशयसे ल खयेगा। अभी कसी भी कारसे उदासीन
रहना यो य नही है।
... हमारे वषयमे अभी कोई भी बात उ हे नह लखनी है।
२७७
ववा णया, भादो वद ,७, १९४७
.. च उदास रहता है, कुछ अ छा नही लगता, और जो कुछ अ छा नही लगता वही सब- दखायी
दे ता है, वही सुनायी दे ता है। तो अब या करे ? मन कसी कायमे वृ नही कर सकता । जससे
येक काय थ गत करना पड़ता है। कुछ, पढ़ने, लखने या जनप रचयमे च नही होती ! च लत मतके,
कारक बात सुनायी पडती है क दयमे मृ युसे अ धक वेदना होती ह। इस थ तको या तो आप
जानते ह या थ त भोगनेवाला जानता है, और ह र जानता है।
.. २७८ ववा णया, भादो वद .१०, र व, १९४७,
"" "जो आ मामे रमण कर रहे ह, ऐसे न ंथ मु न भी न कारण भगवानक भ म वृ करते ह.
यो क भगवानके गुण ऐसे ही ह।
ीम ागवत, क ध १, अ० ७, ोक १०,
- ीम ागवत, क ध, अ० ७, ोक १०,
( . . . . . , . , २७९ . ववा णया भादो वद ११, सोम, १९४७
___ जीवको जब तक सतका योग न हो, तब तक मतमतातरम म य थ रहना यो य है ।
वा णया, भादो वद १२, मगल, १९४५ :
बताने जैसा तो मन है, क जो स व पमे अखड थर आ है (नाग जैसे बासुरीपर), तथा प
उस दशाका वणन करनेको स ा सवाधार ह रने वाणीमे पूण पसे नही द ह, और लेखमे तो उस वाणीका
अनंतवाँ भाग मु कलसे आ सकता है, ऐसी वह दशा उस सबके कारणभूत पु षो म व पमे हमारी,
आपको अन य ेमभ अखड़ रहे, वह ेमभ प रपूण ा त हो, यही याचना चाहकर अभी अ धक
नही लखता।

३०७
क लयुग है इस लये अ धक समय उपजी वकाका वयोग रहनेसे यथायो य वृ पूवापर नह रहती।
व० रायचदके यथायो य ।
,,,प मला । यहाँ भ स ब धी व लता रहा करती है, और वैसा करनेमे हरी छा सुखदायक ही
मानता ँ।" . . . . . . . !
.... महा मा ासजीको जैसा आ था, वैसा हमे आजकल हो रहा है । आ मदशन ा त करनेपर भी
ासजो आन दसप नही ए थे, यो क उ होने ह ररस अखंड पसे नह गाया था। हमारी भी, ऐसी
ही दशा है । अखड ह ररसका परम ेमसे अख ड, अनुभव करना अभी कहाँस, े आये ? और जब तक ऐसा
नही होगा तब तक हमे जगतक व तुका एक अणु भी अ छा नह लगेगा। . . .
.. भगवान ासजी जस युगमे थे, वह युग सरा, था;यह क लयुग है। इसमे ह र व प, ह रनाम
और ह रजन मे नही आते, वणमे भी नही आते,, और इन तीनोमेसे कसीक मृ त हो ऐसी कोई भी
व तु भी दखायी नही दे तो सभी साधन क लयुगसे घर गये ह। ाय सभी जीवः उ मागमे वृ ह,
अथवा स मागके स मुख वतते ए दखायो नही दे ते। व चत् मुमु ु ह, पर तु वे अभी मागके नकट
नही ह।.
.: न कपटता भी मनु योमेसे. चलो, गयी लगती है।। स मागका एका अश और उसका शतांश भी
कसीमे भी गोचर नही होता, केवल ानके,मागका तो सवथा वसजना हो गया है । कौन जाने ह रक
ी ै ऐ ो ी ो े े ी े
इ छा भी या है ? ऐसा वकट काल तो अभी हो दे खा। सवथा म द पु यवाले ाणी दे खकर परम
अनुक पा आती है । हमे स सगको यूनताकै कारण कुछ भी अ छा नही लंगता । अनेक बार थोड़ा थोडा
कहा गया है, तथा प प श दोमे कहा जानेसे मृ तमे अ धक रहे इस लये कहते ह क कसीसे अथ-'
स ब ध और कामस ब ध तो ब त समयसे अ छे ही नही लगते । आजकल धमसंबंध और मो सवध भी
अ छे नही लगते । धमसवध और मो सबध-तो ाय यो गयोको भी अ छे लगते है, और हम तो उनसे ,
भी वर रहना चाहते ह। अभी तो हमे कुछ अ छा नह लगता, और जो कुछ अ छा लगता है, उसका
अ तशय वयोग है,। अ धक या लख? सहन करना हो सुगम है।
यहां हरी छानुसार वृ ी है
भगवान मु दे नेमे कृपण नही है, पर तु भ दे नेमे कृपण है, - ऐसा लगता है । भगवानको ऐसा
लोभ कस लये होगा? . .
.२८४ ववा णया, आसोज सुद ६, गु , १९४७
१. परसमयको जाने बना, वसमयको जाना है ऐसा नही.कहा जा सकता।। . ., .
२ पर को जाने बना व को जाना है ऐसा,नही कहा जा सकता।

३०८
ीमंद राजच
. , ३. स म ततकमे. ी स सेन, दवाकरने कहा है क जतने वचतमाग ह उतने नयवाद ह, और
जतने नयवाद ह उतने ही परसमय है।
४. अ य भगत क वने कहा है-
*कता मटे तो छू टे कम, ए छे . महा भजनमो मम,
- जो तं जीव तो कता ह र, जो तं शव तो व तु खरी,
तं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झट या हाथ।
अपनेसे अपनेको अपूव ा त होना “ कर ह, जससे ा त होता है, उसका व प पहचाना
सका व प पहचाना
जाना कर है, और जीवका भुलावा भी यही है
। 'इस प मे लखे ए ोके उ रं सं ेपम न न ल खत है..ये तीनो मृ तमे ह गे। इनम यो बताया गया है क "( १) ठाणागमे
जो आठ
वा दयोके वाद कहे। है उनमसे आपको और हमे कस वा मे दा खल होना ? (२) इन आठ वांदोसे कोई
भ माग अपनाने यो य हो तो उसे जाननेक आका ा है।। ( ३ ) अथवा आठ वा दयोके मागका
एकोकरण करना ही माग है या कस तरह ? अथवा उन आठ वा दयोके एक करणमे कुछ यूना धकताः
करके, माग हण करने यो य है, और है तो या ?
ऐसा लखा है, इस वषयमे कहना है क इन आठ वादके अ त र अ य दशनोमे, स दायोमे-
माग कुछ ( अ वत,); जुड़ा आ.,रहता है, नही तो ाय भ ही ( त र ) रहता है। वह वाद,
दशन, स दाया ये सब कसी तरह ा तमे कारण प होते है, पर तु स य ानीके बना सरे जीवोके"
लये तो ब धन भी, होते ह ।.. जसे मागक ,इ छा-उ प ई है उसे इन सबका साधारण ान करना,
पढ़ना और वचार करना, तथा वाक मे म य थ रहना यो य है, । साधारण ानका अथ यहाँ यह समझ
क सभी.शा ोमे वणन-करते ए जस ानमे,अ धक. भ तता न आयी,हो वह
। तीथकर आकर गभमे उ प हो अथवा ज म ले तब, या उसके बाद दे वता जान क यह तीथकर
। है ? और जान तो कस तरह ?' इसका उ र यह है क ज हे स य ान ा त आ है वे दे वता अव ध-
ानसे' तीथकरको जानते ह, सभी नही जानते । जन कृ तयोके नाशसे । ज मत.' तीथकर अव ध ान-
। संयु होते है वे कृ तयाँ उनमे दखायी - न दे नेसे वे स य ानी दे वता तीथकरको पहचान सकते ह।
यही व ापन है।
- मुमु ुताने स मुख होनेके इ छु क आप दोनोको यथायो य णाम करता ँ।
ायः परमाथ मौनमे रहनेक थ त अभी उदयमे है और इसी कारण तदनुसार वृ करनेमे
काल तीत होता है, और इसी कारणसे आपके ोके उ र ऊपर सं ेपमे दये ह.! -
1शातमू त सौभा य अभी मोरबीमे है ।
-*भावाथ-कतृ वभाव मट जाये तो कम छू ट जाय, यह महा भ का मम है । य द तू जीव है तो ह र
कता है, और य द तू शव है तो व तु-त व-परमसत् स य है । तू जीव है और तू नाथ है अथात् ै त न होकर
अ ै त है । यो कहकर अ य भगतने अपने हाथ झाड दये।

३०९
२८६ . "हम परदे शी पंखो साधु, आरे दे शके नाही रे..
परम पू य ी सुभा य,
एक के सवाय बाक के ोका उ र जान बूझकर नही लख सका।
- 'काल', या-खाता है? इसका उ र तीन कारसे लखता ँ
सामा य उपदे शमे काल, या खाता है इसका उ र यह है क वह ाणीमा क आयु खाता है ।
। वहारनयसे. काल पुराना' खाता है.
न यनयसे काल मा पदाथका पातर-करता है, पयायातर करता है।
2. अ तम दो ,उ र अ धक वचार करनेसे मेल खा सकेगे। " वहारनयसे काल 'पुराना' खाता है"

ऐ ो ै े ी े े ै
ऐसा जो लखा है उसे फर नीचे वशेष प कया है-
"काल 'पुराना' खाता है"-'पुराना' अथात् या? जो व तु एक समयमे उ प होकर सरे
समयमे रहती है वह व तु पुरानी मानी जाती है। ( ानीको अपे ासे)..उस व तुको तीसरे समयमे, चौथे
समयमे, यो स यात, असं यात समयमे, अन त-समयमे काल बदलता ही रहता,है । सरे समयमे वह जैसी:
होती. है, वैसी तीसरे समयमे नही होती, अथात्, यह क सरे समयमे, पदाथका जो व प था उसे खाकर
तीसरे समयमे कालने पदाथको सरा प दया, अथात् पुराना वह खा गया। पहले समयमे पदाथ उ प
आ, और उसी समय काल उसे, खा जाये यो वहारनयसेनही हो सकता। पहले समयमे पदाथका नया-पन माना जाता है, पर तु उस
समय काल उसे खा नही जाता, सरे समयमे उसे बदलता है, इस लये
पुरानेपनको वह खाता है, ऐसा कहा है !
न यनयसे पदाथ मा पातरको हो ा त होता है, कोई भी 'पदाथ' कसी भी कालमे सवथा.
नाशको ा त ही, नही होता, ऐसा स ात है, और य द पदाथ सवथा-नाशको ा त हो जाता, तो आज कुछ भी न होता। इस लये
काल खाता नही, पर तु पातर करता है, ऐसा कहा है। तीन कारके उ रोमे
पहला उ र समझना 'सभीको' सुलभ है।
. , यहाँ भी दशाके - माणमे बा , उपा ध वशेष है । आपने कतने ही ावहा रक (य प शा -
स ब धी) इस बार लखे थे, पर तु च वैसा पढनेमे भी अभी पूरा नह रहता, इस लये उ र कस
तरह. लखा जा सके . .....
.''ववा णया, आसोज वद १, र व, १९४७,
- पूवापरं अ व भगव स ब धी ानको गट करनेके लये जब तक उसक इ छा नह है, तब
तक कसीसे अ धक सग करनेमे नह आता, इसे आप जानते ह। .
...जब तक हम अपनेमे अ भ प ह रपदको नही मानते तब तक गट माग नही कहेगे। आप भी जो
हम जानते ह, उनके सवाय आप नाम, थान और गॉवसे हमे अ धक य से प र चत न क जयेगा।
एकसे अन त है, और जो अन त है वह एक है।
ववा णया, आसोज वद ५, १९४७
। ' आ दपु ष लीला शु करके बैठा है। ''
एक आ मवृ के सवाय हमारे लये' 'नया पुरांना तो कहाँ है ? और उसे लखने जतना मनको
अवकाश भी कहाँ है ? नही तो सब कुछ नया ही है, और सब कुछ पुराना ही है।

३१०
ीमद् राजच
२८९
परमाथके वषयमे मनु योका प वहार अ धक रहता है, और हमे वह अनुकूल नही आता।
जससे ब तसे उ र तो लखनेमे ही नही आते; ऐसी हरी छा है, और हमे यह बात य भी है।
२९०
एक दशासे वृ है, और यह दशा अभी ब त समय तक रहेगी। तब तक उदयानुसार वतन
यो य माना है । इस लये कसी भी सगपर प ा दक प ँच मलनेम, े वलब हो जाये अथवा न भेजी जाये,
अथवा कुछ न लखा जा सके तो वह शोचनीय नही है, ऐसा न य करके यहॉका प सग र खये।
२९१ आ मा समा धमे है । मन वनमे है । एक सरेके आभाससे अनु मसे दे ह कुछ या करती है,
इस थ तमे स व तर और संतोष प आप दोनोके प ोका उ र कैसे लखना, इसे आप कहे।
धमजके स व तर प क कसी- कसी वातके वषयमे स व तर लखता, पर तु च लखनेमे नह ।
रहता, इस लये लखा नही है।।
. भुवना दकक इ छाके अनुसार आणंदमे समागमका योग ह ऐसा करनेक इ छा है, और तब
उस प स ब धी कुछ पूछना हो तो पू छये ।।
धमजमे जनका नवास है उन मुमु ुओक दशा और था आपको मरणमे रखने यो य है,
अनुसरण करने यो य है। ।
- मगनलाल और भुवनके पताजी कैसी वृ मे है, सो लख । यह प लखते ए सूझनेसे
लखा है।
आप सब परमाथ वषयक कैसी वृ मे रहते ह, सो ल खयेगा। '
आप हमारे वचना दक इ छासे प क राह दे खते होगे, पर तु उपयु कारणोको पढकर ऐसा
समझ क आपने ब तसे प पढ ह।'
कसी एक न बताये ए सगळे वषयमे स व तर प लखनेक इ छा थी, उसका भी नरोप
करना पडा है । उस सगको गाभीयवंशात् इतने वष तक दयमे ही रखा है। अब चाहते ह क उसे
कहे, तथा प आपक स सग तका अवसर आनेपर कहे तो कहै । लखना स भव नही लगता, , . ..
एक समय भी वरह न हो, इस तरह स सगमे ही रहना चाहते है । पर तु यह तो हरी छावश है।
क लयुगमे स संगक परम हा न हो गयी है। अधकार ा त है । और स सगक अपूवताको जीवको
यथाथ भान नह होता।
२९२ - कुटु बा दक सगके वषयमे लखा सो ठ क है, उसमे भी इस कालमे ऐसे सगमे जीवका समभावमे
प रणमन होना महा वकट है, और जो इतना होते ए भी, समभावमे प रण मत होते ह उ हे हम
नकटभवी जीव मानते ह। . . .
आजी वकाके पचकै वषयमे वारवार मृ त न हो इस लये नौकरी करनी पड़े, यह हतकारक
३११
है। जीवको अपनी इ छासे कये ए दोषको ती तासे भोगना पड़ता है, इस लये चाहे जस सग- संगमे
भी वे छासे अशुभभावसे वृ न करनी पड़े ऐसा कर।
ी सुभा य, वमू त प ी सुभा य,
हमे वरहक वेदना अ धक रहती है, यो क वीतरागता वशेष है, अ य सगमे ब त उदासीनता
है, पर तु हरी छाके अनुसार सगोपा वरहमे रहना पड़ता है, जस इ छाको सुखदायक मानते ह, ऐसा
नही है। भ और स सगमे वरह रखनेक इ छाको सुखदायक माननेमे हमारा वचार नही रहता।
ी ह रक अपौ ा इस वषयमे हम अ धक वत ह ।
२९४'
आ यान करनेक अपे ा धम यानमे वृ को लाना ही ेय कर है। और जसके लये आतं-
यान करना पड़ता-हो वहाँसे या तो मनको उठा लेना अथवा तो उस . कृ यको कर लेना, जससे वर
आ जा सकेगा।
जीवके लये व छद' ब त बड़ा दोष ह, यह, जसका र हो गया है. उसे-मागके मक ा त;
ब त सुलभ है।
२९५'
यद च क थरता ई हो तो ऐसे समयमे स पु षोके गुणोको चतन, उनके वचनोका मनन,
उनके चा र का कथन, क तन, और येक चे ाका पुनः पुनः न द यासन हो सकता हो तो मनका
न ह अव य हो सकता है, और मनको जीतनेक एकदम स ची कसौट यह है । ऐसा होनेसे यान या
है यह समझमे आयेगा । पर तु उदासीनभावसे च थरताके समय उसक वशेषता मॉलम पड़ेगी।
२९६
१, उदयको अवध,प रणामसे भोगा जाये तो ही उ म है।
. २. दोके अतमे रही ई.जो व तु, ं वहाछे दनेसे छे द नही जाती, भेदनेसे भेद नही जाती ।।
___ आ माथके लये वचारमाग और भ माग आराधन करने यो य ह। पर तु वचारमाग के यो य
जसक साम य नह है, 'उसे उस मागका उपदे श करना यो य नही है, इ या द जो लखा वह यथायो य
है। तो भी उस वषयमे कुछ भी लखना अभी च मे नही आ सकता।
___ ी नागजी वामी ारा केवलदशन स ब धी द शत'जो आशका लखी है उसे पढा है। सरे
अनेक कार समझनेके बाद उस कारक 'आशका शात होती है अथवा ायः वह कार समझने यो य
होता है। ऐसी आशकाको अभी स त करके अथवा उपशात करके वशेष नकटवत आ माथका वचार
करना यो य है।'

३१२
- काल वपम आ"गया है । स सगका योग नही है, और वीतरागता वशेष है, इस लये कही भी.
चैन नह है, अथात् मन व ा त नह पाता । अनेक कारक वडवना तो हमे नही है, तथा प नरंतर
स सग नही है, यह बडी वडवना है। लोकसग नही चता।।।'
२९९
.... चाहे जस- या, जप, तप अथवा शा ा ययन-करके भी एक ही काय स करता है, वह यह
क जगतक व मृ त करना और स के चरणम रहना
और इस एक ही ल यम वृ करनेस,
े जीवको वय या- करता यो य है, और या करता
अयो य है यह समझमे आता है, मुमझमे आता रहता है।..
'यह ल य स मुख ए बना जप, तप, यान या दान कसीक यथायो य स नह है, और तब
तक यान आ द अनुपयोगी जैसे है।
__ इस लये इनमेसे जो जो साधन हो सकते ह वे सब एक ल य स होनेके लये कर क जस,
ल यको हमने ऊपर बताया है । जप, तप आ द कुछ नषेध करने यो य नही है, तथा प वे सब एक ल यके
लये है, और उस-ल यके बना जीवको स य व स नह होती।
____ अ धक या कहे ? जो ऊपर कहा है उतना ही समझनेके लये सभी शा तपा दत ए है।
दो दन पहले प ा त आ है. साथके चारो, प -पढ़े ह।
मगनलाल, कोलाभाई, खुशालभाई इ या दको आणद आनेको इ छा है, तो वैसा करनेमे कोई बाधा--
नह है । तथा प इस बात से सरे मनु योको हमारी स का पता चलता है क इनवे समागमके लये
अमुक लोग जाते ह, यह यथासभव कम स मे आना चा हये। वैसी स अभीहमे तबध प..
होती है।
-- क लाभाईको सू चत कर क आपने प े छा क पर तु उससे कुछ योजन स नही हो सकेगा।
कुछ पूछनेक इ छा हो तो वे आणदमे हषपूवक पूछे ।

३१३
मरणीय मू त ी सुभा य,. ।
जत आ म प माननेमे आये, जो हो वह यो य ही माननेमे आये, परके दोष दे खनेमे न आये,
'अपने गुणोक उ कृ ता सहन करनेमे आये तो ही इस संसारमे रहना यो य है, सरी तरहसे नही।
े ो
व० रायचदके यथायो य ।
(ऐसा जो ) परम स य, उसका हम यान करते ह। '
* यहाँसे का तक वद ३, बुधके दन वदा होनेक इ छा है।
। पू य ी द पचदजी वामीको वदना करके व ापन कर क य द उनके पास कोई दग बर
सं दायका ंथ मागधी, सं कृत या ह द मे हो और वह पढ़नेके लये दया जा सके तो लेकर अपने पास
रखे, अथवा तो वैसा कोई अ या म ान थ हो तो उस वषय पूछे। उनसे य द कोई वैसा थ ा त
च-सात दन म वापस मल जाये, ऐस
उपा धको र करनेके लये यह थप छा क है। यहाँ कुशलता है।
- यहाँसे का तक वद ३ को नकलनेका वचार है। संभवतः मोरबीमे पाँच-सात दन लग जायगे।
तथा प ावहा रक सग ह इस लये आपका आना यो य नह है। आणदमे समागमक इ छा र खये।
मोरबीक नवृ कर।....
और एक बात मरणमे रखनेके लये, लखते ह, क परमाथ संगसे अभी हमने गट पसे
कसोका भी समागम करना नही रखा है। ई रे छा ऐसो लगती है।
सब भाइयोको यथायो य । दगंबर ंथ- मले-तो ठ क, नही तो कोई बात नही।
अ गट सत् ।
...,, वा णया, का तक सुद , १९४८
यथायो य वदन वीकार कर। समागममे दो चार कारण आपको खुले दलसे बात नही करने
दे ते । अन तकालक वृ , समाग मयोक वृ और लोकल जा ाय. ये सब उन कारणोक जड़ है। ऐसे
कारणोसे कोई भी ाणी कटा का पा बने ऐसी मेरी दशा ाय नह रहती। पर तु अभी मेरी दशा कोई
भी लोको र बात करते ए झझकती है अथात् मनका मेल नही बैठता ।
'परमाथ मौन' नामका एक कम अभी उदयमे भी रहता है, जससे ब त कारका मौन भी अगी-
कार कया है, अथात् परमाथस ब धी वातचीत ाय नही क जाती। ऐसा उदयकाल है। व चत्
साधारण मागस ब धा बातचीत क जाती है, नही तो इस वषयमे वाणीसे और प रचयसे मौन और
शू यता हण कये गये ह। जवेत यो य ममागम होकर च ातो पु पके व पको नही जान सकता,
१ ीमद् भागवत, कंघ १२, अ याय १३, ोक १९ . .. ,

३१४
ीमद राजच
तब तक उपयु तोन कारण सवथा र नह होते, और तब तक 'सत्' का यथाथ कारण ा त भी नही
होता। ऐसा होनेसे आपको मेरा समागम होनेपर भी ब त ावहा रक और लोकल जायु ं बात करनेका
सग रहेगा, और उससे मुझे कटाला आता है। आप चाहे जससे भी मेरा समागम होने के बाद इस
कारको वातमे फंस, इसे मने यो य नही माना है।
.... ३०५ जो धमजवासी ह, उ हे य प स य ानक ा त नही है, तथा प मागानुसारी जीवा होनेसे वे
समागम करने यो य ह । उनके आ यमे रहनेवाले मुमु ुझोक भ , वनया दका वहार, वासनाशू यता
ये दे खकर अनुसरण करने यो य है । आपका जो कुलवम है, उसके कुछ वहारका वचार करने से उपयु
मुमु ुओका वहार आ द'... उनके मन, वचन और कायाक वृ , सरलता के लये समागम
करने यो य है । कसी भी कारका दशन हो उसे महा पु षोने स य ान माना है ,ऐसा नही समझना है।
पदाथका यथाथ बोध ा त हो उसे स य ान माना गया है।
। धमज जनका नवास है, वे अभी उस भू मकामे नही आये ह। उ हे अमुक तेजोमया द का दशन
है । तथा प वह यथाथ बोधपूवक नह है। दशना दक अपे ा यथाथ बोध े पदाथ है । यह वात जताने-
का हेतु यह है क आप कसी भी कारक क पनासे नणय करनेसे नवृ हो जाये।
1. ऊपर जो क पना श दका योग कया गया है. वह इस अथमे है क-"हमने आपको उस समा-
गमक स म त द जससे वे समागमी 'व तु ान' के स ब धमे जो कुछ पण, करते है, अथवा उपदे श
दे ते ह, वैसी ही हमारी मा यता भी है, अथात् जसे हम 'सत्' कहते ह वह, पर तु हम अभी मौन रहते है
इस लये उनके समागमसे आपको उस ानका,बोव ा त कराना चाहते ह।":, . .
३०६ . वह समा ध
ी सुभा य ेमसमा धमे रहते ह।
३०७ आणंद, मग सर सुद २,(ऐसा जो) परमस य उसका हम यान करते ह ।
भगवानको सव समपण कये वना इस कालमे जीवका दे हा भमान मटना स भव नही है । इस-
लये हम सनातन धम प परम स यका नर तर यान करते ह। जो स यका यान करता है वह स य हो
जाता है।
. ी सहज समा ध -- . . , . ..'
यहाँ समा ध है। मृ त रहती है, तथा प न पायता है। असगंवृ होनेसे अणुमा उपा ध सहन
हो सके ऐसी दशा नह है, तो भी सहन करते ह। स सगी 'पवत' के नामसे जनका नाम है उ ह यथायो य ।
१. प फटा आ होनेसे यहाँसे असर उह गये ह। "
३१५
'आप दोनो वचार करके व तुको पुन. पुन. समझ। मनसे कये ए न यको सा ात् न य न
__ मा नयेगा । ानीसे ए न यको जानकर वृ करनेमे क याण है। फर जैसा भावी।।
सुधाके वषयमे हमे स दे ह नह है, आप उसका व प समझे, और तभी फल है।
३०९
"अनु मे संयम पशतो जी, पा यो ायकभाव रे।"
संयम" ेणी फूलडे जी, पूजु पद न पाव रे॥"'
( आ माक अभेद चतना प ) संयमके एकके बाद एक मका अनुभव करके ा यक भाव ( जड
प रण तका याग) को ा त ए स ाथके पु के नमल चरणकमलक सयम े ण प फूलोसे पूजा करता है।
उपयु वचन अ तशय ग भीर है। ------- ल० यथाथ बोध व पका यथाथ ।
जनक वदे ही सबंधी ल यमे है। "
. १ भावाथ -"अनु मसे उ रो र सयम थानकको पश करते ए मोहनीयकमका य करके उ कृ सयम-
' थान प ीणमोहगुण थानको ा त ए ी वीर वामीके पापर हत चरणकमलको सयम ण प भावपु पोसे पूजता ँ।
- '२'भावाथ-आ म ानी सभी दशन के नय अथात् व को यथावत् समझता है, और वय कसी दशन
अथवा मतम राग े ष या आ हं न करते ए 'आ म वभावम रमण करता है.। वह अ य जीवोको अनु प एव हतकारी
सजीवनी प-वा त वक धमका-उपदे श दे ता है।
, - ३ भावाथ-जगतम जो भ - भ धममत च लत,हे उसका कारण ओघ अथात् म या ान है,
थरा दक चार म स य दशन अथवा आ माका वा त वक योग होता है जससे वह योग है । फर स यग्-
को वह भेद, तीत नही होता अथात् भेद र हो जाता है। . . . .
४ भावाथ-इस म जीव योगके बीज अथवा सम कत , ा त होनेके कारणोको ा त करता रहता
है । फर वह शु एव न काम भावसे जनवरको णाम करता है, भावाचायक सेवा करता है और भवो े ग अथवा
वैरा य धारण करता है। -

३१६
: ानीके आ माको दे खते है और वैसे होते ह।
आपक थ त यानमे है। आपक इ छा भी यानमे है। आपने गु के अनु हवाली जो बार
लखी है वह भी सच है । कमका उदय भोगना पडता है यह भी सच है। आप समय-समयपर अ तशय
खेदको ा त हो जाते है, यह भी जानते है । आपको वयोगका अस स ताप रहता है यह भी जानते
है । ब त कारसे स सगमे रहने यो य है, ऐसा मानते ह, तथा प अभी तो यो सहन करना यो य माना है।
चाहे जैसे दे शकालम यथायो य रहना, और यथायो य रहनेक इ छा ही कये जाना यह उपदे श
है। आप अपने मनको च ता लख भेजे तो भी हमे आपपर खेद नह होगा। ानी अ यथा नही करते
ऐसा करना उ हे नह सूझता, ऐसी थ तमे सरे उपायक इ छा भी न कर ऐसी वनती है। .
कोई इस कारका उदय है क अपूव-वीतरागताके होनेपर भी हम ापार स ब धी कुछ वृ
कर सकते है, तथा खाने-पीने आ दक अ य वृ याँ, भी बड़ी मु कलसे कर, पाते ह। मन कही भा
वराम नही पाता, ाय यहाँ कसीके समागमक . वह इ छा नह करता। कुछ लखा नही जा सकता।
'अ धक परमाथवा य कहनेक इ छा नह होती। कसी के ारा पूछे गये ोके उ र जानते ए भा
' लख नह सकते । च का भी अ धक सग नही, ह, और आ मा आ मभावमे रहता है | 5 Tv IFF'2
१ भावाय-शु = नरावरण, नरजन = राग े प पी मैलसे र हत, अलख - अल य और अगोचर - इ या-
तोत-परमा मा व पान द वलासी एव परभाव उदासी है । यही हम सा य पसे सुहाया है । हे आ मन् । स य ान एवं
- स य याका अवल वन लेकर व पम थर होनेके अपूव आन दका अनुभव करना ही मो स का उपाय है ।।
। २ भावाथ- शला रानीसे उ प , राजा स ाथके, वश वभूषण, ज म-जरा मरणर हत, एव:-सहज
१, व पान द वीर परमा माका यान प भावभुवनमे यान कया। ३. भावायं-पामर ामीण/ नगरके सुखको नही जानता है। और
कुमारी प तके, सुखको नह
जानती है। इसी तरह अनुभवके वना यानके सुखको भला कौनसा ी-पु ष जानता है ।

३१७
समय-समयपर अन तगुण व श आ मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जसे ाय भॉपने
नही दया जाता, अथवा भाँप सकनेवालेका सग नही है।
__ आ माके वषयमे सहज मरणसे ा त आ ान ी वधमानमे था ऐसा मालूम होता है । पूण
वीतराग जैसा बोध हमे सहज ही याद आ जाता है, इसी लये आपको और गोस लयाको लखा था क
आप पदाथको समझ । वैसा लखनेमे सरा कोई हेतु न था।
३१४
बबई, पौष सुद ११, सोम, १९४८
' जन थई जनवरने आराधे, ते सही जनवर होवे रे।
भुंगी इलोकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे॥
आतम यान करे जो कोउ, सो फर इणमे नावे ।
वा य जाळ बीजं सौ जाणे, एह त व च चावे ॥
३१५
बबई, पौष सुद ११, १९४८
ी ोई े े े े ी ी ो ो ी
हम कभी कोई वा य, पद या चरण लख भेजे उसे आपने कही भी पढ़ा या सुना हो तो भी
अपूववत् मान।
हम वय तो अभी यथाश वैसा कुछ करनेक इ छावाली दशामे नही है।
व प सहजमे है । ानीके चरणोक सेवाके बना अन त काल तक भी ा त न हो ऐसा
वकट भी है।
आ मसयमको याद करते ह । यथा प वीतरागताक पूणता चाहते ह । बस इतना ही।
ी बोध व पके यथायो य ।
३१६
बबई, पौष वद ३, र व, १९४८
'एक प रनामके न करता दरव दोई,
दोई प रनाम एक दवं न घरतु है।
एक करतू त दोई दव कब ँ न कर,
दोई करतू त एक दवं न करतु है।
जीव पु ल एक खेत अवगाही दोउ,
अपने अपने प, कोउ न टरतु है।
१ भावाथ-जो ाणी जने रके व पको ल यम रखकर तदाकार वृ से जने रक आराधना करता
है- यान करता है वह न यसे जनवर केवलदशनी हो जाता है। जैसे भ री क डेको म के घरम ब द कर
दे ती है, फर उसे चटकाने---डक मारनेसे वह क डा भारी होकर बाहर आता है जसे जगत दे खता है । ता पय यह
है क ा, न ा एव भावनासे जोव इ स ा त कर लेता है । वशेषाथके लये दे ख आक ३८७ ।
२. भावाय--जो कोई थर आसनसे आ माम लीन होकर तदाकार वृ से शु आ म व प का यान करता
है वह अनेक मतवा दयोके व म- मम व प जालमे नही फंसता तथा राग े ष, मोह और अ ानको छोडता है,
आ म व पके कथनके वना अ य जप, तप, पूजा, नयम आ दको वा जाल समझता है और आ म व पके
त यका हो अपने च म च तन करता है ।

३१८
ीमद् राजच
जड प रनाम नको, करता है पु ल,
चदानंद चेतन सुभाव आचरतु है।'
-समयसार नाटक
३१७
बबई, पौष वद ५, र व, १९४८
‘एक प रनामके न करता दरव दोई',
व तु अपने व पमे ही प रणत होती है ऐसा नयम है। जीव जीव पसे प रणत आ करता
है, और जड जड पसे प रणत आ करता है। जोवका मु य प रणमन चेतन ( ान) व प है, और
जडका मु य प रणमन जड व व प है । जीवका जो चेतनप रणाम है वह कसी कारसे जड होकर
प रणत नही होता, और जडका जो जड वप रणाम है वह कसी दन चेतनप रणामसे प रणत नही
होता, ऐसी व तुक मयादा है, और चेतन, अचेतन ये दो कारके प रणाम तो अनुभव स है । उनमेसे
एक प रणामको दो मलकर नही कर सकते, अथात् जीव और जड़ मलकर केवल चेतनप रणामसे
प रणत नही हो सकते । अथवा केवल अचेतन प रणामसे प रणत नही हो सकते । जीव चेतनप रणामसे
प रणत होता है और जड़ अचेतनप रणामसे प रणत होता है, ऐसी व तु थ त है। इस लये जने
कहते है क एक प रणामको दो नही कर सकते। जो-जो है वे वे अपनी थ तमे ही होते ह
और अपने वभावमे प रणत होते ह।
'दोई प रनाम एक दवं न धरतु है।'
इसी कार एक दो प रणामोमे भी प रण मत नही हो सकता, ऐसी व तु थ त है । एक
जीव का चेतन एव अचेतन इन दोनो प रणामोसे प रणमन नही हो सकता, अथवा एक पु ल
अचेतन तथा चेतन इन दो प रणामोसे प रण मत नही हो सकता। मा वय अपने ही प रणाममे
प रण मत होता है। चेतनप रणाम अचेतनपदाथमे नही होता, और अचेतनप रणाम चेतनपदाथमे नही
होता, इस लये एक दो कारके प रणामोसे प रण मत नही होता,-दो प रणामोको धारण नह
कर सकता।
‘एक करतू त दोई दव कब ँ न करै,'
इस लये दो एक याको कभी भी नह करते। दो ोका एकाततः मलन होना यो य
नही है। य द दो मलकर एक क उप होती हो, तो व तु अपने व पका याग कर द,
और ऐसा तो कभी भी नही हो सकता क व तु अपने व पका सवथा याग कर दे ।
जब ऐसा नही होता, तब दो सवथा एक प रणामको पाये बना एक या भी कहाँसे कर?
अथात् वलकुल न कर।
'दोई करतू त एक दव न करतु है,' ।
इसी तरह एक दो याओको धारण भी नही करता; एक समयमे दो उपयोग नही हो
सकते । इस लये
'जीव पु ल एक खेत अवगाही दोउ,'
जीव और पु ल कदा चत् एक े को रोककर रहे हो तो भी

े े ो ै
'अपने अपने प, कोउ न टरतु है,
अपने अपने व पसे कसी अ य प रणामको ा त नही होते, और इस लये ऐसा कहते है क-
__'जड प रनाम नको, करता है पु ल',

३१९
दे हा दकसे जो प रणाम होता है उसका पु ल कता है, यो क दे हा द जड है, और जडप रणाम
तो पु लमे होता है । जब ऐसा ही है तो फर जीव भी जीव व पमे ही रहता है, इसमे अब कसी सरे
माणक ज रत नही है, ऐसा मानकर कहते है क-
' चदानद चेतन सुभाव आचरत है।'
का कताके कहनेका हेतु यह है क य द आप इस तरह व तु थ तको समझ तो जडसबधी जो
व व पभाव है वह मटे और व व पका जो तरोभाव ह वह गट हो। वचार कर तो थ त भी
ऐसी ही है । अ त गहन बातको यहाँ सं ेपमे लखा है । (य प) जसे यथाथ बोध है उसे तो सुगम है।
इस बातका अनेक बार मनन करनेसे कुछ बोध हो सकेगा।
आपका एक प परसो मला था। आपको प लखनेका मन तो होता है, पर तु जो लखनेका
सूझता है वह ऐसा सूझता है क आपको उस बातका ब त समय तक प रशीलन होना चा हये, और वह
वशेष गहन होता है । इसके सवाय लखना नही सूझता। अथवा लखनेमे मन नहो लगता। बाक तो
न य समागमक इ छा करते है।
सगोपा कुछ ानवाता ल खयेगा | आजी वकाके ःखके लये आप जो लखते ह वह स य है ।
च ाय. वनमे रहता है, आ मा तो ायः मु व प लगता है। वीतरागता वशेष है । बेगार-
क भां त वृ करते ह, सरोका अनुसरण भी करते ह। जगतसे ब त उदास हो गये है । ब तीसे तग
आ गये ह। कसीको दशा बता नही सकते । बताने जैसा स सग नही है, मनको जैसे चाहे वैसे मोड सकते
ह, इस लये वृ मे रह सके ह। कसी कारसे रागपूवक वृ न होती हो ऐसी दशा है, ऐसा रहता
है । लोकप रचय अ छा नह लगता | जगतमे चैन नही पडता।
___अ धक या लख ? आप जानते ह। यहाँ समागम हो ऐसी तो इ छा करते है, तथा प कये ए
कम को नजरा करनी है, इस लये उपाय नही है।
ल० यथाथ बोध व पके यथायो य ।
३१८ __बंबई, पौष वद १३, गु , १९४८
सरे काममे वृ करते ए भी अ य वभावनासे वृ करनेका अ यास रखना यो य है।
वैरा य भावनासे भू षत 'शातसुधारस' आ द थ नरतर चतन करने यो य ह।
मादमे वैरा यक ती ता, मुमु ुता मद करने यो य नह है, ऐसा न य रखना यो य है।
ी बोध व प।
___३१९
बबई, माघ सुद ५, बुध, १९४८
अनतकालसे व पका व मरण होनेसे जीवको अ यभाव साधारण हो गया है। द घकाल तक
स सगमे रहकर बोधभू मकाका सेवन होनेसे वह व मरण और अ यभावक साधारणता र होती है,
अथात् अ यभावसे उदासीनता ा त होती ह । यह काल वषम होनेसे व पमे त मयता रहना कर है,
तथा प स सगका द घकाल तक सेवन उस त मयताको दे ता है इसमे सदे ह नही होता।
जीवन अ प है और जजाल अनत है, धन सी मत है, और तृ णा अनत है, इस थ तम व प-
मृ तका सभव नही है । पर तु जहाँ जजाल अ प है, और जीवन अ म है, तथा तृ णा अ प है अथवा
नह है, और सव स है, वहाँ पूण व प मृ त होना सभव है। अमू य ऐसा ानजीवन पचसे आवत
होकर चला जाता है। उदय बलवान है !

३२०
अ यत उदास प रणाममे रहे ए चैत यको ानी वृ मे होनेपर भी वैसा ही रखते ह; तो भी
कहते है क माया तर है, रत है, णभर भो, एक समय भी इसे आ मामे थापन करना यो य नही
है। ऐसी ती दशा आनेपर अ यत उदास प रणाम उ प होता है, और वैसे उदास प रणामक जो
वृ -(गाह य स हतक )-वह अवधप रणामी कहने यो य है । जो बोध व पमे थत है वह इस तरह
क ठनतासे वृ कर सकता है यो क उसक वकटता परम है।
जनकराजाक वदे ही पसे जो वृ थी वह अ यत उदासीन प रणामके कारण रहती थी, ाय
उ हे वह सहज व पमे थो, तथा प कमी मायाके र त सगमे, समु मे जैसे नाव थोडोसी डोला करती
है वैसे उस प रणामक चलायमानताका सभव होनेसे येक मायाके संगमे जसक सवथा उदासीन
अव था है ऐसे नजगु अ ाव क शरण अपनानेसे मायाको आसानीसे तरा जा सकता था, यो क
महा माके आलबनक ऐसी ही वलता है।
लौ कक से आप और हम वतन करगे तो फर अलौ कक से कौन वतन करेगा?
आ मा एक है या अनेक है कना है या अकता है. जगतका कोई कता है या जगत वत है,
इ या द वषय मश. स सगमे समझने यो य है, ऐसा मानकर इस वषयमे अभी प ारा नही लखा
गया है।
स यक कारसे ानीमे अखड व ास रखनेका फल न य ही मु है।
ो ी ो ो ँ े े औ े ो
आपको ससारसबधी जो जो चताएँ ह उ हे ाय हम जानते ह, और इस वषयमे आपको अमुक
अमुक वक प रहा करते ह उ हे भी जानते ह । और आपको स सगके वयोगके कारण जो परमाथाचता
भी रहती हे उसे भी जानते ह। दोनो कारके वक प होनेसे आपको आकूल ाकुलता ा त होती हो,
इसमे भो आ य नही लगता अथवा यह असभव प मालूम नही होता। अब इन दोनो कारोके लये
हमारे मनमे जो कुछ हे उसे प श दोमे नीचे लखनेका य न कया है।
___ ससार स ब धी आपको जो चता है उसे उदयके अनुसार वेदन कर, सहन करे । यह चता होनेका
कारण ऐसा कोई कम नही है क जसे र करने के लये व करते ए ानी पु पको बाधा न आये।
जबसे यथाथ बोधक उ प ई है, तबसे कसी भी कारके स योगसे या व ाके योगसे वस ब धी
या परस ब धी सासा रक साधन न करनेको त ा है, और इस त ाके पालनमे एक पलको भी मदता
__ *भावाथ-जीव पो लक पदाथ नह है, पु ल नह है, पु लका आधार नह है, और वह पु लक
रगवाल नह है, स्अपनो व पम ाके सवायजो कुछ अ य है उसका वामी नह है, यो क परका ऐ य व पम
नह होता । व तुधमसे दे खते ए कमी कालमे भी वह परसगी भी नही ह ।

३२१
आज दन तक आयी हो यह याद नही आता । आपक चता जानते ह, और हम उस चताके कसी भी
भागको यथाश वेदन करना चाहते ह । पर तु ऐसा तो कभी भूतकालमे आ नही है, तो अब कैसे हो
सकता है ? हमे भी उदयकाल ऐसा रहता है क अभी ऋ योग हाथमे नही है।
ाणीमा ाय आहार, पानी पा लेते है। तो आप जैसे ाणीके कुटु बके लये उससे वपरीत
प रणाम आये ऐसा मानना यो य ही नही है। कुटु बक लाज वार वार आड़े आकर जो आकुलता उ प
करती है, उसे चाहे तो रख और चाहे तो न रख, दोनो समान ह, यो क जसमे अपनी न पायता है
उसमे तो जो हो उसे यो य ही मानना, यही स यक् है । जो लगा वह बताया है।
हमे जो न वक प नामक समा ध है वह तो आ माक व पप रण त रहनेके कारण है । आ माके
व पसबंधी तो हमे ाय. न वक पता ही रहना सभव है, यो क अ यभावमे मु यतः हमारी वृ ही
नही है।
___ बध-मो को यथाथ व था जस दशनमे यथाथ पसे कही गयी है, वह दशन नकट मु का ।
कारण है, और इस यथाथ व थाको कहने यो य य द कसीको हम वशेष पसे मानते हो तो वे ी
तीथकरदे व ह।
___ और आज इस े मे ी तीथकरदे वका यह आत रक आशय ायः मु य पसे य द कसीमे हो ।
तो वे हम होगे ऐसा हमे ढतापूवक भा सत होता है।
यो क हमारे अनुभव ानका फल वीतरागता है, और वीतरागका कहा आ ुत ान भी उसी
प रणामका कारण लगता है, इस लये हम उनके वा त वक और स चे अनुयायी है।
वन और घर ये दोनो कसी कारसे हमे समान ह, तथा प पूण वीतरागभावके लये वनमे रहना ।
अ धक चकर लगता है, सुखक इ छा नही है पर तु वीतरागताक इ छा है।
जगतके क याणके लये पु षाथ करनेके बारेमे लखा तो वह पु षाथ करनेक इ छा कसी कारसे :
रहती भी है, तथा प उदयके अनुसार चलना यह आ माक सहज दशा ई है, और वैसा उदयकाल अभी
समीपमे दखायी नही दे ता, और उसक उद रणा क जाये ऐसी दशा हमारी नही है।
___ 'भीख मांगकर गुजरान चलायगे पर तु खेद नही करगे, ानके अनत आन दके आगे वह ख
तृण मा है' इस भावाथका जो वचन लखा है उस वचनको हमारा नम कार हो । ऐसा वचन स ची
यो यताके बना नकलना सभव नही है।
"जीव यह पौ लक पदाथ नही है, पु ल नही है, और पु लका आधार नही है, उसके रग-
वाला नही है, अपनी व पस ाके सवाय जा अ य हे उसका वामी नह है, यो क परका ऐ य
व पमे नह होता। व तुधमसे दे खते ए वह कभी भी परसगी भी नही है।" इस कार सामा य अथ
'जीव न व पु गली' इ या द पदोका हे।
" ःखसुख प करम फळ जाणो, न य एक आनंदो रे।
चेतनता प रणाम न चूके, चेतन कहे जनचदो रे ॥"
( ी वासुपू य तवन-आन दघनजी)
१ भावाय हे भ यो । ख और सुख दोनोको कमका फल जान । यह वहारनयक अपे ासे हे ओर
न यनयसे तो आ मा आनदमय ही है। जने र कहते ह क आ मा कभी भी चेतनताके प रणामको नह छोडता ।

३२२
यहाँ समा ध हे । पूण ानसे यु ऐसी जो समा ध वह वारवार याद आती है।
परमस का यान करते ह । उदासीनता रहती है ।
चारो तरफ उपा धक वाला व लत हो उस सगमे समा ध रहना परम कर है, और यह
बात तो परम ानीके बना होना वकट है। हमे भी आ य हो आता है, तथा प ायः ऐसा रहा ही
करता है ऐसा अनुभव है।
जसे आ मभाव यथाथ समझमे आता है, न ल रहता है, उसे यह समा ध ा त होती है।
स य दशनका मु य ल ण वीतरागता जानते ह, और वैसा अनुभव है।
अ तदशाके का का अथ लख भेजा सो यथाथ है। अनुभवका यो- यो वशेष साम य
उ प होता है यो यो ऐसे का , श द, वा य यथात य पसे प रण मत होते ह, इसमे आ यकारक


दशाका वणन है।
१ भावाथ-अवसर मलनेपर जवसे आ माने वभाव प रण तको छोडकर नज वभावको हण कया है,
तबसे जो जो वात उपादे य थी वे वे सब हण क , और जो जो वाते हेय थी वे वे सब छोड द । अब हण करने यो य और यागने
यो य कुछ नही रह गया और न कुछ शेष रह गया जो नया काम करनेको बाक हो । प र ह
छोड दया, शरीर छोड दया, वचन-तकक यासे र हत आ, मनके वक प याग दये, इ यज नत ान छोडाऔर आ माको शु
कया ।

३२३
जोवको स पु षको पहचान नही होती और उनके त अपने समान ावहा रक क पना रहती है,
यह जीवक क पना कस उपायसे र हो, सो ल खयेगा।
उपा धका सग ब त रहता है। स संगके बना जी रहे है।
३२८ बबई, माघ वद ३०, र व, १९४८
"लेवेको न रही ठोर, यागोवेको नाही ओर।
बाक कहा उबय जु, कारज नवीनो है !" '
व पका भान होनेसे पूणकामता ा त ई, इस लये अब कुछ भी लेनेके लये सरा कोई े
नही रहा । व पका याग तो मूख भी कभी करना नह चाहता, और जहाँ केवल व प थ त है, वहाँ
तो फर सरा कुछ रहा नही, इस लये याग करना भी नही रहा । अब जब लेनादे ना दोनो नवृ हो
गये, तब सरा कोई नवीन काय करनेके लये या बाक रहा ? अथात् जैसे होना चा हये वैसे हो गया।
तो फर सरा लेने-दे नेका जजाल कहाँसे हो ? इस लये कहते ह क यहाँ पूणकामता ा त ई।
३२९
बबई, माघ वद , १९४८
कोई णभरके लये अ चकर करना नह चाहता। तथा प उसे करना पड़ता है, यह यो सू चत
करता है क पूवकमका नबधन अव य है।
___अ वक प समा धका यान णभरके लये भी नही मटता । तथा प अनेक वष से वक प प
उपा धक आराधना करते जाते ह।
' जब तक ससार है तब तक कसी कारको उपा ध होना तो सभव है, तथा प अ वक प समा धमे
थत ानीको तो वह उपा ध भी अबाध है, अथात् समा ध ही है।
इस दे हको धारण करके य प कोई महान ऐ य नही भोगा, श दा द वषयोका पूरा वैभव ा त
नही आ, कसी वशेष रा या धकार स हत दन नही बताये, अपने माने जानेवाले कसी धाम व
आरामका सेवन नही कया, और अभी युवाव थाका पहला भाग चलता है, तथा प इनमेसे कसीक
आ मभावसे हमे कोई इ छा उ प नह होती, यह एक बडा आ य मानकर वृ करते ह । और इन
पदाथ क ा त-अ ा त दोनो एकसी जानकर ब त कारसे अ वक प समा धका ही अनुभव करते ह।
ऐसा होनेपर भी वारवार वनवासक याद आती है, कसी कारका लोकप रचय चकर नही लगता,
स सगमे सुरत बहा करती है, और अ व थत दशासे उपा धयोगमे रहते ह। एक अ वक प समा धके
सवाय सचमुच कोई सरा मरण नही रहता, चतन नही रहता, च नही रहती, अथवा कुछ काम
नही कया जाता।
यो तष आ द व ा या अ णमा आ द स को मा यक पदाथ समझकर आ माको उसका मरण
भी व चत ही होता है। उस ारा कसी बातको जानना अथवा स करना कभी यो य नही लगता,
और इस बातमे कसी तरह अभी तो च वेश भी नह रहा।
पूव नब धन जस जस कारसे उदयमे आये उस उस कारसे' अनु मसे वेदन करते जाना,
ऐसा करना यो य लगा है।
आप भी ऐसे अनु ममे चाहे जतने थोडे अंशमे वृ क जाय तो भी वैसी वृ करनेका
अ यास र खये और कसी भी कामके सगमे अ धक शोकमे पड़नेका अ यास कम क जये, ऐसा करना
या होना यह ानीक अव थामे वेश करनेका ार है।
१ कागज फट जानेसे अ र उड गये ह।

३२४
ीमद राजच
अ ध संग लखते ह, वह य प पढनेमे आता है, तथा प त सब धी
उ र लखना भी नही बन पाता, इसे दोष कहे या गुण कहे,
आस कती भी कारका उपा ध संग र
च म कुछ भी आभास न पडनेसे ाय उ र
परंतु मा करने यो य है।
सासा रक उपा ध हमे भी क
उ प नह होती। उस उपा धका
से भी कुछ कम नही है, तथा प उसमे नज भाव न रहनेसे उससे घबराहट
उपा धके उदयकालके कारण अभी तो समा ध गौणभावसे रहती है, और उसके
लये शोक रहा करता है।
ल० वीतरागभावके यथायो य ।
३३०
बबई, माघ, १९४८
कसनदास आ द ज ासु,
द घकाल तक यथाथ बोधका प रचय होनेसे बोधबीजक ा त होती है, और यह बोधवीज ाय.
न य स य व होता है ।
जन भगवानने बाईस कारके प रषह कहे है, उनमे दशनप रपह नामका एक प रषह कहा है,
और एक सरा अ ानप रषह नामका प रषह भी कहा है। इस दोनो प रषहोका वचार करना यो य
है, यह वचार करनेक आपक भू मका है; अथात् उस भू मका (गुण थानक) का वचार करनेसे कसी
कारसे आपको यथाथ धैय ा त होना स भव है।
कसी भी कारसे वय मनमे कुछ सक प कया हो क ऐसी दशामे आय अथवा इस कारका
यान कर, तो स य वक ा त होती है, तो वह सक पत ाय ( ानीका व प समझमे आनेपर)
म या है, ऐसा मालूम होता है।
___ यथाथ बोधके अथका वचार करके, अनेक बार वचार करके अपनी क पनाको नवृ करनेका
ा नयोने कहा है। .
'अ या मसार' का अ ययन, वण चलता है सो अ छा है । अनेक बार थ पढ़नेक चता नह ,
पर तु कसी कारसे उसका अनु े ण द घकाल तक रहा करे ऐसा करना यो य है।
परमाथ ा त होनेके वषयमे कसी भी कारक आकुलता- ाकुलता रखना-होना-उसे
'दशनप रषह' कहा है। यह प रषह उ प हो यह तो सुखकारक है; पर तु य द धैयसे वह वेदा जाये तो
उसमेसे स य दशनक उ प होना सभव होता है।
आप 'दशनप रषह'मे कसी भी कारसे रहते ह, ऐसा य द आपको लगता हो तो वह धैयसे वेदने
यो य है, ऐसा उपदे श है । आप ायः 'दशनप रषह'मे है, ऐसा हम जानते है ।
कसी भी कारक आकुलताके वना वैरा यभावनासे, वीतरागभावसे, ानीमे परमभ भावसे
स शा आ दका और स सगका प रचय करना अभी तो यो य है।
परमाथसबंधी मनमे कये ए सक पके अनुसार कसी भी कारक इ छा न कर, अथात् कसी
भी कारके द तेजयु पदाथ इ या द दखायी दे ने आ दक इ छा, मन क पत यान आ द इन सब
सक पोको यथाश नवृ कर।
'शातसुधारस' मे कही ई भावना और 'अ या मसार' मे कहा आ आ म न या धकार ये
वारवार मनन करने यो य है, इन दोनोक वशेषता माने ।
'आ मा है' ऐसा जस माणसे ात हो, 'आ मा न य है ऐसा जस माणसे ात हो, 'आ मा
कता है' ऐसा जस माणसे ात हो, 'आ मा भो ा है' ऐसा जस माणसे ात हो, 'मो है ऐसा जस

३२५
माणसे ात हो, और 'उसका उपाय है' ऐसा जस माणसे ात हो, वह वारंवार वचारणीय है।
'अ या मसार'मे अथवा चाहे कसी सरे थमे यह बात हो तो वचार करनेमे बाधा नही है । क पनाका
याग करके वचारणीय है।
जनक वदे हीक बात अभी जाननेसे आपको लाभ नही है।
ा तवश सुख व प भासमान होते ह ऐसे इन ससारी सगो एवं कारोमे जब तक जीवको ी त
रहती है, तब तक जीवको अपने व पका भास होना अस भव है, और स सगका माहा य भी तथा-
पतासे भासमान होना असभव है। जब तक यह ससारगत ी त अससारगत ी तको ा त न हो तब तक
अव य ही अ म भावसे वारवार पु षाथको वीकार करना यो य है। यह बात कालमे वसवादर हत
जानकर न कामभावसे लखी है।
३३२
बबई, फागुन सुद ४, बुध, १९४८
आरभ और प र हका मोह यो- यो मटता है, यो- यो त स ब धी अपनेपनका अ भमान मद-
प रणामको ा त होता है, यो- यो मुमु ता बढती जाती है। अनत कालसे प र चत यह अ भमान ायः
एकदम नवृ नह होता। इस लये तन, मन, धन आ द जनमे मम व रहता है उ हे ानीको अ पत
कया जाता है, ाय ानी कुछ उ हे हण नही करते, पर तु उनमेसे मम वको र करनेका हो उपदे श
दे ते ह, और करने यो य भी यही है क आर भ-प र हको वारवारके सगमे पुन पुन वचार करके
उनमे मम व न होने दे , तव मुमु ुता नमल होती है।
बबई, फागुन सुद ४, बुध, १९४८
"जीवको स पु पक पहचान नही होती, और उनके त अपने समान ावहा रक क पना रहती
है, यह जीवक क पना कस उपायसे र हो ?' इस का यथाथ उ र लखा है। ऐसा उ र ानी
अथवा ानीका आ त मा जान सकता है, कह सकता है, अथवा लख सकता है। माग कैसा हो
इसका ज हे ान नही है, ऐसे शा ा यासी पु ष उसका यथाथ उ र नह दे सकते, यह भी यथाथ ही
है। 'शु ता वचारे यावे', इस पदके वषयमे अव फर लखगे।
अबारामजीक पु तकके वषयमे आपने वशेष अ ययन करके जो अ भ ाय लखा, उसके वषयमे
अव फर बातचीतके समय वशेष बताया जा सकता है। हमने उस पु तकका ब तसा भाग दे खा है, परतु
स ात ानसे असगत बात लगती है, और ऐसा ही है, तथा प उस पु षक दशा अ छ हे, मागानुसारी
जैसो हे ऐसा तो हम कहते है । हमने जसे सै ा तक अथवा यथाथ ान माना है वह अ त-अ त सू म है,
पर तु वह ा त हो सकनेवाला ान है । वशेष अब फर । च ने कहे अनुसार नह कया इस लये आज

े ी ो े
वशेष नही लखा गया, सो मा क जयेगा।
परम ेमभावसे नम कार ा त हो।
१ ी सौभा यभाई ारा दया गया उ र-" न प होकर स सग करे तो सत् मालूम होता है, और फर
स पु षका योग मले तो उसे पहचानता है और पहचाने तो ावहा रक क पना र होती है। इस लये प र हत
होकर स सग करना चा हये । इस उपायके सवाय सरा कोई उपाय नह है । वाक भगव कृपाक वात और है।"

३२६
ीमद् राजच
३३४ बबई, फागुन सुद १०, बुध, १९४८
दय प ी सुभा यके त,
भ पूवक नम कार प ंचे।
'अब फर लखगे, अब फर लखगे' ऐसा लखकर अनेक बार लखना बन नही पाया, सो मा
करने यो य है, यो क च थ त ाय वदे ही जेसी रहती है, इस लये कायमे अ व था हो जाती है।
अभी जैसी च थ त रहती है, वैसी अमुक समय तक चलाये बना छु टकारा नह है।
ब त ब त ानी पु ष हो गये है, उनमे हमारे जैसे उपा ध संग और उदासीन, अ त उदासीन
च थ तवाले ाय अपे ाकृत थोडे ए है। उपा ध सगके कारण आ मा सवधी वचार अख ड पसे
नही हो सकता, अथवा गौण पसे आ करता है, ऐसा होनेसे ब त काल तक पचमे रहना पड़ता ह,
और उसमे तो अ यत उदास प रणाम हो जानेसे णभरके लये भी च थर नही रह सकता, जससे
ानी सवसंगप र याग करके अ तब पसे वचरण करते है । 'सवसग' श दका ल याथ है ऐसा सग क
जो अख ड पसे आ म यान, या बोध मु यतन रखा सके । हमने यह स ेपमे लखा है, और इस कारक
बा एव अतरसे उपासना करते रहते ह।
दे ह होते ए भी मनु य पूण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा न ल अनुभव है। यो क हम
भी न यसे उसी थ तको ा त करनेवाले ह, यो हमारा आ मा अख ड पसे कहता है, और ऐसा ही
है, अव य ऐसा ही है। पूण वीतरागक चरणरज नरतर म तकपर हो, ऐसा रहा करता है । अ यंत
वकट ऐसा वीतराग व अ यंत आ यकारक है, तथा प यह थ त ा त होती है, सदे ह ा त होता
है, यह न य है, ा त करनेके लये पूण यो य ह, ऐसा न य है। सदे ह ऐसे ए बना हमारी उदा-
सीनता र हो ऐसा मालूम नही होता और ऐसा होना स भव है, अव य ऐसा ही है।
के उ र ाय नही लखे जा सकगे, यो क च थ त जैसी बतायी वैसी रहा करती है।
अभी वहाँ कुछ पढना और वचार करना चलता है या ? अथवा कस तरह चलता है ? इसे
सगोपा ल खयेगा।
. याग चाहते है, पर तु नही होता। वह याग कदा चत् आपक इ छानुसार करे, तथा प उतना
भी अभी तो हो सकना स भव नही है।
अ भ बोधमयके णाम ा त हो ।
३३५ बबई, फागुन सुद १०, बुध, १९४८
. उदास-प रणाम आ माको भजा करता है। न पायताका उपाय काल है।
पू य ी सौभा यभाई,
समझनेके लये जो ववरण लखा है, वह स य है । जव तक ये बाते जीवक समझमे नही आती,
तब तक यथाथ उदासीन प रण तका होना भी क ठन लगता है।
- 'स पु ष पहचाननेमे यो नही आते ?' इ या द उ रस हत लख भेजनेका वचार तो होता
है, पर तु लखनेमे च जैसा चा हये वैसा नही रहता, और वह भी अ प काल रहता है, इस लये
नधा रत लखा नह जा सकता।
उदास-प रणाम आ माको अ य त भजा करता है।
कसी अध ज ासु पु षको आठे क दन पूव एक प भेजनेके लये लख रखा था । पोछे से अमुक
कारणसे च क जानेसे वह प पड़ा रहने दया था जसे पढ़नेके लये आपको भेज दया है।

३२७
जो व तुत ानीको पहचानता है वह यान आ दक इ छा नह करता, ऐसा हमारा अंतरग
अ भ ाय रहता है।
जो मा ानीको चाहता है, पहचानता है और भजता है, वही वैसा होता है, और वह उ म
मुमु ु जानने यो य है।
उदास प रणाम आ माको भजा करता है।
च को थ तमे य द वशेष पसे लखा जायेगा तो ललूँगा।
वशेषतः 'वैरा य करण' मे ीरामने जो अपनेको वैरा यके कारण तीत ए सो बताये ह, वे
पुन पुन वचारणीय ह।
ख भातसे प सग रखे । उनक ओरसे प आनेमे ढ ल होती हो तो आ हसे लखे जससे वे
ढ ल कम करगे। पर पर कुछ पृ छा करना सूझे तो वह भी उ हे लख।
च० च के वगवासक खबर पढकर खेद आ । जो जो ाणी दे ह धारण करते ह वे वे ाणी उस
दे हका याग करते ह। ऐसा हमे य अनुभव स दखायी दे ता है, फर भी अपना च उस दे हक
अ न यताका वचार करके न य पदाथके मागमे नही जाता, इस शोचनीय बातका वारंवार वचार करना

ो ै ो ै े ी ो े ी ै े े ै े
यो य है । मनको धैय दे कर उदासीको नवृ कये बना छु टकारा नही है । खेद न करके धैयसे उस
खको सहन करना ही हमारा धम है।
इस दे हका भी जब-तब ऐसे ही याग करना है, यह बात मरणमे आया करती है, और ससारके
त वैरा य वशेष रहा करता है। पूवकमके अनुसार जो कुछ भी सुख .ख ा त हो, उसे समानभावसे
वेदन करना, यह ानीक सीख याद आनेसे लखी है । मायाको रचना गहन है।
प रणामोमे अ य त उदासीनता प रण मत होती रहती है।
__ यो- यो ऐसा होता है, यो यो वृ - सग भी बढते रहते है। अ नधा रत वृ के सग भी
ा त आ करते ह, और इससे ऐसा मानते है क पूव नब कम नवृ होनेके लये शी उदयमे
आते ह।
कसीका दोष नह है, हमने कम बाँधे इस लये हमारा दोष है।
यो तपक आ नाय स ब धी कुछ ववरण लखा, सो पढ़ा है। उसका ब तसा भाग ात है।
तथा प च उसमे जरा भी वेश नह कर सकता, और त स ब धी पढ़ना व सुनना कदा चत् चम का-
रक हो, तो भी वोझ प लगता है। उसमे क चत् भी च नही रही है।

३२८
ीमद् राजच
- हमे तो मा अपूव स के ानमे हो च रहती है। सरा जो कुछ कया जाता है या जसका
अनुसरण कया जाता है, वह सव आसपासके वधनको लेकर कया जाता है।
। अभी जो कुछ वहार करते है, उसमे दे ह और मनको बा उपयोगमे वृ करना पड़ता है।
आ मा उसमे वृ नही होता। व चत् पूवकमानुसार वृ करना पड़ता है, जससे अ य त आकुलता
आ जाती है। जन कम का पूवमे नबधन कया गया है, उन कम से नवृ होनेके लये, उ हे भोग
लेनेके लये, अ प कालमे भोग लेनेके लये, यह ापार नामके ावहा रक कामका सरेके लये सेवन
करते ह।
अभी जो ापार करते ह उस ापारके वषयमे हमे वचार आया करता था, और उसके बाद
अनु मसे उस कायका आरभ आ, तबसे लेकर अब तक दन त दन कायक कुछ वृ होती रही है।
हमने इस कायको े रत कया था, इस लये त स ब धी यथाश मज री जैसा काम
भी करनेका रखा है। अब कायक सीमा ब त बढ जानेसे नवृ होनेक अ य त बु हो जाती है ।
पर तु को दोषवु आ जानेका स भव है, वह अनत ससारका कारण को हो ऐसा जान-
कर यथास भव च का समाधान करके वह मज री जैसा काम भी कये जाना ऐसा अभी तो सोचा है ।
इस कायक वृ करते समय हमारी जतनी उदासीन दशा थी, उससे आज वशेष है । और
इस लये हम ाय. उनक वृ का अनुसरण नही कर सकते, तथा प जतना हो सकता है उतना अनुसरण
तो जैसे-तैसे च का समाधान करके करते आये ह।
कोई भी जीव परमाथक इ छा करे और ावहा रक सगमे ी त रखे, और परमाथ ा त हो,
ऐसा तो कभी हो ही नह सकता। पूवकमको दे खते ए तो इस कायसे नवृ अभी हो ऐसा दखायी
नही दे ता।
इस कायके प ात् ' याग' ऐसा हमने तो ानमे दे खा था, और अभी ऐसा व प द खता है,
इतनी आ यक बात है। हमारी वृ को परमाथके कारण अवकाश नही है ऐसा होनेपर भी ब तसा
समय इस काममे वताते ह, और इसका कारण मा इतना हो है क उ हे दोषबु न आये। तथा प
हमारा आचरण ही ऐसा है, क य द जीव उसका याल न कर सके तो इतना काम करते ए भी दोष-
वु ही रहा करे।
३४० बबई, फागुन सुद १५, र व, १९४८
... जसमे चार लखे गये है, तथा जसमे वाभा वक भावके वषयम जन का जो उपदे श
है उस वषयमे लखा है, वह प कल ा त आ है।
लखे ए ब त उ म है, जो मुमु ु जीवको परम क याणके लये उठने यो य है। उन
के उ र बादमे लखनेका वचार है।
जस ानसे भवात होता है उस ानक ा त जीवके लये ब त लभ है। तथा प वह ान
व पसे तो अ य त सुगम है, ऐसा जानते है। उस ानके सुगमतासे ा त होनेमे जस दशाक ज रत
है उस दशाको ा त अ त अ त क ठन है, और उसके ा त होनेके जो दो कारण ह उनक ा तके
वना जीवको अनतकालसे भटकना पड़ा है, जन दो कारणोक ा तसे मो होता है।।
णाम।

३२९
बबई, फागुन वद ४, गु , १९४८
यहाँसे कल एक प लखा है, उसे पढकर च मे अ व त र हये, समा ध र खये। वह वाता
च मे नवृ करनेके लये आपको लखी है, जसमे उस जीवक अनुकपाके सवाय सरा हेतु नही है ।
हमे तो चाहे जैसे हो तो भी समा ध ही बनाये रखनेक ढ़ता रहती है। अपनेपर जो कुछ आप ,
वडवना, वधा या ऐसा कुछ आ पडे तो उसके लये कसीपर दोषारोपण करनेक इ छा नही होती।
और परमाथ से दे खते ए तो वह जीवका दोष है । ावहा रक से दे खते ए नही जैसा है, और
जीवक जब तक ावहा रक होती है तब तक पारमा थक दोषका याल आना ब त कर है।

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आपके आजके प को वशेषत पढ़ा है। उससे पहलेके प ोक भी ब तसी चचा आ द
यानमे है । य द हो सका तो र ववारको इस वषयमे सं ेपमे कुछ लखूगा।
मो के दो मु य कारण जो आपने लखे ह वे वैसे ही ह । इस वषयमे वशेप फर लखेगा।
यहाँ भावसमा ध तो है । आप जो लखते ह वह स य है। पर तु ऐसी समा ध आनेके लये
पूवकम को नवृ होने दे ना यो य है ।
षमकालका बड़ेसे बडा च या है ? अथवा षमकाल कसे कहा जाता है ? अथवा कन मु य
ल णोसे वह पहचाना जा सकता है ? यही व ापन है।
कसी भी कारसे स सगका योग हो तो वह करते रहना, यह कत है, और जस कारसे
जीवको मम व वशेष आ करता हो अथवा वढा करता हो उस कारसे यथास भव संकोच करते रहना,
यह स सगमे भी फल दे नेवाली भावना है।
बबई, फागुन वद १४, र व, १९४८
सभी ोके उ र थ गत रखनेको इ छा है।
पूवकम शी नवृ हो, ऐसा करते ह।
कृपाभाव र खये और णाम वीकार क जये ।

३३०
आ म व पसे दय प व ाममू त ी सौभा यके त,
हमारा वनययु णाम प ँचे ।।
यहाँ ायः आ मदशासे सहजसमा ध रहती है। बा उपा धका योग वशेषतः उदयको ा त
होनेसे तदनुसार वृ करनेमे भी व थ रहना पड़ता है।
जानते है क जो प रणाम ब त कालमे ा त होनेवाला है वह उससे थोडे कालमे ा त होनेके
लये वह उपा धयोग वशेषता रहता है।
आपके ब तसे प हमे मले ह। उनमे लखो ई ानस ब धी वाता ाय हमने पढ है । उन
सब के उ र ाय नही लखे गये ह, इसके लए मा करना यो य है।
उन प ोमे संगात कोई कोई ावहा रक वाता भी लखी है, जसे हम च पूवक पढ सके
ऐसा होना वकट है । और उस वातास ब धी यु र लखने जैसा नही सूझता है । इस लये उसके लये
भी मा करना यो य है।
अभी यहाँ हम ावहा रक काम तो माणमे बहत करते ह, उसमे मन भी पूरी तरह लगाते
है, तथा प वह मन वहारमे नही जमता, अपनेमे ही लगा रहता है, इस लये वहार ब त बोझ प
रहता है।
सारा लोक तीनो कालमे खसे पो डत माना गया है, और उसमे भी जो चल रहा है, वह तो महा
षमकाल. है, और सभी कारसे व ा तका कारणभूत जो 'कत प ी स सग' है, वह तो सभी कालमे
ा त होना लभ है । वह इस कालमे ा त होना अ त-अ त लभ हो यह कुछ आ यकारक नही है।
हम क जनका मन ाय ोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हा यसे, र तसे, अर तसे, भयसे, शोकसे,
जुगु सासे या श द आ द वषयोसे अ तब जैसा है, कुटु बसे, धनसे, पु से, 'वैभवसे', ीसे या दे हसे
मु जैसा है, ऐसे मनको भी स सगमे बाँध रखनेक अ य धक इ छा रहा करती है, ऐसा होनेपर भी
हम और आप अभी य पसे तो वयोगमे रहा करते है यह भी पूव नबधनके कसी बड़े ब धके
उदयमे होनेके कारण स भव है।
__ ानस ब धी ोके उ र लखवानेक आपक अ भलाषाके अनुसार करनेमे तब ध करने-
वाली एक च थ त ई है जससे अभी तो उस वषयमे मा दान करना यो य है ।
आपक लखी ई कतनी ही ावहा रक बात ऐसी थी क ज हे हम जानते ह। उनमे कुछ
उ र लखने जैसी भी थी । तथा प मन वैसी वृ न कर सका इस लये मा करना यो य है।
__ यह लोक थ त ही ऐसी है क उसमे स यक भावना करना परम वकट है । सभी रचना अस यके
आ हको भावना करानेवाली है।
लोक थ त आ यकारक है।

३३१
ानोको 'सवसग प र याग करनेका या हेतु होगा?
णाम ा त हो।
वा ोपा ध संग रहता है।
यथास भव स चारका प रचय हो, ऐसा करनेके लये उपा धमे उलझे रहनेसे यो य पसे वृ
न हो सके, इस बातको यानमे रखने यो य ा नयोने जाना है।
____ आपने अभी सभीसे कटाला आनेके बारेमे जो लखा है उसे पढकर खेद आ । मेरा वचार तो
ऐसा रहता है क यथास भव वैसे कटालेका शमन करे और उसे सहन कर।
क ही खके सगोमे ऐसा हो जाता है और उसके कारण वैरा य भी रहता है, पर तु जीवका
स चा क याण और सुख तो यो मालूम होता है क उस सब कटालेका कारण अपना उपा जत ार ध
है, जो भोगे बना नवृ नह होता, और उसे समतासे भोगना यो य है। इस लये मनके कटालेको
यथाश शात कर और उपा जत न कये ए कम , भोगनेमे नही आते, ऐसा समझकर सरे कसीके
त दोष करनेक वृ को यथाश शात करके समतासे वृ करना यो य लगता है, और यहाँ
ी ै
जीवका कत है।
आप सबका मुमु ुतापूवक लखा आ प मला है।
___ समय मा के लये भी अ म धाराका व मरण न करनेवाला ऐसा आ माकार मन वतमान
समयमे उदयानुसार वृ करता है, और जस कसी भी कारसे वृ क जाती है, उसका कारण
पूवमे नव धन करनेमे आया आ उदय ही है । इस उदयमे ी त भी नही है, और अ ी त भी नही है।
समता है, करने यो य भी यही है । प यानमे है।
यथायो य ।
सम कतक पशना कब ई समझी जाये ? उस समय केसी दशा रहती हे ? इस वषयका अनुभव
करके ल खयेगा।
ससारी उपा धका जैसे होता हो वैसे होने दे ना, कत यही है, अ भ ाय यही रहा करता है।
धीरजस उदयका वेदन करना यो य है।।

३३२
स य वक पशनाके स ब धमे वशेष पसे लखा जा सके तो ल खयेगा।
लखा आ उ र स य है।
तवधता खदायक है, यही व ापन ।
व प थ यथायो य।
आ मसमा धपूवक योग-उपा ध रहा करती है, जस तवधके कारण अभी तो कुछ इ छत काम
नही कया जा सकता।
ऐसे ही हेतुके कारण ी ऋषभ आ द ा नयोने शरीर आ दक वतनाके भानका भी याग
कया था।
___ आपके एकके बाद एक ब तसे स व तर प मला करते ह, जनमे सगोपा शीतल ानवाता
भी आया करती है । परतु खेद होता है क उस वषयमे ाय हमसे अ धक लखना नही हो सकता।
स सग होनेके सगक इ छा करते ह, परतु उपा धयोगके उदयका भी वेदन कये वना उपाय
नही है । च ब त बार आपमे रहा करता है। जगतमे सरे पदाथ तो हमारे लये कुछ भी चकर
नही रहे है । जो कुछ च रही है वह मा एक स यका यान करनेवाले स तमे, जसमे आ माका वणन
हे ऐसे स शा मे, और परे छासे परमाथके न म कारण ऐसे दान आ दमे रही है। आ मा तो कृताथ
तीत होता है।
जगतके अ भ ायको ओर दे खकर जीवने पदाथका बोध पाया है। ानीके अ भ ायक ओर
दे खकर पाया नही है। जस जीवने ानीके अ भ ायसे बोध पाया है उस जीवको स य दशन
होता है।
___' वचारसागर' अनु मसे ( ारंभसे अ त तक) वचार करनेका अ यास अभी हो सके तो करना
यो य है।
__हम दो कारका माग जानते ह। एक उपदे श ा तका माग और सरा वा त वक माग ।
" वचारसागर' उपदे श ा तक लये वचारणीय है।
जब हम जैनशा पढनेके लये कहते ह तव जैनी होनेके लये नही कहते, जव वेदातशा पढ़नेके
लये कहते है, तब वेदाती होनेके लये नही कहते, इसी तरह अ य शा पढ़नेके लये कहते ह तो अ य
होनेके लये नही कहते, मा जो कहते ह वह आप सवको उपदे श लेनेके लये कहते है। जैनी और
वेदाती आ दके भेदका याग कर। आ मा वैसा नही है।

३३३
कसी भी कारसे पहले तो जीवका अहं व र करना यो य है। जसका दे हा भमान ग लत मा
है उसके लये सब कुछ सुख प ही है। जसे भेद नही है उसे खेदका स भव नही है। हरी छामे ढ
व ास रखकर आप वृ करते है, यह भी सापे सुख प है। आप जो कुछ वचार लखना चाहते
है उ हे लखनेमे भेद नही रखते, इसे हम भी जानते है।
____जहाँ पूणकामता है, वहाँ सव ता है।
जसे बोधबीजक उ प होती है, उसे व पसुखसे प रतृ तता रहती है, और वषयके त
अ य न दशा रहती है।
जस जीवनमे णकता है, उस जीवनमे ा नयोने न यता ा त क है, यह अचरजक बात है।
य द जीवको प रतृ तता न रहा करती हो तो उसे अख ड आ मबोध नही है ऐसा समझे।
भावसमा ध है । बा उपा ध है, जो भावसमा धको गौण कर सके ऐसी थ तवाली है, फर भी
समा ध रहती है।
यहाँ आ मता होनेसे समा ध है।
हमने पूणकामताके बारेमे लखा है, वह इस आशयसे लखा है क जतना ान का शत होता
है उतनो श द आ द ावहा रक पदाथ मे न पहता रहती है, आ मसुखसे प रतृ तता रहती है। अ य
सुखको इ छा न होना, यह पूण ानका ल ण है।
__ ानी अ न य जीवनमे न यता ा त करते ह, ऐसा जो लखा है वह इस आशयसे लखा है क
उ हे मृ युसे नभयता रहती है । ज हे ऐसा हो उनके लये फर यो न कहे क वे अ न यतामे रहते ह तो
यह बात स य है।

े ो ै े ँ ऐ ो ो े औ
जसे स चा आ मभान होता है उसे, म अ य भावका अकता ँ, ऐसा बोध उ प होता हे और
उसक अ ययीबु वलीन हो जाती है।
ऐसा आ मभान उ वल पसे नरतर रहा करता है, तथा प जैसा चाहते ह वैसा तो नही हे । यहाँ
समा ध है।
अभी तो अनु मसे उपा धयोग वशेष रहा करता है।
अ धक या लखे ? वहारके सगमे धीरज रखना यो य है। इस वातका वसजन नही होता
हो, ऐसी धारणा रहा करती है।
अनतकाल वहार करनेमे तीत कया है, तो फर उसक झझटमे परमाथका वसजन न कया
जाये, ऐसी वृ करनेका जसका न य है, उसे वैसा होता है, ऐसा हम जानते ह।
वनमे उदासीनतासे थत जो योगी-तीथकर आ द-हे उनके आ म वक याद आती है।

३३४
' ाण व नमय' नामक म मरेजमक पु तक पहले पढनेमे आ चुक है, उसमे बतायी ई बात कोई
बडी आ यकारक नह है, तथा प उसमे कतनी हो बात अनुभवको अपे ा अनुमानसे लखी ह । उनमे
कतनी ही असभव ह।
जसे आ म वका येय नही है, उसके लये यह बात उपयोगी है, हमे तो उसके त कुछ यान
दे कर समझानेक इ छा नही होती, अथात् च ऐसे वषयक इ छा नह करता।
यहाँ समा ध है । बा तब ता रहती है।
___ मनमे वारवार वचार करनेसे न य हो रहा है क कसी भी कारसे उपयोग फर कर अ य-
भावमे मम व नही होता, और अख ड आ म यान रहा करता है, ऐसी दशामे वकट उपा धयोगका उदय
आ यकारक है । अभी तो थोडे णोक नवृ मु कलसे रहती है और वृ कर सकनेक यो यता-
वाला तो च नही है, और अभी वैसी वृ करना कत है, तो उदासीनतासे ऐसा करते है, मन कही
भी नही लगता, और कुछ भी अ छा नह लगता, तथा प अभी हरी छाके अधीन है।
न पम आ म यान जो तीथकर आ दने कया है, वह परम आ यकारक है। वह काल भी
आ यकारक था । अ धक या कहे ? 'वनक मारी कोयल' क कहावतके अनुसार इस कालमे और इस
वृ म हम ह।
स े मे जीव रहता है, यह खेदक बात है, पर तु यह तो जीवको वत' वचार कये बना समझमे
नही आ सकता।
१ म णभाई सोभा यभाईके सवधम ।

३३५
ानीसे य द कसी भी कारसे धन आ दक , इ छा रखी जाती है, तो जीवको दशनावरणीय
कमका तव ध वशेष उ प होता है। ायः ानी, कसीको अपनेसे वैसा तब ध न हो, इस तरह
वृ करते ह।
___ ानी अपना उपजीवन-आजी वका भी पूवकमानुसार करते है, ानमे तब ता हो, इस
तरह आजी वका नही करते, अथवा इस तरह आजी वका करानेके सगको नह चाहते, ऐसा हम
जानते है।
जसे ानीमे केवल न पृह भ है, उनसे अपनी इ छा पूण होती ई न दे खकर भी जसमे दोष-
बु नही आती ऐसे जीवक आप का ानीके आ यसे धैयपूवक वृ करनेसे नाश होता है, अथवा
उसक ब त मदता हो जाती है, ऐसा जानते है, तथा प इस कालमे ऐसी धीरज रहनी ब त वकट है
और इस लये उपरो प रणाम ब त बार आता आ क जाता है।
हमे तो ऐसी झझटमे उदासीनता रहती है । यह तो मरणमे आ जानेसे लखा है।
हममे व मान परम वैरा य वहारमे कभी भी मनको लगने नही दे ता, और वहारका त-
बध तो सारे दनभर रखना ही पड़ता है । अभी तो उदयको ऐसी थ त है, इससे सभव होता है क वह
भी सुखका हेतु है।
हम तो पांच माससे जगत, ई र और अ यभाव इन सबसे उदासीन भावसे रह रहे है तथा प
यह बात गभीरताके कारण आपको नही लखी। आप जस कारसे ई र आ दमे ाशील ह, आपके
लये उसी कारसे वृ करना क याणकारक है, हमे तो कसी तरहका भेदभाव उ प न होनेसे सब
कुछ झझट प है इस लये ई र आ द स हत सबमे उदासीनता रहती है। हमारे इस कारके लखनेको
पढकर आपको कसी कारसे संदेहम पडना यो य नह है।
____ अभी तो हम इस थ तमे रहते है, इस लये कसी कारक ानवाता भी लखी नही जा सकती
परतु मो तो हमे सवथा नकट पसे रहता है, यह तो न शंक बात है। हमारा च आ माके सवार
कसी अ य थलपर तव नही होता, णभरके लये भी अ यभावमे थर नही होता, व पमे थर
रहता है । ऐसा जो हमारा आ यकारक व प है उसे अभी तो कही भी कहा नही जाता | ब त मार
बीत जानेसे आपको लखकर सतोष मानते ह।
नम कार प ढयेगा । हम भेदर हत ह

३३६
ऐ ी ै े े ो ो ी े
इस कालक वषमता ऐसी है क जसमे ब त समय तक स सगका सेवन आ हो तो जीवमे
लोकभावना कम होती है, अथवा लयको ा त होती है । लोकभावनाके आवरणके कारण जीवको परमाथ-
भावनाके त उ लासप रण त नही होती, और तब तक लोकसहवास भव प होता है।
- जो स संगका सेवन नर तर चाहता है, ऐसे मुमु ु जीवको, जब तक उस योगका वरह रहे तब
तक ढभावसे उस भावनाक इ छा करके येक कायको करते ए वचारसे वृ करके, अपनेमे लघुता
मा य करके, अपने दे खनेमे आनेवाले दोषक नवृ चाहकर सरलतासे वृ करते रहना, और जस
कायसे उस भावनाक उ त हो ऐसी ानवाता या ानलेख या थका कुछ कुछ वचार करते रहना
यह यो य है।
जो बात ऊपर कही है उसमे बाधा करनेवाले ब तसे सग आप लोग के सामने आया करते ह
ऐसा हम जानते ह, तथा प उन सब बाधक सगोमे यथासभव स पयोगसे वचारपूवक वृ करनेक
इ छा कर, यह अनु मसे होने जैसी बात है। कसी भी कारसे मनमे सत त होना यो य नही है । जो
कुछ पु षाथ हो उसे करनेक ढ इ छा रखना यो य है, और जसे परम बोध व पक पहचान है,
ऐसे पु षको तो नर तर वेसी वृ करनेके पु षाथमे परेशान होना यो य नही है।
____ अनतकालमे जो ा त नही हआ है, उसक ा तमे अमुक काल तीत हो तो हा न नही है।
मा अनंतकालमे जो ा त नही आ है उसके वषयमे ा त हो जाये, भूल हो जाये वह हा न है। य द
ानीका परम व प भासमान आ है, तो फर उसके मागमे अनु मसे जीवका वेश होता है, यह
सरलतासे समझमे आने जैसी बात है।
स यक् कारसे इ छानुसार वृ करे । वयोग है तो उसमे क याणका भी वयोग है, यह बात
स य है, तथा प य द ानीके वयोगमे भी उसीमे च रहता है, तो क याण है। धीरजका याग करना
यो य नही है।
ी व पके यथायो य
३७२ बबई, वैशाख वद १४, बुध, १९४८
आपका एक प आज ा त आ।
आपने उपा धके र होनेमे जो समागममे रहने- प मु य कारण बताया है वह यथात य है ।
आपने पहले भी अनेक कारसे वह कारण बताया है, पर तु वह ई रे छाधीन है। जस कसी भी
कारसे पु षाथ हो उस कारसे अभी तो करे और समागमक परम इ छामे ही अभेचतन रख।
आजी वकाके कारणमे सगोपा व लता आ जाती है यह सच है, तथा प धैय रखना यो य है। ज द
करनेक ज रत नही हे, और वैसे वा त वक भयका कोई कारण नही है।

३३७
"मनके कारण यह सब है" ऐसा जो अब तकका आ नणय लखा, वह सामा यत. तो यथात य
है। तथा प 'मन', 'उसके कारण', 'यह सब' और 'उसका नणय' ऐसे जो चार भाग इस वा यके होते
ह, वे ब त समयके बोधसे यथात य समझमे आते है, ऐसा मानते है। जसे ये समझमे आते है, उसका
मन वशमे रहता है, रहता है यह बात न य प है, तथा प य द न रहता हो, तो भी वह आ म व पमे
ही रहता है । मनके वश होनेका यह उ र ऊपर लखा है, वह सबसे मु य लखा है। जो वा य लखे
गये है वे ब त कारसे वचारणीय है।
महा माक दे ह दो कारण से व मान रहती है- ार ध कमको भोगनेके लये और जीवोके
क याणके लये, तथा प वे इन दोनोमे उदासीनतासे उदयानुसार वृ करते ह ऐसा हम जानते ह ।
___ यान, जप, तप और कया मा इन सबसे हमारे बताये ए कसी वा यको य द परम फलका
कारण समझते हो तो, न यसे समझते हो तो, पीछे से बु लोकस ा, शा स ापर न जाती हो तो,
जाये तो वह ा तसे गयी है, ऐसा समझते हो तो, और उस वा यका अनेक कारके धैयसे वचार करना
चाहते हो तो, लखनेक इ छा होती है। अभी इससे वशेष पसे न य- वषयक धारणा करनेके लये
लखना आव यक जैसा लगता है, तथा प च मे अवकाश नही है, इस लये जो लखा है उसे ब-
लतासे माने ।
सब कारसे उपा धयोग तो नवृ करने यो य है; तथा प य द वह उपा धयोग स संग आ दके
लये ही चाहा जाता हो तथा फर च थ त सभव पसे रहती हो तो उस उपा धयोगमे वृ करना
ेय कर है।
अ तब णाम ।
३७४
बबई, वैशाख, १९४८
"चाहे जतनी वप याँ पड, तथा प ानीसे सासा रक फलक इ छा करना यो य नही है।"
उदयमे आया आ अंतराय समप रणामसे वेदन करने यो य है, वषमप रणामसे वेदन करने
यो य नही है।
आपक आजी वका स ब धी थ त ब त समयसे ात है, यह पूवकमका योग है।
जसे यथाथ ान है ऐसा पु ष अ यथा आचरण नह करता, इस लये आपने जो आकुलताके
कारण इ छा अ भ क , वह नवृ करने यो य है।
ानीके पास सासा रक वैभव हो तो भी मुमु को कसी भी कारसे उसक इ छा करना यो य नही
है। ाय ानीके पास वैसा वैभव होता है, तो वह मुमु ुक वप र करनेके लये उपयोगी होता है।
पारमा थक वैभवसे ानी मुमु ुको सासा रक फल दे ना नही चाहते, यो क यह अकत है-ऐसा ानी
नही करते।

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धीरज न रहे ऐसी आपक थ त हे ऐसा हम जानते है, फर भी धीरजमे एक अंशक भी यूनता
न होने दे ना, यह आपका कत है, और यह यथाथ बोध पानेका मु य माग है।
अभी तो हमारे पास ऐसा कोई सासा रक साधन नह है क जससे आपके लये धोरजका कारण
होव, पर तु वैसा सग यानमे रहता है, बाको सरे य न तो करने यो य नह ह।
कसी भी कारसे भ व यका सासा रक वचार छोडकर वतमानमे समतापूवक वृ करनेका
ढ़ न य करना यह आपके लये यो य है। भ व यमे जो होना यो य होगा, वह होगा, वह अ नवाय
है, ऐसा समझकर परमाथ-पु पाथक ओर स मुख होना यो य है।

३३८
ीमद् राजच
चाहे जस कारसे भी इस लोकल जा प भयके थानभूत भ व यका व मरण करना यो य है।
उसक ' च तासे' परमाथका व मरण होता है। और ऐसा होना महान आप प है, इस लये वह
आप न आये इतना ही वारवार चारणीय है। ब त समयसे आजी वका और लोकल जाका खेद
आपके अ तरमे इक ा आ है। इस वषयमे अब तो नभयता ही अगीकार करना यो य है। फर कहते
है क यही कत है । यथाथ बोधका यह मु य माग है । इस थलमे भूल खाना यो य नह है। ल जा
और आजी वका म या ह । कुटु ब आ दका मम व रखगे तो भी जो होना होगा वही होगा । उसमे समता
रखगे तो भी जो होना यो य होगा वही होगा । इस लये न शकतासे नर भमानी होना यो य है ।
समप रणाममे प रण मत होना यो य है, और यही हमारा उपदे श है । यह जब तक प रण मत
नही होगा तब तक यथाथ बोध भी प रण मत नही होगा।
३७५
बबई, वैशाख, १९४८
___ जनागम उपशम व प है । उपशम व प पु षोने उपशमक लये उसका पण कया है, उपदे श
कया है। यह उपशम आ माके लये है, अ य कसी योजनके लये नही है। आ माथमे य द
उसका आराधन नही कया गया, तो उस जनागमका वण एव अ ययन न फल प है, यह बात हमे
तो नःसदे ह यथाथ लगती है।
ःखक नवृ को सभी जीव चाहते है, और खक नवृ , जनसे ःख उ प होता है ऐसे
राग, े ष और अ ान आ द दोषोक नवृ ए बना, होना संभव नही है। इन राग आ दक नवृ
एक आ म ानके सवाय सरे कसी कारसे भूतकालमे ई नही है, वतमानकालमे होती नही है, भ व य-
कालमे हो नही सकती। ऐसा सव ानी पु षोको भा सत आ है। इस लये वह आ म ान जीवके लये
योजन प है। उसका सव े उपाय स वचनका वण करना या स शा का वचार करना है।
जो कोई जीव .खक नवृ चाहता हो, जसे खसे सवथा मु पानी हो उसे इसी एक मागक
आराधना कये बना अ य सरा कोई उपाय नही है। इस लये जीवको सव कारके मतमतातरसे,
कुलधमसे, लोकस ा प धमसे और ओघस ा प धमसे उदासीन होकर एक आ म वचार कत प
धमक उपासना करना यो य है।
एक बडी न यक बात तो मुमु ु जीवको यही करना यो य है क स सग जैसा क याणका कोई
बलवान कारण नह है, और उस स सगमे नर तर त समय नवास चाहना, अस सगका त ण
वप रणाम वचारना, यह ेय प है । ब त ब त करके यह बात अनुभवमे लाने जैसी है।
यथा ार ध थ त है इस लये बलवान उपा धयोगमे वषमता नही आती । अ य त ऊब जानेपर
भी उपशमका, समा धका यथा प रहना होता है, तथा प च मे नर तर स सगक भावना रहा करती
है। स सगका अ य त माहा य पूव भवमे वेदन कया है, वह पुनः पुन. मृ तमे आता है और नर तर
अभग पसे वह भावना फु रत रहा करती है। :-
__ जब तक इस उपा धयोगका उदय है तब तक समतासे उसका नवाह करना, ऐसा ार ध है,
तथा प जो काल तीत होता है वह उसके यागके भावमे ायः बीता करता है।
नवृ के यो य े मे च थरतासे अभी 'सू कृतागसू ' के वण करनेक इ छा हो तो करने-
मे बाधा नही है । मा जीवको उपशमके लये वह करना यो य है। कस मतक वशेषता है, कस मत-
क यूनता है, ऐसे अ याथमे पड़नेके लये वैसा करना यो य नही है। उस 'सू कृताग' क रचना जन
पु षोने को है, वे आ म व प पु ष थे, ऐसा हमारा न य है।

३३९
'यह कम प लेश जो जीवको ा त आ है, वह कैसे र हो ?' ऐसा मुमु ु श यके मनमे
उ प करके 'बोध ा त करनेसे र हो' ऐसा उस सू कृताग' का थम वा य है। 'वह ब धन या?
और या जाननेसे वह टू टे ?' ऐसा सरा वहाँ श यको होना सभव है और उस ब धनको वीर-
वामीने कस कारसे कहा है ? ऐसे वा यसे उस को रखा है, अथात् श यके मे उस वा यको
रखकर थकार यो कहते ह क आ म व प ी वीर वामीका कहा आ तु हे कहेगे यो क आ म व प
पु ष आ म व पके लये अ य त ती त यो य है। उसके बाद यकार उस ब धनका व प कहते है
वह पुन पुन वचार करने यो य है। त प ात् इसका वशेष वचार करनेपर थकारको मृ त हो
आयो क यह समा धमाग आ माके न यके वना घ टत नही होता, और जगतवासी जीवोने अ ानी
उपदे शकोसे जीवका व प अ यथा जानकर, क याणका व प अ यथा जानकर, अ यथाका यथाथतासे
न य कया है, उस न यका भग ए बना, उस न यमे सदे ह ए बना, जस समा धमागका हमने

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अनुभव कया है वह उ ह कसी कारसे सुनानेसे कैसे फलीभूत होगा? ऐसा जानकर थकार कहते है
क 'ऐसे मागका याग करके कोई एक मण ा ण अ ानतासे, बना वचारे अ यथा कारसे माग
कहता है', ऐसा कहते थे। उस अ यथा कारके प ात् थकार नवेदन करते ह क कोई पचमहाभूत-
का ही अ त व मानते ह, और उससे आ माका उ प होना मानते ह, जो घ टत नही होता । ऐसे बता-
कर आ माक न यताका तपादन करते ह। य द जीवने अपनी न यताको नही जाना, तो फर नवाण-
का य न कस लये होगा? ऐसा अ भ ाय बताकर न यता दखलायी है। उसके बाद भ - भ कार-
से क पत अ भ ाय द शत करके यथाथ अ भ ायका बोध दे कर यथाथ मागके बना छु टकारा नही है,
गभ थ त र नह होती, ज म र नही होता, मरण र नह होता, ख र नह होता, आ ध, ाध
और उपा ध कुछ भी र नह होते और हम ऊपर जो कह आये है ऐसे सभी मतवाद ऐसे ही वषयोमे
सल न ह क जससे ज म, जरा, मरण आ दका नाश नही होता, ऐसा वशेष उपदे श प आ ह करके
थम अ ययन समा त कया है। त प ात् अनु मसे इससे बढते ए प रणामसे उपशम-क याण-आ माथ
का उपदे श दया है । उसे यानमे रखकर अ ययन व वण करना यो य है। कुलधमके लये 'सू कृताग'
का अ ययन, वण न फल है।
अभी यहाँ बा वृ का योग वशेष पसे रहता है। ानोको दे ह उपाजन कये ए पूव कम को
नवृ करनेके लये और अ यक अनुकपाके लये होती है।
जस भावसे ससारक उ प होती है, वह भाव जनका नवृ हो गया है, ऐसे ानी भी बा -
वृ क नवृ और स समागममे रहना चाहते ह। उस योगका जहाँ तक उदय ा त न हो वहाँ तक
अ वषमतासे ा त थ तमे रहते ह, ऐसे ानीके चरणार वदक पुनः पुन मृ त हो आनेसे परम व श -
भावसे नम कार करते है।
__अभी जस वृ योगमे रहते ह वह तो ब त कारको परे छाके कारणसे रहते है। आ म क
अख डता उस वृ योगसे बाधाको ा त नह होती। इस लये उदयमे आये ए योगक आराधना करते
ह। हमारा वृ योग ज ासुको क याण ा त होनेमे कसी कारसे वाधक है।
___ जो स व पमे थत है, ऐसे ानीके त लोक मृहा दका याग करके जो भावसे भी उनका
आ त होता है, वह शी क याणको ा त होता है, ऐसा जानते है।

३४०
ीमद् राजच
नवृ को, समागमको अनेक कारसे चाहते है, यो क इस कारका जो हमारा राग है उसे हमने
सवथा नवृ नही कया है।
कालका क ल व प चल रहा है, उसमे जो अ वषमतासे मागक ज ासाके साथ, वाक सरे जो
अ य जाननेके उपाय ह उनके त उदासीनता रखता है वह ानीके समागममे अ य त शी तासे क याण
पाता है, ऐसा जानते है।
___ कृ णदासने जगत, ई रा द स ब धी जो लखे ह वे हमारे अ त वशेप समागममे समझने
यो य है। इस कारका वचार ( कभी कभी) करनेमे हा न नही है । उनके यथाथ उ र कदा चत् अमुक
काल तक ा त न हो तो इससे धीरजका याग करनेके त जाती ई म तको रोकना यो य है।
___ अ वषमतासे जहाँ आ म यान रहता है ऐसे ' ीरायच ' के त बार-बार नम कार करके यह
प अब पूरा करते है।
योग असंख जे जन क ा, घटमांही र दाखी रे।
नव पद तेमज जाणजो, आतमराम छे साखी रे॥
आ म थ ानी पु ष ही सहज ा त ार धके अनुसार वृ करते ह। वा त वकता तो यह है
क जस कालमे ानसे अ ान नवृ आ उसी कालमे ानी मु है। दे हा दमे अ तब है। सुख
ख हष शोका दमे अ तव है। ऐसे ानीको कोई आ य या आल बन नही है। धीरज ा त होनेके
लये उसे 'ई रे छा द' भावना होना यो य नही है। भ मानको जो कुछ ा त होता है, उसमे कोई
लेशका कार दे खकर तट थ धीरज रहनेके लये वह भावना कसी कारसे यो य है। ानीके लये
' ार ध' 'ई रे छा द' सभी कार एक ही भावके-सरीखे भावके है। उसे साता-असातामे कुछ कसी
कारसे राग े षा द कारण नही ह। वह दोनोमे उदासीन है। जो उदासीन है वह मूल व पम नरा-
ल बन है । उसक नराल बन उदासीनताको ई रे छासे भी बलवान समझते ह।
'ई रे छा' श द भी अथा तरसे जानने यो य है। ई रे छा प आल बन' आ य प भ के
लये यो य है। नरा य ानीको तो सभी समान है अथवा ानी सहज प रणामी है, सहज व पी है,
सहज पसे थत है, सहज पसे ा त उदयको भोगते है। सहज पसे जो कुछ होता है, वह होता है, जो
नही होता वह नही होता है । वे कत र हत है, उनका कत भाव वलीन हो चुका है। इस लये आपको
यह जानना यो य है क उन ानीके व पमे ार धके उदयक सहज ा त अ धक यो य है। ई रमे
कसी कारसे इ छा था पत कर उसे इ छावान कहना यो य है । ानी इ छार हत या इ छास हत य
कहना भी नही बनता, वे तो सहज व प है।
ई रा द स ब धी जो न य है, त स ब धी वचारका अभी याग करके सामा यतः 'समयसार
का अ ययन करना यो य है, अथात् ई रके आ यसे अभी धीरज रहती है, वह धीरज उसके वक पमे
पड़नेसे रहनी वकट है।
१ भावाथ- जने भगवानने मु के लये अस य योग-साधन बताये है। सम त कारक स योक
सप आ माम ही रही ई है, ऐसा कहा है। उसी कार नव पदक सप भी आ माम ही रही ई है, जसका सा ी आ मा वयमेव
है।
३४१
' न य' मे अकता, ' वहार' मे कता, इ या द जो ा यान 'समयसार'मे है, वह वचारणीय
है, तथा प जसके वोधस ब धी दोष नवृ ए ह, ऐसे ानीसे वह कार समझना यो य है।
समझने यो य तो जो है वह व प, जसे न वक पता ा त ई है, ऐसे ानीसे उनके
आ यसे जीवके दोष ग लत होकर, ा त होता है, समझमे आता है।
छ मास सपूण ए जसे परमाथके त एक भी वक प उ प नही आ ऐसे ी को नम कार है।
जसक ा तके बाद अन तकालक याचकता मटकर सव कालके लये अयाचकता ा त होती
है, ऐसा जो कोई हो तो उसे तरनतारन जानते ह, उसे भज।
मो तो इस कालमे भी ा त हो सकता है, अथवा ा त होता है। पर तु मु का दान दे नेवाले
पु षक ा त परम लभ है, अथात् मो लभ नही, दाता लभ है।
उपा धयोगक अ धकता रहती है । बलवान लेश जैसा उपा धयोग दे नेक 'हरी छा' होगी, अब इस
थ तमे वह जैसे उदयमे आये वैसे वेदन करना यो य समझते है।
ससारसे कटाले ए तो ब त समय हो गया है, तथा प ससारका सग अभी वरामको ा त नही
होता, यह एक कारका बड़ा ' लेश' रहता है।
आपके स सगक अ य त च रहती है, तथा प उस सगको ा त अभी तो ' नबल' होकर ी
'ह र'को स पते ह।
__ हमे तो कुछ करनेक बु नह होती, और लखनेक बु नह होती। कुछ कुछ वाणीसे वृ
करते ह, उसक भी बु नही होती, मा आ म प मौन थ त और उस स ब धी सग, इस वषयमे
बु रहती है और सग तो उससे अ य कारके रहते है।
ऐसी ही 'ई रे छा' होगी। यह समझकर, जैसे थ त ा त होती है, वैसे ही यो य समझ-
कर रहते ह।
'बु तो मो के वषयमे भी पृहावाली नही है। पर तु सग यह रहता है। स सगमे च
रखनेवाले डु ंगरको हमारा णाम ा त हो ।
"वननी मारी कोयल" ऐसी एक गुजरा द दे शक कहावत इस सगमे यो य है।
ॐ शा त. शा तः शा त
भुभ मे जैसे हो वैसे त पर रहना यह मुझे मो का धुरधर माग लगा है । चाहे तो मनसे भी
थरतासे बैठकर भुभ अव य करना यो य है।
मनक थरता होनेका मु य उपाय अभी तो भुभ समझ। आगे भी वह, और वैसा ही है,
तथा प थूल पसे इसे लखकर जताना अ धक यो य लगता है।
'उ रा ययनसू 'के सरे इ छत अ ययन प ढयेगा, ब ीसव अ ययनक शु को चौबीस गाथाओ-
का मनन क रयेगा।
१. वनको मारी कोयल ।

३४२
शम, सवेग, नवद, आ था और अनुक पा इ या द स णोसे यो यता ा त करना, और कसी
समय महा माके योगसे, तो धम ा त हो जायेगा।
स सग, स शा और स त ये उ म साधन है।
३८१
'सूयगडागसू ' का योग हो तो उसका सरा अ ययन, तथा उदकपेढालवाला अ ययन पढनेका
अ यास र खये। तथा 'उ रा ययन' के कुछ एक वैरा या दक च र वाले अ ययन पढते र हये, और
भातमे ज द उठनेक आदत र खये, एकातमे थर बैठनेका अ यास र खये । माया अथात् जगत, लोक-
का जनमे अ धक वणन कया है वैसी पु तक पढनेक अपे ा, जनमे वशेषत. स पु षोके च र अथवा
वैरा यकथाएँ है ऐसी पु तक पढनेका भाव र खये ।
३८२
जससे वैरा यक वृ हो उसका अ ययन वशेष पसे रखना, मतमतातरका याग करना, और
जससे मतमतातरक वृ हो वैसा पठन नही करना। अस सगा दमे उ प होतो ई च र होनेका
वचार वारवार करना यो य है ।
३८३
बबई, जेठ, १९४८
जो वचारवान पु षको सवथा लेश प भासता है, ऐसे इस ससारमे अब फर आ मभावसे ज म
न लेनेक न ल त ा है । अब आगे तोनो कालमे इस ससारका व प अ य पसे भासमान होने यो य
नही है, और भा सत हो ऐसा तीनो कालमे स भव नही है ।
यहाँ आ मभावसे समा ध है, उदयभावके त उपा ध रहती है ।
• ी तीथकरने तेरहवे गुण थानकमे रहनेवाले पु षका नीचे लखा व प कहा है-
जसने आ मभावके लये सव ससार संवृत कया है अथात् जसके त सव ससारक इ छाके
आनेका नरोध आ है, ऐसे न ंथको-स पु षको तेरहवे गुण थानकमे कहना यो य है। मनस म तसे
यु , वचनस म तसे यु , कायस म तसे यु , कसी भी व तुका हण- याग करते ए स म तसे यु ,
द घशंका दका याग करते ए स म तसे यु , मनको सकोचनेवाला, वचनको सकोचनेवाला, कायाको
सकोचनेवाला, सव इ योके सयमसे चारी, उपयोगपूवक चलनेवाला, उपयोगपूवक खडा रहनेवाला,

ो ै े ो े ो ो े ो
उपयोगपूवक बैठनेवाला, उपयोगपूवक शयन करनेवाला, उपयोगपूवक बोलनेवाला, उपयोगपूवक आहार
लेनेवाला और उपयोगपूवक ासो छवास लेनेवाला, ऑखको एक न मषमा भी उपयोगर हत न चलाने-
वाला अथवा उपयोगर हत जसक या नही है ऐसे इस न थक एक समयमे या बॉधी जाती है,
सरे समयमे भोगी जाती है, तीसरे समयमे वह कमर हत होता है, अथात् चौथे समयमे वह यास ब धी
सव चे ासे नवृ होता है। ी तीथकर जैसेको कैसा अ य त न ल,
[ अपूण ] श दा द पाँच वषयोक ा तक इ छासे जनके च मे अ य त ाकुलता रहती है, ऐसे जीव
जस कालमे वशेष पसे दखायी दे ते ह, वह यह ' षम क लयुग' नामका काल है। उस कालमे जसे
परमाथके त व लता नही ई, च व ेपको ा त नही आ, सगसे वतनभेद ा त नह आ,

३४३
सरी ी तके सगमे जसका च आवृत नही आ, और जो सरे कारण ह उनमे जसका व ास
नही है, ऐसा य द कोई हो तो वह इस कालमे ' सरा ी राम' है। तथा प यह दे खकर सखेद आ य
होता है क इन गुणोके कसी अशमे स प भी अ प जीव गोचर नह होते।
न ाके सवाय शेष समयमेसे एकाध घटे के सवाय शेप समय मन, वचन, कायासे उपा धके योगमे
रहता है । उपाय नह है, इस लये स य प रण तसे सवेदन करना यो य है।
___महान आ यकारी जल, वायु, च , सूय, अ न आ द पदाथ के गुण सामा य कारसे भी जैसे
जीवोक मे नही आते ह, और अपने छोटे से घरमे अथवा अ य क ही व तुओमे कसी कारका
मानो आ यकारक व प दे खकर अह व रहता है, यह दे ख ऐसा लगता है क लोगोका अना दकालका
म र नह आ, जससे यह र हो ऐसे उपायमे जीव अ प भी ानका उपयोग नही करता, और
उसक पहचान होनेपर भी वे छासे वहार करनेक बु वारवार उदयमे आती है, इस कार ब त
जीवोक थ त दे खकर ऐसा समझे क यह लोक अन तकाल रहनेवाला है।
सूय उदय अ तर हत है, मा लोगोको जब च ुमयादासे बाहर हो तब अ त और जब च - ु
मयादामे हो तब उदय ऐसा भासता है। पर तु सूयमे तो उदयअ त नही है। वैसे ही ानी है, वे सभी
सगमे जैसे है वैसे ह, मा सगक मयादाके अ त र लोगोका ान नह है इस लये उस सगमे अपनी
जैसी दशा हो सके वैसी दशाको ानीके स ब धमे क पना करते है, और यह क पना जीवको ानीके परम
आ म व, प रतोष व, मु वको जानने नह दे ती ऐसा जानना यो य है।
जस कारसे ार धका म उदय होता है उस कारसे अब तो वतन करते है, और ऐसा वतन
करना कसी कारसे तो सुगम भामता है। ठाकुर साहबको मलनेक बात आजके प मे लखी, पर
ार ध म वैसा नही रहता। उद रणा कर सके ऐसी असुगम वृ उ प नह होती।
य प हमारा च ने जैसा है, ने मे सरे अवयवोक भॉ त एक रजकण भी सहन नही हो
सकता। सरे अवयवो प अ य च है। हमारा जो च है वह ने प है, उसमे वाणीका उठना,
समझाना, यह करना, अथवा यह न करना, ऐसा वचार करना ब त मु कलसे होता है । व तसी याएँ
तो शू यताक भाँ त होती है, ऐसी थ त होनेपर भी उपा धयोगको तो बलपूवक आराधते है। यह वेदन
करना कम वकट नही लगता, कारण क आँखसे जमोनक रेती उठाने जैसा यह काय है। वह जैसे
खसे-अ य त खसे-होना वकट है, वैसे च को उपा ध उस प रणाम प होनेके समान है। सुग-
मतासे थत च होनेसे वेदनाको स यक कारसे भोगता है, अखड समा ध पसे भोगता है । यह बात
लखनेका आशय तो यह है क ऐसे उ कृ वैरा यमे ऐसा उपा धयोग भोगनेका जो सग है, उसे कैसा
समझना ? और यह सब कस लये कया जाता है ? जानते ए भी उसे छोडा यो नही जाता? यह सव
वचारणीय है।
म णके वषयमे लखा सो स य है।
'ई रे छा' जैसी होगी वैसे होगा। वक प करनेसे खेद होता है, और वह तो जब तक उसक
इ छा होगी तब तक उसी कार वृ करेगा। सम रहना यो य है।
सरी तो कोई पृहा नही है, कोई ार ध प पृहा भी नही है, स ा प कोई पूवमे उपा जत
को ई उपा ध प पृहाका तो अनु मसे सवेदन करना है। एक स सग-आपके स सगक पृहा रहत

३४४
है । चमा समाधानको ा त ई है। यह आ य प बात कहाँ कहनी ? आ य होता है। यह जो
दे ह मली है वह पूव कालमे कभी न मली हो तो भ व यकालमे भी ा त होनेवाली नही है। ध य प,
कृताथ प ऐसे हममे यह उपा धयोग दे खकर सभी लोग भूल, इसमे आ य नही है । और पूवमे य द
स पु षक पहचान नही ई है तो वह ऐसे योगके कारणसे है। अ धक लखना नही सूझता।
नम कार प ंचे । गोश लयाको समप रणाम प
प ा त ए ह। अ उपा धनामसे ार ध उदय प है। उपा धमे व ेपर हत होकर वहार
करना यह बात अ य त वकट है, जो रहती है वह थोडे कालमे प रप व समा ध प हो जाती है।
समा म दे श- थ तसे यथायो य । शा तः
व बई, ावण सुद , १९४८
जीवको व व प जाने बना छु टकारा नही है, तब तक यथायो य समा ध नही है। यह जाननेके
लये मुमु ुता और ानीक पहचान उ प होने यो य है। ानीको जो यथायो य पसे पहचानता है वह
ानी हो जाता है मसे ानी हो जाता है।
आन दघनजीने एक थानपर ऐसा कहा है क-

ई े े े े ी ो े े
" जन थई' " जनने जे आराधे, ते सही जनवर होवे रे।
भंगी ई लकाने चटकावे, ते भंगी जग जोवे रे॥
जने होकर अथात् सासा रक भाव स ब धी आ मभाव यागकर, जो कोई जने अथात् केवल-
ानीक -वीतरागको आराधना करता है, वह न यसे जनवर अथात् कैव यपदसे यु हो जाता है ।
उ होने भृगी और ई लकाका ऐसा ा त दया है जो य - प समझमे आता है।
यहाँ हमे भी उपा धयोग रहता है, अ य भावमे य प आ मभाव उ प नही होता और यही मु य
समा ध ह।
'जगत जसमे सोता है, उसमे ानो जागते ह, जसमे ानी जागते ह उसमे जगत सोता है । जसमे
जगत जागता है, उसमे ानी सोते ह', ऐसा ीकृ ण कहते है।
आ म दे श सम थ तसे नम कार ।
__ ब बई, ावण सुद १०, बुध, १९४८
अस सगमे उदासीन रहनेके लये जीवमे अ माद पसे न य होता है, तब 'स ान' समझमे
आता है, उससे पहले ा त ए वोधको ब त कारका अ तराय होता है । -
___जगत और मो का माग ये दोनो एक नही है । जसे जगतक इ छा, च, भावना है उसे मो मे
अ न छा, अ च, अभावना होती है, ऐसा मालूम होता है ।।

३४५
'सत्' एक दे श भी र नह है, तथा प उसक ा तमे अनत अतराय-लोकानुसार येक ऐसे
रहे ह। जीवका कत यह है क अ म तासे उस 'सत्' का वण, गनन और न द यासन करनेका
अखड न य रखे।
आप सबको न कामतासे यथायो य ।
हे राम | जस अवसरपर जो ा त हो उसमे स तु रहना, यह स पु षोका कहा आ सनातन
धम है, ऐसा व स कहते थे।
मन म हलानु रे वहाला उपरे, वीजा काम करत ।
तेम ुतधम रे मन ढ धरे, ाना ेपकवत ॥
जसमे मनक ा याके वपयमे लखा हे वह प , जसमे पीपल-पानका ात लखा हे वह प ,
जसमे 'यम नयम संयम आप कयो' इ या द का ा दके वषयमे लखा है वह प , जसमे मना दका
नरोध करते ए शरीरा द था उ प होने स ब धी सुचन है वह प , और उसके बाद एक सामा य,
इस तरह सभी प मले है। उनमे मु य भ स ब धी इ छा, मू तका य होना, इस बात स ब धी
धान वा य पढा है, यानमे है।

३४६
इस के सवाय बाक के प ोका उ र अनु मसे लखनेका वचार होते ए भी अभी उसे
समागममे पूछने यो य समझते है, अथात् यह जताना अभी यो य लगता है।
सरे भी जो कोई परमाथस ब धी वचार- उ प हो उ हे लख रखना श य हो तो लख
रखनेका वचार यो य हे।
पूवकालमे आरा धत, जसका नाम मा उपा ध हे ऐसी समा ध उदय पसे रहती है ।
अभी वहाँ पठन, वण और मननका योग कस कारका होता है ?
मान दधनजीके दो प मृ तमे आते ह, उ हे लखकर अव यह प समा त करता ँ।
'इण वध परखी मन वसरामी जनवर गुण जे गावे।
द नब धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥
हो म ल जन सेवक केम अवगणीए।
मन म हला- रे वहाला उपरे, बीजां काम करत,
जन थई जनवर जे आराधे, ते सही जनवर होवे रे।
भुंगी ई लकाने चटकावे, ते भंगी जग जोवे रे॥
- ी आन दघन
वबई, ावण वद १०, १९४८
मन म हलान रे वहाला उपरे, बीजा काम करत।
तेम ुतधम रे मन ढ धरे, ाना ेपकवंत ॥-धन०
घरस ब धी सरे सम त काय करते ए भी जैसे प त ता (म हला श दका अथ) ीका मन
अपने य भरतारमे लीन रहता है, वैसे स य द जीवका च ससारमे रहकर सम त काय सगोको
करते ए भी ानीसे वण कये ए उपदे शधममे त लीन रहता है।
सम त ससारमे ीपु षके नेहको धान माना गया है, उसमे भी पु षके त ीके ेमको
कसी कारसे भी उससे वशेष धान माना गया है, और उसमे भी प तके त प त ता ीके नेहको
धानमे भी धान माना गया है। वह नेह ऐसा धान- धान कस लये माना गया है ? तब जसने
स ा तको बलतासे द शत करनेके लये उम टातको हण कया है, ऐसा स ा तकार कहता है क
हमने उस नेहको इस लये धानमे भी धान समझा हे क सरे सभी घर स ब धी (और सरे भी) काम
करते ए भी उस प त ता म हलाका च प तमे ही लीन पसे, ेम पसे, मरण पसे, यान पसे,
इ छा पसे रहता है।

ै े ो ी ै औ ँ ो े
पर तु स ा तकार कहता है क इस नेहका कारण तो ससार ययी है, और यहाँ तो उसे
अससार- ययी करनेके लये कहना है, इस लये वह नेह लोन पसे, ेम पसे, मरण पसे, यान पसे,
इ छा पसे जहाँ करने यो य है, जहाँ वह नेह अससार प रणामको ा त होता है उसे कहते ह ।
वह नेह तो प त ता प मम को ानी ारा वण कये ए उपदे शा द धमके त उसी कारसे
करना यो य है; और उसके त उस कारमे जो जीव रहता है, तब "का ता' नामको सम कत स ब धी
मे वह जीव थत है, ऐसा जानते है ।
१ भावायं-इस कार परी ा करके अठारह दोपोसे र हत दे ख करके मनको व ाम दे नेवाले जनवरका जो
गुणगान करता है, वह द नवन .. आनदघनपद-मो पाता है । हे म लनाथ ! सेवकक उपे ा कस लये ?

३४७
ऐसे अथसे भरे ए ये दो पद है, वे पद तो भ धान है, तथा प उस कारसे गूढ आशयमे
जीवका न द यासन न हो तो व चत् अ य ऐसा पद ान धान जैसा भा सत होता है, और आपको
भा सत होगा ऐसा जानकर उस सरे पदका वैसा भास बा धत करनेके लये प पूण करते ए फर
मा थमका एक ही पद लखकर धान पसे भ को बताया है।
भ धान दशामे रहनेसे जीवके व छं दा द दोष सुगमतासे वलय होते ह, ऐसा ानी-पु षोका
धान आशय है।
__य द जीवमे अ प भी न काम भ उप ई होती है तो वह अनेक दोष से नवृ करनेके लये
यो य होती है । अ प ान अथवा ान धानदशा असुगम मागके त, व छदा द दोषके त, अथवा
पदाथस ब धी ा तके ीत ले जाता है, ब त करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो ब त काल
तक जीवनपय त भी जीवको भ धानदशाक आराधना करना यो य है, ऐसा न य ा नयोने कया
ात होता है । ( हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है।)
दयमे जो मू तस ब धी दशन करनेक आपक इ छा है, उसे तब ध करनेवाली ार ध थ त
(आपक ) है, और उस थ तके प रप व होनेमे अभी दे र है। और उस मू को य तामे तो अभी
गृहा म है, और च पटमे स य ता म है, यह एक यानका सरा मु य तब ध है । उस मू तसे उस
आ म व प पु षको दशा पुन पुन उसके वा या दके अनुसधानमे वचारणीय है, और उसका उस
दयदशनसे भी बड़ा फल है। इस बातको यहाँ स त करना पड़ता है।
___'भगो ई लकाने चटकावे, ते भगी जग जोवे रे।'
यह प परपरागत है। ऐसा होना कसी कारसे सभव है, तथा प उसे ोफेसरके गवेषणके अनु-
सार माने क वैसा नही होता, तो भो इसमे कोई हा न नही है, यो क ात वैसा भाव उ प करने
यो य है, तो फर स ातका ही अनुभव या वचार कत है । ायः इस ातसवधी कसीको ही वक प
होगा। इस लये यह ात मा य है, ऐसा लगता है। लोक से अनुभवग य है, इस लये स ा तमे
उसक बलता समझकर महापु ष यह ात दे ते आये ह और हम कसी कारसे वैसा होना सभव भी
समझते है । एक समयके लये भी कदा चत् वह ात स न हो ऐसा मा णत हो, तो भी तीनो काल-
मे नराबाध, अख ड- स ऐसी बात उसके स ा तपदक तो है।
___" जन व प थई जन माराधे, ते सही जनवर होवे रे।'
आन दघनजी और अ य सभी ानी पु ष ऐसे ही कहते है, और जने कुछ अ य ही कार
कहते है क अन त वार जनसवधी भ करनेपर भी जीवका क याण नही आ, जनमागमे अपनेको
माननेवाले ीपु ष ऐसा कहते है क हम जन क आराधना करते ह, ओर उसक आराधना करने जाते
ह, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते ह, वैसा होनेपर भी वे जनवर ए दखायो नही दे ते । तीनो कालमे
अख ड ऐसा यह स ा त यहाँ ख डत हो जाता है,, तब यह बात वक प करने यो य यो नही ?
व बई, ावण वद , १९४८
'तम ुतधम रे मन ढ घरे, ाना ेपकवंत'
जसका वचार ान व ेपर हत आ है, ऐसा ' ाना ेपकवत' आ मक याणक इ छावाला पु ष
हो वह ानीमुखसे वण कये ए आ मक याण प धममे न ल प रणामसे मनको धारण करता है,
यह सामा य भाव उपयु पदका है।

३४८
उस न ल प रणामका व प वहाँ कैसे घ टत होता है ? यह पहले ही बता दया है क जैसे
सरे घर काम करते ए भी प त ता ोका मन अपने य वामीमे रहता है वैसे । जस पदका वशेष
अथ आगे लखा है, उसे मरणमे लाकर स ात प उपयु पदमे सधीभूत करना यो य है कारण क 'मन
म हलानु वहाला उपरे' यह पद ात प है।
अ य त समथ स ातका तपादन करते ए जीवके प रणाममे वह स ात थत होनेके लये
समथ ात दे ना ठ क है, ऐसा जानकर थकता उस थानपर जगतमे, ससारमे ाय. मु य पु षके
त ीका ' लेशा द भाव' र हत जो का य ेम है उसी ेमको स पु पसे वण कये ए धममे प रण-
मत करनेको कहते ह। उस स पु प ारा वण ा त धममे, सरे सब पदाथ मे रहे ए ेमसे उदासीन
होकर, एक ल से, एक यानसे, एक लयसे, एक मरणसे, एक े णसे, एक उपयोगसे, एक प रणामसे
सव वृ मे रहे ए का य ेमको मटाकर, ुतधम प करनेका उपदे श कया है। इस का य ेमसे अन त-
गुण व श ुत ेम करना उ चत है । तथा प ात प रसीमा नही कर सका, जससे ातक
प रसीमा जहाँ ई वहाँ तकका ेम कहा है । स ात वहाँ प रसीमाको ा त नह कया है।
अना दसे जीवको ससार प अनत प रण त ा त होनेसे अससार व प कसी अंशका उसे बोध

ी े े ो ो ो े ो े ो ो
नही हे । अनेक कारणोका योग ा त होनेपर उस अश को गट करनेका योग ा त आ तो उस
वषम ससारप रण तके आड़े आनेसे उसे वह अवकाश ा त नही होता, जब तक वह अवकाश ा त नह
होता तब तक जीव व ा तभानके यो य नही है। जब तक वह ा त नही होती तव तक जीवको कसी
कारसे सुखी कहना यो य नही है, ःखी कहना यो य है, ऐसा दे खकर ज हे अ य त अन त क णा ा त
ई है, ऐसे आ तपु षने ख मटनेका माग जाना है जसे वे कहते थे, कहते है, भ व यकालमे कहेगे ।
वह माग यह है क जनमे जीवक वाभा वकता गट ई है, जनमे जीवका वाभा वक सुख गट
आ है, ऐसे ानीपु ष ही उस अ ानप रण त और उससे ा त होनेवाले ःखप रणामको रकर आ मा-
का वाभा वक पसे समझा सकने यो य है, कह सकने यो य है, और वह वचन वाभा वक आ म ान-
पूवक होनेसे ःख मटानेमे समथ है। इस लये य द कसी भी कारसे जीवको उस वचनका वण, ा त
हो, उसे अपूवभाव प जानकर उसमे परम ेम रहे, तो त काल अथवा अमुक अनु मसे आ माक
वाभा वकता गट होती है।
३९६
ब बई, ावण वद , १९४८
अन-अवकाश आ म व प रहता है, जसमे ार धोदयके सवाय सरा कोई अवकाश योग नही है।
उस उदयमे व चत् परमाथभाषा कहनेका योग उदयमे आता है, व चत् परमाथभापा लखनेका
योग उदयमे आता है, और व चत् परमाथभापा समझानेका योग उदयमे आता है । अभी तो वै यदशाका
योग वशेष पसे उदयमे रहता है, और जो कुछ उदयमे नही आता उसे कर सकनेक अभी तो
असमथता है।
जी वत को मा उदयाधीन करनेस, े होनेसे वषमता मट है । आपके त, अपने त, अ यके त
कसी कारका वैभा वक भाव ाय. उदयको ा त नही होता, और इसी कारणसे प ा द काय करने प
परमाथभाषा-योगसे अवकाश ा त नही है ऐसा लखा है, वह वैसा ही है।
पूव पा जत वाभा वक उदयके अनुसार दे ह थ त है; आ म पसे उसका अवकाश अ य ता- भाव प है।

३४९
उस पु षके व पको जानकर उसको भ के स सगका महान फल है, जो मा च पटके योगसे,
यानसे नही है।
जो उस पु षके व पको जानता है, उसे वाभा वक अ य त शु आ म व प गट होता है।
उसके गट होनेका कारण उस पु षको जानकर सव कारको ससारकामनाका प र याग करके-अससार
प र याग प करके~शु भ से वह पु ष व प वचारने यो य है। च पटक तमाके दय-दशनसे
उपयु आ म व पको गटता' प महान फल है, यह वा य न वसवाद जानकर लखा है।
'मन म हलानु वहाला उपरे, वीजा काम करत' इस पदके व तारवाले अथको आ मप रणाम प
करके उस ेमभ को स पु षमे अ य त पसे करना यो य है, ऐसा सब तीथकरोने कहा है, वतमानमे
कहते ह और भ व यमे भी ऐसा ही कहेगे।
___उस पु षसे ा त ई उसक आ मप तसूचक भाषामे जसका वचार ान अ ेपक आ है,
ऐसा पु ष, वह उस पु षको आ मक याणका कारण समझकर, वह ुत ( वण) धममे मन (आ मा) को
धारण (उस पसे प रणाम) करता है। वह प रणाम कैसा करना यो य है ? 'मन म हलानु रे वहाला
उपरे, वीजा काम करत' यह ात दे कर उसका समथन कया है।
घ टत तो इस तरह होता है क पु षके त ीका का य ेम ससारके सरे भावोक अपे ा
शरोम ण है, तथा प उस ेमसे अनत गुण व श ेम, स पु षसे ा त ए आ म प ुतधममे करना
यो य है, पर तु उस ेमका व प जहां अ ातता- ा ताभावको ा त होता है, वहाँ बोधका अवकाश
नही है ऐसा समझकर उस ुतधमके लये भरतारके त ीके का य ेमका प रसीमाभूत ात दया
है। स ा त वहाँ प रसीमाको ा त नह होता। इसके आगे स ा त वाणीके पीछे के प रणामको पाता
है अथात् वाणीसे अतीत-परे हो जाता है और आ म से ात होता है, ऐसा है।
३९७
बबई, ावण वद ११, गु , १९४८
शुभे छास प भाई वभोवन, थभतीथं ।
आ म व पमे थ त है ऐसा जो उसके न काम मरणपूवक यथायो य प ढयेगा। उस तरफका
'आज ा यकसम कत नही होता' इ या द स ब धी ा यानके सगका आपका लखा प ात आ
है। जो जीव उस उस कारसे तपादन करते है, उपदे श करते ह, और उस सबंधी वशेष पसे जीवोको
ेरणा करते ह, वे जीव य द उतनी ेरणा, गवेषणा जीवके क याणके वषयमे करगे तो उस के
समाधान होनेका कभी भी उ हे सग ा त होगा। उन जीवोके त दोष करना यो य नही है, केवल
न काम क णासे उन जीवोको दे खना यो य है । त स व धी कसी कारका खेद च मे लाना यो य नही
है, उस उस सगमे जीवको उनके त ोधा द करना यो य नह है। उन जीवोको उपदे श ारा सम-
झानेका कदा चत आपको वचार होता हो, तो भी उसके लये भाप वतमानदशासे दे खते ए नो न पाय
ह. इस लये अनुकपावु और समतावु से उन जीवोके त सरल प रणामसे दे खना और ऐसो ही इ छा
करना, और यही परमाथमाग है, ऐसा न य रखना यो य है ।
__अभी उ हे जो कमसबधी आवरण हे, उसे भग करनेक य द उ हे ही च ता उ प हो तो फर
आपसे अथवा आप जैसे सरे स सगीके मुखसे कुछ भी वण करनेक वारवार उ हे उ लास वृ उप
होगी, और कसी आ म व प स पु पके योगसे मागक ा त होगी, पर तु ऐसी च ता उ प होनेका य द
उ ह समीप योग हो तो अभी वे ऐसो चे ामे न रहेगे । ओर जव तक जीवक उस उम कारक चे ा है तव

ी ै े ी ी े े ो ै ो े
तक तीथकर जैसे ानीपु षका वा य भी उसके लये न फल होता है, तो आप आ दके वा य न फल

३५०
हो, और उ हे लेश प भा सत हो, इसमे कुछ आ य नही, ऐमा समझकर ऊपर द शत अंतरंग
भावनासे उनके त बताव करना, और कसी कारसे भी उ हे आपस ब धी लेशका कम कारण ा त
हो, ऐसा वचार करना इस मागमे यो य माना गया है ।
फर एक और सूचना प पसे लखना यो य तीत होता है, इस लये लखते ह। वह यह है
क हमने प हले आप इ या दको बताया था क यथासंभव हमारे सबधी सरे जीव से कम बात करना।
इस अनु ममे बताव करनेके यानका वसजन आ हो तो अब फरसे मरण रखना। हमारे स ब ध
और हमारे कहे या लखे ए वा योके स ब धमे ऐसा करना यो य है, और अभी इसके कारणोको आपको
प बताना यो य नही है । तथा प य द अनु मसे अनुसरण करनेमे उसका वसजन होता हो तो सरे
जीवोको लेशा दका कारण हो जाता है, यह भी अब ' ा यकक चचा' इ या द सगसे आपके अनुभवमे
आ गया है। जो कारण जीवको ा त होनेसे क याणका कारण हो उन जीवोको इस भवमे उन कारणो-
क ा त होती ई क जाती है, यो क वे तो अपनी अ ानतासे न पहचाने ए स पु षस ब धी आप
इ या दसे ा त ई बातसे वे स पु षके त वमुखताको ा त होते है, उसके वपयमे आ हपूवक अ य
अ य चे ाएँ क पत करते है, और फर वैसा योग होनेपर वैसी वमुखता ायः बलताको ा त होती
है। ऐसा न होने दे नेके लये और इस भवमे य द उ हे वैसा योग अ ानतासे ा त हो जाये तो कदा चत्
ेयको ा त करेगे, ऐसी धारणा रखकर, अतरगमे ऐसे स पु षको गट रखकर बा पसे गु तता
रखना अ धक यो य है । वह गु तता मायाकपट नही है, यो क वैसा बताव करना मायाकपटका हेतु नही
है, उनके भ व यक याणका हेतु है, जो वैसा होता है वह मायाकपट नही होता, ऐसा समझते है।
__ जसे दशनमोहनीय उदयमे बलतासे है, ऐसे जोवको अपनी ओरसे स पु षा दके वषयमे मा
अव ापूवक बोलनेका सग ा त न हो, इतना उपयोग रखकर वताव करना, यह उसके और उपयोग
रखनेवाले दोनोके क याणका कारण है।
ानीपु षक अव ा बोलना तथा उस कारके सगमे उमगी होना, यह जीवके अनत ससार बढनेका
कारण है, ऐसा तीथकर कहते है । उस पु षके गुणगान करना, उस संगमे उमगी होना और उसक
आ ामे सरल प रणामसे परम उपयोग- से वतन करना, इसे तीथकर अनत ससारका नाश करनेवाला
कहते ह, और ये वा य जनागममे है। ब तसे जीव इन वा योका वण करते होगे, तथा प ज होने
थम वा यको अफल और सरे वा यको सफल कया हो ऐसे जीव तो व चत् ही दे खनेमे आते ह।
थम वा यको सफल और सरे वा यको अफल, ऐसा जीवने अनत बार कया है। वैसे प रणाममे आनेमे
उसे दे र नही लगती, यो क अना दकालसे मोह नामक म दरा उसके 'आ मा'मे प रण मत ई है, इस लये
वारवार वचार कर वैसे वैसे सगमे यथाश , यथाबलवीय ऊपर द शत कये ए कारसे वतन करना यो य है।
' 'कदा चत् ऐसा मान ले क ' ा यकसम कत इस कालमे नही होता', ऐसा जनागममे प लखा
है। अब जीवको यह वचार करना यो य है क ा यकसम कतका अथ या समझना ?' जसे एक नव-
कारम जतना भी त, या यान नही होता, फर भी वह जीव वशेष तो तीन भवमे और नही तो
उसी भवमे परम पदको पाता है, ऐसी महान आ यकारक तो उस सम कतक ा या है, फर अब ऐसी
वह कौनसी दशा समझना क जसे ' ा यकसम कत' कहा जाये ? 'भगवान तीथकरमे ढ ा'का नाम
य द ' ा यकसम कत' मान तो वह ा कैसी समझना क जो ा हम जानते ह क न त पसे इस
कालमे होती ही नही। य द ऐसा मालूम नही होता क अमुक दशा या अमुक ाको ' ा यकसम कत'
कहा है, तो फर वह नही है, ऐसा केवल जनागमके श दोसे जानना आ यो कहते ह। अब ऐसा माने

३५१
क वे श द अ य आशयसे कहे गये ह, अथवा कसी पछले कालके वसजन-दोपसे लखे गये है तो जस
जीवने इस वषयमे आ हपूवक तपादन कया हो वह जीव कैसे दोपको ा त होगा यह सखेद क णासे
वचार करने यो य है।
अभी ज हे जनसू ोके नामसे जाना जाता है, उनमे ' ा यकसम कत नही है', ऐसा प लखा
नही है, और पर परागत तथा सरे कतने ही थोमे यह बात चली आती है ऐसा पढा है, और सुना
है, और यह वा य म या है या मृषा है, ऐसा हमारा अ भ ाय नह है, और वह वा य जस कारसे
लखा है, वह एका त अ भ ायसे ही लखा है, ऐसा हमे नही लगता। कदा चत् ऐसा माने क वह वा य
एका त ही है तो भी कसी भी कारसे ाकुलता करना यो य नह है। यो क य द इन सभी
ा याओको स पु षके आशयसे नही जाना तो फर सफल नह है। कदा चत् ऐसा माने क इसके
बदले जनागममे लखा हो क चौथे कालको भॉ त पाँचव कालमे भी ब तसे जीव मो मे जानेवाले है,
तो इस बातका वण आपके लये और हमारे लये कुछ क याणकारी नही हो सकता, अथवा मो -
ा तका कारण नही हो सकता, यो क वह मो ा त जस दशामे कही है, उसी दशाक ा त ही
स है, उपयोगी है, क याणकता है। वण तो मा वात है, उसी कार उससे तकूल वा य भी
मा बात है। वे दोनो लखी हो, अथवा एक ही लखी हो अथवा व थाके बना रखा हो, तो भी वह
बध अथवा मो का कारण नही है। मा बधदशा बंध है, मो दशा मो है, ा यकदशा ा यक है,
अ यदशा अ य है, वण वण हे, मनन मनन है, प रणाम प रणाम हे, ा त ा त है, ऐसा स पु षोका
न य है। बंध मो नही है, और मो बध नह है, जो जो है वह वह है, जो जस थ तमे है, वह
उस थ तमे है। बधवु टली नही है और मो -जीवनमु ता-माननेमे आये तो यह जैसे सफल नही

ै ै े ी े े े े ो ी ी ै े ी े
है, वैसे ही अ ा यकदशासे ा यक माननेमे आये, तो वह भी सफल नही है । माननेका फल नही हे पर तु
दशाका फल है।
___जब यह थ त है तो फर अब हमारा आ मा अभी कस दशामे है, और वह ा यकसम कती
जीवक दशाका वचार करनेके यो य है या नही, अथवा उससे उतरती या उससे चढती दशाका वचार
यह जीव यथाथ कर सकता है या नही ? इसीका वचार करना जीवके लये ेय कर है। पर तु अन त-
कालसे जीवने वैसा वचार नह कया है, उसे वैसा वचार करना यो य है ऐसा भा सत भी नह आ,
और न फलतापूवक स पद तकका उपदे श यह जीव अन त वार कर चुका है, वह उपयु कारका
वचार कये बना कर चुका है, वचारकर-यथाथ वचार कर-नही कर चुका है। जैसे पूवकालमे
जीवने यथाथ वचारके बना वैसा कया है, वैसे ही उस दशा (यथाथ वचारदशा) के वना वतमानमे
वैसा करता है। जब तक जीवको अपने बोधके वलका भान नही आयेगा तब तक वह भ व यमे भी इसी तरह
वृ करता रहेगा। कसी भी महा पु यके योगसे जीव पीछे हटकर, तथा वैसे म या-उपदे शके वतनसे
अपना बोधवल आवरणको ा त आ है, ऐसा समझ कर उसके त सावधान होकर नरावरण होनेका
वचार करेगा, तब वैसा उपदे श करनेस, े सरेको ेरणा दे नेसे और आ हपूवक कहनेसे केगा। अ धक
या कहे ? एक अ र बोलते ए अ तशय-अ तशय ेरणा करते ए भी वाणी मौनको ा त होगी, और
उस मौनको ा त होनेसे पहले जीव एक अ र स य बोल पाये, ऐसा होना अश य है, यह बात कसी भी
कारसे तोनो कालोमे सदे हपा नह है।
तीथकरने भी ऐसा ही कहा है, और वह अभी उनके आगममे भी है, ऐसा ात है। कदा चत
आगममे तथाक थत अथ न रहा हो, तो भी ऊपर बताये ए श द आगम ही है, जनागम ही है। राग,
े ष और अ ान, इन तीनो कारणोसे र हत होकर ये श द गट लखे गये है, इस लये सेवनीय ह।

३५२
थोडे ही वा योमे लखनेका सोचा था ऐसा यह प व तृत हो गया है, और ब त ही स ेपमे उसे
लखा है, फर भी कतने ही कारसे अपूण थ तमे यह प यहाँ प रसमा त करना पड़ता है ।
आपको तथा आप जैसे सरे जन जन भाइयोका सग है उ हे यह प , वशेषत थम भाग
वैसे सगमे मरणमे रखना यो य है, और बाक का सरा भाग आपको और सरे मुमु ु जोवोको वार-
वार वचारना यो य है । यहाँ उदय-गभमे थत समा ध है।
कृ णदासके सगमे ' वचारसागर' के थोडे भो तरंग पढनेका सग मले तो लाभ प है । कृ ण ास-
को आ म मरणपूवक यथायो य ।
" ार ध दे ही"
३९८
ब बई, ावण वद १४, र व, १९४८
व त ी सायला ाम शुभ थानमे थत परमाथके अख ड न यी, न काम व प ( )-के
वारवार मरण प, मुमु ु पु षोके ारा अन य ेमसे सेवन करने यो य, परम सरल और शातमू त ी
'सुभा य' के त,
ी मोहमयी' थानसे न काम व प तथा मरण प स पु पके वनयपूवक यथायो य ा त हो।
जनमे ेमभ धान न काम पसे है, ऐसे आपसे ल खत ब तसे प अनु मसे ा त ए ह।
आ माकार थ त और उपा धयोग प कारणसे मा उन प ोको प ँच लखी जा सक है।
यहाँ ी रेवाशकरक शारी रक थ त यथायो य प रहती न होनेसे, और वहार स ब धी
कामकाजके बढ जानेसे उपा धयोग भी वशेष रहा है, और रहता है, जससे इस चातुमासमे बाहर
नकलना अश य आ है, और इसके कारण आपका न काम समागम ा त नह हो सका। फर दवालीके
पहले वैसा योग ा त होना स भव नही है।
आपके लखे कतने ही प ोमे जीवा दके वभाव और परभावके बहतसे आते थे, इस कारण-
से उनके उ र लखे नही जा सके। सरे भी ज ासु के प इस दौरान ब त मले है। ाय उनके
लये भी वैसा ही आ है।
अभी जो उपा धयोग ा त हो रहा है, य द उस योगका तब ध यागनेका वचार कर तो वैसा
हो सकता है, तथा प उस उपा धयोगको भोगनेसे जो ार ध नवृ होनेवाला है, उसे उसी कारसे
भोगनेके सवाय सरी इ छा नही होती, इस लये उसी योगसे उस ार धको नवृ होने दे ना यो य है,
ऐसा समझते है, और वैसी थ त है।
शा ोमे इस कालको अनुकमसे ीणता यो य कहा है, और वैसे ही अनु मसे आ करता है।
यह ीणता मु यत परमाथ स ब धी कही है। जस कालमे अ य त लभतासे परमाथको ा त हो वह
काल षम कहने यो य है । य प सव कालमे जनसे परमाथ ा त होती है. ऐसे पु षोका योग लभ ही
है, तथा प ऐसे कालमे तो अ य त लभ होता है। जीवोक परमाथवृ ीण प रणामको ा त होतो
जा रही है, जससे उनके त ानीपु षोके उपदे शका बल भी कम होता जाता है, और इससे परपरासे
वह उपदे श भो ीणताको ा त हो रहा है, इस लये परमाथमाग अनु मसे व छे द होने यो य काल आ
रहा है।
इस कालमे और उसमे भी लगभग वतमान सद से मनु यक परमाथवृ ब त ीणताको ा त ई
है, और यह वात य है । सहजान द वामोके समय तक मनु योमे जो सरलवृ थी, उसमे और आजको

३५३

े ो ै ो े
सरलवृ मे वडा अ तर हो गया है। तब तक मनु योक वृ मे कुछ कुछ आ ाका र व, परमाथक इ छा
और त स ब धी न यमे ढता जैसे थे, वैसे आज नही है, उसको अपे ा तो आज ब त ोणता हो
गयी है। य प अभी तक इस कालमे परमाथवृ सवथा व छे द ा त नही ई है, तथा भू म स पु ष-
र हत नही ई है, तो भी यह काल उस कालक अपे ा अ धक वषम है, ब त वषम है, ऐसा जानते है।
कालका ऐसा व प दे खकर दयमे बडी अनुक पा अखड पसे रहा करती है। अ य त ःखक
नवृ का उपायभूत जो सव म परमाथ है उस स ब धी वृ जीवोमे कसी भी कारसे कुछ भी वध-
मानताको ा त हो, तभी उ हे स पु षक पहचान होती है, नही तो नही होती। वह वृ सजीवन हो और
क ही भी जीवोको-ब तसे जीवोको-परमाथस ब धी माग ा त हो, ऐसी अनुक पा अखड पसे रहा
करती है, तथा प वैसे होना ब त कर समझते है और उसके कारण भी ऊपर बतलाये है।
जस पु पक लभता चौथे कालमे थी वैसे पु षका योग इस कालमे होने जैसा आ है, तथा प
जीवोक परमाथस ब धी च ता अ य त ीण हो गयी है, इस लये उस पु षक पहचान होना अ य त
वकट है। उसमे भी जस गृहवासा द सगमे उस पु पक थ त है, उसे दे खकर जीवको ती त आना
लभ है, अ य त लभ है, और कदा चत् ती त आयी, तो उसका जो ार ध कार अभी वतमान है,
उसे दे खकर न य रहना लभ है, और कदा चत् न य हो जाये तो भी उसका स सग रहना लभ
है, और जो परमाथका मु य कारण है वह तो यही है। इसे ऐसी थ तमे दे खकर ऊपर बताये हए
कारणोको अ धक बलवान पमे दे खते है और यह बात दे खकर पुन पुन अनुक पा उ प होती है।
_ 'ई रे छासे' जन क ही भी जीवोका क याण वतमानमे भी होना स जत होगा, वह तो वैसे
होगा, और वह सरेसे नही पर तु हमसे, ऐसा भी यहाँ मानते है । तथा प जैसी हमारी अनुक पासंय
इ छा है, वैसी परमाथ वचारणा और परमाथ ा त जीवोको हो वैसा योग कसी कारसे कम हआ है.
ऐसा मानते है। गगायमुना दके दे शमे अथवा गुजरात दे शमे य द यह दे ह उ प ई होती, वहाँ वध-
मानताको ा त ई होती, तो वह एक बलवान कारण था ऐसा जानते ह। फर ार धमे गहवास बाक न
होता और चय, वनवास होता तो वह सरा बलवान कारण था, ऐसा जानते ह। कदा चत् गहवास
बाक होता और उपा धयोग प ार ध न होता तो यह परमाथके लये तीसरा बलवान कारण था ऐसा
जानते ह। पहले कहे हए दो कारण तो हो चुके है, इस लये अब उनका नवारण नही है । तीसरा उपा ध-
योग प ार ध शी तासे नवृ हो, और न काम क णाके हेतुसे वह भोगा जाये, तो वैसा होना अभी
बाक है, तथा प वह भो अभी वचारयो य थ तमे है। अथात् उस ार धका सहजमे तकार हो जाये,
ऐसी ही इ छाक थ त है, अथवा तो वशेष उदयमे आकर थोडे कालमे उस कारका उदय प रसमा त
हो जाये, तो वैसी न काम क णाक थ त है, और इन दो कारोमे तो अभी उदासीन पसे अथात्
सामा य पसे रहना है, ऐसी आ मस भावना है, और इस स ब धी महान वचार दारवार रहा करता है।
जब तक उपा धयोग प रसमा त न हो तव तक परमाथ कस कारके स दायसे कहना, इसे
मौनमे और अ वचार अथवा न वचारमे रखा है, अथात् अभी वह वचार करनेके वपयमे उदासीनता
रहती है।
आ माकार थ त हो जानेसे च ाय एक अश भी उपा धयोगका वेदन करने यो य नह है.
तथा प वह तो जस कारसे वेदन करना ा त हो उसी कारसे वेदन करना है, इस लये उसमे समा ध
है । पर तु क ही जीवोसे परमाथ स ब धी सग आता हे उ हे उस उपा धयोगके कारणसे हमारी अनु-
क पाके अनुसार लाभ नह मलता, और परमाथ स व धी आपक लखी ई कुछ बात आती है, वह भी
मा शफलसे च मे वेश पाती है, कारण क उसका अभी उदय नही है। इससे प ा दके संगसे आपके

३५४
सवाय सरे मुमु ु जीवोको इ छत अनुक पासे परमाथवृ द नह जा सकती, यह भी ब त बार
च को खलता है।
, च ब धनवाला न हो सकनेसे जो जीव ससारके स ब धसे ी आ द पमे ा त ए ह उन
जीवोक इ छाको भी लेश प ंचानेक इ छा नही होती, अथात् उसे भी अनुकपासे और माता- पता आ दके
उपकारा द कारणोसे उपा धयोगका वलतासे वेदन करते है, और जस जसक जो कामना है वह वह
ार धके उदयमे जस कारसे ा त होना स जत है उस कारसे ा त होने तक नवृ हण करते ए
भी जीव 'उदासीन' रहता है, इसमे कसी कारक हमारी सकामता नही है, हम इन सबमे न काम ही
ह, ऐसा है । तथा प ार ब उस कारका ब धन रखनेके लये उदयमे रहता है, इसे भी सरे मुमु ुक
परमाथवृ उ प करनेमे अवरोध प मानते है ।
जबसे आप हमे मले है, तबसे यह बात क जो ऊपर अनु मसे लखी है, वह बतानेको इ छा थी,
पर तु उसका उदय उस कारमे नही था, इस लये वैसा नही हो सका, अब वह उदय बताने यो य होनेसे
स ेपसे बताया है, जसे वारवार वचार करनेके लये आपको लखा है। वहत वचार करके सू म पसे
दयमे नधार रखने यो य कार इसमे लखा गया है । आप और गोश लयाके सवाय इस प का ववरण
जाननेके यो य अ य जीव अभी आपके पास नह है, इतनी बात मरण रखनेके लये लखी है। कसी
बातमे श दोके स ेपसे यह भा सत होना स भव हो क अभी हमे कसी कारक कुछ ससारसुखवृ है,
तो वह अथ फर वचार करने यो य है । न य है क तीनो कालमे हमारे स व धमे वह भा सत होना
आरो पत समझने यो य है, अथात् ससारसुखवृ से नर तर उदासीनता ही है। ये वा य, आपका हमारे
त कुछ कम न य है अथवा होगा तो नवृ हो जायेगा ऐसा समझकर नही लखे है, अ य हेतुसे
लखे ह। इस कारसे यह वचार करने यो य, वारवार वचार करके दयमे नधार करने यो य वाता
स ेपसे यहाँ तो प रसमा त होती है।
इस सगके सवाय अ य कुछ संग लखना चाहे तो ऐसा हो सकता है, तथा प वे बाक रखकर

ो ो ो ै
इस प को प रसमा त करना यो य भा सत होता है।
जगतमे कसी भी कारसे जसक कसी भी जीवके त भेद नह है, ऐसे ी. न काम
आ म व पके नम कार ा त हो ।
'उदासीन' श दका अथ समता है ।
ववई, ावण, १९४८
। मुमु ुजन स सगमे हो तो नर तर उ ला सत प रणाममे रहकर आ मसाधन अ पकालमे कर
सकते ह, यह वाता यथाथ है, और स सगके अभावमे समप रण त रहना वकट है। तथा प ऐसे करनेमे
हो आ मसाधन रहा होनेसे चाहे जैसे अशुभ न म ोमे भी जस कारसे समप रण त आये उस कारसे
वृ करना यही यो य है । ानीके आ यमे नरतर वास हो तो सहज साधनसे भी समप रणाम ा त
होता है, इसमे तो न ववादता है, पर तु जब पूवकमके नब धनसे तकूल न म ोमे नवास ा त
आ है, तब चाहे कसी तरह भी उनके त अ े ष प रणाम रहे ऐसी वृ करना यही हमारी वृ है,
और यही श ा है।
__ वे जस कारसे स पु षके दोषका उ चारण न कर सक उस कारसे य द आप वृ कर
सकते हो तो वकटता सहन करके भी वैसी वृ करना यो य है। अभी हमारी आपको ऐसी कोई
श ा नही है क आपको उनसे ब त कारसे तकूल वतन करना पड़े। कसी बावतमे वे आपको

३५५
ब त तकूल समझते हो तो यह जीवका अना द अ यास है, ऐसा जानकर सहनशीलता रखना अ धक
यो य है।
जसके गुणगान करनेसे जीव भवमु होता है, उसके गुणगानसे तकूल होकर दोषभावसे वृ
करना, यह जीवके लये महा खदायक है, ऐसा मानते है, और जव वैसे कारमे वे आ जाते है तब समझते
ह क जीवको कसी वैसे पूवकमका नवधन होगा । हमे तो त स ब धी अ े ष प रणाम ही है, और उनके
त क णा आती है । आप भी इस गुणका अनुकरण कर और जस तरह वे गुणगान करने यो य पु षका
अवणवाद बोलनेका सग ा त न करे, वैसा यो य माग हण कर, यह अनुरोध है।
हम वय उपा ध सगमे रहे थे और रह रहे है, इससे प जानते ह क उस सगमे सवथा
आ मभावसे वृ करना कर है। इस लये न पा धवाले , े , काल और भावका सेवन करना
आव यक है, ऐसा जानते ए भी अभी तो यही कहते ह क उस उपा धका वहन करते ए न पा धका
वसजन न कया जाये, ऐसा करते रहे।
हम जैसे स सगको नर तर भजते है, तो वह आपके लये अभजनीय यो होगा ? यह जानते ह,
परतु अभी तो पूवकमको भजते है, इस लये आपको सरा माग कैसे बताय ? यह आप वचार।
___ एक णभर भी इस ससगमे रहना अ छा नह लगता, ऐसा होनेपर भी ब त समयसे इसका
सेवन करते आये ह, सेवन कर रहे है, और अभी अमुक काल तक सेवन करना ठान रखना पड़ा है, और
आपको यही सूचना करना यो य माना है। यथास भव वनया द साधनस प होकर स सग, स शा ा-
यास और आ म वचारमे वृ करना, ऐसा करना ही ेय कर है।
आप तथा सरे भाइयोको अभी स सग सग कैसा रहता है ? सो ल खयेगा।
समय मा भी माद करनेको तीथकरदे वक आ ा नही है।
४००
बबई, ावण वद , १९४८
वह पु ष नमन करने यो य है,
क तन करने यो य है,
परम ेमसे गुणगान करने यो य है,
वारंवार व श आ मप रणामसे यान करने यो य है,

जस पु षको से, े से, कालसे और भावसे
कसी भी कारको तब ता नह रहती।
आपके ब तसे प मले है, उपा धयोग इस कारसे रहता है क उसक व मानतामे पन लखने
यो य अवकाश नह रहता, अथवा उस उपा धको उदय प समझकर मु य पसे आराधते ए आप जेसे
पु षको भी जानबूझकर प नही लखा, इसके लये मा करने यो य है।
जबसे इस उपा धयोगका आराधन करते ह, तबसे च मे जैसो मु ता रहती हे वैसी म ता
अनुपा ध सगमे भी नह रहती थी, ऐसी न लदशा मग सर सुद ६ से एक धारासे चली आ रही है।।
आपके समागमको ब त इ छा रहती है, उस इ छाका सक प द वालीके वाद 'ई र' पग
करेगा, ऐसा मालूम होता है।
ववई तो उपा ध थान है, उसमे आप इ या दका समागम हो तो भी उपा धके आडे आनेसे यथा.
यो य समा ध ा त नही होती, जससे कसी ऐसे थलका वचार करते ह क जहाँ नव योग रहे।

३५६
लोमडीके ठाकुरस ब धी ो र और ववरण जाना है । अभी 'ई रे छा' वैसी नही है । ो-
रके लये खीमचदभाई मले होते तो हम यो य वात करते । तथा प वह योग नही आ, और वह अभी
न हो तो ठ क, ऐसा हमारे मनमे भी रहता था ।

े ी ी े ै ो ी ै ई े
आपके आजी वका-साधनस ब धी वात यानमे है, तथा प हम तो मा सक पधारी है । ई रे छा
होगी वैसा होगा । और अभी तो वैसा होने दे नेको हमारी इ छा है ।
परम ेमसे नम कार ा त हो ।
४०१ __वंबई, भादो सुद १, मगल, १९४८
ॐ सत्
शुभवृ म णलाल, बोटाद ।
आपका वैरा या दके वचारवाला एक स व तर प तीनेक दन पहले मला है।
जीवमे वैरा य उ प होना इसे एक महान गुण मानते ह, और उसके साथ गम, दम, ववेका द
साधन अनु मसे उ प होने प योग ा त हो तो जीवको क याणक ा त सुलभ होती है, ऐसा समझते
ह । (ऊपरक प मे 'योग' श द लखा है, उसका अथ सग अथवा स सग समझना चा हये ।)
अनत कालसे जीवका ससारमे प र मण हो रहा है, और इस प र मणमे इसने अनत जप, तप,
वैरा य आ द माधन कये तीत होते ह, तथा प जससे यथाथ क याण स होता है, ऐसा एक भी
साधन हो सका हो ऐसा तीत नही होता । ऐसे तप, जप या वैरा य अथवा सरे साधन मा ससार प
ए है, वैसा कस कारणमे आ? यह बात अव य वारवार वचारणीय है। (यहाँ कसी भी कारसे
जप, तप, वैरा य आ द साधन न फल ह, ऐसा कहनेका हेतु नही है, परतु न फल ए ह, उसका हेतु
या होगा? उसका वचार करनेके लये लखा गया है। क याणक ा त जसे होती है, ऐसे जीवमे
वैरा या द साधन तो अव य होते ह ।)
ी सुभा यभाईके कहनेस,े यह प जसक ओरसे लखा गया है, उसके लये आपने जो कुछ
वण कया है, वह उनका कहना यथात य है या नही ? यह भी नधार करने जैसी वात है।
हमारे स सगमे नर तर रहने स ब धी आपक जो इ छा है, उसके वषयमे अभी कुछ लख
सकना अश य है।
आपके जाननेमे आया होगा क यहाँ हमारा जो रहना होता है वह उपा धपूवक होता है, और
वह उपा ध इस कारसे है क वैसे सगमे ी तीथकर जैसे पु षके वपयमे नधार करना हो तो भी
वकट हो जाये, कारण क अना दकालसे जीवको मा बा वृ अथवा वा नवृ क पहचान है, और
उसके आधारसे ही वह स पु ष, अस पु पक क पना करता आया है। कदा चत् कसो स सगके योगसे
'स पु प ये है, ऐसा जीवके जाननेमे आता है, तो भी फर उनका बा वृ प योग दे खकर
जेसा चा हये वैसा न य नही रहता, अथवा तो नर तर बढता आ भ भाव नही रहता, और कभी
तो स दे हको ा त होकर जीव वैसे स पु पके योगका याग कर जसक वा नवृ दखायी दे ती है,
ऐसे अस पु पका ढा हसे सेवन करता है। इस लये जस कालमे स पु पको नवृ सग रहता हो वैसे
सगमे उनके समीप रहना इसे जीवके लये वशेष हतकर समझते है ।
इस बातका इस समय इससे वशेप लखा जाना अश य है। य द कसी सगसे हमारा समागम
हो तो उस समय आप इस वषयमे पू छयेगा और कुछ वशेष कहने यो य सग होगा तो कह सकना
स भव है।

३५७
द ा लेनेक वारवार इ छा होती हो तो भी अभी उस वृ को शा त करना, और क याण या
तथा वह कैसे हो इसक वारवार वचारणा और गवेषणा करना । इस कारमे अन तकालसे भूल होती
आयी है, इस लये अ यत वचारसे कदम उठाना यो य है।
ससारका सेवन करनेके आरभकाल (?) से लेकर आज दन पयत आपके त जो कुछ अ वनय,
अभ , और अपराधा द दोष उपयोगपूवक अथवा अनुपयोगसे ए हो, उन सबक अ य त न तासे
मा चाहता ं।
ी तीथकरने जसे मु य धमपव गनने यो य माना है, ऐसी इस वषक सव सरी तीत ई ।
कसी भी जीवके त कसी भी कारसे कसी भी कालमे अ य त अ प मा दोष करना यो य नह है,
ऐसी बातका जसमे परमो कृ पसे नधार आ है, ऐसे इस च को नम कार करते है, और वही वा य
मा मरणयो य ऐसे आपको लखा है क जस वा यको आप न.शकतासे जानते है।
'र ववारको आपको प लखूगा', ऐसा लखा था तथा प वैसा नही हो सका, यह मा करने
यो य है। आपने वहार सगके ववरण स ब धी प लखा था, उस ववरणको च मे उतारने और
वचारनेक इ छा थी, तथा प वह च के आ माकार होनेसे न फल हो गयो है, और अब कुछ लखा
जा सके ऐसा तीत नह होता, जसके लये अ यंत न तासे मा चाहकर यह प प रसमा त करता ँ।
सहज व प।
४०३
बंबई, भादो सुदो १०, गु , १९४८
जस जस कारसे आ मा आ मभावको ा त हो वह कार धमका हे। आ मा जस कारसे
अ यभावको ा त हो वह कार अ य प है, धम प नही है । आपने वचनके वणके प ात् अभी जो
न ा अगीकृत क है वह न ा ेययो य है । ढ मुमु ुको स सगसे वह न ा द अनु मसे वृ को ा त
होकर आ म थ त प होती है।
___ जीवको धम अपनी क पनासे अथवा क पना ा त अ य पु षसे वण करने यो य, मनन करने
यो य या आराधने यो य नही है । मा आ म थ त हे जनक ऐसे स पु षसे ही आ मा अथवा आ मधम
वण करने यो य हे, यावत् आराधने यो य है ।
४०४ . ववई, भादो सुद १०, गु , १९४८

ी ी े ई े
व त ी थभतीथ शुभ थानमे थत, शुभवृ स प मुमु ुभाई कृ णदासा दके त,
ससारकालसे इस ण तक आपके त कसी भी कारका अ वनय, अभ , अस कार अथवा
वैसा सरे अ य कार स ब धी कोई भी अपराध मन, वचन, कायाके प रणामसे ए हो, उन सबके लये
अ य त न तासे, उन सव अपराधोके अ य त लय प रणाम प आ म थ तपूवक म सब कारसे मा

३५८
मांगता है, और उ हे मा कराने के यो य ँ। आपका, कसी भी कारसे उन अपराधा दक ओर उपयोग
न हो तो भी अ य त पसे, हमारी वैसी पूवकालस ब धी कसी कारसे भी स भावना जानकर अ य त
पसे मा दे ने यो य आ म थ त करनेके लये इस ण लघुतासे वनती है । अभी यही ।
४०५
बबई, भादो सुद १०, गु , १९४८
इस णपयत आपके त कसी भी कारसे पूवा द कालमे मन, वचन, कायाके योगसे जो ज
अपराधा द कुछ ए हो उन सवको अ य त आ मभावसे व मरण करके मा चाहता ँ। भ व यवे
कसी भी कालमे आपके त वैसा कार होना अस भव समझता , ँ ऐसा होनेपर भी कसी अनुपयोग
भावसे दे हपयत वेसा कार व चत् हो तो इस वपयमे भी इस समय अ य त न प रणामसे म
चाहता , ँ और उस मा प भावका, इस प को वचारते ए, वारवार च तन करके आप भी, हमारे
त पूवकालके उन सब कारका व मरण करने यो य ह।
कुछ भी स सगवाताका प रचय वढे , वैसा य न करना यो य है। यही वनती ।
परमाथके शी गट होनेके वपयमे आप दोनोका आ ह ात आ, तथा वहार चताके
वषयमे लखा, और उसमे भी सकामताका नवेदन कया, वह भी आ ह पसे ा त आ है । अभी तो
इन सबके वसजन करने प उदासीनता रहती है, और उस सवको ई रे छाधीन करना यो य है । अभी
ये दोनो बात हम फर न लखे तब तक व मरण करने यो य ह।
य द हो सके तो आप और गोश लया कुछ अपूव वचार आया हो तो वह ल खयेगा। यही
वनती।
बंबई, भादो वद ३, शु , १९४८
शुभवृ संप म णलाल, भावनगर ।
व० यथायो यपूवक व ापन ।
आपका एक प आज प ँचा है, और वह मने पढा है । यहाँसे लखा आ प . आपको मलनेसे
जो आन द आ उसका नवेदन करते ए आपने अभी द ास ब धी वृ ु भत होनेके वषयमे लखा,
वह ोभ अभी यो य है।
ोधा द अनेक कारके दोपोके प र ीण हो जानेस,े ससार याग प द ा यो य है, अथवा तो
कसी महान पु षके योगसे यथा सग वैसा करना यो य है। उसके सवाय अ य कारसे द ाका धारण
करना सफल नही होता । और जीव वैसी अ य कारक द ा प ा तसे त होकर अपूव क याणको
चूकता है, अथवा तो उससे वशेष अतराय आये ऐसे योगका उपाजन करता है। इस लये अभी तो आपके
उस ोभको यो य समझते ह।
आपक इ छा यहाँ समागममे आनेक वशेष है, इसे हम जानते ह, तथा प अभी उस योगक
इ छाका नरोध करना यो य है, अथात् वह योग होना अश य है, और इसक प ता पहले प मे लखी
है, उसे आप जान सके होगे। इस तरफ आनेक इ छामे आपके बुजुग आ दका जो नरोध है उस
नरोधका अ त म करनेक इ छा करना अभी यो य नह है। हमारा उस दे शके पाससे कभी जाना-
आना होगा तब कदा चत् समागमयोग होने यो य होगा, तो हो सकेगा ।

३५९
मता हमे बु को उदासीन करना यो य है, और अभी तो गृह थधमका अनुसरण करना भी
यो य है । अपने हत प जानकर या समझकर आर भ-प र हका सेवन करना यो य नह है, और इस
परमाथका वारवार वचार करके सद् थका पठन, वण, मनना द करना यो य है। यही वनती ।
न काम यथायो य ।
जस जस कालमे जो जो ार ध उदयमे आता है उसे भोगना, यही ानीपु षोका सनातन
आचरण है, और यह आचरण हमे उदय पसे रहता है, अथात् जस ससारमे नेह नही रहा, उस ससारके
कायक वृ का उदय है, और उदयका अनु मसे वेदन आ करता है। इस उदयके ममे कसी भी
कारक हा न-वृ करनेक इ छा उ प नही होती, और ऐसा जानते है क ानीपु षोका भी यह
सनातन आचरण है, तथा प जसमे नेह नही रहा, अथवा नेह रखनेको इ छा नवृ ई है, अथवा
नवृ होने आयो है, ऐसे इस ससारमे काय पसे कारण पसे वतन करनेक इ छा नही रही, उससे
नवृ ही आ मामे रहा करती है, ऐसा होनेपर भी उसके अनेक कारके सग- सगमे वतन करना पड़ता
हे ऐसा पूवमे कसी ार धका उपाजन कया है, जसे समप रणामसे वेदन करते है तथा प अभी भी कुछ
समय तक वह उदययोग है, ऐसा जानकर कभी खेद पाते ह, कभी वशेष खेद पाते ह; और वचारकर
दे खनेसे तो उस खेदका कारण परानुकपा ात होता है । अभी तो वह ार ध वाभा वक उदयके अनुसार
भोगनेके सवाय अ य इ छा उ प नह होती, तथा प उस उदयमे अ य कसीको सुख, ख, राग, े ष,
लाभ, अलाभके कारण प सरेको भा सत होते ह । उस भासनेमे लोक सगक व च ा त दे खकर
खेद होता है । जस ससारम सा ी कता पसे माना जाता है, उस संसारमे उस सा ीको सा ी पसे

औ ो ी े े ै
रहना, और कताक तरह भासमान होना, यह धारी तलवारपर चलनेके बराबर है।
ऐसा होनेपर भी वह सा ीपु ष ा तगत लोगोको कसीके खेद, ःख, अलाभका कारण भा सत न
हो, तो उस सगमे उस सा ीपु षक अ य त वकटता नही है। हमे तो अ य त अ य त वकटताके
संगका उदय है। इसमे भी उदासीनता यही ानीका सनातन धम है। ('धम' श द आचरणके
अथमे है।)
एक बार एक तनकेके दो भाग करनेको या कर सकनेक श का भी उपशम हो, तब जो
ई रे छा होगी वह होगा।
४०९
बवई, आसोज सुद १, बुध, १९४८
जीवके कतृ व-अकत वका समागममे वण होकर न द यासन करना यो य है।
वन प त आ दके योगसे वधकर पारेका चाँद आ द प हो जाना, यह सभव नही है, ऐसा नह
है। योग स के कारमे कसी तरह ऐसा होना यो य है, और उस योगके आठ अगोमेसे जसे पाँच अग
ा त ह, उसे स योग होता है । इसके सवायक क पना मा काल ेप प है। उसका वचार उदयमे
आये, वह भी एक कोतुकभूत है। कोतुक आ मप रणामके लये यो य नह है। पारेका वाभा वक पारापन है।
गट आ म व प अ व छ पसे भजनीय है।

३६०
वा त वक तो यह है क कये ए कम भोगे बना नवृ नही होते, और न कये ए कसी
कमका फल ा त नह होता। कसी कसी समय अक मात् वर अथवा शापसे कसीका शुभ अथवा
अशुभ आ दे खनेमे आता है, वह कुछ न कये ए कमका फल नही है। कसी भी कारसे कये ए
कमका फल है।
एके यका एकावतारीपन अपे ासे जानने यो य है । यही वनती।
४११ - बबई, आसोज सुद १० (दशहरा), १९४८
'भगवती' इ या द शा ोमे जो क ही जीवोके भवातरका वणन कया है, उसमे कुछ सशया मक
होने जैसा नही है । तीथकर तो पूण आ म व प है । पर तु जो पु ष मा योग याना दकके अ यासबलसे
थत हो, उन पु षोमेसे ब तसे पु ष भी उस भवातरको जान सकते ह, और ऐसा होना यह कुछ क पत
कार नही है । जस पु षको आ माका न या मक ान है, उसे भवातरका ान होना यो य है, होता
है । व चत् ानके तारत य योपशमके भेदसे वैसा नही भी होता, तथा प जसे आ माक पूण शु ता
रहती है, वह पु ष तो न यसे उस ानको जानता है, भवातरको जानता है । आ मा न य है, अनुभव-
प है; व तु है, इन सब कारोके अ य त पसे ढ होनेके लये शा मे वे सग कहनेमे आये है।
य द भवातरका प ान कसीको न होता हो तो आ माका प ान भी कसीको नही होता,
ऐसा कहने बराबर है, तथा प ऐसा तो नही है। आ माका प ान होता है, और भवातर भी प
तीत होता है । अपने और सरेके भवको जाननेका ान कसी कारसे वसवा दताको ा त नह होता।
तीथकरके भ ाथ जाते ए येक थानपर सुवणवृ इ या द हो, यो शा के कथनका अथ
समझना यो य नही है, अथवा शा मे कहे ए वा योका वैसा अथ होता हो तो वह सापे है, लोकभाषा-
के ये वा य समझने यो य ह। उ म पु षका आगमन कसीके वहाँ हो तो वह जैसे यह कहे क 'आज
अमृतका मेह बरसा', तो वह कहना सापे है, यथाथ है, तथा प श दके भावाथमे यथाथ है, श दके सीधे-
मूल अथमे यथाथ नही है। और तोथंकरा दक भ ाके स ब धमे भी वैसा ही है। तथा प ऐसा ही
मानना यो य है क आ म व पसे पूण पु षके भावयोगसे वह होना अ य त स भव है । सव ऐसा आ
है ऐसा कहनेका अथ नही है, ऐसा होना स भव है, यो घ टत होता है, यह कहनेका हेतु है । जहाँ पूण
आ म व प है वहाँ सव महत् भावयोग अधीन है, यह न या मक बात है, नःस दे ह अगीकार करने
यो य बात है। जहाँ पूण आ म व प रहता है वहाँ य द सव-महत् भावयोग न हो तो फर वह सरे
कस थलमे रहे ? यह वचारणीय है। वैसा तो कोई सरा थान स भव नही है, तब सव महत्
भावयोगका अभाव होगा। पूण आ म व पका- ा त होना अभाव प नही है, तो फर सव महत्
भावयोगका अभाव तो कहाँसे होगा? और य द कदा चत् ऐसा कहनेमे आये क आ म व पका पूण
ा त होना तो सगत है, महत् भावयोगका ा त होना सगत नही है, तो यह कहना एक वसवादके
सवाय अ य कुछ नही है, यो क वह कहनेवाला शु आ म व पक मह ासे अ य त हीन ऐसे भाव-
योगको महान समझता है, अगीकार करता है, और यह ऐसा सू चत करता है क वह व ा आ म व पका
ाता नह है।
___उस आ म व पसे महान ऐसा कुछ नही है। इस सृ मे ऐसा कोई भावयोग उ प नही आ
है, नही है और होनेवाला भी नही है क जो भावयोग पूण आ म व पको भी ा त न हो । तथा प उस
भावयोगके वषयमे वृ करनेमे आ म व पका कुछ कत नही है, ऐसा तो है, और य द उसे उस
भावयोगमे कुछ कत तीत होता है, तो वह पु ष आ म व पसे अ य त अ ात है, ऐसा समझते ह ।

३६१
कहनेका हेतु यह है क सव कारका भावयोग आ मा प महाभा य ऐसे तीथकरमे होना यो य है,
होता है, तथा प उसे अ भ करनेका एक अश भी उसमे सगत नही है, वाभा वक कसी पु य कार-
वशात् सुवणवृ इ या द हो, ऐसा कहना अस भव नही है, और तीथकरपदके लये वह वाध प नही
है। जो तीथकर ह, वे आ म व पके वना अ य भावा दको नही करते, और जो करते ह वे

ी े ो ी ै ऐ े ै ऐ ी ै
आ मा प तीथकर कहने यो य नही है, ऐसा मानते है, ऐसा ही है।।
जो जनक थत शा माने जाते है, उनमे अमुक बोलोका व छे द हो जानेका कथन है, ओर
उनमे केवल ाना द दस बोल मु य है, और उन दस बोलोका व छे द दखानेका आशय यह बताना है
क इस कालमे 'सवथा मो नही होता।' वे दस वोल जसे ा त हो अथवा उनमेसे एक बोल ा त हो
तो उसे चरमशरीरी जीव कहना यो य है, ऐसा समझकर उस बातको व छे द प माना है, तथा प वैसा
एकात ही कहना यो य नही है ऐसा हमे तीत होता है, ऐसा हो है । यो क ा यक सम कतका इनमे
नषेध है, वह चरमशरीरीको ही हो, ऐसा तो सगत नही होता, अथवा ऐसा एकात नही है। महाभा य
े णक ा यकसम कती होते ए भी चरमशरोरी नही थे, ऐसा उ ही जनशा ोमे कथन है। जन-
क पी वहार व छे द, ऐसा ेता वरका कथन है, दग बरका कथन नही है। 'सवथा मो होना'
ऐसा इस कालमे स भव नही है, ऐसा दोनोका अ भ ाय है, वह भी अ य त एकात पसे नही कहा जा
सकता। मान ल क चरमशरीरोपन इस कालमे नही है, तथा प अशरीरीभावसे आ म थ त है तो वह
भावनयसे चरमशरीरीपन नही, अ पतु स व है, और यह अशरीरीभाव इस कालम नह है ऐसा यहाँ कहे
तो इस कालमे हम खुद नह ह, ऐसा कहने तु य है । वशेष या कहे ? यह केवल एकात नही है। कदा चत्
एकात हो तो भी जसने आगम कहे है, उसी आशयवाले स पु षसे वे समझने यो य ह, और वही
आ म थ तका उपाय है । यही वनती । गोश लयाको यथायो य ।
४१२
बबई, आसोज वदो ६, १९४८
यहाँ आ माकारता रहती है, आ माका आ म व प पसे प रणामका होना उसे आ माकारता कहते है।
४१३
बबई, आसोज वद ८, १९४८
लोक ापक अ धकारमे वय का शत ानीपु ष ही यथात य दे खते है । लोकक श दा द काम-
ना के त दे खते ए भी उदासीन रहकर जो केवल अपनेको ही प पसे दे खते है, ऐसे ानीको
नम कार करते है, और अभी इतना लखकर ानसे फु रत आ मभावको तट थ करते ह । यही वनती।
४१४
बबई, आसोज, १९४८
जो कुछ उपा ध क जाती है, वह कुछ 'अ मता' के कारण करनेमे नही आती, तथा नह क
जातो । जस कारणसे क जाती है, वह कारण अनु मसे वेदन करने यो य ऐसा ार ध कम है। जो
कुछ उदयमे आता है उसका अ वसवाद प रणामसे वेदन करना, ऐसा जो ानीका वोधन है वह हममे
न ल है, इस लये उस कारसे वेदन करते ह। तथा प इ छा तो ऐसी रहती है क अ पकालमे, एक
समयमे य द वह उदय अस ाको ा त होता हो, तो हम इन सबमेसे उठकर चले जाय, इतना आ माको
अवकाश रहता है। तथा प ' न ाकाल', भोजनकाल तथा अमुक अ त र कालके सवाय उपा धका
सग रहा करता है, और कुछ भ ातर नह होता, तो भी आ मोपयोग कसी सगमे भी अ धानभाव-

३६२
का सेवन करता आ दे खनेमे आता है, और उस सगपर मृ युके शोकसे अ य त अ धक शोक होता है
यह न स दे ह है।
ऐसा होनेसे और गह थ यया ार ध जब तक उदयमे रहे तव तक 'सवथा' अयाचकताका सेव
करनेवाला च रहनेमे ानीपु षोका माग न हत है, इस कारण इस उपा धयोगका सेवन करते ह । य द
उस मागक उपे ा कर तो भी ानीका अपराध नही करते, ऐसा है, फर भी उपे ा नही हो सकती
य द उपे ा कर तो गृहा मका सेवन भी वनवासी पसे हो, ऐसा तीन वैरा य रहता है।
सव कारके कत के त उदासीन ऐसे हमसे कुछ हो सकता हो तो एक यही हो सकता है क
पूव पा जतका समताभावसे वेदन करना, और जो कुछ कया जाता है वह उसके आधारसे कया जात
है, ऐसी थ त है।
हमारे मनमे ऐसा आ जाता है क हम ऐसे ह क जो अ तव पसे रह सकते है, फर भी ससार
के वा सगका, अतर सगका, और कुटु वा द नेहका सेवन करना नही चाहते, तो आप जैसे माग छा.
वानको उसके अहोरा सेवन करनेका अ य त उ े ग यो नही होता क जसे तव ता प भयकर यम-
का साहचय रहता है ?
___ ानीपु षका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करता है, उसे तीथकर अपने मागसे बाहर
कहते ह।
कदा चत् ानीपु षका योग होनेके बाद जो ससारका सेवन करते ह, वे सब तीथकर के मागसे
वाहर कहने यो य हो तो े णका दमे म या वका सभव होता हे ओर वसवा दता ा त होती है । उस
वसवा दतासे यु वचन य द तीथकरका हो तो उसे तीथकर कहना यो य नही है।
ानीपु पका योग होनेके बाद जो आ मभावसे, व छदतासे, कामनासे, रससे, ानीके वचनोक
उपे ा करके, 'अनुपयोगप रणामी' होकर मसारका सेवन करता है, वह पु प तीथकरके मागसे वाहर है,
ऐसा कहनेका तीथकरका आशय है ।
४१५
ववई, आसोज, १९४८
कसी भी कारके अपने आ मक वधनको लेकर हम ससारमे नही रह रहे ह। जो ी है उससे
पूवमे वधे ए भोगकमको नवृ करना है । कुटु ब हे उसके पूवमे लये ए ऋणको दे कर नवृ होनेके
लये रह रहे ह । रेवाशकर है उसका हमारेसे जो कुछ लेना है उसे दे नेके लये रह रहे ह। उसके सवाय-

े ो ो े े े ै े े े े ो े े े े
के जो जो सग ह वे उसके अ दर समा जाते है। तनके लये, धनके लये, भोगके लये, सुखके लये
वाथके लये अथवा कसी कारके आ मक वधनसे हम ससारमे नही रह रहे ह। ऐसा जो अतरगका भेद
उसे, जस जीवको मो नकटवत न हो, वह जीव कैसे समझ सकता है ?
खके भयसे भी ससारमे रहना रखा है, ऐसा नह है। मान-अपमानका तो कुछ भेद है, वह
नवृ हो गया है।
ई रे छा हो और हमारा जो कुछ व प है वह उनके दयमे थोडे समयमे आये तो भले और
हमारे वषयमे पू यवु हो तो भले, नह तो उपयु कारसे रहना अब तो होना भयकर लगता है।
बबई, आसोज, १९४८
जस कारसे यहां कहनेमे आया था उम कारसे भी सुगम ऐसा यानका व प यहाँ लखा है।
१. कसी नमल पदायम टको था पत करनेका अ यास करके थम उसे अचपल थ त-
मे लाना।

३६३
२ ऐसी कुछ अचपलता ा त होनेके प ात् दाय च ुमे सूय और बाय च ुमे च थत है, ऐसी
भावना करना।
३. यह भावना जब तक उस पदाथके आकारा दका दशन न कराये तब तक सु ढ करना। ,
४. वैसी सु ढता होनेके बाद च को द ण च ुमे और सूयको वाम च ुमे था पत करना ।
५. यह भावना जब तक उस पदाथके आकारा दका दशन न कराये तब तक सु ढ करना । यह
जो दशन कहा है वह भासमान दशन समझना।
६. यह दो कारक उलट सुलट भावना स होनेपर कु टके म यभागमे उन दोनोका
चतन करना।
७. थम वह चतन आँख खुली रखकर करना ।
८. अनेक कारसे उस चतनके ढ होनेके बाद आँख ब द रखना। उस पदाथके दशनक
भावना करना।
९ उस भावनासे दशन सु ढ होनेके बाद दयमे एक अ दलकमलका च तन करके उन दोनो
पदाथ को अनु मसे था पत करना।
१० दयमे ऐसा एक अ दलकमल माननेमे आया है, तथा प वह वमुख पसे रहा है, ऐसा
माननेमे आया है, इस लये उसका स मुख पसे चतन करना, अथात् सुलटा च तन करना।
११ उस अ दलकमलमे थम च के तेजको था पत करना फर सूयके तेजको था पत करना,
और फर अख ड द ाकार अ नको यो तको था पत करना।
१२ उस भावके ढ होनेपर जसका ान, दशन और आ मचा र पूण है ऐसे ी वीतरागदे व-
को तमाका महातेजोमय व पसे उसमे च तन करना।
१३ उस परम द तमाका न बाल, न युवा और न वृ , इस कार द व पसे
च तन करना।
१४ सपूण ान, दशन उ प होनेसे व पसमा धमे ी वीतरागदे व यहाँ ह, ऐसी भावना करना।
१५. व पसमा धमे थत वीतराग आ माके व पमे तदाकार ही है, ऐसी भावना करना ।
१६ उनके मूध थानसे उस समय ॐकारक व न हो रही है, ऐसी भावना करना।
१७ उन भावनाओके ढ होनेपर वह ॐकार सव कारके व ानका उपदे श करता ह, ऐसी
भावना करना।
१८ जस कारके स य मागसे वीतरागदे व वीतराग न प ताको ा त ए ऐसा ान उस
उपदे शका रह य है, ऐसा चतन करते ए वह ान या है ? ऐसी भावना करना।
१९ उस भावनाके ढ होनेके बाद उ होने जो ा द पदाथ कहे ह, उनको भावना करके
आ माका व व पमे च तन करना, सवाग च तन करना।
यानके अनेकानेक कार ह। उन सबमे े यान तो वह कहा जाता है क जसमे आ मा
म य पसे रहता है, और इसो आ म यानक ा त ाय आ म ानको ा तके बना नह होती । ऐसा
जो आ म ान वह यथाथ बोधक ा तके सवाय उ प नह होता। इस यथाथ बोधक ा त ाय.
मसे ब तसे जीवोको होती है, और उसका मु य माग, उस वोध व प ानीपु पका आ य या सग
ओर उसके त ब मान, ेम है । ानीपु षका वैसा वैसा सग जीवको अनतकालमे ब त बार हो चुका
है तथा प यह पु प ानी है, इस लये अब उसका आ य हण करना, यही कत है, ऐसा जीवको लगा
नह है, और इसी कारण जीवका प र मण आ है ऐसा हमे तो ढ़तासे लगता है।
••••
३६४
ानीपु षक पहचान न होनेमे मु यत जीवके तीन महान दोष जानते है। एक तो 'मै जानता , ँ
'मै समझता ँ,' ँ, इस कारका जो मान जीवको रहा करता है, वह मान । सरा, ानीपु षके त
रागको अपे ा प र हा दकमे वशेष राग । तीसरा, लोकभयके कारण, अपक तभयके कारण और
अपमानभयके कारण ानीसे वमुख रहना, उनके त जैसा वनया वत होना चा हये वैसा न होना ।
ये तीन कारण जीवको ानीसे अनजान रखते है, ानीके वषयमे अपने समान क पना रहा करती है,
अपनी क पनाके अनुसार ानीके वचारका, शा का तोलन कया जाता है, थोडा भी थस ब धी
वाचना द ान मलनेसे अनेक कारसे उसे द शत करनेक जीवको इ छा रहा करती है । इ या द दोष
उपयु तीन दोषोमे समा जाते ह, और इन तीनो दोषोका उपादान कारण तो एक व छद' नामका महा
दोष है, और उसका न म कारण अस संग है।
जसे आपके त, आपको कसी कारसे परमाथक कुछ भी ा त हो, इस हेतुके सवाय
सरी पृहा नही है, ऐसा म यहाँ प बताना चाहता , ँ और वह यह क उपयु दोषोमे अभी
आपको ेम रहता है, 'म जानता ँ', 'म समझता , ँ यह दोष ब त बार वतनमे रहता ह, असार
प र ह आ दमे भी मह ाक इ छा रहती है, इ या द जो दोष ह वे यान, ान इन सबके कारणभूत
ानीपु ष और उसक आ ाका अनुसरण करनेमे आडे आते ह। इस लये यथास भव आ मवृ करके
उ हे कम करनेका य न करना, और लौ कक भावनाके तब धसे उदास होना, यही क याणकारक है,
ऐसा समझते ह।
। ४१७
आसोज, १९४८
हे परमकृपालु दे व । ज म, जरा, मरणा द सव खोका अ य त य करनेवाला वीतराग पु षका
मूलमाग आप ीमानने अन त कृपा करके मुझे दया, उस अनत उपकारका युपकार करनेमे मै सवथा
असमथ ँ. फर आप ीमान कुछ भी लेनेमे सवथा न पृह ह, जससे मै मन, वचन, कायाक
एका तासे आपके चरणार वदमे नम कार करता ँ। आपको परमभ और वीतराग पु षके मूलधमक
उपासना मेरे दयमे भवपय त अख ड जागृत रहे, इतना मांगता , ँ वह सफल हो ।
ॐ शा त शा त. शा त ।
४१८
___ सं० १९४८
*र वकै उदोत अ त होत दन दन त,
अंजुलीकै जीवन य , जीवन घटतु है;
कालकै सत छन छन, होत छ न तन,
आरेकै चलत मानो काठसौ कटतु है,
एते प र मूरख न खोजै परमारथक ,
वारथक हेतु म भारत ठटतु है;
लगौ फरै लोग नस , प यो परै जोग नस , .
वषेरस भोग नस , नेकु-न- हटतु है ॥१॥
*भावाथ- जस कार अज ल-करस पुटका पानी मश घटता है, उसी कार सूयका उदय अ त होता
है और त दन जीवन घटता है । जस कार आरेके चलनेसे लकडी कटती है, उसी कार काल शरीरको ण
ण ीण करता है । इतनेपर भी अ ानी जीव परमाथको खोज नही करता और लौ कक वाथके लये अ ानका

३६५
जैसे मृग म वृषा द यको तप त माही,
तृषावत मृषाजल कारण अटतु है;
तैस भववासी मायाहीस हत मा न मा न,
ठा न ठा न म म नाटक नटतु है।
आगेको धुकत धाई पीछे बछरा चवाई,
जैसे नैन हीन नर जेवरी व तु है;
तैसे मूढ चेतन सुकृत करतु त कर,
रोवत हसत फल खोवत खटतु है ॥२॥
(समयसार नाटक)
४१९
बबई, १९४८
संसारमे कौनसा सुख है क जसके तब धमे जीव रहनेक इ छा करता है ?
कतना कहे ? जस जस कारसे इस राग े षका वशेष पसे नाश हो उस उस कारसे वृ
करना, यही जने रदे वक आ ा है।
जस पदाथमेसे न य य वशेष होता हो और आय कम हो, वह पदाथ मसे अपने व वका
याग करता है, अथात् न होता है, ऐसा वचार रखकर इस वसायका सग रखने जैसा है।
पूवमे उपा जत कया आ जो कुछ ार ध है, उसे वेदन करनेके सवाय सरा कार नही है,
और यो य भी इस तरह है, ऐसा समझकर जस जस कारसे जो कुछ ार ध उदयमे आता है उसे सम-
प रणामसे वेदन करना यो य है, और इस कारणसे यह वसाय- सग रहता है।
च मे कसी कारसे उस वसायक कत ता तीत न होनेपर भी, वह वसाय मा खेदका
े ै ऐ ो े ी ो े े ो े े
हेतु है, ऐसा परमाथ न य होनेपर भी ार ध प होनेसे, स सगा द योगका अ धान पसे वेदन करना
पडता है। उसका वेदन करनेमे इ छा-अ न छा नह है, पर तु आ माको अफल ऐसी इस वृ का
स ब ध रहते दे खकर खेद होता है और इस वषयमे वारवार वचार रहा करता है।
वोझ उठाता है, शरीर आ द पर व तु से ी त करता है, मन, वचन और कायाके योगोम अहबु करता है, और
वषयभोग से क चत् भी वर नही होता ॥ १ ॥
जस कार ी मऋतुमे सूयक कडी धूप होनेपर तृपातुर मृग उ म होकर मृगतृ णासे य हो दौडता
है, उसी कार ससारी जीव मायाम ही क याण मानकर म या क पना करके ससारमे नाचते है । जस कार अ धा
मनु य आगेको र सी बटता जाये और पीछे से बछडा खाता जाये, तो उसका प र म यं जाता है, उसी कार
मूलं जीव शुभाशुभ या करता है और शुभ याके फलमे हष एव अशुभ याके फलमे वषाद करके याका
फल खो दे ता है ॥२॥

३६६
' बबई, का तक सुद , १९४९
धमस ब धी प ा द वहार भी ब त कम रहता है, जससे आपके कुछ प ोक प ँच मा लखी
जा सक है।
___ जनागममे इस कालको जो ' षम' सं ा कही है, वह य दखायी दे ती है, यो क ' षम' श द-
का अथ ' खसे ा त होने यो य' ऐसा होता है । वह खसे ा त होने यो य तो मु य पसे एक परमाथ-
माग ही कहा जा सकता है, और वैसी थ त य दे खनेमे आती है। य प परमाथ मागक लभता
तो सवकालमे है, पर तु ऐसे कालमे तो वशेषत काल भी लभताका कारण प है।
यहाँ कहनेका हेतु ऐसा है क अ धकतर इस े मे वतमान कालमे जसने पूवकालमे परमाथ-
मागका आराधन कया है, वह दे ह धारण न करे, और यह स य है, यो क य द वैसे जीवोका समूह इस
े मे दे हधारी पसे रहता होता, तो उ हे और उनके समागममे आनेवाले अनेक जीवोको परमाथमागक
ा त सुखपूवक हो सकती होती, और इससे इस कालको ' षम' कहनेका कारण न रहता। इस
कार पूवाराधक जीवोको अ पता इ या द होनेपर भी वतमान कालमे य द कोई भी जीव परमाथमागका
आराधन करना चाहे तो अव य आराधन कर सकता है, यो क ःखपूवक भी इस कालमे परमाथमाग
ा त होता है, ऐसा पूव ा नयोका कथन है ।
वतमान कालमे सब जीवोको माग खसे ही ा त होता है, ऐसा एकात अ भ ाय वचार-
णीय नह है, ाय वैसा होता है ऐसा अ भ ाय समझना यो य है। उसके ब तसे कारण य दखायो
दे ते ह।
थम कारण-ऊपर यह बताया है क ायः पूवक आराधकता नही है।
सरा कारण-वैसी आराधकता न होनेके कारण वतमानदे हमे उस आराधकमागक री त भी
थम समझमे न हो, जससे अनाराधकमागको आराधकमाग मानकर जीवने वृ क होती है।
तीसरा कारण- ाय कही ही म समागम अथवा स का योग हो, और वह भी व चत् हो ।
चौथा कारण-अम सगा द कारणोसे जीवको स आ दको पहचान होना भी कर है, और
ायः अस आ दमे स य ती त मानकर जीव वही का रहता है।
पाँचवाँ कारण- व चत् म ममागमका योग हो तो भी बल, वीय आ दक ऐमी श थलता क जीव
जथा प माग हण न कर मके अथवा समझ न सके, अथवा अस समागमा दसे या अपनो क पनासे
म याम स य पसे ती त क हो।

३६७
ाय वतमानकालमे जीवने या तो शु क या धानतामे मो मागको क पना क है, अथवा
बा या ओर शु वहार याका उ यापन करनेमे मो मागक क पना क है, अथवा वम त
क पनासे अ या म थ पढकर कथन मा अ या म पाकर मो मागको क पना क है। ऐसी क पना
कर लेनेसे जीवको स समागमा द हेतुमे उस उस मा यताका आ ह आडे आकर परमाथ ा त करनेमे
तभभूत होता है।
जो जीव शु क या धानतामे मो मागक क पना करते ह, उन जीवोको तथा प उपदे शका
पोषण भी रहा करता है। ान, दशन, चा र और तप ऐसे चार कारसे मो माग कहे जानेपर भी
थमके दो पद तो उ होने व मृत कये जैसे होते है, और चा र श दका अथ वेश तथा मा बा
वर तमे समझे ए जैसा होता है। तप श दका अथ मा उपवासा द तका करना और वह भी बा
स ासे उसमे समझे ए जैसा होता है, और व चत् ान, दशन पद कहने पड़े तो वहाँ लौ कक कथन
जैसे भावोके कथनको ान और उसक ती त अथवा उसे कहनेवालेक ती तमे दशन श दका अथ
समझने जैसा रहता है।
जो जीव बा या (अथात् दाना द) और शु वहार याका उ थापन करने म मो माग
समझते है, वे जोव शा ोके कसी एक वचनको नासमझीसे हण करके समझते ह। दाना द या य द
कसी अहकारा दसे, नदानबु से, अथवा जहाँ वैसी या सभव न हो ऐसे छटे गुण थाना द थानमे
करे, तो वह ससारहेतु है, ऐसा शा ोका मूल आशय है। पर तु दाना द याका समूल उ थापन करनेका
शा ोका हेतु नही है, वे मा अपनी म त क पनासे नषेध करते है। तथा वहार दो कारका है,
एक परमाथमूलहेतु वहार और सरा वहार प वहार । पूवकालमे इस जोवने अनतवार कया
फर भी आ माथ नह आ, ऐसे शा ोमे वा य ह, उन वा योको हण करके स पूण वहारका उ था-

े े े ो े े े ो ै ी ै ो
पन करनेवाले अपनेको समझे ए मानते ह, पर तु शा कारने तो वैसा कुछ नही कहा है। जो वहार
परमाथहेतुमूल वहार नही है, और मा वहारहेतु वहार है, उसके रा हका शा कारने नषेध
कया है । जस वहारका फल चार ग त हो वह वहार वहारहेतु कहा जा सकता है, अथवा जस
वहारसे आ माक वभाव दशा जाने यो य न हो उस वहारको वहारहेतु वहार कहा जाता है ।
इसका शा कारने नषेध कया है, वह भी एकातसे नही, केवल रा हसे अथवा उसीमे मो माग
माननेवालेको इस नषेधसे स चे वहारपर लानेके लये कया है। और परमाथमूलहेतु वहार शम,
सवेग, नवद, अनुकपा, आ था अथवा स , स शा और मनवचना द स म त तथा गु त, उसका
नषेध नह कया है, और य द उसका नषेध करने यो य हो तो फर शा ोका उपदे श करके वाक
या समझाने जैसा रहता था, अथवा या साधन करानेका बताना बाक रहता था क शा ोका उप-
दे श कया ? अथात् वैसे वहारसे परमाथ ा त कया जाता है, और जीवको वैसा वहार अव य
हण करना चा हये क जससे परमाथक ा त होगी, ऐसा शा ोका आशय है। शु कअ या मी अथवा
उसके सगमे आनेवाले इस आशयको समझे वना उस वहारका उ थापन करके अपने और परके लये
लभवो धता करते है।
शम, सवेगा द गुण उ प होनेपर अथवा वैरा य वशेष एव न प ता होनेपर, कपाया द ीण
होनेपर, अथवा कुछ भी ा वशेषसे समझनेको यो यता होनेपर, जो स गमसे समझने यो य अ या म
य, तब तक ायः श जैसे है, उ हे अपनी क पनासे जैस-े तैसे पढकर, न य करके, वसा अतभेद
ए वना अथवा दशा वदले वना, वभाव र ए वना अपनेमे ानको क पना करता है; और या
तथा शु वहारर हत होकर वृ करता है, ऐसा तीसरा कार शु कअ या मीका है। जगह जग

३६८
जीवको ऐसा योग मलता रहता है, अथवा तो ानर हत गु या प र हा दके इ छु क गु , मा अपने
मानपूजा दक कामनासे फरनेवाले जीवोको अनेक कारसे उलटे रा तेपर चढा दे ते है, और ाय
व चत् ही ऐसा नही होता। जससे ऐसा मालूम होता है क कालक षमता है। यह षमता जीवको
पु षाथर हत करनेके लये नह लखी है, पर तु पु षाथजागृ तके लये लखी है । अनुकूल सयोगमे तो जीव-
मे कुछ कम जागृ त हो तो भी कदा चत् हा न न हो, पर तु जहाँ ऐसे तकूल योग रहते हो वहाँ मुमु ु
जीवको अव य अ धक जा त रहना चा हये, क जससे तथा प पराभव न हो, और वैसे कसो वाहमे
न बहा जाये । वतमानकाल .षम कहा है, फर भी इसमे अन त भवको छे दकर मा एक भव बाक
रखे, ऐसी एकावता रता ा त हो, ऐसा भी है। इस लये वचारवान जीव यह ल रखकर, उपयु
वाहोमे न बहते ए यथाश वैरा या दक आराधना अव य करके, स का योग ा त करके,
कषाया द दोषका छे दक और अ ानसे र हत होनेका स यमाग ा त करे । मुमु ु जीवमे क थत शमा द-
गुण अव य स भव है, अथवा उन गुणोके बना मुमु ुता नही कही जा सकती । न य ऐसा प रचय रखते
ए, उस उस बातका वण करते ए, वचार करते ए, पुन. पुन पु षाथ करते ए वह मुमु ुता
उ प होती है । वह मुमु ुता उ प होनेपर जीवको परमाथमाग अव य समझमे आता है।
४२३
बबई, का तक वद ९, १९४९
कम माद होनेका उपयोग जीवक मागके वचारमे थ त कराता है। और वचार मागम
थ त कराता है। इस बातका पुन पुन. वचार करके, यह य न वहाँ वयोगमे भी कसी कारसे
करना यो य है । यह बात व मरणीय नही है।
४२४
बंबई, का तक वद १२, १९४९
समागम चाहने यो य मुमु ुभाई कृ णदासा दके त,
_ "पुनज म है-ज र है । इसके लये 'म' अनुभवसे हाँ कहनेमे अचल ँ।" यह वा य पूवभवके
कसी योगका मरण होते समय स आ लखा है । जसने पुनज मा द भाव कये ह, उस ‘पदाथ'को,
कसी कारसे जानकर यह वा य लखा गया है।
मुमु ुजीवके दशनक तथा समागमक नरंतर इ छा रखते है । तापमे व ा तका थान उसे सम-
झते है। तथा प अभी तो उदयाचोन योग रहता है। अभी इतना ही लख सकते है। ी सुभा य यहाँ
सुखवृ मे है।
उपा धका वेदन करनेके लये अपे त ढता मुझमे नही है, इस लये उपा धसे अ यत नवृ क
इ छा रहा करती है, तथा प उदय प जानकर यथाश सहन होती है।
परमाथका .ख मटनेपर भी ससारका ास गक द ख रहा करता है, और वह ख अपना इ छा
आ दक कारणसे नही है, पर तु सरेक अनुकपा तथा उपकार आ दके कारणसे रहता है। और इस वड-
वनामे च कभी कभी वशेष उ े गको ा त हो जाता है ।
इतने लेखसे वह उ े ग प समझमे नही आयेगा, कुछ अशमे आप समझ सकगे। इस उ े गके
सवाय सरा कोई .ख ससार सगका भी मालूम नही होता। जतने कारके ससारके पदाथ है, उन

३६९
सबमे य द अ पृहता हो और उ े ग रहता हो तो वह अ यक अनुक पा या उपकार या वैसे कारणसे हो,
ऐसा मुझे न त लगता है। इस उ े गके कारण कभी आँखोमे आंसु आ जाते है, और उन सब कारणोके
त वतन करनेका माग अमुक अशमे परत दखायी दे ता है । इस लये समान उदासीनता आ जातो है ।

ी े े ो ै ी ी े े ै
___ ानीके मागका वचार करते ए ात होता है क कसी भी कारसे यह दे ह मूछापा नह है,
उसके खसे इस आ माको शोक करना यो य नह है। आ माको आ म-अ ानसे शोक करनेके सवाय
सरा शोक करना उ चत नह है। गट यमको समीप दे खते ए भी जसे दे हमे मूछा नही रहती, उस
पु पको नम कार है। इसी बातका चतन करते रहना हमे, आपको, येकको यो य है।
दे ह आ मा नही है, आ मा दे ह नह ह । घटा दको दे खनेवाला जैसे घटा दसे भ है, वैसे दे हको
दे खनेवाला, जाननेवाला आ मा दे हसे भ है, अथात् दे ह नही है।
वचार करते ए यह वात गट अनुभव स होती है, तो फर इस भ दे हके वाभा वक य-
वृ - पा द प रणाम दे खकर हष-शोकवान होना कसी कारसे सगत नही है, और हमे, आपको वह
नधार करना, रखना यो य है, और यह ानीके मागक मु य व न है।
ापारम कोई या क ापार सूझे तो वतमानम कुछ लाभ होना संभव है।
४२६ बबई, मग सर वद १३, श न, १९४९
भावसार खुशाल रायजीने केवल पांच मनटक मांदगीम दे ह छोडा है।
ससारम उदासीन रहनेके सवाय सरा कोई उपाय नही है।
४२७
बंबई, माघ सुद ९, गु , १९४९
आप सब मुमु ुजनके त न तासे यथायो य ा त हो । नरंतर ानीपु षको सेवाके इ छावान
हम है, तथा प इस षमकालम तो उसक ा त परम पम दे खते ह, और इस लये ानीपु षके आ य-
मे थर बु है जनक , ऐसे मुमु ुजनम स सगपूवक भ भावसे रहनेको ा तको महा भा य प मानते
है, तथा प अभी तो उससे वपरीत ार धोदय रहता है । स सगका ल य हमारे आ मामे रहता है, तथा प
उदयाधीन थ त है, और वह अभी ऐसे प रणाममे रहती है क आप मुमु ुजनके प क पहँच मा
वलबसे द जाती है। चाहे जैसी थ तमे भी अपराधयो य प रणाम नही है।
४२८ .
ववई, माघ वद ४, १९४९
शुभे छास प मुमु ुजन ी अंबालाल इ या द,
दो प प ँचे ह । यहाँ समा ध प रणाम है । तथा प उपा धका सग वशेष रहता है। और वैसा
करनेमे उदासीनता होनेपर भी उदययोग होनेसे न लेश प रणामसे वृ करना यो य है।
माद कम होनेके लये कसी सद् थको पढते रहना यो य है।
४२९
ववई, माघ वद ११, र व, १९४२
कोई मनु य अपने वषयमे कुछ बताये तव उसे यथास भव ग भीर मनसे सुनते रहना इतना मु य
काम है । वह बात ठोक है या नही यह जाननेसे प हले कोई हप-खेद जैसा नह होता।
मेरी च व के वषयमे कभी कभी लखा जाता है, उसका अथ परमाथस ब धी लेना यो य है,
और यह लखनेका अथ वहारमे कुछ अशुभ प रणामवाला दखाना यो य नह है।

३७०
___ पडे ए सं कारोका मटना कर होता है। कुछ क याणका काय हो या च तन हो, यह
साधनका मु य कारण है । बाक ऐसा कोई वषय नही है क जसके पीछे उपा धतापसे, द नतासे खी
होना यो य हो अथवा ऐसा कोई भय रखना यो य नही है क जो अपनेको केवल लोकस ासे रहता हो।
४३०
बबई, माघ वद ३०, गु , १९४९
यहाँ वृ -उदयसे समा ध है । आपको लोमडीस ब धी जो वचार रहता है, वह क णा भावके
कारणसे रहता है, ऐसा हम समझते ह।
। कोई भी जीव परमाथको मा अश पसे भी ा त होनेके कारणोको ा त हो, ऐसा न कारण
क णाशील ऋपभा द तीथ ोने भी कया है, यो क स पु षोके स दायक ऐसी सनातन क णाव था
होती है क समयमा के अनवकाशसे समूचा लोक आ माव थामे हो, आ म व पमे हो, आ मसमा धमे हो,
अ य अव थामे न हो, अ य व पमे न हो, अ य आ धमे न हो, जस ानसे वा म थ प रणाम होता है,
वह ान सव जीवोमे गट हो, अनवकाश पसे सव जीव उस ानमे चयु हो, ऐसा ही जसका
क णाशील सहज वभाव है, वह सनातन स दाय स पु षोका है।
आपके अ त करणमे ऐसी क णावृ से लीमडीके वषयमे वारवार वचार आया करता है, और
आपके वचारका एक अंश भी फल ा त हो अथवा वह फल ा त होनेका एक अश भी कारण उ प हो
तो इस पचमकालमे तीथकरका माग ब त अशोसे गट होनेके वरावर है, तथा प वैसा होना स भव नही
है, और उस मागसे होने यो य नही है, ऐसा हमे लगता है। जससे स भव होना यो य है अथवा इसका
जो माग है, वह अभी तो वृ के उदयमे है, और वह कारण जब तक उनको ल यगत न हो तब तक
सरे उपाय तबंध प है, न सशय तव ध प ह।
जीव य द अ ान प रणामी हो तो जैसे उस अ ानका नय मत पसे आराधन करनेसे क याण
नही है वैसे मोह प माग अथवा ऐसा इस लोकस ब धी जो माग है वह मा ससार है, उसे फर चाहे
जस आकारमे रख तो भी ससार है। उस ससारप रणामसे र हत करनेके लये अससारगत वाणीका
अ व छ दप रणामसे जब आधार ा त होता है, तब उस ससारका आकार नराकारताको ा त होता
जाता है। वे अपनी के अनुसार सरे तबध कया करते ह, उसी कार वे अपनी उस से
ानीके वचनोक आराधना कर तो क याण होने यो य नही लगता । इस लये आप वहाँ ऐसा सू चत कर

ी े े ो े े े ो ो े
क आप कसी क याणके कारणके नजद क होनेके उपायक इ छा करते हो तो उसके तबध कम
होनेके उपाय कर, और नही तो क याणक तृ णाका याग कर। आप ऐसा समझते हो क हम जैसे वतन
करते है वैसे क याण है, मा अ व था हो गयी है, वही मा अक याण है, ऐसा समझते हो तो यह
यथाथ नही है। व तुत आपका जो वतन है, उससे क याण भ है, और वह तो जब जब जस जस
जीवको वैसा वैसा भव थ या द समीप योग होता है तब तब उसे वह ा त होने यो य है । सारे समूहमे
क याण मान लेना यो य नही है, और य द ऐसे क याण होता हो, तो उसका फल संसाराथ है, यो क
पूवकालमे ऐसा करके ही जीव ससारी रहता आया है। इस लये वह वचार तो जब जसे आना होगा,
तब आयेगा । अभी आप अपनी चके अनुसार अथवा आपको जो भा सत होता है उसे क याण मानकर
वृ करते ह, इस वषयमे सहज, कसो कारके मानक इ छाके बना, वाथको इ छाके बना, आपमे
लेश उ प करनेक इ छाके बना मुझे जो कुछ च मे लगता है, वह बताता ँ।
क याण जस मागसे होता है उस मागके दो मु य कारण दे खनेमे आते है । एक तो जस स दायमे
आ माथके लये सभी असगतावाली याएँ हो, अ य कसी भी अथ- योजनक इ छासे न हो, और

३७१
नरंतर ानदशापर जीवोका च हो, उसमे अव य क याणके उ प होनेका योग मानते है। ऐसा न
हो तो उस योगका स भव नह होता । यहाँ तो लोकस ासे, ओघस ासे, मानाथ, पूजाथ, पदके मह वाथ,
ावका दके अपनेपनके लये अथवा ऐसे सरे कारणोसे जपतपा द, ा याना द करनेक वृ हो गयी
है, वह कसी तरह आ माथके लये नही है, आ माथके तवध प है। इस लये य द आप कुछ इ छा
करते हो तो उसका उपाय करनेके लये जो सरा कारण कहते है, उसके असगतासे स होनेपर कसी
दन भी क याण होना स भव है।
___ असगता अथात् आ माथके सवायके संग सगमे नही पडना, ससारके सगीके सगमे बातचीता दका
सग श या द बनानेके कारणसे नही रखना, श या द बनानेके लये गृहवासी वेषवालोको साथमे नही
घुमाना ।'द ा ले तो तेरा क याण होगा', ऐसे वा य तीथकरदे व कहते नह थे। उसका एक हेतु यह भी था
क ऐसा कहना यह भी उसके अ भ ायके उ प होनेसे पहले उसे द ा दे ना है, वह क याण नही है।
जसमे तीथकरदे वने ऐसे वचारसे वृ क है, उसमे हम छ. छः मास द ा लेनेका उपदे श जारी रख-
कर उसे श य बनाते ह, वह मा श याथ है, आ माथ नही है । पु तक, य द सब कारके अपने मम व-
भावसे र हत होकर ानक आराधना करनेके लये रखी जाय तो ही आ माथ है, नही तो महान त-
ब ध है, यह भी वचारणीय है।
___ यह े अपना है, और उस े क र ाके लये वहाँ चातुमास करनेके लये जो वचार कया
जाता है, वह े तव ध है । तीथकरदे व तो ऐसा कहते ह क से, े से, कालसे और भावसे-इन
चारो तबधसे य द आ माथ होता हो अथवा न ंथ आ जाता हो तो वह तीथकरदे वके मागमे नही ह,
पर तु ससारके मागमे है । इ या द बात यथाश वचारकर आप बताइयेगा। लखनेसे ब त लखा जा
सके, ऐसा सूझता है, पर तु अब यहाँ थ त- वराम करता है। ल० रायच दके णाम ।
४३१
बबई, फागुन सुद ७, गु , १९४९
आ मा पसे सवथा जा त अव था रहे, अथात् आ मा अपने व पमे सवथा जा त हो तव उसे
केवल ान आ है, ऐसा कहना यो य है, ऐसा ी तीथकरका आशय है।
जस पदाथको तीथकरने 'आ मा' कहा है, उसी पदाथको उसी व पम ती त हो, उसी
प रणामसे आ मा सा ात् भा सत हो, तब उसे परमाथ-स य व है. ऐसा ी तीथकरका अ भ ाय है ।
जसे ऐसा व प भा सत आ है, ऐसे पु षमे जसे न काम ा है, उस पु पको वीज च-स य व
है । उस पु षक न काम भ अबाधासे ा त हो, ऐसे गुण जस जीवमे हो, वह जीव मागानुसारी होता
है, ऐसा जन कहते ह।
____ हमारा अ भ ाय कुछ भी दे हके त हो तो वह मा एक आ माथके लये ही है, अ य अथके लये
नही । सरे कसी भी पदाथके त अ भ ाय हो तो वह पदाथके लये नही, पर तु आ माथके लये है।
वह आ माथ उस पदाथक ा त-अ ा तमे हो, ऐसा हमे नही लगता। 'आ म व' इस व नके सवाय
सरी कोई व न कसी भी पदाथक हण- यागमे मरण यो य नही है। अनवकाश आ म व जाने बना,
उस थ तके बना अ य सव लेश प है।
वबई, फागुन सुद ७, गु , १९४९
अवालालका लखा आ पन प ंचा था।
आ माको वभावसे अवका शत करनेके लये और वभावमे अनवकाश पसे रहने के लये कोई भी
मु य उपाय हो तो आ माराम ऐसे ानीपु षका न काम वु से भ योग प सग है। उसक सफलताके

३७२
लये नवृ - े मे वैसा योग ा त होना, यह कसी महान पु यका योग है, और वैसा पु ययोग ाय इस
जगतमे अनेक कारके अ तरायवाला दखायो दे ता है । इस लये हम समीपमे है, ऐसा वारवार याद करके
जसमे इस ससारक उदासोनता कही हो उसे अभी पढ, वचार। आ मा पसे केवल आ मा रहे, ऐसा
जो च तन रखना वह ल य है, शा के परमाथ प है।
इस आ माको पूवकालमे अनतकाल तीत करनेपर भो नही जाना, इससे ऐसा लगता है क उसे
जाननेका काय सबसे वकट है, अथवा तो उसे जाननेके तथा प योग परम लभ है। जीव अनतकालसे ऐसा

ै ो ँ ो ी ऐ ी ै ऐ ो े ी
समझा करता है क म अमुकको जानता , ँ अमुकको नही जानता, ऐसा नही है, ऐसा होनेपर भी जस
पसे वय है उस पका नर तर व मरण चला आता है, यह बात ब त-ब त कारसे वचारणीय है,
और उसका उपाय भी ब त कारसे वचार करने यो य है।
बबई, फागुन सुद १४, १९४९
' ी कृ णा दके स य व स ब धी के बारेमे आपका प मला है । तथा उसके अगले दनके
यहाँके प ोसे आपको प ीकरण ा त आ, उस स ब धो आपका प मला है। यथो चत अवलोकनसे
उन प ो ारा ी कृ णा दके ोका आपको प ीकरण होगा, ऐसा स भव है।
जस कालमे परमाथधमक ा तके साधन ा त होना अ य त षम हो उस कालको तीथकरदे वने
षम कहा है, और इस कालमे यह बात प दखायी दे तो है। सुगमसे सुगम जो क याणका उपाय है,
वह जीवको इस कालमे ा त होना अ य त कर है। मुमु ता, सरलता, नवृ , स सगा द साधनोको
इस कालमे परम लभ जानकर, पूव पु षोने इस कालको ँडा-अवस पणीकाल कहा है, और यह बात भी
प है । थमके तीन साधनोका सयोग तो व चत् भी ा त होना सरे अमुक कालमे सुगम था, पर तु
स संग तो सव कालमे लभ ही द खता है, तो फर इस कालमे स सग सुलभ कहाँसे हो ? थमके तीन
साधन कसी तरह इस कालमे जीव ा त करे तो भी ध य है ।
कालस ब धी तीथकरवाणोको स य करनेके लये 'ऐसा' उदय हमे रहता है, और वह समा ध प-
से वेदन करने यो य है।
बबई, फागुन वदो ३०, १९४९
'म णर नमाला' तथा 'योगक प म' पढनेके लये इसके साथ भेजे है। जो कुछ बाँधे ए कम है,
उ हे भोगे वना न पायता है। च तार हत प रणामसे जो कुछ उदयमे आये उसे वेदन करना, ऐसा
ी तीथकरा द ा नयोका उपदे श है।

३७३
'समता, रमता, ऊरधता, ायकता, सुखभास ।
वेदकता, चैत यता, ए सब जीव वलास ॥'
जन तीथकरदे वने व प थ आ मा प होकर, व पसे जस कार वह आ मा कहा जा
सके तदनुसार अ य त यथा थत कहा है, उन तीथकरको सरी सब कारक अपे ाका याग करके
नम कार करते है।
पूवकालमे अनेक शा ोका वचार करनेस, े उस वचारके फल व प स पु षमे जनके वचनसे
भ उप ई है, उन तीथकरके वचनोको नम कार करते ह।
अनेक कारसे जीवका वचार करनेस, े वह जीव आ मा प पु षके बना जाना जाये ऐसा नही
है, ऐसी न ल ा उप ई, उन तीथकरके मागवोधको नम कार करते है।
भ भ कारसे उस जीवका वचार होनेके लये, वह जीव ा त होनेके लये योगा दक
अनेक साधनोका बलवान प र म करनेपर भी ा त न ई, वह जीव जसके ारा सहज ा त होता है,
वही कहनेका जनका उ े य है, उन तीथकरके उ े यवचनको नम कार करते है। [अपूण]
४३७
इस जगतमे जसमे वचारश वाचास हत रहती है, ऐसा मनु य ाणी क याणका वचार करने-
के लये सबसे अ धक यो य है । तथा प ायः जीवको अनत बार मनु यभव मलनेपर भी वह क याण
स नह आ, जससे वतमान तक ज ममरणके मागका आराधन करना पड़ा है। इस अना द लोकमे
जीवक गनतकोट स या है। उन जीवोक समय-समयपर अनत कारक ज म मरणा द थ त होती
रहती है, ऐसा अनतकाल पूवकालमे तीत आ है। अनतकोट जीवोमे जसने आ मक याणक आरा-
धना क है, अथवा जसे आ मक याण ा त आ है, ऐसे जीव अ य त थोडे ए है, वतमानमे ऐसा हे,
और भ व यकालमे भी ऐसी ही थ त स भव है, ऐसा ही है। अथात् जीवको क याणक ा त तीनो
कालोमे अ य त लभ है, ऐसा जो ी तीथकरदे वा द ानीका उपदे श है वह स य है। जीवसमदायक
ऐसी ा त अना द सयोगसे है, यही यो य है, ऐसा ही है। यह ा त जस कारणसे होती है, उस
कारणके मु य दो कार तीत होते है--एक पारमा थक और सरा ावहा रक, और उन दोनो
कारोका जो एक अ भ ाय है वह यह है क इस जीवमे स ची मुमु ुता नही आयी, इस जीवमे एक
भी स य अ रका प रणमन नही आ, स पु षके दशनमे जीवको च नही ई, उस उम कारके योगसे
समथ अतरायसे जीवको वह तबंध होता रहा है, और उसका सबसे बडा कारण अस सगको वासनासे
उप ई वे छाचा रता और अस दशनमे स दशन प ा त है। 'आ मा नामका कोई पदाय नही
है' ऐसा एक दशनका अ भ ाय है, 'आ मा नामका पदाथ सायो गक है', ऐसा अ भ ाय कोई सरा
दशन मानता है, 'आ मा दे ह थ त प है, दे हको थ तके प ात् नह है.' ऐमा अ भ ाय कसी सरे
दशनका है। 'आ मा अणु हे', 'आ मा सव ापक है,' 'आ मा शु य है,' 'आ मा माकार है,' 'आ मा
काश प है,' 'आ मा वतय नही है,' 'आ मा कता नह ह,' आ मा का है भो ा नही,' 'आ मा कता
नही, भो ा है,' 'आ मा कता नहा, भो ा नहो,' 'आ मा जड हे,' 'आ मा कृ म है,' इ या द अनत नय

