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भूगोल वैकल्पिक part 1 15 questions
भूगोल वैकल्पिक part 1 15 questions
उत्तर-
पारिस्थितिकी तंत्र की ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य होता है जहाँ से ऊर्जा उत्पादकों से होती हुई
पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न उपभोक्ता स्तरों तक प्रवाहित होती है । सामान्यतः
पारिस्थितिकी तंत्र के एक स्तर से दस
ू रे स्तर तक प्रवाहित होने वाले ऊर्जा प्रतिशत को ही
उत्पादकता की संज्ञा दी जाती है किन्तु इसके अनेक प्रकारों के कारण उत्पादकता की
परिभाषा में थोड़ा बहुत अंतर दिखाई दे ता है । । पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता के
निम्नलिखित प्रकार हैं-
उत्तर-
भग
ू ोल में भौगोलिक तंत्रों को समझने में सांख्यिकीय सिद्धांतों, गणितीय तकनीकों, प्रमेय और
परिमाणों का प्रयोग मात्रात्मक क्रांति कहलाता है । सर्वप्रथम प्रसिद्ध भग
ू ोलवेता आई. बर्टन ने
‘कैनेडियन ज्योग्राफर 7’ में अपने शोधपत्र ‘मात्रात्मक क्रांति और सैद्धांतिक भूगोल’ के माध्यम
से इस क्रांति का सत्र
ू पात किया।
मात्रात्मक क्रांति का भूगोल विषय के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है जिसे निम्नलिखित
बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है -
इसने भग
ू ोल को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पुनः एक शोध विषय के रूप में स्थापित
किया।
भग
ू ोल में वैज्ञानिकता का समावेशन किया।
अवस्थिति सिद्धांतों के कारण संसाधनों की खोज और उद्योगों की स्थापना
आर्थिक रूप से लाभकारी हुई।
भौगोलिक अनुमानों की सटीकता में वद्धि
ृ हुई।
मानचित्रों की गुणवत्ता में वद्धि
ृ हुई।
उत्तर-
वान थ्यन
ू ेन मॉडल का प्रतिपादन प्रसिद्ध जर्मन समाजशास्त्री जॉन हे नरिक वान थ्यन
ू ेन ने
1826 ई. में अपनी पुस्तक ‘द आइसोलेटेड स्टे ट’ में किया था । इन्होंने पूर्वी जर्मनी के
मेकलेनबर्ग में गहन अध्ययन के पश्चात अपने सिद्धांत में कुछ मान्यताओं(Assumptions)
का सहारा लेते हुए यह बताया कि किसी विलग (Isolated) प्रदे श में केन्द्रीय नगर के चारों
ओर 6 संकेंद्रीय(Concentric) पेटियों में नगर से बढ़ती दरू ी के अनुसार विभिन्न फसलों का
उत्पादन होता है ।
इनके अनुसार प्रथम पेटी में शाक-सब्जी की खेती और दग्ु ध उत्पादन होता है । द्वितीय पेटी
में ईंधन के लिए लकड़ी का उत्पादन , तीसरी पेटी में जमीन को बिना परती रखे गहन
कृषि,चतुर्थ पेटी में कुछ भूमि को परती रखते हुए अनाज की खेती, पंचम पेटी में तीन खेत
प्रणाली (three field system) के तहत अनाज उत्पादन और अंतिम एवं छठी पेटी में माँस
के लिए पशुपालन होता है ।
दरअसल भग
ू ोल में सभी मॉडल्स की मख्
ु य विशेषता यह होती है कि वे कुछ मान्यताओं पर
आधारित होते हैं और उन मान्यताओं के बदलने से उस मॉडल के परिणाम भी बदल जाते हैं।
यहीं बात वहाँ वान थ्यूनेन मॉडल के साथ भी लागू होती है । जर्मनी और भारत की भौगोलिक
और सांस्कृतिक विशेषताओं में भिन्नताओं के कारण इस मॉडल के परिणाम भी भिन्न-भिन्न
होते हैं। अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारत के संदर्भ में वहाँ वान थ्यूनेन मॉडल
आंशिक रूप से ही लागू होता है ।
प्रश्न- हिन्द महासागर क्षेत्र के तापमान में हो रही तीव्र वद्धि
ृ का दक्षिण एशिया पर संभावित
प्रभाव की विवेचना कीजिए। (10)
उत्तर-
