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06 शग एला86 ता पल ््ठतृप्रकठा एकता दह18 188 8700७ भ = =
3.472.454 : १
30४ 8 क1९४५, 1980. 4414 एए अणणत्त
भूमिका,
यदि चाप्य ग्र्चख ग्रन्थक सम्यकुपरिचयोऽखमाभिरङ्लौयभाषया
=. नि भ £ भ 9
भूञ्चैव निवद्य मुखप प्रदश्चित आस्ते तघाप्यङ्लभाषानभिक्ञानां विचच्तणाना-
मवगमाथं किचित् खरूपमनयोः पद शयितुकामेन एथगियं गौर््वाणमावामयौ
संच्िप्ता भूमिका लिख्यते ।
अथायं ग्रो दण्डविवेक भार्तौयराजदण्डविषयकश्ारमौ मांसा-
पररिखापरिढटततयाऽनन्यदुरमेद्ः साथैकनामा निबन्धः। मैधिलमदहामद्यो-
पध्यायो वद्धमनोपःष्यायोऽख सङ्गलयिता। ग्रस्थकततैः खदत्तपरि चयेनेवं ज्ञायते
यथाऽयं पर्डितप्रकाण्डस्य भवेश्स्याङ्गननिर्वाचस्मतिशङ्गरयोण्छाचो वषिल्व- `
पञ्चकवं श सम्भृतो मैथिलपतेभैरवस्य धम्भाधिकरगिकतायामधिद्िवश्वासीत् ।
खवसुपनीयस्य राकः सनिन॑न्धषदेप्रादेतैतत् ग्रन्थनिम्भाणप्रयास द्त्यपि
गरन्थकतैवचसेव ज्ञायते । निच्खौयते चानयेवेवदूम्पदशितदिश्या नरुपते्भेरवस्य
चम्भाधिकर्गां चालितमभूत् ।
सैश्वश्च राजा षोडग्रप्रततमष्ष्न्दस्य मश्यभागमलच्चकारेति प्र्न- `
तक््वविदुपस्थापितैबडमिः प्रमारेरुपलभ्यते । ग्रन्थकार गुखचरणानां सू्तिनिबन्ध-
कन्तैगां वाचस्पतिमिश्वाणमपि स ख्व समयः। |
विरोषतश्च गौङखरान्यतमं केदाररायं भैरवस्य नरुपतेरत्यन्तविधेथता- `
सुल्िखता म्रन्चद्छताऽप्यात्मनः षोडशशततमद्द्टरान्दौ
यत्वं प्रकटितमेव । ध
ग्रखस्यास्य निर्म्मांणे यानि कतिपयानि संह्िताएुशराणरूपाणि मूल- ध
पर्तकानि ग्रन्थक्ल सम्बकू परिदृद्धानि, खमतपरिपोषकतया च चे निबन्ध- `
, ग्रम्या अनुद्टता चेषाञ्च मतानि सन्दूष्य परिहतानि, तेषु च केषाच्चिन्नामानि |
_ ्रज्थावसानेऽप्यात्मनेव समुपस्थापितानि दृश्यन्ते यथा--
कलत्पतरू-काम घेनु-दलायु धां धम्नकोषं `
५ खछतिसार-न्न्यसागर्-रन्नाकर-पारिजातांश्च ।
` टौकासिते दे संहिते मनु-यान्ञवल्कोक्ते
: यवद्धारे तिलक प्रदौोपिकाच्च प्रदौपञ्च ॥
टा हलो निबन्धःनबन्पानिवं देशय ।
(1
सष | । च्रूमका।
(1...
८
{|
0
. अथास्य पश्डितघ्धौरेयस्य विचारचारुतासमौच्तणेनान्तरतौव प्रसाद-
(द.
सुपेति ¦ विषयविररेषे पर्स्प्ररविरूढानसपि संह्िताकारवचसां सप्रतिख्ित-
. सौर्मासया तथा समादानं छतमनेन, विदुषा यदवलोक्य “किमयं मन्वादीनां
वचचौऽभिपरायं तपसा अवगतवानुत तिरेव ऋषिभिरमुव्य ग्रख्यरचनाध्यवसाय-
रूप्रतपोनिषतामभिकज्ाय खप्रे याधाश्येम्रपदिख्मितौव प्रज्ञावतां चघारस्णा.
बरवत
` सताकरप्ररोतुश्वग्डेश्वरस्य मतं बङ्घु स्थानेषु बड्मतवान् । परिच्छेदे,
सप्तभिर्मपयितस्यास्य ग्रखस्य प्रथ्यालोचनयेतत् सम्धक् ज्ञायते यथा वत्त॑मान.
कालौने राजकौयदग्डविघधायकश्रास््े प्रायग्रो नाक्तौदृक् कञ्विदपषराघो यः खलु .
ऋषधिभिर्नह्नाटित चसौत् । `
पष्येः सद वत्तमानराजकौयदण्डविघधौनामेतदेव श्यलतः पाथेक्वम्, `
यत् प्राच्याः किलाप्रराघविरषेषु केषुचित् बअङ्छेदादिरूपं दण्डं
व्यवस्थापितवन्तः। अधुना तु तेष तेष्बपसाघेषु देदिकश्रमकर्णरू्पो दण्डो
.. निरूपित अस्ते यङ्ेदादिरूपा दण्डा न रौ यन्ते ।
भाटपाङ् | 1
२४ पर्गणा | | सतितोयं देवशम1
ह ओ्रौकमलङष्ण स्म वशम्मा। |
९९३० एट०, ३० सेेन्बरः । |
|
४
ष्टा ।
अदुषटसात्तिदूषणदण्डः .. „^ २४९ „*
अन्त्याभिगमनद गडः ५४. . १७९
अप्रकागरतस््ीराणां दण्डः ... ह १२९
अभिगमदण्डः ` व इ १६१.
अयोनिविषयाभिगमे दण्डः ९९२ `
ओपाश्चिकदण्डः १९४
कन्यादूषणदण्डः १८१
कन्धाहरणद ण्डः शत
कुप्रै लवादिदण्डः ५९ ध ९९५.
कूटकारिणो वणिजो दण्डः... ध ९६९
कूटमध्यस्थस्ात्तिणो दण्डः ... | ९०६
क्रुटच्यवद्धारिणो दण्डः ... ( श०
क्रूटस्िदण्डः ` ^ ध ११
कूटसाच्िनिदेशदण्डः ... २४२्
` गवाद्यभिगमदण्डः । | ९९४
` जानतः साच्िणः कौटटिल्यादनिगदतो दण्डः २४५
ज्योतिष्विदो दण्ड ५१५ १९२
द ण्डनि सित्तानि 1 २
ण्डनिमित्तषु दण्डभेद व्यवस्था ६ २६
दण्डनियमः स ध ५७
दग्डपरिनिषटा ^ ५७
दण्डपारुष्यदण्डः = ^ 44; २१९ ०
दण्प्रकारनियमः `" ,.. ` - द
४.
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दण्डप्रणयनोपकरणानि
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दग्डसमुच्चचः ` "न ५ + ८५६ ` दद् -*
`: ©.
दण्डसाग्म् ` £५ ४५०
6
` _ दग्डापकषेः
दवन
॥
अश ` विषयस्चै। |
५ | ¦ | ष्टा पंक्ते।
दण्डयदण्डेदोषाः ^ ०.8.
4 दयृतकारदण्डः । | क 0 ० ` १०७ ०“
` श्रनदर्डसंस्या ॥ ०." व
निगैयोत्तरक्लयम् व भिति क व
पर्घनिर््मांणौपजौ षिन दण्डः 0 ष.
परदाराभिमर्बेणदण्डः ‰ ,. ` ~ ९.
। | पच्रादिच्लोनाया घनं हृतः परस्य दण्डः = २९१९ ... १
|... पकौयदण्डः.: ८ २ ५ 8 1;
पकौगपिद्ारिदग्डः 01 ९; 4, “^ -१.9.2
प्रनद्गताधिकारः ५ 5
प्रद्वरयाद्ण्डः ` ५ ः श 1
प्रहरणोद्यमनदण्डः व ४ 2 9
वन्धक्याद्यभिगमे द्गडुः १. ८ ४ श८्प् ०.
~
क त
क ४ ककः =, १.७ 41
ब्
~
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खगेशाय नमः।
तच दण्डप्रशंसायां मनुः,--
तदथं सवभूतानां गोत्तारं धममात्मजम्
` ब्रह्मतेजोमयं दण्डमरूजत् पवमौश्वरः॥ `
` तस्य सर्व्वधणि भूतानि सखावराणि चराणि च!
भयाद्वोगाय कल्पन्ते धर्मम विचलन्ति च ॥ `
स राजा पुरूषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुणमाखरमाणाच्च धम्बैलय प्रतिभूः समृतः ॥
दण्डः शणस्ति प्रजाः सव्वं दण्डं रखवाभिरष्ति ।
` दण्डः सुप्तेषु जागत्ति दण्डं धम्मं विदुर्बधाः ॥ |
तदथैमिति राज्ञो यः प्रजारक्षणास्यो धम्बैस्तदथैमिति
अध दर्यादरडे दोषाः
[न् भ) त्र
बलिमित्ययप्यपलक्षणम् ।
यदाह मनुरेव,--
योऽरक्षन् बलिमादत्ते करं शुल्कञ्च पार्थिवः
प्रतिभोगञ्च दण्डञ्च सः सद्यो नरकं व्रजेत् ॥ `
बलिधीन्यादेः षड्भागादिः। करो गामपुरादि-
वासिभ्यः प्रतिमासमाद्यम् । शुल्कं बशिगादिभ्यो दाद्श-
भागादिः। प्रतिभोगः फलकुमुमशकायुपायनं प्रात्य-
हिकम् । प्रौतिभोगमिति कचित्पादः। तच प्रीत्या
भोगा्मुपढौकितं फलादौत्यथैः । दण्डः प्रसिद्धः ।
तथा,
सव्वतो धम्मषडभागो राज्ञो भवति रक्षणात्)
अधम्मादपि षड्भागो भवत्यस्य चछर श्षणात् ॥
तथा,
ण्डो हि सुमहत्तेजो दुङ्रशारतात्मभिः
धम्मादिचलितं दन्ति पमेव सबान्धवम् ॥
ततो दुगेच्च राष्रच्च मुनीन् देवांख पौड़्येत् । : . `
देवानां पौडा साधुपक्षतैः, साधुभिर्हविपप्रदानाभावात्। `
म्दानजौवना देवा इति स्मरणात् । र
तथा,-- 0
अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्या शैवाप्यदण्डयन् ।
अयो महदाप्नोति नरकच्चैव गच्छति ॥ |
तथा,
यावानवध्यस्य बधे तावान् बध्यस्य मोकणे ।
धर्म्मो टपतेदष्टो धम्मेश्चैव नियच्छतः ॥ ध
नियच्छतः बध्यस्य बधमवध्यस्याबधच्च कुव्धेतः ।
"कात्यायनः-
राजानो मन्तिणश्रैव विशेषारेनमाप्रयुः
अश्णसनात्तु पापानां नतानां दण्डधारणात् ॥ |
रनमिति दान्दसप्रयोगस्तेन पापरमित्यथः। अथवा |
प्रकान्तमथम्भैमित्य्थः। कचिदेन इति छजुरेव याठः। `
नतानां विनौतानां अदण्ड्यानामिति यावत् | |
राजैकराचमुपवसेत् चिराचं ॥
शः
पुरोहितस्िराचं राजा च।
दग्ादददे शोषाः 1 | | ७
अथ याज्ञवल्क्य `
राज्नाऽन्धाथेन यो दण्डो गहौतो वरुणाय तम् ।
निवेद्य दद्यादविभ्यः खयं विंश्हुणौकतम् ॥
अन्यायेन अयथाशस्रम् ।
अच मिताकराकारः। व
+
अय स्म्यग्द्र्डगृखः,
तच मनुः,
तं राजा प्रणयन् सम्यक् चिवगेखभिवडते।
तथा,
समश्य स तः सम्यक् सव रचयति प्रजाः ।
याज्ञवल्क्य `
सम्यम् दश्डयनं राज्ञः सखगंकौल्तिजयावहम् ।
यो दण््यं दण्डयेद्राजा सम्यक् वध्यांश्च घातयेत् ॥
इष्टं स्यात् करतुभिस्तेन सदसशतदशक्िशैः ॥
इह राजेति हननाधिकारौ रुत रव । यच विशेषवचनं
॥ ` नास्ति तचापि वधार्थसुपदेश्टे रान्न ख राजटत्तेरेव वा
तस्यैव प्रजापालनटृत्तत्वात्ः । न दिजातिमाचष्य ।
| ब्रह्मणः परौश्ाथैमपि न शस््रमुपाददौतेति | ||
5 बोधायनेन,-- त
आयुधयरहण-न्धत्यमौतवादिचाणौति राजाधौनेभ्योऽन्यच
` न विचरन् ।
इत्यापस्तम्बेन च तस्य शस्रग्रहणनिषेधस्वर
सात् ।
` अच मिताशराकारः+--
यद् रान्नो निवेदनेरयलविलण्डन काय्यातिपातः ८
शद्धाते तदा स्वयमेव ५ = गदौन् दन्यात्, तच मनुना
ोद्यमित्यादिनाऽभ्यनुज्ञानादित्याह ।
ग घ पुस्तकद्वये प्रृत्तत्वात् । `
सम्यग्दरइगुणा €:
अथर दरढप्रणयनोपकरणानि ।
तच मनुः,
शुचिना सत्यसन्धेन यथाशस््रानुसन्धिना ।
दण्डः प्रणयितुं शकयः सुसहायेन धौमता ॥
शुचिना अथशौचवता अलब्पनेति यावत् घौमता--
अदहापोदन्ञानवता । र (
व्यवहारविषये ददहस्यतिः,-
न्पाधिक्षतसम्याश्च स्मतिर्गणक-लेखको ।
हमाग्न्यम्बु खपुरुषाः साधनाङ्गानि वे दश ॥ [1
अधिकृतः प्राडवाकः, सभ्यो मन्तिपुरोहितबाद्यणादिः,
स्मृतिमन्वादिग्रणौतं धमशस्तरम्, रतदथेशस्तरादेरण्युप-
लश्षणम्, सवपुरूषा राज्ञः काशठिकादयः |
` तथा, 1 |
रुषां मृञ्ख चपोऽज्गनां सुखच्चाधिक्ततः स्मृतः।
बाह सभ्याः स्मतिर्हईस्तौ जङ्क् गणक-लेखको ॥
देमाग्न्यन्बु दशौ ह पादौ सखपुरुषास्तथा ।
मेति हदेमामप्नौ दशौ अथ हदित्यर्थोऽन्वयः ।
व्यवहारान्नपः पश्येदिददधिन्रीद्यशेः सह । `
इत्यच मिताक्राकारः+-- `
_ ब्राह्मणेरिति दतीयादशनात्तेषामप्राधान्यं “ सह यक्ते-
$प्रधाने” इति स्मरणात् अतश्चादशनेऽन्धथाद्
शने च
रान्न रव दोषो न ब्राह्यणानामित्याह ।
अथ काल्यायनः
यदा काथथेवश्णद्राजा न पश्येत् काश्यनिणेयम् ।
तदा तच नियुज्ीत ब्राह्मणं शस््रपारगम् ॥
तदभावे त्वाह, ५
यच विप्रो न विद्वान् स्यात् विय तच योजयेत्! `
वैश्यं वा धर्मशस्तन्नं न तु भ्रद्रं कदाचन ॥ 4
मनुः ~
यस्य रटे प्रकुरुते श्रुद्रो धमविवेचनम् ।
तस सौदति तद्र पङ्के गौरिव पश्चतः॥
` व्यासः. `
दिजान् विहाय यः पश्येत् कार्य्याणि इषेः सह ।
| तस्य प्रक्षुभ्यते रार बलं कोषश्च नश्यति ॥
व
समाः शचौ च मिचे च पतेः स्यः सभासदः ।
दस्यति ८
सभ्याधौनः सत्यवादौ कर्तव्यस्तत् स्वपुरुषः ।
दध्णथनोपकरणानि । | १५
कात्यायनः,-
सभ्यानां ये विधेयाः स्ययुक्तास्ते राजपुरुषाः
गणको लेखकंश्रेव सर्वांस्तान् विनिवेशयेत् ॥
तान् सभ्यविधेयान् ।
अथ दृदस्पतिःः--
राजा कार्याणि सम्पश्येत् प्राङ्गिवाकोऽथवा दिजः ।
वादि-प्रतिवादिनौ एच्छतौति प्राट्, तदुक्त विविनक्ति
विचारयति वा सभ्यैः सह विविच्य वक्तीति वा विवाकः।
स चासो सचेति प्राङ्धिवाको धर्माधिकरशेऽधिक्छतः।
मकुऽ-
सोऽस कार्य्याणि संपश्यत् सभ्येरेव चिभिरतः।
गौतमः ५ व
सर्वधममेभ्यो गरीयः प्रा्धिवाक सत्यवचनम् ।
दस्यति, |
ये त्वरश्यचरास्तेषामरण्ये करणं भवेत् ।
सेनायां सैनिकानान्तु सार्थेषु बणिजां तथा ॥
रादा ये विदिताः सम्यक् कुल-ग्रेणि-गणादयः ।
साहसन्यायवज्ज्यानि कुरः कार्य्यणितेनणाम्॥
कुल-श्रेणो-गणध्यक्षाः प्रोक्ता निणेयकारकाः ॥
ष्विचाय्यें श्रेणोधिः काय्य कुलैर्यन विचारितम् । ध 1
6 गरी श्रेण्यविन्ञातं गणाऽन्ञातं नियुक्तैः ॥
९ ग बिचाय्।
दद 5. - -दमिषेकः |
इदस्यति-कात्यायनो,-
तपस्िनान्त् काय्याणि चैविदेरेव कारयेत् ।
माया-योगविद्च्चैव न स्वयं कोपकारणात् ॥
नारद्: |
यच सभ्यजनः सव्वः साध्वेतदिति मन्यते ।
स निःशल्यो विवादः स्यात् सश्ल्यः स्यादितेऽन्यथा ॥
` साध्वेतदिति नियपर, एल्यमधम्यौरूपम् ॥
अध सम्धोपदशः |
तच सभ्यानां कश्चिदोषोऽनियुक्त-सामाजिक-साधारणः `
कश्चिदसाधारण इति मिताक्षराकारः । |
तचाद्यो यथा मनु-नारदौ,-- ` |
सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समनच्जसम् ।
अब्रुवन् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्िषौ ॥
अच च न प्रवेषटव्यमिति सामान्याभिधाने विशेष-
जिज्ञासायां सभामिल्युपतिष्ठते रवमपि "पदसंस्कार-
स्याभियुक्तीरि त्वात् दिगुरेकवचनमिति ज्ञापकात् यथा- `
युक्तमथें परौश्ितुमित्यादौ यथा वा शकं शरमांसादिभि- |
रपि तत् प्रतिहन्तमिति मदहाभाष्यफकिकायाम् । | |
कुलकमभट्सतु सभासुदिश्येत्यध्याहारमाह ।
मेधातिथिना तु सभा वा न प्रवेष्टव्येति ज्येव पठितम्। | |
मिताक्षर्येवमेव ।
मनु-नारद्-हारौत-बोधायनाः | |
पादोऽधम्बेस्य कत्तीरं पादः साकिणच्छति ।
पाद्ः सभासदः सन्वन् पादो राजानङ्च्छति ॥
सभासदः अधम्पेप्ररत्यनिवारकानिति कुल्लकभटरः । ८
यच राजानुमत्या व्यवदहारय्य दुष्टत्वं तवैव तदोषदति `
` मिताक्षराकारः । पादोऽधम्बखेत्यादौ तत्तुल्यपापान्तरो- `
१ |
(7
१८ ० दण्डविवेकः ।
अश्च दर्ड-भेदाः।
तच इहस्यतिः,--
वाग् धिक् धनं बधञ्चैव चतुद्ख कथितो दमः
पुरुषं विभवं दोषं ज्ञात्वा तं परिकल्ययेत् ॥
तच वाग्दण्डो न त्वयेद् सम्यक् छतमित्यादि निन्दा । |
ताङ़्यैनमिति बाङ्घाचमिति नाराथणः। धिग्दण्डो धिक्
` ल्वा पापौयांसमकायकारिणमित्यादिभत्सनम् । धनं
अय वनदख्ड-सद्या |
अच शङ्खलिखितौ, |
चतुर्विंशतिरेकनवतिशेति प्रथम-साहसः। दिशतः
` पच्चश्तचेति मध्यमः, षट्शतः साहस्ेति उत्तमः ।
यथासारापकारं सर्ववेषामानुपूर्वेण । `
चतुरविंशत्यादिरेकनवतिपय्धन्तः ` प्रथम-साहसाखयो
दण्डः रवं दिशतादावपि । यथासारापकारमिति सारो
धनं दण्डस्य अपकारोऽपराधस्तस्मैव तदनुसारेण तयो-
लघवगौरवाभ्यां प्रथमादिसाहसविकल्प इत्यथैः ।
रश्व नारद्-यान्चवस्वयादिवचने प्रथमादिसादसेषु
ज्धुनाधिकसंस्याविसम्बादो व्याख्यातः । तस्य दण््यगत-
वित्तापराधलाधवगौरववैचिच्येण सामच्स्यात्। तदुक्ते
दण्ड तदुक्तदरव्यसंश्या ग्राह्येति व्यवस्योपगमादया ।
तच नारद
चत्वारिं शऽवरः पृव्वः परः षखवतिभवेत् ।
तानि पञ्च "तु परो मध्यमो दिशताऽवरः ॥
साहसरदन्तमो शेयः स तु पच्चशताऽवरः।
चतुविंशावर इति कचित् पादः
१ का पुस्तके पञ्च त्वपरः ।
` २ घ साहखन्तूत्तमः स्त
वनदा = द्
अथ मनु-विष्ण,-- | |
पणानां दे शते साड प्रथमः साहसः स्मतः ।
मध्यमः पच्च विज्ञेयः सहखन्त्वेव चोत्तमः ॥
याज्ञवल्क्य ,--' |
साशौतिपणसादसो दण्ड उत्तमसाहसः । `
तदङ्धं मध्यमः प्रोक्तस्तदद्गमधमः स्मतः ॥
यत्त,--
कार्षापणसदहखन्त दण्ड उत्तमसादसः ।
इत्यादि हहस्यतिवचनं, तच काषापणः पण एव दयोः
पर्य्ययत्वात् । अच स्चतुविंशतिरित्यादौ सव्धच संख्येया-
काङ्लायां पशो द्रष्टव्यः, पणानामिति विष्णुवचनात्। = `
, साहसान् व्यन्त ।
अथा मानसन्नाया मनुः
लोकसंव्यवहाराथं याः संज्नाः प्रथिता भुवि।
ताम्नरूप्यसुवर्णनां ताः प्रवश्याम्यशेषतः ॥
सर्षपाः षट् यवो मध्यस्ियवं त्वेवः छष्णलम् । +
लाकव्यवहाराथं प्रवश्यामौत्यथैः । मध्यो नातिख्यल
नातिक्षश इत्य्थः।
चियवन््ेवेति,--
गुज्ना तु स्यात् चिभि्यवेः।
` इत्यगस्तिपरोक्तदनात् छष्णलव्यवदहाराणं गुच्ानां
----------------------------------------------------------------------------------------~
९ क चतु{विशत्यादौ।
र्ग चङ त्वकक्छष्णस )
२४ "` दग्डविवेकः।
बालभूषणे चण्डश्वरः+-- |
कषेः पलपादः स्यात् कर्षाद्वं तोलकः सोऽपि ।
उक्तो वसुभिमषेलके माषोऽपि गज््ाकदशएमिः ॥
लमच वेद्यकप्रसिद्मष्टतोलकमिति ।
याज्ञवल्क्यः,
पलं सुवर्णणश्चत्वारः पञ्च वा परि कौर्तितम् |
मनुः,
दे छष्एले समते विज्ञेयो रूप्यमाषकः ।
ते षोड़श स्याद्वरणं पुराणश्चैव राजतम् ॥
धरणानि दश ज्यः शतमानस्तु राजतः ।
चलुःसुवशिको निष्को विक्तयस्तु प्रमाणतः ॥
ते षोड्शमाषका राजतं धरणं राजतश्च पुराण ध
इत्यथः ।
याज्ञवल्क्य
दे सष्णले रूष्यमाषो धरणं पोडश्ेव ते ।
पतमानन्तु द्शभिधरशेः पलमेव च ॥
निष्कं सुवर्ण॑श्चत्वारः , , +, . , ,।
द्शमिर्थरशैः शतमानं तदेव यलमित्युच्यते। निष्क- `
मिते रजतप्रकरणे सखगैशब्दोपादानं हदेमप्रकरणोक्त- `
मानप्राष्यथं तेन हेमप्रमाणभूतचतुःसुवणेमानोन्मितं रजतं `
निष्कमिति मदाशेवाभिधाने निबन्ये व्याख्यातम् । रुवच्च `
चतुःसुवशिको निष्क इति मनुवचनमप्येवमेवोन्रेयम्
`त । `
`
ग सवशं --।
५ दण्डवितेकः। `
रजतप्रकरणामनानाऽविशेषात् । अतरवोक्तं प्रमाणत
इति । | |
रजताधिकारे विष्णगुत्त,--
अष्टाशौतिगौरसर्षपा रूप्यमाषकत्ते षोड़श धरणं
^ र ~ ~~
तथा,
पशोदमानगण्डानां' तुख्धौओेऽपि च काकिनौ ।
| इति रभसपालः ।
पणगण्डकयो्तुग्ये उद्माने च काकिनौ । त
^ शिचः
हस्ति
ताब्रकर्षकछृता मुद्रा विज्ञेयः कार्षिकः पशः।
स रव चान्द्रिकाःः प्रोक्तास्ताञ्चतससतु धानिकाः ॥
ता दादश सुवरैक्तु दौनारास्यः स ख तु ।
विष्णगुत्त+--
सुवणेसप्ततितमो भागो रोपक उच्यते ।
दौनारो रोपकैर ्टाविंश्त्या परि कौर्तितः ॥
चतुर्वमचिन्तामणौ कात्यायनः
माषो विंश्तिभागस्तु जेयः काषापण्सय तु । `
काकिनी तु चतुभौगो माषस्य च पणस्य च ॥
नारद - |
माषौ विंशतिभागस्तु पणस्य परिकीर्तितः
` पणस्तु षोडशो भागो ज्यः काषौपणस्य तु ॥
काकिनौ तु चतुर्भागो माषस्य च पणस्य च ॥
पच्चनद्याः प्रदेशेषु संज्ञेयं व्यवहारिक ।
काषपपणप्रमाणन्तु तन्निबद्धमिहैव तु ॥
---+---+----~
|।
ध्यवसाये व्यवस्थामाह ।
|
॥
(
कात्यायनः
माषः पादो दिषादो वा दण्डो यच प्रकल्पितः
अनिर्दिष्न्तु सौवण माषं तच प्रकल्पयेत् ॥
यचो माषको दण्डो राजतं तच निर्दिशेत् |
ष्णलब्चोक्तमेव स्यादुक्तं दण्डविनिरेये ॥ |
यच माषको दण्ड इत्युक्तं तच राजतो माषको याद्चः। `
यच मापो दण्ड इत्युक्तं तच सौव एव ग्राह्य इव्यधैः।
एतच्च विशेषविधेरन्यच द्रष्टव्यम् ।
स यथा प्रकौशेके मनु
दैरण्यं चैव माषकमिति । छ
अतरव शस्यघातकदण्डं माषश्रुतावपि राजत खव
माषो श्राद्यो वचनात् ।
तथाहि रलाकरे भाष्यकारः,
त
अथ दर्डनिमित्तानि ।
तच नारदः, | |
मनुष्यमारणं स्तेयं परदाराभिमषणम् ।
दे पारुष्ये प्रकोशेच्च दशण्डस्थानानि षड् विदुः ॥
इति संग्रहः ।
ननु विवादस्य लाभमोहादिमुलकत्वेन सव्वच संम्भवा-
दादिनोरेकतरस्य मिथ्याभियोगापडहवयोरन्यतरनियमा-
त्तन्निित्तको दण्डोऽन्यचाप्यस्ति चेत्, सत्यम् । `
किन्तु चरैरावेदितानां रान्ना सख्वपुरुपैर्याहितानां
श्ििरोवादिनं विनाऽपि विचाग्येमाणनामपराधिनां येषु `
दण्डसेषामिहोदेशः। ते च मनुष्यमारणादय रव न॒ |
ऋणादानाद्यः। |
अतर्वोक्तम्, -
साहसन्धायव्ज्यानि कुथः कार्याणि ते नणम् |
प्रकौेकंः पुनन्गयो व्यवहारो खपाश्रयः॥
इति
अपि च कणादानादयो मनुष्यमारणादिवन्न सखरू- `
पेणापराधोऽपि त्वपह्ववादिकमपेश्येति तेभ्यो भेदः । |
किच्च मनुष्यमारणादिकन्तेणां दण्डाथमाकारणं तदनु- `
गुणतया त्वपराधविचारः। णादानादिवादिनान्तु बह-
शादितत्वनिगेयार्थमाद्वानं तदिचारप्रसङ्गणपलापादि-
५ |निणेयात् तत्कतत्दण्डं इति । `
द्ण्डनिमित्तानि } इरे . 2
अवैव मनुः क |
अष्टापाद्यन्तु श्रद्रस्य स्तेये भवति किंल्िषम् ।
पोड्ग्रीव तु वेश्यस्य दार्विंश्तक्षचियस्य तु ॥ `
ब्रह्मणस्य चतुःषष्टिः पशँ वापि शतं भवेत्। `
दिगण वा चतुःषष्टिस्तदोषगणवेदिनः ॥
"अव नतारतम्याचतुःषध्यादि दण्डविकल्पः । `
यत्त बाद्मणस्य पष्चथौः निगंणगणवदतिगणापेश्या
व्यवस्ितमिति स्वनेन व्याख्यातः तचापि गणो ज्ञानमेव
अन्यथोपसंहार विरोधात् ।
यद्यपि ब्राह्मणादेः श्रुद्राद्यपेश्चथा दण्डापकषे उचितो
दृष्टश्च । तथापि निन्दितं जानतस्तत्करणमपराधगौरव- 1 |
मापादयति ज्रानच्च हीनस्य कदाचिदवलप्यतेऽपि न `
` त्त्तमस्येति तस्य तारतम्े जातिरूपयुज्यते । |
रुतच्च तदोषगुणविदुष" इति रननाकरे परित्वा स्यष्टौ
छतं तदेतदुदाहरणमाकरे दष्टा लिखितं स्यषन्तदादरणा- `
न्तरम् ।
यथा काल्थाथनः
येन दोषेण श्रद्रस्य दण्डो भवति धम्मैतः
तेन विदश्चविप्राणां दिगो" दिगणो भवेत् ॥
~ शवं द्रव्यतो यथा नारदः+
सव्वेषामल्पमूल्यानां सूर्यात् पञ्चगुणो दमः
असाधारणन्तुर कात्यायनः,
सचिड्मपि पापं तु एच्छत् पापस्य कारणम् ।
तदा दण्डं प्रकल्येत दोषमारोप्यं यन्तः ॥
प्राणात्यये तु यर स्याद्कायकरणं छतम् ।
द्र्डस्तच तु नैव स्यादेष धम्मः स्मरतो शगः ॥
कंल्पेतेति अन्तीवितण्जिधैम्। दोषं चौर्य्यादि आरोष्य ८॑
सव्वरूपेणारोपयित्वा स्थिरौकत्य निशेति यावत्।
प्राणात्यये पापकरणं विना सम्भावयमान इति शेषः ।
र | तेन॒ चिह्ादविनाभूताल्लोप्तादिरूपात् प्रमाणान्तरादाग ` |1
१ ग पके च्माच्तिपताम् ।
कख पुस्तकदये धिगस्तु . क
द क असाधारणन्तमाह। ख पुरतके असाधारगेतु का्यायनः।! ..
