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ई रकृ ण क सां यका रका

तोता - अ ण पा डे य
उपो ात

दु:ख यािभघाताि ज ासा तदपघातके हेतौ ।


े साऽपाथा चे नैका ता य तोऽभावात् ॥ १ ॥
॥ भावाथः ॥
आ याि मक (शारी रक और मानिसक) आिधदैिवक (वषा ठ डी गम आिद) और
आिधभौितक (पशु पि य से उ प न) इन तीन कार के दु ःख का अिभघात होने
से उनको दू र करने के हे तु म िज ासा होती है । िजससे ( य औषिध आिद )
उपाय होने वह (प चिवंशित त व क िज ासा) यथ है यह कथन उिचत नही है ।
य िक उपाय से एकाि तक ( पूणतया) और आ यि तक ( िफर कभी न होने
वाली ) दु ःख क िनवृि नह होती ।
वैिदक उपाय क अनु पयोिगता

वदानु िवक: स िवशु ि याितशययु ः ।


ति परीत: ये ान् य ा य िव ानात् ॥ २ ॥
॥ भावाथः ॥
आनु िवक ( वैिदक ) उपाय य ािद भी ( य औषिध आिद ) क तरह ही है
। य िक वह भी अिवशु ि याितशय दोष से यु है । अतः उससे ( और
आनु िवक से) िवपरीत य (२३ त व), अ य ( कृ ित), और (पु ष)
का िव ान पी उपाय ही ेय कर है । इसी उपाय से तीन कार के दु ःख से
एकाि तक और आ यि तक िनवृि स भव है ।
प चिवंशित त व

मू ल कृितरिवकृितमहदा ा: कृितिवकृतय: स ।
षोडशक तु िवकारो न कृितन िवकृित: पु ष: ॥ ३ ॥
॥ भावाथ ॥
मूल कृ ित – अिवकृ ित है (िकसी के िवकार से उ प न नही होती ), महत्
आिद ७ (महत् ,अहंकार, और प चत मा ) कृ ित और िवकृ ित (कारण
और काय) ह, १६ (एकादशेि य और प चमहाभूत) केवल िवकार
(काय) ह , पु ष न तो कृ ित (िकसी का कारण) है न ही िवकृ ित (िकसी
से उ प न होने वाला ) है ।
माण

मनु मानमा वचनं च सव माणिस वात् ।


ि िवधं माणिम ं मेयिसि : माणाि ॥ ४ ॥
॥ भावाथ ॥
सां य के मत म ( य ), अनु मान , और आ वचन ( श द ) ये
तीन ही माण ह इ ही म ही सभी माण िस हो जाते ह । य
(११ इि य , ५ महाभूत , ५त मा , महत् और अहंकार ) अ य
( कृ ित ) और (पु ष) पी सभी मे य इ ही तीन माण से
ात होते ह ।
माण के ल ण

ितिवषया यवसायो ं ि िवधमनुमानमा यातम् ।


ति लङ्गिलङ्िगपूवकमा िु तरा वचनं तु ॥। ५ ॥
॥ भावाथ ॥
ो च ु आिद इि य से होने वाला ान ( य )है , अनु मान
(पूववत् ,शेषवत् और सामा यतो ) भेद से तीन कार का होता है । और वह
िलङ्ग (हे तु) और िलङ्िग (सा य ) पूवक होता है । आ ( यथाथव ा के ारा
कहा गया ) ु ित (वेद ) आ वचन (श द) माण है ।
 पूववत् – बादल को दे खकर वृि का अनु मान ।
 शेषवत् – काय को दे खकर कारण का अनु मान (बाढ को दे खकर वषा) ।
 सामा यतो – एक आम के पेड म मंजरी दे खकर सभी म मंजरी आई होगी
ऐसा अनु मान ।
माण के ारा ेय

सामा यत तु ादतीि याणां तीितरनुमानात् ।


त मादिप चािस ं परो मा ागमाि स म् ॥ ६ ॥
॥ भावाथ ॥
सामा यतः जो य से नही अनु भत ू होते ऐसे िवषय क तीित अनु मान के
ारा होती है । और जो अनु मान के ारा भी तीत नह होता ऐसा परो
आ ागम (श द) माण से तीत होते ह ।
य िस – य त व ।
अनु मानिस – कृ ितपु ष ।
श दिस – इ ािद ।
अनु पलि ध के कारण

अितदू रात् सामी यािदि यघाता मनोऽनव थानात् ।


सौ याद् यवधानादिभभवात् समानािभहारा च ॥ ७ ॥
॥ भावाथ ॥
कृ ित और पु ष क य अनु पलि ध के आठ कारण ह – १ –अ य त
दू र होना , २-अ य त समीप होना , ३-इि य का न होना, ४- मन
का य होना , ५ सू म होना , ६. यवधान होना , ७ - अिभभूत होना
(जैसे सूय से च तारे ) ८- समान व तु म िमल जाना (जैसे मूंग म मूंग
िमल जाना, कबूतर म कबूतर का िमल जाना इ यािद)
अनु पलि ध और उपलि ध के हेतु