इस तापमान वद्धि
ृ के दक्षिण एशिया पर संभावित प्रभावों को निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के
माध्यम से समझा जा सकता है -
उत्तर-
परितंत्र में निम्न पोषण स्तर से उच्चपोषण स्तर के जीवों के बीच जो भोजन श्रंख
ृ ला होती
है , वह खाद्य श्रंख
ृ ला कहलाती है । खाद्य श्रंख
ृ ला निम्न पोषण स्तर से उच्च पोषण स्तरों के
बीच ऊर्जा के स्थानान्तरण के क्रम में श्रंख
ृ लाबद्ध होती है । जैसे एक पौधे का भक्षण कीड़े
(Beetle) द्वारा किया जाता है , कीड़े को में ढ़क खा जाता है , में ढ़क साँप का भोजन है और
साँप एक बाज द्वारा खा लिया जाता है । इस खाद्य के क्रम और एक स्तर से दस
ू रे स्तर पर
ऊर्जा के प्रवाह को ही खाद्य श्रंख
ृ ला कहा जाता है । जैसे: घास → टिड्डा → पक्षीगण →
बाज ।
खाद्य श्रंख
ृ ला में एक पोषण स्तर पर उपस्थित जीव अपने पहले के पौषण स्तर से
ऊर्जा ग्रहण करता है । इस ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य होता है और सौर ऊर्जा को
पौधों(उत्पादकों) द्वारा जैव-रासायनिक ऊर्जा में बदल दिया जाता है और यही ऊर्जा
उपभोक्ताओं के आगे के सभी स्तरों तक प्रवाहित होती है । चँकि
ू हम जानते हैं कि
एक पौषण स्तर से दस
ू रे स्तर तक कुल ऊर्जा का केवल 10% ही स्थानांतरित हो
पाता है क्योंकि शेष ऊर्जा उपापचयी क्रियाओं में खर्च हो जाती है ।
खाद्य श्रंख
ृ ला के चार या पाँच स्तर तक आते आते यह ऊर्जा अत्यधिक न्यन
ू हो
जाती है । जैसे यदि उत्पादक ने 100 यूनिट ऊर्जा उत्पादन किया तो प्राथमिक
उपभोक्ता तक केवल 10 यूनिट ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, द्वितीय उपभोक्ता तक
केवल 1 यूनिट ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, तत
ृ ीय उपभोक्ता तक केवल 0.1 यूनिट
ऊर्जा का स्थानांतरण होगा, चतुर्थ उपभोक्ता तक केवल 0.01 यूनिट ऊर्जा का
स्थानांतरण होगा जो कि लगभग शन्
ू य के बराबर है । इसके आगे ऊर्जा का
स्थानांतरण नगण्य हो जाएगा और किसी भी पोषण स्तर के बने रहने के लिए ऊर्जा
की पर्याप्त मात्रा होना अति-आवश्यक होता है ।
इसलिए इस ऊर्जा की होने वाली अत्यधिक क्षति के कारण अधिकांश खाद्य श्रंख
ृ ला चतुर्थ
उपभोक्ता के आगे शायद ही बढ़ पाती है और यही सीमित हो जाती है । जो खाद्य श्रंख
ृ ला
जितनी ज्यादा सीमित होती है उसकी ऊर्जा दक्षता उतनी ही अधिक होती है और उच्चतम
उपभोक्ता को अधिक मात्रा में ऊर्जा की उपलब्धता रहती है ।
प्रश्न- डेविस, पें क तथा है क के भू-आकृतिक सिद्धांतों के बीच समानता पर संक्षिप्त टिप्पणी
लिखिए। (10)
उत्तर-
इन तीनों विद्वानों ने अपनी-अपनी मान्यताओं और शोध के आधार पर अपने सिद्धांत दिए हैं
जिनमें अनेक समानताएं विद्यमान हैं। इनको निम्नलिखित बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा
सकता है -
इस प्रकार इन तीनों भूगोलवेत्ताओं ने अपने सिद्धांतों में कुछ समान बातों का पालन करते
हुए अपने-अपने ढं ग से भू-आकृतियों के विकास की व्याख्या की जिनका भूगोल के विकास
को समझने में अविस्मरणीय योगदान है ।
प्रश्न- एयरी और प्रैट की संकल्पना का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए। (15)
उत्तर-
एयरी और प्राट ने समस्थितिकी के अध्ययन से पश्चात अपने अपने सिद्धांत दिए जिनका
तुलनात्मक विश्लेषण निम्नलिखित है -
Evaluate how far Tylor’s continental drift theory explains the origin of tertiary
mountains?