४० | दग्डविवेकः।
दे ग -- धारके! `
दग्डनिभितु दण्डभेदव्यवस्था । ४१
मनु
चणक -त्रौहि-गोधम-यवानां सुद्-माषयोः । व
२९ कख एरकदये अनादा |
द्ण्डनिभिन्तेष दण्डभेदयवस्था । छर् `
अथ ब्राह्मणमाचस्यादण्डमाह नारदः,
ब्राह्मणस्यापरौदहारो मार्गादानच्च गच्छतः ।
भेष्यहेतोः परागारे प्रवेशानिवारितः' ॥ `
समित्पुष्यकुशद्ने्ल्तेयं सपरिगरहात् ।
'ऋअनध्यक्ः परेभ्यश्च समभ्भाषश्च परस्याः ॥
अपरौदहारो दण्डाभावः, अनिवारित इति वचनाद्ारणे
अपराध रव, अस्तेयं चौर्याभावः, सपरि ग्रहादिति पर-
परिग्रहविषयस्यापि `समिदादेरादानान्नापराध इत्यथैः ।
अनध्यक्षः परेभ्य इति शचभ्योऽष्यागतो व्राह्मणोऽदषटाभि-
प्रायश्चेन दण्ड्य इत्यधः। सम्भाषश्च परसिया इति दोषा-
भावाभिप्रायम्।
तथा शङ्कलिखितौ,--`
इन्धनोदक-काषठाभ्नि-ठ्णोपल-पुष्य-फलपर्णदानेष- ` न
१ गप्रििष्ये। २ख मबन्धवाः।
क । दण्डविवेकः ।
स
` बन्धनादि-दण्डाभिधानात्।
अथ मनुः,
ब्रह्महा च सुरापश्च तस्करो गृरतल्पगः
रुते सर्ववे प्रथक् नेया महापातकिनो नराः ॥
चतुर्णामपि चैतेषां प्रायचिन्नमकुब्बताम् ।
शरीरं धनसंयुक्तं धग दण्डञ्च कल्पयेत् ॥
| ` चतुर्णमपि शछवियादौनां शरीरो दण्डो बध रव,
| . ब्राह्मणनामवरोधरूपः समनन्तरोक्तोऽङ्कनरूपो वा । न
| तु दस्तच्छेदबधादिः, तस्य इस्यतिना निषेधात् । |
यदाह, |
दश ख्ानानि दण्डस्य मनुः खायम्भवोऽत्रवौत् ।
चिषु वेषु तानि स्युरशतो ब्राह्मणो ब्रजेत् ॥
अङ्गनप्रकारमाह बोधायनः
ब्राह्मणस्य भ्रणहत्या-गुरुतल्प-सुवशेस्ेय-सुरापानेषु
कवन्ध-भग-खपाद्-ष्वजांस्तत्तनायसेन ललाटेऽङ्यित्ा ` `
खविषयान्ते निवसनम् ।
नारद्,
अशिराः पुरषः कार्य्यो ललाटे दिजघातिनः ।
गुरुतस्ये भगः काय्यं सुरापाने सुराध्वजः ॥
त्तेये तु अपदं छत्वा श्खिपित्तेन पूरयेत् ।
टङ्न ललाटमुव्लाय मयूरपित्तेन पुरणमित्येतत्
प्रकारान्तरं हरितिकेति प्रसिद्धम् ।
अच यमः+ - वि
ण
<ग
क
<य
=
सभ
ट
इतरे कछतवन्तस्तु पापान्येतान्यकामतः।
म
नारायणस््वाह, |
कामकतेऽनुक्तरूपं प्रवासनमङ्कनादिसदहितं रतचाल्या- `
रन्भविषयमारम्भमहच्वे तु हननमेवेति! तदेवमकामकते
महापातके बहृश्रतादेदृण्डाभावः । तदितरस्य गृणवतीो |
मध्यमसाहसं निगैणस्योत्तमसादसं दण्डः सर्व्वेषां प्राय- |
अित्ताचरणच्च तदनाचरणे देशन्निःसारणम्। ५
कामक्षते तु तस्मिन् बहृश्रतादेः प्रायधित्ताचरणमना- `
चरणे निःसारणं तदितरस्याङ्गनं निःसारणब्च । क्षचिया- _
दस्तु कामङते तस्मिन् बधः। अन्यचाङ्नधनदण्ड-प्रवास- ‡व
नादौति व्यवद्या । | [
अथ धनद्र्डोऽप्यमौषामनुशासनमावाथं रव । सम- |
नन्तरमेव तस्य त्यागस्मरणत् । |
तथाहि मनु, 1
नाद्दौत दपः साधुः महापातकिनो धनम्। ` |
आददानस्तु तल्लोभात्तेन पापेन लिष्यते ॥ |
धनं धनद्ण्डरूपमिति नारायणः ।
नाददौत पातकिसकाशदाकष्टमपि न खौकु्व्बौत
किं तदहि कुय्यौदित्याहः- ।
अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणयो पकल्ययेत् ।
अतटइत्तोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत् ॥
ईशो दण्डस्य वरुणो रानां दण्डधरो हि सः! `
इशः सव्वस्य जगतो ब्राह्मणो वेदपारगः ॥
् मष
काम दण्डधरः शस्ता यतः ५ | (|५
^. ४ | | दगडविषेकः ।
८ यमः
अथ दर्डोत्कषः
य
तच कात्यायनः . | |
अथवन्तो यतः सन्तो यथोक्तानपितेद्मान्। |
ददुनेवोपण्ण्धेरन् तस्मात्तेषु न निशयः॥ |
तस्मादव्याहताः पापा थेन येनाशुभं पुनः ध
न कुर्य्स्तत्तदेवास्य कत्तव्यमिति निश्चयः ॥ . य
इति सिद्वान्तः
अचापराधेषु नियमप्माइगौगौयमानवाः+--
द्ण्डनोयः स शेथिच्यात् प्रथमं वेति गौतमः । क
इति पू्यश्लोकं पूव्यै लिखित्वा अव्याइताः पापा |
क
सव
तथाहि पुव्वश्लोकाथेः। `
तेषु तेपराधेषु मन्वाश्चक्ततत्तदण्डनियमं गार्ग्य
मानवा गगेश्ष्या वदन्ति। गौतमस्तु नियमं न मन्यते ।
दर्डस्य दुखत्तनिवत्तकतया दष्टाथैत्वेन यावता तनिटत्ति-
स्तावत रव शख्ाथत्वात् । तन्निटत्तौ तस्य तस्यौत्स्मिक- `
त्वेन मन्वादिमिस्तथातथामिधानादिति।
रुतव्यायमूलकमेव संग्रहप्रकर णौयम् ।
इदस्पतिवचनम्,-- |
चयाणमपि चैतेषां प्रथमोत्तममध्यमः।
विनयः कल्पनोयः स्यादधिको द्रविणाधिकः ॥ इति
तथा कार्षापणं भवेदण्डय इत्यादि मनुवचनं तच्याय-
प ~ ~ ^ ~ +^ ^
`
4 मुलकमेव ।
यच्चाधिकछतगरुविप्राणमवकोशे निभैत्सनं ताडनं
“3 गोमयालेपनं खरारोचणं दपर दण्डो वेति `
शङ्कलिखिताभ्यासुक्तं तस्या्युक्त रखवाथे तात्प्येम्।
कात्यायनौयेनैकमुलकत्वे लाघवात् ।
आध्यादीनां विहत्तौरमित्थादियान्नवस्ववक्चने मिता-
छषराकारः दण्डो द्मनादित्याहस्तेनाद्न्तान् दमयेत्
इत्यनेन दण्डस्य दमनाथैत्वावगमाद् यस्य तत्समदणश्डन `
` विहितेन दमनं न भवति तस्य तदधिको दण्डो निधनस्य । ८
। तु यावता पौडा तावानेवेति रुतदुकतं वेति स्फुटम
् ।
` तदेवं यस्मिन् कम्णि ङ्गमादिकया यो दण्डो ॥| ।||
र `विदितः, तं दत्वाऽपि यस्तस्मिननेव प्रवत्तते तस्व तदधिको `
` दण्डनिमित्तेषु दग्डभेदव्यवस्धा । ५३
व्यास =
(1 काकिन्धादिरूथदण्डः सब्वखान्तस्तथेव च ।
इति शङ्खनोक्तं १[तन्नानुबन्धतारतम्यविषयम्, अपि
तूत्कर्षावधिकथनपरम्। यथा नारदेनेव शङ्खेनैव चोक्तम्}
शारौररूववरोधा दिजौ वितान्तस्तथेव चेति ।|
उक्तानुक्तसव्वसाधारणौ सौमामाद ।
काषीपणादया ये प्रोक्ताः सव्वे ते स्यतुगृखणः
सवमन्येऽपि विज्ञेयाः प्रागेते पुव्वसादसात् ॥
पूव्बसादहसः साद्धं पणशतदयम् । तस्माद्माग् ये दण्ड-
विशेषास्ते ऽनुबन्धगौरवात् पापातिश्ये चतुर्गुण ्राच्चाः।
पूव्वसादसादौ तु पापातिश्येऽपि चातुरं नास्तौत्यथे
इति रनाकरः।
रुवच्च शरौरादिदण्डसमुचयस्तचापि न विरुद्धः
योज्यः समस्तश्वैकस्य महापातककारिणः ॥ `
इत्यादौ वाग्धिग्धनदण्डादिसमुदायविधानात्।
इत्यादिना तदनत्यागस्येवोपसंहारात् । 1
रवं सति प्रधानस्य राज्ञो दण्डाभावे पापान्निदत्तिः |
५६ . दण्डविवेकः।
नयाम
मप्यवमेव नेयम् |
चअसामथ्ये दण्ड खव कृतो न स्यादिति चेत् गवाद्य-
पेश्षया गुरुत्वात् । गुरुरपि स शठ न्याय्यो दण्ड्प्राय-
श्चित्तयोर्वेकल्पिकत्वात्। प्रत्याम्नायस्यानुकल्यकत्वादितिचेत्
ति गोदानादिकमपि न स्यात्। दण्डाभावे सावकाश-
मिति चेत् न दण्डस्य सव्वच तत्वात् सवदा सम्भवा ।
अस्तु वा तस्य वाग्दण्डो धिण्द्ण्डश्च तथोः प्राद्िवाकपुरो-
हितप्रवर्तनौयत्वात् ।
ल रतदेवाभिसन्धायाह नारायणो-दलायुधश्च “राज-
दण्डस्तु सभ्यैरेव कर्तव्य इति ।
अथ शरोरदश्डेऽवधिमाह कात्यायनः
. . शरौरसत्वरोधादिज्नौवितान्तस्तथेवच ॥
` ~
९ खघ रागोत्वर्षात्। .,.
अथ दर्डपरिनिष्टा |
सा च दण्डस्य तत्मकारस्य नियमोऽस्य सभ्रुयस्तश्य
संकलनं द्ण्डान्तरेणेति चतुविधेति संहः ।
` तच द्शण्डनियमः
पिवादौनां रान्नां हिंसाव्यतिरिक्ेऽपराघे वाग्दण्ड खव ।
म्रव्रजितादौनां िग्दण्ड रवेत्यादिः।
त
पिताचायः सुहृन्माता भाग्य पुचः पुरोहितः ।
नाद्ण्यो नाम रान्नोऽस्ति यः खधम्मे न तिष्ठति ॥ १ |
याज्ञवल्वयः, |
त्विक् पुरोहितामात्यपुचसम्बन्धिवान्धवाः ।
धम्मादिचलिता दण्व्या निर्वास्या राजदहिसकाः ॥
तेषां दण्डमाह खदहस्यतिः,-
` गुरून् पुरोहितान् पूज्यान् वाग्दण्डनैव दण्डयेत् ।
कात्यायनः
पिचादिषु प्रयुच्छीत वाग्दण्डं धिक् तपखिनाम् । `
म.
स च॥८
॥
५ रौ
| अदण्ड्यो मातापितसर लातकपुरोहितौ परि्राजक- `
` वानप्रस्ौ । जन्मकमेश्रुतशलभशौचाचारवन्तः । ते हि |
पर | दण्डविवेकः।
` ९ गविमादिदायिनः। `
दण्डपररिनिद्धा। ~:
विप्रोऽच प्राद्िवाकः। `
अथैकच् दण्डे द्ण्डान्तर संकलनं यथा,
मनुः,
(५
|
अनुबन्धं परिन्नाय दश-कालौ च तत्वतः ।
सारापराधो चाल्ाक्य दश्डं दण््यषु पातयेत् ॥
अनुबन्धो मन्दक्ियानुृत्तिः । सारोऽच शक्तिः । अयञ्च
दण्डः सुवणेश्ता्यसम्भवे, तस्याप्यसम्मवे सव्वस्वमिति
व्यवस्येत रन्ाकरः ।
अथापस्तम्बः।
पुरुषबधे स्तेये ब्रुम्याद्ान इति स्वान्यादाय बध्यः!
चक्षनिरोधस्त्वेतेषु ब्राह्मणस्य ।
स्वानि धनानि। अच रन्नाकरे बध्यस्ताद्यः, चक्षुरव- ह
|
गोधश्वक्षुरुत्पाटनं ब्राह्मणएस्याधमतमस्येति व्याख्यातम्|
स्तेयं सुवशंहरणं बाद्यणस्याधमस्येति भिखाः ।
वस्तुतस्तु॒वबध्यो घात्य इत्येवाधैः। स चाज्राह्मण- `
विषयसलुशब्दस्वर सात् । ब्राह्यणपदच्चासङ्कुचितम् ।
तथाहि मिताक्षरायां । ब्राह्मणस्य पुरान्निवसनसमये
वस्त्रादिना चकु्निरोधः कार्ययो न तु चक्ुरु्पाटनम्। |
अक्षतो ब्राह्मणो व्रनेदिति--न शरीरो ब्राह्मणदण्ड इति, `
मनु-गोतमवचनविरोधादित्यक्तम् ।
एवच्च यच कछ्षचियादेबेधस्तच ब्राह्मणस्य प्रवासनं बहुशः ५
अरुतमिदहापि प्राप्तम् । तथाच त्यज्यनानं खदेशं पश्यतो `
मन्युरस्य स्यादिति युक्तं चक्षःपिधानमिति भावः! `
द | | दण्डविवेकः।
त्यन्,
बधाङ्कच्छेद्ारह विप्रो" निःसङ्ग बन्धने विशेत् ।
तदा कम्पैविमुक्तोऽसौ इत्तस्थस्य दमो हि सः ॥
स
=
` ज्रुटसाश्येऽपि निर्वास्यो विस्याप्योऽसत्प्रतिग्रहतै ।
अङ्गच्छेदौ वियोज्यः स्यात् सधर्म बन्धनेन तु ॥
बधाङ्गनच्छेदाहो यस्मिन्नरपराधे बधो बाऽङ्गचछेदो वार्ति `
तद्ान् । विप्रोऽच सदाचारनिष्ठः ¦! इत्तस्थस्येति विशेषणं
दुतस्य दश्डान्तरं चयतौति कल्यतरः। निःसङ्ग विया-
योगशरन्ये । यच ब्ग: सन् स्वधम्म कत्तं न पारयति तदा
कम्पेविसुक्तः स्यादिति शेषः) स रव सदाचारस्य दमो
यत् स्वधम्मवियोजनं नाम । विद्धाप्यस्तेन रूपेण लेके
प्रकाशनौयः। अङ्गन्च्छेदौ परस्याऽङ्गच्छेत्ता वियोज्यः खध
` स्वधम्मर कत्तु स्वातन््यमस्य बन्धनेनापहरेत् ।
कात्यायन+--
मानवाः सद्य एवाहुः सहोढानां प्रवासनम् ।
सहोढमसहोढं वा सव्वस्वेविप्रयोजयेत् ॥
अयःसन्दानगृत्ताश्च मन्दभक्ता महाबलाः ।
कुर्ययः कर्म्माणि ्टपतेराग्डत्योरिति कौशिकः ॥
अयःसन्दानेति पूव्वं बलान्विताः सन्तोऽयःसन्दानगुप्ता
ध सेाहनिगङ़बद्धाः। मन्दभक्ताः कम्मेयाचोपयिकबलजनक-
भोजनभाजः। कम्माणि कुय्यराख्त्योरिति योजना|
ब्राह्यणविषयच्चंतदचनम् । तेन ₹इत्तखाध्यायवतः प्रवा-
९ ख घ पस्तकदये बधाङ्ेदने विप्रः । `
शडपरिनिष्टा । दऽ #
१ घ एु्तके किंकम्भाणयपि । |
६८ ` दण्डविवेकः।
क कम्मेणाऽथैनिस्तारानुरूपव्यापारेण' । विप्रस्तु न
कम्मैणाण्यं गच्छेदपि तु कमेण ददयादेवेति रन्नाकरः ।
इह ब्राह्यणस्य कम्पैकरणादिबोधकनानावचनविरोधे
व्यवसा प्रतिभाति ।
यच ब्राह्यणस्य धनद्ण्डः कियते तच धनिकस्य यथा-
विहितं सब्येस्हरणं सहसख्रपणादियदहणच्च । साहसादि कच्च
` निर्बनेनापि तेन यथोदयं देयनेव न तु कम्पैणा परि-
शोध्यम् । यस्य तु कमेणपि धनोदयसम्भावना नास्तिस
धनद्ानासदः । तस्य कम्यशेव परि शोधनम् ।
यच घनश्रुतिनास्ति तचोत्तमस्य इत्तखाध्यायवतः समा-
पत्तिसंभावनायां यथापराधं निगहेन रन्वा वा रहसि
` बन्धनं प्रायित्तानुष्ठापनच्च ! असमापत्तौ च प्रवासनम्।
असमापत्तौ नाश इति प्रकौणेकप्रकमोपकमे वश्य-
माणपस्तम्बवचनसंवादात् |
हीनस्य तु हानितारतम्याद्राह्यणानुचितस्य परिचरव्षा-
= देरुच्छिष्टमाजंनादेवा विकम्भेणः करणम् । प्रवासितस्या-
समापन्नस्य हीनस्याहौनस्य वा वेवास्यादागत्य तथेव मन्द्-
1 कियानुबत्तिनो यावन्नौवं यावत्समापत्ति वा बन्धनमिति ।
अथ इदहस्पति |
साकिलेख्यानुमानेन सम्यग् दिव्येन वा जितः
यो न दद्यादेयदमं स निवस्यस्ततः प्रात् ॥
- - "~ न ------------------------------------~-----------------~ ------------
९ क कम्भगा खनिसताराथैखरूप्रयापारेण।
|
दण्डपरिनिषा । ` €
॥
|
स
वभ
कन दण्डविचेकः।
~ (28 मनुब्यमस्खद्सख्, ।
अविन्नाते हन्तरि' तज्ज्ञानोपायमादह याज्ञवल्वयः,
अविक्नातहतस्याशु कलदं सुतबान्धवाः ।
प्रष्टव्या योषितश्चास्य परपुंसि रताः प्रथक् ॥
केन सदहाऽस्य कलहो जात इति खतस्य सुतादयः
प्रष्टव्या इत्यः |
प्रञ्नप्रकारमादह स रखव,+-
स्ौद्रव्यदत्तिकामो वा केन वाऽयं गतः सह ।
| खत्युदेशसमापनः एच्छेचापि जनं शनैः ॥
` स्यति-
हतः संदृश्यते यच घातकस्तु न इश्यते ।
पूर्वश्वेरानुमानेन ज्नातव्यः स महौभुजा ॥
प्रातिवेश्याुवेभ्यौ च तस्य मिचारिवान्धवाः ।
परटव्या राजपुरुषैः सामादिभिरूपक्मैः॥ `
ज्नातस्य इन्तुर्दण्डमाह बोधायनः
सचियादौनां ब्राह्मणवधे बधः सव्वस्वहरणच्च । तेषा- `
मेव तुल्यापक्घष्टबधे* यथाबलमनुरूपञ्च दण्डं कल्पयेत् । `
छचियबधे गोसदसरं राक्र उत्ध॒जेत् वैरनिर्ययातनाथेम् । `
शतं वेग्ये दश श्रदरे ठषभश्चाचाधिकः। श्रुद्रबधेन स्वौबधो
९. ग पुस्तके कन्तेरि । २ मूले-- समासन्नम् ।
मूले--वेरानुसारेण । स
8 घर पु्तकदये तुल्यावकढवधे । .
मनुष्यमारण्दण्डः । ` | ॐ
भाष्यम् |
रुवच्चापस्तम्बौयेन समं बोधायनौयस्यैकरूपत्वात् । .
-~-~---~-~~-~-~-~
शरौरल्ववरोधादिजौवितान्तस्तथेव च ।
इति नारद संवादाच ।
९ क तिकतेरिकेति। ग तिकतेति। = `
मनुष्यमारणदण्डः | ७इ्
९ ग पुस्तके --रत्तानुमोदकः ।
द् ४ दग्डविवेकः ।
नतुरवच्द प्रयोज्यस्यापि
दण्डोऽपि । खपतेः सगे इव हिंसायां नंतस्य पापमाच्ं
विध्यतिक्रमनिबन्ध खरसा- ` |,
ङ | दण्डविवेकः ।
॥|
कख ग पुस्तकेषु गटद्यमएणस्त ।न ।
८० | ¦ ८ दण्डविवेक ।
अथ सेयदरडः
तच स्तेयं नाम अनैयायिकं परसखयदहणमिति सतिः,
तच विशेषमाह मनुः,-
स्यात् सासं त्वन्वयवत् प्रसभं कस्यै यत्कृतम् ।
निरन्वयं भवेत् स्तेयं छत्वाऽपव्ययते च यत् ॥
अन्वयवत् रशिपुरुषसमश्षम् । अपव्ययते अपहृते ।
तेन प्रसभं बलात्कारेण र्कमभिग्रूय यचापहारस्तच
साहसमेव न तु स्तेयम् ।
अगोपनाद् यच च्छलेन रश्िसमश्षछतोऽप्यपद्ारो
। नीष्यते, तदेकं स्तेयं प्रहणस्यापड्ववात्। यच तु रक्िणोऽन्वय
खव नासि किन्तु ततोऽपह्ाय्यापहारस्तदपरं स्तेयम् ।
उभयच स्तेयसुक्तमपइव इति कात्यायनसंवादत् ।
तेन प्रथमाऽपच्ता वस्तुतस्तस्करोऽपि साहसोक्तदण्ड-
प्राष्य साश्छिविशेषदिव्यविशेषपरिग्रहाथे च सादसिक
इत्युच्यते । दितीयः प्रकाशतस्करो रक्षिणः प्रकाश्चैवाप-
हारात् ठतौयोऽप्रकाश्तस्करः सुप्त-मत्त-प्रमत्तात्तौना-
मप्रकाशमपेश्यापदारात् । सवच चाचापदर्तः सकाश-
दृप्तं द्रव्यं खामिनो दापयित्वा तं तमपराधं लेके
~
5~
~
त
तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कम्मणि तत्वतः ।
कुर्वत शसनं राजा सम्यक् सारानुसारतः ॥
येषु पुनः स्तेनत्वपिभिरतिदिष्टं तेषां दण्ड खव । `
उपटेणदतिरेश्स्य तदेकाथेत्वात् न तु इतदान-
मस्मरणत् । के पुनस्ते- |
अ
भक्तावकाशग्न्युदकमन्त्ोपकर
शव्ययान् ।
दत्वा चोरस्य न्तुवा जानतो दण्ड उत्तमः ॥
अवकाशो वासस्थानम् अभ्निशचोरस्य शौतापनो- `
दनाद्यथैः। उदकं ठषितस्य ठष्यथैम् । मन्त्रथौयेप्रकारो-
पदेशः। उपकरणं चौयसाधनं शस्रादि । व्ययोऽपदन्ते
गच्छतः पाथेयम् । जानत इति वचनात् तस्य चोरत्वं
इन्तत्वं चान्नात्वा भक्तादिदाने दोषाभावः।
| १ मूले कामादुपगतं सुवि।
छ ५ दण्डनिवेकः |
, मनु,
अ्चिदान् भक्तदाओरेव तथा शस््रावकाश्दान् ।
सन्निधातंच मोषस्य इन्धाच्चो रानिवेश्वरः ॥
अ्रिदान् शददादहाद्यथेमिति नारायणः सन्निधातन्
मोषणौयद्रव्यानुक्रलसन्निधानकारकानिति रलाकरः।
सुष्यत इति मोषश्रौरधनं तस्यावस्थापकानिति मनु-
टीकायां कुल्लकभटरः।
नारायणस्तु खहदादादिकमयं करिष्यतीति ज्ञात्वाऽपि
सन्निधातुन् वा तत्तत्स्थानसमौपनेतृन् मोषस्य चौरस्य
वेत्याह । एतच्च भयाज्नानविरहेनेयमिति रनाकरः ।
अच विष्णः--हन्धादित्यनुदत्तौ,--
प्रसद्य तस्कराणमवकाशभक्तदांखान्च राजश्कः।
यदि राजा चौरनिराकरणाप्रभविष्णस्तदा ख्वरशषणाय
चौरभक्तादिदानेऽपि न दोष इत्यथैः | |
हलायुधेन तु आसक्तेरिति परित्वा अन्यच राजासक्ते-
र्विना राजसम्बन्धात्, तेन यो राजान्नयैव चौराणां विश्वा-
साथे भक्तादिदानं करोति नासौ बध्य इति व्याख्यातम् ।
४ क्रलइहितयास्तेन-भक्तदाचादौनां वास्तवं स्तेयं नास्ति)
तदतिदेशमाभित्य तदृक्तदण्डोपदेशः
पतदनु-
काम-
मस्तु किन्तु दोषतारतम्थादर्डतारतम्यमनुरोध्यम्। मनुष्य-
मारणप्रकरणपरिसमाप्िनिरक्तन्यायात् व्यवहारशस्तर- `
सिद्नान्तात्। छ
१ ग तदनुकरलिततया। ।
` क्तेयदण्डः । ` ~: दे
०१५०१
य चप्चछाद्यन्ति तान् ॥ ५
भाण्डानां चोरितद्रव्याखम् ।
मन
९ क पुस्तकं च्मभ्यागतेषु ।
८४ 4 द्श्डविवेकः |
मनुज । ।
४ यत्तु याज्ञवल्वयवचनम्,--
खहौतः शङ्कया यस्तु स्मात्मानं न शोधयेत् ।
दापयित्वा हतं द्रवयं चौरदण्डेन दण्डयेत् ॥ इति
तच न चौरत्वातिदेशः, अपि तु संसर्गादिदर्शनेन चौर- `
| | 1 ८`तयाऽभियुक्तस्य विचारवैमुख्यं चौरतामेव निश्ाययतौति
युक्तं ततो हतदापनम्।
श्रतरव यच निश्चायकष्यान्यथासिद्धा कमेणापि स
निश्चयो समत्वेनावसौयते तत्र यदौतपरां इत्तिमाह--
1 कात्यायनः;
अचोरादापितं द्रव्यं चोरान्वेषणतत्परः। `
उपलब्धे () लभेर॑स्तद्धिगुणं तच दापयेत् ॥
स्तेयदण्डः ॑ । . | स्थ
1 |
चोरहतं प्रयनेन खरूपं प्रतिपादयेत् ।
तदभावे तु मूल्यं स्यादन्यथा किल्विषौ पः ॥
स्वरूपं यद पृतं द्रव्यं सेव व्यक्तिः ।
तथा,
लब्धे च चौरे यदि च मोषस्तस्मान्न लभ्यते।
द्यात्तमथवा चौरं द्ापयेत्तु यथेष्टतः ॥
` मोषो मुषितद्रव्यं स यच चौरसकाशन्न लभ्यते तच
श्मूल्यं वा राजा खयं स्वामिने दद्यात् चौरमेव वा तिन्
विषजेत्। इच्छया तु तथा कुर्याद्यथा चौरस्तमस्मै
` ददातौत्यथैः। |
अथ यच चौरोऽपि न लभ्यते तचापरस्तम्बः
म्राभेषु नगरेषायान् शुचौन् सत्यशैलान् प्रजा-
: गुप्तये निदध्यात् तेषां पुरुषास्तथागृणा एव स्यः सव्वेतो
योजनं नगरं तस्करेभ्यो रश्यं कोशोः यमेभ्यः अच यन्नु
प्येत तैस्तु प्रतिपा्म् । ।
(५ ग्रामनगरयोसतत्पयैन्तभ्रूमौ च करोशरूपायां योजन-
पायां वा यन्ञुषितं तत्तद्रक्षका रुव दापयितव्या इत्यथः।
कात्यायनः
र
याज्ञवत्वयः, |
सखसौमि दद्यात् म्रामसतु पद् वा यच गच्छति । 4
ठ
अथ विष्ण
चोरापहतं धनमवाप्य सव्वेमेव सव्वव्णेभ्यो ददयात्।
अनवाप्य स्वकोषादेव दद्यात् |
सव्वभेवेति न तु निध्यादिवद्गागग्रहरपूव्यैकमित्य्ैः |
सखकोषादिति अदाने किल्विषस्मरणादन्यतो दापयितु-
मशक्तः खयमेव राजा द्द्यादित्यथेः।
1
तस्िंश्वेदाप्यमानानां भवेन्मोषे तु संशयः ।
सुषितः शपथान् द्प्यो बन्धभिव विशोधयेत् ॥
इयत् मुषितमियद्वा इति संश्ये निणेयाथं मुषितधन-
खामी शपथं कुबात् दषटनैव वा प्रमाणेन बोधयेदित्यः !
