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साहस, सुक्क, विवादपद, 9४१ व्यवद्धारविषय |

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भ्ताङ्न भ्खवरोधन बन्धन विडम्बन
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1 ज्यायान्‌ गण्डकमिश्ः शङ्कर वाचस्पतौ. च मे गुरवः


निखिलनिबन्वसमासप्रयासमेनं समाऽनुजानन्त्‌ ॥
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3.472.454 : १
30४ 8 क1९४५, 1980. 4414 एए अणणत्त
भूमिका,
यदि चाप्य ग्र्चख ग्रन्थक सम्यकुपरिचयोऽखमाभिरङ्लौयभाषया
=. नि भ £ भ 9
भूञ्चैव निवद्य मुखप प्रदश्चित आस्ते तघाप्यङ्लभाषानभिक्ञानां विचच्तणाना-
मवगमाथं किचित्‌ खरूपमनयोः पद शयितुकामेन एथगियं गौर््वाणमावामयौ
संच्िप्ता भूमिका लिख्यते ।
अथायं ग्रो दण्डविवेक भार्तौयराजदण्डविषयकश्ारमौ मांसा-
पररिखापरिढटततयाऽनन्यदुरमेद्ः साथैकनामा निबन्धः। मैधिलमदहामद्यो-
पध्यायो वद्धमनोपःष्यायोऽख सङ्गलयिता। ग्रस्थकततैः खदत्तपरि चयेनेवं ज्ञायते
यथाऽयं पर्डितप्रकाण्डस्य भवेश्स्याङ्गननिर्वाचस्मतिशङ्गरयोण्छाचो वषिल्व- `
पञ्चकवं श सम्भृतो मैथिलपतेभैरवस्य धम्भाधिकरगिकतायामधिद्िवश्वासीत्‌ ।
खवसुपनीयस्य राकः सनिन॑न्धषदेप्रादेतैतत्‌ ग्रन्थनिम्भाणप्रयास द्त्यपि
गरन्थकतैवचसेव ज्ञायते । निच्खौयते चानयेवेवदूम्पदशितदिश्या नरुपते्भेरवस्य
चम्भाधिकर्गां चालितमभूत्‌ ।
सैश्वश्च राजा षोडग्रप्रततमष्ष्न्दस्य मश्यभागमलच्चकारेति प्र्न- `
तक््वविदुपस्थापितैबडमिः प्रमारेरुपलभ्यते । ग्रन्थकार गुखचरणानां सू्तिनिबन्ध-
कन्तैगां वाचस्पतिमिश्वाणमपि स ख्व समयः। |
विरोषतश्च गौङखरान्यतमं केदाररायं भैरवस्य नरुपतेरत्यन्तविधेथता- `
सुल्िखता म्रन्चद्छताऽप्यात्मनः षोडशशततमद्द्टरान्दौ
यत्वं प्रकटितमेव । ध
ग्रखस्यास्य निर्म्मांणे यानि कतिपयानि संह्िताएुशराणरूपाणि मूल- ध
पर्तकानि ग्रन्थक्ल सम्बकू परिदृद्धानि, खमतपरिपोषकतया च चे निबन्ध- `
, ग्रम्या अनुद्टता चेषाञ्च मतानि सन्दूष्य परिहतानि, तेषु च केषाच्चिन्नामानि |
_ ्रज्थावसानेऽप्यात्मनेव समुपस्थापितानि दृश्यन्ते यथा--
कलत्पतरू-काम घेनु-दलायु धां धम्नकोषं `
५ खछतिसार-न्न्यसागर्‌-रन्नाकर-पारिजातांश्च ।
` टौकासिते दे संहिते मनु-यान्ञवल्कोक्ते
: यवद्धारे तिलक प्रदौोपिकाच्च प्रदौपञ्च ॥
टा हलो निबन्धःनबन्पानिवं देशय ।
(1
सष | । च्रूमका।
(1...


{|
0
. अथास्य पश्डितघ्धौरेयस्य विचारचारुतासमौच्तणेनान्तरतौव प्रसाद-
(द.
सुपेति ¦ विषयविररेषे पर्स्प्ररविरूढानसपि संह्िताकारवचसां सप्रतिख्ित-
. सौर्मासया तथा समादानं छतमनेन, विदुषा यदवलोक्य “किमयं मन्वादीनां
वचचौऽभिपरायं तपसा अवगतवानुत तिरेव ऋषिभिरमुव्य ग्रख्यरचनाध्यवसाय-
रूप्रतपोनिषतामभिकज्ाय खप्रे याधाश्येम्रपदिख्मितौव प्रज्ञावतां चघारस्णा.
बरवत
` सताकरप्ररोतुश्वग्डेश्वरस्य मतं बङ्घु स्थानेषु बड्मतवान्‌ । परिच्छेदे,
सप्तभिर्मपयितस्यास्य ग्रखस्य प्रथ्यालोचनयेतत्‌ सम्धक्‌ ज्ञायते यथा वत्त॑मान.
कालौने राजकौयदग्डविघधायकश्रास््े प्रायग्रो नाक्तौदृक्‌ कञ्विदपषराघो यः खलु .
ऋषधिभिर्नह्नाटित चसौत्‌ । `
पष्येः सद वत्तमानराजकौयदण्डविघधौनामेतदेव श्यलतः पाथेक्वम्‌, `
यत्‌ प्राच्याः किलाप्रराघविरषेषु केषुचित्‌ बअङ्छेदादिरूपं दण्डं
व्यवस्थापितवन्तः। अधुना तु तेष तेष्बपसाघेषु देदिकश्रमकर्णरू्पो दण्डो
.. निरूपित अस्ते यङ्ेदादिरूपा दण्डा न रौ यन्ते ।

अन्यच्च वघदग्डस्यापि भारतेन ारितां नानारूपतामुपेच्छ वन्तैमान- `


विधिषु वघदण्डस्यैकरूमतवमेव यज्निर्णौतं तत्‌ चाखुलया प्रतिभाति ।
चातुवग्े्रूयिष्े भारते खखवगधघम्ानुसारेण गाद्दस्थासुपस॒ञ्चानास
प्रनास दण्डव्यवस्थाया दर्णावुसारिणे लचृगुरुभावता आसौत्‌ । वत्तैमाने सरुण-
निगुणभावाभाषवेन तादृश्रएुङषागामसद्भावात्‌ दण्डव्यवस्थाया वर्णादुसारित्व
| नास विप्र्ललमेवापादयिष्यतौति साम्प्रतं दूरदर्भिनो राजानस्ताटृक्‌-
४ ' विधेरबुसस्णं परिहतवन्तः तच कालोपयोणितया सुन्द्रमेव प्रतिभाति ।

अस्य च सम्पादनकम्भणि पञ्चादगपएुस्तकानि सिल्लितानि। तेष्वेकं कचिद्धितं


कलिकाता रुसियाटौकसोसाडइटौपसतकागारादधिगवं, ख ग चिद्धिते च
दाराजकौय परस्तकागारादधिगतेऽपरे च घ खं चिदधिते दे दारवङ्राचवधर- `
भूमिका । | 1

गारादधिगतानि वतेषसत्िगमे च सोसाद्रटौप्रघानसमस्परादकमश्ीदयानामनु-


कम्परेव मूलम्‌ । `
काचिच्च पाठान्तस्प्रकाशकासे मूलसंह्ितापाटोऽपि मूले इति `
` सङ्केतसुल्िस्य प्रकाशितः । ॑
यस्य॒ दारुभूलतचैतत्‌ पुसतकसम्प्रादनमारो मया लब्धस्तं खलु
वग्दाराजक्तौयपुस्तकपका
ग्रविभागाध्यत्तं ओरौमन्तं विनयतोषमभदराच्ये ण्म रख,
पिर्ड्च्‌ डि, मद्धोदयं प्रति कछतज्ञतां षदश्रयामि। स च महानुभावः
“वत्तितो दौप इव प्रदौपा^दिति खक्यनुसारेया भारतविश्रुतानां षरणिडित-
धौरेयाणां मद्धामन्लोपाध्यायखौयेतद्दर्प्रसाद-णा
सिम दोद यानामङ्गज निरिःथेव |
खवंरचिमान्‌ आस्ते। तस्य च महानुभावस्य दीकछणायुषा सद्धेवोत्तरोत्तर- `
# प्‌ हभ ु ।

मभ्यृदयसाधनौमेवम्बिधामेव रुचिं कामयामहे । |

परिशेषे च येषामुदारानुमतिं षिनेतत्‌ काय्यं न सम्पद्येत, चेषाच्


प्राचौनपुस्तकसंर
चतरे दृक्म तित्वं, सुजगे चासौ मधनोत्सव्नैनं प्रसमौच्छ विस्मिता
मच्येवासिनस्तेभ्यश्च वरुदाधौ खरेभ्यः सप्र्रयदछ्यतक्ञतां प्रकटख भगवत्‌समौपे `
तेषां पजापालानां दौर्घायुःसदचरौः शान्तिं कामयामहे । इत्यलं परह्वविते ! `

भाटपाङ् | 1
२४ पर्गणा | | सतितोयं देवशम1
ह ओ्रौकमलङष्ण स्म वशम्मा। |
९९३० एट०, ३० सेेन्बरः । |
|

ष्टा ।
अदुषटसात्तिदूषणदण्डः .. „^ २४९ „*
अन्त्याभिगमनद गडः ५४. . १७९
अप्रकागरतस््ीराणां दण्डः ... ह १२९
अभिगमदण्डः ` व इ १६१.
अयोनिविषयाभिगमे दण्डः ९९२ `
ओपाश्चिकदण्डः १९४
कन्यादूषणदण्डः १८१
कन्धाहरणद ण्डः शत
कुप्रै लवादिदण्डः ५९ ध ९९५.
कूटकारिणो वणिजो दण्डः... ध ९६९
कूटमध्यस्थस्ात्तिणो दण्डः ... | ९०६
क्रुटच्यवद्धारिणो दण्डः ... ( श०

क्रूटस्िदण्डः ` ^ ध ११
कूटसाच्िनिदेशदण्डः ... २४२्‌
` गवाद्यभिगमदण्डः । | ९९४
` जानतः साच्िणः कौटटिल्यादनिगदतो दण्डः २४५
ज्योतिष्विदो दण्ड ५१५ १९२
द ण्डनि सित्तानि 1 २
ण्डनिमित्तषु दण्डभेद व्यवस्था ६ २६
दण्डनियमः स ध ५७
दग्डपरिनिषटा ^ ५७
दण्डपारुष्यदण्डः = ^ 44; २१९ ०
दण्प्रकारनियमः `" ,.. ` - द
४.
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दण्डप्रणयनोपकरणानि
दा 4 ०
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दग्डसमुच्चचः ` "न ५ + ८५६ ` दद्‌ -*
`: ©.
दण्डसाग्म्‌ ` £५ ४५०

6
` _ दग्डापकषेः
दवन

अश ` विषयस्चै। |
५ | ¦ | ष्टा पंक्ते।
दण्डयदण्डेदोषाः ^ ०.8.
4 दयृतकारदण्डः । | क 0 ० ` १०७ ०“
` श्रनदर्डसंस्या ॥ ०." व
निगैयोत्तरक्लयम्‌ व भिति क व
पर्घनिर््मांणौपजौ षिन दण्डः 0 ष.
परदाराभिमर्बेणदण्डः ‰ ,. ` ~ ९.
। | पच्रादिच्लोनाया घनं हृतः परस्य दण्डः = २९१९ ... १
|... पकौयदण्डः.: ८ २ ५ 8 1;
पकौगपिद्ारिदग्डः 01 ९; 4, “^ -१.9.2
प्रनद्गताधिकारः ५ 5
प्रद्वरयाद्ण्डः ` ५ ः श 1
प्रहरणोद्यमनदण्डः व ४ 2 9
वन्धक्याद्यभिगमे द्‌गडुः १. ८ ४ श८्प् ०.
~

बद्भनामेकं प्रह्वरतां दण्डः ... ५ व 1


` ब्राद्यणादौनां परस्परराच्तेपे दण्डः ध 5 त=
~
~=
@+=
==
छ7,
=
` भिषजो दण्डः 6 ध „5 १.९४ 1
मनुष्यमार्णदग्डः ८ ध ( 6
` मान्तरिकतान्तिकयोदंण्डः ... ष र २९ ~. १.
रनकदग्डः ० भ 10
वाकूपारुष्यदण्डः व 4 (4.6.44
विवादपदानि प 1 ४
विशिष्यस्य नियमातिक्रमदण्डः .. ... २२९ १
` व्यवद्धार्विषयदण्डः न इर्‌ ९.
-यवहारिकौनेगमादिसं्ा ` .- .. ` ९ ९
` भि्तकाभिक्कुश्लाचाग्धाणां दण्डः {1

क त
क ४ ककः =, १.७ 41

ब्‌
~
~~
खगेशाय नमः।

पाणिभ्यासुपजातवेपथुतया यनेन यः कल्पितो `


येन स्वेदजलौधपूरिततया नापेशठितोऽम्बभहः ।
सन्ध्याथेत्वमवेत्य यो मुकुलिते सव्ये करे कम्बना
सादृश्यं गतवान्‌ स पातु शवियोः सायन्तनोऽध्य
ज्ञलिः ॥ १ ॥
साड राधिकया वनेषु विदरन्नस्याः कपोलस्थले
धर्म॑म्पोविसरं प्रसारिणमपाकत्तँ करेण स्यशन्‌ ।
\तच प्रत्युत साच्िकाम्बुमिलनादोजायमाने जवा-
दव्यादो विफलप्रयासविकलेा गोपालरूपो हरिः ॥ २
'छष्णावतारकुतुकं बहमन्धम्मनो `
दण्डं वहन्रवति गां पुरुषोत्तमो यः ।
वाच्छन््रसाननुगुणेन गुणेन बहला =
भूयः प्रचारयति गां भुवनान्तरेषु ॥ ₹ ॥
उच्छ्कलप्रखलखणडनपण्डितिन
ओौमैरवेण मिथिलाष्रथिवौश्वरेण ।
तेनानुकम्प सकदप्यवलाक्यमाना
ग्रवर्चमानरूतिनोऽललु कतिः कतार्था ॥५॥ `
ज्यायान्‌ गर्डकमिश्रः शङ्कर-
वाचस्यतौ चमे गरवः
निखिलनिबन्धसमास-
प्रयासमेनं ममाऽनुजानन्तु ॥ & ॥
किञ्चालसमनसो ये
` विविधनिबन्धावलाकने कतिनः।
ते परि पविचं कुव्वन्तु |
हसन्तु दुजनाः किन्तैः॥७॥ `
नाख्धयति षगुणगन्धा- = 1 |
दिजते दोषसम्बन्धात्‌। =
दग्डपिवेकाः 1 | | | | द |

तच दण्डप्रशंसायां मनुः,--
तदथं सवभूतानां गोत्तारं धममात्मजम्‌
` ब्रह्मतेजोमयं दण्डमरूजत्‌ पवमौश्वरः॥ `
` तस्य सर्व्वधणि भूतानि सखावराणि चराणि च!
भयाद्वोगाय कल्पन्ते धर्मम विचलन्ति च ॥ `
स राजा पुरूषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुणमाखरमाणाच्च धम्बैलय प्रतिभूः समृतः ॥
दण्डः शणस्ति प्रजाः सव्वं दण्डं रखवाभिरष्ति ।
` दण्डः सुप्तेषु जागत्ति दण्डं धम्मं विदुर्बधाः ॥ |
तदथैमिति राज्ञो यः प्रजारक्षणास्यो धम्बैस्तदथैमिति

एव प्रकमात्‌ । धम्मं ध्पैव्यवस्थापकम्‌ । अभेदोपचार


आद्राधैः। आत्मजं पुच॑, ब्ह्मतेजोमयमिति न `
पाच्चभौतिकमपितु दिरण्यग्॑भतेजःप्रकतिकम्‌ । अयमपि
स्तुतिवाद आदराथेः। ईश्वरः प्रजाखष्टा राजा प्रक्ति-
रञ््नात्‌। पुरुष इति स णव पुरुषस्ततोऽन्येषां तदिधेय- _
त्वेन स्लौतुल्यत्वादिति मनुटौका। पुरुषः प्रमपुरुष-
“ तुल्यः। प्रजानां हदिस्थितत्वादिति रत्नाकरः। नेता
खधम्मैप्रापयिता। जागत्तिं जाग्रतः काय्यै चौरादिभय
वारणं करोति॥ ४
४ दण्डविवेकः।

अध दर्यादरडे दोषाः
[न् भ) त्र

, अदि न प्रण्यद्राजा दण्डं दण्वयेघतन्दरितः


श्रते मत्स्यानिवापश्यन्‌ बलान्‌
द्‌ बलवत्तराः' ॥
स्वाम्यच्च न स्यात्‌ कस्िंशित्‌ प्रवत्तेताऽधरोत्तरम्‌ ॥
श्ल इति ! श्रले छत्वा यथा मत्स्याः पच्यन्ते तथा
विवशान्‌ दु
बलान्‌ अपश्यन्‌ तेषां हिंसामकरिष्यन्नित्यथैः।
श्रलेन मत्स्यानिति मेधातिथि-गोविन्दराजाभ्यां पठितम्‌ ।

श्रले मलस्यानिवाभिद्यरिति कचित्‌ पाठः। सव्वच बल-


वन्तो दुबलान्‌ दिंस्युरिति मास््यन्धायप्रसङ्ग तात्पयम्‌ ।
सखाम्यच्च न स्यात्‌ । सवच्चविषयेऽपि पराक्रान्तं यथेष्ट-
विनियोगाभावात्‌। अधरोत्तरमुत्कर्षापकषवेपरौत्यम्‌ ।
दण्डयादर्डे दोषाः । ५ | ५

बलिमित्ययप्यपलक्षणम्‌ ।
यदाह मनुरेव,--
योऽरक्षन्‌ बलिमादत्ते करं शुल्कञ्च पार्थिवः
प्रतिभोगञ्च दण्डञ्च सः सद्यो नरकं व्रजेत्‌ ॥ `
बलिधीन्यादेः षड्भागादिः। करो गामपुरादि-
वासिभ्यः प्रतिमासमाद्यम्‌ । शुल्कं बशिगादिभ्यो दाद्‌श-
भागादिः। प्रतिभोगः फलकुमुमशकायुपायनं प्रात्य-
हिकम्‌ । प्रौतिभोगमिति कचित्पादः। तच प्रीत्या
भोगा्मुपढौकितं फलादौत्यथैः । दण्डः प्रसिद्धः ।
तथा,
सव्वतो धम्मषडभागो राज्ञो भवति रक्षणात्‌)
अधम्मादपि षड्भागो भवत्यस्य चछर श्षणात्‌ ॥
तथा,
ण्डो हि सुमहत्तेजो दुङ्रशारतात्मभिः
धम्मादिचलितं दन्ति पमेव सबान्धवम्‌ ॥
ततो दुगेच्च राष्रच्च मुनीन्‌ देवांख पौड़्येत्‌ । : . `
देवानां पौडा साधुपक्षतैः, साधुभिर्हविपप्रदानाभावात्‌। `
म्दानजौवना देवा इति स्मरणात्‌ । र
तथा,-- 0
अदण्ड्यान्‌ दण्डयन्‌ राजा दण्ड्या शैवाप्यदण्डयन्‌ ।
अयो महदाप्नोति नरकच्चैव गच्छति ॥ |
तथा,
यावानवध्यस्य बधे तावान्‌ बध्यस्य मोकणे ।
धर्म्मो टपतेदष्टो धम्मेश्चैव नियच्छतः ॥ ध
नियच्छतः बध्यस्य बधमवध्यस्याबधच्च कुव्धेतः ।
"कात्यायनः-
राजानो मन्तिणश्रैव विशेषारेनमाप्रयुः
अश्णसनात्तु पापानां नतानां दण्डधारणात्‌ ॥ |
रनमिति दान्दसप्रयोगस्तेन पापरमित्यथः। अथवा |
प्रकान्तमथम्भैमित्य्थः। कचिदेन इति छजुरेव याठः। `
नतानां विनौतानां अदण्ड्यानामिति यावत्‌ | |

राजैकराचमुपवसेत्‌ चिराचं ॥
शः

पुरोहितस्िराचं राजा च।
दग्ादददे शोषाः 1 | | ७

अथ याज्ञवल्क्य `
राज्नाऽन्धाथेन यो दण्डो गहौतो वरुणाय तम्‌ ।
निवेद्य दद्यादविभ्यः खयं विंश्हुणौकतम्‌ ॥
अन्यायेन अयथाशस्रम्‌ ।
अच मिताकराकारः। व
+

अन्धायेन यो दण्डो रान्ना लाभादिना शहौतः, तं


विंशङ्गणोकतं वरुणयेदमिति संकल्य ब्राह्मणेभ्यः खयं
दद्यात्‌ । यस्माच्च दरण्डतया यावह्ृहौतं तावत्तस्य प्रतिदेय-
मन्थथाऽपहार दोषात्‌ । अन्धायदर्डग्रहणे पृव्वखामि-
खत्वानपायादित्याह ॥
४ । दण्डविवेकः।

अय स्म्यग्द्र्डगृखः,
तच मनुः,
तं राजा प्रणयन्‌ सम्यक्‌ चिवगेखभिवडते।
तथा,
समश्य स तः सम्यक्‌ सव रचयति प्रजाः ।
याज्ञवल्क्य `
सम्यम्‌ दश्डयनं राज्ञः सखगंकौल्तिजयावहम्‌ ।
यो दण््यं दण्डयेद्राजा सम्यक्‌ वध्यांश्च घातयेत्‌ ॥
इष्टं स्यात्‌ करतुभिस्तेन सदसशतदशक्िशैः ॥
इह राजेति हननाधिकारौ रुत रव । यच विशेषवचनं
॥ ` नास्ति तचापि वधार्थसुपदेश्टे रान्न ख राजटत्तेरेव वा
तस्यैव प्रजापालनटृत्तत्वात्‌ः । न दिजातिमाचष्य ।
| ब्रह्मणः परौश्ाथैमपि न शस््रमुपाददौतेति | ||
5 बोधायनेन,-- त

आयुधयरहण-न्धत्यमौतवादिचाणौति राजाधौनेभ्योऽन्यच
` न विचरन्‌ ।
इत्यापस्तम्बेन च तस्य शस्रग्रहणनिषेधस्वर
सात्‌ ।
` अच मिताशराकारः+--
यद्‌ रान्नो निवेदनेरयलविलण्डन काय्यातिपातः ८
शद्धाते तदा स्वयमेव ५ = गदौन्‌ दन्यात्‌, तच मनुना
ोद्यमित्यादिनाऽभ्यनुज्ञानादित्याह ।
ग घ पुस्तकद्वये प्रृत्तत्वात्‌ । `
सम्यग्दरइगुणा €:

रतच्ाश्कयधारणे पलायितदुलंभे चोरादौ द्रष्टव्यम्‌ ।


मन्वादिवचनानां गत्यन्तराभावविषयकत्वात्‌ ।
तथाहि मतुः, त || ।

शस्त्रं दिजातिमिर्याद्यं धर्मो यचाऽवरूध्यते ।


दिजातौनाच्च वर्णनां विक्षवे कालकारिते ॥ `
आत्मनश्च परिाणे दश्िणानाञ्व सङ्गरे ।
4 = ^.

स्तौविप्राभ्युपपत्तौ च घ्रन्‌ धर्मेण न दृष्यत ॥


अच मनुटौकायां' ब्राह्मणादिभिरवशेः खङ्गा्यायुधं
ग्रहीतव्यं यदा साहसिकादिभिवर्णाख्रमिणां धर्मः कतत
न दौयते। तथा अराजके रारे परचक्रागमादिकाल- | स

` जनिते विसवे स््ौसङ्गरादौ प्राप्ते तथा अततायिभ्य |


आत्मरक्ाथे तथा दक्िणाभागापद्ारसंगरामे स्तौब्राह्मण-

र क्षाथेच्च घम्येन्नत्वेनानन्यगतिकतया परान हिंसन दौष-
भागौ न भवति । अतोऽच परमारणेऽपि साहसदण्डो न ` |्‌
काय्य इति कुल्लकभद्रेन व्याख्यातम्‌ ।
यदपि
गुरु वा बाल-खडं वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्‌ ।
आततायिनमायान्तं इन्यादेवाविचारयन्‌ ॥
नाततायिवधे दोषो इन्तुभवति कश्चन ।
| इति मनुवचनम्‌ ।
तस्यायमर्थो गुव्वादौनामन्यतमं बधोद्यतं पलायना-
दिनात्मनिस्ताराश्क्तौ निर्विचारं इन्धादिति ।
नहि वचनस्य ृष्टायैत्वे सम्भवत्यदृष्टाथैत्वं युक्तम्‌ ।
१० | | दग्डविचेकः ।

ध अस्ति च सर्वात्मानं गोपायौतेत्यात्मरक्षणस्य विहित-


। त्वात्‌ तदेव इष्टं प्रयोजनं तचेदन्यथाऽपि सम्भवति तदा
| ` ततापि बधोऽदष्टाधैः स्यादित्येव । |
(1 नारायणेन तु मनुवचनमन्धथा व्याख्यातम्‌ ।
| आततायिनं हननप्ररत्त हन्यादेव शअङ्गेदादिरूपेण .
। नत्वत्यन्तम्‌ । अन्यच गोतब्राह्मणादिति गौतमस्मृतेः ।
| दन्तुर्वधकर्तनं कश्चन, ब्रह्महत्यादिक्षतमपि तादशं
| पापं न मवति। तथाहि प्रायित्तमपि तचाऽल्पमेव
स्मृतिनिबन्धकारेनिवद्मिति। भिताक्षराकारस्याप्यच्रैव
स्वरसः
नेधातिथि-गोविन्दराजो तु,
आच्येच्च प्रवक्तारं मातरं पितरं ग्रुम्‌ ।
न हन्याद्राद्यणान्‌ गाश्च सर्वांश्चैव तपस्िनः॥
इत्याहतुः ।
अविशेषेण सवभूतानां हिंसा निषिद्धा पुनवेचन-
: `माचार्ययादौनां मातापिचादीनामतिनिषेधा्म्‌ ।
यच गरं वा इत्यादिकमनुवादः, गरवदिकमपि दन्धात्‌ `
किमुतान्यमिति सोऽस्यैव प्रतिप्रसवः
. अथयवा,-- ` | 1
दुरुक्तभाषणमेवाचं हिंसा । वाभिस्तेस्तेजघन्यताम्‌ ।
1 इतिवचनात्‌ ।
अथवा प्रतिक्रूलाचरणे दन्तिप्रयोगो यथा चाच प्रति-
भाति तथा दैतविवेके वश्यामः॥
९ घ -- दिर्क्तभाषणम्‌।
सम्यण्दग्डगुणाः । र.

राजा गुरुयमश्चैव शसम णः युज्यते ।


कत्त च मुच्यते पापात्‌ न च पापेन लिष्यते॥
गुरुरुपदेष्टा पापात्‌ पृवछतात्‌ दण्डनिमित्तोभ्रूतात्‌ । `
तथाह्ि- ॥
ऋस गोघ्रो निष्कूतिं कार्यों दाप्यो वा प्रथमं दमम्‌। `
इत्यचोक्दण्डप्रायथित्तस्विकल्यदशनात्‌ दण्डेनापि
पापं गच्छतोत्याहूरिति । ५
राजभिशतदणश्डासतु कत्वा पापानि मानवाः |
निमलाः स्वगंमायान्ति सन्तः सुकषतिनो यथा ॥
| इत्य मनुवाक्ये कुलूकभद्रोऽ्याह दण्डस्यापि प्राय- `
| खित्तवत्‌ पापक्षये हेतुत्वमिति । | |
अतरव यमस्यापि धमयोगः, तत्कत्तेव्यनिवहात्‌ ।
अतरवाह नारद्‌, |
गरुभिये न शस्यन्ते राज्ञा वा गृठकिख्िषाः ।
ते नरा यमदण्डेन शस्ता यान्त्यधमां गतिम्‌ ॥
पापेन उदौच्येन द्ण्डभिया पुनरकरणत्‌।

९ ख पुस्तके श्चासन्‌ धर्मेण ।


र क ख पुक्लतकद्ये स गोन्नवच्निष्कतिं।
द्‌ घ पुस्तके दग्डप्रायच्ित्तयोः। `
श | य दण्डविवेक ॥

अथर दरढप्रणयनोपकरणानि ।
तच मनुः,
शुचिना सत्यसन्धेन यथाशस््रानुसन्धिना ।
दण्डः प्रणयितुं शकयः सुसहायेन धौमता ॥
शुचिना अथशौचवता अलब्पनेति यावत्‌ घौमता--
अदहापोदन्ञानवता । र (
व्यवहारविषये ददहस्यतिः,-
न्पाधिक्षतसम्याश्च स्मतिर्गणक-लेखको ।
हमाग्न्यम्बु खपुरुषाः साधनाङ्गानि वे दश ॥ [1
अधिकृतः प्राडवाकः, सभ्यो मन्तिपुरोहितबाद्यणादिः,
स्मृतिमन्वादिग्रणौतं धमशस्तरम्‌, रतदथेशस्तरादेरण्युप-
लश्षणम्‌, सवपुरूषा राज्ञः काशठिकादयः |
` तथा, 1 |
रुषां मृञ्ख चपोऽज्गनां सुखच्चाधिक्ततः स्मृतः।
बाह सभ्याः स्मतिर्हईस्तौ जङ्क्‌ गणक-लेखको ॥
देमाग्न्यन्बु दशौ ह पादौ सखपुरुषास्तथा ।
मेति हदेमामप्नौ दशौ अथ हदित्यर्थोऽन्वयः ।

वक्ताऽ्यक्चा दपः शस्ता सभ्याः कायेपरौश्षकाः


समतिर्विलिशेयं ब्रते जयदानं दमं तथा ॥

` गणको गण्येदथै लिखेव्यायच्च लेखकः ॥


दगडप्रययोपकार
णनि । १३

प्र्थिं-सभ्यानयनं सख्राक्षिणाच्च स्वपूरुषः


कुयौदलब्नकं रेदधि-प्रत्यथिनो तथा ॥
अथय कात्यायनः.
रकाहद्यहाद्यपेक्षं देशकालाय्पेश्चया । |
दूताय साधिते कार्यये तेन भक्तः प्रदापयेत्‌ ॥
दूताय वादिनमानौतवते तेन वादिना
याज्ञवल्क्यः,
उभयोः प्रतिभूर्माद्यः समथः कार्यनिर्णये ।
काय्थनिणेय इति आहिताग्न्यादिपाठात्‌ काथ्ष्य
पूर्वनिपातः, तेन नि्ीयकाय्ध इत्यथैः । 4
तच साधितधनदानं दण्डदानच् तस्मिन्‌, प्रतिभूरिति
`
प्रतिभवति तत्काय्यं तदच भवतौति प्रतिभूः प्रतिनिधिः। |
काल्यायनः
अथ चेत्‌ प्रतिभूर्नासि काथयोगख्य वादिनः। `५
स ररित दिनस्यान्ते दद्यादताय वेतनम्‌ ॥
. आ मनुः
व्यवहारान्‌ दिदरुसतु ब्राह्मणैः सह पाथिवः
प्रणम्य लाकपालेभ्यः काद्‌ शेनमारमभेत्‌ ॥
पार्थिवः परथिवौपतिः छचियादन्योऽपि ,
महाभारते,-- =
अधिनासुपसन्रानां यस्तु नोपैति दशनम्‌ ।
सुखे प्रसक्तो पतिः स तप्येत गो यथा ॥
. उपसनानां निणैयाधैमुपगतानाम्‌
९४. ६ दण्डविवेक ।

व्यवहारान्नपः पश्येदिददधिन्रीद्यशेः सह । `
इत्यच मिताक्राकारः+-- `
_ ब्राह्मणेरिति दतीयादशनात्तेषामप्राधान्यं “ सह यक्ते-
$प्रधाने” इति स्मरणात्‌ अतश्चादशनेऽन्धथाद्‌
शने च
रान्न रव दोषो न ब्राह्यणानामित्याह ।
अथ काल्यायनः
यदा काथथेवश्णद्राजा न पश्येत्‌ काश्यनिणेयम्‌ ।
तदा तच नियुज्ीत ब्राह्मणं शस््रपारगम्‌ ॥
तदभावे त्वाह, ५
यच विप्रो न विद्वान्‌ स्यात्‌ विय तच योजयेत्‌! `
वैश्यं वा धर्मशस्तन्नं न तु भ्रद्रं कदाचन ॥ 4
मनुः ~
यस्य रटे प्रकुरुते श्रुद्रो धमविवेचनम्‌ ।
तस सौदति तद्र पङ्के गौरिव पश्चतः॥
` व्यासः. `
दिजान्‌ विहाय यः पश्येत्‌ कार्य्याणि इषेः सह ।
| तस्य प्रक्षुभ्यते रार बलं कोषश्च नश्यति ॥

समाः शचौ च मिचे च पतेः स्यः सभासदः ।
दस्यति ८
सभ्याधौनः सत्यवादौ कर्तव्यस्तत्‌ स्वपुरुषः ।
दध्णथनोपकरणानि । | १५

कात्यायनः,-
सभ्यानां ये विधेयाः स्ययुक्तास्ते राजपुरुषाः
गणको लेखकंश्रेव सर्वांस्तान्‌ विनिवेशयेत्‌ ॥
तान्‌ सभ्यविधेयान्‌ ।
अथ दृदस्पतिःः--
राजा कार्याणि सम्पश्येत्‌ प्राङ्गिवाकोऽथवा दिजः ।
वादि-प्रतिवादिनौ एच्छतौति प्राट्‌, तदुक्त विविनक्ति
विचारयति वा सभ्यैः सह विविच्य वक्तीति वा विवाकः।
स चासो सचेति प्राङ्धिवाको धर्माधिकरशेऽधिक्छतः।
मकुऽ-
सोऽस कार्य्याणि संपश्यत्‌ सभ्येरेव चिभिरतः।
गौतमः ५ व
सर्वधममेभ्यो गरीयः प्रा्धिवाक सत्यवचनम्‌ ।
दस्यति, |
ये त्वरश्यचरास्तेषामरण्ये करणं भवेत्‌ ।
सेनायां सैनिकानान्तु सार्थेषु बणिजां तथा ॥
रादा ये विदिताः सम्यक्‌ कुल-ग्रेणि-गणादयः ।
साहसन्यायवज्ज्यानि कुरः कार्य्यणितेनणाम्‌॥
कुल-श्रेणो-गणध्यक्षाः प्रोक्ता निणेयकारकाः ॥
ष्विचाय्यें श्रेणोधिः काय्य कुलैर्यन विचारितम्‌ । ध 1
6 गरी श्रेण्यविन्ञातं गणाऽन्ञातं नियुक्तैः ॥
९ ग बिचाय्।
दद 5. - -दमिषेकः |

कुलादिग्योऽधिकाः सभ्यासतेभ्योऽध्यक्षः स्पृतोऽधिकः।


कुलानि ओणयश्चैव गणारत्वधिकता पः ॥
प्रतिष्ठा व्यवहाराणां गर्व्वेभ्यद्हत्तरोत्तरम्‌ ॥
करणं सभा, साहसन्धायः साहसविषयो न्यायः । कुलं
वादिम्रलिवादिनोः खकुलं, अरणिः शल्पिबणिगादि समूहः,
रुकधम्भप्रटत्ता बणिकूकषौबलादय इति कर्यतरः। गणो
विप्रसमृहः, धर्ममाथैकामप्रधानानामनियतदृत्नौनां सङ्गो
` वा। नियुक्तकोऽच सभ्यः। अध्यक्षः प्रादिवाकः।
कुलानौत्यादिश्चोके गणधिक्षतयोमध्ये सभ्यो द्रष्टव्यः ।
एषामपि साहसविषये संशये राजैव निशेयेदिति
क ॥५ ॑ता
त्पश्येम

इदस्यति-कात्यायनो,-
तपस्िनान्त्‌ काय्याणि चैविदेरेव कारयेत्‌ ।
माया-योगविद्‌च्चैव न स्वयं कोपकारणात्‌ ॥
नारद्‌: |
यच सभ्यजनः सव्वः साध्वेतदिति मन्यते ।
स निःशल्यो विवादः स्यात्‌ सश्ल्यः स्यादितेऽन्यथा ॥
` साध्वेतदिति नियपर, एल्यमधम्यौरूपम्‌ ॥
अध सम्धोपदशः |
तच सभ्यानां कश्चिदोषोऽनियुक्त-सामाजिक-साधारणः `
कश्चिदसाधारण इति मिताक्षराकारः । |
तचाद्यो यथा मनु-नारदौ,-- ` |
सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समनच्जसम्‌ ।
अब्रुवन्‌ विब्रुवन्‌ वापि नरो भवति किल्िषौ ॥
अच च न प्रवेषटव्यमिति सामान्याभिधाने विशेष-
जिज्ञासायां सभामिल्युपतिष्ठते रवमपि "पदसंस्कार-
स्याभियुक्तीरि त्वात्‌ दिगुरेकवचनमिति ज्ञापकात्‌ यथा- `
युक्तमथें परौश्ितुमित्यादौ यथा वा शकं शरमांसादिभि- |
रपि तत्‌ प्रतिहन्तमिति मदहाभाष्यफकिकायाम्‌ । | |
कुलकमभट्सतु सभासुदिश्येत्यध्याहारमाह ।
मेधातिथिना तु सभा वा न प्रवेष्टव्येति ज्येव पठितम्‌। | |
मिताक्षर्येवमेव ।
मनु-नारद्‌-हारौत-बोधायनाः | |
पादोऽधम्बेस्य कत्तीरं पादः साकिणच्छति ।
पाद्‌ः सभासदः सन्वन्‌ पादो राजानङ्च्छति ॥
सभासदः अधम्पेप्ररत्यनिवारकानिति कुल्लकभटरः । ८
यच राजानुमत्या व्यवदहारय्य दुष्टत्वं तवैव तदोषदति `
` मिताक्षराकारः । पादोऽधम्बखेत्यादौ तत्तुल्यपापान्तरो- `
१ |
(7

१८ ० दण्डविवेकः ।

त्पत्तौ तात्पग्थेमन्यक्षतस्य पापस्यान्यच संकमानुपपन्तेः


. रुवमेव गोविन्दराजः
। ` नारायणसवयज्ञोऽप्येवमाद। पारिजातक्षतेऽप्यैव
। स्वरसः। रमेव प्रदौपदौपिकादयः। अथैवादमाचभमेतदिति
. मेधातिथिः।
कल्लकमभटररूवच कन्तपापमेव भागशः साश्यादिषु सहून-
मति तथेव वणात्‌, न चाच प्रतिपश्ानुमानादि विरोधः,
तस्योपजौव्येन शस्त्रेण वाधात्‌। सुकृतदुष्कुतयोः शास्त्ेक-
प्रमाणकत्वेन प्ररुतेऽन्यच सङ्कमणयोग्ययोरेव तयोः
कल्पनात्‌ भगवता वाद्रायणेना्यस्याथेस्योपगमादिल्याह ।
तचिन्त्यं शस््रस्यान्यथाप्यपपत्तौ उक्ताथकल्पनानव-
काशत्‌ बहविरोधात्‌ ।
मनु |
राजा भवत्यनेनास्तु सुच्यन्ते च सभासद्‌: !
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यच निन्द्यते ॥
मार्‌ द्‌.

युक्तरूपं ब्रवन्‌ सभ्यो नाप्नयाद्वेष-किख्िषौ ।


अन्डणसू्वन्यथा समभ्यस्तदेवोभयमाप्रयात्‌ ॥ `

लेाभदेषादिकं त्यक्ता यः कुर्यत्‌ काय्थनिणेयम्‌ ।


शस््नोदितेन विधिना तस्य यज्ञफलं भवेत्‌ ॥
नारद्‌-यम-कात्यायनाः+--
` अतिसमतिविरुद्श्च भूतानामदितञ्च यत्‌ ।
न तत्‌ प्रवत्तयेद्राजा प्रत्तच्च निवत्तयेत्‌ ॥
सन्बोमदेषः। ` | १९

न्धायाऽपेतं यदन्येन राज्राऽन्नानक्षतं भवेत्‌


तदप्याग्नायविदहिते पुनरन्याये निवेशयेत्‌ ॥
अतिखमतिविरदं॒॑प्रमाणविरद्ं तेनं प्रमाणविरोधेन
` विचारितमपि पुनर्विंचारयेदिति प्रथमक्चोकाथेः।
न्टपान्तरेणान्नानात्‌ छतमपि शखलविदितेन मागे
पुननिरूपयेदिति दितौयश्चोकाथैः ।
कात्यायनः
अधरम्मान्नां यद्‌ राजा प्रयुज्जौत विवादिनाम्‌ |
विन्नाप्य पतिं सभ्यस्तद्‌ा सम्यक्‌ निवत्तयेत्‌ ॥
सभ्येनावश्यवक्तव्यं धम्माधसहितं वचः ।
शृणोति यदि नो राजा स्यात्त सभ्यस्ततोऽ्णः ॥
न्यायमार्गीद्पेतं तु कात्वा चित्तं महौभुजः
, वक्तव्यं तत्प्रियं तच न- सभ्यः किल्विषौ ततः ॥
अधम्मौज्नामधम्पानुवत्तिनो'्मान्नां, अच्णः अनपराधः
तथा, तचैव--
अधम्धेतः प्रदत्तन्तु नोपेक्रेरन्‌ सभासद्‌ । `
उपेक्षमाणः स्पा नरकं यान्त्यधोमुखाः ॥
सोऽयमसाधारणसभ्यदोषः,
, सदामनभ िधानेऽयथाभिधाने च तदेवमनियुक्तानां
पायम्‌, नियुक्तासभा-
नान्तु
` सभ्यानामधम्पेप्ररत्तस्य राज्ञोऽनिवत्तनेऽपि नरकम्‌ प्रयन्ना-
(५ दप्यनिवत्तमाने तस्मिनप्रियोक्तावपि न दोष इति स्थितम्‌ । (| ॥
२० दश्डविवेकः।

अश्च दर्ड-भेदाः।
तच इहस्यतिः,--
वाग्‌ धिक्‌ धनं बधञ्चैव चतुद्ख कथितो दमः
पुरुषं विभवं दोषं ज्ञात्वा तं परिकल्ययेत्‌ ॥
तच वाग्दण्डो न त्वयेद्‌ सम्यक्‌ छतमित्यादि निन्दा । |
ताङ़्यैनमिति बाङ्घाचमिति नाराथणः। धिग्दण्डो धिक्‌
` ल्वा पापौयांसमकायकारिणमित्यादिभत्सनम्‌ । धनं

संख्यं साहसरूपं, तत्‌ विविधं प्रथमं मध्यममुत्तममिति ।


यचापराधानुबन्धादिना संस्याधिक्यं कल्यते तदव्यव- `
सितं तत्सामान्यतो ददिविधं पणादिरूपं माषादिरूपच्च
सव्धमिदमनुपदं वश्यते ।
बधस्िविधः, पौडनमङ्गलेदः प्रमापणच्च। तेषु पीडनं
चतुर्विधम्‌; ताड़नमवरोधनं बन्धनं विड्म्बनच्च । तच
. ताडनं कशद्यभिधातः, अवरोधनं कारावासादिना
` कम्मेनिरोधः, बन्धनं निगडादिभिरसखवातन्व्योत्पादनम्‌,
। विडम्बनमनेकप्रकारं यथा-- मुण्डनं गरदभारोहणं `
` चौ््यादिचिह्ाचरणं डिर्डिमादिना तत्तदपराधस्यापनं

। | अङ्गछेदशच ठेद्याङ्गभेद्‌ाचतुद्‌शविध इति इदस्यतिः ।


तान्याह,
`. हस्ताद्धि-लिङ्ग-नयनं जिद्वा-कणो च नासिका ।
जिद्वा-पादाडसंदंश-ललाटौष्ठगदंकटिः ॥
अदंपद्‌ं जिच्नायामप्यन्वेति इन्द्रोत्तरश्रतत्वात्‌ , अन्यथा
जिह्घेति पुनरभिधानानथैव्यात्‌। सन्द॑शस्तच्जन्यज्गष्टौ `
मिलितौ, अच पादाङस्यापि दशनात्‌ ६
उपस्थमुदरं जिद्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम्‌ ।
चक्षुनौसा च कणो च धनं देदस्तथेव च ॥
इति मनुवचने दस्तादौ दित्वमविवक्षितं पक्षप्रा्तानु-
वादो वा, रवच्चास्य दश्विधत्वासिधानमपि भ्यनसंख्या-
` व्यवक्तेदपरम्‌ ।
देदग्रहणच्चाच प्रमापणपरं यदाद । कुंलकभट्रः,
देददण्डो मारणमिति ।
प्रमापणं दिविधं शुद्धं मिश्रञ्च । तयोः शुद्धं दिविध- ` ।
` मविचिचं विचिचच्च, तचाविचिचं ;सङ्गपातादिङतं, विचिच॑
मिखमङ्गेदादि- `1
श्रलारोपणदि-विचिचोपायप्रयुक्तं
=
` पूव्यकं मिख्रणं च दश्डान्तराणामपि यथायथमृहनौयम्‌ ।
+ 1 ` दण्डविवेकः । ¦

अय वनदख्ड-सद्या |
अच शङ्खलिखितौ, |
चतुर्विंशतिरेकनवतिशेति प्रथम-साहसः। दिशतः
` पच्चश्तचेति मध्यमः, षट्शतः साहस्ेति उत्तमः ।
यथासारापकारं सर्ववेषामानुपूर्वेण । `
चतुरविंशत्यादिरेकनवतिपय्धन्तः ` प्रथम-साहसाखयो
दण्डः रवं दिशतादावपि । यथासारापकारमिति सारो
धनं दण्डस्य अपकारोऽपराधस्तस्मैव तदनुसारेण तयो-
लघवगौरवाभ्यां प्रथमादिसाहसविकल्प इत्यथैः ।
रश्व नारद्‌-यान्चवस्वयादिवचने प्रथमादिसादसेषु
ज्धुनाधिकसंस्याविसम्बादो व्याख्यातः । तस्य दण््यगत-
वित्तापराधलाधवगौरववैचिच्येण सामच्स्यात्‌। तदुक्ते
दण्ड तदुक्तदरव्यसंश्या ग्राह्येति व्यवस्योपगमादया ।
तच नारद
चत्वारिं शऽवरः पृव्वः परः षखवतिभवेत्‌ ।
तानि पञ्च "तु परो मध्यमो दिशताऽवरः ॥
साहसरदन्तमो शेयः स तु पच्चशताऽवरः।
चतुविंशावर इति कचित्‌ पादः
१ का पुस्तके पञ्च त्वपरः ।
` २ घ साहखन्तूत्तमः स्त
वनदा = द्‌
अथ मनु-विष्ण,-- | |
पणानां दे शते साड प्रथमः साहसः स्मतः ।
मध्यमः पच्च विज्ञेयः सहखन्त्वेव चोत्तमः ॥
याज्ञवल्क्य ,--' |
साशौतिपणसादसो दण्ड उत्तमसाहसः । `
तदङ्धं मध्यमः प्रोक्तस्तदद्गमधमः स्मतः ॥
यत्त,--
कार्षापणसदहखन्त दण्ड उत्तमसादसः ।
इत्यादि हहस्यतिवचनं, तच काषापणः पण एव दयोः
पर्य्ययत्वात्‌ । अच स्चतुविंशतिरित्यादौ सव्धच संख्येया-
काङ्लायां पशो द्रष्टव्यः, पणानामिति विष्णुवचनात्‌। = `

, साहसान्‌ व्यन्त ।
अथा मानसन्नाया मनुः
लोकसंव्यवहाराथं याः संज्नाः प्रथिता भुवि।
ताम्नरूप्यसुवर्णनां ताः प्रवश्याम्यशेषतः ॥
सर्षपाः षट्‌ यवो मध्यस्ियवं त्वेवः छष्णलम्‌ । +
लाकव्यवहाराथं प्रवश्यामौत्यथैः । मध्यो नातिख्यल
नातिक्षश इत्य्थः।
चियवन््ेवेति,--
गुज्ना तु स्यात्‌ चिभि्यवेः।
` इत्यगस्तिपरोक्तदनात्‌ छष्णलव्यवदहाराणं गुच्ानां
----------------------------------------------------------------------------------------~

९ क चतु{विशत्यादौ।
र्ग चङ त्वकक्छष्णस )
२४ "` दग्डविवेकः।

गृरुत्वमनियतमतो यथोक्तमेव क्ष्णलं ग्राह्यम्‌ । कचि


देकेतिपाठः ।.सेयं छष्णलसंन्ना सुवरीरजतसाधारणौ ।
अगसितप्रोक्तः | |
अष्टमिर्भवति व्यक्तीस्तण्डलेा गौर सर्षपैः ।
स वेणवो यवः प्रोक्तो गोधुमं चापरे जगः ॥
मुग्‌
पञ्चष्णलको माषत्ते सुवणैस्तु षोडश ।
पलं सुवर्णण॑श्चत्वारः पलानि धरणं दश ॥
दश्पलानि धरणमित्यन्वयः।
चतुर्थाध्याये माषाधिकारे विष्णुः,
तद्रादश्कमक्षकभेव सचतुमाषकं सुवशैः ।
सचतुमैषकं मापचतुष्टयसदितं पोड़शमाषात्मक- `
मित्वधैः।
अभमिधानकोषे तु.--
, , , , , , ग्नाः पच्चाद्यमाषकः ! `
ते षोडशकः वार्षोऽस्त्रौ पलं कषचतुष्टयम्‌ ॥
८1 इत्यक्तम्‌ ।
अन्ये त्वाह
सखध्रेते यथावन्मध्यपाककाले निष्यतना धान्यमाषा दश `
त `सुवरीमाषः, पञ्च वा गुज्जाः सुवशेमाषाश्च षोडश सुवशे
स रुव कर्षः चतुकार्षः, पलं पलानां एतेन तुला, विंशत्या `
¦ ^ | तुलाभिभौर ।

श ख ङ पुस्तकदये तच्चतुष्वौ पलं ।


` चधनदग्ड-संख्या। ` कि

बालभूषणे चण्डश्वरः+-- |
कषेः पलपादः स्यात्‌ कर्षाद्वं तोलकः सोऽपि ।
उक्तो वसुभिमषेलके माषोऽपि गज््ाकदशएमिः ॥
लमच वेद्यकप्रसिद्मष्टतोलकमिति ।
याज्ञवल्क्यः,
पलं सुवर्णणश्चत्वारः पञ्च वा परि कौर्तितम्‌ |
मनुः,
दे छष्एले समते विज्ञेयो रूप्यमाषकः ।
ते षोड़श स्याद्वरणं पुराणश्चैव राजतम्‌ ॥
धरणानि दश ज्यः शतमानस्तु राजतः ।
चलुःसुवशिको निष्को विक्तयस्तु प्रमाणतः ॥
ते षोड्शमाषका राजतं धरणं राजतश्च पुराण ध
इत्यथः ।
याज्ञवल्क्य
दे सष्णले रूष्यमाषो धरणं पोडश्ेव ते ।
पतमानन्तु द्‌शभिधरशेः पलमेव च ॥
निष्कं सुवर्ण॑श्चत्वारः , , +, . , ,।
द्शमिर्थरशैः शतमानं तदेव यलमित्युच्यते। निष्क- `
मिते रजतप्रकरणे सखगैशब्दोपादानं हदेमप्रकरणोक्त- `
मानप्राष्यथं तेन हेमप्रमाणभूतचतुःसुवणेमानोन्मितं रजतं `
निष्कमिति मदाशेवाभिधाने निबन्ये व्याख्यातम्‌ । रुवच्च `
चतुःसुवशिको निष्क इति मनुवचनमप्येवमेवोन्रेयम्‌
`त । `
`

ग सवशं --।
५ दण्डवितेकः। `
रजतप्रकरणामनानाऽविशेषात्‌ । अतरवोक्तं प्रमाणत
इति । | |
रजताधिकारे विष्णगुत्त,--
अष्टाशौतिगौरसर्षपा रूप्यमाषकत्ते षोड़श धरणं
^ र ~ ~~

निष्को वा विंशति्वां रूप्यपलं तदश धर णकम्‌ ।


सरति,
| पञ्चसोवशिको निष्क इति । ¦ |
तथा, | | |
साष्टं शतं सुवर्णनां निष्कमाहरमनोषिणः । ||
अभिधानकोषे तु, | ध.
निष्कमस्त्रौ साष्टदेमश्ते दौनारकर्षयोः । |
रक्षाऽलङ्करणे हेमपत्तेऽपि वेत्यक्तम्‌।
मनु
कार्षापणस्तु विन्नेयस्तामिकः कार्षिकः पणः ।`
। कार्षापणः पण इति द संन्ने तास्रकषस्येत्यथः, इति
` रनाकरः।
अभिधानकोषे तु,

काषपपणः कार्षिकः स्यात्‌ काषिके ताखिके पणः


1 शतम्‌! | र
तन्मते सव्ये रव कार्षिको मुद्राविशेषः कार्षापणः
1 ।
समास्यासम्बादात्‌। स रव ताथिकः पण इत्यच्यते, `
| व (|
4

तथा,
पशोदमानगण्डानां' तुख्धौओेऽपि च काकिनौ ।
| इति रभसपालः ।
पणगण्डकयो्तुग्ये उद्माने च काकिनौ । त
^ शिचः
हस्ति
ताब्रकर्षकछृता मुद्रा विज्ञेयः कार्षिकः पशः।
स रव चान्द्रिकाःः प्रोक्तास्ताञ्चतससतु धानिकाः ॥
ता दादश सुवरैक्तु दौनारास्यः स ख तु ।
विष्णगुत्त+--
सुवणेसप्ततितमो भागो रोपक उच्यते ।
दौनारो रोपकैर ्टाविंश्त्या परि कौर्तितः ॥
चतुर्वमचिन्तामणौ कात्यायनः
माषो विंश्तिभागस्तु जेयः काषापण्सय तु । `
काकिनी तु चतुभौगो माषस्य च पणस्य च ॥
नारद - |
माषौ विंशतिभागस्तु पणस्य परिकीर्तितः
` पणस्तु षोडशो भागो ज्यः काषौपणस्य तु ॥
काकिनौ तु चतुर्भागो माषस्य च पणस्य च ॥
पच्चनद्याः प्रदेशेषु संज्ञेयं व्यवहारिक ।
काषपपणप्रमाणन्तु तन्निबद्धमिहैव तु ॥
---+---+----~

१ क पुस्तके -- गुञ्चानां। र्‌ क एस्तके चतुकाः।


ध दग्इविवेकः |

काषौपणस्तिका जेयास्ताश्चतखस्तु धानिकाः' ।


ते दादश सुवशैन्तु दौनारो धानिकः स्मतः ॥
अच रत्नाकरे इदिप्रकरणौयः कवित्‌ पलस्येतिः
पाठो ल्िपिप्रमाद्‌ः। कामधेनु-कल्यतर-छत्यसार-मिता-
करा-स्मतिसारेषु मानप्रकरणे मडन्यपाठद्‌ शनात्‌ पण.
कार्षाीपणादिप्रकरणे सुवणेमाषस्य पलस्य लष्णायोगाच |
'पच्छनद्या इति शणस्त्रौयव्यवहारात्‌ कार्षापणप्रमाणं तदेव
निबद्धं यत्‌ पच्चनदौप्ररेशप्रसिद्धम्‌ । इतरत्त तच तचैव
व्यवहारिकम्‌ ।
यथा नारद्‌,
कार्षापणो दश्चिणस्यां दिशि रौप्ः प्रवत्तंते
पशेनिवङधः पुव्वस्यां षोड्शेव पणाः स तु ।
वच्च ॒सौव्शिको माषः पञ्चरत्तिकः। राजतो
दिरत्तिकस्तथा पुराणस्य विंश्तिभागो माषः। कात्यायन- `
` दशनात्‌।

पणस्य विंशतितमो भागो माषः । नारद्‌वचनात्‌


तथा,-कार्षापणस्य चतुर्थो भागो माषः माषावरान्े
इत्यादिवश्यमाणनारद्वचनस्वर
साच ।
` ` तथा+-काषौपणशपादः' चतुःकाकिनौको माषः, वश्य= 4
माणनारदवचनात्‌। राजतश्चापरो माषो विष्णुगुत्तदण- =
नात्‌ छष्णलस्य साधारण्यं युक्तमेव । 4

( ग एरतके धानकः। २ कं क्ाचित्कः परनस्येति।


५ ८ ~ हे-गःपनस्य। ~. ४ कं पुसतके--पद्‌ः । `
घनदग्ड-संस्या च

रवश्च माषादिशन्दानां नानाथतया दण्डविधा्वन-


(
|

|।
ध्यवसाये व्यवस्थामाह ।
|

(
कात्यायनः
माषः पादो दिषादो वा दण्डो यच प्रकल्पितः
अनिर्दिष्न्तु सौवण माषं तच प्रकल्पयेत्‌ ॥
यचो माषको दण्डो राजतं तच निर्दिशेत्‌ |
ष्णलब्चोक्तमेव स्यादुक्तं दण्डविनिरेये ॥ |
यच माषको दण्ड इत्युक्तं तच राजतो माषको याद्चः। `
यच मापो दण्ड इत्युक्तं तच सौव एव ग्राह्य इव्यधैः।
एतच्च विशेषविधेरन्यच द्रष्टव्यम्‌ ।
स यथा प्रकौशेके मनु
दैरण्यं चैव माषकमिति । छ
अतरव शस्यघातकदण्डं माषश्रुतावपि राजत खव
माषो श्राद्यो वचनात्‌ ।
तथाहि रलाकरे भाष्यकारः,

सौवशेमाषकैः संख्या दण्डकम्बेसु कथ्यते ।


पश्रूनां शस्यचरणे माषेरन्येस्तु राजतैः ॥
मिताश्रायान्तु,
माषानष्टौ तु महिषौ शयधात्ख कारिणौ। =
इत्यच माषश्वाच ताधिकपणस्य विंशतितमो भागः |
माषो विंशतिभागस्तु परस्येति नारदवचनादित्यक्तम्‌ ।
इह सौवणें निष्कं दद्यादिति विशेषविधौ हेमप्रमाण- `
1 भरूतसखगौचुषटयमितं सुवे निष्कश्दवाच्यमन्यच तु `
तावन्मितं रजतमेवेति मदाणेवकता व्यवस्था दिता
+ --------

९ ग पुस्तक दरडविधानानध्यवसाये। २ घ मात्ैकं।


दण. दण्डविवेकः।

चेद्ापि ग्राह्या अविरोधात्‌ “मांसभेदौः तु


षरिष्कान्‌” इति पारुष्यप्रकरणे मनुक्तदण्डसम्बा
दाच ।
सौवणैस्य च निष्कस्य तचाननुरूपत्वेनावाच्त्वात्‌। `
यक्त मांसभेदे तु मध्यम इत्यनुरूपो दण्डो दहस्पति-
नोक्तः; सोऽपि राजतेनैव निष्केण सम्बदति तस्य
तावन्मुल्यकत्वात्‌ । |
इह माषादौ वचनादेव व्यवस्था अन्यच तु स्मतिशस्ना-
ऽभिधानशस्त्रयो्विरोषे स्मृतिशस््रोकतं म्राह्यमन्तर ङ्गत्वात्‌।
तवापि यदुक्ता या संज्ञा तदुक्तदण्डादौ सैव ग्र्या
अन्तरङ्गतमत्वात्‌ । अन्यचाभिधानशस््रोक्तमेव ग्राह्यम्‌ । `
` पदाथानिश्चयादनध्यवसाये तस्यैव निरीयकत्वात्‌ अभि- `
॥ र युक्तस्मरतित्वात्‌ । तस्याभिधानकोषान्तरविरोधेऽपराधगौर-
`ध
^ वादिना दण्डगोरवाद्यनुसारिणौ व्यवस्था यान्नवल्वयो- `
। कपलव्यवस्थावदिति प्रतिभाति ।
। अथ कात्यायनः <;
कल्यितो यस्य यो दर्डकत्वपराधस्य त्वतः । `
पणानां ग्रहणं तत्‌ स्यात्‌ तन्मल्यं वाऽथ राजनि ॥
यस्यापराधष्य दण्डो दश पञ्चाश्दित्यादिकषखाविशेषो
वा कथितस्तच संख्योक्ताकाङ्कायां पणो माद्यः सच
५ . ताखकर्षमयौ मुद्रा तदलाभे तन्मल्यं ग्राद्यमित्यथः।
` चापराधस्यत्यादि ठतौयम्वं रन्ाकरे पठितं तचचन््यं `
तदथेविसम्बादात्‌ तस्योत्तराङन चैकवाकतया वच्यमाण- `
त्वात्‌ । धान्यादिमानन्तु धान्यापहारिदण्डे बच्यते। ` 1
"० --- न ,

९ ग पुस्तके मांसभेत्ता तु षशिष्वं र गपलानां। `


` ' चनदण्डसंस्या। १
अथ व्यवहारिकौ नैगमादिसंज्ना।
तच कात्यायनः,-- ` ५.
नानापौरसमृहसतु नैगमः परिकौत्तितः।
नानायुधग्डतो त्राताः समेताः परिकौत्तिताः ॥
समृह्टौ वशिगादौनां पुगः संपरिकौर्तितः
प्रब्रज्यावसिता ये तु पाषण्डास्तु उदाहतः ॥
ब्राह्मणानां समृदसतु गणः संपरिकौर्तितः
शल्ोपजौविनो ये ते शिख्पिनः' परिकौत्तिताः ॥
अहतां सोगतादौनां समृहः सङ्क उच्यते ।
चाण्डाल्चपचादौनां समुहो गुलम उच्यते ॥
गण-पाषण्ड-पुगाख ब्राताश्च अओेणयस्तथा ।
समृदस्थाश्च ये चान्धे वगौख्यास्ते इस्यतिः ॥
नानायुधेति त्राताः प्रकीर्तिता इत्यन्वयः, गुल्म इति `
अच गुल्मः पदातिसमृह इति राजधम्मे लश्छौधरः ।
तद्योगतामादायेति न विरोधः । अच अ्रणयो वणिक्समृदह
इति रलाकरः ।
` तथा,
चतुर्वणस्य या खतिरसजातिसमुद्धवा। `
तस्या धम्पैः समुदिष्टः साऽजातिः परिकीर्तिता ॥
असजातिरसवशेः । |
इ. दण्डविवेकः।

अथ दर्डनिमित्तानि ।
तच नारदः, | |
मनुष्यमारणं स्तेयं परदाराभिमषणम्‌ ।
दे पारुष्ये प्रकोशेच्च दशण्डस्थानानि षड्‌ विदुः ॥
इति संग्रहः ।
ननु विवादस्य लाभमोहादिमुलकत्वेन सव्वच संम्भवा-
दादिनोरेकतरस्य मिथ्याभियोगापडहवयोरन्यतरनियमा-
त्तन्निित्तको दण्डोऽन्यचाप्यस्ति चेत्‌, सत्यम्‌ । `
किन्तु चरैरावेदितानां रान्ना सख्वपुरुपैर्याहितानां
श्ििरोवादिनं विनाऽपि विचाग्येमाणनामपराधिनां येषु `
दण्डसेषामिहोदेशः। ते च मनुष्यमारणादय रव न॒ |
ऋणादानाद्यः। |
अतर्वोक्तम्‌, -
साहसन्धायव्ज्यानि कुथः कार्याणि ते नणम्‌ |
प्रकौेकंः पुनन्गयो व्यवहारो खपाश्रयः॥
इति
अपि च कणादानादयो मनुष्यमारणादिवन्न सखरू- `
पेणापराधोऽपि त्वपह्ववादिकमपेश्येति तेभ्यो भेदः । |
किच्च मनुष्यमारणादिकन्तेणां दण्डाथमाकारणं तदनु- `
गुणतया त्वपराधविचारः। णादानादिवादिनान्तु बह-
शादितत्वनिगेयार्थमाद्वानं तदिचारप्रसङ्गणपलापादि-
५ |निणेयात्‌ तत्कतत्दण्डं इति । `
द्‌ण्डनिमित्तानि } इरे . 2

किन्चामौ दृष्टबुद्धिपूव्वकत्वनियमादुत्सगेतो सरमादि


४ मूलकेभ्योऽन्येभ्यो विरश्प्यन्ते इति लज्ताकोद्वजकत्वादेष्ैव
प्राधान्येन दर्डपदप्रयोगः। ` ह
अतरव मनुना, ५
यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस््लौमो न दुष्टवाक्‌ ।
न साहसिक -दण्डघ्रो स राजा-शकलाकभाक्‌ ॥
इत्यच णादानादिवादिनो न परिता इति खस्थ-
मेतत्‌ | |
अथ मनुष्यमारणेन गवादिमारणमप्युपलख्यते । पर-
दारेत्यस्य खदारान्यस्तौमात्े तोत्पय्ये कन्याभिगमनेऽपि
दण्डामिधानात्‌। मानुषौत्वच्चाचातन््ं गवादिगमनेऽपि
दण्डोपदे शत्‌ । पारुष्यं कलः, तस्य वाग्दण्डरूपकरण-
देविध्यात्‌ वाकृपारष्यं दण्डपारुष्यमिति देविध्यम्‌ । पञ्च-
विधच्चेतत्‌ |
यद्‌ाह वाग्दण्डपारुष्याधिकारे नारद
विधिः पञ्चविधखक्त रतयोरुभयोरपि ।
तच वाकपारष्यप्रकारा निष्टरत्वादयस््रयो वध्यन्ते ।
`दण्डपारुष्यं दिविधममिद्रोहामिधातकूपत्वात्‌ ।
यदाह स रव,-
रगावेघमिद्रोहो इस्तपादायुधादिभिः।
भस्मादिभिश्वामिधातो द्‌ण्डपारुष्यसुच्यते ॥
तचामिद्रोहो दिंसा, अभिधातस्ताड़्नम्‌। =
अचं मिताक्षरायान्तु भस्मादिभिश्चोपधात इति परितं
` व्यास्यातच्च. उपघातः संस्पशैनरूपं मनोदुःखोत्पादन- `
३४ : `... . इण्डविवेकः।

भिति। तथा दण््यतेऽनेनेति दण्डो रेदस्तेन पार्यं


विर्क्ौकरणं दण्डपारुष्यमिति । तदिदं रनाकरादिना
पच्चविधमुक्तम्‌ ।
मिताक्षराका रस्वाह, |
इथोरयैः क्षमते तस्य दण्डाभावः पूज्यता च। तथा पुत्व
कलहप्ररत्तस्य दण्डो गुरुरुत्तर कलहे बहुवेरानुसन्धातुरेव ॥
दण्डभाक्त्वम्‌ । तथा दथोरपराधविशेषापरिक्नाने' दण्डः
समः। तथा शआपचादिभिरर्ग्याणामपराधे छते तैरेव ॥
तेषां दण्डनं तस्यासामर्थे राज्ञा । `
तथा-राजा तान्‌ धातयेदेव नाथं तेभ्यो श्लौयात्‌ ।
इति पञ्चप्रकारा विधयः९ । क
युक्च्वैतदेषां वाग्दण्डपारुष्यसाधारण्यात्‌, मतान्तरे `
तु रुतयोरुभयोरपि व्यथे स्यात्‌ रुलच्च स्प््टमाचषट
नारद्‌ रख ।.
यतः समनन्तरमेव तददिधिप्रतिपादकान्‌ श्चोकानाह।
अपारष्ये सति सम्भवादिति-पुव्वमाक्षारयेद्य इति-
इयोरापन्नयोक्तुल्य इति-पारुष्यदोषाच तयोरिति-खपाक-
षण्ड-चाण्डासेति-मग्यदातिक्रम इति-यमेव हौति-मला-
दयेत इति। तानेतानषटश्लोकानुपरि व्या्ास्यामः।
` अतलरव कामधेनौ कल्पतरौ च वाग्दण्डपारष्ये याव- `
ददं प्रत्येकं लिखित्वा-- अथ वाग्दण्डपारष्ये नारद नल
`
१ ख --क्ञानेन। | र ग घ पुतकदये अपचारे ।
। । इ ख पुस्तके पञ्चविध्प्रकाराः। `
दण्डनिसित्ताजि । ४ ३५ | |

दत्यपकरम्य विधिरित्यादिविभागश्चोकं परित्वा पारष्ये


सतौत्यादिरेवाष्टश्चोकौ ससम्बाद्‌ं पटिता । न तु पर
गाचेष्ित्यादि नवा साघ्रेपं निष्ठरमित्यादि ।
प्रकौणेकमाह नारद्‌
न इष्टं यचच पूर्वेषु सव्ये तत्‌ स्यात्‌ प्रकौरैकम्‌ ।
तदेतदनन्तप्रकारं विदहितनिषिद्धकम्येविग्रेषाणमान-
न्त्येन तदनाचरणाचरणयोरानन्त्याच ।
९६... दष्डविवेकाः।

अधध दरडनिमिन्तेषु दरडभेदव्यवस्धा ।


| त्च वि |
जातिर्द्रव्यं परिमाणं विनियोगः परियदहः ।
वयः शक्तिगंणो देशः काला दोषश्च हेतवः ॥
इति व्यवस्यौपयिकवगं संगः |
| अच परिग्रहो "पदेवद्िजादेः।! वयो तस्य प्ुरुषा-
दैरव्याल्यादिः। शक्तिरपराधिनो वित्तसम्पत्यादिः। गणोऽपि `
तस्येव न्यूनाधिकदण्डप्रयोजकः। देशे भामारण्यादिः।
काला दिवारात्यादिः। दोषोऽपराधविशेषः
प दिविधः, अनुबन्धोऽननुबन्धश्च तचानुबन्धो नाम पुनः ८
पुनरिच्छया मन्दकरियाकरणं चकारात्‌ प्रत्यासच््यादिसंग्रहः।
` त इभे सामान्यतो द्ण्डस्य लघुगुरुभावदहेतवो भवन्ति ।
तथाहि--जातितो विशेषो इश्यते ।
यद्‌ विष्णुः,
अष्टापाद्यं स्तेयकिल्विषं श्रद्रस्य दिगुणोत्तराणौतरेषां
५ | (॥ ; | | प्रतिवरी विद
ुपोऽतिकरमे दण्डमरूयस्वम्‌ ।

अष्टभिरापाद्यते गण्यते इत्यष्टापाद्यमष्टगणमित्यधः ।


ध (1 । ।किल्विषमिह दश्डस्न विदुषोऽतिक्रमे दण्डभूयकत्वमिव्युप- .|(1 ।
(ल संहारेविद्हेतुवन्निगदस्वरसादययस्मिनपदहदारे
रवे तस् यो दण्ड उक्तः
मिनटगुण आपादनीयः । प्रतिवर
`
दिगुणेत्तराणि उत्तरोत्तरं द्विगुणानि किस्विषाणौत्य- ८ ॥।
्थोऽन्वयः।
दण्डनिमिततेषु दणमेदब्यवस्था अ २०...

अवैव मनुः क |
अष्टापाद्यन्तु श्रद्रस्य स्तेये भवति किंल्िषम्‌ ।
पोड्ग्रीव तु वेश्यस्य दार्विंश्तक्षचियस्य तु ॥ `
ब्रह्मणस्य चतुःषष्टिः पशँ वापि शतं भवेत्‌। `
दिगण वा चतुःषष्टिस्तदोषगणवेदिनः ॥
"अव नतारतम्याचतुःषध्यादि दण्डविकल्पः । `
यत्त बाद्मणस्य पष्चथौः निगंणगणवदतिगणापेश्या
व्यवस्ितमिति स्वनेन व्याख्यातः तचापि गणो ज्ञानमेव
अन्यथोपसंहार विरोधात्‌ ।
यद्यपि ब्राह्मणादेः श्रुद्राद्यपेश्चथा दण्डापकषे उचितो
दृष्टश्च । तथापि निन्दितं जानतस्तत्करणमपराधगौरव- 1 |
मापादयति ज्रानच्च हीनस्य कदाचिदवलप्यतेऽपि न `
` त्त्तमस्येति तस्य तारतम्े जातिरूपयुज्यते । |
रुतच्च तदोषगुणविदुष" इति रननाकरे परित्वा स्यष्टौ
छतं तदेतदुदाहरणमाकरे दष्टा लिखितं स्यषन्तदादरणा- `
न्तरम्‌ ।
यथा काल्थाथनः
येन दोषेण श्रद्रस्य दण्डो भवति धम्मैतः
तेन विदश्चविप्राणां दिगो" दिगणो भवेत्‌ ॥
~ शवं द्रव्यतो यथा नारदः+
सव्वेषामल्पमूल्यानां सूर्यात्‌ पञ्चगुणो दमः

दखग व्वद्थितम्‌। ४ क-- षिद्धिरित्ि,


| पग प्के दण्डानाम्‌।
३८ | ` ` दण्डविवेकः।

परिमाणतो यथा मनु


धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो इरतोऽभ्यधिको दमः. ।
तथा नारदः, |
रलानाञ्चेव सव्वेषां शताद्भ्यधिको बधः |
विनियोगतो यथा काल्यायनः+-
वनस्यतौनां सब्वेषां विनियोगो यथा यथा ।
तथा तथा दमः कार्य्यो हिंसायासिति धारणा ॥
रवमन्द्पि वश्यमाणदण्डद्‌
शना दृ्यम्‌। सेयं व्यवस्था
अनेकविधा । |
तच,-
वाधाऽपकषसाम्यानासुत्कषपरिनिष्ठयोः ।
भेदेन दण्डभेदानां व्यवस्था पञ्चलक्षण ॥
॥ ८
्रहः}
इति सग
तच वाधश्चं साधारणे यथा आपस्तम्बः,--
अचय ऋत्विक खातको राजेति चाणशं स्यरन्थच
` वध्यात्‌ |
राजा अवान्तरनरपतोनामिति प्रतिभाति आचाग्यौ
~ दयो दण््यानां चाणं स्यर्वध्यव्ज्जमित्य्ः | `
अच कल्यतरौ चां स्यस््रातारो भवेयुनं कथञ्चित्‌
1 |दौःशैल्येन तिषठेयुरिति व्याख्यातम्‌ ।
सु 9 ं

कछषन्तव्यं प्रभुणा नित्यं शिपतां काथिणां चणम्‌ )


बालटड्ातुराणाच्च कुव्वतां हितमात्मनः ॥
॥ ९ का पुरे छयधिकरं बधः, ग पुस्तके अभ्यधिक बधः ।
दण्डनिमित्तेषु दण्डभेरच्यवस्था । | २९.

काथ्थिणामर्थिप्रत्यथिनां दुःखेनाकषेपोक्तिं रचथतां


बालादौनां चाकाथिणमपि क्षिपतां रान्ना छन्तव्धं
नतुते दण््या इत्यथैः । | |
कायथिणामित्यनेन धिग राजानमलसमक्तन्गं वा
योऽस्माननपराधान्‌ परेण पौद्यमानानुपेशत इत्यादि
निन्दायां तात्पय्ये गम्धते । कृव्बतामित्यादिकमष्येतत्पर-
मेव । र्वं हि द्ःखितानामेवेषामाकोशं निशम्या वश्यं
राजा तत्कूते . प्रवत्तते तथाचाऽतथाविधे तद्‌ाक्रोशे
तेषामपि दोष इति प्रतिभाति । |
दण्डपारुष्ये याक्नवल्वय--
मोहमद्‌ादिभिरद्ण्डनम्‌ ।
मोहशचित्तवैकल्यं, मदो मद्यादिजनिता व्कितावख्या (1
आदिपद्‌ादुन्मादादिसंग्रहः।

असाधारणन्तुर कात्यायनः,
सचिड्मपि पापं तु एच्छत्‌ पापस्य कारणम्‌ ।
तदा दण्डं प्रकल्येत दोषमारोप्यं यन्तः ॥
प्राणात्यये तु यर स्याद्‌कायकरणं छतम्‌ ।
द्‌र्डस्तच तु नैव स्यादेष धम्मः स्मरतो शगः ॥
कंल्पेतेति अन्तीवितण्जिधैम्‌। दोषं चौर्य्यादि आरोष्य ८॑
सव्वरूपेणारोपयित्वा स्थिरौकत्य निशेति यावत्‌।
प्राणात्यये पापकरणं विना सम्भावयमान इति शेषः ।
र | तेन॒ चिह्ादविनाभूताल्लोप्तादिरूपात्‌ प्रमाणान्तरादाग ` |1
१ ग पके च्माच्तिपताम्‌ ।
कख पुस्तकदये धिगस्तु . क
द क असाधारणन्तमाह। ख पुरतके असाधारगेतु का्यायनः।! ..
४० | दग्डविवेकः।

चोर्यीदौ निितेऽपि तत्‌ कारणं यदि यथोक्रः प्राणात्यय,


इहेतुरवधाय्येते तद्‌ा तस्य न दोषः, “आत्मानं गोपायौत"
इति विधिद श्नात्‌ नित्यस्यास्य विधेरतिकमायोगात्‌ ।
रुतदचनस्वरसादेव पापस्यानुत्पत्तेः। उत्पत्तौ वा प्राय-
शचित्तेनापनोदसम्भवात्‌, अतो न तन्मूलको दण्डः । तच
हि तदभाव णव धम्मे इति स्मरतः, गुराहेति समुदायाथेः।
यच ॒चौर्याधिकारे ब्राह्मणमुपकरम्थ गौतमवचनमदत्तौ
प्रायित्ती स इति तद्‌प्येतत्समानविषयम्‌ ।
तथाहि तदयमधः--अन्धेन प्रकारेण जीवनानुपपत्तौ
ब्राह्मणो न दण्ड्यः किन्तु प्राय्चित्तं कायेमिति।
रवच्धाततायिवधेनैकमूलकमेवेदम्‌ । रतन्मृलक्मेव `
वचनं पारद्‌ारिकेऽधिकरणे वात्स्यायनौयाः पठन्ति ।
आयुर्यशेरि पुरधम्भैसुहत्‌ स चायम्‌ ।
कार्य्यो दशविपरिणामवष्णन कामात्‌ ॥ इति ।
पथिकानामल्पापहारे न दण्ड इत्याह, मनुः,
दिजोऽध्वगः क्षौणदत्तिद्विधू दे च मूलके । `
आददानः परक्रेचान दण्डं दातुमर्हति ॥
अच प्राणचाणविधेः साधारण्येन न्यायसाम्यात्‌ दिज
इति प्षचियादेरप्युपलशषणम्‌ । ` |
[1

चपुषोव्वारकेर दे दे तावन्माच॑ं फलेषु च ।


शकं स्तोकप्रमाेन खह्लानो नैव दुष्यति ॥

दे ग -- धारके! `
दग्डनिभितु दण्डभेदव्यवस्था । ४१

मनु
चणक -त्रौहि-गोधम-यवानां सुद्-माषयोः । व

अनिषिद्खगरहयोतव्या मुष्टिरेका पथि स्थितैः ॥


रुतद शनात्‌ पुव्ववाकयऽप्यनिषिड' दोषाभावो द्रटव्यः ।
तया |
` तथैव सत्तमे भक्तं भक्तानि षडनश्नता ।
अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हौनकम्भेणः ॥
यत्तः -
वानस्पत्यं मूल-फलंः द्‌ाव्वग्न्यथे तथैव च ।
ठणच्च गोभ्यो ग्रासाथमलतेयं मनुर व्रवौत्‌ ॥
इति मनुक्चने व्याख्यातं नारायणेन ।
वनस्यतिर्श्षमाचं तद्भवं वानस्पत्यं तेनोषधिप्रभव- |
व्यवच्छेद्‌ः। रुतच्चारणगतम्‌ । 1

[र
गोऽग्न्यथं ठरमेधांसतु वौरुधो वनस्पतौनाच् पुष्पाणि
स्ववद्‌ाददाति फलानि चापरिटतानाम्‌।
इति गौतमस्मरणात्‌ ।
अपरिटता अपरिणीता इदोक्ताः। अग्न्यथे वेता- । |
निकाग्न्यथेम्‌ ।
रव दष्षटणकाष्टादौनि यदाच्छादनाचथैमरण्यादपि = `
राजाननुमल्यानौतानि स्तेन्यनिमित्तान्येैवेति। |
तचोषधिप्रभवमाचं न व्यवच्छेद्यमपि तु मत्स्यपुराणोक्ता-
दन्य कदलादिसमनन्तरोक्तविषयादन्यच धान्धसु्गा-
दौति नेयम्‌ । |
९ कग पुत्त्रे अनिषेधे। 1 त
२ ग ङ पुसतकद्ये फलं मूलं |
४ स दण्डविवेकः।

| आवश्यकेषु च ठृणादिषु राजरकितेषु तन्निधिङ्खेषु वा.


तदनुमत्यपेा नत्वन्यचापौति द्रष्टव्यम्‌ ।
मिताश्षराकारसू्वाह,-- |
दिजस्तणाय्न्तराभावे गवाप्रिदेवताथे तवृणकाषटकुसु-
मानि परपरिग्रहादप्याहरेत्‌) फलानि त्वपरिग्हौता-
नौति गौतमवचनात्‌ |
^~

ठरणं वा यदि वा काष्ठं पुष्यं वा यदि वा फलम्‌ ।


'अनाग्रच्छ्य हि णह्ञानो इस्तलेद नमंति ॥
इत्युक्तम्‌ ।
तद्विजव्यतिरिक्तविषयमनापद्दिषयं गवादिव्यतिरिक्त-
विषयं वेति ।
कात्यायनः, |
सहत्तानान्तु सव्व॑घामपराधो यदा भवेत्‌ ।
अवररेनैव दैवात्त्‌ तच दण्डं न कल्पयेत्‌ ॥
सर्व्वेषां ब्राह्यणादौनामवशेन खस्येति शेषः! तेन
. भयादिपरवशतयेत्यथैः । दैवात्‌ प्रमादात्‌ ।
2 तया,
परदेशङ्खतं द्रव्यं वेदेशेन यदा भवेत्‌ ।
्हौत्वा तस्य तद्रव्यमदण््यं तं विसज्जयेत्‌ ॥ |
वेदेन देश्णन्तरादागतेन इति हलायुधः । तदेतद्‌-(
साधारण॒तिमित्तकमपि सव्वेजातिसाधार णमुक्तम्‌ ।

२९ कख एरकदये अनादा |
द्‌ण्डनिभिन्तेष दण्डभेदयवस्था । छर्‌ `

अथ ब्राह्मणमाचस्यादण्डमाह नारदः,
ब्राह्मणस्यापरौदहारो मार्गादानच्च गच्छतः ।
भेष्यहेतोः परागारे प्रवेशानिवारितः' ॥ `
समित्पुष्यकुशद्‌ने्ल्तेयं सपरिगरहात्‌ ।
'ऋअनध्यक्ः परेभ्यश्च समभ्भाषश्च परस्याः ॥
अपरौदहारो दण्डाभावः, अनिवारित इति वचनाद्ारणे
अपराध रव, अस्तेयं चौर्याभावः, सपरि ग्रहादिति पर-
परिग्रहविषयस्यापि `समिदादेरादानान्नापराध इत्यथैः ।
अनध्यक्षः परेभ्य इति शचभ्योऽष्यागतो व्राह्मणोऽदषटाभि-
प्रायश्चेन दण्ड्य इत्यधः। सम्भाषश्च परसिया इति दोषा-
भावाभिप्रायम्‌।
तथा शङ्कलिखितौ,--`
इन्धनोदक-काषठाभ्नि-ठ्णोपल-पुष्य-फलपर्णदानेष- ` न

ग्रावचयं देवतीर्थामिगमनं खहकोष्टप्रवेशनं पथि शस्र-


धारणमसम्बद्मासनं प्रसतेषु निवारणमसद्ासश्चेच्छि
ला्छपदयोधौन्यराशिगरदणमगरोत्समै प्रसवटदधिवार्घापण- `
शुल्कनदौतरेनुपरोधनं परस््रौ सम्भाषणं, राजस््रौदशनं `
व्यतिक्रमच्च कोपात्‌ सव्वमदहति ब्राद्यशः ।
इन्धनेत्याद्यावश्यकेन्धनादिपरं, देवोऽान्यापरिण्हौत-
देवालयः, वं तौथमपि, खहकोषटप्रवेणनं परस्येति शेषः, `
पथि देशन्तरवत्मनि, असम्बद्चमासनं प्रयोजनं विना
।( यच कचनावस्थानम्‌ । `

९ क पुस्तके धवेशस निवारितः । |


२. घ ङ पुस्तकद्वये अनाध्यच्तः। मूले-- अनपेत
४8. . . ` दण्डविवेक ।

प्रसतेषु कार्य्या प्रसखितेषु" अनिवारणं तन्मध्यगमने-


उनिषेधनम्‌। असदासः कायेवशद्सद्धिः सदह वासः,
चेच्छब्दः समुचये अब्धयानामनेकाथेत्वात्‌ ।
शलिज्छपदयोरिति शल उञ्छ इत्यात्मरत्तिभ्यां वत्त
मानयोर््ह्मणयोः शेषौभूतधान्यराशेग्रहणम्‌, अगरोत्सगे-
मग्रत्यागपुब्वकमश्वस्तनविधिना ग्रहशमित्यथेः। प्रसवः
प्रसिद्धः, द्धिः कुषौदं, कर्षः क्षणं, आपणं कयविक्रयव्यव-
हारः, नदौतरः नदौतरणं, रुतेषु यदेयं तदप्रयच्छतोऽनुप-
रोधनमनाकंमणं, व्यतिकरमणमाज्नालद्गनम्‌ ।
गोतमः+
स एव बहृश्रतो भवति बेद्वेद्‌ाङ्गविद्ाकोवाक्यतिहास-
कारैः १
संस ाणकतस्
पुर्कृ िषुयपेकम्
ुलस्तद तडतभिर
शस्बेख षट्सत्ा
तिखतःाष्टाच चाराेषु संस्
सदाश्त
ु रिं विनीतः
षड्भिः परिहार्य राक्नाऽवध्यञ्चावेध्यश्चादण््यश्चाबहिः
` काय्येश्चापरिवाद्यश्चा परिहाय ।
रतद्वहखतादिविषयं तस्येवोपक्रमात्‌ न तु बाद्यण-
माचविषयं राजा सव्वस्येष्टे ब्राह्मणवज्ेमिति गौतम- `
1 वचनं प्रशंसाथैकमिति मिताक्षराकार
ः ।
. वाकोवाकयमचोक्तिपरत्यक्तिमदेदवाक्यं तदयेक्स्तदिरो- `
| | ८अ्याचारश्रन्यस्तहत्तिर्तदविरोधिव्यापारणौलः । अष्टचत्वा-
रिंश्तसंस्कारगभधानादिभिः। विषु दानाध्ययनयागेषु `
,
षटसु यक्नाध्ययन-दान-याजनाध्यापन-प्रतिग
्रहेषु |
५ {९
९ गघवचेष्टितेषु। `
दग्डनिमित्तेु दण्डभेदव्यवस्था । 9

हलायुधस्तु चिषु दानादिषु याजनादिषु वेति व्याख्याय


षट्सु सद्‌ाचारेषित्यच समाचारिषिति पटित्वा सात्त-
शिष्टाचारेषिति व्याख्यातवान्‌
षड्मिबधादिभिः परिहार्य बधादिभिरशशस्योऽदष्ष्य
इति शरौराथेदण्डनिषेधपर, वाकृधिक्‌दण्डयोरव॑श्यमाण-
त्वात्‌ । अपरिहाय्ये इति महापातकिषु निषिद्धे सह- `
भोजनाद्‌ाववबदहिष्काये इत्यथैः |
वस्तुतस्तु षड्मिरिति संग्रहः, अवध्यः इत्यादि तदि- `
वरणम्‌ ।
तच निषेधमाह मनु -
असम्भोज्या संयाज्या असम्पाया विवाहिनः।
ज्ञातिसम्बन्धिभिस्ेतें त्यक्तव्याः छतलकछषणाः ।
` निर्दया नि्नमस्कारास्तन्मनो रनुशशसनम्‌ ॥
असम्परोज्यासमिलित्वा भोगगो्ौ न कार्येयं
इति रत्नाकरः । मनुटौकायां नारायणोऽप्याइ रुकपङ्धि
भोजनानदं इति । कुलुकभद्ररूवाह अनादिकं नैते
भोजनोया इत्यधेः । असंयाज्या अ्याजनोया असंपाया
अध्यापनानहौ अविवाहिनो विवाहानधिकारिणः
ज्ञातयः पिठसम्बन्धिनः सम्बन्धिनो माठसम्बन्धिनःः। : ` व
तस

निर्दया व्याध्यादियोगेऽपि सदहिदयाविषयौकर्तमनुचिताः, ` `


निर्नमस्कारा ज्येष्ठादिगणयोगेऽपि नमस्कर्तमनहौः। =
तदेतदहशचतादेरदण्डयत्वाभिधानं प्रमादकतमद्ापात- =
कादिविषयमिति पारिजातः
` `
~~न --------,~------------- ~~~ ~

१ गप्रििष्ये। २ख मबन्धवाः।
क । दण्डविवेकः ।


` बन्धनादि-दण्डाभिधानात्‌।
अथ मनुः,
ब्रह्महा च सुरापश्च तस्करो गृरतल्पगः
रुते सर्ववे प्रथक्‌ नेया महापातकिनो नराः ॥
चतुर्णामपि चैतेषां प्रायचिन्नमकुब्बताम्‌ ।
शरीरं धनसंयुक्तं धग दण्डञ्च कल्पयेत्‌ ॥
| ` चतुर्णमपि शछवियादौनां शरीरो दण्डो बध रव,
| . ब्राह्मणनामवरोधरूपः समनन्तरोक्तोऽङ्कनरूपो वा । न
| तु दस्तच्छेदबधादिः, तस्य इस्यतिना निषेधात्‌ । |
यदाह, |
दश ख्ानानि दण्डस्य मनुः खायम्भवोऽत्रवौत्‌ ।
चिषु वेषु तानि स्युरशतो ब्राह्मणो ब्रजेत्‌ ॥

महापातकयुक्तोऽपि न विप्रो बधमहति । `


निवासनाङ्गने सोण्ड तस्य कुर्व्यानराधिपः ॥
अच निर्वास्नाङ्गनयोविकल्प इति रल्लाकरः ।
तन्मते,-- `
न जातु बाह्यणं हन्यात्‌ सव्वपापेष्ठवस्थितम्‌ ।
रा्रदेनं बहिः कुर्यत्‌ समग्रधनमष्तम्‌ ॥ `
इति मनुवचनं पक्षप्राप्तामिप्रायकमस्तु समनन्तरन्तु॒ = |
बौधायनवचनं दुर्धटम्‌। दु्धैटतरच्च यमोक्तमङ्गनस्य
2 +)
|
प्रस्यापनाथैत्वम्‌ ।
दग्डनि मित्तेष दर्डभेदव्यवस्था । | = ~

अङ्गनप्रकारमाह बोधायनः
ब्राह्मणस्य भ्रणहत्या-गुरुतल्प-सुवशेस्ेय-सुरापानेषु
कवन्ध-भग-खपाद्‌-ष्वजांस्तत्तनायसेन ललाटेऽङ्यित्ा ` `
खविषयान्ते निवसनम्‌ ।
नारद्‌,
अशिराः पुरषः कार्य्यो ललाटे दिजघातिनः ।
गुरुतस्ये भगः काय्यं सुरापाने सुराध्वजः ॥
त्तेये तु अपदं छत्वा श्खिपित्तेन पूरयेत्‌ ।
टङ्न ललाटमुव्लाय मयूरपित्तेन पुरणमित्येतत्‌
प्रकारान्तरं हरितिकेति प्रसिद्धम्‌ ।
अच यमः+ - वि

<ग


<य
=

बराह्यणस्यापराधेषु चतुक्ठैव विधौयते ।


शिरसो मुण्डनं दण्डः पुरान्िरवासनं तथा ॥ व

प्रस्यापनाथे पापस्य प्रयाणं गर्हमेन तु ।


ललाटे चाङ्करशं कु्थाद्राजा यथाविधि ॥
रतद्भनादङ्स्यापि प्रस्यापना्ैत्वेन गर्दभारूढसाम- |
शेन सह॒ तस्य विकर्म रव । सब्वच्वेतत्‌ कामक्लते
मदहापातके प्रायथित्ताकरणये द्रष्टव्यम्‌ ।
अन्यच त्वाह मनुरेव्‌,- 4
प्रायश्चित्तन्तु कुव्वाणाः पृत्वे वण यथोदितम्‌ ।
नाद्चा राज्ञा ललाटेषु दाप्याखत्तमसाहसम्‌ ॥
` आपत्स॒ ब्राह्मणस्मैषु कार्य्यो मध्यमसाहसः। `
विवास्यो वा भवेद्रा्रात्‌ सद्रव्यः सपरिच्छदः ॥
` य दग्डविवेकः | .

