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प्रश्न- पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता का क्या तात्पर्य है ?

यह किन कारकों पर निर्भर


करती है ? (10)

उत्तर की रूपरे खा-

1. पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता का अर्थ बताइए ।


2. पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारकों की संक्षिप्त विवेचना
कीजिए।
3. उचित निष्कर्ष लिखिए।

उत्तर-

पारिस्थितिकी तंत्र की ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य होता है जहाँ से ऊर्जा उत्पादकों से होती हुई
पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न उपभोक्ता स्तरों तक प्रवाहित होती है । सामान्यतः
पारिस्थितिकी तंत्र के एक स्तर से दस
ू रे स्तर तक प्रवाहित होने वाले ऊर्जा प्रतिशत को ही
उत्पादकता की संज्ञा दी जाती है किन्तु इसके अनेक प्रकारों के कारण उत्पादकता की
परिभाषा में थोड़ा बहुत अंतर दिखाई दे ता है । । पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता के
निम्नलिखित प्रकार हैं-

 सकल प्राथमिक उत्पादकता(Gross Primary Productivity)- किसी भी


पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक स्तर पर हरे पौधे सुर ऊर्जा के जिस अनुपात को जैव-
रासायनिक ऊर्जा में बदलते हैं उसे सकल प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं।
 शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता(Net Primary Productivity)- पौधों की अपनी उपपचाई
जरूरतों के पूरा होने के पश्चात सकल प्राथमिक उत्पादकता का वह अनुपात जो
प्राथमिक उपभोक्ताओं को प्राप्त होता है उसे शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं।
सामान्यतः यह लगभग 10 प्रतिशत होती है ।
 द्वितीय उत्पादकता(Secondary Productivity)- प्राथमिक उपभोक्ताओं/शकहरियों
अथवा अपघटकों द्वारा जिस दर से ऊर्जा का संचयन होता है और जैव-भार का
निर्माण होता है उसे द्वितीयक उत्पादकता कहा जाता है ।

पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता मुख्यतः निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है -

 पारिस्थितिकी तंत्र की अवस्थिति- विषुवतीय रे खा के पास स्थित पारिस्थितिकी


तंत्र में उत्पादकता सर्वाधिक पाई जाती है तथा ध्रुवों की ओर जाने पर यह
घटती जाती है ।
 पौधों की उपापचयी आवश्यकता- जो पौधे अपनी उपापचयी आवश्यकताओं के
लिए ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करते हैं इनके पारिस्थितिकी तंत्र की शुद्ध
उत्पादकता कम पाई जाती है ।
 आर्द्रता- जिन क्षेत्रों में आर्द्रता ज्यादा होती है वहाँ उत्पादकता ज्यादा होती है ।
 जलभराव और दलदली क्षेत्र- इनकी उत्पादकता बहुत उच्च होती है ।
 जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में शैवाल क्षेत्र, प्रवाल भित्तियों के क्षेत्रों और
एश्चयूरी क्षेत्रों में उत्पादकता बहुत उच्च पाई जाती है ।

सामान्यतः पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता को उसकी समद्धि


ृ और स्थायित्व से जोड़कर
दे खा जाता है । जिन पारिस्थितिकी तंत्रों में उत्पादकता ज्यादा पाई जाती है वो जैव -विविधता
की दृष्टि से अधिक समद्ध
ृ और स्थायी होते है ।
प्रश्न- भूगोल की मात्रात्मक क्रांति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (10)

उत्तर की रूपरे खा-

1. मात्रात्मक क्रांति का परिचय दीजिए।


2. मात्रात्मक क्रांति के विभिन्न पक्षों की विस्तार से विवेचना कीजिए।
3. इसकी कमियों और इसके भूगोल के विकास में योगदान को बताते हुए उचित निष्कर्ष
लिखिए।

उत्तर-

भग
ू ोल में भौगोलिक तंत्रों को समझने में सांख्यिकीय सिद्धांतों, गणितीय तकनीकों, प्रमेय और
परिमाणों का प्रयोग मात्रात्मक क्रांति कहलाता है । सर्वप्रथम प्रसिद्ध भग
ू ोलवेता आई. बर्टन ने
‘कैनेडियन ज्योग्राफर 7’ में अपने शोधपत्र ‘मात्रात्मक क्रांति और सैद्धांतिक भूगोल’ के माध्यम
से इस क्रांति का सत्र
ू पात किया।

दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले भग


ू ोल में अनुमानाश्रित विधियों और साहित्यिक भाषा
का ज्यादा प्रयोग किया जाता था जिसकी वजह से सटीक परिणामों के अभाव में भग
ू ोल
विषय लोगों के बीच अरुचिकर और अप्रासंगिक प्रतीत होने लगा था। इसी क्रम में सन ् 1948
ई. में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के कुलपति जेम्स कोनान्ट ने तो अपने यहाँ भग
ू ोल विभाग को
ही बंद करवा दिया और कहा कि भूगोल विश्वविद्यालयी स्तर का विषय नहीं रहा।

इन्हीं सभी के परिणामस्वरूप भूगोलवेत्ताओं ने भग


ू ोल विषय को पुनर्जीवित करने और इसको
प्रासंगिक बनाने के लिए भग
ू ोल में गणितीय सत्र
ू ों, मॉडल्स, मात्रात्मक विधियों जैसे माध्य,
विचलन, मध्यिका इत्यादि का प्रयोग किया गया और सटीक परिणामों की प्राप्ति के कारण
मात्रात्मक क्रांति ने शीघ्र ही भूगोल के सभी क्षेत्रों में लोकप्रियता हासिल कर ली। भग
ू ोल के
बड़े-बड़े विद्वानों ने अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए इस क्रांति का सहारा लिया । जैसे
वान थ्यन
ू ेन का ‘कृषि अवस्थिति सिद्धांत’ , वीवर द्वारा अपने ‘शस्य संयोजन’ में ‘मानक
विचलन’ का प्रयोग इत्यादि । अब भूगोल पूरी तरह एक विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक विषय
बन चक
ु ा था।

मात्रात्मक क्रांति का भूगोल विषय के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है जिसे निम्नलिखित
बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है -

 इसने भग
ू ोल को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पुनः एक शोध विषय के रूप में स्थापित
किया।
 भग
ू ोल में वैज्ञानिकता का समावेशन किया।
 अवस्थिति सिद्धांतों के कारण संसाधनों की खोज और उद्योगों की स्थापना
आर्थिक रूप से लाभकारी हुई।
 भौगोलिक अनुमानों की सटीकता में वद्धि
ृ हुई।
 मानचित्रों की गुणवत्ता में वद्धि
ृ हुई।

लेकिन इस क्रांति ने भूगोल को एक गणितीय विषय बनाकर रख दिया और मानवीय व्यवहार


एवं नैतिक मल्
ू यों की उपेक्षा के कारण भग
ू ोल के मानवीय पक्ष का अध्ययन कठिन हो गया
क्योंकि मानव और उसके क्रियाकलापों को किसी मॉडल में समेट पाना असंभव है । इस क्रांति
ने संसाधनों के अतिदोहन को बढ़ावा दिया जिससे प्रकृति और पर्यावरण पर संकट मंडराने
लगा । पूंजीवाद के बढ़ने से अमीर-गरीब के बीच खाई में वद्धि
ृ हुई। मशीनीकरण के कारण
बेरोजगारी में वद्धि
ृ दे खने को मिली। इसी के साथ ये मॉडल कुछ मान्यताओं पर आधारित
होते थे , उन मान्यताओं के विफल होने पर ये मॉडल भी विफल हो जाते थे जो इनकी सबसे
बड़ी सीमा थी। इसी वजह से 1980 तक आते-आते मात्रात्मक क्रांति का भारी विरोध हुआ
और इसके स्थान पर व्यवहारवाद, मानववाद और कल्याणवाद जैसे दृष्टिकोणों ने भग
ू ोल में
अपना दबदबा स्थापित कर लिया। वर्तमान में भी भग
ू ोल में मात्रात्मक क्रांति के मॉडल और
सिद्धांतों का प्रयोग तो होता है किन्तु अब यह एक क्रांति न होकर भग
ू ोल का स्वाभाविक
भाग बन चुके हैं।
प्रश्न- भारत में वान थ्यूनेन मॉडल की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए । (10)

उत्तर की रूपरे खा-

1. वान थ्यूनेन मॉडल का परिचय दीजिए।


2. वान थ्यूनेन मॉडल की भारत के संदर्भ में प्रासंगिकता का विवेचन कीजिए।
3. उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

वान थ्यन
ू ेन मॉडल का प्रतिपादन प्रसिद्ध जर्मन समाजशास्त्री जॉन हे नरिक वान थ्यन
ू ेन ने
1826 ई. में अपनी पुस्तक ‘द आइसोलेटेड स्टे ट’ में किया था । इन्होंने पूर्वी जर्मनी के
मेकलेनबर्ग में गहन अध्ययन के पश्चात अपने सिद्धांत में कुछ मान्यताओं(Assumptions)
का सहारा लेते हुए यह बताया कि किसी विलग (Isolated) प्रदे श में केन्द्रीय नगर के चारों
ओर 6 संकेंद्रीय(Concentric) पेटियों में नगर से बढ़ती दरू ी के अनुसार विभिन्न फसलों का
उत्पादन होता है ।