इति स्ेयदण्ड'माठ्का ।
~~ ~~ ----~-----~ ~ ------------
` १ ग एके सेयमाटटका।
॥]
स्तेयदण्ड | । | । 1 |
कग बरणिकूविकल््या
€ दण्डविवेकः |
इह च,--
तुलामानविशेषेण लेख्येन गणितेन च । क
तो विषम ं
॥ि
मूल्यमुत्
` साहस
#
भि ^
¢`
(..
| तरच मध्यममित्याह ।
मनुः,
अबौजविक्रयौ यस्तु बौजोत््रोष्टा तथेव च ।
मग्याद्ाभेदकश्वेव विक्त ्राप्रुयादधम् ॥
अबौजं बौजतया यो विक्रौणौते सोऽबौजक्कियौ
` केवादावत्तं बौजमन्यच नयति स बौजोत््रोष्टा, इति इला- |
युधः। उप्तबौजमुखननेन यो हरति तथेति रनाकरः। |
अवौजमेव कतिचिदुत्छषटशचेचक्षेपणेन पुवमिदं सोत्छष्ट- |
मिति कत्वा यो विक्रौणौते स तथेति कु्लकभद्रः। ^
बौजकाल्ते तस्य महाधताथेमुत्कषकारौति नारायणः। `
सान
१ घ पुस्तके बौजोत्कष्टा ।
कद् ~ देगडविवेकः ।
विष्णः, |
शल्कस्थानमनाक्रामन् सर्व्वापहारमाप्रयात् ।
०
कख द्रव्यविरोधः। .
त
(
णः
(1 -दण्डदिकेकः,
अच हलायुधः
शिशुश्ण्ल्यिदूतेभ्यो बणिजिकेभ्यः कंचिदपि शुल्कं न
ग्राद्यमित्याह । |
शङ्खलिखितेन)क्तम्+
स्कन्धवाद्येघ शुल्को नगरवासिनां विपेतराणमपि।
सकन्धवाद्येषु न्धवाहनयोग्येषु अल्पतर मल्येधिति शेषः
अशल्कः शुल्कादानम् ।
बराह्मणस्येत्यनुरत्तौ नारद,-
नदौष्वेतनस्तारः पूव्वमुत्तारणन्तथा । ।
पण्ये शुल्कदानच्चं न चेद्ाणिज्यमस्य तत् ॥
पण्येषु कय्येषु । कचित् तरेधिति पाठः । तच तरेषु
पारं प्रापणौयेषु वस््ादिष्ित्यथेः। अशुल्कदानं राज- `
मआद्यादानम् । `
अथ करुटकारिणो बणिजो दण्डमाह ।
याज्ञवल्कय,
` तुलाशसनमानानां करुटरुन्नाणकस्य च ।
एभिश्च व्यवदत्ता यः स दाप्यो दण्डमुत्तमम् ॥
क 6। तुला पूव्वसुक्ता शसन राजनिवद्लं॑चिहितसुद्रा
` नाणकः। कार्षापणश्तमानकटङ्कादिः। मुद्रा चिहितः
| सुवर्णादिः । निष्कादिरिति मिताक्षरा । ५
`
य र्तेषां क्टकत् तदेशप्रसिद्धपरिमाणादूनाधिकपरि-
माणक्षत्, अव्यवहारिकताम्रादिगभतत्कारौ वा यथ्चैतै
क्तेयदण्डः। ` ९७ >
ध दण्द्यावित्यथैः । | | य
अच मनु १1
परैक्षणं कच्यमित्यथैः |
तच्चालब्थसाधुपुरुषदारकमित्याहतुः--श्ङ्लिखितौ,-- `
तुलामानप्रतौमानव्यवदहाराघेस्थापनं देशटद्रव्यानुरूपं
प्र्ययितपुरुषाधिषशितम् ।
ग अशरेषापराधाभावे)।
२ मूले अघेमिति पाठः
क
ह ---- -दण्डदितैकः।
` ग्ताङ्गलम्रविकरेतुदंण्डो मध्यमसाहसः । ध
` ग्ठताङ्गलभ्रं वस्त्रादि येन तेन भ्रियते येन वा खतो
भूष्यते तदल्पमूल्यमपि तद्रव्यमप्रकाश्च विकरेतुम॑ध्यम-
साहसी दण्ड इत्यथैः । |
तथा,+-- ` 9
भेषज-सेह-लवण-गन्ध-धान्य-गुड़ादिषु ।
पण्येषु हनं कछिपतः पण दण्डस्तु षोड़श ॥
। आदिपदेन
तदेतदिको तव्द्वयेदिङ्गुमरौचाद्यो गच्यन्ते। ददस्यति
मकषेपमावे बोडव्यम्। वचने `
हौनमपद्रव्यं
दिगुरं पण्यदानं बणिग्दण्डच्च तादभे विकते सतौत्य- `
` ॥
` विरोधः। इति रनाकरः। घएस्तके सम्भारणादिना । `
१९ ख पुच्छे शानादिन
सतेयदग्डः। व | | ९०
प्रतिभाति । |
अथ पण्यनिमणोपजौविनो दण्डमाह ।
इदस्मतिः,- ल
ग्टचम्मे-मणि-ख्वायः-काष्ट-पाषाणश-वाससाम् ।
अजातौ जातिकरणे विक्रौयाऽ्टगुणो दमः॥
` १ ग अङ्गदौनास्तु। :
। स्तेयदण्डः 1 । १०द् ध
अजातावल्पमूल्यकजातौये बहुमुल्यजातौयताम्मदेतु- स
<|
.
तथा+- |
समुद्ृपरि
वत्तेच सारभाण्डच्च छचिमम् ।
आधानं विक्रयं वापि नयतो दण्डकल्पना ॥ `
सन्नं पिधानं तेन स वर्तते समङ्ग सम्पुटं करण् डक- `
सुवर ्णाद िपूर - ` |
मित्यनथान्तरं तेति पूत्वा ओेषः। तेन
०6 ,ज
अथ भिषजो दण्डमाह ।
मनुः, |
अन्नातौषधिमन्तरस्तु यश्च व्याधेरतच्चवित् ।
रोभिभ्योऽथं समादन्ते स दण््यश्चौर वद्धिषक् ॥
अच रोगिविशेषे दण्डविशेषव्यवस्थामाद ।
` याज्नवल्वयः,-- | |
भिषद्धिष्या चरन्द्याप्यस्तिय्यक्ष प्रथमं द्मम् ।
मानुष मध्यम राजमानुषं तत्तम तथाः ॥ :
अच तिथगादिप्रुं मृल्यविश्ेषेण राजप्रत्यासत्ति-
` विशेषेण च दण्डानां गृरुलघुभावश्च कल्यनौय इति `
मिताक्षरा । व
.सेयदखः 1 | | | ९०५
यथा विष्णुः क
उत्तमं साहसं दण्डयो भिषद्धिथ्या चरन्नत्तमेषु।! `
म॑ध्यमेषु मध्यमम् ¦! तिय प्रथमम् ।
सव्वमिदं रोगिणो मरणाभावे। तच दरूडाधिक्यादिति
चिकित्सकानां सर््वषाभित्यादौ नारायणः ।
अथ विखब्धवच्छकानां तथा सभ्यानां--
अन्यायवादिनां तथोत्कोचादायिनां दण्डः |
तच व्यास
अनिच्छन्तमभूमिन्न संयोज्य व्यसने नरम् ।
अपकषन्ति तद्वयं वेष्या-कितव-शिल्पिनः॥
अनिच्छन्तं प्रटत्यनुन्मुखम् । अभूमिन्नं कार्य्यकाय- =
विवेकश्रन्यम् । रतेनैतेषां विसखब्धवच्वकत्वमुक्तं भवति। `
अच इष्हस्परतिःः-- ` |
अन्यायवादिनः सभ्यास्तथेवोत्कोचजौविनः। = `
विखन्धवच्वकाश्चैव निवास्याः सर्व्वं णव ते ॥ ` र
सभ्याः पार्षदाः। अर्थालामेनान्यायवादिनः। विखब्ध- `.
वच्चकाः सम्धङ्गिगीयानुक्रलवच्चनव्यतिरिक्तवच्चनकत्तीरः। `
उत्कोचादायिनो दिविधाः--उत्कोचग्राहिणस्तदाजौविनश्च। ` |
तच प्रथममाह व्यासः,
न्यायस्धानेघधिक्ता श्हौत्वाऽ्थे विनिशेयम् ।
कुव्वन्त्यत्कोचकास्ते तु राजद्रव्यविनाश्काः॥ `
तथा सभ्योत्कोचकवञ्वका इति मनुवचने रल्नाकरः,
उत्कोचकाः काय्याधिक्लताः सन्त उत्कोचयाहिणः
तच ते प्रकते उोचाजोवितवनोकताः ।
| १०६ ५ ४ ण्ड़विवेक |
मनु ~~
करैर्षादिभिरूपाधिना च वच्चनहेतुमणिमन््रमहौ-
षधादिना ये दीव्यन्ति तान् पदादिनाऽङयित्वा निर्व्वा-
सयेदिति मिताक्षराकारः! ` |
निरव्वासनच्च राप्रात्, अनुपात्तविशेषे निर्व्वासने सवच `
देशस्थेवोपाद्ान'्द्
नात् यतमण्डलादा तत् । र
तथाच नारदः,
क्रटाक्षदेविनः पापानिदरेत् दय॒तमण्डलात् ।
कण्ठेऽश्षमालामासज्यः स दयषां विनयः स्मृतः ॥
मिताशषरायान्ु
निर्व्वासने नारदेन विशेष उक्त इत्यक्त वचनमिद- स
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श.
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| अथ ज्योतिष्विदो दण्डमाह ।
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छ्स्पतिः+-- -
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नि
९ ग--दौयते।
15
१५९४ | | दण्डविवेकः।
अथ मान्त्रिकितान्तिकयोद्ण्डमाह ।
ददस्मतिः
मन्त्ोषधिबलात् किञ्चित् संमान्तिं दशेयन्ति ये ।
मूलकम्मे च कुव्वन्ति नि्व्वास्याले महोभुजा ॥
मुलकम्माऽच वशौकरणम् ।
अथातपस्विनस्तपस्िलिङ्किनो दण्डमाह ।
दषस्पति--
द्श्डाजिनादिना युक्तमात्मानं द्शयन्ति ये ।
हिंसन्ति छद्मना चाथ बध्यते राजपूरुषैः ॥
अथ कुशौलवादिदण्डमाह ।
मनुः,
कितवान् कुश्ैलवान् केरान् पाषण्डस्थांश्च मानवान् । | ^
विकम्भस्धान् शोर्डिकां्च धिपरं निर्व्वासयेत् पुरात् ॥ `
किलवा वच्चका द्यूतकाराः, कुशौलवाः खकोलवसेना-
निच्छतोऽपि पुरुषान् ये वच्चयन्ति तेऽचाभिमताः, केराः ५
परस्त्ौपुरुषसङ्गेतकारिणः, पाषणर्डस्थाः छपणकादि
पाषर्डािताः, विकम्बैस्ा अत्यन्तं विरुकम्पैौलाः, `
श्ैर्डिका अत्यन्तमद्यपानप्रसक्ताः। विकम्प कियावच्चन-
मिति मनुरौकायां कुललकभट्रः ।
` रुवच्च बुश्टौलवादौनां वच्वनादिभिरर्थापहारित्व-
मपेश्ितम् । पव्वोपरनिबन्धेषु सेयप्रकरणे पारस्वरसात्
॥ श्रौण्डिकादेरपि तादश्सयैवायं दण्डो न च तत्तज्नाति- ५` ८
मास्य अदष्टाथैत्वापातात् |
१९६ ५ ५ | दण्डविवेक ।
तथाहि सव्वानितानभिधाय,-
नैगमाद्या भूरिधना दण्ड्या दोषानुसारतः।
यथा ते नातिवर्तन्ते तिष्टन्ति समये यथा ॥
इति व्यासवचनं निबन्धेषु पठितम् ।
तच प्रतिभाति समभिव्याहतानानेकच यो दण्डः श्रुतः
स रवान्यचरापि बोद्व्यः साहचर्यात् । तेषु दिच्राणां यच
दण्डमेद्ख्रुतिस्तचापराधस्य गौरवलाघवाभ्यामभ्यासान- `
भ्यासाभ्यां वा दण्च्यस्य घनव्वाधनवच्वादिभिव्वी व्यवस्था।
यच त्वेकचापि दर्डश्रतिर्नास्ति तच तुल्यन्यायतया `
दोषानुसारेण वा तत्कल्यनमिति। सोऽयंप्रकार रव॑- `
मतो अदाः
के प्ुनक्ते तच इहस्यति+-- `
~~ --~
प्रकाश्वश्वकास्तच क्रटमानतुलाभिताः ।
चओओत्कोचिकाः' सोपधिकाः कितवाः पण्ययोषितः ॥
प्रतिरूपकराश्ैव मङ्गलादेशकारिणः।
सोपधिका भयमा वा द्शंयित्वा ये परधनमप-
इरन्ति। कितवा अच कद्मनाऽथेहराः प्रतिरूपकरा
राजानुमतिं विना राजवेश्कर्तारः। मङ्गलादेशकारिणो- `
ऽन्यरेशमङ्गगलारे श्दाराऽथेदहारिणः ।
1
` प्रकाश्वच्वकास्तेषां नानापणयोपजौविनः।
भ्च्रौत्कोचिका्चौपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा ॥
मङ्गलादेणटत्ता्र भद्राश्ैश्रणिकैः सद ।
असम्यक्धारिणश्मैव महामाच्राश्चिकित्सकाः ॥
` शिल्योपकारयुक्ताश्च निपुणाः पण्ययोषितः। `
` खवमा्यान् विजानौयात् प्रकाशललोक-कण्टकान्॥ `
----“
निगृढचारिणथ्ान्याननार्ग्यानाय्यैलिङ्गिनः ॥
< ---------------------------------------------------~
| ९ ग घं चमोत्वोचकाः। २.
२ मूते अधिकः पाठः पक्वश्चकौस्तेते भे स्तेनाटविकादयः।
स्तेयद णडः | १९९ `
अथाप्रकाशतस्कराणं दण्डः । व
दस्यति
सन्धिच्छिदः पान्धमुषो दिचतुष्यादहारिणः।
उत्श्षेपकाः शस्यहरा जेयाः प्रच्छनतस्करा: ॥
उत्कछरेपका रश्कस्यायत रवावदितस्यः दृष्टिं वच्चयित्वा
उत्च्िप्य धनापहारिणः। वसख्रा्ुत्चिप्यापहरतीति |
उतष्रेपक इति मिताक्षराकारः।
व्यासः
श्नोधनाङ्ाज्विता राचौ ये चरन्त्यविभाविताः।
अविन्नातनिवेशश्च जेयाः प्रच्छनतस्कराः ॥
उत्ष्ेपकश सन्धिन्ञे पान्धसुट् गरन्िभेद्कः ।
सखलौपुं-मोषः पशुत्तेयौ चोरो नवविधः स्मृतः ॥ 4.1
शोधनाङ्गगन्विताः स्तेयकरण-खनिचाद्न्विताः, अवि- |
ज्नातनिषेशा अनवगतप्रवेष्णः। रतयोरुतषेपकादिसम- `
शौर्षतयाऽभिधानं स्तेयाद्र्भनेऽपि आरम्भादिद्ण्डप्राघ्यथै-
मिति प्रतिभाति । यन्िभेदको ग्रन्िभेदनद्यारा वस्तरादि- `
` बद्वसुवर्शीद्प्यपहारकः। `
१. घ पतक प्रान्तवासौति प्राठः।
२ ग अन्वितस्य । 1
| धश्र् ध द्ण्डविवेकः ।
यत्त.--
सन्धिच्छेताऽनेकविधं धनं प्राप्रोति वे खहात् |
प्रदाप्य सखासिने सव्वं हतं ्टपे निवेशयेत् ॥ |
इति व्यास्वचनम् ।
न
९ कख पुसतकदये त्वा। `
स्तेयदण्डः । छ | | १२५
अच नारद्-काल्यायनौ,-- `
स्वदेशघातिनो ये स्यस्तथा मागेनिरोधकाः' ।
तेषां सव्वस्वमाद्ाय राजा श्रूले निवेशयेत् ॥ प
९ ध पुरक यक्ञावरोधिनः।
(9 दण्डविवे
कर
नारद्:
पुरुषं हरतो हस्तौ दण्ड उत्तमसाहसः
सव्वस्वं हरतो नारौ कन्यान्तु हरतो वधः ॥
वाजिबारणबालानां चाददौत ददस्यतिः ।
हस्ताविति चित्वेति रेषः। कामधेनो--दष्टमिति
पटितम् । सव्वस्वमिति नारौ हरतः सव्वसग्रहशं दण्ड
इत्यथः । बालानामिति हरत इति विपरिणामेनान्वयः ।
खदस्पतिरित्यतःपृव्वमित शेषः ।
्याहेति
अच चैकवस्तुग्रहणे परस्परविरुच्वशारौराथद्ण्
डाना ं
ध हारकोत१्कष्टापकृष्टजाद तौयत्व -हार्ययुत्क्षा-
वत््वाधनवत््व-
पकधेव्यवस्था काय्यति रनाकरः।
धन
; तचैवं प्रतिभाति मनुना सामान्यतः स््ौपुरुषदहारिणो
वधौ विहितः। तस्य विचिचाविचिचतयाऽनेकत्वात् करणा-
कामयां इहस्पतिना कटािद्एदरूपं तदिहितं तच्च
स्तौदन्तत्यादिव्यासवचनैकवाक्तथा ज्ञाहश्यनसादहित्येन
स्तौहरणपरतया व्यवतिष्ठते ।
र्वं निराकाङ्क स्त्रीहारिणो वधे नरहन्तत्यादिव्यास-
वचनात् पुरुषवधे दस्तपादरेद्पूव्येकं चुष्यथावस्थापनरूपं
श्रलारोपणपरपयग्यौयकरणं प्रतोयते ।
रवं परुरुषवधेऽपि निराकाङ्क पुरुषमित्यादिनारद्-
वचनोक्त-पूर्व्वोक्तयोव्धिकल्यः पव्भैवस्यति। सूतिशस्ते
------------------------------------------------------~--------------------------------- ---
१ ग एस्तके पात्यः। ।
र ग पुस्तके स्तौ तु हरतः ।
स्तेयदण्डः । १२७
गोऽश्वोष्रगजापहाय्येककरपादिकः कायः ।
अल्पो यथा-शङ्लिखितौ,--
इरत्यश्चगोटृषायनेषु राजपुचा
पहार वहण्डः । |
राजपुचापद्ारवदिति अष्टाधिकं पणसदसलं शरौरो
वा दण्ड इत्यथैः तदेवं महापशुषु यस्य यदोपयोगभूयस््ं
गौरवं वैशिष्चं वा प्रकृष्टं तस्य बन्धनमोश्णादिनाऽपदारे `
यथा्रतो वधः। यस्य तदपक्ष्टं तद्पकारे सव्वस्वमेव
करपादभेदो वा। यस्यापक्ष्टतरं तदपदहारे मध्यमसाहइ-
सादिदण्ड इति सिद्धम् । ` |
१ कख स्तवा दथेतिपदं नास्ति!
सत्रयद्डः। = ९२९
अथ नारदः+ ८,
गोषु बाद्यणसंस्थासु स्फरायाग्छेदनं भवेत् ॥
ब्राह्मणसंस्थासु ब्राह्मणसम्बन्धिनौषु प्यथ सप्तमौ
स्फरा पाष्णरुपरिभागः।
इस्ति ५
गीहन्ता नासिकां छवा बध्वा चाभ्सि मज्जयेत् ।
गोहर्तेति दितौयार्थे आ्षप्रयोगः। रतद्राद्यणएस्वाभिक- ` |
यन्नोपयुक्तोत्कुष्टगवौपरं द्रष्टव्यम् । वचनमिदं काम-
धेनो दृष्टम् | |
न.
गोषु ब्राह्मणसंस्थासु स्फरुरि कायाश्च भेदने ।
पश्रनाच्चैव हरणे सद्यः कार्य्योऽद्धपादिकः
` पश्वोऽचाजाविक विडाल नकुलव्यतिरिक्ताः शुद्रपश्व |
त्वप्रकष्टगवौपरं पशुपदच्वाचात्राह्मणसवामिकाप्ररु्ट-
गवादिपरमि ति न बिरोषगन्धः। अर॑पादिकः चिका १ `
पाददय इति नारायणः । स
पदे दण्डदिवेकः।
|.
व्यासः
व उतछरेपक-ग्रन्धिमेदौ सन्दभेन नियोजयेत् ।
ु
| #
सन्द कराङ्गशटप्रदेशिन्यौ ।
म्रतिपरिमितः
। इादश्प्ररतिभिः सेरिका तच्चतुष्टयं प्रख्य इति समय-
| म्रकाश-रल्लाकर-स्परतिसागरेष्यक्तम् । |
| तथा-भूपालपड़तौ प्रमाशस्थपुरुषस्य प्रमाणस्थकर-
| चरणस्य दाद्श्प्रखतिभिः कुडव उत्तरोत्तरं ॒चतुगुणः
म्रस्थाढकद्रोणा भवन्ति। ततश्चतुःषण्चा कुडर्द्रोण इत्यु-
| क्तम्। ्बभमेव कल्पतरुकारः ।
न् पटन्ति,- `
पञ्चङष्णलको माषस्तेश्चतुःषष्टिभिः पलम् ।
दाचिंषता पलैः प्रस्थो मागधेषु व्वश्ितः ॥
अठटकस्तेश्चतुभिसतु द्रोणः स्याचतुराठकः ।
तथा-सव्वेषाभमेव मानानां मागधं अेष्ठमुच्यते ॥
तदेतन्मागधमाच इत्याहः । तन, गोपथत्राद्मण-
सम्बादित्वेन साधारण्योचित्यात् मागधेधिति व्यवहरणः
परम्| |
वच्छ ओष्ठतापि न परिमाखणधिक्यात्, अपितुवेद्-
. मुलकत्वादितिष्येयम्। `
इद प्रुतमनुवाक्े वधस्ताडनमङ्गढेदो घातनमिति |
` चि्पः। स च हर्तख्वाभिगणवक्वागणवच्वापेश्या
व्यवसित इति कुल्लकभद्रः।
~ ---------------------- ~~~
` |
९ क समयप्रदौप--।. द् घ प्ते ्यवद्दार--।
स्तेयदडः। ९३७
स
"रे
चर्त: इण्डविषेकाः।
तथा+-मनु+--
पुष्पेषु हरिते धान्ये गल्मवल्लौ नगेषु च ।
अल्प
परिपूतेषु दण्डः स्यात् पञ्चकृष्णलः ॥
इरिते धान्ये क्षेचस्य खव घासाथमपहते। हरिते
माषादाविति नारायणः
| अल्पेषु रकपुरुषोद्ाद्यादपि डौनेषु, अपरिपुतेषु
| अनपहतकल्केषु । अचर धान्येधिति वचनविपरिणामेन
८ सम्बन्धः । छष्णएलाः सौवण लिखितपरिभाषानुसारात् ।
` कुलकभट्र्तु,
देशकालादयपेश्या सोवखंराजतावित्याइ ।
भनुः.+--, :
को(गो)ष्टागारायुधागारदेवतागारभेदिनः
हसत्यश्वर थद्न्तंश्च हन्धादेवाविचारयन् ॥ |
| कोष्ठागारं धान्धागारमिति रनाकरः। राजग्हमिति
मनुटौकायां नारायणः। अविचारयन् तथाविधकम्मणि `
निशितेऽविलम्बमानः। धान्यागारादौ भित्तिभेदनमेव `
सन्धिश्यानौयमतस्तत्कर््तुः सन्धिद्धिद् रुवायं दण्डः ।
तच्छेदमाे पूव्यैसाहसस्य प्रकौर्खके बश्यमाणत्वात्, `
भेदिन इति निदशैनात्ताद्लौल्यप्रतौतो भेदाभ्यासेऽति
प्रसङ्गनिखृत्यर्थो वा वधः। ‡
यद्वा भेदनमिह चोपरमेव। आकरे तु तत्प्रकरण रव
पाठात्। कामधेनु-कल्यतरुकारादिभिस्तकैवावतारणाच । `
देवतागारेऽपि जगन्राथादेरिवालङ्कारा्यपद्ारसम्भवात्। `
सः
स्तेयदण्डः! ` | ९१३९ `
तथा,
गोषु ब्ाद्यणसंस्थासु स्थरिकायाश्च मेदने।
पशनां हरणे चैव सद्यः कार्व्थोऽङ्पादिकः।॥
ब्राह्मणसंस्थासु बाह्मणसम्बन्धिनीष्ु हताखिति ओषः
प्रकरणात् स्थरिकेति इषमदहिषादिभिः प्ष्ठवाद्यो भारः
स्थलास्फलो परिदंहण इति धात्वनुसारात् ततः खाथिकः
==
म
स
र=:
` कत्वात् |
वीदुेषभस्य भारः स्फूरिका तस्या सेदने तन्गतधान्याप-
हार इति नारायणव्याख्यानमसङ्गतं स्यात् । नासाभेद्-
नस्यापदाथेत्वात् प्रकरणविरुडत्वाच ।
रतेन स्फुरिका वन्या, भेदनं नासमेदनमिति रनाकंर- `
`
व्यास्यानमपास्तम् । अ्खपादिको भिननाङ्खष्पाददयः।
तथा,
कषेचिकस्यात्यये दण्डो भागादश्गुणो भवेत् ।
ततोऽइदण्डो शत्यानामन्नानात् क्ेचिकस्य तु ॥
छषौबलभागापदरणे धान्यापदारै `|
। : क्षेबिकस्यात्यये
| शस्यापहारौ त्वेकादशगुणं दण्व्य इति रत्राकरः। `
ष
९ ग ि्नाडेपाददय। . `
` १४० ( दण्डविवेकः।
दला युयल्ुः
छेचस्वामिनोऽत्धये तदहोषेण यदा शस्यदोषो भवति तदा
रान्ना खब्राद्यभागादश्गुणं दण्डनौयः। तदन्नानाच ग्डत्य-
दोषेण शस्यनाओे शत्य रव तदेन दश्डनौय इत्यथेमाह ।
[1
अथ प्रवीर्णापदारिदण्डः ।
तच प्रकौशे नाम प्रागुक्तदिपदादिव्यतिरिक्तं रना
दौत्यक्तं तत् चिविधन्तृत्तमादिभेदात् ।
तच नारद्
तदपि चिविधं प्रोक्तं सव्वापेक्षं मनौषिभिः।
छुद्रमध्योत्तमा
नाच्च द्रव्याणामपकषंणात् ॥
अपकषणमपदहरणम्। `
कमेणामौषां परिगणशनमाह स एव ।
शद्वाण्डासन खव्वास्ि' द्ारूचम्बेटेणादिकम् ।
` एमौधान्यं छतान्नच्च शछुद्रद्रव्यमुदाहतम् ॥
एमौधान्यं शिम्ब्यादिभवंः सुद्गादि ।
वासः कौषेयवर््जच्च गोवञ्नँ पशवस्तथा । `
हिरण्यवज्नं लोहञ्च मध्यं व्रौहियवा अपि? ॥
लौहश्ब्दो धातुपरः । मध्यं मध्यमद्रव्यमित्यधैः ।
हिरण्यरनकौशेयं स्नौपुंसो गजवाजिनः
देवबाद्मणरान्नाञ्च द्रव्यं विक्नेयमुत्तमम् ॥
+
अच ददस्यतिः- |
ही
नमध्योत्तमत्वेन विविधं तत््रकौ्तितम् ।
द्रव्यापेषो दमस्तच प्रथमो मध्यमोत्तमः ॥
प्रथमो मध्यमोत्तम इति प्रथममध्यमोत्तमसाहसरूप
इत्यथैः । इत्यं हौनादिद्रव्यापदारेषु प्रथमादिसादसानां
व्थवस्थितत्वेऽपि तेषां हौनत्वादितारतम्यात् साहसानां
न्यूनाधिकसंख्याभेदो व्यवसितो द्रष्टव्यः ।
रतत् विदटणोति स रव,-
करेचोपकरणं,सेतुं पुष्यमूलफललानि च ।
विनाशयन् हरन् दण्ड्यः शताद्यमनुरूपतः ॥
पशुवस्लान्रपानादि शदोपकरणन्तथा । |
दिंसयन् चोर वदाप्यो दिश्तान्तं दमन्तथा ॥
स्लीपरंसौ देमरलानि देवविप्रथनन्तथा ।
कौशेयच्चोत्तमं द्रव्यमेषां मूल्यसमो दमः ॥ `
दिगणो वा कल्यनौयः पुरुषापेक्षया पैः ।
इतौ च घातनौयः स्यात् प्रसङ्गविनिरृत्तये ॥
शतां शतावर दिश्तान्तं अनुरूपतो व्विनाशे चाप- `
इतमृल्यानूसारेण देशकालश्त्यतुलारेण च । पुरुषा- `
पेश्या आच्धदरिद्रपुरुषापेषशया। अच यस्य मूल्यमाचं `
५ ॑ १. घ युतक कषेणमिति पाठ 1. गःच्दोरयन् )
द घ विनाशितापङ्णत। ।
९४ दण्डविवेकः।
(५
|
1:
सम्भवति तस्य तन्माचं यस्य त्वधिकं तस्य दिगण दण्डः
यश्य तु मूल्यमाचमपि नास्ति चोग्य चातिप्रसङ्गस्तस्य वधं
तै 0
0
४. ५ र
साहसेषु य रवोक्तस्िषु दण्डो मनोषिभिः। ५.