सौ या दनुपलि धनाभावात् कायत तदुपल धे: ।


महदािद त च काय कृितस पं िव पं च ॥ ८ ॥
॥ भावाथ ॥
सू मता के कारण उनक ( कृ ित और पु ष क ) उपलि ध नही होती ,
उनका अभाव नह है । महत् अहंकार आिद कृ ित के स प और कृ ित
के िव प काय के ारा कारण( कृ ित और पु ष) क उपलि ध ( ान)
हो जाता है ।
स कायवाद

असदकरणादु पादान हणात् सवस भवाभावात् ।


श य श यकरणात् कारणभावा च स कायम् ॥ ९ ॥
॥ भावाथ ॥
काय (उ प न होने वाला व तु) भी सत् (िव मान) है ऐसा िस करने के िलये
ये ५ हे तु बताये गये ह । १-अिव मान काय क उ पि नह हो सकती जैसे रे त
से तेल क उ पि नही होती , २-िजसका िनमाण करना है उसके कारण का
ही हण िकया जाता है, जैसे दही बनाने के िलये दू ध का ३- सब व तु य सभी
व तु ओ ं से उ प न नह होत ४- शि मान् ही काय को उ प न कर सकता
है , ५- काय कारण से िभ न नह होता है अतः इन सभी कारण से िस होता
है िक उ पि से पहले भी काय अ य प म सत् (िव मान) ही रहता है ।
य और अ य म असमानता

हेतम
ु दिन यम यािप सि यमनेकमाि तं िलंङ्गम् ।
सावयवं परत ं य ं िवपरीतम य म् ॥ १० ॥
॥ भावाथः ॥
य त व(२३) हे तु मत् (िकसी कारण से उ प न) , अिन य (नाशवान्), अ यािप
(सभी जगह या नह हो सकते) सि य(ि यावान्) अनेक, आि त(अपने
कारण पर आि त) िलङ्ग (लय यु ) सावयव (श द पश प रस ग ध
आिद अवयव से यु ) और परत ह । इससे िवपरीत अहे तु मत्, िन य,
िनि य, एक, अनाि त, अिलङ्ग, िनरवयव, वत , अ य त व ( कृ ित)
है ।
य अय क समानता और उनसे िवपरीत पु ष

ि गुणमिववेिक िवषय: सामा यमचेतनं सवधिम ।


य ं तथा धानं ति परीत तथा च पुमान् ॥ ११ ॥
॥ भावाथ ॥
य त व(२३) और अ य त व ( कृ ित) ि गु ण (तीन गु णे वाले),
अिववेक ( िववेक रिहत ), िवषय (उपभोग यो य) , सामा य (साधारण)
अचेतन ( चेतना रिहत=जड) सवधिम ( उ पादक ) ह । इससे िवपरीत
अगु ण (गु ण से रिहत) िववेक , अिवषय ( उपभो ा ), असामा य (िवशेष),
चेतन , अ सवधम है ।
गु णिन पण

ी य ीितिवषादा मका: काश वृि िनयमाथा: ।


अ यो यािभभवा यजननिमथु नवृ य गुणा: ॥ १२ ॥
॥ भावाथ ॥
मशः ीित अ ीित और िवषाद दे ने वाले , काश , वृि (काय) और
िनयमन(ि थित) म समथ तीन स व रजस् और तमस् गु ण ह । जो िक पर पर
एक दू सरे से अिभभूत , एक दू सरे के आ य , एक दू सरे जनक , एक दू सरे के
िमथु न , एक दू सरे क वृि यां वाले होते ह ।
स वम् – ी या मक (सु ख व प ) , काश म समथ ।
रजः – अ ी या मक (दु ःख व प ), वृि (काय) म समथ ।
तमः - िवषादा मक (मोह व प), िनयमन (ि थरता) म समथ ।
गु ण का व प

स वं लघु काशकिम मु प भकं चलं च रज: ।


गु वरणकमेव तम: दीपव चाथतो वृि : ॥ १३ ॥
॥ भावाथ ॥
स वगु ण लघु और काशक है , रजोगु ण उ ोतक (जैसे बैल बैल को दे ख कर
उप भ करता है ) तथा गितशील है । भारीपन और आवरण से प रपूण
तमोगु ण है ( य िक इसके भाव से शरीर म भारीपन और इि य म आवरण
हो जाता है) । जैसे दीपक पर पर िव तेल अि न और बाती से यु काश
प अथ म वृ होता है वैसे ये तीन पर पर िवरोध से यु गु ण भी िबिभ न
कार अथ को िन प न करते ह ।
कृ ित के गु ण क िसि

अिववे यादे: िसि ग


ै ु यात् ति पययाभावात् ।
कारणगुणा मक वात् काय या य मिप िस म् ॥ १४ ॥
॥ भावाथ ॥
य और धान दोन अिववेक आिद गु ण से यु ह ऐसा उनके तीन गु ण से
िस होता है । य िक काय और कारण म कोई वैपरी य नह होता । जो गु ण
काय ( य २३ त व ) म है वही गु ण कारण (अ य त व कृ ित ) म भी ह
ऐसा िस होता है । जैसे जो वण कपडे म होगा उसी वण का डोरा भी होगा
उसी तरह जो गु ण कायभूत य त व म होते ह वही गु ण कारणभूत अ य
त व म होते ह ।
अय क िसि