सभ

इतरे कछतवन्तस्तु पापान्येतान्यकामतः।

सव्धस्वह्ारमर्ईन्ति कामतस्तु प्रवासनम्‌ ॥



पुव्वे ब्राह्मण शछचिय-वेश्याः, अकामत इत्यत्तरश्रत- `
` मयघ्यन्वेतौति मनुटौका। इद छच्रियादिभिरेकोक्या
निदशत्‌ ब्राह्मणो निगुंणो विवध्ितः, मध्यमसाहसस्तु `
गणवत्‌-ब्राह्मणविषय इति न विरोधः । विवासनन्तभय- `
साधारणम्‌ । ध
सव्वच्चेतत्‌ बहृश्रताद्यन्यविषयं विवास्यो वा इत्यादि
सा्खश्चोकः प्रायचचित्ताकर णपक्षेवाकारस्वरसात्‌। खदहस्यति-
वाक्ये समभिव्याहतस्याङ्गनस्याकामकतत्वेन निचत्तौ `
विवासनमाचस्य पारिशेष्यात्‌ मध्यमसादसेन सह तस्य `
तुल्यवदिकल्पायोगात्‌ । `
आहतुश्ैनमेवाथे शङ्कलिखितौ,-- |
मत्खपि पातकेषु विवासनमङ्गनं ब्राह्मणस्य प्राय
शचित्तानि वा शोधनमपौदो हि ब्राह्मणः । इति ।
-अतरवाच प्रायधित्तपश्ेऽङ्धाकरणादपौद्यता इति
रन्ाकरकता व्याख्यातम्‌ । इतरे इति क्षचियाद्यस््रय

` सव्यखछदारं सब्वेखग्रहणमेतच पूर्वोक्तेन उत्तमसादसेन


सह इत्तायपेश्या व्यवस्थापनौयम्‌। कामत इति पापानि
तवन्तः । प्रवासनमच बधः-- |
` प्रवासनं परासनं निखदनं निहिंसनम्‌। `
` इत्यभिधानकोषपाठादिति मनुटौकायां कुलूकमभदरः ।
दण्डनिमित्तेषु दण्डभेदव्यवस्था । | 9

नारायणस््वाह, |
कामकतेऽनुक्तरूपं प्रवासनमङ्कनादिसदहितं रतचाल्या- `
रन्भविषयमारम्भमहच्वे तु हननमेवेति! तदेवमकामकते
महापातके बहृश्रतादेदृण्डाभावः । तदितरस्य गृणवतीो |
मध्यमसाहसं निगैणस्योत्तमसादसं दण्डः सर्व्वेषां प्राय- |
अित्ताचरणच्च तदनाचरणे देशन्निःसारणम्‌। ५
कामक्षते तु तस्मिन्‌ बहृश्रतादेः प्रायधित्ताचरणमना- `
चरणे निःसारणं तदितरस्याङ्गनं निःसारणब्च । क्षचिया- _
दस्तु कामङते तस्मिन्‌ बधः। अन्यचाङ्नधनदण्ड-प्रवास- ‡व

नादौति व्यवद्या । | [

अथ धनद्र्डोऽप्यमौषामनुशासनमावाथं रव । सम- |
नन्तरमेव तस्य त्यागस्मरणत्‌ । |
तथाहि मनु, 1
नाद्दौत दपः साधुः महापातकिनो धनम्‌। ` |
आददानस्तु तल्लोभात्तेन पापेन लिष्यते ॥ |
धनं धनद्‌ण्डरूपमिति नारायणः ।
नाददौत पातकिसकाशदाकष्टमपि न खौकु्व्बौत
किं तदहि कुय्यौदित्याहः- ।
अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणयो पकल्ययेत्‌ ।
अतटइत्तोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत्‌ ॥
ईशो दण्डस्य वरुणो रानां दण्डधरो हि सः! `
इशः सव्वस्य जगतो ब्राह्मणो वेदपारगः ॥

्‌ मष
काम दण्डधरः शस्ता यतः ५ | (|५
^. ४ | | दगडविषेकः ।

८ यमः

पतितस्य धनं हत्वा राजा पषदि दापयेत्‌ ।


पषंदि सभायां दापयेत्‌ सभ्येभ्य इति शेषः|
अथ द्र्ड़ापकरषः । ।
` तच्ानेककब्भैकलापसाध्ये स्तयादौ कात्यायनः,--
आरगश्र प्रथमो दण्डः म्रडतते मध्यमः सतः । `
आरम्म तत्फलावच्छिनिकग्धैकदम्बान्तभूता्थे रकोकम्मौ-
षछत्यामित्यथैः । प्रथमः कथितः सम्यशेदण्डचतुर्धभागा-
त्मकः। प्ररत्ते तथाविधानेककम्मफलकत्यां मध्यमो `
द्ण्डोऽद्खौत्मकः | ^

गप्तायाः संग्रहे दण्डो यथोक्तः परिकल्पितः


| इच्छन्त्यामागतायान्तु गच्छतोऽङंदमः स्मतः ॥
रखवमन्यद्‌ दाहरणौयम्‌ ।
1. अथ दश्डसाम्धम्‌ । `
तच पूर्व्वो व विषये कात्यायनः |
यस्य योऽभिहितो दण्डः पर्य्याप्तस्य स वे भवेत्‌!
ध परय्यप्निस्तत्पापजनकसकलकम्मेकतिः, तदतः पुरुषस्य `
| र्डनिनित्तेष दण्डमेदच्यवस्या । | त

अथ दर्डोत्कषः

तच कात्यायनः . | |
अथवन्तो यतः सन्तो यथोक्तानपितेद्मान्‌। |
ददुनेवोपण्ण्धेरन्‌ तस्मात्तेषु न निशयः॥ |
तस्मादव्याहताः पापा थेन येनाशुभं पुनः ध
न कुर्य्स्तत्तदेवास्य कत्तव्यमिति निश्चयः ॥ . य

न निश्चयो न विदहितदण्डसंखयानियमः, इति निश्चय ` स

इति सिद्वान्तः
अचापराधेषु नियमप्माइगौगौयमानवाः+--
द्ण्डनोयः स शेथिच्यात्‌ प्रथमं वेति गौतमः । क
इति पू्यश्लोकं पूव्यै लिखित्वा अव्याइताः पापा |

सव

इत्यचायोहताः पापा इति पठित्वा हलायुधेन व्याखयातम्‌। |


` अस्य सब्वस्यायमथेः। अपराधेषु यो यस्य दण्डो विहितः `
स प्रथमे च न कर्तव्यः विन्तु यदा तस्मिन्‌ दण्ड प्रयुज्यमाने `
दण्डनौयस्यापराधक्ियायां शेथिल्यं वेसुखमवगतं भवति `
तदा प्रणेतव्यः। ये तु विहितद्ण्डकरणेऽपि पापादुप- |
शन्ता न भवन्ति ते राज्ञा पापानपोहता येन येन पुनः |



पापक्रियायां न प्रवत्तन्ते तं तमेव दण्डं तेषां प्रयु्नौतेति। |
यत्त॒ रनाकरे-- शेथिल्यादण्डहेतुकम्मनिश्चयशेथिल्यात्‌ `
तदनिश्चयादिति पूववा व्याख्यातम्‌ ।
तच्चिन्त्यम्‌ | अपराधासिद्खौ दण्डस्य प्राष्यभावेन प्रति
षेधायोगात्‌ । विषयभेदेन मतभेदोपन्धासायोगाच् ।
न ~
ह. ५, | =दण्डविवेकः |

तथाहि पुव्वश्लोकाथेः। `
तेषु तेपराधेषु मन्वाश्चक्ततत्तदण्डनियमं गार्ग्य
मानवा गगेश्ष्या वदन्ति। गौतमस्तु नियमं न मन्यते ।
दर्डस्य दुखत्तनिवत्तकतया दष्टाथैत्वेन यावता तनिटत्ति-
स्तावत रव शख्ाथत्वात्‌ । तन्निटत्तौ तस्य तस्यौत्स्मिक- `
त्वेन मन्वादिमिस्तथातथामिधानादिति।
रुतव्यायमूलकमेव संग्रहप्रकर णौयम्‌ ।
इदस्पतिवचनम्‌,-- |
चयाणमपि चैतेषां प्रथमोत्तममध्यमः।
विनयः कल्पनोयः स्यादधिको द्रविणाधिकः ॥ इति
तथा कार्षापणं भवेदण्डय इत्यादि मनुवचनं तच्याय-
प ~ ~ ^ ~ +^ ^
`
4 मुलकमेव ।
यच्चाधिकछतगरुविप्राणमवकोशे निभैत्सनं ताडनं
“3 गोमयालेपनं खरारोचणं दपर दण्डो वेति `
शङ्कलिखिताभ्यासुक्तं तस्या्युक्त रखवाथे तात्प्येम्‌।
कात्यायनौयेनैकमुलकत्वे लाघवात्‌ ।
आध्यादीनां विहत्तौरमित्थादियान्नवस्ववक्चने मिता-
छषराकारः दण्डो द्मनादित्याहस्तेनाद्‌न्तान्‌ दमयेत्‌
इत्यनेन दण्डस्य दमनाथैत्वावगमाद्‌ यस्य तत्समदणश्डन `
` विहितेन दमनं न भवति तस्य तदधिको दण्डो निधनस्य । ८
। तु यावता पौडा तावानेवेति रुतदुकतं वेति स्फुटम
्‌ ।
` तदेवं यस्मिन्‌ कम्णि ङ्गमादिकया यो दण्डो ॥| ।||
र `विदितः, तं दत्वाऽपि यस्तस्मिननेव प्रवत्तते तस्व तदधिको `
` दण्डनिमित्तेषु दग्डभेदव्यवस्धा । ५३

द्र्डः । यदि तु विहितस्य दृर्डस्य पुनःप्रटत्तिनिवत्तना-


साम्ये दण्डस्योच्छङ्लत्वादिनाः प्रथममेवावगम्यते तदा
यावता तनिरृत्तिः सम्भाव्यते तावान्‌ दण्डः प्रथममेव
प्रणेतव्य इति सितम्‌ ।
यदि तु प्रथमेऽपराधे यथाविदितो दण्डः पुनस्तज्नातौये `
पतिते यावता दमनं तावान्‌ दण्ड इति मतम्‌ । तदा `
यस्य प्रथम रवापराधे विदितद्ण्डद्‌ानासाम््ये ततो- `
` ऽल्पौयसैव दमनं तच का गतिः। कम्भेणा विहितदश्ड-
पूरणमिति चेत्‌ कस्तं निर्धनः सर्व्वेषां कम्मैसंभवात्‌। [
.ष

व्यास =

समृहस्थाः प्ररत्ताशचेत्पापेषु पुरुषाधमाः ।


यथोक्ताद्धिगुणं दण्डमेकैकं तान्‌ प्रदा पयेत्‌ ॥
समृहश्धाः मिलिताः यथोक्तादिति रकाकिनः पुरूषस्य
व =

पापे प्रहत्तस्य यो दश्डस्तस्मादित्यथेः। अथापराधानुबन्ध-


गौरवादिना दण्डाधिक्ये दैगुण्ादिविशेषानभिधानेन `
तदृत्क्षसौमामाह ।
न्‌(स्
काकिन्यादिक्तुयो दण्डः स तु माषपरः स्मृतः
¶ काकिन्धादिः काकिन्यादिपरः। माषपरो माषान्तः।
। तेन यचापराधे काकिन्धात्मको दण्ड उक्तस्तच निमित्त
। वशात्‌ सातिश्योऽपि माषपयेन्त एव कायः । रवमुत्तर- `
चापौत्याह |] 8

९ क पुरक उत्वर्षादिना! ` र कं यावद्धमम्‌ |


३ घ पुस्तके [ | विद्धितांशः परतितः।
1 ५४ | दण्डविवेकः।

माषावरार् यः प्रोक्तः कार्षापणपरस्तु सः ।


काषशपणावरा्स्तु चतुःकार्षापणशावरः' ॥
^ ^ द्यवरोऽष्टपलान्तश्च वरो दाद्‌ शेत्तरः ॥
। ` अच कार्षीपणपदान्माष इति. गम्यते ।

(1 काकिन्धादिरूथदण्डः सब्वखान्तस्तथेव च ।
इति शङ्खनोक्तं १[तन्नानुबन्धतारतम्यविषयम्‌, अपि
तूत्कर्षावधिकथनपरम्‌। यथा नारदेनेव शङ्खेनैव चोक्तम्‌}
शारौररूववरोधा दिजौ वितान्तस्तथेव चेति ।|
उक्तानुक्तसव्वसाधारणौ सौमामाद ।
काषीपणादया ये प्रोक्ताः सव्वे ते स्यतुगृखणः
सवमन्येऽपि विज्ञेयाः प्रागेते पुव्वसादसात्‌ ॥
पूव्बसादहसः साद्धं पणशतदयम्‌ । तस्माद्माग्‌ ये दण्ड-
विशेषास्ते ऽनुबन्धगौरवात्‌ पापातिश्ये चतुर्गुण ्राच्चाः।
पूव्वसादसादौ तु पापातिश्येऽपि चातुरं नास्तौत्यथे
इति रनाकरः।
रुवच्च शरौरादिदण्डसमुचयस्तचापि न विरुद्धः
योज्यः समस्तश्वैकस्य महापातककारिणः ॥ `
इत्यादौ वाग्धिग्धनदण्डादिसमुदायविधानात्‌।