इनके अनुसार प्रथम पेटी में शाक-सब्जी की खेती और दग्ु ध उत्पादन होता है । द्वितीय पेटी
में ईंधन के लिए लकड़ी का उत्पादन , तीसरी पेटी में जमीन को बिना परती रखे गहन
कृषि,चतुर्थ पेटी में कुछ भूमि को परती रखते हुए अनाज की खेती, पंचम पेटी में तीन खेत
प्रणाली (three field system) के तहत अनाज उत्पादन और अंतिम एवं छठी पेटी में माँस
के लिए पशुपालन होता है ।

चँ ूकि यह सिद्धांत पूर्वी जर्मनी के शहर की दशाओं और मान्यताओं के आधार पर प्रतिपादित


किया गया था अतः इसे भारत दे श की कृषि व्यवस्था पर सीधा लागू करना समीचीन नहीं
होगा। इसी कारण अनेक भूगोलवेत्ताओं ने इस मॉडल की भारत के संदर्भ में प्रासंगिकता
जाँचने की कोशिश की तो पाया कि भारत में इस मॉडल का आंशिक महत्त्व ही है जिसके दो
मुख्य कारण हैं-

1. जनसंख्या के भारी दबाव के कारण यहाँ खाद्यान्न फसलों को प्राथमिकता दी जाती


है ।
2. भारत में भौगोलिक कारकों जैसे मद
ृ ा, मानसून, तापमान इत्यादि की भारी क्षेत्रीय
भिन्नता पाई जाती है जिसके कारण अलग-अलग क्षेत्रों में इन कृषि पेटियों का
स्वरूप बदल जाता है ।
प्रो. प्रोमिला कुमार ने भोपाल शहर के आसपास कृषि क्षेत्रों के अध्ययन के पश्चात पाया कि
वहाँ वान थ्यूनेन मॉडल की 6 पेटियों के बजाय केवल 4 संकेंद्रीय पेटियाँ ही पाई जाती हैं
और ईंधन उत्पादन वाली दस
ू री पेटी नहीं पाई जाती क्योंकि भोपाल एक शीत प्रदे श न होकर
उष्ण-कटिबंधीय प्रदे श में स्थित है । इसके अतिरिक्त प्रो.जसवीर सिंह, मो.शफ़ी इत्यादि द्वारा
उत्तर भारतीय मैदान के अध्ययन के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला गया कि यहाँ केवल 2 ही
संकेंद्रीय(Concentric) पेटियों का विकास हुआ है जिसमें पहली पेटी फल, सब्जी एवं दग्ु ध
उत्पादन की पेटी जबकि दस
ू री पेटी खाद्यान्न की पाई गई ।

दरअसल भग
ू ोल में सभी मॉडल्स की मख्
ु य विशेषता यह होती है कि वे कुछ मान्यताओं पर
आधारित होते हैं और उन मान्यताओं के बदलने से उस मॉडल के परिणाम भी बदल जाते हैं।
यहीं बात वहाँ वान थ्यूनेन मॉडल के साथ भी लागू होती है । जर्मनी और भारत की भौगोलिक
और सांस्कृतिक विशेषताओं में भिन्नताओं के कारण इस मॉडल के परिणाम भी भिन्न-भिन्न
होते हैं। अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारत के संदर्भ में वहाँ वान थ्यूनेन मॉडल
आंशिक रूप से ही लागू होता है ।
प्रश्न- हिन्द महासागर क्षेत्र के तापमान में हो रही तीव्र वद्धि
ृ का दक्षिण एशिया पर संभावित
प्रभाव की विवेचना कीजिए। (10)

उत्तर की रूपरे खा-

1. हिन्द महासागर क्षेत्र के तापमान में हो रही तीव्र वद्धि


ृ का परिचय दीजिए।
2. दक्षिण एशिया पर इसके संभावित प्रभाव बताइए।
3. इन प्रभावों के न्यन
ू ीकरण के उपायों को बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

वर्तमान में वैश्विक भत


ू ापन (Global warming ) मानव जाति के समक्ष सबसे विकराल
समस्या के तौर पर उभरा है जिसने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है ।
इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्द महासागर क्षेत्र के तापमान में भी तीव्र वद्धि
ृ दे खने को मिल रही है ।
भारत के पथ्
ृ वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ‘हिन्द महासागर क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन
मूल्यांकन रिपोर्ट’ के अनुसार 1951-2015 के बीच उष्ण-कटिबंधीय हिन्द महासागर के औसत
तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वद्धि
ृ दे खने को मिली है जो कि वैश्विक औसत वद्धि
ृ से
0.3 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है ।

इस तापमान वद्धि
ृ के दक्षिण एशिया पर संभावित प्रभावों को निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के
माध्यम से समझा जा सकता है -

 इसके कारण इस क्षेत्र में गंभीर (severe) चक्रवातों की आवति


ृ में वद्धि
ृ हुई है जिससे
तटीय क्षेत्रों में भारी मात्रा में नुकसान दे खने को मिलता है । हाल ही में आए ताऊते
और यास चक्रवात इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
 उत्तरी हिन्द महसागरीय क्षेत्र में 1993-2017 के बीच समुद्र जल-स्तर में प्रतिवर्ष
3.3 मि.मी. की वद्धि
ृ दे खने को मिली है जो कि 1874-2004 के बीच हुई वद्धि
ृ से
दग
ु न
ु ा है । हाल ही में मंब
ु ई के नगर निगम के महापौर ने अनम
ु ान व्यक्त किया कि
2050 यहाँ का अधिकांश तट डूब जाएगा।
 इसके कारण मानसन
ू के समय और तीव्रता में अनिश्चित परिवर्तन दे खने को मिलेंगे
जिससे सम्पूर्ण दक्षिण एशिया की कृषि और जनजीवन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था
प्रभावित होगी। कृषि उत्पादन के घटने से खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़
सकता है । इसके साथ ही मानसून की अनिश्चितता के कारण अनेक क्षेत्रों में
अत्यधिक बारिश दे खने को मिल सकती है जैसे बादल फटने की घटना जो बाढ़ आने
का बड़ा कारण बनकर तबाही मचा सकती है ।
 तापमान में वद्धि
ृ से हिमालयी क्षेत्र की बर्फ पिघल की दर अत्यधिक बढ़ जाएगी
जिससे भविष्य में इस क्षेत्र के लिए ताजा पानी का स्रोत समाप्त हो सकता है । साथ
ही ग्लैशियर फटने जैसी घटना ( हाल ही में फरवरी माह में उत्तराखंड के चमौली
क्षेत्र में हुई घटना) जान-माल को भारी नुकसान पहुंचा सकती है ।
 तापमान में वद्धि
ृ के कारण हिन्द महासागर क्षेत्र के कोरल रीफ़ पर भयंकर संकट
मंडरा रहा हैं क्योंकि वे ज्यादा तापमान को सहन नहीं कर पाते। इससे कोरल रीफ़
पर आश्रित जीवों की प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है साथ ही यहाँ से
होने वाले पर्यटन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है ।
 इसके कारण मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समाप्त हो सकती है जिससे मत्स्यपालन
पर आश्रित लोगों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और गरीबी बढ़ने की
भारी संभावना है ।

इन संभावित खतरों को दे खते हुए यह अति आवश्यक है कि इस तापमान वद्धि


ृ और उसके
प्रभावों को सीमित करने का प्रयास किया जाए। इसके लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती,
नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा दे ना, हिन्द महासागर के आस-पास के दे शों के बीच
समचि
ु त समन्वय और साझे प्रयास , पेरिस जलवायु समझौते का न्यायोचित अनप
ु ालन जैसे
कदम तुरंत उठाने की आवश्यकता है ताकि मानवजाति को भविष्य में आने वाली इस
जलवायु त्रासदी से बचाया जा सके।
प्रश्न- अधिकतर खाद्य शख्
ृ ला का चार या पाँच स्तरों तक ही सीमित होने के कारणों की
पड़ताल कीजिए। (10)

उत्तर की रूपरे खा-

1. खाद्य श्रंखला का परिचय दीजिए।


2. खाद्य शख्
ृ ला का चार या पाँच स्तरों तक ही सीमित होने के कारणों का समुचित
विश्लेषण कीजिए।
3. उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

परितंत्र में निम्न पोषण स्तर से उच्चपोषण स्तर के जीवों के बीच जो भोजन श्रंख
ृ ला होती
है , वह खाद्य श्रंख
ृ ला कहलाती है । खाद्य श्रंख
ृ ला निम्न पोषण स्तर से उच्च पोषण स्तरों के
बीच ऊर्जा के स्थानान्तरण के क्रम में श्रंख
ृ लाबद्ध होती है । जैसे एक पौधे का भक्षण कीड़े
(Beetle) द्वारा किया जाता है , कीड़े को में ढ़क खा जाता है , में ढ़क साँप का भोजन है और
साँप एक बाज द्वारा खा लिया जाता है । इस खाद्य के क्रम और एक स्तर से दस
ू रे स्तर पर
ऊर्जा के प्रवाह को ही खाद्य श्रंख
ृ ला कहा जाता है । जैसे: घास → टिड्डा → पक्षीगण →
बाज ।

