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िववेकचूडाम

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िवषयाणामानुकू सुखी दुःखी िवप ये ।


सुखं दुःखं च त सदान ना नः ॥ १०५॥

आ न िह या षयो न तः यः ।
त एव िह स षामा यतमो यतः ।
तत आ सदान ना दुःखं कदाचन ॥ १०६॥

य षु िन षय आ न ऽनुभूयते ।
ितः मैित मनुमानं च जा ित ॥ १०७॥

अ ना परमेशश
अना िव गुणा का परा ।
का नुमेया सु यैव माया
यया जग दं सूयते ॥ १०८॥
स्व
त्सु
श्रु
व्य
र्या
त्मा
क्त
प्र
प्तौ
र्थ
त्मा
त्य
द्य
त्वे
म्नी
क्ष
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र्वि
द्या
धि
र्वे
र्व
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त्रि
ल्ये
मि
प्रे
ह्य
र्मः
न्दो
णिः
न्वि
प्र
त्मा
त्मा
क्तिः
त्मि
स्य
प्रि

न्द
न्दो
स्य
स्व
ग्र
त्म

र्य
प्रि

स का नो स भया
भया का नो ।
सा न भया का नो
महा ताऽिन चनीय पा ॥ १०९॥

शु िवबोधना य
स मो र िववेकतो यथा ।
रज मःस ित
गुणा दीयाः तैः का ॥ ११०॥

िव पश रजसः या का
यतः वृ सृता पुराणी ।
रागादयोऽ भव िन
दुःखादयो ये मनसो िवकाराः ॥ १११॥

कामः धो लोभद सूया


अह रे म रा घोराः ।
ध एते राजसाः पु वृ
य देषा त जो ब हेतःु ॥ ११२॥
र्मा
न्ना
द्धा
क्षे
ङ्गा
भि
स्त
प्य
द्व
र्प
प्य
स्मा
न्ना
ङ्का
क्रो
भ्र
स्त
ब्र
प्र
क्ती
प्य
न्ना
द्भु
ङ्गा
ह्म
स्याः
र्ष्या
त्त्व
भि
त्तिः
प्यु
ज्जु
मि
न्ना
प्र
त्स
ह्यु
र्व
द्र
प्र
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प्र
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म्भा
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म्प्र
त्मि
द्या
न्ति
सि
श्या
न्ध
स्तु
द्य
रू
त्मि
त्तिः
द्धा
स्व
त्मि

त्यं

र्यैः

एषाऽऽवृित म तमोगुण
श या व वभासतेऽ था ।
सैषा िनदानं पु ष सं सृतेः
िव पश वण हेतुः ॥ ११३॥

वानिप प तोऽिप चतुरोऽ सू ग्-


ढ मसा न वे ब धा स तोऽिप टम् ।
रोिपतमेव साधु कलय ल ते त णान्
ह सौ बला दुर तमसः श ह वृितः ॥ ११४॥

अभावना वा िवपरीतभावना
स वना िव ितप र ।
सं स यु न िवमु ित वं
िव पश पय ज म् ॥ ११५॥

अ नमाल जड िन -
मादमूढ मुखा मोगुणाः ।
एतैः यु न िह वे िक त्
िन लु व वदेव ित ित ॥ ११६॥
प्र
व्या
भ्रा
न्ता
ज्ञा
ज्ञा
न्त्या
प्र
ली
र्ग
प्र
क्ति
म्भा
द्रा
क्षे
क्षे
क्तं
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र्म
क्तो
प्र
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र्ना
क्तेः
त्स्त
क्तिः
त्व
ण्डि
रु
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म्भ
प्र
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क्ष
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स्य
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त्ति
स्त
त्ति
स्य
त्ति
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ध्रु
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स्य
हु
स्याः
ञ्चि

ष्ठ

स्र

न्य
त्या

क्ति

प्य
म्बो

र्म
त्य
म्ब
धि
त्या
न्त

क्ष्मा
द्गु
त्म
स्फु

दृ

मि
श्र
प्तिः
त्रा
त्त्वं
द्धा
व्य
श्र
प्र
त्व
स्वा
प्र
प्ति
त्म
द्ध
स्य
ली
त्का
क्त
भ्यां
प्र
त्मा
तृ

