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।। ीम गव ता ।।
।। यथाथ गीता ।।
मानव-धमशा
यानुभूत याया :
परमपूय ी परमहंस महाराज का कृपा-साद
वामी ी अड़गड़ानद जी
ी परमहंस अाम
ाम-पालय- शेषगढ़, जला-मजापुर, उ००, भारत
फाेन : (०५४४३) २३८०४०
काशक :
ी परमहंस वामी अड़गड़ानदजी अाम ट ट
यू अपाेलाे टे ट, गाला नं– ५, माेगरा ले न (रे लवे सब
वे के पास)
अँधेर (पूव), मुबई - ४०००६९
गीता मानव मा का धमशा है।
–महष वेदयास
ीकृणकालन महष वेदयास से पूव काेई भी शा पुतक के प में
उपलध नहीं था। ुतान क इस परपरा काे ताेड़ते ए उहाेंने चार वेद,
सू, महाभारत, भागवत एवं गीता-जैसे थाें में पूवसंचत भाैितक एवं
अायाक ानराश काे संकलत कर अत में वयं ही िनणय दया क–
गीता भल कार मनन करके दय में धारण करने याेय है, जाे प नाभ
भगवान के ीमुख से िन:सृत वाणी है; फर अय शााें के संह क ा
अावयकता मानव-सृ के अाद में भगवान् ीकृण के ीमुख से िन:सृत
अवनाशी याेग अथात् ीम गव ता, जसक वतृत याया वेद अाैर
उपिनषद् हैं, वृित अा जाने पर उसी अादशा काे भगवान ीकृण ने
अजुन के ित पुन: काशत कया, जसक यथावत् याया ‘यथाथ गीता’
है।
—(गीता-माहाय)
२. मानव तन क साथकता–
मनुय केवल दाे कार के हैं– देवता अाैर असर। जसके दय में दैवी
सप काय करती है वह देवता है तथा जसके दय में अासर सप
करती है वह असर है। तीसर काेई अय जाित सृ में नहीं है।
४. हर कामना ई र से सलभ–
६. ान–
य दशन ान है अाैर इसके अितर जाे कुछ भी है, अान है।
अयत दुराचार भी मेरा भजन करके शी ही धमाा हाे जाता है एवं
९. ई र का िनवास–
१०. य–
११. कम–
कम है। कम माने अाराधना, कम माने चतन याेग साधना प ित का
नाम य है।
वकम–
काे न ताे कम करने से काेई लाभ है अाैर न छाेड़ने से काेई हािन ही है;
फर भी वे पीछे वालाें के हत के लए कम करते हैं। एेसा कम
वकपशूय
है, वश है अाैर यही कम वकम कहलाता है। (गीता, ४/१७)
अनय भ के ारा मैं य देखने, जानने तथा वेश करने के लये
भी सलभ ँ।
अायवपयित कदेन-
१६. देव-पूजा–
कामैतैतैताना: प तेऽयदेवता:।
शावध का याग–
काे, राजस पुष य-रासाें काे अाैर तामस पुष भूत-ेताें काे पूजते
हैं; कत–
परमाा काे कृश करनेवाले हैं। उनकाे तू असर जान। अथात् देवताअाें
१७. अधम–
ही ूरकमी, पापाचार तथा मनुयाें में अधम हैं। अय काेई अधम
नहीं है।
अाेमयेकारं याहरामनुरन्।
१९. शा–
२०. धम–
भगवान के ित पूण समपण ही धम का मूल है, उस भु काे पाने क
अाैर जाे उसे करता है वह अयत पापी भी शी धमाा हाे जाता है
णाे ह िताहममृतयाययय च।
।। व गु भारत ।।
• सृ का अादशा–
कण-कण में या ही सय है। उसे वदत करने के अितर मु
का काेई अय उपाय नहीं है।
लग जाअाे।
अाा ही सय है। कठाेर तपया से इसी ज में जाना जा सकता है।
‘ला इलाह इ ाह मुहदुर रसूल ाह’- जरे -जरे में या खदा (ई र)
के सवाय काेई पूजनीय नहीं है। मुहद अ ाह के सदेशवाहक हैं।
भगवान जब कृपा करते हैं ताे शु म हाे जाते हैं, वप सप हाे
जाती है। भगवान सव से देखते हैं।
।। ॐ ।।
अनुमणका
वषय
ाथन
उपशम
।। ॐ ।।
ाथन
वतत: गीता पर टका लखने क अब काेई अावयकता तीत नहीं
हाेती; ाेंक इस पर सहाें टकाएँ लखी जा चुक हैं, जनमें पचासाें ताे
केवल संकृत में ही हैं। गीता काे ले कर पचासाें मत हैं, जबक सबक
अाधारशला एकमा गीता है। याेगे र ीकृण ने ताे काेई एक बात कही
हाेगी, फर यह मतभेद ाें वतत: वा एक ही बात कहता है; कत ाेता
यद दस बैठे हाें ताे दस कार के अाशय हण करते हैं। य क बु पर
तामसी, राजसी अथवा सा वक गुणाें का जतना भाव है, उसी तर से उस
वा ा काे पकड़ पाता है। इससे अागे वह समझ नहीं पाता। अत: मतभेद
वाभावक है।
गीता कसी वश य, जाित, वग, पंथ, देश-काल या कसी ढ़त
सदाय का थ नहीं है, बक यह सावलाैकक, सावकालक धमथ है।
यह येक देश, येक जाित तथा येक तर के येक ी-पुष के लये,
सबके लये है। केवल दूसराें से सनकर या कसी से भावत हाेकर मनुय
काे एेसा िनणय नहीं ले ना चाहये, जसका भाव सीधे उसके अपने अतव
पर पड़ता हाे। पूवाह क भावना से मु हाेकर सयावेषयाें के लये यह
अाषथ अालाेक-त है। हदुअाें का अाह है क वेद ही माण है। वेद
का अथ है ान, परमाा क जानकार। परमाा न संकृत में है न
संहताअाें में। पुतक ताे उसका संकेतमा है। वह वतत: दय में जागृत
हाेता है।
यही ीकृण भी कहते हैं क ‘‘संसार अवनाशी पीपल का वृ है। ऊपर
परमाा जसका मूल अाैर नीचे कृितपयत शाखाएँ हैं। जाे इस कृित का
अत करके परमाा काे वदत कर ले ता है, वह वेदवत् है। अजुन मैं भी
वेदवत् ँ।’’ अत: कृित के सार अाैर अत के साथ परमाा क अनुभूित
का नाम ‘वेद’ है। यह अनुभूित ई रद है, इसलये वेद काे अपाैषेय कहा
जाता है। महापुष अपाैषेय हाेते हैं। उनके मायम से परमाा ही बाेलता
है। वे परमाा के सदेश-सारक (ट ांसमीटर) हाे जाते हैं। केवल शद-ान
के अाधार पर उनक वाणी में िनहत यथाथ काे परखा नहीं जा सकता। उहें
वही जान पाता है जसने याक पथ से चलकर इस अपाैषेय (Non-
Person) थित काे पाया हाे, जसका पुष (अहं) परमाा में वलन हाे
चुका हाे।
वतत: वेद अपाैषेय है; कत बाेलनेवाले साै-डे ढ़ साै महापुष ही थे।
उहीं क वाणी का संकलन ‘वेद’ कहलाता है। कत जब शा लखने में अा
जाता है ताे सामाजक यवथा के िनयम भी उसके साथ लख दये जाते हैं।
महापुष के नाम पर जनता उनका भी पालन करने लगती है, य प धम से
उनका दूर का भी सबध नहीं रहता। अाधुिनक युग में म याें के अागे-पीछे
घूमकर साधारण नेता भी अधकारयाें से अपना काम करा ले ते हैं, जबक
म ी एेसे नेताअाें काे जानते भी नहीं। इसी कार सामाजक यवथाकार
महापुष क अाेट में जीने-खाने क यवथा भी थाें में लपब कर देते
हैं। उनका सामाजक उपयाेग तसामयक ही हाेता है। वेदाें के सबध में भी
यही है। वेद के दाे भाग हैं– कमकाड अाैर ानकाड। कमकाड समाजशा
है, जैसे– वातशा, अायुवेद, धनुवेद, गधववेद इयाद। ानकाड उपिनषद्
हैं, उनका भी मूल याेगे र ीकृण क थम वाणी ‘गीता’ है। सारांशत ‘गीता’
अपाैषेय परमाा से समु त
ू उपिनषद्-सधा का सार-सवव है।
इसी कार येक महापुष, जाे परमत व काे ा कर ले ता है, वयं में
धमथ है। उसक वाणी का संकलन व में कहीं भी हाे, शा कहलाता है;
कत कितपय धमावलबयाें का यह कथन है क– ‘‘जतना कुरान में लखा
है उतना ही सच है। अब कुरान नहीं उतरे गा।’’, ‘‘ईसा मसीह पर व ास
कये बना वग नहीं मल सकता। वह ई र का इकलाैता बेटा था।’’, ‘‘अब
एेसा महापुष नहीं हाे सकता।’’– उनक ढ़वादता है। यद उसी त व काे
साात् कर लया जाय ताे वही बात फर हाेगी।
गीता सावभाैम है। धम के नाम पर चलत व के समत धमथाें में
गीता का थान अतीय है। यह वयं में धमशा ही नहीं, बक अय
धमथाें में िनहत सय का मानदड भी है। गीता वह कसाैट है, जस पर
येक धमथ में अनुयूत सय अनावृ हाे उठता है, परपर वराेधी कथनाें
का समाधान िनकल अाता है। येक धमथ में संसार में जीने-खाने क
कला अाैर कमकाडाें का बाय है। जीवन काे अाकषक बनाने के लये उहें
करने तथा न करने के राेचक अाैर भयानक वणनाें से धमथ भरे पड़े हैं।
कमकाडाें क इसी परपरा काे जनता धम समझने लगती है। जीवन-िनवाह
क कला के लये िनमत पूजा-प ितयाें में देश-काल अाैर परथितयाें के
अनुसार परवतन वाभावक है। धम के नाम पर समाज में कलह का यही
एकमा कारण है। ‘गीता’ इन णक यवथाअाें से ऊपर उठकर
अाकपूणता में ितत करने का याक अनुशीलन है, जसका एक भी
ाेक भाैितक जीवनयापन के लये नहीं है। इसका येक ाेक अापसे
अातरक यु ‘अाराधना’ क माँग करता है। तथाकथत धमथाें क भाँित
यह अापकाे वग या नरक के में फँ साकर नहीं छाेड़ता, बक उस
अमरव क उपलध कराता है जसके पीछे ज-मृयु का बधन नहीं रह
जाता।
येक महापुष क अपनी शैल अाैर कुछ अपने वश शद हाेते हैं।
याेगे र ीकृण ने भी गीता में ‘कम’, ‘य’, ‘वण’, ‘वणसंकर’, ‘यु ’,
‘े’, ‘ान’ इयाद शदाें पर बार-बार बल दया है। इन शदाें का अपना
अाशय है अाैर पुनरावृ में भी इनका अपना साैदय है। हद पातरण में
इन शदाें काे उसी अाशय में लया गया है तथा अावयक थलाें क याया
भी क गयी है। गीता के अाकषण िन लखत हैं, जनका अाशय
अाधुिनक समाज खाे चुका है। वे इस कार हैं, जहें ‘यथाथ गीता’ में अाप
पायेंगे–
९. ानयाेग– अाराधना ही कम है। अपने पर िनभर हाेकर कम में वृ हाेना
‘ानयाेग’ है।
१०. िनकाम कमयाेग– इ पर िनभर हाेकर समपण के साथ कम में वृ
हाेना ‘िनकाम कमयाेग’ है।
११. ीकृण ने कस सय काे बताया – ीकृण ने उसी सय काे बताया,
जसकाे त वदशयाें ने पहले देख लया था अाैर अागे भी देखेंगे।
१५. वणसंकर– परमा-पथ से युत हाेना, साधन में म उप हाे जाना
‘वणसंकर’ है।
१७. देवता– दय-देश में परमदेव का देवव अजत करानेवाले गुणाें का समूह
है। बा देवताअाें क पूजा मूढ़बु क देन है।
१९. वराट् दशन– याेगी के दय में ई र के ारा द गयी अनुभूित है।
भगवान साधक में बनकर खड़े हाें, तभी दखायी पड़ते हैं।
२०. पूजनीय देव ‘इ’– एकमा परापर ही ‘पूजनीय देव’ है। उसे
खाेजने का थान दय-देश है। उसक ाि का ाेत उसी अय वप
में थत ‘ाि वाले महापुष’ के ारा है।
‘ान’ अयाय चार से प हाेगा तथा अयाय तेरह में भल कार समझ
में अायेगा क य दशन का नाम ‘ान’ है। ‘याेग’ अयाय छ: तक अाप
समझ सकंे गे, वैसे पूितपयत याेग के वभ अंशाें क परभाषा है। ‘ानयाेग’
अयाय तीन से छ: तक प हाे जायेगा, अागे देखने क काेई वशेष
अावयकता नहीं है। ‘िनकाम कमयाेग’ अयाय दाे से अार हाेकर
पूितपयत है। ‘य’ अाप अयाय तीन से चार तक पढ़ंे , प हाे जायेगा।
‘कम’ का नाम अयाय २/३९ में थम बार लया गया है। इसी ाेक से
अयाय चार तक पढ़ लें ताे प हाे जायेगा क कम का अथ अाराधना,
भजन ाें है अयाय साेलह अाैर सह यह वचार थर कर देता है क
यही सय है। ‘वणसंकर’ अयाय तीन में अाैर ‘अवतार’ अयाय चार में प
हाे जायेगा। ‘वण-यवथा’ के लये अयाय अठारह देखना हाेगा, वैसे संकेत
अयाय तीन अाैर चार में भी है। मनुय क देवासर जाितयाें के लये अयाय
साेलह य है। ‘वराट् दशन’ अयाय दस से यारह तक प हाे गया है।
अयाय सात, नाै अाैर पह में भी इस पर काश डाला गया है। अयाय
सात, नाै अाैर सह में बा देवताअाें क अतवहीनता प हाे जाती है।
परमाा के पूजन क थल दय-देश ही है, जसमें यान, ास- ास के
चतन इयाद क याएँ, जाे एकात में बैठकर (मदर-मूित के सामने
नहीं) क जाती हैं–अयाय तीन, चार, छ: अाैर अठारह में प है। बत
साेचने-वचारने से ा याेजन है, यद अयाय छ: तक ही अययन कर लें
ताे भी ‘यथाथ गीता’ का मूल अाशय अापक समझ में अा जायेगा।
गीता जीवका-संाम का साधन नहीं अपत जीवन-संाम में शा त
वजय का याक शण है इसलये यु -थ है, जाे वातवक वजय
दलाता है; कत गीताे यु तलवार, धनुष, बाण, गदा अाैर फरसे से लड़ा
जानेवाला सांसारक यु नहीं है अाैर न इन यु ाें में शा त वजय िनहत है।
यह सदसत् वृ याें का संघष है, जनके पकाक वणन क परपरा रही
है। वेद में इ अाैैर वृ, व ा अाैर अव ा, पुराणाें में देवासर संाम,
महाकायाें में राम अाैर रावण, काैरव एवं पाडवाें के संघष काे ही गीता में
धमे अाैर कुे, दैवी सपद् एवं अासर सपद्, सजातीय एवं वजातीय,
ु एवं दुगुणाें का संघष कहा गया है।
स ण
इसी शरर के अतराल में अत:करण क दाे वृ याँ पुरातन हैं– दैवी
सपद् अाैर अासर सपद्। दैवी सपद् में हैं– पुयपी पाड अाैर
क यपी कुती। पुय जागृत हाेने से पहले मनुय जाे कुछ भी क य
समझकर करता है, अपनी समझ से वह क य ही करता है; कत उससे
क य हाेता नहीं– ाेंक पुय के बना क य काे समझा ही नहीं जा
सकता। कुती ने पाड से सबध हाेने से पूव जाे कुछ भी अजत कया, वह
था ‘कण’। अाजीवन कुती के पुाें से लड़ता रह गया। पाडवाें का दुधष शु
यद काेई था, ताे वह था ‘कण’। वजातीय कम ही कण है जाे बधनकार है,
जससे परपरागत ढ़याें का चण हाेता है– पूजा-प ितयाँ पड नहीं
छाेड़तीं। पुय जागृत हाेने पर धमपी ‘युधर’, अनुरागपी ‘अजुन’,
भावपी ‘भीम’, िनयमपी ‘नकुल’, ससंगपी ‘सहदेव’, सा वकतापी
‘सायक’, काया में सामयपी ‘काशराज’, क य के ारा भव पर वजय
‘कुतभाेज’ इयाद इाेुखी मानसक वृ याें का उकष हाेता है, जनक
गणना सात अाैहणी है। ‘अ’ काे कहते हैं। सयमयी काेण से
जसका गठन है, वह है दैवी सपद्। परमधम परमाा तक क दूर तय
करानेवाल ये सात सीढ़याँ ‘सात भूमकाएँ’ हैं, न क काेई गणना-वशेष।
वतत: ये वृ याँ अनत हैं।
अनुरागी के लये महापुष सदैव खड़े हैं। अजुन शय था अाैर ीकृण
ु थे। वनयावनत हाेकर उसने कहा– धम के माग में माेहतच
एक स मैं
अापसे पूछता ँ, जाे ेय (परम कयाणकार) हाे, वह उपदेश मेरे ित
कहये। अजुन ेय चाहता था, ेय (भाैितक पदाथ) नहीं। केवल कहये ही
नहीं, साधये-सँभालये। मैं अापका शय ँ, अापक शरण में ँ। इसी कार
गीता में थान-थान पर प है क अजुन अात अधकार है अाैर याेगे र
ु हैं। वे स
ीकृण एक स ु अनुरागी के साथ सदैव रहते हैं, उनका
मागदशन करते हैं।
अयाय के अत में याेगे र िनणय देते हैं– ‘‘अजुन अनय भ अाैर
ा ारा मैं इस कार य देखने के लये (जैसा तूने देखा), त व से
प जानने के लये अाैर वेश करने के लये भी सलभ ँ।’’ अनय भ
अनुराग का ही दूसरा प है अाैर यही अजुन का वप भी है। अजुन
पथक का तीक है। इस कार गीता के पा तीकाक हैं। यथाथान
उनका संकेत है।
रहे हाें काेई एेितहासक ीकृण अाैर अजुन, िनय ही अा हाे काेई
व यु ; कत गीता में भाैितक यु का चण कदाप नहीं है। उस
एेितहासक यु के मुहाने पर घबड़ाया ताे था अजुन, न क सेना; सेना ताे
लड़ने काे तैयार खड़ थी।
स
ु कृपायी, जग धु
वामी अड़गड़ानद
ी गु पूणमा
२४ जुलाई, १९८३ ई०
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ ीम गव ता ।।
।। यथाथ गीता ।।
।। अथ थमाेऽयाय: ।।
धृतरा उवाच
स य उवाच
राजा दुयाेधन अाचाय के पास जाता है। माेहपी दुयाेधन। माेह सपूण
याधयाें का मूल है, राजा है। दुयाेधन– दुर् अथात् दूषत, याे धन अथात् वह
धन। अाक सप ही थर सप है। उसमें जाे दाेष उप करता है,
वह है माेह। यही कृित क अाेर खींचता है अाैर वातवक जानकार के लये
ेरणा भी दान करता है। माेह है तभी तक पूछने का भी है, अयथा
सभी पूण ही हैं।
हे अाचाय अपने बु मान् शय पद-पु धृ ु ारा यूहाकार खड़ क
ई पाडपुाें क इस भार सेना काे देखये।
दुयाेधन अपना प संेप में कहता है। यद काेई बा यु हाेता ताे
अपनी फाैज बढ़ा-चढ़ाकर गनाता। वकार कम गनाये गये; ाेंक उन पर
वजय पाना है, वे नाशवान् हैं। केवल पाँच-सात वकार बताये गये, जनके
अतराल में सपूण बहमुखी वृ याँ व मान हैं। जैसे–
अाकं त वशा ये ता बाेध जाे म।
नायका मम सैयय साथ तावीम ते।।७।।
जाे म हमारे प में जाे-जाे धान हैं, उहें भी अाप समझ लें ।
अापकाे जानने के लये मेर सेना के जाे-जाे नायक हैं, उनकाे कहता ँ।
(रामचरतमानस, ७/११७/६-७)
अाैर भी बत से शूरवीर अनेक शाें से यु मेरे लये जीवन क अाशा
काे यागकर यु में डटे हैं। सभी मेरे लये ाण यागनेवाले हैं; कत उनक
काेई ठाेस गणना नहीं है। अब काैन-सी सेना कन भावाें ारा सरत है इस
पर कहते हैं–
भी ारा रत हमार सेना सब कार से अजेय है अाैर भीम ारा
रत इन लाेगाें क सेना जीतने में सगम है। ‘पया ’ अाैर ‘अपया ’ जैसे
शद का याेग दुयाेधन क अाशंका काे य करता है। अत: देखना है
क भी काैन-सी स ा है, जस पर काैरव िनभर करते हैं तथा भीम काैन-सी
स ा है, जस पर (दैवी सपद्) सपूण पाडव िनभर हैं। दुयाेधन अपनी
यवथा देता है क–
कैसा याे ा है भी, जाे वयं अपनी रा नहीं कर पा रहा है, काैरवाें काे
उसक रा-यवथा करनी पड़ रही है यह काेई बा याे ा नहीं, म ही
भी है। जब तक म जीवत है, तब तक वजातीय वृ याँ (काैरव) अजेय
हैं। अजेय का यह अथ नहीं क जसे जीता ही न जा सके; बक अजेय का
अथ दुजय है, जसे कठनाई से जीता जा सकता हाे।
(रामचरतमानस, ६/८० क)
यद म समा हाे जाय ताे अव ा अतवहीन हाे जाय। माेह इयाद
जाे अांशक प से बचे भी हैं, शी ही समा हाे जायेंगे। भी क इछा-
मृयु थी। इछा ही म है। इछा का अत अाैर म का मटना एक ही बात
है। इसी काे सत कबीर ने सरलता से कहा–
इछा काया इछा माया, इछा जग उपजाया।
कह कबीर जे इछा ववजत, ताका पार न पाया।।
भीम ारा रत इन लाेगाें क सेना जीतने में सगम है। भावपी भीम।
‘भावे व ते देव:’– भाव में वह मता है क अवदत परमाा भी वदत हाे
जाता है। ‘भाव बय भगवान सख िनधान कना भवन।’ (रामचरतमानस,
७/९२ख) ीकृण ने इसे ा कहकर सबाेधत कया है। भाव में वह मता
है क भगवान काे भी वश में कर ले ता है। भाव से ही सपूण पुयमयी
वृ याें का वकास है। यह पुय का संरक है। है ताे इतना बलवान् क
परमदेव परमाा काे संभव बनाता है; कत साथ ही इतना काेमल भी है क
अाज भाव है ताे कल अभाव में बदलते देर नहीं लगती। अाज अाप कहते हैं
क महाराज बत अछे हैं, कल कह सकते हैं क नहीं, हमने ताे देखा
महाराज खीर खाते हैं।
इ में ले शमा भी ुट तीत हाेने पर भाव डगमगा जाता है, पुयमयी
वृ याँ वचलत हाे उठती हैं, इ से सबध टू ट जाता है। इसलये भीम
ारा रत इन लाेगाें क सेना जीतने में सगम है। महष पतंजल का भी
यही िनणय है– ‘स त दघकालनैरतयसकाराऽऽसेवताे ढभूम:।’ (याेगदशन,
१/१४)– दघकाल तक िनरतर ा-भपूवक कया अा साधन ही ढ़ हाे
पाता है।
इसके उपरात ेत घाेड़ाें से यु (जनमें ले शमा कालमा, दाेष नहीं है–
ेत सा वक, िनमलता का तीक है) ‘महित यदने’– महान् रथ पर बैठे ए
याेगे र ीकृण अाैर अजुन ने भी अलाैकक शंख बजाये। अलाैकक का अथ
है, लाेकाें से परे । मृयुलाेक, देवलाेक, लाेक, जहाँ तक ज-मरण का भय
है उन समत लाेकाें से परे पारलाैकक, पारमाथक थित दान करने क
घाेषणा याेगे र ीकृण क है। साेने, चाँद या काठ का रथ नहीं; रथ
अलाैकक, शंख अलाैकक, अत: घाेषणा भी अलाैकक ही है। लाेकाें से परे
एकमा है, सीधा उससे सपक थापत कराने क घाेषणा है। वे कैसे
यह थित दान करें गे –
हर यापक सब समाना। ेम तें गट हाेहं मैं जाना।।
(रामचरतमानस, १/१८४/५)
बा मण कठाेर है, कत ासमण पुप से भी काेमल है। पुप ताे
वकसत हाेने या टू टने पर कुहलाता है; कत अाप अगले ास तक जीवत
रहने क गारट नहीं दे सकते। कत ससंग सफल हाेने पर येक ास
पर िनयंण दलाकर परम लय क ाि करा देता है। इसके अागे पाडवाें
क काेई घाेषणा नहीं है; कत येक साधन कुछ-न-कुछ िनमलता के पथ में
दूर तय कराता है। अागे कहते हैं–
अजुन उवाच
स य उवाच
दाेनाें सेनाअाें में अजुन काे केवल अपना परवार, मामा का परवार,
ससराल का परवार, सद् अाैर गुजन दखायी पड़े। महाभारतकाल क
गणना के अनुसार अठारह अाैहणी लगभग चालस लाख के समक हाेता
है; कत चलत गणना के अनुसार अठारह अाैहणी साढ़े छ: अरब के
लगभग हाेता है, जाे अाज के व क जनसंया के समक है। इतने मा
के लये यदा-कदा व तर पर अावास एवं खा -समया बन जाती है। इतना
बड़ा जनसमूह अजुन के तीन-चार रतेदाराें का परवार मा था। ा इतना
बड़ा भी कसी का परवार हाेता है कदाप नहीं यह दय-देश का चण है।
अजुन उवाच
हाथ से गाडव गरता है, वचा भी जल रही है। अजुन काे वर-सा हाे
अाया। संत हाे उठा क यह कैसा यु है जसमें वजन ही खड़े हैं अजुन
काे म हाे गया। वह कहता है– अब मैं खड़ा रह पाने में भी अपने काे
असमथ पा रहा ँ, अब अागे देखने क सामय नहीं है।
हमें जनके लये राय, भाेग अाैर सखादक इछत हैं, वे ही परवार
जीवन क अाशा यागकर यु के मैदान में खड़े हैं। हमें राय इछत था ताे
परवार काे ले कर; भाेग, सख अाैर धन क पपासा थी ताे वजन अाैर
परवार के साथ उहें भाेगने क थी। कत जब सब-के-सब ाणाें क अाशा
यागकर खड़े हैं ताे मुझे सख, राय या भाेग नहीं चाहये। यह सब इहीं के
लये य थे। इनसे अलग हाेने पर हमें इनक अावयकता नहीं है। जब तक
परवार रहेगा, तभी तक ये वासनाएँ भी रहती हैं। झाेपड़ में रहनेवाला भी
अपने परवार, म अाैर वजन काे मारकर व का सााय वीकार नहीं
करे गा। अजुन भी यही कहता है क हमें भाेग य थे, वजय य थी; कत
जनके लये थी, जब वे ही नहीं रहेंगे ताे भाेगाें से ा याेजन इस यु में
मारना कसे है –
इस यु में अाचाय, ताऊ- चाचे, लड़के अाैर इसी कार दादा, मामा,
सर, पाेते, साले तथा समत सबधी ही हैं।
अठारह अाैहणी सेना में अजुन काे अपना परवार ही दखायी पड़ा।
इतने अधक वजन वातव में ा हैं वतत: अनुराग ही अजुन है। भजन
के अार में येक अनुरागी के सम यही समया रहती है। सभी चाहते हैं
क वे भजन करें , उस परमसय काे पा लें ; कत कसी अनुभवी स
ु के
संरण में काेई अनुरागी जब े-े के संघष काे समझता है क उसे
कनसे लड़ना है, ताे वह हताश हाे जाता है। वह चाहता है क उसके पता
का परवार, ससराल का परवार, मामा का परवार, सद्, म अाैर गुजन
साथ रहें, सभी सखी रहें अाैर इन सबक यवथा करते ए वह परमा-
वप क ाि भी कर ले । कत जब वह समझता है क अाराधना में
असर हाेने के लये परवार छाेड़ना हाेगा, इन सबधाें का माेह समा
करना हाेगा ताे वह अधीर हाे उठता है।
‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे– ‘‘मरना अाैर साधु हाेना बराबर है।
साधु के लये सृ में दूसरा काेई जीवत है भी; कत घरवालाें के नाम पर
काेई नहीं है। यद काेई है ताे लगाव है, माेह समा कहाँ अा जहाँ तक
लगाव है उसका पूण याग, उस लगाव के सहअतव मटने पर ही उसक
वजय है। इन सबधाें का सार ही ताे जगत् है, अयथा जगत् में हमारा
ा है ’’ ‘तलसदास कह चद-बलास जग बूझत बूझत बूझै।’
(वनयपिका, १२४) मन का सार ही जगत् है। याेगे र ीकृण ने भी मन
के सार काे ही जगत् कहकर सबाेधत कया है। जसने इसके भाव काे
राेक लया, उसने चराचर जगत् ही जीत लया– ‘इहैव तैजत: सगाे येषां
साये थतं मन:।’ (गीता, ५/१९)
केवल अजुन ही अधीर था, एेसी बात नहीं है। अनुराग सबके दय में है।
येक अनुरागी अधीर हाेता है, उसे सबधी याद अाने लगते हैं। पहले वह
साेचता था क भजन से कुछ लाभ हाेगा ताे ये सब सखी हाेंगे। इनके साथ
रहकर उसे भाेगंग
े े। जब ये साथ ही नहीं रहेंगे ताे सख ले कर ा करें गे
अजुन क रायसख तक ही सीमत थी। वह िलाेक के सााय काे
ही सख क पराकाा समझता था। इसके अागे भी काेई सय है, इसक
जानकार अजुन काे अभी नहीं है।
कुल के नाश हाेने से सनातन कुलधम न हाे जाते हैं। अजुन कुलधम,
कुलाचार काे ही सनातन-धम समझ रहा था। धम के नाश हाेने पर सपूण
कुल काे पाप भी बत दबा ले ता है।
हे कृण पाप के अधक बढ़ जाने से कुल क याँ दूषत हाे जाती हैं।
हे वाणेय याें के दूषत हाेने पर वणसंकर उप हाेता है। अजुन क
मायता थी क कुल क याें के दूषत हाेने से वणसंकर हाेता है; कत
ीकृण ने इसका खडन करते ए अागे बताया क मैं अथवा वप में
थत महापुष यद अाराधना-म में म उप कर दें, तब वणसंकर हाेता
है। वणसंकर के दाेषाें पर अजुन काश डालता है–
वणसंकर कुलघाितयाें अाैर कुल काे नरक में ले जाने के लये ही हाेता है।
ल ई पडाेदक यावाले इनके पतर लाेग भी गर जाते हैं। वतमान न
हाे जाता है, अतीत के पतर गर जाते हैं अाैर भवयवाले भी गरें गे। इतना
ही नहीं,
अहाे शाेक है क हमलाेग बु मान् हाेकर भी महान् पाप करने काे तैयार
ए हैं। राय अाैर सख के लाेभ से अपने कुल काे मारने के लये उ त ए
हैं।
अभी अजुन अपने काे कम ाता नहीं समझता। अार में येक साधक
इसी कार बाेलता है। महाा बु का कथन है क मनुय जब अधूर
जानकार रखता है ताे अपने काे महान् ानी समझता है अाैर जब अाधे से
अागे क जानकार हासल करने लगता है ताे अपने काे महान् मूख समझता
है। ठक इसी कार अजुन भी अपने काे ानी ही समझता है। वह ीकृण
काे ही समझाता है क इस पाप से परमकयाण हाे– एेसी बात भी नहीं,
केवल राय अाैर सख के लाेभ में पड़कर हमलाेग कुलनाश करने काे उ त
ए हैं– महान् भूल कर रहे हैं। हम ही भूल कर रहे हैं– एेसी बात नहीं, अाप
भी भूल कर रहे हैं। एक धा ीकृण काे भी दया। अत में अजुन अपना
िनणय देता है–
स य उवाच
िनकष—
अजुन काे सैय िनरण में अपना परवार ही दखायी पड़ता है, जसे
मारना है। जहाँ तक सबध है, उतना ही जगत् है। अनुराग के थम चरण में
पारवारक माेह बाधक बनता है। साधक जब देखता है क मधुर सबधाें से
इतना वछे द हाे जायेगा, जैसे वे थे ही नहीं, ताे उसे घबराहट हाेने लगती है।
वजनास काे मारने में उसे अकयाण दखायी देने लगता है। वह चलत
ढ़याें में अपना बचाव ढूँ ढ़ने लगता है, जैसा अजुन ने कया। उसने कहा–
‘कुलधम ही सनातन-धम है। इस यु से सनातन-धम न हाे जायेगा, कुल
क याँ दूषत हाेंगी, वणसंकर पैदा हाेगा, जाे कुल अाैर कुलघाितयाें काे
अनतकाल तक नरक में ले जाने के लये ही हाेता है।’ अजुन अपनी समझ
से सनातन-धम क रा के लये वकल है। उसने ीकृण से अनुराेध कया
क हमलाेग समझदार हाेकर भी यह महान् पाप ाें करें अथात् ीकृण भी
पाप करने जा रहे हैं। अतताेगवा पाप से बचने के लये ‘मैं यु नहीं
कँगा’– एेसा कहता अा हताश अजुन रथ के पछले भाग में बैठ गया।
े-े के संघष से पीछे हट गया।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ तीयाेऽयाय: ।।
थम अयाय गीता क वेशका है, जसमें अार में पथक काे तीत
हाेनेवाल उलझनाें का चण है। लड़नेवाले सपूण काैरव अाैर पाडव हैं;
कत संशय का पा मा अजुन है। अनुराग ही अजुन है। इ के अनुप
राग ही पथक काे े-े के संघष के लये ेरत करता है। अनुराग
अारक तर है। ‘पूय महाराज जी’ कहते थे– ‘‘स हृ थ अाम में रहते
ए लािन हाेने लगे, अुपात हाेता हाे, कठ अव हाेता हाे ताे समझना
क यहीं से भजन अार हाे गया।’’ अनुराग में यह सब कुछ अा जाता है।
उसमें धम, िनयम, ससंग, भाव सभी व मान हाेेंगे।
अनुराग के थम चरण में पारवारक माेह बाधक बनता है। पहले मनुय
चाहता है क वह उस परम सय काे ा कर ले ; कत अागे बढ़ने पर वह
देखता है क इन मधुर सबधाें का उछे द करना हाेगा, तब हताश हाे जाता
है। वह पहले से जाे कुछ धम-कम मानकर करता था, उतने में ही सताेष
करने लगता है। अपने माेह क पु के लये वह चलत ढ़याें का माण
भी तत करता है– जैसा अजुन ने कया क कुलधम सनातन है। यु से
सनातन-धम का लाेप हाेगा, कुलय हाेगा, वैराचार फैले गा। यह अजुन का
उ र नहीं था, बक स
ु के सा य से पूव अपनायी गयी एक कुरित मा
थी।
इहीं कुरितयाें में फँ सकर मनुय पृथक्-पृथक् धम, अनेक सदाय, छाेटे-
बड़े गुट अाैर असंय जाितयाें क रचना कर ले ता है। काेई नाक दबाता है,
ताे काेई कान फाड़ता है। कसी के ने से धम न हाेता है, ताे कहीं राेट-
पानी से धम न हाेता है। ताे ा अत या नेवालाें का दाेष है कदाप
नहीं दाेष हमारे मदाताअाें का है। धम के नाम पर हम कुरित के शकार हैं,
इसलये दाेष हमारा है।
स य उवाच
ीभगवानुवाच
अजुन इस वषम थल में तझे यह अान कहाँ से हाे गया वषम
थल अथात् जसक समता का सृ में काेई थल है ही नहीं, पारलाैकक है
लय जसका, एेसे िनववाद थल पर तझे अान कहाँ से अा अान
ाें, अजुन ताे सनातन-धम क रा के लये कटब है। ा सनातन-धम
क रा के लये ाण-पण से तपर हाेना अान है ीकृण कहते हैं– हाँ,
यह अान है। न ताे सावत पुषाें ारा इसका अाचरण कया गया है, न
यह वग ही देनेवाला है अाैर न यह कित काे ही करनेवाला है। साग पर
जाे ढ़तापूवक अाढ़ है, उसे अाय कहते हैं। गीता अायसंहता है। परवार
के लये मरना-मटना यद अान न हाेता ताे महापुष उस पर अवय चले
हाेते। यद कुलधम ही सय हाेता ताे वग अाैर कयाण क िन:ेणी अवय
बनती। यह कितदायक भी नहीं है। मीरा भजन करने लगी, ताे ‘लाेग कहें
मीरा भई बावर, सास कहे कुलनाशी रे ।’ जस परवार, कुल अाैर मयादा के
लये मीरा क सास बलख रही थी, अाज उस कुलवती सास काे काेई नहीं
जानता, मीरा काे व जानता है। ठक इसी कार परवार के लये जाे
परे शान हैं, उनक भी कित कब तक रहेगी जसमें कित नहीं, कयाण
नहीं, े पुषाें ने भूलकर भी जसका अाचरण नहीं कया ताे स है क
वह अान है। अत:–
वह पुष हाेते ए भी नपुंसक है, जाे दयथ अाा काे नहीं पहचानता।
वह अाा ही पुषवप, वयंकाश, उ म, अानदयु अाैर अय है।
उसे पाने का यास ही पाैष है।
अहंकार का शमन करनेवाले मधुसूदन मैं रणभूम में पतामह भी अाैर
अाचाय ाेण से कस कार बाणाें से यु कँगा ाेंक अरसूदन वे दाेनाें
ही पूजनीय हैं।
ैत ही ाेण है। भु अलग हैं, हम अलग हैं–ैत का यह भान ही ाि
क ेरणा का अारक ाेत है। यही ाेणाचाय का गुव है। म ही भी
है। जब तक म है तभी तक ब े, परवार, रतेदार सभी अपने लगते हैं।
अपना लगने में म ही मायम है। अाा इहीं काे पूय मानकर इनके साथ
रहता है क यह पता हैं, दादा हैं, कुलगु हैं इयाद। साधन के पूितकाल में
‘गु न चेला, पुष अकेला।’
गुनहवा ह महानुभावान्
ेयाे भाेुं भैयमपीह लाेके।
हवाथकामांत गुिनहैव
भु ीय भाेगान् धरदधान्।।५।।
कापयदाेषाेपहतवभाव:
पृछाम वां धमसूढचेता:।
येय: या तं ूह ते
शयतेऽहं शाध मां वां प म्।।७।।
कायरता के दाेष से न वभाववाला, धम के वषय में सवथा माेहतच
अा मैं अापसे पूछता ँ। जाे कुछ िनत परम कयाणकार हाे, वह साधन
मेरे लये कहये। मैं अापका शय ँ, अापक शरण में ँ, मुझे साधये।
केवल शा न दजये, बक जहाँ लड़खड़ाऊँ वहाँ सँभालये। ‘लाद दे
लदाय दे अाैर लदानेवाला साथ चले – कदाचत् ग र गर पड़ा, तब काैन
लदवायेगा ’–एेसा ही समपण अजुन का है।
स य उवाच
ीभगवानुवाच
अजुन तू न शाेक करने याेयाें के लये शाेक करता है अाैर पडताें के-से
वचन कहता है; कत बु सप पडतजन जनके ाण चले गये हैं उनके
लये तथा जनके ाण नहीं गये हैं उनके लये भी शाेक नहीं करते; ाेंक वे
भी मर जायेंगे। तू पडताें-जैसी बातें भर करता है, वतत: ाता है नहीं;
ाेंक–
जैसे जीवाा क इस देह में कुमार, युवा अाैर वृ अवथा हाेती है, वैसे
ही अय-अय शरराें क ाि में धीर पुष माेहत नहीं हाेता है। कभी अाप
बालक थे, शनै:-शनै: युवा ए, तब अाप मर ताे नहीं गये पुन: वृ ए।
पुष एक ही है, उसी कार ले शमा भी दरार नये देह क ाि पर नहीं
पड़ती। कले वर का यह परवतन तब तक चले गा, जब तक परवतन से परे
क वत नहीं मल जाती।
माापशात काैतेय शीताेणसखदु:खदा:।
अागमापायनाेऽिनयातांतितव भारत।।१४।।
हे कुतीपु सख, दु:ख, सद अाैर गमी काे देनेवाले इयाें अाैर वषयाें
के संयाेग ताे अिनय हैं, णभंगुर हैं। अत: भरतवंशी अजुन तू इनका याग
कर। अजुन इय अाैर वषय के संयाेगजय सख का रण करके ही
वकल था। कुलधम, कुलगुअाें क पूयता इयाद इयाें के लगाव के
अतगत हैं। ये णक हैं, झूठे हैं, नाशवान् हैं। वषयाें का संयाेग न सदैव
मले गा अाैर न सदैव इयाें में मता ही रहेगी। अत: अजुन तू इनका
याग कर, सहन कर। ाें ा हमालय क लड़ाई थी जाे अजुन सद
सहन करता अथवा ा यह रे गतान क लड़ाई है जहाँ अजुन गमी सहन
करे ‘कुे’ जैसा क लाेग बाहर बताते हैं, समशीताेण थल है। कुल
अठारह दन ताे लड़ाई ई, इतने में कहाँ जाड़ा-गमी बीत गया वतत: सद-
गमी, दु:ख-सख, मान-अपमान काे सहन करना एक याेगी पर िनभर करता है।
यह दय-देश क लड़ाई का चण है। बाहर यु के लये गीता नहीं कहती।
यह े-े का संघष है, जसमें अासर सपद् का सवथा शमन कर
परमाा में थित दलाकर दैवी सपद् भी शात हाे जाती है। जब वकार हैं
ही नहीं ताे सजातीय वृ याँ कस पर अामण करें अत: पूणव के साथ
वे भी शात हाे जाती हैं, इससे पहले नहीं। गीता अतदेश क लड़ाई का
चण है। इस याग से मले गा ा इससे लाभ ा है इस पर ीकृण
कहते हैं–
अजुन असत् वत का अतव नहीं है, वह है ही नहीं, उसे राेका नहीं
जा सकता अाैर सय का तीनाें काल में अभाव नहीं है, उसे मटाया नहीं जा
सकता। अजुन ने पूछा– ा भगवान हाेने के नाते अाप कहते हैं ीकृण ने
बताया– मैं ताे कहता ही ँ, इन दाेनाें का यह अतर हमारे साथ-साथ
त वदशयाें ारा भी देखा गया है। ीकृण ने वही सय दाेहराया, जाे
त वदशयाें ने कभी देख लया था। ीकृण भी एक त वदशी महापुष थे।
परमत व परमाा का य दशन करके उसमें थितवाले त वदशी कहलाते
हैं। सत् अाैर असत् हैं ा इस पर कहते हैं–
जाे इस अाा काे मारनेवाला मानता है तथा जाे इस अाा काे मरा
अा समझता है, वे दाेनाें ही अाा काे नहीं जानते; ाेंक यह अाा न ताे
मारता है अाैर न मारा ही जाता है। पुन: इसी पर बल देते हैं–
देश-वदेश में, मानवमा में अाा एक ही जैसा है। इसलये व में कहीं
भी काेई अाा क थित दलानेवाल या जानता है अाैर उस पर चलने
के लये य शील है ताे वह सनातनधमी है, चाहे वह अपने काे ईसाई,
मुसलमान, यद या कुछ भी ाें न कह ले ।
जैसे मनुय ‘जीणािन वासांस’– जीण-शीण पुराने वाें काे यागकर नये
वाें काे हण करता है, ठक वैसे ही यह जीवाा पुराने शरराें काे यागकर
दूसरे नये शरराें काे धारण करता है। जीण हाेने पर ही नया शरर धारण
करना है ताे शश ाें मर जाते हैं यह व ताे अाैर वकसत हाेना चाहये।
वतत: यह शरर संकाराें पर अाधारत है। जब संकार जीण हाेते हैं ताे
शरर ट जाता है। यद संकार दाे दन का है ताे दूसरे दन ही शरर जीण
हाे गया। इसके बाद मनुय एक ास भी अधक नहीं जीता। संकार ही
शरर है। अाा संकाराें के अनुसार नया शरर धारण कर ले ता है। ‘अथ
खल तमय: पुषाे यथा तर ाेके पुषाे भवित तथेत: ेय भवित।’
(छादाेयाेपिनषद्, ३/१४) अथात् यह पुष िनय ही संकपमय है। इस
लाेक में पुष जैसा िनयवाला हाेता है, वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर
हाेता है। अपने संकप से बनाये ए शरराें में पुष उप हाेता है। इस
कार मृयु शरर का परवतन मा है। अाा नहीं मरता। पुन: इसक
अजरता-अमरता पर बल देते हैं–
अजुन इस अाा काे शाद नहीं काटते, अ इसे जला नहीं सकती,
जल इसे गीला नहीं कर सकता अाैर न वायु इसे सखा ही सकता है।
इन कुरितयाें के कथानक इितहास में भरे पड़े हैं। हमीरपुर जले में
पचास-साठ परवार कुलन िय थे। अाज वे सब मुसलमान हैं। न उन पर
ताेप का हमला अा, न तलवार का। अा ा अ राि में दाे-एक माैलवी