अधिकांश खाद्य खाद्य शख्


ृ लाएँ चार या पाँच स्तरों तक ही सीमित होती हैं जिनके
निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

 खाद्य श्रंख
ृ ला में एक पोषण स्तर पर उपस्थित जीव अपने पहले के पौषण स्तर से
ऊर्जा ग्रहण करता है । इस ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य होता है और सौर ऊर्जा को
पौधों(उत्पादकों) द्वारा जैव-रासायनिक ऊर्जा में बदल दिया जाता है और यही ऊर्जा
उपभोक्ताओं के आगे के सभी स्तरों तक प्रवाहित होती है । चँकि
ू हम जानते हैं कि
एक पौषण स्तर से दस
ू रे स्तर तक कुल ऊर्जा का केवल 10% ही स्थानांतरित हो
पाता है क्योंकि शेष ऊर्जा उपापचयी क्रियाओं में खर्च हो जाती है ।
 खाद्य श्रंख
ृ ला के चार या पाँच स्तर तक आते आते यह ऊर्जा अत्यधिक न्यन
ू हो
जाती है । जैसे यदि उत्पादक ने 100 यूनिट ऊर्जा उत्पादन किया तो प्राथमिक
उपभोक्ता तक केवल 10 यूनिट ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, द्वितीय उपभोक्ता तक
केवल 1 यूनिट ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, तत
ृ ीय उपभोक्ता तक केवल 0.1 यूनिट
ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, चतुर्थ उपभोक्ता तक केवल 0.01 यूनिट ऊर्जा का
स्थानांतरण होगा जो कि लगभग शन्
ू य के बराबर है । इसके आगे ऊर्जा का
स्थानांतरण नगण्य हो जाएगा और किसी भी पोषण स्तर के बने रहने के लिए ऊर्जा
की पर्याप्त मात्रा होना अति-आवश्यक होता है ।

इसलिए इस ऊर्जा की होने वाली अत्यधिक क्षति के कारण अधिकांश खाद्य श्रंख
ृ ला चतुर्थ
उपभोक्ता के आगे शायद ही बढ़ पाती है और यही सीमित हो जाती है । जो खाद्य श्रंख
ृ ला
जितनी ज्यादा सीमित होती है उसकी ऊर्जा दक्षता उतनी ही अधिक होती है और उच्चतम
उपभोक्ता को अधिक मात्रा में ऊर्जा की उपलब्धता रहती है ।
प्रश्न- डेविस, पें क तथा है क के भू-आकृतिक सिद्धांतों के बीच समानता पर संक्षिप्त टिप्पणी
लिखिए। (10)

उत्तर की रूपरे खा-

 भू-आकृतिक सिद्धांतों का परिचय दीजिए।


 डेविस, पें क तथा है क के भू-आकृतिक सिद्धांतों के बीच समानता को बताइए।
 डेविस, पें क तथा है क के भू-आकृतिक सिद्धांतों के बीच मौजद
ू मख्
ु य अंतरों को भी
बताते हुए उचित निष्कर्ष लिखिए।

उत्तर-

भू-आकृतियाँ समय के साथ भौतिक, रासायनिक और जैविक क्रियाओं के प्रभावस्वरूप निरं तर


परिवर्तनशील रहती हैं। इन्हीं परिवर्तनों की व्याख्या अनेक भूगोलवेत्ताओं ने अपने अपने
तरीके से की है और अपने भू-आकृतिक सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं। इनमें डेविस,पें क और
है क के सिद्धांत उल्लेखनीय माने जाते हैं।

इन तीनों विद्वानों ने अपनी-अपनी मान्यताओं और शोध के आधार पर अपने सिद्धांत दिए हैं
जिनमें अनेक समानताएं विद्यमान हैं। इनको निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा
सकता है -

 इन सभी ने भू-आकृतियों में परिवर्तन के लिए आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की


शक्तियों के योगदान को स्वीकार किया हालाँकि उनके योगदान की मात्रा पर इनमें
मतभेद है ।
 इन सबने निम्नलिखित सिद्धांतों को स्वीकार किया-
o कठोर चट्टानों पर अधिक उच्चावच और तीव्र ढाल वाले भू-दृश्यों का निर्माण
होता है जबकी मुलायम चट्टानों के भू-दृश्य चौड़े और कम ढाल वाले होते हैं।
o नदी द्वारा निम्नवर्ती अपरदन तीव्र होगा तो ढाल भी उतनी ही तीव्र बनेगी।
o यदि तीव्र अपरदन से तीव्र ढाल की उत्पत्ति होती है तो प्रोफाइल सरल-रे खीय
होगी जबकी मंद अपरदन से उत्पन्न मन्द ढाल की प्रोफाइल अवतल होगी।
o यदि लंबे समय तक पर्यावरणीय दशाएँ स्थिर बनी रहती हैं तो सम्पूर्ण क्षेत्र
में निम्न उच्चावच वाली स्थलाकृतियाँ विकसित होगी हालाँकि इन तीनों ने
इन स्थलाकृतियों को अलग-अलग नामों से संबोधित किया । जैसे डेविस का
पेनीप्लेन ।
 इन तीनों का यह भी मत था की भू-आकृतियों के विकास की प्रक्रिया एक ऐसी
प्रक्रिया है जिसका न कोई प्रारं भ है और न ही कोई अंत अर्थात ये चिरकाल तक
चलती रहे गी हालाँकि इनके परिमाण और तीव्रता में अंतर दे खा जा सकता है ।

इस प्रकार इन तीनों भूगोलवेत्ताओं ने अपने सिद्धांतों में कुछ समान बातों का पालन करते
हुए अपने-अपने ढं ग से भू-आकृतियों के विकास की व्याख्या की जिनका भूगोल के विकास
को समझने में अविस्मरणीय योगदान है ।
प्रश्न- एयरी और प्रैट की संकल्पना का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए। (15)

उत्तर की रूपरे खा-

 समस्थितिकी की अवधारणा का परिचय दीजिए।


 डायग्राम की सहायता से एयरी और प्रैट की संकल्पना के बीच समानताओं और
भिन्नताओं को स्पष्ट कीजिए।
 उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

अपने अक्ष पर घर्ण


ू न करती पथ्
ृ वी के ताल पर स्थित विभिन्न भू-आकृतियों जैसे
मैदान,पठार,पर्वत,सागर इत्यादि में व्याप्त यांत्रिक संतुलन की स्थिति का अध्ययन एवं
विश्लेषण समस्थितिकी (Isostacy) कहलाता है । भू-संतल
ु न संबंधी विचार सर्वप्रथम 1859 ई.
में उठा जब सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र में भू-सर्वेक्षण के दौरान दो स्थानों कल्याण और
कल्याणपुर के बीच की दरू ी विभिन्न विधियों से अलग-अलग ज्ञात हुई ।

एयरी और प्राट ने समस्थितिकी के अध्ययन से पश्चात अपने अपने सिद्धांत दिए जिनका
तुलनात्मक विश्लेषण निम्नलिखित है -

ऐयरी की संकल्पना प्राट की संकल्पना


1. इसने उत्प्लावन बाल और तैराव 1. इसने इन दोनों सिद्धांतों को
के सिद्धांत को स्वीकार किया। अस्वीकार कर दिया।
2. प्रत्येक भू-स्तम्भ का घनत्व एक 2 ऊँचाई और घनत्व में
समान होता है । इन्होंने व्युत्क्रमानुपाती संबंध पाया जाता
पर्वतों,मैदानों और सागर का है अर्थात जो भू-स्तम्भ जितना
घनत्व समान माना। अधिक ऊँचा होगा उसका घनत्व
उतना ही कम होगा। पर्वतों का
घनत्व सबसे कम,उससे अधिक
मैदान का घनत्व और सागरीय
चट्टान का घनत्व सर्वाधिक होता
है ।
3. जिस भ-ू स्तम्भ की लंबाई अधिक 3 सभी भ-ू स्तम्भ समान गहराई को
होगी वह अधिक गहराई को प्राप्त करते हैं। इस समान गहराई को
प्राप्त करे गा अर्थात ‘Greater क्षतिपर्ति
ू तल कहा जाता है । इन्होंने
the Lenghth ,Greater the कहा कि किसी भी भू-भाग की जमीन
Depth’. के ऊपर तो ऊंचाई अलग-अलग हो
इनका मानना था कि किसी भी सकती है किन्तु जमीन के अंदर
भ-ू भाग का 1/10 वाँ हिस्सा उनका एक समान हिस्सा धँसा होता
जमीन के ऊपर जबकी 9/10 है ।
वाँ हिस्सा जमीन के नीचे धँसा
होता है ।
4. इन्होंने अपने सिद्धांत की पष्टि
ु 4 इन्होंने अपने सिद्धांत की पुष्टि
करने के लिए जल से भरे बर्तन करने के लिए पारे से भरे बर्तन में
में समान घनत्व के लकड़ी के असमान घनत्व के अलग-अलग धातु
टुकड़ों को डुबाकर किया। के टुकड़ों को डुबाकर किया।
5. इन्होंने समस्थिति को गुरुत्व बल 5 इन्होंने समस्थिति को भू-भाग के
और उत्प्लावन बल के भार और पथ्
ृ वी के अंतस्थ के
प्रतिफल(Resultant) का आण्विक प्रतिरोध के प्रतिफल का
परिणाम बताया । परिणाम बताया ।