त्त्व


र्षः
स्य
म्बः
मि
द्धं
त्त्व
क्ति
त्त्रि
र्वे
स्य
त्य
म्प
न्द्रि
स्य
द्या
श्च
प्र
र्क
न्द
ता

िवशु स
त्ति
त्वा
िब

चभ
क्त्य
त्म
र्नि
नस
काशय
त्त
दैवी च स
द्धि
मािनता
रु
म्बि
न्ति
प्र
खि
न्नि
क्तं
क्षु
स्था
ष्ठा
त्तिः
प्र

मेत गुणै
च्छ

त्म
त्तिः

र्माः

द्याः
न्तिः
सुषु रे त िवभ व
ह परमा िन

ल्प

िवशु जलव थािप

भव ध

मुमु ता च

गुणाः सादः

नुभूितः परमा शा

ितिब तः सन्

त रणं नाम शरीरमा नः ।


िनयमा यमा ।

िल सरणाय क ते ।

यबु वृ ॥ १२०॥
रस वृ ॥ ११८॥

यया सदान रसं समृ ित ॥ ११९॥


इवा लं जडम् ॥ ११७॥
स कार ित शा
बीजा नाव ितरे व बु ।
सुषु रे त िकल तीितः
िक वे ित जग ॥ १२१॥

देहे य णमनोऽहमादयः
स िवकारा िवषयाः सुखादयः ।
मािदभूता लं च िव
अ प दं ना ॥ १२२॥

माया मायाका स महदािददेहप म् ।


असिददमना त िव म मरी काक म्॥१२३॥

अथ ते स व पं परमा नः ।
य य नरो ब कैव म ते ॥ १२४॥

अ क यं िन मह यल नः ।
अव यसा स कोशिवल णः ॥ १२५॥
व्यो
द्वि
र्व
स्ति
न्द्रि
प्ति
प्र
ज्ञा
स्था
र्वे
व्य
ञ्चि
त्र
क्त
प्रा
त्म
श्चि
स्य
न्न
म्प्र
प्र
मि
त्स्व
त्म
र्य
न्य
द्मी
न्त
क्ष्या
र्यं
क्षी
न्धा
स्थि
खि
त्त्वं
प्र
मि
मि
प्र
र्वं
न्मु
न्प
त्य
न्तिः
स्व
क्तः
ह्य
द्धि
ञ्च
त्प्र
रू

त्वं
सि
त्मा
म्प्र

श्वं
द्धेः
द्धेः

त्य
ल्य
रु

त्म
र्य
क्ष
म्ब
चि
न्त

श्नु

ल्प

यो िवजानाित सकलं जा सुषु षु ।


बु त स वमभावमह यम् ॥ १२६॥

यः प ित यं स यं न प ित क न ।
य तयित बु िद न त चेतय यम् ॥ १२७॥

येन िव दं यं न ित िक न ।
आभा प दं स यं भा मनुभा यम् ॥ १२८॥

य स मा ण देहे यमनो यः ।
िवषयेषु येषु व ता इव ॥ १२९॥

अह रािददेहा िवषया सुखादयः ।


वे घटव न िन बोध िपणा ॥ १३०॥

एषोऽ रा पु षः पुराणो
िनर राख सुखानुभूितः ।
सदैक पः ितबोधमा
येनेिषता वागसव र ॥ १३१॥
श्चे
स्य
द्य
द्धि
न्ते
ङ्का
श्य
न्त
रू
रू
न्त
श्व
न्नि
त्ति
द्वृ
स्व
मि
मि
धि
त्मा
प्र
स्व
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द्ध्या
द्ये
द्भा
ण्ड
व्या
न्ता
त्रे
रु
र्वं
प्तं
र्वं
त्य
श्च
र्त
न्ते
त्रो
न्द्रि
न्ति
द्यं
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ग्र

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श्च
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स्व
मि
रि

श्य
प्नो
रू
त्य
प्न

त्य
धि
त्य
प्ति
श्च
ञ्च

अ वस िन धीगुहायां
अ कृताकाश उश काशः । (उ काशः)
आकाश उ रिवव काशते
तेजसा िव दं काशयन् ॥ १३२॥