३७४
जसके हो सकते ह, ऐसे अ भ ायको ा तके कारण प अस दशनको आराधना करनेसे पूवकालमे इस
जीवने अपना व प जैसा है वैसा नही जाना । उसे उपयु एका त-अयथाथ पसे जानकर आ मामे
अथवा आ माके नामसे ई रा दमे पूवकालमे जीवने आ ह कया है, ऐसा जो अस सग, वे छाचा रता

औ ै ी े
और म यादशनका प रणाम है वह जब तक नह मटता तब तक यह जीव लेशर हत शु अस य
दे शा मक मु होनेके यो य नह है, और उस अस सगा दक नवृ के लये स सग, ानीक आ ाका
अ य त अगीकार करना और परमाथ व प आ म वको जानना यो य है।
पूवकालमे ए तीथकरा द ानोपु षोने उपयु ा तका अ य त वचार करके, अ य त एका तासे,
त मयतासे जीव व पका वचार करके जीव व पमे शु थ त क है। उस आ मा और सरे सब
पदाथ को सव कारसे ा तर हत पसे जाननेके लये ी तीथकरा दने अ य त कर पु षाथका आरा-
धन कया है। आ माको एक भी अणुके आहारप रणामसे अन य भ करके उ होने इस दे हमे प ऐसा
अनाहारी आ मा, मा व पसे जीनेवाला ऐसा दे खा है। उसे दे खनेवाले तीथकरा द ानी वय ही
शु ा मा है, तो वहाँ भ पसे दे खनेका कहना य प सगत नही है, तथा प वाणीधमसे ऐसा कहा है।
ऐसे अन त कारसे वचार करके भी जानने यो य जो 'चैत यघन जीव' है उसे तीथकरने दो कारसे कहा
है, क जसे स पु षसे जानकर, वचार कर, स कार करके जीव वय उस व पमे थ त करे। तीथ-
करा द ानीने पदाथमा को 'व ' और 'अव ' ऐसे दो वहारधमवाला माना है। अव पसे
जो है वह यहाँ 'अव ' ही है। व पसे जो जीवका धम है उसे सब कारसे कहनेके लये
तीथकरा द समथ है, और वह मा जीवके वशु प रणामसे अथवा स पु ष ारा जाना जाये, ऐसा
जीवका धम है, और वही धम उस ल ण ारा अमुक मु य कारसे इस दोहेमे कहा है । परमाथके
अ य त अ याससे वह ा या अ य त फुट समझमे आती है, और उसके समझमे आनेपर आ म व भी
अ य त गट होता है, तथा प यथावकाश यहाँ उसका अथ लखा है।
४३८
बबई, चै सुद १, १९४९
"समता, रमता, ऊरधता, ायकता, सुखभास ।
वेदकता, चैत यता, ए सब जीव वलास ॥'
ी तीथकर ऐसा कहते है क इस जगतमे इस जीव नामके पदाथको चाहे जस कारसे कहा
हो वह कार उसक थ तमे हो, इसमे हमारी उदासीनता है। जस कारसे नराबाध पसे उस जीव
नामके पदाथको हमने जाना है, उस कारसे उसे हमने गट कहा है। जस ल णसे कहा है वह सब
कारसे वाधार हत कहा है । हमने उस आ माको ऐसा जाना है, दे खा है, प अनुभव कया है, और
हम गट वही आ मा ह । वह आ मा 'समता' नामके ल णसे यु है। वतमान समयमे जो अस य
दे शा मक चैत य थ त आ माक है, वह पहलेके एक, दो, तीन, चार, दस, स यात, अस यात, अन त
समयमे थी, वतमानमे है और भ व यकालमे भी उसी कारसे उसक थ त है। कसी भी कालमे
उसक अस यात दे शा मकता, चैत यता, अ प व इ या द सम त वभाव छू टने यो य नह है, ऐसा
जो सम व, समता वह जसका ल ण है, वह जीव है।
पशु, प ी, मनु या दक दे हमे वृ ा दमे जो कुछ रमणीयता दखायी दे ती है, अथवा जससे वे
सब गट फू तवाले मालूम होते है, गट सु दरता समेत लगते है, वह रमता, रमणीयता है ल ण
जसका वह जीव नामका पदाथ है। जसक व मानताके वना सारा जगत शू यवत् स भव है, ऐसी
रमणीयता जसमे है, वह ल ण जसमे घ टत होता है, वह जीव है।

३७५
कोई भी जाननेवाला कभी भी कसी भी पदाथको अपनी अ व मानतासे जाने, ऐसा होने यो य
नह है । थम अपनी व मानता घ टत होती है, और कसी भी पदाथका हण, यागा द अथवा
उदासीन ान होनेमे वय ही कारण है। सरे पदाथक अगीकारमे, उसके अ पमा भी ानमे थम
जो हो, तभी हो सकता है, ऐसा सबसे थम रहनेवाला जो पदाथ हे वह जीव है। उसे गौण करके
अथात् उसके बना कोई कुछ भी जानना चाहे तो वह स भव नही है, मा वही मु य हो तभी सरा
कुछ जाना जा सकता है, ऐसा यह गट 'ऊवताधम', वह जसमे है, उस पदाथको ी तीथकरदे व
जीव कहते है।
गट जड पदाथ और जीव, वे जस कारणसे भ होते है, वह ल ण जीवका ायकता नामका
गुण है । कसी भी समय यह जीव-पदाथ ायकतार हत पसे कसीको भी अनुभवग य नही हो सकता।
और इस जीव नामके पदाथके सवाय सरे कसी भी पदाथमे ायकता नही हो सकती, ऐसा जो अ य त
अनुभवका कारण ायकता, वह ल ण जसमे है उस पदाथको तीथकरने जीव कहा है।
___ श दा द पाँच वषयस ब धी अथवा समा ध आ द योगस ब धी जस थ तमे सुख होना स भव
है, उसे भ भ पसे दे खनेसे अ तमे केवल उन सबमे सुखका कारण एक यह जीव-पदाथ ही स भव
है । इस लये ी तीथकरने जीवका 'सुखभास' नामका ल ण कहा है, और वहार ातसे न ा ारा
वह गट मालूम होता है । जस न ामे अ य सब पदाथ से र हतपन है, वहाँ भी 'मै सुखी ' ँ , ऐसा
जो ान है, वह बाक बचे ए जीव पदाथका ही है, अ य कोई वहाँ व मान नही है, और सुखका
आभास होना तो अ य त प है, वह जससे भा सत होता है उम जीव नामके पदाथके सवाय अ य
कही भी वह ल ण नही दे खा ।
यह फ का है, यह मीठा है, यह ख ा है, यह खारा है, मै इस थ तमे ,ँ ठ डसे ठठु रता , ँ
गरमी पडती है, खी ँ, खका अनुभव करता ँ, ऐसा जो प ान, वेदन ान, अनुभव ान,
अनुभवता, वह य द कसीमे भी हो तो वह इस जीवपदमे है, अथवा यह जसका ल ण होता है, वह पदाथ
जीव होता है, यही तीथकरा दका अनुभव है।
. प काशता, अन त अन त कोट तेज वी द पक, म ण, च , सूया दक का त जसके काशके
बना गट होनेके लये समथ नही है अथात् वे सब अपने आपको बताने अथवा जाननेके यो य नह

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है। जस पदाथके काशमे चैत यतासे वे पदाथ जाने जाते है, वे पदाथ काश पाते है, प भा सत
होते है वह पदाथ जो कोई है वह जीव है । अथात वह ल ण गट पसे प काशमान, अचल ऐसा
नरावाध काशमान चैत य, उस जीवका उस जीवके त उपयोग लगानेसे गट दखायी दे ता है।
ये जो ल ण कहे हे उ हे पुनः पुन वचारकर जीव नरावाध पसे जाना जाता है, ज हे
जाननेसे जीवको जाना है, ये ल ण इस कारसे तीथकरा दने कहे है।
४३९
बबई, चै सुद ६, गु , १९४२
"ममता रमता ऊरधता" ये पद इ या द पद जो जीवके ल णके लखे थे, उनका वशेष अथ
लखकर एक प पाँच दन ए मोरवी गेजा है, जो मोरवी जानेपर ा त होना स भव है।
उपा धका योग वशेष रहता है। जैसे जैसे नवृ के योगक वशेष इ छा हो आती है, वैसे वैने
उपा धक ा तका योग वशेष दखायी दे ता है। चारो तरफसे उपा धको भीड़ है। कोई ऐसा माग

३७६
अभी दखायी नही दे ता क अभी इसमेसे छू टकर चले जाना हो तो कसीका अपराध कया न समझा
जाय । छू टनेका य न करत ए कसीके मु य अपराधमे आ जानेका प स भव दखायी दे ता है, और
यह वतमान अव या उपा धर हत होनेके लये अ यत यो य है, ार धक व था ऐसी बॉधी होगी।
ल० रायच दके णाम ।
४४०
बबई, चै सुदो ९, १९४९
मुमु ुभाई सुखलाल छगनलाल, वीरमगाम ।
क याणक अ भलापावाला एक प गत वषमे मला था, उसी अथका सरा प थोडे दन ए
मला है।
केशवलालका आपको वहाँ समागम होता है यह ेय कर योग है।
आरभ, प र ह, अस सग आ द क याणके तबंधक कारणोका यथास भव कम प रचय हो तथा
उनमे उदासीनता ा त हो, यह वचार अभी मु यत रखने यो य है।
बबई, चै सुद ९, १९४९
मुमु ुभाई ी मनसुख दे वशी, लीमडी।
अभी उस तरफ ए ावको आ दके समागम स ब धी ववरण पढा है। उस सगो जीवको
च या अ च उदयमे नही आयी, उसे ेय कर कारण जानकर, उसका अनुसरण करके नर तर वतन
करनेका प रचय करना यो य है, और उस अस सगका प रचय जैसे कम हो वैसे उसक अनुकपाक इ छा
करके रहना यो य है। जैसे हो वैसे स सगके योगक इ छा करना और अपने दोष दे खना यो य है ।
___ बबई, चै वद १, र व, १९४९
*धार तरवारनी सोहली, दोहली चौदमा जनतणी चरणसेवा;
धार पर नाचता दे ख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न दे वा।
- ी आनदघन-अनत जन तवन
मागक ऐसी अ य त करता कस कारणसे कही है ? यह वचार करने यो य है।
आ म णाम
बबई, चै वद ८, र व, १९४९
जसे ससार स ब धी कारणके पदाथ क ा त सुलभतासे नर तर आ करे और ब धन न हो,
ऐसा कोई पु प हो, तो उसे तीथकर या तीथङ् कर जैसा मानते ह, पर तु ायः ऐसी सुलभ ा तके
योगसे जीवको अ पकालमे संसारसे अ य त वैरा य नही होता, और प आ म ानका उदय नही होता,
ऐसा जानकर जो कुछ उस सुलभ ा तको हा न करनेवाला योग होता है उसे उपकारकारक जानकर
सुखसे रहना यो य है।
__ *भावाय-तलवारक धारपर चलना तो आसान है, पर तु चौदहव तीथङ् कर ी अन तनाथजीके चरणोक
सेवा करना मु कल है । वाजीगर तलवारक धारपर नाचते ए दे खे जाते ह, पर तु भुके चरणोक सेवा प धारपर
तो दे वगण भी नही चल सकते।

३७७
बबई, चै वद ३०, र व, १९४९
ससारी पसे रहते हए कस थ तसे वतन कर तो अ छा, ऐसा कदा चत् भा सत हो, तो भी
वह वतन ार धाधीन है। कसी कारके कुछ राग, े ष या अ ानके कारणसे जो न होता हो, उसका
कारण उदय मालूम होता है । और आपके लखे ए प के स ब धमे भी वैसा जानकर अ य वचार या
शोक करना ठ क नही है।
जलमे वाभा वक शीतलता है, पर तु सूया दके तापके योगसे वह उ णतावाला दखायी दे ता है,
उस तापका योग र होनेपर वही जल शीतल लगता है । बीचमे वह जल शीतलतासे र हत लगता है, वह
तापके योगसे है । इसी तरह यह वृ योग हमे है, पर तु अभी तो उस वृ का वेदन करनेके सवाय
हमारा अ य उपाय नही है।
नम कार ा त हो।
ववई, चै वद ३०, र व, १९४९

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जो मु० यहाँ चातुमासके लये आना चाहते है, य द उनका आ मा खत न होता हो तो उनसे
कहना क उ हे इस े मे आना नवृ प नही हे। कदा चत् यहाँ स सगक इ छासे आनेका सोचा
हो तो वह योग मलना ब त वकट है, यो क हमारा वहाँ जाना-आना स भव नही है। व के बलवान
कारणोको उ हे ा त हो, ऐसी यहां थ त है, ऐसा जानकर य द उ हे कोई सरा वचार करना सुगम
हो तो करना यो य है । इस कारसे लख सके तो ल खयेगा।
अभी आपक वहां कैसो दशा रहती है ? वहाँ वशेष पसे स सगका समागम योग करना यो य
है। आपके के उ रके सवाय वशेष लखना अभी सूझता नही है।
आ म थत ।
बंबई, वैशाख वद ६, र व, १९४९
येक दे शसे जीवके उपयोगके लये आकषक इस ससारमे एक समय मा भी अवकाश लेनेक
ानीपु षोने हाँ नही कही, इस वषयमे केवल नकार कहा है।
उस आकषणसे य द उपयोग अवकाशको ा त हो तो उसी समय वह आ म प हो जाता है।
उसी समय आ मामे वह उपयोग अन य हो जाता है।
इ या द अनुभववाता जीवको स सगके ढ न यके वना ा त होना अ य त वकट है।
उस स सगको जसने न य पसे जाना है, ऐसे पु षको उस स सगका योग रहना इम पम-
कालमे अ यत वकट है।
जस चताके उप वसे आप घबराते ह, वह चता-उप व कोई श ु नही है। कोई ानवाता
ज र ल खये।
ेमभ से नम कार।
बबई, वैशाख वद ८, मगल, १९४९
जहाँ उपाय नही वहाँ खेद करना यो य नह है।
ई रे छाके अनुसार जो हो उसमे समता रखना यो य है, और उसके उपायका कोई वचार सूझे
उसे करते रहना, इतना मा हमारा उपाय है।।

३७८
समारते ागोने वव नत् जब नकः हमे अनुकलता आ करती है, तब तक उम मसारका व प
दनारकर लागयो य है, एंगा ाय दयमे आना कर है। उस ममारमे जब ब त-ब त तकूल
पभगोक ा त होती है, उस समय भी जीवको थम वह अ चकर होकर पीछे वैरा य आता हे, फर
जा-समाचनको कुछ ना पड़ती है। और परमा मा ीकृ णके वचनके अनुसार मुमु ुजीवको उन-उन
अनाग को मुपदा मानना यो य है क जन मगोके कारण आ मसाधन सूझता हे।
अमुक ममय तक अनु ल नगी संसारमे कदा चत् म सगका योग आ हो, तो भी इस कालमे उस
दाग वैरा यका यथा थत वेदन होना फर है, पर तु उसके वाद कोई कोई सग तकूल ही तकूल
साना जाया हो, तो उनके वचारमे, उसके प ा ापसे स सग हतकारक हो जाता है, ऐसा समझकर
जन कमी तकूल सगको ा त हो, उसे आ मसाचनका कारण प मानकर समा ध रखकर जा त
रहना । क पत भावमे कसी कारसे भूलने जैसा नही है।
ी महावीरदे वको ग तमा द मु नजन ऐसा पूछते थे क हे पू य | 'माहण', ' मण', ' भ ' ु और
' न ं य' इन चार श दोका अथ या है ? वह हमे कहे। फर उसका अथ ी तीथकर व तारसे कहते
ये। ये अनु मग इन चारोको अनेक कारको वीतराग अव थाओको वशेपा त वशेप पसे कहते थे, और
इन तरह उन श दोका अथ श य धारण करते थे ।
न ंयक बहनसी दशाएं कहते हए एक 'आ मवाद ा त' ऐमा श द उस नगथका तीथकर कहते
ये। ट काकार गौलागाचाय उम "आ मवाद ा त' श दका अथ ऐसा कहते थे क 'उपयोग है ल ण
जमका, अम य दे शी मकोच- वकासका भाजन, अपने कये हए कम का भो ा, व थासे पयाय-
प, न या न या द अनत धमा मक ऐसे आ माका ाता।'
४४९ ___ ववई, जेठ सुदो ११, शु , १९४९
वैरा या द नावनमप भाई कृ णदास, ी खभात ।
गु च से व दत क ई आपक व त प ंची है।
म परमाची माधनोमे परम मावन स सग है, स पु षके चरणके समीपका नवास है । मवकालम
उसक लभना है, और ऐसे वपम कालमे उमको अ यत लभता ानीपु पोने जानी है।
ानीपुरपाक वृ वृ ेमी नह होती। जैसे गरम पानी अ नका मु य गुण नहा रहा
ानीक वृ है, नथा प ानीपुरप भो कमी पकारमे भी नवृ को चाहते ह।
पाला नागपन कये हा नव के े , वन, उपवन, योग, ममा ध और म मगा द ानापु षका
च नन तेहा पारखार याद आ जाते ह। तथा प मानी उदय ा त ार धका अनुसरण करना है। हम
ग मातीत रहनी, उमा रदय रहता है, पर तु यहां नय मत पमे बैना अवकाश नहा है।

३७९
क याणमे तबध प जो-जो कारण है, उनका जीवको वारवार वचार करना यो य है, उन-उन
कारणोका वारवार वचार करके र करना यो य है, और इस मागका अनुसरण कये वना क याणक
ा त नह होती। मल, व ेप और अ ान ये जीवके अना दके तीन दोप ह। ानीपु पोके वचनोक
ा त होनेपर, उनका यथायो य वचार होनेसे अ ानको नवृ होती है । उस अ ानक सत त वलदान

ो े े ो ो े े े औ ी ो े ो ो ो े े े औ
होनेसे उसका रोध होनेके लये और ानीपु पोके वचनोका यथायो य वचार होनेके लये मल और
व ेपको र करना यो य है । सरलता, मा, अपने दोप दे खना, अ पार भ, अ पप र ह इ या द मल
मटनेके साधन है । ानीपु षक अ यत भ व ेप मटनेका साधन है।
ानीपू षके समागमका अतराय रहता हो, उस-उस सगमे वारवार उन ानीपु पक दशा,
चे ा और वचनोका नरी ण करना, मरण करना और वचार करना यो य है। और उस समागमके
अतरायमे, वृ के सगोमे अ य त सावधानी रखना यो य है, यो क एक तो समागमका बल नही है
और सरा अना द अ यास है जसका, ऐसो सहजाकार वृ है, जससे जीव आवरण ा त होता है।
घरका, जा तका अथवा सरे वैसे कामोका कारण आनेपर उदासीन भावसे उ हे तवध प जानकर
वृ करना यो य है। उन कारणोको मु य वनाकर कोई वृ त करना यो य नह है, और ऐसा ए
बना वृ का अवकाश ा त नह होता।
___आ माको भ - भ कारक क पनामे वचार करनेमे लोकस ा, ओघस ा और अस सग ये
कारण ह, जन कारणोमे उदासीन हए बना, न स व ऐसी लोकसबधी जपतपा द यामे सा ात् मो
नही है, परपरा मो नही है, ऐसा माने बना, न स व अस शा और अस , जो आ म व पके
आवरणके मु य कारण ह, उ हे सा ात् आ मघाती जाने वना जीवको जीवके व पका न य होना
ब त कर है, अ य त कर है। ानीपु षके गट आ म व पको कहनेवाले वचन भी उन कारण के
कारण जीवको व पका वचार करनेके लये बलवान नही होते ।
अब ऐसा न य करना यो य है क जसे आ म व प ा त है, गट है, उस पु षके वना अ य
कोई उस आ म व पको यथाथ कहनेके यो य नह है, और उस पु षसे आ मा जाने वना अ य कोई
क याणका उपाय नही है । उस पु पसे आ मा जाने बना, आ मा जाना है. ऐसी क पनाका मुमु ु जीवको
सवथा याग करना यो य है। उस आ मा प पु षके स सगको नरतर कामना रखकर उदासीनतासे
लोकधमस ब धी और कमस ब धी प रणामसे छू टा जा सके इस कारसे वहार करना। जस
वहारके करनेमे जीवको अपनो मह ा दक इ छा हो वह वहार करना यथायो य नह है।
हमारे समागमका अभी अ तराय जानकर नराशाको ा त होना यो य है, तथा प वैसा करनेमे
'ई रे छा' जानकर समागमक कामना रखकर जतना पर पर मुमु ुभाइयोका समागम हो सके उतना
कर, जतनी हो सके उतनी वृ मे वर ता रख, स पु पोके च र और मागानुसारी (सु दरदास,
ीतम, अखा, कबीर आ द) जोवोके वचन और जनका उ े श मु यत. आ माको कहनेका ह. ऐसे ( वचार-
सागर, सु दरदासके थ, आन दघनजी, बनारसोदास, कबीर, अखा इ या दके पद) थोका प रचय
रख, और इन सब सावनोमे मु य साधन तो ी स पु पका समागम माने ।
हमारे समागमका अतराय जानकर च मे मादको अवकाश दे ना यो य नह है, पर पर मुमु -
भाइयोके समागमको अ व थत होने दे ना यो य नह है, नवृ के े का सग यून होने दे ना यो य
नही है, कामनापूवक वृ यो य नह है, ऐसा वचारकर यथास भव अ म ताका, पर परके समागम-
का, नवृ के े का और वृ क उदासीनताका आराधन कर।

३८०
जो वृ यहाँ उदयमे है, वह ऐसी है क सरे ारसे चले जाते ए भी छोडी नही जा सकती,
वेदन करने यो य है, इस लये उसका अनुसरण करते है, तथा प अ ाबाध थ तमे जैसाका तैसा
वा य है।
आज यह आठवॉ प लखते ह। वे सब आप सभी ज ासुभाइयोके वारवार वचार करनेके लये
लखे गये है। च ऐसे उदयवाला कभी हो रहता है। आज अनु मसे वैसा उदय होनेस, े उस उदयके
अनुसार लखा है। हम स सग और नवृ क कामना रखते ह, तो फर आप सबको यह रखनो यो य
हो, इसमे कोई आ य नही है। हम वहारमे रहते हए अ पारभको, अ पप र हको ार ध नवृ प-
से चाहते है, महान आरभ और महान प र हमे नही पडते । तो फर आपको वैसा बताव करना यो य
हो, इसमे कोई सशय करना यो य नह है। समागम होनेके योगका नय मत समय लखा जा सके ऐसा
अभी नही सूझता । यही वनती ।
४५०
बबई, जेठ सुद १५, मगल, १९४९
"जीव तु शीद शोचना धरे ? कृ णने करवु होय ते करे।
च तं शीद शोचना धरे ? कृ णने करव होय ते करे ॥" -दयाराम
पूवकालमे जो ानीपु ष ए ह, उन ा नयोमे ब तसे ानीपु ष स योगवाले ए ह, ऐसा जो
लोककथन है वह स चा हे या झूठा ? ऐसा आपका है, और यह स चा होना स भव है ऐसा आप-
का अ भ ाय है । सा ात् दे खनेमे नही आता, यह वचार प ज ासा है।
कतने ही मागानुसारी पु षो और अ ानयोगी पु षोमे भी स योग होता है। ाय. उनके
च क अ य त सरलतासे अथवा स यागा दको अ ानयोगसे फुरणा दे नेसे वह वृ करता है।।
__ स य पु ष क जनका चोथे गुण थानमे होना स भव है, वैसे ानीपु षोमे व चत् स
होती है, और व चत् स नही होती । जनमे होती है, उ हे उसक फुरणाक ाय' इ छा नही होती,
और ब त करके यह इ छा तब होती है क जब जीव मादवश होता है, और य द वैसी इ छा ई तो
उसका स य वसे पतन होना स भव है।
ाय. पांचव, छ े गुण थानमे भी उ रो र स योगका वशेष स भव होता जाता है, और
वहाँ भी य द जीव मादा द योगसे स मे वृ करे तो थम गुण थानमे थ त होना स भव है।
___ सातव, आठव, नवमे और दसवे गुण थानमे ाय. मादका अवकाश कम है । यारहव गुण थानमे

ो ो ो े े ँ े े ो ै े
स योगका लोभ सभव होनेके कारण वहाँसे थम गण थानमे थ त होना सभव है। बाक जतने
स य वके थानक ह, और जहाँ तक स यकप रणामी आ मा है वहाँ तक उस एक भी योगमे जीवक
वृ कालमे भी होना सभव नही है।
स य ानीपु ष से लोगोने स योगके जो चम कार जाने ह, वे सब ानीपु ष ारा कये ए
नह हो सकते, वे स योग वभावतः प रणामको ा त ए होते ह। सरे कसी कारणसे ानीपु षमे
वह योग नही कहा जाता।
मागानुसारी अथवा स य पु प के अ य त सरल प रणामसे उनके वचनानुसार कतनी ही
वार होता है। जसका योग अ ानपूवक है, उसके उस आवरणके उदय होनेपर अ ानका फुरण होकर
१ भावाथ-जीव तू कस लये शोक करता है ? कृ णको जो करना होगा सो करेगा । च तू कस लये
शाक करता है ? कृ णको जो करना होगा सो करेगा।

३८१
वह स योग अ पकालमे फ लत होता है। ानीपु षसे तो मा वाभा वक फु रत होकर ही फ लत
होता है, अ य कारसे नह । जन ानीसे स योग वाभा वक प रणामी होता है, वे ानीपु प, हम
जो करते है वैसा और वह इ या द सरे अनेक कारके चा र के तवधक कारण से मु होते है, क
जस कारणसे आ माका ऐ य वशेप फु रत होकर मना द योगमे स के वाभा वक प रणामको
ा त होता है। व चत् ऐसा भी जानते ह क कसी सगमे ानीपु षने भी स योग प रण मत
कया होता है तथा प वह कारण अ य त बलवान होता है, और वह भी सपूण ानदशाका काय नही
है। हमने जो यह लखा है, वह ब त वचार करनेसे समझमे आयेगा।
हममे मागानुसा रता कहना सगत नही है । अ ानयो गता तो जबसे इस दे हको धारण कया
तभीसे नही होगी ऐसा लगता है । स य पन तो ज र सभव है। कसी कारका स योग साधनेका
हमने कभी भी सारी जदगीमे अ प भी वचार कया हो ऐसा याद नही आता, अथात् साधनसे वैसा
योग गट आ हो, ऐसा नही लगता । आ माको वशु ताके कारण य द कोई वैसा ऐ य हो तो उसक
अस ा नही कही जा सकती। वह ऐ य कुछ अशमे सभव है, तथा प यह प लखते समय इस
ऐ यक मृ त ई है, नही तो ब त कालसे वसा होना मरणमे नही है तो फर उसे फु रत करनेक
इ छा कभी ई हो, ऐसा नही कहा जा सकता, यह प बात है। आप और हम कुछ .खी नही है।
___ जो ःख है वह रामके चौदह वपके .खका एक दन भी नह है, पाडवोके तेरह वपके .खक एक घडी
नही है, और गजसुकुमारके यानका एक पल नही है, तो फर हमे यह अ य त कारण कभी भी बताना
यो य नह है।
आपको शोक करना यो य नही है, फर भी करते है। जो बात आपसे न लखी जाये वह लखी
जाती है। उसे न लखनेके लये हमारा इस प से उपदे श नही है। मा जो हो उसे दे खते रहना, ऐसा
न य रखनेका वचार कर, उपयोग कर, और सा ी रहे, यही उपदे श है।
नम कार ा त हो।
४५१
बबई, थम आषाढ सुद ९, १९४९
कृ णदासका थम वनयभ प प मला था। उसके बाद भोवनका प और फर आपका
प प ँचा । ब त करके र ववारको प लखा जा सकेगा।
स सगके इ छावान जीवोके त कुछ भी उपकारक दे खभाल होती हो तो होने यो य है । पर त
अ व थाके कारण हम उन कारणोमे अश होकर वृ त करते है, अत करणसे कहते ह क वह मा
यो य है। यही वनती।
बबई, थम आषाढ सुद १२, १९४९
४५२
उपा धके कारण अभी यहाँ थ त सभव है।
यहाँ सुखवृ है। ख क पत है।
ल० राय चदके णाम
४५३ बवई, थम आपाढ वदो ३, र व, १९४९
मुमु ुजनके परमवाधव, परम नेही ी सुभा य, मोरवी।
यद समा धका यथायो य अवकाश नही है। अभी कोई पूव पा जत ार ध ऐसे उदयमे रहता है।

३८२
गत सालके मागशीष मासमे यहाँ आना आ, तभोसे उ रो र उपा धयोग वशेषाकार होता,
आया है, और ब त करके उस उपा धयोगका वशेष कारसे उपयोग ारा वेदन करना पड़ा है।
इस कालको तीयकरा दने वभावत पम कहा है । उसमे वशेप करके योगसे अनायताके यो य-
भूत ऐसे इन े ोमे यह काल बलवान पसे रहता है। लोगोक आ म यय यो यवु अ य त नाश हो.
जाने यो य ई है, ऐसे सब कारके षमयोगमे वहार करते ए परमाथका व मरण अ य त सुलभ
है। ओर परमाथका मरण अ य त अ य त लभ है। आनदघनजीने चौदहवे जनके तवनमे कहा है,
उसमे इस े क पमता इतनो वशेषता है, और आनदघनजीके कालक अपे ा वतमानकाल वशेष
पमप रणामी है। उसमे य द कसी आ म ययी पु पके लये बचने यो य कोई उपाय हो तो वह एक मा
नर तर अ व छ धारासे स सगक उपासना करना यही तीत होता है।

ओ े ी ै ऐ े ो ी औ ो े
ाय सव कामनाओके त उदासीनता है, ऐसे हमको भी यह सव वहार और काला द, गोते
खाते खाते ससारसमु को मु कलसे तरने दे ता है। तथा प त समय उस प र मका अ य त वेद
उप आ करता है, और उ ाप उ प होकर स सग प जलक तृषा अ य त पसे रहा करती है, और
यही ख लगा करता है।
ऐसा होनेपर भी ऐसे वहारका सेवन करते ए उसके त े पप रणाम करना यो य नह है,
ऐसा जो सव ानीपु पोका अ भ ाय हे, वह उस वहारको ाय. समतासे कराता है । आ मा उस
वषयमे मानो कुछ करता नही है, ऐसा लगा करता है।
वचार करनेसे ऐसा भी नही लगता क यह जो उपा ध उदयवत है, वह सव कारसे क प
है। पूव पा जत ार ध जससे शा त होता है, वह उपा ध प रणामसे आ म ययी कहने यो य है।
मनमे ऐसा ही रहा करता है क अ पकालमे यह उपा धयोग मटकर बा ा य तर न थता
ा त हो तो अ धक यो य है । तथा प यह वात अ पकालमे हो ऐसा नही सूझता, और जब तक ऐसा नह
होता तब तक वह च ता मटनी स भव नही है ।
सरा सब वहार वतमानमे ही छोड दया हो, तो यह हो सकता है। दो तीन उदय वहार
ऐसे ह क जो भोगनेसे ही नवृ हो सकते ह, और क से भी उस वशेष कालक थ तमेसे अ प-
कालमे उनका वेदन नही कया जा सकता ऐसे है, और इसी कारणसे मूखक भां त इस वहारका सेवन
कया करते ह।
कसी मे, कसी े मे, कसी कालमे, कसी भावमे थ त हो, ऐसा सग मानो कही भी
दखायी नही दे ता! केवल सव कारक उसमेसे अ तब ता ही यो य है, तथा प नवृ े और
नवृ काल, स सग और आ म वचारमे हमे तब च रहती है। वह योग कसी कारसे भी यथा-
स भव थोडे कालमे हो, इसी च तनमे अहोरा रहते ह।
आपके समागमक अभी वशेप इ छा रहती है, तथा प उसके लये कसी सगके बना योग न
करना, ऐसा रखना पड़ा है और उसके लये ब त व ेप रहता है।
आपको भी उपा धयोग रहता है। उसका वकटतासे वेदन कया जाये, ऐसा है, तथा प मौन पसे,
समतासे उसका वेदन करना, ऐसा न य रख । उस कमका वेदन करनेसे अ तरायका वल कम होगा।
या लख? और या कहे? एक या मवातामे ही अ व छ काल रहे, ऐसे आप जैसे पु षके
स संगके हम दास है । अ य त न तासे हमारा चरणके त नम कार वीकार क जये । यही वनती।
दासानुदास रायचदके णाम प ढ़येगा।

३८३
ब बई, थम आपाढ वद ४, सोम, १९४९
यद प ी तसे समार करनेक इ छा होती हो तो उस पु पने ानीके वचन सुने नही ह; अथवा
ानीपु षके दशन भी उसने कये नही है ऐसा तीथकर कहते ह।
जसक कमर टू ट गई है, उसका ायः सारा बल प र ीणताको ा त होता है। जसे ानीपु षके
वचन प लकडीका हार आ है उस पु षमे उस कारसे ससार स ब धी वल होता है, ऐसा तीथकर
कहते है।
ानीपु षको दे खनेके बाद ीको दे खकर य द राग उ प होता हो तो उसने ानीपु षको नही
दे खा, ऐसा आप समझ।
ानीपु षके वचन सुननेके बाद ीका सजीवन शरीर अजीवन पसे भासे बना नही रहेगा।
धना द स प वा तवमे पृ वीका वकार भा सत ए बना नही रहेगा।
ानीपु षके सवाय उसका आ मा और कही भी णभर थायी होना नही चाहेगा।
इ या द वचनोका पूवकालमे ानीपु ष मागानुसारी पु षोको बोध दे ते थे।
ज हे जानकर, सुनकर वे सरल जीव आ मामे अवधारण करते थे।
ाण याग जैसे संगमे भी वे उन वचनोको अ धान न करने यो य जानते थे, वतन करते थे।
आप सव मुमु ुभाइयोको हमारा भ भावसे नम कार प ँचे। हमारा ऐसा उपा धयोग दे खकर
अ तरमे ले शत ए बना जतना हो सके उतना आ मा स ब धी अ यास बढानेका वचार करे।
सवसे अ धक मरणयो य बात तो ब तसी है, तथा प ससारमे एकदम उदासीनता, परके अ प-
गणोमे भी ी त, अपने अ पदोषोमे भी अ य त लेश, दोषके वलयमे अ य त वीयका फुरना, ये वाते
स सगमे केवल शरणागत पसे अख ड यानमे रखने यो य ह। यथास भव नवृ काल, नवृ े ,
नव और नवृ भावका सेवन क जये। तीथकर गौतम जैसे ानीपु षको भी स बोधन करते थे
क समयमा भी माद यो य नही है ।
णाम।
४५५ ब बई, थम आषाढ वद १३ मंगल, १९४९
अनकलता, तकूलताके कारणमे वपमता नह है। स सगके कामीजनको यह े वषम जैसा
है। कसी कसी उपा धयोगका अनु म हमे भी रहा करता है। इन दो कारणोक व मृ त करते ए भी
जस घरमे रहना है उसक कतनी ही तकूलता है, इस लये अभी आप सब भाइयोका वचार कुछ
थ गत करने यो य (जैसा) है।
४५६ व बई, थम आषाढ वद १४, बुध, १९४९
ाय ाणी आशासे जीते ह। जैसे जैसे स ा वशेप होती जाती है, वैसे वैसे वशेष आगाके वलसे
जीना होता है। एक मा जहाँ आ म वचार और आ म ानका उ व होता है, वहाँ सव कारको
आशाको समा ध होकर जीवके व पसे जया जाता है। जो कोई भी मनु य इ छा करता है वह भ व यमे

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उसक ा त चाहता है, और उस ा तको इ छा प आशासे उसक क पनाका जोना है, और वह

३८४
क पना ाय क पना ही रहा करतो है। य द जीवको वह क पना न हो और ान भी न हो तो उसक
खकारक भयकर थ त अकथनीय होना स भव है। सव कारक आशा, उसमे भी आ माके सवाय
ससे अ य पदाथ क आशामे समा ध कस कारसे हो, यह कहे।
४५७ ब बई, ० आषाढ सुद ६, बुध, १९४९
रखा कुछ रहता नही, और छोडा कुछ जाता नह , ऐसे परमाथका वचारकर कसीके त द नता
करना या वशेपता दखाना यो य नही है। समागममे द नतासे नही आना चा हये।
४५८ ब बई, ० आषाढ़ सुदो १२, मगल, १९४९
अवालालके नामसे एक प लखा है, वह पहँचा होगा। उसमे आज एक प लखनेका सूचन
कया है। लगभग एक घटे तक वचार करते ए कुछ सूझ न आनेसे प नही लखा जा सका सो
मा यो य है।
__उपा धके कारणसे अभी यहां थ त स भव है। आप क ही भाइयोका सग, इस तरफ अभी
कुछ थोडे समयमे होना स भव हो तो सू चत क जयेगा।
भ पूवक णाम।
४५९
ब बई, ० आषाढ वद ६, १९४९
ी कृ णा दको या उदासीन जैसी थो। जस जीवको स य व उ प हो, उसे सव कारक
ससारी याएँ उसी समय न हो, ऐसा कोई नयम नह है । स य व उ प होनेके बाद ससारी
याओका रसर हत पसे होना स भव है। ाय ऐसी कोई भी या उस जीवक नही होती क जससे
परमाथके वपयमे ा त हो, और जब तक परमाथके वषयमे ा त न हो तब तक सरी यासे
स य वको बाधा नही आती। इस जगतके लोग सपक पूजा करते ह, वे व तुतः पू यबु से पूजा नह
करते, पर तु भयसे पूजा करते है, भावसे पूजा नही करते, और इ दे वक पूजा लोग अ य त भावसे करते
ह । इसी कार स य जीव इस ससारका सेवन करता आ दखाई दे ता है, वह पूवकालमे नबधन
कये ए ार ध कमसे दखाई दे ता है। व तुत भावसे इस ससारमे उसका तब ध सगत नही है,
पूवकमके उदय प भयसे सगत होता है। जतने अशमे भाव तबध न हो उतने अशमे ही स य पन
उस जीवको होता है।
अन तानुब धी ोध, मान, माया और लोभका स य वके सवाय जाना स भव नही है, ऐसा जो
कहा जाता है, वह यथाथ है। ससारी पदाथ मे ती नेहके बना जीवको ऐसे ोध, मान, माया और
लोभ नही होते क जस कारणसे उसे अन त ससारका अनुबध हो । जस जीवको ससारी पदाथ मे तीन
नेह रहता हो, उसे कसी सगमे भी अन तानुव धी चतु कमेसे कसीका भी उदय होना स भव है,
और जब तक उन पदाथ मे तोव नेह हो तब तक वह जीव अव य परमाथमाग नही होता। परमाथ-
मागका ल ण यह है क अपरमाथका सेवन करते ए जीव सभी कारसे सुख अथवा ःखमे कायर आ
करे । खमे कायरता कदा चत् सरे जीवोको भी हो सकती है, पर तु ससारसुखक ा तमे भी
कायरता, उस सुखक अ च, नीरसता परमायमाग पु षको होती है।।
वैमो नौरसता जीवको परमाथ ानसे अथवा परमाथ ानीपु षके न यसे होना सभव है, सरे
कारसे होना सभव नह है । परमाथ ानसे इस ससारको अपरमाथप जानकर, फर उसके त ती

३८५
ोध, मान, माया या लोभ कौन करेगा? अथवा कैसे होगा? जस व तुका माहा य मेसे चला
गया उस व तुके लये अ यत लेश नही होता | संसारमे ा तसे जाना आ सुख परमाथ ानसे ा त ही
भा सत होता है, और जसे ा त भा सत ई है उसे फर उसका माहा य या लगेगा? ऐसी माहा य-
परमाथ ानीपु षके न यवाले जीवको होती है, उसका कारण भी यही है। कसी ानके आवरण
के कारण जीवको व छे दक ान नही होता, तथा प उसे सामा य ान ानीपु षक ा प होता है।
यही ान बडके बीजक भॉ त परमाथ-बड़का बीज है ।
तीन प रणामसे, भवभयर हत पसे ानीपु ष अथवा स य जीवको ोध, मान, माया या
लोभ नही होता । जो ससारके लये अनुबध करता है, उसक अपे ा परमाथके नामसे, ा तगत प र-
णामसे अस , दे व, धमका सेवन करता है, उस जीवको ाय अनतानुबधी ोध, मान, माया, लोभ
होते है, यो क ससारक सरी याएँ ाय' अनत अनुबध करनेवाली नही होती, मा अपरमाथको
परमाथ मानकर जीव आ हसे उसका सेवन कया करे, यह परमाथ ानी ऐसे पु षके त, दे वके त, धमके
त नरादर है, ऐसा कहना ाय यथाथ है । वह स , दे व, धमके त, अस वा दकके आ हसे,
म याबोधसे, आशातनासे, उपे ासे वृ करे, ऐसा सभव है। तथा उस कुसगसे उसक ससारवासना-
का प र छे द न होते ए भी वह प र छे द मानकर परमाथके त उपे क रहता है, यही अनतानुवधी
ोध, मान, माया, लोभका आकार है।
४६० बबई, ० आषाढ वद १०, सोम, १९४९
भाई कुवरजी, ी कलोल ।
शारी रक वेदनाको दे हका धम मानकर और बाँधे ए कम का फल जानकर स यक् कारसे
सहन करना यो य है । ब त वार शारी रक वेदना वशेष बलवती होती है, उस समय उ म जीवोको भी

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उपय स यक कारसे थर रहना क ठन होता है, तथा प दयमे वारवार उस वातका वचार करते
हए और आ माको न य, अछे , अभे , जरा, मरणा द धमसे र हत भाते ए, वचार करते ए, कतने
ही कारसे उस स य कारका न य आता है । महान पु षो ारा सहन कये ए उपसग तथा प रपह
के संगोक जीवमे मृ त करके, उसमे उनके रहे ए अखड न यको वारवार दयमे थर करने
यो य जाननेसे जीवको वह स यकप रणाम फलीभूत होता है, और वेदना, वेदनाके यकालमे नवृ होनेपर,
फर वह वेदना कसी कमका कारण नह होती । ा धर हत शरीर हो, उस समयमे य द जीवने उससे
अपनी भ ता जानकर, उसका अ न या द व प जानकर, उसके त मोह, मम वा दका याग कया
हो, तो यह महान ेय है, तथा प ऐसा न आ हो तो कसी भी ा धके उ प होनेपर, वैसी भावना
करते ए जीवको ायः न ल कमवधन नह होता, और महा ा धके उ प कालमे तो जीव दे हके
मम वका ज र याग करके ानीपु षके मागको वचारणाके अनुसार आचरण करे, यह स यक् उपाय हे ।
य प दे हका वैसा मम व याग करना अथवा कम करना, यह महा कर बात है, तथा प जसका वैमा
करनेका न य है, वह कभी-न-कभी फलीभूत होता है ।
जब तक जीवको दे हा दसे आ मक याणका साधन करना रहा है, तब तक उम दे हमे अपा रणा-
मक ममताका सेवन करना यो य है, अथात् य द इस दे हका कोई उपचार करना पडे तो वह उपचार
दे हके ममताथ करनेक इ छासे नही, पर तु उस दे हसे ानीपु पकै मागका आराधन हो सकता है, ऐसे
कसी कारसे उसमे रहे ए लाभके लये, और वैसी ही बु से उस दे हको ा धके उपचारमे वृ
करनेमे बाधा नह है । जो कुछ वह ममता हे वह अपा रणा मक ममता है, इस लये प रणाममे नमता-

३८६
व प है, पर तु उस दे हके यताथ, सासा रक साधनोमे धान भोगका यह हेतु है, उसका याग करना
पडता है, ऐसे आत यानसे कसी कारसे भी उस दे हमे बु न करना, ऐसी ानीपु षके मागक श ा
जानकर वैसे सगमे आ मक याणका ल य रखना यो य है।
सव कारसे ानीक शरणमे बु रखकर नभयताका, शोकर हतताका सेवन करनेक श ा ी
तीथकर जैसोने द है, और हम भी यही कहते है। कसी भी कारणसे इस ससारमे ले शत होना यो य
नही है । अ वचार और अ ान ये सव लेशके, मोहके और अशुभ ग तके कारण है। स चार और
आ म ान आ मग तके कारण है।
उसका थम सा ात् उपाय ानीपु षको आ ाका वचार करना यही तीत होता है।
णाम ा त हो।
४६१
बबई, ावण सुद ४, मगल, १९४९
परम नेही ी सुभा य,
आपके तापसे यहां कुशलता है। इस तरफ दगा उ प होने स ब धी बात स ची है । हरी छासे
और आपक कृपासे यहाँ कुशल ेम है।
ी गोस लयाको हमारा णाम क हयेगा । ई रे छा होगी तो ावण वद १ के आसपास यहाँसे
कुछ दनोके लये बाहर जानेका वचार आता है । कौनसे गाँव अथवा कस तरफ जाना, यह अभी कुछ
सूझा नही है । का ठयावाडमे आना सूझ,
े ऐसा भा सत नही होता ।
आपको एक बार उसके लये अवकाशके बारेमे पुछवाया था। उसका यथायो य उ र नही आया ।
गोस लया बाहर जानेका कम डर रखता हो और आपको न पा ध जैसा अवकाश हो, तो पांच-प ह दन
कसी े मे नवृ वासका वचार होता है, वह ई रे छासे करे ।
कोई जीव सामा य मुमु ु होता है, उसका भी इस - ससारके सगमे वृ करनेका वोय मद
पड़ जाता है, तो हमे उसके स ब धमे अ धक मदता रहे, इसमे आ य नही लगता । तथा प कसो
पूवकालमे ार ध उपाजन होनेका एसा ही कार होगा क जससे उस सगमे वृ करना रहा करता
है, पर तु वह कैसा रहा करता है ? ऐसा रहा करता है क जो खास ससार-सुखक इ छावाला हो,
उसे भी वैसा करना न पुसाये । य प इस बातका खेद करना यो य नही है, और उदासीनताका ही सेवन
करते ह, तथा प उस कारणसे एक सरा खेद उ प होता है, वह यह क स संग और नवृ क अ वा-
नता रहा करती है और जसमे परम च है, ऐसे आ म ान और आ मवाताको कसी भी कारक
इ छाके बना व चत् याग जैसे रखने पड़ते है। आ म ान वेदक होनेसे उ न नह करता, पर तु
आ मवाताका वयोग उ न करता है। आप भी च मे इसी कारणसे उ न होते ह। ज ह ब त-
इ छा है ऐसे कई मुमु ुभाई भी उस कारणसे वरहका अनुभव करते ह। आप दोनो ई रे छा या सम-
झते है ? यह वचा रयेगा । और य द कसी कारसे ावण वद का योग हो तो वह भी क जयेगा।
___ ससारक वाला दे खकर चता न क जयेगा। चतामे समता रहे तो वह आ म चतन जैसा है।
कुछ ानवाता ल खयेगा । यही वनती।
णाम ।
४६२
ब बई, ावण सुद ५, १९४९
जौहरी लोग ऐसा मानते है क एक साधारण सुपारी जैसा सु दर रगका, पाणीदार और घाटदार
मा णक ( य ) दोषर हत हो तो उसक करोड़ो पये क मत गन तो भी वह कम है। य द वचार कर

३८७

ो े ऑ औ े ी ै
तो इसमे मा ऑखक तृ त, और मनक इ छा तथा क पत मा यताके सवाय सरा कुछ नही है ।
तथा प इसमे केवल आँखक तृ त प करामातके लये और लभ ा तके कारण जीव उसका अ त
माहा य बताते है, और जसमे आ मा थर रहता है, ऐसा जो अना द लभ स सग प साधन है, उसमे
कुछ आ ह- च नही है, यह आ य वचारणीय है।
४६३
ब बई, ावण सुद १५, र व, १९४९
परम नेही ी सोभाग,
यहाँ कुशल ेम है । यहाँसे अब थोडे दनोमे मु आ जाये तो ठ क, ऐसा मनमे रहता है । पर तु
कहाँ जाना यह अभी तक मनमे आ नही सका । आपका और गोस लया आ दका आ ह सायलाक तरफ
आनेमे रहता है, तो वैसा करनेमे कुछ ख नही है, तथा प आ माको यह बात अभी नही सूझती ।
ायः आ मामे यही रहा करता है क जब तक इस ापार सगमे कामकाज करना रहा करे
तव तक धम-कथा दके सगमे और धमके जानकारके पमे कसी कारसे गट पमे न आया जाये, यह
यथायो य कार है। ापार- सगमे रहते ए भी जसका भ भाव रहा करता है, उसका सग भी
ऐसे कारमे करना यो य है क जहाँ आ मामे जो उपयु कार रहा करता है, उस कारको वाधा
न हो।
जने के कहे ए मे आ दके स ब धमे तथा अ ेजोक कही ई पृ थवी आ दके स ब धमे
समागम- सगमे बातचीत क रयेगा।
हमारा मन ब त उदास रहता है और तब ध इस कारका रहता है क उस उदासीको एकदम
गु त जैसी करके अस ऐसे ापारा द सगमे उपा धयोगका वेदन करना पड़ता है, य प वा त वक पसे
तो आ मा समा ध ययी है।
ल०- णाम।
४६४
ब बई, ावण वद ४, बुध, १९४९
थोडे समयके लये ब बईमे वृ से अवकाश लेनेका वचार सूझ आनेसे दो-एक जगह लखनेमे
आया था, पर तु यह वचार तो थोडे समयके लये कसी नवृ े मे थ त करनेका था। ववा णया
या का ठयावाडक तरफको थ तका नही था । अभी वह वचार न त अव थामे नही आया है। ाय
इस पखवारेमे और गुजरातक तरफके कसी एक नवृ े के स ब धमे वचार आना स भव है।
वचारके व थत हो जानेपर लखकर सू चत क ँ गा । यही वनती।
सवको णाम ा त हो।
ब बई, ावण वद ५, १९४९

परम नेही ी सोभाग,
यहाँ कुशल ेम समा ध है। थोडे दनके लये मु होनेका जो वचार सूझा या, वह अभी उसी
व पमे है। उससे वशेष प रणामको ा त नही आ । अथात् कब यहाँसे छू टना और कस े मे जाकर
थ त करना, यह वचार अभी तक सूझ नही सका। वचारके प रणामक वाभा वक प रण त ाय
रहा करती है। उसे वशेषतासे पेरकता नही हो सकती।

३८८
गत वष मग सर सुद छठको यहाँ आना आ था, तबसे आज ददसपयत अनेक कारके उपा ध-
योगका वेदन करना आ है और य द भगव कृपा न हो तो इस कालमे वैसे उपा धयोगमे धडके ऊपर
सरका रहना क ठन हो जाये, ऐसा होते होते अनेक बार दे खा है, और जसने आ म व प जाना है ऐसे
पु षका और इस ससारका मेल न खाये, ऐसा अ धक न य आ है। ानीपु ष भी अ य त न या-
मक उपयोगसे वतन करते करते भी व चत् मद प रणामी हो जाये, ऐसी इस ससारक रचना है । य प
आ म व प स ब धी बोधका नाश तो नही होता, तथा प आ म व पके बोधके वशेष प रणामके त
एक कारका आवरण होने प उपा धयोग होता है। हम तो उस उपा धयोगसे अभी ास पाते रहते है,
और उस उस योगमे दयमे और मुखमे म यमा वाचासे भुका नाम रखकर मु कलसे कुछ वृ करके
थर रह सकते है। स य वमे अथात् बोधमे ा त ाय नही होती, पर तु बोधके वशेष प रणामका
अनवकाश होता है, ऐसा तो प दखायी दे ता है । और उससे आ मा अनेक बार आकुलता- ाकुलताको
पाकर यागका सेवन करता था, तथा प उपा जत कमको थ तका समप रणामसे, अद नतासे, अ ा-
कुलतासे वेदन करना, यही ानीपु षोका माग है, और उसीका सेवन करना है, ऐसी मृ त होकर थरता
रहती आयी है, अथात् आकुला द भावक होती ई वशेष घबराहट समा त होती थी।
जब तक दन भर नवृ के योगमे समय न बीते तब तक सुख न रहे, ऐसी हमारी थ त है ।
“आ मा आ मा," उसका वचार, ानीपु षक मृ त, उनके माहा यको कथावाता, उनके त अयत
भ , उनके अनवकाश आ मचा र के त मोह, यह हमे अभी आक षत कया करता है, और उस
कालक हम रटन कया करते है।
पूवकालमे जो जो ानीपु पके सग तीत हए है उस कालको ध य है, उस े को अ य त
ध य है, उस वणको, वणके कताको, और उसमे भ भाववाले जीवोको काल दडवत् है । उस
आ म व पमे भ , च तन, आ म ा याता ानीपु षक वाणी अथवा ानीके शा या मागानुसारी
ानीपु पके स ात, उसक अपूवताको अ तभ से णाम करते है । अखड आ मधुनके एकतार वाह-
पूवक वह बात हमे अ ा प भजनेक अ य त आतुरता रहा करती है, और सरी ओरसे ऐसे े , ऐसा

ो ऐ ो औ े े ै े ै े े ो ै
लोक वाह, ऐसा उपा धयोग और सरे सरे वैसे वैसे कार दे खकर वचार मूछावत् होता है ।
ई रे छा।
__ णाम ा त हो।
पेटलाद, भादो सुद ६, १९४९
णाम ा
१ जससे धम मांगे, उसने धम ा त कया है या नही उसक पूण चौकसी करे, इस वा यका
थर च से वचार करे।
२ जससे धम माँगे, वैसे पूण ानीको पहचान जीवको हई हो, तो वैसे ा नयोका स सग करे
और स सग हो, उसे पूण पु योदय समझे। उस स संगमे वैसे परम ानीके ारा उप द श ाबोधको
हण करे क जससे कदा ह, मतमतातर, व ासघात और असत् वचन इ या दका तर कार हो,
अथात् उ हे हण नही करे। मतका आ ह छोड़ दे । आ माका धम आ मामे है। आ म व ा तपु षके
ारा उप द धम आ मतामाग प होता है । बाक के मागके मतमे नही पडे ।
३ इतना होनेपर भी य द जीवसे स संग होनेके बाद कदा ह, मतमतातरा द दोष छोड़े न जा
सकते हो तो फर उसे छू टनेक आशा नही करनी चा हये।

३८९
हम वय कसीको आदे शबात अथात् 'ऐसा करना' यो नही कहते । वारवार पूछे तो भी यह
मृ तमे होता है। हमारे सगमे आये ए कई जीवोको अभी तक हमने ऐसा बताया नही है क ऐसे वतन
कर या ऐसा कर। मा श ाबोधके पमे बताया होगा।
४ हमारा उदय ऐसा है क ऐसी उपदे शबात करते ए वाणी पीछे खच जाती है। साधारण
पूछे तो उसमे वाणी काश करती है, ओर ऐसी उपदे शवातमे तो वाणी पीछे खच जाती है, इससे
हम ऐसा जानते ह क अभी वैसा उदय नही है ।
५ पूवकालमे ए अन त ानी य प महा ानी हो गये ह, पर तु उससे जीवका कुछ दोष नही
जाता, अथात् इस समय जीवमे मान हो तो पूवकालमे ए ानो कहने नही आयगे, पर तु हाल जो
य ानी वराजमान हो वे हो दोषको बतलाकर नकलवा सकते है। जैसे रके ीरसमु से यहाँके
तृषातुरक तृषा शात नही होती, पर तु एक मीठे पानीका कलश यहाँ हो तो उससे तृपा शात होती है।
६ जीव अपनी क पनासे मान ल क यानसे क याण होत है या समा धसे या योगसे या ऐसे
ऐसे कारसे, पर तु उससे जीवका कुछ क याण नह होता। जीवका क याण होना तो ानीपु पके ल यमे
होता है, और उसे परम स सगसे समझा जा सकता है, इस लये वैसे वक प करना छोड दे ना चा हये ।
७ जीवको मु यमे मु य इस बातपर वशेष यान दे ना गो य है क स सग आ हो तो स सगमे
सुना आ श ाबोध प रणत होकर जीवमे उ प ए कदा हा द दोप तो सहजमे ही छू ट जाने चा हये,
क जससे सरे जीवोको स सगका अवणवाद बोलनेका मौका न मले ।
८ ानीपु षोने कहना बाक नही रखा, पर तु जोवने करना बाक रखा है। ऐसा योगानुयोग
कसी समय ही उदयमे आता है। वैसी वाछासे र हत महा माक भ तो सवथा क याणकारक
ही स होती है, पर तु कसी समय महा माके त वैसी वाछा ई और वैसी वृ हो चुक , तो भी
वही वाछा य द अस पु षके त क हो और जो फल होता है उसको अपे ा इसका फल भ होना
सभव है। स पु षके त वैसे कालमे य द न शकता रही हो, तो समय आनेपर उनके पाससे स मागक
ा त हो सकती है। एक कारसे हमे वय इसके लये ब त शोक रहता था, पर तु उसके क याणका
वचार करके शोकका व मरण कया है।।
९ मन, वचन, कायाके योगमेसे जसे केवली व प भाव होनेसे अहभाव मट गया है, ऐसे जो
ानीपु ष, उसके परम उपशम प चरणार वदको नम कार करके, वारवार उसका च तन करके आप
उसी मागमे वृ क इ छा करते रहे, ऐसा उपदे श दे कर यह प पूरा करता ँ।
वपरीत कालमे एकाक होनेसे उदास III
खभात, भादो, १९४९

अना दकालसे वपयय बु होनेस,
े और ानोपु पक कतनी ही चे ाएँ अ ानीपु ष जैसी
दखायी दे नेसे ानोपु पके वषयमे व म वु हो आतो है, अथवा जीवको ानीपु पके त उस उस
चे ाका वक प आया करता है। य द सरो योसे ानोपु षका यथाथ न य आ हो तो कनी
वक पको उ प करनेवालो ऐमो ानीको उ म ा द भाववाली चे ा य दे खनेमे आये तो भी सरी
के न यके बलके कारण वह चे ा अ वक प प होती है, अथवा ानीपु पको चे टाक कोई

३९०
अग यता ही ऐसी हे क अधूरी अव थासे अथवा अधरे न यसे जीवके लये व म और वक पका
कारण होती है। पर तु वा त वक पमे तथा पूरा न य होनेपर वह व म और वक प उ प होने
यो य नही है, इस लये इस जीवको ानीपु पके त अपूरा न य है, यही इस जीवका दोष है।
ानीपु ष सभी कारसे चे टा पसे अ ानीपु पके समान नही होते, और य द हो तो फर ानी
नही हे ऐसा न य करना वह यथाथ कारण है; तथा प ानी और अ ानी पु पमे क ही ऐसे वल ण
कारणोका भेद है, क जससे ानो और अ ानोका कसी कारसे एक प नही होता । अ ानी होनेपर
भी जो जोव अपनेको ानी व प मनवाता हो, वह उस वल णताके ारा न यमे आता है। इस लये
ानीपु पको जो वल णता है, उसका न य थम वचारणीय है, और य द वैसे वल ण कारणका

ी ो ै ो ी ै ी ो ो े ी
व प जानकर ानीका न य होता है तो फर अ ानी जैसी व चत् जो जो चे ा ानीपु पक
दे खनेमे आतो है, उसके वपयमे न वक पता ा त होती है, अथात् वक प नही होता, युत ानो-
पु पक वह चे ा उसके लये वशेप भ और नेहका कारण होती है।
येक जीव अथात् ानो, अ ानी य द सभी अव थाओमे सरीखे ही हो तो फर ानी और
अ ानी यह नाम मा होता है, पर तु वैसा होना यो य नह है। ानोपु प और अ ानोपु पमे अव य
वल णता होना यो य है। जो वल णता यथाथ न य हानेपर जीवको समझनेमे आती है, जसका
कुछ व प यहाँ बता दे ना यो य हे। मुमु ु जोवको ानीपु प और अ ानीपु षको वल णता उनक
अथात् ानी और अ ानी पु षको दशा ारा समझमे आती है। उस दशाक वल णता जस कारस
होती है, वह बताने यो य है। एक तो मूलदशा और सरो उ रदशा, ऐसे दो भाग जोवको दशाके हो
सकते ह।
४६८
बवई, भा पद, १९४९
अ ानदशा रहती हो और जीवने मा द कारणसे उस दशाको ानदशा मान लया हो, तव
दे हको उस उस कारके ख होनेके सगोमे अथवा वैसे अ य कारणोमे जीव दे हक साताका सेवन
करनेक इ छा करता है, और वैसा वतन करता है। स ची ानदशा हो तो उसे दे हक ख ा तके
कारणोमे वपमता नही होतो, और उस खको र करनेको इतनी अ धक परवा भी नही होती ।
[अपूण]
बबई, भादो वद ३०, १९४९
__ जैसी इस आ माके त है, वैसो जगतके सव आ मा के त है। जैसा नेह इस
आ माके त है, वैसा नेह सव आ माओके त है। जैसी इस आ माक सहजान द थ त चाहते ह,
वैसी ही सव आ माओक चाहते है। जो जो इस आ माके लये चाहते है, वह सब सव आ माओके लये
चाहते ह । जैसा इस दे हके त भाव रखते है, वैसा ही सव दे होके त भाव रखते है। जैसा सव दे होके
त बताव करनेका कार रखते ह, वैसा ही कार इस दे हके त रहता है । इस दे हमे वशेष बु और
सरी दे होमे वषम वु ाय कभी भी नही हो सकती। जन ी आ दका आ मीयतासे स ब ध गना
जाता है, उन ी आ दके त जो कुछ नेहा दक है, अथवा समता है, वैसा ही ाय सवके त रहता
है। आ म पताके कायमे मा वृ होनेसे जगतके सव पदाथ के त जैसी उदासीनता रहती है, वैसी
आ मीय गने जानेवाले ी आ द पदाथ के त रहती है। -
ार धके वधसे ी आ दके त जो कुछ उदय हो उससे वशेष वतना ायः आ मासे नही
होती। कदा चत् क णांसे कुछ वैसी वशेष वतना होती हो तो वैसी उसी णमे वैसे उदय तब

३९१
आ माओके त रहती है, अथवा सव जगतके त रहती है। कसीके त कुछ वशेष नही करना अथवा
यून नही करना, और य द करना हो तो वैसा एकसा वतन सव जगतके त करना, ऐसा ान आ माको
ब त समयसे ढ है, न य प है। कसी थलमे यूनता, वशेषता, अथवा कुछ वैसी सम- वषम चे ासे
वतन द खता हो तो ज र वह आ म थ तसे, आ मबु से नह होता, ऐसा लगता है। पूव व धत
ार धके योगसे कुछ वैसा उदयभाव पसे होता हो तो उसमे भी समता है। कसीके त यूनता या
अ धकता कुछ भी आ माको चकर नही है, वहां फर अ य अव थाका वक प होना यो य नह है, यह
आपको या कहे ? सं ेपमे लखा है।
सबसे अ भ भावना है, जसक जतनी यो यता रहती है, उसके त अ भ भावक उतनी
फू त होती है, व चत क णावु से वशेष फू त होती है, पर तु वषमतासे अथवा वपय, प र हा द
कारण ययसे उसके त वतन करनेका आ मामे कोई सक प तीत नह होता। अ वक प प थ त
है। वशेष या क ँ ? हमे कुछ हमारा नही है, या सरेका नही है या सरा नही है, जैसे है वैसे है।
आ माक जैसी थ त है, वैसी थ त है। सव कारक वतना न कपटतासे उदयक है, सम- वषमता
नही है । सहजान द थ त है । जहाँ वैसे हो वहाँ अ य पदाथमे आस बु यो य नही, नह होती।
' ानीपु षके त अ भ वु हो, यह क याणका महान न य है', ऐसा सव महा मा पु षोका
अ भ ाय तीत होता है। आप तथा वे, जनक दे ह अभी अ य वेदसे रहती है, आप दोनो ही ानीपु पके
त जस कार वशेष नमलतासे अ भ ता आये उस कारक बात सगोपा कर, यह यो य है,
और पर परमे अथात् उनके और आपके बीच नमल ेम रहे वैसी वृ करनेमे बाधा नही है, पर तु
वह ेम जा य तर होना यो य है। जैसा ी पु षका कामा द कारणसे ेम होता है, वैसा ेम नही,
पर तु ानीपु पके त दोनोका भ राग है, ऐसा दोनोका एक ही गु के त श यभाव दे खकर, और
नर तरका स सग रहा करता है यह जानकर, भाई जैसी बु से, वैसे ेमसे रहा जाये, यह वात वशेष
यो य है । ानीपु पके त भ भावको सवथा र करना यो य है।
ीम ागवतके बदले अभी योगवा स ा द पढना यो य है।
आ माको समा ध होनेके लये, आ म व पमे थ तके लये सुधारस क जो मुखमे रहता है, वह एक
अपूव आधार है, इस लये उसे कसी कारसे वीज ान कह तो कोई हा न नही है। मा इतना भेद है
क वह ान, ानीपु ष क जो उससे आगे है, आ मा है, ऐसा जानकार होना चा हये।
से नही मलता, इसे जाननेवालेको कोई कत नह कहा जा सकता, पर तु वह कव?
व , े , काल, भावसे यथाव थत समझमे आनेपर व व पप रणामसे प रण मत होकर
अय के त सवथा उदास होकर, कृतकृ य होनेपर कुछ कत नह रहता, ऐसा यो य है, और
ऐसा ही है।
३९२
ीमद् राजच
४७२. व बई, आसोज सुद ९, बुध, १९४९
परम नेही ी सुभा य तथा ी डु गर,
__ ी सायला।
आज ी सुभा यका लखा आ एक प मला है।
खुले प मे सुधारस स ब धी ायः प लखा था, सो जानबूझकर लखा था। ऐसा लखनेसे
वप रणाम आनेवाला नही है, यह समझकर लखा था। य द कुछ कुछ इस बातके चचक जीवके पढनेमे
यह बात आये तो केवल उससे नधार हो जाये, यह सभव नही है, पर तु यह संभव है क जस पु पने ये
वा य लखे ह, वह पु ष कसी अपूव मागका ाता है, और उससे इस बातका नराकरण होना मु यतः
सभव है, ऐसा जानकर उसक उसके त कुछ भी भावना उ प होती है। कदा चत् ऐसा माने क
उसे इस वषयको कुछ कुछ स ा ई हो, और यह प लेख पढनेसे उसे वशेष स ा होकर अपने आप
वह नधारपर आ जाये, पर तु यह नधार ऐसे नही होता। उससे उसका यथाथ थल जानना नही हो
सकता, और इस कारणसे जीवको व ेपक उ प होती है । क यह वात कसी कारसे जाननेमे आये तो
अ छा । तो उस कारसे भी जस पु षने लखा है उसके त उसे भावनाक उ प होना संभव है।
तीसरा कार इस तरह समझना यो य है क स पु पक वाणी प तासे लखी गयी हो तो भी
उसका परमाथ, जसे स पु पका स सग आ ाका रतासे नही आ उसे समझमे आना कर होता है, ऐसे
उस पढनेवालेको कभी भी प जाननेका कारण होता है। य प हमने तो अ त प नही लखा था, तो
भी उ हे ऐसा कुछ सभव होता है। पर तु हम तो ऐसा मानते ह क अ त प लखा हो तो भी ायः
समझमे नही आता, अथवा वपरीत समझमे आता है और प रणाममे फर उसे व ेप उ प होकर
स मागमे भावना होना सभव होता है । यह वात प मे हमने इ छापूवक प लखी थी।
सहज वभावसे भी न वचार कया आ ाय. परमाथके स ब धमे नही लखा जाता, अथवा
नही कहा जाता क जो अपरमाथ प प रणामको ा त करे ।
उस ानके वपयमे लखनेका जो हमारा सरा आशय है, उसे वशेषतासे यहाँ लखा है। (१)
जस ानीपु पने प आ माका, कसी अपूव ल णसे, गुणसे और वेदन पसे अनुभव कया है, और जसके
आ माका वही प रणाम आ है, उस ानीपु पने य द उस सुधारस स ब धी ान दया हो तो उसका प र-
णाम परमाथ-परमाथ व प है। (२) और जो पु प उस सुधारसको ही आ मा जानता है, उससे उस
ानक ा त ई हो तो वह वहार-परमाथ व प है। (३) वह ान कदा चत् परमाथ-परमाथ व प
ानीने न दया हो, पर तु उस ानीपु पने स मागके स मुख आक षत करे ऐसा जो जीवको उपदे श
कया हो वह जीवको चकर लगा हो, उसका ान परमाथ- वहार व प है। (४) और इसके सवाय
शा ा दका ाता सामा य कारसे मागानुसारी जैसी उपदे शवात करे, उसक ा क जाय, वह
वहार वहार व प है। सुगमतासे समझनेके लये ये चार कार होते है । परमाथ-परमाथ व प
मो का नकट उपाय है। इसके अनतर परमाथ- वहार व प परपरास व धसे मो का उपाय है ।
वहार परमाथ व प ब त कालमे कसी कारसे भी मो के साधनका कारणभूत होनेका उपाय है।
वहार- वहार व पका फल आ म ययी सभव नही होता। यह बात फर कसी सगसे वशेष पसे
लखगे, तब वप पसे समझमे आयेगी, पर तु इतनो स ेपतासे वशेष समझमे न आये तो घवराइयेगा
नह ।
१ दे ख आक ४७१

२६ याँ वष
३९३
ल णसे, गुणसे और वेदनसे जसे आ म व प ात आ है, उसके लये यानका यह एक उपाय हे
क जससे आ म दे शको थरता होती है, और प रणाम भी थर होता है । ल णसे, गुणसे ओर वेदनसे
जसने आ म व प नह जाना, ऐसे मम को य द ानीपु षका बताया आ यह ान हो तो उसे अनु-
मसे ल णा दका बोच सुगमतासे होता है। मुखरस और उसका उ प े यह कोई अपूव कारण प
है, यह आप न य पसे सम झये। ानीपु षके उसके बादके मागका अनादर न हो, ऐसा आपको सग
मला हे । इस लये आपको वैसा न य रखनेका कहा है। य द उसके बादके मागका अनादर होता हो
और त षयक कसीको अपूव कारण पसे न य आ हो तो, कसी कारसे उस न यको बदलना ही
उपाय प होता है, ऐसा हमारे आ माम ल य रहता है।
, . , .. ......
__ कोई अ ानतासे पवनक थरता करता है, पर तु ासो वासके नरोधसे उसे क याणका, हेतु
नही होता, और कोई ानीक आ ापूवक ासो वासका नरोध करता है, तो उसे उस कारणसे जो
थरता आती है वह आ माको गट करनेका हेतु होती है। ासो वासक थरता होना, यह एक
कारसे ब त क ठन बात है। उसका सुगम उपाय मुखरस एकतार करनेसे होता है, इस लये वह वशेप
थरताका साधन है । पर तु यह सुधारस- थरता अ ानतासे फलीभूत नही होती अथात् क याण प नही
होती, इसी तरह उस बीज ानका यान भी अ ानतासे क याण प नही होता, इतना वशेष न य हमे
भा सत आ करता है। जसने वेदन पसे आ माको जाना है, उस ानीपु षको आ ासे वह क याण प
होता है, और आ माके गट होनेका अ य त सुगम उपाय होता है ।
एक सरी अपूव बात भी यहाँ लखनी सूझती है । आ मा है वह च दनवृ है। उसके समीप जो-जो

ँ े े ी ै े े ँ े ो ी ो े
व तुएँ वशेषतासे रहती है वे वे व तुएँ उसक सुग ध (1) का वशेष बोध करती ह। जो वृ च दनसे
वशेष समीप होता है उस वृ मे च दनक गध वशेष पसे फु रत होती है। जैसे जैसे रके वृ होते ह
वैसे वैसे सुगव मद प रणामवाली होती जाती है, और अमुक मयादाके प ात् असुगव प वृ ोका वन
आता है, अथात् फर च दन उस सुगव प रणामको नही करता। वैसे जब तक यह आ मा वभाव प र-
णामका सेवन करता है, तब तक उसे हम च दनवृ कहते ह, और सबसे उसका अमुक अमुक सू म
व तुका स ब ध है, उसमे उसक छाया (1) प सुग ध वशेप पडती है, जसका यान ानीक आ ासे
होनेसे आ मा गट होता है। पवनक अपे ा भी सुधारसमे आ मा वशेष समीप रहता है, इस लये उस
आ माक वशेप छाया-सुग ध (I) का यान करने यो य उपाय है । यह भी वशेष पसे समझने यो य है ।
णाम प ंचे।
४७३
ब बई, आसोज वद ३, १९४९
as
परम नेही ी सुभा य,
__ ी मोरवी।
आज एक प प ंचा है।
इतना तो हम बराबर यान है क ाकुलताके समयमे ायः च कुछ ापारा दका एकके पोछे
एक वचार कया करता है, और ाकुलता र करनेको ज द मे, यो य होता है या नह , इसक सहज
सावधानी कदा चत् मुमु ुजीवको भी कम हो जातो है, पर तु यो य बात तो यह है क वैसे सगमे कुछ
थोडा समय चाहे जैसे करके कामकाजमे मौन जैसा, न वक प जैसा कर डालना।

३९४
ीमद राजच
अभी आपको जो ाकुलता रहती है वह ात है, परतु उसे सहन कये बना उपाय नही है । ऐस
लगता है क उसे ब त ल बे कालको थ तको समझ लेना यो य नह है, और य द वह धीरजके बना
सहन करनेमे आती है, तो वह अ प कालक हो तो भी कभी वशेष कालक भी हो जाती है। इस लये
अभी तो यथासभव 'ई रे छा' और 'यथायो य' समझकर मौन रहना यो य है। मौनका अथ ऐसा करना
क अतरमे अमुक अमुक ापार करनेके स ब धमे वक प, उताप न कया करना ।
अभी तो उदयके अनुसार वृ करना सुगम माग है। दोहा यानमे है। ससारी सगमे एक
हमारे सवाय सरे स संगोके सगमे कम आना हो, ऐसी इ छा इस कालमे रखने जैसी है। वशेष
आपका प आनेसे । यह प ावहा रक प तमे लखा है, तथा प वचार करने यो य है । बोध ान
यानमे है।
णाम ा त हो।
४७४
बवई, आसोज वद , १९४९
23
आतमभावना भावतां, जीव लहे केवल ान रे।
४७५ बंबई, आसोज वद १२, र व, १९४९
आपके दो प 'समयसार'के क व स हत मले ह। नराकार-साकार-चेतना वषयक क व का
'मुखरस'से कुछ संबध कया जा सके, ऐसे अथवाला नही है, जसे फर बतायगे।
"शु ता वचारै यादै , शु तामे के ल करै।
शु तामे थर है, अमृतधारा बरसै ॥"
इस क व मे 'सुधारस' का जो माहा य कहा है, वह केवल एक व सा (सव कारके अ य
प रणामसे र हत असं यात दे शी आ म ) प रणामसे व प थ ऐसे अमृत प आ माका वणन है।
उसका यथाथ परमाथ दयगत रखा है, जो अनु मसे समझमे आयेगा।
४७६
बबई, आ न, १९४९
जो ई रे छा होगी वह होगा। मनु यके लये तो मा य ल करना सृ है, और इसीसे जो
अपने ार धमे होगा वह मल जायेगा । इस लये मनमे सक प- वक प नही करना ।
न काम यथायो य ।
१. अथात् आ मभावना भाते भाते जीव केवल ान पा लेता है ।

३९५
४७७ ब बई, का तक सुद ९, शु , १९५०
' सरपर राजा हे,' इतने वा यके ऊहापोह ( वचार ) से गभ ीमत ी शा लभ ने उस समयसे
ी आ दके प रचयके याग करनेका ीगणेश कर दया ।
' त दन एक एक ीका याग करके अनु मसे ब ीस योका याग करना चाहते है. इस
कार ी शा लभ ब ीस दन तक कालपारधीका व ास करते है, यह महान आ य है। ऐसे
वाभा वक वैरा यवचन ी धनाभ के मुखसे उ वको ा त ए।
___ 'आप जो ऐसा कहते है, य प वह मुझे मा य है, तथा प आपके लये भी उस कारसे याग
करना कर है, ऐसे सहज वचन शा लभ क वहन और धनाभ क प नीने धनाभ से कहे। जसे
े ी े े ी े ी
सुनकर च मे कसी कारका लेशप रणाम लाये वना ी धनाभ ने उसी ण ससारका याग कर
दया और ी शा लभ से कहा क 'आप कस वचारसे कालका व ास करते ह ?' उसे सुनकर, जसका
च आ म प है ऐमा वह शा लभ और धनाभ 'मानो कसो दन कुछ अपना कया ही नही', इस
कारसे गृहा दका याग करके चले गये।
ऐसे स पु षके वैरा यको सुनकर भी यह जीव ब त वष के अ याससे कालका व ास करता
आया है, वह कौनसे वलमे करता होगा? यह वचारकर दे खने यो य है।
४७८
वबई, का तक सुद १३, १९५०
उपा धके योगसे उदयाधोन पसे वा च को व चत् अ व थाके कारण आप मुमु ुओके त
जैसा वतन करना चा हये वैसा वतन हम नही कर सकते । यह मा यो य है, अव य मा यो य है।
यही न न वनती।
आ० व० णाम।
४७९ ववई, मग सर सुद ३, सोम, १९५०
वाणीका सयम ेय प है, तथा प वहारका स ब ध इस कारका रहता है, क सवथा वैसा
सयम रख तो सगमे आनेवाले जीवोके लये वह लेशका हेतु हो, इस लये ब त करके स योजन सवायमे
सयम रखा जाये, तो उसका प रणाम कसी कारसे ेय प होना स भव है।

३९६
ीमद् राजच
नीचेका वचन आपके पास लखे ए वचनोमे लख द जयेगा।
"जीवक मूढताका पुन पुन , ण णमे, सग सगपर वचार करनेमे य द सावधानी न रख
गई तो ऐसा योग जो आ यह भी वृथा है।"
कृ णदासा द मुमु ुओको नम कार ।
४८०
बबई, पौष सुद ५, १९५०
कसी भी जीवको कुछ भी प र म दे ना, यह अपराध है। और उसमे मुमु ुजीवको उसके अथके
सवाय प र म दे ना, यह अव य अपराध है, ऐसा हमारे च का वभाव रहता है। तथा प प र मका
हेतु ऐसे कामका सग व चत् आपको बतानेका होता है, जस वषयके सगमे हमारे त आपक
न शकता है, तथा प आपको वैसे सगमे व चत् प र मका कारण हो, यह हमारे च मे सहन नही
होता, तो भी वृ करते ह । यह अपराध मा यो य है, और हमारी ऐसी कसी वृ के त व चत्
भी अ नेह न हो, इतना यान भी रखा गो य है।
साथका प ी रेवाशंकरका है, वह हमारी ेरणासे लखा गया है। जस कारसे कसीका मन
खी न हो उस कारसे वह काय करनेक ज रत है, और त स ब धी सगमे कुछ भो च ाकुलता
न हो, इतना यान रखना यो य है।
४८१
पौष वद १, मगल, १९५०
आज यह प लखनेका हेतु यह है क हमारे च मे वशेष खेद रहता है। खेदका कारण यह
वहार प ार ध रहता है, वह कसी कारसे है, क जसके कारण मुमु ुजीवको व चत् वैसा प र म
दे नेका सग आता है। और वैसा प र म दे ते ए हमारी च वृ सकोचवश होती-होती ार धक
उदयसे रहती है । तथा प त षयक स का रत खेद कई बार फु रत होता रहता है।
___ कभी कभी वैसे सगसे हमने लखा हो अथवा ी रेवाशंकरने हमारी अनुम तसे लखा हो तो वह
कोई ावहा रक का काय नही है, क जो च क आकूलता करनेके त े रत कया गया हो,
ऐसा न य मरणयो य है।
४८२
बबई, पौष वद १४, र व, १९५०
अभी वशेष पसे लखनेका नही होता, इसमे उपा धक अपे ा च का स ेपभाव वशेष कारण-
प है । ( च का इ छा पम कुछ वतन होना स त हो, यून हो वह स ेपभाव यहाँ लखा है।)
हमने ऐसा वेदन कया है, क जहाँ कुछ भी म दशा होती है वहाँ आ मामे जगत ययो कामका अवकाश
होना यो य है । जहाँ केवल अ म ता रहती है वहाँ आ माके सवाय अ य कसी भी भावका अवकाश नह
रहता, य प तीथकरा दक स पूण ान ा त कर लेनेके प ात् कसी कारको दे ह यास हत दखायो
दे ते ह, तथा प आ मा, इस याका अवकाश ा त करे तभी कर सके, ऐसो कोई या उस ानक
प ात् नही हो सकती, और तभी वहाँ स पूण ान टकता है, ऐसा ानीपु षोका अस द ध नधार है।
ऐसा हमे लगता है। जैसे वरा द रोगमे च को कोई नेह नही होता वैसे इन भावोमे भी नेह नह
रहता, लगभग प पसे नह रहता, और उस तबधके अभावका वचार आ करता है।

__४८३
२७ वो वष
३९७
मोहमयी, माघ वद ४, शु , १९५०

े ी ी ो ी
परम नेही ी सोभाग, ी अजार ।
आपके प प ंचे ह। उसके साथ जो ोक सूची उतारकर भेजी है वह पहँची है। उन ोमे
जो वचार द शत कये ह, वे थम वचारभू मकामे वचारणीय है। जस पु षने वह थ बनाया है,
उसने वेदाता द शा के अमुक थके अवलोकनके आधार पर वे लखे है। अ य त आ य यो य
वाता इसमे नही लखी । इन ोका तथा इस कारके वचारोका ब त समय पहले वचार कया था,
और ऐसे वचारोक वचारणा करनेके स ब धमे आपको तथा गोस लयाको सू चत कया था। तथा सरे
वैसे मुमु ुको वैसे वचारोके अवलोकन करनेके वपयमे कहा था, अथवा कहनेक इ छा हो आती है क
जन वचारोक वचारणासे अनु मसे सद्-असद्का पूरा ववेक हो सके ।
अभी सात-आठ दन ए शारी रक थ त वर त थी, अब दो दनसे ठ क है ।
क वता भेजी, सो मली है। उसमे आला पकाके भेदके पमे अपना नाम बताया है और क वता
करनेमे जो कुछ वच णता चा हये उसे बतानेका वचार रखा है। क वता ठ क है। क वताका आराधन
क वताके लये करना यो य नही है, ससारके लये आराधन करना यो य नह है, भगव जनके लये,
आ मक याणके लये य द उसका योजन हो तो जीवको उस गुणक योपशमताका फल मलता है।
जस व ासे उपशम गुण गट नह आ, ववेक नही आया अथवा समा ध नही ई उस व ाके वषयमे
े जीवको आ ह करना यो य नह है।
हालमे अब ाय मोतीक खरीद व द रखी है। जो वलायतमे ह उनको अनु मसे बेचनेका वचार
रखा है। य द यह सग न होता तो उस सगमे उ प होनेवाला जजाल और उसका उपशमन नही
होता । अब वह वसवे पसे अनुभवमे आया है। वह भी एक कारके ार ध नवतन प है । स व तर
ानवाताका अब प लखगे, तो ब त करके उसका उ र लखूगा।
ल० आ म व प ।
४८४ मोहमयी, माघ वद ८ गु , १९५०
परम नेही ी सोभाग, ी अजार ।
यहाँके उपा ध सगमे कुछ वशेष सहनशीलतासे रहना पड़े, ऐसी ऋतु होनेसे आ मामे गुणक
वशेष प ता रहती है। ाय अवसे य द हो सके तो नय मत पसे कुछ स सगको बात ल खयेगा।
आ० व० से पणाम ।
४८५
ववई, फागुन सुद ४, र व, १९५०
परम नेही ी सुभा य, ी अजार ।
अभी वहाँ उपा धके अवकाशसे कुछ पढने आ दका कार होता हो, वह ल खयेगा।
अभी डेढसे दो मास हए उपा धके सगमे वशेष वशेप पसे ससारके व पका वेदन कया गया
हे । य प पूवकालमे ऐसे अनेक सगोका वेदन कया है, तथा प ाय ानपूवक वेदन नही कया। इस
दे हमे और इससे पहलेक बोधवीजहेतुवाली दे हमे होनेवाला वेदन मो कायमे उपयोगी है।
वड़ोदावाले माफुभाई यहां है । वृ मे उनका साथ रहने और काय करनेका आ करता है,

३९८
ीमद् राजच
ऐसे इस सगके वेदन करनेका उ हे भी अवसर मला है। वैरा यवान जीव है। य द ाका वशेष
काशन उ हे हो तो स सग सफल हो ऐसे यो य जीव ह ।
वारवार तग आ जाते ह, तथा प ार धयोगसे उपा धसे र नही हो सकते । यही व ापना ।
स व तर प ल खयेगा।
आ म व पसे णाम ।
४८६ बंबई, फागुन सुद ११, र व, १९५०
तीथकरदे व ंमादको कम कहते ह, और अ मादको उससे सरा अथात् अकम प ऐसा आ म-
व प कहते है । ऐसे भेदके कारसे अ ानी और ानीका व प है, (कहा है ।) ।
. सूयगडागसू वीय अ ययन]'
जस कुलमे ज म आ है, और जसके सहवासमे जीव रहा है, उसमे यह अ ानी जीव ममता
करता है, और उसीमे नम न रहा करता है।
- , [सूयगडाग- थमा ययन]
जो ानीपु प भूतकालमे हो गये ह, और जो ानीपु ष भावीकालमे होगे, उन सब पु षोने
'शा त' (सम त वभावप रणामसे थकना, नवृ होना) को सव धम का आधार कहा है। जैसे
भतमा को पृ वी आधारभूत है, अथात ाणीमा पृ वीके आधारसे थ तवाले है, उसका आधार उ ह
थम होना यो य है; वैसे सव कारके क याणका आधार, पृ थवीक भाँ त 'शां त' को ानीपु षोने
कहा है।
[सूयगडाग]
४८७
बबई, फागुन सुद ११, र व, १९५०
बुधवारको एक प लखगे, नही तो र ववारको स व तर प लखगे, ऐसा लखा था। उसे
लखते समय च मे ऐसा था क आप मुमु ुओको कुछ नयम जैसी व थता होना यो य है, और उस
वषयमे कुछ लखना सूझे तो लख, ऐसा च मे आया था। लखते ए ऐसा आ क जो कुछ लखनेमे
आता है उसे स सग- सगमे व तारसे कहना यो य है, और वह कुछ फल प होने यो य है। जतना

े े े ी ो े ऐ ी ै औ ो
स व तर लखनेसे आप समझ सके उतना लखना अभी हो सके, ऐसा यह वसाय नही है, और जो
वसाय है वह ार ध प होनेसे तदनुसार वृ होती है, अथात् उसमे वशेष बलपूवक लख सकना
मु कल है । इस लये उसे मसे लखनेका च रहता है।
इतनी बातका न य रखना यो य है क ानीपु पको भी ार धकम भोगे वना नवृ नही
होते, और वना भोगे नवृ होनेक ानीको कोई इ छा नही होती । ानीके सवाय सरे जीवोको भी
१ पाय क ममाहसु, अ पमाय तहावर । त भावदे सओवा व, वाल प डयमेय वा ॥
_सू० कृ० १ ु० ८ १० तीसरी गाथा ।
२ जे स कुले समु प े जे ह वा सवसे नरे । ममाइ लु पइ वाले, अ णे अ णे ह मु टए ।
सू० कृ० १ ु० १ अ० चोथी गाथा ।
३. जे य बु ा अ त कता, जे य बु ा अणागया । स त ते स पइ ाण, भूयाण जगती जहा ॥
सू० कृ० १ ु० ११ अ० ३६वी गाया ।

३९९
कतने ही कम है क जो भोगनेपर ही नवृ होते है, अथात् वे ार ध जैसे होते है। तथा प भेद इतना
है क ानीको वृ मा पूव पा जत कारणसे होती है, और सरोक वृ मे भावी ससारका हेतु है,
इस लये ानीका ार ध भ होता है। इस ार धका ऐसा नधार नही है क वह नवृ पसे ही
उदयमे आये । जैसे ी कृ णा दक ानीपु ष, क ज हे वृ प ार ध होनेपर भी ानदशा थी, जैसे
गृह थाव थामे ी तीथकर । इस ार धका नवृ होना केवल भोगनेसे ही सभव है। कतनी हो ार ध-
थ त ऐसी है क जो ानीपु षके वषयमे उसके व पके लये जीवोको सदे हका हेतु हो, और इसी लये
ानीपु प ायः जडमौनदशा रखकर अपने ा न वको अ प रखते ह। तथा प ार धवशात् वह
दशा कसीके - प जाननेमे आये, तो फर उसे उस ानीपु षका व च ार ध सदे हका कारण
नह होता।
४८८ बबई, फागुन वद १०, श न, १९५०
ी ' श ाप ' थको पढ़ने ओर वचारनेमे अभी कोई वाधा नही है। जहाँ कसी सदे हका हेतु
हो वहाँ वचार करना, अथवा समाधान पूछना यो य हो तो पूछनेमे तबध नह है।
सुदशन सेठ, पु षधममे थे, तथा प रानीके समागममे वे अ वकल थे। अ य त आ मबलसे
कामका उपशमन करनेसे कामे यमे अजागृ त हो स भव है, और उस समय रानीने कदा चत् उनक
दे हका ससग करनेक इ छा क होती, तो भी ी सुदशनमे कामको जागृ त दे खनेमे न आती, ऐसा
हमे लगता है।
४८९ वबई, फागुन वद ११, र व, १९५०
' श ाप ' थमे मु य भ का योजन है। भ के आधार प ववेक, धैय और आ य इन
तोन गुणोक उसमे वशेष पु क है। उस वैय और आ यका तपादन वशेष स यक् कारसे
कया है, ज हे वचारकर मुमु ुजीवको उ हे वगुण करना यो य है। इसमे ी कृ णा दके जो जो
सग आते है वे व चत् स दे हके हेतु होने जैसे है, तथा प उनमे ी कृ णके व पक समझफेर मानकर
उपे त रहना यो य है । मुमु ुका योजन तो केवल हतबु से पढने- वचारनेका होता है।
४९०
बंबई, फागुन वदो ११, र व, १९५०
उपा ध र करनेके लये दो कारसे पु षाथ हो सकता है, एक तो कसी भी ापारा द कायसे,
और सरे व ा. म ा द साधनसे । य प इन दोनोमे प हले जीवके अतरायके र होनेका स भव होना
चा हये । प हला बताया आ कार कसी तरह हो तो उसे करनेमे अभी हमे कोई तव ध नह है,
पर तु सरे कारमे तो केवल उदासीनता ही है, और यह कार मरणमे आनेसे भी च मे खेद हो
आता है, ऐसी उस कारके त अ न छा है । प हले कारके म व धमे अभी कुछ लखना नही सूझता।
भ व यमे लखना या नही वह, उस सगमे जो होने यो य होगा वह होगा।
जतनी आकूलता है उतना मागका वरोध है, ऐसा ानीपु ष कह गये ह, जो बात हमारे लये
अव य वचारणीय है।

४००
तीथकर वारवार नीचे कहा आ उपदे श करते थे-
''हे जीवो | आप समझ, स यक कारसे समझे। मनु यभव मलना ब त लभ है, और चारो
ग तयोमे भय है, ऐसा जान । अ ानसे स वेक पाना लभ है, ऐसा समझ। सारा लोक एकात खसे
जल रहा है, ऐसा जाने, और 'सब जीव' अपने अपने कम से वपयासताका अनुभव करते है, इसका
वचार करे।"
[ सूयगडाग अ ययन ७ वां, ११ ]
जसका सव खसे मु होने होनेका अ भ ाय आ हो, वह पु ष आ माक गवेषणा करे, और
आ माक गवेषणा करनी हो, वह यम नयमा दक सव साधनोका आ ह अ धान करके स सगक गवेषणा
करे, तथा उपासना करे । स सगक उपासना करनी हो वह ससारक उपासना करनेके आ मभावका सवथा
याग करे । अपने सव अ भ ायका याग करके, अपनी सव श से उस स संगक आ ाक उपासना करे ।
तीथकर ऐसा कहते है क जो कोई उस आ ाको उपासना करता है, वह अव य स सगक उपासना करता
है। इस कार जो स सगक उपासना करता है, वह अव य आ माक उपासना करता है, और आ माका
े ो ै
उपासक सव खसे मु होता है ।
[ ादशागीका अखड सू ]
पहले जो अ भ ाय द शत कया है वह गाथा सूयगडागमे न न ल खत है -
संबु झहा जंतवो माणुस ं दटुं भयं बा लसेणं अलंभो।
एगंत खे ज रए व लोए, स क मणा व प रयासुवेई ॥
सव कारक उपा ध, आ ध, ा धसे मु पसे रहते हो तो भी स सगमे रही ई भ र होना
हमे कर तीत होता है। स सगक सव म अपूवता हमे अहोरा रहा करती है, तथा प उदययोग
ार धसे ऐसा अतराय रहता है । ाय कसी बातका खेद "हमारे" आ मामे उ प नह होता, तथा प
म सगके अतरायका खेद ाय. अहोरा रहा करता है। 'सव भू म, सव मनु य, सव काम, सव बातचीता द
सग अप र चत जैस, े ए दम पराये उदासीन जैस, े अरमणीय, अमोहकर और रसर हत वभावत
भा सत होते है ।' मा ानी पु ष मुमु ु पु ष, अथवा मागानुसारी पु षका स सग प र चत, अपना,
ी तकर, सुदर, आकषक और रस व प भा सत होता है। ऐसा होनेसे हमारा मन ाय अ तब ताका
सेवन करते करते आप जैसे माग छावान पु षोमे तब ताको ा त होता है।
४९२
बबई, फागुन, १९५०
मुमु ुजनके परम हतैषी मुमु ु पु ष ी सोभाग,
यहाँ समा ध है । उपा धयोगसे आप कुछ आ मवाता नही लख सकते हो, ऐसा मानते है ।
हमारे च मे तो ऐसा आता है क इस कालमे मुमु ुजीवको ससारक तकूल दशाएँ ा त होना,
यह उसे ससारसे तरनेके समान है । अनतकालसे अ य त इस ससारका प वचार करनेका समय त-
कूल सगमे वशेष होता है, यह बात न य करने यो य है ।
अभी कुछ स सगयोग मलता है या? यह अथवा कोई “अपूव उ व होता है या? यह
लखनेमे नही आता, सो ल खयेगा। आपको ऐसा एक साधारण तकूल सग आ है, उसमे घबराना
यो य नही है । य द इस सगका समतासे वेदन कया जाये तो जीवके लये नवाणके समीपका साधन है ।

४०१
पावहा रक सगोक न य च व च ता है । मा क पनासे उनमे सुख और क पनासे ख ऐसी उनक
य त है । अनुकूल क पनासे वे अनुकूल भा सत होते है, तकूल क पनासे वे तकूल भा सत होते है,
र ानी पु षोने उन दोनो क पनाओके करनेका नषेध कया है। और आपको वे करनी यो य नही
। वचारवानको शोक यो य नह है ऐसा ी तीथकर कहते थे।
४९३
बबई, फागुन, १९५०
अन य शरणके दाता ऐसे ी स दे वको अ यत भ से नम कार
__ जो शु आ म व पको ा त ए है, ऐसे ानीपु षोने नीचे कहे ए छ पदोको स य दशनके
नवासके सव कृ थानक कहे है-
थम पद-'आ मा है ।' जैसे घटपटा द पदाथ ह, वैसे आ मा भी है। अमुक गुण होनेके कारण
से घटपटा दके होनेका माण है, वैसे वपर काशक चैत यस ाका य गुण जसमे है, ऐसा आ माके
नेका माण है।
सरा पद-'आ मा न य है।' घटपटा द पदाथ अमुक कालवत है। आ मा कालवत है ।
।टपटा द सयोगज य पदाथ है । आ मा वाभा वक पदाथ है, यो क उसक उ प के लये कोई भी
योग अनुभव यो य नही होते । कसी भी सयोगी से चेतनस ा गट होने या य नही है, इस लये
मनु प है । असयोगी होनेसे अ वनाशी है, यो क जसक उ प कसी सयोगसे नही होती, उसका
कसीमे लय भी नही होता।
तीसरा पद-'आ मा कता है।' सव पदाथ अथ यास प है। कसी न कसी प रणाम- या-
न हत ही सव पदाथ दे खनेमे आते है। आ मा भी यासप है। यास प है. इस लये कता है ।
वो जनने उस कतृ वका व वध ववेचन कया है-परमाथसे वभावप रण त ारा आ मा नज व पका
कता है। अनुपच रत (अनुभवमे आने यो य, वशेष स ब धस हत) वहारसे यह आ मा कमका
कता है । उपचारसे घर, नगर आ दका कता है ।
चौथा पद-'आ मा भो ा है।' जो जो कुछ याएँ ह वे सब सफल है, नरथक नही । जो कुछ
भी कया जाता है उसका फल भोगनेमे आता है, ऐसा य अनुभव है। जैसे वष खानेसे वषका फल,
मसरी खानेसे मसरीका फल, अ न पशसे अ न पशका फल, हमका पश करनेसे हम पशका फल ए
वना नही रहता, वैसे कषाया द अथवा अकषाया द जस कसी भी प रणामसे आ मा वृ करता है
उसका फल भी होने यो य ही है, और वह होता है। उस याका कता होनेसे आ मा भो ा है।
पाँचवाँ पद-'मो पद है।' जस अनुपच रत वहारसे जीवके कमके कतृ वका न पण कया,
कतृ व होनेसे भो ृ वका न पण कया, उस कमक नवृ भी है, यो क य कपाया दक ती ता
हो, परतु उसके अन याससे, उसके अप रचयसे, उसका उपशम करनेसे उसक मदता दखायी दे ती है,
वह ीण होने यो य दोखता है, ीण हो सकता है। वह वधभाव ीण हो सकने यो य होनेस, े उससे
र हत जो शु आ म वभाव है, वही मो पद है।
छठा पद-'उस मो का उपाय है।' य द कभी ऐसा हो हो क कमवध मा हआ करे तो उसक
नव कसी कालमे स भव नह है, परतु कमवधसे वपरीत वभाववाले ान, दशन, समा ध, वैरा य,
भ आ द साधन य है, जन साधनोके बलसे कमवध श थल होता है, उपशा त होता है, ीण

ो ै े े ो े ै
होता है । इस लये वे ान, दशन, सयम आ द मो पदके उपाय है।

४०२
ी ानीपु षो ारा स यकदशनके मु य नवासभूत कहे ए इन छ पदोको यहाँ सं ेपमे वताया
ह। समीपमु गामी जीवको सहज वचारमे ये स माण होने यो य ह, परम न य प तीत होने यो य
ह, उसका सव वभागसे व तार होकर उसके आ मामे ववेक होने यो य है। ये छ पद अ यंत स दे ह-
र हत है, ऐसा परमपु षने न पण कया है। इन छ पदोका ववेक जीवको व व प समझनेके लये
कहा है । अना द व दशाके कारण उ प ए जीवके अहभाव, मम व भावके नवृ होनेके लये ानी-
पु ष ने इन छः पदोक दे शना का शत क है । उस व दशासे र हत मा अपना व प है, ऐसा य द
जीव प रणाम करे, तो वह सहजमा मे जागृत होकर स य दशनको ा त होता है; स य दशनको ा त
होकर व वभाव प मो को ा त होता है । कसी वनाशी, अशु और अ य ऐसे भावमे उसे हप, शोक,
संयोग उ प नह होता। इस वचारसे व व पमे ही शु ता, स पूणता, अ वनाशता अ यत
आनंदता अंतर र हत उसके अनुभवमे आते ह। सव वभावपयायमे मा वयको अ याससे एकता ई है,
उससे केवल अपनी भ ता ही है, ऐसा प - य -अ यंत य -अपरो उसे अनुभव होता है।
वनाशी अथवा अ य पदाथके संयोगमे उसे इ -अ न ता ा त नही होती। ज म, जरा, मरण, रोगा द
वाधार हत सपूण माहा यका थान, ऐसा- नज व प जानकर, वेदन कर वह कृताथ होता है। जन-
जन पु षोको इन छः पदोसे स माण ऐसे परम पु षोके वचनसे आ माका न य आ है, वे सब पु ष
व व पको ा त ए है, आ ध, ा ध, उपा ध और सव सगसे र हत ए है, होते है, और भ व य,
कालमे भी वैसे ही होगे। ।
जन स पु षोने ज म, जरा और मरणका नाश करनेवाला, व व पमे सहज अव थान होनेका
उपदे श दया ह, उन स पु षोको अ यत भ से नम कार है। उनक न कारण क णाक न य त
नरतर तु त करनेसे भी आ म वभाव गट होता है। ऐसे सव स पु षोके चरणार वद सदा ही दयमे
था पत रहे। . .
जसके वचन अगीकार करनेपर छः पदोसे स ऐसा आ म व प सहजमे गट होता है, जस
आ म व पके गट होनेसे सव काल जीव स पूण आनंदको ा त होकर नभय हो जाता है, उन वचन के
कहनेवाले स पु षके गुणोक ा या करनेक श नह है, यो क जसका युपकार नही हो सकता,
ऐसा परमा मभाव मानो कुछ भी इ छा कये बना मा न कारण , क णाशीलतासे दया, ऐसा होनेपर
भी जसने सरे जीवको यह मेरा श य है अथवा मेरी भ करनेवाला है, इस लये मेरा है, इस कार
कभी नही दे खा, ऐसे स पु षको अ यत भ से वारंवार नम कार हो! ।
__स पु षोने स क जस भ का न पण कया है, वह भ मा श यके क याणके लये
कही है। जस भ को ा त होनेसे स के आ माक चे ामे वृ रहे, अपूव गुण गोचर होकर
अ य व छ द मटे , और सहजमे आ मबोध हो, ऐसा जानकर जस भ का न पण कया है, उस
भ को और उन स पु षोको पुनः पुन काल नम कार हो ।
य प वतमानकालमे गट पसे केवल ानक उ प नही हई, पर तु जसके वचनके वचारयोगसे
श पसे केवल ान है, यह प जाना है, ा पसे केवल ान आ है, वचारदशासे केवल ान आ
है, इ छादशासे केवल ान आ है, मु य नयके हेतुसे केवल ान रहता है, जसके योगसे - जीव सव
अ ावाध सुखके गट करनेवाले उस केवल ानको सहजमा मे ा त करने यो य आ, उस स पु षके
उपकारको सव कृ भ से नम कार हो । नम कार हो ।

४०३
बंबई, चै सुद , १९५०
यहाँ अभी बा -उपा ध कुछ कम रहती है । आपके प मे जो है, उनका समाधान नीचे लखे
परसे वचा रयेगा।
पूवकम दो कारके है, अथवा जीवसे जो जो कम कये जाते है, वे दो कारसे कये जाते है । एक
कारके कम ऐसे है क उनको काला दक थ त जस कारसे हे उसी कारसे,, वह भोगी जा सकती
है। सरे कारके कम ऐसे है क जो ानसे, वचारसे नवृ हो सकते है । ान होनेपर भी जस कार-
के कम अव य भोगनेयो य है, वे थम कारके कम कहे गये ह, और जो ानसे र हो सकते है वे सरे
कारके कम कहे गये है। केवल ानके उ प होनेपर भी दे ह रहती है, उस दे हका रहता केवल ानीक
इ छासे नह पर तु ार धसे है। इतना सपूण ानवल होनेपर, भी उस दे ह थ तका वेदन कये बना
केवल ानीसे भी नही छू टा जा सकता, ऐसी थ त है, य प उस कारसे छू टनेके लये कोई ानोपु ष
इ छा नही करते, तथा प यहाँ कहनेका आशय यह है क ानोपु षको भी वह कम भोगने यो य ह, तथा
अतराया द अमुक कमको व था ऐसी है क वह ानीपु षको भी भोगने यो य है, अथात् ानीपु प भी
भोगे बना उस कमको नवृ नही कर सकते। सव कारके कम ऐसे है क वे अफल नह होते, मा
उनक नवृ के कारमे अतर है। ' '
एक कम, जस कारसे थ त आ दका वध कया है, उसी कारसे भोगनेयो य होते है। सरे
कम ऐसे होते ह, जो जीवके ाना द पु षाथधमसे नवृ होते ह । ाना द पु षाथधमसे नवृ होनेवाले
कमक नवृ ानीपु प भी करते है, पर तु भोगनेयो य कमको ानोपु ष स आ दके य नसे नव
करनेक इ छा नही करते यह स भव है। कमको यथायो य पसे भोगनेमे ानीपु षको सकोच नही
होता । कोई अ ानदशा होनेपर भी अपनी ानदशा माननेवाला जीव कदा चत् भोगनेयो य कमको भोगना

े ो ी ो े ी ो ै ऐ ी ी ै ी ो े
न चाहे, तो भी भोगनेपर ही छु टकारा होता है, ऐसी नी त है। जीवका कया आ कम य द बना भोगे
अफल जाता हो, तो फर बध मो क व था कैसे हो सकेगी?
जो वेदनीया द कम हो उ हे भोगनेक हमे अ न छा नह होती। य द अ न छा होती हो तो च
मे खेद होता है क जीवको दे हा भमान है, जससे उपा जत कम भोगते ए खेद होता है, और इससे
अ न छा होती है।
म ा दसे, स से और सरे वैसे अमुक कारणोसे, अमुक चम कार हो सकना असभव नही है,
तथा प ऊपर जैसे हमने बताया है वैसे भोगनेयो य जो ' नका चत कम' है, वे उनमेसे कसी भी कारसे ,
मट नही सकते । व चत् अमुक ' श थल कम' क नवृ होती है; पर तु वह कुछ उपा जत करनेवालेके
वेदन कये बना नवृ होता है, ऐसा नह है, क तु आकारफेरसे उस कमका वेदन होता है।
। कोई एक ऐसा ' श थल कम' है क जसमे अमुक समय च क थरता रहे तो वह नवृ हो
जाये। वैसा कम उस म ा दमे थरताके योगसे नवृ हो, यह सभव है । अथवा कसीके पास पूवलाभ
का कोई ऐसा बध है क जो मा उसक थोडी कृपासे फलीभूत हो आये, यह भी एक स जैसा है।'
उसी तरह अमक मवा दके य नमे हो और अमुक पूवातराय न होनेका सग समीपवत हो, तो भी
म ा दसे काय स ई मानी जाती है, पर तु इस बातमे कुछ थोडा भी च होनेका कारण नह है,
न फल बात है। इसमे आ माके क याण स ब धी कोई मु य सग नह है। ऐसो कथा म य मगक
व मृ तका हेतु होती है, इस लये उस कारके वचारका अथवा शोधका नधार करनेक इ छा करनेक
अपे ा उसका याग कर दे ना अ छा है, और उसके यागसे सहजमे नधार होता है।

४०४
आ मामे वशेष आकुलता न हो वैसे रहे । जो होने यो य होगा वह होकर रहेगा । और आकुलता
करने पर भी जो होनहार होगा वही होगा, उसके साथ आ मा भी अपराधी होगा।
४९५
बंबई, चै वद ११, मगल, १९५०
ी भोवन,
जस कारणके वषयमे लखा था, उस कारणके वचारमे अभी च है, और वह वचार अभी
तक च समाधान प अथात् पूरा न हो सकनेसे आपको प नही लखा गया। तथा कोई ' माद-दोष'
जैसा कोई संगदोष रहता है क जससे कुछ भी परमाथबात लखनेके स ब धमे च उ न होकर,
लखते ए एकदम क जाना होता है। और जो काय वृ है, उस काय वृ मे और अपरमाथ सगमे
मानो मेरेसे यथायो य उदासीनबल नही होता, ऐसा लगनेसे अपने दोषके वचारमे पड जानेसे प लखना
क जाता है, और ाय. ऊपर जो वचारका समाधान नही आ, ऐसा लखा है, वही कारण है।'
य द कसी भी कारसे हो सके तो इस ास प ससारमे अ धक वसाय न करना, स सग करना
यो य है।
मुझे ऐसा लगता है क जीवको मूल पसे दे खते ए य द मुमु ुता आयी हो तो न य त उसका
ससारबल घटता रहता है। ससारमे धना द संप का घटना या न घटना अ नयत है, पर तु ससारके
त जीवक जो भावना है वह मंद होती रहे, अनु मसे नाश होनेयो य हो, यह वात इस कालम
ाय दे खनेमे नही आती। कसी भ व पमे मुमु ुको और भ व पमे मु न आ दको दे खकर
वचार आता है क ऐसे सगसे जीवक ऊ वदशा होना यो य नह पर तु अधोदशा होना यो य है । फर
जसे स सागका कुछ सग आ है ऐसे जीवक व था भी कालदोषसे पलटते दे र नह लगती। ऐसा
गट दे खकर च मे खेद होता है और अपने च को व था दे खते ए मुझे भी ऐसा तीत होता है क
मेरे लये कसी भी कारसे यह वसाय यो य नह है, अव य यो य नह है । अव य-अ यत अव य-
इस जीवका कोई माद है, नही तो जसे गट जाना है ऐसे जहरके पीनेमे जीवको वृ यो हो ।
अथवा ऐसा नही तो उदासीन वृ हो, तो भी वह वृ भी अब तो कसी कारसे भी प रसमा तको
ा त हो ऐसा होना यो य है, नही तो कसी भी कारसे जीवका ज र दोष है ।
अ धक लखना नही हो सकता, इस लये च मे खेद होता है, नही तो गट पसे कसी मुमु ुको
इस जीवके दोष भी यथास भव कारसे व दत करके, जीवका उतना तो खेद र करना। और उन
व दत दोपोक प रसम. तके लये उसके सग प उपकारक इ छा करना।
___ मुझे अपने दोषके लये वारवार ऐसा लगता है क जस दोषका बल परमाथसे दे खते ए मैने कहा
है, पर तु अ य आधु नक जीवोके दोषके सामने मेरे दोषक अ य त अ पता लगती है । य प ऐसा मानने-
क कोई वु नही है, तथा प वभावसे कुछ ऐसा लगता है। फर भी कसी वशेष अपराधीक भां त
जब तक हम यह वहार करते ह तब तक अपने आ मामे सल न रहेगे । आपको और आपके सगमे रहने-
वाले कसी भी मुमु ुको यह बात कुछ भी वचारणीय अव य है।
४९६ - बवई, चै वद १४, शु , १९५०
जो मुमु ुजीव गृह थ वहारमे वृ हो, उसे तो अखड नी तका मूल थम आ मामे था पत
करना चा हये, नही तो उपदे शा दक न फलता होती है। .

४०५
ा द उ प करने आ दमे सागोपाग यायस प रहना, इसका नाम नी त है । यह नी त छोड़ते
ए ाण जानेक दशा आनेपर याग और वैरा य स चे व पमे गट होते है, और उसी जीवको स पु षके
वचनोका तथा आ ाधमका अ त साम य, माहा य और रह य समझमे आता है; और सभी वृ योके

े े ो ै
नज पसे वृ करनेका माग प स होता है।
- ायः आपको दे श, काल, सग आ दका वपरीत योग रहता है। इस लये वारवार, पल पलमे तथा
काय कायमे सावधानीसे नी त आ द धम मे वृ करना यो य है। आपक भाँ त जो जीव क याणक
आका ा रखता है, और य स पु षका न य है, उसे थम भू मकामे यह नी त मु य आधार है।
जो जोव स पु पका न य आ है ऐसा मानता है, उसमे य द उपयु नी तका ाव य न हो और
क याणक याचना करे तथा वाता करे, तो यह न य मा स पु पको ठगनेके समान है। य प स पु ष
तो नराका ी है इस लये उनके लये तो ठगे जाने जैसा कुछ है नह , पर तु इस कारमे वृ करने-
वाला जीव अपराधयो य होता है। इस वातपर वारवार आपको और आपके समागमक इ छा करनेवाले
मुमु ुओको यान दे ना चा हये । क ठन बात है, इस लये नही हो सकती, यह क पना मुमु ुके लये
अ हतकारी है ओर या य है।
४९७
__ वबई, चै वद १४, शु , १९५०
- उपदे शक आका ा रहा करती है, ऐसी आका ा मुमु ुजीवके लये हतकारी है, जागृ तका वशेष
हेतु है। यो यो जीवमे याग, वैरा य और आ यभ का बल बढता है यो यो स पु षके वचनका
अपूव और अ त व प भा सत होता है, और बध नवृ के उपाय सहजमे स होते है। य
स पु षके चरणार वदका योग कुछ समय तक रहे तो फर वयोगमे भी याग, वैरा य और आ यभ क
धारा बलवती रहती है, नही तो अशुभ दे श, काल, सगा दके योगसे सामा य वृ के जीव याग-वैरा या दके
बलमे नही बढ सकते, अथवा मद हो जाते है, अथवा उसका सवथा नाश कर दे ते ह।
। बबई, वैशाख सुद १, र व, १९५०
ी भोवना द,
'योगवा स ' पढनेमे आप नही हे | आ माको ससारका व प कारागृह जैसा वारवार ण
णमे भा सत आ करे, यह मुमु ुताका मु य ल ण हे । योगवा स ा द जो जो थ उस कारणके पोपक
है, उनका वचार करनेमे आप नह है । मूल बात तो यह है क जीवको वैरा य आनेपर भी जो उसक
अ य त श थलता है-ढोलापन हे-उसे र करते ए उसे अ य त क ठन लगता है, और चाहे जैसे भी
थम इसे ही र करना यो य है।
४२९
ववई, वैशाख सुद ९, १९५०
जस वसायसे जीवको भाव न ा न घटती हो वह वसाय कसी ार धयोगमे करना पड़ता
हो तो वह पून. पुन. पीछे हटकर, 'मै वडा भयकर हसायु यह काम ही कया करता है', ऐसा पुनः
पन. वचारकर और 'जीवमे ढोलेपनसे हो ाय मुझे यह तवध है', ऐसा पुन. पुन. न य करके जतना
बने उतना वसायका स ेप करते ए वृ हो, तो वोधका फ लत होना स भव है।
च का लखने आ दमे अ धक यास नह हो सकता, इस लये च लखी है।

४०६
बंबई, वैशाख सुद ९, र व, १९५०
ी सूयपुर थत, शुभे छा ा त ी ल लुजी,
यहाँ उपा ध प वहार रहता है। ायः आ मसमा धक थ त रहती है । तो भी उस वहारके
तबंधसे छू टनेका वारवार मृ तमे आया करता है। उस ार धक नवृ होने तक तो वहारका
तवध रहना यो य है, इस लये सम च पूवक थ त रहती है।
आपका लखा एक प ा त आ है। 'योगवा स ा द' गथका अ ययन होता हो तो वह हतकारी
है। जनागममे भ भ आ मा मानकर प रमाणमे अनत आ मा कहे है और वेदा तमे उसे भ भ
कहकर, सव जो चेतनस ा दखायी दे ती है, वह एक ही आ माक है, और आ मा एक ही है, ऐसा
तपादन कया है। ये दोनो ही बाते मुमु ुपु षके लये अव य वचारणीय है, और यथा य न इ हे
वचारकर नधार करना यो य है, यह बात न स दे ह है। तथा प जब तक थम वैरा य और उपशमका
वल ढतासे जीवमे न आया हो, तब तक उस वचारसे च का समाधान होनेके बदले चचलता होती है, -
और उस वचारका नधार ा त नह होता, तथा च व ेप पाकर फर वैरा य-उपशमको यथाथ पसे
धारण नही कर सकता। इस लये उस का समाधान ानीपु षोने कया है, उसे समझनेके लये इस
जीवमे वैरा य-उपशम और स सगका बल अभी तो बढाने यो य है, ऐसा वचार करके जीवमे वैरा या द
बल बढनेके साधनोका आराधन करनेके लये न य त वशेष पु षाथ यो य है।
वचारक उ प होनेके बाद वधमान वामी जैसे महा मापु षोने पून पून. वचार कया क इस
जीवका अना दकालसे चारो ग तयोमे अनतानतबार ज म-मरण होनेपर भी, अभी वह ज म-मरणा दक
थ त ीण नही होती, उसे अब कस कारसे ीण करना ? और ऐसी कौन सी भूल इस जीवक
रहती आयी है क जस भूलका यहाँ तक प रणमन आ है ? इस कारसे पुनः पुनः अ यत एका तासे
स ोधके वधमान प रणामसे वचार करते करते जो भूल भगवानने दे खी है, उसे जनागममे जगह जगह
कहा है, क जस भूलको समझकर मुमु ुजीव उससे र हत हो। जीवको भूल दे खनेपर तो वह अनत
वशेष लगती है, परंतु सबसे पहले जीवको सब भूलोक वीजभूत भूलका वचार करना यो य है, क जस
भूलका वचार करनेसे सभी भूलोका वचार होता है, और जस भूलके र होनेसे सब भूल र होती है।
कोई जीव कदा चत् नाना कारक भूलोका वचार करके उस भूलसे छू टना चाहे, तो भी वह कत है,
और वैसी अनेक भूलोसे छटनेक इ छा मूल भूलसे छू टनेका सहज कारण होता है। ,
शा मे जो ान बताया गया है, वह ान दो कारसे वचारणीय है। एक कार 'उपदे श'का

औ ै े ो ै
और सरा कार ' स ा त'का है। "ज ममरणा द लेशयु इस ससारका याग करना यो य है, अ न य
पदाथमे ववेक को च करना नही, होता, माता- पता, वजना द सबका ' वाथ प' स ब ध होनेपर भी
यह जीव उस जालका आ य कया करता है, यहो उसका अ ववेक है, य पसे वध ताप प यह
ससार ात होते ए भी मूख जीव उसीमे व ा त चाहता है, प र ह, आरभ और संग, ये सब अनथके
हेतु है," इ या द जो श ा है, वह 'उपदे श ान' है। "आ माका अ त व, न य व, एक व अथवा
अनेक व; बधा दभाव, मो , आ माक सव कारको अव था, पदाथ और उसक अव था इ या द वषयो-
को ाता दसे जस कारसे स कया जाता है, वह ' स ात ान' है।"
मुमु ुजीवको थम तो वेदात और जनागम इन सबका अवलोकन उपदे श ानक ा तके लये
ही करना यो य हे, यो क स ात ान जनागम और वेदातमे पर पर भ दे खनेमे आता है, और उस
भ ताको दे खकर मुमु ुजीव शकायु हो जाता है, और यह शंका च मे असमा ध उ प करती है,
ऐमा ाय होने यो य हो है। यो क स ात ान तो जीवमे कसी अ यंत उ वल योपशमसे और

४०७
स के वचनको आराधनासे उ त होता है । स ात ानका कारण उपदे श ान है। स या स शा -
से जीवमे पहले यह ान ढ होना यो य है क जस उपदे श ानका फल वैरा य और उपशम है । वैरा य
और उपशमका बल बढनेसे जीवमे सहज ही योपशमक नमलता होती है, और सहज सहजमे स ात ान
होनेका कारण होता है। य द जीवमे असगदशा आ जाये तो आ म व पका समझना एकदम सरल हो
जाता है, और उस असगदशाका हेतु वैरा य और उपशम है, जसे जनागममे तथा वेदाता द अनेक
शा ोमे वारंवार कहा है- व तारसे कहा है। अत. न सशयतासे वैरा य-उपशमके हेतुभत योगवा स-
ा द जैसे सद् थ वचारणीय है।
हमारे पास आनेमे कसी कसी कारसे आपके साथी ी दे वकरणजीका मन कता था, और
यह कना वाभा वक है, यो क हमारे वषयमे सहज ही शका उ प हो ऐसे वहारका ार धवशात्
हमे उदय रहता है, और वैसे वहारका उदय दे खकर ाय हमने 'धमस ब धी' सगमे लौ कक एवं
लोको र कारसे मेलजोल नही कया, क जससे लोगोको हमारे इस वहारके सगका वचार करनेका
अवसर कम आये । आपसे या ी दे वकरणजीसे अथवा कसी अ य मुमु ुसे कसी कारक कुछ भी
परमाथक बात क हो, उसमे मा परमाथके सवाय कोई अ य हेतु नही है। इस ससारके वषम एव
भयकर व पको दे खकर हमे उससे नवृ होनेका वोध आ, जस बोधसे जीवमे शा त आकर समा ध-
दशा ई, वह बोध इस जगतमे कसी अनंत पु यके योगसे जीवको ा त होता है, ऐसा महा मापु ष पुनः
पुनः कह गये है। इस ःषमकालमे अधकार गट होकर बोधका माग आवरण- ा त ए जैसा हआ है।
इस कालमे हमे दे हयोग मला, यह कसी कारसे खेद होता है, तथा प परमाथसे उस खेदका भी समा-
धान होता रहा है, पर तु उस दे हयोगमे कभी-कभी कसी मुमु ुके त कदा चत् लोकमागका तकार
पून पुन कहना होता है, ऐसा ही एक योग आपके और ी दे वकरणजीके स ब धमे सहज ही हो गया
है। पर तु इससे आप हमारा कथन मा य कर, ऐसे आ हके लये कुछ भी कहना नही होता। केवल
हतकारी जानकर उस बातका आ ह कया रहता है या होता है, इतना यान रहे तो कसी तरह सगका
- फल होना स भव है।
यथास भव जीवके अपने दोषके त यान करके, सरे जीवोके त नद ष रखकर वृ
__ करना, और जैसे वैरा य-उपशमका आराधन हो वैसे करना यह थम मरणयो य बात है।
आ० व० नम कार ा त हो ।
५०१
वंबई, वैशाख वद ७, र व, १९५०
सूयपुर थत, शुभे छासप आय ी ल लुजी,
ाय जनागममे सव वर त साधुको प समाचारा द लखनेको आ ा नही है और हर
सव वर त भ मकामे रहकर करना चाहे तो वह अ तचार यो य समझा जाता है। इस कार साधारणतया
शा का उ े श है, और वह मु य मागसे तो यथायो य लगता है, तथा प जनागमक
अ वरोध तीत होती है, और वैसा अ वरोध, रहनेके लये प -समाचारा द लखनेक आ ा कसी कारसे
जनागममे है, उसे आपके च का समाधान होनेके लये यहाँ स ेपमे लखता ह।
जने क जो जो आ ाएँ है वे सब आ ाएँ, सव ाणी अथात् जनको आ म-क याणको कुछ
इ छा है उन सबको, वह क याण जस कार उ प हो और जस कार वह वृ गत हा, तथा जस
कार उस क याणक र ा क जा सके, उस कारसे वे आ ाएं क है। य द जनागममे कोई ऐसी
आ ा कही हो क वह आ ा अमुक , े , काल और भावके सयोगमे न पल स नेके कारण आ मा-

४०८
को बाधकारी होती हो, तो वहाँ उस आ ाको गौण करके-उसका नषेध करके ी तीथकरने सरी
आजा कही है।
जसने मव वर त क है ऐसे मु नको सव वर त करते समयके सगमे "स वं पाणाइवायं
प च खा म, स वं मुसावायं प च खा म, स वं अ द ादाणं प च खा म, स वं मेहण प च खा म, स वं
प रगहं प च खा म," इम उ े यके वचनोका उ चारण करनेके लये कहा है, अथात् 'सव ाणा तपातसे
मै नवृ होता है', 'सव कारके मृपावादमे मै नवृ होता ' ँ , 'सव कारके अद ादानसे मै नवृ होता
ँ', 'सव कारके मैथुनसे नवृ होता ँ', और 'सव कारके प र हसे नवृ होता ँ।' (सव कारके

ो े े ै े ै े ो े ो ँ े े े
रा भोजनमे तथा सरे वैसे वैसे कारणोसे नवृ होता , ँ इस कार उसके साथ बहतसे यागके कारण
जानना !) ऐसे जो वचन कहे है, वे सव वर तक भू मकाके ल णसे कहे है । तथा प उन पाँच महा तोमे
मैथुन यागके सवायके चार महानतोमे भगवानने फर सरी आ ा क है क जो आ ा य तः तो महा तको
बाधकारी लगती है, पर तु ान से दे खते ए तो र णकारी है।
___ 'मै सव कारके ाणा तपातसे नवृ होता ' ँ ऐसा प च खान ( या यान) होनेपर भी नद
उतरने जैसे ाणा तपात प सगक आ ा करनी पड़ी है, जस आ ाका, य द लोकसमुदायके वशेष
समागमपूवक साधु आराधन करेगा, तो पचमहानतके नमूल होनेका समय आयेगा ऐसा जानकर भगवान
ने नद पार करनेक आ ा द है। वह आ ा य ाणा तपात प होनेपर भी पॉच महा तक र ाका
अमू य हेतु प होनेसे ाणा तपातक नवृ प है, यो क पाँच महा तोक र ाका हेतु ऐसा जो कारण,
वह ाणा तपातक नवृ का भी हेतु ही है । ाणा तपात होनेपर भी अ ाणा तपात प, ऐसी नद पार
करनेक आ ा होती है, तथा प 'सव कारके ाणा तपातसे नवृ होता है, इस वा यको उस कारणसे
एक बार हा न प ँचती है, जो हा न फरसे वचार करते ए तो उसक वशेप ढताके लये तीत होती
है, वैसा ही सरे त के लये है । 'प र हको सवथा नवृ करता '
ँ ऐसा त होनेपर भी व , पा ,
पु तकका स ब ध दे खनेमे आता है, वे अगीकार कये जाते है, वे प र हक सवथा नवृ के कारणको
कसी कारसे र ण प होनेसे कहे है, और इससे प रणामतः अप र ह प होते है। मूछार हत पसे
न य आ मदशा बढनेके लये पु तकका अगीकार करना कहा है । तथा इस कालमे शरीर संहननक हीनता
दे खकर, च थ तका थम समाधान रहनेके लये व पा ा दका हण करना कहा है, अथात् जब
आ म हत दे खा तो प र ह रखना कहा है। ाणा तपात या- वतन कहा है, पर तु भावक से
इसमे अ तर है। प र हबु से अथवा ाणा तपातबु से इसमेसे कुछ भी करनेके लये कभी भगवानने
नही कहा है। भगवानने जहाँ सवथा नवृ प पाँच महा तोका उपदे श दया है, वहाँ भी सरे जीव के
हतके लये कहा है, और उसमे उसके याग जैसे दखाई दे नेवाले अपवादको भी आ म हतके लये
कहा है, अथात् एक प रणाम होनेसे याग क ई या हण करायी है। 'मैथुन याग' मे जो अपवाद
नही हे उसका हेतु यह है क राग े षके बना उसका भग नही हो सकता, और राग े प आ माके लये
अ हतकारी है, जससे भगवानने उसमे कोई अपवाद नही कहा है। नद पार करना राग े षके बना भी
हो सकता है, पु तक आ दका हण करना भी वैसे हो सकता है; पर तु मैथुनसेवन वैसे नही हो सकता,
इस लये भगवानने यह त अनपवाद कहा है, और सरे तोमे आ म हतके लये अपवाद कहे ह, ऐसा
होनेसे, जैसे जीवका, सयमका र ण हो, वैसा कहनेके लये जनागम है।
प लखने या समाचारा द कहनेका जो नषेध कया है, वह भी इसी हेतुसे है । लोकसमागम बढे ,
ी त-अ ी तकै कारण बड़े, ी आ दके प रचयमे आनेका हेतु हो, सयम ढ ला हो, उस उस कारका प र ह
बना कारण अगीकृत हो, ऐसे मा पा तक अनंत कारण दे खकर प ा दका नषेध कया है, तथा प वह

४०९
भी अपवादस हत है। 'वृह क प' मे अनायभू ममे वचरनेका नषेध कया है, और वहाँ े मयादा क है,
। पर तु ान, दशन और सयमके हेतुसे वहाँ वचरनेका भी वधान कया है । इसी आधारसे यह ात होता
है क क ही ानीपु षका र रहता होता हो, उनका समागम होना मु कल हो, और प -समाचारके
सवाय सरा कोई उपाय न हो, तो फर आ म हतके सवायक सरी सव कारक बु का याग करके,
वैसे ानीपु पक आ ासे अथवा कसी मुमु ु स सगोक सामा य आ ासे वैसा करनेका जनागमसे नषेध
नही होता ऐसा तीत होता है। यो क जहाँ प -समाचार लखनेसे आ म हतका नाश होता हो, वही
उसका नषेध कया गया है। जहाँ प -समाचार न होनेसे आ म हतका नाश होता हो, वहाँ प समाचार-
का नषेध कया हो, यह जनागमसे कैसे हो सकता है ? यह अब वचारणीय है।
इस कार वचार करनेसे जनागममे ान, दशन और सयमके सर णके लये प -समाचारा दके
वहारका भी वीकार करनेका समावेश होता है, तथा प वह कसी कालके लये, कसी महान योजनके
लये, महा मा पु षोक आ ासे अथवा केवल जीवके क याणके कारणमे ही उसका उपयोग कसी पा के
लये है, ऐसा समझना यो य है । न य त और साधारण संगमे प -समाचारा दका वहार सगत नही
है, ानीपु षके त उनक आ ासे न य त प ा द वहार सगत है, तथा प सरे लौ कक जीवके
कारणमे तो सवथा नषेध तीत होता है। फर काल ऐसा आया है क जसमे ऐसा कहनेसे भी वषम
प रणाम आये | लोकमागमे वृ करनेवाले साधु आ दके मनमे यह वहारमागका नाश करनेवाला
भासमान होना सभव है, तथा इस मागको समझानेसे भी अनु मसे बना कारण प -समाचारा द चालू
हो जाये क जससे बना कारण साधारण याग भी न हो जाये।
ऐसा समझकर यह वहार ायः अबालाल आ दसे भी नही कर, यो क वैसा करनेसे भी व-
सायका बढना सभव है। य द आपको सव प च खान हो तो फर प न लखनेका साधुने जो प च खान
दया है, वह नही दया जा सकता। तथा प दया हो तो भी इसमे आप न माने, वह प च खान भी
ानीपु पक वाणीसे पातर आ होता तो हा न न थी, पर तु साधारण पसे पातर आ है, वह यो य
नही आ । यहाँ मूल वाभा वक प च खानक ा या करनेका अवसर नह है, लोकप च खानको बातका
अवसर है, तथा प वह भी साधारणतया अपनी इ छासे तोडना ठ क नही, अभी तो ऐसा ढ वचार ही
रखे। गुण गट होनेके साधनमे जव रोध होता हो, तब उस प च खानको ानीपु पक वाणीसे या
मुमु ुजीवके स सगसे सहज आकारफेर होने दे कर रा तेपर लाये यो क बना कारण लोगोमे शंका उ प
होने दे नेक बात यो य नही है । अ य पामरजीवोको वना कारण वह जीव अ हतकारी होता है । इ या द
अनेक हेतु मानकर यथासभव प ा द वहार कम करना ही यो य है। हमारे त कभी वैसा वहार
करना आपके लये हतकारी है, इस लये करना यो य लगता हो तो वह प ी दे वकरणजी जैसे कसी

ी ो े े े े ोई ी ी े ऐ
स सगीको पढवा कर भेजे, क जससे ' ानच क सवाय इसमे कोई सरी बात नही हे', ऐसा उनका
सा व आपके आ माको सरे कारके प - वहारको करते ए रोकनेका कारण हो । मेरे वचारके
अनुसार ऐसे कारमे ी दे वकरणजी वरोध नही समझगे, कदा चत् उ हे वैसा लगता हो तो कसी सग-
मे उनक वह आशका हम नवृ करगे, तथा प आपको ाय वशेष पन- वहार करना यो य नह है
इस ल यको न चू कयेगा । ' ाय' श दका अथ यह है क मा हतकारी सगमे प का कारण कहा है,
उसमे बाधा न आये । वशेष प - वहार करनेसे य द वह ानच प होगा तो भी लोक वहारमै
वहत आशकाका कारण होगा। इस लये जस कार सग सगपर आ म हताथ हा उसका सोच- वचार
करना यो य है। आप हमारे त कमी ान के लये प लखना चाहे तो वह बो दे वकरणजोको
पूछकर लखे क जससे आपको गुण ा तमे कम वाधा हो।

४१०
ीमद् राजच
आपके अंबालालको प लखनेके वषयमे चचा ई, वह य प यो य नही आ। आपको कुछ
ाय द तो उसे वीकारे पर तु कसी ानवाताको लखनेके बदले लखवानेमे आपको कोई कावट
नही करनी चा हये, ऐसा साथमे यथायो य नमल अ त करणसे बताना यो य है क जो बात मा जीवका
हत करनेके लये है। पयषणा दमे साधु सरेसे लखवाकर प - वहार करते है, जसमे आ म हत जैसा
थोडा ही होता है। तथा प वह ढ हो जानेसे लोग उसका नषेध नही करते । आप उसी तरह ढके
अनुसार वहार रखगे, तो भी हा न नही है, अथात् आपको प सर से लखवानेमे बाधा नही आयेगी
और लोगोको आशंका नही होगी।
उपमा आ द लखनेमे लोगोक वपरीतता रहती हो तो हमारे लये एक साधारण उपमा लख।
उपमा नही लख तो भी आप नही है। मा च समा धके लये, आपको लखनेका तब ध नही
कया। हमारे लये उपमाक कुछ साथकता नही है ।
आ म व पसे णाम।
मु न ी ल लुजी तथा दे वकरणजी आ दके त,-
सहज समागम हो जाये अथवा वे लोग इ छापूवक समागम करनेके लये आते हो तो समागम
करनेमे या हा न है ? कदा चत् वे लोग वरोधवृ से समागम करनेका य न करते हो तो भी या
हा न है ? हमे तो उनके त केवल हतकारोवृ से, अ वरोध से समागममे भी बरताव करना है,
इसमे कौनसा पराभव हे ? मा उद रणा करके समागम करनेका अभी कारण नह है। आप सब
मुमु ु के आचारके वपयमे उ हे कुछ संशय हो, तो भी वक पका अवकाश नह है। वड़वामे स पु षक
समागममे गये आ दका कर तो उसके उ रमे इतना ही कहना यो य है क "आप, हम सब आ म-
हतक कामनासे नकले है, और करनेयो य भी यही है। जन पु पके समागममे हम आये है, उनके समा-
गममे कभी आप आकर न य कर दे ख क उनके आ माक दशा कैसी है ? और वे हमारे लये कैसे
उपकारके कता है ? अभी यह बान आप जाने द तक सहजमे भी जाना हो सके, और यह तो ान ।
उपकार प सगमे जाना आ है, इतना आचा वक प करना ठ क नह है। अ धक राग े ष प र
उपदे शसे कुछ भी समझमे आये । ा टला यह वैसे पु पक कैसा तथा शा ा दसे वचारकर नही
है, यो क उ होने वय ऐसा कहा था क,
'आपके मु नपनका सामा य वहार ऐसा है क बा अ वर त पु षके त व दना दका वहार
कत नही है। उस वहारक आप भी र ा करे। आप वह वहार कर इसमे आपक व छ दता
नही है, इस लये करने यो य है। अनेक जीवोके लये सशयका हेतु नही होगा। हमे कुछ व दना दको
अपे ा नह है।'
इस कार ज होने सामा य वहारक भी र ा करवायी थी, उनक कैसी होनी चा हये,
इसका आप, वचार कर। कदा चत् अभी यह बात आपक समझमे न आये तो आगे जाकर समझम
आयेगी, इस वपयमे आप न सदे ह हो जाय।
सरी बात,- स माग प आचार वचारमे हमारी कुछ श थलता ई हो, तो आप कहे, यो क
वैसी श थलता र कये बना तो हतकारी माग ा त नही होगा ऐसी हमारी है" इ या द सगा-
१ यह प फटा आ मला है। जहाँ जहाँ अ र नही है वहाँ वहाँ ( व ) रखे ह। वादम यह प पूरा मल
जानेसे पुन आक ७५० के पम का शत कया है ।

४११
नुसार कहना यो य हो तो कहना, और उनके त अ े षभाव है, यह सब उनके यानमे आये, ऐसी वृ
और री तसे बरताव करना, इसमे सशय करना यो य नही है।
अ य साधुके वपयमे आपको कुछ कहना यो य नह है। समागममे आनेके बाद भी कुछ यूना-
धकता उनका ेप ा त नही करना त बलवान अ े ष
५०३
बबई, वैशाख वद ३०, १९५०
ी थभतीथ े मे थत, शुभे छास प भाई ी अ बालालके त यथायो य वनती क :-
__ आपका लखा आ एक प प ँचा हे । यहाँ कुशलता है।
सूरतसे मु न ी ल लुजीका एक प पहले आया था। उसके उ रमे एक प यहाँसे लखा था।
उसके बाद पांच-छ. दन पहले उनका एक प था. जसमे आपके त जो प ा द लखना आ, उसके

े ई ो े े ी ी ी ँ े ै े े
स ब धमे ई लोकच के वपयमे ब तसी बात थी, उस प का उ र भी यहाँसे लखा है । यह स ेपमे
इस कार है।
ाणा तपाता द पाँच महा त है वे सब यागके है, अथात् सव कारके ाणा तपातसे नवृ
होना सब कारके मृषावादसे नवृ होना, इस कार साधुके पाँच महा त होते है। और जब साधु इस
आ ाके अनुसार चले तब वह मु नके स दायमे है, ऐसा भगवानने कहा है। इस कार पाँच महा तोका
उपदे श करनेपर भी जसमे ाणा तपातका कारण हे ऐसी नद को पार करने आ दक याक आ ा भी
जने ने द है। वह इस अथमे क नद को पार करनेमे जीवको जो बध होगा उसक अपे ा एक
े मे नवास करनेसे बलवान वध होगा और पर परासे पाँच , महा तोक हा नका सग आयेगा, यह
दे खकर, जसमे ाणा तपात है, ऐसी नद को पार करनेक आ ा ी जन ने द है। इसी कार
व , पु तक रखनेसे सवप र ह वरमण त नह रह सकता, फर भी दे हके साताथका याग कराकर
आ माथ साधनेके लये दे हको साधन प समझकर उसमेसे स पूण मूछा र होने तक व के न पृह
स ब धका और वचारवल बढने तक पु तकके स ब धका उपदे श जने ने दया है। अथात् सव यागमे
ाणा तपात तथा प र हका सब कारसे अगीकार करनेका नपेध होने पर भी, इस कारसे अगीकार
करनेक आ ा जने ने द है। वह सामा य से दे खनेपर वपम तीत होगा, तथा प जने ने तो
सम ही कहा है । दोनो ही बाते जीवके क याणके लये कही गयी है। जैसे सामा य जीवका क याण हो
वैसे वचारकर कहा है। इसी कार मैथुन यागवत हानेपर भी उसमे अपवाद नह कहा है, यो क
मैथुनक आराधना राग े पके बना नही हो सकती, ऐसा जने का अ भमत है। अथात् राग े षको अपर-
माथ प जानकर मैथुन यागक अपवादर हत आराधना कही है । इसी कार वृह क पसू मे जहाँ साधुके
वचरनेको भू मका माण कहा है, वहाँ चारो दशाओमे अमुक नगर तकक मयादा बतायी है. तथा प
उसके अ त र जो अनाय े है, उसमे भी ान, दशन और सयमक वृ के लये वचरनेका अपवाद
वताया है। यो क आयभू ममे य द कसी योगवश ानीपु पका समीपमे वचरना न हो और ार धयोगसे
ानीपु पका अनायभू ममे वचरना हो तो वहाँ जाना, इसमे भगवानक बतायी ई आ ाका भग
नही होता।
इसी कार य द साधु प -समाचार आ दका सग रसे तो तव ध वढता है, इस कारणसे
भगवानने इसका नषेध कया है, पर तु वह नषेध ानीपु षके कसी वैसे प -समाचारमे अपवाद प
लगता है, यो क ानीके त न काम पसे ानाराधनके लये प -समाचारका वहार होता है । इसमे
अ य कोई ससाराथ हेतु-उ े य नही है, युत ससाराथ र होनेका हेतु है, और ससारको र करना

४१२
इतना ही परमाथ है। जससे ानीपु षक अनु ासे अथवा कसी स संगी जनक अनु ासे प -समाचारका
कारण उप थत हो तो वह संयमके व ही है, ऐसा नही कहा जा सकता, तथा प आपको साधुने जो
प च खान दया था, उसके भग होनेका दोष आप पर आरो पत करना यो य है। यहाँ प च खानके
व पका वचार नही करना है, पर तु आपने उ हे जो गट व ास दलाया, उसे भग करनेका
या हेतु है ? य द वह प च खान लेनेमे आपका यथायो य च नही था, तो आपको वह लेना
यो य न था, और य द कसी लोक-दबावसे वैसा आ तो उसका भग करना यो य नही है, और भग
करनेका जो प रणाम हे वह भग न करनेक अपे ा वशेप आ म हतकारी हो, तो भी उसे वे छासे भग
करना यो य नही है, यो क जीव राग े ष अथवा अ ानसे सहजमे अपराधी होता है, उसका वचारा
आ हता हत वचार कई बार वपयय होता है। इस लये आपने जस कारसे प च खानका भग कया
है, वह अपराधयो य है, और उसका ाय लेना भी कसी तरह यो य है। "पर तु कसी कारको
ससारबु से यह काय नही आ, और ससारकायके संगसे प -समाचारका वहार करनेक मेरी इ छा
नही है, यह जो कुछ प ा दका लखना आ है, वह मा कसी जीवके क याणक बातके वषयमे आ
है, और य द वह न कया गया होता तो वह एक कारसे क याण प था, पर तु सरे कारसे च का
ता उ प होकर अ तर ले शत होता था। इस लये जसमे कुछ ससाराथ नह है, कसी कारका
अ य वाछा नही है, मा जीवके हतका संग है, ऐसा समझकर लखना आ है। महाराज ारा दया
हआ प च खान भी मेरे हतके लये था क जससे म कसी संसारी योजनमे न पड़ जाऊँ, और उसक
लये उनका उपकार था। पर तु मने ससारी योजनसे यह काय नही कया है, आपके संघाडेके तवधका
तोड़नेके लये यह काय नही कया है, तो भी यह एक कारसे मेरी भूल है, तब उसे अ प साधारण
ाय दे कर मा करना यो य है। पयुपणा द पवमे साधु ावकसे ावकके नामसे प लखवात ह।
उसके सवाय कसी सरे कारसे अब वृ न क जाये और ानचचा लखी जाये तो भी बाधा नहा
है," इ या द भाव लखे ह। आप भी उस तथा इस प को वचारकर जैसे लेश उ प न हो वैसा
क जयेगा। कसी भी कारसे सहन करना अ छा है। ऐसा न हो तो साधारण कारणमे महान वपरीत
लेश प प रणाम आता है । यथास भव ाय का कारण न हो तो न करना, नही तो फर अ प भा
ाय लेनेमे बाधा नही है। वे य द ाय दये बना कदा चत् इस बातको जाने द, तो भी
आप अथात् साधु ल लुजीको च मे इस बातका इतना प ा ाप करना तो यो य है क ऐसा करना भा
यो य न था। भ व यमे दे वकरणजी साधु जैसेक सम तामे वहाँसे कोई ावक लखनेवाला हो और प
लखवाये तो बाधा नही है, इतनी व था उस स दायमे चली आती है, इससे ाय लोग वरोध नह
करगे। और उसमे भी य द वरोध जैसा लगता हो तो अभी उस बातके लये भी धैय रखना हतकारी
हे । लाकसमुदायमे लेश उ प न हो, इस ल यको चूकना अभी.यो य नही है, यो क वैसा कोई बलवान
योजन नह है।
___ ी कृ णदासका पन पढ़कर सा वक हप आ है। ज ासाका बल जैसे बढे वैसे य न करना,

ै ै औ े े ो ो े े ी ै
यह थम भू मका है। वैरा य और उपशमके हेतुभूत 'योगवा स ा द' थोके पठनमे बाधा नही है ।
अनाथदासजी र चत ' वचारमाला' थ सट क अवलोकन करने यो य है। हमारा च न य स सगक
इ छा करता है, तथा प ार धयोग थ त है। आपके समागमी भाइयो ारा यथास भव सद् थोका
अवलोकन हो, उसे अ मादपूवक करना यो य है । और एक सरेका नय मत प रचय कया जाये इतना
यान रखना यो य है।
माद सब कम का हेतु है।

४१३
मनका, वचनका तथा कारणका वसाय जतना चाहते है, उसक अपे ा इस समय वशेष रहा
करता है। और इसी कारणसे आपको प ा द लखना नही हो सकता । वसायके व तारक इ छा नही
क जाती है, फर भी वह ा त आ करता है । और ऐसा लगता है क वह वसाय अनेक कारसे वेदन
रने यो य है, क जसके वेदनसे पुन' उसका उ प योग र होगा, नवृ होगा। कदा चत् वल पसे
इसका नरोध कया जाये तो भी उस नरोध प लेशके कारण आ मा आ म पसे व साप रणामक
रह प रणमन नही कर सकता, ऐसा लगता है। इस लये उस वसायक अ न छा पसे जो ा त हो,
उसे वेदन करना, यह कसी कारसे वशेष स यक् लगता है।
कसी गट कारणका अवल बन लेकर, वचारकर परो चले आते ए सव पु षको मा स यग-
पसे भी प हचान लया जाये तो उसका महान फल है, और य द वैसे न हो तो सव को सव
कहनेका कोई आ मा स ब धी फल नही है, ऐसा अनुभवमे आता है।
य सव पु षको भी य द कसी कारणसे, वचारसे, अवल बनसे, स य पसे भी न जाना
हो तो उसका आ म ययी फल नही है। परमाथसे उसक सेवा-असेवासे जीवको कोई जा त-( )-भेद नही
होता। इस लये उसे कुछ सफल कारण पसे ानीपु षने वीकार नही कया है, ऐसा मालूम होता है।
कई य वतमान से ऐसा गट ात होता है क यह काल वषम या षम या क लयुग है।
कालच के परावतनमे षमकाल पूवकालमे अनत बार आ चुका है, तथा प ऐसा षमकाल कसी समय
ही आता है । ेता बर स दायमे ऐसी परपरागत बात चली आती है क 'असय तपूजा' नामसे आ य-
यु ' ड'-ढोठ ऐसे इस पचमकालको तीथकर आ दने अनत कालमे आ य व प माना है, यह बात हमे
ब त करके अनुभवमे आती है, मानो सा ात् ऐसी तीत होती है।
काल ऐसा है । े ाय अनाय जैसा है, वहाँ थ त है, सग, , काल आ द कारणोसे सरल
होनेपर भी लोकस ा पसे गनने यो य है। , े , काल, और भावके आलबन बना नराधार पसे
जैसे आ मभावका सेवन कया जाये वैसे सेवन करता है । अ य या उपाय ?
५०५
वीतरागका कहा आ परम शा त रसमय धम पूण स य है, ऐसा न य रखना । जीवक अन-
धका रताके कारण तथा स पु षके योगके वना समझमे नही आता, तो भी जीवके ससाररोगको मटाने-
के लये उस जैसा सरा कोई पूण हतकारी औषध नही है, ऐसा वारवार चतन करना ।
यह परम त व है, इसका मुझे सदै व न य रहो, यह यथाथ व प मेरे दयमे काश करो,
और ज ममरणा द ब धनसे अ य त नवृ होओ। नवृ होओ।।
हे जीव । इस लेश प ससारसे वरत हो, वरत हो, कुछ वचार कर, माद छोड़कर जागृत
हो | जागृत हो ॥ नही तो र न च ताम ण जैसी यह मनु यदे ह न फल जायेगी।
हे जीव | अब तुझे स पु षक आ ा न यसे उपासने यो य है। ॐ शा त शा त शा तः
ी तीथकर आ द महा मा ने ऐसा कहा है क वपयास र होकर जसको दे हा दमे ई आ म-
बु और आ मभावमे ई दे हबु न हो गयो है, अथात् आ मा आ मप रणामी हो गया है, ऐसे ानी-

४१४
पु षको भी जब तक ार ध वसाय है, तब तक जागृ तमे रहना यो य है। यो क अवकाश ा त होने-
पर वहाँ भी अना द वपयास भयका हेतु हमे लगता है। जहाँ चार घनघाती कम छ हो गये है, ऐसे
सहज व प परमा मामे तो स पूण ान और स पूण जागृ त प तुयाव था है, इस लये वहाँ अना द
वपयास न:जताको ा त हो जानेसे कसी भी कारसे उसका उ व हो ही नह सकता, तथा प उससे
यून ऐसे वर त आ द गुण थानकमे थत ानीको तो येक कायमे और येक णमे आ मजागृ त
होना यो य है । जसने चौदह पूवको अशतः यून जाना है, ऐसे ानीपु पको भी मादवशात् अनतकाल
प र मण आ है। इस लये जसक वहारमे अनास बु ई है उस पु षको भी य द वैसे उदयका
ार ध हो तो उसक नवृ का ण ण च तन करना और नजभावक जाग त रखना चा हये। इस
कार महा ानी ी तीथकर आ दने ानीपू पको सूचना क है, तो फर जसका मागानुसारी अव थामे
भी अभी वेश नही आ है, ऐसे जीवको तो इस सव वसायसे वशेष वशेष नवृ भाव रखना, और
वचार-जाग त रखना यो य है, ऐसा बताने जैसा भी नह रहता, यो क वह तो सहजमे ही समझमे आ
सकता है।
___ ानीपु षोने दो कारसे बोध दया है। एक तो ' स ा तबोध' और सरा उस स ातबोधके
होनेमे कारणभूत ऐसा 'उपदे शवोध' । य द उपदे शबोध जीवके अ त करणमे थ तमान आ न हो तो, उसे
स ातबोधका मा वण भले ही हो, पर तु उसका प रणमन नही हो सकता। स ातबोध अथात् पदाथ-
का जो स आ व प है, ानीपु पोने न कष नकालकर जस कारसे अ तमे पदाथको जाना है, उसे
जस कारसे वाणी ारा कहा जा सके उस कार बताया है, ऐसा जो बोध है वह ' स ातबोध' है।

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पर तु पदाथका नणय करनेमे जीवको अ तराय प उसक अना द वपयासभावको ा त ई बु है, जो
पसे या अ पसे वपयासभावसे पदाथ व पका नधार कर लेती है, उस वपयासबु का वल
घटनेके लये, यथावत् व तु व पके ानमे वेश होनेके लये, जीवको वैरा य और उपशम साधन कहे
है, और ऐसे जो जो साधन जीवको संसारभय ढ कराते ह, उन उन साधनो स ब धी जो उपदे श कहा
है, वह 'उपदे शबोध' है।
यहाँ ऐसा भेद उ प होता है क 'उपदे शबोध' क पे ा तबोध' क मु यता तीत होती
है, यो क उपदे शबोध भी उसीके लये है, तो फर य द स ातबोधका ही पहलेसे अवगाहन कया हो तो
वह जीवको पहलेसे ही उ तका हेतु है। य द ऐसा वचार उ प हो तो वह वपरीत है, यो क स ात-
बोधका ज म उपदे शबोधसे होता है। जसे वेरा य-उपशम स ब धी उपदे शबोध नही आ उसे बु क
वपयासता रहा करती है, और जब तक बु क वपयासता हो तब तक स ातका वचार करना भी
वपयास पसे होना ही सभव है। यो क च ुमे जतना धुंधलापन रहता है, वह उतना ही पदाथको
धुंधला दे खता है, और य द उसका पटल अ य त बलवान हो तो उसे समूचा पदाथ दखायी नही दे ता,
तथा जसका च ु यथावत् सपूण तेज वी है, वह पदाथको भी यथायो य दे खता है। इस कार जस
जीवक गाढ वपयासवु है, उसे तो कसी भी तरह स ातबोध वचारमे नही आ सकता। जसक
वपयासबु मद ई है उसे तदनुसार स ातका अवगाहन होता है, और जसने उस वपयासबु को
वशेष पसे ीण कया है, ऐसे जीवको वशेष पसे स ातका अवगाहन होता है।
गृहकुटु ब प र हा द भावमे जो अहता ममता है और उसक ा त-अ ा तके सगमे जो राग े ष
कषाय है, वही ' वपयासबु ' है, और जहाँ वैरा य उपशमका उ व होता है, वहाँ अहता-ममता तथा
कषाय मद पड़ जाते ह, अनु मसे न होने यो य हो जाते ह। गृहकुटु बा द भावमे अनास बु होना
'वैरा य' है, और उसक ा त-अ ा तके न म से उ प होनेवाले कषाय लेशका मंद होना 'उपशम' है।

४१५
अथात् ये दो गुण वपयासवृ को पयायातर करके स करते है, और वह स , जीवाजीवा
पदाथक व था जससे ात होती है ऐसे स ातक वचारणा करने यो य होती है। यो क जे
च ुको पटला दका अ तराय र होनेसे पदाथ यथावत् द खता है वैसे ही अहंता द पटलक मदता होने
जीवको ानीपु पके कहे ए स ातभाव, आ मभाव वचारच ुसे दखायी दे ते है। जहाँ वैरा य म
उपशम बलवान ह, वहाँ ववेक बलवान पमे होता है, जहाँ वैरा य और उपशम बलवान नही होते व
ववेक बल नही होता, अथवा यथावत् ववेक नही होता । सहज आ म व प ऐसा केवल ान भी था
मोहनीय कमके यके बाद गट होता है । और इस बातसे उपयु स ात प समझा जा सकेगा।
फर ानीपु षोक वशेष श ा वैरा य-उपशमका तबोध करती ई दखायी दे ती है । जनाग
पर डालनेसे यह बात वशेष प जानी जा सकेगी। " स ातबोध' अथात् जीवाजीव पदाथव
वशेष पसे कथन उस आगममे जतना कया है, उसक अपे ा वशेष पसे, अ त वशेष पसे वैराग
और उपशमका कथन कया ह, यो क उसक स होनेके प ात् सहजम ही वचारक नमलता होग
और वचारक नमलता स ात प कथनको सहजमे ही अथवा थोड़े हो प र मसे अगीकार कर सकत
है, अथात उसक भी सहजमे ही स होगी, और वैसा ही होते रहनेसे जगह जगह इसी अ धकारक
ा यान कया है। य द जीवको आरभ-प र हको वशेष वृ रहती हो तो, वैरा य और उपशम
तो उनका भी न हो जाना सभव है, यो क आरभ-प र ह अवैरा य और अनुपशमके मूल ह, वैराग
और उपशमके काल ह।
ी ठाणागसू मे आरभ और प र हके बलको बताकर, फर उससे नवृ होना यो य है, यः
उपदे श करनेके लये इस भावसे भगी कही है -
१ जीवको म त ानावरणीय कब तक हो ? जव तक आरभ और प र ह हो तब तक ।
२ जीवको ुत ानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरंभ और प र ह हो तब तक ।
३ जीवको अव ध ानावरणीय कब तक हो ? जब तक आर भ और प र ह हो तब तक ।
४ जोवको मन पयाय ानावरणीय कब तक हो? जब तक आर भ और प र ह हो तब तक ।
५ जीवको केवल ानावरणीय कब तक हो ? जब तक आर भ और प र ह हो तब तक।
ऐसा कहकर दशना दके भेद बताकर स ह बार वही क वही बात बतायी है क वे आवर
तब तक रहते है जब तक आर भ और प र ह हो। ऐसा प र हका बल बताकर फर अथाप प
पुनः उसका वही कथन कया है।
१ जीवको म त ान कब उपजे ? आर भ-प र हसे नवृ होने पर ।
२ जीवको ुत ान कव उपजे ? आर भ प र हसे नवृ होने पर।
३ जोवको अव ध ान कब उपजे ? आर भ-प र हसे नवृ होने पर।
४ जीवको मन.पयाय ान कव उपजे ? आर भ-प र हसे नवृ होने पर।
५ जीवको केवल ान कव उपजे ? आर भ-प रगहसे नवृ होने पर।
इस कार स ह कारोको फरसे कहकर, आर भ-प र हक नवृ का फल, जहाँ अंतमे केवल
ान के वहाँ तक लया है; और वृ के फलको केवल ान तकके आवरणका हेतु प कहकर, उसको
अ य त वलता बताकर, जीवको उससे नवृ होनेका ही उपदे श कया है। वार वार ानीपु षोवे
वचन जीवको इस उपदे शका हो न य करनेको ेरणा करना चाहते है, तथा प अना द अस संगसे
उप ई ऐसी इ छा आ द भावोमे मूढ बना आ यह जीव तवोध नही पाता, और उन भावो-
४१६
क नवृ कये बना अथवा नवृ का य न कये बना ेय चाहता है, क जसका स भव कभी
भी नही हो सका है, वतमानमे होता नही है, और भ व यमे होगा नही।
५०७
बबई, ये सुद ११, गु , १९५०
यहाँ उपा धका बल जैसेका तैसा रहता है। जैसे उसके त उपे ा होती है वैसे बलवान उदय
होता है, ार ध धम समझकर वेदन करना यो य है, तथा प नवृ क इ छा और आ माक श थलता
है, ऐसा वचार खेद दे ता रहता है।
कुछ भी नवृ का मरण रहे इतना स सग तो करते रहना यो य है ।
आ० व० णाम ।
बबई, जेठ सुद १४, र व, १९५०
५०८
परम नेही ी सोभाग,
आपका एक प स व तर मला है। उपा धके सगसे उ र लखना नह आ, सो मा
क जयेगा।
_ च मे उपा धके सगके लये वारंवार खेद होता है क य द ऐसा उदय इस दे हमे ब त समय
तक रहा करे तो समा धदशाका जो ल य है वह जैसेका तैसा अ धान पसे रखना पडे, और जसम
अ य त अ मादयोग ज री है, उसमे मादयोग जैसा हो जाये।
कदा चत् वैसा न हो तो भी यह ससार कसी कारसे चयो य तीत नही होता, य रस-
र हत व प ही दखायी दे ता है, उसमे स चारवान जीवको अ प भी च अव य नही होती, ऐसा
न य रहा करता है। वारवार ससार भय प लगता है। भय प लगनेका सरा कोई कारण तीत
नही होता, मा इसमे शु आ म व पको अ धान रखकर वृ होती है, जससे बड़ी परेशानी रहती
है, और न य छू टनेका ल य रहता है। तथा प अभी तो अ तरायका स भव है, और तब ध भी रहा
करता है । तथा तदनुसारी सरे अनेक वक पोसे कटु लगनेवाले इस संसारमे बरबस थ त है।
आप कतने ही लखते ह वे उ रयो य होते है, फर भी वह उ र न लखनेका कारण
उपा ध संगका बल है, तथा उपयु जो च का खेद रहता है, वह है। आ० व० णाम ।
५०९ मोहमयी, आषाढ सुद ६, र व, १९५०
ी सूयपुर थत, शुभवृ संप , स सगयो य ी ल लुजीके त,
यथायो यपूवक वनती क-
प ा त आ है। उसके साथ तीन अलग लखे ह, वे भी ा त ए ह। जो तीन
लखे हे उन ोका मुमु ु जीवको वचार करना हतकारी है।
__जीव और काया पदाथ पसे भ है, पर तु स ब ध पसे सहचारी है, क जब तक उस दे हसे
जीवको कमका भोग है। ी जने ने जीव ओर कमका स ब ध ीरनीरके स ब धक भाँ त कहा है,
उसका हेतु भी यही है क ीर और नीर एक ए प द खते ह, फर भी परमाथसे वे अलग है,
पदाथ पसे भ है, अ न योगसे वे फर प अलग हो जाते ह। उसी कार जीव और कमका
स ब ध है। कमका मु य आकार कसी कारसे दे ह है, और जीवको इ या द ारा या करता आ
दखकर जाव है, ऐसा सामा यत' कहा जाता है। पर तु ानदशा आये बना जीव और कायाक जो प

४१७
भ ता है, वह जीवको भा सत नही होती, तथा प ीरनीरवत् भ ता है। ानस कारसे वह भ ता
एकदम प हो जाती है। अब यहाँ आपने ऐसा कया है क य द ानसे जीव और कायाको भ
भ जाना है तो फर वेदनाका वेदन करना और मानना यो होता है ? यह फर न होना चा हये, यह
य प होता है, तथा प उसका समाधान इस कार है-
जैसे सूयसे त त हआ प थर सूयके अ त होनेके बाद भी अमुक समय तक त त रहता है, और फर
अपने व पमे आता है, वैसे पूवके अ ान-स कारसे उपा जत कये ए वेदना आ द तापका इस जीवसे
स ब ध है। य द ानयोगका कोई कारण आ तो फर अ ानका नाश हो जाता है, और उससे उ प
होनेवाला भावी कम न हो जाता है, पर तु उस अ ानसे उ प ए वेदनोय कमका-उस अ ानके
सूयक भाँ त, उसके अ त होनेके प ात्-प थर पी जीवके साथ स ब ध रहता है, जो आयुकमके
नाशसे न होता है । भेद इतना है क ानीपु षको कायामे आ मबु नही होती, और आ मामे काया-
बु नही होती, उनके ानमे दोनो ही प भ तीत होते है। मा जैसे प थरको सूयके तापका
स ब ध रहता है, वैसे पूव स ब ध होनेसे वेदनीय कमका, आयु-पूणता तक अ वषमभावसे वेदन होता है,
पर तु वह वेदन करते ए जीवके व प ानका भग नही होता, अथवा य द होता है तो उस जीवको वैसा
व प ान होना स भव नही है। आ म ान होनेसे पूव पा जत वेदनीय कमका नाश ही हो जाये, ऐसा
नयम नही है, वह अपनी थ तसे न होता है। फर वह कम ानको आवरण करनेवाला नही है,
अ ाबाध वको आवरण प है, अथवा तब तक स पूण अ ावाध व गट नह होता, पर तु स पूण
ानके साथ उसका वरोध नही है । स पूण ानोको आ मा अ ाबाध है, ऐसा नज पका अनुभव रहता
है। तथा प स ब ध पसे दे खते ए उसका अ ावाध व वेदनीय कमसे अमुकभावसे का आ है।
य प उस कममे ानीको आ मबु नही होनेसे अ ाबाध गुणको भी मा स ब धका आवरण है,
सा ात् आवरण नही है।
__ वेदनाका वेदन करते ए जीवको कुछ भी वषमभाव होना, यह अ ानका ल ण है, पर तु वेदना

ै ै ै े ै
है, यह अ ानका ल ण नह है, पूव पा जत अ ानका फल है। वतमानमे वह मा ार ध प है. उसका
वेदन करते ए ानीको अ वषमता रहती है, अथात् जीव और काया अलग है, ऐसा जो ानीपु पका
ानयोग वह अवाध ही रहता है। मा वपमभावर हतपन है, यह कार ानको अ ावाध है। जो
वषमभाव हे वह ानको बाधाकारक है। दे हमे दे हबु और आ मामे आ मबु , दे हसे उदासीनता और
आ मामे थ त है, ऐसे ानीपु पको वेदनाका उदय ार धके वेदन प है, नये कमका हेतु नही है।
सरा -परमा म व प सब जगह एकसा है, स ओर ससारी जीव एकसे ह, तब स को
तु त करनेमे कुछ वाधा हे या नह ? इस कारका है। परमा म व प थम वचारणीय है।
ापक पसे परमा म व प सव है या नह ? यह बात वचार करने यो य है।
स और ससारी जीव समस ावान व पसे है, यह न य ानीपु पोने कया है, वह यथाथ
है । तथा प भेद इतना है क स मे वह स ा कट पसे है, ससारी जीवमे वह स ा स ा पसे है. जैसे
द पकमे अ न कट हे और चकमक प थरमे अ न स ा पसे है, वैसे यहां समझ। द पकमे और चकमकमे
जो अ न हे वह अ न पसे समान है। ( गटता) पसे और श (स ा) पसे भेद है, पर तु
व तुक जा त पसे भेद नही है। उसी तरह स के जीवमे जो चेतनस ा है वही सब ससारी जीवोमे है।
भेद मा गटता-अ गटताका हे । जसे वह चेतनस ा गट नह ई, ऐसे ससारी जीवको, वह। स ा
गट होनेका हेतु, जसमे गट स ा है ऐसे स भगवानका व प, वह वचार करने यो य है, यान
करने यो य है, तु त करने यो य है, यो क उससे आ माको नज व पका वचार, यान तथा तु त

४१८
करनेका कार मलता है क जो कत है। स व प जैसा आ म व प है ऐसा वचारकर और इस
आ मामे वतमानमे उसक अ गटता है, उसका अभाव करनेके लये उस स व पका वचार, यान तथा
तु त करना यो य है । यह कार समझकर स क तु त करनेमे कोई बाधा तीत नही होती।
___ 'आ म व पमे जगत नही है', यह बात वेदा तमे कही है अथवा ऐसा यो य है। पर तु 'बा जगत
नही है', ऐसा अथ मा जीवको उपशम होनेके लये मानने यो य समझा जाये ।
इस कार इन तीन ोका स ेपमे समाधान लखा है, उसे वशेष पसे वचा रयेगा। कुछ
वशेष समाधान जाननेक इ छा हो, वह ल खयेगा। जस तरह वैरा य-उपशमक वधमानता हो उस
तरह करना अभी तो कत है।
५१० ब बई, आषाढ सुद ६, र व, १९५०
ी थ भतीथ थत शुभे छास प ी भुवनदासके त यथायो यपूवक वनती क-
वधव योका उपशम करनेके लये और नवतन करनेके लये जीवको अ यास, सतत अ यास
कत है, यो क वचारके बना और यासके बना उन वृ योका उपशमन अथवा नवतन कैसे हो ?
कारणके बना कसी कायका होना स भव नही है, तो फर य द इस जीवने उन वृ योके उपशमन
अथवा नवतनका कोई उपाय न कया हो तो उनका अभाव नही होता, यह प स भव है। कई बार
पूवकालमे वृ योके उपशमन तथा नवतनका जीवने अ भमान कया है, पर तु वैसा कोई साधन नही
कया, और अभी तक जीव उस कारका कोई उपाय नह करता, अथात् अभी उसे उस अ यासमे कोई
रस दखायी नही दे ता, तथा कटु ता लगनेपर भी उस कटु ताक अवगणना कर यह जीव उपशमन एव
नवतनमे वेश नह करता। यह बात इस प रणामी जीवके लये वारवार वचारणीय है, कसी
कारसे वसजन करने यो य नही है। ,
जस कारसे पु ा द स प मे इस जीवको मोह होता है, वह कार सवथा नीरस और न दनीय
है। जीव य द जरा भी वचार करे तो यह बात प समझमे आने जैसी है क इस जीवने कसीमे
पु वक भावना करके अपना अ हत करनेमे कोई कसर नही रखी, और कसीको पता मानकर भी वैसा
ही कया है, और कोई जीव अभी तक तो पता पु हो सका हो, ऐसा दे खनेमे नही आया। सब कहते
आये है क इसका यह पु अथवा इसका यह पता है, पर तु वचार करते ए प तीत होता है क
यह वात कसी भी कालमे स भव नही है। अनु प ऐसे इस जीवको पु पसे मानना अथवा ऐसा
मनवानेक इ छा रहना, यह सब जीवक मूढता है, और यह मूढता कसी भी कारसे स सगक
इ छावाले जीवको करना यो य नह है।
आपने जो मोहा द कारके वपयमे लखा है, वह दोनोके लये मणका हेतु है, अ य त
वड बनाका हेतु है। ानीपु प भी य द इस तरह आचरण करे तो ानको ठोकर मारने जैसा है, और
सब कारसे अ ान न ाका वह हेतु है। इस कारके वचारसे दोनोको सीधा भाव कत है। यह बात
अ पकालमे यानमे लेने यो य है। आप और आपके स सगी यथास भव नवृ का अवकाश ले, यही
जीवको हतकारी है।
५११ मोहमयो, आपाढ सुद ६, र व, १९५०
ी अजार थत, परम नेही ी सुभा य,
आपका स व तर एक प तथा एक च ा त ए है । उनमे लखे ए मुमु ुजीवके लये
वचारणीय ह।
••••
४१८
ीमद् राजच
करनेका कार मलता है क जो कत है। स व प जैसा आ म व प है ऐसा वचारकर और इस
आ मामे वतमानमे उसक अ गटता है, उसका अभाव करनेके लये उस स व पका वचार, यान तथा
तु त करना यो य है । यह कार समझकर स क तु त करनेमे कोई बाधा तीत नही होती।
___ 'आ म व पमे जगत नही है', यह बात वेदा तमे कही है अथवा ऐसा यो य है। पर तु 'बा जगत
नही है', ऐसा अथ मा जीवको उपशम होनेके लये मानने यो य समझा जाये ।
इस कार इन तीन ोका स ेपमे समाधान लखा है, उसे वशेष पसे वचा रयेगा। कुछ
वशेष समाधान जाननेक इ छा हो, वह ल खयेगा। जस तरह वैरा य-उपशमक वधमानता हो उस
तरह करना अभी तो कत है।
५१० ब बई, आषाढ सुद ६, र व, १९५०
ी थ भतीथ थत शुभे छास प ी भुवनदासके त यथायो यपूवक वनती क-
वधव योका उपशम करनेके लये और नवतन करनेके लये जीवको अ यास, सतत अ यास
कत है, यो क वचारके बना और यासके बना उन वृ योका उपशमन अथवा नवतन कैसे हो ?
कारणके बना कसी कायका होना स भव नही है, तो फर य द इस जीवने उन वृ योके उपशमन
अथवा नवतनका कोई उपाय न कया हो तो उनका अभाव नही होता, यह प स भव है। कई बार
पूवकालमे वृ योके उपशमन तथा नवतनका जीवने अ भमान कया है, पर तु वैसा कोई साधन नही
कया, और अभी तक जीव उस कारका कोई उपाय नह करता, अथात् अभी उसे उस अ यासमे कोई
रस दखायी नही दे ता, तथा कटु ता लगनेपर भी उस कटु ताक अवगणना कर यह जीव उपशमन एव
नवतनमे वेश नह करता। यह बात इस प रणामी जीवके लये वारवार वचारणीय है, कसी
कारसे वसजन करने यो य नही है। ,
जस कारसे पु ा द स प मे इस जीवको मोह होता है, वह कार सवथा नीरस और न दनीय
है। जीव य द जरा भी वचार करे तो यह बात प समझमे आने जैसी है क इस जीवने कसीमे
पु वक भावना करके अपना अ हत करनेमे कोई कसर नही रखी, और कसीको पता मानकर भी वैसा
ही कया है, और कोई जीव अभी तक तो पता पु हो सका हो, ऐसा दे खनेमे नही आया। सब कहते
आये है क इसका यह पु अथवा इसका यह पता है, पर तु वचार करते ए प तीत होता है क
यह वात कसी भी कालमे स भव नही है। अनु प ऐसे इस जीवको पु पसे मानना अथवा ऐसा
मनवानेक इ छा रहना, यह सब जीवक मूढता है, और यह मूढता कसी भी कारसे स सगक
इ छावाले जीवको करना यो य नह है।
आपने जो मोहा द कारके वपयमे लखा है, वह दोनोके लये मणका हेतु है, अ य त
वड बनाका हेतु है। ानीपु प भी य द इस तरह आचरण करे तो ानको ठोकर मारने जैसा है, और
सब कारसे अ ान न ाका वह हेतु है। इस कारके वचारसे दोनोको सीधा भाव कत है। यह बात
अ पकालमे यानमे लेने यो य है। आप और आपके स सगी यथास भव नवृ का अवकाश ले, यही
जीवको हतकारी है।
५११ मोहमयो, आपाढ सुद ६, र व, १९५०
ी अजार थत, परम नेही ी सुभा य,
आपका स व तर एक प तथा एक च ा त ए है । उनमे लखे ए मुमु ुजीवके लये
वचारणीय ह।

४१९
इस जीवने पूवकालमे जो जो साधन कये है, वे वे साधन ानीपु पक आ ासे ए मालूम नही
होते, यह बात सदे हर हत तीत होती है । य द ऐसा आ होता तो जीवको ससारप र मण न होता।
ानीपु षक जो आ ा हे वह भव मणको रोकनेके लये तवध जैसी है, यो क ज हे आ माथके
सवाय सरा कोई योजन नही हे और आ माथ साधकर भी जनक दे ह ार वशात् है, ऐसे ानी-
पु षक आ ा स मुख जीवको केवल आ माथमे ही े रत करती है, और इस जीवने तो पूवकालमे कोई
आ माथ जाना नह है, युत आ माथ व मरण पसे चला आया है। वह अपनी क पनासे सावन करे
तो उससे आ माथ नही होता, युत आ माथका साधन करता ँ ऐसा अ भमान उ प होता है
क जो जीवके लये ससारका मु य हेतु है। जो बात व मे भी नह आती, उसे जीव य द थ
क पनासे सा ा कार जैसी मान ले तो उससे क याण नह हो सकता । उसी कार यह जीव पूवकालसे अधा
चला आता आ भी य द अपनी क पनासे आ माथ मान ले तो उनमे सफलता नही होती, यह बात
बलकुल समझमे आने जैसी है । इस लये यह तो तीत होता है क जीवके पूवकालीन सभी अशुभ साधन,
क पत साधन र होनेके लये अपूव ानके सवाय सरा कोई उपाय नह है, और वह अपूव वचारके
बना उ प होना सभव नह है, और यह अपूव वचार, अपूव पु षके आराधनके बना सरे कस
कारसे जीवको ा त हो, यह वचार करते ए यही स ात फ लत होता है क ानीपु पक आ ाका
आराधन, यह स पदका सव े उपाय है, और यह बात जब जीवको मा य होती है, तभीसे सरे
दोषोका उपशमन और नवतन शु होता है।
ी जने ने इस जीवके अ ानक जो जो ा या क है, उसमे समय समयपर उसे अनतकमका
वसायी कहा है, और अना दकालसे अनतकमका वध करता आया है, ऐसा कहा है। यह बात तो
यथाथ है । पर तु यहाँ आपको एक आ है क 'तो फर वैसे अनतकम को नवृ करनेका साधन
चाहे जैसा बलवान हो, तो भी अनतकाल बीतनेपर भी वह पार न पाये। य द सवथा ऐसा हो तो आपको
ै ै ै े े े ी ो ै े
जैसा लगा वैसा सभव है। तथा प जने ने वाहसे जीवको अनतकमका कता कहा है, वह अनतकालसे
कमका कता चला आता है, ऐसा कहा है, पर तु समय समय अनतकाल तक भोगने पडे ऐसे कम वह
आगा मक कालके लये उपाजन करता है, ऐसा नह कहा है। कसी जीव-आ यी इस बातको र रख-
कर वचार करते ए ऐसा कहा है क सब कम का मूल जो अ ान, मोह प रणाम है, वह अभी जीवमे
जैसेका तैसा चला आता है, क जस प रणामसे उसे अनतकाल तक मण आ है, और य द यह प रणाम
बना रहा तो अभी भी योका यो अनतकाल तक प र मण होता रहेगा। अ नक एक चनगारीमे
इतना ऐ य गुण है क वह सम त लोकको जला सके, पर तु उसे जैसा जैसा योग मलता है वैसा वैसा
उसका गुण फलवान होता है। उसी कार अ ानप रणाममे अना दकालसे जीवका भटकना हआ है, वैसे
अभी अनतकाल तक भी चौदह राजलोकमे येक दे शमे उस प रणामसे अनत ज ममरण होना अभी भी
सभव है । तथा प जैसे चनगारीक अ न योगवश है, वैसे अ ानके कमप रणामक भी अमुक कृ त है।
उ कृ से उ कृ य द एक जीवको मोहनीयकमका वध हो तो स र कोडाकोडी सागरोपमका होता है,
ऐसा जने ने कहा है। उसका हेतु प है क य द अनतकालका वध होता हो तो फर जीवका मो
नही हो सकता। यह वध अभी नवृ न आ हो पर तु लगभग नवृ होने आया हो, तब कदा चत्
सरी वैसी थ तका सभव हो, पर तु ऐसे मोहनीयकम क जनक काल थ त ऊपर कही है वैसे एक
समयमे अनेक कम वावे, यह स भव नही है । अनु मसे अभी उस कममे नवृ होनसे पहले ारा उसी
थ तका बांध,े तथा सरा नवृ होनेसे पहले तोसरा वॉवे, पर तु सरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा, छठा
इस तरह सबके सब कम एक मोहनीयकमके स ब धमे उसी थ तके वाँधा करे, ऐसा नह हो स ा,

४२०
यो क जीवको इतना अवकाश नही है । मोहनीयकमक इस कारसे थ त है । और आयुकमक
थ त ी जने ने ऐसी कही है क एक जीव एक इमे रहते ए उस दे हक जतनी आयु है उसके
तीन भागमेसे दो भाग तीत होनेपर जीव आगामी भवक आयु वाँधता है उससे पहले नही बाँधता, और
एक भवमे आगामी कालके दो भवोक आयु नही बॉधता, ऐसी थ त है। अथात् जीवको अ ानभावसे
कमवध चला आता है, तथा प उन उन कम क थ त चाहे जतनी वडवना प होनेपर भी, अनत ख
और भवका हेतु होनेपर भी जसमे जीव उससे नवृ हो इतना अमुक कार नकाल दे नेपर स पूण
अवकाश है। यह बात जने ने ब त सू म पसे कही है, वह वचार करने यो य है | जसमे जीवको
मो का अवकाश कहकर कमवध कहा है।
आपको यह बात स ेपमे लखी है। उसका पुन पुन वचार करनेसे कुछ समाधान होगा, और
मसे अथवा समागमसे उसका स पूण समाधान हो जायेगा।
__ जो स सग हे वह कामको जलानेका वलवान उपाय है । सब ानीपु पोने कामके जीतनेको अ यत
कर कहा है, यह एकदम स है, और यो यो ानीके वचनका अवगाहन होता है, यो यो कुछ
कुछ करके पीछे हटनेसे अनु मसे जीवका वीय बलवान होकर जीवसे कामक साम यका नाश होता
है। जीवने ानीपु पके वचन सुनकर कामका व प ही नही जाना, और य द जाना होता तो उसमे
नपट नीरसता हो गयी होती, यही वनती।
आ० व० णाम।
_ ५१२
मोहमयी, आपाढ सुद १५, मगल, १९५०
ी सूयपुर थत, शुभे छा ा त, स सगयो य ी ल लुजीके त,
यथायो यपूवक वनती क,-एक प ा त आ है।
"भगवानने ऐसा कहा है क चौदह राजलोकमे काजलके कु पेको तरह सू म एके य जीव भरे ए
है, क जो जीव जलानेसे जलते नही, छे दनेसे छदते नही, मारनेसे मरते नह , ऐसे कहे ह। उन जीव के
औदा रक शरीर नही होता, या इस लये उनका अ न आ दसे ाघात नही होता ? अथवा औदा रक
शरीर होनेपर भी उनका अ न आ दसे ाघात नही होता हो ? य द औदा रक गरीर हो तो वह शरीर
अ न आ दसे ाघातको यो ा त न हो ?" इस कारका उस प मे लखा है, उसे पढा है ।
वचारके लये यहाँ उसका स ेपमे समाधान लखा है क एक दे हको यागकर सरी दे ह धारण
करते समय कोई जीव जब रा तेमे होता है तब अथवा अपया त पसे उसे मा तैजस और कामण
ये दो शरीर होते ह, बाक सब थ तमे अथात् सकम थ तमे सब जीवोको तीन शरीरोक सभावना ी
जने ने बतायी है : कामण, तैजस और औदा रक या वै य इन दोनोमेसे कोई एक । केवल रा तेमे गमन
करते ए जीवको कामण, तैजस ये दो शरीर होते है, अथवा जव तक जीवक अपया त थ त है, तव
तक उसका कामण और तैजस शरीरसे नवाह हो सकता है, पर तु पया त थ तमे उसको तीसरे शरीर-
का नयमसे सभव है। पया त थ तका ल ण यह है क आहार आ दके हण करने प यथो चत साम-
यका होना और यह आहार आ दका जो कुछ भी हण हे वह तीसरे शरीरका ारभ है, अथात् वही तीसरा
शरीर शु आ ऐसा समझना चा हये । भगवानने जो सू म एके य कहे ह वे अ न आ दसे ाघातको
ा त नह होते। वे पया त सू म एके य होनेसे उनके तीन शरीर है, पर तु उनका जो तीसरा औदा-
रक शरीर है वह इतने सू म अवगाहनका है क उसे श आ दका पश नही हो सकता। अ न आ द-
का जो मह व हे और एके य शरीरका जो सू म व है, वे इस कारके है क ज हे एक सरेका स ब ध

४२१
नह हो सकता, अथात् साधारण स ब ध होता है ऐसा कहे, तो भी अ न, श आ दमे जो अवकाश है,

े े े ी ो े ो े ऐ ो े े ी ो
उस अवकाशमेसे उन एके य जीवोका सुगमतासे गमनागमन हो सके, ऐसा होनेसे उन जीवोका नाश
हो सके अथवा उनका ाघात हो, ऐसा अ न, श आ दका स ब ध उ हे नही होता। य द उन
जीवोक अवगाहना मह ववाली हो अथवा अ न आ दक अ य त सू मता हो क जो उस एके य जीव
जैसी सू मता गनी जाये तो, वह एके य जीवका ाघात करनेमे स भ वत मानी जाये, पर तु ऐसा
नही है। यहाँ तो जीवोका अ य त सू म व है, और अ न, श आ दका मह व है, जससे ाघातयो य
स ब ध नही होता, ऐसा भगवानने कहा है। अथात् औदा रक शरीर अ वनाशी कहा है ऐसा नही है,
वभावसे वह वप रणामको ा त होकर अथवा उपा जत कये ए ऐसे उन जीवोके पूवकम प रण मत
होकर औदा रक शरीरका नाश करते है। वह शरीर कुछ सरेसे ही नाशको ा त कया जाये तो ही
नाश हो, ऐसा भी नयम नही है ।
यहाँ अभी ापारस ब धी योजन रहता है । इस लये तुरत थोडे समयके लये भी नकल संकना
कर है। यो क सग ऐसा है क जसमे मेरी व मानताको सगमे आनेवाले लोग आव यक समझते
ह। उनका मन खी न हो सके, अथवा उनके कामको ''यहाँसे मेरे र हो जानेसे कोई बल हा न न हो
सके, ऐसा वसाय हो तो वैसा करके थोडे समयके लये - इस वृ से अवकाश लेनेका च है, तथा प
आपक तरफ आनेसे लोगोके प रचयमे अव य आनेका स भव होनेसे उस तरफ आनेका च होना
म कल है। इस कारके सग रहनेपर भी लोगोके प रचयमे धम सगसे आना हो, उसे वशेष
आशका यो य समझकर यथास भव उस प रचयसे धम सगके नामसे वशेष पसे र रहनेका च
रहा करता है।
वैरा य-उपशमका बल बढे उस कारके स सग एव स शा का प रचय करना, यह जीवके लये
परम हतकारी है । सरा प रचय यथासभव नवतन करने यो य है।
आ० व० णाम ।
- ५१३ मोहमयी, ावणं सुद ११, र व, १९५०
ी सूयपुर थत, स सगयो य ी ल लुजीके त वनती क :-
दो प ा त ए ह । यहाँ भावसमा ध हे ।
___ 'योगवा स ' आ द थ पढने- वचारनेमे कोई सरी बाधा नही है। हमने प हले लखा था क
उपदे श न थ समझकर ऐसे थ वचारनेसे जीवको गुण गट होता है। ाय वैसे ग थ वैरा य और
उपशमके लये है। स ात ान स पु षसे जाननेयो य समझकर जीवमे सरलता, नरहता आ द गणोका
उदभव होनेके लये 'योगवा स ', 'उ रा ययन', 'सू कृताग' आ दके वचारनेमे बाधा नही हे इतना
मरण र खये।
वेदात और जन स ात इन दोनोमे अनेक कारसे भेद है । वेदा त एक व पसे सव थ त
कहता है । जनागममे उससे सरा कार कहा है । 'समयसार' पढते ए भी ब तसे जीवोका एक क
मा यता प स ात हो जाता है। स ातका वचार, ब त स संगसे तथा वैरा य और उपशमका वल
वशेष पसे बढनेके बाद कत है। य द ऐसा नह कया जाता तो जीव सरे मागमे आ ढ होकर
वैरा य और उपशमसे होन हो जाता हे। 'एक व प' वचारनेमे बाधा नह है, अथवा 'अनेक
आ मा' वचारनेमे बाधा नही है । आपको अथवा कसी मुमु ुको मा अपना व प जानना ही मु य
कत है, और उसे जाननेके साधन शम, स तोप, वचार और स सग है। उन साधनोके स होनेपर,

४२२
वैरा य एव उपशमके वधमान प रणामी होनेपर, 'आ मा एक है' या 'आ मा अनेक ह' इ या द भेदका
वचार करना यो य है। यही वनती।
आ० व० णाम ।
५१४ ब बई, ावण सुद १४, बुध, १९५०
___ न सारताको अ य त पसे जाननेपर भी वसायका सग आ मवीयक कुछ भी म दताका हेतु
होता है, फर भी वह वसाय करते है। आ मासे जो सहन करने यो य नही है उसे सहन करते है।
यही वनती।
आ० ०
५१५ ब बई, ावण सुद १४, बुध, १९५०
यहाँसे थोडे दनके लये छू टा जा सके, ऐसा वचार रहता है, तथा प इस सगमे वैसा होना
क ठन है।
जैसे आ मबल अ माद हो, वैसे म सग, स ाचनका सग न य त करना यो य है । उसमे
माद करना यो य नही है, अव य ऐसा करना यो य नह है, यही वनती।
पानी वभावसे शीतल होनेपर भी, उसे कसी बरतनमे रखकर नीचे अ न जलती रखी जाये तो
उसक अ न छा होनेपर भी वह पानी उ णता ा त करता है, ऐसा यह वसाय, समा धसे शीतल एस
पु षके त उ णताका हेतु होता है, यह बात हमे तो प लगती है।
वधमान वामीने गृहवासमे भी यह सव वसाय असार है, कत प नही है, ऐसा जाना था।
तथा प उ होने उस गहवासको यागकर मु नचया हण क थी। उस मु न वमे भी आ मबलसे समथ
होनेपर भी, उस बलक अपे ा भी अ य त अ धक बलक ज रत है, ऐसा जानकर उ होने मौन आर
अ न ाका लगभग साढे बारह वपतक सेवन कया है, क जससे वसाय प अ न तो ायः न हो सके।
___जो वधमान वामी गहवासमे होनेपर भी अभोगी जैसे थे, अ वसायी जैसे थे, न पह थे, और
सहज वभावसे मु न जैसे थे, आ माकार प रणामी थे, वे वधमान वामी भी सव वसायमे असारता
समझकर, नीरसता समझकर र रहे, उस वसायको करते ए सरे जीवने कस कारसे समा ध

े ै ी ै े े
रखनेका वचार कया है, यह वचारणीय है। इसका वचार करके पुनः पुन वह चया येक कायम,
येक वतनमे, मृ तमे लाकर वसायके सगमे रहती ई चका वलय करना यो य है। य द ऐसा
न कया जाय तो ाय ऐसा लगता है क अभी इस जीवक मुमु ु पदमे यथायो य अ भलाषा नह ई है,
अथवा तो यह जीव मा लोकस ामे क याण हो, ऐसी भावना करना चाहता है, पर तु क याण करनेक
अ भलाषा उसे है हो नही, यो क दोनो जीवोके समान प रणाम हो, और एकको ब ध हो, सरेको ब ध
न हो, ऐसा कालमे होना यो य नह है। .
५१७
बबई, ावण वदो ७, गु , १९५०
- आपक और अ य मुमु ुजनोक च स ब धी दशा जानी हे। ानीपु षोने अ तब ताको
धानमाग कहा है, और सबसे अ तब दशामे ल य रखकर वृ है, तो भी स सगा दमे अभी हमे
भी तव बु रखनेका च रहता है। अभी हमारे समागमका अ संग है, ऐसा जाननेपर भी आप

४२३
सब भाइयोको, जस कारसे जीवको शात, दात भावका उ व हो उस कारसे पढने आ दका समागम
करना यो य है । यह बात बलवान करने यो य है।
।। ५१८ . . . वबई, ावण वदो ९, १९५०
. 'योगवा स '-जीवमे जस कार याग, वैरा य और उपशम गुण गट हो, उदयमे आये, वह
कार यानमे रखनेका समाचार जस प मे लखा, वह प ा त आ है।
ये गुण जब तक जीवमे थर नही होते तब तक जीवसे आ म व पका यथाथ पसे वशेष वचार
होना क ठन है। आ मा पी है, अ पी है, इ या द वक पोका जो उसके पहले वचार कया जाता है,
वह क पना जैसा है । जीव कुछ भी गुण ा तकर य द शीतल हो जाये तो फर उसे वशेप वचार कत
है । आ मदशना द सग, ती मुमु ुता उ प होनेसे पहले ायः क पत पसे समझमे आते है, जससे
अभी त स ब धी शात करने यो य है । यही वनती ।
५१९
बबई, ावण वद १., ग न, १९५०
ार धवशात् चारो दशाओसे सगके दवावसे कतने ही वसायी काय खड़े हो जाते ह, पर तु
च प रणाम साधारण सगमे वृ करते ए वशेष सकु चत रहा करते होनेसे इस कारके प
आ द लखना आ द नही हो सकता, जससे अ धक नह लखा गया, उसके लये आप दोनो मा करे।
५२० बबई, ावण वद ३०, गु , १९५०
ी सायला. ाममे थत, परम नेही ी सोभागको,
ी मोहमयी े से-के भ पूवक यथायो य ा त हो । वशेष वनती है क आपका लखा प
आया है । उसका नीचे लखा उ र वचा रयेगा। ,
- ानवाताके सगमे उपकारी कतने ही आपको उठते है, वे आप हमे लखते है, और उनके
समाधानको आपको वशेष इ छा रहती है, इस लये य द कसी भी कारसे आपको उनका समाधान
लखा जाये तो ठ क, ऐसा च मे रहते ए भी उदययोगसे वैसा नही हो पाता। प लखनेमे च क
थरता ब त ही कम रहती है । अथवा च उस कायमे अ प मा छाया जैसा वेश कर सकता है।
जससे आपको वशेष व तारसे प नही लखा जाता। च क थ तके कारण एक एक प लखते
ए दस-दस, पाँच-पांच बार, दो-दो चार-चार प याँ लखकर उस प को अधूरा छोड़ दे ना पड़ता है।
यामे च नह है, और अभी ार ध वल भी उस यामे वशेष उदयमान नही होनेसे आपको तथा
अ य मुमु ुओको वशेष पसे कुछ ानचचा नही लखी जा सकती। इस वषयमे च म खेद रहता है,
तथा प अभी तो उसका उपशम करनेका ही च रहता है। अभी कोई ऐसी ही आ मदशाक थत
रहती है। ायः जान-बूझकर कुछ करनेमे नही आता, अथात् माद आ द दोषके कारण वह या नही
होती, ऐसा तीत नही होता।
_ 'समयसार' थके क व आ दका आप जो मुखरस स ब धी ान वषयक अथ समझते ह, वह
वैसा ही है, ऐसा सव है, ऐसा कहना यो य नह है। बनारसीदासने 'समयसार' यको ह द भाषामे
करते ए ब तसे क व , सवैया इ या दमे वैसी ही बात कही है, और वह कसी तरह 'वीज ान' से
मलती ई तीत होती है । तथा प कही कही वैसे श द उपमा पसे भी आते ह। बनारसीदासने 'समय-
सार' रचा है, उसमे वे श द जहाँ जहाँ आये ह, वहाँ वहाँ सव उपमा प ह, ऐसा नह लगता, पर तु

४२४
कई थलोमे व तु पसे कहे है, ऐसा लगता है। य प यह बात कुछ आगे बढनेपर मलती झुलती हो
सकती है । अथात् आप जसे 'बोज ान' मे कारण मानते ह उससे कुछ आगे बढ़ती ई वात, अथवा वह
बात उसमे वशेष ानसे अगीकृत क ई मालूम होती है ।
बनारसीदासको कोई वैसा योग आ हो, ऐसा 'समयसार' थक उनक रचनासे तीत होता
है । 'मूल समयसार' मे 'वोज ान' स व धी इतनी अ धक प बात कही ई मालूम नही होती, और
वनारसीदासने तो कई जगह व तु पसे और उपमा पसे वह बात कही है। जससे ऐसा ात होता है
क बनारसीदासने साथमे अपने आ मामे जो कुछ अनुभव आ है, उसका भी कुछ उस कारसे काश कया
है क कसी वच ण जीवके अनुभवके लये वह वात आधारभूत हो, उसे वशेष थर करनेवाली हो ।
ऐसा भी लगता है क बनारसीदासने ल णा दके भेदसे जीवका वशेष नधार कया था, और

ो े े े ी े े े ै
उन उन ल ण आ दका सतत मनन होते रहनेस, े आ म व प कुछ ती ण पसे उनके अनुभवमे आया है,
और उ हे अ पसे आ म का भी ल य आ है, और उस अ ल यसे उ होने उस वीज ानको
गाया है। अ ल यका अथ यहाँ यह है क च वृ आ म वचारमे वशेष पसे लगी रहनेस,

बनारसीदासको जस अशमे प रणामक नमल धारा गट ई है, उस नमल धाराके कारण वयंको
' यही है, ऐसा य प प जाननेमे नही आया, तथा प अ प पसे अथात् वाभा वक पसे भी
उनके आ मामे वह छाया भासमान ई है, और जसके कारण यह बात उनके मुखसे नकल सक है।
और सहज आगे वढनेसे वह वात उ हे एकदम प हो जाये ऐसी दशा उस थको रचते ए उनक
ायः रही है।
ी डु गरके अतरमे जो खेद रहता है वह कसी तरह यो य है, और वह खेद ाय आपको भी रहता
है, ऐसा जानते ह। तथा अ य भी कई मुमु ुजीवोको उसी कारका खेद रहता है, ऐसा जाननेपर भी,
और आप सबका यह खेद र कया जाये तो ठ क, यह मनमे रहते ए भी ार धका वेदन करते ह । फर
हमारे च मे इस वषयमे अ य त बलवान खेद है। जो खेद दनमे ाय अनेक-अनेक सगोमे फु रत
आ करता है, और उसका उपशमन करना पड़ता है, और ायः आप लोगोको भी हमने वशेष पसे उस
खेदके वषयमे नही लखा है, अथवा नही बताया है। हमे यह बताना भी यो य नही लगता था, पर तु अभी
ी डु गरके कहनेस,
े सगवश बताना आ है । आपको और डु गरको जो खेद रहता है, उसक अपे ा हमे
अस यातगुण- व श खेद त स ब धी रहता होगा ऐसा लगता है। यो क जस जस संगपर आ म दे शमे
उस वातका मरण होता हे उस उस सगपर सभी दे श श थल जैसे हो जाते ह, और जीवका न य
वभाव होनेसे जीव ऐसा खेद रखते ए भी जीता है, उस हद तक खेदको ा त होता है। फर प रणामातर
होकर थोडे अवकाशमे भी वह क वह वात दे श- दे शमे फु रत हो उठती है, और वैसी क वैसी दशा
हो जाती है, तथा प आ मापर अ य त करके अभी तो उस कारका उपशमन करना ही यो य है,
ऐसा समझकर उपशमन कया जाता है ।
ी डु गरके अथवा आपके च मे ऐसा आता हो क साधारण कारणोके वहाने हम इस कारक
वृ नह करते, यह यो य नह है। इस कारसे य द रहता हो तो ाय. वैसा नह है, ऐसा हम लगता
है। न य त उस वातका वचार करनेपर भी अभी बलवान कारणोका उसके त स ब ध है, ऐसा
जानकर जस कारक आपक इ छा भावना हेतुमे है उस हेतुको ढोला करना पड़ता है, और उसके
अवरोधक कारणोको ीण होने दे नेमे कुछ भी आ मवीय प रण मत होकर थ तमे रहता है। आपक
इ छानुसार अभी जो वृ नह क जाती उम वषयमे जो बलवान कारण अवरोधक है, उ हे आपको
वशेष पमे बतानेका च नह होता, यो क अभी उ हे वशेष पसे बतानेमे अवकाश जाने दे ना यो य है।

४२५
जो बलवान कारण भावना हेतुके अवरोधक ह, उनमे हमारा बु पूवक कुछ भी माद हो, ऐसा
कसी तरह स भव नही है। तथा अ पसे अथात् न जाननेपर भी 'जो सहजमे जीवसे आ करता हो,
ऐसा- माद हो, यह भी तीत नही होता । तथा प कसी अशमे उस मादका स भव समझते ए भी उससे
अवरोधकता हो, ऐसा लग नही सकता, यो क आ माको न यवृ उससे अस मुख है।
_____ लोगोमे वह वृ करते ए मानभग होनेका सग आये तो वह मानभग भी सहन न हो सके,
ऐसा होनेसे भावना हेतुक उपे ा क जाती हो, ऐसा भी नही लगता। यो क उस मानामानमे च
ायः उदासीन जैसा है, अथवा उस कारमे च को वशेष उदासीन कया हो तो हो सके ऐसा है।
. श दा द वषयोका कोई बलवान कारण भी अवरोधक हो ऐसा तीत नही होता। केवल उन
वषयोका ा यकभाव ह, ऐसा य प कहनेका सग नही है, तथा प उनमे अनेक पसे वरसता भास रही
है। उदयसे भी कभी मद चका ज म होता हो तो वह भी वशेष अव था पानेसे पहले नाशको ा त होतो
है, और उस मद चका वेदन करते ए भी आ मा खेदमे ही रहता है, अथात् वह च ' अनाधार होतो
जाती होनेसे बलवान कारण प नही है । । ।
अ य कई भावक ए ह, उनको अपे ा कसी तरह वचारदशा दक बलता भी होगी, 'ऐमा
लगता है क वैसे भावक पु ष आज दखायी नह दे ते, और मा उपदे शक पसे नाम जैसी भावनासे
वतन करते ए कई दे खनेमे, सुननेमे आते ह, उनक व मानताके कारण हमे कुछ अवरोधकता हो ऐसा
भी तीत नह होता।
. अभी तो इतना लखा जा सका है। वशेष समागमके सगपर अथवा अ य सगपर बतायगे।
इस वषयमे आप और ी डु गर य द कुछ भी वशेष लखना चाहते हो, तो खुशीसे ल खयेगा। और
हमारे लखे ए कारण मा बहाना प ह ऐसा वचार करना यो य नह है, इतना यान र खयेगा।' '
५२१
बंबई, ावण, १९५०
जस प मे य आ यका व प लखा है वह प यहाँ ा त आ है। मुमु ुजीवको परम भ -
स हत उस व पक उपासना करना यो य है।
योगवलस हत, अथात् जनका उपदे श ब तसे जीवोको थोडे ही याससे मो साधन प हो सके
ऐसे अ तशयस हत जो स पु ष हो, वे जब यथा ार ध उपदे श वहारका उदय ा त होता है तब मु य-
पसे ाय उस भ प य आ यमागको गट करते ह, पर तु वैसे उदययोगके बना ाय गट
नही करते।
स पु ष ाय. सरे वहारके योगमे मु यत उस मागको गट नह करते, यह उनक क णा
वभावता है। जगतके जीवोका उपकार पूवापर वरोधको ा त न हो अथवा ब तसे जीवोका उपकार हो
इ या द अनेक कारण दे खकर अ य वहारमे रहते ए स पु ष वैसे य आ य प मागको गट नही

े े े ो े े े े े
करते । ाय. अ य वहारके उदयमे तो वे अ स रहते ह; अथवा कुछ ार ध वशेषसे स पु ष पसे
कसीके जाननेम आये, तो भी पूवापर उसके ेयका वचार करके यथास भव वशेष सगमे नही आते,
अथवा ाय अ य वहारके उदयमे सामा य मनु यको तरह वचरते ह।
वैसी व क जाये ऐसा ार ध न हो तो जहाँ कोई वैस उपदे शका अवसर ा त होता है वहाँ
भी ' य आ यमाग' का ायः उपदे श नह करते । व चत् ' य आ यमाग' के थानपर 'आ य-
माग' ऐसे सामा य श दसे, ब त उपकारका हेतु दे खकर कुछ कहते है। अथात् उपदे श वहारका वतन
करनेके लये उपदे श नही करते।

४२८
सोना औपचा रक है, ऐसा जने का अ भ ाय है, और जब अनंत परमाणुओके समुदाय-
पसे वह रहता है तव च ुगोचर होता है। उसक जो भ भ आकृ तयाँ बन सकती ह वे सभी
सयोगभावी ह, और फरसे वे एक क जा सकती है, वह उसी कारणसे है। पर तु सोनेका मूल व प
दे ख तो अनंत परमाणु-समुदाय है । जो भ भ परमाणु है वे सब अपने अपने व पमे ही रहे ए ह ।
कोई भी परमाणु अपने व पको छोडकर सरे परमाणु पसे कसी भी तरह प रणमन करने यो य नही
है, मा वे सजातीय होनेसे और उनमे पशगुण होनेसे उस पशके सम वषमयोगसे उनका मलना हो
सकता है, पर तु वह मलना कुछ ऐसा नह ह, क जसमे कसी भी परमाणुने अपने व पका याग कर
दया हो । करोडो कारसे उस अनत परमाणु प सोनेक आकृ तयोको य द एक रस प कर, तो भी
सबके सब परमाणु अपने हो व पमे रहते ह, अपने , े , काल और भावका याग नही करते,
यो क वैसा होनेका कसी भी तरहसे अनुभव नही हो सकता। उस सोनेके अनत परमाणुओके अनुसार
अनत स क अवगाहना माने तो बाधा नही है, पर तु इससे कुछ कोई भी जीव कसी भी सरे जीवके
साथ सवथा एक व पसे मल गया है, ऐसा है ही नही । सब नजभावमे थ त करके ही रह सकते ह।
येक जीवक जा त एक हो, इससे जो एक जीव है वह अपनापन याग करके सरे जीवोके समुदायमे
मलकर व पका याग कर दे ता है, ऐसा होनेका या हेतु हे ? उसके अपने , े , काल, भाव,
कमबध और मु काव था, ये अना दसे भ ह, और मु ाव थामे फर वह , े , काल, भावका
याग करे, तो फर उसका अपना व प या रहा ? उसका या अनुभव रहा ? और अपने व पके
जानेसे उसक कमसे मु ई अथवा अपने. व पसे मु ई ? यह कार वचार करने यो य है।
इ या द कारसे जने ने सवथा एक वका नषेध कया है।
- अभी समय नही होनेसे इतना लखकर प पूरा करना पड़ता है । यही वनती ।। ।।
ी थभतीथ े मे थत ी अबालाल, कृ णदास आ द सव मुमु ुजनके त,
ी मोहमयी े से आ म व पक मृ तपूवक यथायो य ा त हो।
वशेष वनती क आप, सव भाइयोके त आज दन तक हमसे मन, वचन, कायाके योगसे
जानते या अजानते कुछ भी अपराध आ हो उसक वनयपूवक शु अत करणसे मा मांगता ँ।
यही वनती।
यह आ मभाव है और यह अ यभाव है, ऐसा बोधवीज आ मामे प रण मत होनेसे अ यभावमे
सहजमे उदासीनता उ प होतो है, और वह उदासीनता अनु मसे उन अ यभावसे सवथा मु करती
है। जसने नजपरभावको जाना है, ऐसे ानीपु षको, उसके प ात् परभावके कायका जो कुछ सग
रहता है उस सगमे वृ करते-करते भी उससे उस ानोका स ब ध छू टा करता है, परतु उसमे
हतबु होकर तवध नही होता।
तबंध नही होता यह वात एका त नह है, यो क जहाँ ानक वशेष बलता नही होती वहाँ
परभावके वशेष प रचयका तबध प हो जाना भी स भव है, और इस लये भी ी जने ने
ानी पु षके लये भी नज ानके प रचय-पु षाथको सराहा है। उसे भी माद कत नह है, अथवा

४२९
परभावका प रचय करना यो य नही है, यो क वह कसी अशमे भी आ मधाराके लये तबध प
कहने यो य है।
. ानीको मादबु स भव नह है, ऐसा य प सामा य पदमे ी जने आ द महा माओने कहा
है, तो भी वह पद चौथे गुण थानसे स भ वत नही माना, आगे जाकर सभ वत माना है, जससे वचार-
वान जीवका तो अव य कत है क यथास भव परभावके प र चत कायसे र रहना, नवृ होना।
ाय वचारवान जीवको तो यही बु रहतो है, तथा प कसी ार धवशात् परभावका प रचय
बलतासे उदयमे हो वहाँ नजपदबु मे थर रहना वकट है, ऐसा मानकर न य नवृ वु क वशेष
भावना करनी, ऐसा महापु षोने कहा है।
अ पकालमे अ ाबाध थ त होनेके लये तो अ यत पु षाथ करके जीवको परप रचयसे नवृ
होना ही यो य है । धीरे धीरे नवृ होनेके कारणो पर भार दे नेक अपे ा जस कार वरासे नवृ
हो वह वचार कत है, और ऐसा करते ए य द असाता आ द आप योगका वेदन करना पड़ता हो
तो उसका वेदन करके भी परप रचयसे शी त र होनेका उपाय करना यो य है । इस वातका व मरण
होने दे ना यो य नही है।
ानक बलवती तारत यता होनेपर तो जीवको परप रचयमे वा मवृ होना कदा प स भव नही
है, और उसक नवृ होनेपर भी ानबलसे वह एका त पसे वहार करने यो य है। परंतु उससे
ी ी ै ऐ े ी ो ो े े ै
जसक नीची दशा है, ऐसे जीवको तो अव य परप रचयका छे दन करके स संग कत है, क जस
स सगसे सहजमे अ ावाध थ तका अनुभव होता है। ानीपु ष क ज हे एकातमे वचरते ए भी
तवधका स भव नही है, वे भी स सगक नर तर इ छा रखते ह, यो क जीवको य द अ ावाध
समा धक इ छा हो तो स सग जैसा कोई सरल उपाय नही है।
ऐसा होनेसे दन त दन, सग सगमे, अनेक बार ण ण मे स सगका आराधन करनेक ही
इ छा वधमान आ करती है । यही वनती ।
__ ी मोहमयी े से जीव मु दशाके इ छु क का आ म मृ तपूवक यथायो य ा त हो। वशेष
आपके लखे ए दो प मले ह । अभी कुछ अ धक व तारसे लखना नह हो सका । उस कायमे च -
थ तका वशेष वेश नही हो सकता।।
___ 'योगवा स ा द' जो जो उ म पु ष के वचन ह वे सब अहवृ का तकार करनेके लये ही है।
जस जस कारसे अपनी ा त क पत क गयी है, उस उस कारसे उस ा तको समझकर त सबंधी
अ भमानको नवृ करना, यही सव तीथकर आ द महा माओका कहना है, और उसी वा यपर जीवको
वशेषत थर होना है, उसीका वशेष वचार करना है, और वही वा य मु यतः अनु े ायो य है । उस
कायक स के लये सब साधन कहे ह। अहता द बढनेके लये, वा या अथवा मतके आ हके
लये, स दाय चलानेके लये, अथवा पूजा ाघा द ा त करनेके लये कसी महापु पका कोई उपदे श
नही है और वही काय करनेक ानीपु पको सवथा आ ा है । अपनेमे उ प आ हो ऐसे म हमायो य
गुणसे उ कष ा त करना यो य नह है, परतु अ प भी नजदोष दे खकर पुन पुन. प ा ाप करना
यो य है, और माद कये वना उससे पीछे मुडना यो य है, यह सूचना ानीपु षके वचनमे सव
.