स रव दण्डः स्तेयेषु द्रव्येषु चि्नुक्रमात् ॥ ५
इति नारद्वचनम्, तच रनाकरङनैवोक्तं अयमति- |
देशः शषद्रमध्यममहदरव्ेषु "विरुद्द ण्डावरुङषु द्रव्य इति। = |
तेषत्तमद्रव्यापहारे नारद्, 2 |
तुलाधरिममेयानां गणिमानाच्च सब्वेशः।
रभिर्त्क्ष्टमूल्यानां मृल्यादश्गुणो दमः ॥ |
तुलाधरिमं करादि, तुलादण्डे त्वा तुलनातो मेयं `
ब्रीद्यादि, उत्सङ्गतः प्रस्थादिपरिमेयत्वात्। गणिमं पूगादि, `
` प्रायेण विंश्त्यादिगणनया कमादिव्यवहारविषयत्वात्।
रभिरिति पूवेप्रकान्तानां काष्ठभाण्डादौनां प्रत्यव- `
मर्षः, तन्मृल्याधिक-मुल्यत्वेनोत्तमल्वं प्रतिपाद्यते । ८ |
अथोत्तमानां द्रव्धाणं तारतम्यादप्डारिणो दरण्ड- ` |
तारतम्धमित्याह । ;
मनुः, |
तथा धरिममेयानां शताद्भ्यधिको दमः
सुवशेरजतादौनासुत्तमानाच्च वाससाम् ॥
पञ्चा शतस्वभ्यधिके दस्तकेदनमिष्यते। `
शेषेऽप्येकाद्शगुणं मूल्या दण्डं प्रकल्पयेत् ॥
71
९ ग दग्डानवरदधेषु । `
१४४ ` दण्डविवेकः।
। फलदहरितशाकादाने पञ्चकुष्णलमन्ये ।
अदाने हरणे दण्ड इति शेषः
अच फलश्णकयारनन्तरोक्तातिरिक्योरिद ग्रदणमतो `
न तेन विरोधः। अस्तु वा विकल्पः--अन्धे इत्यभि- `
धानात्) स चाभ्यासाऽनभ्यासाभ्यां ग्रहणहेतु-प्रौत्या्ति
शयानतिश्याभ्यां व्यवसित इति प्रतिभाति
१५ घ ख्कचक्रहरश्गे ।
१४८ | दण्डविवेकः ।
मनुः, क
सखचकार्पासकिर्ानां' गोमयस्य गुडस्य च ।
दः क्षौरस्य तक्रस्य पानौयस्य ठृणस्य च ॥
वेण वैणवभाण्डानां लवणानां तथैव च ।
खृएमयानाञ्च हरणे दो भसन खव च ॥
मत्स्यानां पश्िणाञ्चेव तैलस्य तस्य च ।
मांसस्य मधुनश्ेव यच्चान्यत् पशुसम्भवम् ॥ `
अन्येषामेवमादौनां मद्यानामोदनस्य च ।
पक्तान्नानाञ्च सव्वेषां तन्मू्याद्धिगुणो दमः ॥
तथा,+--
यश्चेतान्युपक्तृतानि द्रव्याणि स्तेनयेनरः ।
तं शतं दण्डयेद्राजा यश्चाभ्निंर चोरयेद्ुदात् ॥
किलं सुराबोजभूतद्रव्य, वैणवं भार्डं जलादहरणाभ `
स्यलवेणवखण्डनिभ्पितं पाचम् ।
अच नारायणसव्वन्नेन वेणवेत्यच वेदलेति परित्वा
"^-^ ~
शङ्खलिखितौ, |
` कंतकाष्ठाश्सकौलालचम्मेवेचदलभाण्डेषु मूल्यात् पञ्च-
गणस््रयो वा काषौपणाः ।
छतकाष्ठं घटितकाष्ठं कौलालं कुलालनिम्बितं खएमय-
भिति यावत्| भार्डपदमश्मादिभिः सम्बध्यते! `
नारद्ः, | |
काष्ठभार्डवृणादौनां खृएमयानां तथेव च ।
वेशुवैणवभाण्डानां तथा खाखस्थिचभ्पिणाम् ॥ `
शकानामाप्रंमूलानां हरणे फलमूुलयोः !
गोरसेक्षुविकाराणां तथा लवण-तैलयोः ॥
१४२ दण्डविवेकः।
पक्रान्रानां छतानानां मद्यानामोदनस्य च |
सर्व्वेषां स्वल्पमूल्यानां मृल्यात् पच्चगृणो दमः ॥
कामधेनौ,--
ओद्नस्येत्यचर-अआमिषस्येति पटितम्।
मिताक्षरायामौषधस्येति पटितसुक्त्च,-
ओदनस्य पक्तानेन संग्रहादिति प्रतिभाति ।
अच मनुक्तानां मध्वादौनां नारदोक्तानां गोरसादीनां
॥
९ काचित् चम्नमाण्डे्धिकःपाठः।
११ दण्डविवेकः।
ौ दण्डविवेके ` 1
इति महामहोपाध्याय -ध्माधिकरणिकसरौवद्धमानकत
स्ेयपरिच्छेदस्तुतोयः । `
९ ` दविभः ।
चतुथः परिच्छेदः । ` |
अद्य परदाराभिमषेणदण्डः
तच परदारपदेन सखभाग्ौव्यतिरिक्ता स्तौ विवद्िता ।
सा दिविधा परिणौता अपरिणौता चेति। तयोः
परिणौता अनेकविधा साध्वौ बन्धकौति, उत्तमा रहौनेति
"सजना अखजनेति, गुता अगुप्ता चेति, क्तौवादिभाग्यौ
अन्येति ।
अपरिणेता विविधा कन्धा व्रात्या वेश्येति। रते
विभाजकोपाधयो वलद्लानुरागादिप्रथोगवदहण्डभेदाय `
. भवन्तीति परिभाषान्यायेन प्रसुखे दर्शिताः
आसामभिमर्षणमपि द्विविधं संग्रहणमभिगमश्च । तच
संग्रहणं नाम समौचोनं ग्रहणं परसिया आत्मोयता-
करणम् । |
तदिभजते ददस्पतिः,--
पारुष्यं दिविधं प्रोक्तं साहसञ्च दिलषणम् ।
पापमूलं संग्रहणं चिप्रकारं निवोधत ॥
प्रकारानाह, 0 (५
बलापाधिहतेः दे तु ठृतौयमनुरागजम् ।
रखतदभिगमेऽपि द्रव्यम् । तस्याप्येतत्पव्वकत्वात् । `
चयमपि पुनविभजते । ॑ .
तत्यनस्िविधं प्रोक्तं प्रथमं मध्यमोत्तमम् |
~~~
अच प्रकारचयं व्याचष्टे--
अनिच्छन्त्या यत्क्रियते सुत्तोन्मत्तप्रमत्तया ।
प्रलपन्त्या रहसि वा बलात्कारकछ्लतन्तु तत् ॥ `
छद्मना शहमानौय दत्वा वा मद्यकाभ्िणम्ः ।
संयोगः कियते यस्यास्तदु पाधिकूतं विदुः ॥
अन्योऽन्यचक्षूरागेण दूतौसंप्रेषणेन वा ।
छतं रूपाधेलामेन ज्नेयं तदनुरागजम् ॥ `
मस्यपुराणेऽ--
यस्तु सञ्चार कस्तच पुरुषः स्यथ वा भवेत्|
पार द्ारिकवदण्डो यश्च स्याद्वकाशदः ॥ | ¦
सच्वारको यः पुरुषं स्तयं वाऽभिसाराथैमभिसारयोग्यं `
देशविशेषमुपसर्पयतौति हलायुधः । अवकाश्दो रच्स्य- = |
स्ानदायैौ । ४
मनु, | ४
कितवान् कुशौलवान् केरान् धिप्रं निवीसयेत् पुरात्} `ह 1
केराः परस्तौपुरुषसङ्गेतकारिण इति रत्नाकरः । खव- `
` भेव हलायुधः । प्रथमादिमेदा्तु विस्तरेण व्यासादिभि- ` |
रुदाहृतास्ते विस्तरभयादेव नाच लिखिताः। दिद्धाचन्त॒ |
तेषां दण्डपरिरेदाथेमुदाहतम् ।
तच हृदस्यति | ४
अपाङ्गपेक्षणं हास्यं दृतौसम्परेषणं तथा ।
स्परे भरूषणवस्त्राणां संग्रहः प्रथमः स्मतः ॥ ॥
` अच स्कृतस्यशैवत्१
परस्त्ौकुतस्यर्शे छषमाऽपि, द्रष्टव्या
९ कग काणम्! 1 . २ ग स्यर॑चमापि
१५६ - दण्डविवेक ।
स्वयं स्पृशेददेशे थः स्पष्टो वा मघेयेत्तया
परस्परस्यानुमतं तच्च संग्रहणं स्परतम् ॥
` व्यासः,- इति मनुवचनात् ।
तरैषं गन्धमाल्यानां पगभूषणवाससाम् ।
प्रलाभनच्वानपानै्मध्यमः साहसः स्मृतः ॥
४न
अथामिगमदण्डः |
=
(क
टर1
(४
९ कख पुस्तके अपरिणगततया। `
२ ग पुस्तके साध्वौम् |
(व दण्डविवेकः।
तचोत्तमस्तिथा दैनाभिगमानुमतावभिलाषप्रकाशने
कशेेदौ न त्वन्यचाऽपराधाभावादिति प्रतिभाति ।
अथाभिगम्याया गृ्तत्वागत्तत्वक्षतः प्रातिजाम्यानु-
लेाम्यक्षतश्च दश्डविशेषो द्श्यते ।
प
'सखजातावुत्तमो दण्ड आनुलोम्ये तु मध्यमः ।
रतत् सब्येवर्णणनां बलात्कारेण गुप्तपरदारगमन-
विषयम् । उत्तमश्च साहसः साश्रौतिपणसहस्रात्मक इति
मिताक्षराकारः । युक्तष्चेतत् तदुक्तदण्डे तदुक्तसादस-
संस्थाया रव ग्रहणो चित्यात् ।
ननु,
ससं ब्राह्मणो दण््यो गुप्तां विप्रां बलाद्रजन् ।
तानि पञ्च दण्डयः स्यादिच्छन्त्या सदह सङ्गतः ॥
वैश्यश्चेत् छवियां गुत्तां वेश्यां वा क्चरियो ब्रजेत् ।
यो ब्राह्मणामगुत्तायां तत्समं दणडमदंतः ॥
सासं ब्राह्यणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन् ।
शरद्रायां क्षचियविश्येः साहसो वे भवेदमः ॥ ४
यो ब्राह्मणयामिति पञच्श्तानि वैश्यस्य ससं छचिय-
` स्येति नारायणः तत्समं मध्यमसाहसमिति रनाकरः। =
सहसखपण पच्चाशत्पणत्मकमिति मिताक्षराकारः ।
तथाहि अनेन खजातावित्यादि व्याख्याय यदा पुनः `
सवर्णामगुपतामानुलेम्येन यथाकमं गुत्तां वा गच्छति `
~
. १ धे पुस्तकं सजातौ । :
४ ९१ 1 द्ण्डविवेकः।
~ति
~~
---~
~~
~~
~
=
र खग--नाष्यः।
१५ इदण्डविवेकः। `
मनु
श्रद्रो गृ्तमभुत्तं वा देजातं वशेमावसन् ।
अगुप्ते ङ्गैकसव्वस्वै गुते सर्ववेण हौयते ॥
दैजातं वशं दिजातिस्ियमावसन् अभिगच्छन् हौयते
इत्यन्वयः। केनेत्याह तस्मिन् दैजाते वशे अगुप्ते रकेनाङ्तेन
सव्वेस्वेन च, गुप तु सर्ववेणाङ्गन सव्वस्वेन च । तेन
दिजातिस्ियमभिगच्छतः श्रूद्रस्य तस्यागुप्तत्वपक्चे रकाङ्ग-
केदः सव्वस््रयरहणं दण्डः गप्तत्वपक्ने तु सव्वाङ्गरेद्ः सव्वस्व-
ग्रहणच्ेति फलिताधैः ।
रनाकरादौ तु कचिदगतैकाङ्गसव्वस्वौति कचिदगृत्ता-
ैकसव्वस्वैरिति च परितं तचाप्यक्त रवाधैः स च यथा- `
-कथच्चिन्ेयः।
, मनुटौकायामगुत्तमङ्गसव्धखैर्गपतं सर्वेणेति पठितम् ।
कल्पतरौ तु
| अगत्तमङ्गसव्वस्वौ गततं स्व्वेण हौयते ।
इति पटित्वा अगपत्तमररितं अङ्गसव्वस सहितो
कयते तेन येनाङ्गेनापराध्यते तेन स््धरस्येन च दीयते
इत्यथैः ।
रशितन्तु व्रजन् सव्वेणाङ्गन हौयते इत्यच इति व्याख्या- `
तम् । रुतन्मते रश्िताभिगन्तुः सव्यैखभ्रहणं नास्त ।
¦ . श्रद्रस्येव्यनुदत्तौ गोतमः+--
आय्र्यमभिगमने लिङ्गोद्धारः सव्येखग्रहणच्च । गुप्ता
|| चेदरोऽधिकः |
१ सव्मेसीति क्रचित् पाटः ।
पकौ गापदारिदगडः । १७द्
१ ख उपकत्तयेत्।
य
१७8 ` द्ग्डविवेकः । `
न~~ ------------------------- =
अध्यान्त्याभिगमनदरडः।
| तच सहखन्न्त्यजस्तियमिति मनुवचनं समनन्तरं
लिखितम्। इदान्त्यजस्तियं रजकादिस्ियमिति
रत्राकरः। रजकचम्मैकारादिस्तियमिति मिश्राः।
चाण्डालौमिति मिताश्राकारः । 2
` कुललृकभद्रोऽपि अन्ते भवोऽन््यो यस्मादधमः शरद्रो नास्ति
स च चाण्डालादिस्तस्य स्ियमित्यादह। ॑
यत्त॒ अन्त्यागमने वध्य इत्य॒क्तं॒तद्राह्यणव्यतिरक्त-
विषयम् ।
याज्ञवल्कयः,
अन्त्याभिगमने त्वङ्कं कवन्धन प्रवासयेत् ।
शरुद्रस्तथाऽ्च खव स्याद्न्त्यस्याव्यागमे वधः ॥
अङ्ककवन्ध इति अशिरस्कपुरुषाकाररूपोऽङ्सेनाङ्-
` यित्वा चैवणिकं निर्वासयेदिति रनाकरः। शवमेव
कल्यतरः । कवन्धेनाङ्घयेत् कबन्धेन कुत्सितबन्धेन भगा- |
कारेणाङ्कयित्वा इति मिताश्षराकारः युक्तच्वैत-
दौचित्यात्। | 4
कामधेनौ कल्पतरौ चाङ्खोति परितं त्च क्रा विषये.
: ल्यप् प्रयोग आर्षः । अचाधैदण्डोऽपि द्रष्टव्यः । सदसन्व- = `
न्त्यजस्ियमिति मनुवचनादिति मिताशूरा । श्रदरोऽद् `
९. का पुसतक त्वाद्घु।
अन्त्याभिगमनदण्डः । ` १७७
४|
† |
रव व
भवतौति व्याख्यातच्च । : ¢
॥
|
मन्तेवम्,-
|
{
। व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु]
~ ` इति मनुवचनविरोधः स्यात् ।
न॒ स्याद्विरोधिनस्तदथेस्याभिगमदण्डमादठकोपक्रमे
द्शरितत्वात्। अस्तु वा दण्डभेदे वैकल्यिकौ व्यवस्था ।
यथा-निधनचैवशिकविषयं साङ्कप्रवासनं सधनतददिषयः
सदखदण्ड इति ।
अथ खजनाभिगमे रा्ञौप्रश्त्यभिगमे च--
दण्डमादइ नारद | “
माता माढठ़ष्टसा-श्वश्रु-मीतुलानौ-पिटघसा ।
पिट्व्यसखि-शिष्यस्ो-भगिनौ-तत्सखौ-
खषा ॥
दुहिताचाय्थभा्या च सगोचा-शरणागता ।
रान्नौ-प्रचरजिता-साध्वौ-धाचौ-वर्णोत्तमाऽपि या ॥
आसामन्यतमां गत्वा गुरुतल्पग उच्यते । .
स््िस्योतर्तनात्तच' नान्धो दण्डो विधौयते ॥ `
| माताऽच जननौव्यतिरिक्ता पिपी, गुरुतल्पग उच्यते
इत्यतिदेसामर्थ्यात् । माठयदहणं दष्टान्ता्थमिति मिता-
शराकारः। पिद्व्यपदं भावादिपरमपि तुल्यन्धायात् | ` |
रुवं भगिनौससौति दुहिचादिसखौपरमपि न्यायसाम्यात्।
राज्ञी राज्यकर्तुभारेति मिताक्षराकारः, |
(1
९ चपुक्करे तस्य।
खन्याभिगमनदग्डः | | १७९
अय्य केन्याद्षणदण्डः | |
सा चाभिगन्तूजात्यपेक्षया विविधा उत्तमा समा |
होना चेति । दूषणं दिविधमभिगमोऽङ्गलिप्रकछषेप इति । ४
" तच महापातकान्यमिधाय-- 1
शङ्खलिखितौ,
(न
अथ समाभिगन्तरदण्डमाह मनु. ` 1
योऽकामां दूषयेत् कन्यां स सद्यो वधमहति ! ॥
सकामां दूषय्॑तुल्यो न वधं प्राप्रुयान्रः॥ = |
वधं लिङ्गकेदादिकमिति मनुरौकायां कुल्लकश्भद्रः। `
द्ण्डन्तु प्राप्रयादेवेति नारायणः
तच मत्स्यपुराणे योऽकामामित्यादिप्रात्तः परम
साहसं तुल्याथामकामायामभमिगन्तुवधः सकामायान्तु
सदसदण्ड इति दयोः समुद्ायाथैः । नि
नर्द्
सकामायान्तु कन्यायां सवणे नारू्यतिक्रमः ।
किन्वलङ्कत्य संत्य स रवेनां समुददेत् ॥
मनु 4
शुल्कं दद्यात् सेवमानः समामिच्छैत् पितायदि। ` |
शुल्कमुभयसंप्रतिपन्नं द्रव्यमासुरविवादवदिति रत्रा- ।
करः। शुल्कमनुरूपं दद्यान्न तु दण्ड इति मनु- |
टौकायां भदः । |
शुल्वं गोमिथनं तच्च यदि तत्पिता नेच्छति तदा5.1
तदेव दण्डरूपेण रान्ने दयादिति मिताक्षराकारः। `
नारायशेन तु व्याल्यातं शुल्कं पितरे मूल्यं दात् स `
यदि तस्मै तां दातुमिच्छेत्, अरनिच्छायां त्वन्यस्मै कन्यां
दयादिति ।
1 । ९ प्क कुललकपदं नास्ति । ` सखस -
| १८४ + | दण्डवियेका
अथ प्रसङ्गात् कन्धादरणद्ण्डमाह ।
च नवस्कम +
अलङ्कतां हरन् कन्यासुत्तमं चन्यथाऽधमम् ।
दण्डं दथात् सवर्णासु प्रातिलाम्ये वधस्तथा ॥ `
सकामाखनुलामासु न दोषो चयन्यथाऽधमः ।
दूषशे तु करङेदस्तृत्तमायां वधस्तथा ॥ र
अलङ्तामन्यसमे दातु प्रसाधितां विवाहाभिमुखौभूता- |
मिति यावत् । उत्तममुत्तमसाहसम् । अन्यथाऽनलङत- |
कन्यादरणेऽधमं प्रथमसाहसं सकामामिति न दोषो |
इर्तरिति शेषः। अन्यथा तासामकामत्वेधमः प्रथम- `
साहसः। दृषशेऽङ्गुलिप्रक्षेपादिनेति दलायुधः। शेषं
पूव्यवत् । ५
अच दण्डविधानाद्पदत्तुसकाशदादियान्यस्िन्
देयेति गम्यते इति मिताक्षराकारः । | ५.
अथ प्रसङ्गादेव विवाहयितुविवोदुश्च क्रूटकारिणे `
दण्डः । तच मल्यपुराणे-- `
यस्तु दोषवतौ कन्थामनाख्याय प्रयच्छति ।
तस्य कुग्योन्रुपो दण्डं खयं षणशवतिं पणान् ॥
यः कन्यां दर्शयित्वाऽन्यां वाढरन्धां प्रयच्छति ।
` उत्तमं तस्य कु्व्वोत राजा दण्डन्तु साहसम् ॥
९ खमेनाथैम्। २ ष सवर्णा । ` £ { (
१८६ : ४ दग्डविवेकः ।
तथा,
वरो दोषं समासाद्य यः कन्यां संहरेदिह ।
दत्ताऽप्यदत्ता सा तस्य राज्ञा दण्ड्यः शतदयम् ॥
व
दत्वा कन्धां हरन् दण््यो व्ययं दद्याच सोदयम् ।
कन्यां वाचा द्वा वरायाप्रयच्छन् द्रव्या्नुबन्धा-
अनुसारेण व्ययं दाप्यः ! रुतच्च कारणाभावे
दत्तामपि हरेत् कन्धां ओयांशेदर आव्रजेत् ।
[ इत्यचापहाराद्तुन्ञानात्। व्ययमिति वा दान-
। निमित्तं खसम्बन्िनां कन्यासम्बन्धिनां चोपचाराथे
वरेण यज्नं व्ययितं तत् सदृच्विकं कन्यापिता वराय `
दद्यादित्यथैः।
अथ स्तियाः कन्धादूषणमाइ ।
मनुः,
कन्येव कन्थां या कुखात्तस्याः स्याहिश्तो दमः
शुल्कञ्च चिगुणं दद्याच्छिफाश्च प्राप्रुयादश ॥
या तु कन्यां प्रकुय्धात् स्तौ सद्योऽसौ मोण््यमरंति।
अङ्गुल्योरेव च ठेद्ं खरेणोद्धरणं तथा ॥
` कुग्धात् प्रकृथ्थादिति अङ्गलिप्रकेपेण नाश्येदित्यथैः।
इति मनुटौका। योनिं छतवतौं कुचादित्यथे इति `
` मिताक्षराकारः। चिगुणं दिश्तापेश्या शुल्कदानच्चः `
॥ ~
रवमेव रनाकरः | न
खरोदाहनं
म शचिया, अ्गुलिकेदमितरेति सव्य्नेन,
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१ ख पुस्तके दश्ज्त्वः ।
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दण्डभेदप्रकर
शोपद्शित-विष्णुपुराणएसम्बादात् ।
पुरुषं वापि मेहत इत्यतिरागेण पुरूषमेवाभिगच्छत ८
इत्यधेः । |
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अश्च गवाद्यभिगमदर्डः |
तच विष्णु
पारजातौयाप्सवरणभिगमने तूत्तमसाहसं दण्डयः ।
दीनवर्णणगमने मध्यमं । मोगमने च। अन्त्यागमने
बध्य उत्तमागमने च । ध ५
अच गोगमने चेति चकारेण मथ्यममित्यस्यानुकर्षः!
५ मध्यमं साहसं गोषु “ इति नारदसम्बाद्ात् । उत्तम-
अतवधानुक्षे तुशब्दस्वरसमभङ्गग्रसङ्गात् वचनच्ैतद्-
` ` जाद्यणविषयम् ।
| ब्राह्मणविषये त्वाह मत्स्यपुराणम्
सुवशेन्तु भवेदण््यो गां व्रजन् मनुजोत्तमः
अच रनाकरकता विष्णवाक्ये वधस्यानुकषः स च
शद्रविषयः नारदोक्तस्त॒ मध्यमसाहसः छवियवैश्ययो
रित्यविरोध इत्यक्तम् । |
तच्चिन्त्यं ख्रतस्यानुकर्षो न तु श्रोष्यमाणस्येति पद्शक्ति
विम्बाद्त्व्यत्त्तिविरोधाच ।
मत्स्यपुराणे, `
तिथग्योनौ च गोवज्ने मैथनं यो निषेवते,
स पशं प्राप्रयादण्डं तस्याश्च यवसोदकंम् ॥
1
९ क्रचित् पारनायौति.पाठः,
| मवावमिगमदणडः रः १९५
म
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य
अथ वाकौपार्ष्यद्
ण्डः
ल
५
देशजातिकुलादौनामाकोशन्धङ्
संक्नितम् ।
यद्वचः प्रतिक्रूलाथं वाकूपारुष्यं तदुच्छते ॥
निष्ठरा्नौललतौबत्वात्तदपि विविधं स्मृतम् ।
गौरवानुक्रमाततेषां दण्डोऽप्युक्तः कमाङ्गरुः ॥
साक्षेपं निरं ेयमश्नौलंन्धङ्संज्नितम् ।
पतनौयेरुपन्यासेस्तौ
रमाह नोषिणः ॥
धिद्धखौन्त्य 'जेत्यादि साक्षेपं, न्यङ्ुरि हासत्यमवद्यं तेन
` भनिन्यादिगमनयुक्तमश्षौलं सुरापोऽसीत्थादिमहापातका-
कोणयुतं वचस्तौत्रमिति मिताक्षराकारः ।
अचाकोशन्यङ्कसङ्गितप्रतिक्रूलार्थानां याणामेषां
विवरणमिति व्यवहारतरङ्ग गणे्रमिराः।
युक्तच्चैतत्-तथादि अन्वथैसंज्ञावगमितं वाक्-
करणकमनो विरुशणलक्षणं सामान्यलक्षणं देश्द्याक्रोशे
न्ब्ुसंन्नितं नि्ुराथैमिति विभागः। तेषां लाघव-
गौरवातिगौरवानुसारिण्यो लघु-गुरु-गुरुतर दण्डसम्बा-
दिन्यो निष्ठरादयः संज्ञाः, तासां विवरणं सघ्रेपमित्यादि।
यत्त॒ आकोशन्धङ्कुसंयुतमिति पटित्वा उचेभाषण-
माकरोशः, न्यङ्कु अवद्यं तदुभयसंयुक्तं यत् प्रतिङ्रलाथ
=^ न" -------------------- --~----- न
~-----------------------------------------------------
भगिनौ-माद्सम्बन्धसुपपातकशंसनम् । `
पारुष्यं मध्यमं प्रोक्तं वाचिकं शस्तरवेदिभिः॥
` अभश्यापेयकथनं महापातकदूषणम् ।
पारुष्यसुत्तमं प्रोक्तं तत्रं मम्बामिघटूनम् ॥
भगिनौ-माद्सम्बद्धसुपपातकशंसनमिति तव भगिनौ
तव माता मया माद्यति कौर्तनमित्य्ैः । इति रलाकरः।
रवमेव हलायुधः
वस्तुतस्तु माढ़पदं माठसपल्नीपरं तेन भगिनौ माठ-
| सपरन वा गतौ. यतामौति वौर्तनमित्यथः। यथा-
` व्याख्यानात्तस्योपपातकत्वाभावात् ।
नि ----+-----
काल्यायनः,--
अगृणान् कौीत्तयेत् क्रोधात् निगणे वा गुणन्नताम् ।
अन्यसंज्ञानियोजौ च वाकूदुष्टं तं नरं विदुः ॥
अगुणानिति गुणिनौति शेषः। अन्धसंन्ञानियोजौ
निन्दितसंज्नाव्यपदेशकारौ । +)
तथा, ॑ | |
दष्स्येव तु यो दोषान् कौत्तयेदोषकारणात् ।
अन्यापदेशवादौ च वाग्दुष्टं तं नरं विदुः ॥
दुष्टस्ैवेत्येवकारोऽप्यथेः। दोषकारणादिलत्यनेन विचा-
राथं बन्धनां दोषाभिधानपर्खयदासः। अन्धापटेश्वादौ
अन्यमपदिश्यान्यदोषाभिधायौ ।
सयः
2
अश्र ब्राह्मणादौनां परस्पराक्नेपे दण्डः,
तच दस्यति
समानयोः समो दण्डो न्यूनस्य दगुणः स्मृतः ।
उन्तमस्याधिको दण्डो वाक्पारुष्ये परस्परम् ॥
समो यथाख्रतो न्यनस्याक्ेप्यापेक्या शमैलजात्यादिभि
रपछष्टस्याक्रेप्तरित्यथेः।
याज्ञवल्वयः,
अर्द्धाऽधमेषु दिगणः परस्त्ौषत्तमेषु च ।
दण्डप्रणयनं काय्यं वशेजात्यत्तराधरेः ॥
'प्रातिलाम्धापवादेषु दिगुणचिगुणा दमाः ।
वशानामानुक्ाम्ये तु तस्मादङ्गडंहानितः।॥
अधमे वशेतो गृणतश्च न्यनेघ्ाकेष्येषु आश्चेप्तरधिक-
स्याङ्खा दण्डः स च अद्वचयोद्शपणरूपः। पुव्ववाकय
पञच्दविंशतिदमस्य प्रषतत्वात् परस्त्ौष परभाग्धासु
उत्कृष्टासु प्रखष्टासु च विशेषानाभिधानात्। दगुणः
पञ्चाशत्पणत्मकः रवसमुत्तमेऽपि दृश्डप्रणयनमिति ।
वशे ब्राह्मणादयो जातयोऽनुल्तामप्जा अम्ब्टाद्यः।
वशौश्च जातयश्वेति वशैजातयः वसीजातयश्च ते उत्तरा-
धराश्च वणेजात्युत्तराधरास्तेः परस्यरमाक्षेपे क्रिय-
` माणे दण्डस्य प्रणयनं प्रकषेण नयनमुहनं काय्य
~न ---------------"----------~---------------- ------------------------------------------- ~+ -~ ++,
+
1
तयोः सखस्वजात्याक्षारणे केदवज्नं तत्तच्नात्युचितं
दण्डमाचप्रणयनं तेनार्थात् ब्राह्यणक्षचियाकश्ारशे कऊेद
इत्यथे इति ।
अधमवर्णस्योत्तमवगीनामाक्रोशक्तेपाभिम्वे अष्टौ
पुराणा इत्यपकरम्य हारौोतः,--
= - ~ ~~ "^~
कात्यायनोशनसौ,
मोहात् प्रमादात् संहषौत् प्रौत्या चोक्तं मयेति यः।
अह रनैवं पुनवेश्ये द्श्डा्खं तस्य कल्पयेत् ॥
रुतत् परिहाय्येवाकूपारुष्याभिप्रायमिति रनाकरः।
ग त्तं। _ २. घ पुस्तके वादेषु वचनौयेु
` इ मूले पाठः--नादमेवं।
ब्राद्मणादौनां परस्परराचतेपे । २०५.