उस गाँव के एकमा कुएँ के समीप छप गये क कमकाड ा ण सबसे
पहले यहाँ ान करने अायेगा। जहाँ वे अाये ताे उहें पकड़ लया, उनका मुँह
बद कर दया। उनके सामने उहाेंने कुएँ से पानी िनकाला, मुँह लगाकर पया
अाैर बचा अा पानी कुएँ में डाल दया। राेट का एक टकड़ा भी डाल दया।
पडतजी देखते ही रह गये, ववश थे। तपात् पडतजी काे भी साथ ले कर
वे चले गये। अपने घर में उहें बद कर दया।
पडतजी अपने गाँव अाये। देखा, लाेग कुएँ का याेग पूववत् कर रहे थे।
वे अनशन करने लगे। लाेगाें ने कारण पूछा ताे बाेले– यवन इस कुएँ क
जगत पर चढ़ गये थे। मेरे सामने उहाेंने इस कुएँ काे जूठा कया अाैर इसमें
राेट का टकड़ा भी डाल दया। गाँव के लाेग तध रह गये। पूछा– ‘‘अब
ा हाेगा ’’ पडत जी ने बताया– ‘‘अब ा धम ताे न हाे गया।’’
उस समय लाेग शत नहीं थे। याें अाैर शूाें से पढ़ने का अधकार न
जाने कब से छन लया गया था। वैय धनाेपाजन ही अपना धम मान बैठे थे।
िय चारणाें के शत-गायन में खाेये थे क अ दाता क तलवार चमक
ताे बजल काैंधने लगी, द का तत डगमगाने लगा। सान वैसे ही ा
है ताे पढ़ंे ाें धम से उहें ा ले ना-देना धम केवल ा णाें क वत
बनकर रह गया था। वे ही धमसूाें के रचयता, वे ही उसके यायाकार अाैर
वही उसके झूठ-सच के िनणायक थे– जबक ाचीनकाल में याें, शूाें,
वैयाें, ियाें अाैर ा णाें काे, सबकाे वेद पढ़ने का अधकार था। येक
वग के ऋषयाें ने वैदक म ाें क रचना क है, शााथ-िनणय में भाग लया
है। ाचीन राजाअाें ने धम के नाम पर अाडबर फैलानेवालाें काे दड दया,
धमपरायणाें का समादर कया था। कत मयकालन भारत में सनातन-धम
क यथाथ जानकार न रखने से उपयु गाँव के िनवासी भेड़ क तरह एक
काेने में खड़े हाेते गये क धम न हाे गया। कई लाेगाें ने इस अय शद
काे सनकर अाहया कर ल; कत सब कहाँ तक ाणात करते। अटू ट
ा के पात् भी ववश हाेकर अय हल खाेजना पड़ा। अाज भी वे बाँस
गाड़कर, मूसल रखकर हदुअाें क तरह ववाह करते हैं, बाद में एक माैलवी
िनकाह पढ़ाकर चला जाता है। सब-के-सब श हदू हैं, सबके-सब मुसलमान
बन गये।
अयाेऽयमचयाेऽयमवकायाेऽयमुयते।
तादेवं वदवैनं नानुशाेचतमहस।।२५।।
यह अाा अय अथात् इयाें का वषय नहीं है। इयाें के ारा इसे
समझा नहीं जा सकता। जब तक इयाें अाैर वषयाें का संयाेग है, तब तक
अाा है ताे; कत उसे समझा नहीं जा सकता। वह अचय है। जब तक
च अाैर च क लहर है, तब तक वह शा त है ताे; कत हमारे दशन,
उपभाेग अाैर वेश के लये नहीं है। अत: च का िनराेध करें ।
पीछे ीकृण बता अाये हैं क असत् वत का अतव नहीं है अाैर सत्
का तीनाें काल में अभाव नहीं है। वह सत् है अाा। अाा ही
अपरवतनशील, शा त, सनातन अाैर अय है। त वदशयाें ने अाा काे
इन वशेष गुणधमाे से यु देखा। न दस भाषाअाें के ाता ने देखा, न कसी
समृ शाल ने देखा, बक त वदशयाें ने देखा। ीकृण ने अागे बताया क
त व है परमाा। मन के िनराेधकाल में साधक उसका दशन अाैर उसमें वेश
पाता है। ाि काल में भगवान मलते हैं अाैर दूसरे ही ण वह अपनी अाा
काे ई रय गुणधमाे से वभूषत देखता है। वह देखता है क अाा ही सय,
सनातन अाैर परपूण है। यह अाा अचय है। यह वकाररहत अथात् न
बदलनेवाला कहा जाता है। अत: अजुन अाा काे एेसा जानकर तू शाेक
करने याेय नहीं है। अब ीकृण अजुन के वचाराें में वराेधाभास दखाते हैं,
जाे सामाय तक है–
अथ चैनं िनयजातं िनयं वा मयसे मृतम्।
तथाप वं महाबाहाे नैवं शाेचतमहस।।२६।।
यद तू इसे सदैव जनेवाला अाैर सदा मरनेवाला माने तब भी तझे शाेक
नहीं करना चाहये; ाेंक–
अजुन सपूण ाणी ज से पहले बना शररवाले अाैर मरने के बाद भी
बना शररवाले हैं। ज के पूव अाैर मृयु के पात् भी दखायी नहीं पड़ते,
केवल ज-मृयु के बीच में ही शरर धारण कये ए दखायी देते हैं। अत:
इस परवतन के लये यथ क चता ाें करते हाे इस अाा काे देखता
काैन है इस पर कहते हैं–
अायवपयित कदेन-
मायवदित तथैव चाय:।
अायव ैनमय: णाेित
ुवायेनं वेद न चैव कत्।।२९।।
अजुन यह अाा सबके शरर में सदैव अवय है, अकाट है। इसलये
सपूण भूताणयाें के लये तू शाेक करने याेय नहीं है।
अजुन िय ेणी का साधक है। ीकृण कहते हैं क िय ेणी के
साधक के लये यु के अितर काेई कयाणकार राता है ही नहीं।
उठता है क िय है ा ाय: लाेग इसका अाशय समाज में जना
उप ा ण, िय, वैय, शू जाितयाें से ले ते हैं। इहें ही चार वण मान
लया जाता है। कत नहीं, शाकार ने वयं बताया है क िय ा है,
वण ा है यहाँ उहाेंने केवल िय का नाम लया अाैर अागे अठारहवें
अयाय तक इस का समाधान तत कया क वतत: ये वण हैं ा
अाैर कैसे इनमें परवतन हाेता है
दुिनया में लड़ाइयाँ हाेती हैं। व समटकर लड़ता है, येक जाित लड़ती
है; कत शा त वजय जीतनेवाले काे भी नहीं मलती। ये ताे बदले हैं। जाे
जसकाे जतना दबाता है, कालातर में उसे भी उतना ही दबना पड़ता है। यह
कैसी वजय है, जसमें इयाें काे सखानेवाला शाेक बना ही रहता है, अत
में शरर भी न हाे जाता है वातवक संघष ताे े अाैर े का है,
जसमें एक बार वजय हाे जाने पर कृित का सदा के लये िनराेध अाैर
परमपुष परमाा क ाि हाे जाती है। यह एेसी वजय है, जसके पीछे
हार नहीं है।
वैर लाेग तेरे पराम क िनदा करते ए बत से न कहने याेय वचनाें
काे कहेंगे। एक दाेष अाता है ताे चाराें अाेर से िनदा अाैर बुराइयाें क झड़
लग जाती है। न कहने याेय वचन भी कहे जाते हैं। इससे बड़ा दु:ख ा
हाेगा अत:–
इस यु में मराेगे ताे वग ा कराेगे– वर में वचरने क मता रहेगी।
ास के बाहर कृित में वचरने क धाराएँ िन हाे जायेंगी। परमदेव
परमाा में वेश दलानेवाल दैवी सपद् दय में पूणत: वाहत रहेगी
अथवा इस संघष में जीतने पर महामहम थित काे ा कराेगे। इसलये
अजुन यु के लये िनय करके खड़ा हाे।
ाय: लाेग इस ाेक के अथ में समझते हैं क इस यु में मराेगे ताे
वग जाअाेगे अाैर जीताेगे ताे पृवी का भाेग भाेगाेगे; कत अापकाे रण
हाेगा, अजुन कह चुका है– ‘‘भगवन् पृवी ही नहीं अपत ैलाे के
सााय अाैर देवताअाें के वामीपन अथात् इपद ा हाेने पर भी मैं उस
उपाय काे नहीं देखता, जाे इयाें काे सखानेवाले मेरे शाेक काे दूर कर
सके। यद इतना ही मलना है, ताे गाेवद मैं यु कदाप नहीं कँगा।’’
यद इतने पर भी ीकृण कहते क– अजुन लड़ाे। जीताेगे ताे पृवी पा
जाअाेगे, हाराेगे ताे वग के नागरक बन जाअाेगे, ताे ीकृण देते ही ा हैं
अजुन इससे अागे का सय, ेय (परमकयाण) क कामनावाला शय था,
ु देव ीकृण ने बताया क े-े के इस संघष में यद शरर
जसे स
का समय पूरा हाे जाता है अाैर लय तक नहीं पँच सके ताे वग ा
कराेगे अथात् वर में ही वचरण करने क मता ा कर लाेगे, दैवी सपद्
दय में ढल जायेगी अाैर इस शरर के रहते-रहते संघष में सफल हाे जाते
हाे ताे ‘महीम्’– सबसे महान् क महमा का उपभाेग कराेगे, महामहम
क थित ा कर लाेगे। जीताेगे ताे सवव; ाेंक महामहमव काे पाअाेगे
अाैर हाराेगे ताे देवव– दाेनाें हाथाें में ल ू रहेंगे। लाभ में भी लाभ अाैर हािन
में भी लाभ ही है। पुन: इसी पर बल देते हैं–
ाय: लाेगाें में ात है क ानमाग में कम (यु ) नहीं करना पड़ता। वे
कहते हैं क ानमाग में कम नहीं है। मैं ताे ‘श ँ’, ‘चैतय ँ’, ‘अहं
ा।’, ‘गुण ही गुण में बरतते हैं।’– एेसा मानकर हाथ पर हाथ रखकर
बैठ जाते हैं। याेगे र ीकृण के अनुसार यह ानयाेग नहीं है। ानयाेग में
भी वही ‘कम’ करना है, जाे िनकाम कमयाेग में कया जाता है। दाेनाें में
केवल बु का, काेण का अतर है। ानमागी अपनी थित समझकर
अपने पर िनभर हाेकर कम करता है, जबक िनकाम कमयाेगी इ के
अात हाेकर कम करता है। करना दाेनाें मागाे में है अाैर वह कम भी एक
ही है, जसे दाेनाें मागाे में कया जाना है। केवल कम करने के काेण दाे
हैं।
अजुन इसी बु काे अब तू िनकाम कमयाेग के वषय में सन, जससे
यु अा तू कमाे के बधन का अछ तरह नाश करे गा। यहाँ ीकृण ने
‘कम’ का नाम पहल बार लया, ले कन यह नहीं बताया क कम है ा
अब कम न बताकर पहले कम क वशेषताअाें पर काश डालते हैं–
कम करने में ही तेरा अधकार है, फल में कभी नहीं। एेसा समझ क
फल है ही नहीं। फल क वासनावाला भी मत हाे अाैर कम करने में तेर
अ ा भी न हाे।
(२) अजुन इसमें अार का अथात् बीज का नाश नहीं है। अार कर
दें ताे कृित के पास काेई उपाय नहीं क उसे न कर दे।
सैंतालसवें ाेक में उहाेंने कहा– अजुन कम करने में ही तेरा अधकार
है, फल में कभी नहीं। फल क वासनावाला भी मत हाे अाैर कम करने में
तेर अ ा भी न हाे अथात् िनरतर करने के लये उसी में लन हाेकर करें ;
कत यह नहीं बताया क वह कम है ा ाय: इस ाेक का उ रण देकर
लाेग कहते हैं क कुछ भी कराे, केवल फल क कामना मत कराे, हाे गया
िनकाम कमयाेग। कत अभी तक ीकृण ने बताया ही नहीं क वह कम है
काैन-सा, जसे करें यहाँ पर केवल कम क वशेषताअाें पर काश डाला क
कम देता ा है अाैर कम करते समय बरती जानेवाल सावधािनयाँ ा हैं
याें-का-याें बना अा है, जसे याेगे र अागे अयाय तीन-चार में प
करें गे।
धनंजय ‘अवरं कम’– िनकृ कम, वासनावाले कम बु याेग से अयत
दूर हैं। फल क कामनावाले कृपण हैं। वे अाा के साथ उदारता नहीं बरतते,
अत: समव बु याेग का अाय हण कर। जैसी कामना है वैसा मल भी
जाये ताे उसे भाेगने के लये शरर धारण करना पड़ेगा। अावागमन बना है ताे
कयाण कैसा साधक काे ताे माे क भी वासना नहीं रखनी चाहये; ाेंक
वासनाअाें से मु हाेना ही ताे माे है। फल क ाि का चतन करने से
साधक का समय यथ न हाे जाता है अाैर फल ा हाेने पर वह उसी फल
में उलझ जाता है। उसक साधना समा हाे जाती है। अागे वह भजन ाें
करे वहाँ से वह भटक जाता है। इसलये समव बु से याेग का अाचरण
करें ।
संसार में कम करने के दाे काेण चलत हैं। लाेग कम करते हैं ताे
उसका फल भी अवय चाहते हैं या फल न मले ताे कम करना ही नहीं
चाहते; कत याेगे र ीकृण इन कमाे काे बधनकार बताते ए ‘अाराधना’
काे एकमा कम मानते हैं। इस अयाय में उहाेंने कम का नाम मा लया।
अयाय ३ के ९वें ाेक में उसक परभाषा द अाैर चाैथे अयाय में कम के
वप पर वतार से काश डाला। तत ाेक में ीकृण ने सांसारक
परपरा से हटकर कम करने क कला बतायी क कम ताे कराे, ापूवक
कराे; कत फल के अधकार काे वेछा से छाेड़ दाे। फल जायेगा कहाँ
यही कमाे के करने का काैशल है। िनकाम साधक क सम श इस कार
कम में लगी रहती है। अाराधना के लये ही ताे शरर है। फर भी जासा
वाभावक है क ा सदैव कम ही करते रहना है या इसका कुछ परणाम
भी िनकले गा इसे देखें–
जस काल में तेर (येक साधक क) बु माेहपी दलदल काे पूणत:
पार कर ले गी, ले शमा भी माेह न रह जाय– न पु में, न धन में, न िता
में– इन सबसे लगाव टू ट जायेगा, उस समय जाे सनने याेय है उसे तू सन
सकेगा अाैर सने ए के अनुसार वैराय काे ा हाे सकेगा अथात् उसे
अाचरण में ढाल सकेगा। अभी ताे जाे सनने लायक है, उसे न ताे तू सन
पाया है अाैर अाचरण का ताे ही नहीं खड़ा हाेता। इसी याेयता पर पुन:
काश डालते हैं–
यह वचलत बु जस समय समाध में थर हाे जायेगी, तब तू याेग
क पराकाा अमृत पद काे ा करे गा। इस पर अजुन क उकठा
वाभावक है क वे महापुष कैसे हाेते हैं जाे अनामय परमपद में थत हैं,
समाध में जनक बु थर है उसने कया–
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
जहाित यदा कामासवापाथ मनाेगतान्।
अायेवाना त: थततदाेयते।।५५।।
पाथ जब मनुय मन में थत सपूण कामनाअाें काे याग देता है, तब
वह अाा से अाा में ही सत अा थरबु वाला कहा जाता है।
कामनाअाें के याग पर ही अाा का ददशन हाेता है। एेसा अााराम,
अातृ महापुष ही थत है।
दैहक, दैवक तथा भाैितक दु:खाें में जसका मन उ नहीं हाेता, सखाें
क ाि में जसक पृहा दूर हाे गयी है तथा जसके राग, भय अाैर ाेध
न हाे गये हैं, मननशीलता क चरम सीमा पर पँचा अा मुिन थत
कहा जाता है। उसके अय लण बताते हैं–
जाे पुष सव ेहरहत अा शभ अथवा अशभ काे ा हाेकर न ताे
स हाेता है अाैर न ेष करता है, उसक बु थर है। शभ वह है जाे
परमावप में लगाता है, अशभ वह है जाे कृित क अाेर ले जानेवाला
हाेता है। थत पुष अनुकूल परथितयाें से न स हाेता है अाैर न
ितकूल परथितयाें से ेष करता है; ाेंक ा हाेने याेय वत न उससे
भ है अाैर न पितत करनेवाले वकार ही उसके लये हैं अथात् अब साधन
से उसका अपना काेई याेजन नहीं रहा।
जस कार कअा अपने अंगाें काे समेट ले ता है, ठक वैसे ही यह पुष
जब सब अाेर से अपनी इयाें काे समेट ले ता है, तब उसक बु थर
हाेती है। खतरे काे देखते ही कअा जस कार अपने सर अाैर पैर समेट
ले ता है, ठक इसी कार जाे पुष वषयाें में वचरती ई इयाें काे सब
अाेर से समेटकर दय-देश में िनराेध कर ले ता है, उस काल में उस पुष क
बु थर हाेती है। कत यह ताे एक ात मा है। खतरे का एहसास
मटते ही कअा ताे अपने अंगाें काे पुन: फैला देता है, ा इसी कार
थत महापुष भी वषयाें में रस ले ने लगता है इस पर कहते हैं–
इयाें ारा वषयाें काे न हण करनेवाले पुषाें के वषय ताे िनवृ हाे
जाते हैं ाेंक वे हण ही नहीं करते; कत उनका राग िनवृ नहीं हाेता,
अास लगी रहती है। सपूण इयाें काे वषयाें से समेटनेवाले िनकामकमी
का राग भी ‘परं ा’– परमत व परमाा का सााकार करके िनवृ हाे
जाता है।
महापुष कए क तरह अपनी इयाें काे वषयाें में नहीं फैलाता। एक
बार जब इयाँ समट गयीं ताे संकार ही मट जाते हैं, पुन: वे नहीं
िनकलते। िनकाम कमयाेग के अाचरण ारा परमाा के य दशन के
साथ उस पुष का वषयाें से राग भी िनवृ हाे जाता है। ाय: चतन-पथ में
हठ करते हैं। हठ से इयाें काे राेककर वे वषय से ताे िनवृ हाे जाते हैं
कत मन में उनका चतन, राग लगा रहता है। यह अास ‘परं ा’–
परमाा का सााकार करने के बाद ही िनवृ हाेती है, इसके पूव नहीं।
‘पूय महाराज जी’ इस सबध में अपनी एक घटना बताया करते थे।
गृहयाग से पूव उहें तीन बार अाकाशवाणी ई थी। हमने पूछा– ‘‘महाराज
जी अापकाे अाकाशवाणी ाें ई, हम लाेगाें काे ताे नहीं ई ’’ तब इस पर
महाराज जी ने कहा– ‘हाे ई शंका माें के भई रही।’ अथात् यह सदेह मुझे
भी अा था। तब अनुभव में अाया क मैं सात ज से लगातार साधु ँ। चार
ज ताे केवल साधुअाें-सा वेश बनाये, ितलक लगाये, कहीं वभूित पाेते, कहीं
कमडल लये वचरण कर रहा ँ। याेगया क जानकार नहीं थी। ले कन
पछले तीन ज से बढ़या साधु ँ, जैसा हाेना चाहये। मुझमें याेगया
जागृत थी। पछले ज में पार लग चला था, िनवृ हाे चल थी; कत दाे
इछाएँ रह गयी थीं– एक ी अाैर दूसर गाँजा। अतमन में इछाएँ थीं,
कत बाहर से हमने शरर काे ढ़ रखा। मन में वासना लगी थी इसलये
ज ले ना पड़ा। ज ले ते ही भगवान ने थाेड़े ही समय में सब दखा-सनाकर
िनवृ दला द, दाे-तीन चटकना दया अाैर साधु बना दया।
ठक यही बात ीकृण कहते हैं क इयाें ारा वषयाें काे न हण
करनेवाले पुष के भी वषय ताे िनवृ हाे जाते हैं; कत साधना ारा
परमपुष परमाा का सााकार कर ले ने पर वह वषयाें के राग से भी
िनवृ हाे जाता है। अत: जब तक सााकार न हाे, कम करना है।
(रामचरतमानस, ५/४८/६)
उन सपूण इयाें काे संयत करके याेग से यु अाैर समपण के साथ
मेरे अात हाे; ाेंक जस पुष क इयाँ वश में हाेती हैं, उसी क बु
थर हाेती है। यहाँ याेगे र ीकृण साधन के िनषेधाक अवयवाें के साथ
उसके वधेयाक पहलू पर जाेर देते हैं। केवल संयम अाैर िनषेध से इयाँ
वश में नहीं हाेतीं, समपण के साथ इ-चतन अिनवाय है। इ- चतन के
अभाव में वषय-चतन हाेगा, जसके कुपरणाम ीकृण के ही शदाें में देखें–
वषयाें का चतन करनेवाले पुष क उन वषयाें में अास हाे जाती है।
अास से कामना उप हाेती है। कामना-पूित में यवधान अाने से ाेध
उप हाेता है। ाेध कसे ज देता है –
ाेध से वशेष मूढ़ता अथात् अववेक उप हाेता है। िनय-अिनय वत
का वचार नहीं रह जाता। अववेक से रण-श मत हाे जाती है (जैसा
अजुन काे अा था– ‘मतीव च मे मन:।’ (१/३०) गीता के समापन पर उसने
कहा– ‘नाे माेह: ृितल धा।’ (१८/७३) ा करें , ा न करें – इसका
िनणय नहीं हाे पाता।), ृित मत हाेने से याेग- परायण बु न हाे जाती
है अाैर बु नाश हाेने से यह पुष अपने ेयसाधन से युत हाे जाता है।
रागेषवयुैत वषयािनयैरन्।
अावयैवधेयाा सादमधगछित।।६४।।
जल में नाव काे जस कार वायु हरण करके गतय से दूर कर देती है,
ठक वैसे ही वषयाें में वचरण करती ई इयाें में जस इय के साथ
मन रहता है, वह एक ही इय उस अयु पुष क बु काे हर ले ती है।
अत: याेग का अाचरण अिनवाय है। याक अाचरण पर ीकृण पुन: बल
देते हैं–
(रामचरतमानस, २/३२३/८)
जाे याेगी परमाथ पथ में िनरतर सजग अाैैर भाैितक एषणाअाें से सवथा
िन:पृह हाेता है, वही उस इ में वेश पाता है। वह रहता ताे संसार में ही
है; कत संसार का उस पर भाव नहीं पड़ता। महापुष क इस रहनी का
चण देखें–
अापूयमाणमचलितं
समुमाप: वशत यत्।
तकामा यं वशत सवे।
स शातमााेित न कामकामी।।७०।।
भयंकर वेग से बहनेवाल सहाें नदयाें के ाेत फसल काे न करते ए,
हयाएँ करते ए, नगराें काे डबाेते ए, हाहाकार मचाते ए बड़े वेग से समु
में गरते हैं; कत समु काे न एक इं च ऊपर उठा पाते हैं अाैर न गरा ही
पाते हैं, बक उसी में समाहत हाे जाते हैं। ठक इसी कार थत
महापुष के ित सपूण भाेग उतने ही वेग से अाते हैं, कत समाहत हाे
जाते हैं। उन महापुषाें में न शभ संकार डाल पाते हैं, न अशभ। याेगी के
कम ‘अश’ अाैर ‘अकृण’ हाेते हैं। ाेंक जस च पर संकार पड़ते हैं,
उसका िनराेध अाैर वलनीकरण हाे गया। इसके साथ ही भगव ा क थित
अा गयी। अब संकार पड़े भी ताे कहाँ इस एक ही ाेक में ीकृण ने
अजुन के कई ाें का समाधान कर दया। उसक जासा थी क थत
महापुष के लण ा हैं वह कैसे बाेलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता
है ीकृण ने एक ही शद में उ र दया क वे समुवत् हाेते हैं। उनके लये
वध-िनषेध नहीं हाेता क एेसे बैठाे अाैर एेसे चलाे। वे ही परमशात काे ा
हाेते हैं; ाेंक वे संयमी हैं। भाेगाें क कामनावाला शात नहीं पाता। इसी
पर पुन: बल देते हैं–
वहाय कामाय: सवापुमांरित िन:पृह:।
िनममाे िनरहार: स शातमधगछित।।७१।।
जाे पुष सपूण कामनाअाें काे यागकर ‘िनमम:’– मैं अाैर मेरे के भाव
तथा अहंकार अाैर पृहा से रहत अा बरतता है, वह उस परमशात काे
ा हाेता है जसके बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।
िनकष–
ाय: कुछ लाेग कहते हैं क दूसरे अयाय में गीता पूण हाे गयी; कत
यद केवल कम का नाम मा ले ने से कम पूरा हाे जाता हाे, तब ताे गीता
का समापन माना जा सकता है। इस अयाय में याेगे र ीकृण ने यही
बताया क– अजुन िनकाम कमयाेग के वषय में सन, जसे जानकर तू
संसार-बधन से ट जायेगा। कम करने में तेरा अधकार है, फल में कभी
नहीं। कम करने में तेर अ ा भी न हाे। िनरतर करने के लये तपर हाे
जा। इसके परणाम में तू ‘परं ा’ (२/५९)– परमपुष का दशन कर
थत बनेगा, परमशात पायेगा। कत यह नहीं बताया क ‘कम’ है ा
इस अयाय में कम क गरमा, उसे करने में बरती जानेवाल सावधानी
अाैर थत के लण बताकर ीकृण ने अजुन के मन में कम के ित
उकठा जागृत क है, उसे कुछ दये हैं। अाा शा त है, सनातन है,
उसे जानकर त वदशी बनाे। उसक ाि के दाे साधन हैं–ानयाेग अाैर
िनकाम कमयाेग।
अपनी श काे समझकर, हािन-लाभ का वयं िनणय ले कर कम में वृ
हाेना ानमाग है तथा इ पर िनभर हाेकर समपण के साथ उसी कम में
वृ हाेना िनकाम कममाग या भमाग है। गाेवामी तलसीदास ने दाेनाें का
चण इस कार कया है–
(रामचरतमानस, ३/४२/८-९)
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ तृतीयाेऽयाय: ।।
अयाय दाे में भगवान ीकृण ने बताया क यह बु तेरे लये ानमाग
के वषय में कही गयी। काैन-सी बु यही क यु कर। जीताेगे ताे
महामहम क थित ा कर लाेगे अाैर हाराेगे ताे देवव है। जीत में सवव
है अाैर हार में भी देवव है, कुछ मलता ही है। अत: इस से लाभ अाैर
हािन दाेनाें में कुछ-न-कुछ मलता ही है, क त् भी ित नहीं है। फर कहा–
अब इसी काे तू िनकाम कमयाेग के वषय में सन, जस बु से यु हाेकर
तू कमाे के बधन से अछ कार ट जायेगा। फर उसक वशेषताअाें पर
काश डाला। कम करते समय अावयक सावधािनयाें पर बल दया क फल
क वासनावाला न हाे, कामनाअाें से रहत हाेकर कम में वृ हाे अाैर कम
करने में तेर अ ा भी न हाे, जससे तू कमबधन से मु हाे जायेगा। मु
ताे हाेगा; कत राते में अपनी थित नहीं दखायी पड़।
अजुन उवाच
िनकाम कमयाेग में अजुन काे भयंकरता दखायी पड़; ाेंक इसमें कम
करने में ही अधकार है, फल में कभी नहीं। कम करने में अ ा भी न हाे
अाैर िनरतर समपण के साथ याेग पर रखते ए कम में लगा रह।
जबक ानमाग में हाराेगे ताे देवव है, जीतने पर महामहम थित है। अपनी
लाभ-हािन वयं देखते ए अागे बढ़ना है। इस कार अजुन काे िनकाम
कमयाेग क अपेा ानमाग सरल तीत अा। इसलये उसने िनवेदन
कया–
अाप इन मले ए-से वचनाें से मेर बु माेहत-सी करते हैं। अाप ताे
मेर बु का माेह दूर करने में वृ ए हैं। अत: इनमें से एक िनय करके
कहये, जससे मैं ‘ेय’– परमकयाण माे काे ा हाे जाऊँ। इस पर
ीकृण ने कहा–
ीभगवानुवाच
िनपाप अजुन इस संसार में सय-शाेध क दाे धाराएँ मेरे ारा पहले
कही गयी हैं। पहले का तापय कभी सययुग या ेता में नहीं, बक अभी
जसे दूसरे अयाय में कह अाये हैं। ािनयाें के लये ानमाग अाैर याेगयाें
के लये िनकाम कममाग बताया गया। दाेनाें ही मागाे के अनुसार कम ताे
करना ही पड़ेगा। कम अिनवाय है।
ाय: इस थल पर लाेग भगवपथ में सं माग अाैर बचाव ढूँ ढ़ने लगते
हैं। ‘‘कम अार ही न करें , हाे गये िनकमी’’– कहीं एेसी ात न रह जाय,
इसलये ीकृण बल देते हैं क कमाे काे न अार करने से काेई िनकम-
भाव काे नहीं ा हाेता। शभाशभ कमाे का जहाँ अत है, परम िनकमता क
उस थित काे कम करके ही पाया जा सकता है। इसी कार बत से लाेग
कहते हैं, ‘‘हम ताे ानमागी हैं, ानमाग में कम है ही नहीं।’’– एेसा मानकर
कमाे काे यागनेवाले ानी नहीं हाेते। अार क ई या काे यागने मा
से काेई भगवसााकारपी परमस काे ा नहीं हाेता है; ाेंक–
काेई भी पुष कसी भी काल में णमा भी कम कये बना नहीं रहता;
ाेंक सभी पुष कृित से उप ए गुणाें ारा ववश हाेकर कम करते हैं।
कृित अाैर कृित से उप गुण जब तक जीवत हैं, तब तक काेई भी पुष
कम कये बना रह ही नहीं सकता।
अयाय चार के तैंतीसवें अाैर सैंतीसवें ाेक में ीकृण कहते हैं क
यावा कम ान में समा हाे जाते हैं। ानपी अ सपूण कमाे काे
भ कर देती है। यहाँ वे कहते हैं क कम कये बना काेई रहता ही नहीं।
अतत: वे महापुष कहते ा हैं उनका अाशय है क य करते-करते तीनाें
गुणाें से अतीत हाे जाने पर मन के वलय अाैर सााकार के साथ य का
परणाम िनकल अाने पर कम शेष हाे जाते हैं। उस िनधारत या क पूणता
से पहले कम मटते नहीं, कृित पड नहीं छाेड़ती।
अजुन तू िनधारत कये ए कम काे कर। अथात् कम ताे बत से हैं,
उनमें से काेई एक चुना अा है; उसी िनयत कम काे कर। कम न करने क
अपेा कम करना ही े है। इसलये क करते रहाेगे, थाेड़ भी दूर तय
कर लाेगे ताे जैसा पीछे बता अाये हैं– महान् ज-मरण के भय से उ ार
करनेवाला है, इसलये े है। कम न करने से तेर शरर-याा भी स नहीं
हाेगी। शरर-याा का अथ लाेग कहते हैं– ‘शरर-िनवाह’। कैसा शरर-िनवाह
ा अाप शरर हैं यह पुष ज-जातराें से, युग-युगातराें से शरराें क
याा ही ताे करता चला अा रहा है। जैसे व जीण अा ताे दूसरा-तीसरा
धारण कया, इसी कार कट-पतंग से मानव तक, ा से ले कर यावा
जगत् परवतनशील है। ऊपर-नीचे याेिनयाें में बराबर यह जीव शरराें क ही
ताे याा कर रहा है। कम काेई एेसी वत है जाे इस याा काे स कर देती
है, पूण कर देती है। मान लें , एक ही ज ले ना पड़ा ताे याा जार है, अभी
ताे पथक चल ही रहा है। वह दूसरे शरराें क याा कर रहा है। याा पूण
तब हाेती है जब ‘गतय’ अा जाय। परमाा में थित के अनतर इस
अाा काे शरराें क याा नहीं करनी पड़ती अथात् शरर-याग अाैर शरर-
धारण वाला म समा हाे जाता है। अत: कम काेई एेसी वत है क इस
पुष काे पुन: शरराें क याा नहीं करनी पड़ती। ‘माेयसेऽशभात्’ (गीता,
४/१६)– अजुन इस कम काे करके तू संसार-बधन ‘अशभ’ से ट जायेगा।
कम काेई एेसी वत है जाे संसार-बधन से मु दलाती है। अब खड़ा
हाेता है क वह िनधारत कम है ा इस पर कहते हैं–
अयाय दाे में पहल बार कम का नाम लया, उसक वशेषताअाें पर बल
दया, उसमें बरती जानेवाल सावधािनयाें पर काश डाला, ले कन यह नहीं
बताया क कम ा है यहाँ अयाय तीन में बताया क काेई बगैर कम कये
नहीं रहता। कृित से पराधीन हाेकर मनुय कम करता है। इसके बावजूद भी
जाे लाेग इयाें काे हठ से राेककर मन से वषयाें का चतन करते हैं वे
दी हैं–द का अाचरण करनेवाले हैं। इसलये अजुन मन से इयाें काे
समेटकर तू कम कर। कत याें-का-याें है क काैन-सा कम करे इस
पर याेगे र ीकृण ने कहा– अजुन तू िनधारत कये ए कम काे कर।
एेसे महापुष ने कप के अाद में यसहत जा क रचना क। कप
नीराेग बनाता है। वै कप देते हैं, काेई कायाकप कराता है। यह णक
शरराें का कप है। वातवक कप ताे तब है, जब भवराेग से मु मल
जाय। अाराधना का ार इस कप क शअात है। अाराधना पूण ई ताे
अापका कप पूरा हाे गया।
इस कम काे वेद से उप अा जान। वेद थत महापुषाें क वाणी
है। जाे त व वदत नहीं है उसक य अनुभूित का नाम वेद है, न क
कुछ ाेक-संह। वेद अवनाशी परमाा से उप अा जान। कहा ताे
महााअाें ने; कत वे परमाा के साथ तूप हाे चुके हैं, उनके मायम से
अवनाशी परमाा ही बाेलता है इसलये वेद काे अपाैषेय कहा जाता है।
महापुष वेद कहाँ से पा गये ताे वेद अवनाशी परमाा से उप अा। वे
महापुष उसके तूप हैं, वे मा य हैं इसलये उनके ारा वही बाेलता है।
ाेंक य के ारा ही मन के िनराेधकाल में वह वदत हाेता है। इससे
सवयापी परम अर परमाा सवदा य में ही ितत है। य ही उसे पाने
का एकमा उपाय है। इसी पर बल देते हैं–
परत जाे मनुय अाा में ही रत, अातृ अाैर अाा में ही सत है,
उसके लये काेई क य नहीं रह जाता। यही ताे लय था। जब अय,
सनातन, अवनाशी अात व ा हाे गया ताे अागे ढूँ ढ़े कसे एेसे पुष के
लये न कम क अावयकता है, न कसी अाराधना क। अाा अाैर परमाा
एक दूसरे के पयाय हैं। इसी का पुन: चण करते हैं–
इस संसार में उस पुष का कम कये जाने से काेई लाभ नहीं है अाैर न
छाेड़ देने से काेई हािन है, जबक पहले अावयक था। उसका सपूण ाणयाें
में काेई वाथ-सबध नहीं रह जाता। अाा ही ताे शा त, सनातन, अय,
अपरवतनशील अाैर अय है। जब उसी काे पा लया, उसी से सत, उसी
से तृ , उसी में अाेताेत अाैर थत है, अागे काेई स ा ही नहीं ताे कसकाे
खाेजे मले गा ा उस पुष के लये कम छाेड़ देने से काेई हािन भी नहीं
है; ाेंक वकार जस पर अंकत हाेते हैं, वह च ही न रहा। उसका
सपूण भूताें में, बा जगत् अाैर अातरक संकपाें क परत में ले शमा भी
अथ नहीं रहता। सबसे बड़ा अथ ताे था परमाा, जब वही उपलध है ताे
दूसराें से उसका ा याेजन हाेगा
जनक माने राजा जनक नहीं, जनक जदाता काे कहते हैं। याेग ही
जनक है जाे अापके वप काे ज देता है, कट करता है। याेग से संयु
येक महापुष जनक हैं। एेसे याेगसंयु बत से ऋष ‘जनकादय:’– जनक
इयाद ानीजन महापुष भी ‘कमणा एव ह संस म्’– कमाे के ारा ही
परमस काे ा ए हैं। परमस माने परमत व परमाा क ाि ।
जनक इयाद जतने भी पूव में हाेनेवाले महष ए हैं, इस ‘काय कम’ के
ारा, जाे य क या है, इस कम काे करके ही ‘संस म्’– परमस
काे ा ए हैं। कत ाि के पात् वे भी लाेकसंह काे देखकर कम करते
हैं, लाेकहत काे चाहते ए कम करते हैं। अत: तू भी ाि के लये अाैर
ाि के पात् लाेकनायक बनने के लये काय कम करने के ही याेय है।
ाें –
े पुष जाे-जाे अाचरण करता है, अय पुष भी उसके अनुसार ही
करते हैं। वह महापुष जाे कुछ माण कर देता है, संसार उसका अनुसरण
करता है।
पहले ीकृण ने वप में थत, अातृ महापुष क रहनी पर काश
डाला क उसके लये कम कये जाने से न काेई लाभ है अाैर न छाेड़ने से
काेई हािन, फर भी जनकाद कम में भल कार बरतते थे। यहाँ उन
महापुषाें से ीकृण धीरे से अपनी तलना कर देते हैं क मैं भी एक
महापुष ँ।
हे पाथ मुझे तीनाें लाेकाें में काेई क य नहीं है। पीछे कह अाये हैं– उस
महापुष का समत भूताें में काेई क य नहीं है। यहाँ कहते हैं– तीनाें लाेकाें
में मुझे कुछ भी क य शेष नहीं है तथा कंचा ा हाेने याेय वत
अा नहीं है, तब भी मैं कम में भल कार बरतता ँ। ाें –
ाेंक यद मैं सावधान हाेकर कदाचत् कम में न बरतूँ ताे मनुय मेरे
बताव के अनुसार बरतने लग जायेंगे। ताे ा अापका अनुकरण भी बुरा है
ीकृण कहते हैं– हाँ
वप में थत महापुष सतक रहकर यद अाराधना-म में न लगे रहें
ताे समाज उनक नकल करके हाे जायेगा। महापुष ने ताे अाराधना पूण
करके परम नैकय क थित काे पाया है। वे न करें ताे उनके लये काेई
हािन नहीं है; कत समाज ने ताे अभी अाराधना अार ही नहीं क।
पीछे वालाें के मागदशन के लये ही महापुष कम करते हैं, मैं भी करता ँ
अथात् ीकृण एक महापुष थे, न क बैकुठ से अाये ए काेई वशेष
भगवान। उहाेंने कहा क– महापुष लाेकसंह के लये कम करता है, मैं भी
करता ँ। यद न कँ ताे लाेगाें का पतन हाे जाय, सभी कम छाेड़ बैठेंगे।
मन बड़ा चंचल है। यह सब कुछ चाहता है, केवल भजन नहीं चाहता।
यद वपथ महापुष कम न करें ताे देखादेखी पीछे वाले भी तरत कम
छाेड़ देंगे। उहें बहाना मल जायेगा क ये भजन नहीं करते, पान खाते हैं,
इ लगाते हैं, सामाय बातें करते हैं फर भी महापुष कहलाते हैं– एेसा
साेचकर वे भी अाराधना से हट जाते हैं, पितत हाे जाते हैं। ीकृण कहते हैं
क यद मैं कम न कँ ताे सब हाे जायँ अाैर मैं वणसंकर का क ा बनूँ।
याें के दूषत हाेने से वणसंकर ताे देखा-सना जाता है। अजुन भी इसी
भय से वकल था क याँ दूषत हाेंगी ताे वणसंकर पैदा हाेगा; कत
ीकृण कहते हैं– यद मैं सावधान हाेकर अाराधना में लगा न रँ ताे
वणसंकर का क ा हाेऊँ। वतत: अाा का श वण है परमाा। अपने
शा त वप के पथ से भटक जाना वणसंकरता है। यद वपथ महापुष
या में नहीं बरतते ताे लाेग उनके अनुकरण से यारहत हाे जायेंगे,
अापथ से भटक जायेंगे, वणसंकर हाे जायेंगे। वे कृित में खाे जायेंगे।
यद महापुष सावधान हाेकर या (िनयत कम) में बरतते ए लाेगाें से
या न कराये ताे वह उस सार जा का हनन करनेवाला, मारनेवाला बने।
साधना-म में चलकर उस मूल अवनाशी क ाि ही जीवन है अाैर कृित
में बखरे रहना, भटक जाना ही मृयु है। कत वह महापुष इस सार जा
काे यद या-पथ पर नहीं चलाता, इस सार जा काे बखराव से राेककर
सपथ पर नहीं चलाता ताे वह सार जा का हनन करनेवाला हयारा है,
हंसक है अाैर मश: चलते ए जाे चला ले ता है वह श अहंसक है। गीता
के अनुसार शरराें का िनधन, न र कले वराें का िनधन मा परवतन है, हंसा
नहीं।
हे भारत कम में अास ए अानीजन जैसे कम करते हैं, वैसे ही
अनास अा वान्, पूणाता भी लाेक-दय में ेरणा अाैर कयाण-संह
चाहता अा कम करे । य क वध जानते अाैर करते ए भी हम अानी
हैं। ान का अथ है य जानकार। जब तक ले शमा भी हम अलग हैं,
अाराय अलग है तब तक अान व मान है। जब तक अान है, तब तक
कम में अास रहती है। अानी जतनी अास से अाराधना करता है,
उसी कार अनास। जसे कमाे से याेजन नहीं है ताे अास ाें हाेगी
एेसा पूणाता महापुष भी लाेकहत के लये कम करे , दैवी सपद् का उकष
करे , जससे समाज उस पर चल सके।
ानी पुषाें काे चाहये क कमाे में अासवाले अािनयाें क बु में
म न पैदा करें अथात् वपथ महापुष यान दें क उनके कसी अाचरण
से पीछे वालाें के मन में कम के ित अ ा न उप हाे जाय। परमात व
से संयु महापुष काे भी चाहये क वयं भल कार िनयत कम करता
अा उनसे करावे।
यही कारण था क ‘पूय महाराज जी’ वृ ावथा में भी रात के दाे बजे
ही उठकर बैठ जायँ, खाँसने लगें। तीन बजे बाेलने लगें– ‘‘उठाे म के
पुतलाे ’’ सब उठकर चतन में लग जायँ, ताे वयं थाेड़ा ले ट जायँ। कुछ देर
बाद फर उठकर बैठ जायँ। कहें– ‘‘तम लाेग साेचते हाे क महाराज साे रहे
हैं; कत मैं साेता नहीं, ास में लगा ँ। वृ ावथा का शरर है, बैठने में
क हाेता है इसी से मैं पड़ा रहता ँ, ले कन तहें ताे थर अाैर सीधे बैठकर
चतन में लगना है। जब तक तैलधारा के स श ास क डाेर न लग जाय,
म न टू टे, अय संकप बीच में यवधान उप न कर सकंे , तब तक सतत
लगे रहना साधक का धम है। मेर ास ताे बाँस क तरह थर खड़ है।’’
यही कारण है क अनुयाययाें से कराने के लये वह महापुष भल कार
कम में बरतता है। ‘जस गुन काे सखावै, उसे करके दखावै।’
अार से पूितपयत कम कृित के गुणाें ारा कये जाते हैं फर भी
अहंकार से वशेष मूढ़ पुष ‘मैं क ा ँ’– एेसा मान ले ता है। यह कैसे माना
जाय क अाराधना कृित के गुणाें ारा हाेती है एेसा कसने देखा इस पर
कहते हैं–
कृित के गुणाें से माेहत ए पुष गुण अाैर कमाे में मश: िनमल गुणाें
क अाेर उ ित देखकर उनमें अास हाेते हैं। उन अछ कार न
समझनेवाले ‘मदान्’– शथल य वालाें काे अछ कार जाननेवाला ानी
चलायमान न करे । उहें हताेसाहत न करे बक ाेसाहन दे; ाेंक कम
करके ही उहें परम नैकय क थित काे पाना है। अपनी श अाैर थित
का अाकलन करके कम में वृ हाेनेवाले ानमागी साधकाें काे चाहये क
कम काे गुणाें क देन मानें, अपने काे क ा मानकर अहंकार न बन जायँ,
िनमल गुणाें के ा हाेने पर भी उनमें अास न हाें। कत िनकाम कमयाेगी
काे कम अाैर गुणाें के वे षण में समय देने क काेई अावयकता नहीं है।
उसे ताे बस समपण के साथ कम करते जाना है। काैन गुण अा-जा रहा है,
यह देखना इ क जेदार हाे जाती है। गुणाें का परवतन अाैर म-म