४३०
न हत है । और उस भावके आनेके लये स सग, स और स शा आ द साधन कहे है, जो अन य
न म ह।
जीवको उन साधनोक आराधना नज व पके ा त करनेके हेतु प ही है, तथा प जीव य द वहाँ
भी वंचनाबु से वृ करे तो कभी क याण नह हो सकता । वचनाबु अथात् स सग, स आ दमे
स चे आ मभावसे जो माहा यवु होना यो य है, वह, माहा यबु , नही और अपने आ मामे
अ ानता ही रहतो चली आयी है, इस लये उसक अ प ता, लघुता वचारकर अमाहा यबु करनी
चा हये सो नही करना, तथा स सग, स आ दके योगमे अपनी अ प ता, लघुताको मा य नही करना
यह भो वचना बु है। वहाँ भी य द जीव लघुता धारण न करे तो य पसे जीव भवप र मणसे
भयको ा त नह होता, यही वचार करना यो य है। जीवको य द थम यह ल य अ धक हो, तो सब
शा ाथ और आ माथका सहजतासे स होना सभव है। यही व ापन। -
आ० व० णाम ।
५२७ बबई, भादो वद १२, बुध, १९५०
पू य ी सोभागभाई, ी सायला ।
- यहाँ कुशलता है । आपका एक प आज आया है। ोके उ र अब तुरत लखगे।
.. आपने आजके प मे जो समाचार लखा है, त स ब धी, ी रेवाशकरभाईको जो राजकोट ह,
उ हे लखा है वे सीधे आपको उ र लखगे ।
गोस लयाके दोहे मले ह। उनका उ र लखने जैसा वशेष पसे नही है । एक अ या म दशाके
अकुरसे-- फुरणसे ये दोहे उ प होना स भव है। पर तु ये एकात स ात प नही है।
ी महावीर वामीसे वतमान जैन शासनका वतन आ है, वे अ धक उपकारी ? या य हतमे
ेरक और अ हतके नवारक ऐसे अ या ममू त स अ धक उपकारी? यह मांकुभाईक तरफसे
है। इस वषयमे इतना वचार रहता है क महावीर वामी सव ह और य पु ष आ म -स य
है, अथात् महावीर वामी वशेष गुण थानकमे थत थे। महावीर वामीको तमाक वतमानमे भ
करे, उतने ही भावसे य स क भ करे, इन दोनोमे वशेष हतयो य कसे कहना यो य है ।
इसका उ र आप दोनो वचारकर स व तर ल खयेगा।
पहले सगाईके स ब धमे सूचना क थी, अथात् हमने रेवाशकरभाईको सहज ही लखा था,
यो क उस समय वशेष लखा जाना अनवसर आत यान कहने यो य है। आज आपके प लखनेसे
रेवाशकरभाईको मने प लख दया है। ावहा रक जंजालमे हम उ र दे ने यो य न होनेसे
रेवाशकरभाईको इस सगमे लखा है, जो लोटती डाकसे आपको उ र लखगे।' यही वनती ।
गोस लयाको णाम।
ल. आ० व० णाम ।
५२८ . बवई, आसोज सुद ११, बुध, १९५०
ज हे व मे भी ससारसुखक इ छा नह रही, और ज हे ससारका व प स पूण न:सारभूत
भा सत आ है, ऐसे ानीपु ष भी आ माव थाको वारवार स भाल स भालकर उदय ा त ार धका
वेदन करते ह, पर तु आ माव थामे माद नही होने दे ते। मादके अवकाश योगमे ानीको भी जस
ससारसे अशतः ामोह होनेका स भव कहा है, उस संसारमे साधारण जोव रहकर, उसका वसाय

४३१
लौ ककभावसे करके आ म हतक इ छा करे, यह न होने जैसा ही काय है, यो क लौ ककभावके कारण
जहाँ आ माको नवृ नही होती, वहाँ अ य कारसे हत वचारणा होना स भव नही है। य द एकको

ो ो े ो ै े ऐ े ी ौ
नवृ हो.तो सरेका प रणाम होना स भव है। अ हतहेतु ऐसे ससारस ब धी सरा, लौ ककभाव,
लोकचे ा इन सबक स भाल यथास भव छोड़ करके, उसे कम करके आ म हतको अवकाश दे ना
यो य है।
आ म हतके लये स सग जैसा बलवान अ य कोई न म तीत नही होता, फर भी वह स सग
भी जो जीव लौ ककभावसे अवकाश नही लेता, उसके लये ाय. न फल होता है, और स सग कुछ सफल
आ हो, तो भी य द लोकावेश वशेष- वशेष रहता हो तो उस फलके नमूल हो जानेमे दे र नही लगती,
और ी, पु , आर भ तथा प र हके सगमेसे य द नजबु छोडनेका यास न कया जाये तो स सगके
सफल होनेका स भव कैसे हो ? जस सगमे महा ानीपु ष सँभल सँभलकर चलते है, उसमे इस जीवको
तो अ य त अ य त सावधानतासे, सकोचपूवक चलना चा हये, यह बात भूलने जैसी ही नह है, ऐसा
न य करके सग- सगमे, काय-कायमे और प रणाम-प रणामम उसका यान रखकर उससे छू टा जाये,
वैसे ही करते रहना, यह हमने ी वधमान वामीक छ थ मु नचयाके ातसे कहा था।
. . . . . ५२९ । बबई, आसोज वद ३, बुध, १९५०
'भगवान भगवानका संभालेगा, पर तु जब जीव अपना अह छोडेगा तब', ऐसा जो भ जनीका
वचन है, वह भी वचार करनेसे हतकारो है । आप कुछ ानकथा ल खोगा।
यहां कुशलता है। आपका लखा आ एक प मुझे मला है। कई कारण से उसका उ
लखनेमे ढ ल ई थी । वादमे, आप इस तरफ तुर त आनेवाले ह, ऐसा जाननेमे आनेसे प नही लर
था, पर तु अभी ऐमा जाननेमे आया है क थानीय कारणसे अभी वहां लगभग एक वष तक ठहरने
है, जससे मैने यह प लखा है। आपके लखे ए प मे जो आ मा आ दके वषयमे ह और
ोके उ र जाननेक आपके च मे वशेष आतुरता है, उन दोनोके त मेरा सहज सहज अनुम
है। पर तु जस समय आपका वह प मुझे मला उस समय उसका उ र लखा जा सके ऐसे
च क थ त नही थी, और ायः वैसा होनेका कारण भी यह था क उस सगमे बा ोपा ध स
वैरा य वशेष प रणामको ा त आ था, और वैसा होनेसे उस प का उ र लखने जैसे का
वृ हो सकना स भव न था। थोडा समय जाने दे कर, कुछ वैसे वैरा यमेसे भी अवकाश लेकर
प का उ र लखेगा, ऐसा सोचा था, पर तु बादमे वैसा होना भी अश य हो गया। आपके प
भो मने लखो न थी और इस कार उ र लख भेजनेमे ढोल ई, इससे मेरे मनमे भी खेद
और जसका अमुक भाव तो अभी तक रहा करता है । जस सगमे वशेष करके खेद हआ. उ
१. महा मा गाधीजीने उरवन-अ कासे जो पूछे थे उनके उ र यहाँ दये है।

४३२
ऐसा सुननेमे आया क आप तुर त ही इस दे शमे आनेका वचार रखते है, जससे च मे कुछ ऐसा आया
क आपको उ र लखनेमे दे र ई है, पर तु आपना समागम होनेसे वह उलट लाभकारक होगी। यो क
लेख ारा ब तसे उ र समझाना वकट था, और आपको तुर त प न मल सकनेसे आपके च मे जो
आतुरता वधमान ई वह समागममे उ र तुरत ही समझ सकनेके लये एक सु दर कारण मानने यो य था ।
अब ार धोदयसे जब समागम हो तब कुछ भी वेसी ानवाता होनेका संग आये ऐसी आका ा रखकर
सं ेपमे आपके ोके उ र लखता , ँ जन ोके उ रोका वचार करनेके लये नर तर त स ब धी
वचार प अ यासक आव यकता है । वे उ र स ेपमे लखे गये है, जससे कुछ एक स दे होक नवृ
होना शायद मु कल होगा, तो भी मेरे च मे ऐसा रहता है क मेरे वचनके त कुछ भी वशेष
व ास है, और इससे आपको धैय रह सकेगा, और ोका यथायो य समाधान होनेके लये अनु मसे
'कारणभूत होगा ऐसा मुझे लगता है ! आपके प मे २७ है, उनके उ र सं ेपमे नीचे लखता - ँ
• १ -(१) आ मा या है ? (२) वह कुछ करता है ? (३) और उसे कम ःख दे ते है या नही ।
उ०-(१) जैसे घटपटा द जड़ व तुएँ है वैसे आ मा ान व प व तु है । घटपटा द अ न य ह,
वे एक व पसे थ त करके काल नही रह सकते ! आ मा एक व पसे थ त करके काल रह
सकता है ऐसा न य पदाथ है। जस पदाथको उ प कसी भी सयोगसे नही हो सकती, वह पदाथ
न य होता है । आ मा कसी भी सयोगसे बन सके, ऐसा तीत नही होता। यो क जड़के चाहे हजारो
सयोग कर तो भी उससे चेतनक उ प हो सकने यो य नही है। जो,धम जस पदाथमे, नही होता,
वैसे ब तसे पदाथ को इक ा करनेसे भी, उसमे जो धम नही है, वह उ प नही हो सकता, ऐसा अनुभव,
सबको हो सकता है। जो घटपटा द पदाथ ह उनमे ान व पता दे खनेमे नही आती। वैसे पदाथ का
प रणामातर करके सयोग कया हो अथवा आ हो तो भी वह उसी जा तका होता है अथात् जड व प
होता है, पर तु ान व प नही होता । तो फर वैसे पदाथका सयोग होनेपर आ मा क जसे ानोपु ष
मु य ान व प ल णवाला कहते ह वह वैसे (घटपटा द, पृ वी, जल, वायु, आकाश) पदाथ से कसी
तरह उ प हो सकने यो य नह है। ान व पता यह आ माका मु य ल ण है, और उसके अभाव-
वाला मु य ल ण जड़का है । . उन दोनोके ये अना द, सहज वभाव है। यह तथा वैसे सरे हजारो
माण आ माक न यताका तपादन कर सकते है। तथा उसका वशेप वचार करनेपर न य पस
सहज व प आ मा अनुभवमे भी आता है। जससे सुख ख आ द भोगना, उससे नवृ होना, वचार
करना, ेरणा करना इ या द भाव जसक व मानतासे अनुभवमे आते है, वह आ मा मु य चेतन ( ान)
ल णवाला है; और उस भावसे ( थ तसे) वह सव काल रह सकनेवाला न य पदाथ है, ऐसा माननेमे
कोई भी दोष या बाधा तीत नही होती, पर तु स यका वीकार होने प गुण होता है। . '
यह तथा आपके सरे कतने ही ऐसे है क जनमे वशेष लखने तथा कहने और
समझानेक आव यकता है, उन ोके उ र वमे व पमे लख पाना अभी क ठन है। इस लये पहले
'षड् दशनसमु चय' थ आपको भेजा था क जसे पढ़ने और वचारनेसे आपको कसी भी अशमे

ो औ े ी े े ो ै ो ी
समाधान हो, और इस प से भी कुछ वशेष अशमे समाधान हो सकना स भव है। यो क त स ब धी
अनेक उठने यो य है, जनका पुन पुन समाधान होनेस,
े वचार करनेसे वे शा त हो जाये, ऐसी'
ाय थ त है।
(२) ानदशामे,' अपने व पके यथाथबोधसे उ प ई दशामे वह आ मा नजभावका अथात्
ान, दशन (यथा थत नधार) और सहजसमा धप रणामका कता है । अ ानदशामे ोध, मान, माया,

४३३
लोभ इ या द कृ तका कता है, और उस भावके फलक भो ा होनेसे संगवशात् घटपटा द पदाथका
न म पसे कता है, अथात् घटपटा द पदाथके मूल का कता नह है, पर तु उसे कसी आकारमे
लाने प याका कता है। यह जो पीछे उसक दशा ही है, उसे जैन 'कम' कहता है, वेदात ' ा त'
कहता है, तथा सरे भी तदनुसारी ऐसे श द कहते ह। वा त वक वचार करनेसे आ मा घटपटा दका
तथा ोधा दका कता नही हो सकता, मा नज कप ानप रणामका ही कता है, ऐसा प समझमे
आता है।
(३) अ ानभावसे कये ए कम ार भकाम वीज प होकर समयका योग पाकर फल प वृ -
प रणामसे प रणमते ह, अथात् वे कम आ माको गोगने पड़ते ह। जैसे अ नके पशसे उ णताका स ब ध
होता है, और उसका सहज वेदना प प रणाम जता है, वैसे आलाको ोधा द भावके कता पसे ज म,
जरा, मरणा द वेदना प प रणाम होता है,. स दवारका आप वशेष पसे वचार क जयेगा, और
त स ब धी जो कोई हो उसे ल खयेग। को क जस कारको समझ है उससे नवृ होने प
काय करनेपर जीवको मो दशा ा त होती।।
२. ०-(१)-ई र या है ? (२) वा वह वमुच जगतकता है ?
- उ.- (१) हम आप कमवधमे से ए जी ह। उस जीवका सहज वाप अथात् कमर हत पसे
मा एक आ म व पसे जो व प है ह ई र वहै। जसमे ाना द ऐ य है से ई र कहना यो य
है, और वह ई रता आ माका सल व प है। जो व प कम सगसे तीत नी होता, परंतु उस
सगको अ य व प जानकर, जब ना माक ओर होती है, तभी अनु मसे सव त दः ऐ य उसी
आ मामे तीत होता है, और उस वशेष ऐ यवाला कोई पदाथ सम त पदाथ को दे खा हए भी अन-
भवमे नही आ सकता । इस लयेजो ई र है वह वा माका सरा पयायवाची नाम है, इससे कोई वशेष
स ावाला पदाथ ई र है, ऐसा नह है। ऐसे न यमे मेरा अ भ ाय है।
(२) वह जगतकता ही है, अथात् परमाणु, आकाश आ द पदाथ न य होने यो य है, वे कसी
भी व तुमेसे बनने यो य नही है। कदा चत् ऐसा माने क वे रमेसे बने ह, तो यह बत भी यो य
नही लगती; यो क ईशरको य द चेतन पसे मान, तो उससे पमाणु, आकाश इ या द कैसे अ त हो
सकते ह ? यो क चे नसे ज़डक उ प होना ही स भव नही है । य द ई रको जड प वीकार कया
जाय तो वह सहज ती अनै यवान ठहरता है, तथा उससे जीव प तन पदाथक उ प भी नही है
सकती । जडचेतन उभय प ई र मान तो फर जडचेतन प जगत है उसका ई र ऐसा सरा नाम
कहकर सतोष नानने जैसा होता है, और जगतका नाम ई र रखकर सतोष मानना, इसक अपे ा
जगतको जगत कहना, यह वशेष यो य है। कदा चत् परमाणु, आकाश आ दको न य माने और ई र
को कमा दका फल दे नेवाला मान तो भी यह वात स तीत नही होती । इस वचारपर 'पडदशन-
समु चय' मे अ छे माण दये ह।
३ ०-मो या है ?
उ.- जस ोधा द अ ानभावमे, दे हा दमै आ माको तवध है, उससे सवथ नय होना भ
होना, उसे ा नय ने मो पद कहा है । उसका महज वचार करनेपर वह माणभूत लता है।
४ .-मोस मलेगा या नह ? यह न त पसे इस दे हमे ही जाना जा सका है ?
उ.-एक र सीके ब तसे वध से हाथ बांध दया गया हो, उनमेसे अनु मसे यो यो वध
छोड़नेमे आते है, यो यो उस बंधके स ब धको नवृ अनुभवमे आती है, और वह र सी बल

४३४
छोडकर छू ट जानेके प रणाममे रहती है, ऐसा भी मालूम होता है, अनुभवमे आता है । 'उसी कार
अ ानभावके अनेक प रणाम प वधका संग आ माको है, वह यो यो छू टता है यो यो मो का
अनुभव होता है, और जब उसक अतीव अ पता हो जाती है तब सहज ही आ मामे नजभाव का शत
होकर अ ानभाव प बधसे छू ट सकनेका सग है, ऐसा प अनुभव होता है। तथा सम त अ ाना द-
भावसे नवृ होकर स पूण आ मभाव इसी दे हम थ तमान होते ए भी आ माको गट होता है,
आर सव स ब धसे सवथा अपनी भ ना अनुभवाम आती है, अथात् मो पद इस दे हमे भी अनुभवमे
आने यो य है।
__ ५ ०-ऐसा पढनेमे आया है क मनु य दे ह छोड़कर कमके अनुसार जानवरोमे ज म लेता है,
प यर भी होता है, वृ भी होता है, या यह ठ क है ? |
उ०-दे ह छोडनेके बाद उपा जत कमके अनुसार जीवक ग त होती है, इससे वह तयच (जान-
वर) भी होता है और पृ वीकाय अथात् पृ वी प शारीर धारणकर बाक क सरी चार इ योके बना
कम भोगनेका जीवको सग भी आता है, तथा प वह सवथा प थर अथवा पृ वी हो जाता है, ऐसा कुछ
नही है । प थर प काया धारण करे और उसमे भी अ पासे जीव जीव प ही होता है । सरी चार
इ योक वहाँ अ ता (अ गटता) होनेसे पृ वीकाय प जी कहने यो य है। अनु मसे उस कमको
ो ी ो ै े े ै ी े े
भोगकर जीव नवृ होता है, तब केवल प थरका दल परमाण पसे रहता है, पर तु जीवके उसके
स ब धको छोड़कर चले जानेसे उसे आहारा द स ा नही होती, अथात् केवल जड ऐसा प थर जीव
होता है, ऐसा नही है । कमक वषमतासे चार इ योका सग अ होकर केवल एक पश य पस
दे हका सग जीनको जस कमसे होता है, उस कमको भोगते हए वह पृ वी आ दम ज म लेता है, परंतु
वह सवथा पृ वो प अथवा प थर प नही हो जाता। जानवर होते ए भी सवथा' जानवर नहा हा
जाता । जो दे ह है, वह जोवक वेशधा रता है, व पता नही है। .
६-७ ०-५व के उ रमे छठे का भी समाधान आ गया है, और सातव का भी
समाधान आ गया है, ' क केवल प थर या केवल पृ वी कुछ कमका कता नही है। उसमे आकर उ प
आ जीव कमका कता है, और वह भी ध और पानीक तरह है। जैसे ध पानीका सयोग होनेपर भी
ध ध है और पानी पानी है, वैसे एके य आ द कमब धसे जीवमे प थरपन, जड़ता मालूम होती है,
तो भी वह जीव अ तरमे तो जीव पसे ही है, और वहां भी वह आहार, भय आ द स ापूवक है, जो
अ जैसी है।
८. ०-(१) आयधम या है ? (२) सबक उ प वेदमेसे ही है या?
उ०-(१) आयधमको ा या करनेमे सभी अपने प को आयधम कहना चाहते ह। जैन जैनको,
बौ बौ को, वेदाती वेदातको आयधम कहते ह, ऐसा साधारण है। तथा प ानीपु ष तो जससे
आ माको नज व पक ा त हो, ऐसा जो आय (उ म) माग, उसे आयधम कहते ह, और ऐसा ही होने
यो य है।
(२) सबक उ प वेदमेसे होना स भव नही है। वेदमे जतना ान कहा है उससे हज़ारगुना
आशयवाला ान ी तीथकरा द महा माओने कहा है, ऐसा मेरे अनुभवमे आता है, और इससे म ऐसा
मानता ँ क अ प व तुमेसे स पूण 'व तु नही हो सकती, ऐसा होनेसे वेदमेसे सबक उ प कहना
यो य नह है। वै णवा द स दायोक उ प उसके आ यसे माननेम कोई आप नही है। जैन,
बौ के अ तम महावीरा द' महा मा होनेसे पहले वेद थे; ऐसा मालूम होता है, और वे ब त ाचीन

४३५
थ ह, ऐसा भी मालूम होता है । तथा प जो कुछ ाचीन हो वही स पूण हो या स य हो, ऐसा नही
कहा जा सकता, और जो बादमे उ प ए हो वे अपूण तथा अस य हो, ऐसा भी नही कहा जा सकता।
बाक वेद जैसा अ भ ाय और जैन जैसा अ भ ाय अना दसे चला आता है। सव भाव अना द ह, मा
पातर होता है। केवल उ प अथवा केवल नाश नह होता। वेद, जैन और अ य सबके अ भ ाय
अना द ह, ऐसा माननेमे आप नही है; वहाँ फर ववाद कसका रहे ? तथा प इन सबमे वशेष
वलवान, स य अ भ ाय कसका कहने यो य है, उसका- वचार करना, यह हमे, आपको, सबको यो य है।
९ .-(१) वेद कसने बनाये ? वे अना द ह ? (२) य द अना द हो तो अना दका अथ या ?
उ०-(१) ब त काल पहले वेदोका होना स भव है।
(२) पु तक पसे कोई भी शा अना द नही है, उसमे कहे ए अथके अनुसार तो सब शा
अना द है, यो क उस उस कारका अ भ ाय भ - भ जोव भ भ पसे कहते आये ह, और
ऐसी ही थ त स भव है, ोधा द भाव भी अना द है, और मा द भाव भी अना द ह, हसा द धम
भी अना द है; और अ हसा द धम भी अना द ह। मा जीवके लये हतकारी या है ? इतना वचार
करना काय प है । अना द तो दोनो ह । फर कभी कम प रमाणमे ओर कभी वशेष प रमाणमे कसोका
बल होता है।
१० ०—गीता कसने बनायी ? ई रकृत तो नही है ? य द वैसा हो तो उसका कोई माण है ?
. उ०-उपयु उ रोसे कुछ, समाधान हो सकने यो य है क 'ई र'का अथ ानी (स पूण ानी)
ऐसा करनेसे वह ई रकृत हो सकती है, परतु न य अ य ऐसे आकाशक तरह ापक ई रको
वीकार करनेपर वैसी पु तक आ दक उ प होना स भव नह है, यो क यह तो साधारण काय है क
जसका कतृ व आरभपूवक होता है, अना द नह होता। गीता वेद ासजीक बनायी ई पु तक मानी
जाती है और महा मा ीकृ णने अजुनको वैसा बोध कया था, इस लये मु य पसे कता ीकृ ण कहे
जाते है, जो बात स भव है। थ े है, ऐसा भावाथ अना दसे चला आता है, परतु वे ही ोक
अना दसे चले आते हो, ऐसा होना यो य नह है, तथा न य ई रसे भी उसक उ प हो, यह
स भव नही है। स य अथात् कसी दे हधारीसे वह या होने यो य है। इस लये स पूण ानी वही
ई र है, और उसके ारा उप द शा ई रीय शा है, ऐसा माननेमे कोई वाधा नह है।
११ .-पशु आ दके य से जरा भी पु य है या?
उ०-पशुके वधसे, होमसे या जरा भी उसे ख दे नेसे पाप ही है, वह फर य मे करे या चाहे
तो ई रके धाममे बैठकर कर, पर तु य मे जो दाना द या होती है, वह कुछ पु य हेतु है, तथा प
हसा म त होनेसे वह भी अनुमोदन यो य नही है।
१२ ०-जो धम उ म है, ऐसा आप कहे तो उसका माण मांगा जा सकता है या ?
उल- माण मांगनेमे न आये और उ म हे ऐसा माणके वना तपादन कया जाये तो फर
अथ, अनथ, धम, अधम सब उ म ही ठहर। माणसे ही उ म अनु म मालूम होता है । जो धम
ससारको प र ीण करनेमे सवसे उ म हो, और नज वभावमे थ त करानेमे बलवान हो वही उ म
और वही बलवान है।
१३ - या आप ईसाईधमके वषयमे कुछ जानते ह? य द जानते हो तो अपने वचार
बतलाइयेगा।
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उ०-ईसाईवमके वपयमे मै साधारण पसे जानता है। भरतखडमे महा माओने जैसा धम शोधा
है, वचारा है, वैसा धम कसी सरे दे शसे वचारा नही गया है, यह तो अ प अ याससे भी समझा जा
नकता है। उसमे (ईसाईधममे) जीवक सदा परवशता कही गयी है, और मो मे भी वह दशा वैसी ही
रखी है। जसमे जीवके अना द व पका ववेचन यथायो य नह है, कमस ब धी व था और उसक
नवृ भी यथायो य नही कही है, उस धमके वपयमे मेरा ऐसा अ भ ाय होना स भव नह है क वह
उव म धम है । ईसाईधमम जो मैने ऊपर कहा उस कारका यथायो य समाधान दखायी नह दे ता।
यह वा य मतभेदवशात् नही कहा है। अ धक पूछने यो य लगे तो पू छयेगा, तो वशेष समाधान कया
जा सकेगा।
१४. ०-वे ऐसा कहते है क वाई वल ई र े रत है, ईसा ई रका अवतार है, उसका पु है,
और था।
उ०-यह बात तो ासे मानी जा सकती है, पर तु माणसे स नही है। जैसा गीता और
वेदके ई र े रत होनेके बारेमे ऊपर लखा है, वैसा ही वाई वलके स ब धमे भी मानना । जो ज म-
मरणसे मु आ वह ई र अवतार ले, यह सभव नही है, यो क राग े षा द प रणाम ही ज मका हेतु
है, वह जसे नही है ऐसा ई र अवतार धारण करे, यह वात वचार करनेसे यथाथ तीत नही होती।
'ई रका पु है, और था, इस वातका भी कसी पकके तौरपर वचार करे तो कदा चत् मेल बैठे,
नही तो य माणसे वा धत है। मु ऐसे ई रको पु हो, यह कस तरह कहा जाये ? और कहे
तो उसक उ प कस तरह कह सकते ह ? दोनोको अना द मान तो पता-पु स ब ध कस तरह मेल
खाये ? इ या द वात वचारणीय ह। जनका वचार करनेसे मुझे ऐसा लगता है, क यह बात यथा-
यो य नह है।
१५. ०-पुराने करारमे जो भ व य कहा गया है वह सव ईसाके वपयमे सच स आ है।
उ०-ऐसा हो तो भी उससे उन दोनो शा ोके वषयमे वचार करना यो य है। तथा ऐसा
भ व य भी ईसाको ई रावतार कहनेमे वलवान माण नह है, यो क यो तषा दकसे भी महा माक
उप बतायी हो ऐसा स भव है। अथवा भले कसी ानसे वैसी वात बतायी हो, परतु वैसे भ व य-
वे ा स पूण मो मागके ाता थे, यह बात जव तक यथा थत माण प न हो, तब तक वह
भ व य इ या द एक ा ा माण है, और वह अ य माणोसे वा धत न हो, ऐसा धारणामे नही
आ सकता।
१६ ०-इसमे 'ईसामसीहके चम कार' के वषयमे लखा है।
उ०-जो जीव कायामेसे सवथा चला गया हो, उसी जीवको 'य द उसी कायामे-दा खल कया हो,
अथवा कसी सरे जीवको उसमे दा खल कया हो, तो यह हो सकना संभव नह ह; और य द ऐसा हो
तो फर कमा दक व था भी न फल हो जाये । वाक योगा दक स से कतने ही चम कार उ प
होते ह, और वैसे कुछ चम कार ईसाके हो, तो यह एकदम म या है या अस भव है, ऐसा नह कहा जा
सकता, वैसी स याँ आ माके ऐ यके आगे,अ प ह, आ माका ऐ य उससे अनंतगुना महान सभव है।
इस वषयमे समागममे पूछना यो य है।
१७ ०-भ व यमे कौनसा ज म ,होगा, उसका इस भवमे पता चलता है ?, अथवा पहले या थे
इसका पता चल सकता है ?
उ०-यह हो सकता है। जसका ान नमल आ हो उसे वैसा होना संभव है। जैसे बादल
इ या द च ोसे बरसातका अनुमान होता है, वैसे इस जीवक इस भवक चे ासे उसके पूवकारण कैसे

४३७
होने चा हये, यह भी समझा जा सकता है, कदा चत् थोड़े अंशमे समझा जाये। तथा वह चे ा भ व यमे
कैसे प रणामको ा त होगी, यह भी उसके व पसे जाना जा सकता है। और उसका वशेष वचार
करनेपर कैसा भव होना स भव है, तथा कैसा भव था, यह भी वचारमे भलीभां त आ सकता है।
१८' -पुनज म तथा पूवज मका पता कसे चल सकता है ?
उ०-इसका उ र ऊपर आ चुका है।
१९ ०- जन मो ा त पु ष के नाम आप बताते है, वह कस आधारसे ?
उल-इस को य द मुझे खास तौरसे ल य करके पूछते ह तो उसके उ रमे यह कहा जा
सकता है क जनक संसारदशा अ यत प र ीण ई है, उनके वचन ऐसे हो, ऐसी उनक चे ा हो, इ या द
अशसे भी अपने आ मामे अनुभव होता है और उसके आ यसे उनके मो के वषयमे कहा जा सकता है;
और ाय वह यथाथ होता है, ऐसा माननेके माण भी शा ा दस जाने जा सकते ह ।
२० ०-बु दे व भी मा को ा त नही ए, यह आप कस आधारसे कहते है ?
___ उ०-उनके शा स ातोके आधारसे । जस कारसे उनके शा स ात है उसीके अनुसार
य द उनका अ भ ाय हो तो वह अ भ ाय पूवापर व भी दखायी दे ता है, और वह स पूण ानका
ल ण नही है।
य द सपूण ान न हो तो सपूण राग े षका नाश होना सभव नही है । जहाँ वैसा हो वहाँ संसार-
का सभव है । इस लये, उ हे सपूण मो ा त आ है, ऐसा नही कहा जा सकता । और उनके कहे हए
शा ोमे जो अ भ ाय है उसके सवाय उनका अ भ ाय सरा था, उसे सरी तरह जानना आपके लये
और हमारे, लये क ठन है, और वैसा होने पर भी य द कहे क बु दे वका अ भ ाय सरा था तो उसे
• कारणपूवक कहनेसे माणभूतान हो, ऐसा कुछ नह है।

ो ी
२१ ०- नयाक अ तम थ त या होगी?
उ.-सब जीवोक थ त सवथा मो पसे हो जाये अथवा इस नयाका सवथा नाश हो जाये,
वैसा होना मुझे माणभूत नही लगता । ऐसेके ऐसे वाहमे उसक थ त स भव है। कोई भाव पातर
पाकर ीण हो, तो कोई वधमान हो, पर तु वह एक े मे बढे तो सरे े मे घटे इ या द इस स क
थ त है । इससे और ब त ही गहरे वचारमे जानेके अनतर ऐसा संभ वत लगता है, क इस स का
सवथा नाश हो या लय हो, यह न होने यो य है । सृ अथात् एक यही पृ वी ऐसा अथ नही है।
२२. ०-इस अनी तमेसे सुनी त होगी या?
उ०-इस का उ र सुनकर जो जीव अनी तको इ छा करता है, उसे यह उ र उपयोगी
हो, ऐसा होने दे ना यो य नही है। सव भाव अना द ह, नो त, अनी त, तथा प आप हम अनी त छोड़कर
नी त वीकार कर, तो इसे वीकार कया जा सकता है और यही आ माको कत है। और सव जीव-
आ यी अनी त मटकर नी त था पत हो, ऐसा वचन नह कहा जा सकता; यो क एकातसे वैसी थ त
हो सकना यो य नह है।
२३. ०- नयाका लय है ?
उ०- लय अथात् सवथा नाश, य द ऐसा अथ कया जाये तो यह बात यो य नह है, यो क
पदाथका सवथा नाश होना स भव ही नही है। लय अथात् सव पदाथ का ई रा दमे लीन होना, तो
कसीके अ भ ायमे इस बातका वीकार है, पर तु मुझे यह स भ वत नही लगता, यो क सव पदाथ,
सव जीव ऐसे समप रणामको कस तरह पाय क ऐसा योग हो, और य द वैसे समप रणामका सग आये
४३८
ीमद् राजच
तो फर पुन. वषमता होना स भव नही ह। य द अ पसे जीवमे वषमता हो और पसे
समता हो इस तरह लयको वीकार कर तो भी दे हा द स ब धके बना वषमता कस आ यसे रहे ?
दे हा द स ब ध मान तो सबक एके यता माननेका संग आये, और वैमा माननेसे तो बना कारण
सरी ग तयोका अ वीकार समझा जाये अथात् ऊँची ग तके जीवको य द वैसे प रणामका संग मटने
आया हो, वह ा त होनेका सग आये इ या द ब तसे वचार उठते है। सव जीवा यी लयका
स भव नह है।
२४ ०-अनपढको भ से ही मो मल सकता है या?
उ.-भ ानका हेतु है। ान मो का हेतु है। जसे अ र ान न हो उसे अनपढ कहा हो,
तो उसे भ ा त होना असंभ वत है, ऐसा कुछ है नही । जीव मा ान वभावी है । भ के बलसे
ान नमल होता है। नमल ान मो का हेतु होता है । स पूण ानक अ भ ए बना सवथा
मो हो, ऐसा मुझे नह लगता, और जहाँ स पूण ान हो वहाँ सव भाषा ान समा जाय, ऐसा कहनेक
भी आव यकता नही है । भाषा ान मो का हेतु है तथा वह जसे न हो उसे आ म ान न हो. ऐसा कुछ
नयम स भव नह है।
२५ ०-(१) कृ णावतार और रामावतार होनेक बात या स ची है ? य द ऐसा हो तो वे
या थे? वे सा ात् ई र थे या उसके अश थे? (२) उ हे माननेसे मो मलता है या ?
उ०-(१) दोनो महा मा पु ष थे, ऐसा तो मुझे भी न य है। आ मा होनेसे वे ई र थे।
उनके सब आवरण र हो गये हो तो उनका सवथा मो भी माननेमे ववाद नह है। कोई जीव ई र
का अश है, ऐसा मुझे नह लगता, यो क उसके वरोधी हजारो माण दे खनेमे आते ह । जीवको ई र
का अश माननेसे बध-मो सब थ हो जाते है यो क ई र ही अ ाना दका कता आ, और अ ान
आ दका जो क ा हो उसे फर सहज ही अनै यता ा त होती है और ऐ य खो बैठता है, अथात्
जीवका वामी होने जाते ए ई रको उलटे हा न सहन करनेका सग आये वैसा है। तथा जीवको
ई रका अश माननेके बाद पु षाथ करना कस तरह यो य लगे? यो क वह वय तो कोई कता-हता
स नह हो सकता । इ या द वरोधसे कसी जीवको ई रके अश पसे वीकार करनेक भी मेरी बु
नह होती। तो फर ीकृ ण या राम जैसे महा माओको वैसे योगमे माननेक बु कैसे हो ? वे दोनो
अ ई र थे, ऐसा माननेमे बाधा नही है । तथा प उनमे स पूण ऐ यं गट आ था या नह , यह
बात वचारणीय है।
(२) उ हे माननेसे मो मलता है या? इसका उ र सहज है । जीवके सव राग े ष और अ ान
का अभाव अथात् उनसे छु टना ही मो है। वह जनके उपदे शसे हो सके उ हे मानकर और उनका
परमाथ व प वचारकर, वा मामे भी वैसी ही न ा होकर उसी महा माके आ माके आकारसे
( व पसे) त ान हो, तब मो होना स भव है। बाक अ य उपासना सवथा मो का हेतु नह है,
उसके साधनका हेतु होती है, वह भी न यसे हो ही ऐसा कहना यो य नह है।
२६ ०- ा, व णु और महे र कौन थे?
। उ०-सृ के हेतु प तीन गुणोको मानकर, उनके आ यसे उ हे यह प दया हो तो यह बात
मेल खा सकती है तथा वैसे अ य कारणोसे उन ा दका व प समझमे आता है। पर तु पुराणोमे
जस कारका उनका व प कहा है, उस कारका व प है, ऐसा माननेमे मेरा वशेष झुकाव नह
है। यो क उनमे ब तसे पक उपदे शके लये कहे हो, ऐसा भी लगता है । तथा प हमे भी उनका

४३९
उपदे शके पमे लाभ लेना चा हये और ा दके व पका स ात करनेक जजालमे न पड़ना चा हये
यह मुझे ठ क लगता है।
२७. ०-जब मुझे सप काटने आये तब मुझे उसे काटने दे ना या मार डालना ? उसे सरी तरह
से र करनेक श मुझमे न हो, ऐसा मानते ह।
उ०-आप सपको काटने द, ऐसा काम बताते ए वचारमे पड़ने जैसा है। तथा प आपने य द
ऐसा जाना हो क 'दे ह अ न य है', तो फर इस असारभूत दे हके र णके लये, जसे दे हमे ी त है, ऐसे
सपको मारना आपके लये कैसे यो य हो। जसे आ म हतक इ छा हो, उसे तो वहाँ अपनी दे ह छोड़
दे ना ही यो य है। कदा चत् आ म हतक इ छा न हो, वह या करे तो इसका उ र यही दया
जाये क वह नरका दमे प र मण करे, अथात् सपको मारे ऐसा उपदे श कहांसे कर सकते ह ? अनाय-
वृ हो तो मारनेका उपदे श कया जा सकता है। वह तो हमे तु हे व मे भी न हो, यही इ छा करने
यो य है।
अब स ेपमे इन उ रोको लखकर प पूरा करता ँ। 'षड् दशनसमु चय'को वशेष समझनेका
य ल क जयेगा । इन ोके उ र सं ेपमे लखनेसे आपको समझनेमे कही भी कुछ वधा हो तो भी
वशेषतासे वचा रयेगा, और कुछ भी प ारा पूछने यो य लगे तो पू छयेगा, तो ाय. उसका उ र
लखूगा । समागममे वशेष ममाधान होना अ धक यो य लगता है।
ल० आ म व पमे न य न ाके हेतुभूत वचारक चतामे रहनेवाले
रायचंदके णाम।
५३१ -
बबई, आसोज बद ३०, १९५०
आपके लखे हए तीनो प मले ह। जसका परमाथ हेतुसे सग हो वह य द आजी वका दके
े े ो ी ी े े ो े े ी ो ी ै
संगके वषयमे थोडीसी बात लखे या सू चत करे, तो उससे परेशानी हो आती है। परतु यह क लकाल
महा माके च को भी ठकाने रहने दे , ऐसा नह है, यह सोचकर मने आपके प पढे है। उनमे ापार
क व थाके वषयमे आपने जो लखा, वह अभी करने यो य नह है। वाक उस सगमे आपने जो
कुछ सू चत कया है उसे या उससे अ धक आपके वा ते कुछ करना हो तो इसमे आप नह है। यो क
आपके त अ यभाव नह है।
५३२
बबई, आसोज वद ३०, १९५०
आपके लखे ए तीन प ोके उ रम एक च ' आज लखी है। जसे ब त स ेपमे लखा होने
से उनका उ र कदा चत् न समझा जा सके, इस लये फर यह च लखी है। आपका न द काय
आ मभावका याग कये बना चाहे जो करनेका हो तो उसे करनेमे हमे वषमता नह है। परतु हमारा
च , अभी- आप जो काम लखते ह उसे करनेमे फल नह है, ऐसा समझकर आप उस वचारका
उपशमन करे, ऐसा कहता है। आगे या होता हे उसे धीरतासे सा ीवत् दे खना ेय प है। तथा अभी
कोई सरा भय रखना यो य नह है। और एसा ही थ त ब त काल तक रहनेवाली है, ऐसा है ही नही।
णाम।
१ दे ख आक ५३१

४४०
बंबई, का तक सुद १, १९५१
: म त ाना दके के वषयमे प ारा समाधान होना क ठन है। यो क उ हे वशेष पढनेक
या उ र लखनेक वृ अभी नही हो सकती।
महा माके च क थरता भी जसमे रहनो क ठन है, ऐसे षमकालमे आप सबके त अनुकंपा
करना यो य है, यह वचारकर लोकके आवेशमे वृ करते ए आपने ा द लखने प च मे अव-
काश दया, इससे मेरे मनको स तोष आ है।
न कपट दासानुदासभावसे०
___ बबई, का तक सुद ३, बुध, १९५१
· ी स पु षको नम कार
ी सूयपुर थत, वैरा य च , स संगयो य ी ल लुजीके त,
ी मोहमयी भू मसे जीव मु दशाके इ छु क ी · का आ म मृ तपूवक यथायो य ा त हो ।
वशेष वनती क आपके लखे ए तीन प थोडे थोडे दनोके अ तरसे मले ह। . .
यह जीव अ य त मायाके आवरणसे दशामूढ आ है, और उस योगसे उसक परमाथ का
उदय नह होता। अपरमाथमे परमाथका ढा ह आ है, और उससे बोध ा त होनेका योग होने पर
भी उसमे बोधका वेश हो, ऐसा भाव फु रत नह होता, इ या द जीवक वषम दशा कहकर भुके
त द नता द शत क है क 'हे नाथ | अब मेरी कोई ग त (माग) मुझे दखायी नह दे ती। यो क
मने सव व लुटा दे ने जैसा योग कया है, और सहज ऐ य होते ए भी, य न करनेपर भी, उस
ऐ यंसे वपरीत मागका ही मने आचरण कया है। उस उस योगसे मेरी नवृ कर, और उस नवृ -
का सव म स पाय जो स के त शरणभाव है वह उ प हो, ऐसी कृपा कर,' ऐसे भावके बीस
दोहे ह, जनमे थम वा य 'हे भु । हे भु । शु क ? द नानाथ दयाल' है। वे दोहे आपके मरणमे
होगे । उन दोहोक वशेष अनु े ा हो, वैसा करगे तो वह वशेष गुणा भ का हेतु होगा।''
____ उनके साथ सरे आठ तोटक छं द अनु े ा करने यो य है, जनमे इस जीवको या आचरण करना
बाक है, और जो जो परमाथके नामसे आचरण कये ह वे अब तक वृथा ए, और उन आचरणमे जो
म या ह है उसे नवृ करनेका बोध दया है, वे भी अनु े ा करनेसे जीवको पु षाथ वशेषके हेतु ह।

४४१
'योगवा स ' का पठन पूरा आ हो तो कुछ समय उसका अवकाश रखकर अथात् अभी फरसे
पढना ब द रखकर 'उ रा ययनसू ' को वचा रयेगा, पर तु उसे कुलसं दायके आ हाथको नवृ
करनेके लये वचा रयेगा । यो क जीवको कुलयोगसे जो स दाय ा त आ होता है, वह परमाथ प है
या नही? ऐसा वचार करते ए आगे नही चलती और सहजमे उसे ही परमाथ मानकर जीव
परमाथ चूक जाता है। इस लये मुमु ुजीवका तो यही कत है क जीवको स के योगसे क याणक
ा त अ पकालमे हो, उसके साधन, वैरा य और उपशमके लये 'योगवा स ', 'उ रा ययना द' वचा-
रणीय है, तथा य पु षके वचनक नराबाधता, पूवापर अ वरो धता जाननेके लये वचारणीय है।
- आ० व० णाम।
५३५ बंबई, का तक सुद ३, बुध, १९५१
आपको दो च यां लखी थी, वे मली होगी । हमने सं ेपमे लखा है। अ भ भावसे लखा है।
इस लये कदा चत् उसमे कुछ आशकायो य नह है। तो.भी स ेपके कारण समझमे न आये, ऐसा कुछ
हो तो पूछनेमे आप नह है।
ीकृ ण चाहे जस ग तको ा त ए हो, पर तु वचार करनेसे वे आ मभाव-उपयोगी थे, ऐसा
प तीत होता है। जन ीकृ णने काचनक ा रकाका, छ पन करोड यादवो ारा सगहीतका. पंच-
वषयके आकषक कारणोके योगमे वा म व भोगा, उन ीकृ णने जब दे हको छोडा है तब या थ त
थी, वह वचार करने यो य है, और उसे वचारकर इस जीवको अव य आकुलतासे मु करना यो य

ै ै ै े ो े ो े े े
है। कुलका सहार आ है, ा रकाका दाह आ है, उसके शोकसे शोकवान अकेले वनमे भ मपर आधार
करके सो रहे है, वहाँ जराकुमारने जब बाण मारा, उस समय भी ज ह ने धेयको अपनाया है, उन ।
ीकृ णक दशा वचारणीय है।
ब बई, का तक सुद ४, गु , १९५१
आज एक प ा त आ है, और उस स ब धमे यथाउदय समाधान लखनेका वचार करता ह,
और वह प तुरत लखूगा।
सम जीवको दो कारक दशा रहती है, एक ' वचारदशा' और सरी ' थत दशा' । थत-!
दशा वचारदशाके लगभग पूरी हो जानेपर अथवा स पूण होनेपर गट होती है। उस थत दशा-
क ा त इस कालमे क ठन है, यो क इस कालम आ मप रणामके लये ाघात प योग धान पसे
रहता है, और इससे वचारदशाका योग भी स और स सगके अभावसे ा त नही होता; वैसे कालमे
कृ णदास वचारदशाको इ छा करते ह. यह वचारदशा ा त होनेका मु य कारण है, और ऐसे जीवको
भय, चता, पराभव आ द भावमे नजबु करना यो य नह है, तो भी धैयसे उ हे समाधान होने दे ना.
और नभय च रखवाना यो य है।
५३७
ब बई, का तक सुद ७, श न, १९५१
ी स पु षोको नम कार
ी यंमतीयवासी मुमु ुजन के त,
ी मोहमयी भू मसे ' का आ म मृ तपूवक ययायो य ा त हो । वशेष वनती क मम अंबा-
लालका लखा आ एक प आज ा त आ है।

४४२
कृ णदासके च क ता दे खकर आप सबके मनमे खेद रहता है, वैसा होना वाभा वक है।
य द हो सके तो 'योगवा स ' अथ तीसरे करणसे उ हे पढावे अथवा वण करावे, और वृ े से
जैसे अवकाश मले तथा स संग हो वैसे कर। दनभरमे वैसा अ धक समय अवकाश लया जा सके,
उतना यान रखना यो य है।
सब मुमु ुभाइयोक समागमको इ छा है ऐसा लखा, उसका वचार क ँ गा । मागशीष मासके
पछले भागमे या पौष मासके आरभमे ब त करके वैसा योग होना स भव है।
कृ णदासको च के व ेपक नवृ करना यो य है। यो क मुमु ुजीवको अथात् वचारवान
जीवको इस ससारमे अ ानके सवाय और कोई भय नह होता। एक अ ानक नवृ करनेक जो
इ छा है, उसके सवाय वचारवान जीवको सरी इ छा नह होती, और पूवकमके योगसे वैसा कोई
उदय हो, तो भी वचारवानके च मे ससार कारागह है, सम त लोक खसे आत है, भयाकुल है, राग-
े षके ा त फलसे जलता है, ऐसा वचार न य प ही रहता है, और ान ा तमे कुछ अ तराय है,
इस लये यह कारागृह प ससार मुझे भयका हेतु है और लोकका सग करना यो य नह है, यही एक भय
वचारवानको होना यो य है।
महा मा ी तीथकरने न ंथको ा तप रषह सहन करनेक वारवार सूचना द है । उस प रषहके
व पका तपादन करते ए अ ानप रषह और दशनप रषह ऐसे दो प रषहोका तपादन कया है,
क कसी उदययोगक बलता हो और स सग एव स पु षका योग होनेपर भी जीवक अ ानके कारण -
को र करनेक ह मत न चल सकती हो, आकुलता आ जाती हो, तो भी धैय रखना, स सग एवं
स पु पके योगका वशेष वशेष आराधन करना, तो अनु मसे अ ानक नवृ होगी, यो क न य
जो उपाय है, और जीवको नवृ होनेक बु है, तो फर वह अ ान नराधार हो जानेपर कस तरह
टक सकता है ? एक मा पूवकमके योगके सवाय वहाँ उसे कोई आधार नह है। वह तो जस जीवको
स सग एव स पु षका योग आ है और पूवकम नवृ का योजन है, उसका अ ान मशः र होना ही
यो य है, ऐसा वचारकर वह मुमु ुजीव उस अ ानज य आकुलता- ाकुलताको धैयसे सहन करे, इस तरह
परमाथ कहकर प रपह कहा है। यहां हमने उन दोनो प रषहोका व प सं ेपमे लखा है। ऐसा प रषहका
व प जानकर, स संग एव स पु षके योगसे, जो अ ानसे आकुलता होती है वह नवृ होगी, ऐसा
न य रखकर, यथाउदय जानकर, धैय रखनेका भगवान तीथकरने कहा है; पर तु वह धैय ऐसे अथमे
नह कहा है, क स सग एवं स पु पका योग होनेपर माद हेतुसे वलंब करना, वह धैय है और उदय है,
यह बात भी वचारवान जीवको मृ तमे रखना यो य है।
ी तीथकरा दने वारवार जीव को उपदे श दया है, पर तु जीव दडमुढ रहना चाहता है, वहाँ
उपाय नह चल सकता । पुनः पुन. ठोक-ठोककर कहा है क एक यह जीव समझ ले तो सहज मो है,
नही तो अनत उपाय से भी नह है । और यह समझना भी कुछ वकट नह है, यो क जीवका, जो सहज
व प है वही मा समझना है, और वह कुछ सरेके व पक बात नह है क कदा चत् वह छपा ले
या न बताये क जससे समझमे न आव। अपनेसे आप गु त रहना कस तरह हो सकता है ? पर तु
व दशामे जैसे न होने यो य ऐसी अपनी मृ युको भी जीव दे खता है, वैसे ही अ ानदशा प व प
योगसे यह जीव अपनेको, जो अपने नही हे ऐसे सरे ोमे नज पसे मानता है, और यही मा यता
ससार है, यही अ ान है, नरका द ग तका हेतु यही है, यही ज म है, मरण है, और यही दे ह है, दे हका
वकार है, यही पु है, यही पता, यही श , ु यही म ा द भावक पनाका हेतु है; और जहाँ उसक
नवृ ई वहाँ सहज मो है; और इसी नवृ के लये स सग, स पु ष आ द साधन कहे है, और व
४४३
साधन भी, य द जीव अपने पु षाथको छपाये बना उनमे लगाये, तभी स होते है। अ धक या कहे ?
इतनी स त बात य द जीवमे प रण मत हो जाये तो वह सव त, यम, नयम, जप, या ा, भ ,
शा ान आ द कर चुका, इसमे कुछ सशय नह है । यही वनती।।
आ० व० णाम ।
. ५३८ बंबई, का तक सुद १, बुध, १९५१
दो प ा त ए ह।
मु मनसे प ीकरण कया जाये ऐसी आपक इ छा रहती है, उस इ छाके कारण ही मु मनसे
प ीकरण नह कया जा सका, और अब भी उस-इ छाका नरोध करनेके सवाय आपके लये सरा
कोई वशेष कत नही है। हम मु मनसे प ीकरण करगे ऐसा जानकर इ छाका नरोध करना
यो य नह है, पर तु स पु षके सगके माहा यको र ाके लये उस इ छाको शा त करना यो य है, ऐसा
वचारकर शात करना यो य है । स सगक इ छासे ही य द ससारके तब धके र होनेक थ तके
सुधारक इ छा रहती हो तो भी अभी उसे छोड़ दे ना यो य है; यो क हमे ऐसा लगता है क वारवार
आप जो लखते है, वह कुटु बमोह है, स लेशप रणाम है, और असाता न सहन करनेक कसी भी अशमे
बु है, और जस पु षको वह बात कसी भ जनने लखी हो, तो उससे उसका रा ता नकालनेके
बदले ऐसा होता है, क ऐसी नदानबु जब तक रहे तब तक स य वका रोध अव य रहता है, ऐसा
वचारकर ब त बार खेद हो आता है, वह लखना आपके लये यो य नह है।
५३९ बबई, का तक सुद १४, सोम, १९५१
सव जीव आ म पसे सम वभावी है । अ य पदाथमे जीव य द नजवु करे तो प र मणदशा
ा त करता है, और नजमे नजबु हो तो प र मणदशा र होती है। जसके च मे ऐसे मागका
वचार करना आव यक है उसको, जसके आ मामे वह ान का शत आ है, उसक दासानुदास पसे
अन य भ करना हो परम ेय है; और उस दासानुदास भ मानक भ ा त होनेपर जसमे
कोई वषमता नही आती, उस ानीको ध य है, उतनी सवाशदशा जब तक गट न ई हो तब तक
आ माक कोई गु पसे आराधना करे, वहां पहले उस गु पनेको छोड़कर उस श यमे अपनी दासानु-
दासता करना यो य है। .
५४० ववई, का तक सुद १४, सोम, १९५१
वषम संसार प
बषनका छे दन करके जो पु ष चल पड़े
• उन पु षोको अनंत णाम है।
आज आपका एक प ा त आ है।
सुद पचमी या छठके बाद यहाँसे वदाय होकर मेरा वहाँ आना होगा, ऐसा लगता है। आपने
लखा क ववाहके काममे पहलेसे आप पधारे हो, तो कतने ही वचार हो सक। उस स ब धमे ऐसा हे
क ऐसे काय मे मेरा चत अ वेशक होनेस, े और वैसे काय का माहा य कुछ है नही ऐसा न य होनेसे
मेरा पहलेसे आना कुछ वैसा उपयोगी नही है। जससे रेवाशंकरभाईका आना ठ क समझकर वैसा
कया है।

४४४
ईके ापारके वषयमे कभी कभी करने प कारण आप प ारा लखते है। उस वषयमे एक
बारके सवाय प ीकरण नह लखा, इस लये आज इक ा लखा है। आढ़तका वसाय उ प आ
उसमे कुछ इ छावल और उदयवल था। पर तु मोतीका वसाय उ प होनेमे तो मु य उदयबल था।
बाको वसायका अभी उदय मालूम नही होता। और वसायक इ छा होना यह तो असभव जैसी है।
ी रेवाशकरभाईसे आपने पयोक मांग क थी, वह प भी म ण तथा केशवलालके पढनेमे आये
उस तरह उनके प मे रखा था । य प वे जान इसमे कोई सरी बाधा नह है, पर तु जीवको लौ कक
भावनाका अ यास वशेष बलवान है, इससे उसका या प रणाम आया और हमने उस वषयमे या
अ भ ाय दया। उसे जागनेक उनक आतुरता वशेष हो तो वह भी यो य नही है। अभी पयेक
व था करनी पडे उस लये आपके वसायके स ब धमे हमने कदा चत् ना कही हो, ऐसा अकारण
उनके च मे वचार आये । और अनु मसे हमारे त ावहा रक वृ वशेष हो जाये, वह भी यथाथ
नह है।
जीजीवाका ल न माघ मासमे होगा या नही? इस स ब धमे बवा णयासे हमारे जाननेमे कुछ नह
आया, तथा मैने इस वषयमे कोई वशेप वचार नही कया है। बवा णयासे खबर मलेगी तो आपको
यहाँसे रेवाशकरभाई या केशवलाल सू चत करगे। अथवा रेवाशकरभाईका वचार माघ मासका होगा
तो वे ववा णया लखगे, और आपको भी सू चत करेगे । उस सगपर आना या न आना, इसका प का
फैसला अभी च नह कर सकेगा, यो क उसे ब त समय है और अभीसे उसके लये कुछ न त
करना क ठन है। तीन वषसे उधर जाना नह आ, जससे ी रवजीभाईके च मे तथा माताजीके च मे,
हमारा जाना न हो तो अ धक खेद रहे, यह मु य कारण उस तरफ आनेमे है। तथा हमारा आना न
हो तो भाई-बहनोको भी खेद रहे, यह सरा कारण भी उधर आनेके वचारको बलवान करता है। और
ब त करके आना होगा, ऐसा च मे लगता है। हमारा च पौष मासके आर भम यहाँसे नकलनेका
रहता है, और बीच म कना हो तो वृ के कारण लगी ई थकावटमे कुछ व ा त व चत् मले ।
पर तु कतना ही कामकाज ऐसा है क नधा रत दनोसे कुछ अ धक दन जानेके बाद यहाँसे छू टा
जा सकेगा।

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आप अभी कसीको ापार-रोजगारक ेरणा करते ए इतना यान रख क जो उपा ध आपको
वय करनी पडे उस उपा धक आप उद रणा करना चाहते ह। और फर उससे नवृ चाहते ह । य प
चारो तरफके आजी वका द कारणोसे उस कायक ेरणा करनेक आपके च मे उदयसे फुरणा होती
होगी तो भी उस स ब धी चाहे जैसी घबराहट होनेपर भी धीरतासे वचार कर कुछ भी ापार-रोज-
गारक सरोको ेरणा करना या लड़कोको ापार करानेके वषयमे भी सूचना लखना | यो क अशुभ
उदयको इस तरह र करनेका य न करते ए बल ा त करने जैसा हो जाता है।
आप हमे यथासभव ावहा रक बात कम लखे ऐसा जो हमने लखा था उसका हेतु मा इतना
ही हे क हम इतना वहार करते ह, उस वचारके साथ सरे वहारको सुनते-पढते आकुलता हो
जाती है। आपके प मे कुछ नवृ वाता आये तो अ छा, ऐसा रहता है । और फर आपको हमे ाव-
हा रक बात लखनेका कोई हेतु नह है, यो क वह हमारी मृ तमे है और कदा चत् आप घबराहटको शात
करनेके लये लखते हो तो उस कारसे वह लखी नही जाती है। बात आत यानके प जैसी लखी
जाती है, जससे हमे ब त संताप होता है। यही वनती।. .. .. णाम ।

४४५
ानीपु षोको समय-समयमे अनत सयमप रणाम वधमान होते है ऐसा सव ने कहा है, यह स य
है । वह सयम, वचारक ती ण प रण तसे रसके त थरता होनेसे उ प होता है।
५४२ । बंबई, का तक सुद १५, मगल १९५१
ी सोभागभाईको मेरा यथायो य क हयेगा।
उ होने ी ठाणागसू क एक चौभगीका उ र वशेष समझनेके लये माँगा था, उसे सं ेप
यहाँ लखा है-
१ एक, आ माका भवात करे, पर तु सरेका न करे, वे येकबु या असो या केवली ह.
यो क वे उपदे शमागका वतन नही करते है, ऐसा वहार है। २ एक, आ माका भवात न कर सके,
और सरेका भवात करे, 'वे अचरमशरीरी आचाय, अथात् ज हे अभी अमुक भव वाक ह, पर तु उप-
दे शमागका आ मा ारा ान है, इससे उनसे उपदे श सुनकर सुननेवाला जीव उसी भवमे भवका अंत भी
कर सकता है, और आचाय उस भवमे भवात करनेवाले न होनेसे उ हे सरे भगमे रखा है, अथवा कोई जीव
पूवकालमे ानाराधन कर ार धोदयसे मद योपशमसे वतमानमे मनु यदे ह पाकर, जसने माग नही
जाना है ऐसे कसी उपदे शकके पाससे उपदे श सुनते ए पूवस कारसे, पूवके आराधनसे ऐसा वचार ा त
करे क यह पणा अव य मो का हेतु नही होगी, यो क वह अ ानतासे माग कहता है, अथवा यह उपदे श
दे नेवाला जीव वयं अप रणामी रहकर उपदे श करता है, यह महा अनथ है, ऐसा वचार करते ए
पूवाराधन जागत हो और उदयका छे दनकर भवात करे, जससे न म प हण करके वैसे उपदे शकका
भी इस भगमे समावेश कया हो, ऐसा लगता है । ३ जो वय तर और सरोको तार, वे ी तीथकरा द
है। ४ जो वय भी न तरे और सरोको भी न तार सके वह 'अभ या भ ' जीव है। इस कार
समाधान कया हो तो जनागम वरोधको ा त नह होता । इस वषयमे वशेष पूछनेक इ छा हो तो
पू छयेगा, ऐसा सोभागभाईको क हयेगा।
ल० रायचदका णाम।
५४३
बंबई, का तक, १९५१
अ यस ब धी जो तादा य भा सत आ है, वह तादा य नवृ हो तो सहज वभावसे आ मा
मु ही है। ऐसा ी ऋषभा द अनत ानीपु ष कह गये ह, यावत् तथा पमे समा गये ह।
५४४ बबई, का तक वद १३, र व, १९५१
आपका प मला है। यहाँ सुखवृ है। जब ार धोदय ा द कारणमे नबल हो तब वचार-
वान जीवको वशेष वृ करना यो य नह है, अथवा धीरता रखकर आसपासक ब त सभालसे वृ
करना यो य है, एक लाभका ही कार दे खते रहकर करना यो य नह है । इस बातको समझानेका हमारा
यल होनेपर भी आपको उस बात पर यथायो य संल न च हो जानेका योग नह आ, इतना च
व ेप रहा, तथा प आपके आ मामे वेसी बु कसी भी दन नह हो सकतो क आपसे हमारे वचनके
त कुछ गौणभाव रखा जाये, ऐसा जानकर हमने आपको उपालभ नह दया। तथा प अब यह बात
यानमे लेनेमे बाधा नह है। आकुल होने से कुछ कमको नवृ चाहते ह, वह नह होती; और आतं-

४४६
यान होकर ानीके मागको अवहेलना होती है। इस बातका मरण रखकर ानकथा ल खयेगा।
वशेष आपका प आनेपर ।
.-" जसका म य नही, अध नही, अछे , अभे इ या द परमाणुक ा या ी जन ने कही
है, तो इसमे अनत पयाय कस तरह हो सकते ह ? अथवा पयाय यह एक परमाणुका सरा नाम होगा'
या कस तरह ?" इस वाला प आया था। उसका समाधान-
येक पदाथके अनत पयाय (अव थाएं) ह। अनत पयायके बना कोई पदाथ नही हो सकता,
ऐसा थी जने का अ भमत है, और वह यथाथ लगता है, यो क येक पदाथ समय समयमे अव थातरता
पाता आ होना चा हये, ऐसा य दखायी दे ता है। ण- णमे जैसे आ मामे सक प- वक प प रण त
होकर अव थातर आ करता है, वैसे परमाणुमे वण, गंध, रस, प अव थातरता पाते है, वैसी अव था-
तरता पानेसे उस परमाणुके अनंत भाग ए, यह कहना यो य नह है, यो क वह परमाणु अपनी एक-

े े ो ो ै े े
दे शा ावगा हताका याग कये बना उस अव थातरको ा त होता है। एक दे श े ावगा हताक व
अनंत भाग नह हो सकते । समु एक होनेपर भी जैसे उसमे तरंग उठती है, और वे तरगे उसीम समाता
ह, तरग पसे उस समु क अव थाएँ भ भ होती रहनेसे भी समु अपने अवगाहक े का याग
नह करता, और कुछ समु के अनंत भ भ कडे नही होते, मा अपने व पमे वह रमण करता
है, तरगता यह समु को प रण त है, य द जल शात हो तो शातता यह उसक प रण त है, कुछ भी
प रण त उसमे होनी ही चा हये। उसी तरह वणगंधा द प रणाम परमाणुमे बदलते रहते ह, पर तु उस
परमाणुके कुछ टु कडे होनेका संग नह होता, अव थातरताको ा त होता रहता है। जैसे सोना कुडला-
कारको छोड़कर मुकुटाकार होता है वैसे परमाणु, इस समयक अव थासे सरे समयक कुछ अंतरखाली
अव थाको ा त होता है। जैसे सोना दोनो पयायोको धारण करते ए भी सोना ही है, वैसे परमाणु भी
परमाणु ही रहता है। एक पु ष (जीव) बालकपन छोड़कर युवा होता है, युव व छोड़कर वृ होता है,
पर तु पु प वहीका वही रहता है, वैसे परमाणु पयायोको ा त होता है। आकाश भी अनंत पयायी है
और स भी अनत पयायी है, ऐसा जने का अ भ ाय है, वह वरोधी नही लगता, ाय मेरी समझमे
आता है पर तु वशेष पसे लखनेका न हो सकनेसे आपको यह बात वचार करनेमे कारण हो, इस लये
ऊपर ऊपरसे लखा है।
च ुमे जो नमेषो मेषको अव थाएँ ह, वे पयाय ह। द पकको जो चलन थ त वह पयाय है।
आ माक सक प- वक प दशा या ानप रण त, वह पयाय है। उसी तरह वण, गध आ द प रणामोको
ा त होना ये परमाणुके पयाय ह। य द वैसा प रणमन न होता हो तो यह जगत ऐसी व च ताको
ा त नह कर सकता, यो क एक परमाणुमे पयायता न हो तो सव परमाणुगोमे भी नही होती । सयोग-
वयोग, एक य-पृथ व इ या द परमाणुके पयाय ह और वे सब परमाणुमे ह। य द वे भाव समय समयपर
उसम प रणमन पाते रहे तो भो परमाणुका य (नाश) नही होता, जैसे क नमेषो मेषसे च ुका नाश
नह होता।

४४७
५४७ मोहमयी े , मागशीष वद ८, बुध, १९५१
यहाँसे नवृ होनेके बाद ाव. बा णना अथात् इस भवके ज म- ाममे साधारण ावहा रक
सगसे जानेका कारण है। च मे अनेक कारसे उस सगसे छू ट सकनेका वचार करते ए छू टा जा
सके यह भी स भव है, तथा प ब तले जीवोको अ प कारणमे कदा चत् वशेप असमाधान होनेका स भव
रहे, जससे अ तबंधभावको वशेप ढ करके जानेका वचार रहता है। वहाँ जानेपर, कदा चत एक
माससे वशेष समय लग जानेका सभव है, शायद दो मास भी लग जाय । उसके बाद फर वहाँसे लौट-
कर इस े क तरफ आना पड़े, ऐसा है, फर भी यथास भव बीचमे दो-एक मास एका त जैसा नवृ -
योग हो सके तो वैसा करनेक इ छा रहती है, और वह योग अ तबध पसे हो सके, इसका वचार
करता ँ।

सव वहारसे नवृ ए बना च एका ( थर) नह होता, ऐसे अ तबध-असगभावका
च मे बहतं वचार कया होनेसे उसी वाहने रहना होता है। परतु उपा जत ार ध नवृ होनेपर
वैसा हो सके, इतना तवध पूवकृत है, आ माक इ छाका तवध नह है। सव सामा य लोक वहार-
को नवृ स ब धी सगके वचारको सरे सगपर बताना रखकर, इस े से नवृ होनेका वशेष
अ भ ाय रहता है, वह भी उदयके कारण नह हो सकता। तो भी अह नश यही च तन रहता है, तो
वह कदा चत् थोड़े समयमे होगा ऐना लगता है। इस े के त कुछ े ष प रणाम नह है, तथा प
सगका वशेष कारण है। वृ के योजनके बना यहाँ रहना कुछ आ माके लये वैसे लाभका कारण
नही है, ऐसा जानकर, इस े से नवृ होनेका वचार रहता है। वृ भी नजबु से कसी भी
कारसे योजनभूत नह लगती, तथा प उदयके अनुसार वृ करनेके ानीके उपदे शको अगीकार
करके उदय भोगनेका वृ योग सहन करते है। -
- आ मामे ान ारा उ प आ.. यह न य बदलता नह है क सवसग बड़ा आ व है; चलते,
दे खते और सग करते ए समय मा मे यह नजभावका व मरण करा दे ता है, और यह बात सवथा
य दे खनेमे आयी है, आती है, और आ सकने जैसी है; इस लए अह नश उस बड़े आ व प सवसगमे
उदासीनता रहती है, और वह दन त दन बढ़ते ए प रणामको ा त करती रहती है, वह उससे
वशेष प रणामको ा त करके सवसगसे नवृ हो, ऐसी अन य कारणयोगसे इ छा रहती है।
यह प थमसे ावहा रक आकृ तमे लखा गया हो ऐसा कदा चत् लगे, परतु इसमे यह सहज
मा नह है। असगताका, आ मभावनाका मा अ प वचार लखा है।
आ० व० णाम।
५४८ वबई, मागशीष वद १, शु , १९५१
परन नेही ी सोभाग,
आपके तीन प आये ह। एक प मे दो लखे थे, जनमेसे एकका समाधान नोचे
लखा है।
___ ानीपु षका स सग होनेस, े न य होनेसे और उसके मागका आराधन करनेसे जीवके दशनमोह-
नीय कमका उपशम या य होता है, और अनु मसे सव ानको ा त होकर जीव कृतकृ य होता है, यह
वात गट स य है; पर तु उससे उपा जत ार ध भी भोगना नह पड़ता, ऐसा स ात नही हो सकता।
केवल ान ा त आ है, ऐसे वीतरागको भी उपा जत ार ध प ऐसे चार कम भोगने पड़ते है, तो
उससे नीची भू मकामे थत जीवोको ार ध भोगना पड़े, इसमे कुछ आ य नह है। जैसे सव वीत-
४४८
ीमद राजच
रागको, घनघाती चार कम का नाश हो जानेसे वे भोगने नह पड़ते है, और उन कम के पुन उ प
होनेके कारणोक थ त उस सव वीतरागमे नही है। वैसे ानीका न य होनेसे जीवको अ ानभावसे
उदासीनता होती है, और उस उदासीनताके कारण भ व यकालमे उस कारका कम उपाजन करनेका
मु य कारण उस जीवको नही होता । व चत् पूवानुसार कसी जीवको वपयय-उदय हो, तो भी वह
उदय अनु मसे उपशात एव ीण होकर, जीव ानीके मागको पुनः ा त करता है, और अधपु ल-
परावतनमे अव य ससारमु हो जाता है । परतु सम कती जीवको, या सव वीतरागको या कसी अ य
योगी या ानीको ानक ा तके कारण उपा जत ार ध भोगना न पड़े या ख न हो, ऐसा स ात
नह हो सकता। तो फर हमको-आपको स संगका मा अ प लाभ हो तो सव ससारी ख नवृ
होने चा हये, ऐसा मान तो फर केवल ाना द नरथक होते है, यो क य द उपा जत ार ध बना भोगे
न हो जाये तो फर सब माग म या ही ठहरे । ानीके स सगसे अ ानीके संगक च मंद हो जाये,
स यास यका ववेक हो, अनतानुबधी ोधा दका नाश हो, अनु मसे सब राग े षका य हो जाय, यह
स भव है, और ानीके न य ारा यह अ पकालमे अथवा सुगमतासे हो, यह स ात है । तथा प जो
ःख इस कारसे उपा जत कया है क अव य भोगे बना न न हो, वह तो भोगना ही पड़ेगा, इसमे
कुछ सशय नह होता । इस वषयमे अ धक समाधानक इ छा हो तो समागममे हो सकता है।
मेरी आतरवृ ऐसी है क परमाथ- सगसे कसी मम जीवको मेरा सग हो तो वह अव य
मुझसे परमाथके हेतुक ही इ छा करे तभी उसका ेय हो, परंतु ा द कारणक कुछ भी इ छा रखे
अथवा वैसे वसायके लये वह मुझे सू चत करे, तो फर अनु मसे वह जीव म लन वासनाको ा त
होकर मुमु ुताका नाश करे, ऐसा मुझे न य रहता है। और इसी कारणसे जब कई बार आपक
तरफसे कोई ावहा रक सग लखनेमे आया है तब आपको उपालभ दे कर सू चत भी कया था क
आप अव य यही य न कर क मुझे वैसे वसायके लये न लख, और मेरी मृ तके अनुसार आपने
उस बातको वीकार भी कया था; परतु तदनुसार थोड़े समय तक ही मा । अब फर वसायक
स ब धमे लखना होता है। इस लये आजके मेरे प को वचार कर आप उस बातका अव य वसजन
कर दे , और न य वैसी वृ रख तो अव य हतकारी होगी। और आपने मेरी आतरवृ को उ लासका
कारण अव य दया है, ऐसा मुझे तीत होगा।
सरा कोई भी स सगके सगमे ऐसा करता है तो मेरा च ब त वचारमे पड़ जाता है या घबरा
जाता है, यो क परमाथका नाश करनेवाली यह भावना इस जीवके उदयम आयी। आपने जब जब
वसायके वषयमे लखा होगा, तब तब मुझे ाय ऐसा ही आ होगा। तथा प आपक वृ मे वशेष
अंतर होनेके कारण च मे कुछ . घबराहट कम ई होगी। परंतु अभी त कालके सगसे आपने भी
लगभग उस घबराहट जैसी घबराहटका कारण तुत कया है ऐसा च मे रहता है।
जैसे रवजीभाई कुटु बके लये मुझे वसाय करना पड़ता है वैसे आपके लये मुझे करना हो तो
भी मेरे च मे अ यभाव न आये। परंतु आप .ख सहन न कर सके तथा मुझे वसाय बताय, यह
बात कसी तरह ेय प नही लगती; यो क रवजीभाईको वैसी परमाथ इ छा नह है और आपको है,
जससे आपको इस बातमे अव य थर होना चा हये । इस बातका वशेष न य र खये।
'यह प कुछ अधूरा है, जो ाय. कल पूरा होगा।
१. आक ५५०

४४९
माकुभाई इ या दको जो उपा ध काय करनेमे अधीरतासे, आ ं जैसे प रणामसे, सरेक आजी-
वकाका भग होता है, यह जानते हए भी, राजकाजमे अ प कारणमे वशेष स ब ध करना यो य नही,
ऐसा होनेका कारण होनेपर भी, जसमे तु छ ा दका भी वशेष लाभ नह है, फर भी उसके लये
आप बारबार लखते है. यह या यो य है ? आप जैसे पु ष वैसे वक पको श थल न कर सकगे, तो इस
षमकालमे कौन समझकर शा त रहेगा?
कतने ही कारसे नवृ के लये और स समागमके लये वह इ छा रखते ह, यह बात यानमे
है, तथा प वह इ छा य द अकेलो ही हो तो इस कारको अधीरता आ द होने यो य नह है।
माकुभाई इ या दको भी अभी उपा धके स ब धमे लखना यो य नही है। जैसे हो वैसे दे खते
रहना, यही यो य है। इस वषयमे जतना उपाल भ लखना चा हये उतना लखा नह है, तथा प
वशेषतासे इस उपाल भको वचा रयेगा।
५५० बबई, मागशीष वद ११, र व, १९५१
परम नेही ी सोभाग,
कल आपका लखा एक प ा त आ है। यहाँसे परसो एक प लखा है वह आपको ा त
आ होगा । तथा उस प का पुन. पुन वचार कया होगा, अथवा वशेष वचार कर सके तो अ छा ।
वह प हमने सं ेपमे लखा था, इससे शायद आपके च के समाधानका पया त कारण न हो,
इस लये उसमे अ तमे लखा था क यह प अधूरा है, जससे बाक लखना अगले दन होगा।'
अगले दन अथात् पछले दन यह प लखनेक कुछ इ छा होनेपर भी अगले दन अथात् आज
लखना ठ क है, ऐसा लगनेसे पछले दन प नह लखा था।
ो े े ो ी े ै े ी े ो े ी
परसो लखे ए प मे जो ग भीर आशय लखे है, वे वचारवान जीवके आ माको परम हतेषी
हो, ऐसे आशय है। हमने आपको यह उपदे श कई बार सहज सहज कया है, फर भी आजी वकाके
क वलेशसे आपने उस उपदे शका कई बार वसजन कया है, अथवा हो जाता है। हमारे त माँ-बाप
जतना आपका भ भाव है. इस लये लखनेमे बाधा नह है, ऐसा मानकर तथा ख सहन करनेक
असमथताके कारण हमसे वैसे वहारक याचना आप ारा दो कारसे ई है-एक तो कसी स -
योगसे .ख मटाया जा सके ऐसे आशयक , और सरी याचना कसी ापार रोजगार आ दक । आपक
दोनो याचनाओमेसे एक भी हमारे पास क जाय, यह आपके आ माके हतके कारणको रोकनेवाला, और
अनु मसे म लन वासनाका हेतु हो, यो क जस भू मकामे जो उ चत नह है, उसे वह जीव करे तो उस
भू मकाका उसके ारा सहजमे याग हो जाये, इसमे कुछ स दे ह नह है। आपक हमारे त न काम
भ होनी चा हये, और आपको चाहे जतना .ख हो, फर भी उसे धीरतासे भोगना चा हये। वैसा न
हो सके तो भी हमे तो उसक सूचनाका एक अ र भी नह लखना चा हये, यह आपके लये सवाग यो य
है, और आपको वैसी ही थ तमे दे खने क जतनी मेरी इ छा है, और उस थ तमे जतना आपका हत
है, वह प से या वचनसे हमसे बताया नह जा सकता। पर तु पूवके कसी वैसे ही उदयके कारण
आपको वह बात व मत हो गयी है, जससे हमे फर सू चत करनेक इ छा रहा करती है।
उन दो कारको याचनाओमे थम व दती ई याचना तो कसी भी नकटभवीको करनी
यो य ही नह है, और अ पमा हो तो भी उसका मूलसे छे दन करना उ चत है, यो क लोको र
१ आक ५४८

४५०
म या वका वह सवल बोज है, ऐसा तीथकरा दका न य है, वह हमे तो स माण लगता है। सरी
याचना भी कत नह है, यो क वह भी हमे प र मका हेतु है। हम वहारका प र म दे कर वहार
नभाना, यह इस जीवक स का ब त ही अ प व बताता है, यो क हमारे लये प र म उठाकर
आपको वहार चला लेना पडता हो तो वह आपके लये हतकारी है, और हमारे लये वैसे
न म का कारण नह है, ऐसी थ त होनेपर भी हमारे च मे ऐमा वचार रहता है क जब तक हमे
प र हा दका लेना-दे ना हो, ऐसा वहार उदयमे हो तब तक वय उस कायको करना, अथवा
ावहा रक स ब धी आ द ारा करना, पर तु मुमु ु पु षको त स ब धी प र म दे कर तो नही करना,
यो क वैसे कारणसे जीवको म लन वासनाका उ व होना स भव है। कदा चत् हमारा च शु ही
रहे ऐसा है, तथा प काल ऐसा है क य द हम उस शु को से भी रख तो स मुख जीवमे वषमता
उ प न हो, और अशु वृ वान जीव भी तदनुसार वहार कर परम पु षोके मागका नाश न करे ।
इ या द वचारमे मेरा च रहता है। तो फर जसका परमाथ-बल या च शु हमारेसे कम हो उसे
तो अव य ही वह मागणा बलतासे रखनी चा हये, यही उसके लये बलवान ेय है, और आप जैसे
मुमु पु षको तो अव य वैसा वतन करना यो य है । यो क आपका अनुकरण सहज ही सरे मुमु ु के
हता हतका कारण हो सके । ाण जाने जैसी वषम अव थामे भी आपको न कामता ही रखनी यो य है,
ऐसा हमारा वचार, आपको आजी वकासे चाहे जैसे खोक , अनुकपाके त जाते ए भी मटता नही
है, युत अ धक बलवान होता है। इस वषयमे वशेष कारण बताकर आपको न य करानेक इ छा
है, और वह होगा ऐसा हमे न य रहता है।
' इस कार आपके या सरे मम जीव के हतके लये मझे जो यो य लगा वह लखा है। इतना
लखनेके बाद अपने आ माके लये उस स ब धमे मेरा अपना कुछ सरा भी वचार रहता है, जसे
लखना यो य नह था, पर तु आपके आ माको कुछ ख दे ने जैसा हमने लखा है तब उस लखनेक।
यो य समझकर लखा है। वह इस कार ह क जब तक प र हा दका लेना-दे ना हो, ऐसा वहार मुझे
उदयमे हो तब तक जस कसी भी न काम मुमु ु या स पा जीवक तथा अनुकंपायो य जीवक , उसे
बताये बना, हमसे जो कुछ भी सेवाचाकरी हो सके, उसे ा द पदाथसे भी करना, यो क ऐसा माग
ऋषभ आ द महापु षोने भी कही कही जीवक गुण न प ताके लये माना है, यह हमारा नजी
(आत रक) वचार है, और ऐसे आचरणका स लु षके लये नषेध नही है, क तु कसी तरह कत है।
य द वह वषय या वह सेवाचाकरी मा स मुख जीवके परमाथको रोधक होते हो तो स पु षको भी
उनका उपशमन करना चा हये।
असगता होने या स सगके योगका लाभ ा त होनेके लये आपके च मे ऐसा रहता है क
केशवलाल, बक इ या दसे गृह वहार चलाया जा सके तो मुझसे छू टा जा सकता है। अ यथा, आप
उस वहारको छोड सक, वैसा कुछ कारणोसे नही हो सकता, यह बात हम जानते ह, फर भी आपके
लये उसे बारबार लखना यो य नह है, ऐसा जानकर उसका भी नषेध कया है । यही वनती।
णाम ा त हो।
बबई, मागशीष, १९५१
ी सोभाग,
. ी जन आ मप रणामक व थताको समा ध और आ मप रणामक अ व थताको असमा ध
कहते है, यह अनुभव ानसे दे खते ए परम स य है।

४५१
अ व थ कायक वृ करना और आ मप रणामको व थ रखना, ऐसी वपम वृ ी
तीथकर जैसे ानीसे होनी क ठन कही है, तो फर सरे जीवमे यह बात सभ वत करना क ठन हो, इसमे


आ य नह है।
कसी भी परपदाथमे इ छाक वृ है, और कसी भी परपदाथके वयोगक चता है, इसे ी
जने आत यान कहते ह, इसमे स दे ह करना यो य नह है।
तीन वषके उपा धयोगसे उ प आ जो व ेपभाव उसे र करनेका वचार रहता है। जो
वृ ढ वैरा यवानके च को बाधा कर सके ऐसी है, वह वृ य द अ ढ वैरा यवान जीवको
क याणके स मुख न होने दे तो इसमे आ य नह है।
ससारमे जतनी सारप रण त मानी जाय उतनी आ म ानक यूनता ी तीथकरने कही है ।
प रणाम जड़ होता है ऐसा स ात नह है। चेतनको चेतनप रणाम होता है और अचेतनको
अचेतनप रणाम होता है, ऐसा जन ने अनुभव कया है। कोई भी पदाथ प रणाम या पयायके बना
नह होता, ऐसा ी जन ने कहा है और वह स य है।
ी जन ने जो आ मानुभव कया है, और पदाथके व पका सा ा कार करके जो न पण कया
है, वह सव मुम जीवोको परम क याणके लये न य करके वचार करने यो य है। जनक थत सव
पदाथ के भाव केवल आ माको गट करनेके लये है, और मो मागमे वृ दोक होती है-एक आ म-
ानीक और एक आ म ानीके आ यवानक , ऐसा ी जने ने कहा है।
___ आ माको सुनना, उसका वचार करना, उसका न द यासन करना और उसका अनुभव करना
ऐसी एक वेदक ु त है, अथात् य द एक यही वृ करनेमे आये तो जीव ससारसागर तरकर पार
पाये ऐसा लगता है। बाक तो मा कसी ी तीथकर जैसे ानीके बना सबको यह वृ करते ए
क याणका वचार करना, उसका न य होना और आ म व थता होना कर है । यही वनती।
५५२
बबई, मागशीष, १९५१
उपकारशील ी सोभागके त, ी सायला।
ई रे छा बलवान है, और कालक भी षमता है। पूवकालमे जाना था और प ती त-
व प था क ानीपु षको सकामतासे भजते ए आ माको तब ध होता है, और कई बार परमाथ-
मटकर ससाराथ हो जाती है। ानीके त ऐसी होनेसे पुन सुलभबो धता पाना क ठन
पडता है, ऐसा जानकर कोई भी जीव सकामतासे समागम न करे, इस कारसे आचरण होता था।
आपको तथा ी डंगर आ दको इस मागके स ब धमे हमने कहा था, पर तु हमारे सरे उपदे शको भां त
कसी ार धयोगसे उसका त काल हण नह होता था। हम जब उस वषयमे कुछ कहते थे, तब पूव-
कालके ा नयोने आचरण कया है, ऐसे कारा दसे यु र कहने जैसा होता था। हमे उसमे च मे
वडा खेद होता था क यह सकामवृ पमकालके कारण ऐसे मुमु पु पमे व मान है, नह तो उसका
व मे भी स भव न हो । य प उस सकामवृ के कारण आप परमाथ भूल जाय, ऐसा संशय
नह होता था । पर तु सगोपा परमाथ के लये श थलताका हेतु होनेका स भव दखायी दे ता था।
पर तु उसक अपे ा बडा खेद यह होता था क इस मुमु ुके कुटु बमे मकामबु वशेप होगी, और
परमाथद मट जायेगी, अथवा उ प होनेक स भावना र हो जायेगी, और इस कारणसे सरे भी
बहतसे जीवोके लये वह थ त परमाथक अ ा तमे हेतुभूत होगी, फर सकामतासे भजनेवालेक वृ को
हमारे ारा कुछ शा त कया जाना क ठन है इस लये सकामी जीवोको पूवापर वरोधबु हो अथवा

४५२
परमाथपू यभावना र हो जाये, ऐसा जो दे खा था, वह वतमानमे न हो, ऐसा वशेष उपयोग होनेके लये
सहज लखा है । पूवापर इस बातका माहा य समझमे आये और अ य जीवोका उपकार हो, वैसा वशेष यान र खयेगा।
एक प ा त आ है। यहाँसे नकलनेमे लगभग एक महीना होगा, ऐसा लगता है। यहांसे
नकलनेके बाद समागमस ब धी वचार रहता है और ी कठोरमे इस बातक अनुकूलता आनेका अ धक
स भव रहता है, यो क उसमे वशेष तब ध होनेका कारण मालूम नह होता।
सभवत. ी अबालाल उस समय कठोर आ सक, इसके लये उ हे सू चत क ं गा।
हमारे आनेके बारेमे अभी कसीको कुछ बतानेको ज रत नह है, तथा हमारे लये कोई सरी
वशेष व था करनेक भी ज रत नह है । सायण टे शनपर उतर कर कठोर आया जाता है, और वह
लबा रा ता नही है, जससे वाहन आ दक हमे कुछ ज रत नही है। और कदा चत् वाहनक अथवा
और कुछ ज रत होगी तो ी अबालाल उसक व था कर सकगे। ..
कठोरमे भी वहाँके ावको आ दको हमारे आनेके बारेमे कहनेको ज रत नह है, तथा ठहरनेके
थानक कुछ व था करनेके लये उ हे सू चत करनेक ज रत नह है। इसके लये जो सहजम उस
सगमे हो जायेगा उससे हमे बाधा नही होगी। ी अबालालके सवाय कदा चत सरे कोई मुमु ु ी
अंबालालके साथ आयेग, े पर तु उनके आनेका भी कठोर या सूरत या सायणमे पता न चले, यह हम ठाक
लगता है, यो क इस कारण कदा चत् हमे भी तबंध हो जाये।
. हमारी यहाँ थरता है, तब तक हो सके तो प , आ द ल खयेगा । साधु ी दे वकरणजीको,
आ म मृ तपूवक यथायो य ा त हो।
जस कार असगतासे आ मभाव सा य हो उस कार वृ करना यही जने क आ ा है ।
इस उपा ध प ापारा द सगसे नवृ होनेका वारवार बचार रहा करता है, तथा प उसका अप र-
प व काल जानकर उदयवश वहार करना पड़ता है। पर तु उपयु जने क आ ाका ायः व मरण
नह होता। और आपको भी अभी तो उसी भावनाका वचार करनेके लये कहते है।
आ० व० णाम।
बबई, पौष सुद १०, १९५१

ी े े ी ी ो े
ी अजार ाममे थत परम नेही ी सोभागके त,
ी मोहमयी भू मसे ल. आ म मृ तपूवक यथायो य ा त हो।
वशेष आपका प मला है।
च भुजके सगमे लखते ए आपने ऐसा लखा है क 'काल जायेगा और कहनी रहेगी', यह
आपको लखना यो य न था । जो कुछ श य है उसे करनेमे मेरी वषमता नह है, पर तु वह परमाथसे
अ वरोधी हो तो हो सकता है, नह तो हो सकना ब त क ठन पड़ता है, अथवा नह हो सकता, जससे
'काल जायेगा और कहनी रहेगी', ऐसा यह च भुज सबधी सग नह है, पर तु वैसा सग हो तो भी बा
कारणपर जानेको अपे ा अ तधमपर थम जाना ेय प है, इसका वसजन होने दे ना यो य नह है।
रेवाशकरभाईके आनेसे ल न सगमे जैसे आपके और उनके यानमे आये वैसे करनेमे आप नह
है। पर तु इतना यान रखनेका है क बा आडबर जैसा कुछ चाहना ही नह क जससे शु वहार

४५३
या परमाथको बाधा हो । रेवाशकरभाईको यह सूचना दे ते ह, और आपको भी यह सूचना दे ते है।
इस सगके लये नह , पर तु सव सगमे यह बात यानमे रखने यो य है, यके लये नह , पर तु
परमाथके लये।
हमारा क पत माहा य कही भी दखाई दे ऐसा करना, कराना या अनुमोदन करना हमे अ य त
अ य है। बाक ऐसा भी है क परमाथक र ा करके कसी जीवको संतोष दया जाये तो वैसा करनेमे
हमारी इ छा है। यही वनती।
य कारागृह होनेपर भी उसका याग करना जीव न चाहे, अथवा अ याग प श थलताका
याग न कर सके, अथवा यागबु होनेपर भी याग करते करते काल य कया जाये, इन सब वचारो-
को जीव कस तरह र करे ? अ पकालमे वैसा कस तरह हो ? इम वषयमे उस प मे लखनेका हो तो
ल खयेगा । यही वनती।
- रसस ब धी न डयादवासीके वषयमे लखी ई वात जानी है, तथा सम कतक सुगमता
शा मे अ य त कही है, वह वैसी ही होनी चा हये, इस स ब धमे जो लखा उसे पढा है । तथा याग
अवसर है, ऐसा लखा उसे भी पढा है । ायः माघ सुद जके बाद समागम होगा, और तब उसके लये
जो कुछ पूछने यो य हो सो पू छयेगा।
____अभी जो महान पु षके मागके वषयमे आपके एक प मे लखा गया है, उसे पढकर ब त सतोष
होता है
वेदात जगतको म या कहता है, इसमे अस य या है ?
वषम संसारबंधनका छे दनकर जो चल पड़े, उन पु षोको अनंत णाम ।
माघ सुद एकम जको शायद नकला जाये तो भी रा तेमे तीन दन लग सकते है, परतु माघ
सुद जको नकलना स भव नह है । सुदो पचमीको नकलना स भव है। बीचमे तीन दन होगे, वह
ववशतासे कनेका कारण है । ाय. सुद पंचमीको नवृ होकर सुद अ मीको ववा णया प ंचा जा
सके ऐसा है, इस लये वा कारण दे खते ए लोमडी आना स भव नह है, तो भी कदा चत् लौटते समय
एक दनका अवकाश मल सकता है। परतु आत रक कारण भ होनेसे वैसा करनेका अभी कसी कार-
से च मे नही आता हे। वढवाण टे शनपर केशवलालक या आपको मुझे मलनेक इ छा हो तो उसे
रोकनेमे मन असतोपको ा त होता है, तो भी अभी रोकनेका मेरा च रहता है, यो क च को
व था यथायो य नह होनेसे उदय ार धके बना सरे सब कारोमे असगता रखना यो य लगता है,
वह यहां तक क जो प र चत है वे भी अभी भूल जाय तो अ छा, यो क सगसे उपा ध न कारण बढ़ती

४५४
ीमद् राजच
रहती है, और वैसी उपा ध सहन करने यो य अभी मेरा च नह है। न पायताके सवाय कुछ भी
वहार करनेका च अभी मालूम नही होता, और जो ापार- वहारक न पायता है, उससे भी
नवृ होनेक चतना रहा करती है। तथा च मे सरेको बोध दे ने यो य जतनी यो यता अभी मुझे
नही लगती है, यो क जब तक सव कारके वषम थानकोमे समवृ न हो तब तक यथाथ आ म ान
कहा नह जाता, और जब तक वैसा हो तब तक तो नज अ यासक र ा करना उ चत है, और अभी
उस कारक मेरी थ त होनेसे म ऐसे करता , ँ वह मायो य है, यो क मेरे च मे अ य कोई हेतु
नह है।
__ लौटते समय ी वढवाणमे समागम करनेका मुझसे हो सकेगा तो प हलेसे आपको लखूगा, परतु
मेरे समागममे आपके आनेसे मेरा वढवाण आना आ था, ऐसा उस संगके कारण सरोके जानने म आय
तो वह मुझे यो य नह लगता, तथा आपने ावहा रक कारणसे समागम कया है ऐसा कहना अयथाथ
है, जससे य द समागम होनेका मुझसे लखा जाये तो जैसे बात अ स रहे वैसे क जयेगा, ऐसा
वनती है।
. तीनोके प अलग लख सकनेक अश के कारण एक प लखा है। यही वनती ।
आ० व० णाम।
५५९ .. बबई, पौष वद ३०, श न, १९५१
शुभे छास प भाई सुखलाल छगनलालके त, ी वीरमगाम । . .
। , समागमक आपको इ छा है और तदनुसार करनेमे सामा यतः बाधा नह है, तथा प च के

ी े े ो ी ँ े ो ो े
कारण अभी अ धक समागममे आनेक इ छा नह होती। यहाँसे माघ सुद पू णमाको नवृ होनेका
स भव दखाई दे ता है, तथा प उस समय कने जतना अवकाश नह है, और उसका मु य कारण ऊपर
लखा सा है, तो भी य द कोई बाधा जैसा नही होगा तो टे शनपर मलनेके लये आगेसे आपका
लखूगा। मेरे आनेक खबर वशेष कसीको अभी नही द जयेगा, यो क अ धक समागममे आनेका
उदासीनता रहती है।
आ म व पसे णाम ।
। ५६०
.
, ,
बंबई, प ष, १९५१
• य द ानीपु षके ढा यसे सव कृ मो पद सुलभ है, तो फर ण णमे आ मोपयोगको थर
करना यो य है, ऐसा जो क ठन माग है वह ानीपु षके ढ आ यसे ा त होना यो सुलभ न हो।
यो क उस-उपयोगक एका ताके बना तो मो पदक उ प है नही । ानीपु षके वचनका ढ आ य
जस हो उसे सव साधन सुलभ हो जाय, ऐसा अखड़ न य स पु षोने कया है । तो फर हम कहते ह
क इन वृ योका जय करना यो य है, उन वृ योका जय यो न हो सके ?, इतना स य है क इस
पमकालम स सगक समीपता या ढ आ य वशेष चा हये और अस सगसे अ य त नवृ चा हये,
तो भी मुमु ुके लये तो यही यो य है क वह क ठनसे क ठन आ मसाधनक थम इ छा करे क जससे
सव साधन अ पकालमे फलीभूत हो ।
। ी तीथकरने तो यहाँ तक कहा है क जन ानीपु षक दशा ससारप र ीण ई है उन
ानीपु षको परपरा कमबंध स भा वत नह है, तो भी पु षाथको मु य रखना चा हये क जो सरे
जीवके लये भी आ मसाधन-प रणामका हेतु हो। . .
. . . . . .-

४५५
'समयसार'मेसे जो का लखा है, उसके लये तथा सरे स ात के लये समागममे समाधान
करना सुगम होगा।
ानीपु पको आ म तबध पसे ससारसेवा नही होती परतु ार ध तबध पसे होती है। ऐसा
होने पर भी उससे नवृ प प रणामको ा त करे, ऐसो ानीक री त होती है, जस री तका आ य
करते ए आज तीन वष से वशेषत वैसा कया है और उसमे अव य आ मदशाको भुलाने जैसा स भव
रहे, वैसे उदयको भी यथाश समप रणामसे सहन कया है। य प उस सहन करनेके कालमे सव-
सग नवृ कसी तरह हो तो अ छा, ऐमा सूझता रहा है, तो भी सवसग नवृ मे जो दशा रहनी
चा हये वह दशा उदयमे रहे तो अ पकालमे वशेष कमक नवृ हो, ऐसा समझकर यथाश य उस
कारसे कया है। परतु अब मनमे ऐसा रहा करता है क इस संगसे अथात् सकल गृहवाससे र न आ
जा सके तो भी ापारा द सगसे नवृ , र आ जाये तो अ छा | यो क आ मभावमे प रणत होनेके
लये जो दशा ानीक होनी चा हये वह दशा इस ापार- वहारसे मुमु ुजीवको दखायी नह दे ती।
यह कार जो लखा है उस वषयमे अब कभी कभी वशेष वचारका उदय होता है। उसका जो
प रणाम आये सो ठ क | यह सग लखा है, उसे अभी लोगोमे गट होने दे ना यो य नह है । माघ
सुद जको उस तरफ आनेक स भावना रहती है। यही वनती । ___आ० वा० णाम।
___ बंबई, माघ सुद २, र व, १९५१
शुभे छास प भाई कुंवरजी आणंदजोके त, ी भावनगर ।
च मे कुछ भी वचारवृ प रणत ई है, यह जानकर दयमे आनद आ है।
असार और लेश प आरंभ-प र हके कायमे रहते ए य द यह जीव कुछ भी नभय या अजा--
गत रहे तो ब त वष का उपा सत वैरा य भी न फल जाये ऐसी दशा हो जाती है, ऐसे न यको न य
त यादकर न पाय सगमे कांपते ए च से ववशतासे ही वृ करना यो य है, इस बातका, मुमु ु-
जीव ारा काय-कायमे, ण- णमे और सग- सगम यान रखे बना मुमु ुता रहनी कर है, और
ऐसी दशाका वेदन कये बना मुमु ुता भी स भव नह है। मेरे च मे आजकल यह मु य वचार
रहता है । यही वनती।
जस ार धको भोगे बना सरा कोई उपाय नही है, वह ार ध ानीको भी भोगना पडता
हे । ानी अत तक आ माथका याग करना नह चाहते, इतनी भ ता ानीमे होती है, ऐसा जो ,
महापु ष ने कहा है वह स य है।
प ा त आ है। व तारसे प लखना अभी श य नह है, जसके लये च मे कुछ खेद
होता है, तथा प ार धोदय समझकर समता रखता ँ।
__ आपने प मे जो कुछ लखा है, उस पर वारवार वचार करनेस, े जाग त रखनेसे, जनमे पच-
वषया दके अशु च व पका वणन कया हो ऐसे शा ो तथा स पु षोके च र ोका वचार करनेसे ओर
काय कायमे यान रखकर वृ करनेसे जो कोई उदासभावना होनी यो य है वह होगी। ।
ल. रायचदके णाम।

४५६
यहाँ इस बार तीन वष से अ धक वृ के उदयको भोगा है। और वहाँ आनेके बाद भी थोडे
दन कुछ वृ का स ब ध रहे, इससे अब उपरामता ा त हो तो अ छा, ऐसा च मे रहता है। सरी
उपरामता अभी होना क ठन है, कम स भव है। परतु आपका तथा ी डु गर आ दका समागम हो तो
ऐ े ै े ी ो े औ े
अ छा, ऐसा च मे रहता है । इस लये आप ी डु गरको सू चत क जयेगा और वे ववा णया आ सक
ऐसा क जयेगा।
कसी भी कारसे ववा णया आनेमे उ हे क पना करना यो य नह है। अव य आ सके ऐसा
क जयेगा।
ल. रायचदके णाम ।
बबई, फागुन सुद १२, शु , १९५१
जस कार बधनसे छटा जाये, उस कार वृ करना, यह हतकारी काय है। बा प रचय-
को सोच-सोचकर नवृ करना, यह छटनेका एक कार है। जीव इस बातका जतना वचार करेगा
उतना ानीपु पके मागको समझनेका समय समीप आयेगा।
आ० व० णाम।
बबई, फागुन सुद १३, १९५१
अशरण ऐसे ससारमे न त बु से वहार करना जसे यो य तीत न होता हो और उस व-
हारके स बधको नवृ करते ए तथा कम करते ए वशेषकाल तीत आ करता हो, तो उस कामको
अ पकालमे करनेके लये जीवको या करना यो य है ? सम त ससार मृ यु आ दके भयसे अशरण है,
वह शरणका हेतु हो ऐसी क पना करना मृगमरी चका जैसा है। सोच-सोच कर ी तीथकर जेसोने भा
उससे नवृ होना, छू टना यही उपाय खोजा है। उस ससारका मु य कारण ेमब धन तथा े षब धन सब
ा नयोने वीकार कया है। उसक आकुलतासे जीवको नज वचार करनेका अवकाश ा त नह होता,
अथवा होता हो तो ऐसे योगसे उस ब धनके कारणसे आ मवीय वृ नही कर सकता, और यह सब
मादका हेतु है, और वैसे मादसे लेशमा समय काल भी नभय रहना या अजागृत रहना, यह इस
जीवक अ तशय नबलता है, अ ववेकता है, ा त है, ओर अ यंत नवाय ऐसा मोह है।
सम त ससार दो वाहोसे बह रहा है, ेमसे और े षसे । ेमसे वर ए बना े षसे छू टा नह
जाता और जो ेमसे वर हो उसे सवसगसे वर ए बना वहारमे रहकर अ ेम (उदास) दशा
रखनी यह भयकर त हे । य द केवल ेमका याग करके वहारमे वृ क जाये तो कतने ही
जीवोक दयाका, उपकारका और वाथका भग करने जैसा होता है, और वेसा वचार कर य द दया
उपकारा दके कारण कुछ ेमदशा रखते ए च मे ववेक को लेश भी ए बना रहना नह चा हये, तब
उसका वशेष वचार कस कारसे करे?
५६७
बंबई, फागुन सुद १५, १९५१
ी वीतरागको परम भ से नम कार
दो तार, दो प तथा दो च यां मली है। ी जने जैसे पु षने गहवासमे जो तवध नह
कया है, यह तबध न होने के लये आना या पन लखना नही आ, उसके लये अ यंत द नतासे मा
चाहता ँ। संपूण वीतरागता न होनेसे इस कार बरताव करते ए अतरमे व ेप आ है, जस व ेप-
को भी शा त करना यो य है, ऐसा माग ानीने दे खा हे।

४५७
आ माका जो अतापार (अंतरप रणामक धारा) है वह, बंध तथा मो को (कमसे आ माका
बँधना और उससे आ माका छू टना) व थाका हेतु है, मा शरीरचे ा बध-मो क व थाका हेतु
नह है। वशेष रोगा दके योगसे ानीपु षक दे हमे भी नबलता, मदता, लानता, कप, वेद, मूछा,
बा व मा द दखायी दे ते ह, तथा प जतनो ान ारा, बोध ारा, वैरा य ारा आ माक नमलता
ई है, उतनी नमलता ारा शानी उस रोगका अतरप रणामसे वेदन करते ह और वेदन करते ए
कदा चत् बा थ त उ म दे खनेमे आये तो भी अतरप रणामके अनुसार कमबंध अथवा नवृ होती
है। आ मा जहाँ अ य त शु नजपयायका सहज वभावसे सेवन करे वहाँ-
(अपूण)
- बबई, फागुन, १९५१
आ म व पका नणय होनेमे अना दसे जीवक भूल होती आयी है, जससे अब हो, इसमे आ य
नह लगता।
सव' लेशसे और सव .खसे मु होनेका, आ म ानके सवाय सरा कोई उपाय नह है। सद्-
वचारके बना आ म ान नह होता, और अस सग- सगसे जीवका वचारबल नही चलता, इसमे
क च मा सशय नह है।
1 आ मप रणामको व थताको ी तीथकर 'समा ध' कहते ह।
आ मप रणामक अ व थताको ी तीथकर 'असमा ध' कहते ह।
आ मप रणामक सहज व पसे प रण त होना उसे ी तीथकर 'धम' कहते ह
आ मप रणामक कुछ भी चपल प रण त होना उसे ी तीथकर 'कम' कहते ह ।
ी जन तीथकरने जैसा बध एव मो का नणय कहा है, वैसा नणय वेदाता द दशनमे -
गोचर नही होता, और ी जनमे जैसा यथाथव ु व दे खनेमे आता है वैसा यथाथव ृ व सरमे दे खनेमे
नह आता।
आ माके अतापार (शुभाशुभ प रणामधारा) के अनुसार वध-मो क व था है, वह शारी रक
___ चे ाके अनुसार नही है। पूवकालमे उ प कये ए वेदनीय कमके उदयके अनुसार रोगा द उ प होते
ह, और तदनुसार नबल, मद, लान, उ ण, शीत आ द शरीरचे ा होती है।
__ वशेष रोगके उदयसे अथवा शारी रक मद बलसे ानीका शरीर क पत हो, नबल हो, लान हो,
मद हो, रौ लगे, उसे मा दका उदय भी रहे; तथा प जस कारसे जीवमे बोध एव वैरा यक वासना

ई ो ी ै े ो ी े े ै
ई होती है उस प्रकारसे उस रोगका, जीव उस उस सगमे ायः वेदन करता है।
कसी भी जीवको अ वनाशी दे हक ा त ई हो, ऐसा दे खा नही, जाना नह तथा स भव नह ,
और मृ युका आना न त है, ऐसा य नःसशय अनुभव है। ऐसा होनेपर भी यह जीव उस बातको
वारवार भूल जाता है, यह बड़ा आ य है। ।
जस सव वीतरागमे अन त स यां गट ई थी उस वीतरागने भी इस दे हको अ न यभावी
दे खा है, तो फर अ य जीव कस योगसे दे हको न य बना सकगे?
ी जन का ऐसा अ भ ाय है क येक अनत पयायी है। जीवके अनत पयाय ह और
परमाणुके भी अनंत पयाय है। जीव चेतन होनेसे उसके पयाय भी चेतन है, और परमाणु अचेतन होनेसे
उसके पयाय भी अचेतन है। जीवके पयाय अचेतन नह है और परमाणुके पयाय सचेतन नह है, ऐसा
ी जन ने न य कया है तथा वही यो य है, यो क य पदाथके व पका भी वचार करते ए
वैसा तीत होता है।

४५८
ीमद् राजच
जीवके वषयमे, दे शके वषयमे, पयायके वषयमे, तथा स यात, अस यात, अनंत आ दके वषयम
यथाश वचार करना। जो कुछ अ य पदाथका वचार करना है वह जीवके मो के लये करना है,
अ य पदाथके ानके लये नही करना है।
___ ५६९
बंबई, फागुन वद ३, १९५१
ी स पु ष को नम कार
- सव लेशसे और सव खसे मु होनेका उपाय एक आ म ान है। वचारके बना आ म ान
नह होता, और अस सग तथा अस सगसे जीवका वचारबल वृ नही होता, इसमे क चत् मा
सशय नही है।
आरंभ-प र हक अ पता करनेसे अस सगका बल घटता है, स सगके आ यसे अस संगका बल
घटता है। अस संगका बल घटनेसे आ म वचार होनेका अवकाश ा त होता है। आ म वचार होनेसे
आ म ान होता है, और आ म ानसे नज वभाव व प, सव लेश एव सव ःखसे र हत मो ात
होता है, यह बात सवथा स य है।
__ जो जीव मोह न ामे सोये ए ह वे अमु न ह । नर तर आ म वचारपूवक मु न तो जा त रहते ह।
माद को सवथा भय है, अ माद को कसी तरहसे भय नही है, ऐसा ी जन ने कहा है।
सव पदाथके व पको जाननेका हेतु मा एक आ म ान करना ही है। य द आ म ान न हो तो
सव पदाथ के ानक न फलता है।
जतना आ म ान होता है उतनी आ मसमा ध गट होती है।
कसी भी तथा प योगको ा त करके जीवको एक ण भी अतभदजाग त हो जाये तो उसमे
मो वशेष र नही है।
। अ य प रणाममे जतनी तादा यवृ है, उतना जीवसे मो र है।
- य द कोई.-आ मयोग बने तो इस मनु य भवका मू य कसी तरहसे नही हो सकता। ाय
'मनु यदे हके बना आ मयोग नही बनता ऐसा जानकर, अ य त न य करके इसी दे हमे आ मयोग उ प
करना यो य है।
वचारक नमलतासे य द यह जीव अ यप रचयसे पीछे हटे तो सहजमे अभी हो उसे आ मयोग
गट हो जाये । अस सग- सगका घराव वशेष है, और यह जीव उससे अना दकालका होनस व- आ
होनेसे उससे अवकाश ा त करनेके लये अथवा उसक नवृ करनेके लये यथासभव स सगका आ य
करे तो कसी तरह पु षाथयो य होकर वचारदशाको ा त करे।
जस कारसे इस ससारक अ न यता, असारता अ यत पसे भा सत हो उस कारसे आ म वचार
उ प होता है।
'अब इस उपा धकायसे छु टनेक वशेष- वशेष आ आ करती है, और छू टे बना जो कुछ भी
काल बीतता है, वह इस जीवको श थलता ही है, ऐसा लगता है, अथवा ऐसा न य रहता है।
- जनका द उपा धमे रहते ए भी आ म वभावमे रहते थे, ऐसे आलवनके त कभी भी बु नही
- जाती । ी जन जैसे ज म यागी भी छोडकर चल नकले, ऐसे भयके हेतु प उपा धयोगको नवृ
यह पामर जीव करते-करते काल तीत करेगा तो अ ेय होगा, ऐसा भय जीवके उपयोगमे रहता है,
यो क यही कत है।

४५९
जो राग े षा द प रणाम अ ानके बना स भ वत नही है, उन राग े षा द प रणाम के होते ए
भी, सवथा जीव मु ता मानकर जीव मु दशाक जीव आसातना करता है, ऐसे वृ करता है।
सवथा राग े षप रणामको प र ीणता ही कत है।
___ जहाँ अ य त ान हो वहाँ अ य त यागका स भव है। अ य त याग गट ए वना अ य त
ान नही होता, ऐसा ी तीथकरने वीकार कया है।
आ मप रणामसे जतना अ य पदाथका तादा य-अ यास नवृ होना, उसे ी जने याग
कहते ह।
__ वह तादा य अ यास- नवृ प याग होनेके लये यह बा सगका याग भी उपकारी है, काय-

ी ै े े े ी ै ऐ ै ो ी ी ो े
कारी है । बा सगके यागके लये अतर याग कहा नही है, ऐसा है, तो भी इस जीवको अतागके
लये बा सगक नवृ को कुछ भी उपकारी मानना यो य है।
न य छू टनेका वचार करते है और जैसे वह काय तुरत पूरा हो वैसे जाप जपते ह। य प ऐसा
लगता है क वह वचार और जाप अभी तक तथा प नही है, श थल है, अतः अ य त वचार और उस
जापका उ तासे आराधन करनेका अ पकालमे योग करना यो य है, ऐसा रहा करता है।
सगसे कुछ पर परके स ब ध जैसे वचन इस प मे लखे है, वे वचारमे फु रत हो आनेसे वः
वचार बल बढनेके लये और आपके पढने- वचारनेके लये लखे ह।
जीव, दे श, पयाय तथा स यात, अस यात,' अनत आ दके वषयमे तथा रसको ापकताके
वषयमे मपूवक समझना यो य होगा।
'. आपका यहाँ आनेका वचार है, तथा ी डु ंगरका आना स भव है, यह लखा सो जाना है।
स सगय गको इ छा रहा करती है।
-
५७०
बबई, फागुन वद ५, श न, १९५१
सु भाई ी 'मोहनलालके त, ी डरवन । । । । ।
। प एक मला है। यो यो उपा धका याग होता है, ' यो यो समा धसुख गट होता है। यो
यो उपा धका हण होता है य यो समा धसुखक हा न होती है। वचार कर तो यह वात य
अनुभवमे आती ह। य द इस संसारके पदाथ का कुछ भी वचार कया जाये, तो उसके त वैरा य आये
बना नह रहेगा, यो क मा अ वचारके कारण उसमे मोहबु रहती है।
___'आ मा है', 'आ मा न य है', 'आ मा कमका कता है', 'आ मा कमका भो ा है', 'उससे वह
नवृ हो सकता है', और ' नवृ हो सकनेके साधन है',-ये छ. कारण जसे वचारपूवक स हो उसे
ववेक ान अथवा स य दशनक ा त मानना, ऐसा ी जने ने न पण कया है, उस न पणका
मुमु ुजीवको वशेष करके अ यास करना यो य है।
पूवके कसी वशेष अ यासवलसे इन छ कारणोका वचार उ प होता है, अथवा स संगके
आ यसे उस वचारके उ प होनेका योग बनता है।
अ न य पदाथके त मोहबु होनेके कारण आ माका अ त व, न य व और अ ावाध समा ध-
सुख भानमे नही आता। उसक मोहबु मे जीवको अना दसे ऐसी एका ता चली आती है, क उसका
ववेक करते करते जीवको अकुलाकर पीछे लौटना पड़ता है, और उस मोहन थको छे दनेका समय आनेसे
पहले वह ववेक छोड़ दे नेका योग पूव कालमे ब त बार आ है, यो क जसका अना दकालसे अ यास
१ महा मा गापीजी।

४६०
है वह, अ य त पु षाथके बना, अ पकालमे छोड़ा नही जा सकता। इस लये पुनः पुन. स सग, स शा
और अपनेमे सरल वचारदशा करके उस वषयमे वशेष म करना यो य है, क जसके प रणाममे न य
शा त सुख व प ऐसा आ म ान होकर व पका आ वभाव होता है। इसमे थमसे उ प होनेवाले
सशय धैयसे और वचारसे शात होते है। अधीरतासे अथवा टे ढ क पना करनेसे मा जीवको अपने
हतका याग करनेका ममय आता है, और अ न य पदाथका राग रहनेके कारणसे पुन पुन. संसारप र-
मणका योग रहा करता है।
कुछ भी आ म वचार करनेक इ छा आपको रहती है, ऐसा जानकर ब त सतोष आ है । उस
सतोषमे मेरा कोई वाथ नह है। मा आप समा धके रा तेपर चढना चाहते है, जससे आपको संसार-
लेशसे नवृ होनेका अवसर ा त होगा। इस कारको स भावना दे खकर वभावत स तोष होता है।
यही वनती।
. आ० व० णाम ।
५७१ __ बंबई, फागुन वद ५, श न, १९५१
अ धकसे अ धक एक समयमे १०८ जीव मु हो, इससे अ धक न हो, ऐसी लोक थ त जनागममे
वीकृत है, और येक समयमे एक सौ आठ एक सौ आठ जीव मु होते ही रहते ह, ऐसा मान तो इस
प रमाणसे तीनो कालमे जतने जीव मो ा त कर, उतने जीवोक जो अनत स या हो, उसक अपे ा
संसार नवासी जीवोक स या - जनागममे अनत गुनी न पत क है। अथात् तीनो कालमे मु जीव
जतने हो उनक अपे ा ससारमे अनत गुने जीव रहते है, यो क उनका प रमाण इतना अ धक है, और
इस लये मो मागका वाह बहते रहते ए भी ससारमागका उ छे द हो जाना सभव नही है, और इससे
बध-मो को व थामे वपयय नही होता। इस वषयमे अ धक चचा समागममे करगे तो बाधा नही है ।
___जीवके ब ध-मो क व थाके वषयमे स ेपमे प लखा है। इस कारके जो जो हो वे
सव समाधान हो सकने जैसे ह, कोई फर अ पकालमे और कोई फर वशेष कालमे समझे अथवा समझमे
आये, पर तु इन सबक व थाका समाधान हो सकने जैसा है। . ..
· सबको अपे ा अभी वचारणीय बात तो यह है क उपा ध तो क जाये और सवथा असगदशा
रहे, ऐसा होना अ य त क ठन है, और उपा ध. करते ए आ मप रणाम चचल न हो, ऐसा होना
अस भ वत जैसा है । उ कृ ानीको छोड़कर हम सबको तो यह बात अ धक यानमे रखने यो य है क,
आ मामे जतनी अस पूणता-असमा ध रहती है अथवा रह सकने जैसी हो, उसका उ छे द करना ।, -
५७२
बंबई, फागुन वद ७, र व, १९५१
. सव वभावसे उदासीन और अ य त शु नज पयायका सहज पसे आ मा सेवन करे, उसे ी

े ी ी ै े े ोई ी ी ी ो ऐ
जन ने ती ानदशा कही है । जस दशाके आये बना कोई भी जीव ब धनमु नही होता, ऐसा स ात
ी जन ने तपा दत कया है, जो अखड स य है। . .
कसी ही जीवसे इस गहन दशाका वचार हो सकना यो य है, यो क अना दसे अ य त अ ान-
दशासे इस जीवने जो वृ क है, उस वृ को एकदम अस य, असार समझकर उसक नवृ सूझे
ऐसा होना ब त क ठन है, इस लये जन ने ानीपु षका आ य करने प भ मागका न पण कया है,
क जस मागके आराधनसे सुलभतासे ानदशा उ प होती है। ।
। ।
ानीपु षके चरणमे मनको था पत कये बना यह भ माग स नही होता, जससे जनागममे
पुन पुन ानीक आ ाका आराधन करनेका थान थानपर कथन कया है। ानोपु षकै चरणमे मनका

४६१
था पत होना प हले तो क ठन पड़ता है, पर तु वचनको अपूवतासे, उस वचनका वचार करनेसे तथा
ानीको अपूव से दे खनेसे मनका था पत होना सुलभ होता है।
ानीपु षके आ यमे वरोध करनेवाले. पच वषया द दोष है। उन दोष के होनेके साधन से यथा-
श र रहना, और ा तसाधनमे भी उदासीनता रखना, अथवा उन उन साधनोमेसे अहबु को रकर,
उ हे रोग प समझकर वृ करना यो य है । अना द दोषका ऐसे सगमे वशेष उदय होता है । यो क
आ मा उस दोषको न - करने के लये अपने स मुख लाता है क वह व पा तर करके उसे आक षत
करता है, और जाग तमे श थल करके अपनेमे एका बु करा दे ता है। वह एका बु इस कारक
होती है क, 'मुझे इस वृ से वैसी वशेष बाधा नही होगी, मै अनु मसे उसे छोडू ंगा, और करते ए
जागृत र ंगा'; इ या द ातदशा उन दोष से होती है, जससे जीव उन दोषोका स ब ध नह छोड़ता,
अथवा वे दोष बढते ह, उसका यान उसे नही आ सकता।
__इस वरोधी साधनका दो कारसे याग हो सकता है-एक, उस साधनके सगक नव , दसरा.
वचारपूवक उसको तु छता समझना।
वचारपूवक तु छता समझनेके लये थम उस पच वषया दके साधनक नवृ करना अ धक
यो य है, यो क उससे वचारका अवकाश ा त होता है। -
। उस पच वषया दके साधनक सवथा नवृ करनेके लये जीवका बल न चलता हो, तब म-
मसे, अश-अशसे उसका याग करना यो य है, प र ह तथा भोगोपभोगके पदाथ का अ प प रचय करना
यो य है । ऐसा करनेसे अनु मसे वह दोष मद पड़ता है और आ यभ ढ होती है तथा ानीके वचन
आ मामे प रण मत होकर, ती ानदशा गट होकर जीव मु हो जाता है।
जीव व चत् ऐसी बातका वचार करे, इससे अना द अ यासका बल घटना क ठन है पर तु दन-
त दन, सग- संगमे और वृ वृ मे पुन पुनः वचार करे, तो अना द अ यासका बल घटकर
अपूव अ यासक स होकर सुलभ ऐसा आ यभ माग स होता है। यही वनती।
ज म, जरा, मरण आ द ख से सम त ससार अशरण है । जसने सवथा उस ससारक आ था
छोड़ द है, वही आ म वभावको ा त आ है, और नभय आ है। वचारके वना वह थ त जीवको
ा त नही हो सकती, और सगके मोहसे पराधीन इस जीवको वचार ा त होना लभ है।
यथास भव तृ णा कम करनी चा हये। ज म, जरा, मरण कसके ह ? क जो त णा रखता है.
उसके ज म, जरा, मरण ह । इस लये तृ णाको यथाश कम करते जाना।
जब तक यथाथ नज व प स पूण का शत हो तब तक नज व पके न द यासनमे थर
रहनेके लये ानीपु षके वचन आधारभूत ह, ऐसा परम पु ष ी तीथकरने कहा है, वह स य है।
वारहव गण थानमे रहनेवाले आ माको न द यासन प यानमे ुत ान अथात् ानीके मु य वचनोका

४६२
ीमद् राजच
आशय वहाँ आधारभूत है, ऐसा माण जनमागमे वारवार कहा है । बोधबीजक ा त होनेपर, नवाण-
मागक यथाथ ती त होनेपर भी उस मागमे यथा थत थ त होनेके लये ानीपु षका आ य मु य
साधन है, और वह ठे ठ पूण दशा होने तक है, नही तो जीवको प तत होनेका भय है, ऐसा माना है । तो
फर अपने आप अना दसे ात जीवको स के योगके बना नज व पका भान होना अश य है, इसमे
सशय यो हो ? जसे नज व पका ढ न य रहता है, ऐसे पु षको य जगत वहार वारवार
माग युत करा दे ने वाले सग ा त कराता है, तो फर उससे यूनदशामे जीव माग भूल जाय, इसमे
आ य या है ? अपने वचारके बलसे, स सग-स शा के आधारसे र हत सगमे यह जगत वहार
वशेप बल करता है, और तब वारवार ी स का माहा य और आ यका व प तथा साथकता
अ य त अपरो स य दखायी दे ते है।
५७६
बबई, चै सुद ६, सोम, १९५१
आज एक प आया है। यहाँ कुशलता है। प लखते लखते अथवा कुछ कहते कहते वारवार
च क अ वृ होती है, और क पतका इतना अ धक माहा य या ? कहना या ? जानना या ?
सुनना या ? वृ या ? इ या द व ेपसे च क उसमे अ वृ होती है, और परमाथस ब धी
कहते ए, लखते ए उससे सरे कारके व ेपक उ प होती है, जस व ेपमे मु य इस ती
वृ के नरोधके बना उसमे, परमाथकथनमे भी अ वृ अभी ेयभूत लगती है। इस कारणके

े े ै े ँ े े ै ी ै े े
वषयमे प हले एक स व तर प लखा है, इस लये यहाँ वशेष लखने जैसा नही है। केवल च मे
वशेष फू त होनेसे यहाँ लखा है।
मोतीके ापार आ दक वृ अ धक न करनेका हो सके तो ठ क है, ऐसा, जो लखा वह यथा-
यो य है, और च को इ छा न य ऐसी रहा करती है। लोभहेतुसे वह वृ होती है या नही ? ऐसा
वचार करते ए लोभका नदान तीत नही होता। वषया दक इ छासे वृ होती है, ऐसा भी
तीत नही होता, तथा प वृ होती है, इसमे स दे ह नही। जगत कुछ लेनेके लये वृ करता है,
यह वृ दे ने के लये होती होगी ऐसा लगता है। यहाँ जो यह लगता है वह यथाथ होगा या नह ?
उसके लये वचारवान पु ष जो कहे वह माण है । यही वनती। ल० रायचदके णाम ।
५७७
बबई, चै सुद १३, १९५१
अभी य द क ही वेदातस ब धी थोका अ ययन तथा वण करनेका रहता हो तो उस वचार-
का वशेष वचार होनेके लये कुछ समय ी 'आचाराग', 'सूयगडाग' तथा 'उ रा ययन' को पढ़ने एव
वचार करनेका हो सके तो क जयेगा ।
वेदातके स ातमे तथा जनागमके स ातमे भ ता है, तो भी जनागमको वशेष वचारका
थान मानकर वेदातका पृथ करण होनेके लये वे आगम पढने वचारने यो य है । यही वनती।
५७८
बबई, चै सुद १४, श न, १९५१
ब बईमे आ थक तगी वशेष है । स े वालोको ब त नुकसान आ है। आप सबको सूचना है क
स े जैसे रा तेको न अपनाया जाये, इसका पूरा यान र खयेगा । माताजी तथा पताजीको पाद णाम ।
रायचदके यथायो य ।

४६३
परम नेही ी सोभागके त, ी सायला ।
मोरबीसे लखा आ एक प मला है। यहाँसे र ववारको एक च मोरबी लखी है। वह
आपको सायलामे मली होगी ।.
ी डु गरके साथ इस तरफ आनेका वचार रखा है, उस वचारके अनुसार आनेमे ी डु गरको
भी कोई व ेप न करना यो य है, यो क यहाँ मुझे वशेष उपा ध अभी तुरत नही रहेगी ऐसा स भव
है। दन तथा रातका ब तसा भाग नवृ मे बताना हो तो मुझसे अभी वैसा हो सकता है।
परम पु पक आ ाके नवाहके लये तथा ब तसे जीवोके हतके लये आजी वका द स ब धी आप
कुछ लखते ह, अथवा पूछते है, उनमे मौन जैसा बरताव होता है, उसमे अ य कोई हेतु नही है, जससे
मेरे वैसे मौनके लये च मे अ व ेपता र खयेगा, और अ य त योजनके बना अथवा मेरी इ छा जाने
बना उस वषयमे मुझे लखने या पूछनेका न हो तो अ छा । यो क आपको और मुझे ऐसी दशामे रहना
वशेष आव यक है, और उस आजी वका दके कारणसे आपको वशेष भयाकुल होना भी यो य नह है।
मुझपर कृपा करके इतनी बात तो आप च मे ढ कर तो हो सकती है। बाक कसी तरह कभी भी
भेदभावक बु से मौन धारण करना मुझे सूझे, ऐसा स भ वत नह है, ऐसा न य र खये । इतनी सूचना
दे नी भी यो य नह है, तथा प मृ तमे वशेषता आनेके लये लखा है।
आनेका वचार करके त थ ल खयेगा। जो कुछ पूछना करना हो वह समागममे पूछा जाय तो
ब तसे उ र दये जा सकते है । अभी प ारा अ धक लखना नही हो सकता।
डाकका समय हो जानेसे यह प पूरा करता ँ। ी डु गरको णाम क हयेगा । और हमारे त
लौ कक रखकर, आनेके वचारमे कुछ श थलता न कर, इतनी वनती क रयेगा।
आ मा सबसे अ यत य है, ऐसा परम पु ष ारा कया आ न य भी अ य त य है।
यही वनती।
__ आ ाकारी रायचदके णाम व दत हो।
बबई, चै वद ५, र व, १९५१
कतने ही वचार व दत करनेक इ छा रहा करती होनेपर भी कसी उदयके तवधसे वैसा हो
सकनेमे ब तसा समय तीत आ करता है। इस लये वनती है क आप जो कुछ भी सगोपा पूछने
अथवा लखनेक इ छा करते हो तो वैसा करनेमे मेरी ओरसे तबंध नही है, ऐसा समझकर लखने
अथवा पूछनेमे न कयेगा। यही वनती।
आ० व० णाम।
५८१
बंबई, चै वद ८, वुध, १९५१
चेतनका चेतन पयाय होता है, और जडका जड पयाय होता है, यही पदाथक थ त है। येक
समयमे जो जो प रणाम होते है वे वे पयाय ह। वचार करनेसे यह वात यथाथ लगेगी।
अभी कम लखना बन पाता है, इस लये ब तसे वचार कहे नह जा सकते, तथा वहतसे ।
वचारोका उपशम करने प कृ तका उदय होनेसे कसीको प तासे कहना नही हो सकता। अभी यहां
इतनी अ धक उपा ध नही रहती, तो भी व प सग होनेसे तथा े उ ाप प होनेसे थोडे दनके
लये यहाँसे नवृ होनेका वचार होता है। अब इस वषयमे जो होना होगा सो होगा। यही वनती।
णाम।

४६४

ी े औ ो े े ो ै
आ मवीयके वतन और संकोच करनेमे ब त वचारपूवक वृ करना यो य है।
शुभे छास प भाई कुंवरजी आणदजीके त, ी भावनगर ।
वशेष वनती है क आपका लखा आ एक प ा त आ है। उस तरफ आनेके स ब धमे नम्
ल खत थ त है। लोगोको स दे ह हो इस कारके बा वहारका उदय है । और वैसे वहारके सा
बलवान न ंथ पु ष जैसा उपदे श करना, वह मागका वरोध करने जैसा है, और ऐसा जानकर तथा उ
जैसे सरे कारणोका व प वचारकर ायः जससे लोगोको स दे हका हेतु हो वैसे सगमे मेरा आना ना
होता। कदा चत् कभी कोई समागममे आता है, और कुछ वाभा वक कहना-करना होता है, इसमे ।
च क इ छत वृ नही है । पूवकालमे यथा थत वचार कये बना जीवने वृ क , उससे
वहारका उदय ा त आ है, जससे कई बार च मे शोक रहता है। परंतु यथा थत समप रणाम
वेदन करना यो य है, ऐसा समझकर ायः वैसी वृ रहती है। फर आ मदशाके वशेष थर होने
लये असगतामे यान रहा करता है । इस ापारा दके उदय- वहारसे जो जो सग होते है, उनमे ाय
असग प रणामवत् वृ होती है, यो क उनमे सारभूत कुछ नही लगता। परंतु जस धम वहारख
सगमे आना होता है, वहाँ उस वृ के अनुसार वहार करना यो य नही है। तथा सरे आशयक
वचारकर वृ क जाये तो उतनी साम य अभी नही है, इस लये वैसे संगमे ायः मेरा आना कम
होता है, और इस मको बदलना अभी च को जचता नही है। फर भी उस तरफ आनेके सगमे
वैसा करनेका कुछ भी वचार मने कया था, तथा प उस मको बदलते ए सरे वषम कारणोका आगे
जाकर सभव होगा ऐसा य द खनेसे म बदलने सबधी वृ का उपशम करना यो य लगनेसे वैसा
कया है । इस आशयके सवाय च मे सरा आशय भी उस तरफ अभी नही आनेके सबधमे है, परतु
कसी लोक वहार प कारणसे आनेके वचारका वसजन नही कया है।
च पर अ धक दबाव डालकर यह थ त लखी है, उसपर वचारकर य द कुछ आव यक जैसा
लगे तो सगोपा रतनजीभाईसे प ता कर। मेरे आने न आनेके वषयमे य द कुछ बात न कह सक
तो वैसा करनेक वनती है।
व० रायचदके णाम ।
५८३
बबई, चै वद ११, शु , १९५१
एक आ मप रण तके सवाय सरे जो वषय ह उनमे च अ व थततासे रहता है, और वैसी
अ व थतता लोक वहारसे तकूल होनेसे लोक वहार करना चता नही है, और छोडना नही बन
पाता, यह वेदना ाय दनभर वेदनमे आती रहती है।
खानेमे, पीनेमे, बोलनेमे, शयनमे, लखनेमे या अ य ावहा रक काय मे यथो चत भानसे वृ
नही क जाती और वैसे सग रहा करनेसे आ मप रण तका वतं गट पसे अनुसरण करनेमे वप
आया करती है, और इस वषयका त ण .ख रहा करता है।
अच लत आ म पसे रहनेक थ तमे हो च े छा रहती है, और उपयु सगोक आप के
कारण कतना हो उस थ तका वयोग रहा करता है, और वह वयोग मा परे छासे रहा है, वे छाके
कारणसे नही रहा, यह एक ग भीर वेदना त ण आ करती है।
इसी भवमे और थोड़े ही समय पहले वहारके वषयमे भी मृ त तीन थी। वह मृ त अव
वहारके वषयमे व चत् ही रहती है और वह भी मंद पसे । थोड़े ही समय पहले अथात् थोड़े वष
पहले वाणी ब त बोल सकती थी, वका पसे कुशलतासे वृ कर सकती थी, वह अब मद पसे

४६५
थासे वृ करती है। थोडे वष पहले, थोडे समय पहले लेखनश अ त उ न थी, अब या
ना यह सूझते सूझते दनपर दन तीत हो जाते ह, और फर भी जो कुछ लखा जाता है, वह
त या यो य व थापूवक लखा नही जाता, अथात् एक आ मप रणामके सवाय सरे सव प र-
मे उदासीनता रहती है। और जो कुछ कया जाता है वह यथो चत भानके सौव अशसे भी नही
| यो- यो और जो-सो कया जाता है। लखनेक वृ को अपे ा वाणीक वृ कुछ ठ क है,
आप कुछ पूछना चाहे, जानना चाहे तो उसके वषयमे समागममे कहा जा सकेगा।
___ कु दकु दाचाय और आनदधनजीको स ात स ब धी तीन ान था। कु दकु दाचायजी तो
थ तमे ब त थत थे।
___ ज हे कहने मा दशन हो, वे सब स य ानी नही कहे जा सकते । वशेष अब फर ।'
। बबई, चै वद ११, शु , १९५१
"'जेम नमळता रे र न फ टक तणी, तेम ज जीव वभाव रे ।
ते जन वीरे रे धम का शयो, बळ कषाय अभाव रे॥"
वचारवानको सगसे त र ता परम ेय प है।
५८५
बंबई, चै वद ११, शु , १९५१
"जेम नमळता रे र न फ टक तणी, तेम ज जीव वभाव रे।
' ते जन वीरे रे धम का शयो, बळ कषाय अभाव रे॥"
सग नै क ी सोभाग तथा ी डु गरके त नम कारपूवक,
सहज के अ य त का शत होनेपर अथात् सव कम का य होनेपर ही असगता कही है
र सुख व पता कही है। ानीपु षोके वे वचन अ य त स य ह, यो क स सगसे उन वचनोका य ,
य त गट अनुभव होता है।

ो े े ो ै
न वक प उपयोगका ल य थरताका प रचय करनेसे होता है । सुधारस, स समागम, स शा ,
चार और वैरा य-उपशम ये सब उस थरताके हेतु ह।
५८६
,बवई, चै वद १२, र व, १९५१
अ धक वचारका साधन होनेके लये यह प लखा है। .
' पूण ानी ी ऋषभदे वा द पु षोको भी ार धोदय भोगनेपर य आ है, तो हम जैसोको वह
पर धोदय भोगना ही पडे इसमे कुछ सशय नही है। मा खेद इतना होता है क हमे ऐसे ार धोदयम
तो ऋषभदे वा द जैसी अ वषमता रहे इतना बल नही है; और इस लये ार धोदयके होनेपर वारवार
ससे अप रप वकालमे छटनेको कामना हो आती है, क य द इस वषम ार धोदयमे कुछ भी उपयोगको
थात यता न रही तो फर आ म थरता ा त करनेके लये पुनः अवसर खोजना होगा, और प ा ाप-
वक दे ह छू टे गी, ऐसी च ता अनेक बार हो आती है।
१ भावा- जस तरह फ टक र नक नमलता होती है, उसी तरह जीवका वभाव है। जन वोरने
वल कपायके अभाव प धमका न पण कया है ।

४६६
ार धोदय मटकर नवृ कमका वेदन करने प ार धका उदय होनेका आशय र
करता है, पर तु वह तुरत अथात् एकसे डेढ वषमे हो ऐसा तो दखायी नह दे ता, और पल पल बीत
क ठन पडता है। एकसे डेढ़ वषके बाद वृ कमका वेदन करने प उदय सवथा प र ीण होगा, ऐ
भी नही लगता, कुछ उदय वशेष मद पड़ेगा, ऐसा लगता है।
आ माक कुछ अ थरता रहती है । गत वषका मोती स ब धी ापार लगभग पूरा होने आ
है। इस वषका मोती स ब धी ापार गत वषक अपे ा लगभग गुना आ है। गत वष जैसा उसन
प रणाम आना क ठन है। थोडे दनोक अपे ा अभी ठ क है; और इस वष भी उसका गत वष जै
नही तो भी कुछ ठ क प रणाम आयेगा, ऐसा स भव रहता है। पर तु ब तसा व उसके वचार
तीत होने जैसा होता है, और उसके लये शोक होता है, क यह एक प र हक कामनाके बलव
वतन जैसा होता है, उसे शात करना यो य है, और कुछ करना पड़े ऐसे कारण रहते है । अब जैसे तै
करके उस ार धोदयका तुरत य हो तो अ छा है, ऐसा मनमे ब त बार रहा करता है।
जहाँ जो आढत और मोती स ब धी ापार है, उससे मेरा छटना हो सके अथवा उसका ब
सग कम हो जाये, वैसा कोई रा ता यानमे आये तो ल खयेगा; चाहे तो इस वषयमे समागम
वशेषतासे कहा जा सके तो क हयेगा । यह बात यानमे र खयेगा।
लगभग तीन वषसे ऐसा रहा करता है क परमाथ स ब धी अथवा वहार स ब धी कुछ .
लखते ए उ े ग आ जाता है, और लखते लखते क पत जैसा लगनेसे वारवार अपूण छोड़ दे ना पडत
है। जस समय च परमाथमे एका वत् होता है तब य द परमाथ स ब धी लखना अथवा कहना
तो वह यथाथ कहा जाये, पर तु च अ थरवत् हो और परमाथ स ब धी लखना या कहना कय
जाये तो वह उद रणा जैसा होता है, तथा उसमे अ तवृ का यथात य उपयोग न होनेसे, वह आ म
बु से लखा या कहा न होनेसे क पत प कहा जाता है। उससे तथा वैसे सरे कारण से परमाथ
स ब धी लखना तथा कहना ब त कम हो गया है। इस थलपर, सहज होगा क च अ थरवा
हो जानेका हेतु या है ? परमाथमे जो च वशेष एका वत् रहता, था, उस च के परमाथ
अ थरवत् हो जानेका कुछ भी कारण होना चा हये। य द परमाथ संशयका हेतु लगा हो तो वैस
हो सकता है, अथवा कोई तथा वध आ मवीय म द होने प ती ार धोदयके.बलसे वैसा होता है
इन दो हेतुओसे परमाथका वचार करते ए,- लखते ए या कहते ए च अ थरवत् रहता है
उसमे थम कहे ए हेतुका होना स भव नही है । मा सरा कहा आ हेतु स भ वत है । आ मवी
मद होने प ती ार धोदय होनेसे उस हेतुको र करनेका पु षाथ होनेपर भी काल ेप आ करता है
और वैसे उदय तक वह अ थरता र होनाः क ठन है; और इस लये परमाथ व प, च के बना त सबध
लखना, कहना क पत जैसा लगता है, तो भी कतने ही सगोमे वशेष थरता रहती है। वहा
स बधी कुछ भी लखते ए, वह असारभूत और सा ात् ा त प लगनेसे त स बधी जो कुछ लखन
या कहना है वह तु छ है, आ माको वकलताका हेतु है, और जो कुछ लखना, कहना है वह न कहा है
तो भी चल सकता है। अतः जब तक वैसा रहे तब तक तो अव य वैसा करना यो य है, ऐस
समझकर ब तसी, ावहा रक बात लखने, करने और कहनेक आदत चली गयी है ।।. मा जो ापा
रा द वहारमे ती ार धोदयसे वृ है, वहाँ कुछ, वृ होती है. य प उसक भी- यथाथत
तीत नह होती।
ी जन वीतरागने -भाव सयोगसे वारवार छू टनेक ेरणा द है, और उस संयोगका व ास

४६७
परम ानीके लये भी कत नह है, ऐसा न ल माग कहा है, उन ी जन वीतरागके चरणकमलम
अ यत न प रणामसे नम कार है ।
'जो आजके प मे लखे है उनका उ र समागममे पू छयेगा । दपण, जल, द पक, सूय और
च ुके व पपर वचार करगे, तो केवल ानसे पदाथ का शत होते है, ऐसा जने ने कहा है, उसे
समझनेमे कुछ साधन होगा।
५८७

ई ै
बबई, चै वद १२, र व, १९५१
'केवल ानसे पदाथ कस कार दखायी दे ते ह ?' इस का उ र वशेषत. समागममे समझने-
से प समझा जा सकता है, तो भी स ेपमे नीचे लखा है-
जैसे द पक जहाँ जहाँ होता है, वहाँ वहाँ काशक पसे होता है, वैसे ान जहाँ जहाँ होता है वहाँ
वहाँ काशक पसे होता है। जैसे द पकका सहज वभाव ही पदाथ काशक होता है वैसे ानका सहज
वभाव भी पदाथ काशक है। द पक काशक है, और ान , भाव दोनोका काशक है।
द पकके का शत होनेसे उसके काशक सीमामे जो कोई पदाथ होता है वह सहज ही दखायी दे ता है,
वैसे ानक व मानतासे पदाथ सहज ही दखायी दे ता है । जसमे यथात य और स पूण पदाथ सहज दे ख
जाते ह, उसे 'दे वल ान' कहा है। य प परमाथसे ऐसा कहा है क केवल ान भी अनुभवमे तो मा
आ मानुभवकता है, वहारनयसे लोकालोक काशक है । जैसे दपण, द पक, सूय और च ु पदाथ काशक
है, वैसे ान भी पदाथ काशक है।
' ५८८ वबई, चै वद १२, र व, १९५१
ी जन वीतरागने -भाव संयोगसे वारंवार छू टनेक ेरणा क है, और उस सयोगका
व ास परम ानीको भी कत नह है, ऐसा अखंडमाग कहा है; उन ी जन वीतरागके चरणकमलमे
अ यत भ पूवक नम कार।
, आ म व पका न य होनेमे जीवक अना दकालसे भूल होती आयी है। सम त ुत ान व प
ादशागमे सव थम- उपदे श यो य 'आचारागसू ' है; उसके थम ुत कधमे, थम अ ययनके थम
उ े शमे थम वा यमे ी जनने जो उपदे श कया है, वह सव अगोका, सव ुत ानका सार व प है,
मो का बीजभूत है, स य व व प है। उस वा यमे उपयोग थर होनेसे जीवको न य होगा क
ानीपु षके समागमक उपासनाके बना जीव व छदसे न य करे, यह छू टनेका माग नही है।
सभी जीवमे परमा म व प है, इसमे सशय नही है, तो फर ी दे वकरणजी वयंको परमा म-
व प मान ल तो यह बात अस य नह है, परतु जब तक वह व प यथात य गद न हो, तब तक
मुमु ,
ु ज ासु रहना अ धक अ छा है, और उस मागसे यथाथ परमा म व प गट होता है। उस माग
को छोड़कर वतन करनेसे उस पदका भान नही होता, तथा ी जन वीतराग सव पु षोक आसातना
'करने प वृ होती है । सरा कोई मतभेद नही है

४६८
आपको वेदात थ पढ़नेका अथवा उस सगक बातचीत सुननेका सग रहता हो तो उसे
पढनेसे तथा सुननेसे जीवमे वैरा य और उपशम वधमान हो वैसा करना यो य है। उसमे तपादन कये
ए स ातका य द न य होता हो तो करनेमे बाधा नह है, तथा प ानीपु षके समागम और
उपासनासे स ातका न य कये बना आ म वरोध होना स भव है।
५९०
बबई, चै वद १४, १९५१
चा र ( ी जने के अ भ ायमे या है ? उसे वचारकर समव थत होना) दशा स बधी अनु-
े ा करनेसे जीवमे व थता उ प होती है । उस वचार ारा उ प ई चा र प रणाम वभाव प
व थताके बना ान न फल है, ऐसा जने का अ भमत अ ाबाध स य है ।
त स बधी अनु े ा ब त बार रहनेपर भी चचल प रण तका हेतु ऐसा उपा धयोग ती उदय प
होनेसे च मे ायः खेद जैसा रहता है, और उस खेदसे श थलता उ प होकर वशेष नही कहा जा
सकता । बाक कुछ बतानेके वषयमे तो च म बहत बार रहता है। सगोपा कुछ वचार लख, उसमे
आप नह है। यही वनती।
५९१
बबई, चै , १९५१
वषया द इ छत पदाथ भोगकर उनसे नव होनेक इ छा रखना और उस मसे वृ करने-
से आगे जाकर उस वषयमूछाका उ प होना स भव न हो, ऐसा होना क ठन है, यो क ानदशाके
बना वषयक नमूलता होना स भव नही है । वषय भोगनेसे मा उदय न होता है, परतु य द ान-
दशा न हो तो उ सुक प रणाम, वषयका आराधन करते ए, उ प ए बना नही रहते, और उससे
वषय परा जत होनेके बदले वशेष वधमान होता है। ज हे ानदशा है वैसे पु ष वषयाका ासे अथवा
वषयका अनुभव करके उससे वर होनेक इ छासे उसमे वृ नही करते, और य द ऐसे वृ करने
लगे तो ानपर भी आवरण आना यो य है। मा ार ध स ब धी उदय हो अथात् छू टा न जा सके, इसी-
लये ानीपु षक भोग वृ है। वह भी पूवप ात् प ा ापवाली और मंदमे मद प रणामसयु होती
है। सामा य मुमु ुजीव वैरा यके उ वके लये वषयका आराधन करने जाय तो ाय उसका बंधा
जाना स भव है, यो क ानीपु ष भी उन संगोको बड़ी मु कलसे जीत सके ह, तो फर जसक मा
वचारदशा है ऐसे पु षको साम य नह क वह वषयको इस कारसे जीत सके।
. ५९२ . बंबई, वैशाख सुद , १९५१
आय- ी सोभागके त, सायला। ,
___ प मला है। . .
ी अंबालालसे सुधारस स ब धी बातचीत करनेका अवसर आपको ा त हो तो क जयेगा। .
' जो दे ह पूण युवाव थामे और स पूण आरो यमे दखायी दे ती ई भी णभगुर है, उस दे हमे ी त
करके या कर?
. जगतके सव पदाथ क अपे ा जसके त सव कृ ी त है, ऐसी यह दे ह वह भी ःखका हेतु है,

ो े े े े
तो सरे पदाथ मे सुखके हेतुक या क पना करना?

४६९
जन पु षोने व जैसे शरीरसे भ है, वैसे आ मासे शरीर भ है, ऐसा दे खा है, वे पु ष
__ ध य ह।
सरेक व तुका अपनेसे हण आ हो, जब यह मालूम हो क वह सरेक है, तब उसे दे दे नेका
ही काय महा मा पु ष करते ह ।
षमकाल है इसमे सशय नही है।
राथा प परम ानी आ तपु षका ाय वरह है।
वरले जीव स य ा त कर, ऐसी काल थ त हो गयी है। जहाँ सहज स आ मचा र दशा
रहती है ऐसा केवल ान ा त करना क ठन है, इसमे सशय नही है।
वृ वराम पाती नही, वर ब त रहती है ।
वनमे अथवा एकातमे सहज व पका अनुभव करता आ आ मा सवथा न वषय रहे ऐसा करनेमे
सारी इ छाएँ लगी है।
५९३ बबई, वैशाख सुद १५, वुध, १९५१
आ मा अ य त सहज व थता ा त करे यही ी सव ने सव ानका सार कहा है।
अना दकालसे जीवने नर तर अ व थताक आराधना क है, जससे व थताक ओर आना उसे
गम लगता है। ी जन ने ऐसा कहा है क यथा वृ करण तक जीव अनत बार आया है, परतु जस
समय थभेद होने तक आना होता है तब ोभयु होकर फरसे ससारप रणामी होता रहा है। थ-
भेद होनेमे जो वीयग त चा हये, उसके होनेके लये जीवको न य त स समागम, स चार और सद-
थका प रचय नरतर पसे करना ेयभूत है।
- इस दे हक आयु य उपा धयोगमे तीत होती जा रही है। इसके लये अ यत शोक होता है,
और उसका य द अ पकालमे उपाय न कया तो हम जैसे अ वचारी भी थोडे समझना।
जस ानसे कामका नाश होता है उस ानको अ य त भ से नम कार हो ।
आ० व० यथा०
५९४
बबई, वैशाख सुदो १५, बुध, १९५१
सवक अपे ा जसमे अ धक नेह रहा करता है, ऐसी यह काया रोग, जरा आ दसे वा माको ही
ख प हो जाती है, तो फर उससे र ऐसे धना दसे जीवको तथा प (यथायो य) सुखव हो ऐसा
मानते ए वचारवानक बु अव य ोभको ा त होनी चा हये, और कसी अ य वचारमे लगनी
चा हये, ऐसा ानीपु षोने नणय कया है, वह यथात य है।
५९५
बवई, वैशाख वदो ७, गु , १९५१
वेदात आ दमे जो आ म व पक वचारणा कही है, उस वचारणाक अपे ा ी जनागममे जो
आ म व पक वचारणा कही है, उसमे भेद आता है। सव वचारणाका फल आ माका सहज वभावमे
प रण मत होना हो है। स पूण राग े षके यके वना स पूण आ म ान गट नही होता ऐसा न य
जने ने कहा है, वह वेदात आ दक अपे ा बलवान माणभूत है।

४७०
बंबई, वैशाख वद ७, गु , १९५१
सवक अपे ा वीतरागके वचनको स पूण ती तका थान कहना यो य है, यो क जहाँ रागा द
दोषका स पूण य हो वहाँ स पूण ान वभाव गट होने यो य नयम घ टत होता है।
ी जन को सबक अपे ा उ कृ वीतरागता स भव है, यो क उनके वचन य माण है ।
जस कसी पु षको जतने अशमे वीतरागता स भव है, उतने अशमे उस पु षका वा य मा यता यो य
है। सा या द दशनमे बध-मो क जो जो ा या उप द है, उससे बलवान माण स ा या ी
जन वीतरागने कही है, ऐसा जानता ँ।
५९७
बंबई, वैशाख वद ७, गु , १९५१
हमारे च मे वारवार ऐसा आता है और ऐसा प रणाम थर रहा करता है क जैसा आ म-
क याणका नधार ीवधमान वामीने या ीऋषभा दने कया है, वैसा नधार सरे स दायमे नही है ।
वेदा त आ द दशनका ल य आ म ानके त और स पूण मो के त जाता आ दे खनेमे आता
है, पर तु उसका स पूण पसे यथायो य नधार-उसमे मालूम नह होता, अंशत. मालूम होता है और कुछ
कुछ उसका भी पयायातर दखायी दे ता है। य प वेदांतमे जगह जगह आ मचयाका ही ववेचन कया
है, तथा प वह चया प त अ व है, ऐसा अभी तक तीत नही हो पाता। ऐसा भी स भव है क
कदा चत् वचारके कसी उदयभेदसे वेदातका आशय अ य व पसे समझमे आता हो और उससे
वरोधका भास होता हो, ऐसी आशका भी पुन पुनः च मे करनेमे आयी है, वशेष वशेष आ मवीयका
प रणमन करके उसे अ वरोधी दे खनेके लये वचार कया गया है, तथा प ऐसा मालूम होता है क
वेदात जस कारसे आ म व प कहता है उस कारसे वेदात सवथा अ वरो धताको ा त नह कर
सकता । यो क वह जो कहता है उसीके अनुसार आ म व प नही है, उसमे कोई बड़ा भेद दे खनेमे आता

ै औ ी े ो े ी े े े े ै ी े ो
है, और उसी कारसे सा य आ द दशनोमे भी भेद दे खनेमे आता है। ी जन ने जो आ म व प कहा
है, एक मा वही वशेष वशेष अ वरोधी दे खनेमे आता है और उस कारसे वेदन करनेमे आता है।
ी जन का कहा आ आ म व प स पूणतः अ वरोधो होने यो य है, ऐसा तीत होता है । स पूणतः
अ वरोधी ही है, ऐसा जो नह कहा जाता उसका हेतु मा इतना ही है क स पूणतः आ माव था गट
नही ई है। जससे जो अव था अ गट है, उस अव थाका अनुमान वतमानमे करते ह, जससे उस
अनुमानपर अ यंत भार न दे ना यो य समझकर वशेष वशेष अ वरोधी है, ऐसा कहा है, स पूण
अ वरोधी होने यो य है, ऐसा लगता है। . . . . . . . .,
- स पूण आ म व प कसी भी, पु षमे गट होना चा हये, ऐसा आ मामे न त ती तभाव
आता है, और वह कैसे पु षम गट होना चा हये, ऐसा वचार करते ए, जने जैसे पु षमे गट होना
चा हये ऐसा प लगता है। इस सृ मंडलमे य द कसीमे भी स पूण आ म व प गट होने यो य
हो तो ी वधमान वामीमे थम गट होने यो य लगता है, अथवा उस दशाके पु षोमे सबसे थम
स पूण आ म व प


,४७१
- 'अ पकालमे उपा धर हत होनेक इ छा करनेवालेके लये आ मप रण तको कस वचारमे
यो य है क जससे वह उपा धर हत हो सके ?' यह हमने लखा था। उसके उ रमे आपने
क 'जब तक रागब धन है तब तक उपा धर हत नही आ जाता, और वह बधन आ मप रण त
हो जाये, वैसी प रण त रहे तो अ पकालमे उपा धर हत आ जाता है, इस कार जो उ र लय
यथाथ है । यहाँ मे वशेषता इतनी है क 'बलात् उपा धयोग ा त होता हो, उसके त राग
प रण त कम हो, उपा ध करनेके लये च मे वारवार खेद रहता हो, और उस उपा धका याग क
प रणाम रहा करता हो, वैसा होनेपर भी उदयबलसे उपा ध सग रहता हो तो वह कस उपायसे
कया जा सके ?' इस के वषयमे जो यानमे आये सो ल खयेगा।
, - 'भावाथ काश' थ हमने पढा है, उसमे स दायके ववादका कुछ समाधान हो सके
रचना क है, पर तु तारत यसे व तुतः वह ानवानक रचना नही है, ऐसा मुझे लगता है।
ी डु गरने "अखे पु ष एक वरख हे', यह सवैया लखाया है, उसे पढा है। ी डु गर
सवैयोका वशेष अनुभव है। तथा प ऐसे सवैयोमे भी ाय छाया जैसा उपदे श दे खनेमे आता है
उससे अमुक नणय कया जा सकता है, और कभी नणय कया जा सके तो वह पूवापर अ वरोध
है, ऐसा ाय यानमे नही आता । जीवके पु षाथधमको कतने ही कारसे ऐसी वाणी बलवान
है, इतना उस वाणीका उपकार कतने ही जीवोक त होना स भव है।
ी नवलचदको अभी दो च याँ आयी थी, कुछ धम- कारको जाननेक अभी उ हे
ई है, तथा प उसे अ यासवत् और ाकार जैसी अभी समझना यो य है। य द कसो
कारणयोगसे इस कारके त उनका यान बढे गा तो भावप रणामसे धम वचार-हो सके ऐसा
योपशम है।
__ आपके आजके प मे ी डु गरने जो साखी लखवायी है, २" वहारनी झाळ पादडे
परजळ ' यह पद जसमे पहला है वह यथाथ है। उपा धसे उदासीन च को धीरताका हेतु म
साखी है।
__ आपका और ी डु गरका यहाँ आनेका वशेष च है ऐसा लखा उसे वशेषतः जाना
डु गरका च ऐसे कारमे कई बार श थल होता है, वैसा इस सगमे करनेका कारण दखायं
दे ता | ी डु गरको (बाहर) से मानदशा ऐसे सगमे कुछ आड़े आती होनी चा हये, ऐसा हमे
है, पर तु वह ऐसे वचारंवानको रहे यह यो य नही है, फर सरे साधारण जीवोके वषयमे वैस: े
नवृ स सगसे भी कैसे होगी?
. हमारे च मे एक इतना रहता है क यह े सामा यत अनाय च कर डाले ऐसा है
े मे स समागमका यथा थत लाभ लेना ब त क ठन पडता है, यो क आसपासके समागम,
वहार सब ाय वपरीत ठहरे, और इस कारणसे ाय कोई मुमु ुजीव यहाँ चाहकर समागम
आनेक इ छा करता हो उसे भी उ रमे 'ना' लखने जैसा होता है, यो क उसके ेयको बाधा :
दे ना यो य है । आपके और ी डु ंगरके आनेके स ब धमे इतना. सब वचार तो च मे नही होता.
कुछ सहज होता है । यह सहज वचार जो होता है वह ऐसे कारणसे नह होता क यहाँका उत
उपा धयोग दे खकर हमारे त आपके च मे कुछ व ेप हो, पर तु ऐसा रहता है क आपके तर
गर जैसेके स समागमका लाभ े ा दक वपरीततासे यथायो य न लया जाये, इससे च म हे
१. अ य पु ष एक वृ है। २. वहारक वाला प े-प ेपर व लत ई।

.
४७२
जाता है। य प आपके आनेके सगमे उपा ध ब त कम क जा सकेगी, तथा प आसपासके साधन
स समागमको और नवृ को वधमान करनेवाले नह है, इससे च मे सहज खेद होता है। इतना
लखनेसे च मे आया आ एक वचार लखा है ऐसा समझना। पर तु आपको अथवा ी डु गरको
रोकने सवधी कसी भी आशयसे नही लखा है, पर तु इतना आशय च मे है क य द ी डु गरका
च आनेके त कुछ श थल दखायी दे तो आप उनपर वशेष दबाव न डाल, तो भी आप नह है,
यो क ी डु गर आ दके समागमक वशेष इ छा रहती है, और यहाँसे कुछ समयके लये नवृ आ
जा सके तो वैसा करनेक इ छा है, तो ी डु गरका समागम कसी सरे नवृ े मे होगा ऐसा


लगता है।
आपके लये भी इसी कारका वचार रहता है, तथा प उसमे भेद इतना होता है क आपके
आनेसे यहॉक कई उपा धयाँ अ प कैसे क जा सके ? उसे य दखाकर, त स ब धी वचार लेनेका
हो सकता है। जतने अशमे ी सोभागके त भ है, उतने ही अंशमे ी डु गरके त भ है,
इस लये उ हे इस उपा धसबधी वचार बतानेसे भी हम पर तो उपकार है । तथा प ी डु गरके च मे
कुछ भी व ेप होता हो और यहाँ अ न छासे आना पड़ता हो तो स समागम यथायो य नही हो सकता।
वैसा न होता हो तो ी डु गर और ी सोभागको यहाँ आनेमे कोई तब ध नही है । यही वनती।
आ० व० णाम।
५९९ - बबई, वैशाख वद १४, गु , १९५१
शरण (आ य) और न य कत है। अधीरतासे खेद कत नही है। च को दे हा दके
भयका व ेप भी करना यो य नही है । अ थर प रणामका उपशम करना यो य है ।
आ० व० ०
६००
बबई, जेठ सुद २, र व, १९५१
अपारवत् संसारसमु से तारनेवाले स मका न कारण क णासे जसने उपदे श कया है, उस
ानीपु षके उपकारको नम कार हो ! नम कार हो! .
परम नेही ी सोभागके त, ी सायला । .
यथायो यपूवक वनती क-आपका लखा एक प कल मला है । आपके तथा ी डु गरके यहाँ
आनेके वचार स ब धी यहाँसे एक प हमने लखा था उसका अथ कुछ और समझा गया मालूम होता
है । उस प मे इस सगमे जो कुछ लखा है उसका सं ेपमे भावाथ इस कार है-
. मुझे ाय नवृ मल सकती है, पर तु यह े वभावसे वृ वशेषवाला है, जससे नवृ -
े मे स समागमसे जैसा आ मप रणामका उ कष हो, वैसा ायः वृ वशेष े मे होना क ठन पड़ता
है । बाक आप अथवा ी डु गर अथवा दोनो आये उसमे हमे कोई आप नही है। वृ ब त कम
क जा सकती है; पर तु ी डु गरका च आनेमे कुछ वशेष श थल हो तो आ हसे न लाय तो भी
आप नही है, यो क उस तरफ थोड़े समयमे समागम होनेका कदा चत् योग हो सकेगा।
इस कार लखनेका आशय था। आप अकेले ही आय और ी डु गर न आय अथवा हमे अभी
नवृ नह है, ऐसा लखनेका आशय नही था । मा नवृ े मे कसी तरह समागम होनेके वषयमे
वशेषता लखी है। कभी वचारवानको तो वृ े मे स समागम वशेष लाभकारक हो पड़ता है।
ानीपु षक भीड़मे नमलदशा दे खना बनता है । इ या द न म से वशेष लाभकारक भी होता है।

४७३
आप दोनो अथवा आप कब आये, इस वषयमे मनमे कुछ वचार आता है, जससे अभी यहाँ
कुछ वचार सू चत करने तक आनेमे वल ब करगे तो आप नह है।
परप रण तके काय करनेका सग रहे और वप रण तमे थ त रखे रहना, यह ी आनदघनजी
जो चौदहव जन क सेवा कही है उससे भी वशेष कर है।
ानीपु षको जबसे नौ बाडसे वशु चयक दशा रहती है तबसे जो सयमसुख गट होत
है वह अवणनीय है। उपदे शमाग भी उस सुखके गट होनेपर पण करने यो य है। ी डु गरक
अ य त भ से णाम।
आ० व० णाम
६०१
बबई, जेठ सुद १०, र व, १९५
परम नेही ी सोभागके त, ी सायला ।
तीन दन प हले आपका लखा प मला है। यहाँ आनेके वचारका उ र मलने तक उपशा
कया है ऐसा लखा, उसे पढा है। उ र मलने तक आनेका वचार बंद रखनेके बारेमे यहाँसे लखा थ
उसके मु य कारण इस कार ह-
यहाँ आपका आनेका वचार रहता है, उसमे एक हेतु समागम-लाभका है और सरा अ न छ
नीय हेतु कुछ उपा धके सयोगके कारण ापारके सगसे कसीको मलनेका है। जस पर वचार करते
ए अभी आनेका वचार रोका जाये तो भी आप नह है ऐसा लगा, इस लये इस कारसे लख
था । समागमयोग ायः यहाँसे एक या डेढ महीने बाद कुछ नवृ मलना स भव है तब उस तरफ
होना स भव है। और उपा धके लये अभी बक आ द यासमे ह। तो आपका उस सगसे आनेका
वशेष कारण जैसा तुरतमे नही है। हमारा उस तरफ आनेका योग होनेमे अ धक समय जाने जैसा
दखायी दे गा तो फर आपको एक च कर लगा जानेका कहनेका च है। इस वषयमे जो आपके यानमे
आये सो ल खयेगा।
कई बड़े पु षोके स योग स ब धी शा मे बात आती है, तथा लोककथामे वैसी बाते सुनी
जाती है। उसके लये आपको सशय रहता है, उसका स ेपमे उ र इस कार हे -
अ महा स आ द जो जो स याँ कही ह, ॐ आ द मं योग कहे है, वे सब स चे ह।
आ मै यक तुलनामे ये सब तु छ है । जहाँ आ म थरता है, वहाँ सव कारके स योग रहते ह।
इस कालमे वैसे पु ष दखायी नही दे त,े इससे उनक अ तो त होनेका कारण है, पर तु वतमानमे कसी
जीवमे ही वैसी थरता दे खनेमे आती है। ब तसे जीवोमे स वक यूनता रहती है, और उस कारणसे वैसे
चम कारा द दखायी नही दे ते, पर तु उनका अ त व नह है, ऐसा नह है। आपको शका रहती है, यह
आ य लगता है। जसे आ म ती त उ प हो उसे सहज हो इस वातक न शकता होती है, यो क

े ो ै े े ो ी े ै
आ मामे जो साम य है, उस साम यके सामने इस स ल धको कुछ भी वशेषता नह है।
ऐसे आप कभी कभी लखते ह, उसका या कारण है, वह ल खयेगा। इस कारके
वचारवानको यो हो? ी डु गरको नम कार । कुछ ानवाता ल खयेगा।

४७४
मनमे जो राग े षा दके प रणाम आ करते ह उ हे समया द पयाय नही कहा जा सकता, यो क
समयको अ य त सू मता है, और मनप रणामक वैसी सू मता नही है। पदाथका अ य तसे अ य त
सू मप रण तका जो कार है, वह समय है।
राग े षा द वचारोका उ व होना, यह जीवके पूव पा जत कम के योगसे होता है, वतमानकालम
आ माका पु पाथ उसमे कुछ भी हा नवृ मे कारण प है, तथा प वह वचार वशेप गहन है।
ी जने ने जो वा याय-काल कहा है, वह यथाथ है। उस उस (अकालके) संगमे ाणा दका
कुछ स धभेद होता है। च को व ेप न म सामा य कारसे होता है, हसा द योगका संग होता
है, अथवा कोमल प रणाममे व नभूत कारण होता है, इ या दके आ यसे वा यायका न पण
कया है।
___ अमुक थरता होने तक वशेष लखना नही हो सकता, तो भी जतना हो सका उतना यास
करके ये तीन च याँ लखी है।
वंबई, जेठ सुद १०, र व, १९५१
ानीपु पको जो सुख रहता है, वह नज वभावमे थ तका रहता है। बा पदाथमे उ हे सुख वु
नही होती, इस लये उस उस पदाथसे ानीको सुख खा दक वशेषता या यूनता नही कही जा सकती।
य प सामा य पसे शरीरके वा या दसे साता और वरा दसे असाता ानी और अ ानी दोनोको
होती है, तथा प ानीके लये वह-वह सग हप वषादका हेतु नही होता, अथवा ानके तारत यमे य द
यूनता हो तो उससे कुछ हष वषाद होता है, तथा प सवथा अजागृतताको पाने यो य ऐसा हप वपाद
नही होता । उदयवलसे कुछ वैसा प रणाम होता है, तो भी वचारजागृ तके कारण उस उदयको ीण
करनेके त ानीपु पका प रणाम रहता है।
वायुक दशा बदल जानेसे जहाज सरी तरफ चलने लगता है, तथा प जहाज चलानेवाला जैसे
उस जहाजको अभी मागको ओर रखनेके य नमे ही रहता है, वैसे ानीपु ष मन, वचन आ दके
योगको नजभावमे थ त होनेक ओर ही लगाते है, तथा प उदयवायुयोगसे य क चत् दशाफेर हो जाता
है, तो भी प रणाम, य न वधममे रहता है।
ानी नधन हो अथवा धनवान हो, अ ानी नधन हो अथवा धनवान हो, ऐसा कुछ नयम नही
है । पूव न प शुभाशुभ कमके अनुसार दोनोको उदय रहता है। ानी उदयमे सम रहते है, अ ानी
हप वषादको ा त होता है।
जहाँ स पूण ान है वहाँ तो ी आ द प र हका भी अ संग है। उससे यून भू मकाक ान-
दशामे (चौथे, पांचवे गुण थानमे जहाँ उस योगका सग स भव है, उस दशामे) रहनेवाले ानी-
सय को ी आ द प र हक ा त होती है।

४७५
स व तर प लखनेका वचार था, तदनुसार वृ नह हो सक । अभी उस तरफ कतनी
थरता होना स भव है ? चौमासा कहाँ होना स भव है ? उसे सू चत कर सक तो सू चत क जयेगा।
प मे तीन लखे थे, उनका उ र समागममे दया जा सकने यो य है । कदा चत् थोड़े
समयके बाद समागमयोग होगा।
वचारवानको दे ह छू टने स ब धी हष वषाद यो य नही है। आ मप रणामक वभावता ही
हा न और वही मु य मरण है। वभावस मुखता तथा उसक ढ इ छा भी उस हप वषादको र
करती है।
___ जो उदयके सग ती वैरा यवानको श थल करनेमे ब त बार फलीभूत होते है, वैसे उदयके
सग दे खकर च मे अ य त उदासीनता आती है। यह संसार कस कारणसे प रचय करने यो य है ?
तथा उसक नवृ चाहनेवाले वचारवानको ार धवशात् उसका संग रहा करता हो तो उस ार ध-
का कसी सरे कारसे शी तासे वेदन कया जा सकता है या नही ? उसे आप तथा ी डु गर वचारकर
ल खयेगा।
जन तीथकरने ानका फल वर त कहा है उन तीथकरको अ य त भ से नम कार हो ।
इ छा न करते ए भी जीवको भोगना पड़ता है, यह पूवकमके स ब धको यथाथ स करता
है। यही वनती।
तथा प गभीर वा य नह है, तो भी आशय गभीर होनेसे एक लौ कक वचनका आ मामे अभी
ब त बार मरण हो आता है, वह वा य इस कार है-"राडो ए, माडी ए, पण सात भरतारवाळ
१ भावाथ-इस ीपालके रासको लखते ए ानामृत रस वरसा है।
२ भावाथ-जगम अथात् आ माक सभी यु याँ हम जानती है। शरीरमे रहते ए भी उसका सग
नही है, उससे भ है। मुमु ु कवा साधक एकात, असग होकर एक ही आसनपर थर होकर रहे । य द उस
समय अ य वचार-सक प- वक प उठ खडे हो तो भ साधनम भग पड जाये । ओघवजी । अवला वह साधन
कैसे करे?
३ रॉड रोए, सुहागन रोए, पर तु सात भ रवाली वो मुंह ही न खोले ।
४७६
तो मोढुं ज न उघाडे ।' वा य गंभीर न होनेसे लखनेक वृ न होती, पर तु आशय गभीर होनेसे और
अपने वषयमे वशेष वचारणीय द खनेस, े आपको प लखनेका मरण हो आनेसे यह वा य लखा है,
इसपर यथाश वचार क जयेगा । यही वनती।
ल० रायचंदके णाम व दत हो ।
बबई, जेठ, १९५१
१ सहज व पसे जीवक थ त होना, इसे ी वीतराग 'मो ' कहते है।
२ जीव सहज व पसे र हत नही है, पर तु उस सहज व पका जीवको मा भान नही है, जो
भान होना , वही सहज व पसे थ त है ।
३ सगके योगसे यह जीव सहज थ तको भूल गया है, सगक नवृ से सहज व पका अपरो
भान गट होता है।
४ इसी लये सव तीथकरा द ा नयोने असगता ही सव कृ कही है, क जसमे सव आ म-
साधन रहे ह।
५ सव जनागममे कहे ए वचन एक मा असगतामे ही समा जाते ह, यो क वह होनेके लये
ही वे सव वचन कहे है। एक परमाणुसे लेकर चौदह राजलोकक और नमेषो मेषसे लेकर शैलेशीअव था
पयतक सव याओका जो वणन कया गया है, वह इसी असगताको समझानेके लये कया है।
६. सव भावसे असंगता होना, यह सबसे करसे कर साधन है, और वह नरा यतासे स
होना अ य त कर है । ऐसा वचारकर ी तीथकरने स सगको उसका आधार कहा है, क जस स सगके
योगसे जीवको सहज व पभूत असंगता उ प होती है।
७ वह स संग भी जीवको कई बार ा त होनेपर भी फलवान नही आ, ऐसा ी वीतरागने
कहा है, यो क उस स सगको पहचानकर इस जीवने उसे परम हतकारी नही समझा, परम नेहसे उसक
उपासना नही को, और ा तका भी अ ा त फलवान होनेयो य स ासे वसजन कया है, ऐसा कहा है।
यह जो हमने कहा है उसी बातक वचारणासे हमारे आ मामे आ मगुणका आ वभाव होकर सहज
समा धपयत ा त ए, ऐसे स सगको मै अ यत अ यत भ से नम कार करता ँ।
८ अव य इस जीवको थम सव साधनोको गौण मानकर नवाणके मु य हेतुभूत स सगक ही
स पणतासे उपासना करना यो य है, क जससे सव साधन सुलभ होते है, ऐसा हमारा आ मसा ा-
कार है।
९ उस स सगके ा त होनेपर य द इस जीवको क याण ा त न हो तो अव य इस जीवका ही
दोष है, यो क उस स संगके अपूव, अल य और अ यत लभ योगमे भी उसने उस स सगके योगके
वाधक अ न कारणोका याग नह कया।
१०. म या ह, व छ दता, माद और इ य वषयक उपे ा न क हो तभी म संग फलवान
नही होता, अथवा स सगमे एक न ा, अपूवभ न क हो तो फलवान नही होता। य द एक ऐसी
अपूवभ से स सगक उपासना क हो तो अ पकालमे म या हा दका नाश हो और अनु मसे जीव सव
दोप मे मु हो जाये।
११ स सगक पहचान होना जीवको लभ है। कसी महान पु ययोगसे उसक पहचान होनेपर
न यसे यही स संग, स पु ष है, ऐसा सा ीभाव उ प मा हो, वह जीव तो अव य ही वृ का संकोच
करे, अपने दोपोको ण णमे, काय कायमे ओर सग संगमे ती ण उपयोगसे दे ख, े दे खकर उ हे

२८ वा वष
४७७
प र ीण करे, और उस स सगके लये दे ह याग करनेका योग होता हो तो उसे वीकार करे; पर तु
उससे कसी पदाथमे वशेष भ नेह होने दे ना यो य नही है। तथा मादवश रसगारव आ द दोषोसे
उस स सगके ा त होनेपर पु षाथधम मद रहता है, और स सग फलवान नही होता, ऐसा जानकर
पु षाथवीयका गोपन करना यो य नही ।
___ १२ स सगक अथात् स पु षक पहचान होनेपर भी य द वह योग नरतर न रहता हो तो स सगसे
ा त ए उपदे शका ही य स पु षके तु य समझकर वचार करना तथा आराधन करना क जस
आराधनसे जीवको अपूव स य व उ प होता है।
१३ जीवको मु यसे मु य और अव यसे अव य यह न य रखना चा हये क मुझे जो कुछ
करना है वह आ माके लये क याण प हो, उसे ही करना है, और उसीके लये इन तीन योगोक उदय-
बलसे वृ होती हो तो होने दे ना, पर तु अ तमे उस योगसे र हत थ त करनेके लये उस वृ का
संकोच करते करते य हो जाये, यही उपाय कत है। वह उपाय म या हका याग, व छं दताका
याग, माद और इ य वषयका याग, यह मु य है। उसे स संगके योगमे अव य आराधन करते ही
रहना, और स सगक परो तामे तो अव य अव य आराधन कये ही जाना, यो क स सगके सगमे तो
य द जीवक कुछ यूनता हो तो उसके नवारण होनेका साधन स संग है, पर तु स सगक परो तामे तो
एक अपना आ मबल ही साधन है। य द वह आ मबल स सगसे ा त ए बोधका अनुसरण न करे,
उसका आचरण न करे, आचरणमे होनेवाले मादको न छोडे, तो कसी दन भी जीवका क याण न हो।
स ेपमे लखे हए ानीके मागके आ यके उपदे शक इन वा योका मुमु ुजीवको अपने आ मामे
नरंतर प रणमन करना यो य ह, ज हे हमने अपने आ मगुणका वशेष वचार करनेके लये श दोमे
लखा है।


बबई, आषाढ सुद १, र व, १९५१
लगभग पं ह दन पहले एक और आज एक ऐसे दो प मले है। आजके प से दो जाने
है। सं ेपमे उनका समाधान इस कार है-
(१) स यका ान होनेके वाद म या वृ र न हो, ऐमा नही होता। यो क जतने अशमे
स यका ान हो उतने अशमे म याभाव वृ र हो, ऐसा जन का न य है। कभी पूव ार धसे
बा वृ का उदय रहता हो तो भी म या वृ मे तादा य न हो, यह ानका ल ण है और
न य त म या व प र ीण हो, यही स य ानक ती तका फल है । म या वृ कुछ भी र न
हो, तो स यका ान भी स भव नही है।
दे वलोकमेसे जो मनु यलोकमे आये, उसे अ धक लोभ होता है, इ या द कहा हे वह
सामा यत है, एकात नही है । यही वनती।
ब बई, आषाढ सुद १, र व, १९५१
जैसे अमक वन प तक अमुक ऋतुमे उ प होती है, वैसे अमुक ऋतुमे वप रणाम भी होता है।
सामा यत आमके रम- पशका वप रणाम आ ा न मे होता है। आ ा न के बाद जो आम उ प
होता है उसका वप रणामकाल आ ा न म है, ऐसा नह है। पर तु सामा यत चै , वैशाख आ द
मासमे उ प होनेवाले आमक आ ा न मे वप रणा मता स भव है।

४७८
परम नेही ी सोभाग, ी सायला ।
__आपके दो प मले है। हमसे अभी कुछ वशेष लखना नही होता, पहले जो व तारसे एक
के समाधानमे अनेक कारके ात दे कर स ातसे लखना हो सकता था उतना अभी नही हो
सकता है। इतना ही नही पर तु चार प याँ जतना लखना हो तो भी क ठन पड़ता है, यो क अभी
च क वृ अंत वचारमे वशेष रहती है; और लखने आ दक वृ से च संकु चत रहता है । फर
उदय भी तथा प रहता है। पहले क अपे ा बोलनेके स ब धमे भी ाय ऐसा ही उदय रहता है। तो भी
कई बार लखनेक अपे ा बोलनेका कुछ वशेष बन पाता है। जससे समागममे कुछ जानने यो य पूछना
हो तो मरण र खयेगा।
अहोरा ाय वचारदशा रहा करती है, जसे सं ेपमे भी लखना नही हो सकता। समागममे
कुछ सगोपा कहा जा सकेगा तो वैसा करनेक इ छा रहती है, यो क उससे हमे भी हतकारक
थरता होगी।
कबीरपथी वहाँ आये है, उनका समागम करनेमे बाधाका सभव नही है। और य द उनक कोई
वृ यथायो य न लगती हो तो उस बातपर अ धक यान न दे ते ए उनके वचारका कुछ अनुकरण
करना यो य लगे तो वचार करना ।
जो वैरा यवान होता है उसका समागम कई कारसे आ मभावक उ त करता है।
, . सायलामे अमुक समय थरता करनेके स ब धमे आपने लखा, इस बातका अभी उपशम करनेका
ाय च रहता है। यो क लोकस ब धी समागमसे उदासभाव वशेष रहता है। तथा एकात जैसे
योगके बना कतनी ही वृ योका नरोध करना नही हो सकता, जससे आपक लखी ई इ छाके
लये वृ हो सकना अश य है।।
यहाँसे जस त थको नवृ हो सकेगी, उस त थ तथा बादक व थाके वषयमे यथायो य
वचार हो जानेपर उस वषयमे आपको प लखूगा।
ी डु गर और आप कुछ ानवाता ल खयेगा। यहाँसे प आये या न आये, इसक राह
न दे खयेगा।
ी सोभागका वचार अभी इस तरफ आनेका रहता हो तो अभी वलव करना यो य है।
कुछ ानवाता लख सके तो ल खयेगा। यही वनती। '' आ० व० णाम ।
६१३ व बई, आषाढ-सुद ११, बुध, १९५१
जस कषाय-प रणामसे अनत ससारका ब ध हो उस कषाय-प रणामको जन वचनमे 'अनतानु-
वधी' स ा द है। जस कपायमे त मयतासे अ श त ( अशुभ ) भावसे ती उपयोगसे आ माक वृ
है, वहाँ 'अनंतानुबधी' का सभव है। मु यतः यहाँ कहे ए थानकमे उस कषायका वशेष सभव है।
सदे व, स और स मका जस कारसे ोह हो, अव ा हो, तथा वमुखभाव हो, इ या द वृ से,
तथा असदे व, अस तथा अस मका जस कारसे आ ह हो,, त स ब धी कृतकृ यता मा य हो,
इ या द वृ करते ए - 'अनतानुबधी कपाय' का सभव है, अथवा ानीके वचनमे ीपु ा द भावोको,
जस मयादाके प ात् इ छा करते ए नवस प रणाम कहा है, उस प रणामसे वृ करते ए भी
'अनतानुवधी' होने यो य है । स ेपमे अनतानुबंधी कषायक ा या इस कार तीत होती है।

४७९
जो पु ा द व तु लोकसं ासे इ छनीय मानी जाती है, उस व तुको ःखदायक एवं असारभूत
जानकर ा त होनेके बाद न हो जानेपर भी इ छनीय नही लगती थी, वैसी व तुक अभी इ छ
उ प होती है, और उससे अ न यभाव जैसे बलवान हो वैसा करनेक अ भलाषा उ व होती है, इ या द
जो उदाहरणस हत लखा उसे पढा है।
जस पु षक ानदशा थर रहने यो य है, ऐसे ानीपु षको भी ससार सगका उदय हो त
जागृत पसे वृ करना यो य है, ऐसा वीतरागने कहा है, वह अ यथा नही है। और हम सब जागृत

े े े ो े ो े े े ी ऐ े
पसे वृ करनेमे कुछ श थलता रख तो उस ससार सगसे बाधा होनेमे दे र नह लगती, ऐसा उपदे श
इन वचन से आ मामे प रणमन करना यो य है, इसमे सशय करना उ चत नही है। सगक य द सवथ
नवृ अश य होती हो तो सगको कम करना यो य है, और मश सवथा नवृ प प रणाम लान
यो य है, यह मुमु ुपु षका भू मकाधम है। स सग और स शा के योगसे उस धमका वशेष पर
आराधन स भव है।
___पु ा द पदाथक ा तमे अनास होने जैसा आ था, पर तु अभी उससे वपरीत भावना रहती
है। उस पदाथको दे खकर ा तस ब धी इ छा हो आती है, इससे यह समझमे आता है क कसी वशेष
साम यवान महापु षके सवाय सामा य मुमु ुने उस पदाथका समागम करके उस पदाथक तथा प
अ न यता समझकर याग कया हो तो उस यागका नवाह हो सकता है। नही तो अभी जैसे वपरीत
भावना उ प ई है वैसे ायः होनेका समय वैसे मुमु ुको आनेका संभव है। और ऐसा म कतने ही
संग से महापु षोको भी मा य होता है, ऐसा समझमे आता है। इसपर स ात सधुका कथास ेप तथा
अय ात लखे ह उसका स ेपमे यह लखनेसे समाधान वचा रयेगा।
बबई, आषाढ सुद १३, गु , १९५१
..
. ीमद् वीतरागाय नमः ।
शा त मागंनै क ी सोभागके त यथायो यपूवक, ी सायला।
- आपके लखे प मले है। तथा प उदय वशेषसे उ र लखनेक वृ अभी ब त कम रहती
है। इस लये यहाँसे प लखनेमे वल ब होता है। पर तु आप, कुछ ानवाता लखनी सूझे तो उस
वल बके कारण उसे, लखनेसे न कयेगा। अभी आप तथा ' ी डु गरक ओरसे ानवाता लखी नही
जाती, सो ल खयेगा। अभी ी कबोरस दायी साधुका कुछ समागम होता है या नही? सो ल खयेगा।
यहांसे थोडे समयके लये नवृ यो य समयके वारेमे पूछा, उसका उ र लखते ए मनमे सकोच
होता है । य द हो सका तो एक-दो दनके वाद लखूगा।
नोचेके बोल के त आपको तथा ी डु गरको वशेष वचारप रण त करना यो य है-
(१) केवल ानका व प कस कार घटता है ?
(२) इस भरत े मे इस कालमे उसका स भव है या नही?
(३) केवल ानीमे कस कारको आ म थ त होती है ?
(४) स य दशन, स य ान ओर केवल ानके व पमे कस कारसे भेद होना यो य है ?
(५) स य पु षको आ म थ त कैसी होती है ?

४८०
आपको तथा ी डु गरको उपयु बोलोपर यथाश वशेष वचार करना यो य है। त स ब धी
प ारा आपसे लखाने यो य ल खयेगा। अभी यहाँ उपा धक कुछ यूनता है । यही वनती। .
आ० व० यथायो य ।
६१६
बंबई, आषाढ वद , र व, १९५१
ीमद वीतरागको नम कार
शुभे छास प भाई अबालाल तथा भाई भोवनके त, ी त भतीथ ।
भाई अबालालके लखे च -प तथा भाई भोवनका लखा प मला है। अमुक आ मदशाके
कारण वशेषतः लखना, सू चत करना नही हो पाता। जससे कसी मुमु ुको होने यो य लाभमे मेरी
तरफसे जो वल ब होता है, उस वल बको नवृ करनेक वृ होती है, पर तु उदयके कसी योगसे
अभी तक वैसा ही वहार होता है ।
___आषाढ वद २ को इस े से थोडे समयके लये नवृ हो सकनेक स भावना थी, उस समयके
आसपास सरे कायका उदय ा त होनेसे लगभग आषाढ वद ३० तक थरता होना स भव है। यहाँसे
नकलकर ववा णया जाने तक बीचमे एकाध दो दनक थ त करना च मे यथायो य नही लगता ।
ववा णयामे कतने दनक थ त स भव है, यह अभी वचारमे नही आ सका है, पर तु भादो सुद
दशमीके आसपास यहाँ आनेका कुछ कारण स भव है और इससे ऐसा लगता है क ववा णया ावण
सुद १५ तक अथवा ावण वद १० तक रहना होगा। लौटते समय ावण वद दशमोको ववा णयासे
नकलना हो तो भादो सुद दशमी तक बीचमे कसी नवृ े मे कना बन सकता है। अभी इस
स ब धमे अ धक वचार करना अश य है।
अभी इतना वचारमे आता है क य द कसी नवृ े मे कना हो तो भी मुमु ु भाइयोसे
अ धक सग करनेका मुझसे होना अश य है, य प इस बातपर अभी वशेष वचार होना स भव है।
स समागम और स शा का लाभ चाहनेवाले मुमु ुओको आर भ प र ह और रस वादा दका
तब ध कम करना यो य है. ऐसा ी जना द महापु षोने कहा है। जब तक अपने दोष वचारकर
उ हे कम करनेके लये वृ शील न आ जाये तब तक स पु षका कहा आ माग प रणाम पाना क ठन
है। इस बातपर मुमु ु जीवको वशेष वचार करना यो य है।
नवृ े मे कने स ब धी वचारको अ धक प तासे सू चत करना स भव होगा तो क ं गा।
अभी यह बात मा संगसे आपको सू चत करनेके लये लखी है, जो वचार अ प होनेसे सरे मुमु ु
भाइयोको भी बताना यो य नही है । आपको सू चत करनेमे भी कोई राग हेतु नही है । यही वनती।
आ० व० यथायो य।
बबई, आषाढ़ वद ७, र व, १९५१

ॐ ो ी
ॐ नमो वीतरागाय
स सगनै क ी सोभाग, ी सायला ।
आपका और ी लहेराभाईका लखा प मला है।
___ इस भरत े मे इस कालमे केवल ान स भव है या नही? इ या द लखे थे, उसके उ रमे
आपके तथा ी लहेराभाईके वचार, ा त प से वशेषत जाने ह। इन ोपर आपको, लहेराभाईको

४८१
तथा ी डु गरको वशेष वचार कत है। अ य दशनमे जस कारसे केवल ाना दका व प कहा है,
उसमे और जैनदशनमे उस वषयका जो व प कहा है, उनमे कतना ही मु य भेद दे खनेमे आता है,
उन सबका वचार होकर समाधान हो तो आ माको क याणके अगभूत है, इस लये इस वषयपर अ धक
वचार हो तो अ छा है।
'अ त' इस पदसे लेकर सव भाव आ माके लये वचारणीय ह। उसमे जो व व पक ा तका
हेतु है, वह मु यतः वचारणीय है, और उस वचारके लये अ य पदाथक वचारक भी अपे ा रहती है,
उसके लये वह भी वचारणीय है।
पर पर दशनोमे बडा भेद दे खनेमे आता है। उन सबक तुलना करके अमुक दशन स चा है ऐसा
नधार सभी मुमु ु से होना कर है, यो क वह तुलना करनेक योपशमश कसी ही जीवमे होती
है। फर एक दशन सवाशमे स य है और सरे दशन सवाशमे अस य है ऐसा वचारमे स हो, तो
सरे दशनक वृ करनेवालेक दशा आ द वचारणीय है, यो क जसके वैरा य-उपशम बलवान ह.
उसने सवथा अस यका न पण यो कया होगा ? इ या द वचारणीय है। पर तु सब जीवोसे यह वचार
होना कर है। और यह वचार कायकारी भी है, करने यो य है। पर तु वह कसी माहा य-
वानको होना यो य है। तब बाक जो मुमु ुजीव ह, उ हे इस स ब धमे या करना यो य है ? यह भी
वचारणीय है।
सव कारके सवाग समाधानके, बना सव कमसे मु होना अश य है, यह वचार हमारे च मे
रहा करता है, और सव कारका समाधान होनेके लये अनंतकाल पु षाथ करना पडता हो तो ाय
कोई जीव मु नही हो सकता। इस लये यह मालूम होता है क अ पकालमे उस सव कारके समा-
धानका उपाय होना यो य है, जससे मुमु ुजीवको नराशाका कारण भी नही है।
ावण सुद ५-६ के बाद यहाँसे नवृ हो सके ऐसा मालूम होता है, पर तु यहाँसे जाते समय
बीचमे कना यो य है या नही ? यह अभी तक वचारमे नही आ सका है। कदा चत् जाते या लौटते
समय बीचमे कना हो सके, तो वह कस े मे हो सके, यह अभी प वचारमे नही आता। जहाँ
े पशना होगो वहाँ थ त होगी।
आ० व० णाम।
६१८ बबई, आषाढ वद ११, गु , १९५१
परमाथनै का द गुणस प ी सोभागके त,
प मला है। केवल ाना दके ो रका आपको तथा ी डु ंगर एवं लहेराभाईको यथाश
वचार कत है।
जस वचारवान पु षक मे ससारका व प न य त लेश व प भासमान होता हो,
सासा रक भोगोपभोगमे जसे वरसता जैसा रहता हो, उस वचारवानको सरी तरफ लोक वहारा द,
ापारा दका उदय रहता हो, तो वह उदय तवध इ यसुखके लये नही पर तु आ म हतके लये
र करना हो, तो र कर सकनेके या उपाय होने चा हये ? इस स ब धमे कुछ सू चत करना हो तो
क जयेगा । यही वनती।
आ० व० यया०
-

४८२
सव तबंधसे मु ए बना सव ःखसे मु होना संभव नह है।
परमाथनै क ी सोभागके त, ी सायला ।
यहाँसे ववा णया जाते ए सायला ठहरनेके सबंधमे आपक वशेष इ छा मालूम ई है, और इस
वषयमे कोई भी रा ता नकले तो ठ क, ऐसा कुछ च मे रहता था, तथा प एक कारणका वचार करते
ए सरा कारण बा धत होता हो वहाँ या करना यो य है ? उसका वचार करते ए जब कोई वैसा
माग दे खनेमे नही आता तब जो सहजमे बन आये उसे करनेक प रण त रहती है, अथवा आ खर कोई
उपाय न चले तो बलवान कारण बा धत न हो वैसा वतन होता है। ब त समयके ावहा रक सगके
कटालेसे थोडा समय भी कसी तथा प े मे नवृ से रहा जाये तो अ छा, ऐसा च मे रहा करता
था। तथा यहाँ अ धक समय थ त होनेसे जो दे हके ज मके न म कारण ह, ऐसे माता पता दके
वचनके लये, च क यताके अ ोभके लये, तथा कुछ सरोके च क अनुपे ाके लये भी थोडे दनके
लये ववा णया जानेका वचार उ प हआ था। उन दोनो कारके लये कब योग हो तो अ छा, ऐसा
वचार करनेसे कोई यथायो य समाधान नही होता था। त सवधी वचारक सहज ई वशेषतासे अभी
जो कुछ वचारक अ पता थर ई, उसे आपको सू चत कया था । सव कारके असंगल यके वचार-
को यहाँसे अ सग समझकर, र रखकर, अ पकालक अ प असगताका अभी कुछ वचार रखा है, वह
भी सहज वभावसे उदयानुसार आ है।
उसमे क ही कारणोका पर पर वरोध न होनेके लये इस कार वचार आता है-यहाँसे

े ो ो ी े ी ी ी ँ े
ावण सुद मे नवृ हो तो इस बार बीचमे कही भी न ठहरकर सीधा ववा णया जाना। वहाँसे
श य हो तो ावण वद ११ को वा पस लौटना और भादो सुद १० के आसपास कसी नवृ े म
थ त हो वैसे यथाश उदयको उपराम जैसा रखकर वृ करना । य प वशेष नवृ , उदयका
व प दे खते ए, ा त होनी क ठन मालूम होती है, तो भी सामा यतः जाना जा सके उतनी वृ मे न
आया जाये तो अ छा ऐसा लगता है । और इस बातपर वचार करते ए यहाँसे जाते समय कनेका
वचार छोड दे नेसे सुलभ होगा ऐसा लगता है। एक भी सगमे वृ करते ए तथा लखते ए ायः
जो अ यप रण त रहती है, उस प रण तके कारण-अभी ठ क तरहसे सू चत नही कया जा सकता, तो
भी आपक जानकारीके लये मुझसे यहाँ जो कुछ सू चत कया जा सका उसे सू चत कया है। यही वनती ।
ी डु गर तथा लहेराभाईको यथायो य । . .
। सहजा म व प यथायो य ।
......६२० . ., बबई, आषाढ़ वद ३०, सोम, १९५१
ज मसे ज हे म त, ुत और अव ध ये तीन ान थे और आ मोपयोगी वैरा यदशा थी, अ प-
कालमे भोगकम ीण करके सयमको हण करते ए मन पयाय नामके ानको जो ा त ए थे, ऐसे
ीमद् महावीर वामी भी वारह वष और साढ़े ,छ मास तक मौन, रहकर वचरते रहे। इस कारका
उनका वतन, उस उपदे शमागका वतन करते ए कसी भी जीवको अ यंत पसे वचार करके वृ
करना यो य हे, ऐसी अखड श ाका तबोध करता है । तथा जन जैसोने जस तब धक नवृ के
लये य न कया, उस तब धमे अजागृत रहने यो य कोई भी जीव नही है ऐसा बताया है, तथा अनंत

४८३
आ माथका उस वतनसे बोध कया है। जस कारके त वचारक वशेष थरता रहती है, रखना
यो य है।
जस कारका पूव ार ध भोगनेसे नवृ होना यो य है, उस कारका ार ध उदासीनतासे वेदन
करना यो य है, जससे उस कारके त वृ करते ए जो कोई सग ा त होता है, उस उस सगमे
जागृत उपयोग न हो, तो जीवको समा ध वराधना होनेमे दे र नह लगती। इस लये सव संगभावको मूल-
पसे प रणामी करके भोगे वना न छू ट सके वैसे संगके त वृ होने दे ना यो य है, तो भी उस
कारक अपे ा जससे सवाश असगता उ प हो उस कारका सेवन करना यो य है।
_ कुछ समयसे सहज वृ और उद रण वृ , इस भेदसे वृ रहती है। मु यतः सहज वृ
रहती है। सहज वृ अथात् जो ार धोदयसे उ प होती हो, पर तु जसमे कत प रणाम नही है।
सरी उद रण वृ वह है जो पराथ आ दके योगसे करनी पड़ती है। अभी सरी वृ होनेमे आ मा
सकु चत होता है, यो क अपूव समा धयोगको उस कारणसे भी तवध होता है, ऐसा सुना था तथा
जाना था, और अभी वैसा प पसे वेदन कया है। उन उन कारणोसे अ धक समागममे आनेका,
प ा दसे कुछ भी ो रा द लखनेका तथा सरे कारसे परमाथ आ दके लखने-करनेका भी मद होनेके
पयायका आ मा सेवन करता है। ऐसे पयायका सेवन कये वना अपूव ममा धक हा नका स भव था।
ऐसा होनेपर भी यथायो य मंद वृ नह ई।
यहाँसे ावण सुद ५-६ को नकलना सभव है, पर तु यहाँसे जाते समय समागमका योग हो सकने
यो य नही है। और हमारे जानेके सगके वषयमे अभी आपके लये कसी सरेको भी बतानेका वशेष
कारण नही है, यो क जाते समय समागम नही करनेके स ब धमे उ हे कुछ सशय ा त होनेका स भव
हो, जो न हो तो अ छा । यही वनती।
६२१ ब बई, आषाढ वद ३०, सोम, १९५१
आपके तथा सरे क ही स समागमक न ावाले भाइयोको हमारे समागमक अ भलाषा रहती है,
यह बात यानमे है, पर तु अमुक कारणोसे इस वषयका वचार करते ए वृ नही होती, जन
कारणोको बताते ए भी च को ोभ होता है । य प उस वषयमे कुछ भी प तासे लखना बन पाया
हो तो प तथा समागमा दक ती ा करानेक और उसमे अ न तता होती रहनेसे हमारी आरसे जो
कुछ लेश ा त होने दे नेका होता है उसके होनेका स भव कम हो, पर तु उस स ब धमे प तासे लखते
ए भी च उपशात आ करता है, इस लये जो कुछ सहजमे हो उसे होने दे ना यो य भा सत होता है।
ववा णयासे लौटते समय ाय समागमका योग होगा । ायः च मे ऐसा रहा करता है क अभी
अ धक समागम भी कर सकने यो य दशा नह है। थमसे इस कारका वचार रहा करता था, और
वह वचार अ धक ेय कर लगता था, पर तु उदयवशात् कतने ही भाइयोका समागम होनेका सग
आ, जसे एक कारसे तब ध होने जैसा समझा था, और अभी कुछ भी वैसा आ है, ऐसा लगता
है। वतमान आ मदशा दे खते ए उतना तब ध होने दे ने यो य अ धकार मुझे स भव नह है। यहाँ
कुछ सगसे प ाथ बताना यो य है।
___ इस आ मामे गणक वशेष अ भ जानकर आप इ या द क ही मुमु ुभाइयोको भ रहती
हो तो भी उससे उस भ क यो यता मुझमे स भव है ऐसा समझनेक मेरी यो यता नह है, यो क ब त
वचार करते ए वतमानमे तो वैसा स भव रहता है, और उस कारणसे समागमसे कुछ समय र रहने-
का च रहा करता है, तथा प ा द ारा तव धक भी अ न छा रहा करती है। इस बातपर यथा-

४८४
ीमद् राजच
श वचार करना यो य है । -समाधाना द लखनेका उदय भी अ प रहनेसे वृ नह हो सकती।

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तथा ापार प उदयका वेदन करनेमे वशेष यान रखनेसे भी उसका इस कालमे ब त भार कम हो
सके, ऐसे वचारसे भी सरे कार उसके साथ आते जानकर भी मद वृ होती है। पूवक थतके
अनुसार लौटते समय ाय समागम होनेका यान रखूगा।
एक वनती यहाँ करने यो य है क इस आ मामे आपको गुणा भ भासमान होती हो, और
उससे अतरमे भ रहती हो तो उस भ का यथायो य वचारकर जैसे आपको यो य लगे वैसे करने
यो य है, पर तु इस आ माके स ब धमे अभी वाहर कसी सगक चचा होने दे ना यो य नह है, यो क
अ वर त प उदय होनेसे गुणा भ हो तो भी लोगोको भासमान होना क ठन पड़े, और उससे
वराधना होनेका कुछ भी हेतु हो जाय, तथा पूव महापु षके अनु मका ख डन करने जैसा वतन इस
आ मासे कुछ भी आ समझा जाय ।
इस प पर यथाश वचार क जयेगा और आपके समागमवासो जो कोई मुमु ुभाई हो, उनका
अभी नही, सग सगसे अथात् जस समय उ हे उपकारक हो सके वैसा स भव हो तब इस बातका
ओर यान खी चयेगा । यही वनती।
६२२
ब बई, आषाढ वद ३०, १९५१
_ 'अनतानुबधी' का जो सरा कार लखा है, त स ब धी वशेषाथ न न ल खतसे जा नयेगा :-
· उदयसे अथवा उदासभावसयु मदप रणतव से भोगा दम वृ हो, तब तक ानीक आ ा-
को ठु कराकर वृ ई ऐसा नही कहा जा सकता, पर तु जहाँ भोगा दमे ती त मयतासे वृ हो वहाँ
ानीक आ ाक कोई अंकुशताका स भव नही है, नभयतासे भोग वृ स भ वत है, जो नवस प र-
णाम कहे ह। वैसे प रणाम रहे, वहाँ भी 'अनतानुवधी' स भ वत है। तथा 'म समझता ' ँ , 'मुझे बाधा
नह है', ऐसीक ऐसी ा तमे रहे और 'भोगसे नवृ करना यो य है और फर कुछ भी पु षाथ करे
तो वैसा हो सकने यो य होनेपर भी म या ानसे ानदशा मानकर भोगा दमे वृ करे, वहाँ भी
'अनतानुवधी' स भ वत है।
जा त अव थामे यो यो, उपयोगक शु ता हो यो यो व दशाक प र ीणता स भव है। ..
६२३ ब बई, ावण सुद २, बुध, १९५१
आज च मली है। ववा णया जाते ए तथा वहाँसे लौटते हए सायला होकर जानेके बारम
वशेषतासे लखा है, इस वषयमे या लखना ? उसका वचार एकदम प न यमे नही आ सका है।
तो भी प ा प जो कुछ यह प लखते समय यानमे आया वह लखा है। .. ,
, आपक आजक च मे हमारे लखे ए जस प क आपने पहँच लखी है, उस प पर अ धक.
वचार करना यो य था, और ऐसा लगता था क आप उसपर वचार करगे तो सायला आनेके स ब ध
अभी हमारी इ छानुसार रखगे। पर तु आपके च मे यह वचार वशेषत' आनेसे पहले यह च -
लखी गयी है। फर आपके च मे जाते समय समागमक वशेष इ छा रहती है, तो उस इ छाक
उपे ा करनेक मेरी यो यता नही है । ऐसे कसी कारमे आपक आसातना जैसा हो जाय, यह डर रहता
है। अभी आपक इ छानुसार समागमके लये आप, ी डु गर तथा ी लहेराभाईका आनेका वचार हो
१. दे ख आक ६१३

४८५
तो एक दन मूळ कूँगा । और सरे दन कहेगे तो मूळोसे जानेका वचार क ं गा। लौटते समय सायला
कना या नह ? इसका उस समागममे आपको इ छानुसार वचार क ँ गा।
मूळ एक दन कनेका वचार य द रखते है तो सायला एक दन कनेमे आप नही है, ऐसा
आप न क हयेगा यो क ऐसा करनेसे अनेक कारके अनु मोका भग होना स भव है। यही वनती ।
६२४
बबई, ावण सुद ३, गु , १९५१
कसी दशाभेदसे अमुक तब ध करनेक मेरी यो यता नही है।
दो प ा त ए ह । इस सगमे समागम स ब धी वृ हो सकना यो य नही है।।
ववा णया, ावण सुद १०, १९५१
६२५
जो पयाय है वह पदाथका वशेष व प है, इस लये मन पयाय ानको भी पयाया थक ान समझकर
उसे वशेष ानोपयोगमे गना है, उसका सामा य हण प वपय भा सत न होनेसे दशनोपयोगमे नही
गना है, ऐसा सोमवारको दोपहरके समय कहा था, तदनुसार जैनदशनका अ भ ाय भी आज दे खा है।
यह बात अ धक प लखनेसे समझमे आ सकने जैसी है, यो क उसे ब तसे ातोक सहचा रता
आव यक है, तथा प यहाँ तो वैसा होना अश य है।
मनःपयाय स ब धी लखा है वह सग, चचा करनेक न ासे नही लखा है।
सोमवारक रातको लगभग यारह बजेके बाद जो मुझसे वचनयोगक अ भ ई थी उसक
मृ त रही हो तो यथाश लखा जा सके तो ल खयेगा। ,
६२६ ववा णया, ावण सुद १२, शु , १९५१
' न म वासी यह जीव है', ऐसा एक सामा य वचन है। वह सग सगसे होती ई जीवक
प रण तको दे खते ए ाय स ा त प लग सकता है।
सहजा म व पसे यथा०
६२७ ववा णया, ावण सुद १५, सोम, १९५१
आ माथके लये वचारमाग और भ मागका आराधन करना यो य है, पर तु जसक साम य

े ो ी ै े े े ो ै ो ै ो
वचारमागके यो य नही है उसे उस मागका उपदे श दे ना यो य नह है, इ या द जो लखा है वह यो य
है, तो भी इस वषयमे क चत् मा लखना अभी च मे नही आ सकता।
ी डगरने केवलदशनके स ब धमे कही ई आशका लखी है, उसे पढा है। सरे अनेक कार
समझमे आनेके प ात् उस कारक आशका नवृ होती है, अथवा वह कार ाय. समझने यो य
होता है। ऐसी आशका अभी म द अथवा उपशा त करके वशेष नकट ऐसे आ माथका वचार
करना यो य है।
६२८
ववा णया, ावण वद ६, र व, १९५१
यहाँ पयषण पूरे होने तक थ त होना स भव है।
केवल ाना द इस कालमे हो इ या द पहले लखे थे, उन ोपर यथाश अनु े ा तथा
पर पर ो र ी डु गर आ दको करना यो य है।

४८६
गुणके समुदायसे भ ऐसा कुछ गुणीका व प होना यो य है या ? इस का आप सब य द
वचार कर सक तो क जयेगा । ी डु ंगरको तो ज र वचार करना यो य है ।
कुछ उपा धयोगके वसायसे तथा ा द लखने इ या दक वृ म द होनेसे अभी स व तर
प लखनेमे कम वृ होती होगी, तो भी हो सके तो यहाँ थ त है तब तकमे कुछ वशेष ो र
इ या दसे यु प लखनेका हो तो ल खयेगा।
सहजा मभावनासे यथा०
६२९ ववा णया, ावण वद ११, शु , १९५१
आ माथ ी सोभाग तथा ी डु गर, ी सायला ।
___ यहाँसे सगोपा लखे ए जो चार ोके उ र लखे उसे पढा है। थमके दो ोका उ र
स ेपमे है, तथा प यथायो य है। तीसरे का उ र सामा यत. ठ क है, तथा प वशेष सू म आलोचनसे
उस का उ र लखने यो य है। वह तीसरा इस कार है-'गुणके समुदायसे भ गुणीका
व प होना यो य है या ? अथात् सभी गुणोका समुदाय वही गुणो अथात् ? अथवा उस गुणके
समुदायके आधारभूत ऐसे भी कसी सरे का अ त व है ?' उसके उ रमे ऐसा लखा क-- आ मा
गुणी है। उसके गुण ानदशन आ द भ ह । यो गणी और गुणक वव ा क है, तथा प वहाँ वशेप
वव ा करना यो य है। ानदशन आ द गुणसे भ ऐसा बाक का आ म व या है ?" यह है।
इस लये यथाश इस का प रशीलन करना यो य है।।
चौथा 'केवल ान इस कालमे होने यो य है या?' उसका उ र ऐसा लखा क-' माणसे
दे खते ए वह होने यो य है।' यह उ र भी स ेपमे है, जसका ब त वचार करना यो य है। इस चौथे
का वशेष वचार करनेके लये उसमे इतना वशेष हण क जयेगा क-' जस कारसे जैनागममे
केवल ान माना है, अथवा कहा है, वह केवल ानका व प यथात य कहा है ऐसा भासमान होता है या
नही ? और वैसा केवल ानका व प हो ऐसा भासमान होता हो तो वह व प इस कालमे भी गट
होने यो य है या नही ? कवा जो जैनागम कहता है उसके कहनेका हेतु कुछ भ है, और केवल ानका
व प कसी सरे कारसे कहने यो य है तथा समझने यो य है ?' इस बातपर यथाश अनु े ा करना
यो य है। तथा तीसरा है वह भी अनेक कारसे वचारणीय है। वशेष अनु े ा करके, इन दोनो
ोका उ र लख सक तो ल खयेगा । थमके दो ह, उनके उ र स ेपमे लखे ह, वे वशेषतासे
लखे जा सके तो वे भी ल खयेगा। आपने पाँच लखे है। उनमेसे तीन के उ र यहाँ
सं ेपमे लखे ह-
थम -'जा त मरण ानवाला पछला भव कस तरह दे खता है ?' उसके उ रका वचार
इस कार क जयेगा-
बचपनमे कोई गाँव, व तु आ द दे खे हो, और बड़े होनेपर कसी संगपर उस गाँव आ दका
आ मामे मरण होता है, उस व उस गाँव आ दका आ मामे जस कार भान होता है, उस कार
जा त मरण ानवालेको पूवभवका भान होता है। कदा चत् यहाँ यह होगा क, 'पूवभवमे अनुभव
कये ए दे हा दका इस भवमे ऊपर कहे अनुसार भान हो, इस बातको यथात य मान तो भी पूवभवमे
अनुभव कये ए दे हा द अथवा कोई दे वलोका द नवास थानके जो अनुभव कये हो, उन अनुभवोक
मृ त ई है, और वे अनुभव यथात य ए है, ऐसा कस आधारसे समझा जाय ?' तो इस का समा-

४८७
धान इस कार है-अमुक अमुक चे ा और लग तथा प रणाम आ दसे अपनेको उसका प भान होता
है, पर तु कसी सरे जीवको उसक ती त हो ऐसा तो कोई नयम नही है। व चत् अमुक दे शमे,
अमुक गाँवमे, अमुक घरमे, पूवकालमे दे ह धारण कया हो, और उसके च सरे जीवको बतानेसे उस
दे शा दक अथवा उसके नशाना दको कुछ भी व मानता हो तो सरे जीवको भी ती तका हेतु होना
स भव है; अधवा जा त मरण ानवालेक अपे ा जसका वशेष ान है, वह जाने । तथा जसे 'जा त-
मरण ान' है, उसक कृ त आ दको जाननेवाला कोई वचारवान पु ष भी जाने क इस पु षको वैसे
कसी ानका स भव है, अथवा 'जा त मृ त' होना स भव है, अथवा जसे 'जा त मृ त ान' है, उस
पू षके स ब धमे कोई जीव पूवभवमे आया है, वशेषतः आया है उसे उस स ब धके बतानेसे कुछ भी
मृ त हो तो वैसे जीवको भी ती त आये।

ी ै े
सरा -'जीव त समय मरता है, इसे कस तरह समझना ?' इसका उ र इस कार
वचा रयेगा-
जस कार आ माको थूल दे हका वयोग होता है, उसे मरण कहा जाता है, उस कार थूल
दे हके आयु आ द सू मपयायका भी त समय हा नप रणाम होनेसे वयोग हो रहा है, इस लये उसे त
समय मरण कहना यो य है। यह मरण वहारनयसे कहा जाती है, न यनयसे तो आ माके वाभा-
वक ानदशना द गुणपयायक , वभावप रणामके योगके कारण हा न आ करती है, और वह हा न
आ माके न यता द व पको भी आवरण करती रहती है, यह त समय मरण है।
। तीसरा –'केवल ानदशनमे भूत और भ व यकालके पदाथ वतमानकालमे वतमान पसे
दखायी दे ते ह, वैसे ही दखायी दे ते ह या सरी तरह " इसका उ र इस कार वचा रयेगा-
वतमानमे वतमान पदाथ जस कार दखायी दे ते ह, उसी कार भूतकालके पदाथ भूतकालमे
जस व पसे थे उस व पसे वतमानकालमे दखायी दे ते ह, और भ व यकालमे वे पदाथ जस व प-
को ा त करगे उस व पसे वतमानकालमे दखायी दे ते ह। भूतकालमे पदाथने जन जन पयायोको
अपनाया है, वे कारण पसे वतमानमे पदाथमे न हत है और भ व यकालमे जन जन पयायोको अपना-
येगा उनक यो यता वतमानमे पदाथमे व मान है। उस कारण और यो यताका ान वतमानकालमे भी
केवल ानीको यथाथ व पसे हो सकता है । य प इस के वषयमे ब तसे वचार बताना यो य है।
६३० ववा णया, ावण वद १२, श न, १९५१
गत श नवारको लखा आ प मला है। उस प मे मु यत तीन लखे ह। उनके उ र
न न ल खत है, ज हे वचा रयेगा :-
थम मे ऐसा बताया है क 'एक मनु य ाणी दनके समय आ माके गुण ारा अमुक हद तक
दे ख सकता है, और रा के समय अधेरेमे कुछ नही दे खता, फर सरे दन पुनः दे खता है और फर
रा को अधेरेमे कुछ नही दे खता । इससे एक अहोरा मे चालू इस कारसे आ माके गुणपर, अ यवसाय-
के बदले वना, या न दे खनेका आवरण आ जाता होगा ? अथवा दे खना यह आ माका गुण नह पर तु
सुरज ारा दखायी दे ता है, इस लये सूरजका गुण होनेसे उसक अनुप थ तमे दखायी नह दे ता? और
फर इसी तरह सुननेके ातमे कान आडा रखनेसे सुनायी नह दे ता, तब आ माका गुण यो भुला दया
जाता हे ?' इसका सं ेपमे उ र-
••••
४८८
ानावरणीय तथा दशनावरणीय कमका अमुक योपशम होनेसे इ यल ध उ प होती है।
वह इ यल ध सामा यतः पॉच कारको कही जा सकती है। पश यसे वणे य पय त सामा यतः
मनु य ाणीको पाँच- इ योक ल धका योपशम होता है। उस योपशमक श क अमुक ाह त
होने तक जान-दे ख सकती है। दे खना यह च ु र यका गुण है, तथा प अधकारसे अथवा व तु अमुक र
होनेसे उसे पदाथ दे खनेमे नही आ सकता; यो क च ु र यक योपशमल ध उस हद तक क जाती
है, अथात् योपशमक सामा यत. इतनी श है । दनमे भी वशेष अधकार हो अथवा कोई व तु ब त
अधेरेमे पड़ी हो अथवा अमुक हदसे र हो तो च ुसे दखायी नही दे सकती । इसी तरह सरी इ योक
ल धस ब धी योपशमश तक उसके वषयमे ानदशनको वृ है। अमुक ाघात तक वह पश
कर सकती है, अथवा सूंघ सकती है, वाद पहचान सकती है, अथवा सुन सकती है।
'
सरे मे ऐसा बताया है क 'आ माके असं यात दे श सारे शरीरमे ापक होनेपर भी, आँख-
के बीचके भागक पुतलीसे ही दे खा जा सकता है, इसी तरह सारे शरीरमे असं यात दे श ापक होने-
पर भी एक छोटे से कानसे सुना जा सकता है, सरे थानसे सुना नही जा सकता। अमुक थानसे ग धक
परी ा होती है, अमुक थानसे रसक परी ा होती है, जैसे क श करका वाद हाथ-पैर नही जानते,
पर तु ज ा जानली है । आ मा सारे शरीरमे समान पसे ापक होनेपर भी अमुक भागसे ही ान होता
है, इसका कारण या होगा ?" इसका सं ेपमे उ र :-
___ जीवको ान, दशन ा यकभावसे गट ए ह तो सव दे शसे तथा कारक उसे नरावरणता
होनेसे एक समयमे सव कारसे सव भावक ायकता होती है, पर तु जहाँ योपशम भावसे ानदशन
रहते ह, वहाँ भ भ कारसे अमुक मयादामे ायकता होती है। जस जीवको अ य त अ प ान-
दशनको योपशमश रहती है, उस जीवको अ रके अनंतव भाग जतनी ायकता होती है। उससे
वशेष योपशमसे पश यक ल ध कुछ वशेष ( गट) होती है, उससे वशेष योपशमसे पश और
रस यक ल ध उ प होती है, इस तरह वशेपतासे उ रो र पश, रस, गध और वण तथा श दको
हण करने यो य पंचे य स ब धी योपशम होता है । तथा प योपशमदशामे गुणक सम वषमता होने-
से सवा से पचे य स ब धी ान और दशन नही होते, यो क श का वैसा तारत य ( स व ) नही
है क वह पाँचो वषय सवा से हण कर। य प अव ध आ द ानमे वैसा होता है, पर तु यहाँ तो
सामा य योपशम, और वह भी इ य सापे योपशमका सग है। अमुक नयत दे शमे ही उस
इ यल धका प रणाम होता है, इसका हेतु “ योपशम तथा ा त ई यो नका स ब ध है क नयत
दे शमे ( अमुक मयादा-भागमे ) अमुक अमुक वषयका जीवको हण हो।
तीसरे मे ऐसा बताया है क, 'शरीरके अमुक भागमे पीडा होती है, तब जीव वही संल न
हो जाता है, इससे जस भागमे पीडा है उस भागक पीडाका वेदन करनेके लये सम त दे श उस तरफ
खच आते होगे ? जगतमे कहावत है क जहां पीड़ा हो, वही जीव सल न रहता है।' इसका स ेपमे
उ र -
। । ।
उस वेदनाके वेदन करनेमे ब तसे सगोमे वशेष उपयोग कता है। और सरे दे शोका उस ओर
ब तसे सगोमे सहज आकपण भी होता है। कसी संगमे वेदनाका बा य हो तो सव दे श मूछागत
थ त भी ा त करते है, और कसी सगमे वेदना या भयके वा यके कारण सव दे श अथात् आ मा-
क दशम ार आ द' एक थानमे थ त होती है। ऐसा होनेका हेतु भी अ ाबाध नामके जीव वभावके
तथा कारसे प रणामी न होनेसे, उस वीया तरायके योपशमक सम वषमता होती है।

४८९
ऐसे ब तसे मुमु ुजीवोको वचारको प रशु के लये कत है । और वैसे ोका समा-
धान बतानेक च मे व चत् सहज इ छा भी रहती है, तथा प लखनेमे वशेष उपयोग रोक सकनेका
काम बडी मु कलसे होता है। और इस लये कभी लखना होता है और कभी लखना नही हो पाता,
अथवा नय मत उ र लखना नही हो सकता.। ायः अमुक काल तक तो अभी तो तथा कारसे रहना
यो य है, तो भो ा द लखनेमे आपको तब ध नही है ।
६३१ ववा णया, ावण वद १४, सोम,१९५१
थम पदमे ऐसा कहा है क 'हे मुमु ु । एक आ माको जाननेसे तू सम त लोकालोकको जानेगा,
और सब जाननेका फल भी एक आ म ा त ही है, इस लये आ मासे भ अ य भावोको जाननेको
वारवारक इ छासे तू नवृ हो और एक नज व पमे दे , क जस से सम त सृ ेय पसे
तुझमे दखायी दे गी । त व व प स शा गे कहे ए मागका भी यह त व है, ऐसा त व ा नयोने कहा है,
तथा प उपयोगपूवक उसे समझना कर है। यह माग भ है, और उसका व प भी भ है, जैसा
मा कथन ानी कहते ह, वैसा नही है, इस लये जगह जगह जाकर यो पूछता है ? यो क उस अपूव-
भावका अथ जगह जगहसे ा त होने यो य नही है ।'
सरे पदका स ेप अथ -'हे मुमु ु । यम नयमा द जो साधन सब शा ोमे कहे ह वे उपयु
अथसे न फल ठहरगे, ऐसा भी नही है, यो क वे भी कारणके लये है, वह कारण इस कार है-
आ म ान रह सके ऐसी पा ता ा त हो नेके लये तथा उसमे थ त हो वैसी यो यता आनेके लये इन
कारणोका उपदे श कया है। इस लये त व ा नयोने ऐसे हेतुसे ये सावन कहे ह, पर तु जोवक समझमे
नता त फेर होनेसे उन साधनोमे ही अटका रहा अथवा वे साधन भी अ भ नवेश प रणामसे अपनाये ।
जस कार उँगलीसे बालकको चाँद दखाया जाता है, उसी कार त व ा नयोने यह त वका त व

कहा है।' .
' ६३२ । वा णया, ावण वद १४, सोम, १९५१
''बा याव थाको अपे ा युवाव थामे इ य वकार वशेष पसे उ प होता है, उसका या कारण
होना चा हये ?' ऐसा जो लखा उसके लये स ेपमे इस कार वचारणीय है.--
यो यो मसे अव था बढती हे यो यो इ यबल बढता है, तथा उस वलको वकारके हेतुभूत
नम मलते है, और पूवभवके वैसे वकारके स कार रहते आये ह, इस लये वह न म आ द योग
पाकर वशेष प रणामको ा त होता है। जैसे बीज है वह तथा प कारण पांकर मसे वृ ाकारमे
प रण मत होता है वैसे पूवके वीजभूत स कार मसे वशेपाकारमे प रण मत होते है।
आ माथ-इ छायो य ी ल लुजीके त, ी सूयपुर ।
आपके लखे ए दो प तथा ी दे वकरणजीका लखा आ एक प , ये तीन पर मले है।
आ मसाधनके लये या कत है, इस वषयमे ी दे वकरणजीको यथाश वचार करना यो य है। इस
का समाधान हमारेसे जाननेके लये उनके च मे वशेष अ भलाषा रहती हो तो कसी समागमके
संगपर यह करना यो य है, ऐसा उ हे क हयेगा।''

४९०
इस का समाधान प ारा बताना व चत् हो सके । तथा प लखनेमे अभी वशेष उपयोगक
वृ नही हो सकती। तथा ी दे वकरणजीको भी अभी इस वषयमे यथाश वचार करना चा हये।
सहज व पसे यथायो य ।
६३४ ववा णया, भाद सुद ७, मंगल, १९५१
आज दन तक अथात् संव सरी तक आपके त मन, वचन और कायाके योगसे मुझसे जाने-
अनजाने कुछ अपराध आ हो उसके लये शु अतःकरणपूवक लघुताभावसे मा मांगता ँ । इसी कार
अपनी बहनको भी खमाता ँ। यहाँसे इस र ववारको वदाय होनेका वचार है।
ल० रायचंदके यथा.
ववा णया, भादो सुद ७, मगल, १९५१
सव सरी तक तथा आज दन तक आपके त मन, वचन और कायाके योगसे जो कुछ जाने
अनजाने अपराध आ हो उसके लये सव भावसे मा मांगता ँ। तथा आपके स समागमवासी सब
भाइयो तथा बहनोसे मा मांगता ँ।
यहाँसे ायः र ववारको जाना होगा ऐसा लगता है। मोरबीमे सुद १५ तक थ त होना स भव
हे । उसके बाद कसी नवृ े मे लगभग प ह दनक थ त हो तो करनेके लये च को सहजवृ
रहती है।
कोई नवृ े यानमे हो तो ल खयेगा।
आ० सहजा म व प।
६३६ ववा णया, भादो सुद ९, गु , १९५१
न म से जसे हष होता है, न म से जसे शोक होता है, न म से जसे इ यज य वषयके त
आकषण होता है, न म से जसे इ यके तकूल कारोमे े ष होता है, न म से जसे उ कष आता
है, न म से जसे कषाय उ प होता है, ऐसे जीवको यथाश उन न म वासी जीवोका सग छोड़ना
यो य है, और न य त स सग करना यो य है।
— स सगके अयोगमे तथा कारके न म से र रहना यो य है। ण णमे, संग संगपर और
नम न म मे वदशाके त उपयोग दे ना यो य है।
आपका प मला है । आज तक सव भावसे मा मांगता ँ।
६३७ ववा णया, भादो सुद ९. गु , १९५१
आज दन तक सव भावसे मा मांगता ँ।
नीचे लखे वा य तथा प सगपर व तारसे समझने यो य ह।
'अनुभव काश' थमेसे ी ादजीके त स दे वका कहा आ जो उपदे श सग लखा, वह
वा त वक है। तथा पसे न वक प और अखंड व पमे अ भ ानके सवाय अ य कोई सव ख
मटाने का उपाय ानीपु पोने नही जाना है। यही वनती।

४९१
६३८ राणपुर (हडम तया), भादो वद १३, १९५१
दो प मले थे । कल यहाँ अथात् राणपुरके समीपके गॉवमे आना आ है।
अ तम प मे लखे थे, वह प कही गुम आ मालूम होता है । स ेपमे न न ल खत उ र-
का वचार क जयेगा-
(१) धम, अधम वभावप रणामी होनेसे न य कहे है। परमाथनयसे ये भी स य
है । वहारनयसे परमाणु, पु ल और ससारी जीव स य ह, यो क वे अ यो य हण, याग आ दसे.
एक प रणामवत् स ब ध पाते है। सड़ना यावत् व वस पाना यह पु लपरमाणुका धम कहा है।
परमाथसे शुभ वणा दका पलटना और कधका मलकर बखर जाना कहा है " [ प खं डत ]
६३९ राणपुर, आसोज सुद २, शु , १९५१
हो सके तो जहाँ आ माथक कुछ भी चचा होती हो वहां जाने-आनेका और वण आ दका
सग करना यो य है। चाहे तो जैनके सवाय सरे दशनको ा या होती हो तो उसे भी वचाराथ

ो ै
वण करना यो य है।
६४०
ब बई, आसोज सुद ११, १९५१
आज सुबह यहाँ कुशलतासे आना आ है।
दे दा त कहता है क आ मा असंग है, जने भी कहते ह क परमाथनयसे आ मा वैसा ही है।
इसी असंगताका स होना, प रणत होना-यह मो है। वत. वैसी असगता स होना ाय.
असभ वत है, और इसी लये ानीपु षोने, जसे सव ख य करनेक इ छा है उस मुमु ुको स सगक
न य उपासना करनी चा हये, ऐसा जो कहा है वह अ य त स य है।
हमारे त अनुकंपा र खयेगा । कुछ ानवाता ल खयेगा । ी डु गरको णाम ।
६४१ ब बई, आसोज सुद १२, सोम, १९५१
"दे खतभूली टळे तो सव खनो य थाय' ऐसा प अनुभव होता है, फर भी उसो दे खत-
भूलीके वाहमे ही जीव बहा चला जाता है, ऐसे जीवोके लये इस जगतमे कोई ऐसा आधार है क जस
आधारसे, आ यसे वे वाहमे न बहे ?
६४२ __ बबई, आसोज सुद १३, १९५१
सम त व ाय परकथा तथा परवृ मे वहा चला जा रहा है, उसमे रहकर थरता कहांसे
ा त हो?
ऐसे अमू य मनु य ज मका एक स य भी परवृ से जाने दे ना यो य नही है, और कुछ भी वैसा
आ करता है. इसका उपाय कुछ वशेषतः खोजने यो य है। .
ानीपु षका न य होकर अतभद न रहे तो आ म ा त एकदम सुलभ है, ऐसा ानी पुकारकर
कह गये ह, फर भी लोग यो भूलते ह ? ी डु गरको णाम ।
१. भावा-दे खते ही भूलनेक आदत र हो जाये तो सव ःखका य हो जाये।

४९२
सी तथा नबपुरीवासी मुमु ुजनके त, ी तभतीथ ।।
छने यो य लगता हो तो पू छयेगा।
- करने यो य कहा हो, वह व मरण यो य न हो इतना उपयोग करके मसे भी उसमे
| करना यो य है। याग, वैरा य, उपशम और भ को सहज वभाव प कर डाले बना
आ मदशा कैसे आये ? पर तु श थलतासे, मादसे यह बात व मृत हो जाती है।
६४४ बबई, आसोज वद ३, र व, १९५१
ला है।
से वपरोत अ यास है, इससे वैरा य, उपशमा द भावोक प रण त एकदम नही हो सकती,
ठन पड़तो है, तथा प नरतर उन भावोके त यान रखनेसे अव य स होती है ।
ग न हो तब वे भाव जस कारसे वधमान हो उस कारके े ा दक उपासना
का प रचय करना योग है। सब कायक थम भू मका वकट होती है, तो अनतकालसे
मुमु ुताके लये वैसा हो इसमे कुछ आ य नही है ।
सहजा म व पसे णाम ।
बबई, आसोज वद ११, १९५१
समागम यो य, आय ी सोभाग तथा ी डु गरके त, ी सायला ।।
यपूवक ी सोभागका लखा आ प मला है।
या ते शमाई र ा', तथा 'सम या ते शमाई 'गया', इन वा योम कुछ अथा तर होता है
नोमेसे कौनसा वा य वशेषाथ वाचक मालूम होता है ? तथा समझने यो य या है ? नथा
' तथा समु चय वा यका एक परमाथ या है ? यह वचारणीय है, वशेष पसे वचारणीय
वचारमे आया हो उसे तथा वचार कहते ए उन वा योका जो वशेष परमाथ यानमे
लेख सक तो ल खयेगा । यही वनती।
सहजा म व पसे यथा०
बबई, आसोज, १९५१
वोको अ य होनेपर भी जस ःखका अनुभव करना पड़ता है, वह ःख सकारण होना
भू मकासे मु यतः वचारवानक वचार े ण उ दत होती है, और उस परसे अनु मसे
परलोक, मो आ द भावोका व प स आ हो, ऐसा तीत होता है। ।
नमे य द अपनी व मानता है, तो भूतकालमे भी उसक व मानता होनी चा हये और
वसा ही होना चा हये। इस कारके वचारका आ य मुमु ुजीवको कत है। कसी
पूवप ात् अ त व न हो तो म यमे उसका अ त व नही होता, ऐसा अनुभव वचार
सवथा उ प अथवा सवथा नाश नही है, सव काल उसका अ त व है, पा तर प रणाम
व तुता बदलती नही है, ऐसा ी जने का अ भमत है, वह वचारणीय है।

४९३
'षड् दशनसमु चय' कुछ गहन है, तो भी पुन पुनः वचार करनेसे उसका ब त कुछ बोध होगा।
यो यो च क शु और थरता होती है यो यो ानीके वचनका वचार यथायो य हो सकता है।
सव ानका फल भी आ म थरता होना यही है, ऐसा वीतराग पु षोने जो कहा है वह अ य त स य है।