अथ ब्राह्मणदौनामेकतमेनान्यतमाक्षेपे दण्डः ।
तच ब्राह्मणस्य तमा इस्यति+--
विपे एतां दण्डस्तु क्षचियस्याभिशंसने ।
वेश्यस्य चा्गपच्चा शच्छद्रस्याङ्गचयोद श ॥
सच्छूदरस्यायमुदितो विनयीऽनपराधिनः ।
गुणहीनस्य पारुष्ये ब्राह्मणे नापराभरुयात् ॥
विपे आघ्घेप्तरौति शेषः । अभिशंसनमाक्रोशः ।
छचियस्य दश्डमादतुः शङ्लिखितौ--
आक्रोशे ब्राह्यणस्य ्षचियस्य शतं दश्डः शताद्धं वेश्यस्य
पञ्चविंशतिः श्रद्रस्य ।
वेश्यस्य दण्डमाह ददस्पतिः-
वेष्यस्त छचियाक्षेपे दण्डनौयः शतं भवेत् ।
श्रद्राक्षेपे क्षचियस्य पञ्विंशतिको द्मः ॥
वेश्यस्य चैतद्धिगुणं शस्त्रविद्धिरुदाहतम्। 3
य
तथा-बाह्यणाक्षेपे मनुवेश्यति ।
शरद्रस्य दण्डमाह इदस्यतिरेव ।
वेश्यमाक्षारयन् श्रुद्रो दाप्यः स्यात् प्रथमं दमम् । `
शछषचियं मध्यमञ्चेव विप्रसुत्तमसादसम् ॥
=
अच पारिजातः,- `
अक्रश्च मध्यमेन पारष्येणेति शेष इत्याह ।
अध्यर्धशतं साद्वंश्तं दे वेत्याक्षेपगौर वापेक्षया व्यवस्था ।
वधस्ताडनादिरूप इति कुल्लकभद्रः। ताडनं जिच्वा-
च्छेयात्मकमिति रन्नाकरः। ` |
इदमच चिन्त्यं वाक्यस्यास्य मध्यपारुष्यविषयत्वे-
नान्तरोक्तं॑वेश्यमित्यादि इदस्यतिवचनं प्रथम पारुष्य-
विषयं प्राप्तं दण्डलाघधवद शनात्! तथाच श्रद्रस्योत्तमे
पारुष्ये को नाम दण्डोऽसतु न तावन्निच्लाच्छेद रव
मध्यमेनावरोधात् । नान्यः-- अनभिधानादिति) |
अच उत्तमे ब्राह्यणाक्षेपे जिद्धच्छेदो द्रव्य चित्यात्,
५४ ( अन्टताभिशंसने तदङ्नच्छेद इति हारौतवाक्ये रनाकर-
तैव तौव्राकरोशे जिह्वाच्छेदव्याख्यानाचेति |
अच मनुनारदौ,--
रकजातिर्दिजातिन्तु वाचा द्ार्णया छिपन् ।
जिच्वायाः प्राप्रुयाद्धेद' जघन्धप्रभवो हि सः ॥
नामजातियहं त्वेषामभिद्रोहेण कुव्धतः।
विधेयोऽयमयःः शद्कुज्लन्नास्ये शाङ्गलः
द ॥
रकजातिरिह श्रद्र उपनयनाभावात् दारुणया मम्ब
सुत्पन्त्वेन बोधितत्वात् ।
न
व्याख्यातं युक्तञ्वेतत्- ८॥ ५.
२०८ - `द्श्डदिवेकः | `
अनन्तरोक्तनानावचनसम्बादात्। वधस्त॒जिद्धा-
च्छदादिरिति विशेषः अत रव समानजातिविषयभिदं
वचनमिति कु्लूकभद्रोक्तमपि घटते ।
अथ तेषु तेषु पारष्यविशेषे दण्डविशेषाः ।
प
पापोपपापवक्रारो महापातकश्रंसकाः ।
आद्यमध्योत्तमान् दण्डान् दचुत्ते ते यथाक्रमम् ॥
अच महापातकं प्रसिद्खं ततो न्यनसुपपातकं ततोऽपि
न्यूनं पापं ततो न्यूने पापेऽधमद्ण्डः । उपपापे मध्यमो
मह्तापातके तूत्तमः ।
याज्ञवल्वयः,-
पतनौयकताकषेपे दण्ड्यो मध्यमसादसम्' |
उपपातकयुक्तं तु दाप्यः प्रथमसादसम् ॥
पतनौयक्ृताक्षेपे पातित्यदेतुभिब्रद्यहत्यादिभिः छता-
`क्षेपे । इदं गुणवदृत्क्टाक्चेपकविषयमिति प्रतिभाति ।
विष्णः,--
परस्य पतनौयाक्चेपे कते उत्तमसाहसं उपपातक-
युक्ते मध्यमं चैविद्यदद्धानां क्षेपे जातिपूगानाच्च माम-
` देशयोः प्रथमम् । |
चेविद्यटद्ानामित्यवेत्मसाहसमित्यनुषङ्गः ।! जाति- ।
पूगानामित्यच मध्यममित्यनुषङ्गः
न ज --------------- ---- ------------------ ~~~ ---~---~--------+-~--------- --- --- --- ~~~ ~
+
कैविद्य प देवानां तेप उत्तमसाहसः ।
मध्यमो जातिपृगानां प्रथमो यामदेशयोः ॥
अच वैविद्या वेदचयसम्यन्नाः, पः प्रजापालः । ~
स
अथ तत्तद्ाक्षेपविषये याज्ञवल्कयः,
सत्याऽसत्यान्यथास्तोकैन्धूनाङ्गन्दरियरो
गिणम् ।
घेपं करोति चेदण््यः पणनञ्गचयोद्श्णन् ॥
न्युनाङ्गाः कंरादिहौनाः, न्युनेन्द्रिथा नेचादिहैनाः,
रोगिणः कृिप्र्तथः। तेषां छेप आकोशः। स स्थो
यथा नेचश्रन्ये नेचश्रन्यक्वमस्ौत्यादि । असत्यो यथा
इन्द्रिथवतौन्दरियश्रन्यस्मसौलयादि। अन्यथास्तोचमन्ध शव॒
चक्षृष्मानसौत्यादि । रुतत् समजातिगुणखविषयम् ।
समजातिगुणानाच्च वाकूपार्ष्ये परस्परम् ।
विनयोऽभिदहितः शस्त्रे पणा अब्वं चयोद्श ॥
शति इररातिसन्बादात्। ,
द्ण््यः काणखच््ादौनां तच््ववाद्यपि कार्षपपण्यम्। `
काषौपणोऽच पणः! रखतत् समगणतिद रिद्रविषयमित्य-
विरोधः
` याह्गवल्क्यः,
श्रतं स्तौदृषणे दद्याद्र तु मिथ्याभिशंसिता ।
स्तौशब्देनाच प्रतत्वात् कन्धाऽवग्ग्यते तेन यो
: विद्यमानापस्मारराजयश्ादि दौषकुत्सितरोगसंरूष्टमेथुन-
` त्वादिदोषान् प्रकाश्य कन्थां दूषयत्यसौ शतं दाप्यः।
` मिथ्याभिशंसने पुनरविद्यमानदोषाविष्करणे दे शते
५ दाप्यः + |
अच विवाहयितुमुपखितायाः परिहाराथं सत्यदोष-
4 प्रकारे दोषाभावो द्रष्टव्यो वश्यमाणनारद् वचनात् ।
बराह्मणानां परस्यान्ते । २१९
तथा,
अभिगन्ताऽस्मि भगिनीं मातरच्च तवेति हि ।
यन्तं द्ापयेद्राजा पच्डविंशतिकं द्मम् ॥
भगिनीौमित्यादि जायादेरष्यपलक्षणमिति मिताकया ।
विवादचिन्तामणो,--
अभिगन्तासि भगिनौ मातरं यन्ममेति दि।
इति परितम् ।
याज्ञवल्क्यः,
बाहौ वानेचसविधिविनारे वाचिके दमः ।
श्रत्यस्तददिकः पादकरैनासाकरादिषु ॥
अश्कस्तु वद्नेवं दण्डनोयः पणान् द् ।
तथाश्कतः प्रतिमुवं दाप्यः क्षेमाय तस्य तु ।
अच बाह्वादौत्यनेन प्रधानमङ्गं विवश्ठितं पादा-
१ दौत्यनेनाप्रधानमिति रल्लाकरादयः। शत्यः शतपरिमितः।
अशक्त इत्यादि बाइपादादिकम् ते कर्तयिष्यामौति
वाचिकेऽपराधे समानेऽपि यस्तथा कत्तुमश्क्तस्तस्य दश-
पणात्मको दण्डो यस्तु शक्तस्तस्य शत-तदद्गौत्मकः
किथ्वास्य सकाशदाकेप्यक्षेमाय प्रतिभरपि गराद्य इत्यधेः।
मनुः,
मातरं पितरं जायां ातरम् तनयं गुरूम् । `
आश्ारयन् शतं दाप्यः पन्धानच्ाददद्गरो; ॥
आक्षारयन् वाकूपारुष्यविषयं कुव्वन्निति रनाकरः।
| 1 मिथ्याभिशपेन योजयन्निति हलायुधः आक्षारयन्- `
१ ख शत्तः।
२९२ - द ण्डविवेकः ।
१ घ पुरूके प्रजानारच्तणानपराघ। `
२१४ | दशडविवेकः ।
व्यास्यातच्च,- |
अनिष्टममिचस्तोचादि तस्य प्रवक्तारं प्रकर्षेण भूयो
भ्यो वक्तारं तस्येव रान्न आक्रोशनं निन्दाकरण-
श्रौलं तदीयस्य च मन्त्रस्य सखराष्रटडिदहेतोः परयाद्-
छयकारस्य च भेत्तारममिचकर्णेषु जपन्तं जिद्धामुत्छृत्य
= स्वराष्राजिष्काश्येदिति ।
यत्तु,--चैविद्यन्टपदेवानां केप उत्तमसाहसः । |
इति यान्नवल्वववचनं तच लघतः कछछेपो विवष्ठिति
इति न विरोधः|
यच राजानुदृत्तौ कात्यायनः
अप्रियस्य च थो वक्ता वधं तेषां प्रकल्पयेत् ।
थै इति रलाकरः। `
ये राक्ञोऽप्रियवादभौलातते वध्या इत्य
|
रतदन्राह्मणएविषयम् ।
दह यच विशिष्टद्ण्डो नोपदिष्टस्तच निषुराश्नौल-
तौतरेषु पारुष्येषु यथोत्तरं दण्डगौरवमुहनौयमित्यादह ।
उना र
यच नोक्तो दमः पूवैरानन्त्याच महात्मभिः ।
तच काय्यं परिन्नाय कर्तव्यं दण्डधारणम् ॥
रतत्त विषयान्तरेऽपि द्रव्यं न्यायसाम्यात्
अथ नारद् ५
यच स्यात् परिहारा पतितत्वेन कौत्तनम् । `
वचनात्तच न स्यात्त दोषो यच विभावयेत् ॥
अन्यथा तुल्यदोषः स्यान्मिथ्योक्तावन्नमो दमः ।
ब्राह्मणादीनां परस्परराच्पे । २९५
नारदः, ५ थ
नारद्ः,
पाक पशु चारुडाल वेश्या वधकटत्तिष्षु ।
हस्तिप ब्रात्यदासेषुं गुव्वाचार््थातिगेषु च ॥
मय्यीदातिकरमे सद्यो घात रखवानुशणसनम् ` `
न च तदर्डपारुषे दोषपमाहर्मनौषिशः ॥
यमेव द्यतिवत्तेर नेते सन्तं जनं प्रति।
स खव विनयं कुग्यान्न तदिनयभाक्ं पः ॥
मला देते मनुष्याणां धनमेषां मलात्मकम् ।
अपि तान् घातयेद्राजा नाथैद्ण्डेन दण्डयेत् ॥
आपाकः क्षचियायासुग्राज्जात इति रलाकरः। उग्र
स्यां शछ्षचियाज्नातः स इति तक्वम्,--
इति मनुद्नात्। = `
छचाज्जातस्तथोग्धान्तु श्रापक इति कीच्यते ।
व
उथस्तु, |
« शरद्रायां छएवियाजातं प्राहू इति दिजा ”
देवलेनोक्तः ।
पशयुशब्द् क्तौवपरः मिताक्षरायां बण्डेत्येवाच पठितम्, `
चाण्डालः शुद्राद्राद्यणयां जातञ्च । वधकरत्तिः पर- `
य
इति रन्नाकरः।
वधकरचुधिति स्यष्टनेव |
कामधेनौ कल्पतरौ च वेश्यासु
परितम्। अच मिताक्षरायां व्यङ्गेषु वधकर्तधिति पाटः।
९ मूले पाठ-वेषु वथदसतिषु। र मूते सेयमिति पाठः। व
9. द्श्डविवेकः)
कात्यायनः,--
देडेन्द्रियविनाशे तु यथा दण्डं प्रकल्पयेत् ।
तथा तुष्टिकरं देयं समुत्थानच्च पण्डितैः ॥
, समुत्धानव्ययच्चासौ दद्याद्व्रणरोहणात्" ।
देयं दाप्यमित्यथैः। अच प्रतिभाति इन्द्रियादौनां
यचात्यन्तमेव नाशः करादौनां कम्भाक्षमत्वच्च भवति तच
पौडितस्य तुष्टिकरं नष्टाङ्गगोरवलाघवानुसारेण ताडको
य
दाष्यः । तेषां प्ररतिलाभपक्षे तु ससुत्धानव्ययमाचमिति
व्यवस्था ।
विष्णः,--
सव्वे पुरुषपौडाकराः समुत्थानव्ययं दुराम्यपशु
५ |पौडाकराश्च । 1 द
अच यान्नवलत्व्यः,
दुःखेषुः शेणितोत्पादे शखाङ्ग्केदने तथा ।
दण्डः प्रद्रपश्रनान्तु दिपणशद्धिगणः कमात् ॥
लिङ्गस्य केदने खत्यावधमोः मृल्यमेव च । `
महापश्रनामेतेषु स्थानेषु दिगुणो दमः ॥
शखा च्ननारम्भकशङ्गादिरूपा अङ्गमारम्भवं कर-
चरणादि । तेन क्षद्रपश्चनामजादौनां शेरितं विना |
न
ध ।
५ |ध ५ सन
१. पएस्तके ्ज्निनास्य।
द
ण्डपार्ष्यद्
ण्डः । रन्४
तथा च,-- |
सचन्त पथि संरुद्धः पशुभिव्वौ रथेन वा ।
प्रमापयेत् प्राणण्डतस्तच दण्डोऽविचारितः ॥
वाकारेऽनाद्यायां तेन प्रपातगमनोच्ावरोहणतिय-
ग्गमनादिनाऽपौत्यथैः । यच प्राजकाकौशलप्रयुक्तः पश्चाद्
यानान्तरे यानप्रतिवद्ध-प्राशिदिंसादहेतुभवति । तचापि
प्राजकस्य दण्डोऽविचारितो निशित इत्यथे इति
` रलाकरः।
नारायणेन तु अशक्यविषये डिंसायामाडेति वचन-
मिद्मवतारितं व्याख्यातच्च दण्डो विचारितौ सुनिभि
न्नौस्तयेवेत्यथे इति ।
इदानीं प्राणिविशेषे शते सारधेर्दण्डविशेषमाह
५ सर्व ।
मनुष्यमारणे सिप्र चौरवत् किल्विषं भवेत् ।
प्राणवत्सु महत्खद्धं गोगजोष्रहयादिषु ॥
अथ लगुडादिना बुद्धिपूव्वकमारणे दण्डमादहेति
` क्त्वा सन्यन्ननैव तद्वतारितम् । अच चौरवदित्यनेन
महति साहसे योऽधदण्डः सोऽतिदिश्यते न तु वधदण्डः,
तस्यात्वासम्भवेन गवादिष्रडमित्यभिधानविरोधादिति
इलायुधः।
रवभमेव रल्नाकरादथः । रखवमेव कुल्लकभदट्रः, चौरदण्ड
उत्तमसाहस इति च व्याख्यातवान्! ` ८
नारायणसव्वक्षसतु यस्य चौय्यं यावान् धनदण्डस्तदङ्ग- `
-मिधाद)
दण्डपार्ष्यद
णः । २२७
९ खप्रकेमाषिक्स।
दगडपारष्यद्
शः । २२९
विधानादित्याह |
नारायणस्तु पञ्चभिः सुवणेमाषकैनिष्याद्यः पच्छमाषिकं
` इत्याह ।
स
कत्वायनश्--
प्रमापणे प्राणश्ठतां प्रतिरूपन्तु दापयेत्
तस्यानुरूपमूल्यं वा दाप्य इत्यत्रवौन्मनुः ॥
य
वनस्यतिपदसुपयक्तसव्वस्थावरोपलकछषणाथे न्याय-
साम्यात्
तथा--उपयीगगौर बलाघवानुसारेण ।
अच कुल् कभदरः,
° फलपुष्यपचादिषत्तममध्यमाधमेषुपयोगेषन्तमसाह-
सादि दण्ड" इत्याह ।
युक्तञ्चेतत् ^ फलापगद्रमच्छेदौ तूत्तमसाहसमित्यादि-
वश्यामशविष्णवचनसं
वाद्त् ।
इहास्वासिकेषु दश्लतादिषु स्वयं परदारा वा दिनेषु
छेत्तुदंण्डो विध्यतिक्रमात् तेषामपि दथाङेदस्य निषिद्ध- |
त्वात् ।
«^ फलपुष्योपयोगान्ः पादपान्न हिंस्यात्” ।
इत्यादिवसिष्ठादिवचनदश्नात् ।
फलद्ानान्तु दच्ाणां डेदने जप्यश्टक् शतम् ।
गुल्मवल्लीलतानाच्च पुष्पितानाच्च वौरुधाम् ॥
इत्यादि प्रायशित्तोपरेशणच । ॑
सच दण्डः प्रकौणैकप्रकरणे विस्तरेण वच्यते ।
सस्वामिकेषु तु तत्स्वामिने तत्प्रतिनिधि-तन्मल्ययो- `
रेकतरदानमपौति विशेषः । ॥
अथ यदि पतिपिचादिभौगधापुचादौननुश्णसन् स्वयं
श्ष्यादिद्वारा वा ताडयति तदा प्रहाराधिक्य रख `
य दण्डो न त्वन्यथेत्याह मनु,
घ पष्मोपगान्।
द
णडपाश्ष्यदण्डः । २२१
~+
आततायिनमाहतुर्मनुवसिष्टौ,--
अभ्रिदो गरदश्चैव श्स्रपाणि्नापदहा ।
क्षेचदारापदहारौ च षडेते आततायिनः ॥ न
विष्णकात्यायनोौ,--
उद्यतासिं कराग्रिच्च शपोद्यतकरन्तथा
आथव्वणेन हन्तारं पिशुनच्चापि राजनि।
भार्ययातिकमिखश््वैव विद्यात् सत्तातताथिनः॥ `
मल्स्यपुगाणसुश-- | |
हस्ेचापहनत्तारं तथा पल्न्यमिगामिनम् ।
अभ्िदं गरद्ञ्चैव तथाद्यभ्युद्यतायुधम् ॥
अभिचारब्च कुव्वाशं राजगामि च पैशुनम् ।
` रतान् हि लाके ध्यन्नाः कथयन्त्याततायिनः ॥
` इदिष्णुभ-- ` .
उद्यतासिः प्रियाध्षौ धनचत्ता गरप्रदः ।
अथव्वहन्तार तेजोघ्रः षडेते आतताथिनः ॥
अच धनापद्ेत्यक्छा छेचापदहारौति प्रथगभिधानं धनस्य
बहुतरत्वप्रतिपाद्नाथं तेन कछषेचख्य शसनादेरल्पस्यापि
धनस्य बहुतरस्येव यस्यापहरशे वत्तनस्योच्छेदो भवति `
स्मन ~ ---
९ घ क्रामिणम् । र कग एन्लके--हततै
दश्डपारुष्यद्
ण्डः । रदष
९ घ इन्ता। = |५ २ च उपराददौत।. |
२२६ | दग्डविवेवाः ।
बीजमाहरपि तु विहितस्यात्मगोपनस्यान्यथानुपपत्तिः। सा
च प्रहारस्थले साश्ादन्धच परम्यरयेति सव्वचाविशि्टा ।
हन्तैवं दारापहारे साश्ात् परम्परया वात्मगोपना-
विरोधात् कथमनुन्नेति चेत् आत्मरक्षणवद् दाररश्षण-
स्यापि विहितत्वात् ।
(1
सर्व्वेषामेव वणानां दारा रश्यतमाः स्मृताः । |
9
(|
॥
1
स च श्रद्रकतगभे व्यागः।
ब्राह्मणक्चियविशा भाग्धाः श्रुद्रेण सङ्गताः ।
अप्रजास्ता विशुद्यन्ति म्रायित्तेन नेतराः ॥
इति स्मरणादिति ।
तदेवं व्धवस्थिते शस्त्राय किं तत् प्रियाधर्षणं यत्र |
वणेसङ्करभियाभिगन्तुत्रीद्यणएस्यापि वधोऽनुन्नायत इति ।
असतु बलात्कारविषयमेतत् अतिक्रमकारिवत् प्रिया-
धर्षौत्यचापि तस्य स्फुटत्वात् जिषटषा प्रागरूभ्य इति धात्व्था-
लोचनात् अपहारौत्यतिकामिणमित्यमिगामिनमित्य-
मौपामपि तत्परत्वात् पुरुषव्यापारप्राधान्यप्रतौतेः।
छतां भावकारकवाचित्वेऽपि तदिशेषस्य णिनेरुद्रिक्त- = `
क्रियां शत्वादिति चेन्न ।
अद्यपि शिनावुद्विक्तः कियांशःस्यात् तथापि बलात्कारे |
रजसा चिराचेण वा शुद्धोदिति गत्यन्तरसम्भ वेन वधस्या - `
दष्टाधेत्वापातात्, चरत खव कामकूतविषयत्वमपास्तम्। `
तच चान्द्रायणादपि शुद्धिसम्भवात् मर्भोत्पच्यादौ
तद्योगादेव न सङ्कर संज्नेति' न तद्विषयत्वम् ।
किच्च सर्वचाच सङ्करो वशोन्तरेणापहाराद् भवति न
बराद्यणेन अत एव॒ ^शस्रं दिजातिभिगरद्यम्” इत्यादि `
मनुवाक्ये दविजातीनां विस्व उत्तमस्तियाऽधमेन योगा-
। दिति नारायणेन व्याख्यातमिति कुतस्तदष्धः ।
अपि चापहारो नच्यखरूपेण सङ्करहेतुरपि तु पुचो-
१ क्रचित् शङ्केति । र घतद्ा्चः।
२३८ दर्डविवेंकः |
मिताक्षराकारस्तु,
आतताथिनमायान्तमपि वेदान्तपारगम् ।
जिधंौसन्तं जिघांसीयान्न तेन बह्मा भवेत् ।
इति कात्यायनवचनं तावद्थेशस्म् ।
द्यं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो दिजम् ।
कामतो ब्राद्यणएवधे निष्कुतिनः विधौयते ॥
इति मनुवचनं धम्मैशस्त्रं तदनयोष्िरोषे धम्बेशस्तं
बलवत्--
अथेष्णस्तरात्त् बलवद्नम्मेशस्त्रमिति स्थितिः
इति याज्ञवल्कय
द्शनात् ।
रवच्च मनुना “शस्त्रं दिजातििग्रीद्यम्"। इत्याय॑पकम्य
` “आत्मनश्च पविचाणि ” इत्यादिवचनेनाततायिनम्ङ्रुट- |
शस्त्रेण घ्रतो न दण्डभागित्वमिति यदृक्त तस्वानुवादाथै `
«गुरं वा बालो वा” इत्यादिकमुच्यते। |
तथा चाच वाशब्द्श्वशाद्ाततायिनमित्यादावपि
शब्द प्रवणाद् गुव्वादौनत्यन्ताबध्यानप्याततायिनो न्यात् .
किमुतान्धानित्यधान्न गुव्वादौनां वध्यत्वं “नाततायिवधे `
दोपोऽन्यच गोन्राह्मणत्” इति सुमन्तुवचनात्।
आचार्वय्च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम्। `
न हिंस्याद्राद्यणान् गाञ्च सव्वांसैव तपसिः ॥ `
इति मनुवचनाच । इदं हि वचनमाचायादौना-
मातताथिनां दिंसाप्रतिषेषेनाथवनान्यथा, दिंसामाच- `
` प्रतिषेधस्य सामान्यशस्ेशेव सिङत्वात् ।
म
१ घ निष्कतिः।
२६० दश्डविवेकः,
१९. घ अनुशोध्यत्वात् |
दण्डपाशष्यद
ण्डः । २४३
तायिघातिव्यतिरिक्तसंसगे ब्रह्मवधप्रायशित्तप्रतिपादकं
तदापुब्धैक' रव दोषः, दोवशब्दस्य प्रायश्चित्ते शक्य
भावात् खचवैयण्यैच्च स्यात्। निर पवादादतिदेश-
वाक्यादेव प्रायित्तप्राप्तैः |
यदि तु वधदोषविधायकं तदित्युच्यते तदा प्रकर
ण-
विरोधः खचवैयथ्यैच्च अपवाद काभावेन वधव्यवस्थयैव ~~
धककस
_
यनवचनसंवाद्ाच ।
कल्पतरो राजधम्पैकाण्डे तद् यथा,-
भौत-मन्नोन्मत्त-विसन्ादह-दस्ति-वाल-खड-ब्राद्यशैनं
युष्येतान्यचाततायिनः। न दोषो हिंसायामन्यच च्व्य्ग- `
सारश्यनायुधाच्जलिप्रकौणेकेशपरा ङुखोपविष्टमूलदक्षा-
. रूढारूतकगोब्राह्मणादिभ्ः। .
~~~ ~-----~------------------~---------- ~ ~~ ----~~---- ~~
यच तु प्रहारयोः पुरव्वापरभावपरि
च्छेदो नास्ति य
वाऽपराधसाम्यं तच तु दयोरपि यथोक्तो दण्डः काल्यायन-
वचनस्वरसात्। आततायिवधे च दण्डाभाव रव हहस्पति-
वचनादिति । .
इयञ्च व्यवस्था वाकृपारष्येऽपि सच्वारणौया
न्धायसाम्यात्। वाग्दण्डपारुष्याधिकारे विधिः पञ्चविध
सक्त शएव--एतयोरुभयोर पौत्युपक्रम्य निरुक्तप्रकाराणां
नारदेनोपन्धासात् दृदस्पतिवचनयोरुभयोविंषयताया
स्फ़टत्वाञ् । |
मतस्तच॑वानुसन्धेयम् । |
इति विविक्ता दश्डपारूष्यद्ण्डमात्का ।
व
२५० द श्डविवेकः
अथ प्रहरणोद्यमनदण्डः। `
अच उदस्यतिः |
उद्यतेऽश्मशिलाकाैः कर्तव्यः प्रथमो द्मः ।
यान्नवसवयः,
उद््े हस्तपादे तु द श-विंशतिकौ दमौ ।
परस्परस्य सर्व्वेषां शस्त्रे मध्यमसाहसम् ॥
सव्वेषां बाद्मणादौनां वर्णनां परस्परं वधाथेमिति-
शेषः । शस्त्रे उद्भ इत्यनुषङ्गः । रतदचनदयं समान-
जातिं प्रति प्रहारोचमे।
दण्ड इत्यनुदृत्तौ विष्णुः,--
^ दस्तेनोहूरयित्वा तु दश काषौपणान्, पादेन विंशति,
काषेन प्रथमसाहसं, शस्त्ेणोत्तमम् ” ।
उत्तममुत्मसाहसमित्यथेः। छत्यसागर सृतिसागरयथो-
रत्तमसाहसमित्येव पितम् ।
विप्रपौडाकरं केयमङ्गमत्राह्मणस्य तु ।
उद्नण प्रथमो दण्डः संस्यश तु तदद्धकः' ॥
उद्गण शस्त्रारेरुदयमने वधाथेमुल्लासन इति यावत् ।
संस्पं उद्यमना्थे तस्यैव ग्रहणे ।
इदमुभयमधमेनोत्तमं प्रति दस्ता्ुद्मने। अचोद्यमने
श्रद्रस्य ₹इस्तादिङेदनभेव वश्यमाणमनुदनादिति
मिताक्षराकारः ४
९ ध.पुकके तदद्धिकः।.