उत्तर की संरचना-
उत्तर-
टे लर ने दे खा कि कुछ तत
ृ ीयक पर्वत उत्तर से दक्षिण की ओर( रॉकी और एण्डीज पर्वत)
जबकि कुछ पश्चिम से पूर्व की ओर(अल्पस,कॉकेसस ,हिमालय ) फैले हुए हैं। टे लर ने इन्ही
सभी की उत्पत्ति की व्याख्या करने के लिए अपना सिद्धांत दिया।
इन्होंने बताया कि कालांतर में इन भूखंडों में दो प्रकार के बलों के कारण विस्थापन हुआ।
प्रथम बाल भ-ू मध्यीय रे खा की ओर बल था जिससे महाद्वीपों का भू-मध्य रे खा की और
विस्थापन हुआ और अवसादों में वलन पड़ने से पश्चिम से पूर्व की ओर फैले हुए पर्वतों का
निर्माण हुआ।
इसके अतिरिक्त दस
ू रा बल था चंद्रमा के कारण उत्पन्न ज्वारीय बल जिसके फलस्वरूप
महाद्वीपों का विस्थापन पश्चिम दिशा की ओर हुआ और अवसादों में वलन पड़ने से उत्तर
से दक्षिण की ओर फैले हुए पर्वतों का निर्माण हुआ जिनमे रॉकी और एण्डीज पर्वत मुख्य हैं।
उत्तर की संरचना-
उत्तर-
हाल ही में उत्तर-पश्चिम प्रशांत जो अपनी मध्यम जलवायु के लिये जाना जाता है , एक
"ऐतिहासिक" गर्मी की के पीछे "हीट डोम" (Heat Dome) को जिम्मेदार माना जा रहा है ।
यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब वायुमंडल गर्म समुद्री हवा को ढक्कन या टोपी की तरह
फँसा लेता है । हीट डोम उच्च दबाव क्षेत्र है जो उस बर्तन की तरह होता है जिस पर लगा
ढक्कन गर्मी को रोककर रखता है ।
जैसे-जैसे प्रचलित हवाएँ गर्म हवा को पूर्व की ओर ले जाती हैं, वैसे-वैसे जेट स्ट्रीम की
उत्तरी शिफ्ट हवा को भमि
ू की ओर मोड़ दे ती है , जहाँ यह समाप्त हो जाती है ,
जिसके परिणामस्वरूप गर्म लहरों का जन्म होता है ।
इन सबके बाद एक उच्च दबाव वाले क्षेत्र का निर्माण हो जाता है जो एक टोपी या
बर्तन पर लगे ढक्कन की तरह होता है ।
हीट डोम के गठन के कारण:
वायम
ु ंडलीय दबाव में परिवर्तन: हीट वेव की शरु
ु आत तब होती है जब वायम
ु ंडल में
उच्च दबाव बनता है और यह गर्म हवा को भमि
ू की ओर ले जाता है । यह
प्रभाव समुद्र से उठने वाली ऊष्मा के कारण होता है , जिससे एक प्रवर्द्धन लूप
बनता है ।
बिना एयर कंडीशनर के रहने वाले लोग अपने घरों के तापमान को असहनीय रूप से
बढ़ते हुए दे खते हैं, जिससे अचानक मत्ृ यु हो सकती है ।
‘हीट डोम’ जंगल की आग के लिये ईंधन के रूप में भी काम कर सकते हैं , जो हर
साल अमेरिका में बहुत सारे भमि
ू क्षेत्र और जीव-जंतुओं की लाखों प्रजातियों को नष्ट
कर दे ता है ।
हीट डोम बादलों के निर्माण में बाधा उत्पन्न करता है , जिससे सूर्य विकिरण अधिक
मात्रा में पथ्
ृ वी तक पहुँच जाता है ।
हीट डोम के हानिकारक प्रभावों को दे खते हुए यह जरूरी है कि इसके शमन के लिए तुरंत
उपाय किये जाएँ जिनके ग्रीन-हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना, वनावरण और नवीकरणीय
ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा दे ना, पेरिस जलवायु समझौते हो शीघ्रता और गंभीरता से लागू
करना इत्यादि प्रमुख उपाय हो सकते हैं।
प्रश्न- मनुष्य के क्रियाकलाप तटीय भागों में अवसादी विशेषताओं को किस प्रकार प्रभावित
करते हैं? (15)
उत्तर-
पथ्
ृ वी पर उपस्थित सभी भू-आकृतियाँ समय के साथ अपने स्वरूप और आकार बदलती रहती