े े ो े ी ी
मेरे यो य कामकाज ल खयेगा । यही वनती।
ल० रायच दके णाम व दत हो ।
६४७
बबई, आसोज, १९५१
नवाणमाग अगम अगोचर है, इसमे सशय नही है। अपनी श से, स के आ यके बना उस
मागको खोजना अश य है, ऐसा वारवार दखायी दे ता है। इतना ही नह , क तु ी स चरणके
आ यसे जसे बोधबीजक ा त ई हो ऐसे पु षको भी स के समागमका आराधन न य कत है।
जगतके सग दे खते ए ऐसा मालूम होता है क वैसे समागम और आ यके बना नराल ब बोध थर
रहना वकट है।
६४८
, बबई, आसोज, १९५१
यको अ य कया, और अ यको य कया ऐसा ानीपु षोका आ यकारक अन त ऐ य-
वीय वाणीसे कहा जा सकने यो य नही है।
६४९
बबई, आसोज, १९५१
-बीता आ एक पल भी फर नही आता, और वह अमू य है, तो फर सारी आयु थ त ।
एक पलका हीन उपयोग एक अमू य कौ तुभ खो दे नेसे भी वशेष हा नकारक है, तो वैसे साठ
पलक एक घडीका हीन उपयोग करनेसे कतनी हा न होनी चा हये ? इसी तरह एक दन, एक प ,
एक मास, एक वष और अनु मसे सारी आयु थ तका हीन उपयोग, यह कतनी हा न और कतने
अ ेयका कारण होगा, यह वचार शु ल दयसे तुरत आ सकेगा। सुख और आन द यह सव ा णयो, सव
जीवो, सव स वो और सव ज तुओको नर तर य ह, फर भी .ख और आन द भोगते है, इसका
या कारण होना चा हये ? अ ान और उसके ारा ज दगीका हीन उपयोग । हीन उपयोग होनेसे
रोकनेके लये येक ाणीक इ छा होनी चा हये, पर तु कस साधनसे ?
६५०
बबई, आसोज, १९५१
जन पु षोक अ तमख ई है उन पु षोको भी सतत जागृ त प श ा ी वीतरागने द है.
यो क अन तकालके अ यासवाले पदाथ का सग है वह कुछ भी को आक षत करे ऐसा भय रखना
यो य है। ऐसी भू मकामे इस कारक श ा यो य है, ऐसा है तो फर जसक वचारदशा है ऐसे मम -
जीवको सतत जागृ त रखना यो य है, ऐसा कहनेमे न आया हो, तो भी प समझा जा सकता है क
मम जीवको जस जस कारसे पर-अ यास होने यो य पदाथ आ दका याग हो, उस उस कारसे
अव य करना यो य है। य प आर भ-प रगहका याग थूल दखायी दे ता है तथा प अ तमुखवृ का हेतु
होनेसे वारवार उसके यागका उपदे श दया है।

४९४
जैसा है वैसा आ म व प जाना, इसका नाम समझना है। इससे उपयोग अ य वक पसे र हत
आ, इसका नाम शात होना है। व तुतः दोनो एक ही है।
जैसा है वैसा समझनेसे उपयोग व पमे शात हो गया, और आ मा वभावमय हो गया, यह थम
वा य-'समजीने शमाई र ा' का अथ है।
अ य पदाथके संयोगमे जो अ यास था, और उस अ यासमे जो आ म व माना था वह अ यास प
आ म व शात हो गया, यह सरे वा य-'समजीने शमाई गया' का अथ है ।
पयायातरसे अथातर हो सकता है। वा तवमे दोनो वा योका परमाथ एक ही वचारणीय है।
जस जसने समझा उस उसने मेरा तेरा इ या द मह व, मम व शात कर दया; यो क कोई भी
नज वभाव वंसा दे खा नही, और नज वभाव तो अ च य, अ ाबाध व प सवथा भ दे खा, इस-
लये उसीमे समा व हो गया।
आ माके सवाय अ यमे वमा यता थी, उसे र कर परमाथसे मौन आ, वाणीसे 'यह इसका है'
इ या द कथन करने प वहार वचना द योग तक व चत् रहा, तथा प आ मासे 'यह मेरा है', यह
वक प सवथा शात हो गया, यथात य अ च य वानुभवगोचरपदमे लीनता हो गयी।
ये दोनो वा य लोकभाषामे च लत ए है, वे 'आ मभाषा'मेसे आये है । जो उपयु कारसे शात
नही ए वे समझे नही है ऐसा इस वा यका सारभूत अथ आ, अथवा जतने अंशमे शात ए उतने अश-
मे समझे, और जस कारसे शात ए उस कारसे समझे इतना वभागाथ हो सकने यो य है, तथा प
मु य अथमे उपयोग लगाना यो य है।
अनतकालसे यम, नयम, शा ावलोकन आ द काय करनेपर भी समझना और शात होना यह
कार आ मामे नही आया, और इससे प र मण नवृ नही ई।
जो कोई समझने और शात होनेका ऐ य करे, वह वानुभवपदमे रहे, उसका प र मण नवृ
हो जाये । स क आ ाका वचार कये बना जीवने उस परमाथको जाना नही, और जाननेमे त-
व प अस सग, व छद और अ वचारका नरोध नह कया, जससे समझना और शात होना तथा
दोनोका ऐ य नही आ, ऐसा न य स है।
१. दे ख आक ६४५ ।
४९५
यहाँसे आरंभ करके ऊपर ऊपरक भू मकाक उपासना करे तो जीव समझकर शात हो जाये, यह
न सदे ह है।
अनंत ानी पु ष का अनुभव कया आ यह शा त सुगम मो माग जीवके यानमे नही आता,
इससे उ प ए खेदस हत आ यको भी यहाँ शात करते ह । स संग, स चारसे शात होने तकके सव
पद अ यत स चे ह, सुगम ह, सुगोचर ह, सहज ह और नःसंदेह ह।
_____ॐ ॐ ॐ ॐ
६५२ बबई, का तक सुद ३, सोम, १९५२
ी वेदातमे न पत मुमु ुजीवके ल ण तथा ी जन ारा न पत स य जीवके ल ण
सुनने यो य ह, (तथा प योग न हो तो पढने यो य ह;) वशेष पसे मनन करने यो य ह, आ मामे प र-
णत करने यो य ह । अपने योपशमबलको कम, जानकर अहंताममता दका पराभव होनेके लये न य
अपनी यूनता दे खना; वशेष सग संग कम करना यो य है । यही वनतो।
__ लंबई, का क सुद १३, गु , १९५२
दो प मले है।
. आ महेतुभूत सगके सवाय मुमु ुजीवको सव सग कम करना यो य है। यो क उसके बना
परमाथका आ वभूत होना क ठन है, और इस कारण ी जन ने यह वहार सयम प साधु वका
उपदे श कया है । यही वनती।
सहजा म व प।
बबई, का तक सुद १३, गु , १९५२
पहले एक प मला था। जस प का उ र लखनेका वचार कया था। तथा प व तारसे
लख सकना अभी क ठन मालूम आ, जससे आज स ेपमे प ँचके पमे च लखनेका वचार आ
था । आज आपका लखा आ सरा प मला है।
अतल यवत् अभी जो वृ रहती ई द खती है वह उपकारी है, और वह वृ मसे परमाथको
यथाथतामे वशेष उपकारभूत होती है । यहाँ आपने दोनो प लखे, इससे कोई हा न नही है।
अभी सुदरदासजीका थ अथवा ी योगवा स प ढयेगा । ी सोभाग यहां है।
६५५ बबई, का तक वद ८, र व, १९५२
, नश दन नैनम न द न आवे,
नर तब ह नारायन पावे।
- ी सु दरदासजी
६५६ ववई, मागशीष सुद १०, मगल, १९५२
ी भोवनके साथ इतना सू चत कया था क आपके पहले प मले थे, उन पनो आ दसे
वतमान दशाको जानकर उस दशाक वशेषताके लये सं ेपमे कहा था।
जस जस कारसे पर (व तु) के कायक अ पता हो, नज दोष दे खनेका ढ यान रहे,
और स समागम, स शा मे वधमान प रण तसे परम भ क रहा करे उस कारको आ मता करते ए,
तथा ानीके वचनोका वचार करनेसे दशा वशेषता ा त करते ए यथाथ समा धके यो य हो, ऐसा
ल य र खयेगा, ऐसा कहा था । यही वनती।

४९६
ीमद् राजच
६५७ बबई, मागशीष सुद १०, मंगल, १९५२
शुभे छा, वचार, ान इ या द सब भू मकाओमे सवसगप र याग बलवान उपकारी है, ऐसा जान-
कर ानीपु षोने 'अनगार व' का न पण कया है। य प परमाथसे सवसगप र याग यथाथ बोध होने
पर ा त होना यो य है, यह जानते ए भी य द स संगमे न य नवास हो, तो वैसा समय ा त होना
यो य है ऐसा जानकर, ानीपु षोने सामा यतः बा सवसगप र यागका उपदे श दया है, क जस
नव के योगसे शुभे छावान जीव स , स पु ष और स शा क यथायो य उपासना करके यथाथ
बोध ा त करे । यही वनती।।
६५८
बंबई, पौष सुद ६, र व, १९५२
तीनो प मले है। थभतीथ कव जाना स भव है ? वह लख सक तो ल खयेगा।
दो अ भ नवेश के बाधक रहते होनेसे जीव ' म या व' का याग नही कर सकता। वे इस कार
है-'लौ कक' और 'शा ीय' । मश. स समागमके योगसे जीव य द उन अ भ नवेशोको छोड दे तो
' म या व' का याग होता है, ऐसा वारवार ानीपु षोने शा ा द ारा उपदे श दया है फर भी जीव
उ ह छोडनेके त उपे त कस लये होता है ? यह बात वचारणीय है।
६५९ . वबई, पौष सुद ६, र व, १९५२
सव खका मूल सयोग (सबध) है, ऐसा ानी तीथकरोने कहा है। सम त ानीपु षोने ऐसा
दे खा है। वह सयोग मु य पसे दो कारका कहा है-'अंतरस ब धी' और 'बा स ब धी' । अतर सयोग
का वचार होनेके लये आ माको बा सयोगका अप रचय कत है, जस अप रचयक सपरमाथ इ छा
ानीपु षोने भी क है।
६६०
बबई, पौष सुद ६, र व, १९५२

े ो ो ो े
" ा ान ल ां छे तोपण, जो न व जाय पमायो ( माद) रे, ।
वं य त उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायो रे
- -गायो रे, गायो, भले वीर जग गु गायो।'
बबई, पौष सुद ८, मगल, १९५२
आज एक प मला है।
आ माथके सवाय जस जस कारसे जीवने शा क मा यता करके कृताथता मानी है, वह
सव 'शा ीय अ भ नवेश' है। व छदता र नही ई, और स समागमका योग ा त आ है, उस योगमे
भी व छदताके नवाहके लये शा के कसी एक वचनको ब वचन जैसा बताकर, मु य साधन जो
स समागम है, उसके समान शा को कहता हे अथवा उससे वशेष भार शा पर दे ता है, उस जीवको भी
'अ श त शा ीय अ भ नवेश' है। आ माको समझनेके लये शा उपकारी है, और वह भी व छद-
र हत पु षको, इतना यान रखकर स शा का वचार कया जाये तो वह 'शा ीय अ भ नवेश' गनने
यो य नह है । स ेपसे लखा है।
१ भावाय- ा और ान ा त कर लेनेपर भी य द सयम थान नह आया ओर मादका नाश नही
आ तो जीव वाझ वृ को उपमाको पाता है । जगतगु वीर भुने केसा सु दर उपदे श दया है ।

४९७
बबई, पौष वद , १९५२
सव कारके भयके रहनेके थान प इस संसारमे मा एक वैरा य ही अभय है। इस न यमे
तीनो कालमे शका होना यो य नही है।
। "योग असंख जे जन क ा,- घटमांही र दाखो रे;
. .नवपद तेम ज जाणजो, आतमराम छे -साखी रे।' - ी ीपाळरास
६६३
वबई, पौष, १९५२
गृहा द वृ के योगसे उपयोग वशेष चलायमान रहना सभव है, ऐसा जानकर परम पु ष सव-
सगप र यागका उपदे श करते थे।
६६४ . . बंबई, पौष वद २, १९५२
सव कारके भयके रहनेके थान प इस संसारमे मा एक वैरा य ही अभय है।
जो वैरा यदशा महान मु नयोको ा त होना लभ है, वह वैरा यदशा तो ाय ज हे गहवासमे
रहती थी, ऐसे ी महावीर, ऋषभ आ द पु ष भी यागको हण करके घरसे चल नकले, यही यागक
उता बताई है।
जब तक गृह था द वहार रहे तब तक आ म ान न हो, अथवा जसे आ म ान हो. उसे
गृह था द वहार न हो, ऐसा नयम नही है । वैसा होनेपर भो परमपु षोने ानीको भी याग वहार-
का उपदे श कया है, यो क याग ऐ यको प करता है, इससे और लोकको उपकारभूत होनेसे
याग अकत ल यसे कत है, इसमे स दे ह नही है।
जो व व पमे थ त है, उसे 'परमाथसयम' कहा है। उस सयमके कारणभूत अ य न म के
हणको ' वहारसयम' कहा है। कसी ानीपु षने उस सयमका भी नषेध नही कया है। परमाथक
उपे ा (ल के बना) से जो वहारसयममे ही परमाथसयमक मा यता रखे, उसके वहारसयमका
उसका अ भ नवेश र करनेके लये, नषेध कया है। परतु वहारसयममे कुछ भी परमाथक न म ता
नही है. ऐसा ानीपु षोने कहा नही है।
परमाथके कारणभूत ' वहाररायम' को भी परमाथसंयम कहा है।
ी डु गरको इ छा वशेषतासे लखना हो सके तो ल खयेगा।
ार ध है, ऐसा मानकर ानी उपा ध करते है, ऐसा मालूम नही होता, परतु प रण तसे छट
जानेपर भी याग करते ए बा कारण रोकते ह, इस लये ानी उपा धस हत दखायी दे ते है, तथा प
वे उसको नवृ के ल यका न य सेवन करते है।
णाम ।
६६५
ववई, पौष वद ९, गु , १९५२
दे हा भमानर हत स पु षोको अ यंत भ से काल नम कार
ानीपु षोने वारवार आर भ-प रगहके यागको उ कृ ता कही है, और पुन पुन उस यागका
उपदे श कया है, और ाय. वय भी ऐसा आचरण कया है, इस लये मुमु ुपु षको अव य उसे कम
करना चा हये, इसमे स दे ह नही है।
१ भावाथके लये दे ख आफ ३७७ ।

४९८
आरभ-प र हका याग कस कस तवधसे जीव नही कर सकता, और वह तवध कस
कारसे र कया जा सकता है, इस कारसे मुमु ुजीवको अपने च मे वशेष वचार-अकुर उ प
करके कुछ भी तथा प फल लाना यो य है। य द वैसा न कया जाये तो उस जीवको मुमु ुता नही है,
ऐसा ाय कहा जा सकता है।।
___आरभ और प र हका याग कस कारसे आ हो तो यथाथ कहा जाये इसे पहले वचारकर

े ी ो े े ो ै
वादमे उपयु वचार-अकुर मुमु ुजीवको अपने अतःकरणमे अव य उ प करना यो य है। तथा प
उदयसे वशेष लखना अभी नही हो सकता।
वंबई, पौष वद १२, र व, १९५२
उ कृ स प के थान जो च वत आ द पद है उन सबको अ न य जानकर वचारवान पु ष
उ हे छोडकर चल दये है, अथवा ार धोदयसे वास आ तो भी अमू छत पसे और उदासीनतासे उसे
ार धोदय समझकर आचरण कया है, और यागका ल य रखा है।
६६७
बवई, पौष वद १२, र व, १९५२
महा मा बु ( गौतम ) जरा, दा र य, रोग और मृ यु इन चारोको एक आ म ानके बना अ य
सव उपाय से अजेय समझकर, जसमे उनक उ प का हेतु ह, ऐसे ससारको छोड़कर चल दये थे ।
ी ऋषभ आ द अनत ानीपु षोने इसी उपायक उपासना क है, और सव जीवोको इस उपायका
उपदे श दया है । उस आ म ानको ाय. गम दे खकर न कारण क णाशील उन स पु षोने भ माग
कहा है, जो सव अशरणको न ल शरण प है, और सुगम है।
६६८
बबई, माघ सुद ४, र व, १९५२
प मला है।
असग आ म व प स संगके योगसे नतात सरलतासे जानना यो य है, इसम सशय नही है।
स सगके माहा यको सब ानीपु षोने अ तशय पसे कहा है, यह यथाथ है। इसम वचारवानको कसी
तरह वक प होना यो य नही है।
अभी त काल समागम स बंधी वशेष पसे लखना नही हो सकता।
६६९ वबई, माघ वद ११, र व, १९५२
यहाँसे स व तर प मलनेमे अभी वलंब होता है, इस लये ा द लखना नही हो पाता, ऐसा
आपने लखा तो वह यो य है । ा त ार धोदयके कारण यहाँसे प लखनेमे वलंब होना स भव है।
तथा प तीन-तीन चार-चार दनके अतरसे आप अथवा ी डंगर कुछ ानवाता नय मत पसे लखते
र हयेगा, जससे ायः यहाँसे प लखनेमे कुछ नय मतता हो सकेगी। व वध वध नम कार ।
६७०
बंबई, फागुन सुद १, १९५२
ॐ स साद
ानीका सव वहार परमाथमूल होता है, तो भी जस दन उदय भी आ माकार रहेगा, वह दन
ध य होगा।

४९९
सव खसे मु होनेका सव कृ उपाय आ म ानको कहा है, यह ानीपु षोका वचन स य है,
अ य त स य है।
जब तक जीवको तथा प आ म ान न हो तब तक ब धनक आ य तक नवृ नही होती,
इसमे सशय नही है।
उस आ म ानके होने तक जीवको मू तमान आ म ान व प स दे वका नरतर आ य अव य
करना यो य है, इसमे सशय नही है। उस आ यका वयोग हो तब आ यभावना न य कत है।
__ उदयके योगसे तथा प आ म ान होनेसे पूव उपदे शकाय करना पड़ता हो तो वचारवान मुमु ु
परमाथमागके अनुसरण करनेके हेतुभूत ऐसे स पु षक भ , स पु षका गुणगान, स पु षके त मोद-
भावना और स पु षके त अ वरोधभावनाका लोगोको उपदे श दे ता है, जस तरह मतमतातरका
अ भ नवेश र हो, और स पु षके वचन हण करनेक आ मवृ हो, वैसा करता है । वतमानकालमे
उस कारक वशेष हा न होगी, ऐसा जानकर ानीपु षोने इस कालको षमकाल कहा है, और वैसा
य दखायी दे ता है।
सव कायमे कत मा आ माथ है, यह स य भावना मुमु ुजीवको न य करना यो य है ।
बबई, फागुन सुद ३, र व, १९५२
आपका एक प आज मला है। उस प मे ी डु गरने जो लखवाये ह उनके वशेष समा-
धानके लये य समागमपर यान रखना यो य है।
ोसे ब त सतोप आ है। जस ार धके उदयसे यहाँ थ त है, उस ार धका जस
कारसे वशेषत वेदन कया जाय उस कारसे रहा जाता है। और इससे व तारपूवक प ा द लखना
ाय नह होता।
ी सुदरदासजीके थोका अथसे इ त तक अनु मसे वचार हो सके, वैसा अभी क जयेगा, तो
कतने ही वचारोका प ीकरण होगा। य समागममे उ र समझमे आने यो य होनेसे प ारा
मा प ँच लखी है । यही ।
भ भावसे नम कार।
६७२
बबई, फागुन सुद १०, १९५२
ॐ स साद
आ माथ ी सोभाग तथा ी डु गरके त, ी सायला ।
व तारपूवक प लखना अभी नही होता, इससे च मे वैरा य, उपशम आ द वशेष द त

े े ो े ी े ो ो े ो ो
रहनेमे स शा को एक वशेष आधारभूत न म जानकर, ी सुदरदास आ दके योका हो सके तो दो
से चार घड़ी तक नय मत वाचना-पृ छना हो, वैसा करनेके लये लखा था। ी सु दरदासके योका
आ दसे लेकर अत तक अभी वशेष अनु े ापूवक वचार करनेके लये आपसे और ी डु गरसे वनती है।
काया तक माया (अथात् कषाया द) का स भव रहा करता है, ऐसा ी डु गरको लगता है, यह
अ भ ाय ाय तो यथाथ है, तो भी कसी पु ष वशेषम सवथा सव कारके सं वलन आ द कपायका
अभाव हो सकना स भव लगता है, और हो सकनेमे स दे ह नही होता, इस लये कायाके होनेपर भी
कषायका अभाव स भव है, अथात् सवथा राग े षर हत पु ष हो सकता है। राग े पर हत यह पु प है,
ऐसा वा चे ासे सामा य जीव जान सक, यह स भव नह । इससे वह पु ष कपायर हत, स पूण वीत.
राग न हो, ऐसा अ भ ाय वचारवान था पत नही करते, यो क बा चे ासे आ मदशाको थ त
सवथा समझमे आ सके, ऐसा नह कहा जा सकता।

५००
ी सु दरदासने आ मजागृतदशामे 'शूरातनअग' कहा है, उसमे वशेष उ लास प रण तसे शूर-
वीरताका न पण कया है-
*मारे काम ोध सब, लोभ मोह पो स डारे, इ कतल करी, कयो रजपूतो है।
माय महा म मन, मारे अहंकार मीर, मारे मद मछर , ऐसो रन तो है ।
मारी आशा तृ णा पु न, पा पनी सा पनी दोउ, सबको सहार क र, नज पद पहतो है।
सु दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वै र सब मा रके, न चत होई सूतो है।
- ी सुदरदास शूरातनअग, २१-११
६७३ बंबई, फागुन सुद १०, र व, १९५२
ॐ ी स साद
ी सायला े मे मसे वचरते ए तब ध नही है ।
यथाथ ान उ प होनेसे पहले जन जीवोको, उपदे श दे नेका रहता हो उन जीवोको, जस तरह
वैरा य, उपशम और भ का ल य हो, उस तरह सग ा त जीवोको उपदे श दे ना यो य है, और जस
तरह उनका नाना कारके असआ हका तथा सवथा वेष वहारा दका अ भ नवेश कम हो, उस तरह
उपदे श प रण मत हो वैसे आ माथ वचारकर कहना यो य है। मश वे जीव यथाथ मागके स मुख हो
ऐसा यथाश उपदे श कत है।
६७४
बंबई, फागुन वद ३, सोम, १९५२
ॐ स साद
दे हधारी होनेपर भी नरावरण ानस हत रहते ह ऐसे महापु षोको काल नम कार
आ माथ ी सोभागके त, ी सायला ।
दे हधारी होनेपर भी परम ानीपु षमे सव कषायका अभाव हो सके, ऐसा हमने लखा है, उस
सगमे 'अभाव' श दका अथ ' य' समझकर लखा है।
जगतवासी जीवको राग े प र होनेका पता नही चलता, पर तु जो महान पु ष ह वे जानते है
क इस महा मा पु षमे राग े पका अभाव या उपशम है, ऐसा लखकर आपने शका क है क जैसे
महा मा पु पको ानीपु प अथवा ढ मुमु ुजीव जानते ह वैसे जगतके जीव यो न जाने ? मनु य आ द
ाणीको दे खकर जैसे जगतवासी जीव जानते है क ये मनु य आ द ह, और महा मा पु ष भी जानते ह
क ये मनु य आ द है, इन पदाथ को दे खनेसे दोनो समान पसे जानते है, और इसमे भेद रहता है, वैसा
भेद होनेके या कारण मु यत वचारणीय हे ? ऐसा लखा उसका समाधान-
.. मनु य आ दको जो जगतवासी जीव जानते ह, वह दै हक व पसे तथा दै हक चे ासे जानते
है। एक सरेको मु ामे, आकारमे और इ योमे जो भेद है, उसे च ु आ द इ य से जगतवासी जीव
*भावाय- जसने काम व ोधको मार डाला है, लोभ व मोहको पीस डाला है और इ योको कल
करफ शूरवीरता दखाई है, जसने मदो म मन और अहकार प सेनाप तका नाश कर दया है, तथा मद एव
म सरको नमूल कर दया है ऐसा रणबँका है; जसने, आशा तृ णा पी पा प सां पनोको भी मार दया है वह सव
क रयोका सहार करके नजपद अथात् अपने वभावम थर आ है । सुदरदास कहते ह क कोई वरल शूरवीर साधु
ही सभी पे रयोका नाशकर न त होकर सो रहा है अथात् वभावम म न होकर आ मानदका उपभोग करता है।

५०१
जान सकते ह, और उन जोव के कतने ही अ भ ायोको भी जगतवासी जीव अनुमानसे जान सकते है,
यो क वह उनके अनुभवका वषय है । पर तु जो ानदशा अथवा वीतरागदशा है वह मु यत. दे हक व प
तथा दै हक चे ाका वषय नही है, अतरा मगुण है, और अ तरा मता बा जीवोके अनुभवका वषय न
होनेसे, तथा जगतवासी जीवोमे तथा प अनुमान करनेके भी ाय स कार न होनेसे वे ानी या वीतरागको
पहचान नही सकते । कोई जीव स समागमके योगसे, सहज शुभकमके उदयसे, तथा प कुछ सं कार ा त
कर ानी या वीतरागको यथाश पहचान सकता है । तथा प स ची पहचान तो ढ मुमु ुताके गट होने-
पर, तथा प स समागमसे ा त ए उपदे शका अवधारण करनेपर और अ तरा मवृ प रण मत होनेपर
जीव ानी या वीतरागको पहचान सकता है। जगतवासी अथात् जो जगत जीव है, उनक से
ानी या वीतरागक स ची पहचान कहाँसे हो ? जस तरह अ धकारम पडे ' ए पदाथको मनु यच ु दे ख
नही सकते, उसी तरह दे हमे रहे ए ानी या वीतरागको जगत जीव पहचान नही सकता। जैसे
े े ो े े े े े ी े ो े ी ै ै े
अ धकारमे पडे ए पदाथको मनु यच ुसे दे खनेके लये कसी सरे काशको अपे ा रहती है, वैसे जगत-
जीवोको ानी या वीतरागक पहचानके लये वशेष शुभ स कार और स समागमक अपे ा होना
यो य है। य द वह योग ा त न हो तो जैसे अधकारमे रहा आ पदाथ और अधकार ये दोनो एकाकार
भा सत होते ह, भेद भा सत नही होता, वैसे तथा प योगके बना ानी या वीतराग और अ य ससारी
जीवोक एकाकारता भा सत होती है, दे हा द चे ासे ाय भेद भा सत नही होता |
___ जो दे हधारी सव अ ान और सव कषायोसे र हत ए है, उन दे हधारी महा माको काल परम
भ से नम कार हो । नम कार हो । । वे महा मा जहाँ रहते ह, उस दे हको, भू मको, घरको, मागको,
आसन आ द सबको नम कार हो । नम कार हो !।
ी डु गर आ द सव मुमु ुजनको यथायो य ।।
६७५
ब बई, फागुन वद ५, बुध, १९५२
दो प मले ह। म या वके प चीस कारमेसे थमके आठ कारका स यक व प समझनेके
लये पूछा वह तथा प ार धोदयसे अभी थोडे समयमे लख सकनेका स भव कम है।
'सु दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर,
वै र सब मा रके न चत होई सूतो है।' ,
६७६ ब बई, फागुन वद ९, र व, १९५२
जीवको वशेषत अनु े ा करने यो य आशका सहज नणयके लये तथा सरे क ही मुम
जीवोके वशेष उपकारके लये उस प मे लखी उसे पढा है। थोडे दनोमे हो सकेगा तो कुछ ोका
समाधान लखूगा।
ी डु गर आ द मुमु ुजीवोको यथायो य ।
६७७
ब बई, चै सुद १, र व, १९५२
प मला है । सहज उदयमान च वृ याँ लखी वे पढ ह। व तारसे हतवचन लखनेक
अ भलाषा बतायी, इस वषयमे स ेपमे नीचेके लेखसे वचा रयेगा -
ार धोदयसे जस कारका वहार सगमे रहता है, उसको नजरमे रखते ए जसे प आ द
लखनेमे स ेपसे वृ होती है, वैसा अ धक यो य है, ऐसा अ भ ाय ाय रहता है।

५०२
आ माके लये व तुत उपकारभूत उपदे श करनेमे ानीपु ष स ेपसे वृ नही करते, ऐसा होना
ाय स भव है, तथा प दो कारणोसे ानीपु ष उस कारसे भी वृ करते है-(१) वह उपदे श ज ासु
जीवमे प रण मत हो ऐसे सयोगोमे वह ज ासु जीव न रहता हो, अथवा उस उपदे शके व तारसे करने-
पर भी उसमे उसे हण करनेक तथा प यो यता न हो, तो ानीपु ष उन जीवोको उपदे श करनेमे
स ेपसे भी वृ करते है। (२) अथवा अपनेको वा वहारका ऐसा उदय हो क वह उपदे श ज ासु
जीवमे प रण मत होनेमे तवध प हो, अथवा तथा प कारणके बना वैसा वतन कर मु यमागके
वरोध प या सशयके हेतु प होनेका कारण होता हो तो भी ानीपु ष उपदे शमे स ेपसे वृ करते
है अथवा मौन रहते है।
सवसंगप र याग कर चले जानेसे भी जीव उपा धर हत नही होता। यो क जब तक अतरप रण त-
पर न हो और तथा प मागमे वृ न क जाये तब तक सवसगप र याग भी नाम मा होता
है । और वैसे अवसरमे भी अतरप रण तपर दे नेका भान जीवको आना क ठन है, तो फर ऐसे
गृह वहारमे लौ कक अ भ नवेशपूवक रहकर अतरप रण तपर दे सकना कतना ःसा य होना
चा हये, यह वचारणीय है, और वैसे वहारमे रहकर जीवको अतरप रण तपर कतना बल रखना
चा हये, यह भी वचारणीय है, और अव य वैसा करना यो य है।
__ अ धक या लख? जतनी अपनी श हो उस सारी श से एक ल य रखकर, लौ कक
अ भ नवेशको कम करके, कुछ भी अपव नरावरणता द खती नही है, इस लये 'समझका केवल अ भमान
है', इस तरह जीवको समझाकर जस कार जीव ान, दशन और चा र मे सतत जा त हो, वही
करनेमे वृ लगाना, और रात- दन उसी चतनमे वृ करना यही वचारवान जीवका कत है, और
उसके लये स सग, स शा और सरलता आ द नजगुण उपकारभूत है, ऐसा वचारकर उसका आ य
करना यो य है।
जब तक लौ कक अ भ नवेश अथात् ा द लोभ, तृ णा, दै हक मान, कुल, जा त आ द
स ब धी मोह या वशेष व मानना हो, वह बात न छोडनी हो, अपनी बु से वे छासे अमुक ग छा दका
आ ह रखना हो, तब तक जीवमे अपूव गुण कैसे उ प हो ? इसका वचार सुगम है।
___ अ धक लखा जा सके ऐसा उदय अभी यहाँ नही है, तथा अ धक लखना या कहना भी कसी
संगमे होने दे ना यो य है, ऐसा है। आपक वशेष ज ासाके कारण ार धोदयका वेदन करते ए
जो कुछ लखा जा सकता था, उसक अपे ा कुछ उद रणा करके वशेष लखा है । यही वनती ।
बबई, चै सुद २, सोम, १९५२
६७८
णमे हप और णमे शोक हो आये ऐसे इस वहारमे जो ानोपु ष समदशासे रहते ह, उ हे
अ य त भ से ध य कहते ह, और सव मुमु ुजीवोको इसी दशाक उपासना करना यो य है, ऐसा
न य दे खकर प रण त करना यो य है । यही वनती । ी डु गर आ द मुमु ुओको नम कार।
६७९

ई ै
बबई, चै सुद ११, शु , १९५२
स चरणाय नमः
आ मन ी सोभागके त, ी सायला ।
फागुन वद ६ के प मे लखे ए ोका समाधान इस प मे स ेपसे लखा है, उसे वचा रयेगा।

५०३
१ जस ानमे दे ह आ दका अ यास मट गया है, और अ य पदाथमे अहता-ममताका अभाव है,
तथा उपयोग वभावमे प रणमता है, अथात् ान व पताका सेवन करता है, उस ानको ' नरावरण-
ान' कहना यो य है।
२ सव जीवोको अथात् सामा य मनु योको ानी-अ ानीक वाणीमे जो अ तर ह सो समझना
क ठन है, यह बात यथाथ है, यो क शु क ानी कुछ सीख कर ानी जैसा उपदे श करे, जससे उसमे
वचनक समानता द खनेसे शु क ानीको भी सामा य मनु य ानी मान, मददशावान मुमु जीव भी वैसे
वचन से ा तमे पड जाये, पर तु उ कृ दशावान मुमु ुपु ष शु क ानोक वाणी श दसे ानीक वाणी
जैसी दे खकर ाय ा त पाने यो य नही है, यो क आशयसे शु क ानीको वाणीसे ानीक वाणीक
तुलना नही होती।
ानीक वाणी पूवापर अ वरोधी, आ माथ-उपदे शक और अपूव अथका न पण करनेवाली होती
है, और अनुभवस हत होनेसे आ माको सतत जा त करनेवाली होती है। शु क ानीक वाणीमे तथा प
गुण नही होते । सवसे उ कृ गुण जो पूवापर अ वरो धता है, वह शु क ानीक वाणीमे नही हो सकता,
यो क उसे यथा थत पदाथदशन नही होता, और इस कारणसे जगह जगह उसक वाणी क पनासे यु
होती है।
__ इ या द नाना कारके भेदसे ानी और श क ानीक वाणीक पहचान उ कृ मम को होने
यो य है । ानीपु षको तो उसक पहचान सहज वभावसे होती है, यो क वय भानस हत है, और
भानस हत पु षके बना इस कारके आशयका उपदे श नही दया जा सकता, ऐसा सहज हो वे जानते ह।
जसे अ ान और ानका भेद समझमे आया है, उसे अ ानी और ानीका भेद सहजमे समझम
आ सकता है । जसका अ ानके त मोह समा त हो गया है, ऐसे ानोपु पको शु क ानीके वचन कैसे
ा त कर सकते है ? क तु सामा य जीवोको अथवा मददशा और म यमदशाके मुमु ुको शु क ानीके
वचन समान प दखायी दे नेसे, दोनो ानीके वचन ह, ऐसी ा त होना सभव है। उ कृ मुमु को
ाय वैसी ा त सभव नही है, यो क ानीके वचनोक परी ाका बल उसे वशेष पसे थर हो
गया है।
पूवकालमे ानी हो गये हो, और मा उनक मुखवाणी रही हो तो भी वतमानकालमे ानीपु ष
यह जान सकते ह क यह वाणी ानीपु षक है, यो क रा - दनके भेदक तरह अ ानी- ानीक
वाणीमे आशय-भेद होता है, और आ मदशाके तारत यके अनुसार आशयवाली वाणी नकलती है।
वह आशय, वाणीपरसे 'वतमान ानीपु ष' को वाभा वक गत होता है। और कहनेवाले पु षको
दशाका तारत य यानगत होता है । यहाँ जो 'वतमान ानी' श द लखा है, वह कसी वशेष ावान,
गट बोधबीजस हत पु षके अथमे लखा है । ानीके वचनोक परी ा य द सव जीवोको सुलभ होती तो
नवाण भी सुलभ ही होता।
३ जनागममे म त, ुत आ द ानके पाँच कार कहे है। वे ानके कार स चे ह, उपमा-
वाचक नही ह । अव ध, मन पयय आ द ान वतमानकालमे व छे द जैसे लगते है, इससे ये ान उपमा-
वाचक समझना यो य नही है । ये ान मनु य जीवोको चा र पयायक वशु तरतमतासे उ प होते
ह। वतमानकालमे वह वशु तरतमता ा त होना कर है, यो क कालका य व प चा र -
मोहनीय आ द कृ तयोके वशेष बलस हत वतमान दखायी दे ता है।
सामा य आ मचा र भी कसी ही जीवमे होना सभव है। ऐसे कालमे उस ानक ल ध
व छे द जैसी हो, इसमे कुछ आ य नह है, इस लये उस ानको उपमावाचक समझना यो य नह है।

५०४
आ म व पका वचार करते ए तो उस ानक कुछ भी अस भावना द खती नही है। सव ानक
थ तका े आ मा है, तो फर अव ध, मन पयय आ द ानका े आ मा हो, इसमे सशय करना
कैसे यो य हो ? य प शा के यथा थत परमाथसे अ जीव उसको ा या जस कारसे करते ह,
वह ा या वरोधवाली हो, पर तु परमाथसे उस ानका होना स भव है।
जनागममे उसक जस कारके आशयसे ा या क हो, वह ा या और अ ानी जीव आशय
जाने वना जो ा या कर उन दोनोमे महान भेद हो इसमे आ य नह है, और उस भेदके कारण उस
ानके वषयके लये स दे ह होना यो य है, पर तु आ म से दे खते ए उस स दे हका अवकाश नही है।
४ कालका सू मसे सू म वभाग 'समय' है, पी पदाथका सू मसे सू म वभाग 'परमाणु' है, और
अ पी पदाथका सू मसे सू म वभाग ' दे श' है । ये तीनो ऐसे सू म ह क अ य त नमल ानक थत
उनके व पको हण कर सकती है। सामा यत ससारी जीवोका उपयोग अस यात समयवत है, उस
उपयोगमे सा ा ूपसे एक समयका ान स भव नही है। य द वह उपयोग एक समयवत और शु हो
तो उसमे सा ा ूपसे समयका ान होता है। उस उपयोगका एक समयव त व कषाया दके अभावसे होता
है, यो क कपाया दके योगसे उपयोग मूढता द धारण करता है, तथा अस यात समयव त वको ा त
होता है । वह कपाया दके अभावसे एक समयवत होता है, अथात् कपाया दके योगसे अस यात समयमेसे

ो े े ी ी े े ो े
एक समयको अलग करनेक साम य उसमे नही थी, वह कपाया दके अभावसे एक समयको अलग करके
अवगाहन करता है। उपयोगका एक समयव त व, कषायर हतता होनेके बाद होता है । इस लये जसे एक
समयका, एक परमाणुका, और एक दे शका ान हो उसे 'केवल ान' गट होता है, ऐसा जो कहा है,
वह स य है। कपायर हतताके वना केवल ानका स भव नह है और कषायर हतताके बना उपयोग
एक समयको सा ात पसे हण नही कर सकता। इस लये जस समयमे एक समयको हण करे उस
समय अ य त कपायर हतता होनी चा हये। और जहाँ अ य त कपायका अभाव हो वहाँ केवल ान'
होता है। इस लये इस कार कहा है क जसे एक समय, एक परमाणु और एक दे शका अनुभव हो
उसे 'केवल ान' गट होता है। जीवको वशेष पु षाथके लये इस एक सुगम साधनका ानीपु षने
उपदे श कया है। समयक तरह परमाणु और दे शका सू म व होनेसे तीनोको एक साथ हण कया
है । अत वचारमे रहनेके लये ानी पु षोने अस यात योग कहे ह। उनमेसे एक यह वचारयोग' कहा
है, ऐसा समझना यो य है।
५ शुभे छासे लेकर सव कमर हत पसे व व प थ त तकमे अनेक भू मकाएँ ह । जो जो
आ माथ जीव ए, और उनमे जस जस अशमे जा तदशा उ प ई, उस उस दशाके भेदसे उ होने
अनेक भू मकाओका आराधन कया है। ी कबीर, सु दरदास आ द साधुजन आ माथ गने जाने
यो य ह, और शुभे छासे ऊपरको भू मकाओमे उनक थ त होना स भव है । अ य त व व प थ तके
लये उनक जागृ त और अनुभव भी यानगत होता है। इससे वशेष प अ भ ाय अभी दे नेक इ छा
नही होती।
६ 'केवल ान' के व पका वचार गम है, और ी डु गर केवल-कोट से उसका नधार करते
है, उसमे य प उनका अ भ नवेश नह है, पर तु वैसा उ हे भा सत होता है, इस लये कहते ह। मा
'केवल-कोट ' हे, और भूत-भ व यका कुछ भी ान कसीको न हो, ऐसी मा यता करना यो य नह है।
भूत-भ व यका यथाथ ान होने यो य है, पर तु वह क ही वरल पु षोको, और वह भी वशु चा र -
तारत यसे, इस लये वह स दे ह प लगता है, यो क वैसी वशु चा र तरतमताका वतमानमे अभाव-सा

५०५
रहता है। वतमानमे शा वे ा मा श दबोधसे 'केवल ान' का जो अथ कहते है, वह यथाथ नही
ऐसा ी डु गरको लगता हो तो वह स भ वत है। फर भूत-भ व य जानना, इसका नाम 'केवल ान'
ऐसी ा या मु यत शा कारने भी नह क है। ानका अ य त शु होना उसे ानीपु षोने के
ान' कहा है, और उस ानमे मु य तो आ म थ त और आ मसमा ध कही है । जगतका ान है
इ या द जो कहा है, वह सामा य जीवोसे अपूव वपयका हण होना अश य जानकर कहा है, यो
जगतके ानपर वचार करते-करते आ मसाम य समझमे आता है। ी डु गर, महा मा ी ऋ
आ दमे केवल-कोट न कहते हो तो और उनके आ ावत अथात् जैसे महावीर वामीके दशनसे पाँच
मुमु ुओने केवल ान ा त कया, उन आ ाव तयोको केवल ान कहा है, उस 'केवल ान'को 'केव
कोट ' कहते हो, तो यह बात कसी भी तरह यो य है। केवल ानका ी डु गर एकात नषेध कर, तो
आ माका नषेध करने जैसा है। लोग अभी केवल ान' क जो ा या करते है, वह केवल ान'
ा या वरोधवाली मालूम होती है, ऐसा उ हे लगता हो तो यह भी स भ वत है, यो क वतम
पणामे मा जगत ान' 'केवल ान'का वषय कहा जाता है। इस कारका समाधान लखते
ब तसे कारके वरोध गोचर होते ह, और उन वरोधोको बताकर उसका समाधान लखना अ
त काल होना अश य है, इस लये स ेपम समाधान लखा है। समाधानका समु चयाथ इस कार है
__ "आ मा जब अ य त शु ान थ तका सेवन करे, उसका नाम मु यतः 'केवल ान' है।
कारके राग े षका अभाव होनेपर अ य त शु ान थ त गट होने यो य है । उस थ तमे जो
जाना जा सके वह 'केवल ान' है, और वह सदे हयो य नह है। ी डु गर 'केवल कोट ' कहते है,
भी महावीर वामीके समीपवत आ ावत पाँच सौ केवली जैसे सगमे स भ वत है। जगतके ान
ल य छोडकर जो शु आ म ान है वह 'केवल ान' है, ऐसा वचारते ए आ मदशा वशेष वका से
करती है।" ऐसा इस के समाधानका स त आशय है। यथास भव जगतके ानका वर
छोडकर व प ान हो उस कारसे केवल ानका वचार होनेके लये पु षाथ कत है। जगत
ान होना उसे मु यत 'केवल ान' मानना यो य नही है । जगतकै जीवोको वशेप ल य होनेके ।
वारवार जगतका ान साथमे लया है, और वह कुछ क पत है, ऐसा नही है, पर तु उमका अ भ न
करना यो य नही है। इस थानपर वशेप लखनेक इ छा होती है, और उसे रोकना पड़ता है,
भी स ेपसे पून लखते है। "आ मामेसे सव कारका अ य अ यास र होकर फ टकको भॉ त आ
अ य त श ताका सेवन करे, वह 'केवल ान' है, और जगत ान पसे उसे वारवार जनागममे कहा
उस माहा यसे बा जीव पु षाथमे वृ करे, यह हेतु है।"
__यहाँ ी डु गरको, 'केवल-कोट ' सवथा हमने कही है, ऐसा कहना यो य नह है। हमने अतरा
पसे भी वैसा माना नही है। आपने यह लखा, इस लये कुछ वशेप हेतु वचारकर समा
लखा है, पर तु अभी उस का समाधान करनेमे जतना मौन रहा जाये उतना उपकारी है.i
च मे रहता है । बाक के ोका समाधान समागममे क जयेगा।
६८०
बबई, चै सुद १३, १९
जसक मो के सवाय कसी भी व तुको इ छा या पृहा नही थी ओर अखड व पमे रमा
होनेसे मो क इ छा भी नवृ हो गयी है, उसे हे नाथ | तू तु मान होकर भी और या :
वाला था?
५०६
ीमद् रामच
हे कृपालु । तेरे अभेद व पमे ही मेरा नवास है वहाँ अब तो लेन- े दे नेक भी झझटसे छू ट गये
ह और यही हमारा परमानद है।
क याणके मागको और परमाथ व पको यथाथत नही समझनेवाले अ ानी जीव, अपनी म त-
क पनासे मो मागक क पना करके व वध उपायोमे वृ करते है फर भी मो पानेके बदले ससारमे
भटकते है, यह जानकर हमारा न कारण क णाशील दय रोता है।
वतमानमे व मान वीरको भूलकर, भूतकालक ा तमे वीरको खोजनेके लये भटकते जीवोको
ी महावीरका दशन कहाँसे हो ?
हे षमकालके भागी जीवो। भूतकालक ा तको छोडकर वतमानमे व मान महावीरक
शरणमे आओ तो तु हारा ेय ही है।
ससारतापसे सत त और कमबधनसे मु होनेके इ छु क परमाथ ेमी ज ासु जीवोक वध
प, तापा नको शात करनेके लये हम अमृतसागर है।
मुमु ुजीवोका क याण करनेके लये हम क पवृ ही है।
अ धक या कहे ? इस वषमकालमे परमशा तके धाम प हम सरे ी राम अथवा ी महावीर
ही है, यो क हम परमा म व प ए है।
यह अंतर अनुभव परमा म व पक मा यताके अ भमानसे उ त आ नही लखा है, परतु कम-
बधनसे ःखी होते जगतके जीवोपर परम क णाभाव आनेसे उनका क याण करनेक तथा उनका उ ार
करनेक न कारण क णा ही यह दय च द शत करनेक ेरणा करती है।
ॐ ी महावीर [ नजी]
६८१
बबई, चै वद १, १९५२
प मला है। कुछ समयसे ऐसा होता रहता है क व तारसे प लखना नही हो सकता, और
प क प ंच भी व चत् अ नय मत लखी जाती है । जस कारणयोगसे ऐसी थ त रहती है, उस कारण-
योगके त करते ए अभी भी कुछ समय ऐसी थ त वेदन करने यो य लगती है। वचन पढनेक
वशेष अ भलाषा रहती है, उन वचनोको भेजनेके लये आप त भतीथवासीको ल खयेगा। वे यहाँ
पुछवायेगे तो सगो चत लखगा।
य द उन वचनोको पढने- वचारनेका आपको सग ा त हो तो. जतनी हो सके उतनी च -
थरतासे प ढ़येगा और उन वचनोको अभी तो व उपकारके लये उपयोगमे ली जयेगा, च लत न
क जयेगा । यही वनती।
बबई, चै वदो १, सोम, १९५२
दोनो मुमु ुओ ( ी ल लुजी आ द) को अभी कुछ लखना नही आ। अभी कुछ समयसे ऐसी
थ त रहती है क कभी ही प ा द लखना हो पाता है, और वह भी अ नय मत पसे लखा जाता है।
जस कारण- वशेषसे तथा प थ त रहती है उस कारण वशेषक ओर करते ए कुछ समय तक
वैसी थ त रहनेक स भावना दखायी दे ती है। मुमु ुजीवक वृ को प ा दसे कुछ उपदे श प वचार
करनेका साधन ा त हो तो उससे वृ का उ कष हो और स चारका बल वधमान हो, इ या द
उपकार इस कारमे समा व है. फर भी जस कारण वशेषसे वतमान थ त रहती है, वह थ त
वेदन करने यो य लगती है।

५०७
दो प मले ह। अभी व तारपूवक प लखना ाय कभी ही होता है, और कभी तो प क
प ँच भी कतने दन बीतने के बाद लखी जाती है।
स समागमके अभावके सगमे तो वशेषत आरभ-प र हक वृ को कम करनेका अ यास रख-
कर, जन थोमे याग, वैरा य आ द परमाथ साधनोका उपदे श दया है, उन थोको पढनेका अ यास
कत है, और अ म पसे अपने दोषोको वारवार दे खना यो य है।
६८४
बबई, चै वद १४, र व, १९५२
'अ य पु षको मे, जग वहार लखाय,
वृ दावन, जब जग नह कौन वहार बताय?' - वहार वृ दावन
६८५
बबई, चै वद १४, र व, १९५२
एक प मला है। आपके पास जो उपदे शवचनोका स ह ह, वे पढनेके लये ा त हो इस लये
ी कुवरजीने वनती क थी। उन वचनोको पठनाथ भेजनेके लये तभतीथ ल खयेगा, और यहाँ वे
लखगे तो सगो चत लखंगा, ऐसा हमने कलोल लखा था । य द हो सके तो उ हे वतमानमे वशेष
उपकारभत हो ऐसे कतने ही वचन उनसे लख भे जयेगा । स य दशनके ल णा दवाले प उ हे वशेष
उपकारभूत हो सकने यो य ह ।
वीरमगामसे ी सुखलाल य द ी कुवरजीक भॉ त प ोक मॉग कर तो उनके लये भी ऊपर
लखे अनुसार करना यो य है।
६८६
बबई, चै वद १४, र व, १९५२
आप आ दके समागमके बाद यहाँ आना आ था। इतनेमे आपका एक प मला था। अभी
तीन-चार दन पहले एक सरा प मला है । कुछ समयसे स व तर प लखना कभी ही बन पाता है।
और कभी प क पहँच लखनेमे भी ऐसा हो जाता है। पहले कुछ मुमु ुओके त उपदे श प
लखे गये ह, उनक तयां ी अंबालालके पास ह। उन प ोको पढने- वचारनेका अ यास करनेसे
योपशमक वशेष शु हो सकने यो य है। ी अवालालको वे प पठनाथ भेजनेके लये वनती
क जयेगा । यही वनती।
६८७
बबई, वैशाख सुद १, मगल, १९५२
ब त दन से प नही है, सो ल खयेगा।
यहाँसे जैसे पहले व तारपूवक प लखना होता था, वैसे ाय. ब त समयसे तथा प ार धके
कारण नह होता।
करनेके त व नही हे, अथवा एक ण भी जसे करना भा सत नह होता, करनेसे उ प
होनेवाले फलके त जसक उदासीनता है, वैसा कोई आ तपु प तया प ार ध योगसे प र ह, सयोग
आ दमे वृ करता आ दखायी दे ता हो, और जैसे इ छु क पु प वृ करे, उ म करे, वैसे काय-
स हत वतमान दे खनेमे आता हो, तो वैसे पु षमे ानदशा है, यह कस तरह जाना जा सकता है ?
५०८
ीमद् राजच
अथात् वह पु ष आ त (परमाथके लये ती त करने यो य) है, अथवा ानी है, यह कस ल णसे पह-
चाना जा सकता है ? कदा चत् कसी मुमु ुको सरे कसी पु षके स सगयोगसे ऐसा जाननेमे आया तो
उस पहचानमे ा त हो वैसा वहार उस स पु षमे य दखायी दे ता है, उस ा तके नवृ होनेके
लये ममज वको वैसे पु षको कस कारसे पहचानना यो य है क जससे वैसे वहारमे वृ करते
ए भी ानल णता उसके यानमे रहे ?
सव कारसे जसे प र ह आ द सयोगके त उदासीनता रहती है, अथात् अहता-ममता तथा प
सयोगमे जसे नही होती, अथवा प र ण हो गयी है, 'अनतानुबधी' कृ तसे र हत मा ार धोदयसे
वहार रहता हो, वह वहार सामा य दशाके मुमु ुको सदे हका हेतु होकर, उसे उपकारभूत होनेमे
नरोध प होता हो, ऐसा वह ानीपु ष दे खता है, और उसके लये भी प र ह सयोग आ द ार धोदय
प वहारक प र ीणताक इ छा करता है, वैसा होने तक कस कारसे उस पु षने वृ क
हो, तो उस सामा य मुमु ुको उपकार होनेमे हा न न हो ? प वशेष स ेपसे लखा गया है, पर तु आप
तथा ी अचल उसका वशेष मनन क जयेगा।
६८८
बबई, वैशाख सुद ६, र व, १९५२
प मला है। तथा वचनोक त मली है। उस तमे कसी कसी थलमे अ रातर तथा
श दातर आ है, परतु ायः अथातर नही आ । इस लये वैसी तयाँ ी सुखलाल तथा ी कु वरजी-
को भेजनेमे आप जैसा नही है। बादमे भी उस अ र तथा श दक शु हो सकने यो य है ।
६८९ ववा णया, वैशाख वद ६, र व, १९५२
आय ी माणेकचद आ दके त, ी तभतीथ ।
सुदरलालके वैशाख वद एकमको दे ह छोडनेको जो खबर लखी, सो जानी । वशेष कालक
बीमारीके बना, युवाव थामे अक मात् दे ह छोडनेसे सामा य पसे प र चत मनु योको भी उस बातसे खेद
ए बना नही रहता, तो फर जसने कुटु ब आ द स ब धके नेहसे उसमे मूछा क हो, उसके सहवास-
मे रहा हो, उसके त कुछ आ य-भावना रखी हो उसे खेद ए बना कैसे रहेगा? इस ससारमे मनु य
ाणीको जो खेदके अक य सग ा त होते है, उन अक य सगोमेसे यह एक महान खेदकारक सग
है। ऐसे सगमे यथाथ वचारवान पु ष के सवाय सव ाणी खेद वशेषको ा त होते है, और यथाथ
वचारवान पु पोको वैरा य वशेष होता है, ससारक अशरणता अ न यता और असारता वशेष ढ
होती है।
वचारवान पु षोको उस खेदकारक संगका मू भावसे खेद करना, यह मा कमबधका हेतु
भा सत होता है, और वैरा य प खेदसे कमसगक नवृ भा सत होती है, और यह स य है । मूछा-
भावसे खेद करनेसे भी जस स ब धीका वयोग आ है, उसक ा त नही होती, और जो मूछा होती
है वह भी अ वचारदशाका फल है, ऐसा वचारकर वचारवान पु ष उस मूछाभाव- ययी खेदको शात
करते ह, अथवा ाय, वैसा खेद उ हे नही होता । कसी तरह वैसे खेदक हतका रता दखायी नही दे ती,
और यह सग खेदका न म है, इस लये वैसे अवसर पर वचारवान पु षोको, जीवके लये हतकारी
ऐसा खेद उ प होता है। सव सगक अशरणता, अबंधुता, अ न यता और तु छता तथा अ य वभाव
दे खकर अपने आपको वशेष तबोध होता है क हे जीव ! तुझे कुछ भी इस ससारमे उदया दभावसे भी
मूछा रहती हो तो उसका याग कर, याग कर, उस मूछाका कुछ फल नही है, ससारमे कभी भी शरण व
आ द ा त होना नह है, और अ वचा रताके बना इस ससारमे मोह होना यो य नही है, जो मोह

५०९
अनंत ज ममरणका और य खेदका हेतु है, ःख और लेशका बीज है, उसे शात कर, उसका य
कर । हे जीव । इसके बना अ य कोई हतकारी उपाय नही है, इ या द भा वता मतासे वैरा यको शु
और न ल करता है । जो कोई जीव यथाथ वचारसे दे खता है, उसे इसी कारसे भा सत होता है।
___- इस जीवको दे हसबध होकर मृ यु न होती तो इस ससारके सवाय अ य अपनी वृ लगानेका
अ भ ाय न होता । मु यत. मृ यु के भयने परमाथ प सरे थानमे वृ को े रत कया है, वह भो कसी
वरले जीवको े रत ई है। ब तसे जीवोको तो बा न म से मृ युभयके कारण बा णक वैरा य
ा त होकर वशेष कायकारी ए बना नाश पाता है। मा कसी एक वचारवान अथवा सुलभबोधी
या लघुकम जीवको उस भयसे अ वनाशी न ेयस पदके त वृ होती है।
मृ युभय होता तो भी य द वह मृ यु वृ ाव थामे नय मत ा त होती तो भी जतने पूवकालमे
वचारवान ए है, उतने न होते, अथात् वृ ाव था तक तो मृ युका भय नही है ऐसा दे खकर, माद-
स हत वृ करते। मृ युका अव य आना दे खकर तथा अ नय मत पसे उसका आना दे खकर, उस
सगके ा त होनेपर वजना द सबसे अर णता दे खकर, परमाथका वचार करनेमे अ म ता ही हत-
कारी तीत ई, और सवसगक अ हतका रता तीत ई। वचारवान पु षोका यह न य न सदे ह
स य है, काल स य है। मूछाभावका खेद छोडकर असगभाव ययी खेद करना वचारवानको
कत है।
___ य द इस ससारमे ऐसे सगोका स भव न होता, अपनेको या सरोको वैसे सगको अ ा त
दखायी दे ती होती, अशरणता आ द न होते तो पच वषयके सुख-साधनको ज हे ाय कुछ भी यूनता
न थी, ऐसे ी ऋषभदे व आ द परमपु ष, और भरता द च वत आ द उसका यो याग करते ?
े े ो े
एकात असगताका सेवन वे यो करते ? '
हे आय माणेकचंद आ द । यथाथ वचारक यूनताके कारण पु आ द भावक क पना और
मू के कारण आपको कुछ भी खेद वशेष ा त होना स भव है, तो भी उस खेदका दोन के लये कुछ
भी हतकारी फल न होनेसे, मा असग वचारके बना कसी सरे उपायसे हतका रता नही है, ऐसा
वचारकर, वतमान खेदको यथाश वचारसे, ानी पु पोके वचनामृतसे तथा साधु पु षके आ य,
समागम आं दसे और वर तसे उपशात करना ही कत है।
६९०
बंबई, तीय जेठ सुद २, श न, १९५२
मुमु ु ी छोटालालके त, ी तभतीथ । '
प मला है।
जस हेतुसे अथात् शारी रक रोग वशेषसे आपके नयममे आगार था, वह रोग वशेष उदयमे है,
इस लये उस आगारका हण करते ए आ ाका भग अथवा अ त म नह होता, यो क आपके नयमका
ार भ तथा कारसे आ था। यही कारण वशेष होनेपर भी य द अपनी इ छासे उस आगारका हण
करना हो तो आ ाका भग या अ त म होता है।
सव कारके आर भ तथा प र हके स ब धके मूलका छे दन करनेके लये समथ ऐसा चय परम
साधन है। यावत् जीवनपय त उस तको हण करनेका आपका न य रहता है, ऐसा जानकर स
होना यो य है। अगले समागमके आ यमे उस कारके वचारको नवे दत करना रखकर मवत् १९५२

५१०
के आसोज मासक पूणता तक या सवत् १९५३ क का तक सुद पू णमा पय त ी ल लुजीके पास उस
तको हण करते ए आ ाका अ त म नही है ।
ी माणेकचदका लखा आ प मला है । सु दरलालके दे ह याग स ब धी खद बताकर, उसके
आधारपर ससारक अशरणता द लखी है, वह यथाथ है; वैसी प रण त अखड रहे तभी जीव उ कृ
वैरा यको पाकर व व प ानको ा त करता है, कभी कभी कसी न म से वैसे प रणाम होते है पर तु
उनमे व न प सग तथा सगमे जीवका वास होनेसे वे प रणाम अखड नही रहते, और संसारा भ च
हो जाती है, वैसी अखड प रण तके इ छु क मुमु ुको उसके लये न य स समागमका आ य करनेक परम
पु षने श ा द है।
जब तक जीवको वह योग ा त न हो तब तक कुछ भी उस वैरा यके आधारका हेतु तथा
अ तकूल न म प मुमु ुजनका समागम तथा स शा का प रचय कत है । अ य सग तथा सगसे
र रहनेक वारवार मृ त रखनी चा हये, और वह मृ त वतन प करनी चा हये । वारवार जीव
इस वातको भूल जाता है, और इस कारणसे इ छत साधन तथा प रण तको ा त नह होता।
ी सु दरलालक ग त वषयक पढा है। इस को अभी शात करना यो य है, तथा
त षयक वक प करना यो य भी नही है।
वबई, तीय जेठ वद ६, गु , १९५२
'वतमानकालमे इस े से नवाणक ा त नही होती' ऐसा जनागममे कहा है, और वेदात
__ आ द ऐसा कहते ह क (इस कालमे इस े से) नवाणक ा त होती है। इसके लये ी डु गरको
__ जो परमाथ भा सत होता हो, सो ल खयेगा। आप और लहेराभाई भी इस वषयमे य द कुछ लखना
चाहे तो ल खयेगा।
वतमानकालमे इस े से नवाण ा त नह होती, इसके सवाय अ य कतने ही भावोका भी
जनागममे तथा तदा त आचायर चत शा मे व छे द कहा है । केवल ान, मन पयाय ान, अव ध ान,
पूव ान, यथा यात चा र , सू मसपराय चा र , प रहार वशु चा र , ा यक सम कत और पुलाक-
ल ध इन भावोका मु यतः व छे द कहा है। ी डु गरको उस उसका जो परमाथ भा सत होता हो सो
ल खयेगा । आपको और लहेराभाईको इस वषयमे य द कुछ लखनेक इ छा हो सो ल खयेगा।।
__ वतमानकालमे इस े से आ माथक कौन कौनसी मु य भू मका उ कृ अ धकारीको ा त हो
सकती है, और उसक ा तका माग या है ? वह भी ी डु गरसे लखवाया जाये तो ल खयेगा।
तथा इस वषयमे य द आपको तथा लहेराभाईको कुछ लखनेक इ छा हो जाये तो ल खयेगा । उपयुक
ोका उ र अभी न लखा जा सके तो उन ोके परमाथका वचार करनेका यान र खयेगा।
६९२
ववई, तीय जेठ वद , १९५२
लभ मनु यदे ह भी पूवकालमे अनतवार ा त होनेपर भी कुछ भी सफलता नही ई, पर तु इस
मनु यदे हक कृताथता है क जस मनु यदे हम इस जीवने ानीपु पको पहचाना, तथा उस महाभा यका
आ य कया। जस पु पके आ यसे अनेक कारके म या आ ह आ दक मंदता ई, उस पु पके
आधयपूवक यह दे ह घटे , यही साथकता है । ज मजरामरणा दका नाश करनेवाला आ म ान जसमे

५११
व मान है, उस पु षका आ य ही जीवके ज मजरामरणा दका नाश कर सकता है, ' यो क वह यथा-
स भव उपाय है । संयोग-स ब धसे इस दे हके त इस जीवका जो ार ध होगा उसके तीत हो जाने-
पर इस दे हका सग नवृ होगा। इसका चाहे जब वयोग न त है, पर तु आ यपूवक दे ह छु टे ,
यही ज म साथक है, क जस आ यको पाकर जीव इस भवमे अथवा भ व यमे थोडे कालमे भी

े े
व व पमे थ त करे।
आप तथा ी मु न सगोपा खुशालदासके यहाँ जानेका र खयेगा । चय, अप र ह आ दको
यथाश धारण करनेक उनमे स भावना दखायी दे तो मु नको वैसा करनेमे तबध नही है।
ी स ने कहा है ऐसे न ंथमागका सदै व आ य रहे।
म दे हा द व प नही , ँ और दे ह, ी, पु आ द कोई भी मेरे नही ह, शु चैत य व प
अ वनाशी ऐसा मै आ मा ँ, इस कार आ मभावना करते ए राग े षका य होता है।
६९३ . बंबई, आषाढ सुद २, र व, १९५२
जसक मृ युके साथ म ता हो, अथवा जो मृ युसे भागकर छट सकता हो, अथवा म नही ही
म ँ ऐसा जसे न य हो, वह भले सुखसे सोये।
- ी तीथकर-छ जीव नकाय अ ययन ।
ानमाग रारा य है। परमावगाढदशा पानेसे पहले उस मागमे पतनके ब त थान है। स दे श
वक प, व छदता, अ तप रणा मता इ या द कारण वारवार जीवके लये उस मागसे पतनके हेत होते
ह, अथवा ऊ वभू मका ा त होने नही दे ते।
यामागमे असअ भमान, वहार-आ ह, स मोह, पूजास कारा द योग और दै हक यामे
आ म न ा आ द दोषोका स भव रहा है ।
कसी एक महा माको छोडकर ब तमे वचारवान जीवोने इ ही कारण से भ मागका आ य
लया है, और आ ा तता अथवा परमपु ष स मे स पण- वाधीनताको शरसावध माना है, और
वैसी ही व क है। तथा प वैसा योग ा त होना चा हये, नही तो चताम ण जैसा जसका एक
समय है ऐसी मनु यदे ह उलटे प र मणवृ का हेतु होती है ।
६९४ बबई, आषाढ सुद २, र व, १९५२
आ माथ ी सोभागके त, ी सायला ।
ी डु गरके अ भ ायपूवक आपका लखा आ प तथा ी लहेराभाईका लखा हआ प मला
है। ी डु गरके अ भ ायपूवक ी सोभागने लखा है क न य और वहारको अपे ासे जनागम
तथा वेदात आ द दशनमे वतमानकालमे इस े से मो क ना ओर हाँ कही होनेका स भव है, यह
वचार वशेष अपे ासे यथाथ दखायी दे ता है; और लहेराभाईने लखा है क वतमानकालमे सघयणा दके
हीन होनेके कारणसे केवल ानका जो नषेध कया है, वह भी सापे है।
आगे चलकर वशेषाथ यानगत होनेके लये पछले प के को कुछ प तासे लखते ह .-
वतमानमे जनागमसे जैसा केवल ानका अथ वतमान जनसमुदायमे चलता है, वैसा ही उसका अथ आपको

५१२
यथाथ तीत होता है या कुछ सरा अथ तीत होता है ? सव दे शकाला दका ान केवल ानीको होता
है, ऐसा जनागमका अभी ढ-अथ है, अ य दशनोमे ऐसा मु याथ नह है, और जनागमसे वैसा मु याथ
लोगोमे अभी च लत है। वही केवल ानका अथ हो तो उसमे बहतसे वरोध दखायी दे ते ह। जो सब
यहाँ नही लखे जा सक है। तथा जो वरोध लखे ह वे भी वशेष व तारसे नही लखे जा सके ह,
यो क वे यथावसर लखने यो य लगते है । जो लखा है वह उपकार से लखा है, यह यान रख।
योगधा रता अथात् मन, वचन और कायास हत थ त होनेसे आहारा दके लये वृ होते ए
उपयोगातर हो जानेसे उसमे कुछ भी वृ का अथात् उपयोगका नरोध होता है । एक समयमे कसीको दो
उपयोग नही रहते ऐसा स ात है, तब आहारा दक वृ के उपयोगमे रहते ए केवल ानीका उपयोग
केवल ानके ेयके त नही रहता, और य द ऐसा हो तो केवल ानको जो अ तहत कहा है, वह तहत
आ माना जाये । यहाँ कदा चत् ऐसा समाधान कर क जैसे दपणमे पदाथ त ब बत होते ह वैसे केवल-
ानमे सव दे शकाल त ब बत होते है। केवल ानी उनमे उपयोग दे कर जानते है यह बात नही है,
सहज वभावसे ही उसमे पदाथ तभा सत आ करते ह, इस लये आहारा दमे उपयोग रहते ए भी
सहज वभावसे तभा सत केवल ानका अ त व यथाथ है, तो यहाँ होना स भव है क 'दपणमे
तभा सत पदाथका ान दपणको नही होता, और यहाँ तो केवल ानीको उनका ान होता है, ऐसा
कहा है, तथा उपयोगके सवाय आ माका सरा ऐसा कौनसा व प है क आहारा दमे उपयोगक
वृ हो तब केवल ानमे तभा सत होने यो य ेयको आ मा उससे जाने ?'
सव दे शकाल आ दका ान जस केवलीको हो वह केवली ' स ' को कहे तो स भ वत होने यो य
माना जाये, यो क उसे योगधा रता नही कही है। इसमे भी हो सकता है, तथा प योगधारीक
अपे ासे स मे वैसे केवल ानक मा यता हो तो योगर हत व होनेसे उसमे स भ वत हो सकता है, इतना
तपादन करनेके लये लखा है, स को वैसा ान होता ही है ऐसे अथका तपादन करनेके लये नही
लखा। य प जनागमके ढ-अथके अनुसार दे खनेसे तो 'दे हधारी केवली' और ' स ' मे केवल ानका
भेद नही होता, दोनोको सव दे शकाल आ दका स पूण ान होता है यह ढ-अथ है। सरी अपे ासे
जनागम दे खनेसे भ पसे दखायो दे ता है । जनागममे इस कार पाठाथ दे खनेमे आते है -
"केवल ान दो कारसे कहा है। वह इस तरह-'सयोगी भव थ केवल ान', 'अयोगी भव थ
केवल ान' । सयोगी केवल ान दो कारसे कहा है, वह इस तरह- थम समय अथात् उ प होनेके
समयका सयोगी केवल ान, अ थम समय अथात् अयोगो होनेके वेश समयसे पहलेका केवल ान । इसी
तरह अयोगी भव थ केवल ान दो कारसे कहा है, वह इस तरह- थम समय केवल ान और अ थम
अथात् स होनेसे पहलेके अ तम समयका केवल ान ।"
इ या द कारसे केवल ानके भेद जनागममे कहे ह, उसका परमाथ या होना चा हये ? कदा चत
ऐसा समाधान कर क बा कारणक अपे ासे केवल ानके भेद बताये ह, तो वहाँ यो शका करना सभव

ै ी ो ो औ े ो े े े
है क 'कुछ भी पु षाथ स न होता हो और जसमे वक पका अवकाश न हो उसमे भेद करनेक
वृ ानीके वचनमे स भव नही है। थम समय केवल ान और अ थम समय केवल ान ऐसे,भेद
करते ए केवल ानका तारत य बढता घटता हो तो वह भेद स भव है, पर तु तारत यमे, वैसा नह है,
तब भेद करनेका या कारण ?' इ या द यहाँ स भव ह, उनपर और पहलेके प पर यथाश वचार
कत है।

५१३
ी सहजान दके वचनामृतमे आ म व पके साथ अह नश य भगवानक भ करना, और वह
भ ' वधम'मे रहकर करना, इस तरह जगह जगह मु य पसे बात आती है। अब य द ' वधम'
श दका अथ 'आ म वभाव' अथवा 'आ म व प' होता हो तो फर ' वधमस हत भ करना' यह कहने-
का या कारण ? ऐसा आपने लखा उसका उ र यहाँ लखा है -
वधममे रहकर भ करना ऐसा बताया है, वहां ' वधम' श दका अथ 'वणा म धम' है। जस
ा ण आ द वणमे दे ह धारण आ हो, उस वणका ु त- मृ तमे कहे ए धमका आचरण करना, यह
'वणधम' है, और चय आ द आ मके मसे आचरण करनेक जो मयादा ु त- मृ तमे कही है, उस
मयादास हत उस उस आ ममे वृ करना, यह 'आ मधम' है ।।
ा ण, य, वै य और शू ये चार वण है, तथा चय, गृह थ, वान थ और स य त ये
चार आ म ह। ा णवणमे इस कारसे वणधमका आचरण करना, ऐसा ु त- मृ तमे कहा हां उसके
अनुसार ा ण आचरण करे तो ' वधम' कहा जाता है। और य द वैसा आचरण न करते ए य
आ दके आचरण करने यो य धमका आचरण करे तो 'परधम' कहा जाता है । इस कार जस जस वण-
मे दे ह धारण आ हो, उस उस वणके ु त- मृ तमे कहे ए धमके अनुसार वृ करना, इसे ' वधम'
कहा जाता है, और सरे वणके धमका आचरण करे तो 'परधम' कहा जाता है।
__उसी तरह आ मधम स ब धी भी थ त है। जन वण को ु त- मृ तमे चय आ द आ म-
स हत वृ करनेके लये कहा है, उस वणमे थम चौबीस वष तक चया ममे रहना, फर चौवीस
वष तक गृह था ममे रहना, मसे वान थ और स य त आ ममे आचरण करना, इस कार आ मका
सामा य म है। उस उस आ ममे आचरण करनेक मयादाके समयमे सरे आ मके आचरणको
हण करे तो वह 'परधम' कहा जाता है, और उस उस आ ममे उस उस आ मके धम का आचरण
करे तो वह ' वधम' कहा जाता है। इस कार वेदा त मागमे वणा म धमको ' वधम' कहा है, उस
वणा म धमको यहाँ ' वधम' श दसे समझना यो य है, अथात् सहजानद वामीने वणा म धमको यहाँ
' वधम' श दसे कहा है। भ धान स दायोमे ायः भगव करना, यही जीवका ' वधम' है.
ऐसा तपादन कया है, परतु उस अथमे यहाँ ' वधम' श द नही कहा है, यो क भ ' वधम' मे रह-
कर करना, ऐसा कहा है, इस लये वधमका भ पसे हण कया है, और वह वणा म धमके अथमे
हण कया है। जीवका ' वधम' भ है, यह बतानेके लये तो भ श दके बदले व चत् ही इन
स दायोमे वधम श दका हण कया है, और ी सहजानदके वचनामृतमे भ के बदले वधम श द
स ावाचक पसे भी यु नही कया है, ी व लभाचायने तो व चत् यु कया है।
६९६
वंबई, आषाढ वदो ८, र व, १९५२
भुजा ारा जो वयंभूरमणसमु को तर गये, तरते हे और तरगे,
उन स पु षोको न काम भ से काल नम कार
आपने सहज वचारके लये जो लखे थे, वह प ा त आ था।
एक धारासे वेदन करने यो य ार धका वेदन करते ए कुछ एक परमाय वहार प व
कृ म जैसी लगती है, इ या द कारणोसे मा प ंच लखना भी नह आ। च को जो

५१४
ीमद् राजच
भी आलबन है, उसे खीच लेनेसे वह आतता ा त करेगा, ऐसा जानकर उस दयाके तबधसे यह प
लखा है।
सू मसग प और बा संग प तर वयभूरमणसमु को भुजा ारा जो वधमान आ द पु ष तर
गये ह, उ हे परमभ से नम कार हो । पतनके भयकर थानकमे सावधान रहकर तथा प साम यको
व तृत करके जसने स स क है, उस पु षाथको याद करके रोमा चत, अनंत और मौन ऐसा
आ य उ प होता है।
__बंबई, आषाढ वद ८, र व, १९५२
भुजा ारा जो वयंभूरमणसमु को तर गये, तरते ह, और तरगे,
उन स पु षोको न काम भ से काल नम कार
ी अंबालालका लखा आ तथा ी भोवनका लखा आ तथा ी दे वकरणजी आ दके लखे
ए प ा त ए है।
ार ध प तर तवध रहता है, उसमे कुछ लखना या कहना कृ म जैसा लगता है और
इस लये अभी प ा दक मा प ंच भी नही लखी गयी । ब तसे प ोके लये वैसा आ है, जससे च को
वशेप ाकुलता होगी, उस वचार प दयाके तवधसे यह प लखा है । आ माको मूल ानसे चलाय-
मान कर डाले ऐसे ार धका वेदन करते ए ऐसा तबध उस ार धके उपकारका हेतु होता है, और

ी े ो े े े ो े ै
कसी वकट अवसरमे एक बार आ माको मल ानके वमन करा दे ने तकक थ तको ा त करा दे ता है,
ऐसा जानकर, उससे डरकर आचरण करना यो य है, ऐसा वचारकर प ा दक प ँच नही लखी, सो
मा कर ऐसी न तास हत ाथना है।
अहो । ानीपु षक आशय-गभीरता, धीरता और उपशम ! अहो । अहो । वारवार अहो । ...
६९८
बंबई, ावण सुद ५, शु , १९५२
' जनागममे धमा तकाय, अधमा तकाय आ द छ कहे ह, उनमे कालको भी कहा है
ओर अ तकाय पाँच कहे है । कालको अ तकाय नही कहा है; इसका या हेतु होना चा हये ? कदा चत्
कालको अ तकाय न कहनेमे यह हेतु हो क धमा तकाया द दे शके समूह प है, और पु ल-परमाणु
वसी यो यतावाला है, काल वैसा नही है, मा एक समय प है, इस लये कालको अ तकाय नही
कहा। यहाँ ऐसी आशका होती है क एक समयके बाद सरा फर तीसरा इस तरह समयक धारा
वहा ही करती है, और उस धारामे वीचमे अवकाश नही है, इससे एक- सरे समयका अनुसधान व अथवा
समूहा मक व स भव है, जससे काल भी अ तकाय कहा जा सकता है। तथा सव को तीन कालका
ान होता है, ऐसा कहा है, इससे भी ऐसा समझमे आता है क सव कालका समूह ानगोचर होता है,
और सव समूह ानगोचर होता हो तो कालका अ तकाय होना स भव ह, और जनागममे उसे अ तकाय
नही माना, यह आशका लखी थी, उसका समाधान न न ल खतसे वचारणीय है-
जनागमको ऐसी पणा है क काल औपचा रक है, वाभा वक नही है।
जो पाँच अ तकाय कहे है, उनको वतनाका नाम मु यत काल है । उस वतनाका सरा नाम
पयाय भी है। जैसे धमा तकाय एक समयमे अस यात दे शके समूह पसे मालूम होता है, वैसे काल

५१५
समूह पसे मालूम नही होता । एक समय रहकर लयको ा त होता है, उसके बाद सरा समय उ प
होता है । वह समय क वतनाका सू मा तसू म भाग है।
सव को सव कालका ान होता है, ऐसा जो कहा है, उसका मु य अथ तो यह है क पचा त-
काय पयाया मक पसे उ हे ानगोचर होता है, और सव पयायका जो ान है वही सव कालका ान
कहा गया है। एक समयमे सव भी एक समयको ही वतमान दे खते है, और भूतकाल या भा वकालको
व मान नही दे खते, य द उसे भी व मान दे ख तो वह भी वतमानकाल ही कहा जायेगा । सव भूत-
कालको बीत चुका है इस पसे और भा वकालको आगे ऐसा होगा, ऐसा दे खते है ।
भूतकाल मे समा गया है, और भा वकाल स ा पसे रहा है, दोनोमेसे एक भी वतमान पसे
नही है, मा एक समय प ऐसा वतमानकाल ही व मान है, इस लये सव को ानमे भी उसी कारसे
भासमान होता है।
एक घडा अभी दे खा हो, वह उसके बाद सरे समयमे नाशको ा त हो गया, तन घडा पसे
व मान नही है, पर तु दे खनेवालेको वह घडा जैसा था वैसा ानमे भासमान होता है, इसी तरह अभी
एक म का पड पडा है, उसमेसे थोड़ा समय बीतनेपर एक घड़ा उ प होगा, ऐसा भी ानमे भा सत
हो सकता है, तथा प म का पड वतमानमे कुछ घडा पसे तो नही रहता। इसी तरह एक समयमे
सव को काल ान होनेपर भी वतमान समय तो एक ही है।
सूयके कारण जो दन-रात प काल समझमे आता है वह वहारकाल है; यो क सूय
वाभा वक नही है । दग बर, कालके अस यात अणु मानते है, पर तु उनका एक सरेके साथ
सधान है, ऐसा उनका अ भ ाय नह है, और इस लये कालको अ तकाय पसे नही माना।
य स समागममे भ , वैरा य आ द ढ साधनस हत मुमु ुको स को आ ासे ानुयोग
वचारणीय है।
___ अ भनदन जनक ी दे वचदजीकृत तु तका पद लखकर अथ पुछवाया है, उसमे 'पु ळअनुभव-
यागथी, करवी ज शु परतीत हो,' ऐसा लखा है, वैसा मूलमे नही है । 'पु ळअनुभव यागथी, करवी
जसु परतीत हो, ऐसा मूल पद है। अथात् वण, ग ध आ द पु ल-गुणके अनुभवका अथात् रसका याग
करनेस, े उसके त उदासीन होनेसे, 'जसु' अथात् जसक (आ माक ) ती त होती है, ऐसा अथ है।
६९९
बबई, ावण, १९५२
पचा तकायका व प स ेपमे कहा है -
जीव, पु ल, धम, अधम और आकाश ये पाँच अ तकाय कहे जाते है। अ तकाय अथात्
दे शसमूहा मक व तु । एक परमाणुके माणवाली अमूत व तुके भागक ' दे श' ऐसी स ा है । जो व तु
अनेक दे शा मक हो वह 'अ तकाय' कहलाती है। एक जीव अस यात दे श माण है। पु ल परमाणु
य प एक दे शा मक है, पर तु दो परमाणुसे लेकर अस यात, अनत परमाणु एक हो सकते ह । इस
तरह उसमे पर पर मलनेक श रहनेसे वह अनेक दे शा मकता ा त कर सकता है, जससे वह भी
अ तकाय कहने यो य है । 'धम ' अस यात दे श माण, 'अधम ' अस यात दे श माण, 'आकाश-
' अनत दे श माण होनेसे वे भी 'अ तकाय' ह । इस तरह पॉच अ तकाय है । जन पांच अ तकाय
क एक पतासे इस 'लोक' क उ प है, अथात् 'लोक' पचा तकायमय है।
येक येक जीव अस यात दे श माण है। वे जीव अनत ह । एक परमाणु जैसे अनत परमाण
ह । दो परमाणुओके एक मलनेसे यणुक कध होता है, जो अनंत है। इसी तरह तीन परमाणओके
५१६
मलनेसे यणुक कध होता है, जो अनत है । चार परमाणुओके एक मलनेसे चतुरणुक कंध होता है, जो
अनत हे । पाँच परमाणुओके मलनेसे पचाणुक कध होता है, जो अनत है । इस तरह छ परमाणु, सात
परमाणु', आठ परमाणु, नौ परमाणु, दस परमाणु एक मलनेसे तथा प अनंत कव ह। इसी तरह
यारह परमाणु, यावत् सो परमाणु, स यात परमाणु, अस यात परमाणु तथा अनत परमाणु मलनेसे
अनंत कध ह।
___'धम ' एक है। वह अस यात दे श माण लोक ापक है। 'अधम ' एक है। वह भी
अस यात दे श माण लोक ापक है । 'आकाश ' एक है । वह अनत दे श माण है, लोकालोक ापक
है। लोक माण आकाश अस यात दे शा मक है।
___'काल ' यह पाँच अ तकोयोका वतना प पयाय है, अथात् औपचा रक है, व तुत तो
पयाय हो है, और पल वपलसे लेकर वषा द पयंत जो काल सूयक ग तसे समझा जाता है, वह ' ाव-
हा रक काल' है, ऐसा ेताबर आचाय कहते है। दग बर आचाय भी ऐसा कहते ह, पर तु वशेषमे
इतना कहते है क लोकाकाशके एक एक दे शमे एक एक कालाणु रहा आ है, जो अवण, अगध, अरस
और अ पश है, अगु लघु वभाववान है। वे कालाणु वतनापयाय और ावहा रक कालके लये न म ो-
पकारी ह। उन कालाणुओको ' ' कहना यो य है, पर तु 'अ तकाय' कहना यो य नह है, यो क
एक सरेसे मलकर वे अणु याक वृ नह करते, जससे बह दे शा मक न होनेसे 'काल '
अ तकाय कहने यो य नह है, और पचा तकायके ववेचनमे भी उसका गौण पसे व प कहते है।
___'आकाश' अनत दे श माण है। उसमे अस यात दे श माणमे धम, अधम ापक है। धम,
अधम का ऐसा वभाव है क जीव और पु ल उनक सहायताके न म से ग त और थ त कर
सकते है, जससे धम, अधमक ापकतापयत ही जीव और पु लक ग त थ त है; और इससे लोक-
मयादा उ प होती है।
___ जीव, पु ल और धम, अधम, माण आकाश ये पाँच जहाँ ापक ह, वह 'लोक' कहा
जाता है।
- का वठा, ावण वद , १९५२
शरीर कसका है ? मोहका है । इस लये असगभावना रखना यो य है।
७००
७०१
- राळज, ावण वद १३, श न, १९५२
(१) 'अमुक पदाथके जाने-आने आ दके सगमे धमा तकाय आ दके अमुक दे शमे या होती
है, और य द इस कार हो तो उनमे वभाग हो जाये, जससे वे भी कालके समयको भॉ त अ तकाय
न कहे जा सके' इस का समाधान -
जैसे धमा तकाय आ दके सव दे श एक समयमे वतमान है अथात् व मान है, वैसे कालके सव
समय कुछ एक समयमे व मान नही होते, और फर के वतनापयायके सवाय कालका कोई भ
व नही है, क उसके अ तकाय वका सभव हो। अमुक दे शमे धमा तकाय आ दमे या हो
और अमुक दे शमे न हो इससे कुछ उसके अ तकाय वका भग नही होता, मा एक दे शा मक वह
हो और समूहा मक होनेक उसमे यो यता न हो तो उसके अ तकाय वका भग होता है, अथात् क, तो
वह 'अ तकाय' नह कहा जाता। परमाणु एक दे शा मक है, तो भी वैसे सरे परमाणु मलकर वह
समूहा मक वको ा त होता है। इस लये वह 'अ तकाय' (पु ला तकाय) कहा जाता है। और एक

५१७
रमाणुमे भी अनतपयाया मक व है, और कालके एक समयमे कुछ अनतपयाया मक व नही है, यो क
वह वयं ही वतमान एक पयाय प है। एक पयाय प होनेसे वह प नही ठहरता, तो फर अ त-
काय प माननेका वक प भी सभ वत नही है।
(२) मूल अ का यक जीवोका व प ब त सू म होनेसे सामा य ानसे उसका वशेष पसे ान
होना क ठन है, तो भी ‘षड् दशनसमु चय' थ अभी स आ है, उसमे १४१ से १४३ पृ तक
उसका कुछ व प समझाया है। उसका वचार कर सक तो वचार क जयेगा।
(३) अ न अथवा सरे बलवान श से अ का यक मूल जीवोका नाश होता है, ऐसा समझमे आता
है । यहाँसे बा प आ द प होकर जो पानी ऊँचे आकाशमे बादल पमे इक ा होता है वह बा प आ द प
होनेसे अ चत् होने यो य लगता है, परतु बादल प होनेसे फर स चत् हो जाने यो य है। वह वषा पसे
जमीनपर गरनेपर भी स चत् होता है। म आ दके साथ मलनेसे भी वह स चत् रह सकने यो य है।
सामा यतः म अ न जैसा बलवान श नही है, अथात् वैसा हो तब भी स चत् होना स भव है।
(४) बीज जब तक बोनेसे उगनेक यो यतावाला है तब तक नज व नही होता, सजीव ही कहा
जाता है । अमक अव धके बाद अथात् सामा यत बीज (अ आ दका) तीन वष तक सजीव रह सकता है,
इससे बीचमे उसमेसे जीव चला भी जाये, परतु उस अव धके बीत जानेके बाद उसे नज व अथात
नब ज हो जाने यो य कहा है। कदा चत् उसका आकार बीज जैसा हो, परतु वह बोनेसे उगनेक यो यतासे
र हत हो जाता है। सव बीजोक अव ध तीन वषको स भ वत नह है, कुछ बीजोक स भव है।
(५) च व ान ारा खोजे गये य के ोरेका समाचारप भेजा उसे पढा है । उसमे उसका
नाम जो 'आ मा दे खनेका यं ' रखा है, वह यथाथ नह है। ऐसे कसी भी कारके दशनक ा यामे
आ माका समावेश होना यो य नही है। आपने भी उसे आ मा दे खनेका य नही समझा है, ऐसा जानते
ह, तथा प कामण या तैजस शरीर दखायी दे ने यो य है या कुछ सरा भास होना यो य है, उसे जानने-

ो ी ै ै ी ी ी े े ो ी ै
क आपक इ छा मालूम होती है। कामण या तैजस शरीर भी उस तरह दखायी दे ने यो य नही है।
परतु च , काश, वह य , मरनेवालेक दे ह और उसक छाया अथवा कसी आभास वशेषसे वैसा
दखायी दे ना स भव है। उस य के वषयमे अ धक ववरण स होनेपर यह बात ाय पूवापर
जाननेमे आयेगी। हवाके परमाणु के दखायी दे नेके वषयमे भी उनके लखनेक या दे खे हए व पक
ा या करनेमे कछ पयायातर लगता है। हवासे ग तमान कोई परमाणु कध ( ावहा रक परमाणु, कुछ
वशेष योगसे गोचर हो सकने यो य हो वह) गोचर होना सभव है । अभी उनक कृ त अ धक
स होनेपर वशेष पसे समाधान करना यो य लगता है।
७०२ राळज, ावण वद १४, र व, १९५२
वचारवान पु ष तो कैव यदशा होने तक मृ युको न य समीप हो
समझकर वृ करते ह।
भाई ी अनुपचद मलुकचदके त, ी भृगकु छ ।
ाय. कये हए कम क रह यभूत म त मृ युके समय रहती है। एक तो व चत् मु कलसे प र-
चत परमाथभाव, और सरा न य प र चत नजक पना आ द भावसे ढधमके हण करनेका भाव
ऐसे दो कारके भाव हो सकते है। स चारसे यथाथ आ म या वा त वक उदासीनता तो सव
जीवसमहको दे खते ए कसी वरल जीवको व चत् ही होती है, और सरा भाव अना दसे प र चत है,

५१८
वही ाय सब जीवोमे दे खनेमे आता है, और दे हात होनेके संगपर भी उसका ाव य दे खनेमे आता
है, ऐसा जानकर मृ युके समीप आनेपर तथा प प रण त करनेका वचार वचारवान पु ष छोडकर,
पहलेसे ही उस कारसे रहता है । आप वयं बा याके व ध- नषेधके आ हको वसजनवत् करके
अथवा उसमे अ तर प रणामसे उदासीन होकर, दे ह और त सबधी सबधका वारंवारका व ेप छोडकर,
यथाथ आ मभावका वचार करना यानगत करे तो वही साथक है। अ तम अवसरपर अनशना द या
सं तरा दक या सलेखना दक याएँ व चत् हो, या न हो तो भी जस जीवको उपयु भाव यानगत
है, उसका ज म सफल है, और वह मसे न ेयसको ा त होता है।
आपका, कतने ही कारणोसे बा या दके व ध- नषेधका वशेष यान दे खकर हमे खेद होता था
क इसमे काल तीत होनेसे आ माव था कतनी व थताका सेवन करती है, और या यथाथ व पका
वचार कर सकती है क जससे आपको उसका इतना अ धक प रचय खेदका हेतु नही लगता? जसमे
सहजमा उपयोग दया हो तो चल सकता है, उसमे 'जागृ त'कालका लगभग ब तसा भाग तीत होने
जैसा होता है, वह कस लये और उसका या प रणाम ? वह यो आपके यानमे नही आता ? इस
वषयमे व चत् कुछ ेरणा करनेक स भवत इ छा ई थी; परंतु आपक तथा प च और थ त
दखायी न दे नेसे ेरणा करते करते वृ को संकु चत कर लया था। आज भी आपके च मे इस बात-
को अवकाश दे ने यो य अवसर है। लोग मा वचारवान या स य समझ, इससे क याण नही है
अथवा बा - वहारके अनेक व ध- नपेधके कतृ वके माहा यम कुछ क याण नही है, ऐसा हमे तो
लगता है । यह कुछ एका तक से लखा है अथवा अ य कोई हेतु है, ऐसा वचार छोड़कर, जो कुछ
उन वचनोसे अतमुखवृ होनेक ेरणा हो उसे करनेका वचार रखना, यही सु वचार है।
लोकसमुदाय कुछ भला होनेवाला नही है, अथवा तु त नदाके य नाथ इस दे हक वृ
वचारवानके लये कत नही है। अतमुखवृ र हत बा याके व ध- नषेधमे कुछ भी वा त वक
क याण नही है । ग छा द भेदका नवाह करनेम, े नाना कारके वक प स करनेमे आ माको आवृत
करनेके बराबर है। अनेका तक माग भी स यग, एका त नजपदक ा त करानेके सवाय सरे कसी
अ य हेतुसे उपकारी नह है, ऐसा जानकर लखा है। वह मा अनुक पा बु से , नरा हसे, न कपटता-
से, नदभतासे और हताथ लखा है, ऐसा य द आप यथाथ वचार करगे तो गोचर होगा, और
वचनके हण अथवा ेरणा होनेका हेतु होगा। .
७०३
राळज, भादो सुद ८, १९५२
कतने ही ोका समाधान जाननेक अ भलाषा रहती है यह वाभा वक है।
" ाय सभी माग मे मनु यभवको मो का एक साधन मानकर उसक ब त शसा क है, और
जीवको जस तरह वह ा त हो अथात् उसक वृ हो उस तरह ब तसे माग मे उपदे श कया मालूम
होता है । जनो मागमे वैसा उपदे श कया मालूम नही होता। वेदो मागमे 'अपु क ग त नही
होतो', इ या द कारणोसे तथा चार आ मोका मा दसे वचार करनेसे मनु यको वृ हो ऐसा उपदे श
कया आ गोचर होता है। जनो मागमे उससे वपरीत दे खनेमे आता है, अथात् वैसा न
करते ए, जब भी जीव वैरा य ा त करे तो ससारका याग कर दे ना, ऐसा उपदे श दे खनेमे आता है,
इस लये ब तसे गृह था मको ा त कये बना यागी हो, और मनु यक वृ क जाये, यो क उनके
अ यागसे, जो कुछ उ हे सतानो प का सभव रहता वह न हो और उससे वशके नाश होने जैसा हो,
जससे लभ मनु यभव, जसे मो साधन प माना है, उसक वृ क जाती है, इस लये जन का वैसा

५१९
अ भ ाय यो हो ?" उसे जानने आ द वचारका लखा है, उसके समाधानका वचार करनेके लये
यहाँ लखा है।
लौ कक और अलौ कक (लोको र) से बडा भेद है, अथवा ये दोनो यां पर पर

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व वभाववाली है । लौ कक मे वहार (सासा रक कारणो) क मु यता है और अलौ कक द मे
परमाथक मु यता है । इस लये अलौ कक को लौ कक के फलके साथ ायः (बहत करके
मलाना यो य नह है।
जैन और अ य सभी माग मे ाय मनु यदे हका वशेष माहा य कहा है, अथात् मो साधनका
कारण प होनेसे उसे चताम ण जैसा कहा है, वह स य है। परतु य द उससे मो साधन कया तो ही
उसका यह माहा य है, नही तो वा त वक से पशुक दे ह जतनी भी उसक क मत मालूम नही होती।
___ मनु या द वशक वृ करना यह वचार मु यतः लौ कक का है, परतु उस दे हको पाकर
अव य मो साधन करना, अथवा उस साधनका न य करना, यह वचार मु यतः अलो कक का
है। अलौ ककद मे मनु या द वशक वृ करना, ऐसा नही कहा है इससे मनु या दका नाश करना
ऐसा उसमे आशय रहता है, यह नही समझना चा हये । लौ कक मे तो यु ा द अनेक सगोमे
हजारो मनु योके नाश हो जानेका समय आता है, और उसमे ब तसे वशर हत हो जाते है, परतु परमाथ
अथात अलौ कक मे वैसे काय नही होते क जससे ाय. वैसा होनेका समय आवे, अथात् यहाँ
अलौ कक द से नवरता, अ वरोध, मनु य आ द ा णयोक र ा और उनके वशका रहना, यह सहज
को बन जाता है, और मनु य आ द वशक वृ करनेका जसका हेतु है, ऐसी लौ कक इसके
वपरीत वैर, वरोध, मनु य आ द ा णयोका नाश और वशहीनता करनेवाली होती है।
अलौ कक को पाकर अथवा अलौ कक के भावसे कोई भी मनु य छोट उमरमे यागी हो
जाये तो उससे जसने गृह था म हण न कया हो उसके वशका, अथवा जसने गृह था म हण कया
हो और पु ो प न हई हो, उसके वशका नाश होनेका समय आये, और उतने मनु योका ज म कम हो,
जससे मो साधनक हेतुभूत मनु यदे हक ा तके रोकने जैसा हो जाये, ऐसा लौ कक से यो य
लगता है, पर तु परमाथ से वह ाय क पना मा लगता है।
कसीने भो पूवकालम परमाथमागका आराधन करके यहाँ मनु यभव ा त कया हो, उसे छोट
उमरसे ही याग-वैरा य ती तासे उदयमे आते है, वैसे मनु यको सतानको उ प होनेके प ात् याग
करनेका उपदे श करना, अथवा आ मके अनु ममे रखना, यह यथाथ तीत नही होता, यो क मनु यदे ह
तो बा द से अथवा अपे ासे मो साधन प है, ओर यथाथ याग-वैरा य तो मूलत मो साधन प
है. और वैसे कारण ा त करनेसे मनु यदे हक मो साधनता स होती थी, वे कारण ा त होनेपर उस
दे हसे भोग आ दमे पडनेका कहना, इसे मनु यदे हको मो साधन प करनेके समान कहा जाय या ससार
साधन प करनेके समान कहा जाय यह वचारणीय है।
वेदो मागमे जो चार आ मोक व था है वह एका त पसे नह है। वामदे व, शुकदे व,
जडभरतजी इ या द आ मके मके वना यागवृ से वचरे है। जनसे वैसा होना अश य हो, वे
प रणाममे यथाथ याग करनेका ल य रखकर आ मपूवक वृ कर तो यह सामा यत ठोक है, ऐसा
कहा जा सकता है। आयुक ऐसी णभगुरता है क वैसा म भी कसी वरलेको हो ा त होनेका
अवसर आये । कदा चत् वैसी आयु ा त ई हो तो भी वैसी वृ से अथात् वैसे प रणामसे यथाथ याग
हो ऐसा ल य रखकर वृ करना तो कसीसे हो बन सकता है।

५२०
ीमद् राजच
जनो मागका भी ऐसा एका त स ात नही है क चाहे जस उमरमे चाहे जस मनु यको
याग करना चा हये । तथा प स सग और स का योग होनेपर, उस आ यसे कोई पूवके सं कारवाला
अथात् वशेष वैरा यवान पु ष गृह था मको हण करनेसे पहले याग करे तो उसने यो य कया है, ऐसा
जन स ात ाय कहता है; यो क अपूव साधनोके ा त होने पर भोगा द भोगनेके वचारमे पड़ना,
और उसक ा तके लये य न करके अपने ा त आ मसाधनको गवाने जैसा करना, और अपनेसे जो
संत त होगी वह मनु यदे ह ा त करेगी, वह दे ह मो के साधन प होगी, ऐसी मनोरथ मा क पनामे
पड़ना, यह मनु यभवक उ मता र करके उसे पशुवत् करने जैसा है।
इ याँ आ द जसक शा त नही ई है, ानीपु षक मे अभी जो याग करनेके यो य नही
है, ऐसे कसी मद अथवा मोहवैरा यवान जीवको याग अपनाना श त ही है, ऐसा जन स ात कुछ
एका त पसे नही है।
थमसे ही जसे उ म स कारयु वैरा य न हो, वह पु ष कदा चत् प रणाममे यागका ल य
रखकर आ मपूवक वृ करे, तो उसने एकात भूल ही क है, और याग ही कया होता तो उ म
था, ऐसा भी जन स ात नही है । मा मो साधनका सग ा त होनेपर उस सगको जाने नही
दे ना चा हये, ऐसा जन का उपदे श है।
उ म स कारवाले पु प गृह था म अपनाये बना याग कर, तो उससे मनु यक वृ क जाये,
और उससे मो साधनके कारण क जाय, यह वचार करना अ प से यो य दखायी दे , परतु तथा-
प याग-वरा यका योग ा त होनेपर, मनु यदे हक सफलता होनेके लये, उस योगका अ म तासे
वल बके बना लाभ ा त करना, वह वचार तो पूवापर अ व और परमाथ से स कहा जा
सकता है। आयु स पूण है और अपनेको सत त होगी तो वे मो साधन करेगी ऐसा न य करके,
संत त होगी ही ऐसा मानकर, पुनः ऐसा ही याग का शत होगा, ऐसे भ व यको क पना करके आ म-
पूवक वृ करनेको कौनसा वचारवान एका तसे यो य समझे ? अपने वैरा यमे मंदता न हा, और
ानीपु ष जसे याग करने यो य समझते हो, उसे अ य मनोरथ मा कारण के अथवा अ न त कारणो
के वचारको छोडकर न त और ा त उ म कारणोका आ य करना, यही उ म है, और यही
मनु यभवक साथकता है, बाक वृ आ दक तो क पना है। स चे मो मागका नाश कर मा मनु य-

े े ै ो ो े
क वृ करनेक क पना करने जैसा कर तो हो सके।
इ या द अनेक कारणोसे परमाथ से जो उपदे श दया है, वही यो य दखायी दे ता है। ऐसे
ो रमे वशेषत. उपयोगको े रत करना क ठन पडता है। तो भी स ेपमे जो कुछ लखना बन
पाया, उसे उदोरणावत् करके लखा है।
जहाँ तक हो सके वहाँ तक ानीपु षके वचनोको लौ कक आशयमे न लेना, अथवा अलौ कक
से वचारना यो य है, और जहाँ तक हो सके वहाँ तक लौ कक ो रमे भी वशेष उपकारके
वना पडना यो य नही है । वैसे सग से कई बार परमाथ को ु ध करने जैसा प रणाम आता है।
वडके बड़ब या पीपलके गोदे का र ण भी कुछ उनके वशक वृ करनेके हेतुसे उ हे अभ य
कहा है, ऐसा समझना यो य नही है। उनमे कोमलता होती है, जससे उनमे अनतकायका सभव है, तथा
उनके बदले सरी अनेक व तुओसे न पापतासे रहा जा सकता है, फर भी उ हीको अगीकार करनेक
इ छा रखना यह वृ क अ त तु छता है; इस लये उ हे अभ य कहा है, यह यथाथ लगने यो य है।
पानीक बूंदमे असं यात जीव ह, यह बात स ची है। पर तु उपयु बडके बड़ब े आ दके जो

५२१
कारण ह, वैसे कारण इसम नह ह, इस लये इसे अभ य नही कहा है । य प वैसे पानीको काममे लेनेक
भी आ ा है, ऐसा नही कहा, और उससे भी अमुक पाप होता है, ऐसा उपदे श है।
'पहलेके प मे बीजके स चत्-अ चत् स ब धी समाधान लखा है, वह कसी वशेष हेतुसे सं त
कया है । पर परा ढके अनुसार लखा है, तथा प उसम कुछ वशेष भेद समझमे आता है, उसे नही
लखा है। लखने यो य न लगनेसे नही लखा है । यो क वह भेद वचार मा है, और उसमे कुछ वैसा
उपकार ग भत हो ऐसा नह द खता । ।
नाना कारके ो रोका ल य एक मा आ माथके लये हो तो आ माका ब त उपकार होना
स भव है।'
७०४
राळज, भादो सुद ८, १९५२
लौ कक और अलौ कक मे बडा भेद है। लौ कक मे वहारक मु यता है, और
अलौ कक मे परमाथक मु यता है ।
जैन और सरे सब माग मे मनु यदे हक वशेषता एव अमू यता कही है, यह स य है; पर तु य द
उसे मो साधन बनाया जा सके तो ही उसक वशेषता एवं अमू यता है।
____ मनु य आ द वंशको वृ करना यह वचार लौ कक का है, पर तु मनु यको यथात य योग
होनेपर क याणका अव य न य करना तथा ा त करना यह वचार अलौ कक का है ।
य द ऐसा ही न य कया गया हो क मसे ही सवसगप र याग करना, तो वह यथा थत
वचार नही कहा जा सकता। यो क पूवकालमे क याणका आराधन कया है ऐसे कई उ म जोव लघु
वयसे ही उ कृ यागको ा त ए ह। इसके ात पं शुकदे वजी, जडभरत आ दके सग अ य दशनमे
ह। य द ऐसा ही नयम बनाया हो क गृह था मका आराधन कये बना याग होता ही नही है तो
फर वैसे परम उदासीन पु षको, यागका नाश कराकर, कामभोगमे े रत करने जैसा उपदे श कहा
जाये, और मो साधन करने प जो मनु यभवक उ मता थी, उसे र कर, साधन ा त होनेपर, ससार-
साधनका हेतु कया ऐसा कहा जाये।
और एकातसे ऐसा नयम बनाया हो क चया म, गृह था म आ दका मसे इतने इतने वष
तक सेवन करनेके प ात् यागी होना तो वह भी वत बात नही है । तथा प आयु न हो तो यागका
अवसर ही न आये।
____ और य द अपु पसे याग न कया जाये, ऐसा मान तो तो कसीको वृ ाव था तक भी पु
नही होता, उसके लये या समझना? '
जैनमागका भी ऐसा एकात स ात नह है क चाहे जस अव थामे चाहे जैसा मनु य याग करे,
तथा प स सग और स का योग होने पर वशेष वैरा यवान पु ष स पु पके आ यसे लघु वयमे
याग करे तो इससे उसे वैसा करना यो य नही था ऐसा जन स ात नही है, वैसा करना यो य है ऐसा
जन स ात है, यो क अपूव साधन के ा त होनेपर भोगा द साधन भोगनेके वचारमे पडना और
उसक ा तके लये य न करके उसे अमुक वष तक भोगना हो, यह तो जस मो साधनसे मनु यभवको
उ मता थी, उसे र कर पशुवत् करने जैसा होता है ।
१ दे ख आक ७०१-४॥

५२२
जसक इ याँ आ द शांत नही ई, ानीपु षक मे अभी जो याग करनेके यो य नही है,
ऐसे मद वैरा यवान अथवा मोहवैरा यवानके लये यागको अपनाना श त ही है, ऐसा कुछ जन स ात
नही है।
पहलेसे ही जसे स सगा दक योग न हो, तथा पूवकालके उ म सं कारयु वैरा य न हो वह
पु ष कदा चत् आ मपूवक वृ करे तो इससे उसने एकात भूल क है, ऐसा नह कहा जा सकता,
य प उसे भी रात दन उ कृ यागक जाग त रखते ए गृह था म आ दका सेवन करना श त है।
__ उ म स कारवाले पु ष गृह था मको अपनाये बना याग कर, उससे मनु य ाणीक वृ क
जाये, और उससे मो साधनके कारण क जाये, यह वचार करना अ प से यो य दखायी दे , यो क
य मनु यदे ह जो मो साधनका हेतु होती थी उसे रोककर पु ा दक क पनामे पडकर, फर वे मो -

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साधनका आराधन करगे ही ऐसा न य करके उनक उ प के लये गह था ममे पडना, और फर
उनक उ प होगी यह भी मान लेना और कदा चत् वे सयोग हए तो जैसे अभी पु ो प के लये इस
पु षको कना पड़ा था वैसे उसे भी कना पडे, इससे तो कसीको उ कृ याग प मो साधन ा त
होनेके योगको न आने दे ने जैसा हो।
और कसी कसी उ म सं कारवान पु षके गह था म ा तके पूवके यागसे वंशवृ न हो
ऐसा वचार कर तो वैसे उ म पु षके उपदे शसे अनेक जीव जो मनु य आ द ा णयोका नाश करनेसे
नही डरते, वे उपदे श पाकर वतमानमे उस कार मनु य आ द ा णयोका नाश करनेसे यो न क ? तथा
शुभवृ होनेसे फर मनु यभव यो न ा त कर? और इस तरह मनु यका र ण तथा वृ भी सभव है।
___ अलौ कक मे तो मनु यक हा न-वृ आ दका मु य वचार नही है, क याण-अक याणका
मु य वचार है । एक राजा य द अलौ कक ा त करे तो अपने मोहसे हजारो मनु य ा णयोका
यु मे नाश होनेका हेतु दे खकर ब त बार बना कारण वैसे यु उ प न करे, जससे ब तसे मनु यो-
का बचाव हो और उससे वशवृ होकर ब तसे मनु य बड़े ऐसा वचार भी यो न कया जाये ?
इं याँ अतृ त हो, वशेष मोह धान हो, मोहवैरा यसे मा णक वैरा य उ प आ हो और
यथात य स सगका योग न हो तो उसे द ा दे ना ाय श त नही कहा जा सकता, ऐसा कहे तो वरोध
नही। पर तु उ म सं कारयु और मोहाध, ये सब गृह था म भोगकर ही याग कर ऐसा तब ध
करनेसे तो आयु आ दक अ नय मतता, योग ा त होनेपर उसे र करना इ या द अनेक वरोधोसे
मो साधनका नाश करने जैसा होता है, और जससे उ मता मानी जाती थी वह न आ, तो फर
मनु यभवक उ मता भी या है ? इ या द अनेक कारसे वचार करनेसे लौ कक र होकर
अलौ कक से वचार-जागृ त होगी।
__ वडके बडबडे या पीपलके गोदे क वशव के लये उनका र ण करनेके हेतुसे कुछ उ ह अभ य
नही कहा है। उनमे कोमलता होती है, तव अन तकायका स भव है। इससे तथा उनके बदले सरी
अनेक व तुओसे चल सकता है, फर भी उसीका हण करना, यह वृ क अ त ु ता है, इस लये अभ य
कहा है, यह यथात य लगने यो य है।
पानीक बूंदमे अस यात जीव ह, यह बात स चो है, पर तु वैसा पानी पीनेसे पाप नही है ऐसा
नह कहा। फर उसके बदले गृह थ आ दको सरी व तुसे चल नही सकता, इस लये अगीकार कया
जाता है, पर तु साधुको तो वह भी लेनेक आ ा ाय नही द है।

५२३
जब तक हो सके तब तक ानीपु षके वचनोको लौ कक के आशयमे न लेना यो य है, और
अलौ कक से वचारणीय है। उस अलौ कक के कारण य द स मुख जीवके दयमे अ कत करने-
को श हो तो अ कत करना, नही तो इस वषयने अपना वशेष ान नही है ऐसा बताना तथा मो -
मागमे केवल लौ कक वचार नही होता इ या द कारण यथाश बताकर स भ वत समाधान करना, नही
तो यथास भव से सगसे र रहना, यह ठ क है।
७०५
वडवा, भादो सुद ११, गु , १९५२
आज दन पयत इस आ मासे मन, वचन और कायाके योगसे आप स ब धी जो कुछ अ वनय,
आसातना या अपराध आ हो उसक शु अतःकरणसे न ताभावसे म तक झुकाकर दोनो हाथ जोडकर
मा मांगता ँ। आपके समीपवासी भाइयोसे भी उसी कारसे मा मांगता है।
७०६
वडवा ( तभतीथके समीप),
भादो सुद ११, गु , १९५२
शुभे छास प आय केशवलालके त, लीबडी ।
सहजा म व पसे यथायो य ा त हो।
तीन प ा त ए है। 'कुछ भी वृ रोकते ए, उसक अपे ा वशेष अ भमान रहता है,
तथा 'तृ णाके वाहमे चलते ए बह जाते ह, और उसक ग तको रोकनेक साम य नही रहती।'
इ या द ववरण तथा ' मापना और ककटो रा सीके 'योगवा स ' स ब धी सगक , जगतका म र
करनेके लये वशेषता' लखी यह सब ववरण पढा है। अभी लखनेमे वशेष उपयोग नही रह सकता
जससे प क प ँच भी लखनेसे रह जाती है। सं ेपमे उन प ोका उ र न न ल खतसे वचारणीय है।
(१) वृ आ दका सयम अ भमानपूवक होता हो तो भी करना यो य है। वशेषता इतनी है क
उस अ भमानके लये नरतर खेद रखना । वैसा हो तो मशः वृ आ दका सयम हो और त स ब धी
अ भमान भी यून होता जाय ।।
(२) अनेक थलोपर वचारवान पु षोने ऐसा कहा है क ान होनेपर काम, ोध, तृ णा आ द।
भाव नमुल हो जाते ह, यह स य है। तथा प उन वचनोका ऐसा परमाथ नही है क ान होनेसे पहले वे ।
मद न पड या कम न हो । य प उनका समूल छे दन तो ानसे होता है, पर तु जब तक कषाय आ दक
मदता या यूनता न हो तब तक ान ायः उ प ही नही होता। ान ा त होने म वचार मु य साधन
है, और उस वचारके वैरा य (भोगके त अनास ) तथा उपशम (कषाय आ दक ब त ही मदता,
उनके त वशेष खेद) ये दो मु य आधार ह। ऐसा जानकर उसका नरतर ल य रखकर वैसी प रण त
करना यो य है।
स पु षके वचनके यथाथ हणके वना ायः वचारका उ व नही होता, और स पु षके वचनका

ी ो ै ो ो ी ै ो
यथाथ हण तभी होता है जब स पु षको 'अन य आ य भ ' प रणत होती है, यो क स पु षक
ती त ही क याण होनेमे सव म न म है । ाय ये कारण पर पर अ यो या य जैसे ह । कही कसी-
को मु यता है, और कही कसीको मु यता है, तथा प ऐसा तो अनुभवमे आता है क जो स चा मुमु ु
हो, उसे स पु षक 'आ यभ ', अहभाव आ दके छे दनके लये ओर अ पकालमे वचारदशा प रण मत
होनेके लये उ कृ कारण प होती है।

५२४
भोगमे अनास हो, तथा लौ कक वशेषता दखानेको बु कम क जाये तो तृ णा नबल होती
जाती है। लौ कक मान आ दक तु छता समझमे आ जाये तो उसक वशेषता नही लगती, और इससे
उसक इ छा सहजमे मद हो जाती है, ऐसा यथाथ भा सत होता है। ब त ही मु कलसे आजी वका चलती
हो तो भी मुमु ुके लये वह पया त है, यो क वशेषक कुछ आव यकता या उपयोग (कारण) नही है,
ऐसा जब तक न य न कया जाये तब तक तृ णा नाना कारसे आवरण कया करती है। लौ कक
वशेषतामे कुछ सारभूतता नही है, ऐसा न य कया जाये तो मु कलसे आजी वका जतना मलता हो
तो भी तृ त रहती है। म कलसे आजी वका जतना न मलता हो तो भी मुमु ुजीव ाय आत यान न
होने दे , अथवा होनेपर वशेष खेद करे, और आजी वकामे कमीको यथाधम पूण करनेक मद क पना
करे, इ या द कारसे बताव करते ए तृ णाका पराभव ( य) होना यो य द खता है।
(३) ब धा स पु षके वचनसे आ या मक शा भी आ म ानका हेतु होता है, यो क परमाथ
आ मा शा मे नही रहता, स पु षमे रहता है । मुमु ुको य द कसी स पु षका आ य ा त आ हो तो
ाय ानक याचना करना यो य नही है, मा तथा प वैरा य उपशम आ द ा त करनेका उपाय
करना यो य है। वह यो य कारसे स होनेपर ानीका उपदे श सुलभतासे प रण मत होता है, और
यथाथ वचार और ानका हेतु होता है।
(४) जब तक कम उपा धवाले े मे आजी वका चलतो हो तब तक वशेष ा त करनेक क पनासे
मुमु ुको, कसी एक वशेष अलौ कक हेतुके बना अ धक उपा धवाले े मे जाना यो य नही है, यो क
उससे ब तसी स यॉ मद पड़ जाती है, अथवा वधमान नही होती।
(५) 'योगवा स ' के पहले दो करण और वैसे थोका मुमु ुको वशेष यान करना यो य है।
७०७ वडवा, भादो सुद ११, गु , १९५२
रं आ दमे होनेवाले भासके वषयमे पहले बबई प मला था। अभी उस वपयके ववरण-
का सरा प मला है । वह वह भास होना स भव है, ऐसा कहनेमे कुछ समझके भेदसे ा याभेद होता
है । ी वैजनाथजीका आपको समागम है, तो उनके ारा उस मागका यथाश वशेष पु षाथ होता हो
तो करना यो य है। वतमानमे उम मागके त हमारा वशेष उपयोग नही रहता है। और प ारा
ाय उस मागका वशेष यान कराया नही जा सकता, जससे, आपको ी वैजनाथजीका समागम है
तो यथाश उस समागमका लाभ लेनेक वृ रख तो आप नही है।
__आ माको कुछ उ वलताके लये उसके अ त व तथा माहा य आ दक ती तके लये तथा
आ म ानक अ धका रताके लये वह साधन उपकारी है। इसके सवाय ाय अ य कारसे उपकारी
नही है, इतना यान अव य रखना यो य है । यही वनती।।
सहजा म व पसे यथायो य णाम व दत हो ।
७०८
राळज, भादो, १९५२
तोय जेठ सुद १, श नको आपको लखा प यानमे आये तो यहाँ भेज xxx' जैसे चलता
आया है, वैसे चलता आये, और मुझे कसी तवधसे वृ करनेका कारण नही है, ऐसा भावाथ आपने
लखा, उस वषयमे जाननेके लये स ेपसे नीचे लखता ँ -
जैनदशनक प तसे दे खते ए स य दशन और वेदातक प तसे दे खते ए केवल ान हमे
स भव है । जैनमे केवल ानका जो व प लखा हे, मा उसीको समझना मु कल हो जाता है। फर
१. यहां अ र ख डत हो गये ह।

५२५
वतमानमे उस ानका उसीने नषेध कया है, जससे त स बंधी य न करना भी सफल दखायो
नही दे ता।.
जैन ेसगमे हमारा अ धक नवास आ है, तो कसी भी कारसे उस मागका उ ार हम जैस
ारा वशेषत हो सकता है, यो क उसका व प वशेषतः समझमे आया हो, इ या द । वतमानमे जैन-
दशन इतना अ धक अ व थत अथवा वपरीत थ तमे दे खनेमे आता है, क उसमेसे मानो जन को
xxx x १ गया है, और लोग माग पत करते ह। बा झझट ब त बढा द है, और अतमागका
ान ायः व छे द जैसा हआ है। वेदो मागमे दो सौ चार सौ बरसमे कोई कोई महान आचाय ए
दखायी दे ते ह क जससे लाखो मनु योको वेदो प त सचेत होकर ा त ई हो। फर साधारणतः
कोई कोई आचाय अथवा उस, मागके जाननेवाले स पु ष इसी तरह आ करते ह, और जैनमागमे ब त
वष से वैसा आ मालूम नही होता । जैनमागमे जा भी ब त थोडी रह गयी है और उसमे सकड़ो भेद
है । इतना ही नही, क तु 'मूलमाग' के स मुख होनेक बात भी उनके कानमे नही पडती, और उपदे शकके
यानमे नही है, ऐसी थ त है। इस लये च मे ऐसा आया करता है क य द उस मागका अ धक
चार हो तो वैसे करना, नही तो उसमे रहनेवाली जाको मूलल य पसे े रत करना । यह काम ब त

ै ै ो े औ ै े े े
वकट है । तथा जैनमागको वयमेव समझना और समझाना क ठन है । उसे समझाते ए अनेक त-
बधक कारण आ खड़े हो, ऐसी थ त है। इस लये वैसी वृ करते ए डर लगता है। उमके साथ-साथ
ऐसा भी रहता है क य द यह काय इस कालमे हमारेसे कुछ भी बने तो बन सकता है, नही तो अभी
तो मूलमागके स मुख होनेके लये सरेका य न काम आये वैसा दखायी नही दे ता। ाय. मूलमाग
सरेके यानमे नही है, तथा उसका हेतु ातपूवक उपदे श करनेमे परम ुत आ द गुण अपे त ह, एवं
ब तसे अतरग गुण अपे त ह, वे यहाँ ह, ऐसा ढ भास होता है।
___इस तरह य द मूलमागको काशमे लाना हो तो काशमे लानेवालेको सवसगप र याग करना
यो य है, यो क उससे यथाथ समथ उपकार होनेका समय आता है। वतमान दशाको दे खते ए, स ागत
कम पर डालते ए कुछ समयके बाद उसका उदयमे आना स भव है। हमे सहज व प ान है, जससे
योगसाधनक इतनी अपे ा न होनेसे उसमे वृ नही क , तथा वह सवसगप र यागमे अथवा वशु
दे शप र यागमे साधने यो य है। इससे लोगोका ब त उपकार होता है, य प वा त वक उपकारका कारण
तो आ म ानके बना सरा कोई नह है।
___ अभी दो वष तक तो वह योगसाधन वशेषतः उदयमे आये वैसा दखायी नही दे ता, इस लये ।।
इसके बादक क पना क जाती है, और तीनसे चार वष उस मागमे तीत कये जाय तो ३६व वषमे ।
सवंसगप र यागो उपदे शकका समय आये, और लोगोका ेय होना हो तो हो।
छोट उमरमे मागका उ ार करनेक अ भलाषा रहा करती थी, उसके बाद ानदशा आनेपर
मशः वह उपशा त जैसी हो गयी, परतु कोई कोई लोग प रचयमे आये थे, उ हे कुछ वशेषता भा सत
होनेसे क चत् मूलमागपर ल य आया था, और इस तरफ तो सैकडो या हजारो मनु य समागममे आये
थे जनमेसे लगभग सौ मनु य कुछ समझदार और उपदे शकके त आ थावाले नकलगे । इस परसे ऐसा
दे खनेमे आया क लोग तरनेके इ छु क वशेष ह, परतु उ हे वैसा योग मलता नही है। य द सचमुच
उपदे शक पु षका योग बने तो ब तसे जीव मूलमाग ा त कर सकते ह, और दया आ दका वशेष उ ोत
हो सकता है। ऐसा दखायी दे नेसे कुछ च मे आता है क यह काय कोई करे तो ब त अ छा, परतु
१ यहां अ र ल डत हो गये है।

५२६
नजर दौडानेसे वैसा पु ष यानमे नही आता, इस लये लखनेवालेक ओर ही कुछ नजर जाती है, परतु
लखनेवालेका ज मसे ल य ऐसा है क इसके जैसा एक भी जो खमवाला पद नही है, और जब तक अपनी
उस कायक यथायो यता न हो तब तक उसक इ छा मा भी नही करनी चा हये, और ब त करके
अभी तक वैसा ही वतन कया गया है। मागका य कं चत् व प कसी- कसीको समझाया है, तथा प
कसीको एक भी तप च खान दया नही है, अथवा तुम मेरे श य हो और हम गु ह, ऐसा कार
ायः द शत आ नही है। कहनेका हेतु यह है क सवसंगप र याग होनेपर उस कायक वृ सहज-
वभावसे उदयमे आये तो करना, ऐसी मा क पना है। उसका वा तवमे आ ह नही है, मा अनुकंपा
आ द तथा ान भाव है, इससे कभी-कभी वह वृ उ वत होती है, अथवा अ पाशमे वह वृ अतरमे
है, तथा प वह ववश है । हमारी धारणाके अनुसार सवसंगप र यागा द हो तो हजारो मनु य मूलमागको
ा त कर, और हजारो मनु य उस स मागका आराधन करके स तको ा त कर, ऐसा हमारे ारा होना
स भव है। हमारे सगमे अनेक जीव यागवृ वाले हो जाये ऐसा हमारे अतरमे याग है। धम था पत
करनेका मान बड़ा है, उसक पृहासे भी कदा चत् ऐसी वृ रहे, पर तु आ माको ब त बार कसकर
दे खनेसे उसको स भावना वतमान दशामे कम ही द खती है, और क चत् स ामे रही होगी तो वह
ीण हो जायेगी, ऐसा अव य भा सत होता है, यो क यथायो यताके बना, दे ह छू ट जाये वैसी ढ
क पना हो तो भी, मागका उपदे श नही करना, ऐसा आ म न य न य रहता है। एक इस बलवान
कारणसे प र ह आ दका याग करनेका वचार रहा करता है। मेरे मनमे ऐसा रहता है क वेदो धम
' का शत या था पत करना हो तो मेरी दशा यथायो य है। परतु जनो धम था पत करना हो तो
अभी तक उतनी यो यता नही है, फर भी वशेष यो यता है ऐसा लगता है।
७०९
राळज, भादो, १९५२
१ हे नाथ | या तो धम त करनेक इ छा सहजतासे शात हो जाओ; या फर वह इ छा
अव य काय प हो जाओ। अव य काय प होना ब त कर दखाई दे ता है, यो क छोट छोट बातोमे
मतभेद ब त ह, और उनक जड ब त गहरी ह। मूलमागसे लोग लाखो कोस र ह, इतना ही नही
पर तु मूलमागक ज ासा उनमे जगानी हो, तो भी द घकालका प रचय होनेपर भी उसका जगना
क ठन हो ऐसी उनक रा ह आ दसे जड धानदशा हो गई है।
२. उ तके साधनोक मृ त करता ँ :-
बोधबीजके व पका न पण मूलमागके अनुसार जगह-जगह हो ।
जगह जगह मतभेदसे कुछ भी क याण नह है, यह बात फैले ।
य स क आ ासे धम है, यह बात यानमे आये।
ानुयोग-आ म व ाका काश हो ।
याग वैरा यक वशेषतापूवक साधु वचर।
नवत व काश ।
साधुधम काश ।
ावकधम काश।
वचार।
अनेक जीवोको ा त ।
५२७
आ मा
ानापे ासे सव ापक, स चदानद ऐसा म आ मा एक ँ, ऐसा वचार करना, यान करना।
नमल, अ य त नमल, परमशु , चैत यधन, गट आ म व प है।
सबको कम करते करते जो अबा य अनुभव रहता है वह आ मा है।
जो सबको जानता है वह आ मा है ।
जो सब भावोको का शत करता है वह आ मा है ।
उपयोगमय आ मा है।
अ ाबाध समा ध व प आ मा है।
आ मा है, आ मा अ य त गट है, यो क वसवेदन गट अनुभवमे है।
वह आ मा न य है, अनु प और अ मलन व प होनेसे ।
ा त पसे परभावका कता है।
उसके फलका भोका है।
भान होनेपर वभावप रणामी है।
सवथा वभावप रणाम वह मो है।
स , स सग, स शा , स चार और सयम आ द उसके साधन ह।
आ माके अ त वसे लेकर नवाण तकके पद स चे ह, अ यत स चे ह, यो क गट अनुभवमे
आते ह।
ा त पसे आ मा परभावका कता होनेसे शुभाशुभ कमक उ प होती है।
कम सफल होनेसे उस शुभाशुभ कमको आ मा भोगता है।
उ कृ शुभसे उ कृ अशुभ तकके सव यूना धक पयाय भोगने प े अव य है।
नज वभाव ानमे केवल उपयोगसे, त मयाकार, सहज वभावसे, न वक प पसे आ मा जो
प रणमन करता है, वह केवल ान है।
तथा प ती त पसे जो प रणमन करता है वह स य व है।
नरतर वह ती त रहा करे, उसे ा यक स य व कहते ह।
व चत् मद, व चत् तीन, व चत् वसजन, व चत् मरण प, ऐसी ती त रहे उसे योपशम
स य व कहते है।
उस ती तको जव तक स ागत आवरण उदयमे नहो आया तब तक उपशम स य व कहते ह।
आ माको जब आवरण उदयमे आये तव वह उस ती तसे गर पड़े उसे सा वादन स य व
कहते ह।
अ यत ती त होनेके योगमे स ागत अ प पु लका वेदन जहां रहा है, उसे वेदक स य व
कहते ह।
तथा प ती त होनेपर अ यभाव स ब धी अह व-मम व आ दका, हष-शोकका मशः य
होता है।
मन पी योगमे तारत यस हत जो कोई चा रमक आराधना करता है वह स पाता है। और
जो व प थरताका सेवन करता है वह वभाव थ त ा त करता है।

५२८
नरतर व पलाभ, व पाकार उपयोगका प रणमन इ या द वभाव अ तराय कमके यसे गट
होते ह।
जो केवल वभावप रणामी ान है वह केवल ान है केवल ान है।
७११
राळज, भादो, १९५२
बो , नैया यक, सा य, जैन और मीमासा ये पाँच आ तक दशन अथात् बंध-मो आ द भावको
वीकार करनेवाले दशन ह। नैया यकके अ भ ाय जैसा ही वैशे षकका अ भ ाय है, सा य जैसा ही
योगका अ भ ाय है-इनमे सहज भेद है, इस लये उन दशनोका अलग वचार नही कया है। पूव और
उ र, ये मीमासादशनके दो भेद ह। पूवमीमासा और उ रमीमासामे वचारभेद वशेष है, तथा प
मीमासा श दसे दोनोका बोध होता है, इस लये यहाँ उस श दसे दोनो समझ। पूवमीमासाका 'जै मनी'
ओर उ रमीमासाका 'वेदात' ये नाम भी स है।
बो और जैनके सवाय बाक के दशन वेदको मु य मानकर चलते है, इस लये वेदा त दशन
ह और वेदाथको का शत कर अपने दशनको था पत करनेका य न करते ह। बौ और जैन
वेदा त नही ह, वत दशन ह।
आ मा आ द पदाथको न वीकार करनेवाला ऐसा चावाक नामका छठा दशन है।
वौ दशनके मु य चार भेद ह-१ सौ ा तक, २ मा य मक, ३ शू यवाद और ४ व ानवाद ।
वे भ - भ कारसे भावोक व था मानते ह।
जैनदशनके सहज कारातरसे दो भेद ह- दगबर और ेताबर।
पाँचो आ तक दशनोको जगत अना द अ भमत है।
वौ , सा य, जैन और पूवमीमासाके अ भ ायसे स कता ऐसा कोई ई र नही है।

ै े े े ई ै े े े े
नैया यकके अ भ ायसे तट थ पसे ई र कता है । वेदातके अ भ ायसे आ मामे जगत ववत प
अथात् क पत पसे भा सत होता है, और इस तरहसे ई रको क पत पसे कता माना है।
योगके अ भ ायसे नयता पसे ई र पु ष वशेष है।
बौ के अ भ ायसे नकाल और व तु व प आ मा नही है, णक है । श यवाद बौ के अ भ-
ायसे व ान मा है, और व ानवाद बौ के अ भ ायसे .ख आ द त व ह । उनमे व ान क ध
णक पसे आ मा है।
नैया यकके अ भ ायसे सव ापक ऐसे अस य जीव है । ई र भी सव ापक हे । आ मा आ दको
मनके सा यसे ान उ प होता है।
___सा यके अ भ ायसे सव ापक ऐसे अस य आ मा ह। वे न य, अप रणामी और च मा -
व प है।
जैनके अ भ ायसे अनत आ मा ह, येक भ है। ान, दशन आ द चेतना व प,
न य और प रणामी येक आ मा अस यात दे शी वशरीरावगाहवती माना है ।
पूवमोमासाके अ भ ायसे जीव अस य ह, चेतन है।
उ रमोमासाके अ भ ायसे एक ही आ मा सव ापक ओर स चदानदमय नकालाबा य है।
७१२ ___ आणद, भादो वद १२, र व, १९५२
प मला है। मनु य आ द ाणीक वृ ' के स ब धमे आपने जो लखा था, वह
जस फारणसे लसा गया था, उस कारणको मलनेके समय सुना था। ऐसे से आ माथ स

५२९
ही होता, अथवा वृथा काल ेप जैसा होता है; इस लये आ माथका ल य होनेके लये, आपको वैसे
के त अथवा वैसे सगोके त उदासीन रहना यो य है, ऐसा लखा था। तथा वैसे का उ र
लखने जैसी यहाँ वतमान दशा ायः नही है, ऐसा लखा था । अ नय मत और अ प आयुवाली इस दे हमे
मा माथका ल य सबसे थम कत है।
७१३
आणद, आसोज, १९५२
आ तक ऐसे मूल पाँच दशन आ माका न पण करते ह, उनमे भेद दे खनेमे आता है, उसका
समाधान :-
दन त दन जैनदशन ीण होता आ दे खनेमे आता है, और वधमान वामीके बाद थोड़े ही
वष मे उसमे नाना कारके भेद ए दखायी दे ते ह, इ या दके या कारण ह ?
ह रभ आ द आचाय ने नवीन योजनाक भाँ त ुत ानको उ त क है ऐसा दखायी दे ता है,
परत लोकसमुदायमे जैनमागका अ धक चार आ दखायी नही दे ता, अथवा तथा प अ तशय स प
धम वतक पु षका उस मागमे उ प होना कम दखायी दे ता है, उसके या कारण ह ?
- अब वतमानमे उस मागक उ त होना स भव है या नही ? और हो तो कस कस तरह होनी
स भव द खती है, अथात् उस बातका, कहाँसे उ प होकर, कस तरह, कस ारसे और कस थ तमे
चार होना स भ वत द खता है ? और फर वधमान वामीके समयक तरह वतमानकालके योग आ दके
अनसार उस धमका उदय हो ऐसा या द घ से स भव है ? और य द स भव हो तो वह कस कस
कारणसे स भव है?
जो जैनसू अभी वतमानमे ह, उनमे उस दशनका व प ब त अधूरा रहा आ दे खनेमे आता है,
वह वरोध कस तरह र हो?
उस दशनक परपरामे ऐसा कहा गया है क वतमानकालमे केवल ान नही होता, और केवल ान-
का वषय सव कालमे लोकालोकको गुणपयायस हत जानना माना है, या वह यथाथ मालूम होता
है ? अथवा उसके लये वचार करनेपर कुछ नणय हो सकता है या नही ? उसक ा यामे कुछ अतर
दखायी दे ता है या नही ? और मूल ा याके अनुसार कुछ सरा अथ होता हो तो उस अथके अनुसार
वतमानमे केवल ान उ प हो या नही ? और उसका उपदे श कया जा सके या नही ? तथा सरे
ानोक जो ा या कही गयी हे वह भी कुछ अतरवाली लगती है या नही ? और वह कन कारणोसे ?
धमा तकाय, अधमा तकाय, आ मा म यम अवगाही, संकोच- वकासका भाजन, महा वदे ह
आद े क ा या-वे कुछ अपूव री तसे या कही ई री तसे अ य त बल माणस हत स होने
यो य मालूम होते ह या नही ?
ग छके मतमतातर ब त ही तु छ तु छ वषयोमे बलवान आ ही होकर भ भ पसे
दशनमोहनीयके हेतु हो गये ह, उसका समाधान करना ब त वकट है । यो क उन लोगोक म त वशेष
आवरणको ा त ए वना इतने अ प कारणोमे बलवान आ ह नही होता।
अ वर त, दे श वर त, सव वर त इनमेसे कस आ मवाले पु षसे वशेष उ त हो सकना स भव
है ? सव वर त बहतसे कारणोमे तबधके कारण वृ नही कर सकता, दे श वर त और अ वर तक
तया प ती त होना मु कल है, और फर जैनमागमे भी उस री तका समावेश कम है। ये वक प
हमे कस लये उठते हे ? और उ हे शात कर दे नेका च है तो या उसे शांत कर द? [अपूण]

५३०
ॐ जनाय नमः
भगवान जन के कहे ए लोकस थान आ द भाव आ या मक से स होने यो य है ।

ी े े े ै ै
च वत आ दका व प भी आ या मक से समझमे आने जैसा है।
मनु यक ऊँचाईके माण आ दमे भी वैसा सभव है।
काल माण आ द भी उसी तरह घ टत होते है।
नगोद आ द भी उसी तरह घ टत होने यो य ह।
स व प भी इसी भावसे न द यासनके यो य है।
-सं ा त होने यो य मालूम होता है । .
लोक श दका अथ आ या मक है।
अनेकांत, श दका अथ
' सव श दको समझना ब त गूढ है ।
धमकथा प च र आ या मक प रभाषासे अलंकृत लगते है ।
। जबु प आ दका वणन भी अ या म प रभाषासे न पत कया आ लगता है।
अती य ानके भगवान जन ने दो भेद कये ह।
। दे श य ,
वह दो भेदसे-
अव ध,
मन.पयाय ।
इ छत पसे अवलोकन करता आ आ मा इ यके अवलबनके बना अमुक मयादाको जाने, वह
अव ध है। , ,
अ न छत होनेपर भी मान सक वशु के बल ारा जाने, वह मन.पयाय है।
सामा य वशेष चैत या म मे प र न त शु केवलं ान है।
ी जन के कहे ए भाव अ या म प रभाषामय होनेसे समझमे आने क ठन है। परम पु षका
योग स ा त होना चा हये।
जनप रभाषा- वचारका यथावकाश वशेष न द यास करना यो य है ।
७१५
आणद, आसोज सुद १, १९५२,
*मूळ मारग सांभळो जननो रे, करी वृ अखंड स मुख मूळ०
नो'य पूजा दनी जो कामना रे, नोय हालुं अतर भव ःख मूळ० १
करी जोजो वचननी तुलना रे, जोजो शोधीने जन स ांत मूळ०
मा कहे परमारथ हेतुथी रे, कोई पामे: मुमु ु वात मूळ० २
भावाथ-हे भ ो । जन भगवान क थत मूल माग (मो माग) को अखड च वृ से सुन । इसम हम
मान-पूजाक कोई कामना नही है या नया पथ चलानेका कोई वाथ नह है, और न ही उ सू पणा करके भव-
वृ करने प ख हम अतरम य है । इस लये हम स यमाग कहते ह ॥१॥ इन वचनोको आप यायके तराजू
पर तोलकर दे ख और जन स ातको भी खोजकर दे ख ल, तो यह हमारा कहना केवल स य तीत होगा । हम यह
फेवल परमाथ हेतुसे कहते है क जससे कोई मुमु ु मो मागके रह यको ा त कर ॥२॥

५३१
* ान, दशन, चा र नी शु ता रे, एकपणे अने अ व मूळ०
जनमारग ते परमाथथी रे, एम का स ांते वुध मूळ० ३
लग अने भेदो जे तना रे, दे श काळा द भेद मूळ०
पण ाना दनी जे शु ता रे, ते तो णे काळे अभेद मूळ० ४
हवे ान दशना द श दनो रे, सं ेपे सुणो परमाथ मूळ०।
तेने जोतां वचारी वशेषथी रे, समजाशे उ म आ माथ मूळ० ५
छे दे हा दथी भ आतमा रे, उपयोगी सदा अ वनाश मूळ० ।
एम जाणे स उपदे शथी रे, का ान तेनु नाम खास मूळ० ६
जे ाने करीने जा णयं रे, तेनी वत छे शु तीत मूळ०
का भगवते दशन तेहने रे, जेनुं बोजु नाम सम कत मूळ० ७
जेम आवी ती त जीवनी रे, जा यो सवथी भ असंग मूळ०
तेवो थर वभाव ते ऊपजे रे, नाम चा र ते अ लग मूळ० ८
ते णे अभेद प रणामयी रे, यारे वत ते आ मा प मूळ०
तेह मारग जननो पा मयो रे, कवा पा यो ते नज व प मूळ० ९
एवां मूळ ाना द पामवा रे, अने जवा अना द बंध मूळ०
उपदे श स नो पामव रे, टाळ व छद ने तबंध मूळ० १०
एम दे व जनंदे भा खयु रे, मो मारगनु शु व प मूळ०
भ जनोना हतने कारणे रे, सं ेपे का व प मूळ० ११
७१६
ी आणद, आसोज सुद २, गु , १९५२
ॐ स साद
ी रामदास वामी ारा सयो जत 'दासबोध' नामक पु तक मराठ भाषामे ह। उसका
गुजराती भाषातर गट आ है, जसे पढने और वचारनेके लये भेजा है।
भावाथ- ान, दशन और चा र क जो एक प तथा अ व शु ता है, वही परमाथसे जनगग है,

ऐ ो े ै औ े ो े ै े े े े े
ऐसा शा नयोने स ातम कहा है ॥३॥ लग और तके जो भेद है, वे , दे श, काल आ दक अपे ासे भेद ह।
परतु ान आ दक जो शु ता है वह तो तीनो कालोमे भेदर हत है ॥४॥ अव ान, दशन आ द श दोका स ेपसे
परमाथ सुन । उसे समझकर वशेष पसे वचारतेसे उ म आ माथ समझम आयेगा ॥५॥ आ मा दे ह आ दसे भ ,
सदा उपयोगयु और अ वनाशी है, ऐसा स के उपदे शमे जो जानना है, उसका वशेष नाम ान है, अथात्
यथाथ ान वही है ॥६॥ जो ान ारा जाना है, उसक जो शु ती त रहती है, उसे भगवानने दशन कहा है,
जसका सरा नाम सम कत है ।।७।। जैसे जीवको ती त ई अथात् उसने अपने आपको सवसे भ और असग
समझा, वैसे थर वभावक उ प -आ म थरता उ प होती है उसीका नाम चा र है और वह अ लग अथात्
भावचा र हे ॥८। जब ये तीनो गुण अभेद-प रणामसे रहते ह, तब एक आ म प रहता है। उसने जन का माग
पा लया है अथवा नज व पको पा लया है ॥९॥ ऐसे मूलशान आ दके पानेके लये, अना द बघ र होनेके लये,
व छद और तवधको रफर स का उपदे श ा त कर ॥१०॥ इस कार जन दे वने मो मागका शु व प
कहा है । भ जन के हतके लये यहो तोपसे उसफा व प कहा है ॥११॥

५३२
पहले गणप त आ दक तु त क है, तथा बादमे जगतके पदाथ का आ म पसे वणन करके उपदे श
दया है, तथा उसमे वेदातको मु यता व णत है, इ या दसे कुछ भी भय न पाते ए अथवा वक प न
करते ए, थकताके आ माथसबधी वचारोका अवगाहन करना यो य है । आ माथके वचारनेमे उससे
मश सुगमता होती है।
ी दे वकरणजीको ा यान करना पड़ता है, उससे जो अभाव आ दका भय रहता है, वह
सभव है।
जस जसने स मे तथा उनक दशामे वशेषता दे खी है, उस उसको ायः तथा प संग जैसे
सगोमे अहभावका उदय नही होता, अथवा तुरत शात हो जाता है। उस अहभावको य द पहलेसे
जहरके समान तीत कया हो, तो पूवापर उसका स भव कम होता है । कुछ अ तरमे चातुय आ द भावसे,
सू म प रण तसे भी कुछ मठास रखी हो, तो वह पूवापर वशेषता ा त करती है; पर तु वह जहर ही
है, न यसे जहर ही है, प कालकूट जहर है, उसमे कसी तरहसे सशय नही है, और सशय हो तो
उस सशयको मानना नही है, उस सशयको अ ान ही जानना है, ऐसा तीन खारापन कर डाला हो, तो
वह अहभाव ाय जोर नही कर सकता। उस अहभावको रोकनेसे व चत् नरहभाव आ, उसका फरसे
अहंभाव हो जाना स भव है, उसे भी पहलेसे जहर, जहर ओर जहर मानकर वृ क गई हो तो
आ माथको बाधा नही होती।
आप सव मुमु ुओको यथा व ध नम कार ।
७१७ आणद, आसोज सुद ३, शु , १९५२
आ माथ भाई ी मोहनलालके त, डरबन ।
आपका लखा आ प मला था । इस प से सं ेपमे उ र लखा है।
___ नातालमे रहनेसे आपको ब तसी स योने वशेषता ा त क है, ऐसो ती त होती है । पर तु
आपक उस तरह वृ करनेक उ कृ इ छा उसमे हेतुभूत है। राजकोटक अपे ा नाताल ऐसा े
अव य है क जो कई तरहसे आपको वृ को उपकारक हो सकता है, ऐसा माननेमे हा न नही है ।
यो क आपक सरलताक र ा करनेमे जससे नजी व नोका भय रह सके ऐसे पंचमे अनुसरण करने-
का दबाव नातालमे ायः नही है। पर तु जसक स याँ वशेष बलवान न हो अथवा नबल हो,
और उसे इ लड आ द दे शमे वत पसे रहनेका हो तो वह अभ य आ दमे पत हो जाये ऐसा लगता
है। जैसे आपको नाताल े मे पचका वशेष योग न होनेसे आपक स योने वशेषता ा त क है,
वैसे राजकोट जैसे थानमे होना क ठन है, यह यथाथ है, पर तु कसी अ छे आय े मे स सग आ दके
योगमे आपक वृ याँ नातालक अपे ा भी अ धक वशेषता ा त करती, यह स भव है। आपक
वृ याँ दे खते ए आपको नाताल अनाय े पसे असर करे, ऐसी मेरी मा यता ाय नही है । पर तु
वहाँ ाय. स संग आ द योगक ा त न होनेसे कुछ आ म नराकरण न हो पाये, त प ू हा न मानना
कुछ वशेष यो य लगता है।
यहाँसे 'आय आचार- वचार'के सुर त रखनेके स ब धमे लखा था वह ऐसे भावाथमे लखा
था:-'आय आचार' अथात् मु यत दया, स य, मा आ द गुणोका आचरण करना, और 'आय वचार
अथात् मु यत आ माका अ त व, न य व, वतमान काल तक उस व पका अ ान, तथा उस अ ान
१. महा मा गांधीजी।

५३३
और अभानके कारण, उन कारण क नवृ और वैसा होनेसे अ ाबाध आनद व प अभान ऐसे नज-
पदमे वाभा वक थ त होना । इस तरह स ेपमे मु य अथसे वे श द लखे ह।
वणा मा द, वणा मा दपूवक आचार यह सदाचारके अगभूत जैसा है। वशेष पारमा थक हेतुके
बना तो वणा मा दपूवक वहार करना यो य है, यह वचार स है । य प वतमान कालमे वणा म-
धम ब त नवल थ तको ा त आ है, तो भी हमे तो, जब तक हम उ कृ यागदशा ा त न कर,
और जब तक गृह था ममे वास हो, तब तक तो वै य प वणधमका अनुसरण करना यो य है।
यो क अभ या द हण करनेका उसमे वहार नही है । तब यह आशका होने यो य है क 'लुहाणा भी
उसी तरह आचरण करते है तो उनका अ , आहार आ द हण करनेमे या हा न है ?' तो उसके
उ रमे इतना कहना यो य हो सकता है क बना कारण उस रवाजको भी बदलना यो य नह है, यो क

े े ी े े ी ो े े े ऐ े े
उससे फर सरे समागमवासी या सगा दमे अपने री त रवाजको दे खनेवाले ऐसे उपदे शका न म
ा त करे क चाहे जस वणवालेके यहाँ भोजन करनेमे बाधा नही है। लुहाणाके यहाँ अ ाहार लेनेसे
वणधमक हा न नही होती, पर तु मुसलमानके यहाँ अ ाहार लेनेसे तो वणधमक हा नका वशेष सभव
है, और वणधमके लोप करने प दोष जैसा होता है। हम कुछ लोकके उपकार आ दके हेतुसे वैसी वृ
करते हो और रसलु धतासे वैसी वृ न होती हो, तो भी सरे लोग उस हेतुको समझे बना ाय. उसका
अनुकरण कर और अ तमे अभ या दके हण करनेमे वृ कर ऐसे न म का हेतु अपना यह आचरण है
इस लये वैसा आचरण नही करना अथात् मुसलमान आ दके अ ाहार आ दका हण नही करना, यह
उ म है । आपक वृ क कुछ ती त होती है, पर तु य द कसीक उससे न नको टक वृ हो तो
वह वत ही उस रा तेसे ायः अभ या द आहारके योगको ा त करे । इस लये उस सगसे दर रखा
जाये वैसा वचार करना कत है।
दयाक भावना वशेष रहने दे नी हो तो जहाँ हसाके थानक ह, तथा वेसे पदाथ का जहाँ लेन-
दे न होता है, वहाँ रहनेके तथा जाने-आनेके सगको न आने दे ना चा हये, नही तो जैसी चा हये वैसी
ाय दयाक भावना नही रहती। तथा अभ यपर वृ न जाने दे नेके लये, और उस मागको उ तका
अनुमोदन न करनेके लये अभ या द हण करनेवालेका, आहारा दके लये प रचय नही रखना चा हये।
ान से दे खते ए ा त आ द भेदक वशेषता आ द मालूम नही होती, पर तु भ याभ यभेद-
का तो वहाँ भी वचार कत है, और उसके लये मु यतः यह वृ रखना उ म है। कतने ही काय ऐसे
होते ह क उनमे य दोष नही होता, अथवा उनसे अ य दोष नही लगता, पर तु उसके स ब धसे
सरे दोषोका आ य होता है, उसका भी वचारवानको ल य रखना उ चत है । नातालके लोग के उप-
कारके लये कदा चत् आपक ऐसी वृ होती है, ऐसा भी न य नही माना जा सकता । य द सरे
कसी भी थलपर वैसा आचरण करते ए बाधा मालूम हो, और आचरण न हो तो मा वह हेत माना
जा सकता है । फर उन लोग के उपकारके लये वैसा आचरण करना चा हये, ऐसा वचार करने म भी
कुछ आपक गलत-फहमी होती होगी, ऐसा लगा करता है। आपक सवृ को कुछ ती त है, इस लये
इस वषयमे अ धक लखना यो य नह लगता। जैसे सदाचार और स चारका आराधान हो वैसा
आचरण करना यो य है।
सरी नीच जा तयो अथवा मुसलमान आ दके क ही वैसे नम णोमे अ ाहारा दके बदले अप व
आहार या न फलाहार आ द लेनेसे उन लोगोके उपकारक र ाका स भव रहता हो, तो वैसा कर तो
अ छा है। यही वनती।

५३४
आ म- स
जे व प सम या वना, पा यो ःख अनत ।
समजा ु ते पद नमू, ी स भगवत ॥१॥
जस आ म व पको समझे वना भूतकालमे मैने अनत ख पाया, उस पदको ( व पको)
जसने समझाया अथात् भ व यकालमे उ प होने यो य जन अनत खोको म ा त करता, उनका
जसने मूलो छे द कया ऐसे ी स भगवानको मै नम कार करता ँ ॥ १ ॥
__ वतमान आ काळमां, मो माग ब लोप।
' वचारवा आ माथाने, भा यो अ अगो य ॥२॥
इस वतमानकालमे मो मागका ब त लोप हो गया है, उस मो मागको आ माथ के वचार करने-
के लये (गु - श यके सवादके पमे) यहाँ प कहते है ॥२।।
कोई याजड थई र ा, शु क ानमां कोई।
माने मारग मो नो, क णा ऊपजे जोई ॥३॥
कोई यासे ही चपके ए है, और कोई शु क ानसे ही चपके ए है; इस तरह वे मो माग
मानते ह, जसे दे खकर दया आती हे ||३||
बा यामा राचता, अ तभद न कांई।
ानमाग नषेधता, तेह याजड आई ॥४॥
जो मा वा यामे अनुर हो रहे ह, जनका अतर कुछ भदा नही है, और जो ानमागका
नषेध कया करते है, उ हे यहाँ याजड कहा है ||४||
___* ीमद्जी स. १९५२ के आसोज वदो २ गु वारको न डयादम ठहरे ए थे, तब उ होने इस 'आ म-
स शा 'क १४२ गाथाएँ 'आ म स ' के पम रची थी । इन गाथाओका स त अथ खभातके एक परम मुमु ु
ी अवालाल लालचदने कया था, जसे ीमद्जीने दे ख लया था, (दे ख प ाक ७३०) । इसके अ त र ' ीमद्
राजच ' के पहले और सरे स करणोके आक ४४२, ४४४, ४४५, ४४६, ४४७, ४४८, ४४९, ४५० और
४५१ के प , आ म स के ववेचनके पम ीमद्ने वय लखे ह, जो आ म स क रचनाके सरे दन आसोज
पद २, १९५२ को लखे गये ह। यह ववेचन जस जस गाथाका है उस उस गाथाके नीचे दया है।
१. पाठातर • गु श य सवादथी, कहीए ते अगो य ।।

५३५
बंध मो छ क पना, भाखे वाणी माही।
वत मोहावेशमा, शु क ानी ते आंही ॥५॥
बध और मो मा क पना है, ऐसा न यवा य जो मा वाणीसे बोलते ह, और जसक तथा-
ई ै औ ो ो े े े ै े ँ ी ै
प दशा नह ई है, और जो मोहके भावमे रहते है, उ हे यहाँ शु क ानी कहा है ।।५।।
वैरा या द सफळ तो, जो सह आतम ान ।
तेम ज आतम ाननी, ा ततणां नदान ॥६॥
वैरा य, याग आ द य द आ म ानके साथ हो तो वे सफल है, अथात् मो क ा तके हेतु ह;
और जहाँ आ म ान न हो वहाँ भी य द आ म ानके लये वे कये जाय, तो वे आ म ानक ा तके
हेतु ह ॥६॥
वैरा य, याग, दया आ द अतरगवृ वाली याएँ है, य द उनके साथ आ म ान हो तो वे सफल
ह, अथात् भवके मूलका नाश करती ह, अथवा वैरा य, याग, दया आ द आ म ानक ा तके कारण
है। अथात् जीवमे थम इन गुणोके आनेसे स का उपदे श उसमे प रण मत होता है। उ वल
अंतःकरणके बना स का उपदे श प रण मत नह होता। इस लये वैरा य आ द आ म ानक ा तके
साधन ह ऐसा कहा है।
यहाँ जो जीव याजड ह, उ हे ऐसा उपदे श कया है क मा कायाका ही रोकना कुछ आ म-
ानक ा तका हेतु नही है, वैरा य आ द गुण आ म ानक ा तके हेतु है, इस लये आप उन
याओका अवगाहन कर, और उन याओमे भी के रहना यो य नह ह, यो क आ म ानके बना वेग
भी भवके मलका छे दन नही कर सकती। इस लये आ म ानको ा तके लये उन वैरा य आ द गुणोका
आचरण कर, और काय लेश प यामे- जसमे कषाय आ दक तथा प कुछ भी ीणता नही होती-.
उसमे आप मो मागका रा ह न रख, ऐसा याजडोको कहा है। और जो शु क ानी याग, वैरा य आ दसे
र हत है, मा वाचा ानी ह, उ हे ऐसा कहा है क वैरा य आ द जो साधन ह, वे आ म ानक ा तके
कारण है, कारणके बना कायक उ प नही होती, आपने वैरा य आ द भी ा त नही कये, तो आ म-
ान कहाँसे ा त कया हो? इसका कुछ आ मामे वचार करे। ससारके त ब त उदासीनता, दे हक
मीको अ पता, भोगमे अनास तथा मान आ दक कृशता इ या द गुणोके वना तो आ म ान प र-
ण मत नही होता, और आ म ानक ा त होनेपर तो वे गुण अ य त ढ हो जाते ह, यो क आ म ान-
प मूल उ हे ा त आ है। इसके बदले आप वयंको आ म ानी मानते ह, और आ मामे तो भोग
आ दक कामनाक अ न जला करती है, पूजा, स कार आ दको कामना वारंवार फु रत होती रहती
है, सहज असातासे बहत आकुलता- ाकुलता हो जाती है । यह यो यानमे नही आता क ये आ म ान-
के ल ण नह है ? 'म मा मान आ दको कामनासे आ म ानी कहलवाता ' ँ , यह जो समझमे नही आता
उसे समझ, और वैरा य आ द साधन थम तो आ मामे उ प कर क जससे आ म ानक
स मुखता हो । (६)
याग वराग न च मा, थाय न तेने ान ।
अटके याग वरागमां, तो भूले नजभान ॥७॥
जसके च मे याग और वैरा य आ द साधन उ प न ए हो उसे ान नह होता, और जो
याग-वैरा यमे ही अटककर आ म ानक आका ा न रखे वह अपना भान भूल जाता है; अथात् ान-
पूवक याग-वैरा य आ द होनेसे वह पूजा-स कार आ दसे पराभवको ा त होता है और आ माथ चूक
जाता है ॥७॥

५३६
जसके अंतःकरणमे याग-वैरा य आ द गुण उ प नही ए ऐसे जीवको आ म ान नही होता;
यो क म लन अंत करण प दपणमे आ मोपदे शका त बब पड़ना यो य नह है। तथा मा याग-
वैरा यमे अनुर होकर जो कृताथता मानता है वह भी अपने आ माका भान भूलता है । अथात् आ म-
ान न होनेसे अ ानक सहचा रता रहती है, जससे वह यागवैरा य आ दका मान उ प करनेके लये
और मानके लये उसक सव संयम आ दक वृ हो जाती है, जससे संसारका उ छे द नह होता,
मा वही उलझ जाना होता है । अथात् वह आ म ानको ा त नह करता। इस तरह याजडको साधन-
याका ओर उस साधनक जससे सफलता होती है ऐसे आ म ानका उपदे श कया है और शु क ानीको
याग वैरा य आ द साधनका उपदे श करके वाचा ानमे क याण नही है, ऐसी ेरणा क है । (७)
यां यां जे जे यो य छे , तहां समजवु तेह ।
यां यां ते ते आचरे, आ माथ जन एह ॥८॥
जहाँ जहाँ जो जो यो य है वहां वहाँ उस उसको समझे और वहाँ वहाँ उस उसका आचरण करे,
ये आ माथ पु पके ल ण ह ||८||
जस जस थानमे जो जो यो य है अथात् याग-वैरा य आ द यो य हो वहाँ याग-वैरा य आ द
समझे; जहाँ आ म ान यो य हो वहाँ आ म ान समझे; इस तरह जो जहाँ चा हये उसे वहाँ समझना
और वहाँ वहाँ तदनुसार वृ करना, यह आ माथ जीवका ल ण है। अथात् जो मताथ या मानाथ
हो वह यो य मागको हण नह करता। अथवा जसे यामे ही रा ह हो गया है, अथवा शु क ानके
हो अ भमानमे जसने ा न व मान लया है, वह याग-वैरा य आ द साधनको अथवा आ म ानको
हण नह कर सकता।
जो आ माथ होता है वह जहाँ जहाँ जो जो करना यो य है उस उसको करता है और जहां
जहाँ जो जो समझना यो य है उस उसको समझता है, अथवा जहाँ जहाँ जो जो समझना यो य है उस
उसको समझता है और जहाँ जो जो आचरण करना यो य है वहाँ उस उसका आचरण करता है, वह
आ माथ कहा जाता है।
यहाँ 'समझना' और 'आचरण करना' ये दो सामा य अथमे ह । परतु दोनोको अलग-अलग कहने-
का यह भी आशय है क जो जो जहाँ समझना यो य है वह वह वहाँ समझनेक कामना जसे है और

ो ो ँ ो ै ँ े े ै ी
जो जो जहाँ आचरण करना यो य है वह वह वहाँ आचरण करनेक जसे कामना है वह भी आ माथ
कहा जाता है । (८)
सेवे स चरणने, यागी दई नजप ।
पामे ते परमाथने, नजपदनो ले ल ॥९॥
अपने प को छोडकर जो स के चरणक सेवा करता है वह परमाथको पाता है, और उसे
आ म व पका ल य होता है ||९||
ब तोको याजडता रहती है और ब तोको शु क ा नता रहती है, उसका या कारण होना
चा हये ? ऐसी आशका क उसका समाधान :-जो अपने प अथात् मतको छोडकर स के चरणको
सेवा करता है, वह परमाथको पाता है, और नज पद अथात् आ म वभावका ल य अपनाता है, अथात्
ब तोको याजड़ता रहती है उसका हेतु यह है क अस क जो आ म ान और आ म ानके साधन-
को नही जानता, उसका उ होने आ य लया है, जससे वह अस जो मा याजडताका अथात्
काय लेगका माग जानता है, उसमे उ हे लगाता है, और कुलधमको ढ कराता है, जससे उ हे स का
योग ा त करने क आका ा नही होती, अथवा वैसा योग मलनेपर भी प क ढ वामना उ हे
स पदे शके स मुख नह होने दे ती, इस लये याजड़ता र नही होती, और परमाथको ा त नही होती।

५३७
और जो शु क ानी है उसने भी स के चरणका सेवन नही कया, मा अपनी म त-क पनासे
व छ द पसे अ या म थ पढे ह, अथवा शु क ानीके पाससे वैसे थ या वचन सुनकर अपनेमे ा न व
मान लया है, और ानी मनवानेके पदका जो एक कारका मान है वह उसे मोठा लगता है, और वह
उसका प हो गया है। अथवा कसी एक वशेष कारणसे शा ोमे दया, दान और हसा, पूजाक
समानता कही है, वैसे वचनोको, उनका परमाथ समझे बना पकड़कर, मा अपनेको ानी मनवानेके
लये, और पामर जीवके तर कारके लये वह उन वचनोका उपयोग करता है । परतु वैसे वचनोको कस
ल यसे समझनेसे परमाथ होता है. यह नही जानता। फर जैसे दया, दान आ दको शा ोमे न फलता
कही है, वैसे नवपूव तक पढ़ लेनेपर भी वह भो न फल गया, इस तरह ानको भी न फलता कही है,
तो वह शु क ानका हो नषेध है। ऐसा होनेपर भो उसे उसका ल य नही होता, यो क ानी बननेके
मानसे उसका आ मा मूढताको ा त हो गया है, इस लये उसे वचारका अवकाश नही रहा । इस तरह
याजड अथवा शु क ानी दोनो भूले ए है, और वे परमाथ पानेक इ छा रखते है, अथवा परमाथ
पा लया है, ऐसा कहते ह । यह मा उनका रा ह है, यह य दखायी दे ता है । य द स के चरण-
का सेवन कया होता तो ऐसे रा हमे पड़ जानेका समय न आता, और जीव आ मसाधनमे े रत
होता, और तथा प साधनसे परमाथको पाता, और नजपदका ल य हण करता, अथात् उसक वृ
आ मस मुख हो जाती।
तथा थान थानपर एकाक पसे वचरनेका नषेध कया है, और स क सेवामे वचरनेका
ही उपदे श कया है, उससे भी यह समझमे आता है क जीवके लये हतकारी और मु य माग वही है।
तथा अस से भी क याण होता है ऐसा कहना तो तीथकर आ दक , ानोक आसातना करनेके समान
है, यो क उनमे और अस मे कुछ भेद न आ, ज माध और अ य त शु नमल चावालेमे कुछ
यूना धकता ही न ठहरो । तथा कोई ' ी ठाणागसू ' क चौभगी' हण करके ऐसा कहे क 'अभ का
तारा आ भी तरता है', तो यह वचन भी वदतो ाघात जैसा है। एक तो मूलमे 'ठाणाग' मे
तदनुसार पाठ ही नही है, जो पाठ है वह इस कार है उसका श दाथ इस कार हे 'उसका
वशेषाथ ट काकारने इस कार कया है । जसमे कसी थलपर ऐसा नही कहा है क 'अभ का
तारा हआ तरता है। और कसी एक टवबेमे कसीने यह वचन लखा है वह उसक समझको अयथाथता
समझमे आती है।
कदा चत् कोई ऐसा कहे क अभ जो कहता है वह यथाथ नह है, ऐसा भा सत होनेसे यथाथ
या है. उसका ल य होनेसे जीव व वचारको पाकर तरा, ऐसा अथ कर तो एक कारसे सभ वत है.
परतु इससे ऐसा नह कहा जा सकता क अभ का तारा आ तरा। ऐसा वचार कर जस मागसे
अनत जीव तरे ह और तरेगे, उस मागका अवगाहन करना और मान आ दक अपे ाका यागकर व-
क पत अथका याग करना यही ेय कर है। य द आप ऐसा कहे क अभ से तरा जाता है, तो तो
अव य न य होता है क अस से तरा जायेगा, इसमे कोई स दे ह नह है।
और असो या केवली, जसने पूवकालमे कसीसे धम नही सुना, उसे कसी तथा प आवरणके
यसे ान उ प आ है, ऐसा शा मे न पण कया है, वह आ माका माहा य बतानेके लये और
जसे स का योग न हो उसे जा त करनेके लये, उस उस अनेकात मागका न पण करनेके लये
बताया हे, परतु स को आ ासे वृ करनेके मागक उपे ा करनेके लये नह कहा है। और
फर इस थलपर तो उलटे उस मागपर आनेके लये उसे अ धक सबल कया है, और कहा है क
१ दे खे आफ ५४२ २ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।

५३८
वह असो या केवली' · अथात् असो या केवलीका यह संग सुनकर कोई, जो शा त माग चला आया
है, उसका नषेध करे, यह आशय नही, ऐसा नवेदन कया है।
कसी ती आ मा को कदा चत् स का ऐसा योग न मला हो, और उसे अपनी ती कामना
और कामनामे ही नज वचारमे सल न होनेस,
े अथवा ती आ माथके कारण नज वचारमे लीन होनेसे

ो ो े े ी ो ी ो औ े े
आ म ान आ हो तो वह स के मागका नषेधक जीव न हो तभी आ हो और 'मुझे स से ान
नही मला, इस लये म बडा ँ' ऐसा भाव न रखनेसे आ हो, ऐसा वचार कर वचारवान जीवको
जससे शा त मागका लोप न हो ऐसे वचन का शत करने चा हये।
एक गाँवसे सरे गाँव जाना हो और जसने उस गॉवका माग न दे खा हो, ऐसा कोई पचास
वपका पु प हो और लाखो गाँव दे ख आया हो, उसे भी उस मागका पता नही चलता, और कसीको
पूछनेपर ही मालूम होता है, नही तो वह भूल खा जाता है, और उस मागका जानकार दस वषका बालक
भी उसे माग दखाता है, जससे वह प ंच सकता है, ऐसा लोकमे अथवा वहारमे भी य है, इस-
लये जो आ माथ हो, अथवा जसे आ माथक इ छा हो उसे स के योगसे तरनेके अ भलाषी जीवका
जससे क याण हो उस मागका लोप करना यो य नही है, यो क उससे सव ानीपु षोक आ ाका
लोप करने जैसा होता है।
पूवकालमे स का योग तो अनेक बार आ है, फर भी जीवका क याण नही आ, जससे
स के उपदे शक ऐसी कुछ वशेषता दखायी नही दे ती, ऐसी आशका हो तो उसका उ र सरे ही
पदमे कहा है क-
जो अपने प को छोडकर स के चरणका सेवन करे, वह परमाथको पाता है। अथात् पूवकालमे
स का योग होनेक वात स य है, पर तु वहाँ जीवने उसे स नही जाना, अथवा उसे नही पहचाना,
उसक ती त नही क , और उसके पास अपने मान और मत नही छोडे, और इस लये स का उपदे श
प रण मत नही आ, और परमाथक ा त नह ई। इस तरह य द जीव अपने मत अथात् व छद और
कुलधमका आ ह र करके स पदे शको हण करनेका अ भलाषी आ होता तो अव य परमाथको पाता।
यहाँ अस ारा ढ कराये ए ब धसे अथवा माना दक ती कामनासे ऐसी आशंका भी
हो सकती है क कई जीवोका पूवकालमे क याण आ है, और उ हे स के चरणका सेवन कये बना
क याणक ा त ई है, अथवा अस से भी क याणक ा त होती है, अस को वय भले मागक
ती त नही है, पर तु सरेको वह ा त करा सकता है अथात् सरा कोई उसका उपदे श सुनकर उस
मागक ती त करे, तो वह परमाथको पाता है। इस लये स के चरणका सेवन कये बना भी
परमाथक ा त होती है, ऐसी आशंकाका समाधान करते है :-
य प कई जीव वय वचार करते ए उवु ए है, ऐसा शा मे वणन है, पर तु कसी
थलपर ऐसा ात नही कहा है क अमुक जीव अस ारा उ ए है। अव कई जीव वय
वचार करते ए उ ए है, ऐसा कहा है, उसमे शा ोके कहनेका ऐसा हेतु नही है क स क
आ ासे चलनेसे जीवका क याण होता है ऐसा हमने कहा है, पर तु यह बात यथाथ नह है, अथवा
स क आ ाक जीवको कोई ज रत नही है ऐसा कहनेके लये भी वैसा नही कहा। तथा जो जीव
अपने वचारसे वय वोधको ा त ए ह, ऐसा कहा है, वह भी वतमान दे हमे अपने वचारसे अथवा बोधसे
उ ए ऐसा कहा है, पर तु पूवकालमे वह वचार अथवा वोध स ने उनके स मुख कया है, जससे
१ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।

५३९
वतमानमे उसका फु रत होना स भव है। तीथकर आ दको ‘ वयवु ' कहा है वे भी पूवकालमे तीसरे
भवमे स से न य सम कतको ा त ए है, ऐसा कहा है। अथात् जो वयबु ता कही है वह वतमान
दे हक अपे ासे कही है, और उसे स पदके नपेधके लये कहा नह है।
और य द स पदका नषेध करे तो तो 'सदे व, स और स मक ती तके वना सम कत
नही होता,' यह कथन मा ही आ।
____ अथवा जस शा का आप माण लेते है वह शा स ऐसे जने का कहा आ है, इस लये
उसे ामा णक मानना यो य है ? अथवा कसी अस का कहा आ है इस लये ामा णक मानना यो य
है ? य द अस के शा ोको भी ामा णक माननेमे बाधा न हो तो फर अ ान और राग े षका
आराधन करनेसे भी मो होता है, ऐसा कहनेमे बाधा नह है, यह वचारणीय है।
'आचाराग सू ' ( थम ुत कध, थम अ ययनके थम उ े शमे, थम वा य) मे कहा है -
या यह जीव पूवसे आया है ? प मसे आया है ? उ रसे आया है ? द णसे आया है ? अथवा ऊपरसे
आया है ? नीचेसे या कसी सरी दशासे आया है ? ऐसा जो नही जानता वह म या है, जो
जानता है वह स य है। उसे जाननेके तीन कारण है-(१) तीथकरका उपदे श (२) स का
उपदे श और (३) जा त मरण ान ।
यहाँ जो जा त मरण ान कहा है वह भी पूवकालके उपदे शक स ध है। अथात् पूवकालमे उसे
बोध होनेमे स का अस भव मानना यो य नही है । तथा जगह जगह जनागममे ऐसा कहा है क -
"गु णो छदाणुव गा' अथात् गु क आ ानुसार चलना।
गु क आ ाके अनुसार चलनेसे अनत जोव स ए ह, स होते है और स होगे । तथा कोई
जीव अपने वचारसे बोधको ा त आ, उसमे ाय पूवकालका स का उपदे श कारण होता है। परंतु
कदा चत् जहाँ वैसा न हो वहाँ भी वह स का न य अ भलाषी रहते ए, स चारमे े रत होते होते
व वचारसे आ म ानको ा त आ, ऐसा कहना यो य है, अथवा उसे कुछ स क उपे ा नही हे
और जहाँ स क उपे ा रहती है वहाँ मानका स भव हे, और जहाँ स के त मान हो वहाँ
क याण होना कहा है अथवा उसे स चारके े रत करनेका आ मगुण कहा है।
तथा प मान आ मगुणका अव य घातक है । बा बलीजीमे अनेक गुणसमूह व मान होते ए भी
छोटे अदानवे भाइयोको वदन करनेमे अपनी लघुता होगी, इस लये यही यानमे थत हो जाना यो य है,
ऐसा सोचकर एक वष तक नराहार पसे अनेक गुणसमुदायसे आ म यानमे रहे, तो भी आ म ान नही
मा । बाक सरी सब कारको यो यता होनेपर भी एक इस मानके कारणसे वह ान का आ था।

ी े े ी ओ ी ो े े ो े औ
जब ी ऋषभदे व ारा े रत ा ी ओर सु दरी स तयोने उनसे उस दोषका नवेदन कया और उस
दोषका उ हे भान आ, तथा उस दोपक उपे ा कर उसक असारता उ हे समझमे आयी तब केवल ान
आ। वह मान ही यहाँ चार घनघाती कम का मूल होकर रहा था। और बारह बारह महीने तक
नराहार पसे, एक ल यमे, एक आसनसे आ म वचारमे रहनेवाले ऐसे पु षको इतनेसे मानने वैसी वारह
महीनेक दशाको सफल न होने दया, अथात् उस दशासे मान समझमे न आया और जब स ऐसे
ी ऋषभदे वने 'वह मान ह' ऐमा े रत कया तव एक मु तमे वह मान जाता रहा, यह भी स का
ही माहा य द शत कया है।
फर सारा माग ानीक आ ामे न हत है, ऐसा वारवार कहा है । 'आचारागसू ' मे कहा है
क -सुधमा वामी जवु वामीको उपदे श करते है क जसने सारे जगतका दशन कया है, ऐसे महावीर
१. सू कृताग, थम ुत कम, तीय अ ययन उ े श २, गा० ३२ ।

५४०
भगवानने हमे इस तरह कहा है ।) गु के अधीन होकर चलनेवाले ऐसे अनत पु ष माग पाकर मो को
ा त ए।
'उ रा ययन', 'सूयगडाग' आ दमे जगह जगह यही कहा है । (९)
'आ म ान समद शता, वचरे उदय योग।
अपूव वाणी परम ुत, स ल ण यो य ॥१०॥
आ म ानमे जसक थ त है, अथात् जो परभावक इ छासे र हत आ है, तथा श , ु म ,
हष, शोक, नम कार, तर कार आ द भावोके त जसे समता रहती है, मा पूवकृत कम के उदयके
कारण जसक वचरना आ द याएँ है, अ ानीक अपे ा जसक वाणी य भ है, और जो
षड् दशनके ता पयको जानता है, ये स के उ म ल ण है ॥१०॥
व प थत इ छार हत, वचरे पूव योग ।
___ अपूव वाणी, परम ुत,, स ल ण यो य ॥
आ म व पमे जसक थ त है, वषय एव मान, पूजा आ दक इ छासे जो र हत है, और मा
पूवकृत कम के उदयसे जो वचरता है, जसक वाणी अपूव है, अथात् नज अनुभव स हत जसका
उपदे श होनेसे अ ानीक वाणीक अपे ा य भ है, और परम ुत अथात् षड् दशनका जसे
यथा थत ान होता है, ये स के यो य ल ण ह ।
यहाँ ' व प थत' ऐसा थम पद कहा, इससे ानदशा कही है, इ छार हत होना कहा, इससे
चा र दशा कही है। जो इ छार हत हो वह कस तरह वचर सकता है ? ऐसी आशका, ' वचरे पूव-
योग' अथात् पूव पा जत ार धसे वचरता है, वचरने आ दक कोई कामना जसे नही है, ऐसा कहकर
नवृ क है । 'अपूव वाणी' ऐसा कहनेसे वचना तशयता कही है, यो क उसके बना मुमु ुका उपकार
नह होता। 'परम ुत' कहनेसे षड् दशनके अ व दशासे ाता है ऐसा कहा है, इससे ुत ानक
वशेषता दखायी है।
आशका-वतमानकालमे व प थत पु ष नही होता, इस लये जो व प थत वशेषणवाला
स कहा है, वह वतमानमे होना सभव नही।
___ समाधान-वतमानकालमे कदा चत् ऐसा कहा हो तो यह कहा जा सकता है क 'केवलभू मका'
के वषयमे ऐसी थ त असभव है, परतु आ म ान ही नही होता ऐसा नही कहा जा सकता, और जो
आ म ान है वही व प थ त है।
आशका-आ म ान हो तो वतमानकालमे मु होनी चा हये, और जनागममे तो इसका नषेध
कया है।
समाधान-इस वचनको कदा चत् एकातसे ऐसा ही मान ल, तो भी इससे एकावता रताका नषेध
नही होता, और एकावता रता आ म ानके बना ा त नह होती।
आशका- याग, वैरा य आ दक उ कृ तासे उसे एकावता रता कही होगी।
समाधान-परमाथसे उ कृ यागवैरा यके बना एकावता रता होती ही नह , ऐसा स ात है,
और वतमानमे भी चौथे, पाँचव और उटू गुण थानका कुछ नषेध है नही, और चौथे गुण थानसे ही
आ म ानका स भव होता है, पांचवमे वशेष व प थ त होती है, छ8मे ब त अशसे व प थ त
होती है, पूव े रत मादके उदयसे मा कुछ माद-दशा आ जाती है, परतु वह आ म ानक रोधक
नही, चा र क रोधक है।
१. दे ख आक ८३७

५४१
आशका-यहाँ तो ' व प थत' ऐसे पदका योग कया है, और व प थत-पद तो तेरह
गुण थानमे ही स भव है।
समाधान- व प थ तक पराका ा तो चौदहव गुण थानके अतमे होती है, यो क नाम गो
आ द चार कमका नाश वहाँ होता है, उससे पहले केवलीको चार कम का सग रहता है, इस लये सपू
व प थ त तो तेरहव गुण थानमे भी कही नही जा सकती।
___ आशका-वहाँ नाम आ द कम के कारण अ ाबाध व प थ तका नषेध कर तो वह ठ क
परतु व प थ त तो केवल ान प है, इस लये व प थ त कहनेमे दोष नही है, और यहाँ तो वै
नही है, इस लये व प थ त कैसे कही जाये ?

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समाधान-केवल ानम व प थ तका तारत य वशेष है, और चौथे, पाँचव, छ े गुण थान
उससे अ प है, ऐसा कहा जाये, परतु व प थ त नही है ऐसा नही कहा जा सकता। चौथे गुण थान
म या वमु दशा होनेसे आ म वभावका आ वभाव है, और व प थ त है। पांचव गुण थानमे दे श
चा र घातक कषायोका नरोध हो जानेसे चौथेक अपे ा आ म वभावका वशेष आ वभाव है, अ
छटे मे कषायोका वशेष नरोध होनेसे सव चा र का उदय है, इस लये वहाँ आ म वभावका वशे
आ वभाव है। मा छ े गुण थानमे पूव नब धत कमके उदयसे व चत् म दशा रहती है, इस ल
' म ' सव चा र कहा जाता है, पर तु इससे व प थ तमे वरोध नह है; यो क आ म वभाव
बा यसे आ वभाव है। और आगम भी ऐसा कहते ह क चौथे गुण थानसे लेकर तेरहव गुण थान त
आ म ती त समान है, ानका तारत य भेद है।
__य द चौथे गुण थानमे अशत. भी व प थ त न हो, तो म या व जानेका फल या आ? क
भी नही आ । जो म या व चला गया वही आ म वभावका आ वभाव है, और वही व प थ त है
य द स य वसे तथा प व प थ त न होती, तो े णक आ दको एकावता रता कैसे ा त होती ? वा
एक भी त, प च खान नह था और मा एक ही भव वाक रहा ऐसी अ पससा रता ई वही व
थ त प सम कतका बल है। पाँचवे और छठे गुण थानमे चा र का बल वशेष है, और मु यत उ
दे शक गुण थान तो छठा और तेरहवां है । वाक के गुण थान उपदे शकक वृ कर सकने यो य नह
इस लये तेरहव और छठे गुण थानमे वह पद होता है । (१०)
__' य स सम नह , परो जन उपकार।
एवो ल थया वना, ऊगे न आ म वचार ॥११॥
जब तक जीवको पूणकालीन जने रोको वातपर ही ल य रहा करे, और वह उनके उपकारव
गाया करे, और जससे य आ म ा तका समाधान होता है ऐसे स का समागम ा त आ है
उसमे परो जने रोके वचनोक अपे ा महान उपकार समाया आ है, ऐसा जो न जाने उसे आत
वचार उ प नही होता ॥११॥
स ना उपदे श वण, समजाय न जन प।
सम या वण उपकार शो ? सम ये जन व प ॥१२॥
सग के उपदे शके बना जने रका व प समझमे नह आता, और व पको समझे बना उप
कार या हो? य द स के उपदे शसे जने रका व प समझ ले तो समझनेवालेका आ मा प रणाम
जने रक दशाको ा त होता है ॥१२॥
१ दे से आफ ५२७ ।

५४२
स ना उपदे शथी, समजे जननु प ।
तो ते पामे नजवशा, जन छे आ म व प ॥
पा या शु वभावने, छे जन तेयो पू य ।
समजो नन वभाव तो, आ मभाननो गु य ॥
स के उपदे शसे जो जने रका व प समझे, वह अपने व पक दशाको ा त करे, य क शु
आ म व ही जने रका व प है, अथवा राग, े ष और अ ान जने रमे नही ह, वही शु आ मपद
है, और वह पद तो स ासे सब जीवोका है । वह स - जने रके अवलबनसे और जने रका व प
कहनेसे मुमु ुजीवको समझमे आता है । (१२)
आ मा द अ त वनां, जेह न पक शा ।
य स योग न ह, यां आधार सुपा ॥१३॥
जो जनागम आ द आ माके अ त वका तथा परलोक आ दके अ त वका उपदे श करनेवाले
शा ह, वे भी, जहाँ य स का योग न हो वहाँ सुपा जीवको आधार प ह, परतु उ हे स -
के समान ा तका छे दक नही कहा जा सकता ॥१३॥
अथवा स ए क ा, जे अवगाहन काज।
ते ते न य वचारवा, करी मतांतर याज ॥१४॥
अथवा य द स ने उन शा ोका वचार करनेक आ ा द हो, तो मतातर अथात् कुलधमको
साथक करनेका हेतु आ द ा तयाँ छोड़कर मा आ माथके लये उन शा ोका न य वचार करना
चा हये ॥१४॥
रोके जीव व छद तो, पामे अव य मो ।
पा या एम अनंत छे , भा यु जन नद ष ॥१५॥
जीव अना द कालसे अपनी चतुराई और अपनी इ छाके अनुसार चला है, इसका नाम ' व छद'
_है। य द वह इस व छदको रोके तो वह अव य मो ा त करे, और इस तरह भूतकालमे अनत जीवो-
ने मो ा त कया है। राग, े ष और अ ान, इनमेसे एक भी दोष जनमे नही है ऐसे दोषर हत
वीतरागने ऐसा कहा है 1|१५॥
य स योगथी, व छं द ते रोकाय ।
अ य उपाय कया थक , ाये बमणो थाय ॥१६॥
य स के योगसे वह व छद क जाता है, नही तो अपनी इ छासे अ य अनेक उपाय
करनेपर भी ाय. वह गुना होता है ॥१६॥
व छद, मत आ ह तजी, वत स ल ।
___ सम कत तेने भा खयं, कारण गणी य ॥१७॥

ो े े ो ो ो े े ै े
व छ दको तथा अपने मतके आ हको छोड़कर जो स के ल यसे चलता है, उसे य कारण
मानकर वीतरागने 'सम कत' कहा है ॥१७॥
माना वक श ु महा, नज छदे न मराय ।
जाता स शरणमां, अ प यासे जाय ॥१८॥
__मान और पूजा-स कार आ दका लोभ इ या द महा श ु ह, वे अपनी चतुराईसे चलते ए न
नही होते, और स क शरणमे जानेपर सहज य नसे र हो जाते है ॥१८॥
- १ पाठातर-अथवा स ए कहा, जो अवगाहन काज ।
तो ते न य वचारवा, करी मतातर याज ।

५४३
जे स उपदे शयो, पा यो केवळ ान ।
गु र ा छम थ पण, वनय करे भगवान ॥१९॥
जस स के उपदे शसे कोई केवल ानको ा त आ, वह स अभी छ थ रहा हो तो भी जसने
केवल ानको ा त कया है, ऐसा वह केवली भगवान अपने छ थ स का वैयावृ य करता है ।।१९।।
एवो माग वनय तणो, भा यो ी वीतराग ।
मूळ हेतु ए मागनो, समजे कोई सुभा य ॥२०॥
ी जने ने ऐसे वनयमागका उपदे श दया है। इस मागका मूल हेतु अथात् उससे आ माका या
उपकार होता है, उसे कोई सुभा य अथात् सुलभबोधी अथवा आराधक जीव हो, वह समझता है ॥२०॥
अस ए वनयनो, लाभ लहे जो काई।
महामोहनीय कमयो, बूडे भवजळ मांही ॥२१॥
यह जो वनयमाग कहा है, उसका लाभ अथात् उसे श य आ दसे करानेक इ छा करके य द
कोई भी अस अपनेमे स ताक थापना करता है, तो वह महामोहनीय कमका उपाजन करके
भवसमु मे डू बता है ॥२१॥
होय मुमु ु जीव ते, समजे एह वचार ।
होय मताथ जीव ते, अवळो ले नधार ॥२२॥
जो मो ाथ जीव होता है, वह इस वनयमाग आ दके वचारको समझता है, और जो मताथ
होता है, वह उसका उलटा नधार करता है, अथात् या तो वय श य आ दसे वैसी वनय करवाता है,
अथवा अस मे स क ा त रखकर वय इस वनयमागका उपयोग करता है ॥२२॥
होय मताथ तेहने, थाय न आतम ल ।
तेह मताथ ल णो, अह क ां नप ॥२३॥
___ जो मताथ जीव होता है, उसे आ म ानका ल य नही होता, ऐसे मताथ जीवके ल ण यहाँ
न प तासे कहे है ॥२३॥
मता के ल ण
बा याग पण ान न ह, ते माने गु स य ।
अथवा नजकुळधमना, ते गु मां ज मम व ॥२४॥
जसमे मा बा से याग दखायी दे ता है, पर तु जसे आ म ान नह है, और उपल णसे
अतरग याग नही है, ऐसे गु को जो स चा गु मानता है, अथवा तो अपने कुलधमका चाहे जैसा गु हो
तो भी उसमे मम व रखता है ॥२४॥
जे जनदे ह माण ने, समवसरणा द स ।
वणन समजे जनन, रोक रहे नज बु ॥२५॥
जो जने क दे ह आ दका वणन है, उसे जन का वणन समझता है, और मा अपने कुलधमके
दे व ह, इस लये मम वके क पत रागसे जो उनके समवसरण आ दका माहा य कहा करता है, और
उसमे अपनी बु को रोक रखता है, अथात् परमाथहेतु व प ऐसा जन का जो जानने यो य अतरग
व प है, उसे नही जानता, तथा उसे जाननेका य न नही करता, और मा समवसरण आ दमे ही
जन का व प बताकर मताथमे त रहता है ।।२५।।
य स योगमा, वत वमुख ।
अस ने ढ करे, नज मानाथ मु य ॥२६॥

••••
५४४
य स का व चत् योग मले, तो रा ह आ दक छे दक उसक वाणी सुनकर उससे
उलटा ही चलता है, अथात् उस हतकारी वाणीको हण नही करता, और ' वय स चा ढ मुमु ु है,
ऐसे मानको मु यत. ा त करनेके लये अस के पास जाकर, वय उसके त अपनी वशेष ढता
बताता है ॥२६॥
दे वा द ग त भंगमां, जे समजे ुत ान।
माने नज मत वेषनो, आ ह मु नदान ॥२७॥
दे व, नरक आ द ग तके 'भंग' आ दके व प कसी वशेष परमाथहेतुसे कहे है, उस हेतुको नही
जाना, और उस भगजालको जो ुत ान समझता है, तथा अपने मतका, वेषका आ ह रखनेमे ही मु का
हेतु मानता है ॥२७॥
ल व प न वृ न, त अ भमान ।
हे नही परमाथने, लेवा लौ कक मान ॥२८॥
वृ का व प या है ? उसे भी वह नही जानता, और 'मै तधारी , ँ ऐसा अ भमान धारण
कया है । व चत् परमाथके उपदे शका योग बने, तो भी लोगोमे जो अपने मान, पूजा, स कार आ द है,
वे चले जायेगे, अथवा वे मान आ द फर ा त नही होगे, ऐसा समझकर वह परमाथको हण नही
करता ॥२८॥
अथवा न य नय हे, मा श दनी मांय ।
लोपे सद् वहारने, साधन र हत थाय ॥२९॥
अथवा समयसार' या 'योगवा स ' जैसे थ पढकर वह मा न यनयको हण करता है।
कस तरह हण करता है ? मा कहनेम, े अतरगमे तथा प गुणक कुछ भी पशना नही, और स ,
स शा तथा वैरा य, ववेक आ द सद् वहारका लोप करता है, तथा अपनेको ानी मानकर साधन-
र हत होकर आचरण करता है ॥२९॥
ानदशा पामे नह , साधनदशा न कांई।
पामे तेनो संग जे, ते बुडे भव मांही ॥३०॥
वह ानदशाको नही पाता, और वैरा य आ द साधनदशा भी उसे नही है, जससे वैसे जीवका
संग सरे जस जीवको होता है वह भी भवसागरमे डू बता है ॥३०॥
ए पण जीव मताथमां, नजमाना द काज;
पामे न ह परमाथने, अन-अ धकारीमा ज ॥३१॥
यह जीव भी मताथमे ही वृ है, यो क उपयत जीवको जस तरह कुलधम आ दके कारण
मताथता है, उसी तरह इसे अपनेको ानी मनवानेके मानक इ छासे अपने शु कमतका आ ह है, इस-
लये वह भी परमाथको नही पाता, और अन धकारी अथात् जसमे ानका प रणमन होना यो य नह
है, ऐसे जीवोमे वह भी गना जाता है ॥३१॥
न ह कषाय उपशातता, न ह अंतर वैरा य।
___सरळपणु न म य थता, ए मताथ भा य ॥३२॥
जसके ोध, मान, माया और लोभ प कषाय पतले नही पड़े है, तथा जसे अतर वैरा य उ प
नही आ है, जसके आ मामे गुण हण करने प सरलता नही रही है, तथा स यास यक तुलना करनेक
जसमे अप पात नह है, वह मताथ जीव भा य है अथात् ज म, जरा, मरणका छे दन करनेवाले
मो मागको ा त करने यो य उसका भा य नही है, ऐसा समझ ॥३२॥

५४५
ल ण क ां मताथ ना, मताथ जावा काज ।
हवे क ं आ माथ नां, आ म-अथ सुखसाज ॥३३॥
इस तरह भताथ जीवके ल ण कहे। उसके कहनेका हेतु यह है क उ हे जानकर कसी भी
जीवका भताथ र हो । अब आ माथ जीवके ल ण कहते ह। वे ल ण कैसे है ? आ माके लये अ ा-
वाध सुखको साम ीके हेतु है ।।३३।।
आ माथ -ल ण
आ म ान या मु नपणु, ते साचा गु होय ।
बाक कुळगु क पना, आ माथ न ह जोय ॥३४॥
जहाँ आ म ान होता है, वहाँ मु न व होता है, अथात् जहाँ आ म ान नही होता वहाँ मु न व
सभव ही नह है। जं स म त पासहा त मो त पासहा-जहाँ सम कत अथात् आ म ान है वहाँ
मु न व समझे, ऐसा आचारागसू मे कहा है | अथात् जसमे आ म ान हो वह स चा गु है, ऐना जो
जानता है, और जो यह भी जानता है क आ म ानसे र हत अपने कुलगु को स मानना क पना
मा है, उससे कुछ भव छे द नही होता, वह आ माथ है ॥३४॥
य स ा तनो, गणे परम उपकार ।
णे योग एक वथी, वत आ ाधार ॥३५॥
वह य स क ा तका महान उपकार समझता है, अथात् शा आ दसे जो समाधान हो
सकने यो य नही है, और जो दोष स क आ ा धारण कये वना र नही होते, वह स के योगसे
समाधान हो जाता है, और वे दोष र हो जाते है, इस लये वह य स का महान उपकार समझता
है, और उन स के त मन, वचन और कायाक एकतासे आ ापूवक आचरण करता है ॥३५॥
एक होय ण काळमां, परमारथनो पंथ।
े े े े े
ेरे ते परमाथने, ते वहार समंत ॥३६॥
तीनो कालमे परमाथका पथ अथात् मो का माग एक होना चा हये, और जससे वह परमाथ
स हो वह वहार जीवको मा य रखना चा हये, अ य नह ॥३६॥
एम वचारो अ तरे, शोधे स योग।
काम एक आ माथनु, बीजो न ह मनरोग ॥३७॥
इस तरह अतरमे वचारकर जो स के योगको खोजता है, मा एक आ माथक इ छा रखता
है, परत मान, पूजा आ द ऋ - स को त नक भी इ छा नह रखता, यह रोग जसके मनमे नही हे,
वह आ माथ है ॥३७॥
कषायनी उपशांतता, मा मो अ भलाष ।
भवे खेद, ाणीदया, या आ माथ नवास ॥३८॥
जसके कषाय पतले पड गये ह, जसे मा एक मो पदके सवाय अ य कसी पदक अ भलापा
नही है, ससारके त जसे वैरा य रहता है, और ाणीमा पर जसे दया है, ऐसे जीवमे आ माथका
नवास होता है ॥३८॥
दशा न एवी या सुघो, जीव लहे न ह जोग।
मो माग पामे नह , मटे न अ तर रोग ॥३९॥
जब तक ऐसी यो य दशाको जीव नही पाता, तब तक उसे मो मागक ा त नह होती, और
आ म ा त प अनत खका हेतु ऐसा अतर रोग नह मटता ॥३९॥

५४६
आवे यां एवी दशा, स बोध सुहाय।
ते बोधे सु वचारणा, यां गटे सुखदाय ॥४०॥
जहां ऐसी दशा आती है वहाँ स का बोध शो भत होता है अथात् प रण मत होता है, और
उस बोधके प रणामसे सुखदायक सु वचारदशा गट होती है ।।४०॥
यां गटे सु वचारणा, यां गटे नज ान ।
जे ाने य मोह थई, पामे पद नवाण ॥४१॥
जहाँ सु वचारदशा गट होतो है वहाँ आ म ान उ प होता है, और उस ानसे मोहका य
करके जीव नवाणपद पाता है ॥४१।।
ऊपजे ते सु वचारणा, मो माग समजाय ।
गु - श य सवादथी, भाखु षट् पद आंही ॥४२॥
जससे वह सु वचारदशा उ प होती है और मो माग समझमे आता है वह षट् पद पमे गु -
श यके सवाद ारा यहाँ कहता ँ ॥४२॥
षटपदनामकथन
'मा मा छे ,' 'ते न य छे ', 'छे कता नजकम'।
'छे भो ा' वळ 'मो छे ', 'मो उपाय सुधम' ॥४३॥
'आ मा है', 'वह आ मा न य है', 'वह आ मा अपने कमका कता है', 'वह कमका भो ा है',
'उस कमसे मो होता है, और 'उस मो का उपाय स म है ॥४३||
षट् थानक सं ेपमां, षट् दशन पण तेह।
समजावा परमाथने, कहां ानीए एह ॥४४॥
ये छ. थानक अथवा छ. पद यहाँ स ेपमे कहे ह। और वचार करनेसे षड् दशन भी यही ह।
परमाथ समझनेके लये ानीपु षने ये छ पद कहे ह ॥४४॥
शका- श य उवाच
[ श य आ माके अ त व प थम थानकक शका करता है -]
नथी मां आवतो, नथी जणातुं प ।
बीजो पण अनुभव नह , तेथी न जीव व प ॥४५॥
वह मे नही आता, तथा उसका कोई प जान नही पड़ता, तथा पश आ द अ य अनुभवसे
भी वह जाना नही जाता, इस लये जीवका व प नही है, अथात् जीव नही है ।।४५॥
अथवा दे ह ज आतमा, अथवा इ य ाण ।
म या जुदो मानवो, नह जुई एंधाण ॥४६॥
अथवा जो दे ह है वही आ मा है, अथवा जो इ याँ है, वही आ मा है, अथवा ासो वास है,
वह आ मा है, अथात् ये सब कसी न कसी पमे दे ह प है, इस लये आ माको भ मानना म या है
यो क उसका कोई भी भ च नही है ॥ ४६॥ ।
वळ जो आ मा होय तो, जणाय ते न ह केम?।
जणाय जो ते होय तो, घट, पट आ द जेम ॥४७॥
__ और य द आ मा हो तो वह मालूम यो नही होता? जैसे घट, पट आ द पदाथ ह तो वे जान
पडते ह, वैसे आ मा हो तो कस लये मालूम न हो ? ||४||

५४७
माटे छे न ह आतमा, म या मो उपाय ।
ए अ तर शंका तणो, समजावो स पाय ॥४८॥
इस लये आ मा नही है, और जब आ मा ही नही है तब उसके मा के लये उपाय करना थ

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है, इस मेरी अतरक शकाका कुछ भी स पाय समझाइये अथात् समाधान हो तो क हये ॥४८॥
समाधान-स उवाच
[ आ माका अ त व है ऐसा स समाधान करते ह .-]
भा यो दे हा यासथी, आ मा दे ह समान ।
पण ते ब े भ छ, गट ल णे भान ॥४९॥
दे हा याससे अथात् अना दकालसे अ ानके कारण दे हका प रचय है, इससे आ मा दे ह जैसा अथात्
दे ह प हो तुझे भा सत आ है, परतु आ मा और दे ह दोनो भ ह, यो क दोनो भ भ ल णोसे
गट ानमे आते ह ॥४९॥
भा यो दे हा यासथी, आ मा दे ह समान ।
पण ते ब े भ छे , जेम अ स ने यान ॥५०॥
अना दकालसे अ ानके कारण दे हके प रचयसे दे ह ही आ मा भा सत आ है, अथवा दे ह जैसा
आ मा भा सत आ है, परतु जैसे तलवार और यान, यान प लगते ए भी दोनो भ भ है,
वैसे आ मा ओर दे ह दोनो भ - भ है ॥५०॥
जे ा छे नो, जे जाणे छे प ।
अबा य अनुभव जे रहे, ते छे जीव व प ॥५१॥
वह आ मा अथात् आँखसे कैसे दखायी दे सकता है ? यो क वह तो उलटा उसको दे खने-
वाला है (अथात् आँखको दे खनेवाला तो आ मा ही है)। और जो थूल, सू म आ द पको जानता है, और
सबको बा धत करता आ जो कसीसे भी बा धत नही हो सकता, ऐसा जो शेष अनुभव है वह जीवका
व प है ॥५१॥
छ इ य येकने, नज नज वषयनु ान ।
पांच इं ना वषयनु, पण आ माने भान ॥५२॥
'कण यसे जो सुना उसे वह कण य जानती है, परतु च ु र य उसे नही जानती, और
च र यने जो दे खा उसे कण य नही जानती। अथात् सभी इ योको अपने अपने वषयका ान
है, पर त दसरी इ योके वषयका ान नही है, और आ माको तो पांचो इ योके वषयका ान है।
अथात जो उन पांचो इ योके ारा हण कये ए वषयको जानता है वह 'आ मा' है, और आ माके
वना एक एक इ य एक एक वषयको हण करती है ऐसा जो कहा है. वह भी उपचारसे कहा है ।।५२।।
दे ह न जाणे तेहने, जाणे न इ , ाण।।
आ मानी स ा वडे, तेह वत जाण ॥५३॥
दे ह उसे नही जानती, इ यां उसे नही जानती, और ासो वास प ाण भी उसे नही जानता,
वे सब एक आ माक स ा पाकर वृ करते ह, नही तो वे जड प पडे रहते ह, ऐसा तू समझ ॥५३॥
सव अव थाने वषे, यारो सदा जणाय ।
गट प चैत यमय, ए एंधाण सवाय ॥५४॥
१ पाठावर-कान न जाणे आँखने, मांस न जाणे कान,

५५०
दे हक उ प और दे हके लयका ान जसके अनुभवमे रहता है, वह उस दे हसे भ न हो तो
कसी भी कारसे दे हक उ प और लयका ान नह होता। अथवा- जसक उ प और लयको जो
जानता है वह उससे भ ही है, यो क वह उ प लय प नही ठहरा, परंतु उसका जाननेवाला ठहरा ।
इस लये उन दोनोक एकता कैसे हो ? (६३)
. जे सयोगो. दे खये, ते ते अनुभव य ।
'' “ऊपजे न ह सयोगथी, आ मा न य य ॥६॥ .........
'" जो जो सयोग हम दे खते ह वे सब अनुभव व प ऐसे आ माके य है अथात् उ हे आ मा जानता
है, और उन संयोग के व पका वचार करने पर ऐसा कोई भी सयोग समझमे नही आता क जससे
आ मा उ प होता है, इस लये आ मा सयोगसे उ प नही आ है, अथात् असयोगी है, वाभा वक
पदाथ है, इस लये यह य न य' समझमे आता है ।।६४||
- जो जो दे हं आ द सयोग दखायी दे ते है वे सव अनुभव व प ऐसे आ माके य है, अथात् आ मा
उ हे दे खता है, और जानता है, ऐसे पदाथ है। उन सब सयोगोका वचारकर दे खे, तो आपको कसी भी
सयोगसे अनुभव व प आ मा उ प हो सकने यो य मालूम नह होगा। कोई भी सयोग आपको नही
'जानत और आप उन सब सयोगोको जानते है, यही आपक उनसे भ ता है, और असयो गता अथात्
उन संयोगोसे उ प न होना सहज ही स होता है, और अनुभवमे आता है। इससे अथात् कसी भी
संयोगसे जसक उ प नह हो सकतो, कोई भी सयोग जसक उ प के लये अनुभवमे नही आ सकते,
जन जन सयोगोक क पना करे उनसे वह अनुभव भ और भ हो है, मा उनके ाता पसे ही
रहता है, उस अनुभव व प आ माको आप न य अ पृ य अथात् जसने उन संयोग के भाव प पशको
ा त नह कया, ऐसा समझ । (६४) .
ऐवो अनुभव कोईने, यारे कद न थाय ॥६५॥
जडसे चेतन उ प हो, और चेतनसे ज़ड उ प हो ऐसा कसीको कही कभी भी अनुभव नह
होता।६५।।,'' ..... ।
कोई संयोगोथी नह , जेनी उ प थाय ।
" 717, नाश न तेनो कोईमां, तेथी न य सदाय ॥६६॥ .
जसक उ प कसी भी सयोगसे नही होती, उसका नाश भी कसीमे नही होता, इस लये


आ मा काल न य है ॥६६॥ . . .
जो कसी भी सयोगसे उ प न हआ हो अथात अपने वभावसे जो पदाथ स हो, उसका लय
सरे कसी भी , पदाथमे नही होता,'' और य द सरे पदाथमे उसका लय होता हो, तो उसमेसे उसक
पहले उ प होनी चा हये थी, नही तो उसमे उसक लय प एकता नही होती। इस लये आ माको
अनु प और अ वनाशी जानकर न य है ऐसी ती त करना यो य होगा । (६६) . .
- , , ोधा द तरत यता, सा दकनी मांय। '
,
पूवज म सं कार ते, जीव- न यता याय ॥६॥
ोध आ द कृ तयोक वशेषता सप आ द ा णयोमे ज मसे ही दे खनेमे आती है, वतमान दे हमे
तो उ होने वह अ यास नह कया, ज मके साथ ही वह है, अथात् यह पूवज मका ही स कार है, जो
पूवज म जीवक न यता स करता है ॥६॥
- सपमे ज मसे ोधक वशेषता दे खनेमे आती है, कबूतरमे ज मसे ही अ हसकता ‘दे खनेमे आती
है, खटमल आ द ज तुओको पकड़ते ए उ हे पकड़नेसे ःख होता है ऐसी भयस ा पहलेसे ही उनके
त, जीव- न यता याय ॥६॥

५५१
अनुभवमे रही है, जससे वे भाग जानेका य न करते है। कसी ाणीमे ज मसे ही ी तक , कसीमे
समताक , कसीमे वशेष नभयताक , कसीमे गभीरताक , कसीमे वशेष भय स ाक , कसीमे काम
आ दके त असगताक , और कसीमे आहार आ दमे अ धका धक लु धताक वशेपता दे खनेमे आती है।
इ या द भेद अथात् ोध आ द स ाक यूना धकता आ दसे, तथा वे वे कृ तयाँ ज मसे सहचारी पसे
व मान दे खनेमे आती है, उससे उसका कारण पूवके स कार ही सभव है।
कदा चत् ऐसा कहे क गभमे वीय-रेतके गुणके योगसे उस उस कारके गुण उ प होते है, परतु
उसमे पूवज म कुछ कारणभूत नह है, यह कहता भी यथाथ नही है। जो माता- पता काममे वशेष
ी तवाले दे खनेमे आते है, उनके पु परम वीतराग जसे बा यकालसे ही दे खनेमे आते है । तथा जन
माता- पताओमे ोधक वशेषता दे खनेमे आती है, उनक सत तमे समताक वशेषता गोचर होती
है, यह कैसे हो सकता है ? तथा उस वीय-रेतके वैमे गुण सभव नही है, यो क वह वीय-रेत वय
चेतन नही है, उसमे चेतन सचार करता है, अथात् दे ह धारण करता है, इस लये वीय-रेतके आ त
ोध आ द भाव नही माने जा सकते, चेतनके वना कसी भी थानमे वैसे भाव अनुभवमे नही आते।
मा वे चेतना त है, अथात् वीय-रेतके गुण नही है, जससे उसक यूना धकतासे ोध आ दक
यूना धकता मु यत हो सकने यो य नह है। चेतनके यूना धक योगसे ोध आ दक यूना धकता
होती है, जससे वह गभके वीय-रेतका गुण नही है , परतु चेतनका उन गुणोको जा य है, और वह
यूना धकता उस चेतनके पूवके अ याससे ही सभव है, यो क कारण बना कायक उ प नही होती।
चेतनका पूव योग तथा कारसे हो, तो वह स कार रहते ह, जससे इस दे ह आ दके पूवके स कारोका
अनुभव होता है, और वे स कार पूवज मको स करते है, और पूवज मक स से आ माको न यता
सहज ही स होती है । (६७)
आ मा े न य छे , पयाये पलटाय।
बाळा द वय य, ान एकने थाय ॥६८॥
आ मा व तु पसे न य है। समय-समयपर ान आ द प रणामके प रवतनसे उसके पयायमे
प रवतन होता है। कुछ समु बदलता नही, मा लहर बदलती है, उसी तरह ।) जैसे बाल, युवा और
वृ ये तीन अव थाएँ है, वे वभावसे आ माके पयाय ह, और बाल अव थाके रहते ए आ मा वालक
जान पड़ता था। उस बाल अव थाको छोडकर जव आ माने युवाव था धारण क , तब युवा जान पडा,
और जब युवाव थाको छोडकर वृ ाव था अगीकार क तब वृ द खने लगा। यह तीन अव थाओका
भेद आ, वह पयायभेद है, परतु उन तीनो अव थाओमे आ म- का भेद नह आ, अथात् अव थाएँ
बदली परतु आ मा नही बदला । आ मा इन तीनो अव थाओको जानता है और उन तीनो अव थाओक
उसे ही म त है। तीनो अव थाओमे आ मा एक हो ता ऐसा हो सकता है पर तु य द आ मा ण ण
बदलता हो तो वैसा अनुभव सभत ही नही है ॥६८॥
अथवा ान णकन, जे जाणी वदनार ।
बदनारो ते णक न ह, कर अनुभव नधार ॥६९॥
तथा अमक पदाथ णक हे, ऐसा जो जानता हे और णकता कहता है, वह कहनेवाला अथात्
जाननेवाला णक नही हो सकता, यो क थम णमे जो अनुभव आ उसे सरे णमे कहा जा
सकता है। उस सरे णमे वह वय न हो तो कैसे कह सकता है ? इस लये अनुभवसे भी आ माक
अ णकताका न य कर ॥६९।।
यारे कोई व तुनो, केवळ होय न नाश ।
चेतन पामे नाश तो, केमा भळे तपास ॥७॥

५५२
ीमद् -राजच
* तथा कसी भी व तुका कसी भी कालमे सवथा नाश तो होता ही नही है, मा अव थांतर होता
है, इस लये चेतनका भी सवथा नाश नह होता। और य द अव थातर प नाश होता हो तो वह कसमे
मल जाता है ? अथवा कस कारके अव थातरको ा त करता है, उसक खोज कर । अथात् घट आ द
े ो ऐ े ै ै ो ो
पदाथ फूट जाते ह, तब लोग ऐसा कहते है क घटका नाश आ है, परतु कुछ म ोपनका तो नाश
नही आ । वह छ - भ होकर सू मसे सू म चूरा हो जाये, तो भी परमाणु समूह पसे रहता है परंतु
उसका सवथा नाश नही होता, और उसमेसे एक परमाणु भी कम नह होता। यो क अनुभवसे दे खते
ए अव थातर हो सकता है । परतु पदाथका समूल नाश हो जाये, ऐसा भा सत होने यो य ही नही है।
इस लये य द तू चेतनका नाश कहता है, तो भी सवथा नाश तो कहा ही नह जा सकता, अव थातर प
नाश कहा जा सकता है । जैसे घट फूटकर मश. परमाणु-समूह पसे थ तमे रहता है, वैसे चेतनका
अव थांतर प नाश तुझे कहना हो, तो वह कस थ तमे रहता है ? अथवा घटके परमाणु जैसे परमाणु-
समूहम मल जाते ह वैसे चेतन कस व तुमे मलने यो य है ? उसे खोज । अथात् इस तरह य द तू
अनुभव करके दे खेगा तो कसीमे नही मल सकने यो य, अथवा पर व पमे अव थातर नही पाने यो य
ऐ सा चेतन अथात् आ मा तुझे भासमान होगा ||७०||
शका- श य उवाच
[आ मा कमका कता नही है ऐसा श य कहता है :-]
कता जीव न कमनो, कम ज, कता कम।
अथवा सहज वभाव कां, कम जीवनो धम ॥७१॥ ..
जीव कमका कता नही, कम ही कमका कता है, अथवा कम अनायास होते रहते ह। य द ऐसा
न हो, और जीव ही उनका कता है, ऐसा कहे तो फर वह जीवका धम ही है, अथात् धम होनेसे कभी
नवृ नही हो सकता ||७||
आ मा सदा असंग ने, करे कृ त बंध।
- अथवा ई र ेरणा, तेथी जीव अबंध ॥७२॥
अथवा ऐसा न हो, तो आ मा सदा असग है, और स व आ द गुणवाली कृ त कमका वध करती
है । य द ऐसा भी न हो तो जीवको कम करनेक ेरणा ई र करता है, इस लये ई रे छा प होनेसे जीव
उस कमसे 'अवंध' हे ॥७२॥
, - - माटे मो उपायनो, कोई न हेतु जणाय ।
.. . कमतणु कापणु, कां न ह, कां न ह जाय ॥७३॥
इस लये जीव कसी तरह कमका कता नही हो सकता, और मो का उपाय करनेका कोई हेतु
नही जान पडता। इस लये या तो जीवको कमका कतृ व नह है, और य द कतृ व है तो कसी तरह
उसका वह वभाव मटने यो य नही है ॥७३॥
.. समाधान-स उवाच
. [ स समाधान करते है क कमका कतृ व आ माको करा तरह ह -1
होय न चेतन ेरणा, कोण हे तो कम ?
जड वभाव, न ह ेरणा, 'जुओ वचारी धम ॥७४॥
१ पाठा तर-जुओ वचारी ममं ।

५५३
चेतन अथात् आ माको ेरणा प वृ न हो, तो कमको कौन हण करे ? जडका वभाव
ेरणा नही है । जड और चेतन दोनोके धम का वचारकर दे ख ॥७४॥
य द चेतनक ेरणा न हो, तो कमको कौन हण करे ? ' ेरणा पसे हण कराने प वभाव
जडका है ही नही, और ऐसा हो तो घट, पट आ दका भी। ोध आ द भावमे प रणमन होना चा हये
और वे कमके हणकता होने चा हये, परतु वैसा अनुभव तो कसीको कभी भी होता नही, जससे चेतन
अथात् जीव कमको हण करता है, ऐसा स होता है, और इस लये उसे कमका कता कहते है । अथात्
इस तरह जीव कमका कता है।
'कमका कता कम कहा जाये या नही ?' उसका भी समाधान इससे हो जायेगा क जडकममे
ेरणा प धम न होनेसे वह उस तरह कमका हण करनेमे असमथ है, और कमका कतृ व, जीवको है,
यो क उसमे ेरणाश है । (७४)
जो चेतन करतु नथी, नथी थतां तो कम।
तेथी सहज वभाव न ह, तेम ज न ह जीवधम ॥७॥
य द आ मा कम को करता नही है तो वे होते नही है; इस लये सहज, वभावसे अथात् अनायास
वे होते ह, ऐसा कहना यो य नही है। और वह जीवका धम ( वभाव), भी नही है, यो क वभावका
नाश नही होता, और आ मा न करे तो कम नही होते, अथात् यह भाव र हो सकता है, इस लये यह
आ माका वाभा वक धम नही है ।।७।।
केवळ होत असग जो, भासत तने न केम?
___असग छे परमाथयो, पण नजभाने तेम ॥७६॥ '
य द आ मा सवथा असग होता अथात् कभी भी उसे कमका कतृ व न होता, तो वयं तुझे वह
आ मा पहलेसे यो भा सत न होता ? परमाथसे वह आ मा असग है, परतु यह तो जब व पका भान
हो तब होता है ॥७६॥
कता ई र कोई न ह, ई र शु वभाव।
अथवा ेरक ते ग ये, ई र दोष भाव ॥७॥
जगतका अथवा जीवोके कम का कता कोई ई र नही है, जसका शु आ म वभाव गट आ
है वह ई र है, और य द उसे ेरक अथात् कमका कता मान तो उसे दोषका भाव आ मानना
चा हये । अत जीवके कम करनेमे भी ई रक ेरणा नही कही जा सकती ॥७७॥

े े ो े ऐ ो
अव आपने 'वे कम अनायास होते ह', ऐसा जो कहा उसका वचार कर। अनायासका अथ या
है ? आ मा ारा नही वचारा आ ? अथवा आ माका कुछ भी कतृ व होनेपर भी वृ नह आ
आ ? अथवा ई रा द कोई कम लगा दे उससे आ आ ? अथवा कृ तके वलात् लगनेसे आ आ?
इन चार मु य वक पोसे अनायासकतृ व वचारणीय है । थम वक प आ मा ारा नही वचारा आ,
ऐसा है। य द वैसे होता हो तो फर कमका हण करना ही नही रहता, और जहाँ कमका हण करना
न रहे वहाँ कमका अ त व स भव नही है और जीव तो य वचार करता है, और हणा हण
करता है, ऐसा अनुभव होता है।
जसमे वह कसी तरह वृ ही नह करता वैसे ोध आ द भाव उसे स ा त होते ही नही,
इससे ऐसा मालुम होता है क न वचारे ए अथवा आ मासे न कये ए ऐसे कम का हण उसे होने
यो य नह है, अथात् इन दोनो कारसे अनायास कमका गहण स नह होता।
तीसरा कार यह है क ई रा द कोई कम लगा दे , इससे अनायास कमका हण होता है, ऐसा
कहे तो यह यो य नही है। थम तो ई रके व पका नधारण करना यो य है, और यह सग भी

५५४
ीमद् राजच
वशेष समझने यो य है। , तथा प यहाँ ई र या व णु आ द कताका कसी तरह वीकार कर लेते है,
और उसपर वचार करते है :-
य द ई र आ द कम को लगा दे नेवाले हो तब तो जीव नामका कोई भी पदाथ बीचमे रहा
नही, यो क ेरणा आ द धमके कारण उसका अ त व समझमे आता था, वे ेरणा आ द तो ई रकृत
ठहरे, अथवा ई रके गुण ठहरे, तो फर वाक जीवका व प या रहा क उसे जीव अथात् आ मा
कहे ? इस लये कम ई र े रत नह , अ पतु आ माके अपने ही कये ए होने यो य है।
तथा चौथा वक प यह है क कृ त आ दके बलात् लगनेसे कम होते हो? यह वक प भी
यथाथ नही है । यो क कृ त आ द जड है, उ हे आ मा हण न करे तो वे कस तरह लगने यो य ह ?
अथवा कमका सरा नाम कृ त है, अथात् कमका कतृ व कमको ही कहनेके समान आ, इसे तो
पहले न ष कर दखाया है। कृ त नही, तो अत करण आ द कम हण करते है, इससे आ मामे कतृ व
आता है, ऐसा कहे, तो यह भी एकातसे स नह होता। अत करण आ द भी चेतनक ेरणाके बना
अत करण आ द पसे पहले ठहरे ही कहाँस? े चेतन कम-संल नताका मनन करने के लये जो आलबन
लेता है, उसे अत.करण कहते ह। य द चेतन उसका मनन न करे तो कुछ उस सल नतामे मनन करनेका
धम नह है, वह तो मा जड है। चेतन चेतनक ेरणासे उसका आलवन लेकर कुछ हण करता है।
जससे उसमे कतृ वका आरोप होता है; परंतु मु यत वह चेतन कमका कता है।
यहाँ य द आप वेदात आ द से वचार करेगे तो हमारे ये वा य आपको ा तगत पु षके
कहे ए लगगे । परंतु अब जो कार कहा है, उसे समझनेसे आपको उन वा योक यथाथता मालूम होगी
और ा तगतता भा सत नह होगी।
य द कसी भी कारसे आ माका कमकतृ व न हो तो कसी भी कारसे उसका भो व भी
स नह होता, और जब ऐसा ही हो तो फर उसको कसी भी कारके खोका स भव ही नही होता।
जब आ माको कसी भी कारके खोका स भव ही न होता हो तो फर वेदात आ द शा सव खोके
यके जस मागका उपदे श करते है वे कस लये उपदे श करते है ? 'जब तक आ म ान नह होता तब
तक खक आ य तक नवृ नही होती' ऐसा वेदात आ द कहते है, वह य द ख ही न हो तो उसक
नवृ का उपाय कस लये कहना चा हये ? और कतृ व न हो, तो खका भो ृ व कहाँसे हो ? ऐसा
वचार करनेसे कमका कतृ व स होता है।'
अब यहाँ एक होने यो य है. और आपने भी वह कया है क 'य द आ माको कमका
__ कतृ व मान तब तो आ माका वह धम स होता है, और जो जसका धम हो उसका कभी भी उ छे द
होना यो य नह है, अथात उससे सवथा भ हो सकने यो य नही है, जैसे अ नक उ णता अथवा
काश वैसे ।' इस तरह य द कमका कतृ व आ माका धम स हो तो उसका नाश नही हो सकता।
- उ र- सव माणाशका वीकार कये बना ऐसा स होता है, परतु जो वचारवान हो वह
कसी एक माणाशका वीकार कर सरे माणाशका नाश नह करता। 'उस.जीवको कमका कतृ व.
न हो', अथवा 'हो तो वह तीत होने यो य नही है।' इ या द कये गये ोके उ रमे जीवका कमकतृ व
बताया है । कमका कतृ व हो तो वह र ही नही होता, ऐसा कुछ स ात समझना यो य नह है,
यो क जस कसी भी व तुका हण कया हो वह छोड़ी जा; सकतो है अथात् उसका याग हो सकता है,
__ यो क हण क ई व तुसे हण करनेवाली -व तुका सवथा एक व-कैसे हो सकता है ? इस लये जीवसे
हण कये ए ऐसे जो -कम, उनका जीव याग करे तो हो सकने यो य है, यो क वे उसे सहकारी
वभावसे ह, सहज वभावसे नही। और उस कमको मने आपको, अना द- म कहा है, अथात् उस

५५५
कमका कतृ व अ ानसे तपा दत कया है, इससे भी वह नवृ होने यो य है, ऐसा साथमे समझना
यो य है । जो जो म होता है वह वह व तुको वपरीत थ तक मा यता प होता है, और इससे वह
र होने यो य है, जैसे मृगजलमेसे जलवु । कहनेका हेतु'यह है क य द अ ानसे भी आ माको कतृ व
न हो तब तो कुछ उपदे श आ दका वण, वचार, ान आ द समझनेका कोई हेतु नही रहता । अब यहाँ
जीवका परमाथसे जो कतृ व है उसे कहते है । (७७)

े ो
चेतन जो नज भानमा, कता आप वभाव। ।
वत न ह. नज भानमा, · कता कम- भाव ॥७॥
' आ मा य द अपने शु चैत य आ द वभावमे रहे तो वह अपने उसी वभावका कता है, अथात्
उसी व पमे प रण मत है, और जब वह शु चैत य आ द वभावके भानमे न रहता हो तब कम-
भावका कता है ॥७॥
____ अपने व पके भानमे आ मा अपने वभावका अथात् चैत य आ द वभावका ही कता है, अ य
कसी भी कम आ दका कता नही है, और जब आ मा अपने व पके भानमे नही रहता तब कमके
भावका कता कहा है।
। परमाथसे तो जीव न य है, ऐसा वेदात आ दका न पण है; और जन- वचनमे भी स
अथात् शु आ माको न यता है, ऐसा न पण कया है। फर भी हमने आ माको, शु अव थामे
कता होनेसे स य कहा, ऐसा सदे ह यहाँ होने यो य है, उस सदे हको इस कार शात करना यो य है--
शु ा मा परयोगका, परभावका और वभावका वहाँ कता नही है, इस लये न य कहना यो य है,
पर तु चेत य आ द वभावका भी आ मा कता नही है, ऐसा य द कहे तव तो फर उसका कुछ भी,
व प नही रहता। , शु ा माको योग या न होनेसे वह न य है, पर तु वाभा वक' चैत य आ द
वभाव प या होनेसे वह स य हे । चैत या मता आ माको वाभा वक होनेसे उसमे आ माका प रण-
मन होना एका म पसे ही है, और इस लये परमाथनयसे स य ऐसा वशेषण वहाँ भी आ माको नही दया
जा सकता। नज वभावमे प रणमन प स यतासे नज वभावका कतृ व शु ा माको है, इस लये
सवथा शु वधम होनेसे एका म पसे प रण मत होता है, इससे न य कहते ए भी दोष नही है।
जस वचारसे स यता, न यता न पत क है, उस वचारके परमाथको हण करके स यता,
न यता कहते ए कोई दोप नही है । (७८)
शका- श य उवाच
..... [जोव कमका भो ा नही है ऐसा श य कहता है .-]
जीव कम कता कहो, पण भो ा न ह सोय ।
शं समजे जड कम के, फळ प रणामी होय ? ॥७९॥
जीवको कमका कता कहे तो भी उस कमका भो ा जीव नही ठहरता; यो क जडकम या समझे
क वह फल दे नेमे प रणामी हो ? अथात् फलदाता हो सके ? ॥७९॥
__ फळदाता ई र ग ये, भो ापणुं सधाय।।
एम को ई रतणं, ई रपणुं ज जाय ॥८॥
फलदाता ई रको माने तो जीवका भो ृ व स कया जा सकता है, अथात् जीवको ई र कम:
भोगवाये, इससे जीव कमका भो ा स होता है पर तु सरेको फल दे ने आ दको वृ वाला ई र
मान तो उसको ई रता ही नह रहती, ऐसा भी फर वरोध आता हे ||८०॥

५५६
. 'ई र स ए बना अथात् कमफलदातृ व आ द कसी भी ई रके स ए बना जगतक
व था रहना स भव नही है', ऐसे, अ भ ायके वषयमे न न ल खत वचारणीय है :-
— य द कमके फलको ई र दे ता है, ऐसा मान तो इसमे ई रक ई रता ही नही रहती, यो क
सरेको फल दे ने आ दके पचमे वृ करते ए ई रको दे ह आ द,अनेक कारका सग होना सभव है।
और इससे यथाथ शु ताका भग होता है । मु जीव जैसे न य है अथात परभाव आ दका कता नही,
है, य द परभाव आ दका कता हो तब तो ससारक ा त होती है, वैसे ही ई र भी सरेको फल
दे ने प आ द यामे वृ करे तो उसे भी परभाव आ दके कतृ वका सग आता है, और मु जीवक
अपे ा उसका यून व ठहरता है, इससे तो उसक ई रताका ही उ छे द करने जैसी थ त होती है।
फर 'जीव और ई रका वभावभेद मानते ए भी अनेक दोषोका , सभव है। दोनोको य द
चैत य वभाव मान तो दोनो समान धमके कता ए, उसमे ई र जगत आ दक रचना करे अथवा कमका
फल दे ने प काय करे और मु गना जाये, और जीव.एक मा दे ह आ द सृ क रचना करे, और
अपने कम का फल पानेके लये ई रा य हण करे, तथा बधनमे माना जाये, यह बात यथाथ मालूम
नही होती । ऐसी वषमता कैसे सभ वत हो ?
- फर जीवक अपे ा ई रक साम य वशेष मान तो भी वरोध आता है। ई रको शु
चैत य व प मान तो शु चैत य ऐसे मु जीवमे और उसमे भेद नही आना चा हये, और ई रसे कमका
फल दे ने आ दके काय नही होने चा हये, अथवा मु जीवसे भी वे काय होने चा हये । और य द ई रको
अशु चैत य व प मान तो तो ससारी जीवो जैसी उसक थ त ठहरे, वहाँ फर सव आ द गुणोका
सभव कहाँसे हो ? अथवा दे हधारी सव क भॉ त उसे 'दे हधारी सव ई र' मान तो भी सव कम-
फलदातृ व प ' वशेष वभाव' ई रमे कस गुणके कारण मानना यो य हो ? और दे ह तो न होने
यो य है, 'इससे ई रक भी दे ह न हो जाये, और वह मु होनेपर कम फलदातृ व न रहे, इ या द अनेक
कारसे. ई रको कमफलदातृ व कहते ए दोष आते ह, और ई रको वैसे व पसे मानते ए उसक
ई रताका उ थापन करनेके समान होता है । (८०)
ई र स थया वना, जगत नयम न ह होय।
"
' पछ शुभाशुभ कमना, भो य थान न ह कोय ॥८॥
वैसा फलदाता ई र स नही होता इससे जगतका कोई नयम भी नही रहता, और शुभाशुभ '
कम भोगनेका कोई थान भी नह ठहरता, अत. जीवको कमका भो ृ व कहाँ रहा ? ॥८१॥
समाधान-स उवाच
[जीवको अपने कये ए कम का भो ृ व है इस कार स समाधान करते है :-]
भावकम नजः क पना, .. माटे चेतन प।
जीववीयनी फुरणा, · हण करे जडधूप ॥८२॥
- जीवको अपने व पक ा त है वह भावकम है, इस लये चेतन प है, और उस ा तका
अनुयायी होकर जीव-वीय फु रत होता है, इससे जड -कमक वगणाको,वह हण करता है ।।८२॥ ,,
___ कम जड है तो वह या समझे क इस जीवको इस तरह मुझे ,फल दे ना है, अथवा उस व पसे
प रणमन करना है ? इस लये जीक कमका भो ा होना स भव नही हे इस आशकाका समाधान न न-
ल खतसे होगा:--
- जीव अपने व पके अ ानसे कमका कता है। वह, अ ान चेतन प है, अथात् जीवक अपनी
क पना है, और उस क पनाका अनुसरण करके उसके वीय वभावक फू त होती है, अथवा उसक

५५७
साम य तदनुयायी पसे प रण मत होती है, और इससे जडक धूप अथात् -कम प पु लक वगणा-
को वह हण करता है । (८२)
'झेरं सुधा समजे नही, जीव खाय फळ थाय।
एम शुभाशुभ कमन, भो ापणु जणाय ॥८३॥
वष और अमत वय नही जानते क हमे इस जीवको फल दे ना है, तो भी जो जीव उ हे खाता
है उसे वह फल होता है, इसी कार शुभाशुभ कम ऐसा नही जानते क इस जीवको यह फल दे ना है, तो
भी उ हे हण करनेवाला जीव वष-अमृतके प रणामक तरह फल पाता है ।।८३||
वष और अमत वय ऐसा नही समझते क हमे खानेवालेको मृ यु और द घायु होती है, पर तु
जैसे उ हे हण करनेवालेके त वभावत उनका प रणमन होता है, वैसे जीवमे शुभाशुभ कम भी प र-
ण मत होते है, और उसका फल ा त होता है; इस तरह जीवका कमभो ृ व समझमे आता है । (८३)
एक रांक ने एक नृप, ए आ द जे भेद ।
कारण वना न काय ते, ते ज शुभाशुभ वे ॥४४॥
___ एक रक है और एक राजा हे, ‘ए आ द' (इ या द) श दसे नीचता, उ चता, कु पता, सु पता
ऐसी बहतसी व च ताएं है, और ऐसा जो भेद रहता है अथात् सवमे समानता नही है, यही शुभाशुभ
कमका भो ृ व है, ऐसा स करता है, यो क कारणके बना कायक उ प नही होती ॥८४॥
उस शुभाशुभ कमका फल न होता हो, तो एक रक और एक राजा, इ या द जो भेद ह वे न होने
चा हये, यो क जीव व समान है, तथा मनु य व समान है, तो सबको सुख अथवा ःख भी समान होना
चा हये, जसके बदले ऐसी व च ता मालूम होती है, यही शुभाशुभ कमसे उ प आ भेद है; यो क
कारणके बना कायक उ प नह होती। इस तरह शुभ और अशुभ कम भोगे जाते है । (८४)
फळदाता ई रतणी, एमां नथी ज र।
कम वभावे प रणमे, थाय भोगथी र ॥८५॥
इसमे फलदाता ई रक कुछ ज रत नही है। वष और अमृतक भां त शुभाशुभ कम वभावसे
प रण मत होते ह, और न स व होने पर वष और अमृत फल दे नेसे जैसे नवृ होते है, वैसे शुभाशुभ
कमको भोगनेसे वे न स व होनेपर नवृ हो जाते है ।।८५॥
वप वष पसे प रण मत होता है और अमृत अमृत पसे प रण मत होता है, उसी तरह अशुभ
कम अशुभ पसे प रण मत होता है और शुभ कम शुभ पसे प रण मत होता है। इस लये जीव जस
जस कारके अ यवसायसे कमको हण करता है, उस उस कारके वपाक पसे कम प रण मत होता है,
और जैसे वष तथा अमृत प रणामी हो जानेपर न.स व हो जाते है, वैसे भोगसे वे कम र होते ह । (८५)
ते ते भो य वशेषना, थानक वभाव।
गहन वात छे श य आ, कही सं ेपे साव ॥८६॥
उ कृ शुभ अ यवसाय उ कृ शभग त है, और उ कृ अशुभ अ यवसाय उ कृ अशुभग त है,
शभाशुभ अ यवसाय म ग त है, और वह जीवप रणाम ही मु यतः तो ग त है। तथा प उ कृ शुभ
का ऊ वगमन, उ कृ अशुभ का अधोगमन, शुभाशुभक म य थ त, ऐसा का वशेष वभाव
हे । और इ या द हेतुओसे वे वे भोग थान होने यो य ह । हे श य । जड-चेतनके वभाव, सयोग आ द
स म व पका यहाँ बहतसा वचार समा जाता है, इस लये यह बात गहन है, तो भी उसे एकदम
स ेपमे कहा है ।।८६॥
तथा. य द ई र कमफलदाता न हो अथवा उसे जगतकता न मान तो कम भोगनेके वशेष थान
अथात नरक आ द ग त- थान कहाँसे हो, यो क उसमे तो ई रके कतृ वको आव यकता है, ऐसी

५५८
आशका भी करने यो य नही है, यो क मु यत' तो उ कृ शुभ अ यवसाय वही उ कृ दे वलोक है, और
उ कृ अशुभ अ यवसाय वही उ कृ नरक है, शुभाशुभ अ यवसाय मनु य तथंच आ द ग तयाँ ह, और
थान वशेष अथात् ऊ वलोकमे दे वग त इ या द भेद है। जीवसमूहके कम के भी वे प रणाम वशेष है
अथात् वे सब ग तयाँ जीवके कमके वशेष प रणामा द प है।
यह बात अ त गहन है । यो क अ च य जीव-वीय, अ च य पु ल-साम य, इनके संयोग वशेषसे
लोकका प रणमन होता है। उसका वचार करनेके लये उसे अ धक व तारसे कहना चा हये। परंतु

ँ ो ो ै े ो े े े े
यहाँ तो मु यत आ मा कमका भो ा है इतना ल य करानेका आशय होनेसे अ यत स ेपसे यह सग
कहा है । (८६)
शका- श य उवाच
[जीवका उस कमसे मो नही है ऐसा श य कहता है -]
कता भो ा जीव हो, पण तेनो न ह मो ।
वो यो काळ अनंत पण, वतमान छे दोष ॥८॥
जीव कता और भो ा हो, परतु इससे उसका मो होना सभव नही है, यो क अनत काल बीत
जानेपर भी कम करने प दोष आज भी उसमे वतमान ही है ।।८७||
शुभ करे फळ भोगवे, दे वा द ग त माय।
अशुभ करे नरका द फळ, कम र हत न याय ॥८॥
शुभ कम करे तो उससे दे वा द ग तमे उसका शुभ फल भोगता है और अशुभ कम करे तो
नरका द ग तमे उसका अशुभ फल भोगता है, परतु जीव कमर हत कही भी नही हो सकता ॥८८॥ .
___ समाधान-स उवाच
[उस कमसे जीवका मो हो सकता है ऐसा स समाधान करते है --]
जेम शुभाशुभ कमपद, जा यां सफळ माण।
तेम नवृ सफलता, माटे मो सुजाण ॥८९॥
जस तरह तूने शुभाशुभ कम उस जीवके करनेसे होते ए जाने, और उससे उसका भो ृ व
जाना, उसी तरह कम नही करनेसे अथवा उस कमक नवृ करनेसे वह नवृ भी होना यो य है,
इस लये उस नवृ क भी सफलता है, अथात् जस तरह वे शुभाशुभ कम न फल नही जाते उसी तरह
उनक नवृ भी न फल जाना यो य नही है, इस लये वह नवृ प मो है ऐसा हे वच ण | तू
वचार कर ||८||
वी यो काळ अनंत ते, कम शुभाशुभ भाव।
तेह शुभाशुभ छे दतां, ऊपजे मो वभाव ॥१०॥
कमस हत अनतकाल बीता, वह तो उस शुभाशुभ कमके त जीवक आस के कारण बीता, परतु
उसके त उदासीन होनेसे उस कमफलका छे दन होता है, और उससे मो वभाव गट होता है ॥२०॥
दे हा दक संयोगनो, - आ य तक वयोग।
स मो शा त पदे , नज अनंत सुखभोग ॥११॥
दे हा द सयोगका अनु मसे वयोग तो आ करता है, परतु उनका फरसे हण न हो इस तरह
वयोग कया जाय, तो स व प मो वभाव गट होता है, और शा तपदमे अनत आ मानद भोगा
जाता है ॥२१॥

५५९
शका- श य उवाच
[मो का उपाय नही है ऐसा श य कहता है --]
होय कदा प मो पद, न ह अ वरोध उपाय। .
कम काळ अनतनां, शाथी छे ां जाय ? ॥१२॥
मो पद कदा चत् ' हो तो भी वह ा त होनेका कोई अ वरोधी अथात् यथात य तीत हो ऐसा
उपाय मालूम नह होता, यो क अनतकालके कम ह, उनका ऐसी अ पायुवाली मनु यदे हसे छे दन कैसे
कया जाये ? ||९२॥
अथवा मत दशन घणां, कहे उपाय अनेक ।
तेमां मत साचो कयो, बने न एह ववेक ॥१३॥
अथवा कदा चत् मनु यदे हक अ पायु आ दक शका छोड़ दे , तो भी मत और दशन ब तसे है,
और वे मो के अनेक उपाय कहते है, अथात् कोई कुछ कहता है और कोई कुछ कहता है उनमे कौनसा
मत स चा है, यह ववेक नही हो सकता ॥९३।।
कई जा तमां मो छे , कया वेषमा मो ।
एनो न य ना बने, घणा भेद ए दोष ॥१४॥
ा ण आ द कस जा तमे मो है, अथवा कस वेषमे मो हे, इसका न य भी नही हो सकने
जैसा है, यो क वैसे अनेक भेद है, और इस दोषसे भी मो का उपाय ा त होने यो य दखायी नह
दे ता ॥१४॥
तेथी एम जणाय छे , मळे न मो उपाय।
जीवा द जा या तणो, शो उपकार ज थाय? ॥९५॥
इससे ऐसा लगता है क मो का उपाय ा त नही हो सकता, इस लये जीव आ दका व प
जाननेसे भी या उपकार हो ? अथात् जस पदके लये जानना चा हये उस पदका उपाय ा त होना
अश य दखायी दे ता है ॥१५॥
पांचे उ रथी थयु, समाधान सवाग।
समजु मो उपाय तो, उदय उदय स ा य ॥१६॥
आपने जो पांचो उ र कहे ह, उनसे मेरी शकाओका सवाग अथात् सवथा समाधान आ है,
परतु य द मै मो का उपाय समझं तो स ा यका उदय-उदय हो। यहाँ 'उदय' 'उदय' श द दो वार
कहा है, वह पाँच उ रोके समाधानसे ई मो पदक ज ासाक ती ता द शत करता है ॥९॥
समाधान-स उवाच

ो ै ऐ े
[मो का उपाय है ऐसा स समाधान करते ह -]
पाचे उ रनी थई, आ मा वषे तीत ।
थाशे मो ोपायनी, सहज तीत ए रीत ॥९॥
जस तरह तेरे आ मामे पांचो उ रोक ती त ई है, उसी तरह तुझे मो के उपायको भी सहज
मे ती त होगी। यहाँ 'होगी' और 'सहज' ये दो श द स ने कहे ह, वे यह बतानेके लये कहे ह क
जसे पांच पदोक शंका नवृ हो गयी है उसके लये मो ोपाय समझना कुछ क ठन ही नह है, तथा
श यक वशेष ज ासावृ जानकर उसे अव य मो ोपाय प रण मत होगा, ऐसा भा सत होनेसे
(वे श द ) कहे ह, ऐसा स के वचनका आशय है ॥९८॥ .