एयरी और प्रैट की संकल्पना का डाइग्राम-

इस प्रकार इन दोनों विद्वानों ने समस्थितिकी की अवधारणा को समझाने का


प्रयास किया । इनके बाद कालांतर में है फोर्ड, बोवी, होम्स इत्यादि भग
ू ोलवेत्ताओं ने
भी समस्थितिकी की अलग-अलग व्याख्या की, जिसमें कुछ ने एयरी एवं कुछ ने
प्राट का समर्थन किया तो हीस्कैनन जैसे विद्वान ने इन दोनों संकल्पनाओं को
मिलाकर अपना मॉडल प्रस्तुत किया।
प्रश्न- मूल्यांकन कीजिए कि टे लर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना टर्शीयरी पर्वतों की
उत्पत्ति की किस सीमा तक व्याख्या करती है ? (15)

Evaluate how far Tylor’s continental drift theory explains the origin of tertiary
mountains?

उत्तर की संरचना-

 परिचय में कि टे लर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना की व्याख्या कीजिए।


 यह बताइए टे लर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना टर्शीयरी पर्वतों की उत्पत्ति
की व्याख्या कैसे करती हैं। साथ ही यह भी बताइए कि यह परिकल्पना इस व्याख्या
को करने में कहाँ असफल हो जाती है ।
 उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

महाद्वीपीय विस्थापन को सर्वप्रथम सिद्धांत के रूप में अमेरिका के भू -वैज्ञानिक एफ.बी. टे लर


ने 1908 ई. में प्रस्तत
ु किया,जो सन 1910 में प्रकाशित हुआ। इनका मख्
ु य उद्देश्य टर्शीयरी
युग के वलित पर्वतों का भौगोलिक अध्ययन करना था।

टे लर ने दे खा कि कुछ तत
ृ ीयक पर्वत उत्तर से दक्षिण की ओर( रॉकी और एण्डीज पर्वत)
जबकि कुछ पश्चिम से पूर्व की ओर(अल्पस,कॉकेसस ,हिमालय ) फैले हुए हैं। टे लर ने इन्ही
सभी की उत्पत्ति की व्याख्या करने के लिए अपना सिद्धांत दिया।

इन्होंने मुख्यतः दो परिकल्पनाएँ की-

1) क्रेटिशियस काल में पथ्


ृ वी पर दो भूखंड थे – लौरें शिया (उत्तरी ध्रुव पर) और गोंडवाना
(दक्षिण ध्रुव पर )।
2) महाद्वीप सियाल (SiAl ) से बने हुए हैं जो हल्के होने के कारण अधिक घनत्व वाले
सीमा(SiMa ) के ऊपर तैर रहे है ।

इन्होंने बताया कि कालांतर में इन भूखंडों में दो प्रकार के बलों के कारण विस्थापन हुआ।
प्रथम बाल भ-ू मध्यीय रे खा की ओर बल था जिससे महाद्वीपों का भू-मध्य रे खा की और
विस्थापन हुआ और अवसादों में वलन पड़ने से पश्चिम से पूर्व की ओर फैले हुए पर्वतों का
निर्माण हुआ।
इसके अतिरिक्त दस
ू रा बल था चंद्रमा के कारण उत्पन्न ज्वारीय बल जिसके फलस्वरूप
महाद्वीपों का विस्थापन पश्चिम दिशा की ओर हुआ और अवसादों में वलन पड़ने से उत्तर
से दक्षिण की ओर फैले हुए पर्वतों का निर्माण हुआ जिनमे रॉकी और एण्डीज पर्वत मुख्य हैं।

लेकिन इनके सिद्धांत में कुछ कमियाँ थी जो निम्नलिखित है -

 टे लर ने महाद्वीपों को पर्वत निर्माण हे तु अनेक हजारों किलोमीटर विस्थापित किया


जबकि इसके लिए महाद्वीपों का 20-40 मील विस्थापन काफी था।
 इन्होंने चंद्रमा के ज्वरीय बल को आवश्यकता से अधिक शक्तिशाली माना है जो सही
नहीं लगता क्योंकि यदि यह बल इतना ही शक्तिशाली था तो यह पथ्
ृ वी के अक्षीय
घूर्णन को रोक सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
 भूगोलवेत्ता यह सिद्ध कर चुके हैं कि सियाल (SiAl ) सीमा(SiMa) पर नहीं तैर रहा
अपितु स्थलमंडल दर्ब
ु लमंडल के ऊपर तैर रहा है ।

लेकिन इन आलोचनाओं के बावजूद भी टे लर का यह सिद्धांत आगे आने वाले सिद्धांतों जैसे


वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत, है री है स के सागरीय तल विस्तार का सिद्धांत
आउए प्लेट टे क्टानिक सिद्धांत का आधार बना। इस प्रकार इन्होंने महाद्वीपीय विस्थापन का
एक व्यवस्थित सिद्धांत दे कर भग
ू ोल को अपना निर्णायक योगदान दिया जिसने तत
ृ ीयक
पर्वतों के उत्पत्ति की व्याख्या में अपनी महती भूमिका निभाई है ।
प्रश्न- हीट डोम बनने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए । हीट डोम का क्या प्रभाव करता है ?
(15)

उत्तर की संरचना-

 हीट डोम का परिचय दीजिए।


 इसके बनने की क्रियाविधि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
 हीट डोम के प्रभावों को बताइए।
 कुछ संभावित उपाय बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

हाल ही में उत्तर-पश्चिम प्रशांत जो अपनी मध्यम जलवायु के लिये जाना जाता है , एक
"ऐतिहासिक" गर्मी की के पीछे  "हीट डोम" (Heat Dome) को जिम्मेदार माना जा रहा है ।
यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब वायुमंडल गर्म समुद्री हवा को ढक्कन या टोपी की तरह
फँसा लेता है । हीट डोम उच्च दबाव क्षेत्र है जो उस बर्तन की तरह होता है जिस पर लगा
ढक्कन गर्मी को रोककर रखता है ।

अमेरिका के नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रे शन (NOAA) के अनुसार, हीट


डोम की स्थिति तब बनती है जब मज़बूत उच्च दबाव वाली वायुमंडलीय स्थितियाँ  ला
नीना (La Niña) जैसे मौसम पैटर्न के साथ जुड़ जाती हैं। इसके बनने की क्रियाविधि को
निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है -

 यह घटना तब शुरू होती है जब समुद्र के तापमान में प्रबल परिवर्तन (चढ़ाव या


उतार) होता है । संवहन के कारण समुद्र के सतह की गर्म हवा ऊपर उठती है ।

 जैसे-जैसे प्रचलित हवाएँ गर्म हवा को पूर्व की ओर ले जाती हैं, वैसे-वैसे जेट स्ट्रीम की
उत्तरी शिफ्ट हवा को भमि
ू की ओर मोड़ दे ती  है , जहाँ यह समाप्त हो जाती है ,
जिसके परिणामस्वरूप गर्म लहरों का जन्म होता है ।
 इन सबके बाद एक उच्च दबाव वाले क्षेत्र का निर्माण हो जाता है जो एक टोपी या
बर्तन पर लगे ढक्कन की तरह होता है ।
हीट डोम के गठन के कारण: 

 महासागर के तापमान में परिवर्तन: इस प्रकार की घटनाएँ तब आरं भ होती हैं


जब समुद्र के तापमान में एक मज़बूत परिवर्तन (या प्रवणता) होता है ।

 वायम
ु ंडलीय दबाव में परिवर्तन: हीट वेव की शरु
ु आत तब होती है जब वायम
ु ंडल में
उच्च दबाव बनता है और यह गर्म हवा को भमि
ू की ओर ले जाता है । यह
प्रभाव समुद्र से उठने वाली ऊष्मा  के कारण होता है , जिससे एक प्रवर्द्धन लूप
बनता है ।

 जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान के कारण मौसम गर्म हो जाता है । भमि


ू पर हीट
डोम एक नियमित घटना के रूप घटित होती है । हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग ने इन्हें
पहले की तल
ु ना में गर्म बनाने के साथ-साथ इनकी अवधि तथा आवत्ति
ृ वद्धि
ृ  को
बढ़ाने में मदद की है ।

हीट डोम के प्रभाव-

 बिना एयर कंडीशनर के रहने वाले लोग अपने घरों के तापमान को असहनीय रूप से
बढ़ते हुए दे खते हैं, जिससे अचानक मत्ृ यु हो सकती है ।