हैं जिनके पीछे भौतिक, रासायनिक और अनेक मानवीय कारकों का योगदान शामिल होता
है । मानव प्रतिदिन भमि
ू के भौतिक पर्यावरण के साथ अन्तरक्रिया करता है और इसकी
अनेक विशेषताओं में अपने क्रियाकलापों से परिवर्तन भी करता रहता है । वर्तमान में मानवीय
क्रियाकलापों के कारण तटीय भागों में अवसादी विशेषताओं में भारी परिवर्तन दे खने को मिल
रहा है जिसके अनेक प्रभाव तटीय पारिस्थितिकी पर पड़ रहे हैं।
उत्तर-
भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के पश्चात मॉडल का व्यापक स्तर पर दे खा गया हालाँकि इनका
प्रयोग पहले भी कुछ विद्वानों द्वारा अपने सिद्धांत को सरल रूप में प्रस्तुतीकरण के लिए
किया जाता था जैसे 1826 ई. में वान थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित किया गया ‘कृषि अवस्थिति
मॉडल’ । दरअसल हमारे आसपास के भौतिक और मानवीय तंत्र अत्यंत जटिल होते हैं
जिनका आसानी से अध्ययन संभव नहीं होता है । इसलिए इन तंत्रों का आदर्श और
साधारणीकृत प्रस्तुतीकरण ही मॉडल कहलाता है । जैसे जल पथ्ृ वी के तीनों मंडलों(
जलमंडल,स्थलमंडल और वायम
ु ड
ं ल ) में है और सम्पर्ण
ू पथ्
ृ वी को प्रभावित करता है । इसे
जलीय चक्र मॉडल के माध्यम से समझना काफी आसान हो जाता है । शोर्ले और है गेट ने
अपनी पस्
ु तक ‘ मॉडल्स इन ज्योग्रफी’ में मॉडल्स के बारे में विस्तार से बताया है ।
भग
ू ोल में प्रतिमानों की आवश्यकता-
भूगोल के लगभग सभी भौतिक और मानवीय तंत्र अत्यंत जटिल होते हैं और
मॉडल्स इनको आसान तरीकों से समझने में सहायक होते हैं।
विभिन्न पूर्वानुमानों के लिए उपयोगी जैसे किस प्रकार के उद्योग की स्थापना कहाँ
होनी चाहिए यह वेबर के मॉडल से पता लगाया जा सकता है ।
भूगोल सामान्यतः एक विवरणात्मक विषय था जिससे लोगों में भग
ू ोल के प्रति रूचि
कम थी। मॉडल के प्रयोग के बाद भूगोल विषय विश्लेषणात्मक हो गया जिससे
रूचिकर और सरल होने से लोगों का रुझान इसकी और बढ़ा।
भूगोल का कार्य आर्थिक और सामाजिक विकास में योगदान दे ना भी होता है
गण
ु वत्तापर्ण
ू मानचित्रों द्वारा संसाधनों की अवस्थिति का सटीक अनम
ु ान ने और
जनसंख्या वद्धि
ृ के मॉडल ने इस और अपना योगदान दिया।
भग
ू ोल में मात्रात्मक क्रांति के पहले वैज्ञानिकता का अभाव था। विभिन्न मॉडलों ने
भूगोल विषय को तकपूर्ण और वैज्ञानिक बनाने में अपनी महती भमि
ू का का निर्वहन
किया।
भूगोल में पहले आनुमानाश्रित आंकड़ों का प्रयोग होता था लेकिन मॉडल्स की वजह से
आंकड़ों की गुणवत्ता और उनके विश्लेषण की गुणवत्ता में वद्धि
ृ हुई जिससे परिणाम
और भी सटीक प्राप्त होने लगे।
पहले भग
ू ोल विषय का अध्ययन अत्यंत सीमित था लेकिन मॉडल्स की वजह से यह
विषय अंतरविषयात्मक (multidisciplinary) हो गया है और इनको पढ़ने वालों और
शोध करने वालों की संख्या में भारी मात्रा में वद्धि
ृ हुई है ।
उत्तर-
चक्रवात अत्यंत निम्न वायुमंडलीय दाब का केंद्र होता है और इस केंद्र के चारों ओर से हवाएँ
केंद्र की ओर तीव्र से आती हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात उत्तरी और दक्षिण गोलार्द्धों में
लगभग 5 डिग्री से 30 डिग्री अक्षांशों के बीच उत्पन्न होते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी गति
घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत अर्थात ् वामावर्त (Counter Clockwise) और दक्षिणी
गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त (Clockwise) होती है । इस प्रकार के तूफानों को उत्तरी अटलांटिक
और पूर्वी प्रशांत में हरिकेन (Hurricanes) तथा दक्षिण-पूर्व एशिया एवं चीन में टाइफून
(Typhoons) कहा जाता है । दक्षिण-पश्चिम प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में
उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones) और उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रे लिया में विली-
विलीज़ ( Willy-Willies) कहा जाता है ।
ऊष्णकटिबंधीय तूफानों के बनने और उनके तीव्र होने हे तु अनुकूल दशाएँ निम्नलिखित हैं:-
27 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली एक बड़ी समुद्री सतह- तापमान ज्यादा
होने से निम्नदाब का क्षेत्र उतना ही तीव्र बनता है जिससे अंदर आने वाली हवाओं की
गति में वद्धि
ृ होती है । चक्रवात केवल समुद्री सतह पर ही बनते हैं भमि
ू पर ये नष्ट
हो जाते हैं।
कोरिओलिस बल की उपस्थिति- कोरिओलिस बल के कारण पवनें वत्ृ ताकार दिशा में
गति करती है जिससे चक्रवात का स्वरूप बनता है । भू-मध्य रे खा पर कोरियोलिस
बाल शन्
ू य होने के कारण वहाँ चक्रवात नहीं बनते हैं।
ऊर्ध्वाधर/लम्बवत हवा की गति में अंतर कम होना- इस अंतर के कम होने के कारण
चक्रवात का स्वरूप बिगड़ता नहीं है और चक्रवात लंबे समय तक बना रहता है ।
पहले से मौज़ूद कमज़ोर निम्न-दबाव क्षेत्र या निम्न-स्तर-चक्रवात परिसंचरण- इससे
चक्रवात बनना आसान हो जाता है ।
समुद्र तल प्रणाली के ऊपर अपसरण (Divergence)- समुद्र तल पर नीचे पवनों का
अभिसरण होना चाहिए जबकि ऊपरी सतह पर पवने बाहर की ओर अभिसरित होनी
चाहिए।
चित्र-
उष्णकटिबंधीय चक्रवात के निकट आने पर वायु शांत हो जाती है और आकाश में पक्षाभ
स्तरीय मेघ छा जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा के गिर्द ज्योतिर्मंडल दिखाई दे ने लगता है । चक्रवात
के अग्रभाग के पहुंचते ही वायुदाब कम होने लगता है । आसमान में कपासी मेघ छाने लगते
हैं और वर्षा होने लगती है । अक्षुभित्ति के आने पर पवनों का वेग 250 किमी/घंटा हो सकता
है और मसू लाधार वर्षा होती है । चक्रवात की आँख के पहुंचते ही वायु शांत हो जाती है , वर्षा
बंद हो जाती है और आसमान साफ हो जाता है । जब चक्रवात की आँख समुद्र के ऊपर से
गुजरती है तो समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं। आँख के गुजर जाने के बाद पुनः कपासी
मेघ छाने लगते हैं और पवन तीव्र वेग से चलती है । पष्ृ ठ भाग के गुजर जाने के बाद पवन
प्रवाह मंड पड़ जाता है और आकाश फिर से मेघरहित हो जाता है ।
उष्णकटिबंधीय चक्रवात बड़े विनाशकारी होते हैं और विश्व के अनेक भागों में तबाही मचाते
हैं। ग्रीष्मकाल के उत्तरार्द्ध और शरद ऋतु के पूर्वार्ध में ये भारत के तटीय भागों में भारी
मात्रा में जान-माल की क्षति का कारण बनते हैं। लेकिन अब उपग्रहों और उन्नत पूर्वानुमान
तकनीकों के माध्यम से इनका सटीक पूर्वानुमान संभव हो पाया है जिससे समय रहते प्रभावी