५६०
कमभाव अ ान छे , मो भाव नजवास।
अंधकार अ ान सम, नाशे ान काश ॥९८॥
जो कमभाव है वह जीवका अ ान है और जो मो भाव है वह जीवक अपने व पमे थ त
होना है । अ ानका वभाव अधकार जैसा है। इस लये जैसे काश होते ही ब तसे कालका अधकार होने-
पर भी वह न हो जाता है, वैसे ानका काश होते ही अ ान भी न हो जाता है ||९८||
जे जे कारण बंधनां, -तेह बंधनो पंथ ।
ते कारण छे दक दशा, मो पंथ भवसंत ॥१९॥
जो जो कमबंधके कारण ह, वे वे कमबधके माग है, और उन कारणोका छे दन करनेवाली जो
दशा है वह मो का माग है, भवका अत है ||९||
राग, े ष, अ ान ए, मु य कमनी ंथ ।
थाय नवृ जेहथी, तेज मो नो पंथ ॥१०॥
राग, े ष और अ ान इनका एक व कमक मु य गाँठ है, अथात् इनके बना कमका बध नह
होता; जससे उनक नवृ हो, वही मो का माग है ॥१०॥
आ मा सत् चैत यमय, सवाभास र हत ।
जेथी केवळ पा मये, मो पंथ ते रीत ॥१०॥
'सत्' अथात् 'अ वनाशी', और 'चैत यमय' अथात 'सवभावको का शत करने प वभावमय',
'अ य सव वभाव और दे हा द संयोगके आभाससे र हत ऐसा', 'केवल' अथात् 'शु आ मा' ा त कर
इस कार वृ क जाये वह मो माग है ॥१०१॥
कम अनंत कारनां, तेमां मु ये आठ।
तेमा मु य मोहनीय, हणाय ते कई पाठ ॥१०२॥
कम अनत कारके है, पर तु उनके ानावरण आ द मु य आठ भेद होते ह। उनमे भी
मु य मोहनीय कम है। उस मोहनीय कमका नाश जस कार कया जाये, उसका पाठ कहता ँ ॥१०२॥
कम मोहनीय भेद बे, दशन चा र नाम ।
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥१०॥
उस मोहनीय कमके दो भेद ह--एक 'दशनमोहनोय' अथात् 'परमाथमे अपरमाथबु और अपर-
माथमे परमाथबु प', सरा 'चा र मोहनीय', 'तथा प परमाथको परमाथ जानकर आ म वभावमे
जो थरता हो, उस थरताके रोधक पूवस कार प कषाय और नोकषाय', यह चा र मोहनीय है।
आ मबोध दशनमोहनीयका और वीतरागता चा र मोहनीयका नाश करते है । इस तरह वे उसके
अचूक उपाय ह, यो क म याबोध दशनमोहनीय है, उसका तप स या मबोध है । और चा र मोहनीय
रागा दक प रणाम प है, उसका तप वीतरागभाव है । अथात् जस तरह काश होनेसे अधकारका
नाश होता है, वह उसका अचूक उपाय है, उसी तरह बोध और वीतरागता दशनमोहनीय और
चा र मोहनीय प अंधकारको र करनेमे काश व प ह, इस लये वे उसके अचूक उपाय ह ।।१०३॥
कमबंध ोधा दथी, हणे मा दक तेह ।
य अनुभव सवने, एमा शो संदेह ? ॥१०४॥
ोधा द भावसे कमबर होता है, और मा द भावसे उसका नाश होता है, अथात् मा रखनेसे
ोध रोका जा सकता है, सरलतासे माया रोक जा सकती है, सतोषसे लोभ रोका जा सकता है, इसी
तरह र त, अर त आ दके तप से वे वे दोष रोके जा सकते है, यही कमबधका नरोध है, और यही

५६१
उसक नवृ है। तथा इस बातका सबको य अनुभव है अथवा सभी इसका य अनुभव भी कर
सकते ह । ोधा द रोकनेसे कते है, और जो कमवधको रोकता है, वह अकमदशाका माग है। यह माग
परलोकमे नही, परंतु यही अनुभवमे आता है, तो फर इसमे सदे ह या करना ? ॥१०॥
छोडी मत दशन तणो, आ ह तेम वक प।
क ो माग आ साघशे, ज म तेहना अ प ॥१०५॥
यह मेरा मत है, इस लये मुझे इससे चपटा ही रहना चा हये, अथवा यह मेरा दशन है, इस लये
चाहे जैसे मुझे उसे स करना चा हये, ऐसे आ ह अथवा ऐसे वक पको छोड़कर, यह जो माग कहा है,
इसका जो साधन करेगा, उसके अ प ज म समझना।
यहाँ 'ज म' श दका ब वचनमे योग कया है, वह इतना ही बतानेके लये क व चत् वे
साधन अधूरे रहे हो उससे, अथवा जघ य या म यम प रणामक धारासे आरा धत ए हो, उससे सव

ो े े ो ै े ी ी
कम का य न हो सकनेसे सरा ज म होना सभव है; परतु वे ब त नही, ब त ही अ प । 'सम कत
आनेके प ात य द जीव उसका वमन न करे तो अ धकसे अ धक प ह भव होते है', ऐसा जने रने
कहा है, और 'जो उ कृ तासे उसका आराधन करे उसका उसी भवम भी मो होता है', यहाँ इस
बातका वरोध नह है ॥१०५||
षट् पदनां षट् त, पूछयां करी वचार ।
ते पदनी सवागता, मो माग नधार ॥१०६॥
हे श य । तने छ पदोके छ वचार कर पूछे है, और उन पदोक सवागतामे मो माग है.
ऐसा न य कर । अथात् उसमेसे कसी भी पदका एका तसे या अ वचारसे उ थापन करनेसे मो माग
स नही होता ॥१०६॥
जा त, वेषनो भेद न ह, क ो माग जो होय ।
साधे ते मु लहे, एमां भेद न कोय ॥१०७॥
जो मो का माग कहा है, वह हो तो चाहे जस जा त या वेपसे मो होता है, इसमे कोई भेद
नह है । जो साधन करे वह मु पद पाता है, और उस मो मे भी अ य कसी कारके ऊँच, नीच आ द
भेद नही है, अथवा ये जो वचन कहे है उनमे कोई सरा भेद या अतर नही है ।।१०७॥
___ कषायनी उपशांतता, मा मो अ भलाष ।।
भवे खेद अंतर दया, ते कहोए ज ास ॥१०८॥
ोध आ द कषाय जसके पतले पड गये ह, जसके आ मामे मा मो पानेके सवाय अ य कोई
इ छा नही है, और ससारके भोगके त उदासीनता रहती है, तथा अंतरमे ा णयो पर दया रहती है,
उस जीवको मो मागका ज ासु कहते है, अथात् उसे माग ा त करनेके यो य कहते ह ॥१०८।।
ते ज ासु जीवने, थाय स बोध ।
तो पामे सम कतने, वत अतरशोध ॥१०९॥
उस ज ास जीवको य द स का उपदे श ा त हो जाये तो वह सम कतको ा त होता है, और
अतरको शोधमे रहता है ॥१०९।।
मत दशन आ ह तजो, वत स ल ।
लहे शु सम कत ते, जेमां भेद न प ॥११०॥
मत और दशनका आगह छोड़कर जो स के ल यमे वृ होता है, वह शु सम कत पाता है
क जसमे भेद तथा प नही है ॥११०॥

५६२
__ वत नज वभावनो, अनुभव ल तीत।
वृ वहे नजभावमां, परमाथ सम कत ॥११॥
जहाँ आ म वभावका अनुभव, ल य, और ती त रहती है, तथा वृ आ माके वभावमे बहती
है, वहाँ परमाथसे सम कत है ।।१११॥
वधमान सम कत थई, टाळे म याभास।
उदय थाय चा र नो, वीतरागपद वास ॥११२॥
वह सम कत, बढती ई धारासे हा य, शोक आ दसे जो कुछ आ मामे म याभास भा सत आ
है, उसे र करता है, और वभाव समा ध प चा र का उदय होता है, जससे सव राग े षके य प
वीतरागपदमे थ त होती है ॥११२।।।
केवळ नज वभावनू, अखंड वत ान ।
__कहीए केवळ ान ते, दे ह छतां नवाण ॥११३॥
जहाँ सव आभाससे र हत आ म वभावका अखड अथात् कभी भी ख ड़त न हो, मंद न हो, न
न हो ऐसा ान रहे, उसे केवल ान कहते ह, जस केवल ानको पानेसे उ कृ जीव मु दशा प नवाण,
दे हके रहते ए भी यही अनुभवमे आता है ॥११३।।
को ट वषतुं व पण, जा त थतां शमाय।
तेम वभाव अना दनो, ान थतां र थाय ॥११४॥
___ करोड़ वषका व हो तो भी जानत होनेपर तुरत शात हो जाता है, उसी तरह अना दका जो
वभाव है, वह आ म ान होनेपर र हो जाता है ॥११४।।
छू टे दे हा यास तो, न ह कता तुं कम।
न ह भो ा तु तेहनो, ए ज धमनो मम ॥११५॥
हे श य | दे हमे जो आ मभाव मान लया है, और उसके कारण ी, पु आ द सवमे अहता-
ममता रहती है, वह आ मभाव य द आ मामे हो माना जाये, और वह दे हा यास अथात् दे हमे आ मबु
तथा आ मामे दे हबु है, वह छू ट जाये, तो त कका कता भी नही है और भो ा भी नह है, और
यही धमका मम है ॥११५॥
ए ज धमथी मो छे , तु छो मो व प ।
__ अनंत दशन ान तु, अ ाबाध व प ॥११६॥
इसी धमसे मो है, और तू ही मो व प है, अथात् शु आ मपद ही मो है । तू अनत ान
दशन तथा अ ाबाध सुख व प है ।।११६॥
शु बु चैत यधन, वयं यो त सुखधाम ।
बोज कहोए केटलु? कर वचार तो पाम ॥११७॥
तू दे ह आ द सब पदाथ से भ है। कसीमे आ म मलता नही है, कोई उसमे मलता
नही है। परमाथसे एक सरे से सदा ही भ है, इस लये तू शु है, बोध व प है, चैत य-

े ै ो ोई ी े ी ै े ी ै
दे शा मक है, वय यो त अथात् कोई भी तुझे का शत नही करता है, वभावसे ही तू काश व प है,
और अ ावाध सुखका धाम है। और कतना कहे ? अथवा अ धक या कहे ? स ेपमे इतना ही कहते
ह क य द तू वचार करेगा तो उस पदको पायेगा ||११७||
न य सव ानीनो, आवी अ समाय।
धरी मौनता एम कही, सहजसमा ध माय ॥११८॥

५६३
सव ा नयोका न य यहाँ आकर समा जाता है, ऐसा कहकर स मौन धारण कर सहज
समा धमे थत ए, अथात् उ होने वाणी योगक वृ बद कर द ॥११८||, . , ,
श यबोधबीज ा तकथन
स ना उपदे शथी, आ ु अपूव भान ।
नजपद नजमांही ला , र थयु अ ान ॥११९॥
श यको स के उपदे शसे अपूव अथात् पहले कभी ा त नही आ था ऐसा भान आया, और
उसे अपना व प अपनेमे यथात य भा सत आ; और दे हा मबु प अ ान र आ ॥११९॥
भा यु नज व प ते, शु चेतना प।
अजर, अमर, अ वनाशी ने, दे हातीत व प ॥१२०॥
अपना व प शु चैत य व प, अजर, अमर, अ वनाशी और दे हसे प भ भा सत
आ ॥१२०॥
कता भो ा कमनो, वभाव वत यांय ।
वृ वही नजभावमा, थयो अकता यांय ॥१२॥
जहाँ वभाव अथात् म या व है, वहाँ मु य नयसे कमका कतृ व और भो ृ व है, आ म वभाव
मे वृ बही, उससे अकता आ ।।१२१॥
अथवा नजप रणाम जे, शु चेतना प।
कता भो ा तेहनो, न वक प व प ॥१२२॥
अथवा आ मप रणाम जो शु चैत य व प है, उसका न वक प पसे कता-भो ा आ ॥१२२।।
गो क ो नजशु ता, ते पामे ते पथ ।
समजा ो स ेपमां, सकळ माग न ंय ॥१२३॥
आ माका जो शु पद है वह मो है और जससे वह ा त कया जाये, वह उसका माग है,
ी स ने कृपा करके न ंथका सारा माग समझाया ॥१२३।।।
अहो ! अहो ! ी स , क णा सधु अपार ।
आ पामर पर भु कय , महो! अहो! उपकार ॥१२४॥
अहो । अहो । क णाके अपार समु व प, आ मल मीसे यु स , आप भुने इस पामर
जीवपर आ यकारक उपकार कया है ॥१२४॥
शं भु चरण कने ध ं , आ माथी सौ हीन ।
ते तो भुए आ पयो, वतुं चरणाधीन ॥१२५॥
मै भके चरणोमे या रख ? (स तो परम न काम है, केवल न काम क णासे मा उपदे श-
के दाता है. परत श यने श यधमानुसार यह वचन कहा है। ) जगतमे जो जो पदाथ ह वे सब आ माक
अपे ासे म यहीन जैसे ह, वह आ मा तो जसने दया उसके चरणोमे म अ य या रखू ? म केवल
उपचारसे इतना करनेको समथ ँ क मै एक भुके चरण के ही अधीन र ँ ।।१२५॥
आ दे हा द आजथी, वत भु आधीन ।
दास, दास दास छु , तेह भुनो दोन ॥१२६॥
यादे त 'आ द' श दसे जो कुछ मेरा माना जाता है, वह आजसे स भुके अधीन रहे। म
उस भुका दास , ँ दास ँ द नदास ँ ॥१२६।।

५६४
षट् थानक समजावीने, भ बता ो आप। .
यान थक तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥१२७॥
छहो थानक समझाकर हे स दे व | आपने दे हा दसे आ माको, जैसे यानसे तलवार अलग
कालकर दखाते है वैसे प भ बताया। आपने ऐसा उपकार कया जसका माप नही हो
कता ||१२७॥
उपसहार
दशन पटे समाय छे , आ षट् थानक माही।
वचारतां व तारथी, संशय रहे न कांई ॥१२८॥
छहो दशन इन छ थानकोमे समा जाते है। इनका वशेपतासे वचार करनेसे कसी भी
कारका सशय नही रहता ॥१२८॥
आ म ा त सम रोग न ह, स वै सुजाण ।
गु आ ा सम प य न ह, औषध वचार यान ॥१२९।।
आ माको अपने व पका भान न होनेके समान सरा कोई रोग नह है, स के समान उसका
ई स चा अथवा नपुण वै नही है, स क आ ामे चलनेके समान और कोई प य नह है, और

े ो ोई औ ी े
चार तथा न द यासनके समान उस रोगका कोई औपध नही हे ॥१२९||
जो इ छो परमाथ तो, करो स य पु षाथ ।
भव थ त आ द नाम लई, छे दो न ह आ माथ ॥१३०॥
य द परमाथक इ छा करते हो तो स चा पु षाय करो, और भव थ त आ दका नाम लेकर
माथका छे दन न करो ॥१३०॥
न यवाणी साभळ , साधन तजवां नो'य।
न य राखी ल मां, साधन करवा सोय ॥१३॥
आ मा अवध है, असग है, स है, ऐसी न य- धान वाणीको सुनकर साधनोका याग करना
य नही है। पर तु तथा प न यको ल यमे रखकर साधन अपनाकर उस न य व पको ा त
रना चा हये ॥१३१||
नय न य एकांतथी, मामा नयी कहेल।
एकाते वहार न ह, ब े साथ रहेल ॥१३२॥
यहाँ एकातसे न यनय नही कहा है, अथवा एकातसे वहारनय नही कहा है, दोनो जहाँ जहाँ
जस तरह घ टत होते ह उस तरह साथ साथ रहे ए ह ।।१३२॥
ग छमतद जे क पना, ते न ह स वहार।
__भान नह नज पन, ते न य न ह सार ॥१३३॥
१ इस 'आ म स शा ' क रचना बी सोभागभाई आ दके लये ई थी, यह इस अ त र गाथासे
पालम होगा।
ी सुभा य ने बी अचळ, आ द मुमु ु काज ।
___ तथा भ हत कारणे, क ो बोध सुखसाज ॥
भावाथ- ी सुभा य तथा ी अचल (डु गरसी भाई) आ द मुमु ुओके लये तथा भ यजीवोके हतके लये
यह सुखदायक उपदे श दया है।

५६५
ग छ-मतक जो क पना है वह सद् वहार नह है, पर तु आ मा के ल णोमे जो दशा कही है
और मो ोपायमे ज ासुके जो ल ण आ द कहे ह, वे सद् वहार है, जसे यहाँ तो स ेपमे कहा है।
अपने व पका भान नही है, अथात् जस तरह दे ह अनुभवमे आती है उस तरह आ माका अनुभव नही
आ है, दे हा यास रहता है, और जो वैरा य आ द साधन ा त कये बना न य न य च लाया
करता है, वह न य सारभूत नही है ।।१३३।।
आगळ ानी थई गया, वतमानमा होय।
थाशे काळ भ व यमां, मागभेद न ह कोय ॥१३४॥
भूतकालमे जो ानीपु ष हो गये है, वतमानकालमे जो ह, और भ व यकालमे जो होगे, उनके
मागमे कोई भेद नही है, अथात् परमाथसे उन सबका एक माग है, और उसे ा त करने यो य वहार भी,
उसी परमाथके साधक पसे दे श, काल आ दके कारण भेद कहा हो, फर भी एक फलका उ पादक होने-
से उसमे भी परमाथसे भेद नही है ॥१३४॥
. सव जीव छे स सम, जे समजे ते थाय।
स आ ा जनदशा, न म कारण मांय ॥१३५॥
__ सब जीवोमे स के समान स ा है, पर तु वह तो जो समझता हे उसे गट होती है। उसके गट
होनेमे ये दो न म कारण ह-स को आ ासे वृ करना और स ारा उप द जनदशाका
वचार करना ॥१३५॥
उपादानतुं नाम लई, ए जे तजे न म ।
. पामे न ह स वने, रहे ां तमा थत ॥१३६॥
स क आ ा आ द उस आ मसाधनमे न म कारण है, और आ माके ान-दशन आ द उपा-
दान कारण है, ऐसा शा मे कहा है, इससे उपादानका नाम लेकर जो कोई उस न म का याग करेगा
वह स वको ा त नह करेगा, और ा तमे रहा करेगा, यो क स चे न म के नषेधके लये शा -
मे उस उपादानक ा या नही कही है, पर तु उपादानको अजा त रखनेसे स चा न म मलनेपर भी
काम नही होगा, इस लये स चा न म मलनेपर उस न म का अवल बन लेकर उपादानको स मख
करना और पु षाथर हत नही होना ऐसा शा कारक कही ई ा याका परमाथ है ।।१३६]
मुखथी ान कथे अने, अंतर् छू ो न मोह।
ते पामर ाणी करे, मा ानीनो ोह ॥१३७॥
मुखसे न य- धान वचन कहता है, परतु अतरसे अपना ही मोह नही छू टा, ऐसा पामर ाणी
मा ानी कहलवानेक कामनासे स चे ानीपु षका ोह करता है ॥१३७॥
दया, शा त, समता, मा, स य, याग, वैरा य।
होय मुमु ु घट वषे, एह सदाय सुजा य ॥१३८॥
दया, शा त, समता, मा, स य, याग और वैरा य ये गुण मुमु ुके घटमे सदा ही जा त रहते
ह, अथात् इन गुणोके बना मुमु ुता भी नही होती ।।१३८॥
मोहभाव य होय या, अथवा होय शात।
ते कहोए ानोदशा, वाको कहीए ांत ॥१३९॥
जहाँ मोहभावका य आ हो, अथवा जहाँ मोहदशा अ त ीण ई हो, वहाँ ानीक दशा कही
जाती है और बाक तो जसने अपनेमे ान मान लया है उसे ा त कहते ह ॥१३९।।
५६६
सकळ जगत ते एठवत, अथवा व समान ।
ते कहीए ानोदशा, बाक वाचा ान ॥१४०॥
जसने सम त जगतको जूठनके समान जाना है, अथवा जसे ानमे जगत व के समान लगता
है, वह ानीक दशा है, बाक मा वाचा ान अथात् कथनमा ान है ॥१४०।।
थानक पांच वचारीने, छठे वत जेह।।
पामे थानक पांचम, एमां न ह संदेह ॥१४॥
पाँचो थानकोका वचारकर जो छटे थानकमे वृ करता है, अथात् उस मो के जो उपाय
कहे है, उनमे वृ करता है, वह पाँचवे थानक अथात् मो पदको पाता है ।।१४१।।
दे ह छता जेनी दशा, वत दे हातीत ।
ते ानीना चरणमा, हो वंदन अग णत ॥१४२॥
पूव ार धयोगसे जसे दे ह रहती है, परतु उस दे हसे अतीत अथात् दे हा दक क पनासे र हत
आ मामय जसक दशा रहती है, उस ानीपु पके चरणकमलमे अग णत बार वदन हो ॥१४२।।
*साधन स दशा अह , कही सव स ेप ।
षट् दशन सं ेपमा, भा यां न व ेप ॥
ीस चरणापणम तु ।
७१९ न डयाद, आसोज वद १०, श न, १९५२
आ माथ , मु नपथा यासी ी ल लुजी तथा ी दे वकरणजी आ दके त, ी तंभतीथ ।
प ा त आ था।
ी स दे वके अनु हसे यहाँ समा ध है।
इसके साथ एकातमे अवगाहन करनेके लये 'आ म स शा ' भेजा है । वह अभी ी ल लुजीको
अवगाहन करना यो य है।
ी ल लुजी अथवा ी दे वकरणजीको य द जनागमका वचार करनेक इ छा हो तो 'आचाराग'
'सूयगडाग', 'दशवका लक', 'उ रा ययन' और ' ाकरण' वचारणीय ह ।
__'आ म स शा ' का अवगाहन ी दे वकरणजीके लये भ व यमे अ धक हतकारी समझकर,
अभी मा ी ल लजीको उसका अवगाहन करनेके लये लखा है, फर भी य द ी दे वकरणजीक अभी
वशेप आका ा रहती हो तो उ हे भी, य स पु ष जैसा मुझपर कसीने परमोपकार नही कया
है, ऐसा अखड न य आ मामे लाकर, और इस दे हके भ व य जीवनमे भी उस अखड न यको छोड
ं तो मने आ माथका ही याग कर दया और स चे उपकारीका कृत न बननेका दोष कया, ऐसा ही
समझूगा, और स पु पका न य आ ाकारी रहनेमे ही आ माका क याण है, ऐसा, भ भावर हत, लोक-
सवधी सरे कारक सव क पना छोडकर, न य लाकर, ी ल लुजी मु नके सा यमे यह थ
अवगाहन करनेमे अभी भी आप नह है । ब त-सी शकाओका समाधान होने यो य है ।
___ स पु षक आ ामे चलनेका जसका ढ न य है और जो उस न यका आराधन करता है,
उसे ही ान स यक् प रणामी होता है, यह वात आ माथ जीवको अव य यानमे रखना यो य है ।
हमने जो ये वचन लखे ह, उसके सव ानीपु ष सा ी है।
*भावाथ-यहाँ सव साधन ओर स दशा स ेपम कहे ह, और स ेपम व ेपर हत षड् दशन बताये ह।

५६७
सरे मु नयोको भी जस जस कारसे वैरा य, उपशम और ववेकक वृ हो, उस उस कार
ी ल लुजी तथा ी दे वकरणजीको उ हे यथाश सुनाना और वृ कराना यो य है । तथा अ य जी
भी आ माथके स मुख हो, और ानीपु पक आ ाके न यको ा त कर तथा वर प रणामको ा
कर, रसा दक लु धता मद कर इ या द कारसे एक आ माथके लये उपदे श कत है।
अनंतबार दे हके लये आ माका उपयोग कया है। जस दे हका आ माके लये उपयोग होगा उ
दे हमे आ म वचारका आ वभाव होने यो य जानकर, सव दे हाथक क पना छोडकर, एक मा आ माथ
ही उसका उपयोग करना, ऐसा न य मुमु ुजीवको अव य करना चा हये । यही वनती ।
सव मुमु ुओको नम कार ा त हो ।
ी सहजा म व प

७२० न डयाद, आसोज वद १२, सोम, १९५ः
शरछ ी पताजी,
आपक च आज मली है। आपके तापसे यहाँ सुखवृ है ।
बंबईसे इस ओर आनेमे केवल नवृ का हेतु है, शरीरक बाधासे इस तरफ आना आ हो ऐस
नही है। आपक कृपासे शरीर ठ क रहता है । बबईमे रोगके उप वके कारण आपक तथा रेवाशकरभाई-
क आ ा होनेसे इस ओर वशेष थरता क है, और इस थरतामे आ माको वशेषत नवृ रही
है। अभी बबईमे रोगको शा त ब त कुछ हो गयी है, संपूण शा त हो जानेपर उस ओर जानेका वचार
रखा है, और वहाँ जानेके बाद ाय भाई मनसुखको आपक ओर कुछ समयके लये भेजनेका च है,
जससे मेरी माताजीके मनको भी अ छा लगेगा । आपके तापसे पैसा कमानेका ायः लोभ नही है.
परतु आ माका परम क याण करनेक इ छा है। मेरी माताजीको पादवदन ा त हो। ब हन झवक तथा

ई ो ो ो
भाई पोपट आ दको यथायो य ।
बालक रायचदके दडवत् ा त हो ।
- ७२१
न दयाद, आसोज वद ३०, १९५२
ी डगरको 'आ म स ' कठ थ करनेक इ छा है। उसके लये वह त उ हे दे नेके वारेमे
पछा है, तो वैसा करनेमे आप नही है। ी डु गरको यह शा क ठ थ करनेक आ ा है, परतु
अभी उसक सरी त न लखते ए इस तसे ही क ठ थ करना यो य है, और अभी यह त
आप ी डगरको दो जयेगा। उ हे क हयेगा क कंठ थ करनेके बाद वापस लौटाय, पर तु सरी
नकल न करे।
जो ान महा नजराका हेतु होता है वह ान अन धकारो जीवके हाथमे जानेसे उसे ाय अ हत-
कारी होकर प रणत होता है।
कोसोभागके पाससे पहले कतने ही प ोको नकल कसी कसी अन धकारोके हाथमे गयी है।
पहले उनके पाससे कसी यो य के पास जाती है और बादमे उस के पाससे अयो य के
पास जाती है ऐसा होनेक सभावना हमारे जाननेमे ह । “आ म स " के सवधमे आप दोनोमेसे कसीको
आ ाका उ लघन कर बरताव करना यो य नह है । यही वनती।

५७०
हो, उसका भरण-पोषण मा मलता हो तो उसमे सतोष करके मुमु ुजीव आ म हतका ही वचार करता
है, तथा पु षाथ करता है। दे ह और दे हस ब धी कुटु बके माहा या दके लये प र ह आ दक
प रणामपूवक मृ त भी नही होने दे ता, यो क उस प र ह आ दक ा त आ द काय ऐसे ह क वे
ाय. आ म हतके अवसरको ही ा त नही होने दे ते।
७२७ ववा णया, मागशीप सुद १, श न, १९५३
ॐ सव ाय नमः
अ प आयु और अ नयत वृ , असीम बलवान अस सग, पूवक ाय अनाराधकता, बलवीयक
होनता ऐसे कारणोसे र हत कोई ही जीव होगा, ऐसे इस कालमे, पूवकालमे कभी भी न जाना आ,
तीत न कया आ, आरा धत न कया आ और वभाव स न आ आ ऐसा "माग" ा त करना
कर हो इसमे आ य नही है। तथा प जसने उसे ा त करनेक सवाय सरा कोई ल य रखा ही
नही वह इस कालमे भी अव य उस मागको ा त करता है ।
मुमु ुजीव लौ कक कारणोमे अ धक हष- वषाद नही करता।
७२८ . ववा णया, मागशीष सुद ६, गु , १९५३
ी माणेकचदक दे हके छू ट जानेके समाचार जान ।
सभी दे हधारी जीव मरणके समीप शरणर हत है । मा उस दे हके यथाथ व पको पहलेसे जान-
कर, उसके मम वका छे दन कर नज थरताको अथवा ानीके मागको यथाथ ती तको ा त ए ह वे
ही जीव उस मरणकालमे शरणस हत होकर ाय फरसे दे ह धारण नही करते, अथवा मरणकालमे दे हके
मम वभावक अ पता होनेसे भी नभय रहते ह। दे ह छू टनेका काल अ नयत होनेसे वचारवान पु ष
अ मादभावसे पहलेसे ही उसके मम वको नवृ करनेके अ व उपायका साधन करते ह, और यही
आपको, हमे और सवको यान रखना यो य है । ी तवधनसे खेद होना यो य है, तथा प इसमे सरा
कोई उपाय न होनेस, े उस खेदको वैरा य व पमे प रणमन करना ही वचारवानका कत है।
७२९ ववा णया, मागशीष सुद १०, सोम, १९५३
सव ाय नमः
'योगवा स ' के पहले दो करण, 'पचीकरण', 'दासबोध' तथा ' वचारसागर' ये थ आपको
वचार करने यो य ह । इनमेसे कसी थको आपने पहले पढा हो तो भी पूनः पढने यो य है और वचार
करने यो य है । ये थ जैनप तके नह ह, यह जानकर उन थोका वचार करते ए ोभ ा त
करना यो य नह है।
लोक मे जो जो वाते या व तुए- ँ जैसे शोभायमान गहा द आर भ, अलकारा द प र ह,
लोक को वच णता, लोकमा य धमक ा-बड़ पनवाली मानी जाती है उन सब बातो और
व तु का हण करना य जहरका ही हण करना है यो यथाथ समझे वना आप जस वृ का ल य
करना चाहते ह वह नही होता। पहले इन बातो और व तु के त जहर आना क ठन दे खकर
कायर न होते ए पु षाथ करना यो य है ।

५७१
वृ का ल य तथा प सवसगप र यागके त रहनेपर भी जस मुमु ुको ार ध वशेषसे उस
योगका अनुदय रहा करता है, और कुटु ब आ दके सग तथा आजी वका आ दके कारण वृ रहती
है, जो यथा याय करनी पडतो है, पर तु उसे यागके उदयको तबधक जानकर ख ताके साथ करता
है, उस मुमु ुको. पूव पा जत शुभाशुभ कमानुसार आजी वका द ा त होगी, ऐसा वचारकर मा
न म प य न करना यो य है, पर तु भयाकुल होकर चता या याय याग करना यो य नही है,
यो क वह तो मा ामोह है, इसे शात करना यो य है। ा त शुभाशुभ ार धानुसार हे । य न
ावहा रक न म है, इस लये करना यो य है, पर तु चता तो मा आ मगुणरोधक है।
___ ७३२ ववा णया, मागशीष वद ११, बुध, १९५३

ी ी ो ो ो
ी ल लुजी आ द मु नयोको नम कार ा त हो।
आर भ तथा प र हक वृ आ म हतको ब त कारसे रोचक है, अथवा स समागमके योगमे
एक वशेष अतरायका कारण समझकर ानीपु षोने उसके याग प बा सयमका उपदे श दया है, जो
ायः आपको ा त है। फर आप यथाथ भावसयमक अ भलाषासे वृ करते है, इस लये अमू य अवसर
ा त हआ समझकर स शा , अ तबधता, च को एका ता और स पु षोके वचनोको अनु े ा ारा
उसे सफल करना यो य है।
७३३ ववा णया, मागशीष वद ११, बुध, १९५३
वैरा य और उपशमक वृ के लये 'भावनाबोध', 'योगवा स ' के पहले दो करण, 'पचीकरण'
इ या द थ वचार करने यो य है।
जीवमे माद वशेष है, इस लये आ माथके कायमे जीवको नय मत होकर भी उस भादको र
करना चा हये, अव य र करना चा हये।
७३४ वा णया, मागशीष वद ११, बुध, १९५३
ी सभा य आ दके त लखे गये प ोमेसे जो परमाथ स ब धी प हो उनको अभी हो सके तो
एक अलग त ल खयेगा।
सोरा मे अभी कब तक थ त होगी, यह लखना अश य है।
यहाँ अभी थोडे दन थ त होगी ऐसा स भव है।
७३५ ववा णया, पौष सुद १०, मगल, १९५३
वभावके न म बलतासे ा त होनेपर भी जो ानीपु ष अ वषम उपयोगमे रहे है रहते
है, ओर भ व यकालमे रहेगे उन सबको वारवार नम कार ।।

५७२
उ कृ से उ कृ त, उ कृ से उ कृ तप, उ कृ से उ कृ नयम, उ कृ से उ कृ ल ध,
और उ कृ से उ कृ ऐ य ये जसमे सहज ही समा व हो जाते ह ऐसे नरपे अ वषम उपयोगको
नम कार । यही यान है।
७३६ ववा णया, पौष सुद ११, बुध, १९५३
राग े षके य बलवान न म ा त होनेपर भी जनका आ मभाव क चत् मा भी ोभको
ा त नही होता, उन ानीके ानका वचार करते ए भी महती नजरा होती है, इसमे सशय नही है।
७३७ __ववा णया, पौष वद ४, शु , १९५३
आर भ और प र हका इ छापूवक सग हो तो आ मलाभको वशेष घातक है, और वारवार
अ थर एवं अ श त प रणामका हेतु है, इसमे तो सशय नही है, पर तु जहाँ अ न छासे उदयके कसी
एक योगसे वह सग रहता हो वहाँ भी आ मभावक उ कृ ताको बाधक तथा आ म थरताको अतराय
करनेवाला, वह आर भ-प र हका सग ाय होता है, इस लये परम कृपालु ानीपु षोने यागमागका
उपदे श दया है, वह मुमु ुजीवको दे शसे और सवथा अनुसरण करने यो य है।
७३८
ववा णया, सं० १९५३*
26
+ अपूव अवसर एवो यारे आवशे?
यारे थईशुं बा ांतर न ंथ जो ?
सव संबंधनं बंधन ती ण छे द ने,
वचरशुकव मह पु षने पंथ जो ? ॥ अपूव० १॥
सव भावथी औदासी यवृ करी,
मा दे ह ते सयमहेतु होय जो;
अ य कारणे अ य कशु क पे नह ,
दे हे पण क चत् मूछा नव जोय जो ॥ अपूव० २॥
दशनमोह तीत थई ऊप यो बोध जे,
दे ह भ केवल चैत यनु ान जो;
तेथी ीण चा र मोह वलो कये,
वत एवु शु व प, यान जो ॥ अपूव० ३॥
. . * इस का का न त समय नही मलता।
+ भावाथ-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा क जब म वा तथा अ यतरसे न ंथ बनूँगा? सव सवघोके
वधनका ती णतासे छे दनकर महापु पोके मागपर कब चलूगा ? ॥१॥ .
मन सभी परभावोके त सवथा उदासीन हो जाये, दे ह भी केवल सयमसाधनाके लये ही रहे, कसी
सासा रक योजनके लये कसी भी व तुको इ छा न कर, और फर दे हम भी क च मा मूछा न रहे । ऐसा
अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥२॥
दशनमोह तीत होकर दे हसे भ केवल चैत य व पका बोध प ान उ प होता है, जससे चा र मोह
ीण आ दखाई दे ता है, ऐसा शु व पका यान जहाँ रहता है ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा? ॥३॥

५७३
आ म थरता अण सं त योगनी,
मु यपणे तो वत, दे हपय त जो;
ो ी े े ी
घोर परीषह के उपसग भये करी,
आवो शके नह ते थरतानो अंत जो॥ अपूव० ४॥
संयमना हेतुथी योग वतना,
व पल े जनआ ा आधीन जो;
ते पण ण णघटती जाती थ तमां,
अंते थाये नज व पमा लोन जो ॥ अपूव० ५ ॥
पंच वषयमां राग े ष वर हतता,
पंच मादे न मळे मननो ोभ जो;
, े ने काळ, भाव तबध वण,
वचर उदयाधीन पण वीतलोभ जो॥ अपूव० ६॥
ोध ये तो वत ोध वभावता,
मान ये तो दोनपणानु मान जो;
माया ये माया सा ी भावनी,
लोभ ये नह लोभ समान जो॥ अपूव०७॥
ब उपसगकता ये पण- ोध नह ,
वदे च ो तथा प न मळे मान जो;
दे ह जाल पण माया थाय न रोममां,
लोभ नह छो वळ स नदान जो ॥ अपूव०८॥
मन, वचन और कायाके तीन योगोक वृ को न करके यानम न होनेसे वह आ म थरता मु यत
दे डपयत अखड बनी रहती है तथा घोर प रपहसे अथवा उपसगके भयसे उस थरताका अ त नही आ सकता-
ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥४॥
सयमके हेतुसे ही तीन योगोको वृ होती है और वह भी जना ाके अनुसार आ म व पम अखड
थर रहनेके ल यसे होती है तथा वह वृ भी त ण' घटती ई थ तम होती है ता क अ तम नज व पमे
लीन हो जाये । ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥५॥
पाँच इ योके वषयोमे राग े ष नह रहता, (१) इ य (२) वकया, (३) कपाय, (४) नेह ओर
(५) न ा इन पाँच मादोसे मनम कसी कारका ोभ नही होता तथा , े , काल और भावके तव धके
बना ही लोभर हत होकर उदयवशात् वचरण होता है ऐसा अपूव अवसर क, आयेगा ?।६॥
. ोधके त ोध वभावता अथात् ोधके त ोध करनेको वृ रहती है, मानके त अपनी दोनताका
मान होता है. मायाके त सा ीभावक माया रहती है अथात् माया पनी हो तो सा ीभावक माया क जाये.
लोभके त उसके समान लोभ नह रहता अथात लोभ करना हो तो लोभ जैसा न आ जाये-लोभका लोभ न
कया जाये । ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥७॥
बरन उपसग करनेवालेके त भी ोध नही आता, य द च वत वदन करे तो भी लेश मा मान
जयन नही होता. दे हका नाश होता हो तो भी एक रोमम भी माया उ प नह होती, चाहे जैसी वल शा द-
स गट हो तो भी उसका लेशमा लोभ नह होता-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा? ॥८॥

५७४
न नभाव, मु डभाव सह अ नानता,
अदतधोवन आ द परम स जो;
केश, रोम, नख के अगे शृंगार नही,
भाव सयममय, न ंथ स जो ॥ अपूव० ९॥
श ु म ये वत सम शता,
मान अमाने वत ते ज वभाव जो;
जी वत के मरणे नही यूना धकता,
भव मो े पण शु वत समभाव जो ॥ अपूव० १०॥
एकाको वचरतो वळ मशानमां,
वळ पवतमा वाघ सह संयोग जो
अडोल आसन, ने मनमां नही ोभता,
परम म नो जाणे पा या योग जो ॥ अपूव० ११॥
घोर तप यामां पण मनने ताप नह ,
सरस अ े नही मनने स भाव जो;
रजंकण के र वैमा नक दे वनी,
सव मा या पु ल एक वभाव जो ॥ अपूव० १२ ॥
एम पराजय करीने चा र मोहनो,
आQ या या करण अपूव भाव जो;
ेणी पकतणी करीने मा ढता,
अन य चतन अ तशय शु वभाव जो॥ अपूव० १३ ॥
मोह वयंभूरमण समु तरी करी,..
'', थ त यां यां ीणमोह गुण थान जो;- ... -
दगवरता, केशलुचन, नान तथा दत-घावनका याग, केश, रोम, नख और शरीरका शृगार न करना
इ या द अ य धक- स मु नचयासे वा याग प सयम और कषाया दक नवृ प भावसयमसे पूण न ंथ

ो ऐ े
अव था ा त हो ऐसा-अपूव अवसर कब आयेगा? ॥९॥
जहाँ श ु म के त समद शता है, मान-अपमानम समभाव है, जीवन और मरणम यूना धकताका भाव नही
है तथा जहाँ ससार और मो मे भी शु समभाव है-सा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥१०॥
और मशान आ द नजन थानमे अकेले वचरते ए, पवत, वन आ दम बाघ, सह आ द ू र एव हसक
ा णयोका सयोग होनेपर भी मनम जरा भी ोभ न हो; युत ऐसा समझू क मानो - परम म मले ह, ऐसी
आ म से उनके समीपम भी नभय एष थर आसनसे यानम न र ँ-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा? ॥११॥
- घोर तप याम भी मनको सताप न हो, वा द भोजनसे .मनम स ता न हो, रजकण और वैमा नक
दे वक ऋ मे अ तर न मानूं-दोनोको समान समझू । त व से खा पदाथ; धूल और वैमा नक दे वक धन-सप
सभी पु ल प ही ह। ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥१२॥ ।
- इस कार आ म थरताम व नभूत कषाय-नोकषाय प चा र मोहका पराजय करके आठव अपूवकरण
गुण थानक ा त हो, जससे मोहनीयकमका य करनेम समथ पक ेणीपर आ ढ होकर आ माके अ तशय शु
वभावके अन य च तनम त लीन हो जाऊँ। ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा? |१३||: । ' '

५७५
अंत समय यां पूण व प वीतराग थई,
गटायु नज केवळ ान नधान जो ॥ अपूव० १४ ॥
चार कम घनधाती ते व छे द यां,
भवना वीजतणो आ यं तक नाश जो;
सव भाव ाता ा सह शु ता,
कृतकृ य भु वीय अनंत काश जो ॥ अपूव० १५ ॥
वेदनीया द चार कम वत जहां,
बळ सीदरीवत् आकृ त मा जो;
ते दे हायुष आधीन जेनी थ त छे ,
आयुष पूण, म टये दै हक पा जो ॥ अपूव० १६ ॥
मन, वचन, काया ने कमनी वगणा,
छू टे जहां सकळ पु ल संबंध जो
एबुं अयोगी गुण थानक या वततुं,
- महाभा य सुखदायक पूण अबंध जो ॥ अपूव० १७ ॥
एक परमाणु मा नी मळे न पशता,
पूण कलंक र हत अडोल व प जो;
शु नरजन चैत यमू त अन यमय,
अगु लघु, अमूत सहजपद प जो ॥ अपूव० १८॥
पूव योगा द कारणना योगयी,
ऊ वगमन स ालय ा त सु थत जो;
मोह पी वयंभूरमण समु को पार करके ीणमोह नामके बारहव गुण थानम आकर र ँ, और वहां
अतमु तम पूण वीतराग व प होकर अपने केवलजानक न धको गट क ं । ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ॥१४॥
जहाँ चार घनघाती कम - ानावरणीय, दशनावरणीय, मोहनीय और अतराय-का नाश हो जाता है, वहाँ
ससारके बीजका आ य तक नाश हो जाता है ऐसे अनत चतु य प परमा मपदक ा त हो, और सव भावोका शु
ाता- ा होकर कृतकृ यदशा गटे और अनत वीयका काश हो-ऐसा अपूव अवसर कव आयेगा ? ॥१५॥
— जहॉपर-तेरहव गुण थानम जली ई र सीक आकृ तके समान वेदनीय आ द चार अघाती कम हो
शेष रह जाते है, उनक थ त दे हायुके अवीन है, और आयु-कमके नाश होनेपर उनका भी नाश हो जाता है,
जससे शरीर धारण करना ही नही रहता-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥१६॥
जहा मन, वचन, काया ओर कमक वगणा प सम त पु लोका सवध छू ट जाता है, ऐसे अयोगी
गुण थानम अ प समय रहकर महाभा य व प अनत सुखदायक पूण अवघपद-मु पद ा त हो । ऐसा अपूव
अवसर कव आयेगा ? ॥१७॥
। अयोगी गुण थानम एक परमाणु मायका भी पश वध नही होता । यह व प कम प कलफने र हत
ओर दे शोके न कपनसे अचल शु सहज आ म व प है। ऐसी शु , नरजन, चैत यमू त, एक आ मामय, अगुल-
लघु और अमूत सहजा म व पदशा गट हो-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥१८॥
। पूव योगा द कारणोके योगसे ऊवंगमन कर सा द-अनत समा वसुखसे पूण और भनत ान-दशनस हत
स पदम सु थत हो-ऐसा अपूव अवसर कब आयेगा ? ॥१९॥

५७६
ीमद राजच
सा द अनत अनंत समा धसुखमां,
अनंत दशन, ान अनंत स हत जो॥ अपूव० १९॥
जे पद ी सव े दोढुं ानमां,
कही श या नह पण ते ी भगवान जो;
तेह व पने अ य वाणी ते श कहे ?
अनुभवगोचर मा र ं ते ान जो ॥ अपूव० २०॥


एह परमपद ा तनु कयुं यान मे,
गजा वगर ने हाल मनोरथ प जो;
तो पण न य राजचं मनने र ो,
भुआ ा थाशुं ते ज व प जो ॥ अपूव० २१॥
७३९ मोरबी, माघ सुद ९, बुध, १९५३
मु नजीके त,
__ ववा णया प मला था । यहाँ शु वारको आना आ है । यहाँ कुछ दन थ त सभव है।
न डयादसे अनु मसे कस े क ओर वहार होना सभव है, तथा ी दे वक ण आ द मु नयोका
कहाँ एक होना सभव है, यह सू चत कर सके तो सू चत करनेक कृपा क जयेगा।
__ से, े से, कालसे और भावसे यो चारो कारसे अ तबंधता, आ मतासे रहनेवाले न ंथके
लये कही है, यह वशेष अनु े ा करने यो य है।
अभी कन शा ोका वचार करनेका योग रहता है, यह सू चत कर सक तो सू चत करनेक कृपा
क जयेगा।
- ी दे वक ण-आ द मु नयोको नम कार ा त हो ।
७४०
मोरबी, माघ सुद ९, बुध, १९५३
। 'आ म स ' का वचार करते ए आ मा सबधी कुछ भी अनु े ा रहती है या नही ? यह लख
सक तो ल खयेगा।
कोई पु ष वय वशेष सदाचारमे तथा सयममे वृ करता है, उसके समागममे आनेके इ छु क
जीवोको, उस प तके अवलोकनसे जैसा सदाचार तथा सयमका लाभ होता है, वैसा लाभ ाय व तृत
उपदे शसे भी नह होता, यह यानमे रखने यो य है।
७४१ मोरबी, माघ सुद , १०, शु , १९५३
सव ाय नमः
यहाँ कुछ दन तक थ त होना सभव है।
ी सव भगवानने इस पदको अपने ानम दे खा, परतु वे भी इसे नह कह सके । तो फर अ य अ प क
वाणीसे उस व पको कैसे कहा जा सके ? यह ान तो मा अनुभवगोचर ही है ॥२०॥
मैने इस परमपदको ा तका यान कया है। उसे ा त करनेको श तीत नही होतो, इस लये
अभी तो यह मनोरथ प है । तो भो राजचं कहते ह क दयम यह न य रहता है क भुको आ ाका आराधन
करनेसे उसी परमा म व पको ा त करगे ॥२१॥

५७७
अभी ईडर जानेका वचार रखते है। तैयार रहे। ी डु गरको आनेके लये वनती कर। उ हे
भी तैयार रखे। उनके च मे यो आये क वारवार जाना होनेसे लोकापे ामे यो य नही दखायी दे ता।
यो क उ मे अतर । परतु ऐसा वचार करना यो य नही है।
' परमाथ पु षको अव य करने यो य ऐसे समागमके लाभमे यह वक प प अंतराय कत नही
है। इस बार समागमका वशेष लाभ होना यो य है। इस लये ी डु गरको अ य सभी वक प छोड़कर
आनेका वचार रखना चा हये ।
ी डु गर तथा लहेराभाई आ द मुमु ुओको यथायो य |
आनेके बारेमे ी डु गरको कुछ भी सशय न रखना यो य है।
७४२ मोरबी, माघ वद ४, र व, १९५३
स कृतका प रचय न हो तो क जयेगा।
जस तरह अ य मुमु ुजीवोके च मे और जगमे नमल भावक वृ हो उस तरह वृ कत
है। नय मत वण कराया जाये तथा आरभ-प र हके व पको स यक् कारसे दे खते हए, वे नव
और नमलताको कतने तवधक है यह बात च मे ढ हो ऐसी पर परमे ानकथा हो यह कत है।
७४३ ' मोरवी, माघ वद ४, र व, १९५३
"सकळ संसारी इ यरामी, मु नगुण आतमरामी रे।।
मु यपणे जे आतमरामी, ते क हये न कामी रे॥'-मु न ी आनदघनजी
तीनो प मले थे। अभी लगभग प ह दनसे यहाँ थ त है। अभी यहाँ कुछ दन और रहना
संभव है।
प ाकां ा और दशनाका ा मालूम ई है । अभी प आ द लखनेमे ब त ही कम वृ न हो
सकती है। समागमके बारेमे अभी कुछ भी उ र लखना अश य है।
ी ल लुजी और ी दे वकरणजी 'आ म स शा ' का वशेषत मनन कर। सरे म नयोको
भी ाकरण आ द सू स पु षके ल यसे सुनाये जाय तो सुनाय ।
___ ी सहजा म व पसे यथायो य ।
७४४ ववा णया, माघ वद १२, श न, १९५३
ते माट ऊभा करजोडी, जनवर आगळ कहीए रे।
समयचरण सेवा शु दे जो, जेम आनदघन लहीए रे ॥-मु न ी आनदघनजी
'कम थ' नामका शा है, उसे अभी आ दसे अत तक पढनेका, सुननेका और अनु े ा करनेका
प रचय रख सक तो र खयेगा । अभी उसे पढने और सुननेमे न य त दो से चार घडा नयमपूवक
तीत करना यो य है।

ी ी ी े े ै े ी ी ै
१ भावाथ-सब ससारी जीव इ यतुसम ही रमण करनेवाले है, आर केवल मु नजन ही आ मरामी है।
जो मु यतासे आ मरामी होते ह वे न कामी कहे जाते है।
__ २ भावाय-इस कारण मे हाथ जोड खडा रहकर जन भगवानसे ाथना करता ँ क वे मझे शा ा-
नुसार चा र क शु सेवा दान कर, जससे म नानदघन-मो ात क ।

५७८
ववा णया, फागुन सुद २, १९५३
एकांत न यनयसे म त आ द चार ान, संपूण शु ानक अपे ासे वक प ान कहे जा
सकते है, परतु सपूण शु ान अथात् म पूण न वक प ान उ प होनेके ये ान साधन है। उसमे
भो ुत ान मु य साधन है। केवल ान उ प होने म अत तक उस ानका अवलबन है ।, य द कोई
जीव पहलेसे इसका याग कर दे तो केवल ानको ा त नह होता । केवल ान तकक दशा ा त करने.
का हेतु ुत ानसे होता है।
७४६
ववा णया, फागुन सुद २, १९५३
' याग वराग न च मा, थाय न तेने ान ।
अटके याग वरागमां, तो भूले नज भान ॥
जहां क पना ज पना, तहां मानु ःख छांई।
मटे क पना ज पना, तब व तु तन पाई ॥
'पढ पार कहाँ पावनो, मटे न मनको चार।
यो कोलुके बैलकु', घर ही कोश हजार ॥'
'मोहनीय'का व प इस जीवको वारवार अ यत वचार करने यो य है। मो हनीने महान
मुनो रोको भी पलभरमे अपने पाशमे फंसाकर ऋ - स से अ यत वमु कर दया है, शा त सुख-
को छ नकर उ हे णभंगरु तामे ललचाकर भटकाया है।
न वक प थ त लाना, आ म वभावमे रमण करना और मा ाभावसे रहना ऐसा ा नयो-
का जगह जगह बोध है, इस बोधके यथाथ ा त होनेपर इस जीवका क याण होता है।'
ज ासामे रहे यह यो य है।
। कम मोहनीय भेद बे, दशन चा र नाम।
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम ॥
ॐ शा तः

७४७
ववा णया, फागुन सुद २, शु , १९५३
सव मु नयोको नम कार ा त हो।
मु न ी दे वकरणजी 'द नता' के वीस दोहे क ठ थ करना चाहते है, इसमे आ ाका अ त म नही
है। अथात् वे दोहे क ठ थ करने यो य है।
कम अनत कारनां, तेमा मु य आठ।।
तेमां मु ये मोहनीय, हणाय ते क ं पाठ॥
कम मोहनीय भेव बे, दशन चा र नाम । "
हणे बोध वीतरागता, उपाय अचूक आम ॥
- ी 'आ म स शा '
- ७४८ ववा णया, फागुन सुद ४, र व, १९५३
जहाँ उपाय नही वहाँ खेद करना यो य नह है । उ हे श ा अथात् उपदे श दे कर सुधार करनेका
बद रखकर, मलते रहकर काम नवाना ही यो य है ।
१ अथ के लये दे ख 'आ म स ' का प । - २ अथक लये दे ख. े 'आ म स ' का प १०३ ।

५७९
जाननेसे पहले उपालभ लखना ठ क नही । तथा' उपालभसे अ ल ला दे ना मु कल है। अ लक
वषा क जाती है तो भी इन लोगोक री त अभा रा तेपर नही आती । वहाँ या उपाय ?
• • उनके त कोई सरा खेद करना थ है। कमबंधक व च ता है इससे सभीको स ची बात
समझमे नही आ सकती । इस लये उनके दोषका या वचार करना ? ' '
७४९ - ववा णया, फागुन वद ११, १९५३
भोवनक लखी ई च तथा सुणाव और पेटलादके प मले ह।
। 'कम थ' का वचार करनेसे कषाय आ दका ब तसा व प यथाथ समझमे नही आता, वह वशे-
षत अनु े ासे, यागवृ के बलसे और समागमसे समझमे आने यो य है।
' ानका फल वर त है' । वीतरागका यह वचन सभी मुमु ुओको न य मरणमे रखने यो य है ।
जसे पढनेस,
े समझनेसे और वचारनेसे आ मा वभावसे, वभावके काय से और वभावके प रणामसे
उदास न आ, वभावका यागी न आ, वभावके काय का और वभावके फलका यागी न आ, वह
पढना, वह वचारना और वह समझना अ ान है। वचारवृ के साथ यागवृ को उ प करना यही
वचार सफल है, यह ानीके कहनेका परमाथ है।
समयका अवकाश ा त करके नय मत पसे दो-से चार घडी तक मु नयोको अभी 'सूयगडाग' का

ो ै औ े
वचार करना यो य है-शात और वर च से।
१ ७५०+ , ववा णया, फागुन सुद ६, सोम, १९५३
मु न ी ल लुजो तथा दे वकरणजी आ दके त- - ।
- सहज समागम हो जाये अथवा ये लोग इ छापूवक समागम करनेके लये आते हो तो समागम
करनेमे या हा न है ? कदा चत् वरोधवृ से ये लोग समागम करते हो तो भी या हा न है ? हमे तो
उनके त केवल हतकारी वृ से, अ वरोध से समागममे भी , बताव करना है। इसमे या पराभव
है ? मा उद रणा करके समागम करनेका अभी कारण नह है। आप.सब मुमु ु के आचार सवधी
उ हे कोई सशय हो तो भी वक पका अवकाश नही है । वडवामे स पु पके समागममे गये आ द सवधी
ात कर तो उसके उ रमे तो इतना ही कहना यो य है क "आप, हम और सब आ म हतक कामनासे
नकले है, और करने यो य भी यही है । जस पु षके समागममे हम आये है उसके समागममे आप कभी
आकर ती त कर दे ख क उनके आ माक दशा कैसी है ? और वे हमे कैसे उपकारी ह ? अभी आप
इस बातको जाने द। वडवा तकासहजमे भी जाना हो सकता है, और यह तो ान, दशन आ दके
उपकार प सगमे जाना आ है, इस लये आचारक ' मयादाके भंगका वक प करना यो य नही है ।
राग े ष प र ीण होनेका माग जस पु षके उपदे शसे कुछ भी समझमे आये, ा त हो, उस पु पका उपकार
कतना ? और वैसे पु षको कैसे भ करनी, उसे आप ही शा आ दसे वचार कर दे खे। हम तो वैसा
कुछ नही कर सके यो क उ होने वय यो कहा था क -
आपके मु नपनका सामा य वहार ऐसा है क इस अ वर त पु पके त वा व दना द व-
ार कत नही है। उस वहारको आप भी नभाय । उस वहारको आप रख इसमे आपका व छद
नही है इस लये रखना यो य है । ब तसे जीवोको मशयका हेतु नही होगा । हमे कुछ वंदना दक अपे ा
नही है।' इस कारसे ज होने सामा य वहारको भी नभाया था, उनक कैसी होनी चा हये.
+ दे ख आक ५०२ । आफ ५०२ के उपनेके बाद यह पन म तस हत सारा मला है, इस लये यहा फरसे दया है ।

५८०
इसका आप वचार कर। कदा चत् अभी आपको यह बात समझमे न आये तो आगे जाकर समझमे
आयेगी, इस बातमे आप नःसदे ह रहे।
सरे कुछ स माग प आचार- वचारमे हमारी श थलता ई हो तो आप कहे यो क वैसी
श थलता तो र कये वना हतकारी माग ा त नही हो सकता, ऐसी हमारी है।" इ या द सग-
से कहना यो य लगे तो कहे, और उनके त अ े षभाव है ऐसा प उनके यानमे आये वैसी वृ एव
री तसे वतन कर, इसमे सशय कत नही है।
सरे साधुओके बारेमे आपको कुछ कहना कत नह है। समागममे आनेके बाद भी उनके
च मे कुछ यूना धकता रहे तो भी व त न होव। उनके त बल अष भावनासे बताव करना ही
वधम है।
७५१
ववा णया, फागुन वद ११, र व, १९५३
ॐ सव ाय नम
'आ म स ' मे कहे ए सम कतके कारोका वशेषाथ जाननेक इ छा सबधी प मला है।
आ म स मे तीन कारके सम कत उप द है-
(१) आ तपु षके वचनक ती त प, आ ाक अपूव च प, व छद नरोधतासे आ तपु षको
भ प, यह सम कतका पहला कार ह।
(२) परमाथक प अनुभवाशसे ती त यह सम कतका सरा कार है।
(३) न वक प परमाथअनुभव यह सम कतका तीसरा कार है ।
पहला सम कत सरे सम कतका कारण है। सरा सम कत तीसरे सम कतका कारण है।
वीतरागने तीनो सम कत मा य कये ह। तीनो सम कत उपासना करने यो य है, स कार करने यो य ह;
और भ करने यो य ह।
केवल ान उ प होनेके अ तम समय तक वीतरागने स पु षके वचनोके आलंबनका वधान
कया है; अथात् बारहव ीणमोह गुण थानकपयत ुत ानसे आ माके अनुभवको नमल करते करते उस
नमलताक सपूणता ा त होनेपर 'केवल ान' उ प होता है। उसके उ प होनेके पहले समय तक
स पु षका उप द माग आधारभूत है, यह जो कहा है वह नःसदे ह स य है। ।
७५२, ववा णया, फागुन वद ११, र व, १९५३
ले या-जीवके कृ ण आ द ग क तरह भासमान प रणाम ।, . . . .
अ यवसाय-ले या-प रणामक कुछ प पसे वृ । .
संक प-कुछ भी वृ करनेका नधा रत अ यवसाय ।
वक प-कुछ भी वृ करनेका अपूण अ नधा रत, सदे हा मक अ यवसाय । . . .
स ा-कुछ भी आगे पोछे को चतनश वशेष, अथवा मृ त । ,,
प रणाम-जलके वण वभावक तरह क कथ चत् अव थातर पानेक श है, उस
अव थातरक वशेप धारा, वह प रण त है। ..
अ ान- म या वस हत म त ान तथा ुत ान हो तो वह 'अ ान' है।
वभग ान- म या वस हत अती य ान हो वह ' वभग ान' है ।. , . .
व ान-कुछ भी वशेष पसे जानना यह ' व ान' हे।
५८१
ना भराजाके पु ी ऋषभदे वजी तीथकर मेरे परम य है, जससे म सरे वामीको न चा ँ।
ये वामी ऐसे है क स होने पर फर कभी सग नह छोड़ते । जबसे संग आ तबसे उसक आ द है,
परतु वह सग अटल होनेसे अनत है ॥१॥
वशेषाथ :-जो व प ज ासु पु ष ह वे, जो पूण शु व पको ा त ए ह ऐसे भगवानके
व पमे अपनी वृ को त मय करते ह, जससे अपनी व पदशा जागृत होती जाती है और सव कृ
यथा यातचा र को ा त होती है। जैसा भगवानका व प है, वैसा ही शु नयक से आ माका व प
है। इस आ मा और स भगवानके व पमे औपा धक भेद है। वाभा वक पसे दे ख तो आ मा
स भगवानके तु य ही है। स भगवानका व प नरावरण है, और वतमानमे इस आ माका व प
आवरणस हत है, और यही भेद है, व तुतः भेद नही है। उस आवरणके ीण हो जानेसे आ माका
वाभा वक स व प गट होता है।
और जब तक वह वाभा वक स व प गट नही आ, तब तक वाभा वक शु व पको
ा त ए ह ऐसे स भगवानक उपासना कत है, इसी तरह अहंत भगवानक उपासना भी कत है,
यो क वे भगवान सयोगी स है। सयोग प ार धके कारण वे दे हधारी ह, परतु वे भगवान व प-
समव थत ह। स भगवान और उनके ानमे, दशनमे, चा र मे या वीयमे कुछ भी भेद नही है;
इस लये अहत भगवानक उपासनासे भी यह आ मा व पलयको पा सकता है।
पूव महा माओने कहा है -
'जे जाणइ अ रहंत, े द गुण प जवे ह य।
___ सो जाणइ नय अ प, मोहो खलु जाइ त स लयं ॥'
जो अहंत भगवानका व प , गुण और पयायसे जानता है, वह अपने आ माके व पको
जानता है और न यसे उसके मोहका नाश हो जाता है। उस भगवानक उपासना कस अनु मसे
जीवोको कत है, उसे ी आनदघनजी नौव तवनमे कहनेवाले ह, जससे उस सगपर व तारसे
कहेगे।
भगवान स को नाम, गो , वेदनीय और आयु इन कम का भी अभाव है, वे भगवान सवथा
कमर हत है। भगवान अहतको आ म व पको आवरण करनेवाले कोका य रहता है, परतु उपयक
चार कम का पूवबध, वेदन करके ीण करने तक उ ह रहता है, जससे वे परमा मा साकार भगवान
कहने यो य ह।
उन अहत भगवानमे ज होने पूवकालमे 'तीथकरनामकम' का शुभयोग उ प कया होता है, वे
'तीथकर भगवान' कहे जाते ह। जनके ताप, उपदे शवल आ दको शोभा महापु ययोगके उदयसे
आ यकारी होती है। भरत े मे वतमान अवस पणीकालमे ऐसे चौवीस तीथकर ए ह- ी ऋषभदे वसे
ी वधमान तक।
वतमानकालमे वे भगवान स ालयमे व प थत पसे वराजमान है। परतु 'भूत ापनीयनय'
से जानने 'तीथकरपद' का उपचार कया जाता है। उस ओपचा रक नय से उन चोवीस भगवानक
तु त पसे इन चौबीस तवनोक रचना क है।
•••••
५८२
स भगवान सवथा अमूतपदमे थत होनेसे उनके व पका सामा यत' चतन करना कर
है। अहत भगवानके व पका मूल से चतन करना तो वैसा ही कर है, परंतु सयोगी पदके अव-
लंबनपूवक चतन करनेसे वह सामा य जीवोके लये भी वृ थर होनेका कुछ सुगम उपाय है । इस
कारण अहंत भगवानके तवनसे स पदका तवन हो जानेपर भी इतना वशेष उपकार समझकर ी
आनदघनजीने चौबीस तीथकरोके तवन प इस चौबीसीक रचना क है। नम कारम मे भी अहंतपद
थम रखनेका हेतु इतना ही है क उनक वशेष उपका रता है।
____ भगवानके व पका चतन करना यह परमाथ वान पु षोके लये गौणतासे व व पका ही
चतन है । ' स ाभूत' म कहा है-
__ 'जा रस स सहावो, ता रस सहावो स वजीवाणं ।
त हा स ताई, काय वा भ वजो ह ॥'
जैसा स भगवानका आ म व प है वैसा सब जीवोका आ म व प है, इस लये भ जीवोको
स वमे च कत है।
इसी तरह ी दे वच वामीने ी वासुपू यके तवनमे कहा है क ' जनपूजा रे ते नजपूजना' ।
य द यथाथ मूल से दे ख तो जनक पूजा वह आ म व पका ही पूजन है।
व पाका ी महा माओने यो जन भगवान तथा स भगवानक उपासनाको व पक ा तका
हेतु माना है । ीणमोह गुण थानपयत यह व प चतन जीवके लये बल अवलबन है । और फर मा
अकेला अ या म व प च तन जीवको ामोह उ प करता है, ब तसे जीवोको शु कता ा त कराता
है, अथवा वे छाचा रता उ प करता है, अथवा उ म लापदशा उ प करता है। भगवानके
व पके यानावलबनसे भ धान होती है, और अ या म गौण होती है। जससे शु कता,
वे छाचा रता और उ म लापता नह होती, आ मदशा बलवान हो जानेसे वाभा वक अ या म-
धानता होती है। आ मा वाभा वक उ च गुणोको भजता है। इस लये शु कता आ द दोष उ प
नही होते, और भ मागके त भी जुगु सत नही होता । वाभा वक आ मदशा व पलीनताको ा त
करती जाती है। जहाँ अहंत आ दके व प यानके आलंबनके बना वृ आ माकारता भजती है,
वहाँ
[अपूण
(२)
वीतराग तवन
वीतरागोमे ई र ऐसे ऋपभदे व भगवान मेरे वामी है। इस लये अब म सरे प तक इ छा
नही करती, यो क ये भु रीझनेके बाद साथ नह छोडते । इन भुका योग ा त होना उसक आ द
है; परतु वह योग कभी भी नवृ नह होता, इस लये अन त है।
१ आन दघन तीथकर तवनावलीका यह ववेचन लखते ए इस जगह अपुण छोड दया गया है। सशोषक
२ ी ऋषभ जन तवन-
ऋषम जने र ीतम माहरो रे, और न चा रे क त ।
री यो साहेब सग न प रहरे रे, भागे सा द अन त ।।ऋषभ० १
कोई कत कारण का भ ण करे रे, मलशुं फतने धाय ।
ए मळो न व क हये सभवे रे मेळो ठाम न ठाय ||ऋषभ० ३
कोई प वरजन अ त घणु तप करे रे, प तरजन तनताप ।
ए प तरजन मै न व च धयु रे, रंजन धातु मेळाप ।।अपभ० ४

५८३
जगतके भाव से उदासीन होकर चैत यवृ शु चैत य वभावमे समव थत भगवानमे ी तमान
ई, उसका आन दघनजी हष द शत करते ह।
अपनी ा नामक सखीको आन दघनजीक चेत यवृ कहती है-"हे सखी | मने ऋषभदे व
भगवानसे ल न कया है, और ये भगवान मुझे सबसे यारे ह। ये भगवान मेरे प त ए है, इस लये अव
म सरे कसी भी प तको इ छा क ं ही नही । यो क अ य सब ज म, जरा, मरण आ द ख से
आकुल- ाकुल ह, णभरके लये भी सुखी नह है। ऐसे जीवको प त बनानेसे मुझे सुख कहाँसे हो
सकता है ? भगवान ऋषभदे व तो अन त अ ाबाध सुखसमा धको ा त ए ह, इस लये उनका आ य
लू तो मुझे उसी व तुक ा त हो । यह योग वतमानमे ा त होनेसे हे सखी। मुझे परमशीतलता ई।
सरे प तका तो कसी समय वयोग भी हो जाये, पर तु मेरे इन वामीका तो कसी भी समय वयोग
होता ही नह । जबसे ये वामी स ए है तबसे कसी भी दन संग नह छोड़ते। इन वामीके
योगके वभावको स ा तमे 'सा द-अन त' अथात् इस योगके होनेक आ द है, पर तु कसी दन इनका
वयोग होनेवाला नही है. इस लये अन त है, ऐसा कहा है, इस लये अब मुझे कभी भी इन प तका वयोग
होगा ही नह ॥१॥
हे सखी | इस जगतमे प तका वयोग न होनेके लये याँ जो नाना कारके उपाय करती ह वे
उपाय स चे नह ह, और इस तरह मेरे प तक ा त नही होती। उन उपायोके म यापनको बतलानेके
लये उनमेसे थोडेसे उपाय तुझे वतातो 'ँ -कोई एक ी तो प तके साथ का मे जल जानेक इ छा करती
है, क जससे प तके साथ मलाप ही बना रहे, परतु उस मलापका कुछ संभव नह है, यो क वह प त
तो अपने कमानुसार उसे जहाँ जाना था वहां चला गया। और जो ी सती होकर मलापक इ छा
करती है वह ी भी मलापके लये एक चतामे जलकर मरनेक इ छा करती है तो भी वह अपने
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कमानुसार दे हको ा त होनेवाली है, दोनो एक ही जगह दे ह धारण करे, और प त-प नी पसे योग ा त-
कर नरतर सुख भोग ऐसा कोई नयम नही है। इस लये उस प तका वयोग आ, और उसका योग भी
असभव रहा, ऐसे प तके मलापको मने झूठा माना है, यो क उसका ठौर- ठकाना कुछ नही है।
अथवा थम पदका यह अथ भी होता है क परमे र प प तक ा तके लये कोई का का
भ ण करता है, अथात् पंचा नको धूनी जलाकर उसमे का होमकर उस अ नका प रषह सहन करता
है, और इससे ऐसा समझता है क परमे र प प तको पा लगे, परतु यह समझना म या है, यो क
पचा न तापनेमे उसको वृ है, उस प तका व प जानकर, उस प तके स होनेके कारणोको जान-
कर उन कारणोक उपासना वह नह करता, इस लये वह परमे र प प तको कहाँसे पायेगा ? उसक
म तका जस वभावमे प रणमन मा है उसी कारक ग तको वह पायेगा, जससे उस मलापका कोई
ठौर- ठकाना नह है ॥३॥
हे सखो । कोई प तको रझानेके लये अनेक कारके तप करती है, परतु वह मा शरीरको क
है। इसे प तको राजी करनेका माग मने समझा नह है। प तको रजन करनेके लये तो दोनोक धातुओ-
का मलाप होना चा हये। कोई ो चाहे जतने क से तप या करके अपने प तको रझानेक इ छा
करे तो भी जब तक वह ी अपनी कृ तको प तको कृ तके वभावानुसार न कर सके तव तक कृ त
कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे, लल पूरे मन आया ।
दोषर हतने सीला न व पटे रे, लोला दोष वलान ।सुषम० ५
च स े रे पूजन फळ का रे, पूजा अल दत एह ।
कपटर हत पई भावन अरपणा रे, आनदघन पदरेह ।।कृपभ. ६

५८४
क तकूलताके कारण वह प त स होता ही नह है, और उस ीको मा अपने शरीरमे ुधा
आ द क ोक ा त होती है। इसी तरह कसी मुमु ुक वृ भगवानको प त पसे ा त करनेक हो
तो वह भगवानके व पानुसार वृ न करे और अ य व पमे चमान होते ए अनेक कारका तप
करके क का सेवन करे, तो भी वह भगवानको नही पाता, यो क जैसे प त-प नीका स चा मलाप,
और स ची स ता धातुके एक वमे है वैसे हे सखी । भगवानमे प तभावक इस वृ को थापन करके
उसे य द अचल रखना हो तो उस भगवानके साथ धातु मलाप करना ही यो य है, अथात् वे भगवान
जस शु चैत यधातु पसे प रण मत ए ह वैसी शु चैत यवृ करनेसे ही उस धातुमेसे तकूल वभाव
नवृ होनेसे ऐ य होना संभव है, और उसी धातु मलापसे उस भगवान प प तक ा तका कसी भा
समय वयोग नह होगा ||४||
हे सखी | कोई फर ऐसा कहता है क यह जगत ऐसे भगवानक लीला है क जसके व पको
पहचाननेका ल य नह हो सकता, और वह अल य भगवान सबक इ छा पूण करता है, इस लये वह
यो समझकर इस जगतको भगवानक लीला मानकर, उस भगवानको उस व पसे म हमा गानेमे ही
अपनी इ छा पूण होगी, (अथात् भगवान स होकर उसमे ल नता करेगा) ऐसा मानता है, परतु यह
म या है, यो क वह भगवानके व पके अ ानसे ऐसा कहता है।
जो भगवान अनंत ानदशनमय सव कृ सुखसमा धमय है, वह भगवान इस जगतका क ा
कैसे हो सकता है ? और लीलाके लये व केसे हो सकती है ? लीलाक वृ तो सदोषमे ही सभव
है। जो पूण होता है वह कुछ इ छा ही नही करता। भगवान तो अनत अ ाबाध सुखसे पूण है, उसम
अ य क पनाका अवकाश कहाँसे हो? लीलाको उ प कुतूहलवृ से होती है। वैसी कुतूहलवृ तो
ान-सुखक अप रपूणतासे ही होती है। भगवानमे तो वे दोनो ( ान और सुख) प रपूण है, इस लये
उसक वृ जगतको रचने प लीलामे हो ही नह सकती। यह लीला तो दोषका वलास है और
सरागीको हो उसका सभव है। जो सरागी होता है वह े षस हत होता है, और जसे ये दोनो होते है।
उसे ोध, मान, माया, लोभ आ द सभी दोषोका होना सभव है। इस लये यथाथ से दे खते ए तो
लीला दोषका ही वलास है, और ऐसे दोष वलासक इ छा तो अ ानीको ही होती है। वचारवान
मुमु ु भी ऐसे दोष वलासक इ छा नह करते, तो अनत ानमय भगवान उसक इ छा यो करगे ।
इस लये जो उस भगवानके व पको लीलाके कतु वभावसे समझता है, वह ा त है, और उस ा तका
अनुसरण करके भगवानको स करनेका जो माग वह अपनाता है वह भी ा तमय ही है, जससे
भगवान प प तक उसे ा त नही होती ||५|
हे सखी । प तको स करनेके तो कई कार ह। अनेक कारके श द, पश आ दके भोगसे
प तक सेवा क जाती है। ऐसे अनेक कार ह, परत इन सबमे च स ता ही सबसे उ म सेवा है,
और वह ऐसी सेवा है जो कभी ख डत नह होती । कपटर हत होकर आ मापण करके प तक सेवा करने
से अ यंत आनदके समूहको ा तका भा योदय होता है।
भगवान प प तक सेवाके अनेक कार है। पूजा, भावपूजा और आ ापूजा। पूजाके
भी अनेक भेद ह, परतु उनमे सव कृ पूजा तो च स ता अथात् उस भगवानमे चैत यवृ का परम
हषसे एक वको ा त करना ही है, इसीमे सब साधन समा जाते है। यही अख डत पूजा है, यो क य द
च भगवानमे लीन हो तो सरे योग भी च ाधीन होनेसे भगवानके अधीन ही ह, और च क
लीनता भगवानमेसे र न हो तो ही जगतके भावोमे उदासीनता रहती है और उनमे हण- याग प
वक पक वृ नह होती, जससे वह सेवा अखंड ही रहती है।

५८५

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जब तक च मे सरा भाव हो तब तक य द यह द शत कर क आपके मवाय सरे म मेरा
कोई भी भाव नह है तो यह वृथा ही है और कपट है। और जब तक कपट है तब तक भगवानके चरणो
मे आ मापण कहाँसे हो ? इस लये जगतके सभी भावोसे वराम ा त करके, वृ को शु चैत य भावयु
करनेसे ही उस वृ मे अ यभाव न रहनेसे शु कही जाती है और वह न कपट कही जाती है। ऐसी
चैत यवृ भगवानमे लीन क जाये वही आ मापणता कही जाती है।
धन-धा य आ द सभी भगवानको अ पत कये हो, पर तु य द आ मा अपण न कया हो अथात् उस
आ माक वृ को भगवानमे लीन न कया हो तो उस धन-धा य आ दका अपण करना सकपट ही है,
यो क अपण करनेवाला आ मा अथवा उसक वृ तो अ य लीन है। जो वय अ य लीन है उसके
अपण कये ए सरे जड पदाथ भगवानमे कहाँसे अ पत हो सकगे। इस लये भगवानमे च वृ को
लौनता ही आ म-अपणता है, और यही आनदघनपदक रेखा अथात् परम अ ाबाध सुखमय मो पदक
नशानो है। अथात् जसे ऐसी दशाको ा त हो जाये वह परम आनदधन व प मो को ा त होगा।
ऐसे ल ण ही ल ण है ॥६॥
ऋषभ जन तवन सपूण ।
थम तवनमे भगवानमे वृ के लीन होने प हप बताया, पर तु वह वृ अखड और पूण पसे
लीन हो तो ही आनंदघनपदक ा त होती है, जससे उस वृ क पूणताको इ छा करते ए आनदधन-
जी सरे तीथकर ी अ जतनाथका तवन करते है। जो पूणताक इ छा है, उसे ा त होनेमे जो जो
व न दे खे उ ह आनदघनजी स ेपमे इस सरे तवनमे भगवानसे नवेदन करते है, और अपने पु ष वको
मद दे खकर खेद ख होते है, ऐसा बताकर, पु ष व जा त रहे ऐसी भावनाका चतन करते है।
हे सखी | सरे तीथकर अ जतनाथ भगवानने पूण लीनताका जो माग द शत कया है अथात्
जो स यक् चा र प माग का शत कया है वह, दे खता ँ, तो अ जत अथात् जो मेरे जैसे नबल वृ के
मम से जीता न जा सके ऐसा है, भगवानका नाम अ जत है वह तो स य है, यो क जो बडे बडे परा मी
पु ष कहे जाते है, उनसे भी जस गुणोके धाम प पथका जय नह आ, उसका भगवानसे जय कया है.
इस लये भगवानका अ जत नाम तो साथक ही है। और अनत गुणोके धाम प उस मागको जीतनेसे
भगवानका गुणधाम व स है। हे सखी । पर तु मेरा नाम पु ष कहा जाता है, वह स य नह है।
भगवानका नाम अ जत है। जैसे वह त प ू गुणके कारण है वैसे मेरा नाम पु प तद्प गुणके कारण
नही है। यो क पु ष तो उसे कहा जाता है क जो पु षाथस हत हो- वपरा मस हत हो, पर तु म तो
वैसा नही है। इस लये भगवानसे कहता ँ क हे भगवान | आपका नाम जो अ जत हे वह तो स चा है,
पर तु मेरा नाम जो पु ष है वह तो झूठा हे। य क आपने राग, े ष, अ ान, ोध, मान, माया, लोभ
आ द दोषोका जय कया है, इस लये आप अ जत कहे जाने यो य ह, पर तु उ ही दोपोने मुझे जीत लया
है, इस लये मेरा नाम पु ष कसे कहा जाये ? ॥१॥
हे सखी। उस मागको पानेके लये द ने चा हये। चमने से दे खते हए तो सम त ससार
१ सरा ी अ जत जन तवन-
पथडो नहाळु रे वीजा जन तणो रे, अ जत अ जत गुणधाम ।
जे त जो या रै तेणे जो तयो रे, पु ष क यं मुज नाम ॥ पयडो०१
चरम नयण करी मारग जोवता रे, भु यो सवल ससार ।
जेणे नयणे करी मारग जो वये रे, नयण ते द वचार ॥ पयो० २

५८६
भूला आ है। उस परमत वका वचार होनेके लये जो द ने चा हये, उस द ने का न यसे ।
वतमानकालमे वयोग हो गया है।
हे सखी । उस अ जत भगवानने अ जत होनेके लये अपनाया आ माग कुछ इन चमच ु से
दखायी नह दे ता। यो क वह माग द है, और अतरा म से ही उसका अवलोकन कया जा
सकता है। जस तरह एक गाँवसे सरे गाँवमे जानेके लये पृ वीतलपर सडक वगैरह माग होते ह, उसी
तरह यह कुछ एक गाँवसे सरे गाँव जानेके मागक तरह बा माग नह है, अथवा चमच से दे खनेपर
वह द खने यो य नह है, चमच ुसे वह अती य माग कुछ दखायी नह दे ता ॥२॥ [अपूण
७५४
सवत् १९५३
हे ातपु भगवन् । कालक ब लहारी है। इस भारतके हीनपु य मनु योको तेरा स य, अखड और
पूवापर अ व शासन कहाँसे ा त हो? उसके ा त होनेमे इस कारके व न उ प ए है-तुझसे
उप द शा ोक क पत अथसे वराधना क , कतनोका तो समूल ही खडन कर दया, यानका काय
और व पका कारण प जो तेरी तमा है, उससे कटा से लाखो लोग फर गये, तेरे बादमे परपरासे
जो आचाय पु ष ए उनके वचनोमे और तेरे वचनोमे भी शका डाल द । एकातका उपयोग करके तेरे
शासनक नदा क ।
हे शासन दे वी | कुछ ऐसी सहायता दे क जससे म दसरोको क याणके मागका बोध कर सकू-
उसे द शत कर सकूँ,-स चे पु ष द शत कर सकते ह। सव म न ंथ- वचनके बोधक ओर मोड़-
कर उ हे इन आ म वराधक पथ से पीछे खीचनेमे सहायता दे ।। तेरा धम है क समा ध और बो धमे
सहायता दे ना।
अनत कारके शारी रक और मान सक ःख से आकुल- ाकुल जीवोक उन ःखोसे छू टनेक
अनेक कारसे इ छा होते ए भी उनसे वे मु नही हो सकते, इसका या कारण है ? ऐसा अनेक
जीवोको आ करता है, पर तु उसका यथाथ समाधान कसी वरल जीवको ही ा त होता है। जब तक

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खका मूल कारण यथाथ पसे जाननेमे न आया हो, तब तक उसे र करनेके लये चाहे जैसा य न
कया जाये, तो भी खका य नही हो सकता, ओर उस खके त चाहे जतनी अ च, अ यता
और अ न छा हो, तो भी उसका अनुभव करना ही पड़ता है। अवा त वक उपायसे उस खको मटानेका
य न कया जाये, और वह य न अस प र मपूवक कया गया हो, फर भी वह ख न मटनेसे
ख मटाने के इ छु क मुमु ुको अ य त ामोह हो जाता है, अथवा आ करता है क इसका या
कारण? यह ख र यो नही होता? कसी भी तरह मुझे उस खक ा त इ छत नह होनेपर
भी, व मे भी उसके त कुछ भी वृ न होनेपर भी, उसक ा त आ करती है, और म जो जो
य न करता ँ वे सब न फल जाकर .खका अनुभव कया ही करता , ँ इसका या कारण?
____ या यह ख कसीका मटता ही नही होगा ? खी होना ही जीवका वभाव होगा ? या कोई
एक जगतकता ई र होगा, जसने इसी तरह करना यो य समझा होगा? या यह बात भ वत ताके
अधीन होगी ? अथवा क ही मेरे पूवकृत अपराबोका फल होगा? इ या द अनेक कारके वक प जो
जीव मनस हत दे हधारी ह वे कया करते ह, और जो जीव मनर हत ह वे अ पसे ःखका अनुभव
करते ह और वे अ पसे उस खके मटनेक इ छा रखा करते है।

५८७
इस जगतमे ाणी मा क अथवा अ इ छा भी यही है, क कसी भी कारसे मझे
ख न हो, और सवथा सुख हो। इसीके लये य न होनेपर भी यह ख यो नही मटता ? ऐसा
अनेकानेक वचारवानोको भी भूतकालमे आ था, वतमानकालमे भी होता है, और भ व यकालमे
भी होगा । उन अनतानत वचारवानोमेसे अनत वचारवानोने उसका यथाथ समाधान पाया, और
खसे मु ए। वतमानकालमे भी जो जो वचारवान यथाथ समाधान ा त करते ह, वे भी तथा प
फलको पाते है और भ व यकालमे भी जो जो वचारवान यथाथ समाधान ा त करगे वे सब तथा प
फल ा त करेगे इसमे सशय नह है।
शरीरका ख मा औषध करनेसे मट जाता होता, मनका ख धन आ दके मलनेसे र हो
जाता होता, और बा मसग स ब धी ख मनपर कुछ असर न डाल सकता होता तो ख मटनेके लये
जो जो य न कये जाते है वे सभी जीवोके य न सफल हो जाते। पर तु जब ऐसा होता दखायी न दया तभी
वचारवानोको उप आ क ख मटनेका कोई सरा ही उपाय होना चा हये, यह जो उपाय
कया जा रहा है वह अयथाथ है, और सारा म वृथा है । इस लये उस खका मूल कारण य द यथाथ-
पसे जाननेमे आ जाये और तदनुसार ही उपाय कया जाये, तो .ख मटता है, नह तो मटता ही नही ।
जो वचारवान खके यथाथ मूल कारणका वचार करनेके लये क टब हए, उनमे भी कसीको
ही उसका यथाथ समाधान हाथ लगा और ब तसे यथाथ समाधान न पानेपर भी म त ामोह आ द
कारणोसे, वे यथाथ समाधान पा गये है ऐसा मानने लगे और तदनुसार उपदे श करने लगे और ब तसे
लोग उनका अनुसरण भी करने लगे। जगतमे भ भ धममत दे खनेमे आते ह उनक उ प का
मु य कारण यही है।
'धमसे ख मटता है', ऐसी ब तसे वचारवानोक मा यता ई। पर तु धमका व प समझने म
एक सरेमे ब त अ तर पड गया । ब तसे तो अपने मूल वषयको चूक गये, ओर ब तसे तो उस वषय-
मे म तके थक जानेसे अनेक कारसे ना तक आ द प रणामोको ा त हो गये।
खके मल कारण और उनक कस तरह वृ ई, इसके स ब धमे यहाँ थोडेसे मु य अ भ ाय
स ेपमे बताते ह।
ख या है ? उसके मूल कारण या ह और वे कस तरह मट सकते है ? त सबधी जनो
अथात् वीतरागोने अपना जो मत द शत कया है उसे यहाँ स ेपमे कहते हे -
अब, वह यथाथ है या नह ? उसका अवलोकन करते है -
जो उपाय बताये है वे स य दशन, स य ान और स य चा र है, अथवा तीनोका एक नाम
'स य मो ' है।
उन वीतरागोने स य दशन, स य ान और स य चा र मे स य दशनक मु यता अनेक थलो-
मे कही है, य प स य ानसे ही स य दशनक भी पहचान होती है, तो भी स य दशन र हत ान ससार
अथात् द.खका हेतु प होनेसे स य दशनक मु यताको हण कया है।
जोको स य दशन शु होता जाता है, यो यो स य चा र के न वीय उ ल सत होता
जाता है. और कमसे स य चा र का ा त होनका समय आ जाता है, जससे आ मामे थर वभाव
स होता जाता है, और कमसे पूण थर वभाव गट होता है, और आ मा नजपदमे लीन होकर

५८८
सव कमकलकसे र हत होनेसे एक शु आ म वभाव प मो मे परम अ ाबाध सुखके अनुभवसमु मे
थत हो जाता है।
स य दशनक ा तसे जैसे ान स य वभावको ा त होता है, यह स य दशनका परम उपकार
है, वैसे ही स य दशन कमसे शु होता आ पूण थर वभाव स यकचा र को ा त हो इसके लये
स य ानके बलक उसे स ची आव यकता है। उस स य ानक ा तका उपाय वीतराग ुत और उस
ुतत वोपदे ा महा मा है।
वीतराग ुतके परम रह यको ा त ए असग तथा परम क णाशील महा माका योग ा त
होना अ तशय क ठन है। मह ा योदयके योगसे ही वह योग ा त होता है इसमे सशय नह है।


कहा है क -
तहा वाणं समणाणं-
उन मण महा माओके वृ ल ण परमपु षने इस कार कहे ह :-
उन महा मामोके वृ ल णोसे अ यतरदशाके च नण त कये जा सकते ह, य प वृ -
ल णोक अपे ा अ यतरदशा सवधी न य अ य भी नकलता है। कसी एक शु वृ मान मुमु ुको
वैसी अ यतरदशाक परी ा आती है।
ऐसे महा मा के समागम और वनयक या ज रत है ? चाहे जैसा भी पु ष हो, पर तु जो
अ छ तरह शा पढकर सुना दे ऐसे पु षसे जीव क याणका यथाथ माग यो ा त न कर सके ? ऐसी
आशकाका समाधान कया जाता है -
ऐसे महा मा पु षोका योग अतीव लभ है। अ छे दे शकालमे भी ऐसे महा माओका योग लभ
हे, तो ऐसे ःखमु य कालमे वैसा हो इसमे कुछ कहना ही नह रहता । कहा है क -
य प वैसे महा मा पु षोका व चत् योग मलता है, तो भी शु वृ मान मुमु ु हो तो वह उनके
मु मा के समागममे अपूव गुणको ा त कर सकता है। जन महापु षोके वचन- तापसे च वत
मु मा मे अपना राजपाट छोडकर भयकर बनमे तप या करनेके लये चल नकलते थे, उन महा मा
पु षोके योगसे अपूव गुण यो ा त न हो?
अ छे दे शकालमे भी व चत् वैसे महा माओका योग हो जाता है, यो क वे अ तब वहारी
होते ह । तब ऐसे पु षोका न य सग रहना कस तरह हो सकता है क जससे ममु ुजीव सब खोका
य करनेके अन य कारणोक पूण पसे उपासना कर सके ? भगवान जनने उसके मागका अवलोकन
इस तरह कया है -
न य उनके समागममे आ ाधीन रहकर वृ करनी चा हये, और इसके लये बा ा यतर
प र ह आ दका याग करना ही यो य है।
जो सवथा वेसा याग करनेके लये समथ नह है, उ हे इस कार दे श यागपूवक वृ करना
यो य है । उसके व पका इस तरह उपदे श कया है.-

५८९
उस महा मा पु षके गुणोक अ तशयतासे, स यक्आचरणसे, परम ानसे, परमशा तसे, परम-
नवृ से मुमु ुजीवक अशुभ वृ याँ पराव तत होकर शुभ वभावको पाकर व पके त मुडती जाती है।
उस पु षके वचन आगम व प है, तो भी वारवार अपनेसे वचनयोगक वृ न होनेसे तथा
नरतर समागमका योग न वननेसे, तथा उस वचनका वण मरणमे तादश न रह सकनेस; े तथा बहतसे
भावोका व प जाननेमे परावतनक -ज रत- होनेसे, और अनु े ाके, बलक , वृ के लये वीतराग ुत-
वीतरागशा एक बलवान उपकारी साधन है। य प- थम तो वैसे महा मापु षोके ारा ही उसका रह य
जानना चा हये, फर वशु हो जानेपर वह ुत महा माके समागमके अंतरायमे भी बलवान जपकार
करता है, अथवा जहाँ केवल वैसे महा माओका योग हो हो नह सकता, वहाँ भी वशु मानको
वीतराग ुत'परमापकारी है और इसी लये महापु षोने एक ईलोकसे लेकर ादशांग पयत रचना क है।
. उस ादशागके मूल उपदे ा सव वीतराग है. क जनके व पका महा मा पु ष नर तर यान
करते ह, और उस पदक ा तमे ही सव वं समाया- आ-है, ऐसा ती तसे अनुभव करते है। सव
वीतरागके वचनोको धारण करके महान आचाय ने ादशागीक रचना क थी, और तदा त आ ाकारी
महा माओने सरे अनेक नद ष शा ोक रचना क है । ादशागके नाम इस कार है-
। . २(१), आचाराग, (२) सू कृताग; (३) थानाग, (४) समवायाग, (५) भगवती, (६) ाताधम-
कथाग, (७) उपासकदशाग, (८) अतकृतदशाग, (९) अनु रौपपा तक, (१०) ाकरण, (११) वपाक
और-(१२) वाद !
: :: :: :...
उनमे इस कारसे न पण है = .. . ............
कालदोषसे उनमेसे ब तसे थलोका वसजन हो गया और मा अ प थल रहे ह। '. '
.. जो अ प थल रहे है उ हे एकादशागके नामसे ेता बर आचाय कहते ह। दग बर इससे
अनुमत न होते ए यो कहते ह क :- . . . . . . .
वसवाद या मता हक से उसमे दोनो स दाय भ भ मागक भाँ त दे खनेमे आते है।
दघ से दे खनेपर उसके भ हो कारण दे खनेमे आते है। ।
चाहे जैसा हो, परतु इस कारसे दोनो ब त पासमे आ जाते ह :-
ववादके अनेक थल तो अ योजन जैसे ह, योजन जैसे है वे भी परो ह।
अपाय ोताको ानुयोग आ द भावोका उपदे श करनेसे ना तक आ द भाव उ प होनेका
अवसर आता है, अथवा शु क ानी होनेका अवसर आता है।
. अब यह तावना यहाँ स त करते है, ओर जस महापु षने-
य द इस तरह सु तीत हो तो
- " . . .
'', ' हसार हए ध म अ ारस दोस वव जए दे वे।
न गंथे पवयणे स हणं होई स म ं ॥१॥
भावाथ- हसार हत धम, अठारह दोष स र हत दे व और नयंय वचनम ा करना स य व है।

५९०
ी े े ो ै ो ै
'" । 'जीवके लये मो माग है, नह तो उ माग है। न ।'
- - सव खोका य करनेवाला एक परम स पाय
- सव जीव को हतकारी, सव खोके यका एक आ यं तक उपाय, परम स पाय प वीतरागदशन
है। उसक ती तमे, उसके अनुसरणसे, उसक आ ाके परम अवलबनसे जीव तर जाता है।
'समवायाग सू म कहा है-
- आ मा या है ? कम या है ? उसका कता कौन है ? उसका उपादान कौन है ? न म कौन
है ? 'उसक थ त कतनी है ? कता कैसे है ? कस प रमाणमे वह बाँध सकता है ? इ या द भावोका
व प जैसा न ंथ स ातमे प , सू म और संकलनापूवक है वैसा कसी भी दे शनम नही है।
अपने समाधानके लयो यथाश जैनमागको जाना है, उसका स ेपमे कुछ भी ववेक ( वचार)
करता है ।
वह जैनमाग जस पदाथका अ त व है उसका अ त व और जसका अ त व नही है उसका
ना त व मानता है।
जसका अ त व है, वह दो कारसे है, ऐसा कहते है जीव और अजीव । ये पदाथ प भ
ह। कोई अपने वभावका याग नह कर सकता।
____ अजीव पी और अ पी दो कारसे है।
1. 'जीव अनत ह। येक जीव तीनो कालोमे भ भ है। ान, दशन आ द ल णोसे जीव
पहचाना जाता है । येक जीव अस यात दे शक अवगाहनासे रहता है। संकोच- वकासका जन है ।
अना दसे कम ाहक है । तथा प व प जाननेसे, ती तमे लानेस, े थर प रणाम होनेपर उस कमक
नवृ होती है । व पसे जीव वण, गध, रस और पशसे र हत है। अजर, अमर और शा त व तु।
मो स ांत ..
अनत अ ाबाध सुखमय परमपदक ा तके लये भगवान सव ारा न पत 'मो स ात' उस
भगवानको परम भ से नम कार करके कहता ँ। .
ानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और, धमकथानुयोगके महा न ध वीतराग- वचनको
वीतराग- वचनको
नम कार करता ँ। ... . ..?
सात - कम प वैरीका पराजय करनेवाले अहत भगवान, शु चैत यपदमे स ालयमे वराजमान स
भगवान, ान, दशन, चा र , तप और वीय इन मो के पांच आचार का आचरण करनेवाले और अ य

५९१
भ जीव को उस आचारम वृ करनेवाले आचाय भगवान, ादशागके अ यासी" और "उस ुतका
श द, अथ और रह यसे अ य भ जीवोक , अ ययन करानेवाले उपा याय भगवान; और 'मो मागका
आ मजागृ तपूवक साधन करनेवाले साधु भगवानक मै परम भ से नम कार करता ह।
जा । ी।ऋषभदे वसे ी महावीरपयत भरत े के वतमान 'चौबीस तीथकरोके 'परम उपकारका मै
वारंवार मरण करता ँ।
वतमानकालके चरम तीथकरदे व ीमान वधमान जनक श ासे अभी मो माग अ त वमे है.
उनके इस उपकारको सु व हत पु ष वारवार आ यमय दे खते ह।
कालदोषसे अपार ुतसागरके ब तसे भागका वसजन होता गया और व मा अथवा अ पमा
वतमानमे व मान ह।
अनेक थलोके वसजन होनेस, े अनेक थलोमे थूल ' न पण रहा होनेसे न ंथ भगवानके उस
ुतका पूण लाभ, वतमान मनु योको इस े मे ा त नह होता.)
अनेक मतमतातर आ दके उ प होनेका हेतु भी यही है, और इसी लये नमल -आ मत वके
अ यासी महा माओक अ पता हो गई।
. ुतके अ प रह जानेपर भी, मतमतातर अनेक होनेपर भी, समाधानके कतने ही साधन परो
होनेपर भी, महा मा पु षोके व चत् व चत् ही रहनेपर भी, हे आयजनो । स य दशन, ुतका रह यभूत
परमपदका पथ, आ मानुभवके हेतु, स य चा र और वशु आ म यान आज भी व मान है, यह परम
हषका कारण है।
'वतमानकालको नामा .षमकाल ह। इस लये अनेका अतराय से, तकूलतासे, साधनक लभता
होनेसे मो मागक ा त खसे होती हे, परंतु वतमानमे मो मागका व छे द है, ऐसा' सोचनेक 'ज रत
नही है।...पंचमकालमे ए मह षयोने भी ऐसा ही कहा है। तदनुसार भी यहाँ कहता है।. . ,
स और सरे ाचीन आचाय ारा तदनुसार रचे ए अनेक शा व मान है। सु व हत
पु षोने तो. हतकारी बु से ही रचे है । क ही मतवाद , हठवाद और श थलताके।पोपक पु षोक रची
हई कुछ पु तक सू से अथवा जनाचारसे सेल, न: खाती हो और योजनक मयादासे। बा ह , उन
पु तकोके उदाहरणसे ाचीन सु व हत आचाय क वचनोका उ थापन करनेका य न भवभी महा मा
नही करते: पर तु उससे उपकार होता है, ऐसा समझकर उनका ब तः मान करते ए यथायो य
स पयोग करते ह.
जनदशनमे दगबर और ेताबर ये दो भेद मु प है । मत से उनमे बड़ा अंतर-दे खनेमे आता
है। त वद से जनदशनमे वैसा वशेष भेद मु यतः परो है, जो य कायभूत हो सक उनम वैसा
भेद नह है। इस लये दोनो स दायोमे उ प होनेवाले गुणवान पु ष स य से दे खते है, और जेसे
त व ती तका अ तराय कम हो वैसे वृ करते है। ---
जैनाभाससे व तत सरे अनेक मतमतातर ह, उनके व पका न पण करते ए भी वृ सक-

ो ी ै े ो ै ी ो े
चत होती है। जनमे मूल योजनका भान नह है, इतना ही नह पर तुं मूल योजनसे व प त-
का अवलंबन रहा है उ ह मु न वका व भी कहासे हो? य क मूल योजनको भूल कर लेशमे पड़े
ह, और अपनी पू यता' आ दके लये जावाको परमाथमागमे अतराय करते ह। "
म नका लग भी धारण कये ए नह है, यो क वकपोलरचनासे उनक सारी वृ है।
जनागम अथवा आचायक परपराका नाम मा उनके पास है, व तुत. तो वे उससे परा ख ही ह।

५९२
.. एक तुबे जैसी और डोरे जैसी अ यत अ प व तुके हण- यागके आ हसे - भ माग खड़ा करके
वृ करते ह, और तीथका भेद करते है. ऐसे महामोहमूढ जीव., लगाभासनासे.- भी आज वीतरागके
दशनको घेर बैठे ह, यही असंय तपूजा नामका आ य लगता है।
... महा मा पु षोक अ प भी वृ व-परको मो मागस मुख करनेक होती है। लगाभासी जीव
मो मागसे परा ख करनेमे अपने बलका वतन दे खकर ह षत होते है, और यह सब कम कृ तमे बढ़ते
ए अनुभाग और थ त-वधके थानक है, ऐसा मै मानता | ँ ..
अथात व त. त व. पदाथ । इसमे म य तीन अ धकार ।
' थम अ धकारमे 'जीव और अजीव के मु य कार कहे हे। ".
सरे अ धकारमे जीव और अजीवका पार प रक संबंध और उससे जीवका हता हत या है, उसे
समझानेके लये, उसके वशेष पयाय पसे पाप पु य आ द सरे सात त व का न पण कया है, जो सात
त व जीव और अजीव इन दो त वोमे समा जाते है।
- तीसरे अ चकारमे यथा थत मो माग द शत कया है क जसके लये ही सम त ानीपु षोका
उपदे श है।पदाथके, ववेचन और स ातपर जनक नीव रखी गयी है, और उसके ारा जो मो मागका
तबोध करते ह ऐसे छ दशन है--(१) बौ , (२) याय, (३) सा य, (४) जैन, (५) मीमासा और (६)
वैशे षक । वैशे षकको य द यायमे अंतभूत कया जाये तो. ना तक वचारका तपादक चावाक दशन
छ ा माना जाता है।
याय, वैशे षक, सा य, योग, उ रमीमासा और पूवमीमासा ये छ दशन वेद प रभापाम माने
गये है, उसक अपे ा उपयु दशन भ प तसे माने है इसका या कारण है ? ऐसा हो तो उसका
समाधान यह है
वेद प रभाषासे बताये ए दशन वेदको मानते ह। इस लये उ हे इस से माना हे, और उपयु
मम तो वचारक प रपाट के भेदसे माने है। जससे यही म यो य ह।
।। और गुणका अन य व-अ वभ वा अथात् दे शभेद र हत व है, े ांतर' नह है । के
नाशसे गुणका नाश और गुणके नाशसे का नाश होता है ऐसा ऐ यभाव है ।। और गुणका भेद
कहते ह, सो कथनसे हे, व तुसे नही है। सं थान, स या वशेष आ दसे ान और ानीमे सवथा भेद हो
तो दोनो अचेतन हो जाय ऐसा मव वीतरागका स ात है। शानक साथै समवाय सवधसे आ मा ानी
नह है। मम त व समवाय है।वण, गंध, रस और पश परमाणु- के वशेष हे।
- "यह अ यंत सु स हे क ाणीमा को ख तकूल ओर अ य ह और सुख अनुकूल तथा य
है । उस खसे र हत होनेके लये और सुखको ा तके लये ाणीमा का. य न है। .
" ाणीमा का ऐसा य न होनेपर भी वे खका अनुभव करते ए ही गोचर होते है। व चत्
कुछ सुखका अश कसी ाणीको ा त आ द खता है, तो भी वह खक ब लतासे दे खनेमे आता है।
१. दे व आफ ५६६ 'पचा तकाय ४६, ४८, ४९ आर ५० । । ।

५९३
. . ाणीमा को ख अ य होनेपर-भी, और फर उसे मटानेके लये, उसका य न रहने पर भी
वह ख नह मटता, तो फर उस ःखके र होनेका कोई उपाय ही नह है, ऐसा समझमे आता है.
यो क जसमे सभीका य न न फल हो वह बात, न पाय ही होनी चा हये, ऐसी यहाँ आशका होती है।
___ इसका समाधान इस कारसे हे- खका व पयथाथना समझनेसे, उसके होनेके मल कारण
या है और वे कसमे मट सके, इसे यथाथ न समझनेसे, .ख मटानेके सबधमे उनका य व पसे
अयथाथ होनेसे ख मट नह सकता। ।
... ख अनुभवमे आता है, तो भी वह प यानमे आनेके लये थोड़ोसी उसक ा या करते है -
ाणी, दो कारके ह -एक-वस वय भय आ दका कारण दे खकर भाग जाते है,और चलने-
फरने इ या दक श वाले है। सरे थावर- जस थलमे दे ह धारण क है., उसी थलमे थ तमान,
अथवा भय आ द कारणको जानकर भाग-जाने आ दको समझश जनमे नही है.
___अथवा एक यसे लेकर पांच इ य तकके ाणी है । एकै य ाणी थावर कहे जाते है, और दो
इ दयवाले ा णयोसे लेकर पाँच, इ यवाले ाणी, तकके, स. कहे जाते है। कसी भी ाणीको पाँच
इ योसे अ धक इ य नह होती।
एके य ाणीके पाँच भेद ह-पृ वी, जल, अ न, वायु और वन प त ।। ..
वन प तका जोव व साधारण मनु योको भी कुछ अनुमानगोचर होता है। पृ वी, जल, अ न
और वायुका जीव व आगम- माणसे और वशेष वचारवलसे कुछ भी समझा जा सकता है। सवथा तो
कृ ानगोचर है।
अ न और वायुके जीव कुछ ग तमान दे खनेमे आते ह, परतु उनको ग त अपनी समझश पूवक
नह होती, इस कारण उ हे थावर कहा जाता है।
"एक य जीनोमे वन प तम जीव व सु स है, फर भी उसके माण इस ंथमे अनु मसे आयगे ।

ी औ ी े ै ै ै
पृ वी, जल, अ न और वायुका जीव व इस कारसे स कया है।चैत य जसका मु य ल ण है, .
दे ह माण है, अस यात दे श माण है। वह अस याता दे शता लोकप र मत है,प रणामी है,अमूत है,अनत अगु लघु प रणत
है, वाभा वक है।कता है,भोका है।अना द ससारी है,भ व ल ध प रपाक आ दसे मो साधनमे वृ करता है,
मो होता है।( मो मे वप रणामो है। .
- जीवल ण -

५९४
ससार अव थामे म या व, अ वर त, माद, कषाय और-योग उ रो र बधके। थानक ह।
स ाव थामे योगका भी अभाव है।
मा चैत य व प आ म स पद है।
:.. - वभाव प रणाम 'भावकम' है।
पु लसबध ' कम' है।
। ानावरणीय आ द कम के यो य जो पु ल हण होता है उसे ' ा व' जान । जने भगवानने
उसके अनेक भेद कहे ह। . .. ..।
जीव जस प रणामसे कमका बध करता है वह 'भावबंध' है। कम दे श, परमाणु और जीवका
अ यो य वेश पसे सबंध होना- बध' है। ... . .. . .
" : कृ त, थ त, अनुभाग और दे श इस तरहा चार कारका बध है। कृ त और दे शबंध
योगसे होता है, थ त और अनुभागवध कषायसे होता है।
जो आ वको रोक सके वह चैत य वभाव, 'भावसवर' है; और उससे जो ा वको रोके वह
' सवर' है। त, स म त, गु त, धम, अनु े ा और, प रषहजय तथा चा र के. जो, अनेक कार है उ हे
'भावसवर' के वशेष जाने ।
जस भावसे, तप या ारा या यथासमय कमके,पु ल रस भोगा, जानेपर गर जाते ह, वह
'भाव नजरा' है । उन पु ल परमाणुओका आ म दे शसे अलग हो जाना ' नजरा', है ।:- को
... सव कम का य होने प आ म वभाव 'भावमो ' है । कमवगणासे आ म का अलग हो जाने
मो ' है।
"'""शुभ और अशुभ भावके कारण जीवको पु य और पाप होते ह। साता, शुभ आयु, शुभ नाम और
उ च गो का हेतु 'पु य' है, 'पाप' से उससे वपरीत होता है।
स य दशन, स य ान और स यक् चा र मो के कारण है । वहारनयसे वे तीनो है। न य-
से आ मा इन तीनो प है।
आ माको छोडकर ये तीनो र न- सरे कसी भी- मे नही रहते, इस लये आ मा इन तीनो प
है, और इस लये मो का कारण भी आ मा ही है।
जीव आ द त वोके त आ था प आ म वभाव 'स य दशन' है। जससे म या आ हसे र हत
'स य ान' होता है।
सशय, वपयय और ा तसे र हत आ म व प और पर व पको यथाथ पसे हण कर सके वह
'स य ान' है, जो साकारोपयोग प है । उसके अनेक भेद ह।
भावोके सामा य व पको जो उपयोग हण कर सके वह 'दशन' है, ऐसा आगममे कहा है।
'दशन' श द ाके अथमे भी यु होता है।
छा थको पहले दशन और पीछे ान होता है । केवलो भगवानको दोनो एक साथ होते ह।
अशुभ भावसे नवृ और शुभ भावमे वृ होना सो 'चा र ' है। वहारनपसे उस चा र -
को ी वीतरागोने त, स म त और गु त पसे कहा है।

५९५
। ससारके मूल हेतुओको ' वशेष नाश करनेके लये ानीपु पक बा और अतरग याका जो
नरोध होता है, उसे वीतरागोने "परमस य चा र ' कहा है। ।
... मु न यान ारा मो के हेतु प इन दोनो चा र ोको अव य ा त करते ह, इस लये य नवान
च से यानका उ म अ यास कर।
य द आप अनेक कारके यानको ा तके लये च क थरता चाहते ह तो य अथवा अ य
व तुमे मोह न करे, राग न कर और े ष न कर।'
पैतीस, सोलह, छ, पाँच, चार, दो और एक अ रके परमे ोपदके वाचक जो म है, उनका जप-
पूवक यान कर। वशेष व पको ी गु के उपदे शसे जानना यो य है।
सव खका आ य तक अभाव और परम अ ाबाध सुखको ा त हो मो है और वही परम-
वीतराग स माग उसका स पाय है।
वह स माग स ेपमे इस कार है :-
स य दशन, स य ान और स य चा र को एक ता 'मो माग' है।
सव के ानमे भासमान त वोक स य ती त होना 'स य दशन' है।
उन त वोका बोध होना 'स य ान' है।
उपादे य त वका अ यास होना 'स यकचा र ' है। .... .... . .
शु आ मपद व प वीतरागपदमे थ त होना, यह.तीनोक एक ता हे।...
सव दे व, न ंथगु और सव ोप द धमको ती तसे त व ती त ा त होती है।

ो औ ी ो े े
".. सव ानावरण, दशनावरण, सव मोह और सव वीय आ द अतरायका य होनेसे आ माका सव -
बीतराग वभाव गट होता है।
न ंथपदके अ यासका उ रो र म उसका माग है। उसका रह य सव ोप द धम है।
___ सं० १९५३
गु के उपदे वासे सवशक थत आ माका व प जानकर, सु तीत करके उसका यान कर।
' यो यो यान वशु होगी यो यो ानावरणीयका य होगा।
, अपनी क पनासे वह यान स नह होता।
ज हे ानमय आ मा परमो कृ भावसे ा त आ है, और ज होने पर मा का याग कया
है, उन दे वको नमन हो । नमन हो !
बारह कारके, नदानर हत तपसे, वैरा यभावनासे भा वत और अहभावसे र हत ानीको कम क
नजरा होती है।
वह नजरा भी दो कारको जाननी चा हये- वकाल ा त और तपसे । एक चारो ग तयोमे
होनी है, सरी तधारीको ही होती है।
यो यो उपशमक वृ होती हे यो यो तप करनेसे कमको ब त नजरा होती है।

५९६
ीमद् राजच
उस नजराका म कहते ह । म यादशनमे रहता आ भी थोडे - समयमे उपशम स य दशन
पानेवाला है, ऐसे जीवक अपे ा असयत स य को अस यातगुण नजरा होती है, उससे अस यातगुण
नजरा दे श वर तको होती है, उससे अस यातगुण नजरा सव वर त ानीको होती है, उससे ।
" हे जीव । इतना अ धक माद या?
शु आ मपदक ा तके लये वीतराग स मागक उपासना कत है।
' सव दे व
न थ गु . शु आ म होनेके अवलबन ह।
..... दया मु य धम' ..:.
.. "
ी गु से सव के अनुभूत शु ा म ा तका उपाय जानकर, उसका रह य यानमे लेकर
आ म ा त करे।
यथाजात लग सव वर तधम ।
ादश वध दे श वर तधम। ''
ानुयोग सु स - व प होनेस,

करणानुयोग सु स -सु तीत होनेस,े
चरणानुयोग सु स -प त ववाद शात करनेस; े
धमकथानुयोग सु स -बालबोधहेतु समझानेस।
वैध नय अनेकात गु मो धम गुण थानक ानुयोग

५९७
... १. सौ इ से व दनीय, तीनलोकके क याणकारी, मधुर और नमल जनके वा य है,
जनके गुण ह, ज होने ससारका पराजय कया है ऐसे भगवान सव वीतरागको नम कार ।।
५ २ सव महामु नके मुखसे उ प ,अमृत, चार ग तसे जीवको मु कर नवाण ा त करा
आगमको नमन करके यह शा कहता ँ उसे वण कर।पाँच अ तकायके समूह प अथसमयको सव वीतरागदे वने 'लोक' कहा है।
उसके अ
मा आकाश प अन त 'अलोक' है।
१. ४-५ 'जीव', 'पु लसमूह', 'धम', 'अधम' तथा 'आकाश' ये पदाथ, अपने अ त वमे न
रहते ह, अपनी स ासे अ भ है, और अनेक दे शा मक है। अनेक गुण. और पयायस हत
अ त व वभाव है,वे अ तकाय' ह। उनसे ैलो य उ प होता है। ...
६ ये अ तकाय तीनो कालमे भाव पसे प रणामी ह, और परावतन ल णवाले काल
छहो- सं ा' को ा त होते ह।
७. ये एक सरेमे वेश करते है, एक सरेको अवकाश दे ते ह, पर पर मल जाते है
अलग हो जाते है। पर तु अपने वभावका याग नह करते।
' र स ा व पसे सब पदाथ एक ववाले ह, वह स ा अन त कारके वभाववाली है।
गुण और पयाया मक है, उ पाद य ौ व प एवं सामा य वशेषा मक है।
९ जो उन उन अपने स ावपयायो-गुणपयाय वभावोको ा त होता हे उसे कहते
अपनी स ासे अन य है।
1 -१० सत् ल णवाला हे, - जो उ पाद य ौ स हत है, जो गुणपयायका आ य हे
सव दे व कहते ह।
- . .११ क उप और वनाश नह होता, उसका. 'अ त' वभाव ही हे। उ पाद,
ुव व ये पयायके कारण होते है।
... १२ पयायर हत नह है और र हत पयाय नह है, दोनो अन यभावंसे है, ऐसा =
कहते ह।
े ो े औ ो े ो े
. १३ के बना गुण नह होते और गुणोके. बना नह होता, इस लये अं
दोनोका अ भ भाव है।
.. १४ यात् अ त', ' यात् 'ना त', ' यात् अ त ना त', ' यात् अव '. ' यात
अव ', ' यात् 'ना त अव ' ' यात् 'अ तना त अव ', -यो, वव ासे
भग होते ह। - .
का नाश नह होता, और अभाव-अ यक उ प नह होती। गुण
वभावसे उ पाद और य होते ह। .
१६ जीव आ द पदाथ है । जीवके गुण चेतना और उपयोग ह। दे व, मनु य, नारक
आ द,जीवके अनेक पयाय है ।।१६||
१. दे ख आफ ८६६। - -
.

५९८
। १७ मनु यपयायसे न आ जीव दे व या अ य पयायसे उ प होता है। दोनोमे जीवभाव ुव
है। वह न होकर कुछ अ य नह होता।
१८. जो जीव उ प आ था वही जीव न हआ है। व तुत तो वह जीव उ प नह आ
__ और न भी नह आ। उ प और नाश दे व व और मनु य वका होता है।
१९ इस तरह स का वनाश, और असत् जीवका उ पादं नह होता। जीवके दे व, मनु य आ द
__ पयाय ग तनामकमसे होते ह । ''
...२० ानावरणीय आ द कमभाव जोवने सु ढ (अवंगाढ) पसे बाँधे ह, उनका अभाव करनेसे
वह अभूतपूव ' स भगवान' होता है।
२१ इस तरह गुणपयायस हत जीव भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभावसे ससारमे प र-
मण करता है।
__.. २२ जीव, पु लसमूह, आकाश तथा सरे अ तकाय कसीके बनाये ए नह ह, ' व पसे ही
अ त ववाले है, और लोकके कारणभूत ह।
२३ स ाव वभाववाले जीवो और पु लके परावतनसे उ प जो काल है उसे न यकाल
कहा है। .. ..।
२४. वह काल पाँच वण, पाँच रस, दो ग ध और आठ पशसे र हत है, अगु लघु है, अमूत है
और वतनाल णवाला है।
२५ समय, नमेष, का ा, कला, नाली; मु त, दवस, रा , मास, ऋतु और सव सर आ द
यह वहारकाल है। -- ..
२६ कालके कसी भी प रमाण (माप) के बना ब त काल, अ प काल यो नही कही जा सकता।
उसक मयादा पु ल के बना नह होती। इस कारण कालका पु ल से "उ प होना कहा
जाता है।
। २७ जीव ववाला, ' ाता; उपयोगवाला, भु, कता, भो ा, दे ह माण, व तुतः अमूत और
कमाव थामे मूत ऐसा जीव है।
॥ २८. कममलसे सवथा मु हो जानेसे सव और 'सवदश आ मा ऊ व लोकातको ा त होकर
अती य अन त सुखको ा त होता है।
२९ अपने वाभा वक भावसे आ मा सव और सवदश होता है और अपने कमसे मु होनेसे
वह अनत सुखको ा त होता है।
'' , ' ३० बल, इ य, आयु और उ वास इन चार ाणोसे जो भूतकालमे जीता था, वतमानकालमे
जीता है, और भ व यकालमे जीयेगा वह 'जीव' है।
",' ३१ अनंत अगु लघु गुणोसे नरतर प रणत 'अनत जीव ह। वे असं यात दे श माण ह । कुछ
__ जीव लोक माण अवगाहनाको ा त ए है।
____ ३२ कुछ जीव उस अवगाहनाको ा त नही ए है। म यादशन, कषाय और योगस हत अनत
ससारी जीव है। उनसे र हत अनत स ह।
____३३. जस कार प राग नामका र न धमे डालनेसे धके प रमाणके अनुसार का शत होता
है, उसी कार दे हमे थत आ मा मा दे ह माण काशक- ापक है।
३४ जैसे एक कायामे सव अव थाओमे वहीका वही जीव रहता है. वैसे सव ससाराव थामे भी
वहीका वही जीव रहता है । अ यवसाय वशेषसे कम पी रजोमलसे वह जीव म लन होता है। .'

५९९
३५ जनको ाणधा रता नही है, जनको ाणधा रताका सवथा अभाव हो गया है, वे-दे हसे
भ और वचनसे अगोचर जनका व प ह ऐसे स जीव ह।
३६" व तु से दे ख तो" स पद उ प नह होता, यो क वह कसी सरे पदाथ से उ प
होनेवाला काय नह है, इसी तरह वह कसीके त कारण प भी नह है, यो क कसी अ य स ब धसे
उसको वृ नह है।
.३७. य द मो मे जीवका अ त व ही न हो तो शा त, अशा त, भ , अभ शू य, अशू य,
व ान और अ व ान ये भाव कसको हो ?"
३८. कोई जीव कमके फलका वेदन करते है, कोई जीव कमबधकतृ वका वेदन करते ह. और

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कोई जीव.मा शु ान वभावका बेदन करते ह, इस तरह वेदकभावसे जोवरा शके तीन भेद ह।
"३९ थावर कायके जीव अपने अपने कये ए कम के फलका वेदन करते ह, बस जीव'कमबंध
चेतनाका वंदन करते है, और ाणर हत अती य जीव शु ानचेतनाका वेदन करते ह। '
४०. ान और दशनके भेदसे उपयोग दो कारका है, उसे जीवसे सवदा अन यभूत समझ। "."
"४१ म त, ुत, अव ध, मन पयाय और केवल ये ानके पाँच भेद है। कुम त, कुभुत और वभग
ये अ ानके तीन भेद है । ये सब ानोपयोगके भेद है।
२ च ुदशन, अच ुदशन, अव धदशन और अ वनाशी अनंत केवलदशन ये दशनोपयोगके चार
भेद है ।
४३. आ मासे ानगुणका स ब ध है, और इसीसे आ मा ानी है ऐसा नह है, परमाथसे दोनोमे
अ भ ता हो है,
४४ य द, भ हो और गुण भी भ त हो तो एक के अनत हो जाय, अथवा का
अभाव हो जाये !:: ----
४५ और गुण अन य पसे ह, दोनोमे दे शभेद नह है। के नाशसे. गुणका नाश हो
जाता है और गुणके नाशसे का नाश हो जाता है ऐसा उनमे एक व है।
४६ पदे श (कथन), स थान, स या और वषय इन चार कारको वव ाओसे गुणके, अनेक
भेद हो सकते है, पर तु परमाथनयसे ये चारो अभेद है।
४७ जस तरह य द पु षके पास धन हो तो वह धनवान कहा जाता है, उसी तरह आ माके पास
ान है, जससे वह ानवान,कहा जाता है। इस तरह भेद-अभेदका व प है, इसे त व -दोनो कारसे
जानते है।
४८ य द आ मा और ानका सवथा भेद हो तो दोनो-ही अचेतन हो जाय ऐसा वीतराग सव का
स ात है।
...४९. ानका स ब ध होनेसे आ मा ानी होता है ,ऐसा.माननेसे आ मा और, अ ान-जड वका
ऐ य होनेका सग आता है:।
५० समव त व समवाय है । वह अपृथ भूत और अपृथक् स है, इस लये वीतराग ने और
गुणके स ब धको अपृथक् स कहा-है।
५१. वण, रस, गध और पश ये चार वशेष (गुण) परमाणु से अ भ है। वहारसे वे
पु ल से भ कहे जाते है।
५२. इसी तरह दशन.,और ान भी जीवसे अन यभूत ह। वहारसे उनका आ मामे, भेद कहा
जाता है।

६००
:... ५३ आ मा (व तुतः) अना द-अनंत है, और सतानक अपे ासे सा द-सात भी है और सा दअनंत
भी है । पाँच भावोक धानतासे वे सब भग होते ह । स ावसे जीव अनत है। .
.... , ५४ इस तरह सत् (जीव-पयाय) का वनाश और असत् जीवका उ पाद पर पर व होनेपर
भी जैसा अ वरोध पसे स है वैसा सव वीतरागने कहा है।
५५ नारक, तथंच, मनु य और दे व-ये नामकमक कृ तयाँ सत्
उ पाद करती है। ..
" ५६. उदय, उपशम, ा यक, योपशम और पा रणा मक भावोसे जी
. ५७, ५८, ५९ . , ..
६० कमका न म पाकर जीव उदय आ द भावोमे प रणमन करता है, वकमको न म
पाकर कमका प रणमन होता है। कोई कसीके भावका कता नह है, और कताके बना होते नह ह।
६१. सब अपने अपने वभावके क ती ह, इसी तरह आ मा भी अपने ही भावका करती ह, आ मा
पु लकमका कता नह है, ये वीतराग-वचन समझने यो य ह। ''
'६२ कम अपने वभावके अनुसार यथाथ प रणमन करता है, उसी कार जीवे अपने वभावके
अनुसार भावकमको करता है। ''
६३ य द कम ही कमका कता हो, और आ मा ही 'आ माका कता हो, तो फर उस कमका
फल क न भौगेगा? और कम अपने' फलको कसे दे गा? - ।।
, ६४ सपूण लोक पु ल-समूहोसे भरपूर भरा आ है सू म और वादर ऐसे व वध कारसे अनत
कध से।
.... ६५ आ मा जब भावकम प अपने वभावको करता है, तब वहाँ रहे ए पु लपरमाणु अपने
वभावके कारण कमभावको ा त होते है, और पर पर एक े ावगाह पसे अवगाढता पाते ह।
६६ कोई कता नही होने पर भी जैसे पु ल से अनेक कधोक उ प होती है वैसे ही कम-
पसे वभावत' पदगल प रण मत होते है ऐसा जाने।
६७ जीव और पु लसमूह पर पर अवगाढ- हणसे तब ह। इस लये यथाकाल उदय हानेपर
जीव सुख ःख प फलकावेदन करता है।
.६८ इस लये कमभावका कता जीव है और भो ा भी जीव है । वेदक भावके कारण वह कम-
फलका अनुभव करता है।
,,६९ इस तरह आ मा अपने भावसे-कता और भो ा होता है। मोहसे भलीभां त आ छा दत
जीव ससारमे प र मण करता है।
।', . ७० ( म या व) मोहका उपशम होनेसे अथवा य होनेसे वीतरागक थत मागको ा त आ

ी ी ो ै
धीर, शु ानाचारवान जीव नवाणपुरको जाता है।
....७१-७२: एक कारसे, दो कारसे तीन कारसे चार ग तय के भेदसे पाँच गुणोक मु यतासे, छ
कायके भेदसे, सात भगोके उपयोगसे, आठ गुणो अथवा आठ कम के भेदसे, नव त वसे और दश थानक
से जीवका न पण कया गया है।
७३. कृ तवध, थ तबंध, अनुभागवध और दे शबधसे सवथा मु होनेसे जीव ऊ वगमन करता
है। ससार अथवा क व थामे-जीव व दशाको छोडकर सरी दशाओमे गमनाकरता है..
___७४ कध, कधदे श, कध दे श और परमाणु इस तरह पु ला तकायके चार भेद समझे।
} ' ७५.सकल' सम तको कध', उसके आधेको 'दे श', 'उसके आधेको दे श और - अ वभागीको
'परमाणु' कहते है।

६०१
७६ बादर और सू म प रणमन पाने यो य कंधोसे पूरण- (बढना) और गलनः, (घटना, वभ
होना) वभाव जनका ह वे पु ल कहे जाते है । उनके छ भेद है। जनसेऽवलो य उ प होता है।
७७ सा कंधोका जो अ तम भेद है वह परमाणु है। वह शा त, श दर हत, एक, अ वभागी
और मूत होता है।
21. जो वव ासे मूत और चार धातुओका कारण है उसे परमाणु जानना चा हये। वह प रणामी
है, वयं अश द अथात् श दर हत है, परंतु श दका कारण ह |
कवस श द उ प होता है। अनुत परमाणुओके मलापके संधीत समूहको कंध' कहा
ह। इन कध ' क पर पर पश होनेसे, संघष होनेसे न य ही 'श द' उ प होता है।'' .
८०, वह परमाणु न य है,, अपने प आ द गुणो को, अवकाश-आ य दे ता है, वय एक दे शी
होनेसे एक दे शके बाद अवकाशको ा त नह होता, सरे को अवकाश (आकाशको तरह) नही दे ता,
कूधके भे का कारण हैज तके खडका, कारण है, कधका कता है, और कालके प रमाण (माप) और
स या गनतो)का हेतु है।
८१. जो एक रस, एक वण, एक गध और दो पशसे यु है, श दक उ प का कारपा है,
एक दे शा मकतासे, श दर हत है, कंधूप रण मता होनेपर भी उससे भ है, उसे परमाणु समझे ।
। ८२ जोइ योसे उपभो य है, तथा काया, मन और कम आ द'जो जो मूत पदाथ ह उन सबको
पुदगल समझ
__८३ धमा तकाय अरस, अवण, अगध, अश द और अ पश है, सकल लोक माण है, अखं डत,
व तीण और 'असं यात दे शा मक है।
वह अनत अगु लघुगण ु ोसे नरंतर प रण मत है, ग त न यायु जीव आ दके लये कारणभूत
है, और वय अकाय है, अथात् वह ं कसीसे उ प नही आ है।
८५ - जस तरह म यक ग तमे-जला उपकारक है, उसी तरह जो जीव और पु लको ग तमे
उपकारक है, उसे धमा तकाय जाने
८६ जैसे धमा तकाय है।वैसे अधमा तकाय भी है ऐसा' जान ।" वे थ त याय
जीव और पु लको पृ वीको भाँ त कारणभूत है।
८७ धमा तकाय और अधमा तकायके कारण लोक-अलोकका वभाग होता है। ये धम और
अधम दोनो अपने अपने दे शोसे भ भ है। वय हलन चलन नयासे र हत ह, और लोक माण ह
४८, धमा तकाय जीव और पु लको चलाता हे,ऐसी बात नह है.। जीव.और पु ल ग त
करते है, उ हे सहायक है।
- ९० जो सब जीवोको तथा शेष पु ल आ द ोको स पूण अवकाश दे ता है, उसे 'लोकाकाश'
कहते है ।
९१ जोव, पु लसमूह, धम और अधम, ये लोकसे अन य है; अथात् लोकमे ह, लो से
वाहर नह है, ।, आकाश लोकसे भी बाहर है, और वह अनंत है, जसे 'अलोक' कहते ह। -
र ९२ य दग त ओर थ तका कारण आकाश होता, तो धम और भवन के अभावकै कारण
स भगवानका अलोकमे भी गमन होता।

६०२
९३. इसी लये सव वीतरागदे वने स भगवानका थान ऊ वलोकातमे बताया है। इससे आकाश
ग त और थ तका कारण नही है ऐसा, जान ।
९४ , य द ग तका कारण आकाश होता अथवा थ तका कारण आकाश होता, तो अलोकक
हा न होती और लोकके अतक वृ भी हो जाती
९५. इस लये धम और अधम -ग त तथा थ तके कारण है, पर तु आकाश नही है । इस
कार सव वीतरागदे वने ोता जीवोको लोकका वभाव-बताया है। :
___९६. धम, अधम और (लोक) आकाश अपृथ भूत (एक े ावगाही) और समान प रमाणवाले ह।
न यसे तीनो ोक पृथक् उपल ध है, और वे अपनी अपनी स ासे रहे ए ह। इस तरह इनमे
एकता और अनेकता, दोनो है।
९७. आकाश, काल, जीव, धम और अधम अमूत है; और पु ल मूत है ! उनमे जीव-
चेतन है।
९८ जीव और पु ल एक सरेक यामे सहायक ह। सरे (उसे कारसे) सहायक नह

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ह। जीव पु ल के न म से यावान होता है। कालके कारणसे पु ल अनेक कध पसे प रणमन
करता है।
१९. जीव ारा जो इ य ा वषय है वे पु ल- मूत ह, - शेष अमूत ह। मन मूत एवं
अमूत दोनो कारके पदाथ को जानता है, अपने वचारसे न त पदाथ को जानता है। ;
१०० काल प रणामसे उ प होता है, प रणाम कालसे उ प होता है। दोनोका यह वभाव
है । ' न यकाल' से ' णभगुरकाल' होता है।
१०१ काल श द अपने स ाव-अ त वका बोधक है, उनमेसे --एक ( न यकाल) न य है।
सरा (समय प वहारकाल) उ प वनाशवाला है, और द घातर थायी है। -
१०२ काल, आकाश, धम, अधम, पु ल और जीव, इन सबक सं ा है । कालक अ त-
काय सं ा नही है।
. १०३ इस तरह न ंथके वचनके रह यभूत इस पचा तकायके व प- ववेचनके स ेपको जो
थाथ पसे जानकर राग और े पसे मु हो जाता है वह सब खोसे प रमु हो जाता है। ,
१०४ इस परमाथको जानकर जो जीव मोहका नाशक आ है और जसने राग े षको शात कया
हे वह जीव ससारक द घ पर पराका नाश करके शु ा मपदमे लीन हो जाता है।
इ त पचा तकाय थम अ याय
। ॐ जनाय नमः । नमः ी स रवे । :: -
१०५ मो के कारणभूत ी भगवान महावीरको भ पूवक नम कार करके उन भगवानके कहे
ए पदाथ भेद प मो मागको कहता ँ।
१०६ स य व, आ म ान ओर राग े पसे र हत ऐसा चा र तथा स यक् बु जह ात ई
हे ऐसे भ जीवको मो माग ा त होता है। - ।.
१०७ त वाथको ती त 'स य व' है, त वाथका ान ' ान' हे ओर वषयके वमूढ मागके
त शातभाव'चा र ' है। ।
१०८ जीव, अजीव, पु य, पाप, आ व, सवर, नजरा, बंध और मो -ये नव त व ह। ..
- १०९ जीव दो कार ह-समारी और अससारो । दोनो चैत य व प और उपयोगल णवाले
ह । ससारी दे हम हत और अससारी दे हर हत होते ह। '

६०३
, -११०, पृ वी, पानी, अ न, वायु और वन प त-ये जीवस त काय है । "इन जीवोक मोहक
वलता है और पश-इ यके वषयका उ हे ान है।
1 ' १११ इनमेस तीन थावर ह और अ पय गवाले अ न और वायुकाय से ह। ये सभी मन
प रणामसे र हत 'एक य जीव' ह ऐसा जान।
११२:।ये पाँचो कारके जीवसमूह मनप रणामसे र हत और एके य ह। ऐसा सव ने कहा है ।
...११३ जस तरह अडेमे प ीका गभ बढता है, जस तरह मनु यगभमे मूछागत अव था होने
पर भी जीव व' है, उसी तरह 'एक य जीव' भी जानना चा हये। .....
. ११४ शबूक, शख, सीप, कृ म इ या द जो जोव रस और पशको जानते है, उ हे 'दो इ ः
जीव' जानना चा हये।
. ११५ जू, खटमल, चीट , ब छू इ या द अनेक कारके सरे भो क डे रस, पश और ग धक
जानते है, उ हे 'तीन इ य जीव' जानना चा हये। . . . . . . . . . . .
११६ डास, म छर, म खी, मरी, मर, पतग आ द प, रस, ग ध और पशको जानते है
उ ह 'चार इं य जीव जानना चा हये।
. ११७ दे व, मनु य, नारक, तयच, जलचर; थलचर और खेचर वण, रस, पश, ग ध और
श दको जानते है, ये बलवान पाच इ यवाले जीव' ह।
११८ दे वताके चार नकाय है। मनु य कम और अकम भू मके भेदसे दो कारके है । तयचके
अनेक कार है और नारको जतने नरक-पृ वीक भेद ह उतने ही है।
११९, पूवकालमे बांधी ई आयुके ीण हो जानेपर जीव ग तनामकमके कारण आयु और ले यावे
भावसे अ य दे हको ा त होता ह।
१२० दे हा त जीव के व पका यह वचार न पत कया । ये भ और अभ के भेदसे म
कारके है।। दे हर हत जीव ' स भगवान''है।
नाव नह है, तथा काया भी जीव नही ह, पर तु जीवकै हण कये ए साध
मा ह । व तुतः तो ज हे ान है उनको ही जीव कहते ह।''
. .. १२२. जो सब, जानता है, दे खता है, द◌ुखको र कर सुख चाहता है, शुभ-अशुभ याको करत
है और उनका फल भोगता है, वह 'जीव' है।
' १२४. आकाश, काल, पु ल, धम और अधम मे जीव वगुण नही है, उ हे अचेतन कहते
और जीवको सचेतन कहते ह।
.. १२५ सुख- ःखका वेदन, हतमे वृ , अ हतसे भी त-ये तीनो कालमे जसको नही है -
सव महामु न 'अजीव' कहते है।
. १२६ स थान, सघात, वण, रस, पश, गध.ओर श द इस तरह पु ल से उ प , होनेव
अनेक गुणपयाय है।
..१२७. अरम, अ प, अगध, अश द, अ न द स थान और वचन अगोचर ऐमा जनका चैन
गुण है वह 'जीव' है।
१२८ जो न यसे संसार थत जीव है, उसका अशु प रणाम होता है। उस प रणामसे

ो ै े औ ो ी ै
उप होता है, उससे शुभ और अशुभ ग त होती है।
.

६०४
. : १२९ ग तक ा तसे दे ह होती है, दे हसे- इ याँ और इ योसे वषय हण होता है, और उससे
राग- े ष उ प होते है।
.: १३०. ससारच मे अशु भावसे प र मण करते ए जीवोमेस, े कुछ जीवोका ससार, अना द
सात है और कसीका अना द अन त है ऐसा भगवान सव ने कहा है। , -, . : ., . .
१३१, जसके भावोमे अ ान, राग े ष और च स ता रहती है, उसके शुभ-अशुभ प रणाम
१३२ जीवको शुभ प रणामसे पु य होता है, और अशुभ प रणामसे पाप होता है। उससे शुभा;
शम ल हण प कम व ा त होता है ।
१३७ तृपातुर, ुधातुर, रोगी अथवा अ य खी मनके जीवको दे खकर उसका ख मटानेक
___ वृ क जाय उसे 'अनुकपा' 'कहते ह।'
.. १३८ ोध, मान, माया और लोभक मीठाश जीवको ु भत करती है, और पाप भावको उ प
करती है।
' १३९ ब त मादवाली या, च क म लनता, इ य- वषयमे लोलुपता; सरे जीवोको ख
दे ना और उनको नदा करना इ या द आचरणोसे जीव 'पापासव' करता है ।, , , . .
१४० चार स ा, कृ णा द तीन ले या, इ यवशता, आत और रौ , यान, भाववाली
धम यामे मोह ये 'भाव-पापा व है। : . . . . . !', ..
१४१ इ यो, कपाय और स ाको,जय करनेवाले क याणकारी मागमे जीव जस समय रहता
है,उस समय उसके पापा व प छ का नरोध हो जाता है,ऐसा जानना चा हये ।
१४२ जनको सब ोमे राग, े ष और अ ान नही रहते, ऐसे सुख- खमे सम के वामी
न ंथ महा माको शुभाशुभ आ व नही होता।
. १४३ जस सयमीको योगोमे जब पु य-पापको वृ नह होती तब उसको शुभाशुभ कमके
कतृ वका 'सवर' हो जाता है, ' नरोध' हो जाता है। ..
' १४४ जो योगका नरोध करके तप' करता है वह न यसे अनेक कारके कम क नजरा
करता है।
'' १४५ जो आ माथका साधक सवरयु होकर, आ म व पको जानकर त प ू यान करता है वह
महा मा साधु कमरजको झाड डालता है।
. १४६ जसको राग, े प, मोह और योगप रणमन नही है उसको शुभाशुभ कम को जलाकर भ म
कर दे नेवाल यान पी अ न गट होती है।
'. '१५२ दशन ानसे प रपूण, अ य के ससगसे र हत'ऐसा यान जो नजराहेतुसे करता है वह
महा मा ' वभावस हत' है।
'' १५३ जो सवरयु ' सब कम क नजरा करता आ वेदनीय और आयुकमसे र हत होता है, वह
महा मा उसी भवमे 'मो ' जाता है ।
१५४ जोपका वभाव अ तहत ' ान-दशन है। उसके अन यमय आचरण ( शु न यमय
थर वभाव ) को सव वीतरागने ' नमल चा र ' कहा है।
- १५५ व तुतः आ माका वभाव नमल ही है। गुण और पयाय अना दसे परसमयप रणामी पसे
प रणत हे उम से अ नमल है । य द वह आ मा वसमयको ा त हो तो कमवधसे र हत होता है।

६०५
१५६ जो पर मे शुभ अथवा अशुभ राग करता है वह जीव ' वचा र 'से है और
'परचा र 'का आचरण करता है, ऐसा समझ।
१५७ जस भावसे आ माको पु य अथवा पाप-आ वक ा त होती है, उसमे वृ करनेवाला
आ मा परचा र का आचरण करता है, इस कार वीतराग सव ने कहा है।
१५८ जो सव सगसे मु होकर अन यमयतासे आ म वभावमे थत है, नमल ाता- ा है,
वह ' वचा र 'का आचरण करनेवाला जीव है।
१५९ पर मे अहभावर हत, न वक प ानदशनमय प रणामी आ मा है वह वचा र ा-
चरण है।
१६०. धमा तकाया दके व पक ती त 'स य व' है, बारह अग और चौदह पूवका जानना
' ान' है, और तप या दमे वृ करना ' वहार-मो माग' है।
१६१. उन तीनसे समा हत आ मा, जहाँ आ माके सवाय अ य क चत् मा नही करता, मा
अन य आ मामय है वहाँ सव वीतरागने ' न य-मो माग' कहा है।
१६२ जो आ मा आ म वभावमय ानदशनका अन यमयतासे आचरण करता है, उसे वह
न य ान, दशन और चा र है।
१६३ जो यह सब जानेगा और दे खेगा वह अ ावाध सुखका अनुभव करेगा । इन भावोक ती त
भ को होती है, अभ को नही होतो ।
१६४ दशन, ान और चा र यह 'मो माग' है, इसके सेवनसे 'मो ' ा त होता है और
( अमुक हेतुसे ) 'बंध' होता है ऐसा मु नयोने कहा है।
१६५

ै औ े
१६६ अहत, स , चै य, वचन, मु नगण और ानक भ से प रपूण आ मा ब त पु यका
उपाजन करता है. क तु वह कम य नही करता।
१६७ जसके दयमे अणुमा भी पर के त राग है, वह सभी आगमोका ाता हो तो भी
' वसमय'को नही जानता, ऐसा समझ ।
१६८
१६९, इस लये जो सव इ छासे नवृ होकर न.सग और नमम व होकर स व पक भ
करता है वह नवाणको ा त होता है।
२७० जसे परमे ीपदमे त वाथ ती त पूवक भ है, और न ंथ- वचनमे चपूवक जसक
बु प रणत ई है और जो सयमतपस हत है, उसके लये मो वलकुल र नही है।
१७१ अहत, स , चै य और वचनक भ पूवक य द जीव तप या करता है, तो वह
अव य ही दे वलोकको अगीकार करता है।
२७२ इस लये इ छामा क नवृ करे, सव क च मा भी राग न करे, यो क वीतराग ही
भवसागरको तर जाता है।
१७३ मैने वचनक भ से े रत होकर मागक भावनाके लये वचनके रह यभूत
'पचा तकाय'के स ह प इस शा यको कहा है।
इ त पचा तकायसमा तम् ।

६०६
परमभ से तु त करनेवालेके त भी जसे राग नही है और
परम े पसे उपसग करनेवालेके त भी जसे े ष नही है,
उस पु प प भगवानको वारवार नम कार।
अ े पवृ से वतन करना यो य है, धीरज कत है।
म न दे वक णजीको 'आचाराग' पढते हए द घशका आ द कारणोके वषयमे भी साधका माग
अ यत संकु चत दे खनेमे आया, जससे यह आशका ई क ऐसी साधारण यामे भी इतनी अ धक
संकु चतता रखनेका या कारण होगा? उस आशकाका समाधान :-
सतत अंतमख उपयोगमे थ त रखना ही न ंथका परम धम है। एक समयके लये भी व हमख
उपयोग न करना यह न ंथका मु य माग है, पर तु उस सयमके लये दे ह आ द साधन है, उनके नवाह-
के लये सहज भो वृ होना यो य है । कुछ भी वैसी वृ करते ए उपयोग ब हमुख होनेका न म
हो जाता है, इस लये उस वृ को इस ढगसे करनेका वधान है क उपयोगक अतमुखता बनी रहे ।
केवल और सहज अंतमुख उपयोग तो मु यतया केवलभू मका नामके तेरहव गुण थानकमे होता है । और
नमल वचारधाराक बलतास हत अ तमुख उपयोग सातव गुण थानकमे होता है। मादसे वह उपयोग
ख लत होता है, और कुछ वशेष अशमे ख लत हो जाये तो वशेष ब हमख उपयोग हो जाता है,
जससे भाव-असयम पसे उपयोगको वृ होती है। वैसा न होने दे नेके लये और दे ह आ द सावन के
नवाहको वृ भी छोडी न जा सके ऐसी होनेस, े वह वृ अतमुख उपयोगसे हो सके, ऐसी अ त
सकलनासे उसका उपदे श कया है, जसे पाँच स म त कहा जाता है।।
__ चलना पडे तो आ ानुसार उपयोगपूवक चलना, बोलना पडे तो आ ानुसार उपयोगपूवक बोलना;
आ ानुसार उपयोगपूवक आहार आ दका हण करना, आ ानुसार उपयोगपूवक व आ दका लेना
और रखना, और आ ानुसार उपयोगपूवक द घशका आ द शरीर-मलका याग करने यो य याग करना,
इस कार वृ प पाँच स म त कही है। सयममे वृ करनेके लये जन जन सरे कारोका
उपदे श कया है, उन सबका इन पाँच स म तयोमे समावेश हो जाता है, अथात् जो कुछ न ंथको वृ
करनेक आ ा द है, उनमेसे जस वृ का याग करना अश य है, उसी वृ क आ ा द है, और
वह इस कारसे दो है क मु य हेतुभूत अतमुख उपयोग अ ख लत बना रहे । तदनुसार वृ क जाये
तो उपयोग सतत जा त बना रहे, और जस जस समय जीवक जतनी जतनी ानश तथा
वीयश हे वह सब अ म बनी रहे ।
___ द घशका आ द याओको करते ए भी अ म संयम का व मरण न हो जाये इस हेतुसे
वेसी वैसी कठोर याओका उपदे श दया है, पर तु स पु पक के वना वे समझमे नही आती। यह
रह य स ेपमे लखी है, इस पर अ धका धक वचार कत है। सभी याओमे वृ करते ए
इस को मरणमे रखनेका यान रखना यो य है।
ी दे वक णजी आ द सभी नयोको इस प क वारवार अनु े ा करना यो य है। ी ल लुजी
आ द मु नयोको नम कार ा त हो। कम ंयको वाचना पूरी होनेपर पुन आवतन करके अनु े ा
कत है।

६०७
७६८ ववा णया, चै सुद ४, सोम, १९५३
शुभे छायु ी केशवलालके त, ी भावनगर ।
प ा त आ है। आशकाका समाधान इस कार है :-
एक य जीवको अ पसे अनुकूल पश आ दक यता है, वह 'मैथुनसं ा' है।
एक य जीवको दे ह और दे हके नवाह आ दके साधनोमे अ मूछा प 'प र हस ा' है।
वन प त एक य जीवमे यह स ा कुछ वशेष है।

े औ
म त ान, ुत ान, अव ध ान, मन-पयाय ान, केवल ान, न तअ ान, ुतअ ान और वभग-
ान-ये आठो जीवके उपयोग प होनेसे अ पी कहे है । ान और अ ान इन दोनोमे मु य अतर इतना
हो है क जो ान सम कतस हत है उसे ' ान' कहा है और जो ान म या वस हत है उसे 'अ ान' कहा
है। पर तु व तुत दोनो ान ह।
' ानावरणीयकम' और 'अ ान' दोनो एक नही ह। ' ानावरणीयकम' ानको आवरण प है,
और 'अ ान' ानावरणीयकमके योपशम प अथात् आवरण र होने प है।
___ साधारण भाषामे 'अ ान' श दका अथ ' ानर हत' होता है, जैसे क जड ानसे र हत है। परतु
न ंथ-प रभाषामे तो म या वस हत ानका नाम अ ान है, इस लये उस से अ ानको अ पी
कहा है।
यह आशका हो सकती है क य द अ ान अ पी हो तो स मे भी होना चा हये । इसका समाधान
यह है -- म या वस हत ानको ही 'अजान' कहा है, उसमेसे म या व नकल जानेसे शेप ान रहता है,
वह ान सपूण श तास हत स भगवानमे रहता है। स , केवल ानी और स य का ान
म या वर हत है। म या व जीवको ा त प है। वह ा त यथाथ समझमे आ जानेपर नवृ हो
सकने यो य है । म या व दशा म प है।
___ ी कुवरजीक अ भलाषा वशेष थी, पर तु कसी एक हेतु वशेषके बना प लखना अभी वन
नही पाता । यह प उ हे पढवानेक वनती है।
७६९
__ववा णया, चै सुद ४, १९५३
तीनो कारके सम कतमेसे चाहे जस कारका सम कत गट हो तो भी अ धकसे अ धक प ह
भवोमे मो होता है, और य द उस सम कतके होनेके बाद जीव उसका वमन कर दे तो अ धकसे अ धक
अध पु लपरावतनकाल तक ससार प र मण होकर मो होता है।
तीथकरके न ंथ, न ं थ नयो, ावक और ा वकाओ सभीको जीव-अजीवका ान या इस लये
उ हे सम कत कहा है, यह बात नही है । उनमेसे अनेक जीवोको मा स चे अतरग भावसे तीथकरक और
उनके उप द मागक ती तसे भी सम कत कहा है। इस सम कतको ा तके बाद य द उसका वमन
न कया हो तो अ धकसे अ धक प ह भव होते ह | स चे मो मागको ा त ऐसे स पु षको तथा प
ती तसे स ातमे अनेक थलोमे सम कत कहा है । इस सम कतके आये बना जीवको ायः जीव और
अजीवका यथाथ ान भी नही होता । जीव-अजीवका ान ा त करनेका मु य माग यही है।
७७०
ववा णया, चै सुद ४, १९५३
ना जीवका प है, इस लये वह अ पी है, और जब तक ान वपरीत पसे जाननेका काय
करता है, तब तक उसे अ ान कहना एसा न ंथ-प रभाषा है, पर तु यहाँ ानका सरा नाम हो अ ान
है यो समझना चा हये।

६०८
ीमद् राजच
ानका सरा नाम अ ान हो तो जस तरह ानसे मो होना कहा है, उसी तरह अ ानसे भी
मो होना चा हये । इसी तरह जैसे मु जीवमे भी ान कहा है वैसे अ ान भी कहना चा हये, ऐसी
आशंका को है, जसका समाधान यह है :-
गाँठ पड़नेसे उलझा आ सू और गाँठ नकल जानेसे सुलझा आ सू ये दोनो सु ही ह, फर
भी गाँठक अपे ासे उलझा आ सू और सुलझा आ सू कहा जाता है। उसी तरह म या व ान
'अ ान' और स य ान ' ान' ऐसी प रभाषा क है, पर तु म या व ान जड है और स य ान चेतन
है यह बात नह है । जस तरह गाँठवाला सू और गाँठ र हत सू दोनो सू ही ह, उसी तरह म या व-
ानसे ससार-प र मण और स य ानसे मो होता है। जैसे क यहाँसे पूव दशामे दस कोस र एक
गाँव है, वहाँ जानेके लये नकला आ मनु य दशा मसे पूवके बदले प ममे चला जाये, तो वह पूव
दशावाला गाँव ा त नही होता, पर तु इससे यह नह कहा जा सकता क उसने चलनेक या नही
क ; उसी तरह दे ह और आ मा भ होनेपर भी जसने दे ह और आ माको एक समझा है वह जीव
दे हबु से ससारप र मण करता है; पर तु इससे यह नह कहा जा सकता क उसने जाननेका काय नही
कया है। पूवसे प मक ओर चला है, यह जस तरह पूवको प म मानने प म है, उसी तरह दे ह
और आ मा भ होनेपर भी दोनोको एक मानने प म है, परंतु प ममे जाते ए चलते ए जस
तरह चलने प वभाव है, उसी तरह दे ह और आ माको एक माननेमे भी जानने प वभाव है । जस
तरह पूवके बदले प मको पूव मान लेना म है, वह म तथा प हेतु-साम ीके मलनेपर समझमे
आनेसे पूव पूव ही समझमे आता है, और प म प म हो समझमे आता है, तब वह म र हो जाता
है, और पूवक तरफ चलने लगता है; उसी तरह दे ह और आ माको एक मान लया है वह स -
उपदे शा द साम ी मलनेपर दोनो भ ह यो यथाथ समझ आ जाता है, तब म र होकर आ माके
त ानोपयोग प रण मत होता है। ममे पूवको प म और प मको पूव मान लेनेपर भी पूव पूव
ही और प म प म दशा ही थो, मा मसे वपरीत भा सत होता था। उसी तरह अ ानमे भी
दे ह दे ह ही ओर आ मा आ मा ही होनेपर भी वे उस तरह भा सत नही होते, यह वपरीत भासना है।
वह यथाथ समझमे आनेपर, म नवृ हो जानेसे दे ह दे ह ही भा सत होती है और आ मा आ मा ही
भा सत होता है, और जानने प वभाव जो वपरीत भावको भजता था वह स य भावको भजता है।
व तुत दशा म कुछ भी नही है, और चलने प यासे इ गाँव ा त नह होता, उसी तरह म या व

ी ी ी ै औ े े ी ै े
भी व तुतः कुछ भी नही है, और उसके साथ जानने प वभाव भी है, पर तु साथमे म या व प म
होनेसे व व पतामे परम थ त नही होती। दशा म र हो जानेसे इ गाँवक ओर मुडनेके बाद
म या वका भी नाश हो जाता है, और व व प शु ाना मपदमे थ त हो सकती है इसमे कसी
सदे हको थान नही है।
७७१
ववा णया, चै सुद ५, १९५३
यहाँसे पछले प मे तीन कारके सम कत बताये थे । उन तीनो सम कतमेसे चाहे जो सम कत
ा त करनेसे जीव अ धकसे अ धक प ह भवमे मो ा त करता है, और कमसे कम उसी भवमे भी
मो होता है, और य द वह सम कतका वमन कर दे , तो अ धकसे अ धक अध पु लपरावतनकाल तक
ससारप र मण करके भी मो को ा त करता है। सम कत ा त करनेके बाद अ धकसे अ धक अध
पु लपरावतन ससार होता है।
१ दे ख आक ७५१ ।

६०९
योपशम सम कत हो अथवा उपशम सम कत हो, तो जीव उसका वमन कर सकता है, पर तु
ा यक सम कत हो तो उसका वमन नही कया जा सकता। ा यक सम कती जीव उसी भवमे मो
ा त करता है, अ धक भव करे तो तीन भव करता है, और कसी एक जीवक अपे ा व चत् चार
भव होते ह । युग लयाक आयुका बध होनेके बाद ा यक सम कत उ प आ हो, तो चार भव होना
सभव है, ायः कसी ही जीवको ऐसा होता है ।
भगवान तीथकरके न ंथ, नग थ नयो, ावक तथा ा वकाओको कुछ सभीको जीवाजीवका
ान था, इस लये उ हे सम कत कहा है ऐसा स ातका अ भ ाय नही है । उनमेसे कतने ही जीवोको,
तीथकर स चे पु ष है, स चे मो मागके उपदे ा है, जस तरह वे कहते है उसी तरह मो माग है, ऐसी
ती तसे, ऐसी चसे, ी तीथकरके आ यसे और न यसे सम कत कहा है। ऐसी ती त, ऐसी च,
और ऐसे आ यका तथा आ ाका जो न य है, वह भी एक तरहसे जीवाजोवके ान व प है। पु ष
स चे है और उनक ती त भी स ची ई है क जस तरह ये परमकृपालु कहते है उसी तरह मो माग
है वैसा ही मो माग होता है, उस पु षके ल ण आ द भी वीतरागताक स करते ह । जो वीतराग
होता है वह पु ष यथाथ व ा होता है, और उसी पु षक ती तसे मो माग वीकार करने यो य होता
है ऐसी सु वचारणा भी एक कारका गौणतासे जीवाजोवका ही ान है । उस ती तसे, उस चसे और
उस आ यसे फर अनु मसे प व तारस हत जीवाजीवका ान होता है। तथा प पु षको आ ाक
उपासनासे रागदे षका य होकर वीतरागदशा उ प होती है। तथा प स पु षके य योगके
बना यह सम कत होना क ठन है। वैसे पु षके वचन प शा से पूवकालके कसी आराधक जीवको
सम कत होना स भव है, अथवा कोई एक आचाय य पसे उस वचनके हेतुसे कसी जीवको सम कत
ा त कराता है।
७७२ ववा णया, चै सुद १०, सोम, १९५३
ॐ सव ाय नमः
औषधा द स ा त होनेपर कतने ही रोगा दपर असर करते है, यो क उस रोगा दके हेतुका
कमबध कुछ उसी कारका होता है । औषधा दके न म से वह पु ल व तारमे फैलकर अथवा र
होकर वेदनीयके उदयके न म पनको छोड़ दे ता है। य द उस तरह नवृ होने यो य उस रोगा द सबधी
कमबंध न हो तो उस पर औषधा दका असर नही होता, अथवा औषधा द ा त नह होते या स यक्
औषधा द ा त नह होते।
अमक कमबंध कस कारका है उसे तथा प ान के बना जानना क ठन है। इससे औषधा द
वदारक व का एकातसे नषेध नही कया जा सकता । अपनी दे हके सवधमे कोई एक परम आ म-
द वाला पु ष उस तरह आचरण करे तो, अथात् वह औपधा दका हण न करे, तो वह यो य है, परतू
सरे सामा य जीव उस तरह आचरण करने लगे तो वह एका तक से कतनी ही हा न कर डालते
फर उसमे भी अपने आ त जीवोके त अथवा कसी सरे जोवके त रोगा द कारणोमे वैसा
पार करनेके वहारमे वृ को जा सकती है, फर भी उपचार आ द करने मे उपे ा करे तो
अनुकपा-मागको छोड़ दे ने जैसा हो जाता है। कोई जोव चाहे जैसा पी ड़त हो तो भी उसे दलासा दे ने
तथा औषधा द दे नेके वहारको छोड दया जाये तो उसे आत यानका हेतु होने जैसा हो जाता है।
गृह थ वहारमे ऐसो एका तक करनेसे ब त वरोध उ प होते ह।

६१२
प रवतन होनेमे बा पु ल प ओषध आ द न म कारण दे खनेमे आते ह, परतु वा तवमे तो वह
बंध पूवसे ही ऐसा बाँधा आ है क उस कारके औषध आ दसे र हो सकता है। औषध आ द
मलनेका कारण यह है क अशुभ बध मंद बाँधा था, और बध भी ऐसा था क उसे ऐसे न म कारण
मले तो र हो सके। पर तु इससे यो कहना ठ क नही है क पाप करनेसे उस रोगका नाश हो
सका, अथात् पाप करनेसे पु यका फल ा त कया जा सका। पापवाले औषधको इ छा और उसे ा त
करनेक वृ से अशुभ कम बधने यो य है और उस पापवाली यासे कुछ शुभ फल नह होता। ऐसा
लगे क अशभ कमके उदय प असाताको उसने र कया जससे वह शुभ प आ, तो यह समझक
भूल है, असाता ही इस कारक थी क उस तरह मट सके और इतनी आत यान आ दको वृ
कराकर सरा बंध कराये।

ो ी े ो े े े े औ
_ 'पु ल वपाक ' अथात् जो कसी बा पु लके सयोगसे पु ल वपाक पसे उदयमे आये और
कसी बा पु लके सयोगसे नवृ भी हो जाये; जैसे ऋतुके प रवतनके कारणसे सरद को उ प
होती है और ऋतु-प रवतनसे उसका नाश हो जाता है, अथवा कसी गरम औषध आ दसे वह नवृ हो
जाती है।
न यमु य से तो औषध आ द कथनमा है । बाक तो जो होना होता है वही होता है।
७७५
ववा णया, चै वद ५, १९५३
दो प ा त ए ह।
ानीक आ ा प जो जो या है उस उस यामे तथा पसे वृ क जाये तो वह अ म
उपयोग होनेका मु य साधन है, ऐसे 'भावाथमे यहाँसे पहले प लखा था। उसका यो यो वशेष
वचार कया जायेगा यो यो अपूव अथका उपदे श मलेगा। न य अमुक शा वा याय करनेके बाद
उस प का वचार करनेसे अ धक प बोध होना यो य है।
छकायका व प भी स पु षक से तीत करनेसे तथा उसका वचार करनेसे ान ही है।
यह जीव कस दशासे आया है, इस वा यसे श प र ा अ ययनका आरभ आ है। स के मुखस
इस ार भवा यका आशय समझनेसे सम त ादशागीका रह य समझमे आना यो य है। अभी तो जो
आचाराग आ द पढ़ उसका अ धक अनु े ण क जयेगा। कतने ही उपदे श प ोसे वह सहजमे समझमे
आ सकेगा। सभी मु नयोको नम कार ा त हो । सभी मुमु ुओको णाम ा त हो।
७७६
सायला, वैशाख सुद १५, १९५३
म या व, अ वर त, माद, कषाय और योग, ये कमबंधके पांच कारण ह। कसी जगह मादके
सवाय चार कारण बताये होते ह। वहाँ म या व, अ वर त और कषायमे मादका अतभाव कया
होता है।
शा प रभाषासे ' दे शवध' श दका अथ .-परमाणु सामा य. एक दे शावगाही है। ऐसे एक
परमाणुका हण एक दे श कहा जाता है। जीव कमबंधमे अनत परमाणुओको हण करता है। वे
परमाणु य द फैल जाये तो अनत दे शी हो सक, जससे अन त दे शका बंध कहा जाये । उसमे बंध
१ दे ख आक ७६७

६१३
अन त आ दसे भेद पडता है, अथात् जहाँ अ प दे शबध कहा हो वहाँ परमाणु अन त समझ, पर तु उस
अन तक सघनता अ प समझे । य द उससे वशेष- वशेष लखा हो तो अन तताक सघनता समझे।
जरा भी ाकुल न होते ए कम थको आ त पढ़ और वचार।
७७७ ईडर, वैशाख वद १२, शु , १९५३
तथा प (यथाथ) आ त ( जसके व ाससे मो मागमे वृ क जा सके ऐसे) पु षका जीवको
समागम होनेमे कसी एक पु यहेतुक ज रत है, उसक पहचान होनेमे महान पु यक ज रत है, और
उसक आ ाभ से वृ करनेमे महान महान पु यक ज रत है, ऐसे जो ानीके वचन ह, वे स य है।
यह य अनुभवमे आने जैसी बात है।
तथा प आ तपु षके अभाव जैसा यह काल चल रहा है । तो भी ऐसे समागमके इ छु क आ माथ
जीवको उसके अभावमे भी वशु थानकके अ यासका ल य अव य हो कत है।
७७८ ईडर, वैशाख वद १२, शु , १९५३
दो प मले ह। यहाँ ाय मगलवार तक थ त होगी। बुधवार शामको अहमदाबादसे डाक-
गाडीमे बंबई जानेके लये बैठना होगा । ाय. गु वार सवेरे ब बई उतरना होगा।
सवथा नराश हो जानेसे जीवको स समागनका ा त आ लाभ भी श थल हो जाता है । सत्-
समागमके अभावका खेद रखते ए भी स समागम आ है, यह परमपु यका योग है। इस लये सवसग-
यागका योग बनने तक जब तक गृह थावासमे थ त हो तब तक उस वृ क नी तस हत कुछ भी
र ा करके परमाथमे उ साहस हत वृ करके वशु थानकका न य अ यास करते रहना यही
कत है।
७७९
बंबई, ये सुद , १९५३
ॐ सव
वभावजागृतदशा ।
च सारी यारी, परजक यारी, सेज यारी।
चाद र भी यारी; इहाँ झूठ मेरी थपना ।
अतीत अव था सैन, न ावा ह कोऊ पै न।
व मान पलक न, यामै अब छपना ॥
वास औ सुपन दोऊ, न ाको अलग वूझै ।
सूझै सब अंग ल ख, आतम दरपना ।
यागी भयौ चेतन, अचेतनता भाव या ग ।
भाले खो लक, सभाले प अपना ।
१. भावाय-जव स य ान गट आ तव जीव वचारता है-शरीर प महल जुदा है, कम प पलग
जुदा है, माया प सेज जुद है, क पना प चादर भी जुद है, यह न ाव था मेरी नही है '-पूवकालम सोनेवाला मेरा

ी ी े ी औ
सरा ही पयाय था। अब वतमानका एक पल भी न ामे नही वताऊंगा। उदयका न ास और वषयका व
ये दोनो न ाके सयोगसे द खते थे । अव आ म प दपणम मेरे सम त गुण द खने लगे। इस कार आ मा अचेतन
भावोका यागी होकर ान से दे खकर अपने व पको स भालता है ।

६१४
अनुभवउ साहदशा .
जैसौ नरभेद प, नहचै अतीत तौ ।
तैसौ नरभेद अब, भेदको न गहैगौ॥
दोसै कमर हत स हत सुख समाधान ।
पायौ नजथान फर बाह र न बहेगी।
कब ँ कदा प अपनी सुभाव या ग क र।
राग रस रा चक न परव तु गहेगी।
अमलान ान व मान परगट भयो।
या ह भा त आगम अनत काल रहेगौ ॥
थ तदशा
एक प रनामके न करता दरव दोई।
दोई प रनाम एक दव न धरतु है ॥
एक करतू त दोई दव कब ँ न करै।
दोई करतू त एक दव न करतु है ॥
- जीव पु ल एक खेत अवगाही दोऊ।
अपने अपने प कोऊ न टरतु है।
जड़ प रनाम नको करता है - पु ल।
चदान द - चेतन सुभाव आचरतु है।
ी सोभागको वचार करनेके लये यह प लखा है, इसे अभी ी अबालाल अथवा कसी सरे
यो य मुमु ु ारा उ ह ही सुनाना यो य है।
___ आ मा सव अ यभावसे र हत है, जसे सवथा ऐसा अनुभव रहता है वह 'मु ' है।
जसे अ य सव से असगता, े से असंगता, कालसे असंगता और भावसे असगता सवथा
रहती है, वह 'मु ' है।
अटल अनुभव व प आ मा सव ोसे य भ भा सत हो तबसे मु दशा रहती है। वह
पु ष म न हो जाता है. वह पु ष अ तब हो जाता है, वह पु ष असग हो जाता है, वह पु ष न वक प
हो जाता है और वह पु ष मु हो जाता है।।
ज होने तीनो कालमे,दे हा दसे अपना कुछ भी संबध न था, ऐसी असगदशा उ प क है उन
भगवान प स पु षोको नम कार हो।
त थ आ दका वक प छोडकर नज वचारमे रहना यही कत है। .
शु सहज आ म व प ।
. १ भावाथ-ससारी दशाम न यनयसे आ मा जस कार अभेद प था उसी कार गट हो गया ।
उस परमा माको अब भेद प कोई नह कहेगा। जो कमर हत और सुख-शा तस हत दखायी दे ता है, तथा जसने
अपने थान-मो को पा लया है, वह अव ज म-मरण प ससारम नह आयेगा। वह कभी भी अपना वभाव छोडकर
राग े पम पडकर परव तुको हण नह करेगा, यो क वतमानकालमे जो नमल पूण ान गट आ है, वह तो
आगामी अनतकाल तक ऐसा ही रहेगा।
२ भावायके लये दे ख आक ३१७ ।

६१५
बबई, जेठ सुद ८, मगल, १९५३
जसे कसीके भी त राग, े ष नह रहा,
उस महा माको वारंवार नम कार ।
परम उपकारो, आ माथ , सरलता द गुणसप ी सोभाग,
बकभाईका लखा एक प आज मला है।
"आ म स " थके स त अथक पु तक तथा कतने ही उपदे श-प ोक त यहाँ थी, उ हे
आज डाकसे भेजा है। दोनोमे मुमु ु जीवके लये वचार करने यो य अनेक सग है।
परमयोगी ऐसे ी ऋषभदे व आ द पु ष भी जस दे हको नही रख सके, उस दे हमे एक वशेषता
रही ई है, वह यह है क जब तक उसका स ब ध रहे, तब तकमे जीवको असगता, नम हता ा त
करके अबा य अनुभव व प ऐसे नज व पको जानकर, सरे सभी भाव से ावृ (मु ) हो जाना क
जससे फर ज म-मरणका फेरा न रहे । उस दे हको छोडते समय जतने अशमे असगता, नम हता, यथाथ
समरसता रहती है, उतना ही मो पद समीप हे ऐसा परम ानीपु षोका न य है।
मन, वचन और कायाके योगसे जाने-अनजाने कुछ भी अपराध आ हो, उस सबक वनयपूवक
मा मांगता ँ, अ त न भावसे मा माँगता ँ।
इस दे हसे करने यो य काय तो एक ही है क कसीके त राग अथवा कसीके त क च मा
े ष न रहे । सव समदशा रहे । यही क याणका मु य न य है । यही वनती ।

ी े ो
ी रायचदके नम कार ा त हो ।
-
७८१
बबई, जेठ वद ६, र व, १९५३
परमपु षदशावणन
'क चसौ कनक जाके, नोच सौ नरेसपद,
मीचसो मताई, ग वाई जाकै गारसी।
जहरसी जोग जा त, कहरसी करामा त,
हहरसी हौस, पु लछ व छारसी ॥
जालसौ जग वलास, भालस भुवनवास,
कालसौ कुटु बकाज, लोकलाज लारसी।
सीठसौ सुजसु जाने, बीठसौ वखत मान,
ऐसी जाक री त ताही, वंदत बनारसी ॥'
जो कचनको क चडके समान जानता है, राजग को नीचपदके समान समझता है, कसीसे नेह
करनेको म यके समान मानता है, वड पनको लीपनेके गारे जैसा समझता है, क मया आ द योगको जहर-
के समान गनता है, स आ द ऐ यको असाताके समान समझता है, जगतमे पू यता होने आ दक
लालसाको अनथक समान मानता है, पु लक मू त प औदा रका द कायाको राखके समान मानता है,
जगतके भोग वलासको वधा प जालके समान समझता है, गृहवासको भालेके समान मानता है, कुटु ब-
के कायको काल अथात् मृ युके समान गनता है, लोकमे लाज बढानेको इ छाको मुखक लारके समान
समझता है क तक इ छाको ना के मैलके समान मानता है, और पु यके उदयको जो व ाके समान
समझता है ऐसी जसको री त हो उसे बनारसीदास वदन करते है।

६१६
ीमद् राजच
कसीके लये वक प न करते ए असंगता ही र खयेगा । यो यो स पु षके वचन उ हे ती त-
मे आयगे, यो यो आ ासे अ थम जा रगी जायेगी, यो यो वे सब जीव आ मक याणको सुगमतासे
ा त करगे, यह न सदे ह है।
अबक, म ण आ द मुमु ुओको तो इस वारके समागममे कुछ आत रक इ छासे स समागममे च
ई है, इस लये एकदम दशा वशेप न हो तो भी आ य नही है ।
स चे अत'करणसे वशेष स समागमके आ यसे जीवको उ कृ दशा भी ब त थोडे समयमे ा त
होती है।
वहार अथवा परमाथसवधी कसी भी जीवके बारेमे इ छा रहती हो, तो उसे उपशांत करके
सवथा असग उपयोगसे अथवा परमपु पको उपयु दशाके अवलंवनसे आ म थ त कर, यह व ापना
है, यो क सरा कोई भी वक प रखने जैसा नही है। जो कोई स चे अत करणसे स पु षके वचनोको
हण करेगा वह स यको पायेगा, इसमे कोई सशय नह है, और शरीर- नवाह आ द वहार सबके अपने
अपने ार धके अनुसार ा त होने यो य है, इस लये त सवधी भी कोई वक प रखना यो य नह है।
जस वक पको आपने ाय शात कर दया है, तो भी न यक वलताके लये लखा है।
___ सब जीवोके त, सभी भावोके त अखंड एक रस वीतरागदशा रखना यही सव ानका फल
है। आ मा शु चैत य, ज मजरामरणर हत असग व प है, इसमे सव ान समा जाता ह; उसका
ती तमे सव स यकदशन समा जाता है, आ माक असग व पसे वभावदशा रहे वही स य चा र ,
उ कृ सयम और वीतरागदशा है । जसक सपूणताका फल सव खका य है, यह सवथा न सदे ह है।
सवथा न सदे ह है । यही वनती ।
७८२
बबई, जेठ वद १२, श न, १९५३
आय ी सोभागने जेठ वद १० ग वार सवेरे १० बजकर ५० म नटपर दे ह याग कया, यह
समाचार पढ़कर ब त खेद आ है। यो यो उनके अ त गुणोके त जाती है, यो यो
अ धका धक खेद होता है।
जीवके साथ दे हका संवध इसी तरहका है। ऐसा होनेपर भी अना दसे उस दे हका याग करते ए
जीव खेद ा त कया करता है, और उसमे ढमोहसे एकमेकक तरह वतन करता है, यही ज म-
मरणा द ससारका म य बीज है। ी सोभागने ऐसी दे हका याग करते ए महामु नयाका मा न त
न ल असगतासे नज उपयोगमय दशा रखकर अपूव हत कया है, इसमे सशय नह है।
गु जन होनेसे, आपके त उनके ब त उपकार होनेसे तथा उनके गुणोक अ ततासे उनका
वयोग आपके लये अ धक खेदकारक हआ है, और होने यो य है। उनक सासा रक गु जनताके खेदको
व मरणकर, उ होने आप सब पर जो परम उपकार कया हो तथा उनके गुणोक जो जो अ तता
आपको तीत ई हो, उसे वारवार याद करके, वैसे पु पके वयोगका अतरमे खेद रखकर, उ ह ने
आराधन करने यो य जो जो वचन और गण बताये हो उनका मरण कर उनमे आ माको े रत कर,
यह आप सबसे वनती है। समागममे आये हए मुमु ओको ी सोभागका मरण सहज ही बहत समय
तक रहने यो य है।
मोहसे जम समय खेद उ प हो उस समय भी उनके गुणोक अ तताका मरण करके मोहज य
खेदको शात करके, उनके गुणोक अ तनाके वरहमे उस खेदको लगाना यो य है।
६१७
इस े मे, इस कालमे ी सोभाग जैसे वरल पु ष मलते है, ऐसा हमे वारवार भा सत होता है।
धीरजसे सभी खेदको शात कर, और उनके अ त गुणो तथा उपकारी वचनोका आ य ल, यह
यो य है । मुमु ुको ी सोभागका मरण करना यो य नह है।
जसने ससारका व प प जाना है उसे उस ससारके पदाथक ा त अथवा अ ा तसे हष-शोक
होना यो य नह है, तो भी ऐसा लगता है क स पु षके समागमक ा तसे कुछ भी हप' और उनके
वयोगसे कुछ भी खेद अमुक गुण थानक तक उसे भी होना यो य है।
___ 'आ म स ' थ आप अपने पास रख। बक और म ण वचार करना चाहे तो वचार कर.
पर तु उससे पहले कतने ही वचन तथा सद् थोका वचारना बनेगा तो आ म स बलवान उपकारका
हेतु होगा, ऐसा लगता है।
ी सोभागको सरलता, परमाथ संबधी न य, मुमु ुके त उपकारशीलता आ द गुण वारवार
वचारणीय ह।
शा तः शा त. शा त.
७८३ , बबई, आषाढ़ सुद ४, र व, १९५३
धी सोभागको नम कार ,
ी सोभागक मुमु ुदशा तथा ानीके मागके त उनका अ त न य वारंवार मृ तमे आया
करता है।
सव जीव सुखक इ छा करते है, पर तु कोई वरले पु ष उस सुखके यथाथ व पको जानते है ।
ज म, मरण आ द अनत खोके आ यं तक (सवथा) य होनेके उपायको जीव अना दकालसे नही
जानता, उस उपायको जानने और करनेक स ची इ छा उ प होनेपर जीव य द स पु षके समागमका
लाभ ा त करे तो वह उस उपायको जान सकता है, और उस उपायक उपासना करके सव खसे मु
हो जाता है।
ऐसी स ची इ छा भी ाय. जीवको स पु षके समागमसे ही ा त होती है। ऐसा समागम, उस
समागमक पहचान, द शत मागको ती त ओर उसी तरह चलनेक वृ जीवको परम लभ है।
मनु यता, ानीके वचनोका वण ा त होना, उसक ती त होना, और उनके कहे ए मागमे
वृ होना परम लभ है, ऐसा ी वधमान वामीने उ रा ययनके तीसरे अ ययनमे उपदे श कया है।
य स पु षका समागम और उनके आ यमे वचरनेवाले मुमु ुओको मो सवधी सभी साधन
ायः अ प याससे और अ पकालमे स हो जाते है, पर तु उस समागमका योग मलना लभ है।
उसी समागमके योगमे मुमु ुजीवका च नर तर रहता है।
जीवको स पु षका योग मलना तो सव कालमे लभ है। उसमे भी ऐसे षमकालमे तो वह
गोग व चत ही मलता है। वरले ही स पु ष वचरते ह । उस समागमका लाभ अपूव है, यो समझकर
जीवको मो मागक ती त कर, उस मागका नर तर आराधन करना यो य है।
जब उस समागमका योग न हो तब आर भ-प र हक ओरसे वृ को हटाकर स शा का प रचय
वशेषत कत है। ावहा रक काय क वृ करनी पडती हो तो भी जो जीव उसमे वृ को मद
करनेक इ छा करता है वह जीव उसे मंद कर सकता है, और स शा के प रचयके लये ब त अवकाश
ा त कर सकता है।

६१८
___ आरंभ-प र हसे जनक वृ ख हो गई है, अथात् उसे असार समझकर जो जीव उससे पीछे
हट गये है, उन जीवोको स पु षोका समागम और स शा का वण वशेषतः हतकारी होता है । जस
जीवक आर भ-प र हमे वशेष वृ रहती हो, उस जीवमे स पु षके वचनोका अथवा स शा का
प रणमन होना क ठन है।
आर भ प र हमे वृ को मद करना और स शा के प रचयमे च करना थम तो क ठन
पडता है, यो क जीवका अना द कृ तभाव उससे भ है, तो भी जसने वैसा करनेका न य कर
लया है वह वैसा कर सका है, इस लये वशेष उ साह रखकर वह वृ कत है।
सब मुमु ुओको इस बातका न य और न य नयम करना यो य है, माद और अ नय मतता
र करना यो य है।
७८४
बबई, आषाढ सुद ४, र व, १९५३
स चे ानके बना और स चे चा र के बना जीवका क याण नही होता, यह न.संदेह है।
स पु षके वचनोका वण, उसक ती त, और उसक आ ासे वृ करते ए जीव स चे
चा र को ा त करते है, ऐसा न स दे ह अनुभव होता है ।
यहाँसे 'योगवा स क पु तक भेजी है, उसे पाँच-दस बार पुनः पुनः पढना और वारंवार
वचारना यो य है।
७८५
बबई, आषाढ वद १, गु , १९५३
ी धुरीभाईने 'अगु लघु' के वषयमे लखवाया, उसे य समागममे समझना वशेष
सुगम है।

े े े ै े ी ी ी ो ै ी े
शुभे छासे लेकर शैलेशीकरण तकक सभी याएं जस ानीको मा य है, उस ानीके वचन याग-
वैरा यका नषेध नही करते । याग-वैरा यके साधन पमे थम जो याग-वैरा य आता है, उसका भी
ानी नषेध नही करते।
कसी एक जड- यामे वृ करके जो ानीके मागसे वमुख रहता हो, अथवा म तको मूढताके
कारण ऊंची दशाको पानेसे क जाता हो, अथवा अस समागमसे म त ामोहको ा त होकर जसने
अ यथा याग-वैरा यको स चा याग-वैरा य मान लया हो, उसका नषेध करनेके लये क णाबु से
ानी यो य वचनसे व चत् उसका नषेध करते हो, तो ामोह ा त न कर उसका सद्हेतु समझकर
यथाथ याग-वैरा यको अतर तथा बा यामे वृ करना यो य है ।
७८६ बंबई, आषाढ वद १, गु , १९५३
"सकळ संसारी इ यरामी, मु नगुण आतमरामी रे।
मु यपणे जे आतमरामी, ते क हये नकामी रे॥'
हे मु नयो । आपको आय सोभागको अंतरग दशा और दे हमु समयक दशाक वारवार अनु े ा
करना यो य है।
हे मु नयो । आपको से, े से, कालसे ओर भावसे असंगतापूवक वचरनेका सतत उपयोग
स करना यो य है। ज ह ने जगतसुख पृहाको छोड़कर ानीके मागका आ य हण कया है, वे
१ भावाथ के लये दे ख आक ७४३ ।

६१९
अव य उस असग उपयोगको ा त करते ह। जस ुतसे असंगता उ ल सत हो उस ुतका प रचय
कत है।
बबई, आषाढ वद १, गु , १९५३
७८७
ी सोभागक दे हमु समयक दशाके बारेमे जो प लखा है वह भी यहां मला है । कम थका
स त व प लखा वह भी यहाँ मला है।
आय सोभागको बा ा यतर दशाक वारंवार अनु े ा कत है।
ी नवलचद ारा द शत का वचार आगे कत है।
जगतसुख पृहामे यो यो खेद उ प होता है यो यो ानीका माग प स होता है।
७८८ बबई, आषाढ वद ११, र व, १९५३
परम संयमी पु षोको नम कार
असारभूत वहारको सारभूत योजनक भां त करनेका उदय रहनेपर भी जो पु ष उस उदयसे
ोभ न पाकर सहजभाव वधममे न लतासे रहे है, उन पु षोके भी मवतका वारवार मरण
करते ह।
सब मु नयोको नम कार ा त हो।
७८९
बंबई, आषाढ वद १४, बुध, १९५३
ॐ नमः
थम प मला था । अभी एक च मली है ।
म णर नमालाक पु तक फरसे पढनेसे अ धक मनन हो सकेगा।
ी डु गर तथा लहेराभाई आ द मुमु ुओको धम मरण ा त हो। ी डु गरसे क हयेगा क
सगोपा कुछ ानवाता ा द लखे अथवा लखवाय।
स शा का प रचय नयमपूवक नरतर करना यो य है । एक सरेके समागममे आनेपर आ माथ
वाता कत है।
७९० बवई, ावण सुद ३, र व, १९५३
परन उ कृ संयम जनके ल यम नरंतर रहा करता है,
उन स पु ष के समागमका यान नरंतर रहता है।
त त वहारक ी दे वक णजीक अ भलाषासे अनतगुण व श अ भलाषा रहती है। बलवान
और वेदन कये बना अटल उदय होनेसे अंतरग खेदका समतास हत वेदन करते ह। द घकालको अ त
अ पकालमे लानेके यानमे रहते ह ।
यथाथ उपकारी य पु षमे एक वभावना आ मशु को उ कृ ता करती है।
सव मु नयोको नम कार ।

६२०
ीमद् राजच
७९१ । बंबई, ावण सुद १५, गु , १९५३
जसको द घकालक थ त है, उसे अ पकालक थ तमे लाकर,
ज होने कम य फया ह, उन महा माओको नम कार ।
स तन, सद् थ और स समागममे माद कत नही है।
७९२ बबई, ावण सुद १५, गु , १९५३
दो प मले ह। 'मो माग काश' नामक थ आज डाकसे भजवाया है, वह मुमु ुजीवको

े ो ै ी ी औ े ी े े औ
वचार करने यो य है । अवकाश नकालकर थम ी ल लुजी और दे वक णजी उसे सपूण पढे और मनन
करे, बादमे ब तसे सग सरे मु नयोको वण कराने यो य है ।
ी दे वक ण मु नने दो लखे ह। उनका उ र ायः अबके प मे लखूगा।
'मो माग काश' का अवलोकन करते ए कसी वचारमे मतातर जैसा लगे, तो उ न न होकर
उस थलका अ धक मनन करना, अथवा स समागमके योगमे उस थलको समझना यो य है।।
परमो कृ सयममे थ तक बात तो र रही, पर तु उसके व पका वचार होना भी
वकट है।
'स य अभ य आहार करता है ?' इ या द लखे। उन के हेतुका वचार करनेसे
पता चलेगा क थम मे कसी एक ा तको लेकर जीवको शु प रणामक हा न करने जैसा है।
म तक अ थरतासे जीव प रणामका वचार नही कर सकता । े णक आ दके सबधमे कसी एक थल-
पर ऐसी बात कसी एक थमे कही है, परतु वह कसीके वृ करनेके लये नही कही है, तथा यह
बात यथाथ इसी तरह है यह भी नही है। य प स य पु षको अ पमा त नही होता तो भी
स य दशन होनेके बाद जीव उसका वमन न करे तो अ धकसे अ धक प ह भवमे मो ा त करता है,
ऐसा स य दशनका बल है, इस हेतुसे कही ई बातको सरे पमे न ले जाय। स पु षक वाणी वषय
और कषायके अनुमोदनसे अथवा राग े षके पोषणसे र हत होती है, यह न य रख, और चाहे जैसे
सगमे उसी से अथ करना यो य है ।
ी डु गर आ द मुमु ुओको यथायो य । अभी डु गर कुछ पढते है ? सो ल खयेगा ।
७९४
बबई, ावण वद १, शु , १९५३
पहले एक प मला था। सरा प अभी मला है। .
आय सोभागका समागम आपको अ धक समय रहा होता तो ब त उपकार होता। परतु भावी
बल है। उसके लये उपाय यह है क उनके गुणोका वारवार मरण करके जीवमे वैसे गुण उ प हो,
ऐसा वतन कर।
नय मत पसे न य सद् ंथका पठन तथा मनन रखना यो य है । पु तक आ द. कुछ चा हये तो
यहाँ मनसुखको लख। वे आपको भेज दगे । ॐ

६२१
आपक तरफ वचरनेवाले मु न ीमान ल लुजी आ दको नम कार ा त हो । मु न ी दे वक णजी-
के मले थे। उ हे वनयस हत व दत क जयेगा क 'मो माग काश' पढनेसे उन का
ब तसा समाधान हो जायेगा और वशेष प ता समागमके अवसरपर होना यो य है।
पारमा थक क णाबु से न प तासे क याणके साधनके उपदे ा पु षका समागम, उसक
उपासना और आ ाका आराधन कत है। ऐसे समागमके वयोगमे स शा का यथाम त प रचय
रखकर सदाचारसे वृ करना यो य है । यही वनती । ॐ
७९६ . बंबई, ावण वद ८, शु , १९५३
'मोहमु र' और 'म णर नमाला' ये दो पु तक पढनेका अभी अ यास रख। इन दो पु तकोमे
मोहके व पके तथा आ मसाधनके कतने ही उ म कार बताये है।
७९७
बबई, ावण वद ८, शु , १९५३
प मला है।
, ी डु ंगरक दशा लखी सो जानी है। ी सोभागके वयोगसे उ हे सबसे यादा खेद होना यो य
ह। एक बलवान स समागमका योग चला जानेसे आ माथ के अतःकरणमे बलवान खेद होना यो य है।
आप, लहेराभाई, मगन आ द सभी मुमु ु नरतर स शा का प रचय रखना न चूक। आप
कोई कोई यहाँ लखते है, उसका उ र लखना अभी ाय नही बन पाता, इस लये कसी भी
वक पमे न पडते ए, अनु मसे वह उ र मल जायेगा यह वचार करना यो य है ।
थोडे दनोके बाद ाय. ी डु गरको पढनेके लये एक पु तक भेजी जायेगी ता क उ हे नव क
धानता रहे । यहाँसे म णलालको राधनपुर एक च लखी थी।
७९८, ववई, ावण वद १०, र व, १९५३
जन ज ासुओको 'मो माग काश' का वण करनेक अ भलाषा है, उ हे वण कराय । अ धक
प ीकरणसे और धीरजसे वण कराय। ोताको कसी एक थानपर वशेप संशय हो तो उसका
समाधान करना यो य है। कसी एक थानपर समाधान अश य जैसा मालूम हो तो कसी महा माके
योगसे समझनेके लये कहकर वणको न रोक, तथा उस सशयको कसी महा माके सवाय अ य कसी
थानमे पछनेसे वह वशेष मका हेतु होगा, और न.सशयतासे वण कये ए वणका लाभ वृथासा
होगा, ऐसी ोताक हो तो अ धक हतकारी होगा।
७९९
ववई, ावण वद १२, १९५३
सव कृ भू मकामे थ त होने तक, ुत ानका अवलवन लेकर स पु ष भी वदशामे थर रह
सकते है, ऐसा जनं का अ भमत है, वह य स य दखायी दे ता है।

६२२


ीमद राजच
- सव कृ भू मकापयत ुत ान ( ानी पु षोके वचनो) का अवलबन जब जब मंद पडता है तब
तब स पु ष भी कुछ न कुछ चपलता पा जाते ह, तो फर सामा य मुमु ु जीव क ज हे वपरीत
समागम, वपरीत ुत आ द अवलंबन रहे है उ हे वारवार वशेष वशेष चपलता होना सभव है।
ऐसा है तो भी जो मुमु ु स समागम, सदाचार और स शा वचार प अवलबनमे ढ नवास
करते ह, उ हे सव कृ भू मकापयत प ंचना क ठन नही है, क ठन होनेपर भी क ठन नह है
से, े से, कालसे और भावसे जन स पु षोको तबध नही है उन स पु षोको नम कार ।
स समागम, स शा और सदाचारमे ढ नवास, ये आ मदशा होनेके बल अवलंबन है । स समा-
गमका योग लभ है, तो भी मुमु ुको उस योगक ती अ भलाषा रखना और ा त करना यो य
है। उस योगके अभावमे तो जीवको अव य ही स शा प वचारके अवलबनसे सदाचारक जाग त
रखना यो य है।
बबई, भादो सुद ६, गु , १९५३
परमकृपालु पू य पताजी, ववा णयाबंदर।।
। आज दन तक मने आपक कुछ भी अ वनय, अभ या अपराध कया हो, तो दो हाथ जोडकर
म तक झुकाकर शु अतःकरणसे मा माँगता ँ। कृपा करके आप मा दान करे । अपनी माताजीसे
भी इसी तरह मा मांगता ँ। इसी कार अ य सब सा थयोके त मैने जाने-अनजाने कसी भी
कारका अपराध या अ वनय कया हो उसके लये शु अत करणसे मा मांगता ँ। कृपया सब मा
दान करे।
बा या और गुण थानका दमे क जानेवाली याके व पक चचा करना, अभी ायः
व-पर उपकारी नही होगा । इतना कत है क तु छ मतमतातरपर न डालते ए असवृ के
नरोधके लये स शा के प रचय और वचारमे जीवक थ त करना ।

६२३
आज तक आपका तथा अबालाल आ द सभी - मुमु ुओका मुझसे कोई अपराध या अ वनय आ
हो उसके लये आप सबसे मा चाहता ँ।
फेणायसे पोपटभाईका प मला था। अभी कसी सद् थको पढनेके लये उ हे लखे ।
। यही वनती।
बबई, भादो वद ८, र व, १९५३
ी डु ंगर आ द मुमु ु,
मगनलालने मन आ दको पहचानके लखे ह, उ हे समागममे पूछनेसे समझना ब त सुलभ
होगा । प ारा समझमे आने क ठन है।
ी लहेराभाई आ द मुमु ुओको आ म मरणपूवक यथा वनय ा त हो ।
जीवको परमाथ ा तमे अपार अतराय है; उसमे भी इस कालमे तो उन अंतरायोका अवणनीय
बल होता है । शुभे छासे लेकर कैव यपयतक भू मकामे प ंचते ए जगह जगह वे अतराय दे खनेमे आते
ह, और वे अतराय जीवको वारवार परमाथसे गराते है। जीवको महापु यके उदयसे य द स समागमका
अपूव लाभ मलता रहे तो वह न व नतासे कैव यपयतक भू मकामे प ँच जाता है। स समागमके
वयोगमे जीवको आ मबल वशेष जा त रखकर स शा और शुभे छासंप पु ष के समागममे रहना
यो य है।
८०७ बबई, भादो वद ३०, र व, १९५३
शरीर आ द बलके घटनेसे सब मनु य से मा दगबर-वृ से रहकर चा र का नवाह नही हो
सकता, इस लये वतमानकाल जैसे कालमे मयादापूवक ेता बर-वृ से चा र का नवाह करनेके लये
ानीने जस वृ का उपदे श कया है, उसका नषेध करना यो य नह है। इसी तरह व का आ ह
रखकर दगबर-व का एकात नषेध करके व मूछा आ द कारण से चा र मे श थलता भी कत
नही है।
दगबर व और ेताबर व, दे श, काल और अ धकारीके योगसे उपकारके हेतु ह । अथात जहा
ानीने जस कार उपदे श कया है उस तरह वृ करनेसे आ माथ ही है।
मो माग काश' मे, वतमान जनागम जो ेताबर स दायको मा य है, उनका नपेध कया है.
वह नषेध करना यो य नही है। वतमान आगममे अमुक थल अ धक संदेहा पद ह, परतु स पु षक
से दे खनेपर उसका नराकरण हो जाता है, इस लये उपशम से उन आगमोका अवलोकन करनेमे
सशय करना यो य नह है।
बबई, आसोज सुद ८, र व, १९५३
स पु ष के गगाघ गंभीर संयमको नम कार
भ वषम प रणामसे ज होने कालकूट वष पया ऐसे ी ऋषभ आ द परम पु षोको नम कार ।
प रणाममे तो जो अमृत ही है, पर तु थम दशामे कालकूट वषक भां त उ न करता है, ऐसे

६२४
उस ानको, उस दशनको और उस चा र को वारवार नम कार ।
आप सबके लखे प अनेक बार हमे मलते है, और उनक प ँच भी लखना अश य हो जाता
है; अथवा तो वैसा करना यो य लगता है । इतनी बात मरणमे रखनेके लये लखी है। वैसा सग होने-

े े े ो े ऐ ो ी े े ो े े
पर, कुछ आपके प ा दके लेखन-दोषसे ऐसा आ होगा या नही इ या द वक प आपके मनमे न होनेके
लये यह मरण रखनेके लये लखा है।
जनक भ न काम है ऐसे पु षोका स सग या दशन महापु य प समझना यो य है । आपके
नकटवत स स गयोको सम थ तसे यथायो य ।
बबई, आसोज सुद ८, र व, १९५३
__ पारमा थक हेतु वशेषसे प ा द लखना नही बन पाता ।
' जो अ न य है, जो असार है और जो अशरण प है वह इस जीवको ी तका कारण यो होता है
यह बात रात दन वचार करने यो य है।'
- लोक ओर ानीक मे प म पूव जतना अ तर है। ानीक थम तो नरा-
ल बन है, च उ प नही करती. जीवक कृ तसे मेल नही खाती, जससे जीव उस मे चमान
नही होता । पर तु जन जीवोने प रषह सहन करके कुछ समय तक उस का आराधन कया है, वे
सव .खके य प नवाणको ा त ए है, उसके उपायको ा त ए है। .
जीवको मादमे अना दसे र त है, पर तु उसमे र त करने यो य कुछ दखायी नही दे ता । ॐ
८११ बबई, आसोज सुद ८, र व, १९५३
सब जीवोके त हमारी तो मा है।
स पु षका योग और स समागम मलना ब त क ठन है, इसमे सशय नही है। ी म ऋतुके तापसे
संत त ाणीको शीतल वृ को छायाको तरह मुमु ुजीवको स पु षका योग तथा स समागम उपकारी है।
सव शा ोमे वैसा योग मलना लभ कहा है।
'शातसुधारस' और 'योग समु चय' थोका अभी वचार करना रख । ये दोनो थ करण-
र नाकर पु तकमे छपे ह ।
वशेष ऊँची भू मकाको ा त मुमु ुओको भी स पु षोका योग अथवा स समागम आधारभूत है,
इसमे सराय नही है । नवृ मान , े , काल और भावका योग होनेसे जीव उ रो र ऊँची भू मका-

६२५
को ा त करता है । नवृ मान भाव-प रणाम होनेके लये जीवको नवृ मान , े और काल
ा त करना यो य है। शु समझसे र हत इस जीवको कसी भी योगसे शुभे छा, क याण करनेक
इ छा ा त हो और न पृह परम पु षका योग मले तो ही इस जीवको भान आना स भव है।
उसके वयोगपे स शा और सदाचारका प रचय कत है, अव य कत है । ी डू ंगर आ द मुमु ुओको
यथायो य ।
बंबई, आसोज वद ७, १९५३
ऊपरक भू मकाओमे भी अवकाश मलनेपर अना द वासनाका स मण हो आता है, और आ माको
वारवार आकुल- ाकुल कर दे ता है । वारवार यो आ करता है क अब ऊपरक भू मकाक ा त
होना लभ ही है, और वतमान भू मकामे थ त भी पुन होना लभ है। ऐसे असं य अतराय-प रणाम
ऊपरक भू मकामे भी होते है, तो फर शुभे छा द भू मकामे वैसा हो, यह कुछ आ यकारक नही है।
वैसे अतरायसे ख न होते ए मा माथ जीव पु षाथ रखे, शरवीरता रखे, हतकारी ,
े आ द योगका अनुसधान करे, स शा का वशेष प रचय रखकर, वारंवार हठ करके भी मनको सद्-
वचारमे लगाये और मनके दौरा यसे आकुल- ाकुल न होते ए धैयसे स चारपथपर जानेका उ म
करते ए जय पाकर ऊपरक भू मकाको ा त करता है और अ व तता ा त करता है। 'योग -
समु चय' वारवार अनु े ा करने यो य है ।
___ ी ह रभ ाचायने 'योगद समु चय' थ स कृतमे रचा है । 'योग ब ' नामक योगका सरा
थ भी उ होने रचा है। हेमच ाचायने 'योगशा ' नामक थ रचा है। ी ह रभ कृत 'योग -
समु चय' क प तसे गुजर भाषामे ी यशो वजयजीने वा यायको रचना क है। शुभे छासे लेकर
नवाणपयतक भू मकाओमे मुमु ुजीवको वारवार वण करने यो य, वचार करने यो य और थ त
करने यो य आशयसे बोध-तारत य तथा चा र - वभावका तारत य उस थमे का शत कया है।
यमसे लेकर समा धपयत अ ागयोग दो कारके है--एक ाणा द नरोध प और सरा आ म वभाव-
प रणाम प । 'योग समु चय'मे आ म वभावप रणाम पं योगका मु य वषय है। वारवार वह
वचार करने यो य है।
ी धुरीभाई आ द मुमु ुओको यथायो य ा त हो ।

६२६
आ माथ ी मनसुख ारा लखे ए का समाधान वशेष करके स समागममे मलनेसे
यथायो य समझमे आयेगा।
जो आय अब अ य े मे वहार करनेके आ ममे ह, उ हे जस े मे शातरस धान वृ रहे,
नवृ मान , े , काल और भावका लाभ हो, उस े मे वचरना यो य है । समागमक आका ा
है, तो अभी अ धक र े मे वचरना न हो सकेगा, चरोतर आ द दे शमे वचरना यो य है। यही
वनती । ॐ
बबई, का तक वद ५, १९५४
आपके लखे प मले ह।
अमुक सद् थोका लोक हताथ चार हो ऐसा करनेको वृ बतायी सो यानमे ह ।
मगनलाल आ दने दशन तथा समागमक आका ा द शत क है वे प भी मले है। .