मह्रणदखः । | २५९१
पणानुरत्तो शङ्खलिखितौ-
प्रहारोयमे षट्पञ्चाशत् निपातने तद्गुणम् ।
प्रहियतेऽनेनेति प्रहारोऽश्मदर्डादिः, षट्पञ्चाशत्
घडथिकयच्चाश्त्, इदमुत्तमवर्शेनाधमवगीस्य दण्डपार-
ष्योद्यमे । |
अघ् प्रहरणदण्डः |
तच भस्मादिप्रक्षेपे ददस्यतिभ-
भस्मादौनां प्रशेपणं ताडनच्व करादिना ।
प्रथमं दण्डपारुष्यं दण्डः कर्पोऽच मापिकः॥
रुष दण्डः समे युक्तः परस्वौघधिकेषु च ।
दिगृणस्तिगणो ज्ञेयः प्राधान्यापेश्षया बुधैः ॥
ताडनमबोद्यमनमाचमिति ग्रहेश्वरमिश्राः। रणवमेव
हरिनाथोपाध्यायाः। रवं व्याख्याने कामं प्रथममिति
घटते दण्डगौरवन्तु दुर्धरम् । 1
उन्गर णातत स्तस्य कार्य्यो दादश्को दमः
स खव दिगण: प्रोक्तः पातनेषु सजातिषु ॥
| इति कात्थायनविशोधात्
तस्मात् प्रहरणमेव ताडनपदाथैः प्रत्यत ताडनच्चेति
चकारः समुचचयाथैः। न्यनश्च ताडयिता। प्रथममित्यस्य
२५२ द ग्डविवेकः ।
छद्यीदिग्रकेपे कात्यायनः+--
हिंमूचपुरौषादैरापाद्यः स चतुर्गुणः । `
षडगुणः कायमध्ये तु" मूङ्खिं चाष्टगुणः समृतः ॥
आदिपद्ादसा शुकमज्नाखटजां संग्रहः । चतुगुखत्वा दिवं
द्श्पणापेक्षं तेन कायमध्यशिरोव्यतिरिक्ताङ्कस्य
शने चत्वा-
रिश्त्यणाः, कायमध्यस्पशे षष्टि, शिरःस्यर्श्यैतिः पण
इत्यथः । |
मनुनारदौ,
अवनिघ्नौवतो दर्पद दावोष्ठौ केदयेनरपः।
अवमूचयतो मेद्गमव शब्द्यतो गुदम् ॥
अवनिष्ठौवत उपरि निष्ठौवनं कुव्वतः । अवमुचयतो
मुचसेकं कुव्वेतः। अवशब्दयतो गुदेन शब्दं कुब्वतः |
कुल्लकभट्रेना वगद्धयत इति परित्वा गङ़नं गृद्शब्द
त्तनावमानयत इति व्याख्यातं तच फलतो न विशेषः ।
दर्पादिति प्रमादमदमोहादिव्यादच्यथेम् ।
अच कुल्लुकभटरेन पुव्वश्चोकं दृष्टा श्रदरस्येत्यनुवत्तितम् । `
सव्वज्नेन तु सव्वमिदमुक्तमधमेन क्रियमाणे द्रष्टव्य
मित्यक्तम् । `
अथ यान्नवल्वयः,
पादकेशं शुककरोन्ुच्वनेषुः पणान् दश । `
पौडाकषींशुकावेष्टपाद्न्यासेः शतं दमः ॥
.१ स्यादिति क्रचित् पाठः। ` र् ख--कीह्छच्छनेषु । ` `
| द घप्रादाध्यासे! : ॥
त
मा
२५४ =: | द्डिवेकः ।
अभोवरैस्योत्तमवर्णानामाक्रोशक्तेपाभिभवेऽष्टौ पुराणः
ग्रौवासच्न-गलदस्तन-कचवक्तप्रहरणेषु विंशत्! रोमो-
त्पारनतज्जनावग्रणेषु विषष्टिः। शखाकरणङ्गभङ्गन्केदेषु
दिशतम्। पादताडने ऽताभिशंसने तदङ्गच्छेदः पञ्चशतं
., वा। आदेषु पादोनं किञ्चित् खामित्वादादिवणेत्वाचोत्त-
मानामौशनतमो हि बद्यणः
चिंशदित्यादौ पुराण इत्यनुषङ्गः। व्यास्याशेषो वाक्-
पारुष्ये द्रष्टव्यः। अङ्गपदमच पाणिपादादिपरमिति शेषः
प्ररणद
गडः । २५५
मनुः,
येन केनचिदङ्गेन हिस्याच्छेयां समन्त्यजः ।
छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनोरनुशसनम् ॥
पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पारिच्छिदनमर्हति
ष्यादेन प्रहरन् कोपात् पादच्छेदनमहंति ॥
दिंस्यात् प्रहरेत्, भ्रेयासं चेवणिकम्, अन्त्यजः श्रदरः ।
[य
९ मूले-भेदे तु घातेनतु। `.
प्रहर्णदण्डः । २५७
याजवलक्यः,
न
आह च मतुः, |
मनुष्याणां पश्रनाच्च दुःखाय प्रकृते सति ।
यथा यथा मददुःखं दण्डं कु्धत्तथा तथा ॥
अच दुःखायेत्यभिसन्धिपुव्वकत्वावगमात् प्रमाद्रूते न
चदोषः
न प"
"राजनि प्रहरेद्यस्तु छतागस्यपि दुम्बेतिः ।
श्रल्यं तमप्नौ विपचेद्रह्महत्याशतातिगम् ॥
यो अन्राह्यणशः छतागसि कछतापराषे श्रलमारोप्य यत्-
संहियते मांसादि तच्छल्यम्। तेन राजग्रहारिणः श्रूल-
भेदेन पौडां विधायाग्रिपाकेन पौडा कर्तव्येत्यैः ।
४ ~ --~--------------------------------------------------- =
कख ग पुरूकचये राजानं |
अध्य प्रकौणेदरडः ।
तच संग्रहः
उद्दिष्टाः केचिहषिभिव्विभजद्धिः प्रकौशकम् ।
प्रकम्य सासं केचिदुक्तास्तैरेवसुक्तकाः ॥
विवादविषये क्रापि व्यवहारपदे कचित् ।
प्रसङ्गनो पदि्टास्तैः केविदेव्छतुवििधाः ॥ `
तेऽमौ चतुषु शेषेषु" वर्गेषु परिनििताः ।
प्रथमे तद्यवस्थेति पच्चवगीः प्रकी रके ॥
सोऽयं विभागः प्रतिपत्तिवेषम्धाथैसुत्सगेःमाित्य छत
इति दिचाणां सङ्करेऽपि न दोषः।
विवाद्विषयश्चाच छणादानादि्मुतसमाहयान्तोऽ्टा-
दशविधो मनुक्तो विवश्चितः। तेन निबन्येषु--तत्समभि-
व्याहृतस्यापि
तत्शुल्कादेैहिभवः प्रथमे च वर्गे तस्य (0)
स्तदहिभावः प्रकौणेलषणाभावादेव ।
तच खदहस्यतिभ--
रष वादिकषतः प्रोक्तो व्यवहारः समासतः
चपाश्रयं प्रवश्यामि व्यवहारं प्रकौणेकम् ॥
यद्यपि मनुष्यमारणादिव्यवहारा अपि पाथ्िता
रव तथापि तेषु वादिपरतिवादिभ्यां ख-ख-प्ेषु दर्ितेषु व
न
६1
प्रकौरोके तु शिरोवादिनं विनाऽपि चरादिमुप्खाइ्णी
मिणं दोषं आत्वा विच्य तेषां यथाविहितं दण्डं
(4
विधाय धम्म्ये पथि स्यापनमित्येवास्य तेभ्यो भेदः ।
1
५4
नारद्
यौ यो वर्णोऽवदहौयेत यश्चोद्रेकमनुत्रजेत् ।
तं तं दृषा खतो मार्गात् प्रच्यतं स्थापयेत् पथि ॥
मनुः, |
यश्चापि धम्मैसमयात् प्रयतो धम्पेजौवनः ।
दण्डेनैव तमासोषेत् स्काद् धम्मादिधिच्युतम् ॥
समयः शस््लोयमग्यादा धम्पेजौवनो ब्राह्मणादिः।
आजोषेत् ददेत् पौडयेदिति यावत्। विधिच्य॒तं वेद्- ` |
मागतिक्रान्तम् ।
रवच्च विदहितपरित्यागो निषिद्धाचरणमिति इयमपि `
दण्डनिमित्तं तच इदहस्यतिः,-
[7
विहिताकरणान्नित्यं प्रतिषिद्धनिषेवणात् ।
भक्ताच्छादं प्रदायैषां शेषं शह्लौत पाथिवः ॥
विहितस्य व्णश्रमकम्भेणोऽसकरत््रमादादिव्यतिरेकेण-
| ` ननुष्टानात् प्रतिषिद्धस्याभष्यभ्षणादेनित्यमनुष्टानादिति
| पारिजातः। रुतदेशचारव्यतिरिक्तविषयमिति कल्यतरः।
अअपस्तम्बः
नियमातिक्रमिणं ब्राह्मणमन्धं वा रहसि| बन्धये- ८
दासमापत्तेरसमापत्तो, नाश्यः।
न
९ कवादिभुखात्। र घ त्वसमापत्तो
प्रकौ दण्डः २६९
नियमातिक्रमिणं नियमस्य शस्त्स्यातिकरमेण विहि-
तस्याकर्तारम्। अन्धं निषिद्धकारिणमिति कल्मतरः ।
आसमापत्तयाीवदेवं करिष्यामि नैवं करिष्यामि इति वा
तस्य सम्प्रतिपत्तिभवति असमापत्तावतथासम्प्रतिपत्तौ
नाश्यो निव्वास्यः। रतदनुबन्धातिश्यविषयथं ब्राह्यण-
विषयञ्च । `
अत्राह्यणविषये मनुः,
मव्यीद्ामेदकश्ैव विचिचं प्राप्ुयादधम् ।
मर्यादा देश्जातिकुलशसरराजलाकस्थितिः, तस्या
भेदकोऽतिकमकारौ म््यीदातिकरमे सद्योघात रएवानु-
शसनमिति नारदसंवादात् । |
इह रलाकरकता मनुवाक्ये विकृतं वधं कणौदि
करेदनषूपं घातमिति व्याख्यातम् ।
अबौजविक्रयो यस्तु बौजोत्छष्टा तथेव च ।
इति पव्वाङ्खसमभिव्याहार संवादात् नारद्वचने धात-
स्ताडनमिति व्याख्यातम् । `
इस्ति व्रात्य दासेषु गुव्वाचार्य्यातिगमेषु च ।
इति पूव्वाह्गसमभिव्यादारख्ररसात्। तदेतद्याख्यान- `
इयमनुबन्धाभावविषयतया नेयम्। अनुबन्धे त्वसमापत्ति- ^
पञ्चे क्षचियादिविषये दइननमेवोभयोरथः। तवैव ब्राह्मणस्य
प्रवासौचित्यात्।
भ त
९ घविचचिं। २ घव्पनुबन्धेविषयतया।
स
रद्र | द्ण्डविवेकः ।
कात्यायनः
राजधर्मान् त्वधम्धांख सन्दिग्धानाञ्च भाषणम्
दहस्यतिः
षड्भागस्तर शुल्कञ्च गत्ते देयस्तथैव च ।
सङ्गामचौरभेदौ च शस्यधातनकत्तथा ॥
अच षडभागपदं प्रणष्टाधिगतसुवर्णदिपरं, तच राज्ञः
षड्भागग्रहणसम्बन्धात् वेश्वदेवमन्नमितिवत् ।
तथा,
निष्कृतौ नामकरणमान्ना सेधव्धतिक्रमः ।
वर्णाश्रमाणां लापश्च वशेसङ्रलापनम् ॥
निधिनिष्कुलवित्तच्च दरिद्रस्य धनागमः ।
अनान्नातानि काय्याणि कियावाद्ाश्च वादिनाम् ॥
प्ररतौनां प्रकोपश्च सङ्केतश्च परस्परम् ।
अश स््रविहितं यच्च प्रजायां सम्परकौ त्यते ॥
आज्ञासेधव्यतिक्रमः राजान्नया वादिनो्थस्य आसेधो `
ऽवरोधस्तस्य ताभ्यामतिक्रमणम् तच व्यवदहारवग स्फटम् ।
निधिदिविधौ वश्यमाखलश्षणः। निष्कुलवित्तसुच्छन-
बन्धोग्तस्य धनं सम्बन्धिनो ाहकस्य दण्डदेतुरित्यथेः |
दरिद्रस्य धनागम आकस्मिकः, अन्यमुपायं विना
निध्यादिलाभनिश्वयात् दण्डहेतुः।
अच याज्वल्क्यः, |
स
~
~3
~
4
-व
य
स
४~-
४५
इदस्यतिः.-
सम्भूयेकमतं कत्वा राजभाव्यं हरन्ति ये ।
ते तदश्गुणं' दाप्या वणिजश्च पलायिनः ॥ `
राजभाव्यं रान्न देयम् ।
| पितापरुचविवाद् इति । |
| यद्यपि पिचा सह विवादे शङ्गग्राहिकया साक्षादर्डो _
न श्रूयते तथापि सा्प्रकरणे पिचा विवदमान- `
| शेति निन्दादशेनान्निषेधाभिगमे नियमातिकरमणप्रयुक्तः
| साहसोक्तः सामान्यदण्डः पितुर्गुणवन््वागुणवक्वतारतम्येन
व्यवस्थितो द्रष्टव्यः । रखवच्चायं साश्य रवोद्ाहियते ।
२ कष पु्तकदये पिटटएच-- | 1
इ क्रचित् प्राठः--साहसः।
४ क पुसतक अद्टपणः (1
।
व
२७० . _ ` दग्डविवेकः।
यदाह दक्षः, |
पारित्राज्यं खहौत्वा यः सखधम्मेषु न तिष्टति ।
आपादेनाङ्कयित्वा तं राजा शौर प्रवासयेत् ॥
रुतच् ब्राह्मणविषयम् ।
अन्ध त्वाह नारद्,
प्र्ज्यावसिता
य चयो व्ण दिजातयः
निव्वासं कारयेद्धिप्रं दासत्वं छचविन् पः ॥
अच श्रूद्रष्यापि दासत्वमेव कैमुतिकन्धायात् |
वगोसङ्रदोष इत्यच देवौपुराणमेव,--
मद्या्यैगे्हिंतैर्यच सङ्करः शवियोगिनाम् ।
न्टपराष्रभयं तच कार णच्चान्यथागमः ॥
शिवियोगिनामिति सम्भवाभिप्रायम् । अन्यापि देश-
। | .3 1
गमस्नयौवाद्यः शेवाद्यागमः
द्पसार णमेव दण्डः । अन्यथा
राजधर्मान् स्धरम्मानिति समभिव्याहारेणमिधान- `
मविरोधस्यापनाथेम् ।
तथाच यान्नवस्क्यः,
(ण
तच कात्यायनः+-- |
राजम्रवर्सितान् धर्मण यो नरो नानुपालयेत् । `
भराद्यः स पायो दण्यश्च लापयन््राजशसनम् ॥
ग्राद्योऽवरोध्यः |
सन्दिग्धानाञज्च भावनभिति निशितत्वेनेति शेषः
५ खतचचच यनासत्याभिधानेन परस्यानिष्टं जायते तत्परम् |
अन्यच प्रायश्चित्तमाचस्य प्रवत्तनौयत्वात्तद्प्रहत्तः
निष्कृतौनामकरणमित्यननोक्तत्वात् ।
यत्त॒ वादिनोरनिर्णौति विवाद्विषये निणौँतवदेक-
तर पक्षामिधानं तच सभ्यादेदण्डो व्यवदहारवगं वेश्यते ।
अथः प्रनष्टाधिगतमधिकृत्य याज्ञवल्वयः,
प्रनष्टाधिगतं देयं पेण धनिने धनम् ।
विभावयेन चेल्लिङ्गैस्तत्समं दण्डमर्हति ॥
प्रनष्टं खामिनः प्रमादात् शुल्कणलादौ रथ्यादौ वा
अष्टं तस्करेरपहतं वा अधिगतं शोल्किकादिभिः खान-
पालादिभिव्वा तच्च तै रान्ने समपणौयं (प्रनष्टमखामिक-
समधिगम्य राज्ञे ब॒युः"” इति गोतमस्मरणात् ।
राजा तु तैर्पितमुपस्िताय स्वामिने दद्यात् स
यदि शुक्लादिरूपं कटकाद्याकारच्च तदित्यादिकैलिङ्गः
सत्वं भावयति। अविभावने तु तत्समं दण््यः।
` अवेदयानो नष्टस्य देशं कालच्च तत्वतः ।
` वणं रूपं प्रमाणच्च तत्सम दण्डमहति ॥ `
क; इति मनुवचनसंवादात्
` प्रनछाधिगताधिकारः | ~ ~. दे,
मिताक्षराकारस्वाद ।
प्रथमे तावद क्षत्लमेव धनिने दद्यात्, दितौये तु
दादशं ठृतौये दशमं चतु्थदिषु षष्टं भागं रशणमुल्यतया
खद्धौत्वा शेषं स्वामिने दद्यात् ।
्यब्दादृद्धं व्ययितेऽपि तस्मिन्रागते स्वामिनि राजा
स्ांशमवताये तत्समं दयात् ।
तथा खाम्यनागमने छत्छस्य धनस्य तदागमने राजख-
भागस्य चतुधेमंशमधिगन्त्रे दद्यात् ।
यदाह गोतम
प्रनष्टस्वाभिकमधिगम्य वत्सरं राज्ञा रश्यमद्धंमधिगन्तु-
अतुर्थोऽ'शे राज्ञः गेषमिति । |
सव्यश्चेदं हिरण्यविषयम् । अन्धच विशेषमाह ।
यान्नवस्वय--
पणानेकशफे द्द्याचतुरः पच्च मानुषे ।
मदिषोष्रगवादौ दौ पादं पादमजाविके ॥ |
रुकशफोऽश्वादिः पाद्श्चतुःपणपादः पण इति यावदिति-
रन्ाकरः पणस्योपस्थितत्वात्तस्यैव पाद् इति प्रतिभाति ।
इह मनूक्तषड्भागादिग्रहणस्य द्रव्यविशेषेऽपवाद-
माहेति छत्व मिताक्षराकता वचनमिद्मवतारितम्
व्याख्यातच्च--रकशफादौ प्रनष्टाधिगते तव्खामौ राज्ञ
` पणचतुषटयाधिकं दद्यादिति । कल्पतरावपि राजे रष्टणए- `
निमित्तं चतुरः पणान् खामौ दद्यादिति व्याख्यातम् । `
१. घ पुस्तके साक्ञे ¦
| मद्रतिगलानिकारः । | २.७५
|
म
मनुः,
धनुःशतं परौणदो' ग्रामस्य स्यात् समन्ततः ।
शस्यापातास््रयो वापि चिगुणो नगरस्य च ॥
शस्या युगकौलकः स मध्यम पुरुषवाहइ्िततो यावतीं शुव-
` सुल्लद्धा पतति तत्तिगुणो वा भ्रामक्षेचान्तरालपरौखहः।
तच्च भराम्याणं धनुःपरिमाणानभिन्नत्वेनानध्यवसायात्
शस्यासौलभ्याचोक्तम् । सेयं पूववपुव्वसव्धनिवन्धदष्टपित-
व्याख्यानानुसारिणौ व्याख्या विवादचिन्तामणौ । `
मिञ्रेस्तु सम्पाता इति परित्वा सम्पाताः काण्डपाता
इति व्याख्यातम् । सन्च्ैतत् परिगणनमौत्सभिकम् ।
याषद्गवाद्याकौशणेः यद्मामादि तावदनुसारेण तच
गोप्रचार इति तच्वम्। |
अथ विष्णु+--
पथि यामविवोतान्ते न दोषोऽनादते च| न चाल्प-
कालम् ।
ग्रामान्ते रक्षितमोप्रचाराभ्यन्तरे विवौतो गवादि-
नियोगाथे रक्षितयवसो मूभागः, अनाटते पशुनिवारण- `
समनुदत्तिश्रन्ये रथ्यादि्ेचे। तेन वत्मादिसननिहित-सेचस्ये
श्ये पशुभिरल्यकालं खादिति पालदोषो नास्तौत्यथ
ैः ।
बहुकालभक्षणे त्वचापि दीष खव ।
` अत रवोक्तं छत्यसागरे । `
आशयापराधस्तच कंर्यत इति । `
समृतिसारे चोक्त-आआश्यापराधस्तचभवतौति ।
~ -------------~-------------~-----------~----------------------------------------~----~--------------------
~
४ अ
ता
-=
पथि ग्रामविवौतान्ते प्रेव दोषो न विद्यते |
अकामतः कामचारे चौरवद् दण्डमर्ईति ॥ `
मा
गोभिर्विनाशितं धान्यं यो नरः प्रतिलिष्स॒ते"
पितरस्तस्य नाञ्न्ति नाञ्चन्ति च दिवौकसः ॥
| धान्यमित्युपलश्णएम्। भाद्यमप्येतनरकदेतुत्वान ग्राद्य-
मित्यथैः। रुतदपि वचनं ग्रामसमौपस्ितानादतधान्धादि
विषयमिति पराशरभाष्यम् ।
उल्लष्ितशस्तं प्रत्याह नारदः,
गोभिस्तु भितं धान्यं यो नरः प्रतियाचते ।
सामन्तानुमतं देयं धान्यं यच तु भशितम्ः ॥
शस्यमित्युक्तधौन्यमित्ययमस्य प्रत्युवादः ।
तथा,
र्गवत्तं स्वामिना देथं धान्यं वे कषकाय च ।
रवं हि विनयः प्रोक्तो गवां शस्यावमदने ॥
गवत्तं गवा भक्ितम्। अच रल्नाकरादौ गवचमिति^ ~~~
तस्य दानमित्यथैः।
विष्णुः
सव्व स्वामिने विनष्टशस्यमुख्यञ्च ।
र वापितमिति क्रचित् पाठः| `
[वि
| राजग्रहखहौतो वा वजाशनिहतोऽपि वा ।
अथ सपणवा दष्टो दृक्षादा पतितो भवेत् ॥
प्रनद्छाधिगताधिकारः । रष
१ क च्ेचत् |
पनद्ाधिमताध्िकारः। रष
रलाकर्ः ।
~
रः
१९ कदद्रात्। .
२८६ | दश्डविवेकः ।
मनु | | |
छचियादिप्षक्तभागविरोधात्। ५
निश्यधिगमो न राजधनं ब्ाह्मणस्याभिरूपस्य, अन्राह्मणए `
आख्याता चेत् षष्ठमंशं लभत इत्येके । ८
-------+----
९. क अभियुक्तभाग।
म
२८८ दर्डविवेकः।
बराद्यणोऽच षट्कम्पेनिरतः।
ब्राह्मणश्चेदधिगच्छेत् षट्कम्यैसु वर्तमानो न राजा
र हरेत् । | इति वशिष्टवचनात् ।
शवच्च,-
विद्ांतु ब्राह्मणो दष्टा पूर्वोपनिहितं निधिम् ।
अशेषतोऽप्याददीत सव्वस्याधिपतिरहिं सः ॥
इति मनुवचने विद्रत्वमपि षट्कम्यनिरतव्राद्यणपरमेव ।
विदुष रव॒षट्कम्भेकरणस्योत्समिकत्वेन तचैव तत्पद-
योगात् दयोरेकमुलकत्वकल्यने लाघवात् ।
अस्तु वा वाक्यथोरेकवाक्यतया षटकम्माभिरतविद्-
द्राह्यणपरत्वं रख्वमप्येकमलकत्वोपपन्तैः । अतर्व विद्ान-
शओेषमादद्यादिति यान्नवल्यवाक्ये विदान् अरताध्ययन-
सम्यन्नः सदाचारः सवमेव श्लीयादिति मिताक्षरायां
व्याख्यातम् ।
इदन्तु याज्ञवल्क्यवाक्यं ममायमिति यौ ब्रथादि
त्याद्युक्त-राजदेयांश्निरासा्थे पिचादिनिहितविषयमिति
मेधातिथि-गोविन्द्राजौ ।
कुल्लकभट्रस्तु,
परण निदितं लबा राजन्यपहरेन्िधिम् ।
राजगामौ निधिः सव्वः सव्वेषां बाद्यणादते ॥ `
इति नारदवचनात्,-
राजा लब्धा निधिं दद्याह्िजभ्योऽ्खं दिजः पुनः। त
विद्ानशेषमादद्यात् स सव्वस्य प्रभुयेतः ॥
इति यान्नवल्क्यवचनाच्च परनिहितविषयमपौत्याह । `
1
२९० द श्डविवेकः ।
राजमार्गः कात्यायनेनोक्तः |
सव्वे जानपदा येन प्रयान्ति सचतुष्यद्ाः ।
अनिषिद्खा यथाकामं राजमागेः स उच्यते ॥ ¦
अभेध्यं पुरोषमिति मनुटौका। अनापदि आ्यभावे।
अस्यापवादमाह,
आपत्क्ते यथा खद्धो गस्मभिणौ बाल खव वा
परिभाषणमहन्ति तच्च शेष्यमिति स्थितिः ॥
परिभाषणं मा पुनः छत्यमिति वाग्दमम् ।
विष्णः ^ य
९. घ ङ पुस्तकदये अय्याक्रोश ।
साहसमा । २०९
सन्निधिगामी | स
९ क खङ्केदः।
साहसमा । २०३
उपश्थितत्वात् वचनान्तरसंवाद्ाच |
यथाहोशनाः, >
~.