कार्षापणं भवेदण््यो यचाऽन्यः प्रातो जनः। `


तच राज्ञां भवेदण्डः सहखमिति धारणा ॥ ८
दण्डनिमित्तेषु दगडभेदव्यवस्था । ` ५५ `

यजेति तवेति रेश्व्ीपेष्या राजामात्यादौनाम-


~~~ ^~ ~~ ~ ~~ ^~

अचात्मदण्डब्च राजा प्रकल्पयेत्‌ । तच्च ब्ाह्यशेभ्यो


दद्यात्‌ अष्॒ वा शछिपेत्‌। ईशे दण्डस्य वरुण इत्यादेमनु- `
नैवाभिधानादिति कुल्लुकेन मनुटौकायामुक्तम्‌ । ८
` तच प्रतिभाति महापातकिनां धनदण्डं विचा त्च
स्वयं विनियोगे रान्नस्तत्पापमतिदिश् वरुणत्राह्यणान्य-
तरप्रतिपत्तिं विधाय मनोरयमनुवादो दण्डवाधग्रकरण-
परिसमाप्तौ दशितः ।
न चायं रान्नः स्वदण्डं स्यष्टमीष्टे प्रतिपन्या तदाघ्ेप
इति चेन्न तस्यानियतविषयत्वात्‌। आरमभ्याभौतत्वात्‌, =
तं दण्डमिति वचनाच्च । |
तस्माद्रान्नामवान्तरनरपतौनामिति रलाकरोक्तमेव |
न्याय इति द्रव्म्‌ । खस्य खयं दण्डनातुपपत्तेः। ` |
यत्तु नारायणेन-- किं बहना सोऽपि दष््य रुवेत्या- ॑|
हेति छत्वा वचनमिद्‌मवतारितं तचापि शब्दस्वरसात्क- 1
` मुतिकन्यायो मृलं तस्य चान्येषां दण्डद्‌ाव् तात्पथम्‌। |
` वरूणतब्राह्मण्योरन्यतरस्मिन्‌ अतराजदण्डसमद्रव्य- . |
प्रक्नेप्तु न दण्डः) त्वेन तत््रतिनिधित्वेन वाऽनुप- `
` देशात्‌ । प्रत्युत समनन्तरमेव-- ` र

इत्यादिना तदनत्यागस्येवोपसंहारात्‌ । 1
रवं सति प्रधानस्य राज्ञो दण्डाभावे पापान्निदत्तिः |
५६ . दण्डविवेकः।
नयाम

कुतः-विपक्षे बाधकाभावादिति चेत्‌। नरकश्रवरत्‌। प्राय-


धित्ताचर णक्ेश्प्रतिसन्धानात्‌। अयशेभयादकौत्तिभयात्‌।
अन्यथा खदण्डनेऽपि प्र्तिस्तस्य कुतः विपश्षवाधका- `
भावादिति तुल्यम्‌ । ्रागौत्कव्ानर कश्रत्यादिकं. विस्मत्य
छतपापस्य राजनः का गतिरिति चेत्‌। समथेस्य प्रायश्चित्त-
मसमथैस्य तत्‌ प्रत्याल्नायतया अतं गोदानादि। तच्च
द्रव्यं ब्राह्मणादिभ्यो देयमिति । नारायश्व्यास्यान-
~ न

मप्यवमेव नेयम्‌ |
चअसामथ्ये दण्ड खव कृतो न स्यादिति चेत्‌ गवाद्य-
पेश्षया गुरुत्वात्‌ । गुरुरपि स शठ न्याय्यो दण्ड्प्राय-
श्चित्तयोर्वेकल्पिकत्वात्‌। प्रत्याम्नायस्यानुकल्यकत्वादितिचेत्‌
ति गोदानादिकमपि न स्यात्‌। दण्डाभावे सावकाश-
मिति चेत्‌ न दण्डस्य सव्वच तत्वात्‌ सवदा सम्भवा ।
अस्तु वा तस्य वाग्दण्डो धिण्द्ण्डश्च तथोः प्राद्िवाकपुरो-
हितप्रवर्तनौयत्वात्‌ ।
ल रतदेवाभिसन्धायाह नारायणो-दलायुधश्च “राज-
दण्डस्तु सभ्यैरेव कर्तव्य इति ।
अथ शरोरदश्डेऽवधिमाह कात्यायनः
. . शरौरसत्वरोधादिज्नौवितान्तस्तथेवच ॥

` ~

९ खघ रागोत्वर्षात्‌। .,.
अथ दर्डपरिनिष्टा |
सा च दण्डस्य तत्मकारस्य नियमोऽस्य सभ्रुयस्तश्य
संकलनं द्‌ण्डान्तरेणेति चतुविधेति संहः ।
` तच द्‌शण्डनियमः
पिवादौनां रान्नां हिंसाव्यतिरिक्ेऽपराघे वाग्दण्ड खव ।
म्रव्रजितादौनां िग्दण्ड रवेत्यादिः।

पिताचायः सुहृन्माता भाग्य पुचः पुरोहितः ।
नाद्ण्यो नाम रान्नोऽस्ति यः खधम्मे न तिष्ठति ॥ १ |
याज्ञवल्वयः, |
त्विक्‌ पुरोहितामात्यपुचसम्बन्धिवान्धवाः ।
धम्मादिचलिता दण्व्या निर्वास्या राजदहिसकाः ॥
तेषां दण्डमाह खदहस्यतिः,-
` गुरून्‌ पुरोहितान्‌ पूज्यान्‌ वाग्दण्डनैव दण्डयेत्‌ ।
कात्यायनः
पिचादिषु प्रयुच्छीत वाग्दण्डं धिक्‌ तपखिनाम्‌ । `
म.
स च॥८

धिक्‌ धिग्दण्डनम्‌ । रवञ्च यदमोषामदण््यत्वामिधानं


तदधै-शरौरदण्डाभिप्रायम्‌। = `

५ रौ
| अदण्ड्यो मातापितसर लातकपुरोहितौ परि्राजक- `
` वानप्रस्ौ । जन्मकमेश्रुतशलभशौचाचारवन्तः । ते हि |
पर | दण्डविवेकः।

धम्मेप्रतिकरा रान्नः स्रौबालटद्वास्तपस्िनत्तेभ्यः क्रोधं


` नियच्छेत्‌"
जन्म शुद्वकुलता। कम्मा्िहोचादि। अतं वेदवेदाङ्ग-
| गोचरं ज्ञानम्‌। शौचं वाद्यमाभ्यन्तरञ्चः। रतद्युक्ता
।6 अपि न दख््याः। यतत्ते राज्ञो धम्मेप्रतिकराः षड्भाग-
| रूपधर्म्मोपाजनेनोपकारिण
अच स्तरौबालदद्वा इत्यनेन स्यादौ नामषप्यदस््यत्वमुक्त-
भिति रनाकरः। तपस्विन इति विश्रेषणद्‌शना्धतुम-
|
|
न्निगदस्वरसाचच तेषामपि तपस्िनामेवादण्डः । बाला-
(4
दौनामपि इदस्यतिना ताडनस्मरणात्‌। स्तिया अपि
- भागिनेयादिगमने लिङ्गनचचेद-बधयोदहौनागमने कणी
` कत्तनस्य च याज्नवल्व्येन स्मरणादिति प्रतिभाति ।
घथा च कात्यायनः | |
` आचाय्यस्य पितुमातुर्बान्धवानां तथेव च ।
` रुतेषामपरायेषु दण्डो नैव विधौयते ॥ = ,
दृद्स्यतिः-- ` ^
प्रतिज्लामास्तथा चान्त्याः पुरषाणां मलाः समताः |
` ब्राह्मणातिक्रमे बध्या न दातव्या दमं कचित्‌ ॥
दातव्याः दापयितव्धाः। |
कात्यायन 1
अस्पृश्य-धूर्त-दासानां श्लेच्छानां पापकारिणाम्‌!

प्रातिलेाम्यप्रह्तानां ताडयेन्राथैतो दमः ॥
----------------------न
--------------- = न,

दण्डमरिनिष्ा । ५९.

पापकारिणः पापकरणशोलाः। प्रातिलेाम्यप्रता


निषादादयः खतमागधादयश्च । अन्ये चैवमाद्यो वाक्‌-
पारुष्यप्रकरणे वध्यन्ते ।
यच चौरमधिकत्य टडमनुवचनम्‌,-
अन्यायोपात्तवित्तत्वाद्ननमेषां मलात्मकम्‌ ।
ततस्तान्‌ घातयेद्राजा नाथैदण्डेन दण्डयेदिति ॥
तदपि प्रतिलामादिविषयमेकमुलकात्वकस्यने लाघवात्‌
खतच्च महापातकविषयमिति मिताक्षराकारः |
तथा,
परतन्ल्रास्तु ये केचिद्धासत्वं ये च संसिताः। व
1

अनाथाले तु निदिष्टास्तेषां दण्डस्तु ताडनम्‌ ॥ न

` परतन्त्रा भार्व्यापुचादयः। संख्िताः प्राप्नाः। अनाथा


अनौश्वराः। निर्दिष्टा निङ्खना रकच खदजाताद्यः पच्च
` दासा विवश्िताः। अन्यचानाकालश्ताद्यो दशेत्यपौन- `
रुक्यम्‌ ।
ताडनं बन्धनञ्चैव तथेव च विलम्बनम्‌ ।
रष दण्डो हि दासस्य नाथैदण्डो विधौयते ॥
^ तथा,
बालदद्ातुरस््रौणां न दण्डस्ताडनं दमः। `
| न द्ण्डान्तरमपि तु ताडनमेवेत्यथैः ॥
तथा, |
`५
स्लोधनं दापयेदण्डं धाञ्बिकः एथिवौीपतिः।
= `
निरञ्जना चाप्तदोषा स्तौ ताडनं द्ण्डमहेति ॥
` ६० दश्डविवेकः। .

यदि धनवतौ स्तौ तदा तस्य दोषे सति धनं दण्डो


धनाभावे. तु ताडनमित्यथेः ।
मनुः.--
स््ौवालेान्मत्तटद्वानां द्रिद्राणच्च रोगिणाम्‌ ।
शफाविद्‌लरन्चायीर्विद्ध्यान्पतिदंमम्‌ ॥
दरिद्रोऽच कम्मंण्यक्षमो निद्खनः। दमं दमनं नियमन-
मित्यर्थः । तच्च शिफादिताडनेनैव नार्थे नेत्यथैः। शिफा
नः दै

लता, विदलं वल्कलमिति हलायुधः) रत विशेष-


विहितदण्डेतरविषयम्‌ ।
अचैव शङ्खलिखितौ,
श्यनः कारवः श्रद्रास्तेषां वखभिचारेषु श्योपकर-
णानि रद्टेत, तुलामानप्रतिमानानि बणिकुपथानां, कषेच-
` बौज-भक्त-गोश्कटकर्षणद्रव्याणि कर्षकाणां, वाद्यभाण्डा-
लङ्ारवासांसि रङ्गोपजौविनां, एदश्यनालङ्ारवासांसि
वेश्यानां, शस््ाणि चायुधजौविनां, सव्वेषां कार्दरव्या-
` णयनाहारव्याणि रान्ना धाभ्यिकेण।. अस्वा दहि पुरुषाः
पापकब्हलाश्चाविषेयाश्च भवन्ति तेभ्यः पापांश्मायाजा।
` तस्मानाधनान्नानुपकरणान्‌ कुयात्‌ । तन्मला हि टतति
इेत्तिमूला निवासस्तैनिवसद्धिः स्फौतं राद्रमिहोच्यते ।
शिस्यिनिचलेखादिकत्तीरः। व्यभिचारेषु॒सब्भ- `
|। ५ |
सवापहारयोग्यापराधेषपि। तुलेत्यच समुल्धानानौति ४
` - कल्य्रतरौ पठितम्‌ । तच समुत्थानं बणिवृत्तिसाधनयूतं
दव्यम्‌ । भक्तं कछषिसिद्यथेमन्नम्‌ । करषणद्रव्यं हलादि । `
| ५ `१
वाद्यभाण्डं पटद्ादि । रङ्गोपजौविनां त्यदत्तौनाम्‌ । `
दण्डमरिनि्धा । ` ६९
नारद.
यच यस्यपकरणं येन जोवन्ति कारवः
सव्वस्वहरणेऽप्येतनन राजा हत्तुमहति ॥
उपकरणं जौवनोपकरणम्‌ । रुतच् ॒चौर्ययोपकरणं
विना द्रव्यम्‌। |
अवैव यमः,--
सन्धस्छन्तु हरन्वाजा चतुथैच्चावशेषयेत्‌। `
गत्येभ्योऽन्नं स्मरन्‌ धम्मं प्राजापत्यमिति स्थितिः ॥
सव्यस श्च्यमाणे चतुधमंशं दण्ड्यमानपुरुषश्डत्याना-
मनरार्थमवशेषयेदित्यथंः । |
अच दलायुधः-छूपादिवभेन चतुथमंशं न ण््गौया- |

रुतच वचनं यद्यपि पतितमुपकम्य पठितं तथापि


ततोऽन्यचापि द्रष्टव्यम्‌ । न्यायसाम्यात्‌ ।
दयतप्रकरणे दस्यति
सव्वस्वं जितं सव्वे न दापयेत्‌ |
तच न सव्वमिति चतुथंभागनिषेधपरं यमवचनेनैक-
मुलल्वात्‌ ।
खहस्यति | ०
साहसं पञ्चधा प्रोक्तं बधस्तचाधिकः समतः। `
तत्कारिखो नाथंदमैः शस्या बध्याः प्रयन्नतः ॥
तत्कारिणः साक्षान्तारः।
व | दग्डविषेकाः । `

इत्य तत्कारौ साश्षादधकारौति रनाकरव्यास्यान-


दशनात्‌
तेन मन्यत्पादनदारा विषादिखादिनो' बधे नायं दश्ड
इति गम्यते।
तथा,
मिचप्रा्यधैलाभेवा रान्ना स्ाकंहितैषिणा
न मोक्तव्याः साहसिकाः सव्वलाकमभयावदहाः ॥
मिचैति मिचप्रा्तिलाभादथेल्ाभादेवंजातौयादन्यतो वा
हेतोनं मोक्तव्या इत्यन्वयः । रवच्च न मोक्तव्या अपि तु
बध्या रवेत्यथंः। न तु दरणडसामान्धपरमिदं अर्थलाभे
स््यिभिधानविरोधात्‌ । ५
सोऽयं दण्डनौयपुरुषविशेषादइण्डनियमविशेष उदा- |
हतः! एवमेव दण्डनिमित्तमेदादप्यहनौयः। तथा हि .
उपस्थमुदरं जिद्धत्यादौ कुलकभटेनो्तं तत्तदङ्गस्यापराध-
गौरवलाघवापेश्चया च्छेद्नताडनादि काग्यैमल्यापराधे
, यथाभ्रुतो धनदण्डो महापातक बध इति ।
अथ द्‌र्डप्रकारनियमो यथर ।
मरुः
ब्राह्मणान्‌ वाधमानन्तु कामादवरवगैजम्‌ । `
इन्याचिकैर्बधो
पायैरुदेगजनकैन्टैपः॥
वाधमानमिति पीडयन्तम्‌। अवरवशेजं श्रद्रम्‌ ! चिचय `
( शरूलाग्रनिवेशनादिभिः। अधैदण्डापेश्षया शरीरस्
~~ = ~ -- -

` ९ गविमादिदायिनः। `
दण्डपररिनिद्धा। ~:

` दण्डस्याधिक्येन तापि बधस्योत्तरावधित्वादपराधगौरवात्‌


विषयोत्कषः° । तस्याप्युत्कष॑न्यायादा वचनाद्या प्राप्ते तच


वैगण्यादेरसम्भवात्‌ ब्राह्मणएपौडनविषये श्रद्रस्य बधोपायो-
ऽनेन नियम्यते ।
सव्वन्नेन तु {चिदरनानावित्रहस्तपाद
स्तपादादिभिरिति व्याख्ला- ` ।
तम्‌ । रवमन्यद्‌पि द्रष्टव्यम्‌ ।
अथ द्‌ण्डसमुच्चयो यथा ।

खल्येऽपराधे वाग्दण्डं धिग्दण्डं पुव्बसाहसे ।


मध्योत्तरे धनं दण्डं राजद्रोदे च बन्धनम्‌ ॥
निवसनं निरोधोऽपि काय्यमात्महितैषिणा ।
योज्यः समस्त रकस्य महापातककारिणः ॥
तच मनुः,
। वाग्दण्डं प्रथमं बुर्ययात्‌ धिग्दण्डं तदनन्तरम्‌ । ` |
ठतौयं धनदण्डन्तु बधद्ण्डमनन्तरम्‌ ॥
वधेनापि यद्‌ त्वेनं निग्रहौतुं न शकते ।
तदेषु सव्वभेवैतत्‌ प्रयुञ्ौत चतुष्टयम्‌ ॥
बधदण्डमङ्गच्छेदम्‌। बधस्ताडनमिति कल्यतरः। सव्वे- ` ॥ । ८
मेवेतदिति दश्विधं दण्डं प्रागुक्तं वाण्दण्डादिचयं चेति. `
सव्व्॑तन व्याख्यातम्‌ ।
ई । | दण्डविवेकः ।

विप्रोऽच प्राद्िवाकः। `
अथैकच्‌ दण्डे द्ण्डान्तर संकलनं यथा,

बधाहस्तु खणेतं दमं दाप्यस्तु पूरुषः


अङ्गच्छेद्‌ाहस्तदङं सन्द णास्तदब्कम्‌ ॥
कात्यायनः
सुवशेशतमेकन्तु बधार दण्डमर्हति ।
अङ्गनच्छेदे तदङन्तु विवासे पञ्चविंशतिम्‌ ॥ |
अङ्गन्छेदेऽदमेवं विवासे तदर्जम्‌ । प्रसक्तनधो ब्राह्मणः
छतं सुवणशौन्‌ दण्ड्य इति मखाः । विवास इत्यच विनाश `
इति कचित्यादः। तचापि तदेश्वासख्य विनाश इत्येक
खवाधैइतिरन्नाकरः। `
1 कुलौनायविशिषटेषु प्निशृषटेषनुसारतः । `
सव्वेस्ं वा निखच्येतान्‌ पुराच्छोभरं विसजजयेत्‌ ॥
निङ्खना बन्धने धार्य्या बधं नैव प्रवर्तयेत्‌ ।
सवेषां पापयुक्तानां विशेषाथस्तु शस्तः ॥
कुलौन उत्तमकुलजातः। अग्यः खधम्मेनिरतः।
विशिष्टो गुखवान्‌ । रुतेन निरष्टेषु बधार्देषुः अनुसारतो `
. .: देशकालापेश्षया दर्डः। _ ` |
तच यात्तवस्य,-- = `
ज्नात्वाऽपराधं देशव कालं बलमथापि वा।
वयः कम्मं च वित्तच्च दण्डं दण्ड्येषु कंूपयेत्‌ ॥
९ किष । खकच्ेव्वर्थानुसारतः। .. |
२ क पुस्तके क्िेष्वल्य धनेषु बध
दण्डपरिनिष्टा। - ६५

मनुः,
(५
|
अनुबन्धं परिन्नाय दश-कालौ च तत्वतः ।
सारापराधो चाल्ाक्य दश्डं दण््यषु पातयेत्‌ ॥
अनुबन्धो मन्दक्ियानुृत्तिः । सारोऽच शक्तिः । अयञ्च
दण्डः सुवणेश्ता्यसम्भवे, तस्याप्यसम्मवे सव्वस्वमिति
व्यवस्येत रन्ाकरः ।
अथापस्तम्बः।
पुरुषबधे स्तेये ब्रुम्याद्‌ान इति स्वान्यादाय बध्यः!
चक्षनिरोधस्त्वेतेषु ब्राह्मणस्य ।
स्वानि धनानि। अच रन्नाकरे बध्यस्ताद्यः, चक्षुरव- ह
|
गोधश्वक्षुरुत्पाटनं ब्राह्मणएस्याधमतमस्येति व्याख्यातम्‌|
स्तेयं सुवशंहरणं बाद्यणस्याधमस्येति भिखाः ।
वस्तुतस्तु॒वबध्यो घात्य इत्येवाधैः। स चाज्राह्मण- `
विषयसलुशब्दस्वर सात्‌ । ब्राह्यणपदच्चासङ्कुचितम्‌ ।
तथाहि मिताक्षरायां । ब्राह्मणस्य पुरान्निवसनसमये
वस्त्रादिना चकु्निरोधः कार्ययो न तु चक्ुरु्पाटनम्‌। |
अक्षतो ब्राह्मणो व्रनेदिति--न शरीरो ब्राह्मणदण्ड इति, `
मनु-गोतमवचनविरोधादित्यक्तम्‌ ।
एवच्च यच कछ्षचियादेबेधस्तच ब्राह्मणस्य प्रवासनं बहुशः ५
अरुतमिदहापि प्राप्तम्‌ । तथाच त्यज्यनानं खदेशं पश्यतो `
मन्युरस्य स्यादिति युक्तं चक्षःपिधानमिति भावः! `
द | | दण्डविवेकः।

त्यन्‌,
बधाङ्कच्छेद्‌ारह विप्रो" निःसङ्ग बन्धने विशेत्‌ ।
तदा कम्पैविमुक्तोऽसौ इत्तस्थस्य दमो हि सः ॥

=
` ज्रुटसाश्येऽपि निर्वास्यो विस्याप्योऽसत्प्रतिग्रहतै ।
अङ्गच्छेदौ वियोज्यः स्यात्‌ सधर्म बन्धनेन तु ॥
बधाङ्गनच्छेदाहो यस्मिन्नरपराधे बधो बाऽङ्गचछेदो वार्ति `
तद्ान्‌ । विप्रोऽच सदाचारनिष्ठः ¦! इत्तस्थस्येति विशेषणं
दुतस्य दश्डान्तरं चयतौति कल्यतरः। निःसङ्ग विया-
योगशरन्ये । यच ब्ग: सन्‌ स्वधम्म कत्तं न पारयति तदा
कम्पेविसुक्तः स्यादिति शेषः) स रव सदाचारस्य दमो
यत्‌ स्वधम्मवियोजनं नाम । विद्धाप्यस्तेन रूपेण लेके
प्रकाशनौयः। अङ्गन्च्छेदौ परस्याऽङ्गच्छेत्ता वियोज्यः खध
` स्वधम्मर कत्तु स्वातन््यमस्य बन्धनेनापहरेत्‌ ।
कात्यायन+--
मानवाः सद्य एवाहुः सहोढानां प्रवासनम्‌ ।
सहोढमसहोढं वा सव्वस्वेविप्रयोजयेत्‌ ॥
अयःसन्दानगृत्ताश्च मन्दभक्ता महाबलाः ।
कुर्ययः कर्म्माणि ्टपतेराग्डत्योरिति कौशिकः ॥
अयःसन्दानेति पूव्वं बलान्विताः सन्तोऽयःसन्दानगुप्ता
ध सेाहनिगङ़बद्धाः। मन्दभक्ताः कम्मेयाचोपयिकबलजनक-
भोजनभाजः। कम्माणि कुय्यराख्त्योरिति योजना|
ब्राह्यणविषयच्चंतदचनम्‌ । तेन ₹इत्तखाध्यायवतः प्रवा-
९ ख घ पस्तकदये बधाङ्ेदने विप्रः । `
शडपरिनिष्टा । दऽ #

सनम्‌ । तच्छन्यस्य घनवतः सव्धखदरणम्‌ । निरईन्ख `


तु तथाविधस्य बन्धनादिकमभिपेतमिति रल्ाकरः ¦
साहस-चौव्धयोयैमः,-
[1

न शरीरो ब्राह्यणस्य दण्डो भवति कर्हिचित्‌ ।


गुतते तु बन्धने बद्धा राजा भक्त प्रदापयेत्‌ ॥
अथवा बन्धनं रज्वा कम्मे वा कारयेन्नृपः ।
मासार्मासं करव्वौति का््ये विन्नाय तत्वतः ॥
यथापराधं विप्रन्तु विकम्माणयपि' कारयेत्‌ ॥
गुप्ते रिति यतः पलायनं न भवति । बन्धने कारा- स

गारे । विकम्मपशि उच्छिष्टमाजनादौनौति रताकरः। क

उत्तस्राध्यायवान्‌ स्तेयौ बन्धनात्‌ क्लिश्यते चिरम ।


स्वामिने तद्वनं दाप्यः प्रायचित्तच्च कथ्येते ॥
उत्तमा मनु+-
गुरुपूजा णा शौचं सत्यमिन्द्रियनिग्रहः ।
प्रवत्तनं हितानाच्च सव्वं तहन्तसुच्यते ॥
कात्यायनः
धनदानासहं बुद्धा स्वाधौनं कम्मे कारयेत्‌ ।
प्रे
सस

अशक्तो बन्धनागारं प्रवेश्यो ब्राह्मणहते ॥


छचविट्‌श्रद्रथोनिसतु दण्डं द्‌ातुमशक्तवन्‌ ।
आगण्यं कम्मण गच्छेत्‌ विप्रो दद्याच्छनैः शनैः ।
---- -----------"-----------~--~--------------------+-------

१ घ एु्तके किंकम्भाणयपि । |
६८ ` दण्डविवेकः।

क कम्मेणाऽथैनिस्तारानुरूपव्यापारेण' । विप्रस्तु न
कम्मैणाण्यं गच्छेदपि तु कमेण ददयादेवेति रन्नाकरः ।
इह ब्राह्यणस्य कम्पैकरणादिबोधकनानावचनविरोधे
व्यवसा प्रतिभाति ।
यच ब्राह्यणस्य धनद्‌ण्डः कियते तच धनिकस्य यथा-
विहितं सब्येस्हरणं सहसख्रपणादियदहणच्च । साहसादि कच्च
` निर्बनेनापि तेन यथोदयं देयनेव न तु कम्पैणा परि-
शोध्यम्‌ । यस्य तु कमेणपि धनोदयसम्भावना नास्तिस
धनद्‌ानासदः । तस्य कम्यशेव परि शोधनम्‌ ।
यच घनश्रुतिनास्ति तचोत्तमस्य इत्तखाध्यायवतः समा-
पत्तिसंभावनायां यथापराधं निगहेन रन्वा वा रहसि
` बन्धनं प्रायित्तानुष्ठापनच्च ! असमापत्तौ च प्रवासनम्‌।
असमापत्तौ नाश इति प्रकौणेकप्रकमोपकमे वश्य-
माणपस्तम्बवचनसंवादात्‌ |
हीनस्य तु हानितारतम्याद्राह्यणानुचितस्य परिचरव्षा-
= देरुच्छिष्टमाजंनादेवा विकम्भेणः करणम्‌ । प्रवासितस्या-
समापन्नस्य हीनस्याहौनस्य वा वेवास्यादागत्य तथेव मन्द्‌-
1 कियानुबत्तिनो यावन्नौवं यावत्समापत्ति वा बन्धनमिति ।
अथ इदहस्पति |
साकिलेख्यानुमानेन सम्यग्‌ दिव्येन वा जितः
यो न दद्यादेयदमं स निवस्यस्ततः प्रात्‌ ॥
- - "~ न ------------------------------------~-----------------~ ------------

९ क कम्भगा खनिसताराथैखरूप्रयापारेण।
|

दण्डपरिनिषा । ` €

|

जित इति निर्णोतदोषपुरुषमाचपरम्‌ न्यायसाम्यात्‌ ।


रवञ्च सक्षिलेस्येव्यादिकमपि प्रमाखमाचपरम्‌ । वाकारौ
ऽनास्था्थां देयं विवादविषयौभरूतं दममपराधमुलकं
दण्डम्‌ ।
सेयं मेद्प्रभेदाभ्यां सम्भूयाष्टविधा व्यवस्था दण्डमाठ्के-
व्यच्यत । इयच्च सत्वचानुसन्यया ॥

इति श्रौवद्धंमानञ्तौ दण्डविवेके दण्डपरिकरपरिच्छेदः


प्रयमः ॥ १ ॥


वभ
कन दण्डविचेकः।

~ (28 मनुब्यमस्खद्‌सख्, ।
अविन्नाते हन्तरि' तज्ज्ञानोपायमादह याज्ञवल्वयः,
अविक्नातहतस्याशु कलदं सुतबान्धवाः ।
प्रष्टव्या योषितश्चास्य परपुंसि रताः प्रथक्‌ ॥
केन सदहाऽस्य कलहो जात इति खतस्य सुतादयः
प्रष्टव्या इत्यः |
प्रञ्नप्रकारमादह स रखव,+-
स्ौद्रव्यदत्तिकामो वा केन वाऽयं गतः सह ।
| खत्युदेशसमापनः एच्छेचापि जनं शनैः ॥
` स्यति-
हतः संदृश्यते यच घातकस्तु न इश्यते ।
पूर्वश्वेरानुमानेन ज्नातव्यः स महौभुजा ॥
प्रातिवेश्याुवेभ्यौ च तस्य मिचारिवान्धवाः ।
परटव्या राजपुरुषैः सामादिभिरूपक्मैः॥ `
ज्नातस्य इन्तुर्दण्डमाह बोधायनः
सचियादौनां ब्राह्मणवधे बधः सव्वस्वहरणच्च । तेषा- `
मेव तुल्यापक्घष्टबधे* यथाबलमनुरूपञ्च दण्डं कल्पयेत्‌ । `
छचियबधे गोसदसरं राक्र उत्ध॒जेत्‌ वैरनिर्ययातनाथेम्‌ । `
शतं वेग्ये दश श्रदरे ठषभश्चाचाधिकः। श्रुद्रबधेन स्वौबधो
९. ग पुस्तके कन्तेरि । २ मूले-- समासन्नम्‌ ।
मूले--वेरानुसारेण । स
8 घर पु्तकदये तुल्यावकढवधे । .
मनुष्यमारण्दण्डः । ` | ॐ

गोवधश्च व्धास्यातोऽन्धचाचैच्या धेन्वनदुद्ोरन्ते चान्द्रायणं


चरेत्‌ आचेय्या बधः छषचियवधेन व्याख्यातः! हंस-
भास-बर्हिंणश-चक्रवाक-वलाका-काकोलक-मण्डक-नकु- स
^ यट

लाहि-खच्छरौर-वभ्रनकुलादीनां बधे श्रुद्रवत्‌ |


वेरनिर्व्यातनाधेमिति यो येन न्यते स॒ तमवश्यं स

हन्ति, अतः प्रायित्तं कुर्यात्‌ । तथा सति नासौ तेन


हन्यत इति तननिर्यतनं भवतौत्यापस्तम्बस्हे कपर्दि- व

भाष्यम्‌ |
रुवच्चापस्तम्बौयेन समं बोधायनौयस्यैकरूपत्वात्‌ । .
-~-~---~-~~-~-~-~

अथोदासौनं शछचियं इत्वा पूतो भवतौत्युशनःसच-


॥ ८` संवादाच। यद्यपि प्रायञ्चित्तपरत्वमस्य प्रतोयते ।

| तथापि रान्न इति लिङ्गात्‌ दण्डपरत्वस्यापि प्रतीतेः


प्रायश्चित्तरूप रवायं द्ण्डः। अभिगमदूषिताया ब्राह्मण्या =
यथोक्तशिरो सुण्डनादिवत्‌ ।
अतरव कामधेनौ धम्पैपादे चाथैपादे च तुरीयांशे
|
वचनमिदमवतारितम्‌। कल्यतरौ तु प्रायित्तकाण्ड-
व्यवहारकाण्डयोर वतारितम्‌ ।
आतेयौ छतुमतौ स्तौ ।
रजखलाखतुल्ातामाकेवीमाहरचये यदपत्यं भवतीति ` |
वशिष्टद्‌ शनात्‌ ।
िग ोच जा चा चे यौ । अत रिगोचां वा नारौमिति |
अच
` विष्णस्मरणादिति मिताक्षरा1
अर्‌ द
ण्डविवेकः |

नकुला जलनकुसः । व्र नकुलः स्यलनकुलः । समण्ड-


केत्यादिर्यथालिखितः पाठः कल्पतरौ दृष्टः! कामधेनौ तु
मण्डका-नकुलादौनामिति पाठः! एवमेव इलायुधनिबन्धः।
खच्ञरीरिस्थाने तित्तिरिष्केति रननाकरे पाटः
तद्याखानच्च प्रमादः वलाकेत्धच प्रचलाकेति परित्वा
` प्रचलाकः छकलास इति दलायुधेन व्याख्यातम्‌ । आदि-
पद्‌ादन्येऽपि तियेच्चो द्यन्ते ।
यदा क्षचियवैश्यश्रूद्रा बाद्यणं ध्नन्ति तदा तेषां सब्वेस्वं
यदहौत्वा बधः काथ्यः। यदा तेषामेव श्चियादौनां मध्ये
तुल्यावकष्टजातोयबधौ भवति-- यथा शछचियः छविय-
वैश्वश्रद्रान्‌ दन्ति, वेश्यो
वैश्यश्रदौ, शद्रः मरदरमिति। तदा
यथाबलं यथासामण्मनुरूपच्च दण्डमुत्तमसाहसादिरूपं `
9 शरीरं वा दण्डं कल्पयेदिति रलाकरः।
हलायुधेनानुरूपमित्यन्तरसुत्तमसादसादिरूपं शरीरं
वेति श्रूद्रमध्य खव पठितम्‌ । अच शरौरो दण्डोऽज्नच्छेदो
नतु बधः शरौरेण व्यपरेशदन्यथा बध इत्येव व्रयात्‌
इत्येकयश्षः।
` बधञ्च शरौरस्तस्यैव शरौरसम्बन्धात्‌ । आत्मनोऽध्य- |
=
ट -, त्वात्‌ )।

शरौरल्ववरोधादिजौवितान्तस्तथेव च ।
इति नारद संवादाच ।

९ क तिकतेरिकेति। ग तिकतेति। = `
मनुष्यमारणदण्डः | ७इ्‌

अङ्गच्छेदस्याङ्गेनैव व्यपदेष्टमोचित्यात्‌ साक्षात्‌ सम्ब-


दात्‌, अङ्िनिः शरौरस्य परम्परया तदन्वयात्‌
^ श्रारौरोऽङ्गच्छेदो वा भवेत्‌ ” ॥ इति शङ्कलिखितयो-
विकल्पोक्तिस्वरसात्‌। |
उपश्यमुद्‌रं जिद्वा इस्तौ पादौ च पञ्चमम्‌ ।
चक्ष्नासा च कणौ च धनं देदस्तथैव च ।
इति मनुवचने द्ण्डस्याने शरौरस्य एथगुपादान- `
स्वरसा देहदण्डो मारणमिति कुलूकभट्रव्यास्यानादित्य-
परः पक्षः।
अच प्रतिभाति । 'खजातौयबधे बध रव हन्तुः! तव॒
तथ्यैवानुरूपत्वात्‌ ‰घातने तु प्रमापणम्‌” इत्यापस्तम्ब-
वचनसंवाद्‌च ।

विजात ौयवये ॒द्शमभ ाह्मणापकर्ष


तु ागकमेण तत्तुल्यषु-
त्‌ दिवधे
ु छचिया
कचकेषदर्धना =` |
गोदण्ड े दशम
न्यायात्‌! तथा तुख्यापकष्टजातौयवधे उत्तमसाहस- `
मन्यन्तापक्षष्टजातौयबधे मध्यमसाहसमिति धनदण्ड-
कल्वनम्‌ ।
तथा दयोरईस्तयोरेकश्य हस्तस्य च्छेद्‌ इत्यादिशरौर- = ।
दश्डकंल्पनसुचि तमानुरूष्यात्‌ ।
शवञ्च कल्पयेदिति विधिखरसोऽपि घटते। अधेः |
शरौरथोसतु दण्डयोविकल्यो घनवच्वाधनवच्वाभ्यां बुद्धि `
पूव्वकत्वाबुद्धपुव्वकत्वाभ्यामन्यथा स्थानान्तरवदेव व्यव- |
:. :स्यां इति 1... ध |
५ १५खगसजातोयवघेदइतिपाटः)
10 1
७8 ध | दण्डविवेकः।

रवं कछचियादिकत्तके बधे व्यवस्थामभिधाय पारि


शेष्ात्‌ बाह्मणकत्तेके तामाह । `
छवियवध इत्यादि । ब्ाह्यणस्य क्षचियवबधे गोसदख-
इषभादिकं दण्डः ।
वेश्रयबधे गोशतदषभादिकम्‌ । श्रद्रबधे गोद्शकटृषभा-
दिकमित्यधैः।
तथा आचैयौव्यतिरिक्तस्ततौबधे येन्वनड्हव्यतिरिक्तगो-
बधे च श्रूद्रवत्‌। आचेयौवधे घेन्वनङ्हबधे च श्चिय-
बधवत्‌ । हंसभासादौनां बधे श्रद्रबधवदण्ड इति
रनाकरः ।
रुवच्च ब्राह्मणादौनां मध्ये यो यस्य छचियश्द्रयोबधे
दडः स एव तेनाचेच्या बधे देय इति गम्यते ।
अच परकौयाणामेषां बधे इन्तुः.-तत्छामिने तत्प्रति-
निधि-तनमूल्ययोरेकतरदानमपौति दण्डपारुष्यप्रकरणे
स्फारम्‌ । |
अव्व्‌.ग्चुश
दस्यश्वरथहन्तं्च हन्यादेवाविचारयन्‌ ।
अविचारयन्‌ तथाविधकंम्भणि निश्चिते अविलम्बमानः।
अच मम्मेघाति-तदघातिषु प्रदन्तषु विशेषमाद--
इदस्यतिः।
रकस्य बहवो यच प्रहरन्ति रुषाऽन्वितः
मम॑प्रहारदो यस्तु घातकः स उदाहतः ॥
मम्बेघातिनमेतेषां यथोक्तं दापयेदमम्‌ ।
"आरम्भत सहायश्च दोषभाजस्तद्डतः ॥
१५ खगन! २ कख ख पुस्तकचये अरम्भकः।
मनुष्यमारणदण्डः । ` ७.

यथोक्तमिति यज्जातौयष्य प्राणिनो घातकतामधिकत्य


यो दण्ड उक्तस्तं मम्पेधातिनमेव दापयेत्‌ । यस्तु तचा-
रम्भकत्‌ यश्च सहायस्तथो यथोक्तदण्डादञ्द ण्डः ।
अथ परेरकाद्ण्डमाद--याज्नवस्कयः,--
यः सासं कारयति स दाप्यो दिगुणं दमम्‌ ।
तथेवमुक्ताहं दाता कारयेत्‌ स चतुर्गुणम्‌ ॥
कारयेदचसेति रल्नाकरः। तथा यथाहं दातेत्येव- ` स

सुक्क कारयति तस्य चतुगणो दण्डो वर्णोत्कर्षादित्यथं--


इत्याद ।
वं कुवि- `|
कल्यतरावपि--अहं तुभ्यं दास्यामि धनं त्वमे
` व्यमिधाय यः कारयति स चतुगुणं दाप्य इत्युक्तम्‌ ।
तथान्येषामपि केषाञ्चिद्‌ घातवात्वमलिदिशति-- । |
कात्यायनः |
आरम्भकषत्‌ सदाय तथा मार्गानुदेशकः
आश्रयः श्स््रदाता च भक्तदाता विकम्भिणम्‌ ॥
युन्चोपदेशकश्ैव तदिनाश्वत्तकः ।
उपेक्षाकाय्ययुक्तश्च दोषष्वक्ताऽनुमो
दकः ॥ |
, अनिषेद्वा छमो यः स्यात्‌ सव्वे ते काथ्कारिणः
` यथाशक्या(क्)नुरूपच्च दण्डमेषां प्रकल्पयेत्‌ ॥
सहायो व्यवहितः--अन्यस्य बध्यत्वात्‌। तदिनाश-८५.
प्रवत्तको । युद्धोपदेशं विनैव विषदानादिना नाश्प्रवत्तकं

९ ग पुस्तके --रत्तानुमोदकः ।
द्‌ ४ दग्डविवेकः ।

` उपेश्ाकारौ निषेषे साक्षादश्षमोऽपि परद्वाराऽपि प्निषे-


धानुक्कृल्याकारौ । अयुक्तो दोषवक्तंति रान्ना अनियुक्तोऽपि
` घातनौयदोषवक्ता--इत्यथेः। अयुक्तो घातकासम्बन्ध
इत्यन्ये ।

सामथ्यं सल्युपेश्ाकारौति व्याख्यातम्‌ ।


तथा पैठीनसि
हन्ता सन्त्रोपदेष्टा च तथा संप्रतिपादकः।
प्रोत्साहकः सहायश्च तथा मागौनुरेशकः ॥
उपेष्कः शक्तिमश्चदोषवक्ताऽनुमो
दकः ।
अकाय्यकारिणामेषां प्रायशित्तन्तु कल्पयेत्‌ । `
यथाशकतयनुरूपच्च दश्डच्चेषां प्रकल्पयेत्‌ ॥
` रवमन्येऽ्यवकाश्दानादिना धातकोपकारिणः स्तेय- `
प्रकरणौया इहोद्‌ाहरणौयाः ।
4 त्यासः, -~

ज्ञात्वा तु घातकं सम्यक्‌ ससहायं सबान्धवम्‌ ।


इन्याखचिबधोपायैरुदेगजनकेन्धेपः॥
सहायोऽचात्यन्तसननिहितो विवद्ितिः। बान्धवाश्च ये
सादसकर्तारं ज्ञात्वाऽपि न तं परित्यजन्ति त रुवाचोक्ता
इति रन्नाकरः।
अच साश्व्प्रयुक्तयनुग्रहानुमतिनिमित्तमेदात्‌ पञ्चविधो
|| बधः स चासमाभिर्तविवेके भेदपरमेदाभ्यां विस्तरेण `
\ ५ प्रपच्ितः। ~~~
| |
९ ग एुत्तके निषेधानचुकरूलकारौ । = `
मनुश्यमारणदण्डः | | ७9

तचानुग्राहकादौनां प्रत्यासत्तिव्यवधानापेश्षया व्यापार-


गतगुरूलाधवापेश्षया च फलगुरुलाधवात्‌ प्रायशित्तगृर- `
लाघवं तचैव व्यवसितम्‌ । यथा अनुमाहकस्य पादोनं
प्योक्तुर्म्‌ । अनुमन्तुः सार्पादः । निमित्तिनान्तु
पाद्‌ इति ।
रवं व्यवस्थिते प्रायश्चित्ते यच विशेषवचनं नास्ति त्च `
दशण्डोऽप्येवमेव द्रष्टव्यः । दयोस्तुल्ययोगश्चेमत्वात्‌ । उभयव `
व्यवधानाऽव्यवधानयोरनुरोध्यत्वात्‌ । पेटौनसिवाक्ये दयो
सतुख्यवत्‌ कल्यनौ यत्वोपदे शच ।
निमित्तिनक्तु अक्रोशनादिदण्ड खव न तु हिंसा-
दृर्डोऽपि तच तस्याभिसन्धानाभवात्‌। अतरवाततायिनि `
। प्रमादग्डते दण्डाभावमाह मिताक्षराकारः ।
यच तु विधिप्रात्तमाकोशनादि तच तदण्डोऽपि नास्ति|
उक्तच्च भवदेवभद्रेन । यदा विहितवाग्दण्ड-धनदण्ड- `
शरौरादिदण्डेपराधातुरूपेषु गलयपाशदिना वियते `
तदाऽपि न दोषः। मन्धृत्पादनेऽपि दण्डानां विहितत्वेन `
निषेधानवकाश्णत्‌ । यतो न दहिंस्यादिष्यनेन साक्षात्‌-
परप्राणवियोगफलब्धापारकत्तत्वं निषिध्यते ।
न॒ च निमित्तिनो |||
वाग्दण्डनिमित्तातिरिक्व्धयापारे ; | ।
कततृत्वमस्ति तदैव हि मन्युत्पादनदारेण परम्परया बध- `
कारणमतः कथं तस्य निषेधविषयत्वमपौति ।

नतुरवच्द प्रयोज्यस्यापि
दण्डोऽपि । खपतेः सगे इव हिंसायां नंतस्य पापमाच्ं
विध्यतिक्रमनिबन्ध खरसा- ` |,
ङ | दण्डविवेकः ।

भावात्‌ । परप्रयुक्या प्रवर्तमानस्य तत्यचादिस्थानौय-


त्वात्‌ । स्वामिप्रयुक्त-हय-हस्ति-कुकुर-वानरादिवत्‌ प्रतते
पराभौनत्वात्‌ ।
रवच्च यथा तच सखामिन रव दण्डः । पुचापराधेन
पितेत्यादि दण्डपारुष्य-दण्डमालृकालिखितनारदवचन-
स्वरसात्‌। रवमिहापि प्रयोजक रव दण्डयो न तु प्रयो
ञ्योऽपि न्यायसाम्यात्‌ । दश्ितिच्चेव तदथं इदस्यतिवचनं
स्तेयदण्डमालकायाम्‌ ।
दूत्थमपराधानुसारेण दण्डव्यवश्ितौ न्नात्वा तु
भातकमित्यादिव्यासवाक्ये रल्ाकरौयं बान्धवव्यास्यानं
चिन्त्यम्‌ ।
नहि साहसिकापरित्यागमाचं प्ररूढो दोषो येन तच
बधः स्यात्‌! साहसानभिसन्धायिनोऽपि सेहादिनाऽपि
. तत्सम्भवात्‌ । तस्माद्‌ ये बान्धवाः साहसिनं न निवारयन्ति
| प्रत्युत साहसफलाथितया स्वथमपराधयन्तः परं परयन्ति
वेषां तत्तुल्ययोगक्षेमत्वादयं दण्डविधिः ।
अन्धथा घातकाओरोपधातकाः स्वशरीरेण दण्व्याः
सरिति यमवचने खशरौरेण दण्डोऽप्यचापराधानुरूपो
विवक्षित इति रल्लाकरौयमेव व्याख्यानं विरुध्यते ।
अथ नारद्‌,
अयुक्तं साहसं त्वा प्रत्यासत्तिं भजेत यः
ब्रयात्‌ स्वयं वा सदसि तस्याईविनयः स्मतः ॥
मनुष्यमारयदण्डः! ` €. `
=

` "्गृहमानलतु दौःशौल्यात्‌ यदि पापःसजीवति। स

सभ्याश्चा प्रदुष्यन्ति तौत्रो दण्डश्च पात्यते ।


अच प्रत्यासत्तिं विनयकन्तसान्निध्यं यः क्यात्‌ । यो
मयेदं साहसं तमिति ब्रूयात्‌ स॒ साहसमगृहमानः |
तस्यानधिको दण्डः । गृहमानष्य त्वधिकं इति श्रोकाथे
इति रलाकरः
0

हलायुधस्तु--साहसकाग्यमन्धायसाहसं कत्वा प्रत्या


सत्ति प्रायधित्तं यदि भजते खयमेव सदसि साहसकन्तत्वं
निवेद्य दण्डो मे क्रियतामिति वा वदेत्‌ तस्य यथोक्त-
दण्डाद्द्ण्डः। यतु दौःश्ौल्यं गृहमानस्तस्मादेव
जवति तस्य चेङ्गितादिभिः सभ्याः साहसकारित्वं नित्य
तस्य खल्पेऽपि साहसे तौ्रो दण्ड इत्यथे इत्याह ।
इयमपि बैतद्‌थेगत्या युक्तमेव ।
अच यः साहसं कारयतौत्यादिवचनानां रल्नाकरे `
पञ्चविधं सादसमुपकंम्यावतारणाद्‌ यान्नवल्कय-नारद्‌- `
वचनयोः साहसस्यैव खवणात्‌ कात्यायनवचने तदश्रता- |
4
| वपि रल्नाकरक्षता तदुभयमध्यपाखरसात्‌ स्तेयादिष्- |
प्येष दण्डो दण्डविशेषश्च द्रष्टव्यः ॥
|

| दति ्रौवद्धेमानक्तौ दण्डविवेके मनुग्यमारणदण्डपरि


च्छो
दितोचः॥ `
|
|

॥|

कख ग पुस्तकेषु गटद्यमएणस्त ।न ।
८० | ¦ ८ दण्डविवेक ।

अथ सेयदरडः
तच स्तेयं नाम अनैयायिकं परसखयदहणमिति सतिः,
तच विशेषमाह मनुः,-
स्यात्‌ सासं त्वन्वयवत्‌ प्रसभं कस्यै यत्कृतम्‌ ।
निरन्वयं भवेत्‌ स्तेयं छत्वाऽपव्ययते च यत्‌ ॥
अन्वयवत्‌ रशिपुरुषसमश्षम्‌ । अपव्ययते अपहृते ।
तेन प्रसभं बलात्कारेण र्कमभिग्रूय यचापहारस्तच
साहसमेव न तु स्तेयम्‌ ।
अगोपनाद्‌ यच च्छलेन रश्िसमश्षछतोऽप्यपद्ारो
। नीष्यते, तदेकं स्तेयं प्रहणस्यापड्ववात्‌। यच तु रक्िणोऽन्वय
खव नासि किन्तु ततोऽपह्ाय्यापहारस्तदपरं स्तेयम्‌ ।
उभयच स्तेयसुक्तमपइव इति कात्यायनसंवादत्‌ ।
तेन प्रथमाऽपच्ता वस्तुतस्तस्करोऽपि साहसोक्तदण्ड-
प्राष्य साश्छिविशेषदिव्यविशेषपरिग्रहाथे च सादसिक
इत्युच्यते । दितीयः प्रकाशतस्करो रक्षिणः प्रकाश्चैवाप-
हारात्‌ ठतौयोऽप्रकाश्तस्करः सुप्त-मत्त-प्रमत्तात्तौना-
मप्रकाशमपेश्यापदारात्‌ । सवच चाचापदर्तः सकाश-
दृप्तं द्रव्यं खामिनो दापयित्वा तं तमपराधं लेके
~
5~
~

कथयित्वा दण्डः कायैः | |


तथाच दहस्यति 1
संसगेलेाप्तचिङ्ेश्च विन्नाता राजपूरुषेः
प्रदाप्यापहृतं शस्या दमैः शस्तरप्ररेशितैः ॥
सेषः | | ॥

इह संसगीदिकं राजपुरुषाणां ्रहणएनिमित्तं न तु


निश्चायकमविनाभावाभावात्‌ । `
अतर्व नारद्‌+-
अन्हस्तात्‌ परिमष्टमकामादुङ्ृतं पथिः
चोरेण वा प्रतिशिप्तं साप्त यात्‌ परौश्षयेत्‌ ॥ `
तस्माचोरत्वनिश्चयो दृषटेनादष्टेन वा प्रमाणेनैवेति
स्थितम्‌ ।


तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कम्मणि तत्वतः ।
कुर्वत शसनं राजा सम्यक्‌ सारानुसारतः ॥
येषु पुनः स्तेनत्वपिभिरतिदिष्टं तेषां दण्ड खव । `
उपटेणदतिरेश्स्य तदेकाथेत्वात्‌ न तु इतदान-
मस्मरणत्‌ । के पुनस्ते- |


भक्तावकाशग्न्युदकमन्त्ोपकर
शव्ययान्‌ ।
दत्वा चोरस्य न्तुवा जानतो दण्ड उत्तमः ॥
अवकाशो वासस्थानम्‌ अभ्निशचोरस्य शौतापनो- `
दनाद्यथैः। उदकं ठषितस्य ठष्यथैम्‌ । मन्त्रथौयेप्रकारो-
पदेशः। उपकरणं चौयसाधनं शस्रादि । व्ययोऽपदन्ते
गच्छतः पाथेयम्‌ । जानत इति वचनात्‌ तस्य चोरत्वं
इन्तत्वं चान्नात्वा भक्तादिदाने दोषाभावः।
| १ मूले कामादुपगतं सुवि।
छ ५ दण्डनिवेकः |

, मनु,
अ्चिदान्‌ भक्तदाओरेव तथा शस््रावकाश्दान्‌ ।
सन्निधातंच मोषस्य इन्धाच्चो रानिवेश्वरः ॥
अ्रिदान्‌ शददादहाद्यथेमिति नारायणः सन्निधातन्‌
मोषणौयद्रव्यानुक्रलसन्निधानकारकानिति रलाकरः।
सुष्यत इति मोषश्रौरधनं तस्यावस्थापकानिति मनु-
टीकायां कुल्लकभटरः।
नारायणस्तु खहदादादिकमयं करिष्यतीति ज्ञात्वाऽपि
सन्निधातुन्‌ वा तत्तत्स्थानसमौपनेतृन्‌ मोषस्य चौरस्य
वेत्याह । एतच्च भयाज्नानविरहेनेयमिति रनाकरः ।
अच विष्णः--हन्धादित्यनुदत्तौ,--
प्रसद्य तस्कराणमवकाशभक्तदांखान्च राजश्कः।
यदि राजा चौरनिराकरणाप्रभविष्णस्तदा ख्वरशषणाय
चौरभक्तादिदानेऽपि न दोष इत्यथैः | |
हलायुधेन तु आसक्तेरिति परित्वा अन्यच राजासक्ते-
र्विना राजसम्बन्धात्‌, तेन यो राजान्नयैव चौराणां विश्वा-
साथे भक्तादिदानं करोति नासौ बध्य इति व्याख्यातम्‌ ।
४ क्रलइहितयास्तेन-भक्तदाचादौनां वास्तवं स्तेयं नास्ति)
तदतिदेशमाभित्य तदृक्तदण्डोपदेशः
पतदनु-
काम-
मस्तु किन्तु दोषतारतम्थादर्डतारतम्यमनुरोध्यम्‌। मनुष्य-
मारणप्रकरणपरिसमाप्िनिरक्तन्यायात्‌ व्यवहारशस्तर- `
सिद्नान्तात्‌। छ
१ ग तदनुकरलिततया। ।
` क्तेयदण्डः । ` ~: दे

न चेदमुचितं सन्िच्छेतस्तद्वक्तदातुश्च तुल्यो दण्ड इति!


` तस्मादिदमपि दण्डगौर बमनुबन्धगौर वादिति नेयम्‌ ।
अथ नारदः+
भक्तावकाश्दातारः स्तेनानां ये प्रसपताम्‌ ।
शक्ताश्च ये उपेक्षन्ते तेऽपि तदोषभागिनः ॥
चौरस्यावप्रहं
ध कत्तँये समर्थासत्यजन्ति तेऽपि
| चौरा इत्यथैः
| ।|

राष्रेषु रशछाधिकतान्‌ सामन्तांश्चैव देशान्‌ ।


अभ्याघातेषु" मध्यस्थान्‌ श््याचौरानिवेश्वरः ॥
सामन्तान्‌ ग्रामवासिनः समन्तात्‌ समौपस्थितान्‌

देशितान्‌ रक्ाथमादिष्टान्‌ । अभ्याघातेषु चौरैः किय- `


मारेषु धातेषु मध्यस्थान्‌ उपेश्षकान्‌ ।
कात्यायनः,--
आह्वायका देशकरास्तथा चान्तरदायकाः । `
समदण्डाः स्मरताः सर्ववे ये च प्रच्छादयन्ति तान्‌ ॥
आद्वायक्रेत्यादौ चौराणमिति रेषः। आह्वायकाः `
चरकाः अन्तरमवकाशस्ानमिति यावत्‌ ।
सववैश्चायमतिदेश्टो मनुष्यमारणेपि द्रषटव्यः। चौरस्य ` |
न्तु वेति याज्नवल्कयादिभिरूभयोपादानात्‌ । `
भ्न

०१५०१

क्तारश्चेव भाण्डानां प्रतिभ्राहिश रव च |


समदण्डाः स्मृताः सव्वं
अति

य चप्चछाद्यन्ति तान्‌ ॥ ५
भाण्डानां चोरितद्रव्याखम्‌ ।
मन

९ क पुस्तकं च्मभ्यागतेषु ।
८४ 4 द्‌श्डविवेकः |

मनुज । ।

योऽदत्तादायिनो दस्ताल्िेत ब्राह्मणो धनम्‌ ।


याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः ॥
अदत्तादायिनश्ोरस्य लिष्तेतेति ग्रहणपरं सन्‌ प्रयोगस्य
निदिष्यासनादिवद्‌ष॑त्वेनाविवक्षितत्वात्‌। धनमिति पर-
कौयमिति ज्ञात्वेति शेषः ।
इहापि मनुष्यमारणप्रकरणपरिसमापिनिरूकन्यायाद्‌
यथा तथेति ्रवणच स्तेनद्रव्यकेतुस्तत्परि गरहोतुश्च सतेन-
त्वातिदेशमाचमेव, वास्तवस्य स्तेयस्याभावात्‌ ।
तदपि तदृक्तदण्डप्राघ्यधेमेव प्रकरणात्‌ न तु प्राय-
अित्ताद्यतिदेशषरम्‌ । अतः स्तेनहस्ताद्राद्यणस्वमपि सुवण
क्रौत्वा ण्हौत्वा वा मदहापातकित्वं न भवतौति ध्येयम्‌ ।

४ यत्तु याज्ञवल्वयवचनम्‌,--
खहौतः शङ्कया यस्तु स्मात्मानं न शोधयेत्‌ ।
दापयित्वा हतं द्रवयं चौरदण्डेन दण्डयेत्‌ ॥ इति
तच न चौरत्वातिदेशः, अपि तु संसर्गादिदर्शनेन चौर- `
| | 1 ८`तयाऽभियुक्तस्य विचारवैमुख्यं चौरतामेव निश्ाययतौति
युक्तं ततो हतदापनम्‌।
श्रतरव यच निश्चायकष्यान्यथासिद्धा कमेणापि स
निश्चयो समत्वेनावसौयते तत्र यदौतपरां इत्तिमाह--
1 कात्यायनः;
अचोरादापितं द्रव्यं चोरान्वेषणतत्परः। `
उपलब्धे () लभेर॑स्तद्धिगुणं तच दापयेत्‌ ॥
स्तेयदण्डः ॑ । . | स्थ

निथितचौय्यादन्यतो हतद्रव्ये लब्धे पुव्वे खदौतं दिगुं


छत्वा चौरयाहकसकाशशणदचोराय दयादित्यथैः।
अथ खहस्पतिः-
प्रभुणा विनियुक्तः सन्‌ शतको विदधाति यः। `
तद्थेम शुभं कम्मं स्वामौ तचापराभ्रुयात्‌ ॥
तदथ खाम्यथे, अशुभं कम्मे चौध्यादि, खामौति `
स्वामिन रव तच दषो न खत्यस्येत्यधेः |
अपराभ्रुयादिति दण्डभाग्भवेदिति कल्यतरः । रत
दण्डपारुष्यादिष्रप्यनुसन्धेयम्‌ । इद दण्डाभावमावै
तात्पय्थम्‌, पापन्तु डव्यस्यापि भवव्येवेति मनुष्यमारणपरि- `
च्छेदपरि समाप्तो प्रपञ्चितम्‌ ।
खतकभेदानाद ददस्यतिरेव,--
आयुधौ चोत्तम्सेषां मध्यमः सौरवाहकः।
भारवादहोऽधमः प्रोक्तस्तथैव खहकम्यछत्‌ ॥
अथ यान्नवर्कयः, ।
देयं चौरहतं द्रव्यं राज्ञा जानपदाय च । `
अद्‌द्‌त्‌ स समाप्रोति किल्विषं तस्य यस्य तत्‌ ॥
जानपदाय सखदेश्वासिने, तस्य यद्य तदिति यदि ।॥
चौरहसतादादाय राजा सखयसुपसुङ्गं तदा तस्य चौरस्य |
तद्रव्यमपदहारेण सम्बन्धि जातं तस्य किल्िषमाप्रोतीति `
मिताक्षराकारः ।
९ ग पुस्तके प्रथमस्तेषां ।
र कग पुस्तकदये अददच।५
| दण्डविवेक; ।

1 |
चोरहतं प्रयनेन खरूपं प्रतिपादयेत्‌ ।
तदभावे तु मूल्यं स्यादन्यथा किल्विषौ पः ॥
स्वरूपं यद पृतं द्रव्यं सेव व्यक्तिः ।
तथा,
लब्धे च चौरे यदि च मोषस्तस्मान्न लभ्यते।
द्‌यात्तमथवा चौरं द्‌ापयेत्तु यथेष्टतः ॥
` मोषो मुषितद्रव्यं स यच चौरसकाशन्न लभ्यते तच
श्मूल्यं वा राजा खयं स्वामिने दद्यात्‌ चौरमेव वा तिन्‌
विषजेत्‌। इच्छया तु तथा कुर्याद्यथा चौरस्तमस्मै
` ददातौत्यथैः। |
अथ यच चौरोऽपि न लभ्यते तचापरस्तम्बः
म्राभेषु नगरेषायान्‌ शुचौन्‌ सत्यशैलान्‌ प्रजा-
: गुप्तये निदध्यात्‌ तेषां पुरुषास्तथागृणा एव स्यः सव्वेतो
योजनं नगरं तस्करेभ्यो रश्यं कोशोः यमेभ्यः अच यन्नु
प्येत तैस्तु प्रतिपा्म्‌ । ।
(५ ग्रामनगरयोसतत्पयैन्तभ्रूमौ च करोशरूपायां योजन-
पायां वा यन्ञुषितं तत्तद्रक्षका रुव दापयितव्या इत्यथः।
कात्यायनः

देषु मुषितं राजा चौरगराहांतुदापयेत्‌ ।


आरक्षकांस्तु दिक्पालान्‌ यदि चौरो न लभ्यते ॥
चौरय ाद विश्ि्टसाव्येचिकचौरान्वेषणकम्बणि नियुक्तः। `
`दिक्पाला दिक्ष नियुक्तः स च स्थानपाल- इति |
८ ` .
२ ग मूल्यद्वासा । +
| लेषदखः ॥ =| 0 य

मिताक्षरा । देश्यतिरिति प्रसिद्धो देश्पाल इति


रन्नाकरः। यच गरामे विशिष्टिरष्षानियुक्तो नास्ति
तददिषयमिदम्‌ |
यच चौरयादहौ दिक्पा वा नास्ति। तच. स

याज्ञवत्वयः, |
सखसौमि दद्यात्‌ म्रामसतु पद्‌ वा यच गच्छति । 4

पच्चग्रामौ बहिः कोशदशयाम्यथवा पुनः ॥ |


अथवेति वाकारोऽनास्थायां अच ग्रामाध्यक्े सति
स णव दद्यात्‌ |
५ ग्रामान्तेषु हतं द्रव्यं ग्रामाध्यक्षं प्रदापयेत्‌ ।
इति कात्यायनसम्बादात्‌ । ५
तदभावे तु ग्रामो दद्यात्‌ । भामपदच्वाच यामवासि- |
लाकपरं ग्रामः पलायते इतिवत्‌ । रतत यदि सौग |
बहिश्चरस्य पदं निगच्छति तदा बोड्व्यम्‌ । निगेते तु |
तस्मिन्‌ यच तत्प्रविष्टं स एव ग्रामस्तदश्यक्षा वा दद्यात्‌ ।
` अनेकयाममध्ये करोणददपरदेभे मोषे जते जन- `
सम्मदादिना चौरपदे भग्रे समाहताः पाश्चग्रामाः प्च `
वादश वा न्युनाभिका वा प्यथाप्रत्यासन्ना अपहृतद्र्ं `
1 | | दबुरिव्यथैः।
रतचाज्ञानकत्तैके मनुष्यमाररेऽपि द्रव्यं घातिते- `
` उपहते दोष इत्युपक्रम्य याज्वल्वयेनामिधानात्‌। =
६ ग ङ पुत्लतकदधे ययाप्रदयासच्यपद्दतनर्यम्‌ । = `
स्ट । दगडविवेकः । |

अथ विष्ण
चोरापहतं धनमवाप्य सव्वेमेव सव्वव्णेभ्यो ददयात्‌।
अनवाप्य स्वकोषादेव दद्यात्‌ |
सव्वभेवेति न तु निध्यादिवद्गागग्रहरपूव्यैकमित्य्ैः |
सखकोषादिति अदाने किल्विषस्मरणादन्यतो दापयितु-
मशक्तः खयमेव राजा द्‌द्यादित्यथेः।
1
तस्िंश्वेदाप्यमानानां भवेन्मोषे तु संशयः ।
सुषितः शपथान्‌ द्‌प्यो बन्धभिव विशोधयेत्‌ ॥
इयत्‌ मुषितमियद्वा इति संश्ये निणेयाथं मुषितधन-
खामी शपथं कुबात्‌ दषटनैव वा प्रमाणेन बोधयेदित्यः !

इति स्ेयदण्ड'माठ्का ।

~~ ~~ ----~-----~ ~ ------------

` १ ग एके सेयमाटटका।
॥]

स्तेयदण्ड | । | । 1 |

अथ प्रकाशतस्करेषु बणिक्‌ दिविधः ।


रकः कयविक्रयोपजौवौ आपणिकादिः । अपरो द्रव्य-
निमणोपजीवौ सुवणेकार-चम्भैकारादिः। तच विक्रेता
दिविधः क्रुटव्यवहारौ क्रूटकारौ च । तयोः करुटव्यवहारौ
द्विविधः स्थावरो जङ्गम इति सम्भूय चत्वारो बणिक्‌-
खरूपाः, |
तेषु क्ूटव्धवदहारिणः स्थावरस्य वणिजो दण्डमाह ।
=
मानेन तुलया वापि यो इरेदंश्मष्टमम्‌ ।
दण्डं प्रदाप्यो दिशतं द्धौ हानौ च कल्पितम्‌ ॥
मानं प्रखद्रोणदि, तुला सुवर्ण्णदितुलनदण्डः ! रत॒ `
प्रतिमानस्याप्युपलशणम्‌ ।
तुलामानप्रतिमानैः प्रतिरूपकलक्षितैः।
चर तरलधितैर्वापि प्राप्रयात्‌ पृव्वसाहसम्‌ ॥
इति काल्यायनवचनात्‌ ।
तच्च सुवर्णणदिमाननिश्वयाथे राजविह्ाङ्कितं शला-
कलादि प्रतिमानेति प्रसिद्वम्‌। सव्वच चाच करत्वं `
विवश्छितं प्रतिरूपकलश्ितैरिति कात्यायनसंवादात्‌।
| अष्टमांशः परिमातस्य द्रव्यस्य । दिशतं पणानां इद्वा-
वित्या्यपहृतदरव्यस्याष्टमां श्णये्षया यदि ददिदैश्यते यदि |
वा हानिर्हश्यते तदा कल्पितं दण्डमपहरत्ता दाप्यः। `
` कल्यना च दिश्तानुसारेशैव तेनाष्टमादंशदधिकापहारे |
दिश्तादधिको दण्डो न्यनापहारे न्यून इत्यधैः। `
"----~~-----------------~-------------------~------------------------~---------------------------~-------- ~

कग बरणिकूविकल््या
€ दण्डविवेकः |

रवच्चाच कात्यायनौयं पुव्वसाहसाभिधानं साहसेषु च


शङ्कलिखितादौनां न्यनाधिकसंस्याकथनमपहतद्रव्यस्याष्ट-
मांशपेश्षया न्यनाधिकभावमाद्‌ाय समञ्समिति द्रष्टव्यम्‌ ।
` यत्त, |
` क्रटतुलामानप्रतिमानव्यवहारे शरौरोःङ्केदो वा,
इति शङ्कलिखितवचनम्‌ |
तच शरीरो सुण्डनरूपः, अङ्गनककेदः यन्धतमकेदः।
कणा
अच कल्ये गौरवागौरवाभ्यां विवल्यव्यवस्ितिरिति
रनाकरः। च
7.
=स

इह च,--
तुलामानविशेषेण लेख्येन गणितेन च । क

इति व्थासोक्तयोर्ल्यगणितयोरपि ्दोषेऽनुक्तोऽपि


दिशतादिरेव दण्डसतुल्ययोगस्षेमत्वात्‌ ।
रुतदचनं पटित्वा रल्नाकरादौ यान्नवल्वयवचनाव-
तारणाच।
तथा,
समैश्च विषमं यच चरेद मूल्यतोऽपि वा ।
स प्राप्रुयादम पृव्व नरो मध्यममेव वा ॥
इति मनुवचने दयोः सकाश्णत्‌ समं मूल्यं तयोरेक-
स्योत्छष्टमन्यस्यायकष्टं पण्यं वेषम्येण ददानः पुव्वसाहसं |
५दाप्यः। समे द्रव्ये केतव्ये कचिद्धिकं मूल्यं वेषम्येण न्‌
(|`मध्यमसाहसं दाप्य इत्यथैः । इति रलाकरः ।
९ ग अल्यदोषः | रकग एस्तकदये सप्राप्रयात्‌ ।
स्तेयदण्डः । | ९९ क

विनिमयप्ररत्तयोः कयप्ररत्तयोवौ दयोरेकतरस्याधित्व


ज्नात्वाऽस्यमुल्येन बहुमूल्यं परिवत्तयन्नल्पमु्ये विक्रेये बहु-
मुल्यं खनन्‌ पुब्वसाहसं मध्यमसाहसं वा धनापेश्या
दाप्य इत्यथैः । इति इलायुधः।
अच पुव्वव्या्याने पव्यमध्यमसाहसयो्या विषमव्यवस्था `
` श्रूयते । साऽपहृतद्रव्य-न्यूनाधिकभावमादाय समथेनौया
अन्यथा अदष्टाथेत्वापातात्‌ ।
अनुबन्धविशेषा पेया प्रथममध्यमसादसविकल्य इति
मनुरौकायां कुल्लकमभद्रः ।

11 नारायणस्तु,

। तेनं मूच पैण


समैस्तु खजुशौलैर्विंषमं चरेत्‌ वक्रं व्यवहरेत्‌
। ` ध, ^
|

चरेद धिकं यत् ‌


8

तो विषम ं
॥ि
मूल्यमुत्
` साहस
#
भि ^

¢`

(..
| तरच मध्यममित्याह ।
मनुः,
अबौजविक्रयौ यस्तु बौजोत््रोष्टा तथेव च ।
मग्याद्‌ाभेदकश्वेव विक्त ्राप्रुयादधम्‌ ॥
अबौजं बौजतया यो विक्रौणौते सोऽबौजक्कियौ
` केवादावत्तं बौजमन्यच नयति स बौजोत््रोष्टा, इति इला- |
युधः। उप्तबौजमुखननेन यो हरति तथेति रनाकरः। |
अवौजमेव कतिचिदुत्छषटशचेचक्षेपणेन पुवमिदं सोत्छष्ट- |
मिति कत्वा यो विक्रौणौते स तथेति कु्लकभद्रः। ^
बौजकाल्ते तस्य महाधताथेमुत्कषकारौति नारायणः। `
सान

१ घ पुस्तके बौजोत्कष्टा ।
कद्‌ ~ देगडविवेकः ।

अनयोनासा-कर-चरण-कणौदिकेदरूपो विक्षतौ घात


इत्यथेः। यश्च परोततं छेचं बलेन वहति स बौजोत्कोषटेति
मिश्राः।
यान्नवस्वयः, स

सम्भूय बणिजां परण्यमनर्ेणावरुन्धताम्‌ ।


विकौणतां वाऽभिदहितो दण्ड उत्तमसाहसः ॥
अन्धेणानुचितमूल्येन अवरुन्धतां विकौणएताम्‌ ।
मनुः,
रान्नः प्र्यातभाण्डानि प्रतिषिद्वानि यानि च।
तानि निहरतो लाभात्‌ सन्वहारं हरेन्रपः ॥
यान्यत्तिशयेन राजोपभोगयोग्यत्वेन प्रसिद्धानि करि"
` तुरगादौनि मणिमुक्तादौनि च।
. अच मनुटौकायां खदेशोद्धवानौति विशेषितम्‌ । तथा
थानि दुलैभाणि धान्यादौनि नैतान्धन्यच देशे विक्रैतव्या-
५ नौति रान्ना प्रतिषिद्वानि तान्धन्यच देभे लाभात्‌
` विक्रौणानेन बणिजा यत्किच्चिद्धाण्डनाज्नितं तत्तत्स
` राजा इरेदित्यथः।
अच याञ्नवस्क्यः,
व्यासिद्खं राजयोग्धच्च विक्रौतं राजगामि तत्‌ ।
मूल्यदाननिरपे्षं राजा दरेदित्यथैः ।
शरौरोऽजगनच्छेदो वा दण्ड इत्यनुचत्तौ। `
1 शङ्लिवितौ :
प्रतिषिद्धभाग्डनिहौरे |
९ खक करिविरादौीनि।
स्यदः । ९२

निर्हार विक्रये । अच नाश्तिभाण्डमूल्यो यदि बणिक्‌ `


तदैवमित्यविरौोधः।
रवच्च राजयोग्यमपि विक्रौय यदि मल्यदानाश््तः
स्यात्तदाऽयमेव दण्डो न्यायसाम्यादिति रत्नाकरः ।
अथ क्रूटव्यवहारिणो जङ्गमस्य बणिजो दण्डमादतु
मनुनारदौ,
शुल्कस्थानं परिहर न्काले कयविक्रयौ ।
मिथ्यावादौ च संख्याने दाप्योऽष्टगुखमत्ययम्‌ ॥
शुल्वं कयविक्रयादौ राजगाद्यं तस्य स्थानं राजव्यव-
स्थापितं नदौनगरपव्वताद्यधिकरणं यदि तदुत्यथगमनेन `
परिहरन्‌ बणिगिकाले निशदौ कयं विक्रयं वा । संख्याने
परिमाणे वस्तुनो मिथ्यावादौ भवति, शुल्कखण्डनाधैमल्य- = `
संस्या वक्तीति यावत्तदा क्रौतविकरौतमूल्यादषटगुणमित्ययं
दण्डो दाप्य इति रनाकरः। शुख्कस्योपख्ितत्वात्तदपेक्ष-


चैवाष्टगणत्वमिति प्रतिभाति व्याख्यातच्च सवैक्नेन । अत्ययं


राज्ञो यदुचितं शुल्कमिति । त

विष्णः, |
शल्कस्थानमनाक्रामन्‌ सर्व्वापहारमाप्रयात्‌ ।

अनाक्रामनप्रविशन्‌ परिहरन्निति यावत्‌। सव्वसखराप-


हारं सव्वस्वापहरणं रतच वारंवारं शुल्कस्थानपरोहार- `
विषयमतो न विरोधः" ।

कख द्रव्यविरोधः। .

(
णः
(1 -दण्डदिकेकः,

स्वयं शुक्तस्थानप्रविष्टस्य जङ्गमस्य स्थावरस्य च विक्रेतु


। | कियदेयमित्यच । विष्णः
"स्वदेशपण्याच्छल्कां शंदममादद्यात्‌ । परदेशपण्याच्च
विंशतितमम्‌ । |
स्वदेशपण्ये बणिजामुत्पन्नलाभे दशमांशं राजा
गृह्णीयात्‌ परदेशपण्य उत्पन्रलामे विंशतितममिलत्य्ः।
अचाशुनाशिनि द्रव्यविशेषे विशेषमाह गौतमः+-
रान्न इत्यतुरृत्तौ,-- ` |
मृलपुष्योषधमधुमां सदशेन्धनानां षष्टिः शछणधभ्भि-
त्वात्तेषु नित्ययुक्तः स्यात्‌ ।
षष्टिः पष्टितमभागं, तेषु मुलादिपु, कछणएधभ्पित्वात्‌
श्षणविनाशधम्बित्वात्‌, नित्ययुक्तो नित्यावहितो यतः
स्यादत्यथः दति इलायुधः। रवभेव रलाकर्‌ः । काम्‌-
` धेनौ तु तदृष्णधम्पैत्वादिति स्पष्टमेव पटितम्‌ । मिभ्रैसतु
षष्ठ इति परित्वा षष्ठांशे राजगराद्य इति व्याख्यातम्‌ ।
सामुद्विकेषु पण्येषु सारोद्वार पूव्वकं श्रल्कग्रहणमित्याह
बौधायनः. 1

सासुद्रः शुल्को वरं रूपमुङ्खत्य दश्पलं एतमन्धेषामपि `


सारानुरूप्येणनुपदत्य धम्म प्रकल्पयेत्‌ । 1
सामुद्रः ससुद्रादागतपश्यगोचरः, तच पण्येषु वरं सुक्ता-
फलादिकं षीत्वा श्तपणमूल्ये दशपणं खह्लौयादन्येषामपि `
लाभभूयस्वप्रयोजक-देशन्तरागतानां सारातुसारेण रेष्ठ
९ कख खदेग्रपण्यानां खुल्कादश्रं। `
्तेयदगडः 1 | | €
सदु

वक्तु खहौत्वा धम्मदनपेतं शल्कं कल्पयेदित्यथैः। अनुप-


इत्येत्यनेन बणिजो द्रव्योपधातो न काय्य इत्युक्तम्‌ ।
हलायुधेनापदत्येति पटित्वा उद्तयेति व्याख्यातम्‌ ॥
अथ शुल्कापवादमाह । वसिष्ठ+-- व

शुल्व चापि मानवं श्रोकभुद्‌ाहरन्ति ।


न सिन्नरकाषापणमस्ति शुचा
न शिल्िविततेः न शिौ न दूते ।
न भैश्यसन्धे न कतावशेषे
न ओ्रोचिये प्रतरजिते न यज्ञे ॥
भिन्नो न्युनः कार्णीपणो मूर्यं थस्य तद्धिनकार्षापणं
तन्निमित्तः शुस्कोऽपि भिनरकार्षापणः। तेन कार्षापण-

भिनशब्दो मूल्यपरसेन काषापणमूल्यमिति हलायुधः ।


वस्तुतस्तु, |
यथोक्तं शुल्वं यदि भिन्रकार्षापणं भवति तदा न |
आद्यमिति छजुरेवाथैः, प्रथमानिदे शस्य स्वरसात्‌ यथा- |
व्यास्याताधेपक्चे विक्रयपरतायामन्यच सत्तमौदश्नादिति |
प्रतिभाति ¦
न शिल्पिवित्ते शिल्थिना शिल्यात्‌ प्राप्ते वित्ते, श्ण `
विक्रगवादिवत्सादौ । दूते दृतवस्तुनि उपहाराथे तेन॒ `
नौयमाने पुञ्यतया लब्धे वा, कछतावशेषे सुखितस्य बणिजः `
` शेषे वस्तुनि, यने यन्नाधैमानौयमाने
ष्‌ शिल्यटन्तौ द्रति बन्नादशांभिमतः पाठः|
४ <द ` दग्डविचेकंः ।

अच हलायुधः
शिशुश्ण्ल्यिदूतेभ्यो बणिजिकेभ्यः कंचिदपि शुल्कं न
ग्राद्यमित्याह । |
शङ्खलिखितेन)क्तम्‌+
स्कन्धवाद्येघ शुल्को नगरवासिनां विपेतराणमपि।
सकन्धवाद्येषु न्धवाहनयोग्येषु अल्पतर मल्येधिति शेषः
अशल्कः शुल्कादानम्‌ ।
बराह्मणस्येत्यनुरत्तौ नारद,-
नदौष्वेतनस्तारः पूव्वमुत्तारणन्तथा । ।
पण्ये शुल्कदानच्चं न चेद्ाणिज्यमस्य तत्‌ ॥
पण्येषु कय्येषु । कचित्‌ तरेधिति पाठः । तच तरेषु
पारं प्रापणौयेषु वस््ादिष्ित्यथेः। अशुल्कदानं राज- `
मआद्यादानम्‌ । `
अथ करुटकारिणो बणिजो दण्डमाह ।
याज्ञवल्कय,
` तुलाशसनमानानां करुटरुन्नाणकस्य च ।
एभिश्च व्यवदत्ता यः स दाप्यो दण्डमुत्तमम्‌ ॥
क 6। तुला पूव्वसुक्ता शसन राजनिवद्लं॑चिहितसुद्रा
` नाणकः। कार्षापणश्तमानकटङ्कादिः। मुद्रा चिहितः
| सुवर्णादिः । निष्कादिरिति मिताक्षरा । ५
`
य र्तेषां क्टकत्‌ तदेशप्रसिद्धपरिमाणादूनाधिकपरि-
माणक्षत्‌, अव्यवहारिकताम्रादिगभतत्‌कारौ वा यथ्चैतै
क्तेयदण्डः। ` ९७ >

ज्गटतया ज्ञातैः परकछतैरपि व्यवहरति तावुत्तमसाहसं `


क.

ध दण्द्यावित्यथैः । | | य

पुव्वं क्रटब्यवहारे यदुक्तं तस्येवायं पकषप्राततानुवादः। सय

अच मनु १1

तुलामानं प्रतौमानं सव्व तत्‌ स्यात्‌ सुरश्ितम्‌ ।


षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्‌ ॥
तुलादौनां कटत्वणङ्खया षटसु षटसु मासेधतौतेषु ` य

परैक्षणं कच्यमित्यथैः |
तच्चालब्थसाधुपुरुषदारकमित्याहतुः--श्ङ्लिखितौ,-- `
तुलामानप्रतौमानव्यवदहाराघेस्थापनं देशटद्रव्यानुरूपं
प्र्ययितपुरुषाधिषशितम्‌ ।

अङ्रूटे क्रूटक ब्रूते कूटे यश्चाप्यक्रूटकम्‌ । `


स नाणकपरीक्षी तु दाप्य उत्तमसाहसम्‌ ॥ `
इदमाश्यापराधे तद्यतिरेके तृत्तमादल्यमहंतौत्याहु- ८
रिति रनाकरः।
अच यद्यप्याश्यापराधाभावेः दण्डाभाव एव उचित
स्तथापि परौक्षणसमर्थैस्य तच प्रडत्तिरेव दीष इत्यभि
` सन्धाय दण्डासिधानमिति प्रतिभाति ।
याज्ञवल्क्यः,
५०

सम्भय कुव्वतां सर्वेः सावाधं कारुशिल्िनाम्‌ } `4


अघस्य हानिं उड़ञ्च साहसो दण्ड उच्यते ॥
न~

ग अशरेषापराधाभावे)।
२ मूले अघेमिति पाठः

ह ---- -दण्डदितैकः।

कारबोऽच प्रतिमाघटकाद्‌यः। रजकादय इति `


मिताक्षराकारः
(^
तेषां सावाधमिति पौड़ाकरमधं
कम्पेमल्यम्‌ ये लाभल्ाभात्‌ कंव्वन्ति ये वा राजस्थापित-
मूल्यश्च हासं ठदधच्च सम्भय कुवते तेषां सहख्पणात्मको
दण्ड इत्यथः
तच राज्ञो मुल्यव्यवस्थापनकालमाह मतु,
पञ्चरात्रे पञ्रावे पक्षे पक्ेऽथवा गते ।
कुरव्वौत चैषां प्रत्यमधंसंस्थापनं न्टपः ॥
| यद्रव्यं चिरेण निष्कामति तच पाशिकं परौश्षणमन्यच
पाञ्चराचिकमित्योत्सभिंकौ व्यवस्था ।
अस्थिरा्घाणं प्रतिपच्वराचं स्थिरप्रायार्धणां प्रति-
प्षमिति मनुरौका । ०
प्रत्यक्षमिति अवकाश्पक्चे खयमेवेतद्रा्ना परौकषणौय-
मन्यथा तु प्रत्ययितपुरूषद्ारेव । तच शङ्कलिखितवचनं
लिखितमधस्तात्‌ ।
परोक्षाप्रकारमाह स रव,-
आगमं निगमं स्थानं तथा दद्धि-कषयावभो ।
विचाथ्ये सव्धश्स्यानां कारयेत्‌ कयविक्रयो ॥
शस्यपदमुपलष्णएमाद्य्थेः वा बहवचनं कंड़ारा इति-
वत्‌ । तेन पच्छविधपण्यपरियदहः।
तच नारदः, |
क्रयविक्रयधम्येषु सव्व तत्पश्यमुच्यते ।
गणिमं तुलिमं मेयं क्रियया रूपतः शरिया ॥
९ कसर्घारथैम्‌। `
स्तेयद्‌एडः । | 0.

गणिमं पूगादि । कपहंकादौति दलायुधः। वुल्लिमं


सुवणदि । मेयं धान्यादि । क्रियया वाहदोहादिकरिययोप-


लक्ितमश्वमदिष्यादि। रूपतः क्रौयमाणं पण्याङ्गनादि' ।
चिच वस्त्रादौति इलायुधः। भरिया दौष्या सुक्तादि
आगमो टदेश्णन्तरौयस्य विक्र्यवस्तुनो दूरादूर-सुगम- य

दुर्गमदेशव्तिनः स्वदेणप्रवेशः । निर्गमः खदेशौयपर्यस्य न

ताहृश्परदे्णमनम्‌। स्थानं चिरमचिरं वा कालमेतस्मिन्‌


क्रीते इयान्‌ भ्यादिव्ययो दत्त इत्यवस्थानम्‌ । य

टद्िरिदानौमेतस्मिन्‌ विक्रौयमाणे रुतावान्‌ लाभो `


भवति क्षयो वा एतावतौ हानिरिति सव्वमिदं पराश्टष्य
यथा कोतुविकरतुर्वा अनुचिते लाभहानौ न भवतस्तथा ५ ।
राजा कयविक्रयो कारथेदित्यथैः।
अथ विक्रैतुरुचितं लाभमादइ याद्वल्कयः,
सखटेशषण्ये तु शतं बणिक्‌ ह्लौत पञ्चकम्‌ ।
द्श्वं पारदेश्ये तु यः सदः कथयविक्रयौ ॥
यः खदेशोद्ववमेव पण्यं तस्मिनेव दिने कत्वा मामा- . |
न्तरादानीयानयनदिन रव विक्रीणीते ¶ुस पणशतमुल्ये |
परणपच्चकम्‌ । विदेशपग्यं करौत्वा तिने दिने किकरी- |
णौते] स पणशतमूल्ये पणद्‌शवं श्ङ्ञीयात्‌ न ततोऽधिकं |
` दण्डापादकत्वात्‌। सद्य इत्यभिधानात्‌ विलग्य विकये |
नायं नियम इत्यथैः ।
~ ~ ~ ~~

९ खग ष प्तकचये पर्रमङनादि। २ क मत्तादिव्ययः। .


ध द घ एकतमे [ | त्विच्ितांशः पतितः।
९१०. 4. दग्डविवेकः।

रान्ना संस्थाप्यते योऽ प्रत्यहं तेन विक्रयः ।


अच विशेषमाह रान्न इत्यनुटत्तौ गोतम,
पण्यं बणिग्मिर्थापचये न देयम्‌ । ` |
अर्घापचये मुल्यापचये तच पश्यमप्रयच्छन्रपि बणिक्‌ `
न दण्द इति तात्प्यैम्‌ । |
इदहस्यति
प्रदनरदोषव्यामिश्रं पुनः संख्तविक्रयौ ।
पण्यं च दिगुणं दाप्यो बणिक्‌ दण्डं च तत्समम्‌ ॥
` प्रदनदोषव्यामिखमनभिमतद्रव्येए मिथितं पुनः
संतं पुरातनमेव सम्भावनादिना' नवीकछतम्‌ ।

` ग्ताङ्गलम्रविकरेतुदंण्डो मध्यमसाहसः । ध
` ग्ठताङ्गलभ्रं वस्त्रादि येन तेन भ्रियते येन वा खतो
भूष्यते तदल्पमूल्यमपि तद्रव्यमप्रकाश्च विकरेतुम॑ध्यम-
साहसी दण्ड इत्यथैः । |
तथा,+-- ` 9
भेषज-सेह-लवण-गन्ध-धान्य-गुड़ादिषु ।
पण्येषु हनं कछिपतः पण दण्डस्तु षोड़श ॥
। आदिपदेन
तदेतदिको तव्द्वयेदिङ्गुमरौचाद्यो गच्यन्ते। ददस्यति
मकषेपमावे बोडव्यम्‌। वचने `
हौनमपद्रव्यं
दिगुरं पण्यदानं बणिग्दण्डच्च तादभे विकते सतौत्य- `
` ॥
` विरोधः। इति रनाकरः। घएस्तके सम्भारणादिना । `
१९ ख पुच्छे शानादिन
सतेयदग्डः। व | | ९०

¦ अचाऽपद्रव्यप्रेपस्य विक्रयपय्येन्ततायां दोषत्वमन्यथा-


ऽदृष्टाथैत्वाभिपातः) अभिसन्धिमाचस्यापि दण्डप्रयोजकंत्व-
कल्पनायामतिप्रसङ्गश्च स्वात्‌, अतो वचनमिदमल्य-

व्यामिश्रणपरं श्रतमेषजादिमाचविषयं वा। तस्य कस्यचित्‌ `


खरूपेशेवाल्पत्वात्‌ कचिदपकषस्याल्पस्येव समवायादिति ` ` य

प्रतिभाति । |
अथ पण्यनिमणोपजौविनो दण्डमाह ।
इदस्मतिः,- ल

अल्पमूख्यन्तु संछत्य नयन्ति बहुमृल्यताम्‌ ।


स्रौ -बालकान्‌ वच्वयन्ति दष्व्याक्तेऽर्थानुसारतः ॥
"तथा,
हेमसुक्ताप्रवालाद्यं कुव्वते छचिमं तु ये ।
करेचे मूर्यं प्रदाप्यासते राज्ञे च दिगुणं दमम्‌ ॥
दविगुणं विकौत-ताहकूद्रव्यमल्यापेश्षया।
दण्ड उत्तमसाहस इत्यनुरृत्तौ विष्णः,
प्रतिरूपविक्रायकश्य च । ^
| प्रतिरूपं छचिममुक्तादि । अच छचिमद्रव्यष्य लघुगुरू `५
भावेन मुल्यतारतम्धादनयोर्व्यवस्था द्रष्टव्या । 1.
अथ रनाकरे मनुः, 4
सव्धकण्टकपापिघठं मकारन्तु पार्थिवः) `
प्रवत्तमानमन्याये केदयेज्ञवशः क्षरः ॥
दग एके तथेत्यारभ्य हेमेति वचनं पतितं । ` |
ध | ९० 1 | दगदविेका ।

कण्टकः प्रका्तस्करः। लवश इति शरीरमासं खण्ड-


खण्डमुत्कत्तयेदित्यथेः। दण्डस्यातिमहस्वाद्भ्यासविषय-
८ मेतदित्याहः। देव्राह्मणएराजसुवणेविषयम
िति मिताक्षरा
तथा तचैव याज्नवस्वयः,
व्रूटसुवशैव्यवदहारौ विमांसस्य च विक्रयी ।
च्यज्गनहौनासतु" कत्तव्या शस्याश्रोत्तमसाइसम्‌ ॥
चिभिर्नासाकणेकरेरिति दलायथुधादयः। क्रटसुवगै-
च्धवहारौ रसवेधाद्यापादितवर्णोत्कर्षादिना सुवगेव्यव- `
` हारकारौत्युक्तम्‌ । विमांसविक्यौ श्वादिमांसानां हरि-
णदिमां सत्वेन विक्रेता प्रतिभाति ।
पू्व्वावाक्य हेमकारमिति लिङ्गाट्न्धायेन देमविक्रय
८. वं मम्थते मिताश्षरासम्बादात्‌ । स च दण्डगौरवश्रव- ५
खात्‌ रजतमिश्रणादिविलष्णः क्रूटकरणादिरूय रखवा- `
बवसौयते। छेदयेल्लवश दति शवणशादङ्गानां केदो गम्यते ।
` तच क्षररिति खज्ञादिविलक्षणकरणश्रवणादङ्गगानां लघुत्वं
1 ` प्रतौयते।
रवं मनुवचनं या्वल्कव्यवचनेन सममेकविषयमेव
कंल्मनालाघवात्‌। तेन करटसुवणकारि णोऽवयवचयकेद्‌
` शरौरो दण्ड उत्तमसादसास्यश्चाथै इति दण्डसमुदायो
1 वाकसमुदाया्थैः।

ग्टचम्मे-मणि-ख्वायः-काष्ट-पाषाणश-वाससाम्‌ ।
अजातौ जातिकरणे विक्रौयाऽ्टगुणो दमः॥
` १ ग अङ्गदौनास्तु। :
। स्तेयदण्डः 1 । १०द्‌ ध

अजातावल्पमूल्यकजातौये बहुमुल्यजातौयताम्मदेतु- स

सादश्यकरणे । तेन योऽल्यमूल्यं द्रव्यं बहमल्यद्रव्यभ्रम- `


` विषयं कत्वा मूल्येन विक्रौणौते तस्य तदिकयलभ्यादष्ट-
` गुणो' दम इति वाक्याथः।
सादश्करणं यथा कष्णाथां सदि कररि कामोद-
सञ्चारेण करूरिकेति । माज्नौरचम्मणि वर्णोत्कषीपादनेन `
व्या्रचर्मेति। स्फटिके लोहित्याचरणेन पद्मराग इति। ` व

कापसिके ख्वे गुणोत्कषौधानेन पट्रर्नमिति । काष्ण-


यसे वर्णोत्कर्षाधानेन रजतमिति । विल्वकाष्टे चन्दना- |
मोदसच्चारेण चन्दनमिति । कक्ीले त्वगास्ये लवङ्गमिति
|

<|
.

कार्पासिके वाससि गुणधानेन कौशेयमित्यादि । |


५८

तथा+- |

समुद्ृपरि
वत्तेच सारभाण्डच्च छचिमम्‌ ।
आधानं विक्रयं वापि नयतो दण्डकल्पना ॥ `
सन्नं पिधानं तेन स वर्तते समङ्ग सम्पुटं करण् डक- `
सुवर ्णाद िपूर - ` |
मित्यनथान्तरं तेति पूत्वा ओेषः। तेन
०6 ,ज

सम्युटपरिवत्तं छत्वा आधानं धारणं नयतः सारभाण्डं `


कररिकादिक्षचिमं छत्वा विक्रयञ्च नयतो दण्डं कस्ये- `
दिल्यथैः। २
कर्पनामाह--स खव,+- 2
1 भिन्ने पणे तु पञ्चाशत्‌ पणे तु शतमुच्यते ,
ददिषे दिशतो दण्डो मल्यदद्धौ च टद्धिमान्‌

९ घ ऊ एस्तकदये तदिकयये स्यादख्शुणः।


0 दण्डवित्ैकः।
मिनो न्यूनः, तेन पणन्यूनमुल्ये वस्तुनि तथा कृव्वेतः
पञ्चाशत्‌ पणः । पशमल्ये शतं पणाः, दिपशमस्ये एतदयं
पणो दण्डः, शताधिकमल्ये त्वनेनैव क्रमेण दशण्ड-
दडिरित्यथैः |
अच च सखस्तिकरूचकादिपानपाचादि वा धटयितुं
समर्पितस्य सुवरणणदेरेकटेशमपहत्य द.हनध्ापनावर्त-
नादयुपश्ौणतया तद्पद्ारं गोपयतः सुवशकारादेरपहत-
द्रव्यातुसारेण दण्डः प्राततः । तचोपष्षयः तत्तदरव्यनियमेन
नारदादिभिरूक्तोऽपि नेह परिश्हौतः। व्यवहारकस्य
तस्यैव व्यवहाराङ्गन्वात्‌। अतर तन्तुवायोरवायविषय- `
विशेषा मन्वादिभिरुक्तोऽपि नाचोक्तः

अथ भिषजो दण्डमाह ।
मनुः, |
अन्नातौषधिमन्तरस्तु यश्च व्याधेरतच्चवित्‌ ।
रोभिभ्योऽथं समादन्ते स दण््यश्चौर वद्धिषक्‌ ॥
अच रोगिविशेषे दण्डविशेषव्यवस्थामाद ।
` याज्नवल्वयः,-- | |
भिषद्धिष्या चरन्द्याप्यस्तिय्यक्ष प्रथमं द्मम्‌ ।
मानुष मध्यम राजमानुषं तत्तम तथाः ॥ :
अच तिथगादिप्रुं मृल्यविश्ेषेण राजप्रत्यासत्ति-
` विशेषेण च दण्डानां गृरुलघुभावश्च कल्यनौय इति `
मिताक्षरा । व
.सेयदखः 1 | | | ९०५

यथा विष्णुः क
उत्तमं साहसं दण्डयो भिषद्धिथ्या चरन्नत्तमेषु।! `
म॑ध्यमेषु मध्यमम्‌ ¦! तिय प्रथमम्‌ ।
सव्वमिदं रोगिणो मरणाभावे। तच दरूडाधिक्यादिति
चिकित्सकानां सर््वषाभित्यादौ नारायणः ।
अथ विखब्धवच्छकानां तथा सभ्यानां--
अन्यायवादिनां तथोत्कोचादायिनां दण्डः |
तच व्यास
अनिच्छन्तमभूमिन्न संयोज्य व्यसने नरम्‌ ।
अपकषन्ति तद्वयं वेष्या-कितव-शिल्पिनः॥
अनिच्छन्तं प्रटत्यनुन्मुखम्‌ । अभूमिन्नं कार्य्यकाय- =
विवेकश्रन्यम्‌ । रतेनैतेषां विसखब्धवच्वकत्वमुक्तं भवति। `
अच इष्हस्परतिःः-- ` |
अन्यायवादिनः सभ्यास्तथेवोत्कोचजौविनः। = `
विखन्धवच्वकाश्चैव निवास्याः सर्व्वं णव ते ॥ ` र
सभ्याः पार्षदाः। अर्थालामेनान्यायवादिनः। विखब्ध- `.
वच्चकाः सम्धङ्गिगीयानुक्रलवच्चनव्यतिरिक्तवच्चनकत्तीरः। `
उत्कोचादायिनो दिविधाः--उत्कोचग्राहिणस्तदाजौविनश्च। ` |
तच प्रथममाह व्यासः,
न्यायस्धानेघधिक्ता श्हौत्वाऽ्थे विनिशेयम्‌ ।
कुव्वन्त्यत्कोचकास्ते तु राजद्रव्यविनाश्काः॥ `
तथा सभ्योत्कोचकवञ्वका इति मनुवचने रल्नाकरः,
उत्कोचकाः काय्याधिक्लताः सन्त उत्कोचयाहिणः
तच ते प्रकते उोचाजोवितवनोकताः ।
| १०६ ५ ४ ण्ड़विवेक |

तदाजौविनान्तु दण्डमाह विष्णः


क्टसाक्षिनां सव्वस्वापदारः काय्यै उत्कोचजौविनां
सभ्यानां |

मनु ~~

ये नियुक्तास्तु कार्येषु इन्युः कारच्यणि काच्थिणाम्‌।


धनोष्मणा पच्यमाना निखांस्तान्‌ कारयेन्नृपः ॥
व्यवहारदर्भनादिकार्य्येषु नियुक्ता उत्कोचधनतेजसा
विकारं भजन्तोऽश्यौदौनां का््यशि ये नाशयन्ति
तान्‌ ौतसब्धस्वान्‌ कुर्यात्‌ । अच इन्धुरुत्कोचग्रहणिन
जितमप्यजितं कुख्युरिति नारायणः ।
` याज्ञवल्ः+--

। उत्काचजौविनो द्रव्यहीनान्‌ कत्वा विवासयेत्‌ ।


द्रव्यद्टीनान्‌ छत्वेति सव्वस्वं हौत्वेत्यथेः। अचानुबन्ध-
गौरवागोरवाभ्यां व्यवसा ।
अथ क्रूटमध्यख्साशिणो दण्डमाह ।
उदस्यतिः,- |
मध्यस्था वच्चथन्त्येकं खेहलाभादिना तथा ।
साक्िणान्यथा बयुद्‌प्यास्ते दिगुणन्दमम्‌ ॥
दिगुखं यावन्ति वञ्चयन्ति तद्विगुणं मध्यस्योऽ्च व्स्तु-
मूल्यव्यवस्थापकः क्रटमूल्यव्यवस्थापनेनाथेहरो विवक्षितः!
` सभ्यस्य व्यासेन निन्वासनाभिधानात्‌। क्रूटसाश्िणां स्क =
` दुतकोचयहणविषयमिदम्‌। `
स्तेयदएडः । १९०७

तदुपजौविने त्वाह विष्णु-- |


करूटसाकषिणं सव्वस्वापद्ार उत्कोचजौविनां सभ्यानाञ्च।
यच तूत्कोचग्रहणनास्ति किन्तु लिष्छादिनाऽन्यथामि
धानं तच साश्िणो दण्डविशेषः प्रकौरौकप्रकरणे दशितः,
अथ दयूतकार दण्डः
तच चतं दिविधमित्याह । मनुः, न |
अप्राणिभिर्यत्‌ कियते लाके तत्‌ दूतसुच्यते!
प्राणिभिः क्रियमाणस्तु स विनेयः समह्यः॥ |,
परणपूव्विका क्रौड़ा देवनं सा चेदप्राणिभिः क्रियते |
तदा यूतमित्युच्यते । यदि पारावतकुकुटादिभिर्मनुष्यः- |
मेषादिभिवं तदा तेषामपि स्यद्ासम्वात्‌ समाद्य
इति तदेतत्‌ रान्नाऽपि कायैवशत्‌ प्रवर्तनौयमित्याद। `
द्यूतमेकमुखं काय्य तस्करज्ञानकारणत्‌।
रकं मुखं प्रधानं यच तत्तथा, तस्करेति प्रायश्चौयी
ज्नितधना रुव कितवा भवन्ति अतथ्ौरविक्नानाथेमेकं |
सुखं समिकलश्षणं राजा कुग्धीदित्यथैः। तच सभा कितव- |
निवासा यस्याकू्यसो सभिकः । कल्िताक्षादिनिखिल- `
क्रौड़ोपकरणस्तदुपचितद्रव्योपजौवौ समभापतिरुच्यते तस्य॒ |

| स सम्यक्‌ पालितो दद्यात्‌ राज्ञे भागं ययाकङतम्‌ः। |


"~~~
जितसुद्राहयेज्नैबेर दयात्‌ सत्यं वचः मौ ॥
------- -~
`
१. ग. पुस्तके मह्ल-- । २ ख यथाख्रतम्‌ |
१०८ क द शडवि वेकः ।

स सभिकः पालितो राज्ञा रितः पराजितादुङ्ख्


जिततमथं जयिने दद्यात्‌ । शमौ भूत्वा सत्यञ्च वचो
विश्वासां दयूतकारिणं दवादित्यथैः।
अथाच करटव्यवहारिणो दण्डमाह ।

क्रुटाक्षद विनः श्चद्रा, राजभागहराश्च ये ।


गणनावच्चकाश्चव दण्ड्यास्ते कितवाः स्मृताः ॥
अचाक्षदवनेन मेषाःदिदेवनमपि लख्यते तुख्ययोग-
कषेमत्वात्‌। द॒तसुक्ा--
-रुष णव विधिंष्टः प्राणिदयूतसमाह्येः।
` इति यान्नवच्यद्रशनात्‌ ।
` अतरव सामान्यमाभित्य ददस्यतिनैवोक्तम्‌ ।
` गृढः प्रकाशः कर्तव्धो नि््वस्याः कूटदेविनः
4 इति। `
विष्णुः
रृटाशदेविनां करच्छेदः, उपधिदेविनां सन्द॑श्च्छेदः ॥
सन्दंशस्तज्न्यङ्षठौ, रतच्ापराधातिश्ये द्रश्व्यम्‌।
एवच्च, `
` रान्ना सिद्धं निर्वास्याः कूटाश्षोपधिष्देविनः (1
इत्यत्र विष्णुवचने चहं करसन्दशकेदात्मकमेव रक-
` मूलकात्वानुरोधादिति रल्ाकरः।
| 1 (दकष पावा4
कख प्रस्तकद्वये माषादि।
इ ग कूटा्तोपाधि। ..
स्तेयदण्डः! ` १५९... |

करैर्षादिभिरूपाधिना च वच्चनहेतुमणिमन््रमहौ-
षधादिना ये दीव्यन्ति तान्‌ पदादिनाऽङयित्वा निर्व्वा-
सयेदिति मिताक्षराकारः! ` |
निरव्वासनच्च राप्रात्‌, अनुपात्तविशेषे निर्व्वासने सवच `
देशस्थेवोपाद्‌ान'्द्‌
नात्‌ यतमण्डलादा तत्‌ । र
तथाच नारदः,
क्रटाक्षदेविनः पापानिदरेत्‌ दय॒तमण्डलात्‌ ।
कण्ठेऽश्षमालामासज्यः स दयषां विनयः स्मृतः ॥
मिताशषरायान्ु
निर्व्वासने नारदेन विशेष उक्त इत्यक्त वचनमिद- स

मवतारितम्‌ निर्हरेत्‌ यतमर्डलादित्यच राजा राष्रात्‌ `


विवासयेदिति च पटितम्‌ । | ॥
अचाप्यपराधगौरवलाषवाभ्यां व्यवस्ेति प्रतिभति।
एवच्च, ~
कितवान्‌ कुशोलवान्‌ केरान्‌ श्रं निर्वासयेत्‌ पुरात्‌।
रते राष्े वत्तमाना बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः॥ |
इति विध्यथैवाद्प्रविष्टमपि पुरादिति राप्रादि-
` ल्युभयोपादानं घटते । |
इद यद्यपि । ॑
प्रकाशमेतत्तास्कय्थं यद्ेवनसमाद्यम्‌ ।
इति मनुना स्ेयत्वमनयथोर विशेषेशैवोक्तम्‌ ।
९ घ उप्रादानत्वेन। .
र कंग ङ एस्तकचये मासाद्य ।
३ ङ ण्तके
स दयेषु । ॥
9 कं ख--विष्यनुवाद--।
११० ८1 दण्डविवेकः।

द्यतं समाद्यनच्देव यः कुर्य्यात्‌ कारयेत वा ।


तान्‌ सर्व्वान्‌ घातयेद्राजा श्रुद्रंश्च दिजलिङ्किनः ॥
दरति दस्तरेदादयो दण्डा अध्यविशेषेणेवोक्ताः ।
तथाप्युभयमिदं क्रटद्ूतविषयतया नेयं इदस्मति-
वचनेनैकमुलकत्वलाघवात्‌। अन्यथा अदृष्टाथैत्वापातात्‌
मिताक्षगाक्षतोऽप्यचेव सम्बाद्‌ात्‌ |
^ ^-^, 1

यत्त॒ वदन्ति राजाविदिते दयते जितमपि जयी न


` . लभते प्रत्यत दण्ड्यः ।
प्राप्ते पतिना भागे प्रसिद्धे ्ूतमण्डले।
जितं ससभिके स्थाने दापयेदन्यथा नतु ॥
इति याक्वल्क्यौयात्‌ |
अनिर्दिषटस्तु यो रान्ना दतं कुव्वोति मानवः
न स तम्पाप्रयात्‌ कामं विनयच्चेव सोऽदंति ॥
ति नारदवचनाचेति ।
^ ॥ ~)

तचेद्‌ं प्रतिभाति यदा पुनः पराजितं स सभिको


दापयितुं न शक्रोति तदा राजा दापयेत्‌ इत्याहेति छत्वा
मिताक्षरायां पराशरभाष्ये च याज्नवल्कयवचनमिदमव-
तारितम्‌ ।
तथाच यथा कऋणादानप्रकरशे अधमणजेच्याद
दौय-
` मानण्णं साधयते रान्ने साधितादथाीर्दिश्यंशे धनि-
केन दौयते अन्यथातु न साधनंनवा तस्मे दानं, तथा
प्रकतेऽपि वाच्यम्‌ । तुल्यन्धायात्‌। ५
रुवच्च राजभागे प्राप्त रव राजा पराजितमथं जयिने `
दापयेन्न त्वन्यथेति वाक्याथैः।
| लेषदगडः । ५ ९९९.
द्यतमण्डले ससभिके जितमित्यपि तत्परमेव तथैव `
राजां
श्परि कल्पनात्‌ । |
रवं राजादटेशं विना यः खेच्छया यतं प्रव्तथेत्‌ स
तच जितमपि न प्राप्ुयात्‌ न खल्वजिद्याः कितवा `
राजबलं विना शक्तया दापयितुमिति नारदौयपादोन-
श्लोकवाक्याथेः |
रवं सिते यस्मिन्‌ राजव्यापारं विना जितोष्यथेः
प्रातुमश्क्यो राजा च तिं विना न व्याप्रियत इत्यन्वय-
व्यतिरेकाभ्यामवशटतमतो राजभागं परिकरय राजान्ना-
माद्‌ायैव प्रवर्तितव्यमिति वाक्छयोरेकवाक्यतया तात्य-
च्थौर्थो गम्यते |
यथा तरि- ` `
यच्च नारदौयवाकयप्रतौके दण्डः श्रयते तच
मत्यां नद्यां तरशुल्कभिया बाहभ्यासुत्तरतस्तथा प्रकृतेऽपि
राजदेयखण्डनमेव दण्ड्यमानस्यापराधो न त्वन्यत्‌ ।
बाइभ्यासुत्तरन्‌ पणशतं दण्ड्य इति वशिष्ठवचनेनैक- . |
मुलकत्वात्‌ तस्माद्राजान्ञां विना प्रवर्तितं चतं वा ततो |
जयो वा न सिध्यति तत्सिद्धावपि पराजितं न लभ्यते `
इत्येवमादय्थपरिकल्यने वाक्छष्यादष्टाधैत्वं स्यात्‌ ।
तस्माद्राजदण्डमगखयित्वा खयं जिताथेसाधनमध्य-
वसाय राजाज्ञां विनापि छते चूते परिपणित पराजितेन ` |

८ ` रूबन्मेषाद्पसरति तदा श्तन्ते ददामौति सखवरसतः र५


प्रसतिख्धाभ्युपगमेऽपवादकाभावादिति। |
|
1,

॥ ९९२ ४ | 1 द्‌ग्डवि वेकः |


(५

रः

¢,
4

श.
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| अथ ज्योतिष्विदो दण्डमाह ।
:
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छ्स्पतिः+-- -
। ्


: =

नि

ज्योतिर्गानं तथोत्पातमविदित्वा तु ये णाम्‌ ।


(:

भ्श्रावयन्त्यथेलामेन विनेयास्तेऽपि यन्नतः ॥


अधज्तासेनेति वचनादर्थानुसारौ दण्डः ।
[1

अरय रजकद्‌ ण्डः |

शल्मले फलके खष्से निखिज्या नेजकः शनैः ।


न च वासांसि वासोभिनिंदरेन विवासयेत्‌ ॥ `
शल्मले शल्मलिदारुमये, खष्से मरणे नििज्यात्‌
प्रकालयेत्‌ । नेजको रजकः, तथा वस्त्रे बद्वा वस्रान्तरं
निर्खेजनस्थानं न नयेत्‌! न विवासयेत्‌ न विपरौत-
माच्छादयेत्‌ परवस्त्रेण परविनियोगं न कारयेदिति `
यावदित्यथे इति रलाकरः ।
, नारायणस्तु न निरेन्न परिवत्तयेत्‌ न च विवासयेन्न
चिरं खापयेदिष्याद ) |
रवच्चाच वेपरौत्याचरणदण्डभाग्भवतौति तात्पय्य
मिति रल्नाकंरः।
अच मत्स्यपुराणम्‌, ` |
वासांसि फलके खसे निखेज्यानि शनैः शनैः। =
अतोऽन्यथा यः कुर्व्वोत दण्डः स्याद्र्यमाषकम्‌ ॥ `
९ घ पुस्तके अआश्नयन्ति,
तयदण्डः। ` चष
४ व |
वसानस्त्रीन्‌ पणान्दाप्यौ नेजकस्तु परांशुकम्‌ ।
विक्रयावक्रयाधानथाचितेषु पणान्‌ दश ॥
अवक्रयो मद्यमेतावङ्चनं त्वया देयमेतावत्कालमुप-
भोगा मया दौयत इत्येवं रूपं भाटकम्‌ । आधानं
| बन्धकं, याचितं सुहृदे याचितस्य दानम्‌ ।
| तथा,- |
देशं कालब्च विन्नाय ज्ञात्वा नष्टे बलाबलम्‌ ।
द्रव्याणां कुश्ला ब्रयु्य॑त्तदाप्यमसं
एयम्‌ ॥
नष्टे वाससि दाप्यं खामिने रजकसकाशत्‌ दृट- `
फलकास्फालनात्तदोषे सतौति शेषः|
तच भोगतारतम्धात्‌ मूल्यापकषंमाह ।

मूख्याष्टभागो हौयेत सकछृद्खीतस्य वाससः ।


दिपादस्िखिभागस्तु चतुःछत्वोऽद्खमेव च ॥`
अचयात्त॒ परतः पाद्‌शपचयः कमात्‌ । |
यावत्‌ छषौणदणं वस्तं जीर्णः स्यान्नियमः श्ये ॥ =
सछ्दलौतस्य वाससो भोगदोषान्मल्येऽष्टमो भागो हौयते `
तेन यचाष्टौ पण मृल्यराशिस्तच सत्तपणान्‌ रजको `
दाप्यः रवं दिःकत्वो धौतस्य पाद्श्वतुर्थो भागः। कित्व =
धौतस्य तरिपादस्तुतौयो भागः। चतुःकत्वो धौतस्यद्धे
हौयतेः। ततः परन्तु सौणदशं वस्रं यावत्पादरूपस्यां- `
----------------------------~ -~------------------------------------------- ~ ~~ ----~

९ ग--दौयते।
15
१५९४ | | दण्डविवेकः।

्स्यापचयः। ततःपरन्तु जौखस्य वाससो हासे न


नियमः, अत उक्तानुसारेण मध्यस्येरूहः कायः ।
अथोपाधिकप्दण्डः ।
तच मनु
उपधाभिस्तु यः कथित्‌ परद्रव्यं हरेन्नरः ।
ससहायः स हन्तव्यः प्रकाशं विविधंवेधेः ॥
राजा त्वथि रुष्टः तस्माच्वां वश्यामि मयि धनं देदौ-
त्यादि वा कन्याधनादिलाभोपकारं वा अन्तममिधाय
दद्ययिर्यः परद्रव्यं ण्लाति स छद्मधनग्रहणशसहकारि-
सहितो बहजनसमक्ं करचरशणशिरम्केदादिभिरनेके
वधोपाय राज्ञा इन्तव्यः।
यद्यपि निःकछेपविषयमिद्‌ं वचनं तत्कर णन्तःपातात्‌
तथापि न्यायसाम्यात्‌ पूर्वैरित्यं व्यास्यातमतोऽ्वाव-
तारितम्‌ । रवच्च न निश्ित्तमित्यादिद्लाक्या निः-
पादिपरद्रव्यं यो रेत्‌ तस्यायमेव दण्डः। ब्हुवारा- `
पदहारविषयभेतदिति नारायणः
अथ शिरूकाभिन्नकुशलाचा््यणां दण्डः ।
तच धम्मकोषे मल्स्यपुराणम्‌ ।
मूल्यमादाय यो विद्यां शिल्पं वा न प्रयच्छति ।
` दष््यः स मुल्यं सकलं धम्मतनेन महौषठिता ॥
सकलं कलासदितं मूल्यं धनिने दापयित्वा तावदेव
` अरहौता दण्व्य इत्यथैः । | ------= ~ ------+----- प

(4 ९ ग घ ङं ऽतस्तद्धक्तानुसास्य-।
२ कग ङ चौपधिकदणडः। ८
` क्तेयदग्डः । | १११५

अथ मान्त्रिकितान्तिकयोद्‌ण्डमाह ।
ददस्मतिः
मन्त्ोषधिबलात्‌ किञ्चित्‌ संमान्तिं दशेयन्ति ये ।
मूलकम्मे च कुव्वन्ति नि्व्वास्याले महोभुजा ॥
मुलकम्माऽच वशौकरणम्‌ ।
अथातपस्विनस्तपस्िलिङ्किनो दण्डमाह ।
दषस्पति--
द्श्डाजिनादिना युक्तमात्मानं द्‌शयन्ति ये ।
हिंसन्ति छद्मना चाथ बध्यते राजपूरुषैः ॥
अथ कुशौलवादिदण्डमाह ।
मनुः,
कितवान्‌ कुश्ैलवान्‌ केरान्‌ पाषण्डस्थांश्च मानवान्‌ । | ^
विकम्भस्धान्‌ शोर्डिकां्च धिपरं निर्व्वासयेत्‌ पुरात्‌ ॥ `
किलवा वच्चका द्यूतकाराः, कुशौलवाः खकोलवसेना-
निच्छतोऽपि पुरुषान्‌ ये वच्चयन्ति तेऽचाभिमताः, केराः ५
परस्त्ौपुरुषसङ्गेतकारिणः, पाषणर्डस्थाः छपणकादि
पाषर्डािताः, विकम्बैस्ा अत्यन्तं विरुकम्पैौलाः, `
श्ैर्डिका अत्यन्तमद्यपानप्रसक्ताः। विकम्प कियावच्चन-
मिति मनुरौकायां कुललकभट्रः ।
` रुवच्च बुश्टौलवादौनां वच्वनादिभिरर्थापहारित्व-
मपेश्ितम्‌ । पव्वोपरनिबन्धेषु सेयप्रकरणे पारस्वरसात्‌
॥ श्रौण्डिकादेरपि तादश्सयैवायं दण्डो न च तत्तज्नाति- ५` ८
मास्य अदष्टाथैत्वापातात्‌ |
१९६ ५ ५ | दण्डविवेक ।

कु्लकभद्रेन तु वाक्यस्यास्य दयुतप्रकरणान्तःपातित्वात्‌ |


कितवप्रसङ्गणान्धेषामभिधानमित्युक्तम्‌ ।
नारायणेन तु निर्व्वासथेत्‌ बहिरेव वासयेदिति `
व्याख्यातम्‌ ।
अतः कुष्ैलवानरानित्यादिव्यास्यानाच प्रकाशतस्कर-
त्वभेषाभमेव न मन्यत इति गम्यते। अथ येषु प्रकाशतस्कर-
त्वेनोपदिष्टेषु विशिष्य दण्डो नोपदिष्ट्ेषु कथं तनिर्षयो
दोषानुसारादिति प्राच्चः।

तथाहि सव्वानितानभिधाय,-
नैगमाद्या भूरिधना दण्ड्या दोषानुसारतः।
यथा ते नातिवर्तन्ते तिष्टन्ति समये यथा ॥
इति व्यासवचनं निबन्धेषु पठितम्‌ ।
तच प्रतिभाति समभिव्याहतानानेकच यो दण्डः श्रुतः
स रवान्यचरापि बोद्व्यः साहचर्यात्‌ । तेषु दिच्राणां यच
दण्डमेद्‌ख्रुतिस्तचापराधस्य गौरवलाघवाभ्यामभ्यासान- `
भ्यासाभ्यां वा दण्च्यस्य घनव्वाधनवच्वादिभिव्वी व्यवस्था।
यच त्वेकचापि दर्डश्रतिर्नास्ति तच तुल्यन्यायतया `
दोषानुसारेण वा तत्कल्यनमिति। सोऽयंप्रकार रव॑- `
मतो अदाः
के प्ुनक्ते तच इहस्यति+-- `
~~ --~

नैगमा वेद्यकितवाः सभ्या उत्कोचवच्चकाः' ।


दैवोत्पातविदौ भद्राः शिल्यन्नाः प्रतिरूपिकाः ॥
+

९. ग एत सभ्योत्कोचकवश्चकाः ! घ ङ परते सभ्योत्वोष्विक--। `


| ५ स्तेयदण्ड 1 ९९७ ॥

अक्रियाकारिणथैव मध्यस्थाः क्रुटसाशिणः।


` प्रकाशतस्करा चेते तथा कंहकजौविनः ॥ |
नैगमा अच बणिजः कपटतुलादिददाराऽैद्ारिशः।
वेद्या रोगं प्रकोष्याथेहारिणः, कितवाः क्रूटदेवनदारा- `
ऽथैहारिणः, सभ्याः पाषदाः-अर्थल्भेनान्यायवादिनः |
` प्व्मौत्कोचकाः कार्य्याधिक्षताः सन्तं उत्कोचाथेग्रादिणः ।
वच्छकाः सम्भूयोद्यतानां प्रच्छाद्यैकतराधेदारिण इति
रलाकरः। ये सुवणादिद्रयं रहौत्वाऽपद्रव्यप्रक्षेपेण `
वच्चयन्ति इति मनुदौका । दैवं भाग्यमुत्पातोऽद्भतं तदिदो
मिथ्योक्तचाऽथेहारिण इति रलाकरः ।
| इलायुध्तु तथैवोत्पातविद्‌ इति पटित्वा ये मिथ्यैवो- |
त्पातद्नेन णल्न्तत्याह । भद्राः शन्तिनियुक्ताः णन्ति-
मरूत्वैवाथेहरा इति रलाकरः। कल्याणकारतया ` `
` प्रच्छनपापा धनग्राहिण इति मनुटौकायां वुंल्लकभद्रः। `
` खरूपतामात्मनो निधाय स्यादिव्यामोहका इतिसववन्नः। `
` शिष््यक्ञाः क्रूटशि्पेनाधेदराः प्रतिरूपिकाः क्रुटशिवार- `
कादिद्दाराऽथंहरा इति रलाकरः। मिथ्याश्रमणलिङ्ग- |
दण्डादिधारिण इति इलायुधः ८
उक्त्वेतत्‌,-- 4
दश्डाजिनादिना युक्तमात्मानं द्‌शैयन्ति ये ।
हिंसन्ति द्मना चाथ वध्यास्ते राजपुरुषैः ॥
१९८ दग्डविवेकः ।

इति इस्मतिनैव विवरणात्‌। अक्रियाकारिणो तकाः!

तेन स्व्वेषामेषां कूटकारित्वं विव्ितमिति भावः।


~ ~ ~^ ~^

मध्यस्धा मृल्यव्धवस्थापकाः क्रीटमल्यव्यवस्थापनेनाथेहराः ।


ऋटसाक्िणोऽयथावादेन परस्य व्यवहारसाशिणः। कुहक-
जौविन इनद्रजालादिनाऽ्थंहारिणौ विवक्िताः।
नारद्‌ ‡9

प्रकाश्वश्वकास्तच क्रटमानतुलाभिताः ।
चओओत्कोचिकाः' सोपधिकाः कितवाः पण्ययोषितः ॥
प्रतिरूपकराश्ैव मङ्गलादेशकारिणः।
सोपधिका भयमा वा द्शंयित्वा ये परधनमप-
इरन्ति। कितवा अच कद्मनाऽथेहराः प्रतिरूपकरा
राजानुमतिं विना राजवेश्कर्तारः। मङ्गलादेशकारिणो- `
ऽन्यरेशमङ्गगलारे श्दाराऽथेदहारिणः ।
1
` प्रकाश्वच्वकास्तेषां नानापणयोपजौविनः।
भ्च्रौत्कोचिका्चौपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा ॥
मङ्गलादेणटत्ता्र भद्राश्ैश्रणिकैः सद ।
असम्यक्धारिणश्मैव महामाच्राश्चिकित्सकाः ॥
` शिल्योपकारयुक्ताश्च निपुणाः पण्ययोषितः। `
` खवमा्यान्‌ विजानौयात्‌ प्रकाशललोक-कण्टकान्‌॥ `
----“
निगृढचारिणथ्ान्याननार्ग्यानाय्यैलिङ्गिनः ॥
< ---------------------------------------------------~

| ९ ग घं चमोत्वोचकाः। २.
२ मूते अधिकः पाठः पक्वश्चकौस्तेते भे स्तेनाटविकादयः।
स्तेयद णडः | १९९ `

ये नानापण्चैरव्याजेन परद्रव्यं गह्न्ति ते नाना-


पण्योपजयैविनः । अओौपधिकास्तुलादिकतेनो
पधिना ऋतेन
खह्हन्त इति नारायणः । यद्यच सोपाधिक एव इति तच |
तथापि दवमिदं समानाधिकरणमिति तदभिप्रायः ।
मङ्गलादेश्टत्ता रतान्‌ देवान्‌ त्वद्थं पूजयामीति
मिश्याऽभिधाय जौवन्ति ते हि मङ्गलमादिश् वच्वयन्तो
वन्लन्ते। भद्राः प्रच्छन्नपापा भद्राकारमात्मानमुपद्‌श-
यन्ति । युक्त चैतत्‌ |
तथाहि व्यासः,
स्तौपुंसौ वच्वयन्तौह मङ्गलाटेशकारि णः' ।
्नन्ति छद्मना चाथेमनार्य्याश्चाग्थेलिङ्किनः ॥
रेखिकाः कुहकजौविनः। महामाचाः प्रधानता, = |
अर्थैलाभेनासम्धक्कारिण इति । अनार्या अव्धलिक्गिनः, |
इति `
अत्रह्मचाव्योदयो . ब्रह्मच्यादिभावनयाऽैहरा
रनाकरः।
| मनुटोकायां कुल्लृकभटरेन महामाचा हस्तिशिक्षा- ८
जौविनः। असम्यकारिण इति महामाच चिकित्सक-
विशेषणमित्यक्तम्‌ ।
सवज्ञेनापि मदामात्या इति पटित्वा राज्ञोऽमात्य- |
भिषजश्चासम्यक्ारिणोऽयुक्तकारिण इति वाख्यातम्‌ ।
दलायुधौये पण्यदोषिण इति पटित्वा ये निपुण ८
९ घ एुस्तकदये --डनत्तयः।
मण्यादयुपचारेण' ओओचियादौनपि मोहयन्ति उपचार युक्ता
उपायनटोकनयुक्ता इति व्याख्यातं तथा अनार्ख्ौन्‌
श्रद्रादौन्‌ आलिङ्गन ब्राह्मणशवेश्धारिशो धनग्रादहिश्‌
इति भद्रनेवोक्तम्‌ । |
तदेतत्‌ सव्वमपि मतमनुमतमेव सर्वेषामेषां प्रकाश
तस्करत्वाविशेषात्‌ । तच प्रतिरूपकाणं दण्डः प्रकौर्खके
ष्यते,
॥ प्रधानभ्रूतानधिर्त्य । मनु
(1 रा्रेषु रश्ाधिकताः परस्वादायिनः शठाः ।
गत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः ॥ `
ये काथिभ्योऽथैनेवं हि खल्लीयुः पापचेतसः ।
4 तेषां सव्वसखमाद्‌ाय राजा कुग्धौत्‌ प्रवासनम्‌ ॥
काथिभ्यो व्यवहारिभ्यःः।
कात्यायनः
`प्रतिष्ूपस्य कत्तीरः पर्णाः प्रकराश्च ये ।
राजाथैमोषकाथैव प्राप्रुयुव्विविधं वधम्‌ ॥
परक्षणा राजकाव्यवाधेन न्टत्यपेश्षकाः! प्रकरा दण्ड-
साध्यकरं प्रष्टं गरह्नन्तः। दण्डाण्यं करमिति केचित्‌!
मिश्रास्तु दण्डाख्यं राजकरं सखभावतो निरतिशयं
| सातिशयौकत्य गर्णन्तः प्रकरा इत्याहः । शेषेषक्तैव |
स्तयद ग्ड १२९

अथाप्रकाशतस्कराणं दण्डः । व

तच तेषां भेदमाह । मनुः |


परच्छनवचञ्वकास्तेषां स्ेनाऽटव्यादयो जनाः ।
स्तेनाः सन्धिचीरादयः, अटव्या अटव्धाभिताः।
दिवाऽपि चौय्कारिण इति रनाकरः। आदिपदात्‌
प्रान्तरवासि' चौरपरियरदः।

दस्यति
सन्धिच्छिदः पान्धमुषो दिचतुष्यादहारिणः।
उत्श्षेपकाः शस्यहरा जेयाः प्रच्छनतस्करा: ॥
उत्कछरेपका रश्कस्यायत रवावदितस्यः दृष्टिं वच्चयित्वा
उत्च्िप्य धनापहारिणः। वसख्रा्ुत्चिप्यापहरतीति |
उतष्रेपक इति मिताक्षराकारः।
व्यासः
श्नोधनाङ्ाज्विता राचौ ये चरन्त्यविभाविताः।
अविन्नातनिवेशश्च जेयाः प्रच्छनतस्कराः ॥
उत्ष्ेपकश सन्धिन्ञे पान्धसुट्‌ गरन्िभेद्‌कः ।
सखलौपुं-मोषः पशुत्तेयौ चोरो नवविधः स्मृतः ॥ 4.1
शोधनाङ्गगन्विताः स्तेयकरण-खनिचाद्न्विताः, अवि- |
ज्नातनिषेशा अनवगतप्रवेष्णः। रतयोरुतषेपकादिसम- `
शौर्षतयाऽभिधानं स्तेयाद्‌र्भनेऽपि आरम्भादिद्ण्डप्राघ्यथै-
मिति प्रतिभाति । यन्िभेदको ग्रन्िभेदनद्यारा वस्तरादि- `
` बद्वसुवर्शीद्प्यपहारकः। `
१. घ पतक प्रान्तवासौति प्राठः।
२ ग अन्वितस्य । 1
| धश्र्‌ ध द्‌ण्डविवेकः ।

अच सन्धिच्छेत्ता पान्यसुदट्‌ दिपद्‌ापदहारौ चतुष्पादाप-


हारौ उत्क्षेपको ग्रन्यिमेदकः शस्यहरः प्रकौ्णीपदारौ-
` त्वष्टष्यैवाप्रकाशतस्करमेद इति प्रतिभाति आटव्थादौनां
पान्धमुटूप्रभेदत्वात्‌ यथायथमितरविशेषाथैप्रवेणदया ।
अच यद्यपि श्रस्यहर शब्देन हह स्यत्यक्त-सन्धिच्छिद्‌ादन्य
प्रच्छन्नहारकत्वमाचं विवशितिमिति रल्नाकरः।
^.
तच
इष्दस्पत्यक्तानां शस्यदहरान्तभौवे तद्हिभावे वा परिगणन- `
माते भेदात्‌ फलतो न कंिदिशेषः । माचा वा प्रति-
बेशिन्धा बेति न्यायात्‌ पकछषदयेऽपि दण्डविधेर विशेषात्‌
तथापि धान्यापहारे मन्वादिभौरलाधिकभावं दिप
दादिवत्‌ खङ्यराहिकतया निर्दिश्य दण्डाभिधानात्तददेव-
मुक्तं खातन््येण परिगणनम्‌ ।
येषान्तु नारदादयक्मुत्तमादिभेदमादाय दण्डोत्कषा-
पकर्षपरिकल्यनं तेषां प्रकौसैत्वमेवोचितमतो नाति-
` विरुडस्तदपदारिशौ भेदेन विभागः। तेन शस्यहरो
धान्यापद्ारकः।
| शयं छेचगतं प्राहधौन्यं सतुषमुच्यते ।
आमं वितुषमि्यक्तं पक्तमन्नमुद्‌ाहतम्‌ ॥
इति प्रकरणन्तरौयपरिभाषायाः प्रकतेऽनादरणात्‌ ।
। म्रकौर्खीपदारौ रनाद्यपहारकः, उक्तदिपदव्यतिरिक्त-
द्रव्यापदारित्वात्‌।
न इष्टं यच्च पूर्वेषु सव्वं तत्‌ स्यात्‌ प्रकौखकम्‌'
इति नारदवचनानुसारात्‌ \ `
९ गअद्ावेवाप्रकाग्रत्खाराः। ` `` `
२ घ पुस्तके प्रकौणकरं इति पाठः
स्तेयदण्डः । ९२द्‌
नन्वेवं पान्धमुट्‌ प्र्टतीनामप्येतद्विशेषत्वं प्राप्तं तैरपि
प्रकौर्णानानेव रलादौनामपहारादिति चेत्‌। सत्वं,
किन्तु तेषामपहतद्रव्यस्य उत्तमादिभेदमपुरष्कत्य पान्य- `
मोषणदिरेव दोष इति भेदेनो पन्धासः ।
अतरव ददिपदाद्यपहारे सन्धिच्छेदादिस्तदुपायौ न
द्यते । पान्धमोषादौ द्रव्यविशेषवदिदहापि हरणोपाय-
विशेषस्याप्रयोजकत्वात्‌ । अतरव सन्धिच्छेदादिरुषाय-
भेदो दिपदादिरपहर्तव्यद्रव्यभेदो बा यो यच प्रथौजक-
स्तनैव तस्य व्यपदेशः छतो व्धासादिभिः।
अतरव सन्धिच्छेत्तरपि भाग्यवेचिव्येणाल्पानल्यद्रव्य-
लाभवेचिव्येऽपि सन्धिच्छेद्‌स्थेव दण्डग्रयोजकत्वमुक्तं मनुना

सन्धिं चित्वा तु ये चौयभमि्यादि । उक्तच्च मिताश्षरा- `1 ।


कारेण अपराधगरत्वाद्च दण्डो गरुरिति ।
अतरव,--
प्रनष्टाधिगतं द्रव्यं तिष्टेत्यक्तैर धिशितम्‌ ।
यांस्तच चोरान्‌ खह्लौयात्तानाजा तेन घातयेत्‌ ॥
इति मनुवाक्ये शताद्‌भ्यथिके वथ इति दैनादचापि
शतसुवणीमूल्याधिकदरव्यहरणे वध इति गोविन्दराज- |
व्याख्यानं दूषयता कुल्लुकमभदरेनोक्तं सन्धिं चछि्वातुचोग्य-
मितिवत्‌ अल्पेनापि प्रनष्टराजरशितद्रग्धदहरणेनैव विशे
षणा वधविधानं शतादभ्यधिको वध इत्यस्य विशषो- |
पदिष्टवधेतरविषयत्वादिति। | ध
सन्धच्छेदादेव
तस्मादल्पधनापहारे सन्धिच्छेद दोषविशेषादध-
4 | द्ग्डपिवेकाः | |

यत्त.--
सन्धिच्छेताऽनेकविधं धनं प्राप्रोति वे खहात्‌ |
प्रदाप्य सखासिने सव्वं हतं ्टपे निवेशयेत्‌ ॥ |
इति व्यास्वचनम्‌ ।

तस्य हइतदापनमाचै तात्पथ्यमनेकधनलाभागिधानन्तु


पक्प्राप्ताचुवाद्‌ रुव ।
अतरव,-- |
सन्िच्छिदो इतं दाप्याः श्रलमारोपयेत्ततः `
इति इहस्यतिना हतमिव्येवोक्तं न तु स्तेयं तस्यानेक-
` विधत्वादिति।
अतरवापर््यीप्ेऽपि चौ्यादौ दण्डमाह,
` कल्यायनः ~= ~

आरम्भे प्रथमो दण्डः प्रत्ते मध्यमः स्मृतः ।


यस्य सोऽभिदितो दण्डः पर्व्याप्त्य स वे भवेत्‌ ॥
| “इति ।
अथेतेषु सन्िच्छिदौ दण्डमाह ।

सन्धिं छित्वा तुये चौय राचौ कुवन्ति तक्कराः। |


तेषां दिवा पो दस्तौ तौश्णश्रले निवे येत्‌ ॥
अच हतदापनमपराधस्यापनच्चाधिकमिति प्रागुक्तम्‌ ।
पान्यमुषो दण्डमाह दहस्यतिः,-- `
तथा पान्धमुषो दष्टे गले बद्धाऽवलम्बयेत्‌ ॥ = `
-----------~------------------------------------------
--------

९ कख पुसतकदये त्वा। `
स्तेयदण्डः । छ | | १२५

अच नारद्‌-काल्यायनौ,-- `
स्वदेशघातिनो ये स्यस्तथा मागेनिरोधकाः' ।
तेषां सव्वस्वमाद्‌ाय राजा श्रूले निवेशयेत्‌ ॥ प

यस्य राज्ञो देशे चौरा वसन्ति तद्राजदेशस्तद्वातिनः


सखदेश्घातिनः। तेषां चौराणां । तेन परदेश्धाते
चौरैः कियमाशे तेषां रान्ना सव्यैखहरणं न काच्यम्‌ ।

अच वाक्यस्यास्य रल्लाकरादौो पान्धसुषमुपक्रम्याव-


तारेऽपि तच परिसह्यायकस्य स्वदेशौय-मागंनिरोधस्च स

समभिव्याहारदशनेऽपि परदेशौय दिचतुःपदहारिणोऽपि


ण्डाभावो न्यायसाम्यादिति प्रतिभाति । रवच्च पर
सममेकमूल- ` ८.
देशणहतं द्रव्यमित्यादि काल्यायनवचनेन
कात्वमेवेति ।
अथ दिपद्‌ापदहारे मनु
परुषाणां कुलीनानां नारौशाच्च विशेषतः ।
मुखानाच्चैव रलानां हरणे वधमहति ॥
कुलौनानां सकुलजातानाम्‌ ।
तक बि
मनुष्यहारिणो राज्ञा दग्धव्यास्तु कटाभ्रिना
कटेन वेष्टयित्वा तव्मभवेणभ्रिना दाद्या द्यधैः। `
व्यासः,--
स्वोहत्ता साहश्यने ट्ग्धव्यो वे कटाथिना ।
नरदत्तं हस्तपादौ च्व स्थाप्यश्चतुष्यथे ॥
-----------------------------~ ------------~~

९ ध पुरक यक्ञावरोधिनः।
(9 दण्डविवे
कर

नारद्‌:
पुरुषं हरतो हस्तौ दण्ड उत्तमसाहसः
सव्वस्वं हरतो नारौ कन्यान्तु हरतो वधः ॥
वाजिबारणबालानां चाददौत ददस्यतिः ।
हस्ताविति चित्वेति रेषः। कामधेनो--दष्टमिति
पटितम्‌ । सव्वस्वमिति नारौ हरतः सव्वसग्रहशं दण्ड
इत्यथः । बालानामिति हरत इति विपरिणामेनान्वयः ।
खदस्पतिरित्यतःपृव्वमित शेषः ।
्याहेति
अच चैकवस्तुग्रहणे परस्परविरुच्वशारौराथद्ण्
डाना ं
ध हारकोत१्कष्टापकृष्टजाद तौयत्व -हार्ययुत्क्षा-
वत््वाधनवत््व-
पकधेव्यवस्था काय्यति रनाकरः।
धन
; तचैवं प्रतिभाति मनुना सामान्यतः स््ौपुरुषदहारिणो
वधौ विहितः। तस्य विचिचाविचिचतयाऽनेकत्वात्‌ करणा-
कामयां इहस्पतिना कटािद्‌एदरूपं तदिहितं तच्च
स्तौदन्तत्यादिव्यासवचनैकवाक्तथा ज्ञाहश्यनसादहित्येन
स्तौहरणपरतया व्यवतिष्ठते ।
र्वं निराकाङ्क स्त्रीहारिणो वधे नरहन्तत्यादिव्यास-
वचनात्‌ पुरुषवधे दस्तपादरेद्‌पूव्येकं चुष्यथावस्थापनरूपं
श्रलारोपणपरपयग्यौयकरणं प्रतोयते ।
रवं परुरुषवधेऽपि निराकाङ्क पुरुषमित्यादिनारद्‌-
वचनोक्त-पूर्व्वोक्तयोव्धिकल्यः पव्भैवस्यति। सूतिशस्ते
------------------------------------------------------~--------------------------------- ---

१ ग एस्तके पात्यः। ।
र ग पुस्तके स्तौ तु हरतः ।
स्तेयदण्डः । १२७

विकल्पस्तु अ काङ्ग पूरणे सतौतिवचनात्‌, स्वायं स्तरी-


विषयतया प्रौढपुरुषविषयतया च व्यवतिष्ठते ।
कन्धाहरणे वधस्य बालदहरणे सव्यखदहरणस्य व्यासेन
शृङ्भयाहिकतयाऽसिधानात्‌ विषथभेदेनाविरोधाच्।
रवच्च परपरि णौतस्त्ौहारिणं लाहश्यनमारोष्य
कंटाभिदाहेन हन्यात्‌ प्रौढपुरूषहारिणन्तु दस्तपादौ
शित्वा श्रलारोपणेन इन्यादिल्येकः कल्यः प्रौढपुरुष-
हारिणो दस्तद्रयकेदरूपः शरौर उत्तमसाहसरूपश्वार्थो
दण्डः । ऊदस्तरौदारिणस्तु सव्वसखदर णमित्यपरः कल्यः ।
तदनयो्वैषम्येण विरोधे मनुवचने कुलैनानामिति
वणात्‌ कुलोनस्त्रौपुरुषापद्रे प्रथमः कल्पः, अकृलौन-
तदपदहारे तु दितौय इति व्यवस्थेति ।
राजकुलौनयौः स्तौपुरुषयोरपदारे विशेषमाहतु--
श्ङ्लिखितो,-- |
तत्कुलौनेषु
राजपुचापहारेऽषटसदसं शरौरो वा दण्डस्
पुषं स्त्रीपुरुषयोः । |
अष्टसहसरमष्टाधिकसदहसं तच पणानां लिखितपरि- `
भाषानुसारात्‌ का्षौपणानामिति रल्नाकरः। तचापिस ||
एवाथः |
तथाहि अजाविकेऽङचयोद्‌श्पणा नकुलविडालाप-
रणे चयः कार्षापण इत्युपसंहारदण्नम्‌। तच च `
कार्षापणः पणपर््याय रव पुराणपय्यायत्वेऽजाविकायेश्षया `
नकुलविडालयोलघत्वेन दश्डगोरवानुपपत्तेः ।
कामधेनौ राजपुबापद्ारेधिति पठितं" तक्कलौनेषु
राजकुलौनेषु पुत्रेषु राजपुचव्यतिरिक्तपुरुषेषु ।
अ्मषाधिकसदसाङं स््रौपुरुषयोश्च राजकुलौ नयोर्ब-
मष्टसहसं शरीरो वेति विकरे धनवच्वाऽधनवच्वाभ्यां
व्यवस्धेति रलाकरः।
अचर प्रतिभाति राजकुलोनापहारस्यातत्कलौनाप-
ारापेश्या गुरुत्वादाथैश्णरौरदण्डयोः साहित्यं वाक्यां
छशरौरो वेति वाकारः समुच्चय इति । ` |
दासदाप्योरपहारे मनुः
दासाश्वरथहर्ता च प्राततः स्याचचौरकिल्िषम्‌ । `
नारद्‌,
मोषु ब्राह्मणसंस्थासु स्फ्रायाग्छेद्‌नं भवेत्‌ ।
दासीन्तुः हरतो मध्यस्तथा पादस्य छेदनम्‌ ॥
` ब्राह्मणसंस्थासु ब्राह्मणस्वामिकासु। रच्च दासौषु
जाह्यणस्वत्वेन गौरवादण्डाधिक्छद्‌शेनादासेष्टपयि बराह्मण-
खवाभिकेषु चौरदण्डः शरौरमाथं वाऽधिकं वाच्यमन्य-
` स्वामिकेषठल्पमिति प्रतिभाति । |
अथ चतुष्यद्‌ापहारे नारदः,
` महापश्रून्‌ स्तेनयतो दण्ड उत्तमसाहसः ।
मध्यमो मध्यमपश्रन्‌ पूव्वः स्रः पशौ हते ॥
९ गपएुरूकेपाठः। `
` -र२कखर्दासौन्। ४
इ मूले अद्धपादविकत्तेनमिति पाठः। `
४ ग पुस्तके च्तनपश्रून्‌ इरन्‌ ।
सतेबदण्डः। ९२९
महान्तः पश्वो स्यादयः, मध्यमा इषादयः। रुत- ¦
द्िशेषविदहितेतर विषयम्‌ । तच महापशुषु विशेषमाह--
मनुः,
्सन्दितानां सन्दाता सन्दितानां विमोक्षकः
दासाश्वरथहर्ता च प्राप्तः स्याचौरकिस्विषम्‌ ॥
तथा,-- |
महापशूनां हरणात्‌ शस्राणामौषधस्य च । `
कालमासाद्य कायेच्च दण्डं राजा प्रकल्पयेत्‌ ॥
सन्दितानां चरणबद्धानामिति कल्पतरुः! सन्दाता
हर
णदहेतुबन्धनकारौ । विमोश्को दर णहेतुमोष्कारो ।
चोरकिस्तिषं चौरदण्डं शरौरमाथे वा, स च मारणाङ्ग-
छेदनापद्ाररूप इति मनुटौकायां कुललुकभदरः ।
नारायणक्तु असन्दितानामवद्गानाम्यश्रनामखामिक- `
तयोत्खृष्टानां बाहनादिकत्त सन्दाता। सन्दितानाम-
प्यन्यदौयपश्रनां तदिरोधाचरणबुद्या मोचयिता विमो- `
छकः। दासादिहरत्ता तु कथच्छत््रतारणादिना तैः
स्वकाथ्धै कारयिता तेन तदत्तेयेऽपि तत्तत्कम्यैश्येव
स्तेयातिष्टेशशेऽयमित्याह । । 6
सेयं तथापि न निरोधः |
युक्तञ्चेतदेव यद्यपौदं न
स्तेयातिरदेश्स्यापि स्तेयदण्डप्राष्यथेत्वात्‌ । काला युङ्खो
पयोगानुपथोगसमयः । कायमुपयोगस्य भूयसू्वाल्यत्वे ।
एतत्‌ सव्वमालाक्य च कालसंख्ौतमुपलधितं वा। `
बाजिवारणादेगौरिवागौरे विशिषटलाविशिष्त्वे च बचि- `
- - - - - - - ~- ~~~
` ८ ानां च मो्तकः।
---------- -----------~--------~----~-------------~----~ ------ ~-~-------------------------"--~------~-----------.

९ मूले -- असन्धितानां सन्धाता सन्धित


२ क ख पुस्तकदये --कम्भण्येवातिदेग्रोऽयम्‌ । `
प 9
1 ११... दण्विवेकं

चाल्पं बह बहुतरं वा चतुष्यदापद्ारिणे दण्डं कुव्यी- `


दिति श्रोकदय.समुद्‌ायाथेः।
तच बहुतर दण्डो यथा ।
याज्ञवस्व्यः,
बन्दिग्रहांस्तथा वाजिकुच्ञराखच्च हारिणः
प्रसद्यधातिनश्ैव श्रलमारोपयेनरान्‌ ॥ `

अश्वहनत्त दस्तपादौ करि छित्वा प्रमाप्यते ।


9.
वाजिवारणबालानां चाददौत ददस्यतिः ॥ |
बवाजौति हरण इति विपरिणमितानुषङ्गः । आद्‌- `
` दतेति सव्येखमिति पुर्व्वाईस्थितानुषङ्गः । र
तथा-विष्णः,-- .

गोऽश्वोष्रगजापहाय्येककरपादिकः कायः ।
अल्पो यथा-शङ्लिखितौ,--
इरत्यश्चगोटृषायनेषु राजपुचा
पहार वहण्डः । |
राजपुचापद्ारवदिति अष्टाधिकं पणसदसलं शरौरो
वा दण्ड इत्यथैः तदेवं महापशुषु यस्य यदोपयोगभूयस््ं
गौरवं वैशिष्चं वा प्रकृष्टं तस्य बन्धनमोश्णादिनाऽपदारे `
यथा्रतो वधः। यस्य तदपक्ष्टं तद्पकारे सव्वस्वमेव
करपादभेदो वा। यस्यापक्ष्टतरं तदपदहारे मध्यमसाहइ-
सादिदण्ड इति सिद्धम्‌ । ` |
१ कख स्तवा दथेतिपदं नास्ति!
सत्रयद्डः। = ९२९
अथ नारदः+ ८,
गोषु बाद्यणसंस्थासु स्फरायाग्छेदनं भवेत्‌ ॥
ब्राह्मणसंस्थासु ब्राह्मणसम्बन्धिनौषु प्यथ सप्तमौ
स्फरा पाष्णरुपरिभागः।
इस्ति ५
गीहन्ता नासिकां छवा बध्वा चाभ्सि मज्जयेत्‌ ।
गोहर्तेति दितौयार्थे आ्षप्रयोगः। रतद्राद्यणएस्वाभिक- ` |
यन्नोपयुक्तोत्कुष्टगवौपरं द्रष्टव्यम्‌ । वचनमिदं काम-
धेनो दृष्टम्‌ | |
न.
गोषु ब्राह्मणसंस्थासु स्फरुरि कायाश्च भेदने ।
पश्रनाच्चैव हरणे सद्यः कार्य्योऽद्धपादिकः
` पश्वोऽचाजाविक विडाल नकुलव्यतिरिक्ताः शुद्रपश्व |

खामिकया गवा साहचयग्यौत्‌ पश्रनां महिषादीनामिति


नारायणव्याख्यानाच ।
नारद ीय-स्फुर ाकेदनविरोधः। तन्मतेऽपि `
5 नच ।
तुल्यत्वात्‌ | | | | ८

त्वप्रकष्टगवौपरं पशुपदच्वाचात्राह्मणसवामिकाप्ररु्ट-
गवादिपरमि ति न बिरोषगन्धः। अर॑पादिकः चिका १ `
पाददय इति नारायणः । स
पदे दण्डदिवेकः।

| पशुहर्तुापादः तौश्णशस्त्रेण कर्तयेत्‌ !


अच मिभ्ैरतीष्छेति पटित्वा कुण्डकुदालादिनेति
व्याख्यातम्‌ ।
¢ अथ शङ्खलिखितौ,
न अजाविकषेऽर्बचयोद्श्पणाः। नकुलविडालापदरणे चय
कार्षापणाः ।
तथा-विष्णऽ--
अजाव्यपदार्वयेककरः काय्थः ।
4.४
ध अनयोव्विरोधे धनश्रून्यचोर विषयं विष्णएवचनं यन्नो-
४.
पयुक्ताऽजाविहरणविषयं वेति रनाकरः।
< अथोत्‌घ्रेपक- मगम्िभेदकयोर्द॑ण्डमाह ।
|१

|.
व्यासः
व उतछरेपक-ग्रन्धिमेदौ सन्दभेन नियोजयेत्‌ ।

| #
सन्द कराङ्गशटप्रदेशिन्यौ ।

अङ्गुलोग्रन्िभेद्स्य केदयेत्‌ प्रथमे ग्रहे ।


दितौये दस्तपादौ च ठतौये वधमर्हति ॥
रखुवमन्यचापि पुनः पुनः करणदण्डाधिकयमिति
नारायणः। अज्गुलौ अह्ु्टप्रदेशिन्यो । ग्रहे अपदरणे,
८ _हस्तचरणाविति दिवचनद्‌ शनादेवं हस्तमेव चरण- `
( ५मित्यथैः। |
` ्ेयदण्डः। ` = ९३द्‌

यद्यप्येतद्रन्धिमेदमुपकम्य शयते तथाय्यत्ष्ेपकेऽपि


द्रष्टव्यं दयोसतुल्ययोगक्षेमत्वात्‌ दयमेकोक्तया निह शत्‌ ।
अतरव याज्ञवल्वयः,
उत्ष्ेपकयन्धिभेदौ करसन्दश्डौनकीो ।
कार्य्यौ दितीयेऽपराधे करपादैकहीनकौ ॥
कर पारैकेति,-
उत्‌क्रेपकग्रन्धिभेदकयोरेकं करमेकं पाद्च्च चिन्या- र ५
दित्यथैः।
अच मिताक्षराकारः-- रतद्चनसुत्तमसाहसम्रा्ि-
योग्यापद्ार विषयम्‌ ।
तदङ्गकेद इत्युक्तौ दण्ड उत्तमसाहसः ।
इति नारदवचनादित्याह ।! `
तच्चिन्त्यं, तनमूल्याह्िगुणो दण्ड इत्यादौ सादसप्रकर- |
णौये वाक्ये प्रथमसाहसादिसामान्यदण्डविधानमपहार- ` `|
व्यतिरि क्विषयमिति खोक्िविरोधात्‌ |
विमांसविक्रयाद्‌ावसाहसेऽपि याक्नवल्व्येन करादि ५
केदस्य विधानात्‌। नारद्वचनश्य विषयान्तरेषु चरिताधै-
त्वात्‌ तस्य सामान्यसुखप्रहत्तत्वेन दण्डविशेषानवर्द्ध- = `
विषयकत्वाच्च । ` क
तथाहि तदङ्ग साहसकरणभूतमङ्गमिति सब्बे
निबन्धेषु व्याष्यातम्‌ । न चोत्क्ेपकमन्धिभेदौ सन्दंश- 1
माचसध्यौ न वा पादस्य तचोपयोगो दण्डसमुचचयश्च `
वचनाभावेऽसुबन्धगौर वादभाव च दुर्वच रव प्रमाणा- | 4
१.२४. त | द्ण्डविवेकः ।

भावात्‌ सन्दश्शणदिष्धेदविधेरूपस्थितेन ग्रन्धिभेदोत्‌क्ेप'


लक्षणेन निमित्तेनान्वये निमित्तान्तरानपेक्ितत्वाच ।
एवं धान्यापदहारे दहस्यतिऽ--
धान्थापहारौ दशगुणं द्‌ाप्यस्तद्िगुणं दमम्‌ ।
५ |
धान्धं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽप्यधिकं वधः ।
शषेऽप्येकादश्गुणं दाप्यस्तस्य च तद्खनम्‌ ॥
कुम्भो विंशतिः प्रस्था इति रल्लाकरः। विंश्तिद्रोण `

--

इति मिताक्षराकारः कुल्लकभद्रोऽप्याह दिशतो पशो


दो, ितिद्रोणः कमभ इति।
यत्तु घुतद्रौणेन परिमितः कुम्भ इति गोपथन्राह्मणं
` तद्रवद्रव्यविषयम्‌ । माषकं पच्चकृष्णलम्‌,-- ध
माषकाणि चतुःषष्टिः पलमेकं विधौयते ।
दाचिंश्त्पलिकं प्रस्थं स्रयमुक्तमथव्वणा ॥
आढकस्तु चतुःप्रसेशतुभिरद्रोण आढकः ।
स्कन्दपुराण,
पलदयं हि प्रसतिस्तद्यं कुडवं स्मतम्‌ ॥
चतुर्भिः कुडवः प्रस्यमाठकेश्च चतुर्गुणः
चतुगृणो भवेद्रोण इत्येतद्रव्यमानकम्‌ ॥
4 ` तमेनं द्रोणं पुणंपाचं व्यवदरन्ति। चतुवेगेचिन्तामणौ ` ५ |
। द्रवद्रव्यविषये स्कन्दपुराणमिति कत्वा वचनमिदमव-
=म
अ~=
~ सगर = द.
भविष्यपुरारे,
कुम्भो द्रोणदयं ख्ण्थः खारी द्रोणस्तु षोडशः
रव्य इति द्रोणस्य नामान्तरं केचित्सूपं इति पठन्ति ।
विष्णधर्ममोत्तरे कुड़वप्रश्टति द्रोणन्तसुक्का,
द्रोणैः षोडशभिः खारौ विंशत्या कुम्भ उच्यते ।
कुम्भस्तु दशभिः खारौ धान्यसंज्ना प्रकौत्तिता ॥
॥ ` इत्युक्तम्‌ । `
विंश््येति द्रौरेरित्यनुषङ्गः। र
धान्येति यवादौनामपि द्रवद्रव्थाणामपि चोपलक्षणं
कन्दपुराणौय-सामान्याभिधानस्ररसादिति महारौव-
कारः |
बालभूषणे चण्डश्चरः,
कुंडवाद्या वेद्गणा प्रखादद्रोणमानकाः खाय्थेः ।
कुम्भो विंश्तिखार््था दृष्टो लेके यथाक्रमः ॥ `
लेके भिथिलादौ। तदेवं द्रोणदयेन विंश्या द्रोरैरिति `
च दिविधः कुम्भः। दानविवेके तु पणसहखपरिमितः
कुम्भ इत्युक्तम्‌ । रवञ्च नानाथ रुव कुम्भशब्दः । ५
वराहपुराशे,
पलदयं तव््ररतिसुंष्टिरेकपलं समतम्‌ । |
अषटसुष्टिभवेत्‌ कुञ्चिः कुच्चयोऽष्टौ च पुष्कलम्‌ ।
पुष्कलानि च चत्वारि आढकः परिकीर्तितः ॥
चतुराढको भवेद्रोण इत्येतन्मानलश्षणम्‌ ।
| १९३६...:..: । दग्डविवेकः ।

तथा-चतुभिः सेरिकाभिश्च प्रस रकः प्रकौर्तितः ॥


तच हेमाद्वि+-- सेरिका कुडवः
तथा कल्पतरुः, सेरिका कुडवः स च ददादश-
~~~