से उथान वह इ क ही देन मानता है अाैर कम हाेने काे भी उहीं क देन
मानता है। अत: क ापन का अहंकार या गुणाें में अास हाेने क समया
उसके लये नहीं रहती, जबक अनवरत लगा रहता है। इसी पर अाैर साथ ही
यु का वप बताते ए ीकृण कहते हैं–
सभी ाणी अपनी कृित काे ा हाेते हैं। अपने वभाव से परवश हाेकर
कम में भाग ले ते हैं। यदशी ानी भी अपनी कृित के अनुसार चेा
करता है। ाणी अपने कमाे में बरतते हैं अाैर ानी अपने वप में। जैसा
जसक कृित का दबाव है, वैसा ही काय करता है। यह वयंस है। इसमें
िनराकरण काेई ा करे गा यही कारण है क सभी लाेग मेरे मत के अनुसार
कम में वृ नहीं हाे पाते। वे अाशा, ममता, संताप का; दूसरे शदाें में राग-
ेष का याग नहीं कर पाते, जससे कम का सयक् अाचरण नहीं हाे पाता।
इसी काे अाैर प करते हैं अाैर दूसरा कारण बताते हैं–
इय अाैर इयाें के भाेगाें में राग अाैर ेष थत हैं। इन दाेनाें के वश
में नहीं हाेना चाहये; ाेंक इस कयाण-माग में कमाे से ट जानेवाल
णाल में ये राग अाैर ेष दुधष शु हैं, अाराधना का अपहरण कर ले जाते
हैं। जब शु भीतर हैं ताे बाहर काेई कसी से ाें लड़ेगा शु ताे इय
अाैर भाेगाें के संसग में हैं, अत:करण में हैं, अत: यह यु भी अत:करण का
यु है। ाेंक शरर ही े है, जसमें सजातीय अाैर वजातीय दाेनाें
वृ याँ, व ा अाैर अव ा रहती हैं, जाे माया के दाे अंग हैं। इहीं वृ याें
का पार पाना, सजातीय वृ काे साधकर वजातीय का अत करना यु है।
वजातीय समा हाेने पर सजातीय का उपयाेग समा हाे जाता है। वप
का पश करके सजातीय का भी उसके अतराल में वलय हाे जाना, इस
कार कृित का पार पाना यु है, जाे यान में ही सव है।
राग अाैर ेष के शमन में समय लगता है, इसलये बत से साधक या
काे छाेड़कर सहसा महापुष क नकल करने लग जाते हैं। ीकृण इससे
सावधान करते हैं–
इस भगवपथ में नकल का बाय है। ‘पूय महाराज जी’ काे एक बार
अाकाशवाणी ई क अनुसइया में जाकर रहें, ताे जू से चकूट अाये अाैर
अनुसइया के घाेर जंगल में िनवास करने लगे। बत से महाा उधर से
अाते-जाते थे। एक ने देखा क परमहंस जी दगबर, नंग-धड़ंग िनवास करते
हैं, उनका सान है, ताे तरत उहाेंने काैपीन फंे का, दड-कमडल एक अय
महाा काे दे दया अाैर दगबर हाे गये। कुछ काल बाद अाये ताे देखा क
परमहंस जी लाेगाें से बातें भी करते हैं, गालयाँ भी देते हैं। महाराज जी काे
अादेश अा था क भाें के कयाणाथ कुछ ताड़ना दया करें , इस पथ के
पथकाें पर िनगरानी रखें। महाराज जी क नकल कर वे महाा भी गालयाँ
देने लगें; कत बदले में लाेग भी कुछ-न-कुछ कह बैठते थे। वे महाा कहने
लगे–वहाँ काेई बाेलता नहीं, यहाँ ताे जवाब देते हैं।
दाे-एक साल बाद लाैटे ताे देखा क परमहंस जी ग े पर बैठे हैं, लाेग
पंखा झल रहे हैं, चँवर चल रहे हैं। उहाेंने जंगल के ही एक खडहर में तत
मँगाया, ग े बछवाये, दाे अादमयाें काे चँवर चलाने के लये िनयु कर
दया। हर साेमवार काे भीड़ भी लगाने लगे क पु चाहये ताे पचास पये,
पुी चाहये ताे पचीस पये। कत ‘उघरं ह अत न हाेइ िनबा।’
(रामचरतमानस, १/६/६)– एक महीने में ही काैड़ के दाे हाेकर चल दये।
इस भगवपथ में नकल साथ नहीं देता। साधक काे वधम का ही अाचरण
करना चाहये।
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
इयाँ, मन अाैर बु इसके वासथान कहे जाते हैं। यह काम इन मन,
बु अाैर इयाें के ारा ही ान काे अाछादत करके जीवाा काे माेह में
डालता है।
इसलए अजुन तू पहले इयाें काे ‘िनयय’– संयत कर; ाेंक शु ताे
इनके अतराल में छपा है। वह तहारे शरर के भीतर है। बाहर खाेजने से
वह कहीं नहीं मले गा। यह दय-देश क, अतजगत् क लड़ाई है। इयाें
काे वश में करके ान अाैर वान का नाश करनेवाले इस पापी काम काे ही
मार। काम सीधे पकड़ में नहीं अायेगा अत: वकाराें के िनवास-थान का ही
घेराव कर लाे, इयाें काे ही संयत कर लाे। कत इयाें अाैर मन काे
संयत करना ताे बड़ा कठन है, ा यह हम कर पायेंगे इस पर ीकृण
अापक सामय बताते ए ाेसाहत करते हैं–
इस कार बु से परे अथात् सू अाैर बलवान् अपने अाा काे
जानकर, अाबल काे समझकर, बु के ारा अपने मन काे वश में करके
अजुन इस कामपी दुजय शु काे मार। अपनी श काे समझकर इस
दुजय शु काे मार। काम एक दुजय शु है। इयाें के ारा यह अाा काे
माेहत करता है, ताे अपनी श समझकर, अाा काे बलवान् समझकर
कामपी शु काे मार। कहने क अावयकता नहीं है क यह शु अातरक
है अाैर यु भी अतदेश का ही है।
िनकष–
उहाेंने कम में वृ साधकाें काे चलायमान न करने काे कहा; ाेंक
कम करके ही उन साधकाें काे थित ा करनी है। यद नहीं करें गे ताे न
हाे जायेंगे। इस कम के लये यानथ हाेकर यु करना है। अाँखंे बद हैं,
इयाें से समटकर च का िनराेध हाे चला ताे यु कैसा उस समय
काम-ाेध, राग-ेष बाधक हाेते हैं। इन वजातीय वृ याें का पार पाना ही
यु है। अासर सपद् कुे, वजातीय वृ काे शनै:-शनै: छाँटते ए
यानथ हाेते जाना ही यु है। वतत: यान में ही यु है। यही इस अयाय
का सारांश है, जसमें न कम बताया न य। यद य समझ में अा जाय ताे
कम समझ में अा जाय। अभी ताे कम समझाया ही नहीं गया।
सपूण गीता पर पात करें ताे अयाय दाे में कहा क शरर नाशवान्
है, अत: यु कर। गीता में यु का यही ठाेस कारण बताया गया। अागे
ानयाेग के सदभ में िय के लये यु ही कयाण का एकमा साधन
बताया अाैर कहा क यह बु तेरे लये ानयाेग के वषय में कही गयी।
काैन-सी बु यही क हार-जीत दाेनाें याें में लाभ ही है, एेसा समझकर
यु कर। फर अयाय चार में कहा क याेग में थत रहकर दय में थत
अपने इस संशय काे ानपी तलवार ारा काट। वह तलवार याेग में है।
अयाय पाँच से दस तक यु क चचा तक नहीं है। यारहवें अयाय में केवल
इतना कहा क ये शु मेरे ारा पहले से ही मारे गये हैं, तू िनम मा
हाेकर खड़ा भर हाे जा। यश काे ा कर। ये तहारे बना भी मारे ए हैं,
ेरक करा ले गा। तू इन मुदाे काे ही मार।
अयाय पह में संसार सवढ़ मूलवाला पीपल वृ-जैसा कहा गया,
जसे असंगतापी श ारा काटकर उस परमपद काे खाेजने का िनदेश
मला। अागे के अयायाें में यु का उ े ख नहीं है। हाँ, अयाय साेलह में
असराें का चण अवय है, जाे नरकगामी हैं। अयाय तीन में ही यु का
वशद चण है। ाेक ३० से ाेक ४३ तक यु का वप, उसक
अिनवायता, यु न करनेवालाें का वनाश, यु में मारे जानेवाले शुअाें के
नाम, उहें मारने के लये अपनी श का अा ान अाैर िनय ही उहें
काटकर फंे कने पर बल दया। इस अयाय में शु अाैर शु का अातरक
वप प है, जनके वनाश क ेरणा द गयी है। अत:–
ॐ तसदित ीम गव तासूपिनषस व ायां याेगशाे ीकृणाजुनसंवादे
‘शुवनाशेरणा’ नाम तृतीयाेऽयाय:।।३।।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ चतथाेऽयाय: ।।
अयाय तीन में याेगे र ीकृण ने अा त कया क दाेष से रहत
हाेकर जाे भी मानव ायु हाे मेरे मत के अनुसार चले गा, वह कमाे के
बधन से भल कार ट जायेगा। कमबधन से मु दलाने क मता याेग
(ानयाेग तथा कमयाेग, दाेनाें) में है। याेग में ही यु -संचार िनहत है। तत
अयाय में वे बताते हैं क इस याेग का णेता काैन है इसका मक
वकास कैसे हाेता है
ीभगवानुवाच
अजुन मैंने इस अवनाशी याेग काे कप के अाद में वववान् (सूय) के
ित कहा, वववान् ने मनु से अाैर मनु ने इवाकु से कहा। कसने कहा
मैंने। ीकृण काैन थे एक याेगी। त वथत महापुष ही इस अवनाशी याेग
काे कप के अार में अथात् भजन के अार में वववान् अथात् जाे
ववश हैं, एेसे ाणयाें से कहता है। सरा में संचार कर देता है। यहाँ सूय एक
तीक है; ाेंक सरा में ही वह परम काशवप है अाैर वहीं उसके पाने
का वधान है। वातवक काशदाता (सूय) वहीं है।
ीकृण कहते हैं– यह याेग मैंने अार में सूय से कहा। ‘चाे: सूयाे
अजायत’– महापुष के -िनेप मा से याेग के संकार सरा में सारत
हाे जाते हैं। वयंकाश, ववश परमे र का िनवास सबके दय में है। सरा
( ास) के िनराेध से ही उसक ाि का वधान है। सरा में संकाराें का
सृजन ही सूय के ित कहना है। समय अाने पर यह संकार मन में फुरत
हाेगा, यही सूय का मनु से कहना है। मन में फुरत हाेने पर महापुष के
उस वा के ित इछा जात हाे जायेगी। यद मन में काेई बात है ताे उसे
पाने क इछा अवय हाेगी, यही मनु का इवाकु से कहना है। लालसा हाेगी
क वह िनयत कम करें जाे अवनाशी है, जाे कम-बधन से माे दलाता है–
एेसा है ताे कया जाय अाैर अाराधना गित पक़ड़ ले ती है। गित पकड़कर यह
याेग कहाँ पँचाता है इस पर कहते हैं–
एवं परपराा ममं राजषयाे वदु:।
स काले नेह महता याेगाे न: परतप।।२।।
वह ही यह पुरातन याेग अब मैंने तेरे लये वणन कया है; ाेंक तू मेरा
भ अाैर सखा है अाैर यह याेग उ म रहयपूण है। अजुन िय ेणी का
साधक था, राजष क अवथावाला था, जहाँ ऋ याें-स याें के थपेड़े में
साधक न हाे जाता है। इस काल में भी याेग कयाण क मुा में ही है;
कत ाय: साधक यहाँ पँचकर लड़खड़ा जाते हैं। एेसा अवनाशी कत
रहयमय याेग ीकृण ने अजुन से कहा, ाेंक न हाेने क अवथा में
अजुन था ही। ाें कहा इसलये क तू मेरा भ है, अनय भाव से मेरे
अात है, य है, सखा है।
जस परमाा क हमें चाह है, वह (स
ु ) परमाा अाा से अभ
हाेकर जब िनदेशन देने लगे, तभी वातवक भजन अार हाेता है। यहाँ
ेरक क अवथा में परमाा अाैर स
ु एक दूसरे के पयाय हैं। जस सतह
पर हम खड़े हैं उसी तर पर जब वयं भु दय में उतर अायें, राेकथाम
करने लगें, डगमगाने पर सँभालें , तभी मन वश में हाे पाता है– ‘तलसदास
(मन) बस हाेइ तबहं जब ेरक भु बरजै।’ (वनयपिका, ८९) जब तक
इदेव रथी हाेकर, अाा से अभ हाेकर ेरक के प में खड़े नहीं हाे
जाते, तब तक सही माा में वेश ही नहीं हाेता। वह साधक याशी अवय
है, ले कन भजन उसके पास कहाँ
अजुन उवाच
अपरं भवताे ज परं ज वववत:।
कथमेतजानीयां वमादाै ाेवािनित।।४।।
भगवन् अापका ज ताे ‘अपरम्’– अब अा है अाैर मेरे अदर सरा का
संचार बत पुराना है, ताे मैं कैसे मान लूँ क इस याेग काे भजन के अाद में
अापने ही कहा था इस पर याेगे र ीकृण बाेले–
ीभगवानुवाच
अजुन मेरे अाैर तेरे बत से ज हाे चुके हैं। हे परं तप उन सबकाे तू
नहीं जानता; कत मैं जानता ँ। साधक नहीं जानता, वपथ महापुष
जानता है, अय क थितवाला जानता है। ा अाप सबक तरह पैदा हाेते
हैं ीकृण कहते हैं– नहीं, वप क ाि शरर-ाि से भ है। मेरा
ज इन अाँखाें से नहीं देखा जा सकता। मैं अजा, अय, शा त हाेते
ए भी शरर के अाधारवाला ँ।
शरर के रहते ही उस परमत व में वेश पाया जाता है। ले शमा भी कमी
है, ज ले ना पड़ता है। अभी तक अजुन ीकृण काे अपने समान देहधार
समझता है। वह अतरं ग रखता है– ा अापका ज वैसा ही है, जैसा
सबका है ा अाप भी शरराें क तरह पैदा हाेते हैं ीकृण कहते हैं–
अजाेऽप स ययाा भूतानामी राेऽप सन्।
कृितं वामधाय सवायामायया।।६।।
मैं वनाशरहत, पुन: जरहत अाैर समत ाणयाें के वर में संचारत
हाेने पर भी अपनी कृित काे अधीन करके अामाया से कट हाेता ँ। एक
माया ताे अव ा है जाे कृित में ही व ास दलाती है, नीच एवं अधम
याेिनयाें का कारण बनती है। दूसर माया है अामाया, जाे अाा में वेश
दलाती है, वप के ज का कारण बनती है। इसी काे याेगमाया भी कहते
हैं। जससे हम वलग हैं उस शा त वप से यह जाेड़ती है, मलन कराती
है। उस अाक या ारा मैं अपनी िगुणमयी कृित काे अधीन करके
ही कट हाेता ँ।
ाय: लाेग कहते हैं क भगवान का अवतार हाेगा ताे दशन कर लें गे।
ीकृण कहते हैं क एेसा कुछ नहीं हाेता क काेई दूसरा देख सके। वप
का ज पडप में नहीं हाेता। ीकृण कहते हैं– याेग-साधना ारा,
अामाया ारा अपनी िगुणमयी कृित काे ववश करके मैं मश: कट
हाेता ँ। ले कन कन परथितयाें में –
(रामचरतमानस, १/१४२)
यह अवतार कसी भायवान् साधक के अतराल में हाेता है। अाप कट
हाेकर करते ा हैं –
युगधम सभी के दय में िनय हाेते रहते हैं। अव ा से नहीं बक व ा
से, राममाया क ेरणा से दय में हाेते हैं। जसे तत ाेक में अामाया
कहा गया है, वही है राममाया। दय में राम क थित दला देनेवाल राम
से ेरत है वह व ा। कैसे समझा जाय क अब काैन-सा युग काय कर रहा
है, ताे ‘स सव समता बाना। कृत भाव स मन जाना।।’
(रामचरतमानस, ७/१०३ख/२) जब दय में श स वगुण ही कायरत हाे,
राजस तथा तामस दाेनाें गुण शात हाे जायँ, वषमताएँ समा हाे गयी हाें,
जसका कसी से ेष न हाे, वान हाे अथात् इ से िनदेशन ले ने अाैर उस
पर टकने क मता हाे, मन में स ता का पूण संचार हाे– जब एेसी
याेयता अा जाय ताे सतयुग में वेश मल गया। इसी कार दाे अय युगाें
का वणन कया अाैर अत में–
तामसी गुण भरपूर हाे, कंचत् राजसी गुण भी उसमें हाे, चाराें अाेर वैर
अाैर वराेध हाे ताे एेसा य कलयुगीन है। जब तामसी गुण काय करता है
ताे मनुय में अालय, िना, माद का बाय हाेता है। वह क य जानते
ए भी उसमें वृ नहीं हाे सकता, िनष कम जानते ए भी उससे िनवृ
नहीं हाे सकता। इस कार युगधमाे का उतार-चढ़ाव मनुयाें क अातरक
याेयता पर िनभर है। कसी ने इहीं याेयताअाें काे चार युग कहा है, ताे
काेई इहें ही चार वण का नाम देता है, ताे काेई इहें ही अित उ म, उ म,
मयम अाैर िनकृ चार ेणी के साधक कहकर सबाेधत करता है। येक
युग में इ साथ देते हैं। हाँ, उ ेणी में अनुकूलता क भरपूरता तीत हाेती
है, िन युगाें में सहयाेग ीण तीत हाेता है।
संेप में, ीकृण कहते हैं– साय वत दलानेवाले ववेक, वैराय इयाद
काे िनव वाहत करने के लये तथा दूषण के कारक काम-ाेध, राग-ेष
इयाद का पूण वनाश करने के लये, परमधम परमाा में थर रखने के
लये मैं युग-युग में अथात् हर परथित, हर ेणी में कट हाेता ँ– बशते
क लािन हाे। जब तक इ समथन न दें, तब तक अाप समझ ही नहीं
सकंे गे क वकाराें का वनाश अा अथवा अभी कतना शेष है वेश से
पराकाापयत इ हर ेणी में हर याेयता के साथ रहते हैं। उनका ाकट
अनुरागी के दय में हाेता है। भगवान कट हाेते हैं, तब ताे सभी दशन करते
हाेंगे ीकृण कहते हैं– नहीं,
अजुन मेरा वह ज अथात् लािन के साथ वप क रचना तथा मेरा
कम अथात् दुकृितयाें के कारणाें का वनाश, साय वत काे दलानेवाल
मताअाें का िनदाेष संचार, धम क थरता, यह कम अाैर ज दय अथात्
अलाैकक है, लाैकक नहीं है। इन चमचअाें से उसे देखा नहीं जा सकता,
मन अाैर बु से उसे मापा नहीं जा सकता। जब इतना गूढ़ है ताे उसे देखता
काैन है केवल ‘याे वे त वत:’– त वदशी ही मेरे इस ज अाैर कम काे
देखता है अाैर मेरा साात् करके वह पुनज काे नहीं ा हाेता, बक
मुझे ा हाेता है।
जब त वदशी ही भगवान का ज अाैर काय देख पाता है ताे लाेग लाखाें
क संया में भीड़ लगाये ाें खड़े हैं क कहीं अवतार हाेगा ताे दशन करें गे
ा अाप त वदशी हैं महाा-वेष में अाज भी ववध तरकाें से, मुयत:
महाा-वेष क अाड़ में बत से लाेग चार करते फरते हैं क वे अवतार हैं
या उनके दलाल चार कर देते हैं। लाेग भेड़ क तरह अवतार काे देखने टू ट
पड़ते हैं; कत ीकृण कहते हैं क केवल त वदशी ही देख पाता है। अब
त वदशी कसे कहते हैं
राग अाैर वराग, दाेनाें से परे वीतराग तथा इसी कार भय-अभय, ाेध-
अाेध दाेनाें से परे , अनय भाव से अथात् अहंकाररहत मेर शरण ए बत
से लाेग ान-तप से पव हाेकर मेरे वप काे ा हाे चुके हैं। अब एेसा
हाेने लगा हाे– एेसी बात नहीं है, यह वधान सदैव रहा है। बत से पुष इसी
कार से मेरे वप काे ा हाे चुके हैं। कस कार जन-जन का दय
अधम क वृ देखकर परमाा के लये लािन से भर गया, उस थित में
मैं अपने वप काे रचता ँ। वे मेरे वप काे ा हाेते हैं। जसे याेगे र
ीकृण ने त वदशन कहा, उसे ही अब ‘ान’ कहते हैं। परमत व है
परमाा, उसे य दशन के साथ जानना ान है। एेसी जानकारवाले ानी
मेरे वप काे ा करते हैं। यहाँ यह पूरा हाे गया। अब वे याेयता के
अाधार पर भजनेवालाें का ेणी-वभाजन करते हैं–
पाथ जाे मुझे जतनी लगन से जैसा भजते हैं, मैं भी उनकाे वैसा ही
भजता ँ। उतनी ही माा में सहयाेग देता ँ। साधक क ा ही कृपा
बनकर उसे मलती है। इस रहय काे जानकर सधीजन सपूण भावाें से मेरे
माग के अनुसार ही बरतते हैं। जैसा मैं बरतता ँ, जाे मुझे य है वैसा ही
अाचरण करते हैं। जाे मैं कराना चाहता ँ, वही करते हैं।
भगवान कैसे भजते हैं वे रथी बनकर खड़े हाे जाते हैं, साथ चलने लगते
हैं, यही उनका भजना है। दूषत जनसे पैदा हाेते हैं, उनका वनाश करने के
लये वे खड़े हाे जाते हैं। सय में वेश दलानेवाले स ण
ु ाें का पराण करने
के लये वे खड़े हाे जाते हैं। जब तक इदेव दय से पूणत: रथी न हाें अाैर
हर कदम पर सावधान न करें , तब तक काेई कैसा ही भजनानद ाें न हाे,
लाख अाँख मूँदे, लाख य करे , वह इस कृित के से पार नहीं हाे
सकता। वह कैसे समझेगा क वह कतनी दूर तय कर चुका, कतनी शेष है।
इ ही अाा से अभ हाेकर खड़े हाे जाते हैं अाैर उसका मागदशन करते
हैं क तम यहाँ पर हाे, एेसे कराे, एेसे चलाे। इस कार कृित क खाइ
पाटते ए, शनै:-शनै: अागे बढ़ाते ए वप में वेश दला देंगे। भजन ताे
साधक काे ही करना पड़ता है; कत उसके ारा इस पथ में जाे दूर तय
हाेती है, वह इ क देन है। एेसा जानकर सभी मनुय सवताेभावेन मेरा
अनुसरण करते हैं। कस कार वे बरतते हैं –
वे पुष इस शरर में कमाे क स चाहते ए देवताअाें काे पूजते हैं।
काैन-सा कम ीकृण ने कहा, ‘‘अजुन तू िनयत कम कर।’’ िनयत कम
ा है य क या ही कम है। य ा है साधना क वध-वशेष,
जसमें ास- ास का हवन, इयाें के बहमुखी वाह काे संयमा में
हवन कया जाता है, जसका परणाम है परमाा। कम का श अथ है
अाराधना, जसका वप इसी अयाय में अागे मले गा। इस अाराधना का
परणाम ा है ‘संस म्’– परमस परमाा, ‘यात सनातनम्’–
शा त में वेश, परम नैकय क थित। ीकृण कहते हैं– मेरे अनुसार
बरतनेवाले लाेग इस मनुय-लाेक में कम के परणाम परम नैकय स के
लये देवताअाें काे पूजते हैं अथात् दैवी सपद् काे बलवती बनाते हैं।
अजुन ‘चातवणय मया सृम्’– चार वणाे क रचना मैंने क। ताे ा
मनुयाें काे चार भागाें में बाँट दया ीकृण कहते हैं– नहीं,
‘गुणकमवभागश:’– गुणाें के मायम से कम काे चार भागाें में बाँटा। गुण एक
पैमाना है, मापदड है। तामसी गुण हाेगा ताे अालय, िना, माद, कम में न
वृ हाेने का वभाव, जानते ए भी अक य से िनवृ न हाे पाने क
ववशता रहेगी। एेसी अवथा में साधन अार कैसे करें दाे घटे अाप
अाराधना में बैठते हैं, इस कम के लये य शील हाेना चाहते हैं कत दस
मनट भी अपने प में नहीं पाते। शरर अवय बैठा है, ले कन जस मन काे
बैठना चाहये वह हवा से बातें कर रहा है, कुतकाे का जाल बुन रहा है, तरं ग
पर तरं ग छायी है, ताे अाप बैठे ाें हैं समय ाें न करते हैं उस समय
केवल ‘परचयाकं कम शूयाप वभावजम्।’ (१८/४४)– जाे महापुष
अय क थितवाले हैं, अवनाशी त व में थत हैं उनक तथा इस पथ पर
असर अपने से उ त लाेगाें क सेवा में लग जाअाे। इससे दूषत संकार
शमन हाेते जायेंगे, साधना में वेश दलानेवाले संकार सबल हाेते जायेंगे।
मश: तामसी गुण यून हाेने पर राजसी गुणाें क धानता तथा सा वक
गुण के वप संचार के साथ साधक क मता वैय ेणी क हाे जाती है।
उस समय वही साधक इय-संयम, अाक सप का संह वभावत:
करने लगेगा। कम करते-करते उसी साधक में सा वक गुणाें का बाय हाे
जायेगा, राजसी गुण कम रह जायेंगे, तामसी गुण शात रहेंगे। उस समय वही
साधक िय ेणी में वेश पा ले गा। शाैय, कम में वृ रहने क मता,
पीछे न हटने का वभाव, सब भावाें पर वामभाव, कृित के तीनाें गुणाें काे
काटने क मता उसके वभाव में ढल जायेगी। वही कम अाैर सू हाेने
पर, मा सा वक गुण कायरत रह जाने पर मन का शमन, इयाें का दमन,
एकाता, सरलता, यान, समाध, ई रय िनदेश, अातकता इयाद में
वेश दलानेवाल वाभावक मता के साथ वही साधक ा ण ेणी का
कहा जाता है। यह ा ण ेणी के कम क िन तम सीमा है। जब वही
साधक में थत हाे जाता है, उस अतम सीमा में वह वयं में न ा ण
रहता है न िय, न वैय न शू; कत दूसराें के मागदशनहेत वही ा ण
है। कम एक ही है– िनयत कम, अाराधना। अवथा-भेद से इसी कम काे
ऊँची-नीची चार सीढ़याें में बाँटा। कसने बाँटा कसी याेगे र ने बाँटा,
अय थितवाले महापुष ने बाँटा। उसके क ा मुझ अवनाशी काे अक ा
ही जान। ाें –
उदाहरणाथ गीता में जहाँ भी कसी काय में ‘व’ उपसग लगा है, उसक
वशेषता का ाेतक है, िनकृता का नहीं। यथा ‘याेगयुाे वश ाा
वजताा जतेय:।’ (गीता ५/७)– जाे याेग से यु है वह वशेष प से
श अाावाला, वशेष प से जीते अत:करणवाला इयाद वशेषता के ही
ाेतक हैं। इसी कार गीता में थान-थान पर ‘व’ का याेग अा है, जाे
वशेष पूणता का ाेतक है। इसी कार ‘वकम’ भी वश कम का ाेतक है
जाे ाि के पात् महापुषाें के ारा सपादत हाेता है, जाे शभाशभ संकार
नहीं डालता। अभी अापने वकम देखा। रहा कम अाैर अकम, जसे अगले
ाेक में समझने का यास करें । यद यहाँ कम अाैर अकम का वभाजन नहीं
समझ सके ताे कभी नहीं समझ सकंे गे–
जाे पुष कम में अकम देखे, कम माने अाराधना अथात् अाराधना करे
अाैर यह भी समझे क करनेवाला मैं नहीं ँ बक गुणाें क अवथा ही
चतन में हमें िनयु करती है, मैं गुणाें ारा ेरत हाेकर कम में बरतता ँ
अथवा ‘मैं इ ारा संचालत ँ’– एेसा देखे अाैर जब इस कार अकम
देखने क मता अा जाय अाैर धारावाहक प से कम हाेता रहे, तभी
समझना चाहये क कम सही दशा में हाे रहा है। वही पुष मनुयाें में
बु मान् है, मनुयाें में याेगी है, याेग से यु बु वाला है अाैर सपूण कमाे
काे करनेवाला है। उसके ारा कम करने में ले शमा भी ुट नहीं रह जाती।
सारांशत: अाराधना ही कम है, उस कम काे करें अाैर करते ए अकम
देखें क मैं ताे य मा ँ, करानेवाला इ है अाैर मैं गुणाें से उप अवथा
के अनुसार ही चेा कर पाता ँ। जब अकम क यह मता अा जाय अाैर
धारावाहक कम हाेता रहे, तभी परमकयाण क थित दलानेवाला कम हाे
पाता है। ‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क, ‘‘जब तक इ रथी न हाे
जाय, राेकथाम न करने लगे, तब तक सही माा में साधना का अार ही
नहीं हाेता।’’ इसके पूव जाे कुछ भी कया जाता है, कम में वेश के यास
से अधक कुछ भी नहीं है। हल का सारा भार बैलाें के कधाें पर ही रहता है,
फर भी खेत क जुताई हलवाहे क देन है। ठक इसी कार साधन का सारा
भार साधक के ऊपर ही रहता है; कत वातवक साधक ताे इ है जाे
उसके पीछे लगा अा है, जाे उसका मागदशन करता है। जब तक इ िनणय
न दें, तब तक अाप समझ ही नहीं सकंे गे क हमसे अा ा हम कृित में
भटक रहे हैं या परमाा में इस कार इ के िनदेशन में जाे साधक इस
अाक पथ पर असर हाेता है, अपने काे अक ा समझकर धारावाहक
कम करता है वही बु मान् है, उसक जानकार यथाथ है, वही याेगी है।
ीकृण के अनुसार जाे कुछ कया जाता है, कम नहीं है। कम एक
िनधारत क ई या है। ‘िनयतं कु कम वम्’– अजुन तू िनधारत कम
काे कर। िनधारत कम है ा तब बताया, ‘याथाकमणाेऽय लाेकाेऽयं
कमबधन:।’– य काे कायप देना ही कम है। ताे इसके अितर जाे कुछ
कया जाता है, ा वह कम नहीं है ीकृण कहते हैं, ‘अय लाेकाेऽयं
कमबधन:’– इस य काे कायप देने के सवाय जाे कुछ कया जाता है,
वह इसी लाेक का बधन है, न क कम। ‘तदथ कम’– अजुन उस य क
पूित के लये भल कार अाचरण कर। अाैर जब य का वप बताया ताे
वह श प से अाराधना क एक वध-वशेष है, जाे उस अाराय देव तक
पँचाकर उसमें वलय दलाता है।
जसने अत:करण अाैर शरर काे जीत लया है, भाेगाें क सपूण सामी
जसने याग द है, एेसे अाशारहत पुष का शरर केवल कम करता दखायी
भर पड़ता है। वतत: वह करता-धरता कुछ नहीं, इसलये पाप काे ा नहीं
हाेता। वह पूणव काे ा है, इसीलये अावागमन काे ा नहीं हाेता।
यह ताे ाि वाले महापुष के लण हैं; कत कम में वेश ले नेवाले
ारक साधक काैन-सा य करते हैं
पछले अयाय में ीकृण ने कहा– अजुन कम कर। काैन-सा कम
उहाेंने बताया, ‘िनयतं कु कम’– िनधारत कये ए कम काे कर। िनधारत
कम काैन-सा है , ताे ‘याथाकमणाेऽय लाेकाेऽयं कमबधन:।’ (३/९)–
अजुन य क या ही कम है। इस य के अितर अय जाे कुछ
कया जाता है, वह इसी लाेक का बधन है न क कम। कम ताे संसार-बधन
से माे दलाता है। अत: ‘तदथ कम काैतेय मुस: समाचर।।’– उस य
क पूित के लये संगदाेष से अलग रहकर भल कार य का अाचरण कर।
यहाँ याेगे र ने एक नवीन दया क वह य है ा जसे करें अाैर कम
हमसे पार लगे उहाेंने कम क वशेषताअाें पर बल दया, बताया क य
अाया कहाँ से य देता ा है उसक वशेषताअाें का चण कया; कत
अभी तक यह नहीं बताया क य है ा
वह दैवी सपद् अयाय १६ के अारक तीन ाेकाें में वणत है, जाे है
ताे सबमें, केवल मह वपूण क य समझकर उसक जागृित करें , उसमें लगें।
इहीं काे इं गत करते ए याेगे र ने कहा– अजुन तू शाेक मत कर; ाेंक
तू दैवी सपद् काे ा अा है, तू मुझमें िनवास करे गा, मेरे ही शा त
वप काे ा करे गा; ाेंक यह दैवी सपद् परमकयाण के लये ही है
अाैर इसके वपरत अासर सपद् नीच अाैर अधम याेिनयाें का कारण है।
इसी अासर सपद् का हवन हाेने लगता है इसलये यह य है अाैर यहीं से
य का अार है।
साधक काे संसार में रहकर ही ताे भजन करना है। सांसारक लाेगाें के
भले -बुरे शद उससे टकराते ही रहते हैं। वषयाे ेजक एेसे शदाें काे सनते ही
साधक उनके अाशय काे याेग, वैराय सहायक, वैरायाे ेजक भावाें में
बदलकर इयपी अ में हवन कर देते हैं। जैसा क एक बार अजुन
अपने चतन में रत था, अकात् उसके कण-कुहराें में संगीत-लहर झनझना
उठ। उसने सर उठाकर देखा ताे उवशी खड़ थी, जाे एक असरा थी। सभी
उसके प पर मुध हाे झूम रहे थे; कत अजुन ने उसे ेहल से
मातृवत् देखा। उस शद, प से मलनेवाले वकार वलन हाे गये। इयाें
के अतराल में ही समाहत हाे गये।
यहाँ इय ही अ है। अ में डाल ई वत जैसे भसात् हाे जाती
है, इसी कार अाशय बदलकर इ के अनुकूल ढाल ले ने पर वषयाे ेजक
प, रस, गध, पश अाैर शद भी भ हाे जाते हैं, साधक पर कुभाव
नहीं डाल पाते। साधक इन शदादकाें में च नहीं ले ता, इहें हण नहीं
करता।
ययातपाेया याेगयातथापरे ।
वायायानया यतय: संशतता:।।२८।।
अनेक लाेग यय करते हैं अथात् अापथ में, महापुषाें क सेवा में
प-पुप अपत करते हैं। वे समपण के साथ महापुषाें क सेवा में य
लगाते हैं। ीकृण अागे कहते हैं– भभाव से प, पुप, फल, जल जाे कुछ
भी मुझे देता है, उसे मैं खाता ँ अाैर उसका परमकयाण-सृजन करनेवाला
हाेता ँ। यह भी य है। हर अाा क सेवा करना, भूले ए काे अापथ
पर लाना यय है; ाेंक ाकृितक संकाराें काे जलाने में समथ है।
इसी कार कई पुष ‘तपाेया:’– वधम पालन में इयाें काे तपाते हैं
अथात् वभाव से उप मता के अनुसार य क िन अाैर उ त
अवथाअाें के बीच तपते हैं। इसी पथ क अपता में पहल ेणी का
साधक शू परचया ारा, वैय दैवी सपद् के संह ारा, िय काम-
ाेधाद के उूलन ारा अाैर ा ण में वेश क याेयता के तर से
इयाें काे तपाता है। सबकाे एक-जैसा परम करना पड़ता है। वातव में
य एक ही है। अवथा के अनुसार ऊँची-नीची ेणयाँ गुजरती जाती हैं।
‘पूय महाराज जी’ कहते थे– ‘‘मनसहत इयाें अाैर शरर काे लय के
अनुप तपाना ही तप कहलाता है। ये लय से दूर भागेंगे, इहें समेटकर
उधर ही लगाअाे।’’
अनेक पुष याेगय का अाचरण करते हैं। कृित में भटकती ई अाा
का कृित से परे परमाा से मलन का नाम ‘याेग’ है। याेग क परभाषा
अयाय ६/२३ में य है। सामायत: दाे वतअाें का मलन याेग कहलाता
है। कागज से कलम मल गया, थाल अाैर मेज मल गये ताे ा याेग हाे
गया नहीं, ये ताे पंचभूताें से िनमत पदाथ हैं। एक ही हैं, दाे कहाँ दाे
कृित अाैर पुष हैं। कृित में थत अाा अपने ही शा त प परमाा में
वेश पा जाता है ताे कृित पुष में वलन हाे जाती है। यही याेग है। अत:
अनेक पुष इस मलन में सहायक शम, दम इयाद िनयमाें का भल कार
अाचरण करते हैं। याेगय करनेवाले तथा अहंसाद तीण ताें से यु
य शील पुष ‘वायायानया’– वयं का अययन, वप का अययन
करनेवाले ानय के क ा हैं। यहाँ याेग के अंगाें (यम, िनयम, अासन,
ाणायाम, याहार, धारणा, यान अाैर समाध) काे अहंसाद तीण ताें से
िनद कया गया है। अनेक लाेग वायाय करते हैं। पुतक पढ़ना ताे
वायाय का अारक तर मा है। वश वायाय है वयं का अययन,
जससे वप क उपलध हाेती है, जसका परणाम है ान अथात्
सााकार।
बत से याेगी अपानवायु में ाणवायु काे हवन करते हैं अाैर उसी कार
ाणवायु में अपानवायु काे हवन करते हैं। इससे सू अवथा हाे जाने पर
अय याेगीजन ाण अाैर अपान दाेनाें क गित राेककर ाणायामपरायण हाे
जाते हैं।
जसे ीकृण ाण-अपान कहते हैं, उसी काे महाा बु ‘अनापान’ कहते
हैं। इसी काे उहाेंने ास- ास भी कहा है। ाण वह ास है जसे अाप
भीतर खींचते हैं अाैर अपान वह ास है जसे अाप बाहर छाेड़ते हैं। याेगयाें
क अनुभूित है क अाप ास के साथ बा वायुमडल के संकप भी हण
करते हैं अाैर ास में इसी कार अातरक भले -बुरे चतन क लहर फंे कते
रहते हैं। बा कसी संकप का हण न करना ाण का हवन है तथा भीतर
संकपाें काे न उठने देना अपान का हवन है। न भीतर से कसी संकप का
फुरण हाे अाैर न ही बा दुिनया में चलनेवाले चतन अदर ाेभ उप कर
पायें, इस कार ाण अाैर अपान दाेनाें क गित सम हाे जाने पर ाणाें का
याम अथात् िनराेध हाे जाता है, यही ाणायाम है। यह मन क वजतावथा
है। ाणाें का कना अाैर मन का कना एक ही बात है।
येक महापुष ने इस करण काे लया है। वेदाें में इसका उ े ख है–
‘चवार वाक् परमता पदािन’ (ऋवेद १/१६४/४५, अथववेद ९/१५/२७) इसी
काे ‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे– ‘‘हाे एक ही नाम चार ेणयाें से
जपा जाता है– बैखर, मयमा, पयती अाैर परा। बैखर उसे कहते हैं जाे
य हाे जाय। नाम का इस कार उ ारण हाे क अाप सनें अाैर बाहर काेई
बैठा हाे ताे उसे भी सनायी पड़े। मयमा अथात् मयम वर में जप, जसे
केवल अाप ही सनें, बगल में बैठा अा य भी उस उ ारण काे सन न
सके। यह उ ारण कठ से हाेता है। धीरे -धीरे नाम क धुन बन जाती है, डाेर
लग जाती है। साधना अाैर सू हाे जाने पर पयती अथात् नाम देखने क
अवथा अा जाती है। फर नाम काे जपा नहीं जाता, यही नाम ास में ढल
जाता है। मन काे ा बनाकर खड़ा कर दें, देखते भर रहें क साँस अाती है
कब बाहर िनकलती है कब कहती है ा ’’ महापुषाें का कहना है क
यह साँस नाम के सवाय अाैर कुछ कहती ही नहीं। साधक नाम का जप नहीं
करता, केवल उससे उठनेवाल धुन काे सनता है। साँस काे देखता भर है,
इसलये इसे ‘पयती’ कहते हैं।
पयती में मन काे ा के प में खड़ा करना पड़ता है; कत साधन
अाैर उ त हाे जाने पर सनना भी नहीं पड़ता। एक बार सरत लगा भर दें,
वत: सनायी देगा। ‘जपै न जपावै, अपने से अावै।’– न वयं जपें, न मन काे
सनने के लए बाय करें अाैर जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा। एेसा
नहीं क जप ार ही न करें अाैर अा गयी अजपा। यद कसी ने जप नहीं
अार कया, ताे अजपा नाम क काेई भी वत उसके पास नहीं हाेगी।
अजपा का अथ है, हम न जपें कत जप हमारा साथ न छाेड़े। एक बार
सरत का काँटा लगा भर दें ताे जप वाहत हाे जाय अाैर अनवरत चलता
रहे। इस वाभावक जप का नाम है अजपा अाैर यही है ‘परावाणी का जप’।
यह कृित से परे त व परमाा में वेश दलाती है। इसके अागे वाणी में
काेई परवतन नहीं है। परम का ददशन कराके उसी में वलन हाे जाती है,
इसीलये इसे परा कहते हैं।
तत ाेक में याेगे र ीकृण ने केवल ास पर यान रखने काे कहा,
जबक अागे वयं अाेम् के जप पर बल देते हैं। गाैतम बु भी ‘अनापान
सती’ में ास- ास क ही चचा करते हैं। अतत: वे महापुष कहना ा
चाहते हैं वतत: ार में बैखर, उससे मयमा अाैर उससे उ त हाेने पर
जप क पयती अवथा में ास पकड़ में अाता है। उस समय जप ताे ास
में ढला मले गा, फर जपें ा फर ताे केवल ास काे देखना भर है।
इसलये ाण-अपान मा कहा, ‘नाम जपाे’– एेसा नहीं कहा, कारण क कहने
क अावयकता नहीं है। यद कहते हैं ताे गुमराह हाेकर नीचे क ेणयाें में
चर काटने लगेगा। महाा बु , ‘गुदेव भगवान’ तथा येक महापुष जाे
इस राते से गुजरे हैं, सभी एक ही बात कहते हैं। बैखर अाैर मयमा नाम-
जप के वेश-ार मा हैं। पयती से ही नाम में वेश मलता है। परा में
नाम धारावाही हाे जाता है, जससे जप साथ नहीं छाेड़ता।
दूसरे िनयमत अाहार करनेवाले ाण काे ाण में ही हवन करते हैं।
‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क, ‘‘याेगी का अाहार ढ़, अासन ढ़
अाैर िना ढ़ हाेनी चाहये।’’ अाहार-वहार पर िनय ण बत अावयक है।
एेसे अनेक याेगी ाण काे ाण में ही हवन कर देते हैं अथात् ास ले ने पर
ही यान केत रखते हैं, ास पर यान नहीं देते। साँस अायी ताे सना
‘अाेम्’, पुन: साँस अायी ताे ‘अाेम्’ सनते रहें। इस कार याें ारा न
पापवाले ये सभी पुष य के जानकार हैं। इन िनद वधयाें में से यद
कहीं से भी करते हैं ताे वे सभी य के ाता हैं। अब य का परणाम बताते
हैं–
यशामृतभुजाे यात सनातनम्।
नायं लाेकाेऽययय कुताेऽय: कुस म।।३१।।
इस कार उपयु बत कार के य वेद क वाणी में कहे गये हैं,
के मुख से वतारत हैं। ाि के पात् महापुषाें के शरर काे पर धारण
कर ले ता है। से अभ अवथावाले उन महााअाें क बु मा य
हाेती है। उनके ारा वह ही बाेलता है। उनक वाणी में इन याें का
वतार कया गया है।
ाय: लाेग कहते हैं क संसार में कुछ भी कया जाय, हाे गया कम।
कामना से रहत हाेकर कुछ भी करते जाअाे, हाे गया िनकाम कमयाेग। काेई
कहता है क अधक लाभ के लये वदेशी व बेचते हैं ताे अाप सकामी हैं।
देश-सेवा के लये वदेशी बेचें ताे हाे गया िनकाम कमयाेग। िनापूवक नाैकर
करें , हािन-लाभ क चता से मु हाेकर यापार करें , हाे गया िनकाम