५८
=< व,
स[
=
` पिदपुचाचाययाज्यत्विजामन्योन्यापतित्त्यागौ । नच `
` तान् जच्यात्।. =
`
`, तान् पतितानिति शेषः। त्यागो विदहितसत्वारा्ना-
चरणम् । अल्यागश्च निषिड्सम्भाषणाद्याचरणम् ।
४५ | दश्डविवेकः।
गुणवच्वस्य
व्यवहितनिमन््रणशप्रथोजकत्वेन चरि ताथेत्वात् ।
नच पुव्यैवाव्ये विंशतिद्िज इति वचनान्माङ्गल्यस्य च
काम्ैणो लाघवम् । उत्तर वाक्ये भरूतिषत्य इतिवचनात्तस्येव
गौरवं विवश्ितम्। अतः प्रभूतेऽपि कम्पणि सन्निहित-
` ओओच्रियानिमन््णमित्यधिकोऽपराध इति युक्तं दण्डाधिक्य- 2
प
2
र-
">
` ` मिति वाच्म्।
विंशतिदिजेऽपि कम्मेणि वाधकाभावे प्रातिवेश्चपरित्यागे
अपराधाधिप्क्यात् ।
^~
९ कं अपवाघ्ाधिक्यात् | `
साहसदण्डः । ०७
९ क पुस्तके कुमांसे्यधिकम् ।
२९० ` दण्डविवेकः।
अथ अविकरय्य-विक्रये नारद्,
अविक्रेयाणि-विकौणन् बाह्मणः प्रच्यतः पथः ।
मागे पुनरवस्थाष्यो राज्ञा दण्डन भूयसा ॥
यद्यपि,
वेश्यदृत्तावविकरेयं ब्राह्यणस्य पयो दधि ।
एतं मधु मधुच्छिष्टं लाक्षा-्षार-वसा-रसम् ॥
मांसौदनं तिलं सौमं सोम-पुष्प-फलोपलाः ।
स
य
ध५ मनुष्यविषशस्त्ाम्बपुपवौ -लवरारुधः ॥
शण-कौशेय चम्भास्थि-कुतपैकश्फा स्गाः ।
उदश्ित्केश पिण्याक पाकाद्ौषधयस्तथा ॥
क. रशवमाद्यसिधाय नारदेनैतदुक्तम् तथाप्यन्यानि
ब्राद्याणि तु्योगक्ेमत्वात् । 1
अत रव व्याख्यातं चण्डश्वरेणए-अविकरेयाणि-षम्मेशस््ेषु
५ (न+
|
प्रतिषिद्धविकयासौति। भूयसा उत्तमसादसेन अविक्रेयस्य
विक्रयौ चोत्तमसाहसं दण््य इति विष्णुसंवादात् ।
अथ संकमादिभेदे मनु,
^^
अथ तडागादिभेदादौ मनु+-- |
यस्तु पूव्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं चरेत् ।
आगमच्चाष्यपां भिन्ात् स दाप्यः पूव्वेसाहसम् ॥
तडागमेद्कं इन्यादष्सु शुद्धवधेन वा ।
तचापि प्रतिसंकुयात् दच्याचोत्तमसादसम् ॥ `
पूव्वनिविष्टस्य पूव्येस्ितस्य स्लानपानादुवपयुक्तष्येति
यावत्। हरेदिति सखसमौपतडागं नयेदित्यथे इति
नारायणः। आगमोऽच तडागपुरणौनाम्पां प्रवेणमागेः।
भिन्द्यादित्यच बन्यादिति मनुरौकायां कुल्लकभटेन परि
तम् । तडागभेदकं सेतुभेदादिना छत्ल-तडागजल-
नाशफमिति तेनैव व्याख्यातम् । र
नारायशेन तु तडागभेद्कं तडागबहिजंलनिःसारण-
भिति वदता क्त्वं न विवश्ितम् । अष्ु मज्जनेनेति `
०
शेषः
शुद्धवधेन जलादन्यच। गङ्गगतौरत्वादि'नेति रनाकरः।
नारायणेन शुद्धवधः भिरण्डेदः, यस््ङ्कलौकरच्छेदादिना- |
वधः स दुःखद्ेतुत्वाद्
शुद्ध इत्युक्तम् }
रतत् कामकृते । अकामङते तु विगुणेभरूतं तडा-
मादि सम्धकूविधाय उत्तमसाहसं दद्यादिति व्याखातम्।
तच्चापौत्यच तदापीति पटित्वा कुल्केन तूक्तं यदा |
यदि तडागं संखकण्थात्तदोत्तमसाहसो दण्ड इति ।
शरौरोऽङ्ग्ेदो वेत्यनुदृत्तो शङ्लिखितौ-- ` ५.५६
न~~
वापौतडागोदपानभेदे ।
------------------------------- ------~
¦
` क निःसर्णम्। ` र क नालौवन्धादिनेति।
३१९४ ` | दण्डविवेक |
अच मिताक्षरा, अपरवधार्थमन्नपाना
दिषुविषदानम्।
दादाथं प्रामादिषु अध्रिदानम्। गोभिरिति अदान्तै-
बलव प्रवादय मारयेदिः्यधै इति । |
यथोक्तायाः स्तिया यद् गर्म्भो न भवति तदा शिलं
वद्धा जले प्रवेशनम् । अन्यथा कणादिषेदपुव्वको वधः । ¦
विषाथिदाभिति वाकयभेदादपोनरुक्यम् } प्रथमे विषा-
चिदानख्य पतिव्यतिरिक्मरणोदेश्यकत्वं विवक्षितं विषा-
भिदां पुरुषघ्नौमिति निदंशत् दितौये पत्यादिमरणेदेश्य-
वत्वं विषानच्निदां पत्यादिप्रमापणौमिति निर्देणत् । उभ- `
यच दहेतु-हेतुमद्धावेनान्वयस्यापेक्चितत्वादिति प्रतिभाति
मिताक्षरायान्तु प्रथमे विषािदामित्यच विप्रदष्टा- ध
मिति पठितं व्याख्यातच्च विशेषतः प्रदृष्टामिति ।
याज्ञवल्क्यः,
स्ेच-वेश्म-ग्राम-वन-विकौत खलदाहकाः ।
राजपल्न्यभिगामौ च दग्धव्यास्तु कटाभिना ॥
सेच पक्रफलश्स्योपेतमिति मिताशूया । वनमटरवी
क्रौडावनं वा। विवीतं गवाद्यपयोगा्थे रशितयवसो य
1
सखप्रकतिभेदकानिति नारायणः ।
^+ ~~न ~^
१ घ भेदबुदि--
| सादसदण्डः । २९७
मह्स्यपुराणे,
राज्ञः कोषापहन्तंश् प्रतिङ्रलेष्वस्ितान् ।
अरौणसुपकत्तंख घातयेदिविषेर्दमैः ॥
मनुः,
इन्याद्धिटूसेविनस्तथा ।
दिट्सेविनो राजदेषिसेवकान् । | |
इद राजकोषदहारिणए इव राजविरोधिनोऽपि ब्राह्मणस्य
वधादिप्रत्याम्नायेन धनद्ण्डनासमापननस्य' प्रवासनेऽपि
निश्ितविरुदाचारस्य (?) वेजात्यादागत्य वा तथेव विर्द्धा- `
नस्वः यावज्जीवं यावत्छमापत्ति वा वन्धनमुचितं प्रथम-
परिच्छदो पान्तदशितव्यवस्थानुसारात् । |
अय प्रङुतिदूषणे मनुः,
करटश सनकत्तंख प्रसतोनाच्च दूषकान् ।
स्तो -वाल-बाद्यणघ्रांखचइन्याद्दिट्सेविनस्तथा ॥
प्रतौ नाममात्यानां दूषकान् विनादोषं दोषोद्धावका- `
निति रत्नाकरः । रवमेव मिखाः।
विष्णः, 1
` खाम्यमात्यदुमै-कोष-दण्ड-राष्रमिचाणि प्रकृतयः ।
तदूषकांश्च न्यात् ) त
अमात्यमच प्रधानशिष्ट ।
अथ अदासौदासौकरणे। श्लिखितौ,--
_` करणेशरोरो
।
ऽक्यद ो बतो अदासौ -दास- सम्दा न- =
| |
९ चव. पुस्तक तमासन्नख । र् विर्डाचार्श्यडइ्तिप्राठः।
३९८ | द॑ण्डविवेकः ।
कात्यायनः
श्रान्तान् कषधात्तान् तृषितानकाले वाहयेत्त यः|
खरगोमदहिषोष्रादौन् प्राप्नुयात् पुव्वसाहसम् ॥
अथात्मघाते अद्किराः,
आत्मानं घातयेद् यस्तु बज्ादिभिरूपक्रमैः ।
सतोऽमेध्येन लेप्तव्यो जौवेचेद्धिश्तो दमः ॥
अन्येघरष्येवंजातौयेघयं दण्ड इति प्रतिभाति न्धाय- `
साम्घात् ।
तानाह मनु,-
जलान्नयुदन्धनयष्टाः प्रत्ज्यानाश्कच्युताः ।
विपप्रतनप्रायःश्स्तषातच्युताख ये ॥
सर्व्वेतेप्रत्यवसिताः सब्धलोकबदहिष्कुताः ।
यत्त॒ प्रत्रज्यावसितानां प्रवासनाङ्न-दासौकरणादि |
पुव्वमुक्तं॑तत् कामचारविषयमिदन्वशक्तिविषयमिति न |
विरोधः
----~-~-+~~---~
तथाच विष्णः,
उत्कृष्टेन रकासनोपवेशौ अपकषष्टजः कथ्यां छताङ्ो
निव्वास्य इति । त
॥
दिगो वधार्दस्य पारक थो दण्डस्तद पेया बोडव्यः।
॥
यान्नवल्वयः,--
|
4
विप्रत्वेन च श्रद्रस्य जौवतोऽष्टश्तो दमः । `
|
|
विप्रत्वेन विप्रचिह्धोपवीतादिना।
अच मिताश्राकारः,
ष
|
॥
(
॥।
|
¢ यः श्रद्रो भोजनाधेमुपवौतादिन्राह्यणलिङ्ानि धार-
यति, तस्याष्टश्लो दर्डः! आदभोजनाथें पुनत्राह्यण-
वेश्धारिणस्तत्तशलाकया यन्नोपवौतवन्धनस्यानमालिखे-
दिति स्ृ्यन्तरोक्तं द्रष्टव्यम् । टत््यथन्तु ब्राह्मणएलिङ्ग-
धारिणो वध रव ॒“दिजातिलिङ्गिनः श्रद्रान् घातयेत्”
इति मनुस्मरणादित्याह ।
अथ हक्षादिच्छेद्नदण्डस्तच काल्यायनः+--
वनस्पतौनां सव्वेषामुपभोगो यथा यथा ।
तथा तथा दमः कार्य्यो हिंसायामिति धारणा ॥
रुतद्नुक्तविशेषपरम् ।इह चाखाम्केषु दृष्षादिषु टथा- ¦
चेष दण्डमाचम् । सखामिके तु तत्खामिने तत् प्रति- `
निधि--तन्मल्ययोरेकतरदानमपौति प्रागक्तमनुसन्धेयम्। `
` याज्ञवल्क्य |
प्ररोहिशविनां शखा-खन्ध-सव्व-विदारणे। `
उपजौव्यदरमाणाञ्च विंशतेदधिगुणो दमः ॥
२२४ ॑ द्ण्डविवेकः ।
वशिष्ठः ५
फलपुष्योपगान् पादपान हिंस्यात्, कषणा वोप-
इन्यात् गार्ईस्थाङ्ग च ।
कर्षणाथ' छषिहेतुहलायथैम् । सम्भवासम्भवनिमित्तक-
विकर्पपरो वाशब्दः । गार्द॑स्थाङ्ग हकम्भे दृष्टमदृष्टं वा
येन तह्ूहोपकरणं यज्नोपकरणच्च सिध्यति ।
॥ इति प्रकौ शेके सुक्तकवगेः ॥
1
अथ विवादपदानि ।
अच मनु
तेषामादणणादानं निःघछेपोऽखामिविक्रयः ।
सम्भूय च ससुत्धानं दत्तस्यानपकर्म च ॥
५ (4 +
वेतनस्यैव चादानं सम्विद्श्च व्यतिक्रमः ।
| क्रयविक्रयानुशयो विवादः खामिपालयोः ।
सौमाविवादथ्बैश्च पारुष्ये दण्डवाचिके । `
॥ सेयञ्च साहसज्चैव स्तौसंग्रहणमेव च ॥
स्तौपुंधर्म्मो विवादश्च द्यूतमाह्वय रुव च
पद्ान्यष्टादशेतानि व्यवहारस्िताविह॥
। अच पारष्यादौनां खातन््येणोपादानात् सन्निष्यति- |
। ` कमादेः प्रकौणेकानुप्रवेशदणदानाद्ावुत्सगेतोऽपराधा- `
मूले आद्वानमेव च इति पाठः ।
, ` इद् द्गडविवेकः।
== |
अभावयंस्ततः पश्चाद्यः स्याद्धिगुणं दमम् ।
अच परद ्र ता प चोमा त् खमि ति बदत ो
पच्च
न
वन्ध ो
त्वाभिमतधनाद्धिगुणदण्डः। अमात्तथा वदतः |
दण्ड इति व्यवस्था |
इरत दण्डविवेकः।
कात्यायनौयन्वनुवन्धातिश्यविषयमिति स्फुटमेव ।
अथ कतुदंण्डमाइ खहस्यतिः,-
येन कौतन्तु मुख्येन प्रागध्यक्षनिवेदितम् ।
न तच्र विद्यते दौषः सेनः स्याद्पधिक्रयात् ॥
अन्ते ब्रामात् निश्युपां श्चसतो जनात् ।
हौनमूर्यज्च यत्क्रीतं न्नेयो दुष्टः परिक्रयः ॥
असतो जनात् असायुत्वेन न्नातात्। रुतदाक्यं
“सामितोऽपि कयः कशिदिरुडधो भवतौत्यपकरम्य छत्यसागर-
स्मृतिसारयौवतारितं व्याख्यातच्च । अवाप्यस्रामिविक्रय-
वेद्यकवहारः ।
तथाच विष्णुः+ |
यद्यप्रकाशंहौ
नमल्यच्च कौरौयात्तदा केता विक्रेता च
चौरवच्छास्यौ |
रखतत्त न मनोरमं चौरादिभियापि गोपनस्य धनिक-
फीडादिनाऽप्यपपत्तेः ।
अत रख धम्मेकोषे यदि तु केता जानन् करणाति
तदा सोऽपि दण्ड्य इति कत्वा विष्णवचनमवतारितम् |
अतरुवाच कल्यतरावेष विशेषो न दशितः। कामधेनो
रल्नाकरादौ च वचनभेवैतन्न लिखितम् |
नारदः,
-अथास्यानुमतादासात कोरंस्तदौषभाग् भवेत् ।
याश्वस्वय्
0
१ क पुरक उत्कोचेन ।
ङ पुस्तके [तचोत्कोचनमधिक्ल्ये्यारभ्य प्रकरे विवादप्दवगेः] |
इत्यन्तश्विदधितांशः पतितः।
विवादपदानि । | २३१
प्रकौणेके विवाद्पद्
वगः ||
२२२ | #॥ दग्डविवेकः;
अथ वयवदहार् विषयदण्डः ।
तच आज्नासेधव्यतिकम इति प्रागुदिष्टमपि प्रकरण-
सङ्गत्या अचोदाहियते ।
तच टहस्यतिऽ--
यस्याभियोगं कुरूते तथ्येनाशङ्लयापि वा ।
तभमेवासेधयेद्राजा सुद्रया पुरुषेणवा॥
आसेधयेत् आनयेत्। समुद्रा स्वहस्ताङ्कितं द्रव्यम् ।
नारद्,
वक्तव्येऽथे न तिष्ठन्तमुत्को शन्तच्चः तदचः ।
आआसेधयेदिवादा्थों यावद्ा्वानद् शनम् ॥
५
न तिष्ठन्तं निशेयाथैमप्रवत्तमानं प्रत्युत वादिवचन-
मुत््रोशन्तम् तिरस्कुव्वाणं, वादौ तावन्निरग्याद् यावदसौ
रान्नाहयत इत्यथैः |
` स चासेधश्चतुविधः।
तमा, |
स्थानासेधः कालक्षतः प्रवासात् कम्पेणस्तथा ।
| चतुव्विधः स्यादा सेधस्तमासिङ्गो न लङ्कयेत् ॥
अध कल्यतरौ,-- |
अदत्वा यद्यस्मात् स्थानाचलसि, यदि भोश्यसे, यदि
ग्रामं गच्छसि, यद्यध्ययनं करोषि तदैतावान् तव दण्ड
इति सखानासेधादयो व्याख्याताः ।
` रवम पारिजाताद्यः।
९ उ एसे खद्स्ताङ्कितं पचं। र घ पुस्तके उत्कामन्तचच | |
व्यवद्ार्दिषयद्ण्डः । । २३२ `
रलाकरोऽप्येतदनुसा्छैव यदाह--
मम लभ्यमदत्वा स्थानाखया न चलितव्धं न भोक्तव्यम्
प्रवासोऽपि न कत्तव्यः कम्मान्तरं न कर्तव्यमिति ।
दौपिकाकारसतु यचापेश्ठितश्ाने वादौ न स्थाप्यते स
सानासेधः। यचोपवासं काण्येते स कालासेधः! यच
प्रोषितः कियते स प्रवासासेधः। यच आ्राद्धादिकम्मै न
काय्येते स कम्भासेध इत्याद ।
तथा,-
असेधकाल आसिद् आसेधं थोऽतिवर्तते |
स विनेयोऽन्यथा कुब्वन्नासेद्ा दण्डमर्हति ॥
आसेधयंसू्वनासेध्यं राक्र शस्य इति स्ितिः।
अन्यथा ताडनादिना ।
अचैव नारद-कात्यायनो,-- `
यस्विद्दियनिरोषेन व्यादारोच्छसनादिभिः।
आसेधयेदनासेध्येः स दण्डयो नत्वतिक्रमौ ॥ `
अनासेध्यैरासेधनानदहः
अथानासेध्यमाह नारदः+
नदौसन्तार-कान्तार-दुदेशेपक्षवादिषु ।
आसिच्स्तु परासेधमुकोशन्रापराभ्रयात्॥ `
निव्वेष्टकामो रोगार्तो यियक्षव्ंसने सितः
अभियुक्तस्तथाऽन्येन राजकार्य्योद्यतस्तथा ॥
गवां प्रचारे गोपालाः शस्यवन्धेः छतौवल | | | 1
अथ काल्यायनः+-- `
आह्हतसत्ववमन्येत यः शक्तो राजशसनम् ।
तस्य कुच्याक्ृपो दण्डं विधिदृष्टेन कम्सेणा ॥
होने कम्मणि पच्चाण्न््ध्येऽपि स्यात् शतावरः।
गुरुकार्येषु दण्डः स्यान्नित्यं पञ्चशतावरः ॥
शच च्यतत
परानौकते देशे दुरभि्ते व्याधिपौडिते ।
कुव्वंत पुनराह्नानं न तु दण्डं प्रकर्पयेत् ॥
0 4 |
न
अवध्यं यश्च वध्नाति यञ्च वध्यं प्रमुञ्चति ।
अप्रा्तव्यवहारञ्च स दाप्यो दण्डमुत्तमम् ॥ `
अवध्यं बवन्धनानरहम् । अप्राप्तव्यवहारं व्यवदहाराथे-
मानौतमनिव्वौदहितव्यवहारञ्च । तं न वध्रौयात्, न |
सुञ्चेत्! तथाविधं व्रन् मुच्न् वा उत्तमसाहसं दण्ड्य
इत्यथेः ।
देगणयासम्मवादधप्रतिनिषिद्धन सुवशैशतयरहणानन्तरं वध
इति प्रतिभाति ।
न
पारदारिक-चौरौ च मुज्तो दण्ड उत्तमः ।
यच शषुद्रदरव्यापदारौ चौरोऽनुलामागुत्तदास्यादिगामौ
च पारद्ारिकस्तज्यते तददिषयमिदम् ।
अथ वादिनः प्रतिनिधिविषये नारद्-काव्यायनौ,--
योनम्रातानच पिता न पुचो न नियोजितः,
पराथैवादौ दण्ड्यः स्याद्यवहारेषु विन्रुवन् ॥
कात्यायनः |
दासाः कम्मेकराः श्ष्ा नियुक्ता वान्धवास्तया।
वादिने न दण्ड्याः स्यर्यस्ततोऽन्यः स दण्डभाक् ॥ `
अप्रगल्य-जडोन्मत्त-खद्व-स््ौ-बालरोगिणम् ।
पू्व्वोत्तरं वदेदन्धुनियुक्तोऽन्योऽथवा नरः ॥
पुव्वं भाषा ।
कात्यायनः
ब्रह्महत्या-सुरापाने-स्तेये-गव्वङ्नागमे ।
मनुष्यमारणे स्तेये परदाराभिमषंणे ॥
अभच्यभक्षणे चैव कन्याहरणदूषणे ।
` पारुष्ये करंटकरणे न्टपद्रोहे तथेव च ॥ ५
प्रतिवादौ न दाप्यः स्यात् कर्ता तु विवदेत् खयम्। `
प्रतिवादी प्रतिनिधिः पुनः स्ेयपदं प्रतिषेधाति-
्याथेमिति रलनाकरः ।
सम्य-दण्डः । ३२७
अथ सम्य-दर्डः |
तचोत्कोचमादायान्यथा निणेयतस्तस्य दण्डः प्रकाश-
तस्कर प्रकरणे दशितः
उत्कोचग्रहणादिसम्भावनायामाह कात्यायनः,
अनिणौते तु यदथ सम्भाषेत र होऽर्थिना ।
प्राड्विवाकोऽपि दण््यः स्यात् सम्यक्चैव न संश्यः॥ `
अन्यच त्वा,
लेदादन्नञानतो वापि लाभाद्वा मोहतोऽपि वा ।
यच सभ्योऽन्यथावादौ दष््योऽसभ्यः स्मृतो हि सः॥
दश्डमाह नारदः+ |
रागाह्लोभाद्वयाद्ापि समत्यपेतादिकारिणः।
सभ्याः एथक् प्रथक् दण्ड्या विवाद्ाद्दिगणं धनम् ॥
आदिपदादाचारापेतादियरहणम्। अच विवादात्
विवाद्पराजयनिभित्तादण्डात् दिगुणमित्यर्थो न तु |
|
विवादास्यदौग्रूतादिति स््रौसङ्गदणादिपु दर्डाभाव-
: प्रसङ्गादिति मिताक्षराकारः ।
~~-----+------- ~~: 6
उहस्यति
अन्यायवादिनः सभ्या निर्व्वास्याः सव्व रव ते ।
शतद्दादिनीऽतिपौडाकरमदहापातकादि विवादविषयं
उत्तिच्छेदादिविषयं वा शेलाधणिनि प्रयोगात्तच्छील्य-
प्रतौतेरभ्यासविषयं वेति न विरोधः। ` |
इह यच सुवणादिषु धिपतेषु प्रत्यर्थ सव्वमपह्ते ।
अथौ च तदेकटेशं विभावयति तच यदेकदेशेऽथिनः
सत्यवादित्वात् प्रदेश्णन्तरेऽपि मूलमिदं सत्यमिद्मसत्य-
मित्यादिना तक्रेण निणैयः, तदा ष्वस्तुतस्तुल्याथैस्यान्यथा-
त्वेऽपि व्यवहारदशिनां न दौषः व
, तथाहि न्यायाधिगमे तरकोऽप्युपायस्तेनाभ्यद्य यथाख्यानं
गमयेदित्यक्रा-- `
गोतभेनोक्तम्,--
तस्माद्राजाचाय्यावनिन्द्ाविति।
अथ सन्दिग्धानाच्च भाषणमिति यदुदिष्टम् ।
तच नारद्, ।
काय्यस्य निरयं सम्यक् कत्वा सत्यन्ततो वदेत् ।
अन्यथा नैव वक्तव्यं वक्ता दिगुखदण्डभाक् ॥
वक्ता अन्यथावक्ता । अचापि दैगुण्थं विवादविषया-
पश्या, पराजयनिमित्तकद मापेशया वा ।
तथा+-- `
समभ्यदोषात्त् यनष्टं देयं सभ्येन तत्तथा । 4
कायन्तु काय्थिणामेवं निशितं न विचालयेत्॥
न
९. घ पुस्तके--तदा वस्तुतस्तस्यान्वयस्य ।
सभ्य-द गडः । ३३९.
तथा नारद, द |
नियुक्तो वाऽनियुक्तौ वा शस््रन्नो वक्तमहंति ।
इति रनाकरः ।
इड केचित् ,-- ।
अनिर्दिं्टाश्च ये कुरव्यवदार विनिगेयम् ।
राजदत्निप्रृत्तास्ते तेषां दण्डं प्रकल्पयेत् ॥
इति कात्थायनवचनमधाभ्िका शस्तरक्नविषयं येषां
पुनरनियुक्तानामपि नाधम्मैश्ा राज्ञापि मलकृत्यमेवेते
कुब्यन्तौति सामान्यतो येऽनुमन्धन्तेऽनुकम्प्या एत ॒इत्यु-
पश्यन्ते वा । तैरनियुक्तैरपि व्यवहारदश्ने प्रवर्तितव्य-
मेवेत्याहः।
तच च नियुक्ती बेत्यादिदृहस्पति-नारदयौवचनं ` ।
प्रमाणयन्ति स्म |
~+
=~
(
'अधादुष्टसाकनिद्षणदर्डः ।
तच दस्यति,
साक्िणोऽधिसमुदिष्टान् सत्खदोषेषु दूषयेत् ।
अदुष्टान् दूषयन् वादौ तत्समं दण्डमहति ॥
तत्समं विवाद्विषयसममिति रनाकरः। स्तौसंथहणादौ
तु पराजयनिमित्तकदण्डसममिति प्रागुक्तमनुसन्धेयम् ।
1
नातथ्येन प्रमाणेन दोषेखेव तु दूषयेत् ।
मिथ्याभियोगे दण्ड्यः स्यात् साध्याथौदापि हैयते॥ `
दोषेण तथ्येनापि सिद्चेन नतु साध्येन ।
तथाहि खहस्पति-कात्थायनौ,--
सभासदां प्रसिद्धं यत् लोकसिद्धमथापि वा|
साशिणां दूषणं राद्यं न साध्यं दोषवज्जनात् ॥
प्रसिद्धमेव गाद्यं दोषवञ्जनादित्यन्वयः, न तु साध्यं
राद्यं दषसम्भवादिति भावः|
तदोषमादतुस्तावेव,-- | |
अन्येसतु साक्षिभिः साध्ये दूषणे पूव्वसाश्िणाम् ।
अनवस्था भवेद्ोषस्तेषामष्यन्धसम्भवात् ॥ क (1
रुवच्च यचानवस्यादयो नापतन्ति तच साध्योऽपिदोषो |
आद्य इत्येव गम्यते । रतच्च छतश्पयस्या शुचित्वलिङ्ग- `
९. कं पुस्तके एष दण्डविधिः परतितः।
३४२ दण्डविवेकः
अध कुटसाचिनिहेशदण्डः, ।
1
` येन काथ्येस्य लोमेन निर्दिष्टाः क्रूटसाकिणः ।
खहौत्वा तस्य सव्वस्वं कुग्यौननिविंषयन्ततः ॥
निविषयं विवाद्विषयश्रन्यमिति रत्नाकरः रुतचा-
भ्थास्विषयं द्रष्टव्यम्। अनभ्यासे तु- रक्षत् साक्िणस्तथा `
` विवादाद्धिगुणं दण्डनोया इति याज्ञवस्वयवचनमोवोप-
तिष्ठते। यः क्रटान् साक्िणः करोति स क्रूटसदित्यथैः । `
तचाइ यान्चवसकछ»--
प्रथक् एथक् दण्डनौयाः करटूत्-साक्षिणस्तथा ।
विवादाद्विगुणं दण्डं" विवास्यो ब्राह्मणस्तथा ॥
विवादात् विवाद्विषयादिल्थैः, विवाद्पराजय-
निमित्तादण्डादिति मिताक्षराकारः) ए
दश्डश्चायग्टणादि-विवाद्विषयः। तच संखयानियमात्।
अन्यच तु,
होने कम्मणि पञ्चाशन्मध्यमे तु शतावरः ।
गुरुकाय्येषु दण्डः स्यान्नित्यं पञ्चशतावरः ॥
इति वचनोक्तो दण्ड इति कत्यसागरः। विवास्यो `
ब्राह्मण इति ब्राह्मणस्य विवासनमाचं न तुदण्डः। अन्ये-
षान्तु समुच्चयः! अन्यथा न्यायागतो ब्राह्मणे दणश्डाप- `
कर्षो न स्यात् । | |
रुतच्च पूव्वचापि द्रष्टव्यं तथाच लोभात् सहखमित्या-
. दिकमभिधाय--
गोविन्दराजस्तु,
ब्राह्मणं पुव्वदण्डेन दण्डयित्वा न्नं कुरग्यादित्यधैमाह ।
मेधातिथि्तु
ब्राह्मणस्य विवासनं वासोऽपदरणं गहभङ्गो वा इत्याह ।
अच भिताश्रराकार,
प्रवासयेत् मारयेत् प्रवासश्ब्दस्याथेशस्त्रे मारणे
प्रयोगात् । तचरापि प्रवासनमोष्ठकेदनं जिद्वाभेदनं प्राण-
वियोजनच्च कौटसाश्यविषयातुरोधेन द्रश्व्यं अभ्यास-
विषयञ्चेतदचनमित्याह ।
प्रवासयेदित्यस्य दण्डं विनैव सखदेशन्निःसारेदित्यथे
इति रलाकर् ।
मिताकूरायान्तु--
ब्राह्मणं दण्डयित्वा विवासयेत् खदेशणन्निष्काश्येत्
यद्या वाससो विगतो विवासस्तं करोति इति शिबि
शाविष्टवत् प्रातिपदिकष्येति रिल्लोपे विवासयेदितिरूपं
तेन नं कुय्यदित्यथेः ।
अथवा वसन्त्यस्सिनिति वासो णं तेन मद्यं णहं
। कु्थादित्यथे इत्यभिधाय !? रखवच्च ब्राह्मणस्यापि लोभादि- ` |
कारणविरेषपरिन्नने सदहखादिरथदण्ड एव । अभ्यासे _
त्वथेदर्डो विवासनच्च। `
भङ्गोतापि जाति द्रव्यातुवन्धाद्यपेश्या नभ्रोकरणं ख
देशनिष्काश `
्नमिति पष्भेदव्यवस्था । .
यद्वा+--अल्पविषये चतुणामथद्ण्ड रव, महाविष्ये |
तु निवासनमेवेति व्यवस्था दशिता ।
^+ दण्डविवेक ।
१९ क अवान्तर |
` ४८ | दण्डवितेकः।
रकं राक्ता
जानतः साच्तिणः कौटिल्यादनिगदतो दण्डः। २४९
दण्डस्तु कात्यायनेनोक्,--
साक्ष साश्यं न चेद्रूयात् समद्ण्डं वदेदणम् ।
अलोऽन्येषु विवादेषु चिश्तं दण्डमर्हति ॥
समद्ण्डग्टणमिति बालविषयेेवेतावानेव दण्डः स्ौ-
संग्रहणदिविषये तु पणशतच्यमित्यथैः ।
यत्त,
पारयन्तोऽपि ये साध्यं तुष्णौंभूता उदासते ।
ते क्रुटसाश्िणां पापैस्तुल्या दण्डेन चैव हि ॥
दूति विष्णुवचनं तच दण्डेन कूटसाक्नौव्यक्तन लाभात् `
सहखमित्यादिना विवादपराजयदश्डददिगणेन वा त्वभ्यासे
त्वथदण्डविवासनाभ्यामिति मिताक्षराकारः ।
विष्णक्त-सव्वस्वापदर शेनेति रलाकरः ।
[न "+^ ~ ~~~ ~^.