म्रतिपरिमितः
। इादश्प्ररतिभिः सेरिका तच्चतुष्टयं प्रख्य इति समय-
| म्रकाश-रल्लाकर-स्परतिसागरेष्यक्तम्‌ । |
| तथा-भूपालपड़तौ प्रमाशस्थपुरुषस्य प्रमाणस्थकर-
| चरणस्य दाद्श्प्रखतिभिः कुडव उत्तरोत्तरं ॒चतुगुणः
म्रस्थाढकद्रोणा भवन्ति। ततश्चतुःषण्चा कुडर्द्रोण इत्यु-
| क्तम्‌। ्बभमेव कल्पतरुकारः ।
न्‌ पटन्ति,- `
पञ्चङष्णलको माषस्तेश्चतुःषष्टिभिः पलम्‌ ।
दाचिंषता पलैः प्रस्थो मागधेषु व्वश्ितः ॥
अठटकस्तेश्चतुभिसतु द्रोणः स्याचतुराठकः ।
तथा-सव्वेषाभमेव मानानां मागधं अेष्ठमुच्यते ॥
तदेतन्मागधमाच इत्याहः । तन, गोपथत्राद्मण-
सम्बादित्वेन साधारण्योचित्यात्‌ मागधेधिति व्यवहरणः
परम्‌| |
वच्छ ओष्ठतापि न परिमाखणधिक्यात्‌, अपितुवेद्‌-
. मुलकत्वादितिष्येयम्‌। `
इद प्रुतमनुवाक्े वधस्ताडनमङ्गढेदो घातनमिति |
` चि्पः। स च हर्तख्वाभिगणवक्वागणवच्वापेश्या
व्यवसित इति कुल्लकभद्रः।
~ ---------------------- ~~~
` |
९ क समयप्रदौप--।. द्‌ घ प्ते ्यवद्दार--।
स्तेयदडः। ९३७

नारायणसू्वाह वधस्ताडनादिौद्यणादिद्रव्यत्वे व्वङ्ग-


छेदादौति। इरहारकस्वामिगुणायेश्चया सुभिश्दुरभि्ष- य

कालापेक्षया चेति मिताक्षरयाकारः। कृम्भसह्ाविसम्बादो-


ऽप्येवमेव सम्बादनौयः। शेषे च दशकुम्भाधिकन्धने--
तस्य च तद्धनमिति खामिनी यदपकृतं तदाप्य इत्यधेः ।
मनृक्तमेकादशगुणं दश्डद्‌ानं स्वामिनी हतधान्य-
दानच्च प्रथमधान्धचौय्यविषयम्‌ । बारस्यत्ये तु स्वामिने
द्‌शगृणं धान्यदानं रान्नश्चण्हतदिगृणदणश्डद्‌ानं चौय
भ्यासविषयमित्यविरोध इति रलाकरः ।
तथा-मनुभ-
परिपूतेषु धान्येषु शकमुल फलेषु च ।
निरन्वये शतं द्ण््यः सान्वयेऽङंशतं दमः ॥
परिपूतेषु अयासितकल्वोषु निरन्वये रश्षकरहित इति ¦ ५
कर्पतरः । गरहणदेतुप्रौत्यादिश्रन्ये इति रनाकरः। उभ- `
यच दरण इति । तद्रव्यसम्बन्धयोग्यतापादकं ज्नाते-
यादिकमन्वयस्तमभिधाय यच ग्रहणं न भवति तन्निरन्यं |
विपरैतं सान्वयमिति नारायरः।
` अचर मनौ रकादश्कुम्भाधिके वधामिधानं तदृने `
| रकाद
शगखदण्डविधानच्च हधान्यहरणविषयम्‌ । इदन्तु ` ^
शतदण्डाभिधानं खलस्थधान्धविषयमिति रन्नाकरः। =
` सवमेव कुल्लकभद्रः ।
1

"रे
चर्त: इण्डविषेकाः।

तथा+-मनु+--
पुष्पेषु हरिते धान्ये गल्मवल्लौ नगेषु च ।
अल्प
परिपूतेषु दण्डः स्यात्‌ पञ्चकृष्णलः ॥
इरिते धान्ये क्षेचस्य खव घासाथमपहते। हरिते
माषादाविति नारायणः
| अल्पेषु रकपुरुषोद्ाद्यादपि डौनेषु, अपरिपुतेषु
| अनपहतकल्केषु । अचर धान्येधिति वचनविपरिणामेन
८ सम्बन्धः । छष्णएलाः सौवण लिखितपरिभाषानुसारात्‌ ।
` कुलकभट्र्तु,
देशकालादयपेश्या सोवखंराजतावित्याइ ।
भनुः.+--, :
को(गो)ष्टागारायुधागारदेवतागारभेदिनः
हसत्यश्वर थद्न्तंश्च हन्धादेवाविचारयन्‌ ॥ |
| कोष्ठागारं धान्धागारमिति रनाकरः। राजग्हमिति
मनुटौकायां नारायणः। अविचारयन्‌ तथाविधकम्मणि `
निशितेऽविलम्बमानः। धान्यागारादौ भित्तिभेदनमेव `
सन्धिश्यानौयमतस्तत्‌कर््तुः सन्धिद्धिद्‌ रुवायं दण्डः ।
तच्छेदमाे पूव्यैसाहसस्य प्रकौर्खके बश्यमाणत्वात्‌, `
भेदिन इति निदशैनात्ताद्लौल्यप्रतौतो भेदाभ्यासेऽति
प्रसङ्गनिखृत्यर्थो वा वधः। ‡
यद्वा भेदनमिह चोपरमेव। आकरे तु तत्प्रकरण रव
पाठात्‌। कामधेनु-कल्यतरुकारादिभिस्तकैवावतारणाच । `
देवतागारेऽपि जगन्राथादेरिवालङ्कारा्यपद्ारसम्भवात्‌। `
सः

स्तेयदण्डः! ` | ९१३९ `

तथा,
गोषु ब्ाद्यणसंस्थासु स्थरिकायाश्च मेदने।
पशनां हरणे चैव सद्यः कार्व्थोऽङ्पादिकः।॥
ब्राह्मणसंस्थासु बाह्मणसम्बन्धिनीष्ु हताखिति ओषः
प्रकरणात्‌ स्थरिकेति इषमदहिषादिभिः प्ष्ठवाद्यो भारः
स्थलास्फलो परिदंहण इति धात्वनुसारात्‌ ततः खाथिकः
==


र=:

कन्‌प्रत्ययः, स्थादिव्यादिना इत्वं रलयोरेकंच स्मरणत्‌।


स्थूरिका गोणौति प्रसिद्वा तस्या भेदने पाठने धान्याद्य-
पहरण इति यावत्‌ |
यत्तु बन्धाया गोर्व्वाहनाथें नासाभेदन इति कुल्लक- |
व्याखानं तदनादेयं पाठापरिचय पदार्थापरिज्नानमूल- (1

` कत्वात्‌ |
वीदुेषभस्य भारः स्फूरिका तस्या सेदने तन्गतधान्याप-
हार इति नारायणव्याख्यानमसङ्गतं स्यात्‌ । नासाभेद्‌-
नस्यापदाथेत्वात्‌ प्रकरणविरुडत्वाच ।
रतेन स्फुरिका वन्या, भेदनं नासमेदनमिति रनाकंर- `
`
व्यास्यानमपास्तम्‌ । अ्खपादिको भिननाङ्खष्पाददयः।
तथा,
कषेचिकस्यात्यये दण्डो भागादश्गुणो भवेत्‌ ।
ततोऽइदण्डो शत्यानामन्नानात्‌ क्ेचिकस्य तु ॥
छषौबलभागापदरणे धान्यापदारै `|
। : क्षेबिकस्यात्यये
| शस्यापहारौ त्वेकादशगुणं दण्व्य इति रत्राकरः। `

९ ग ि्नाडेपाददय। . `
` १४० ( दण्डविवेकः।

दला युयल्ुः
छेचस्वामिनोऽत्धये तदहोषेण यदा शस्यदोषो भवति तदा
रान्ना खब्राद्यभागादश्गुणं दण्डनौयः। तदन्नानाच ग्डत्य-
दोषेण शस्यनाओे शत्य रव तदेन दश्डनौय इत्यथेमाह ।
[1

अथ प्रवीर्णापदारिदण्डः ।
तच प्रकौशे नाम प्रागुक्तदिपदादिव्यतिरिक्तं रना
दौत्यक्तं तत्‌ चिविधन्तृत्तमादिभेदात्‌ ।
तच नारद्‌
तदपि चिविधं प्रोक्तं सव्वापेक्षं मनौषिभिः।
छुद्रमध्योत्तमा
नाच्च द्रव्याणामपकषंणात्‌ ॥
अपकषणमपदहरणम्‌। `
कमेणामौषां परिगणशनमाह स एव ।
शद्वाण्डासन खव्वास्ि' द्‌ारूचम्बेटेणादिकम्‌ ।
` एमौधान्यं छतान्नच्च शछुद्रद्रव्यमुदाहतम्‌ ॥
एमौधान्यं शिम्ब्यादिभवंः सुद्गादि ।
वासः कौषेयवर््जच्च गोवञ्नँ पशवस्तथा । `
हिरण्यवज्नं लोहञ्च मध्यं व्रौहियवा अपि? ॥
लौहश्ब्दो धातुपरः । मध्यं मध्यमद्रव्यमित्यधैः ।
हिरण्यरनकौशेयं स्नौपुंसो गजवाजिनः
देवबाद्मणरान्नाञ्च द्रव्यं विक्नेयमुत्तमम्‌ ॥
+

१ ग खद्ादि । कचित्‌ खङ्गादि। २ घ शिम्ब्यां भवम्‌ \


। ३ ख पुस्तके व्रीहियवं तथा|
परकीर्णापद्ारिदण्डः । । | ९४९

देवद्रव्यं छद्रमप्यमौषासुत्तममित्य्थकमिति स्मतिसार


कारः । रवमेव गहेखरमिश्राः ।
9

अच ददस्यतिः- |
ही
नमध्योत्तमत्वेन विविधं तत््रकौ्तितम्‌ ।
द्रव्यापेषो दमस्तच प्रथमो मध्यमोत्तमः ॥
प्रथमो मध्यमोत्तम इति प्रथममध्यमोत्तमसाहसरूप
इत्यथैः । इत्यं हौनादिद्रव्यापदारेषु प्रथमादिसादसानां
व्थवस्थितत्वेऽपि तेषां हौनत्वादितारतम्यात्‌ साहसानां
न्यूनाधिकसंख्याभेदो व्यवसितो द्रष्टव्यः ।
रतत्‌ विदटणोति स रव,-
करेचोपकरणं,सेतुं पुष्यमूलफललानि च ।
विनाशयन्‌ हरन्‌ दण्ड्यः शताद्यमनुरूपतः ॥
पशुवस्लान्रपानादि शदोपकरणन्तथा । |
दिंसयन्‌ चोर वदाप्यो दिश्तान्तं दमन्तथा ॥
स्लीपरंसौ देमरलानि देवविप्रथनन्तथा ।
कौशेयच्चोत्तमं द्रव्यमेषां मूल्यसमो दमः ॥ `
दिगणो वा कल्यनौयः पुरुषापेक्षया पैः ।
इतौ च घातनौयः स्यात्‌ प्रसङ्गविनिरृत्तये ॥
शतां शतावर दिश्तान्तं अनुरूपतो व्विनाशे चाप- `
इतमृल्यानूसारेण देशकालश्त्यतुलारेण च । पुरुषा- `
पेश्या आच्धदरिद्रपुरुषापेषशया। अच यस्य मूल्यमाचं `
५ ॑ १. घ युतक कषेणमिति पाठ 1. गःच्दोरयन्‌ )
द घ विनाशितापङ्णत। ।
९४ दण्डविवेकः।
(५
|

1:
सम्भवति तस्य तन्माचं यस्य त्वधिकं तस्य दिगण दण्डः
यश्य तु मूल्यमाचमपि नास्ति चोग्य चातिप्रसङ्गस्तस्य वधं
तै 0
0

इति व्यवस्यति रनाकरः ।


ममु
कोष्ठागारायुधागारदेवतागारमेदिनः।
दसत्यश्चर यहन्तृश्च इन्यादेवाविचारयन्‌ ॥
आगारपदोपसन्धानादायुधमिह राजकौयं द्रष्टव्यम्‌ ।
रतदष्यतिप्रसङ्गविषयमिति प्रतिभाति ॥
ठणं वा यदिवा काष्ठं पुष्यंवा यदि वा फलम्‌,
अनाप्य तु ग्रह्लानो दस्तकेदनमहति ॥
५. इति इहस्यतिवचनमष्यतिप्रसङ्गविषयमेव । दणदच- ८
पहारविषयेण मूल्यदिपच्चगुणदण्डेन समं दरकेदस्य
वैषम्येण विकल्पायोगादिति द्रष्टव्यम्‌ । ॥

येन येन परद्रोहं करोत्यङ्कन तस्करः ।


च््यात्तत्तस्य ्टपतिनं करौति यथा पुनः ॥
इति कात्यायनवचनं तद्यक्तमेवातिप्रसङ्गविषयं न
करोति यथा पुनरित्यभिधानात्‌। रखवच्च यच दण्डे
. विशेषो न श्रूयते तच्चैव तद्यक्तव्यवस्थानुसारेणेव तत्कल्पन
` मिति प्रतिभाति,
यज्च,-- =
श्द्रमध्यमहाद्रव्यहरणे सारतो दमः।
देश कालं वथः शक्तिं१ सञ्चिन्त्य द्ण्डकम्भणि ॥
प्रकौर्णाप्ारिदण्डः । १४३

इति याज्ञवल्क्यवचनं तस्याष्यस्यामेव व्यवस्थायां


तात्पय्यम्‌ | ।

४. ५ र
साहसेषु य रवोक्तस्िषु दण्डो मनोषिभिः। ५.
स रव दण्डः स्तेयेषु द्रव्येषु चि्नुक्रमात्‌ ॥ ५
इति नारद्वचनम्‌, तच रनाकरङनैवोक्तं अयमति- |
देशः शषद्रमध्यममहदरव्ेषु "विरुद्द ण्डावरुङषु द्रव्य इति। = |
तेषत्तमद्रव्यापहारे नारद्‌, 2 |
तुलाधरिममेयानां गणिमानाच्च सब्वेशः।
रभिर्त्क्ष्टमूल्यानां मृल्यादश्गुणो दमः ॥ |
तुलाधरिमं करादि, तुलादण्डे त्वा तुलनातो मेयं `
ब्रीद्यादि, उत्सङ्गतः प्रस्थादिपरिमेयत्वात्‌। गणिमं पूगादि, `
` प्रायेण विंश्त्यादिगणनया कमादिव्यवहारविषयत्वात्‌।
रभिरिति पूवेप्रकान्तानां काष्ठभाण्डादौनां प्रत्यव- `
मर्षः, तन्मृल्याधिक-मुल्यत्वेनोत्तमल्वं प्रतिपाद्यते । ८ |
अथोत्तमानां द्रव्धाणं तारतम्यादप्डारिणो दरण्ड- ` |
तारतम्धमित्याह । ;
मनुः, |
तथा धरिममेयानां शताद्भ्यधिको दमः
सुवशेरजतादौनासुत्तमानाच्च वाससाम्‌ ॥
पञ्चा शतस्वभ्यधिके दस्तकेदनमिष्यते। `
शेषेऽप्येकाद्‌शगुणं मूल्या दण्डं प्रकल्पयेत्‌ ॥
71

९ ग दग्डानवरदधेषु । `
१४४ ` दण्डविवेकः।

तथेति समौकरणं देणकालापहतद्रब्यखामिजातिगुणाच्य-


पेयेति मनुटौका । धरिमं तुलनौयम्‌ ।
नारायण-सव्वन्नस्तु,
धरिमं तुला तन्मेयानां सुवगैरजतव्यतिरिक्तानां
ताब्रादौनामित्य्थैमादइ । तथा शतादिति निष्कश्तात्‌। = `
रतच्च षोडश्माषरूप-सुवणेचतुष्टयरूपनिष्कव्यवस्थया
ग्राह्यमिति ! तथा पञ्चशत इति ताव्रादिविषय इत्याह ।
शेषे पञ्चाशद्‌भ्यधिकन्धने ।
रवच्च नारदोक्त मुल्यद
शगुणदण्डोऽप्यस्यापि शेषे
द्रष्टव्थः। शताधिके च दमो मनूक्तो वध रव ।
सुवशैरजतादौनासुत्तमाना्च वाससाम्‌ ।
रलनानाञ्चंव सर्व्वेषां शताद्‌भ्यधिके वधः ॥
इति नारदसम्बादात्‌! `
कामधेनौ तु मनुवचने दम इत्यच वध इत्येव पठितं `
मिताश्चरापि तथेव । स चायं वधो ब्राह्मणद्रव्यत्वे मारणं
अन्यच तु अङ्गच्छदादिरिति नारायणः ।

शतसंख्या चाच पल्य मन्तव्या वाससाच्च शतसंस्थातवं


वासोऽवयविनामेव प्रहदपटादौनामिति ।
भिश्ारू्वाहः, | |
हेम्नो रजतस्य पटदुष्कुलादेवां पलशताधिकमूल्यस्याप-
इर्त वध्यः शतपलाधिकमूल्यस्यापहत्तौ वध्यः पच्चात- `
पलाधिकमूल्यस्यापहर्ता िन्रहस्तः कायः, तदूनस्य तु
हत्ती रकादश्गुणं तन्मूल्यं दाप्य इति।
लेयदण्डः। ` १९४५

गोविन्दराजसतु शतादिति सुवशेशतादित्यथेत्तेन


शतसुव्णणधिकद्रव्यहरणे वध इत्याह । तचिन्त्यं नारद
वाक्ये रल्लानि मरकतादौनोति विवक्षितानि ।
सुखयानाच्चैव रन्नानां हरणे वधमर्हति ।
इति मनुवचनदगेनात्‌ ।
यत्तु--शारौरोऽङ्गच्छेदो वा दण्ड इत्यतुृत्तौ शष
लिखिताभ्यामुक्तं सुवसैरलापहारे इति। तव शरौर-
दण्डस्ताडनं, अङ्गकेदः कंर्णादिङकेदः, तदेतत्पञ्चाश्दून-
विषयं निर्धनविषथच्चेति रलाकरः।
यद्च दण्ड इत्नुटत्तौ विष्ण
रनापहाखंत्तमसाहसः । इति ।
तन्मध्यमधनविषथमिति रनाकरः। अमुख्योत्कृष्टरत्न-
विषयत्वेऽपि न विरोधः। शङ्कलिखितोक्तोरपक्षष्टविषयत्वात्‌। `
अयमच विवेकः,--
ताखादिषु पणशताधिकेषु ब्ाद्यणराजस्वेघपहतेषु
अपदरतुवथोऽन्यङ्नचेदः । रवं सुवर्णादि वधोऽङ्क्ेदो `
वा तथा सुष्येषु रलनेषु वधोऽन्यचाङ्गकेदः पच्चाश्त्यणा-
दकेषु ताब्नादिषु ₹दस्तक्रेदः। तदूनेषु तन्मूल्यादेकादश-
गुणो धनद्‌ण्डः । पञ्चविंशतिपणेषु तेषु कमूरादि च
स्थलेघपहतेषु तन्मुल्यापेश्या दशगुणो धनदण्ड इति ।
अथ मथ्यमद्रव्यापहारे शङ्खलिखितौ,
= ^~
`
अष्टशतं सौताद्रव्यापहारे यथाकालम्‌ ।
19
१४६. | ।रन्डाववेकः। |

` अष्टरतमष्टाधिकंश्तं सौता रछष्यमाणा भूमिस्तदरव्धं


हलकुदालादि। यथाकालं कर्षणसमये। रञ्च कालान्तरे
द्ण्डापकर्षो द्रष्टव्यः ।
तथाच मनुः,
सौताद्रव्यापहारे तु शस््राणामोषधस्य च ।
का्ध(फाले)मापोदकानाच्च राजा दण्डं प्रकल्ययेत्‌ ॥
शस्त्राणां सद्गादौनां चौषधस्य कल्याण्टतादेः कायै
छष्यादि फालं तेन कषिकाले हलाद्यपहारे सति छषे-
रभावे यद्‌ा बहशस्यबाधस्तदा द्ण्डभूयस्त्वमन्यथाऽल्पो
दण्डः । रवं शस्तादिष्ठपि द्रष्टव्यमिति हलायुधः । हत-
। दानं सब्ेच पुव्सुकतम्‌ ।
सश
पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्म -वल्लौ-नगेषु च ।
अल्पे परिपूतेषु दण्डः स्यात्‌ पच्च छष्णलाः ॥
पुष्यं कुसुमादौति मिखाः। नगो इक्षः।
तथा, |
परिपूतेषु धान्येषु शकमूलफलेषु च ।
निरन्वये श्तं दण्ड्यः सान्वये ऽइंशत दमः ॥ ॥
निरन्वये गहणदहेतुप्रौत्यादिश्रन्ये इति रलाकरः। रष्ष-
` करदहिते इति कल्यतरूः। एवमेव हलायुधः । उभयचर
रणे इति शेषः
अचर फलमूलयोः शुद्रदव्येषु पाठात्‌ तत्साहचर्येण
च शकस्यापि ` छद्रत्वनिश्चयात्‌ दण्डस्य च `
स्वरूपेण
|५
स्तयद्‌ गडः | ९.8७

महत्वात्‌ वचनस्यास्य रलराकंरे मध्यद्रव्यप्रकर शेऽव-


तारणाच। विरोधे शकमूलफलानि राजत्राद्यणस्वामि- `
कानि देवतादर्थानि यन्नाथैमुपकस्थितानि दुलंभानि वा
विवकितानौति प्रतिभाति । (^
नारायणेन तु शाकमूलफलेषु बह्वमूलयान्नोपयक्तषठ॒
इति व्याख्यातम्‌ । | |
श्ङ्कलिखितो,-
` प्कचक्राहरणे चत्वारिंशत्‌ कटेऽश्नौतिश्तम्‌ ।
रकचकमेकरथाङ्गः चत्वारिं शतपणा रवा्रौतिश्त-
मत्यि तम्‌ ।
अथ क्नद्रदरव्यापहारे व्यासः,--
मध्यौ नद्रव्यहारौ पुष्पमूलफलस्य च ।
दाप्यस्तद्धिगणं दण्डमथवा पच्चरृष्णएलान्‌ ॥
मध्यहौनं द्रव्यमन्नादि, छष्णलशब्देन चियवपरिमितं
` द्रव्यमभिधेयं तच्चाच सौवण लिखितपरिभाषानुसारात्‌ ।

। फलदहरितशाकादाने पञ्चकुष्णलमन्ये ।
अदाने हरणे दण्ड इति शेषः
अच फलश्णकयारनन्तरोक्तातिरिक्योरिद ग्रदणमतो `
न तेन विरोधः। अस्तु वा विकल्पः--अन्धे इत्यभि- `
धानात्‌) स चाभ्यासाऽनभ्यासाभ्यां ग्रहणहेतु-प्रौत्या्ति
शयानतिश्याभ्यां व्यवसित इति प्रतिभाति
१५ घ ख्कचक्रहरश्गे ।
१४८ | दण्डविवेकः ।
मनुः, क
सखचकार्पासकिर्ानां' गोमयस्य गुडस्य च ।
दः क्षौरस्य तक्रस्य पानौयस्य ठृणस्य च ॥
वेण वैणवभाण्डानां लवणानां तथैव च ।
खृएमयानाञ्च हरणे दो भसन खव च ॥
मत्स्यानां पश्िणाञ्चेव तैलस्य तस्य च ।
मांसस्य मधुनश्ेव यच्चान्यत्‌ पशुसम्भवम्‌ ॥ `
अन्येषामेवमादौनां मद्यानामोदनस्य च ।
पक्तान्नानाञ्च सव्वेषां तन्मू्याद्धिगुणो दमः ॥
तथा,+--
यश्चेतान्युपक्तृतानि द्रव्याणि स्तेनयेनरः ।
तं शतं दण्डयेद्राजा यश्चाभ्निंर चोरयेद्ुदात्‌ ॥
किलं सुराबोजभूतद्रव्य, वैणवं भार्डं जलादहरणाभ `
स्यलवेणवखण्डनिभ्पितं पाचम्‌ ।
अच नारायणसव्वन्नेन वेणवेत्यच वेदलेति परित्वा
"^-^ ~

` उभयच भाण्डान्वयं व्याख्याय वेदलभाण्डानां विद्‌लौङ्चत


काठभार्डानामिति व्याख्यातम्‌ ।
अन्त्‌ यशुभवं चम्पैदन्तादि। रोचनादौति
नारायणः,
भोजनादिका््य` अन्येषामेवमादौनां
^~
पिषटकादौनामुपक्तप्तानि
ाथै सन्निधापितानि। तं शतमित्यच
कुल्लकभद्रेन नारायणसव्वन्नेन च तमाद्यमिति पटित्वा
ध प्रथमसादसमिति व्याख्यातम्‌ । क
९ ख--किल्वानाम्‌। ` २ मूले चन्येष्ैवम्‌।
| २ क ख परस्तकद्ये यञ्छाभ्म्‌ । |
| ` स्तेयदण्डः । | १४९६ `

अभ्रिरिह लोकिकः। विषये लौकिकः स्यादिति.


वचनात्‌ । विषये संशये इति रन्नाकरः । |
लौकिमष्यभ्रं चोरयतोऽयं दण्ड इति गोविन्दराजः।
तदेतदयुक्तं अल्पापराधे गुरुदण्डस्यान्धाय्यत्वात्‌। तस्मात्‌
चेताभिं खद्या्धिं चाग्रिख्दाचश्चोरयेत्‌ तं प्रथमसाहसं
दश्डयेदभिखामिनश्चाधानोपक्षयं दापयेदिति कुल्लकमद्रः।
रवमेव नारायणः ।
विष्ण
खच-कापाीस-गोमय-दधि-क्षौर-तक्र-गड-ठतण-लवश-
ष्टद्वस्म-मल्स्य-पक्षि-तेल-षटत-मांस-मधु-विदल-वेश-
खएमय-साहभार्डानामपहत्तौ मूल्याविगुणं दण्ड्यः-- |
पक्ानानाच्च ।

शङ्खलिखितौ, |
` कंतकाष्ठाश्सकौलालचम्मेवेचदलभाण्डेषु मूल्यात्‌ पञ्च-
गणस््रयो वा काषौपणाः ।
छतकाष्ठं घटितकाष्ठं कौलालं कुलालनिम्बितं खएमय-
भिति यावत्‌| भार्डपदमश्मादिभिः सम्बध्यते! `
नारद्‌ः, | |
काष्ठभार्डवृणादौनां खृएमयानां तथेव च ।
वेशुवैणवभाण्डानां तथा खाखस्थिचभ्पिणाम्‌ ॥ `
शकानामाप्रंमूलानां हरणे फलमूुलयोः !
गोरसेक्षुविकाराणां तथा लवण-तैलयोः ॥
१४२ दण्डविवेकः।
पक्रान्रानां छतानानां मद्यानामोदनस्य च |
सर्व्वेषां स्वल्पमूल्यानां मृल्यात्‌ पच्चगृणो दमः ॥
कामधेनौ,--
ओद्नस्येत्यचर-अआमिषस्येति पटितम्‌।
मिताक्षरायामौषधस्येति पटितसुक्त्च,-
ओदनस्य पक्तानेन संग्रहादिति प्रतिभाति ।
अच मनुक्तानां मध्वादौनां नारदोक्तानां गोरसादीनां

मुल्यदिगुण-पच्चगुण द्‌ण्डविकल्यो ऽस्पाल्यदध्यादि विषय-


तया
2 व्यवस्थित इति प्रतिभाति ।|
यस्तु रज्जं घटं क्रूपाङ्रेद्धिन््ाच यः प्रपाम्‌ ।
स दण्डं प्राप्नुयान्माषं तच्च तसिन्‌ समाहरेत्‌ ॥
क्पात्‌ क्रपसमौपात्‌ रज्जं घटमिति रज्ज॑वाघटंवा
इति कुललकभटरः। तच्च ॒रन्नमेकं घटमेकच्च द्रव्यमिति
रनाकरः।

1 तदित्यमे द्रा वज्रघटमिति पटितम्‌ । रवमेव हलायुध-


निबन्धः। ` |
पारिजातेऽपि तथेवेति पटित्वा समाहारदन्द उक्तः ।
तस्मिन्‌ कपे समाहरेत्‌ त्यजेत्‌" । ध

९ गः योजयेत्‌ । र्‌` ग पर्तक्गे टणोलप-- ।


| ` क्तेदण्डः। ९५९
माप्रथात्‌। ष्कुशकर काञ्चिहोचद्रव्याण्यपद्रेत्‌ प्रत्यक्षतो
$ङ्खच्छेदः स्यादप्रत्यक्षं यदा विदितोऽयं किल्विषौति ब्राह्मण
खरयानमाप्रथात्‌ म॒चमोण््यमितरेषां खरयानभेव च ।
ब्राह्मणोऽच यागादिपरः। समिदादौनि यागाद्यथे
मानौतानौति । करकः कमण्डलः। अभिदोचद्रव्याण्या- `
इवनोयानौति । किल्िषौ चौरः प्रकरणात्‌ । |
इतरेषां क्षचियादौनां चौर्ग्याधिकारे गौतम -
न शरौरो ब्राह्मणदण्डः
कस्तहिं दण्ड इत्यचाद,
४ कम्मवियोगविष्यापनविवासनाङ्नानि, अदत्तो प्राय- `
शित्तीसः
कस्पैविथोगत्तेन सह क्रियानारम्भः। स्पर्णदित्याग |
इति दलायुधः
विख्यापनं खरारोहडिण्डिमादिना चौरत्व्योतनं `
विवासनं ख्वदेश्णन्निःसारणं, अङ्गनं ललाटादौ चोगये-
चिह्ाचरणम्‌ ।
रतान्ययागादिपरब्राद्यणविषयाणौति शङ्कलिखित- `
वचनविरोधपरोहदारपरो रल्लाकरः। `
तथा लष्सोधरेण तु,
शङ्गलिखितवाक्यं ब्राह्मणो | ब्राह्मणस्येति पठितम्‌ ।`्‌
| |
` तन्मते-- ब्राह्यणस्य ब्राह्मणेन समिदादिदरणे दस्तच्छैद `
रवाब्राद्यणस्य ब्राह्मणेन हरणात्त न शरीरो दण्ड `
इत्यादि नेयमिति । तचैवोक्तम्‌ ~

९ काचित्‌ चम्नमाण्डे्धिकःपाठः।
११ दण्डविवेकः।

कामधेनौ तु नजन्तभवेनैव पाठो हदः ।


अटत्तावन्येन प्रकारेण जौवनानुपपत्तो ।
आपस्तम्बः,-- ` |
परपरिग्रहमविद्ानाददान शुवोदके, मूले फले पुष्ये
गन्धे ग्रासे शक इति वाचा बाध्यो विदांशेदाससः
परिमोषणेन दण्ड्यः कामकृते तथा प्राणसंशये भोजन-
मादद्‌ानः।
वाचा बाध्यो तच्जंनौयःः पव्वेमध्वगस्य क्षौणटत्तर्दिजस्य
मूलकदयग्रहणे चणकादिमुष्टि्रहणे च मनुना दण्डाभाव-
प्रतिपादनादच मुल इति ग्रास इति तदन्धविषयं स्वामिः
प्रतिषेधविषयं वा। कामत इति कामशूतेऽपौत्यथैः ।
रतद्पि तथैव सप्तमे भक्त इति दण्डवाधप्रकरणौयमनु- `
वचनेनैकमृलकमेव ।
रुतद्वाव्यं रन्ाकराद्लिखितमपि कामधेनौ हलायुभौये
च ष्रा लिखितम्‌। रतदर्शनादइत्तावित्यादिगौतमवाक्य-
` प्रतौकमपि रतत्समानविषयनेवेति प्रतिभाति। इयोरिति
। . शदरदरव्यापहारप्रकरणौयत्वादेकमूलककल्यनालाघवात्‌ ।
यत्त॒ मतं जातिनियतयाजनादिरूपाया जौविकाया
इत्तित्वादटत्तावित्यादेरयमर्थो यदि जाल्युक्तया जौविकया
: योगक्षेमौ कतुं न शक्रोति ब्राह्मणस्तदा चोग्मपि
“ . कव्यादिति।. 1
तदेतदपेश्लम्‌ कल्पनागौरवात्‌ तत्तन्निषेधविधि ध 1
विरोधात्‌ । तत्तदर्डोपदेशविरोधाच ।
-----------~ -----~~~

९. क्रचित्‌ पाठः रखघोदके {1 २. ग भव्छंनोयः।


| ` स्तेयदण्डः । ९५३

रुवच्च रनाकर व्याख्यानेऽपि जौवनपद्‌ं तत्ततकालौन-


प्राणपरमेव आपस्तम्बसम्बाद्‌ात्‌ न तु जौविकापरसुक्त-
दोषादिति।
अय दण्डानुडत्तो विष्णः,--
अनुक्तद्रव्यहरशे मूल्यसमम्‌ । `
अस्य वाक्यस्य रल्लाकर-कामधेन्वादौ च क्द्रदरव्येषु
दण्डमभिधायावतारणात्‌ तेषु च मृख्यददिपच्वगुणादि
दण्डस्य दश्नात्तततल्येषु तस्थेवोचित्यात्‌ श्ुद्रतरद्रव्धापदार-
विषयमिदं वचनम पद्ारनिमित्तप्रौत्याद्यतिशयविषयं वेति
प्रतिभाति |