 गर्मी के कारण फसलों को भी नक


ु सान हो सकता है , वनस्पति सख
ू सकती है और
इसके परिणामस्वरूप सख
ू ा पड़ सकता है ।

 प्रचंड गर्मी की लहर से ऊर्जा की मांग में भी वद्धि


ृ होगी, विशेष रूप से बिजली की
जिससे इसकी मल्
ू य दरों में वद्धि
ृ होगी। इसके साथ ही विद्यत
ु उत्पादन के कारण
होने वाले ग्रीन-हाउस गैस उत्सर्जन में वद्धि
ृ होगी जो आगे जाकर और अधिक
तापमान बढ़ाएगा।

 ‘हीट डोम’ जंगल की आग के लिये ईंधन के रूप में भी काम कर सकते हैं , जो हर
साल अमेरिका में बहुत सारे भमि
ू क्षेत्र और जीव-जंतुओं की लाखों प्रजातियों को नष्ट
कर दे ता है ।

 हीट डोम बादलों के निर्माण में बाधा उत्पन्न करता है , जिससे सूर्य विकिरण अधिक
मात्रा में पथ्
ृ वी तक पहुँच जाता है ।

हीट डोम के हानिकारक प्रभावों को दे खते हुए यह जरूरी है कि इसके शमन के लिए तुरंत
उपाय किये जाएँ जिनके ग्रीन-हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना, वनावरण और नवीकरणीय
ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा दे ना, पेरिस जलवायु समझौते हो शीघ्रता और गंभीरता से लागू
करना इत्यादि प्रमुख उपाय हो सकते हैं।
प्रश्न- मनुष्य के क्रियाकलाप तटीय भागों में अवसादी विशेषताओं को किस प्रकार प्रभावित
करते हैं? (15)

उत्तर की रूपरे खा-

 मनुष्य के क्रियाकलाप और भू-आकृतियों में परिवर्तन के संबंध का परिचय दीजिए।


 विस्तार से बताइए कि कैसे मनुष्य के क्रियाकलाप तटीय भागों में अवसादी
विशेषताओं को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ।
 इन प्रभावों को कम करने के उपाय बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

पथ्
ृ वी पर उपस्थित सभी भू-आकृतियाँ समय के साथ अपने स्वरूप और आकार बदलती रहती
हैं जिनके पीछे भौतिक, रासायनिक और अनेक मानवीय कारकों का योगदान शामिल होता
है । मानव प्रतिदिन भमि
ू के भौतिक पर्यावरण के साथ अन्तरक्रिया करता है और इसकी
अनेक विशेषताओं में अपने क्रियाकलापों से परिवर्तन भी करता रहता है । वर्तमान में मानवीय
क्रियाकलापों के कारण तटीय भागों में अवसादी विशेषताओं में भारी परिवर्तन दे खने को मिल
रहा है जिसके अनेक प्रभाव तटीय पारिस्थितिकी पर पड़ रहे हैं।

मानवीय क्रियाकलापों और उनके तटीय भागों में अवसादी विशेषताओं पर प्रभाव को


निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है । इसमें कुछ क्रियाकलाप ऐसे हैं जो
बनी हुई तटीय अवसादी संरचनाओं को नष्ट करते हैं जबकि कुछ क्रियाकलाप इनके निर्माण
को धीमा बनाते है -

 तटीय भागों में और नदियों के तल से बालू की अवैध और निरं तर खुदाई के कारण


तटीय बीचों का आकार घटता जा रहा है ।
 तटीय भागों की और स्थायी निर्माणों और अनियमित पर्यटन गतिविधियों के कारण
नदियों के मार्ग परिवर्तित हो रहा है जिसकी वजह से तटीय अवसादी संरचनाओं का
निर्माण बाधित हो रहा है । ज्ञातव्य है कि इन तटीय अवसादी संरचनाओं के निर्माण
के समय बाहरी बाधा न्यन
ू तम होनी चाहिए।
 तटीय भागों में बंदरगाहों के निर्माण के कारण तटीय अपरदन में वद्धि
ृ होती है ।
 नदियों पर बड़े बड़े बांधों के निर्माण के कारण तटीय क्षेत्र में बालू की आपर्ति
ू कम
हो जाती है जिससे इन अवसादी संरचनाओं का निर्माण अत्यंत धीमा हो जाता है ।
 तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव जैसी वनस्पति चक्रवात या सुनामी के समय तटीय क्षेत्रों को
अपरदन से सुरक्षा प्रदान करती हैं लेकिन मानव द्वारा मैंग्रोव के अतिदोहन से अब
ये सुरक्षा धीरे -धीरे समाप्त होती जा रही है ।
 कोरल रीफ़ के निरं तर विरं जन के कारण तटीय अपरदन में वद्धि
ृ दे खने को मिल रही
है ।
 मानवीय क्रियाकलापों के कारण बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप समद्र
ु स्तर में
तेजी से बढ़ोतरी दे खी जा रही है जिसकी वजह से तटीय क्षेत्रों में अपरदन तेजी से
बढ़ता जा रहा है । साथ ही चक्रवातों की आवति
ृ में भी वद्धि
ृ होने से तटीय अपरदन
बढ़ रहा है ।

तटीय अवसादी संरचनाओं की क्षति से तटीय पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और


तटीय क्षेत्रों के आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ जैसी घटनाएँ ज्यादा हो सकती हैं। अतः इनको
रोकने के लिए तटीय क्षेत्रों में अवैध खनन को रोकने, तटीय क्षेत्र विनियमन अधिसूचना का
समचि
ु त क्रियान्वयन, नदियों में मानव हस्तक्षेपों में कमी, तटीय क्षेत्रों में वक्ष
ृ ारोपण इत्यादि
कदम उठाए जाने की आवश्यकता है ।
प्रश्न- प्रतिमानों (मॉडल) की विशेषताओं तथा भूगोल में प्रतिमानों की आवश्यकता की
विवेचना कीजिए। (20)

उत्तर की रूपरे खा-

 परिचय में मॉडल की परिभाषा लिखिए।


 मुख्य भाग में प्रतिमानों (मॉडल) की विशेषताओं को विस्तार से लिखिए।
 उसके बाद भग
ू ोल में प्रतिमानों की आवश्यकता को बताइए।
 उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के पश्चात मॉडल का व्यापक स्तर पर दे खा गया हालाँकि इनका
प्रयोग पहले भी कुछ विद्वानों द्वारा अपने सिद्धांत को सरल रूप में प्रस्तुतीकरण के लिए
किया जाता था जैसे 1826 ई. में वान थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित किया गया ‘कृषि अवस्थिति
मॉडल’ । दरअसल हमारे आसपास के भौतिक और मानवीय तंत्र अत्यंत जटिल होते हैं
जिनका आसानी से अध्ययन संभव नहीं होता है । इसलिए इन तंत्रों का आदर्श और
साधारणीकृत प्रस्तुतीकरण ही मॉडल कहलाता है । जैसे जल पथ्ृ वी के तीनों मंडलों(
जलमंडल,स्थलमंडल और वायम
ु ड
ं ल ) में है और सम्पर्ण
ू पथ्
ृ वी को प्रभावित करता है । इसे
जलीय चक्र मॉडल के माध्यम से समझना काफी आसान हो जाता है । शोर्ले और है गेट ने
अपनी पस्
ु तक ‘ मॉडल्स इन ज्योग्रफी’ में मॉडल्स के बारे में विस्तार से बताया है ।

मॉडल की मुख्य विशेषताएँ-

 मॉडल का निर्माण करते समय पर्यावरण की जटिल स्थितियों के स्थान पर कुछ


आदर्श और सरल परिस्थितियों की परिकल्पना की जाती है । जैसे वेबर ने अपने
औद्योगिक अवस्थिति मॉडल में कुछ आदर्श स्थितियों का सहारा लिया-
o यह मॉडल एक ही वस्तु के उत्पादन के लिए मान्य है ।
o परिवहन लागत दरू ी के समानुपाती होती है ।
 मॉडल में गणितीय संकल्पनाओं और परिभाषाओं का का व्यापक स्तर पर प्रयोग
होता है । जैसे वीवर के शस्य संयोजन मॉडल में मानक विचलन का प्रयोग। वान
थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित ‘कृषि अवस्थिति मॉडल में संकेंद्रीय वत्ृ तों का प्रयोग।
 मॉडल कुछ परिणामों का पूर्वानुमान करते हैं परं तु उन ् पूर्वानुमानों की शुद्धता मॉडल
की शुद्धता और उसका अध्ययन करने वाले की क्षमता पर निर्भर करती है । मॉडल को
गलत समझने या सख्ती से लागू करने पर पर्वा
ू नम ु ान गलत भी हो सकते हैं।
 मॉडल कुछ पूर्वमान्यताओं पर आधारित होते है । जैसे वेबर के मॉडल में मान्यता थी
कि जिस प्रदे श में उद्योग की स्थापना करनी हो वह विलग प्रदे श होना चाहिए और
वहाँ भौगोलिक और मानवीय दशाएँ एक समान होनी चाहिए। मॉडल तभी सटीक
परिणाम दे ता है जब ये मान्यताएँ लागू होती हो। यदि इन मान्यताओं में भिन्नता हो
तो मॉडल के परिणाम लागू नहीं होते। इसलिए ही जब वान थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित
‘कृषि अवस्थिति मॉडल’ को भारत के संदर्भ में लागू किया जाता है तो परिणाम कुछ
अलग प्राप्त होते हैं क्योंकि जर्मनी ,जहाँ इस मॉडल को बनाया गया,और भारत की
भौगोलिक और मानवीय दशाएँ अलग-अलग हैं।
 सामान्यतः मॉडल भौतिक तंत्रों के लिए ज्यादा उपयुक्त होते है और इनके परिणाम
काफी सटीक होते हैं किन्तु मानवीय तंत्र ज़्यादा जटिल और परिवर्तनशील होते हैं
जिससे वहाँ मॉडल को लागू करना अत्यंत मुश्किल होता है तथा परिणामों में काफी
परिवर्तनशीलता दे खी जाती है ।