कदम उठाकर नुकसान को न्यूनतम किया जा सकता है ।
प्रश्न- महाद्वीपीय मग्नतटों की उत्पत्ति की व्याख्या अलग-अलग कारणों तथा सिद्धांतों के
आधार पर कीजिए । (20)
उत्तर-
समुद्र के जल में डूबे महाद्वीपीय किनारों/तटों को महाद्वीपीय मग्न तट कहते हैं। महासागरों
के नितल का यह भाग समद्र
ु तल से 120 से 180 मीटर तक की गहराई तक विस्तत
ृ होता
है तथा इसका ढाल बहुत कम होता है । इसके अंत में ढाल आकस्मिक रूप से प्रपाती हो
जाता है और समद्र
ु की गहराई में वद्धि
ृ हो जाती है । महाद्वीपीय मग्न तटों का औसत ढाल
0.2% अथवा 1° होता है ।
महाद्वीपीय मग्न तटों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रस्तुत
किये हैं, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्व के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले मग्न
तटों की रचना भिन्न-भिन्न प्रक्रमों के द्वारा हुई है । कुछ प्रमुख मतों को निम्नलिखित
बिंदओ
ु ं के माध्यम से समझा जा सकता है -
उपरोक्त के अतिरिक्त, विश्व के अलग-अलग भागों में मग्न तटों की उत्पत्ति में भ्रंशन की
क्रिया, नदियों द्वारा डेल्टा निर्माण, समद्र
ु की लहरों तथा तरं गों द्वारा संपादित अपरदनात्मक
क्रिया तथा पथ्ृ वी में संवाहनिक तरं गों का उत्पन्न होना आदि को सहायक माना जाता है ।
अतः मग्न तटों की रचना में महाद्वीपों तथा महासागरों में होने वाले परिवर्तनों का नियंत्रण
होता है
महाद्वीपीय मग्न तटों के क्षेत्र मानव के लिये महासागरों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग होते
हैं। इन तटों पर समुद्र का जल छिछला होता है , जिससे प्रकाश इनके नितल तक प्रवेश कर
जाता है । इसके अतिरिक्त, महाद्वीपों से अनेक प्रकार के पोषक तत्त्व नदियों द्वारा बहाकर
यहाँ लाए जाते हैं। इन कारणों से इस क्षेत्र में वनस्पतियों तथा समुद्री जीवों को विकसित
होने का पूरा अवसर मिलता है । इसलिये महाद्वीपीय मग्न तटों के उथले जल में मछलियों
की भारी मात्रा उपलब्ध होती है ।अतः इनकी उत्पत्ति और संरचना को समझकर इनका
समुचित उपयोग करना संभव हो पाता है ।
प्रश्न- महासागरीय निक्षेपों का विश्लेषण एवं अध्ययन भौमिकीय,जीवीय,आर्थिक,सांस्कृतिक
तथा जलवायु (geological,biological,economic,culture,climate )के दृष्टिकोण से
अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है । सविस्तार स्पष्ट कीजिए। (20)
उत्तर-
महासागरीय नितल पर जमे हुए असंगठित अवसादों को महासागरीय निक्षेप कहा जाता है ।
इनमें मख्
ु यतः असंगठित शैल, कंकड़, पत्थर, मिट्टी, चीका, जीव-जंतओ
ु ं के अस्थिपंजर और
वनस्पतियों के अवशेषों को शामिल किया जाता है । इनके स्त्रोत स्थलीय और सागरीय दोनों
प्रकार के होते हैं।
आर्थिक महत्त्व- इन महासागरीय निक्षेपों में महत्त्वपूर्ण खनिज पाए जाते हैं जो
आर्थिक दृष्टि से बहुमूल्य होते है । मग्नतटों पर जैविक निक्षेपों का ही पेट्रोलियम
उत्पादों में रूपांतरण हुआ है । आज इन उत्पादों के कारण ही मनष्ु य को ऊर्जा सुरक्षा
की प्राप्ति हो रही है । पॉलीमेटैलिक ग्रंथियाँ (जिसे मैंगनीज़ ग्रंथियाँ भी कहा जाता है )
जो गहरे समद्र
ु में विश्व महासागरों के समद्र