भेदानां प रमाणात् सम वयात् शि त: वृ े ।


कारणकायिवभागादिवभागाद् वै य य ॥ १५ ॥
कारणम य य ं वतते ि गुणत: समु दया च ।
प रणामत: सिललवत् ित ितगुणा यिवशेषात् ॥ १६ ॥
॥ भावाथ ॥
य त व पी जो भेद िदखाई दे ते ह उनका िनि त प रं माण है, यिद कृित न हो तो
ये िदखाई देने वाला य त व भी नही होते । जैसे लोक म हम िकसी य ोपवीती
वटु को देखकर इसके िपता ा ण ह गे ऐसा सम वय कर लेते ह उसी तरह य
त व को देखकर इसी गु ण वाला कोई अ य ( कृित) त व भी होगा ऐसा सम वय
करते ह । िजसक जो काय करने क शि होती है वह उसी काम को करता है जैसे
कु हार घट बनाता है रथ इ यािद नह ।
इसी तरह कारण और काय का िवभाग होने के कारण ( जैसे िम ी घडे को
बनाती है , घडा िम ी को नह ) , तथा िव म ि थत िविभ न प पृिथवी
जल तेज वायु आकाश आिद एक दू सरे से िमले हये(अिवभ ) ह । इन सभी
कारण से िस होता है िक अ य नामक कोई त व है और वह त व
( कृित) तीन गु ण के समु दय ( सा याव था ) से सृि काय म वृ होती
है । जैसे पानी एक ही आकाश से िगरा अलग अलग आ य म अलग प
धारण करता है उसी तरह उस एक अ य से उ प न सभी य त व म
अलग अलग आ य होने के कारण अलग अलग गु ण िदखाई पडते ह ।
पु ष िसि

संघातपराथ वात् ि गुणािदिवपयादिध ानात् ।


पु षोऽि त भो ृ भावात् कैव याथ वृ े ॥ १७ ॥
॥ भावाथ ॥
जैसे पयक बनता है तो उसका उपभो ा कोई अव य होता है वैसे ही यह महत्
आिद जो संघात ह वे पराथक ह अतः उनका भी कोई भो ा अव य ही होगा ।
ि गु ण अिववेक (का रका ११) आिद गु ण से िवपरीत होने के कारण तथा
जैसे रथ घोडे आिद का अिध ाता एक सारिथ है वैसे शरीर का अिध ाता भी
कोई(पु ष) है । तथा महत् आिद भो य त व का भोग करने वाला और
कैव य (मो ) म वृ होने के कारण महदािद त व से िभ न पु ष नामक
एक त व भी है ।
पु ष का बह व

जननमरणकरणानां ितिनयमादयुगप वृ े ।
पु षबह वं िस ं ग ै ु यिवपयया चैव ॥ १८ ॥
॥ भावाथ ॥
पु ष अनेक ह य िक सबके ज म ,मरण और करण (इि यां) अलग
अलग होती ह । सभी पु ष एक साथ िकसी काय म वृ नही होते ।
सबम तीन गु ण का िवपयय है । कोई स वगु ण के कारण सु खी , तो
कोई रजोगु ण के कारण दु ःखी और कोई तमोगु ण के कारण मूढ होता है
। अतः इन तीन कारण से पु ष का बह व िस होता है ॥
पु ष साि व आिद धम

त मा च िवपयासात् िस ं साि वम य पु ष य ।
कैव यं मा य यं ृ वमकतृभाव ॥ १९ ॥
॥ भावाथ ॥
उन तीन गुण के िवपयय हो जाने से पु ष सा ी मा है यह िस होता है
। वह गु ण से अ य (केवल) है, प र ाजक क तरह म य थ (तट थ) है,
ा है और अक ा है । क ा तो गु ण ह पु ष उनके िवपयय से यु है ।
गु ण का कतृ व

त मा संयोगादचेतनं चेतनाविदव िलङ्गम् ।


गुणकतृ वेऽिप तथा कतव भव यु दासीन: ॥ २० ॥
॥ भावाथ ॥
पु ष चेतन है और महदािद िलङ्ग अचे तन ह िफर भी पु ष के संयोग से वे चेतन
क तरह तीत होते ह ( जैसे घट ठ डे पानी से यु होने पर ठ डा और गरम
पानी से यु होने पर गरम तीत होता है ) । उस उदासीन पु ष के गु ण ही क ा
ह तथािप वह क ा क तरह तीत होता है। (जैसे चोर के साथ पकडा गया अचोर
भी चोर ही कहा जाता है उसी तरह क ा गु ण के साथ संयु होने के कारण
उदासीन पु ष क ा क तरह लगता है ।
सृि

पु ष य दशनाथ कैव याथ तथा धान य ।


पङ् व धवदु भयोरिप संयोग त कृत: सग: ॥ २१ ॥
॥ भावाथ ॥
पु ष कृ ित के दशन के िलये और कृ ित पु ष के कैव य के
िलये पङ्गु (पु ष) और अ ध( कृ ित) क तरह संयु होते ह
उससे ही सृि क उ पि होती है ।
सृि ि या

कृतेमहां ततोऽहंकार त माद् गण षोडशक: ।


त मादिप षोडशकात् प च य: प चभू तािन ॥ २२ ॥
॥ भावाथ ॥
कृ ित से महत् (बु ि ), महत् से अहंकार, अहंकार से १६ (११ इि यां और ५ त मा ाएं )
और इन १६ म भी ५ त मा ाओं से ५ भूत उ प न होते ह ।
श दत मा ा - आकाश
पशत मा ा- वायु
पत मा ा - तेज
रसत मा ा - जल
ग धत मा ा - पृिथवी
सृि ि या मानिच
बु ि के साि वक और तामस प