अघ 'निणंयोत्तरकंत्यम् ।
तच दिव्येन्नेये जयपराजयावधारशे कात्यायनः
शताङ्खं दापयेच्छद्वमशुद्धो दश्डभाग्भवेत् ।
तं दण्डमाह स रएव,--
विषे तोये हइताओे च तुला-कोषे च तण्डुले ।
तत्तमाषकशृत्ये च कमादण्डं प्रकल्पयेत् ॥
ससं षट्शतं दे च तथा पञ्चशतानि च ।
चतुख्िदयमेकञ्च हौनं हीनेषु कल्पयेत् ॥ `
निहवे भावितो द्च्यादित्यायुक्तद्ण्डनायं दिव्य-
निवन्धनो दण्डः समुचोयते, इति मिताक्षराकारः ।
निगैयोत्तरछयम् । २५१ [1
|
1
अथ पुनन्धायविषये याज्ञवल्क्य |
दुदष्टांतु पुनद्टा व्यवदहारान्ुपेण तु ।
सभ्याः सजयिनो दण्ड्या विवादाद्धिगुणं दमम् ॥
` ९ कच तकाये पाठःमूलत च-सम्यक्दृध तु दुट्ानिति पाठः ।
२५२ | दण्डविवेकः।
पराजयावगमित-मिथ्यापडहवादिनिमित्तं॒तत्छमादि
दण्डं पणोङतञ्वाथे विवादपदमित्यचितच्वेति चयं दाष्यः। `
धनिकस्तु ङणवल्जं दयमित्यथैः।
अत एव भवदटेवेन पुनन्यायं विना सामान्यमाभि
त्योक्तम् । व्यवदहार्राधिप्रत्यधिंदाच्यात् कदाचित् सपणो-
ऽपि भवति यथा यदि मे भङ्गो भवति सदं तदामे
देयमिति | |
अत एव॒ तद्यदि कछतपणवन्धो रीयते तदा रान्ना `
स्वयं छतं पणं दाप्यः । सथच्च दण्ड्यः । तद्ाहेत्यु पकम्य
सामान्यविषयं नारदवचनमवतारितम् ।
विवादे सोत्तर
पदे इयोयस्तच हीयते ।
सपणं सखकूतं दाप्यो विनेयश्चापराजितः ॥ इति ।
भूअचर सपणच्चेति विशेषोपादानात् यचैक रव परणं |
करोति यच वेकः शतमन्यः पञ्चाशतं प्रतिजानौते तच |
येन यत् पणौकृतं | स रव तावदेव दाप्यौ नत्वपरो ` |
नाप्यधिकमिति मिताक्षराकारः ।
` इड केचित्, |
तौरितच्चानुशि्टच्च यो मन्येत विधम्बैतः
दिगुणं दण्डमास्थाय तथैतत् काय्यमु्वरेत् ॥
` इति नारद्वचनद्रशनात् यच वादिना द्विगुणो दण्डः `
। प्रतिज्ञायते तत्रैव तद्दानं सएव च पणः, रखवच् सपण- `
अत्यादिकमपि पुनन्धायविषयमेव तौरितमित्यादिनैक- `
तन्न, : ८
मूलत्वादिति।
व १५ का पुक्तके [ | चिदितांश्रः पतितः। 1 |
46:
२५४ ५९ द्श्डविवेकः ।
न शव्यमन्योन्यविरुद्धम्सिशो
गरीश्च वक्तमपि ये प्रकौणेकाः।
उदाहतास्तत्तदुपाधिकल्पना-
त्याप्यभो ्टाथेशटित्यवाप्तये ॥
दति महामदोपा्याय वद्ध॑मानकतो दण्डविवेके
प्रवौंकदण्डपरिच्छेदः सप्रमः।
२५६ | ष दण्डविवेकः।
` श्रौगुरवे नसः ।
अथ दण्डविवेकोकतर्थिनाकायका रादि |
खचिपचाणि ।
टः पं ` टः पं टः पं ` ष्टः पं
व्मङ्धिरा १९ ९, ३१९ ४। |कात्यायनः सद् २९१, ८७ १९; .
ऋअपस्तन्बः द८ १४, द ९४, ८९ ९५, ७९ १८,
सश." 9. 9. |: ०.९. १५७ दद्,
७३ १९; ८६ रर, १५.०.९९ र्भ द,
९५२ २, ९५२ . इ, ९६8 रम्, ९९७ - "द,
९५९६ ९७, ९७९. ९द्, ९९७ १५, ९९९ ९,
९७द् € 9 कि २०४ . १. २१४ ९०,
२६९... ९, ४२ १द् २९५ ९४, रदर्० =,
२६० २०, २७५ <, २९. ` १, २२९ ९४,
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कात्यायनः ई ८, १३... | रद श र
शद्. १. 9. द| १9 य् ब्
क 5 २४९ २, २५९ १७, . .
०. १; । १९ ७, । ५२ १.२. २५२ ५, १,९६७ प
टः पं टः परं | टः पं छः पं.
का्यायनः दे् इ, २२५ ९, |नारदः २४८ २०, २४९ ८,
ददद् ९० ३० =, २५द् ८ २५४ ९०,
ददे९ ९२; ३४९ € २५८ €, २६० 8,
३४२ ४, ३४२ € । २६९ १९, २६९ १५,
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१ ४3 ९५१५. ९8, २२४ २२४ १५
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२ ध; . १९१, २६७ २७ |
9 1 1 १५
श द | दर १2 श
व १ ष द स १
३६२ दण्डविवेकः।
|
टः परं टः पं ४
| या्वसत्काः ३२२ . ६, ३२७ ९७, |वयासः ९४ ९५; ५०. .९९०.
द्र शर्, इर ५,| ५३ ९० ७4 १९५,
२३8 १६, ` ३३५ €, | ९०४ = १०४ १९,
| ३३६ ९।. -१९९६. . € ९२९ शद्,
विष्णः र्द १; दद १४, 1
“ खल १, ९्द १७, 8 ९ श्देर् ९;
९१५ २, १७.८५९. ९३२ १३, १४ ४,
९०६ ९, १०७ १, क
९०८ ९४, १९३० ९, 0
९द्र् =, १९१ ९०, ३२५ ६। |
१९ है प, ९५३ ४, | प्ङ्धुः ५४8 ७, ५५ <|
१९४ र १९५, २, | श्रद्ुलिखितः रर २ ४द ९२,
२०८ १.६, १९. ९२, धट शद्, ५२.१५,
२९द : 9 २२९ <) ५७ ९९, ६० १०;
२९९ . १.४ २२द्. ९५, दे. इ, € र्, .
२९७ २९, २९९ ९२; <० :. द श्र रर,
३०९ ९१, ३०२ ॐ, € 8, ७ €,
द०द् २०, ३०8 २९१; ९< ९४, ९२७ १४,
2 ९३२० १५, ९द२ ५,
. ०. ९९ ९४१५. द ९९५. द्,
९ ३९७ 8४, १९५ २९१, १४७ ॐ,
रर् ९; ९६... द ९५.०.११... २.५९ -९७,
1 १५१... १.
` वशिष्ठः € ६४, _ ७९ २० स ९९१
¦ ९५ 8, १,१९. ९४. ३९२. १० ३९्द् रर
१७० शके, १७४ ९५, २९५ ९५, ३९७ १८
२९.९६ ९४ .. -५५ |.“ ` रद् १.७; 8.६1
र्दद १९ ` २७५ १९; | हारीतः दर् १४, १७द् ऽर्, `
२७५. ₹२,७; २७६ २; २०२ <, र्द श,
रद द: र | ` २९५ ९९८ ३२९ २)
4 4
द्र्डविवेकष्तसंगहकारनामानि
तद्तटौकाकारनामानि च ।
णः. `धं छ ५ टः पं टः प
कुल्लकभद्रः ५ २२, ९९ ११, |
१४५ ९, ९४९ २,
(= ४५ ९९, 28४ रदे, २४५ १ ।
९ ५५ ५, |ग्रहे्रमिशखः ३२९ ९४,
द् ४. ध ७)
३४२ १५, ३४६ २९,
< € ११.५. ९६; २४७ ९८ ।
गा १ १.१ ५.९९ ( 1 | ध
| गोविन्द्साजः € = १० १९. ६.
। ^. र, ९२३ ९८, | १८७ १९-१४, | रभ्य ¢ द्, ध |(६
३६४ ट्श्डविवेकः ।
एः पं टः पं टः प्रं टः पं
नारायणः २०४8 १७, २०७ २९, |लच्छ्मौघरः २९ ९४, ३२६ १६।
२२० रद् २२४ ८९७ |बादरायणः १.९९
२२५ २8, रद्द ९२ |विञानेरः १९द् २, रप८्द रद;
र< २-९२ न्दर ९.8; २८७ १९. ।
व 0
२४२ ५, २५६ ५, । |
२७ ९० |.
र ६६ द, २९० „~ ग्बूलपाणिः २४० १०।
पुराणनामानि
अन्यान्यगन्धनामानि च ।
छः. पं टः पं षः "पर ठः 12
देकौपराणम् २७९ €, ३९४ १० । |अभिधान ग्रासम् ३० १८
भविच्यपुराशम् ५२५ ९ । |कपिलपञ्चराचम् २९४ १४ ।
मल्रएुराणम् 8० २०, ४९ २९, |कम्भविपाकसमुच्यः ९४२् १७।
२,९१.२ , १.८ ९२४ र. |कामन्दकौयः ९७।
१४५. = ९ बालभूषणम् ९३५ ९२ ।
९८द द, 2 |
९९
३१७
१०-९४
१।
२३९ १२, |घन्भकोमः इद्र १
व्यवद्धारतरङ्कः
त ९६।
३४६ ११.
महाभारतम् १९३ १९ । |यवद्हारदौपिका २९ , 8 | ।4 ५
प ठः
अत्राद्यणः संग्रहणे 8 अस्पु्ययुत्तैदासानां =, २९
अनत्राद्मणो ब्राद्यणस्य ( अंश्रांण्रं तख्वरार् यस्तु 8; १४
=
~
धं
उत्तमां सेवमानस्तु 3 कणेनासाकरच्छेदे २५९६,
उदरा हस्तपादेषु ४५ कशगोष्ट्राणपादादि २५६, .
उदूरणात्त इन्तस्य कषेः पलपादः स्थात् ५द
उद्िषाः केचिदृधिभिः कलापं देयं २२०१
उद्यतासिं कराभिच्च कल्ितो यस्य यो दण्डः ३०,
उद्यतासिः पियाधरषौँ काकिन्धादिस्तुयो दण्डः ५३,
उद्यतेऽ्सशिलाकाष्टैः काकिन्धादिश्लधैदगडः १५8)
उपधधाभिस्तु चः कश्चित् कारैः च्ततानुरूपसतु २५५ ,
उपस्थमुदरं जिल्ला | क्यस्य निणेयं सम्यकू ३३८,
उभयोः प्रतिभूर्न
ह्यः कारव्यातिपातिव्यसनि ३२४,
उल्कादि-दायकाञव कार्षापणं भवेदर्डो ५९,
| #& कार्षाप्रणाद्याये प्रोक्ताः ५8,
त्विक्-एरोह्ितामात्य कार्षापणौ दच्िरस्यां २८,
५.७) ९९
कार्षापणः काथिकः स्यात् ररः
|
कार्षापणस्तु विक्लेयं र,
सकं नतां बद्भनाञ्च २४९, ष्र् कार्षापणस्तिकानज्ञेया २८
खक ब्धनां निघ्नतां २४९ १९४ काषभाण्डटणादीैनाम् १४९६,
एकजातिदिजातिन्तु ८ १५ काषायेग तु भूमिष्टो २७०;
रकपाचेऽथ पयां वा २९५ १५. किञ्चालसमनसो ये ््,
रखकशरय्थासनं कौड़ा १५६, किञ्चिदेव तु दाप्यः खात् ९५८;
रखकस्य बद्टवो यच ७8, ४ कितवान् कुश्चौलवान्
रण्कादहद्यहयपेत्ं शदः केशान् १,०६.५
रतेः समापरराधानां २५६, २० ॑ ११५,
खष वादिकछलतः प्रोक्तः २५९) १७
कुडवाद्या वेदगुणाः र्द, .
ष दण्डः समाख्यातः ०९. १५ कुलानि नातौः खख २६३,
खां मूद्धां दपरोऽद्गानां ९२; शद् |कुलादिभ्योऽधिकाः सभ्याः १६, |
क |कुलौनाय्येविशिेु = ६8,
कन्याया दूमनद्चैव १८१, करटशासनक द.
कन्यायामसकामायां ` ११ध १्द|
कन्यां मजन्तोमुत्छ्ं ` ९८९, ९ क्रुटखगेयवह्ारौ `
1
१०द्, |
| ०८,
कन्येव कन्धा या कुर्यात् श्,
करपाददन्तभङ्गे ८ ४७; ।
० द्ण्डविवेकः ।
घ्रः. धं. एः. घं
कूहटसाच्िणां सन्वखाप- | युं बा बालब्डधंवा ९, १७
हारः काय्य ९४७ । ५ |गुरोः च्तन्नात् पश्रो राता २८२, १७
कूटाच्तदे विनः च्तत्राः ९०५८) ई गृदमानन्तु दौःश्नौल्यात् €, १
वूरटाच्तदे विनां करच्छेदः ९०८, १५ गदमागव्य या नारी २९६४, ९;
कूटाच्त्देविनः पापान् ९०९, ग््यीतः शङ्गा यस्तु ८४, १४
कूपं पच्चकशादृष्धं २२४, ९९ |गहु सुधितं राजा स्, २०
केशेषु ग्रहतो स्तौ ५.९, ९९. | गोक्रुम रो देवपम्मून् ९८, ९९६
कोष्टागारायुघागारः ९२५, श् |गो भिस्त भच्ितं धान्यं २७६, ९९
९४२, ५ | गोभिष्विनाशितं धान्यं २८७९, ५. ,.
कयविक्राय धम्म & ८, २२ | गोपु ब्राद्यणसंस्थासु ९२८ ५
क्रोतारचेव भाण्डानां श द५
२१ | ९२१; ४
, च्ततिभङ्ोऽवमर्दयो वा २३०, ९ |. १.२९. र्
च्तचविटुद्रयोनिस्तु ६७, २९ | गोदर्ता नासिकां छित्वा १३१,
`. चचाच्नातस्तयोखान्तु २९१.७, १२ | गौः प्रता दश्राद्न्तु २८१,
च्तचियायामगुप्तायां ३ ॐ, ९९ | ग्रामान्तेषु दतं जयं ८७, ९०.
च्तन्तवयः प्रञणा निव्यं द्, २१५ ग्रामेतु या गोप्रचार् २७७, ९४ `
च्िन्वानमपि गोविपरं २४०; २९ च
च्िपन् खादिकं दद्यात् रष, १६ |चक्रिणो दष्रमौस्थसय ३०४, ६८
च्तु्रकाणां परश्रूनाञच्च रर, १६ | चणकत्रौ हिगोशधुम ४१;
च्तुत्रमध्य मदादव्य १९४२, २२ | चतुर्णामपि वर्णनां २७०, ४
तेचवेष्सग्रामवन द९६' २। चतुभिः सेरिकाभिश्च १३६,
च्तेचारामविवौतेषु ७ |चतुवेणेस्य या तिः ३१,
५५. ९ १
५ ९ह|
च्तधिकस्याव्यये दण्डः
१५५
१२९ ९९ | चतुष्मदछ्लतो दोषः ररर, २
च्तेचोपकरणं सेतु १५४९१ ९९ |चत्वारिश्ा वरः पुत्वैः रयः. १५
ग॒ ` चत्वारिंशत् पणो दण्डः १७९. श्र
` , सण द्रव्यं हरेद्यस्तु २६८, ` १५ |चम्भचाभ्मिकभाण्डेषु २९५, ९४
. गर्हभाजनाविकाणाच्च ` र्रप, ९८ |चेद्टाभोजनवाग्रोधे २५७, |
गवत्तं खामिना देयं २७, ९५ |चौरापद्धतं घनमवाप्य =सस,
यतायां संग्रहे दण्डः ` भ ९२ |चौरै्दतं पयनेन ` च्द्, . ४`५.
०
१९०. 10 त ~
ज द्
जलाग्न्य्न्धनसरदा ९५ टः घ
९०
जातिबरवयं परिमाशं
दण्डस्यादो परिकरः २, ९१
दे
दणडाजिनादिना युक्तम् १११५, ५
जार चौरेत्यभिवदन् ५ र॥ |
.* *९१.७,
ज्ञात्वा तु घातकं सम्धकू ९६
दण्डो हि सुमहत्तेजो १,
्तात्वाऽपराघं देश्ञ्च र दण्डयसुन्मोचयन् दण्डात् ३३५,
ज्योतिर्ञानं तयो तृपां १९२ दमोऽन्तिमः समायान्तु १६१,
त द्श्र स्थानानि दण्डस्य ४६,
तङ़ागोद्यानतौयपैनि २९८ दासाश्रयद्छत्ता च १२८,
तत्समुत्योह्िनो कस्य १,५९. ४ दासाः कम्मकराः शिष्याः इद्,
तथा धरिममेयानां १8२ १९. दुख्स्यैवतुयो दोषान् १९९,
तथा श्रूजननप्राया २७७) द सत॒ एना ` ५९,
तदपि विविधं पोतं १,९६०;
दुःखेषु श्योणितोत्यादे २२१,
तपखिनान्तु कार्य्याणि १६, ४१, दुःखोत्पादि हे न्रव्यं २९६,
` तर्किः श्थानिकं ल्वा द०७, 0
दूषणेतु करच्छेदः १८२्,
+ स्सिखेद
+<
तस्सि्वंद्ाप्यमानानां हि ~ देयं चौरं नव्यं =.
तस्य दण्डः कियापेत्ः ९.४) ४२ देश्रं कालच्च विज्ञाय ९९१३,
तं राजा प्रणयन् सम्यक् देणएजातिकुलादौनां १९६,
ति्येग्योनौच गोवन्नं १९.४, १८ देशादिकं च्तिषन् दण्डयः २०९,
तिलांश वि{किरेत्तच ०द् ९९ देहन्नरियविनाण्ैतु २२१,
चिषणो दादश्रयणो २२२ दयुतं समा्वयद्धेव १९०,
न
स चिपच्तादन्रवन् साच्छम् व ^€
0 बर्याणि हहिसेर् यो यस्य २९५.
तुलाधरिममेयानां ९.४२ ब्रोणेः षोडश्रभिः खारौ ९३५, `
तुलामानप्रतिमानेः ८९,
द दयोरापन्नयोस्तुल्यम् २२३, `
`. तुलामानं प्रतौमानम् ` <€, दयोः पहस्तोदण्डः ` २२३,
तुलाशासनमानानां ९९, १६ दिजान् विहाय यः पर्येत् १४,
णं वा यदिवा काष्ट १४२्५ ` ध दिजे भोन्येतु संप्राप्ते ३०७,
तेषामाद्यम्टणादनं इ२५, श दिजोऽगः च्तौणटकत्तिः ४०,
चेविद्य्टपदेवानां ` ० | विनं पटृब्याच्छेण ०८
` त्वग्मेदकः प्रतं दण्डयो ५, | दिनेचभेदिनो यान इष |
स
` ` त्वग्मदे प्रथमो दण्डो | रश दिनेचभदिनचैव
|
९ दर्ड़वितेैकः।
षः घं
दे छष्णले समते
भप [न्न्
न्धायाऽपेतं यदन्येन १९
ध्
धर्ममोपरेश कर्ता च २४ प
चर्म्मोपदेषः दर्पेण २२९. पक्वान्नानां छतान्नाना १५०;
धान्यं द श्यः कुम्भेभ्यः ९२६ परचचछछलको माषः २४,
घान्याप्द्धारौ दशगुणं १२९ `©छ.
3
०
९२६; श्
न पच्चनद्याः प्रदेशेषु २७, श्
१४
परिपूतेषु धान्येषु
परे निहितं लब्ध्वा
र २७ ८
र =€
९९
[९५
नानापौरसमू
दस्तु ९ प्रलद्वयं तत्प्रतिः ` १५ रश
2" प 4. ~ ष्ट ~
बङ्भिशक्तपर्व्वां या ९८८, २ |भिच्तका वन्दिनश्वव १५६, र्र्
बालजिवारणवालानाम् १३६० ९० | भिन्ने पणेतु पञ्चाग्रत् १०, २१
नाघधाऽपकषसाम्यानां ३८, १९ |भिषद्धिथ्या चरन् दाप्यः १०४. १९
बाल्द्धातुरुस्लौणां ५९, १९९ |भ्यं न ताडेदेनं २२९, श
बाड्धग्रौ वा-नेचसकथिः २९९, € |भेदने चेव यन्त्राणां २२४ १8
च . ध
। ष्युः
पर
भिच प्रा्यथैलोरर्न्वा ६२, ६ | यस्तु दोषवती कन्यां श्५्
मिथः सष्कातकरुणम् २६९६, ९९ |यस्तुपूल्वनिविष्टस्य ` २१द्,
भि्याभियोगिनो ये स्यः २५९. १९ |यस्तु सञ्चारकस्तच १५१,
सुख्यानाश्चैव सनानां १४५, 8 |चः साच्छे खावितोऽन्येन्यः इद्, `
मूल्यमादाय यौ विद्वान् १९१४, १९ | यः साहस कारयति ७५, |
मूल्याङमागो हौयते ११३, ९७ | यद्धतान्युषज्ुतानि ९४८,
म्टचम्भमणिसूचायः १०२, रर |यर्िद्धियनिरोधेन ददद्
ग्टताङ्गलम्मविक्रेतुः ` १००, ९३ |या तु कन्धा परवुर्यात् स्तौ ९८्द, `
ग्टद्धाण्डासनखर््वाश्ि १४०, ९२ |यानस्यैव हि जन्तोश्च २२8,
मोदात् प्रमादात् यावानवध्यस्य वधे ई,
संदर्षात् २०४, १९| युक्तरूपं व्रवन् सभ्यः १८,
मौण्ड्य प्राणान्तिके दण्डे १६३, १९१ |युक्तियुक्तश्च यो न्यात् २६७,
येन काय्येस्य लाभेन २४२,
य
येन केनचिदङ्गेन २५५ »
यतर नोक्तो दमः पर्नैः २९४,
क 8९ ९५ | येन त्रौतन्तु मूल्येन
र| ये चाक्ुलौना राज्यं
३२८,
२९५,
यच वञ्जेयते राजा ५५, २९ |ये त्वरखचरास्तेषां १,
यच विप्रो न विद्यान् स्थात् ९४६, ९० |येन दोषेण भ्ू्रस्य २७१
यच सभ्यजनः सव्वेः ९६, ४९ | चे नियुक्तास्तु कार्येषु १०६,
यच स्यात् परिद्धाराथे २९४, २२ |येनयेनपरं द्रोहं शद्.
यत््वसत्सङ्गितेसङ्गैः १९०, ९६ |योऽकामां दूषयेत् कन्यां १८द्
यचापवर्स॑ते युग्यं २५ = |योऽदन्तादायिनौ दस्तात ८8,
यदा काण्येवग्राद्राजा १४, > |योऽरुच्न् वलिमादत्ते ५, .
यंदि न प्रगचेन्नाजा ४, र| यो ग्रामदेश्रसङ्कानां २६७, .
यदिख्नव कुरुते ३२७, ८९ |यो मन्येताजितोऽसलीति ३५२, .
यस्य कार्यस्य सिद्धाधं ३३०, २० |यो सावन्निहृवीताथे १९,
यस्य दृश्येत सप्ताद्धा ३४७, ५ |योयोवर्णोऽवद्धौयते २६०, |
यस योौऽभिद्ितो दण्डः ५०, ५० |योज्लेभादधमो जाद्या ३०२
` यख्य कुरुते ९४, ।
द |लावान
।यस्य स्तेनः पुरे नास्ति ` दरे, । ||
(द
प्यः ध्मः पं
राजक्रौडासु ये सक्ताः २९५, वशो दोषं समासाद्य ९८६, २
साजग्रहृद्टद्दौतो वा २८०, वशेसङ्करदो षश्च ६२, १४
राजधर्म्मान् तधम्भांश्च २६३, वश्राएच्रासु चैवं स्यात् २१
२९९,
साजनि प्रहरेद् यस्तु रप्र८, वसतां दिगुणः प्रोक्तः व ९
सजभिशैतदण्डार्तु १९१, वसानस्त्लौन् पान् दाप्यः ९१) र्
शर7जप्वस्तितान् धर्म्मान् २७२, &~
¬
५
®> वाक् धिक् धनं वधश्चैव २०, र्
सराजयान्ासनारोढ रद्९, वाकूपारुष्यादिना नौचः २९६, ९५
राजागुरुयंमख्ेव ९९; वाग्दण्डं प्रथमं कुर्यात् ` ६३, १.४
२९९, । कि
च टः घं
शताङं दापयेच्छद्म् ३५०, २ |सश्धिच्छिदः पान्थमुषः १२९, 9
शपथा दिस्ण्याप्नौ ९२, २० |सन्धिच्छिदो इतं दाप्याः १२४, <
शस्यं च्देचगतं पराङ्णः १२२, १७ |सथ्िंचित्वातु ये चौय्धं १२७, १६
शसं दिजातिभिर्ग्राह्यं <€, 8 |सच्धिच्छेत्ताऽ्नेकविधं १२७, २
प्रारौरस्ववसेधादिः ५६, ९९ | सन्नानां दिगुणो दण्डः २८४, €
शाल्मले फलके च्छो १९२, ६ |सपणश्वेदिवादः स्यात् २५२; १६
सुचिना सत्यवन्धेन १२ २, |सपालः ए्रतदण्डाद्धः २८०, 8
| खुल्वा दब्यात् सेवमाने ९३, 9 |सभांवान प्रवे ९७, १४
। सपलत्वस्थानं परिद्रन् ९३, ७ |सभासदां प्रसिद्ध यत् ४९१, १९.
शुल््स्थानमनाक्रामन् <३, १८ |सभ्यदोषात्त यन्न ३३८, २२
न्तु घातयेद्राजा ९७४, २ |सभ्यानांये विधेयासुः १५, २
श्रून्रायां च्तचियाञ्जातं २९७, ११५ | समजातिगुणानाच्च २९०, &
ग्द्रो गुप्तसगुप्तवा ९७२, २ |समदिगुणसादखं २४द्, €
श्रोधनाङ्गान्विता सानौ २२१, १३ |समवे द्िजातौनां २०४, ९९
शान्तान् च्तुघार्तान् समित् एव्पकुश्पदने- ४३, 9
५ टथिनन् = २१०८, २२ |सथुत्खजेत् रानमागे २९७, १२
खवयित्वा तथाजन्येभ्यः २४७, २ |समूलश्रस्यनाणेतु २८५. ७
खतं देशश्च जातिच्च २०७, € | समूषस्थाः परडन्ताश्वेत् ५२, ११
तिस्मृतिविरुडच्च १८, समेग्येवं परस्तोषु १४२...
शयन्ते यानि तीर्थानि २४५० ८ समे विषमं यच ९०, १७
खोलियः ओओोवियं साधुं ३०५, १७ |सम्बत्स
राभि स्तस्य ९९१, १८
खपाकपग्ुचाण्डाल- २९७, द् |सम्भूय कुव्वेतां सव्वं €७, २९
` आमिच्च खादयेनाजा १७३, १८ |सम्भूयैकमतं छल्वा २९९, र.
श सम्यकूदण्डयनं राज्ञः ~
सव्न॑तो धम्मषडमागो ध; ६९.
1 | २९२. | 4 सव्वेखन्तु हरन् राजा = ६१, ७
। स ` | स्वका पवौणाश्च २६७, १५ `
सकामायान्तु कन्यायां १९८३, १० |सव्व नानपदायेन २९७, ५
सकामां दूषमागस्तु ९८९, १७ |सन्नषमेव वर्णानां रद्द, द
सचिहिमपि पापन्तु ३९, ९५ | सराजायुरुषो दण्डः ` ३; 4
स चेत्त् पथि संरुद्धः रर, २।स सम्यक्पालितो दद्यात् ९०७, १६ < ॥
सलयाऽसद्यान्यधातलोतैः २९० २ |सदसा कामधेद् यस्त॒ ९६५, १४
= द श्डविवेकः ।
प्र +
। षुः
व
सहसा क्रियते कम्म २९३, शर् स्थावरे विक्रयाघाने २8९.
सं षटृशतं बरेच॒ २७०, ७ स्लेह्ादच्लानता वापि
श कत्
२२७,
सदस ब्राह्यणो दण्डयः ९९७, ९९ स्यात् साहसं लन्वयवत् ५०.
~ सोताद्रवयाप्रहरेतु १४६, | २
१. ५ ।
सुवणेरनतादौनां ९४४, १९, इतः सन्दे यच
सुवं ग्रातमेकन्तु ६8, #1 न्ता मन्ल्ोपदेष्टा च
, छवगैसप्रतितमो २७, षश दरेट्िन्दयाद्दहेदापि
सूचकार्पास(िन्वानां १४८, र् हस्तप्राघायलगुडः
` सेतुभेदकरवा ३९, १. दस्ताङ्गिलिङ्गनयनं छ
=
सोत्से घ-वप्प्राकारं २७७) ४. स्त्य रथ दन्तुख १७
सौवरेर्माषकैः संख्या २९, ९ दिरण्यरलनकोौ रयं ९९
स्तेनसाहसिकोदत्त २३२१, द हौने कभ्भणि पञ्चाप्रत्
्तियं स्पुरोददे्ये यः १५६, ९ हौ नमध्यो त्तमानाञ्
` स्त्रयरत्तिकामो वा ७०, ॐ दौनभध्योत्तमत्ेन `
९९
` स्तौ निमेधे शतं दण्ड्या ९१७, ~ च्भेनादधो होनमूल्यं र्द
| ९०
-. स््रौषसौ वच्वन्तौह ९१९, इर कासन्चैव
‡|ध स्तौनालेन्मत्तद्धानां ९०, 8 इतं पनं यो ब्रं
स्त्रोहर्तालोदशयने १२५, | र्र्| हेमसुक्ताप्रवालाद्यं श
` स्थानासेधः कालक्षतः ददर, ।
~
द्ण्डविवेकस्य शुद्धिपचम् ।
शः पं अभ्रुदध ष्णं
१५. त श्ट ५ नृणां ध च्छं
१७ „. १९ .. तत् .. चत्
९२ । १० ५ विसम्बाद् ५५ विसंवादः
२० त र सम्नाद्ाच् छ संवाद्ाच
२० व; २१ ध विसम्नाद्ात् = विसंवादात्
२४ ६. क सामरथ ,. साम्ये
| ठं. `, २ ., द्वाविंशत् „+ दाचित्
(५ 4९... ३२ .. यस्यापकरणं ,. `यस्योपकरणं
| ५८ .. ९ .. किञ्चिदेव .. किष्िरेवतु
१६१ ध १ £ प्रकार्णपप्दारिदष्डः. . अभिगमदण्डः
१७४ द १२ क वा वाऽपि
१९० ... ८ .. वच््यामार .. वच्छयमाष्
२३९१ . .. २१ १ शास्याद्ाद्हरण .. शास्योद्षरण
न
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4 ० ४1212 015 ¦ (00 एद शि 000 2ए118-
` 0वफर्शात्त् म 4 एव्ण्करभु२ 200 वतकदशतत्ा 9 11018
00 चरण ४0 1100 गाक0{ कणर 06000 ४0 #6 1४९
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4.12.) :€५46€व् एर 8. भकना 8, 11... 1929 +:
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कछार 011 [ऋकाप्ाष्ष 220 = [२९७६) ` 06100 ४0
4... 1175-1250 ; 60ष६्व् छ पाऽ त०11688 `अ कताप्रहटाप
श वध्व 2 78001, शलाप्०४, 81 र, 8 `08088 3,
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