You are on page 1of 17

सङ्कीर्तन-प्रवर्तक श्री-

कृष्ण-चैर्न्य ।
सङ्कीर्तन-यज्ञे र्ारे भजे,
सेइ धन्य ॥७७॥
सङ्कीर्तन-प्रवर्तक-संकीर्तन
के प्रवर्तक; श्री-कृष्ण-
चैर्न्य-भगवान् चैर्न्य
महाप्रभु; सङ्कीर्तन-
संकीर्तन; नशे-यज्ञ से;
र्ारे -उनकी; भजे-पूजा
करर्े हैं ; सेइ-वे; धन्य-
भाग्यशाली।
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण चैर्न्य
संकीर्तन (भगवन्नाम के
सामूहहक कीर्तन) के प्रवर्तक
हैं । जो संकीर्तन के माध्यम
से उनकी पूजा करर्ा है , वह
ननस्सन्देह भाग्यवान है ।

सेइ र्' सुमेधा, आर


कुबुद्धि संसार ।
सवत-ग्रज्ञ है र्े कृष्ण-नाम-
यज्ञ सार ॥७८॥
सेइ-वे; र्'-ननश्चय ही; सु-
मेधा-बुद्धिमान; आर-अन्य;
कु-बुद्धि-दुबुतद्धि; संसार-
भौनर्क जगर्् में; सवत-यज्ञ
है र्े–अन्य सभी यज्ञों की
अपेक्षा; कृष्ण-नाम-
भगवान् कृष्ण के नाम जप
का; यज्ञ-यज्ञ; सार-
सवोत्तम।
अनुवाद
ऐसा व्यनि सचमुच
बुद्धिमान है , जबकक अन्य
अल्पज्ञानी व्यनियों को
जन्म-मृत्यु के चक्र को
भोगना पड़र्ा है। समस्त
यज्ञों में भगवान् के पनव
नाम का कीर्तन सवतश्रेष्ठ यज्ञ
है ।
र्ात्पयत
श्री चैर्न्य महाप्रभु संकीर्तन
आन्दोलन के जनक एवं
प्रवर्तक हैं । जो व्यनि
संकीर्तन आन्दोलन के
ननममत्त अपना जीवन, धन,
बुद्धि र्था वाणी समनपिर्
करके उनकी पूजा करर्ा है ,
उसे भगवान् मान्यर्ा देर्े हैं
और आशीवातद प्रदान करर्े
हैं । अन्य सारे लोग मूर्त कहे
जा सकर्े हैं , क्योंकक जजन
सारे यज्ञों में मनुष्य अपनी
शनि लगार्ा है , उनमें से
संकीर्तन आन्दोलन के जलए
ककया गया यज्ञ सवातमधक
यशस्वी है ।
कोटि अश्वमेध एक कृष्ण
नाम सम ।
ग्रेड कहे , से पाषण्डी, दण्डे
र्ारे ग्रम ॥७९॥
कोटि-करोड़; अश्वमेध-
अश्वमेध यज्ञ; एक-एक;
कृष्ण-भगवान् कृष्ण का;
नाम-नाम; सम-बराबर,
समान; ग्रेइ-जो; कहे -कहर्ा
है ; से-वह; पाषण्डी-
नास्तस्तक; दण्डे-दण्ड (सजा)
देर्े हैं ; र्ारे -उसको; ग्रम-
यमराज।
अनुवाद
जो व्यनि यह कहर्ा है कक
एक करोड़ अश्वमेध यज्ञ
भगवान् कृष्ण के पनव नाम
के कीर्तन के र्ुल्य है , वह
ननजश्चर् रूप से नास्तस्तक है ।
उसे यमराज अवश्य दण्डण्डर्
करर्े हैं ।
र्ात्पयत
भगवान् के पनव नाम, हरे
कृष्ण के कीर्तन में जजन दस
अपराधों की सूची बर्ाई गई
है , उसमें आठवााँ अपराध
धमतव्रर्त्यागहुर्ाहदसवतशुभकक्र
यासाम्यमनप प्रमादः है । ईश्वर
के पनव नाम कीर्तन की
र्ुलना ब्राह्मणों या सन्तों को
दान देन,े परोपकारी शैक्षक्षक
संस्थान र्ोलने, मुफ्त
भोजन बााँिने जैसे पुण्यकायों
से नहीं करनी चाहहए।
पुण्यकायों का फल कभी भी
कृष्ण के पनव नाम के
कीर्तन की र्ुलना नहीं कर
सकर्ा।
वैहदक शास्त्रों का कथन है :
गोकोटिदानं ग्रहे र्गस्य
प्रयागगङ्गोदककल्पवासः।
यज्ञायुर्ं मेरुसुवणतदानं
गोनवन्दकीर्ेर न समं
शर्ांशैः॥
"यहद कोई सूयतग्रहण के
समय एक करोड़ गायें भी
दान में दे, यहद वह
गंगायमुना के संगम में करोड़
वषत र्क ननवास करे , या यज्ञ
में ब्राह्मणों को स्वणत का
पवतर् दान दे दे, र्ो भी वह
हरे -कृष्ण के कीर्तन से प्राप्त
होने वाले लाभ का शर्ांश
भी अजजिर् नहीं कर
सकर्ा।" दूसरे शब्दों में, जो
व्यनि हरे कृष्ण कीर्तन को
एक पुण्यकमत मानर्ा है , वह
पूणतर्या हदग्भ्रममर् है ।
ननस्सन्देह, यह पुण्य है ,
ककन्तु वास्तनवकर्ा र्ो यह है
कक कृष्ण र्था उनका नाम
हदव्य होने के कारण समस्त
संसारी पुण्यकायों से सवतथा
परे हैं । पुण्यकमत भौनर्क
स्तर पर होर्ा है , ककन्तु
कृष्ण-नाम का कीर्तन
ननर्ान्त आध्याण्डिक स्तर
पर होर्ा है । अर्एव, भले ही
पाषण्डी इसे न समझें, ककन्तु
पुण्यकमत कभी भी
नामकीर्तन की समर्ा नहीं
कर सकर्ा।

You might also like