ु तलों की ढलानों पर पाई जाती हैं, का
अत्यंत आर्थिक महत्त्व होता है । मैंगनीज़ और लोहे के अलावा, इनमें निकिल, तांबा,
कोबाल्ट, सीसा, मोलिब्डेनम, कैडमियम, वैनेडियम, टाइटे नियम आदि धातए
ु ँ पाई
जाती हैं। इन सभी में निकिल, कोबाल्ट और तांबे को सबसे अधिक आर्थिक एवं
सामरिक महत्त्व की धातए
ु ँ माना जाता है । एक अनम
ु ान के अनस
ु ार, पॉलीमैटेलिक
ग्रंथि संसाधनों की कुल क्षमता 380 मिलियन टन के करीब है , जिसमें 4.7 मिलियन
टन निकिल, 4.29 मिलियन टन तांबा और 0.55 मिलियन टन कोबाल्ट तथा 92.59
मिलियन टन मैंगनीज़ के होने की संभावना जताई गई है । वहीं जैविक निक्षेपों से
अनेक प्रकार की दवाइयों और प्रसाधन सामग्री का निर्माण होता है ।
सांस्कृतिक महत्त्व- महासागरीय निक्षेपों में कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका
सांस्कृतिक महत्त्व होता है । प्राचीन काल में मुद्रा के रूप में इस्तेमाल होने वाली कौड़ी
भी समद्र
ु से प्राप्त की जाती थी। हिन्द ू धर्म में विभिन्न प्रकार के शभ
ु कार्यों को
प्रारं भ करने से पूर्व शंख बजाना शुभ माना जाता है । यह शंख भी समुद्र से ही प्राप्त
होता है । इसके अलावा समुद्र से प्राप्त सीपियों, मँूगों इत्यादि का भी अनेक प्रकार से
सांस्कृतिक महत्त्व है । अनेक समुदायों के लोग इनकी माला बनाकर पहनते हैं।
जलवायविक महत्त्व- महासागरीय निक्षेपों की परतों का अध्ययन करके पथ्
ृ वी के
जलवायु इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है । पथ्
ृ वी के भूतकाल में आए हिम
युगों और गरम युगों के बारे में जानकारी इनके अध्ययन से आसानी से प्राप्त हो
सकती है ।
इस प्रकार महासागरीय निक्षेपों का अध्ययन मनुष्य के जीवन के अनेक आयामों में अपनी
महत्त्वपर्ण
ू भमि
ू का निभाता है । पथ्ृ वी के संसाधनों की घटती मात्रा को दे खते हुए अब ये
समुद्री निक्षेप वैकल्पिक संसाधनों के रूप में काम आने वाले हैं अतः इनका विस्तत
ृ और
व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए अनेक वैश्विक मिशन शुरू किए गए हैं। हाल ही में भारत
का ‘डीप ओशन मिशन’ इसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है ।
प्रश्न- जलधारा तली (channel bed) की स्थलाकृति (Topography) का विश्लेषण कीजिए।
(20)
उत्तर-
किसी नदी द्वारा अपनाए गए मार्ग को जलमार्ग(channel) कहा जाता है । नदी अपने उद्गम
स्थान से लेकर मुहाने तक प्रवाहित होते हुए अपने मार्ग में अनेक प्रकार की भू -आकृतियों का
निर्माण करती है । नदी की दो प्रकार की परिच्छे दिकाएँ (Profiles) होती है - अनुदैध ् र्य और
अनप्र
ु स्थ परिच्छे दिका।
नदी की अनुदैध ् र्य परिच्छे दिका में अनेक प्रकार भी भू -आकृतियों का निर्माण होता है
जिनमें जलप्रपात, जलगर्तिका तथा अवनमित कंु ड, नदी विसर्प, गोखरु झील, गफि
ंु त नदी,पल
ू
(pool) एवं रीफल(Riffle) इत्यादि प्रमुख हैं।
अनुप्रस्थ परिच्छे दिका में बनने वाली भू-आकृतियों में महाखड्ड (Gorge), V आकार और U
आकार की घाटियाँ, अध:कर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प, नदी भग
ृ ु (River Cliff),
संरचनात्मक सोपानों (structural benches), इन्टर-लॉकिंग या ओवर-लूकिंग प्रक्षेप