े ो े ो ै ी ी ी ो
केवल अतमुख होनेका स पु षोका माग सव ख यका उपाय है, परतु वह कसी ही जीवको
समझमे आता है । मह पु यके योगसे, वशु म तसे, ती वैरा यसे-और स पु षके समागमसे वह उपाय
समझमे आने यो य है । उसे समझनेका अवसर एक मा यह मनु य दे ह है। वह भी अ नय मत कालके
भयसे गृहीत है, वहाँ माद होता है, यह खेद और आ य है ।
पहले आपके दो प और अभी एक प मला है । अभी यहाँ थ त होना स भव है।
आ मदशाको पाकर जो न तासे यथा ार ध वचरते ह, ऐसे महा माओका योग जीवको
लभ है । वैसा योग मलनेपर जीवको उस पु षक पहचान नह होती, और तथा प पहचान ए
वना उस महा माका ढा य नही होता। जब तक आ य ढ न हो तब तक रपदे श फ लत नह
होता। उपदे शके फ लत ए बना स य दशनको ा त नही होती । स य दशनको ा तके वना

६२७
ज मा द खक आ य तक नवृ नही बन पाती। वैसे महा मा पु षोका योग तो लभ है, इसमे
सशय नही है। परतु आ माथ जीवोका योग मलना भी क ठन है। तो भी व चत् व चत् वह योग
वतमानमे होना स भव है । स समागम और स शा का प रचय कत है। ॐ
८१८
बबई, मागशीष सुद ५, र व, १९५४
योपशम, उपशम, ा यक, पा रणा मक, औद यक और सा पा तक; इन छ भावोको यानमे
रखकर आ माको उन भावोसे अनु े त करके दे खनेसे स चारमे वशेष थ त होगी। - -
ान, दशन और चा र जो आ मभाव प ह, उ हे समझनेके लये उपयु भाव- वशेष
अवलबनभूत है।
८१९,
बबई, मागशीष सुद ५, र व, १९५४
। खेद न करते हए शरवीरता हण करके ानीके मागपर चलनेसे मो प न सुलभ ही है। वषय-
कषाय आ द वशेप वकार कर डाल, उस समय वचारवानको अपनी नव यता दे खकर ब त ही खेद
होता है, और वह आ माक वारवार नदा करता है, पुनः पुन तर कार-वृ से दे खकर, पुन महापु षके
च र और वा यवा अवलंबन हण कर, आ मामे शौय उ प कर, उन वषया दके व अ त हठ
करके उ हे हटाता है, तब तक ह मत हारकर बैठ नही जाता, और केवल खेद करके क नही जाता।
इसी वृ का अवलबन आ माथ जीवोने लया है, और इसीसे अतमे वजय पाई है। यह बात सभी
मुमु ुओको मुखा न करके दयमे थर करना यो य है।
८२० बबई, मागशीष सुद ५, र व, १९५४
बकलालका लखा एक प तथा मगनलालका लखा एक प तथा म णलालका लखा एक
प यो तीन प मले है । म णलालका लखा प अभी तक च पूवक पढा नही जा सका है।
ी डु ंगरक अ भलाषा 'आ म स ' पढनेक है। इस लये उनके पढनेके लये उस पु तकक
व था करे । 'मो माग काश' नामक थ ी रेवाशकरके पास है वह ी डु गरके लये पढने यो य
है. ाय' थोडे दनोमे उ हे वह थ वे भेजगे।
'कौनसे गुण अगमे आनेसे यथाथ मागानुसा रता कही जाये ?' 'कौनसे गुण अगमे आनेसे यथाथ
सय ता कही जाये ?' 'कौनसे गुण अगमे आनेसे ुतकेवल ान हो ?' 'तथा कौनसी दशा होनेसे
यथाथ केवल ान हो, अथवा कहा जाये ? इन के उ र लखवानेके लये ी डु गरसे कहे।
आठ दन ककर उ र लखनेमे बाधा नह है, परतु सागोपाग, यथाथ और व तारसे
लखवाय । स चारवानके लये ये हतकारी ह । सभी मुमु ुओको यथायो य ।
८२१
__ ववई, पोष सुद ३, र व, १९५४
अबकलालने मा मांगकर लखा है क सहजभावसे ावहा रक बात लखी गयी है, उस संवधम
आप खेद न कर। यहाँ वह खेद नह है, पर तु जब तक आपक मे वह वात रहेगी अथात् ावहा रक
वृ रहेगी तब तक आ म हतके लये बलवान तवध है, यो सम झयेगा। और व मे भी उस
तवधमे न रहा जाये इसका यान र खयेगा।

६२८
ीमद रामच
हमने जो यह अनुरोध कया है, उस पर आप यथाश पूण वचार कर दे ख, ओर उस वृ का
मूल अतरसे सवथा नवृ कर डा लये। नही तो समागमका लाभ ा त होना असंभव है। यह बात
श थलवृ से नही परतु उ साहवृ से सरपर चढानी यो य है।
मगनलालने मागानुसारीसे लेकर केवलपयत दशासवधी के उ र लखे थे, वे उ र हमने
पढे ह। वे उ र श के अनुसार ह, परंतु स से लखे गये ह।
म णलालने लखा क गोश ळयाको 'आ म स ' थ घर ले जाने के लये न दे नेसे बुरा लगा
इ या द लखा, उसे लखनेका कारण न था। हम इस ंथके लये कुछ राग या मोह मे पडकर
डु गरको अथवा सरेको दे नेमे तवध करते ह, यह होना सभव नही है । इस थक अभी सरो नकल
करनेक वृ न करे।
८२२


आणंद, पौप वद ११, मगल, १९५४
आज सवेरे यहाँ आना आ है । लीमड़ीवाले भाई केशवलालका भी आज यहाँ आना आ है।
भाई केशवलालने आप सबको आनेके लये तार कया था सो सहजभावसे था। आप सब कोई न आ
सके यो वचार कर इस सगपर च मे ख न होव | आपके लख प और च मले ह । कसी
एक हेतु वशेपसे समागमके त अभी वशेष उदासीनता रहा करती थी, और वह अभी यो य हे, ऐसा
लगनेसे अभी मुमु ुओका समागम कम हो ऐसी वृ थी । मु नय से कहे क वहार करनेमे अभी
अ वृ न कर, यो क अभी तुरत ायः समागम नही होगा। पचा तकाय थका वचार यान-
पूवक कर।
८२३
आणंद, पौष वद १३, गु , १९५४
मगलवारको सुवह यहाँ आना आ था । ाय कल सवेरे यहाँसे जाना होगा। मोरवी जाना
सभव है।
सव मुमु ु बहनो और भाइय को व प मरण क हयेगा ।
ी सोभागक व मानतामे कुछ पहलेसे सू चत कया जाता था, और अभी वैसा नह आ,
ऐसी कसी भी लोक मे पड़ना यो य नही है ।
__ अ वपमभावके वना हमे भी अवधताके लये सरा कोई अ धकार नही है । मौन रहना यो य
माग है।
ल० रायच
मोरवी, माघ सुद ४, बुध, १९५४
मु नयोको व त क-
शुभे छासे लेकर ीणमोहपय त स ुत और स समागमका सेवन करना यो य है। सवकालमे
जीवके लये इस साधनक लभता है । उसमे फर ऐसे कालमे लभता रहे यह यथासंभव है।
पमकाल और ' डावस पणी' नामका आ यभाव अनुभवसे य गोचर होने जैसा है ।
आ म ेयके इ छु क पु षको उससे ु ध न होकर वारंवार उस योगपर पैर रखकर स ुत, स समागम
और स को बलवान करना यो य है ।

६२९
. आ म वभावक नमलता होनेके लये मुमु ुजीवको दो साधन अव य ही सेवन करने यो य ह-
स ुत और स समागम । य स पु षोका समागम जीवको कभी कभी हो ा त होता है, पर तु य द
जीव स मान हो तो स ुतके ब त कालके सेवनसे होनेवाला लाभ य स पु षके समागमसे ब त
अ पकालमे ा त कर सकता है, यो क य गुणा तशयवान नमल चेतनके भाववाले वचन और
वृ या-चे व है। जीवको वैसा समागमयोग ा त हो ऐसा वशेष य न कत है। वैसे योगके
अभावमे स ुतका प रचय अव य ही' करना यो य है। जसमे शातरसक मु यता है, शातरसके हेतुसे
जसका सम त उपदे श है, और जसमे सभी रसोका शातरसग भत वणन कया गया है, ऐसे शा का
प रचय स ुतका प रचय है।
८२६
मोरबी, माघ सुद ४, बुध, १९५४
. . य द हो सके तो बनारसीदासके जो थ आपके पास हो (समयसार--भाषाके सवाय), दग बर
'नयच ', 'पचा तकाय' ( सरी त हो तो), ' वचनसार' ( ी कु दकु दाचायकृत हो तो) और
'परमा म काश' यहाँ भे जयेगा।
. जीवको स ुतका प रचय अव य ही कत है । मल, व ेप और माद उसमे वारवार अंतराय
करते ह, यो क द घकालसे प र चत है, पर तु य द न य करके उ हे अप र चत करनेक व क
जाये तो ऐसे हो सकता है । य द मु य अतराय हो तो वह जीवका अ न य है।
८२७
ववा णया, माघ वदो ४, गु , १९५४
, इस जीवको उ ापके मूल हेतु या है तथा उनक नवृ यो नही होती, और वह कैसे हो ?
ये वशेषतः वचार करने यो य ह, अ तरमे उतारकर वचार करने यो य ह। जब तक इस े मे
थ त रहे तब तक च को अ धक ढ रखकर वृ कर। यही वनती ।
८२८
बबई, माघ वद ३०, १९५४
ी भाणजी वामीको प लखवाते ए सू चत करे–' वहार करके अहमदाबाद थ त करनेमे
मनको भय, उ े ग या ोभ नही है, परतु हतबु से वचार करते ए हमारी मे यह आता है क
अभी उस े मे थ त करना यो य नह है। य द आप कहेगे तो उसमे आ म हतको या वाधा आती
है, उसे व दत करगे, और उसके लये आप सू चत करगे तो उस े मे समागममे आयगे । अहमदा-
वादका प पढकर आप सबको कुछ भी उ े ग या ोभ कत नही है, समभाव कत है। लखनेमे य द
कुछ भी अन भाव आ हो तो मा कर।'
- य द तुरत ही उनका समागम होनेवाला हो तो ऐसा कहे-'आपने वहार करनेके बारेमे सू चत
कया, उस बारेमे आपका समागम होनेपर जैसा कहेगे वैसा करेगे।' और समागम होनेपर कहे-
"पहलेको अपे ा सयममे श थलता क हो ऐसा आपको मालूम होता हो तो वह वताय, जससे उसको
नवृ क जा सके, और य द आपको वैसा न मालूम होता हो तो फर य द कोई जीव वषमभावके
अधीन होकर वैसा कहे तो उस वातपर यान न दे कर आ मभावका यान रखकर वृ करना

ो ै
यो य है।
•••••
६३०
ीमद् राजच
ऐसा जानकर अभी अहमदाबाद- े मे जानेक वृ यो य नही लगती, यो क राग वाले
जीवके प क ेरणासे, और मानके र णके लये उस े मे जाने जैसा होता है, जो बात आ माके
अ हतका हेतु है । कदा चत् आप ऐसा समझते हो क जो लोग असभव वात कहते ह उन लोगोके मनमे
अपनी भूल मालूम होगी और धमको हा न होनेसे क जायेगी तो यह एक हेतु ठ क है, पर तु वैसा र ण
करनेके लये उपयु दो दोप न आते हो तो कसी अपे ासे लोगोक भूल र होनेके लये वहार कत
है। पर तु एक बार तो अ वषमभावसे उस बातको सहन करके अनु मसे वाभा वक वहार होते होते
उस े मे जाना हो और क ही लोगोको वहम हो वह नवृ हो ऐसा करना उ चत है, पर तु राग-
वालेके वचनोको ेरणासे, तथा मानके र णके लये अथवा अ वषमता न रहनेसे लोगोक भूल
मटानेका न म मानना, वह आ म हतकारी नह है, इस लये अभी इस बातको उपशात कर अहमदा-
बाद आप बताये क व चत् ल लुजी आ द मु नयोके लये कसीने कुछ कहा हो तो इससे वे मु न
दोषपा नही होते, उनके समागममे आनेसे जन लोगोको वैसा स दे ह होगा वह सहज ही नवृ हो
जायेगा, अथवा कसी समझनेको भूलसे स दे ह हो या सरा कोई वप के मानके लये स दे ह े रत करे
तो वह वषम माग है, इस लये वचारवान मु नयोको वहाँ समदश होना यो य है, आपको च मे कोई
ोभ करना यो य नह है, ऐसा बताय। आप ऐसा करेगे तो हमारे आ माका, आपके आ माका, और
धमका र ण होगा।" इस कार जैसे उनक वृ मे जचे, वैसे योगमे बातचीत करके समाधान कर, और
अभी अहमदाबाद- े मे थ त करना न बने ऐसा करगे तो आगे जाकर वशेष उपकारका हेतु है । ऐसा
करते ए भी य द कसी भी कारसे भाणजी वामी न मान तो अहमदाबाद े क ओर भी वहार
क जये, और सयमके उपयोगमे सावधान रहकर आचरण क रये | आप अ वषम र हये।
मुमु ुता जैसे ढ हो वैसे कर, हारने अथवा नराश होनेका कोई हेतु नही है। जीवको लभ
योग ा त आ तो फर थोडासा माद छोड दे नेमे जोवको उ न अथवा नराश होने जैसा कुछ
भी नही है।
मोरबी, चै वद १२, र व, १९५४
'पंचा तकाय' थ र ज टड बुक-पो टसे भेजनेक व था कर।
आप, छोटालाल, भोवन, क लाभाई, धुरीभाई और झवेरभाई आ दको 'मो माग काश'
आ दसे अ त तक पढ़ना अथवा सुनना यो य है। , े , काल और भावसे नय मत शा ावलोकन
कत है।
मोरबी, चै वद १२, र व, १९५४
ी दे वक ण आ द मुमु ुओको यथा वनय नम कार ा त हो ।
'कम य', 'गो मटसारशा ' आ दसे अ त तक वचार करने यो य ह ।
ःपमकालका वल रा य चल रहा है, तो भी अ डग न यसे, स पु षको आ ामे वृ का
अनुस धान करके जो पु प अगु तवीयसे स यक् ान, दशन और चा र क उपासना करना चाहता है,
उसे परम शा तका माग अभी भी ा त होना यो य है

६३१
दे हसे भ वपर काशक परम यो त व प यह आ मा है, इसमे नम न होव । हे आय जनो।
तमुख,होकर, थर होकर उस आ मामे ही रहे तो अन त अपार आन दका अनुभव करगे । -
. सव जगतके जीव कुछ न कुछ ा त करके सुख ा त करना चाहते ह, महान च वत राजा भो
ढ़ते ए वैभव, प र हके संक पमे य नवान है, और ा त करनेमे सुख मानता है, पर तु अहो !
नयोने तो उससे वपरीत ही सुखका माग नण त कया क क च मा भी हण करना यही
खका नाश है।
वषयसे जसक इ याँ आत है उसे शीतल आ मसुख, आ मत व कहाँसे ती तमे आयेगा?
परम धम प च के त रा जैसे प र हसे अब म वराम पाना ही चाहता ँ। हमे प र हको
या करना है ? ., .
- कुछ योजन नही है।
'जहाँ सव कृ शु वहाँ सव कृ स ।'
हे आयजनो | इस परम वा यका आ मभावसे आप अनुभव कर।
८३३ ववा णया, ये सुद १, श न, १९५४
सव से, सव े से, सव कालसे और सव भावसे जो सवथा अ तब होकर नज व पमे
थत ए उन परम पु षोको नम कार।
। ज हे कुछ य नही है; ज हे कुछ अ य नही है, जनका कोई श ु नही है, जनका कोई म
नही है, ज हे मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हप-शोक, ज म-मृ यु आ द ोका अभाव होकर जो शु
चैत य व पमे थत हए ह, थत होते है और थत होगे उनका अ त उ कृ परा म सानदा य
उ प करता है।
दे हसे जैसा व का सबध है, वैसा आ मासे दे हका सवध ज होने यथात य दे खा है, यानसे
तलवारका जैसा सबध है वैसा दे हसे आ माका सबध ज होने दे खा है, अब - प आ माका ज होने
अनुभव कया है, उन मह पु षोको जीवन और मरण दोनो समान है।
जस अ च य क शु च त व प का त परम गट होकर अ च य करती है, वह अ च य
सहज वाभा वक नज व प है, ऐसा न य जस परमकृपालु स पु षने का शत कया उसका अपार

उपकार है।
च भ मको का शत करता है, उसक करणोक का तके भावसे सम त भू म ेत हो जाती
है, परतु च कुछ भू म प कसी कालम नह होता, इसी कार सम त व का काशक ऐसा यह
आ मा कभी भी व प नह होता, सदा-सवदा चैत य व प ही रहता है। व मे जीव अभेदता
मानता है यही ा त है।
जैसे आकाशमे व का वेश नही है, सव भावक वासनासे आकाश र हत ही है, वैसे ही
सय पु षोने य सव से भ , सव अ य पयायसे र हत ही आ मा दे खा है।
जसक उ प कसी भी अ य से नह होती, ऐसे आ माका नाश भी कहाँसे हो?
अ ानसे और व व पके मादसे आ माको मा मृ युको ा त है । उसी ा तको नवृ करके
शु चत य नजअनुभव माण व पमे परम जागत हाकर ानी सदै व नभय है। इसी व पके ल यसे

६३२
ीमद् राजच
सव जीवोके त सा यभाव उ प होता है। सव पर से वृ को ावृ करके आ मा अ लेश
समा धको पाता है।
ज ह ने परमसुख व प, परमो कृ शात, शु चैत य व प समा धको सदाके लये ा त कया
उन भगवतको नम कार, और जनका उस पदमे नरंतर यान प वाह है उन स पु षोको नम कार।
सवसे सवथा म भ ँ, एक केवल शु चैत य व प, परमो कृ , अ च य सुख व प मा
एकात शु अनुभव प म , ँ वहाँ व ेप या ? वक प या ? भय या ? खेद या ? सरी अव था
या ? मै मा न वक प शु , शु , कृ शु परमशात चैत य ँ। म मा न वक प ँ ।' मै नज-
व पमय उपयोग करता ँ | त मय होता ँ।
ॐ शा त शा त शा तः
८३४
बवा णया, ये सुद ६, गु , १९५४
___ मह ण न थ वर आय ी डु गर ये सुद ३ सोमवारक रातको नौ बजे समा धस हत
दे हमु ए।
मु नयोको नम कार ा त हो ।
८३५
बंबई, ये वद ४, बुध, १९५४
ॐ नमः
जससे मनक वृ शु और थर हो ऐसा स समागम ा त होना ब त लभ है। और उसमे
यह षमकाल होनेसे जीवको उसका वशेष अंतराय है । जस जीवको य स समागमका वशेष लाभ
ा त हो वह महापु यवान है । स समागमके वयोगमे स शा का सदाचारपूवक प रचय अव य करने
यो य है।
उ पाद ) ये भाव एक व तुमे

( एक समयमे ह।
जीव और
परमाणुओका
जीव
जीव
मान
परमाणु
भाव
परमाणु -
संयोग

६३३
कोई एक जीव
एक य पसे-पयाय,
दो इ य पसे-
तीन इ य पसे-, वतमान भाव
'चार इ य पसे-,
पाँच इ य पसे-,
स ी
असं ी
वतमान भाव
अपया त ।
ानी ।


अ ानी
६ वतमान भाव
स भाव
म या । वतमान भाव
सय माना
एक अंश ोध
वतमान भाव
यावत् अनंत अश ोध
८३७
स० १९५४
आ म ान समद शता, वचरे उदय योग।
अपूववाणी परम ुत, स ल ण यो य ॥ -आ म स शा , १०वा पद
. -(१) स यो य ये ल ण मु यत कस गुण थानकमे सभव है ?
(२) सम शता कसे कहते है ?
उ र-(१) स यो य जो ये ल ण बताये है वे मु यत , वशेषत उपदे शक अथात माग-
काशक सदग के ल ण कहे है । उपदे शक गुण थान छ ा और तेरहवाँ ह, बीचके सातवसे बारहव तक
के गण थान अ पकालवत है, इस लये उनमे उपदे शक- वृ का सभव नही है। माग पदे शक- वृ
छ से शु होती है।
छटे गण थानमे सपूण वीतरागदशा और केवल ान नही ह । वे तो तेरहवमे है, और यथावत् माग -
पदे शक व तेरहवे गण थानमे थत सपूण वीतराग और कैव यसप परम स ी जन तीथकर
आ दमे होना यो य है। तथा प छटे गुण थानमे थत मु न, जो सपूण वीतरागता और कैव यदशाका
उपासक है, उस दशाके लये जसका वतन-पु षाथ है, जो उस दशाको सपूण पसे ा त नही आ है,
तथा प उस सपण दशाके ा त करनेके माग-साधनको वय परम स ी तीथकर आ द आ तपु पके
आ य-वचनसे जसने जाना है, तीत कया है, अनुभव कया है. और उस माग-साधनक उपासनासे
जसक वह दशा उ रो र वशेष वशेष कट होती जाती है, तथा ी जन तीथकर आ द परम सदग क ,
उनके व पक पहचान जसके न म से होती है, उस स मे भी मागका उपदे शक व अ व है।
उससे नीचेके पांचवे और चौथे गुण थानमे माग पदे शक व ाय घ टत नही होता, यो क वहां
वा (गह थ) वहारका तबध है, और बा अ वर त प गृह थ वहार होते ए वर त प माग-
का काश करना यह मागके लये वरोध प है।
चौथेसे नीचेके गण थानकमे तो मागका उपदे शक व यो य ही नह है, यो क वहां मागको,
आ माको, त वको, ानीक पहचान- ती त नह है, और स य वर त नह है, और यह पहचान- ती त

६३४
ओर स य वर त न होनेपर भी उसक पणा करना, उपदे शक होना, यह गट म या व, कुगु पन
और मागका वरोध है।
चौये पाँच गुण थानमे यह पहचान ती त है, और आ म ान आ द गुण अशत मौजूद ह, और
पांचवेमे दे श वर त भावको लेकर चौथेसे वशेषता है, तथा प सव वर त जतनी वहाँ वशु नही है।
आ म ान, समद शता आ द जो ल ण बताये है, वे सय तधममे थत वीतरागदशासाधक उप-
दे शक-गुण थानमे थत स को यानमे रखकर मु यत बताये है और उनमे वे गुण ब त अशोमे रहते
है । तथा प वे ल ण सवाशमे सपूण पसे तो तेरहव गुण थानमे थत सपूण वीतराग और कैव यसप
जीव मु सयोगी केवली परम स ी जन अ रहत तीथकरमे व मान है। उनमे आ म ान अथात्
व प थ त संपूण पसे है, यह उनक ानदशा अथात् ' ाना तशय' सू चत कया। उनमे समद शता
अथात् इ छार हतता सपूण पसे है, यह उनक वीतराग चा र दशा अथात् 'अपायापगमा तशय' सू चत
कया । सपूण पसे इ छार हत होनेसे उनक वचरने आ दक दै हक आ द योग या पूव ार धोदयका
मा वेदन कर लेनेके लये ही है, इस लये ' वचरे उदय योग' कहा । सपूण नज अनुभव प उनक
वाणी अ ानीक वाणीसे वल ण और एकात आ माथबोधक होनेसे उनमे वाणीक अपूवता कही है, यह
उनका 'वचना तशय' सू चत कया। वाणीधममे रहनेवाला ुत भी उनमे ऐसी सापे तासे रहता है क
जससे कोई भी नय बा धत नही होता, यह उनका 'परम ुत' गुण सू चत कया और जनमे परम ुत
गुण रहता है वे पूजने यो य होते है यह उनका 'पूजा तशय' सू चत कया।
इन ी जन अ रहत तीथकर परम स क भी पहचान करानेवाले व मान सव वर त स
ह, इस लये इन स को यानमे रखकर ये ल ण मु यतः बताये है।
(२) समद शता अथात् पदाथमे इ ा न वु र हतता, इ छार हतता और मम वर हतता । सम-
द शता चा र दशा सू चत करती है। राग े षर हत होना यह चा र दशा है । इ ा न बु , मम व और
भावाभावका उ प होना राग े ष है। यह मुझे य है, यह अ छा लगता है, यह मुझे अ य ह, यह
अ छा नही लगता ऐसा भाव समदश मे नही होता। समदश बा पदाथको, उसके पयायको, वह पदाथ
तथा पयाय जस भावसे रहते है उ हे उसी भावसे दे खता है, जानता है और कहता है, परतु उस पदाथ
अथवा उसके पयायमे मम व या इ ा न बु नह करता।
आ माका वाभा वक गुण दे खने-जाननेका होनेसे वह ेय पदाथको ेयाकारसे दे खता-जानता है;
परतु जस आ मामे समद शता गट ई है, वह आ मा उस पदाथको दे खते ए, जानते ए भी उसम
मम ववु , तादा यभाव और इ ा न बु नह करता। वषम आ माको पदाथमे तादा यवृ

ो ी ै ो ी ो ी
होती है; सम आ माको नही होती।
कोई पदाथ काला हो तो समदश उसे काला दे खता है, जानता है और कहता है। कोई ेत हो
तो उसे वैसा दे खता है, जानता है और कहता है। कोई पदाथ सुर भ (सुगधी) हो तो उसे वह वैसा
दे खता है, जानता है और कहता है। कोई र भ ( गंधी) हो तो उसे वैसा दे खता है, जानता है और
कहता है । कोई ऊँचा हो, कोई नोचा हो तो उसे वैसा दे खता है, जानता है और कहता है । सपको
सपंक कृ त पसे वह दे खता है, जानता है और कहता है। बाघको वाधक कृ त पसे दे खता है,
जानता हे ओर कहता है। इ या द कारसे व तु मा जम पसे जस भावसे होती है, उस पसे उस
भावसे समदश उसे दे खता है, जानता है और कहता है। हेय (छोड़ने यो य) को हेय पसे दे खता है,
जानता है और कहता है । उपादे य ( हण करने यो य) को उपादे य पसे दे खता है, जानता है और कहता
है। परतु समदश आ मा उन सबमे मम व, इ ा न बु और राग े ष नह करता, सुगध दे खकर

३१ वॉ वष
६३५
यता नह करता, गध दे खकर अ यता, गछा नही करता। ( वहारसे) अ छ मानी गयो व तुको
दे खकर यह व तु मुझे मल जाये तो ठ क ऐसी इ छाबु (राग, र त) नह करता। ( वहारसे) बुरी
मानी गयी व तुको दे खकर यह व तु मुझे न मले तो ठ क ऐसी अ न छावु ( े ष, अर त) नही करता ।
ा त थ त सयोगमे अ छा-बुरा, अनुकूल- तकूल, इ ा न वु , आकुलता- ाकुलता न करते ए
उसमे समवृ से, अथात् अपने वभावसे राग े षर हत भावसे रहना यह समद शता है।
साता असाता, जीवन मरण, सुगध- गध, सु वर- वर, सु प-कु प, शीत-उ ण आ दमे हप-शोक,
र त-अर त, इ ा न भाव और आत यान न रहे यह समद शता है ।
हसा; अस य, अद ादान, मैथुन और प र हका प रहार समदश मे अव य होता है। अ हसा
आ द त न हो तो समद शता सभव नही । समद शता और अ हसा द तोका कायकारण, अ वनाभावी
और अ यो या य सबध है। एक न हो तो सरा न हो, और सरा न हो तो पहला न हो।
समद शता हो तो अ हसा द त हो।
समद शता न हो तो अ हसा द त न हो। .
अ हसा द त न हो तो समद शता न हो।
अ हसा द त हो तो समद शता हो।
' जतने अशमे सम शता उतने अशमे अ हसा द त और
जतने अशमे अ हसा द त उतने अशमे समद शता।
सदगु यो य ल ण प समद शता मु यतया सव वर त गुण थानमे होती है, बादके गण थानोमे
वह उ रो र वृ को ा त होती जाती है, वशेष गट होती जाती है, ीणमोहगुण थानमे उसक
पराका ा और फर स पूण वीतरागता होती है। -
, समद शता अथात् लौ ककभावमे समान-भाव, अभेद-भाव, एक समान-बु और न वशेषता नही,
अथात् काच और हीरा दोनोको समान समझना, अथवा स ुत और अस ुतमे सम व समझना, अथवा
स म और अस ममे अभेद मानना, अथवा स और अस मे एकसी बु रखना, अथवा स े व और
असहेवमे न वशेषता दखाना अथात् दोनोको एकसा समझना, इ या द समान वृ , यह समद शता नही,
यह तो आ माक मढता, ववेक-शू यता, ववेक- वकलता है। समदश स को सत् जानता है, स का बोध
करता है, अस को असत् जानता हे, अस का नषेध करता है, स ुतको स ुत जानता है, उसका वोध
करता है. क तको कु त जानता है, उसका नषेध करता है, स मको स म जानता है, उसका बोध
करता है, अस मको अस म जानता है, उसका नषेध करता है, स को स जानता है, उसका
बोध करता है, असदग को असदगु जानता है, उसका नषेध करता है. स े वको स े व जानता है, उसका
बोध करता है, असहेवको अस े व जानता है, उसका नषेध करता है, इ या द जो जैसा होता है, उसे
वैसा दे खता है, जानता है और उसका पण करता है, उसमे राग े प, इ ा न वु नह करता, इस
कारसे समद शता समझे।
८३८ बंबई, ये वद १४, श न, १९५४
नमो वीतरागाय
म नय के समागममे चय त हण करनेके सवधमे यथासुख वृ करे, तवध नह है।
ी ल लजी म न तथा दे वक ण आ द मु नयोको जन मरण ा त हो । मु नयोक ओरसे प
मला था । यही व ापन ।
ी राजच दे व ।

६३६
ीमद् राजच
८३९ बबई, आषाढ सुद ११, गु , १९५४
अनत अतराय होनेपर भी धीर रहकर जो पु ष अपार महामोहजलको तर गये उन ी पु ष
भगवानको नम कार ।
अनतकालसे जो ान भवहेतु होता था, उस ानको एक समयमा मे जा यतर करके जसने भव-
नवृ प कया उस क याणमू त स य दशनको नम कार ।
'आ म स 'क त तथा प ा त ए।

ो े ो ै
नवृ योगमे स समागमक वृ रखना यो य है।
'आ म स 'क तके वषयमे आपने इस प मे ववरण लखा, त सबधो अभी वक प कत
नही है । उसके बारेमे न व ेप रहे।
लखनेमे अ धक उपयोगका वतन अभो श य नही है।
८४० मोहमयी े , ावण सुद १५, सोम, १९५४
'मो माग काश' थका वचार करनेके प ात् 'कम थ'का वचारना अनुकूल होगा।
दगबर सं दायमे -मन आठ पखडीका कहा है। ेताबर स दायमे इस बातक वशेष चचा
नही है । 'योगशा 'मे उसके ब त सग है । समागममे उसका व प सुगम हो सकता है।
८४१ मोहमयी े , ावण वद ४, शु , १९५४
समा धके वषयमे यथा ार ध वशेष अवसरपर ।
का वठा, ावण वद १२, श न, १९५४
ॐ नमः
शुभे छासप , ी ववा णया।
ब त करके मगलवारके दन आपका लखा एक प बबईमे मला था। बुधवारक रातको बबईसे
नवृ होकर गु वार सबेरे आणद आना हआ था। और उसी दन रातके लगभग यारह बजे यहा
आना आ।
यहाँ दससे प ह दन तक थ त होना संभव है।
आपने अभी समागममे आनेक वृ द शत क , उसमे आपको अतराय जैसा आ | यो क इस
प के प ंचनेसे पहले ही लोगोमे पयषणका ारभ हआ समझा जायेगा। जससे आप इस तरफ आय तो
गुण-अवगुणका वचार कये वना मता ही मनु य नदा करगे, और वैसे न म को हण कर वे नदा
ारा ब तसे जीवोको परमाथ ा त होनेमे अंतराय उ प करगे । इस लये वैसा न होनेके लये आपको
अभी तो पयुषणमे वाहर न जाने सबंधी लोक-प तको नभाना यो य है ।
___आप और महेताजी 'वैरा यशतक', 'आनदघन चौबीसी', 'भावनाबोध' आ द पु तक पढ- वचारकर
जतना हो सके उतना नवृ का लाभ ा त कर।
माद और लोक-प तमे काल सवथा वृथा गंवा दे ना, यह मुमु ुजीवका ल ण नही है । सरे
शा ोका योग बनना क ठन है, ऐसा समझकर उपयु पु तके लखी ह। ये पु तक भी वशेष वचार
करने यो य ह। माताजी तथा पताजीसे पादवदनपूवक सुखवृ के समाचार व दत करे।

३१ घ वष
६३७
। अमुक समय जब नवृ के लये कसी े मे रहना होता है, तब ाय. प लखनेक वृ कम
रहती है, इस बार वशेष कम है, परतु आपका प इस कारका था क जसका उ र न मलनेसे आपको
पता न चले क कस कारणसे ऐसा आ।
अमुक थलमे थ त होना अ न त होनेसे ववईसे प नही लखा जा सका था।
८४३ वसो, थम आसोज सुद ६, बुध, १९५४
ीमान वीतराग भगवानोने जसका अथ न त कया है ऐसा,
च य चताम ण व प, परम हतकारी,
परम अ त, सव ःखोका नःसंशय आ यं तक य करनेवाला,
परम अमृत व प सव कृ शा त धम
जयवंत रहे, काल जयवत रहे।
- उन ीमान अनत चतु य थत भगवानका और उस जयवत धमका आ य सदै व कत है ।
ज हे सरी कोई साम य नही, ऐसे अबुध एव अश मनु योने भी उस आ यके बलसे परम सुखहेतु
अ त फलको ा त कया है, ा त करते ह और ा त करगे। इस लये न य और आ य ही कत
है, अधीरतासे खेद कत नही है।
च मे दे हा द भयका व ेप भी करना यो य नही है।
जो पु ष दे हा द स ब धी हष वषाद नही करते, वे पु ष पूण ादशागको स ेपमे समझे ह ऐसा
समझ । यही कत है।
। 'मने धम नही पाया', 'म धम कैसे पाऊँगा?' इ या द खेद न करते ए वीतराग पु षोका धम,
जो दे हा दस ब धी हष वषादवृ र करके 'आ मा असग-शु -चैत य- व प है ऐसी वृ का न य
और आ य हण करके उसी वृ का बल रखना, और जहाँ वृ मद हो जाय वहाँ वीतराग पु षोक
दशाका मरण करना, उस अ त च र पर े रत कर वृ को अ म करना, यह सुगम और
सव कृ उपकारक तथा क याण व प है।
न वक प
आसोज, १९५४
कराल काल | इस अवस पणीकालमे चौबीस तीथकर ए। उनमे अ तम तीथकर मण भगवान
ी महावीर द त ए भी अकेले । स ा त को भी अकेले । उनका भी थम उपदे श न फल गया ।
८४५
आसोज, १९५४
'मो माग य नेतारं भे ार कमभूभृता।
ातारं व त वानां वदे त णल धये ॥
अ ान त मराधानां ानाजनशलाकया।
च ु मी लतं येन त मै ीगुरवे नम ॥
यथा व ध अ ययन और मनन कत है।
१. भावाचंके लये दे ख उपदे श नोध ३७

६३८
धीमद् राजच
वन े उ रसंडा,
थम आसोज वद ९, र व, १९५४
ॐ नमः
अहो जणे ह असाव जा, व ी सा ण दे सआ।
मु खसाहणहेउ स, सा दे ह स धारणा ॥ अ ययन ५-९२
भगवान जनने आ यकारक न पापवृ (आहार हण)का मु नयोको उपदे श दया । (वह भी
कस लये ?) मा मो -साधनके लये। मु नको दे हक ज रत है, उसको टकानेके लये । ( कसी भी
सरे हेतुसे नही)।
अहो ण चं तवो क मं स व बु ह व णअ ।
जाव ल जासमा व ी एगभ ं च भोयणं ।
-दशवका लक अ ययन ६-२२
सव जन भगवानोने आ यकारक (अ त उपकारभूत) तपःकमको न य करनेके लये उपदे श
कया है। (वह इस कार-) सयमके र णके लये स य वृ से एक बार आहार हण । (दशवै-
का लक सू )।
तथा प असग न ंथपदका अ यास सतत वधमान क जये । ' ाकरण', 'दशवैका लक' और
'आ मानुशासन'का अभी सपूण यान दे कर वचार क जयेगा। एक शा को पूरा पढनेके बाद सरा
वचा रयेगा।
८४७
खेडा, ० आसोज सुद ६, १९५४
व ेपर हत रहे । यथावसर अव य समाधान होगा । यहाँ समागमके लये आनेके बारेमे यथासुख
वृ कर।
८४८ खेडा, ० आसोज सुद ९, श न, १९५४
___ लगभग अव तीन मास पूण होने आये है। इस े मे अब थ त करनेक इस समयके लये वृ
नह रही । प रचय बढनेका व आ जाये।
खेडा, ० आ न वद , १९५४
हे जीव । इस लेश प ससारसे नवृ हो, नवृ हो ।
वीतराग वचन
८५०
आसोज १९५४
मेरा च -मेरी च वृ याँ इतनी शात हो जाय क कोई मृग भी इस शरीरको दे खता ही रहे,
भय पाकर भाग न जाये।
___ मेरी च वृ इतनी शात हो जाये क कोई वृ मृग, जसके सरमे खुजली आती हो वह इस
शरीरको जड-पदाथ समझ कर खुजली मटानेके लये अपना सर इस शरीरसे घसे ।

६३९
३२ वाँ वष
८५१ मोहमयी े , का क सुद १४, गु , १९५५
अभी म अमुक मासपय त यहाँ रहनेका वचार रखता ँ । म यथाश यान ं गा। आप मनमे
न त रहे। .
__मा अ -व हो तो भी ब त है। पर तु वहार तब मनु यको कतने ही सयोग के कारण
थोडा-ब त तो चा हये, इस लये यह य न करना पड़ा है । तो वह सयोग जब तक उदयमान हो तब तक
धमक तपूवक बन पाये तो ब त है।
अभी मान सक वृ क अपे ा ब त ही तकूल मागमे वास करना पड़ता है । त त दयसे और
शात आ मासे सहन करनेमे ही हष मानता ँ।
ॐशा त
८५२ ब बई, मागशीष सुद ३, शु , १९५५
ॐनम
ाय कल रातक डाकगाडीसे यहाँसे उपरामता ( नवृ ) होगी। थोडे दन तक ब त करके
ईडर े मे थ त होगी।
मु नयोको यथा व ध नम कार क हयेगा।
वीतरागोके मागक उपासना कत है।
८५३ ईडर, मागशीष सुद १४, सोम, १९५५
ॐ नमः

े ो े े े े े ो ो ो े े
'पचा तकाय' यहां भेज सक तो भे जयेगा । भेजनेमे वल ब होता हो तो न भे जयेगा।
'समयसार' मल ाकृत (मागधी) भाषामे है। तथा ' वामी का तकेयानु े ा' थ भी ाकृत
भाषामे है। वह य द ा त हो सके तो 'पचा तकाय के साथ भे जयेगा। थोड़े दन यहाँ थ त सभव है।
जैसे बने वैसे वीतराग ुतका अनु े ण ( च तन) वशेष कत है। माद परम रपु है. यह
वचन ज दै स यक न त हआ है वे पु ष कृतकृ य होने तक नभयतासे वतन करनेके व क भी
इ छा नह करते।
रा यचं ।

६४०
ीमद् राजच
८५४ ईडर, मागशीष सुद १५, सोम, १९५
ॐनमः
आपने तथा वनमाळोदासने ब बई एक प लखा था वह वहाँ ा त आ था।
अभी एक स ताहसे यहाँ थ त है । 'आ मानुशासन' थ पढ़नेके लये वृ करते ए आ ाक
अ त म (उ लघन) नही है । अभी आपको और उ हे वह थ वार वार पढने तथा वचारने यो य है
'उपदे श-प ो'के वारेमे ब त करके तुरत उ र ा त होगा । वशेप यथावसर ।
राजच
८५५ ईडर, मागशीष सुद १५, सोम, १९५
वीतराग ुतका अ यास र खये।
८५६ ईडर, मागशीष वद ४, श न, १९५५
ॐ नमः
आपका लखा प तथा सुखलालके लखे प मले है।
अभी यहाँ समागम होना अश य है । अब वशेष थ तका भी स भव मालूम नही होता।।
आपको जो समाधान वशेषक ज ासा है, वह कसी नवृ योगके समागममे ा त होने यो य है
ज ामावल, वचारवल, वेरा यवल, यानवल और ानबल वधमान होनेके लये आ माथ
जीवको तथा प ानीपु पके समागमक उपासना वशेषत करनी यो य है । उसमे भी वतमानकाला
जीवोको उस वलक ढ छाप पड जानेके लये व त अ तराय दे खनेमे आते ह, जससे तथा प शु
ज ासुवृ से दोघकालपय त स समागमक उपासना करनेक आव यकता रहती है । स समागमके
अभावमे वीतराग ुत-परमशातरस तपादक वीतरागवचनोक अनु े ा वारवार कत है
च थैय के लये वह परम औषध है।
८५७ ईडर, मागशीष वद ३०, गु , सवेर, े १९५५
ॐ नमः
आ माथ भाई अंबालाल तथा मुनदासके त, तभतीथ ।
मुनदासका लखा आ प मला। वन प तसवधी यागमे अमुक दससे पाँच वन प तका अभ
आगार र वकर सरी वन प तयोसे वरत होनेमे आ ाका अ त म नही है।
आप सवका अभी अ यासा द कैसा चलता है ?
म े वगु शा भ अ म तासे उपासनीय है।
ी अ
८५८
ईडर, पोप, १९५६
मा मु झह मा र जह मा सह इ ण अ येसु ।
चर म छह जइ च ं व च झाण प स ए ॥४९॥
पणतीस सोल छ पण च गमेगं च जवह झाएह ।
परमे वाचयाण अ ण च गु वएसेण ॥५०॥
य द तुम थरताको इ छा करते हो तो य अथवा अ य व तुमे मोह न करो, राग न करो
े ष न करो। अनेक कारके यानको ा तके लये पैतीस, सोलह, छ , पांच, चार, दो और एक-

६४१
इस तरह परमे ीपदके वाचक है उनका जपपूवक यान करो। वशेष व प ी गु के उपदे शसे जानना
यो य है।
जं क च व चतंतो णरीह व ी हवे जदा सा ।
ल णय एय ं तदा तं त स ण चय झाणं ॥५६॥
- सं ह
यानमे एकान वृ रखकर साधु न पृहवृ वान अथात् सब कारको इ छाओसे र हत होता है
__उसे परम पु ष न य यान कहते ह। '
वसोमे हण कये ए नयमके अनुसार मुनदास वन प तके बारेमे वर त पसे वतन कर। दो
ोक के मरणके नयमको शारी रक ' उप व वशेषके बना सदा नबाहे। गे ँ और घीको शारी रक
हेतुसे हण करनेमे आ ाका अ त म नही है।
क चत् दोषका स भव आ हो तो उसका ाय ी दे वक ण मु न आ दके समीप लेना
ो ै
यो य है।
आपको अथवा क ही सरे मुमु ुओको नयमा दका हण उन मु नयोके समीप कत है। वल
कारणके बना उस स ब धी प ा द ारा हमे सू चत न करके मु नयोसे त स ब धी समाधान समझना
यो य है।
'पु षाथ स उपाय' का भाषातर गुजरभापामे करनेमे आ ाका अ त म नह है।
'आ म स ' के मरणाथ यथावसर आ ा ा त होना यो य है।
वनमाळोदासको 'त वाथसू ' वशेषत वचारना यो य है।
ह द भाषा समझमे न आती हो तो ऊगरी बहनको कुवरजीके पाससे उस ंथको वण कर
समझना यो य है।
श थलता घटनेका उपाय य द जीव करे तो सुगम है।

६४२
दोष टळे वळ खूले भली रे, ाप त वचन वाक ॥१॥
प रचय पा तक घा तक साधुशं रे, अकुशल अपचय चेत।
ंथ अ यातम वण मनन करी रे, प रशीलन नयहेत ॥२॥
मुगध सुगम करी सेवन लेखवे रे, सेवन अगम अनुप ।
दे जो कदा चत् सेवक याचना रे, आनंदघन रस प ॥३॥
-आनदघन, सभव जन तवन
कसी नवृ मु य े मे वशेष थ तके अवसरपर स ुत वशेष ा त होना यो य है । गुजर
दे शक ओर आपका आगमन हो यो खेराळ े मे मु न ी चाहते है । वेणासर और ट करके रा तेसे होकर
धाग ाक तरफसे अभी गुजर दे शमे जा सकना स भव है। उस मागमे पपासा प रषहका कुछ स भव
रहता है।
जसका दशनमोह उपशात अथवा ीण आ है ऐसा धीर पु ष वीतरागो ारा द शत मागको
अगीकार करके शु चैत य वभाव प रणामी होकर मो पुरको जाता है ।
*भावाय-जब अ तम पु ल परावत आ प ँचे और तीन करणो से तीसरा करण-अ नवृ करण हो
तथा ससारम भटकनेक आदतका अत आ प ंचे, तब तीन दोप--भय, े प और खेद- र हो जाते ह, भली
खुल जाती है और वचन, स ातके वचनका लाभ होता है ।।१॥
फर पापके नाशक साधके साथ प रचय बढता चले, मनसबधी अक याणका रताको कमी होतो जाये
और आ मक सेवनके लये तथा व धारण करनेके लये आ या मक थोका वण एव मनन बन पाये ॥२॥
भोले भाले मनु य सरल एव सहज मानकर सेवाका काय शु कर दे ते ह, पर तु उ ह समझना चा हये
क सेवाका काय तो अग य एव अनुपम है। यह तो क ठन और वेजोड है । हे आनदघनके रसमय भु ! इस सेवक-
क मांगको कभी सफल क जये अथवा आनदसमु चयके रस प सेवाक मांगको कभी सफल क जये ॥३॥

६४३
मु न महा मा ी दे वक ण वामी अजारक ओर है । य द खेराळसे मु न ी आ ा करगे तो वे
त करके गुजरातक तरफ आयगे | वेणासर या ट करके रा तेसे धाग ा आना हो तो रे ग तान पार
रनेके क को उठानेका स भव कम है । मु न ीको अजार लख।
कसी थलमे वशेष थरताका योग होनेपर अमुक स ुत ा त होना यो य है।
ी ववा णया, चै सुद ५, १९५५
ानुयोग परम ग भीर और सू म है, न ंथ- वचनका रह य है, शु ल यानका अन य कारण
है। शु ल यानसे केवल ान समु प होता है। महाभा यसे इस ानुयोगक ा त होती है ।
दशनमोहका अनुभाग घटनेसे अथवा न होनेसे, वषयके त उदासीनतासे, और महत् पु षके
चरणकमलक उपासनाके बलसे ानुयोग प रणत होता है ।।
यो- यो सयम वधमान होता है, यो- यो ानुयोग यथाथ प रणत होता है। सयमको वृ का
कारण स य दशनक नमलता है, उसका कारण भी ' ानुयोग' होता है।
सामा यत. ानुयोगक यो यता ा त करना लभ है । आ मारामप रणामी, परमवीतराग -
वान्, परम असग ऐसे महा मापु ष उसके मु य पा ह।
कसी मह पु षके मननके लये 'पचा तकायका स त व प लया था, उसे मननके लये इसके
साथ भेजा है।
हे आय । ानुयोगका फल सव भावसे वराम पाने प सयम है । इस पु षके ये वचन अत -
करणमे त कभी भी श थल मत करना । अ धक या ? समा धका रह य यही है । सव .खसे मु होनेका
अन य उपाय यही है।
८६७ ववा णया, चै वद २, गु , १९५५
हे आय । जैसे रे ग तान पार कर पारको स ा त ए, वैसे भव वय मण तर कर पारको
स ा त होवे ।
महा मा म न ीक थ त अभी ातीज- े मे है। कुछ व त-प लखना हो तो परी० घेला-
भाई केशवलाल, ातीज, इस पतेपर लखनेक वनती है।
__ आपक थ त धाग ाक तरफ होनेका समाचार यहाँसे आज उ हे लखा गया है।
अ धक नव वाले े मे चातुमासका योग बननेसे आ मोपकार वशेष सभव है । मु न ीको भी
ै े ै
वैसे सू चत कया है।
ववा णया, चै वद २. गु , १९५५
प ा त आ। कसी वशेष नवृ वाले े मे चातुमास हो तो आ मोपकार वशेष हो सकता
है। इस तरफ नवृ वाले े का सभव है।
मन कळको रे ग तान समा धपूवक पार कर धागधाक तरफ उनके वचरनेके समाचार ा त

६४४
यान, ुतके अनुकूल े मे चातुमाम करनेसे भगवानक आ ाका सर ण होगा। तभतीथ
य द वह अनुकूलता रह सकतो हो तो उस े मे चातुमास करनेसे आ ाका सर ण है।
जस स ुतक मु न ी दे वक ण आ दने ज ासा द शत क वह स ुत लगभग एक मासमे
ा त होना यो य है।
य द तभतीथमे थ त न हो तो कसी अ य नव े मे समागमका योग हो सकता है।
तभतीथंके चातुमाससे वह होना अभी अश य है। जहाँ तक बने वहाँ तक कसी अ य नवृ े को
वृ रख । कदा चत् मु नयोको दो वभागोमे बट जाना पड़े तो वैसा करनेमे भी आ माथ से अनुकूल
रहेगा। हमने सहज मा लखा है। आप सबको े ा द दे खकर जैसे अनुकूल ेय कर लगे वैसे
वृ करनेका अ धकार है।
' ,इस कार स वनय नम कारपूवक नवेदन कर। वैशाख सुद पू णमा तक ब त करके इन े ो-
क तरफ थ त होगी।
८७१
मोरबी, वैशाख सुद ७, १९५५
य द कसी नवृ वाले अ य े मे वषा-चातुमासका योग बने तो वैसे करना यो य है । अथवा
तंभतीथमे चातुमाससे अनुकूलता रहे ऐसा मालूम हो तो वैसा करना यो य है।
यान और ुतके उपकारक साधनवाले चाहे जस े मे चातुमासक थ त होनेसे आ ाका
अ त म नही है, ऐसा मु न ी दे वक ण आ दको स वनय व दत कर।
इस तरफ एक स ताहपयत थ तका स भव है । आज ब त करके ी ववा णया जाना होगा।
वहाँ एक स ताह तक थ त सभव है।
जस स ुतक ज ासा है, वह स ुत थोडे दनोमे ा त होना सभव है, ऐसा मु न ीसे
नवेदन कर।
- - वीतराग स मागक उपासनामे वीयको उ साहयु कर।

६४५
__ जसे गृहवासका उदय रहता है, वह य द कुछ भी शुभ यानक ा त चाहता हो तो उसके मूल
भूत ऐसे अमुक स तनपूवक रहना यो य है। उन अमुक नयमोमे ' यायसप आजी वका द वहार'
पहला नयम स करना यो य है । यह नयम स होनेसे अनेक आ मगुण ा त करनेका अ धकार
न होता है । इस थम नयमपर य द यान दया जाये, और इस नयमको स ही कर लया जाये
कषाया द वभावसे म द पडने यो य हो जाते है, अथवा ानीका माग आ मप रणामी होता है, जस
यान दे ना यो य है।
८७३
ईडर, वैशाख वद ६, मगल, १९५५
श नवार तक यहां थरता सभव है। र ववारको उस े मे आगमन होना स भव है ।
___इस कारण मु न ीको चातुमास करने यो य े मे वचरनेक वरा हो, उसमे कुछ संकोच ा त
बता हो, तो इस प के ा त होनेपर कहेगे तो यहाँ एक दन कम थरता क जायेगी।
नवृ का योग उस े मे वशेष है, तो 'का तकेयानु े ा' का वारंवार न द यासन कत है,
सा मु न ीको यथा वनय व दत करना यो य है ।
ज होने बा ा यतर असगता ा त क है ऐसे महा माओके ससारका अ त समीप है, ऐसा
न.सदे ह ानीका न य है।
ईडर, वैशाख वद १०, श न, १९५५
८७४
अब तभतीथसे कसनदासजीकृत ' याकोष' क पु तक ा त ई होगी। उसका आ त अ ययन
करनेके बाद सगम भाषामे उस वषयमे एक नब ध लखनेसे वशेष अनु े ा होगो, और वैसी याका
वतन भी सुगम है ऐसी प ता होगी, ऐसा स भव है। सोमवार तक यहाँ थ त स भव है । राजनगरमे
परम त वद का सगोपा उपदे श आ था, उसे अ म च से एकातयोगमे वारवार मरण करना
यो य है । यही वनती।
८७५
ब बई, जेठ, १९५५
परम कृपालु मु नवयके चरणकमलमे परम भ से
स वनय नम कार ा त हो।
अहो स पु षके वचनामृत, मु ा और स समागम | सुपु त चेतनको जागृत करनेवाले, गरती
वृ को थर रखने वाले. दशनमा से भी न ष अपूव वभावके ेरक, व प ती त, अ म सयम

औ ी े ो ी े
और पूण वीतराग न वक प वभावके कारणभूत,-अ तम अयोगी वभाव गट करके अनत अ ावाध
व पमे थ त करानेवाले काल जयव त रहे ।
ॐ शा त. शा तः शा त

६४६
'का तकेयानु े ा' क पु तक चार दन पूव ा त ई तथा एक प ा त आ। .
वहार तबधसे व त न होते ए धैय रखकर उ साहयु वीयसे व प न वृ करनी
यो य है।
मोहमयी, आषाढ़ सुद ८, र व, १९५५
' याकोष' इससे सरल और कोई नही है । वशेष अवलोकन करनेसे प ाथ होगा।
शु ा म थ तके पारमा थक ुत और इ यजय दो मु य अवलबन ह। सु ढ़तासे उपासना
करनेसे वे स होते है । हे आय | नराशाके समय महा मा पु षोका अ त आचरण याद करना यो य
है । उ ल सत वीयवान परमत वक उपासना करनेका मु य अ धकारी है।
*भावाथ- जसका काल ककर हो गया है, और जसे लोक मृगतृ णाके जलके समान मालूम होता है,
उसका जीना ध य है । जसक आशा पी पशा चनी दासी है, और काम ोध जसके कैद ह, जो य प खाता,
पीता और वोलता आ द खता है, पर तु वह न य नरजन और नराकार है । उसे सलोना सत जाने और उसका
यह अ तम भव है, उसने जगतको पावन करनेके लये अवतार लया है, वाक तो सव माताके उदरम भारभूत ही
है, उसे चौदह राजलोकम वचरते ए कसीसे भी अ तराय नही होता, उसक ऋ - स सब दा सयां हो गयी है,
और उसके दयम ान द नही समाता।
१. ी आचारागसू के एक वा यस व धी । दे ख आक ८६९ ।

६४७
अ म वभावका वारवार मरण करते ह।
पारमा थक ुत और वृ जयका अ यास बढाना यो य है।
3
बंबई, आषाढ वद ६, शु , १९५५
परमकृपालु मु नवयके चरणकमलमे परम भ से स वनय नम कार ा त हो ।
कल रातक डाकगाडीसे यहाँसे भाई भोवन वीरचदके साथ 'प नद पच वश त' नामक
स शा मु नवयके मननाथं भेजनेक वृ है। इस लये डाकगाडीके समय आप टे शनपर आ जाय ।
महा मा ी उस थका मनन कर लेनेके बाद परमकृपालु मु न ी ीमान दे वक ण वामीको वह थ
भेज द।
अ य मु नयोको स वनय नम कार ा त हो ।
मुमु ु तथा सरे जीव के उपकारके न म जो उपकारशील बा तापक सूचना- व ापन
कया है, वह अथवा सरे कोई कारण कसी अपे ासे उपकारशील होते है। अभी वैसे वृ वभाव
त उपशातवृ है।
ार ध योगसे जो बने वह भी शु वभावके अनुसधानपूवक होना यो य है। महा माओने
न कारण क णासे परमपदका उपदे श कया है, इससे ऐसा मालूम होता है क उस उपदे शका काय
परम महान ही है । सब जीवोके त बा दयामे भी अ म रहनेका जसके योगका वभाव है, उसका
आ म वभाव सब जीवोको परमपदके उपदे शका आकषक हो, ऐसी न कारण क णावाला हो, यह
यथाथ है।
' बना नयन पावे नह बना नयनको वात ।
इस वा यका मु य हेतु आ म स ब धी है। वाभा वक उ कषके लये यह वा य है । समा-
गमके योगमे इसका प ाथ समझमे आना स भव है। तथा सरे के समाधानके लये अभी ब त
अ प वृ रहती है । स समागमके योगमे सहजमे समाधान हो सकता है।
' वना नयन' आ द वा यका वक पनासे कुछ भी वचार न करते ए, अथवा शु चैत य को
१. दे ख आक २५८ ।
६४८
वृ जससे व त न हो ऐसा वतन यो य है । 'का तकेयानु े ा' अथवा सरा स शा थोड़े व मे
ब त करके ा त होगा।
षमकाल है, आयु अ प है, स समागम लभ है, महा माओके य वा य, चरण और आ ाका
योग क ठन हे । इस लये बलवान अ म य न कत है।
आपके समीप रहनेवाले मुमु ुओको यथा वनय ा त हो।
शा त
इस षमकालमे स समागम
असगताका योग कहाँसे छाजे ?
और स सगता अ त लभ ह। इसमे परम स सग और
परम पु षको मु य भ ऐसे स तनसे ा त होती है क जससे उ रो र गुणोक वृ हो ।
चरण तप (शु आचरणक उपासना) प स तन ानीक मु य आ ा है, जो आ ा परम पु षक
मु य भ है।
उ रो र गुणक वृ होनेमे गृहवासी जनोको स म प आजी वका- वहारस हत वतन
करना यो य है।
अनेक शा ो और वा योका अ यास करनेक अपे ा जीव य द ानीपु षोक एक एक आ ाक
उपासना करे, तो अनेक शा ोसे होनेवाला फल सहजमे ा त होता है।
ी 'प नद शा क एक त कसी अ छे के साथ वसो े मे मु न ीको भेजनेक
व था कर।
बलवान नवृ वाले - े ा दके योगमे आप उस स शा का वारवार मनन और न द यासन
कर। वृ वाले े ा दमे वह शा पढना यो य नही है।
जब तीन योगक अ प वृ हो, वह भी स यक् वृ हो तव महापु षके वचनामृतका मनन
परम ेयके मूलको ढ भूत करता है, मसे परमपदको स ा त करता है ।
च को व ेपर हत रखकर परमशात ुतका अनु े ण कत है।
अग य होनेपर भी सरल ऐसे महापु ष के मागको नम कार
स समागम नरतर कत है। महान भा यके उदयसे अथवा पूवकालके अ य त योगसे जीवको
स ची मुमु ुता उ प होती है, जो अ त लभ है। वह स ची मुमु ुता ब त करके महापु षके चरण-
कमलको उपासनासे ा त होती है, अथवा वैसी मुम तावाले आ माको महापु षके योगसे आ म न व
ा त होता है, सनातन अनत ानीपु षो ारा उपा सत स माग ा त होता है। जसे म ची मुमु ुता

६४९
ा त ई हो उसे भी ानीका समागम और आ ा अ म योग स ा त कराते ह। मु य मो मागका
म इस कार मालूम होता है।
। वतमानकालमे वैसे महापु षोका योग अ त लभ है। यो क उ म कालमे भी उस योगक
लभता होती है, ऐमा होनेपर भी जसे स चो मुमु ुता उ प ई हो, रात- दन आ मक याण होनेका
तथा प चतन रहा करता हो, वैसे पु षको वैसा योग ा त होना सुलभ है।
'आ मानुशासन' अभी मनन करने यो य है।
जन वचनोक आका ा है वे ब त करके थोड़े समयमे ा त होगे।
इ य न हके अ यासपूवक स ुत और स समागम नरंतर उपासनीय है।
ीणमोहपयत ानीक आ ाका अवलबन परम हतकारी है।
आज दन पयत आपके त तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके त योगके म
वभाव ारा जो कुछ अ यथा आ हो, उसके लये न भावसे माको याचना है।
शमम्
८८९ बंबई, भा पद सुद ५, र व, १९५५
जो वनवासो शा ' भेजा है, वह बल नवृ के योगमे इ यसयमपूवक मनन करनेसे अमृत है ।
अभी 'आ मानुशासन'का मनन कर ।
आज दन तक आपके तथा समीपवासी बहनो और भाइयोके त योगके म वभावसे कुछ भी
अ यथा आ हो, उसके लये न भावसे मायाचना करते ह।
आपके प ोमे कुछ यूना धक लखा गया हो, ऐसा वक प द शत कया हो, वैसा कुछ भासमान
नही आ है। न व त रहे । ब त करके यहाँ वैसा वक प सभव नह है।
इ योके न हपूवक स समागम और स शा का प रचय कर। आपके समीपवासी मुमु ुओका
उ चत वनय चाहते ह।
१ ी प नद पच वश त ।

६५०
ीणमोहपयत ानीक आ ाका अवलंबन परम हतकारी है । आज दन पयत आपके त तथा
आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके त योगके म वभावसे कुछ अ यथा आ हो, उसके लये
न भावसे मा चाहते ह।
ी झवेरचद और रतनचद आ द मुमु ु, का वठा-बोरसद ।
े े ी ी ो औ ो े ो े
आज दन पयत आपके त तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके त योगके म
वभावसे जो कुछ, क चत् भी अ यथा आ हो, उसके लये न भावसे मा चाहते ह।
प मला है। कसी मनु यके बताये ए व आ द सगके संबंधमे न व त रहे, तथा
अप र चत रहे । उस वषयमे कुछ उ र यु र आ दका भी हेतु नही है।
इ य के न हपूवक स समागम और स ुत उपासनीय ह।
आज दन पय त आपके त तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइय के त योगके म
वभावसे जो कुछ अ यथा आ हो उसके लये न भावसे मायाचना करते है।
आज दन पय त योगके म वभावके कारण आपके त य क चत् अ यथा आ हो, उसके
लये न भावसे मायाचना करते ह।
भाई व लभ आ द मुमु ुओको मापना आ द. क ठ थ करनेके वषयमे आप यो य आ ा कर।
जन ानीपु षोका दे हा भमान र आ है उ हे कुछ करना वाक नही रहा, ऐसा है, तो भी उ हे
सवसगप र यागा द स पु षाथता परमपु पने उपकारभूत कही है।

६५१
परम वीतरागो ारा आ म थ कये ए, यथा यात चा र से
गट कये ए परम असंग वको नरंतर
ा पसे याद करता ँ।
इस ःषमकालमे स समागमका योग भी अ त लभ है, उसमे परम स सग और परम असग वका
योग कहाँसे हो?
स समागमका तबध करनेके लये कहे तो वैसा तबध न करनेक वृ बतायी तो वह यो य
है, यथाथ है। तदनुसार वतन क जयेगा। स समागमका तबध करना यो य नही है, तथा सामा यतः
उनके साथ समाधान रहे ऐसा बताव रखना हतकारी है।
फर जस कार वशेष उस संगमे आना न हो ऐसे े मे वचरना यो य है, क जस े मे
आ मसाधन सुलभतासे हो।।
परम शात ुतके वचारमे इ य न हपूवक आ म वृ रखनेमे व प थरता अपूवतासे गट
होती है।
संतोष आया आ दके लये यथाश ऊपर द शत कया आ य न यो य है। ॐ शा तः
यह व वहार ऐसा है क जसमे वृ क यथाशातता रखना यह असभव जैसा है। कोई
वरले ानी इसमे शात व पनै क रह सकते हो, इतना ब त घटतासे बनना स भव है। उसमे
अ प अथवा सामा य मुमु ुवृ के जोव शात रह सक, व पनै क रह सक, ऐसा यथा प नही पर तु

६५२
ीमद् राजच
अमुक अशमे होनेके लये जस क याण प अवलंबनको आव यकता है, वह समझमे आना, तीत होना,
और अमुक वभावसे आ मामे थत होना क ठन है ! य द वैसा कोई योग बने तो और जीव शु नै क
हो तो, शा तका माग ा त होता है, ऐसा न य है । म वभावक जय करनेके लये य न करना
यो य है।
इस ससाररणभू ममे षमकाल प ी मके उदयके योगका वेदन न करे, ऐसी थ तका वरल
जीव अ यास करते है
सव साव आरभक नवृ पूवक दो घडीसे अध हरपयत ' वामी का तकेयानु े ा' आ द थक
नकल करनेका न य नयम यो य है । (चार मासपयत)।
अ वरोध और एकता रहे ऐसा करना यो य है, और यह सबके उपकारका माग होना स भव है ।
भ ता मानकर वृ करनेसे जीव उलटा चलता है। अ भ ता है, एकता है, इसमे कुछ
गैरसमझसे भ ता मानते ह, ऐसी उन जीवोको सीख मले तो स मुखवृ होने यो य है।
जहाँ तक अ यो य एकताका वहार रहे वहाँ तक वह सवथा कत है ।
९०१
बंबई, का तक सुद १५, १९५६
"गु गणघर गुणधर अ धक, चुर परंपर और।
ततपधर, तनु नगनघर, वदो वृष सरमोर ॥'
जगत वषयके व ेपमे व प ा तसे व ा त नही पाता।
अनत अ ाबाध सुखका एक अन य उपाय व प थ होना यही है। यही हतकारी उपाय
ा नयोने दे खा है।
भगवान जनने ादशागीका इसी लये न पण कया है, और इसी उ कृ तासे वह शो भत है,
जयवत है।
ानीके वा यके वणसे उ ला सत होता आ जीव चेतन-जडको यथाथ पसे भ व प तीत
करता है, अनुभव करता है, और अनु मसे प थ होता है ।
यथा थत अनुभव होनेसे व प थ हो सकता है ।
दशनमोह न हो जानेसे ानोके मागमे परम भ समु प होती है, त व ती त स यकपसे
उ प होती है।
१ भावाथ-गु गणधर तथा पर परागत ब तसे गुणघारी, त-तपघारी, दग बर धम शरोम ण,

ो ँ
आचाय को व दन करता ँ।

३३ वॉ वष
६५३
त व ती तसे शु -चैत यके त वृ का वाह मुडता है। शु -चैत यके अनुभवके लये चा र -
मोह न करना यो य है।
चैत यके- ानीपु षके स मागक नै कतासे चा र मोहका लय होता है।
असंगतासे परमावगाढ अनुभव हो सकता है ।
हे आय मु नवरो | इसी असग शु -चैत यके लये असगयोगक हम अह नश इ छा करते है । हे
मु नवरो । असंगताका अ यास कर।
दो वष कदा प समागम न करना ऐसा होनेसे अ वरोधता होती हो तो अंतमे सरा कोई स पाय
न हो तो वैसा करे।
जो महा मा असंग चैत यमे लीन ए, होते ह, और होगे, उ हे नम कार।
९०२ ब बई, का तक वद ११, मगल, १९५६
*जड ने चैत य ब े नो वभाव भ ,
- सु तीतपणे ब े जेने समजाय छ;
व प चेतन नज, जड छे संबंध मा ,
___ अथवा ते ेय पण पर मांय छे ;
एवो अनुभवनो काश उ ला सत थयो,
जडथी उदासी तेने आ मवृ थाय छे ,
कायानी वसारी माया, व पे समाया एवा,
। न ंथनो पंथ भवनंतनो उपाय छे ॥१॥
दे ह जीव एक पे भासे छे अ ान वडे,
यानी वृ पण तेथी तेम थाय छे ,
जीवनी उ प अने रोग, शोक, ःख, मृ यु,
दे हनो वभाव जीव पदमां जणाय छे ;
भावाथ-जड और चैत य दोनो ोका वभाव भ है, ऐसा यथाथ ती तपूवक जसे समझम आता
है, उसे भान होता है क नज व प तो चेतन है और जड तो स ब ध मा है, अथवा जड़ तो ेय प पर है
और वय तो उसका ाता- ा है। चैत य व प आ मा उससे सवथा भ है । यो व पका अनुभव अथात्
आ म-सा ा कार हो जानेसे जड पदाथके त उदासीनता आ जाती है, जससे ब हमुखता र होकर अतमुखता हो
जाती है अथात् आ मा व पम थत हो जाता है अथवा आ म-लीनता आ जाती है। आ म-जागृ त एव आ म-
भान हो जानेपर कायाक ममता, आस नही रहती अथवा दे हा यास र हो जाता है और आ मा व प य हो
जाता है। इस लये न ंथका पथ भवात-मो का स चा उपाय है ॥ १ ॥
अ ानते शरीर और आ मा एक प-अ भ लगते ह। यह ा त अना द कालसे चली आ रही है । इस-
लये याक वृ भी उसी ा तपूवक होती रहती है। ज म, रोग, शोक, ख, मृ यु आ द दे हका वभाव
है, परतु अ ानवश आ माका वभाव माना जाता है। दे ह और आ माको एक प माननेका जो अना द म या व
भाव ह वह ानीप षके बोधसे र हो जाता है। जीव जव ानीके बोघको आ मसात् कर लेता है तव जह और
चेतनफा भ - वभाव प ट तीत होता है। फर दोनो अपने-अपने पम थत हो जाते ह अथात् आ मा
आ म पम और कम प पु ल पु ल पम थत हो जाते है ।।२।।

६५४
एवो जे अना द एक पनो म या वभाव,
ानीनां वचन वडे र थई जाय छे ;
. भासे जड चैत यनो गट वभाव भ ,
ब े नज नज पे थत थाय छे ॥२॥
९०३ बबई, का तक वद ११, मंगल, १९५६
ाणीमा का र क, बाधव और हतकारी, य द ऐसा कोई उपाय हो तो वह वीतरागका धम
'ही है। ' '
९०४ बबई, का तक वद ११, मंगल, १९५६
सतजनो | जनवर ोने लोक आ दका जो व प न पण कया है, वह आलंका रक भाषामे
न पण है, जो पूण योगा यासके बना ानगोचर होने यो य नही है । इस लये आप अपने अपूण ानके
आधारसे वीतरागके वा योका वरोध न कर; परतु योगका अ यास करके पूणतासे उस व पके ाता
होव।
९०५ मोहमयी े , पौष वद १२, र व, १९५६
महा मा मु नवरोके चरणक , सगक उपासना और स शा का अ ययन मुमु ुओके लये
आ मबलक वृ के स पाय ह।
यो यो इ य न ह, यो यो नवृ योग होता है यो यो वह स समागम और स शा
अ धका धक उपकारी होते ह
आज आपका प मला । बहन इ छाके वरक अकाल मृ युके खेदकारक समाचार जानकर ब त

ो ो ै ो ऐ ी े ी ो े ै े ै
-शोक होता है। संसारको ऐसी अ न यताके कारण ही ा नयोने वैरा यका उपदे श दया है |- - -
__घटना अ यत खकारक है। परतु नरपाय होनेसे धीरज रखनी चा हये। तो आप मेरी ओरसे
बहन इ छाको और घरके लोगोको दलासा और धीरज दलाय । और बहनका मन शात हो वैसे उसक
संभाल ले।
___ शु गुजर भाषामे 'समयसार'को त क जा सक तो वैसा करनेसे अ धक उपकार हो सकता है।
य द वैसा न हो सके तो वतमान तके अनुसार सरी त लखनेमे अ तबध है।
- बताते ए अ तशय खेद होता है क सु भाई ी क याणजीभाई (केशवजी) ने आज दोपहरमे
लंगभग प ह दनक मरोड़क तकलीफसे नामधारी दे हपयायको छोडा है। ।

६५५
य द ' वामी का तकेयानु े ा' और 'समयसार' क नकल लखी गयी हो तो यहाँ मूल तय के
साथ भजवाये । अथवा मूल तयाँ बबई भजवाये और नकल क ई तयां यहाँ भजवाय। नकल
अभी अधूरी हो तो कब पूण होना सभव है यह लख।
"ध य ते मु नवरा जे चाले समभावे रे,
ानवंत ानीशु मळतां तनमनवचने साचा,
भाव सुधा जे भाखे, साची जननी वाचा रे;
ध य ते मु नवरा, जे चाले समभावे रे।"
प ा त ए थे।
एक पखवाड़ेसे यहाँ थ त है।
ी दे वक ण आ द आय को नम कार ा त हो । साणद और अहमदावादके चातुमासक व
उपशात करना यो य है। यही ेय कर है ।
, खेडाक अनुकूलता न हो तो सरे अनेक यो य े मल सकते ह। अभी उनसे अनुकूलता रहे
यही कत है।
• बा और अ तर समा धयोग रहता है ।
परम शा त
१ भावाथ-वे मु नवर ध य है जो समभावपूवक आचरण करते ह। जो वय ानवान है, और ा नयो-
से मलते है। जनके मन, वचन और काया सू चे ह, तथा जो भावसे अमृत वाणी बोलते ह, वह जन नगवान-
को स ची वाणी ही है । वे मु नवर ध य ह जो समभावपूवक आचरण करते ह।

६५६
अक मात् शारी रक असाताका उदय आ है और शात वभावसे उसका वेदन कया जाता है,
ऐसा जानते थे, और इससे सतोष ा त आ था।
सम त ससारी जीव कमवशात् साता-असाताके उदयका अनुभव कया ही करते है। जसमे
मु यत तो असाताके ही उदयका अनुभव कया जाता है । व चत् अथवा कसी दे ह संयोगमे साताका
उदय अ धक अनुभवमे आता आ दखाई दे ता है, पर तु व तुत: वहाँ भी अ तदाह जला ही करता है।
पूण ानी भी जस असाताका वणन कर सकने यो य वचनयोग नही रखते, वैसी अनतानत असाता इस
जीवने भोगी है, और य द अब भी उनके कारणोका नाश न कया जाये तो भोगनी पड़े, यह सु न त
है, ऐसा समझकर वचारवान उ म पु ष उस अ तदाह प साता और बा ा यंतर स लेशा न पसे
व लत असाताका आ य तक वयोग करनेके मागक गवेषणा करनेके लये त पर ए और उस स माग-
__ क गवेषणा कर, ती त कर उसका यथायो य आराधन कर अ ाबाध सुख व प आ माके सहज शु
' वभाव प परमपदमे लीन ए।
साता-असाताका उदय अथवा अनुभव ा त होनेके मूल कारणोक गवेषणा करनेवाले उन महान
पु षोको ऐसी वल ण सानदा यकारी वृ उ त होती थी क साताक अपे ा असाताका उदय ा त
होनेपर और उसमे भी ती तासे उस उदयके ा त होनेपर उनका वीय वशेष पसे जानत होता था,
उ ल सत होता था, और वह समय अ धकतासे क याणकारी माना जाता था।
कतने ही कारण वशेषके योगसे वहार से हण करने यो य औषध आ द आ म-मयादामे
रहकर हण करते थे, पर तु मु यतः वे परम उपशमक हो सव कृ औषध पसे उपासना करते थे।
__उपयोग-ल णसे सनातन- फु रत ऐसे आ माको दे हसे, तैजस और कामण शरीरसे भी भ अव-
लोकन करनेक स करके, वह चैत या मक वभाव आ मा नरतर वेदक वभाववाला होनेसे
अबंधदशाको जब तक स ा त न हो तब तक साता-असाता प अनुभवका वेदन कये बना रहनेवाला नही
है यह न य करके, जस शुभाशुभ प रणामधाराक प रण तसे वह साता-असाताका स ब ध करता है उस
धाराके त उदासीन होकर, दे ह आ दसे भ और व पमयादामे रहे ए उस आ मामे जो चल व-
भाव प प रणामधारा है उसका आ य तक वयोग करनेका स माग हण करके, परम शु चैत य वभाव-
प काशमय वह आ मा कमयोगसे सकलक प रणाम द शत करता है उससे उपरत होकर, जस कार
उपश मत आ जाये उस उपयोगमे और उस व पमे थर आ जाये, अचल आ जाये, वही ल य,
वही भावना, वही चतन और वही सहज प रणाम प वभाव करना यो य है। महा माओक वारंवार
यही श ा है।
उस स मागक गवेषणा करते ए, ती त करनेक इ छा करते ए, उसे स ा त करनेक इ छा
करते ए ऐसे आ माथ जनको परमवीतराग व प दे व, व पनै क नः पृह न ंथ प गु , परमदया-

औ ो े े
मूल धम वहार और परमशातरस रह य-वा यमय स शा , स मागक संपूणता होने तक परमभ से
उपासनीय है, जो आ माके क याणके परम कारण है।
यहाँ एक मरण-स ा त गाथा लखकर यहाँ इस प को स त करते है। .
भीसण नरयगईए, त रयगईए कुदे वमणुयगईए।
प ो स त व ःखं, भाव ह जणभावणा जीव ॥

६५७
भयंकर नरकग तमे, तयचग तमे और बुरी दे व तथा मनु यग तमे हे जीव । तू ती ःखको ा त
आ, इस लये अब तो जन-भावना ( जन भगवान जस परमशातरसमे प रणमन कर व प थ ए, उस
परमशात व प च तन) का भावन- चतन कर ( क जससे वैसे अनत ःखोका आ य तक वयोग
होकर परम अ ाबाध सुखसप स ा त हो)।।
___ॐ शा तः शा तः शा तः
धमपुर, चै वद ५, गु , १९५६
जहाँ सकु चत जनवृ का सभव न हो और जहाँ नवृ के यो य वशेष कारण हो, ऐसे े मे
महान पु षोको वहार, चातुमास प थ त क है
(१) उपशम े णमे मु यत उपशमस य वका सभव है।' '
(२) चार घनघाती कम का य होनेसे अ तराय कमक कृ तका भी य होता है और इससे
दानातराय, लाभातराय, वोयांतराय, भोगातराय और उपभोगातराय इन पांच कारके अतरायोका य
होकर अनत दानल ध, अनत लाभल ध, अनत वीयल ध और अनत भोग-उपभोगल ध स ा त होती
है। जससे जनके अ तराय कमका य हो गया है ऐसे परमपु ष अनत दाना द दे नेको सपूण समथ है,
तथा प परमपु ष पु ल- पसे इन दान आ द ल धयोका वृ नही करते । मु यत तो उस ल ध
क स ा त भो आ माक व पभूत है, यो क ा यकभावसे वह स ा त है, औद यकभावसे नह , इस-
लये आ म वभाव व पभूत है, और जो अनत साम य आ मामे अना दसे श पसे था वह होकर
आ मा नज व पमे आ सकता है, त प ू शु व छ भावसे एक वभावसे प रणमन करा सकता है, उसे
अनत दानल ध कहना यो य है। उसी कार अनत आ मसाम यक स ा तमे क च मा वयोगका
कारण नही रहा, इस लये उसे अन त लाभल ध कहना यो य है। और अन त आ मसाम यक स ा त
स पूण पसे परमान द व पसे अनुभवमे आती है, उसमे भी क च मा भी वयोगका कारण नह रहा,
इस लये अन त भोगोपभोगल ध कहना यो य है, तथा अन त आ मसाम य क स ा त स पूण पसे
होनेपर भी उस साम यके अनुभवसे आ मश थक जाये या उसका साम य झेल न सके, वहन न कर
सके अथवा उस साम यको कसी कारके दे श-कालका असर होकर क च माय भी यूना धकता करा दे ,'
ऐसा कुछ भी नही रहा; उस वभावमे रहनेका स पूण साम य काल स पूण वलस हत रहनेवाला है,
उसे अन त वीयल ध कहना यो य है।
ा यकभावक से दे खते ए उपयु अनुसार उस ल धका परम पु षको उपयोग है। फर
ये पाँच ल धयाँ हेत वशेषसे समझानेके लये भ बतायी है, नह तो अन त वीयल धमे भी उन
पांचोका समावेश हो सकता है। आ मा स पूण वीयको स ा त होनेसे इन पांचो ल धयोका उपयोग
पु ल पसे करे तो वैसा साम य उसमे है, तथा प कृतकृ य ऐसे परम पु षमे स पूण वीतराग
वभाव होनेसे उस उपयोगका इस कारणसे सभव नह है, और उपदे श आ दके दान पसे जो उस कृतकृ य

६५८
ीमद् राजच
परम पु षक वृ है, वह योगा त पूव-बंधक उदयमानतासे है, आ माके वभावके क चत् भी
वकृतभावसे नही है।
इस कार स ेपमे उ र समझ। नवृ वाला अवसर स ा त करके अ धका धक मनन करनेसे
वशेष समाधान और नजरा स ा त होगे । सो लास च से ानक अनु े ा करनेसे अनत कमका य
होता है।
ॐ शा तः शा त शा तः
धमपुर, चै वद १३, शु , १९५६
कृपालु मु नवरोक यथा व ध वनय चाहते है ।
बलवान नवृ के हेतुभूत े मे चातुमास कत है। न डयाद, वसो आ द जो सानुकूल हो वह,
एक थलके बदले दो थलमे हो उसमे व तताके हेतुका स भव नही है । अस समागमका योग ा त
कर य द बटवारा करे तो उस स ब धी समयानुसार जैसा यो य लगे वैसा, उ हे बताकर उस कारणक
नवृ करके स समागम प थ त करना यो य है।
यहाँ थ तका सभव वैशाख सुद २ से ५ तक है ।
समागम स ब धी अ न त है।
परमशां त
९१७ अहमदाबाद, भीमनाथ, वैशाख सुद ६, १९५६
आज दशा आ द स ब धी जो बताया है और बीज बोया है उसे न खोदे । वह सफल होगा।
'चतुरागुल है गस मल है'', यह आगे जाकर समझमे आयेगा।
एक ोक पढते ए हमे हजारो शा ोका भान होकर उसमे उपयोग घूम आता है (अथात्
रह य समझमे आ जाता है)। ' .
___९१८
ववा णया, वैशाख, १९५६
आपने कतने ही लखे उन ोका समाधान समागममे समझना वशेष उपकार प जानता .
ह । तो भी क चत् समाधानके लये यथाम त स ेपमे उनके उ र यहाँ लखता ँ। . . .
. स पु षक यथाथ ानदशा, स य वदशा, और उपशमदशाको तो, जो यथाथ, मुमु ु जीव
स पु षके समागममे आता है वह जानता है, यो क य उन तीन दशाओका लाभ ी स पु षके उप-
दे शसे कुछ अशोमे होता है। जनके उपदे शसे वैसी दशाके अंग गट होते ह उनक अपनी दशामे वे
गण कैसे उ कृ रहे होने चा हये, उसका वचार करना सुगम है, और जनका उपदे श एका त नया मक
हो उनसे वैसी एक भी दशा ा त होनी स भव नही है यह भी य समझमे आयेगा । स पु षक वाणी
सव नया मक होती है।
- अय के उ र--, . .
. , ०- जना ाराधक वा याय- यानसे मो है या और कसी तरह ? '
. उ०—तथा प य स के योगमे अथवा कसी पूव-कालके ढ आराधनसे जना ा यथाथ
समझमे आये, यथाथ तीत हो, और उसको यथाथ आराधना क जाये तो मो होता है इसमे संदेह नह है।

६५९
०- ान ासे जानी ई सव व तुका या यान ासे जो या यान करता है उसे प डत
कहा है। , . . . . . .
उ०-वह यथाथ है। जस ानसे परभावके मोहका उपशम अथवा य न आ हो, वह ान
'अ ान' कहने यो य है अथात् ानका ल ण परभावके त उदासीन होना है। ,
०--जो एकात ान मानता है उसे म या वो कहा है। .
उ०-वह यथाथ है।
-जो एकात या मानता है उसे म या वी कहा है।
उ.--वह यथाथ है।
.-मो जानेके चार कारण कहे है। तो या उन चारमेसे कसी एक कारणको छोड़कर मो
ा त कया जा सकता है या सयु चार कारणसे ?
उ०– ान, दशन, चा र और तप ये मो के चार कारण कहे है, वे पर पर अ वरोध पसे ा त
होनेपर मो होता है।
- ०-सम कत अ या मक शैली कस तरह है ?
उ०-यथाथ समझमे आनेपर परभावसे आ य तक नवृ करना यह अ या ममाग है। जतनी
जतनी नवृ होती है उतने उतने स यक् अंश होते ह । ।
'' ०-'पु लस रातो रहे', इ या दका या अथ है ? . . . . . ।
उ०-पु लमे आस होना म या वभाव है।
.-'अतरा मा परमा माने यावे', इ या दका या अथ है ?
उ०-अतरा म पसे य द परमा म व पका यान करे तो परमा मा हो जाते ह।
' ' ०-और अभी कौनसा यान रहता है ? इ या द ।'-
उ-स के वचनका वारंवार वचार कर, अनु े ण कर परभावसे आ माको असंग करना।
- म या व (?) अ या मक पणा आ द लखकर आपने पूछा क वह यथाथ कहता है या
नही ? अथात् सम कती नाम धारणकर वषय आ दक आका ा और पु लभावका सेवन करनेमे कोई
बाधा नही समझता, और 'हमे बध नही है'-ऐसा जो कहता है, या वह यथाथ कहता है ?
''उ०- ानीके मागक से दे खते ए वह मा ' म या व ही कहता है। पु लभावसे भोगे
और ऐसा कहे क आ माको कम नही लगते तो वह ानीक का वचन नही, वाचा ानीका वचन है।
०-जैनदशन कहता है क पु लभावके कम होनेपर आ म यान फ लत होगा, यह कैसे ?
। उ०—वह यथाथ कहता है।
०- वभावदशा या फल दे ती है ?
उ०-तथा प सपूण हो तो मो होता है।
' - वभावदशा या फल दे ती है ?
उ०ज म, जरा, मरण आ द ससार। ।
०-वीतरागक आ ासे पोरसीका वा याय करे तो या फल होता है ?
उ.-तथा प हो तो यावत् मो होता है।
०-वीतरागक आ ासे पोरसीका यान करे तो या फल होता है ?
उ०-तथा प हो तो यावत् मो होता है।

६६०
ीमद् राजच
इस कार आपके ोका स ेपमे उ र लखता ँ। लौ ककभावको छोडकर, वाचा ान छोड-
कर, क पत व ध- नषेध छोड़कर जो जीव य ानीक आ ाका आराधन कर, तथा प उपदे श
पाकर, तथा प आ माथमे वृ करे तो उसका अव य क याण होता है।
नज क पनासे ान, दशन, चा र आ दका व प चाहे जैसा समझकर अथवा न यनया मक

ो ी ो ो े े े े ो ी ै
बोल सीखकर जो सद् वहारका लोप करनेमे वृ करे, उससे आ माका क याण होना सभव नही है,
अथवा क पत वहारके रा हमे के रहकर वृ करते ए भी जीवका क याण होना सभव
नही है।
यां यां जे जे यो य छ, तहां समजव तेह। -
यां यां ते ते आचरे, आ माथ जन एह ॥
-'आ म स शा ',
एकात याजडतामे अथवा एकात शु क ानसे जीवका क याण नही होता।
९१९
ववा णया, वैशाख वद ८, मगल, १९५६
म - म ऐसे वतमान जीव ह, और परम पु षोने अ म मे सहज आ मशु कही है, इस लये
उस वरोधके शात होनेके लये परम पु पका समागम, चरणका योग ही परम हतकारी है।
भाई छगनलालका और आपका लखा आ यो दो प मले। वीरभगामक अपे ा यहाँ पहले
वा य कुछ ढ ला रहा था । अब कुछ भी ठ क आ होगा ऐसा मालूम होता है।
'मो माला' मे श दांतर अथवा संग वशेषमे कोई वा यातर करनेक वृ हो तो कर।
उपो ात आ द लखनेक वृ हो तो लख । जीवनच र क वृ उपशात कर। .
उपो ातसे वाचकको, ोताको अ प अ प मतातरक वृ व मृत होकर ानी पु षोके
आ म वभाव प परम धमका वचार करनेक फुरणा हो, ऐसा ल य सामा यत रखे । यह सहज
सूचना है
साणदसे मु न ीने ी अ बालालके त लखवाया आ प तंभतीथसे आज यहाँ मला ।
ॐ परमशां तः
न डयाद और वसो- े के चातुमासमे तीन तीन मु नयोक थ त हो तो भी ेय कर ही है।

६६१
- आय मु नवरोके चरणकमलमे यथा व ध नम कार ा त हो। वैशाख वद ७ सोमवारका लखा
प ात आ ।
न डयाद, नरोडा और वसो तथा उनके सवाय अ य कोई े जो नवृ के अनुकूल तथा
आहारा द स ब धी वशेष सकोचवाला न हो वैसे े मे तीन तीन मु नयोके चातुमास करनेमे ेयं ही है।
१. इस वष जहाँ उन वेषधा रयोक थ त हो उस े मे चातुमास करना यो य नही है। नरोडामे
आयाओका चातुमास उन लोगोके प का हो तो वह होनेपर भी आपको वहाँ चातुमास करना अनुकूल
लगता हो तो भी बाधा नही है; पर तु वेषधारीके समीपके े मे भी अभी यथासभव चातुमास न हो
तो अ छा।
- ऐसा कोई यो य े द खता हो क जहाँ छहो मु नयोका चातुमास रहते ए आहार आ दका
सकोच वशेष न हो सके तो उस े मे छहो मु नयोको चातुमास करनेमे बाधा नही है, परंतु जहाँ तक
बने वहाँ तक तीन तीन मु नयोका चातुमास करना. यो य है।
। जहाँ अनेक वरोधी गृहवासी जन या उन लोगोको राग वाले हो अथवा जहाँ आहारा दका,
जनसमूहका सकोचभाव रहता हो वहाँ चातुमास यो य नही है । बाक सव े ोमे ेय कर ही है।
__ . , आ माथ को व ेपका हेतु या हो ? उसे सब समान ही ह। आ मतासे वचरनेवाले आय पु षो-
को ध य है
आय मु नवरोके लये अ व ेपता सभव है। वनयभ यह मुमु ुओका धम है।
अना दसे चपल ऐसे मनको थर कर। थम अ यततासे वरोध करे इसमे कुछ आ य
नही है । मश उस मनको महा माओने थर कया है, शात कया है, ीण कया है, यह सचमुच
आ यकारक है।
- ९२६ । ववा णया, वैशाख वद ३०, सोम, १९५६
मु नय के लये अ व ेपता ही सभव है । मुमु ु के लये वनय कत है।
' ायोपश मक अस य, ा यक एक अन य ।'
(अ या म गीता)
' मनन और न द यासन करनेस, े इस वा यसे जो परमाथ अतरा मवृ मे तभा सत हो उसे
यथाश क लखना यो य है।

६६२
यथाथ दे खे तो शरीर ही वेदनाक मू त है । समय समयपर जीव उस ारा वेदनाका ही अनुभव
करता है । व चत् साता और ायः असाताका ही वेदन करता है। मान सक असाताक मु यता होनेपर
भी वह सू म स य मानको मालूम होती है । शारी रक असाताक मु यता थूल मानको भी -
मालूम होती है। जो वेदना पूवकालमे सु ढ बधसे जीवने वाँधी है, वह वेदना उदय सं ा त होनेपर इ ,
चं , नागे या जने भी उसे रोकनेको समथ नह है। उसके उदयका जीवको वेदन करना ही चा हये ।
अ ान जोव खेदसे वेदन कर तो भी कुछ वह वेदना कम नही होतो या चली नही जाती । स य
मान जीव शातभावसे वेदन कर तो उससे वह वेदना बढ नही जाती, परतु नवीन बधका हेतु नह होती।
पूवक बलवान नजरा होती है । आ माथ को यही कत है।
___ "म शरीर नही ँ, परतु उससे भ ऐसा ायक आ मा ँ, और न य शा त ँ। यह वेदना ,
मा पूव कमक है, परतु मेरे व पका नाश करनेको वह समथ नही है, इस लये मुझे खेद कत ही नही

ै े ो ै
है" इस तरह आ मा का अनु े ण होता है | .
९२८
ववा णया, ये सुद ११, १९५६ .
आय भोवनके अ प समयमे शातवृ से दे हो सग करनेक खबर सुनी । सुशील मुमु ुने अ य
थान हण कया।
जीवके व वध कारके मु य थान है। दे वलोकमे इ तथा सामा य ाय शदा दकके थान
है । मनु यलोकमे च वत , वासुदेव, बलदे व तथा माड लक आ दके थान ह । तयंचमे भी कही इ
भोगभू म, आ द थान है। उन सब थानोको जीव छोड़ेगा, यह नःसदे ह है। जा त, गो ी और बधु
आ द इन सबका अशा त अ न य ऐसा यह वास ह।
मा मु नयोको कहाँसे वक प हो ?
न ंथ े को कस सरेसे बाँधे ? इस सरेका सबध नही है।
न ंथ महा मा के दशन और समागम मु को स यक् ती त कराते ह।
तथा प महा माके एक आय वचनका स यक् कारसे अवधारण होनेसे यावत् मो होता है ऐसा
ीमान् तीथकरने कहा है, वह यथाथ है । इस जीवमे तथा प यो यता चा हये।
परम कृपालु मु नवरोको फर नम कार करते ह।

६६३
कुदकुदाचायकृत 'समयसार' थ भ है । यह थकता अलग है, और थका वषय भी अलग
है । थ उ म है।
आय भोवनके दे हो सगं करनेक खबर आपको मली जससे खेद आ, यह यथाथ है। ऐसे
कालमे आय भोवन जैसे मुम वरल है। दन त दन शाताव थासे उसका आ मा व पल त
होता जाता था। कमत वका सू मतासे वचार कर, न द यासन कर आ माको तदनुयायी प रण तका
नरोध हो यह उसका मु य ल य था । वशेष आयु होती तो वह मुमु ु चा र मोहको ीण करनेके लये
अव य वृ करता।
' । ' शा त शा तः शा त.
९३१ , , ववा णया, जेठ वद ,९, गु , १९५६
शुभोपमालायक मेहता च भुज बेचर,
मोरबी।
आज आपका एक प डाकमे मला |
पू य ीको यहाँ आनेके लये कहे। उ हे अपना वजन बढ़ाना अपने हाथमे है। अ , व या
मनक कुछ तगी नही है । केवल उनके समझनेमे अतर आ है इस लये यूँ ही रोष करते है, इससे उलटा
उनका वजन घटता है परतु बढता नह है। उनका वजन बढे और वे अपने आ माको शात रखकर कुछ
भी उपा धमे न पडते ए इस दे ह- ा तको साथक कर इतनी ही हमारी वनती है। उ ह दोनो सन
वशमे रखने चा हये । सन बढानेसे बढते ह और नयममे रखनेसे नयममे रहते ह। उ होने थोड़े समयमे
सनको तीन गुना कर डाला है, तो उसके लये उ हे उलाहना दे नेका हेतु इतना ही है क इससे उनक
कायाको ब त नुकसान होता है, तथा मन परवश होता जाता है, जससे इस लोक और परलोकका
क याण चूक जाता है। उमरके अनुसार मनु यक कृ त न हो तो मनु यका वजन नही पडता और वजन
र हत मनु य इस जगतमे नक मा है। इस लये उनका वजन रह इस तरह वतन करनेके लये हमारा
अनुरोध है । सहज बातमे बीचमे आनेसे वजन नही रहता पर घटता है । यह यान रखना चा हये । अव
तो थोड़ा समय रहा है तो जैसे वजन बढे वैसे वतन करना चा हये।
हमे स ा त ई मनु यदे ह भगवानको भ और अ छे काममे गुजारनी चा हये ।।
पू य ीको आज रातक े नमे भेज।
प ा त ए । शरीर- कृ त व था व थ रहती है, व ेप कत नही है।
हे आय । अतमुख होनेका अ यास कर।

६६४
'मो माला' के वषयमे आप यथासुख वृ कर।
मनु यदे ह, आयता, ानीके वचनोका वण, उनमे आ तकता, सयम, उसके त वीय वृ ,
तकूल योगोमे भी थ त, अंतपयत सपूण माग प समु को तर जाना-ये उ रो र लभ और
अ यत क ठन ह, यह न सदे ह है।।
शरीर- थ त व चत् ठ क दे खनेमे आती है, व चत् उससे वपरीत दे खनेमे आती है। अभी कुछ
असाताक मु यता दे खनेमे आती है ।
च वत क सम त सप क अपे ा भी जसका एक समय मा भी वशेष मू यवान है ऐसी यह
मनु यदे ह और परमाथके अनुकूल योग ा त होनेपर भी, य द ज म-मरणसे र हत परमपदका यान न
रहा तो इस मनु य-दे हमे अ ध त आ माको अनतबार ध कार हो ।
ज होने मादको जीता उ होने परमपदको जीत लया।
प ा त आ।
शरीर- थ त अमुक दन व थ रहती है और अमुक दन अ व थ रहती है। यो य व थताक -
ओर अभी वह गमन नही करती, तथा प अ व ेपता कत है।

ी ो े ी ो ी ै
शरीर थ तको अनुकूलता- तकूलताके अधीन उपयोग कत नही है।
शां तः
९३६ . 'ववा णया, ये वद ३०, १९५६
जससे च तत ा त हो उस म णको चताम ण कहा है, यही यह मनु यदे ह है क जस दे हमे,
योगमे सव खका आ य तक य करनेका न य कया तो अव य सफल होता है। '
जसका माहा य अ च य है, ऐसा स सग पी क पवृ ा त होनेपर जीव द र रहे, ऐसा हो
तो इस जगतमे वह यारहवाँ आ य ही है।
९३७
ववा णया, आषाढ सुद १, गु , १९५६
परम कृपालु मु नवरोको नम कार ा त हो ।
न डयादसे लखवाया प आज यहाँ ा त आ।
जहाँ , े , काल, भाव आ दको अनुकूलता दखायी दे ती हो वहाँ चातुमास करनेमे आय
पु षोको व ेप नही होता । सरे े क अपे ा बोरसद- अनुकूल तीत हो तो वहाँ चातुमासक थत
कत है।
दो बार उपदे श और एक बार आहार हण तथा ' न ा-समयके सवाय बाक का अवकाश मु यतः
आ म वचारमे, 'प नंद ' आ द शा ावलोकनमे और आ म यानमे तीत करना यो य है । कोई बहन

६६५
या भाई कभी कुछ आ द करे, तो उसका यो य समाधान करना, क जससे उसका आ मा शात
हो । अशु याके नषेधक वचन उपदे श पसे न कहते ए, शु यामे जैसे लोगोक च बढे वैसे
या कराते जाय।
उदाहरणके लये, जैसे कोई एक मनु य अपनी ढके अनुसार सामा यक त करता है, तो उसका
नषेध न करते ए, जस तरह उसका वह समय उपदे शके वणमे या स शा के अ ययनमे
अथवा कायो सगमे बीते, उस तरह उसे उपदे श करे। उसके दयमे भी सामा यक त आ दके नषेधका
क च मा आभास भी न हो ऐसी गभीरतासे शु याक ेरणा दे । प ेरणा करते ए भी वह
यासे र हत होकर उ म हो जाता है, अथवा 'आपक यह या ठ क नह है' इतना कहनेसे भी, आप-
को दोष दे कर वह या छोड़ दे ता है ऐसा म जोवोका वभाव है, और लोगोको मे ऐसा आयेगा
क आपने ही याका नषेध कया है । इस लये मतभेदसे र रहकर, म य थवत् रहकर, वा माका
हत करते ए, यो यो परा माका हत हो यो यो वृ करना, और ानीके मागका; ान- याका
सम वय था पत करना, यही नजराका सुदर माग है ।
.. वा म हतमे माद न हो और सरेको अ व ेपतासे आ त यवृ हो, वैसा उ हे वण हो,
याक वृ हो, फर भी क पत भेद न बढे और व-पर आ माको शा त हो ऐसी वृ करनेमे
उ ल सत वृ र खये । जैसे स शा के त च बढे वैसे क जये।
यह प परम कृपालु ी ल लुजी मु नको सेवामे ा त हो।
'ते माटे ऊभा कर जोडी, जनवर आगळ कहीए रे।
समयचरण सेवा शु वेजो, जेम मानवधन लहीए रे॥'
- ीमान आनदघनजी
प ा त ए। शरीर थ त व था व थ रहती है, अथात् व चत् ठ क, व चत् असातामु य
रहती है। मुमु ुभाइयोको, वह भी लोक व न हो इस ढगसे तीथया ाके लये जानेमे आ ाका
अ त म नही है
। स यक् कारसे वेदना सहन करने प परम धम परम पु षोने कहा है।'
ती ण वेदनाका अनुभव करते ए व प शवृ न हो यही शु चा र का माग है।
उपशम ही जस ानका मूल है, उस ानमे ती ण वेदना परम नजरा प भासने यो य है।

६६६
ीमद् राजच
- शरीरमे असाता मु यतः उदयमान है । तो भी अभी थ त सुधारपर मालूम होती है ।
आषाढ पू णमापयतके चातुमास सबंधी आप ीके त जो कुछ अपराध आ हो उसके लये
न तासे मा मांगता ँ।
ग छवासीको भी इस वप माप लखनेमे तकूलता नही लगती ।
प नद , गो मटसार, आ मानुशासन, समयसारमूल इ या द परम शात ुतका अ ययन होता होगा।
- आ माका शु व प याद करते ह।
स कृत-अ यासके योगके वषयमे लखा, परंतु जब तक आ मा सुदढ त ासे वतन न करे तव
तक आ ा करना भयंकर है।
जन नयमोमे अ तचार आ द ा त ए हो, उनका यथा व ध कृपालु मु नय से ाय हण
करके आ मशु ता करना यो य है, नही तो भयकर ती वंधका हेतु है। नयममे वे छाचारसे वतन
, करनेक अपे ा मरण ेय कर है, ऐसी महापु षोक आ ाका कुछ वचार नही रखा, ऐसा माद
आ माके लये भयकर यो न हो ?
मुमु ु उमेद आ दको यथायो य ।
९४२
मोरबी, ावण वद ५, बुध, १९५६
य द कदा चत् नवृ मु य थलक थ तके उदयका अंतराय ा त आ हो तो हे आय | आप
ावण वद ११ से भा पद सुद पू णमापयत सदा स वनय ऐसी परम नवृ का इस तरह सेवन क जये
क समागमवासी मुमु ु के लये आप वशेष उपकारक हो जाय और वे सब नवृ भूत स नयमोका
सेवन करते ए स शा अ ययन आ दमे एका हो, यथाश त, नयम और गुणको हण कर।
__ शरीर थ तमे सबल असाताके उदयमे य द नवृ मु य थलका अतराय मालूम होगा तो यहाँसे
आपके अ ययन, मनन आ दके लये ायः 'योगशा ' पु तक भेजगे, जसके चार काश सरे मुमु ु-
भाइयोको भी वण करानेसे परम लाभका सभव है।
हे आय ! अ पायुषी षमकालमे माद कत नही है; तथा प आराधक जीवोका त त् सु ढ
उपयोग रहता है। . . . . .
____ आ मवलाधीनतासे प लखा गया है।
ॐ शा त
-~.९४३
मोरबी, ावण वद ७, शु , १९५६
जनाय नम
परम नवृ का नरतर सेवन करना यही ानीक धान आ ा है, तथा प योगमे असमथता
हो तो नवृ का सदा सेवन करना, अथवा वा मवीयका गोपन कये बना हो सके उतना नवृ का
सेवन करने यो य अवसर ा त कर आ माको अ म करना, ऐसी आ ा है।

६६७
३३ वो वष
अ मी, चतुदशो आ द पव त थयोमे ऐसे आशयसे सु नय मत वतनसे वृ करनेके लये आ ा
क है।
का वठा आ द जस थलमे उस थ तसे आपको और समागमवासी भाइयो और बहनोको धम-
सु ढता स ा त हो, वहाँ ावण वद ११ से भा पद पू णमा पयत थ त करना यो य है। आपको और
सरे समागमवा सयोको ानीके मागक ती तमे न सशयता ा त हो, उ म गुण, त, नयम, शील
और दे वगु धमक भ मे वीय परम उ लासपूवक वृ करे, ऐसी सु ढता करना यो य है, और यही
परम मगलकारी है।
जहाँ थ त कर वहाँ, उन सब समागमवा सयोको ानोके मागको ती त सु ढ हो और वे
अ म तासे सुशीलक वृ कर, ऐसा आप अपना वतन रख।
आज 'योगशा ' थ डाकमे भेजा गया है।
ी अबालालको थ त तभतीथमे ही होनेका योग बने तो वैस, े नही तो आप और क लाभाई
आ द मुमु ुओके अ ययन और वण-मननके लये ावण वद ११ से भा पद पू णमा पयत सु त, नयम,
और नवृ परायणताके हेतुसे इस थका उपयोग कत है।
म भावने इस जीवका बुरा करनेमे कोई यूनता नही रखी, तथा प इस जीवको नज हतका
यान नह है, यही अ तशय खेदकारक है।
हे आय । अभी उस म भावको उ ला सत वीयसे श थल करके, सुशीलस हत स ुतका अ ययन
'करके नवृ पूवक आ मभावका पोषण कर।
अभी न य त प से नवृ -परायणता लखनी यो य है । अबालालको प ा त आ होगा।
यहां थ तमे प रवतन होगा और अबालालको व दत करना यो य होगा तो कल तक हो सकता
हे । यथासभव तारसे खबर द जायेगी
एकात यो य थलमे, भातमे-(१) दे वगु को उ कृ भ वृ से अतरा म यानपूवक दो घड़ीसे
चार घड़ो तक उपशात त । (२) ुत 'प नद ' आ दका अ ययन वण ।
म या मे-(१) चार घड़ी उपशात त । (२) ुत 'कम थ' का अ ययन, वण, 'सु -
तर गणी' आ दका थोडा अ ययन ।।
सायकालमे-(१) मापनाका पाठ । (२) दो घडी उपशांत त । (३) कम वषयक ानचचा |
सव कारके रा भोजनका सवथा याग । हो सके तो भा पद पू णमा तक एक वार आहार हण।
पचमीक दन घी, ध, तेल और दहीका भी याग। उपशात तमे वशेष काल नगमन । हो सके तो
उपवास करना। हरी वन प तका सवथा याग। आठो दन चयका पालन । हो सके ता भा पद
पूनम तक।

६६८
वतमान षमकाल है। मनु योके मन भी षम ही दे खनेमे आते है। ब त करके परमाथसे शु क
अतःकरणवाले परमाथका दखाव करके वे छासे चलते ह ।
ऐसे समयमे कसका सग करना, कसके साथ कतना स ब ध रखना, कसके साथ कतना बोलना,
और कसके साथ अपने कतने काय- वहारका व प व दत कया जा सके, ये सब यानमे रखनेका
समय है। नही तो स मान जीवको ये सब कारण हा नकता होते ह। इसका आभास तो आपको
भी अब यानमे आता होगा।

े े ौ े ै
___ मदनरेखाका अ धकार, 'उ रा ययन'के नौव अ ययनमे न मराज ऋ षका च र दया है, उसक
ट कामे है। ऋ षभ पु का अ धकार 'भगवतीसू 'के " 'शतकके उ े शमे आया है। ये दोनो
अ धकार अथवा सरे वैसे ब तसे अ धकार आ मोपकारी पु षके त व दन आ द भ का न पण
करते ह । पर तु जनमडलके क याणका वचार करते ए वैसे वषयक चचा करनेसे आपको र रहना
यो य है । अवसर भी वैसा ही है । इस लये आप इन अ धकार आ दक चचा करनेमे एकदम शात रहे।
पर तु सरी तरहसे उन लोगोक आपके त उ म मनोभाववृ कवा भावना हो ऐसा आप वतन
करे, क जससे पूवापर ब तसे जीव के हतका ही हेतु हो।
जहाँ परमाथके ज ासु पु ष का मंडल हो वहाँ शा माण आ दक चचा करना यो य है, नही
तो ब त करके उससे ेय नही होता। यह मा छोटा प रषह है। यो य उपायसे वृ कर, पर तु
उ े गवाला च न रखे।

६७०
प रचयाका संग लखते ए आपने जो वचन लखे ह वे यथाथ है। शु अंत करणपर असर
होनेसे नकले ए वचन है।
लोकस ा जसक ज दगीका ल य ब है वह जदगी चाहे जैसी ीमतता, स ा या कुटु ब प रवार
आ दके योगवाली हो तो भी वह .खका हो हेतु है । आ मशा त जस जदगीका ल य ब है वह जदगी
चाहे तो एकाक , नधन और नव हो तो भी परम समा धका थान है।
वढवाण के प, फागुन सुद ६, श न, १९५७
कृपालु मु नवरोको स वनय नम कार हो।।
प ा त आ।
जो अ धकारी ससारसे वराम पाकर मु न ीके चरणकमलके योगमे वचरना चाहता है, उस
अ धकारीको द ा दे नेमे मु न ीको सरा तवधका कोई हेतु नही है । उस अ धकारीको अपने बुजुग का
सतोष स पादन कर आ ा लेना यो य है, जससे मु न ीके चरणकमलमे द त होनेमे सरा
व ेप न रहे।
___ इसे अथवा कसी सरे अ धकारीको ससारसे उपरामवृ ई हो और वह आ माथ-साधक है ऐसा
तीत होता हो तो उसे द ा दे नेमे मु नवर अ धकारी है। मा याग लेनेवाले और याग दे नेवालेके ेयका
माग वृ मान रहे, ऐसी से वह वृ होनी चा हये ।
___ शरीर- थ त उदयानुसार है । ब त करके आज राजकोट क ओर थान होगा। वचनसार
थ लखा जा रहा है, वह यथावसर मु नवरोको ा त होना स भव है। राजकोटमे कुछ दन थ तका
स भव है।
अ त वरासे वास पूरा करना था । वहाँ बीचमे सहराका रे ग तान स ा त आ।
सरपर वहत बोझ रहा था उसे आ मवीयसे जस तरह अ पकालमे वेदन कर लया जाये उस
तरह योजना करते ए पैरोने नका चत उदयमान थकान हण क ।
जो व प है वह अ यथा नही होता, यही अ त आ य है । अ ाबाध थरता है।
शरीर- थ त उदयानुसार मु यतः कुछ असाताका वेदन कर साताके त । ॐ शा तः
९५२ राजकोट, फागुन वद १३, सोम, १९५७
ॐ शरीरस ब धी सरी बार आज अ ाकृत म शु आ। ा नयोका सनातन स माग जयव त रहे।
अनत शातमू त च भ वामीको नमो नमः ।
वेदनीयको तथा प उदयमानतासे वेदन करनेमे हष-शोक या ?

६७१
*(१) इ छे छे जे जोगी जन, अनत सुख व प ।
मूळ शु ते आ मपद, सयोगी जन व प ॥१॥
आ म वभाव अग य ते, अवलंबन आधार ।
जनपदथी दशा वयो, तेह व प कार ॥२॥
जनपद नजपद एकता, भेदभाव न ह काई।
ल थदाने तेहनो, कहां शा सुखदाई ॥३॥
जन वचन ग यता, थाके अ त म तमान ।
अवलंबन ी स , सुगम अने सुखखाण ॥४॥
उपासना जनचरणनी, अ तशय भ स हत ।
मु नजन संग त र त अ त, संयम योग घ टत ॥५॥
गुण मोद अ तशय रहे, रहे अ तमुख योग।
ा त ी स वडे, जन दशन अनुयोग ॥६॥
वचन समु ब मां, ऊलट ' गावे एम।
पूव चौदनी ल धन, उदाहरण पण तेम ॥७॥
वषय वकार स हत जे, र ा अ तना योग।
प रणामनी वषमता, तेने योग अयोग ॥८॥
मंद वषय ने सरळता, सह आ ा सु वचार ।
क णा कोमळता द गुण, थम भू मका धार ॥९॥

ो ी े ो ी
*(१) भावाथ-योगीजन जस अनंत सुखक इ छा करते ह वह मूल शु आ म व प सयोगी जन व प
है ॥१॥ वह आ म वभाव अ पी होनेसे समझना मु कल है इस लये दे हधारी जनभगवानके अवलवनके आधारसे
उसे समझाया है ॥२।। मूल व पक से जन व प और नज व प एक है-इनम कोई भेदभाव नही है।
इसका ल य होनेके लये सुखदायो शा रचे गये है ॥३॥ जन वचन ग य है, अ त म तमान प डत भी उसका
मम पानेम थक जाते ह । वह ी स के अवलवनसे सुगम एव सुख न घ स होता है ॥४॥ य द जनचरणको
अ तशय भ स हत उपासना हो, मु नजनोक सग तमे अ त र त हो, मन वचनकायाक श के अनुसार सयम हो,
गुणोके त अ तशय मोदभावना रहे, और मन, वचन एव कायाका योग अ तमुख रहे, तो ी स क कृपासे
चार अनुयोग ग भत जन स ातका रह य ा त होता है ॥५-६॥ समु के एक व म समु के ार आ द सम त गुण
आ जाते है उसी कार वचनसमु के एक वचन प ब म चौदह पूव आ जाय ऐसी ल ध जीवको स के योगसे
ा त होती है ॥७॥ जसक म त वषय वकार स हत है और इससे जसके प रणामम वषमता है, उसे स का
योग भी योग होता है अथात न फल जाता है | वषयास क मदता. सरलता, सदगल आशापवक स वचार
क णा, कोमलता आ द गुण रखनेवाले जीव आ म ा तक थम भू मकाके यो य है ।।९। ज होने श दा द
वषयोका नरोध कया है, ज ह सयमके साधनोमे ी त है, ज ह आ माके सवाय जगतका कोई जीव इ ( य)
नह है, वे महाभा य जोव म यम पाम है अथात् आ म ा तक म यम भू मकाके यो य है ॥१०॥ ज ह जीनेक
तृ णा नही है और मरणका ोभ (भय) नह है, ज ह ने लोभ आ द कपायोको जीत लया है और जनका मो
उपायम वतन है, वे आ म ा तके मागके महा (उ कृ ) पा है ।।११।। १. पाठा तर 'उ लसी'

६७२
रो या श दा दक वषय, सयम साधन राग।
जगत इ न ह आ मथी, म य पा महाभा य ॥१०॥
न ह तृ णा जी ातणी, मरण योग न ह ोभ ।
महापा ते मागना, परम योग जतलोभ ॥११॥
आ े ब समदे शमां, छाया जाय समाई।
आ े तेम वभावमां, मन व प पण जाई॥१॥
ऊपजे मोह वक पथी, सम त आ संसार।
अ तमुख अवलोकतां, वलय यतां न ह वार ॥२॥
सुखधाम अनंत सुसंत चही, दन रा रहे त ानमह ।
परशा त अनत सुधामय जे, णमुपद ते वर ते जय ते ॥१॥
९५५ मोरबी, चै सुद ११||, सोम, १९५७
(३)
य प ब त ही धीमा सुधार होता हो ऐसा लगता है, तथा प अब शरीर- थ त ठ क है ।
कोई रोग हो ऐसा नह लगता। सभी डा टरोका भी यही अ भ ाय है। नबलता ब त है। वह कम
हो ऐसे उपायो या कारणोक अनुकूलताक आव यकता है। अभी वैसी कुछ भी अनुकूलता मालूम होती है।
कल या परस से यहाँ एक स ताहके लये धारशीभाई रहनेवाले ह। इस लये अभी तो सहजतासे
आपका आगमन न हो तो भी अनुकूलता है। मनसुख सगोपा घबरा जाता है और सरोको घबरा
दे ता है। वैसी कभी शरीर थ त भी होती है। ज र जैसा होगा तो म आपको बुला लूंगा। अभी आप
आना थ गत रखे । शात मनसे काम करते जाय । यही वनती।
च मे आप परमाथक इ छा रखते ह ऐसा है, तथा प उस परमाथ ा तको अ य त पसे बाधा
करनेवाले जो दोष ह उनमे, अ ान, ोध, मान आ दके कारणसे उदास नही हो सकते अथवा उनके
अमुक स ब धमे च रहती है और उ हे परमाथ ा तमे बाधक कारण जानकर अव य सपके वषक
भां त छोडना यो य है। कसीका दोष दे खना उ चत नही है, सभी कारसे जीवको अपने ही दोषका
वचार करना यो य है, ऐसी भावना अ य त पसे ढ करने यो य है। जगत से क याण असभ वत
जानकर यह कही ई बात यानमे लेने यो य है यह वचार रख।
(२) जस तरह जब सूय म या म म यम ब त सम दे शम आता है तब पदाथ को छाया उ हीम
समा जाती है, उसी तरह आ म वभावम आने पर मनका लय हो जाता है ॥१॥ यह सम त ससार मोह वक पसे
उ प होता है । अ तमुख वृ से दे खनेसे इसका नाश होनेम दे र नह लगती ॥२॥
__(३) जो अन त सुखका धाम है, जसे स तजन चाहते ह, जसके यानम वे दनरात लीन रहते ह, जो परम
शा त और अन त सुधासे प रपूण है उस पदको म णाम करता , ँ वह े है, उसक जय हो ॥१॥
यह प पुरानी आवृ योम नही है। फर भी 'त व ान'क आवृ योम का शत आ है, अत' मतीके
अनुसार यह आक ४४२ के बाद रखने यो य है । पर तु वहाँ छू ट जानेसे यहाँ आक ४४२-१ के पम रखा है।

६७३
ी षड् दशनसमु चय' ंथका भाषातर ी म णभाई नभुभाईने अ भ ायाथ भेजा है। अ भ ायाथ
भेजनेवालेक कुछ अतर इ छा ऐसी होती है क उससे र जत होकर उसक शसा लख भेजना। ी
म णभाईने भाषातर अ छा कया है, पर तु वह दोषर हत नही है।
ववा णया, चै सुद ६, बुध, १९५३
वेशभषा चटक ली न होनेपर भी साफ-सुथरी हो ऐसी सादगी अ छ है । चटक लेपनसे कोई पांच-
सौके वेतनके पांच-सो-एक नही कर दे ता, और यो य सादगीसे कोई पाँच-सौके चार-सौ न यानवे नही
कर दे ता।

े ौ े े ो
धममे लौ कक बड़ पन, मान, मह वक इ छा, ये धमके ोह प ह।
धमके बहानेसे अनाय दे शमे जाने अथवा सू ा द भेजनेका नषेध करनेवाले, नगारा बजाकर
नषेध करनेवाले, अपने मान, मह व और बड़ पनका आये वहाँ इसी धमको ठु कराकर, इसी धमपर
पैर रखकर, इसी नषेधका नषेध कर, यह धम ोह हो है । धमका मह व तो बहाना प है, और वाथ
स ब धी मान आ दका मु य है, यह धम ोह ही है।
ी वीरचद गाधीको वलायत आ द भेजने आ दमे ऐसा आ है।
जब धम ही मु य रंग हो तब अहोभा य है ।
योगके बहानेसे पशुवध करनेवाले रोग- ख र करगे तबक बात तब, पर तु अभी तो बेचारे
नरपराधी ा णयोको खूब ख दे कर, मारकर अ ानवश कमका उपाजन करते है । प कार भी
ववेक- वचारके बना इस कायक पु करनेके लये लख मारते ह।
मोरबी, चै वद ७, १९५५
वशेष हो सके तो अ छा । ा नयोको भी मदाचरण य है। वक प कत नही है।
'जा त मृ त' हो सकती है । पूवभव जाना जा सकता है।अव ध ान है।
* मोरवीके मुमु सा र ी मनसुखभाई फरतचदने अपनी मृ तले ीमद्जीके सगाफ जो नोच को
थी, उसमसे १ से २६ वकके आक लपे गये है।

६७४
ीमद् राजच
त थका पालन करना।
रातको नही खाना, न चले तो उबाला आ ध लेना ।
वैसा वैसेको मले; वैसा वैसेको चे।
"चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे।
तेम भ व सहज गुणे होवे, उ म न म संजोगी रे॥'
"चरमावत नळ चरणकरण तथा रे, भवप रण त प रपाक ।
दोष टळे ने खुले अ त भली रे, ा त वचन वाक
अ वहार-रा शमेसे वहार-रा शमे सू म नगोदमेसे मारा-पोटा जाता आ कमक अकाम-
नजरा करता आ, ख भोगकर उस अकाम- नजराके योगसे जीव पच य मनु यभव पाता है। और
इस कारणसे ाय उस मनु यभवमे मु यत छल-कपट, माया, मूछा, मम व, कलह, वचना, कषाय-
प रण त आ द रहे ए ह।
सकाम- नजरापूवक ा त मनु यदे ह वशेष सकाम- नजरा कराकर, आ मत वको ा त कराती है ।
मोरबी, चै वद ८, १९५५
'षड् दशनसमु चय' अवलोकन करने यो य है।
'त वाथसू ' पढने यो य और वारवार वचारने यो य है।
'योग समु चय' थ ी ह रभ ाचायने स कृतमे रचा है। ी यशो वजयजीने गुजरातीमे
उसक ढालब स झाय रची है। उसे कठान कर वचारने यो य है। ये याँ आ मदशामापी (थमा-
मीटर) य ह।
शा को जाल समझनेवाले भूल करते ह। शा अथात् शा तापु षके वचन । इन वचनोको
समझनेके लये स यक् चा हये ।
स पदे ाक ब त ज रत है । स पदे ाक ब त ज रत है।
पांच-सौ हजार ोक मुखा न करनेसे प डत नही बना जाता। फर भी थोड़ा जानकर यादाका
ढोग करनेवाले प डतोक कमी नही है।
ऋतुको स पात आ है।
एक पाईक चार बीड़ी आती है। हजार पये रोज कमानेवाले बै र टरको बीडीका सन हो
और उसक तलब होनेपर बीडी न हो तो एक चतुथाश पाईक क मतक तु छ व तुके लये थ दौड़-
धूप करता है । हजार पये रोज कमानेवाला अनंत श वान आ मा है जसका ऐसा बै र टर मूछा-
वश तु छ व तुके लये थ दोड-धूप करता है | जीवको वभावके कारण आ मा और उसक श -
का पता नही है।
हम अ ेजी नही पढे यह अ छा आ। पढे होते तो क पना बढती । क पनाको तो छोडना है ।
पढा आ भुलने पर ही छु टकारा है। भूले बना वक प र नह होते । ानक ज रत है।
१ भावाथ-जैसे चकोर प ी च को चाहता है, मधुकर- मर मालतीके पु पम आस होता है वैसे
मया म रहता आ भ जीव स योगसे वदन- या मा द उ म न म को वाभा वक पसे चाहता है।
३ दोपहरके चार बजे पूव दशामे आकाशम काला वादल दे खते ए, उसे कालका एक न म जानकर
उपयु श द बोले थे । इस वष १९५५ का चोमासा खाली गया और १९५६ का भयकर काल पड़ा। .

६७५
य द परम सत् पो डत होता हो तो वैसे व श सगपर स य दे वता सार-सभाल करते ह,
य भी आते ह, परतु ब त ही थोड़े सगोपर ।
योगी या वैसी व श श वाला वैसे सगपर सहायता करता है।
जीवको म त-क पनासे ऐसा भा सत होता है क मुझे दे वताके दशन होते है, मेरे पास दे वता आते

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ह, मुझे दशन होता है । दे वता यो दखायी नही दे ते।
- ी नवपद पूजामे आता है क " ान ए ह ज आ मा, आ मा वय ान हे तो फर
पढने-गुननेको अथवा शा ा यासक या ज रत ? पढे ए सबको क पत समझकर अ तमे भूल जानेपर
ही छु टकारा है तो फर पढनेको, उपदे श वणक या शा पठनक या ज रत ?
उ र-' ान ए ह ज आ मा' यह एकात न यनयसे है । वहारसे तो यह ान आवृत है । उसे
गट करना है। इस कटताके लये पढना, गुनना, उपदे श वण, शा पठन आ द साधन प ह । परंतु
यह पढना, गुनना, उपदे श वण और शा पठन आ द स य पूवक होना चा हये । यह ुत ान कह-
लाता है। संपूण नरावरण ान होने तक इस ुत ानके अवलबनक आव यकता है। 'म ान ' ँ , 'मै
'
ँ , यो पुकारनेसे ान या नही आ जाता। त प
ू होनेके लये स शा आ दका सेवन
करना चा हये।
मोरबी, चै वद १०, १९५५
- सरेके मनके पयाय जाने जा सकते है ?
उ र-हाँ, जाने जा सकते ह। व-मनके पयाय जाने जा सकते ह, तो पर-मनके पयाय जानना
सुलभ है। व-मनके पयाय जानना भी मु कल है । व-मन समझमे आ जाये तो वह वशमे हो जाये।
उसे समझनेके लये स चार और सतत एका न उपयोगक ज रत है।
आसनजयसे उ थानवृ उपशात होती है, उपयोग अचपल हो सकता है, न ा कम हो सकती है।
सूयके काशमे सू म रज जैसा जो दखायी दे ता है, वह अणु नह है, पर तु अनेक परमाणओका
बना आ कध है। परमाणु च ुसे दे खे नही जा सकते । च ु र यल धके वल योपशमवाले जीव,
रदश ल धसप योगी अथवा केवलीसे वे दे खे जा सकते है।
मोरबी, चै वद ११, १९५५
'मो माला' हमने सोलह वष और पाँच मासक उ मे तीन दनमे लखी थी। ६७ व पाठपर
याही ढु ल जानेसे वह पाठ पुन. लखना पड़ा था और उस थानपर 'ब पु य केरा पुजथी' का अमू य
ता वक वचारका का रखा था।
जैनमागको यथाथ समझानेका उसमे यास कया है। जनो मागसे कुछ भी यूना धक उसमे
नही कहा है। वीतरागमागमे आवालवृ क च हो, उसका व प समझमे आये, उसके वीजका
दयमे रोपण हो, इस हेतुसे उसक बालावबोध प योजना क है। पर तु लोगोको ववेक, वचार और
कदर कहाँ है ? आ मक याणक इ छा ही कम है। उस शैली और उस वोधका अनुसरण करनेके लये
भी यह नमूना दया गया है। इसका ' ावबोध' भाग भ है, उसे कोई रचेगा।
१ 'जानावरणो जे कम छे , य उपशम तस धाय रे।
तो ए ए ह ज आवमा, ान अवोपता जाय रे ।'

६७६
इसके छपनेमे वल ब होनेसे ाहकोको आकुलता र करनेके लये त प ात् 'भावनाबोध' रच-
कर उपहार पमे ाहकोको दया था।
"हं कोण छु ? यांथो थयो ? शुं व प छे मा ख ?
कोना सबंधे वळगणा छ ? राखं के ए प रह ?
इसपर जीव वचार करे तो उसे नव त वका, त व ानका स पूण बोध हो जाय ऐसा है । इसमे
त व ानका स पूण समावेश हो जाता है। इसका शा तपूवक और ववेकसे वचार करना चा हये।
अ धक और ल बे लेख से कुछ ानक , व ाक तुलना नही होती. पर तु सामा यत. जीवोको
इस तुलनाक समझ नही ह।
०- करतचंदभाई जनालयमे पूजा करने जाते ह ?
उ०-ना सा हब, समय नही मलता।
समय य नही मलता ? चाहे तो समय मल सकता है, माद वाधक है। हो सके तो पूजा
करने जाना।
का , सा ह य या सगीत आ द कला य द आ माथके लये न हो तो वे क पत ह । क पत अथात्
नरथक, साथक नह -जीवक क पना मा है। जो भ योजन प या आ माथके लये न हो वह सब
क पत ही है।
मोरवी, चै वद १२, १९५५
ीमद् आनदघनजी ी अ जतनाथके तवनमे तु त करते है :-
'तरतम योगे रे तरतम वासना रे, वा सत बोध आधार-पथडो०'
इसका या अथ है ? यो यो योगको-मन, वचन और कायाक तरतमता अथात् अ धकता
यो यो वासनाक भी अ धवता, ऐसा 'तरतम योगे रे तरतम वासना रे' का अथ होता है। अथात् य द
कोई बलवान योगवाला पु ष हो, उसके मनोवल, वचनवल आ द बलवान हो, और वह पथका वतन
करता हो, परतु जैसा उसका बलवान मन, वचन आ द योग है, वैसी ही फर मनवानेक , पूजा करानेक ,
मान, स कार, अथ, वैभव आ दक वलवान वासना हो तो वैसी वासनावालेका बोध वासनास हत बोध
आ, कषाययु बोध आ, वषया दक लालसावाला बोध आ, मानाथ बोध आ, आ माथ बोध न
आ | ी आनदघनजी ी अ जत भुका तवन करते ह-हे भो । ऐसा वासनास हत बोध आधार-
प है, वह मुझे नही चा हये । मुझे तो कषायर हत, आ माथसप , मान आ द वासनार हत बोध चा हये
ऐसे पंथक गवेषणा म कर रहा ँ। मनवचना द बलवान योगवाले भ भ पु ष बोधका पण
करते आये ह, पण करते ह, परतु हे भो । वासनाके कारण वह बोध वा सत है. मुझे तो वासना-

ो ै ो े ी े े ी
र हत बोधक ज रत है। वह तो, हे वासना, वषय, कषाय आ द जीतनेवाले जन वीतराग अ जत
दे व । तेरा है । उस तेरे पथको म खोज रहा -
ँ दे ख रहा ँ। वह आधार मुझे चा हये। यो क गट
स यसे धम ा त होती है।'
आनदघनजीक चोवीसी मुखा करने यो य है। उसका अथ ववेचनपूवक लखने यो य है।
वैसा कर।
मोरवी, चै वद १४, १९५५
.-आप जेसे समथ पु पसे लोकोपकार हो ऐसी इ छा रहे यह वाभा वक है।
उ०-लोकानु ह अ छा और आव यक अथवा आ म हत ?
१ दे ख मो माला पाठ ६७। २. ीमद्जीने पूछा। ३ ी मनसुखमाईका यु र।

६७७
सकते थे।
। म०-साहब, दोनोक ज रत है।
ीमद्-
ी हेमच ाचायको ए आठ सौ बरस हो गये । ी आनदघनजीको हए दो सौ बरस हो गये । ी
हेमच ाचायने लोकानु हमे आ मापण कया। ी आनदघनजीने आ म हत साधन वृ को मु य बनाया ।
ी हेमच ाचाय महा भावक बलवान योपशमवाले पु ष थे। वे इतने साम यवान थे क वे चाहते तो
अलग पथका वतन कर सकते थे । उ होने तीस हजार घरोको ावक बनाया। तीस हजार घर अथात
सवा लाखसे डेढ लाख मनु योक स या हई। ी सहजानदजीके स दायमे एक लाख मनु य होगे । एक
लाखके समूहसे सहजानदजीने अपना स दाय चलाया, तो डेढ लाख अनुया ययोका एक अलग स दाय
ी हेमच ाचाय चाहते तो चला सकते थे।
पर तु ी हेमच ाचायको लगा क स पूण वीतराग सव तीथकर ही धम वतक हो सकते ह।
हम तो तीथकरोक आ ासे चलकर उनके परमाथ मागका काश करनेके लये य न करनेवाले ह।
ी हेमच ाचायने वीतरागमागके परमाथका काशन प लोकानु ह कया । वैसा करनेक ज रत थी।
वीतरागमागके त वमुखता और अ य मागक तरफसे वषमता, ई या आ द शु हो चुके थे। ऐसी
वषमतामे लोगोको वीतराग मागक ओर मोडनेक , लोकोपकारक तथा उस मागके र णक उ हे
ज रत मालूम ई। हमारा चाहे कुछ भी हो, इस मागका र ण होना चा हये। इस कार उ होने
वापण कया । पर तु इस तरह उन जैसे ही कर सकते है । वैसे भा यवान, माहा यवान, योपशमवान
ही कर सकते है। भ भ दशनोको यथावत् तोलकर अमुक दशन स पूण स य व प है, ऐसा जो
न य कर सकते है वैसे पु ष ही लोकानु ह, परमाथ काश ओर आ मापण कर सकते है।
ी हेमच ाचायने ब त कया। ी आनदघनजी उनके छ. सौ बरस बाद ए। इन छ. सौ
बरसके अतरालमे वैसे सरे हेमच ाचायक ज रत थी। वषमता ा त होती जाती थी। काल उ -
व प लेता जाता था। ी व लभाचायने शृगारयु धमका पण कया। शृगार यु धमक ओर
लोक मुडे-आक षत ए । वीतरागधम- वमुखता बढती चली । अना दसे जीव शृगार आ द वभावमे तो
मूछा ा त कर रहा है, उसे वैरा यके स मुख होना मु कल है। वहाँ य द उसके पास शृगारको ही
धम पसे रखा जाये तो वह वैरा यक ओर कैसे मुइ सकता है ? यो वीतरागमाग- वमुखता बढ ।
वहाँ फर तमा तप -स दाय जैनमे ही खडा हो गया। यानका काय और व पका कारण
ऐसी जन- तमाके त लाखो लोग वमुख हो गये, वीतरागशा क पत अथसे वरा धत ए,
कतने तो समूल ही ख डत कये गये। इस तरह इन छ सौ बरसके अतरालमे वीतरागमागर क सरे
हेमच ाचायक ज रत थी। अ य अनेक आचाय ए, पर तु वे ी हेमच ाचाय जैसे भावशाली नही
थे। इस लये वषमताके सामने टका न जा सका। वषमता बढती चली। वहां दो सौ वरस पूव ी
आनदघनजी ए।
ी आनदघनजीने वपर हत-बु से लोकोपकार- वृ शु क । इस मु य वृ मे आ म हतको
गौण कया, पर तु वीतरागधम वमुखता, वषमता इतनी अ धक ा त हो गयी थी क लोग धमको
अथवा आनदघनजीको पहचान नही सके, पहचान कर कदर न कर सके । प रणामत ी आनदघनजोको
लगा क बल ा त वषमताके योगमे लोकोपकार, परमाथ काश कारगर नह होता और आ म हत
गौण होकर उसमे बाधा आती है, इस लये आ म हतको मु य करके उसम वृ करना यो य है। ऐमी
वचारणासे अतमे वे लोकसंगको छोडकर वनमे चल दये। वनमे वचरते ए भी अ गटरपसे रहकर
चौबीसो, पद आ दसे लोकोपकार तो कर ही गये । न कारण लोकोपकार यह महापु पोका धम है।

६७८
गट पसे लोग आनदधनजीको पहचान नही सके । पर तु आनंदघनजी तो अ गट रहकर उनका
हत करते गये। अब तो ी आनदधनजीके समयसे भी अ धक वषमता, वीतरागमाग- वमुखता ा त है ।
ी आनदघनजीको स ातबोध तीन था। वे ताबर स दायमे थे। चू ण, भा य, सू , नयु ,
वृ परपर अनुभव रे' इ या द पचागीका नाम उनके ी न मनाथजीके तवनमे न आया होता तो यह
पता भी न चलता क वे ेताबर स दायके थे या दगंबर स दायके ?
मोरबी, चै वद ३०, १९५५
, 'इस भारतवषक अधोग त जैनधमसे ई है' ऐसा महीपतराम पराम कहते थे, लखते थे।
दसेक वष पहले उनका मलाप अहमदाबादमे आ था, तब उ हे पूछा :-
ई ै े ी ो ी
०-भाई । जैनधम अ हसा, स य, मेल, दया, सव ाणी हत, परमाथ, परोपकार, याय, नी त,
आरो य द आहारपान, न सनता, उ म आ दका उपदे श करता है ?
उ०-हाँ । ( महीपतरामने उ र दया ।)
०-भाई । जैनधम हसा, अस य, चोरी, फुट, ू रता, वाथपरायणता, अ याय, अनी त,
छल-कपट, व आहार- वहार, मौज-शौक, वषय-लालसा, आल य, माद आ दका नषेध करता है ?
म० उ० हाँ।
०-दे शक अधोग त कससे होती है ? अ हसा, स य, मेल, दया, परोपकार, परमाथ, सव
ाणी हत, याय, नी त, आरो य द एवं आरो यर क ऐसा शु सादा आहार-पान, न सनता, उ म
आ दसे अथवा उससे वपरीत हसा, अस य, फूट, ता, वाथपटु ता, छल-कपट, अ याय, अनी त,
आरो यको बगाड़े और शरीर-मनको अश करे ऐसा व आहार- वहार, सन, मौज-शोक, आल य,
माद आ दसे ?
म० उ०- सरेसे अथात् वपरीत हसा, अस य, फूट, माद आ दसे ।
.-तब दे शक उ त इन सर से वपरीत ऐसे अ हसा, स य, मेल, न सनता, उ म
आ दसे होती है ?
म० उ०—हाँ!
-तब 'जैनधम' दे शक अधोग त हो ऐसा उपदे श करता है या दे शक उ त हो ऐसा?
म० उ०-भाई | मै कबूल करता है क जैनधम ऐसे साधनोका उपदे श करता है क जनसे
दे शक उ त हो । ऐसी सू मतासे ववेकपूवक मैने वचार नही कया था । हमने तो बचपनमे पादरीक
शालामे पढते समय पड़े ए स कारोसे, बना वचार कये ऐसा कह दया था, लख मारा था। महीपत-
रामने सरलतासे कबूल कया। स य शोधनमे सरलताको ज रत है। स यका मम लेनेके लये ववेकपूवक
मममे उतरना चा हये।
मोरबी, वैशाख सुद २, १९५५
ो आ मारामजी सरल थे । कुछ धम ेम था। ख डन-मडनमे न पडे होते तो अ छा उपकार
कर सकते थे। उनके श यसमुदायमे कुछ सरलता रही है। कोई कोई स यासी अ धक सरल दे खनेमे
आते, है । ावकता या साधुता कुल स दायमे नही, आ मामे है।
. ' यो तष'को क पत समझ कर हमने उसे छोड़ दया है। लोगोमे आ माथता ब त कम हो गयी
है, नही जैसी रही है। इस सबधमे वाथहेतुसे लोगोने हमे सताना शु कर दया। जससे आ माथ स न
हो ऐसे इस यो तपके वषयको क पत (असाथक) समझ कर हमने गौण कर दया, उसका गोपन कर दया।

६७९
गत रा मे ी आन दघनजीके, स े वत वका न पण करनेवाले ी म लनाथके तवनक
___ चचा हो रही थी, उस समय बीचमे आपने कया था इस बारेमे हम.सकारण ,मौन रहे थे । आपका
संगत और अनुस धवाला था । पर तु वह सभी ोताओको ा हो सके ऐसा न था, और कसीके.
समझमे न आनेसे वक प उ प करनेवाला था । चलते ए वषयमे ोताओका वणसू , टू ट जाये,
ऐसा था । और आपको वयमेव प ता हो गयी है । अव पूछना है ?... .
, लोग एक कायको तथा उसके कताक - शसा करते है यह ठ क है। यह उस कायका पोषक तथा
उसके कताके उ साहको बढानेवाला है। पर तु साथ ही उस कायमे जो कमी हो उसे भी, ववेक और
नर भमानतासे स यतापूवक बताना चा हये, क जससे फर ु टका अवकाश न, रहे और वह काय,
ु टर हत होकर पूण हो जाये । अकेली शसा-गुणगानसे स नही होती। इससे तो उलटा म या-
भमान बढता है ! आजके मानप आ दमे, यह, था वशेष है । ववेक चा हये ।। .. .
..म०-साहब । च सू र आपको याद करके, पूछा करते थे। आप, यहाँ ह, यह उ हे मालूम नही
था। आपसे मलनेके लये आये है। . ,
. ीमद्-प र हधारी य तयोका स मान करनेसे म या वको पोषण मलता है, मागका वरोध होता
है। दा य-स यताको भी नभाना चा हये । च सू र हमारे लये आये है। पर तु जीवको छोडना अ छा
नही लगता, म या चतुराईक बात करती है, मान छोड़ना चता नही ।, उससे आ माथ स नही होता !
- हमारे लये आये, इस लये स यता, धमको नभानेके लये हम उनके पास गये । तप ी थानक
स दायवाले कहेगे क इ हे इनपर राग है, इस लये वहाँ गये, हमारे पास नही आते । पर तु जीव हेतु एव.
कारणका वचार नही करता। म या षण, खाली,आरोप लगानेके लये तैयार है । ऐसे वतनके जानेपर
छु टकारा है । भवप रपाकसे स चार फु रत होता है और हेतु एव परमाथका वचार उ दत होता है।
बडे जैसे कहे वैसे करना, जैसे कर नैसे नही करना चा हये । . . . . . . .
ी कबीरका अ तर समझे बना भोलेपनसे- लोग उ हे परेशान करने लगे। इस. व ेपको र
करनेके लये कबीरजी वे याके यहाँ जाकर बैठ गये। लोकसमूह वा पस लौटा। कबीरजी हो गये
ऐसा लोग कहने लगे। स चे भ थोडे थे वे कवीरको चपके रहे। कबीरजीका व ेप तो. र आ,
पर तु सरोको उनका अनुकरण नही करना चा हये।
नर सह मेहता गा गये है-
*मा गायु गाशे ते आझा गोदा खाशे। . . . , ...
समझोने गाशे ते वहेलो वैकु ठ जाशे ॥
ता पय यह क समझकर ववेकपूवक करना है । अपनी दशाके बना, ववेकके बना, समझे बना
जीव अनुकरण करने लगे तो मार खाकर ही रहेगा । इस लये बडे कहे वैसे करना, करे वैसा नही करना
चा हये। यह वचन सापे है।


१२:- ।। . ब बई, का तक वद ९, १९५६
. (दसरे भोईवाडेमे ी शा तनाथजीके दगवरी-म दरमे दशन- सगका वणन)
तमाको दे खकर रसे व दन कया । ।
तीन बार पचाग णाम कया।
ी आनदघनजीका ी प भुका तवन सुमधुर, गभीर और सु प व नसे गाया ।
भावाथ- वना समझे मेरा कहा करेगा यह मार ही खायेगा। नमझकर जो मेरा अनुकरण करेगा वह
ज द वैकु ठमे जायेगा।

६८०
ीमद् राजच
। ' जन- तमाके चरण धीरे धीरे दबाए। । ।
.' कायो सग-मु ावाली एक छोट पंचधातुक जन तमा अ दरसे कोरकर नकाली थी। वह स -
को अव थामे होनेवाले घनको सूचक थी। उस' अवगाहनाको बताकर कहा क जस दे हसे आ मा संपूण
स होता है उस दे ह माणसे क चत् यून जो े माण घन हो वह अवगाहना है । जीव अलग अल स ए। वे एक े मे थत
होनेपर भी येक पृथक् पृथक् है। नज े धन माण अवगाहनासे ह।
येक स ा माक ायक स ा लोकालोक माण, लोकके ाता होनेपर भी लोकसे भ है।,
1 . भ भ येक द पकका काश एक हो जानेपर भी द पक जैसे भ भ ह, इस यायसे
येक स ा मा भ भ है। ' '
ये मु ा ग र आ द तीथ के च ह। । । .
. यह गोमटे र नामसे स ी' बा बल वामीक तमाका च है। बगलोरके पास एकात
जंगलमे पवतमेसे कोरकर नकाली ई स र फुट ऊंची यह भ तमा है। आठवी सद मे ी चामुंड-
रायने इसक त ा क है। अडोल यानमे कायो सग मु ामे ी बा बलजी अ नमेष ने से
खडे है। हाथ-पैरमे वृ क लताय लपट होनेपर भी दे हभानर हत यान थ ी बा बलजीको उसका
पता नही है । कैव य गट होने यो य दशा होनेपर भी जरा मानका अकुर बाधक आ है । “वीरा मारा
गज थक ऊतरो" इस मान पी गजसे उतरनेके अपनी बहन ा ी और सु दरीके श द कणगोचर होनेसे
सु वचारमे स ज होकर, मान र करनेके लये तैयार होने पर कैव य गट आ। वह इन ी बा बलजीक
यान थ मु ा है। ( दशन करके ी म दरको ानशालामे) ...
' ी गो मटसार' लेकर उसका वा याय कया।
ी 'पाडवपुराण' मसे ु न अ धकारका वणन कया । ु नका वैरा य गाया।
", if वसुदेवने पूवभवमे सु पसंप होनेके नदानपूवक उ तप या क ।
।। भावना प तप या फ लत ई । सु पसप दे ह ा त क । वह सु प अनेक व ेपोका कारण
आ। याँ ामु ध होकर पीछे घूमने लगी । नदानका दोष वसुदेवको य आ। व ेपसे छू टनेके
लये भाग जाना पड़ा ।।
___'मुझे इस तप यासे ऋ मले या वैभव मले या अमुक इ छत होवे, ऐसी इ छाको नदान
दोष कहते है । वैसा नदान बाँधना यो य नही है ... अवगाहना' अथात् अवगाहना। अवगाहना अथात् कद-आकार ऐसा नही। कतने ही
त वके
पा रभा षक श द ऐसे होते है क जनका अथ सरे-श दोसे नही कया जा सकता, जनके अनु प
सरे श द नही मलते, जो समझे जा सकते ह, पर तु नही कये जा सकते ।
___ अवगाहना ऐसा श द है। ब त बोधसे, वशेष वचारसे यह समझा जा सकता है । अवगाहना
े ा यी है । भ होते ए भी पर पर मल जाना, फर भी अलग रहना। इस तरह स आ माक
जतने े माण ापकता वह उसको अवगाहना कही है। ...!
___ । जो ब त भोगा जाता है वह ब त ीण होता है । समतासे कम भोगनेसे उनक नजरा होती है ,
वे ीण होते ह । शारी रक वषय भोगनेसे शारी रक श ीण होती है।

६८१
ानीका माग सुलभ है पर तु उसे ा त करना कर है, यह माग वकट नही है, सोधा है, पर तु
उसे पाना वकट है। थम स चा ानी चा हये । उसे पहचानना चा हये । उसक ती त आनी चा हये।
बादमे उसके वचनपर ा रखकर न शकतासे चलनेसे माग सुलभ है, परतु ानीका मलना और पह-
चानना. वकट है, कर है। . . : : - F TPS:/- . , , ,
: घनी झाडीमे भूले पडे ए मनु यको वनोपकठमे जानेका मागः कोई दखाये, क, 'जा, नीचे नीचे
चला जा। रा ता सुलभ है, यह रा ता, सुलभ है । पर तु उस भूले पडे ए: मनु यके लये जाना वकट
है; इस मागमे जानेसे प ँचूंगा या नह , यह शका, आडे आती है । शका कये बना ा नयो के मागका
आराधन करे तो उसे पाना सुलभ है,
१... ी पाडव पुराणमे ु न च र - ११. ी पणासार,
। २ ी पु षाथ स उपाय .. . .१२ - ा-ला धसार .
३ ी प न दपंच वश त
१३ ी लोकसार ... ... ... -
४. ी गो मटसार'
-१४. ी त वसार

ी ी
५ ी र नकरंड ावकाचार १५ ी वचनसार
६ ी आ मानुशासन । । । १६ ी समयसार
७ ी मो माग काश
। १७ , ी पचा तकाय , . , , ..
८ ी का तकेयानु े ा
: १८- ी अ ाभृत ।',
- ' . ९ ी योग समु चय । । १९ ' ी परमा म काश ।। - -
१०. ी याकोष . .. २० ी रयणसार।
आ द अनेक है। इ य न हके अ यासपूवक इस स ुतका सेवन करना यो य है।, यह फल
अलौ कक है, अमृत है।
ानीको पहचाने, पहचान कर उनक आ ाका आराधन कर। ानीक एक आ ाका आराधन
करनेसे अनेक वध क याण है।
. .. ानी जगतको तृणवत् समझते है, यह उनके ानक म हमा समझे।
कोई म या भ नवेशी ानका ढोग करके जगतका भार थ सरपर वहन करता हो तो वह
हा यपा है।
व तुत दो व तुएँ है-जीव और अजीव । लोगोने सुवण नाम क पत रखा। उसक भ म होकर
पेटमे गया । व ामे प रणत होकर खाद आ, े मे उगा, धा य आ, लोगोने खाया, कालातरसे लोहा
आ। व तुत एक के भ भ पयायोको क पना पसे भ भ नाम दये गये। एक के
भ भ पयायो ारा लोग ा तमे पड गये। इस ा तने ममताको ज म दया । ., .
। पये व तुत ह, फर भी लेनेवाले और दे नेवालेका म या झगडा होता है। लेनेवालेको अधोरता-
से उसका मन पये गये ऐसा समझता है । व तुत पये ह। इसी तरह भ भ क पनाओने मजाल

६८२
ीमद् राजच
फैला दया है। उसमेसे जीव-अजीवका, जड-चैत यका ,भेद करना यह वकट हो-पडा है।, मजाल
यथाथ पसे यानमे आये, तो जड-चैत य ीर नीरवत् भ प भा सत होता है। : .
१८- ' बबई, का तक वद १२, १९५६
'इनॉ युलेशन'-महामारीका ट का | टोकेके नामसे डा टरोने यह पाख ड खडा कया है । बेचारे
नरपराध अ आ दको ट केके बहाने दा ण, ख दे कर मार डालते है, हसा करके पापका पोषण करते
है, पाप कमाते है। पहले पापानुबधी पु य उपाज़न कया है, उसके भावसे वतमानमे वे पु य भोगते ह,
पर तु प रणाममे पाप मोल लेते ह, यह उन बेचारे डा टरोको पता नही है । टोकेसे रोग र हो तबक
बात तब, पर तु अभी तो हसा य है । ट केसे एक रोगको नकालते सरा रोग भो खडा हो जाये ।
बबई, का तक वद १२, १९५६
।। . ार ध और पु पाथ ये श द समझने यो य ह। पु षाथ कये बना ार धक खबर नही पड़
सकती। ार धमे होगा सो होगा यो कहकर बैठे रहनेसे काम नह चलता। न काम पु षाथ करना
चा हये । ार धका समप रणामसे वेदन करना-भोग लेना, यह महान पु षाथ है। सामा य जीव सम-
प रणामसे वक पर हत होकर ार धका वेदन नही कर सकता, वषम प रणाम होता ही है । इस लये
उसे न होने दे नेके लये, कम होनेके लये उ म करना चा हये । समता और न वक पता स सगसे आती
है और बढती है।
'भगव ता' म पूवापर वरोध, है, उसे दे खनेके लये उसे दे रखा है । -पूवापर वरोध या है
यह अवलोकन करनेसे मालूम हो जायेगा। पूवापर अ वरोधी दशन एव वचन तो वीतरागके है।
___ भगव तापर ब तसे भा य और ट काएँ रचे गये ह- व ार य वामीक ' ाने री' आ द ।
येकने अपनी मा यताके अनुसार ट का बनायी है। थयॉसॉफ वालो ट का जो आपको द है वह अ ध-
काश प है । म णलाल नभुभाईने गीतापर ववेचन प ट का करते ए ब त म ता ला द है, म त
खचड़ी बना द है।
व ा और ान इन दोनोको एक न समझ, दोनो एक नही ह। व ा हो, फर भी ान न
हो । स चो व ा तो यह है क जो आ माथके लये हो, जससे आ माथ स हो, आ म व समझमे
आय, ा त कया जाये ,जहाँ आ माथ होता है वहाँ ान होता है, व ा हो या न भी हो।
__ म णभाई कहते ह (षड् दशनसमु चयक तावनामे) क ह रभ सू रको वेदातका ान न था,
वेदातका ान होता तो ऐसी कुशा बु वाले ह रभ सू र जैनदशनक ओरसे अपनी वृ को फराकर
वेदातीहो जाते । म णभाईके ये वचन गाढ मता भ नवेशसे नकले ह। ह रभ सू रको वेदातका ान था
या नही, इस बातको, म णभाईने य द ह रभ सू रक 'धमस हणी' दे खी होती, तो उ हे खबर पड जाती।
ह रभ सू रको वेदात आ द सभी दशनोका ान था। उन सब दशनोक पयालोचनापूवक उ होने जैन-
दशनको पूवापर अ व तीत कया था। यह अवलोकनसे मालूम होगा। ‘षड् दशनसमु चय' के
भाषांतरमे दोष होनेपर भी म णभाईने भाषातर ठ क कया है। अ य ऐसा भी नही कर सकते । यह
सुधारा जा सकेगा।
वतमानकालमे यरोगक वशेष वृ ई है और हो रही है। इसका मु य कारण चयको
कमो, आल य और वषय आ दको आस है । यरोगका मु य उपाय चय-सेवन, शु सा वक
आहार-पान और नय मत वतन है ।
६८३
' शमरस नम नं यु मं स वदनकमलमंकः का मनीसगशू यः।
करयुगम प य े श संबंधवं यं, तद स जग त दे वो वीतराग वमेव ॥'
'तेरे दो च ु शमरसमे डू बे ए है, परमशात रसका अनुभव कर रहे है । तेरा मुखकमल स
है; उसमे स ता ा त हो रही है। तेरी गोद ीके सगसे र हत है। तेरे दो हाथ श सबधर हत
ह-तेरे हाथोमे श नही ह । इस तरह तू ही जगतमे वीतरागदे व है ।'
दे व कौन ? वीतराग । दशनयो य मु ा कौनसो ? जो वीतरागता सू चत करे वह ।
' वामी का तकेयानु े ा' वैरा यका उ म थ है। को, व तुको यथावत् मे रखकर इसमे
वैरा यका न पण कया है। का व प बतलानेवाले चार ोक अ त है। इसके लये इस थक
राह दे खते थे । गत वष ये मासमे म ासक ओर जाना आ था। का तक वामी इस भू ममे ब त
वचरे ह । इस तरफके न न, भ , ऊँचे, अडोल वृ से खडे पहाड दे खकर वामी का तकेय आ दक
अडोल, वैरा यमय दगबरवृ याद आती थी।
नम कार उन वामी का तकेय आ दको।
मोरबी, ावण वद ८, १९५६
'षड् दशनसमु चय' और 'योग समु चय' का भाषांतर गुजरातीमे करने यो य है। 'षड् दशन-
समु चय' का भाषातर आ है पर तु उसे सुधारकर फरसे करना यो य है। धीरे धीरे होगा, करे।
__ आनंदघनजीक चौबीसीका अथ भी ववेचनके साथ लखे।
नमो वाररागा दवै रवार नवा रणे ।
___ अहते यो गनाथाय महावीराय ता यने ॥
ी हेमच ाचाय 'योगशा ' क रचना करते ए मगलाचरणमे वीतराग सव अ रहत योगीनाथ
महावीरको तु त पसे नम कार करते है।
__ 'जो रोके क नही सकते, जनको रोकना ब त ब त मु कल है, ऐसे राग, े ष, अ ान पी
श ुके समूहको ज होने रोका, जीता, जो वीतराग सव ए, वीतराग सव होनेसे जो अह त पूजनीय
ए, और वीतराग अह त होनेस, े जनका मो के लये वतन है ऐसे भ भ यो गय के जो नाथ
ए, नेता ए, और इस तरह नाथ होनेसे जो जगतके नाथ, तात, और ाता ए, ऐसे जो महावीर ह
ह नम कार हो । यहाँ स े वके अपायापगमा तशय, ाना तशय, वचना तशय और पूजा तशय सू चत
कया है । इस मगल तु तमे समन 'योगशा ' का सार समा दया है। स े वका न पण कया है। सम
व तु व प, त व ानका समावेश कर दया है । खोलनेवाला खोजी चा हये।
... लौ कक-मेलेमे वृ को चचल करनेवाले सग वशेष होते ह। स चा मेला स सगका है। ऐसे
मलम वृ क चचलता कम होती है, र होती है। इस लये ा नयोने स सग-मेलका बखान कया है,
वढवाणके प, भा पद वद , १९५६
'मो माला' के पाठ हमने माप माप कर लखे ह। पुनरावृ के वारेमे आप यथासुख वृ
कर। क तपय वा योके नीचे लक र खीची है, वैसा करनेक ज रत नह है । ोता-वाचकको यथासंभव
अपने अ भ ायसे े रत न करनेका ल य रख। ोता-वाचकमे वत अ भ ाय उ प होने द।
सारासारके तोलनका काय वय वाचक- ोतापर छोड द। हम उ हे े रत कर, उनमे वय उ प हो
सकनेवाले अ भ ायको रोक न द।
उपदे श कया है।

६८४
ीमद् राजच
'मो माला'के " ावबोध' भागके १०८ मनके यहाँ लखायगे ।
परम स ुतके चार प एक योजना सोची है। उसका चार होकर परमाथमाग
का शत होगा।
२५
बबई, माटुं गा, मागशीप, १९५७
। ी 'शातसुधारस' का भी पुनः ववेचन प भाषातर करने यो य है, सो क जयेगा।
बवई, शव, मागशीष, १९५७
'दे वागमनभोयानचामरा द वभूतयः।।
माया व व प यते नात वम स नो महान् ॥'
-: , “ तु तकार ी समतभ सू रको वीतरागदे व मानो कहते हो-'हे समतभ । यह हमारी अ -
ा तहाय आ द वभू त तू दे ख, हमारा मह व दे ख ।' तब सह गुफामेसे ग भीर चालसे वाहर नकलकर
जस तरह गजना करता है उसी तरह ी समतभ सू र गजना करते ए कहते है-'दे वताओका आना,
आकाशमे वचरना, चामरा द वभू तयोका भोग करना, चामर आ दके वैभवसे पूजनीय दखाना यह तो
मायावी इ जा लक भी बता सकता है। तेरे पास दे वोका आना होता है, अथवा तू आकाशमे वचरता है,
अथवा तू चामर छ आ द वभू तका उपभोग करता है इस लये तू हमारे मनको महान है | नह , नही,
इस लये तू हमारे मनको महान नह , उतनेसे तेरा मह व नही। ऐसा मह व तो मायावी इ जा लक भी
दखा सकता है ।' तब फर स े वका वा त वक मह व या है ? तो कहते है क वीतरागता । इस तरह
आगे बताते है।
ये ी समतभ सू र व मक सरी शता द मे हए थे। वे ेतावर- दगवर दोनोमे एक सरीखे

ो े े ो ो ै ी ी
स मा नत ह । उ होने दे वागम तो (उपयु तु त इस तो का थम पद है) अथवा आ तमीमासा रची
है । त वाथसू के मगलाचरणक ट का करते हए यह दे वागम तो लखा गया है और उसपर अ टसह ी
ट का तथा चौरासी हजार ोक माण 'गधह ती महाभा य' ट का रची गयी ह।
मो माग य नेतार भे ारं कमभूभृताम्। .
, ातारं व त वानां व दे त णल धये ॥
..यह इसका थम मगल तो है।
मो मागके नेता, कम पी पवतके भे ा-भेदन करनेवाले, व . अथात् सम त वके ाता,
जाननेवाले उ हे गुणोक ा तके लये मै वदन करता ँ। . .
_ 'आ तमीमासा', 'योग व ' और 'उप म तभव पचकथा का गजराती भाषातर क जयेगा ।
'योग व ' का भापातर आ है, 'उप म तभव पच' का हो रहा है, पर तु वे दोनो फरसे करने यो य है,
उसे क जयेगा, धीरे धीरे होगा।
' लोकक याण हत प है और वह कत है। अपनी यो यताको यूनतासे और जो खमदारी न
समझी जा सकनेसे अपकार न हो, यह भी याल रखनेका है।
मन पयाय ान कस तरह गट होता है ? साधारणत. येक जीवको म त ान होता है। उसके
आ त ुत ानमे वृ होनेसे वह म त ानका बल - वढाता है, इस तरह अनु मसे म त ान नमल
१ दे ख आक ९४६ । २. आक २७ से आक ३१ तक खभातके ी भुवनभाईक नोधमसे लये ह।

६८५
होनेसे आ माको असंयमता र होकर सयमता होती है, और उससे मन पयाय ान गट होता है। उसके
योगसे आ मा मरेका अ भ ाय जान सकता है।''
__ लग- च दे खनेसे सरेके ोध, हप आ द भाव जाने जा सकते ह, यह म त ानका वषय
है। वैसे च न दे खनेसे जो भाव जाने जा सकते है वह मन पयाय ानका वषय है।''
पांच इ योके वषय सव धो :-
जस जीवको मोहनीयकम पी कपायका याग करना हो, और 'जब वह उसका एकदम याग
करना चाहेगा तब कर सकेगा' ऐसे व ासपर रहकर, जो मश याग करनेका अ यास नह करता,
वह एकदम याग करनेका सग आनेपर मोहनीय कमके बलके आगे टक नही सकता; यो क कम प
'श ुको धीरे-धीरे नबल कये बना नकाल दे नेमे वह एकदम असमथ हो जाता है। आ माक नवलताके
कारण उसपर मोहका. ाब य रहता है । उसका जोर कम करनेके लये य द आ मा य न करे तो एक
ही बारमे उसपर जय पानेक धारणमे 'वह ठगा जाता है। जब तक मोहवृ लडनेके लये सामने नही
आती तभी तक मोहवश आ मा अपनी बलव ा' समझता'' है, पर तु इस कारक कसौटोका सग
आनेपर आ माको अपनी कायरता समझमे आती है। इस लये जैसे बने वैसे पाँच इ योके वषयोको
श थल करना, उसमे भी मु यत उप थ इ यको वशमे लाना, इस तरह अनु मसे सरी इ योके
वषयोपर काबू पाना। ..
.' इ यके वषय पी े को दो तसूजमीन जीतनेके लये आ मा असमथता बताता है और सारी
पृ वीको जीतनेमे समथता मानता है, यह कैसा आ य प है ? ..
वृ के कारण आ मा नवृ का वचार नही कर सकता, यो कहना मा एक बहाना है । य द
थोडे समयके लये भी आ मा वृ छोडकर मादर हत होकर सदा नवृ का वचार करे, तो उसका
बल वृ मे भी अपना काय कर सकता है । यो क येक व तुका'अपनो यूना धक बलव ाके अनुसार
हो अपना काय करनेका वभाव है। जस तरह मादक व तु सरी खुराकके साथ अपने असली वभाव-
के अनुसार प रणमन करनेको नही भूल जाती उसी तरह ान भी अपने वभावको नही भूलता। इस-
लये येक जीवको मादर हत होकर योग, काल, नवृ और मागका वचार नरतर करना चा हये।
२९
त संबंधी
___ य द येक जीवको त लेना हो तो प ताके साथ सरेक सा ीसे लेना चा हये । उसमे वे छा-
से वतन नही करना चा हये । नतमे रह सकनेवाला आगार रखा हो और कारण वशेषको लेकर व तुका
उपयोग करना पड़े तो वैसा करनेमे वयं अ धकारी नही बनना चा हये। ानीक आ ाके अनुसार वतन
करना चा हये । नह तो उसमे श थल आ जाता है, और तका भग हो जाता है।
३०
मोह-कषाय सवधी -
येक जीवक अपे ासे ानीने ोध, मान, माया और लोभ, यो अनु म रखा है, वह य होने-
क अपे ासे है।
पहले कपायके यसे अनु मसे सरे कपायोका य होता है, और अमुक अमुक जीवोक अपे ा
से मान, माया, लोभ और ोध, ऐसा म रखा है, वह दे श, काल और े दे खकर । पहले जीवको

६८६
ीमद राजच
सरेसे ऊँचा माना जानेके लये मान उ प होता है, उसके लये वह छल-कपट करता है, और उससे पैसा
पंदा करता है, और वैसे करनेमे व न करनेवाले पर ोध करता है। इस कार कपायक कृ तयाँ अनु-
ममे बँधती है; जसमे लोभको इतनी बलव र मठास है, क उसमे जीव मान भी भूल जाता है. और
उसक परवाह नह करता, इस लये मान पी कपायको कम करनेसे अनु मसे सरे कषाय अपने आप कम

ो े ै
हो जाते है।
आ था तथा ा-
येक जीवको जीवके अ त वसे लेकर मो तकक पूण पसे ा रखनी चा हये । इसमे जरा
भी शका नही रखनी चा हये। इस जगह अ ा रखना, यह जीवके प तत होनेका कारण है, और यह
ऐसा थानक है क वहाँसे गरनेसे कोई थ त नही रहती।
___ अंतमहतमे म र कोटाको ट सागरोपमक थ त बंधती है, जसके कारण जीवको अस यात
भवोमे मण करना पड़ता है।
चा र मोहसे प तत हा जीव तो ठकाने आ जाता है, पर तु दशनमोहसे प तत हआ जीव
ठकाने नही आता, यो क समझनेमे फेर होनेसे करनेमे फेर हो जाता है। वीतराग प ानीके वचनोमे
अ यथा भाव होना स भव ही नही है। उसका अवलवन लेकर ुवतारेक भां त ा इतनी ढ करना
क कभी वच लत न हो । जव जव गका होनेका संग आये तब तब जीवको वचार करना चा हये क
उसमे अपनी भूल ही होती है। वीतराग पु पोने जस म तसे ान कहा है, वह म त इस जीवमे है नही;
और इस जीवको म त तो शाकमे नमक कम पडा हो तो उतनेमे ही क जाती है। तो फर वीतरागके
ानक म तका मुकाबला कहाँसे कर सके ? इस लये वारहवे गुण थानके अ त तक भी जीवको ानीका
अवलवन लेना चा हये, ऐसा कहा है।
य धकारी न होनेपर भी जो ऊँचे ानका उपदे श कया जाता है वह मा इस लये क जीवने
अपनेको ानी तथा चतुर मान लया है, उसका मान न हो और जो नीचेके थानकोसे वात कही जाती
है, वे मा इस लये क वैमा संग ा त होनेपर जीव नीचेका नीचे ही रहे।
, बबई, आ न १९४९
जे सवु ा महाभागा वीरा असम द सणो।
असु ं ते स पर कंतं सफलं होइ स वसो ॥२२॥
जे य बु ा महाभागा वीरा स म द सणो।
सु ं ते स पर कतं अफलं होइ स वसो ॥२३॥
- ी सूयगडाग सू , वीया ययन ८वॉ, गाथा २२-२३
ऊपरक गाथाओमे जहाँ 'सफल' श द है वहाँ 'अफल' ठ क लगता है, और जहाँ 'अफल' श द है
वहाँ 'मफल' श द ठोक लगता है, इस लये उममे लेखन-दोप है या बरावर है ? इसका समाधान-यहाँ
लेखन-दोप नही है। जहाँ 'सफल' श द है वहाँ सफल ठ क है और जहाँ 'अफल' श द है वहां अफल
ठ क है।
म या क या सफल है-फलम हत है, अथात् उसे पु य-पापका फल भोगना है । स य -
क या अफल है-फलर हत है, उसे फल नही भोगना है, अथात् नजरा है। एकक , म या क
याको मसारहेतुक सफलता है, और सरेको, स य क याक ससारहेतुक अफलता है, यो
परमाथ समझना यो य है।

६८७
सवेरे उठकर ई प थक त मण करके रात- दनमे जो कुछ अठारह पाप थानकमे वृ ई
हो, स य ान-दशन-चा र , सबंधी तथा पचपरमपद सवधी जो कुछ अपराधु आ हो, कसी भी जीवके
त क चत् मा भी अपराव कया हो, वह जाने अनजाने आ हो, उस सबको माना, उसक नदा
करना, वशेष नदा करना, आ मामेसे उस अपराधका- वसजन करके न श या होना । रा को सोते
समय भी इसी तरह करता। ... ... .. ... ., . . . . .
... ी स पु षके दशन करके चार,घडोके लये सव सावध ापारसे नवृ होकर एक आसनपर
थ त करना। उस समयमे 'परमगु ' श दक पांच मालाएं गनकर दो घडी तक स शा का अ ययन
करना । उसके बाद एक घड़ी कायो सग करके ी स पु ष के वचनोका, उस कायो सगमे जप-रटन करके
स का अनुसधान करना । उसके बाद आधी घडीमे भ को वृ को उ सा हत करनेवाले पद
(आ ानुसार) बोलना, । आधी घड़ीमे 'परमगु ' श दका कायो सगके पमे जप,करना, और 'सव दे व'
इस नामक पाँच मालाएँ गनना। ,
अभी अ ययन करने यो य शा -वैरा यशतक, इ यपराजयशतक, शातसुधारस, अ या म-
क प म, योग समु चय, नवत व,, मूलप त,कम थ, धम ब , आ मानुशासन, भावनावोध, मो -
माग काश, मो माला, उप म तभव पच, अ या मसार, ी आनदघनजी कृत चौबीसी मेसे ये तवन-१,
३, ५, ७, ८, ९, १०, १३, १५, १६, १७, १९, २२ । । ।
सात सन-(जूआ, मास, म दरा, वे यागमन, शकार, चोरी, पर ी) का याग। , . .,
(अथ स त सन नाम चौपाई)
. "जूवा', आ मष, म दरा, दारी, आहेटक', चोरी', परनारी। '
. . 'ए ह स त सन '' ःखदाई,'. - रतमूळ ग तके जाई.॥"... ..
६, . दस स त सनका याग । रा भोजनका याग । अमुकको छोड़कर सभी, वन प तका याग ।
अमुक त थयोमे अ यक वन प तका भी तवध । अमुक रेसका याग । अ चयका याग ! प र ह
प रमाण ।
- शरीरमे वशेष रोग आ दके उप वसे, वेभानपनसे, राजा अथवा दे व आ दके बला कारसे यहाँ
बताये ए नयमोमे वृ करनेके लये अश आ जाये तो उसके लये प ा ापका थानक समझना ।
वे छासे उस नयममे कुछ भी यूना धकता करनेक त ा । स पु पको आ ासे उस नयममे फेरफार
करनेसे नयम भग नही।

े ो ै ै ी ै ो
स य व तके यथाथ व पको जैसा जानना, अनुभव करना वैसा ही कहना यह स य है। यह दो
कारका है-'परमाथस य' और ' वहारस य' । ...
'परमाथस य' अथात् आ माके सवाय सरा कोई पदाथ आ माका नही हो सकता, ऐसा न य
जानकर, भाषा बोलनेमे वहारसे दे ह, ी, पु , म , धन, धा य, गृह आ द व तुओके मगमे वोलनेसे
१ यह जो न य नयम बताया है वह 'धीमद् के उपदे शामृत से लेकर धी सभातके एक मुम भाईने यो जत कया है।
२ खभातके एक मुमु ु भाईने यथाश मृ तमे रखकर क ई नोप ।

••••••
६८८
ीमद् राजच
पहले एक आ माके सवाय सरा कोई मेरा नह है, यह उपयोग रहना चा हये । अ य आ माके स ब धमे
बोलते समय आ मामे जा त, लग और वैसे औपचा रक भेदवाला वह आ मा न होनेपर भी मा वहार-
नयसे कायके लये सबो धत कया जाता है, इस कार उपयोगपूवक बोला जाये तो वह पारमा थक स य
भापा हे ऐसा समझ।
१ ात-एक मनु य अपनी आरो पत दे हक , घरक , ीक , पु क या अ य पदाथको बात
करता हो, उस समय प पसे उन सब पदाथ से व ा म भ ,
ँ और वे मेरे नही है' इस कार
प पसे बोलनेवालेको भान हो तो वह स य कहा जाता है।
२ ात- जस कार कोई थकार े णक राजा और चेलना रानीका वणन करता हो, तो वे
दोनो आ मा थे और मा े णकके भवक अपे ासे उनका स ब ध, अथवा ी, पु , धन, रा य,
आ दका स ब ध था, यह बात यानमे रखनेके बाद बोलनेक वृ करे, यही परमाथ स य है।
वहारस यके आये बना परमाथस य वचनका बोलना नही हो सकता। इस लये वहारस य
नीचे अनुसार जान-
जस कारसे व तुका व प दे खनेस, े अनुभव करनेस,े वणसे अथवा पढ़नेसे हमे अनुभवमे आया
हो उसी कारसे यथात य पसे व तुका व प कहना और उस सगपर वचन बोलना उसका नाम
वहारस य है।
ात-जैसे क अमुक मनु यका लाल घोडा जगलमे दनके बारह बजे दे खा हो, और कसीके
पूछनेसे उसी कारसे यथात य वचन बोलना यह वहारस य है । इसमे भी कसी ाणीके ाणका नाश
होता हो, अथवा उ म तासे वचन बोला गया हो, वह य प स चा हो तो भी अस य तु य ही है,
ऐसा जानकर वृ कर । स यसे वपरीत उसे अस य कहा जाता है।
ोध, मान, माया, लोभ, हा य, र त, अर त, शोक, भय, गंछा, अ ान आ दसे बोला जाता है।
ोध आ द मोहनीयके अगभूत ह। उसक थ त सरे सभी कम से अ धक अथात् (७०) स र कोडा-
कोडी सागरोपमक है । इस कमका य ए बना ानावरण आ द कम का स पूणतासे य नह हो
सकता । य प ग णतमे थम ानावरण आ द कम कहे है, पर तु इस कमको ब त मह ा है, यो क ससार-
के मूलभूत राग े षका यह मूल थान है, इस लये भव मण करनेमे इस कमक मु यता है, ऐसी मोहनीय-
कमक बलव ा है, फर भी उसका य करना सरल है। अथात् जैसे वेदनीयकम भोगे बना न फल
नही होता पर तु इस कमके लये वैसा नही है । मोहनीय कमक कृ त प ोध, मान, माया और लोभ
आ द कपाय'तथा नोकपायका अनु मसे मा, न ता, नर भमानता, सरलता, नदभता और सतोष
आ दक वप भावनासे अथात् मा वचार करनेसे उपयु कषाय न फल कये जा सकते है, नोकषाय
भी वचारसे ीण कये जा सकते है, अथात् उसके लये वा कुछ नही करना पड़ता।
'मु न' यह नाम भी इस पूव री तसे वचार कर वचन बोलनेसे स य है । ब त करके योजनके
वना बोलना ही नही, उसका नाम मु न व है। राग े प और अ ानके बना यथा थत व तुका व प
कहते बोलते ए भी मु न व-मौन समझ। पूव तीथकर आ द महा माओने ऐसा ही वचार कर मौन
धारण कया था, और लगभग साढे बारह वष मौन धारण करनेवाले भगवान वीर भुने ऐसे उ कृ
वचारसे आ मामेसे फरा- फराकर मोहनीयकमके स ब धको बाहर नकाल करके केवल ानदशन गट
कया था।
आ मा चाहे तो स य बोलना कुछ क ठन नही है। वहारस यभापा ब त बार बोली जाती है,
पर तु परमाथस य बोलनेम नही आया, इसी लये इस जीवका भव मण नह मटता। स य व होनेके

६८९
बाद अ याससे परमाथस य बोला जा सकता है, और फर वशेष अ याससे सहज उपयोग रहा करता है।
अस य बोले बना माया नही हो सकती। व ासघात करना इसका भी अस यमे 'समावेश होता है।
झूठे द तावेज, करना, इसे भी अस य जाने । अनुभव करने यो य पदाथके व पका अनुभव कये बना
और इ य ारा जानने यो य पदाथके व पको जाने बना उपदे श करना, इसे भी अस य समझ।'
तो फर तप इ या द मान आ दको भावनासे करके, आ म हताथ करने जैसा दे खाव करना अस य ही है,
ऐसा समझ। अखड स य दशन ा त हो तभी स पूण पसे परमाथस य वचन बोला जा सकता है; अथात्
तभी आ मामेसे अ य पदाथको भ ल पसे उपयोगमे लेकर वचनक वृ हो सकती है।
, कोई पूछे क लोक शा त है या अशा त तो उपयोगपूवक न बोलते ए 'लोक शा त' है ऐसा
य द कहे तो अस य वचन बोला गया ऐसा होता है। उस वचनको बोलते ए, लोक शा त यो कहा गया,
उसका कारण यानमे रखकर वह बोले तो वह स य समझा जाता है।
: इस वहारस यके भी दो कार हो सकते ह-एक 'सवथा वहारस य और सरा दे श
वहारस य ।
। न य स यपर उपयोग रखकर, य अथात् जो वचन अ यको अथवा जसके सबधमे बोला
गया हो उसे ी तकर हो, और प य एव गुणकर हो, ऐसा ही स य वचन बोलनेवाले ाय , सव वर त
मु नराज हो सकते ह।
ससारपर अभाव रखनेवाला होनेपर भी पूवकमसे, अथवा सरे कारणसे ससारमे रहनेवाले
गृह थको दे शसे स यवचन बोलनेका नयम रखना यो य है । वह मु यतः इस कार है ......
'क यालीक, मनु यसंबधी अस य, गवालीक, पशुसबधी अस य, भौमालोक, भू मसबधी अस य,
झठ सा ी, और थातो अस य अथात् व ाससे रखनेके लये दये ए ा द पदाथ वापस मांगनेपर.
ी े े ँ े ै े ो े
उस सबंधी इनकार कर दे ना, ये पाँच थूल भेद है। इस स ब धमे वचन बोलते ए परमाथ स य पर
यान रखकर, यथा थत अथात् जस कारसे व तुओका स यक् व प हो उसी कारसे ही कहनेका
जो नयम है उसे दे शसे त धारण करनेवालेको अव य करना यो य है। इस कहे ए स य स ब धी
उपदे शका वचार कर उस ममे अव य आना ही फलदायक है।
३५
स पु ष अ याय नही करते । स पु ष अ याय करगे तो इस' जगतमे वषा कसके लये बरसेगी?
सूय कसके लये का शत होगा? वायु कसके लये चलेगी।
आ मा कैसा अपूव पदाथ है। जब तक शरीरमे होता है--भले ही हजार बरस रहे, तब तक
शरीर नही सडता । आ मा पारे जैसा है। चेतन चला जाये तो शरीर शव हो जाये और सडने लगे !
'जीवमे जागृ त और पु षाथ चा हये । कमव ध हो जानेके बाद भी उसमेसे (स ामेसे उदय आने से
पहले) छू टना हो तो अबाधाकाल पूण होने तकमे छू टा जा सकता है।
पु य, पाप और आयु, ये कसी सरेको नही दये जा सकते । उ हे येक वय ही भोगता है।
। व छदसे, वम तक पनासे और स को आ ाके बना यान करना यह तरग प है और
उपदे श, ा यान करना यह अ भमान प है।
दे हधारी आ मा प थक है और दे ह वृ है। इस दे ह पी वृ मे (वृ के नीचे) जोव पो प थक-
बटोही व ा त लेने बैठा है । वह प थक वृ को ही अपना मानने लगे यह कैसे चलेगा ?

६९०.
ीमद् राजच
'सु दर वलास' सु दर, अ छा थ है। उसमे कहां कमी, भूल हे उसे हम जानते ह। वह कमी
सरेक समझमे आना मु कल है। उपदे शके लये यह थ उपकारी है ।
छः दशनोपर, ात-छ भ भ वै ोक कान है। उनमे एक वै , स पूण स चा है ।
वह सब रोगोको, उनके कारणोको और उनके र करनेके उपायोको जानता है। उसका नदान एवं
च क सा स चे होनेसे रोगीका रोग नमल हो जाता है। वै कमाई भी अ छ करता है । यह दे खकर
सरे पाँच कूटवै भी अपनी-अपनी कान खोलते ह। उसमे जतनी स चे वै के घरक दवा 'अपने पास
होती है उतना तो रोगीका रोग वे र करते ह, और सरी अपनी क पनासे अपने घरक दवा दे ते ह,
उससे उलटा रोग वढ जाता है, पर तु दवा स ती दे ते है इस लये लोभके मारे लोग लेनेके लये वहत
ललचाते ह, और उलटा नुकसान उठाते ह ।
इसका उपनय यह है क स चा वै वीतरागदशन है, जो स पूण स य, व प है ! वह मोह,
वपय आ दको, राग े पको, हसा आ दको स पूण र-करनेको कहता है जो वपय ववश रोगीको महँगा
पड़ता है, अ छा नही लगता। और सरे पाँच कूटवे है वे कुदशन ह, वे जतनी वीतरागके घरको .
बात करते ह उस हद तक तो रोग र करनेक बात है, पर तु साथ साथ मोहक , ससारवृ क ,
म या वक , हसा आ दक धमके बहानेमे बात करते है, वह अपनी क पनाक है, और वह ससार प,
रोग र करनेके बदले वृ का कारण होती है। वषयमे आस पामर ससारीको मोहक बाते तो मीठ
लगती है, अथात् स ती पडती ह. इस लये कूट वै क तरफ आक षत होता है, पर तु प रणाममे अ धक
रोगी हो जाता है।
वीतरागदशन वै जैसा है, अथात (१) रोगीका रोग र करता है (२) नीरोगीको. रोग होने
नह दे ता, और (३), आरो यक पु करता है। अथात् (१) स य दशनसे जीवका म या व रोग र
करता है, (२) स य ानसे जोवको रोगका भोग होनेसे बचाता है और (३) स यक चा र से स पूण .
शु ' चेतना प आरो यक पु करता है। '
स० १९५४ -
___ जो सव वासनाका य करता है वह स यासी है। जो इ योको काबूमे रखता है वह गोसाई है।
जो ससारका पार पाता है वह य त (ज त) है।
सम कतीको आठ मदोमेसे एक भी मद नही होता।
..(१) अ वनय, (२) महकार, (३). अधद धता-अपनेको ान न होते ए भी अपनेको ानी मान
बैठना, और (४) रसलु धता--इन चारमेसे एक भी दोष हो तो जीवको,सम कत नह होता, ऐसा ी
'ठाणागसू 'मे कहा है | -:.-...
. . ..... If ...
मु नको ा यान करना पडता हो तो , वय, वा याय करता है ऐसा भाव रखकर ा यान करे ।
मु नको मवेरे वा यायक आ ा है, उसे मनमे ही कया जाता है, उसके बदले ा यान प वा याय
ऊँचे वरसे, मान, पूजा, स कार, आहार आ दको अपे ाके बना केवल न काम बु से, आ माथके, .
... ोध आ द कषायका उदय हो, तब उसके व होकर उसे बताना ; क तूने मुझे अना द कालसे
हैरान कया है। अब म इस तरह तेरा वल नह चलने ं गा । दे ख, अब म तेरे व यु करने बैठा ँ।
न ा आ द कृ त, -( ोध आ द-अना द वैरी ), उनके त, यभावसे वतन कर, उ हे
अपमा नत कर, फर भी न मान तो उ हे ू र बनकर शात कर, फर भी न, मान तो यालमे रखकर, -

६९१
व आनेपर उ हे मार डाल । यो शूर य वभावसे वतन कर, जससे वैरीका पराभव होकर समा ध-
सुख मले।
भुपूजामे पु प चढाये जाते ह, उसमे जसं गृह थको हरी वन प तका नयम नही हे वह अपने

े े ो े ो े ी ो ो े े
हेतुसे उसका उपयोग कम करके भुको फूल चढाये। यागी मु नको तो पु प चढानेका अथवा उसके
उपदे शका सवथा नषेध है ऐसा पूवाचाय का वचन है।
कोई सामा य मुमु ु भाई-बहन साधनके बारेमे पूछे तो ये साधन बताय--
( १) सात सनका याग। ' (६ ) 'सव दे व' और 'परमगु ' क पांच पांच मालाओ-
. . (२) हरी वन प तका याग। .. का जप। : . . . .
. (३) कदमूलका याग। (७) भ रह य-दोहाका' पठन मनन ।
(४) अभ यका याग। (८) मापनाका पाठः ।,
, (५) रा भोजनका याग । (९) स समागम और स शा का सेवन ।. . . .
___ ' स झ त', फर 'बु झ त', फर 'मु च त', फर 'प र ण वाय त', फर 'स व खाणमतकर त',
इत श दोका रह याथ वचारने यो य है । ' स झ त' अथात् स होते ह, उसके बाद 'वु झ त' अथात्
बोधस हत- ानस हत होते ह ऐसा चत कया है। स होनेके बाद कोई आ माक शू य ( ानर हत)
दशा मानते है उसका नषेध बु झ त से कया गया। इस तरह स और बु होनेके बाद 'मु च त'
अथात् सव कमसे र हत होते ह और उसके बाद प र ण वाय त' अथात् नवाण पाते ह, कमर हत होनेसे
फर ज म-अवतार. धारण नही करते । मु जीव कारण वशेषसे अवतार धारण करते ह इस मतका
'प र णवाय त, से नषेध सू चत कया है । भवका कारण कम, उससे सवथा जो मु ए ह वे फरसे ।
भव धारण नही करते । कारणके बना काय नह होता । इस तरह नवाण ा त 'स व खाणमतकर त'
अथात् सव खोका अत करते ह, उनको ःखका, सवथा अभाव हो जाता है, वे सहज वाभा वक सुख.
मान दका अनुभव करते ह। ऐसा कहकर मु आ माओको शू यता है, आन द नही है इस मतका नषेध
सू चत कया है ।।
"अ ान त मराधानां ानाजनशलाकयां।
ने मु मी लतं येन त मै ीगुरवे नमः॥'
" अ ान पी त मर-अधकारसे जो अध ह, उनके ने ोको जसने ान पी अजनक शलाका-.
अंजनक सलाईसे खोला, उस ी स को नम कार ।
'मो माग य नेतारं भे ारं कमभूभताम् । ।
ातारं व त वानां वंदे त णल धये ॥'
मो मागके नेता-मो मागमे ले जानेवाले, कम प पवतके भेता-भेदन करनेवाले, और सम
त व के ाता-जाननेवाले, उ हे म उन गुणोक ा तके लये व दन करता ँ।
यहाँ 'मो मागके नेता' कहकर आ माके अ त वसे लेकर उसके मो और मो के उपायस हत
सभी पदो तथा मो ा तोका वीकार कया है तथा जोव, अजीव आ द सभी त वोका वीकार कया
है । मो ब धक अपे ा रखता है, वध, वधके कारणो-आ व, पु य-पाप कम और बंधनेवाले न य
अ वनाशी आ माक अपे ा रखता है। इसी तरह मो , मो मागको, सवरक , नजराक , वधके कारणो

६९२
ीमद राजच
को र करने प उपायक अपे ा रखता है। जसने माग दे खा, जाना, और अनुभव कया है वह नेता
हो सकता है । अथात् मो मागके नेता ऐसा कहकर उसे ा त सव सवदश वीतरागका वीकार कया
है। इस तरह मो मागके नेता इस वशेषणसे जीव, अजीव आ द नवो त व, छहो , आ माके अ त व
___ आ द छहो पद और मु आ माका वीकार कया है।
मो मागका उपदे श करनेका, उस मागमे ले जानेका काय दे हधारी साकार मु पु प कर सकता
है, दे हर हत नराकार नही कर सकता ऐसा कहकर आ मा वय परमा मा हो सकता है, मु हो सकता
है, ऐसा दे हधारी मु पु ष ही उपदे श कर सकता है ऐसा सू चत कया है, इससे दे हर हत अपौ षेय
वोधका नषेध कया है।
___'कम प पवतके भेदन करनेवाले' ऐसा कहकर यह सू चत कया है क कम प पवतोको तोड़नेसे
मो होता है; अथात् कम प पवतोको ववीय ारा दे हधारी पसे तोड़ा, और इससे जीव मु होकर
मो मागके नेता, मो मागके बतानेवाले ए। पुन. पुन. दे ह धारण करनेका, ज म-मरण प ससारका
कारण कम है, उसका समूल छे दन-नाश करनेसे पुन. उ हे दे ह धारण करना नही रहता यह सू चत
कया है । मु आ मा फरसे अवतार नही लेते ऐसा सू चत कया है।
व त वके ाता'--सम त पयाया मक लोकालोकके-- व के जाननेवाले यह कहकर मु
आ माक अखड वपर- ायकता सू चत क है । मु आ मा सदा ान प ही है यह सू चत कया है।
'जो इन गुण से स हत है उ हे उन गुणोक ा तके लये म वदन करता ' ँ , यह कहकर परम
आ त, मो मागके लये व ास करने यो य, व दन करने यो य, भ करने यो य जसक आ ामे
चलनेसे न सशय मो ा त होता है, उ ह गट ए गुण क ा त होती है, वे गुण गट होते ह, ऐसा
कौन होता है यह सू चत कया है। उपय गुणोवाले मु परम आ त व दन यो य होते ह, उ होने जो
वताया वह मो माग है, और उनको भ से मो क ा त होती है, उ हे गट ए गुण, उनक आ ा-
मे चलनेवाले भ मानको गट होते ह यह सू चत कया है ।
३८
ी खेडा, ० आसोज वदो. १९५४
०-आ मा है ?
ीमद्ने उ र दया-हॉ, आ मा है।
०-अनुभवसे कहते है क आ मा है ?

ँ े े ै ै े ी ो ो
उ०-हाँ, अनुभवसे कहते है क आ मा है । श करके वादका वणन नही हो सकता । वह तो
अनुभवगोचर है, इसी तरह आ माका वणन नही हो सकता, वह भी अनुभवगोचर है, पर तु वह है हो ।
०-जीव एक है या अनेक है ? आपके अनुभवका उ र चाहता ँ।
उ०-जीव अनेक ह।
.-जड, कम यह व तुत है या मा यक है ?
उ.-जड, कम यह व तुत है, मा यक नह है '
०-पुनज म है ?
उ०-हाँ, पुनज म है।
। ०-वेदातको मा य मा यक ई रका अ त व आप मानते ह ?
उ.-नही।
* ी मेटाके एक वेदात वद् व ान वक ल पचदशीके लेखक भ पूजाभाई सोमे रका यह सग है।

६९३
०-दपणमे पडनेवाला त बब मा खाली दे खाव है या कसी, त वका बना ना हे ? ,
उ०-दपणमे पड़नेवाला त ब ब मा खाली दे खाव नही है, वह अमुक त वका बना आ है।
। '..” , . . . . . ६३९ . मोरबी: माघ वद १, सोम (रातमे), १९५५
- कमक मूल कृ तयाँ आठ है, उनमे चार घा तनी और चार अघा तनी कही जाती ह। । ।'
।' चार घा तनीका धम आ माके गुणका घात करना है, 'अथात् (१) उस गुणका आवरण करना,
अथवा.(२) उस गुणके बल-वीयका नरोध करना, अथवा (३) उसे वकल करना है, और इसी लये उस
कृ तको"घा तनी' स ा द है। . .
__ जो आ माके गुण ान और दशनका आवरण करता है उसे अनु मसे (१) ानावरणीय और
(१) दशनावरणीय नाम दया है । अ तराय कृ त इस गुणको आवरण नह करती, पर तु उसके भोग,
उपभोग आ दको, उसके बलवीयको रोकती है। यहाँ पर आ मा भोग आ दको, समझता है, जानता-दे खता
है, इस लये आवरण नह है, पर तु समझते ए भी भोग आ दमे व न अ तराय करती है, इस लये उसे
आवरण नही परतु अतराय कृ त कहा है।
, ; इस तरह तीन आ मघा तनी कृ तयाँ ई। ,चौथी, घा तनी कृ त, मोहनीय है । यह कृ त
आवरण नही करतो, पर तु आ माको मू छत करके, मो हत करके, वकल करती है । ान-दशन होते
ए भी, अंतराय न होते ए भी आ माको कभी , वकल, करती है, उलटा प ा बँधा दे ती है, ाकुल
कर दे ती है, इस लये इसे मोहनीय कहा है। इस तरह ये चार सव घा तनी कृ तयाँ कही। सरी चार
कृ तयाँ य प आ माके दे शोके साथ लगी ई है तथा अपना काय कया करती है, और उदयके
अनुसार वेद जाती ह, तथा प वे 'आ माके गुणको आवरण करने पसे 'या अतराय करने पसे या उसे
वकल करने पसे घातक नही है, इस लये उ हे आघा तनी कहा है।

।- 7 -- ४०
- - ी, प र ह आ दमे जतना, मूछाभाव रहता है उतना ानका तारत य' यून है, ऐसा ी
तीथकरने न पण कया है। सपूण ानमे वह मूछा नह होती।
1. ी ानीपु ष ससारमे कस कारसे, रहते ह ? आँखमे जैसे रज खटकती रहती हे वैसे ानीको
कसी कारणसे या उपा ध सगसे कुछ आ हो तो वह मगजमे पाँच दस सेर जतना बोझा हो पडता
है। और उसका य होता है-तभी शा त होती है। ी आ दके, सगमे आ माको अ तशय अ तशय
समीपता एकदम गट पसे भा सत होती है।
सामा य पसे ी, चदन, आरो य आ दसे साता और वर आ दसे असाता रहती है, वह ानी
और अ ानी दोनोको समान है । ानीको उस उस संगमे हप- वषादका हेतु नही होता।
चार गोल के ातसे जीवके चार कारसे भेद हो सकते है।
१ मोमका गोला।
२. लाखका गोला।
३. लकडीका गोला।
४. म का गोला।
*खभातके ी अवालालभाईक लखी नोटमेसे ।

६९४
१ थम कारके जीव मोमके गोले जैसे कहे ह।
मोमका गोला जस तरह ताप लगनेसे पघल जाता है, और फर ठ डी लगनेसे वैसाका वैसा हो
जाता है, उसी तरह ससारी जीवको स पु षका बोध सुनकर संसारसे वैरा य आ, वह असार ससारक
नवृ का चतन करने लगा, कुटु बके पास आकर कहता है क इस असार ससारसे म नवृ होना
चाहता ँ। इस बातको सुनकर कुटु बी कोपयु ए । अबसे तू इस तरफ मत जाना। अब जायेगा तो
तेरेपर स ती करगे, इ या द कहकर स तका अवणवाद बोलकर वहाँ जाना रोक दे । इस कार कुटु बके
भयसे, ल जासे जीव स पु षके पास जानेसे क जाये, और फर ससार कायमे वृ करने लगे । ये
थम कारके जीव कहे ह ।
२ सरे कारके जीव लाखके गोले जैसे कहे है।
__ लाखका गोला तापसे नही पघल जाता पर तु अ नसे पघल जाता है। इस तरहका जीव सतका

ो े ी ो े े ो ै ऐ
बोध सुनकर ससारसे उदासीन होकर यह च तन करे क इस ख प संसारसे नवृ होना है, ऐसा
च तन करके कुटु बके पास जाकर कहे क 'मै ससारसे नवृ होना चाहता ँ। मुझे यह झूठ बोलकर
ापार करना अनुकूल नही आयेगा,' इ या द कहनेके वाद कुटु बोजन उसे स ती और नेहके वचन कहे
तथा ीके वचन उसे एकातके समयमे भोगमे तदाकार कर डाल। ीका अ न प शरीर दे खकर सरे
कारके जीव तदाकार हो जाय । स तके चरणसे र हो जाय। '', '.. .
३ तीसरे कारके जीव का के गोले जैसे कहे है।
वह जीव सतका बोध सुनकर ससारसे उदास हो गया। यह ससार असार है, ऐसा वचार करता
आ कुटु ब आ दके पास आकर कहता है क 'इस असार ससारसे मै ख आ ँ। मुझे ये काय करने
ठ क नही लगते ।' ये वचन सुनकर कुटु बी उसे नरमीसे कहते है, 'भाई, अपने लये तो नवृ जैसा है।'
उसके बाद ी आकर कहती है-' ाणप त | म तो आपके बना पल भी नही रह सकती | आप मेरे
जीवनके आधार ह। इस तरह अनेक कारसे भोगमे आस ' करनेके लये अनेक पदाथ क वृ करते
ह, उसमे तदाकार होकर सतके वचन भूल जाता है। अथात् जैसे 'का का गोला अ नमे डालनेके वाद'
भ म हो जाता है, वैसे ी प अ नमे पड़ा आ जीव उसमे भ म हो जाता है। इससे संतके बोधका
वचार भूल जाता है । ी आ दके भयसे स समागम नही कर सकता, जससे वह जीव दावानल प ी
आ द अ नमे फंस कर, वशेष वशेष वड बना भोगता है । ये तीसरे कारके जीव कहे ह।
. ४. चौथे कारके जीव म के गोले जैसे कहे ह। .
वह पु ष स पु षका बोध सुनकर इ यके वषयक उपे ा करता है। संसारसे महा, भय पाकर .
उससे नवृ होता है। उस कारका जीव कुटु ब आ दके प रषहसे चलायमान नही होता । ी आकर
कहे-' यारे ाणनाथ | इस भोगमे जैसा वाद है वैसा वाद उसके, यागमे नही है।' इ या द वचन सुन-
कर महा उदास होता ह, वचारता है क इस अनुकूल भोगसे यह जीव ब त बार भूला है। यो यो
उसके वचन सुनता है यो यो महा वैरा य उ प होता है। और इस लये सवथा संसारसे नवृ होता
है। म का गोला अ नमे पडनेसे वशेष वशेष क ठन होता है, उसी तरह वैसे पु ष सतका बोध सुनकर
ससारमे नही पडते । वे चौथे कारके जीव कहे ह।
..
.... ... . . . . . . .
६९५
... ी, पु , प र ह आ द भावोके त मूल ान होनेके बाद य द ऐसो भावना रहे क 'जब मै
चा ँगा तब इन ी आ दके सगका याग कर सकूँगा तो यह मूल ानसे व चत कर दे नेक बात समझ;
अथात् मूल ानमे य प भेद नही पडता परतु आवरण पं हो जाता है। तथा श य आ द अथवा भ
करनेवाले मागसे युत हो जायगे अथवा क जायगे, ऐसी भावनासे य द ानी पु ष भी वतन करे तो
ानीपु षको भी नरावरण ान आवरण प हो जाता है, और इसी लये वधमान आ द ानीपु ष साढे
बारह वष तक अ न त ही रहे, सवथा असगताको,ही उ होने ेय कर समझा, एक श दके उ चार
करनेको भी यथाथ नही माना, एकदम नरावरण, नय ग, नभ ग और नभय ान होनेके वाद उपदे श-
काय कया । इस लये 'इसे इस तरह कहेगे तो ठ क है अथवा इसे इस तरह न कहा जाये तो म या हे'
इ या द वक प साधु-मु न न कर। ..
- न सप रणाम अथात् आ ोश प रणामपूवक घातकता करते ए जसमे चता अथवा भय और
भवभीरता न हो वैसा प रणाम ।
आधु नक समयमे मनु योक कुछ आयु बचपनमे जाती है, कुछ ीके पास जाती है, कुछ न ामे
जाती है, कुछ धधेमे जाती है, और जो थोडी रहती है उसे कुगु लूट लेता है। ता पय क मनु यभव
नरथक चला जाता है।
___- लोगोको कुछ झूठ बोलकर स के पास स सगमे आनेक ज रत नही है। लोग यो पूछे, 'कौन
पधारे है ?" तो प कहे, 'मेरे परम कृपालु स पधारे है। उनके दशनके लये जानेवाला है।' तव
कोई कहे, 'मै आपके साथ आऊँ ?' तब कहे, 'भाई, वे कुछ अभी उपदे श दे नेका काय करते नह ह। और
__ १ स० १९५२ के ावण-भा पद मासम आणदके आसपास का वठा, राळज, वडवा आ द थलोम ीमद-
का नवृ के लये रहना आ था। उस समय उनके समीपवासी भाई ी अवालाल लालचदने ा ता वक उपदे श
अथवा वचारोका वण कया था, जसक छाया मा उनक मृ त म रह गयी थी उसके आनारसे उ ह ने भ -
भ थलोम. उस छायाका सार स ेपमे लख लया था उसे यहां दे ते है ।
एक मुमु ुभाईका यह कहना है क ी अवालालभाईने लखे ए इस उपदे शके भागको भी धीमद पवाया
था और ीमद्ने उसम कही कही सुधार कया था।

६९६
आपका हेतु ऐसा है क वहाँ जायगे तो कुछ उपदे श सुनगे । परतु वहाँ कुछ उपदे श दे नेका नयम नह है।'
तब वह भाई पूछे, 'आपको उपदे श यो दया ?' तो कहे 'मेरा थम उनके समागममे जाना आ था
और उस समय धमसवधी वचन सुने थे क जससे मुझे ऐसा व ास आ क ये महा मा ह । यो पहचान
होनेसे मैने उ हे ही अपना स मान लया है ।' तब वह यो कहे, 'उपदे श द या न द परंतु मुझे तो
उनके दशन करने है ।' तब कहे, 'कदा चत्, उपदे श न दे तो आप वक प न कर।' ऐसा करते ए भी
जब वह आये तब तो हरी छा । परतु आप वय कुछ वैसी ेरणा न कर क चलो, वहाँ तो बोध मलेगा,
उपदे श मलेगा । ऐसी भावना न वय करे और न सरेको ेरणा करे।
का वठा, ावण वद ३, १९५२
०-केवल ानीने जो स ातोका न पण कया है वह 'पर-उपयोग' है या ' व-उपयोग' ? शा

े ै े ी ो े ी े
मे कहा है क केवल ानी व-उपयोगमे ही रहते ह।
उ०-तीथकर कसीको उपदे श दे तो इससे कुछ 'पर-उपयोग' नही कहा जाता । 'पर-उपयोग'
उसे कहा जाता है क जस उपदे शको दे ते ए र त, अर त, हष और अहकार होते हो । ानीपु षको तो
तादा यसवध नही होता जससे उपदे श दे ते ए र त-अर त नही होते । र त-अर त हो तो 'पर-उपयोग'
कहा जाता है। य द ऐसा हो तो केवली लोकालोक जानते ह, दे खते है वह भी 'पर-उपयोग' कहा जायेगा।
परतु ऐसा नह है, यो क उनमे र त-अर त भाव नही है।
स ातक रचनाके वषयमे यो समझ क अपनी ब न पहँचे तो इससे वे वचन असत् ह, ऐसा
न कहे, यो क जसे आप असत् कहते ह, उसी शा से ही पहले तो आपने जीव, 'अजीव ऐसा कहना
सीखा है, अथात् उ ही शा के आधारसे ही आप जो कुछ जानते है उसे जाना है, तो फर उसे असत्
कहना, यह उपकारके बदले दोष करनेके बराबर है। फर शा के लखनेवाले भी वचारवान थे; इस-
लये वे स ातके वारेमे जानते थे । महावीर वामीके ब त वष के बाद स ात लखे गये ह। इस लये उ हे
असत् कहना दोप गना जायेगा।
___ अभी स ातोक जो रचना दे खनेमे आती है, उ ही अ रोमे अनु मसे तीथकरने कहा हो यह
वात नह है । परतु जैसे कसी समय कसीने वाचना, पृ छना, परावतना, अनु े ा और धमकथा सबधी
पूछा तो उस समय त सवधी बात कही। फर कसीने पूछा क धमकथा कतने कारक है तो कहा क
चार कारक -आ ेपणी, व ेपणी, नवदणी, सवेगणी । इस इस कारक बात होती है उसे उनके पास
जो गणधर होते ह वे यानमे रख लेते है, और अनु मसे उसक रचना करते है। जैसे यहाँ कोई बात
करनेसे कोई यानमे रखकर अनु मसे उसक रचना करता है वैसे । बाक तीथकर जतना कहे उतना'
कही उनके यानमे नही रहता, अ भ ाय यानमे रहता है। फर गणधर भी बु मान थे, इस लये उन
तीथकर ारा कहे ए वा य कुछ उनमे नही आये, यह बात भी नही है। '
स ातोके नयम इतने अ धक स त ह, फर भी य त लोगोको उनसे व आचरण करते ए
दे खते ह । उदाहरणके लये, कहा है क साधको तेल नही डालना चा हये, फर भी वे डालते ह। इससे
कुछ ानीको वाणीका दोष नही है, परतु जीवको समझश का दोष है। जीवमे स न हो तो य
योगमे भी उसे उलटा हो तीत होता है, आर जीवमे स हो तो सुलटा मालूम होता है।
___ ानीक आ ासे चलनेवाले भ क मुमु ुजीवको, य द गु ने चयके पालने अथात् ी आ दके
सगमे न जाने क आ ा क हो, तो उस वचनपर ढ व ास कर वह उस उस थानमे नही जाता, तब
जसे मा आ या मक शा आ द पढकर मुमु ुता ई हो, उसे ऐसा अहंकार रहा करता है, क 'इसमे

६९७
भला या जीतना है ?', ऐसे पागलपनके कारण वह वैसे ी आ दके सगमे जाता है। कदा चत् उस
सगसे एक-दो बार बच भी जाये पर तु बादम उस पदाथक ओर करते ए 'यह ठ क है', ऐसे करते
करते .उसे उसमे आनद आने लगता है, और इससे योका सेवन करने लग जाता है। भोलाभाला
जीव तो ानोक आ ानुसार वतन करता है, अथात् वह सरे वक प न करते ए वैसे सगमे जाता
ही नही । इस कार, जस जीवको, 'इस थानमे जाना यो य नह ' ऐसे ानीके वचनोका ढ व ास
है वह चय तमे रह सकता है;' अथात् वह इस अकायम वृ नही होता.। तो फर जो ानीके
आ ाकारी नही है ऐसे मा आ या मक शा पढकर होनेवाले मुमु ु अहकारमे फरा करते है और
माना करते ह क 'इसमे भला या जीतना है' ऐसी मा यताके कारण ये जीव प तत हो जाते है, और
आगे नह बढ सकते। यह े है वह नवृ वाला है, पर तु जसे नवृ ई हो उसे वैसा है। उसी
तरह जो स चा ानी है, उसके सवाय अ य कोई अ चयवंश'न हो, . यह तो कथन मा है.। और
जसे नवृ नही ई उसे थम तो यो होता है क 'यह े अ छा है, यहाँ रहने जैसा है, पर तु फर
यो करते करते वशेष ेरणा होनेसे े ाकारवृ हो जाती है। ानीक वृ े ाकार नही होती,
यो क े नवृ वाला है, और वय भी नवृ भावको ा त ए ह, इस लये दोनो योग अनुकूल है।
शु क ा नयोको थम तो यो अ भमान रहा करता है, क 'इसमे भला या जीतना है ?' पर तु फर धीरे
धीरे वे ी आ द पदाथ मे फँस जाते है, जब क स चे ानीको वैसा नह होता। '
ा त = ान ा त पु षः । आ त = व ास करने यो य पु ष। '
: -, मुमु ुमा को स य जीव नही समझना चा हये ।
-- • जीवको भुलावेके थान ब त ह, इस लये वशेष- वशेष जागृ त रख, ाकुल न हो, मदता न करे,
और पु षाथधमको वधमान करे। '
जीवको स पु षका योग मलना लभ है। अपारमा थक गु को,. य द अपना श य सरे धममे
चला जाये तो बखार चढ जाता है। पारमा थक गु को 'यह मेरा श य है', ऐसा भाव नह होता। कोई
कुगु -आ त जीव बोध वणके लये स के पास एक बार गया हो, और फर वह अपने उस कुगु के
पास जाये, तो वह कुगु उस जीवके मनपर अनेक व च वक प अ कत कर दे ता है क जससे वह
जीव फर स के पास न जाय। उस वेचारे जीवको तो सत्-असत् वाणीक परी ा नह है, इस लये
वह धोखा खा जाता है, और स चे मागसे प तत हो जाता है।
३ का वठा (म डी), ावण वद ४, १९५२
• तीन कारके ानीपु ष ह- थम, म यम, और उ कृ । इस कालमे ानीपु पक परम
लभता है, तथा आराधक जीव भी ब त कम ह।
पूवकालमे जीव आराधक और स कारी थे, तथा प स सगका योग था, और स मगके माहा य-
का वसजन नही आ था, अनु मसे चला आता था, इस लये उस कालमे उन स कारी जीवोको स प प-
क पहचान हो जाती थी।

े ै े औ ी े
इस कालमे स पु पक लभता है, ब त कालसे स पु षका माग, माहा य और वनय ीणते
हो गये ह और पूवक आराधक जीव कम हो गये ह, इस लये जीवको स पु पको पहचान त काल नह
होती । व तसे जीव तो स पु षका व प भी नही समझते । या तो छकायके र क साधुको, या तो शा य
पढ़े एको, या तो कसी यागीको और या तो चतुरको त पु ष मानते ह, पर तु यह यथाय नह है।

६९८
स पु षके स चे व पको जानना आव यक है । म यम स पु ष हो तो शायद थोड़े समयमे उसक
पहचान होना स भव है, यो क वह जीवक इ छाके अनुकूल वतन करता है, सहज बातचीत करता है
ओर आदरभाव रखता है, इस लये जीवको ी तका कारण हो जाता है। पर तु उ कृ स पु षको तो
वैसी भावना नही होती अथात् न पृहता होनेसे वे वैसा भाव नही रखते, इस लये या तो जीव क जाता
है या वधामे पड़ जाता है अथवा उसका जो होना हो सो होता है। -
जैसे बने वैसे सवृ और सदाचारका सेवन कर । ानीपु ष कोई त नही दे ते अथात् जब गट
माग कहे और त दे नेक बात करे तब त अगीकार करे । पर तु तब तक यथाश स त और सदा-
चारका सेवन करनेमे तो ानीपु पक सदै व आ ा है। दभ, अहकार, आ ह, कोई भी कामना, फलको
इ छा और लोक दखावेक वृ ये सब दोष ह उनसे र हत होकर त आ दका सेवन कर, उनक कसी
भी स दाय या मतके त, या यान आ दके साथ तुलना न कर, यो क लोग जो त प च खान आ द
करते है उनमे उपयु दोष होते है। हमे तो उन दोषोसे र हत और आ म वचारके लये करने ह, इस लये
उनके साथ कभी भी तुलना न कर। . . . . .
___उपयु दोषोको छोडकर सभी सवृ और सदाचारका उ म कारसे सेवन कर।
___ जो नदभतासे, नरहकारतासे और न कामतासे स त करता है उसे दे खकर अडोसी-पडोसी और
सरे लोगोको भी उसे अगीकार करनेका भान होता है। जो कुछ भी सवत कर वह लोक दखावेके लये
नही अ पतु मा अपने हतके लये कर। नदभतासे होनेसे लोगोपर उसका असर तुर त होता है ।
___ कोई भी दभसे दालमे ऊपरसे नमक न लेता हो और कहे क 'मै ऊपरसे कुछ नही लेता, या नही
चलता? इससे या ?" इससे कुछ लोगोपर असर नह होता। और जो कया हो वह भी उलटा कम-
बंधके लये हो जाता है। इस लये य न करते ए नदभतासे और उपयु षण छोडकर त
आ द कर।
त दन नयमपूवक आचाराग आ द पढा कर । आज एक शा पढा और कल सरा पढा यो
न करते ए मपूवक एक शा को पूरा कर । आचारागसू मे कतने ही आशय ग भीर है, सू कृतागमे
भी ग भीर है, उ रा ययनमे भी कसी कसी थलमे ' ग भीर है। दशवैका लक सुगम है। आचारागमे
कोई थल, सुगम है, पर तु ग भीर है। सू कृताग कसी थलमे सुगम है, उ रा ययन कसी जगह सुगम
है, इस लये- नयमपूवक पढ । यथाश उपयोगपूवक गहराईमे जाकर हो सके उतना वचार करे )
दे व अ रहत, गु न ंथ और केवलीका पत धम, इन तीनोको ाको जैनमे स य व कहा
है । मा गु असत् होनेसे दे व और धमका भान न था । स मलनेसे उस दे व और धमका भान आ।
इस लये स के त आ था यही स य व है। जतनी जतनी आ था और अपूवता उतनी उतनी
स य वक नमलता समझ । ऐसा स चा स य व ा त करनेक इ छा, कामना सदै व रख। -
कभी भी दं भसे या अहकारसे आचरण करनेका जरा भी मनमे न लाय। जहां कहना यो य हो
वहाँ कहे, पर तु सहज वभावसे कहे । मदतासे न कहे और आ ोशसे भी न कहे । मा सहज वभावसे
शा तपूवक कहे ।
स तका आचरण शूरतापूवक करे, मद प रणामपूवक नही । जो जो आगार बताये हो, उन सव-
को यानमे रख, पर तु भोगनेको बु से उनका भोग न कर।
स पु षक ततीस आशातनाएं आ द टालनेका कहा है, उनका वचार क जये । आशातना करने-
क वु से आशातना कर । स सग आ है उस स सगका फल होना चा हये । कोई भी अयो य आचरण
हो जाये अथवा अयो य त से वत हो जाये वह स सगका फल नह है। स सग करनेवाले जीवसे वैसा

६९९
उपदे श छाया
वतन नही होता, वैसा वतन करे तो लोक नदाका कारण होता है, और इससे स पु पक नदा होती है।
और स पु षक नदा अपने न म से हो यह आशातनाका कारण अथात् अधोग तका कारण होता है,
इस लये वैसा न कर।
... स सग आ है उसका या परमाथ ? स सग आ हो उस जीवको कैसी दशा होनी चा हये ? इसे
यानमे ल । पाँच वषका स संग आ है, तो उस स सगका फल ज र होना चा हये और जीवको तदनुसार
चलना, चा हये । यह वतन जीवको अपने क याणके लये ही करना चा हये पर तु -लोक- दखावेके लये
नही । जीवके वतनसे लोगोमे ऐसी ती त हो क इसे जो मले ह वह अव य ही कोई स पु ष ह। और
उन स पु पके समागमका, स सगका यह फल है, इस लये अव य ही वह स सग हे. इसमे सदे ह नही।
' ,'' वारवार बोध 'सुननेक इ छा रखनेक अपे ा स पु पके चरणोके समीप रहनेक इ छा और
जतना वशेष'रखे । जो बोध आ है उसे' मरणम रखकर वचारा जाये तो अ य त क याणकारक है।
राळज, ावण वद ६, १९५२
' । - भ यह सव कृ माग है । भ से अहंकार मटता है, व छद र होता है, और सीधे मागमे
चला जाता है, अ य वक प र होते है । ऐसा- यह भ माग े है। .' .

