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भावार्थ/ व्याख्या

गु रू गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागूं पांय।


बलिहारी गु रू अपने गोविन्द दियो बताय।।

भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जब गु रू और गोविं द अर्थात् ईश्वर एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम
करना चाहिए– गु रू को अथवा गोविं द को? ऐसी स्थिति में कबीरदास कहते हैं कि गु रू के श्रीचरणों में
शीश झुकाना उत्तम है जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविं द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं।


प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं॥

भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि जब तक मन में अहं कार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ, जब
अहं कार (अहम्) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले । जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ, तब अहं कार स्वत: ही
नष्ट हो गया।
प्रेम की गली अत्यं त तं ग होती है । जिस प्रकार किसी तं ग गली में दो व्यक्तियों को स्थान नहीं दिया जा
सकता ठीक उसी प्रकार प्रेम की गली में अहं कार और ईश्वर इन दोनों चीज़ों को स्थान नहीं मिल सकता
है । भाव यह है कि यदि ईश्वर का साक्षात्कार करना हो तो अहं कार का त्याग करना आवश्यक है । वै से तो
ईश्वर प्राप्ति के लिए अने क प्रकार के कृत्यों की आवश्यकता होती है परं तु कबीर के अनु सार अहं कार
का त्याग सबसे महत्त्वपूर्ण कृत्य है । अहं कारी व्यक्ति के लिए ईश्वर को पाना कठिन है । अहं कारहीन
व्यक्ति सरल हृदय का हो जाता है और ऐसे व्यक्ति को ईश्वर तु रंत प्राप्त हो जाते हैं ।
 
काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मु ल्ला बाँ ग दे , क्या बहरा हुआ खु दाय॥

भावार्थ- प्रस्तु त दोहे में कबीर ने इस्लाम की धार्मिक कुरीतियों पर कटाक्ष किया है । कबीर के अनु सार
मनु ष्य को सच्ची भक्ति करनी चाहिए क्योंकि ढोंग पाखं ड दिखावे से ईश्वर नहीं प्राप्त होते । कबीर कहते
हैं कि कंकड़ पत्थर एकत्रित करके मनु ष्य ने मस्जिद बना ली। उसी मस्जिद में मौलवी जोर जोर से
चिल्लाकर नमाज़ अदा करता है अर्थात मु र्गे की तरह बाँ ग दे ता है तथा ईश्वर का आह्वान करता है । इसी
रूढ़िवादिता पर व्यं ग करते हुए वे मानव समाज से प्रश्न करते हैं कि क्या खु दा बहरा है ? जो हमें इस
तरह से चिल्लाने की आवश्यकता पड़ रही है । क्या शां ति से की गयी एवं मन ही मन में की गयी प्रार्थना
ईश्वर तक नहीं पहुँचती है ? वे इस दोहे में ढोंग आडं बर तथा पाखं ड का विरोध करते हुए नज़र आते हैं ।
ईश्वर तो सर्वज्ञ हैं ।

पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूजँ ू पहार।


ताते ये चाकी भली, पीस खाय सं सार॥
 
भावार्थ- इस दोहे द्वारा कबीरदास ने मूर्ति-पूजा जै से बाह्य आडं बरों का विरोध किया है । कबीर के अनु सार
यदि ईश्वर पत्थर पूजने से मिलता तो वे पहाड़ों की पूजा करना शु रू कर दे ते परन्तु ऐसा सं भव नहीं है ।
कबीर मूर्ति पूजा के स्थान पर घर की चक्की को पूजने कहते है जिससे अन्न पीसकर खाते हैं । जिसमें अन्न
पीस कर लोग अपना पे ट भरते हैं ।

सात समं द की मसि करौं, ले खनि सब बरनाय।


सब धरती कागद करौं, हरि गु न लिखा न जाय।।

भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज, दुनिया के सभी वृ क्षों की कलम और
सातों समु दर् ों की के बराबर स्याही बनाकर भी हरि के गु णों का बखान नहीं कर सकता।

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