(Spurs),स्कन्ध ढाल (Slip Off Slope) इत्यादि का निर्माण होता है ।
अध:कर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प- मंद ढालों पर बहती हुई प्रौढ़ नदियाँ पार्श्व
अपरदन और क्षैतिज अपरदन अधिक करती हैं। इसके साथ ही टे ढ़े -मेढ़े रास्तों से
होकर बहने के कारण नदी विसर्प का निर्माण होता है । जब ये विसर्प कठोर चट्टानों में
मिलते हैं तो गहरे कटे और विस्तत
ृ होते हैं। इन्हें ही अध:कर्तित या गभीरीभूत विसर्प
कहते हैं।
निक पॉइंट – जब नदी का पन
ु र्योवन होता है तो नदी के अपरदन सामर्थ्य में फिर से
वद्धि
ृ हो जाती है और नदी एक नई परिच्छे दिका का निर्माण करती है । इस प्रकार
जहाँ नई और पुरानी परिच्छे दिकाएँ मिलती हैं उसे निक पॉइंट कहा जाता है ।
नदी विसर्प और गोखुर झील- मैदानी क्षेत्रों मे नदी की धारा दाएं बाए बल खाती हुई
प्रवाहित होती है और विसर्प का निर्माण करती है , ये विसर्प S आकार के होते हैं, जब नदी
अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है तब नदी का अपशिष्ट भाग गोखुर
झील कहलाता है । जैसे उत्तर भारत की मैदानी झीले ।
पूल (pool) एवं रीफल(Riffle)- विसर्पित नदी जलमार्ग के एक किनारे पर अपरदन
करती है जबकि दस
ू रे किनारे में निक्षेपण । अपरदन से पूल का निर्माण होता है
जबकि निक्षेपण से रिफल का ।
V आकार और U आकार की घाटियाँ- हिमानी पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी घाटियों से
प्रवाहित होती है जिनके ढाल खड़े तथा तली चौरस एवं सपाट होती है । घाटियों का
अपरदन होने से इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘यू’ (U) की भाँति हो जाता
है । सर्वप्रथम नदी निम्नवर्ती कटाव द्वारा अपनी तली को गहरा करती हैं। इससे तंग
व संकरी "V" आकृति की घाटी विकसित होती हैं किसके पार्श्व तीव्र ढालवाले या
उत्तल होते हैं।
महाखड्ड (Gorge)- महाखड्ड' या गार्ज "वी" आकार की घाटी का ही विशिष्ट रूप हैं।
इसके पार्श्व तीव्र तथा खडी दीवार के समान होते हैं। इनकि रचना प्रायः कठोर शैलों
यक्
ु त क्षेत्र में होती हैं। हिमालय में सिन्धु, सतलज
ु व ब्रह्म्पत्र
ु नदियो के महाखड्ड
(गार्ज) प्रमुख हैं।यह विश्व का सबसे गहरा नदी गार्ज है ।
नदी वेदिकाएं- बाढ़ के मैदान में नदी के दोनों पार्श्वों पर निर्मित सोपनाकार वेदिकाएं
जो नदी मार्ग के समानांतर होती हैं। नदी वेदिका की उत्पत्ति सामान्यतः नदी में
पुनर्युवन (rejuvenation) आ जाने के परिणामस्वरुप होती है । नदी में पुनर्युवन या
नवोन्मेष के कारण उसकी अपरदन शक्ति बढ़ जाती है और नदी अपनी पुरानी घाटी
के भीतर नवीन घाटी का निर्माण करती है । इस प्रकार प्राचीन घाटी नवीन घाटी से
ऊँची होती है तथा एक सोपान द्वारा पथ
ृ क् होती है । किसी नदी में कई बार पुनर्युवन
होने से कई क्रमिक वेदिकाओं का निर्माण हो जाता है ।ये युग्मित और अयग्मि
ु त हो
सकती हैं।
इस प्रकार जलमार्ग की स्थलाकृतियों में विविधता पाई जाती हैं जो जलमार्ग के स्वरूप और
आकार का निर्धारण करते हैं। इन स्थलाकृतियों की प्रकृति और निर्माण उस क्षेत्र और नदी
तल की भ-ू गर्भिक दशाओं और आस-पास के वातावरण की भौगोलिक परिस्थितियों पर
निर्भर करता है ।