े ै
०-आ माका अनुभव कसे आ कहा जाता है ? '
" 'उ०— जस तरह तलवार यानमेसे नकालनेपर भ मालूम होती है उसी तरह जसे आ मा
दे हसे प भ मालूम होता है उसे आ माका अनुभव आ कहा जाता है। जस तरह ध और पानी
मले ए है उसी तरह आ मा और दे ह मले ए रहते है। जस तरह ध और पानी या करनेसे जब
अलग हो जाते है तब भ कहे जाते ह, उसी तरह आ मा और दे ह जब यासे अलग हो जाते है तब
भ कहे जाते है। जब तक ध' धके और पानी पानीके प रणामको ा त नह करता तब तक कया
करते रहना चा हये। य द आ माको जान लया हो तो फर एक पयायसे लेकर सारे व प तकको ा त
नही होती।
, -, अपने दोप कम हो जाय, आवरण र हो जाये तभी समझ क ानोके वचन स चे है।
..., आराधकता नही है, इस लये उलटे हो. करता है। हमे भ -अभ क - चता नह रखनी
चा हये। अहो | अहो !| अपने घरक बात छोडकर बाहरक बात करता है। पर तु वतमानमे जो
उपकारक हो वही कर । इस लये अभी तो जससे लाभ हो वैसा धम ापार कर। -
. ान उसे कहते, है जो हष-शोकके समय उप थत रहे, अथात् हप-शोक न हो ।
सय हप-शोक आ दके सगमे एकदम तदाकार नह होते। उनके नवंस प रणाम नह
होते; अ ान खड़ा हो क जाननेमे आनेपर तुरत ही दवा दे ते है, उनमे ब त ही जागृ त होती है। जैसे
कोरा कागज पढता हो वैसे उ हे हष-शोक नह होते । भय अ ानका है। जैसे सह चला आता हो तो
सहनीको भय नही लगता, पर तु मनु य भयभीत होकर भाग जाता है। मानो वह कु ा चला आता हो
ऐसे सहनीको लगता है। इसी तरह ानी पौ लक सयोगको समझते है। रा य मलनेपर आनद हो
तो वह अ ान । ानीक दशा ब त ही अ त है। -
यथात य क याण समझमे नही आया उसका कारण वचनको आवरण करनेवाला रा ह भाव.
कपाय है । रा ह भावके कारण म या व या हे यह समझमे नही आता; रा हको छोड़े क म या य
र भागने लगता है। क याणको अक याण और अक याणको क याण समाना म या व है। ग ह
आ द भावके कारण जीवको क याणका व प बतानेपर भी समझमे नह आता। पाय, दराग आ

७००
ीमद राजच
छोडे न जाय तो फर वे वशेष फारमे पो डत करते है। कपाय स ा पसे है, न म आनेपर खडे होते
ह, तब तक खड़े नह होते।
०- या वचार करनेसे समभाव आता है ?
उ०- वचारवानको पु लमे त मयता, तादा य नही होता । अ ानी' पौ लक सयोगके हषका
प पढे तो उसका चेहरा स दखायी दे ता है, और भयका प आता है तो उदास हो जाता है । सप
दे खकर आ मवृ मे भयका हेतु हो तव तादा य कहा जाता है । जसे त मयता होती है उमे ही हप-शोक
होता है । जो न म है वह अपना काय कये बना नह रहता।
म या को बीचमे सा ी ( ान पी) नही है। दे ह और आ मा दोनो भ है ऐमा ानीको
भेद आ है। ानोको वीचमे सा ी है। ानजागृ त हो तो ानके वेगसे, जो जो न म - मले उन
सबको पीछे मोड सकते है।
जीव जब वभाव-प रणाममे रहता है उस समय कम वाँधता है, और वभाव प रणाममे रहता है
उस समय कम नह बांधता। इस तरह स ेपमे परमाथ कहा है। पर तु जोव नही समझता, इस लये
व तार करना पड़ा है, जससे बड़े शा ोक रचना ई है।
व छद र हो तभी मो होता है।
स क आ ाके बना आ माथ जीवके ासो वासके सवाय अ य कुछ भी नह चलता
ऐसो जने क आ ा है।
.-पांच इ याँ कस तरह वश होती है ?
उ०-व तुओपर तु छभाव लानेसे । जैसे फूल सूख जानेसे उसक सुगध थोडी दे र रहकर न
हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है, उससे कुछ स तोष नही होता, वैसे तु छभाव आनेसे इ योके
वषयमे लु धता नही होती । पाँच इ योमे ज ा इ यको वश करनेसे बाक क चार इ याँ सहज ही
वश हो जाती है।
जानीपु पको श यने पूछा, "वारह उपाग तो ब त गहन है, और इस लये वे मुझसे समझे नही
जा सकते, अतः बारह उपागका सार ही बताये क जसके अनुसार चलं तो मेरा क याण हो जाये।" स ने
उ र दया : बारह उपागका सार आपसे कहते है-"वृ योका य करना ।" ये वृ याँ दो कारक
कहो ह--एक वा और सरी अतर । बा वृ अथात् आ मासे बाहर वतन करना। आ माके अ दर
प रणमन करना, उसमे समा जाना, यह अतवृ । पदाथक तु छता भासमान ई हो तो अतवृ
रहतो है । जस तरह थोडीसी कोमतके म के घडेके फूट जानेके बाद उसका याग करते ए आ मवृ
ोभको ा त नह होती, यो क उसमे तु छता समझी गयो है। इसी तरह ानीको जगतके सभी पदाथ
तु छ भासमान होते ह। ानीको एक पयेसे लेकर सुवण इ या द तक सब पदाथ मे एकदम म पन
ही भा सत होता है।
ी ह ी मांसका पुतला है ऐसा प जाना है, इस लये वचारवानको वृ उसमे ु ध नही
होती, फर भी माधको ऐमी आ ा क है क जो हजार दे वागनाओसे च लत न हो सके ऐसा मु न भी,
कटे ए नाक-कानवाली जो सौ बरसक वृ ी है उसके समीप भी न रहे, यो क वह वृ को ु ध
करती ही है, ऐ।। ानोने जाना है। माधुको इतना ान नह है क वह उमसे च लत हो न हो सके,

ऐ े ी े ो ी ी े ो े
ऐमा मानकर उसके समीप रहनेको आ ा नही क । इस वचनपर ानीने वय हो वशेप भार दया
है। इसी लये य द व याँ पदाथ म ोभ ा त कर तो उ ह तुरत ही खीच लेकर उन वा वृ योका
य करे।

७०१
- , चौदह गुण थान है व अश-अशसे आ माके गुण बताये ह, और अतमे वे कैसे है यह बताया है।
जैसे एक हीरा है, उसके एक एक करके चौदह पहल बनाये तो अनुकमसे वशेष- वशेष का त गट होती
__ है, और चौदहो पहल बनानेसे अतमे हीरेक सपूण प का त गट होती है । इसी तरह सपूण गुण गट
होनेसे आ मा सपूण पसे गट होता है। -- -
चौदह पूवधारी यारहवे गुण थानंसे प ततं, होता है, उसका कारण माद है । मादके कारणसे
वह ऐसा मानता है क 'अब मुझमे गुण कट आ।' ऐसे अ भमानसे पहले गुण थानमे जा गरता है;
और अनत कालका मण करना पड़ता है। इस लये जीव अव य जा त रहे; यो क वृ योका ाब य
ऐमा है क वह हर तरहस ठगता ह।
। । । ..!
___ यारहवे गुण थानसे जीव गरता है । उसका कारण यह है क वृ यां थम तो जानती ह क
'अभी यह शूरताम है इस लये अपना बल चलनेवाला नह है, और इससे चुप होकर सब दबी रहती है।
' ोध कडवा है इसम ठगा नह जायेगा, मानसे भी ठगा नही जायेगा, और मायाका बल चलने जैसा नही
है, ऐसा वृ योने समझा ' क'तरत वहाँ लोभका उदय हो जाता है। 'मुझमे कैसे ऋ , स और
ऐ य गट ए है', ऐसी वृ वहाँ आगे आनेसे उसका लोभ होनेसे जीवं वहाँसे गरता है और पहले
गुण थानमे आता है।
'इस कारणसे वृ योका उपशम करनेक अपे ा य करना चा हये ता क ये फरसे उ त न हो।
जब ानीपु ष याग करानेके लये कहे क यह पदाथ छोड दे तब वृ भुलाती है क ठ क है, 'मै दो दन
के वाद याग क ँ गा।' ऐसे भुलावेमे पड़ता है क वृ जानती है क ठ क आ, अडीका चुका सौ
वष जीता है। इतनेम श थलताके कारण मल जाते है क इसके यागसे रोगके कारण खडे होगे, इस.
लये अभी नही परतु बादमे याग क ं गा।' इस तरह वृ याँ ठगती ह।
। - इस कार अना दकालसे जीव ठगा जाता है। कसीका बीस बरसका पु मर गया हो, उस
समय उस जीवको ऐसी कडवाहट लगती है क यह ससार म या है । परतु सरे ही दन बा व यह
कहकर इस दचारको व मरण करा दे ती है क 'इसका लडका कल बडा हो जायेगा, ऐसा तो होता ही
रहता है, या करे ?' ऐसा लगता है, परतु ऐसा नह लगता क जस तरह वह पु मर गया, उसी तरह
म भी मर जाऊँगा। इस लये सपझकर वैर य पाकर चला जाऊँ तो अ छा है। ऐसी वृ नही होती।
यो वृ ठग लेती है।
1 , कोई अ भमानी जीव य मान बैठता है क 'म प डत ँ, शा वे ा , ँ चतुर ह, गुणवान ह, लोग
मुझे गुणवान कहते ह', परंतु उसे जेब तु छ पदाथका सयोग होता है तब तुरत ही उसको वृ उस ओर
आक षत होती है। ऐसे जोवक ानी कहते है क तू जरा वचार तो सही क उस तु छ पदाथक
क मतक अपे ा तेरी क मत तु छ है । जैसे एक पाईक चार वीडो मलती है, अथात् पाव पाई क एक
बोड़ो है । उस वीड़ीका य द तुझे सन हो तो तू अपूव ानीके वचन सुनता हो तो भी य द वहां कहीसे
बोडीका धुआँ आ गया क तेरे आ मामेसे वृ का धुआँ नकलने लगता है, और ानीके वचनोपरसे
ेम जाता रहता है। बीड़ो जैसे पदाथमे, उसको यामे वृ आकृ होनेसे वृ ोभ नव नही
होता | पाव पाईक वीडोसे य द ऐसा हो जाता है, तो सनीक क मत उससे भी तु छ ई, एक पाईके
चार आ मा ए । इस लये येक पदाथमे तु छताका वचार कर बाहर जाती ई वृ को रोक, और
उसका य कर।
__— अनाथदासजीने कहा है क 'एक अ ानीके करोड़ अ भ ाय ह और करोड ा नय का एक
अ भ ाय है।'

७०२
ीमद् राजच
आ माके लये जो मो का हेतु है वह 'सुप च खान' । आ माके लये जो समारका हेतु है वह
' प चरखान' । ँ ढया और तपा क पना करके जो मो जानेका माग कहते है तदनुसार तो तीनो काल-
मे मो नही है।
उ म जा त, आय े , उ म कुल और स सग इ या द कारसे आ मगुण कट होता है। .
आपने माना है वैसा आ माका मूल वभाव नही है, और आ माको कमने कुछ एकदम आवृत
नह कर डाला है । आ माके पु षाथधमका माग वलकुल खुला है।
वाजरे अथवा गे ँके एक- दानेको लाख वष तक रख छोड़ा हो (सड जाये यह बात हमारे यानमे
है) परतु य द उसे पानी, म आ दका सयोग न मले तो उसका उगना स भव नही है, उसी तरह
स सग और वचारका योग न मले तो आ मगुण- गट नही होता।
े णक राजा जरकमे है, परतु समभावमे है, सम कती है, इस लये उ हे ख नहो है।
चार लकडहारोके ातसे चार कारके जीव है :-चार लकडहारे जगलमे गये। पहले मबने
लक ड़याँ ली। वहाँसे आगे चले क चदन आया.। वहॉ तीनने चदन ले लया। एकने कहा 'ना मालूम
इस तरहक लक डयाँ बके या नह , इस लये मुझे तो नही लेनी ह। हम जो रोज लेते है वही मुझे तो

ै े े ो ँ ी े े ो े ो ँ े
अ छ है।' आगे चलनेपर सोना-चाँद आया । तीनमेसे दोने चदन फककर सोना-चाँद लया, एकने नह
लया । वहाँसे आगे चले क र न चताम ण आया। दोमेसे एकने सोना फककर र न चताम ण लया, एकने
सोना रहने दया।
____-(१) यहाँ इस तरह ातका उपनय हण करे क जसने लक डयाँ ही ली और सरा कुछ भी
नही लया उस कारका एक जीव है क जसने लौ कक काम करते ए ानीपु पको नही पहचाना,
दशन भी नह कया, इससे उसके ज म-जरा-मरण भी र नही ए, ग त भी नही सुधरी। . ..
(२) जसने चदन लया और लक ड़याँ फक द , वहाँ ात यो घ टत करे क जसने थोडा सा
ानीको पहचाना, दशन कये, जससे उसक ग त अ छ ई।
. (३) सोना आ द लया, इस ातको यो घ टत करे क जसने ानीको उस कारसे पहचाना
इस लये उसे दे वग त ा त ई।
(४) जसने र न चताम ण लया, इस ातको यो घ टत कर क जस जीवको ानीक यथाथ
पहचान ई वह जीव भवमु आ।
. एक वन है । उसमे माहा यवाले पदाथ ह। उनक जतनी पहचान होती है उतना माहा य लगता
है, और उसो माणमे वह उसे हण करता है। इस तरह ानीपु ष पी वन है। ानी पु पका अग य,
अगोचर माहा य है। उसक जतनी पहचान होती है उतना उसका माहा य लगता है, और उस उस
माणमे उसका क याण होता है। . . .', -, ' .
सासा रक खेदके कारणोको दे खकर जीवको कडवाहट मालूम होते ए भी वह वैरा यपर पैर रख-
कर चला जाता है परतु वैरा यमे वृ नह करती।
... लोग ानीको लोक से दे खे तो पहचान नह सकते।
आहार आ दमे भी ानीपु षक वृ वा रहती है। कस तरह ? जो घडा ऊपर (आकाशम)
है, और पानीमे खडे रहकर, पानीमे रखकर, बाण साधकर उस ( ऊपरके घडे ) को वीवना है।
लोग समझते है क बीधनेवालेक पानीमे है, पर तु वा तवमे दे ख तो जस घडेको वीधना है
उसका ल य करनेके लये वीवनेवालेक आकाशमे है । इस तरह ानीक पहचान कसी वचारवानकोहोती है।

७०३
ढ न य करे क बाहर जाती ई वृ योका य करके अंतवृ करना, अव य यही ानीको
आ ा है। ।।
__ प ी तसे ससारका वहार करनेक इ छा होती हो तो समझना क ानीपु षको दे खा नही
है। जस कार थम ससारमे रसस हत वतन करता हो उस कार, ानीका योग होनेके बाद वतन न
करे, यही ानीका व प है।
ानीको ानद ये, अतद से दे खनेके बाद ीको दे खकर राग उ प नही होता, यो क ानी-
का व प वषयसुखक पनासे भ है। जसने अनत सुखको जाना हो उसे राग नही होता, और जसे
राग नही होता उसीने ानीको दे खा है और उसीने ानीपु षके दशन कये है, फर ीका सजीवन शरीर
अजीवन पसे भा सत ए बना नही रहता, यो क ानीके वचनोको यथाथ पसे स य जाना ह । ानीके
समोप दे ह और आ माको भ -पृथक् पृथक् जाना है, उसे दे ह और आ मा भ - भ भा सत
होते है, और इससे ीका शरीर और आ मा भ भा सत होते है। उसने ीके शरीरको मास,
म , ह ी आ दका पुतला समझा है इस लये उसमे राग उ प नहो होता ।।।
; . . सारे शरीरका बल, ऊपर-नीचेका दोनो कमरके ऊपर है । जसक कमर टू ट गई है उसका सारा
बल चला गया। वषया द जीवक तृ णा है। ससार पी शरीरका बल इस वषया द प कमरके ऊपर
ह। ानीपु षका बोध लगनेसे वषया द प कमर टू ट जाती है। अथात् वषया दक 'तु छता' लगती है।
और इस कार ससारका बल घटता है, अथात् ानीपु पके बोधमे ऐसा साम य है।
! . , ी महावीर वामोको सगम नामके दे वताने ब त ही, ाण याग होनेमे दे र न लगे ऐसे प रपह
दये । उस समय कैसी अ त समता । उस समय उ होने वचार कया क जनके दशन करनेसे
क याण होता है, नाम मरण करनेसे क याण होता है, उनके सगमे आकर इस जीवको अन त संसार
बढनेका कारण होता है। ऐसी अनुक पा आनेसे आँखमे आसू आ गये | कैसी अ त समता | परक
दया कस तरह फूट नकली थी ! उस समय मोहराजाने य द जरा ध का लगाया होता तो तो तुरत ही
तीथकर वका सभव न रहता, य प दे वता तो भाग जाता। पर तु जसने मोहनीय मलका मलसे नाश
कया है, अथात् मोहको जीता है, वह मोह कैसे करे?
ी महावीर वामीके समीप गोशालेने आकर दो साधुओको जला डाला, तब य द थोडा ऐ यं
बताकर साधओको र ा को होती तो तीथ कर वको फरसे करना पड़ता, पर तु जसे 'म गु है, ये मेरे
श य ह', ऐसी भावना नही है उसे वेसा कोई कार नही करना पडता । 'मै शरीर-र णका दातार नही
ँ, केवल भाव-उपदे शका दातार ँ, य द म र ा क ँ तो मुझे गोशालेक र ा करनी चा हये अथवा सारे
जगतक र ा करनी उ चत है', ऐसा सोचा। अथात् तीथकर यो मम व करते ही नह ।
· वेदातमे इस कालमे चरमशरीरी कहा है। जने के अ भ ायके अनुसार भी इस कालमे एकाव-
तारी जीव होता है । यह कुछ मामूली बात नह है यो क इसके बाद कुछ मो होनेमे अ धक दे र नही
है । जरा कुछ बाक रहा हो, रहा है वह फर सहजमे चला जाता है । ऐसे पु पक दशा, वृ याँ कैसी
होती है ? अना दको ब तसो वृ याँ शात हो गयी होती है; और इतनी अ धक शात हो गयी होती ह
क राग े ष सब न होने यो य हो जाते ह, उपशात हो जाते ह।
स याँ होनेके लये जो जो कारण, साधन बताये ए होते है उ ह न करनेको ानी कभी नही
कहते । जैसे रातमे खानेसे हसाका कारण होता है, इस लये ानी आ ा करते हो नह क त रातमे खा ।

ो ो े ो औ ो े ो े ी ो ो
पर तु जो जो अहभावसे आचरण कया हो, और रा भोजनसे हो अथवा अमुाने ही मो हो, अथवा
इसमे ही मो है, ऐसा रा हसे माना हो तो वैसे रा होको छु डानेके लये ानीपु ष कहते ह क

७०४
ीमद राजच
'छोड दे , तूने अहवृ से जो कया था उसे छोड दे और ानी पु पोक आ ासे वैसा कर ।' और वैसा
करे तो क याण होता है। अना दकालसे दनमे और रातमे खाया है पर तु जोवका मो नही हआ। .
इस कालमे आराधकताके कारण घटते जाते ह, और वराधकताके ल ण बढते जाते ह।
केशी वामी वडे थे, और पा नाथ वामीके श य थे, तो भी पाच महा त अगीकार कये थे ।
केशी वामी और गौतम वामी महा वचारवान थे, पर तु केशी वामीने यो नही कहा 'म द ामे बडा , ँ
इस लये आप मेरे पास चा र हण कर।' वचारवान और सरल जीव, जसे तुरत क याणयु हो
जाना है उसे ऐसी बातका आ ह नही होता ।।
कोई साधु जसने थम आचाय पसे अ ानाव थासे उपदे श कया हो, और पीछे से उसे ानी-
पु षका समागम होनेपर वे ानीपु प य द आ ा करे क जस थलमे आचाय पसे उपदे श कया हो
वहाँ जाकर एक कोनेमे सबसे पीछे बैठकर सभी लोगोसे ऐसा कहे क 'मने अ ानतासे उपदे श दया है,
इस लये आप भल न खाय', तो साधुको उस तरह कये बना छु टकारा नही है । य द वह साधु यो कहे
क 'मुझसे ऐसा नही होगा, इसके बदले आप कहे तो पहाडपरसे कूद पडू ं अथवा सरा चाहे जो कहे
वह क ँ , पर तु वहाँ तो मुझसे नही जाया जा सकेगा।' ानी कहते है क तब इस बातको जाने दे ।
हमारे संगमे भी मत आना । कदा चत् तू लाख बार पवतसे गरे तो भी वह कसी कामका नही है।
यहाँ तो वैसे करेगा तो ही मो मलेगा। वैसा कये बना मो नही है; इस लये जाकर मापना मांगे
तो ही क याण होगा।'
. गौतम वामी चार ानके धारक थे और आन द ावकके पास गये थे। आन द ावकने कहा,
"मुझे ान उ प आ है।' तब गौतम वामीने कहा 'नह , नही, इतना सारा हो नही सकता, इस लये
आप मापना ले ।' तव आन द ावकने वचार कया क ये मेरे गु ह, कदा चत् इस समय भूल करते
हो तो भी भूल करते ह, यह कहना यो य नह ; गु ह इस लये शा तसे कहना यो य है, यह सोचकर
आन द ावकने कहा क 'महाराज | स त वचनका म छा, म कड या अस त वचनका म छा म
कडं ' तब गोतम वामीने कहा 'अस त वचनका म छा म कडं ।' तब आन द ावकने कहा,
'महाराज | मै म छा म कड लेने यो य नही ँ।' फर गौतम वामी;चले गये, और जाकर महावीर-
वामीसे पूछा.। (गौतम वामी उसका समाधान कर सकते थे, पर तु-गु के होते ए वैसा न करे जससे
महावीर वामीके पास जाकर यह सब, बात कही ।) महावीर वामीने कहा, 'हे गौतम | हाँ, आनद दे खता
है ऐसा ही है और आपक भूल है, इस लये आप आनदके पास जाकर मा मांग।' 'तहत' कहकर
गौतम वामी मा मांगनेके लये चल दये । य द गौतम वामीने मोहनामके महा सुभटका पराभव न
कया होता तो वे वहाँ न जाते, और कदा चत गौतम वामी यो कहते, क 'महाराज | आपके इतने
सब श य ह, उनक मै चाकरी क ँ , परतु वहाँ तो नही जाऊँ', तो वह बात मा य न होती । गौतम वामी
वय वहाँ जाकर मा माँग आये।
'सा वादन-सम कत' अथात् वमन कया आ सम कत, अथात् जो परी ा ई थी, उसपर आव-
रण आ जाये तो भी म या व और सम कतक क मत उसे भ भ लगती है । जैसे वलोकर छाछमेसे
म खन नकाल लया, और फर वापस छाछमे डाला। म खन और छाछ पहले जैसे पर पर मले ए
थे वैसे फरसे नही मलते, उसी तरह सम कत म या वके साथ नह मलता । हीराम णक क मत ई
है, परतुः काचक म ण आये तब हीराम ण सा ात् अनुभवमे आता है, यह ात भी यहाँ घटता ह।
न ंथगु अथात् पैसार हत गु नही, पर तु जसका थभेद हो गया है, ऐसे गु । स क
पहचान होना वहारसे थभेद होनेका उपाय है। जैसे कसी मनु यने काचक म ण लेकर सोचा क

७०५
'मेरे पास असली म ण है, ऐसी कही भी नही मलती।' फर उसने एक वचारवानके पास जाकर कहा,
'मेरो म ण असली है।' फर उस वचारवानने उससे ब ढया ब ढया और अ धका धक मू यक म णयाँ
वताकर कहा क 'दे ख, इनमे कुछ फरक लगता है ? ठ क तरहसे दे ख ।' तब उसने कहा, 'हॉ फरक
लगता है। फर उस वचारवानने झाड-फानूस बताकर कहा, दे ख आपक म ण जैसी तो हजारो मलती है।
सारा झाड़-फानूस दखानेके बाद उसे जब म ण दखायी तब उसे उसको ठ क ठोक क मत मालूम ई, फर
उसने नकलीको नकली जानकर छोड दया । बादमे कोई सग मलनेसे उसने कहा क 'तुने जस म णको
असली समझा है ऐसी म णयाँ तो ब त मलती ह। ऐसे आवरणोसे वहम आ जानेसे जीव भूल जाता है,
पर तु बादमे उसे नकली समझता है। जस कार असलीक क मत ई हो उस कारसे वह तुरत
जागृ तम आता है क असली अ धक नही होती, अथात् आवरण तो होता है पर तु पहलेक पहचान भूली
नही जाती । इस कार वचारवानको स का योग मलनेसे त व ेतो त होती है, पर तु फर म या वके
संगसे आवरण आ जानेसे शका हो जाती है । य प त व ती त न नही होती पर तु उसंपर आवरण
आ जाता है । इसका नाम 'सा वादनस य व है।
स , स े व, केवली ारा पत धमको स य व कहा है, पर तु स े व और केवली ये दोनो
स मे समाये ए ह।
स और अस मे रात- दनका अ तर है।

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एक जौहरी था । ापार करते ए ब त नुकसान हो जानेसे उसके पास कुछ भी नही रहा।
मरनेका समय आ प ंचा, तब ी-ब चोका वचार करता है क मेरे पास कुछ भी नही है, पर तु
य द अभी यह बात क ँ गा तो लड़का छोटो उमरका है, इससे उसक दे ह छू ट जायेगी। उसने ोको
ओर दे खा तो ीने पूछा, 'आप कुछ कहते ह ?" पु षने कहा, ' या क ँ ?' ीने कहा क ' जससे
मेरा और ब चेका उदर-पोषण हो ऐसा कोई उपाय बताइये और कुछ क हये। तब उसने
वचार कर कहा क घरमे जवाहरातक पेट मे क मती नगक ड बया है उसे, जब तुझे ब त ज रत
पडे तब नकाल कर मेरे म के पास जाकर बकवा दे ना, उससे तुझे ब तसा मल जायेगा। इतना
कहकर वह पु ष कालधमको ा त आ। कुछ दनोके बाद वना पैसे उदरपोषणके लये पी डत होते
दे खकर, वह लडका, अपने पताके पूव जवाहरातके नग लेकर अपने चाचा ( पताके मन जौहरी) के
पास गया और कहा क 'मुझे ये नग बेचने ह, उनका जो आये वह मुझे द।" तब उम जौहरी भाईने
पूछा, 'ये नग बेचकर या करना है ?' 'उदर भरनेके लये पैसोक ज रत है', यो उस लडकेने कहा।
तब उस जौहरीने कहा, 'सौ-पचास पये चा हये तो ले जा, और रोज मेरी कानपर आते रहना, और
खच ले जाना। ये नग अभी रहने दे ।' उस लडकेने उस भाईक वातको मान ली, और उस जवाहरातको
वापस ले गया । फर रोज वह लडका जौहरीक कानपर जाने लगा और जौहरोके समागमसे हीरा,
प ा, मा णक, नीलम सबको पहचानना सीख गया और उसे उन सवक क मत मालूम हो गयी। फर
उस जौहरीने कहा, 'तू अपना जो जवाहरात पहले वेचने लाया था उसे ले आ, अव वेच दगे।' फर
घरसे लडकेने अपने जवाहरातक ड वया लाकर दे खा तो नग नकली लगे इस लये तुरत फक दये । तव
उस जौहरीने पूछा क 'तूने फेक यो दये ?' तब उसने कहा क 'एकदम नकली ह इस लये फक दये
है।' य द उस जौहरीने पहलेसे ही नकली कहे होते तो वह मानता नह , पर तु जब वयको व तुक
क मत मालूम हो गयी और नकलीको नकली पसे जान लया तब जौहरोको कहना नह पड़ा क नकली
ह। इसी तरह वयको स क परी ा हो जानेपर अस को असत् जान लया तो फर जीव तुरत ही
अस को छोडकर स के चरणमे आ पडता है, अथात् अपनेमे क मत करनेक श आनी चा हये।

७०६,
ीमद् राजच
गु के पास रोज जाकर एक य आ द जीवोके संबंधमे अनेक कारक शकाएँ तथा क पनाएँ
करके पूछा करता है, रोज जाता है और वहीक वही बात पूछता है। पर तु उसने या सोच रखा है. ?..
एके यमे जाना सोचा है या ? पर तु कसी दन यह नही पूछता, क एक यसे लेकर पच यको
जाननेका परमाथ या है ? एक य आ द जीवो सबधी क पनाओसे कुछ म या व थका छे दन नही
होता । एक य आ द जीवोका व प जाननेका कोई फल नही है। वा तवमे तो सम कत ा त करना.
है । इस लये गु के पास जाकर नक मे करनेक अपे ा गु से कहना क एके य आ दक बात
आज जान ली है, अब उस बातको आप कल न कर, पर तु सम कतक व था करे। ऐसा कहे तो
इसका कसी दन अ त आवे । पर तु रोज एक य आ दको माथाप ची कर तो इसका क याण कब हो ?,
सम खारा है। एकदम तो उसका खारापन र नह होता। उसके लये इस कार उपाय है-
क समु मेसे एक एक वाह लेना, और उस वाहमे, जससे उस पानीका खारापन र हो और मठास-
आ जाये ऐसा ार डालना । पर तु उस पानीके सुखानेके दो कार है-एक तो सूयका ताप और सरा.
जमीन, इस लये पहले जमीन तैयार करना और फर ना लयो ारा पानी ले जाना और फर ार
डालना क जससे खारापन मट जायेगा । इसी तरह म या व पी समु है, उसमे कदा ह पी खारापन
है, इस लये कुल धम पी वाहको यो यता प जमीनमे ले जाकर स ोध पी ार डालना जससे
स पु ष पी तापसे खारापन मट जायेगा।
" बळ दे ह ने मास उपवासी, जो छे मायारग रे।
तोपण गभ अनता लेश, े बोले बीजु अंग रे॥'
जतनी ा त अ धक उतना म या व अ धक ।
सबसे बड़ा रोग म या व ।
जब जब तप या करना तब तब उसे व छदसे न करना अहकारसे न करना, लोग के लये न
करना । जीवको जो कुछ करना है उसे व छदसे न करे। 'मै सयाना है', ऐसा मान रखना वह स
भवके लये ? 'मै सयाना नही ह' यो जसने समझा वह मो मे गया है। मु यसे मु य व न व छन◌्द
है। जसके रा हका छे दन हो गया है वह लोगोको भी य होता है, रा ह छोड दया हो तो सरोको
भी य होता है; इस लये रा ह छोडनेसे सब फल मलने सभव है।
गौतम वामीने महावीर वामीसे वेदके पूछे, उनका, ज होने सभी दोषोका य कया है
ऐसे उन महावीर वामीने वेदके ात दे कर समाधान स कर दया ।
सरेको ऊँचे गुणपर चढाना, पर तु कसीक नदा नही करना । कसीको व छदसे कुछ नही
कहना । कहने यो य हो तो अहकारर हत भावसे कहना । परमाथ से राग े ष कम ए हो तो फलीभूत
होते है । वहारसे तो भोले जीवोके भो राग े ष कम ए होते है, पर तु परमाथसे राग े ष मद हो जाय
तो क याणका हेतु है।
महान पु षोको से दे खनेसे सभी दशन समान ह। जैनमे बीस लाख जीव मतमतातरमे पडे
ह । ानीको से भेदाभेद नही होता।
जस जीवको अन तानुब धीका उदय है उसको स चे पु षक बात सुनना भी नही भाता ।
म या वक थ है उसक सात कृ तयाँ ह। मान आये तो सातो आती है, उनमे अन ता-
नुब धी चार कृ तयाँ च वत के समान ह। वे कसी तरह थमेसे नकलने नही दे ती । म या व

े ै औ ै े ै ो ी
१ भावाथ- वल दे ह है और एक-एक मासका उपवास करता है, पर तु य द अतरमे माया है तो भी,
जीव अन त गभ धारण करेगा, ऐसा सरे अगम कहा है ।

७०७
रखवाला है। सारा जगत उसक सेवा-चाकरी करता है ! . . . . . . . . ., .
- ०-उदय कम कसे कहते है ?
उ.-ऐ यपद ा त होने पर उसे ध का मारकर वापस बाहर नकाल दे क 'इसक मुझे ज रत
नही है, मुझे इसे या करना है ?' कोई राजा धानपद दे तो भी वय उसे लेनेक इ छा न करे। 'मझे
इसको या करना है ? यह घर सबधी इतनी उपा ध भी ब त ह। इस तरह मना करे । ऐ यपदक
अ न छा होनेपर भी राजा पुन पुन दे ना चाहे और इस कारण वह सरपर आ पड़े, तो वह वचार करे
क "य द तू धान होगा तो ब तसे जीवोक दया पलेगी, हसा कम होगी, पु तकशालाएँ होगी, पु तक
छपायी जायगी ।' ऐसे धमके ब तसे हेतुओको समझकर वैरा य भावनासे वेदन कर, उसे उदय कहा जाता
है । इ छास हत भोगे और उदयं कहे, वह तो श थलताका और ससारम भटकनेका कारण होता है। .
कतने हो जोव मोहग भत वैरा यसे और कतने ःखग भत वैरा यसे द ा लेते है । 'द ा लेने-
से अ छे अ छे नगरो और गाँवोमे फरनेको मलेगा। द ा लेनेके बाद अ छे अ छे पदाथ खानेको
मलगे, नगे पैर धूपमे चलना पडेगा इतनी तकलीफ है, पर तु वैसे तो साधारण कसान या जमीनदार
भी धूपमे अथवा नगे पैर चलते है, तो उनक तरह सहज हो जायेगा, पर तु और कसी तरहसे ख नही
है और क याण होगा।' ऐसी भावनासे द ा लेनेका जो वैरा य हो वह 'मोहग भत वैरा य' है।
पूनमके दन ब तसे लोग डाकोर जाते ह, पर तु कोई ‘यह वचार नही करता क इससे अपना
या क याण होता है ? पूनमके दन रणछोडजीके दशन करनेके लये बाप-दादा जाते थे। यह दे खकर
लडके जाते ह, पर तु उसके हेतुका वचार नह करते । यह कार भी मोह भत वैरा यका है।
1' जो सासा रक खसे ससार याग करता है उसे ःखग भत वैरा य समझे।
जहाँ जाये वहाँ क याणक वृ हो ऐसी ढ म त करना, कुलग छका आ ह छू टना यही स सग-
के माहा यके सुननेका माण है। धमके मतमतातर आ द बडे बडे अनतानुव धी पवतको दरारोक तरह
कभी मलते ही नही । कदा ह नही करना और जो कदा ह करता हो उसे धीरजसे समझाकर छु डा दे ना
तभी समझनेका फल है । अनतानुबधी मान क याण होनेमे बीचमे त भ प कहा गया है। जहाँ जहाँ
गुणी मनु य हो वहाँ वहाँ उसका सग करनेके लये वचारवान जीव कहता है । अ ानीके ल ण लौ कक-
भावके होते है । जहाँ जहाँ रा ह हो वहाँ वहाँसे छू टना । ‘इसक मुझे ज रत नही है' यही समझना है।
५ , , राळज, भादो सुद ६, श न, १९५२
मादसे योग उ प होता है । अ ानीको माद है । योगसे अ ान उ प होता हो तो वह ानो-
मे भी स भव है, इस लये ानीको योग होता है पर तु माद नही होता ।
___ " वभावमे रहना और वभावसे छू टना" यही मु य बात तो समझनी है। वाल जीवोके समझनेके
लये ानीपु षोने स ातोके अ धकाश भागका वणन कया है।
कसीपर रोष नही करना, तथा कसीपर स नही होना, यो करनेसे एक श यको दो घड़ीमे
केवल ान गट आ ऐसा शा मे वणन है।।
जतना रोग होता हे उतनी ही उसक दवा करनी पड़ती है। जीवको समझना हो तो महज हो
वचार गट हो जाये । पर तु म या व पी बडा रोग है, इस लये समझनेके लये ब त काल बीतना
चा हये । शा मे जो सोलह रोग कहे ह, वे सभी इस जीवको ह, ऐसा समझ।
___ जो साधन बताये है वे एकदम सुलभ ह। व छ दसे, अहकारसे, लोकलाजसे, कुलधमके र णके
लये तप या न कर, आ माथके लये करे । तप या वारह कारक कही है। आहार न लेना इ या द
बारह कार है। स साधन करनेके लये जो कुछ बताया हो उसे स पु षके आ यसे उस कारसे करे।

७०८
ीमद् राजच
अपने आपसे वतन करना वही व छ द है ऐसा कहा है । स क आ ाके बना ासो वास याके
सवाय अ य कुछ न करे।
साधु लघुशका भी गु से पूछकर करे ऐसी ानीपु ष को आ ा है। ..
। व छ दाचारसे श य बनाना हो तो साधु आ ा नही मांगता अथवा उसक क पना कर लेता,
है। परोपकार करनेमे अशुभ क पना रहती हो, और वैसे ही अनेक वक प करके व छ द न छोड़े वह
अ ानी आ माको व न करता है, तथा ऐसे सब कारोका सेवन करता है, और परमाथका माग छोङ
कर वाणी कहता है यही अपनी चतुराई और इसीको व छ द कहा है। . .
ानीक येक आ ा क याणकारी है। इस लये उसमे यूना धक या छोटे -बडेक क पना न
करे । तथा उस वातका आ ह करके झगड़ा न कर। ानी जो कहते ह वही क याणका हेतु है यो
समझमे आये तो व छ द मटता है। ये ही यथाथ ानी है इस लये से जो कहते ह तदनुसार ही कर।
सरा कोई वक प न कर। . .
. . . . . .
जगतमे ा त न रख, इसमे कुछ भी नही है। यह बात ानीपु ष ब त ही अनुभवसे वाणी ारा
कहते है । जीव वचार करे क मेरी बु थूल है, मुझे समझमे नही आता । ानी जो कहते है वे वा य
स चे है, यथाथ है,' यो समझे तो सहजमे ही दोष.कम होते ह।
जैसे एक वषासे ब तसी वन प त फूट नकलती है, वैसे ानोको एक. भी आ ाका आराधन करते,
े ो े ै
ए ब तसे गुण गट हो जाते है। ..
य द ानीक यथाथ ती त हो गयी है, और ठोक तरहसे जाँच क है क 'ये स पु ष है, इनक
दशा स ची आ मदशा है, और इनसे क याण होगा ही, और ऐसे ानीके वचनोके अनुसार वृ करे,
तो ब त ही.दोष, व ेप मट जाते ह। जहां जहाँ दे खे वहाँ वहाँ अहकारर हत वतन करता है और
उसका सभी वतन सीधा ही होता है । यो स सग,-स पु षका योग अनत गुणोका भ डार है।
. जो जगतको बतानेके लये कुछ नही करता उसीको- स सग फलीभूत होता है ।, स सग और,
स पु षके बना कालमे क याण होता ही नही - ... ... .
वा यागसे जीव ब त ही भूल, जाता है । वेश, व आ दमे ा त भूल जाय। आ माक
वभावदशा और वभावदशाको पहचान।
___कई कम को भोगे बना छु टकारा नही है। ानीको भी उदयकमका स भव है । पर तु गृह थपना
साधुपनेक अपे ा अ धक है यो बाहरसे क पना करे तो कसी शा का योगफल नही मलता।
तु छ पदाथमे भी वृ चलायमान होती है। चौदह पूवधारी भी वृ क चपलतासे और अहता
फु रत हो जानेसे नगोद आ दमे प र मण करते ह। यारहव गुण थानसे भी जीव णक लोभसे
गरकर पहले गुण थानमे आता है । 'वृ शात क है, ऐसी अहंता जीवको फु रत होनेसे, ऐसे भुलावेसे
भटक पड़ता है।
___ अ ानीको धन आ द पदाथ मे अतीव आस होनेसे कोई भी चीज खो- जाये तो उससे अनेक
कारक आत यान आ दक वृ को ब त कारसे फैलाकर, स रत, कर कर ोभको ा त होता है,
यो क उसने उस पदाथक तु छता नही समझी, पर तु उसमे मह व माना है।
. म के घड़ेमे तु छता समझी है इस लये उसके फूट जानेसे ोभ ा त नही होता । चाँद , सुवण
आ दमे मह व माना है इस लये उनका वयोग होनेसे अनेक कारसे आत यानक वृ को फु रत करता है।
जो जो वृ मे फु रत होता है और इ छा करता है, वह 'आ व' है।

७०९
उस उस वृ का नरोध करता है वह 'संवर' है।
अनत वृ याँ अनत कारसे फु रत होती ह, और अनत कारसे जीवको बाँधती ह । बालजी
को यह समझमे नह आता, इस लये ा नयोने उनके थूल भेद इस तरह कहे है क समझमे आ जाय।
वृ योका मूलसे य नही कया इस लये पुन पुन. फु रत होती ह। येक पदाथक वष
फुरायमान बा वृ योको रोके और उन वृ यो-प रणामोको अ तमुख करे।
अनतकालके कम अनतकाल बतानेपर नही जाते, पर तु पु षाथसे जाते है। इस लये कममे
नही है पर तु पु षाथमे बल है । इस लये पु षाथ करके आ माको ऊँचे लानेका ल य रख।
परमाथक एकक एक बात सौ बार पूछे तो भी ानीको कटाला नही आता, पर त-उ हे अनुव
आती है क इस बेचारे जीवके आ मामे यह बात वचारपूवक थर हो जाये तो अ छा है।
योपशमके अनुसार वण होता है।
- स य व ऐसी व तु है क वह आता है तंब गु त नही रहता। वैरा य पाना हो तो कमक ह
कर । कमको धान न कर पर तु आ माको मूध य रख- धान कर।
ससारी काममे कमको याद न कर, पर तु पु षाथको आगे लाय। कमका वचार करते रहनेसे
वह र होनेवाला नही है, पर तु ध का लगायगे तो जायेगा, इस लये पु षाथ कर।
बा या करनेसे अना द दोष कम नही होता । बा यामे जीव क याण मानकर अ भम
करता है।
__ वा त अ धक लेनेसे म या वका नाश कर दे ग,े ऐसा जीव सोचे तो यह स भव नही, य
जैसे एक भसा जो वार बाजरेके हजारो पूले खा गया है वह एक तनकेसे नही डरता वैसे म या व
भैसा जो अनतानुबधी कषायसे पूला पी अनत चा र खा गया है वह तनके पी वा तसे
डरेगा ? पर तु जैसे भसेको कसी बधनसे बाँध द तो वह अधीन हो जाता है, वैसे म या व पी भैसे
आ माके बल पी बधनसे बाँध दे तो अधीन होता है, अथात् आ माका बल बढता है तब म य
घटता है।
___ अना दकालके अ ानके कारण जतना काल बीता, उतना काल मो होनेके लये नही चा ह
यो क पु षाथका बल कम क अपे ा अ धक है। कई जीव द धड़ोमे क याण कर गये है । स य द
जीव चाहे जहाँसे आ माको ऊँचा उठाता है, अथात् स य व आनेपर जीवक वदल जाती है।
म या सम कतोके अनुसार जप, तप आ द करता है, ऐसा होनेपर भी म या के ज
तप आ द मो के हेतुभत नही होते, ससारके हेतुभूत होते ह। सम कतोके जप, तप आ द मो के हेतु
होते है । सम कती दभर हत करता है, आ माक ही नदा करता है, कम करनेके कारण से पीछे हर
है। ऐसा करनेसे उसके अहकार आ द सहज ही घट जाते ह । अ ानीके सभी जप, तप आ द अहकार
बढाते है, और ससारके हेतु होते है।
जैन शा ोमे कहा है क ल धयाँ उ प होती ह । जैन और वेद ज मसे ही लड़ते आये ह, प
इस बातको तो दोनो ही मा य करते ह, इस लये यह स भव है। आ मा सा ी दे ता है तब आ म
उ लास प रणाम आता है।
होम, हवन आ द लौ कक रवाज ब त च लत दे खकर तीथकर भगवानने अपने कालमे दया
वणन बहत ही सू म रो तसे कया है । जैनधमके जैसे दया सबधी वचार कोई दशन अथवा स दायव
नही कर सके है, यो क जैन पच यका घात तो नह करते, पर तु उ ह ने एक य आ दने जो
अ त वको वशेष- वशेष दढ करके दयाफे मागका वणन कया है।
-
-
७१०
ीमद् राजच
इस कारण चार वेद, अठारह पुराण आ दका जसने वणन कया है, उसने अ ानसे, व छं दसे,
म या वसे और सशयसे कया है, ऐसा कहा है । ये वचन ब त ही कठोर कहे ह, वहाँ ब त अ धक
वचार करके फर वणन कया है क अ य दशन, वेद आ दके जो थ है उ हे य द स य
जीव पढे तो वे स यक् कारसे प रण मत होते ह, और जने के अथवा चाहे जैसे थोको य द म या-
पढे तो म या व पसे प रण मत होते ह।
जीवको ानीपु पके समीप उनके अपूव वचन सुननेसे अपूव उ लास प रणाम आता है, पर तु
फर माद हो जानेसे अपूव उ लास नही आता । जस तरह अ नक अगीठ के पास वैठे हो तब ठं डी
नही लगती, और अगीठ से र चले जानेसे ठडी लगती है, उसी तरह ानी पु षके समीप उनके अपूव
वचन सुननेसे माद आ द चले जाते है, और उ लास प रणाम आता है, पर तु फर माद आ द उ प
हो जाते है । य द पूवके स कारसे वे वचन अंतरमे प रणत हो जाये तो दन त दन उ लास प रणाम
बढ़ता ही जाता है और यथाथ पसे भान होता है । अ ान मटनेपर सारो भूल मटती है, व प जाग त-
मान होता है। बाहरसे वचन सुननेसे अतप रणाम नही होता, तो फर जस तरह अगीठ से र चले
जानेपर ठडी लगती है उसी तरह दोप कम नह होते।
केशी वामीने परदे शी राजाको बोध दे ते समय 'जड जैसा', 'मूढ जैसा' कहा था, उसका कारण पर-
दे शी राजामे पु षाथ जगाना था । जडता-मूढता मटानेके लये उपदे श दया था । ानीके वचन अपूव पर-
माथके सवाय सरे कसी हेतुसे नही होते । बालजीव ऐसी बात करते है क छ थतासे केशी वामी पर-
दे शी राजाके त इस कार बोले थे, पर तु यह वात नही है । उनक वाणी परमाथके लये ही नकली थी।
जड पदाथके लेन- े रखनेमे उ मादसे वतन करे तो उसे असयम कहा है। उसका कारण यह है क
ज द से लेने-रखनेमे आ माका उपयोग चूककर तादा यभाव हो जाता है । इस हेतुसे उपयोग चूक जाने-
को असयम कहा है।
मुहप ी बाँध कर झूठ बोले, अहकारसे आचायपद धारण कर दभ रखे और उपदे श दे , तो पाप
लगता है, मुहप ीको जयणासे पाप रोका नही जा सकता । इस लये आ मवृ रखनेके लये उपयोग रखे।
ानीके उपकरणको छू नेसे या शरीरका पश होनेसे आशातना लगती है ऐसा मानता है, क तु वचनको
अ धान करनेसे तो वशेष दोष लगता है, उसका तो भान नही है। इस लये ानीक कसी भी कार-
से आशातना न हो ऐसा उपयोग जागृत-जागृत रखकर भ गट हो तो वह क याणका मु य माग है।
ी आचाराग सू मे कहा है क 'जो आ व है वे प र व ह', 'जो प र व ह वे आ व ह'। जो
आ व है वह ानोको मो का हेतु होता है, और जो सवर है फर भी वह अ ानीको वधका हेतु होता
है, ऐसा प कहा है । उसका कारण ानीमे उपयोगको जागृ त है, और अ ानीमे नही है।
उपयोग दो कारके कहे है-१ -उपयोग, २ भाव-उपयोग ।
जीव, भावजीव । जीव वह मूल पदाथ है । भावजीव, वह आ माका उपयोग-भाव है।
भावजीव अथात् आ माका उपयोग जस पदाथमे तादा य पसे प रणमे त प ू आ मा कहे । जैसे
टोपी दे खकर, उसमे भावजीवक बु तादा य पसे प रणमे तो टोपी-आ मा कहे। जैसे नद का पानी
आ मा है। उसमे ार, गधक डाल तो गधकका पानी कहा जाता है | नमक डाले तो नमकका
पानी कहा जाता है। जस पदाथका सयोग हो उस पदाथ प पानी कहा जाता है। उसी तरह आ माको
जो सयोग मले उसमे तादा यभाव होनेसे वही आ मा उस पदाथ प हो जाता है। उसे कमवधक
अनत वगणा बँधती ह, और वह अनत ससारमे भट ा हे। अपने उपयोगमे, वभावमे आ मा रहे तो
कमवध नह होता।

७११
- 'पाँच इ य का अपना अपना वभाव है। 'च का दे खनेका वभाव है वह दे खता है। कानका
सुननेका वभाव है वह सुनता है । जोभका वाद, रस लेनेका वभाव है, वह ख ा, खारा वाद लेती
है । शरीर, पश यका वभाव पश करनेका है, वह पश करता है। इस तरह येक इ य अपना
अपना वभाव कया करती है, पर तु आ माका उपयोग त प ू होकर, तादा य प होकर उसमे हष-
वपाद न करे तो कमबध नही होता । इ य प आ मा हो तो कमवधका हेतु है।
‘भादो सुद ९, १९५२
जैसा स का साम य हे वैसा सब जीवोका है। मा अ ानसे यानमे नही आता । “ वचारवान
जीव हो उसे तो त सबधी न य वचार करना चा हये। '
जीव य समझता है क मै जो या करता है उससे मो है। या करना यह अ छ बात है,
पर तु लोकस ासे करे तो उसे उसका फल नही मलता । ' .
। एक मनु यके हाथमे चताम ण आया हो, परतु य द उसे उसका पता न चले तो न फल है, य द
पता चले तो सफल है। उसी तरह जीवको स चे ानोक पहचान हो तो सफल है। "
जीवक अना दकालसे भूल चली आती है। उसे समझनेके लये जीवक जो भूल म या व है
उसका मूलसे छे दन करना चा हये । य द मूलसे छे दन कया जाये तो वह फर अकु रत नही होती । नही
तो वह फर अकु रत हो जाती है । जस तरह पृ वीमे वृ का मूल रह गया हो तो वृ फर उग आता
है उसी तरह । इस लये जीवक मूल भूल या है उसका पुन. पुन वचार करके उससे मु होना चा हये ।
'मुझे कससे बधन होता है ?' 'वह कैसे र हो ?' यह वचार थम कत है।

ो े े ै ी ो ी
रा भोजन करनेसे आल य, माद आता है, जागृ त नही होती, वचार नह आता, इ या द
अनेक कारके दोष रा भोजनसे उ प होते ह, मैथुनके अ त र भी सरे ब तसे दोष उ प होते है।
कोई हरी वन प त छ लता हो तो हमसे तो वह दे खा नह जा सकता । इसी तरह कोई भी आ मा
उ वलता ा त करे तो उसे अतीव अनुकंपा बु रहती है।
' ानमे सीधा भासता है, उलटा नही भासता। ानी मोहको पैठने नह दे ते। उनका जागृत उप-
योग होता है। ानीके जैसे प रणाम रहते हे वैसा काय ानोका होता है तथा अ ानीका जैसा प रणाम
होता है, वैसा अ ानीका काय होता है। ानीका चलना सीधा, बोलना सीधा और सब कुछ ही सीधा
ही होता है । अ ानीका सब कुछ उलटा ही होता है, वतनके वक प होते है।
मो का उपाय है । ओघभावसे खबर होगी, वचारभावसे ती त आयेगो।
अ ानी वय द र है। ानीक आ ासे काम, ोध आ द घटते है। ानी उनके वैध है।
ानीके हाथसे चा र ा त हो तो मो हो जाता है। ानी जो जो त दे ते हे वे सब ठे ठ अत तक
ले जाकर पार उतारनेवाले ह। सम कत आनेके बाद आ मा समा धको ा त होगा, यो क वह स चा
हो गया है।
०- ानमे कमको नजरा होती है या ?
___ 3०-सार जानना ान है। मार न जानना अ ान है। हम कसी भी पापसे नवृ हो अथवा
क याणमे वृ करे, वह ान हे । परमाथ समझ कर करे । अहकारर हत, कदा हर हत, लोकसं ा-
र हत आ मामे वृ करना ' नजरा' हे।
इस जीवके साथ राग े प लगे ए है, जीव अनत ान-दशनस हत है, परतु राग- े पमे वह जीवके
यानमे नही आता। स को राग े प नही है । जैसा स का व प हे वैसा ही सब जीवोका व प है।

७१२
ीमद् राजच
मा अ ानके कारण जीवके यानमे नही आता, इस लये वचारवान स के व पका वचार करे,
जससे अपना व प समझमे आये।
एक आदमीके हाथमे चताम ण आया हो, और उसे उसक खबर (पहचान) है तो उसके त उसे
अतीव ेम हो जाता है, परंतु जसे खबर नही है उसे कुछ भी ेम नही होता ।
इस जीवको अना दकालक जो भूल है उसे र करना है। र करनेके लये जीवको बडीसे बडी
भूल या है ? उसका वचार करे, और उसके मूलका छे दन करनेक ओर ल य रखे । जब तक मूल
रहता है तब तक बढता है।
_ 'मुझे कससे बधत होता है ?' और वह कससे र हो ?' यह जाननेके लये शा रचे गये है।
लोगोमे पूजे जानेके लये शा नही रचे गये है।
__ जीवका व प या है ? जीवका व प जब तक जाननेमे न आये.तब तक अनत ज म मरण
करने पडते है । जीवक या भूल है ? वह अभी तक यानमे नही आती । जोवका लेश न होगा तो भूल
र होगी । जस दन भूल र होगी उसी दनसे साधुता कही जायेगी। इसी तरह ावकपनके लये समझ।
कमको वगणा जोवको ध और पानीके सयोगक भॉ त है। अ नके योगसे पानी जल जानेसे
ध बाक रह जाता है, इसी तरह ान पो अ नसे कमवगणा न हो जाती है।
दे हमे अहभाव माना आ है, इस लये जीवक भूल र नही होती। जीव दे हके साथ मल जानेसे
ऐसा मानता है क 'म व णक ' ँ , ' ा ण ' ँ , परतु शु वचारसे तो उसे ऐसा अनुभव होता है क
'मै शु व पमय ँ।' आ माका नाम-ठाम या कुछ भी नही है, इस तरह सोचे तो उसे कोई गाली आ द
दे तो उससे उसे कुछ भी नही लगता।
जीव जहाँ जहाँ मम व करता है वहाँ वहाँ उसको भूल है। उसे र करनेके लये शा कहे ह।
चाहे कोई भी मर गया हो उसका य द वचार करे तो वह वैरा य है। जहाँ जहाँ 'ये मेरे भाई-
बधु' इ या द भावना है वहाँ वहाँ कमबधका हेतु है । इसी तरहक भावना य द साधु भी चेलेके त रखे
तो उसका आचायपन न हो जाता है। नदभता, नरहकारता करे तो आ माका क याण ही होता है।
, पाँच इ याँ कस तरह वश होती है ? व तुओपर तु छभाव लानेसे । जैसे फूलमे सुग ध होती है
उससे मन स तु होता है, पर तु सुग ध थोडी दे र रहकर न हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है,
फर मनको कुछ भी सतोष नही होता। उसी,तरह सभी पदाथ मे तु छभाव लानेसे इ योको यता
नह होती, और इससे मश. इ याँ वश होती है। और पाँच इ योमे भी ज ा इ य वश करनेसे
शेष चार इ याँ अनायास वश हो जाती है। तु छ आहार कर, कसी रसवाले पदाथम न ललचाय,
ब ल आहार न कर।
एक बतनम र , मास, ह यां, चमडा, वीय, मल, मू ये सात धातुएँ पडी हो, और उसक
ओर कोई दे खनेको कहे तो उसपर अ च होती है, और यूँकनेके लये भी नही जाता। उसी तरह ी-
पु षके शरीरक रचना है, पर तु ऊपरक रमणीयता दे खकर जीव मोहको ा त होता है और उसमे
तृ णापूवक वृ करता है । अ ानसे जीव भूलता है, ऐसा वचार कर, तु छ समझकर पदाथपर अ च-
भाव लाय। इस तरह येक व तुक तु छता समझ । इस तरह समझ कर मनका नरोध कर।
. तीथकरने उपवास करनेक आ ा द है, वह मा इ योको वश करनेके लये । अकेला उपवास
करनेसे इ याँ वश नही होती, पर तु उपयोग हो तो, वचारस हत हो तो वश होती ह। जैसे बना
ल यका बाण नक मा जाता है, वैसे बना उपयोगका उपवास, आ माथके लये नही होता ।
. अपनेमे कोई गुण गट आ हो, और उसके लये, य द कोई मनु य अपनी तु त करे और उससे
य द अपना आ मा अहकार करे तो, वह पीछे हटता है। अपने आ माक नदा न करे, अ यतर दोषका
७१३
वचार न करे, तो जीव लौ ककभावमे चला जाता है, पर तु य द अपने दोष दे ख, े अपने आ माक नदा
करे, अहभावसे र हत होकर वचार करे, तो स पु षके आ यसे आ मल य होता है ।
माग ा तमे अनत अ तराय ह। उनमे फर 'मैने यह कया', 'मैने यह कैसा सुदर कया ?' इस
कारका अ भमान है। 'मैने कुछ भी कया ही नही', ऐसी रखनेसे वह अ भमान र होता है।
लौ कक और अलौ कक ऐसे दो भाव है । लौ ककसे ससार, और अलौ ककसे मो होता है।
बा इ य वशमे क हो, तो स पु षके आ यसे अ तल य हो सकता है। इस कारणसे बा
इ य को वशमे करना े है । बा इ याँ वशमे हो, और स पु षका आ य न हो तो लौ कक भावमे
चले जानेका सभव रहता है।
उपाय कये बना कुछ रोग नही मटता। इसी तरह जीवको जो लोभ पी रोग है, उसका उपाय
कये बना वह र नह होता। ऐसे दोषको र करनेके लये जीव जरा भी उपाय नह करता । य द
उपाय करे तो वह दोष अभी भाग जाये। कारणको खडा कर तो काय होता है। कारण के वना'काय
नही होता।
स चे उपायको जीव नही खोजता | ानीपु षके वचन सुनता है पर तु ती त नह है । 'मुझे
लोभ छोडना है', ' ोध, भान आ द छोडने है', ऐमो बोजभूत भावना हो और छोडे, तो दोष र होकर
अनु मसे 'वोज ान' गट होता है।।
०-आ मा एक है या अनेक ?
उ०-य द आ मा एक ही हो तो पूवकालमे रामच जो मु ए है, और उससे सवक मु
होनी चा हये, अथात् एकको मु ई हो तो सबको मु हो जाये, और फर सरोको स शा ,
स आ द साधनोक ज रत नह है।
०-मु होनेके बाद या जीव एकाकार हो जाता है ?
उ०-य द मु होनेके बाद जीव एकाकार हो जाता हो तो वानुभव आनदका अनुभव नह कर
सकता । एक पु ष यहाँ आकर बैठा, और वह वदे ह मु हो गया। उसके बाद सरा यहाँ आकर
बैठा । वह भी मु हो गया। इससे कुछ तीसरा मु नही आ। एक आ मा है उसका आशय ऐसा हे
क सव आ मा व तुत' समान है, परतु वत है, वानुभव करते ह इस कारणसे आ मा भ भ
ह । 'आ मा एक है, इस लये तुझे सरी कोई ा त रखनेक ज रत नह है, जगत कुछ है ही नह ; ऐसे
ा तर हत भावसे वतन करनेसे मु है', ऐसा जो कहता है उसे वचार करना चा हये क, तो एकक
मु से सवको मु होनी ही चा हये । पर तु ऐसा नही होता, इस लये आ मा भ भ है। जगतक
ा त र हो गयी, इसका आशय यो नही समझना है क च -सूय आ द ऊपरमे नीचे गर पडते ह।
आ म वषयक ा त र हो गयी ऐसा आशय समझना है।
ढसे कुछ क याण नही है । आ मा शु वचारको ा त ए वना क याण नह होता।
__ मायाकपटसे झूठ बोलनेमे ब त पाप है । वह पाप दो कारका है। मान और धन ा त करने के
लये झूठ बोले तो उसमे ब त पाप है। आजी वकाके लये झूठ बोलना पडा हो, और प ा ाप करे,
तो पहलेको अपे ा कुछ कम पाप लगता है ।
सत् और लोभ इन दोनोको इक ा कस लये जोव समझता है ?
बाप वय पचास वपका हो और उसका वीस वषका लडका मर जाये तो वह वाप उसके पास जो
आभूषण होते ह उ हे नकाल लेता है ! पु के दे हातके समय जो वैरा य था वह मशानवैरा य था।
भगवानने कोई भी पदाथ सरेको दे नेको मु नको आ ा नही द । दे हको धमसावन मानकर उसे
नभानेके लये जो कुछ आ ा द है वह द है, वाको सरेको कुछ भी दे नेक भगवानने आ ा नह दो।

७१४
ीमद् रामच
आ ा द होती तो प र ह बढता, और उससे अनु मसे अ , पानी आ द लाकर कुटु बका अथवा सरे-
का पोपण करके दानवीर होता। इस लये मु नको सोचना चा हये क तीथकरने जो कुछ रखनेक
आ ा द है वह मा तेरे अपने लये, और वह भी लौ कक छु डाकर सयममे लगानेके लये द है ।
मु न गह थके यहाँसे एक सुई लाया हो, और वह खो जानेसे भी वापस न दे तो वह तीन उपवास
करे ऐसी ानीपु षोने आ ा द है, उसका कारण यह है क वह उपयोगशू य रहा। य द इतना अ धक
भार न रखा होता तो सरी व तुएँ लानेका मन होता, और काल मसे प र ह बढाकर मु न वको खो
बैठता । ानीने ऐसा क ठन माग पत कया है उसका कारण यह है क वे जानते है क यह जीव
व ास करने यो य नही है, यो क वह ा तवाला है। य द छु ट द होगी तो काल मसे उस उस कारमे
वशेष वृ करेगा, ऐसा जानकर ानीने सूई जैसी नज व व तुके सबधमे इस कार वतन करनेक
आ ा क है । लोकको मे तो यह बात साधारण है, पर तु ानोक मे उतनी छू ट भी मूलसे
गरा दे इतनी बडी लगती है।।
ऋषभदे वजीके पास अ ानवे पु हम रा य द' ऐसा कहनेके अ भ ायसे आये थे, वहाँ तो
ऋषभदे वने उपदे श दे कर अ ानवोको ही मुंड दया । दे खये महान पु षक क णा,
केशी वामी और गौतम वामी कैसे सरल थे ! दोनोका माग एक तीत होनेसे पाँच महा त हण
कये । आधु नक कालमे दो प ोका एक होना स भव नही है । आजके इ ढया और तपा, तथा भ भ
सघाडोका एक होना नही हो सकता । उसमे कतना ही काल बीत जाता है । उसमे कुछ है नही, पर तु

े ो ी ै
असरलताके कारण स भव हो नही है।
स पु ष कुछ सदनु ानका याग नह कराते, पर तु य द उसका आ ह आ होता है तो आ ह
र करानेके लये उसका एक बार याग कराते ह, आ ह मटनेके बाद फर उसे ही हण करनेको
कहते है।
__ च वत राजा जैसे भी न न होकर चले गये है ! च वत राजा हो, उसने रा यका याग कर
द ा ली हो, और उसक कुछ भूल हो, और उस च वत के रा यकालको दासीका लडका उस भूलको
सुधार सकता हो, तो उसके पास जाकर, उसके कथनको हण करनेक आ ा क है। य द उसे दासीके
लडकेके पास जाते ए यो लगे क 'मै दासीके लड़केके पास कैसे जाऊँ ?' तो उसे भटक मरना है। ऐसे
कारणोमे लोकलाजको छोडनेका कहा है, अथात् जहाँ आ माको ऊँचा उठानेका कारण हो वहाँ लोकलाज
नही मानी गयी है । पर तु कोई मु न वषयक इ छासे वे याशालामे गया, वहाँ जाकर उसे ऐसा लगा,
'मुझे लोग दे ख लगे तो मेरी नदा होगी। इस लये यहाँसे लौट जाऊँ।' ता पय क मु नने परभवके भयको
नही गना, आ ाभगके भयको भी नही गना, तो ऐसी थ तमे लोकलाजसे भी चय रह सकता है,
इस लये वहाँ लोकलाज मानकर वापस आया, तो वहाँ लोकलाज रखनेका वधान है, यो क इस थलमे
लोकलाजका भय खानेसे चय रहता है, जो उपकारक है। ।
हतकारी या है उसे समझना चा हये। अ मीका झगड़ा त थके लये न करे, पर तु हरी
वन प तके र णके लये त थका पालन कर। हरी वन प तके र णके लये अ मी आ द त थयाँ कही
गयी ह, कुछ त थके लये अ मी आ द नही कही। इस लये अ मी आ द त थका कदा ह र कर।
जो कुछ कहा है वह कदा ह करने के लये नही कहा । आ माक शु से जतना करगे उतना हतकारी
है । अशु से करगे उतना अ हतकारी है, इस लये शु तापूवक स तका सेवन कर।
, हमे तो ा ण, वै णव चाहे जो हो सब समान ह। जैन कहलाते हो और मतवाले हो तो वे
अ हतकारी ह, मतर हत हतकारी है। ...

७१५
सामा यक-शा कारने वचार कया क य द कायाको थर रखना होगा तो फर वचार करेगा;
नयम नही बनाया होगा तो सरे काममे लग जायेगा, ऐसा समझकर उस कारका नयम बनाया । जैसे
मनप रणाम रहे वैसी सामा यक होती है। मनका घोडा दौडता हो तो कमबंध होता है। मनका घोड़ा
दौडता हो, और सामा यक को हो तो उसका फल कैसा होगा?
कमबधको थोड़ा थोडा छोडना चाहे तो छू टता है। जैसे कोठो भरी हो, पर तु छे द करके नकाले
तो अ तमे खाली हो जाती है । पर तु ढ इ छासे कम को छोड़ना ही साथक है।
आव यकके छ कार-सामा यक, चतु वश त तवन, व दना, त मण, कायो सग, या-
यान । सामा यक अथात् साव योगक नवृ ।
वाचना ( पढना ), पृ छना (पूछना), परावतना (पुन पुन वचार करना), धमकथा (धम-
वषयक कथा करनी ), ये चार है, और अनु े ा ये भाव ह। य द अनु े ा न आये तो पहले चार
है।
अ ानी आज 'केवल ान नही है', 'मो नह है' ऐसी होन-पु षाथक बात करते है। ानीका
वचन पु षाथको े रत करनेवाला होता है।' अ ानी श थल है इस लये ऐसे हीन पु षाथके वचन कहता
है । पचमकालक , भव थ तक , दे ह बलताक या आयुक बात कभी भी मनमे नही लानी चा हये, और
कैसे हो ऐसी वाणो भी नही सुननी चा हये।
__कोई होन-पु षाथ बात करे क उपादानकारण-पु षाथका या काम है ? पूवकालमे असो या.
केवली ए है । तो ऐसी बातोसे पु षाथहीन न होना चा हये।
स संग और स यसाधनके बना कसी कालमे भी क याण नह होता। य द अपने आप क याण
होता हो तो म मेसे घड़ा होना स भव है । लाख वष हो जाये तो भी म मेसे घडा वय नही होता,
इसी तरह क याण नह होता।
तीथकरका योग आ होगा ऐसा शा वचन है, फर भी क याण नही आ, उसका कारण
पु षाथहीनता है। पूवकालमे ानी मले थे फर भी पु षाथके वना जैसे वह योग न फल गया, वैसे
इस बार ानीका योग मला है और पु षाथ नही करगे तो यह योग भी न फल जायेगा। इस लये
पु षाथ कर, और तो ही क याण होगा। उपादानकारण-पु षाथ े है।
यो न य कर क स पु षके कारण- न म -से अनंत जीव तर गये ह। कारणके बना कोई
जीव नही तरता । असो याकेवलीको भी आगे पीछे वैसा योग ा त आ होगा। स सगके वना सारा
जगत डू ब गया है।
मीराबाई महा भ मान थी। वृदावनमे जीवा गोसाईके दशन करनेके लये वे गयी, और पुछ-
वाया, 'दशन करनेके लये आऊँ?' तव जोवा गोसाईने कहलवाया, 'मै ीका मुंह नही दे खता।' तव
मीराबाईने कहलाया, 'वृदावनमे रहते ए भी आप पु ष रहे है यह ब त आ यकारक है । वृदावनमे
रहकर मुझे भगवानके सवाय अ य पु षके दशन नह करने ह। भगवानका भ है वह तो ी प है,
गोपी प है। कामको मारनेके लये उपाय कर, यो क लेते ए भगवान, दे ते ए भगवान, चलते ए
भगवान, सव भगवान है।'
नाभा भगत था। कसीने चोरी करके चोरीका माल भगतके घरके आगे दवा दया। इससे
भगतपर चोरी का आरोप लगाकर कोतवाल पकडकर ले गया । कैदमे डालकर, चोरो मनाने के लये रोज
ब त मार मारने लगा। पर तु भला जीव, भगवानका भगत, इस लये शा तसे सहन कया। गोसाईजीने
आकर कहा 'मै व णु भ ,
ँ चोरी कसी सरेने को है, ऐसा कह ।' तब भगतने कहा 'ऐसा कहकर

े ो े े ो े ै ै ै ो ँ े
छू टनेको अपे ा इस दे हको मार पड़े यह या बुरा है ? मारता है तब मै तो भ करता ँ। भगवानके

७१६
ीमद् राजच
नामसे दे हको दड हो यह अ छा है। इसके नामसे सब कुछ सीधा । दे ह रखनेके लये भगवानका नाम
नही लेना है । भले दे हको मार पड़े यह अ छा- या करना है दे हको ।'
___ अ छा समागम, अ छ रहन-सहन हो वहाँ समता आती है। समताक वचारणाके लये दो घड़ीक
सामा यक करना कहा है। सामा यकमे उलटे -सुलटे मनोरथोका चतन करे तो कुछ भी फल नही होता।
मनके दौड़ते ए घोडोको रोकनेके लये सामा यकका वधान है।
सव सरीके दनसंबंधी एक प चतुथ क त थका आ ह करता है, और सरा प पचमीक
त थका आ ह करता है। आ ह करनेवाले दोनो म या वी है। ानीपु षोने जो दन न त कया
होता है वह आ ाका पालन होनेके लये होता है । ानी पु ष अ मी न पालनेक आ ा कर और दोनोको
स तमी पालनेको कहे अथवा स तमी अ मी इक करेगे यो सोचकर ष ी कहे अथवा उसमे भी पचमी
इक करगे यो सोचकर सरी त थ कहे तो वह आ ा पालनेके लये कहते है। बाक त थयोका भेद
छोड दे ना चा हये । ऐसी क पना नह करनी चा हये, ऐसे भगजालमे नही पड़ना चा हये । ानीपु षोने
त थयोक मयादा आ माथके लये क है।
य द अमुक दन न त न कया होता, तो आव यक व धयोका नयम न रहता । आ माथके
लये त थक मयादाका लाभ ले।
आनदघनजीने ी अनतनाथ वामीके तवनमे कहा है-
'एक कहे सेवीए व वध क रया करी, फळ अनेकात लोचन न दे खे ।
फळ अनेकात क रया करी बापड़ा, रडवडे चार ग तमाही लेखे ॥'
अथात् जस याके करनेसे अनेक फल हो वह या मो के लये नही है। अनेक याओका
फल एक मो ही होना चा हये। आ माके अश गट होनेके लये याओका वणन है। य द याओका
वह फल न आ तो वे सब याएँ ससारके हेतु ह ।
" नदा म, ग रहा म, अ पाण वो सरा म' ऐसा जो कहा है उसका हेतु कषायके याग करनेका है,
पर तु बेचारे लोग तो एकदम आ माका ही याग कर दे ते है।
जोव दे वग तक , मो के सुखको अथवा सरी वैसी कामनाक इ छा न रखे ।
पचमकालके गु कैसे है उसके बारेमे एक सं यासीका ात '-एक स यासी था। वह अपने श यके
घर गया। ठडी ब त थी। जीमने बैठते समय श यने नहानेको कहा। तब गु ने मनमे वचार कया
'ठडी ब त है, और नहाना पडेगा।' यो सोचकर स यासीने कहा 'मै तो ानगगाजलमे नान कर रहा
ँ।' श य वच ण होनेसे समझ गया, और उसने, गु को कुछ श ा मले ऐसा रा ता लया । श यने
'भोजनके लये पधारे' ऐसे मानस हत बुलाकर भोजन कराया। सादके बाद गु महाराज एक कोठडीमे
सो गये। गु को तृपा लगी इस लये श यसे जल माँगा। तब तुरत श यने कहा 'महाराज, जल ान-
गगामेसे पी ल।' जब श यने ऐसा क ठन रा ता लया तब गु ने कबूल कया 'मेरे पास ान नह है ।
दे हक साताके लये ठडीमे मैने नान नही करनेका कहा था।'
म या के पूवके जप-तप अभी तक मा आ म हताथ नह ए।
आ मा मु यत आ म वभावसे वतन करे वह 'अ या म ान' । मु यत जसमे आ माका वणन
कया हो वह 'अ या मशा ' । भाव-अ या मके बना अ र(श द)अ या मीका मो नही होता । जो गुण
अ रोमे वहे गये है वे गुण य द आ मामे रहे नो मो होता है। स पु षमे भाव-अ या म गट है।
१, भावाथः कुछ लोग कहते ह क भ - भ कारक सेवा-भ वत अथवा या करके भगवानक सेवा
करते है, परतु उ हे याका फल दखायी नही दे ता । वे वेचारे एकसा फल न दे नेवाली या करके चारो ग तयोम
भटकते रहते ह, और उनक मु नह हो पाती ।

उपदे श छाया
७१७
स पु षको वाणी जो सुनता है वह -अ या मी, श द-अ या मी कहा जाता है। श द अ या मी अ या म-
क बात कहते है, और महा अनथकारक वतन करते है, 'इस कारणसे उ ह ानद ध कहे ।' ऐसे
अ या मयोको शु क और अ ानी समझे। ''
- ' ानीपु ष पी सूयके गट होनेके वाद स चे अ या मी शु क री तसे वृ नह करते, भाव-
अ या ममे गट पसे रहते है । आ मामे स चे गुण उ प होनेके बाद मो होता है। इस कालमे -
अ या मी, ानद ध ब त ह । अ या मी म दरके कलशके ातसे मूल परमाथको नही समझते।
. मोह आ द वकार ऐसे है क स य को भी चलायमान कर दे ते ह, इस लये आप तो समझे
क मो माग ा त करनेमे वैसे. अनेक व न ह। आयु थोड़ी है, और काय महाभारत करना है । जस
तरह नाव छोट हो और बड़ा महासागर पार करना हो, उसी तरह आयु तो थोड़ी है, और संसार पी
महासागर पार करना है। जो पु ष. भुके नामसे पार ए है उन पु षोको ध य है । अ ानी जीवको
पता नही है क अमुक गरने क जगह है,. परंतु ा नयोने उसे दे खा आ है। अ ानी, -अ या मी
कहते है क मुझमे कषाय नही है । स य चैत यसयु है।
एक मु न गुफामे यान करनेके लये जा रहे थे। वहाँ सह मल गया। उनके हाथमै लकडी थी।
सहके सामने लकडी उठाई जाये तो सह चला जाये यो मनमे होनेपर मु नको वचार आया-'मै आ मा

ँ े े ो ै े े ो ी ै ी
अजर अमर ँ, दे ह ेम रखना यो य नह है, इस लये हे जोव । यही खड़ा, रह। सहका भय है वही अ ान
है। दे हमे सूछाके कारण भय है।' ऐसी भावना करते करते वे दो घड़ी तक वही खड़े रहे क इतनेमे
केवल ान गट हो गया । इस लये वचारदशा, वचारदशामे ब त ही अंतर है। । । । --
। . उपयोग जीवके बना नही होता। जड और चेतन इन दोनोमे प रणाम होता है। दे हधारी जोवमे
अ यवसायक वृ होतो है, सक प- वक प खडे होते है, पर तु ानसे त वक पता होती है। अ य-
वसायका य ानसे होता है । यानका हेतु यही है। उपयोग रहना चा हये।
- धम यान, शु ल यान उ म कहे जाते है। आ ं और रौ यान अशुभ कहे जाते है। वा
उपा ध ही अ यवसाय है । उ म ले या हो तो यान कहा जाता है; और आ मा म यक् प रणाम ा त
करता है।
माणेकदासजी एक वेदाती थे। उ होने एक थमे मो क अपे ा स संगको अ धक यथाथ माना
है । कहा है -
" नज़ छं दनसे ना मले, हेरो वैफुठ धाम ।
.. संतकृपासे पाईए, सो ह र सबसे ठाम ॥"
. जैनमागमे अनेक शाखाएँ हो गयी है । लोकाशाको ए लगभग चार सौ वष ए है। परंतु उस
ढूं ढया स दायमे पाँच थ भी नह रचे गये है और वेदातमे दस हजार जतने गथ ए है। चार सो
वषमे, बु होती तो वह छपी न रहती।
' कुगु और अ ानी पाख डयोका इस कालमे पार नह है।
बडे बडे जुलूस नकालता है, और धन खच करता है, यो जानकर क मेरा क याण होगा, ऐसी
बडी बात समझकर हजारो पये खच कर डालता है । एक एक पैसा तो झूठ बोल बोलकर इक ा करता
है, और एक साथ हजारो पये खच कर डालता है। दे खये, जीवका कतना अ धक ान । कुछ
वचार ही नह आता।
आ माका जैसा व प है, वैसे ही व पको 'यथा यातचा र ' कहा है।
भय अ ानसे है। सहका भय सहनोको नह होता । ना गनीको नागका भय नह होता। इसका
कारण यह है क इस कारका उनका अ ान र हो गया है।

••••
७१८
ीमद् राजच
.. जब तक स य व कट नही होता तब तक म या व है, और म गुण थानकका नाश हो जाये
तब स य व कहा जाता है । सभी अ ानी पहले गुण थानकमे है।
स शा , स के आ यसे जो सयम होता है उसे 'सरागसंयम' कहा जाता है । नवृ , अ नवृ
थानकका अतर पडे तो सरागसयममेसे 'वीतरागसयम' होता है। उसे नवृ -अ नवृ दोनो बराबर है।
., व छं दसे क पना वह ना त है। . .
___-'यह तो इस तरह नही, इस तरह होगा' ऐसा जो भाव वह ‘शका' है। . . .
- समझनेके लये वचार करके पूछना, यह 'आशका' कही जाती है।
, अपने आपसे जो समझमे न आये वह 'आशकामोहनोय' है। स चा जान लया हो फर भी स चा
भाव न आये, वह भी 'आशकामोहनीय' है । अपने आप जो समझमे न आये, उसे पूछना ।, मूल जाननेके
बाद उ र वषयके लये इसका कस तरह होगा ऐसा जाननेक आका ा हो, उसका स य व न नह
होता, अथात् वह प तत नही होता । म या ा तका होना सो शका है। म या ती तका अनंतानुबंधीमे
समावेश होता है। नासमझीसे दोष दे खे तो यह समझका दोष है, परंतु उससे सम कत नह जाता, परतु
अ ती तसे दोष दे खे तो यह म या व है । योपशम अथात् य और शात हो जाना।
राळजके सीमातमे बडके नीचे
'यह जीव या करे ? स समागममे आकर साधनके बना रह गया, ऐसी क पना मनमे होती हो
और स समागममे आनेका सग बने और वहाँ आ ा, ानमागका आराधन करे. तो और उस रा तेसे
चले तो ान होता है। समझमे आ जाये तो आ मा सहजमे गट होता है, नही तो जदगी चली जाये
तो भी गट नही होता । माहा य समझमे आना चा हये । न कामवु और भ चा हये। अत करण-
क शु हो तो ान अपनेआप होता है। ानीको पहचाना जाये तो ानको ा त होती है। कसी
यो य जीवको दे खे तो ानी उसे कहते ह क सभी क पनाएं छोड़ने जैसी है। ान ले । ानीको ओघ-
स ासे पहचाने तो यथाथ ान नह होता। भ क री त नही जानी। आ ाभ नही ई, तब तक आ ा
हो तो माया भुलाती है । इस लये जागृत रहे । मायाको र करते रहे । ानी सभी री त जानते ह ।
जब ानोका याग ( ढ याग ) आये अथात् जैसा चा हये वैसा यथाथ याग करनेको ानी कहे
तब माया भुला दे ती है, इस लये वहाँ भलीभाँ त जागृत रहे। ानी मले क तभीसे तैयार होकर रहे,
कमर कस कर तैयार रहे।
स सग होता है तब माया र रहती है, और स संगका योग र आ क फर वह तैयारक
तैयार खड़ी है । इस लये बा उपा धको कम कर। इससे स संग वशेष होता है। इस कारणसे बा
याग े है । बा यागमे ानीको ख नह है, अ ानीको ख है। समा ध करने के लये सदाचारका
सेवन करना है। नकली रग सो नकली रग है । असली रग सदा रहता है। ानी मलनेके बाद दे ह छट
गयी, ( दे ह धारण करना नही रहता) ऐसा समझ। ानीके वचन पहले कडवे लगते ह परतु बादमे
मालूम होता है क ानीपु ष ससारके अनत ःखोको मटाते है। जैसे औषध कडवा होता है, परतु वह
द घकालके रोगको मटाता है उसी तरह।
यागपर सदा यान रख । यागको श थल न कर। ावक तीन, मनोरथोका चतन करे। स य-
मागका आराधन करनेके लये मायासे र रहे । याग करता ही रहे । माया कस तरह भुलाती है उसका
एक ात -
कोई एक स यासी था वह यो कहा करता क 'मै मायाको घुसने ही नही ं गा। न न होकर
वच ं गा।' तव मायाने कहा क 'मै तेरे आगे हो आगे चलगी।' 'जंगलमे अकेला वचलंगा', ऐसा

७१९
स यासीने कहा तब मायाने कहा क 'मै सामने आ जाऊँगो ।' स यासी फर जंगलमे रहता, और 'मुझे
ककड और रेत दोनो समान है,' यो कहकर रेतीपर सोया करता । फर मायाको कहा क तू कहाँ है ?'
मायाने समझ लया क इसे ब त गव चढा है, इस लये कहा क 'मेरे आनेक या ज रत है ? मेरा बडा
पु अहंकार तेरी सेवामे छोडा आ था।' . . . . . . . . . . : --
- माया इस तरह ठगती है। इस लये ानी कहते है क 'म सबसे यारा , ँ सवथा यागी आ , ँ
अवधूत , ँ न न ँ, तप या करता ँ। मेरी बात अग य है । मेरी दशा ब त ही अ छ है । माया मुझे
वा धत नही करेगी, ऐसी मा क पनासे मायासे ठगे न जाना।'
जरा समता आती है क अहकार आकर भुला दे ता है क 'मै समतावाला ' ँ , इस लये उपयोगको
जागृत रखे । मायाको खोज खोजकर ानीने सचमुच जीता है। भ पी ी है। उसे मायाके सामने
रखा जाये, तो मायाको जीता-जा सकता है। भ मे अहकार नही है, इस लये मायाको जीतती है।
आ ामे अहकार नह ह । व छदमे अहकार है । जब तक राग े ष नही जाते तब तक तप या करनेका
फल ही या ? 'जनक वदे हीमे, वदे हता नही हो सकती, यह केवल क पना है, ससारमे वदे हता नही
रहती', ऐसा चतन न कर। जसका अपनापन र हो जाये उससे वैसे रहा जा सकता है। मेरा तो कुछ
नही है। मेरी तो काया भी नह है, इस लये मेरा कुछ नही है, ऐसा हो तो अहकार मटता है यह
यथाथ है। जनक वदे हीक दशा उ चत है। व स जीने रामको उपदे श दया, तब राम ग को रा य
अपण करने लगे, पर तु गु ने रा य लया ही नही । पर तु अ ान र करना है, ऐसा उपदे श, दे कर
अपनापन मटाया। जसका अ ान गया उसका ख चला गया। श य और गु ऐसे होने चा हये।
.. जानी गृह थावासमे बा उपदे श, त दे ते है,या नही ? गृह थावासमे हो ऐसे परम ानो माग
नही चलाते-माग चलानेक रीतसे माग नही चलाते, वय अ वरत रहकर त नही दलाते, पर त
ी ऐ ै े ो ै ो ै े े े ो े
अ ानी ऐसा करता है। इससे राजमागका उ लघन होता है। यो क, वैसा करनेस, े बहतसे कारणोमे
वरोध आता है ऐसा है पर तु इससे यह वचार न करे क ानी नवृ पसे -नही है, पर तु वचार कर
तो वर त पसे ही ह । इस लये ब त ही वचार करना है।
सकाम भ से ान नही होता । न काम भ से ान होता है। ानीके उपदे शमे अदभतता है।
वे अ न छा भावसे उपदे श दे ते है, पृहार हत होते है । उपदे श यह ानका माहा य है; इस लये माहा य
के कारण अनेक जीव सरलतासे तब होते ह।
अ ानीका सकाम उपदे श होता है, जो ससार फलका कारण है। वह चकर, रागपोपक और
ससारफल दे नेवाला होनेसे लोगोको य लगता है, और इस लये जगतमे अ ानीका माग अ धक चलता
है । ानीके म या भावका य आ है, अहभाव मट गया है, इस लये अमू य वचन नकलते है। बाल-
जीवोको ानी-अ ानीको पहचान नह होती।
• वचार करे, 'मै व णक ' ँ , इ या द आ मामे रोम-रोममे ा त है, उसे र करना है।
आचायजीने जीवोका वभाव माद जानकर दो दो तीन तीन दनोके अ तरसे नयम पालनेक
आ ा क है।
सव सरीका दन कुछ साठ घडीसे यादा-कम नह होता, त थमे कुछ अ तर नह है। अपनी
क पनासे कुछ अ तर नही हो जाता । व चत् बीमारी बा द कारणले पचमीका दन न पाला गया और
छठ पाले और आ मामे कोमलता हो तो वह सफल होता है। अभी ब त वष से पयपणमे त थयोक
ा त चलती है। सरे आठ दन धम करे तो कुछ फल कम होता है, ऐसी वात नह है। इस लये
त थय का म या कदागह न रख, उसे छोड़ द। कदा ह छु डाने के लये त थया बनायो है, उसके बदले उसी दन जीव कदा ह वढाता
है।

७२०
ीमद राजच
“', ढया और तपा त थयोका वरोध खडा करके--अलग होकर-'मै अलग ' ँ , ऐसा स करने-
के लये झगडा करते है यह मो जानेका रा ता नह है। वृ को भानके वना कम भोगने पडते है तो
मनु यको शुभाशुभ याका फल यो नही भोगना पड़े ?
जससे सचमुच पाप लगता है उसे रोकना अपने हाथमे है, वह अपनेसे हो सकता है, उसे तो जोव
नही रोकता, और सरी त थ आ दक और पापक थ चता कया करता है । अना दसे श द, प
रस, गध और पशका मोह रहा है । उस मोहका नरोध करना है । वडा पाप अ ानका है।
जसे अ वर तके पापको चता होती हो उससे वैसे थानमे कैसे रहा जा सकता है? -
' वयं याग नही कर सकता और बहाना करता है क मुझे अतराय ब त है । धमका संग आता
ह तो कहता है, 'उदय है ।' 'उदय उदय' कहा करता है, पर तु कुछ कुएँ मे नही गर जाता छकडेमे बैठा
हो और ग ा आ जाये तो यानसे संभलकर चलता है। उस समय उदयको भूल जाता है । अथात् अपनी
श थलता हो तो उसके बदले उदयका दोष नकालता है, ऐसा अ ानीका वतन है।
- लौ कक और अलौ कक प ीकरण भ भ होते ह। उदयका दोष नकालना यह लौ कक
प ीकरण है। अना दकालके कम दो घड़ीमे न होते ह, 'इस लये कमका दोपन नकाल । आ माको
नदा कर। धम करनेक बात आती है तव जीव पूवकृत कमक बात आगे कर दे ता है । जो धमको आगे
करता है उसे धमका लाभ होता है, और जो कमको आगे करता है उसे कम आडे आता है, इस लये पु -
षाथ करना े है । पु षाथ पहले करना चा हये । म या व, माद और अशुभ योगको छोडना चा हये।
_ पहले तप नही करना, पर तु म या व और मादका पहले याग करना चा हये । सबके प रणामो-
के अनुसार शु ता एव अशु ता होती है। कम र कये वना र होनेवाले नही है । इसी लये ा नयोने
शा पत कये है। श थल होनेके लये साधन नही बताये। प रणाम ऊँचे आने चा हये । कम
उदयमे आयेगा, ऐसा मनमे रहे तो कम उदयम आता है | बाक पु षाथ करे तो कम र हो जाते ह।
उपकार हो यही यान रखना चा हये। "
" : । .. .८ वडवा, भा पद सुद १०, गु , १९५२
कम- गन गनकर न नही कये जाते; ानीपु ष तो एकदम समूह पसे जला दे ते ह। --
वचारवान सरे आलवन छोडकर, आ माके पु षाथके जयका, आलवन-ले । कमबधनका आल-
बन न ल। आ मामे प रण मत, होना अनु े ा, है , . , . .
, ... म मे घड़ा होनेक स ा है, पर तु य द दड, च , कु हार, आ द मले तो होता है । इसी तरह
आ मा म प है, उसे स आ द साधन मले तो आ म ान होता है। जो ान आ हो वह पूवकालमे
ए ा नयोका सपादन कया आ है उसके साथ पूवापर मलता आना चा हये, और वतमानमे भी जन
ानीपु षोने ानका सपादन कया है,उनके वचनोके साथ मेल खाता आ होना चा हये, नही तो अ ान-
को ान मान लया है ऐसा कहा जायेगा.।, ..
ान दो कारके है-एक बीजभूत ान, और सरा वृ भूत ान । ती तसे दोनो सरीखे ह,
उनमे भेद नही है । वृ भूत ान सवथा नरावरण हो तो उसो भवमे मो होता है, और बीजभूत ान
हो तो अतमे पं ह भवमे मो होता है।
" आ मा अ पी है; अथात् वण-गंध-रस- पशर हत व तु है, अव तु नही है।
7- - जसने षड् दशन रचे ह उसने ब त ही चतुराईका उपयोग कया है।
- बंध अनेक अपे ामोसे होता है, पर तु मूल कृ तयाँ आठ ह, वे कमक ऑट खोलनेके लये आठ
कारसे कही ह।
७२१
आयुकम एक ही भवका बँधता है । अ धक भवको आयु नही बँधती । य द बँधती हो तो कसीको
केवल ान उ प न हो।
ानीपु ष समतासे क याणका जो व प बताते ह वह उपकारके लये बताते ह । ानीपु ष माग-
मे भूले भटके, जीवको सीधा रा ता बताते है । जो ातीके मागपर चलता है, उसका क याण होता है।
ानीके वयोगके बाद ब तसा काल बीत, जाये तब. अधकार हो जानेसे अ ानक वृ होती है।
और ानीपु षोके वचन समझमे नही आते, जससे लोगोको उलटा भासता है। समझमे न आनेसे लोग
ग छके भेद बना डालते है । ग छके भेद ा नयोने नही डाले । अ ानी, मागका लोप करता है । जब
ानी होते ह तब मागका उ ोत करते ह । अ ानी ानीका वरोध करते है। मागस मुख होना चा हये,
यो क वरोध करनेसे तो मागका भान हो नही होता।
बाल और अ ानी जीव छोट -छोट बातोमे भेद खड़ा कर दे ते ह। तलक और मंहप ी इ या दके
आ हमे क याण, नही है। अ ानीको मतभेद करते ए दे र नह लगती। ानीपु ष ढमागके बदले
शु मागका- पण करते हो तो भी जीवको भ --भासता है, और वह मानता है क यह अपना धम
नही है। जो जीव कदा हर हत होता है वह शु मागको वीकार करता है। जैसे ापार अनेक कारके
होते ह पर तु लाभ एक ही कारका होता है। वचारवान का तो क याणका माग एक ही होता
है। अ ानमागके अन त कार ह।
, जैसे अपना लड़का कुबडा हो और सरेका लडका ब त पवान हो, पर तु राग अपने लडकेपर
होता है, और वह अ छा लगता है, उसी तरह जस कुलधमको वयने माना है, वह चाहे जैसा दोपवाला
हो तो भी स चा लगता है । वै णव, बौ , ेताबर, ढूं ढया, दग बर जैन आ द चाहे जो हो पर तु जो
कदा हर हत होकर शु समतासे अपने आवरणोको, घटायेगा उसोका क याण होगा। ,
। सामा यक कायाके, योगको रोकती है। आ माको नमल करनेके लये, कायाके योगको रोक ।
रोकनेसे प रणाममे क याण होता है। कायाक सामा यक करने क अपे ा आ माक समा यक एक बार
करे । ानीपु पके वचन सुन सुनकर गांठ बाँधे तो आ माक सामा यक होगी । इस कालमे आ माक
सामा यक होती है । ' मो का उपाय अनुभवगोचर है। जैसे अ यास करते-करते आगे बढते ह वैसे ही
मो के लये भी है।
, जब आ मा कुछ भी या न करे. तब अवध कहा जाता है। ...
पु षाथ करे तो कमसे मु होता है। अनतकालके कम हो, और य द यथाथ पु षाथ करे तो
कम यो नही कहते क मै नही जाऊंगा। दो घडीमे अन त कम का नाश होता है। आ माक पहचान हो
तो कमका नाश होता है।
०-स य वं कससे गट होता है ?
उ०-आ माका यथाथ ल य होनेसे । स य वके दो कार ह-(१) वहार और (२) परमाथ ।
स के वचनोका सुनना, उन वचनोका वचार करना, उनक ती त करना, यह ' वहार-स य व'
है। आ माक पहचान हो, यह 'परमाथ-स य व' है।
अ त करणको शु के बना वोध असर नह करता, इस लये पहले अ त करणमे कोमलता लाये,
वहार और न य इ या दक म या चचामे नरा ही रहे, म य थभावसे रह । आ माके वभावको
जो आवरण है उसे ानो 'कम' कहते ह।
- जब सात कृ तयोका य हो तब स य व गट होता है । अनंतानुबधी चार कपाय, म या व-
मोहनीय, म मोहनीय, सम कतमोहनीय, इन सात कृ तयोका य हो जाये तव स य व गट होता है।

७२२
धीमद् राजच
०-कषाय या है ?
उ०-स पु ष मलनेपर, जीवको वे बताये क तू जो वचार कये बना करता जाता है उसमे
क याण नही है, फर भी उसे करनेके लये रा ह रखना वह 'कषाय' है।
उ मागको मो माग माने और मो मागको उ माग माने, वह ' म या वमोहनीय' है। .
उ मागसे मो नही होता, इस लये माग सरा होना चा हये, ऐसा जो भाव वह ' म मोहनीय' है।
_ 'आ मा यह होगा ?' ऐसा ान होना 'स य व मोहनीय' है।
'आ मा यह है', ऐसा न यभाव 'स य व' है।
ानीके त यथाथ ती त हो और रात- दन उस अपूव योगक याद आती रहे तो स ची भ
ा त होती है।
: नयमसे जीव कोमल होता है, दया आती है । मनके प रणाम य द उपयोगस हत हो तो कम
कम लगते है उपयोगर हत हो तो कम अ धक लगते है । अ त करणको कोमल करनेके लये, शु करनेके
लये त आ द करनेका वधान कया है। वादबु को कम करनेके लये नयम करे। कुलधम जहाँ
जहाँ दे खते ह वहाँ वहाँ आडे आता है।
वडवा, भा पद सुद १३, श न, १९५२
" ी व लभाचाय कहते ह क ीकृ ण गो पयोके साथ रहते थे, उसे जानकर भ कर। योगी
समझकर तो सारा जगत भ करता है पर तु गह था ममे योगदशा है, उसे समझकर 'भ करना
'वैरा यका कारण है। गृह था ममे स पु ष रहते ह उनका च दे खकर वशेष वैरा यक ती त होती
है। योगदशाका च दे खकर सारे जगतको वैरा यको ती त होती है, पर तु गृह था ममे रहते ए भी

औ ै ो ै े े ै ी ै ो े ो ै ै ै
याग और वैरा य योगदशा जैसे रहते ह, यह कैसी अ त दशा है, योगमे जो वैरा य रहता है वैसा
अखड वैरा य स पु ष गृह था ममे रखते ह। उस अ त वैरा यको दे खकर मुमु ुको वैरा य, भ
होनेका न म बनता ह।लौ ककं मे वैरा य, भ नही है। ...! . . .- ।
1515 पु षाथ करना और स य री तसे वतन करना यानमे ही नह आता। वह तो लोग भूल ही गये है।
लोग जब वषा आती है तब पानी टक मे भर रखते ह, वैसे मुमु ुजीव इतना सारा उपदे श सुनकर
जरा भी हण नही करते, यह एक आ य है। उनका उपकार कस तरह हो ? स पु षक वतमान
थ तक वशेष अ तदशा है । स पु षके गृह था मक सारी थ त श त है । सभी योग पूजनीय है।
" ानी दोष कम करनेके लये अनुभवके वचन कहते है, इस लये वैसे वचनोका मरण,करके य द
उ हे समझा जाये, उनका वण मनन हो तो सहजमे ही आ मा उ वल होता है। वैसा करनेमे कुछ
ब त मेहनत नही है । वैसे वचनोका वचार न करे, तो कभी भी दोष कम नह होते।
सदाचारका सेवन करना चा हये । ानीपु षोने दया, स य, अद ादान, चय, प र ह-प रमाण
आ द सदाचार कहे ह । ा नयोने जन सदाचारोका सेवन करना कहा है वह यथाथ है, सेवन करने यो य
है। बना सा ीके जीव त, नयम न करे। ..
-: वषय-कषाय आ द दोष र ए बना सामा य आशयवाले दया आ द भी नह आते, तो फर
गूढ आशयवाले दया आ द कहाँसे आयेगे ? वषय कषायस हत मो मे जाया नही जाता । अत करणक
शु क वना आ म ान नह होता। भ सब दोषोका य करनेवाली है, इस लये वह सव कृ है। ..
, जीव, वक पका ापार न करे। वचारवान,अ वचार और अकाय करते ए ोभ पाता है।
अकाय करते ए जो ोभ नही पाता वह अ वचारवान है,। अकाय करते ए पहले जतना ास रहता

७२३
है उतना सरी,बार करते ए नही रहता। इस लये पहलेसे ही अकाय करते ए क जाय, ढ न य
करके अकाय न करे।
. स पु ष,उपकारके- लये जो उपदे श करते है, उसे सुने और वचारे तो जीवके दोष अव य कम
होते है। पारसम णका सग आ,- और लोहेका सुवण न आ तो, या तो पारसम ण नही ओर या तो
असली लोहा नही । उसी तरह जसके उपदे शसे आ मा सुवणमय न हो वह उपदे ा, या तो स पु ष नही,
और या तो उपदे श सुननेवाला यो य जीव नही। यो य जीव और स चे स पु ष हो तो गुण कट ए
बना नही रहते। ..
.. लौ कक आलबन करना ही नह । जीव वय जागृत हो तो सभी वपरीत कारण र हो जाते ह।
जस तरह कोई पु ष घरमे न ावश है, उसके घरमे कु े, व ले आ द घुस जानेसे नुकसान करते है,
और फर वह पु ष जागनेके बाद नुकसान करनेवाले कु े आ द ा णयोका दोप नकालता है, पर त
अपना दोष नही नकालता क मै सो गया तो ऐसा आ, उसी तरह जीव अपने दोप नह दे खता । वय
जागृत रहता हो तो सभी वपरीत कारण र हो जाते है, इस लये वयं जागृत रहे। ..
, , , जीव यो कहता है क तृ णा, अहंकार, लोभ आ द मेरे दोष र नह होते, अथात् जीव अपना
दोष नही नकालता, और दोषोका ही दोष नकालता है। जैसे सूयका ताप ब त पडता है, इससे जीव
बाहर नही नकल सकता, इस लये सूयका दोष नकालता है, पर तु छतरी और जूते सूयके तापसे बचने के
लये बताये है, उनका उपयोग नही करता। ानीपु षोने लौ ककभावको छोड़कर जन वचारोसे अपने
दोष कम कये, न कये, वे वचार और वे उपाय ानी उपकारके लये बताते है । उ हे सुनकर वे
आ मामे प रण मत हो ऐसा पु षाथ करे। :
- कस तरह दोप कम हो ? जीव लौ कक भाव, या कया करता है, और दोष यो कम नही होते
यो कहा करता है ।
- जो जीव यो य नह होता उसे स पु ष उपदे श नह दे ते।
.. स पु पक , अपे ा मुमु ुका याग-वैरा य बढ जाना चा हये । मुमु ुओको जागत-जागत होकर
वैरा य बढाना चा हये । स पु षका एक भी वचन सुनकर अपनेमे दोषोके अ त वका ब त ही खेद करेगा
और दोष कम करेगा तभी गुण कट होगे । स सग समागमक आव यकता है। बाक स पु ष तो जैसे
एक बटोही सरे बटोहीको रा ता बताकर चला जाता है, उसी तरह रा ता बताकर चले जाते ह। ग .
पद धारण करनेके लये अथवा श य बनानेके लये स पु पक इ छा नही है। स पु षके बना कभी
आ ह, कदा ह र नह होता। जसका- रा ह र आ. उसे-आ माका भान होता है । स पु षके ताप-
से ही दोष कम होते है । ा त र हो जाये तो तुरत सं य व होता है। ...
बाहवलोजीको जैसे केवल ान पासमे-अतरमे-या, कुछ बाहर न था, वैसे ही स य व अपने
पास ही है। ।
श य ऐसा हो क सर काट कर दे दे , तव ानी स य व ा त कराते है । ानोपु पको नम कार
आ द करना श यके अहकारको र करनेके लये है । पर तु मनमे उथलपुथल आ करे तो कनारा
कब आयेगा?
। जीव अहकार रखता है, असत् वचन बोलता हे, ा त रखता है, उसका उसे त नक भी भान नह
है। यह भान ए वना नवेडा आनेवाला नह है।
, शूरवीर वचनोके समान सरा एक भी वचन नह है। जीवको स पु षका एक श द भी समझम
नह आया । वड़ पन बाधा डालता हो तो उसे छोड़ दे । ढूं ढयाने मुंहप ी और तपाने मू त आ दका

७२४


ीमद् राजच
कदा ह पकड़ रखा है, पर तु वैसे कदा हमे कुछ भी हत नही है। शौय करके आ ह, कदा हसे र
रहे, पर तु वरोध न करे।
जब ानीपु ष होते है तव मतभेद एव कदा ह कम कर दे ते ह। ानी अनुकपाके लये मागका
बोध दे ते ह । अ ानी कुगु जगह जगह मतभेद बढ़ाकर कदा हको ढ करते है।
स चे पु ष मल, और वे जो क याणका माग बताय, उसीके अनुसार जीव वतन करे तो अव य
क याण होता है। स पु पक आ ाका पालन करना ही क याण है । माग वचारवानको पूछे । स पु षके
आ यसे सदाचरण कर। खोट बु सभीको हैरान करनेवाली है, पापकारी है। जहाँ मम व हो वही
म या व है । ावक सब दयालु होते है । क याणका माग एक ही होता है, सी दो सौ नही होते । अंदरके
दोपोका नाश होगा, और समप रणाम आयेगा तो ही क याण होगा।
- जो मतभेदका छे दन करे वही स चा पु ष है । जो समप रणामके रा तेपर चढाये वह स चा सग
है। वचारवानको मागका भेद नही है।
ह और मुसलमान सरीखे नही है। ह ओके धमगु जो धमबोध कह गये थे उसे ब त उपकार
के लये कह गये थे। वैसा बोध पीराना मुसलमानोके शा ोमे नही है। आ मापे ासे कुनबी, ब नया,
मुसलमान कोई नह है। वह भेद जसका र हो गया है। वही शु है, भेद भासना ही अना द भूल है।
कुलाचारके अनुसार जसे स चा माना वही कषाय है । .
; ..-मो या है ? . . ,
। उ०-आ माक अ यंत शु ता, अ ानसे 'छू ट जाना, सब कम से मु होना 'मो ' है । यथात य
ानके गट होनेपर मो होता है। जब तक ा त है तब तक आ मा जगतमे ही है। अना दकालका
'जो चेतन है उसका वभाव जानना अथात् ान है, फर भी जीव भूल जाता है वह या है ? ' जाननेमे
यूनता है, यथात य ान नही है। वह यूनता कस तरह र हो ? उस ान पी वभावको भूल न जाये,
उसे वारवार ढ करे तो यूनता र होती है । ानीपु षके वचन का आलबन लेनेसे ान होता है।
जो साधन है वे उपकारके हेतु है। जैसा जैसा अ धकारी वैसा वैसा उनका फल होता है । स पु षके
आ यसे ले तो साधन उपकारके हेतु है। स पु षक से'चलनेसे ान होता है। स पु षके वचन
आ मामे प रणत होनेपर म या व, अवत, माद, अशुभयोग इ या द सभी दोष अनु मसे श थल पड़
जाते है । आ म ानका वचार करनेसे दोषोका नाश होता है। स पु ष पुकार पुकार कर कह गये ह,
परतु जीवको लोकमागमे पडे रहना ह, और लोको र कहलवाना है, और दोष र यो नही होते य
मा कहते रहना है। लोकका भय छोड़कर स पु षके वचनोको आ मामे प रणत करे, तो सब दोष र
हो जाते है। जीव मम व न रखे; वड पन और मह ा छोडे वना आ मामे · स य वका माग प रण मत
होना क ठन है।
वतमानमे व छ दसे वेदांतशा पढे जाते ह, और इससे शु कता जैसा हो जाता है। पड् दशनमे
झगडा नह है, पर तु आ माको केवल मु से दे खते ए तीथकरने ल बा वचार कया है। मूल
ल यगत होनेसे जो जो व ाओ (स पु षो) ने कहा है, वह यथाथ है, ऐसा मालूम होगा।
आ मामे कभी भी वकार उ प न हो, तथा राग े षप रणाम न हो, तभी केवल ान कहा जाता
है। पदशनवालोने जो वचार कये ह उससे आ माका उ हे भान होता है, पर तु तारत यमे भेद पडता
है। मूलमे भूल नही है। पर तु पड् दशनको अपनी समझसे लगाये तो कभी नही लगते अथात् समझमे नही
आते । स पु षके आ यसे वे समझमे आते ह। जसने आ माको असग, न य वचारा हो उसे ा त
नह होती, सशय भी नह होता । फर आ माके अ त वका भी नह रहता।

७२५
, ०-स य व कैसे ात हो ?
उ०-अ दरसे दशा बदले तब स य वका ान अपने आप वयको हो जाता है। सदे व अथात्
राग े ष और अ ान जसके ीण ए है वह । स कसे कहा जाता ह ? म या वको थ जसक
छ हो गयी है उसे । स अथात् न ंथ । स म अथात् ानीपु षो ारा बो धत धम । इन तीन
त वोको यथाथ पसे जाने तब स य व आ समझा जाता है।
- अ ान र करनेके लये कारण, साधन बताये है। ानका व प जब जाने, तव, मो होता है। .
। परम वै पी स मले और उपदे श पी दवा आ मामे प रण मत हो तब, रोग र होता है।
पर तु उस दवाको अ तरमे हण न करे, तो उसका रोग कभी र नही होता। जीव वा त वक, साधन
नह करता । जस तरह सारे कुटु बको पहचानना हो तो पहले एक को पहचाने तो सबक पहचान
हो जाती है, उसी तरह पहले स य वक पहचान हो तब आ माके सम त गुण पी प रवारक पहचान
हो जाती है । स य वको सव कृ साधन कहा है। बा वृ योको कम करके अ तप रणाम करे, तो
स य वका माग मलता है। चलते चलते गाँव आता है, पर तु बना चले गांव नही आता । जीवको
यथाथ स पु षक ा त और ती त नही ई है। . . . . . . . .
__ . ब हरा मामेसे, अ तरा मा होनेके बाद परमा म व ा त होना चा हये। जैसे ध और पानी अलग
ह वैसे स पु षके आ यसे, ती तसे दे ह और आ मा अलग है. ऐसा भान होता है। अ तरमे अपने
आ मानुभव पसे, जैसे ध और पानी भ भ होते है, वैसे ही दे ह और आ मा भ भ लगते है
तब परमा म व गट होता है। जसे आ माका वचार पी यान है, सतत नर तर यान है, आ मा, जसे
व मे भी अलग ही भासता है, कभी जसे आ माक ा त होती ही नही उसीको परमा म व होता है।
अ तरा मा, कषाय आ द र करनेके लये नर तर पु षाथ करता है । चौदहवे गुण थान तक
यह वचार पी या है। जसे वैरा य उपशम रहता हो उसीको वचारवान कहते है। आ मा मुक

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होनेके बाद ससारमे नही आता। आ मा वानुभवगोचर है, वह च ुसे .दोखता नही है, इ यसे र हत
ान उसे जानता है। आ माका उपयोग मनन करे वह मन है । लगाव है इस लये मन भ कहा जाता
है। सक प- वक प छोड़ दे ना 'उपयोग' है। ानको आवरण करनेवाला नका चत कम जसने न वॉधा
हो उसे स पु षका बोध लगता है.। आयुका ब ध हो उसे रोका नही जाता।
- जीवने अ ानको हण कया है इस लये उपदे श नही लगता । यो क आवरणके कारण, उपदे श
लगनेका कोई रा ता नही ह। जब तक लोकके अ भ नवेशक क पना करते रहे तब तक आ मा ऊँचा
नही उठता, और तब तक क याण भी नह होता। ब तसे जीव स पु षका बोध सुनते ह, पर तु उसे
वचारनेका योग नही बनता। -
..इ दयोके न हका ना होना, कुलधमका आ ह, मान ाघाक कामना, और अम य थता, यह
कदा ह है। इस कदा हको जीव जब तक नह छोड़ता तब तक क याण नह होता। नव पूव पढे तो
भी जीव भटका। चौदह राजलोक जाने पर तु दे हमे रहे ए आ माको नह पहचाना, इस लये भटका ।
ानीपु ष सभी शकाएँ र कर सकते ह, पर तु तरनेका कारण है स पु षको से चलना और तभी
.ख मटता है। आज भी पु पाथ करे तो आ म ान होता है । जसे आ म ान नही है उससे क याण
नही होता।
वहार जसका परमाथ है ऐसे आ म ानीको आ ासे वतन करनेपर आ मा ल यगत होता है,
क याण होता है।
जीवको बध कैसे पड़ता है ? नका चत सबधी-उपयोगसे, अनुपयोगसे ।

७२६
ीमद राजच
आ माका मु य ल ण उपयोग है । आ मा तलमा र नह है, बाहर दे खनेसे र भासता है,
परतु वह अनुभवगोचर है । यह नही, यह नही, यह नही, इससे भ जो रहा सो वह है।
जो आकाश द खता है वह आकाश नह है। आकाश च ुसे नही द खता । आकाशको अ पी कहा है।
आ माका भान वानुभवसे होता है। आ मा अनुभवगोचर है। अनुमान जो है वह माप है।
अनुभव जो है वह अ त व है।
• आ म ान सहज नही है। 'पचीकरण', ' वचारसागर' को पढकर कथन मा माननेसे ान नही
होता । जसे अनुभव आ है ऐसे अनुभवीके आ यसे उसे समझकर उसक आ ाके अनुसार वतन करे
तो ान होता है। समझे वना रा ता अ त वकट है। हीरा नकालनेके लये खान खोदनेमे तो मेहनत
है, परतु हीरा लेनेमे मेहनत नही है। इसी तरह आ मा सबधी समझ आना कर है, नही तो आ मा
कुछ र नह है । भान न होनेसे र लगता है। जीवको क याण करने, न करनेका भान नही है, पर तु
अपनापन रखना है।
चौथे गुण थानमे थभेद होता है। यारहवेसे पडता है उसे 'उपशम स य व' कहा जाता है ।
लोभ चा र को गरानेवाला है। चौथे गुण थानमे उपशम और ा यक दोनो होते है । उपशम अथात्
स ामे आवरणका रहना | क याणके स चे कारण जीवके यालमे नही है। जो शा वृ को स त न
कर, वृ को संकु चत न करे अ पतु उसे बढाय, ऐसे शा ोमे याय कहाँसे होगा?
त दे नेवाले और त लेनेवाले दोन वचार तथा उपयोग रखे | उपयोग न रख और भार
रख तो नका चत कम बाँधे । 'कम करना', प र ह मयादा करना ऐसा जसके मनमे हो वह श थल कम
बाँधे । पाप करनेपर कुछ मु नही होती । एक त मा लेकर जो अ ानको नकालना चाहता है ऐसे
जीवको अ ान कहता है क तेरे कतने हो चा र म खा गया ँ, तो इसमे या बड़ी बात है ? ।
“जो साधन बताये वे तरनेके सांधन हो तो हो स चे साधन ह। बाक न फल, साधन है । व-
हारमे अनत भग उठते है, तो कैसे पार आयेगा? कोई आदमी जोरसे बोले उसे कषाय कहा जाता है।
कोई धोरजसे बोले तो उसे,शा त है ऐसा लगता है, परतु अंतप रणाम हो तो ही शा त कही जाती है।
_ जसे सोनेके लये एक ब तर चा हये वह दस घर खुले रखे तो ऐसे मनु यको वृ कब सकु चत
होगी ? जो वृ को रोके उसे पाप नह होता। कतने ही जीव ऐसे ह क जनसे वृ न के ऐसे कारण
इक े करते ह; इससे पाप नही कता। ''
भा पद सुद १५, १९५२
___ चौदह राजूलोकको जो कामना है वह पाप है। इस लये प रणाम दे ख। चौदह राजूलोकका पता
नही ऐसा कदा चत् कहे, तो भी जतना सोचा उतना तो अव य पाप आ। मु नको तनका भी लेनेक
छू ट नही है । गृह थ इतना ले तो उतना उसे पाप है।
जड और आ मा त मय नह होते। सूतको ऑट सूतसे कुछ भ नही है, पर तु ऑट खोलनेमे
वकटता है, य प सू न घटता है और न बढता है । उसी तरह आ मामे ऑट पड गयी है। ।
स पु ष और स शा यह वहार कुछ क पत नही है । 'स ; स शा पी वहारसे व-
प शु हो, केवल रहे, अपना व प समझे वह सम कत है। स पु पका वचन सुनना लभ है, ा
करना लभ है, वचारना लभ है, तो फर अनुभव करना लभ हो इसम या नवीनता ?
उपदे श ान अना दसे चला आता है, अकेली पु तकसे ान नही होता। पु तकसे ान होता हो
तो पु तकका मो हो जाये । स क आ ानुसार चलनेमे भूल हो जाये तो पु तक अवलवनभूत है।

७२७
चैत यक रटन रहे तो चैत य ा त होता है, चैत य अनुभवगोचर होता है । स के वचनका वण करे,
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मनन करे, और आ मामे प रणत करे तो क याण होता है।
ान और अनुभव हो तो मो होता है। वहारका नषेध न करे, अकेले वहारको पकड़न रख।
आ म ानक बात इस तरह करना यो य नही क वह सामा य हो जाये । आ म ानक बात एकांत
मे कहे । आ माके अ त वका वचार कया जाये, तो अनुभवमे आता है, नही तो उसमे शंका होती है।
जैसे कसी मनु यको अ धक पटल होनेसे नही द खता, उसी तरह आवरणक सल नताके कारण आ मा-
को नही द खता। नीदमे भी आ माको सामा यत जागृ त रहती है। आ मा सवथा नही सोता, उसपर
आवरण आ जाता है। आ मा हो तो ान होता है । जड़ हो तो ान कसे हो ?
* अपनेको अपना भान होना, वय अपना ान पाना, जीव मु होना।
'चैत य एक हो तो ा त कसे ई ? मो कसका आ?' सभी चैत यक 'जा त एक है, पर तु
येक चैत यक वतं ता है, भ भ है। चैत यका'' वभाव एक है । मो वानुभवगोचर है।
नरावरणमे भेद नही है। परमाणु एक त न हो अथात् आ माका जब परमाणुसे 'सबध न हो तब मु
है, पर व पमे नही मलना वह मु है।
' क याण करने, न करनेका तो भान नही है, पर तु जीवको अपनापन रखना है। बंध कब तक होता
है ? जीव चैत य न हो तब तक । एक य आ द यो न हो तो भी जीवका ान वभाव सवथा लु त नही
हो जाता, अशसे खुला रहता है । अना द कालसे जीव बँधा आ है। नरावरण होनेके बाद नही बंधता |
'म जानता ँ, ऐसा जो अ भमान है वह चैत यक अशु ता है। इस जगतमे बंध और मो न होते तो
फर तका उपदे श कसके लये ? आ मा वभावसे सवथा न य है, योगसे स य है । जब न व-
क प समा ध होती है तभी न यता कही है। न ववाद पसे वेदातका वचार करनेमे बाधा नही है।
आ म अहतपदका वचार करे तो अहत होता है। स पदका वचार कर तो स होता है । आचाय-
पदका वचार करे तो आचाय होता है । उपा यायका वचार कर तो उपा याय होता है । ी पका वचार
करे तो ी हो जाता है, अथात् आ मा जस व पका वचार करे त प ू भावा मा हो जाता है । आ मा
एक है या अनेक है इसक च ता न करे । हम तो यह वचार करनेक ज रत है क 'म एक ' ँ । जगतको
मलानेक या ज रत है ? 'एक-अनेकका वचार ब त आगेको दशामे प ँचनेके बाद करना है। जगत
और आ माको व म भी एक न समझ। आ मा अचल है, नरांवरण है । वेदात सुनकर भी आ माको
पहचान । आ मा सव ापक है या आ मा दे हमे है, यह य अनुभवग य है।
- सभी धम का ता पय यह है क आ माको पहचाने । सरे सब जो साधन ह, वे जस जगह चा हये
(यो य ह) वहाँ ानीक आ ासे उपयोग करते ए अ धकारी जीवको फल होता है । दया आ द आ माके
नमल होनेके साधन है।
म या व, माद, अवत, अशुभयोग, ये अनु मसे जाये तो स पु षका वचन आ मामे प रणाम
पाता है, उससे सभी दोष का अनु मसे नाश होता है । आ म ान वचारसे होता है। स पु प तो पुकार-
पुकार कर कह गये ह, पर तु जीव लोकमागमे पडा है, और उसे लोको रमाग मानता है। इस लये
कसी तरह भी दोष नही जाते । लोकका भय छोड़कर स पु प के वचन, आ मामे प रण मत करे तो
सब दोष चले जाते ह । जीव मम व न लाये, बड़ पन और मह ा छोड़े बना स यक् माग आ मामे प र-
णाम नही पाता।
वाचक वषयम .-परमाथहेतु नदो उतरनेके लये ठडे पानी क मु नको आ ा दो है, पर तु
अ चयक आ ा नही द है. और उसके लये कहा है क अ प आहार करना, उपवास करना, एका.
तर करना, अ तमे जहर खाकर मर जाना; पर तु चयका भग मत ।

७२८
जसे दे हक मूछा हो उसे क याण कस तरह भासे ? साँप काटे और भय न हो तब समझना क
आ म ान गट आ है । आ मा अजर अमर है । 'म' मरनेवाला नही, तो मरनेका भय या ? जसक
दे हक मूछा चली गयी है उसे आ म ान आ कहा जाता है।
-जीव कैसे वतन करे?
उ र-ऐसे वतन करे क स सगके योगसे आ माक शु ता ा त, हो । पर तु स संगका योग
सदा नही मलता। जीव यो य होनेके लये हसा न करे, स य बोले, अद न ले, चय पाले, प र हक
मयादा करे, रा भोजन न करे इ या द सदाचरण शु अत करणसे करनेका ा नयोने कहा है, वह भी
य द आ माके लये यान रखकर कया जाता हो तो उपकारी है, नही तो पु ययोग ा त होता है। उससे
मनु यभव मलता है, दे वग त मलती है, रा य मलता है, एक भवका सुख मलता है, और फर चार
ग तमे भटकना होता है; इस लये ा नयोने तप आ द जो याएँ आ माके उपकारके लये अहकारर हत
भावसे करनेके लये कही है, उनका परम ानी वय भी जगतके उपकारके लये न यसे सेवन करते ह।
महावीर वामीने केवल ान उ प होनेके बाद उपवास नही कये, उसी तरह कसी ानीने भी
नही कये, तथा प लोगोके मनमे ऐसा न आये क ान होनेके बाद खाना पीना सब एकसा है इस लये
अं तम समयमे तपक आव यकता बतानेके लये उपवास कये, दानको स करनेके लये दो ा लेनेसे
पहले वय वष दान दया, इससे जगतको दान स कर दखाया। माता पताको सेवा स कर दखायो ।
छोट उमरमे द ा नही ली वह उपकारके लय । नही तो अपनेको करना, न करना कुछ नह है, य क
जो साधन कहे ह वे आ मल य करनेके लये है, जो वयंको तो सपूण ा त आ है । पर तु परोपकारक
लये ानी सदाचरणका सेवन करते है। , , -
अभी जैनधममे ब त समयसे अ व त कुएँक भॉ त आवरण आ गया है, कोई ानीपु ष है
नही । कतने ही समयसे ानी ए नही, यो क, नही तो उसमे इतने अ धक कदा ह न होते । इस पचम
कालमे स पु षका योग मलना लभ है; उसमे अभी तो. वशेष लभ दे खनेमे आता है, ाय. पूवके

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सं कारी जीव दे खनेमे नही आते। बहतसे जीवोमे कोई ही स चा मुमु ु, ज ासु दे खनेमे आता है, बाक
तो तीन कारके जीव दे खनेमे आते ह, जो बा वाले है- ...
(१) ' या नही करना, यासे दे वग त ा त होती है, सरा कुछ ा त नह होता। जससे चार
ग तयोका भटकना मटे , यह यथाथ है।' ऐसा कहकर सदाचरणको पु यका हेतु मानकर नही करते, और
पापके कारणोका सेवन करते ए नही कते। इस कारके जीवोको कुछ करना हो नही है, और केवल
बडी बडी बाते ही करनी है । इन जीवोको 'अ ानवाद ' के तौरपर रखा जा सकता है। ,
'' (२) 'एकात कया करनी, उसीसे क याण होगा', ऐसा माननेवाले एकदम वहारमे क याण
मानकर कदा ह नही छोडते । ऐसे जीवोको ‘ यावाद ' अथवा ' याजड' समझे। याजडको आ माका
ल य नह होता।
' (३) 'हमे आ म ान है । आ माको ा त होती ही नही,''आ मा कता भी नह है और भोका भी
नही है, इस लये कुछ नही है ।' ऐसा बोलनेवाले 'शु क-अ या मी. पोले ानी होकर अनाचारका सेवन
करते ए नही कते। ."
ऐसे तीन कारके जीव अभी दे खनेमे आते ह। जीवको जो कुछ करना है वह आ माके उपकारके
लये करना है, इस वातको वे भूल गये ह। आजकलं जैनमे चौरासीसे सौ ग छ हो गये ह। उन सबमे
कदा ह हो गये ह, फर भी वे सब कहते है क 'जैनधममे हम ही ह, जैनधम हमारा है'। ...
'प डमा म, नदा म, ग रहा म, अ पाणं वो सरा म' आ द पाठका लोकमे अभी ऐसा अथ च लत
आ मालूम होता है क 'आ माका ु सजन करता ,ँ ' अथात् जसका अथ आ माका उपकार करना है,

७२९
उसोको, आ माको ही भूल गये है । जैसे बारात चढ हो और व वध वैभव आ द हो, पर तु य द एक वर
न हो तो बारात शो भत नही होती और वर हो तो शो भत होती है, उसी तरह या, वैरा य आ द
य द आ माका ान हो तो शोभा. दे ते है, नही तो शोभा नही दे ते । - जैनोमे, अभी, आ मा भूला दया
गया है। : .. . .
सू , चौदहपूवका ान, मु नपन, ावकपन, हजारो तरहके सदाचरण, तप या आ द जो जो
साधन, जो जो प र म, जो जो पु षाथ कहे ह वे सब एक आ माको पहचानने के लये, खोज नकालनेके
लये कहे ह। वे य न य द आ माको पहचाननेके लये, खोज नकालनेके लये, आ माके लये हो तो
सफल ह; नही तो न फल ह। य प उनसे वा - फल होता है, पर तु चार ग तका नाश नह होता।
जीवको स पु षका योग मले, और ल य हो तो वह सहजमे ही यो य जोक होता है, और फर स क
आ था हो तो स य व उ प होता है । ।
. (१),शम - ोध आ दको कृश करना । -, :. .
. . (२) सवेग = मो मागके सवाय और कसी इ छाका न होना। .
। (३) नवद-ससारसे थक जाना, संसारसे क जाना।. .- .
(४) आ था - स चे गु क , स क आ था होना ! .
-, (५) अनुकंपा = सब ा णयोपर समभाव रखना, नवर व रखना। -
ये गुण सम कती जीवमे- सहज होते है। पहले स चे पु षको पहचान हो तो फर ये चार गुण
आते ह।
वेदातमे वचार करनेके लये षट् सप बतायी है । ववेक, वैरा य आ द स ण ा त होनेके
बाद जीव यो य मुमु ु कहा जाता है।
,' नय आ माको, समझनेके लये कहे ह, पर तु जीव तो नयवादमे उलझ जाते है । आ माको समझाने
जाते ए नयमे उलझ-जानेसे यह योग उलटा पड़ा। सम कत जीवको 'केवल ान' कहा जाता है।
वतमानमे भान आ है, इस लये 'दे श केवल ान': आ कहा जाता है, वाक तो आ माका भान होना ही
केवल ान है । यह इस तरह कहा जाता है-सम कत को आ माका भान आ, तब उसे केवल ानका
भान गट आ, और उसका भान: गट आ तो केवल ान अव य होनेवाला है । इस लये इस अपे ासे
सम कत को केवल ान कहा है । स य व, आ अथात् जमीन जोत कर वीजको बो दया, वृ आ,
फल थोडे खाये, खाते खाते आयु पूरी ई, तो फर सरे भवमे फल खाये, जायगे । इस लये 'केवल ान' इस
कालमे नही है, नही है ऐसा उलटा न मानना और न कहना । स य व ा त होनेसे अनत भव र होकर
एक भव बाक रहा, इस लये स य व उ कृ है। आ मामे केवल ान है, पर तु आवरण र होनेपर
केवल ान गट होता है। इस कालमे स पूण आवरण र नह होता, एक भव वाक रह जाता है,
अथात् जतना केवल ानावरणीय र होता है उतना केवल ान होता है।, सम कत आनेपर भीतरम-
अतरमे-दशा बदलती है, केवल ानका वीज गट होता है। म के वना माग नह है ऐसा महा-
पु षोने कहा है । यह उपदे श बना कारण नह कया।
, सम कती अथात म या वमु , केवल ानी अथात् चा र ावरणसे संपूणतया मु , और स
अथात् दे ह आ दसे सपूणतया मु ।
-कम कैसे कम होते ह ?
उ र- ोध न करे, मान न करे, माया न करे, लोभ न करे, उससे कम कम होते ह।
वा या क ँ गा तो मनु यज म मलेगा, और कसी दन स चे पु षका योग मलेगा।

७३०
ीमद् राजच


- त नयम करना या नही ?
उ र- त नयम करना है । उसके साथ झगडा, लेश, बाल-ब चे और घरमे मम व नही करना ।
ऊँची दशामे जानेके लये त- नयम करना।
स चे झूठेक परी ा करनेके बारेमे एक स चे भ का ात-एक राजा बहत भ वाला था;
और इस लये वह भ ोक सेवा ब त करता, ब तसे भ ोका अ , व आ दसे पोषण करनेसे ब त भ
इक े हो गये। धानने सोचा क राजा भोला है, भ ठग है; इस लये इस बातक राजाको परी ा
कराई जाये । पर तु अभी राजाको ेम ब त है, इस लये मानेगा नह , इस लये कसी अवसरपर बात
करगे, ऐसा वचार कर कुछ समय ठहर कर कोई अवसर मलनेसे उसने राजासे कहा-'आप ब त
समयसे सभी भ ोक सरीखी सेवा-चाकरी करते ह, पर तु उनमे कोई बडे होगे, कोई छोटे होगे । इस लये
सवको पहचानकर भ कर' तव राजाने हाँ कहकर पूछा-'तब कैसे करना?' राजाक अनुम त
लेकर धानने जो दो हजार भ थे उन सबको इक ा करके कहलवाया-'आप सब दरवाजेके बाहर
आइये, यो क राजाको ज रत होनेसे आज भ -तेल नकालना है। आप सब ब त दनोसे राजाका माल-
मलीदा खाते ह, तो आज राजाका इतना काम आपको करना ही चा हये।' घानीमे डालकर तेल नकालने
का सुना क सभी भ तो भागने लगे, और पलायन कर गये। एक स चा भ था उसने वचार कया-
'राजाका नमक खाया है तो उसका नमकहराम यो आ जाये ?.राजाने परमाथ समझकर अ दया है,
इस लये राजा जैसे चाहे वैसे करने दे ना चा हये। ऐसा वचार कर घानीके पास जाकर कहा-"आपको
भ -तेल नकालना हो तो नकाल ।" फर धानने राजासे कहा-“दे खये, आप सब भ ोक सेवा
करते थे, पर तु स चे-झूठेक परी ा नही थी।" दे खये, इस तरह स चे जीव तो वरले ही होते है, और
ऐसे वरल स चे स को भ ेय कर है। स चे स क भ मन, वचन और कायासे करे ।
___एक बात समझमे न आये तब तक सरी बात सुननी कस कामक ? एक बार सुना वह समझमे
न आये तव तक सरी बार न सुन । “सुने हएको न भूल, जैसे एक वार खाया, उसके पचे वना और न
खाये | तप इ या द करना यह कोई महाभारत काम नह है, इस लये तप करनेवाला अहकार न करे। तप यह
छोटे से छोटा भाग है । भूखा रहना और उपवास करना उसका नाम तप नही है। भीतरसे शु अंत करण
हो तव तप कहा जाता है, और तब मो ग त होती है । बा तप शरीरसे होता है । तपके छः कार है-
(१) अतवृ होना, (२) एक आसनसे कायाको वठाना, (३) कम आहार करना, -(४) नीरस आहार
करना, और वृ योको कम करना, (५) सलीनता, (६) आहारका याग । ''
त थके लये उपवास नही करना है, पर तु आ माके लये उपवास करना है। बारह कारका तप
कहा है। उसमे आहार न करना, इस तपको ज ाइ यको वश करनेका उपाय समझकर कहा है।
ज ाइ य वश क तो यह सभी इ योके वश होनेका न म है। उपवास कर तो इसक बात वाहर
न करे, सरेक नदा न कर, ोध न कर। य द ऐसे दोष कम हो तो बडा लाभ होता है। तप आ द
आ माके लये करना है, लोगोको दखानेके लये नही करना है। कषाय कम हो उसे 'तप' कहा है।
लौ कक को भूल जाय। लोग तो जस कुलमे ज म लेते है उस कुलके धमको मानते है और वहाँ
जाते ह । पर तु वह तो नाममा धम कहा जाता है, पर तु मुमु ु वैसा न करे।
सब सामा यक करते ह, और कहते ह क जो ानी वीकार करे वह सच है। सम कत होगा या
नही, उसे भी ानी वीकार करे तो स चा है। पर तु ानी या वीकार करे ? अ ानी वीकार करे
ऐसा तो आपका सामा यक, त और सम कत है । अथात् आपके सामा यक, त और सम कत वा त वक
नही है, मन, वचन और काया वहारसमतामे थर रहे यह सम कत नह है। जैसे नीदमे थर योग
मालूम पडता है, फर भी वह व तुत थर नह है, और इस लये वह समता भी नह है। मन, वचन,

उपदे श, छाया
७३१
या चौदहव गुण थान तक होते ह, मन तो काय कये बना बैठता ही नही है । केवलोका मन-योग चपल
ता है, पर तु आ मा चपल नही होता । आ मा चौथे गुण थानकमे अचपल होता है, पर तु सवथा नही ।
' ान' अथात् आ माको यथात य जानना । 'दशन' अथात् आ माक यथात य ती त । 'चा र ' -
थात् आ माका थर होना।
___आ मा और स एक ही समझ। यह वात वचारसे हण होती है । वह वचार' यह क दे ह
ही अथवा दे हस ब धी सरे भाव नही, पर तु स का आ मा ही स है । जसने आ म व पका
णसे, गुणस और वेदनसे गट अनुभव कया है और वही प रणाम जसके 'आ माका आ है वह आ मा
और स एक ही है, ऐसा समझ । पूवकालमे जो अ ान इक ा कया है वह र हो तो ानीक अपूव
रणी समझमे आती है।
म यावासना ='धमके म या व पको स चा समझना | . ..
तप आ द भी ानीक कसौट है। साताशील वतन रखा हो; और असाता आये तो वह अ ख-
ना वत ान मंद होता है । वचारके बना इ याँ वश होनेवाली नही है । अ वचारसे इ याँ दौडती है।
नव के लये उपवास बताया है । आजकल' कतने ही अ ानी जीव उपवास करके कान पर बैठते है, और
उसे पौषध ठहराते है। ऐसे क पत पौषध जीवने अना दकालसे कये है। उन सबको ा नयोने न फल
हराया है। ी, घर, बाल-ब चे भूल जाय तब सामा यक क ऐसा कहा जाता है।। सामा य वचारको
कर, इ यां वश करनेके लये छ कायका आरंभ कायासे न करते ए वृ नमल हो तब सामा यक हो
सकती है। वहार सामा यक ब त न ष करने जैसी नह है, य प जीवने वहार प सामा यकको
एकदम जड बना डाला है। उसे करनेवाले जीवोको पता भी नह होता क इससे या क याण होगा?
स य व पहले चा हये। जसके वचन सुननेसे आ मा थर हो, वृ नमल हो, उस स पु पके वचनोका

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यवण हो तो फर स य व होता है। ,' ..
, .. ।
__ भव थ त. पचमकालमे मो का अभाव आ द शकाओसे जीवने बा वृ कर डाली है, पर तु
य द ऐसे जीव पु षाथ कर, और पचमकाल मो होते ए हाथ पकड़ने आये तव, उसका उपाय हम कर
लगे। वह उपाय कोई हाथी नही है, झलझलाती अ न नही है। थ ही जीवको, भडका दया है।
ानीके वचन सुनकर याद रखने नही, जीवको पु षाथ करना नही, और उसे लेकर बहाने बनाने ह । इसे
अपना दोष समझ। समताक , वैरा यको बात सुने और वचार कर। बा बात यथासंभव छोड द।
जीव तरनेका अ भलाषी हो, और स क आ ासे वतन करे तो सभी वासनाएँ चली जाती है।
स क आ ामे सभी साधन समा गये ह। जो जीव तरनेका कामी होता है उसक सभी वास-
नाओका नाश हो जाता है । जैसे कोई सौ पचास. कोस र हो, तो दो चार दनमे भी घर प ंच जाये,
परतु लाख कोस र हो तो एकदम घर कहाँसे प ँचे ? वैसे हो यह जीव क याण मागसे थोडा र हो
तो तो कसी दन क याण ा त करे, परतु य द एकदम उलटे रा तेपर हो तो कहांसे पार पाये?
दे ह आ दका अभाव होना, मूछ का नाश होना यही मु है। जसका एक भव वाक रहा हो
उसे दे हक इतनो अ धक चता नह करनी चा हये । अ ान जाने के बाद एक भवका कुछ मह व नह ।
लाखो भव चले गये तो फर एक भव कस हसावमे ?
हो तो म या व, और माने छठा या सातवाँ गुण थान तो उनका या करना ? चौथे गुण थानक
थ त कैसी होती है ? गणधर जैसी, मो मागक परम ती त आये ऐसी।
जो तरनेका कामी हो वह सर काटकर दे ते ए पीछे नही हटता। जो श थल हो वह त नक पेर
धोने जैसा कल ण हो उसे भी छोड़ नह सकता, और वीतरागक वात गण करने जाता है। वीतराग
जस वचनको कहते ए डरे ह उसे अ ानी व छदसे कहता है, तो वह कैसे छू टे गा ?

७३२
ीमद राजच
. महावीर वामीक द ाके जुलूसक बातके व पका य द वचार करे तो वैरा य हो जाये। यह
वात अ त है । वे भगवान अ माद थे.। उनम चा र . व मान था, परंतु जब बा चा र लया तब
मो गये।
... . अ वर त श य हो तो उसक आवभगत कैसे क जाये ? राग े षको मारनेके लये नकला, और
उसे तो कामम लया, तब राग े प कहाँसे जाये ? जने के आगमका जो समागम आ हो, वह तो अपने
योपशम के अनुसार आ हो पर तु स के योगके अनुसार.न आ. हो । स का योग मलनेपर
उनक आ ाके अनुसार जो चला उसका सचमुच राग े ष गया । .
गंभीर रोग मटानेके लये असली दवा तुरत फल दे ती है ! बुखार तो एक दो दन म भी मट जाय।
माग और उ मागक पहचान होनी चा हये । 'तरनेका कामी' इस श दका योग कर तो इसम
अभ का नह उठता । कामी कामी म भी भेद है................... ........
-स पु षक पहचान कैसे हो? :: :.:....
उ र--स पु ष अपने ल ण से पहचाने.जाते ह | स पु ष के ल ण :-उनक वाणी म पूवापर
अ वरोध होता है, वे ोधका जो उपाय बताते ह उससे ोध चला जाता है। मानका जो.उपाय बताते ह
उससे मान र हो जाता है। ानीक वाणी परमाथ प ही होती है; वह अपूव है । ानीक वाणी सरे
अ ानीक वाणीसे ऊँची और ऊंची ही होती ह। जब तक ानीक वाणी सुनी नह , तब तक सू नो
नौरस लगते ह। स और अस क पहचान, सोने और पीतलक कंठ क पहचानक भाँ त होनी.
चा हये । तरनेका कामी हो, और स मल जाये, तो कम : र हो जाते ह । स कम र करनेका
कारण है। कम वाँधनेके कारण मले तो कम बँधे जाते ह और कम र करनेके कारण मले तो कम
र होते ह । तरनेका कामी हो वह भव थ त आ दके आलंवन को म या कहता है । तरनेका कामी कसे
कहा जाये ? जस पदाथको ानी जहर कहते ह उसे. जहर समझकर छोड़ दे , और ानीक आ ाका
आराधन करे उसे तरनेका कामी कहा जाये ।
. : उपदे श सुननेके लये सुननेके कामीने कम पी गुदड़ी ओढ़ है, इस लये उपदे श पो लकड़ी नह .
लगती। जो तरनेका कामी हो उसने धोती प कम ओढ़े ह इस लये उपदे श प लकड़ी पहले लगती है।
शा म अभ के तारनेसे तरे ऐसा नह कहा है। चौभंगीम ऐसा अथ नह है। ँ ढयाके धरमशी नामके
मु नने इसक ट का क है। वयं तरा नह और सर को तारता है, इसका अथ अंधा.माग बतावे ऐसा
है । अस ऐसे म या आलंबन दे ते ह । : ., .
' ानापे ासे सव ापक, स चदानंद ऐसा म. आ मा एक ' ँ ; ऐसा वचार करना, यान करना।
नमल, अ यंत नमल, परमशु , चैत यघन, गट आ म व प है। सबको कम करते-करते जो अबा य
अनुभव रहता है वह 'आ मा' है। जो सवको जानता है वह 'आ मा' है। जो सव. भाव को का शत
करता है वह 'आ मा' है । उपयोगमय 'आ मा' है । अ ावाध समा ध व प. 'आ मा' है.। ...
'आ मा है।' आ मा अ यंत गट है, य क वसंवेदन गट अनुभवम है । अनु प और अ मलन
व प होनेसे 'आ मा न य है'। ां त पसे 'परभावका कता है' । उसके 'फलका भो ा है' । भान होने
पर ' वभाव प रणामो है' । सवथा वभाव प रणाम 'मो है' । स , स संग, स शा , स चार और
संयम आ द उसके साधन ह। आ माके अ त वसे लेकर नव ण तकके पद स चे है, अ यंत स चे ह।
य क गट अनुभवम आते ह। ां त पसे आ मा परभावका कता होनेसे शुभाशुभ कमको उ प होती
है । कम सफल होनेसे उस शुभाशुभ कमको आ मा भोगता है । इस लये उ कृ शुभसे उ कृ अशुभ
तकके यूना धक पयाय भोगने प े अव य है। .......... .
७३३..
नज वभाव ानम केवल उपयोगसे, त मयाकार, सहज वभावसे, न वक प पसे आ मा जो
प रणमन करता है वह केवल ान' है । तथा प ती त पसे जो प रणमन करता है वह 'स य व है।
नरंतर वह ती त रहा कर उसे ' ा यक स य व' कहते ह। व चत् मंद, व चत् तीन, व चत् वस-
जन, व चत् मरण प ऐसी ती त रहे, उसे ' योपशम स य व' कहते ह। उस ती तको जब तक
स ागत आवरण उदय नह आय, तब तक 'उपशम स य व' कहते ह। आ माको आवरण उदयम आये
तब वह ती तसे गर जाता है उसे 'सा वादन स य व' कहते ह। अ य त ती त होनेके योगम स ा-
गत अ प पु लका वेदन करना जहाँ रहा है, उसे 'वेदक स य व' कहते ह। तथा प ती त होनेपर
अ यभाव संबंधी. अहं व, मम व आ द, हष-शोकका मसे य होता है । मन प योगम तारत यस हत जो
कोई चा र क आराधना करता है वह स ा त करता है; और जो व प थ तका सेवन करता है
वह वभाव थ त' पाता है। नरंतर व पलाभ, व पाकार उपयोगका प रणमन इ या द वभाव,
__ अंतराय कमके यसे गट होते ह। जो केवल वभावप रणामी ान है वह 'केवल ान' है।
आणंद, भाद वदो १, मंगल, १९५२
' 'जंबु प त' नामके जैनसू म ऐसा कहा है क इस कालम मो नह है। इससे यह न समझ
क म या वका र होना, और उस म या वके र होने प मो नह है। म या वके र होने प मो
ह; पर तु सवथा अथात् आ यं तक दे हर हत मो नह है । इससे यह कहा जा सकता है क सव कारका
केवल ान नह होता; बाक स य व नह होता, ऐसा नह है। इस कालम मो के अभावक ऐसी बात
कोई कहे उसे न सुन । स पु षक बात पु षाथको मंद करनेवाली नह होती, अ पतु पु षाथको उ ेजन
दे नेवाली होती है।
. वष और अमृत समान ह, ऐसा ा नय ने कहा हो तो वह अपे त है। वष और अमृत समान
कहनेसे वष लेनेका कहा है यह बात नह है । इसी तरह शुभ और अशुभ दोन या के संबंधम समझ।
शुभ और अशुभ याका नषेध कहा हो तो मो क अपे ासे है। इस लये शुभ और अशुभ या
समान है, यह समझकर अशुभ कया करनी, ऐसा ानीपु षका कथन कभी भी नह होता। स पु षका
वचन अधमम धमका थापन करनेका कभी भी नह होता।
जो या कर उसे नदभतासे, नरहंकारतासे कर। याके फलको आकां ा न रखे। शभ
याका कोई नषेध ह ही नह ; परंतु जहाँ जहाँ शुभ यासे मो माना है वहाँ वहाँ नपेध है।
• शरीर ठ क रहे, यह भी एक तरहको समा ध है । मन ठ क रहे यह भी एक तरहक समा ध है।
सहजसमा ध अथात् बा कारण के बनाक समा ध । उससे माद आ दका नाश होता है। जसे यह
समा ध रहती है, उसे पु मरण आ दसे भी असमा ध नह होती, और उसे कोई लाख पये दे तो आनंद
नह होता, अथवा कोई छ न ले तो खेद नह होता। जसे साता-असाता दोन समान है उसे सहज-
समा ध कहा है । सम कत को अ प हप, अ प शोक कभी हो जाये परंतु फर वह शांत हो जाता है,
अंगका हष नह रहता; य हो उसे खेद हो य ही वह उसे पोछे ख च लेता है । वह सोचता है क ऐसा
होना यो य नह , और आ माको नदा करता है । हप शोक हो तो भी उसका (सम कतका) मूल न नह
होता । सम कतद को अंशसे सहज ती तके अनुसार सदा ही समा ध रहती है। पतंगक डोरी जैसे
हाथम रहती है वैसे सम कत के हाथम उसक वृ पो डोरी रहती है। सम कत जीवको सहज-
समा ध है। स ाम कम रहे ह , परंतु वयंको सहजसमा ध है। बाहरके कारण से उसे समा ध नह है।
आ मामसे जो मोह चला गया वही समा ध है। अपने हाथम डोरी न होनेसे म याद वा कारण म

७३४
ीमद् राजच
तदाकार होकर त प ू हो जाता है । सम कत को बा ःख आनेपर खेद नह होता, य प वह ऐसी
इ छा नह करता क रोग न आये; परंतु रोग आनेपर उसे राग े ष प रणाम नह होते।।
शरीरके धम रोग आ द केवलीको भी होते ह; य क वेदनीयकमको तो सभीको भोगना ही
चा हये । सम कत आये बना कसीको सहजसमा ध नह होती। सम कत हो जानेसे सहजम ही समा ध
होती है। सम कत हो जानेसे सहजम ही आस मट जाती है। बाक आस को य . हो ना
कहनेसे वह र नह होती। स पु षके वचनके अनुसार, उनक आ ाके अनुसार जो वतन करे उसे
अंशसे सम कत आ है।
सरी सब कारक क पनाएँ छोड़कर, य स पु षक आ ासे उनके वचन सुनना, उनम स ची
ा करना और उ ह आ माम प रण मत करना, तो सम कत होता है। शा म कही ई महावीर वामी-
क आ ासे वतन करनेवाले जीव अभी नह है, य क उ ह ए २५०० वष हो गये ह, इस लये य
ानी चा हये । काल वकराल है। कुगु ने लोग को उलटा माग बताकर बहका दया है; मनु य व लूट
लया है; इस लये जीव मागम कैसे आये ? य प कुगु ने लूट लया है परंतु इसम उन बेचार का दोष
नह है, य क कुगु को भी उस मागका पता नह है। कुगु को कसी का उ र न आता हो पर तु
य नह कहता क 'मुझे नह आता'। य द वैसा कहे तो कम थोड़े बाँधे । म या व पी त लीक गाँठ
बड़ी है, इस लये सारा रोग कहाँसे मटे ? जसक ं थ छ हो गई है उसे सहजसमा ध होती है, य क
जसका म या व छ आ, उसक मूल गाँठ छ हो गयी, और इससे सरे गुण गट होते ही ह।
सम कत दे श चा र है; दे शसे केवल ान है।'
शा म इस कालम मो का बलकुल नषेध नह है। जैसे रेलगाड़ीके रा तेसे ज द प ंचा जाता

ै औ े े े ँ ै ै े ो े ै ो ो े
है, और पगरा तेसे दे रम प ँचा जाता है; वैसे इस कालम मो का रा ता पगरा ते जैसा हो तो उससे न
प ँचा जाये, ऐसी कुछ बात नह है। ज द चले तो ज द प ँचे, क तु कुछ रा ता ब द नह है । इस
तरह मो माग है, उसका नाश नह है। अ ानी अक याणके मागम क याण मानकर, व छ दसे क पना
करके, जीव का तरना ब द करा दे ता है । अ ानीके रागी भोले-भाले जीव अ ानीके कहनेके अनुसार चलते
ह, और इस कार कमके बाँधे ए वे दोन ग तको ा त होते ह। ऐसा बखेड़ा जैनमत म वशेष आ है ।
स चे पु षका बोध ा त होना अमृत ा त होनेके समान है। अ ानी गु ने बेचारे मनु य को लूट
लया है । कसी जीवको ग छका आ ही बनाकर, कसीको मतका आ ही बनाकर, जनसे तरा न जाये
ऐसे आलंबन दे कर, वलकुल लूटकर वधाम डाल दया है। मनु य व लूट लया है।
समवसरणसे भगवानक पहचान होती है, इस सारी माथाप चीको छोड़ दे । लाख समवसरण ह ,
पर तु ान न हो तो क याण नह होता। ान हो तो क याण होता है । भगवान मनु य जैसे मनु य थे।
वे खाते, पोते, बैठते और उठते थे; ऐसा कुछ अंतर नह है, अंतर सरा ही है। समवसरण आ दके संग
लौ कक भावके ह। भगवानका व प ऐसा नह है। संपूण ान गट होनेपर आ मा नतांत नमल
होता है, ऐसा भगवानका व प है। संपूण ानका गट होना, वही भगवानका व प है। वतमानम
भगवान होते तो आप न मानते। भगवानका माहा य ान है। भगवानके व पका चतन करनेसे
आ मा भानम आता है, पर तु भगवानक दे हसे भान गट नह होता। जसे संपूण ऐ य गट हो उसे
भगवान कहा जाता है। जैसे य द भगवान वतमान म होते, और आपको बताते तो आप न मानते; इसी
तरह वतमानम ानी हो तो वह माना नह जाता। वधाम प ंचनेके बाद लोग कहते ह क ऐसा ानो
होनेवाला नह है। पीछे से जीव उसक तमाक पूजा करते ह; पर तु वतमानम ती त नह करते ।
जीवको ानीक पहचान य म, वतमानम नह होती।

७३५
.. सम कतका सचमुच वचार करे तो नौव समयम केवल ान होता है, नह तो एक भवम केवल ान
होता है; और अंतम पं हव भवम तो केवल ान होता ही है । इस लये सम कत सव कृ है । भ भ
वचार-भेद आ माम लाभ होनेके लये कहे गये है, पर तु भेद म ही आ माको फंसानेके लये नह कहे ह।
येकम परमाथ होना चा हये । सम कतीको केवलज◌्ञानको इ छा नह है! . .., ... ..
. : अ ानी गु ने लोग को उलटे मागपर चढ़ा दया है। उलटा माग:पकड़ा दया है, इस लये लोग
ग छ; कुल आ द लौ कक भाव म तदाकार हो गये ह। अं ा नय ने लोग को बलकुल उलटा ही माग
समझा दया है। उनके संगसे इस कालम अंधकार हो गया है। हमारी कही ई एक एक बातको याद कर
करके वशेष पसे पु षाथ कर। ग छ आ दके कदा ह छोड़ दे ने चा हये । जीव अना दकालसे भटका है।
सम कत हो तो सहजम ही समा ध हो जाये, और प रणामम क याण हो। जीव स पु षके आ यसे य द
आ ा आ दका सचमुच आराधन करे, उसपर ती त लाये, तो उपकार होगा ही।
___एक तरफ तो चौदह राजूलोकका सुख हो, और सरी तरफ स के एक दे शका सुख हो तो भी
स के एक दे शका सुख अनंतगुना हो जाता है।
वृ को चाहे जस तरहसे रोक; ान वचारसे रोक; लोकलाजसे रोक; उपयोगसे रोक; चाहे
जस तरह भी वृ को रोक । कसी. पदाथके बना चले नह ऐसा मुमु ुको नह होना चा हये।
:: जीव मम व मानता है, वही ःख है, य क मम व माना क चता ई क कैसे होगा ? कैसे कर?
चताम जो व प होता है, त प ू हो जाता है, वही अ ान है। वचारसे, ानसे. दे ख तो ऐसा तीत
होता है क कोई मेरा नह है । य द एकक चता करे तो सारे जगतक चता करनी चा हये । इस लये
येक संगम मम व न होने द, तो चता, क पना कम होगी। तृ णाको यथासंभव कम कर। वचार
कर करके सृ णाको कम कर। इस दे हको पचास पयेका खच चा हये, उसके बदले हजार लाख क
चता प अ नसे दनभर जला करता है। बा उपयोग तृ णाको वृ होनेका न म है । जीव बड़ाई-
के लये तृ णाको बढ़ाता है। उस बड़ाईको रखकर मु नह होती। जैसे बने वैसे बड़ाई, तृ णा
कम कर। नधन कौन ? जो धन माँगे, धन चाहे, वह नधन; जो न माँगे वह धनवान है। जसे वशेष
ल मीको तृ णा, संताप और जलन है, उसे जरा भी सुख नह है। लोग समझते ह क ीमंत सुखी है,
पर तु व तुतः उसे रोम-रोमम पीड़ा है। इस लये तृ णा कम कर।
- आहारक बात अथात् खानेके पदाथ क बात तु छ है, वह न कर। वहारक अथात् ी, डा
आ दक बातःब त तु छ है। नहारको बात भी ब त तु छ है । शरीरको साता या दोनता यह सब
तु छताक बात न कर।.आहार व ा है। वचार करे क खानेके बाद व ा हो जाती है। व ा गाय
खाती है तो ध हो जाता है, और खेतम खाद डालनेसे अनाज होता है । इस कार उ प ए अनाजके
आहारको व ा तु य जानकर उसक चचा न करे । यह तु छ वात है।
: सामा य जीव से बलकुल मौन नह रहा जाता, और रह तो अ तरक क पना नह मटती; और
जब तक क पना हो तब तक उसके लये रा ता नकालना ही चा हये । इस लये फर लखकर क पना
बाहर नकालते ह। परमाथकामम बोलना, वहारकामम वना योजन बकवास नह करना । जहाँ
माथाप ची होती है वहाँसे र रहना; वृ कम करनी ।।
. : ोध, मान, माया और लोभको मुझे कृश करना है; ऐसा जव ल य होगा, जब इस ल य म थोडा
थोड़ा भी वतन होगा तब फर सहज प हो जायेगा । वा तब ध, अ तर तब ध आ द आ माको
आवरण करनेवाला येक षण जाननेम आये क उसे र भगानेका अ यास कर। ोध आ द थोडे
थोड़े वल पड़नेके वाद सहज प हो जायगे। फर उ ह वशम लेनेके लये यथाश अ यास रख और
७३६.
ीमद राजच
उस वचारम समय वताय। कसीके संगसे ोध आ द उ प होनेका न म मानते ह, उसे न मान।
उसे मह व न द; य क ोध वयं कर तो होता है। जब अपनेपर कोई ोध करे तब वचार कर क
उस बेचारेको अभी उस कृ तका उदय है, अपने आप घड़ी दो घड़ी म शांत हो जायेगा । इस लये यथा-
स भव अंत वचार करके वयं थर रह। ोधा द कषाय आ द दोषका सदा वचार कर करके उ ह
बल कर । तृ णा कम कर य क वह एकांत ःखदायी है। जैसे उदय होगा वैसे होगा, इस लये तृ णा-
को अव य कम कर। बा संग अंतवृ के लये आवरण प ह इस लये उ ह यथासंभव कम
करते रह।
चलातीपु कसीका सर काट लाया था। उसके बाद वह ानीसे मला और कहा–'मो दो;
नह तो सर काट डालूंगा।' फर ानीने कहा-- या बलकुल ठ क कहता है ? ववेक (स चेको स चा
समझना), शम (सबपर समभाव रखना) और उपशम (वृ य को बाहर नह जाने दे ना और अंतवृ
रखना), उ ह अ धका धक आ माम प रणमानेसे आ माका मो होता है।
कोई एक स दायवाले ऐसा कहते ह क वेदांतीक मु क अपे ा-इस मदशाको अपे ा.
चार ग तयाँ अ छ ; इनम अपने सुख ःखका अनुभव तो रहता है। . . . . . .
वेदांती म समा जाने प. मु मानते ह, इस लये वहाँ अपनेको अपना अनुभव नह रहता।
पूव मीमांसक दे वलोक मानते ह, फर ज म अवतार हो ऐसा मो मानते ह । सवथा मो नह होता,
होता हो तो बंधता नह , वंधे तो छू टता नह । शुभ या करे उसका शुभ फल होता है, फरसे संसारम
आना-जाना होता है, यो सवथा मो नह होता-ऐसा पूवमीमांसक मानते ह। ...... : .,
स म संवर नह कहा जाता, य क वहाँ कम नह आते, इस लये फर रोकना भी नह होता।
मु म वभाव संभव है, एक गुणसे, अंशसे लेकरं स पूण तक । स दशाम वभावसुख गट आ, कमके
आवरण र ए, इस लये अब संवर और नजरा कसे ह गे? तीन योग भी नह होते। म या व,
अवत, माद, कषाय, योग इन सबसे जो मु आ उसे कम नह आते । इस लये उसे कम का नरोध
करना नह होता। एक हजारक रकम हो और उसे थोड़ा थोड़ा करके पूरा कर दया तो फर खाता
बंद हो गया, इसी तरह क के पाँच कारण थे, उ ह संवर- नजरासे समा त कर दया, इस लये पांच
कारण प खाता बंद हो गया, अथात् बादम फर वे ा त होते ही नह । ... ... ..
धमसं यास = ोध, मान, माया, लोभ आ द दोष का नाश करना । . . . . .
जीव तो सदा जी वत हो है। वह कसी समय सोता नह या मरता नह ; उसका मरना संभव
नह । वभावसे सव जोव जी वत ही ह । जैसे ासो वासके बना कोई जीव दे खनेम नह आता वैसे
ही ान व प चैत यके बना कोई जीव नह है । ... ..
आ माक नदा कर, और ऐसा खेद कर क जससे. वैरा य आये, संसार झूठा लगे.। चाहे जो
कोई मरे, पर तु जसक आँख म ऑसू आय, संसारको असार जानकर ज म, जरा और मरणको महा
भयंकर जानकर वैरा य पाकर आँसू आय वह उ म है ।. अपना लड़का मर जाये, और रोये, इसम कोई
वशेषता नह है, यह तो मोहका कारण है। ,
आ मा पु षाथ करे तो या नह होता ? बड़े बड़े पवतके पवत काट डाले ह, और कैसे कैसे
वचार करके उ ह रे वेके कामम लया है ! ये तो बाहरके काम ह, फर भी वजय पायी है। आ माका
वचार करना, यह कोई बाहरक बात नह है । जो अ ान है वह मटे तो ान हो ।. . .
अनुभवी वै तो दवा दे ता है, पर तु रोगी. य द उसे खाये तो रोग र होता है। इसी तरह सद-
गु अनुभव करके ान प दवा दे ते ह, पर तु मुमु ु उसे हण करे तो म या व प रोग र होता ह।

... उपदे श छाया..


७३७
. दो घड़ी पु षाथ करे तो केवल ान हो जाता है, ऐसा कहा है। चाहे जैसा. पु षाथ करे तो भी
रे वे आ द दो घड़ीम तैयार नह होतो; तो फर केवल ान कतना सुलभ है इसका वचार कर। .
जो बात जीवको मंद कर डाल, माद कर डाले वैसी बात न सुन। इसीसे जीव अना दसे भटका
ह। भव थ त, काल आ दके अवलंबन न ल, ये सब बहाने ह। ... :: .
जीवको संसारी आलंबन और वड बनाएँ छोड़नी नह है, और म या,आलंबन लेकर कहता है क
कमके दल ह, इस लये मुझसे कुछ हो नह सकता। ऐसे आलंबन लेकर पु षाथ नह करता । य द पु षाथ
करे और भव थ त या काल बाधा डाले तब उसका उपाय करगे। पर तु थम पु षाथ करना चा हये ।.
। स चे पु षक आ ाका आराधन करना परमाथ प ही है। उसम लाभ ही होता है। यह ापार
लाभका हो है।
- जस मनु यने लाख पय क ओर मुड़कर पीछे नह दे खा, वह अब हजारके ापारम बहाना
नकालता है. उसका कारण यह है क अंतरसे आ माथके लये कुछ करनेक इ छा नह है । जो आ माथ
हो गया वह मुड़कर पीछे नह दे खता, वह तो पु षाथ करके सामने आ जाता है। शा म कहा है क
आवरण, वभाव, भव थ त कब पके ? तो कहते ह क जब पु षाथ करे तव। .
.. ... पाँच कारण मले तब मु होता है। वे पाँच कारण पु षाथम न हत ह। अनंत चौथे कालच
मल, पर तु य द वयं पु षाथ करे तो ही मु ा त होती है। जीवने अनंत कालसे पु षाथ नह कया
है । सभी म या आलंबन लेकर मागम व न डाले ह। क याणवृ उ दत हो तब भव थ तको प रप व
ई समझ । शौय हो तो वषका काय दो घड़ीम कया जा सकता है।
....... - वहारम चौथे गुण थानम कौन कौनसे वहार लागू होते ह ? शु वहार या और कोई ?

े ी ो े े ो ै औ े
... : उ र- सरे सभी वहार लागू होते ह। उदयसे शुभाशुभ वहार होता है; और प रण तसे
शु . वहार होता है। . . .
परमाथसे शु कता कहा जाता है। या यानी, अ या यानी य कये ह, इस लये शु
वहारका कता है । सम कतीको अशु वहार र करना है । सम कती परमाथसे शु कता है ।
.:. 'नयके कार अनेक ह, पर तु जस कारसे आ मा ऊँचा उठे , पु षाथ वधमान हो, उसी कारका
वचार कर। येक काय करते ए अपनी भूलपर यान रख। एक स यक् उपयोग हो तो वयंको अनुभव
हो जाता है क कैसी अनुभवदशा गट होती है !
:. .स संग हो तो सभी गुण अनायास ही ा त होते ह। दया, स य, अचौय, चय, प र हमयादा
आ दका आचरण अहंकार र हत कर। लोग को दखानेके लये कुछ भी न कर। मनु यका अवतार मला
है, और सदाचारका सेवन नह करेगा तो पछताना पड़ेगा। मनु यके अवतारम स पु षके वचन सुनने और
वचार करनेका योग मला है।
स य बोलना, यह कुछ मु कल नह है, बलकुल सहज है। जो ापार आ द स यसे होते ह ,
उ ह हो कर। य द छः महीने तक इस तरह आचरण कया जाये तो फर स य बोलना सहज हो जाता
है। स य बोलनेसे कदा चत् थम थोड़े समय तक थोड़ा नुकसान भी हो जाये; पर तु फर अनंत गुणका
वामी आ मा जो सारा लूटा जा रहा है वह लुटता आ बंद हो जाता है । स य बोलनेसे धीरे धीरे सहज
हो जाता है और यह होनेके वाद त ले; अ यास रखे; य क उ कृ प रणामवाले.आ मा वरल हो
होते ह।
___ जोव य द लो कक भयसे भयभीत आ, तो उससे कुछ भी नह होता। लोग चाहे जो कहे उसक
परवा न करते ए जससे आ म हत हो ऐसे सदाचरणका सेवन कर।

७३८
ीमद राजच
ान जो काम करता है.वह अ त है। स पु षके वचन के बना वचार नह आता; वचारके
बना वैरा य नह आता; वैरा य एवं वचारके बना ान नह आता 1. इस कारणसे स पु षके वचन का
वारंवार वचार कर। ...
स पूण आशंका र हो तो ब त नजरा होती है। जीव य द स पु षका माग जानता हो, उसका
उसे वार वार बोध होता हो, तो ब त फल होता है।
- सात नय अथवा अनंत नय ह, वे सब.एक आ माथके लये ही ह, और आ माथ यही एक स चा
नय है। नयका परमाथ-जीवसे नकले तो फल होता है. अंतम उपशमभाव आये तो फल होता है; नह
तो नयका ान जीवके लये 'जाल प हो जाता है; और वह फर अहंकार बढ़नेका थान होता है।
स पु षके आ यसे जाल र हो जाता है।
ा यानम कोई भंगजाल, राग ( वर) नकालकर सुनाता है, पर तु उसम आ माथ नह है । य द
स पु षके आ यसे कषाय आ द मंद कर, और सदाचारका सेवन कर अहंकारर हत हो जाय, तो आपका
और सरेका हत होगा। दं भरं हत, आ माथके लये सदाचारका सेवन कर क जससे उपकार हो।. :
खारी जमीन हो और उसम वषा हो तो वह कस कामक ? इसी तरह जब तक ऐसी थ त हो
क आ माम उपदे श-वाता प रणमन न करे तब तक वह कस कामक ? जब तक उपदे शवाता आ मा
प रणमन न करे तब तक उसे पूनः पुनः सुने, वचार कर, उसका पीछा न छोड़े, कायर न बन; कायर
हो तो आ मा ऊँचा नह उठता। ानका अ यास जैसे बने वैसे बढ़ाय; अ यास रख, उसम कु टलता या
अहंकार न रख।
आ मा अनंत ानमय है। जतना अ यास बढ़े उतना कम है। 'सु दर वलास' आ द पढ़नेका
अ यास रख। ग छ या मतमतांतरक पु तक हाथम न ल। पर परासे भी कदा ह आ गया, तो जीव
फर मारा जाता है। इस लये मत के कदा हक बात म न पड़े। मत से अलग रह, र रह। जन
पु तक से वैरा य-उपशम हो वे सम कतद क पु तक ह। वैरा यवाली पु तक पढ़-'मोहमु र',
'म णर नमाला' आ द।
दया, स य आ द जो साधन ह वे वभावका याग करनेके साधन ह। अंतः पशसे तो वचारको
बड़ा सहारा मलता है। अब तकके साधन वभावके आधार थे; उ ह स चे साधन से ानी पु ष हला
दे ते ह । जसे क याण करना हो उसे स साधन अव य करने होते ह।
स समागमम जीव आया, और इ य क लु धता न गयी तो समझ क स समागमम नह आया।
जब तक स य नह बोलता तब तक गुण गट नह होता। स पु ष हाथसे पकड़कर त दे तो ल। ानी-
पु ष परमाथका ही उपदे श दे ते ह । मुमु ु को स चे साधन का सेवन करना यो य है। .
सम कतके मूल बारह त ह- थूल ाणा तपात, थूल मुषावाद आ द । सभी थूल कहकर ानी-
ने.आ माका और ही माग समझाया है। त दो कारके ह—(१) सम कतके बना बा त ह, और
(२) सम कतस हत अंतवत ह । सम कतस हत बारह त का परमाथ समझम आये तो फल होता है। ,
. बा त अ तवतके लये है, जैसे क एकका अंक सीखनेके लये लक र होती है वैसे । पहले तो
लकोर ख चते ए एकका अंक टे ढ़ा-मेढ़ा होता है, और य करते करते फर एकका अंक ठ क बन जाता है ।
__ जीवने जो जो सुना है वह सब उलटा ही हण कया है । ानी बचारे या करे? कतना
समझाये ? समझानेक रो तसे समझाते ह। मारकूट कर समझानेसे आ म ान नह होता। पहले जो जो त
आ द कये थे वे सब न फल गये;, इस लये अब स पु षको से उसका परमाथ और ही समझम
७३९
आयेगा । : समझकर कर। एकका एक ही त हो पर तु वह म या क अपे ासे बंध है और स यग-
क अपे ासे नजरा है। पूवकालम जो त आ द न फल गये ह उ ह अब सफल करने यो य सत्-
पु षका योग मला है; इस लये पु षाथ कर, टे कस हत सदाचरणका सेवन कर, मरण आनेपर भी पीछे
न हट। आर भ, प र हके कारण ानीके वचन का वण नह होता, मनन नह होता; नह तो दशा
बदले बता कैसे रह सके ?
आर भ-प र हको कम कर। पढ़ने म च न लगनेका कारण नीरसता है। जैसे क मनु य नीरस
आहार कर ले तो फर उ म भोजन अ छा नह लगता वैसे। . .. . .
ा नय ने जो कहा है, उससे जीव उलटा चलता है। इस लये स पु षको वाणी कहाँसे प रणत हो ?
लोकलाज, प र ह आ द श य है। इस श यके कारण जीवका पु षाथ जागृत नह होता। वह श य
स पु षके वचनक टाँक से छदे तो पु षाथ जा त हो। जीवके श य, दोष, हजार दन के य नसे भी
वतः र नह होते; पर तु स संगका. योग एक मास तक हो तो र होते है; और जीव मागपर चला
जाता है।
कतने ही लघुकम संसारी जीव को पु पर मोह करते ए जतना ःख होता है उतना भी ःख
कई आधु नक साधु को श य पर मोह करते ए नह होता!
तृ णावाला जीव सदा भखारी, संतोषवाला जीव सदा सुखी ।
स चे दे वक , स चे गु क और स चे धमक पहचान होना ब त मु कल है। स चे गु क
पहचान हो, उनका उपदे श हो; तो दे व, स , धम इन सबक पहचान हो जाती है। सबका व प सद्-
गु म समा जाता है।
स चे दे व अहत, स चे गु न थ, और स चे ह र, जसके राग े ष और अ ान र हो गये ह
वे। थर हत अथात् गाँठर हत.। म या व अ त थ है, प र ह बा थ है। मूलम अ य तर
थका छे दन न हो तब तक धमका व प समझम नह आता। जसक थ र हो गयी है वैसा
पु ष मले तो सचमुच काम हो जाये और फर उसके समागमम रहे तो वशेष क याण हो। जस मूल
थका छे दन करनेका शा म कहा है, उसे सब भूल गये ह; और बाहरसे तप या करते ह। ःख
सहन करते ए भी मु नह होती, य क ःख वेदन करनेका कारण जो वैरा य है उसे भूल गये।
ःख अ ानका है।
. अ दरसे छू टे तभी बाहरसे छू टता है; अ दरसे छू टे वना बाहरसे नह छू टता। केवल बाहरसे
छोड़नेसे काम नह होता । आ मसाधनके बना क याण नह होता।
__ . जसे वा और अ तर दोन साधन ह वह उ कृ पु प है, वह े है। जस साधके संगसे
अंतगुण गट हो उसका संग करे। कलई और चाँद के पये समान नह कहे जाते । कलईपर स का
लगा द तो भी उसक पयेक क मत नह हो जाती । जव क चाँद पर स का न लगाय तो भी उसक
क मत कम नह हो जाती । उसी तरह य द गृह थाव थाम ान ा त हो, गुण गट हो, सम कत हो
तो उसका मू य कम नह हो जाता। सब कहते ह क हमारे धमसे मो है।
आ माम, राग े प र हो जानेपर ान गट होता है । चाहे जहाँ बैठे ह और चाहे जस थ त.
म ह , मो हो सकता है, पर तु राग े ष न हो तो। म या व और अहंकारका नाश ए बना कोई
राजपाट छोड़ दे , वृ क तरह सुख जाये पर तु मो नह होता। म या व न होनेके बाद सब साधन
सफल होते ह । इस लये स य दशन े है।

७४०
संसारम जसे मोह है, ी-पु म मम व हो गया है; और जो कषायसे भरा आ है वह रा -
भोजन न करे तो भी या आ ? जब म या व चला जाये तभी उसका स चा फल होता है।
___ अभी जैनके जतने साधु वचरते ह, उन सभीको सम कती न समझ। उ ह दान दे नेम हा न नह
ह; पर तु वे हमारा क याण नह कर सकते । वेश क याण नह करता। जो साधु मा बा याएँ
कया करता है उसम ान नह है ।
__ ान तो वह है क जससे बा वृ याँ क जाती ह, संसारपरसे सचमुच ी त घट जाती है,
स चेको स चा जानता है । जससे आ माम गुण गट हो वह ान है। . . . . .
___ मनु यभव पाकर कमाने म और ी पु म तदाकार होकर य द आ म वचार नह कया, अपने दोष
नह दे ख,े आ माक न दा नह क ; तो वह मनु यभव, र न च ताम ण प दे ह थ जाता है।
जीव कुसंगसे और अस से अना दकालसे भटका है; इस लये स पु पको पहचाने । स पु ष कैसे
ह ? स पु ष तो वे है क जनका दे हमम व चला गया है, ज ह ान ा त आ है। ऐसे ानोपु षक
आ ासे आचरण करे तो अपने दोष घटते ह, और कषाय आ द म द पड़ते ह तथा प रणामम स य व
ा त होता है।
ोध, मान, माया, लोभ ये सचमुच पाप ह। उनसे ब त कम का उपाजन होता है। हजार वष
तप कया हो पर तु एक, दो घड़ी ोध करे तो सारा तप न फल हो जाता है।
'छः खंडके भो ा राज छोड़कर चले गये और म ऐसे अ प वहारम बड़ पन और अहङ् कार कर
बैठा ँ, य जीव य वचार नह करता ?
आयुके इतने वष बीत गये तो भी लोभ कुछ कम न आ, और न ही कुछ ान ा त आ । चाहे
जतनी तृ णा हो पर तु आयु पूरी हो जाने पर जरा भी काम नह आती, और तृ णा क हो उससे कम
ही बंधते ह। अमुक प र हक मयादा क हो, जैसे क दस हजार पयेक , तो समता आती है। इतना
मलनेके बाद धम यान करगे ऐसा वचार भी रख तो नयमम आया जा सकता है।

ी ो े ै े ो ै ै े ी ो ो
कसी पर ोध न करे। जैसे रा भोजनका याग कया है वैसे ही ोध, मान, माया, लोभ,
अस य आ द छोड़नेका य न करके उ ह म द करे; और उ ह म द करनेसे प रणामम स य व ा त
होता है । वचार करे तो अनंत कम मंद होते ह और वचार न करे तो अनंत कम का उपाजन होता है।
जब रोग उ प होता है तब ी, बाल-ब चे, भाई या सरा कोई भी उस रोगको नह ले
सकता !
स तोष करके धम यान कर; बाल-ब चे आ द कसोको अनाव यक च ता न कर। एक थानम
बैठकर, वचार कर, स पु षके संगसे, ानीके वचन सुनकर वचार कर धन आ दक मयादा कर। .
चयको यथात य री तसे तो कोई वरला जीव ही पाल सकता है; तो भी लोकलाजसे -
चयंका पालन कया जाय तो वह उ म है।'
म या व र आ हो तो चार ग त र हो जाती है । सम कत न आया हो और चयका
पालन करे तो दे वलोक मलता है। .
.. व णक, ा ण, पशु, पु ष, ी आ दक क पनासे 'म व णक, ा ण, पु ष, ी, पशु ,

ऐसा मानता है; पर तु वचार करे तो वह वयं उनमसे कोई भी नह है । 'मेरा' व प तो उससे भ
सूयके उ ोतको तरह दन बीत जाता है, उसी तरह अंज लजलक भां त आयु चली जाती है ।

७४१.
..... जस तरह लकड़ी करवतसे चोरी जातो है उसी तरह आयु. चली जाती है। तो भी मूख परमाथका
साधन नह करता, और मोहके पुंज इक े करता है।
'सबक अपे ा म जगतम बड़ा हो जाऊँ', ऐसा बड़ पत ा त करनेको तृ णाम पाँच इ य म
लवलीन, म पायोक भाँ त, मृगजलक तरह संसारम. जीव मण कया करता है; और कुल, :गाँव तथा
ग तय म मोहके नचानेसे नाचा करता है !
जस तरह कोई अंधा र सी वटता जाता है और बछड़ा-उसे चबाता जाता है, उसी तरह अ ानी
क या न फल जाती है। ..... - : :.. : : .............
म कता' म करता ' ँ , 'म कैसा करता , ँ इ या दःजो वभांव ह वही म या व है। अहंकारसे.
संसारम अनंत ःख- ा त होता है; चार ग तय म भटकता है। . . . . . . . . .
कसीका दया आ नह दया जाता, कसीका लया आ नह लया जाता "जोव थक
क पना करके भटकता ह। जस तरह कम का उपाजन कया हो उसीके अनुसार लाभ,...अलाभ, आयु,साता, असाती मलते ह।
अपनेसे कुछ दया लया नह जाता । अहंकारसे मने उसे सुख दया', 'मने
ःख दया, 'मने अ ं दया'; ऐसी म या भावना करता है और उसके कारण कमका उपाजन करता
है । म या वसे कुधमका उपाजन करता है।
- जगतम इसका यह पता, इसका यह पु ऐसा कहा जाता है; परंतु कोई कसीका नह है। पूव-
कमके उदयसे सब कुछ आ है।
- अहंकारसे जो ऐसी म याबु करता है वह भूला है; चार ग तम, भटकता है, और ःख
भोगता है। अधमाधमः पु षके ल ण :-स पु षको दे खकर उसे रोष आता है, उनके स चे वचन सुनकर न दा करता है; वृ
स को दे खकर रोष करता है। सरलको मूख कहता है; वनयीको खुशामद कहता
है; पाँच इ याँ वश करनेवालेको भा यहीन कहता है; स णीको दे खकर रोष करता है; ीपु षके
सुखम लवलीन, : ऐसे जीव ग तको ा त होते ह। जीव कमके कारण अपने व प ानसे अंध है, उसे
ानका पता नह है। .एक नाकके लये--मेरी नाक रहे तो अ छा-ऐसी क पनाके कारण जीव अपनी शुरवीरता दखानेके लये लड़ाईम
उतरता है; नाकक तो राख होनेवाली है ! दे ह कैसी ह? रेतके घरं जैसी; मशानक मढ़ जैस । पवतक गुफाक तरह दे हम अंधेरा है।
चमड़ीके कारण दे ह ऊपरसे पवती लगती है। दे ह अवगुणको कोठरी, माया और मैलके रहनेका थान
है। दे हम ेम रखनेसे जीव भटका है । यह दे ह अ न य है। मलमू क खान है। इसम मोह रखनेसे
‘जीव चार ग तम भटकता है। कैसा भटकता है ? को के बैलक तरह । आँख पर प बांध लेता है,
उसे चलनेके मागम तंगीसे रहना पड़ता है; लकड़ोको मार खाता है; चार तरफ फरते रहना पड़ता है;
छू टनेका मन होनेपर भी छू ट नह सकता; भूखे यासे होनेको बात कह नह सकता; सुखसे ासो वास
ले नह सकता । उसक तरह जीव पराधीन है । जो संसार म ी त करता है वह इस कारके ःख सहन
करता है।
धुएँ जैसे कपड़े पहन कर वह आडंबर करता है, परंतु वह धुएक ं तरह न होने यो य है ।
आ माका ान मायासे दबा रहता है। ..
. . जो जीव आ मे छा रखता है वह पैसेको नाकके मैल क तरह छोड़ दे ता है। म खी मठाईम
फसी है उसको तरह यह अभागा जोव कुटु बके सुखम फंसा है।

७४२.
ीमद् राजच
.. वृ , युवान, बालक-ये सब संसारम डू वे ह, कालके मुखम ह। ऐसा भय रखना। यह भय रख-
कर संसारम उदासीनतापूवक रहना।
'. . सौ उपवास करे, पर तु जब तक भीतरसे सचमुच दोष र न ह तब तक फल नह मलता।
.., ावक कसे कहना ? जसे. स तोष आया हो, जसके कषाय मंद हो गये ह , भीतरसे गुण गट
ए ह , स चा संग मला हो; उसे ावक कहना। ऐसे जीवको बोध लगे तो सारी वृ बदल जाती है,
दशा बदल जाती है। स चा संग: मलना. यह पु यका योग है.। . ... .. . , .

ी े ै े ोई े ो ै
जीव अ वचारसे भूला है। उसे कोई जरा कुछ कहे तो तुरत बुरा लग जाता है। पर तु वचार
नह करता क 'मुझे या ? वह कहेगा तो उसे कमब ध होगा। या तुझे अपनी ग त बगाड़नी है ?'
ोध करके सामने बोलता है तो तू वयं ही भूल करता ह। जो ोध करता है वही बुरा है। इस बारे म
सं यासी और चांडालका ांत है:।' ... ... .... .... ... ... .......
ससुर-ब के ांतसे सामा यक समताको कहा जाता है। जीव अहंकारसे बा या करता है;
अहंकारसे माया खच करता है। ये ग तके कारण है। स संगके बना, यह दोष कम नह होता।
.... जीवको अपने आपको चतुर कहलाना ब त भाता है। बना बुलाये चतुराई कर बड़ाई लेता है ।
जस जीवको वचार नह , उसके छु टनेका माग नह । य द जोवः वचार करे; और स मागपर चले तो
छू टनेका माग मलता है .. .................. . . . . . . .
बा बलजीके ांतसे, अहंकारसे और मानसे कैव य गट नह होता। वह. बड़ा दोष है । अ ान
म बड़े-छोटे क क पना है। ...... :: ... ... ... ... .. ... ...'
___.:... : .:. . १३ . . . . . आणंद, भाद वद १४, सोम
१. पं ह भेद से स होनेका वणन कया है उसका कारण यह है क जसके राग; े ष और अ ान
र हो गये ह, उसका चाहे जस वेषसे, चाहे जस थानसे और चाहे जस लगसे क याण होता है.। .
... स चा माग एक ही है; इस लये आ ह नह रखना। म ढूं ढया ' ँ , 'म तपा ' ँ , ऐसी क पना
नह रखना । दया, स य आ द सदाचरण मु का रा ता है; इस लये सदाचरणका सेवन कर। ...
. . . लोच करना कस लये कहा है ? वह शरोरक ममताक परी ा है इस लये । ( सरपर बाल होना)
यह मोह बढ़नेका कारण है। नहानेका मन होता है, दपण लेनेका मन होता है; उसम मुँह दे खनेका मन
होता है; और इसके अ त र उनके, साधन के लये उपा ध करनी पड़ती है। इस कारणसे ा नय ने
लोच करनेका कहा है।...:......... .... ........ . .
...:; या ा करनेका हेतु एक तो यह है क गृहवासको उपा धसे नवृ ली जाये, सौ दो सौ पय क
मूछाः कम क जाये; परदे शम दे शाटन करते ए. कोई स पु ष खोजनेसे मल जाये तो क याण हो जाये।
इन कारण से या ा करना बताया है। :: ...
:.:. जो स पु ष सरे जीव को उपदे श दे कर क याण बताते ह, उन स पु ष को तो अनंत लाभ ा त
आ है। स पु ष परजीवक न काम क णाके सागर ह। वाणीके. उदयके अनुसार उनक वाणी
नकलती है । वे कसी जीवको ऐसा नह कहते क तू द ा ले । तीथकरने पूवकालम कम वाँधा है उसका
वेदन करनेके लये सरे. जीव का क याण करते ह; बाक तो उदयानुसार दया रहती है। वह दया
१. ोध चांडाल है । एक सं यासी नान करनेके लये जा रहा था। रा तेम सामनेसे चांडाल आ रहा था।
सं यासीने उसे एक और होनेको कहा। परंतु उसने सुना नह । इससे सं यासी ोघम आ गया। चांडाल उसके गले
लग गया और वोला क, 'मेरा भाग आपम है।' २. ससुर कहां गये ह ? भंगीव तीम । ३. दे ख. पृ ७१ ।

७४३
न कारण है. तथा उ ह परायी नजरासे अपना क याण नह करना है। उनका क याण तो हो चुका हो
है। वे तीन लोकके नाथ तो तरकर ही बैठे ह । स पु ष या सम कतीको भी ऐसी (सकाम) उपदे श दे नेक
इ छा नह होती। वे भी न कारण दयाके लये उपदे श दे ते ह।
. महावीर वामी गृहवासम रहते ए भी यागी जैसे थे। .... .... ..
__... हजार वषकै संयमी भी जैसा वैरा य नह रख सकते. वैसा वैरा य भगवानका था। जहाँ
जहाँ भगवान रहते ह, वहाँ वहाँ सभी कारके अथ भी रहते ह। उनक वाणी उदयानुसार शां त पूवक
परमाथहेतुसे नकलती है अथात् उनव वाणी क याणके लये ही ह । उ ह ज मसे म त, ुत, अव ध ये तीन ान थे । उस पु षके
गुणगान करनेसे अनंत नजरा होती है। ानीक बात अग य है । उनका
अ भ ाय मालूम नह होता। ानीपु षक स ची खूबी यह है क उ ह ने अना दसे अटल ऐसे राग े ष
तथा अ ानको छ भ कर डाला है। यह भगवानक अनंत कृपा है। उ ह प चीस सौ वष हो गये
फर भी उनक दया आ द आज भी व मान है । यह उनका अनंत उपकार है । ' ानी आडंबर दखानेके
लये वहार नह करते । वे सहज वभावसे उदासीन भावसे रहते ह। .. ..... ..
- ानी रेलगाड़ीम सेक ड लासम बैठे तो वह दे हक साताके लये नह । साता लगे तो थड लास-
से भी नीचेके लासम बैठे, उस दन आहार न ले; पर तु ानीको दे हका मम व नह है । ानी वहारम
संगम रहकर, दोषके पास जाकर दोषका छे दन कर डालते ह, जब क अ ानी जीव संगका याग करके
भी उस ी आ दके दोष छोड़ नह सकता। ानी तो दोष, मम व और कषायको उस संगम रहकर भी
न करते ह। इस लये ानीक बात अ त है।
____सं दायम क याण नह है, अ ानीके सं दाय होते ह । ढूं ढया या ? तपा या ? जो मू को नह
मानता और मुंहप ी बाँधता ह वह ढूं ढया, जो मू तको मानता है और मुंहप ी नह बाँधता वह तपा।
य कह धम होता है ! यह तो ऐसी बात है क लोहा वयं तरता नह और सरेको तारता नह । वीत-
रागका माग तो अना दका है। जसके राग, े ष और अ ान र हो गये उसका क याण; वाक अ ानी
कहे क मेरे धमसे क याण है तो उसे नह मानना; य क याण नह होता। ढूं ढयापन या तपापन माना
तो कषाय आता है । तपा ढूं ढयाके साथ बैठा हो तो कषाय आता है, और ढूं ढया तपाके साथ बैठा हो
तो कषाय आता है। इ ह अ ानी समझ। दोन नासमझसे सं दाय बनाकर कम उपाजन करके भटकते ह।
बोहरेके नाड़े' क तरह मता ह पकड़ बैठे ह । मुहप ी आ दका आ ह छोड़ द।
... जैनमाग या है ? राग, े ष और अ ानका नाश हो जाना। अ ानी साधु ने भोले जीव को
___ समझाकर उ ह मार डालने जैसा कर दया है। य द थम वयं वचार करे, क या मेरे दोप कम ए
ह? तो फर मालूम होगा क जैनधम तो मेरेसे र ही रहा है। जीव वपरोत समझसे अपना क याण भल

े ै ँ े ो औ े ो ी े े े
कर सरेका अक याण करता है । तपा ँ ढयाके साधुको और ढूं ढया तपाके साधुको अ पानी न दे नेके
लये अपने श य को उपदे श दे ता है। कुगु एक सरेको मलने नह दे ते; एक सरेको मलने द तव तो
कषाय कम हो और न दा घटे ।
जीव न प नह रहते । अना दसे प म पड़े ए है, और उसम रहकर क याण भूल जाते ह।
. १. माल भरकर र सीसे वांधे ए छकडेपर एक बोहराजी बैठे ए थे, उ ह छकडेवालेने कहा,
"रा ता खराब है इस लये, बोहराजी, नाड़ा पक ड़ये, नह तो गर जायगे।" रा ते म ग ा आनेते धाका लगा क
वोहराजो नीचे गर पड़े । छाडेवालेने कहा, " चताया था और नाड़ा य नह पकड़ा ?" वोहरा ी बोले, "यह
नाड़ा पफड़े रखा है, अभी छोड़ा नह " य कहफर पाजामेका नाड़ा बताया।

७४४
ीमद् राजच
- बारह कुलक गोचरी कही है, वैसी कतने ही मु न नह करते। उ ह व आ द प र हका मोह
र नह आ है । एक बार आहार लेनेका कहा है, फर भी दो बार लेते ह। जस ानी पु षके वचनसे
आ मा ऊँचा उठे वह स चा माग है, वह अपना माग है । हमारा धम स चा है पर पु तकम है। आ माम
जब तक गुण गट न हो तब तक कुछ फल नह होता। 'हमारा धम' ऐसो क पना है। हमारा धम
या ? जैसे महासागर कसीका नह है, वैसे ही धम कसीके बापका नह है। जसम दया, स य आ द
हो उसका पालन कर। वे कसीके बापके नह ह । अना दकालके ह; शा त ह । जीवने गाँठ पकड़ी है क
हमारा धम है, परंतु शा त धम है, उसम हमारा या ? शा त मागसे सब मो गये ह। रजोहरण,
डोरा, मुंहप ी, कपड़े इनमसे कोई आ मा नह ह.। .
__ कोई एक वोहरा था। वह छकडेम माल भरकर सरे गाँवम ले जा रहा था। छकडेवालेने कहा,
'चोर आयगे इस लये सावधान होकर रहना, नह तो लूट लगे।'. पर तु उस बोहरेने व छं दसे माना नह
और कहा, 'कुछ फ नह !'. फर मागम चोर मले। छकडेवालेने माल बचानेके लये मेहनत करनी
शु क पर तु उस बोहरेने कुछ भी न करते ए माल ले जाने दया; और चोर माल लट गये। पर तु
उसने माल वापस ा त करनेके लये कोई उपाय नह कया। घर गया तब सेठने पूछा, 'माल कहाँ
है ?' तब उसने कहा क 'माल तो. चोर. लूट गये ह।' तब सेठने पूछा 'माल पकड़नेके लये कुछ
उपाय कया है ?' तब उस बोहरेने कहा, 'मेरे पास बीजक है, इससे चोर माल ले जाकर कस तरह
बेचगे? इस लये वे.मेरे पास बीजक लेने आयगे तब पकड़ लगा।' ऐसी जीवक मूढ़ता है । 'हमारे जैन
धमके शा म सब कुछ है, शा हमारे पास ह।' ऐसा म या भमान जीव कर बैठा ह । ोध, मान,
माया, लोभ पी चोर दनरात माल चुरा रहे ह, उसका भान नह है। . . :..
.: तीथकरका माग स चा है। म कोड़ी तक भी रखनेक आ ा नह है। वै णवके कुलधमके
कुगु आर भ-प र ह छोड़े बना ही लोग के.पाससे ल मी हण करते ह, और यह एक ापार हो गया
है। वे वयं अ नम जलते ह, तो उनसे सर क अ न कस तरह शांत हो ! जैनमागका परमाथ स चे
गु से समझना है । जस गु को वाथ होता है वह अपना अक याण करता है, और श य का भी अक याण
होता है। . . . . . . ,
' जैन लगधारी होकर जीव अनंत बार भटका है । बा वत लग धारण करके लौ कक वहारम
अनंत वार भटका है। यहाँ हम जैनमागका नषेध नह करते। जो अ तरंगसे स चा माग वताये वह
'जन' है। बाक तो अना दकालसे जीवने झठे को स चा माना ह; और यही अ ान है। मनु यदे हक
साथकता तभी है क जब जीव म या आ ह, रा ह छोड़कर क याणको ा त कर । ानी सीधा माग ही
बताते ह। आ म ान जब गट हो तभी आ म ानीपन मानना, गुण गट ए बना उसे मानना भूल
है। जवाहरातक क मत जाननेक श के बना जौहरीपन न मान। अ ानी झूठेको स चा नाम दे कर
सं दाय बनाता है। स क पहचान हो तो कभी भी स य हण होगा।
.. आणंद, भाद वद ३०, मंगल, १९५२
- जो जोव अपनेको मुमु ु मानता हो, तरनेका कामी मानता हो, समझदार ँ ऐसा मानता हो,
उसे दे हम रोग होते समय आकुल- ाकुलता होती हो, तो उस समय वचार करे–'तरी मुमु ुता, चतु-
रता कहाँ चली गय ?' उस समय वचार य नह करता होगा ? य द तरनेका कामी है तो तो वह
दे हको असार समझता है, दे हको आ मासे भ मानता है, उसे आकुलता नह आनी चा हये । दे ह

७४५
उपदे श छाया
सँभालनेसे संभाली नह जाती, य क वह णम न हो जाती है, णम रोग, णम वेदना हो जाती
है। दे हके संगसे दे ह ःख दे ती है; इस लये आकुल- ाकुलता होती है यही अ ान है । शा का वण
कर रोज सुना है क दे ह आ मासे भ है, णभंगरु है; पर तु दे हम वेदना होनेपर तो राग े ष प रणाम
करके हाय-हाय करता है। दे ह णभंगरु है, ऐसी बात आप शा म य सुनने जाते ह ? दे ह तो
आपके पास है. तो अनुभव कर। दे ह प म जैसी है, सँभालनेसे सँभाली नह जाती, रखनेसे
रखी नह जाती। वेदनाका वेदन करते ए उपाय नह चलता। तब या. सँभाल? कुछ भी नह हो
सकता। ऐसा दे हका य अनुभव होता है, तो फर उसक ममता करके या करना ? दे हका य
अनुभव करके शा म कहा है क वह अ न य है, असार है, इस लये दे हम मूछा करना यो य नह ह।
:.. जब तक दे हा मबु र नह होती तब तक स य व नह होता.. जीवको स य कभी मला ही
नह , मला होता. तो मो हो जाता। भले ही साधुपन, ावकपन अथवा तो चाहे जो वीकार कर
ल पर तु स यके बना साधन थ है। दे हा मबु मटानेके लये जो साधन बताये ह वे, दे हा मबु

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मटे तभी स चे समझे जाते ह। दे हा मबु ई है उसे मटानेके लये, मम व छु ड़ानेके लये साधन करने
ह। वह न मटे तो साधुपन; ावकपन, शा - वण या उपदे श सब कुछ अर य दनके समान ह।
जसका यह म न हो गया है, वही साधु, वही आचाय, वही ानी है। जस तरह कोई अमृतभोजन
करे वह कुछ छपा नह रहता, उसी तरह ां त, मबु र हो जाये वह कुछ छपा नह रहता।
लोग कहते ह क सम कत है या नह , वह केवल ानी जाने; पर तु वयं आ मा है वह य न
जाने ? कह आ मा गाँव नह चला गया; अथात् सम कत आ है उसे आ मा वयं जानता है । जस
तरह कोई पदाथ खानेपर उसका फल होता है, उसी तरह सम कत होनेपर, ा त र होनेपर, उसका
फल वयं जानता है । ानका फल ान दे ता ही है। पदाथका फल पदाथ ल णके अनुसार दे ता ही है।
आ मामसे, अ तरमसे कम जानेको तैयार ए ह तो उसक खबर अपनेको य न पड़े ? अथात् खवर
पड़ती ही है। सम कतीक दशा छपी नह रहती। क पत सम कतको' सम कत मानना वह पीतलक
कंठ को सोनेक कंठ मानने जैसा है। ..
सम कत हआ हो तो दे हा मबु न होती है; य प अ प बोध, म यम बोध, वशेष बोध जैसा
भी बोध हो तदनुसार पीछे से दे हा मबु न होती है। दे हम रोग होनेपर जसम आकुल- ाकुलता
दखाई दे उसे म या समझ । : .
१. जस ानीको आकुल ाकुलता मट गयी है, उसे अ तरंग प च खान ही है, उसम सभी प च-
खान आ जाते ह। जसके राग े ष न हो गये ह उसे य द बीस वरसका पु मर जाये तो भी खेद
नह होता। शरीरम ा ध होनेसे जसे ाकुलता होती है, और जसका ान क पना मा है उसे
खोखला अ या म ान मान ऐसे क पत ानी उस खोखले ानको अ या म ान मानकर अनाचारका
सेवन करके ब त ही भटकते ह। दे खये शा का फल !
- आ माको पु भी नह होता और पता भी नह होता। जो. ऐसी ( पता-पु क ) क पनाको
स चा मान बैठे ह वे म या वी ह। कुसंगके कारण समझम नह आता; इस लये सम कत नह आता।
यो य जीव हो तो स पु षके संगसे स य व होता है।
स य व और म या वका तुरत पता चल जाता है। सम कती ओर म या वीक वाणी घडी-
घड़ीम भ दखाई दे ती है। ानीको वाणी एकतार पूवापर मलती चली आती है । अ त ं यभेद होने-
पर ही स य व होता है । रोगको जाने, रोगक दवा जाने, परहेज जाने. प य जाने और तदनुसार उपाय

७४६
भीमद् राजच
करे तो रोग र होता है। रोग जाने बना अ ानी जो उपाय करता है उससे रोग बढ़ता है। प यका
• पालन करे और दवा करे नह , तो रोग कैसे मटे गा ? अथात् नह मटे गा। तो फर यह तो रोग और,
और दवा कुछ और हो! कुछ शा को तो ान नह कहा जाता। ान तो तभी कहा जाये क जब
अ तरक गाँठ र हो । तप, संयम आ दके लये स पु षके वचन का वण करनेका कहा है।
.. ानी भगवानने, कहा है क साधु को अ चत् और नीरस आहार लेना चा हये । इस कथनको
तो कतने ही साधु भूल गये ह। ध आ द स चत् भारी-भारी वगय पदाथ लेकर ानीक आ ाको
ठु कराकर चलना यह क याणका माग नह है । लोग कहते ह क ये साधु है; पर तु जो आ मदशा साधता
है वह साधु है।
., . . . नर सह मेहता कहते ह क अना दकालसे य ही चलते चलते काल बीत गया पर तु अ त नह
आया। यह माग नह है; य क अना दकालसे चलते चलते भी माग हाथ लगा नह । य द माग यही
होता तो ऐसा न होता क अभी तक कुछ भी हाथम नह आया । इस लये माग और ही होना चा हये।
..तृ णा कैसे कम हो ? य द लौ कक भावम बड़ पन छोड़ दे तो। 'घर-कुटु ब आ दको मुझे या
करना है ? लौ ककम चाहे जैसा हो, पर तु मुझे तो मान-बड़ाई छोड़कर चाहे जस कारसे तृ णाको कम
करना है', इस तरह वचार करे तो तृ णा कम होती है, मंद हो जाती है। ..
तपका अ भमान कैसे कम हो ? याग करनेका उपयोग रखनेसे । 'मुझे यह अ भमान य होता
है ?' य रोज़ वचार करते करते अ भमान मंद पड़ेगा। ...... ... . ... .
- ानी कहते ह उस कंजी पी ' ानका य द जीव वचार करे तो अ ान पी ताला खुल जाता है;
कतने ही ताले खुल जाते ह। कुंजी हो तो ताला खुलता है; नह तो प थर मारनेसे तो ताला टू ट
जाता है।
...... 'क याण या होगा?' ऐसा जीवको झूठा म है। वह कुछ हाथी-घोड़ा नह है। जीवको ऐसी
ां तके कारण क याणक कुं जयाँ समझम नह आती। समझम आ जाय तो तो सुगम ह। जीवक
ां तय को र करनेके लये जगतका वणन कया है। य द जीव सदाके अंध मागसे थक जाये तो मागम
आता है।
- ानी परमाथ, स य वको ही बताते ह । 'कषायका कम होना वही क याण ह, जीवके राग, े ष
और अ ानका र होना क याण कहा जाता है।' तब लोग कहते ह, क 'ऐसा तो हमारे गु भी कहते
ह, तो फर आप भ या बताते ह ? ऐसी उलट -सीधी क पनाएँ करके जीव अपने दोष को र करना
'नह चाहता।
"आ मा अ ान पी प थरसे दब गया है। ानो ही आ माको ऊँचा उठायगे। आ मा दब गया है
इस लये क याण सूझता नह है । ानी स चार पी सरल कुं जयाँ बताते ह, वे कुं जयाँ हज़ार ताल को
लगती ह।
जीवका आंत रक अजीणः र हो तब अमृत अ छा लगता है, उसी तरह ां त प अजीण र
होनेपर क याण होता है, पर तुः जीवको अ ानी गु ने भड़का रखा है, इस लये ां त प अजीण. कैसे

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र हो ? अ ानी गु ानके बदले तप बताते ह, तपम ान बताते ह, य उलटा-उलटा बताते ह इस लये
जीवके लये तरना ब त क ठन है । अहंकार आ दसे र हत होकर तप आ द कर।
कदा ह छोड़कर जीव वचार करे तो माग तो अलग है। सम कत सुलभ है, य है, सरल है।
जीव गाँव छोड़कर आगे नकल गया है वह पीछे लौटे तो गाँव आता है । स पु षके वचन का आ थास हत

७४७
. उपदे श छाया
वण-मनन करे तो स य व ा त होता है। उसके ा त होनेके बाद त-प च खान आते ह, उसके
बाद पाँचवाँ गुण थान ा त होता है।
" स य समझम आकर उसक आ था होना यही स य व है। जसे स चे-झूठेक क मत मालूम हो
गयी है, वह भेद जसका र हो गया है, उसे स य व ा त होता है।. . . . . . . .
' अस से सत् समझम नह आता, सम कत नह होता। दया, स य, अद न लेना इ या द सदाचार
स पु षके समीप आनेके स साधन ह। स पु ष जो कहते ह वह सू का, स ांतका परमाथ. है। सू -
स ांत तो कागज़ है। हम अनुभवसे कहते ह, अनुभवसे शंका र करनेको कह सकते ह। अनुभव गट
द पक है, और सू कागजम लखा आ द पक है। . ..
- . ढूं ढयापन या नपापनक हाई दे ते रह, उससे सम कत होनेवाला नह ह। यथाथ स चा व प
समझम आये, भीतरसे दशा बदले तो सम कत होता.है । परमाथम माद अथात् आ मासे बा वृ । जो
घात करे उसे घाती कम कहा जाता है। परमाणुको प पात नह है, जस पसे आ मा उसे प रणमाये
उस पसे प रणमता है।
नका चत कमम थ त-बंध हो तो यथो चत बंध होता है। थ तकालं न हो तो वह वचारसे,
प ा ापसे, ान वचारसे न होता है । थ तकाल हो तो भोगनेपर ही छु टकारा होता है।
... ोध आ द करके जन कम का उपाजन कया हो उ ह भोगनेपर हो छु टकारा होता है। उदय
आनेपर भोगना ही चा हये । जो समता रखे उसे समताका फल मलता है। सबको अपने-अपने प रणामके अनुसार कम भोगने पड़ते ह।
ान ी वम, पु ष वम समान ही है। ान आ माका है। वेदसे र हत होनेपर ही यथाथ ान
होता है। .
ी हो या पु ष हो पर तु दे हमसे आ मा नकलं जाये तब शरीर तो मुदा ह और इं याँ झरोखे
जैसी ह।
भगवान महावीरके गभका हरण आ होगा या नह ? ऐसे वक पका या काम है ?. भगवान
चाहे जहाँसे आये; पर तु स य ान, दशन, और चा र थे या नह ? हम तो इससे मतलब है। इनके
आ यसे.पार होनेका उपाय करना यही ेय कर है। क पना कर करके या करना है ? चाहे जैसे
साधन ा त कर भूख मटानी है। शा ो बात को इस तरह हण कर क आ माका उपकार हो,'
सरी तरह नह ।
जीव डू ब रहा हो तब वहाँ अ ानी जीव पूछे क 'कैसे गरा ?' इ या द माथाप ची करे तो इतने म
यह जीव डू बं ही जायेगा, मर जायेगा। पर तु ानी तो तारक होनेसे वे सरी माथाप ची छोड़कर डू बते
एको तुरत तारते ह। .
.' ... 'जगतक झंझट करते करते जीव अना दकालसे भटका है। एक घरम मम व माना इसम तो इतना
सारा ःख है तो फर जगतक , च वत क र क क पना, ममता करनेसे ःखम या खामी रहेगी?
अना दकालसे इससे हारकर मर रहा है।
ान या? जो परमाथके कामम आये वह ान है । स य दशनस हत ान स य ान है।
'. नवपूव तो अभ भो जानता है । पर तु स य दशनके वना उसे सू -अ ान कहा है।'
स य व हो और शा के मा दो श द जाने तो भी मो के काम आते है। जो ान मो के
कामम नह आता वह अ ान है।
•••••••
७४८
. मेर आ दका वणन जानकर उसक क पना, चता, करता है, मानो मे का ठे का न लेना हो ?
जानना तो ममता छोड़नेके लये है।
..जो वषको जानता है वह उसे नह पीता.।, वषको जानकर पीता है तो वह अ ान है। इस लये
जानकर छोड़नेके लये ान कहा है। .....
जो ढ़ न य करता है क चाहे जो क ँ , वष पीऊँ, पवतसे ग , कुएंम प पर तु जससे
क याण हो वही क । उसका ान स चा है। वही तरतेका कामी कहा जाता है।
दे वताको हीरामा णक आ द प र ह अ धक है। उसम अ तशय ममता-मूछा होनेसे वहाँसे यवनकर
वह हीरा आ दम एक य पसे ज म लेता है।
....... जगतका वणन करते ए, जीव अ ानसे अनंतबार उसम ज म ले चुका है, उस अ ानको छोड़नेके
लये ा नय ने यह वाणी कही है। पर तु जगतके वणनम ही जीव फंस जाये तो उसका क याण कस
तरह होगा ! वह तो अ ान ही कहा जाता है। जसे जानकर जीव अ ानको छोड़नेका उपाय करता है
वह ान ह।
... अपने दोष र ह ऐसे करे तो दोष र होनेका कारण होता है । जीवके दोष कम ह , र
ह तो मु होती है। ........... .. ..........
जगतक बात जानना इसे शा म मु नह कहा है । पर तु नरावरण होना ही मो है ।....
3; : पाँच वष से एक बीड़ी जैसा सन भी ेरणा कये बना छोड़ा नह जा सका । हमारा उपदे श
तो उसीके लये है जो तुर त ही करनेका वचार रखता हो ।--इस कालम ब तसे जीव वराधक होते ह
और उनपर नह जैसा ही सं कार पड़ता है।
. ऐसी बात तो सहज ही समझने जैसी है, और त नक वचार करे तो समझम आ सकती है क
जोव मन, वचन और कायाके तीन योगसे र हत है, सहज व प ह। जब ये तीन योग तो छोड़ने ह तब
इन वा पदाथ म जीव य आ ह करता होगा.? यह आ य होता है.! जीव जस जस कुलम उ प
होता है उस उसका आ ह करता है, जोर करता है। वै णवके यहाँ ज म लया होता तो उसका आ ह
हो जाता; य द तपाम हो तो तपाका आ ह हो जाता है। जीवका व प ढूं ढया नह , तपा नह , कुल
नह , जा त नह , वण नह । ऐसी ऐसी कुक पना करके आं हपूवक आचरण करवाना यह कैसा अ ान
है ! जीवको लोग को अ छा दखाना ही ब त भाता ह और इससे जीव वैरा य-उपशमके मागसे क
जाता है। अब आगेसे और पहले कहा है, क रा हके लये जनशा मत पढ़ना । जससे वैरा य-
उपशम बढ़े वही करना। इनम ( मागधी गाथा म ) कहाँ ऐसी बात है क इसे ढूं ढया या इसे तपा
मानना ? उनम ऐसी बात होती ही नह है।.. .
....... ( भोवनको) जीवको उपा ध ब त है । ऐसा योग-मनु यभव आ द साधन मले ह और जीव
वचार नह करेगा तो या यह पशुके दे हम वचार करेगा ? कहाँ करेगा ?
न जीव ही परमाधामी (यम) जैसा है, और यम है, य क नरकग तम जीव जाता है उसका कारण
जीव यह खड़ा करता है।
___जीव पशुक जा तके शरीर के ःख य दे खता है, जरा वचार आता है और फर भूल जाता
है । लोग य दे खते ह क यह मर गया, मुझे मरना है; ऐसी य ता है; तथा प शा म उस ा या-
को ढ़ करनेके लये वारंवार वही बात कही है। शा तो परो है और यह तो य ं है, पर तु जीव
फर भूल जाता है, इस लये वहोको वही बात कही है.