कमयाेग। जय-पराजय क भावना से मु हाे यु करें , चुनाव लड़ंे , हाे गये
िनकमी। मराेगे ताे मु हाे जायेगी। वतत: एेसा कुछ भी नहीं है। याेगे र
ीकृण ने प शदाें में बताया क इस िनकाम कम में िनधारत या एक
ही है– ‘यवसायाका बु रे केह कुनदन।’ अजुन तू िनधारत कम काे
कर। य क या ही कम है। य ा है ास- ास का हवन,
इयाें का संयम, यवप महापुष का यान, ाणायाम– ाणाें का
िनराेध। यही मन क वजतावथा है। मन का ही सार जगत् है। ीकृण के
ही शदाें में, ‘इहैव तैजत: सगाे येषां साये थतं मन:।’ (५/१९)– उन पुषाें
ारा चराचर जगत् यहीं जीत लया गया, जनका मन समव में थत है।
भला मन के समव अाैर जगत् के जीतने से ा सबध है यद जगत् काे
जीत ही लया ताे का कहाँ पर तब कहते हैं– वह िनदाेष अाैर सम है,
इधर मन भी िनदाेष अाैर समव क थितवाला हाे गया, अत: वह में
थत हाे जाता है।
वयं भगवान के सामने ही ताे अजुन खड़ा था, भगवान उसे त वदशी के
पास ाें भेजते हैं वतत: ीकृण एक याेगी थे। उनका अाशय है क अाज
ताे अनुरागी अजुन मेरे सम उपथत है, भवय में अनुरागयाें काे कहीं म
न हाे जाय क ीकृण ताे चले गये, अब कसक शरण जायँ इसलये
उहाेंने प कया क त वदशी के पास जाअाे। वे ानीजन तझे उपदेश
करें गे। अाैर–
उस ान काे उनके ारा समझकर तू इस कार फर कभी माेह काे ा
नहीं हाेगा। उनसे द गयी जानकार के ारा उस पर चलते ए तू अपनी
अाा के अतगत सपूण भूताें काे देखेगा अथात् सभी ाणयाें में इसी अाा
का सार देखेगा। जब सव एक ही अाा के सार काे देखने क मता
अा जायेगी, उसके पात् तू मुझमें वेश करे गा। अत: उस परमाा काे पाने
का साधन ‘त वथत महापुष’ के ारा है। ान के सबध में, धम अाैर
शा त सय के सबध में ीकृण के अनुसार कसी त वदशी से ही पूछने
का वधान है।
अजुन जस कार वलत अ इ धन काे भ कर देती है, ठक उसी
कार ानपी अ सपूण कमाे काे भ कर देती है। यह ान क
वेशका नहीं है जहाँ से य में वेश मलता है वरन् यह ान अथात्
सााकार क पराकाा का चण है, जसमें पहले वजातीय कम भ हाेते
हैं अाैर फर ाि के साथ चतन-कम भी उसी में वलय हाे जाते हैं। जसे
पाना था पा लया, अब अागे चतन कर कसे ढूँ ढ़े एेसा सााकारवाला
ानी सपूण शभाशभ कमाे का अत कर ले गा। वह सााकार हाेगा कहाँ
बाहर हाेगा अथवा भीतर इस पर कहते हैं–
इस संसार में ान के समान पव करनेवाला िन:सदेह कुछ भी नहीं है।
इस ान (सााकार) काे तू वयं (दूसरा नहीं) याेग क परप अवथा में
(अार में नहीं) अपनी अाा के अतगत दय-देश में ही अनुभव करे गा,
बाहर नहीं। इस ान के लये काैन-सी याेयता अपेत है याेगे र के ही
शदाें में–
जसके कम याेग ारा भगवान में समाहत हाे चुके हैं, जसका सपूण
संशय परमाा क य जानकार ारा न हाे गया है, परमाा से संयु
एेसे पुष काे कम नहीं बाँधते। याेग के ारा ही कमाे का शमन हाेगा, ान
से ही संशय न हाेगा। अत: ीकृण कहते हैं–
िनकष—
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ प माेऽयाय: ।।
अयाय तीन में अजुन ने रखा क– भगवन् जब ानयाेग अापकाे
े माय है, ताे अाप मुझे भयंकर कमाे में ाें लगाते हैं अजुन काे
िनकाम कमयाेग क अपेा ानयाेग कुछ सरल तीत अा लगता है;
ाेंक ानयाेग में हारने पर देवव अाैर वजय में महामहम थित, दाेनाें ही
दशाअाें में लाभ ही लाभ तीत अा। अब तक अजुन ने भल कार समझ
लया है क दाेनाें ही मागाे में कम ताे करना ही पड़ेगा (याेगे र उसे
संशयरहत हाेकर त वदशी महापुष क शरण ले ने के लये भी ेरत करते
हैं; ाेंक समझने के लये वही एक थान है।) अत: दाेनाें मागाे में से एक
चुनने से पूव उसने िनवेदन कया–
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
पीछे ीकृण ने कहा क काम अाैर ाेध दुजय शु हैं, अजुन इहें तू
मार। अजुन काे लगा क यह ताे बड़ा कठन है; कत ीकृण ने कहा–
नहीं, शरर से परे इयाँ हैं, इयाें से परे मन है, मन से परे बु है, बु
से परे तहारा वप है। तम वहाँ से ेरत हाे। इस कार अपनी हती
समझकर, अपनी श काे सामने रखकर, वावलबी हाेकर कम में वृ
हाेना ‘ानयाेग’ है। ीकृण ने कहा है– च काे यानथ करते ए, कमाे काे
मुझमें समपण करके अाशा, ममता अाैर सतापरहत हाेकर यु कर। समपण
के साथ इ पर िनभर हाेकर उसी कम में वृ हाेना िनकाम कमयाेग है।
दाेनाें क या एक है अाैर परणाम भी एक है।
कमल कचड़ में हाेता है। उसका प ा पानी के ऊपर तैरता है। लहरें रात-
दन उसके ऊपर से गुजरती हैं; कत अाप प े काे देखें, सूखा मले गा। जल
क एक बूँद भी उस पर टक नहीं पाती। कचड़ अाैर जल में रहते ए भी
वह उनसे ल नहीं हाेता। ठक इसी कार, जाे पुष सब कमाे काे परमाा
में वलय करके (सााकार के साथ ही कमाे का वलय हाेता है, इससे पूव
नहीं), अास काे याग करके (अब अागे काेई वत नहीं अत: अास नहीं
रहती, इसलये अास यागकर) कम करता है, वह भी इसी कार ल
नहीं हाेता। फर वह करता ाें है अापलाेगाें के लये, समाज के कयाण-
साधन के लये, पीछे वालाें के मागदशन के लये। इसी पर बल देते हैं–
याेगीजन केवल इय, मन, बु अाैर शरर ारा भी अास यागकर
अाश के लए कम करते हैं। जब कम में वलन हाे चुके ताे ा
अब भी अाा अश ही है नहीं, वे ‘सवभूताभूताा’ हाे चुके हैं। सपूण
ाणयाें में वे अपनी ही अाा का सार पाते हैं। उन समत अााअाें क
श के लये, अाप सबका मागदशन करने के लये वे कम में बरतते हैं।
शरर, मन, बु तथा केवल इयाें से वह कम करता है, वप से वह
कुछ भी नहीं करता, थर है। बाहर से वह सय दखायी देता है; कत
भीतर उसमें असीम शात है। रसी जल चुक, मा एेंठन (अाकार) शेष है,
जससे बँध नहीं सकता।
जाे सपूण प से ववश है, जाे शरर, मन, बु अाैर कृित से परे
वयं में थत है, एेसा वशी पुष िन:सदेह न कुछ करता है न कराता है।
पीछे वालाें से कराना भी उसक अातरक शात का पश नहीं कर पाता।
एेसा वपथ पुष शदाद वषयाें काे उपलध करानेवाले नाै ाराें (दाे
कान, दाे ने, दाे नासका छ, एक मुख, उपथ एवं पायु) वाले शररपी
घर में सब कमाे काे मन से यागकर वपानद में ही थत रहता है।
यथाथत: वह न कुछ करता है अाैर न कराता है।
इसी काे पुन: ीकृण दूसरे शदाें में कहते हैं क वह भु न करता है, न
कराता है। स
ु , भगवान, भु, वपथ महापुष, यु इयाद एक- दूसरे
के पयाय हैं। अलग से काेई भगवान कुछ करने नहीं अाता। वह जब करता है
ताे इहीं वपथ इ के मायम से कराता है। महापुष के लये शरर एक
मकान मा है। अत: परमाा का करना अाैर महापुष का करना एक ही
बात है; ाेंक वह उनके ारा है। वतत: वह पुष करते ए भी कुछ नहीं
करता। इसी पर अगला ाेक देखें–
ाय: लाेग कहते हैं क करने-करानेवाले ताे भगवान हैं, हम ताे य मा
हैं। हमसे वे भला करावें अथवा बुरा। कत याेगे र ीकृण कहते हैं क न
वह भु वयं करता है, न कराता है अाैर न वह जुगाड़ ही बैठाता है। लाेग
अपने वभाव में थत कृित के अनुप बरतते हैं। वत: काय करते हैं। वे
अपने अादत से मजबूर हाेकर करते हैं, भगवान नहीं करते। तब लाेग कहते
ाें हैं क भगवान करते हैं इस पर याेगे र बताते हैं–
त ु यतदाानत ातपरायणा:।
गछयपुनरावृ ं ानिनधूतकषा:।।
१७।।
जब उस परमत व परमाा के अनुप बु हाे, त व के अनुप वाहत
मन हाे, परमत व परमाा में एकभाव से उसक रहनी हाे अाैर उसी के
परायण हाे, इसी का नाम ान है। ान काेई बकवास या बहस नहीं है। इस
ान ारा पापरहत अा पुष पुनरागमनरहत परमगित काे ा हाेता है।
परमगित काे ा , पूण जानकार से यु पुष ही पडत कहलाते हैं। अागे
देखें–
ान के ारा जनका पाप शमन हाे चुका है, जाे ‘अपुनरावती परमगित’
काे ा हैं, एेसे ानीजन व ा-वनययु ा ण तथा चाडाल में, गाय अाैर
कु े में तथा हाथी में समान वाले हाेते हैं। उनक में व ावनययु
ा ण न ताे काेई वशेषता रखता है अाैर न चाडाल काेई हीनता रखता है।
न गाय धम है, न कु ा अधम अाैर न हाथी वशालता ही रखता है। एेसे
पडत, ाताजन समदशी अाैर समवती हाेते हैं। उनक चमड़ पर नहीं
रहती, बक अाा पर पड़ती है। अतर केवल इतना है, व ावनयसप
वप के समीप है अाैर शेष कुछ पीछे हैं। काेई एक मंजल अागे है, ताे
काेई पछले पड़ाव पर। शरर ताे व है। उनक व काे मह व नहीं
देती अपत उनके दय में थत अाा पर पड़ती है, इसलये वे काेई भेद
नहीं रखते।
ीकृण ने पया गाे-सेवा क थी। उहें गाय के ित गाैरवपूण शद कहना
चाहये था; कत उहाेंने एेसा कुछ भी नहीं कहा। ीकृण ने गाय काे धम में
काेई थान नहीं दया। उहाेंने केवल इतना माना क अय जीवााअाें क
तरह उसमें भी अाा है। गाय का अाथक मह व जाे भी हाे, उसका धामक
वैश परवती लाेगाें क देन है। ीकृण ने पीछे बताया क अववेकयाें क
बु अनत शाखाअाेंवाल हाेती है, इसलये वे अनत याअाें का वतार
कर ले ते हैं। दखावट शाेभायु वाणी में वे उसे य भी करते हैं। उनक
वाणी क छाप जनके च पर पड़ती है, उनक भी बु न हाे जाती है। वे
कुछ पाते नहीं, न हाे जाते हैं। जबक िनकाम कमयाेग में अजुन िनधारत
या एक ही है– य क या ‘अाराधना’। गाय, कु ा, हाथी, पीपल, नद
का धामक मह व इन अनत शाखावालाें क देन है। यद इनका काेई धामक
मह व हाेता ताे ीकृण अवय कहते। हाँ, मदर, म द इयाद पूजा के
थल अारक काल में अवय हैं। वहाँ ेरणादायक सामूहक उपदेश हैं ताे
उनक उपयाेगता अवय है, वे धमाेपदेश के हैं।
तत ाेक में दाे पडताें क चचा है। एक पडत ताे वह है जाे
पूणाता है अाैर दूसरा वह जाे व ा-वनयसप है। वे दाे कैसे वतत:
येक ेणी क दाे सीमाएँ हाेती हैं– एक ताे अधकतम सीमा पराकाा अाैर
दूसर वेशका अथवा िन तम सीमा। उदाहरण के लये भ क िन तम
सीमा वह है जहाँ से भ अार क जाती है; ववेक, वैराय अाैर लगन के
साथ जब अाराधना करते हैं अाैर अधकतम सीमा वह है जहाँ भ अपना
परणाम देने क थित में हाेती है। ठक इसी कार ा ण-ेणी है। जब
में वेश दलानेवाल मताएँ अाती हैं, उस समय व ा हाेती है, वनय हाेता
है। मन का शमन, इयाें का दमन, अनुभवी सूपात का संचार, धारावाही
चतन, यान अाैर समाध इयाद में वेश दलानेवाल सार याेयताएँ
उसके अतराल में वाभावक कायरत रहती हैं। यह ा णव क िन तम
सीमा है। उ तम सीमा तब अाती है, जब मश: उ त हाेते-हाेते वह का
ददशन करके उसमें वलय पा जाता है। जसे जानना था, जान लया। वह
पूणाता है। अपुनरावृ वाला एेसा महापुष उस व ा-वनयसप ा ण,
चाडाल, कु ा, हाथी अाैर गाय सब पर समान वाला हाेता है; ाेंक
उसक दयथत अा-वप पर पड़ती है। एेसे महापुष काे परमगित
में ा मला है अाैर कैसे इस पर काश डालते ए याेगे र ीकृण बताते
हैं–
उन पुषाें ारा जीवत अवथा में ही सपूण संसार जीत लया गया,
जनका मन समव में थत है। मन के समव का संसार जीतने से ा
सबध संसार मट ही गया, ताे वह पुष रहा कहाँ ीकृण कहते हैं,
‘िनदाेषं ह समं ’– वह िनदाेष अाैर सम है, इधर उसका मन भी
िनदाेष अाैर सम थितवाला हाे गया। ‘तात् ण ते थता:’– इसलये
वह में थत हाे जाता है। इसी का नाम अपुनरावती परमगित है। यह
कब मलती है जब संसारपी शु जीतने में अा जाय। संसार कब जीतने
में अाता है जब मन का िनराेध हाे जाय, समव में वेश पा जाय (ाेंक
मन का सार ही जगत् है)। जब वह में थत हाे जाता है तब वद्
का लण ा है उसक रहनी प करते हैं–
बाहर संसार के वषय-भाेगाें में अनास पुष अतराा में थत जाे
सख है, उस सख काे ा हाेता है। वह पुष ‘ याेगयुाा’– पर
परमाा के साथ मलन से यु अाावाला है इसलये अय अानद का
अनुभव करता है, जस अानद का कभी य नहीं हाेता। इस अानद का
उपभाेग काैन कर सकता है जाे बाहर के वषय-भाेगाें में अनास है। ताे
ा भाेग बाधक हैं भगवान ीकृण कहते हैं–
केवल वचा ही नहीं, सभी इयाँ पश करती हैं। देखना अाँख का पश
है, सनना कान का पश है। इसी कार इयाें अाैर वषयाें के संयाेग से
उप हाेनेवाले सभी भाेग य प भाेगने में य तीत हाेते हैं; कत िन:सदेह
वे सब ‘दु:खयाेनय:’– दु:खद याेिनयाें के ही कारण हैं। वे भाेग ही याेिनयाें के
कारण हैं। इतना ही नहीं, वे भाेग पैदा हाेने अाैर मटनेवाले हैं, नाशवान् हैं।
इसलये काैतेय ववेक पुष उनमें नहीं फँ सते। इयाें के इन पशाे में
रहता ा है काम अाैर ाेध, राग अाैर ेष। इस पर ीकृण कहते हैं–
इसलये जाे मनुय शरर के नाश हाेने से पहले ही काम अाैर ाेध से
उप ए वेग काे सहन करने में (मटा देने में) सम है, वह नर (न रमन
करनेवाला) है। वही इस लाेक में याेग से यु है अाैर वही सखी है। जसके
पीछे दु:ख नहीं है, उस सख में अथात् परमाा में थितवाला है। जीते-जी
ही इसक ाि का वधान है, मरने पर नहीं। सत कबीर ने इसी काे प
कया– ‘अवधू जीवत में कर अासा।’ ताे ा मरने के बाद मु नहीं हाेती
वे कहते हैं– ‘मुए मु गु कहे वाथी, झूठा दे व ासा।’ यही याेगे र
ीकृण का कथन है क शरर रहते, मरने से पहले ही जाे काम- ाेध के
वेग काे मटा देने में सम हाे गया, वही पुष इस लाेक में याेगी है, वही
सखी है। काम, ाेध, बा पश ही शु हैं। इहें अाप जीतें। इसी पुष के
लण पुन: बता रहे हैं–
याेऽत:सखाेऽतरारामतथातयाेितरे व य:।
स याेगी िनवाणं भूताेऽधगछित।।२४।।
िनकष—
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ षाेऽयाय: ।।
संसार में धम के नाम पर रित-रवाज, पूजा-प ितयाँ, सदायाें का
बाय हाेने पर कुरितयाें का शमन करके एक ई र क थापना एवं उसक
ाि क या काे शत करने के लये कसी महापुष का अावभाव हाेता
है। याअाें काे छाेड़कर बैठ जाने अाैर ानी कहलाने क ढ़ कृणकाल में
अयत यापक थी। इसलये इस अयाय के ार में ही याेगे र ीकृण ने
इस काे चाैथी बार वयं उठाया क ानयाेग तथा िनकाम कमयाेग दाेनाें
के अनुसार कम करना ही हाेगा।
ीभगवानुवाच
अजुन जसे ‘संयास’ एेसा कहते हैं, उसी काे तू याेग जान; ाेंक
संकपाें का याग कये बना काेई भी पुष न याेगी हाेता है अाैर न ही
संयासी हाेता है अथात् कामनाअाें का याग दाेनाें ही मागयाें के लये
अावयक है। तब ताे सरल है क कह दें क हम संकप नहीं करते अाैर हाे
गये याेगी-संयासी। ीकृण कहते हैं, एेसा कदाप नहीं है–
जस काल में पुष न ताे इयाें के भाेगाें में अास हाेता है अाैर न
कमाे में ही अास है (याेग क परप ावथा में पँच जाने पर अागे कम
करके ढूँ ढ़े कसे अत: िनयत कम अाराधना क अावयकता नहीं रह जाती।
इसीलये वह कमाे में भी अास नहीं है), उस काल में ‘सवसपस यासी’–
सवसंकपाें का अभाव है। वही संयास है, वही याेगाढ़ता है। राते में
संयास नाम क काेई वत नहीं है। इस याेगाढ़ता से लाभ ा है –
उ रे दानाानं नाानमवसादयेत्।
अाैव ानाे बधुराैव रपुरान:।।५।।
अजुन मनुय काे चाहये क अपने ारा अपना उ ार करे , अपने अाा
काे अधाेगित में न पँचावे; ाेंक यह जीवाा वयं ही अपना म है अाैर
यही अपना शु भी है। कब यह शु हाेता है अाैर कब म इस पर कहते
हैं–
इन दाे ाेकाें में ीकृण एक ही बात कहते हैं क अपने ारा अपने
अाा का उ ार करें , उसे अधाेगित में न पँचावें; ाेंक अाा ही म है।
सृ में न दूसरा काेई शु है, न म। कस कार जसके ारा मनसहत
इयाँ जीती ई हैं, उसके लये उसी का अाा म बनकर मता में
बरतता है, परमकयाण करनेवाला हाेता है अाैर जसके ारा मनसहत
इयाँ नहीं जीती गयी हैं, उसके लये उसी का अाा शु बनकर शुता में
बरतता है, अनत याेिनयाें अाैर यातनाअाें क अाेर ले जाता है। ाय: लाेग
कहते हैं– ‘मैं ताे अाा ँ’। गीता में लखा है, ‘‘न इसे श काट सकता है,
न अ जला सकती है, न वायु सखा सकता है। यह िनय है, अमृतवप
है, न बदलनेवाला है, शा त है अाैर वह अाा मुझमें है ही।’’ वे गीता क
इन पंयाें पर यान नहीं देते क अाा अधाेगित में भी जाता है। अाा
का उ ार भी हाेता है, जसके लये ‘कायम् कम’– करने याेय या-वशेष
करके ही उपलध बतायी गयी है। अब अनुकूल अाा के लण देखें–
सायुदासीनमयथेयबधुषु।
साधुवप च पापेषु समबु वशयते।।९।।
ाि के पात् महापुष समदशी अाैर समवती हाेता है। जैसे पछले
अयाय (५/१८) में उहाेंने बताया क जाे पूणाता या पडत है, वह व ा-
वनयसप ा ण में, चाडाल में, गाय-कु ा-हाथी में समान वाला हाेता
है– उसी का पूरक यह ाेक है। वह दय से सहायता करनेवाले सदय,
म, बैर, उदासीन, ेषी, बधुगणाें, धमाा तथा पापयाें में भी समान
वाला याेगयु पुष अिते है। वह उनके कायाे पर नहीं डालता
बक उनके भीतर अाा के संचार पर ही उसक पड़ती है। इन सबमें
वह केवल इतना ही अतर देखता है क काेई कुछ नीचे क सीढ़ पर खड़ा
है, ताे काेई िनमलता के समीप; कत वह मता सबमें है। यहाँ याेगयु के
लण पुन: दुहराये गये।
च काे जीतने में लगा अा याेगी मन, इयाें अाैर शरर काे वश में
रखकर, वासना अाैर संहरहत हाेकर एकात थान में अकेला ही च काे
(अााेपलध करानेवाल) याेग-या में लगावे। उसके लये थान कैसा हाे
अासन कैसा रहे –
श भूम में कुश, मृगछाल अथवा इससे भी उ राे र (रे शमी, ऊनी व,
तत इयाद कुछ भी) बछाकर अपने अासन काे न अित ऊँचा, न नीचा,
थर थापत करे । श भूम का तापय उसे झाड़ने-बुहारने, सफाई करने से
है। जमीन पर कुछ बछा ले ना चाहये– चाहे मृगछाल हाे या चटाई अथवा
काेई भी व, तत जाे भी उपलध हाे। अासन हलने-डलनेवाला न हाे। न
जमीन से बत ऊँचा हाे अाैर न एकदम नीचा। ‘पूय महाराज जी’ लगभग
पाँच इ ऊँचे अासन पर बैठते थे। एक बार भावकाें ने लगभग एक फट
ऊँचा संगमरमर का एक तत मँगा दया। महाराज जी एक दन ताे बैठे, फर
बाेले– ‘‘नहीं हाे बत ऊँचा हाे गया। ऊँचे नहीं बैठे के चाही साधू काे,
अभमान हाेइ जावा करत है। नीचे न बैठे के चाही, हीनता अावत है, अपने
से घृणा अावत है।’’ बस, उसकाे उठवाया अाैर जंगल में एक बगीचा था, वहाँ
रखवा दया। वहाँ न कभी महाराज जाते थे अाैर न अब ही काेई जाता है।
यह था उन महापुष का याक शण। इसी कार साधक के लये भी
बत ऊँचा अासन नहीं हाेना चाहये, नहीं ताे भजनपूित बाद में हाेगी, अहंकार
पहले चढ़ बैठेगा। इसके पात्–
शरर, गदन अाैर सर काे सीधा, अचल-थर करके (जैसे काेई पटर
खड़ कर द गयी हाे, इस कार सीधा) ढ़ हाेकर बैठ जाय अाैर अपनी
नासका के अभाग काे देखकर (नासका क नाेंक देखते रहने का िनदेश
नहीं है बक सीधे बैठने पर नाक के सामने जहाँ पड़ती है, वहाँ
रहे। दाहने-बायें देखते रहने क चंचलता न रहे) अय दशाअाें काे न देखता
अा थर हाेकर बैठे अाैर–
इस कार अपने अापकाे िनरतर उसी चतन में लगाता अा संयत
मनवाला याेगी मेरे में थितपी पराकाावाल शात काे ा हाेता है।
इसलये अपने काे िनरतर कम में लगाएँ। यहाँ यह पूणाय है। अगले दाे
ाेकाें में वे बताते हैं क परमानदवाल शात के लये शाररक संयम,
युाहार-वहार भी अावयक हैं–
जस कार वायुरहत थान में रखा गया दपक चलायमान नहीं हाेता, लाै
सीधे ऊपर जाती है, उसमें कपन नहीं हाेता, यही उपमा परमाा के यान में
लगे ए याेगी के जीते ए च क द गयी है। दपक ताे उदाहरण मा है।
अाजकल दपक का चलन शथल पड़ रहा है। अगरब ी ही जलाने पर
धुअाँ सीधे ऊपर जाता है, यद वायु में वेग न हाे। यह याेगी के जीते ए
च का एक उदाहरण मा है। अभी च भले ही जीता गया है, िनराेध हाे
गया है; कत अभी च है। जब िन च का भी वलय हाे जाता है, तब
काैन-सी वभूित मलती है देखें–
सखमायतकं य ु ा मतीयम्।
वे य न चैवायं थतलित त वत:।।२१।।
तथा इयाें से अतीत केवल श ई सू बु ारा हण करने याेय
जाे अनत अानद है, उसकाे जस अवथा में अनुभव करता है अाैर जस
अवथा में थत अा याेगी भगववप काे त व से जानकर चलायमान नहीं
हाेता, सदैव उसी में ितत रहता है तथा–
तं व ा :ु खसंयाेगवयाेगं याेगसतम्।
स िनयेन याेयाे याेगाेऽिनवणचेतसा।।२३।।
जाे संसार के संयाेग अाैर वयाेग से रहत है, उसी का नाम याेग है। जाे
अायतक सख है, उसके मलन का नाम याेग है। जसे परमत व परमाा
कहते हैं, उसके मलन का नाम याेग है। वह याेग न उकताये ए च से
िनयपूवक करना क य है। धैयपूवक लगा रहनेवाला ही याेग में सफल हाेता
है।
सपभवाकामांया सवानशेषत:।
मनसैवेयामं विनयय समतत:।।२४।।
जसका मन पूणपेण शात है, जाे पाप से रहत है, जसका रजाेगुण
शात हाे गया है, एेसे से एकभूत याेगी काे सवाे म अानद ा हाेता है,
जससे उ म कुछ भी नहीं है। इसी पर पुन: बल देते हैं–
यु ेवं सदाानं याेगी वगतकष:।
सखेन संपशमयतं सखमते।।२८।।
जाे पुष सपूण भूताें में मुझ परमाा काे देखता है, या देखता है अाैर
सपूण भूताें काे मुझ परमाा के ही अतगत देखता है, उसके लये मैं
अ य नहीं हाेता ँ अाैर वह मेरे लये अ य नहीं हाेता। यह ेरक का
अामने-सामने मलन है, सयभाव है, सामीय मु है।
जाे पुष अनेकता से परे उपयु एकव भाव से मुझ परमाा काे भजता
है, वह याेगी सब कार के कायाे में बरतता अा भी मेरे में ही बरतता है;
ाेंक मुझे छाेड़कर उसके लये काेई बचा भी ताे नहीं। उसका ताे सब मट
गया, इसलये वह अब उठता, बैठता जाे कुछ भी करता है, मेरे संकप से
करता है।
हे अजुन जाे याेगी अपने ही समान सपूण भूताें में सम देखता है, अपने-
जैसा देखता है, सख अाैर दु:ख भी सबमें समान देखता है, वह याेगी
(जसका भेदभाव समा हाे गया है) परमे माना गया है। पूरा अा।
इस पर अजुन ने कया–
अजुन उवाच
हे मधुसूदन यह याेग जाे अाप पहले बता अाये हैं, जससे समव
भाव मलती है, मन के च ल हाेने से बत समय तक इसमें ठहरनेवाल
थित में मैं अपने काे नहीं देखता।
ीभगवानुवाच
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
जाे याेग के संकाराें से यु नहीं हैं, उहें महापुष नहीं अपनाते। ‘पूय
महाराज जी’ यद साधु बनाते ताे हजाराें वर उनके शय हाेते। कत
उहाेंने कसी काे कराया-भाड़ा देकर, कसी के घर सूचना भेजकर, प
भेजकर, समझा-बुझाकर सबकाे उनके घर लाैटा दया। बत लाेग हठ करने
लगे ताे उहें अपशकुन हाे। भीतर से मना हाे क इसमें साधु बनने का एक
भी लण नहीं है। इसे रखने में भलाई नहीं है, यह पार नहीं हाेगा। िनराश
हाेकर दाे-एक ने पहाड़ से गरकर अपनी जान भी दे द; कत महाराज जी
ने उहें अपने यहाँ नहीं रखा। बाद में पता चलने पर बाेले– ‘‘जानत रहेउँ क
बड़ा वकल है ले कन ई साेचते क सचँ के मर जाई ताे रखी ले ते। एक ठाे
पिततै रहत, अउर का हाेत।’’ ममव उनमें भी वकट था, फर भी नहीं रखा।
छ:- सात काे, जनके लये अादेश अा क– ‘‘अाज एक याेग अा रहा है,
ज-ज से भटका अा चला अा रहा है, इस नाम अाैर इस प का काेई
अानेवाला है, उसे रखाे, व ा का उपदेश कराे, उसे अागे बढ़ाअाे।’’ केवल
उहीं काे रखा।
वहाँ वह पूवशरर में साधन कये ए बु के संयाेग काे अथात् पूवज
के साधन-संकाराें काे अनायास ही ा हाे जाता है अाैर हे कुनदन उसके
भाव से वह फर ‘संस ाै’– भगवाि पी परमस के िनम य
करने लगता है।
तपवयाें से याेगी े है, ािनयाें से भी े माना गया है, कमयाें से
भी याेगी े है; इसलये अजुन तू याेगी बन।
तपवी– तपवी मनसहत इयाें काे उस याेग में ढालने के लये तपाता
है, अभी याेग उसमें ढला नहीं।
कमी– कमी इस िनयत कम काे जानकर उसमें वृ हाेता है। न ताे वह
अपनी श समझकर ही वृ है अाैर न वह समपण करके ही वृ है,
करता भर है।
तपवी अभी याेग काे ढालने में य शील है। कमी केवल कम जानकर
करता भर है। ये गर भी सकते हैं; ाेंक इन दाेनाें में न समपण है अाैर न
अपनी हािन-लाभ देखने क मता; कत ानी याेग क परथितयाें काे
जानता है, अपनी श समझता है, उसक जेदार उसी पर है अाैर
िनकाम कमयाेगी ताे इ के ऊपर अपने काे फंे क चुका है, वह इ
सँभाले गा। परमकयाण के पथ पर ये दाेनाें ठक चलते हैं; कत जसका भार
वह इ सँभालता है, वह इन सबसे े है; ाेंक भु ने उसे हण कर
लया है। उसका हािन-लाभ वह भु देखता है। इसलये याेगी े है। अत:
अजुन तू याेगी बन। समपण के साथ याेग का अाचरण कर।
याेगी े है; कत उनसे भी वह याेगी सवे है, जाे अतराा से
लगता है। इसी पर कहते हैं–
याेगनामप सवेषां म तेनातराना।
ावाजते याे मां स मे युतमाे मत:।।४७।।
िनकष—
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम:।।
।। अथ स माेऽयाय: ।।
गत अयायाें में गीता के मुय-मुय ाय: सभी पूण हाे गये हैं।
िनकाम कमयाेग, ानयाेग, कम तथा य का वप अाैर उसक वध, याेग
का वातवक वप अाैर उसका परणाम तथा अवतार, वणसंकर, सनातन,
अाथत महापुष के लये भी लाेकहताथ कम करने पर बल, यु इयाद
पर वशद चचा क गयी। अगले अयायाें में याेगे र ीकृण ने इहीं से
सदभत अनेक पूरक ाें काे लया है, जनका समाधान तथा अनुान
अाराधना में सहायक स हाेगा।
ीभगवानुवाच
मयासमना: पाथ याेगं यु दाय:।
असंशयं समं मां यथा ायस तणु।
मैं तेरे लये इस वानसहत ान काे सपूणता से कँगा। पूितकाल में
य जसक सृ करता है, उस अमृत-त व क ाि के साथ मलनेवाल
जानकार का नाम ान है। परमत व परमाा क य जानकार का नाम
ान है। महापुष काे एक साथ सव काय करने क जाे मता मलती है,
वह वान है। कैसे वह भु एक साथ सबके दय में काय करता है कस
कार वह उठाता, बैठाता अाैर कृित के से िनकालकर वप तक क
दूर तय करा ले ता है उसक इस काय-णाल का नाम वान है। इस
वानसहत ान काे सपूणता से कँगा, जसे जानकर (सनकर नहीं) संसार
में अाैर कुछ भी जानने याेय नहीं रह जायेगा। जाननेवालाें क संया बत
कम है–
अजुन भूम, जल, अ , वायु अाैर अाकाश तथा मन, बु अाैर
अहंकार– एेसे यह अाठ कार के भेदाेंवाल मेर कृित है। यह अधा मूल
कृित है।
‘इयम्’ अथात् यह अाठ काराेंवाल ताे मेर अपरा कृित है अथात् जड़
कृित है। महाबा अजुन इससे दूसर काे जीवप ‘परा’ अथात् चेतन
कृित जान, जसने सपूण जगत् धारण कया अा है। वह है जीवाा।
जीवाा भी कृित के सबध में रहने के कारण कृित ही है।
भारतीय धमथाें के अनुसार मनु ने लय देखा था। इसके साथ यारह
ऋषयाें ने मय क सींग में नाव बाँधकर हमालय के एक उ ुंग शखर क
शरण ल थी। ललाकार ीकृण के उपदेशाें एवं जीवन से सबधत उनके
समकालन शा भागवत में मृकड मुिन के पु माकडे य जी ारा लय का
अाँखाें देखा हाल तत है। वे हमालय के उ र में पुपभा नद के कनारे
रहते थे।
धनंजय मेरे सवाय कंचा भी दूसर वत नहीं है। यह सपूण जगत्
सू में मणयाें के स श मेरे में गुँथा अा है। है ताे; परत जानेंगे कब जब
(इसी अयाय के थम ाेक के अनुसार) अनय अास (भ) से मेरे
परायण हाेकर याेग में उसी प से लग जायँ। इसके बना नहीं। याेग में
लगना अावयक है।
काैतेय जल में मैं रस ँ, चमा अाैर सूय में काश ँ, सपूण वेदाें में
अाेंकार ँ– (अाे+अहं+कार) वयं का अाकार ँ, अाकाश में शद अाैर पुषाें
में पुषव ँ। तथा मैं–
पृवी में पव गध अाैर अ में तेज ँ। सपूण जीवाें में उनका जीवन
ँ अाैर तपवयाें में उनका तप ँ।
अाैर भी जाे स वगुण से उप हाेनेवाले भाव हैं, जाे रजाेगुण अाैर
तमाेगुण से उप हाेनेवाले भाव हैं, उन सबकाे तू मुझसे ही उप हाेनेवाले
हैं, एेसा जान। परत वातव में उनमें मैं अाैर वे मेरे में नहीं हैं। ाेंक न मैं
उनमें खाेया अा ँ अाैर न वे ही मुझमें वेश कर पाते हैं; ाेंक मुझे कम
से पृहा नहीं है। मैं िनले प ँ, मुझे इनमें कुछ पाना नहीं है। इसलये मुझमें
वेश नहीं कर पाते। एेसा हाेेने पर भी–
सा वक, राजस अाैर तामस इन तीन गुणाें के कायप भावाें से यह सारा
जगत् माेहत हाे रहा है इसलये लाेग इन तीनाें गुणाें से परे मुझ अवनाशी
काे त व से भल कार नहीं जानते। मैं इन तीनाें गुणाें से परे ँ अथात् जब
तक अंशमा भी गुणाें का अावरण व मान है, तब तक काेई मुझे नहीं
जानता। उसे अभी चलना है, वह राही है अाैर–
यह िगुणमयी मेर अ त
ु माया दुतर है; कत जाे पुष मुझे ही
िनरतर भजते हैं, वे इस माया का पार पा जाते हैं। यह माया है ताे दैवी,
परत अगरब ी जलाकर इसक पूजा न करने लगें। इससे पार पाना है।
जाे मुझे िनरतर भजते हैं, वे जानते हैं। फर भी लाेग नहीं भजते। माया
के ारा जनके ान का अपहरण कर लया गया है, जाे अासर वभाव काे
धारण कये ए, मनुयाें में अधम, काम-ाेधाद दुकृितयाें काे करनेवाले
मूढ़लाेग मुझे नहीं भजते। ताे भजता काैन है –
‘अथ’ वह वत है, जससे हमारे शरर अथवा सबधाें क पूित हाे।
इसलये अथ, कामनाएँ सब कुछ पहले ताे भगवान ारा पूण हाेती हैं। ीकृण
कहते हैं क मैं ही पूण करता ँ; कत इतना ही वातवक ‘अथ’ नहीं है।
अाक सप ही थर सप है, यही अथ है।
अजुन उनमें भी िनय मुझमें एकभाव में थत अनय भवाला ानी
वश है; ाेंक सााकार के सहत जाननेवाले ानी काे मैं अयत य
ँ अाैर वह ानी भी मुझे अयत य है। वह ानी मेरा ही वप है।
अयास करते-करते बत जाें के अत के ज में, ाि वाले ज में
सााकार काे ा अा ानी ‘सब कुछ वासदेव ही है’– इस कार मेरे काे
भजता है। वह महाा अितदुलभ है। वह कसी वासदेव क ितमा नहीं
गढ़वाता बक अपने भीतर ही उस परमदेव का वास पाता है। उसी ानी
महाा काे ीकृण त वदशी भी कहते हैं। इहीं महापुषाें से बाहर समाज में
कयाण सव है। इस कार के य त वदशी महापुष ीकृण के शदाें
में अितदुलभ हैं।
जब ेय अाैर ेय (मु अाैर भाेग) दाेनाें ही भगवान से मलते हैं, तब
ताे सभी काे एकमा भगवान का भजन करना चाहये, फर भी लाेग उहें नहीं
भजते। ाें ीकृण के ही शदाें में–
कामैतैतैताना: प तेऽयदेवता:।
तं तं िनयममाथाय कृया िनयता: वया।।२०।।
स तया या युतयाराधनमीहते।
लभते च तत: कामायैव वहताह तान्।।२२।।
सामाय मनुय के लये माया एक परदा है, जसके ारा परमाा सवथा
छपा है। याेग-साधना समझकर वह इसमें वृ हाेता है। इसके पात्
याेगमाया अथात् याेगया भी एक अावरण ही है। याेग का अनुान करते-
करते उसक पराकाा याेगाढ़ता अा जाने पर वह छपा अा परमाा
वदत हाेता है। याेगे र कहते हैं– मैं अपनी याेगमाया से ढँ का अा ँ। केवल
याेग क परप अवथावाले ही मुझे यथाथ देख सकते हैं। मैं सबके लये
य नहीं ँ इसलये यह अानी मनुय मुझ जरहत (जसे अब ज
नहीं ले ना है), अवनाशी (जसका नाश नहीं हाेना है), अय वप (जसे
पुन: य नहीं हाेना है) काे नहीं जानता। अजुन भी ीकृण काे अपनी ही
तरह मनुय मानता था। अागे उहाेंने द ताे अजुन गड़गड़ाने लगा,
ाथना करने लगा। वतत: अयथत महापुष काे पहचानने में हमलाेग
ाय: अधे ही हैं। अागे कहते हैं–
अजुन मैं अतीत, वतमान अाैर भवय में हाेनेवाले सपूण ाणयाें काे
जानता ँ; परत मुझे काेई नहीं जानता। ाें नहीं जान पाता –
भरतवंशी अजुन इछा अाैर ेष अथात् राग-ेषाद के माेह से संसार
के सपूण ाणी अयत माेह काे ा हाे रहे हैं इसलये मुझे नहीं जान पाते।
ताे ा काेई जानेगा ही नहीं याेगे र ीकृण कहते हैं–
जाे मेर शरण हाेकर जरा अाैर मरण से मु पाने के लये य करते
हैं, वे पुष उस काे, सपूण अया काे अाैर सपूण कम काे जानते हैं।
अाैर इसी म में–
जाे पुष अधभूत, अधदैव तथा अधय के सहत मुझे जानते हैं, मुझमें
समाहत च वाले वे पुष अतकाल में भी मुझकाे ही जानते हैं, मुझमें ही
थत रहते हैं अाैर सदैव मुझे ा रहते हैं। छ ीसवें-स ाइसवें ाेक में
उहाेंने कहा–मुझे काेई नहीं जानता; ाेंक वे माेहत हैं। कत जाे उस
माेह से टने के लये य शील हैं, वे (१) सपूण , (२) सपूण अया,
(३) सपूण कम, (४) सपूण अधभूत, (५) सपूण अधदैव अाैर (६) सपूण
अधयसहत मुझकाे जानते हैं अथात् इन सबका परणाम मैं (स
ु ) ँ।
वही मुझे जानता है, एेसा नहीं क काेई नहीं जानता।
िनकष—
एकदेशीय नहीं वरन् सव या देखता है। अाठ भेदाेंवाल मेर जड़
कृित है अाैर इसके अतराल में जीवप मेर चेतन कृित है। इहीं दाेनाें के
संयाेग से पूरा जगत् खड़ा है। तेज अाैर बल मेरे ही ारा हैं। राग अाैर काम
से रहत बल तथा धमानुकूल कामना भी मैं ही ँ। जैसा क सब कामनाएँ ताे
वजत हैं, ले कन मेर ाि के लये कामना कर। एेसी इछा का अयुदय
हाेना मेरा ही साद है। केवल परमाा काे पाने क कामना ही ‘धमानुकूल
कामना’ है।
ीकृण ने बताया क– मैं तीनाें गुणाें से अतीत ँ। परम का पश करके
परमभाव में थत ँ; कत भाेगास मूढ़ पुष सीधे मुझे न भजकर अय
देवताअाें क उपासना करते हैं, जबक वहाँ देवता नाम का काेई है ही नहीं।
पथर, पानी, पेड़ जसकाे भी वे पूजना चाहते हैं, उसी में उनक ा काे मैं
ही पु करता ँ। उसक अाड़ में खड़ा हाेकर मैं ही फल देता ँ; ाेंक न
वहाँ काेई देवता है, न कसी देवता के पास काेई भाेग ही है। लाेग मुझे
साधारण य समझकर नहीं भजते; ाेंक मैं याेग-या ारा ढँ का अा
ँ। अनुान करते-करते याेगमाया का अावरण पार करनेवाले ही मुझ
शररधार काे भी अय प में जानते हैं, अय थितयाें में नहीं।
मेरे भ चार कार के हैं– अथाथी, अात, जास अाैर ानी। चतन
करते-करते अनेक जाें के अतम ज में ाि वाला ानी मेरा ही वप
है अथात् अनेक जाें से चतन करके उस भगववप काे ा कया
जाता है। राग-ेष के माेह से अाात मनुय मुझे कदाप नहीं जान सकते;
कत राग-ेष के माेह से रहत हाेकर जाे िनयतकम (जसे संेप में
अाराधना कह सकते हैं) का चतन करते ए जरा-मरण से टने के लये
य शील हैं, वे पुष सपूण प से मुझे जान ले ते हैं। वे सपूण काे,
सपूण अया काे, सपूण अधभूत काे, सपूण अधदैव काे, सपूण कम काे
अाैर सपूण य के सहत मुझे जानते हैं। वे मुझमें वेश करते हैं अाैर
अतकाल में भी मुझकाे ही जानते हैं अथात् फर कभी वे वृत नहीं हाेते।
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
‘अरं परमम्’– जाे अय है, जसका य नहीं हाेता, वही परम
है। ‘वभाव: अयाम् उयते’– वयं में थर भाव ही अया अथात्
अाा का अाधपय है। इससे पहले सभी माया के अाधपय में रहते हैं;
कत जब ‘व’-भाव अथात् वप में थरभाव (वयं में थरभाव) मल
जाता है ताे अाा का ही अाधपय उसमें वाहत हाे जाता है। यही
अया है, अया क पराकाा है। ‘भूतभावाे वकर:’– भूताें के वे भाव जाे
कुछ-न-कुछ उ व करते हैं अथात् ाणयाें के वे संकप जाे भले अथवा बुरे
संकाराें क संरचना करते हैं उनका वसग अथात् वसजन, उनका मट जाना
ही कम क पराकाा है। यही सपूण कम है, जसके लये याेगे र ने कहा–
‘वह सपूण कम काे जानता है।’ वहाँ कम पूण है, अागे अावयकता नहीं है
(िनयत कम) इस अवथा में जबक भूताें के वे भाव जाे कुछ-न-कुछ रचते हैं,