अ यवसायो बु ि धम ानं िवराग ऐ यम् ।


साि वकमेत ू पं तामसम माि पय तम् ॥ २३ ॥
॥ भावाथ ॥
अ यवसाय ( ान) बु ि का ल ण है । उस बु ि के १.धम
,२. ान, ३.वैरा य और ४.ऐ य ये चार साि वक प ह । इससे
िवपरीत १.अधम, २.अ ान, ३.अवैरा य और ४.अनै य ये चार
तामस प ह
अहंकार से उ प न सृि

अिभमानोऽहंकार: त माि िवध: वतते सग: ।


एकादशक गण त मा प चक व ै ॥ २४ ॥
साि वक एकादशक: वतते वैकृतादहंकारात् ।
भू तादे त मा : स तामस तैजसादु भयम् ॥ २५ ॥
॥ भावाथ ॥
अिभमान ही अहंकार है उससे दो कार क सृि उ प न होती है । ११ इि यां
और पांचत मा ाएं । िजस अहंकार म स वगु ण क धानता हो ऐसे अहंकार
को वैकृत अहंकार कहा जाता है उससे एकादश इि यां उ प न होती ह ।
तथा िजस अहंकार म तमोगु ण क धानता होती है वह भूतािद अहंकार कहा
जाता है उससे पांच त मा ाएं (श द, पश, प, रस, ग ध ) उ प न होती ह ।
इि यिन पण
बु ीि यािण च ु : ो ाणरसन वगा यािन ।
वा पािणपादपायू प थािन कमि या याह: ॥ २६ ॥
उभया मकम मन: सङ्क पिमि यं च साध यात् ।
गुणप रणामिवशेषा नाना वं बा भेदा ॥ २७ ॥
॥ भावाथ ॥
च ु, ो , ाण, रसना और वक् ये पांच बु ीि य ( ानेि य) ह तथा वाक्,
पािण, पाद, पायु और उप थ ये पांच कमि य ह । कमि दय और ानेि य
दोन के समान धम वाला मन उभया मक है इसे संक पक इि य भी कहते ह ।
इन ११ इि य का गु ण का प रणाम होने के कारण अनेक व और बा भेद
भी ह ।
इि य क वृि यां

पािदषु प चानामालोचनमा िम यते वृि : ।


वचनादानिवहरणो सगान दा प चानाम् ॥ २८ ॥
॥ भावाथ ॥
प आिद पांचो का आलोचन आिद ही पांच ानेि य क वृि है । जैसे च ु का
प दे खना , ो का श द सु नना , रसना का रसानु भिू त करना, ाण का
ग ध लेना और वक् का पश अनु भत ू करना ही मा वृि है । उसी तरह
कमि य म वाक् का वचन ( बोलना), पािण(हाथ) का आदान (लेना), पाद
का िवहरण करना , पायु का उ सजन (मल याग) करना और उप थ का
आन द लेना ही वृि है ।
असामा य और सामा य वृि

वाल यं वृि य य सैषा भव यसामा या ।


सामा यकरणवृि : ाणा ा वायव: प च ॥ २९ ॥
॥ भावाथ ॥
बु ि , अहंकार और मन इन तीन का जो ल ण कहा गया है वही उनक असामा य
वृि है । जैसे बु ि का अ यवसाय ( ान) , अहंकार का अिभमान, और मन का
संक प ही असामा य वृि है । इससे पहले जो करण (१० इि य ) क वृि वृि
बताई गई है वह भी असामा य ही है । तथा ाण, अपान, यान, उदान और समान
पी जो वृि यां ह वो सामा य वृि यां ह य िक ाण आिद केवल एक करण म ही
नही होते अिपतु अनेक म होने के कारण सामा य वृि ह । एक जगह क ही वृि
असामा य होती है तथा अनेक क वृि सामा य होती है ।
साथ और मशः होने वाली वृि

युगप चतु य य तु वृि : मश त य िनिद ा ।


े तथा य े य य त पू िवका वृि : ॥ ३० ॥
॥ भावाथ ॥
बु ि , अहंकार और मन के साथ कोई भी इि दय संयु होता है तो वह
चतु य कहलाता है । िवषय म इन चार क वृि कभी एक साथ तो
कभी मशः(संशय से िन य होन पर) भी होती है । अ िवषय म तो
तीन (बु ि , अहंकार और मन) क इि य पूवक ही वृि होती है । जैसे
अ प के िच तन म च ु पूवक ही वृि होगी , अ ग ध क
अनु भिू त ाण पूवक ही होगी । इ यािद ।
वृि य का हेतु

वां वां ितप ते पर पराकूतहेतक ु ां वृि म् ।


पु षाथ एव हेतन ु केनिचत् कायते करणम् ॥ ३१ ॥
॥ भावाथ ॥
बु ि अहं कार और मन पर पर एक दू सरे के अिभ ाय से वृि य को
जानते ह । उन सभी वृि य का पु षाथ ( मो ) ही हे तु है । और ये
करण वयं ही वृ होते ह िकसी के ारा िनयि त होकर नह
। करण या ह ये आगे बताया जायेगा ।
करण