ौ दण्डविवेके ` 1
इति महामहोपाध्याय -ध्माधिकरणिकसरौवद्धमानकत
स्ेयपरिच्छेदस्तुतोयः । `
९ ` दविभः ।
चतुथः परिच्छेदः । ` |
अद्य परदाराभिमषेणदण्डः
तच परदारपदेन सखभाग्ौव्यतिरिक्ता स्तौ विवद्िता ।
सा दिविधा परिणौता अपरिणौता चेति। तयोः
परिणौता अनेकविधा साध्वौ बन्धकौति, उत्तमा रहौनेति
"सजना अखजनेति, गुता अगुप्ता चेति, क्तौवादिभाग्यौ
अन्येति ।
अपरिणेता विविधा कन्धा व्रात्या वेश्येति। रते
विभाजकोपाधयो वलद्लानुरागादिप्रथोगवदहण्डभेदाय `
. भवन्तीति परिभाषान्यायेन प्रसुखे दर्शिताः
आसामभिमर्षणमपि द्विविधं संग्रहणमभिगमश्च । तच
संग्रहणं नाम समौचोनं ग्रहणं परसिया आत्मोयता-
करणम्‌ । |
तदिभजते ददस्पतिः,--
पारुष्यं दिविधं प्रोक्तं साहसञ्च दिलषणम्‌ ।
पापमूलं संग्रहणं चिप्रकारं निवोधत ॥
प्रकारानाह, 0 (५
बलापाधिहतेः दे तु ठृतौयमनुरागजम्‌ ।
रखतदभिगमेऽपि द्रव्यम्‌ । तस्याप्येतत्पव्वकत्वात्‌ । `
चयमपि पुनविभजते । ॑ .
तत्यनस्िविधं प्रोक्तं प्रथमं मध्यमोत्तमम्‌ |
~~~

९ ग पएरतके पजन अस्रुजनेति। ५


हते । घ--वलो प्राधिक्ते ।
4
पर्दासानिम्ेणदण्डः ४ 4 ^

अच प्रकारचयं व्याचष्टे--
अनिच्छन्त्या यत्क्रियते सुत्तोन्मत्तप्रमत्तया ।
प्रलपन्त्या रहसि वा बलात्कारकछ्लतन्तु तत्‌ ॥ `
छद्मना शहमानौय दत्वा वा मद्यकाभ्िणम्‌ः ।
संयोगः कियते यस्यास्तदु पाधिकूतं विदुः ॥
अन्योऽन्यचक्षूरागेण दूतौसंप्रेषणेन वा ।
छतं रूपाधेलामेन ज्नेयं तदनुरागजम्‌ ॥ `
मस्यपुराणेऽ--
यस्तु सञ्चार कस्तच पुरुषः स्यथ वा भवेत्‌|
पार द्‌ारिकवदण्डो यश्च स्याद्वकाशदः ॥ | ¦
सच्वारको यः पुरुषं स्तयं वाऽभिसाराथैमभिसारयोग्यं `
देशविशेषमुपसर्पयतौति हलायुधः । अवकाश्दो रच्स्य- = |
स्ानदायैौ । ४
मनु, | ४
कितवान्‌ कुशौलवान्‌ केरान्‌ धिप्रं निवीसयेत्‌ पुरात्‌} `ह 1
केराः परस्तौपुरुषसङ्गेतकारिण इति रत्नाकरः । खव- `
` भेव हलायुधः । प्रथमादिमेदा्तु विस्तरेण व्यासादिभि- ` |
रुदाहृतास्ते विस्तरभयादेव नाच लिखिताः। दिद्धाचन्त॒ |
तेषां दण्डपरिरेदाथेमुदाहतम्‌ ।
तच हृदस्यति | ४
अपाङ्गपेक्षणं हास्यं दृतौसम्परेषणं तथा ।
स्परे भरूषणवस्त्राणां संग्रहः प्रथमः स्मतः ॥ ॥
` अच स्कृतस्यशैवत्‌१
परस्त्ौकुतस्यर्शे छषमाऽपि, द्रष्टव्या
९ कग काणम्‌! 1 . २ ग स्यर॑चमापि
१५६ - दण्डविवेक ।
स्वयं स्पृशेददेशे थः स्पष्टो वा मघेयेत्तया
परस्परस्यानुमतं तच्च संग्रहणं स्परतम्‌ ॥
` व्यासः,- इति मनुवचनात्‌ ।
तरैषं गन्धमाल्यानां पगभूषणवाससाम्‌ ।
प्रलाभनच्वानपानै्मध्यमः साहसः स्मृतः ॥

रकश्व्यासनं कौडा चुम्बनालिङ्गनं तथा ।


रतत्संग्रहणं प्रोक्तसुत्तमं शस्रवेदिभिः ॥
रवमन्यदृहनौयमाकरे वाऽनुसन्धेयम्‌ ।
तच दण्डमाह हहस्यति
चयाणशामपि चैतेषां प्रथमो मध्य" उत्तमः ।
विनयः कल्पनौयः स्याद्धिको द्रविणाधिके ॥
रखतेषां प्रथममध्यमोत्तमसाहसकारिणां कमेण प्रथम-
मध्यमोत्तमा दश्डाः। अधिकधनस्य तु प्रथमादिभ्यो
ऽधिकोऽपि दण्ड इत्यथैः ।
आपस्तम्बः
अबुद्धिपुव्बमलङ्कतो युवा परदारमनुप्रविशन्‌ वाचा
बाध्यो बु्धिपृवयन्तु द्ण्यः। |
अबुद्धपृव्वसदुष्टबुदधिपुव्वमनुप्रविशन्‌ उपसपंन्‌ वाचा
बोध्यो भत्सेनौयः। ` | |

भिक्षका वन्दिनिश्चैव दौक्ठिताः कारवस्तथा ।


सम्भाषणं गहस्तरौमिः कं्यैरप्रतिवारिताः ॥
१५ कख च पुतकचये मध्यमोत्तम इति पराठः।
| परदाराभिम्ैणदण्डः | | १५७

सम्भाषणं परस्तौभिः प्रतिषिद्धो न चाचरेत्‌ ।


निषिद्धो भाषमाणस्तु सुवण दण्डमर्हति ॥


वन्दिनः स्तावकाः, दौशिता यन्ञाथे ऊतदौश्षाः, कारवो
त्यर्थे शल्यिन इति रल्लाकंरः। खपकारादय इति
मनुटौका । अप्रतिवारिता अप्रतिषिदधाः, भाषमाणः
सम्भाषणं कुव्वीणः
स्लरौद्‌ण्डे विशेषमाह याज्नवस्वयः,--
सलौ निषेधे शतं दण्ड्या दिशतन्तु दमं पुमान्‌ ।
प्रतिषेधे तयोर्दण्डो यथा संग्रहणे तथा ॥
पतिपुचादिभिनिषिद्वाऽपि स्तौ पुरुषेण सह सम्भा-
षणादिकं कुर्व्बाणा शतं दण्डा । पुरुषक््ेवं कुव्वन्‌ `
वितं दण्ड्यः । स्त्रौपुरुषौ परस्परं तथा क्वणो
त्वभिगमवदणीनुसारेण दण््या वित्यथैः |
अच मानवं वचनमभ्यासविषयं धनिकविषयं वा) `
याज्वस्वयौयन्त्वनम्यासनिधनविषयमिति प्रतिभाति ।
अचापवाद्‌माह काल्यायनः,-- (1
नाथवत्या परदे संयुक्तस्य स्तिया सदह ।
दृष्टं संग्रहणं तज्छनागतायाः स्वयं दे ॥
तथा,
अतोऽन्येन प्रकारेण प्रदृत्तौ ग्रहं भवेत्‌)
सखयभमेवागतायान्तु पंहे स न दोषभाक्‌ ॥
पुंखह इति स्रौं गते पुंसि स्तिया स्वयसुषस्थिताया < | 1:
मधिकः, पुंसो न दोष रवेत्यथैः । रतद्वचनं कल्तरौ `
--------------------------------------------------- ~.

१ ग पुक्छके इत्यथ । न| ` र्खधबपि।


५८ : . ` ` `. दण्डविवेकः। . ।

संग्रहणप्रकरशे पठितम्‌ । रल्लाकरे त्वभिगमनानुरत्तौ


कात्यायन इति क्त्वा तचैवावतारितम्‌ ।


नारद-कात्यायनौ,-
प्रदु्त्यक्तदारस्य ल्ौवस्याश्मकस्य च ।
सेच्छानुपेयुषो दारान्‌ न दोषः साहसे भवेत्‌ ॥
अच कल्यतरः
म्रदृष्टास्यक्ताः खदारा येन तस्य दुष्टान्‌ दारान्‌
तथा क्तौवाक्षमयोदराणभेवेच्छयोपगच्छन्‌ न द्‌ण्डनौय
` इत्यधेः
मसु
नैष चारणदोषेषु विधिनौत्मोपजोविषु ।
संजयन्तिहिते नारौ निगृढाश्चारयन्ति च ॥
चारणा नरादयः, आत्मोपजौविनो वेशोपजौविनः
ते हि-- ^ भार्य्या पुचः सिका तनुः” इत्युक्तया आत्म-
स्थानौयां भाग्ौमुपजौ वन्ति ।
आत्मोपजौविषु बेश्याजनेधिति नारायणः। रषां
| |नायमभिभाषणनिषरेधविधि्नांपि तदधौनो दण्डविधिः ।
यस्मादेते खभाय्थां परपुरुषः सह सच्ञयन्ति संयोजयन्ति
म्रच्छन्ौकत्य चारयन्ति च इत्यधैः।
. दि तु ताभिरपि सद निगूढः सम्भाषणं करोति तदा ¦
दण्डलेशं दाप्य इत्याह मतुरेव,-- =:
` किञ्चिदेव(1
दाप्यः स्यात्‌ सम्भाषं ताभिराचरन्‌। `
मर्दाराभिमणद्ः । | १५९

्रषयासु दासीषु रकभक्तासु | रकपुरुषमाचावरद्ासु <


प्ररजितासु बौडादित्रतचारिणौषु । किञ्िदिति शत्यनु-
रूपमिति नारायणः । किच्विन्मनुनैव दशितसुवण-
पेश्षयाऽल्पमिति रल्ाकरः । |
अच प्रतिषिद्धे चारणादिस्ौसंमदशेयो दण्डो विव-
कितविवेक्ेन पय्यैवस्यति तदपेक्षया अल्पमिति प्रति-
भाति पुव्वस्य संग्रहणविषयत्वादच तु सम्भाषाभिधानात्‌।
तच च सामान्यतो इदस्पतिना पृव्वसाहसस्य विधा-
नात्‌ । चारणादिस््ौषु ततोऽप्यपकष॑स्योचित्यात्‌ मनक्तस्य
सुवशैस्य गरुत्वात्‌ अत्यन्तथनिकादि संग्रहणविषयकत्वेन
व्थवस्थाया अवश्यवक्तव्यत्वात्‌ ।
अथ शङ्लिखितौ,-
सव्वेषां खदारनियमः सवकायप्रतिपत्तिश्च धर्मो येन
येनाङ्गनापरां कुर्यात्तदेवास्य केत्तव्यम्‌ । अष्टसदसं वा `
दण्ड इत्यन्धचेवं त्राद्यणाददण््यो हि ब्राह्मणः ।
अङ्गेन हस्तादिना बाह्मणवज्ज॑मयं दण्डः सर्व्वेषां `
बाह्मणवज्नमित्यन्वयादिति रल्नाकरः ।
तच्च भावदोषाभावे सतौति नेयं सम्भापञ्च परस्या `
इति नारद वचनैकमूलत्वात्‌ लाघवादङ्गच्छेदमाचपरम्‌ । 1॥
मनु ॑ |

` परदाराभिमर्षे तु प्ररत्तांस्तान्‌ मह्लैपतिः। `


उद्वेजनकरीदंण्डैश्िहृयित्वा प्रवासयेत्‌ ॥ `
तत्समुत्धो हि नो कंस्य जायते वैसङ्करः ।
येन मुलर धम्पैः सव्वनाशाय कल्पते ॥
१.६० | दण्डविवेकः।

अच तानित्यच्र चौणिति पटित्वा चन्‌ ब्राह्मणेतरा-


निति मिशरर्व्ाख्यातम्‌ ।
तथा,+-
अब्राह्मणः संयहशे प्राणान्तं वधमर्हति ।
चतुखौमपि चैतेषां दारा रश्यतमाः स्पृताः ॥
दण्डैशिहयित्वा इति नासौष्टकर्तनादिभिरङ्यित्वा
इति मनुटौकायां कुलूकभद्रः । श्नाकेदादिभिरिति
०.१
वधप्रकारेषु यो यच विहितस्तेन तचाङ्कनमिति
तत्त्वम्‌ । अब्राह्मण इति प्रातिलेाम्येनेति शेषः । इति `
` रत्राकरः।
अच प्रतिभाति रुतद्दाक्यदयं यद्प्यभिगमविषयम्ित्यु- `
चितं पूव्वैच खदारनियम इति लिङ्गात्‌, उत्तरच पर-
दाराभिम्षे त्विति सामान्याभिधानस्रसात्‌ तत्समुत्धो
चौत्यादिदहेतुमनिनिगद्‌ सम्बन्धाः
उभयच दण्डगोर वाच संग्रहणे परदारमैथने न तु
सम्भाषादाविति सव्वज्नौयव्यास्यानद
श्ना ।
तथापि ^ पुव्वेसन्निपाते शि्जस्य छेदनं सदषणस्य ”
इत्यापस्तम्बसम्बादादङ्ग पदस्यापि शञ्नपरत्वे सम्भाविते
ध` येन येनेति वौषखातुपयततेरबाधकत्वादङ्गन ₹दस्तादिनेति
` | रलाकरदशनाच्च । उत्तरच संग्रहणस्य साशषदेवाभिधा- |
नात्‌ दर्डगौरवे व्यवस्थाया वध्यमाणत्वात्‌। `
९. ग पुस्तके सम्बादाच्च ।
भकौर्याद्धारिदण्डः क ९६१

दारा रश्यतमा इत्युपसंहारस्यातिप्रसङ्गवारणपर-


तथाऽ्युपपत्तेरभयोरपि वाक्ययोः सरववेषु॒पूव्वनिवन्धेषु
-संग्रहप्रकर णेऽवतारणाच संय्रहविषयत्वं निशितम्‌ ।
किन्त॒ इस्तादिच्छेद्‌-सदक्षदण्ड-प्रवासन-वधानाम-
तुल्यकूपाणां संग्राद्यस्त्ौप्रातिलापम्यमाचेण समच्यिलु-
मश्क्यत्वादियमच व्यवस्था । |
ब्राह्मणस्य संग्रहणस्य गौरवे तदभ्यासे च सचिह-
प्रवासनमन्यच सहसपणात्मको दण्डः ।
अत्राह्मणस्य तु प्रतिलामानुत्तमसंग्रहे तदभ्यासे च
वधः! अन्यच धनिकस्य सहखदश्डो निधेनश्य दस्तच्छेद
=-~
सधटण,
इति | |
अब्राद्मणोऽच श्रद्रो दर्डभूयतत्वादिति कुकुकभद्रः ।
अब्राह्मणः संग्रहणे इत्यच ब्राह्मण्या इति शेष इति

४न
अथामिगमदण्डः |
=
(क
टर1
(४

तचाभिगमोऽन्ययोनावयोनौ चेति दिविधदशैनात्‌


नान्धयोनावयोनौ वेति विष्णुपुराणौयनिषेधदर्भना ।
८.
(५. ५
॥!
` सम्बत्सराभिश्स्तस्य दृष्टस्य दिगणो दमः।
व्रात्यया सह सम्बासे चाण्डाल्या तावदेव तु ॥ `
यचाभिगमे यौ दण्ड उक्तः सम्बत्छरव्यापके [तस्मिन्‌
दिगुखो ्ाद्यः।
शर्‌ ` दग्डविवेकः ।

रतत समथाधिक्यमादायेतदनुसारेणधिको दण्ड इति `


परमाधे इति रल्लाकरः । |'
कल्पतरौ तु व्याख्यातम्‌,
संवत्सर मनेनोयसुक्ता परस्त्रौति यद्याभिशपः स
सम्बत्सराभिशस्तस्तस्य सम्बत्सर मुपभुक्तायां यो दण्ड उक्तः
स दिगुणः स्यात्‌ ।
दुष्टस्येति न केवलमभिशस्तस्य किन्तु दुष्टस्य सखरूपतो
दोषभाज इति ।
मनुौकायान्तु,--
परस््रौगमनदोषेण दष्टस्य परंसो दण्डितस्य सम्बत्सरा-
तिक्रमे पुनस्तस्यामेवाभिशतस्य पूबदण्डात्‌ चिगुणो दण्डः `
काये इति व्याख्यातम्‌ ।
=

ब्राह्या प्रसष्टधम्माचारा। अनुपपन्नकम्धरम्भाचारा


व्रात्या इति इारौतोक्तेरिति राकरः।
लषटसोधरोऽप्याह--त्रात्या अत्यन्तदुराचारा, वध-वन्धो
` पजौविप्रशतय इति ! ` अतिक्रान्तविवादहकाला कन्येति
इलायुधः। 4
रुवभेव मनुौकायां नारायणः । बुल्कभदरसतु ब्रात्य-
` जाता ब्राल्येत्याह।
ब्रात्यां चाण्डालौञ्च गत्वा ऽदर्डितस्य वत्सरान्त ख॒ ` न

गच्छतः “ सहखन्वन्त्यजस्तियम्‌ “ । इति मनक्ती दण्डो

१९ ग पुस्तके [ | चिद्धिताशः पतितः।


मकर्णाम्धारिदण्डः ९६३

दिगुणः काय्यै इति मनूक्तस्यैवेदमुदाहरणद्यम्‌ । तच्च--


ब्रात्यागमने चाण्डालौगमनदण्डप्राष्यथैमिति कुललुकभट्रः ।
नारायणसू्वाद, | क
विवादहकषाल्ेऽप्यपरिणौतया, कन्यया प्रहत्तरजसा
सक्षत संयोगमा चरेण तज्जातौयगमनदण्डात्‌ दिगुणो दण्डो
नत्वन्धचापि सम्बत्सराभिशस्तस्येत्यस्यान्वय इति । `
यः खरूपतो दुष्टो वर्षौवच्छिन्िपरस््रौगमनेनाभिशस्तः
सकृदपि ब्राल्यां चाण्डालौीमभिगच्छति तख वषवच्छिन- `
परद्‌ारगमनदण्डाह्िगणो दण्ड इति कल्पतरुस्रसः।
तथा,
मोण्डं प्राणान्तिके दश्डे बराह्मणस्य विधौयते ।
इतरेषान्तु वनां दण्डः प्राणन्तिको भवेत्‌ ॥
यचाभिगमे प्राणान्तिको दण्ड उक्तस्तच ब्राह्यणस्य
श्िमुण्डनमेव दण्ड इत्यथैः ।
मलसयपुराणे-
बलात्सन्दूषयेद्य्तु परभा्थां नरः कचित्‌ ।
वधद्ण्डो भवेत्तस्य नापराधो परस्याः ॥
५म

अद्रव्यां खतपनौं तु संग्ह्णनापराघ्रयात्‌ ।


साना परिख्हाणस्तु सव्वं दण्डमहति ॥
सद्रव्या तां खहाणस्तु दण्डसुत्तममहति ।
इति चतुधैपङ्गि्ाने कामधेन ौ पठितम्‌ । अच वध `
| ितं दत्य | 4
: इत्यपल्लशछणं यो दण्डो यच विह
1.

९ कख पुस्तके अपरिणगततया। `
२ ग पुस्तके साध्वौम्‌ |
(व दण्डविवेकः।

इह द्रव्यहौनाया खतमभत्तकायाः खेच्छया ग्रहशेऽति- `


प्रसङ्गगमरेवं प्रतिभाति । संगख्ह्नन्‌ इतिवचनात्‌ श्रूद्रादेः
स्वयंग्राहादिविषयमिदं वचनम्‌ । बलादिति इलप्रलाभ- `
नादिपरम्‌ | ॑
अद्रव्यामिति विशेषणस्य चायमचिप्रायो म्रासाच्छादन-
दानादिना तां प्रजाभ्य ग्रह्णतो न दण्ड इति । |
व्यासः |
गप्तायाः संग्रहे दण्डो यथोक्तः परिकौर्तितः ।
गच्छन्त्यामागतायान्तु गच्छतोऽङद्‌मः स्मतः ॥
यथोक्तं उनत्तमसाहसशूप इति रल्नाकरः। यो यच
विहितः स यथोक्त इति तच्चम्‌। अददण्डश्च क्षौवादि- |
रनाकरः।
भाग्यीसु दण्डाभाव रतद्यतिरिक्तविषय इति
इदस्पतिः,-
गृहमागत्य या नारौ प्रजाभ्य स्पशेनादिना |
कामयेत्तच सा दण््या नरस्याद्गदमः स्मतः ॥
छ्िन्ननासौषटकणनां परि भराम्याप्ु मज्जयेत्‌ ।
खादयेद्रा सारमेयः संस्थानि बहुसंस्थिते ॥ `
तच सा दण््येति ख्यं प्रजाभ्य संगच्छतः पुरुषस्य
९ | दण्डत्तेन दण्ड्या तदण्डार्खश्च
पुरुषस्य नेत्यादिना
तस्या रुवाधिको वैकल्पिक उक्तः। बहुसंस्थिते बहभि- `
149 0 ^
` अथ कात्यायनः+-- ` ;:
नासवतन्लाः स्रियो ्राद्याः पुमांस्तचापराध्यते ।
प्रभुण शसनोयास्ता राजा तु पुरुषं नयेत्‌ ॥
प्रकर्णपष्दारिदग्डः क कर ९९५.

अस्वतन्त्राः सखामिकाः स्वियो राज्ञा न प्राच्या


नाकर्षणयाः। राजा तु पुरुषं नयेत्‌ तव्छामिनं प्रापयेत्‌
तेनैव सा शस्या खाभित्वे तैरेव तदण्डो ग्राह्य इति
तात्पय्यमिति रनाकरः। |
तथा,
प्रोषितस्वामिका नारौ प्रापिता यद्यमिय्रहे।
तावत्‌ सा बन्धने स्याप्या यावत्छ्यादागतः प्रुः॥
अभिग्रह अयिसारनिमित्तके ग्रहणे सति प्रापिता
राजपुरुषं राजहं नौता
सेयमभिगमदण्डमाठका दिता ।
अथान्ययोनिविषयस्याभिगमस्य बल्ला दिक्षतत्वक्षतं
` दण्डविशेषमाह ।
इस्ति
सदसा कामयेद्यसतु धनं तस्याखिलं हरेत्‌ ।
उत्छ्य लिङ्गः इषणो भामयेद्रदंभेन तु ॥



ऋद्यना कामये्यस्तु तस्य स्युबहवो दमाः ।
अङ्कयित्वा भगाङ्केन पुरान्निवसयेत्ततः॥
दमोऽन्तिमः समायान्तु ₹हीनायामािकस्ततः
पुंसः कार्य्योऽधिकायान्तु गमने सम्प्मापणम्‌ ॥
यः सहसा बलेन परस्तियमनिच्छन्तौमेव गच्छति `
` तस्य सव्वखं ग्रहौत्वा लिङ्गटषणौ छित्वा गर्दभेन पुर- `
परिभ्ामणं दण्डः । यस्तु इद्मना दलेन परस्ियमनि-५
९ गखवामिद्ारैव। `
५. दण्डविवेकः।

च्छन्तौमेव गच्छति तस्य सव्वेसमाद्‌ाय भगाङ्केनाङ्गयित्वा


पुरान्निवासनं दण्डः । `
यक्तु बलछद्यष्विद्ाय दूतादिपरेषण्दारा समानजातौयां
गच्छति तस्यान्तिम उत्तमो दण्डः । हौनायान्तु बल्ले
विहाय गच्छतो मध्यमः! उल्छष्टजातौयान्त॒ दृूतादि-
सम्पैषणद्वारा बलद्धलाभ्यां गच्छतो मारणमेवेत्यथै इति
रल्नाकरः |
रतदरभनादलदलाभ्यां सजातौयाभिगमे उत्तमाधिको
दण्डो हौनजातीयाभिगमे उत्तम इति गम्यते, ₹हौनघ्य
बलेनोत्तमाभिगमे विचिचो वध इति शेषः! अपराध-
गौरवात्‌ । |
पुमांसं दादयेत्‌ पापं यने तत्त आयसे ।
इति वचनादा । `
द्पगमनाधिकारे मनुरिति छत्वा कामधेन्वाद्‌ावस्या-
वतारणात्‌ ।
` याक्रवल्कयः,
म्रातिल्ञाम्ये वधः पुंसो नाग्यौः कर्णादिकत्तनम्‌ ।
अदिग्रहणाननासारेश्च कत्तनमिति मिताक्षराकारः।
आदिशब्दः केशादिपर इति रन्राकरः। कामधेनावव-
५ ||` कर्तनमिति पटितम्‌ |
यत्तक्त रनाकरकता इदस्यतिववक्येऽपि

स्तीणं
|1|. कर्णादिकर्तनसहितमेव प्रमापणमिति ।
१ ग बल्ले । `
प्रकौर्णापिद्हारिदण्डः | | १६७

तचोत्तमस्तिथा दैनाभिगमानुमतावभिलाषप्रकाशने
कशेेदौ न त्वन्यचाऽपराधाभावादिति प्रतिभाति ।
अथाभिगम्याया गृ्तत्वागत्तत्वक्षतः प्रातिजाम्यानु-
लेाम्यक्षतश्च दश्डविशेषो द्‌श्यते ।

'सखजातावुत्तमो दण्ड आनुलोम्ये तु मध्यमः ।
रतत्‌ सब्येवर्णणनां बलात्कारेण गुप्तपरदारगमन-
विषयम्‌ । उत्तमश्च साहसः साश्रौतिपणसहस्रात्मक इति
मिताक्षराकारः । युक्तष्चेतत्‌ तदुक्तदण्डे तदुक्तसादस-
संस्थाया रव ग्रहणो चित्यात्‌ ।
ननु,
ससं ब्राह्मणो दण््यो गुप्तां विप्रां बलाद्रजन्‌ ।
तानि पञ्च दण्डयः स्यादिच्छन्त्या सदह सङ्गतः ॥
वैश्यश्चेत्‌ छवियां गुत्तां वेश्यां वा क्चरियो ब्रजेत्‌ ।
यो ब्राह्मणामगुत्तायां तत्समं दणडमदंतः ॥
सासं ब्राह्यणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन्‌ ।
शरद्रायां क्षचियविश्येः साहसो वे भवेदमः ॥ ४
यो ब्राह्मणयामिति पञच्श्तानि वैश्यस्य ससं छचिय-
` स्येति नारायणः तत्समं मध्यमसाहसमिति रनाकरः। =
सहसखपण पच्चाशत्पणत्मकमिति मिताक्षराकारः ।
तथाहि अनेन खजातावित्यादि व्याख्याय यदा पुनः `
सवर्णामगुपतामानुलेम्येन यथाकमं गुत्तां वा गच्छति `
~

. १ धे पुस्तकं सजातौ । :
४ ९१ 1 द्ण्डविवेकः।

तद्‌ मनुनैव विशेष उक्त इति कत्वा प्रथमचरमश्षोका-


ववतारितौ। शछचियवेश्ययोरन्योन्यदाराभिगमने यथा-
कमं सदखपणपच्चाशत्पणात्मकौ दण्डौ तदाहेति रत्वा
मध्यमः श्लोकौ ऽवतारितः।
रवञ्चेतस्मात्‌ प्रथमश्लोके दण्प्यो ग तामित्यचागत्तामित्य-
कारप्रश्चेषोऽस्तौति गम्यते ।
. तथा ब्राह्मणस्य बलात्‌ ग्तत्राद्यणौगमने साश्ौतिपण-
सहसखदण्डः । याञ्रवल्वयेन तस्येवोत्तमसाहसत्वाभि-
धानात्‌ । बलादगृप्तत्राह्यणौगमने तु सदहस्षपणात्मकः ।
बलं विना तद्गमने पञ्चश्तपणात्मक इति प्रथमश्ोका
समुदायथैः।
इत्यच्च,-- `
. यो ब्राह्मण्यामित्यनेनान्तरोक्तयोरुभयोरपि परामर्श
युक्तः। | |
पच्चश्तमाचानुकषे तु वेश्य-क्षविययोः प्रतिलामानु-
लामस्तीगमने नैयायिकं दण्डवैषम्यसुक्तं न स्यात्‌ ।
यदपि व्याख्यातं कुल्लृकभट्रेन वेश्यक्षविययोरगु्त-
, बाद्यणौगमने वेश्यः पञ्चशतं वुर््थात्‌ वियन्तु सहसिण-
मित्यनेन यो दण्ड उक्तस्तमेवाच तावत इति । ` (
तद्राकरपक्षे सव्वेथापि न घटते विरोधात्‌ । मिता-
ध ध` छरापक्षे तु यद्यपि तत्सममिति संस्यासाम्यनिरूपकोऽगुप्त- =
ब्ाह्मणौगमनद्‌ण्ड रकच ब्राह्मणकंम्बैकोऽन्यव कछचिय- `
वैभ्रयकस्मैक रुवेति विशेषोऽस्ति। तथापि फलतो न विशेष `
इति न विरोधः। ६
मरकतरणाम्ारिदण्डः | ^ ९६९.

नन्वनुल्लामपरदारगमने दण्डस्यापकषंः प्रतिलोम-


तन्नमने तूत्कर्षो युक्तः । प्रकते तु मतचयेऽपि तदैष
प्राप्तमिति चेत्‌ ।
उक्तमच कुल्लकभट्रेन गुणवतो वेश्यस्यायं दण्डो निगुण-
जातिमाचोपजौवि क्षबियायां श्रद्रादिभान्त्या गच्छतो
बोडव्यो दण्डलघुत्वादिति। गुप्ते तु ते छवियावेश्ये इत्यथैः। `
श्रद्रायां रक्ितायां सव्धच चाच गुप्तायां यो दण्ड
उक्तः सोऽतिगप्तायां सातिशयौ द्रष्टव्यः ।
गप्ताखेवं भवेदण्डः सुगप्तास्धिकं भवेत्‌ ।
इति मलत्स्यपुराण्द्‌ श्नात्‌ ।
तथा,-- दैजातं वशेमाविशन्नित्यनुरत्तौ--
वेश्यः सब्वस्वदण्डः स्यात्‌ संवत्सरनिरोधतः
ससं छचियो दण्ड्यो मौण्ड्यं शद्र'स्य चाति ॥
ब्राह्मणौ ययगुप्तान्तु गच्छेतां वेश्य-पार्थिवो । `
वेश्यं पञ्चशतं कुग्यत्‌ क्षचियन्तु सहसिखम्‌ ॥
उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गृत्तया सह ।
विञ्जलौ शरूद्रवदण््यौ दग्धव्यौ वा कटान्निना ॥
जातं वशेमिति सामान्यसुखमप्यच ब्राह्मणौपरं वेश्य- | | |
आत्‌ क्षचियामिति विशेषविधानात्‌, तेन ब्राह्मणौ गुत्ता- `
` मभिगच्छन्‌ वेश्यः संवत्सरं बध्वा सव्वस्वेन दण्डयः छचियस्तु
ससं दण््यो मषेण शिरोऽभिषिच्य सुणडनोयशच । मृचेष `
खरमूतेण इति मनुटौका ।
९ गःमूचेण। . `.
१७० | दग्डविवेकः 1

ब्राह्यणणैमिति वैश्ये यपच्चदश्दण्डः श्रद्रा्मादिना


निगुण्जातिमाचौपजीौवित्राह्मसौगमनविषय इति मनु-
टौकायां कुल्लकभदटरः ।
रुवच्च द्ण्डलाधवं सुघटम्‌ । वियन्तु सहसिणमिति
तस्य रश्षपधिकृतत्वादधिको दण्ड इति सव्यक्नः ।
अन्ये तु--पञ्चश्षतं पञ्च शतमाचयवित्तं सहसिणं सहख-
शेषमाचवित्तमित्यथेमाहः ।
उभाविति,-
रितं बाह्य गच्छतोवैश्यक्षचिययोः श्रद्रवत्‌ सव्यैख-
ग्रहणसहितं सव्वाङ्नच्छैदो दण्डः । कटाभरिना वा दाह
इत्यथैः। कटौ वौरणः स चा वैकल्थिकः। |
४/४ तौरणशैः रद्र लादहितदम वेश्यं भरपचैः कविय वेष्ट-
यित्वाऽ्नौ प्राशयेत्‌ । इति वसिष्ठदशेनात्‌ ।
अयमनयोर्दण्डो गणवत्‌ब्राह्मणौगमनविषय इति मनु-
` ठौका। तेन सव्वसख-सहसखदण्डाक्तेषविरोधो नेयः।
आह च नारायण
निगख--गणवत्‌ब्राह्यण्यपेक्षया दण्डद्रयमिति ।
तथा,
| छचियायामगुत्तायां वैश्ये पञ्चशतो द्मः । `
मूत्रेण मोणष्यणच्छेततु छचियो दण्डमेव च ॥ `
परकैर्णापद्धारिदग्डः | १७१

यदि छवियः परछूचियामगृप्तां गच्छेत्तदा गदंभमेण


मुण्डनौयः ।
द्य(4

वैश्यवत्‌ पञ्चशतं पणान्‌ दण्डयः! लश्छौधरेण तु दण्ड-


मेवेत्यच मौण्डामेवेति पठितम्‌ ।
तथा,
अगप्ते सचिया-वेश्ये' श्रूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन्‌ ।
शतानि पच्च द्ण््यः स्यात्सहखन्वन्त्यजस्वियम्‌ ॥
श्रद्रां गत्तामगत्तां वेति नारायणः
अच श्रूद्रामित्यच हौनायामदधिक इति हहस्पतिवाक्ये
हौ
नायामित्यच चान्पपुव्वा श्रद्वा विवक्िता, अनन्यपून्वायां |
निर्वासनस्मर
णात्‌ ।
तवा चप््तन्ब~
च्नाश्च चराः श्रूद्रायाम्‌ । ५
तद्राह्मणपरिणौतानन्यपूव्वाश्रद्राविषयम्‌ । आर्ययो
ब्राह्मणदिनाश्योर निर्वास्यः ।
अत रवाच श्रद्रायामनन्यपुव्वायामिति कल्पतरुकता `
व्याख्यातम्‌ ।
| यत्त॒ श्रद्राव्यतिरिक्षहौनाविषयं ददस्पतिवचनमिति . `
केनचिदिष्युक्तं, “तन” दर्डविसम्बादात्‌ निर्वासनापेश्या `
मध्यमद्ण्डस्य लघुत्वात्‌ । |
९ मूले वेश्यराजन्धे इति पाठः|
खग पुस्तकदये नाप्यः।

~ति
~~
---~
~~
~~
~
=
र खग--नाष्यः।
१५ इदण्डविवेकः। `

मनु
श्रद्रो गृ्तमभुत्तं वा देजातं वशेमावसन्‌ ।
अगुप्ते ङ्गैकसव्वस्वै गुते सर्ववेण हौयते ॥
दैजातं वशं दिजातिस्ियमावसन्‌ अभिगच्छन्‌ हौयते
इत्यन्वयः। केनेत्याह तस्मिन्‌ दैजाते वशे अगुप्ते रकेनाङ्तेन
सव्वेस्वेन च, गुप तु सर्ववेणाङ्गन सव्वस्वेन च । तेन
दिजातिस्ियमभिगच्छतः श्रूद्रस्य तस्यागुप्तत्वपक्चे रकाङ्ग-
केदः सव्वस््रयरहणं दण्डः गप्तत्वपक्ने तु सव्वाङ्गरेद्‌ः सव्वस्व-
ग्रहणच्ेति फलिताधैः ।
रनाकरादौ तु कचिदगतैकाङ्गसव्वस्वौति कचिदगृत्ता-
ैकसव्वस्वैरिति च परितं तचाप्यक्त रवाधैः स च यथा- `
-कथच्चिन्ेयः।
, मनुटौकायामगुत्तमङ्गसव्धखैर्गपतं सर्वेणेति पठितम्‌ ।
कल्पतरौ तु
| अगत्तमङ्गसव्वस्वौ गततं स्व्वेण हौयते ।
इति पटित्वा अगपत्तमररितं अङ्गसव्वस सहितो
कयते तेन येनाङ्गेनापराध्यते तेन स््धरस्येन च दीयते
इत्यथैः ।
रशितन्तु व्रजन्‌ सव्वेणाङ्गन हौयते इत्यच इति व्याख्या- `
तम्‌ । रुतन्मते रश्िताभिगन्तुः सव्यैखभ्रहणं नास्त ।
¦ . श्रद्रस्येव्यनुदत्तौ गोतमः+--
आय्र्यमभिगमने लिङ्गोद्धारः सव्येखग्रहणच्च । गुप्ता
|| चेदरोऽधिकः |
१ सव्मेसीति क्रचित्‌ पाटः ।
पकौ गापदारिदगडः । १७द्‌

आय्यस्त्रौ चैवणिकस्त्रौ । रतद शनात्‌ पुव्ववाक्ये


रकमन्गः लिङ्गमेव, सव्वाङ्गलेदो वध रव । रकमुलत्वानु-
र्[घात्‌ |
अत खव श्रूद्रस्य पुनरगत्तां चेैवशिकस्ियमभमिगच्छतो
लिङ्गोद्वार-सव्वस्वापदारौ । गन्तां गच्छतो वधसब्वस्वा- `
पहाराविति तेनैवोक्तम्ित्युपकम्य मिताक्षराकता मनु-
वचनमवतारितम्‌ )
रवच्चागप्त वङ्स्येकाङ्गकत्तनमिति व्याख्यानमनादेयम्‌ । ` ;ध
आपस्तम्बः
4

वध्यः श्रद्र आआय्यीयां दाराश्चास्यापकषयेत्‌'। आआर्ययाया-


मिति गच्छन्निति शेषः
` : इारौतः
खरेयसः शयनश्यिनं राजा बध्वा रभिः खादयेत्‌
काश्चत्‌ दहत्‌ ।
श्रेयस उत्कष्टवगैस्य शएयनशयिनं स्तीगामिनं । रता- `
सुत्कृष्टवशेस्तियम्‌ ।

भिश्च खादयेद्राजा हौ नवेगमने स्त्रियम्‌ । प्रकाशं


पुमांसं धातयेद्यथोक्तं वा । व

सज
सस

दौनवणेगमन इत्यनेन स्ियाः कामित्वं गम्यते ।


यथोक्तमिति प्रंसोऽपि वा श्मिः खादनमिति रलाकरः।
यथोक्तं लिङ्गोद्धारः सव्यस्वग्रहणच्च पारिजातः |
^` . ~~~ ण = न "+>

१ ख उपकत्तयेत्‌।


१७8 ` द्ग्डविवेकः । `

` ब्राह्मणौ ठषलं सेवत इत्यनुदृत्तौ,--


श्रदरन्तु घातयेद्राजा शयने तत्त आयसे ।
ददेत्‌ पापक्षतं तच काष्ठैः पचैस्त॒शेस्तथा ॥
यमः
इषलं सेवते या तु बद्यणौ मद्‌्मोहिता ।
तां रमिः खादयेद्राजा संस्थाने वध्यधातिनाम्‌ ॥
वध्यधातिनां संस्ाने--वध्यान्‌ घातयन्ति चाण्डाला-
दयस्तैरधिषश्िते देभे । रतद शनात्‌ गोतमवाकेये पुरुषवधे
प्रकाशत्वाभिधानात्‌ स्ियाः शभिः खादनं निश्ठतमिति
| खमो देयः,
हि.
वश्यं वा क्षचिधं वा ब्राह्मणौ सेवते यद्‌ ।
शिरसो मुण्डनं तस्याः प्रयाणं गदहमेन तु ।॥
इह ब्राह्मणा नप्रायाः शिरोमुण्डन-सपिरभ्युश्षण-
खरारोदण-राजपथानुत्रजनानि वसिष्ठेन विदितानि
पूता भवतौव्युपसंहारद
श्नात्‌ प्रायश्चित्तरूपाणि
अत रव कल्पतरौ, |
श्रद्रमग्नौ प्राश्ेदित्यन्तमेव तद्वाक्यं परितमतस्तदिष्ो-
पे्ठितम्‌। अत रवानिच्छन्तौ च या भुक्ते्यादि दस्यति-
वचनमपि नाचाऽवतारितम्‌)

भ्तीरं लद्ये्ा तु ज्नातिस्तलौगणदर्पिता। `


तां भिः खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंस्थिते ॥
प्रकरणा पछारिदण्डः । १७१

पुमांसं दाहयेत्‌ पापं शयने तत्त आयसे ।


अस्या दयश्च" काष्टानि तच ददयेत पापक्षत्‌ ॥
लङ्कयेत्‌ स्पतिमवन्नाय पुरुषान्तरं गच्छेत्‌ । ज्नातीति
स््रौगणेन सौन्दर्यथादिना दौतिकृतेत्यथैः। इति रल्नाकरः। `
मनुरौकायां भटरेन स््ौज्नातिगणदपितेति परित्वा
धनिकपिचादिबान्धवदरपेण सौन्दरय्यादिगण्दपण चया स्तौ 4

पतिं ल्येदिति व्याख्यातम्‌ ।


नारायणेन तु पृन्बपाटेऽप्ययमथे उक्तः पिच्रादि
ज्ञातिभिः स्वौगुरेश दरपितेति । संस्थाने देभे बहुसंखिते `
चत्वरादौ। पुमांसमिति पुमांसमनन्तरोक्ताया जारम्प्येते |
द्यर्वध्यघातिन इति शेषः। यावत्‌ स पापकारौ दग्धः
स्यात्तावत्परितः िपेयुरित्यथैः |
दन्धादित्यनुटत्तौ विष्णः ।
स्तियमसक्तभत्तंकां तदतिक्रामणौच्च । |
असक्तभत्तं कामनुपसुक्तभत्तेकाम्‌ । कचिद्शक्तेति `{
तालव्यपक्ताऽपिः दृश्यते, तदतिक्रामणौमन्यपुरुषगामि- `
नीम्‌ । मिलितमिद्‌ हनननिमित्तमिति रन्नाकरः। `

न~~ ------------------------- =

९ ग अ्यादध्य्च। ` र्खग पाठोऽपि


०. ` दण्डविवेक ।

अध्यान्त्याभिगमनदरडः।
| तच सहखन्न्त्यजस्तियमिति मनुवचनं समनन्तरं
लिखितम्‌। इदान्त्यजस्तियं रजकादिस्ियमिति
रत्राकरः। रजकचम्मैकारादिस्तियमिति मिश्राः।
चाण्डालौमिति मिताश्राकारः । 2
` कुललृकभद्रोऽपि अन्ते भवोऽन््यो यस्मादधमः शरद्रो नास्ति
स च चाण्डालादिस्तस्य स्ियमित्यादह। ॑
यत्त॒ अन्त्यागमने वध्य इत्य॒क्तं॒तद्राह्यणव्यतिरक्त-
विषयम्‌ ।
याज्ञवल्कयः,
अन्त्याभिगमने त्वङ्कं कवन्धन प्रवासयेत्‌ ।
शरुद्रस्तथाऽ्च खव स्याद्‌न्त्यस्याव्यागमे वधः ॥
अङ्ककवन्ध इति अशिरस्कपुरुषाकाररूपोऽङ्सेनाङ्-
` यित्वा चैवणिकं निर्वासयेदिति रनाकरः। शवमेव
कल्यतरः । कवन्धेनाङ्घयेत्‌ कबन्धेन कुत्सितबन्धेन भगा- |
कारेणाङ्कयित्वा इति मिताश्षराकारः युक्तच्वैत-
दौचित्यात्‌। | 4
कामधेनौ कल्पतरौ चाङ्खोति परितं त्च क्रा विषये.
: ल्यप्‌ प्रयोग आर्षः । अचाधैदण्डोऽपि द्रष्टव्यः । सदसन्व- = `
न्त्यजस्ियमिति मनुवचनादिति मिताशूरा । श्रदरोऽद् `
९. का पुसतक त्वाद्घु।
अन्त्याभिगमनदण्डः । ` १७७

रुचेत्येवकारेण प्रवासनमाच॑ निषिध्यते । तेन वधोक्त-


रविरोधः व

पारिजाते अन्त्य रव स्यादिति पठितं व्धाख्यातच्च अन्त्य


शव स्यान पुनः श्र्रेषु प्रवेश्य इति। मिताश्रायामपि
अन्त्य एवेति पठितम्‌ । श्रूदरशाण्डालान्यभिगमे चाण्डाल ए

४|
† |

रव व
भवतौति व्याख्यातच्च । : ¢

|

रजकश्वम्मेकारश्च नटो वरुड एव च ।


कैवत्त-मेदभिल्लाच स्तैते चान्त्यजाः समृताः ॥
दति यमेन परिगणनात्‌ रजकाद्य रवान्त्या इति
गम्यते, चाण्डालश्च यवनादिवत्‌ म्नेच्छः स्यात्‌ न श्रद्रेषु |
प्रवेश्य इति पारिजातद्‌शनात्‌
तथापि कुल्लकभट्रा्यभियुक्तव्यास्यानस्वरसाद्रहवरै'
साम्याचच तस्य श्रुद्रविशेषत्वं काममास्तां किन्तु मनुवचने `
$न्त्यजो रजकादि
रेव विवक्षितः
अन्त्यजा रजकादयः सत्त सत्यन्तरोक्ता इति नारा-
यणौयव्यास्यानद
शनात्‌ ।
यान्नवल्व्यवचने तु--अन्त्यापदं चाण्डालादिष््रौ
परमिति)
` रजकाद्यपेश्षया तस्या जघन्धत्वेन सदखापेश्चया साद्ग- ¦
प्रवासनस्य गुरुत्वेन दयोः सामच्छस्ात्‌ । रलाकरशतो- `
` श्यचैव सखरसात्‌। रुतद्याक्य रवान्त्यपद्स्य तथैव
विवरणात्‌ ।
| १ घ ङ पुस्तकदये वगप्रदं नास्ति ।
98 . 1
+ द्डविवेकः ।
तथाहि तद्यास्यानं--आया चैव्िकसतलौ तदमिगमे
ऽन्त्यश्चाण्डासे वध्य इति ।
{(श

मन्तेवम्‌,-
|
{
। व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु]
~ ` इति मनुवचनविरोधः स्यात्‌ ।
न॒ स्याद्‌विरोधिनस्तदथेस्याभिगमदण्डमादठकोपक्रमे
द्शरितत्वात्‌। अस्तु वा दण्डभेदे वैकल्यिकौ व्यवस्था ।
यथा-निधनचैवशिकविषयं साङ्कप्रवासनं सधनतददिषयः
सदखदण्ड इति ।
अथ खजनाभिगमे रा्ञौप्रश्त्यभिगमे च--
दण्डमादइ नारद | “
माता माढठ़ष्टसा-श्वश्रु-मीतुलानौ-पिटघसा ।
पिट्व्यसखि-शिष्यस्ो-भगिनौ-तत्‌सखौ-
खषा ॥
दुहिताचाय्थभा्या च सगोचा-शरणागता ।
रान्नौ-प्रचरजिता-साध्वौ-धाचौ-वर्णोत्तमाऽपि या ॥
आसामन्यतमां गत्वा गुरुतल्पग उच्यते । .
स््िस्योतर्तनात्तच' नान्धो दण्डो विधौयते ॥ `
| माताऽच जननौव्यतिरिक्ता पिपी, गुरुतल्पग उच्यते
इत्यतिदेसामर्थ्यात्‌ । माठयदहणं दष्टान्ता्थमिति मिता-
शराकारः। पिद्व्यपदं भावादिपरमपि तुल्यन्धायात्‌ | ` |
रुवं भगिनौससौति दुहिचादिसखौपरमपि न्यायसाम्यात्‌।
राज्ञी राज्यकर्तुभारेति मिताक्षराकारः, |
(1

९ चपुक्करे तस्य।
खन्याभिगमनदग्डः | | १७९

` ' युक्तच्चेतत्‌ क्षचियागमने दण्डान्तरोपरेशत्‌। सगोबे-


त्यनेन प्राप्तायाः सपतौमाचादेः पुनरुपादानं शिख्रकेदा-
द्धिकस्य वधद्ण्ड--ताडनादः प्राघ्यथैम्‌ ।
नान्यो दण्डो विधौयते इति तु श्श्रिलेदस्यावश्य-
कर््तव्यत्वपरं शिश्रङेदं विहाय दण्डान्तरं न काय्यंभिति
वाक्याधेपय्धैवसानादिति प्रतिभाति ।
तथा स्त्रीरं प्रव्रज्यानिषेधात्‌ प्ररजिता अतिस्मति
विहितयथावदिधवाधम्पेवतौ विरक्तया सन्यासितुल्या-
चारा विवश्चिता, राज्नोसमभिव्धाहारेण पुज्यतमत्वाव-
गमात्‌।
यत्त॒,--
चत्वारि शत्पशो दण्डस्तथा प्रत्रजितागमे ।
इति यान्नवचकयनोक्म्‌ । = `
तच ॒प्रब्रजिता शव्यादिस्त्रौ विवक्षिता दास्यादि-
समभिव्याहारेण हौनात्वप्रतिपत्तेरिति न दण्डविरोधः । `
वशीत्तमा ब्राह्मणौति मिताक्षराकारः । तदिद्‌ वचनं `
गृत्ताविषथमिति रलाकरः।
याज्ञवल्वयः, |
पितुः खसारं मातुश्च मातुलानी खषामपि ।
` मातुः सपन भगिनौमाचायतनयां तथा ॥
आचायग्यपनौ खसुतां गच्छंस्तु गुरुतल्पगः
चित्वा लिङ्गः वधस्तस्य सकामायाः स्ियास्तथा ॥1` |
तत्रापि रान्नौ-श्श्रादयो दर्टव्याः पुव्ववाक्ये पिट्‌- |
श८् दषवतकः।

श्रसादिसमभिव्याहारदेनेन सव्यासां तुल्ययोगक्षेम-


` त्वावगमात्‌ । तथा पुव्ववाक्यमगुप्ताविषयमिदन्तु गुप्ता
विषयं दण्डगौरवादिति प्रतिभाति। ` |
सकामाया इति या स्त्रौ यथोक्तं प्रतियोगिनं कामयते
तस्या अपि लिङ्गेदनयपुव्वको वध इत्यथैः । ` इतोऽन्यचापि
यच पातित्यादिदोषस्तचाप्ययमेव दण्डस्तुल्यन्यायत्वात्‌ ।
अच यमः+--
माद्ष्ठसा मादसखौ दुहिता च पिवदृघसा । `
मातुलानौ ससा श्वश्रगत्वा सद्यः पतेद्धिजः ॥
गौतमः
मातुपिदयोनिसम्बन्धगाः पतिताः
भी
0

अय्य केन्याद्‌षणदण्डः | |
सा चाभिगन्तूजात्यपेक्षया विविधा उत्तमा समा |
होना चेति । दूषणं दिविधमभिगमोऽङ्गलिप्रकछषेप इति । ४
" तच महापातकान्यमिधाय-- 1

रेतःसेकः सखयोनिषु कुमारौषन्त्यजासु च । र


सख्युः पुचस्य च स्त्रौषु गुरुतल्यसमं विदुः ॥ ५
तथा,-- ५
कन्याया दूषण्च्वैव नास्तिक्यच्ोपपातकम्‌। ^
` दूषणं स्नैथनवल्न॑मङ्कलिप्रक्षेपादिनेति मनुरौका । |
तचोत्तमायामभिगन्तुदण्डमाद मनुः, |
कन्धामित्यनुदृत्तौ,- |
८ उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्ईति ।
` उत्तमासुत्तमजातौयामिच्छन्तौमपौति शेषः
नारद्‌
कन्यायामस्कामाया द्यङ्गलस्यावरकत्तनम्‌ |
उत्तमाया वधस्वव सव्वस्छहरण तथा ॥
"ङ्गुलस्याङ्गलिद्दयस्य रतदङ्गुलिदययसाध्यमेयनविषयम्‌ । (|

१ डत चारभ्य प्रड्ुलिखितवाक्यं यावत्‌ नात्ति


शय्य । दण्डविवेकः |

शङ्खलिखितौ,
(न

| कन्धायामसकामायां दयङ्ुलकेदो दण्डञोत्तमायां वधौ


` जघन्यस्य | |
इदमष्यङ्गुलिदयसाध्यमैथुनविषयम्‌ ।
दरिदरत्तुः-
द्यज्गुलिपरिमाणशलिङ्गनङेद इत्याह । चकारो दाज्गल-
ेद-दण्डयोः समुचयाथेः। दण्डश्च षट्‌शएतरूपः |
वद्र. नबश
अभिषच्य' तु यः कन्थां कुर््यदपेण मानवः ।
तस्याशुक्त्ये चाङ्गुल्योः दण्डः षट्‌तमरति ॥ |
अभिषद्याभिभूय कुर्यात्‌ कर्ये छेद्यो दूषणमबा-
इलिग्र्षेपात्‌ योनिश्तकरणमिति मिताक्षराकारः! ४
| ` मनुरौकायां कृल्लकभद्रोऽप्येवं नारायणस्तु कुय्थादिति
| वितयोनिं कुादित्यधेमाद ,
यान्नव्वय
दूषणे तु करकेद उत्तमायां वधस्तथा |
अनुलामान्त्िति पुव्वाद्खादनुवत्तते यद्‌ानुलामा-
| मकामां बलात्कारेण नखश्षतादिना वा दूषयति तदा
(५ इस्तेद इत्यथे इति मिताक्षराकारः ।
` उत्तमायामिति दूषितायामिति विपरिणामेनानुषङ्गः
होनसेत्य्थाद्धमजातिपुरुषविषयमिति सवैन्न = `|
` व्याख्यान ।
९ घ खं एत्तकदये अविषह्य । = २ ख कल्यावङ्कलमौ ।
कन्यादूषणदग्डः | | ९८द्‌

अथ समाभिगन्तरदण्डमाह मनु. ` 1
योऽकामां दूषयेत्‌ कन्यां स सद्यो वधमहति ! ॥
सकामां दूषय्॑तुल्यो न वधं प्राप्रुयान्रः॥ = |
वधं लिङ्गकेदादिकमिति मनुरौकायां कुल्लकश्भद्रः। `
द्ण्डन्तु प्राप्रयादेवेति नारायणः
तच मत्स्यपुराणे योऽकामामित्यादिप्रात्तः परम
साहसं तुल्याथामकामायामभमिगन्तुवधः सकामायान्तु
सदसदण्ड इति दयोः समुद्‌ायाथैः । नि

नर्द्‌
सकामायान्तु कन्यायां सवणे नारू्यतिक्रमः ।
किन्वलङ्कत्य संत्य स रवेनां समुददेत्‌ ॥
मनु 4
शुल्कं दद्यात्‌ सेवमानः समामिच्छैत्‌ पितायदि। ` |
शुल्कमुभयसंप्रतिपन्नं द्रव्यमासुरविवादवदिति रत्रा- ।
करः। शुल्कमनुरूपं दद्यान्न तु दण्ड इति मनु- |
टौकायां भदः । |
शुल्वं गोमिथनं तच्च यदि तत्पिता नेच्छति तदा5.1
तदेव दण्डरूपेण रान्ने दयादिति मिताक्षराकारः। `
नारायशेन तु व्याल्यातं शुल्कं पितरे मूल्यं दात्‌ स `
यदि तस्मै तां दातुमिच्छेत्‌, अरनिच्छायां त्वन्यस्मै कन्यां
दयादिति ।
1 । ९ प्क कुललकपदं नास्ति । ` सखस -
| १८४ + | दण्डवियेका

समायां शुल्कमाभरणं दिगुणब्व स्त्रोधनं दत्वा


. प्रपदयेत' कन्याम्‌ |
` आसुरादिविवाहाद्विगुणं स्तौधनं कन्यायै शुल्कच्च
तदन्धुभ्यो दत्वा तां णह्ञौयात्‌ । समायामिच्छन्त्यामिति
` ओष इति रल्नाकरः। अनिच्छन्त्याभिति तु शेषो युक्त-
` सेनेच्छन्त्यां मनूक्तमेकगुणं शुल्वं घटते ।
अथ हौनाभिगन्तुदंण्डमाह आपस्तम्ब,
सन्निपाते उत्त इत्यनुहन्तो--
कुमायान्तु खान्यादाय नाश्यः
खानि धनानि, नाश्यो निर्वास्यः। रत हीनाया- `
मकामायाम्‌ ।
मन»
सकामां दूषमाणस्तु नाज्गुलिेदमाप्रुयात्‌ । ५
दिश्तन्त॒ दमं दाप्यः प्रसङ्गविनिरत्तये ॥
हौनकन्याविषयमिति रल्नाकरः। मनुरीकायान्तु
सकामां दूषयंसतुल्य इति परित्वा दूषयनङ्गुलिप्रकषेप- = `९
माचेशेति व्याख्यातम्‌ ।
|१ अथय मनुः,

जघन्धं सेवमानान्तु संयतां वासथेद्गहे ॥ ` `


९ घ एु्लक्े सम््रतिपयेत! = `
कन्धादूषणदण्डः ` र्न्पर `

सेवमानां बैुने्नानुङ्गलयन्तौः संयतां निबद्धां `


वासयेत्‌ यावन्निरत्ताभिलाषा स्यादिति मनुटौकायाम्‌ ।

अथ प्रसङ्गात्‌ कन्धादरणद्‌ण्डमाह ।
च नवस्कम +
अलङ्कतां हरन्‌ कन्यासुत्तमं चन्यथाऽधमम्‌ ।
दण्डं दथात्‌ सवर्णासु प्रातिलाम्ये वधस्तथा ॥ `
सकामाखनुलामासु न दोषो चयन्यथाऽधमः ।
दूषशे तु करङेदस्तृत्तमायां वधस्तथा ॥ र
अलङ्तामन्यसमे दातु प्रसाधितां विवाहाभिमुखौभूता- |
मिति यावत्‌ । उत्तममुत्तमसाहसम्‌ । अन्यथाऽनलङत- |
कन्यादरणेऽधमं प्रथमसाहसं सकामामिति न दोषो |
इर्तरिति शेषः। अन्यथा तासामकामत्वेधमः प्रथम- `
साहसः। दृषशेऽङ्गुलिप्रक्षेपादिनेति दलायुधः। शेषं
पूव्यवत्‌ । ५
अच दण्डविधानाद्पदत्तुसकाशदादियान्यस्िन्‌
देयेति गम्यते इति मिताक्षराकारः । | ५.
अथ प्रसङ्गादेव विवाहयितुविवोदुश्च क्रूटकारिणे `
दण्डः । तच मल्यपुराणे-- `
यस्तु दोषवतौ कन्थामनाख्याय प्रयच्छति ।
तस्य कुग्योन्रुपो दण्डं खयं षणशवतिं पणान्‌ ॥
यः कन्यां दर्शयित्वाऽन्यां वाढरन्धां प्रयच्छति ।
` उत्तमं तस्य कु्व्वोत राजा दण्डन्तु साहसम्‌ ॥
९ खमेनाथैम्‌। २ ष सवर्णा । ` £ { (
१८६ : ४ दग्डविवेकः ।

तथा,
वरो दोषं समासाद्य यः कन्यां संहरेदिह ।
दत्ताऽप्यदत्ता सा तस्य राज्ञा दण्ड्यः शतदयम्‌ ॥

दत्वा कन्धां हरन्‌ दण््यो व्ययं दद्याच सोदयम्‌ ।
कन्यां वाचा द्वा वरायाप्रयच्छन्‌ द्रव्या्नुबन्धा-
अनुसारेण व्ययं दाप्यः ! रुतच्च कारणाभावे
दत्तामपि हरेत्‌ कन्धां ओयांशेदर आव्रजेत्‌ ।
[ इत्यचापहाराद्तुन्ञानात्‌। व्ययमिति वा दान-
। निमित्तं खसम्बन्िनां कन्यासम्बन्धिनां चोपचाराथे
वरेण यज्नं व्ययितं तत्‌ सदृच्विकं कन्यापिता वराय `
दद्यादित्यथैः।
अथ स्तियाः कन्धादूषणमाइ ।
मनुः,
कन्येव कन्थां या कुखात्तस्याः स्याहिश्तो दमः
शुल्कञ्च चिगुणं दद्याच्छिफाश्च प्राप्रुयादश ॥
या तु कन्यां प्रकुय्धात्‌ स्तौ सद्योऽसौ मोण््यमरंति।
अङ्गुल्योरेव च ठेद्‌ं खरेणोद्धरणं तथा ॥
` कुग्धात्‌ प्रकृथ्थादिति अङ्गलिप्रकेपेण नाश्येदित्यथैः।
इति मनुटौका। योनिं छतवतौं कुचादित्यथे इति `
` मिताक्षराकारः। चिगुणं दिश्तापेश्या शुल्कदानच्चः `
॥ ~

९ क एसे सा सद्यो मौग्डामदहति। ॥ ध


क्दूषणदयः ` ९
स्ृष्टमैथुनाशङ्याऽन्येनापरिण्यनादिति नारायणः । `
शिफा अच जटा रज्चादिप्रहारा इति कल्पतरूः। ` ५

रवमेव रनाकरः | न

नारायशोऽप्याह--शिफा दक्षजटा दश्छत्वस्तामि


स्ताडनं प्राप्रयादिति। द्‌चडं मुरखडनमिति कित्‌ ।
सलौ कन्धाव्यतिरिक्ता योषित्‌ अच मौण्ड्यं बाह्मण य

खरोदाहनं
म शचिया, अ्गुलिकेदमितरेति सव्य्नेन,

५ |


¦


।॥

= ४

१ ख पुस्तके दश्ज्त्वः ।
`

अध्य बन्धक्याद्यभिगमे दण्डः


वासम
बहुभिशुक्तपूव्वा या गच्छेद्यस्तां नराधमः । म

तस्य वेश्रयावदिच्छन्ति दण्डनं न तु दारवत्‌ ॥


बन्धक्यधिकारे यमः
परदारे सवर्णासु दाप्याः. स्युः पच्चक्ृष्णलान्‌ ।
असव खानुलोम्ये दण्डो दादश्को मतः ॥
परदारे परदारगमने रकवचनस्वरसात्‌, रुष्णलो
अवचय दाद्‌शको दाद्‌पणात्मकः।
नारद्‌
स्वेरिण्यत्राह्मणौ वेश्या दासौ निष्कासिनौ च या ।
गम्याः स्युरानुलोम्येन सियो न प्रतिलोमतः ॥
` आसखेव तु भुजिष्यासु दोषः स्यात्‌ परदारवत्‌ ।
गम्था अपि हि नोपेथा यतस्ताः सपरिगरदाः ॥
स्वैरिणौस्ररसात्‌ पुं्लौो तस्या विरशेषणमनब्राह्मणौ `
छवियादिरिति यावत्‌! दासौ सखौया कम्मकरौ
निष्कासिनी कुटुम्बनिगंताः पुंल । आसखनवस्द्वास्वपौति `
मिताक्षराकारः गम्या इत्यनेन दण्डमाचं निषिध्यते `
नतु पापमपौति रनाकरः
प दण्डाः,
बन्धव्याद्यभिगमे दण्डः । ॥ ५ १.८

युक्तच्चेतत्‌ सव्वेषां खदारनियम इति शङ्कलिखित-


1

खरसात्‌ विध्यतिक्रमे पापस्यावश्यकत्वात्‌ । 1


यत्त- दण्डेनापि पापं गच्छतीति प्रागक्तं तद्भिगम-
भिन्नविषयम्‌ |
अत रवाह नारदः+ ८
अगम्यागामिनः शस्िदण्डो राक्र प्रकीर्तितः
प्रायित्तविधानन्तु पापानां स्यादिशेधनम्‌ ॥ `
इति रहस्यकृतेऽगम्यागमने द्ण्डाभावादिदं प्राय- `
ित्तविधानमिति चेत्‌ ! तथापि प्रते पापं धवम्‌।
ध वस्तुतस्तु अन्यचापि प्रायश्चित्तरूपादेव दण्डात्‌ पाप-
निदृत्तिनतु दण्डमाचादिति प्रागुक्तम्‌ । भुजिष्यासु ध
स्वेरिण्यादिष परेणवरोध्य भुज्यमानासु | र
सपरिग्रहाः परेणावरुचत्वात्‌। परदारवदिति सामा- `
न्योक्तैः | .दण्डे विशेषमाह यान्नवल्वयः,
अवर्द्वासु दासीषु भुजिष्यासु तथेव च।
गम्यास्वपि पुमान्‌ दाप्यः पञ्चाशत्पणिकं दमम्‌ ॥
अवरुद्वासु दासीषु परेणवरुध्य शता दास्यस्तासु `
अनुल्तामास्पौत्यथेः । इति रलाकरः। 1
भिताशरायान्तु शुख्रषाहानिव्युदासाथं शह एव त्वया
सखातव्यमित्येवं परपुरुषसम्भोगतो निरुद्ा दा्योऽवरुदयाः।
` नियतपुरूषपरिथदा भुजिष्याः । च शब्दादेश्या-सैरिणौनां
गम्यानां साधारणस्त्री यदणमिल्युकतम्‌ ।
५ । दग्इदिवेकः} `

ननु वेश्यायाः साधारण्यं न जातितः, अनुल्तामजत्वेन


तस्याः सवशेस्रौत्वात्‌ ‹ प्रतिलामजत्वे तु निन्दित
कम्मभ्यासेन तस्या गम्यत्वानुपपत्तरिंति चत्‌
उच्यते-
पुरुषसम्भोगदत्तिवेश्यानामनादिरेव जातिर्लोकप्रसिङधः,
पच्चच्‌डानामकाःा पस॒रसस्तत्‌सन्ततिर्वेश्याख्या पच्चमी
जातिरिति माकंण्डयपुराणसम्बादाच ।
तस्मादासां नियतपुरुषपरिण्यनविधिविधुरतया पर-
पुरुषाभिगमनेऽपि नादृष्टदोषो नापि दण्डः।
पुरुषाणान्तु तदभिगमने दण्डाभावमाचं न पापा- `
- भावः। सख्दारनिरतः सदेति नियमात्‌ पणशुवेश्याभि-
गमने प्रायश्चित्तं विधौयते इति प्रायश्चित्तस्मरणाचेति
. मिताक्षराकारः।
तथा--
प्रसद्य दास्यागमने पच्चाशत्‌पणिको दमः ।
बहनां यद्यकामाऽसौ चतुविंश्तिकः प्रथक्‌ ।
प्रसद्य वेश्यागमने दण्डो दशपणः स्मृतः ॥
बहनामिति यद्यकामा सा बहभिर्भुज्यते तदा प्रथक्‌
प्रथक्‌ चतुर्विं्तिपणे दण्ड इत्यधेः |
नारद्‌ ध
वेश्यागामौ द्विजो दण्व्यो वेश्या शुल्कसमं द्मः
१. ख वगोस््त्वात्‌ । न २.खकाश्न।
द ख एक्क प्रसद्येयादि प्रह्विनास्ि।
बन्धक्याद्यभिगमे दण्डः । ९९१९

अच प्रसच्येति वचनात्‌ शुल्कदानं विना बलेन द्‌ास्या-


दौनाममिगमने दण्डोऽयं भाटकदाने तु दोषाभाव
इति मिताक्षराकारः । अतो नास्य पुव्वाक्तविरोधः
अथ याज्ञवल्क्य
= `
न ण

पश्रन्‌ गच्छन्‌ शतं दाप्यो हौनाङ्गोच्चैव मध्यमम्‌।


हीनाङ्गो किननासिकादिरिति रब्राकरः। मिता-
छरायान्त॒॒हौनस्तनौणमिति परित्वा हौनां स्िय-
मन्त्यावसायिनौमकामां सकामां वा गच्छन्‌ मध्यम-
साहसं दाप्य इति व्याख्यातम्‌ ।
अध्ायोनिविघयाभिगमे दण्डः।
. तचायोनिपदं मातुषौयोनिव्यतिरेकपरं तस्य दौ
| भेदौ स्ौपुंसयोरवयवान्तरं गवादियोनिश्च। तथयोरङ्गा-
। न्तराभिगमे दण्डमाह याज्ञवल्वयः,
अ अथोनौ गच्छतो योषां पुरुषं वापि मेहतः ।
चत्वारिं शत्‌पणो दण्डस्तथा प्र्रजितागमे ॥
मिताक्षरायां चतुविंशतिको दण्ड इति पठितम्‌ ।
अयनो योषामिति-अयोनौ सुखे द्रविडोत्कलादौ
इष्टत्वात्‌ कामागमेषु श्रुतत्वाच्च ।
` तच हौदमौपविष्टकमित्याख्यायते जघन्यस्य कममणः
उपविष्टात्‌ ' प्रवच्यमानत्वात्‌ |
आह च वालस्यायनः
| तस्या वदने यञ्जधनकंम्भै तदौपविष्टकमिति । |
इड याः खोपविष्टकमिच्छन्ति न ताभिः सद युज्यन्ते
इत्यादिवचनाद्रश्यादास्यादौ फलतो रश्ावगमात्‌ ।`
धम्पेपल्न्धां सुत्रतायां मुखे मैयनकारिणः
स्पती विधातुर्भवति ------ --।
` इति कम्मेविपाकसमुच्चयवचनसम्बादाच धम्मेपन्नौमात `
५ निषेधः पर्ैवस्यति रुवव्व तचैवायं दण्डः |
४3
(

(1

` अथायोनि समाग दण्डः १९३ ॥

तस्य निषेधेन समभेकविषयत्वात्‌ ।


सखयोषां यो सुखादावमिगच्छतौति विन्नानेश्वरौय- ५

||

वयाख्यानदनाचेति केचित्‌| . "व


(3

तन, य |
॥।

र.

च्रयौनौ गच्छतो योषामिति सामान्यश्रुतौ बाधका-



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र ॥)

भावात्‌ । निषेधष्यापि तथाविधकियामाचविषयत्वात्‌ ।


ष ॥

दण्डभेदप्रकर
शोपद्शित-विष्णुपुराणएसम्बादात्‌ ।
पुरुषं वापि मेहत इत्यतिरागेण पुरूषमेवाभिगच्छत ८

इत्यधेः । |
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` 25
अश्च गवाद्यभिगमदर्डः |
तच विष्णु
पारजातौयाप्सवरणभिगमने तूत्तमसाहसं दण्डयः ।
दीनवर्णणगमने मध्यमं । मोगमने च। अन्त्यागमने
बध्य उत्तमागमने च । ध ५
अच गोगमने चेति चकारेण मथ्यममित्यस्यानुकर्षः!
५ मध्यमं साहसं गोषु “ इति नारदसम्बाद्‌ात्‌ । उत्तम-
अतवधानुक्षे तुशब्दस्वरसमभङ्गग्रसङ्गात्‌ वचनच्ैतद्‌-
` ` जाद्यणविषयम्‌ ।
| ब्राह्मणविषये त्वाह मत्स्यपुराणम्‌
सुवशेन्तु भवेदण््यो गां व्रजन्‌ मनुजोत्तमः
अच रनाकरकता विष्णवाक्ये वधस्यानुकषः स च
शद्रविषयः नारदोक्तस्त॒ मध्यमसाहसः छवियवैश्ययो
रित्यविरोध इत्यक्तम्‌ । |
तच्चिन्त्यं ख्रतस्यानुकर्षो न तु श्रोष्यमाणस्येति पद्‌शक्ति
विम्बाद्‌त्‌व्यत्त्तिविरोधाच ।
मत्स्यपुराणे, `
तिथग्योनौ च गोवज्ने मैथनं यो निषेवते,
स पशं प्राप्रयादण्डं तस्याश्च यवसोदकंम्‌ ॥
1

९ क्रचित्‌ पारनायौति.पाठः,
| मवावमिगमदणडः रः १९५

पणं शतसंस्यं, पशुगमने काषौपणशतं दण्ड्य इति


विष्णुसम्बादात्‌ कामधेनौ तु एतमित्येव पितम्‌ ।
दूति महामहोपाध्याय धन्मोधिकरणिकश्रौवद्ंमानकूतौ
दण्डविवेके परदाराभिमैणदण्डपरिकेदश्वतुधैः ।



=


अथ वाकौपार्ष्यद्‌
ण्डः


देशजातिकुलादौनामाकोशन्धङ्
संक्नितम्‌ ।
यद्वचः प्रतिक्रूलाथं वाकूपारुष्यं तदुच्छते ॥
निष्ठरा्नौललतौबत्वात्तदपि विविधं स्मृतम्‌ ।
गौरवानुक्रमाततेषां दण्डोऽप्युक्तः कमाङ्गरुः ॥
साक्षेपं निरं ेयमश्नौलंन्धङ्संज्नितम्‌ ।
पतनौयेरुपन्यासेस्तौ
रमाह नोषिणः ॥
धिद्धखौन्त्य 'जेत्यादि साक्षेपं, न्यङ्ुरि हासत्यमवद्यं तेन
` भनिन्यादिगमनयुक्तमश्षौलं सुरापोऽसीत्थादिमहापातका-
कोणयुतं वचस्तौत्रमिति मिताक्षराकारः ।
अचाकोशन्यङ्कसङ्गितप्रतिक्रूलार्थानां याणामेषां
विवरणमिति व्यवहारतरङ्ग गणे्रमिराः।
युक्तच्चैतत्‌-तथादि अन्वथैसंज्ञावगमितं वाक्‌-
करणकमनो विरुशणलक्षणं सामान्यलक्षणं देश्द्याक्रोशे
न्ब्ुसंन्नितं नि्ुराथैमिति विभागः। तेषां लाघव-
गौरवातिगौरवानुसारिण्यो लघु-गुरु-गुरुतर दण्डसम्बा-
दिन्यो निष्ठरादयः संज्ञाः, तासां विवरणं सघ्रेपमित्यादि।
यत्त॒ आकोशन्धङ्कुसंयुतमिति पटित्वा उचेभाषण-
माकरोशः, न्यङ्कु अवद्यं तदुभयसंयुक्तं यत्‌ प्रतिङ्रलाथ
=^ न" -------------------- --~----- न
~-----------------------------------------------------

१ घ पुरतके जाल्मव्यादि पाठः ।


वाकूयःसंद २९७

मुदंगजनकं वाक्व तद्वाकूपारुष्यमिति सामान्यलक्ण-


परमिति मिताक्षराक्षता व्याख्यातम्‌ ।
तच्चिन्त्यम्‌, |
यचोचेर वद्यभाषणं नास्ति तच दृङ्ारानुकारादाव-
व्याप्तः |
यदाह कात्यायनः,--
हङ्धारं कासनच्चैव लेके यच्च विगर्हितम्‌ ।

अनुकुगथादनुनरयाद्राकूपारुष्यं तदुच्यते ॥
तच देशरकषेषो यथा,--
गौडौयं प्रति कलहप्रिया गौडा इत्यादि। जतत्या-
क्रोशे यथा ब्राह्मणं प्रति अत्यत्तलुग्धा ब्राह्मणा इत्यादि! `
कुलाकोशो यथा कररचरिता वैश्वानरा इत्यादि

न्यङ्कुसंक्नितं निृष्टा्गसंन्नावत्‌। निष्टाङ्गप्रकाशनेन


सत्धेनासत्येन वाक्ेप इत्यथैः ।
तथाहि कात्यायन
यक्वसत्सं्नितैरङः परमाशिपति कचित्‌ ।
अभूतैरथ भूतेवं निष्टुरा वाक्‌ स्पृता तुसा॥
वल्पयतरावपि न्धङ्गसंन्नितमस्षौलमिति व्याख्यातम्‌ ।
` तथा निरृष्टाङ्गसङ्गवदिति रनाकरः। हस्ततन्नना-
दिकंमिति हलायुधः। |
स्मृतिसारकछता तु न्यङ्गसंज्नितमिति पटित्वा न्यङ्ग- 6
मक्षौलमिति व्याख्यातम्‌ मेहनायक्षेखवदिति मिश्रा
९९८ क, दण्डविवेकः |. |

कामधेनौ तूभयच व्यङ्गति .पटितं तच व्यङ्ग्येन


खच्ञादयो विवक्षिताः! |
अश्मौलं निषुरञच्च प्रपञ्चयति स रव-
न्यज्गावपुरणं वचो कोधात्तु' कुरूते यद्‌
इत्तदेशकुलानाच्च अ्रक्लोला सा बुधैः स्मृता ॥ `
महापातकयोक्तौ च रराजस्तेयकरौ च या |
जातिसंश्करे. या च तौव्रा सा प्रथिता तु वाक्‌ ॥
नधङ्गावपुरणं निरषटङ्गप्रकटौ करणेन तिरस्करणं काम-
धेनावङ्गंति पठितम्‌ । |

भगिनौ-माद्सम्बन्धसुपपातकशंसनम्‌ । `
पारुष्यं मध्यमं प्रोक्तं वाचिकं शस्तरवेदिभिः॥
` अभश्यापेयकथनं महापातकदूषणम्‌ ।
पारुष्यसुत्तमं प्रोक्तं तत्रं मम्बामिघटूनम्‌ ॥
भगिनौ-माद्सम्बद्धसुपपातकशंसनमिति तव भगिनौ
तव माता मया माद्यति कौर्तनमित्य्ैः । इति रलाकरः।
रवमेव हलायुधः
वस्तुतस्तु माढ़पदं माठसपल्नीपरं तेन भगिनौ माठ-
| सपरन वा गतौ. यतामौति वौर्तनमित्यथः। यथा-
` व्याख्यानात्तस्योपपातकत्वाभावात्‌ ।
नि ----+-----

९ मूले वाचाक्रोग्रात्त। २ क्व्ित्‌ यदौलिषाटः।


५ ३. घ पुस्तके राजद्देष ।
र वाकूपारष्यदण्ः । १९६

काल्यायनः,--
अगृणान्‌ कौीत्तयेत्‌ क्रोधात्‌ निगणे वा गुणन्नताम्‌ ।
अन्यसंज्ञानियोजौ च वाकूदुष्टं तं नरं विदुः ॥
अगुणानिति गुणिनौति शेषः। अन्धसंन्ञानियोजौ
निन्दितसंज्नाव्यपदेशकारौ । +)
तथा, ॑ | |
दष्स्येव तु यो दोषान्‌ कौत्तयेदोषकारणात्‌ ।
अन्यापदेशवादौ च वाग्दुष्टं तं नरं विदुः ॥
दुष्टस्ैवेत्येवकारोऽप्यथेः। दोषकारणादिलत्यनेन विचा-
राथं बन्धनां दोषाभिधानपर्खयदासः। अन्धापटेश्वादौ
अन्यमपदिश्यान्यदोषाभिधायौ ।

सयः
2
अश्र ब्राह्मणादौनां परस्पराक्नेपे दण्डः,
तच दस्यति
समानयोः समो दण्डो न्यूनस्य दगुणः स्मृतः ।
उन्तमस्याधिको दण्डो वाक्पारुष्ये परस्परम्‌ ॥
समो यथाख्रतो न्यनस्याक्ेप्यापेक्या शमैलजात्यादिभि
रपछष्टस्याक्रेप्तरित्यथेः।
याज्ञवल्वयः,
अर्द्धाऽधमेषु दिगणः परस्त्ौषत्तमेषु च ।
दण्डप्रणयनं काय्यं वशेजात्यत्तराधरेः ॥
'प्रातिलाम्धापवादेषु दिगुणचिगुणा दमाः ।
वशानामानुक्ाम्ये तु तस्मादङ्गडंहानितः।॥
अधमे वशेतो गृणतश्च न्यनेघ्ाकेष्येषु आश्चेप्तरधिक-
स्याङ्खा दण्डः स च अद्वचयोद्शपणरूपः। पुव्ववाकय
पञच्दविंशतिदमस्य प्रषतत्वात्‌ परस्त्ौष परभाग्धासु
उत्कृष्टासु प्रखष्टासु च विशेषानाभिधानात्‌। दगुणः
पञ्चाशत्पणत्मकः रवसमुत्तमेऽपि दृश्डप्रणयनमिति ।
वशे ब्राह्मणादयो जातयोऽनुल्तामप्जा अम्ब्टाद्यः।
वशौश्च जातयश्वेति वशैजातयः वसीजातयश्च ते उत्तरा-
धराश्च वणेजात्युत्तराधरास्तेः परस्यरमाक्षेपे क्रिय-
` माणे दण्डस्य प्रणयनं प्रकषेण नयनमुहनं काय्य
~न ---------------"----------~---------------- ------------------------------------------- ~+ -~ ++,
+

१ घ पुस्तके प्रतिलोमापवादेषु । ध द विलोमजाः।


ब्राद्यगा सनां परस्परराच्तेपे । २०९

तच्च उत्तराधरेति विशेषोपादानात्‌ यादगुत्तराधरभाव


स्तद्पेक्यैव काय्धम्‌ |
प्रातिलेभ्येति यदा वर्णेषु ब्राह्मणक्षचियवैश्येषु प्राति-
लेाम्येनापवादोऽधिष्टेपो भवति तदा प्षचियेण ब्राह्यणाप-
वारे दिगृणः। वैश्येन तद्‌ाक्षेपे चिगणः। यदा तु
बराह्मणेन छचियाक्रेपस्तदा पूर्व्वोक्तादङंदण्डः छचियेण
वेश्या्ेपे तदङ्धमित्यधेः ।

ब्राह्मण-सछ्चियाभ्यान्तु दण्डः कार्य्यो विजानता ।
बराह्मणे साहसः पुव्वः छचिये्ेव मध्यमः ॥
विट्‌-शुद्रयो््वेवमेव स्वजातिं प्रति त्वतः।
लेदवन्न प्रणयनं दर्डस्येति विनिश्चयः ॥
ब्राह्यण्चियाभ्यां परस्यरमाक्रोशे छते ब्राह्मणस्य
पूव्वसाहसो दण्डः छवियस्य मध्यसाहसो दण्डः । वेश्य-
श्रद्रयोरप्येवमेव सजाति तुस्यजाति प्रति त्वतः खशूप-
गृणोत्कषापकषतार तम्यादश्डव्यवस्था । तचापि छेद वज्ज-
मिति जिद्वादेद्‌ निदत्यथम्‌ ।
अतः कुल्लकभटरः,
पतनौयाकोशविषयमिदं वचनदयं, रवच्वैकजाति- `
मिव्यनेनोक्तं जिह्वाङेरे वेश्यनिषेधात्‌ ब्राह्मणशचिय- `
विषयतया व्यवतिष्ठते इत्याद ।
अ ------------------*---------------------------------------~- ~^

१ शठ पुक्क्रं चिद्धितांशर्‌ पतितः


२०२ ` देण्डविवेकः |

रवच्चंतन्मते देद्‌वज्नमित्यस्यान्वयो विटश्रद्रयोरेवभेवे-


व्यच्चव द्रष्टव्यः |

1
तयोः सखस्वजात्याक्षारणे केदवज्नं तत्तच्नात्युचितं
दण्डमाचप्रणयनं तेनार्थात्‌ ब्राह्यणक्षचियाकश्ारशे कऊेद
इत्यथे इति ।
अधमवर्णस्योत्तमवगीनामाक्रोशक्तेपाभिम्वे अष्टौ
पुराणा इत्यपकरम्य हारौोतः,--
= - ~ ~~ "^~

अन्टताभिशंसने पादताडने तदङ्गदेदः पञ्चशत-


न्वायेषु पादो, न वा किञ्चित्‌ खामित्वादादि-.
` वशैत्वाचच। उत्तमानामौशानतमो हि ब्राह्मणः
पुराणशब्दोऽच दाविंशटद्राजतकष्णलपर इति रला-
| ्‌ ५ करः। अन्टताभिग्ंसनमाकोशः। अङ्गमच जिद्धा अपकष्ट- `
वशेषु उक्षष्टवशं प्रति मिथ्यातौत्राकोभे जिद्वाकेदः पञ्चशतं `
वा दण्डः ।
इौनवणेस्य दण्डसमुक्राऽधिकतमस्यादह--अदयेश्ित्यादि
पच्च शत -
| |आद्येषु उत्कृष्टेषु निकृष्टं प्रति मिथ्यातौत्राक्रोशे
पाद्‌ः |
` मतान्तरमाह न वेति,-- आदिवगैत्वात्‌ शरद्रापेक्षया
{.: बाद्मणदौनां प्रथमवरेत्वात्‌ । ` ॑
@
¢
` तदेतद्यथा रनाकरे व्याख्यातम्‌ ।
वस्तुतस्तु, अभिशंसनमेव आकोशः। `तस्मिन्‌ अस-
व्वा्थैतितौते जिह्वाच्छेदोऽन्यच पश्चशतपुराणो दण्डः!
ब्राद्यणाकीनां पर्स्प्रराच्तेपे । २०द्‌

` विषमयोस्तुल्यवद्िकल्पानुपपत्तेः स्त्येतु पारिगेष्यादष्टौ


पुराणः
यद्वा पादच्छंदनेऽन्टताभिशंसने इति समभिव्याहार-
दशनात्‌ पादताडने तदङ्गच्छेद्‌ः। अन्टताभिशंसने
पञ्चशतद्‌ण्ड इति व्यवस्थेति प्रतिभाति ।
तथा न वा किञ्चिदिति मतं यद्यष्यसङ्कचितविषय-
मिति युक्तं चवशिकोपक्रमत्वात्‌ इदेतुसाधारण्याचेति ।
तथापि ब्राह्मणमाचपरतया नेयम्‌ । उपसंहारे इईणन- =

तमो ब्राह्मण इत्यनुवाद्‌द शनात्‌ । उपदधाति इत्यत


` सामान्येन प्राप्तेच्ञनद्रव्ये तेजो वे तमित्यनुवाददनेन `
तदिशेषपरि निष्ठावत्‌
नं च स्वामित्वस्येवायमित्यनुवाद्‌ इति वाच्यम्‌ |
ईशनतम इति तमोपादानविरोधात्‌। अनुवाद- |१
माचस्य वेयर्थ्याच ।
नच,-
यथा, तिलांश्च विकिरेत्तच परितो बन्धयेदजाम्‌ ।
असुरोपदतं श्राद्ध" तिलैः शुदधत्यजेन च ॥
इत्यच अजानात्मकदेशे फलसम्बन्धप्रतिपादनाथमजेने- `
` त्यनुद्यते। तथा इह किञ्चित्‌ प्रयोजनमस्ति तस्मात्‌ `
कामं पुव्वपूर्व्वो वणे उत्तरोत्तरस्यादित्वादभ्यर्हितत्वेन
खामी । ब्राह्मणस्तु खामितमः खामिखामित्वात्‌। `

९ ख पस्तके असुरोपद्ता भूमिः।


|4.
{८
„ २०8४ । द्‌श्वि वेकः |

अतस्तस्यैव दण्डाभावो वेश्यक्चिययोल्तु खाम्यतार-


तम्यानुसारौ दण्डलेशोऽस््येवेति तात्पर्षा्थो गम्यते ।
स॒ चायं दण्डाभावो निर्गुणश्रद्रपरत्वेन व्व-
तिष्ठते । गुणौ नस्येत्यादिवश्यमाणडहस्पतिवचनसम्बा-
दात्‌। अन्यच सव्यैच दण्डोपदेष्णत्‌ बाह्मणपदच्च
न॒ कषौबलादिसाधारण्जातिमाचपरमपि तु गुण
वद्भिप्रायम्‌। तस्यैवेशनसामर्थ्यात्‌। तदेवं न
वेति विकल्पस्य विषयव्यवस्धायामष्टदोषदुष्टत्वमप्यपास्तं'
भवतौति चतुरखम्‌ ।
मनुनारदौ»-
समवे दविजातीनां दादरैव व्यतिक्रमे ।
। प्वादेघठवचनौयेषु तदैव दिगणं भवेत्‌ ॥ |
अच ददिजातित्वमतन्ल्रमिति रल्नाकरः। व्यतिक्रमो
बवाकूपारुष्यम्‌, अवचनौयो वादोऽप्रकाश्यप्रकाशवां
वचनम्‌।
अवचनौयेषु त्वं सखखगामीत्यादिषु आक्रोशमाच-
€ ष्म
, तात्पग्यशोक्तेश्िति नारायणः

कात्यायनोशनसौ,
मोहात्‌ प्रमादात्‌ संहषौत्‌ प्रौत्या चोक्तं मयेति यः।
अह रनैवं पुनवेश्ये द्‌श्डा्खं तस्य कल्पयेत्‌ ॥
रुतत्‌ परिहाय्येवाकूपारुष्याभिप्रायमिति रनाकरः।
ग त्तं। _ २. घ पुस्तके वादेषु वचनौयेु
` इ मूले पाठः--नादमेवं।
ब्राद्मणादौनां परस्परराचतेपे । २०५.

अथ ब्राह्मणदौनामेकतमेनान्यतमाक्षेपे दण्डः ।
तच ब्राह्मणस्य तमा इस्यति+--
विपे एतां दण्डस्तु क्षचियस्याभिशंसने ।
वेश्यस्य चा्गपच्चा शच्छद्रस्याङ्गचयोद श ॥
सच्छूदरस्यायमुदितो विनयीऽनपराधिनः ।
गुणहीनस्य पारुष्ये ब्राह्मणे नापराभरुयात्‌ ॥
विपे आघ्घेप्तरौति शेषः । अभिशंसनमाक्रोशः ।
छचियस्य दश्डमादतुः शङ्लिखितौ--
आक्रोशे ब्राह्यणस्य ्षचियस्य शतं दश्डः शताद्धं वेश्यस्य
पञ्चविंशतिः श्रद्रस्य ।
वेश्यस्य दण्डमाह ददस्पतिः-
वेष्यस्त छचियाक्षेपे दण्डनौयः शतं भवेत्‌ ।
श्रद्राक्षेपे क्षचियस्य पञ्विंशतिको द्मः ॥
वेश्यस्य चैतद्धिगुणं शस्त्रविद्धिरुदाहतम्‌। 3

तथा-बाह्यणाक्षेपे मनुवेश्यति ।
शरद्रस्य दण्डमाह इदस्यतिरेव ।
वेश्यमाक्षारयन्‌ श्रुद्रो दाप्यः स्यात्‌ प्रथमं दमम्‌ । `
शछषचियं मध्यमञ्चेव विप्रसुत्तमसादसम्‌ ॥
=

प्रथमं पणानां साइशष्रतदयं मध्यमं पञ्चशतानि `


उत्तमं सादखमिति रलाकरः।
अचैव मनु+-- ` ~

तं बाद्यणमाक्रश्य एचियो दण्डमदति । मव

वेश्योऽष्यङ्वशतं स्त्वेव श्रुद्रसतु वधमेति॥ = |


` ९ क्रचित्‌ तैश्योऽप्यदैष्तं त्वेव ।
थस
२०्द्‌ | क ।

अच पारिजातः,- `
अक्रश्च मध्यमेन पारष्येणेति शेष इत्याह ।
अध्यर्धशतं साद्वंश्तं दे वेत्याक्षेपगौर वापेक्षया व्यवस्था ।
वधस्ताडनादिरूप इति कुल्लकभद्रः। ताडनं जिच्वा-
च्छेयात्मकमिति रन्नाकरः। ` |
इदमच चिन्त्यं वाक्यस्यास्य मध्यपारुष्यविषयत्वे-
नान्तरोक्तं॑वेश्यमित्यादि इदस्यतिवचनं प्रथम पारुष्य-
विषयं प्राप्तं दण्डलाघधवद शनात्‌! तथाच श्रद्रस्योत्तमे
पारुष्ये को नाम दण्डोऽसतु न तावन्निच्लाच्छेद रव
मध्यमेनावरोधात्‌ । नान्यः-- अनभिधानादिति) |
अच उत्तमे ब्राह्यणाक्षेपे जिद्धच्छेदो द्रव्य चित्यात्‌,
५४ ( अन्टताभिशंसने तदङ्नच्छेद इति हारौतवाक्ये रनाकर-
तैव तौव्राकरोशे जिह्वाच्छेदव्याख्यानाचेति |
अच मनुनारदौ,--
रकजातिर्दिजातिन्तु वाचा द्‌ार्णया छिपन्‌ ।
जिच्वायाः प्राप्रुयाद्धेद' जघन्धप्रभवो हि सः ॥
नामजातियहं त्वेषामभिद्रोहेण कुव्धतः।
विधेयोऽयमयःः शद्कुज्लन्नास्ये शाङ्गलः
द ॥
रकजातिरिह श्रद्र उपनयनाभावात्‌ दारुणया मम्ब

सुत्पन्त्वेन बोधितत्वात्‌ ।

र ध` ९ मूले च्छदम्‌ । ( धर एरसके निन्लेप्योऽयोमयः।


ब्राद्यणादौनां पर्स्पराच्तपे। २०७

रतेन सङ्करजातानामपि दिजातिं प्रति दार्ण-


क्षपेऽथं दण्डः तेषामपि जघन्यजातत्वात्‌ । 3
अत रव रुकजातिरन्त्यजन्मेति स्यन्नः ¦ अतिद्रोद
अतिशयद्रोह इति रनाकरः । अथेति परित्वा अतिद्रोदेण
आक्रोशाभिमानेनेति सव्वन्नेन व्याख्यातम्‌ | अयोमथौ
` लदमयः, शङ्कुः कौलकः। अभिप्रदौप्तोऽयं सुखे प्रक्षे
इति कुल्लकभटरः ।
मनु 9 |

श्रतं टेशच्च जातिच्च कम्य शरौरमेव च ।


वितथेन ब्रुवन्‌ दपादाप्यः स्याद्विश्तं दमम्‌ ॥ `
कम्मं तपश्चरय्यारूपं. शरौरं शएरौरावयवं वितयेना- `
सत्येन । दर्पः खगुणदार्टेन परावन्नानम्‌, तेन यच
खत देश जाति तपश्चर्या शरौरावयवविशेषमथिक्त्य ``
दपद्सत्यं वदति तच दिशतं दण््यः। वितथेनेति
प्रकत्यादिभ्य उपसंख्यानमिति दतौया ।
श्रतादौनां वितथवचनं यथा नानेन वेदः अतः
नाश्य चाय्यीवर्तो देश, नायं विप्रः, नानेन तपः कतं
नायं दुशवम्मौ इति रल्नाकरः। व

शरौरं करमति समानाधिकरणं तेन श्यौरसंत्कारक- |


` सुपनयनादिकं तदिति कुल्लकभदः। 1
भारवाहनादौति नारायणः। तथा एवं वदन्‌ दिनि

व्याख्यातं युक्तञ्वेतत्‌- ८॥ ५.
२०८ - `द्श्डदिवेकः | `

अनन्तरोक्तनानावचनसम्बादात्‌। वधस्त॒जिद्धा-
च्छदादिरिति विशेषः अत रव समानजातिविषयभिदं
वचनमिति कु्लूकभद्रोक्तमपि घटते ।
अथ तेषु तेषु पारष्यविशेषे दण्डविशेषाः ।

पापोपपापवक्रारो महापातकश्रंसकाः ।
आद्यमध्योत्तमान्‌ दण्डान्‌ दचुत्ते ते यथाक्रमम्‌ ॥
अच महापातकं प्रसिद्खं ततो न्यनसुपपातकं ततोऽपि
न्यूनं पापं ततो न्यूने पापेऽधमद्ण्डः । उपपापे मध्यमो
मह्तापातके तूत्तमः ।
याज्ञवल्वयः,-
पतनौयकताकषेपे दण्ड्यो मध्यमसादसम्‌' |
उपपातकयुक्तं तु दाप्यः प्रथमसादसम्‌ ॥
पतनौयक्ृताक्षेपे पातित्यदेतुभिब्रद्यहत्यादिभिः छता-
`क्षेपे । इदं गुणवदृत्क्टाक्चेपकविषयमिति प्रतिभाति ।
विष्णः,--
परस्य पतनौयाक्चेपे कते उत्तमसाहसं उपपातक-
युक्ते मध्यमं चैविद्यदद्धानां क्षेपे जातिपूगानाच्च माम-
` देशयोः प्रथमम्‌ । |
चेविद्यटद्ानामित्यवेत्मसाहसमित्यनुषङ्गः ।! जाति- ।
पूगानामित्यच मध्यममित्यनुषङ्गः
न ज --------------- ---- ------------------ ~~~ ---~---~--------+-~--------- --- --- --- ~~~ ~

९ कचित्‌ पाठः प्रतनौयश्ते च्तेषे दण्डो मध्यमसाष्सः। = `


ब्राह्मणादौनां परस्पराच्तेपे । २०९

+
कैविद्य प देवानां तेप उत्तमसाहसः ।
मध्यमो जातिपृगानां प्रथमो यामदेशयोः ॥
अच वैविद्या वेदचयसम्यन्नाः, पः प्रजापालः । ~

जातयो ब्राह्मणमूर्खाभिषिक्तादयः तेषां पूगः समहः ।


ग्रामदेश्योः प्रथम इत्यवाप्युपपातकयुक्त इत्यनुषद्गो युक्तं
साहचयग्धादिति केचित्‌ । तनन ।
आक्षेपविशेषेणेवाप्यनाक्षेष्या्षष्यतार
तम्यापेष्या यथो-
त्र दण्डापकषविधानात्‌ पापपरत्वस्य स्मृत्यन्तर
सम्बादात्‌ ।
यदाह हदस्पति+-
देशदिकं किपन्‌ दण्डः पणन चयोद्‌शन्‌ ।
पापेन योजयन्‌ दूर्पादण्च्यः प्रथमसाहसम्‌ ॥ `
तथा,
रष दण्डः समाख्यातः पुरुषापेक्षया मया ।
समन्य॒नाधिकत्वेन कल्यनौयो मनोषिभिः' ॥ इति
अच नारदः,
न किल्िषेणापवदेच्छास््रतः कतपावनम्‌ ।
न राज्गोडतद्‌ण्डःञ्च दण्डभाक्‌ तद्यतिकमात्‌ ॥
कतपावनं छतप्राय्ित्तम्‌। अपवदेदाकोशेत्‌ उद्खतल- ` ॥|
दण्डं छतद्‌ण्डं अच हेतुदंण्डभागिति। तौ प्रायधित्तदण्डौ `
| इावनपेश्य किस्िषभागौ द्ष््यो
ध यत इत्यथैः ॥ `
९ काचित्‌ पाठः मह्भिंभिः। २ घ पुस्तके तदण्ड ।
1

२२९० द॑श्डविवेकः

अथ तत्तद्‌ाक्षेपविषये याज्ञवल्कयः,
सत्याऽसत्यान्यथास्तोकैन्धूनाङ्गन्दरियरो
गिणम्‌ ।
घेपं करोति चेदण््यः पणनञ्गचयोद्‌श्णन्‌ ॥
न्युनाङ्गाः कंरादिहौनाः, न्युनेन्द्रिथा नेचादिहैनाः,
रोगिणः कृिप्र्तथः। तेषां छेप आकोशः। स स्थो
यथा नेचश्रन्ये नेचश्रन्यक्वमस्ौत्यादि । असत्यो यथा
इन्द्रिथवतौन्दरियश्रन्यस्मसौलयादि। अन्यथास्तोचमन्ध शव॒
चक्षृष्मानसौत्यादि । रुतत्‌ समजातिगुणखविषयम्‌ ।
समजातिगुणानाच्च वाकूपार्ष्ये परस्परम्‌ ।
विनयोऽभिदहितः शस्त्रे पणा अब्वं चयोद्‌श ॥
शति इररातिसन्बादात्‌। ,
द्ण््यः काणखच््ादौनां तच््ववाद्यपि कार्षपपण्यम्‌। `
काषौपणोऽच पणः! रखतत्‌ समगणतिद रिद्रविषयमित्य-
विरोधः
` याह्गवल्क्यः,
श्रतं स्तौदृषणे दद्याद्र तु मिथ्याभिशंसिता ।
स्तौशब्देनाच प्रतत्वात्‌ कन्धाऽवग्ग्यते तेन यो
: विद्यमानापस्मारराजयश्ादि दौषकुत्सितरोगसंरूष्टमेथुन-
` त्वादिदोषान्‌ प्रकाश्य कन्थां दूषयत्यसौ शतं दाप्यः।
` मिथ्याभिशंसने पुनरविद्यमानदोषाविष्करणे दे शते
५ दाप्यः + |
अच विवाहयितुमुपखितायाः परिहाराथं सत्यदोष-
4 प्रकारे दोषाभावो द्रष्टव्यो वश्यमाणनारद्‌ वचनात्‌ ।
बराह्मणानां परस्यान्ते । २१९

तथा,
अभिगन्ताऽस्मि भगिनीं मातरच्च तवेति हि ।
यन्तं द्‌ापयेद्राजा पच्डविंशतिकं द्मम्‌ ॥
भगिनीौमित्यादि जायादेरष्यपलक्षणमिति मिताकया ।
विवादचिन्तामणो,--
अभिगन्तासि भगिनौ मातरं यन्ममेति दि।
इति परितम्‌ ।
याज्ञवल्क्यः,
बाहौ वानेचसविधिविनारे वाचिके दमः ।
श्रत्यस्तददिकः पादकरैनासाकरादिषु ॥
अश्कस्तु वद्‌नेवं दण्डनोयः पणान्‌ द्‌ ।
तथाश्कतः प्रतिमुवं दाप्यः क्षेमाय तस्य तु ।
अच बाह्वादौत्यनेन प्रधानमङ्गं विवश्ठितं पादा-
१ दौत्यनेनाप्रधानमिति रल्लाकरादयः। शत्यः शतपरिमितः।
अशक्त इत्यादि बाइपादादिकम्‌ ते कर्तयिष्यामौति
वाचिकेऽपराधे समानेऽपि यस्तथा कत्तुमश्क्तस्तस्य दश-
पणात्मको दण्डो यस्तु शक्तस्तस्य शत-तदद्गौत्मकः
किथ्वास्य सकाशदाकेप्यक्षेमाय प्रतिभरपि गराद्य इत्यधेः।
मनुः,
मातरं पितरं जायां ातरम्‌ तनयं गुरूम्‌ । `
आश्ारयन्‌ शतं दाप्यः पन्धानच्ाददद्गरो; ॥
आक्षारयन्‌ वाकूपारुष्यविषयं कुव्वन्निति रनाकरः।
| 1 मिथ्याभिशपेन योजयन्निति हलायुधः आक्षारयन्‌- `
१ ख शत्तः।
२९२ - द ण्डविवेकः ।

अगम्धमैथुनेनाभिशंसन्‌, तेन जायां प्रति तव माता


स्वैरिणौत्यादिरभिलापो द्रषटव्यः। रवं माचादिष्रपौति
नारायणः!

कुल्लकभट्रोऽपि आक्षारितः क्षारितोऽमिशस्त इत्यभि-
धानकोषादुपपातकादिनाऽभिशपन्नित्यथेमाद ।
, तथा,
मादभार्य्यादौनां लधग्रुपापाभिशपने. न दर्डसाम्चं
समाधेयमित्याह ।
मिताशराकारस्तु सापराधेषु माचादिपषु निरपराधेषु
जायादिपु द्रव्यमेव तदित्याइ । मेधातिथिस्तु आक्षारणं
मेदनमित्यक्रा माचादौनां परस्परमेदनकर््तरयं विधि
रत्य
धम्पैकोषे तु 'आआक्रोश्यन्निति पटित्वा आक्रोशनं
साष्टेपाद्वानमिति व्याख्यातम्‌ ।
खदस्पतिः,-
क्षिपन्‌ सखषखादिकं दयात्‌ पञ्चाशत्पणिकं दमम्‌ ।
अथाधिकृताकोे,-
कशत इत्यनुर्तौ शङ्खलिखितौ ।
तथाधिक्षतान्‌ गुरुन्‌ विप्रां निभतस्न॑ः ताडनं
। गोमयाप्रलेपनं खरारोहणंः दपर दण्डो वा ।
अपराधतारतम्यायेश्षया व्यवस्थितेाऽच विकल्पः । `
प्ररतौनाञ्च दूषकान्‌ दन्याद्िट्‌सेविनस्तया ।
९. च पुस्तके चअकोप्रय्िति पटित्वा खाकोप्रनं साकोपाद्वानसिति पाठः।
. २ कचित्‌ निभत्सयतो मुण्डनम्‌ । द मूले पाठः खसारोपणम्‌ |
राद्धा परस्यगाच्तेये । र१द्‌

इति मनुवचनमप्येवमेव नेयम्‌। तच प्रतौनाममात्या-


दौनां दूषकान्‌ विनादोषं दोषोद्धावकानिति रनाकरः ।
भेदकानिति मनुरौका
यत्तु,--
खाम्यमात्यसुहृत्कोषदण्डराप्रमिचाणि प्रकृतयः तदू
घकांश्च इन्धात्‌ । क

इति विष्णवचनं--तच स्वामौ राजा, अमात्यश्ब्देन


प्रधानशिष्ट विवक्षित इति रनाकरः।
पुव्ववाक्येष्येवमेव वधश्चायमब्राद्यणशविषयो जाह्यणस्य
तु तव््रतिनिधिग्रहणमिति वश्यते ।
अथ राजाकरोशे नारद्‌, स

लेकेऽसिन्‌ दाववक्तव्याववध्यौ च प्रकौत्तितौ ।


बराद्यणथ्ैव राजा च तौ हीदं विश्टतो जगत्‌ ॥ `
अवकरुश्च च राजानं वर्त्मनि स्वे व्यवसितम्‌ ।
जिद्वाेदाद्‌ भवेच्छुद्धः सव्यखग्रहणेन वा ॥
` वत्मनौत्यादेः प्रजानवेश्णा'नपराषदण्डनादिराज-
दोषाभावे तातप्य्ये काथिणं राजाेपे दण्डाभावो
दणश्डव्यवस्थायां दशितः
यान्नवल््यः, त

रान्नोऽनिष्टप्रवक्तारं तस्येवाक्रोश्कं तथा 1 `


तन्मन्त्रस्य च भेत्तारं जिह्वां छित्वा प्रवासयेत्‌ ॥
मिताक्षरायामाकोशूकमित्यचाकोशिनिमिति परितं | | ॥ध ५

१ घ पुरूके प्रजानारच्तणानपराघ। `
२१४ | दशडविवेकः ।

व्यास्यातच्च,- |
अनिष्टममिचस्तोचादि तस्य प्रवक्तारं प्रकर्षेण भूयो
भ्यो वक्तारं तस्येव रान्न आक्रोशनं निन्दाकरण-
श्रौलं तदीयस्य च मन्त्रस्य सखराष्रटडिदहेतोः परयाद्-
छयकारस्य च भेत्तारममिचकर्णेषु जपन्तं जिद्धामुत्‌छृत्य
= स्वराष्राजिष्काश्येदिति ।
यत्तु,--चैविद्यन्टपदेवानां केप उत्तमसाहसः । |
इति यान्नवल्वववचनं तच लघतः कछछेपो विवष्ठिति
इति न विरोधः|
यच राजानुदृत्तौ कात्यायनः
अप्रियस्य च थो वक्ता वधं तेषां प्रकल्पयेत्‌ ।
थै इति रलाकरः। `
ये राक्ञोऽप्रियवादभौलातते वध्या इत्य
|
रतदन्राह्मणएविषयम्‌ ।
दह यच विशिष्टद्‌ण्डो नोपदिष्टस्तच निषुराश्नौल-
तौतरेषु पारुष्येषु यथोत्तरं दण्डगौरवमुहनौयमित्यादह ।
उना र
यच नोक्तो दमः पूवैरानन्त्याच महात्मभिः ।
तच काय्यं परिन्नाय कर्तव्यं दण्डधारणम्‌ ॥
रतत्त विषयान्तरेऽपि द्रव्यं न्यायसाम्यात्‌
अथ नारद्‌ ५
यच स्यात्‌ परिहारा पतितत्वेन कौत्तनम्‌ । `
वचनात्तच न स्यात्त दोषो यच विभावयेत्‌ ॥
अन्यथा तुल्यदोषः स्यान्मिथ्योक्तावन्नमो दमः ।
ब्राह्मणादीनां परस्परराच्पे । २९५

वचनात्‌ शस््ररूपात्‌ परिहाराथेमिति पतितादिः-


संसगेपरिद्ाराथे यदि पातित्यादि कौत्तयति तदा न
दोषः, अन्यथा पतितादिभिः सह तुल्यदोषः स्यादित्यथेः॥
तथा,-- |
अतथ्यं रावितं राजा प्रयल्लेन विचारयेत्‌ ।
अन्टताष्यानशौलानां जिह्वाच्छेदो विशेधनम्‌ ॥
जिद्वाच्छेद इत्यत्राद्यणशविषयं, तच उत्तमसाहसो दण्डो
द्रष्टव्यः ।
तथा हि हारौतः,-
मिथ्यादूषितानां मेलकानां जिद्भां चि्यादण्डयेदा
साहसम्‌ |
मिश्यादूषितानां मिथ्यावाकूपारुष्यकर्तणं मेलकानां `
वाकूपारुष्यकत्तृमेलयितृणाम्‌ ।
कात्यायनः,
रकपावेऽथ पंक्तया वा सम्भोक्ता येन यो भवेत्‌ ।
कव्व शस्तं तथा दण्ष्यस्तस्य दोषमद्‌ शयन्‌ ॥
भोजनविरोधिनं दोषमदशेयन्‌ तं तथा कुव्बौणो
दण्ड्य इत्यथैः यद्यप्येष क्ियादोषो न वाकूपारष्यं,
तथापि तनियतत्वात्तत्तस्यन्धायत्वाच्चाच लिखितः
इदहस्पतिः+- |
आकष्टस्तु समाक्रोशनापराधौ भवेन्नरः । द

नारदः, ५ थ

पारुष्ये सति संरम्भादुत्यनक्रीधयोदयोः |


स मान्यते यः छषमते दण्डभाग्योऽतिवत्तते
` २९६ ` दण्डविवेकः ।

अच मान्धते पुज्यते न दण््यत इति यावत्‌ । क्षमते


पारुष्यं नानुवध्राति अतिवर्तते पारुष्यं तनोतौति
-रल्ाकरकूता व्याख्यातम्‌ । रवच्च ठहस्पतेरनपराधामि-
धानमनुबन्धाभावविषयमनुबन्धे तु तापि दण्ड इति
ग्म्यते।
` वतुतस्तु--यः क्षमते सहते न तु खयमपि प्रति-
पारुष्यं प्रवर्तयति स मान्यते वाचा पूज्यते यस्तु तादश-
मप्यतिवत्तते पुनराकश्षारयति स दण्डभाग्‌ दण्ड्यते ।
वस्तुतस्तु सोदुमश्क्रवन्‌ प्रत्याक्रोशति तस्य दण्डाभाव
इति छऋजुरेव व्याख्या ।
अचानुबन्धाभावेऽपि इदस्पतेरनपराधाभिधानं सम-
| ् ध न्धूनौ प्रति मन्तव्यमधिकं प्रतयेवंविधेरष्यपराधस्योक्कतवा-
` दिति रल्नाकरः।

वाकृपारुष्यादिना नौचो यः सन्तममिलङ्कयेत्‌ ।


स रव ताडयन्तस्य नान्वेष्टव्यो महौभुजा ॥
नौचोऽनुत्तमः सन्तसुत्तमं॑स रव उत्तम रव तख
ताडयन्निति हिंसा्थे षष्ठौ नान्वेषव्य इति हौनं ताडयतोऽ-
| भिकस्य दण्डो न करणौय इत्यथैः ।
दण्डश्चायं दिधा प्रसक्तः । वाकृपारुष्ये तस्येवोचित्याद-
नुचितस्य दण्डपारुष्यस्य प्रणयनात्‌ राजकात्व्यस्य तस्य॒ `
खयंकरणाच्च तदुक्तं ताडयनिति स रखवेति रत्व
1 आपाकादिपरं नारदवचनेनैकमूलकत्वे लाघवात्‌ । अस्तु `
ब्रद्यगादौनां परस्मराच्ेपरे । २९७

नारद्‌ः,
पाक पशु चारुडाल वेश्या वधकटत्तिष्षु ।
हस्तिप ब्रात्यदासेषुं गुव्वाचार््थातिगेषु च ॥
मय्यीदातिकरमे सद्यो घात रखवानुशणसनम्‌ ` `
न च तदर्डपारुषे दोषपमाहर्मनौषिशः ॥
यमेव द्यतिवत्तेर नेते सन्तं जनं प्रति।
स खव विनयं कुग्यान्न तदिनयभाक्‌ं पः ॥
मला देते मनुष्याणां धनमेषां मलात्मकम्‌ ।
अपि तान्‌ घातयेद्राजा नाथैद्ण्डेन दण्डयेत्‌ ॥
आपाकः क्षचियायासुग्राज्जात इति रलाकरः। उग्र
स्यां शछ्षचियाज्नातः स इति तक्वम्‌,--

इति मनुद्नात्‌। = `
छचाज्जातस्तथोग्धान्तु श्रापक इति कीच्यते ।

उथस्तु, |
« शरद्रायां छएवियाजातं प्राहू इति दिजा ”
देवलेनोक्तः ।
पशयुशब्द्‌ क्तौवपरः मिताक्षरायां बण्डेत्येवाच पठितम्‌, `
चाण्डालः शुद्राद्राद्यणयां जातञ्च । वधकरत्तिः पर- `

वध शव ॒इत्ति्नीवनं यस्य स वधक इति खाथे कन्‌ |


इति रन्नाकरः।
वधकरचुधिति स्यष्टनेव |
कामधेनौ कल्पतरौ च वेश्यासु
परितम्‌। अच मिताक्षरायां व्यङ्गेषु वधकर्तधिति पाटः।
९ मूले पाठ-वेषु वथदसतिषु। र मूते सेयमिति पाठः। व
9. द्श्डविवेकः)

हस्तिपो इस्यवरोचकाः दासोऽच खडजातादिः। मुव्वी-


चायातिगः--गुव्याचाय्यैवचनलङ्कयिता, मयादा धम्बै-
व्यवस्था, सद्यो विलभ्बितं घातस्ताडनं रवकारोऽथेदण्ड-
निदत्यथेः । यमेवेति } |
अयमथः श्वपाकादयो येषु पारुष्यं कुव्वेते तच वेषां
दण्डं कुर्युः, न चैते खातन्येण दण्डप्रण्यनदोषाद्रान्ना
दण्ड्याः प्रत्युत यदेते शलौनत्वादसमथत्वादा खयं न
दण्डयन्ति तदा राजैव आपाकादौन्‌ दण्डयेत्‌ ।
राज्ञापिते ताद्या रव न त्वेन दणष््याः। पचादयो
हि खरूपेरैव जनापसदत्वानिन्दिताः। धनं चामौषां ६
| सुतरां निन्दितिमिति। शेषं दण्डपारुष्यव्यवखाया-
` मनुसन्धेयम्‌ ।

इति महामोपाध्याय-ध्माधिकर एिक-शरौवद्धंमानकतौ दण्डविवेके


वाकूपार्ष्यदण्डपरि
च्छेदः पञ्चमः ॥ |
अय द्ण्डयाश्ष्यद
णड,
तच ददस्यति,-
हस्त-पाषाण-लगुडभरा-कर्दम-पां शुभिः ।
आयुर्धश्च प्रहरणं दर्डपारुष्यसुच्यते ॥
अच भस्मादिभिदंण्डादिभिरायुधैरिति करणचैविध्यात्‌
प्रहरणस्य चिविधत्वसुक्तं तच यथोत्तरं बलवत्‌ ।
तथा हि नारद्भ-
हौनमध्योत्तमानाञ्च द्रव्याणं समतिक्रमात्‌ ।
“अवगुर्‌ण-निःशल्कपातन-श्तद्‌
शनैः ॥
तस्यापि दष्टं बेविध्यं खदुमध्योत्तमक्रमात्‌ ।
वगूरणं शस््राय्युत्यापनं निःशल्वापातनमरुधिरं `
श्स्त्रादिधातनम्‌ ।
अच प्रहरणस्य प्रारम्भो निष्यत्तिः फलानुबन्ध इत्धस्य
वेचिश्यात्‌ चेविध्यमुक्तं खदुमध्यमोत्तमरकमादित्थनेन
यथोत्तरं बलवत्वसुक्तम्‌ । |
सब्यविधच्चैतत्‌ सखयंकतमन्यद्यारकृतच्चेति दिविधम्‌। `
तथा दयोः परस्परेण प्रवत्तितमेकतरेण वेति दिविधम्‌। `
प्रदत्त ॒चैकानेकभावादुत्तमादिमेदाच्ानेकविधः स्थावर-
जङ्गमभेद्‌दिपद्‌
चतुष्यद्‌ भेदाचास्य देंविध्यमधिकम्‌ ।
| रवमाव्त्वानाच्धत्वादयोऽपि द्रषटव्यास्तच ते विशेषा `\ |
दृण्डविशेषापयोगिनः प्रमुख रवातुसन्धेयाः।
न ~ ---------------~------- +~ क

. १ क्वचित्पाठः अवगोरा निःशङ्क ।


२० दग्डविवेकः |

तथा सखामिने हतभग्रदानमपहन्तरद॑ण्डदैग्यं गाढ-


प्रत्तः ससुत्थानव्ययद्‌ानमित्यादिकच्च दण्डोपदेशकाल
शवाकल्पनौयम्‌ । ऋ

कलहापहृतं देयं दण्डश्च दिगुणस्ततः


५. कलद्धेन यद्येनापहतं तत्तेन देयं ततः प्रहृतद्रव्या- ` ||
द्िगणो दण्डशापदत्तः कत्तव्य इत्यथः । |
कात्यायनः
वाग्‌द्‌ण्डस्ताडनच्चेव येषुक्तमपराधिषु ।
हतं भग्रच्च दाप्यास्ते शोध्यं निखेः स्कम्मेणा ॥
भग्र शहरथ्यादि, नि स्वेनिनैरप
पराधिभिः कम्मेणा ॥। ध ।
(1 ` सेवादिरूपेण शोध्यं पूरणौयम्‌ ।
मनुःऽ
अङ्गनां पौडनायाञ्च व्रणशोणितयोस्तथा ।
सव्वस्वच्च व्ययं द्‌ाप्यः सव्वदण्डमथापि वा ॥
व्रणो मांसभेद इति नारायणः ¦ अङ्गानां करादौनां
` ब्रणशोणितयोव्वा केदनभेद नादिना पौडितस्य यावता
कालेन ससुत्धानसामथ्ये भवति तावत्यग्धन्तं यावान्‌
पथ्यौषधादिव्ययो भवति तावत्तं पीडाकत्तौ ददात्‌ ।
अथ तं व्ययमसौ न दातुमिच्छति तदा यः समुत्यान- `
व्ययो यश्च दण्डस्तं सव्वं राज्ञा दाप्यः 1
अच त्रणपदस्थाने प्राणपदं कचित्‌ पद्यते । त्व प्राणो `
बलमिति नारायणेनोक्तम्‌ ।
दण्डपास्दगडः ॥ २२१

कात्यायनः,--
देडेन्द्रियविनाशे तु यथा दण्डं प्रकल्पयेत्‌ ।
तथा तुष्टिकरं देयं समुत्थानच्च पण्डितैः ॥
, समुत्धानव्ययच्चासौ दद्याद्‌व्रणरोहणात्‌" ।
देयं दाप्यमित्यथैः। अच प्रतिभाति इन्द्रियादौनां
यचात्यन्तमेव नाशः करादौनां कम्भाक्षमत्वच्च भवति तच
पौडितस्य तुष्टिकरं नष्टाङ्गगोरवलाघवानुसारेण ताडको

दाष्यः । तेषां प्ररतिलाभपक्षे तु ससुत्धानव्ययमाचमिति
व्यवस्था ।
विष्णः,--
सव्वे पुरुषपौडाकराः समुत्थानव्ययं दुराम्यपशु
५ |पौडाकराश्च । 1 द

अचापि पश्रूनां प्रकतिलाभपक्षे तत्‌ समुत्ानव्यय- `


माचरमन्धच खवामिने पणशुप्रतिमिधिमूल्ययोरेकतरदान-


मिति द्रष्टव्यम्‌ । न

अच यान्नवलत्व्यः,
दुःखेषुः शेणितोत्पादे शखाङ्ग्केदने तथा ।
दण्डः प्रद्रपश्रनान्तु दिपणशद्धिगणः कमात्‌ ॥
लिङ्गस्य केदने खत्यावधमोः मृल्यमेव च । `
महापश्रनामेतेषु स्थानेषु दिगुणो दमः ॥
शखा च्ननारम्भकशङ्गादिरूपा अङ्गमारम्भवं कर-
चरणादि । तेन क्षद्रपश्चनामजादौनां शेरितं विना |

` ५ मूके-सोषणात्‌। र मूलेदुष्ेऽ्य। र षण्ट्यौमध्यमः।


र्रर | द्ण्डविवेकः।

दुःखोत्पादे शखाच्छेदेऽकनच्छेदे यथाक्रमं दिपणचतु-


ष्यणाष्टपण-षोडश्पणा दण्डा इति हलायुधः । एवमेव
4
मिता्षरायान्तु-
दिपशाद्धिगुण इत्यच दिगुणप्र्टतिरिति पठितम्‌ ।
उक्तव्द नाच ददिपणस्तिपणश्चतुष्यणः पञ्चपण इति
वाच्यम्‌ यथोत्तरमपराधगौरवेऽप्यश्रुतवित्वादि
संख्याश्रवणे
गौरवात्‌ । तस्मादरं अ्तदित्वसंखयाया रवाभ्यासोऽकतु
तेन दिपणचतुष्यणशषट्‌पणाष्टपणक्रमेण द्‌र्ड इति ।
क्ुद्रपश्रनामेव लिङ्गन्छेदने मारणे च मध्यमसाहसो
` दण्डः। पशुखामिने च मूल्यदानं महापश्रनान्तुरगा-
दौनाभेतेषु दण्डस्थानेषु द्दिपणादयो दश्डाद्धिगुणाः
कार्य्या इति ।
विष्ण.
गजाश्वगवोप्रोपधातौ चैकपादः काग्यः म्ाम्यपशुधातौ
कार्षापणशतं दण्डः। पशुखामिने च तन्मूल्यं दयात्‌ ।
अरण्यपशुघातौ पञ्चाशतं कार्षापणान्‌ पक्ठिघातौ मल्स्य-
धातौ च द्‌श्कार्षापणान्‌ कौटोपघातौ कार्षापणम्‌ |
अतज्जीविनामेष दण्ड इति कत्यसागरस्मतिसारौ।
. इलायुधसूा,
परपरिण्डौत कौटमलस्यादिवधे दण्डोऽयं स्ाभिने
| दण्डमार्यदण्डः | र्र्‌
| कात्यायनः
| विपणो द्याद्‌शपणो घाते तु खगपक्षिणाम्‌ ।
सप-माञ्जौर-नकुल-श्व-श्रकरवधेणाम्‌ ॥
| अचात्यन्तापकृष्ट्टगपक्षिघातेषु विपणः, उत्‌छ्षष्
| तद्वातकेषु॒द्वादश्पणः। विष्णक्तल्तु पञ्चाश्त्यणोऽ-
॥ त्यन्तोत्ङष्टस्टगपक्िवधविषयो वश्चमाणमनुवचनात्‌। `
पु्लादीन्‌ पारुष्याय परेरयत रव ॒पिचादेरपराधो
नत्वन्ययेत्यादिकमपौदानौमेवालेा
चनौयम्‌ ।
१“ चद
पुचेऽपराद्े न पिता वान्‌ शुनि न दण्डभाक्‌ ।
न मकंटे च तत्छामौ तेनैव प्रहितो न चेत्‌ ॥
याञ्नवस्क्यः, 4
"शक्तो द्यमोचयन्‌ खामौ दंष्िणां खङ्गिणां तथा।
(1 प्रथमं साहसं दण्ड्यो विक्रुष्टे दिगुणन्तथा ॥ `
४ विक्र्टे--स्वौयं शद्धिग्णमपसारयेत्यसकषदाकोश्कते ।
| अच याज्नवल्वय रव,
चतुष्यदकतो दोषो नाचैदौति प्रभाषतः)
काष्टलेष्रेषु पाषाण बाहयोग्याचछतस्तथा ॥
चतुष्यदमश्वगवादिकमासद्यान्यथा वा नयतस्तथा = |
काष्ठादिना न्यायसाम्यात्‌ अन्यस्य द्रवयेर्योग्यमभ्यासं |
कुव्येतः
९ बावित्पाठः प्रतोऽप्यमोचयन्‌ | |
र मूले युग्मछ्लतस्तया | | | (
२२४ । | दण्डविवेकः ।

परोपघातश्क्कया प्रथममेव दूरमपैद्ौति प्रजल्पतः ।


प्रकरषेणोचेभाषमाणस्याश्रादिक्षतमनुष्यादिदोषोऽश्वादि-
नेतुरभ्यासकर््तश्च न भवतौत्यथैः। |
अथ मनुः,
यानस्थैव हि जन्तोश्च यानस्वामिन शव च ।
द्‌शतिवत्तनान्याहः शेषे दण्डो विधौयते ॥
यानस्य रथादैर्यद्यपि पश्चादेनं दण्डस्तथापि श्विका- `
वाहकपुरुषस्यास्तौति यानय्रहणमिति नारायणः । जन्तौ
सारथेदंण्डमतिक्रभ्य वत्तन्त॒इत्यतिवत्तनानि अदण्ड-
निमित्तानि)
दश्विधानि तान्याह स रव ।
षिन्रनस्ये भिन्रयुगेः तिय्यक्‌ प्रतिसुखागते ।
अशक्षभङ्ग च यानस्य चक्रभङ्ग तथेव च ॥
भेदने चैव यन््ाणां योक्त-र श्योस्तथैव च ।
आक्रन्दे वाप्यपैहीति न दण्डो मनुर ्रवौत्‌ ॥
=

छिननस्ये किननासासमुद्रन्नौ भिन्नयुगे युगकाष्ठभेद


प्रतिमुखागते प्रत्याहृत्यागत इति नारायणः ।
तिगक्‌ प्रतिुखागते इति तिय्यक्‌ प्रतिमुखच्च यत्‌ तत्‌ `
र प्रतिबोधादगतगमनं तेन त्थखिक्‌ प्रतिसुखविरोधिगमनस्य `
यानान्तरबलेन यद्परस्य यानस्यागमनादितरदपि न
1 दण्डदेतु इत्यथे इति रलाकरः ।
1 ~ न न~ 4

ध ।
५ |ध ५ सन
१. पएस्तके ्ज्निनास्य।

ण्डपार्ष्यद्‌
ण्डः । रन्४

अष्टञ्चकमध्यकाष्ठं, यन््ाणां युगादि वन्धनानां, काष्ठ-


सन्धिघटितानामिति सव्वन्नः। योक्त मुखवन्धनरन्न
रश्मिः प्रग्रहः! आक्रन्दे चाप्यपैहीति रथादेर शक्यनिवत्तनत्वे
दूरं गच्छेत्यभिलापे सारण्यादिना छते तदनादृत्य समौप-
मुपगच्छन्‌ पश्चादपसरन्‌ वा यदि रथादिना पौडते
तदा सारथ्यादेनं दण्ड इत्यथैः
` तथा,
यचापवत्तते युग्यं वेगृुणयात्‌ प्राजकस्य तु ।
तच खामौ भवेदष्यो हिंसायां दिशतं दमम्‌ ॥
यचानभिज्नः प्राजकः सारथ्यादिः स्वामिना क्षतः,
तदज्ञानाचच युग्यं तुरगाद्यतिवत्तते अतिक्रामति तच
तज्जन्धहिसायामशिक्ितिसारयिनियोगदोषात्‌ सखामौ
दिशतं दमं दण््यः।
मनुष्यमारणे सिपरमित्यादिकष्च दण्डमर्हति `
मनुटौका।
यच पुनरभिन्न णव प्राजकः छतस्तच तस्यैव दण्डो `
न स्वामिन इत्याह स एव ।
तया,
प्राजकश्चेद्‌ भवेदाप्तः प्राजको दण्डमहति ।
` युग्यस्थाः प्राजकोऽनाप्तः सव्व द्याः शतं शतम्‌॥ `
आआप्तोऽभिज्ञः, युग्धस्ा इति खामिव्यतिरिक्ता अन्येपि
यानारूढा अकुश्लसारथिकयानारोहणदोषादण्या इत्यथे व

इति भ्रः । ये यान्याः सारथिपश्चपुरकतया विन्नाताः |


स्वामिना नियुक्तास्ते दण्द्या इति नारायणः
29
२२६ | दण्डविवेकः।

तथा च,-- |
सचन्त पथि संरुद्धः पशुभिव्वौ रथेन वा ।
प्रमापयेत्‌ प्राणण्डतस्तच दण्डोऽविचारितः ॥
वाकारेऽनाद्यायां तेन प्रपातगमनोच्ावरोहणतिय-
ग्गमनादिनाऽपौत्यथैः । यच प्राजकाकौशलप्रयुक्तः पश्चाद्‌
यानान्तरे यानप्रतिवद्ध-प्राशिदिंसादहेतुभवति । तचापि
प्राजकस्य दण्डोऽविचारितो निशित इत्यथे इति
` रलाकरः।
नारायणेन तु अशक्यविषये डिंसायामाडेति वचन-
मिद्मवतारितं व्याख्यातच्च दण्डो विचारितौ सुनिभि
न्नौस्तयेवेत्यथे इति ।
इदानीं प्राणिविशेषे शते सारधेर्दण्डविशेषमाह
५ सर्व ।
मनुष्यमारणे सिप्र चौरवत्‌ किल्विषं भवेत्‌ ।
प्राणवत्सु महत्खद्धं गोगजोष्रहयादिषु ॥
अथ लगुडादिना बुद्धिपूव्वकमारणे दण्डमादहेति
` क्त्वा सन्यन्ननैव तद्वतारितम्‌ । अच चौरवदित्यनेन
महति साहसे योऽधदण्डः सोऽतिदिश्यते न तु वधदण्डः,
तस्यात्वासम्भवेन गवादिष्रडमित्यभिधानविरोधादिति
इलायुधः।
रवभमेव रल्नाकरादथः । रखवमेव कुल्लकभदट्रः, चौरदण्ड
उत्तमसाहस इति च व्याख्यातवान्‌! ` ८
नारायणसव्वक्षसतु यस्य चौय्यं यावान्‌ धनदण्डस्तदङ्ग- `
-मिधाद)
दण्डपार्ष्यद
णः । २२७

युक्तच्चेतत्‌ । न चैवं मनुष्यमारणप्रकर शोक्तदर्ड-


विरोधस्तच जिघांसया मतुष्यमार णमिह तु प्रमादादिनेति
विशेषात्‌ । `
रकच परस्य मरणशमभिपेत्य प्रहरणमन्यचव तस्य पौडा- `
मभिसन्धाय प्रहारे दैवात्तु ततस्तन्मरणमिति प्रहर्तुरप-
राधलाधवगौरवयोरौचित्यात्‌। अत रव गवादिवधे वुद्धि-
पुव्वकत्वावुद्धिपुव्वकत्वाभ्यां प्राय्चित्तोपदेशविशेपो घटते ।
अत रवेदं वचनम्‌ निबन्धकारैः पारुष्यप्रकरणेऽव-
तारितम्‌ न तु मनुष्यमारणप्रकरणे ।
न च घातने तु प्रमापणम्ित्येतत्‌ प्रकरणशवतारित-
दस्पतिवचनविरोधः, तस्यापि वु्रिपुव्वकवधविषयत्वात्‌ ।
तथापि यच बहुषु प्रकारेषु छतेष्ठवसन्नमरण्स्यापि `
` पुनःपुनन्निःशस्कषद्ण्डादिना प्रहरणं यच वा दिंसकत्वेन = `
प्रसिदस्य खङ्गारेः पातनं ततस्तन्मरणं तदिषयमिदं वचन- `
मिति न विरोधगन्धोऽपि ।
` वस्तुतस्तु प्ररतः पाठ रवासिद्धः। कामधेन्वादौ
पातनस्य पदयमानत्वात्‌ ।
तथा च यथोत्तरवाक्य कर्णादौनां भेदे मध्यमो दर्डः ` |
पातने तद्धिगुणस्तथा पूब्धवाक्येऽप्यस्थिभेदे उत्तमस्तेषां =
पातने दगुण इति तुल्यन्यायतया प्रात्तं तच चायं
वेकस्यिकः शरीरो दण्डः ।
20
र्ट | द्‌एडविवेकः ।

तथा च प्रमापणं नाशनं तचास्प्रामेव प्रक्षतत्वात्‌


सन्निधिश्रुतत्वाच्च तेषामेव सम्बन्धित्वेन प्रतौतेः ।
रुवं सति प्रपातनमित्येव किनोक्तमिति चेन्न, अङ्गनल्य-
इ्ुष्ठयोर्वध इति नारदाक्तिवत्‌ स्वतन्त्रोक्तेर पय्थेनुयोज्य-
त्वात्‌ । इत्थमस्श्रां सम्बन्धित्वे सखिते बातनस्यापि पात-
नाथेत्वेन व्याख्यानं सुकरम्‌ ।
रवच्च यः प्रकञत्य परस्यास्ि पातयति तस्य तथेवाश्ि-
पातनं दण्ड इति नैयायिको वाक्याथैः |
नि

अच यद्यपि पदार्थे काचिद्‌ वक्रताऽस्ि तथापि न


दोषः। वाक्यानुरोधेन पद्‌ाथैपरिकर्यनाया हष्टत्वात्‌ ।
न्धायानुग्रहाच्च। यो यथाऽपराध्यति तस्य तथेव दण्ड
इत्ययं हि न्यायः प्रकतपाटवादिनाऽपि वाच्य र्व ।
न्यायमुलान्येव चैतानि वचनानौति पुरोभागिता-
मपद्ाय सहृद्‌यैरनुसन्धेयम्‌ ।
तथा,+-
क्षुद्रकाणां पश्रनाञ्च हिंसायां दिशतो दमः ।
पञ्चाशत्तु भवेदण्डः शुभेषु खगपष्िषु ॥
गदहंभाजाविकानाञ्च दण्डः स्यात्‌ पच्चमाषिकः।
"माषकस्तु भवेद ण्डः ्वश्रकरनिपातने ॥
स्द्रत्वमल्यपरिमाणत्वं तच्च वयस्तः शलभादौनां
। जातितो ऽजादौनामिति रनाकरादयः। शुद्राणां विशेषो-
प्दिष्टादन्येषां वानरादौनामिति कुल्ुकभटरः । |
~ ~ न -----~--------------"-ः न अ

९ खप्रकेमाषिक्स।
दगडपारष्यद्‌
शः । २२९

तथा पश्रनामित्यल्यवयसां किशोरकादौनामिति-


व्याख्यातवान्‌ । |
नारायणसव्वन्नरत्वाह,--
छद्रपश्रनां खगपद्यादौनां दिशत ॒इत्युत्तमदण्डोप-
दश्नमेतत्‌ तच तच तु क्ुद्रत्वहासक्रमेण हासः । रुत
परि गरहौतविषये । अपरिग्रहौते त्वाह पञ्चाशत्‌त्विति । ॥

शुभष्ठगा ररुप्रश्टतयः। आ-साहचय्धात्‌ श्रकरोऽच


म्राम्यः। मापके द रूप्यरष्णलके इति पारिजातः | ॥

कृलकभद्रोऽपि पच्चमापिकः पच्चरूप्यमावपरिमाः।


{6

न॒ चाच दहैरण्यमाषकग्रहणमुत्तरोत्तरं लधुमापकादि


|

विधानादित्याह |
नारायणस्तु पञ्चभिः सुवणेमाषकैनिष्याद्यः पच्छमाषिकं
` इत्याह ।

कत्वायनश्--
प्रमापणे प्राणश्ठतां प्रतिरूपन्तु दापयेत्‌
तस्यानुरूपमूल्यं वा दाप्य इत्यत्रवौन्मनुः ॥

परकौयाणं दिचतुष्यदानां दण्डपातनजनिता या त

चसा या रथा्यमिघातप्रभवा तदुभयसाधारणमिद्‌ं


वचनम्‌ । प्रतिरूपं प्रमापितस्य गृणदिना सदश्म्‌ ।
रतच्च प्रतिरूपादिदानं प्रमापितस्वामिनः। _
अथ मनुः, 1
वनस्यतौनां सव्वषामुपयोगो यथा यथा ।
तथा तथा दमः कार्य्यो हिंसायामिति धारणा ॥

. | | |। द्डविवेकः।

वनस्यतिपदसुपयक्तसव्वस्थावरोपलकछषणाथे न्याय-
साम्यात्‌
तथा--उपयीगगौर बलाघवानुसारेण ।
अच कुल्‌ कभदरः,
° फलपुष्यपचादिषत्तममध्यमाधमेषुपयोगेषन्तमसाह-
सादि दण्ड" इत्याह ।
युक्तञ्चेतत्‌ ^ फलापगद्रमच्छेदौ तूत्तमसाहसमित्यादि-
वश्यामशविष्णवचनसं
वाद्‌त्‌ ।
इहास्वासिकेषु दश्लतादिषु स्वयं परदारा वा दिनेषु
छेत्तुदंण्डो विध्यतिक्रमात्‌ तेषामपि दथाङेदस्य निषिद्ध- |
त्वात्‌ ।
«^ फलपुष्योपयोगान्‌ः पादपान्न हिंस्यात्‌” ।
इत्यादिवसिष्ठादिवचनदश्नात्‌ ।
फलद्‌ानान्तु दच्ाणां डेदने जप्यश्टक्‌ शतम्‌ ।
गुल्मवल्लीलतानाच्च पुष्पितानाच्च वौरुधाम्‌ ॥
इत्यादि प्रायशित्तोपरेशणच । ॑
सच दण्डः प्रकौणैकप्रकरणे विस्तरेण वच्यते ।
सस्वामिकेषु तु तत्स्वामिने तत्‌प्रतिनिधि-तन्मल्ययो- `
रेकतरदानमपौति विशेषः । ॥
अथ यदि पतिपिचादिभौगधापुचादौननुश्णसन्‌ स्वयं
श्ष्यादिद्वारा वा ताडयति तदा प्रहाराधिक्य रख `
य दण्डो न त्वन्यथेत्याह मनु,
घ पष्मोपगान्‌।

णडपाश्ष्यदण्डः । २२१

भाय्या पुचश्च दासश्च श्यो भाता च सोदरः


पराप्तापराधास्ताद्याः स्यूरज्वा वेणुदलेन वा ॥
परष्ठतस्तु शरौरस्य नोत्तमाङ्ग कदाचन ।
अतोऽन्यथा तु प्रहरन्‌ प्राप्तः स्याज्चौर किल्विषम्‌ ॥
भाय्यापदमजहत्‌स्राथेलक्षणया क्तषादिपरमपि, रवे
पुचपदं पौचादिपरमपि, दासपदं मुखयगौणदाससाधारण-
मधौनमाचपरं वा!
शस्ता निदे्मादित्‌ ।
दत्यापस्तम्बवाक्य श्रद्रो यस्य शुश्रूषां करोति स तस्य
शास्तेति रत्राकरव्याख्यानदशेनात्‌ 9 |
भ्राता कनिष्ठः। प्र्टतोऽम्बणि नोत्तमाङ्गे न मम्पै- | |
शौत्यर्थौ न्यायसाम्यात्‌ । चौरकिल्विषमिति ताडितस्या- `
भयक्वम ृद्यमि ति `
मरणे उत्तमल्तेयदण्डो मरणे तु
नारायणः
्ह्मचारौत्यनुरुत्तौ नारद्‌-
शशं न ताडयेदेनं नोत्तमाङ्गे न वक्षसि । ८
अनुशास्य च विश्वास्यः शस्यो राज्ञाऽन्यथा गरः ॥
भविष्यपुराणे, ` |
पुचः शिष्यस्तथा भाथा शसितश्चेदिनश्यति। `
शस्ता तच दोषेण लिप्यते देवसत्तम ¦ ॥
पुच इत्यादि शस्यादाहरणम्‌, शसनच्चाच यथोक्तम्‌ । ` 1
अथ पितापुचादेरन्यव दयोः प्रहत्तत्वे विशेषमाह ।
रद्र दण्डविवेकः।

~+

पव्वमाछ्ारयेद्‌ यकु नियतं स्यात्‌ स दण्डभाक्‌"


पश्चाद्‌ यः सोप्यसत्कारौ पूवे तु विनयो गुरः ॥
पुव्वमादौ आश्रयेत्‌ पारुष्यं कुयात्‌ दोषभाक्‌
दण्ड्यः, असत्कारौ सापराधः। विनयो दण्डो गरूरितरा-
` पेशया तेन प्रथमप्रहत्तरि यथोक्तौ दश्डश्चर मप्रहत्तरि
तद्पेश्षयाऽल्य इति तात्पय्येम्‌ ।
म्रहारथोः पूरव्वपरभावानवधारणे त्वाह ।
कात्यायनः
पारुष्यदोषाच तथोयुंगपत्‌ संप्ररत्योः |
विेषश्चेन्र दृश्येत विनयः स्यात्‌ समस्तयोः ॥
पारुष्यदोषादिनय इत्यथैः। विशरेषोऽयमेवं पूव्यै छत-
वानित्याकार इति रन्नाकरः।
यद्यपि प्रहारयोः पुव्वापरभावेऽन्नाते वादिनोः
शपथादिना निशेयात्तयोनिंश्चयः, अन्यथा विवादाना-
रहात ।
तथापि मल्लयोरिव मेषयोरिव वाऽवास्तवं यच यौग्ध-
पद्यं यच च प्रधानयोः कलहे तत्तदेष्यानां सम्मद प्रहार-
८ म्राम्बं दुर्बोधं तदिषयमिदम्‌ ।
उपलक्णच्चेतत्‌ तेन यचेकस्यार म्भकत्वेऽन्यस्या नुबन्धित्वे
यच चैकस्याल्येऽपि पारुष्ये प्राथमिके अन्यस्य पञ्चात्तनेऽपि
तस्िन्नधिकेऽपराधसाम्यं तचापि सम श्व दण्डः! एत-
दभिप्रायकमेव रन्नाकरौयमादिपदम्‌। 4
१ मूल्ते दोषभाक्‌ ।
दग्डपारुष्यदश्डः । र्द्‌र

यदि तु पञ्रात्‌ प्रहत्तापि कलदमुत्तरोत्तरमनुवघ्नाति


तद्‌ा सोऽप्यधिकमेव दण्द इत्याह--
9 9१
दयोरापन्नयोस्तुल्यमनुवध्राति ष्योऽधिकम्‌ ।
स तयोदंण्डमाप्रोति पूर्व्वो वा यदि वोत्तरः\ ॥
तुल्यमापन्नयोः पारुष्ये तुल्यप्रहत्तयोरधिकं दण्ड-
मित्यन्वयः |
दयोः प्रहरतोर्दण्डः समयोस्तु समः स्मृतः|
आरम्भरकोऽनुबन्धौ च दाप्यः स्यादधिकं दमम्‌ ॥
द्रति हृदस्तिसंवाद्‌ात्‌ ।
तथेकस्मिन्‌ हस्तादिना भस्मादिना वा प्रहरमाणे
यद्यपरस्तौश्छेन दण्डेन प्रहरति तदा तस्याधिको दण्ड `
इत्याह | |
कात्यायनः
अआआभौषणेन दण्डेन प्रहरेद्‌ यस्तु मानवः
पुवं वाऽपक्तो वाऽथ सोऽपि दण््योाऽधिकं भवेत्‌ः ॥
अ्भोषणेन खज्गादिना
अथ दहस्यति
आक्रुषटस्तु समाकोशन्‌ ताडितः प्रतिताडयन्‌ ।
इत्वाततायिनच्चैव नापराधौ भवेननरः॥
रतदनुबन्धाभावविषयमनपराधाभिधानं तदपि न्धन- `
समानौ प्रति द्रष्टव्यम्‌ । अधिकं परतयवंविषेऽप्यपराधस्योक्त- `५
९ षस्त यःपुनः। २ मूले पूर्वन्तु विनयेदरः।
द क्रचित्‌ पाटः स दण्डयः परिकौत्तितः।
२३४ दश्डलिवेकः ।

त्वात्‌ पश्चात्‌कारिणि नारदौयमल्यदण्डाभिधानं तदनु-


बन्धिकलदहविषयमिति रल्लाकरः ।
प्रतिताडयन्नित्यच तुल्यरूपं ताडनं विवक्षितमिति
धम्मेकोषे चिलोचनमिश्राः। म

आततायिनमाहतुर्मनुवसिष्टौ,--
अभ्रिदो गरदश्चैव श्स्रपाणि्नापदहा ।
क्षेचदारापदहारौ च षडेते आततायिनः ॥ न

विष्णकात्यायनोौ,--
उद्यतासिं कराग्रिच्च शपोद्यतकरन्तथा
आथव्वणेन हन्तारं पिशुनच्चापि राजनि।
भार्ययातिकमिखश््वैव विद्यात्‌ सत्तातताथिनः॥ `
मल्स्यपुगाणसुश-- | |
हस्ेचापहनत्तारं तथा पल्न्यमिगामिनम्‌ ।
अभ्िदं गरद्ञ्चैव तथाद्यभ्युद्यतायुधम्‌ ॥
अभिचारब्च कुव्वाशं राजगामि च पैशुनम्‌ ।
` रतान्‌ हि लाके ध्यन्नाः कथयन्त्याततायिनः ॥
` इदिष्णुभ-- ` .
उद्यतासिः प्रियाध्षौ धनचत्ता गरप्रदः ।
अथव्वहन्तार तेजोघ्रः षडेते आतताथिनः ॥
अच धनापद्ेत्यक्छा छेचापदहारौति प्रथगभिधानं धनस्य
बहुतरत्वप्रतिपाद्नाथं तेन कछषेचख्य शसनादेरल्पस्यापि
धनस्य बहुतरस्येव यस्यापहरशे वत्तनस्योच्छेदो भवति `
स्मन ~ ---

९ घ क्रामिणम्‌ । र कग एन्लके--हततै
दश्डपारुष्यद्‌
ण्डः । रदष

तस्यापहर्ताततायौ । राजगामि च पैशुनं यद्भिधाने-


ऽवश्यं प्राणत्यागो भवति तट्‌ द्रष्टव्यम्‌ । तेजोघ्रश्चाच यो
मद्यदानेन बराद्ं तेजो दन्ति सोऽभिप्रेतः
यच कुतशिन्निमिन्नाद्‌ात्मनो वधनिश्चयो न भवति तच
शस््रपाशेरायुधोद्यमनेऽपि नाततायित्वम्‌ ।
अत रब भविष्यपुराण,--
इत्वा तु प्रहरन्तं" वे ब्राह्मणं वेद्‌पारगम्‌ ।
कामलोऽपि चरेद्रौर दाद्‌शब्दाख्छमुत्तमम्‌ ॥
इति प्रायश्ित्तमुक्तम्‌ ।
प्रहारो छच न वधोऽपदाथेत्वात्‌ किन्भिधातमाचं
1
चक्षुराद्यवयवानां प्रकर्पेण हरणं वा। सव्वचैव चाच्रो- |

}. द्यतासिपदादिसमभिव्याहारात्‌ प्रदत्तकरिय रश्वाततायौ |
|. नत्वतौतक्रियो भाविकरियो वेति सिद्खान्तमाहः।
` युक्तच्वैतत्‌ उत्तवर्तिष्यमाणक्रिययो राजसकाशदष्यनु- |
्णसनसम्भवे खयं शस््रधारणनुपपत्तः परौक्षाधेमपि न
शस््रमाद्‌ दत्तेति निषेधात्‌ |
अच केचित्‌--
प्रहारस्थले यथा तथास्तु दारापहारादौ निरृत्तक्रियो-
पप्याततायौव्युपेयं कैमुतिकन्यायात्‌ ! अपदहारादेः सम्भा-
वनापेश्षया निश्चयस्य बलवच्वादतस्तचाप्यपदर्नादेरवषे न
दण्डो न वा प्रायश्चित्तमिति । | ४
तचिन्त्यम्‌ ! नद्यपराधाधिक्यमाततायिनो वधाभ्यनुज्ञा- `

९ घ इन्ता। = |५ २ च उपराददौत।. |
२२६ | दग्डविवेवाः ।

बीजमाहरपि तु विहितस्यात्मगोपनस्यान्यथानुपपत्तिः। सा
च प्रहारस्थले साश्ादन्धच परम्यरयेति सव्वचाविशि्टा ।
हन्तैवं दारापहारे साश्ात्‌ परम्परया वात्मगोपना-
विरोधात्‌ कथमनुन्नेति चेत्‌ आत्मरक्षणवद्‌ दाररश्षण-
स्यापि विहितत्वात्‌ ।
(1
सर्व्वेषामेव वणानां दारा रश्यतमाः स्मृताः । |
9
(|

1

इति परदाराभिमषणम्रकरणौयमनुवचनात्‌। परेण सख-


द्‌ारावम्षणात्‌ वशैसङ्करेण सव्वनाणशस्य मनुनैवोक्तत्वात्‌ |
स्यादेतत्‌ स्तौणां प्रमादमदमोदवलात्‌कारकषते व्यमि
चारे रजसा शुद्धिः
यत्तु बलात्करादावपि चिराचप्रायशित्तं समयते तद्‌- `
संजातरजस्काया निदृत्तरजस्काया वेत्यविरोधः ।
कामजे तु व्यभिचारे चान्द्रायणेन शुद्धिः। ग्भसम्भवे,
गर्भपातने गुरुरष्यसुतपतितचारडालादिगमने च त्यागः ।
स चाच भोगधरम्पैकार्व्ययोर्गहिष्करणएलषण इति
इस्पति-यम-यान्नवल्वय-शङ्क-वसिष्ठादिवाक्यैकवाक्यतया
निबन्धेषु अवसा दर्भिता।
मिताश्रराकारस्तु व्यभिचाराहतौ शुद्धिरित्याह।! `
` अप्रकाशितान्मनोव्यभिचारात्‌ पुरुषान्तरसम्भोगसङ्गल्पात्‌
यत्‌ पापं तस्य तौ रजोदश्नाच्छुद्धिरिति) तथा गभ
तयामी विधौयत इत्याह ।
दणश्डपार्ष्यदगडः । २३७

स च श्रद्रकतगभे व्यागः।
ब्राह्मणक्चियविशा भाग्धाः श्रुद्रेण सङ्गताः ।
अप्रजास्ता विशुद्यन्ति म्रायित्तेन नेतराः ॥
इति स्मरणादिति ।
तदेवं व्धवस्थिते शस्त्राय किं तत्‌ प्रियाधर्षणं यत्र |
वणेसङ्करभियाभिगन्तुत्रीद्यणएस्यापि वधोऽनुन्नायत इति ।
असतु बलात्‌कारविषयमेतत्‌ अतिक्रमकारिवत्‌ प्रिया-
धर्षौत्यचापि तस्य स्फुटत्वात्‌ जिषटषा प्रागरूभ्य इति धात्व्था-
लोचनात्‌ अपहारौत्यतिकामिणमित्यमिगामिनमित्य-
मौपामपि तत्परत्वात्‌ पुरुषव्यापारप्राधान्यप्रतौतेः।
छतां भावकारकवाचित्वेऽपि तदिशेषस्य णिनेरुद्रिक्त- = `
क्रियां शत्वादिति चेन्न ।
अद्यपि शिनावुद्विक्तः कियांशःस्यात्‌ तथापि बलात्कारे |
रजसा चिराचेण वा शुद्धोदिति गत्यन्तरसम्भ वेन वधस्या - `
दष्टाधेत्वापातात्‌, चरत खव कामकूतविषयत्वमपास्तम्‌। `
तच चान्द्रायणादपि शुद्धिसम्भवात्‌ मर्भोत्पच्यादौ
तद्योगादेव न सङ्कर संज्नेति' न तद्विषयत्वम्‌ ।
किच्च सर्वचाच सङ्करो वशोन्तरेणापहाराद्‌ भवति न
बराद्यणेन अत एव॒ ^शस्रं दिजातिभिगरद्यम्‌” इत्यादि `
मनुवाक्ये दविजातीनां विस्व उत्तमस्तियाऽधमेन योगा-
। दिति नारायणेन व्याख्यातमिति कुतस्तदष्धः ।
अपि चापहारो नच्यखरूपेण सङ्करहेतुरपि तु पुचो-
१ क्रचित्‌ शङ्केति । र घतद्ा्चः।
२३८ दर्डविवेंकः |

त्यत्तिद्रारेति खतुराचिभ्यो बहिर्दौषो न स्वात्‌ अथार्तु


तुराचिषु एचियविशोब्राद्यणौमभिगच्छतोवधः
वस्तुतस्तु, स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वशेसङ्करः ।
इति भगवद्गौताखूपनिषत्‌सु दशनाट्‌ ब्राह्यणेना-
ब्राह्मणेन वा कामादकामादया सङ्गतासु स्लौष्विशेषादैव
सङ्कर दोष इत्युपेयम्‌ ।
अत रव पातित्रतऽसखलनमेव तद्धेतुमा हतुः शङ्कलिखितो
^ एकव्रतक्षयभावात्‌ परोपदतत्वाच दुष्टाः स्तियः
सङ्करकारिश्यो भवन्ति“
इति चेन्न प्रायिन्नादिनापि दोषापहारसम्भवे
बधस्यानोचित्यात्‌ ।
यत्त केचिदूचुः,

इति ब्रह्मपुराण्द शनात्‌ ब्राह्यणादेः प्रहृत्तकियस्य वधो


गभ्यत इति । |
तचिन्त्यं वचनस्यास्य पातित्यं विधातुं वधानुवाद्‌-
रूपत्वात्‌ ^ पतिताल्त प्रकौल्तिताः ” इत्युपसंहार
दश्नात्‌
बधस्यानुवाद्‌ रव ।
सिद्धमाशिपतौति चेन्न आशक्षिपतु नाम नत्वयं विधि
: पूव्वको हि नियमः प्रत्युत देषादितिवचनाद्‌ वेरिवधकोटिः
कटाश्यत इति। ` ॥ |
व अचोच्यते प्रियाधर्षिंणो वचनादेवाततायित्वमात- ` `
ताथिवधे वचनादेव पापाभावडइति। | |
रुतच्च भवदेवमतमाशित्योक्तम्‌ ।
दण्डा रुष्यद्‌ गडः । २३९

मिताक्षराकारस्तु,
आतताथिनमायान्तमपि वेदान्तपारगम्‌ ।
जिधंौसन्तं जिघांसीयान्न तेन बह्मा भवेत्‌ ।
इति कात्यायनवचनं तावद्थेशस्म्‌ ।
द्यं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो दिजम्‌ ।
कामतो ब्राद्यणएवधे निष्कुतिनः विधौयते ॥
इति मनुवचनं धम्मैशस्त्रं तदनयोष्िरोषे धम्बेशस्तं
बलवत्‌--
अथेष्णस्तरात्त्‌ बलवद्नम्मेशस्त्रमिति स्थितिः
इति याज्ञवल्कय
द्‌शनात्‌ ।
रवच्च मनुना “शस्त्रं दिजातििग्रीद्यम्‌"। इत्याय॑पकम्य
` “आत्मनश्च पविचाणि ” इत्यादिवचनेनाततायिनम्ङ्रुट- |
शस्त्रेण घ्रतो न दण्डभागित्वमिति यदृक्त तस्वानुवादाथै `
«गुरं वा बालो वा” इत्यादिकमुच्यते। |
तथा चाच वाशब्द्श्वशाद्‌ाततायिनमित्यादावपि
शब्द प्रवणाद्‌ गुव्वादौनत्यन्ताबध्यानप्याततायिनो न्यात्‌ .
किमुतान्धानित्यधान्न गुव्वादौनां वध्यत्वं “नाततायिवधे `
दोपोऽन्यच गोन्राह्मणत्‌” इति सुमन्तुवचनात्‌।
आचार्वय्च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम्‌। `
न हिंस्याद्राद्यणान्‌ गाञ्च सव्वांसैव तपसिः ॥ `
इति मनुवचनाच । इदं हि वचनमाचायादौना-
मातताथिनां दिंसाप्रतिषेषेनाथवनान्यथा, दिंसामाच- `
` प्रतिषेधस्य सामान्यशस्ेशेव सिङत्वात्‌ ।

१ घ निष्कतिः।
२६० दश्डविवेकः,

रखवच्च नाततायिवधे दोष इत्येतदपि ब्राह्मणदि-


व्यतिरिक्विषयमेव अत शवायतों गत्वा अथिदो गरदं
इत्यादिना उद्यतासिरिव्यादिना च सामान्येनाततायिनो
दशिताः।
तदेवं ब्राह्मणादय आततायिन आत्मादिचाणथें
हिंसानभिसन्धिना निव्येमाणाः प्रमादाद्‌ यदि सिन्ते
तदा तच लघुप्रायञ्ित्तं राजदश्डाभावशचेत्याह ।
नारायशेनापि मनुवचनमङ्गनेदादिमाचपरतया
व्याख्यातमित्युक्तमधस्तात्‌ ।
श्रलपाणिक्तु,
मनुवचने इन्यादेवेत्येवकारो नियमाथे इति व्याल्याय `
विशेषमाह ।

अनाश्षारितूर्व्वौ यज्बपराधे प्रवर्तते ।


प्राणद्रव्यापदहारे च प्रहत्तस्याततायिता ॥
इति लिखित्वा अनाारितोऽनपक्षतः, तेन पुव्वेछता-
पराधस्य मारणोदयतस्यापि नाततायित्वमतः प्रत्पकारि-
वधे दोष रेति व्याख्यातवान्‌
तथा “नाततायिवधे दोषोऽन्यच गोव्राद्यमणा^दिति
५ इन्यात्‌ प्रायश्चित्त कुग्यादि"ति सुमन्तुवचने,-
शिरखानमपि गोविप्रं न हन्याद कदाचन । `
इति भविष्यपुराशे चाततायिनोरपि गोनाद्यणशयोहंनने
४ दोषप्रतिपादनादिरोधमुद्धाव्य,-
दश्डपारुष्यदण्डः । २४९१

अचर ववश्थामाह कात्यायन इत्युपक्रम्य,--


आततायिनि चोत्‌ह्छष्टे तपः-साध्याय-जन्मतः |
वधस्तच तु नैव स्यात्‌ पापे हौने वधो श्टगुः ॥
इति वचनमित्धं व्याख्यातवान्‌ जन्मपदेन जातिः
कुलब्चोच्यते तेनाधमवशेनातताच्यप्युत्तमवर्णणे न इन्तव्यः
ममव्णेनापि तपोविद्याकुलैरुत्रृष्टोः न वध्यः ।
अत रव भगवद्गौतायामुक्कम्‌ ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ इत्वेतानाततायिनः। इति
रतान्‌ भौष्परादौनत्यन्तोत्कृष्टगणानित्यधे इत्याह ।
हलायुधेनापि कालत्यायनवचनानुसारेशेव व्यवस्थोक्ता
अच प्रतिभाति,--आात्ममोपनश्रुतिमूलमाततायिवधा-
भ्यनुन्नावचनं आत्मधातनिषेधस्मृत्या सममेकमूलकात्वे
लाघवात्‌ न चेद तदः युक्तं आत्मानं गोपायौत न `
प्रुनरमषादिकषायितोऽनशनादिना वा विषभक्षणादिना
वा हन्यादिति तदथात्‌
अख्य्या नाम ते लाका अन्धेन तमसा इताः
तांस्ते प्रत्यभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥
इति अत्या सममेकवाक्यत्वे लाधवात्‌। अन्यथा
भोज्यान्तराभावे महामासादिभकषणेनाप्यात्मा रशणौयः
स्यात्‌ तदथे ब्राह्यणसुवशेहरणमपि कत्तव्य स्यात्‌ |
1
0


~:त

न चेद्‌ युक्तमेकच विधावपर विध्यविरोधस्यानुरोध्यत्वात्‌ ध


विधिनिषेधयोव्वैधयोरेकतरेण स्यषटऽन्धतरानवकाशत्‌।
| ९ घ अतिरिक्त--। ५ |ध रच वलं 2 ।४
` ४२ दर्डदिवेकः |

किञ्चैवं चोय्यौधिकारे ब्राद्यणसुपक्रम्य-


अदत्तो प्रायञ्चित्नौ सः। |
इति दण्डवाधप्रकर णव्याख्यातमोतमवचने प्राय-
शित्तोपदेशो विरुध्येत । <
यहु नारायसोयं मतमङ्ग्दादिरूयं शलनं मन्‌
वचनार्थो न त्वात्यन्तिकमिति तचिन्त्यम्‌ ।
अङ्गनच्छेदादिनाप्यात्मरक्षणानुपपत्तौ विध्यतिकम-
तादवसख्ात्‌। अन्धायश्चायं यदात्मरश्णाथे ब्राद्यशस्य
वधं इति ब्रह्मवे कामक्कते प्रायश्चित्तस्य प्राणान्तिकत्वात्‌।
° अनशनेन कषितोऽभिमारोहेत्‌" ।
इति काठकश्रतिद्‌ श्नात्‌ ।

व्रतमोत्तमामुच्छासाचरेत्‌ | ।४
दाद शवापिकसुक्का--रतदेव
इत्यापस्तम्बादि शमरणाच।
तस्माद लमनेन।
प्रश्ालनाङ्धि पङ्कस्य दूराद स्पश्न वरम्‌ ।
इति न्धायात्‌।
अपि च परेणापि युक्तः सव्वात्मना राप्रं गोपयेत्‌
‹सव्वत आत्मानं गोपयेत्‌, इति विष्णवचनाद्‌ात्म-
रश्णवत्‌ प्रजानां रक्षणं विहितम्‌ । रवं शएरणागतानाम्‌ ।
अतस्तदथेमपि ब्राह्यणो इन्तव्यः स्यात्‌ प्रजादिरश्षण-
: विषेरवश्चानुरोधात्‌"ः। ` |
अथ यथा ^दैक्षं पशुमालभेत” इति अरतेः।
न ----------------------------------------- ~~~

१९. घ अनुशोध्यत्वात्‌ |
दण्डपाशष्यद
ण्डः । २४३

“न दिंस्यात्‌ सव्वा भूतानि ' इतिश्रुत्या न वाधः।


उत्सर्गापवादन्धायेन सामच्ञस्यात्‌।
रवमिहापि।
आततायिनमायान्तं हन्यात्‌ ' इति सतेन हन्याद्‌ ~

ब्राद्यणन्‌ गांञ्ेति समतवधाभावाददोषो ब्राद्मणस्यात-


तायिनो वध इति चेन्न आचार्यच्चेत्यादिमनुवचनातुपपत्ते।
` अथ,- सममब्राह्मणे दानं दिगुणं ब्राह्मणे ।
आचार्ये शतसाहसतं सोदय्यं दत्तमक्षयम्‌ ॥
समद्िगुणसाहसमानन्त्यच्च यथाक्रमम्‌ ।
दाने फलविशेषः स्याद्धिंसायां तद्देव हि ॥
दरति दृशषवचनसंवाद्‌ात्‌ पापातिश्यपर मनुवचन-
मिति चेत्‌, अस्तु तर्हिं ब्राह्मणव्यतिरिक्तविषयमाततायि-
वधाभ्यनु्ञावचनं तावतैव सन्बसामच््रस्यं स्यात्‌ ।
आततायिन्यपि ब्राह्मणे कामतो हते पशं पाप- `
माचाग्ादौ तस्यातिश्यः शचियादौ तदनुपपत्तिरिति ।
ाचं भव |
सचियादि वधेऽपि दण्डाभावम
वस्तुतस्तु कत-
िदण्डवाधग्रकरणो
° प्राणात्यये तु यच स्यात्‌ १। इत्याद

काव्यायनवचनसंवादात्‌ । पापन्तु स्तोकम स्येव ।


आचाय्याः पितरः पुचास्तथेव च पितामहाः |
मातुलाः श्वशराः पौचाः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥ `
रतान इन्तुमिच्छामि प्रतोऽपि मधुखदन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ इत्वेतानाततायिनः ॥

अत खवाततायिनमपि रावणं दत्वा रामस्य प्रायित्ता-ध0


पकी
क कि कि
२४४ दंण्डविवेकः ।

चरणं घटते। अत ण्वोद्यतासिमपि ब्ाद्मणमश्चत्धामानं


भातरच्च कणे इत्वा तत्पापापनोदनाय युधिष्टिरस्याश्च-
भमेधयजनसुपपद्यते ।
अत रव पापशङ्कया विरतयुद्ध' वौभल्सुं प्रवत्तयतापि
भगवता आततायिवधाभ्यनुक्ञानं न दशितमपि तत्तद्भि-
परेतं शरौरमनःसंयोगविशेषना
शरू पं मर विशेषेण नाश-
माचतयाऽपि परिश्च्यात्मानं सच्चा तस्य नित्य-
त्वाद्वध्यत्वेन तच तदसम्भवं प्रतिपादयितुमलौकिकमपि
सांखमतमवतारितम्‌ ।
तथाच विचिकित्सन्तमुपलभ्य,ः--
अपि चेदसि पापेभ्यः सरव्वेभ्यः पापक्षत्तमः ।
सव्ये ज्ञानस्षवेनैव इजिनं सन्तरिष्यति ॥
इति गत्यन्तर दशितम्‌ । तदथेच्वाश्वयानुष्ठानमपि
योगतन्त्रमुपन्धस्तम्‌। अत रव युधिष्ठिरेण गोचवधपापाप-
नोदनाय प्रष्टौ व्यासोऽपि भगवानभ्यनुक्ानमनाहत्याश्च-
मेधमेवोपदि्टवानिति दिक्‌ ।
रखवच्च मन्वादिवचनानां ब्राह्मणेतरपरत्वे स्थिते
“हत्वा तं प्रहरन्त ” मित्यादिभविष्यपुराणवचनमपि तथेव _
नेयमेकमलकत्वेन लाघवात्‌। यथाव्याखातपरत्वे दण्ड-
गौरवानुपपत्ते, अस्मिननेवार्थे सुमन्तख्दमपि संवद्ति।
अथ नैकमिदं खचं येन तदुक्तसंवादः स्यादपि तु
खचचयमिदमित्याह भवदेवभद्रः। |
------~-~-------~~ ------------------------------:---~--- ~ +

। “ १९ 5--युद्धविमुखं , र्‌. घ पुस्तके उपालभ्य ।


दणडपारष्यदणडः । २४१

तथाहि ब्रह्यवधप्राय्ित्तमुक्ता यस्तैः सद सम्बन्धं


कुर्ग्यात्तस्याप्येवमेव प्रायशित्तमित्यभिधाय आततायिवधे
पप्येकं खच पूर््वोक्तप्रायित्तनिषेधकं सुमन्तुनोक्तं, दोषो-
ऽन्धचेति दितौयमातताधिव्यतिरि क्वे दीषप्रतिपादकम्‌ ।
गोतब्राह्मणन्‌ प्रतः प्रायश्चित्तं कुर्यादिति ठतौयं प्राय
ित्ताङ्गस्य प्रतिपादकम्‌ ।
तच गोखानं गोशरङ्गोदकस्रानम्‌,-
श्रुयन्ते यानि तीर्थाणि चिषु लेकेषु नित्यशः ।
अभिषेकः समत्तेषां गवां शङ्गोदकस्य च ॥
इति व्यासोक्तम्‌ । ब्राह्यणएपदस्य विधिवाक्ये परत्वात्त-
ब्वैतुकमधमपणस्लानमिति चेन्नेवं हवावच्छेदमेद्कल्पनाया र
मिताक्षरादिविरोधेनाश्रद्धेयत्वात्‌ ।
अपि च ब्रह्मवधिनः प्रायशित्तमुपदिश्च तत्संस्गिंणि ॥ |
तदतिदिश्च तदपवादकं प्रथमं खमिति त्वये वोक्तमेव-
च्चाततायिघातिनो यः संसग तस्येदं नास्तौति खतरार्थो
वाच्यः।
न चायं सुवचो' वधशन्दस्य वधकत्तसंस्गिंणि सामर््या-
भावात्‌। कच्च यद्याततायिवधे दोषो नास्ति तदा
तत्संसमिणि सुतरामतः कथं तत्रायश्चित्तातिदेशः कथं
वा तदपवादो घटते प्रसक्यभावात्‌। |
` वस्तुतस्तु वधशब्दो नास्येव ष, आततायिन्धदोष |
`
इति कल्पतरौ पाठद्शैनात्‌ । दितौयच्च खतं यद्यात-५.
१ क घ पुस्तके अव्चः।
२४द्‌ दश्डविवेकः। `

तायिघातिव्यतिरिक्तसंसगे ब्रह्मवधप्रायशित्तप्रतिपादकं
तदापुब्धैक' रव दोषः, दोवशब्दस्य प्रायश्चित्ते शक्य
भावात्‌ खचवैयण्यैच्च स्यात्‌। निर पवादादतिदेश-
वाक्यादेव प्रायित्तप्राप्तैः |
यदि तु वधदोषविधायकं तदित्युच्यते तदा प्रकर
ण-
विरोधः खचवैयथ्यैच्च अपवाद काभावेन वधव्यवस्थयैव ~~
धककस
_

तव््रतिपादनात्‌। दतौयेऽपि श्वे गोशब्दस्य गोश्रज्ञेदक-


परत्वे लक्णाभ्युपगमः। ब्राह्मणादिति ठतौयाथं पञ्चमो-
` प्रयोगपरिकल्पने च प्रकरणतिपातः स्यात्‌ प्रायिन्नोप-
` देश्णवसर रव तद्‌ङ्गोपदेभ्ौचित्यात्‌

वस्तुतः कथम्‌ । सुमतिः सुमन्तुरल्याक्षरमसन्दिग्ध-
भित्यादिलक्षणवाक्यं विस्मृत्य तादशं छतं प्रणयेद्‌ यच
विवक्षितो यः सन्दिद्यते प्रत्युताविवक्षितः स्पुटतरमव-
भासते, तस्मादेकमेवेदं खं गोब्राद्यणातिरिक्तस्यात-
तायिनो वधे दोषाभावप्रतिपादकमिः्युपेयम्‌ ।
1

यनवचनसंवाद्‌ाच ।
कल्पतरो राजधम्पैकाण्डे तद्‌ यथा,-
भौत-मन्नोन्मत्त-विसन्ादह-दस्ति-वाल-खड-ब्राद्यशैनं
युष्येतान्यचाततायिनः। न दोषो हिंसायामन्यच च्व्य्ग- `
सारश्यनायुधाच्जलिप्रकौणेकेशपरा ङुखोपविष्टमूलदक्षा-
. रूढारूतकगोब्राह्मणादिभ्ः। .
~~~ ~-----~------------------~---------- ~ ~~ ----~~---- ~~