ता मनोऽह ितिव याणां


देहे य णकृत याणाम् ।
अयोऽ व ननुव मानो
न चे ते नो िवकरोित िक न ॥ १३३॥

न जायते नो यते न व ते
न यते नो िवकरोित िन ।
िव यमानेऽिप वपु मु न्
न यते कु इवा रं यम् ॥ १३४॥

कृितिवकृित शु बोध भावः


सदसिददमशेषं भासय शेषः ।
िवलसित परमा जा दािद व -
हमह ित सा पेण बु ॥ १३५॥
ज्ञा
प्र
त्रै
ली
स्व
स्व
व्या
क्षी
ली
न्द्रि
ग्नि
ष्ट
त्त्वा
च्चै
त्ता
मि
प्रा
त्म
म्रि
भि
ङ्कृ
म्भ
त्मा
श्व
न्नः
मि
र्त
त्प्र
ष्य
क्षा
क्रि
क्रि
द्ध
ग्र
म्ब
त्सा
प्र
त्प्र
र्ध
ष्मि

न्नि
क्षि
स्व

ञ्च
र्वि

स्व
त्यः

ष्व

रू

स्था

द्धेः

रु

प्र

िनय तमनसामुं मा नमा -


यमह ित सा बु सादात् ।
जिनमरणतर पारसं सार
तर भव कृता पेण सं ॥ १३६॥

अ ना ह ित मित एषोऽ पुं सः


ऽ ना ननमरण शस तहेतुः ।
येनैवायं वपु दमस बु
पु वित िवषयै कोशकृ त् ॥ १३७॥

अत भवित िवमूढ तमसा


िववेकाभावा रित भुजगे र षणा ।
ततोऽन तो िनपतित समादातुर कः
ततो योऽस हः स िह भवित ब णु सखे ॥ १३८॥

अख यबोधश िन
र मा नमन वैभवम् ।
समावृणो वृितश रे षा
तमोमयी रा वा िब म् ॥ १३९॥
स्मिं
त्रा
न्य
प्र
प्रा
स्फु
मि
ष्य
ण्ड
प्तो
त्म
र्थ
त्यु
स्त
न्त
व्रा
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ज्ञा
न्य
क्ष
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मि
द्ग्रा
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द्धिः
त्य
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त्मा
द्व
मि
हु
ज्ज
स्फु
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प्र
त्वं
र्थो
क्ति
त्स
क्षा
र्क
स्व
ब्र
न्त
त्य
द्वि
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क्त्या
र्ब
मि
द्धि
सि
म्ब
रू
स्त

न्ध
क्ले
त्मा
त्या
न्धुं

न्तु
द्धि

त्म
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स्य
भिः
न्धः
म्पा
प्र
स्थः

त्म
धि
धि
द्ध्या
स्य
श‍
‍ृ

द्व

ितरोभूते मलतरतेजोवित पुमान्


अना नं मोहादह ित शरीरं कलयित ।
ततः काम ध भृित रमुं ब नगुणैः
परं िव पा रजस उ श थयित ॥ १४०॥

महामोह ह सनगिलता वगमनो


यो नानाव यम नयं णतया ।
अपारे सं सारे िवषयिवषपूरे जलिनधौ
िनम यं मित कुमितः कु तगितः॥ १४१॥

भानु भास िनता प


भानुं ितरोधाय िवजृ ते यथा ।
आ िदताह ितरा त
तथा ितरोधाय िवजृ ते यम् ॥ १४२॥

कविलतिदननाथे दु ने सा मेघैः
थयित िहमझ वायु यथैतान् ।
अिवरततमसाऽऽ वृते मूढबु
पयित ब दुःखै िव पश ॥ १४३॥
द्धिं
धि
व्य
क्ष
त्मो
प्र
ज्यो
त्मा
ग्रा
स्वा
क्षे
क्रो
न्म
ञ्ज
ग्र
त्म
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ङ्कृ
प्र
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न्य
त्म
भ्र
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त्म
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स्व
न्या
स्ती
भि
मि
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म्भ
म्भ
त्त्वं
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त्मा