भले अथवा बुरे संकार-संह करते हैं, बनाते हैं, वे जब सवथा शात हाे
जायँ, यहीं कम क सपूणता है। इसके अागे कम करने क अावयकता नहीं
रह जाती। अत: कम काेई एेसी वत है, जाे भूताें के सपूण संकपाें काे,
जनसे कुछ-न-कुछ संकार बनते हैं उनका शमन कर देती है। कम का अथ
है (अाराधना) चतन, जाे य में है।
कवं पुराणमनुशासतार-
मणाेरणीयांसमनुरे :।
सवय धातारमचयप-
मादयवण तमस: परतात्।।९।।
याणकाले मनसाचले न
भा युाे याेगबले न चैव।
वाेमये ाणमावेय सयक्
स तं परं पुषमुपैित दयम्।।१०।।
जाे पुष ‘अाेम् इित’– अाेम् इतना ही, जाे अय का परचायक है,
इसका जप तथा मेरा रण करता अा शरर का याग कर जाता है, वह
पुष परमगित काे ा हाेता है।
ीकृण अाेम् पर बल देते हैं। अाे अहं स अाेम् अथात् वह स ा मेरे भीतर
है, कहीं बाहर न ढूँ ढ़ने लगे। यह अाेम् भी उस परम स ा का परचय देकर
शात हाे जाता है। वातव में उन भु के अनत नाम हैं; कत जप के लये
वही नाम साथक है जाे छाेटा हाे, ास में ढल जाय अाैर एक परमाा का
ही बाेध कराता हाे। उससे भ अनेक देवी-देवताअाें क अववेकपूण कपना
में उलझकर लय से न हटा दें।
‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क– ‘‘मेरा प देखें अाैर ानुसार
काेई भी दाे-ढाई अर का नाम– ‘ॐ’, ‘राम’, ‘शव’ में से काेई एक लें ,
उसका चतन करें अाैर उसी के अथवप इ के वप का यान करें ।’’
यान स
ु का ही कया जाता है। अाप राम, कृण अथवा ‘वीतराग वषयं वा
च म्।’– वीतराग महााअाें अथवा ‘यथाभमतयानाा।’ (पातंजल याेग०,
१/३७, ३९) अभमत अथात् याेग के अभमत, अनुकूल कसी का भी वप
पकड़ंे , वे अनुभव में अापकाे मलें गे अाैर अापके समकालन कसी स
ु क
अाेर बढ़ा देंगे, जनके मागदशन से अाप शनै:-शनै: कृित के े से पार
हाेते जायेंगे। मैं भी ार में एक देवता (कृण के वराट् प) के च का
यान करता था; कत पूय महाराज जी के अनुभवी वेश के साथ वह शात
हाे गया।
ारक साधक नाम ताे जपते हैं; कत महापुष के वप का यान
करने में हचकते हैं। वे अपनी अजत मायताअाें का पूवाह छाेड़ नहीं पाते।
वे कसी अय देवता का यान करते हैं, जसका याेगे र ीकृण ने िनषेध
कया है। अत: पूण समपण के साथ कसी अनुभवी महापुष क शरण लें ।
पुय-पुषाथ सबल हाेते ही कुतकाे का शमन अाैर यथाथ या में वेश मल
जायेगा। याेगे र ीकृण के अनुसार इस कार ‘ॐ’ के जप अाैर
परमावप स
ु के वप का िनरतर रण करने से मन का िनराेध
अाैर वलय हाे जाता है अाैर उसी ण शरर के सबध का याग हाे जाता
है। केवल मरने से शरर पीछा नहीं छाेड़ता।
अनयचेता: सततं याे मां रित िनयश:।
तयाहं सलभ: पाथ िनययुय याेगन:।।१४।।
जब दय में थत सपूण कामनाएँ समूल न हाे जाती हैं, तब मरणधमा
मनुय अमर हाे जाता है अाैर यहीं, इसी संसार में, इसी मनुय-शरर में
पर का भलभाँित साात् अनुभव कर ले ता है।
उठता है क ा ा भी मरणधमा है अयाय तीन में ताे याेगे र
ीकृण ने जापित ा के संग में कहा क ाि के पात् बु मा य
है, उसके ारा परमाा ही य हाेता है। एेसे महापुषाें के ारा ही य क
संरचना ई है अाैर यहाँ कहते हैं क ा क थित ा करनेवाला भी
पुनरावती है। याेगे र ीकृण कहना ा चाहते हैं
साधारण मनुय क बु ा नहीं है। बु जब इ में वेश करने लगती
है तभी से ा क रचना हाेने लगती है, जसके चार साेपान मनीषयाें ने
कहे हैं। पीछे अयाय तीन में बता अाये हैं, रण के लये पुन: देख सकते
हैं– वद्, वर, वरयान्, वर। वद् वह बु है, जाे
व ा से संयु हाे। वर वह है, जसे व ा में ेता ा हाे।
वरयान् वह बु है जससे वह व ा में द ही नहीं वरन् उसका
िनय क, संचालक बन जाता है। वर बु का वह अतम छाेर है
जसमें इ वाहत है। यहाँ तक बु का अतव है; ाेंक वाहत
हाेनेवाला इ अभी कहीं अलग है अाैर हणक ा बु अलग है। अभी वह
कृित क सीमा में है। अब वयं काशवप में जब बु ( ा) रहती है,
जागृत है ताे सपूण भूत (चतन का वाह) जागृत हैं अाैर जब अव ा में
रहती है ताे अचेत हैं। इसी काे काश अाैर अधकार, राि अाैर दन कहकर
सबाेधत कया जाता है। देखें–
तत ाेक में दन अाैर रात व ा अाैर अव ा के पक हैं। व ा
से संयु बु ा क वेशका तथा वर बु ा क पराकाा है।
व ा से संयु बु ही ा का दन है। जब व ा कायरत हाेती है, उस
समय याेगी वप क अाेर असर हाेता है, अत:करण क सहाें वृ याें
में ई रय काश का संचार हाे उठता है। इसी कार अव ा क राि अाने
पर अत:करण क सहाें वृ याें में माया का वाहत हाेता है। काश
अाैर अधकार क यहीं तक सीमा है। इसके पात् न ताे अव ा रह जाती है
अाैर न व ा ही। वह परमत व परमाा वदत हाे जाता है। जाे इसे त व से
भल कार जानते हैं, वे याेगीजन काल के त व काे जाननेवाले हैं क कब
अव ा क रात हाेती है, कब व ा का दन अाता है, काल का भाव कहाँ
तक है अथवा समय कहाँ तक पीछा करता है
(रामचरतमानस, ४/१५ ख)
व ा से संयु बु कुसंग पाकर अव ा में परणत हाे जाती है, पुन:
ससंग से व ा का संचार उसी बु में हाे जाता है। यह उतार-चढ़ाव
पूितपयत लगा रहता है। पूित के पात् न बु है न ा, न रात रहती है न
दन। यही ा के दन-रात के पक हैं। न हजाराें साल क लबी रात हाेती
है, न हजाराें चतयुग का दन ही हाेता है अाैर न कहीं काेई चार मुँहवाला
ा ही है। बु क उपयु चार मक अवथाएँ ही ा के चार मुख अाैर
अत:करण क चार मुख वृ याँ ही उसके चतयुग हैं। रात अाैर दन इहीं
वृ याें में हाेते हैं। जाे पुष इसके भेद काे त व से जानते हैं, वे याेगीजन
काल के भेद काे जानते हैं क काल कहाँ तक पीछा करता है अाैर काैन पुष
काल से भी अतीत हाे जाता है। राि अाैर दन, अव ा अाैर व ा में
हाेनेवाले काय काे याेगे र ीकृण प करते हैं–
परता ु भावाेऽयाेऽयाेऽयासनातन:।
य: स सवेषु भूतेषु नयस न वनयित।।२०।।
एक ताे ा अथात् बु अय है, इयाें से दखायी नहीं पड़ती अाैर
इससे भी परे सनातन अय भाव है, जाे भूताें के न हाेने पर भी न नहीं
हाेता अथात् व ा में सचेत अाैर अव ा में अचेत, दन में उप अाैर राि
में वलन भावाेंवाले अय ा के भी मट जाने पर वह सनातन अय
भाव मलता है, जाे न नहीं हाेता। बु में हाेनेवाले उ दाेनाें उतार-चढ़ाव
जब मट जाते हैं तब सनातन अय भाव मलता है, जाे मेरा परमधाम है।
जब सनातन अय भाव ा हाे गया ताे बु भी उसी भाव में रं ग जाती है,
उसी भाव काे धारण कर ले ती है। इसलये वह बु वयं ताे मट जाती है
अाैर उसके थान पर सनातन अय भाव ही शेष बचता है।
उस सनातन अय भाव काे अर अथात् अवनाशी कहा जाता है। उसी
काे परमगित कहते हैं। वही मेरा परमधाम है, जसे ा हाेकर मनुय पीछे
नहीं अाते, उनका पुनज नहीं हाेता। इस सनातन अय भाव क ाि का
वधान बताते हैं–
पाथ जस परमाा के अतगत सपूण भूत हैं, जससे सपूण जगत्
या है, सनातन अय भाववाला वह परमपुष अनय भ से ा हाेने
याेय है। अनय भ का तापय है क परमाा के सवाय अय कसी का
रण न करते ए उनसे जुड़ जाय। अनय भाव से लगनेवाले पुष भी कब
तक पुनज क सीमा में हैं अाैर कब वे पुनज का अितमण कर जाते
हैं इस पर याेगे र कहते हैं–
हे अजुन जस काल में शरर यागकर गये ए याेगीजन पुनज काे
नहीं पाते अाैर जस काल में शरर यागने पर पुनज पाते हैं, मैं अब उस
काल का वणन करता ँ।
उपयु श अाैर कृण दाेनाें कार क गितयाँ जगत् में शा त हैं अथात्
साधन का कभी वनाश नहीं हाेता। एक (श) अवथा में याण करनेवाला
पीछे न अानेवाल परमगित काे ा हाेता है अाैर दूसर अवथा में, जसमें
ीण काश तथा अभी कालमा है एेसी अवथा काे गया अा पीछे लाैटता
है, ज ले ता है। जब तक पूण काश नहीं मलता, तब तक उसे भजन
करना है। पूण अा। अब इसके लये साधन पर पुन: बल देते हैं–
िनकष—
इसी कार रभाव अधभूत हैं अथात् न हाेनेवाले ही भूताें काे उप
करने में मायम हैं। वे ही भूताें के अधाता हैं। परमपुष ही अधदैव है।
उसमें दैवी सपद् वलन हाेती है। इस शरर में अधय मैं ही ँ अथात्
जसमें य वलय हाेते हैं वह मैं ँ, य का अधाता ँ। वह मेरे वप
काे ही ा हाेता है अथात् ीकृण एक याेगी थे। अधय काेई एेसा पुष है
जाे इस शरर में रहता है, बाहर नहीं। अतम क अत समय में अाप
कस कार जानने में अाते हैं उहाेंने बताया क जाे मेरा िनरतर रण
करते हैं, मेरे सवाय कसी दूसरे वषय-वत का चतन नहीं अाने देते अाैर
एेसा करते ए शरर का सबध याग देते हैं, वे मेरे साात् वप काे ा
हाेते हैं, जसे अत में भी वही ा रहता है। शरर क मृयु के साथ यह
उपलध हाेती हाे एेसी बात नहीं है। मरने पर ही मलता ताे ीकृण पूण न
हाेते, अनेक जाें में चलकर पानेवाला ानी उनका वप न हाेता। मन का
सवथा िनराेध अाैर िन मन का भी वलय ही अतकाल है, जहाँ फर
शरराें क उप का मायम शात हाे जाता है। उस समय वह परमभाव में
वेश पा जाता है। उसका पुनज नहीं हाेता।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ नवमाेऽयाय: ।।
अयाय छ: तक याेगे र ीकृण ने याेग का मब वे षण कया,
जसका श अथ है य क या। य उस परम में वेश दला देनेवाल
अाराधना क वध-वशेष का चण है, जसमें चराचर जगत् हवन-सामी के
प में है। मन के िनराेध अाैर िन मन के भी वलयकाल में वह अमृत-
त व वदत हाे जाता है। पूितकाल में य जसक सृ करता है, उसकाे
पान करनेवाला ानी है अाैर वह सनातन में वेश पा जाता है। उस
मलन का नाम ही याेग है। उस य काे कायप देना कम कहलाता है।
सातवें अयाय में उहाेंने बताया क इस कम काे करनेवाले या , सपूण
कम, सपूण अया, सपूण अधदैव, अधभूत अाैर अधयसहत मुझकाे
जानते हैं। अाठवें अयाय में उहाेंने कहा क यही परमगित है, यही परमधाम
है।
याेगे र ीकृण ने कहा– अजुन असूया (डाह, ईया) रहत तेरे लये मैं
इस परमगाेपनीय ान काे वानसहत कँगा अथात् ाि के पात्
महापुष क रहनी के साथ कँगा क कैसे वह महापुष सव एक साथ
कम करता है, कैसे वह जागृित दान करता है, रथी बनकर अाा के साथ
कैसे सदैव रहता है ‘यत् ावा’– जसे साात् जानकर तू दु:खपी संसार
से मु हाे जायेगा। वह ान कैसा है इस पर कहते हैं–
अयाय दाे में याेगे र ीकृण ने कहा– अजुन इस याेग में बीज का
नाश नहीं हाेता। इसका थाेड़ा भी साधन ज-मरण के महान् भय से उ ार
कर देता है। छठें अयाय में अजुन ने पूछा– भगवन् शथल य वाला
साधक न- ताे नहीं हाे जाता ीकृण ने बताया– अजुन पहले ताे कम
समझना अावयक है अाैर समझने के बाद थाेड़ा भी साधन पार लग गया ताे
उसका कसी ज में कभी वनाश नहीं हाेता, बक उस थाेड़े से अयास के
भाव से हर ज में वही करता है। अनेक जाें के परणाम में वहीं पँच
जाता है, जसका नाम परमगित अथात् परमाा है। उसी काे याेगे र
ीकृण यहाँ भी कहते हैं क यह साधन करने में बड़ा सगम अाैर अवनाशी
है; परत इसके लये ा िनतात अावयक है।
परं तप अजुन इस धम में (जसका थाेड़ा भी साधन करने पर वनाश नहीं
हाेता) ारहत पुष (एक इ में मन काे केत न रखनेवाला पुष) मुझे
न ा हाेकर संसार-े में मण करता ही रहता है। अत: ा अिनवाय है।
ा अाप संसार से परे हैं इस पर कहते हैं–
वतत: सब भूत भी मुझमें थत नहीं हैं ाेंक वे मरणधमा हैं, कृित के
अात हैं; कत मेर याेगमाया के एे य काे देख क जीवधारयाें काे उप
अाैर पाेषण करनेवाला मेरा अाा भूताें में थत नहीं है। मैं अावप ँ,
इसलये मैं उन भूताें में थत नहीं ँ। यही याेग का भाव है। इसकाे प
करने के लये याेगे र ीकृण ात देते हैं–
जैसे अाकाश से ही उप हाेनेवाला महान् वायु अाकाश में सदैव थत है
कत उसे मलन नहीं कर पाता, ठक वैसे ही सपूण भूत मुझमें थत हैं,
एेसा जान। ठक इसी कार मैं अाकाशवत् िनले प ँ। वे मुझे मलन नहीं कर
पाते। पूरा अा। यही याेग का भाव है। अब याेगी ा करता है इस
पर कहते हैं–
अजुन कप के वलयकाल में सब ‘भुत – ाणी’ मेर कृित अथात् मेरे
वभाव काे ा हाेते हैं अाैर कप के अाद में मैं उनकाे बार-बार
‘वसृजाम’– वशेष प से सृजन करता ँ। थे ताे वे पहले से कत वकृत
थे, उहीं काे रचता ँ, सजाता ँ। जाे अचेत हैं उहें जागृत करता ँ, कप
के लये ेरत करता ँ। कप का तापय है उथानाेुख परवतन। अासर
सपद् से िनकलकर जैसे-जैसे पुष दैवी सपद् में वेश पाता है, यहीं से
कप का अार है अाैर जब ई रभाव काे ा हाे जाता है, वहीं कप का
य है। अपना कम पूरा करके कप भी वलन हाे जाता है। भजन का
अार कप का अाद है अाैर भजन क पराकाा, जहाँ लय वदत हाेता
है, कप का अत है। जब यह र अाा याेिनयाें के कारणभूत राग-ेषाद
से मु पाकर अपने शा त वप में थर हाे जाय, इसी काे ीकृण
कहते हैं क वह मेर कृित काे ा हाेता है।
जाे महापुष कृित का वलय करके वप में वेश पा गया, उसक
कृित कैसी ा उसमें कृित शेष ही है नहीं, अयाय ३/३३ में याेगे र
ीकृण कह चुके हैं क सभी ाणी अपनी कृित काे ा हाेते हैं। जैसा
उनके ऊपर कृित के गुणाें का दबाव है, वैसा करते हैं अाैर ‘ानवानप’–
य दशन के साथ जानकारवाला ानी भी अपनी कृित के स श चेा
करता है। वह पीछे वालाें के कयाण के लये करता है। पूणानी त वथत
महापुष क रहनी ही उसक कृित है। वह अपने इसी वभाव में बरतता है।
कप के य में लाेग महापुष क इसी रहनी काे ा हाेते हैं। महापुष के
इसी कृितव पर पुन: काश डालते हैं–
कृितं वामवय वसृजाम पुन: पुन:।
भूतामममं कृमवशं कृतेवशात्।।८।।
वे वृथा अाशा (जाे कभी पूण न हाे एेसी अाशा), वृथा कम (बधनकार
कम), वृथा ान (जाे वतत: अान है), ‘वचेतस:’– वशेष प से अचेत
ए, रासाें अाैर असराें के-से माेहत हाेनेवाले वभाव काे धारण कये हाेते हैं
अथात् अासर वभाववाले हाेते हैं इसलये मनुय समझते हैं।
उनमें से काेई ताे मुझ सवया वराट् परमाा काे ानय ारा यजन
करते हैं अथात् अपनी हािन, लाभ अाैर श काे समझकर इसी िनयत कम
य में वृ हाेते हैं, कुछ एकव भाव से मेर उपासना करते हैं क मुझे इसी
में एक हाेना है अाैर दूसरे सब कुछ मुझे अलग रखकर, मुझे समपण करके
िनकाम सेवा-भाव से मुझे उपासते हैं तथा बत कार से उपासते हैं; ाेंक
एक ही य के ये सभी ऊँचे-नीचे तर हैं। य का अार सेवा से ही हाेता
है; कत उसका अनुान हाेता कैसे है याेगे र ीकृण कहते हैं– य मैं
करता ँ। यद महापुष रथी न हाे ताे य पार नहीं लगेगा। उहीं के िनदेशन
में साधक समझ पाता है क अब वह कस तर पर है, कहाँ तक पँच सका
है। वतत: यक ा काैन है – इस पर याेगे र कहते हैं–
यहाँ याेगे र ीकृण बार-बार ‘मैं ँ’ कह रहे हैं। इसका अाशय मा
इतना ही है क मैं ही ेरक के प में अाा से अभ हाेकर खड़ा हाे जाता
ँ तथा िनरतर िनणय देते ए याेगया काे पूण कराता ँ। इसी का नाम
वान है। ‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क ‘‘जब तक इदेव रथी
हाेकर ास- ास पर राेकथाम न करने लगें, तब तक भजन अार ही नहीं
हाेता।’’ काेई लाख अाँख मूँदे, भजन करे , शरर काे तपा डाले ; ले कन जब
तक जस परमाा क हमें चाह है वह, जस सतह पर हम खड़े हैं उस तर
पर उतरकर अाा से अभ हाेकर जागृत नहीं हाे जाता, तब तक सही
माा में भजन का वप समझ में नहीं अाता। इसलये महाराज जी कहते
थे– ‘‘मेरे वप काे पकड़ाे, मैं सब दूँगा।’’ ीकृण कहते हैं– सब मुझसे
हाेता है।
मैं सूयप से तपता ँ, वषा काे अाकषत करता ँ अाैर उसे बरसाता ँ।
मृयु से परे अमृत-त व तथा मृयु, सत् अाैर असत् सब कुछ मैं ही ँ। अथात्
जाे परम काश दान करता है, वह सूय मैं ही ँ। कभी-कभी भजनेवाले मुझे
असत् भी मान बैठते हैं, वे मृयु काे ा हाेते हैं। अागे कहते हैं–
अजुन देवताअाें काे पूजनेवाले देवताअाें काे ा हाेते हैं। देवता हैं ताे
परवितत स ा, वे अपने स मानुसार जीवन यतीत करते हैं। पतराें काे
पूजनेवाले पतराें काे ा हाेते हैं अथात् अतीत में उलझे रहते हैं, भूताें काे
पूजनेवाले भूत हाेते हैं– शरर धारण करते हैं अाैर मेरा भ मुझे ा हाेता
है। वह मेरा साात् वप हाेता है। उसका पतन नहीं हाेता। इतना ही नहीं,
मेर पूजा का वधान भी सरल है–
उपयु तीन ाेकाें में याेगे र ीकृण ने मब साधन अाैर उसके
परणाम का चण कया है– पहले प-पुप, फल-जल का पूण ा से
अपण, दूसरे समपत हाेकर कम का अाचरण अाैर तीसरे पूण समपण के साथ
सवव का याग। इनके ारा कमबधन से वमु (वशेष प से मु) हाे
जायेगा। मु से मले गा ा ताे बताया, मुझे ा हाेगा। यहाँ मु अाैर
ाि एक दूसरे के पूरक हैं। अापक ाि ही मु है, ताे उससे लाभ इस
पर कहते हैं–
मैं सब भूताें में सम ँ। सृ में न मेरा काेई य है अाैर न अय है;
कत जाे अनय भ है, वह मुझमें है अाैर मैं उसमें ँ। यही मेरा एकमा
रता है। मैं उसमें परपूण हाे जाता ँ। मुझमें अाैर उसमें काेई अतर नहीं
रह जाता। तब ताे बत भायशाल लाेग ही भजन करते हाेंगे भजन करने
का अधकार कसे है इस पर याेगे र ीकृण कहते हैं–
याेगे र ीकृण ने यहाँ चाैथी बार ा ण, िय, वैय अाैर शू क चचा
क। अयाय दाे में उहाेंने कहा क िय के लये यु से बढ़कर कयाण
का काेई राता नहीं है। अयाय तीन में उहाेंने कहा क वधम में िनधन भी
ेयतर है। अयाय चार में उहाेंने संेप में बताया क चार वणाे क रचना
मैंने क। ताे ा मनुयाें काे चार जाितयाें में बाँटा बाेले, नहीं ‘गुणकम
वभागश:’– गुण के पैमाने से कम काे चार ेणयाें में रखा। ीकृण के
अनुसार, कम एकमा य क या है। अत: इस य काे करनेवाले चार
कार के हैं। वेशकाल में वह यक ा शू है, अप है। कुछ करने क
मता अायी, अाक सप का संह अा ताे वही यक ा वैय बन
गया। इससे उ त हाेने पर कृित के तीनाें गुणाें काे काटने क मता अा
जाने पर वही साधक िय ेणी का है अाैर जब इसी साधक के वभाव में
में वेश दलानेवाल याेयताएँ ढल जाती हैं ताे वही ा ण है। वैय एवं
शू क अपेा िय अाैर ा ण ेणी के साधक ाि के अधक समीप हैं।
शू अाैर वैय भी उसी में वेश पाकर शात हाेंगे, फर इसके अागे क
अवथावालाें के लये ताे कहना ही ा है। उनके लये ताे िनत ही है।
अजुन मेरे में ही मनवाला हाे। सवाय मेरे दूसरे भाव मन में न अाने
पायें। मेरा अनय भ हाे, अनवरत चतन में लग। ासहत मेरा ही
िनरतर पूजन कर अाैर मेरे काे ही नमकार कर। इस कार मेर शरण अा,
अाा काे मुझमें एकभाव से थत कर तू मुझे ही ा हाेगा अथात् मेरे
साथ एकता ा करे गा।
िनकष–
अजुन कप के अाद में मैं भूताें काे वशेष कार से रचता ँ, सजाता ँ
अाैर कप के पूितकाल में सपूण भूत मेर कृित काे अथात् याेगाढ़
महापुष क रहनी काे, उनके अय भाव काे ा हाेते हैं। य प महापुष
कृित से परे है; कत ाि के पात् वभाव अथात् वयं में थत रहते ए
लाेकसंह के लए जाे काय करता है, वह उसक एक रहनी है। इसी रहनी
के काय-कलाप काे उस महापुष क कृित कहकर सबाेधत कया गया है।
एक रचयता ताे मैं ँ, जाे भूताें काे कप के लये ेरत करता ँ अाैर
दूसर रचयता िगुणमयी कृित है, जाे मेरे अयास से चराचरसहत भूताें काे
रचती है। यह भी एक कप है, जसमें शरर-परवतन, वभाव-परवतन अाैर
काल-परवतन िनहत है। गाेवामी तलसीदास जी भी यही कहते हैं–
(रामचरतमानस, ३/१४/५)
कृित के दाे भेद व ा अाैर अव ा हैं। इनमें अव ा दु है, दु:खप है
जससे ववश जीव भवकूप में पड़ा है, जससे ेरत हाेकर जीव काल, कम,
वभाव अाैर गुण के घेरे में अा जाता है। दूसर है व ामाया, जसे ीकृण
कहते हैं क मैं रचता ँ। गाेवामी जी के अनुसार भु रचते हैं–
(रामचरतमानस, ३/१४/६)
यह जगत् क रचना करती है, जसके अात गुण हैं। कयाणकार गुण
एकमा ई र में है। कृित में गुण हैं ही नहीं, वह ताे न र है; ले कन व ा
में भु ही ेरक बनकर करते हैं।
इस कार कप दाे कार के हैं। एक ताे वत का, शरर अाैर काल का
परवतन कप है। यह परवतन कृित ही मेरे अाभास से करती है। कत
इससे महान् कप जाे अाा काे िनमल वप दान करता है, उसका
ंगार महापुष करते हैं। वे अचेत भूताें काे सचेत करते हैं। भजन का अाद
ही इस कप का अार है अाैर भजन क पराकाा कप का अत है। जब
यह कप भवराेग से पूण नीराेग बनाकर शा त में वेश (थित) दला
देता है, उस वेशकाल में याेगी मेर रहनी अाैर मेरे वप काे ा हाेता है।
ाि के पात् महापुष क रहनी ही उसक कृित है।
धमथाें में कथानक मलते हैं क चाराें युग बीतने पर ही कप पूण हाेता
है, महालय हाेता है। ाय: लाेग इसे यथाथ नहीं समझते। युग का अथ है
दाे। अाप अलग हैं, अाराय अलग है तब तक युगधम रहेंगे। गाेवामी जी ने
रामचरतमानस के उ रकाड में इसक चचा क है। जब तामसी गुण काय
करते हैं, रजाेगुण अप माा में है, चाराें अाेर वैर-वराेध है, एेसा य
कलयुगीन है। वह भजन नहीं कर पाता; कत साधन ार हाेने पर युग-
परवतन हाे जाता है। रजाेगुण बढ़ने लगता है, तमाेगुण ीण हाे चलता है,
कुछ स वगुण भी वभाव में अा जाते हैं, हष अाैर भय क दुवधा लगी रहती
है ताे वही साधक ापर क अवथा में अा जाता है। मश: स वगुण का
बाय हाेने पर रजाेगुण वप रह जाता है, अाराधना-कम में रित हाे जाती
है, एेसे ेतायुग में याग क थितवाला साधक अनेकाें य करता है। ‘यानां
जपयाेऽ’– य-ेणीवाला जप, जसका उतार-चढ़ाव ास- ास पर है,
उसे करने क मता रहती है। जब मा स वगुण शेष रहा, वषमता खाे गयी,
समता अा गयी, यह कृतयुग अथात् कृताथ युग अथवा सययुग का भाव है।
उस समय सब याेगी वानी हाेते हैं, ई र से मलनेवाले हाेते हैं, वाभावक
यान पकड़ने क उनमें मता रहती है।
याेगे र ीकृण कहते हैं– अजुन मूढ़लाेग मुझे नहीं जानते। मुझ ई राें
के ई र काे भी तछ समझते हैं, साधारण मनुय मानते हैं। येक महापुष
के साथ यह वडबना रही है क तकालन समाज ने उनक उपेा क,
उनका डटकर वराेध अा। ीकृण भी इसके अपवाद नहीं थे। वे कहते हैं–
मैं परमभाव में थत ँ; कत शरर मेरा भी मनुय का ही है, अत: मूढ़
पुष मुझे तछ कहकर, मनुय कहकर सबाेधत करते हैं। एेसे लाेग यथ
अाशावाले हैं, यथ कमवाले हैं, यथ ानवाले हैं क कुछ भी करें अाैर कह दें
क हम ताे कामना नहीं करते, हाे गये िनकाम कमयाेगी। वे अासर
वभाववाले मुझे नहीं परख पाते; कत दैवी सपद् काे ा जन अनय भाव
से मेरा यान करते हैं, मेरे गुणाें का िनरतर चतन करते हैं।
अनय उपासना अथात् याथ कम के दाे ही माग हैं। पहला है ानमाग
अथात् अपने भराेसे, अपनी श काे समझकर उसी िनयत कम में वृ
हाेना अाैर दूसर वध वामी-सेवक भावना क है, जसमें स
ु के ित
समपत हाेकर वही कम कया जाता है। इहीं दाे याें से लाेग मुझे
उपासते हैं; कत उनके ारा जाे पार लगता है वह य, वह हवन, वह क ा,
ा अाैर अाैषध– जससे भवराेग क चकसा हाेती है, मैं ही ँ। अत में
जाे गित ा हाेती है, वह गित भी मैं ही ँ।
इसी य काे लाेग ‘ैव ा:’– ाथना, यजन अाैर समव दलानेवाल
वधयाें से सपादत करते हैं; कत बदले में वग क कामना करते हैं ताे मैं
वग भी देता ँ। उसके भाव से वे इपद ा कर ले ते हैं, दघकाल तक
उसे भाेगते हैं; कत पुय ीण हाेने पर वे पुनज काे ा हाेते हैं। उनक
या सही थी; कत भाेगाें क कामना रहने पर पुनज पाते हैं। अत: भाेगाें
क कामना नहीं करनी चाहये। जाे अनय भाव से अथात् ‘मेरे सवाय दूसरा
है ही नहीं’– एेसे भाव से जाे िनरतर मेरा चतन करते हैं, ले शमा भी ुट
न रह जाय– एेसे जाे भजते हैं, उनके याेग क सरा का भार मैं अपने हाथ
में ले ले ता ँ।
इतना हाेने पर भी कुछ लाेग अय देवताअाें क पूजा करते हैं। वे भी मेर
ही पूजा करते हैं; कत वह मेर ाि क वध नहीं है। वे सपूण याें के
भाेा के प में मुझे नहीं जानते अथात् उनक पूजा के परणाम में मैं नहीं
मलता, इसीलये उनका पतन हाे जाता है। वे देवता, भूत अथवा पतराें के
कपत प में िनवास करते हैं, जबक मेरा भ साात् मुझमें िनवास
करता है, मेरा ही वप हाे जाता है।
दुिनया में सब ाणी मेरे ही हैं। कसी भी ाणी से न मुझे ेम है न ेष,
मैं तटथ ँ; कत जाे मेरा अनय भ है, मैं उसमें ँ अाैर वह मुझमें है।
अयत दुराचार, जघयतम पापी ही काेई ाें न हाे, फर भी अनय
ाभ से मुझे भजता है ताे वह साधु मानने याेय है। उसका िनय थर
है ताे वह शी ही परम से संयु हाे जाता है अाैर सदा रहनेवाल परमशात
काे ा हाेता है। यहाँ ीकृण ने प कया क धामक काैन है। सृ में
ज ले नेवाला काेई भी ाणी अनय भाव से एक परमाा काे भजता है,
उसका चतन करता है ताे वह शी ही धामक हाे जाता है। अत: धामक
वह है, जाे एक परमाा का समरन करता है। अत में अा ासन देते हैं–
अजुन मेरा भ कभी न नहीं हाेता। काेई शू हाे, नीच हाे, अादवासी हाे
या अनादवासी या कुछ भी नामधार हाे, पुष अथवा ी हाे अथवा
पापयाेिन, ितयक् याेिनवाला भी जाे हाे, मेर शरण हाेकर परमेय काे ा
हाेता है। इसलये अजुन सखरहत, णभंगुर कत दुलभ मनुय-शरर काे
पाकर मेरा भजन कर। फर ताे जाे में वेश दलानेवाल अहताअाें से
यु है, उस ा ण तथा जाे राजषव के तर से भजनेवाला है, एेसे याेगी के
लये कहना ही ा है वह ताे पार ही है। अत: अजुन िनरतर मुझमें
मनवाला हाे, िनरतर नमकार कर। इस कार मेर शरण अा तू मुझे ही
ा हाेगा, जहाँ से पीछे लाैटकर नहीं अाना पड़ता।
।।हर: ॐ तसत्।।
।। ॐ ी परमाने नम:।।
।। अथ दशमाेऽयाय: ।।
गत अयाय में याेगे र ीकृण ने गु राजव ा का चण कया, जाे
िनत ही कयाण करती है। इस अयाय में उनका कथन है– महाबा
अजुन मेरे परम रहययु वचन काे फर भी सन। यहाँ उसी काे दूसर बार
कहने क अावयकता ा है वतत: साधक काे पूितपयत खतरा है। याें-
याें वह वप में ढलता जाता है, कृित के अावरण सू हाेते जाते हैं,
नये-नये य अाते हैं। उसक जानकार महापुष ही देते रहते हैं। वह नहीं
जानता। यद वे मागदशन करना बद कर दें ताे साधक वप क उपलध
से वंचत रहेगा। जब तक वह वप से दूर है, तब तक स है क कृित
का काेई-न-काेई अावरण बना है। फसलने-लड़खड़ाने क सावना बनी रहती
है। अजुन शरणागत शय है। उसने कहा– ‘शयतेऽहं शाध मां वां
प म्।’– भगवन् मैं अापका शय ँ, अापक शरण ँ, मुझे सँभालये।
अत: उसके हत क कामना से याेगे र ीकृण पुन: बाेले–
ीभगवानुवाच
अजुन मेर उप काे न देवता लाेग जानते हैं अाैर न महषगण ही
जानते हैं। ीकृण ने कहा था, ‘ज कम च मे दयम्’– मेरा वह ज अाैर
कम अलाैकक है, इन चमचअाें से देखा नहीं जा सकता। इसलये मेरे उस
कट हाेने काे देव अाैर महष तर तक पँचे ए लाेग भी नहीं जानते। मैं
सब कार से देवताअाें अाैर महषयाें का अाद कारण ँ।
जाे पुष याेग क अाैर मेर उपयु वभूितयाें काे सााकार के साथ
जानता है, वह थर यानयाेग ारा मुझमें एकभाव से थत हाेता है। इसमें
कुछ भी संशय नहीं है। जस कार वायुरहत थान में रखे दपक क लाै
सीधी जाती है, कपन नहीं हाेता, याेगी के जीते ए च क यही परभाषा
है। तत ाेक में ‘अवकपेन’ शद इसी अाशय क अाेर संकेत करता है।
मैं सपूण जगत् क उप का कारण ँ, मुझसे ही सपूण जगत् चेा
करता है– इस कार मानकर ा अाैर भ से यु ववेकजन मेरा
िनरतर भजन करते हैं। तापय यह है क याेगी ारा मेरे अनुप जाे वृ
हाेती है, उसे मैं ही कया करता ँ। वह मेरा ही साद है। (कैसे है इसे
पीछे थान-थान पर बताया जा चुका है।) वे िनरतर भजन कस कार करते
हैं इस पर कहते हैं–
िनरतर मेरे यान में लगे ए तथा ेमपूवक भजनेवाले उन भाें काे मैं
वह बु याेग अथात् याेग में वेशवाल बु देता ँ, जससे वे मुझे ा हाेते
हैं अथात् याेग क जागृित ई र क देन है। वह अय पुष ‘महापुष’ याेग
में वेश दलानेवाल बु कैसे देता है –
तेषामेवानुकपाथमहमानजं तम:।
नाशयायाभावथाे ानदपेन भावता।।११।।
उनके ऊपर पूण अनुह करने के लये मैं उनक अाा से अभ खड़ा
हाेकर, रथी हाेकर अान से उप ए अधकार काे ानपी दपक के ारा
काशत कर न करता ँ। वतत: कसी थत याेगी ारा जब तक वह
परमाा अापके अाा से ही जात हाेकर पल-पल पर संचालन नहीं करता,
राेकथाम नहीं करता, इस कृित के से िनकालते ए वयं अागे नहीं ले
चलता, तब तक वातव में यथाथ भजन अार ही नहीं हाेता। वैसे ताे
भगवान सव से बाेलने लगते हैं, ले कन ार में वे वपथ महापुष
ारा ही बाेलते हैं। यद एेसा महापुष अापकाे ा नहीं है ताे वे प नहीं
बाेलेंगे।
इ, स
ु अथवा परमाा का रथी हाेना एक ही बात है। साधक क
अाा से जागृत हाे जाने पर उनके िनदेश चार कार से मलते हैं। पहले
थूलसरा-सबधी अनुभव हाेता है। अाप चतन में बैठे हैं। कब अापका मन
लगनेवाला है कतनी सीमा तक लग गया है कब मन भागना चाहता है
अाैर कब भाग गया इसकाे हर मनट-सेकेड पर इ अंग-पंदन से संकेत
करते हैं। अंगाें का फड़कना थूलसरा-सबधी अनुभव है, जाे एक पल में दाे-
चार थानाें पर एक साथ अाता है अाैर वचाराें के वकृत हाे जाने पर मनट-
मनट पर अाने लगेगा। यह संकेत तभी अाता है, जब इ के वप काे
अाप अनय भाव से पकड़ें अयथा साधारण जीवाें में संकार के टकराव से
अंग-पदन हाेते रहते हैं, जनका इवालाें से काेई सपक नहीं है।
तीसरा अनुभव सषुि सरा-सबधी हाेता है। संसार में सब साेते ही ताे हैं।
माेहिनशा में सभी अचेत पड़े हैं। रात-दन जाे कुछ करते हैं, व ही ताे है।
यहाँ सषुि का श अथ है, जब परमाा के चतन क एेसी डाेर लग जाय
क सरत (याल) एकदम थर हाे जाय, शरर जागता रहे अाैर मन स हाे
जाय। एेसी अवथा में वह इदेव फर अपना एक संकेत देंगे। याेग क
अवथा के अनुप एक पक ( य) अाता है जाे सही दशा दान करता
है, भूत-भवय से अवगत कराता है। ‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क
डाटर जैसे बेहाेशी क दवा देकर, उचत उपचार देकर हाेश में लाता है एेसे
ही भगवान बता देते हैं।
चाैथा अाैर अतम अनुभव समसरा-सबधी है। जसमें सरत लगायी थी,
उस परमाा से समव ा हाे गया। उसके बाद उठते-बैठते, चलते-फरते
सव से उसे अनुभूित हाेने लगती है। एेसा याेगी िकाल हाेता है। यह
अनुभव तीनाें कालाें से परे अय थितवाले महापुष अाा से जागृत
हाेकर अानजिनत अधकार काे ानदप से न करके करते हैं। इस पर
अजुन ने कया–
अजुन उवाच
भगवन् अाप परम , परमधाम तथा परमपव हैं; ाेंक अापकाे सभी
ऋषगण सनातन, दयपुष, देवाें का भी अाददेव, अजा अाैर सवयापी
कहते हैं। परमपुष, परमधाम का ही पयाय दयपुष, अजा अाद शद
हैं। देवष नारद, असत, देवल, यास तथा वयं अाप भी मुझसे वही कहते
हैं। अथात् पहले भूतकालन महष कहते हैं, अब वतमान में जनक संगत
उपलध है– नारद, देवल, असत अाैर यास का नाम लया, जाे अजुन के
समकालन थे (सपुषाें क संगित अजुन काे ा थी), अाप भी वही कहते
हैं। अत:–
हे केशव जाे कुछ भी अाप मेरे लये कह रहे हैं, वह सब मैं सय मानता
ँ। अापके यव काे न देवता अाैर न दानव ही जानते हैं।
हे याेगन् (ीकृण एक याेगी थे) मैं कस कार िनरतर चतन करता
अा अापकाे जानूँ अाैर हे भगवन् मैं कन-कन भावाें ारा अापका रण
कँ
(रामचरतमानस, ७/५२/१)
अजुन मैं सब भूताें के दय में थत सबका अाा ँ तथा सपूण भूताें
का अाद, मय अाैर अत भी मैं ही ँ अथात् ज, मृयु अाैर जीवन भी मैं
ही ँ।
मैं अदित के बारह पुाें में वणु अाैर याेितयाें में काशमान सूय ँ।
वायु के भेदाें में मैं मरच नामक वायु अाैर नाें में चमा ँ।
एकादश ाें में मैं शंकर ँ। श अर: स शंकर: अथात् शंकाअाें से
उपराम अवथा में ँ। य तथा रासाें में मैं धन का वामी कुबेर ँ। अाठ
वसअाें में मैं अ अाैर शखरवालाें में समे अथात् शभाें का मेल मैं ँ। वही
सवाेपर शखर है, न क काेई पहाड़। वतत: यह सब याेग-साधना के तीक
हैं, याैगक शद हैं।
पुर क रा करनेवाले पुराेहताें में बृहपित मुझे ही जान, जससे दैवी
सपद् का संचार हाेता है अाैर हे पाथ सेनापितयाें में मैं वामी काितकेय ँ।
कम का याग ही काितक है, जससे चराचर का संहार, लय अाैर इ क
ाि हाेती है। जलाशयाें में मैं समु ँ।
घाेड़ाें में मैं अमृत से उप हाेनेवाला उ ै:वा नामक घाेड़ा ँ। दुिनया में
हर वत नाशवान् है। अाा ही अजर-अमर, अमृतवप है। इस
अमृतवप से जसका संचार है, वह घाेड़ा मैं ँ। घाेड़ा गित का तीक है।
अात व काे हण करने में मन जब उधर गित पकड़ता है, घाेड़ा है। एेसी
गित मैं ँ। हाथयाें में एेरावत नामक हाथी मैं ँ। मनुयाें में राजा मुझकाे
जान। वतत: महापुष ही राजा है, जसके पास अभाव नहीं है।
शाें में मैं व ँ। गायाें में कामधेनु ँ। कामधेनु काेई एेसी गाय नहीं है,
जाे दूध के थान पर मनचाहा यंजन परसती हाे। ऋषयाें में वश के पास
कामधेनु थी। वतत: ‘गाे’ इयाें काे कहते हैं। इयाें का संयत हाेना इ
काे वश में रखनेवाले में पाया जाता है। जसक इयाँ ई र के अनुप
थर हाे जाती हैं, उसके लये उसी क इयाँ ‘कामधेनु’ बन जाती हैं। फर
ताे ‘जाे इछा करह मन माहीं। हर साद क दुलभ नाहीं।।’
(रामचरतमानस, ७/११३/४) उसके लये कुछ भी दुलभ नहीं रहता। जनन
करनेवालाें में नवीन थितयाें काे कट करनेवाला मैं ँ। ‘जनन’– एक ताे
लड़का बाहर पैदा कया जाता है, चराचर में रात-दन पैदा ही हाेते हैं, चूहे-
चींट रात-दन करते हैं– एेसा नहीं, बक एक थित से दूसर थित, इस
कार वृ याें का परवतन हाेता है। वह परवितत वप मैं ँ। सपाे में मैं
वासक ँ।
नागाें में मैं अनत अथात् शेषनाग ँ। वैसे यह काेई सप नहीं है। गीता क
समकालन पुतक ीम ागवत में इसके प क चचा है क इस पृवी से
तीस हजार याेजन क दूर पर परमाा क वैणवी श है, जसके सर पर
यह पृवी सरसाें के दाने क तरह भाररहत टक है। उस युग में याेजन का
पैमाना चाहे जाे रहा हाे, फर भी यह पया दूर है। वतत: यह अाकषण
श का चण है। वैािनकाें ने जसे ईथर माना है। ह-उपह सभी उसी
श के अाधार पर टके हैं। उस शूय में हाें का काेई भार भी नहीं है। वह
श सप क कुडल क तरह सभी हाें काे लपेटे है। यही है वह अनत,
जससे पृवी धारण क जाती है। ीकृण कहते हैं– एेसी ई रय श मैं ँ।
जलचराें में उनका अधपित ‘वण’ ँ तथा पतराें में ‘अयमा’ ँ। अहंसा,
सय, अतेय, चय अाैर अपरह पाँच यम हैं। इनके पालन में अानेवाले
वकाराें काे काटना ‘अर:’ है। वकाराें के शमन से पतृ अथात् भूत-संकार
तृ हाेते हैं, िनवृ दान कर देते हैं। शासन करनेवालाें में मैं यमराज ँ
अथात् उपयु यमाें का िनयामक ँ।
पव करनेवालाें में मैं वायु ँ, शधारयाें में राम ँ। ‘रमते याेगन:
यन् स राम:।’ याेगी कसमें रमण करते हैं अनुभव में। ई र इप में
जाे िनदेशन देता है, याेगी उसमें रमण करते हैं। उस जागृित का नाम राम है
अाैर वह जागृित मैं ँ। मछलयाें में मगर तथा नदयाें में गंगा मैं ँ।
सगाणामादरत मयं चैवाहमजुन।
अयाव ा व ानां वाद: वदतामहम्।।३२।।
हे अजुन सृयाें का अाद, अत अाैर मय मैं ही ँ। व ाअाें में
अयाव ा मैं ँ। जाे अाा का अाधपय दला दे, वह व ा मैं ँ। संसार
में अधकांश ाणी माया के अाधपय में हैं। राग, ेष, काल, कम, वभाव
अाैर गुणाें से ेरत हैं। इनके अाधपय से िनकालकर अाा के अाधपय में
ले जानेवाल व ा मैं ँ, जसे अयाव ा कहते हैं। परपर हाेनेवाले
ववादाें में, चचा में जाे िनणायक है, एेसी वा ा मैं ँ। शेष िनणय ताे
अिनणीत हाेते हैं।
मैं अराें में अकार–अाेंकार तथा समासाें में नामक समास ँ।
(साधना क उ त अवथा में मन समटते-समटते केवल साधक अाैर इ
अामने-सामने रह जाते हैं, शेष काेई संकप नहीं रह जाता, वामी सेवक में
संघष है; कत क यह अवथा भगवान क देन है।) अयकाल मैं ँ।
काल सदैव परवतनशील है; कत वह समय जाे अय, अजर, अमर
परमाा में वेश दलाता है, वह अवथा मैं ँ। वराट् वप अथात् सव
या , सबकाे धारण-पाेषण करनेवाला भी मैं ही ँ।
अयाय १५/१५ में भगवान् कहते हैं, ‘सवय चाहं द स वाे म :
ृितानमपाेहनं च।’– अजुन मैं सबके दय में समाव हाेकर सदा िनवास
करता ँ। बु , ृित, ान (वातवक जानकार) अाैर वकाराें से अलग
रहने क मता मेर देन है।
वतत: मानव क च वृ ही ‘नार’ है। शरर ताे व मा है। ी,
पुष, नपुंसक इयाद शरर क अाकृितयाँ हैं, वप क नहीं। शरर के
अतराल में च वृ कृित क अाेर वयमेव वाहमान है। इन वृ याें में
ई रय भाव, ृित, मेधा, धैय, मा इयाद गुण भगवान से ही सारत हाेते
हैं। इन गुणाें ारा मानव लाेक में समृ अाैर परमेय के पथ काे शत
करता है। इन गुणाें काे धारण करना ीलं ग-पुलं ग सबके लये उपयाेगी है।
जाे मुझसे हाेते हैं।
गायन करने याेय ुितयाें में मैं बृहसाम अथात् बृहत् से संयु समव
दलानेवाला गायन ँ अथात् एेसी जागृित मैं ँ। छदाें में गायी छद मैं ँ।
गायी काेई एेसा म नहीं है जसे पढ़ने से मु मलती हाे वरन् एक
समपणाक छद है। तीन बार वचलत हाेने के पात् ऋष व ाम ने
अपने काे इ के ित समपत करते ए कहा– ‘ॐ भूभुव: व:
तसवतव रेयं भगाे देवय धीमह। धयाे याे न: चाेदयात्।’ अथात् भू:, भुव:
अाैर व: तीनाें लाेकाें में त वप से या देव अाप ही वरे य हैं। हमें एेसी
बु दें, एेसी ेरणा करें क हम लय काे ा कर लें । यह मा एक ाथना
है। साधक अपनी बु से यथाथ िनणय नहीं ले पाता क वह कब सही है
अाैर कब गलत उसक यह समपत ाथना मैं ँ, जससे िनत कयाण है;
ाेंक वह मेरे अात अा है। मासाें में शीषथ माग मैं ँ अाैर जसमें
सदैव बहार हाे एेसी ऋत, दय क एेसी अवथा भी मैं ही ँ।
तेजवी पुषाें का तेज मैं ँ। जुए में छल करनेवालाें का छल मैं ँ। तब
ताे अछा है क जुअा खेलें, उसमें कलबल-छल करें , वहीं भगवान हैं। नहीं,
एेसा कुछ नहीं है। यह कृित ही एक जुअा है। यही ठगनी है। इस कृित के
से िनकलने के लये दखावा छाेड़कर छपाव के साथ गु प से भजन
करना ही छल है। छल है ताे नहीं, कत बचाव के लये अावयक है।
जड़भरत क तरह उ , अधे-बहरे अाैर गूँगे क तरह दय से जानकार
हाेते ए भी बाहर से एेसे रहें क अनजान हाें, सनते ए भी न सनें, देखते
ए भी न देखें। छपकर ही भजन का वधान है, तभी साधक कृित-पुष के
जुए में पार पाता है। जीतनेवालाें क वजय मैं ँ अाैर यवसाययाें का िनय
(जसे अयाय दाे, ाेक इकतालस में कह अाये हैं– इस याेग में िनयाक
या एक है, बु एक ही है, दशा एक ही है एेसी), याका बु मैं ँ।
सा वक पुषाें का तेज अाैर अाेज मैं ँ।
वृणवंश में मैं वासदेव अथात् सव वास करनेवाला देव ँ। पाडवाें में मैं
धनंजय ँ। पुय ही पाड है अाैर अाक सप ही थर सप है। पुय
से ेरत हाेकर अाक सप काे अजत करनेवाला धनंजय मैं ँ। मुिनयाें
में मैं यास ँ। परमत व काे य करने क जसमें मता है, वह मुिन मैं ँ।
कवयाें में उशना अथात् उसमें वेश दलानेवाला कायकार मैं ँ।
दमन करनेवालाें में दमन क श मैं ँ। जीतने क इछावालाें क मैं
नीित ँ। गु रखने याेय भावाें में मैं माैन ँ अाैर ानवानाें में साात् के
साथ मलनेवाल जानकार, पूण ान मैं ँ।
िनकष–
इस अयाय में ीकृण ने कहा क, अजुन मैं तझे पुन: उपदेश कँगा;
ाेंक तू मेरा अितशय य है। पहले कह चुके हैं, फर भी कहने जा रहे हैं;
ाेंक पूितपयत स
ु से सनने क अावयकता रहती है। मेर उप काे न
देवता अाैर न महषगण ही जानते हैं; ाेंक मैं उनका भी अाद कारण ँ।
अय थित के पात् क सावभाैम अवथा काे वही जानता है, जाे हाे
चुका है। जाे मुझ अजा, अनाद अाैर सपूण लाेकाें के महान् ई र काे
सााकारसहत जानता है वही ानी है।
अजुन मैं ही सबक उप का कारण ँ– एेसा जाे ा से जान ले ते हैं
वे अनय भाव से मेरा चतन करते हैं, िनरतर मुझमें मन, बु अाैर ाणाें
से लगनेवाले हाेते हैं, अापस में मेरा गुण-चतन अाैर मुझमें रमण करते हैं।
उन िनरतर मुझसे संयु ए पुषाें काे मैं याेग में वेश करानेवाल बु
दान करता ँ। यह भी मेर ही देन है। कस कार बु याेग देते हैं ताे
अजुन ‘अाभावथ’– उनक अाा में जागृत हाेकर खड़ा हाे जाता ँ अाैर
उनके दय में अान से उप अधकार काे ानपी दपक से न करता
ँ।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथैकादशाेऽयाय: ।।
गत अयाय में याेगे र ीकृण ने अपनी धान-धान वभूितयाें का
सं ववरण तत कया; कत अजुन काे लगा क उसने वतार से सन
लया है। उसने कहा क अापक वाणी सनने से मेरा सारा माेह न हाे गया;
कत अापने जाे कहा, उसे य देखना चाहता ँ। सनने अाैर देखने में
पम अाैर पूव का अतर है। चलकर देखने पर वतथित कुछ अाैर ही
हाेती है। अजुन ने उस प काे देखा ताे काँपने लगा, मायाचना करने लगा।
ा ानी भयभीत हाेता है ा उसे काेई जासा रह जाती है नहीं,
बाै क तर क जानकार सदैव धूमल रहती है। हाँ, वह यथाथ जानकार के
लये ेरणा अवय देती है। इसलये अजुन ने िनवेदन कया–
अजुन उवाच
भगवन् मुझ पर अनुह करने के लये जाे अापके ारा गाेपनीय अया
में वेश दलानेवाला उपदेश कहा गया, उससे मेरा यह अान न हाे गया।
मैं ानी हाे गया।
भवाययाै ह भूतानां ुताै वतरशाे मया ।
व : कमलपा माहायमप चाययम् ।।२।।
हे परमे र अाप अपने काे जैसा कहते हैं, यह ठक वैसा ही है, इसमें
काेई सदेह नहीं है, कत मैंने उसे केवल सना है। अत: हे पुषाे म उस
एे ययु वप काे मैं य देखना चाहता ँ।
हे भाे मेरे ारा अापका वह प देखा जाना सव है, यद अाप एेसा
मानते हाें, ताे हे याेगे र अाप अपने अवनाशी वप का मुझे दशन
कराइये। इस पर याेगे र ने काेई ितवाद नहीं कया; ाेंक पहले भी वे
थान-थान पर कह अाये हैं क तू मेरा अनय भ अाैर य सखा है। अत:
बड़ स ता के साथ उहाेंने अपना वप दरसाया–
ीभगवानुवाच
अजुन तू मुझे अपने नेाें ारा अथात् बाै क ारा देखने में समथ
नहीं है इसलये मैं तझे दय अथात् अलाैकक देता ँ, जससे तू मेरे
भाव अाैर याेगश काे देख।
इधर याेगे र ीकृण के कृपा-साद से अजुन काे वही ा ई,
उसने देखा अाैर उधर याेगे र यास के कृपा-साद से वही संजय काे
मल थी। जाे कुछ अजुन ने देखा, अरश: वही संजय ने भी देखा अाैर
उसके भाव से अपने काे कयाण का भागी बनाया। प है क ीकृण एक
याेगी के समक हैं।
स य उवाच
अनेकवनयनमनेका त
ु दशनम् ।
अनेकदयाभरणं दयानेकाे तायुधम्।।१०।।
दय माला अाैर वाें काे धारण कये ए, दय गध का अनुलेपन कये
ए, सब कार अायाे से यु सीमारहत वरा प परमदेव काे मलने
पर अजुन ने देखा।
पाडपु अजुन ने (पुय ही पाड है। पुय ही अनुराग काे ज देता है)
उस समय अनेक कार से वभ ए सपूण जगत् काे उन परमदेव के शरर
में एक जगह थत देखा।
अजुन उवाच
हे देव मैं अापके शरर में सपूण देवाें काे तथा अनेक भूताें के समुदायाें
काे, कमल के अासन पर बैठे ए ा काे, महादेव काे, सपूण ऋषयाें काे
तथा दय सपाे काे देखता ँ। यह य दशन था, काेर कपना नहीं; कत
एेसा तभी सव है जब याेगे र, पूणव ा महापुष दय से दान
करें । यह साधनगय है।
अनेकबादरवनें
पयाम वां सवताेऽनतपम् ।
नातं न मयं न पुनतवादं
पयाम व े र व प।।१६।।
व के वामी मैं अापकाे अनेक हाथ, पेट, मुख अाैर नेाें से यु तथा
सब अाेर से अनत पाेंवाला देखता ँ। हे व प न मैं अापके अाद काे,
न मय काे अाैर न अत काे ही देखता ँ अथात् अापके अाद, मय अाैर
अत का िनणय नहीं कर पा रहा ँ।
भगवन् अाप जानने याेय परम अर अथात् अय परमाा हैं, अाप
इस जगत् के परम अाय हैं, अाप शा त-धम के रक हैं तथा अाप
अवनाशी सनातन पुष हैं– एेसा मेरा मत है। अाा का वप ा है
शा त है, सनातन है, अय प है, अवनाशी है। यहाँ ीकृण का ा
वप है वही शा त, सनातन, अयय, अवनाशी अथात् ाि के पात्
महापुष भी उसी अाभाव में थत हाेता है। तभी ताे भगवान अाैर अाा
एक ही लणवाले हैं।
अनादमयातमनतवीय-
मनतबां शशसूयनेम् ।
पयाम वां द ताशवं
वतेजसा व मदं तपतम्।।१९।।
हे परमान् मैं अापकाे अाद, मय अाैर अत से रहत, अनत सामय
से यु, अनत हाथाेंवाला (पहले हजाराें थे, अब अनत हाे गये), चमा अाैर
सूयपी नेाेंवाला (तब ताे भगवान काने हाे गये। एक अाँख चमा क तरह
ीण काशवाल अाैर दूसर सूय क तरह सतेज। एेसा कुछ नहीं है। सूय के
समान काश दान करनेवाला अाैर चमा क तरह शीतलता दान
करनेवाला गुण भगवान में है। शश-सूय मा तीक हैं। अथात् चमा अाैर
सूय क वाले ) तथा वलत अ पी मुखवाला तथा अपने तेज से इस
जगत् काे तपाते ए देखता ँ।
ावापृथयाेरदमतरं ह
या ं वयैकेन दश सवा: ।
ा त
ु ं पमुं तवेदं
लाेकयं यथतं महान्।।२०।।
पं मह े बवनें
महाबाहाे बबापादम् ।
बदरं बदंाकरालं
ा लाेका: यथतातथाहम्।।२३।।
महाबा (ीकृण महाबा हैं अाैर अजुन भी। कृित से परे महान् स ा में
जसका काये हाे, वह महाबा है। ीकृण महानता के े में पूण हैं,
अधकतम सीमा में हैं। अजुन उसी क वेशका में है, माग में है। मंजल
माग का दूसरा छाेर ही ताे है।) याेगे र अापके बत मुख अाैर नेाेंवाले ;
बत हाथ, जंघा अाैर पैराेंवाले ; बत उदराेंवाले , अनेक वकराल दाढ़ाेंवाले
महान् प काे देखकर सब लाेक याकुल हाे रहे हैं तथा मैं भी याकुल हाे
रहा ँ। अब अजुन काे कुछ भय हाे रहा है क ीकृण इतने महान् हैं।
नभ:पृशं द मनेकवण
या ाननं द वशालनेम् ।
ा ह वां यथतातराा
धृितं न वदाम शमं च वणाे।।२४।।
व में सव अणुप से या हे वणाे अाकाश काे पश कये ए,
काशमान, अनेक पाें से यु, फैलाये ए मुख अाैर काशमान वशाल नेाें
से यु अापकाे देखकर वशेष प से भयभीत अत:करणवाला मैं धैय अाैर
मन के समाधानपी शात काे नहीं पा रहा ँ।
दंाकरालािन च ते मुखािन
ैव कालानलस भािन ।
दशाे न जाने न लभे च शम
सीद देवेश जग वास।।२५।।
बड़े वेग से अापके वकराल दाढ़ाेंवाले भयानक मुखाें में वेश कर रहे हैं
तथा उनमें से कतने ही चूण ए सराेंसहत अापके दाँताें के बीच में लगे ए
दखायी पड़ रहे हैं। वे कस वेग से वेश कर रहे हैं अब उनका वेग देखें–
जैसे नदयाें के बत-से जल-वाह (अपने में वकराल हाेते ए भी) समु
क अाेर दाैड़ते हैं, समु में वेश करते हैं, ठक उसी कार वे शूरवीर मनुयाें
के समुदाय अापके वलत मुखाें में वेश कर रहे हैं। अथात् वे अपने में
शूरवीर ताे हैं; कत अाप समुवत् हैं। अापके सम उनका बल अयप है।
वे कसलये अाैर कस कार वेश कर रहे हैं इसके लये उदाहरण तत
है–
ले ल से समान: समता-
ाेकासमावदनैवल : ।
तेजाेभरापूयजगसमं
भासतवाेा: तपत वणाे।।३०।।
मुझे बताइये क भयंकर अाकारवाले अाप काैन हैं हे देवाें में े
अापकाे नमकार है, अाप स हाें। अादवप मैं अापकाे भल कार
जानना चाहता ँ (जैसे, अाप काैन हैं ा करना चाहते हैं ); ाेंक
अापक वृ अथात् चेाअाें काे नहीं समझ पा रहा ँ। इस पर याेगे र
ीकृण बाेले–
ीभगवानुवाच
कालाेऽ लाेकयकृवृ ाे
लाेकासमाहतमह वृ : ।
ऋतेऽप वां न भवयत सवे
येऽवथता: यनीकेषु याेधा:।।३२।।
अजुन मैं लाेकाें का नाश करनेवाला बढ़ा अा काल ँ अाैर इस समय
इन लाेकाें काे न करने के लये वृ अा ँ। ितपयाें क सेना में थत
जतने याे ा हैं वे सब तेरे बना भी नहीं रहेंगे, वे जीवत नहीं बचेंगे इसीलये
वृ अा ँ।
यहाँ गीता में तीसर बार सााय का करण अाया। पहले अजुन लड़ना
नहीं चाहता था। उसने कहा क पृवी के धन-धायसप अकटक सााय
तथा देवताअाें के वामीपन अथवा ैलाे के राय में भी मैं उस उपाय काे
नहीं देखता, जाे इयाें काे सखानेवाले मेरे इस शाेक काे दूर कर सके। जब
तड़पन बनी ही रहेगी ताे हमें नहीं चाहये। याेगे र ने कहा– इस यु में
हाराेगे ताे देवव अाैर जीतने पर महामहम क थित मले गी अाैर यहाँ
यारहवें अयाय में कहते हैं क ये शु मेरे ारा मारे गये हैं, तू िनम मा
भर बन जा, यश काे ा कर अाैर समृ राय काे भाेग। फर वही बात,
जस बात से अजुन चाैंकता है, जससे वह शाेक मटता अा नहीं देखता,
ा ीकृण फर भी वही राय देंगे नहीं, वतत: वकाराें के अत के साथ
परमावप क थित ही वातवक समृ है, जाे थर सप है।
जसका कभी वनाश नहीं हाेता, राजयाेग का परणाम है।
इन ाेण, भी, जयथ अाैर कण तथा अयाय बत से मेरे ारा मारे
ए शूरवीर याे ाअाें काे तू मार। भय मत कर। संाम में बैरयाें काे तू िनत
जीतेगा, इसलये यु कर। यहाँ भी याेगे र ने कहा क ये मेरे ारा मारे ए
हैं, इन मरे ए काे तू मार। प कया क मैं क ा ँ, जबक पाँचवें अयाय
के १३, १४ एवं १५वें ाेक में उहाेंने कहा– भगवान अक ा हैं। अठारहवें
अयाय में वे कहते हैं क शभ अथवा अशभ येक काय के हाेने में पाँच
मायम हैं– अधान, क ा, करण, चेा अाैर दैव। जाे कहते हैं क
कैवयवप परमाा करते हैं वे अववेक हैं, यथाथ नहीं जानते अथात्
भगवान नहीं करते। एेसा वराेधाभास ाें
‘पूय महाराज जी’ कहते थे– ‘‘हाे, जस परमाा क हमें चाह है, जस
सतह पर हम खड़े हैं उस सतह पर वयं उतरकर जब तक अाा से जागृत
नहीं हाे जाता, तब तक सही माा में साधन का अार नहीं हाेता। उसके
बाद जाे कुछ साधक से पार लगता है, वह उसक देन है। साधक ताे
िनम मा हाेकर उसके संकेत अाैर अादेश पर चलता भर रहता है। साधक
क वजय उसक देन है। एेसे अनुरागी के लये ई र अपनी से देखता
है, दखाता है अाैर अपने वप तक पँचाता है।’’ यही ीकृण कहते हैं क
मेरे ारा मारे ए इन बैरयाें काे मार। िनय ही तहार वजय हाेगी, मैं जाे
खड़ा ँ।
स य उवाच
संजय बाेला– (जाे कुछ अजुन ने देखा, ठक वैसा ही संजय ने देखा है।
अान से अाछादत मन ही अधा धृतरा है; ले कन एेसा मन भी संयम के
मायम से भल कार देखता, सनता अाैर समझता है) केशव के इन
(उपयु) वचनाें काे सनकर करटधार अजुन भयभीत हाेकर काँपता अा
हाथ जाेड़कर नमकार करके, फर ीकृण से इस कार ग द वाणी में
बाेला–
अजुन उवाच
का ते न नमेरहान्
गरयसे णाेऽयादके ।
अनत देवेश जग वास
वमरं सदस परं यत्।।३७।।
अाप अाददेव अाैर सनातन पुष हैं। अाप इस जगत् के परम अाय
अाैर जाननेवाले हैं, जानने याेय हैं तथा परमधाम हैं। हे अनतवप अापसे
यह सपूण जगत् या है। अाप सव हैं।
अापके इस भाव काे न जानते ए अापकाे सखा, म मानकर मेरे ारा
ेम अथवा माद से भी हे कृण , हे यादव , हे सखे – इस कार जाे कुछ
भी हठपूवक कहा गया है तथा–
य ावहासाथमसकृताेऽस
वहारशयासनभाेजनेषु ।
एकाेऽथवाययुत तसमं
तामये वामहममेयम्।।४२।।
हे अयुत जाे अाप हँसी के लये वहार, शया, अासन अाैर भाेजनादकाें
में अकेले अथवा उन लाेगाें के सामने भी अपमािनत कये गये हैं, वह सब
अपराध अचय भाववाले अापसे मैं मा कराता ँ। कस कार मा
करें –
अाप इस चराचर जगत् के पता, गु से भी बड़े गु अाैर अित पूजनीय
हैं। जसक काेई ितमा नहीं, एेसे अितम भाववाले अापके समान तीनाें
लाेकाें में दूसरा काेई नहीं है, फर अधक कैसे हाेगा अाप सखा भी नहीं,
सखा ताे समक हाेता है।
अाप चराचर के पता हैं, इसलये मैं अपने शरर काे भल कार अापके
चरणाें में रखकर, णाम करके, तित करने याेय अाप ई र काे स हाेने
के लये ाथना करता ँ। हे देव पता जैसे पु के, सखा जैसे सखा के अाैर
पित जैसे य ी के अपराधाें काे मा करता है, वैसे ही अाप भी मेरे
अपराधाें काे सहन करने याेय हैं। अपराध ा था हमने कभी हे यादव , हे
सखे , हे कृण कहा था। समाज के बीच अथवा एकात में कहा था, भाेजन
के समय अथवा साेने के समय कहा था। ा कृण कहना अपराध था काले
थे ही, गाेरे कैसे कहे जाते यादव कहना भी अपराध नहीं था; ाेंक यदुकुल
में ताे ज ही अा था। सखा कहना भी अपराध नहीं था; ाेंक वयं
ीकृण भी अपने काे अजुन का सखा मानते थे। जब कृण कहना अपराध ही
है, एक बार कृण कहने के लये अजुन अनत बार गड़गड़ाकर मायाचना
कर रहा है, ताे जप कसका करें नाम काैनसा लें
वतत: चतन का जैसा वधान वयं याेगे र ीकृण ने बताया है, वैसा
ही अाप करें । उहाेंने पीछे बताया, ‘अाेमयेकारं याहरामनुरन्।’–
अजुन ‘ॐ’ बस इतना ही अय का परचायक है, इसका तू जप कर
अाैर यान मेरा धर; ाेंक उस परमभाव में वेश मल जाने के पात् उन
महापुष का भी वही नाम है, जाे उस अय का परचायक है। भाव देखने
पर अजुन ने पाया क ये न ताे काले हैं न गाेरे, न सखा हैं न यादव, यह ताे
अय क थितवाले महाा हैं।
ाण-अपान के चतन में ‘कृण’ नाम का म पकड़ में नहीं अाता। बत
से लाेग काेर भावुकतावश केवल ‘राधे-राधे’ कहने लगे हैं। अाजकल
अधकारयाें से काम न हाेने पर उनके सगे-सबधयाें से, ेमी या प ी से
‘साेस’ लगाकर काम चला ले ने क परपरा है। लाेग साेचते हैं क कदाचत्
भगवान के घर में भी एेसा चलता हाेगा, अत: उहाेंने ‘कृण’ कहना बद
करके ‘राधे-राधे’ कहना अार कर दया। वे कहते हैं– ‘राधे-राधे याम
मला दे।’ राधा एक बार बड़ ताे वयं याम से नहीं मल पायी, वह
अापकाे कैसे मला दे अत: अय कसी का कहना न मानकर ीकृण के
अादेश काे अाप अरश: मानें, अाेम् का जप करें । हाँ, यहाँ तक उचत है क
राधा हमारा अादश हैं, उतनी ही लगन से हमें भी लगना चाहये। यद पाना है
ताे राधा क तरह वरही बनना है।
अागे भी अजुन ने ‘कृण’ कहा। ‘कृण’ उनका चलत नाम था। एेसे कई
नाम थे, जैसे– ‘गाेपाल’। बत से साधक गु-गु या गु का चलत नाम
भावुकतावश जपना चाहते हैं; कत ाि के पात् येक महापुष का वही
नाम है, जस अय में वह थत है। बत से शय करते हैं– ‘‘गुदेव
जब यान अापका करते हैं ताे पुराना नाम ‘अाेम्’ इयाद ाें जपें, ‘गु-गु’
अथवा ‘कृण-कृण’ ाें न कहें।’’ कत यहाँ याेगे र ने प कया क
अय वप में वलय के साथ महापुष का भी वही नाम है, जसमें वह
थत है। ‘कृण’ सबाेधन था, जपने का नाम नहीं।
अ पूव षताेऽ ा
भयेन च यथतं मनाे मे।
तदेव मे दशय देवपं
सीद देवेश जग वास।।४५।।
अभी तक अजुन के सम याेगे र व प में हैं। अत: वह कहता है क
मैं पहले न देखे ए अापके इस अायमय प काे देखकर हषत हाे रहा ँ
तथा मेरा मन भय से अित याकुल भी हाे रहा है। पहले ताे सखा समझता
था, धनुव ा में कदाचत् अपने काे कुछ अागे ही पाता था; कत अब भाव
देखकर भयभीत हाे रहा है। पछले अयाय में भाव सनकर वह अपने काे
ानी मानता था। ा ानी काे कहीं भय हाेता है वतत: य दशन का
भाव ही वलण हाेता है। सब कुछ सन अाैर मान ले ने के बाद भी सब कुछ
चलकर जानना शेष ही रहता है। वह कहता है– पहले न देखे ए अापके इस
प काे देखकर मैं हषत हाे रहा ँ। मेरा मन भय से याकुल भी हाे रहा है।
अत: हे देव अाप स हाें। हे देवेश हे जग वास अाप अपने उस प
काे ही मुझे दखाइये। काैन-सा प –
मैं अापकाे वैसे ही अथात् पहले क ही तरह शर पर मुकुट धारण कये
ए, हाथ में गदा अाैर च लये ए देखना चाहता ँ। इसलये हे व पे
हे सहबाहाे अाप अपने उसी चतभुज वप में हाेइए। काैन-सा प देखना
चाहा चतभुज प अब देखना है क चतभुज प है ा –
ीभगवानुवाच
मया स ेन तवाजुनेदं
पं परं दशतमायाेगात्।
तेजाेमयं व मनतमा ं
ये वदयेन न पूवम्।।४७।।
न वेदयाययनैन दानै-
न च याभन तपाेभै: ।
एवंप: श अहं नृलाेके
ु ं वदयेन कुवीर।।४८।।
मा ते यथा मा च वमूढभावाे
ा पं घाेरमी मेदम् ।
यपेतभी: ीतमना: पुनवं
तदेव मे पमदं पय।।४९।।
स य उवाच
इयजुनं वासदेवतथाेा
वकं पं दशयामास भूय: ।
अा ासयामास च भीतमेनं
भूवा पुन: साैयवपुमहाा।।५०।।
अजुन उवाच
ीभगवानुवाच
हे े तपवाले अजुन अनय भ के ारा अथात् सवाय मेरे अय
कसी देवता का रण न करते ए, अनय ा से ताे मैं इस कार य
देखने के लये, त व से साात् जानने के लये तथा वेश करने के लये भी
सलभ ँ अथात् उनक ाि का एकमा सगम मायम अनय भ है। अत
में ान भी अनय भ में परणत हाे जाता है, जैसा क पीछे अयाय सात
में य है। पीछे उहाेंने कहा क तेरे सवाय न काेई देख सका है अाैर न
काेई देख सकेगा, जबक यहाँ कहते हैं क अनय भ से न केवल मुझे
देखा जा सकता है अपत साात् जाना अाैर मुझमें वेश भी पाया जा
सकता है, अथात् अजुन अनय भ का नाम है, एक अवथा का नाम है।
अनुराग ही अजुन है। अत में याेगे र ीकृण कहते हैं–
मकमकृपरमाे म : सवजत:।
िनवैर: सवभूतेषु य: स मामेित पाडव।।
५५।।
हे अजुन जाे पुष मेरे ारा िनद कम अथात् िनयत कम याथ कम
करता है, ‘मपरम:’– मेरे परायण हाेकर करता है, जाे मेरा अनय भ है;
‘सवजत:’– कत संगदाेष में रहते ए वह कम नहीं हाे सकता, अत:
संगदाेष से रहत हाेकर ‘िनवैर: सवभूतेषु’– सपूण भूताणयाें में बैरभाव से
रहत है, वह मुझे ा हाेता है। ताे ा अजुन ने यु कया ण करके ा
उसने जयथाद काे मारा यद उहें मारता है ताे भगवान काे न देख पाता,
जबक अजुन ने देखा है। इससे स है क गीता में एक भी ाेक एेसा नहीं
है, जाे बा मारकाट का समथन करता हाे। जाे िनद कम य क या
का अाचरण करे गा, जाे अनय भाव से उनके सवाय कसी का रण तक
नहीं करे गा, जाे संगदाेष से अलग रहेगा ताे यु कैसा जब अापके साथ
काेई है ही नहीं ताे अाप यु कससे करें गे सपूण भूताणयाें में जाे बैरभाव
से रहत है, मन से भी कसी काे सताने क कपना न करे , वही मुझे ा
हाेता है-ताे ा अजुन ने लड़ाई ल कभी नहीं।
वतत: संगदाेष से अलग रहकर जब अाप अनय चतन में लगते हैं,
िनधारत य क या में वृ हाेते हैं, उस समय परपंथी राग-ेष, काम-
ाेध इयाद दुजय शु बाधा के प में य ही हैं। उनका पार पाना ही
यु है।
िनकष—
वतत: कृण कहना अपराध नहीं था। वे साँवले थे ही, गाेरे कैसे कहलाते।
यदुवंश में ज अा ही था। ीकृण वयं भी अपने काे सखा मानते ही थे।
वातव में येक साधक महापुष काे पहले एेसा ही समझते हैं। कुछ उहें
प अाैर अाकार से सबाेधत करते हैं, कुछ उनक वृ से उहें पुकारते हैं
अाैर कुछ उहें अपने ही समक मानते हैं, उनके यथाथ वप काे नहीं
समझते। उनके अचय वप काे अजुन ने समझा ताे पाया क ये न ताे
काले हैं अाैर न गाेरे, न कसी कुल के हैं अाैर न कसी के साथी ही हैं।
इनके समान काेई है ही नहीं, ताे सखा कैसा बराबर कैसा यह ताे अचय
वप हैं। जसे यह वयं दखा दें, वही इहें देख पाता है। अत: अजुन ने
अपनी ारक भूलाें के लये मायाचना क।
उठता है क जब कृण कहना अपराध है, ताे उनका नाम जपा कैसे
जाय ताे जसे याेगे र ीकृण ने जपने के लये वयं बल दया, जपने क
जाे वध बतायी, उसी वध से अाप चतन-रण करें । वह है–
‘अाेमयेकारं याहरामनुरन्।’– ‘अाेम्’ अय का पयाय है।
‘अाे अहम् स अाेम्’– जाे या है वह स ा मुझमें छपी है, यही है अाेम् का
अाशय। अाप इसका जप करें अाैर यान मेरा करें । प अपना, नाम अाेम्
का बताया।
ीकृण ने कहा– अजुन तेरे सवाय मेरे इस प काे न काेई देख सका
है अाैर न भवय में काेई देख सकेगा। तब गीता ताे हमारे लये यथ है।
कत नहीं, याेगे र कहते हैं– एक उपाय है। जाे मेरा अनय भ है, मेरे
सवाय जाे दूसरे कसी का रण न करके िनरतर मेरा ही चतन करनेवाला
है, उसक अनय भ के ारा मैं य देखने काे (जैसा तूने देखा है),
त व से जानने काे अाैर वेश करने काे भी सलभ ँ। अथात् अजुन अनय
भ था। भ का परमाजत प है अनुराग, इ के अनुप लगाव।
‘मलहं न रघुपित बनु अनुरागा।’ (रामचरतमानस, ७/६१/१)– अनुरागवहीन
पुष न कभी पाया है अाैर न पा सकेगा। अनुराग नहीं है ताे काेई लाख याेग
करे , जप करे , तप करे या दान करे , ‘वह’ नहीं मलता। अत: इ के अनुप
राग अथवा अनय भ िनतात अावयक है।
अत में ीकृण ने कहा– अजुन मेरे ारा िनद कम काे कर, मेरा
अनय भ हाेकर कर, मेर शरण हाेकर कर; कत संगदाेष से अलग
रहकर। संगदाेष में यह कम हाे ही नहीं सकता। अत: संगदाेष इस कम के
सपादत हाेने में बाधक है। जाे बैरभाव से रहत है, वही मुझे ा करता है।
जब संगदाेष नहीं है, जहाँ हमें छाेड़कर दूसरा काेई है ही नहीं, बैर का
मानसक संकप भी नहीं है ताे यु कैसा बाहर दुिनया में लड़ाई-झगड़े हाेते
रहते हैं; कत वजय जीतनेवालाें काे भी नहीं मलती। दुजय संसारपी शु
काे असंगतापी श से काटकर परम में वेश पा जाना ही वातवक वजय
है, जसके पीछे हार नहीं है।
इस अयाय में पहले ताे याेगे र ीकृण ने अजुन काे दान क,
फर अपने व प का दशन कराया। अत:–
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ ादशाेऽयाय: ।।
एकादश अयाय के अत में ीकृण ने बार-बार बल दया क– अजुन
मेरा यह वप जसे तूने देखा, तेरे सवाय न पहले कभी देखा गया है अाैर
न भवय में काेई देख सकेगा। मैं न तप से, न य से अाैर न दान से ही
देखे जाने काे सलभ ँ; कत अनय भ के ारा अथात् मेरे अितर
अय कहीं ा बखरने न पाये, िनरतर तैलधारावत् मेरे चतन के ारा
ठक इसी कार जैसा तूने देखा, मैं य देखने के लये, त व से साात्
जानने के लये अाैर वेश करने के लये भी सलभ ँ। अत: अजुन िनरतर
मेरा ही चतन कर, भ बन। अजुन तू मेरे ही ारा िनधारत कये गये कम
काे कर। ‘मपरम:’– अपत मेरे परायण हाेकर कर। अनय भ ही उनक
ाि का मायम है। इस पर अजुन का वाभावक है क जाे अय
अर क उपासना करते हैं अाैर जाे सगुण अापक उपासना करते हैं, इन
दाेनाें में े काैन है
यहाँ इस काे अजुन ने तीसर बार उठाया है। अयाय तीन में उसने
कहा– भगवन् यद िनकाम कमयाेग क अपेा सांययाेग अापकाे े माय
है, ताे अाप मुझे भयंकर कमाे में ाें लगाते हैं इस पर ीकृण ने कहा–
अजुन िनकाम कममाग अछा लगे चाहे ानमाग, दाेनाें ही याें से कम
ताे करना ही पड़ेगा। इतने पर भी जाे इयाें काे हठ से राेककर मन से
वषयाें का रण करता है वह दाचार है, ानी नहीं। अत: अजुन तू कम
कर। काैन-सा कम करे , ताे ‘िनयतं कु कम वम्’– िनधारत कये ए कम
काे कर। िनधारत कम ा है ताे बताया– य क या ही एकमा कम
है। य क वध काे बताया, जाे अाराधना-चतन क वध-वशेष है, परम में
वेश दलानेवाल या है। जब िनकाम कममाग अाैर ानमाग दाेनाें में ही
कम करना है, याथ कम करना है, या एक ही है ताे अतर कैसा भ
कमाे का समपण करके इ के अात हाेकर याथ कम में वृ हाेता है,
ताे दूसरा सांययाेगी अपनी श काे समझकर (अपने भराेसे) उसी कम में
वृ हाेता है, पूरा म करता है।
अयाय पाँच में अजुन ने पुन: कया– भगवन् अाप कभी सांय-
मायम से कम करने क शंसा करते हैं, ताे कभी समपण-मायम से िनकाम
कमयाेग क शंसा करते हैं– इन दाेनाें में े काैन है यहाँ तक अजुन
समझ चुका है क कम दाेनाें याें से करना हाेगा, फर भी दाेनाें में े
माग वह चुनना चाहता है। ीकृण ने कहा– अजुन दाेनाें ही याें से कम
में वृ हाेनेवाले मुझकाे ही ा हाेते हैं; कत सांयमाग क अपेा
िनकाम कममाग े है। िनकाम कमयाेग का अनुान कये बना न काेई
याेगी हाेता है अाैर न ानी। सांययाेग दुकर है, उसमें कठनाइयाँ अधक
हैं।
यहाँ तीसर बार अजुन ने यही रखा क– भगवन् अापमें अनय
भ से लगनेवाले अाैर अय अर क उपासना से (सांयमाग से)
लगनेवाले , इन दाेनाें में े काैन है
अजुन उवाच
‘एवं’ अथात् इस कार जाे अभी-अभी अापने वध बतायी है, ठक इसी
वध के अनुसार अनय भ से जाे अापक शरण ले कर, अापसे िनरतर
संयु हाेकर अापकाे भल कार उपासते हैं अाैर दूसरे जाे अापक शरण न
ले कर वत प से अपने भराेसे उसी अय अाैर अय वप क
उपासना करते हैं, जसमें अाप भी थत हैं– इन दाेनाें कार के भाें में
अधक उ म याेगवे ा काैन है इस पर याेगे र ीकृण ने कहा–
ीभगवानुवाच
ये वरमिनदेयमयं पयुपासते।
सवगमचयं च कूटथमचलं वम्।।३।।
स ययेयामं सव समबु य:।
ते ावत मामेव सवभूतहते रता:।।४।।
जाे पुष इयाें के समुदाय काे भल कार संयत करके मन-बु के
चतन से अयत परे , सवयापी, अकथनीय वप, सदा एकरस रहनेवाले ,
िनय, अचल, अय, अाकाररहत अाैर अवनाशी क उपासना करते हैं,
सपूण भूताें के हत में लगे ए अाैर सबमें समान भाववाले वे याेगी भी मुझे
ही ा हाेते हैं। के उपयु वशेषण मुझसे भ नहीं हैं। कत–
ेशाेऽधकतरतेषामयासचेतसाम्।
अया ह गितदु:खं देहव रवायते।।५।।
यद तू मन काे मुझमें अचल थापत करने में समथ नहीं है, ताे हे
अजुन याेग के अयास ारा मुझे ा हाेने क इछा कर। (जहाँ भी च
जाय, वहाँ से घसीटकर उसे अाराधना, चतन-या में लगाने का नाम
अयास है) यद यह भी न कर पाये ताे –
यद तू अयास में भी असमथ है ताे केवल मेरे लये कम कर अथात्
अाराधना करने में तपर हाे जा। इस कार मेर ाि के लये कमाे काे
करता अा तू मेर ाि पी स काे ही ा हाेगा। अथात् अयास भी पार
न लगे ताे साधना-पथ में लगे भर रहाे।
केवल च काे राेकने के अयास से ानमाग से कम में वृ हाेना े
है। ान-मायम से कम काे कायप देने क अपेा यान े है; ाेंक
यान में इ रहता ही है। यान से भी सपूण कमाे के फल का याग े है;
ाेंक इ के ित समपण के साथ ही याेग पर रखते ए कमफल का
याग करने से उसके याेगेम क जेदार इ क हाे जाती है। इसलये
इस याग से वह तकाल ही परमशात काे ा हाे जाता है।
इस कार शात काे ा अा जाे पुष सब भूताें में ेषभाव से रहत,
सबका ेमी अाैर हेतरहत दयाल है अाैर जाे ममता से रहत, अहंकार से
रहत, सख-दु:ख क ाि में सम तथा मावान् है,
जाे िनरतर याेग क पराकाा से संयु है, लाभ तथा हािन में सत है,
मन तथा इयाेंसहत शरर काे वश में कये ए है, ढ़ िनयवाला है, वह
मुझमें अपत मन-बु वाला मेरा भ मुझे य है।
या ाेजते लाेकाे लाेका ाेजते च य:।
हषामषभयाेेगैमुाे य: स च मे य:।।१५।।
जससे काेई भी जीव उेग काे ा नहीं हाेता अाैर जाे वयं भी कसी
जीव से उ नहीं हाेता एवं हष, सताप, भय अाैर समत वाेभाें से मु
है, वह भ मुझे य है।
जाे पुष अाकांाअाें से रहत, सवथा पव है, ‘द:’ अथात् अाराधना
का वशेष है (एेसा नहीं क चाेर करता हाे ताे द है। ीकृण के अनुसार
कम एक ही है, िनयत कम– अाराधना-चतन, उसमें जाे द है), जाे प-
वप से परे है, दु:खाें से मु है, सभी अाराें का यागी वह मेरा भ
मुझे य है। करने याेय काेई या उसके ारा अार हाेने के लये शेष
नहीं रहती।
याे न यित न े न शाेचित न काित।
शभाशभपरयागी भमाय: स मे य:।।१७।।
जाे न कभी हषत हाेता है, न ेष करता है, न शाेक करता है, न कामना
ही करता है तथा जाे शभ अाैर अशभ सपूण कमाे के फल का यागी है,
जहाँ काेई शभ वलग नहीं है, अशभ शेष नहीं है, भ क इस पराकाा से
यु वह पुष मुझे य है।
जाे पुष शु अाैर म में, मान तथा अपमान में सम है, जसके
अत:करण क वृ याँ सवथा शात हैं, जाे सद-गमी, सख-दु:खाद ाें में
सम अाैर अासरहत है तथा–
जाे िनदा तथा तित काे समान समझनेवाला है, मननशीलता क चरम
सीमा पर पँचकर जसक मनसहत इयाँ शात हाे चुक हैं, जस कसी
कार शरर-िनवाह हाेने में जाे सदैव सत है, जाे अपने िनवास-थान में
ममता से रहत है, भ क पराकाा पर पँचा अा वह थरबु वाला
पुष मुझे य है।
िनकष—
गत अयाय के अत में याेगे र ीकृण ने कहा क– अजुन तेरे सवाय
न काेई पाया है, न पा सकेगा– जैसा तूने देखा; कत अनय भ अथवा
अनुराग से जाे भजता है, वह इसी कार मुझे देख सकता है, त व के साथ
मुझे जान सकता है अाैर मुझमें वेश भी पा सकता है। अथात् परमाा एेसी
स ा है, जसकाे पाया जाता है। अत: अजुन भ बन।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ याेदशाेऽयाय: ।।
गीता के अार में ही धृतरा का है– संजय धमे में तथा कुे
में यु क इछा से एक ए मेरे अाैर पाडपुाें ने ा कया कत अभी
तक यह नहीं बताया गया क वह े है कहाँ जन महापुष ने जस े
में यु बताया, वयं ही उस े का तत अयाय में िनणय देते हैं क वह
े वतत: है कहाँ
ीभगवानुवाच
काैतेय यह शरर ही एक े है अाैर इसकाे जाे भल कार जानता है,
वह े है। वह उसमें फँ सा नहीं है बक उसका संचालक है। एेसा उस
त व काे वदत करनेवाले महापुषाें ने कहा है।
शरर ताे एक ही है, इसमें धमे अाैर कुे ये दाे े कैसे वतत:
इस एक ही शरर के अतराल में अत:करण क दाे वृ याँ पुरातन हैं। एक
ताे परमधम परमाा में वेश दलानेवाल पुयमयी वृ दैवी सपद् है अाैर
दूसर है अासर सपद्– दूषत काेण से जसका गठन है, जाे न र
संसार में व ास दलाती है। जब अासर सपद् का बाय हाेता है ताे यही
शरर ‘कुे’ बन जाता है अाैर इसी शरर के अतराल में जब दैवी सपद्
का बाय हाेता है ताे यही शरर ‘धमे’ कहलाता है। यह चढ़ाव-उतार
बराबर लगा रहता है; कत त वदशी महापुष के सा य में जब काेई
अनय भ ारा अाराधना में वृ हाेता है ताे इन दाेनाें वृ याें में
िनणायक यु का सूपात हाे जाता है। मश: दैवी सपद् का उथान अाैर
अासर सपद् का शमन हाे जाता है। अासर सपद् के सवथा शमन के
उपरात परम के ददशन क अवथा अाती है। दशन के साथ ही दैवी सपद्
क अावयकता समा हाे जाती है, अत: वह भी परमाा में वत: वलन
हाे जाती है। भजनेवाला पुष परमाा में वेश पा जाता है। यारहवें अयाय
में अजुन ने देखा क काैरव-प के अनतर पाडव-प के याे ा भी याेगे र
में वलन हाेते जा रहे हैं। इस वलय के पात् पुष का जाे वप है, वही
े है। अागे देखें–
हे अजुन तू सब ेाें में े मुझे ही जान अथात् मैं भी े ँ। जाे
इस े काे जानता है, वह े है– एेसा उसे साात् जाननेवाले महापुष
कहते हैं अाैर ीकृण कहते हैं क– मैं भी े ँ अथात् ीकृण भी एक
याेगे र ही थे। े अाैर े अथात् वकारसहत कृित अाैर पुष काे