करणं योदशिवधं तदाहरणधारण काशकरम् ।


काय च त य दशधाऽऽहाय धाय का यं च ॥ ३२ ॥
॥ भावाथ ॥
करण तेरह कार (बु ि , अहंकार और११ इि य) का होता है और वे आहरण (लेना)
धारण और काश करते ह । जैसे कमि य पी करण आहरण और धारण करते
ह और ानेि य पी करण काश करते ह । और उसका काय भी १० कार
(कमि य का वचन आिद ५ और ानेि य का प आिद ५) का होता है और
वह काय भी आहाय ( लेने यो य ) धाय (धारण करने यो य) और का य (
कािशत करने यो य ) होता है । आहाय और धाय काय कमि य के ह और
का य काय ानेि य के ह ।
करण का काल िन पण
अ त:करणं ि िवधं दशधा बा ं य य िवषया यम् ।
सा तकालं बा ं ि कालमा य तरं करणम् ॥ ३३ ॥
॥ भावाथ ॥
अ तः करण तीन (मन , बु ि , अहंकार) तथा इ ही तीन
अ तःकरणो के िवषयभूत बा करण १० ( ५ ानेि य और ५
कमि य ) होते ह । बा करण केवल व मान काल के
िवषय का ही हण करते ह जबिक अ तः करण तीन काल
के िवषय का हण करते ह ।
इि य के िवषय

बु ीि यािण तेषां प च िवशेषािवशेषिवषयािण ।


वा भवित श दिवषया शेषािण तु प चिवषयािण ॥ ३४ ॥
॥ भावाथ ॥
ानेि य के पांच िवशेष और अिवशेष िवषय ह । वाक् इि य
का केवल श द ही िवषय है अ य चार कमि यां तो पांच
िवषय वाली होती ह । जैसे पािण घट का हण करता है िजसम
श द, पश, प,रस और ग ध सभी िवषय होते ह । पैर इन सभी
िवषय से यु पृ वी पर चलता है ।
करण का व प

सा त:करणा बुि : सव िवषयमवगाहते य मात् ।


त मात् ि िवधं करणं ा र ारािण शेषािण ॥ ३५ ॥
॥ भावाथ ॥
य िक अ तः करण (मन और अहंकार) के साथ यु बु ि तीन
काल के िवषय का अवगाहन करती है । इसिलये ये तीन करण
ा र ( ार के वामी ) ह और अविश १० करण ार ह । ये तीन
अ तः करण अपनी इ छा के अनु सार अलग अलग ार से अलग
अलग िवषय हण करते ह ।
करण का काय

एते दीपक पा: पर परिवल णा गुणिवशेषा: ।


कृ नं पु ष याथ का य बु ौ य छि त ॥ ३६ ॥
सव युपभोगं य मात् पु ष य साधयित बुि : ।
सैव च िविशनि पुन: धानपु षा तरं सू मम् ॥ ३७ ॥
॥ भावाथ ॥
सभी इि यां तथा अहंकार पी ये करण दीपक क तरह ( काशक) तथा एक दू सरे से
िवल ण (िभ न) गु ण वाले होते ह । जैसे दीपक अपनी प रिध म ि थत सभी िवषय को
कािशत करता है उसी तरह ये १२ करण स पूण पु षाथ को कािशत करके बु ि को
समिपत करते ह । पु ष के सभी कार के उपभोग क यव था (िसि ) बु ि ही करती है ,
और वही बु ि धान और पु ष के म य ि थत सू म भेद को िवशेषतया जानती है ।
अिवशेष और िवशेष

त मा ा यिवशेषा ते यो भू तािन प च प च य: ।
एते मृता िवशेषा: श ता घोरा मू ढा ॥ ३८ ॥
॥ भावाथ ॥
पांच त मा ाएं अिवशेष(िवशेष रिहत) ह उन पांच त मा ाओं से पांच भूत
उ प न होते ह जो िक िवशेष ह (पृिथवी ग ध तथा जल रस त मा के
कारण िवशेष है ) । और ये पांच महाभूत शा त= सु ख व प (स वगु ण
क धानता से), घोर = दु ःख व प (रजोगु ण क धानता से) और मूढ
= मोह व प (तमोगु ण क धानता से) ह ।
िवशेष का िै व य

सू मा मातािपतृजा: सह भू तिै धा िवशेषा: यु: ।


सू मा तेषां िनयता मातािपतृजा िनवत ते ॥ ३९ ॥
॥ भावाथ ॥
सू म शरीर , माता िपता से उ प न शरीर , और भूत
(सु खदु ःखमोह) ये तीन कार के िवशे ष होते ह । इन तीन म
जो सू म है वह िन य है और माता िपता से उ प न शरीर
िनवृ ( न ) हो जाता है ।
िलङ्गशरीर

पू व प नमस ं िनयतं महदािदसू मपय तम् ।


संसरित िन पभोगं भावैरिधवािसतं िलङ्गम् ॥ ४० ॥
॥ भावाथ ॥
सू म (िलङ्ग) शरीर सबसे पूव म उ प न , आसि से रिहत,
िन य , महत् से लेकर सू म त मा ाओं तक िबना कुछ
उपभोग िकये धम आिद ८ भाव से अिधवािसत संसरण करता
रहता है ।
सू म शरीर क ि थित