भग
ू ोल में प्रतिमानों की आवश्यकता-

 भूगोल के लगभग सभी भौतिक और मानवीय तंत्र अत्यंत जटिल होते हैं और
मॉडल्स इनको आसान तरीकों से समझने में सहायक होते हैं।
 विभिन्न पूर्वानुमानों के लिए उपयोगी जैसे किस प्रकार के उद्योग की स्थापना कहाँ
होनी चाहिए यह वेबर के मॉडल से पता लगाया जा सकता है ।
 भूगोल सामान्यतः एक विवरणात्मक विषय था जिससे लोगों में भग
ू ोल के प्रति रूचि
कम थी। मॉडल के प्रयोग के बाद भूगोल विषय विश्लेषणात्मक हो गया जिससे
रूचिकर और सरल होने से लोगों का रुझान इसकी और बढ़ा।
 भूगोल का कार्य आर्थिक और सामाजिक विकास में योगदान दे ना भी होता है
गण
ु वत्तापर्ण
ू मानचित्रों द्वारा संसाधनों की अवस्थिति का सटीक अनम
ु ान ने और
जनसंख्या वद्धि
ृ के मॉडल ने इस और अपना योगदान दिया।
 भग
ू ोल में मात्रात्मक क्रांति के पहले वैज्ञानिकता का अभाव था। विभिन्न मॉडलों ने
भूगोल विषय को तकपूर्ण और वैज्ञानिक बनाने में अपनी महती भमि
ू का का निर्वहन
किया।
 भूगोल में पहले आनुमानाश्रित आंकड़ों का प्रयोग होता था लेकिन मॉडल्स की वजह से
आंकड़ों की गुणवत्ता और उनके विश्लेषण की गुणवत्ता में वद्धि
ृ हुई जिससे परिणाम
और भी सटीक प्राप्त होने लगे।
 पहले भग
ू ोल विषय का अध्ययन अत्यंत सीमित था लेकिन मॉडल्स की वजह से यह
विषय अंतरविषयात्मक (multidisciplinary) हो गया है और इनको पढ़ने वालों और
शोध करने वालों की संख्या में भारी मात्रा में वद्धि
ृ हुई है ।

हालाँकि मॉडल्स की अनेक सीमाएँ होती हैं। ये मानव भग


ू ोल में इतने उपयोगी साबित नहीं
होते। भूगोल में इसने यांत्रिकता का समावेश किया है जबकि भूगोल में मानव के व्यवहार
और उसके विचार एवं भावनाओं का अध्ययन भी आवश्यक है जिनकी इन मॉडल्स में उपेक्षा
की गई है । मॉडल्स को सभी जगह एक समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि
वास्तविक धरातल पर भौगोलिक और मानवीय दशाओं में अंतर पाया जाता है । लेकिन इन
सीमाओं के बावजूद भी मॉडल्स भूगोल के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग माने जाते हैं जिन्होंने
इस विषय की दशा और दिशा को पूरी तरह बदल कर रख दिया।
प्रश्न- ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति और विकास के लिए अनुकूल दशाओं और इससे
संबंधित मौसम की विवेचना कीजिए। (20)

उत्तर की रूपरे खा-

 ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का परिचय दीजिए।


 इसकी उत्पत्ति और विकास के लिए अनुकूल दशाओं को विस्तार से समझाइए।
 ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवातों से संबंधित मौसम का वर्णन कीजिए।
 उचित निष्कर्ष लिखिए।

उत्तर-

चक्रवात अत्यंत निम्न वायुमंडलीय दाब का केंद्र होता है और इस केंद्र के चारों ओर से हवाएँ
केंद्र की ओर तीव्र से आती हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात उत्तरी और दक्षिण गोलार्द्धों में
लगभग 5 डिग्री से 30 डिग्री अक्षांशों के बीच उत्पन्न होते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी गति
घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत अर्थात ् वामावर्त (Counter Clockwise) और दक्षिणी
गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त (Clockwise) होती है । इस प्रकार के तूफानों को उत्तरी अटलांटिक
और पूर्वी प्रशांत में हरिकेन (Hurricanes) तथा दक्षिण-पूर्व एशिया एवं चीन में टाइफून
(Typhoons) कहा जाता है । दक्षिण-पश्चिम प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में
उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones) और उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रे लिया में विली-
विलीज़ ( Willy-Willies) कहा जाता है ।

ऊष्णकटिबंधीय तूफानों के बनने और उनके तीव्र होने हे तु अनुकूल दशाएँ निम्नलिखित हैं:-

 27 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली एक बड़ी  समुद्री सतह- तापमान ज्यादा
होने से निम्नदाब का क्षेत्र उतना ही तीव्र बनता है जिससे अंदर आने वाली हवाओं की
गति में वद्धि
ृ होती है । चक्रवात केवल समुद्री सतह पर ही बनते हैं भमि
ू पर ये नष्ट
हो जाते हैं।
 कोरिओलिस बल की उपस्थिति- कोरिओलिस बल के कारण पवनें वत्ृ ताकार दिशा में
गति करती है जिससे चक्रवात का स्वरूप बनता है । भू-मध्य रे खा पर कोरियोलिस
बाल शन्
ू य होने के कारण वहाँ चक्रवात नहीं बनते हैं।
 ऊर्ध्वाधर/लम्बवत हवा की गति में अंतर कम होना- इस अंतर के कम होने के कारण
चक्रवात का स्वरूप बिगड़ता नहीं है और चक्रवात लंबे समय तक बना रहता है ।
 पहले से मौज़ूद कमज़ोर निम्न-दबाव क्षेत्र या निम्न-स्तर-चक्रवात परिसंचरण- इससे
चक्रवात बनना आसान हो जाता है ।
 समुद्र तल प्रणाली के ऊपर  अपसरण (Divergence)- समुद्र तल पर नीचे पवनों का
अभिसरण होना चाहिए जबकि ऊपरी सतह पर पवने बाहर की ओर अभिसरित होनी
चाहिए।

चित्र-

चक्रवात से संबंधित मौसमी दशाएं-

उष्णकटिबंधीय चक्रवात के निकट आने पर वायु शांत हो जाती है और आकाश में पक्षाभ
स्तरीय मेघ छा जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा के गिर्द ज्योतिर्मंडल दिखाई दे ने लगता है । चक्रवात
के अग्रभाग के पहुंचते ही वायुदाब कम होने लगता है । आसमान में कपासी मेघ छाने लगते
हैं और वर्षा होने लगती है । अक्षुभित्ति के आने पर पवनों का वेग 250 किमी/घंटा हो सकता
है और मसू लाधार वर्षा होती है । चक्रवात की आँख के पहुंचते ही वायु शांत हो जाती है , वर्षा
बंद हो जाती है और आसमान साफ हो जाता है । जब चक्रवात की आँख समुद्र के ऊपर से
गुजरती है तो समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं। आँख के गुजर जाने के बाद पुनः कपासी
मेघ छाने लगते हैं और पवन तीव्र वेग से चलती है । पष्ृ ठ भाग के गुजर जाने के बाद पवन
प्रवाह मंड पड़ जाता है और आकाश फिर से मेघरहित हो जाता है ।

उष्णकटिबंधीय चक्रवात बड़े विनाशकारी होते हैं और विश्व के अनेक भागों में तबाही मचाते
हैं। ग्रीष्मकाल के उत्तरार्द्ध और शरद ऋतु के पूर्वार्ध में ये भारत के तटीय भागों में भारी
मात्रा में जान-माल की क्षति का कारण बनते हैं। लेकिन अब उपग्रहों और उन्नत पूर्वानुमान
तकनीकों के माध्यम से इनका सटीक पूर्वानुमान संभव हो पाया है जिससे समय रहते प्रभावी
कदम उठाकर नुकसान को न्यूनतम किया जा सकता है ।
प्रश्न- महाद्वीपीय मग्नतटों की उत्पत्ति की व्याख्या अलग-अलग कारणों तथा सिद्धांतों के
आधार पर कीजिए । (20)

उत्तर की रूपरे खा-

 महाद्वीपीय मग्नतटों का परिचय लिखिए।


 अलग-अलग विद्वानों द्वारा इनकी उत्पत्ति की व्याख्या कीजिए।
 सर्वाधिक सहमति प्राप्त सिद्धांत को बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर-