त व से जानना ही ान है, एेसा मेरा मत है अथात् सााकारसहत इनक
जानकार का नाम ान है। काेर बहस का नाम ान नहीं है।
तें य या यकार यत यत्।
स च याे यभाव तसमासेन मे णु।।३।।
अजुन पंच महाभूत (ित, जल, पावक, गगन अाैर समीर), अहंकार,
बु अाैर च (च का नाम न ले कर उसे अय परा कृित कहा गया
अथात् मूल कृित पर काश डाला गया है, जसमें परा कृित भी सलत
है, उपयु अाठाें अधा मूल कृित है) तथा दस इयाँ (अाँख, कान, नाक,
वचा, ज ा, वाक्, हाथ, पैर, उपथ तथा गुदा), एक मन अाैर पाँच इयाें
के वषय (प, रस, गध, शद अाैर पश) तथा–
इछा, ेष, सख, दु:ख अाैर सबका समूह थूल देह का यह पड, चेतना
अाैर धैय– इस कार यह े वकाराेंसहत संेप में कहा गया। संेप में
यही े का वप है, जसमें बाेया अा भला अाैर बुरा बीज संकाराें के
प में उगता है। शरर ही े है। शरर में गारा-मसाला कस वत का है
ताे यही पाँच त व, दस इयाँ, एक मन इयाद– जैसा लण ऊपर गनाया
गया है। इन सबका सामूहक संघात पड शरर है। जब तक ये वकार रहेंगे,
तब तक यह पड भी व मान रहेगा, इसलये क यह वकाराें से बना है।
अब उस े का वप देखें, जाे इस े में ल नहीं बक इससे
िनवृ है–
अमािनवमदवमहंसा ातराजवम्।
अाचायाेपासनं शाैचं थैयमाविनह:।।७।।
इयाथेषु वैरायमनहार एव च।
जमृयुजरायाधदु:खदाेषानुदशनम्।।८।।
असरनभव: पुदारगृहादषु।
िनयं च समच वमािनाेपप षु।।९।।
पु, ी, धन अाैर गृहाद में अास का अभाव, य तथा अय क
ाि में च का सदैव सम रहना (े क साधना ी-पुाद गृहथी क
परथितयाें में ही अार हाेती है।) अाैर–
मुझमें (ीकृण एक याेगी थे अथात् एेसे कसी महापुष में) अनय याेग
से अथात् याेग के अितर अय कुछ भी रण न करते ए, अयभचारणी
भ (इ के अितर कसी चतन का न अाना), एकात थान का सेवन,
मनुयाें के समूह में रहने क अास का न हाेना तथा–
अयाानिनयवं त वानाथदशनम्।
एतानमित ाेमानं यदताेऽयथा।।११।।
अजुन जाे जानने याेय है तथा जसे जानकर मरणधमा मनुय अमृतत व
काे ा हाेता है, उसे अछ कार कँगा। वह अादरहत परम न सत्
कहा जाता है अाैर न असत् ही कहा जाता है; ाेंक जब तक वह अलग है,
तब तक वह सत् है अाैर जब मनुय उसमें समाहत हाे गया ताे काैन कससे
कहे। एक ही रह जाता है, दूसरे का भान नहीं। एेसी थित में वह न
सत् है, न असत् है; बक जाे वयं सहज है, वही है।
सवत:पाणपादं तसवताेऽशराेमुखम्।
सवत:ुितम ाेके सवमावृय ितित।।१३।।
सवेयगुणाभासं सवेयववजतम्।
असं सवभृ ैव िनगुणं गुणभाेकृ च।।१४।।
अभी तक याेगे र ीकृण ने जसे े कहा था, उसी काे अब ‘कृित’
अाैर जसे े कहा था, उसी काे अब ‘पुष’ शद से इं गत करते हैं–
यह कृित अाैर पुष दाेनाें काे ही तू अनाद जान तथा सपूण वकार
िगुणमयी कृित से ही उप अा जान।
काय अाैर करण (जनके ारा शभ काय कये जाते हैं–ववेक, वैराय
इयाद तथा अशभ काय हाेने में काम, ाेध इयाद करण हैं) काे उप
करने में हेत कृित कही जाती है अाैर यह पुष सख-दु:खाें काे भाेगने में
कारण कहा जाता है। उठता है क ा वह भाेगता ही रहेगा या इससे
कभी टकारा भी मले गा जब कृित अाैर पुष दाेनाें ही अनाद हैं, तब
काेई इनसे टे गा कैसे इस पर कहते हैं–
इस कार पुष काे अाैर गुणाें के सहत कृित काे जाे मनुय सााकार
के साथ वदत कर ले ता है, वह सब कार से बरतता अा भी फर नहीं
जता अथात् उसका पुनज नहीं हाेता। यही मु है। अभी तक याेगे र
ीकृण ने अाैर कृित क य जानकार के साथ मलनेवाल
परमगित अथात् उसका पुनज से िनवृ पर काश डाला अाैर अब वे उस
याेग पर बल देते हैं जसक या है अाराधना; ाेंक इस कम काे
कायप दये बना काेई पाता नहीं।
ाेंक वह पुष सव समभाव से थत परमे र काे समान (जैसा है,
वैसा ही समान) देखता अा अपने ारा वयं काे न नहीं करता। ाेंक
जैसा था, वैसा उसने देखा इसलये वह परमगित काे ा हाेता है। ाि वाले
पुष के लण बताते हैं–
जाे पुष सपूण कमाे काे सब कार से कृित के ारा ही कया जाता
देखता है अथात् जब तक कृित है तभी तक कमाे का हाेना देखता है तथा
अाा काे अक ा देखता है, वही यथाथ देखता है।
यदा भूतपृथभावमेकथमनुपयित।
तत एव च वतारं सप ते तदा।।३०।।
जस काल में मनुय भूताें के यारे -यारे भावाें काे एक परमाा में
वाहत, थत देखता है तथा उस परमाा से ही सपूण भूताें का वतार
देखता है, उस समय वह काे ा हाेता है। जस ण यह अवथा अा
गयी, उसी ण वह काे ा हाेता है। यह लण भी थत महापुष
का ही है।
अनादवा गुणवापरमाायमयय: ।
शररथाेऽप काैतेय न कराेित न लयते।।३१।।
जस कार सव या अा अाकाश सू हाेने के कारण ल नहीं
हाेता, ठक वैसे ही सव देह में थत अा भी अाा गुणातीत हाेने के
कारण देह के गुणाें से ल नहीं हाेता। अागे कहते हैं–
अजुन जस कार एक ही सूय सपूण ाड काे काशत करता है,
उसी कार एक ही अाा सपूण े काे काशत करता है। अत में िनणय
देते हैं–
ेेयाेरेवमतरं ानचषा।
भूतकृितमाें च ये वदुयात ते परम्।।३४।।
इस कार े अाैर े के भेद काे तथा वकारसहत कृित से टने
के उपाय काे जाे ानपी नेाें ारा देख ले ते हैं, वे महााजन पर
परमाा काे ा हाेते हैं। अथात् े-े काे देखने क अाँख ान है अाैर
ान सााकार का ही पयाय है।
िनकष—
गीता के अार में धमे, कुे का नाम ताे लया गया; कत वह
े वतत: है कहाँ – वह थल बताना शेष था, जसे वयं शाकार ने
तत अयाय में प कया– काैतेय यह शरर ही एक े है। जाे इसकाे
जानता है, वह े है। वह इसमें फँ सा नहीं बक िनले प है। इसका
संचालक है। ‘‘अजुन सपूण ेाें में मैं भी े ँ।’’– अय महापुषाें से
अपनी तलना क। इससे प है क ीकृण भी एक याेगी थे; ाेंक जाे
जानता है वह े है, एेसा महापुषाें ने कहा है। मैं भी े ँ अथात्
अय महापुषाें क तरह मैं भी ँ।
उहाेंने े जैसा है, जन वकाराेंवाला है तथा े जन भावाेंवाला है,
उस पर काश डाला। मैं ही कहता ँ– एेसी बात नहीं है, महषयाें ने भी यही
कहा है। वेद के छदाें में भी उसी काे वभाजत करके दशाया गया है।
सू में भी वही मलता है।
शरर (जाे े है) ा इतना ही है, जतना दखायी देता है इसके हाेने
के पीछे जनका बत बड़ा हाथ है, उहें गनाते ए बताया क अधा मूल
कृित, अय कृित, दस इयाँ अाैर मन, इयाें के पाँचाें वषय, अाशा,
तृणा अाैर वासना– इस कार इन वकाराें का सामूहक मण यह शरर है।
जब तक ये रहेंगे, तब तक शरर कसी-न-कसी प में रहेगा ही। यही े
है, जसमें बाेया भला-बुरा बीज संकार प में उगता है। जाे इसका पार पा
ले ता है, वह े है। े का वप बताते ए उहाेंने ई रय गुणधमाे
पर काश डाला अाैर कहा क े इस े का काशक है।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ चतदशाेऽयाय: ।।
पछले अनेक अयायाें में याेगे र ीकृण ने ान का वप प कया।
अयाय ४/१९ में उहाेंने बताया क जस पुष ारा सपूणता से अार
कया अा िनयत कम का अाचरण मश: उथान हाेते-हाेते इतना सू हाे
गया क कामना अाैर संकप का सवथा शमन हाे गया, उस समय जसे वह
जानना चाहता है उसक य अनुभूित हाे जाती है, उसी अनुभूित का नाम
ान है। तेरहवें अयाय में ान काे परभाषत कया, ‘अयाानिनयवं
त वानाथदशनम्।’– अाान में एकरस थित अाैर त व के अथवप
परमाा का य दशन ान है। े-े के भेद काे वदत कर ले ने के
साथ ही ान है। ान का अथ शााथ नहीं, शााें काे याद कर ले ना ही
ान नहीं है। अयास क वह अवथा ान है, जहाँ वह त व वदत हाेता है।
परमाा के सााकार के साथ मलनेवाल अनुभूित का नाम ान है, इसके
वपरत सब कुछ अान है।
ृित एक एेसा पटल है, जस पर संकाराें का अंकन सदैव हाेता रहता
है। यद पथक काे इ में वेश दलानेवाल जानकार धूमल पड़ती है ताे
उस ृित-पटल पर कृित अंकत हाेने लगती है, जाे वनाश का कारण है।
इसलये पूितपयत साधक काे इ-सबधी जानकार दुहराते रहना चाहये।
अाज ृित जीवत है; कत अेतर अवथाअाें में वेश मलने के साथ यह
अवथा नहीं रह जायेगी। इसीलये ‘पूय महाराज जी’ कहा करते थे क
व ा का चतन राेज कराे, एक माला राेज घुमाअाे– जाे चतन से
घुमायी जाती है, बाहर क माला नहीं।
ीभगवानुवाच
हे अजुन मेर ‘मह ’ अथात् अधा मूल कृित सपूण भूताें क याेिन
है अाैर उसमें मैं चेतनपी बीज काे थापत करता ँ। उस जड़-चेतन के
संयाेग से सभी भूताें क उप हाेती है।
काैतेय सब याेिनयाें में जतने शरर उप हाेते हैं, उन सबक ‘याेिन:’–
गभधारण करनेवाल माता अाठ भेदाेंवाल मूल कृित है अाैर मैं ही बीज का
थापन करनेवाला पता ँ। अय काेई न माता है, न पता। जब तक जड़-
चेतन का संयाेग रहेगा, ज हाेते रहेंगे; िनम ताे काेई-न-काेई बनता ही
रहेगा। चेतन अाा जड़ कृित में ाें बँध जाती है इस पर कहते हैं–
त स वं िनमलवाकाशकमनामयम्।
सखसे न ब ाित ानसे न चानघ।।६।।
िनपाप अजुन उन तीनाें गुणाें में काश करनेवाला िनवकार स वगुण ताे
‘िनमलवात्’– िनमल हाेने के कारण सख अाैर ान क अास से अाा
काे शरर में बाँधता है। स वगुण भी बधन ही है। अतर इतना ही है क सख
एकमा परमाा में है अाैर ान सााकार का नाम है। स वगुणी तब तक
बँधा है, जब तक परमाा का सााकार नहीं हाे जाता।
हे अजुन रजाेगुण अाैर तमाेगुण काे दबाकर स वगुण बढ़ता है, वैसे ही
स वगुण अाैर तमाेगुण काे दबाकर रजाेगुण बढ़ता है तथा इसी कार रजाेगुण
अाैर स वगुण काे दबाकर तमाेगुण बढ़ता है। यह कैसे पहचाना जाय क कब
अाैर काैन-सा गुण काय कर रहा है –
जस काल में इस शरर तथा अत:करण अाैर सपूण इयाें में ई रय
काश अाैर बाेधश उप हाेती है, उस समय एेसा जानना चाहये क
स वगुण वशेष वृ काे ा अा है। तथा–
हे अजुन रजाेगुण क वशेष वृ हाेने पर लाेभ, काय में वृ हाेने क
चेा, कमाे का अार, अशात अथात् मन क चंचलता, वषय-भाेगाें क
लालसा– यह सब उप हाेते हैं। अब तमाेगुण क वृ में ा हाेता है –
जब यह जीवाा स वगुण के वृ काल में मृयु काे ा हाेता है, शरर-
याग करता है, तब उ म कम करनेवालाें के मलरहत दय लाेकाें काे ा
हाेता है। तथा–
जस काल में ा अाा तीनाें गुणाें के अितर अय कसी काे क ा
नहीं देखता अाैर तीनाें गुणाें से अयत परे परमत व काे ‘वे ’– वदत कर
ले ता है, उस समय वह पुष मेरे वप काे ा हाेता है। यह बाै क
मायता नहीं है क गुण गुण में बरतते हैं। साधन करते-करते एक एेसी
अवथा अाती है, जहाँ उस परम से अनुभूित हाेती है क गुणाें के सवाय
काेई क ा नहीं दखता, उस समय पुष तीनाें गुणाें से अतीत हाे जाता है।
यह कपत मायता नहीं है। इसी पर अागे कहते हैं–
अजुन उवाच
भाे इन तीनाें गुणाें से अतीत अा पुष कन-कन लणाें से यु हाेता
है अाैर कन कार के अाचरणाेंवाला हाेता है तथा मनुय कस उपाय से इन
तीनाें गुणाें से अतीत हाेता है
ीभगवानुवाच
जाे िनरतर वयं में अथात् अाभाव में थत है, सख अाैर दु:ख में सम
है, म , पथर अाैर वण में भी समान भाववाला है, धैयवान् है, जाे य
अाैर अय काे बराबर समझता है, अपनी िनदा तथा तित में भी समान
भाववाला है अाैर–
मानापमानयाेतयतयाे मारपयाे:।
सवारपरयागी गुणातीत: स उयते।।२५।।
जाे मान अाैर अपमान में सम है, म अाैर शु-प में भी सम है, वह
सपूण अाराें से रहत अा पुष गुणातीत कहा जाता है।
णाे ह िताहममृतयाययय च।
शा तय च धमय सखयैकातकय च।।२७।।
िनकष–
इस अयाय के अार में याेगे र ीकृण ने कहा क– अजुन ानाें में
भी अित उ म परमान काे मैं फर भी तेरे लए कँगा, जसे जानकर
मुिनजन उपासना के ारा मेरे वप काे ा हाेते हैं, फर सृ के अाद में
वे ज नहीं ले ते; कत शरर का िनधन ताे हाेना ही है, उस समय वे यथत
नहीं हाेते। वे वातव में शरर ताे उसी दन याग देते हैं, जस दन वप
काे ा हाेते हैं। ाि जीते-जी हाेती है, कत शरर का अत हाेते समय भी
वे यथत नहीं हाेते।
वे जससे मु हाेते हैं, उसका वप बताते ए याेगे र ने कहा– अधा
मूल कृित गभ काे धारण करनेवाल माता है अाैर मैं ही बीजप पता ँ।
अय न काेई माता है, न पता। जब तक यह म रहेगा, तब तक चराचर
जगत् में िनम प से काेई-न-काेई माता-पता बनते रहेंगे; कत वतत:
कृित ही माता है, मैं ही पता ँ।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम:।।
।।अथ प दशाेऽयाय:।।
महापुषाें ने संसार काे वभ ाताें से समझाने का यास कया है।
कसी ने इसी काे भवाटवी कहा, ताे कसी ने संसार-सागर कहा। अवथाभेद
से इसी काे भवनद अाैर भवकूप भी कहा गया अाैर कभी इसक तलना
गाेपद से क गयी अथात् जतना इयाें का अायतन है, उतना ही संसार है
अाैर अत में एेसी भी अवथा अायी क ‘नामु ले त भवसधु सखाहीं।’
(रामचरतमानस, १/२४/४)– भवसधु भी सूख गया। ा संसार में एेसे समु
हैं याेगे र ीकृण ने भी संसार काे समु अाैर वृ क संा द। अयाय
बारह में उहाेंने कहा– जाे मेरे अनय भ हैं, उनका संसार-समु से शी ही
उ ार करनेवाला हाेता ँ। यहाँ तत अयाय में याेगे र ीकृण कहते हैं क
संसार एक वृ है, उसकाे काटते ए ही याेगीजन उस परमपद काे खाेजते
हैं। देखें–
ीभगवानुवाच
जसने उस संसार-वृ काे जाना है, उसने वेद काे जाना है, न क थ
पढ़नेवाला। पुतक पढ़ने से ताे उधर बढ़ने क ेरणा मा मलती है। प ाें के
थान पर वेद क ा अावयकता है वतत: पुष भटकते-भटकते जस
अतम काेपल अथात् अतम ज काे ले ता है, वहीं से वेद के वे छद (जाे
कयाण का सृजन करते हैं) ेरणा देते हैं, वहीं से उनका उपयाेग है। वहीं से
भटकाव समा हाे जाता है। वह वप क अाेर घूम जाता है। तथा–
न पमयेह तथाेपलयते
नाताे न चादन च सिता।
अ थमेनं सवढमूल-
मसशेण ढे न छ वा।।३।।
परत इस संसार-वृ का प जैसा कहा गया है, वैसा यहाँ नहीं पाया
जाता; ाेंक न ताे इसका अाद है, न अत है अाैर न अछ कार से
इसक थित ही है (ाेंक यह परवतनशील है)। इस स ढ़ मूलवाले
संसारपी वृ काे ढ़ ‘असशेण’– असंग अथात् वैरायपी श ारा
काटकर, (संसारपी वृ काे काटना है। एेसा नहीं क पीपल क जड़ में
परमाा रहते हैं या पीपल का प ा वेद है अाैर अारती करने लगे पेड़ क।)
िनमानमाेहा जतसदाेषा
अयािनया विनवृ कामा:।
ैवमुा: सखदु:खसै-
गछयमूढा: पदमययं तत्।।५।।
उपयु कार के समपण से जनका माेह अाैर मान न हाे गया है,
अासपी संगदाेष जहाेंने जीत लया है, ‘अयािनया’– परमाा के
वप में जनक िनरतर थित है, जनक कामनाएँ वशेष प से िनवृ
हाे गयी हैं अाैर सख-दु:ख के ाें से वमु ए ानीजन उस अवनाशी
परमपद काे ा हाेते हैं। जब तक यह अवथा नहीं अाती, तब तक संसार-
वृ नहीं कटता। यहाँ तक वैराय क अावयकता रहती है। उस परमपद का
ा वप है, जसे पाते हैं –
जस कार वायु गध के थान से गध काे हण करके ले जाता है,
ठक उसी कार देह का वामी जीवाा जस पहले शरर काे यागता है,
उससे मन अाैर पाँचाें ानेयाें के कायकलापाें काे हण करके (अाकषत
करके, साथ ले कर) फर जस शरर काे ा हाेता है, उसमें जाता है। (जब
अगला शरर तकाल िनत है ताे अाटे का पड बनाकर कसे पँचाते हैं
ले ता काैन है इसलये ीकृण ने अजुन से कहा क यह अान तझे कहाँ
से उप हाे गया क पडाेदक या ल हाे जायेगी।) वहाँ जाकर करता
ा है मनसहत छ: इयाँ काैन हैं –
शरर छाेड़कर जाते ए, शरर में थत ए, वषयाें काे भाेगते ए अथवा
तीनाें गुणाें से यु ए भी जीवाा काे वशेष मूढ़ अानी नहीं जानते। केवल
ानपी नेवाले ही उसे जानते हैं, देखते हैं, ठक एेसा ही है। अब वह
कैसे मले अागे देखें-
जाे तेज सूय में थत अा सपूण जगत् काे काशत करता है, जाे तेज
चमा में थत है अाैर जाे तेज अ में है, इसे तू मेरा ही जान। अब उस
महापुष क काय-णाल बताते हैं–
मैं ही पृवी में वेश करके अपनी श से सब भूताें काे धारण करता ँ
अाैर चमा में रसवप हाेकर सपूण वनपितयाें काे पु करता ँ।
उ म: पुषवय: परमाेयुदात:।
याे लाेकयमावय बभययय ई र:।।१७।।
उन दाेनाें से अित उ म पुष ताे अय ही है, जाे तीनाें लाेकाें में वेश
करके सबका धारण-पाेषण करता है अाैर अवनाशी, परमाा, ई र एेसे कहा
गया है। परमाा, अय, अवनाशी, पुषाे म इयाद उसके परचायक
शद हैं, वतत: वह अय ही है अथात् अिनवचनीय है। यह र-अर से परे
महापुष क अतम अवथा है, जसकाे परमाा इयाद शदाें से इं गत
कया गया है; कत वह अय है अथात् अिनवचनीय है। उसी थित में
याेगे र ीकृण अपना भी परचय देते हैं। यथा–
हे भारत जैसा क ऊपर कहा गया है क इस कार जाे ानी पुष मुझ
पुषाे म काे साात् जानता है, वह सव पुष सब कार से मुझ परमाा
काे ही भजता है। वह मुझसे वलग नहीं है।
हे िनपाप अजुन इस कार यह अित गाेपनीय शा मेरे ारा कहा गया।
इसकाे त व से जानकर मनुय पूणाता अाैर कृताथ हाे जाता है। अत:
याेगे र ीकृण क यह वाणी वयं में पूण शा है।
यही वशेषता ाि वाले येक महापुष में पायी गयी। रामकृण
परमहंसदेव एक बार बत स थे। भाें ने पूछा– ‘‘अाज ताे अाप बत
स हैं।’’ वे बाेले– ‘‘अाज मैं ‘वह’ परमहंस हाे गया।’’ उनके समकालन
काेई अछे महापुष परमंहस थे, उनक अाेर संकेत कया। कुछ देर बाद वे
मन-म-वचन से वर क अाशा से अपने पीछे लगे साधकाें से बाेले–
‘‘देखाे, अब तम लाेग सदेह न करना। मैं वही राम ँ जाे ेता में ए थे,
वही कृण ँ जाे ापर में ए थे। मैं उहीं क पव अाा ँ, वही वप
ँ। यद पाना है ताे मुझे देखाे।’’
ठक इसी कार ‘पूय गु महाराज’ भी सबके सामने कहा करते थे–
‘‘हाे, हम भगवान के दूत हैं। जे सचँ का सत है, वह भगवान का दूत है।
हमारे ारा ही उनका सदेशा मलता है।’’ ईसा ने कहा– ‘‘मैं भगवान का पु
ँ, मेरे पास अाअाे– इसलये क ई र का पु कहलाअाेगे।’’ अत: सभी पु
हाे सकते हैं। हाँ, यह बात अलग है क पास अाने का तापय उन तक क
साधना साधन-म में चलकर पूर करना है। मुहद साहब ने कहा– ‘‘मैं
अ ाह का रसूल ँ, सदेशवाहक ँ।’’ ‘पूय महाराज जी’ सबसे ताे इतना ही
कहते थे– न कसी वचार का खडन, न मडन। कत जाे वर में पीछे
लगे थे, उनसे कहते थे– ‘‘केवल मेरे वप काे देखाे। यद तहें उस
परमत व क चाह है ताे मुझे देखाे, सदेह मत कराे।’’ बताें ने सदेह कया
ताे उनकाे अनुभव में दखाकर, डाँट-फटकारकर, उन बा वचाराें से हटाकर,
जनमें याेगे र ीकृण के अनुसार (अयाय २/४०-४३) अनत पूजा-प ितयाँ
हैं, अपने वप में लगाया। वे अ ावध महापुष के प में अवथत हैं।
इसी कार ीकृण क अपनी थित गाेपनीय ताे थी; कत अपने अनय
भ पूण अधकार अनुरागी अजुन के ित उहाेंने उसे काशत कया। हर
भ के लये सव है, महापुष लाखाें काे उस राते पर चला देते हैं।
िनकष—
इस अयाय के अार में याेगे र ीकृण ने बताया क संसार एक वृ
है, पीपल-जैसा वृ है। पीपल एक उदाहरण मा है। ऊपर इसका मूल
परमाा अाैर नीचे कृितपयत इसक शाखा-शाखाएँ हैं। जाे इस वृ काे
मूलसहत वदत कर ले ता है, वह वेदाें का ाता है। इस संसार-वृ क
शाखाएँ ऊपर अाैर नीचे सव या हैं अाैर ‘मूलािन’– उसक जड़ाें का जाल
भी ऊपर अाैर नीचे सव या है, ाेंक वह मूल ई र है अाैर वही
बीजप से येक जीव-दय में िनवास करता है।
कैसे जाना जाय क संसार-वृ कट गया याेगे र कहते हैं क जाे मान
अाैर माेह से सवथा रहत है, जसने संगदाेष जीत लया है, जसक कामनाएँ
िनवृ हाे गई हैं अाैर जाे से मु है, वह पुष उस परमत व काे ा
हाेता है। उस परमपद काे न सूय, न चमा अाैर न अ ही काशत कर
पाते हैं, वह वयं काशप है। जसमें गये ए पीछे लाैटकर नहीं अाते, वह
मेरा परमधाम है, जसे पाने का अधकार सबकाे है, ाेंक यह जीवाा मेरा
ही श अंश है।
अत में उहाेंने बताया क लाेक में दाे कार के पुष हैं। भूतादकाें के
सपूण शरर र हैं। मन क कूटथ अवथा में यही पुष अर है; कत है
ाक अाैर इससे भी परे जाे परमाा, परमे र, अय अाैर अवनाशी
कहा जाता है, वह वतत: अय ही है। यह र अाैर अर से परे वाल
अवथा है, यही परमथित है। इससे संगत करते ए कहते हैं क मैं भी
र-अर से परे वही ँ, इसलये लाेग मुझे पुषाे म कहते हैं। इस कार
उ म पुष काे जाे जानते हैं वे ानी भजन सदैव, सब अाेर से मुझे ही
भजते हैं। उनक जानकार में अतर नहीं है। अजुन यह अयत गाेपनीय
रहय मैंने तेरे ित कहा। ाि वाले महापुष सबके सामने नहीं कहते; कत
अधकार से दुराव भी नहीं रखते। अगर दुराव करें गे ताे वह पायेगा कैसे
इस अयाय में अाा क तीन थितयाें का चण र, अर अाैर अित
उ म पुष के प में प कया गया, जैसा इससे पहले कसी अय
अयाय में नहीं है। अत:–
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम: ।।
।। अथ षाेडशाेऽयाय: ।।
याेगे र भगवान ीकृण के तत करने क अपनी वश शैल है।
पहले वे करण क वशेषताअाें का उ े ख करते हैं, जससे पुष उसक अाेर
अाकषत हाे, तपात् वे उस करण काे प करते हैं। उदाहरण के लये
कम काे लें । उहाेंने दूसरे अयाय में ही ेरणा द क–अजुन कम कर। तीसरे
अयाय में उहाेंने इं गत कया क िनधारत कम कर। िनधारत कम है ा
ताे बताया– य क या ही कम है। फर उहाेंने य का वप न
बताकर पहले बताया क य अाया कहाँ से अाैर देता ा है चाैथे अयाय
में तेरह-चाैदह वधयाें से य का वप प कया, जसकाे करना कम है।
यहाँ कम प हाेता है, जसका श अथ है याेग-चतन, अाराधना, जाे मन
अाैर इयाें क या से सप हाेता है।
इसी कार उहाेंने अयाय नाै में दैवी अाैर अासर सपद् का नाम लया।
उनक वशेषताअाें पर बल दया क– अजुन अासर वभाववाले मुझे तछ
कहकर पुकारते हैं। ँ ताे मैं भी मनुय-शरर के अाधारवाला ाेंक मनुय-
शरर में ही मुझे यह थित मल है; कत अासर वभाववाले , मूढ़
वभाववाले मुझे नहीं भजते, जबक दैवी सपद् से यु भजन अनय ा
से मुझे उपासते हैं। कत इन सप याें का वप, उनका गठन अभी तक
नहीं बताया गया। अब अयाय साेलह में याेगे र उनका वप प करने
जा रहे हैं, जनमें तत है पहले दैवी सपद् के लण–
ीभगवानुवाच
तेज (जाे एकमा ई र में है, उसके तेज से जाे काय करता है। महाा
बु क पड़ते ही अंगुलमाल के वचार बदल गये। यह उस तेज का ही
परणाम था जससे कयाण का सृजन हाेता है, जाे बु में था), मा, धैय,
श , कसी में शुभाव का न हाेना, अपने में पूयता के भाव का सवथा
अभाव– यह सब ताे हे अजुन दैवी सपद् काे ा पुष के लण हैं। इस
कार कुल छ ीस लण बताये, जाे सब-के-सब ताे साधना में परप
अवथावाले पुष में सव हैं अाैर अांशक प में अाप में भी िनत हैं
तथा अासर सपद् से अाावत मनुयाें में भी ये गुण हैं कत स रहते हैं,
तभी ताे घाेर पापी काे भी कयाण का अधकार है। अब अासर सपद् के
मुख लण बताते हैं–
हे अजुन इस लाेक में भूताें के वभाव दाे कार के हाेते हैं– देवाें के
जैसा अाैर असराें के जैसा। जब दय में दैवी सपद् कायप ले ले ती है ताे
मनुय ही देवता है अाैर जब अासर सपद् का बाय हाे ताे मनुय ही
असर है। सृ में ये दाे ही जाितयाँ हैं। वह चाहे अरब में पैदा अा है, चाहे
अाट े लया में; कहीं भी पैदा अा हाे, बशते है इन दाे में से ही। अभी तक
देवाें का वभाव ही वतार से कहा गया, अब असराें के वभाव काे मुझसे
वतारपूवक सन।
हे अजुन असर लाेग ‘कायम् कम’ में वृ हाेने अाैर अक य कम से
िनवृ हाेना भी नहीं जानते। इसलये उनमें न श रहती है, न अाचरण अाैर
न सय ही रहता है। उन पुषाें के वचार कैसे हाेते हैं –
चतामपरमेयां च लयातामुपाता:।
कामाेपभाेगपरमा एतावदित िनता:।।११।।
वे अतम ास तक अनत चताअाें काे लये रहते हैं अाैर वषयाें काे
भाेगने में तपर वे ‘बस इतना ही अानद है’– एेसा मानते हैं। उनक मायता
रहती है क जतना हाे सके भाेग संह कराे, इसके अागे कुछ नहीं है।
अाशापाशशतैब ा: कामाेधपरायणा:।
ईहते कामभाेगाथमयायेनाथस यान्।।१२।।
वह शु मेरे ारा मारा गया अाैर दूसरे शुअाें काे भी मैं माँगा। मैं ही
ई र अाैर एे य काे भाेगनेवाला ँ। मैं ही स याें से यु, बलवान् अाैर
सखी ँ।
मैं बड़ा धनी अाैर बड़े कुटबवाला ँ। मेरे समान दूसरा काैन है मैं य
कँगा, मैं दान दूँगा, मुझे हष हाेगा– इस कार के अान से वे वशेष
माेहत रहते हैं। ा य, दान भी अान है इस पर अयाय १७ में प
कया है। इतने पर भी वे नहीं कते बक अनेक ातयाें के शकार रहते
हैं। इस पर कहते हैं–
मुझसे ेष करनेवाले उन पापाचार, ूरकमी नराधमाें काे मैं संसार में
िनरतर अासर याेिनयाें में ही गराता ँ। जाे शावध काे यागकर यजन
करते हैं वे पापयाेिन हैं, वही मनुयाें में अधम हैं, इहीं काे ूरकमी कहा
गया। अय काेई अधम नहीं है। पीछे कहा था, एेसे अधमाें काे मैं नरक में
गराता ँ, उसी काे यहाँ कहते हैं क उहें अज अासर याेिनयाें में गराता
ँ। यही नरक है। साधारण जेल क यातना भयंकर हाेती है अाैर यहाँ अनवरत
अासर याेिनयाें में गरने का म कतना दु:खद है। अत: दैवी सपद् के लये
य शील रहना चाहये।
काम, ाेध अाैर लाेभ ये तीन कार के नरक के मूल ार हैं। ये अाा
का नाश करनेवाले , उसे अधाेगित में ले जानेवाले हैं। अत: इन तीनाें काे याग
देना चाहये। इहीं तीनाें पर अासर सपद् टक ई है। इहें यागने से
लाभ –
जाे पुष उपयु शावध काे यागकर वह शा काेई अय नहीं, ‘इित
गु तमं शाम्’ (१५/२०) गीता वयं पूणशा है, जसे वयं ीकृण ने
बताया है, उस वध काे यागकर अपनी इछा से बरतता है, वह न स
काे ा हाेता है, न परमगित काे अाैर न सख काे ही ा हाेता है।
अयाय तीन में भी याेगे र ीकृण ने ‘िनयतं कु कम वं’– िनयत कम
पर बल दया अाैर बताया क य क या ही वह िनयत कम है अाैर वह
य अाराधना क वध-वशेष का चण है, जाे मन का सवथा िनराेध करके
शा त में वेश दलाता है। यहाँ उहाेंने बताया क काम, ाेध अाैर लाेभ
नरक के तीन मुख ार हैं। इन तीनाें काे याग देने पर ही उस कम का
(िनयत कम का) अार हाेता है, जसे मैंने बार-बार कहा, जाे परमेय-
परमकयाण दलानेवाला अाचरण है। बाहर सांसारक कायाे में जाे जतना
यत है, उतना ही अधक काम, ाेध अाैर लाेभ उसके पास सजासजाया
मलता है। कम काेई एेसी वत है क काम, ाेध अाैर लाेभ काे याग देने
पर ही उसमें वेश मलता है, कम अाचरण में ढल पाता है। जाे उस वध
काे यागकर अपनी इछा से अाचरण करता है, उसके लये सख, स
अथवा परमगित कुछ भी नहीं है। अब क य अाैर अक य क यवथा में
शा ही एकमा माण है। अत: शावध के ही अनुसार तझे कम करना
उचत है अाैर वह शा है ‘गीता’।
िनकष—
तदनतर उहाेंने अासर सपद् में धान चार-छ: वकाराें का नाम लया;
जैसे– अभमान, द, कठाेरता, अान इयाद अाैर अत में िनणय दया क
अजुन दैवी सपद् ताे ‘वमाेाय’– पूण िनवृ के लये है, परमपद क ाि
के लये है अाैर अासर सपद् बधन अाैर अधाेगित के लये है। अजुन तू
शाेक न कर; ाेंक तू दैवी सपद् काे ा अा है।
ये सपदाएँ हाेती कहाँ हैं उहाेंने बताया क इस लाेक में मनुयाें के
वभाव दाे कार के हाेते हैं– देवताअाें-जैसा अाैर असराें-जैसा। जब दैवी
सपद् का बाय हाेता है ताे मनुय देवताअाें-जैसा हाेता है अाैर जब अासर
सपद् का बाय हाेता है ताे मनुय असराें-जैसा है। सृ में बस मनुयाें क
दाे ही जाित हैं; चाहे वह कहीं पैदा अा हाे, कुछ भी कहलाता हाे।
याेगे र ीकृण ने पुन: कहा क अासर वभाववाले ूर मनुयाें काे मैं
बारबार नरक में गराता ँ। नरक का वप ा है ताे बताया, बारबार
नीच-अधम याेिनयाें में गरना एक दूसरे का पयाय है। यही नरक का वप
है। काम, ाेध अाैर लाेभ नरक के तीन मूल ार हैं। इन तीनाें पर ही अासर
सपद् टक ई है। इन तीनाें काे याग देने पर ही उस कम का अार
हाेता है, जसे मैंने बार-बार बताया है। स है क कम काेई एेसी वत है,
जसका अार काम, ाेध अाैर लाेभ काे याग देने पर ही हाेता है।
।। हर: ॐ तसत् ।।
।। ॐ ी परमाने नम:।।
।।अथ स दशाेऽयाय:।।
अयाय साेलह के अत में याेगे र ीकृण ने प कहा क काम, ाेध
अाैर लाेभ के यागने पर ही कम अार हाेता है, जसे मैंने बार-बार कहा है।
िनयत कम काे बना कये न सख, न स अाैर न परमगित ही मलती है।
इसलये अब तहारे लये क य अाैर अक य क यवथा में क ा कँ,
ा न कँ – इस सबध में शा ही माण है। काेई अय शा नहीं;
बक ‘इित गु तमं शामदम्।’ (१५/२०) गीता वयं शा है। अय शा
भी हैं; कत यहाँ इसी गीताशा पर रखें, दूसरा न ढूँ ढ़ने लगें। दूसर
जगह ढूँ ढ़ेंगे ताे यह मब ता नहीं मले गी, अत: भटक जायेंगे।
अजुन उवाच
ये शावधमुसृय यजते यावता:।
तेषां िना त का कृण स वमाहाे रजतम:।।१।।
हे कृण जाे मनुय शावध काे छाेड़कर ासहत यजन करते हैं,
उनक गित काैन-सी है सा वक है, राजसी है अथवा तामसी है यजन में
देवता, य, भूत इयाद सभी अा जाते हैं।
ीभगवानुवाच
अयाय दाे में याेगे र ने बताया क– अजुन इस याेग में िनधारत या
एक ही है। अववेकयाें क बु अनत शाखाअाेंवाल हाेती है, इसलये वे
अनत याअाें का वतार कर ले ते हैं। दखावट शाेभायु वाणी में उसे
य भी करते हैं। उनक वाणी क छाप जनके च पर पड़ती है, अजुन
उनक भी बु न हाे जाती है, न क कुछ पाते हैं। ठक इसी क पुनरावृ
यहाँ पर भी है क जाे ‘शावधमुसृय’– शावध काे यागकर भजते हैं,
उनक ा भी तीन कार क हाेती है।
गीता याेग-दशन है। महष पतंजल भी याेगी थे। उनका याेग-दशन है।
याेग है ा उहाेंने बताया– ‘याेग वृ िनराेध:।’ (१/२) च क वृ याें
का सवथा क जाना याेग है। कसी ने परम करके राेक ही लया, ताे
लाभ ा है ‘तदा ु : वपेऽवथानम्।’ (१/३)– उस समय यह ा
जीवाा अपने ही शा त वप में थत हाे जाता है। ा थत हाेने से
पूव यह मलन था पतंजल कहते हैं– ‘वृ सायमतर।’ (१/४)– दूसरे
समय में जैसा वृ का प है, वैसा ही वह ा है। यहाँ याेगे र ीकृण
कहते हैं– यह पुष ामय है, ा से अाेताेत, कहींन-कहीं ा अवय
हाेगी अाैर जैसी ावाला है, वह वयं भी वही है। जैसी वृ , वैसा पुष।
अब तीनाें ाअाें का वभाजन करते हैं–
उनमें से सा वक पुष देवताअाें काे पूजते हैं, राजस पुष य अाैर
रासाें काे पूजते हैं तथा अय तामस पुष ेत अाैर भूताें काे पूजते हैं। वे
पूजन में अथक परम भी करते हैं।
अायु:स वबलाराेयसखीितववधना: ।
रया: धा: थरा ा अाहारा: सा वकया:।।८।।
अायु, बु , बल, अाराेय, सख अाैर ीित काे बढ़ानेवाले ; रसयु, चकने
अाैर थर रहनेवाले तथा वभाव से ही दय काे य लगनेवाले भाेय पदाथ
सा वक पुष काे य हाेते हैं।
जहाँ तक बल, बु , अाराेय अाैर दय काे य लगने का है, ताे
व भर में मनुयाें काे अपनी-अपनी कृित, वातावरण अाैर परथितयाें के
अनुकूल वभ खा सामयाँ य हाेती हैं, जैसे– बंगालयाें तथा मासयाें
काे चावल य हाेता है अाैर पंजाबयाें काे राेट। एक अाेर ताे अरबवासयाें
काे दुबा, चीिनयाें काे मेढक, ताे दूसर अाेर व-जैसे ठं डे देशाें में मांस
बना गुजारा नहीं है। स अाैर मंगाेलया के अादवासी खा में घाेड़े
इतेमाल करते हैं, यूराेपवासी गाय तथा सअर दाेनाें खाते हैं; फर भी व ा,
बु -वकास तथा उ ित में अमेरका अाैर यूराेपवासी थम ेणी में गने जा
रहे हैं।
क लवणायुणतीणवदाहन:।
अाहारा राजसयेा दु:खशाेकामयदा:।।९।।
कड़वे, ख े , अधक नमकन, अयत गम, तीखे, खे, दाहकारक अाैर
दु:ख, चता तथा राेगाें काे उप करनेवाले अाहार राजस पुष काे य हाेते
हैं।
जाे भाेजन देर का बना अा है, अधपका है ‘गतरसं’– रसरहत, (रसरहत
का अथ यह नहीं क जल क माा कम हाे, शारर के लए वायवधक
रसायन से जाे रहत है।) दुगधयु, बासी, उछ (जूठा) अाैर अपव भी
है, वह तामस पुष काे य हाेता है। पूरा अा। अब तत है ‘य’–
वधहीनमसृा ं म हीनमदणम्।
ावरहतं यं तामसं परचते।।१३।।
देवजगुापूजनं शाैचमाजवम्।
चयमहंसा च शाररं तप उयते।।१४।।
परमदेव परमाा, ैत पर जय ा ु अाैर ानीजनाें
करनेवाले ज, स
का पूजन, पवता, सरलता, चय तथा अहंसा शरर-सबधी तप कहा
जाता है। शरर सदैव वासनाअाें क अाेर बहकता है, इसे अत:करण क
उपयु वृ याें के अनुप तपाना शाररक तप है।
उेग न पैदा करनेवाला, य, हतकारक अाैर सय भाषण तथा परमाा
में वेश दलानेवाले शााें के चतन का अयास, नाम-जप– यह वाणी-
सबधी तप कहा जाता है। वाणी वषयाेुख वचाराें काे भी य करती
रहती है, इसे उस अाेर से समेटकर परमसय परमाा क दशा में लगाना
वाणी-सबधी तप है। अब मन-सबधी तप देखें–
जाे दान ेशपूवक (जाे देते नहीं बनता ले कन देना पड़ रहा है) तथा
युपकार क भावना से क यह कँगा ताे यह मले गा अथवा फल काे
उ ेय बनाकर फर दया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।
जाे दान बना सकार कये अथवा ितरकारपूवक झड़ककर अयाेय देश-
काल में अनधकारयाें काे दया जाता है, वह दान तामस कहा गया है। ‘पूय
महाराज जी’ कहा करते थे– ‘‘हाे, कुपा काे दान देने से दाता न हाे जाता
है।’’ ठक इसी कार ीकृण का कहना है क दान देना ही क य है। देश,
काल अाैर पा के ा हाेने पर बदले में उपकार न चाहने क भावना से
उदारता के साथ दया जानेवाला दान सा वक है। कठनाई से िनकलनेवाला,
बदले में फल क भावना से दया जानेवाला दान राजस है अाैर बना सकार
के, झड़कयाें के साथ ितकूल देश-काल में कुपा काे दया जानेवाला दान
तामस है, ले कन है दान ही; कत जाे देह, गेह इयाद सबके ममव काे
यागकर एकमा इ पर ही िनभर है, उसके लये दान का वधान इससे
अाैर उ त है– वह है सवव का समपण, सपूण वासनाअाें से हटकर मन का
समपण; जैसा क ीकृण ने कहा है– ‘मयेव मन अाधव।’ अत: दान
िनतात अावयक है। अब तत है ॐ, तत् अाैर सत् का वप–
तादाेमयुदाय यदानतप:या:।
वतते वधानाेा: सततं वादनाम्।।२४।।
यहाँ कहते हैं, ‘सत्’ एेसे परमाा का यह नाम ‘स ावे’– सय के ित
भाव में अाैर साधुभाव में याेग कया जाता है अाैर हे पाथ जब िनयत कम
सांगाेपांग भल कार हाेने लगे, तब सत् शद का याेग कया जाता है। सत्
का अथ यह नहीं है क यह वतएँ हमार हैं। जब शरर ही हमारा नहीं है,
ताे इसके उपभाेग में अानेवाल वतएँ हमार कब हैं। यह सत् नहीं है। सत्
का याेग केवल एक दशा में कया जाता है– स ाव में। अाा ही परम
सय है– इस सय के ित भाव हाे, उसे साधने के लये साधुभाव हाे अाैर
उसक ाि करानेवाला कम शत ढं ग से हाेने लगे, वहीं सत् शद का
याेग कया जाता है। इसी पर याेगे र अेतर कहते हैं–
य, तप अाैर दान काे करने में जाे थित मलती है, वह भी सत् है–
एेसा कहा जाता है। ‘तदथीयम्’– उस परमाा क ाि के लये कया अा
कम ही सत् है, एेसा कहा जाता है। अथात् उस परमाा क ाि वाला कम
ही सत् है। य, दान, तप ताे इस कम के पूरक हैं। अत में िनणय देते ए