भि

रु
न्द्र
रु
क्षे
स्व
न्ध
ग्रो
क्ति
स्त
र्व्य
क्तिः

द्गु
त्सि

एता मेव श ब पुं सः समागतः ।


या िवमोिहतो देहं म ऽऽ नं म यम् ॥ १४४॥

बीजं सं सृितभू ज तु तमो देहा धीर रो


रागः प वम क तु वपुः ऽसवः शा काः ।
अ णी यसं हित िवषयाः पु दुःखं फलं
नानाक समु वं ब िवधं भो जीवः खगः ॥ १४५॥

अ नमूलोऽयमना ब
नैस कोऽनािदरन ई तः ।
ज य जरािददुःख-
वाहपातं जनय मु ॥ १४६॥

ना श रिनले न व ना
छे न श न च क कोिट ।
िववेकिव नमहा ना िवना
धातुः सादेन तेन म ना ॥ १४७॥
न्मा
ग्रा
ज्ञा
स्त्रै
भ्यां
प्र
भ्या
त्तुं
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प्य
र्गि
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र्म
न्द्रि
प्र
ज्ञा
व्या
स्त्रै
म्बु
क्यो
द्भ
धि
क्ति
मि
शि
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सि
र्म
त्म
श्च
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स्य
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न्धो
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भिः

त्म
णि
भ्र

त्य

ङ्कु

खि

ित माणैकमतेः ध
िन तयैवा िवशु र ।
िवशु बु परमा वेदनं
तेनैव सं सारसमूलनाशः ॥ १४८॥

कोशैर मया प रा न सं वृतो भाित ।


िनजश समु शैवालपटलै वा वापी म् ॥ १४९॥

त वालापनये स क् सिललं तीयते शु म् ।


तृ स पहरं स सौ दं परं पुं सः ॥ १५०॥

प नामिप कोशानामपवादे िवभा यं शु ।


िन न करसः पः परः य ितः ॥ १५१॥

आ ना िववेकः क ब मु ये िवदुषा ।
तेनैवान भवित िव य स दान म् ॥ १५२॥

मु िदषीका व व त्
मा नमस म यम् ।
िविव त िवला स
तदा ना ित ित यः स मु ॥ १५३॥
ञ्चा
च्छै
ष्णा
ञ्जा
श्रु
त्या
प्र
त्मा
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त्य
च्य
ष्ठा
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क्ति
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प्र
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स्व
त्य
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स्व

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म्बु
त्य
ञ्ज्यो

न्द
द्धः
द्ध

स्थ

देहोऽयम भवनोऽ मय कोशः


चा न जीवित िवन ित त हीनः ।
मांस रा पुरीषरा
नायं यं भिवतुम ित िन शु ॥ १५४॥

पू जनेर मृतेरिप नायम


जात णः णगुणोऽिनयत भावः ।
नैको जड घटव मानः
कथं भवित भाविवकारवे ॥ १५५॥

पा पादािदमा हो ना ऽिप जीवनात् ।


त रनाशा न िनय िनयामकः ॥ १५६॥

देहत त तदव िदसा णः ।


सत एव त त ल मा नः ॥ १५७॥

श रा सिल मलपू ऽितक लः ।


कथं भवेदयं वे यमेत ल णः ॥ १५८॥
त्व
र्वं
त्त
ल्य
णि
क्च
स्वा
च्छ
द्ध
न्ने
र्म
र्म
त्मा
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शि
स्व
क्ष
स्व
न्न
धि
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त्क
रु
स्सि
र्म
क्ष
धि
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न्दे
च्च
द्धं
प्तो
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स्व
न्न
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श्य
स्तु
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स्ति
र्णो
द्वि
ण्य
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त्य
क्षि
स्व
शिः
ङ्गे
द्वि

क्ष

द्धः
त्म

श्म
त्ता

समेदोऽ पुरीषराशा-
वह ितं मूढजनः करोित ।
िवल णं वे िवचारशीलो
िनज पं परमा भूतम् ॥ १५९॥