समुद्र के जल में डूबे महाद्वीपीय किनारों/तटों को महाद्वीपीय मग्न तट कहते हैं। महासागरों
के नितल का यह भाग समद्र
ु तल से 120 से 180 मीटर तक की गहराई तक विस्तत
ृ होता
है तथा इसका ढाल बहुत कम होता है । इसके अंत में ढाल आकस्मिक रूप से प्रपाती हो
जाता है और समद्र
ु की गहराई में वद्धि
ृ हो जाती है । महाद्वीपीय मग्न तटों का औसत ढाल
0.2% अथवा 1° होता है ।

चित्र- महसागरीय नितल के उच्चावच

महाद्वीपीय मग्न तटों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रस्तुत
किये हैं, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्व के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले मग्न
तटों की रचना भिन्न-भिन्न प्रक्रमों के द्वारा हुई है । कुछ प्रमुख मतों को निम्नलिखित
बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है -

 महाद्वीपों के किनारों का जलमग्न होना- कुछ विद्वानों की धारणा है कि महाद्वीपीय


चबूतरे वस्तुतः महाद्वीपीय मग्न तटों के सागरोन्मुख किनारे पर समाप्त होते हैं।
इनके मतानुसार अतीत में महाद्वीपीय ढालों के ऊपरी भाग तक ही समुद्र का जल
फैला था, किन्हीं कारणों से समुद्र के जल ने ऊपर उठकर महाद्वीपों के किनारे वाले
भागों को जल मग्न कर दिया।
 नदियों की निक्षेपणात्मक भमि
ू का- अन्य विचारधारा के अनुसार, मग्न तटों की
रचना में नदियों की मख्
ु य भमि
ू का रही। नदियाँ अपने साथ बहाकर लाए मलबे का
समद्र
ु के शांत जल में निक्षेपण करती है । नदियों द्वारा निक्षेपण की यह क्रिया
निरं तर चलती रहती है और जमा किये गए मलबे के भार से मग्न तट धँसते जाते
हैं। इस प्रकार यहाँ मलबे की भारी मात्रा जमा हो जाती है और मग्न तटों का निर्माण
होता है । इन्हें रचनात्मक मग्न तट कहते हैं।
 शेफर्ड का मत- इनके अनस
ु ार कुछ मग्न तटों की रचना अपरदन एवं निक्षेपण के
सम्मिलित प्रभाव के फलस्वरूप होती है , जबकि उच्च अक्षांशों के कुछ मग्न तटों की
रचना में हिमनद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है ।
 डाली ने विश्व के कुछ मग्न तटों की उत्पत्ति एवं विकास का कारण हिम युग में
समुद्र तल का लगभग 38 फैदम नीचे गिर जाना बताया है । समुद्र तल के नीचा हो
जाने के कारण महाद्वीपों के किनारे के जलमग्न भाग स्थल रूप में परिवर्तित हो
जाते हैं। इन जलविहीन स्थल खंडों पर हिमानी द्वारा होने वाली अपरदन तथा
निक्षेपण क्रियाएँ विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण कर दे ती है , पुनः हिमयग
ु के
अवसान के उपरांत हिमानी का निर्वतन हुआ और समुद्र तल ऊपर उठ गया जिससे ये
स्थल खंड पुनः जलमग्न हो गए। इस प्रकार अधिक चौड़े मग्न तटों का विकास हुआ।

उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्व के अलग-अलग भागों में मग्न तटों की उत्पत्ति में भ्रंशन की
क्रिया, नदियों द्वारा डेल्टा निर्माण, समद्र
ु की लहरों तथा तरं गों द्वारा संपादित अपरदनात्मक
क्रिया तथा पथ्ृ वी में संवाहनिक तरं गों का उत्पन्न होना आदि को सहायक माना जाता है ।
अतः मग्न तटों की रचना में महाद्वीपों तथा महासागरों में होने वाले परिवर्तनों का नियंत्रण
होता है

महाद्वीपीय मग्न तटों के क्षेत्र मानव के लिये महासागरों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग होते
हैं। इन तटों पर समुद्र का जल छिछला होता है , जिससे प्रकाश इनके नितल तक प्रवेश कर
जाता है । इसके अतिरिक्त, महाद्वीपों से अनेक प्रकार के पोषक तत्त्व नदियों द्वारा बहाकर
यहाँ लाए जाते हैं। इन कारणों से इस क्षेत्र में वनस्पतियों तथा समुद्री जीवों को विकसित
होने का पूरा अवसर मिलता है । इसलिये महाद्वीपीय मग्न तटों के उथले जल में मछलियों
की भारी मात्रा उपलब्ध होती है ।अतः इनकी उत्पत्ति और संरचना को समझकर इनका
समुचित उपयोग करना संभव हो पाता है ।
प्रश्न- महासागरीय निक्षेपों का विश्लेषण एवं अध्ययन भौमिकीय,जीवीय,आर्थिक,सांस्कृतिक
तथा जलवायु (geological,biological,economic,culture,climate )के दृष्टिकोण से
अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है । सविस्तार स्पष्ट कीजिए। (20)

उत्तर की रूपरे खा-

 महासागरीय निक्षेपों का परिचय दीजिए।


 महासागरीय निक्षेपों का भौमिकीय,जीवीय,आर्थिक,सांस्कृतिक तथा जलवायु की दृष्टि
से महत्त्व बताइए।
 उचित निष्कर्ष दीजिए ।

उत्तर-

महासागरीय नितल पर जमे हुए असंगठित अवसादों को महासागरीय निक्षेप कहा जाता है ।
इनमें मख्
ु यतः असंगठित शैल, कंकड़, पत्थर, मिट्टी, चीका, जीव-जंतओ
ु ं के अस्थिपंजर और
वनस्पतियों के अवशेषों को शामिल किया जाता है । इनके स्त्रोत स्थलीय और सागरीय दोनों
प्रकार के होते हैं।

इन महासागरीय निक्षेपों का विश्लेषण एवं अध्ययन का भौमिकीय, जीवीय, आर्थिक,


सांस्कृतिक तथा जलवायु दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है जिसे निम्नलिखित बिंदओ
ु ं की सहायता से
समझा जा सकता है -

 भौमिकीय महत्त्व- महासागरीय निक्षेपों का अध्ययन पथ्


ृ वी के इतिहास को भी
प्रदर्शित करता है क्योंकि इनका निक्षेपण पथ्ृ वी की उत्पत्ति के आरं भ से ही अनेक
परतों में हुआ है । इन परतों का अध्ययन करके भू-गर्भ की अनेक जानकारियों का
पता लगाया जा सकता है । वलित पर्वतों के अध्ययन में भी इनकी भमि
ू का हैं क्योंकि
उनका निर्माण सागरीय आवसादों में वलन पड़ने से ही हुआ था। साथ ही नितल पर
उपस्थित जीवों के अस्थिपंजरों के विस्तत
ृ अध्ययन की सहायता से मानव जाति के
इतिहास और उदविकास के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है ।
 जीवीय महत्त्व- महासागरीय नितल पर पर उपस्थित जीवों के अस्थिपंजरों के विस्तत

अध्ययन की सहायता से मानव जाति के इतिहास और उदविकास के बारे में भी
महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है । इनकी अस्थियों की रे डियो-डेटिग
ं के बाद
इनकी उम्र का पता लगाया जा सकता है । निक्षेपों की सबसे नीचे वाली परत के जीव
सबसे पुराने होंगे और उनका अध्ययन पथ्ृ वी पर पाए जाने वाले प्रारम्भिक जीव-
जंतुओं की जैविक और भौतिक संरचना का पता लगाया जा सकता है ।

 आर्थिक महत्त्व- इन महासागरीय निक्षेपों में महत्त्वपूर्ण खनिज पाए जाते हैं जो
आर्थिक दृष्टि से बहुमूल्य होते है । मग्नतटों पर जैविक निक्षेपों का ही पेट्रोलियम
उत्पादों में रूपांतरण हुआ है । आज इन उत्पादों के कारण ही मनष्ु य को ऊर्जा सुरक्षा
की प्राप्ति हो रही है । पॉलीमेटैलिक ग्रंथियाँ (जिसे मैंगनीज़ ग्रंथियाँ भी कहा जाता है )
जो गहरे समद्र
ु में विश्व महासागरों के समद्र
ु तलों की ढलानों पर पाई जाती हैं, का
अत्यंत आर्थिक महत्त्व होता है । मैंगनीज़ और लोहे के अलावा, इनमें निकिल, तांबा,
कोबाल्ट, सीसा, मोलिब्डेनम, कैडमियम, वैनेडियम, टाइटे नियम आदि धातए
ु ँ पाई
जाती हैं। इन सभी में निकिल, कोबाल्ट और तांबे को सबसे अधिक आर्थिक एवं
सामरिक महत्त्व की धातए
ु ँ माना जाता है । एक अनम
ु ान के अनस
ु ार, पॉलीमैटेलिक
ग्रंथि संसाधनों की कुल क्षमता 380 मिलियन टन के करीब है , जिसमें 4.7 मिलियन
टन निकिल, 4.29 मिलियन टन तांबा और 0.55 मिलियन टन कोबाल्ट तथा 92.59
मिलियन टन मैंगनीज़ के होने की संभावना जताई गई है । वहीं जैविक निक्षेपों से
अनेक प्रकार की दवाइयों और प्रसाधन सामग्री का निर्माण होता है ।