9 `त्वव । `. ` >. स्न न्द्र)


इबडयारवययवः । २४७

अच हि पूव्वप्रतौके ब्राह्मणाततायिना युद्खमाचमनु-


ज्नातं तच्च तन्निवारणमाचाभिप्रायमुत्तरप्रतौके युद्ध
प्रसच्जितां हिसामाशङ्ख तस्याः प्रतिषेधात्‌ ।
अत रव प्रायश्चित्तकाण्डे ब्राह्मणादीनां गवादौना-
्वाततायिनां वधाभ्यनुन्नावचनानि द्‌श्यित्वा सुमन्तवचनं
लिखित्वा लश्छ्मोधरेण तेषां गोब्राद्मशेतर परत्वं स्पष्टमुक्तम्‌ ।
रुतदचनसमनन्तरमाततायिनि चीोत्कृष्ट इत्यादि-
। कात्यायनवचनमप्यनेन लिखितमिति चेत्‌
रवमपि दहि श्रूलपाणिव्यवस्या स्यान्न तद्भिमतः
'सव्वच दोषाभावः । |
तस्मादाततायिनोऽपि ब्राह्मणदेर्वधे पापं स्यादेव
दण्डस्तु नास्ति . कात्यायनवचनान्तरस्याथेशस्त्रत्वेन `
तदपवादकत्वात्‌ न च दर्डाभावे पापाभावनियमो
वेश्याभिगमनादौ तदभावस्मरणेऽपि प्रायिन्नोपदेशत्‌ ।
(प तदियमच व्यवस्था यदि निर्गुणं श्रं केनचिन्निमित्तेन
कषायितो ब्राह्मणः प्रथमप्यमिहन्ति तदा तस्व दण्डाभावो
वाकूपारुष्यप्रकर णप्रपच्ितान्न वेत्यादिहारौतवचनात्‌। `
नि्गुखुमपि श्रूद्रमन्राद्यणोऽमुं कञ्चिदन्यं यः कथिदन्यो
वा यदि प्रथमं प्रहरति यस्य निरपवादो यथोक्तदण्डो `
नियतमिति नारदवचनात्‌।
यतु तेन ताडितः सहते स वाचा पूज्यः सामान्यतो |
यः क्षमते इति पूव्वप्रकर णोक्तनारद्वचनात्‌ । (^
१ घ सवथा ।
२४८ | दग्इविवेकः ।

यस्तु सोदुमशक्वन्‌ समे न्यूने प्रहर्तरि प्रहारानुरूप-


मनुवन्धेन प्रहरति तस्य दण्डाभावो इृदस्यतिवचनात्‌।
गुणजात्यादिनाऽधिके तु प्रहनत्तेरि हौनस्य खपचादेः
प्रहारानुरूपमपि सक्लद्पि प्रहरलो दण्ड रव क्षमायां
` म्राप्तायां प्रहारमाचस्यैवानौ चित्यात्‌ ।
नहि कञ्चिद्नुन्मत्तोऽपराधं विनैव परं प्रहरति, अतो
हीनस्य प्राक्तनो वाकूपारुष्यादिरपराधो वाच्यः। तच
चाधिकस्यायथापराधमपि प्रत्यप्रराध्यतो न दोषः
वाकूपारुष्ेत्यादि पूव्वप्रकरणोक्तददहस्यतिवचनस्वरसात्‌ ।
रवं ब्राह्मणेऽप्रहत्तरि निर्गुणस्य श्रद्रस्यापि दण्डो द्रष्टव्यः ।
यः पुनरपराधतारतम्यानुसरणोदासौनः प्रहरन्नपि
प्रहारमननुवन्धेन प्रवत्तयति अनुवश्रन्नप्यधिकं वा प्रहरति
तस्य यथोक्तादल्यो दण्डः पूवव तु विनयो गुरुरिति `
नारदवचनस्वरसात्‌।
यन्तु प्रहत्तौरं प्रहत्य तस्मिन्‌ तुष्णो तिष्टति अनु-
रूपं प्रतत्य विवदते वा पुनः कलदहमनुवत्तयति यो
` वा प्रतिप्रहत्ती प्रहत्तरि यथोक्तं प्रहारं प्राप्य विरते
तथा करोति रतथो्थोक्तादधिको दण्डः । `
^ पूर्व्वो वा यदि वोत्तरः ”
इत्यादि नारद्वचनात्‌।
एवं यो भस्मादिप्रहनत्तरि खङ्गादिना प्रहरति सोऽप्यधिक-
भेव दण्ड्यः कात्यायनवचनात्‌, अभिघाताभिद्रोहयोरुत्तर-
चापराधाधिकयाच्।
परदन्तां परं प्रछव्य। `
बह्भिनामेकं प्रहरतां दग्डमाद । २४९

यच तु प्रहारयोः पुरव्वापरभावपरि
च्छेदो नास्ति य
वाऽपराधसाम्यं तच तु दयोरपि यथोक्तो दण्डः काल्यायन-
वचनस्वरसात्‌। आततायिवधे च दण्डाभाव रव हहस्पति-
वचनादिति । .
इयञ्च व्यवस्था वाकृपारष्येऽपि सच्वारणौया
न्धायसाम्यात्‌। वाग्दण्डपारुष्याधिकारे विधिः पञ्चविध
सक्त शएव--एतयोरुभयोर पौत्युपक्रम्य निरुक्तप्रकाराणां
नारदेनोपन्धासात्‌ दृदस्पतिवचनयोरुभयोविंषयताया
स्फ़टत्वाञ् । |

अय बहनामकी प्रहर्ता दख्डमाहदह ।


याज्ञवल्वयः, ५८
रवा घ्नतां बह्भनाच्च यथोक्ताद्विगुणो दमः!
दगुणः प्रत्येकमिति शेषः ।
एक बहनां निध्रतां प्रत्धेकस्योक्तदण्डाद्‌ दिगणः
इति विष्णुसंवादात्‌ । `
अथ यच हौनः पारुष्यकारौ तचोत्तमस् ताडनादिना
तं दण्डयतोऽपि न दण्ड इत्यादिका वाचनिकी व्यवस्था `
च हौनपरिगणनच्च इयमपि वाकृपारुष्यप्रकरशे दरित- न

े21

मतस्तच॑वानुसन्धेयम्‌ । |
इति विविक्ता दश्डपारूष्यद्‌ण्डमात्का ।

२५० द श्डविवेकः

अथ प्रहरणोद्यमनदण्डः। `
अच उदस्यतिः |
उद्यतेऽश्मशिलाकाैः कर्तव्यः प्रथमो द्मः ।
यान्नवसवयः,
उद््े हस्तपादे तु द श-विंशतिकौ दमौ ।
परस्परस्य सर्व्वेषां शस्त्रे मध्यमसाहसम्‌ ॥
सव्वेषां बाद्मणादौनां वर्णनां परस्परं वधाथेमिति-
शेषः । शस्त्रे उद्भ इत्यनुषङ्गः । रतदचनदयं समान-
जातिं प्रति प्रहारोचमे।
दण्ड इत्यनुदृत्तौ विष्णुः,--
^ दस्तेनोहूरयित्वा तु दश काषौपणान्‌, पादेन विंशति,
काषेन प्रथमसाहसं, शस्त्ेणोत्तमम्‌ ” ।
उत्तममुत्मसाहसमित्यथेः। छत्यसागर सृतिसागरयथो-
रत्तमसाहसमित्येव पितम्‌ ।

विप्रपौडाकरं केयमङ्गमत्राह्मणस्य तु ।
उद्नण प्रथमो दण्डः संस्यश तु तदद्धकः' ॥
उद्गण शस्त्रारेरुदयमने वधाथेमुल्लासन इति यावत्‌ ।
संस्पं उद्यमना्थे तस्यैव ग्रहणे ।
इदमुभयमधमेनोत्तमं प्रति दस्ता्ुद्मने। अचोद्यमने
श्रद्रस्य ₹इस्तादिङेदनभेव वश्यमाणमनुदनादिति
मिताक्षराकारः ४
९ ध.पुकके तदद्धिकः।.
मह्रणदखः । | २५९१

पणानुरत्तो शङ्खलिखितौ-
प्रहारोयमे षट्पञ्चाशत्‌ निपातने तद्गुणम्‌ ।
प्रहियतेऽनेनेति प्रहारोऽश्मदर्डादिः, षट्पञ्चाशत्‌
घडथिकयच्चाश्त्‌, इदमुत्तमवर्शेनाधमवगीस्य दण्डपार-
ष्योद्यमे । |

अघ् प्रहरणदण्डः |
तच भस्मादिप्रक्षेपे ददस्यतिभ-
भस्मादौनां प्रशेपणं ताडनच्व करादिना ।
प्रथमं दण्डपारुष्यं दण्डः कर्पोऽच मापिकः॥
रुष दण्डः समे युक्तः परस्वौघधिकेषु च ।
दिगृणस्तिगणो ज्ञेयः प्राधान्यापेश्षया बुधैः ॥
ताडनमबोद्यमनमाचमिति ग्रहेश्वरमिश्राः। रणवमेव
हरिनाथोपाध्यायाः। रवं व्याख्याने कामं प्रथममिति
घटते दण्डगौरवन्तु दुर्धरम्‌ । 1
उन्गर णातत स्तस्य कार्य्यो दादश्को दमः
स खव दिगण: प्रोक्तः पातनेषु सजातिषु ॥
| इति कात्थायनविशोधात्‌
तस्मात्‌ प्रहरणमेव ताडनपदाथैः प्रत्यत ताडनच्चेति
चकारः समुचचयाथैः। न्यनश्च ताडयिता। प्रथममित्यस्य
२५२ द ग्डविवेकः ।

तु सुखमिदं पारुष्यमित्यथे इति भाति । माषिको माष-


परिमित इति रलाकरः, समेषु जात्यादिभि्तुल्ेषु ।

भस्मपङ्करजःस्यरे दण्डो दशपणः स्मृतः ।


“अभेध्यपाष्णिनिश्युतस्प
शने दिगुणस्ततः ॥
समेधेवं परस्त्रौषु दिगुणस्टत्तमेषु च ।
, चैनेषङे दमो मोहमद्‌ादिभिर दण्डनम्‌ ॥
अभमेथ्यमच अभ्रु-सेष्म-नख-केश-कणेविट-दूषिका-
भक्तोच्छिष्टादिरूपम्‌। पाष्णिखरणस्य पिमो भागः
चरण रवास्य तात्पय्येमित्येके । नियतं सुखनिःसारितं जलं
तैः स्यशेने, ततो दशपणात्‌ दिगशणो विंशतिपणो दश्डः।
अच पुरौषादिस्पर्शने विशेषं वच्यति कात्यायनः ।
एवच्च वचनस्याधःस्यश्विषयत्वेन कायमध्यमङ्स्प
शने
गुणाधिक्यं द्रष्टव्यं कात्यायनानुसारात्‌ ,परस्त्रौपृत्तमेषु च
भसमादिस्ये विंशतिपणा अमेध्यादिस्यशे चत्वारिंशत्यणा
दण्डः ।
हीने ्परषटेधदधं भस्मादिस्पशे पञ्च, अमेधष्यादिस्पशे
दशपणा इत्यथैः। मोहधित्तवेकख्यं, मदो मद्यादिजनिता
` । विकतावस्था, आदिपदादुन्माद्‌ादिसंगरहः।
खहस्थतिवाक्ये भक्मादिभिः प्रहारो विवधित इति
तच दृण्डगौरवमिद तु तेषां स्यश्रनमाचमिति दण्ड-
लाघवमतो न विरोध इति प्रतिभाति। र्तद्वाचस्यशे ध
याज्ञवल्क्च इति स्परतिसारेऽवतारणिकाद्‌

शनात्‌ स्पष्टम्‌ ।
९ खः पुस्तकद्वये अमेध्ये) `
पडरणाद्‌र्ः | २५द्‌

छद्यीदिग्रकेपे कात्यायनः+--
हिंमूचपुरौषादैरापाद्यः स चतुर्गुणः । `
षडगुणः कायमध्ये तु" मूङ्खिं चाष्टगुणः समृतः ॥
आदिपद्‌ादसा शुकमज्नाखटजां संग्रहः । चतुगुखत्वा दिवं
द्‌श्पणापेक्षं तेन कायमध्यशिरोव्यतिरिक्ताङ्कस्य
शने चत्वा-
रिश्त्यणाः, कायमध्यस्पशे षष्टि, शिरःस्यर्श्यैतिः पण
इत्यथः । |
मनुनारदौ,
अवनिघ्नौवतो दर्पद दावोष्ठौ केदयेनरपः।
अवमूचयतो मेद्गमव शब्द्‌यतो गुदम्‌ ॥
अवनिष्ठौवत उपरि निष्ठौवनं कुव्वतः । अवमुचयतो
मुचसेकं कुव्वेतः। अवशब्दयतो गुदेन शब्दं कुब्वतः |
कुल्लकभट्रेना वगद्धयत इति परित्वा गङ़नं गृद्‌शब्द
त्तनावमानयत इति व्याख्यातं तच फलतो न विशेषः ।
दर्पादिति प्रमादमदमोहादिव्यादच्यथेम्‌ ।
अच कुल्लुकभटरेन पुव्वश्चोकं दृष्टा श्रदरस्येत्यनुवत्तितम्‌ । `
सव्वज्नेन तु सव्वमिदमुक्तमधमेन क्रियमाणे द्रष्टव्य
मित्यक्तम्‌ । `
अथ यान्नवल्वयः,
पादकेशं शुककरोन्ुच्वनेषुः पणान्‌ दश । `
पौडाकषींशुकावेष्टपाद्न्यासेः शतं दमः ॥
.१ स्यादिति क्रचित्‌ पाठः। ` र्‌ ख--कीह्छच्छनेषु । ` `
| द घप्रादाध्यासे! : ॥


मा
२५४ =: | द्डिवेकः ।

पीडाकर्षां शुकावेष्टपदाध्यासथ्चेति समाहारे इन्द्र व1४ट

इति रन्नाकरः। अस्मिन्‌ ससुचितेऽयं दण्ड इति मिता-


कषराकारः।
कामधेनौ तु पौडाकर्षीशुकावेष्टेति पठितं तच
[1 न

पीडायै यस्याकर्षत्तेनांशुकेनेत्यथैः। अंशकाय तवोप-


चारेण तद्यपदेशत्‌ पादादौनामन्यतमं खहौत्वा उन्मुच्च-
त्थाकर्षत्यसौ दशपणान्‌ दण्च्यः । यक््वंशुकेनावे्च गाढ-
मापौद्याष्य पादेन परमध्या्ते तस्य शतपणद्ण्ड इति
समुदायार्थः । ।
मनुनारदौ,
केशेषु गह्लतो दस्त केदयेद विचारयन्‌ ।
पादयोदाडिकायाच्च ग्रौवायां इषणेषु च ॥
अच कु्कभट्रेन पुव्वस्नोकस्थं दूर्पादित्यनुवत्तितम्‌ ।
हस्ताविति दिवचनमेकेनापि हस्तेन ग्रहणे हस्तदयकेद्‌-
नाथे, दाढिका श्स्र्‌।

अभोवरैस्योत्तमवर्णानामाक्रोशक्तेपाभिभवेऽष्टौ पुराणः
ग्रौवासच्न-गलदस्तन-कचवक्तप्रहरणेषु विंशत्‌! रोमो-
त्पारनतज्जनावग्रणेषु विषष्टिः। शखाकरणङ्गभङ्गन्केदेषु
दिशतम्‌। पादताडने ऽताभिशंसने तदङ्गच्छेदः पञ्चशतं
., वा। आदेषु पादोनं किञ्चित्‌ खामित्वादादिवणेत्वाचोत्त-
मानामौशनतमो हि बद्यणः
चिंशदित्यादौ पुराण इत्यनुषङ्गः। व्यास्याशेषो वाक्‌-
पारुष्ये द्रष्टव्यः। अङ्गपदमच पाणिपादादिपरमिति शेषः
प्ररणद
गडः । २५५

मनुः,
येन केनचिदङ्गेन हिस्याच्छेयां समन्त्यजः ।
छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनोरनुशसनम्‌ ॥
पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पारिच्छिदनमर्हति
ष्यादेन प्रहरन्‌ कोपात्‌ पादच्छेदनमहंति ॥
दिंस्यात्‌ प्रहरेत्‌, भ्रेयासं चेवणिकम्‌, अन्त्यजः श्रदरः ।
[य

न मातापितरावतिक्राभेन गरम्‌ चयाणशामलतिक्रमे-


उजन्च्छेद्‌ः ।
अतिक्रमः पदाभिघातः इति रलाकरः। एवच्च छेदः
पादस्यैव अभिधातकर णत्वात्‌ ।
पञच्चाशत्पणदण्डप्रकरणेयाज्ञवस्व+--
अर्याकरोश्तिकमकरत्‌ साद्भा्याप्रदारदः।
अथ दस्यति
काव्धः छषतानुरूपन्तु लग्रे घाते दमो बुधः|
तकेष्टकादिप्रहारमधिकत्याद स एव, य

इष्टकोपलकाछस्तु ताडने च द्विमाषिकः


दिगणः शेणितोद्धेदे दण्डः कार्य्यो मनौषिभिः ॥८ (1
शस्रकरणकप्रहारे विष्ण
द्ण््यः शोणितेन विना दुःखसुत्पादयिता दाचिंश- |र
सव

त्पणान्‌ सह शोणितेन चतुःषष्टम्‌ ।


९ ख घ पुरक पादेनेत्यादि पद्करनास्ति।
रभ्रद्‌ | | दण्डविवेकः।

अचैव त्वभेद शोणिताधिक्ये मनु,


त्वमेदकः शतं दण्डयो लाहितस्य प्रदर्शकः ।
मांसभेत्ता तु षसिष्कान्‌ प्रवास्यकू्वश्थिभेद्‌कः ॥
निष्कोऽच राजतो विशेषणाभावात्‌ आनुरूष्याच् ।
षरशिष्कान्‌ दौनारानिति नारायणः । रतद्चनं समान-
जातिविषयं श्रुद्रेतरविषयच्चेति कुल्लुकमभट्रः। प्रवास्यो
खहौतसव्ैस्वो देशान्नर्व्वास्य इति सव्वननः।
इदस्पतिः+-
त्वग्भेदे प्रथमो दण्डो मांसमेरे तु मध्यमः
उन्तमसू्वस्थिभङ्ग तु घातने' तु प्रमापशम्‌ ॥
कणेनासाकर च्छेदे दन्तभङ्गेऽशिभेदने ।
ति ।
1
कर्तव्यो मध्यमो दण्डो द्विगुणः पतितेषु तु ॥
घातने वधे, प्रमापणं वध रवेति रलाकरः। यथा यच
भाति तथोक्तमधस्तात्‌ पतितेषु खस्थानाच्यावितेषु ।
कात्यायनः+--
कणोष्ठ-घ्राणपादाक्षिजिद्वाश्न्निकरस्य तु ।
लेदने चोत्तमो दण्डो भेदने मध्यमो शगः ॥
देने स्स्थानाच्यावने भेदने विदारणे ।
। तया,
रतैः समापराधानां तचाप्येवं विकल्पयेत्‌ ।
समापराधानामङ्गान्तरदेदनभेदनकर्तृणं प्रमाद `
क्रतापराधविषयमिति रनाकरः।
------------------~- ~ -- न

९ मूले-भेदे तु घातेनतु। `.
प्रहर्णदण्डः । २५७

याजवलक्यः,

करपाददन्तभङ् करेदने कशेनासयोः ।


मध्यो दण्डो ब्रणोद्खेदे खतकल्ये इते तथा ॥
चेष्टाभोजनवायोधे नेचादिप्रविभेदने ।
कन्धराबाहसकद्याञ्चः भङ्ग मध्यमसाहसः ॥
व्रणद्धेदे प्ररूढायमानस्य व्रस्य पुनन॑वौकरणे ।
खृतकल्ये हते षतप्रायो यथा भवति तथा इते ।
याज्ञवल्वयः,
दिनेचभेदिनशेव श्रुद्रस्याष्टशतो दमः ।
यच चिकित्सापनेयो मेदस्तदिषयमिदम्‌ | अष्टशतो-
5टशतपणरूप इति रनाकरः ।
विष्ण
न करपाददन्तभङ्गे कणैनासावकर्तने मध्यमच्ेष्टाभोजन- `
त वाग्रोधे प्रहारदाने नेच-कन्धरा-सक्द्माच्च भङ्ग चोत्तमम्‌ “
उभयनेचभच्जनंः राजा यावन्नौवं बन्धनात्‌ न मुच्चेत्‌
तादृशमेव वा कुय्त्‌ । ॥

४;
=------
प्रहारदाने च नेचकन्धरासक्ट्यामिति चकारो मध्यम
मित्यस्यानुग्रंकषेकः । भङ्ग चेति नेचादौनामित्यन्वयः। `
इड पूर्व्वोत्तरवाक्ययोरन्धच चैकस्मिन्‌ विषये नाना-
विधशरौराैदण्डविकल्याः पौडाभूयल्वाभूयरबाभ्या- =
मास्रत्तधनवच्ाधनक्च्ताभ्या वा व्यवस्याप्धाः

` ये चाथेदण्डाः शरौरदण्डेन विकल्पिताः तेप्राक्षेपक्स्या- = `|


व्त्वानाच्छत्वाभ्यां व्यवस्थेति रलनलाकरः ।

(४८८ द
र्डविकेकः।

आह च मतुः, |
मनुष्याणां पश्रनाच्च दुःखाय प्रकृते सति ।
यथा यथा मददुःखं दण्डं कु्धत्तथा तथा ॥
अच दुःखायेत्यभिसन्धिपुव्वकत्वावगमात्‌ प्रमाद्रूते न
चदोषः
न प"
"राजनि प्रहरेद्यस्तु छतागस्यपि दुम्बेतिः ।
श्रल्यं तमप्नौ विपचेद्रह्महत्याशतातिगम्‌ ॥
यो अन्राह्यणशः छतागसि कछतापराषे श्रलमारोप्य यत्‌-
संहियते मांसादि तच्छल्यम्‌। तेन राजग्रहारिणः श्रूल-
भेदेन पौडां विधायाग्रिपाकेन पौडा कर्तव्येत्यैः ।

दति महामहोपाध्याय धर््माधिकररिक-शरौबद्धंमानकृती दण्डविवेके


॑ दण्डपारुष्यदण्डपरिच्छेदः षष्ठः ।

४ ~ --~--------------------------------------------------- =

कख ग पुरूकचये राजानं |
अध्य प्रकौणेदरडः ।
तच संग्रहः
उद्दिष्टाः केचिहषिभिव्विभजद्धिः प्रकौशकम्‌ ।
प्रकम्य सासं केचिदुक्तास्तैरेवसुक्तकाः ॥
विवादविषये क्रापि व्यवहारपदे कचित्‌ ।
प्रसङ्गनो पदि्टास्तैः केविदेव्छतुवििधाः ॥ `
तेऽमौ चतुषु शेषेषु" वर्गेषु परिनििताः ।
प्रथमे तद्यवस्थेति पच्चवगीः प्रकी रके ॥
सोऽयं विभागः प्रतिपत्तिवेषम्धाथैसुत्सगेःमाित्य छत
इति दिचाणां सङ्करेऽपि न दोषः।
विवाद्विषयश्चाच छणादानादि्मुतसमाहयान्तोऽ्टा-
दशविधो मनुक्तो विवश्चितः। तेन निबन्येषु--तत्समभि-
व्याहृतस्यापि
तत्शुल्कादेैहिभवः प्रथमे च वर्गे तस्य (0)

प्रवेशः कात्यायनादिमिस्तचादेशत्तदन्तगेतस्यापि स्तेयादे-


[0

स्तदहिभावः प्रकौणेलषणाभावादेव ।
तच खदहस्यतिभ--
रष वादिकषतः प्रोक्तो व्यवहारः समासतः
चपाश्रयं प्रवश्यामि व्यवहारं प्रकौणेकम्‌ ॥
यद्यपि मनुष्यमारणादिव्यवहारा अपि पाथ्िता
रव तथापि तेषु वादिपरतिवादिभ्यां ख-ख-प्ेषु दर्ितेषु व

विचायये तयोरेकतरस्यापराधिनो राजानुशसनम्‌ः ।


९ कचतुख्वेपेषेषु। २ क उत्यगैमाचम्‌।
३ क राक्लोऽनुशासनम्‌। |
२६० द ग्डविवेकः ।


६1
प्रकौरोके तु शिरोवादिनं विनाऽपि चरादिमुप्खाइ्णी
मिणं दोषं आत्वा विच्य तेषां यथाविहितं दण्डं
(4
विधाय धम्म्ये पथि स्यापनमित्येवास्य तेभ्यो भेदः ।
1
५4
नारद्‌
यौ यो वर्णोऽवदहौयेत यश्चोद्रेकमनुत्रजेत्‌ ।
तं तं दृषा खतो मार्गात्‌ प्रच्यतं स्थापयेत्‌ पथि ॥
मनुः, |
यश्चापि धम्मैसमयात्‌ प्रयतो धम्पेजौवनः ।
दण्डेनैव तमासोषेत्‌ स्काद्‌ धम्मादिधिच्युतम्‌ ॥
समयः शस््लोयमग्यादा धम्पेजौवनो ब्राह्मणादिः।
आजोषेत्‌ ददेत्‌ पौडयेदिति यावत्‌। विधिच्य॒तं वेद्‌- ` |
मागतिक्रान्तम्‌ ।
रवच्च विदहितपरित्यागो निषिद्धाचरणमिति इयमपि `
दण्डनिमित्तं तच इदहस्यतिः,-
[7

विहिताकरणान्नित्यं प्रतिषिद्धनिषेवणात्‌ ।
भक्ताच्छादं प्रदायैषां शेषं शह्लौत पाथिवः ॥
विहितस्य व्णश्रमकम्भेणोऽसकरत््रमादादिव्यतिरेकेण-
| ` ननुष्टानात्‌ प्रतिषिद्धस्याभष्यभ्षणादेनित्यमनुष्टानादिति
| पारिजातः। रुतदेशचारव्यतिरिक्तविषयमिति कल्यतरः।
अअपस्तम्बः
नियमातिक्रमिणं ब्राह्मणमन्धं वा रहसि| बन्धये- ८
दासमापत्तेरसमापत्तो, नाश्यः।

९ कवादिभुखात्‌। र घ त्वसमापत्तो
प्रकौ दण्डः २६९
नियमातिक्रमिणं नियमस्य शस्त्स्यातिकरमेण विहि-
तस्याकर्तारम्‌। अन्धं निषिद्धकारिणमिति कल्मतरः ।
आसमापत्तयाीवदेवं करिष्यामि नैवं करिष्यामि इति वा
तस्य सम्प्रतिपत्तिभवति असमापत्तावतथासम्प्रतिपत्तौ
नाश्यो निव्वास्यः। रतदनुबन्धातिश्यविषयथं ब्राह्यण-
विषयञ्च । `
अत्राह्यणविषये मनुः,
मव्यीद्‌ामेदकश्ैव विचिचं प्राप्ुयादधम्‌ ।
मर्यादा देश्जातिकुलशसरराजलाकस्थितिः, तस्या
भेदकोऽतिकमकारौ म््यीदातिकरमे सद्योघात रएवानु-
शसनमिति नारदसंवादात्‌ । |
इह रलाकरकता मनुवाक्ये विकृतं वधं कणौदि
करेदनषूपं घातमिति व्याख्यातम्‌ ।
अबौजविक्रयो यस्तु बौजोत्छष्टा तथेव च ।
इति पव्वाङ्खसमभिव्याहार संवादात्‌ नारद्वचने धात-
स्ताडनमिति व्याख्यातम्‌ । `
इस्ति व्रात्य दासेषु गुव्वाचार्य्यातिगमेषु च ।
इति पूव्वाह्गसमभिव्यादारख्ररसात्‌। तदेतद्याख्यान- `
इयमनुबन्धाभावविषयतया नेयम्‌। अनुबन्धे त्वसमापत्ति- ^
पञ्चे क्षचियादिविषये दइननमेवोभयोरथः। तवैव ब्राह्मणस्य
प्रवासौचित्यात्‌।
भ त

सङूदुच्रिते शब्दे दुधटमिति चेत्‌।


नं = ---------~ ~----*--------

९ घविचचिं। २ घव्पनुबन्धेविषयतया।

रद्र | द्‌ण्डविवेकः ।

सत्यं वधत्वेनाभिधाने तदिशेषाणं ताडनाङ्नच्छेदन-


प्रमापणानां तत्तदिषयमादाय व्यवस्या(प)नमिति ब्रूमः।
यथा कूटशसनप्रयोग इत्यादौ शङ्कलिखितवाक्ये रक-
मेवं शणरौरमिति पदं रटतुलादिव्यवदहारविषयतया
मुण्डनादिषरूप इति व्याख्याय राजान्नाप्रतिधातविषयतया
मारण्ङूप इति रनाकरछतैव व्याख्यातम्‌ ।
इति प्रकौशैके व्यवस्था वगैः प्रथमः ।
१. अ
प्रकौरीके पुनर्तेयो व्यवहारो पाश्रयः।
रान्नामान्नाप्रतौघातस्तत्कम्ेकर
णन्तथा ॥
पुरप्रधानसम्भेदः प्रकतौनां तथेव च ।
पाषण्डनैगमश्रेणौगणधम्पेविपय्ेयः ॥
पितापुचविवादश्च प्रायञ्चित्तव्यतिक्रमः।
'प्रतिग्रहावलापश्च लाप आश्रमिणामपि ॥
वशेसङ्कर दोषश्च तहत्तिनियमस्तथा । |
रान्न आन्नाप्रतौधात आदेशलद्कनं, तत्कम्भैकारशं
तदसाधारणक्रियाचरणम्‌ । पुरशब्दः पुरवासिलाकपरः, ¦
` नैगमाः अच वणिजः, नानापौरसमूृह इति हलायुधः ।
अयो वणिजि रखवान्यदेशपधोपजोविनःः । रककम्पेप्रत्ता
वशिक्कषौवलादय इति कल्पतरुः । तहत्तिनियम-
तेषां वर्णानां प्ररत्तिनियमः
१ क्रचित्‌ पाठः--प्रतिग्रहविलोपश्च कोप अश्चभिणामपि
| ` २ कदेप्रामध्योपजोषिनः।
प्रकौणेदण्डः । रद्‌

कात्यायनः
राजधर्मान्‌ त्वधम्धांख सन्दिग्धानाञ्च भाषणम्‌
दहस्यतिः
षड्भागस्तर शुल्कञ्च गत्ते देयस्तथैव च ।
सङ्गामचौरभेदौ च शस्यधातनकत्तथा ॥
अच षडभागपदं प्रणष्टाधिगतसुवर्णदिपरं, तच राज्ञः
षड्भागग्रहणसम्बन्धात्‌ वेश्वदेवमन्नमितिवत्‌ ।
तथा,
निष्कृतौ नामकरणमान्ना सेधव्धतिक्रमः ।
वर्णाश्रमाणां लापश्च वशेसङ्रलापनम्‌ ॥
निधिनिष्कुलवित्तच्च दरिद्रस्य धनागमः ।
अनान्नातानि काय्याणि कियावाद्‌ाश्च वादिनाम्‌ ॥
प्ररतौनां प्रकोपश्च सङ्केतश्च परस्परम्‌ ।
अश स््रविहितं यच्च प्रजायां सम्परकौ त्यते ॥
आज्ञासेधव्यतिक्रमः राजान्नया वादिनो्थस्य आसेधो `
ऽवरोधस्तस्य ताभ्यामतिक्रमणम्‌ तच व्यवदहारवग स्फटम्‌ ।
निधिदिविधौ वश्यमाखलश्षणः। निष्कुलवित्तसुच्छन-
बन्धोग्तस्य धनं सम्बन्धिनो ाहकस्य दण्डदेतुरित्यथेः |
दरिद्रस्य धनागम आकस्मिकः, अन्यमुपायं विना
निध्यादिलाभनिश्वयात्‌ दण्डहेतुः।
अच याज्वल्क्यः, |

~
~3
~
4
-व


४~-

४५

कुलानि जातौ खरै गणं जानपद्‌ानपि ।


| स्वधर्माचलितान्‌ राजा विनौय स्थापयेत्‌ पथि ॥ `
| कुलानि ब्राह्मणदौनां, जातयः शछचियाद्या, गण- `

२६४ दश्डविवेकः ।

ताम्बूलिकादौनां जानपदाः कारुकादयः। विनौयेति


नहि भयं विना वाद्माचैण विधर्ममाणः शक्या निवत्तयि-
तुम्‌, अदष्टरूपेषुपापफलेषु श्रुतिवाक्यमश्रदधतां लौकिके
वचसि विश्वासाद्रयोरसद्वावात्‌ ।
तस्मादुदिष्टस्यं सव्वस्यास्य प्रकारस्य नियमातिक्रम- `
विशेषत्वात्तत्कत्तदंण्डः प्राप्तः स च विशेषविधेरन्धापि
देशकालानुसारेण काय्यै इति तात्पम्‌ ।
तच रान्न आज्नाप्रतौधाते दण्डमादतु,-
शङ्लिखितो,
टश्णसनप्रयोगे राजाक्नाप्रतिघाते करुटतुलामानप्रति
मानव्यवहारे शरौरोऽङ्च्छेदो वा ।
शरौरो मारणरूप इति रलाकरः |
यतत प्रकाश्तस्करप्रकरणें शरीरो मुण्डनादिरूप इति `
क ^

, तचैव॒ व्याख्यातं तत्कूटतुलादिव्यवदहारमाचविषयम्‌ ।


अङ्गन्छेदो येनाङ्गेन तत्‌ कुरूते तस्य कत्तनं विकस्य
सूवपराधगौरवागौरवाभ्यां व्यवस्थित इति रल्नाकरः ।
रशवच्चाल्पौयसि राजश्णसने लह्धिते तत्कारणभरूतस्यापि
इस्तादेरेव केदोऽपराधानुसारादिति द्रष्टव्यम्‌ ।
अत एव,-
प्रतिङ्रलेषघवस्ितान्‌ घातयेदिविधेदमैः ।
इति मनुवचने कुल्लकभटरेनोक्तं राजान्नाव्याधात-
कारिणोऽपराधापेश्षया करजिद्वाकेदादि दण्डयेदिति ।
राजकियाकरणे दण्डमाह यान्नवस्वयः,-
राजयानासनारोढर्दर्डो मध्यमसाहसः। `
पके दण्डः । र्भ्‌

यानं गजाश्वादि आसनं सिंहासनादि, अच राजान्न


विनेति शेषः ।
कात्यायनः, -
राजक्रौडासु ये सक्ता राजदच्युपजौविनः।
|
। अप्रियस्य तु यो वक्ता वधन्तेषां प्रकल्ययेत्‌ ॥
{ राजकौडासु तद्साधारणौसु करौडासु वेष्टासु तदनु-
|

मतिं विना ये सक्ता ये च तेनाननुन्नाताः प्रजापालन
रूपां इत्निमवलम्बन्ते ये च रान्न रणवाप्रियवादशौलासे
वध्या इत्यधेः |
तया.

प्रतिरूपस्य कर्तारः प्राघ्रुयुच्िविधं वधम्‌ ।


प्रतिरूपस्य राजवेशस्य। अचापि तदतुमतिं विनेति ` ।
` द्रष्टव्यम्‌ । |
दन्धादित्यनुदृत्तौ विष्णः,
ये चाकुलौना राज्यमभिकाम्येयुः।
अकुलोना रान्नो यत्‌ कुलं तदप्रखता इत्यथैः ।
याज्नवस्कयः,--
ऊनं वाप्यधिकं वापि लिखतो राजशसनम्‌।
पारदारिकचोराणं मुञ्चतो दण्ड उत्तमः ॥ स

राजणसनमियदेयमियदराद् यमित्यादि राजादिष्टं यो


लिखेत्तस्य दण्ड इत्यथौन्वयः ।
काल्यायनः
4 प्रमाशेन तु _्रुटेन मुद्रया क्रूटयाऽपि वा ।
कायन्तु साधयेद्यो वे स दाप्यो दण्डमुत्तमम्‌ ॥
रद दण्डविवेकः।

प्रमाणेन लेख्येन मुद्रया सखहस्तादिचिडेन ।

क्रटशसनकन्तंचप्रतौ नाच्च दूषकान्‌ । १

स्तलौबालब्राद्यणघ्रांच इन्यात्‌ द्िट्सेविनस्तथा ॥


शसनमिद् राजादेशः, मिथ्या राजान्नालिखनमिति-
नारायणः। तच मारणोत्तमसाहसयोरतुल्यत्वात्‌ पूव्वोत्त-
रयोरल्मानपराधविषयतया व्यवस्था, ब्रह्मणे तु वध-
निषेधात्तत्प्त्याम्नायत्वेन सुवशेशतं दण्डः। महापातकिनो
वधे प्राप्ते निव्वौसनमिति प्रतिभाति ।
पुरप्रधानसम्भेदे नारद्‌
मिथः सद्खातकरणमदेतौ शस्त्रधारणम्‌ ।
परस्परोपधातच्च' तेषां राजा न मर्षयेत्‌ ॥
ध मिथः सद्ातकरणं प्रछतिसद्कातप्रतिङ्खलावान्तर-
भेलककरणम्‌ अहतौ भयादिदेतुं विना परस्रोप-
` घातमन्योन्यमनिष्टकरणं तेषां सङ्गातादिकत्तेणां पुर-
पाषण्डादौनां न मर्षयेत्‌ अपि तु यथाबलं तान्‌ दण्डये
` दिति तात्पय्येम्‌। रुतेन मदहत्तमानामवान्तर सङ्कातकर णं
व्यास्यातमेवमेव प्ररतिघपि द्रष्टव्यम्‌ ।
पाषश्डादिधम्बेविपय्येयेण संविद्यतिक्रमो लश्यते ।
तच नारद,
पाषण्डनैगमश्रेणौपुगत्रातगणादिषु ।
संरक्षेत्‌ समयं राजा इन्दः जनपदे तथा ॥

॥ १ वराचित्‌ पाठः परस्पररापकास्च्च। २ दुगे इति मूले पाठः।


प्रकौरोदण्डः। २६७

पाषण्डास््यौवाद्याः, पृगोऽच वणिगादिसमृहः, नाना-


जातौयानियतसमुहा इत्यन्ये, व्रात आयुधौयसमृदः,
आदिपदेन संघादिसङ्खदः, तचाईतसौगतादिसमुहः सङ्गः,
चाण्डालादिसमृहो गुल्मः, अनुक्तसमुदायो वगेः, ` समयः
स्थितिः सा च पारिभाषिकैर्धम्पैव्यैवहारः।
तच ग्रामनगरातिक्रमे दहस्पतिः-
सव्वका्ये प्रवौणश्च कर्तव्यासतु महत्तमाः ।
दौ चयः पच्च वा कार्य्यः समृहदहितवादिनः ।
कर्तव्यं वचनं तेषां ग्रामख्रेणोगणादिमिः ॥
याञ्नवलत्य
यस्तच विपरतः स्यात्स दाप्यः प्रथमं दमम्‌ ।
कात्यायनः+

युक्तियुक्तच्च यो दन्धाइन्धर्थोऽनवका शदः ।



=~
अरयुक्तच्देव थो ब्रृधात्‌ प्राप्तुयात्‌ पुव्वसादहसम्‌ ॥
त्रयात्‌ काय्यचिन्तकेषु ।
मनुः,
ष सो ग्रामदेशसङ्ानां कत्वा सत्येन संविदम्‌ ।
विसंवदेनरो लाभात्तं राष्रादिप्रवासयेत्‌ ॥
निश्द्य द्‌ापयेदेनं समयव्यभिचारिणम्‌ ।
चतुःसुवर्णन्‌ षरिष्कान्‌ श्रतमानच्च राजतम्‌ ॥ `
निद्य धर्षयित्वा, चतुःसुवर्णनिति चत्वारः सुवर्णाः
परिमाणं येषां ते तथा रुतच्च निष्कविशेषणं परि- |
भाषाप्रकरणोक्त-निष्कान्तरव्यादृत्यथमिति रन्लाकरः।
1१


र्पः दण्डविवेकः |

कुल्ञकमभट्रसतु चत्वारः सुवर्णैः प्रत्येकं चतुःसुवणेपरि


मिताः षरिष्काः राजतं शतमानमिति, स्वतन्त्रमेव
दण्डमाह ।
समयक्रियामभिधाय कात्यायन+-- |
पालनौया समस्तेसतु यः समर्थो विसम्बदेत्‌ ।
सव्वेस्वदहरशंदण्डस्तस्य निव्वासनं पुरात्‌ ॥
तच भेदमुपेष्षां वा यः कश्चित्‌ कुरूते नरः।
चतुःसुव्णः षरिष्कास्तस्य दण्डो विधौयते ॥
भेदः समहिनामेव--
एथग्गणांख ये भिन्द्यसे विनेया विशेषतः
| इति नारद्संवादात्‌ ।
| अनयेोरव्ययोरदिरुक्तदण्डख्वणा दिव्यवस्धा विवादपद
निरये समु्ेया ।

गणद्रव्यं हरेद्यस्तु संविदं लङ्कयेत्त यः


सव्वस्दहरणं छत्वा तं राद्रादिप्रवासयेत्‌ ॥
गणद्रव्यं थामादिसमुहसाधारणद्रव्यम्‌ ।
कात्यायनः+--
अरुन्तुदः ख्चकश्च मेदकत्‌ साहसौ तथा ।
अओरेशौपूगन्टपदेष्टाः शिप्रं निव्वाख्यते पुरात्‌॥
असन्तुदो मम्पेस्पक्‌, चकः पिशुनविशेषः। `
स य स
प्रकोसंदण्डः ४" | न९९

इदस्यतिः.-
सम्भूयेकमतं कत्वा राजभाव्यं हरन्ति ये ।
ते तदश्गुणं' दाप्या वणिजश्च पलायिनः ॥ `
राजभाव्यं रान्न देयम्‌ ।
| पितापरुचविवाद्‌ इति । |
| यद्यपि पिचा सह विवादे शङ्गग्राहिकया साक्षादर्डो _
न श्रूयते तथापि सा्प्रकरणे पिचा विवदमान- `
| शेति निन्दादशेनान्निषेधाभिगमे नियमातिकरमणप्रयुक्तः
| साहसोक्तः सामान्यदण्डः पितुर्गुणवन््वागुणवक्वतारतम्येन
व्यवस्थितो द्रष्टव्यः । रखवच्चायं साश्य रवोद्‌ाहियते ।

पितापुचध्विरोधे साश्िणां दशपणो दण्डः। यस्तयोः `


सान्तरौयः स्यात्तस्योत्तमसाहसम्‌? । |
सान्तरौयः स्यादिति तयोर्मध्यगो बत्वा विरोधमुत्पादय-
+ तौत्यथः। कामधेनौ यस्तयोर न्तरे स्यादिति पठितम्‌ । ॥
| यान्नवल्वयः, |
पितापुचविरोधे तु साक्िणिस्िपणो दमः
अन्तरे च तथोयेः स्यात्तस्याप्यष्टश्तो" दमः ॥ ८
अष्टौ शतानि पणा यस्मिन्‌ दमे दौयन्ते सोऽष्टशतः। `

| १९ मूले-ते तद्गुणं इति पाठः। 4 न

२ कष पु्तकदये पिटटएच-- | 1
इ क्रचित्‌ प्राठः--साहसः।
४ क पुसतक अद्टपणः (1


२७० . _ ` दग्डविवेकः।

अचोत्कुष्टगुणः पिता विवश्ितः पूव्वचापक्ष्टगुण इत्य-


विरोधः।
मिताशरायान्तु अष्टमुख इति पटितं व्याख्यातञ्च
यस्तयोः कलहे साश्यमज्ञीकरोति न तु तदारयति असौ
पणचयं दण्ड्यो यतु तयोः सपे विवादे पणशदानप्रतिभर-
भवति चकारायश्च कलदं व्यति ोऽपि चिपणादृष्टगुं
चतुव्विंतिपणान्‌ दण इति ।
प्राय्चित्तस्य व्यतिकमोऽननुष्टानं तदेव निष्कुलौना-
मकरणमिति कात्यायनोक्तम्‌ ।

चतूणौमपि वर्णनां प्रायित्तमकुब्बताम्‌ ।


शरौरं धनसंयुक्तं धम्भ्ये दश्डं प्रकल्पयेत्‌ ॥
लाप आ्रमिणमित्यच--
देबौपुराणे -
वेश्यादिभवने यख्य राप्रे भुच्ीत संयमौ ।
ब्रह्मचारौ त्रतौ यच वेश्यादिृषलौकतम्‌ ।
| अन्नं भुज््ीत वे तच जायते लाकसंश्यः ॥
तथा,
काषायेण तु भूमिष्ठो यतौ वा त्यजति व्रतम्‌ ।
सङ्ग वेश्यादिभिः कुय्धात्तदा लाकभयं भवेत्‌ ॥ |
अव यस्य रप्र इत्यादिदश्नादुत्सगेतोऽमौषामधन- . `
त्वाच्च सान्त्वेनान्यापदेशेन वा खदेशनिष्कासनमेव
दण्डः । |
पकौ णेदग्डः । २७१

यदाह दक्षः, |
पारित्राज्यं खहौत्वा यः सखधम्मेषु न तिष्टति ।
आपादेनाङ्कयित्वा तं राजा शौर प्रवासयेत्‌ ॥
रुतच् ब्राह्मणविषयम्‌ ।
अन्ध त्वाह नारद्‌,
प्र्ज्यावसिता
य चयो व्ण दिजातयः
निव्वासं कारयेद्धिप्रं दासत्वं छचविन्‌ पः ॥
अच श्रूद्रष्यापि दासत्वमेव कैमुतिकन्धायात्‌ |
वगोसङ्रदोष इत्यच देवौपुराणमेव,--
मद्या्यैगे्हिंतैर्यच सङ्करः शवियोगिनाम्‌ ।
न्टपराष्रभयं तच कार णच्चान्यथागमः ॥
शिवियोगिनामिति सम्भवाभिप्रायम्‌ । अन्यापि देश-
। | .3 1
गमस्नयौवाद्यः शेवाद्यागमः
द्पसार णमेव दण्डः । अन्यथा
राजधर्मान्‌ स्धरम्मानिति समभिव्याहारेणमिधान- `
मविरोधस्यापनाथेम्‌ ।
तथाच यान्नवस्क्यः,
(ण

निजधम्माविरोधेन यस्तु सामयिको भवेत्‌ ।


सोऽपि यनेन संरथ्यो धर्म्मो राजकछषतश्च यः ॥
सामयिकः समृदयोगक्षेमाथैः, यथा पौराणसुत्तमानाञ्च'
मासं राजोपस्थानं काय्थेमित्यादिरिति रनाकरः। ` `
समयान्निष्यन्नो गोप्रचारोदकरशण-देवश्हपालनादि- `
रूप इति मिताश्रा। राजधर्मो मम क्ते मासं
शन्तिः करणौया इत्यादिरूपो राजकतो धम्भैः ।
९ घ पुस्तके महत्तमानाच्च |
र्र्‌ ` द दश्डविवेकः |

तच कात्यायनः+-- |
राजम्रवर्सितान्‌ धर्मण यो नरो नानुपालयेत्‌ । `
भराद्यः स पायो दण्यश्च लापयन््राजशसनम्‌ ॥
ग्राद्योऽवरोध्यः |
सन्दिग्धानाञज्च भावनभिति निशितत्वेनेति शेषः
५ खतचचच यनासत्याभिधानेन परस्यानिष्टं जायते तत्परम्‌ |
अन्यच प्रायश्चित्तमाचस्य प्रवत्तनौयत्वात्तद्‌प्रहत्तः
निष्कृतौनामकरणमित्यननोक्तत्वात्‌ ।
यत्त॒ वादिनोरनिर्णौति विवाद्विषये निणौँतवदेक-
तर पक्षामिधानं तच सभ्यादेदण्डो व्यवदहारवगं वेश्यते ।
अथः प्रनष्टाधिगतमधिकृत्य याज्ञवल्वयः,
प्रनष्टाधिगतं देयं पेण धनिने धनम्‌ ।
विभावयेन चेल्लिङ्गैस्तत्समं दण्डमर्हति ॥
प्रनष्टं खामिनः प्रमादात्‌ शुल्कणलादौ रथ्यादौ वा
अष्टं तस्करेरपहतं वा अधिगतं शोल्किकादिभिः खान-
पालादिभिव्वा तच्च तै रान्ने समपणौयं (प्रनष्टमखामिक-
समधिगम्य राज्ञे ब॒युः"” इति गोतमस्मरणात्‌ ।
राजा तु तैर्पितमुपस्िताय स्वामिने दद्यात्‌ स
यदि शुक्लादिरूपं कटकाद्याकारच्च तदित्यादिकैलिङ्गः
सत्वं भावयति। अविभावने तु तत्समं दण््यः।
` अवेदयानो नष्टस्य देशं कालच्च तत्वतः ।
` वणं रूपं प्रमाणच्च तत्सम दण्डमहति ॥ `
क; इति मनुवचनसंवादात्‌
` प्रनछाधिगताधिकारः | ~ ~. दे,

दण्डोऽयमसत्यवादित्वादिति मिताक्षराकारः। युक्तञ्चे-


त्मत्यधथिभावान्मिथ्याभियोगाभावेन प्रकते मिथ्याभियोगौ
चिगणशमित्यादिवचनाप्रह्तेः।
सद्योऽनुपश्िते तु खामिनि वषेचयं राजा तमपेक्षेते-
त्याह ।
मनुः,--
प्रनष्टस्वामिकं द्रव्यं न्दं राजा निधापयेत्‌ |
निधापयेत्‌ रक्षयेत्‌ । कस्य किं नष्टमित्येवं पटदहादिनो-
ब्ीष्य राजद्वारादौ स्थापयेदिति कृललकभदटरः। अच
च्यब्द मित्यावष्चकामिप्रायमिति मिताक्षरा ।
तावतापि खार्मिन्नुपस्धिते विं क्यौ दित्याद,-
५.१. अ
अव्धाक्‌ ब्दात्‌ हरेत्‌ खामौ परतो खपतिर्हरेत्‌। `
हरेदिति व्ययौकरणाभ्यनुक्लानाथैमिति मिताक्षरा ।
अच विशेषमाह स रव,-- कक
आददौताऽथ षड्भागं प्रन्टाधिगतानुपः ।
दशमं द्वाद्‌शं वापि सतां धम्पैमनुस्मरन्‌ ॥
रक्षणएत्ीशल्पत्वमध्यत्वमदत्यैः षडभागादिविकल्यो
नेतव्य इति रल्नाकरः। 0
दलायुधौऽप्याह षड्भागादिग्रहणं रक्षापेक्छया व्यव-
स्थितमिति,
धनखामिनो पनि्ुरत्वातिगुखवच्चापे्च इति कुल्ुक- |
बदरः । ४८.
१९ क अतिगुगत्वापेच्त-- । द
२७४ | दण्डविवेकः |

मिताक्षराकारस्वाद ।
प्रथमे तावद क्षत्लमेव धनिने दद्यात्‌, दितौये तु
दादशं ठृतौये दशमं चतु्थदिषु षष्टं भागं रशणमुल्यतया
खद्धौत्वा शेषं स्वामिने दद्यात्‌ ।
्यब्दादृद्धं व्ययितेऽपि तस्मिन्रागते स्वामिनि राजा
स्ांशमवताये तत्समं दयात्‌ ।
तथा खाम्यनागमने छत्छस्य धनस्य तदागमने राजख-
भागस्य चतुधेमंशमधिगन्त्रे दद्यात्‌ ।
यदाह गोतम
प्रनष्टस्वाभिकमधिगम्य वत्सरं राज्ञा रश्यमद्धंमधिगन्तु-
अतुर्थोऽ'शे राज्ञः गेषमिति । |
सव्यश्चेदं हिरण्यविषयम्‌ । अन्धच विशेषमाह ।
यान्नवस्वय--
पणानेकशफे द्‌द्याचतुरः पच्च मानुषे ।
मदिषोष्रगवादौ दौ पादं पादमजाविके ॥ |
रुकशफोऽश्वादिः पाद्श्चतुःपणपादः पण इति यावदिति-
रन्ाकरः पणस्योपस्थितत्वात्तस्यैव पाद्‌ इति प्रतिभाति ।
इह मनूक्तषड्भागादिग्रहणस्य द्रव्यविशेषेऽपवाद-
माहेति छत्व मिताक्षराकता वचनमिद्मवतारितम्‌
व्याख्यातच्च--रकशफादौ प्रनष्टाधिगते तव्खामौ राज्ञ
` पणचतुषटयाधिकं दद्यादिति । कल्पतरावपि राजे रष्टणए- `
निमित्तं चतुरः पणान्‌ खामौ दद्यादिति व्याख्यातम्‌ । `
१. घ पुस्तके साक्ञे ¦
| मद्रतिगलानिकारः । | २.७५

वह्तुतस्तु रणमूल्यमचमानुषादिप दिरण्यादिसाधारणं


षड्भागादि एथगेव । रएतत्तु पणचतुषट्यादि प्रात्यहिक
पोषणमुख्यं एथगेव । अन्यथा सुल्यवेषम्यानुपपत्ते शण-

कतेशविपर््धासात्‌ दिरण्यादेरतिप्रभूतस्यापि गर्तनिधाना-
दिना रघ्षायाः सुकरत्वात्‌ अश्वादेरल्पस्यापि तस्य
दुष्करत्वात्‌ सद्यः खाम्युपख्ितिविषयं वा व्याख्यानदथ-
मिति प्रतिभाति ।
दलायुधनिवन्धे आपस्तम्बः
प्रमादादरण्ये पश्रनुत्सष्टान्‌ मआाममानौय खामिभ्यो
विष्धजेत्‌ पुनः प्रमाद सक्ृदवरुध्य तदृद्धं नोत्सुजेत्‌ ।
तर शुल्कप्रकरणे वसिष्ठः+ -
अकरः ओचियो राजा पुमाननाथः प्रनरजितों बाल-
इद्वातरुण्प्रजाताः प्रागमिकः कुमार्यो खतपत्यः ।
अनाथः सखजनरदहितो रोगार्तो वा अतर्शप्रजाता
अचिरप्रडता प्रागमिको लेखदहारकादिः, सतपत्यो
विधवाः
भिन्रकार्षापणमस्ति शुल्कमित्यादिव्येसिष्टपटितो
मानवः रोकः प्रकाशतस्करप्रकरणे लिखितः
विष्णः
तरिकः स्थलशुल्वं गल्लन्‌ दशपणान्‌ द्‌ाप्यः। नन््य-

` चारि-वानप्रख-भिक्ष-गव्धिरौ तोथौनुसारिणं नाविकः ` य

शुल्कमादद्‌ानश्च । तच तेषां ज्यात्‌"


१ कचित्‌ दद्यात्‌
[
=
२७६ दण्डविवेकः।.