िच ं यथाऽऽ यमृते था वािद यो िवना यथा छाया ।


त ि ना िवशेषन ै ित ित िनरा यं िलङ्गम् ॥ ४१ ॥
॥ भावाथ ॥
जैसे िबना िकसी आ य के िच नही रह सकता , थाणु आिद के
िबन जैसे छाया नही रह सकती । उसी तरह िवशे ष ( पांच भूत )
के िबना आ य हीन िलङ्गशरीर ि थर नह हो सकता ।
सू म शरीर का अलग अलग शरीर धारण करना

पु षाथहेतकु िमदं िनिम नैिमि क सङ्गेन ।


कृतेिवभु वयोगा नटवद् यवित ते िलङ्गम् ॥४२ ॥
॥ भावाथ ॥
जैसे नट अलग अलग कपडे बदलकर कभी राजा तो कभी िवदू षक
इ यािद बनता रहता है , उसी तरह यह सू म शरीर भी मो हे तु िनिम
(धम आिद) तथा नैिमि क (ऊ वगमन आिद) के सङ्ग से कृ ित के
िवभु होने के कारण अलग अलग शरीर को धारण करके अलग अलग
बनता रहता है ।
करणा य और काया य

सांिसि का भावा: ाकृितका वैकृता धमा ा: ।


ा: करणा ियण: काया ियण कलला ा: ॥ ४३ ॥
॥ भावाथ ॥
धम आिद ४ भाव सांिसि क (ज मजात – जैसे किपल मु िन के ) ,
ाकृितक ( वयं कृित से उ प न- जैसे सनकािदय तथा बु के ) तथा
वैकृितक ( गु के ारा उ प न – ान से वैरा य , वैरा य से धम, धम से
ऐ य ) तीन कार के होते ह और इन पर ही सू म शरीर आि त होते ह ।
कलल(कलल अि थ मांस) आिद तो थूल शरीर पर आि त होते है ।
भाव का फल

धमण गमनमू व गमनमध ताद् भव यधमण ।


ानेन चापवग िवपययािद यते ब ध: ॥ ४४ ॥
वैरा यात् कृितलय: संसारो भवित राजसाद् रागात् ।
ऐ यादिवघातो िवपयया ि पयास: ॥ ४५ ॥
॥ भावाथ ॥
धम से ऊ वगित तथा अधम से अधोगित होती है , ान से मो ाि तथा
अ ान से ब ध ाि होती है । वैरा य से कृित म लय तथा राग (अवैरा य)
से संसार होता है । ऐ य से अिवघात (िन यता) और अनै य से नाश होता
है ।
ययसग (बु ि सग)

एष ययसग िवपययाशि तुि िसद् या य: ।


गुणवैष यिवमदात् त य च भेदा तु प चाशत् ॥ ४६ ॥
प च िवपययभेदा भव यशि करणवैक यात् ।
अ ािवंशितभेदा तुि नवधाऽ धा िसि : ॥ ४७ ॥
॥ भावाथ ॥
यह यय(बु ि ) का सग (सृि ) िवपयय , अशि , तु ि और िसि सं ाओं से
४ कार का होता है । पु नः इन चार म गु णो क िवषमता के कारण ययसग
के कुल ५० भेद होते ह । जैसे िवपयय के ५ भेद, इि य क िवकलता से
अशि के २८ भेद, तु ि के ९ भेद और िसि के ८ भेद (कुल ययसग के
५० भेद) होते ह ।
िवपयय के भेदोपभेद

भेद तमसोऽ िवधो मोह य च दशिवधो महामोह: ।


तािम ोऽ ादशधा तथा भव य धतािम : ॥ ४८ ॥
॥ भावाथ ॥
िवपयय के ५ कार के उपभे द का वणन
१. तम – आठ(८) कार का होता है ।
२. मोह –यह भी आठ(८) कार का होता है ।
३. महामोह – दश(१०) कार का होता है ।
४. तािम –अठारह (१८) कार का होता है ।
५. अ धतािम – यह भी अठारह(१८) कार का होता है ।
कुल योगतः िवपयय ६२ उपभे द होते ह ।
अशि के २८ भेद

एकादशेि यवधा: सह बुि वधैरशि ि ा।


स दश वधा बु िे वपययात् तुि िस ीनाम् ॥ ४९ ॥
॥ भावाथ ॥
इि य के नाश से होने वाली अशि (अ ध व बिधर व आिद) ११ कार
क होती है । ९ तु ि य तथा ८ िसि य के िवपयय (िवपरीत) से बु ि का
वध १७ कार का होता है । कुल अशि के २८ भेद होते ह ।
तु ि और िसि के भेद

आ याि म य त : कृ युपादानकालभा या या: ।


बा ा िवषयोपरमात् प च च नव तु योऽिभमता: ॥ ५० ॥
ऊह: श दोऽ ययनं दु:खिवघाता य: सु ाि : ।
दानं च िस योऽ ौ िस :े पू व ऽङ्कुशि िवध: ॥ ५१ ॥
॥ भावाथ ॥
आ याि मक तु ि कृ ित, उपादान, काल और भा य के भे द से ४ कार क
होती है । और बा श द पश प रस और ग ध पी िवषय के उपरमण
पी ५ कार कुल ९ कार क तु ि होती है । ऊह , श द , अ ययन, तीन
कार के दु ःख का िवघात, सु ाि और दान ये ८ िसि यां होती ह । और
िसि से पहले के तीन ( िवपयय, अशि , तु ि ) िसि म बाधक ह ।
ि िवध सग