७४९
१. थम गुण थानकम ं थ ह उसका भेदन कये बना आ मा आगेके गुण थानकम नह जा
सकता । योगानुयोग मलनेसे अकाम नजरा करता आ जीव आगे बढ़ता है, और ं थभेद करनेके समीप
आता है । यहाँ न थको इतनी अ धक बलता है क वह ं थभेद करनेम श थल होकर, असमथ होकर,
वापस लौट आता है । वह ह मत करके आगे बढ़ना चाहता है, पर तु मोहनीयके कारण पा तर समझ-
म आनेसे वह ऐसा समझता है क वयं थभेद कर रहा है; ब क वपरीत समझने प मोहके कारण
थक न बड् ता ही करता है। उसमसे कोई जीव ही योगानुयोग ा त होनेपर अकाम नजरा करता
आ अ त बलवान होकर उस ं थको श थल करके अथवा वल करके आगे बढ़ जाता है। यह
अ वर तस य नामक चौथा गुण थानक है, जहाँ मो मागक सु ती त होती है; इसका दसरा
नाम 'बोधबीज' है। यहाँ आ माके अनुभवका ीगणेश होता है, अथात् मो होनेका बीज यहाँ बोया
जाता है।
२. इस 'बोधबीज गुण थानक' प चौथे गुण थानसे तेरहव गुण थानक तक आ मानुभव एक-सा
है, पर तु ानावरणीय कमक नरावरणताके अनुसार ानको वशु ता यूना धक होती है, उसके माण-
म अनुभवका वणन कर सकता है।
३. ानावरणका सवथा नरावरण होना 'केवल ान' अथात् 'मो ' है; जो बु बलसे कहा नह
जा सकता, पर तु अनुभवग य है।
___ * व० सं० १९५४ और १९५५ म माघ माससे च मास तक ोमो मोरवीम हरे थे। उस अरसम
उ ह ने जो ा यान दये थे, उनका सार एक मुमु ु ोताने अपनी मृ तके अनुसार लख लया था जसे यहां दया गया है।

७५०
४. बु बलसे न त कया आ स ांत उससे वशेष बु वल अथवा तकसे कदा चत् बदल
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सकता है; पर तु जो व तु अनुभवग य (अनुभव स ) ई है वह कालम बदल नह सकती।
५. वतमान समयम जैनदशनम अ वर तस य नामक चौथे गुण थानसे अ म नामक सातव .
गुण थान तक आ मानुभव प वीकृत है।
६. सातवसे सयोगीकेवली नामक तेरहवे गुण थान तकका काल अंतम तका है। तेरहवका काल
व चत् लंबा भी होता है । वहाँ तक आ मानुभव ती त प है।
७. इस कालम मो नह है ऐसा मानकर जीव मो हेतुभूत या नह कर सकता; और वैसी
मा यताके कारण जीवक वृ सरे ही कारक होती है।
८. पजरेम ब द कया आ सह पजरेसे य भ है, तो भी बाहर नकलनेके साम यसे
र हत है। इसी तरह अ प आयुके कारण अथवा संघयण आ द अ य साधन के अभावसे आ मा पी सह
कम पी पजरेसे बाहर नह आ सकता ऐसा माना जाये तो यह मानना सकारण है।
९. इस असार संसारम मु य चार ग तयाँ ह, जो कमब धसे ा त होती है। बंधके बना वे
ग तयां ा त नह होत । बंधर हत मो थान बंधसे होनेवाली चारग त प संसारम नह है। स य व
अथवा चा र से बंध नह होता यह तो न त है; तो फर चाहे जस कालम स य व अथवा चा र
ा त करे वहाँ उस समय ब ध नह है; और जहाँ ब ध नह है वहाँ संसार भी नह है।
... १०. स य व और चा र म आ माक शु प रण त है, तथा प उसके साथ मन, वचन और
शरीरके शुभ योगक वृ होती है। उस शुभ योगसे शुभ ब ध होता है। उस ब धके कारण दे व आ द
ग त प संसार करना पड़ता है । पर तु उससे वपरीत जो स य व और चा र ह वे जतने अंशम ा त होते
ह उतने अंशम मो गट होता है, उसका फल दे व आ द ग तका ा त होना नह है। दे व आ द ग त
जो ा त ई वह उपयु मन, वचन और शरीरके शुभ य गसे ई है; और जो ब धर हत स य व तथा
चा र गट ए ह वे थर रहकर फर मनु यभव ा त कराकर, फर उस भागसे संयु होकर मो
होता है।
. ११. चाहे जस कालम कम है, उसका ब ध है, और उस ब धक नजरा है, और स पूण नजरा-
का नाम 'मो ' है।
१२. नजराके दो भेद ह-एक सकाम अथात् सहेतु (मो क हेतुभूत) नजरा और सरी अकाम
अथात् वपाक नजरा.:.. :: .
. : १३. अकाम नजरा औद यक भावसे होती है । यह नजरा जीवने अनंत बार क है और यह कम-
ब धका कारण है।
१४. सकाम नजरा ायोपश मक भावसे होती है, जो कमके ब धका कारण है। जतने अंशम
सकाम नजरा ( ायोपश मक भावसे) होती है उतने अंशम आ मा गट होता है। य द अकाम ( वपाक)
नजरा हो तो वह औद यक भावसे होती है, और वह कमब धका कारण है। यहाँ भी कमक नजरा
होती है, पर तु आ मा गट नह होता।
. १५. अनंत बार चा र ा त करनेसे जो नजरा ई है. वह औद यक भावसे (जो भाव अब धक
नह है) ई है; ायोपश मक भावसे नह ई । य द वैसे ई होती तो इस तरह भटकना नह पड़ता।
१६. माग दो कारके ह-एक लौ कक माग और सरा लोको र माग; जो एक सरेसे व ह।

७५१
१७. लौ कक मागसे व जो लोको र माग है उसका पालन करनेसे उसका फल उससे व
अथात् लौ कक नह होता। जैसा कृ य वैसा फल।..
१८. इस संसार म जोव क सं या अनंत को ट है। वहार आ द संगम अनंत जीव ोध आ द-
से बताव करते ह । च वत राजा आ द ोध आ द भावसे सं ाम करते ह, और लाख मनु य का घात
करते ह, तो भी उनसे कसी कसीका उसी कालम मो आ है।
१९. ोध, मान, माया और लोभक चौकड़ी 'कषाय' के नामसे पहचानी जाती है। यह कषाय
अ य त ोधा दवाला है। य द वह अनंत संसारका हेतु होकर अनंतानुब धी कषाय होता हो तो फर
च वत आ दको अनंत. संसारक वृ होनी चा हये, और इस हसाबसे अनंत संसार बीतनेसे पहले
उनका मो कैसे हो सकता है ? यह बात वचारणीय ह। .
... २०. जस ोध आ दसे अनंत संसारको वृ हो वह अनंतानुब धी कषाय है, यह भी नःशंक है ।
इस हसाबसे उपयु ोध आ द अ तानुब धी नह हो सकते। तो फर अन तानुब धी चौकड़ी सरी
तरहसं होना संभव है। . . . . . . . . . . . ... ... . .. .'
....:२१: स यक् ान; दशन और चा र इन तीन क एकता 'मो ' है। वह स यक् ान, दशन
और चा र अथात् वीतराग ान, दशन और चा र है । उसीसे अनंत संसारसे मु ा त होती है।
यह वीतराग ान कमके अब धका हेतु है । वीतरागके मागम चलना अथवा उनक आ ाके अनुसार चलना
भी अबंधक है। उनके त जो ोध आ द कषाय ह उनसे वमु होना, यही अनंत संसारसे अ य त-
पसे मु होना है;, अथात् मो है। जससे मो से वपरीत ऐसे अनंत संसारक वृ होती है उसे
अनंतानुबंधी कहा जाता है और है भी इसी तरह । वीतरागके माग और उनको आ ानुसार चलनेवाल का
क याण होता है। ऐसा जो ब तसे जीव के लये क याणकारी माग है उसके त ोध आ द भाव (जो
महा वपरीत करनेवाले ह) ही अनंतानुबंधी कषाय है।
२२. य प ोध आ द भाव लौ कक वहार म भी न फल नह होते; पर तु वीतराग ारा पत
वीतराग ान अथवा मो धम अथवा तो स म उसका खंडन करना या उसके त ती , मंद आ द जैसे
भावसे ोध आ द भाव होते ह वैसे भावसे अनंतानुबंधी कषायसे बंध होकर अनंतः संसारको वृ होती ह।
२३. कसी भी कालम अनुभवका अभाव नह है । बु वलसे न त क ई जो अ य बात है

ी ो ै
उसका व चत् अभाव भी हो सकता है।
२४. केवल ान अथात् जससे कुछ भी जानना शेष नह रहता वह, अथवा जो आ म दे शका
वभाव-भाव है वह ? :-
- (अ) आ मासे उ प कया आ वभाव-भाव, और उसम होनेवाले जड पदाथक संयोग प आव.
रणसे जो कुछ दे खना, जानना आ द होता है वह इं यको सहायतासे हो सकता है; पर तु उस संबंधी यह
ववेचन नह है । यह ववेचन 'केवल ान' संबंधी है।।
(आ) वभाव-भावसे आ जो पु ला तकायका संबंध है वह आ मासे पर है। उसका तथा
जतना पु लका संयोग आ उसका यथा यायसे ान अथात् अनुभव होता है वह अनुभवग यम समाता
है, और उसके कारण लोकसम तके पु लोका भी ऐसा ही नणय होता है उसका समावेश बु वलम

७५२
होता है। जस तरह, जस आकाश दे शम अथवा तो उसके पास वभावी आ मा थत है उस आकाश दे शके
उतने भागको लेकर जो अछे अभे अनुभव होता है वह अनुभवग यम समाता है; और उसके अ त र
शेष आकाश जसे केवल ानीने वयं भी अनंत ( जसका अंत नह ) कहा है, उस अनंत आकाशका भी
तदनुसार गुण होना चा हये ऐसा बु वलसे नण त कया आ होना चा हये।
(इ) आ म ान उ प आ अथवा तो आ म ान आ, यह बात अनुभवग य है । उस आ म ानके
उ प होनेसे आ मानुभव होनेके उपरांत या या होना चा हये ऐसा जो कहां गया है वह बु बलसे
कहा है, ऐसा माना जा सकता है।
(ई) इं यके संयोगम जो कुछ भी दे खना जानना होता है वह य प अनुभवग यम समाता ज र
है; पर तु यहाँ तो अनुभवग य आ मत वके वषयम कहना है, जसम इं य क सहायता अथवा तो
संबंधक आव यकता नह है, उसके सवायक बात है। केवल ानी सहज दे ख-जान रहे ह; अथात् लोकके
सव पदाथ का उ ह ने अनुभव कया है यह जो कहा जाता है उसम उपयोगका संबंध रहता है; य क
केवल ानीके तेरहवाँ गुण थानक और चौदहवाँ गुण थानक ऐसे दो वभाग कये गये ह, उसम तेरहव
गुण थानकवाले केवल ानीके योग है, यह प है; और जहाँ इस तरह है वहाँ उपयोगक वशेष पसे
आव यकता है, और जहाँ वशेष पसे ज रत है वहाँ बु वल है, यह कहे बना चल नह सकता; और
जहाँ यह बात स होती है वहाँ अनुभवके साथ बु बल भी स होता है।
(उ) इस कार उपयोगके स होनेसे आ माको समीपवत जड पदाथका तो अनुभव होता है
पर तु रवत पदाथका योग न होनेसे उसका अनुभव होनेक बात कहना क ठन है; और उसके साथ, रवत
पदाथ अनुभवग य नह है, ऐसा कहनेसे तथाक थत केवल ानके अथसे वरोध आता है। इस लये वहाँ
बु वलसे सव पदाथका सवथा एवं सवदा ान होता है यह स होता है ।
२५. एक कालम क पत जो अनंत समय ह, उसके कारण अनंत काल कहा जाता है। उसमसे,
वतमान कालसे पहलेके जो समय तीत हो गये ह वे फरसे आनेवाले नह ह यह बात यायसंप है । वे
समय अनुभवग य कस तरह हो सकते ह यह वचारणीय है ।
... २६, अनुभवग य जो समय ए ह, उनका जो व प है वह, तथा उस व पके सवाय उनका
सरा व प नह होता, और इसी तरह अना द-अनंत कालके सरे जो समय उनका भी वैसा हो व प
है; ऐसा बु वलसे नण त आ मालूम होता है । ..
है
२७. इस कालम ान ीण आ है, और ानके ीण हो जानेसे अनेक मतभेद हो गये ह। जैसे
ान कम वैसे मतभेद अ धक, और जैसे ान अ धक वैसे मतभेद कम । जैसे क जहाँ पैसा घटता है वहाँ
लेश बढ़ता है, और जहाँ पैसा बढ़ता है वहाँ लेश कम होता है।
२८. ानके बना स य वका वचार नह सूझता। जसके मनम यह है क मतभेद उ प नह
करना, वह जो जो पढ़ता है, या सुनता है वह वह उसके लये फ लत होता है। मतभेद आ दके कारणसे
ुत- वण आ द फलीभूत नह होते।
२९. जैसे रा तेम चलते ए कसीका मुंडासा काँट म फंस गया और सफर अभी बाक है, तो
पहले यथासंभव काँट को र करना; परंतु काँट को र करना संभव न हो तो उसके लये वहाँ रातभर
क न जाना; पर तु मुंडासेको छोड़कर चल दे ना । उसी तरह जनमागका व प तथा उसका रह य या

७५३
है उसे समझे बना, अथवा उसका वचार कये बना छोटो छोट शंका के लये बैठे रहकर आगे न
बढ़ना यह उ चत नह है। जनमाग व तुतः दे खनेसे तो जीवके लये कम य करनेका उपाय है, पर तु
जीव अपने मतम फंस गया है।
३०. जीव पहले गुण थानसे नकलकर ं थभेद तक अनंत बार आया और वहाँसे वापस लौट
गया है।
" -३१. जीवको ऐसा भाव रहता है क स य व अनायास आता होगा, परंतु वह तो यास (पु षाथ)
कये बना ा त नह होता।
.. ३२. कम कृ त १५८ है । स य वके आये बना उनमसे कसी भी कृ तका समूल य नह
होता। अना दसे जीव नजरा करता है, पर तु मूलमसे एक भी कृ तका य नह होता। स य वम
ऐसा साम य है क वह मूलसे कृ तका य करता है। वह इस तरह क :-अमुक कृ तका य होनेके
बाद वह आता है; और जीव बलवान हो तो धीरे धीरे सब कृ तय का य कर दे ता है।

ी ो ो ऐ ो ी ै औ ी ो ी ो ऐ ी
. : ३३. स य व सभीको मालूम हो ऐसो बात भी नह है; और कसीको भी मालूम न हो ऐसा भी
नह है । वचारवानको वह मालूम हो जाता है।
.. ३४. जीवको समझम आ जाये तो समझनेके बाद स य व ब त सुगम है; पर तु समझनेके लये
जीवने आज तक सचमुच यान ही नह दया। जीवको स य व ा त होनेका जब जव योग मला है
तब तब यथो चत यान नह दया, य क जीवको अनेक अंतराय ह। कतने ही अंतराय तो य ह.
फर भी वे जानने म नह आते। य द बतानेवाला. मल जाये तो भी अंतरायके योगसे यानम लेना नह
बन पाता । कतने ही अंतराय तो अ ह क जो यानम आने ही मु कल ह।
__ . ३५, स य वका व प केवल. वाणीयोगसे कहा जा सकता है । य द एकदम कहा जाये तो उससे
जीवको उलटा भाव भा सत होता है, तथा स य व पर उलट अ च होने लगती है; पर त वही व प
य द अनु मसे य य दशा बढ़ती जाये यो य कहा अथवा समझाया जाये तो वह समझम आ
सकता है।
३६. इस कालम मो है य सरे माग म भी कहा गया है । य प जैनमागम इस कालम अमुक
े म मो होना कहा नह जाता; फर भी उसी े म इस कालम स य व हो सकता है, ऐसा कहा
गया है।
..३७. ान, दशन और चा र ये तीन इस कालम होते ह। योजनभूत पदाथ का जानना ' ान',
उसके कारण उनक सु ती त होना 'दशन' और उससे होनेवाली या 'चा र ' है। यह चा र , इस
कालम जैनमागम स य व होनेके बाद सातव गुण थानक तक ा त कया जा सकता है ऐसा माना
गया है।
३८. कोई सातव तक प ंच जाये तो भी बड़ी बात है।
३९. सातव तक प ँच जाये तो उसम स य वका समावेश हो जाता है; और य द वहाँ तक प ँच
जाये तो उसे व ास हो जाता है क अगली दशा कस तरहक है ? पर तु सातव तक प ंचे बना
आगेको बात यानम नह आ सकती।

७५४
___४०. य द बढ़ती ई दशा होती हो तो उसका नषेध करनेक ज रत नह है और न हो तो
माननेक ज रत नह है। नषेध कये बना आगे बढ़ते जाना ।
___ . ४१. सामा यक, छः आठ को टका ववाद छोड़ दे नेके बाद नव को टके बना नह होता; और
अ तम नव को ट वृ को भी छोड़े वना मो नह है।
४२. यारह कृ तय का य कये बना सामा यक नह आता। जसे सामा यक होता है उसक
दशा तो अ त होती ह । वहाँसे जीव छठे , सातव और आठव गुण थानकम जाता है, और वहाँसे दो
घड़ीम मो हो सकता है।
४३. मो माग तलवारक धार जैसा है, अथात् वह एक धारा (एक वाह प) है। तीन कालम
एक धारासे अथात् एकसा रहे वही मो माग है,बहनेम जो खं डत नह वही मो माग है।
४४. पहले दो बार कहा गया है, फर भी यह तीसरी बार कहा जाता है क कभी भी बादर
और बा याका नषेध नह कया गया है; य क हमारे आ माम वैसा भाव कभी व म भी उ प
नह हो सकता।
४५. ढवाली गाँठ, म या व अथवा कषायका सूचन करनेवाली याके संबंधम कदा चत् कसी
संगपर कुछ कहा गया हो, तो वहाँ याके नषेधके लये तो कहा ही नह गया हो। फर भी कहनेसे सरी
तरह समझम आया हो, तो उसम समझनेवालेक अपनी भूल ई है, ऐसा समझना है।
४६. जसने कषाय भावका छे दन कया है वह ऐसा कभी भी नह करता क जससे कषायका
सेवन हो।
___४७. जब तक हमारी ओरसे ऐसा नह कहा जाता क अमुक या करना तब तक ऐसा समझना
क वह सकारण है; और उससे यह स नह होता क या न करना । : ...
४८. य द अभी यह कहा जाये क अमुक या करना और बादम दे शकालके अनुसार उस या-
को सरे कारसे कहा जाये तो ोताके मनम शंका लानेका कारण होता है क एक बार इस तरह कहा
जाता था, और सरी बार इस तरह कहा जाता है; ऐसी शंकासे उसका ेय होनेके बदले अ ेय
होता है।
. ४९. बारहव गुण थानकके अ तम समय तक भी ानीक आ ाके अनुसार चलना होता है। उसम
• व छं दताका वलय होता है।
- ५०. व छं दसे नवृ करनेसे वृ याँ शांत नह होती, पर तु उ म होती ह, और इससे पतनका
समय आ जाता है; और य य आगे जानेके बाद य द पतन होता है तो य य उसे मार अ धक
लगती है, अतः वह अ धक नीचे जाता है; अथात् पहलेम जाकर पड़ता है। इतना ही नह पर तु उसे
जोरक मारके कारण वहाँ अ धक समय तक पड़े रहना पड़ता है।
• ५१. अब भी शंका करना हो तो करे; पर तु इतनी तो न यसे ा करे क जीवसे लेकर मो
तकके पांच पद (जीव है, वह न य है, वह कमका कता है, वह कमका भो ा है; मो है ) अव य ह,
और मो का उपाय भी है, उसम कुछ भी अस य नह है। ऐसा नणय करनेके बाद उसम तो कभी भी

७५५:
शंका न करे; और इस कार नणय हो जानेके बाद ायः शंका नह होती। य द कदा चत् शंका हो तो

े ो ी ै औ ो ै ी े े ो
वह दे शशंका होती है, और उसका समाधान हो सकता है। पर तु मूलम अथात् जीवसे लेकर मो तक
अथवा उसके उपायम शंका हो तो वह दे शशंका नह अ पतु सवशंका है; और उस शंकासे ायः पतन
होता है; और वह पतन इतने अ धक जोरसे होता है क उसक मार अ यंत लगती है। ..
५२. यह ा दो कारसे है-एक 'ओघसे' और सरी ' वचारपूवक' ।
५३. म त ान और ुत ानसे जो कुछ जाना जा सकता है उसम अनुमान साथम रहता है; परंतु
उससे आगे, और अनुमानके बना शु पसे जानना यह मनःपयाय ानका वषय है। अथात् मूलम तो
म त, ुत और मनःपयाय ान एक है, पर तु मनःपयायम अनुमानके बना म तक नमलतासे शु जाना
जा सकता है।
. ५४. म तको नमलता संयमके बना नह हो सकती। वृ के नरोधसे संयम होता है, और उस
संयमसे म तक शु ता होकर अनुमानके बना शु पयायको जो जानना हो वह मनःपयाय ान है ।
___५५. म त ान लग अथात् च से जाना जा सकता है; और मनःपयाय ानम लग अथवा च क
ज रत नह रहती।
___५६. म त ानसे जाननेम अनुमानक आव यकता रहती है, और उस अनुमानसे जाने एम
प रवतन भी होता है। जब क मनःपयाय ानम वैसा प रवतन नह होता, य क उसम अनुमानक
सहायताक आव यकता नह है। शरीरक चे ासे ोध आ द परखे जा सकते ह, पर तु उनके ( ोध
आ दके ) मूल व पको न दखानेके लये शरीरको वपरीत चे ा क गयी हो तो उस परसे परख सकना-
परी ा करना कर है। तथा शरीरक चे ा कसी भी आकारम न क गयी हो फर भी चे ाको वल-
कुल दे खे बना उनका ( ोध आ दका ) जानना अ त कर है, फर भी उ ह सा ात् जान सकना
मनःपयाय ान है।
५७. लोग म ओघसं ासे यह माना जाता था क 'हम स य व है या नह इसे केवली ही जानते
है, न य स य व है यह बात तो केवलीग य है।' च लतः ढके अनुसार यह माना जाता था; पर तु
बनारसीदास और उस दशाके अ य पु ष ऐसा कहते ह क हम स य व आ है यह न यसे कहते ह।
५८. शा म ऐसा कहा गया है क ' न य स य व है या नह इसे केवली ही जानते है'. यह
बात अमुक नयसे स य है; तथा केवल ानीके सवाय भी बनारसीदास आ दने सामा यतः ऐसा कहा है
क 'हम स य व है अथवा ा त आ है', यह बात भी स य है, य क ' न यस य व' है उसे येक
रह यके पयायस हत केवलो जान सकते ह, अथवा येक योजनभूत पदाथके हेतुअहेतुको स पूणतया
केवलीके सवाय सरा कोई नह जान सकता, वहाँ ' न यस य व' को केवलीग य कहा है। उस
योजनभूत पदाथके सामा य पसे अथवा थूल पसे हेतु-अहेतुको समझ सकना स भव है और इस कारण
से महान बनारसीदास आ दने अपनेको स य व है ऐसा कहा है।
५९. 'समयसार' म महान बनारसीदासको बनायी ई क वताम 'हमारे दयम बोध-चीज आ
है', ऐसा कहा है; अथात् 'हम स य व है' यह कहा है। .
६०. स य व ा त होनेके बाद अ धकसे अ धक पं ह भवम मु होती है, और य द वहाँसे
वह प तत होता है तो अधपु लपरावतनकाल माना जाता है। अधपु लपरावतनकाल माना जाये तो
भी वह सा द-सांतके भंगम आ जाता है, यह वात नःशंक है।

७५६
ीमद् राजच
६१. स य वके ल ण-
(१) कषायक मंदता अथवा उसके रसक मंदता।
(२) मो मागक ओर वृ ।
(३) संसारका बंधन प लगना अथवा संसार वषतु य लगना।
(४) सब ा णय पर दयाभाव; उसम वशेषतः अपने आ माके त दयाभाव ।
(५) सदे व, स म और स पर आ था ह
६२. आ म ान अथवा आ मासे भ कम व प, अथवा पु ला तकाय आ दका, भ भ
कारसे भ भ संगम, अ त सू मसे सू म और अ त व तृत जो व प ानी ारा कहा आ है,
उसम कोई हेतु समाता है या नह ? और य द समाता है तो या ? इस वषयम वचार करनेसे उसम
सात कारण समाये ए मालूम होते ह-स ताथ काश, उसका वचार, उसक ती त, जीवसंर ण
इ या द । इन सात हेतु का फल मो क ा त होना है। तथा मो क ा तका जो माग है वह इन
हेतु से सु तीत होता है।
६३. कम अनंत कारके ह । उनम मु य १५८ ह। उनम मु य आठ कम कृ तय का वणन कया
गया है। इन सब कम म मु य, धान मोहनीय है जसका साम य सर क अपे ा अ य त है, और
उसक थ त भी सबक अपे ा अ धक है।
६४. आठ कम म चार कम घनघाती ह । उन चारम भी मोहनीय अ य त बलतासे घनघाती है।
मोहनीयकमके सवाय सात कम ह, वे मोहनीयकमके तापसे बल होते ह। य द मोहनीय र हो जाये
तो सरे कम नबल हो जाते ह । मोहनीय र होनेसे सर का पैर टक नह सकता।
६५. कमबंधके चार कार ह- कृ तबंध, दे शबंध, थ तबंध और रसबंध। उनम
दे श, थ त और रस इन तीन बंध के जोड़का नाम कृ त रखा गया है। आ माके दे श के साथ
पु लका जमाव अथात् जोड़ दे शबंध होता है । वहाँ उसक बलता नह होती; उसे जीव हटाना चाहे
तो हट सकता है । मोहके कारण थ त और रसका बंध होता है, और उस थ त तथा रसका जो बंध
है, उसे जीव बदलना चाहे तो उसका बदल सकना अश य ही है । मोहके कारण इस थ त और रसक

ऐ ी ै
ऐसी बलता है।
.. ६६. स य व अ यो से अपना षण बताता है :-'मुझे हण करनेसे य द हण करनेवालेक
इ छा न हो तो भी मुझे उसे बरबस मो ले जाना पड़ता है। इस लये मुझे हण करनेसे पहले यह
वचार करे क मो जानेक इ छा बदलनी होगी तो भी वह कुछ काम आनेवाली नह है। य क मुझे
हण करनेके बाद नौ समयम तो मुझे उसे मो म प ंचाना ही चा हये। हण करनेवाला कदा चत्
श थल हो जाये तो भी हो सके तो उसी मनम और नह तो अ धकसे अ धक पं ह भव से मुझे उसे
मो म प ँचाना चा हये। कदा चत् वह मुझे छोड़कर मुझसे व आचरण करे, अथवा बलसे बल
मोहको धारण करे, तो भी अधपु लपरावतनके भीतर मुझे उसे मो म प ंचाना ही है यह मेरी त ा
है !' अथात् यहाँ स य वक मह ा बतायी है।

ा यानसार-१
७५७
६७. स य व केवल ानसे कहता है :-'म इतना काय कर सकता ँ क जीवको मो म प ंचा
ं , और तू भी यही काय करता है, तू उससे कुछ वशेष काय नह कर सकता; तो फर तेरी अपे ा
मुझम यूनता कस बातक ? इतना ही नह अ पतु तुझे ा त करनेम मेरी ज रत रहती है।'
६८. ंथ आ दका पढ़ना शु करनेसे पहले थम मंगलाचरण कर, और उस ंथको फरसे पढ़ते
ए अथवा चाहे जस भागसे उसका पढ़ना शु करनेसे पहले मंगलाचरण कर, ऐसी शा प त है।
इसका मु य कारण यह है क बा वृ से आ मवृ क ओर अ भमुख होना है, अतः वैसा करनेके लये
पहले शां त लानेक ज रत है, और तदनुसार थम मंगलाचरण करनेसे शां त आती है। पढ़नेका जो
अनु म हो उसे यथासंभव कभी नह तोड़ना चा हये । इसम ानीका ांत लेनेक ज रत नह है।
६९. आ मानुभवग य अथवा आ मज नत सुख और मो सुख दोन एक ही ह । मा श द भ ह ।
७०. केवल ानी शरीरके कारण केवल ानी नह कहे जाते क सर के शरीरको अपे ा उनका
शरीर वशेषतावाला दे खने म आये । और फर वह केवल ान शरीरसे उ प आ है ऐसा भी नह है;
वह तो आ मा ारा गट कया गया है। इस कारण उसक शरीरसे वशेषता समझनेका कोई हेतु नह है,
और वशेषतावाला शरीर लोग के दे खनेम नह आता इस लये लोग उसका माहा य ब त नह
जान सकते।
___ ७१. जो जीव म त ान तथा ुत ानको अंशसे भी नह जानता वह केवल ानके व पको जानना
_ चाहे तो यह कस तरह हो सकता है ? अथात् नह हो सकता।
". ७२. म त फुरायमान होकर जो ान उ प होता है वह 'म त ान' है; और वण होनेसे जो
ान उ प होता है वह ' ुत ान' है, और उस ुत ानका मनन होकर प रण मत होता है तो फर वह
म त ान हो जाता है, अथवा उस ुत ानके. प रण मत होनेके बाद सरेको कहा जाये तब वही कहने-
वालेम म त ान और सुननेवालेके लये ुत ान होता है; तथा ुत ान म तके बना नह हो सकता
और वही म त ान पूवम ुत ान होना चा हये। इस तरह एक सरेका कायकारण संबंध है । उनके
अनेक भेद ह, उन सब भेद को जैसे चा हये वैसे हेतुस हत नह जाना है। हेतुस हत जानना, समझना
कर है । और उसके बाद आगे बढ़नेसे अव ध ान आता है, जसके भी अनेक भेद ह, और सभी पी
पदाथ को जानना जसका वषय है । उसे, और तदनुसार ही मनःपयायका वषय है, उन सबको कसी
अंशम भी जानने-समझनेक ज ह श नह है वे मनु य, पर और अ पी पदाथ के सम त भाव को
जाननेवाले 'केवल ान के वषयम जानने-समझनेके लये कर तो वे कस तरह समझ सकते ह ?
अथात् नह समझ सकते।
... ७३. ानीके मागम चलनेवालेको कमबंध नह है, तथा उस ानीक आ ाके अनुसार चलनेवाले-
को भी कमबंध नह ह, य क ोध, मान, माया, लोभ आ दका वहाँ अभाव है; और उस अभावके
कारण कमबंध नह होता । तो भी 'ई रयापथ' म चलते ए 'ई रयापथ'को कया ानीको लगती है।
और ानीको आ ाके अनुसार चलनेवालेको भो वह या लगती है।
७४. जस व ासे जोव कम बाँचता है उसी व ासे जीव कम छोड़ता है। .
.. ७५. उसी व ासे सांसा रक हेतुके योजनसे वचार करनेसे जीव कमबंध करता है, और उसी
व ासे का व प समझनेके योजनसे वचार करता है तो कम छोड़ता है।

७५८
ीमद् राजच
७६ ' े समास'म े संबंध आ दक जो जो बात ह, उ ह अनुमानसे मानना है। उनम अनुभव
नह होता; पर तु उन सवका वणन कुछ कारण से कया जाता है । उनक ा व ासपूवक रखना है।
मूल ाम अंतर हो जानेसे आगे समझनेम अ त तक भूल चली आती है। जैसे ग णतम पहले भूल हो
गयी तो फर वह भूल अंत तक चलो आती है वैसे।
७७. ान पाँच कारका है। वह ान य द स य वके बना म या वस हत हो तो 'म त अ ान',
' ुत अ ान' और 'अव ध अ ान' कहा जाता है । उ ह मलाकर ानके कुल आठ कार है।
। ७८. म त, ुत और अव ध म या वस हत ह तो वे 'अ ान' ह, और स य वस हत ह तो ' ान'
ह। इसके सवाय और अ तर नह है।
७९. जीव रागा द स हत कुछ भी वृ करे तो उसका नाम 'कम' है, शुभ अथवा अशुभ अ यव-
सायवाला प रणमन 'कम' कहा जाता है; और शु अ यवसायवाला प रणमन कम नह पर तु नजरा' है ।

े े ऐ ै ी ो ो
८०. अमुक आचाय य कहते ह क दग बर आचायने ऐसा माना है क "जीवका मो नह होता,
पर तु मो समझम आता है। वह इस तरह क जीव शु व पवाला है, उसे बंध ही नह आ तो
फर मो होनेका ही कहाँ है ? पर तु उसने यह मान रखा है, क 'म बंधा आ ' ँ , यह मा यता
वचार ारा समझम आती है क मुझे बंधन नह है, मा मान लया था; वह मा यता शु व प समझम
मानेसे नह रहती; अथात् मो समझम आ जाता है।" यह बात. 'शु नय' अथवा ' न यनय'क है।
पयाया थक नयवाले इस नयको पकड़ कर आचरण कर तो उ ह भटक भटक कर मरना है।
८१. ठाणांगसू म कहा गया है क जीव, अजीव, पु य, पाप, आ व, संवर, नजरा, बंध और
मो ये पदाथ स ाव है, अथात् इनका अ त व व मान ह; क पत कये गये ह ऐसा नह है।
८२. वेदा त शु नयाभासी है। शु नयाभासमतवाले ' न यनय के सवाय सरे नयको अथात्
' वहारनय' को हण नह करते । जनदशन अनेकां तक ह, अथात् वह या ाद है।
. ८३. कोई नव त वक , कोई सात त वक , कोई षड् क , कोई षट् पदक , कोई दो रा शक
बात करते ह; पर तु यह सब जीव, अजीव ऐसी दो रा श अथवा ये दो त व अथात् म समा जाते ह।
... ८४. नगोदम अनंत जीव रहे हए ह, इस बातम और कंदमलम सईक नोक जतने. सू म भागम
अनंत जीव रहे ह, इस बातम आशंका करने जैसा नह है । ानीने जैसा व प दे खा है वैसा ही कहा
है। यह जीव जो थूल दे ह माण हो रहा है और जसे अपने व पका.: अभी, ान नह आ उसे ऐसी
सू म बात समझम नह आती यह बात स ची है। पर तु उसके लये आशंका करनेका कारण नह है। वह
इस तरह :-
चौमासेके समयः कसी गाँवके सीमांतक जाँच कर तो ब तसी हरी वन प त दखाई दे ती है, और
उस थोड़ी हरी वन प तम अनंत जीव ह, तो फर ऐसे अनेक गाँव का वचार कर, तो जीव को सं याके
प रमाणका अनुभव न होनेपर भी, उसका बु बलसे वचार करनेसे अनंतताक स भावना हो सकती है।
कंदमूल आ दम अनंतताका स भव है। सरो हरी वन प तम अनंतताका स भव नह है; पर तु कंदमूल

७५९
म अनंतता घ टत होती है। कंदमूलके अमुक थोड़े भागको य द बोया जाये तो वह उगता है; इस कारण-
से भी उसम जीव क अ धकता घ टत होती है; तथा प य द ती त न होती हो तो आ मानुभव कर;
आ मानुभव होनेसे ती त होती है। जब तक आ मानुभव नह होता, तब तक उस ती तका होना
मु कल है, इस लये य द उसक ती त करनी हो तो पहले आ माके अनुभवी बन।
. .८५. जब तक ानावरणीयका योपशम नह आ, तब तक स य वक ा त होनेक इ छा
रखनेवाला उसक ती त रखकर आ ानुसार वतन करे ।
... . ८६. जीवम संकोच- व तारक श प गुण रहता है, इस कारणसे वह छोटे -बड़े शरीरम दे ह-
माण थ त करके रहता है। इसी कारणसे जहाँ थोड़े अवकाशम भी वह वशेष पसे संकोच कर सकता
है वहाँ जीव वैसा करके रहे ए ह।
..८७. य य जीव कमपु ल अ धक हण करता है, य य वह अ धक न वड़ होकर छोटे
दे हम रहता है।
८८. पदाथम अ च य श है। येक पदाथ अपने अपने धमका याग नह करता। एक जीवके
ारा परमाणु पसे हण कये ए कम अनंत ह। ऐसे अनंत जीव, जनके पास कम पी परमाणु अनंता-
नंत है, वे सब नगोदा यी थोड़े अवकाशम रहे ए ह, यह बात भी शंका करने यो य नह है। साधारण
गनतीके अनुसार एक परमाणु एक आकाश दे शका अवगाहन करता है, परंतु उसम अ च य साम य है,
उस साम यधमसे थोड़े आकाशम अनंत परमाणु रहते ह। जैसे कसी दपणके स मुख उससे ब त बड़ी
व तु रखी जाये तो भी उतना आकार उसम समा जाता है। पाँख एक छोट व तु है, फर भी उस
छोट सी व तुम सूय, च आ द बड़े पदाथ का व प दखाई दे ता है। उसी तरह आकाश जो बहत
बड़ा े है वह भी आँखम य पसे समा जाता है। तथा आँख जैसी छोट सी व तु बड़े बड़े बहतसे
घर को भी दे ख सकती है। य द थोड़े आकाशम अनंत परमाणु अ च य साम यके कारण न समा सकते
ह तो फर आँखसे अपने आकार जतनी व तु ही दे खी जा सकती है, पर तु अ धक बड़ा भाग दे खा नह
जा सकता; अथवा दपणम अनेक घर आ द बड़ी व तु का त बव नह पड़ सकता। इसी कारणसे
परमाणुका भी अ च य साम य है और उसके कारण थोड़े आकाशम अनंत परमाणु समा कर रह
सकते ह।
" . ८९. इस तरह परमाणु आ द का सू मभावसे न पण कया गया है, वह य प परभावका
ववेचन है, तो भी वह सकारण ह, और सहेतु कया गया है। "
१०. च थर करनेके लये, अथवा वृ को बाहर न जाने दे कर अंतरंगम ले जानेके लये पर-
द के व पका समझना काम आता है।
' ९१. पर के व पका वचार करनेसे वृ वाहर न जाकर अंतरंगम रहती है, और व प सम-
झनेके बाद उससे ा त ए' ानसे वह उसका वषय हो जानेस, े अथवा अमुक अंशम समझनेसे उतना
उसका वषय हो रहनेसे, वृ सीधी बाहर नकलकर परपदाथ म रमण करनेके लये दौडती है तब
पर क जसका ान आ है उसे सू मभावसे फरसे समझने लगनेसे वृ को फर अंतरंगम लाना
पड़ता है; और इस तरह उसे अंतरंगम लानेके बाद वशेष पले व प समझम आनेसे ानसे उतना
उसका वषय हो रहनेसे फर वृ बाहर दौड़ने लगती है; तब जतना समझा हो उससे वशेष स मभाव-
से पुनः वचार करने लगनेसे वृ फर अंतरंगम े रत होती है। य करते करते वृ को वारंवार अंत-
७६०
रंगम लाकर शा त कया जाता है, और इस तरह वृ को अंतरंगम लाते लाते कदा चत् आ माका अनु-
भव भी हो जाता है, और जब इस तरह हो जाता है तब वृ बाहर नह जाती, पर तु आ माम शु
प रण त प होकर प रणमन करती है। और तदनुसार प रणमन करनेसे बा पदाथका दशन सहज हो
जाता है । इन कारण से पर का ववेचन उपयोगी अथवा हेतु प होता है।
९२. जीव, वयंको जो अ प ान होता है उससे बड़े ेयपदाथके व पको जानना चाहता है, यह
कैसे हो सकता है ? अथात् नह हो सकता। जब जीव ेयपदाथके व पको नह जान सकता, तब वह
अपनी अ प तासे समझम न आनेका कारण तो मानता नह , युत बड़े ेयपदाथम दोष नकालता है,
पर तु सीधी तरह अपनी अ प तासे समझम नह आनेके कारणको नह मानता।
९३. जीव जब अपने ही व पको नह जान सकता, तो फर परके व पको जानना चाहे तो
उसे वह कस तरह जान-समझ सकता है ? और जब तक वह समझ म नह आता तब तक उसीम उलझा
रहकर उधेड़-बुन कया करता है। ेय कर नज व पका ान जब तक गट नह कया, तब तक पर-
का चाहे जतना ान ा त करे तो भी वह कसी कामका नह है; इस लये उ म माग यह है क सरी
सब बात छोड़कर अपने आ माको पहचाननेका य न करे। जो सारभूत है उसे दे खनेके लये 'यह
आ मा स ाववाला है', 'वह कमका कता है', और उससे (कमसे) उसे बंध होता है, 'वह बंध कस तरह
होता है ?' 'वह बंध कस तरह नवृ होता है ?' और 'उस बंधसे नवृ होना मो है', इ या द स ब धी
वारंवार और येक णम वचार करना यो य है; और इस तरह वारंवार वचार करनेसे वचार
वृ को ा त होता है, और उसके कारण नज व पका अंश-अंशसे अनुभव होने लगता है। य य
नज व पका अनुभव होता है, य य का अ च य साम य जीवके अनुभवम आता जाता है।
जससे उपयु शंकाएं (जैसे क थोड़े आकाशम अनंत जीवका समा जाना अथवा अनंत पु ल-परमाणु
का समा जाना) करनेका अवकाश नह रहता, और उनक यथाथता समझम आ जाती है। यह होनेपर
भो य द वह माननेम न आता हो तो अथवा शंका करनेका कारण रहता हो, तो ानी कहते ह क उप-
यु पु षाथ करनेसे अनुभव स होगा। . ..
__ ९४. जीव जो कमबंध करता है वह दे ह थत आकाशम रहनेवाले सू म पु ल मसे हण करता
है । वह बाहरसे लेकर कम नह बाँधता।
. ९५. आकाशम चौदह राजलोकम पु ल-परमाणु सदा भरपूर ह, उसी तरह शरीरम रहनेवाले
आकाशम भी सू म पु ल-परमाणु का समूह भरपूर है। जीव वहाँसे सू म पु ल को हण करके
कमबंध करता है।
९६. ऐसी आशंका क जाये क शरीरसे र-ब त र रहनेवाले कसी कसी पदाथके त जीव
राग े ष करे तो वह वहाँके पु ल हण करके कमबंध करता है या नह ? इसका समाधान यह है क
वह राग े ष प प रण त तो आ माक वभाव प प रण त है, और उस प रण तका कता आ मा है और
वह शरीरम रहकर करता है, इस लये शरीरम रहनेवाला जो आ मा है, वह जस े म है. उस े म रहे
ए. पु ल-परमाणु को हण करके बाँधता है । वह उ ह हण करनेके लये बाहर नह जाता।
- ९७. यश, अपयश, क त जो नामकम है वह नामकमसंबंध जस शरीरके कारण है, वह शरीर
जहाँ तक रहता है वहाँ तक चलता है, वहाँसे आगे नह चलता। जीव. जब स ाव थाको ा त होता है,

७६१
अथवा वर त ा त करता है तब वह संबंध नह रहता । स ाव थाम एक आ माके सवाय सरा कुछ
भी नह है, और नामकम तो एक कारका कम है, तो फर वहाँ यश-अपयश आ दका संबंध कस तरह
घ टत हो सकता है ? अ वर तपनसे जो कुछ पाप या होती है वह पाप चला आता है।
- ९८. ' वर त' अथात् 'छू टना', अथवा र तसे व , अथात् र त न होना। अ वर तम तीन श द
है अ+ व+र त = अ = नह + व = व + र त = ी त, अथात् जो ो तसे व नह है वह
'अ वर त' है । वह अ वर त बारह कारक है। ... .
- ९९. पाँच इ य, छठा मन तथा पाँच थावर जीव, और एक बस जीव ये सब मलाकर उसके
कुल बारह कार ह।
१००. ऐसा स ांत है क कृ तके बना जीवको पाप नह लगता। उस कृ तक जब तक वर त
नह क तब तक अ वर तपनेका पाप लगता है। सम त चौदह राजूलोकमसे उसक पाप- या चली
आती है।
.. १०१. कोई जीव कसी पदाथक योजना कर मर जाये, और उस पदाथक योजना इस कारक
हो क वह यो जत पदाथ जब तक रहे, तब तक उससे पाप या आ करे; तो तब तक उस जीवको
अ वर तपनेक पाप या चलो आती है। य प जीवने सरे पयायको धारण कया होनेसे पहलेके
पयायके समय जस जस पदाथक योजना क है उसका उसे पता नह है तो भी, तथा वतमान पयायके
समय वह जीव उस यो जत पदाथको या नह करता तो भी, जब तक उसका मोहभाव वर तपनेको
ा त नह आ तब तक, अ पसे उसक या चली आती है।
१०२. वतमान पयायके समय उसके अनजानपनेका लाभ उसे नह मल सकता। उस जीवको
समझना चा हये था क इस पदाथसे होनेवाला योग जब तक कायम रहेगा तब तक उसक पाप या
चाल रहेगी । उस यो जत पदाथसे अ पसे भी होनेवाली (लगनेवाली) यासे मु होना हो तो मोह-
भावको छोड़ना चा हये। मोह छोड़नेसे अथात् वर तपन करनेसे पाप या बंध होती है। उस वर त-
पनेको उसी पयायम अपनाया जाये, अथात् यो जत पदाथके ही भवम अपनाया जाये तो वह पाप या,
जबसे वर तपना हण करे तबसे आनी बंद होती है। यहाँ जो पाप या लगती है वह चा र मोहनोयके

ी ै ो ो े े ी ो ी ै
कारण आती है। वह मोहभावका य हो जानेसे आनी बंद होती है।
१०३. या दो कारसे होती है-एक अथात् गट पसे और सरी अ अथात् अ गट-
पसे । य प अ पसे होनेवाली या सबसे जानी नह जा सकती, इस लये नह होती ऐसी बात तो
नह है।
१०४. पानीम लहरे अथवा हलोर प तासे मालम होती है; पर तु उस पानीम गंधक या क तूरी
डाल द हो, और वह पानी शांत थ तम हो तो भी उसम गंधक या क तूरीको जो या है वह य प
द खती नह है, तथा प उसम अ पसे रही ई है। इस तरह अ पसे होनेवाली याम ा न
क जाये और मा प याम ा क जाये, तो एक ानी जसम अ वर त प या नह होती
वह भाव और सरा न ाधीन मनु य जो पसे कुछ भी न या नह करता वह भाव, दोन एकसे
लगते ह, पर तु व तुतः ऐसी बात नह है। न ाधीन मनु यको अ पसे या लगती है। इसी तरह
जो मनु य (जीव) चा र मोहनीय नामक न ाम सोया आ है उले अ कया नह लगती ऐसा
नह है। य द मोहभावका य हो जाये तो ही अ वर त प चा रयमोहनीय या बंद होती है, उससे
पहले बंद नह होती।

७६२
यासे होनेवाला बंध मु यतः पाँच कारका है-
१ म या व २ अ वर त ३ कषाय . ४ माद ५ योग ...
१०५. जव तक म या वका अ त व हो तव तक अ वर तपना नमूल नह होता अथात् न नह
होता, पर तु य द म या व र हो जाये तो अ वर तपना र होना चा हये, यह नःसंदेह है; य क
म या वस हत वर तपनेको अपनानेसे मोहभाव नह जाता। जब तक मोहभाव व मान है तब तक
अ य तर वर तपना नह होता, और मु यतासे रहे ए मोहभावका नाश हो जानेसे अ य तर अ वर त-
पन नह रहता, और य द वा वर तपना अपनाया न गया हो तो भी य द अ यंतर हो तो सहज ही
वाहर आ जाता है।
१०६. अ यंतर वर तपना ा त होनेके प ात् और उदयाधीन वा वर तपना न अपना सके
तो भी, जव उदयकाल स पूण हो जाये तव सहज ही वर तपना रहता है, य क अ यंतर वर तपन
पहलेसे ही ा त है; जससे अब अ वर तपन है नह , क वह अ वर तपनेक या कर सके ।
१०७. मोहभावके कारण ही म या व है। मोहभावका य हो जानेसे म या वका तप ी
स य व भाव गट होता है। इस लये वहाँ मोहभाव कैसे हो सकता है ? अथात् नह होता।
१०८. य द ऐसी आशंका क जाये क पाँच. इं याँ और छठा मन, तथा पाँच थावरकाय और
छठ सकाय, य बारह कारसे वर त अपनायी जाये तो लोकम रहे ए जीव और अजीव नामक
रा शके जो दो समूह ह उनमसे पाँच थावरकाय और छठ सकाय मलकर जीवरा शक वर त ई;
पर तु लोकम भटकानेवाली अजीवरा श जो जीवसे भ है, उसक ी तक नवृ इसम नह आती,
तब तक वर त कस तरह मानी जा सकती है ? इसका समाधान यह है क पाँच इं याँ और छठे मनसे
जो वर त करना है, उसके वर तपनम अजीवरा शक वर त आ जाती है । . .
- १०९. पूवकालम इस जीवने ानीको वाणी कभी न य पसे नह सुनी अथवा वह वाणी स यक्
कारसे शरोधाय नह क , ऐसा सवदश ने कहा है।
११०. स ारा उप द यथो संयमको पालते हए अथात् स क आ ासे चलते ए पापसे
वर त होती है और अभे संसारसमु तरा जाता है।
१११. व तु व प कतने ही थानक म आ ासे त त है, और कतने ही थानक म स चार-
पूवक त त है, पर तु इस ःषमकालक इतनी अ धक बलता है क इसके बादके णम भी वचार-
पूवक त तके लये जीव कस तरह वृ करेगा यह जाननेक इस कालम श दखाई नह दे ती,
इस लये वहाँ आ ापूवक त त रहना ही यो य है।
.. ११२. ानीने कहा है क 'समझ ! य नह समझते ? फर ऐसा अवसर आना लभ है !'
११३. लोकम जो पदाथ है उनके धम का, दे वा धदे वने अपने ानम भासनेसे यथावत् वणन कया
है। पदाथ रन धम से बाहर जाकर वृ नह करते; अथात् ानी महाराजने उ ह जस तरह का शत
कया है उनसे भ कारसे वे वतन नह करते । इस लये ऐसा कहा है क वे ानीक आ ाके
अनुसार वतन करते ह । य क ानीने पदाथ के धम यथावत् हो कहे ह।

७६३
: ११४. काल मूल नह है, औपचा रक है; और वह जीव तथा अजीव (अजीवम-मु यतः
पु ला तकायम- वशेष पसे समझम आता है) मसे उ प आ है; अथवा जीवाजोवक पयायाव था
काल है। येक के अनंत धम ह। उनम ऊ व चय और तय चय ऐसे दो धम ह; और कालम
तय चय धम नह है, मा ऊ व चय धम' है। ... .'
११५. ऊ व चयसे पदाथम जस धमका उ व होता है उस धमका तय चयसे फर उसम
समावेश हो जाता है । कालके समयका तय चय नह है, इस लये जो समय चला गया वह फर पीछे
नह आता।
११६. दग बर मतके अनुसार लोकम 'काल ' के असं यात अणु ह।
११७. येक के अनंत धम ह। उनम कतने ही ह, कतने ही अ ह, कतने ही
मु य ह, कतने ही सामा य ह, कतने ही वशेष ह।

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.. ११८. असं यातको असं यातसे गुना करनेसे भी असं यात होता है, अथात् असं यातके असं यात
भेद ह। .. ... .. . . . '
११९. एक अंगल ु के असं यात भाग-अंश- दे श, वे एक अंगलम असं यात ह। "लोकके भी असं-
यात दे श ह। चाहे जस दशाक सम े णसे असं यात होते ह। इस तरह एकके.बाद एक, सरी
तीसरी सम े णका योग करनेसे जो योगफल आता है वह एक गुना, दो गुना, तीन गुना, चार गुना होता
है पर तु असं यात गुना नह होता। पर तु एक सम े ण जो असं यात दे शवाली है उस सम े णक
दशावाली सभी सम े णयाँ जो असं यात गुनी है, उस येकको असं यातसे गुना करनेस, े इसी तरह
सरी दशाको सम े णका भी गुणा करनेस, े और इसी तरह तीसरो दशाको सम े णका भी गुना
करनेसे असं यात होते ह । इस असं यातके भंग को जहाँ तक एक सरेका गुनाकार कया जा सकता है
वहाँ तक असं यात होते ह और जब उस गुणाकारसे कोई गुनाकार करना बाको नह रहता तब असं यात
पूरा होनेपर उसम एक मला दे नेसे जघ यसे जघ य अनंत होता है।
१२०. जो नय है वह माणका एक अंश है । जस नयसे जो धम कहा गया है, वहाँ उतना माण
है। इस नयसे जो धम कहा गया है, उसके सवाय व तुम सरे जो धम ह उनका नषेध नह कया गया
है। एक ही समयम वाणीसे सम त धम नह कहे जा सकते। तथा जो जो संग होता है उस उस
संगपर वहाँ मु यतः वही धम कहा जाता है। वहाँ वहाँ उस उस नयसे माण है।
१२१. नयके व पसे र जाकर जो कुछ कहा जाता है वह नय नह है, पर तु नयाभास है, और
जहाँ नयाभास है वहाँ म या व स होता है।
१२२. नय सात माने ह। उनके उपनय सात सौ ह, और वशेष व पसे अनंत ह, अथात जतने
वचन ह उतने नय ह।
. १२३. एका तकता हण करनेका व छं द जीवको वशेष पसे होता है, और एका तकता
हण करनेसे ना तकता होती है। उसे न होने दे नेके लये यह नयका व प कहा गया है। जसे समझने-
से जीव एका तकता हण करनेसे ककर म य थ रहता है, और म य थ रहनेसे ना तकता अवकाश
नह पा सकती।
१२४. जो नय कहने म आता है वह नय वयं कोई व तु नह है, पर तु व तुका व प समझने
और उसक सु ती त होनेके लये माणका एक अंश हे।

७६४
- १२५. य द अमुक नयसे कहा गया तो इससे यह स नह होता क सरे नयसे तीत होनेवाले
धमका अ त व नह है।
१२६. केवल ान अथात् मा ान ही, उसके सवाय सरा कुछ भी नह , और जब ऐसा है तब
उसम सरा कुछ नह समाता। जब सवथा सव कारसे राग े षका य हो जाये तभी केवल ान कहा
जाता है । य द कसी अंशम राग े ष ह तो वह चा र मोहनीयके कारणसे ह। जहाँ जतने अंशम राग े ष
ह, वहाँ उतने ही अंशम अ ान है, जससे वे केवल ानम समा नह सकते, अथात् केवल ानम वे नह
होते । वे एक सरेके तप ी ह। जहाँ केवल ान है वहाँ राग े ष नह है अथवा जहाँ राग े ष ह वहाँ
केवल ान नह है।
१२७. गुण और गुणी एक ही ह; पर तु कसी कारणसे वे भ भी ह। सामा यतः तो गुण का
समुदाय ‘गुणी' है; अथात् गुण और गुणी एक ही है, भ - भ व तु नह ह । गुणीसे गुण अलग नह
हो सकता। जैसे म ीका टु कड़ा गुणी है और मठास गुण है । गुणी म ी और गुण मठास वे दोन साथ
ही, रहते ह, मठास कुछ भ नह होतो; तथा प गुण और गुणी कसी अंशसे भेदवाले ह।
. १२८. केवल ानीका आ मा भी दे ह ापक े ावगा हत है; फर भी लोकालोकके सम त पदाथ,
जो दे हसे र है, उ ह भी एकदम जान सकता है। . ..
१२९. व-परको अलग करनेवाला जो ान है वही ान है। इस ानको योजनभूत कहा गया
है। इसके सवाय जो ान है वह अ ान है। शु आ मदशा प शांत जन है। उसक ती त जन त-
बब सू चत करता है। उस शांत दशाको पानेके लये जो प रण त, अथवा अनुकरण अथवा माग है
उसका नाम 'जन'- जस मागपर चलनेसे जैन व ा त होता है। ..
१०. यह माग आ मगुणरोधक नह है पर तु बोधक है, अथात् आ मगणको गट करता है, इसम
कुछ भी संशय नह है। यह बात परो नह पर तु य है। ती त करनेके अ भलाषीको पु षाथ
करनेसे सु तीत होकर य अनुभवग य हो जाता है।
१३१. सू और स ांत ये दोन भ ह। र ण करनेके लये स ांत सू पी पेट म रखे गये ह।
दे श-कालके अनुसार सू रचे अथात् गूंथे जाते ह; और उनम स ांत गंथे जाते ह। वे स ांत चाहे जस
कालम, चाहे जस े म बदलते नह ह, अथवा खं डत नह होते; और य द वे खं डत हो जाये तो वे
स ांत नह ह।
।। १३२. स ांत ग णतक तरह य ह, इस लये उनम कसी तरहक भूल या अधूरापन नह
रहता । अ र वकल अथात् मा ा, शरोरेखा आ दके बना ह तो उ ह सुधारकर मनु य पढ़ लेते ह;
पर तु य द अंक क भूल हो तो हसाब झूठा ठहरता है, इस लये अंक वकल नह होते। इस ांतको
उपदे शमाग और स ा तमागपर घटाय।
१३३. स ांत चाहे जस दे शम, चाहे जस भाषाम और चाहे जस कालम लखे गये ह तो भी वे
अ स ांत नह हो जाते। उदाहरण पम दो और दो चार होते ह। फर चाहे वे गुजराती, सं कृत,
ाकृत, चीनी, अरबी, फारसी या अंगरेजी भाषा म य न लखे गये ह । उन अंक को चाहे जस सं ासे
पहचाना जाये तो भी दो और दोका योगफल चार ही होता है यह बात य है। जैसे नौ नवाँ इ यासी

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उसे चाहे जस दे शम, चाहे जस भाषाम; और दन-दहाड़े या काली रातम गना जाये तो भी अ सी या
वयासी नह होते, पर तु इ यासी ही होते ह। यही बात स ांतक भी है।

७६५
, १३४. स ांत य है, ानीका अनुभव स वषय है। उनम अनुमान काम नह आता । अनुमान
तो तकका वषय है, और तक आगे बढ़नेपर कतनी ही बार झूठा भी हो जाता है; पर तु य जो
अनुभव स है उसम कुछ भी अस यता नह रहती। . . . .
१३५. जसे गुणन या जोड़का ान आ है वह यह कहता है क नौ नवाँ इ यासी, पर तु
जसे जोड़ अथवा गुणनका ान नह आ, अथात् योपशम नह आ वह अनुमानसे या तकसे य कहे
क 'अ ानवे होते ह तो य न कहा जा सके ?'. तो इसम कुछ आ य करने जैसी बात नह है, य क
उसे ान न होनेसे वैसा कहता है यह वाभा वक है। पर तु य द उसे गुणनको री तको अलग अलग करके,
एकसे नौ तक अंक. बताकर नौ बार गनाया जाये तो इ यासी होनेसे अनुभवग य हो जानेसे उसे स
होते ह ! कदा चत् उसके मंद योपशमसे, गुणन अथवा जोड़ करनेसे इ यासी समझम न आय.तो भी
इ यासी होते ह इसम फक नह है। इसी तरह आवरणके कारण स ांत समझम न आय तो भी वे
अ स ांत नह हो जाते इस बातक अव य ती त रख। फर भी ती त करनेक ज रत हो तो उसम
बताये अनुसार करनेसे ती त हो जानेसे य अनुभव स होता है। ..
;:. १३६. जब तक अनुभव स न हो तब तक सु ती त रखनेक ज रत है, और सु ती तसे मशः
अनुभव स होता है।
...१३७. स ांतके ांत-(१) 'राग े षसे बंध होता है।' (२) 'बंधका य होनेसे मु होती है।'
इस स ांतको ती त करनी हो तो राग े ष छोड़। य द सव कारसे राग े ष छू ट जाय तो आ माका सव
कारसे मो हो जाता है। आ मा बंधनके कारण मु नह हो सकता। बंधन छू टा क मु है।
बंधन होनेके कारण राग े ष ह। जहाँ राग े ष सवथा छू टे क बंधसे छू ट ही गया है। इसम कोई या
शंका नह रहती।
...... . १३८. जस समय राग े षका सवथा य होता है, उसे सरे ही समयम 'केवल ान' होता है ।
___१३९, जीवं पहले गुण थानकससे आगे नह जाता.। आगे जानेका वचार नह करता । पहलेसे
आगे कस तरह बढ़ा जा सकता है.? उसके या उपाय ह ? कस तरह पु षाथ करे ? उसका वचार
भी नह करता; और जब बात करने बैठता है तब ऐसी करता है क इस े म इस कालम तेरहवाँ
गुण थानक ा त नह होता। ऐसी ऐसी गहन बात, जो अपनी श के वाहरको है, उ ह वह कैसे समझ
सकता है ? अथात् अपनेको जतना योपशम हो उसके अ त र क वात करने बैठे तो वे समझी ही नह जा सकती ...', .
..... ... ....
. . . १४०. थ पहले गुण थानकम है, उसका भेदन करके आगे बढकर संसारो जीव चौथे गुण थानक
तक नह प ँचे। कोई जीव नजरा करनेसे ऊँचे भाव म आनेसे, पहले से नकलनेका वचार करके,
थभेदके समीप आता है, पर तु वहाँ उसपर थका इतना अ धक जोर होता है क यभेद करनेम
श थल होकर जीव क जाता है, और इस कार मंद होकर वापस लौटता है । इस तरह जीव अनंत
. बार ं थभेदके समीप आकर वापस लौट गया है। कोई जीव बल पु षाथ करके, न म कारणका
योग पांकर पूण श लगाकर ं थभेद करके आगे बढ़ जाता है, और जब थभेद करके आगे बढ़ा क
चौथेम आ जाता है, और चौथेम आया क ज द या दे रसे मो होगा, ऐसी उस जीवको मुहर लग
जाती है।
१४१. इस गुण थानकका नाम 'अ वर तस य ' है, जहा वर तपनेके बना स यक ान-
दशन है। .

७६६
. १४२. यह कहा जाता है क तेरहवाँ गुण थानक इस काल म और इस े से ा त नह होता;
पर तु ऐसा कहनेवाले पहले गुण थानकमसे भी नह नकलते । य द वे पहलेमसे नकलकर चौथे तक आये,
और वहाँ पु षाथ करके सातव अ म गुण थानक तक प ँच जाय, तो भी यह एक बड़ोसे बड़ी बात
है । सातव तक प ंचे बना उसके बादक दशाक सु ती त हो सकना मु कल है। .
१४३. आ माम जो मादर हत जागृतदशा है वही सातवाँ गुण थानक है । वहाँ तक प ँच जानेसे
उसम स य व समा जाता है। जीव चौथे गुण थानकम आकर वहाँसे पाँचव 'दे श वर त', छठे 'सव-
वर त' और सातव ' मादर हत वर त' म प ँचता है। वहाँ प ँचनेसे आगेक दशाका अंशतः अनुभव
अथवा सु ती त होती है । चौथे गुण थानकवाला जीव सातव गुण थानकम प ँचनेवालेक दशाका य द
वचार करे तो कसी अंशसे ती त हो सकती है। पर तु पहले गुण थानकवाला जीव उसका वचार करे
तो वह कस तरह ती तम आ सकता है ? य क उसे जाननेका साधन जो आवरणर हत होना है वह
पहले गुण थानकवाले के पास नह होता।
१४४. स य व ा त जीवक दशाका व प ही भ होता है। पहले गुण थानकवाले जीवक
दशाक जो थ त अथवा भाव है उसक अपे ा चौथे गुण थानकको ा त करनेवालेक दशाक थत
अथवा भाव भ दे खनेम आते ह अथात् भ हो दशाका वतन दे खनेम आता है ।
. .. १४५. पहलेको श थल कर तो चौथेम आये यह कथन मा है। चौथेम आनेके लये जो वतन
है वह वषय वचारणीय है। . .
.१४६. पहले, चौथे, पाँचव, छटे और सातव गुण थानकक जो बात कही गयी है वह कुछ कथन
मा अथवा वण मा ही है, यह बात नह है; पर तु समझकर वारंवार वचारणीय है। ...

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.. १४७. हो सके उतना पु षाथ करके आगे बढ़नेक ज़ रत है। .. .
१४८. न ा त हो सके ऐसे धैय, संहनन, आयुक पूणता इ या दके अभावसे कदा चत् सातव
• गुण थानकसे आगेका वचार अनुभवम नह आ सकता, पर तु सु तीत हो सकता है।., : ..."
१४९. सहके ांतक तरह :-- सहको लोहेके मजबूत पजरेम ब द कया गया हो तो वह अंदर
रहा आ अपनेको सह समझता है, पजरेम ब द कया आ मानता है; और पजरेसे बाहरक भू म भी
दे खता है; मा लोहेक मजबूत छड़ क आड़के कारण बाहर नह नकल सकता । इसी तरह सातव
'. गुण थानकसे आगेका वचार सु तीत हो सकता है।
.. १५०. इस कार होनेपर भी जीव मतभेद आ द कारण से अव होकर आगे नह बढ़ सकता।
...... १५१. मतभेद अथवा ढ आ द तु छ बात ह, अथात् उसम मो नह है । इस लये व तुतः स यक ती त करनेक ज रत
है।
. १५२. शुभाशुभ और शु ाशु प रणामपर सारा आधार है। छोट छोट बात म भी दोष माना
.. जाय तो उस थ तम मो नह होता। लोक ढ अथवा. लोक वहारम पड़ा आ जोव मो त वका
. रह य नह जान सकता, उसका कारण यह है क उसके मनम ढ अथवा लोकसं ाका माहा य है।
इस लये बादर याका नषेध नह कया जाता । जो कुछ भी न करता आ एकदम अनथ करता है
उसक अपे ा बादर या उपयोगी है। तो भी इसका आशय यह भी नह है. क वादर यासे
आगे न बढ़े ।

७६७
*. १५३. जीवको अपन चतुराई और इ छानुसार चलना अ छा लगता है, पर तु यह जीवका कुरा
करनेवाली व तु है । इस दोषको र करनेके लये ानीका यह उपदे श है क पहले तो कसीको उपदे श नह
दे ना है पर तु पहले वयं उपदे श लेना है। जसम राग े ष न हो उसका संग ए वना स य व ा त
नह हो सकता । स य व आनेसे ( ा त होनेस) े जीव. बदलता है, (जीवक दशा बदलती है); अथात्
तकूल हो तो अनुकूल हो जाती है । जने क तमाका (शां तके लये) दशन करनेसे सातव गुण-
थानकम थत ानीक जो शांतदशा है उसक ती त होती है। :: : .. .. .. .. ... ..........
१५४. जैनमागम आजकल अनेक ग छ च लत ह, जैसे क तपग छ, अंचलग छ, लुकाग छ,
खरतरग छ इ या द । यह येक अपनेसे अ य प वालेको म या वी मानता है । इसी तरह सरा वभाग
छ को ट, आठ को ट इ या दका है। यह येक अपनेसे अ य को टवालेको म या वी मानता है। व तुतः
नौ को ट चा हये। उनमसे जतनी कम उतना कम; और उसक अपे ा भी आगे जाय तो समझम आता
है क अंतम नौ को ट भी छोड़े बना रा ता नह है। ... .. ... .. ......
१५५. तीथकर आ दने जस मागसे मो ा त कया वह माग तु छ नह है। जैन ढका अंश
भी छोड़ना अ यंत क ठन लगता है, तो फर महान तथा महाभारत जैसे मो मागको कस तरह हण
कया जा सकेगा? यह वचारणीय है। .......... . ........।
१५६. म या व कृ तका य कये बना स य व नह आता। जसे स य व ा त होता है
उसक दशा अ त होती है। वहाँसे पाँचव, छठे , सातव और आठवम जाकर दो घड़ीम मो हो सकता
है। एक स य व ा तकर लेनेसे कैसा अ त काय हो जाता है ! इससे स य वक चम कृ त अथवा
उसका माहा य कसी अंशम समझा जा सकता है। . . .
१५७. दधर पु षाथसे ा त होने यो य मो माग अनायास ा त नह होता। आ म ान अथवा
मो माग कसीके शापसे अ ा त नह होता, या कसीके आशीवादसे ा त नह होता । पु षाथके अनुसार
होता है, इस लये पु षाथक ज रत है।
: ... १५८: सू , स ांत, शा स पु षके उपदे शके बना फल नह दे ते । जो भ ता है. वह वहार
मागम है। मो मागम तो कोई भेद नह है, एक ही है। उसे ा त करनेम जो श थलता है उसका
नषेध कया गया है । इसम शूरवीरता हण करने यो य है । जीवको अमू छत करना ही ज री है।
.. १५९. वचारवान पु षको वहारके भेदसे नह घबराना चा हये। । :
..... १६०. ऊपरक भू मकावाला नीचेको भू मकावालेके बरावर नह है, पर तु नीचेको भू मकावालेसे
ठ क है। वयं जस वहारम हो उससे सरेका ऊँचा वहार दे खनेम आये, तो उस ऊँचे वहारका
नषेध न करे, य क मो माग म कुछ भी अ तर नह है। तीन कालम चाहे जस े म जो एक ही
सरीखा रहे वही मो माग है। . . . . . .. . ....
१६१. अ पसे अ प नवृ करनेम भी जीवको कपकंपी होती है तो फर वैसी अन त व योसे
.. जो म या व होता है, उसक नवृ करना यह कतना धर हो जाना चा हये ? म या वको नवृ हो
'स य व' है। ..
१६२. जीवाजीवक वचार पसे ती त न क गयी हो और कथन मा ही जीवाजीव हे, य कहे
७७०.
ीमद राजच -
ह क उनका वारंवार वचार करनेसे उनका व प समझम आता है, और उस तरह समझम आनेसे
उनसे सू म अ पी ऐसे आ मा संबंधी जाननेका काम सरल हो जाता है।
...: १८०. मान और. मता ह ये माग ा तम अवरोधक त भ प ह। उ ह छोड़ा नह जा सकता,
और इस लये माग समझम नह आता। समझने म वनय-भ क थम ज रत है। वह भ मान,
मंता हके कारण अपनायी नह जा सकती। . . . . . .
१८१. ( १ ) वाचना, ( २ ) पृ छना, (३ ) परावतना, ( ४ ) च को न यम लाना; ( ५ )
धमकथा । वेदा तम भी वण, मनन और न द यासन । ये भेद बताएँ ह।
१८२. उ रा ययनम धमके मु य चार अंग कह ह :-( १ ) मनु यता, (२.) स पु षके वचन -
का वण, ( ३ ) उनक ती त, ( ४ ) धम म वतनं करना । ये चार व तुएँ लभ ह।
. १८३. म या वके दो भेद ह-( १ ) , ( २ ) अ । उसके तीन भेद भी कये ह- (१)
उ कृ , ( २ ) म यम, (३) जघ य | जब तक म या व होता है तब तक जीव पहले गुण थानकसे बाहर
नह नकलता। तथा जब तक उ कृ म या व होता है तब तक वह म या वं गुण थानक नह माना
जाता। गुण थानक जीवा यी है।
. .. १८४. म या व ारा म या व मंद पड़ता ह, और इस लये वह जरा आगे चला क तुरत वह
म या व गुण थानकम आता है।
. १८५. गुण थानक यह आ माके गुणको लेकर होता है। . ..
- १८६. म या वमसे जीव स पूण न नकला हो पर तु थोडा नकला हो तो भी उससे म या व मंद
पड़ता है। यह म या व भी म या वसे मंद होता है.। म या व गुण थानकम भी. म या वका अंश कषाय
हो, उस अंशसे भी म या वमसे म या व गुण थानक कहा जाता है। .......... ... ... ...
१८७. योजनभूत ानके मूलम, पूण ती तम, वैसे ही आकारम मलते-जुलते अ य मागको समा-
नताके अंशसे समानता प ती त होना म गुण थानक है। परंतु अमुक दशन स य है, और अमुक दशन
भी स य है, ऐसी दोन पर एकसी ती त होना , म नह . परंतु म या वगुण थानक है। अमुक दशनसे
अमुक दशन अमुक अंशम मलता जुलता है, ऐसा कहनेम स य वको बाधा नह आती; य क वहाँ तो
अमुक दशनक सरे दशनके साथ समानता करने म पहला दशन स पूण पसे ती त प होता है।
१८८. पहले गुण थानकसे सरेम नह जाया जाता, पर तु चौथेसे वापस लौटते ए पहलेम आनेके
बोचका अमुक काल सरा गुण थानक है.। उसे य द चौथेके बाद. पांचवाँ.माना जाये तो चौथेसे पाँचवाँ
ऊँचा ठहरता है और यहाँ तो. सा वादन चौथेसे प तत आ. माना गया है, अथात् वह नीचा है इस लये
पाँचवाँ नह कहा जा सकता पर तु सरा कहना ठ क है:।. . ....:..:
१८९. आवरण है यह बात नःसंदेह है, जसे ेता बर तथा दग बर दोन कहते ह, पर तु
आवरणको साथ लेकर कहने म एक सरेसे थोड़ा भेदवाला है।'
* १९०. दग बर कहते ह क केवल ान स ा पसे नह पर तु श पसे है।
१९१. य प स ा और श का सामा य अथ एक है, पर तु वशेषाथक से कुछ फ़क है।
...... -
... .१९२. ढतापूवक ओघ आ थासे, वचारपूवक अ याससे ' वचारसं हत आ था' होती है।

.

७७१
... १९३. तीथकर जैसे भी संसारप म वशेष- वशेष समृ के वामी थे, फर भी उ ह भी यागः'
करनेक ज़ रत पड़ी थी, तो फर अ य जीव को वैसा. कये बना छु टकारा नह है। ........
. १९४. यागके दो कार ह :-एक बा और सरा अ यंतर । इसम से बा याग अ यंतर.
यागका सहकारी है । यागके साथ वैरा य जोड़ा जाता है, य क वैरा य होनेपर ही याग होता है।
- १९५: जीव ऐसा मानता है क 'म कुछ समझता , ँ और जब म याग करना चा ँगा तब एकदम
याग कर सकूँगा', पर तु यह मानना भूलभरा होता है। जब तक ऐसा संग नह आया तब तक अपना
जोर रहता है। जब ऐसा समय आता है तब श थल-प रणामी होकर मंद पड़ जाता है। इस लये धीरे
धीरे जीव जाँच करे और यागका प रचय करने लगे, जससे मालूम हो क याग करते समय प रणाम
कैसे श थल हो जाते ह ? . . .. ..
१९६. आँख, जीभ आ द इं य को एक एक अंगल ु जतनी जगहको जीतना भी जसके लये
मु कल हो जाता है, अथवा जीतना असंभव हो जाता है; उसे बड़ा परा म करनेका अथवा बड़ा े
जीतनेका काम स पा हो तो वह कस तरह बन सकता है ? 'एकदम याग करनेका समय आये, तवक
बात तब', इस वचारक ओर यान रखकर अभी तो धीरे धीरे यागक कसरत करनेक ज रत है।
उसम भी शरीर और शरीरके साथ स ब ध रखनेवाले सगे-स ब धय के बारेम पहले आजमाइश करनी है।
और शरीरम भी पहले आँख, जीभ और उप थ इन तीन इं य के वषयको दे श-दे शसे याग करनेक
तरफ लगाना है, और इसके अ याससे एकदम याग सुगम हो जाता है। .
....१९७. अभी जाँचके तौरपर अंशः अंशसे जतना जतना याग करना है उसम भी श थलता नह
रखना, तथा ढका अनुसरण करके याग करनेक बात भी नह है। जो कुछ याग करना वह श थ-
लतार हत तथा छू ट-छाटर हत करना, अथवा छू ट-छाट रखनेक ज रत हो तो वह भी न त पसे
खुले तौरसे रखना, पर तु ऐसी न रखना क उसका अथ जस समय जैसा करना हो वैसा हो सके। जब
जसक ज रत पड़े तब उसका इ छानुसार अथ हो सके ऐसी व था ही यागम नह रखना। य द
ऐ ी े े ो े ो ी
ऐसी व था क जाय क अ न त पसे अथात् जब ज रत पड़े तव मनमाना अथ हो सके, तो जीव
श थल-प रणामी होकर याग कया आ सब कुछ बगाड़ डालता है।
. , . १९८. य द अंशसे भी याग कर तो पहलेसे ही उसक मयादा न त करके और सा ी रखकर
याग कर, तथा याग करनेके बाद अपना मनमाना अथ न कर।
१९९. संसारम प र मण करानेवाले ोध, मान, माया और लोभक चौकड़ी प कपाय है, उसका
व प भी समझने यो य है। उसम भी जो अनंतानुबंधी कषाय है वह अनंत संसारम भटकानेवाला है।
उस कषायंके य होनेका म सामा यतः इस तरह है क पहले ोधका और फर मसे मान, माया और
लोभका य होता है, और उसके उदय होनेका म सामा यतः इस तरह है क पहले मान और फर
मसे लोभ, माया और ोधका उदय होता है। . .
. २००. इस कपायके असं यात भेद ह। जस पम कपाय होता है उस पम जीव संसार-प र-
मणके लये कमबंध करता है। कषायम बड़ेसे बड़ा बंध अनंतानुबंधी कपायका है। जो अंतमहत म
चालीस कोडाकोडी सागरोपमका बंध करता है, उस अनंतानुबंधीका व प भी जबरद त है। वह इस
तरहको म या वमोह पी एक राजाको भलीभां त हफाजतसे सै यके म यभागम रखकर ोध, मान,
माया और लोभ ये चार उसक र ा करते ह, और जस समय जसक ज रत होती है उस समय वह
ा यानसार-२

७७२
ीमत् राजच
बना बुलाये म या वमोहक सेवाम लग जाता है। इसके अ त र नोकवाय प सरा प रवार है वह
कपायके अ भागम रहकर म या वमोहक रखवाली करता है, पर तु ये सरे सब चौक दार नह -जैसे
कपायका काम करते ह। भटकानेवाला तो कषाय है । और उस कषायम भी अनंतानुबंधी कषायके चार यो ा
ब त ही मार डालते ह। इन चार यो ाओमसे ोधका वभाव सरे तीनक अपे ा कूछ भोला मालूम
पड़ता है। य क उसका व प सबक अपे ा ज द मालूम हो सकता है। इस तरह जब जसका व प
ज द मालम हो जाये तब उसके साथ लड़ाई करनेम ोधोक ती त हो जानेसे लड़नेक ह मत आती है।
२०१. घनघाती चार कम-मोहनीय, ानावरणीय, दशनावरणीय और अंतराय; जो आ माके
गण को आवरण करनेवाले ह। उनका एक कारसे य करना सरल भी है । वेदनीय आ द कम जो घन:
घाती नह ह तो भी उनका एक कारसे य करना क ठन है। वह इस तरह क वेदनीय आ द कमका
उदय ा त हो तो उनका य करनेके लये उ ह भोगना चा हये; उ ह न भोगनेको इ छा हो तो भी.
वहा वह काम नहा आता, भागने हा चा हये; और ानावरणीयका उदय हो तो य न करनेसे उसका य
हो जाता है । उदाहरण पम, कोई ोक ानावरणीयके उदयसे याद न रहता हो तो उसे दो, चार, आठ,
सोलह, ब ीस, चौसठ, सी अथात् अ धक बार रटनेसे ानावरणीयका योपशम अथवा य होकर
याद रहता है। अथात् बलवान हो जानेसे उसका उसी भवम अमुक अंशम य कया जा सकता है।
इसी तरह दशनावरणीय कमके स ब धम समझ। मोहनीयकम जो महा बलशाली एवं भोला भी है,
वह तुरत य कया जा सकता है। जैसे उसका आना, आनेका वेग बल है, वैसे वह ज द से र भी
हो सकता है। मोहनीयकमका तीन बंध होता है, तो भी वह दे शबंध न होनेसे तुरत य कया जा
सकता है। नाम, आयु आ द कम जनका दे शबंध होता है वे केवल ानं उ प होनेके बाद भी अंत
तक भोगने पड़ते ह। जब क मोहनीय आ द चार कम उससे पहले ही ीण हो जाते ह।
२०२. 'उ माद' यह चा र मोहनीयका वशेष पयाय है। वह व चत् हा य, व चत् शोक, व चत्
र त, व चत् अर त, व चत भय, और व चत् जग सा पसे दखायी दे ता है। कुछ अंशसे उसका ाना-
वरणीयम भी समावेश होता है । व म वशेष पसे ानावरणीयके पयाय मालूम होते ह। .....
२०३. 'सं ा' यह ानका भाग है। पर तु 'प र हसं ा'का 'लोभ कृ त' म समावेश होता है;
'मैथुनसं ा'का वेद कृ तम समावेश होता है; 'आहारसं ा'का वेदनीयम समावेश होता है; और 'भयसं ा'का
भय कृ तम समावेश होता है। :: . .. . ... ...... .... ...
२०४. अनंत कारके कम मु य आठ कारसे और उ र एक सौ अ ावन कारसे ' कृ त के नामसे
पहचाने जाते ह। वह इस तरह क अमुक अमुक कृ त अमुक अमुक गुण थानक तक होती है । इस
तरह मापतोल कर, ानीदे वने सर को समझानेके लये थूल व पसे उसका ववेचन कया है। उसम
सरे कतने ही तरहके कम अथात् 'कम कृ त' का समावेश होता है। अथात् जस जस कृ तके नाम
कम ंथम नह आते वे सब कृ तयाँ उपयु कृ तके वशेष पयाय है अथवा वे उपयु कृ तम समा
जाते ह।
. . . . . . . . . .
. ..... :
२०५. ' वभाव' अथात् ' व भाव' नह , पर तु ' वशेषभाव' | आ मा आ मा पसे प रण मत हो'
वह 'भाव' है अथवा ' वभाव' है। जब आ मा और जड़का संयोग होनेसे आ मा वभावसे आगे जाकर
' वशेषभाव' से प रण मत हो, वह ' वभाव' है। इसी तरह जड़के बारे म भी समझ ।

७७३
२०६. 'काल' के 'अणु' लोक माण असं यात ह। उस अणुम अथवा न ध गुण नह ह।
इस लये एक अणु सरेम नह मलता,..और येक पृथक् पृथक् रहता है। परमाणु-पु लम वह गुण
होनेसे मूल स ा कायम रहकर उसका (परमाणु-पु लका) कंध होता है। ...
. २०७. धमा तकाय, अधमा तकाय, (लोक) आकाशा तकाय और जीवा तकाय उसके भी
े औ े े ै ी े े
असं यात दे श ह । और उसके दे शम अथवा न ध गुण नह है, फर भी वे कालक तरह येक
अणु अलग अलग रहनेके बदले एक समूह होकर रहते ह । इसका कारण यह है क काल दे शा मक नह
ह, पर तु अणु होकर पृथक् पृथक् है, और धमा तकाय आ द चार दे शा मक है। ....
२०८. व तुको समझानेके लये अमुक नयसे भेद पसे वणन कया गया है । व तुतः व तु, उसके
गुण और पयाय य तोन पृथक् पृथक् नह ह, एक ही है। गुण और पयायके कारण व तुका व प
समझम आता है। जैसे म ी यह व तु, मठास यह गुण और खुरदरा आकार यह पयाय है । इन तीन को
लेकर म ी है । मठासवाले गुणके बना म ी पहचानी नह जा सकती। वैसा ही कोई खुरदरे आकार-
वाला टु कड़ा हो, पर तु उसम खारेपनका गुण हो तो वह म ी नह पर तु नमक है । इस जगह पदाथक
ती त अथवा ान, गुणके कारण होता है, इस तरह गुणी और गुण भ नह है। फर भी अमुक
कारणको लेकर पदाथका व प समझानेके लये भ कहे गये ह।
२०९. गुण और पयायके कारण पदाथ है। य द वे दोन न ह तो फर पदाथका होना न होनेके
बराबर है, य क वह कस कामका है ?
... . २१०. एक सरेसे व पदवाली ऐसी पद पदाथमा म रही ई है। ुव अथात् स ा-अ त व
पदाथका सदा है। उसके होनेपर भी पदाथ म उ पाद और य ये दो पद रहते ह। पूव पयायका य
और उ र पयायका उ पाद आ करता है। . ,
२११. इस पयायके प रवतनसे काल मालूम होता है । अथवा उस पयायका प रवतन होनेम काल
सहकारी है।
___ २१२. येक पदाथम समय-समयपर षटच उठता है। वह यह क सं यातगुणवृ , असं यात-
गुणवृ , अनंतगुणवृ , सं यातगुणहा न, असं यातगुणहा न और अनंतगुणहा न; जसका व प ी
वीतरागदे व अवा गोचर कहते ह। ,
. २१३. आकाशके दे शक े ण सम है। वषम मा एक दे शक व दशाक े ण है। सम ण
छः ह और वे दो दे शी ह। पदाथमा का गमन सम े णसे होता है, वपम े णसे नह होता। य क
आकाशके दे शको सम ण है। इसी तरह पदाथमा म अगु लघु धम है। उस धमके कारण पदाथ
वषम े णसे गमन नह कर सकता।
२१४. च ु र यके सवाय सरी इं य से जो जाना जा सकता है उसका समावेश जाननेम
होता है।
२१५. च र यसे जो दे खा जाता है वह भी जानना है। जब तक संपूण जानने-दे खने म नह
आता तब तक जानना अधूरा माना जाता है, केवल ान नह माना जाता।
२१६. जहाँ काल अवबोध है वहाँ स पूण जानना होता है ।

७७४
ीमद् राजच
२१७. भासन श दम जानना और दे खना दोन का समावेश होता है।
२१८. जो केवल ान है वह आ म य है अथवा अत य है। जो अंधता है वह इ य ारा
दे खनेका ाघात है । वह ाघात अत यको बाधक होना संभव नह है ।
जब चार घनघाती कम का नाश होता है तब केवल ान उ प होता है। उन चार घनघा तय म
एक दशनावरणीय है। उसक उ र कृ तम एक च ुदशनावरणीय है उसका य होनेके बाद केवल ान
उ प होता है । अथवा ज मांधता या अंधताका आवरण य होनेसे केवल ान उ प होता है।
__अच दशन आँखके सवाय सरी इं य और मनसे होता है। उसका भी जब तक आवरण होता
है तब तक केवल ान उ प नह होता। इस लये जैसे च ुके लये है वैसे सरी इं य के लये भी
मालूम होता है।
२१९. ान दो कारसे बताया गया है। आ मा इं य क सहायताके बना वतं पसे जाने-
दे खे वह आ म य है । आ मा इं य क सहायतासे अथात् आँख, कान, ज ा आ दसे जाने-दे खे वह
इं य य है । ाघात और आवरणके कारणसे इं य य न हो तो इससे आ म य को बाध नह
है। जब आ माको य होता है, तब इं य य वयमेव होता है अथात् इं य य के आवरणके
र होनेपर ही आ म य होता है।
२२०. आज तक आ माका अ त व भा सत नह आ। आ माके अ त वका भास होनेसे स य व
ा त होता है । अ त व स य वका अंग है। अ त व य द एक बार भी भा सत हो तो वह के सामने
रहा करता है, और सामने रहनेसे आ मा वहाँसे हट नह सकता। य द आगे बढ़े तो भी पैर पीछे पड़ते
ह, अथात् कृ त जोर नह मारती | एक बार स य व आनेके बाद वह पड़े तो फर ठकानेपर आ
जाता है। ऐसा होनेका मूल कारण अ त वका भासना है।
य द कदा चत् अ त वक बात कही जाती हो तो भी वह कथन मा है, य क स चा अ त व
भा सत नह आ।
२२१. जसने बड़का वृ न दे खा हो उसे यह कहा जाये क इस राईके दाने जतने बड़के बीजमसे,
लगभग एक मीलके व तारम समाये इतना बड़ा वृ हो सकता है तो यह बात उसके माननेम नह
आती और कहनेवालेको अ यथा समझ लेता है। पर तु जसने बड़का वृ दे खा है और जसे इस बात-
का अनुभव है उसे बड़के बीजम शाखा, मूल, प े, फल, फूल आ द वाला बड़ा. वृ समाया आ है यह
वात मानने म आती है, तीत होती है। पु ल पी पदाथ है, मू तमान है. उसके एक कंधके एक
भागम अनंत भाग ह यह बात य होनेसे मानी जाती है; पर तु उतने ही भागम जीव अ पी एवं
अमूत होनेसे अ धक समा सकते ह। परंतु वहाँ अनंतके बदले असं यात कहा जाये तो भी माननेम नह


आता, यह आ यकारक बात है।
इस कार तीत होनेके लये अनेक नय-रा ते वताये गये ह, जससे कसी तरह य द ती त
हो गयी तो बड़के वीजक ती तको भां त मो के बीजक स य व पसे ती त होती है; मो है यह
न य हो जाता है, इसम कुछ भी शक नह है।
ा यानसार-१

७७५
२२२. धमसंबंधी ( ी र नकरंड ावकाचार) :-
आ माको वभावम धारण करे वह धम है ।
आ माका वभाव धम है।
जो वभावमसे परभावम नह जाने दे ता वह धम है।
परभाव ारा आ माको ग तम जाना पड़ता है। जो आ माको ग तम न जाने दे कर
वभावम रखता है वह धम है।
स यक् ान, ान और व पाचरण धम है। वहाँ बंधका अभाव है।
स य ान, स य दशन और स यक् चा र इस र न योको ी तीथकरदे व धम कहते ह।
षड् का ान, ान और व पाचरण धम है । . .
जो संसारप र मणसे छु ड़ाकर उ म सुखम धारण करता है वह धम है।
आ त अथात् सब पदाथ को जानकर उनके व पका स याथ गट करनेवाला ।
आगम अथात् आ तक थत पदाथक श द ारा रचना प शा . । ..
आत पत शा ानुसार आचरण करनेवाला, आ त द शत मागम चलता है वह
... स है। . . .. . ... ......: . . : ... :
___ स य दशन अथात् स य आ त, शा और गु का ान ।
स य दशन तीन मूढ़तासे र हत, नःशंक आ द आठ अंगस हत, आठ मद और छः
अनायतनसे र हत है। ..
सात त व अथवा नव पदाथके ानको शा म स य दशन कहा है। पर तु दोषर हत
शा के उपदे शके बना सात त वका ान कस तरह होगा ? नद ष आ तके बना स याथ
-.:: आगम कस तरह गट होगा ? इस लये स य दशनका मूल कारण स याथ आ त ही है।
आ तपु ष ुधातृषा आ द अठारह दोष से र हत होता ह। . . ... ..
धमका मूल आ त भगवान है ।
आ त भगवान नद ष सव और हतोपदे शक है।

७७६
ा यानसार-२
.. ..... मोरबी, आषाढ़ सुद ४, १९५६
१. ानके साथ वैरा य और वैरा यके साथ ान होता है । वे अकेले नह होते।
२. वैरा यके साथ शृ ार नह होता, और शृंगारके साथ वैरा य नह होता।
३. वीतराग वचनके असरसे जसे इ यसुख नीरस न लगे तो उसने ानीके वचन सुने ही नह ,
ऐसा समझ।
.. ४. ानीके वचन वषयका वमन, वरेचन करानेवाले ह।
५. छ थ अथात् आवरणयु ।
६. शैलेशीकरण = शैल = पवत + ईश = महान, अथात् पवत म महान मे के समान अकंपगुणवाला।
१., ७. अकंपगुणवाला = मन, वचन और कायाके योगक थरतावाला।
. ८. मो म आ माके अनुभवका य द नाश होता हो तो वह मो कस कामका ? .. ..; '
९. आ माका ऊ व वभाव है, तदनुसार आ मा पहले ऊँचे जाता है और कदा चत् स शलासे
टकराये; पर तु कम पी बोझ होनेसे नीचे आता है। जैसे क डू बा आ मनु य उछालसे एक बार ऊपर
आ जाता है वैसे।
१०. भरते रक कथा । (भरत चेत, काल झटका दे रहा है। ).
११. सगर च वत को कथा । ( ६०००० पु क मृ युके वणसे वैरा य । )
१२. न मराज षको कथा । ( म थला जलती ई दखायी इ या द।)
__ मोरबी, आषाढ़ सुद ५, सोम, १९५६
१. जैन आ माका व प है । उस व प (धम) के वतक भी मनु य थे। जैसे क वतमान अव-
स पणीकालम ऋषभ आ द पु ष उस धमके वतक थे। बु आ द पु ष को भी उस उस धमके वतक
जान । इससे कुछ अना द आ मधमका वचार न था ऐसा नह था।
__*. व० सं० १९५६ के आषाढ़ और ावणम ीमद्जी मोरवीम ठहरे थे। उस अरसेम उ ह ने समय-
समयपर जो ा यान दये थे और मुमु ु के का समाधान कया था, उस सवका सार एक मुमु ोताने
सं ेपम लख लया था । वही सं त सार यहाँ दया गया है।

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..::२. लगभग दो हजार वष पहले जैन य त शेखरसू र आचायने वै य को य के साथ मलाया।
३. 'ओसवाल' 'ओरपाक' जा तके राजपूत ह। ............. ... ........
.:: ४. उ कष, अपकष और सं मण ये स ाम रही ई कम- कृ तके हो सकते ह; उदयम आई ई
कृ तके नह हो सकते ।. . . . . . . . . ....... ..... ..: : ' .
..:.:. ५. आयुकमका जस कारसे बंध होता है उस कारसे दे ह थ त पूण होती है।
६. अंधेरे म नह दे खना, यह एकांत. दशनावरणीय कम नह कहा जाता, पर तु:मंद. दशनावरणीय
कहा जाता है। तमके न म से और तेजके अभावके कारण वैसा होता है। ... :
७ दशन कनेपर ान क जाता है।
... ८: ेय जाननेके लये ानको बढ़ाना चा हये। जैसा वजन वैसे बाट। . :, ..
९. जैसे परमाणुक श पयायको ा त करनेसे बढ़ती जाती है, वैसे ही चैत य क श
वशु ताको ा त करनेसे बढती जाती है। काँच, च मा, रबीन आ द पहले (परमाणु) के माण ह,
और अव ध, मनःपयाय, केवल ान, ल ध, ऋ आ द सरे (चैत य ) के माण ह। .. ::
:: ... ........ .... ३........... मोरवी, आषाढ़ सुद ६, मंगल, १९५६
.: १. योपशमस य वको वेदकस य व भी कहा जाता है। पर तु योपशममसे ा यक होनेक
सं धके समयका जो स य व है वह व तुतः वेदकस य व है। ....... ... ... .....
२. पाँच थावर एके य बादर ह, तथा सू म भी ह। नगोद वादर और सू म है । वन प तके
सवाय बाक के चारम असं यात सू म कहे जाते ह । नगोद सू म अनंत ह, और वन प तके सू म अनंत
है; वहाँ नगोदम, सू म वन प त होती है। ........:.:: : :: : " ....
३. ी तीथकर यारहव गुण थानकका पश नह करते; इसी तरह वे पहले, सरे तथा तीसरेका
.भी. पश नह करते ।.. . .. .. ... .. ..:: .
:... ,
४. वधमान, होयमान और थत ऐसो, जो प रणामक तीन धाराएं ह, उनम हीयमान प रणामको
धारा स य व-आ यी (दशन-आ यो) ी तीथकरदे वको नह होती, और चा र आ यी भजना।...
५. जहाँ ा यकचा र है वहाँ मोहनीयका अभाव है; और जहाँ मोहनीयका : अभाव है वहाँ
पहला, सरा; तीसरा और यारहवाँ इन चार गुण थानक क पशनाका अभाव है।
६. उदय दो कारका है--एक दे शोदय और सरा वपाकोदय । वपाकोदय वा (द खती
' ई) री तसे वेदन कया जाता है, और दे शोदय भीतरसे वेदन कया जाता है।
... . ७. आयुकमका बंध कृ तके बना नह होता, पर तु वेदनीयका होता है। '
८. आय कृ तका वेदन एक ही भवम कया जाता है। सरी कृ तय का वेदन उस भव और
अ य भवम भी कया जाता है।
... : : ९. जीव जस भवक आयु कृ त भोगता है, वह सारे भवको एक ही बंध कृ त है। उस बंध-
कृ तका उदय आयुके आरंभसे गना जाता है। इस लये उस भवक जो आयु कृ त उदय म है उसम
सं मण, उ कप, अपकष आ द नह हो सकते ।।
१०. आयुकमक कृ त सरे भवम नह भोगी जाती।
११. ग त, जा त, थ त, संबंध, अवगाह (शरीर माण) और रस . इ ह अमुक जीव अमुक
माणम भोगे इसका आधार आयुकमपर है । जैसे क एक मनु यको नौ वषक आयुकम कृ तका उदय

७७८
ीमद् राजच
ह , उसमस वह अ सीवे वषम अधूरी आयुम मर जाये तो वाक के बीस वष कहाँ और कस तरह भोगे
जाय ? सरे भवम ग त, जा त, थ त, संबंध आ द नये सरेसे होते ह, इ यासीव वषसे नह होते।
इस लये आयुक उदय कृ त बीचम नह टू ट संकती। जस जस कारसे बंध पड़ा हो उस उस कारसे
उदयम आनेसे कसीक म कदा चत् आयुका टू टना आये, परंतु ऐसा नह हो सकता। ..
१२. जब तक आयुकमवगणा स ाम होती है तब तक सं मण, अपकष, उ कष आ द करणका
नयम लागू हो सकता है; पर तु उदयका आरंभ होनेके बाद लागू नह हो सकता।
१३. आयुकम पृ वीके समान है और सरे कम वृ के समान ह। (य द पृ वी हो तो वृ
होता है।)
१४. आयुके दो कार ह-(१) सोप म और (२) न प म । इनमसे जस कारक आयु वाँधी
हो उसी कारक आय भोगी जाती है।
.:".१५. उपशमस य व योपशम होकर ा यक होता है; य क उपशमम जो कृ तयाँ स ा म ह वे
उदयम आकर ोण होती ह। ........
१६. च ुके दो कार ह-(१) ानच ु और (२) चमच ु । जैसे चमच ुसे एक व तु जस
व पसे दखायी दे ती ह वह व तु रबीन तथा सू मदशक आ द य से भ व पसे ही दखायी दे ती
है; वैसे चमच ुसे वह जस व पस दखायी दे ती है, वह ानच से कसी भ व पसे ही दखायी
दे ती है और उसी तरह कही जाती है; उसे हम अपनी चतुराई, अहं वसे न मान यह यो य नह है। .
. . . .".::.:.:..: . . . . . ४ ... मोरबी, आषाढ सुद ७, बुध, १९५६
१. ीमान कु दकु दाचायने अ पा ड (अ ाभूत) रचा है। ाभूतभेद-दशन ाभूत, ान-
ाभृत, चा र ाभृत; भाव ाभूत इ या द । दशन ाभृतम जनभावका व प बताया है।
. शा कता कहते ह क अ य भाव का हमने, आपने और दे वा धदे व तकने पूवकालम भावन
कया है, और उससे काय स नह आ; इस लये जनभावका भावन करनेक ज रत है। जो जनभाव

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शांत है, आ माका धम है और उसका भावन करनेसे ही मु होती है |..... .......
. . . : २. चा र ाभूत ।
३. और उसके पयाय माननेम नह आते; वहाँ वक प होनेसे उलझ जाना होता है। पयाय को
न माननेका कारण, उतने अंश तक नह प ँचना है। .....
४. के पयाय ह ऐसा माना जाता है, वहाँ का व प समझनेम वक प रहनेसे उलझ जाना
होता है, और इसीसे भटकना होता है ।... . :
. ..५. स पद नह है, पर तु आ माका एक शु पयाय है। उससे पहले मनु य अथवा दे व था,
तब वह पयाय था, य शा त रहकर पयायांतर होता है। '
६. शांतता ा त होनेसे ान बढ़ता है।
७. आ म स के लये ादशांगीका ान ा त करते ए ब त समय चला जाता है; जव क एक
माय शांतताका सेवन करनेसे तुरत ा त होता है ।
८. पयायका व प समझानेके लये ी तीथकरदे वने पद (उ पाद, य और ौ )
समझाया है।
९. ुव सनातन है। "
१०. पयाय उ पाद यय है। . . . . . .

७७९
. ११. छह दशन एक जैनदशनम समाते ह। उनम भी जैन एक दशन है। बौ - णकवाद -
पयाय पसे 'सत्' है । वेदांत--सनातन = पसे 'सत्' है । चावाक नरी रवाद जब तक आ माक
ती त नह ई तब तक उसे पहचानने पसे 'सत्' है।
. . .१२. जीवपयायके दो भेद ह--संसारपयाय और स पयाय । स पयाय शत तशत शु सुवणके
समान है और संसारपयाय खोटस हत सुवणके समान है।
१३. ंजनपयाय ।
१४. अथपयाय ।
१५. वषयका नाश (वेदका अभाव) ा यकचा र से होता है । चौथे गुण थानकम वषयक
मंदता होती है, और नौव गुण थानक तक वेदका उदय होता है।
१६. जो गुण अपनेम नह है वह गुण अपने म है, ऐसा जो कहता है अथवा मनवाता है, उसे
म या समझ। :
१७. जन और जैन श दका अथ-
"घट घट अ तर् जन बसै, घट घट अ तर् जैन ।।
मत म दराके पानस, मतवारा समजै न ॥". -समयसार
- १८. सनातन आ मधम है शांत होना, वराम पाना; सारी ादशांगीका सार भी यही है । वह
षड् दशनम समा जाता है, और वह षड् दशन जैनदशनम समा जाता है।"
... १९. वीतरागके वचन वषयका वरेचन करानेवाले ह ।
२०. जैनधमका आशय, दग बर तथा ेतांबर आचाय का आशय, और ादशांगीका आशय
मा आ माका सनातन धम ा त कराना है, और यही सार प है। इस बातम कसी कारसे ा नय -
का वक प नह है । यही तीन कालके ा नय का कथन है, था और होगा; पर तु वह समझम नह आता
यही बड़ी सम या है।
२१. बा वषय से मु होकर य य उसका वचार कया जाये य य आ मा अ वरोधी
होता जाता है; नमल होता है।
२२. भंगजालम न पड़ । मा आ माक शां तका वचार करना यो य है।
२३. ानी य प व णकक तरह हसावी (सू म पसे शोधन कर त व को वीकार करनेवाले)
होते ह, तो भी आ खर लोग जैसे लोग (एक सारभूत बातको पकड़ रखनेवाले) होते ह । अथात् अंतम
चाहे जो हो पर तु एक शांततासे नह चूकते; और सारी ादशांगीका सार भी यही है ।
२४. ानी उदयको जानते ह, पर तु वे साता-असाताम प रण मत नह होते।
२५. इं य के भोगस हत मु नह है । जहाँ इं य का भोग है वहाँ संसार है; और जहाँ संसार
है वहाँ मो नह है।
२६. वारहव गुण थानक तक ानीका आ य लेना है, ानीक आ ासे वतन करना है।
२७. महान आचाय और ा नय म दोप तथा भूल नह होती। अपनी समझम न आनेसे हम
भूल मानते ह । हमारेम ऐसा ान नह है क जससे अपनी समझम आ जाये । इस लये वैसा ान ा त
होनेपर जो ानीका आशय भूलवाला लगता है, वह समझम आ जायेगा, ऐनो भावना रख । परतार
१. भावाय- येक दयम जनराज और जैनधमका नवास है, परंतु स दाय- म दराके पानसे मायाले
लोग नह समझते।

७८०
ीमद् राजच
आचाय के वचारम य द कसी जगह कुछ भेद दे खनेम आये तो वह योपशमके कारण संभव है, पर तु
व तुतः उसम वक प करना यो य नह है।
२८. ानी ब त चतुर थे। वे वषयसुख भोगना जानते थे, उनको पाँच इ याँ पूण थी,

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( जसक पाँच इं याँ पूण होती है वही आचायपदवीके यो य होता है। फर भी यह संसार (इं यसुख)
नःसार लगनेसे तथा आ माके सनातन धम म ेय मालूम होनेसे वे वषयसुखसे वरत होकर आ माके
सनातन धम म संल न ए ह।
२९. अनंतकालसे जीव भटकता है, फर भी उसका मो नह आ। जव क ानीने एक अंत.
__मु तम मो बताया है ! ...
३०. जीव ानीक आ ाके अनुसार शां तम रहे तो अंतमु तम मु होता है। ..
- ३१. अमुक व तु का व छे द हो गया है, ऐसा कहा जाता है; पर तु उनके लये पु षाथ नह
कया जाता, इस लये उनके व छे दक वात कही जाती है। य द उनके लये स चा-जैसा चा हये वैसा-
पु पाथ हो तो वे गुण गट होते ह इसम संशय नह है। अं ेज ने उ म कया तो नर और रा य ा त
कये; और ह ता नय ने उ म नह कया तो ा त नह कर सके, इस लये व ा ( ान) का व छे द
आ ऐसा नह कहा जा सकता। : .
___३२. वषय ीण नह ए, फर भी जो जीव अपनेम वतमानम गुण मान बैठे ह, उन जीव जैसी
ां त न करते ए उन वषय का य करनेक ओर यान द।
५ . मोरवी, आषाढ़ सुद ८, गु , १९५६
. १. धम, अथ, काम और मो इन चार पु षाथ म मो थम तीनसे बढ़कर है, मो के लये
वाक तीन ह।
२. सुख प आ माका धम है, ऐसा तीत होता है । वह सोनेक तरह शु है। -
३. कमसे सुख ःख सहन करते ए भी प र हके उपाजन तथा उसके र णके लये सब य न
करते ह । सब सुखको चाहते ह, पर तु वे परतं है। परतं ता शंसापा नह है, वह ग तका हेतु
है । अतः स चे सुखके इ छु कके लये मो मागका वणन कया गया है।
४. वह माग (मो ) र न यक आराधनासे सब कम का य होनेसे ा त होता है।
___५. ानी ारा न पत त व का यथाथ बोध होना 'स य ान' है।
६. जीव, अजीव, आ व, संवर, नजरा, बंध और मो ये त व ह। यहाँ पु य-पाप आ वम
गने ह।
७. जीवके दो भेद- स और संसारी।
__ स : अनंत ान, दशन, वोयं, सुख, ये स के वभाव समान ह फर भी अनंतर परंपरा होने-
प प ह भेद इस कार कहे ह-(१) तीथ, (२) अतीथ, (३) तीथकर, (४) अतीथकर, (५) वयंवु ;
(६) येक वु , (७) वु वो धत, (८) ी लग, (९ पु प लग, (१०) नपुंसक लग, (११) अ य लग
(१२) जैन लग, (१३) गृह थ लग, (१४) एक, (१५) अनेक ।
संसारी :- संसारी जीव एक कारसे, दो कारसे इ या द अनेक कारसे कहे ह।
एक कार :-सामा य पसे 'उपयोग' ल णवाले सव संसारी जोव ह।
दो कार :-वस, थावर अथवा वहाररा श, अ वहाररा श । सू म नगोदमसे नकलकर
एक बार असपयायको ा त कया है, वह ' वहाररा श' ।
ा यानसार-२

७८२
ीमद राजच
म तम न रहे, इससे वे नह थे ऐसा नह कहा जा सकता। जस तरह आम आ द व क कलम क
जाती है, उसम सानुकूलता हो तो होती है, उसी तरह य द पूवपयायक मृ त करनेके लये योपशमा द
सानुकूलता (यो यता) हो तो 'जा त मरण ान' होता है। पूवसं ा कायम होनी चा हये.।. असं ीका भव
आनेसे 'जा त मरण ान' नह होता।
कदा चत् मृ तका काल थोड़ा कह तो सौ वषका होकर मर जानेवाले ने पाँच वषक
उमरम जो दे खा अथवा अनुभव कया हो वह पंचानव वषम मृ तम नह रहना चा हये, पर तु य द पूव-
सं ा कायम हो तो मृ तम रहता है। . ... ... ... ...
३. आ मा है । आ मा न य है। उसके माण :-
(१) बालकको तनपान करते ए चुक-चुक करना या कोई सखाता है ? वह तो पूवा यास है ।
(२) सप और मोरका, हाथी और सहका, चूहे और ब लीका वाभा वक वैर है। उसे कोई नह
सखाता । पूवभवके वैरक वाभा वक सं ा है, पूव ान है।
४. नःसंगता वनवासीका वषय ह ऐसा ा नय ने कहा है, वह स य है। जसम दो वहार-
सांसा रक और असांसा रक होते ह, उससे नःसंगता नह होती।
५. संसार छोड़े बना अ म गुण थानक नह है। अ म गुण थानकक थ त अंतमहतंक है।
६. 'हम समझ गये ह', 'हम शांत ह', ऐसा जो कहते ह वे तो ठगे गये ह।
'. ७. संसारम रहकर सातव गुण थानकसे आगे नह बढ़ सकते, इससे संसारीको नराश नह होना
है, पर तु उसे यानम रखना है। :: ....
८. पूवकालम मृ तम आयी हई व तुको फर शां तसे याद करे तो यथा थत याद आ जाती है ।
अपना ांत दे ते ए बताया क उ ह ईडर और वसोके शांत थान याद करनेसे त प ू याद आ जाते ह।
तथा खंभातके पास वडवा गाँवम ठहरे थे, वहाँ बावडीके पीछे थोड़े ऊँचे ट लेके पास बाड़के आगे जाकर
रा ता, फर शांत और शीतल अवकाशका थान था:। उन थान म वयं शांतः समा ध थ दशाम बैठे थे,
वह थ त आज उ ह पाँच सौ बार मृ त म आयी है। सरे भी. उस समय वहाँ थे। पर तु सभीको उस
कारसे याद नह आता। य क वह योपशमके अधीन है। थल भी न म कारण है। ... .

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:- ९. ं थके दो भेद ह :-एक , बा ं थ (चतु पद, पद, अपद इ या द); सरी भाव-
अ यंतर ं थ (आठ कम इ या द) । स यक कारसे जो दोन ं थय से नवृ हो वह ' न ंथ' है।
१०. म या व, अ ान, अ वर त आ द भाव जसे छोड़ने ही नह है उसे व का याग हो, तो भी
वह पारलौ कक क याण या कर सकता है ?
११. स य जीवको अवंधका अनु ान हो ऐसा कभी नह होता। या होनेपर भी अबंध गुण-
थानक नह होता।
१२. राग आ द दोष का य हो जानेसे उनके सहायक कारण का य होता है। जब तक
संपूण पसे उनका य नह होता तब तक मुमु ुजीव संतोप मानकर नह बैठते।
.. १३. राग आ द दोष और उनके सहायक कारण के अभावम बंध नह होता । राग आ दके योगसे
कम होता है । उनके अभाव म सब जगह कमका अभाव समझ।
. * धमसं हणी ंय गाथा १०७०, १०७१, १०७४; १०७५ ।।
ा यानसार-१

७८३
१४. आयुकमसंबंधी-(कम ंथ)
(अ) अपवतन = जो वशेष कालका हो वह कम थोड़े कालम वेदा जा सकता है। उसका कारण
पूवका वैसा बंध है, जससे वह इस कारसे उदयम आता है और भोगा जाता है।...
(आ) 'टू ट गया' श दका अथ ब तसे लोग 'दो भाग ए' ऐसा करते ह; पर तु वैसा अथ नह है ।
जस तरह 'कजा टू ट गया' श दका अथ 'कजा उतर गया, कजा दे दया ऐसा होता है, उसी तरह
'आयु टू ट गयो' श दका आशय समझ.। .
... (इ) सोप म = श थल, जसे एकदम भोग लया जाये। .... ....... ... ..
(ई) न प म = तका चत । दे व, नारक; युग लया, ष ी शलाकापु ष और चरमशरीरीको वह
होता है।
.... . (उ) दे शोदय = दे शको आगे. लाकर वेदन करना वह ' दे शोदय' । दे शोदयसे ानी कमका य
अंतमु तम करते ह।
. ... (ऊ) 'अनपवतन' और 'अनुदोरणा' . इन दोन का अथ मलता-जुलता है, तथा प अंतर यह है क
'उदोरणा म आ माको श है, और 'अनपवतन म कमक श है।
:: (ए) आयु घटती है, अथात् थोड़े कालम भोगी जाती है। . .
.:. १५. असाता उदयम ानक कसौट होती है। . . . . . .
१६. प रणामक धारा थरमामीटरके समान है।
७ . मोरबी, आषाढ़ सुद १०, श न, १९५६
१. मो मालामसे :-. ...
असमंजसता = अ मलनता, अ प ता। .. :: .
वषम = जैसे तैसे।
आय = उ म । 'आय' श द ी जने र, मुमु ु, तथा आयदे शके रहनेवालेके लये यु होता है
न ेप = कार, भेद, भाग। .
'भय ाण = भयसे तारनेवाला, शरण दे नेवाला।
२. हेमचं ाचाय धंधुकाके मोढ व णक थे। उन महा माने कुमारपाल राजासे अपने कुटुं बके लये
एक े भी नह माँगा था, तथा वयं भी राजाके अ का एक ास भी नह लया था ऐसा थी कुमार-
पालने उन महा माके अ नदाहके समय कहा था। उनके गु दे वचं सू र थे।
.. . ८ ... मोरवी, आषाढ़ सुद ११, र व, १९५६
१. सर वती = जनवाणीको धारा।।
. २. (१) बाँधनेवाला, (२) बाँधनेके हेतु, (३) बंधन और (४) बंधनके फलसे सारे संसारका पंच
__रहता है ऐसा ी जने ने कहा है ।
मोरवी, आपाढ़ सुद १२. सोम, १९५६
१. ी यशो वजयजीने 'योग ' थम छठ 'कांता म बताया है क वोतराग व पके सवाय
अ य कह भी थरता नह हो सकती; वीतरागसुखके सवाय अ य सुख नःस व लगता है, आडंबर प
लगता है । पाँचव ' थरा ' म बताया है क वीतरागसुख यकारो लगता है। आटव 'परा ' म
बताया है क 'परमावगाढ स य व' का संभव है, जहाँ केवलकान होता है।
ा यानसार-२

७८४
ीमद् राजच
२. 'पातंजलयोग' के कताको स य व ा त नह आ था; पर तु ह रभ सू रने उ ह मागानुसारी
माना है। . .. ... ... .. ......
३. ह रभ सू रने उन य का अ या म पसे सं कृतम वणन कया है, और उसपरसे यशो वजय-
जी महाराजने प पसे गुजरातीम लखा है।
- ४. 'योग ' म छह भाव-औद यक, औपश मक, ायोपश मक, ा यक, पा रणा मक, और
सा पा तक-का समावेश होता है। ये छः भाव जीवके वत वभूत ह।

ो ौ ै ो ो
५. जब तक यथाथ ान नह होता तब तक मौन रहना ठ क है। नह तो अनाचार दोष लगता
है। इस वषयम 'उ रा ययनसू ' म अनाचार' नामक अ धकार है। (अ ययन-छठा) : .
६. ानीके स ांतम अंतर नह हो सकता।
. . .७. सू आ माका वधम ा त करनेके लये बनाये गये ह; पर तु उनका रह य; यथाथ समझम
नह आता, इससे अंतर लगता है।
८: दग बरके ती वचन के कारण कुछ रह य समझा जा सकता है। ेता बरक श थलताके
कारण रस ठं डा होता गया।
___९. 'शा म ल वृ ' नरकम न य असाता पसे है। वह वृ शमी वृ से मलता-जुलता होता है
भावसे संसारी आ मा उस वृ प है। आ मा परमाथसे, उस अ यवसायको छोड़नेसे, नंदनवनके समान
होता है।
१०. जनमु ा दो कारको है:-कायो सग और प ासन । माद र करनेके लये सरे अनेक
- आसन कये ह । पर तु मु यतः ये दो आसन ह।
११. शमरस नम नं यु मं स , वदनकमलमंकः का मनीसंगशू यः।
करयुगम प य े श संबंधवं यं, तद स जग त दे वो वीतराग वमेव ॥
१२. चैत यका ल य करनेवालेक ब लहारी है !
१३. तीथ = तरनेका माग।
१४. अरनाथ भुक तु त महा मा आनंदघनजीने क है। ी आनंदघनजीका सरा नाम
_ 'लाभानंदजी' था । वे तपग छम ए ह।
१५. वतमानम लोग का ान और शां तके साथ स ब ध नह रहा; मताचायने मार डाला है।
१६. २"आशय आनंदघन तणो, अ त गंभीर उदार।
बालक बांय पसारीने, कहे उद ध व तार ॥"
___ १७. ई र व तीन कारसे जाना जाता है :-(१) जड़ जड़ा मकतासे रहता है । (२) चैत य-
संसारी जीव वभावा मकतासे रहते ह । (३) स -शु चैत या मकतासे रहते ह।
. . . : . . .: १० मोरवी, आषाढ़ सुद १३, मंगल, १९५६
१. 'भगवती आराधना' जैसी पु तक म यम एवं उ कृ भावके महा मा के तथा मु नय के ही
यो य ह। ऐसे थ उससे कम पदवी, यो यतावाले साधु तथा ावकको दे नेसे वे कृत नी होते ह। उ ह
उनसे उलट हा न होती है। स चे मुमु ु को ही ये लाभकारी ह।
१. अथंके लये दे ख उपदे श न ध २२ ।।
...: २. भावाथ-योगीवर ी आनंदघनजीका आशय अ त ग भीर और उदार है, उसे पूरी तरहसे समझना
असंभवसा है; जैसे क वालक वाह फैलाकर सागरके व तारका मा संकेत करता है। ...

७८५
- २. मो माग अग य तथा सरल है।
अग य-मा वभावदशाके कारण मतभेद पड़ जानेसे कसी भी जगह मो माग समझम आ सके
ऐसा नह रहा, और इस कारण वतमानम वह अग य है। मनु यके मर जानेके बाद अ ानस नाड़ी पकड़-
कर इलाज करनेके फलके समान मतभेद पड़नेका फल आ है, और इससे मो माग समझम नह आता।
. .सरल-मतभेदक माथाप ची र कर, आ मा और पु लका भेद करके शां तसे आ माका
अनुभव कया जाये तो मो माग सरल है; और र नह है। जैसे क एक थको पढ़ने म कतना ही
समय जाता है और उसे समझनेम अ धक समय जाना चा हये; वैसे अनेक शा ह, उ ह एक एक करके
पढ़ने के बाद उनका नणय करनेके लये बैठा जाये, तो उस हसाबसे पूव आ दका ान और केवल ान
कसी भी उपायसे ा त नह हो सकता अथात् इस तरह पढ़ने म आते ह तो कभी पार नह आ सकता;
पर तु उसक संकलना है, और उसे ी गु दे व बताते ह क महा मा उसे अंतमु तम ा त करते ह।
.३. इस जीवने नवपूव तक ान ा त कया तो भी कुछ स नह ई, उसका कारण वमुखदशा-
से प रणमन होना है। य द स मुखदशासे प रणमन हो तो त ण मु हो जाता है।
. .. ४. परमशांत रसमय 'भगवती आराधना' जैसे एक ही शा का अ छ तरह प रणमन आ हो
तो बस है। य क इस आरे-कालम वह सहज है, सरल है। .
५. इस आरे-कालम संहनन अ छे नह है, आयु कम है, भ और महामारी जैसे संयोग वारंवार
आते ह. इस लये आयुक कोई न यपूवक थ त नह है, इस लये यथासंभव आ म हतक बात तुरत
ही करे। उसे थ गत कर दे नेसे जीव धोखा खा बैठता है। ऐसे अ प समयम तो नतांत स यकमाग
जो परमशांत होने प है, उसे हण करे । उसीसे उपशम, योपशम और ा यक भाव होते ह।
... ६. काम आ द कभी ही हमसे हार मानते ह, नह तो कई बार हम थ पड़ मार दे ते ह । इस लये
भरसक यथासंभव ज द ही उ ह छोड़नेके लये अ माद बन। जैसे शी आ जाये वैसे होना ।
शूरवीरतास वैसा तुरत आ जा सकता है।
' ७. वतमानम रागानुसारी मनु य वशेष पसे ह।
८. य द स चे वै क ा त हो जाये तो दे हका वधम सहज ही औष ध ारा वधममसे नकल-
कर वधम पकड़ लेता है। इसी तरह य द स चे गु क ा त हो जाये तो आ माक शां त ब त ही
सुगमतासे और सहजम हो जाती है। इस लये वैसी या करनेम वयं त पर अथात् अ माद हो ।
मादसे उलटे कायर न होव।.
-- १. सामा यक - संयम ।
१०. त मण = आ माक मापना, आराधना ।
११. पूजा-भ ।
१२. जनपूजा, सामा यक, त मण आ द कस अनु मसे करना, यह कहते ए एकके बाद एक
उठता है, और उसका कसी तरह अंत आनेवाला नह है। परंतु य द ानीक आ ासे यह जीव
चाहे जैसे ( ानीके कहे अनुसार) चले तो भी वह मो मागम है।
१३. हमारी आ ासे चलनेपर य द पाप लगे तो उसे हम अपने सरपर ले लेते ह। य क जैसे क
रा तेम कांटे पड़े ह तो, वे कसीको लगगे, ऐसा जानकर मागम चलता आ कोई उ ह वहांते
उठाकर, कसी ऐसी एकांत जगहम रख दे क जहां वे कसीको न लगे, तो उसने कुछ रा यका अपराध

७८६
ीमद् राजच .
कया है ऐसा नह कहा जायेगा और राजा उसे दं ड नह दे गा; उसी तरह मो का शांतमाग बतानेसे
पाप कस तरह लग सकता है ?: . . .
.. १४. ानीक आ ासे चलने पर ानी गु ने यो यतानुसार यासंबंधी कसीको कुछ बताया हो.
और कसीको कुछ बताया हो; तो इससे मो (शां त) का माग कता नह है।
१५. यथाथ व प समझे वना अथवा जो वयं कहता है वह परमाथसे यथाथ है या नह , यह
जाने बना, समझे बना जो व ा होता है वह अनंत संसार बढ़ाता है। इस लये जब तक यह समझनेक
श न हो तब तक मौन रहना अ छा है।
१६. व ा होकर एक भी जीवको यथाथ-माग ा त करानेसे तीथकरगो बँधता है और उससे
उलटा करनेसे महामोहनीयकम बंधता है।
१७. य प हम आप सबको अभी ही मागपर चढ़ा द, पर तु वरतनके अनुसार व तु रखी जाती
है। नह तो जस तरह हलके बरतन म भारी व तु रख दे नेसे बरतनका नाश हो जाता है; उसी तरह यहाँ
भी हो जाता है । योपशमके अनुसार समझा जा सकता है।
१८. आपको कसी तरह डरने जैसा नह है, य क आपके सरपर हमारे जैसे ह, तो अब मो
आपके पु षाथके अधीन है। य द आप पु षाथ करगे तो मो होना र नह । ज ह ने मो ात
कया वे सब महा मा पहले हम जैसे मनु य थे; और केवल ान ा त करनेके बाद भी ( स होनेसे पहले)
दे ह तो वहीक वही रहती है; तो फर अब उस दे हमसे उन महा मा ने या नकाल डाला, यह समझ-.
कर हम भी उसे नकाल डालना है । इसम डर कसका ? वाद ववाद या मतभेद कसका ? मा शां तसे
वही उपासनीय है। . ... . .. ... . . . . . . . . . . . . . : ... ... ... ... ...
... .....११. . . . . . मोरबी, आषाढ़ सुद १४, बुध, १९५६
१. पहलेसे आयुधको बाँधना और उसका उपयोग करना सीखा ह तो लड़ाईके समय वह काम
आता है; उसी तरह पहलेसे वैरा यदशा ा त क हो तो अवसर आनेपर काम आती है; आराधना हो
सकती है।
२. यशो वजयजीने थ रचते ए इतना उपयोग रखा था क वे ायः कसी जगह.भी चूके न
थे। तो भी छ थ अव थाके कारण डेढ सौ गाथाके तवनम सातव ठाणांगसू क साख द है वह मलती
नह है । वह ी भगवतीसू के पाँचव शतकके उ े शम मालूम होती है। इस जगह अथकताने 'रासभ-
वृ 'का अथ पशुतु य कया है; पर तु उसका अथ ऐसा नह है। 'रासभवृ ' अथात् गधेको अ छ श ा
द हो तो भी जा त वभावके कारण धूल दे खकर उसका मन लोटनेका हो जाता है; उसी तरह वतमान-
कालम बोलते ए भ व यकालम कहनेक बात बोल द जाती है । . . . . . . . . . . .........
३. 'भगवती आराधना म ले याके अ धकारम येकक थ त आ द अ छ तरह बतायी है।
४. प रणाम तीन कारके ह-हीयमान, वधमान और समव थतः। पहले दो छ थको होते ह,
और अं तम समव थत (अचल अकंप शैलेशीकरण) केवल ानीको होता है। :: :...:. . . . ..
५. तेरहव गुण थानकम ले या तथा योगक चलाचलता है, तो फर वहाँ समव थत प रणाम
कस तरह हो सकते ह ? उसका आशय यह है क स य जीवको अबंध अनु ान नह होता। तेरहव
गुण थानकम केवलीको भी योगके कारण स यता है, और उससे बंध है; पर तु वह बंध अबंधबंध गना
जाता है । चौदहव गुण थानक़म आ माके दे श अचल होते ह:। उदाहरण पम, जस तरह पजरेका सह

७८७
जालोको नह छू ता, और थर होकर बैठा रहता है, तथा कोई या नह करता, उसी तरह यहाँ आ मा-
के दे श अ य रहते ह। जहाँ दे शक अचलता है वहाँ अ यता मानी जाती है। . .:.:
६. 'चलई सो बंधे', योगका चलायमान होना बंध है; योगका थर होना अबंध है।''
::." ७. जव अवंध होता है तब मु आ कहा जाता है। .. .
.. ८. उ सग अथात ऐसे होना चा हये अथवा सामा य ।
. अपवाद अथात ऐसा होना चा हये पर तु वैसे न हो सके तो ऐसे । अपवादके लये गली श दका
योग करना ब त ही हलका है । इस लये उसका योग न कर।
९. उ सगमाग अथात यथा यातचा र , जो नर तचार है । उ सगम तीन गु त समाती है; अप-:
वादम पाँच स म त समाती है। उ सग अ य है। अपवाद स य है। उ सगमाग उ म है; और
उससे नकृ अपवाद है । चौदहवाँ गुण थानक उ सग है, उससे नीचेके गुण थानक एक सरेक अपे ा-

से अपवाद ह। ... .: ... ... ... .... . ....
१०. म या व, अ वर त, माद, कषाय और योगसे एकके बाद एक अनु मसे बंध पड़ता है।
११. म या व अथात् यथाथ समझम न आना। म या वके कारण वर त नह होती, वर तके
अभावसे कषाय होता है, कषायसे योगक चलायमानता होती है, योगको चलायमानता 'आ व' है, और
उससे उलटा 'संवर' है। ..
. १२. दशनम भूल होनेसे ानम भूल होती है। जस कारके रससे ानम भूल होती है उसी
कारसे आ माका वीय फु रत होता है, और तदनुसार वह परमाणु हण करता है और वैसा ही बंध
पड़ता है; और तदनुसार वपाक उदयम आता है । दो उँग लय को पर पर फँसानेसे अंकुड़ी पड़ती है, उस
अंकुड़ी प उदय है और उनको मरोड़ने प भूल है; उस भूलसे ःख होता है अथात् बंध बंधता है। परंतु
मरोड़ने प भूल र हो जानेसे अंकुड़ी सहजम ही छू ट जाती है। उसी तरह दशनक भूल र हो जानेसे
कम दय सहजम ही वपाक दे कर झड़ जाता है और नया बंध नह होता। . ...
.. १३. दशनम भूल होती है, उसका उदाहरण-जैसे लड़का वापके ानम और सरेके ानम
दे हक अपे ासे एक ही है, अ य नह है, पर तु बाप उसे अपना लड़का करके मानता है वही भूल है।
__ वही दशनम भूल है और इससे य प ानम भेद नह है फर भी वह भूल करता है, और उससे उपयु -
के अनुसार बंध होता है। .
१४. य द उदयम आनेसे पहले रसम मंदता कर द जाये तो आ म दे शसे कम झड़कर नजरा हो
__ जाती है, अथवा मंद रससे कम उदयम आते ह। ..
१५. ानी नयी भूल नह करते, इस लये वे अबंध हो सकते ह ।
१६. ा नय ने माना है क यह दे ह अपनी नह है, यह रहनेवाली भी नह है, कभी न कभी उसका
वयोग होनेवाला ही है। इस भेद व ानके कारण ानी नगारेक आवाजक तरह उ त यको सदा सुनते
रहते ह और अ ानीके कान बहरे होते ह इस लये वह उसे नह सुनता।।
__.. १७. ानी दे हको न र समझकर, उसका वयोग होनेपर खेद नह करते । पर तु जैसे कसीसे
कोई चीज लो हो और उसे वा पस दे नी पड़ती है उसी तरह ानी दे हको उ लासपूवक वापस दे दे ते ह।
अथात् दे ह-प रणामी नह होते। .
१८. दे ह और आ माका भेद करना 'भेद ान' है । ानीका वह जाप है । उस जापसे वे दे ह और
ा यानसार-२

७८८
ीमद राजच
आ माको अलग कर सकते ह । वह भेद व ान होनेके लये महा मा ने सब शा रचे ह । जैसे तेजाबसे
सोना और रांगा अलग हो जाते ह, वैसे ानीके भेद व ानके जाप प तेजाबसे वाभा वक आ म
अगु लघु वभाववाला होकर योगी से पृथक् होकर वधमम आ जाता है ।... .. .
१९. सरे उदयम आये ए कम का आ मा चाहे जस तरहसे समाधान कर सकता है,.. पर तु
वेदनीयकमम वैसा नह हो सकता; और उसका आ म दे श से वेदन करना ही चा हये; और उसका वेदन
करते ए क ठनाईका पूण अनुभव होता है। वहाँ य द भेद ान संपूण गट न आ हो तो आ मा दे हा-
कारसे प रणमन करता है, अथात् दे हको अपनी मानकर वेदन करता है, जससे आ माक शां तका भंग
होता है । ऐसे संगम ज ह संपूण भेद ान आ है ऐसे ा नय को असातावेदनीयका वेदन करते ए
नजरा होती है, और वहाँ ानोको कसौट होती है । अथात् अ य दशनवाले वहाँ उस तरह नह टक
सकते, और ानो इस तरह मानकर. टक सकते ह। ....
२०. पु ल को सँभाल रखी जाये तो भी वह कभी न कभी न हो जानेवाला है; और जो
अपना नह है, वह अपना होनेवाला नह है; इस लये लाचार होकर द न बनना कस कामका.?. . .
२१. 'जोगा पय डपदे सा' = योगसे कृ त और दे श बंध होता है । . ..... .....
. २२. थ त तथा अनुभाग कषायसे बँधते ह.। ....
२३. आठ वध, सात वध, छ वध और एक वध इस कार बंध बँधा जाता है। . .. : .
.
. . १२ . . . . मोरबी, आषाढ सुद १५, ग , १९५६
१. ानदशनका फल यथा यातचा र , और उसका फल नवाण; उसका फल अ ाबाध सुख है।
. ..... ... . ... ... . . . .१३ . . . . . . . मोरबी, आषाढ वद १, शु , १९५६ -
१. 'दे वागम तो ' महा मा समंतभ ाचायने ( जसके नामका श दाथ यह होता है क ' जसे
क याण मा य है') बनाया है, और उसपर दग बर और ेता बर आचाय ने ट का लखी है। ये महा मा .
दग बराचाय थे, फर भी उनका बनाया आ उ .. तो ेता बर; आचाय को भी मा य है। उस
तो म थम ोक न न ल खत है-: : ... ... ... . . . . . . . . ... ... ...
........... 'दे वागमनभोयानचामरा द वभूतयः . ...... . . . . . . . . . .
माया व व प यंत,
े नात वम स नो महान् ॥' .. .. ... ... .
:: इस ोकका भावाथ यह है क दे वागम (दे वता का आना होता हो); आकाशगमन (आकाशम
गमन हो सकता हो), चामरा द वभू त (चामर आ द वभू त हो-समवसरणः होता हो इ या द,) ये सब
तो माया वय म भी दे खे जाते ह (मायासे अथात् यु से भी हो सकते है),. इस लये उतनेसे ही आप हमारे
मह म. नह ह । (उतने मा से कुछ तीथकर अथवा जन दे वका अ त व माना नह जा सकता । ऐसी
वभू त आ दसे. हम कुछ मतलब नह है। हमने तो उसका याग कया है !)...
े े े े ी ो ई े े
इन आचायने न जाने गुफामसे नकलते ए तीथकरको कलाई पकड़कर उपयु नरपे तासे वचन
कहे ह , ऐसा आशय यहाँ बताया गया ह।
२. आ त अथवा परमे रके ल ण कैसे होने चा हये, उसके संबंधम 'त वाथसू ' क ट काम
(सवाथ स म) पहली गाथा न न ल खत ह--.....
'मो माग य नेतारं, भे ारं कमभूभताम। ....... .....
. . . . .. ातारं व त वानां, वदे त णल धये ॥.......... ... :',

७८९
सारभूत अथ :-'मो माग य नेतारं' (मो मागम ले जानेवाला नेता)-यह कहनेसे मो का
'अ त व', 'माग', और 'ले जानेवाला', ये तीन बात वीकृत क ह। य द मो है तो उसका माग भी
होना चा हये और य द माग है तो उसका ा भी होना चा हये, और जो ा होता है वही मागम ले
जा सकता है। मागम ले जानेका काम नराकार नह कर सकता, पर तु साकार कर सकता है, अथात्
मो मागका उपदे श साकार उपदे ा अथात् जसने दे ह थ तसे मो मागका अनुभव कया है वही कर
सकता है । 'भे ारं कमभूभृताम्'--(कम प पवत का भेदन करनेवाला) अथात् कम पी पवत को तोड़ने-
से मो हो सकता है। इस लये जसने दे ह थ तसे कम पी पवत तोड़े ह वह साकार उपदे ा है। वैसा
कौन है ? वतमान दे हम जो जीव मु है वह। जो कम पी पवत तोड़कर मु हआ है, उसके लये
फर कमका अ त व नह रहता । इस लये जैसा क ब तसे मानते ह क मु होनेके बाद जो दे ह धारण
करता है वह जीव मु है, सो हम ऐसा जीव मु नह चा हये । ' ातारं व त वानां'-( व के
त व को जाननेवाला) य कहनेसे यह बताया क आ त ऐसा होना चा हये क जो सम त व का ाता
हो । 'वंदे त णल धये'-(उसके गुण क ा तके लये उसे वंदन करता ) ँ , अथात् जो इन गुण से यु
पु ष हो वही आ त है और वही वंदनीय है। . . . . . ....
:: ३. मो पद सभी चैत य के लये सामा य होना चा हये, एक जीवा यी नह ; अथात् यह चैत य-
का सामा य धम है। एक जीवको हो और सरे जीवको न हो, ऐसा नह हो सकता। . .
.... ४. 'भगवती आराधना' पर ेता बर आचाय ने जो ट का क है वह भी उसी नामसे स है।
:: : ५. करणानुयोग या ानुयोगम दग बर और ेता बरके बीचम अ तर नह है। मा बा
वहारम अ तर है। .:. ...... .. .. ... ... .
.६. करणानुयोगम ग णत पसे स ांत एक त कये ह। उनम अ तर होना स भव नह है।
७. कम थ मु यतः करणानुयोगके अ तगत है।
८. 'परमा म काश' दग बर आचायका बनाया आ है । उसपर ट का ई है।
९. नराकुलतां सुख ह। संक प ःख है। ...
. १०. काय लेश तप करते ए भी महामु नम नराकुलता अथात् व थता दे खनेम आती है।
ता पय क जसे तप आ दक आव यकता है, और इस लये जो तप आ द काय लेश करता है, फर भी
वह वा यदशाका अनुभव करता है, तो फर ज ह काय लेश करना नह रहा ऐसे स भगवानको
नराकुलता य नह हो सकती ? . . . . .
११. दे हक अपे ा चैत य बलकुल प है । जैसे दे हगुणधम दे खने म आते ह. वैसे आ मगुणधम
दे खनेम आय तो दे हका राग न हो जाता है । आ मवृ वशु हो जानेसे सरे के संयोगसे आ मा
दे ह पसे, वभावसे प रण मत आ दखाई दे ता है।
१२. चैत यका अ य त थर होना 'मु ' है।
. १३. म या व, अ वर त, कषाय और योग, इनके अभावम अनु मसे योग थर होता है।
१४. पूवके अ यासके कारण जो झ का आ जाता है वह ' माद' है।
१५. योगको आकषण करनेवाला न होनेसे वह वयं ही थर हो जाता है।
१६. राग और े ष आकषण ह।
१७. सं ेपम ानीका य कहना है क पु लसे चैत यका वयोग कराना है; अथात् राग े षसे
आकषण र करना है।
१८. जहाँ तक अ म आ जाये वहाँ तक जागृत ही रहना है।
७९१
का वंध होता है, वह उदयम आता है । परमाणु य द सरम इक े ह तो वहाँ वे सरददके आकारसे
प रणमन करते ह, आँखम आँखक वेदनाके आकारसे प रणमन करते ह ।
६. वहीका वही चैत य ीम ी पसे और पु षम पु ष पसे प रणमन करता है; और भोजन
भी तथा कारके ही आकारसे प रणमन कर पु दे ता है ।
७. शरीरम माणुस परमाणुको लड़ते ए. कसीने नह दे खा; परंतु उसका प रणाम वशेष
जाननेम आता है । बुखारक दवा बुखारको रोकती है. इसे हम जान सकते ह; परंतु भीतर या या
ई, उसे नह जान सकते . इस ांतसे. कमबंध होता आ दे खनेम नह आता परंतु उसका वपाक
दे खनेम आता है।
८. अनागार= जसे तम अपवाद नह ।
घर र ह
१०. स म त = स यक् कारसे जसक मयादा है उस मयादास हत, यथा थत पसे वृ करने-
का ा नय ने जो माग कहा है उस मागके अनुसार मापस हत वृ करना ।
११. स ागत = उपशम ।
१२. मण भगवान = साधु भगवान अथवा मु न भगवान ।
१३. अपे ा= ज रत, इ छा ।
१४. सापे = सरे कारणको, हेतुक ज रतक इ छा करना ।
१५. सापे व अथवा अपे ासे 3 एक सरेको लेकर
१. अनुपप = असंभ वत; स होने यो य नह ।
ावका यी, पर ी याग तथा अ य अणु त के वषयम ।
१. जब तक मृषा और पर ीका याग न कया जाये, तब तक सब याएँ न फल ह; तब तक
आ माम छलकपट होनेसे धम, प रण मत नह होता ।
२.धम पानेक यह थम भू मका है ।
३. जब तक मृषा याग और पर ी याग प गुण न ह तब तक वका और ोता नह हो सकते ।
४. मृषा र हो जानेसे ब तसी अस य वृ कम होकर नवृ का संग आता है । सहज वात-
चीत करते ए भी वचार करना पड़ता है ।
५. मृंषा बोलनेसे ही लाभ होता है, ऐसा कोई नयम नह है | य द ऐसा होता हो तो सच वोलने-
वाल क अपे ा जगतम जो अस य बोलनेवाले व त होते ह, उ ह अ धक लाभ होना चा हये, परंतु वैसा
कुछ दे खनेम नह आता; तथा अस य बोल नसे लाभ होता हो तो कम एकदम र हो जायगे और शा
भी झूठे स ह गे।
६. स यक ही जय है । पहले मु कली महसुस होती है, परंतु पीछे से स यका भाव होता है और
उसका असर सरे मनु य तथा संबंधम आनेवाल पर होता है ।
७. स यसे मनु यका आ मा फ टक जैसा मालूम होता है ।

७९२
१. दग बरसं दाय यह कहता है क आ माम 'केवल ान' श पसे रहता है |
२. ेता बरसं दाय आ माम केवल ानको स ा पसे मानता है ।
३. 'श ' श दका अथ 'स ा' से अ धक गौण होता है ।
४. श पसे है अथात् आवरणसे का आ नह है, य य श बढ़ती जाती है अथात् उस
पर य य योग होता जाता है, य य ान वशु होकर केवल ान गट होता है ।
५. स ाम अथात् आवरणम रहा आ है, ऐसा कहा जाता है ।
६. स ाम कम कृ त हो वह उदयम आये वह श पसे नह कहा जाता ।
७. स ाम केवल ान हो और आवरणम न हो, यह नह हो सकता। 'भगवती आराधना
दे खयेगा ।
८. कां त, दो त, शरीरका मुड़ना, भोजनका पचना , र का फरना, ऊपरके दे श का नीचे आना,
नीचेके दे श का ऊपर जाना ( वशेष कारणसे समु ात आ द), ललाई, बुखार आना , ये सब तेजस्
परमाणुक याएँ ह। तथा सामा यतः आ माके दे श ऊँचे नीचे आ करते ह: अथात् कंपायमान रहते
ह, यह भी तैजस् परमाणुसे होता है ।
९. कामणशरीर उसी थलम आ म दे श को अपना आवरणका वभाव बताता है ।
१०. आ माके आठ चक दे श अपना थान नह बदलते । सामा यतः थल नयसे ये आठ दे श
ना भके कहे जाते ह, सू म पसे वहाँ असं यात दे श कहे जाते ह ।
११. एक परमाणु एक दे शी होते ए भी छः दशा को पश करता है । चार दशाएँ तथा एक
ऊ व और एक अधः यह सब मलाकर छः दशाएँ होती ह |
१२. नयाणुं अथात् नदान ।
१३. आठ कम सभी वेदनीय ह, य क सबका वेदन कया जाता है3B परंतु उनका वेदन लोक-
स नह होनेसे लोक स वेदनीयकम अलग माना है ।
१४. कामण, तैजस, आहारक, वै य और औदा रक इन पाँच शरीर के परमाणु एकसे अथयात्
समान ह; परंतु वे आ माके योगके अनुसार प रणमन करते ह ।
१५. म त कक अमुक अमुक नस दबानेसे ◌्रोध, हा यं, उ म ता उ प होते ह । शरीरम मु य..
ी ी े े े े ऐ े
मु य थल जीभ, ना सका इ या द गट दखायी दे ते ह इस लये मानते ह; परंतु ऐसे सू म थान गट
दखायी नह दे त; े अतः नह मानते; परंतु वे ह ज र |
१६. वेदनीयकम नजरा प है, परंतु दवा इ या द उसमसे ह सा ले लेती है ।.
१७. ानीने ऐसा कहा है क आहार लेते ए भी ःख होता हो और छोड़ते ए भी ःखं होता.
हो, तो वहाँ संलेखना कर 1 उसम भी अपवाद होता है । ानीने कुछ आ मघात करनेका नह कहा है ।
१८. ानीने अनंत औष वयाँ अनंत गुण से संयु दे खी ह , परंतु कोई ऐसी औष ध दे खनेम नह
आयी क जो मौतको र कर सके ! वै और औष ध ये न म प ह ।
१९. बु दे वको रोग, द र ता, वृ ाव था और मौत, इन चार बात से वैरा य उ प आ था.।
१. च वत को उपदे श कया जाये तो वह घड़ो-भरम रा यका यांग कर दे ता है परंतु भ ुको
अनंत तृ णा होनेसे उस कारका उपदे श उसे असर नह करता ।

७९३
. . . . २. य द एक बार आ माम अंतवृ का पश हो जाये, तो उसे अधपु लपरावतन संसार ही
रहता है य तीथकर आ दने कहा है। अंतवृ ानसे होती है। अंतवृ होनेका आभास वतः ( व-
भावसे हो) आ माम होता है; और वैसा होनेक ती त भी वाभा वक होती है। अथात् आ मा 'थरमा-
मीटर' के समान है। बुखार होनेक और उतरनेको ती त 'थरमामीटर' कराता है । य प 'थरमामीटर'
बुखारको.आकृ त नह बताता, फर भी उससे ती त होती है.। उसी तरह अंतवृ होनेक आकृ त
मालूम नह होती फर भी अंतवृ ई है ऐसी आ माको ती त होती है। औषध बुखारको कस
तरह र करता है वह कुछ नह बताता, फर भी औषधसे बुखार चला जाता है, ऐसो ती त होती है;
इसी तरह अंतवृ होनेक ती त अपनेआप ही हो जाती है । यह ती त 'प रणाम ती त' है।
३. वेदनीयकम ।'
४. नजराका असं यातगुना उ रो र म है । जसे स य दशन ा त नह आ ऐसे म या
• जीवक अपे ा स य असं यातगुनी नजरा करता है.।२. "
५. तीथकर आ दको गृह था मम रहते ए भी गाढ अथवा अवगाढ स य व होता है।
६. 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' एक ही कहा जाता है ।
। ७. केवलीको 'परमावगाढ. स य व' होता है।
८. चौथे गुण थानकम 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' स य व होता है ।, .. . . . . . .
१. ..९. ा यक स य व अथवा गाढ-अवगाढ स य व एकसा है। . .. ...
१०. दे व, गु ं , त व अथवा धम अथवा परमाथक परी ा करनेके तीन कार ह--(१) कष, (२)
'छे द और (३) तापं । इस तरह तीन कारसे कसौट होती है। इसे सोनेक कसौट के ा तसे समझ ।
(धम ब थम है ।) पहले और सरे कारसे कसीम मलनता आ सके, पर तु तापक वशु कसौटोसे
• शु मालूम हो तो वह दे व, गु और धम स चे माने जाय।
११. श यक जो क मयाँ होती ह, वे जस उपदे शकके यानम नह आत उसे उपदे श-कता न समझ ।
आचाय ऐसे होने चा हये क श यका अ प दोष भी जान सक और उसका यथासमय बोध भी दे सक।
: १२. स य द गृह थ ऐसे होने चा हये क जनक ती त श ु भी कर, ऐसा ा नय ने कहा
है। ता पय क ऐसे न कलंक धम पालनेवाले होने चा हये।
१. अव ध ान और मनःपयाय ानम अंतर ।३. :
२. परमाव ध ान मनःपयाय ानसे भी बढ़ जाता है, और वह एक अपवाद प है।
. १. ोताको न घ-वेदनीयकमक उदयमान कृ तम आ मा हष धारण करता है, तो कैसे भावम आ माके
भा वत रहनेसे वैसा होता है इस वषयम ीमद्ने वा मा यी वचार करना कहा है।
२. इस तरह असं यातगुनी नजराका वधमान म चौदहव गुण थानक तक ीमद्ने वताया है, और
वामीका तकक साख द है।
३. ीमदने बताया क अव ध ान और मनःपयाय ानके संबंधम जो फयन नंद सूयम है उससे भ
आशयवाला कथन भगवती आराधनाम है । अव ध ानके टु कड़े हो सकते ह; हीयमान इ या द चाथै गुण थानकम
भी हो सकते ह। यूल है, अथात् मनके थल पयाय जान सकता है; और सरा मनःपयाय ान वतं है; सास
मनके पयायसंबंधी श वशेषको लेकर एक अलग तहसीलको तरह है, वह अखंड है; अ म को ही हो सकता है,
इ या द मु य मु य अंतर कह बताये ।

.७९४
ीमद् राजच
२० . . मोरबी, आषाढ वद ७, बुध, १९५६
१. आराधना होनेके लये सारा ुत ान है, और उस आराधनाका वणन करनेके लये ुतकेवली
भी अश है। . ..
. . . . . . . . . .
२. ान, ल ध, यान और सम त आराधनाका कार भी ऐसा ही है।
- ३. गुणक अ तशयता ही पू य है, और उसके अधीन ल ध, स इ या द ह, और चा र
व छ करना यह उसक व ध है। ..
४. दशवैका लकक पहली गाथा-
'ध मो मंगल मु कटुं , अ हसा संजमो तवो। ... ..
दे वा. व तं नमसं त, ज स ध मे सया मणो॥
ी ी ै ऐ े े ी े
इसम सारी व ध समा जाती है। परंतु अमुक व ध ऐसे कहनेम नह आयी, इससे य समझम
आता है क प तासे व ध नह बतायी। .
५. (आ माके) गुणा तशयम ही चम कार है।
६. सव कृ शांत वभाव करनेसे पर पर वैरवाले ाणी अपना वैरभाव छोड़कर शांत हो जाते
ह, ऐसा ी तीथकरका अ तशय है।
७. जो कुछ स , ल ध इ या द ह वे आ माके जागृतभावम अथात् आ माके अ म वभावम
ह । वे सब श याँ आ माके अधीन ह। आ माके वना कुछ नह है । इन सबका मूल स यक ान, दशन
और चा र है।
८. अ य त ले याशु होनेके कारण परमाणु भी शु होते ह, इसे सा वक वृ के नीचे बैठनेसे
तीत होनेवाले असरके ा तसे समझे। .
९. ल ध, स स ची ह, और वे नरपे महा माको ा त होती है; जोगी, वैरागी ऐसे
म या वीको ा त नह होत । उसम भी अनंत कार होनेसे सहज अपवाद है। ऐसी श वाले
महा मा काशम नह आते, और श बताते भी नह । जो कहता है उसके पास वैसा नह होता।
१०. ल ध ोभकारी और चा र को श थल करनेवाली है। ल ध आ द मागसे प तत होनेके
कारण ह । इस लये ानी उनका तर कार करते ह। ानीको जहाँ ल ध, स आ दसे प तत होनेका
स भव होता है वहाँ वे अपनेसे वशेष ानीका आ य खोजते ह। . .
११. आ माक यो यताके बना यह श नह आती। आ मा अपना अ धकार बढ़ाये तो वह
आती है।
- १२. दे हका छू टना पयायका छू टना है; पर तु आ मा आ माकारसे अखंड अव थत रहता है, उसका
अपना कुछ नह जाता। जो जाता है वह अपना नह , ऐसा य ान जब तक नह होता तब तक
मृ युका भय लगता है।
... . १३. . २"गु गणधर गुणधर अ धक (सकल) चुर परंपर और।
. ततपधर, · तनु नगनतर, वंद वृष सरमौर ॥"
- वामी का तकेयानु े ा ट का, दोहा ३
, १. भावाथ-धम, अ हसा, संयम और तप ही उ कृ मंगल है । जसका धमम नरंतर मन है, उसे दे व
भी नम कार करते ह।
२. अथके लये दे ख आंक ९०१ ।

ा यानसार-२
७९५
. . . गणधर = गण-समुदायका धारक; गुणधर = गुणका धारक; चुर = ब त; वृष = धम; सरमौर -
: सरका मुकुट ... . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. :
. १४. अवगाढ = मजबूत । परमावगाढ़ = उ कृ पसे मजबूत । अवगाह = एक परमाणु दे श
रोकना, ा त होना । ावक = ानीके वचनका ोता, ानीका वचन सुननेवाला । दशन- ानके वना,
या करते ए भी, ुतं ान पढ़ते ए.भी ावक या साधु नह हो सकता। औद यक भावसे वह ावक,
. साधु कहा जाता है; पा रणा मक भावसे नह कहा जाता। थ वर = थर, ढ ।
. .. : . १५. थ वरक प = जो साधु वृ हो गये ह उनके लये, शा मयादासे वतन करनेका, चलनेका
' ा नय ारा मुकरर कया आ, बाँधा आ, न त कया आ माग या नयम । '
१६. जनक प = एकाक वचरनेवाले साधु के लये न त कया आ अथात् बाँधा आ,
मुकरर कया आ जनमाग या नयम ।
२१
. मोरवी, आषाढ़ वद ८, गु , १९५६
-१. सब धम क अपे ा जैनधम उ कृ दया णीत है । दयाका थापन जैसा उसम कया गया है,
वैसा सरे कसीम नह है। 'मार' इस श दको ही मार डालनेक ढ़ छाप तीथकर ने आ माम
मारी है। इस जगहम उपदे शके वचन भी आ माम सव कृ असर करते ह। ी जने क छाती म
जीव हसाके परमाणु ही नह ह गे ऐसा अ हसाधम ी जने का है। जसम दया नह होती वह जन
नह होता । जैनके हाथसे खून होनेक घटनाएँ माणम अ प होगी। जो जैन होता है वह अस य नह
बोलता।
. . . . २. जैनधमके सवाय सरे धम क तुलनाम अ हसाम बौ धम भी बढ़ जाता है। ा ण क य
आ द हसक या का नाश भी ी जने और बु ने कया है, जो अभी तक कायम है।
. ३ ी जने तथा बु ने, य आ द हसक धमवाले होनेसे ा ण को स त श द का योग
करके ध कारा है, वह यथाथ है।
... ४. ा ण ने वाथबु से ये हसक याएँ दा खल क ह । ी जने तथा बु ने वयं वैभवका
याग कया था, इस लये उ ह ने नः वाथबु से दयाधमका उपदे श करके हसक या का व छे द
कया । जगतके सुखम उनक पृहा न थी।
.. ५.. ह तानके लोग एक बार एक व ाका अ यास इस तरह छोड़ दे ते ह क उसे फरसे हण
करते ए उ ह कंटाला आता है। युरो पयन जाम इससे उलटा है, वे एकदम उसे छोड़ नह दे ते, पर तु
चालू ही रखते ह । वृ के कारण कम- यादा अ यास हो सके, यह बात अलग है।
१. वेदनीयकमको जघ य थ त वारह मुहतक है; उससे कम थ तका बंध भी कपायके वना
एक समयका होता है, सरे समयम वेदन होता है और तीसरे समयम नजरा होती है।

ई े
२. ईयाप थक या = चलनेक या।।
३. एक समयम सात अथवा आठ कृ तय का बंध होता है। येक कृ त उसका बटवारा कस
तरह करती है इस स ब धम भोजन तथा वपका ांतः-जैसे भोजन एक जगहते लया जाता है परंतु
उसका रस येक इ यको प ँचता है, और येक इ य ही अपनी अपनी श के अनुसार हण कर

७९६
ीमद् राजच
उस पसे प रणमन करती है, उसम अंतर नह आता। उसी तरह वष लया जाये; अथवा सप काट
ले तो वह या तो एक ही जगह होती है; पर तु उसका असर वष पसे येक इं यको भ भ
कारसे सारे शरीरम होता है। इसी तरह कम बाँधते समय मु य उपयोग एक कृ तका होता है, पर तु
उसका असर अथात् बटवारा सरी सब कृ तय के पार प रक स ब धको लेकर मलता है। जैसा रस
वैसा ही उसका हण होता है। जस भागम सपदं श होता है उस भागको य द काट दया जाये तो वष
नह चढ़ता; उसी तरह य द कृ तका य कया जाये तो बंध होनेसे क जाता है, और उसं कारण
सरी कृ तय म बटवारा होनेसे क आता है । जैस. े सरे योगसे चढ़ा आ वष वापस. उतर जाता है,
वैसे कृ तका रस मंद कर डाला जाये तो उसका बल कम होता है। एक कृ त बंध करती है तो सरी
कृ तयाँ उसमसे भाग लेती है, ऐसा उनका वभाव है। .
४. मूल कम कृ तका य न आ हो तब तक उ र कम कृ तका बंध व छे द हो गया हो तो
भी उसका बंध मूल कृ तम रहे ए रसके कारण हो सकता है, यह आ य जैसा है। जैसे दशना-
वरणीयम न ा- न ा आ द।
५ . अनंतानुबंधी कम कृ तक थ त चालीस कोडाकोड़ीक , और मोहनीय (दशन मोहनीय) क
स र कोडाकोड़ीक है।
२३ मोरवी, आषाढ वद ९, शु , १९५६
__ १. आयुका बंध एक आनेवाले. भवका आ मा कर सकता है, उससे अ धक भव का बंध नह
कर सकता।
... २. कम थके बंधच म जो आठ कम कृ तयाँ बतायी ह, उनको उ र कृ तयाँ एक जीवआ यी
अपवादके साथ बंध उदय आ दम ह; पर तु उसम आयु अपवाद प है। वह इस तरह क म या वगुण-
थानकवत जीवको बंधम चार आयुक कृ तका (अपवाद) बताया है। उसम ऐसा नह समझना क
जीव चालू पयायम चार ग तय क आयुका बंध करता है; परंतु आयुका बंध करनेके लये वतमान पयाय-
म इस गुण थानकवत जीवके लये चार ग तयाँ खुली ह। उन चार मसे एक एक ग तका बंध कर सकता
है। उसी तरह जस पयायम जीव हो उसे उस आयुका उदय होता है। ता पय क चार ग तय मसे
वतमान एक ग तका उदय हो सकता है; और उदोरणा भी उसीक हो सकती है।
३. बड़ेसे बड़ा थ तबंध स र कोड़ाकोडीका है। उसम असं यात भव होते ह। फर वैसेका वैसा
म मसे बंध होता जाता है। ऐसे अनंत बंधक अपे ासे अनंत भव कहे जाते ह; परंतु पूव के अनु-
सार ही भवका बंध होता है। . . . . . . . . ... . .
___ मोरबी, आषाढ़ वद १०, श न, १९५६
.. १. व श -मु यतः-मु यतावाचक श द है।
5 . २.. ानावरणीय, दशनावरणीय और अंतराय ये तीन कृ तयाँ उपशमभावम हो ही नह सकती,
योपशमभावम ही होती ह। ये कृ तयाँ य द उपशमभावम ह तो आ मा जडवत् हो जाता है और
या भी नह कर सकता; अथवा तो उससे वतन भी नही हो सकता । ानका काम जानना है, दशनका
काम दे खना है, और वीयका काम वतन करना है । वीय दो कारसे वतन कर सकता है-(१) अ भ-
सं ध, (२) अन भसं ध । अ भसं ध = आ माक ेरणासे वीयका वतन होना। अन भसं ध = कषायसे
वीयका वतन होना। ानदशनम भल नह होती। पर तु उदयभावम रहे ए दशनमोहके कारण भूल

ा यानसार-२ .
७९७
होनेसे अथात् कुछका कुछ जाननेसे वीयक वृ वपरीत पसे होती है, य द स यक पसे हो तो स -
पयाय ा त हो जाता है । आ मा कभी भी याके बना नह हो सकता। जब तक योग है तब तक जो
या करता है, वह अपनी-वीयश से करता है। वह या दे खने म नह आती; पर तु.प रणामसे जाननेम.
आती है । खाई ई खुराक न ाम पच जाती है, य सबेरे उठनेपर मालूम होता है। न ा अ छ आयी
थी इ या द कहते ह, यह भी ई याके समझम आनेसे कहा जाता है। य द चालीस वरसक उमरम
अंक गनना आये तो इससे या यह कहा जा सकेगा क अंक पहले नह थे? बलकुल नह । वयंको
उसका ान नह था इस लये ऐसा कहता है । इसी तरह ान-दशनके बारेम समझना है । आ माके ान,
दशन और वीय थोडे-ब त भी खुले रहनेसे आ मा यांम वृ कर सकता है। वीय सदा चलाचल
रहा करता है । कम थ पढ़नेसे वशेष प होगा। इतने प ीकरणसे ब त लाभ होगा।
.... ३. पा रणा मक भावसे सदा जीव व है, अथात् जीव जोव पसे प रणमन करता है, और स व
ा यक भावंसे होता है, य क कृ तय का य करनेसे स पयाय मलता है।
४. मोहनीयकम औद यक भावसे होता है। "
. ५. व णक वकल अथात् मा ा, शरोरेखा आ दके बना अ र लखते ह, पर तु अंक वकल नह
लखत, उ ह तो ब त प तासे लखते ह । उसी तरह कथानुयोगम ा नय ने शायद वकल लखा हो तो

े ो े ी े
भले; पर तु कम कृ तम तो न त अंक लखे ह । उसम जरा भी फक नह आने दया।
.. :. ... .... .२५ मोरबी, आषाढ़, वद ११, र व, १९५६
१. ान धागा परोयी ई सूईके समान है, ऐसा उ रा ययन सू म कहा है । धागेवाली सूई खोयी
नह जाती । उसी तरह ान होनेस. े संसारम, गुमराह नह आ. जाता। . . .. :: .
.. २६ : ..... मोरबी, आषाढ़ वद १२, सोम, १९५६
१. तहार = तीथकरका धमरा य व बतानेवाला । तहार = दरवान ।
... २. थल, अ प थूल, उससे भी थूल; र, रसे र, उससे भी र; ऐसा मालूम होता है; और
इस आधारसे सू म, सू मसे सू म आ दका ान कसीको भी होना स हो सकता है।
___"३. न न = आ मम न । .......
। ४. उपहत = मारा गया । अनुपहत = नह मारा गया। उप ंभज य = आधारभूतः । अ भधेय = जो
व तुधम कहा जा सके । पाठांतर = एक पाठक जगह सरा पाठ । अथातर = कहनेका हेतु बदल जाना।
वषम = जो यथायो य न हो, अंतरवाला, कम- यादा। आ म सामा य वशेष उभया मक स ावाला
है। सामा य चेतनस ा दशन है । स वशेष चेतनस ा ान है।
... ५. स ा समु त = स यक् कारसे स ाका उदयभूत होना, का शत होना, फु रत होना,
ात होना। .
६. दशन =जगतके कसी भी पदाथका भेद प. रसगंधर हत नराकार त ब बत होना, उसका
अ त व भा यमान होना; न वक प पसे कुछ है, इस तरह आरसीक झलकक भां त सामनेके पदाथका
भास होना, यह दशन है। वक प हो वहाँ ' ान' होता है।
७. दशनावरणीय कमके आवरणके कारण दशन अवगाढतासे आवृत होनेसे चेतनम मढता हो गयी
और वहांसे शू यवाद शु आ।

७९८
ीमद् राजच
८. जहाँ दशन क जाता है वहाँ ान भी क जाता ह।
९. दशन और ानका बटवारा कया गया है । ान-दशनके कुछ टु कड़े होकर वे अलग अलग नह
हो सकते । ये आ माके गुण ह। जस तरह पये म दो अठ ी होती ह उसी तरह आठ आना दशन और
आठ आना ान है । ... .
१०. तीथकरको एक ही समयम दशन और ान दोन साथ होते ह, इस तरह दो उपयोग दग बर-
मतके अनुसार ह, ेता बर-मतके अनुसार नह । बारहव गुण थानकम ानावरणीय, दशनावरणीय और
अंतराय इन तीन कृ तय का य एक साथ होता है, और उ प होनेवाली ल ध भी एक साथ होती
है । य द एक समयम न होते ह तो एक सरी कृ तको कना चा हये । ेता बर कहते ह क ान
स ाम रहना चा हये, य क एक समयम दो उपयोग नह होते; पर तु दग बर क उससे भ मा यता है।
११. शू यवाद = कुछ भी नह ऐसा माननेवाला; यह बौ धमका एक भेद है। आयतन = कसी
भी पदाथका थल, पा । कूट थ = अचल, जो र न हो सके। तट थ = कनारे पर; उस थलमे ।
म य थ = बीचम।
...२७ . , मोरबी, आषाढ वद १३, मंगल, १९५६
१. चयोपचय = जाना-जाना, पर तु संगवशात् आना-जाना, गमनागमन | मनु यके जाने आनेको
लागू नह होता । ासो वास इ या द सू म याको लागू होता है। चय वचय = जाना आना।
२. आ माका ान जब चताम क जाता है तब नये परमाणु हण नह हो सकते; और जो होते
ह, वे चले जाते ह, इससे शरीरका वज़न घट जाता है ।
३. ी आचारांगसू के पहले श प र ा अ ययनम और ी षड् दशनसमु चयम मनु य और
वन प तके धमक तुलना कर वन प तम आ माका अ त व स कर बताया है, वह इस तरह क दोन
उ प होते ह, बढ़ते ह, आहार लेते ह, परमाणु लेते ह, छोड़ते ह, मरते ह इ या द ।
. २८ . . . मोरबी, ावण सुद , ३, र व, १९५६
१. साधु = सामा यतः गृहवासका यागी, मूलगुण का धारक । य त = ानम थर होकर े ण
शु करनेवाला । मु न = जसे अव ध, मनःपयाय ान हो तथा केवल ान हो । ऋ ष = ब त ऋ धारी ।
ऋ षके चार भेद-(१) राज०, (२) ०, (३) दे व० (४) परमः राज ष = ऋ वाला, ष = अ ीण
महान ऋ वाला, दे व ष = आकाशगामी मु नदे व, परम ष = केवल ानी..
. १. अभ जीव अथात् जो जीव उ कट रससे प रणमन करे और उससे कम बाँधा करे, और इस
कारण उसका मो न हो। भ अथात् जस जीवका वीय शांतरससे प रणमन करे और उससे नया
कमबंध न होनेसे मो हो। जस जीवक वृ उ कट रससे प रणमन करती हो उसका वीय उसके
अनुसार प रणमन करता है। इस लये ानीके ानम अभ तीत ए । आ माक परमशांत दशासे 'मो '
और उ कट दशासे 'अमो ' । ानीने के वभावक अपे ासे भ , अभ कहे ह । जीवका वीय
उ कट रससे प रणमन करनेसे स पयाय ा त नह हो सकता, ऐसा ानीने कहा है । भजना = अंशसे;
हो या न हो। वंचक = (मन,वचन और कायासे) ठगनेवाला।

७९९
अथ-कम अथात पु ल के साथं जीवका जो संबंध होना है वह बंध है, उसका वयोग
होना मो है। संमं अ छ तरहसे संबंध होना, यथाथतासे संबंध होना; जैस-
े तैसे क पना करके संबंध

ो े े ो
होनेका मान लेना सो नह ।
२. दे श और कृ तबंध मन-वचन-कायाके योगसे होता है। थ त और अनुभागबंध कषायसे
होता है।
३. वपाक अथात् अनुभाग ारा फलप रप वता होना । सब कम का मूल अनुभाग है, उसम जैसा
ती , ती तर, मंद, मंदतर रस पड़ा है वैसा उदयम आता है। उसम अंतर या भूल नह होती । कु हया-
म पैसा, पया, मुहर आ द रखनेका ांत-जैसे कसी कु हयाम ब त समय पहले पैसा, पया, और
मुहर डाल रखे ह ; उ ह जस समय नकाल तो वे उसी जगह उसी धातु पसे नकलते ह, उसम
जगहम और उनक थ तम प रवतन नह होता अथात् पैसा पया नह हो जाता, और पया पैसा
नह हो जाता; उसी तरह बाँधा आ कम , े , काल और भावके अनुसार उदयम आता है ।
. ४. आ माके अ त वम जसे शंका होती है उसे 'चावाक' कहा जाता है ।
५. तेरहव गुण थानकम तीथकर आ दको एक समयका बंध होता है। मु यतः कदा चत् यारहव
गुण थानकम अकषायीको भी एक समयका बंध हो सकता है।
६. पवन पानीक नमलताका भंग नह कर सकता; पर तु उसे चलायमान कर सकता है। उसी
तरह आ माके ानम कुछ नमलता कम नह होती, पर तु योगको चलायमानता है, इस लये रसके वना
एक समयका बंध. कहा है। .
..... ७. य प कषायका रस पु य तथा पाप प है तो भी उसका वभाव कड़वा है।
८. पु य भी खारापनमसे होता है । पु यका चौठा णया रस नह है, य क एकांत साताका उदय
नह है । कषायके दो भेद-(१) श तराग और (२) अ श तराग । कषायके वना बंध नह होता।
. . : ९. आत यानका समावेश मु यतः कषायम हो सकता है, मादका चा र मोहम और योगका
नामकमम समावेश हो सकता है ।
१०. वण पवनक लहरके समान है। वह आता है और चला जाता है।
११. मनन करनेसे छाप पड़ती है, और न द यासन करनेसे हण होता है।
१२. अ धक वण करनेसे मननश मंद होती ई दे खनेम आती है।
१३. ाकृतज य अथात् लौ कक वा य, ानीका वा य नह ।
१४. आ मा येक समय उपयोगस हत होनेपर भो अवकाशक कमी अथवा कामके बोझके कारण
उसे आ मासंबंधी वचार करनेका समय नह मल सकता य कहना ाकृतज य 'लौ कक' वचन है। य द
खाने, पीने, सोने इ या दका समय मला और काम कया वह भी आ माके उपयोगके बना नह आ:
तो फर खास जस सुखक आव यकता है, और जो मनु य ज मका कत है उसके लये समय नह
मला, इस वचनको ानी कभी भी स चा नह मान सकते। इसका अथ इतना ही है क सरे इं य
आ द सुखके काम तो ज री लगे ह. और उसके बना ःखी होनेके उरको क पना है।

८००
ीमद् राजच .
आ मक सुखके वचारका काम कये बना अनंतकाल ःख भोगना पड़ेगा और अनंत संसार मण
करना पड़ेगा, यह बात ज री नह लगती। मतलब यह क इस चैत यने कृ म मान रखा है, स चा
नह माना।
. १५. स य पु ष, अ नवाय उदयके कारण लोक वहार नद षता एवं ल जाशीलतासे करते
ह। वृ करनी चा हये, उससे शुभाशुभ जैसा होना होगा, वैसा होगा ऐसी ढ़ मा यताके साथ वे
ऊपर-ऊपरसे वृ करते ह।
. १६. सरे पदाथ पर उपयोग द तो आ माक श का आ वभाव होता है, तो स , ल ध आ द
शंका पद नह ह । वे ा त नह होती इसका कारण यह है क आ मा नरावरण नह कया जा सकता।
ये सब श याँ स ची ह। चैत यम चम कार चा हये, उसका शु रस गट होना चा हये । ऐसी स -
वाले पु ष असाताक साता कर सकते ह, फर भी वे उसक अपे ा नह करते। वे वेदन करने म ही
नजरा समझते ह। .
१७. आप जीव म उ लासमान वीय या पु षाथ नह है। जहाँ वीय मंद पड़ा वहाँ उपाय नह है।
१८. जब असाताका उदय न हो तब काम कर लेना, ऐसा ानीपु ष ने जीवका असाम य दे खकर
कहा है, क जससे उसका उदय आनेपर च लत न हो।
१९. स य पु षको जहाजके क तानक तरह पवन व होनेसे जहाजको मोड़कर रा ता
बदलना पड़ता है। उससे वे ऐसा समझते ह क वयं हण कया आ रा ता स चा नह है, उसी तरह
ानीपु ष उदय- वशेषके कारण वहारम भी अ तरा म नह चूकते। "
२०. उपा धम उपा ध रखनी । समा धम समा ध रखनी । अं ेज क तरह कामके व 'काम और
आरामके व आराम । एक सरेका म ण नह कर दे ना चा हये। ... ... . ..
___२१. वहारम आ मकत करते रह। सुख ःख, धनक ा त-अ ा त, यह शुभाशुभ तथा
लाभांतरायके उदयपर आधार रखता है । शुभके उदयके साथ पहलेसे अ भके उदयक पु तक पढ़ हो तो
शोक नह होता । शुभके उदयके समय श ु म हो जाता है, और अशुभके उदयके.समय म श ु हो
जाता है । सुख ःखका असली कारण कम ही है। का तकेयानु े ाम कहा है क कोई मनु य कज लेने
आये तो उसे कज चुका दे नेसे सरका बोझ कम हो. जानेसे कैसा हष होता है ? उसी तरह पु ल- प
शुभाशुभ कज जस कालम उदयम आये उस कालम उसका स यक कारम वेदन कर चुका दे नेसे नजरा
होती है और नया कज नह होता। इस लये ानीपु षको कम पी कजमसे मु होनेके लये हष-
व लतासे तैयार रहना चा हये; य क उसे दये बना छु टकारा होनेवाला नह है । .

े औ े े ो ी
२२. सुख ःख जस , े , काल और भावसे उदयम आनेवाला हो उसम इं आ द भी प र-
वतन करनेके लये श मान नह ह। : .
२३. चरणानुयोगम ानीने अंतमु त आ माका अ म उपयोग माना है। ........
. २४. करणानुयोगम स ांतका समावेश होता है।
. २५. चरणानुयोगम जो वहारम आचरणीय है उसका समावेश कया है। . .,
२६. सव वर त मु नको चयवतक त ा ानी दे ते ह, वह चरणानुयोगक अपे ासे, पर तु
करणानुयोगक अपे ासे नह ; य क करणानुयोगके अनुसार नौव गुण थानकम वेदोदयका य हो सकता
है, तब तक नह हो सकता। '

८०१
' येक येक पदाथका अ यंत ववेक करके इस जीवको उससे ावृ कर, ऐसा न ंथ कहते ह।
जैसे शु फ टकम अ य रंगका तभास होनेसे उसका मूल व प गत नह होता, वैसे ही
शु नमल यह चेतन अ य संयोगके तादा यवत् अ याससे अपने व पके ल यको नह पाता । य क चत्
पयायांतरसे इसी कारसे जैन, वेदांत, सां य, योग आ द कहते ह । .
१. येक येक पदाथका अ य त ववेक करके इस जीवको उससे ावृ कर।
२. जगतके जतने पदाथ ह, उनमसे च ु र यसे जो दे खे जाते ह उनका वचार करनेसे इस जीवसे वे पर ह अथवातो वे इस जीवके
नह ह, इतना ही नह अ पतु उनपर राग आ द भाव ह तो उससे वे ही ःख प स होते
है। इस लये उनसे ावृ करने के लये न ं य कहते ह।
३. जो पदाथ च ु र यसे दे खे नह जाते अथवा च र यसे जाने नह जा सकते, पर तु ाणे यसे जाने जासकते है, वे भी इस
जीवके नह है, इ या द ।
४. इन दो इ य से नह पर तु जनका बोध रस यसे हो सकता है वे पदाथ भी इस जीवके नह है, इ या द ।
५. इन तीन इं य से नह परंतु जनका ान पश यसे हो सकता है वे भी इस जीवके नह है, इ या द ।
६. इन चार इं य से नह परंतु जनका ान कण यसे हो सकता है, वे भी इस जीवके नह ह, इ या द । ।
७. इन पांच इं य स हत मनसे अथवा तो कसी एक इं यस हत मनसे या इन इं य के बना अकेले मनसे जनका
__ बोध हो सकता है ऐसे पी पदाथ भी इस जीवके नह है, परंतु उसते पर है, इ या द ।
८. उन पी पदाथ के अ त र अ पी पदाथ आकाश आ द ह, जो मनसे माने जाते है, वे भी आ मा नह हैपर तु उससे पर है,
इ या द ।

८०४
ीमद् राजच
जोवके अ त वका तो कसी कालम भी संशय ा त नह होता।
जोवको न यताका, काल-अ त वका कसी कालम भी संशय ा त नह होता।
जीवक चेतना एवं काल-अ त वम कभी भी संशय ा त नह होता।
उसे कसी भी कारसे ब धदशा है, इस बातम भी कभी भी संशय ा त नह होता।
उस बंधक नवृ कसी भी कारसे नःसंशय घ टत होती है, इस वषयम कभी भी संशय
ा त नह होता।
मो पद है इस बातका कभी भी संशय नह होता।
र आ द, तथा पवत आ द
१. इस जगतके पदाथ का वचार करनेसे वे सब नह पर तु उनमसे ज ह इस जीवने अपना माना है वे भी इस
जीवके नह ह अथवा उससे पर है, इ या द । जैसे क-
१. कुटु ब और सगे-संबंधी, म , श ु आ द मनु य-वग।
२. नौकर, चाकर, गुलाम आ द मनु य-वग ।
३. पशु-प ी आ द तयंच ।
४. नारक , दे वता आ द।
५. पाँच कारके एक य । ..
६. घर, जमीन, े आ द, गाँव, जागीर आ द, तथा पवत आ द। . .
७. नद , तालाब, कुआँ, वावड़ी, समु आ द। .
८. हरेक कारका कारखाना आ द ।
१० अव कुटु ब और सगेके सवाय ी, पु आ द जो अ त समीपके ह अथवा जो अपने से उ प ए ह वे भी।
११. इस तरह सबको वरतरफ करनेसे अंतम जो अपना शरीर कहा जाता है उसके लये वचार कया जाता है-
१. काया, वचन और मन ये तीन योग और इनक या ।
२. पांच इं य आ द। ..
३. सरके वाल से लेकर पैरके नख तकका येक अवयव जैसे क-
४. सभी थान के बाल, चम (चमड़ी), खोपड़ी, भेजा, मांस, ल , नाड़ी, ह ी, सर, कपाल, कान, आँख,
नाक, मुख, ज ा, दांत, गला, ह ठ, ठोड़ी, गरदन, छाती, पीठ, पेट, रीढ़, कमर, गुदा, चूतड़, लग,
जाँघ, घुटना, हाथ, वा , कलाई, कुहनी, टखना, चपनी, एड़ीके नीचेका भाग, नख इ या द अनेक
'अवयव अथात् वभाग ।
उपयु म से एक भी इस जीवका नह है, फर भी अपना मान बैठा है, वह सुधरनेके लये अथवा उससे
जीवको ावृ करनेके लये माय मा यताक भूल है, वह सुधारनेसे ठ क हो सकती है । वह भूल कैसे ई है ? उसका

े े ै े औ े ई ै ो ो े ै े
वचार करनेसे पता चलता है क वह भूल राग, े ष और अ ानसे ई है। तो उन राग आ दको र कर । वे कैसे
र हो ? ानसे । वह ान कस तरह ा त हो ?
- य स को अन य भ क उपासना करनेसे तया तीन योग और आ माका अपण करनेसे वह ान
ा त होता है। य द वे य स व मान हो तो या कर ? तो उनक आ ानुसार वतन कर। ..
परम क णाशील, जनके येक परमाणुसे दयाका झरना बह रहा है, ऐसे न कारण दयालुको अ य त
भ स हत नम कार करके आ माक साथ संयु ए पदाथ का वचार करते ए भी अना दकालके दे हा मबु के

८०५
.: जीवको ापकता, प रणा मता, कमस ब ता, मो े ये कस कस कारसे घ टत हो सकते है,
इसका वचार कये बना तथा प समा ध नह होती । गुणं और गुणीका भेद कस तरह समझम आना
यो य है ?
जीवक ापकता, सामा य वशेषा मकता, प रणा मता, : लोकालोक ायकता, कमस ब ता
मो े , ये पूवापर अ वरोधसे कस तरह स होते ह ? . . . . . . ..
एक ही जीव नामके पदाथको भ भ दशन, स दाय और मत भ भ व पसे कहते
ह, उसका कमसंबंध और मो भी भ भ व पसे कहते है, इस लये नणय करना कर य
नह है ?
सहज
-... जो पु ष इस थम सहज न ध करता है, उस पु षके लये थम सहज वही पु ष लखता है।
उसक अभी अ तरंगम ऐसी दशा रहती है क कुछके सवाय उसने सभी संसारी इ छा क भी
व मृ त कर डाली है।
वह कुछ पा भी चुका है, और पूणका परम मुमु ु है, अ तम मागका नःशंक ज ासू है ।
अभी जो आवरण उसके उदयम आये ह, उन आवरण स उसे खेद नह है; पर तु व तुभावम
होनेवाली म दताका खेद है।
... वह धमक व ध, अथक व ध, कामक व ध और उसके आधारसे. मो को व धको का शत
कर सकता है। इस कालम ब त ही थोड़े पु ष को ा त आ होगा, ऐसे योपशमवाला पु ष है।
उसे अपनी मृ तके लये गव नह है, तकके लये गव नह है, तथा उसके लये प पात भी नह
है; ऐसा होनेपर भी उसे कुछ बा ाचार रखना पड़ता है, उसके लये खेद है।
उसका अब एक वषयको छोड़कर सरे वषयम ठकाना नह ह। वह पु ष य प ती ण
उपयोगवाला है, तथा प उस ती ण उपयोगको सरे कसी भी वषयम लगानेके लये वह ी त नह
रखता ।
अ याससे जैसा चा हये वैसा समझम नह आता, तथा प कसी भी अंशम दे हसे आ मा भ है ऐसे अ नधा रत नणय पर आया जा सकता
है। और उसके लये वारंवार गवेषणा को जाये तो अब तक जो ती त होती है उससे वशेष पसे हो सकना स भव है; य क य य
वचार े णक ढता होती जाती है य य वशेष ती त होतीजाती है।
सभी संयोग और स ब ध का यथाश वचार करनेसे यह तो ती त होती है क दे हते भ ऐसा कोईपदाथ है।ऐसे वचार करनेके लये
एकांत आ द जो साधन चा हये वे ा त न करनेसे वचार- ेणीको कसी न कसी कारसे वारंवार ाघात होता है और उससे चलती ई
वचारथेगी टू ट जाती है। ऐसी टू ट -फूट वचारणी होते ए भी योपशमके अनुसार वचार करते ए जड-पदाथ (शरीर आ द) के सवाय
उसके संबंध कोई भी व त है.
अव य है ऐसी ता त हो जाती है। आवरणके बलते अथवा तो अना दकालके दे हा मबु क अ याससे यह नणय भुला दया जाता है,
और भूलवाले रा तेपर गमन हो जाता है ।

८०६
. . एक बार वह वभुवनम बैठा था । जगतम कौन सुखी है, उसे जरा दे ख तो सही, फर म अपने
लये वचार क ँ गा। उसक इस अ भलाषाको पूण करनेके लये अथवा वयं उस सं हालयको दे खनेके
लये ब तसे पु ष (आ मा) और ब तसे पदाथ उसके पास आये ।
'इसम कोई जड़ पदाथ न था।' '
'कोई अकेला आ मा दे खनेम नह आया।'
मा कतने ही दे हधारी थे, जो मेरी नवृ के लये आये ह ऐसी उस पु षको शंका ई ।
वायु, अ न, पानी और भू म इनमसे कोई य नह आया ?
(नेप य) वे सुखका वचार भी नह कर सकते । वे वचारे ःखसे पराधीन ह।
दो इं य जीव य नह आये ?
. (नेप य) उनके लये भी यही कारण है। इस च ुसे दे खये। उन वचार को कतना अ धक
ःख है ?
उनका क प, उनक थरथराहट, पराधीनता इ या द दे खे नह जा सकते । वे ब त ःखी थे।
सं मरण-पोथी १, पृ १०]
(नेप य) इसी च से अब आप सारा जगत दे ख ल। फर सरी बात कर।
अ छ बात है। दशन आ, आन द पाया; पर तु फर खेद उ प आ। .
(नेप य) अव खेद य करते ह ? '
मुझे दशन आ या वह स यक् था ?
"हाँ" .

ो ो ी ी े े
— स यक् हो तो फर च वत आ द ःखी य दखायी दे ते ह ? ' ' ...
'जो ःखी हो वे ःखी, और जो सुखी हो वे सुखी दखायी दगे।'
च वत तो ःखी नह होगा ? ','
'जैसा दशन आ वैसी ा कर। वशेष दे खना हो तो चल मेरे साथ।' .
च वत के अंतःकरण म वेश कया।
. . . . अंतःकरण दे खकर मने यह माना क वह दशन स यक् था। उसका अंत.करण ब त ःखी था।
अनंत भयके पयाय से वह थरथराता था। काल आयुक र सोको नगल रहा था । ह ी-मांसम उसक
वृ थी। कंकर म उसक ी त थी। ोध, मानका वह उपासक था । ब त ःख-
सं मरण-पोथी १, पृ ११]
.. .अ छा, या यह दे व का दशन भी स यक् समझना ? .' न य करनेके लये इ के अंतःकरणम वेशकर।' ..चले अव-
(उस इ को भ तासे म धोखा खा गया) वह भी परम ःखी था। वचारा युत होकर
कसी बीभ स थलम ज म लेनेवाला था, इस लये खेद कर रहा था। उसम स य नामक दे वी वसी
थी। वह उसके लये खेदम व ां त थी । इस महा ःखके सवाय उसके और अनेक अ ःख थे परंतु, (नेप य)-ये जड़ अकेले या
आ मा अकेले जगतम नह ह या? उ ह ने मेरे आमं णका
स मान नह कया।
'जड़ को ान न होनेसे आपका आमं ण वे बचारे कहाँसे वीकार करते ? स (एका मभावी)
आपका आमं ण वीकार नह कर सकते। उ ह इसक कुछ परवाह नह है।' .

८०७
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरण पोयो १
- · इतनी अ धक बेपरवाही ? आमं ण तो मा य करना ही चा हये आप या कहते ह ?
इ ह आमं ण-अनामं णसे कोई संबंध नह है।
वे प रपूण व पसुखम वराजमान ह।'
.. . : यह मुझे बताय । एकदम-ब त ज द से।।
'उनका दशन तो ब त लभ है। ली जये, यह अंजन ऑजकर. दशन. वेश साथम कर दे ख।
अहो ! ये ब त सुखी ह। इ ह भय भी नह है। शोक भी नह है। हा य भी नह है । वृ ता
नह है। रोग नह है। आ ध भी नह है, ा ध भी नह है, उपा ध. भी नह है, यह सब कुछ नह है।
परंत"
ु :""अनंत-अनंत स चदानंद स से वे पूण ह। हम ऐसा होना है।' मसे आजासकेगा।. यह म-बम यहाँ नह चलेगा । यहाँ तो
तुर त वही पद चा हये। ...... .
....: 'जरा शांत हो; समता रख, और मको अंगीकार कर। नह तो उस पदसे यु होना स भव
नह ।'
.:.; "होता संभव नह " : इस अपने वचनको आप-- वापस ल। म वरासे; बताय; और उस पदम
तुर त भेज।
ब तसे मनु य आये ह। उ ह यहाँ बुलाय। उनमसे आपको म मल सकेगा।
.......आप मेरा आमं ण वीकार कर चले आये इसके लये आपका उपकार मानता है। आप सुखी
ह, यह बात सच है या ? आपका पद या सुखवाला माना जाता है ऐसा ?
एक वृ पु षने कहा-'आपका आमं ण वीकार करना या न करना ऐसा हम कुछ बंधन नह
है। हम सुखी ह या ःखी, यह बताने के लये भी हमारा यहाँ आगमन नह है। अपने पदक ा या
करनेके लये भी आगमन नह है । आपके क याणके लये हमारा आगमन है।'
कृपा करके शो क हये क आप मेरा या क याण करगे? और आये ए पु प क पहचान
कराइये।
. . उ ह ने पहले प रचय कराया-
इस वग म ४-५-६-७-८९-१०-१२ नंबरवाले मु यतः मनु य ह । ये सब उसी पदके आराधक योगी
ह क जस पदको आपने य माना है।
..... .. [सं मरण-पोथी १, पृ १४]
नं. ४ से वह पद ही सुख प है, और बाक क जगत- व था जैसे हम मानते ह, वैसे वे मानते
ह । उस पदके लये उनक हा दक अ भलाषा है परंतु वे य न नह कर सकते, य क कुछ समय तक
उ ह अंतराय है।
अंतराय या ? करनेके लये त पर ए क बस वह हो गया।
वृ -आप ज द न कर। इसका समाधान अभी आपको मल सकेगा, मल जायेगा।
ठोक, आपक इस बातसे म स मत होता ँ।
वृ -यह '५' नंबरवाला कुछ य न भी करता है। बाक सब बात म नंबर '४' क तरह है।
नंबर '६' सब कारसे य न करता है। परंतु म दशासे य नम मंदता आ जाती है।
नंवर '७' सवथा अ म - यलवान है।

८०९
' ''नाना कारके नये, नाना कारके माण, नाना कारके भंगजाल, नाना कारके अनुयोग, ये
सब ल ण प ह । ल य एक स चदानंद है। .
वष र हो जानेके बाद कोई भी शा , कोई भी अ र, कोई भी कथन, कोई भी वचन

औ ोई ी ो
और कोई भी थल ायः अ हतका कारण नह होता।
.. पुनज म है, ज र है, इसके लये म अनुभवसे हाँ कहनेम अचल ।ँ
इस काल म मेरा ज म माने तो ःखदायक है, और मानूं तो सुखदायक भी है।
.. (सं मरण-पोयी १, पृ २६]
. अब ऐसा कोई पढ़ना नह रहा क जसे पढ़ दे ख। हम जो है उसे ा त करे, यह जसके संगम
रहा है उस संगक इस कालम यूनता हो गयी है। . .

८१०
वकराल काल ! .." वकराल कम ! ... वकराल आ मा !...जैस. े .."परंतु ऐसे...... ..
अव यान रख । यही क याण है। ..
[सं मरण-पोथी १, पृ .२७]
इतना ही खोजा जाये तो सब मल जायेगा; अव य इसम ही है। मुझे न त अनुभव है । स य
कहता | ँ यथाथ कहता ँ । नःशंक मान | .::
इस व पके लये सहज सहज कसी थलपर लख मारा है।
*मारग साचा मल गया, छू ट गये संदेह।
होता सो तो जल गया, ' भ कया नज दे ह
समज, पठे सब सरल है, बन समज. मुशक ल। .............
ये मुशक ली या क ँ ?.
खोज पड ांडका, प ा तो लग: लाय।:: .....
ये ह ां ड वासना, जब जावे तब ॥: ....:.
आप आपकं भूल गया, इनसे या अंधेर ? . . .
समर समर अब हसत ह, 'न ह भूलगे फेर ।
जहाँ कलपना-जलपना, तहां मान ःख छांई।
मटे कलपना-जलपना, तब व तू तनः पाई॥ "....
हे जीव ! या इ छत हवे ? है इ छा ःखमूल ।
* जब इ छाका नाश तब, मटे अना द भूल ॥.........
भावाथ-मो का स चा माग ा त आ, जससे सभी स दे ह, र हो गये। म या वसे जो कमबंध आ
करता था वह जलकर न हो गया और चैत य व प आ मा कमसे भ तीत आ।
आ म व पका बोध हो जानेके बाद सब कुछ सरल हो जाता है अथात् आ म स का माग और आ म स
दोन एकदम प एवं सरल हो जाते ह। जब तक यथाथ वोध नह होता तब तक माग ा त क ठन है । इसक ठनताक बात या क ँ.
?
- अपने पड-शरीरम परमा माक खोज कर अथात् आ त रक खोजसे आ म व पका अनुभव होगा और उस.
अनुभवके बढ़नेसे केवल ानमय दशा ा त होगी जससे ांड-सम त व का पता चल जायेगा। यह सब तभी हो
सकता है क जब ांडी-वासना-जगतक माया र हो जाये।
___ अहो ! यह जीव अपने आपको भूल गया है, इससे बढ़कर और या अंधेर होगा ? इस आ म ां त कवा
आ म व मृ तक समझ आनेसे उसे हँसी आती है और वैसी भूल फर न करनेका न य करता है,।...
जब तक क पना और ज पना है अथात् मन और वचनक दौड़ चलती है तब तक ःख मानता ँ। जसक
क पना-ज पना मट जाती है उसे व तुको ा त होती है । ता पय क आ म- ा तके लये. मनको थरता और
वाणीका संयम अ नवाय
हे जीव ! अब तू कसक इ छा करता है ? इ छा मा ःखका मूल ह। जब इ छाका नाश होगा तब
आ म ां त प अना दक भूल र होकर व प ा त होगी।
. .. .१. मूल सं मरण-पोथीम ये चरण नह है, पर तु ीमदने वयं ही बादम पू त क है।
२. पाठा तर-'दया इ टत ? खोवत सवे।'

८११
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरण पोथी १
. ऐसी कहाँसे म त भई; आप आप है ना ह।
: आपनकं जब भूल गये, अवर' कहांसे लाई॥
आप आप ए शोधस, आप आप मल जाय।
. एक बार वह वभुवनम बैठा था। " काश था;-मंदता थी।
मं ीने आंकर उसे कहा, आप कस वचारके लये प र म उठा रहे ह. ? वह यो य हो तो इस
द नको बताकर उपकृत कर
आसवा प रसवा न दइनम संदेह
मा को भूल है, भूल गये गत ए ह ॥
रचना जन उपदे शको, परमो म तनु काल।
:: ...: . इनम सब मत रहत ह, करते नज संभाल॥
जन सो ही है आतमा, अ य होई सो कम। .
कम कटे सो जन वचन, त व ानीको मम।
जब जा यो नज पको, तब जा यो सब लोक।
. ..... ..'न ह जा यो .. नज पको, सब जा यो सो फोक ॥
ो ै
ए ह दशाको मूढ़ता, है न ह जन भाव।.
जनस भाव बनु कबू, न ह छू टत ःखदाव ॥ ..
हे जीव ! तुझे अपने आपको भूल जानेक बु कहाँसे आयो ? अपने आपको तो भूल गया पर तु दे ह आ द
अ यको अपना मानना कहाँसे ले आया ?
:: ... तुझे आ मभान एवं आ म ा त तव होगी जब तू आ म न ा तथा आ म ासे अपने आपक खोज करेगा।
अथात् जब ब हमुखतांक माया छोड़कर अंतमुखता अपनायेगा तब.आ म- मलनसे कृतकृ य हो जायेगा। .
" भावाथ-अंतमुखी ानीके लये आ व भी संवर प तथा नजरा प होते ह यह नःस दे ह स य है । आ मा
व हमुख- से दे ह गेह आ दको अपना मान रहा है, यही भूल है । अंतमुख होनेसे यह भूलं र होती है, फर कोका
आ व और बंध र होकर संवर तथा नजरा करके मु ानमयदशा ा त कर जीव कृताथ हो जाता है।
जने रके उपदे शक रचना तीन कालम परमो म है। छह दशन अथवा सभी धम-मत अपनी अपनी संभाल
करते ए वीतरागदशनम समा जाते ह, य क वह एकांतवाद न होकर अनेका तवाद है। ...
. . . जन ही आ मा है, कम आ मासे भ है और जनवचन कमका : नाशक है, यह ममं त व ा नय ने
बताया है।
: य द नज व पको जान लया तो सब लोकको जान लया, और य द आ म व पको नह जाना तो सब
जाना आ थ है, अथात् आ म ानके वना सरा सब ान नरथक है।
.: दशामूढ़ जीवक यही मूखता है क उसे संसारफे पदाथ से ी त है, पर तु जन भगवान से ेम नही है।
वीतरागसे ेम कये वना संसारका ःख कभी र नह होता। ६. पाठांतर-हान यूनसे यूनता,

८१९
... वेष और उस वैषसंबंधी वहार दे खकर लोक वैसा माने यह सच है, और न ंथभावम
ता आ च उस वहारम यथाथ वृ न कर सके यह भी स य है, जसके लये इन दो कारक
थ तसे वृ नह क जा सकती, य क थम कारसे वृ करते ए न ंथभावसे उदास
ना पड़े तो ही यथाथ वहारको र ा हो सकती है, और न ंथभावसे रह तो फर वह वहार चाहे
II हो उसक उपे ा करना यो य है । य द उपे ा न क जाये तो न थभावक हा न ए वना
मोरहेगी. ..
उस वहारका याग कये बना अथवा अ य त अ प कये बना न थता. यथाथ नह रहती,
र उदय प होनेसे वहारका याग नह कया जाता :: :: :: :: ....
.... ये सव वभाव-योग र ए बना हमारा च सरे कसीः उपायसे संतोष ा त करे, ऐसा
ही लगता:| :... , . . . . . . .:::.:. :......... .. .. .......
वह वभावयोग दो कारका है-एक पूव म न प कया आ उदय व प, और सरा आ म-
से रागस हत कया जानेवाला भाव व प ।
.... आ मभावसे वभावस ब धी योगक उपे ा हो ेयभूत लगती है। न य उसका वचार कया
ता है, उस वभाव पसे रहनेवाले आ मभावको ब त प र ीण कया है, और अभी भी वही प रण त
हती है।
..उस,संपूण वभावयोगको नवृ कये बना च व ां तको ा त हो ऐसा नह लगता, और
अभी तो उस कारणसे वशेष लेशका वेदन करना पड़ता है। य क. उदय वभाव याका है और इ छा
आ मभावम थ त करनेक है।
फर भी ऐसा रहता है क य द उदयको वशेषकाल तक, वृ रहे. तो आ मभाव वशेष चंचल
प रणामको ा त होगा, य क आ मभावके वशेष संधान करनेका अवकाश उदयक व के कारण
ा त नह हो सकेगा, और इस लये वह आ मभाव कुछ भी अजागृताव थाको ा त हो जायेगा।
-. " . जो आ मभाव उ प आ है, उस आ मभावपर य द वशेष यान दया जाये तो अ प कालम
उसक वशेष वृ हो, और वशेष जागृताव था उ प ह , और थोड़े समयम हतकारी उ आ मदशा
गट हो, और य द उदयक थ तके अनुसार उदयका काल रहने दे नेका वचार कया जाये तो अव
आ म श थलता होनेका संग आयेगा, ऐसा लगता है; य क द घकालका आ मभाव होनेसे अब तक
चाहे जैसा उदयबल होनेपर भी वह आ मभाव न नह आ, तो भी कुछ कुछ उसको अजागताव था होने
दे नेका व आया है; ऐसा होनेपर भी अब केवल उदयपर यान दया जायेगा तो श थलभाव उ प
होगा।
- ानीपु ष उदयवंश दे हा द धमक नवृ करते ह। इस तरह वृ क हो तो आ मभाव न
नह होना चा हये; इस लये इस बातको यानम रखकर उदयका वेदन करना यो य है. ऐसा वचार भी
अभी यो य नह है, य क ानके तारत यको अपे ा उदयवल बढ़ता आ दे खने म आये तो ज र वहाँ
ानीको भी जागृतदशा. करना यो य है, ऐसा ी सव ने कहा है।
अ यंत षमकाल है इस कारण और हतपु य लोग ने भरत े को घेरा हे इस कारण, परम स संग,
स संग या सरलप रणामी जीव का समागम भी लभ है, ऐसा समझकर जैसे अ प कालम सावधान हआ

८२०
..: ीमद् राजच ..
. ..३९ . . . . . . [सं मरण-पोथी १; पृ ९३]
.. मौनदशा धारण करनी ?
... . वहारका उदय ऐसा है क वह धारण क ई. दशा लोग के लये कषायका न म हो, और
ो े
वहारक वृ न हो सके। ...... . .. ..., . . . . . . . . ... .. . .
. :: .. तब या उस वहारको नवृ करना ? :: :...
यह भी वचार करनेसे होना क ठन लगता है, य क वैसी कुछ थ तका वेदन करनेका च
रहा करता है। फर चाहे वह श थलतासे, उदयसे या परे छासे या सव होनेसे हो । ऐसा होनेपर भी
अ पकालम इस वहारको सं ेप करनेका. च है। . ... .........
इस वहारका सं ेप कस कारसे कया जा सकेगा ?
.. य क उसका व तार वशेष पसे दे खनेम आता है। ापार पसे, कुटुं ब तबंधसे, युवाव था-
तबंधसे, दया व पसे, वकार व पसे, उदय व पसे, इ या द कारण से वह वहार व तार पसे
दखाई दे ता है।
....... [सं मरण-पोथी १, पृ ९४]
.: म ऐसा जानता ँ क अन तकालसे अ ा तवत् : ऐसा आ म व प केवल ान-केवलदशन व पसे
____ अंतमु तम उ प कया है, तो फर वष-छ: मासके कालंम इतना यह वहार य नवृ न हो
सके ? मा जाग तके उपयोगांतरसे उसक थ त है, और उस उपयोगके बलका न य वचार करनेसे
अ प कालम यह वहार नवृ हो सकने यो य है। तो भी इसक कस तरहसे नवृ करनी, यह
अभी वशेष पसे मुझे वचार करना यो य है ऐसा मानता ँ, य क वीयम कुछ भी मंद दशा रहती है।
उस मंद दशाका हेतु या है ?
उदयबलसे ा त आ प रचय मा प रचय है, यह कहनेम कोई बाधा है ? उस प रचयम वशेष
अ च रहती है। यह होनेपर भी वह प रचय करना पड़ा है। यह प रचयका दोष नह कहा जा सकता, ,
पर तु नज दोष कहा जा सकता है | अ च होनेसे इ छा प दोष नं कहकर उदय प दोष कहा है। '.
... [सं मरण-पोथी १, पृ ९६]
वहत वचार करनेसे नीचेका समाधान होता है।
.. एकांत , एकांत े , एकांत काल और एकांत. भाव प संयमका आराधन, कये बना च क
शां त नह होगी ऐसा लगता है। ऐसा न य रहता है । . ;
..वह योग अभी कुछ र होना संभव है, य क उदयबल दे खते ए उसके नवृ होनेम कुछ वशेष
समय लगेगा।
. . [सं मरण-पोथी १, पृ ९७]
माघ सुद
.ओर उतने काल म उसके बाद जीवनकाल कस तरह भोगना इसका वचार कया जायेगा।
' 'अ व अ पणो व दे ह म नायरं त ममाइयं ॥
१. भावाथ-(त व ानी) अपनी दे हम भी मम व नह करते।

८२१
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरणपोथी १
सं मरण-पोथी १, पृ १००]
काम, मान और उतावल इन तीनका वशेष संयम करना यो य है।
...: [सं मरण-पोथी १, पृ १०१]
हे जीव ! असारभूत लगनेवाले इस वसायसे अब नवृ हो, नवृ ! .
वह वसाय करनेम चाहे जतना बलवान ार धोदय दखायी दे ता हो तो भी उससे नव हो,
४४
वृ !
य प ी सव ने ऐसा कहा है क चौदहव गुण थानकम रहनेवाला जीव भी ार धका वेदन
े बना मु नह हो सकता, तो भी तू उस उदयका आ य प होनेसे नज दोष जानकर उसका
यंत ती तासे वचार करके उससे नवृ हो, नवृ ! : : : ; .
केवल मा ार ध हो और अ य कमदशा न रहती हो तो वह ार ध सहज ही नवृ हो जाता
- ऐसा परम पु षने वीकार कया है, परंतु वह केवल ार ध तब कहा जा सकता है क जब ाणांत-
यंत न ाभेद न हो, और तुझे सभी संग म ऐसा होता है, ऐसा जब तक स पूण न य न हो .
ब तक ेय कर यह है क उसम यागबु रखनी, इस बातका वचार करके हे जीव ! अब तु अ प- .
कालम नवृ हो, नवृ !
[सं मरण-पोथी १, पृ १०२]
हे जीव ! अब त संग नवृ प कालक त ा कर, त ा कर! ::
सव-संग नव प त ाका वशेष अवकाश दे खनेम न आये तो अंश-संग नवृ प इस व-
सायका याग कर !
जस ानदशाम यागा याग कुछ संभव नह है उस ानदशाक जसम स है ऐसा त सवसंग-
यागदशाका अ पकालम वेदन करेगा तो संपूण जगतके संगम रहे तो भी तुझे बाध प नह होगा।
इस कारं वतन करनेपर भी नवृ को ही सव ने श त कहा है, य क ऋषभ आ द सव परम
पु ष ने अ तम ऐसा ही कया है।
[सं मरण-पोथी १, पृ १०३]
सं० १९५१ के वैशाख सुद ५ सोमके सायंकालसे या यान ।
सं० १९५१ के वैशाख सुद १४ मंगलसे ।
: सं मरण-पोथी १, पृ १०५]

ो े ो े े
ायोपश मक ानके वकल होनेम या दे र
"जेम नमळता रे रल फ टक तणी, .
तेम ज जीव वभाव । ।
ते जन वोरे रे धम का शयो,
बळ कषाय अभाव रे॥".
४७
१. अथके लये दे ख भांक ५८४

८२४
ीमद राजच . . ...
[सं मरण-पोथी १, पृ ११८)
तीन काल म जो व तु जा यंतर न हो उसे ी जन कहते ह।
कोई भी पर-प रणामसे प रणमन नह करता । व वका याग नह कर सकता।
येक ( - े -काल-भावसे) वप रणामी है। :: ... :
नयत अना द मयादा पसे रहता है।
जो चेतन है वह कभी अचेतन नह होता; जो अचेतन है वह कभी चेतन नह होता।
५७ .
[सं मरण-पोथी १, पृ १२०]
हे योग!
. . . [सं मरण-पोथी १, पृ १२१]
एक चैत यम यह सब कस तरह घ टत होता है ? ..
. ... [सं मरण-पोथी १, पृ १२२]
य द इस जीवने वे वभावप रणाम ीण न कये तो इसी भवम वह य ःखका वेदन करेगा।
[सं मरण-पोथी १, पृ १२४]
जस जस कारसे आ माका चतन कया हो उस उस कारसे वह तभा सत होता है ।
वषया तासे जस जीवक वचारश मूढ हो गयी है उसे आ माक न यता भा सत नह होती,
ऐसा ायः दखायी दे ता है, वैसा होता है, यह यथाथ है; य क अ न य वषयम आ मबु होनेसे अपनी
भी अ न यता भा सत होती ह।'
वचारवानको आ मा वचारवान लगता है। शू य पसे च तन करनेवालेको आ मा शु य लगता
है, अ न य पसे चतन करनेवालेको आ मा अ न य लगता है, न य पसे च तन करनेवालेको आ मा
न य लगता है।
चेतनक उ प के कुछ भी संयोग दखायी नह दे ते, इस लये चेतन अनु प है। उस चेतनके
वन होनेका कोई अनुभव नह होता, इस लये अ वनाशी है- न य अनुभव व प होनेसे न य है।
समय समयम प रणामांतरको ा त होनेसे अ न य है। ... .... .
व व पका याग करनेके अयो य होनेसे मूल है।
६१
[सं मरण-पोथी १, पृ १२६]
सवको अपे ा वीतरागके वचनको संपूण ती तका थान कहना यो य है, य क जहाँ राग आ द
दोष का संपूण य होता है वहाँ संपूण ान वभाव गट होना यो य है ऐसा नयम है।
ी जने म सबक अपे ा उ कृ वीतरागता होना संभव है, य क उनके वचन य माण
ह। जस कसी पु षम जतने अंशम वीतरागताका संभव है उतने अंशम उस पु षका वा य मानने यो य है।
सां य आ द दशन म बंध एवं मो को जो जो ा याएं बतायी ह उन सबसे बलवान माण-
स ा या ी जन वीतरागने कही है, ऐसा जानता ँ।
शंका- जन जन ने ै तका न पण कया है, आ माको खंड वत् कहा है, कताभो ा कहा
है, और न वक प समा धके अंतरायम मु य कारण हो ऐसी पदाथक ा या क है; उन जन क
श ा वल माण स है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? केवल अ ै त-और-
[सं मरण-पोथी १, पृ १२७]

८२५
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरणपोयो १
.. सहजम न वक प समा धके कारणभूत वेदांत आ द मागक , उसक अपे ा अव य वशेष माण-
ता संभव है। ...
... उ र-एक बार जैसे आप कहते ह वैसे य द मान भी ल, परंतु सव दशनक श ाक अपे ा
न क थत बंध-मो के. व पक श ा जतनी अ वकल तभा सत होती है उतनी सरे दशन क
तभा सत नह होती । और जो अ वकल श ा है वही माण स है। ..
शंका-य द आप ऐसा मानते ह तो कसी तरह नणयका समय नह आ सकता; य क सब
शंन म, जस जस दशनम जसक थ त है उस उस दशनके लये वह अ वकलता मानता है।
5. उ र-य द ऐसा हो तो उससे अ वकलता स नह होती; जसक माणसे अ वकलता हो वही
वकल स होता है। . . . . . .

े ो े े औ
..... - जस माणसे आप जन क श ाको अ वकल मानते ह उसे आप कह, और जस तरह
दांत आ दको वकलता आपको संभ वत लगती है, उसे भी कह।. . .
[सं मरण-पोथी १, पृ १३०]
अनेक कारके ःख तथा ःखी ाणी य दखायी दे ते ह, तथा जगतक व च रचना दे खने-
म आती है, यह सब होनेका या हेतु है ? तथा उस ःखका मूल व प या है ? और उसक नवृ
कस कारसे हो सकती है ? तथा जगतक व च रचनाका आंत रक व प या है ? इ या द कारम
जसे वचारदशा उ प ई है ऐसे मुमु ु पु षने, पूव पु ष ने उपयु वचार संबंधी जो कुछ समाधान
कया था, अथवा माना था, उस वचारके समाधानके त भी यथाश आलोचना क । वह आलोचना
करते ए व वध कारके मतमतांतर तथा अ भ ायसंबंधी यथाश वशेष वचार कया, तथा नाना
कारके रामानुज आ द स दाय का वचार कया; तथा वेदांत आ द दशनका वचार कया। उस
आलोचनाम अनेक कारसे उस दशनके व पका मंथन कया, और संग संगपर मंथनक यो यताको
ा त ए जैनदशनके संबंधम अनेक कारसे जो मंथन आ, उस मंथनसे उस दशनके स होनेके लये,
जो पूवापर वरोध जैसे मालूम होते ह ऐसे न न ल खत कारण दखायी दये ।
[सं मरण-पोथी १, पृ १३२]
धमा तकाय, अधमा तकाय तथा आकाशा तकाय अ पी होनेपर भी पी पदाथको साम य
दे ते ह, और ये तीन वभावप रणामी कहे ह, तो ये अ पी होनेपर पीको कैसे सहायक हो सकते ह ?
... धमा तकाय और अधमा तकाय एक े ावगाही ह, और उनका वभाव पर पर व है, फर
भी उनम, ग त ा त व तुके त थ त-सहायकता पसे और थ त ा त व तुके त ग तसहायकता-
पसे वरोध कस लये न आये ?
" - धमा तकाय, अधमा तकाय और एक आ मा ये तीन समान असं यात दे शी ह, इसका कोई
सरा रह याथ है ?
धमा तकाय, अधमा तकायक अवगाहना अमुक अमूताकारसे है, ऐसा होने म कोई रह याथ है ?
लोकसं थानके सदै व एक व पसे रहने म कोई रह याथ है ?
एक तारा भी घट-बढ़ नह होता, ऐसी अना द- थ त कस हेतुसे मानना ?
शा तताक ा या या ? आ मा या परमाणुको शा त माननेम कदा चत् मूल व कारण
है; पर तु तारा, चं , वमान आ दम वैसा या कारण है ?

८२६
" स आ मा लोकालोक काशक है, पर तु लोकालोक ापक नह है, ापक तो वावगाहना-
माण है । जस मनु य-दे हसे स को ा त क उसका तीसरा भाग कम वह दे श घन है। अथात् आ म-
लोकालोक ापक नह पर तु लोकालोक काशक अथात् लोकालोक ायक है। आ मा. लोकालोकम
नह जाता, और लोकालोक कुछ : आ माम नह आता, सब अपनी-अपनी..अवगाहनाम वस ामः थत
ह, फर भी आ माको उसका ानदशन कस तरह होता है ? . .. .. . ..
यहाँ य द यह ांत दया जाये क जैसे दपणम, व तु त ब बत होती है वैसे ही आ माम भी
लोकालोक का शत होता है, त न बत होता है, तो यह समाधान भी. अ वरोधी' दखायी नह दे ता,
य क दपणम तो वसाप रणामी पु लर मसे व तु त ब बत होती है। ... ........
", आ माका अगु लघु धम है, उस धमको दे खते हए आ मा सब पदाथ को जानता है; य क सब
म अगु लघु गुण समान है, ऐसा कहा जाता है, वहाँ अगु लघुधमका अथ या समझना ? ....."
६५,
सं मरण-पोथी १, प १३६]
__ आहारक जय,
आसनक जय, . . . . . . .
न ाक .जय, . . . . . . . . . . . ."
वा सयम, ...... ... ... ... .. .. .
जनोप द आ म यान। .. . , ....... .. .
जनोप द आ म यान कस तरह ? . ................... ..।
___ ान माण यान हो सकता है, इस लये ान-तारत यता चा हये। ::...:......
. या वचार करनेसे, या माननेस, े या दशा होनेसे चौथा गुण थानक कहा जाये ?.. . ,
.. कससे चौथे गुण थानकसे तेरहव गुण थानकम आये ? :: :...... ....
: : सं मरण-पोथी १, पृ १४८]
.. वतमानकालक तरह यह जगत सवकाल है।
. : वह पूवकालम न हो तो वतमानकालम उसका अ त व भी नह हो सकता। .
. : वह वतमानकालम है. तो भ व यकालम वह अ यंत वन नह हो सकता। :: :: :: ....
पदाथ मा प रणामी होनेसे यह जगत पयायांतर दखायी दे ता है; पर तु मूल पसे इसक सदा
व मानता है। ......... ... ... ... ..
६७ . [ सं मरण-पोथी १, पृ १५० ]
. जो व तु समयमा के लये है, वह सवकालके लये है। .....
. जो भाव है वह है, जो नह है वह नह है।
... दो कारका पदाथ वभाव वभागपूवक प दखायी दे ता है- जड वभाव और चेतन- वभाव ।
........६८ :: सं मरण-पोथी १, पृ १५२ ]


गुणा तशयता या है ? ..:.:.... ... .. ... ... ....:. :: ... .. . .
उसका आराधन कैसे कया जाये ? .......
केवल ानम अ तशयता या है ?

८२७
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरणपोथी १
तीथकर म अ तशयता या है ? वशेष हेतु या है ? . ...... .. .....
2. य द जनस मतः केवल ानको लोकालोक ायक मान तो उस केवल ानम आहार, नहार, वहार
आद याएँ कस तरह हो सकती ह ?......:::: ........... ... ., ...
- परमाव ध ान, उ प होने के बाद केवल ान उ प होता है, यह रह य अनु े ा करने
यो य है।
अना द-अनंत कालका, अनंत ऐसे अलोकका ?. ग णतसे अतीत अथवा असं यातसे पर ऐसे जीव-
समूह, परमाणु-समूह अनंत होनेपर भी अनंतताका सा ा कार हो. वह ग णतातोतता होनेपर भी कस तरह
सा ात् अनंतता मालूम हो ? इस वरोधका प रहार उपयु रह यसे होने यो य समझम आता है।
- और केवल ान न वक प है, उसम उपयोगका योग नह करना पड़ता। सहज उपयोग वह
ान है; यह रह य भी अनु े ा करने यो य है।
: - य क थम स कौन है ? थम जीवपयाय. कौनसा है ?, थम.परमाणु-पयाय या है ? यह
केवल ानगोचर है पर तु अना द ही , मालूम होता है; अथात् केवल ान उसके आ दको नह पाता, और
केवल ानसे कुछ छपा आ नह है, ये दो बात पर पर वरोधी ह, इसके समाधानका रा ता परमाव ध-
क अनु े ासे तथा सहज उपयोगक अनु े ासे समझम आने यो य दखायी दे ता है । . . .
पु ल न म बंध या जीवके दोषसे वंध ?
जस कारसे माने उस कारसे बंध र नह कया जा सकता ऐसा स होता है। इस लये
मो पदको हा न होती है। उसका ना त व स होता है।
अमूतता यह कुछ व तुता है या अव तुता ?
अमतता य द व तुता है तो वह कुछ मह ववान है या नह ?
.. [ सं मरण-पोधी १, पृ १५८ ]
जाननेका

८२८
मूत पु ल और अमूत जीवका संयोग कैसे घ टत हो ? .. .. ... ... ... . ::
.. धम, अधम और जीव क े ा पता, जस. कारसे जने कहते ह, तदनुसार माननेसे वे
उ प - वभावीक तरह स हो जाते ह, य क म यम-प रणा मता है।
___ धम, अधम और आकाश ये व तुएँ पसे एक जा त और गुण पसे भ जा त ऐसा मानना
यो य है, अथवा ता भी भ भ मानने यो य है ? .
[सं मरण-पोथी १, पृ १५९]
का या अथ है ? गुणपयायके बना उसका सरा या व प है ?
केवल ान सव , े , काल और भावका ायक स हो तो सव व तु नयत मयादाम आ
जाये, अनंतता स न हो, य क अनंतता-अना दता समझी नह जाती, अथात् केवल ानम वे कस
तरह तभा सत ह ? उसका वचार बराबर संगत नह होता।
७२ . [सं मरण-पोथी १, पृ १६२.
जसे जैनदशन सव काशकता कहता है, उसे वेदांत सव ापकता कहता है ।
व तुसे अ व तुका वचार अनुसंधानं करने यो य है।
जने के अ भ ायसे आ माको माननेसे यहाँ लखे हए संग के बारेम अ धक वचार कर-
१. असं यात दे शका मूल प रमाण ।
२. संकोच- वकास हो सके ऐसा आ मा माना है; वह संकोच- वकास या अ पीम होने यो य
है ? तथा कस कारसे होने यो य है ? .
३. नगोद अव थाका या कुछ वशेष कारण है ? : ... ... ... ... .
४. सव , े आ दक काशकता प केवल ान वभावी आ मा है, अथवा व व पम अव-
थत नज ानमय केवल ान है ?
५. आ माम योगसे वप रणाम है ? वभावसे वप रणाम है ?. वप रणाम आ माक मूल स ा
है ? संयोगी स ा है ? उस स ाका कौनसा मूल कारण है ? .. .
' .. [सं मरण-पोथी १, पृ १६३]
६. चेतन होना धक अव था ा त करे, इसम कुछ वशेष कारण है ? व वभावका ? : पु ल-
संयोगका या उससे तर ?
७. जस तरह मो पदम आ मता गट हो उस तरह मूल मान तो लोक ापक माण
___ आ मा न होनेका या कारण ?
८. ान गुण और आ मा गुणी इस त यको घटाते ए आ माको कथं चत् ान त र मानना
___ सो कस अपे ासे ? जड व भावसे या अ य गुणको अपे ासे ?
· । ९. म यम. प रणामवाली व तुक न यता कस तरह स भव है ? .. ....:.

े े े े ो ै
१०. श चेतनम अनेकक सं याका भेद कस कारणसे घ टत होता है ? .... ...
११.
. . [सं मरण-पोथी १, पृ .१६५]
जनसे मागका वतन आ है, ऐसे महापु षके वचार, बल, नभयता आ द गुण भी महान थे।
एक रा यके ा त करनेम जो. परा म अपे त है उसको अपे ा अपूव अ भ ायस हत धम-
संत तका वतन करनेम वशेष परा म अपे त है ।

८२९
... थोड़े समय पहले तथा प श मुझम मालूम होतोथी, उसम अभी वकलता दे खनेम आती है,
का हेतु या होना चा हये यह वचार करने यो य है।
दशनक री तसे इस कालम धमका वतन हो, इससे जीव का क याण है अथवा सं दायक
तसे धमका वतन हो तो जीव का क याण है, यह बात वचारणीय है। ..:...::..
___सं दायक री तसे वह माग ब तसे जीव को ा होगा, दशनक री तसे वहः वरले जीव को.
होगा। .....::, :- . . ..
..... . .
य द जना भमत माग न पण करने यो य गना जाये, तो वह सं दायके कारसे न पत :
ना वशेष असंभव है । य क उसक रचनाका सां दा यक व प होना क ठन है।
दशनक अपे ासे कसी ही जीवके लये उपकारी होगा इतना वरोध आता है।
- [सं मरण-पोथी १, पृ १६६]
. जो कोई महान पु ष ए ह वे पहलेसे व व प ( नजश ) समझ सकते थे, और भावी महत-
आयके बीजको पहलेसे अ पम, बोते रहते थे अथवा वाचरण अ वरोधी. जैसा रखते थे।
- . , यहाँ वह कार वशेष वरोधम पड़ा हो ऐसा दखाई दे ता है। उस वरोधके कारण भी यहाँ लखे ह-
- १: अ नणयसे-
-:...१२. संसाराका सात जसा
....सोहं (महापु ष ने आ यकारक गवेषणा क है)। .. .. .. . . . . . . .
क : क पत प रण तसे वरत होना जीवके लये इतना अ धक क ठन हो पड़ा है, इसका हेतु या
होना चा हये.. ..... .. . . . . . . . . . . .: :: : .
'आ माकै यानका मु य कार कौनसा कहा जा सकता है ? ................... ... .
उस यानका व प कस तरह है ? .... .. .. . ..... .. .::
".. आ माका व प कस तरह है ?.. ..... . . . . . . . . . . . . . ...
केवल ान जनागमम पत है, वह यथायो य है अथवा वेदांतम पत है, वह यथायो य है ?
७६
[सं मरण-पोथी १, पृ १६८].
ेरणापूवक प गमनागमन या आ माके असं यात दे श माण वके लये वशेष वचारणीय है।
।...! -परमाण एक दे शा मक, आकाश अनंत दे शा मक मानने म जो हेतु है, वह हेतु आ माके
असं यात दे श वके लये यथात य स नह होता, य क म यम प रणामी व तु अनु प दे खने म
नह आती। . ..
'. अमूत वक ा या या ? ..
अनंत वक ा या या ?
आकाशका अवगाहक-धम व कस कारसे है ? ..
म मरण-पोथो १, पृ १६९]

८३०..
. ीमद राजच ... ..
· मतामूतका बंध आज नह होता तो अना दसे कैसे हो सकता है ? व तु वभाव इस कार अ यथा
कैसे माना जा सकता है ?
: ोध आ द भाव जीवम प रणामी पसे ह या ववत पसे ह ? ... ..
य द प रणामी पसे कह तो वाभा वक धम हो जाते ह, वाभा वक धमका र होना कह भी
अनुभवम नह आता।....
य द ववत पसे समझ तो जस कारसे जने सा ात् बंध कहते ह, उस तरह माननेसे वरोध
आना स भव है।
जने का अ भमत केवलदशन और वेदांतका अ भमत इन दोन म या भेद है ? '
७९
[सं मरण-पोथी १, पृ १७१]
- जने के अ भमतसे। .......... .... .. . .....:
... आ मा असं यात दे शी (?), संकोच- वकासका भाजन, अ पी, लोक माण दे शा मक । : , ..
[सं मरण-पोथी १, पृ १७१]
जन-
म यम प रमाणका न य व, ोध आ दका पा रणा मक व (?) आ माम कैसे घ टत हो ? कमबंधका
हेतु आ मा है या पु ल है ? या दोन ह ? अथवा इससे भी कोई अ य कार है ? मु म आ मघन ?
े ै े
का गुणसे अ त र व या है ? सब गुण मलकर एक , या उसके बना का कुछ सरा
वशेष व प है ? सव के व तु व, गुणको नकाल कर वचार कर तो. वह एक है या नह ?
आ मा-गुणी है और ान गुण है य कहनेसे आ माका कथं चत् ानर हत होना ठोक है या नह ? य द
ानर हत आ म वका वीकार कर तो वह या जड हो जाता है ? चा र , वीय आ द गुण कह तो उनक
ानसे भ ता होनेसे वे जड स हो, इसका समाधान कस कारसे घ टत होता है ? अभ वं पा रणा-
मकभावसे कस लये घ टत हो ? धमा तकाय, अधमा तकाय; आकाश और जीवको - से दे ख
तो एक व तु है या नह ? व या है ? धमा तकाय, अधमा तकाय और आकाशके व पका वशेष
तपादन कस तरह हो सकता है ? लोक असं यात दे शी और प समु असं यात है; इ या द वरोधका
समाधान कस तरह है ? आ माम पा रणा मकता? मु म भी सब पदाथ का तभा सत होना ? अना द-
अनंतका ान कस तरह हो सकता है ?
एक आ मा, अना द-माया ओर बंध-मो का तपादन, यह आप कहते ह, पर तु यह घ टत नह
हो सकता।
. .. आनंद और चैत यम ी क पलदे वजोने वरोध कहा है, इसका समाधान या है ? यथायो य
समाधान वेदांतम दे खने म नह आता।
___ आ माको नाना माने वना बंध एवं मो हो ही नह सकते। वे तो ह, ऐसा होनेपर भी उ ह
क पत कहनेसे उपदे श आ द काय करनेयो य नह ठहरते। .

८३१ ..
८२ . .. . .[सं मरण-पोथी १; पृ १७४]
. जैनमागः::.......... .......
१: लोकसं थान .. . .. . ........ ..: :: :...:..:
२. धम, अधम, आकाश । ....... ........ ...... ....
३. अ प व।
४. सुषम- षम आ द काल।
५. उस उस कालम भारत आ दक थ त, मनु यक ऊँचाई आ दका माण । ' ' '', '
६. नगोद सू म ।
७. दो कारके जीव-भ और अभ ।
८. वभावदशा, पा रणा मक भावसे ।
९. दे श और समय उनका ावहा रक और पारमा थक कुछ व पः। . : ... ....... .
१०. गुण-समुदायसे भ कुछ व ।
११. दे श समुदायका व तु व ।
१२. प, रस, गंध, पशसे भ ऐसा कुछ भी परमाणु व ।।
१३. दे शका संकोच- वकास |:: : :... ...... ...... .;
१४. उससे घन व या कृश व ।
१५. अ पशग त । .......... ............. ..... .
१६. एक समयम यहाँ और स े म अ त व, अथवा उसी समयम लोकांतरगमन।
१७: स संबंधी अवगाहः। .. : :: : :: .:..:. . . . .
१८: अव ध, मनःपयाय और केवलको .. ावहा रक पारमा थक कुछ ा या;-जीवक अपे ा
तथा य पदाथक अपे ासे । ... ... ..... .:. :: ...: [सं मरण-पोथी १, पृ १७५] ...
'म त ुतक ा या-उस कारसे।' -..-..
१९ केवल ानक सरी कोई ा या।
२०. े े माणक सरी कोई ा या ।
२१. सम त व का एक अ ै त त वपर वचार ।
२२. केवल ानके बना सरे कसी ानसे जीव व पका य पसे हण। ..
२३. वभावका उपादान कारण ।
२४. और तथा कारके समाधानके यो य कोई कार ।
२५. इस कालम दस बोल क व छे दता, उसका अ य कुछ भी परमाथ ।
२६. बीजभूत और संपूण य केवल ान दो कारसे ।
२७. वीय आ द आ मगुण माने ह, उनम चेतनता।
२८. ानसे भ ऐसा आ म व ।
२९. वतमानकालम जीवका प अनुभव होनेके यानके मु य कार ।
३०. उनम भी सव कृ मु य कार।
३१. अ तशयका व प।
३२. ल ध ( कतनी ही) अ ै तत व माननेसे स हो ऐसी मा य है। .
[सं मरण-पोयी १, पृ १७९]
३३. लोकदशनका सुगम माग-वतमानकालम कुछ भी।

८३२
.. ीमद् राजच ... ...


३४. दे हांतदशनका सुगम माग-वतमानकालम । " .
३५. स वपयाय सा द-अनंत, और मो अना द-अनंत ।
३६. प रणामी पदाथ, नरंतर वाकारप रणामी हो तो भी अ व थत प रणा म व अना दसे हो,
__वह केवल ानम भासमान पदाथम कस तरह घटमान ?
[सं मरण-पोथी १, पृ १८०
१. कम व था । ..... .
२. सव ता।
३. पा रणा मकता।
४. नाना कारके वचार और समाधान ।
५. अ यसे यून पराभवता।.
६. जहाँ जहाँ अ य वकल है वहाँ वहाँ अ वकल यह, जहाँ वकल दखायो दे वहाँ.अ यक व चत्
__ अ वकलता-नह तो नह ।
८४. . . . . :[सं मरण-पोथी १, पृ १८१]
मोहमयी- े संबंधी उपा धका प र याग करनेम आठ महीने और दस दन बाक है, और यह
प र याग हो सकने यो य है।
सरे े म उपा ध ( ापार) करनेके अ भ ायसे मोहमयी े को उपा धका याग करनेका वचार
रहता है, ऐसा नह है। . . .. ... ...... ... ... ... ... ........ ... ...
पर तु जब तक सवसंगप र याग प योग नरावरण न हो तब तक जो गृहा म रहे उस गृहा मम
काल तीत करनेका वचार कत है। े का वचार कत है। जस वहारम रहना उस वहार-
का वचार कत है; य क पूवापर अ वरोधता नह तो रहना क ठन है।
१. भावाथ-जहां दया है वहाँ धम है, जसके अठारह दोष नह वह दे व है, तथा जो ानी और आरंभ-
प र हसे वरत है वह गु है ।

८३३
८७ .... ... .[सं मरण-पोथी १, पृ १८७]
अ कचनतासे वचरते ए एकांत मौनसे जनस श यानसे त मया म व प ऐसा कब होऊँगा?
. :., ८८. .. .. ... [सं मरण-पोथी १, पृ १९५]
एक बार व ेप शांत ए बना अ त समीप आ सकने यो य अपूव संयम गट नह होगा।
.. कैसे, कहाँ थ त कर ?
.......... सं मरणपोथी-२...... ... .
.... . . सं मरण-पोथी २, पृ ३]
. राग, े ष और अ ानका आ यं तक अभाव करके जस सहज शु आ म व पम थत ए वह
व प हमारे मरण, यान और पाने यो य थान है।
...... [ सं मरण-पोथी २, पृ ५ ]
सव पदका यान कर।

८३४
. , अधमा तकाय एक है।
आकाशा तकाय एक है।
काल है।
व माण े ावगाह कर सके ऐसा एक-एक जीव है
[ सं मरण-पोथी २, पृ १३ ]
नमो जणाणं जदभवाणं
जसको य दशा ही बोध प है, उस महापु षको ध य है।
जस मतभेदसे यह जीव त है, वही मतभेद ही उसके व पका मु य आवरण है।
वीतराग पु षके समागमके वना, उपासनाके वना, इस जीवको मुमु ुता कैसे उ प हो ?
स य ान कहाँसे हो ? स य दशन कहाँसे हो ? स य चा र कहाँसे हो ? य क ये तीन व तुएँ अ य
थानम नह होती।
वीतरागपु षके अभाव जैसा वतमानकाल है।
हे मुमु ु ! वीतरागपद वारंवार वचार करने यो य है, उपासना करने यो य है, यान करने
यो य है।
[ सं मरण-पोथी २, पृ १५ ]
जीवके बंधनके मु य हेतु दो-
राग और े ष
रागके अभावसे े षका अभाव होता है।
रागक मु यता है।
रागके कारण ही संयोगम आ मा त मयवृ मान है।
वही कम मु य पसे है।
य य राग े ष मंद, य य कमबंध मंद और य य राग े ष ती , य य कमबंध ती ।

ँ े ँ
जहाँ राग े षका अभाव वहाँ कमबंधका सांपरा यक अभाव ।
. .. राग े ष होनेके मु य कारण-
म या व अथात्
अस य दशन है।
स य ानसे स य दशन होता है।
उससे अस य दशनक नवृ होती है।
___ उस जीवको स य चा र गट होता है, .................
जो वीतरागदशा है। . . . . . . . . . . .
संपूण वीतरागदशा जसे रहती है उसे चरमशरीरी जानते ह । ............
. [ सं मरण-पोथी २, पृ १७ ]
हे जीव ! थर से तू अंतरंगम दे ख, तो सव पर से मु ऐसा तेरा व प तुझे परम स
अनुभवम आयेगा।

८३५
हे जीव ! अस य दशनके कारण वह व प तुझे भा सत नह होता। उस व पम तुझे शंका है,
यामोह और भय है।
स य दशनका योग ा त करनेसे उस अभासन आ दक नवृ होगी।..
हे स य दशनी ! स य चा र ही स य दशनका फल घ टत होता है, इस लये उसम अ म हो।
जो म भाव उ प करता है वह तुझे कमबंधक सु ती तका हेतु है। ......
हे स य चा र ी ! अब श थलता यो य नह । ब त अंतराय था, वह नवृ आ तो अब
नरंतराय पदम श थलता कस लये करता है ?
[सं मरण-पोथी २, पृ २१ ]
ःखका अभाव करना सब जीव चाहते ह ।
ःखका आ यं तक अभाव कैसे हो ? वह ात न होनेसे जससे ःख उ प हो उस मागको
ःखसे छू टनेका उपाय जीव समझता है।
ज म, जरा, मरण मु य पसे ःख ह । उसका बीज कम है। कमका बीज राग े ष है, अथवा इस
कार पाँच कारण ह-
म या व
! .... पहले कारणका अभाव होनेपर सरेका अभाव, फर तीसरेका, फर चौथेका, और अंतम पाँचव
कारणका य अभाव होनेका म है।
.: . . . म या व मु य मोह है। . ... :: ... ... ... ...
___ अ वर त गौण मोह है। "
माद और कषायका अ वर तम अंतभाव हो सकता है। योग सहचारी पसे उ प होता है।
चार न हो जानेके बाद भी पूव-हेतुसे योग हो सकता है । ......
[सं मरण-पोथी २, पृ २५]
हे मु नयो ! जब तक केवल समव थान प सहज थ त वाभा वक न हो तव तक आप यान
और वा यायम लीन रह।
जीव केवल वाभा वक थ तम थत हो वहाँ कुछ करना बाक नह रहा। . . .
जहाँ जीवके प रणाम वधमान, हीयमान आ करते ह वहां यान कत है। अथात् यानलीनतासे
सव बा के प रचयसे वराम पाकर नज व पके ल य म रहना उ चत है।
उदयके ध केसे वह यान जब जब छू ट जाये तब तब उसका अनुसंधान ब त वरासे करना ।
बीचके अवकाशम वा यायम लीनता करना । सव पर- म एक समय भी उपयोग संग ा त न
करे ऐसी दशाका जीव सेवन करे तब केवल ान उ प होता है।

८३६
य काल बीतने दे ना यो य नह । येक समयको आ मोपयोगसे उपकारी बनाकर नवृ होने
दे ना यो य है।
अहो इस दे हक रचना ! अहो चेतन ! अहो उसका साम य ! अहो ानी ! अहो उनको गवेषणा!
अहो उनका यान ! अहो उनक समा ध ! अहो उनका संयम ! अहो उनका अ म भाव ! अहो उनको
परम जागृ त ! अहो उनका वीतराग वभाव ! अहो उनका नरावरण ान ! अहो उनके योगक शां त !
अहो उनके वचन आ द योगका उदय !
हे आ मन् ! यह सब तुझे सु तीत होनेपर भी म भाव य ? मंद य न य ? जघ य मंद
जागृ त य ? श थलता य ? आकुलता य ? अंतरायका हेतु या ?
अ मत हो, अ म हो।' . . . . . . . . . . . . .
परम जागत वभावका सेवन कर, परम जागत वभावका सेवन कर। ..... .. .. .

८३७
* इस योजनाका उ े य यह मालूम होता है क 'एकांत थर संयम एकांत शु संयम' और 'केवल
बा भाव नरपे ता' पूवक 'सवा संयम' ा तकर, उसके ारा ' जनचैत य तमा प' होकर, अथात् अडोल
े ी े े े े े े ी े ँ ो
आ माव था पाकर जगतके जीव के क याणके लये अथात मागके पुन ारके लये वृ करनी चा हये । यहाँ जो
'वृ ,' 'प त' और 'समाधान' श द आये ह, सो उनम 'वृ या है ? इसके उ र म कहा गया है क 'यथा-
थत शु सनातन सव कृ जयवंत धमका उदय करना यह: वृ है। उसे ' फस प तसे करना चा हये ?'
इसके उ रम कहा गया है क जससे लोग को 'धमसुगमता हो और लोकानु ह भी हो। इसके बाद 'इस वृ
और प तका प रणाम या होगा ?' इसके समाधानम कहा गया है क 'आ मत व- वचार, जगतत व- वचार,
जनदशनत व- वचार और अ य दशनत व- वचारके संबंधम संसारके जीव का समाधान करना।
इसी सं मरण-पोथोके आंक १८ म कहा गया है क "परानु ह परम का यवृ क अपे ा भी थम
चैत य जन तमा हो। चैत य जन तमा हो।"-इस वा यसे भी यह बात अ धक प होती है।
यहाँ यह प ीकरण ीमद् राजचं को गुजराती आवृ के संशोधक ी मनसुखभाई रवजीभाई मेहताके
नोटके आधारसे लखा गया है।
. [ ी परम ुत भावक-मंडल, व बई ारा का शत ' ीमद् रामच ' ( ह द ) के पृ ७२९ के फुटनोट-
से उघृत ।]

८३८
[सं मरण-पोथी २, पृ ३२]
वपर परमोपकारक परमाथमय स यधम जयवंत रहे ।
आ यकारक भेद पड़ गये ह।
खं डत है। .
संपूण करनेका साधन गम दखायी दे ता है ।
उस भावम महान अ तराय है।
दे श, काल आ द ब त तकूल ह।
वीतराग का मत लोक तकूल हो गया है।
ढसे जो लोग उसे मानते ह उनके यानम भी वह सु तीत मालूम नह होता । अथवा अ यमत-
को वीतराग का मत समझ कर वृ करते रहते ह।
.... वीतराग के मतको यथाथ समझनेक उनम यो यताको ब त कमी है।
द रोगका वल रा य चलता है।
वेषा द वहारम बड़ी वडंबना कर मो मागको अंतराय कर बैठे ह।
वराधकवृ वाले तु छ पामर पु ष अ भागम रहते ह ।
क चत् स य बाहर आते ए भी उ ह ाणघाततु य ःख लगता हो ऐसा दखायी दे ता है।
१५ . . .. . . . [सं मरण-पोथी २, पृ ३४]
- तव आप कस लये उस धमका उ ार चाहते ह ? . . , ...
परम का य- वभावसे।
- उस स मके त परमभ से ।

८३९
परानु ह परम का यवृ क अपे ा भी थम चैत य जन तमा हो।
उस वषयम न वक प हो। ... ... ... ... ........
वैसा े योग है ? . . .. . . . . ...
खोज।
वैसा परा म है ?
अ म शूरवीर हो।
उतना आयुबल है ?
या लखना? या कहना? ........
अंतमख उपयोग करके दे ख । . . ... ... ... ... ...... ...........
ॐ शां तः शां तः शां तः
. ...... . [सं मरण-पोथी २, पृ ४१]
हे काम ! हे मान ! हे संग-उदय !
हे वचनवगणा! हे मोह ! हे मोहदया! .... ... ... ... ..
हे श थलता ! आप कस लये अंतराय करते ह ? .
परम अनु ह करके अब अनुकूल हो जाय ! अनुकूल हो जाय।.
... ... ... ... २० . : . . . . . . [सं मरण-पोथी २, पृ ४ . १४
हे सव कृ सुखके हेतुभूत स य दशन ! तुझे अ य त भ से नम कार हो!
इस अना द-अन त संसारम अनंत-अनंत जीव तेरे आ यके वना अनंत-अनंत ःखका नाम
करते ह।
- तेरे परमानु हसे व व पम च ई, परम वीतरांग वभावके त परम न य अ'.. कर
होनेका माग हण आ।
कृतकृ य

८४३
आ यंतर प रणाम अवलोकन-सं मरणपोयो ३
. .. परमाणु अनंत ह।
जीव और पु लका संयोग अना द है।।
जब तक जीवको पु ल-स ब ध है, तब तक सकम जीव कहा जाता है ।
भावकमका कता जीव है।
भावेकमका दसरा नाम वभाव कहा जाता है।
भावकमके हेतुसे जीव पु लको हण करता है।
: ... उससे तैजस आ द शरीर और औदा रक आ द शरीरका योग होता है।
[सं मरण-पोथी ३, पृ १७ ]
'भावकमसे वमुख हो तो नजभाव प रणामी हो।
स य दशनके वना व तुतः जीव भावकमसे वमुख नह हो सकता। ..
.... स य दशन होनेका मु य हेतु जनवचनस त वाथ ती त होना है
वहार से मा इस वचनका व ा ह।
परमाथसे तो मा उस वचनसे ं जत मूल अथ प ँ। ...
..••••

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