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{संस्कृतभाषा का महत्त्व}

सन्दर्भ- प्रस्तुत अवतरण ' संस्कृत दिग्दर्शिका ' के ' संस्कृतर्ाषायााः महत्त्वम्
' शीषभक पाठ से अवतररत है ।

▪ धन्योऽयम् र्ारतिेश : यत्र समुल्लसति जनमानसपावनी ,


धन्य है यह र्ारत िेश , जहां जनमानस को पववत्र करने वाली ,
▪ र्व्यर्ावोद्भाववनी , शब्द - सन्दोह - प्रसववनी सुरर्ारती ।
र्व्य र्ावों को उत्पन्न करने वाली , शब्द समूह को जन्म िेने वाली िेववाणी
,सुशोभर्त हो रही है ,
▪ ववद्यमानेषु वनखिलेष्ववप वाङ्ममयेषु
सर्ी वतभमान सादहत्यों में
▪ अस्या : वाङ्मयम् सवभश्रेष्ठं सुसम्पन्नं च वतभते ।
इसका सादहत्य सवभश्रेष्ठ और सुसम्पन्न है ।
▪ इयमेव र्ाषा संस्कृतनाम्नावप लोके प्रथिता अस्तस्त ।
यही आज संस्कृत नाम से र्ी संसार में प्रससद्ध है ।
▪ अस्माकं रामायण महार्ारताद्यैभतहाससकग्रन्ााः ,
हमारे रामायण , महार्ारत आदि ऐभतहाससक ग्रन् ,
▪ चत्वारोवेिााः , सवा उपवनषिाः , अष्टािशपुराणावन ,
चारों वेि , सर्ी उपवनषि् अठारह पुराण
▪ अन्यावन च महाकाव्य - नाट्यािीवन अस्यामेव र्ाषायां
ललखितावन सन्ति ।
और अन्य महाकाव्य ,नाटक आदि इसी र्ाषा में ललिे गए हैं ।
▪ इयमेव र्ाषा सवासामायभर्ाषाणां जननीभत मन्यते
र्ाषातत्त्वववलद्भाः ।
यही र्ाषा सर्ी आयभर्ाषाओ ं की जननी र्ाषा - वैज्ञावनकों द्वारा मानी जाती
है ।
▪ संस्कृतस्य गौरवं बहुववधज्ञानाश्रयत्वं
संस्कृत का गौरव , अनेक प्रकार के ज्ञान का आश्रय होना
▪ व्यापकत्वं च न कस्यावप दृष्टेरववषयाः ।
और व्यापकता वकसी र्ी दृष्टष्ट का ववषय नहीं है ।
▪ संस्कृतस्य गौरवमेव दृष्टष्टपिमानीय सम्यगुक्तमाचायभप्रवरेण
िस्तिना-
संस्कृत के गौरव को दृष्टष्ट में रिकर आचायभ प्रवर ििी ने कहा है —
▪ “संस्कृतं नाम िैवी वागन्वाख्याता महर्षिभर्ाः ।“
संस्कृत को महर्षियों ने िेववाणी कहा है ।
▪ संस्कृतस्य सादहत्यं सरसं , व्याकरणञ्च सुवनश्चितम् ।
संस्कृत का सादहत्य सरस और व्याकरण सुवनश्चित है ।
▪ तस्य गद्ये पद्ये च लाललत्यं , र्ावबोधसामर्थ्भम् ,
उसके गद्य और पद्य में लाललत्य ( सौन्दयभ ) र्ावों का बोध कराने की क्षमता
▪ अदद्वतीयं श्रुभतमाधुयभञ्च वतभते ।
और अदद्वतीय श्रुभत मधुरता ववद्यमान है ।
▪ वकं बहुना चररत्रवनमाणािं यादृशीं सत्प्रेरणा संस्कृतवाङ्मयं ििाभत
अथधक क्या चररत्र वनमाण के ललए जैसी उत्तम प्रेरणा संस्कृत वाङ्मय िेता है ,
▪ न तादृशीम् वकवञ्चिन्यत् ।
वैसी अन्य कोई नहीं ।
▪ मूलर्ूतानां मानवीयगुणानां यादृशी वववेचना
मूलर्ूत मानवीय गुणों की जैसी वववेचना
▪ संस्कृतसादहत्ये वतभते नान्यत्र तादृशी ।
संस्कृत सादहत्य में भमलती है , वैसी अन्यत्र नहीं ।
▪ िया , िानं , शौचम् , औिायभम् , अनसूया , क्षमा ,
िया , िान , पववत्रता , उिारता , वकसी से ईर्ष्या न करना , क्षमा
▪ अन्ये चानेके गुणााः अस्य सादहत्यस्य अनुशीलनेन सञ्जायिे ।
और अन्य अनेक गुण इस सादहत्य के अध्ययन से उत्पन्न होते हैं ।
▪ संस्कृतसादहत्यस्य आदिकवव : वाल्मीवकाः , महर्षिव्यासाः ,
संस्कृत सादहत्य के आदि कवव वाल्मीवक , महर्षि वेिव्यास ,
▪ कववकुलगुराः काललिासाः अन्ये च र्ास - र्ारवव र्वर्ूत्याियो
कववकुल गुर काललिास और अन्य र्ास , र्ारवव , र्वर्ूभत आदि
▪ महाकवयाः स्वकीयैाः ग्रन्रत्ैाः अद्यावप पाठकानां हृदि ववराजिे ।
महाकवव अपने रथचत ग्रन् रनों के द्वारा आज र्ी पाठकों के हृिय में
ववराजमान हैं ।
▪ इयं र्ाषा अस्माभर्ाः मातृसमं सम्माननीया वन्दनीया च ,
यह र्ाषा हमारी माता के समान सम्माननीया और पूजनीया है ,
▪ यतो र्ारतमातुाः स्वातन्त्र्यं , गौरवम् ,
क्योंवक र्ारत माता की स्वतन्त्रता , गौरव ,
▪ अिित्वं सांस्कृभतकमेकत्वञ्च संस्कृतेनैव सुरलक्षतुं शक्यिे ।
अििता एवं सांस्कृभतक एकता को संस्कृत के द्वारा ही सुरलक्षत वकया जा
सकता है ।
▪ इयं संस्कृतर्ाषा सवासु र्ाषासु प्राचीनतमा श्रेष्ठा चास्तस्त ।
यह संस्कृत र्ाषा सर्ी र्ाषाओ ं में प्राचीनतम और श्रेष्ठ है ।
▪ तत : सुष्ठूक्तम्
इसललए ठीक ही कहा गया है
▪ ‘ र्ाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीवाणर्ारती ' इभत ।
र्ाषाओ ं में िेववाणी संस्कृत मुख्य , मधुर और अलौवकक है ।

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