देहोऽह व जड बु
देहे च जीवे िवदुष ह ।
िववेकिव नवतो महा नो
ह व मितः सदा िन ॥ १६०॥

अ बु ज मूढबु
समेदोऽ पुरीषराशौ ।
स िन िन क
कु शा परमां भज ॥ १६१॥

देहे यादावसित मोिदतां


िव नह न जहाित यावत् ।
ताव त िवमु वा -
ष वेदा नया द ॥ १६२॥
द्धिं
न्तिं
त्व
र्वा
त्रा
ङ्मां
ब्र
त्व
प्य
न्द्रि
न्न
क्ष
त्म
त्म
ह्मा
रु
द्वा
स्त्वे
ङ्मां
म्म
ष्व
मि
स्व
स्या
ज्ञा
मि
त्ये
ब्र
रू
न्तां
त्ति
स्ति
त्ये
ह्म
त्य
स्थि
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स्थि
न्त
भ्र
स्य
र्थ
र्वि
क्ति
स्त्व
त्म
न्त
द्धे
द्धिः

ल्पे
न्धीः
र्ता

र्शी

त्म

स्व

छायाशरीरे ितिब गा
य देहे िद क ता ।
यथा बु व ना का त्
जीव रीरे च तथैव माऽ ॥ १६३॥

देहा धीरे व नृणामस यां


ज िददुःख भव बीजम् ।
यत त जिह तां य त्
तु न पुन वाशा ॥ १६४॥

क यैः प र तोऽयं
णो भवे णमय कोशः ॥
येना वान मयोऽनुपू
व तेऽसौ सकल यासु ॥ १६५॥

नैवा िप णमयो वायुिवकारो


ग ऽऽग वायुवद िहरे षः ।
य िप न वे मिन
वा वा िक न िन परत ॥ १६६॥
स्मा
र्मे
त्य
प्रा
प्र
स्वं
स्त
त्म
न्द्रि
त्म
त्मा
त्म
त्स्व
न्ता
न्मा
त्कि
क्ते
र्त
च्छ
स्त्वं
प्न
द्धि
ञ्चि
न्यं
प्रा
न्न
चि
प्र
स्त
त्क्वा
ञ्च
न्ता
त्प्रा
त्ते
हृ
भि
प्र
म्ब
ञ्चि
ञ्च
स्ति
प्र
ल्पि
क्रि
स्य
द्धि
र्णः
स्तु
र्भ
त्रे
त्ती
त्ना
न्त

त्यं
ष्ट

चि

ङ्गे
र्ब
स्तु

ष्टं

न्त्रः

ने या च मन मनोमयः त्
कोशो ममाह ित व िवक हेतुः ।
सं िदभेदकलनाकिलतो ब यां-
कोशम पू िवजृ ते यः ॥ १६७॥

प यैः प रे व होतृ
चीयमानो िवषया धारया ।
जा मानो ब वासने नैः
मनोमया हित प म् ॥ १६८॥

न िव मनसोऽित
मनो िव भवब हेतुः ।
त न सकलं िवन
िवजृ तेऽ कलं िवजृ ते ॥ १६९॥

ऽ शू सृजित श
भो िदिव मन एव स म् ।
तथैव जा िप नो िवशेषः
त मेत नसो िवजृ णम् ॥ १७०॥
ज्ञा
स्व
ञ्चे
स्मि
ज्ञा
ह्य
प्ने
ज्व
स्त
प्र
न्द्रि
न्द्रि
स्त्य
त्स
न्वि
त्पू
क्त्रा
र्थ
ल्य
र्व
म्भि
ह्य
र्व
ग्र
न्ये
णि
ष्टे
त्य
द्या
ग्नि
ञ्च
न्म
द्या
श्वं
र्द
भि
स्मि
मि
हु
भि
न्स
श्च
प्र
स्व
र्य
ज्य
न्ध
स्तु
ञ्च
ष्टं
रि
न्ध
भिः
म्भ
क्त्या

क्ता

र्व
ली

म्भ

म्भ
ल्प

स्या

सुषु काले मन ने
नैवा िक कल ।
अतो मनःक त एव पुं सः
सं सार एत न व तोऽ ॥ १७१॥

वायुनाऽऽनीयते मेघः पुन नैव नीयते ।


मनसा क ते ब मो नैव क ते ॥ १७२॥

देहािदस िवषये प क रागं


ब ित तेन पु षं पशुव णेन ।
वैर म िवषवत् सुिवधाय प द्
एनं िवमोचयित त न एव ब त् ॥ १७३॥

