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कबीर के दोहे
कबीर के दोहे
भावार्थ: कबीर दास जी इस दोहे िें कहते हैं वक अगर हिारे सािने गरुु और भग ान
दोनों एक साथ खड़े हों तो आप वकसके चरण स्पर्श करें गे? गरुु ने अपने ज्ञान से ही
हिें भग ान से विलने का रास्ता बताया है इसवलए गरुु की िवहिा भग ान से भी
ऊपर है और हिें गरुु के चरण स्पर्श करने चावहए।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक इसिं ान को ऐसी भाषा बोलनी चावहए जो सनु ने
ाले के िन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दसरे लोगों को तो सखु पहुचाँ ाती ही
है, इसके साथ खदु को भी बड़े आनिंद का अनभु होता है।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजर ।
पिंथी को छाया नहीं फल लागे अवत दर ।।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक खजर का पेड़ बेर्क बहुत बड़ा होता है लेवकन
ना तो ो वकसी को छाया देता है और फल भी बहुत दरऊाँचाई पे लगता है। इसी
तरह अगर आप वकसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा
नहीं है।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक वनिंदकहिेर्ा दसरों की बरु ाइयािं करने ाले
लोगों को हिेर्ा अपने पास रखना चावहए, क्यिंवक ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे
तो आपकी बरु ाइयााँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलवतयािं सधु ार
सकते हैं। इसीवलए कबीर जी ने कहा है वक वनिंदक लोग इसिं ान का स् भा र्ीतल
बना देते हैं।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक िैं सारा जी न दसरों की बरु ाइयािं देखने िें लगा
रहा लेवकन जब िैंने खदु अपने िन िें झााँक कर देखा तो पाया वक िझु से बरु ा कोई
इसिं ान नहीं है। िैं ही सबसे स् ाथी और बरु ा हाँ भा ाथाशत हि लोग दसरों की बरु ाइयािं
बहुत देखते हैं लेवकन अगर आप खदु के अदिं र झााँक कर देखें तो पाएगिं े वक हिसे
बरु ा कोई इसिं ान नहीं है।
भावार्थ: जब कुम्हार बतशन बनाने के वलए विटटी को रौंद रहा था, तो विटटी कुम्हार
से कहती है – त िझु े रौंद रहा है, एक वदन ऐसा आएगा जब त इसी विटटी िें व लीन
हो जायेगा और िैं तझु े रौंदगिं ी।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक हिारे पास सिय बहुत कि है, जो काि कल
करना है ो आज करो, और जो आज करना है ो अभी करो, क्यविं क पलभर िें
प्रलय जो जाएगी वफर आप अपने काि कब करें गे।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक जहााँ दया है ही ाँ धिश है और जहााँ लोभ है
हािं पाप है, और जहााँ क्रोध है हािं स शनार् है और जहााँ क्षिा है हााँ ईश्वर का ास
होता है।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक एक सज्जन परुु ष िें सप जैसा गणु होना चावहए।
जैसे सप िें अनाज के दानों को अलग कर वदया जाता है ैसे ही सज्जन परुु ष को
अना श्यक चीज़ों को छोड़कर के ल अच्छी बातें ही ग्रहण करनी चावहए।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं वक जब िेरे अदिं र अहक िं ार ‘िैं’ था, तब िेरे ह्रदय िें
ईश्वर का ास नहीं था। और अब िेरे ह्रदय िें ईश्वर का ास है तो ‘िैं’ अहक िं ार नहीं है।
जब से िैंने गरुु रूपी दीपक को पाया है तब से िेरे अदिं र का अधिं कार खत्ि हो गया है।
भावार्थ: जो लोग लगातार प्रयत्न करते हैं, िेहनत करते हैं ह कुछ ना कुछ पाने िें
जरूर सफल हो जाते हैं। जैसे कोई गोताखोर जब गहरे पानी िें डुबकी लगाता है तो कुछ
ना कुछ लेकर जरूर आता है लेवकन जो लोग डबने के भय से वकनारे पर ही बैठे रहे हैं
उनको जी न पयशन्त कुछ नहीं विलता।
भावार्थ: इस सिंसार िें आकर कबीर अपने जी न िें बस यही चाहते हैं वक सबका भला
हो और सिंसार िें यवद वकसी से दोस्ती नहीं तो दश्ु िनी भी न हो !
िानषु जन्ि दल
ु भ है, देह न बारम्बार ।
तर र थे फल झड़ी पड्या,बहुरर न लागे डारर ।।
भावार्थ: िान जन्ि पाना कवठन है। यह र्रीर बार-बार नहीं विलता। जो फल क्ष
ृ
से नीचे वगर पड़ता है ह पनु : उसकी डाल पर नहीं लगता।
भा ाथश: िन की इच्छा छोड़ दो। उन्हें तिु अपने बल पर परा नहीं कर सकते। यवद
जल से घी वनकल आ े, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!