तरिकः नद्यादिसन्तारणशुल्कनियुक्तः, आद्‌ दानश्वेति


दाप्य इत्यनुषङ्गः। तच्च तर शुल्वं तेषां ब्रह्मचार्यादौनाम्‌ ।
रतव वसिष्टोक्तानामपि ओओचिथादौनां तुल्ययोगक्षेम-
त्वात्‌। तेनामौषां शुल्कं ह्नन्‌ तरिको द्‌श्पणान्‌ दण्ष्यः।
खह्ौतच्च तेभ्यो दाप्यः इत्यथैः ।
स्यलशुक्तमिति पद्ां सन्तौयमाणं जलं सलप्रायभेव
तच नौकोत्तारणमुलकं शर्वं स्थल शुल्कभेव पग्थवस्यति तेन
पद्भयां सन्तरतस्तर शसत्कमहणे द्‌
शपणात्मको दण्ड इत्यथेः।
आद च दलाय
नाविकः सन्तारणव्यतिरेकेणेत्यमेव तर
शुल्वं श्ल्लन्‌
द््पणान्‌ दाप्य इति । |
कल्यतरौ तु स्थानिक इति परित्वा स्थानिकः खानाधि-
छत इति व्याख्यातम्‌ ।
वस्तुत दिविधं शुल्कं स्थानिकं तारि कच्च ।
तचाद्यं यथा--विष्णुः-- `
स्वदेशपण्याच्छल्कांशंदशममादद्यादित्यादि ।
दितोयं यथा,--
पणं यानेतरं दद्यात्‌ पौरुषेऽद्गपणं तरम्‌ । इत्यादि ।
तच पुरुषवाद्द्रव्ये दशमांशं शुल्व गृह्छलोऽयं दण्डः ।
भारानुसारेण शुख्कस्या्णत्वात्‌ मृल्यानुसारेण लाभा-
पेक्षया वशिकुशुल्कस्य गुरुत्वात्‌ एवमेव मिताक्षरास्वरसः

` बाहभ्यामुत्तरन्‌ पणशतं दण्व्यः ।


राजकरविलोपविषयमेतदिति प्रतिभाति ॥
परनष्टाधिगताधिकारः। २७७

अथ श्षस्यधातछत्तथा इति यदुदिष्टम्‌ |


तच माक॑ण्डेयपुराणे,--
सोत्‌सेधवप्रप्राकारं सव्वेतः खातकाटतम्‌ ।
योजनाङ्गाडविष्कम्भमष्टभागायतं पुरम्‌ ।
तदङ्ख॑न तथा खेटं तत्पादोनच्च कव्वटम्‌, ॥
तथा श्रूदरजनप्राया सुसण्टदक्षषौवला ।
केचोपभोगभूमध्ये वसतिग्रामसंक्निता ॥
तत्‌पादोनमिति तत्पदेन खेटानुकर्षः सन्निकषौत्‌
उत्तरोत्तरम पकषंद्‌ शेना । दानसागर तु ्रामश्तदय-
प्रधानभूतो ग्रामः कव्वटः कौशेकविस्तारौ आमः खेर
` इत्युक्तम्‌ ।
मरामादिषु परिहन्तैव्यां तत्परिसरभूमिमाह ।
यान्ञवल्वयः, |
ग्रामे तु या गोप्रचारभूमौ राजवशेन वा
धनुःशतं परौणदी मामक्षेचान्तरं भवेत्‌ ॥
दे शते कबव्वटस्य स्यान्नगरस्य चतुःशतम्‌ ।
प्रथमं प्रामपद्‌ ्रामनगरादिवासिलोकपरं धनुशतुदस्तो
दण्डः । मामवासिजनापेक्षया वा भम्यल्पत्वमह््वानुसारेण
वा राजाज्ञया वा गोप्रचारो गोप्रचारशार्थो भभागः
क्तव्यः! तस्य च परौोणादो म्रामादौनां भरेचस्य चान्तररूपः
कमेणेकदिचतुःश्तधनुःपरिमाणः काय्य इत्यथैः । छ
` अच खेटस्य धनुःशतचयरूपमन्तरालम्बनलभ्यं ग्रामादि- `
परिमाणतारतम्येनान्तरालतारतम्यद्‌श्नात्‌।

|

९. घ पुस्तके कपटं काचित्‌ खव्वेट ।


ष्७्य दण्डविवेकः ।

मनुः,
धनुःशतं परौणदो' ग्रामस्य स्यात्‌ समन्ततः ।
शस्यापातास््रयो वापि चिगुणो नगरस्य च ॥
शस्या युगकौलकः स मध्यम पुरुषवाहइ्िततो यावतीं शुव-
` सुल्लद्धा पतति तत्तिगुणो वा भ्रामक्षेचान्तरालपरौखहः।
तच्च भराम्याणं धनुःपरिमाणानभिन्नत्वेनानध्यवसायात्‌
शस्यासौलभ्याचोक्तम्‌ । सेयं पूववपुव्वसव्धनिवन्धदष्टपित-
व्याख्यानानुसारिणौ व्याख्या विवादचिन्तामणौ । `
मिञ्रेस्तु सम्पाता इति परित्वा सम्पाताः काण्डपाता
इति व्याख्यातम्‌ । सन्च्ैतत्‌ परिगणनमौत्‌सभिकम्‌ ।
याषद्गवाद्याकौशणेः यद्मामादि तावदनुसारेण तच
गोप्रचार इति तच्वम्‌। |
अथ विष्णु+--
पथि यामविवोतान्ते न दोषोऽनादते च| न चाल्प-
कालम्‌ ।
ग्रामान्ते रक्षितमोप्रचाराभ्यन्तरे विवौतो गवादि-
नियोगाथे रक्षितयवसो मूभागः, अनाटते पशुनिवारण- `
समनुदत्तिश्रन्ये रथ्यादि्ेचे। तेन वत्मादिसननिहित-सेचस्ये
श्ये पशुभिरल्यकालं खादिति पालदोषो नास्तौत्यथ
ैः ।
बहुकालभक्षणे त्वचापि दीष खव ।
` अत रवोक्तं छत्यसागरे । `
आशयापराधस्तच कंर्यत इति । `
समृतिसारे चोक्त-आआश्यापराधस्तचभवतौति ।
~ -------------~-------------~-----------~----------------------------------------~----~--------------------
~

९ कचिन्मूते पाठः--घनुश्रतपरौारः। र क प्तक यवाद्याकीो ।


प्रनदाधिगताधिकाशः | २७५

४ अ
ता
-=
पथि ग्रामविवौतान्ते प्रेव दोषो न विद्यते |
अकामतः कामचारे चौरवद्‌ दण्डमर्ईति ॥ `

मा
गोभिर्विनाशितं धान्यं यो नरः प्रतिलिष्स॒ते"
पितरस्तस्य नाञ्न्ति नाञ्चन्ति च दिवौकसः ॥
| धान्यमित्युपलश्णएम्‌। भाद्यमप्येतनरकदेतुत्वान ग्राद्य-
मित्यथैः। रुतदपि वचनं ग्रामसमौपस्ितानादतधान्धादि
विषयमिति पराशरभाष्यम्‌ ।
उल्लष्ितशस्तं प्रत्याह नारदः,
गोभिस्तु भितं धान्यं यो नरः प्रतियाचते ।
सामन्तानुमतं देयं धान्यं यच तु भशितम्‌ः ॥
शस्यमित्युक्तधौन्यमित्ययमस्य प्रत्युवादः ।
तथा,
र्गवत्तं स्वामिना देथं धान्यं वे कषकाय च ।
रवं हि विनयः प्रोक्तो गवां शस्यावमदने ॥
गवत्तं गवा भक्ितम्‌। अच रल्नाकरादौ गवचमिति^ ~~~

पाठो यवस इति तद्यास्यानच्च कामधेन्वादिलिखितपादा- `


दशेनमुलकत्वादनादेयम्‌। रुवमिति भ्णवदवमर्हनेऽपि क
~

तस्य दानमित्यथैः।
विष्णुः
सव्व स्वामिने विनष्टशस्यमुख्यञ्च ।
र वापितमिति क्रचित्‌ पाठः| `
[वि

९ ्च्वित्‌ पाठः प्रतियाचते।


द गोवद्धमिति मूले पाटः

सप्० ट
ग्डविवेकः ।

सव्वच सपाले विपाले च मुल्यमिति दाप्य इति ओषः


चकाराद्राजदण्डसमुच्चयः
स |
सपालः शतदण्डार्हा विपालान्‌ वारयेत्‌ पश्रन्‌।
विपालान्‌ पालकश्रन्यान्‌ ।
कात्यायनः
क्ेचारामवित्रीतेषु ख्देषु पशुपातिषु ।
ग्रहणं ततप्रविष्टानां ताडनजञ्च इहस्यतिः॥
पशुपातिषु विकौणेयवसेषु स्थानेषु, ग्रहणं बन्धनम्‌ ।
कामधेनौ चकार स्थाने वाकारः पठितः
कात्यायनः
अधमोत्तममध्यानां पश्रनाच्चैव ताडने ।
स्वामौ तु विवदेद्‌ यच तच दण्डं प्रकल्पयेत्‌ ॥
इति शस्यधातकद्‌ण्डमाठ्का ।
तदेवं गोप्रचारादेरन्यच पशुभिर्भकणेनावमदनेन वा
शस्ये नाशित पशनां पशुपालस्य च ताडनम्‌ | पशु
सखामिनः शखस्ामिने तत्तन्मल्ययोरेकतर
दानं रान्न च
, दण्डदानमपवादविनयादन्यच स्थितम्‌ ।
` तचापवाद्‌ः कचिद्राजदे वदोषात्‌ कचित्‌ पशुविशेषा-
दिति दिविधस्तयोराद्यमाह ।

| राजग्रहखहौतो वा वजाशनिहतोऽपि वा ।
अथ सपणवा दष्टो दृक्षादा पतितो भवेत्‌ ॥
प्रनद्छाधिगताधिकारः । रष

व्याघ्रादिमिहतो वापि व्याधिभिर्व्वाऽघ्युपदूतः


न तच दोषः पालस्य न च दोषोऽस्ति गौमिनाम्‌ ॥
गोमी मोख्वामौ ।
दितौयमाह स रखव,--
गोः प्रहता दश्णदन्तु महोक्षा वाजिकुच्ञराः ।
विनिवार््यीः प्रयन्नेन स्वामौ तेषां न दर्डभाक्‌ ॥
मदहोक्ती कौजसेक्ता दषभः। वाजिकु्ञराः प्रजा-
पालनो पयुक्ताः ।
अद्‌म्या दस्तिनोऽश्वाश्च प्रजापाला हिते स्मृताः|
दत्युशनो दशनात्‌ ।
५ अ
अनिदशदां गां खतां' षान्‌ देवपश्रुस्तथा ।
सपालान्‌ वा विपालान्‌ वा दम्यान्‌, मनुरव्रवौत्‌॥
देवपश्वो देवमुदिश्योत्सृष्टाः पश्वः, उत्सष्टटषाणामपि
गवां गभाथं गोपेधौरणत्सपालत्वमिति कुल्लकभटरः ।
शङ्ख ५

देवपश्वग्कागदषाः श्स्यापराधे न दृण्डमाप्रयुः ।


टषश्ब्देन बौजसेकरत्पिचर्थोत्सष्टटषयोर्महणशमिति
रलाकरः। रुवच्च छागोऽपि तादश रव समभिव्याहारात्‌ ।
उशना
अदम्याः काणकुण्टश्च ठषश्च छंतलश्णः
अदण्डयागन्तुका या गौः तिका चाभिचारिणौ॥ = ।
~~------- (= ----------~- ~~~

१ क्छूतों। २ अदग्ड्यानिति क्रचित्‌ पाटः।



य द्डविवेकः।

कुण्ठः खच्ञः, काणकुण्टशब्दाभ्यामत्यन्तासमथं उच्यत


इति रल्लाकरः दउषश्च सतलश्षशस्िश्रलादयङ्कितः ।
अभिचारिणौ अत्यन्तमारणण्यैला इति दलायुधादयः~~~ ~~~ ~~ +

| ष अत्यन्तधावनशौलेति मिश्राः। पारिजाते तु अभिसारि


णौति परित्वा अभिसारिणौ इषस्यन्तौति व्याख्यातम्‌ ।
आगन्तुका खस्थानपरिभष्टा इति रल्नाकरः ।
अच विशेषमाह नारदः,
नष्टा या पालदोषेण गौश्च सेच विनाश्येत्‌।
न तच सामिनो दोषः पालस्तद णडमहति ॥
आगन्तुका गामान्तरादागतेति यददश्वरमिश्राः । रुव-
मेव सतिसारकारः। अचैव च ्ब्दसखरसोऽपरिणौलित-
परयुथप्रविष्टायाः स्वयुथोत्सेकभयात्‌ वा ॒दुनिवारत्वेन
द्‌ण्डाभावोऽप्यचेव धटते । एवमेव युथभरंशे पालदोषस्या-
वश्यकत्वात्‌। इति विविक्ती दण्डमाटठ्कागेषः ।
अथापवादकाभावाद्‌ यच दण्डस्तच किं सव्ववा-
विशेषेशेव, नेति व्रूमः--
गुरोः क्द्रात्‌ पशे राचावद्धि कामादकामतः।
मदहानल्यः शस्यनाशे दर्डभेद्‌ाय भिद्यते ॥

2स
,ए
.
` तथा हि इस्यादिनाल्पकालक्ृतोऽपि शस्योपधातो-
ऽधिको भवति अजादिना बहकालकतोऽप्यल्पः । राचा- ¦

1


त=

~----~

वुत्सगेतो निवारकाभावात्‌ पालस्य खाभिनो वाऽभौषटतव


यावत्सौहित्यमिच्छया पश्वश्चरन्ति न तु दिवा तयो
1 चन

१ क च्ेचत्‌ |
पनद्ाधिमताध्िकारः। रष

रनिच्छायां वा तथा कचिदेते मुलं शस्यसु पघ्नन्ति कचित्तस्य


श्खापचादिमाचमित्येवम्‌ ।
` हेतुतः स्वरूपतश्च शष्यनाशे गौरवागौरवाभ्यां भिद्यते
दश्डे च गरुलघभावं प्रयोजयति ततश्च विषयभेदमाद्‌ाय
वश्यमाणवाव्यषु विरुडदण्डविधिव्यवस्था विदद्धिरूहयित्वा
सुकरा भवति ।
तज गतम?
पच्चमाषान्‌ गवि षडष्रे अश्वमहिष्योदंश अजाविके
दौदो।
माषोऽच प्रकरणे राजतो मन्तव्यः। लिखितपरिभाषा-
प्रामाण्यात्‌ |
मिताकशरायान्त॒ माषोऽच ताथिकपणशस्य विंशति-
तमो भाग इत्युक्तम्‌ । युक्तञ्च॑तत्‌
तद्ापथेत्‌ पण्पादं गां दौ पादौ महिषौ तथा
इति काल्यायनादिसम्बाद्‌ात्‌ । र्वं दयपराधानुरूपो `
दण्डो भवति ।
ठ शङ्लिखितौ,--
सर्व्वेषामेव वत्सो माषं महिषौ दश खरोष्रौ षोडश्ण-
जाविकं चतुरः सव्वेषां पश्रनाम्‌ ।
वत्सः प्रथमवया; शिशुरिति यावत्‌ । `
विष्णः
, महिषौ चेत्‌ श्यना कुयात्‌ तत्यालस्वष्टौ माषान्‌ `|

दण्डयः! अपालायाः खामौ । अश्वस्तष्रोगहभो वागौश्चे- य




्न
सम
=न
रर=

त्दडन्तदद्गमजाविकंञ्चेद्‌ । भक्षयित्वोपविष्टेषु दिगणम्‌ । व


नर
२२७८४ दशडवि वेकः |

अश्र वणिगादयश्वः प्रजापालत्वाभावात्तस्येति छत्यसार-


स्मतिसारौ। अश्र इत्यादौ शष्यनाशं कुखादित्यनुषङ्कः ।
अच खरोद महिषौसममिति याज्नवल्वयद भनात्तच तच `
समभिव्यादहाराच खरोष्रगर्दभमहिष्यो महान्तः, गौर्मध्यमा,
अजाविके क्षद्राविति विभागः प्रतौयते ।
अथ शङ्खलिखितौ ।
राचौ चरन्तो गोः पच्चमाषान्‌ दिराचीन्‌ः ।
नसद्भ- |
सन्नानां दिगखो दण्डो वसतान्तु चतुर्गुणः
सन्नरानां शस्यभकणश्रान्तानाम्‌, वसतां तचैव चरित्वा
` नीतराचिकाणम्‌ ।
याज्ञवल्वयः,
वसतां दिगुणः प्रोक्तः स्व्तुसानाचचतुर्ुणः |
सवत्सानां वसतामित्यन्वयइमाठकं
मनु दणड
पथि स्चेचे परिखते मामान्तौ. .थवा पुनः
सपालः शतदण्डार्हो विपालान्‌ वारयेत्‌ पश्रन्‌ ॥
बत्मग्रामयोरपि समौपस्थं परितं त्‌ केच तच पाल-
शरून्यः पशुः क्षेचिरीव वारणौयः। सपालः पशुषालेन,
यदि तेनासौ न वः ६।इभिसन्धिदोषादस्य पणशतं `
` दण्डः।
प्रत्य्चारकाणान्तु चौरदण्डः स्मरतो बुधैः ।
९ क चिरात्रौन्‌ ||
परनद्धिगतात्िकारः। २८५

प्रत्यष्चारकाः प्ेिणां समक्षमेव बलेन चारकाः।


तथा, ।
स्वामौ समं दमं दाप्यः" पालस्ताडनमरहति ।
समं भक्षितश्स्यानुरूपं फलं शछेचिशे, दमं दण्डं रान्न
मिपालसमक्षविघयमेतत्‌ ॥
अथ नारद्‌ः, |
समुलश्स्यनाशे तु खामौ दममवाप्रुयात्‌ ।
वधेन पालो युज्येत दण्डं सखामिनि पातयेत्‌ ॥
यस्मिनाओे पुनः प्ररोहो न भवति स समूल शस्यनाशः।
रतयोर्दोषे नाशानुरूपं फलं ेचस्वामिने दण्डञ्च रान्न
गोख्वामौ दद्यात्‌। पालस्य तु अपराधानुरूपं ताडन-
मित्यथेः ।
हलायुधे तु,
यस्मिन्‌ कछषेवे चारिते कणटक्र्बाह्मणदेरत्यन्तपौडा `
भवति, तच गोपो वध्य इति । सुख्याथेपरतया वधेनेति
व्याख्यातम्‌ ।
अच गवादिभकितावश््िं पलालादि मोखामिनैव
श्रहौतव्यम्‌ मध्यस्यकल्ितमुल्यदानेन कौतप्रायत्वात्‌ ।
अत एव नारदः,
पलालं गोमिने देयं धान्यं वै कषकस्य तु ।
` इति मिताक्षराकारः `

रलाकर्‌ः ।

~
रः
१९ कदद्रात्‌। .
२८६ | दश्डविवेकः ।

स च पालाधिष्टानकाले पालस्य । नो चेत्‌ सखामिन रव । `


अपालायास्ततस्वामौ सपालायाः पालः।
दूति विष्णद्‌ शनात्‌ ।
इति छत्यसागर-स्मरतिसारोौ ।
स्लेचिणे शष्यद्‌ानं नाशनुसारेणेव, पालस्य च ताडन-
सपराधानुसारेणेव, नतु पशुपरिगणनयेति विशेषः ।
निधिः पुव्वनिखातं चिरविनष्टं धनम्‌ ।
स॒ दिविधो ज्ञायमानखामिकोऽक्ञायमानखामिकशच ।
तयोरन्यः परनिधिरित्याखयायते ।
अथ प्रथमे मनु
ममायमिति यो ब्रयान्निधिं सत्येन हेतुतः
तस्याददौत षडभागं राजा दाद्शमेव वा ॥
वशो-कालाद्यपेषथा भागविकल्य इति विज्ञानेश्वर ।
बहुग णवत्वागणवच्वापेक्येति कुल्लकभदट्रः । शवमेव रला-
करः । रतच् ब्राह्मण दन्यच द्रष्टव्यम्‌ ।
यद्‌ाह विष्णः, ^

सखनिहिताद्राक्े बाद्यणवन्नं द्ादशमंशं दद्यः, पर-


| निहितं सखनिदितमिति वदन्तस्तत्छमं दण्डमावदहेयुः
परनिदहितमिति तन्निहितमेवातन्निदितं वदन्त इत्यथैः ।
` तत्समं निहितसमं सन्निहितत्वात्‌ दादशणंश्स्यापि
अशि-लिषूष्यत्वेन तस्येव प्रथमं बड्िविषयथत्वात्‌,। अन्धथा
2` बदन्तश्ेति व्रूयात्‌ न तु तत्सममिति। `
९ ङ पुस्तके बुद्धिस्यत्वात्‌ ।
` प्रनद्धाधिगताधिकारः। २८७

मनु | | |

अन्टतन्तु वदन्‌ दण्ड्यः खववित्तस्यांश्मष्टमम्‌ ।


तस्यैव वा निधानष्य संद्ययाऽल्पौयसो कलाम्‌ ॥

| अन्तं परकौये स्वकौयत्वं सखवित्तस्य सब्वस्वस्य तस्य


निश्चये अष्टमं भागं मिश्यावादौ दण्डयः! अनिश्चये
त्वल्ौयसौं कलां निधेरेकदेशम्‌ । स च यावता नाव-
सीदति तावान्‌ ।
अयमख्पानस्पद ण्डविकल्यः सगुणनिगुखत्वापे् इति
कुल्कभद्रः ।
अथ दितीये निधिभेदे वशिष्ठः+
| अप्रन्नायमानं वित्तं योऽधिगच्छद्राजा तद्धरेदधिगन््े `
षष्ठमंशं प्रदाय । (व
अग्रक्ञायमानमन्ञातस्वामिकमस्वामिकच्च । ददमविद्-
द्राह्यणविषयं पारिशेष्यात्‌ । अब्राह्यणलब्धे ब्राह्मणभाग- `
नियमात्‌ । विहद्राद्यणलब्धे राजभागाभावात्‌ ।
विद्ानशेषमादद्यादित्यभिधाय-
इतरेण निधौ लब्धे राजा षष्ठां शमादहरेत्‌।
इति यान्नवल्कयवचनसंवाद्‌ात्‌ ।
इतरेण अविदृषेति विक्नानेश्वर-चण्डेशरव्याख्यानात्‌ ` स

छचियादिप्षक्तभागविरोधात्‌। ५
निश्यधिगमो न राजधनं ब्ाह्मणस्याभिरूपस्य, अन्राह्मणए `
आख्याता चेत्‌ षष्ठमंशं लभत इत्येके । ८
-------+----

९. क अभियुक्तभाग।

२८८ दर्डविवेकः।

इति गौतमवचने अबाह्मशेति नजो निन्दाथैत्वात्‌। पर्यं-


दासपरत्वेऽप्यमिरूपन्ाद्यणान्धत्वेनाविदद्राद्यणशस्येव तत्‌ ।
न च विष्णवाक्य षष्ठांश्स्य रान्ना द्‌ानं याज्ववल्क्यवावये
तस्य ग्रहणमिति विरोध इति चेन्न अभिथुक्तव्याखयानेन
तनिरासात्‌ |
तथाहि मिताक्षराकारः,
इतरेण राजविदद्राह्मणव्यतिरिक्तंन अविद्द्राह्मण-
छचियादिना निधौ लब्धे राजा षष्टंश्मधिगन्त्र
दत्वा शेषं निधिं खयमाहरेदित्याह । गोतमसंवादौऽप्यच
द्रष्टव्यः|
अथ मिताक्षराकारः, न
हरेदिति प्रनष्टाधिगतबद्ययौकरणाभ्यनुक्नानपरम्‌। `
यदि तु खामौ आगत्य खरूपसंख्यादिभिनिधिं सम्भावयति
तदा राजा तस्मै निधिं दत्वा षष्टं दादशं वा अंशं
खयमादयादित्याह । |
राज्ञा सख्यं निष्यधिगमे त्वाह राजधम्म विष्ण:
निधिं लब्धा बाद्यशेभ्यस्तदङडं दत्वा दितौयमद्धं कोषे
म्रवेश्येत्‌ ।
परेण निधिलाभे स रवाद्‌
निधिं लब्धा ब्राह्मणः सखयमेवादद्यात्‌। सचिय-
शतुधेमंशं राज्ञे दयात्‌ चतुधैमंशं ब्राह्मणेभ्यः, अद्ध खय- `
मेवादद्यात्‌ वेश्यशतुधांशं राज्ञ दयात्‌ ब्राह्मणेभ्योऽद्गं
खयमंश्दयमादयात्‌। श्रद्रश्चावाप्तं द्वादशधा विभज्य
पञ्चांशं राक्ते पव्चांशं ब्राह्मणेम्योऽ"शदयं खयमादयात्‌ ।
पनर्प्रधिगमताधिकारः। २८९

बराद्यणोऽच षट्‌कम्पेनिरतः।
ब्राह्मणश्चेदधिगच्छेत्‌ षट्कम्यैसु वर्तमानो न राजा
र हरेत्‌ । | इति वशिष्टवचनात्‌ ।
शवच्च,-
विद्ांतु ब्राह्मणो दष्टा पूर्वोपनिहितं निधिम्‌ ।
अशेषतोऽप्याददीत सव्वस्याधिपतिरहिं सः ॥
इति मनुवचने विद्रत्वमपि षट्कम्यनिरतव्राद्यणपरमेव ।
विदुष रव॒षट्कम्भेकरणस्योत्समिकत्वेन तचैव तत्पद-
योगात्‌ दयोरेकमुलकत्वकल्यने लाघवात्‌ ।
अस्तु वा वाक्यथोरेकवाक्यतया षटकम्माभिरतविद्-
द्राह्यणपरत्वं रख्वमप्येकमलकत्वोपपन्तैः । अतर्व विद्ान-
शओेषमादद्यादिति यान्नवल्यवाक्ये विदान्‌ अरताध्ययन-
सम्यन्नः सदाचारः सवमेव श्लीयादिति मिताक्षरायां
व्याख्यातम्‌ ।
इदन्तु याज्ञवल्क्यवाक्यं ममायमिति यौ ब्रथादि
त्याद्युक्त-राजदेयांश्निरासा्थे पिचादिनिहितविषयमिति
मेधातिथि-गोविन्द्राजौ ।
कुल्लकभट्रस्तु,
परण निदितं लबा राजन्यपहरेन्िधिम्‌ ।
राजगामौ निधिः सव्वः सव्वेषां बाद्यणादते ॥ `
इति नारदवचनात्‌,-
राजा लब्धा निधिं दद्याह्िजभ्योऽ्खं दिजः पुनः। त
विद्ानशेषमादद्यात्‌ स सव्वस्य प्रभुयेतः ॥
इति यान्नवल्क्यवचनाच्च परनिहितविषयमपौत्याह । `
1
२९० द श्डविवेकः ।

तच यद्यपि नारद्वाक्ये सर्व्वेषामिति षश्यन्तादुप-


स्थितेषु खामिषु जाद्यणाहते इत्यनेन ब्ाह्मणशसामिकस्य
निधेः राजगामित्वं प्रतिषिध्यते, न तु ब्राह्मणाधिगतस्य
याज्वल्वयवाक्ये च ब्राह्मणस्य स्यैप्रभुत्वशरुतिरथैवादमाचं
सव्वसं ब्राह्मणशस्येद मित्यादिवत्‌ ।
अन्यथा बहूविरोधोऽतिप्रसङ्गश्च स्यादतो न तदभि-
धानवेफल्यापत्तेरपि परनिधिपरत्वं करूप्यते । `
तथापि राजा लच्छेत्यच निधिपदस्व परनिधिपरत्व-
भरोव्यादादद्यादित्यक्रापि तस्यैवान्वयत उपस्ितत्वात्‌ ।
स च ब्राह्मणशस्वामिकोऽपि यदि तत्वेन न निश्चौयते
तदा तं राजा दरदेव । अन्यथा अनध्यवसायेनापरियदहे `
निधिग्राहकानेकवचनवेफल्यात्‌ ।
: अथ यदि निधिपाचलिखनाद्ा दैवन्नप्रभ्नादेवा तत्त-
थावभिथते तदा राजापि न हरेत्‌ ब्राह्मणाहति इति
नारदवचनात्‌। तस्मादेनं प्राप्य ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्‌
ब्रह्मस्वं ब्राह्मणो नयेदिति सम्भ॒यससुत्धानप्रकरणौय-
४ छदहस्यतिवचनसंवादात्‌ ततः सजातिरित्यनपत्यधनप्रकर-
शौयनारदवचनस्वरसाच )
नवैवं परखादानं ब्राह्यणस्य स्यादिति चेत्‌ न अस्मा-
दैव वचनात्‌ परकौयेऽपि निधौ तस्य खल्वावगमात्‌।
सखामौ रिक्यक्रयविभागपरिग्रहाधिगमेषिति।
गोतमस्मरणच।
अधिगमो निध्यादेः प्रात्तिरिति निबन्धेषु वबाख्यानात्‌।
५ द्रनन्वेवमधिगमाविशेषेऽपि
१ ष्टव्यमिति चेत्‌ न वाचनिकत्विष्णुवाक्ये भागभेदप्रतिपादनं | ||| ८
वादेव सुधटत्वात्‌ ।
पनदटाप्विगताधिकारः। ९२१

अथ तथापि परिहिते खामिखत्वनिदत्तिः कुत इति |


चेत्‌ अन्नायमानख्वामिको निधिदिविधः। नष्टखासिको
लुत्तस्वामिकंश्चेति । |
तयोरादचये खाम्यभावादेव निविष्टकत्वम्‌ अत्‌
स्तृणादिवदेव तच परिग्रहात्‌ खाम्यम्‌ । दितौये तु
प्रच्छन्नस्य सखामिनोऽननुसन्धानाद्यनुमितादुपेक्षणादेवः
सख्त्वनिहत्तिः ! असतु वा प्रनष्टाधिगतस्यलवदन्यखवामिक-'
स्येव विनियोगः, अस्मादेव वचनात्‌ ।
न चैवं वाक्यभेदादट्युगपद्त्तिदयविरोधः स्यादितिवाच्यम्‌।
उक्तादावपि विनिथोगमाचस्यैव विधानात्‌। रुवञ्च
उपस्थिते स्वामिनि प्रनष्टस्यैव निधैः परावर्तनम्‌ । अत
तदुक्तभागभेद्‌ विकल्पपरि कल्य- र | |0
| रखव॒मिताक्षराव्याख्यानं
नच्च घटते। 1
ननु स्तेयप्रतिषेधशस्त्रेण विरुडमिदं विनियोगवचन- `
मिति चेन्न अथैश्णस्तरत्वात्‌ गोभ्ितश्यग्रहणस्योशनसा
स निषेधेऽपि गोतमेन विधानवत्‌, खदारनियमे शङ्ख- `

लिखिताभ्यामुक्तेऽपि नारदेन परानवसदखदासौगमना-
। भ्युज्ञानवत्‌ । ब्राह्यशस्यार्हिस्यत्वे मनुनोक्तेऽपि कात्यायनेन
आततायिनो हिंसाभ्यनुन्नानवत्‌, मातुलकन्याया मावर य

| सपिर्डत्वेन शशतातपादिभिरुदहनप्रतिषेधेऽपि ददचस्यतिना


तन
`
` दाश्िणत्यानां तत्‌प्रतिपादनव । | ह
कः तस्माद्‌ श्नः-शड्क-लिखित-मनु-शतातपादिवचनानां `
धम्मैशासख्रत्वेन बलव्वेपि यथा गोतम-नारद्‌-कात्यायन- `
न न

१ ख एस्तके परिग्रहेण । द्‌ ङ एके-देवेतरखत्वनिटत्तिः। १ (५ ५



२९२ । द्ण्डवितेकः ।

इदहस्यतिवचनानामथेश्णस्रत्वेन दण्डाभावपरतया चरि


ताधैत्वादविशोधस्तथा परसखादानवज्जनं यद्यपि धम्येशस्तर-
त्वेन व्रतोपमञ्च बलव्वात्‌, तथापि यस्तमपहस्तयित्वा
निधिं खह्ञाति, तस्य राज्ञोऽविगहणमितरस्यादण्डनमिति
निधिग्राहकवचनाथैः ।
एष चाथेः,-
अजडश्ेदपोगणश्डो विषये चास्य भुज्यते ।
भागं तद्यवहारेण भोक्ता तद्धनमरहति ॥
इति वदता मनुनैव स्यषटसुक्तः, व्यवहारेणेति वचनात्‌
धम्पेतः पूब्वख्नामिन रुवेत्यभियुक्तविवरणात्‌ ।
रुवच्च ब्राह्मणेतरस्वामिकत्वेनेव निश्चितो निधिरादेय-
स्तदितरस्तु रान्ना ब्राह्यशेभ्यो देय इति खितम्‌ । इह
ब्राह्मणादेः छत्यैकदेश्यदणं राजनिवेदनपुव्वकमेव ।
यदाह नारदः--
: परेण निहितं लब्धा राजन्यपहरनिधिम्‌ ।
तेन दज्नन्तु ुच्ञौत स्तेनः स्यादनिवेदने ॥
स्तेनः स्यादिति स्तेयोक्तदण्डप्रा श्यथेम्‌ ।
यान्नवस्क्य
अनिवेदितविन्नातो द्‌ाष्यस्तं दण्डमेव च |
तं निधिम्‌ दण्डं शक्यपेश्मिति मिताक्षराकारः। `
सव्वस्वमिति त्म्‌ । | |
` तथाचव्ष्णुः--
अनिवेदितविन्नातस्य सव्वसखमादहरेत्‌ |
इति प्रकौणके उदिष्टवगैः॥
अथ सादसमाई ।
प)

मनुष्यमारणं स्तेयं परदाराभिमर्षणम्‌ ।


पारुष्यमुभयच्चेव साहसं पच्चधा स्मरतम्‌ ॥
अच प्रकाश्छतत्वलश्षणमाशित्तं सामान्यलक्षणम्‌ ।
पच्चधेति विभागः प्राणिहिंसा स्तेयं परदारपरियहो वाक्‌-
पारुष्यं दण्डपारुष्यमिल्युदेशः। इह च साहसे रितुज्नान-
वारणं नास्ति, लेये तु तदस्तीति तस्यासादसत्वादुक्त
विभागानुपपत्तिः स्तेयलषूएणे साहसलशरणे चान्थाततिः ।
रञ्चिसमश्षकतस्यापि परद्रव्यग्रहणस्यापड्वे स्तेयत्वाद्त- `
त्समश्कतस्यापि परदारपरिग्रहादेः साहसत्वात्‌ । अत-
स्तदुभयमनृ्याप्युपेश्य-
सहसा क्रियते कम्भ यत्किञ्िद्रलदर्पितेः । `
तत्साहसमिति प्रोक्तं सहो बलमिहोच्यते ॥
₹ति नारदेनोक्तम्‌ ।
रवच्च समाख्यानुगतं बलकतत्वमाचमेतन्मते साहस-
लक्षणम्‌ । |
तदेतत्‌ स्यष्टमाद, | |
आधिः साहसमाक्रम्य सेयमाधिषग्कसेन तु ।
५ आधिः पौडनं तदलेन यच क्रियते तत्साहसम्‌। `
यच तु रक्ितुरपवाग्ये छलेन कियते तत्‌ स्ेयमित्यथैः। `
रतेन स्तेयस्य दिरूपत्वमुक्तम्‌ । अत खव स्ेयादौना- |

<
<

मविशेषश्रुतावपि बलावष्टम्भेन क्रियमाणानामेषां साहस- `


२९४ ` दण्डविवैकः |

त्वम्‌ । अतस्तचैव दण्डाधिक्यं न तु रहसि कियमाणाना-


मिति तच प्रतिपादोक्त खव दण्ड इति मिताकराकारः।
रुतदेवाभिसन्धाय याक्नवल्क्येन । |
सव्वः साक्षौ संग्रहणे चीय्य-पारुष्य-सादसे ।
इति प्रथगपादानं कतम्‌ ।
रुवच्च परिगणितेभ्योऽन्यस्यापि साहसत्वात्तच तदुक्तो
दण्डो घटते ।
यथा दस्यति-
हौनमध्योत्तमत्वेन चिविधन्त्मकौर्तितम्‌।
द्रव्धापेष्ो दमस्तच प्रथमो मध्य उत्तमः ॥ `
उदाहतमिदं प्रकौरणपद्ारप्रकरणे, नारद,
तस्य दर्डः क्रियापेक्षः प्रथमस्य शएतावरः ।
मध्यमस्य तु शस््रजेैष्टः पञ्चशतावरः ॥
उत्तमे साहसे दण्डः सदहस्रावर इष्यते ।
वधः सव्वखदरणं पुरानिर्व्वासनाङ्कने ॥ `
तदङ्गेद्‌ इत्युक्तो दण्ड उत्तमसाहसे ।
तदङ्ग साहसकरणभूतम्‌ । उत्तमसाहसे वधादयोऽप-
राधतारतम्यात्समस्ता व्यस्ता वा योज्या इति मिताक्षरा
परद्रव्यसख्य हिंसापद्ारादो मल्यसमं दममभमिधाय-
इदहस्यति |
दगुणः कल्पनौयः स्यात्‌ पुरुषापेश्चया न्पैः । `
यान्नवल्वः,

| 4
तन्मूल्यादविगुणो दण्डो निहवे तु चतुर्गुणः । `
साहसमाद् | ¦ रश

अस्मादेव विशेषदर्डविधानात्‌ प्रथमसाहसादि-


सामान्यदण्डविधानमपहारव्यतिरिक्षविषयमिति गम्यत
इति मिताक्षराकारः ।
इहस्यतिः,-
हत्त च घातनौयः श्यात्‌ प्रसङ्गविनिषृत्तये ।
अन्यष्दण्डादिनानुपशम्यतोऽभ्यासविषयमिदम्‌ । `
भनु

~

द्रव्याणि हिंसेद्यो यस्य ज्नतोऽज्ञानतोऽपि वा |


स तस्योत्पादयेत्तुषटिं राज्ञे द्या तत्समम्‌ ॥
तुष्टिं हिंसितप्रतिसंस्कारादिना । अच ज्ञानतोऽज्ञानतो
वेति तुध्यु्पाद्‌नापेश्षयोक्तम्‌ । दण्डस्तु ज्ञानतो नाश्ति- ` |
मूल्यसमः । अन्नानतस्तदङ्खमिति नारायणेनोक्तम्‌ ।
तथाच,-- |
चम्मेचाभ्मिकभाण्डेषु काषठलेाष्रमथेषु च ।

मूल्यात्यच्चगुणो दण्डः पुष्यमूलफलेषु च ॥ `



चाभ्मिकमुपानत्‌पानपाचादि। काष्ठमयं मान-
|
पाचादि । ज्ाष्रमयं कुम्भादि । प्रथमं चम्पेपदं स्फटाथे-
मिति रल्लाकरः।
सव्वचाच साहसिनो गृणवत्वागृणवत्वाभ्यां आब्छत्व- `
दरिद्रत्वाभ्याञ्च विषयस्य वेशिच्यावेशि्वाभ्यामपराधस्य `
मौरवलाघवाभ्याञ्च व्यवस्था |
` नन्वेवमदूषयितुमवमतानुवादो व्यथः। न व्यथेः-- कामं ।||५ १
स्तेयादिवं साहसं किन्तु तस्यापि वलद्र्पाभिष्मोपाधि-
१. ख अथे दण्डादिना, ग अथं दण्डादिना इति पाठः|
२९६ दशडपिवेकः ।

छतत्वे द्ण्डाधिक्छमिव्येवंपरत्वात्‌ बलं विनापि साहस-


प्रयोगोऽस्तौत्येवं परत्वाच ।
अस्य च बलं विनाऽपवारितकेन यानि दृष्टचे्टितानि
तेषां गौणं साहसत्वमभिधाय तेष्ठपि यथोक्तदण्ड-
प्रा्यथेत्वात्‌ ।
अत रव तेस्तेकछषिभिस्तानि तानि वचनानि साहस-
ॐ ~ £

प्रकरणे पटितानि। तदनुसाररिषु च कामधेन्वादि-


निबन्धेषु तकैवावतारितानि। केवलमस्माभिः प्रकरण
भेदप्रतिन्नानादिभाजकोपाधिभेदसम्बादनाय प्रकौरोप्रकरणे
संहतानि ।
तच हे कण्टका
दिक्पे याज्ञवल्वयः,
दुखोत्पादि हे द्रव्यं श्िपन्‌ प्राणहरन्तया ।
पोडशद्यः पणान्‌ दण्डयो दितौयो मध्यमं द्मम्‌ ॥
खे परकौये, दुःखोत्पादि कण्टकादि प्राणरं
सर्पादि ]
दण्ड दइत्यनुटत्तो विष्णः
यहे पौडाकरं द्रव्यं प्रक्षिपन्‌ पणशतम्‌ ।
पौडातारतम्धाद्‌च व्यवस्था । |
इद गषहपरेन यच विश्रब्धं वत्तमानष्य कण्टकादिना
वेधासम्भवस्तादशं वतमदिकमय्युपलश्यते ।
यत्त शरौरोःङ्गरेदो वेत्यनुदृत्तौ मार्ग-रसद्रव्यदूषण
इति शङ्कलिखिताभ्यासुक्तम्‌ । तच मागेदूषशं तौष्ण- `
[का थ

` व्याख्यातमतो दश्डगौरवं घटते ।


साहसमा । २९७

तथा हि विषाक्ता लौहमसौ शलाका कच्छपिका अङ्गग-



टिका प्रच्छन॑॑श्रूलगं गर्तम्‌ विषाक्तं सर्पिः पयो

वेत्यादिप्राणपदहारव्याप्तम्‌ । अव्यात्तावपि प्रयोक्तुः पर-
जिघांसा गमयति ।
अत रव यच प्रयुक्तैरेतेः परस्य प्राणवधस्तच प्रयोक्तु
रपि शरौरो मारणरूपो दण्डः । यच तु पौडातिशयमाचं
तचाङ्गनेद्‌ इति विकल्पो घटते ।
थः

रुवच्च सर्पादेः प्राणहरत्वेऽपि तव्म्षेपुजिंधां सावगमेऽपि


यच प्र्िप्तस्य तस्यापसरणात्‌ पौडाभावस्तच याज्नवस्योक्तो
दण्ड इति द्रष्टव्यम्‌ ।
अथ मागदयुपघाते मनु
समुत्सृजेद्राजमागे यू्मेध्यमलादिकम्‌ ।
स दौ कार्षणपणौ दण््योऽमेध्यच्वाशु शोधयेत्‌ ॥ 1



राजमार्गः कात्यायनेनोक्तः |
सव्वे जानपदा येन प्रयान्ति सचतुष्यद्‌ाः ।
अनिषिद्खा यथाकामं राजमागेः स उच्यते ॥ ¦
अभेध्यं पुरोषमिति मनुटौका। अनापदि आ्यभावे।
अस्यापवादमाह,
आपत्क्ते यथा खद्धो गस्मभिणौ बाल खव वा
परिभाषणमहन्ति तच्च शेष्यमिति स्थितिः ॥
परिभाषणं मा पुनः छत्यमिति वाग्दमम्‌ ।
विष्णः ^ य

पथ्यद्यान उदकसमौपे अशच्यत्करादित्यागे पणश्तम्‌। ` |


तच्चापास्येत । ध
२९८ 0.0 द्‌्ण्डविवे
कः |

पणशतं दण्डय इत्यनुषङ्गः ।



तडागोचयानतौर्थानि योऽमेध्येन विनाशयेत्‌ ।
अमेध्यं शोधयित्वा तु दण्डयेत्‌ पूव्वसादसम्‌ ॥
अथ खहकु्यादिभेदे विष्णुः+- दण्डानुरृत्तौ ।
हकुद्याद्यपभेत्ता मध्यमसाहसं तच्च योजयेत्‌ ।
तद्गहकुद्यादि योजयेत्‌ प्रतिसं
स्कग्यौत्‌ भेदक इत्यर्थात्‌
रतच हसदहितकुद्यादिगतप्रोढविदार
विषयम्‌ ।
श त
अभिघाते तथा भेदे केदे कुड्यावधातनेः ।
पणान्दण््यः पञ्चद्‌श विंशतिं तद्भयं यथा ॥
कुद्यस्याभिघातो बन्धनशिथिलौकरणम्‌ । तच पच्च- `
पणा दण्डः । भेदः कापि बन्धनादिविघटनं, तच द्‌
पणाः ।
` केदो देधौकरणम्‌। तच विंशतिपणाः । अवधात उक्तेभ्यो
ऽधिको विमहंः। तच्च चत्वारिंशत्पणा इत्यधेः, इति रल्ाकरः।
रुवभमेव मि्राः |
मिताक्षरायान्तु कुद्यावघातन इत्यच कुद्‌ालपातन इति
तदयमित्यच तद्ययमिति च पठितम्‌ ।
व्यास्यातच्च \- कुदालादिना कुद्याभिधाते विदारणे `
` देधौकरशे च यथाक्रमं पञ्चपण दशपणो विंशतिपणश्च `
दण्डः। कुंद्यस्यापासने पुनरेते चयो दण्डाः समुचिता `ए
९ क्वचित्‌ अवपातनं इति पाठः|
साष्टसमा
द्र । २६९

दाष्याः। कुंडस्य प्रुनःसम्पाद्नाथेच्च धनं खामिने


द्द्ादिव्युक्तम्‌ । |
हलायुधोऽप्याहऽ-- = |
कुद्याभिषातमाते पञ्चपणाः, विदारणे दश्षणाः, `
देधौकरणे विंश्तिः। अवपातने तु समुचित वायं दण्डः ।
अभिहतादिदानच्च खामिने सव्वेतरेति ।
युक्तच्चेतत्‌ नैयायिकत्वात्‌ । कामधेन्वादावपि तद्यय-
मिति पाठः,
कात्यायनः+--
प्राकारं भेदयेद्यस्तु पातयेच्छातयेत वा ।
वध्रौयादथवा मागें प्राप्नुयात्‌ पूव्वसादसम्‌ ॥
प्राकारः पाषाणेष्टकादिङकता दतिः ।
विषुः ४
खदकुद्यादिभेत्ता मध्यमसाहसम्‌ । तच्च योजयेत्‌ । ¦
मनुः,


,स
प्राकारस्यावभेत्तारं परिखाणाच्च पूरकम्‌ ।
दाराणाच्चेव भेत्तारं क्षिप्रमेव प्रमापयेत्‌ ॥
द्वाराणां द्ारमागौदौनाभिति नारायणः । अचप्रमा- |
पयेदित्यच मनुटौकायां प्रवासयेदिति कुल्लुकभट्रेन पठितम्‌ । `
देश्णन्निनमसयेदिति च व्याख्यातम्‌ । 4
मराकारभेदस्याल्पानल्यभावभेदेन दण्डव्यवस्था । भिन्न- |
प्रतिसंस्कारश्च गहकुद्यादिवदचापि द्रष्टव्यो न्याय |
साम्यात्‌ । | ८
३०० दश्डविवेकः

अथ पृज्यातिक्रमादौ षोडशके यान्नवल्कयः,--


"अर् याक्रो शतिकरमसद्ाठभा य्याप्रहारदः ।
सन्दिष्टस्याप्रदाता च समुद्र-ख्हभेदकः ॥
सामन्तकुलिकादौनामपकारस्य कारकः।
पञ्चाशत्पणिको दण्ड रषामिति विनिश्चयः ॥
खच्छन्दविधवागामौ विकुष्टोऽनमिधावकः।
अकारणे च विक्रोष्टा चणश्डालथोत्तमान्‌ स्पृष्एन्‌ ॥
शरद्रमरत्रजितानाच्च ३वे पिच्ये च भोजकः।
अयुक्तं शपथं कुव्न्नयोग्यायोग्यकम्पेत्‌ ॥
इष्-ुद्र- पश्रनाञ् पंरूवश्य प्रतिघातकः ।
साधारणस्यापलापौ च द्‌ासौगञ्मविनाशकः ॥
पितापुचखषटसाठ-दम्पत्याचायशिष्यकाः ।
रषामपतितान्योन्यत्यागौ च शतदण्डभाक्‌ ॥
` अर्ध्यं अर्ध्याः, अचार्व्यादिः। अतिक्रम आन्ञा-
लद्नम्‌ । प्रहारस्ताडनम्‌ । सन्दिष्टस्य परेषितस्य द्रव्यस्य
प्रतिश्रुतस्येति मिताक्षरा । ससुद्रख्दभेदको सुद्वितखद-
` मुद्राभेदकोऽनियुक्त इति शेषः। सामन्ताः खणश्टहष्टीचादि
सायिनः। कुलिकाः कुलजाताः। आदिशब्दादन्येऽपि
` सखयामोद्धताः खदेशेडताश यन्ते । |
अथ कुंद्यमिन्नद्रव्याभिषातादो काल्यायनः,-- न

छतिभङ्गोऽवमद्यौ वा कृ्याट्रव्येन यो नरः ।


प्राप्यात्‌ साहसं पव्वे द्रव्यभाक्‌ खाम्युदाहतः ॥
~-~-------------------------------------------------------

९. घ ङ पुस्तकदये अय्याक्रोश ।
साहसमा । २०९

तिः किच्िन्नाशः। भङ्गोऽ्नाशः। अवमर्दः सव्ध-


नाशः । अच अल्पराधातेन यदनुपयुक्तं भवति तन्महामूल्यं
स्फटिकादिद्धव्यं विवक्षितम्‌! तेन सव्वच दण्डसाम्यं घटते।
इलायुधोऽप्याद, |
छतादौनां लघग्रुभावेऽपि दरश्डसाम्यं द्रव्यविषया-
विषयतया समथैनौयमिति । द्रव्यभागिति ।
छतादिकनत्तौ रुषामपकार कोऽनिष्टक्षत्‌ ।

हलायुधस्तु रुषां नोपकार यः करोतौत्याद । भि्स्तु


आकारस्य नेति पटित्वा रषामनाद्वायक इति व्याख्यातम्‌ ।
सखच्छन्द विधवागामौ नियोगाभावेऽपि तद्गाम्नै ।
विष्णः `
िधावकः सत्वरं तद्‌-

चौराद्याकान्ते रक्षाथैमाहृतो नाभ


सन्निधिगामी | स

यदाह हलायुधः--शक्तः सन्‌ यो न धावतीति।


मिश्रैस्तु अनभिधायक इति परित्वा प्रतिवचनाप्रदातेति
व्याख्यातम्‌ । । |
उत्तमान्‌ ब्राह्मणादोन्‌ । श्रुदरप्रत्रजितानां दिगम्बरा-
दौनाम्‌ | अयुक्तं शपथं खमातरं गह्लामौत्याकारम्‌ ।
अचानियुक्तः शएपथकारौति विष्णक्तमपि ग्राद्यम्‌। तस्याप्य- `
युक्तत्वात्‌ । अयोग्यः ्रुदरादिः। योग्यं कम्पे प्रतिग्रहादि। |
~

तेन प्रतिग्रहाययोग्धः प्रतिग्रहादिकारौत्यथैः। `


दृष्टेति पंस्वस्य फलप्रसवशक्तरौषधादिप्रयोगेण प्रति- = |
घातकः। इषो वलौवदः। पश्रनां शरुद्रता दस्याद्पेश्या। `
३०२ | द्‌एडविवेकः ।

विष्णना तु पश्रनां पंर्वोपघातौति सामान्येनोक्तम्‌ ।


व्धाख्यातच्च तच रनाकरकता पुंरू्लोपधातो गद^च्छेद
दूति,
साधारणपलापौ अपर साधारणद्रव्ये निष्कम्पवच्चकः।
इद विक्रुषटस्यानभिधावतः शतदण्डोऽयमाक्रोश्कस्य घाता-
दभावे, तत्सत्वे तदनुसारौ दण्ड इत्याह
विष्णः
एकं बहनां निघ्रतां प्रत्येकस्योक्तद्‌ण्डाद्धिगणः । उत्‌-
करोश्न्तमनभिधावतां तत्समौ पवत्तिना्च ।
दिगुणो घातकद्‌ण्डापेश्चथा । तथा चाण्डालस्य शत-
द्ण्डोऽकामक्ृते स्पशे ।
अन्यच विष्णु
अस्पृश्यः कामचारेण अस्प्रश्यान्‌ स्पृश्यन्‌ वध्यः । रज-
खलां शिफाभिस्ताडयेत्‌ ।
रजस्वलां स्णशन्तौमिति शेषः। शिफा इषनेचम्‌ ।
` तचमप्रभवथा रज्वा प्रहरेदित्यथैः। तथा श्रद्रादेः प्रति-
` ग्रहादेरनभ्यासे शतदण्डः।
अभ्यासे त्वाह मनु,
यो लभादधमो जात्या जौवेदुत्कुष्टकम्भेभिः ।
तं राजा निधनं क्त्वा छिप्रमेव प्रवासयेत्‌ ॥
अच तु जात्या अधमो वेश्यादिः। उत्कृष्टस्य कछचियादे-
रसाधारणकम्भेणा जौवेत्‌ तं धनहौनं छत्वा खराष्टा-
:सारयेदित्यथे इति हलायुधः । एवमेव रल्ञाकरः ।
~

९ क खङ्केदः।
साहसमा । २०३

तथा तकैवोक्तं द्‌ासौगर्विनाशेऽच पणशतावबोधात्‌ ,


ब्राह्यणौगर्भवधे सव्वेखदहरणाववोधात्‌--
शस्त्रावपाते गञ्र॑स्य घातने चोत्तमो दमः।
इति याज्ञवल्कयवचने तदन्धगब्भघातो विवक्षित इति ।
मिताशरायामपि दास ब्राह्यणेगञ्॑व्यतिरेकेशेति
शेषमन्तभव्य वचनमिदमाख्यातम्‌ । तच ब्ाद्यणौगश्मवधे
सव्वखहरणं यद्यपि शङ्गयाहिकतया न कचिदुक्तं तथा-
प्यौचित्यादैव तच द्रष्टव्यम्‌ । |
यद्यपि मिताक्षरायां हत्वा गद्ममविन्ञातमित्यच बचद्य-
इत्यातिदेशं वश्यतोत्यचोक्तं॑ तदपि तदभिप्रायकमिति
प्रतिभाति ।
इह च प्रहारस्य करणत्वमपेक्ितं शस्ाव्पातस

उपश्थितत्वात्‌ वचनान्तरसंवाद्‌ाच |
यथाहोशनाः, >
~.
५८
=< व,
स[
=

परिक्तेभेन पुव्वः स्याद्धेषज्येन तु मध्यमः ।


प्रहारेण तु गस्भ॑स्य पातने दण्ड उत्तमः ॥


परिलेणेन आयासेन गर्भस्ये्यन्वयः। भैषज्येन
गवभष्य पातने इति सम्बन्धः|

` पिदपुचाचाययाज्यत्विजामन्योन्यापतित्त्यागौ । नच `
` तान्‌ जच्यात्‌।. =
`
`, तान्‌ पतितानिति शेषः। त्यागो विदहितसत्वारा्ना-
चरणम्‌ । अल्यागश्च निषिड्सम्भाषणाद्याचरणम्‌ ।
४५ | दश्डविवेकः।

अथं तद्‌ण्डो विदुषोरन्योन्यत्यागे ।


नमातानपितान सौ न पुचर्यागमरति।
त्यजन्नपतितानेतान्‌ रान्ना दण्ड्यः शतानि षट्‌ ॥
इति मनृक्तः तदण्डो विदुषा कामादेकतरत्यागे
` द्रषटव्यः।
अत्याज्या माता तथा पिता सपिण्डा गृणवन्तः सरव
एवात्याज्याः। यस्यजेत्‌ कामादपतितान्‌ स दण्डं प्राप्रया-
दिशतम्‌ ।
इति शङ्कलिखितोक्तो दिशतदण्डः कामादविदुषेकतर-
त्यागे द्रष्टव्यः ।
अथ मार्गादानादौ विष्णु+- ५
येषां देयः पन्धात्तेषामपथदायौ कार्षापणपच्विंशति- `
पणान्‌ दण्डयः । आसन्दस्य आसनमददत्‌ , पृजाहंम-
` पूजयंश्च, प्रातिविश्चत्राद्यणे निमन्लणा तिक्रमे च निमन्त्र-
यित्वा भोजनादायौ च निमन्त्रितस्तथेत्युक्ता चाभुच््ानः
सुवशेमाषवं निकेतयितुश्च' दिगुणएमननम्‌ ।
अच मनु,
चक्रिणो दश्मौखस्य रोगिणो भारिणः स्तियाः।
स्ातकस्य च राज्ञश्च पन्धा देयौ वरस्य च ॥
चक्तौ चकयुक्तरथादियानवान्‌ । दशमं गतो नवति-
वर्षोपरिवयाः। वरो विवाहाय प्रखितः। रुतदाचार््ो-
पाध्यायगर्व्वादौनां विद्यादृद्वादौनाच्वोपलशकम्‌। `
अपथदायौ उक्तानां पन्धानमददानः। आसनादश्य
दमम निमन्भव्िष 1
त ">~
साहसदण्डः । २०५

आसनादाने पूजनार्ईस्या पूजने पञ्विंशतिरित्यनुषच्ज-


नौयं चयाणां तुस्यरूपत्वात्‌ । ‹ [रवं सुवशेमाषः पृव्वयो-
रपि द्रष्टव्यस््याशां तुल्यकपत्वात्‌ || <
प्रातिवेश्यत्राह्यमणएनिमन््रणातिकामौ निमन््णावस्रे `
प्राप्त दोषं विना निरन्तरख्हवासित्राह्यमणनिमन्त्ण-
स्लौकारौ । निकेतयितु्निंमन््यितुः । |
तदण्डानुटत्तौ ^पन्धानच्ाददानस्तु" इति मनुवचन-
माचार्व्यादिःपृज्चतमविषयमित्यविगोधः।
मनुः,
प्रातिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याशे विंशतिदधिजे ।
अदहावभोजयन्‌ विप्रो दण्डमदहति माषकम्‌ ॥
अनुवेश्य रुकान्तर श्टहवासौ । कल्याणमिह माङ्गल्य-
कोम्प, विंशतिर्दिजा भोज्यन्ते यच तर्दिंशतिददिजम्‌ ।
रुतदुभयं ब्राह्मणभोजननिमित्तमाचोपलश्षणम्‌ । विप्र ¦
इति वचनात्‌ क्षचरियस्य न दोष इति नारायणः ।
तथा,-- |
्रोचियः ओ्रोचियं साधुं भूतिकतयेषु भोजयन्‌ । `
तदजं दिगणं दाप्यो हेरण्यव्चेव माषकम्‌ ॥ `
श्रोचियः सदाचारवान्‌। ओओचियं तथाविधमेव, साधुं |
| गुणवन्तम्‌ । स च प्रतत्वात्‌ प्रातिवेश्चातुवेश्यरूप स्वेति |
| कुलूकभद्रः। भतिक्त्येष॒विवादादिधिति मनुटौका। |
। तदन्नं तद्धोज्यमन्नं दिगुणं दाप्यः, अभोजितायेति रनाकरः।
~---~---------------~---- "~~~

१ घ पुरतके [ | चिदितांशो नास्ति]


३०६ । द गडविवेकः ।

भोजनमक्षतवते इति त्वम्‌! विष्णवचनेनेकम्‌लकत्वात्‌ ।


दिरण्यमाषकं दाप्यो रान्ने।
अच प्रतिभाति--रुतत्‌ प्रातिवेश्यानुवेश्यव्यतिरिक्त-
साधुश्रोचियविषयं विंशतिदिज इति विशेषण्स्वरसात्‌ ।
` एवञ्च पुव्वेवाक्येऽपि माषः सौवण रव वाच्यः,
प्रकरणात्‌ विषयसाम्धाच्च।
अर्हो निमन््रयितुर निमन्त्रण स्वौकारिणा विष्णक्तन
तुल्यत्वात्‌ सन्निहितेन निर्दोषेण व्यवहितस्य सगणस्य
तुल्यत्वा्च । पुव्धच दोषाभावे सति सानिध्यस्यैव गुणत्व
चित्येन निमन््रणप्रथोजकत्वात्‌ ।
यत्त॒ हलायुधेन तवोक्तं माषकश्वाच रोप्यो बोडव्यो `
मानवेनोत्तरशनोकेन अतोऽधिके भूतिञ्यात्मके प्रातिवेश्च- `
ओचियाभोजनरूपे अपराधे विशिष्य हिरण्यमाषकदण्डा-
भिधानादिति। तजिन्त्यम्‌ । |
उत्तरश्चोकविषथस्य दशितत्वात्‌ । तस्यापि प्रातिवेश्य-
` विषयत्वे द्ण्डभेदानुपपत्तर्भेदहेत्वभावात्‌
क त)

गुणवच्वस्य
व्यवहितनिमन््रणशप्रथोजकत्वेन चरि ताथेत्वात्‌ ।
नच पुव्यैवाव्ये विंशतिद्िज इति वचनान्माङ्गल्यस्य च
काम्ैणो लाघवम्‌ । उत्तर वाक्ये भरूतिषत्य इतिवचनात्तस्येव
गौरवं विवश्ितम्‌। अतः प्रभूतेऽपि कम्पणि सन्निहित-
` ओओच्रियानिमन््णमित्यधिकोऽपराध इति युक्तं दण्डाधिक्य- 2

2
र-
">

` ` मिति वाच्म्‌।
विंशतिदिजेऽपि कम्मेणि वाधकाभावे प्रातिवेश्चपरित्यागे
अपराधाधिप्क्यात्‌ ।
^~

९ कं अपवाघ्ाधिक्यात्‌ | `
साहसदण्डः । ०७

न च सन्निहित रुव ओओचियसाधावनिमन्तिते हेरण्यो |


मापोऽनैवंभूते राजत इति व्यवस्येत वाच्यम्‌।
तरिकः स्थानिक शुल्कं ल्लन्‌ दाप्यः पणान्‌ द्‌श
ब्राह्मणान्‌ प्रातिवेश्यांच तददेवानिमन्लयन्‌ ॥ `
इति यान्नवल्कववचनविसंवाद्‌ात्‌ |
मम तु सनिहितनिगंणनाद्यणएविषयत्वेनास्य सामच्ञ-
स्यात्‌ ।
दिजे भोज्ये तु सम्प्राप्ते पापे नास्ति व्यतिक्रमः।
इति कामधेनुलिखितमल्स्यपुराणद शनात्‌ । तस्मा-
दुत्तरवाक्यं यथाव्याख्यातविषयमेव ।
निमन््णास्वोकारिणो भोजनादाथिनोऽभुच्ञानस्या-
निमन्ल्यितुश्च चतूर्णणसुक्तरूपाणां सवणे खव माषको ` |
दण्डः ¦ उत्तरयोदिगणभोजनदानमधिकम्‌ ।
अतु वा सन्निहितेघ्रेव गृखतारतम्यात्‌ सौवर्णो माषो |
दशपणा राजतो माष इति व्यवख्या । ध
इलायुधस्त्वाह तुल्यरूपे विपे हैरण्यं माषकं ततो दौने `
द्‌एषणाः, ततो हौनतरे रूष्यमाषकमिति व्वस्ा । |
अथाहेतुकप्रतिय्रहत्यागे विष्ण
आमन्त्रितो द्विजो यस्तु वत्तमानः प्रतिर ।
निष्कारणं न गच्छतत स दाप्योऽष्टशतं दमः ॥
|. प्रतिग्रहा निमन्त्ितो विना कारणेन यो न गच्छति |
। तस्याष्टोत्तरश्तपणो दण्ड इत्यैः। = |
| इह च प्रतिग्रहान्तरे वत्तेमानस्य प्रते वैमुख्यं दातु- |
रदयषसुल्लिखतौति वाक्पारूष्यवदेष दोषः । ५
०८ ` दग्डविवेकः।

अथ ब्राद्मणदिदृषणे दण्ड्य इत्यनुहृत्तौ,ः


विष्णः,- |
अभश्येण ब्राह्मणस्य दूषयिता बोडश्सुव्णन्‌, जात्य-
पारणा शतम्‌, सुरया वध्यः । कछचरियदृषयितुस्तद्चम्‌ ।
वेश्यदूषयितुस्तदद्खम्‌ । श्रद्रदूषयितुः प्रथमसाहसम्‌ ।
अच अभश्येणान्नरपानादिमिभितेन सखरूपेण वेति
मिताक्षरा । अभश्यमपेयस्याप्यपलकषणम्‌ ।
अभश्यमथवाऽपेयं ब्राह्यणान्‌ मासयन्‌ दिजान्‌ ।
इति मनुसंवाद्‌त्‌ |
तेन अभश्येण विन््रचादिना । जात्यपहारिणा लशु
नादिना । श्रदरस्याभश्यं कपिलादुग्धादि । जात्यपहारि
निषिद्धपञ्चनखमांसादि। तद्र्मिति अभ्येण दूषशे
अष्टौ सुवर्णणन्‌ जात्यपहारिणा पच्चाशदित्यथैः । तद
1 मिति पञ्चविंश्तिसुवर्
णानित् यथः ।
रुतदुत्तमब्राह्मणादि विषयम्‌ । अन्यच त्वाह

दिजं प्रदृष्याभ्येण दण्ड उत्तमसाहसः ।


सछचियं मध्यमं वेश्ं प्रथमं श्रद्रमर्बिंकम्‌ ॥
यञ्च. |
्रुटस्वणेव्यवदहारौ विमांसस्य च विक्रयौ ।
व्यङ्न्होनास्तु कत्तव्थाः शस्या्रोत्तमसादसम्‌ ॥
| इति याज्नवल्कवयवचनम्‌ । `
तच चौण्ङ्गानि नासा-कणे-कररूपाणौति मिता- `
शछरा-रल्लाकरादयः।
=

९ कचित्‌ प्राठः दण्डानुटन्तौ ।


साष्सदर्डः। ०९.

यच्च रकयादः कायै इत्यनुटत्तौ विमांसविक्रयी चेति


विष्णवचनम्‌
^

अच विमांसं विर्द्खमांसम्‌' । श्गालादिमांसमिति


यावत्‌
यच्च,-
अभश्यस्य अविक्रेयस्य च विक्रयौ । देवप्रतिमाभेदक-
श्चोत्तमसाहसं दण्डः ।
इत्यपरं विष्णवचनम्‌ । सव्वचाच विक्रयो न दूषणपरः।
अन्यथा ओओषधत्वेनापि तदिक्रये दोषः स्यात्‌ ।
` रखवच्डामौषां वाक्यानां उत्तमानुत्तमविषयतया वा
व्यवस्था द्रष्टव्या |
अच विष्णुः+-
जातिसंश्करस्यामश्यस्य च भश्यिता विवास्यः। `
भक्षयिता मोक्ता कामादिति ओेषः। |
असितारः खयं कार्य्या राज्ञा निव्विषयास्तु ते ।
इति मनुद्शैनात्‌ ।
अथ अभिचारादौ मनु धु
अभिचारेषु सर्व्वेषु कत्तैव्यो चिश्तो दमः |
मूलकम्भणि चानातेः छत्यासु विविधासु च ॥
अभिचारेषु श्येनादिपषुं शस्त्रौयेषु छचौलिखन-पाद्‌-
पांशुग्रहणादि घलौकिकेषु अनपराधिनं प्रति क्रियमाणेषु! |
मूलकम्मेणि भेषजादिप्रयोगे अनापैरदितैषिभिः क्िव- |
माणे। कत्यासु उच्वाटनादिरूपासु रोगाचुत्यत्यथेम्‌, माठ- . |
""----~------------"---~--------------------------------------------~------------------------~

९ क पुस्तके कुमांसे्यधिकम्‌ ।
२९० ` दण्डविवेकः।

ग्रहणाद्यत्थापनरूपासु चासदभौषु कर्तर्दिश्तो दम इत्यथैः, `


अभिचाय्थमाणस्य मरणाभावपक्षे अयं दण्डो मरणे तु
मलुष्यमार णदण्ड रवेति मनुटौकायां कुल्लकभट्रः ।
~ नन,

प्रकाश्त्कर प्रकरणे मुलकम्मे वशोकरणं धन-ग्रहणा-


ेच्ड तस्य प्रयोगः। इह तु परमारणाद्यथं भेवजादिप्रयोगः,
अनातिरिति सखवरसादिति प्रकरणशमेद्‌ः ।
[1

` रूपं वशीकरणम्‌ । तस्मिन्नरसम्बन्धिविषथे छते दोषो न


भक्तौदाविति ।
अथ अदुषटदूषणादौ मनु,--
अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा ।
मणौनामपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः ॥
दूषणे अपद्रव्यसंसर्गेण दुषटत्वापादने। भेदने येषां
. ॥। भेद्माचेरैव विधटनं तेषां मेदे। मणौनां मुक्तादौना-
` मपवेषे दोषावह वेधकरशे।
अथ जारापलापादौ यान्नवलवयः,
जारं चौरेत्यभिवदन्‌ दाप्यः पच्चशतं दमम्‌ ।
उपजोन्य धनं मुञ्चन्‌ तदेवाष्टगणौकुतम्‌ ॥
उपजीव्य उपादाय, यो जारं कुलरंणदिभयात्‌ खस्त्रौ-
दौषमपह्वानश्चौर इत्यपहते पञ्चपशश्तानि दाप्यः, ५
यस्तु तस्मादूत्कोचादिरूपं धनं श्दीत्वा तं परित्यजति
स तदुत्कोचधनादष्टगुणं दाप्य इत्यधेः । इति दलायुध-
चण्डश्वरादयः। पच्छविंशतिमष्टगुणमिति मिश्राः ।
साहसदण्डः । क २९९

अथ अविकरय्य-विक्रये नारद्‌,
अविक्रेयाणि-विकौणन्‌ बाह्मणः प्रच्यतः पथः ।
मागे पुनरवस्थाष्यो राज्ञा दण्डन भूयसा ॥
यद्यपि,
वेश्यदृत्तावविकरेयं ब्राह्यणस्य पयो दधि ।
एतं मधु मधुच्छिष्टं लाक्षा-्षार-वसा-रसम्‌ ॥
मांसौदनं तिलं सौमं सोम-पुष्प-फलोपलाः ।


ध५ मनुष्यविषशस्त्ाम्बपुपवौ -लवरारुधः ॥
शण-कौशेय चम्भास्थि-कुतपैकश्फा स्गाः ।
उदश्ित्केश पिण्याक पाकाद्ौषधयस्तथा ॥
क. रशवमाद्यसिधाय नारदेनैतदुक्तम्‌ तथाप्यन्यानि
ब्राद्याणि तु्योगक्ेमत्वात्‌ । 1
अत रव व्याख्यातं चण्डश्वरेणए-अविकरेयाणि-षम्मेशस््ेषु
५ (न+
|
प्रतिषिद्धविकयासौति। भूयसा उत्तमसादसेन अविक्रेयस्य
विक्रयौ चोत्तमसाहसं दण््य इति विष्णुसंवादात्‌ ।
अथ संकमादिभेदे मनु,
^^

संक्रमध्वजयष्टौनां प्रतिमानाच्च भेदकः


प्रतिकुग्थाञ्च तत्‌ सव्व दयात्‌ पञ्चशतानि च ॥
संक्रमो जलोपरिगमनोचितकाष्ादिवन्यः। सक |
इति प्रसिद्धः। ध्वजो राजदारदेवतायतनादिविह्वम्‌ । =.
यष्टद्रूनागायतनादियष्टिः। पुष्करिणयादियषश्िरिति- `|
मनुटौकायां कुल्लकभदटर गरामादिपताकायष्टिरिति |
नारायशः। प्रतिमा देवताप्रतिक्छति
तिक्तिः।
२९२ दण्डविवेकः |

सव्वन्नसत्वाह प्रतिमाऽच मनुष्यप्रतिक्षतिदवप्रतिमासु


वध शव॒ कोष्टागारेत्यादिना तदायतनमेद्‌ एव तस्योक्तं-
रिति। तदेतद्वाक्यस्य चौगपरत्वाद नादेयम्‌ । प्रतिकुात्‌
पुव्येवत्‌ संस्कयात्‌।
कात्यायन्‌+--
इरेदिन््याददेद्दापि देवानां प्रतिमा यदि।
` तद्ण्हच्वंव यो भिन्ात्‌ प्राघ्रुयात्‌ पूव्वसाहसम्‌ ॥
विष्लः
प्रतिमाभेदकथोत्तमसादहइसं दण्ड्यः ।
शङ्कलिखितौ,- ८
प्रतिमारम-क्रुप-संक्रम-ध्वज-सेतु-निपानभङ्गषु तत्‌-व 4
ससुत्धापनं प्रतिसंस्कारः, अष्टतच्च दण्डः
निपानं गवादौनां जलपानाथे क्रुपसमौपक्तो जला-
धारः। सव्वेभङ्ग समुत्धापनं तच्नातौयस्य करणम्‌ ।
` रुकदेशभङ्गः तस्यैव संस्कारः ।
दन्यादित्यनुदृत्तौ विष्णः, सेतुभेद
कत ।
यावल्वय
सेतुभेद्‌करबच्चाशुशिलां वद्धा प्रवेशयेत्‌ ।
` अच प्रतिमाभङ्ग तदुत्कर्षापकषतारतम्थात्‌ तद्नच्जकस्य
धनिकाधनिकत्वाभ्याच्चोत्तमादिसाहसदण्डः पणश्तात्मक-
दण्डश्च व्यवस्थाप्यः । |
सेतुभङ्ग तु यद्यसावधिकं तद्वङ्गं कुबात्‌ यथोक्तो वधः। `
अन्धच शङ्कोक्तो दण्ड इति व्यवस्था! `
साहसदण्डः । ` | ` ३९

अथ तडागादिभेदादौ मनु+-- |
यस्तु पूव्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं चरेत्‌ ।
आगमच्चाष्यपां भिन्ात्‌ स दाप्यः पूव्वेसाहसम्‌ ॥
तडागमेद्‌कं इन्यादष्सु शुद्धवधेन वा ।
तचापि प्रतिसंकुयात्‌ दच्याचोत्तमसादसम्‌ ॥ `
पूव्वनिविष्टस्य पूव्येस्ितस्य स्लानपानादुवपयुक्तष्येति
यावत्‌। हरेदिति सखसमौपतडागं नयेदित्यथे इति
नारायणः। आगमोऽच तडागपुरणौनाम्पां प्रवेणमागेः।
भिन्द्यादित्यच बन्यादिति मनुरौकायां कुल्लकभटेन परि
तम्‌ । तडागभेदकं सेतुभेदादिना छत्ल-तडागजल-
नाशफमिति तेनैव व्याख्यातम्‌ । र
नारायशेन तु तडागभेद्‌कं तडागबहिजंलनिःसारण-
भिति वदता क्त्वं न विवश्ितम्‌ । अष्ु मज्जनेनेति `

शेषः
शुद्धवधेन जलादन्यच। गङ्गगतौरत्वादि'नेति रनाकरः।
नारायणेन शुद्धवधः भिरण्डेदः, यस््ङ्कलौकरच्छेदादिना- |
वधः स दुःखद्ेतुत्वाद्‌
शुद्ध इत्युक्तम्‌ }
रतत्‌ कामकृते । अकामङते तु विगुणेभरूतं तडा-
मादि सम्धकूविधाय उत्तमसाहसं दद्यादिति व्याखातम्‌।
तच्चापौत्यच तदापीति पटित्वा कुल्केन तूक्तं यदा |
यदि तडागं संखकण्थात्तदोत्तमसाहसो दण्ड इति ।
शरौरोऽङ्ग्ेदो वेत्यनुदृत्तो शङ्लिखितौ-- ` ५.५६
न~~
वापौतडागोदपानभेदे ।
------------------------------- ------~
¦
` क निःसर्णम्‌। ` र क नालौवन्धादिनेति।
३१९४ ` | दण्डविवेक |

अच खस्य संजौवनाचथं तडागोदहरणे पूव्येसाडसम्‌।


उपयोगतार तम्याद्पकष्टस्य तडागस्य मेदे अङ्गमेदः।
उत्‌्ृष्टस्य कंत्लजलभेदे शरीरो वधात्मकः। स च वध-
स्तडागोत्कर्षविगेषमादाय शुद्धो विचिचो वेति व्यवसा ।
अपराधतारतम्याद्वा कामाकामभेदाद्रा सातु ।
स्तु वा तोयाधारतारतम्यात्‌ पूव्यसादसाङ्गकेदयो
शुद्विचिचयोशच व्यवस्था ।
तच दशहस्ता वापौ। शएतदहस्ताधिकस्तडागः। तदधिकं
निपानमिति वेदेश्कसमृतिः।
देवो पुराणे,
करप पञ्चकर दद्ध यावर्हगस्तदुत्तरम्‌।
वापौ दण्डदयादृद्धं दशबान्नोन्टंपोत्तम ॥
वाप्या दशगुणः प्रोक्तस्तडागोऽष्टविधो मया ।
कपिलपच्चराचे,-
शतथन्वन्तरा वापौ पुष्करिणौ चतुगुण ।
दौघौं नवशता काय्या विशता विस्तता स्मता ॥
'्सदसेण तडागः स्यादयुतेन तु सागरः ।
अथ विषागन्यादिप्रयोगे याज्ञवल्क्यः,
विषाथिदां स्ियच्चेव पुरुषधघ्रौमगन्भिणौम्‌ ।
सेतुभेदकरौञ्चेव शिलां वद्वा प्रवेशयेत्‌ ॥
विषाश्रिदां पतिगुर्‌ निजापत्यप्रमापणतैम्‌ ।

विकशे-कर-नासौषौं छत्वा गोभिः प्रमापयेत्‌ ॥
-----न---------------~-----------~~~-----------

१ क सतवे अधिकः पाठः-- |


नोर द शभिर्वापौ पद्ासे विंशकः स्प्रतः।
्दह्ारपनच्चकेसतदतं सागरः परिक सितः ॥
साहलदर्ः ¢ देश

अच मिताक्षरा, अपरवधार्थमन्नपाना
दिषुविषदानम्‌।
दादाथं प्रामादिषु अध्रिदानम्‌। गोभिरिति अदान्तै-
बलव प्रवादय मारयेदिः्यधै इति । |
यथोक्तायाः स्तिया यद्‌ गर्म्भो न भवति तदा शिलं
वद्धा जले प्रवेशनम्‌ । अन्यथा कणादिषेदपुव्वको वधः । ¦
विषाथिदाभिति वाकयभेदादपोनरुक्यम्‌ } प्रथमे विषा-
चिदानख्य पतिव्यतिरिक्मरणोदेश्यकत्वं विवक्षितं विषा-
भिदां पुरुषघ्नौमिति निदंशत्‌ दितौये पत्यादिमरणेदेश्य-
वत्वं विषानच्निदां पत्यादिप्रमापणौमिति निर्देणत्‌ । उभ- `
यच दहेतु-हेतुमद्धावेनान्वयस्यापेक्चितत्वादिति प्रतिभाति
मिताक्षरायान्तु प्रथमे विषािदामित्यच विप्रदष्टा- ध
मिति पठितं व्याख्यातच्च विशेषतः प्रदृष्टामिति ।

पुरुषस्याप्येष दण्डः। तेन विषादिना रसद्रव्यदूषशे |


शरौरोऽङ्ककेदो वेति शङ्कलिवितयोः सामान्यामिधानं ४
घटत इति प्रतिभाति ।
यमः+-- |
उल्कादिदायकाश्चेव घातकाश्चोपघातकाः ।
स्वशरोरेण दण्ड्याः स्यर्नरा आह प्रजापतिः ॥
ख दसो ध ५
निषिदवाद्यादीतरविषयमिदम्‌। स्वभसेरे
¢ ऽप्यपराधानुरूपो विवसित इति रनाकरः।
` युक्त्वेत्‌ मनुष्याणां पश्रनाच्चेत्यादिदण्डपारुष्य-
प्रकरणोक्त-मनुवचनसंवाद्‌त्‌। | |
२९६ दग विवेकः ।

याज्ञवल्क्यः,
स्ेच-वेश्म-ग्राम-वन-विकौत खलदाहकाः ।
राजपल्न्यभिगामौ च दग्धव्यास्तु कटाभिना ॥
सेच पक्रफलश्स्योपेतमिति मिताशूया । वनमटरवी
क्रौडावनं वा। विवीतं गवाद्यपयोगा्थे रशितयवसो य
1

भूप्रदेशः। कटौ वौरणमयः


अथ राजकोषापदहारादौ कात्यायनः+--
राजाधेमोषकाश्चेव प्रापतुयुर्विविधं वधम्‌ ।
मनु
राज्ञः कोपापदन्तश्च प्रतिक्रलेष्ठवस्थितान्‌ ।
घातयेदिविधेदंण्डेररौणच्छोपजापकान्‌ ॥
` कोषो राज्ञोऽथेसच्वयः। राज्ञः प्रतिक्लेठवस्थितान्‌
` तदाज्नाव्याघातकारिण इति मनुटौका। उपजापकान्‌
राष्रमेदकानिति रन्नाकरः। शचणां रान्ना सह वेर'वुद्धि-
कारिण इति कु्कमेट्रः। अरौणं सम्बन्धिन उपजापकान्‌
^

सखप्रकतिभेदकानिति नारायणः ।
^+ ~~न ~^

६ रतद्रचनं मिताक्षराकता कोषापदरणदौ वध रवेति 0


. ` छत्वावतारितं व्याश्यातच्च विविभ्रैः सव्खापदहाराङ्गच्छेद्‌
वधर्पैरित्य्ं इति । ८
` मनुटौकायान्तु अपराधापेश्षया कर-जिद्वाच्छेदना-
५ | |दिभिरित्यक्तम्‌। ` 4

१ घ भेदबुदि--
| सादसदण्डः । २९७

मह्स्यपुराणे,
राज्ञः कोषापहन्तंश् प्रतिङ्रलेष्वस्ितान्‌ ।
अरौणसुपकत्तंख घातयेदिविषेर्दमैः ॥
मनुः,
इन्याद्धिटूसेविनस्तथा ।
दिट्‌सेविनो राजदेषिसेवकान्‌ । | |
इद राजकोषदहारिणए इव राजविरोधिनोऽपि ब्राह्मणस्य
वधादिप्रत्याम्नायेन धनद्ण्डनासमापननस्य' प्रवासनेऽपि
निश्ितविरुदाचारस्य (?) वेजात्यादागत्य वा तथेव विर्द्धा- `
नस्वः यावज्जीवं यावत्छमापत्ति वा वन्धनमुचितं प्रथम-
परिच्छदो पान्तदशितव्यवस्थानुसारात्‌ । |
अय प्रङुतिदूषणे मनुः,
करटश सनकत्तंख प्रसतोनाच्च दूषकान्‌ ।
स्तो -वाल-बाद्यणघ्रांखचइन्याद्दिट्‌सेविनस्तथा ॥
प्रतौ नाममात्यानां दूषकान्‌ विनादोषं दोषोद्धावका- `
निति रत्नाकरः । रवमेव मिखाः।
विष्णः, 1
` खाम्यमात्यदुमै-कोष-दण्ड-राष्रमिचाणि प्रकृतयः ।
तदूषकांश्च न्यात्‌ ) त
अमात्यमच प्रधानशिष्ट ।
अथ अदासौदासौकरणे। श्लिखितौ,--
_` करणेशरोरो

ऽक्यद ो बतो अदासौ -दास- सम्दा न- =
| |
९ चव. पुस्तक तमासन्नख । र्‌ विर्डाचार्श्यडइ्तिप्राठः।
३९८ | द॑ण्डविवेकः ।

अदास्या दासाय दाने तदृत्कर्षापकषंतारतम्यादधो


उज्नच्छेदो वेत्यथः । आस्कन्दविषयमिदं विवादहाद्‌ावनुमतौ
तुन दोषः
अथ राजानिष्टप्रकाशने यान्नवस्वयः,
दिनेचभेदिनो राजदिष्टादेश्छतस्तथा ।
विप्रत्वेन श्रूद्रस्य जौवतोऽष्टशतो दमः ॥
। राजदिष्टादेशकतः--दितौये वषे राजा मरिष्यतौत्या-
देशकारौ। अच मिताक्षराकारः यो ज्योतिःशास्त्र
विद्गव्वादिहिते (?) अव्यतिरिक्तो राज्ञो दिष्टमनिष्टं संवत्‌-
सरान्ते तु राज्यच्यतिभविष्यतौत्यादिषरूपमारेशं करोति
तस्याष्टश्लो द्‌
ण्डः ।
ब्राह्मणानुरृत्तौ यमः,--
राजदिष्टानि यो भाषेदण्डो निव्विषयः स्मृतः|
` निर्व्विषयो टेशन्निःसारणम्‌ ।
अथ खिनदषादिवाहने मनुः,
.गोकुमारौ-देवपश्रनुश्ाणं ठषभन्तथा ।
` वाहयन्‌ साहसं पव्वं प्राप्रुयादष्टमं वधे ॥
गोकुमारी दषेण संयुक्ता गौः। देवपशुर्देवतोदेभे |
नोत्सृष्टपशुः। उक्षा उक्ष सेचन इति धात्वधीनुसारादौज- `
मोक्ता षः । इषभो जौगीदषः। (1
` दषाधिकारे उदस्यति १
| आन्तान्‌ शुधार्तान्‌ ठितानकाले वाहयेततु यः
स गोघ्नो निष्कतिं कार्य्यो दाप्यो वाप्यथवा दमम्‌ ॥
साहसदण्डः 1 ३१९६

कात्यायनः
श्रान्तान्‌ कषधात्तान्‌ तृषितानकाले वाहयेत्त यः|
खरगोमदहिषोष्रादौन्‌ प्राप्नुयात्‌ पुव्वसाहसम्‌ ॥
अथात्मघाते अद्किराः,
आत्मानं घातयेद्‌ यस्तु बज्ादिभिरूपक्रमैः ।
सतोऽमेध्येन लेप्तव्यो जौवेचेद्धिश्तो दमः ॥
अन्येघरष्येवंजातौयेघयं दण्ड इति प्रतिभाति न्धाय- `
साम्घात्‌ ।
तानाह मनु,-
जलान्नयुदन्धनयष्टाः प्रत्ज्यानाश्कच्युताः ।
विपप्रतनप्रायःश्स्तषातच्युताख ये ॥
सर्व्वेतेप्रत्यवसिताः सब्धलोकबदहिष्कुताः ।
यत्त॒ प्रत्रज्यावसितानां प्रवासनाङ्न-दासौकरणादि |
पुव्वमुक्तं॑तत्‌ कामचारविषयमिदन्वशक्तिविषयमिति न |
विरोधः
----~-~-+~~---~

अथ पुचादिदहौनाया धनं गरह्नतः परस्य दण्डः। |


तद्त्तदायमित्यपकम्य कात्यायनः
अपुचा शयनं भत्तेः पालयन्तौ बते स्थिता ।
भुञ्ञौतामरणात्‌ क्षान्ता दायादा उ्माप्नुयुः॥ = |
मनुः,
वशाऽषुच्रासु चैवं स्याद्रक्षणं निष्कुलासु च । `ध५ |
न, इ

पतित्रतासु च स्तौषु विधवास्वातुरासु च॥


३२० | 1 दण्डविवेक

जौवन्तौनान्तु तासां ये तद्वरेयुः खवान्धवाः ।


तान्‌ श्ष्याचौरदण्डेन धाभ्मिकः प्रथिवौपतिः ॥
वश वन्या। अपुचा नष्टपुचा। निष्कुला प्रनष्ट-
मातापिठकुलेति। ख्ते भर्तरि अधिकाच्थन्तरा-
भावात्तत्‌सम्बन्धेन वा यत्‌ संकान्तं यच्च तासां सौदायिकं
तदिल्यथैः। |
9 |
न भत्ता नैव च सुतो न पिता भ्ातशसेनच।
आदाने वा विसं वा स्ौधने प्रभविष्णवः ॥ स

यदि त्वेकतरीऽमौषां सलोधनं भक्षयेदलात्‌ । `


स इद्धं प्रतिदाप्यः स्यादण्डञ्वेव समाप्नुयात्‌ ॥
दण्डं हौ ततुल्यमन्धच तथाद्‌ शनात्‌ ।
अथ विशिष्टशूद्रस्य नियमातिकुमदणडः।
तच मनुनारदौ,
धर्ममोपदेशं दपेण दिजानामस्य कुब्बतः ।
व. तत्तमासेचथेन्तेलं वक्त ओते च. पाथिवः॥ |
धर्मममोपदेशमिति कथच्विड्म्येलेश्मवगम्य अयं ते.
धर्ममोऽनुषेय इति ब्राह्मणस्यादङ्ारेणोपदि
शत इत्यथैः ।
इहस्यतिः,-
धर्म्नोपरेशकन्त च वेदोद्‌ादहरणान्वितः
आक्रोशकश्च विप्राणं जिद्दाच्छदेन दण्ड्यते ॥
गौतमः,
~ „^~ = =

अथास्य वेदमुपणतस्पुयतुभ्यां कयैपुरणम्‌ । `


उदाहरणे जिद्वाच्छेदो धारणे च शरौरङेदः ॥
दारोतश- श
तस्मादेद्रतिश्रवशे श्रद्रस्य चपुसौसौ विषाव्य कर्णौ |
पूरयेत्‌ । भ
विलाव्य द्रवौकत्य । हलायुधेन विद्राव्येव्येव पटितम्‌। `
मनुनारदौ.
सहासनमभिपरेरुत्कष्टस्यापरष्टजः।
कव्यां कताङ्ो निर्व्वस्यः स्फिचच्चास्यावकषयेत्‌॥ = |
सासनमभिपेषपुरेकासनो पवेशौ+ अमिपरपुपदस्याभि- = `
` प्रा्िपरत्वात्‌ |
` 41
३२२ दर्डविवेकः ।

तथाच विष्णः,
उत्कृष्टेन रकासनोपवेशौ अपकषष्टजः कथ्यां छताङ्ो
निव्वास्य इति । त

उत्कृष्टो ब्राह्मणः । अपरृष्टजः शूद्र इति रनाकरः ।


नारायणेन तु उत्कृष्टस्योत्तमजातेरपृष्टजः कछषचियादि-
रिति व्याख्यातम्‌ । तथा कव्यामिति क्षचियविश्णेः।
श्रद्रस्य च तदुभयं, सहासनेच्छायां स्फिचमिति श्रुदरस्य
ब्राह्मणसदहासनेच्छायामिति । कताङ्कस्तत्तलोदशलाकया
छतचिड्ः। तच्ासनाकारमोौचित्यात्‌। स्फिक्‌ ओओखेक-
देशः । स्पफिचमित्येकत्वं विवशितभेव स्फिगेकञ्वास्य करत्तये-
दिति मल्स्यपुराणदशनात्‌ । तत्‌ कर्तनच्च तथा काय्य ८
यथा पुरुषो न वियेत इति कुलूकभ्रः ।
धम्मैकोषे तु-मेदंबाऽप्यस्य कर्तयेदिति पठितम्‌ ।
गौतमः»-
अआसन-श्यन-वाकू-पथिषु समत्वेषयरदष्च्यः शतम्‌ ।
` वाक्समत्वं युगपद्यादः पथि समत्वं सहगमनम्‌ ।

पथि शग्यायामासन इति समौभवतो दण्डस्ताडनम्‌ ।


पव्येव शतद्ण्डत्वाभिधानं श्रुद्रस्य धनपरत्वपश्े' ॥
कात्यायन ^
प्रत्रज्यावसितं शरदं जपदहोमरतन्तथा }
वधेन शमयेत्‌ पाद्‌ दण््यो वा दिगुणं दमम्‌ ॥
१ ङ पुस्तके घ नवत्वपन्ते |
विश््टरूहस्य नियमातिक्रमदण्डः । इयद्‌
परनरज्या चतुराश्रमपरिभरहरूपा। सा च यद्यपि
॥॥
¢
श्ुतिस्मृतिभ्यां श्रद्रस्य नोक्ता तथापि शेवागमोक्तामपि तां
खहौत्वा यस्यजति स प्रतरज्यावसितः। भुतिस्ृत्यनुक्ता
{्
अपि दि बौद्वादिधम्पौ रान्ना परिपाल्या रुवेति रलाकरः।
7


दिगो वधार्दस्य पारक थो दण्डस्तद पेया बोडव्यः।

यान्नवल्वयः,--
|
4
विप्रत्वेन च श्रद्रस्य जौवतोऽष्टश्तो दमः । `
|
|
विप्रत्वेन विप्रचिह्धोपवीतादिना।
अच मिताश्राकारः,

|

(

॥।
|
¢ यः श्रद्रो भोजनाधेमुपवौतादिन्राह्यणलिङ्ानि धार-
यति, तस्याष्टश्लो दर्डः! आदभोजनाथें पुनत्राह्यण-
वेश्धारिणस्तत्तशलाकया यन्नोपवौतवन्धनस्यानमालिखे-
दिति स्ृ्यन्तरोक्तं द्रष्टव्यम्‌ । टत््यथन्तु ब्राह्मणएलिङ्ग-
धारिणो वध रव ॒“दिजातिलिङ्गिनः श्रद्रान्‌ घातयेत्‌”
इति मनुस्मरणादित्याह ।
अथ हक्षादिच्छेद्‌नदण्डस्तच काल्यायनः+--
वनस्पतौनां सव्वेषामुपभोगो यथा यथा ।
तथा तथा दमः कार्य्यो हिंसायामिति धारणा ॥
रुतद्‌नुक्तविशेषपरम्‌ ।इह चाखाम्केषु दृष्षादिषु टथा- ¦
चेष दण्डमाचम्‌ । सखामिके तु तत्खामिने तत्‌ प्रति- `
निधि--तन्मल्ययोरेकतरदानमपौति प्रागक्तमनुसन्धेयम्‌। `
` याज्ञवल्क्य |
प्ररोहिशविनां शखा-खन्ध-सव्व-विदारणे। `
उपजौव्यदरमाणाञ्च विंशतेदधिगुणो दमः ॥
२२४ ॑ द्ण्डविवेकः ।

चैत्यश्मणनसौमासु पुण्यस्थाने सुरालये ।


जातदुमाणां दिगुणे दमो दक्षे च विश्रुते ॥
गुल्म-गृच्छ-क्षप-लता-प्रतानोषधिवौरुधाम्‌ ।
पुव्वस्मरतादञ्ंदण्डः स्थानेषुक्तेषु कर्तने ॥
येषां शखा अपि प्ररोहन्ति ते प्ररोहिशखिनो वरा-
दयः। येषां द्ायादिकमुपसुज्यते ते उपजौव्यदूमा आआम्रा-
द्यः। यतो भागात्‌ णखा जायन्ते स स्कन्धः। स्वशब्दो
मुलपरः। तेषां केदने विंश्तिपणदारम्योत्तरोत्तरं दिगुणो `
दण्डो विंश्तिपणशत्वारिंशत्पणोऽशौतिपश इति यावत्‌ ।
चैत्यमायतनं । विश्रुते पलाशदौ । गुल्मा अनति-
दौर्घा लता मालत्यादयः। गुच्छ अवल्लौरूपा असवणे-
प्रायाः कुरुष्टकादयः। क्षपाः दुःशखाः शकोटकादयः । `
लता दौ्धायामिन्यो द्राक्षातिमुक्तकादयः। प्रतानाः
काण्डप्ररोहरदहिताः सरलायामिन्यः सारिवाप्प्रखतयः।
ओषध्यः फलपाकान्ताः कदल्यादयः। वौरुधञ्किन्ना
अपि या विविधं प्ररोहन्ति तालकृच्यादयः। स्थानेषु
` पूर्व्वोक्तिषु शखास्कन्धमूलेषु । `
दण्ड इत्यनुृत्तौ विष्णः
फलापगमदुमच्छेदौ तूत्तमसाहसम्‌ । पुष्योपगमद्रुम-
च्छेदौ मथ्यमसादसम्‌। वल्लीगुल्मलताच्छेदौ कार्षापण- `
` शतम्‌ । ठणच्छेद्येकम्‌ । सर्ववे च तत्खामिनां तदुत्पत्तिम्‌। |
रकं काषापणम्‌ । तदुत्पत्तिं दचयुरिति शेष दति
रल्लाकरः। कामधेनौ तथैव परितम ।
१ कं सारिरा पभ्टतयः।
विवादपदानि > ५; | ` दर्प ,.