कहते हैं क इन सबके लये ा अावयक है।
हे पाथ बना ा के कया अा हवन, दया अा दान, तपा अा तप
अाैर जाे कुछ भी कया अा कम है, वह सब असत् है– एेसा कहा जाता है।
वह न ताे इस लाेक में अाैर न परलाेक में ही लाभदायक है। अत: समपण के
साथ ा िनतात अावयक है।
िनकष—
देवता-संग काे ीकृण ने यहाँ तीसर बार उठाया है। पहले अयाय सात
में उहाेंने कहा क– अजुन कामनाअाें ने जनका ान हर लया है, वही
मूढ़बु अय देवताअाें क पूजा करते हैं। दूसर बार अयाय नाै में उसी
काे दुहराते ए कहा– जाे अयाय देवताअाें क पूजा करते हैं, वे भी मुझे ही
पूजते हैं; कत उनका वह पूजन अवधपूवक अथात् शा में िनधारत वध
से भ है, अत: वह न हाे जाता है। यहाँ अयाय सह में उहें अासर
वभाववाला कहकर सबाेधत कया। ीकृण के शदाें में एक परमाा क
ही पूजा का वधान है।
परमदेव परमाा में वेश दलानेवाल सार याेयताएँ जनमें हैं, उन ा
स
ु क अचना, सेवा अाैर अत:करण से अहंसा, चय अाैर पवता के
अनुप शरर काे तपाना शरर का तप है। सय, य अाैर हतकर बाेलना
वाणी का तप है अाैर मन काे कम में वृ रखना, इ के अितर वषयाें
के चतन में मन काे माैन रखना मन-सबधी तप है। मन, वाणी अाैर शरर
तीनाें मलाकर इस अाेर तपाना सा वक तप है। राजस तप में कामनाअाें के
साथ उसी काे कया जाता है, जबक तामस तप शावध से रहत
वेछाचार है।
क य मानकर देश, काल अाैर पा का वचार करके ापूवक दया
गया दान सा वक है। कसी लाभ के लाेभ में कठनाई से दया जानेवाला
दान राजस है अाैर झड़ककर कुपा काे दया जानेवाला दान तामस है।
सपूण अयाय में ा पर काश डाला गया अाैर अत में ॐ, तत् अाैर
सत् क वशद याया तत क गयी, जाे गीता के ाेकाें में पहल बार
अाया है। अत:–
अजुन उवाच
पूण याग संयास है, जहाँ संकप अाैर संकाराें का भी समापन है अाैर
इससे पहले साधना क पूित के लये उ राे र अास का याग ही याग है।
यहाँ दाे हैं क संयास के त व काे जानना चाहता ँ अाैर दूसरा है क
याग के त व काे जानना चाहता ँ। इस पर याेगे र ीकृण ने कहा–
ीभगवानुवाच
अजुन कतने ही पडतजन काय कमाे के याग काे संयास कहते हैं
अाैर कतने ही वचार-कुशल पुष सपूण कमफलाें के याग काे याग कहते
हैं।
कई एक वान् एेसा कहते हैं क सभी कम दाेषयु हैं, अत: याग देने
याेय हैं अाैर दूसरे वान् एेसा कहते हैं क य, दान अाैर तप यागने याेय
नहीं हैं। इस कार अनेक मत तत करके याेगे र अपना भी िनत मत
देते हैं–
य, दान अाैर तप– ये तीन कार के कम यागने याेय नहीं हैं, इहें ताे
करना ही चाहये; ाेंक य, दान अाैर तप तीनाें ही पुषाें काे पव करने
वाले हैं।
सकामी पुषाें के कमाे का अछा, बुरा अाैर मला अा– एेसा तीन कार
का फल मरने का पात् भी हाेता है, ज-जातराें तक मलता है; कत
‘स यासनाम्’– सवव का यास (अत) करनेवाले पूण यागी पुषाें के कमाे
का फल कसी भी काल में नहीं हाेता। यही श संयास है। संयास
चरमाेकृ अवथा है। भले -बुरे कमाे का फल तथा पूण यासकाल में उनके
अत का पूरा अा। अब पुष के ारा शभ अथवा अशभ कम हाेने में
ा कारण हैं इस पर देखें–
मनुय मन, वाणी अाैर शरर से शा के अनुसार अथवा वपरत जाे कुछ
कम अार करता है, उसके ये पाँचाें ही कारण हैं। परत एेसा हाेने पर भी–
जस पुष के अत:करण में ‘मैं क ा ँ’–एेसा भाव नहीं है तथा जसक
बु लपायमान नहीं हाेती, वह पुष इन सब लाेकाें काे मारकर भी वातव
में न ताे मारता है अाैर न बँधता है। लाेक-सबधी संकाराें का वलय ही
लाेक-संहार है। अब उस िनयत कम क ेरणा कैसे हाेती है इस पर देखें–
ानं ेयं पराता िवधा कमचाेदना।
करणं कम कतेित िवध: कमसह:।।१८।।
ान, कम तथा क ा भी गुणाें के भेद से सांयशा में तीन- तीन कार
के कहे गये हैं, उहें भी तू यथावत् सन। तत है पहले ान का भेद–
जाे ान सपूण भूताें में भ कार के अनेक भावाें काे अलग-अलग
करके जानता है क यह अछा है, ये बुरे हैं– उस ान काे तू राजस जान।
एेसी थित है ताे राजसी तर पर तहारा ान है। अब देखें तामस ान–
य ु कृवदेककाये समहैतकम्।
अत वाथवदपं च त ामसमुदातम्।।२२।।
जाे कम बत परम से यु है, फल काे चाहनेवाले अाैर अहंकारयु
पुष ारा कया जाता है, वह कम राजस कहा जाता है। यह पुष भी वही
िनयत कम करता है; कत अतर मा इतना ही है क फल क इछा अाैर
अहंकार से यु है इसलये उसके ारा हाेनेवाले कम राजस हैं। अब देखें
तामस–
मुसाेऽनहंवाद धृयुसाहसमवत:।
स स ाेिनवकार: कता सा वक उयते।।२६।।
जाे चंचल च वाला, असय, घमड, धूत, दूसरे के कायाे में बाधा
पँचानेवाला, शाेक करने के वभाववाला, अालसी अाैर दघसूी है क फर
कर लें गे, वह क ा तामस कहा जाता है। दघसूी कम काे कल पर
टालनेवाला है, य प करने क इछा उसे भी रहती है। इस कार क ा के
लण पूरे ए। अब याेगे र ीकृण ने नवीन उठाया– बु , धारणा अाैर
सख के लण–
पाथ वृ अाैर िनवृ काे, क य अाैर अक य काे, भय अाैर अभय
काे तथा बधन अाैर माे काे जाे बु यथाथ जानती है, वह बु सा वक
है। अथात् परमा-पथ, अावागमन-पथ दाेनाें क भल कार जानकारवाल
बु सा वक है। तथा–
पाथ जस बु ारा मनुय धम अाैर अधम काे तथा क य अाैर
अक य काे भी यथावत् नहीं जानता, अधूरा जानता है, वह बु राजसी है।
अब तामसी बु का वप देखें–
पाथ तमाेगुण से ढँ क ई जाे बु अधम काे धम मानती है तथा सपूण
हताें काे वपरत ही देखती है, वह बु तामसी है।
यहाँ ाेक तीस से ब ीस तक बु के तीन भेद बताये गये। जाे बु
कस काय से िनवृ हाेना है अाैर कसमें वृ हाेना है, काैन क य है अाैर
काैन अक य है– इसक भल कार जानकार रखती है, वह बु सा वक
है। जाे क य-अक य काे धूमल ढं ग से जानती है, यथाथ नहीं जानती– वह
राजसी बु है अाैर अधम काे धम, न र काे शा त तथा हत काे अहत–
इस कार वपरत जानकारवाल बु तामसी है। इस कार बु के भेद
समा ए। अब तत है दूसरा , ‘धृित’– धारणा के तीन भेद–
हे पाथ दु बु वाला मनुय जस धारणा के ारा िना, भय, चता,
दु:ख अाैर अभमान काे भी (नहीं छाेड़ता इन सबकाे) धारण कये रहता है,
वह धारणा तामसी है। यह पूरा अा। अगला है, सख–
वषयेयसंयाेगा देऽमृताेपमम् ।
परणामे वषमव तसखं राजसं ृतम्।।३८।।
जाे सख वषय अाैर इयाें के संयाेग से हाेता है, वह य प भाेगकाल
में अमृत के स श लगता है कत परणाम में वष के स श है; ाेंक ज-
मृयु का कारण है, वह सख राजस कहा गया है। तथा–
जाे सख भाेगकाल अाैर परणाम में भी अाा काे माेह में डालनेवाला है,
िना ‘या िनशा सवभूतानाम्’– जगत् क िनशा में अचेत रखनेवाला है,
अालय अाैर यथ क चेाअाें से उप वह सख तामस कहा गया है। अब
याेगे र ीकृण गुणाें क पँच बताते हैं, जाे सबके पीछे लगे हैं–
अजुन पृवी में, अाकाश में अथवा देवताअाें में एेसा काेई भी ाणी नहीं,
जाे कृित से उप ए तीनाें गुणाें से रहत हाे। अथात् ा से ले कर कट-
पतंग यावा जगत् णभंगुर, मरने-जीनेवाला है, तीनाें गुणाें के अतगत है
अथात् देवता भी तीनाें गुणाें का वकार है, न र है।
यहाँ बा देवताअाें काे याेगे र ने चाैथी बार लया– अयाय सात, नाै,
सह तथा यहाँ अठारहवें अयाय में। इन सबका एक ही अथ है क देवता
तीनाें गुणाें के अतगत हैं। जाे इहें भजता है, न र क पूजा करता है।
अासर अाैर दैवी सपद् अत:करण क दाे वृ याँ हैं। जसमें दैवी सपद्
परमदेव परमाा का ददशन कराती है, इसलये दैवी कही जाती है; कत
यह भी तीनाें गुणाें के ही अतगत है। गुण शात हाेने के पात् इनक भी
शात हाे जाती है। तपात् उस अातृ याेगी के लये काेई भी क य शेष
नहीं रह जाता।
इस काे याेगे र ीकृण ने यहाँ पांचवीं बार लया है। अयाय दाे में
इन चार वणाे में से एक िय का नाम लया क िय के लये यु से
ेयतर काेई माग नहीं है। तीसरे अयाय में उहाेंने कहा क दुबल गुणवाले के
लये भी उसके वभाव से उप याेयता के अनुसार धम में वृ हाेना,
उसमें मर जाना भी परम कयाणकार है। दूसराें क नकल करना भयावह है।
अयाय चार में बताया क चार वणाे क सृ मैंने क। ताे ा मनुयाें काे
चार जाितयाें में बाँटा कहते हैं– नहीं, ‘गुणकम वभागश:’– गुणाें क याेयता
से कम काे चार साेपानाें में बाँटा। यहाँ गुण एक पैमाना है, उसके ारा
मापकर कम करने क मता काे चार भागाें में बाँटा। ीकृण के शदाें में
कम एकमा अय पुष क ाि क या है। ई र-ाि का अाचरण
अाराधना है, जसक शअात मा एक इ में ा से है। चतन क वध-
वशेष है, जसे पीछे बता अाये हैं। इस याथ कम काे चार भागाें में बाँटा।
अब कैसे समझें क हममें काैन से गुण हैं अाैर कस ेणी के हैं इस पर
यहाँ कहते हैं–
मन का शमन, इयाें का दमन, पूण पवता; मन, वाणी अाैर शरर काे
इ के अनुप तपाना, माभाव; मन, इयाें अाैर शरर क सवथा सरलता,
अातक बु अथात् एक इ में स ी अाथा, ान अथात् परमाा क
जानकार का संचार, वान अथात् परमाा से मलनेवाले िनदेशाें क
जागृित एवं उसके अनुसार चलने क मता– यह सब वभाव से उप ए
ा ण के कम हैं अथात् जब वभाव में यह याेयताएँ पायी जायँ, कम
धारावाही हाेकर वभाव में ढल जाय ताे वह ा ण ेणी का क ा है। तथा–
शूरवीरता, ई रय तेज का मलना, धैय, चतन में दता अथात् ‘कमस
काैशलम्’– कम करने में दता, कृित के संघष से न भागने का वभाव,
दान अथात् सवव का समपण, सब भावाें पर वामभाव अथात् ई रभाव–
यह सब िय के ‘वभावजम्’– वभाव से उप ए कम हैं। वभाव में ये
याेयताएँ पायी जाती हैं ताे वह क ा िय है। अब तत है, वैय तथा शू
का वप–
(रामचरतमानस, ४/१४/८)
अपने-अपने वभाव में पायी जानेवाल याेयता के अनुसार कम में लगा
अा मनुय ‘संस म्’– भगवाि पी परमस काे ा हाेता है। पहले
भी कह अाये हैं–इस कम काे करके तू परमस काे ा हाेगा। काैन-सा
कम करके अजुन तू शावध से िनधारत कम याथ कम कर। अब
वकम करने क मता के अनुसार कम में लगा अा मनुय परमस काे
जस कार ा हाेता है, वह वध तू मुझसे सन। यान दें–
दूसरे अयाय में याेगे र ीकृण ने कहा– अाा ही सय है, सनातन है,
अय अाैर अमृतवप है; कत इन वभूितयाें से यु अाा काे केवल
त वदशयाें ने देखा। अब वहाँ वाभावक है क वतत: त वदशता है
ा बत से लाेग पाँच त व, पचीस त व क बाै क गणना करने लगते हैं;
कत इस पर ीकृण ने यहाँ अठारहवें अयाय में िनणय दया क परमत व
है परमाा, जाे उसे जानता है वही त वदशी है। अब यद अापकाे त व क
चाह है, परमात व क चाह है ताे भजन-चतन अावयक है।
मुझ पर वशेष प से अात अा पुष सपूण कमाे काे सदा करता
अा, ले शमा भी ुट न रखकर करता अा मेरे कृपा-साद से शा त
अवनाशी परमपद काे ा हाेता है। कम वही है– िनयत कम, य क
या। पूण याेगे र स
ु के अात साधक उनके कृपा-साद से शी पा
जाता है। अत: उसे पाने के लये समपण अावयक है।
अत: अजुन सपूण कमाे काे (जतना कुछ तझसे बन पड़ता है) मन से
मुझे अपत करके, अपने भराेसे नहीं बक मुझे समपण करके मेरे परायण
अा बु याेग अथात् याेग क बु का अवलबन करके िनरतर मुझमें च
लगा। याेग एक ही है, जाे सवथा दु:खाें का अत करनेवाला अाैर परमत व
परमाा में वेश दलानेवाला है। उसक या भी एक ही है– य क
या, जाे मन तथा इयाें के संयम, ास- ास तथा यान इयाद पर
िनभर है। जसका परणाम भी एक ही है– ‘यात सनातनम्।’ इसी पर
अागे कहते हैं–
म : सवदग
ु ाण मसादा रयस।
अथ चे वमहारा ाेयस वन स।।५८।।
काैतेय माेहवश तू जस कम काे नहीं करना चाहता, उसकाे भी अपने
वभाव से उप ए कम से बँधा अा परवश हाेकर करे गा। कृित के संघष
से न भागने का तहारा िय ेणी का वभाव तहें बरबस कम में लगायेगा।
पूरा अा। अब वह ई र रहता कहाँ है इस पर कहते हैं–
अजुन तू मेरे में ही अनय मनवाला हाे, मेरा अनय भ हाे, मेरे ित
ा से पूण हाे (मेरे समपण में अुपात हाेने लगे), मेरे काे ही नमन कर।
एेसा करने से तू मेरे काे ही ा हाेगा। यह मैं तेरे लये सय िता करके
कहता ँ; ाेंक तू मेरा अयत य है। पीछे बताया– ई र दय-देश में है,
उसक शरण जा। यहाँ कहते हैं– मेर शरण अा। यह अित गाेपनीय रहययु
वचन सन क मेर शरण अाअाे। वातव में याेगे र ीकृण कहना ा चाहते
हैं यही क साधक के लये स
ु क शरण िनतात अावयक है। ीकृण
एक पूण याेगे र थे। अब समपण क वध बताते हैं–
येक महापुष ने यही कहा। शा जब लखने में अाता है ताे लगता है
क यह सबके लये है; कत है वतत: ावान् के लये ही। अजुन
अधकार था, अत: उसे बल देकर कहा। अब याेगे र वयं िनणय देते हैं क
इसके अधकार काैन हैं –
अजुन इस कार तेरे हत के लये कहे इस गीता के उपदेश काे कसी
काल में भूलकर भी न ताे तपरहत मनुय के ित कहना चाहये, न
भरहत के ित कहना चाहये, न बना सनने क इछावाले के ित कहना
चाहये अाैर जाे मेर िनदा करता है, यह दाेष है, वह दाेष है– इस कार
अालाेचना करता है, उसके ित भी नहीं कहना चाहये। शन वाभावक है,
तब कहा कससे जाय जैसा भगवान अयाय २ / ५२-५३ में कह अाये हैं
क अजुन जब तेर बु माेहपी दलदल काे पार कर ले गी तभी तू जाे
सनने याेय है, उसे सन सकेगा अाैर सने ए के अनुसार वैराय काे ा हाे
सकेगा। अनेक कार के वेदवााें के सनने से वचलत ई तेर बु
(वेदवा ताे बत सने ले कन बु हाे गयी वचलत। एेसी वचलत बु )
जब अचल थर ठहर जायेगी तब तू याेग काे ा हाेगा। अजुन काे सनने
याेय बनाने के लए भगवान काे भी उसे तीा करानी पड़ अाैर यहाँ जनमें
तप अथात् इयाें काे इ के अनुप तपाने क मता नहीं है, भ अथात्
समपण नहीं है, सनने क उकंठा नहीं है, जससे सनना है उसके ित
व ास नहीं है – एेसे संशययु य क बु में अभी उपदेश हण करने
क मता नहीं है। उनमें ससंग तथा तवदशी महापुष क शरण–सेवा–
सा य से पाता लानी है, तपात् उहें उपदेश करना साथक हाेगा। कत
अभी कहा कससे जाय - इस पर कहते हैं–
जाे इस परम गाेपनीय गीता ान काे मेरे भाें में कहेगा, वह मेर
पराभ काे ा कर मुझे ा हाेगा, इसमें काेई संशय नहीं है। अथात् वह
भ मुझे ही ा हाेगा, जाे सन ले गा; ाेंक उपदेश काे भल कार सनकर
दयंगम कर ले गा, ताे उस पर चले गा तथा पार पा जायेगा। अब उस
उपदेशक ा के लए कहते हैं–
अजुन उवाच
अयुत अापक कृपा से मेरा माेह न हाे गया है। मुझे ृित ा ई
है। (जाे रहयमय ान मनु ने ृित-परपरा से चलाया, उसी काे अजुन ने
ा कर लया।) अब मैं संशयरहत अा थत ँ अाैर अापक अाा का
पालन कँगा। जबक सैय िनरण के समय दाेनाें ही सेनाअाें में वजनाें
काे देख अजुन याकुल हाे गया था। उसने िनवेदन कया– गाेवद वजनाें
काे मारकर हम कैसे सखी हाेंगे एेसे यु से शा त कुलधम न हाे जायेगा,
पडाेदक-या ल हाे जायेगी, वणसंकर उप हाेगा। हमलाेग समझदार
हाेकर भी पाप करने काे उ त ए हैं। ाें न इससे बचने के लये उपाय
करें शधार ये काैरव मुझ शरहत काे रण में मार डालें , वह मरना भी
ेयकर है। गाेवद मैं यु नहीं कँगा– कहता अा वह रथ के पछले
भाग में बैठ गया था।
इस कार मैंने वासदेव अाैर महाा अजुन (अजुन एक महाा है, याेगी
है, साधक है, न क काेई धनुधर जाे मारने के लये खड़ा हाे। अत: महाा
अजुन) के इस वलण अाैर राेमांचकार सवाद काे सना। अाप में सनने क
मता कैसे अायी इस पर कहते हैं–
हे राजन् हर के (जाे शभाशभ सव का हरण कर वयं शेष रहते हैं, उन
हर के) अित अ त
ु प काे पुन:-पुन: रण करके मेरे च में महान्
अाय हाेता है अाैर मैं बारबार हषत हाेता ँ। इ का वप बार-बार
रण करने क वत है। अत में संजय िनणय देते हैं–
राजन् जहाँ याेगे र ीकृण अाैर धनुधर अजुन (यान ही धनुष है,
इयाें क ढ़ता ही गाडव है अथात् थरता के साथ यान धरनेवाला
महाा अजुन) हैं, वहीं पर ‘ी:’–एे य, वजय–जसके पीछे हार नहीं है,
ई रय वभूित अाैर चल संसार में अचल रहनेवाल नीित है, एेसा मेरा मत
है।
िनकष—
मनुयमा के ारा शा के अनुकूल अथवा ितकूल काय हाेने में पाँच
कारण हैं– क ा (मन), पृथक्-पृथक् करण (जनके ारा कया जाता है। शभ
पार लगता है ताे ववेक, वैराय, शम, दम करण हैं। अशभ पार लगता है ताे
काम, ाेध, राग, ेष इयाद करण हाेंगे), नाना कार क इछाएँ (इछाएँ
अनत हैं, सब पूण नहीं हाे सकतीं। केवल वह इछा पूण हाेती है, जसके
साथ अाधार मल जाता है।), चाैथा कारण है अाधार (साधन) अाैर पाँचवाँ हेत
है दैव (ारध या संकार)। येक काय के हाेने में यही पाँच कारण हैं, फर
भी जाे कैवयवप परमाा काे क ा मानता है, वह मूढ़बु यथाथ नहीं
जानता। अथात् भगवान नहीं करते, जबक पीछे कह अाये हैं क अजुन तू
िनम मा हाेकर खड़ा भर रह, क ा-ध ा ताे मैं ँ। अतत: उन महापुष
का अाशय ा है
संजय, जसने इन दाेनाें के सवाद काे भल कार सना है, अपना िनणय
देता है क ीकृण महायाेगे र अाैर अजुन एक महाा हैं। उनका सवाद
बारबार रण कर वह हषत हाे रहा है। अत: इसका रण करते रहना
चाहये। उन हर के प काे याद करके भी वह बारबार हषत हाेता है। अत:
बारबार वप का रण करते रहना चाहये, यान करते रहना चाहये।
जहाँ याेगे र ीकृण हैं अाैर जहाँ महाा अजुन हैं, वहीं ी है। वजय-
वभूित अाैर वनीित भी वहीं है। सृ क नीितयाँ अाज हैं ताे कल बदलें गी।
व ताे एकमा परमाा है। उसमें वेश दलानेवाल नीित वनीित भी वहीं
है। यद ीकृण अाैर अजुन काे ापरकालन य-वशेष मान लया जाय
तब ताे अाज न अजुन है अाैर न ीकृण। अापकाे न वजय मलनी चाहये
अाैर न वभूित। तब ताे गीता अापके लये यथ है। ले कन नहीं, ीकृण एक
याेगी थे। अनुराग से पूरत दयवाला महाा ही अजुन है। ये सदैव रहते हैं
अाैर रहेंगे। ीकृण ने अपना परचय देते ए कहा क– मैं ँ ताे अय,
ले कन जस भाव काे ा ँ, वह ई र सबके दय-देश में िनवास करता है।
वह सदैव है अाैर रहेगा। सबकाे उसक शरण जाना है। शरण जानेवाला ही
महाा है, अनुरागी है अाैर अनुराग ही अजुन है। इसके लये कसी
थत महापुष क शरण जाना िनतात अावयक है; ाेंक वही इसके
ेरक हैं।
इस अयाय में संयास का वप प कया गया क सवव का यास
ही संयास है। केवल बाना धारण कर ले ना संयास नहीं है; बक इसके
साथ एकात का सेवन करते ए िनयत कम में अपनी श समझकर अथवा
समपण के साथ सतत य अपरहाय है। ाि के साथ सपूण कमाे का
याग ही संयास है, जाे माे का पयाय है। यही संयास क पराकाा है।
अत:–
।। हर: ॐ तसत् ।।
उपशम
ाय: टकाअाें में लाेग नयी बात खाेजते हैं; कत वतत: सय ताे सय
है। वह न नया हाेता है अाैर न पुराना पड़ता है। नयी बातें ताे अखबाराें में
छपती रहती हैं, जाे मरती-उभरती घटनाएँ हैं। सय अपरवतनशील है ताे काेई
दूसरा कहे भी ा यद कहता है ताे उसने पाया नहीं। येक महापुष यद
चलकर उस लय तक पँच गया ताे एक ही बात कहेगा। वह समाज के बीच
दरार नहीं डाल सकता। यद डालता है ताे स है उसने पाया नहीं। ीकृण
भी उसी सय काे कहते हैं जाे पूव मनीषयाें ने देखा था, पाया था अाैर
भवय में हाेनेवाले महापुष भी यद पाते हैं ताे यही कहेंगे।
इस िनयत कम, याथ कम अथवा तदथ कम के अितर गीता में अय
काेई कम नहीं है। इसी पर ीकृण ने थान-थान पर बल दया। अयाय छ:
में इसी काे उहाेंने ‘कायम् कम’ कहा। अयाय साेलह में बताया क काम,
ाेध अाैर लाेभ के याग देने पर ही वह कम अार हाेता है, जाे परमेय
काे दलानेवाला है। सांसारक कमाे में जाे जतना यत है, उसके पास काम,
ाेध अाैर लाेभ उतने ही अधक सजे-सजाये दखते हैं, समृ पाये जाते हैं।
इसी िनयत कम काे उहाेंने शा-वधानाे कम क संा द। गीता अपने में
पूण तथा थम शा है। सहवें अाैर अठारहवें अयाय में भी शावध से
िनधारत कम, िनयत कम, क य कम अाैर पुय कम से इं गत करके उहाेंने
बारबार ढ़ाया क िनयत कम ही परमकयाणकार है।
वण– उस कम काे ही चार वणाे में बाँटा गया। चतन में लगते ताे सभी
हैं; कत काेई ास- ास क गित राेकने में सम हाेगा, ताे काेई अार
में दाे घटे चतन में बैठकर दस मनट भी अपने प में नहीं पाता। एेसी
थितवाला अप साधक शू ेणी का है। वह अपनी वाभावक मता के
अनुसार परचया से ही कम अार करे । मश: वैय, िय अाैर व ेणी
क मता उसके वभाव में ढलती जायेगी। वह उ त हाेता जायेगा। कत
वह ा ण ेणी दाेषयु है; ाेंक अभी वह अलग है। में वेश पा
जाने पर वह ा ण भी नहीं रह जाता। वण का अथ है अाकृित। यह शरर
अापक अाकृित नहीं है। अापक अाकृित वैसी है, जैसी अापक वृ है।
ीकृण कहते हैं– अजुन पुष ामय है, इसलये कहीं-न-कहीं उसक
ा अवय हाेगी। जैसी ावाला वह पुष है, वयं भी वही है। जैसी वृ ,
वैसा पुष। वण कम क मता का अातरक मापदड है; कत लाेगाें ने
िनयत कम काे छाेड़कर बाहर समाज में ज के अाधार पर जाितयाें काे वण
मानकर उनक जीवका िनत कर द, जाे एक सामाजक यवथा मा थी।
वे कम के यथाथ प काे ताेड़ते-मराेड़ते हैं, जससे उनक खाेखल सामाजक
मयादा अाैर जीवका काे ठे स न लगे। कालातर में वण का िनधारण केवल
ज से हाेने लगा। एेसा कुछ नहीं है। ीकृण ने कहा, चार वणाे क सृ
मैंने क। ा भारत से बाहर सृ नहीं है अय ताे इन जाितयाें का
अतव ही नहीं है। भारत में इनके अतगत लाखाें जाितयाँ अाैर उप-जाितयाँ
हैं। ीकृण ने ा मनुयाें काे बाँटा नहीं, ‘गुणकम वभागश:’– गुण के
अाधार पर कम बाँटे गये। ‘कमाण वभािन’– कम बाँटा गया। कम समझ
में अा गया ताे वण समझ में अा जायेगा अाैर वण समझ में अा गया ताे
वणसंकर का यथाथ प अाप समझ लें गे।
ानयाेग तथा कमयाेग– कम एक ही है– िनयत कम, अाराधना; कत उसे
करने के काेण दाे हैं। अपनी श काे समझकर, हािन-लाभ का िनणय
ले कर इस कम काे करना ‘ानयाेग’ है। इस माग का साधक जानता है क
‘‘अाज मेर यह थित है, अागे इस भूमका में परणत हाे जाऊँगा। फर
अपने वप काे ा कँगा।’’ इस भावना काे ले कर कम में वृ हाेता है।
अपनी थित का ान रखकर चलता है, इसलये ानमागी कहा जाता है।
समपण के साथ उसी कम में वृ हाेना, हािन-लाभ का िनणय इ पर
फंे ककर चलना िनकाम कमयाेग, भमाग है। दाेनाें के ेरक स
ु हैं। एक
ही महापुष से शा ले कर एक वावलबी हाेकर उस कम में वृ हाेता है
अाैर दूसरा उनसे शा ले कर, उहीं पर िनभर हाेकर वृ हाेता है। बस
अतर इतना ही है। इसीलये याेगे र ीकृण ने कहा– अजुन सांय ारा
जाे परम सय मलता है, वही परम सय िनकाम कमयाेग ारा भी मलता
है। जाे दाेनाें काे एक देखता है वही यथाथ देखता है। दाेनाें क या
बतानेवाला त वदशी एक है, या भी एक ही है– अाराधना। कामनाअाें का
याग दाेनाें करते हैं अाैर परणाम भी एक ही है। केवल कम का काेण दाे
है।
ाय: जाे जसका अादश हाेता है, उसक मूित, च, खड़ाऊँ, उसका
थान अथवा उससे सदभत कुछ भी देखने-सनने पर मन में ा उमड़
अाती है। यह उचत ही है। हम भी अपने गुदेव भगवान के च काे कूड़े में
नहीं फंे क सकते; ाेंक वह हमारे अादश हैं। उहीं क ेरणा तथा
कथनानुसार हमें चलना है। जाे वप उनका है मश: चलकर उसक ाि
हमारा भी अभी है अाैर यही उनक यथाथ पूजा है। यहाँ तक ताे ठक है क
जाे वतत: अादश हैं, उनका िनरादर न करें ; कत उन पर प-पुप चढ़ाने
काे ही भ मान बैठने से, उतने काे ही कयाण-साधन मान ले ने से हम
लय से बत दूर भटक जायेंगे।
गीता (अयाय २/४०) में है क– अजुन इस कमयाेग में अार का नाश
नहीं है। इस कमपी धम का कंचा साधन ज-मृयु के महान् भय से
उ ार करनेवाला हाेता है अथात् इस कम काे कायप देना ही धम है।
धम में वेश कसकाे है इसे करने का अधकार कसे है इसे प
करते ए याेगे र ने बताया क– ‘‘अजुन अयत दुराचार भी यद अनय
भाव से मुझे भजता है (अनय अथात् अय न), मुझे छाेड़कर अय कसी काे
भी न भजकर केवल मुझे भजता है ताे ‘ं भवित धमाा’– वह शी ही
धमाा हाे जाता है, उसक अाा धम से संयु हाे जाती है।’’ अत:
ीकृण के अनुसार धमाा वह है, जाे एक परमाा में अनय िना से लग
गया है। धमाा वह है, जाे एक परमाा क ाि के लये िनयत कम का
अाचरण करता है। धमाा वह है, जाे वभाव से िनयत मता के अनुसार
परमाा क शाेध में संल है।
अत में कहते हैं क ‘सवधमापरयय मामेकं शरणं ज।’– अजुन सारे
धमाे क चता छाेड़कर एक मेर शरण में हाे जा। अत: एक परमाा के ित
समपत य ही धामक है। एक परमाा में ा थर करना ही धम है।
उस एक परमाा क ाि क िनत या काे करना धम है। इस थित
काे ा महापुष, अातृ महापुषाें का स ात ही सृ में एकमा धम
है। उनक शरण में जाना चाहये क उन महापुषाें ने कैसे उस परमाा काे
पाया कस माग से चले वह माग सदा एक ही है, उस माग से चलना धम
है।
संसार में पुष दाे कार का है– र अाैर अर। समत ाणयाें का
शरर र पुष अथवा परवतनशील पुष है। मनसहत इयाँ जब कूटथ
हाे जाती हैं, तब वही अर पुष है। उसका कभी वनाश नहीं हाेता। यह
भजन क अवथा है।
याें के ित कभी सान, ताे कभी अपमान क भावना समाज में बनी
ही रहती है; कत गीता क अपाैषेय वाणी में यह है क शू (अप),
वैय (वधा ), ी-पुष काेई ाें न हाे, मेर शरण अाकर परमगित काे
ा हाेता है। अत: इस कयाण-पथ में याें का वही थान है, जाे एक
पुष का है।
भाैितक समृ – गीता परमकयाण ताे देती है, साथ ही मनुयाें के लये
अावयक भाैितक वतअाें का भी वधान करती है। अयाय ९/२०-२२ में
याेगे र ीकृण कहते हैं क बत से लाेग िनधारत वध से मुझे पूजकर
बदले में वग क कामना करते हैं। उहें वशाल वगलाेक मलता है, मैं देता
ँ। जाे माँगाेगे, वह मुझसे मले गा; कत उपभाेग के पात् समा हाे
जायेगा, ाेंक वग के भाेग भी न र हैं। उहें पुन: ज ले ना पड़ेगा। हाँ,
मुझसे सबधत हाेने के कारण वे न नहीं हाेते; ाेंक मैं कयाणवप ँ।
मैं उहें भाेग देता ँ अाैर शनै:-शनै: िनवृ कराकर पुन: उहें कयाण में लगा
देता ँ।
इधर एक शरर काे छाेड़ा, उधर दूसरे शरर काे धारण कया। वह सीधा
उस शरर में जाता है। बीच में काेई वराम नहीं, काेई थान नहीं ताे हजाराें
पीढ़याें के पतराें का अनादकाल से पड़े रहना अाैर उनक जीवका वंश-
परपरा के हाथ िनधारत करना तथा पंजड़े के पी क तरह उनका दन,
पतन एक अान मा है। इसीलये ीकृण ने इसे अान कहा।
पाप अाैर पुय– इस पर समाज में अनेक ातयाँ हैं; कत याेगे र
ीकृण के अनुसार रजाेगुण से उप यह काम अाैर ाेध भाेगाें से कभी तृ
न हाेनेवाले महान् पापी हैं। अथात् काम ही एकमा पापी है। पाप का उ म
काम है, कामनाएँ हैं। ये कामनाएँ रहती कहाँ हैं ीकृण ने बताया क
इयाँ, मन अाैर बु इसके वासथान कहे जाते हैं। जब वकार तन में
नहीं, मन में ही हाेते हैं ताे शरर धाेने से ा हाेगा
ीकृण के अनुसार इस मन क श हाेती है नाम-जप से, यान से,
समकालन कसी त वदशी महापुष क सेवा से, उनके ित समपण से,
जसके लये वे ४/३४ में ाेसाहत करते हैं क ‘त णपातेन’–सेवा
अाैर करके उस ान काे ा कराे, जससे सभी पाप न हाे जाते हैं।
अयाय ७/२९ में वे कहते हैं– मेर शरण हाेकर जरा-मरण अाैर दाेषाें से
टने के लये य करनेवाले पुयकमी जन पुषाें का पाप न हाे गया है,
वे सपूण काे, सपूण कम काे, सपूण अया काे तथा भल कार
मुझे जानते हैं अाैर मुझे जानकर मुझमें ही थत रहते हैं। अत: पुयकम वह
है जाे जरा, मरण अाैर दाेषाें से ऊपर उठाकर शा त क जानकार अाैर उसी
में सदा के लये थित दलाता है। अाैर जाे ज-मृयु, जरा-मरण, दु:ख-दाेषाें
क परध में घुमाकर रखता है, वही पापकम है।
अयाय १०/३ में कहते हैं– जाे मुझ ज-मृयु से रहत, अाद-अत से
रहत सब लाेकाें के महान् ई र काे सााकारसहत वदत कर ले ता है, वह
पुष मरणधमा मनुयाें में ानवान् है अाैर एेसा जाननेवाला सपूण पापाें से
मु हाे जाता है। अत: सााकार के साथ ही सपूण पापाें से िनवृ मलती
है।
अत: संसार भर के सताें क, चाहे कसी कबीले में उनका ज अा है,
चाहे कसी म़जहब सदाय वाले उनका पूजन अधक करते हाें, कसी
सादायक भाव में अाकर एेसे सताें क अालाेचना नहीं करनी चाहये;
ाेंक वे िनरपे हैं। संसार के कसी भी थान में उप सत िनदा के
याेय नहीं हाेता। यद काेई एेसा करता है ताे वह अपने अदर थत
अतयामी परमाा काे दुबल करता है, अपने परमाा से दूर पैदा कर ले ता
है, वयं अपनी ित करता है। संसार में ज ले नेवालाें में यद अापका काेई
स ा हतैषी है ताे सत ही। अत: उनके ित सदय रहना संसार भर के
लाेगाें का मूल क य है। इससे वंचत हाेना अपने काे धाेखा देना है।
वेद– गीता में वेद का वणन बत अाया है; कत कुल मलाकर वेद माग-
िनदेशक (Mile Stone) च मा हैं। मंजल तक पँच जाने पर उस य के
लये उनका उपयाेग समा हाे जाता है। अयाय २/४५ में ीकृण ने कहा–
अजुन वेद तीनाें गुणाें तक ही काश कर पाते हैं, तू वेदाें के काये से
ऊपर उठ। अयाय २/४६ में कहा– सब अाेर से परपूण वछ जलाशय ा
हाेने पर छाेटे जलाशय से मनुय का जतना याेजन रह जाता है, अछ
कार के ाता महापुष अथात् ा ण का वेदाें से उतना ही याेजन रह
जाता है; कत दूसराें के लये ताे उनका उपयाेग है ही। अयाय ८/२८ में
कहा– अजुन मुझे त व से भलभाँित जान ले ने पर याेगी वेद, य, तप, दान
इयाद के पुयफलाें काे पार कर सनातन पद काे ा हाे जाता है। अथात्
जब तक वेद जीवत हैं, य करना शेष है, तब तक सनातन पद क ाि
नहीं है। अयाय १५/१ में बताया– ऊपर परमाा ही जसका मूल है, नीचे
कट-पतंगपयत कृित जसक शाखा-शाखा है, संसार एेसा पीपल का एक
अवनाशी वृ है। जाे इसे मूलसहत जानता है, वह वेद का ाता है। इस
जानकार का ाेत महापुष हैं, उनके ारा िनद भजन है। पुतक या
पाठशाला भी उहीं क अाेर ेरत करते हैं।
भगवान ने यह ान मनु से भी पूव सूय से कहा ताे इसे ‘सूयृित’ ाें
नहीं कहते वतत: सूय याेितमय परमाा का वह अंश है जससे इस
मानव सृ का सृजन अा। भगवान ीकृण कहते हैं, ‘‘मैं ही परम चेतन
बीजप से पता ँ, कृित गभ धारण करनेवाल माँ है।’’ वह बीजप पता
सूय है। सूय परमाा क वह श है जसने मानव क संरचना क। वह
काेई य नहीं अाैर जहाँ परमाा के उस याेितमय तेज से मानव क
उप ई, उस तेज में वह गीताे ान भी सारत कया अथात् सूय से
कहा। सूय ने अाद मनु से कहा इसलये यह अवनाशी याेग ही ‘मनुृित’
है। सूय काेई य नहीं, बीज है।
भगवान ीकृण कहते हैं– अजुन वही पुरातन याेग मैं तेरे लये कहने जा
रहा ँ। तू य भ है, अनय सखा है। अजुन मेधावी थे, स े अधकार थे।
उहाेंने -पराें क ंखला खड़ कर द क– अापका ज ताे अब अा
है अाैर सूय का ज बत पहले अा है। इसे अापने ही सूय से कहा, यह
मैं कैसे मान लूँ इस कार बीस-प ीस उहाेंने कये। गीता के समापन
तक उनके सपूण समा हाे गये, तब भगवान ने, जाे अजुन नहीं
कर सकते थे, जाे उनके हत में थे, उहें वयं उठाया अाैर समाधान दया।
अतत: भगवान ने कहा– अजुन ा तमने मेरे उपदेश काे एकाच हाे
वण कया ा माेह से उप तहारा अान न अा अजुन ने कहा–
भगवन् मेरा माेह न अा। मैं ृित काे ा अा ँ। केवल सना भर
नहीं अपत ृित में धारण कर लया है। मैं अापके अादेश का पालन कँगा,
यु कँगा। उहाेंने धनुष उठा लया, यु अा, वजय ा क, एक वश
धम-सााय क थापना ई अाैर एक धमशा के प में वही अाद
धमशा गीता पुन: सारण में अा गयी।
गीता अापका अाद धमशा है। यही मनुृित है, जसे अजुन ने अपनी
ृित में धारण कया था। मनु के सम दाे कृितयाें का उ े ख है– एक ताे
सूय से उपलध गीता, दूसरे वेद मनु के सम उतरे । तीसर काेई कृित मनु
के समय में कट नहीं ई थी। उस समय लखने-लखाने का चलन नहीं
था, कागज-कलम का चलन नहीं था इसलये ान काे ुत अथात् सनने
अाैर ृित-पटल पर धारण करने क परपरा थी। जनसे मानवाें का ादुभाव
अा, सृ के थम मानव उन मनु महाराज ने वेद काे ुित तथा गीता काे
ृित का सान दया।
वेद मनु के सम उतरे थे, इहें सनें, यह सनने याेय हैं; कत गीता
ृित है, सदा रण रखें। यह हर मानव काे सदा रहनेवाला जीवन, सदा
रहनेवाल शात अाैर सदा रहनेवाल समृ , एे यसप जीवन ा
करानेवाला ई रय गायन है।
भगवान ने कहा– अजुन यद तू अहंकारवश मेरे उपदेश काे नहीं सनेगा
ताे वन हाे जायेगा अथात् गीता के उपदेशाें क अवहेलना करनेवाला न हाे
जाता है। अयाय पह के अतम ाेक (१५/२०) में भगवान ने कहा, ‘इित
गु तमं शामदमुं मयानघ।’- यह गाेपनीय से भी अित गाेपनीय शा मेरे
ारा कहा गया। इसे त व से जानकर तू समत ान अाैर परमेय क ाि
कर ले गा। अयाय साेलह के अतम दाे ाेकाें में कहा– ‘य:
शावधमुसृय वतते कामकारत:।’ इस शावध काे यागकर, कामनाअाें
से ेरत हाेकर अय वधयाें से जाे भजते हैं उनके जीवन में न सख है, न
समृ है अाैर न परमगित ही है।
— वामी अड़गड़ानद
कैसेट सारण में अयायाें के पूव क भूमका
१. केवल एक परमाा में ा अाैर समपण का सदेश देनेवाल गीता सबकाे
पव करने का खला अाम ण देती है। सृ में कहीं भी रहनेवाले अमीर
अथवा गरब, कुलन तथा अादवासी, पुयाा अाैर पापी, ी अाैर
पुष, सदाचार एवं अयत दुराचार– सबका उसमें वेश है। वशेषकर
गीता पापयाें के ही उ ार का सगम पथ बताती है, पुयाा ताे भजते ही
हैं। तत है उसी गीता क अतीय याया ‘यथाथ गीता’ का कैसेट
सारण।
३. गीता कसी वशेष य, कसी जाित, वग, पथ, देश-काल या कसी
ढ़त सदाय का थ नहीं है, बक यह सावलाैकक तथा
सावकालक धमशा है। यह येक देश, येक जाित, येक अायु के
येक ी-पुष के लये, सबके लये है। सचमुच गीता सपूण मानव
जाित का धमशा है। अाैर कतने गाैरव क बात है क गीता अापका
धमशा है।
६. संसार में चलत सभी धम गीता क दूरथ ितविन मा हैं। वामी ी
अड़गड़ानद जी महाराज ारा इसक याया ‘यथाथ गीता’ काे सनकर
भाें ने त ही ले लया क कैसेटाें के मायम से इसका सारण करें गे;
ाेंक भगवान महावीर, भगवान गाैतम बु , गु नानक, कबीर इयाद
के ापूरत तप-स ाताें क उ तम अभय गीता है। गीता के वे ही
कैसेट समन अाप सबके सम अा-दशनाथ तत हैं।
७. गीता के दाे हजार वष बाद तक धम के नाम पर सदाय नहीं बने थे,
इसीलये गीता म़जहबमु है। उस समय व -मनीषा में एक ही शा
गूँज रहा था– उपिनषद्-सार गीता माे अाैर समृ क ाेत गीता
शा पढ़ने क अपेा उसका वण अधक लाभदायक है; ाेंक उ ारण
क श ता इयाद में एकाता बँट जाती है। इसीलये सरल भाषा में
पातरत यथाथ गीता के ये कैसेट अापक सेवा में तत हैं। इनके
वण से ब े-ब े में, पास-पड़ाेस में परमाा के शभ संकाराें का संचार
हाेगा, अापके घर-अाँगन का वायुमडल भी तपाेभूम-सा सरभत हाे
उठे गा।