न िवना भावैिलङ्गं न िवना िलङ्गेन भाविनवृि : ।


िलङ्गा यो भावा य त माद् ि िवध: वतते सग: ॥ ५२ ॥
॥ भावाथ ॥
भावसृि = ययसग (िवपयय,अशि आिद) के िबना िलङ्गसृि =
त मा सृि ( भौितकसृि ) क क पना नह हो सकती , और
िलङ्गसृि के िबना भावसृि िक िन पि नह हो सकती है । अतः
भौितकसृि और ययसृि ः ऐसी दो कार क सृि वृ होती है ।
भौितक सग

अ िवक पो दैव तैय योन प चधा भवित ।


मानुषक क ै िवध: समासतो भौितक: सग: ॥ ५३ ॥
॥ भावाथ ॥
भौितक सृि मु यतः ३ कार क होती है दैव , तैय योन और मानु ष । उनम
से दैवसृि ८ कार क , तैय योन सृि ५ कार क , और मानु ष एक
कार क होती है । कुल िमलाकर भौितकसृि १४ कार क होती है ।
 दैवसृि – ा , ाजाप य, सौ य, ऐ , गा धव, या , रा स और पैशाच ।
 तैय योनसृि – पशु(पािलत) , मृग(व य), प ी, सरीसृप और थावर ।
सग क गु णानु सार ि थित

उ व स विवशाल तमोिवशाल मूलत: सग: ।


म ये रजोिवशालो ािद त बपय त: ॥ ५४ ॥
॥ भावाथ ॥
ा आिद सग स वगु ण धान (रजस् और तमस् गौण) ह और पशु प ी
आिद का सग तमोगु ण(स व और रजस् गौण) धान है । मानु ष सग
रजोगु ण (स व और तमस् गौण) धान है इस तरह से से लेकर
थावर तक क सृि कही गई है ।
दु ःख का भो ा पु ष

त जरामरणकृतं दु:खं ा नोित चेतन: पु ष: ।


िलङ्ग यािविनवृ े त माद् दु:खं वभावेन ॥ ५५ ॥
॥ भावाथ ॥
चेतन पु ष बु ढापा मृ यु इ यािद से उ प न दु ःख को ा करता है । जब
तक वह प चीस त व के अ छी तरह से ान ारा िलङ्ग शरीर से
िनवृ नह हो जाता तब तक दु ःख का उपभोग करता है । उपरो ान
के बाद जब वह शरीर का याग करता है तब दु ःख से ऐकाि तक और
आ यि तक मु ि पी मो को ा करता है ।
सृि का िनिम

इ येष कृितकृतो महदािदिवशेषभू तपय त: ।


ितपु षिवमो ाथ वाथ इव पराथ आर भ: ॥ ५६ ॥
॥ भावाथ ॥
इस कार यह कृ ित के ारा बनाई गई महत् से लेकर भूत तक क सृि
येक पु ष के मो के िलये है । यह कृ ित का वाथ नह है तथािप
वह वाथ क तरह ही पराथ के काय करती है ।
कृ ित क पु ष के मो ाथ वृि

व सिववृि िनिम ं ीर य यथा वृि र य ।


पु षिवमो िनिम ं तथा वृि : धान य ॥ ५७ ॥
औ सु यिविनवृ यथ यथा ि यासु वतते लोक: ।
पु ष य िवमो ाथ वतते त द य म् ॥ ५८ ॥
॥ भावाथ ॥
िजस तरह अचेतन दूध चेतन बछडे के बढने का िनिम होता है उसी तरह
अचेतन कृ ित चेतन पु ष के मो का कारण होती है । िजस तरह अपनी
उ सु कता को िमटाने के िलये लोग अलग अलग ि याओं म वृ होते ह
उसी तरह पु ष के मो के िलये अ य ( कृ ित ) भी वृ होता है ।
कृ ित क उपका रता

रङ्ग य दशिय वा िनवतते नतक यथा नृ यात् ।


पु ष य तथाऽ मानं का य िविनवतते कृित: ॥ ५९ ॥
नानािवधै पायै पका र यनुपका रण: पुंस: ।
गुणव यगुण य सत: त याथमपाथकं चरित ॥ ६० ॥
॥ भावाथ ॥
नतक जैसे शृङ्गारािद रस के ारा इितहासािद भाव से यु नृ य को तु त
करके उससे िनवृ हो जाती है उसी तरह कृ ित भी पु ष को अपना काश
िदखाकर िनवृ हो जाती है ।जैसे उपकारी यि दू सर पर उपकार करते ह
तथा अपने यु पकार क आशा नही रखते उसी कार गु णवती कृ ित भी
अगु ण पु ष के िलये उपका रणी है वह भी अपने यु पकार क आशा नही
रखती ॥
कृ ित क सु कुमारता

कृते: सुकुमारतरं न िकि चद तीित मे मितभवित ।


या ाऽ मीित पुनन दशनमु पिै त पु ष य ॥ ६१ ॥
॥ भावाथ ॥
ई रकृ ण कहते ह िक कृ ित से भी अिधक सु कुमार और कुछ
नह है ऐसा मे रा मत है । य िक म इस पु ष के ारा दे ख ली गई
हं ऐसा जानकर उस पु ष के पु नः दशन नह करती ।
कृ ित का ब धन मु ि और संसरण