त नः कारणम ज
ब मो च वा िवधाने ।
ब हेतु िलनं रजोगुणैः
मो शु िवरज म म् ॥ १७४
स्मा
न्ध
स्य
प्ति
स्य
ध्ना
न्ध
न्म
क्ष
स्ति
स्य
त्र
स्य
र्व
ल्प्य
र्म
ल्पि
स्य
द्धं
क्ष
ञ्चि
सि
स्य
रु
न्धो
त्स
रि
प्र
स्य
ली
स्तु
न्म
स्त
ल्प्य
क्ष
प्र
स्ते
न्तोः

स्ते
सि
स्क

द्गु
स्ति

द्धेः
श्चा

न्धा

ल्प्य

िववेकवैरा गुणाितरे कात्


शु मासा मनो िवमु ।
भव तो बु मतो मुमु
ता ढा भिवत म ॥ १७५॥

मनो नाम महा िवषयार भू षु ।


चर नग साधवो ये मुमु वः ॥ १७६॥

मनः सूते िवषयानशेषान्


ला ना सू तया च भो ।
शरीरव मजाितभेदान्
गुण याहेतुफलािन िन म् ॥ १७७॥

अस पममुं िवमो
देहे य णगुणै ब ।
अह मेित मय ज
मनः कृ षु फलोपभु षु ॥ १७८॥
स्थू
त्य
त्य
म्म
ङ्ग
प्र
द्ध
भ्यां
त्र
चि
न्द्रि
र्णा
क्रि
त्व
स्व
त्म
श्र
दृ
ग्य
द्रू
प्रा
द्धि
भ्र
च्छ
त्ये
भ्यां
व्या
द्य
न्तु
क्ष्म
त्य
घ्रो
र्नि
ह्य
स्रं
क्षोः
द्ध्य

व्य

त्य

क्त्यै
क्ति
ण्य

ग्रे
क्तुः

क्ष
मि

अ सदोषा ष सं सृितः
अ सब मुनैव क तः ।
रज मोदोषवतोऽिववेिकनो
ज िददुःख िनदानमेतत् ॥ १७९॥

अतः नोऽिव प ता द नः ।
येनैव ते िव वायुनेवा म लम् ॥ १८०॥

त न धनं का य न मुमु णा ।
िवशु सित चैत करफलायते ॥ १८१॥

मो कस िवषयेषु रागं
िन स चस क ।
स या यः वणािदिन
रज भावं स धुनोित बु ॥ १८२॥

मनोमयो नािप भवे रा


व णा भावात् ।
दुःखा क षय हेतोः
िह तया न ॥ १८३॥
न्म
ध्या
क्षै
ह्या
द्र
स्त
द्धे
ध्या
ष्टा
च्छ्र
द्ध
न्मा
त्म
र्मू
प्रा
भ्रा
श्शो
द्य
स्स्व
ल्य
हु
न्त
म्य
क्त्या
र्म
त्वा
दृ
न्ध
त्त्वा
श्या
त्पु
न्न्य
श्र
द्वि
स्त्व
रु
स्य
स्य
त्प
स्मि
त्म
श्वं
र्यं
द्यां
रि
स्य
त्प
त्व
न्मु
प्र
क्तिः
ण्डि
त्मा
त्ने
मि
र्व
ष्ठो

दृ

ल्पि

ष्टः
भ्र
द्धेः
र्म

स्त

ण्ड
त्त्व

क्षु

र्शि

बु यैः सा सवृ क ल णः ।
िव नमयकोशः सः सं सारकारणम् ॥ १८४॥

अनु ज ितिब श
िव नसं कृते कारः ।
न यावानह ज
देहे यािद म ते भृशम् ॥ १८५॥

अनािदकालोऽयमहं भावो
जीवः सम वहारवोढा ।
करोित क नु पू वासनः
पु पु िन च त लािन ॥ १८६॥

भु िव िप योिनषु ज-
याित िन ध ऊ मेषः ।
अ व िव नमय जा त्-
व सुखदुःखभोगः ॥ १८७॥
ज्ञा
द्धि
ङ्क्ते
स्यै
ज्ञा
न्ना
स्व
व्र
क्रि
र्बु
ण्या
ज्ञा
प्ना
न्द्रि
द्धी
चि
च्चि
द्य
न्य
न्द्रि
र्मा
त्रा
ज्ञा
त्प्र
ज्ञः
स्थाः
ण्य
स्व
ण्या
स्त
र्या
ष्व
प्र
मि
व्य
त्य
स्या
भि
स्य
र्धं
त्य
म्ब
र्व
स्व
त्पुं
र्वि
न्य
स्रं
क्तिः
र्ध्व
त्फ
ग्र
त्तिः