 सांस्कृतिक महत्त्व- महासागरीय निक्षेपों में कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका
सांस्कृतिक महत्त्व होता है । प्राचीन काल में मुद्रा के रूप में इस्तेमाल होने वाली कौड़ी
भी समद्र
ु से प्राप्त की जाती थी। हिन्द ू धर्म में विभिन्न प्रकार के शभ
ु कार्यों को
प्रारं भ करने से पूर्व शंख बजाना शुभ माना जाता है । यह शंख भी समुद्र से ही प्राप्त
होता है । इसके अलावा समुद्र से प्राप्त सीपियों, मँूगों इत्यादि का भी अनेक प्रकार से
सांस्कृतिक महत्त्व है । अनेक समुदायों के लोग इनकी माला बनाकर पहनते हैं।
 जलवायविक महत्त्व- महासागरीय निक्षेपों की परतों का अध्ययन करके पथ्
ृ वी के
जलवायु इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है । पथ्
ृ वी के भूतकाल में आए हिम
युगों और गरम युगों के बारे में जानकारी इनके अध्ययन से आसानी से प्राप्त हो
सकती है ।

इस प्रकार महासागरीय निक्षेपों का अध्ययन मनुष्य के जीवन के अनेक आयामों में अपनी
महत्त्वपर्ण
ू भमि
ू का निभाता है । पथ्ृ वी के संसाधनों की घटती मात्रा को दे खते हुए अब ये
समुद्री निक्षेप वैकल्पिक संसाधनों के रूप में काम आने वाले हैं अतः इनका विस्तत
ृ और
व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए अनेक वैश्विक मिशन शुरू किए गए हैं। हाल ही में भारत
का ‘डीप ओशन मिशन’ इसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है ।
प्रश्न- जलधारा तली (channel bed) की स्थलाकृति (Topography) का विश्लेषण कीजिए।
(20)

उत्तर की रूपरे खा-

 जलधारा तली (channel bed) का परिचय दीजिए।


 इसकी विशेषताओं को विस्तार से बताइए।
 उचित निष्कर्ष लिखिए।

उत्तर-

किसी नदी द्वारा अपनाए गए मार्ग को जलमार्ग(channel) कहा जाता है । नदी अपने उद्गम
स्थान से लेकर मुहाने तक प्रवाहित होते हुए अपने मार्ग में अनेक प्रकार की भू -आकृतियों का
निर्माण करती है । नदी की दो प्रकार की परिच्छे दिकाएँ (Profiles) होती है - अनुदैध ् र्य और
अनप्र
ु स्थ परिच्छे दिका।

नदी की अनुदैध ् र्य परिच्छे दिका में अनेक प्रकार भी भू -आकृतियों का निर्माण होता है
जिनमें जलप्रपात, जलगर्तिका तथा अवनमित कंु ड, नदी विसर्प, गोखरु झील, गफि
ंु त नदी,पल

(pool) एवं रीफल(Riffle) इत्यादि प्रमुख हैं।

अनुप्रस्थ परिच्छे दिका में बनने वाली भू-आकृतियों में महाखड्ड (Gorge), V आकार और U
आकार की घाटियाँ, अध:कर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प, नदी भग
ृ ु (River Cliff),
संरचनात्मक सोपानों (structural benches), इन्टर-लॉकिंग या ओवर-लूकिंग प्रक्षेप
(Spurs),स्कन्ध ढाल (Slip Off Slope) इत्यादि का निर्माण होता है ।

इन सभी संरचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है -

 जलप्रपात - जब किसी स्थान पर नदियों का जल ऊँचाई पर स्थित खड़े ढाल के


ऊपरी भाग से अधिक वेग से नीचे गिरता है तो उसे जलप्रपात कहते हैं। जब नदी के
मार्ग में कठोर तथा मल
ु ायम चट्टानों की परतें क्षैतिज या लंबवत अवस्था में मिलती हैं
तो यह स्थिति बनती है ।
 जलगर्तिका तथा अवनमित कंु ड- पहाड़ी क्षेत्रों में नदी तल में जल भंवर के साथ छोटे
चट्टानी टुकड़े वत्ृ ताकार रूप में तेज़ी से घूमते हैं जिन्हें जलगर्तिका कहते हैं। कालांतर
में इन गर्तों का आकार बढ़ता जाता है और आपस में मिलकर गहरी नदी-घाटी का
निर्माण करते हैं। जब जलगर्तिका की गहराई तथा इसका व्यास अधिक होता है तो
उसे अवनमन कंु ड कहते हैं। ये कंु ड भी घाटियों को गहरा करने में सहायक होते हैं।

 अध:कर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प- मंद ढालों पर बहती हुई प्रौढ़ नदियाँ पार्श्व
अपरदन और क्षैतिज अपरदन अधिक करती हैं। इसके साथ ही टे ढ़े -मेढ़े रास्तों से
होकर बहने के कारण नदी विसर्प का निर्माण होता है । जब ये विसर्प कठोर चट्टानों में
मिलते हैं तो गहरे कटे और विस्तत
ृ होते हैं। इन्हें ही अध:कर्तित या गभीरीभूत विसर्प
कहते हैं।
 निक पॉइंट – जब नदी का पन
ु र्योवन होता है तो नदी के अपरदन सामर्थ्य में फिर से
वद्धि
ृ हो जाती है और नदी एक नई परिच्छे दिका का निर्माण करती है । इस प्रकार
जहाँ नई और पुरानी परिच्छे दिकाएँ मिलती हैं उसे निक पॉइंट कहा जाता है ।
 नदी विसर्प और गोखुर झील- मैदानी क्षेत्रों मे नदी की धारा दाएं बाए बल खाती हुई
प्रवाहित होती है और विसर्प का निर्माण करती है , ये विसर्प S आकार के होते हैं, जब नदी
अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है तब नदी का अपशिष्ट भाग गोखुर
झील कहलाता है । जैसे उत्तर भारत की मैदानी झीले ।
 पूल (pool) एवं रीफल(Riffle)- विसर्पित नदी जलमार्ग के एक किनारे पर अपरदन
करती है जबकि दस
ू रे किनारे में निक्षेपण । अपरदन से पूल का निर्माण होता है
जबकि निक्षेपण से रिफल का ।
 V आकार और U आकार की घाटियाँ- हिमानी पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी घाटियों से
प्रवाहित होती है जिनके ढाल खड़े तथा तली चौरस एवं सपाट होती है । घाटियों का
अपरदन होने से इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘यू’ (U) की भाँति हो जाता
है । सर्वप्रथम नदी निम्नवर्ती कटाव द्वारा अपनी तली को गहरा करती हैं। इससे तंग
व संकरी "V" आकृति की घाटी विकसित होती हैं किसके पार्श्व तीव्र ढालवाले या
उत्तल होते हैं।
 महाखड्ड (Gorge)- महाखड्ड' या गार्ज "वी" आकार की घाटी का ही विशिष्ट रूप हैं।
इसके पार्श्व तीव्र तथा खडी दीवार के समान होते हैं। इनकि रचना प्रायः कठोर शैलों
यक्
ु त क्षेत्र में होती हैं। हिमालय में सिन्धु, सतलज
ु व ब्रह्म्पत्र
ु नदियो के महाखड्ड
(गार्ज) प्रमुख हैं।यह विश्व का सबसे गहरा नदी गार्ज है ।
 नदी वेदिकाएं- बाढ़ के मैदान में नदी के दोनों पार्श्वों पर निर्मित सोपनाकार वेदिकाएं
जो नदी मार्ग के समानांतर होती हैं। नदी वेदिका की उत्पत्ति सामान्यतः नदी में
पुनर्युवन (rejuvenation) आ जाने के परिणामस्वरुप होती है । नदी में पुनर्युवन या
नवोन्मेष के कारण उसकी अपरदन शक्ति बढ़ जाती है और नदी अपनी पुरानी घाटी
के भीतर नवीन घाटी का निर्माण करती है । इस प्रकार प्राचीन घाटी नवीन घाटी से
ऊँची होती है तथा एक सोपान द्वारा पथ
ृ क् होती है । किसी नदी में कई बार पुनर्युवन
होने से कई क्रमिक वेदिकाओं का निर्माण हो जाता है ।ये युग्मित और अयग्मि
ु त हो
सकती हैं।

इस प्रकार जलमार्ग की स्थलाकृतियों में विविधता पाई जाती हैं जो जलमार्ग के स्वरूप और
आकार का निर्धारण करते हैं। इन स्थलाकृतियों की प्रकृति और निर्माण उस क्षेत्र और नदी
तल की भ-ू गर्भिक दशाओं और आस-पास के वातावरण की भौगोलिक परिस्थितियों पर
निर्भर करता है ।

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