त मा न ब यतेऽ ा न मु यते नािप संसरित कि त् ।


संसरित ब यते मु यते च नाना या कृितः ॥६२॥
॥ भावाथ ॥
इसिलये पु ष न तो ब होता है न ही मु होता है न ही बहत से
आ य म संसरण करता है अिपतु कृ ित ही महत् आिद अनेक
आ य म ब होती है मु होती है और संसरण करती है ।
कृ ित का ब धन और मोचन

पै: स िभरे व तु ब ना या मानमा मना कृित: ।


सैव च पु षाथ ित िवमोचय येक पेण ॥ ६३ ॥
॥ भावाथ ॥
अ ान, धम, अधम, वैरा य, अवैरा य, ऐ य और अनै य इन
सात प से कृ ित अपने आपको बांध लेती है । और वही पु नः
मु झे पु षाथ करना है ऐसा सोच कर एक प ( ान) से अपने
आप को मु कर दे ती है ।
एवं त वा या या नाि म न मे नाहिम यप रशेषम् ।
अिवपययाि शु ं केवलमु प ते ानम् ॥ ६४ ॥
तेन िनवृ सवामथवशात् स पिविनवृ ाम् ।
कृितं प यित पु ष: े कवदवि थत: व थ: ॥ ६५ ॥
॥ भावाथ ॥
इस कार पूव त व का अ यास करने से म नह हं , मे रा नह है इ यािद
अप रशेष ( अहंकार रिहत) संशयािद के नाश से केवल िवशु ान उ प न
होता है । और उस ान से व थ पु ष दशक क तरह सात प से िविनवृ
तथा महत् आिद य त व क उ पि से िनवृ हो चु क कृ ित को दे खता है ।
कृ ित और पु ष का ान के बाद संयोग

ा मये युपे क एको ाहिम युपरम य या ।


सित संयोगेऽिप तयो: योजनं नाि त सग य ॥ ६६ ॥
॥ भावाथ ॥
कृ ित को मैने दे ख(जान) िलया है ऐसा पु ष सोच कर उपे ा करता है ।
और पु ष न मु झे दे ख िलया है ऐसा सोच कर कृ ित उससे िनवृ हो
जाती है । ऐसी ि थित म दोन के संयोग हो जाने पर भी पु नः सृि का
कोई योजन ही नह है ॥
ान के बाद मो

स य ानािधगमाद् धमादीनामकारण ा ौ ।
ित ित सं कारवशा च िमवद् धृतशरीर: ॥ ६७ ॥
ा े शरीरभेद े च रताथ वात् धानिविनवृतौ ।
ऐकाि तकमा यि तकमु भयं कैव यमा नोित ॥ ६८ ॥
॥ भावाथ ॥
प चीस त व के अ छी तरह ान हो जाने पर धम, अधम, अ ान, वैरा य, अवैरा य,
ऐ य और अनै य मो के ित कारण नह ह यह ान ा हो जाने पर भी पु ष
मु नह होता , च िम (कु हार के चाक) क तरह वह सं कार के कारण मृ यु
से पहले तक शरीर को धारण करता हआ ि थत रहता है । धम, अधम, आिद के ारा
अिजत सं कार का य हो जाने पर जब पु ष शरीर से िभ न हो जाता है । तब वह
धान त व क िनवृि से च रताथ ऐकाि तक और आ यि तक दोन तरह के मो
को ा करता है ॥
उपसंहार

पु षाथ ानिमदं गु ं परमिषणा समा यातम् ।


ि थ यु पि लयाि य ते य भू तानाम् ॥ ६९ ॥
॥ भावाथ ॥
जीव के मो के िलये यह रह या मक गूढ ान त व परमिष
किपल ने कहा । िजसम सभी भूत क ि थित उ पि लय
आिद का िच तन िकया जाता है ।
िश यपर परा

एत पिव म यं मु िनरासुरयेऽनुक पया ददौ ।


आसु ररिप प चिशखाय तेन च बहधा कृतं त म् ॥ ७० ॥
िश यपर परयाऽऽगतमी रकृ णेन चैतदायािभ: ।
संि मायमितना स यि व ाय िस ा तम् ॥ ७१ ॥
॥ भावाथ ॥
यह पिव और अ णी ान मु िन(किपल) ने अनु क पा से आसु र नामक िश य
को िदया, आसु र ने पंचिशखाचाय को िदया और उ होन इसका षि त
नामक थ क रचना के ारा बहत चार िकया । उ ही क िश य पर परा
के ारा ा इस ान के िस ा त को े बु ि वाले ई रकृ ण न आया
छ द म िनब करके संि िकया ।
थ क शंसा

स यां िकल येऽथा तेऽथा: कृ न य षि त य।


आ याियकािवरिहता: परवादिवविजता ािप ॥ ७२ ॥
॥ भावाथ ॥
इस स ित (७० का रकाओं ) म जो भी अथ ितपािदत िकये गये ह वो अथ
पंचिशखाचाय ारा कृ त स पूण षि त के ह । इस स ित म
आ याियका (कथानक) तथा दू सर के िस ा त नही कहे गये ह ।
ध यवादः

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