व्र

र्तृ

क्ष

देहािदिन मध क -
गुणा मानः सततं ममेित ।
िव नकोशोऽयमित काशः
कृ सा वशा रा नः ।
अतो भव ष उपा र
यदा धीः सं सरित मेण ॥ १८८॥

योऽयं िव नमयः णेषु िद र यं ितः ।


कूट स क भो भव पा ॥ १८९॥

यं प दमुपे बु
तादा दोषेण परं मृषा नः ।
स कः स िप वी ते यं
तः पृथ न मृदो घटािनव ॥ १९०॥

उपा स वशा रा
पा ध ननुभाित त णः ।
अयोिवकारानिवका व वत्
सदैक पोऽिप परः भावात् ॥ १९१॥
स्व
र्वा
ज्ञा
प्र
स्व
स्थः
धि
त्म
ह्यु
ष्ट
रि
त्म
भि
धि
त्म्य
ष्ठा
म्ब
रू
ज्ञा
च्छे
त्ये
न्ना
श्र
न्नि
न्ध
र्मा
क्त्वे
त्मा
न्न
ध्य
र्म
त्य
प्रा
धि
त्प
र्ता
रि
प्र
क्ष
र्म
त्प
स्व
द्धेः
भ्र
स्य
त्मा
ह्नि

स्व

हृ
क्ता
त्म
त्म

द्गु

स्फु

त्यु

त्य
धि

ज्यो
स्थः

उवाच ।
मेणा था वाऽ जीवभावः परा नः ।
तदुपाधेरनािद नादे श इ ते ॥ १९२॥

अतोऽ जीवभावोऽिप िन भवित सं सृितः ।


न िनव त त कथं मे गुरो वद ॥ १९३॥

गु वाच ।
स या िव वधानेन त णु ।
मा न भवित मोिहतक ना ॥ १९४॥

िवना स िन य िनराकृतेः ।
न घटे ता स नभसो नीलतािदवत् ॥ १९५॥

ण य
धान प बु ।
जीवभावो न स
मोहापाये ना व भावात् ॥ १९६॥
न्तिं
भ्र
प्रा
भ्रा
स्व
भ्रा
म्य
न्त्या
स्य
प्र
क्पृ
त्य
णि
स्य
द्र
र्ते
प्य
ग्बो
ष्टं
की
प्रा
र्थ
श्री

न्य
र्नि
ष्टु
शि
त्व
प्तो
र्गु
म्ब
न्मो
ष्य
त्व
रु
त्वा
रु
न्धो
न्द
स्त्य
क्षः
स्या
न्ना
ङ्ग
रू
द्व
स्य
स्तु
क्रि
न्सा
स्तु
स्य
भ्रा

र्ना
स्व
न्त्या
स्य

ष्क्रि
द्धेः
श्री
त्यो

त्यो
ष्य
स्य

च्छृ
त्म
ल्प

प्र
ज्ज्वां
त्प
मि
भ्रा
द्बु
न्ना
द्भ्रा
द्य
थ्या
न्ते
द्ध्यु
स्व
न्ति
त्व


र्ना
र्पो
धि
ज्ञा
प्न
स्ता
भ्रा
याव

बोधे
ध्वं
त्स
म्ब
द्या
ज्जृ
द्या
न्ति

र्वं
न्धा
त्यं
म्भि
प्रा
त्प

स्य
र्पो
पा स
प्रा
नो
ली
रि
स्य
अना पीदं नो िन
र्य
स्ति
द्य
त्ता
अनादेरिप िव सः
स्या
प्र
ल्पि

स्य

अनािद मिव याः का


द्व
श्य
वदेवा स

द्य
स्फु
त्म
क्षि
ष्य
का न एव

मादात् ।

सहमूलं िवन ित ।

गभाव वी तः ।
िप तथे ते ।

शे नैव स ऽ त त् ॥ १९७॥

यां तु िव यामािव कमना िप ॥ १९८॥

क तमा िन ॥ २००॥
गभाव इव टम् ॥ १९९॥

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