वशिष्ठः ५
फलपुष्योपगान्‌ पादपान हिंस्यात्‌, कषणा वोप-
इन्यात्‌ गार्ईस्थाङ्ग च ।
कर्षणाथ' छषिहेतुहलायथैम्‌ । सम्भवासम्भवनिमित्तक-
विकर्पपरो वाशब्दः । गार्द॑स्थाङ्ग हकम्भे दृष्टमदृष्टं वा
येन तह्ूहोपकरणं यज्नोपकरणच्च सिध्यति ।
॥ इति प्रकौ शेके सुक्तकवगेः ॥
1

अथ विवादपदानि ।
अच मनु
तेषामादणणादानं निःघछेपोऽखामिविक्रयः ।
सम्भूय च ससुत्धानं दत्तस्यानपकर्म च ॥
५ (4 +
वेतनस्यैव चादानं सम्विद्श्च व्यतिक्रमः ।
| क्रयविक्रयानुशयो विवादः खामिपालयोः ।
सौमाविवादथ्बैश्च पारुष्ये दण्डवाचिके । `
॥ सेयञ्च साहसज्चैव स्तौसंग्रहणमेव च ॥
स्तौपुंधर्म्मो विवादश्च द्यूतमाह्वय रुव च
पद्‌ान्यष्टादशेतानि व्यवहारस्िताविह॥
। अच पारष्यादौनां खातन््येणोपादानात्‌ सन्निष्यति- |
। ` कमादेः प्रकौणेकानुप्रवेशदणदानाद्‌ावुत्सगेतोऽपराधा- `
मूले आद्वानमेव च इति पाठः ।
, ` इद्‌ द्‌गडविवेकः।

नाधिक्यादपहवादिकमपेश्य दोषत्वादतिश्येन लाकाना-


मुदेगाभावाच्वाख्लामिविक्यादिमावमचीोद्‌ाहियते।
तच मनुः,
विक्रीणते परस्य खं योऽखामौ खाम्यसम्मतः।

न तन्नयेत साध्यन्तु सेनमस्तेनमानिनम्‌ ॥


अवहार्यो भवेच्चैव सान्वयः षट्‌श्तं दमम्‌ ।
निरन्वयोऽनपसरः प्राप्तः स्याच्ौर किल्विषम्‌ ॥
अनेन विधिना शस्यः कुव्वन्नस्वामिविक्यम्‌ ।
अन्नानाद्‌ ज्ञानपुब्यन्तु चौरवदण्डम'हति ॥'
अवरो दानमिति यावत्‌ तेनावहार्य्यो दाप्य इत्यथैः।
एवमेव लस धर-ग्रहेर कुलकं हरिनाथाः। अवहार्यो
[न

दण इति नारायण-चण्डश्वरौ । तनन दममित्यनेना-


नन्वयात्‌ । सान्वयः खामिसम्बन्धी । तद्रव्ययोग्यसम्बन्धा-
भाववान्‌। यथा जौवति तस्मिन्‌ विभक्तमाचादिः। निर-
न्वयः--अत्यन्तोदासौनः सम्बन्धयाभासेनापि रहितः,
सान्वयोऽप्यनपसरो अदेगे अकाले च विक्रयं कुव्वेन्नित्यथ
इति नारायणः ।
अपसरत्यनेन स्वामिसकाशदन्यमित्यपसरः ऋयप्रति
ग्रहादिः स यख्य नास्ति सोऽनपस्र इति कल्पतरुकारः
सवमेव प्राच्वौ भागुरिमेधातिथिप्रशतयः, अव्वोच्चश्च
` ९ क पुक्तक्े मनुप्रलोकादनन्तरं वचनमिदं विवादनिर्शये यास्यावमन्धतचैः ``
` तत्सुम्बन्धि तचेवोक्तमिह तु सम्बन्धाविच्केदप्दग्रनाधं लिखितम्‌ । ` |
ख्व पराठादनन्तरं दत्ताप्रदानिके नाष्दः सुतसां तच एके इतःपरं केट-
दण्डप्कर्णमेव यावन्नात्ि। = `
विवादपदानि । ३२७

कुल्लकभटराद्यो इलतिक्षतः। पाटभेदव्याख्याभेदव्यवश्िता


अप्येते अथा याद्या न्यायानुरोधित्वात्‌ ।
यत्त॒ खामिसम्बन्धिना अन्येन धनस्य शवामिष्हादयप-

सारणमपसरः। स यस्य नास्ति किन्तु खयमेव तद्रव्या-


पसारौ सोऽनपसर इति रनाकरृतः। +~
अनपसरो-
ऽपलायित इति क्त्यसागर-स्मतिसारयो रुक्षम्‌ ।
तच्चिन्त्यम्‌ । तेन यः खामिनः सम्बन्धौ, यशान्नाना-
दिक्रौणौते स षट्पणशतानि दण्ड्यः । यस्तु तस्वासम्बन्धौ,

यथ ज्रात्वा विक्रौणैते, तस्य चोरवदण्ड इत्यथः असम्ब-


न्धिनः खयं द्रव्यापसारशे चौरवदण्डः । परते तस्मिन्‌


घटशताधिकमिति श्नाकरः। 3€ भा

अथ सखामित्वामिमतस्य दण्डमाह कात्यायनः


यदि खं नैव कुरूते ज्ञाठृभिनौष्टिको धनम्‌ ।
प्रसङ्गविनिदच्यथं चौर वदण्डमरहति ॥
ज्ञाठभिरिति प्रमाणमाचोपलकषणम्‌ । नाष्टिको नष्टधन-
स्वामी)
याक्नवल्वयः+-- |
पञ्चबन्धो द्मस्तच राज्ञे तेनाविभाविते।
पञ्चबन्धो नष्टट्रव्यपच्चमांशः ।

== |
अभावयंस्ततः पश्चाद्यः स्याद्धिगुणं दमम्‌ ।
अच परद ्र ता प चोमा त्‌ खमि ति बदत ो
पच्च

वन्ध ो
त्वाभिमतधनाद्धिगुणदण्डः। अमात्तथा वदतः |
दण्ड इति व्यवस्था |
इरत दण्डविवेकः।

कात्यायनौयन्वनुवन्धातिश्यविषयमिति स्फुटमेव ।
अथ कतुदंण्डमाइ खहस्यतिः,-
येन कौतन्तु मुख्येन प्रागध्यक्षनिवेदितम्‌ ।
न तच्र विद्यते दौषः सेनः स्याद्‌पधिक्रयात्‌ ॥
अन्ते ब्रामात्‌ निश्युपां श्चसतो जनात्‌ ।
हौनमूर्यज्च यत्क्रीतं न्नेयो दुष्टः परिक्रयः ॥
असतो जनात्‌ असायुत्वेन न्नातात्‌। रुतदाक्यं
“सामितोऽपि कयः कशिदिरुडधो भवतौत्यपकरम्य छत्यसागर-
स्मृतिसारयौवतारितं व्याख्यातच्च । अवाप्यस्रामिविक्रय-
वेद्यकवहारः ।
तथाच विष्णुः+ |
यद्यप्रकाशंहौ
नमल्यच्च कौरौयात्तदा केता विक्रेता च
चौरवच्छास्यौ |
रखतत्त न मनोरमं चौरादिभियापि गोपनस्य धनिक-
फीडादिनाऽप्यपपत्तेः ।
अत रख धम्मेकोषे यदि तु केता जानन्‌ करणाति
तदा सोऽपि दण्ड्य इति कत्वा विष्णवचनमवतारितम्‌ |
अतरुवाच कल्यतरावेष विशेषो न दशितः। कामधेनो
रल्नाकरादौ च वचनभेवैतन्न लिखितम्‌ |
नारदः,
-अथास्यानुमतादासात कोरंस्तदौषभाग्‌ भवेत्‌ ।
याश्वस्वय्‌
0

हौनाद्रहो रहौनमूल्यं वेलाहीने च तस्करः ।


विवादषदानि। ` ३२९

हौनानीचात्‌ असम्भावितद्रव्यस्वामिभावात्‌ । वेला-


छने कथाहईवेलाहीने। तेन हीनाद्‌साधोदौसाद्वा रहो
हौनमूल्येन वेलामनाित्य करयं कुव्वन्‌ तस्करो भवतौ-
त्यतिदे शत्तदण्डप्रापकः । `
अथ स्वामिनो दण्डमाह याज्ञवल्कय .--
हतं प्रनष्टं यो द्रव्यं परहस्तादवाप्रयात्‌ |
अनिवेद्य पे दण्च्यः स तु षरख्वतिं पणान्‌ ॥ `
इद्‌ मम अनेनापहतमिति रान्नेऽनिवेदयितुरयं दण्डः
तस्करप्रच्छादनेन राजान्नाखण्डनादिति छत्यसागर-स्मति
सारौ । रुवमेव कल्यतस्‌-रल्ाकरादिस्रसः।
अथ हहस्यति
प्रमाणहोने वादे तु पुरुषापेश्या दपः।
सम-न्य्‌ नाधिकत्वेन स्वयं कुगादिनिश्चयम्‌ ॥
वणिग्बौथौपरिगतं विज्ञातं राजपूरुषैः
अविन्नाताख्रयात्‌ क्रौतं विक्रेता यच वा शतः ॥
सखामौ दत्वाऽ्मूल्यन्तु प्रज्ञतस्वकं धनम्‌ ।
अदं दयोरपतं तच स्याद्यवहारतः ॥ `
अविन्नातकयो दोषस्तथा चापरि पालनम्‌ ।
शतद्टयं समाख्यातं द्रव्यहानिकरं बुधः ॥
ितवासस्थानात्‌। `
णिगिति। अविन्नाताश्रयात्‌ अनिञ्र
िगतं
अयमधेः--वस्तुतः परकौयमपि द्रव्यं वणि्बथौपर
प्रकाशं यः क्रौणति विक्रेतुरविन्नाताश्रयत्वात्तमानेतुं
शतोति स विभावितखामिभावानाष्िकादर्बमूल्यं रत्वा `1 (
९ घ पुकतके खय। `
२३० दण्डविवेकः।

तद्रव्यं तु नाष्टिकायार्पयेत्‌! नाष्टिकेन तद्वनं न रशिति-


` मिति तस्य दोषः। क्रेैचा तदविक्नाताश्रथात्‌ कौतमिति
तस्य दोषः! तदेतदोषदयं उभयोरप्यद्वहानिकरम्‌ ।
रुतच् स्वामिनोऽनवेश्षया यचान्येन द्रव्यमपहत्य विक्रौ-
यते तददिषयम्‌ तथा चापरिपालनमिति वचनादतो न
विरोधः|
एवच्च यच खामिनो मुल्यस्य वा खच्च क्रेतुव्वा प्रकाश-
कयादौदाय्ये नावतरति तददिषयं प्रमाणदनेत्यादिवचनं
तेषामभावे राजाज्ञा प्रमाणमिति व्यास्वचनसम्बादात्‌ |
समेति पुरुषाणं धम्माधम्मयोः समन्यनाधिकभावं निधि
त्येत्यथे इति रलाकरः ।
अथ दत्ताप्रदानिके नारद
अद्त्तन्तु भय-करोध-शेक-वेग-रुगन्वितैः ।
तथोत्कोचपरौचास-व्यत्यासच्छलयोगतः ॥
भयादिपरवशैरुत्कोचादिसम्बन्धेन च यदत्तं तद्‌दत्त-
मित्यथैः | |
अच मिताक्षरायामुत्कोचनं' कायेप्रतिवन्धनिरासाथे-
मधिङतेभ्यो दत्तमिति व्याख्यातम्‌ ।
\[तचोत्कोचनमधित्य नारद्‌ः+--
यस्य काय्यस्य सिद्यथमुत्कोचा स्यात्‌ प्रतिश्रता ।
तस्मिन्नपि त्वसिङ्धऽथं न देया स्यात्‌ कथञ्चन ॥
~~~

१ क पुरक उत्कोचेन ।
ङ पुस्तके [तचोत्कोचनमधिक्ल्ये्यारभ्य प्रकरे विवादप्दवगेः] |
इत्यन्तश्विदधितांशः पतितः।
विवादपदानि । | २३१

अथ प्रागेव दत्ता स्यात्‌ प्रतिदाप्यः स तां बलात्‌


दण्डच्चेकाद्‌ शगुणमाहगोमौय-मा नवाः ॥
रकाद शगुणं खोकलोत्कोचापेश्या । रवं नारदोक्त
सुत्कोचमनुद्य यादशं तदत्तमप्यद्त्तं भवति ।
तदाह कात्यायनः
स्तेन साहसिकोहत्त-पारजायिकशंसनात्‌ |
द्‌शनाहत्तिनषटस्य तथाऽस्य प्रवत्तनात्‌ ॥
प्राप्तमेतैस्तु यत्किच्वित्तदुत्कोचान मुच्यते ।
न दाता तच दण: स्यान्मध्यस्यश्च न दण्डभाक्‌ ॥
उहनत्तो दुश्वरिचो नष्टत्तिः खटृत्तिच्युतः, असत्य-
प्रवत्तनात्‌ साश्यादौनामिति रेषः। मध्यस्य उत्कोच-
दापथिता। तेन स्तेनादीनां दश्यिचे साश्यादौनसत्ये
प्रवत्तयिचे वा यद्लनं प्रतिश्रुतं तन्न देयम्‌ । यथोक्तदण्डो
ग्रहौतुनं दातुर्नापि दापयितुरिति समुदायाधैः।
रच्च प्रत्युपकाराथेमङ्गकूताऽष्युत्कोचा देथा। दत्ता
चानच्छेया यद्युपकारनियाइ इति द्रष्टव्यम्‌ ।
अत रव न काच्थमाचाथे दत्तमुत्कोचाख्यं निवरच्यमिति
काय्यविशेषे तच कात्यायन इति कत्वा छव्यसागर-स्मति
सारयोव्वचनमिदमवतारितमिति

प्रकौणेके विवाद्‌पद्‌
वगः ||
२२२ | #॥ दग्डविवेकः;

अथ वयवदहार्‌ विषयदण्डः ।
तच आज्नासेधव्यतिकम इति प्रागुदिष्टमपि प्रकरण-
सङ्गत्या अचोदाहियते ।
तच टहस्यतिऽ--
यस्याभियोगं कुरूते तथ्येनाशङ्लयापि वा ।
तभमेवासेधयेद्राजा सुद्रया पुरुषेणवा॥
आसेधयेत्‌ आनयेत्‌। समुद्रा स्वहस्ताङ्कितं द्रव्यम्‌ ।
नारद्‌,
वक्तव्येऽथे न तिष्ठन्तमुत्को शन्तच्चः तदचः ।
आआसेधयेदिवादा्थों यावद्‌ा्वानद्‌ शनम्‌ ॥

न तिष्ठन्तं निशेयाथैमप्रवत्तमानं प्रत्युत वादिवचन-
मुत््रोशन्तम्‌ तिरस्कुव्वाणं, वादौ तावन्निरग्याद्‌ यावदसौ
रान्नाहयत इत्यथैः |
` स चासेधश्चतुविधः।
तमा, |
स्थानासेधः कालक्षतः प्रवासात्‌ कम्पेणस्तथा ।
| चतुव्विधः स्यादा सेधस्तमासिङ्गो न लङ्कयेत्‌ ॥
अध कल्यतरौ,-- |
अदत्वा यद्यस्मात्‌ स्थानाचलसि, यदि भोश्यसे, यदि
ग्रामं गच्छसि, यद्यध्ययनं करोषि तदैतावान्‌ तव दण्ड
इति सखानासेधादयो व्याख्याताः ।
` रवम पारिजाताद्यः।
९ उ एसे खद्स्ताङ्कितं पचं। र घ पुस्तके उत्‌कामन्तचच | |
व्यवद्ार्दिषयद्‌ण्डः । । २३२ `

रलाकरोऽप्येतदनुसा्छैव यदाह--
मम लभ्यमदत्वा स्थानाखया न चलितव्धं न भोक्तव्यम्‌
प्रवासोऽपि न कत्तव्यः कम्मान्तरं न कर्तव्यमिति ।
दौपिकाकारसतु यचापेश्ठितश्ाने वादौ न स्थाप्यते स
सानासेधः। यचोपवासं काण्येते स कालासेधः! यच
प्रोषितः कियते स प्रवासासेधः। यच आ्राद्धादिकम्मै न
काय्येते स कम्भासेध इत्याद ।
तथा,-
असेधकाल आसिद् आसेधं थोऽतिवर्तते |
स विनेयोऽन्यथा कुब्वन्नासेद्ा दण्डमर्हति ॥
आसेधयंसू्वनासेध्यं राक्र शस्य इति स्ितिः।
अन्यथा ताडनादिना ।
अचैव नारद-कात्यायनो,-- `
यस्विद्दियनिरोषेन व्यादारोच्छसनादिभिः।
आसेधयेदनासेध्येः स दण्डयो नत्वतिक्रमौ ॥ `
अनासेध्यैरासेधनानदहः
अथानासेध्यमाह नारदः+
नदौसन्तार-कान्तार-दुदेशेपक्षवादिषु ।
आसिच्स्तु परासेधमुकोशन्रापराभ्रयात्‌॥ `
निव्वेष्टकामो रोगार्तो यियक्षव्ंसने सितः
अभियुक्तस्तथाऽन्येन राजकार्य्योद्यतस्तथा ॥
गवां प्रचारे गोपालाः शस्यवन्धेः छतौवल | | | 1

। शिस्पिनश्ापि तत्कालमायुधौयाथ विवद


न्‌।
९ मूते-उत्कराम २ ग्सयारम्ते इति क्गतित्‌ पाठः! = |
३२४. दण्डविवेकः ।

` "्प्रात्तव्यवहारश्च दूतो दानोन्मुखो ब्रतौ ।


विषमस्थश्च नासेध्यो न चैतानाह्येत्‌ चपः ॥
अच शस्यवन्धं विविनक्ति कात्यायनः,
तद्युक्तः कषकः शस्ये तोयस्यागमने तथा ।
अआरम्भात्‌ संयहं यावत्‌ तत्काले न विवाद्‌येत्‌॥
अचर शिल्यिनश्चतुव्विधा,--
शिकाभिन्नकृश्ला आचय्याश्रेति शिल्पिनः ।
इत्यक्त । तत्काले तेषां ख ख कम्मैकाल्ले ।
व्यासः,
योगौ यिय्षरुन्मत्तो धम्भार्थो व्यसनौ ब्रती ।
नाद्ये तम्‌॥ ध
दानोन्मुखो नाभियोज्य नासेभ्यो
कात्यायन
काग्यातिपाति-व्यसनि-पकार््योत्सवाकुलान्‌ । `
नादयेदित्यनुषङ्गः। अच कम्भातिपातौ यस्य रक्षणीयं
काय्यमुत्सेधेन रक्षति । स्वमिदं रश्ित-णादिविषयम्‌ ।
अन्यच त्वाह याज्ञवल्कयः, |
नासेडव्यः करियावादौ सन्दिग्धार्थे कथच्चन ।
आसेधयंल्वनासेध्यं तत्समं द ण्डमदति ॥
काल्यायन
पौडयेद्यो धनौ कञ्चित्‌ बालकः न्थायवादिनम्‌ ।
` तस्मादथात्‌ स हौयेत तत्समच्चापरुयादमम्‌ ॥
९ रखकच एके [ ] चिद्ितपद्यमत्िकं सङ्कतत्वादेवासूमाभिरुल्िखितं। `
९. घ उ एकतकदथे बल्ल कख्द्रालकम्‌ ।
व्यवद्ार्विषयद्‌ण्डः । २२५

अथ काल्यायनः+-- `
आह्हतसत्ववमन्येत यः शक्तो राजशसनम्‌ ।
तस्य कुच्याक्ृपो दण्डं विधिदृष्टेन कम्सेणा ॥
होने कम्मणि पच्चाण्न््ध्येऽपि स्यात्‌ शतावरः।
गुरुकार्येषु दण्डः स्यान्नित्यं पञ्चशतावरः ॥
शच च्यतत
परानौकते देशे दुरभि्ते व्याधिपौडिते ।
कुव्वंत पुनराह्नानं न तु दण्डं प्रकर्पयेत्‌ ॥
0 4 |

अवध्यं यश्च वध्नाति यञ्च वध्यं प्रमुञ्चति ।
अप्रा्तव्यवहारञ्च स दाप्यो दण्डमुत्तमम्‌ ॥ `
अवध्यं बवन्धनानरहम्‌ । अप्राप्तव्यवहारं व्यवदहाराथे-
मानौतमनिव्वौदहितव्यवहारञ्च । तं न वध्रौयात्‌, न |
सुञ्चेत्‌! तथाविधं व्रन्‌ मुच्न्‌ वा उत्तमसाहसं दण्ड्य
इत्यथेः ।

द्ण््यसुन्मोचयन्‌ दण्डादिगुणं दण्डमाहरेत्‌"


नियुक्तश्चाष्यदण््यानां दण्डकारौ नराधमः॥
दण्डादवरुच्वस्य यो द्‌ण्डस्तस्मात्‌ ,नियुक्तो राजपुरुषः
आलभ्रकं रक्रेदधिप्रत्यधिनामिति वचनात्‌ । |
` यश्च दण्डनाधिकषतो दण्डानदहीदण्डत्वेन यावह्ह्णाति स॒ |
तद्धिगुणं दाप्य इत्यथेः। अच वध्योन्मोचने वधदण्डस्य `
९ घ युतक अवदत्‌ । `
न १६ दण्ड विवेकः ।

देगणयासम्मवादधप्रतिनिषिद्धन सुवशैशतयरहणानन्तरं वध
इति प्रतिभाति ।

पारदारिक-चौरौ च मुज्तो दण्ड उत्तमः ।
यच शषुद्रदरव्यापदारौ चौरोऽनुलामागुत्तदास्यादिगामौ
च पारद्‌ारिकस्तज्यते तददिषयमिदम्‌ ।
अथ वादिनः प्रतिनिधिविषये नारद्‌-काव्यायनौ,--
योनम्रातानच पिता न पुचो न नियोजितः,
पराथैवादौ दण्ड्यः स्याद्यवहारेषु विन्रुवन्‌ ॥
कात्यायनः |
दासाः कम्मेकराः श्ष्ा नियुक्ता वान्धवास्तया।
वादिने न दण्ड्याः स्यर्यस्ततोऽन्यः स दण्डभाक्‌ ॥ `

अप्रगल्य-जडोन्मत्त-खद्व-स््ौ-बालरोगिणम्‌ ।
पू्व्वोत्तरं वदेदन्धुनियुक्तोऽन्योऽथवा नरः ॥
पुव्वं भाषा ।
कात्यायनः
ब्रह्महत्या-सुरापाने-स्तेये-गव्वङ्नागमे ।
मनुष्यमारणे स्तेये परदाराभिमषंणे ॥
अभच्यभक्षणे चैव कन्याहरणदूषणे ।
` पारुष्ये करंटकरणे न्टपद्रोहे तथेव च ॥ ५
प्रतिवादौ न दाप्यः स्यात्‌ कर्ता तु विवदेत्‌ खयम्‌। `
प्रतिवादी प्रतिनिधिः पुनः स्ेयपदं प्रतिषेधाति-
्याथेमिति रलनाकरः ।
सम्य-दण्डः । ३२७

वस्तुतस्तु प्रथमं स्ेयपदं सुवणेस्तेयपरं मदहापातक-


साहचर्य्यात्‌। दितौयन्तु तदितरपरम्‌ । ब्रह्मदत्या-मनुष्य-
मारणवत्‌ गुव्वङ्गनागमन-पर दाराभिमषंणवच्वेति द्रषटव्यम्‌।
कत्ता अभियुक्तः ।

अथ सम्य-दर्डः |
तचोत्कोचमादायान्यथा निणेयतस्तस्य दण्डः प्रकाश-
तस्कर प्रकरणे दशितः
उत्कोचग्रहणादिसम्भावनायामाह कात्यायनः,
अनिणौते तु यदथ सम्भाषेत र होऽर्थिना ।
प्राड्विवाकोऽपि दण््यः स्यात्‌ सम्यक्चैव न संश्यः॥ `
अन्यच त्वा,
लेदादन्नञानतो वापि लाभाद्वा मोहतोऽपि वा ।
यच सभ्योऽन्यथावादौ दष््योऽसभ्यः स्मृतो हि सः॥
दश्डमाह नारदः+ |
रागाह्लोभाद्वयाद्ापि समत्यपेतादिकारिणः।
सभ्याः एथक्‌ प्रथक्‌ दण्ड्या विवाद्‌ाद्दिगणं धनम्‌ ॥
आदिपदादाचारापेतादियरहणम्‌। अच विवादात्‌
विवाद्पराजयनिभित्तादण्डात्‌ दिगुणमित्यर्थो न तु |
|
विवादास्यदौग्रूतादिति स््रौसङ्गदणादिपु दर्डाभाव-
: प्रसङ्गादिति मिताक्षराकारः ।
~~-----+------- ~~: 6

१ ध ङ पुरतकद्ये प्राडविवाकोऽप्यदण्डाः स्यादिति


2 |
` इदस | | | दग्डविकेकः ।

उहस्यति
अन्यायवादिनः सभ्या निर्व्वास्याः सव्व रव ते ।
शतद्दादिनीऽतिपौडाकरमदहापातकादि विवादविषयं
उत्तिच्छेदादिविषयं वा शेलाधणिनि प्रयोगात्तच्छील्य-
प्रतौतेरभ्यासविषयं वेति न विरोधः। ` |
इह यच सुवणादिषु धिपतेषु प्रत्यर्थ सव्वमपह्ते ।
अथौ च तदेकटेशं विभावयति तच यदेकदेशेऽथिनः
सत्यवादित्वात्‌ प्रदेश्णन्तरेऽपि मूलमिदं सत्यमिद्मसत्य-
मित्यादिना तक्रेण निणैयः, तदा ष्वस्तुतस्तुल्याथैस्यान्यथा-
त्वेऽपि व्यवहारदशिनां न दौषः व
, तथाहि न्यायाधिगमे तरकोऽप्युपायस्तेनाभ्यद्य यथाख्यानं
गमयेदित्यक्रा-- `
गोतभेनोक्तम्‌,--
तस्माद्राजाचाय्यावनिन्द्ाविति।
अथ सन्दिग्धानाच्च भाषणमिति यदुदिष्टम्‌ ।
तच नारद्‌, ।
काय्यस्य निरयं सम्यक्‌ कत्वा सत्यन्ततो वदेत्‌ ।
अन्यथा नैव वक्तव्यं वक्ता दिगुखदण्डभाक्‌ ॥
वक्ता अन्यथावक्ता । अचापि दैगुण्थं विवादविषया-
पश्या, पराजयनिमित्तकद मापेशया वा ।
तथा+-- `
समभ्यदोषात्त्‌ यनष्टं देयं सभ्येन तत्तथा । 4
कायन्तु काय्थिणामेवं निशितं न विचालयेत्‌॥

९. घ पुस्तके--तदा वस्तुतस्तस्यान्वयस्य ।
सभ्य-द गडः । ३३९.

नष्टं हारितं जयिने दत्तं देथं ईहौनाय वादिन इति `


श्रषः। सोऽयं न विचालयेदिति कल्पतरू-पारिजातादि
लिखितपाठानुगतोऽथैः ।

व्यवदारदौपिकायान्तु कामधेन्वादौ दृष्ठ प्रविचारये-


दिति पठितं व्धाख्यातच्च--अन्यथादर्भिना सभ्येन विचा `

निणोतमपि पुनः सम्यक्‌ विचारथेदिति। रवच्चैतन्मते-


` ऽन्धथादशेननिमित्तोऽयं सम्यद्‌ण्डः ।
युक्तच्वेतत्‌ दुष्टस्य पुनदंशनविधानात्‌। पूव्यसभ्य-
प्ाङ्िवाकयोदंण्डविधानाच्च । छत्यसागरे तु न विचालये-
| दित्येव पठितम्‌ । वाद्नुक्तमपि नितं न विचालये-
|. दिति तु व्याख्यातम्‌ ।
अब, कात्यायन
प्राड्िवाकसदस्यानासुपजौव्यमतानि तु ।
तचुक्तियोगाद्योऽथेषु निेयेत्त्‌ स दण्डभाक्‌ ॥
यः स्वयमन्नः प्राद्धिवाकायुक्तयुक्तया नियति सोऽपि `
दण्ड्य इत्यथैः । रतदनधिकूतश्रुद्रा्यभिप्रायं कचिन स॒ |
।8 दण्डभागिति पाठः स च धम्बेन्न-शास््रन्न-ब्राह्यणामिप्रायक `
। इति फलतो न विशेषः| |
तदाद इदहस्पति
नियुक्तो वाऽनियुक्तो वा धम्पे्नो वक्त॑महति ।
~~" ~----------------------------------------~---~*----------~------*---------~-~---------- ~

त ९ अथ काल्यायन इत्यारभ्य अकरूटसाच्िदूषगदण्डनिगयं यावत्‌ ग्रन्थाः४ |


घ ङ पुरक पमाद्पतितः। 4 | =
३४० । दण्डविवेकः ।

तथा नारद, द |
नियुक्तो वाऽनियुक्तौ वा शस््रन्नो वक्तमहंति ।
इति रनाकरः ।
इड केचित्‌ ,-- ।
अनिर्दिं्टाश्च ये कुरव्यवदार विनिगेयम्‌ ।
राजदत्निप्रृत्तास्ते तेषां दण्डं प्रकल्पयेत्‌ ॥
इति कात्थायनवचनमधाभ्िका शस्तरक्नविषयं येषां
पुनरनियुक्तानामपि नाधम्मैश्ा राज्ञापि मलकृत्यमेवेते
कुब्यन्तौति सामान्यतो येऽनुमन्धन्तेऽनुकम्प्या एत ॒इत्यु-
पश्यन्ते वा । तैरनियुक्तैरपि व्यवहारदश्ने प्रवर्तितव्य-
मेवेत्याहः।
तच च नियुक्ती बेत्यादिदृहस्पति-नारदयौवचनं ` ।
प्रमाणयन्ति स्म |

~+
=~
(
'अधादुष्टसाकनिद्‌षणदर्डः ।
तच दस्यति,
साक्िणोऽधिसमुदिष्टान्‌ सत्खदोषेषु दूषयेत्‌ ।
अदुष्टान्‌ दूषयन्‌ वादौ तत्समं दण्डमहति ॥
तत्समं विवाद्विषयसममिति रनाकरः। स्तौसंथहणादौ
तु पराजयनिमित्तकदण्डसममिति प्रागुक्तमनुसन्धेयम्‌ ।
1
नातथ्येन प्रमाणेन दोषेखेव तु दूषयेत्‌ ।
मिथ्याभियोगे दण्ड्यः स्यात्‌ साध्याथौदापि हैयते॥ `
दोषेण तथ्येनापि सिद्चेन नतु साध्येन ।
तथाहि खहस्पति-कात्थायनौ,--
सभासदां प्रसिद्धं यत्‌ लोकसिद्धमथापि वा|
साशिणां दूषणं राद्यं न साध्यं दोषवज्जनात्‌ ॥
प्रसिद्धमेव गाद्यं दोषवञ्जनादित्यन्वयः, न तु साध्यं
राद्यं दषसम्भवादिति भावः|
तदोषमादतुस्तावेव,-- | |
अन्येसतु साक्षिभिः साध्ये दूषणे पूव्वसाश्िणाम्‌ ।
अनवस्था भवेद्ोषस्तेषामष्यन्धसम्भवात्‌ ॥ क (1
रुवच्च यचानवस्यादयो नापतन्ति तच साध्योऽपिदोषो |
आद्य इत्येव गम्यते । रतच्च छतश्पयस्या शुचित्वलिङ्ग- `
९. कं पुस्तके एष दण्डविधिः परतितः।
३४२ दण्डविवेकः

रोगादावपि द्रष्टव्यं न्यायसाम्यात्‌ अन्यथा राचावस्याति-


पौडाकरो ज्वरोऽभदित्यमिधायैव वादी छतङ्कत्यः स्यात्‌ ।
तचापि शपथादनुसारणेनानवस्था स्यात्‌! `
कात्यायनः |
उक्तेऽथे साशिणो यस्तु दूषयेत्‌ प्रागदूषितान्‌ ।
न च तत्कारणं ब्रुयात्‌ प्राप्ुयात्‌ पृव्बसादसम्‌ ॥
पूव्वसाहसमुत्तमसाहसमिति रनाकरः । `

अध कुटसाचिनिहेशदण्डः, ।
1
` येन काथ्येस्य लोमेन निर्दिष्टाः क्रूटसाकिणः ।
खहौत्वा तस्य सव्वस्वं कुग्यौननिविंषयन्ततः ॥
निविषयं विवाद्विषयश्रन्यमिति रत्नाकरः रुतचा-
भ्थास्विषयं द्रष्टव्यम्‌। अनभ्यासे तु- रक्षत्‌ साक्िणस्तथा `
` विवादाद्धिगुणं दण्डनोया इति याज्ञवस्वयवचनमोवोप-
तिष्ठते। यः क्रटान्‌ साक्िणः करोति स क्रूटसदित्यथैः । `

९ खड निरदग्नदण्डः। ६१ क पुस्तके इचर्थात्‌ ।


अ कुटसालिदरडः ।
स॒ च उत्कोचादियदणनिमित्तः प्रकाश्तस्करप्रकरणे `
प्रदशितः।
लोभादिना कटसाष्ये दण्डमाह मनु+-- |
लोभात्‌ सदखं दण्व्यस्तु मोहात्‌ पृव्वन्तु साहसम्‌ ।
भयाद्रौ मध्यमौ दण्डो मैव्यात्‌ पुव्ये चतुर्णम्‌ ॥
कामाद श्गृणं पूव्वे कोधात्त्‌ विगुणं परम्‌ ।
अन्नानाद्रं शते पुणे वालिश्याच्छतमेव च ॥
लोभोऽथेलिष्या सहसं पणानामिति शेषः, मोदो
विपरौतन्नानमिति कुल्लकभट्रादयः। रलाकरेऽपि मिथ्या.
ज्ञानमित्युक्तम्‌ । वेचिच्यमिति कल्पतरुः । पूव्वे साहसं
कि

सादं पणश्तदयम्‌ ! दौ मध्यमौ साहसावित्यन्वयः, तेन ` |


पणसदखमित्यथैः । ।
चिगुणं परमिति पृव्वापेश्या परं मध्यमं तस्िस्तिगुशे
पञ्चद्‌ शतानि सम्पद्यन्ते इति कल्पतरुः । रवमेव रला-
करः । ग्रदेश्वरमिश्रासतु परं सरक्षमित्याहः ।
नारायणसव्व्ञोऽप्याइ परमुत्तमसाहसमिति। = ``|
अन्नानं तात्कालिको विपय्ेय इति कल्पतरुः! |
| अस्पुरणमन्नानमिति भिताश्ठराकारः। अत णव वालिश्यं |
यौवनोन्मेषप्राप्तो मद्‌ इति रल्नाकरः। ज्ञानानुत्पादो |
| बालिश्यमिति मिताक्षराकारः !
यचतु सोभादिकारणविगेषपरिच्छेदो नास्ति ।
३४४ ( दण्डविवेकः।

तचाइ यान्चवसकछ»--
प्रथक्‌ एथक्‌ दण्डनौयाः करटूत्‌-साक्षिणस्तथा ।
विवादाद्विगुणं दण्डं" विवास्यो ब्राह्मणस्तथा ॥
विवादात्‌ विवाद्‌विषयादिल्थैः, विवाद्पराजय-
निमित्तादण्डादिति मिताक्षराकारः) ए
दश्डश्चायग्टणादि-विवाद्‌विषयः। तच संखयानियमात्‌।
अन्यच तु,
होने कम्मणि पञ्चाशन्मध्यमे तु शतावरः ।
गुरुकाय्येषु दण्डः स्यान्नित्यं पञ्चशतावरः ॥
इति वचनोक्तो दण्ड इति कत्यसागरः। विवास्यो `
ब्राह्मण इति ब्राह्मणस्य विवासनमाचं न तुदण्डः। अन्ये-
षान्तु समुच्चयः! अन्यथा न्यायागतो ब्राह्मणे दणश्डाप- `
कर्षो न स्यात्‌ । | |
रुतच्च पूव्वचापि द्रष्टव्यं तथाच लोभात्‌ सहखमित्या-
. दिकमभिधाय--

क्रटसाश्यन्तु कुव्वाखंस््ौन्‌ वशान्‌ धाभ्मिको व्टपः।


प्रवासयेदण्डयित्वा बाद्यणन्तु विवासयेत्‌ ॥
लोभादित्यादि सकृत्‌ टसाश्यविषयमिद्‌न्नभ्यास-
विषयम्‌। तच ्षचियादौन्‌ पूर्व्वोक्तदण्डेन दण्डयित्वा राजा
`निवासयेत्‌ ब्राह्यणन्तु दण्डव्यतिरेकेणेवेति कुल्लकभट्रः ।
रुवभेव नारायणः
९. व्ोच्वित्‌ दण्डा इति पाठः|
रटसा्तिदण्डः । २४५

गोविन्दराजस्तु,
ब्राह्मणं पुव्वदण्डेन दण्डयित्वा न्नं कुरग्यादित्यधैमाह ।
मेधातिथि्तु
ब्राह्मणस्य विवासनं वासोऽपदरणं गहभङ्गो वा इत्याह ।
अच भिताश्रराकार,
प्रवासयेत्‌ मारयेत्‌ प्रवासश्ब्दस्याथेशस्त्रे मारणे
प्रयोगात्‌ । तचरापि प्रवासनमोष्ठकेदनं जिद्वाभेदनं प्राण-
वियोजनच्च कौटसाश्यविषयातुरोधेन द्रश्व्यं अभ्यास-
विषयञ्चेतदचनमित्याह ।
प्रवासयेदित्यस्य दण्डं विनैव सखदेशन्निःसारेदित्यथे
इति रलाकर्‌ ।
मिताकूरायान्तु--
ब्राह्मणं दण्डयित्वा विवासयेत्‌ खदेशणन्निष्काश्येत्‌
यद्या वाससो विगतो विवासस्तं करोति इति शिबि
शाविष्टवत्‌ प्रातिपदिकष्येति रिल्लोपे विवासयेदितिरूपं
तेन नं कुय्यदित्यथेः ।
अथवा वसन्त्यस्सिनिति वासो णं तेन मद्यं णहं
। कु्थादित्यथे इत्यभिधाय !? रखवच्च ब्राह्मणस्यापि लोभादि- ` |
कारणविरेषपरिन्नने सदहखादिरथदण्ड एव । अभ्यासे _
त्वथेदर्डो विवासनच्च। `
भङ्गोतापि जाति द्रव्यातुवन्धाद्यपेश्या नभ्रोकरणं ख
देशनिष्काश `
्नमिति पष्भेदव्यवस्था । .
यद्वा+--अल्पविषये चतुणामथद्ण्ड रव, महाविष्ये |
तु निवासनमेवेति व्यवस्था दशिता ।
^+ दण्डविवेक ।

यः साध्ये आआवितोऽन्धेभ्यो निहते तत्तमोदतः


स द्‌ाप्योऽष्टगणं दण्डं ब्राह्यणन्तु विवासयेत्‌ ॥
तमोषतो रागाद्याक्रान्तचित्तो यथान्ञातमथैमन्येभ्य
पुव्वं श्रावयित्वा निगद्‌ काले यस्तं निह्ूतेऽपलपति सोऽष्ट- `
गुणं दश्डं दाप्यः |
अष्टगुणता तु विवाद्‌विषयापेश्षया तस्यैवोपस्थितत्वात्‌
अतर रनाकरादौ व्याखातं आगमत्वाद्स्याथैस्येति ।
मिताक्षरायान्तु,
विवाद्‌पराजयनिमित्तादण्डाद
टगणमुक्तम्‌ ।
व्यवद्ारतरङ्ग तु ग्रहेशरमिश्रा आहःऽ- ५
हौने कम्भणि पच्चाशदित्यादिवचनबोधितादण्डा-
दष्टगुणत्वमेवेति । तन्मतेऽपि नियत संसके णादि विवादे
तद्पेश्षयै वाष्टगणत्वं द्रष्टव्यं पथक्‌ प्रथक्‌ इत्यादिवाक्ये
- तेनैव तथा व्यवसाया दशितत्वात्‌ ब्राह्मणस्य विवासनं
देशनिष्काशनम्‌ ।
भिताश्राकारमते तु नन्नौकरणं दभङ्गो देशनिष्का-
शशनमिति विविधं तददिषयानुसारेण व्यवसितम्‌ ।
तथेतरेषां यथोक्तदण्डासम्भवे खजत्युक्तकम्मैनिगड-
वन्ध-काराप्रवेशनादौनौति स रवाह ।
1 दण्डाधिक्यञ्चेदमपराधग ोर दष्टानुबोधितैव । 1
वादिति
` अतरव निहत इत्य निहवो विश्रेवकौटिल्यमिति |
व्याखातम्‌ । छत्यसागरे आह च ध
९ क अन्योऽन्यम्‌ । ` ५
करटसाच्िदण्डः। २४७

श्रावयित्वा तथाऽन्येभ्यः सात्वं योऽतिनिह्ते ।


स विनयो शशतरं करूटसाश्यधिको हि सः ॥
विष्ण
क्रटसाशिणिं सव्वस्ापहारः काथ्थेः।
स्तच्च ध्वारवारं कूटसाश्य इति रनाकरः । रवश्च `
या्नवल्व्योक्तदण्डोऽनभ्या
सविषय इति गम्यते ।
ग्रहेश्वरभिशरासतु अल्पधनस्य पुव्वसङ्ा दण्डाः, दण्डा-
सम्यत्तो सब्वैस्वदर्ड इत्याहः ।
अय मनु-नारदौ,
यस्य दृश्येत सत्ताहादुक्तसाश्यस्य साश्िणः ।
रोगोऽभिन्नातिमरण्णं दाप्यो दमञ्च सः पूर्व
॥ ोक्तः
` रोगादित्वमशुचित्वलिङ्गमाचपरं, दमसतु
सहस्ादिः । विवादपददिगुणो वा पञ्चाश्दादिरवा ।
यच दृष्टात्‌ प्रमादात्‌ क्ूटत्वनिश्चयो `नास्ति तचादष्टा-
॥ द्पि तन्निश्चये यथोक्तौ दण्ड इति तात्पय्यम्‌ । ४
अत रव कालान्तरे साचित्वतच्ज्ञानाय मनुनारदयो-
रित्यपक्रम्य ्रदेखरमिभ्रैरवतारितम्‌ |
भवदे बोऽप्याद,
` यदि कृतदिव्यस्य सप्ताहाभ्यन्तरे रोगादिकमुपलघ्यते `1 |
तदासौ क्रटसाक्ौ कणं दाप्यो दर्श्चेति। `
न~" ------------"

१९ क अवान्तर |
` ४८ | दण्डवितेकः।

अथ जानतः साच्निणः कीरिल्या-


दनिगदतो दर्डः ।
तच मनु,--
चिपक्षादनवन्‌ साश्यशटणदिषु नरोऽगदः ।
तदं प्राप्रयात्सव्वे द्‌श्वन्धञ्च सव्वतः ॥
अगद्‌ इति अपरिहरणयप्रतिवन्धकाभावपरं दशवन्धो
द्शमांशः। तेन यः पश्यमानो वाधकं विना पशचयेणापि
न ब्रूते स द्‌शमांश्तहितषटणं प्राघ्रुयात्‌ तस्य दाता |
भवेदित्यथेः। तच द्शमांशः कलास्यान इति ग्रहेश्वर- `
|
मिखाः।
[र
तेन राज्ञे दण्डोऽयमिति खरमः।

अत्रूवन्‌ हि नरः साश्यण्णं सद्‌एवन्धकम्‌ ।


रान्ना सब्बे प्रदाप्यः षर॒चत्वारिंश्तमेऽहनि ॥
इत्यच मिताक्षरायां व्याख्यातम्‌ ! सव्वं सदडधिकंण्णं
धनिने दाप्यः सद्‌शमांश् रान्न भवति । राज्नाऽधमणिको
दाप्यः साधितादंशकं शतमिन्युक्तत्वात्‌ ¦ इति चिन्त्यम्‌ ।
| राक्ञत्यादि वाक्यस्य यच राधो" धनसाधनं तदिषयत्वात्‌
साधितादिति ्रवणात्‌। यच धनिको दुर्बलः सख्यमशक्लवन्‌
रान्ना साधितार्थो भवति तचाधमगस्य दण्डमादहेति `
स्वयमेतस्यावतारणात्‌।
"~~----"-----------~-------------~----------------~------~----------------------~~--~----------------~-------
----- ----------------~~-

रकं राक्ता
जानतः साच्तिणः कौटिल्यादनिगदतो दण्डः। २४९

दण्डस्तु कात्यायनेनोक्,--
साक्ष साश्यं न चेद्रूयात्‌ समद्ण्डं वदेदणम्‌ ।
अलोऽन्येषु विवादेषु चिश्तं दण्डमर्हति ॥
समद्‌ण्डग्टणमिति बालविषयेेवेतावानेव दण्डः स्ौ-
संग्रहणदिविषये तु पणशतच्यमित्यथैः ।
यत्त,
पारयन्तोऽपि ये साध्यं तुष्णौंभूता उदासते ।
ते क्रुटसाश्िणां पापैस्तुल्या दण्डेन चैव हि ॥
दूति विष्णुवचनं तच दण्डेन कूटसाक्नौव्यक्तन लाभात्‌ `
सहखमित्यादिना विवादपराजयदश्डददिगणेन वा त्वभ्यासे
त्वथदण्डविवासनाभ्यामिति मिताक्षराकारः ।
विष्णक्त-सव्वस्वापदर शेनेति रलाकरः ।
[न "+^ ~ ~~~ ~^.

गहेश्चरमते त्वस्मधनस्य यथोक्तसंख्यातासम्पत्तिविषयं


पय्येवस्यति । रतच्चानन्तर प्रकरणे दर्शितम्‌ ,
अथ लेखविषये व्यासः+--
स्थावरे विक्रयाधाने लस्य कूटं करोति यः।
स सम्यकभावितः कार्यो जिह्वापाश्यङ्गिवन्नितः॥ |
सम्यग्भावितो लोके तथाविधदुराचारतया श्यापितः।
स्थावर इति विकयाधान इत्यभयोरप्यपलकणम्‌ । `
तेन याशि विषये क्रलेखयकरणं तदतुसारेण तत्‌- |
कार््तुजिह्वादिच्छेदः समुच्चयविकल्याभ्यां कत्तव्य इति ` |
तात्पथम्‌ ।
० ` दगडविवेकः।

अघ 'निणंयोत्तरकंत्यम्‌ ।
तच दिव्येन्नेये जयपराजयावधारशे कात्यायनः
शताङ्खं दापयेच्छद्वमशुद्धो दश्डभाग्भवेत्‌ ।
तं दण्डमाह स रएव,--
विषे तोये हइताओे च तुला-कोषे च तण्डुले ।
तत्तमाषकशृत्ये च कमादण्डं प्रकल्पयेत्‌ ॥
ससं षट्‌शतं दे च तथा पञ्चशतानि च ।
चतुख्िदयमेकञ्च हौनं हीनेषु कल्पयेत्‌ ॥ `
निहवे भावितो द्च्यादित्यायुक्तद्ण्डनायं दिव्य-
निवन्धनो दण्डः समुचोयते, इति मिताक्षराकारः ।

निहते भावितो दद्यात्‌ धनं रान्न च तत्समम्‌


मिथ्याभियोमौ दिगुखमभियोगाङ्नं हरेत्‌\ ॥
निहवे अपलापे भावितः प्रमाशेनाङ्गोकारितः।
तत्समं विवाद्विषयसमम्‌ ।
मिताक्षराकारः,
| प्राडन्याय-प्र्यवस्कन्दनयोरप्येवापहवकारौति प्रत्य-
, भिना भावितः १[प्रमाणेनाङ्गकारितः. प्ररतधनसमं दण्ड
राज्ञे दद्यात्‌। प्रत्य्थौ यदि भावयितुं न शक्रोति तदास `
ख्व मिथ्याभियोगौ जात इति प्रतधनमधिने दद्यात्‌ रान्न ॥
च तद्धिगुणं दण्डमेतच्च छणादानविषय खव पदान्तरेषु `
` दण्डान्तराभिधानादधनव्यवहारेघस्यासम्भवाचत्याह ।
१ क निगंयोऽचनदछतं। २ क्वाचित्‌ पाठट-वद्ेत्‌,
इक एक्क्ते [ | चिद्धितांशो नाल्ति।
|

निगैयोत्तरछयम्‌ । २५१ [1

|
1

अथेऽपव्यथमानन्तु कारणेन विभावितम्‌ ।


दापयेद्धनिकष्याथे द्‌ण्डलेशच्च शक्तितः ॥
अर्थेऽपव्ययमानमपलपन्तं कारणेन प्रमाणेन ।
तथा,
यो यावनिङ्भवौताथे मिथ्या यावति वा वदेत्‌ ।
तौ ्छपेणप्यधम्भेन्नौ दण्प्यौ च दिगणं दमम्‌ ॥
सव्थमिदमाश्यापराधपरम्‌ । अत रव तत्समं तद्िगणं |
दण्डले्णनामधमणाशयदो
षादुत्कर्षा पक्षाभ्यां व्यवस्था
रन्नाकरशतोक्ता । तदनवधारशे जात्यादिकमादाय
व्यवस्था ।
रुवञ्च विस्मरणादौनामपह्ववानपहवपुव्वकसम्परतिपत्तौ
च दण्डाभाव रव तच वादिनोऽनपराधत्वात्‌ ।
= |
कल्पतरौ तु आश्यदोषन्धतिरेकेण विररणादिना-
ऽपहवविषये शक्तितो दण्ड इत्यक्तम्‌ ।
इहोत्तमणेस्याप्रयुज्यप्रयुक्तत्वा्यभिलापः प्रायेणाश्य- `
दोषप्रयक्त रेति तचाविशेषेण दिगुणो दण्डो भ्रवः
तचापि श्रदर विशेषमाह नारदः, 1
मिथ्याभियोगिनो ये द्यदिजानां श्रद्रयोनयः

अथ पुनन्धायविषये याज्ञवल्क्य |
दुदष्टांतु पुनद्टा व्यवदहारान्ुपेण तु ।
सभ्याः सजयिनो दण्ड्या विवादाद्धिगुणं दमम्‌ ॥
` ९ कच तकाये पाठःमूलत च-सम्यक्‌दृध तु दुट्ानिति पाठः ।
२५२ | दण्डविवेकः।

दुष्टान्‌ स्मृत्याचारप्रात्तथर्म्मोललद्वनेन रागलोभादिभि-


रसम्यकृविचारितत्वेन शङ्खामानानिति मिताक्षरा । `
विवाद्‌ादिति-यस्मिन्‌ विवादे पराजितस्य यो दर्ड-
स्तस्माददिगणमित्यथेः ।
तथा तचैव,-
यो मन्येताजितोऽस्मीति न्यायेनापि पराजितः।
सभायां तं पुनजित्वा दिगृणं दा पयेदमम्‌ ॥
मनु -

सखामात्याः प्राद्िवाकाश्च ये कृय्यंः काय्मन्यथा |


तत्‌ स्वयं पतिः कुयात्‌ तान्‌ सहखन्तु दण्डयेत्‌ ॥
रतद संख्यातधनविषयं धनव्यतिरिक्तसंग्रहणादिविवाद-
विषयञ्च । ।
तथा--उत्कोचग्रहणे ये नियुक्ता इत्यादिना सब्वेख-
ग्रहणाभिधानात्तदितरविषयमेतदिति मनुटौका ।
1
सपशश्चेदिवादः स्यात्‌ तच दौनं प्रदापयेत्‌ ।
दण्डञ्च खपरच्चेव धनिने धनमेव च ॥
परुनन्यीयं विनापि यद्यहं परिशोधनं न शोधयामि ।
यदि वायं समग्र्णं साधयति तदैतद्रान्ने ददामौत्येव-
माद्यभिधायाधमर्णो यद्यनेन खहौतधनं न शेधयति' यदि
वाऽयं परिशेधनं न बोधयति तदेतददामौत्यनेनः धनिको
यच विवदते शतपणो विवादस्तच पराजितोऽधमणशैः ।
९ कं बोधयामि। ~ र्‌ द्दामौव्यभिघाय।
निरयो
त्तरछत्वम्‌ । २५३

पराजयावगमित-मिथ्यापडहवादिनिमित्तं॒तत्छमादि
दण्डं पणोङतञ्वाथे विवादपदमित्यचितच्वेति चयं दाष्यः। `
धनिकस्तु ङणवल्जं दयमित्यथैः।
अत एव भवदटेवेन पुनन्यायं विना सामान्यमाभि
त्योक्तम्‌ । व्यवदहार्राधिप्रत्यधिंदाच्यात्‌ कदाचित्‌ सपणो-
ऽपि भवति यथा यदि मे भङ्गो भवति सदं तदामे
देयमिति | |
अत एव॒ तद्यदि कछतपणवन्धो रीयते तदा रान्ना `
स्वयं छतं पणं दाप्यः । सथच्च दण्ड्यः । तद्‌ाहेत्यु पकम्य
सामान्यविषयं नारदवचनमवतारितम्‌ ।
विवादे सोत्तर
पदे इयोयस्तच हीयते ।
सपणं सखकूतं दाप्यो विनेयश्चापराजितः ॥ इति ।
भूअचर सपणच्चेति विशेषोपादानात्‌ यचैक रव परणं |
करोति यच वेकः शतमन्यः पञ्चाशतं प्रतिजानौते तच |
येन यत्‌ पणौकृतं | स रव तावदेव दाप्यौ नत्वपरो ` |
नाप्यधिकमिति मिताक्षराकारः ।
` इड केचित्‌, |
तौरितच्चानुशि्टच्च यो मन्येत विधम्बैतः
दिगुणं दण्डमास्थाय तथैतत्‌ काय्यमु्वरेत्‌ ॥
` इति नारद्वचनद्रशनात्‌ यच वादिना द्विगुणो दण्डः `
। प्रतिज्ञायते तत्रैव तद्दानं सएव च पणः, रखवच् सपण- `
अत्यादिकमपि पुनन्धायविषयमेव तौरितमित्यादिनैक- `
तन्न, : ८
मूलत्वादिति।
व १५ का पुक्तके [ | चिदितांश्रः पतितः। 1 |
46:
२५४ ५९ द्श्डविवेकः ।

याज्नवख्वनौये दुदष्टानिति वाक्ये दिगुणदण्डप्रतिपादके


वादिनस्तदन्गनैकारा्रवणात्‌ सत्यजयिनस्तदसम्भवाच
सपणश्वत्यच दण्डश्च पणच्चेति समुच्चयश्रुतिविरोधात्‌ पणस्य `
प्रोढिप्रयुक्तत्वादन्यचापि सम्मवेन वाक्ययोर्विंषयभेदस्या-
वश्यवाच्छत्वात्‌ ।
यौ यावननिहवौतेत्यादिना पुनन्धायं विना विना च
वादिप्रतिन्नानं पराजितस्य दिगणदश्डप्रतिपादनाच ।
इदन्तु विचारमर्हति तीरितम्त्यादौ किमपेक्षया
दगुणयमिति । |
तच केचित्‌-- विवादपदादैगुणयन्तस्येवोपस्ितत्वेन
प्रतियोग्ाकाह्लनपुरकत्वा्च यो मन्येताजितोऽस्ोत्यादि-
याज्नवल्व्योयेनै कमूलकत्वाचेत्या हुः। |
तन्न- अपहवादेरुभयच समानत्वेऽपि पराजितस्य
शष्टतया वा दुराश्यतया वा प्राद्धिवाकादिवचनमनाहत्य
` पुनर्विवदमानस्यापराधगौरवेण दण्डगोर
वस्यौचित्यात्‌ °।
तस्माद्यच प्रायमिको विवादस्तच तद्विषय रुव द्विगुणो
दण्डः। यच तु पुनविवादस्तच विवादविषयद्विगुणादपि
दिगण इति युक्तं तच तस्यैवोपस्ितत्वेन बोधितत्वात्‌ ।
तथादहि--
तौरितं साश्चिलेख्यादिना निर्णौतमनुडतदणश्डं दण्ड-
पन्तताक्नौतमिति यावदिति व्याचश्यते।
अन्यथा दिगुणदण्डास्थानवेयणथ्यात्‌ विवादविषयथा- `
---~-. --------------------------~--------~

१ क--दग्डगौ रवव त्चित्यात्‌ ^


निगेयोत्तर छ्यम्‌ । ३५५

पेश्चया दिगुणदण्डस्य तद्‌नाख्थानेऽपि प्राप्तत्वात्‌ गुरौ


लघो चापराधे दण्डसाम्यस्य न्यायविरुडत्वाच ।
रुवच्च यो मन्येत इत्यादिवाक्येऽपि दिगुखापेश्छयेव
दिगुणो दण्ड इति स्थितम्‌ ।
रतेन सपणशेदित्यच विवाद विषय दिगुखदण्डा स्थानमेव
पणशपदाथे इत्यपास्तं तस्य प्राप्तत्वेन प्रतिन्नानानपेशितत्वा-
दण्डञ्च सपशच्चेति उभयविधिविरोधाचेति ।
किब्ैवं सपण इत्यस्यान्यतः प्राप्तानुवादत्वं प्राप्तम्‌ ।
तथाच यचार्पो दण्डो मुनिभिः सूच्यते तचापि गुरुतर-
दण्डपणौकर णाचारो निमुलः स्यात्‌ ।
` न चानुवन्धो यतः सभ्य इत्याद्युक्तं दण्डोत्कषनिमित्ं
मूलमवेति वाच्यं पणं विनापि दश्डोत्कषकत्वादिति दिक्‌ ।
इति प्रकौशेके व्यवद्ारविषयवगेः ।

न शव्यमन्योन्यविरुद्धम्सिशो
गरीश्च वक्तमपि ये प्रकौणेकाः।
उदाहतास्तत्तदुपाधिकल्पना-
त्याप्यभो ्टाथेशटित्यवाप्तये ॥
दति महामदोपा्याय वद्ध॑मानकतो दण्डविवेके
प्रवौंकदण्डपरिच्छेदः सप्रमः।
२५६ | ष दण्डविवेकः।

ओौविल्वपच्चान्वयसम्भवेन श्रौमद्वेशस्य तनूड्वेन ।


ओरौ
वमानेन विदेहभर्तुः छते कलो दण्डविधौ विवेकः ॥
परक्तिमपि दृष्टा निभ्ितेऽस्मिन्‌ निवन्धे
सभुचितवचनोत्था लश्यते कापि लख्मौः ।
स्फुरति हि कुसुमानां शेखरे योजितानां
नव इव समुदायद्योतमानो विनोदः ॥
कल्पतर्‌ कामधेनु हलायुधांच धम्पेकोषं
समृतिसार-कत्यसागर-रनाकर-पारिजातांश ।
टौकासहिते दे संहिते मनुयान्नवसवयोक्त
व्यवहारे तिलकञ्च प्रदौपिकाच्च प्रदौपञ्च ॥
हृष्टा कतो निबन्धो निवन्धाननिर्वन्धादेश्वर्षेण ।
तदिमानिमच्च दष्टा गुणदोषौ कल्पयन्तु मे सन्तः॥ `४
दोषोद्वोषणसम्मुखोऽस्तु मुखरो ज्नात्वाऽथेतच्वं गिराम्‌
सर्व्वाः पृव्वकतौविलोक्य विदुषां तोषो निवन्धेऽधुना ।
तत्तस्माद्‌भयेऽपि तेन जडतास्तुष्णौ चिरादासता-
-मास्तां किच्च विद्ाय दूषणरसं लोको गुणग्राहकः॥ `
इति विल्वपञ्चकौय-महामहोपाध्याय-घन्मोधिकर
एिक-
` शओओौवद्धमानङृतो दण्डविवेकः समाप्तः ।

` श्रौगुरवे नसः ।

९ क पुलक परिचयभ्लोका न सन्नि:


अथ दण्डविवेकोकतर्थिनाकायका रादि |
खचिपचाणि ।
टः पं ` टः पं टः पं ` ष्टः पं
व्मङ्धिरा १९ ९, ३१९ ४। |कात्यायनः सद्‌ २९१, ८७ १९; .
ऋअपस्तन्बः द८ १४, द ९४, ८९ ९५, ७९ १८,
सश." 9. 9. |: ०.९. १५७ दद्‌,
७३ १९; ८६ रर, १५.०.९९ र्भ द,
९५२ २, ९५२ . इ, ९६8 रम्‌, ९९७ - "द,
९५९६ ९७, ९७९. ९द्‌, ९९७ १५, ९९९ ९,
९७द्‌ € 9 कि २०४ . १. २१४ ९०,
२६९... ९, ४२ १द्‌ २९५ ९४, रदर्० =,
२६० २०, २७५ <, २९. ` १, २२९ ९४,
५ दर्‌ १७। ० रदे ,९४,
. | उश्रनाः ७श १०. ०8. ९ २९ ॥ २४० ९२; ५

1.
कात्यायनः ई ८, १३... | रद श र
शद्‌. १. 9. द| १9 य्‌ ब्‌
क 5 २४९ २, २५९ १७, . .
०. १; । १९ ७, । ५२ १.२. २५२ ५, १,९६७ प

२७ ९३, रष :१४. २५ ९१; २५६ ९५;


ब्ध. ब: ९५ | ९ द्वद...
श. १. 19.१4, + १ 2 1
` इ< १५, २९ १४, २६७ १... द 9, ध
३२९ २५, ४द्‌ ९, सद ९८, ` २७०. |न
५ च द. 1
1. ण द न.
५६ १८, | त
१ ध्त | ९३, ( ९. ५ १ €. 4 ४ ० %:: २०. ५
44. शर्‌ 4 दर
द १ व द
"नद. ~ (र ० दरद्‌ १५
8. र | दर ददन्‌ ४
=... गडविवेकः
द्‌ ।

टः पं टः परं | टः पं छः पं.
का्यायनः दे्‌ इ, २२५ ९, |नारदः २४८ २०, २४९ ८,
ददद्‌ ९० ३० =, २५द्‌ ८ २५४ ९०,
ददे९ ९२; ३४९ € २५८ €, २६० 8,
३४२ ४, ३४२ € । २६९ १९, २६९ १५,
गौतमः४० ७, ४९ १६, २९२... ९, २९९ १९०,
४२ ६, ४ १०, र्दद २० ` रद ११);
प, १०, भ्र इ, २७९. ,-. ४» २७९ १०,
६५ १८, € ७, ८० २९१, +ओ 4 ॐ
१४७ १६, १५९ ७, नु 96 0 9 |
१७२ २९, १७द्‌ १७) रप . €, रप. १९,
१७४ १८, १८० ९०, ९६६... ++
र< ७, ३२९ €, १ ८ 2२० १२)
ररर ९४, ३३८ १३ । १९... = दद्‌ ९७;
दच्ः ` २७९ ९। २२७ १९२ 1 ९६,

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६० रर्‌ ईद्‌ ९८ इर८ १८। ¦
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+ ७४. २१.०५२ र्ट्‌ ४, ३२७ द्‌,
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५. द २२९ €, २४४ १०।
१९६ २०, १.५७ रद्‌, छत्यसारः ` दख 81.
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९६२ इ, शदद्‌ ९, गौपथब्राद्यणम्‌ ९२8 २१
९७९ १७, १७द्‌ १४, १ ।
१७४ ९७ ९७६ १५-१८, चतुव गेचिन्तामनिः २७ १३; |
१८७ र, १९७ १८} ` ९९९ -२०.। (
२९७ २९, २४१ २२, |देतविवेकः ` ऽद २२।
` र्द ९८, २६० २९, |पराग्ररभव्यम्‌ ` २७९ € ।
६१... २५ सदर २०, पारिजातः १८ इ, १५० ९९,
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२८९६ १९, स, । ८
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पुराणनामानि
अन्यान्यगन्धनामानि च ।
छः. पं टः पं षः "पर ठः 12
देकौपराणम्‌ २७९ €, ३९४ १० । |अभिधान ग्रासम्‌ ३० १८
भविच्यपुराशम्‌ ५२५ ९ । |कपिलपञ्चराचम्‌ २९४ १४ ।
मल्रएुराणम्‌ 8० २०, ४९ २९, |कम्भविपाकसमुच्यः ९४२्‌ १७।
२,९१.२ , १.८ ९२४ र. |कामन्दकौयः ९७।
१४५. = ९ बालभूषणम्‌ ९३५ ९२ ।
९८द द, 2 |
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१०-९४
१।
२३९ १२, |घन्भकोमः इद्र १
व्यवद्धारतरङ्कः
त ९६।
३४६ ११.
महाभारतम्‌ १९३ १९ । |यवद्हारदौपिका २९ , 8 | ।4 ५

साकग्डेयएराणम्‌ २०७ स । |खलतिः २४२ |२२।


, बराद्ृघराणम्‌ १२५. ९८ । समयप्रकाशः ९३६ ५ |
स्कन्दपुराणम्‌ ९२४९ ९६२९ |सतिः रद ई, ७० ९० |
ध ९३५ ९० । समतिसागरः १दद्‌ द|
अगस्तिप्ोक्ताम्‌ रद्‌ र्र्‌, २४ सपतिसारः र< ५,
९४९. ` १,
ता ९९७ २९, र्र्‌ २९,
ऋअभिघानकोषः ` २९. ९१; ८६... 8,
सद. १०९७, ४८ र्द्‌। ३२८ «<।
दण्डविवेकष्टतानां विधिनिषेधात्मकप्रमाणनामादि
पादानामकारादिकमेण खचीपचम्‌ ।
षः

छः
| अधमंदग्डनं लेके | ५, .
अधर्मतां यदा राजा १९,
अकूटे कूटो वरते .. &७,
अनश्रनेन कथितः २४२
अगम्यागएमिनः ्ाल्तिः १८९,
अनाच्तारितपूर््नो यः २४०,
अगुणान्‌ कौत्तेयेत्‌--
अ निच्छन्तमभूिन्ञं १०५, ,
कौघ्ात्‌ १९.९.
अनिच्छन्या यत्‌ क्रियते ९५५,
अगु च्चिया-वैश्ये १७१,
अभ्मिदान्‌ भक्लद्‌ सेव प्र, ष्मनिर्गोतेतु यद्ये ३७,
अधिदो गरदश्चैव २३४, अनिदग्ाद्दां गां सूदः २८१,
अङ्गानां प्रौडनायाच्च २२०, अनिष्टा ये केचित्‌ २४०,
अङ्गुसिग्रनिमेदस्य १२२; अनिर्दिन्तुयो राज्ञा १९१९०,
अत्तौरादापितं जयं =, अनिषेद्धा चमो यः खात्‌ ७५,
अजडखेदपो गडः २९२, अनुबन्धं परिज्ञाय ६५५...
अजाच्यपहार्येककरः अन्टतन्तु वदन्‌ दण्डाः = २८७,
कथ्यः १२२ अन्यायवादिनः सभ्याः १५,
अन्ञातौषधिमन्ल्रसतु १०४, (1 ध २२८,
अतश्यं खावितं राजा ` २९५, अन्यायोपात्तवित्तत्वात्‌ १९,
अतोन्येन प्रकारेण ११५७, अन्येस्त॒ साच्तिभिः साद्धे २४९१,
अथ चेत्‌ प्रतिभूरनंस्ति १द्‌, अन्त्याभिगमने लङ्ग ९७६,
अयास्य वेदसुपष्टणतः ३२०, अपाङ्प्त्तयं हस्यं ११५,
` अथास्यानुमतादासात्‌ इर्य, अपि वेदसि पापेभ्यः २४४, `
अदण्ड्यान्‌ दण्डयन्‌ राजा द, ` चए्ायनं भक्तैः = ९९.
` अदन्तन्त्‌ भयक्रोध ` ^ 4 ॥ $ ।; ॥
। अप्रगल्म-जडोन्मत्त ३९,
दम्या इस्तिनोऽखाश्च २८१, €. अप्रागिभियेत्‌ जियते १०७, ¦
अदम्धा काशकुरटाश्च २०५. ९ |अभ्रियस्यच यो वक्ता २१९९, |
अदूषितानां बाणम्‌ ३९०, १९ : |चवनिक्ौवतो दरात्‌ २५३,
अधमोत्तसमध्यानां 5 र |अविग्रोयाणि विक्रौगन्‌ ३९१, `
` अघम्भतः प्रृत्तन्तु १९, ९६ अवौजविक्रयौ यस्तु ` श
७० द शण्डविषेकः ।

प ठः
अत्राद्यणः संग्रहणे 8 अस्पु्ययुत्तैदासानां =, २९
अनत्राद्मणो ब्राद्यणस्य ( अंश्रांण्रं तख्वरार्‌ यस्तु 8; १४
=
~

्यनरुवन्‌ दि नरः साच्छं १श चर


अभिगन्ताऽसि भगिनौ र्‌ |वक्रस्य समाकरोशन्‌ २२९५,
` अभिघाते तथा भेदे श र अगमं निर्ममं स्थानं [ओ )
अभिचारच्च वुर्व्वां श्र | अपचाय्यञ्च पवक्तारं
१,०४
अभिचारेषु सर्व्वेषु १ प्य„| आ चायस्य पितुर्म्मातुः १८,
अभिष्वज्यतु यः कन्धा अचायाः पितरः पुचाः ४द,
अयःसन्द्‌ानगुप्तश्च ९७ | आततायिनि चोत्वे २२४९१
अयुक्त सासं चत्वा ४ । अत्मानं घातयेर्‌ यस्तु
२९९;
अयोनौ गच्छतो योषां 8
३ ।। आधिः सादसमाकम्य २९३;
अर्ध्या
एति क्रमश्छत्‌ श अपु ब्राद्छगसखेषु
४ अपतृकते यथयावद्धः २९७५
अथैवन्तो यतः सन्तः अमन्तितो दिनो यस्तु [4०७,
अधशस्त्रात्त बलवत्‌ अमुक्ते
शाचौरेभ्यः
अधिनामुपसन्नानां
सयुधौ चोत्तमस्तेषां च,
अर्थेऽपव्ययमानन्तु
आरम्भक्षत्‌ सहायश्च ७४५)
अदद्धोऽघमेषु दिगुणः | अ्ये्त्प्रभिगमने १७
अर्वाक्‌ च्यन्दाद्रेत्‌ । पसेघधकाल आसिद्ध दरद्‌,
` खासी द | वऋाद्तस्त्लवमन्येत २२५)
् अलङ्कतां र्न्‌ कन्धा ८३,
अच्लायकादेणकरा
अस्पमूल्यन्तु संस्तुत्य
अवरुद्धासु दासौसु |8
इतरे छतवन्तस्तु ४८,
अविच्ात-द तस्याशु 9
+=
+<

इयं विशुद्धिरुदिता २२९
. अवेदयानो नष्टस्य
` ` अशिराः एरुषः कायः इषकोपलका्टेसतु २५४, १७.
` अर्ता हस्तपादौ १२० 0
श्यो दण्डस्य वरूण
` अद्भिर्भवति यक्त २४, ।
४९, ९.
` अष्ापाद्यन्तु ग्रस्य 1
` असन्द्ितिनां सन्द्ाता | उक्तेऽथ साच्ठिणो यस्तु ३४२, `
` असम्भोन्या संयाज्या । ४५, .।॥
| उत््तेपक-ग्रभिभेदौ १३, .
असूर्य नास तेक्तका र, | उतुच्ेषकख सन्धितः ९२९८ ९६
५~
पपट
`
खूचौपचम्‌ ।

धं
उत्तमां सेवमानस्तु 3 कणेनासाकरच्छेदे २५९६,
उदरा हस्तपादेषु ४५ कशगोष्ट्राणपादादि २५६, .
उदूरणात्त इन्तस्य कषेः पलपादः स्थात्‌ ५द
उद्िषाः केचिदृधिभिः कलापं देयं २२०१
उद्यतासिं कराभिच्च कल्ितो यस्य यो दण्डः ३०,
उद्यतासिः पियाधरषौँ काकिन्धादिस्तुयो दण्डः ५३,
उद्यतेऽ्सशिलाकाष्टैः काकिन्धादिश्लधैदगडः १५8)
उपधधाभिस्तु चः कश्चित्‌ कारैः च्ततानुरूपसतु २५५ ,
उपस्थमुदरं जिल्ला | क्यस्य निणेयं सम्यकू ३३८,
उभयोः प्रतिभूर्न
ह्यः कारव्यातिपातिव्यसनि ३२४,
उल्कादि-दायकाञव कार्षापणं भवेदर्डो ५९,
| #& कार्षाप्रणाद्याये प्रोक्ताः ५8,
त्विक्‌-एरोह्ितामात्य कार्षापणौ दच्िरस्यां २८,
५.७) ९९
कार्षापणः काथिकः स्यात्‌ ररः
|
कार्षापणस्तु विक्लेयं र,
सकं नतां बद्भनाञ्च २४९, ष्र्‌ कार्षापणस्तिकानज्ञेया २८
खक ब्धनां निघ्नतां २४९ १९४ काषभाण्डटणादीैनाम्‌ १४९६,
एकजातिदिजातिन्तु ८ १५ काषायेग तु भूमिष्टो २७०;
रकपाचेऽथ पयां वा २९५ १५. किञ्चालसमनसो ये ््‌,
रखकशरय्थासनं कौड़ा १५६, किञ्चिदेव तु दाप्यः खात्‌ ९५८;
रखकस्य बद्टवो यच ७8, ४ कितवान्‌ कुश्चौलवान्‌
रण्कादहद्यहयपेत्ं शदः केशान्‌ १,०६.५
रतेः समापरराधानां २५६, २० ॑ ११५,
खष वादिकछलतः प्रोक्तः २५९) १७
कुडवाद्या वेदगुणाः र्द, .
ष दण्डः समाख्यातः ०९. १५ कुलानि नातौः खख २६३,
खां मूद्धां दपरोऽद्गानां ९२; शद्‌ |कुलादिभ्योऽधिकाः सभ्याः १६, |
क |कुलौनाय्येविशिेु = ६8,
कन्याया दूमनद्चैव १८१, करटशासनक द.
कन्यायामसकामायां ` ११ध १्द|
कन्यां मजन्तोमुत्‌छ्ं ` ९८९, ९ क्रुटखगेयवह्ारौ `
1
१०द्‌, |
| ०८,
कन्येव कन्धा या कुर्यात्‌ श्‌,
करपाददन्तभङ्गे ८ ४७; ।
० द्ण्डविवेकः ।
घ्रः. धं. एः. घं
कूहटसाच्िणां सन्वखाप- | युं बा बालब्डधंवा ९, १७
हारः काय्य ९४७ । ५ |गुरोः च्तन्नात्‌ पश्रो राता २८२, १७
कूटाच्तदे विनः च्तत्राः ९०५८) ई गृदमानन्तु दौःश्नौल्यात्‌ €, १
वूरटाच्तदे विनां करच्छेदः ९०८, १५ गदमागव्य या नारी २९६४, ९;
कूटाच्त्देविनः पापान्‌ ९०९, ग््यीतः शङ्गा यस्तु ८४, १४
कूपं पच्चकशादृष्धं २२४, ९९ |गहु सुधितं राजा स्‌, २०
केशेषु ग्रहतो स्तौ ५.९, ९९. | गोक्रुम रो देवपम्मून्‌ ९८, ९९६
कोष्टागारायुघागारः ९२५, श्‌ |गो भिस्त भच्ितं धान्यं २७६, ९९
९४२, ५ | गोभिष्विनाशितं धान्यं २८७९, ५. ,.
कयविक्राय धम्म & ८, २२ | गोपु ब्राद्यणसंस्थासु ९२८ ५
क्रोतारचेव भाण्डानां श द५
२१ | ९२१; ४
, च्ततिभङ्ोऽवमर्दयो वा २३०, ९ |. १.२९. र्‌
च्तचविटुद्रयोनिस्तु ६७, २९ | गोदर्ता नासिकां छित्वा १३१,
`. चचाच्नातस्तयोखान्तु २९१.७, १२ | गौः प्रता दश्राद्न्तु २८१,
च्तचियायामगुप्तायां ३ ॐ, ९९ | ग्रामान्तेषु दतं जयं ८७, ९०.
च्तन्तवयः प्रञणा निव्यं द्‌, २१५ ग्रामेतु या गोप्रचार्‌ २७७, ९४ `
च्िन्वानमपि गोविपरं २४०; २९ च
च्िपन्‌ खादिकं दद्यात्‌ रष, १६ |चक्रिणो दष्रमौस्थसय ३०४, ६८
च्तु्रकाणां परश्रूनाञच्च रर, १६ | चणकत्रौ हिगोशधुम ४१;
च्तुत्रमध्य मदादव्य १९४२, २२ | चतुर्णामपि वर्णनां २७०, ४
तेचवेष्सग्रामवन द९६' २। चतुभिः सेरिकाभिश्च १३६,
च्तेचारामविवौतेषु ७ |चतुवेणेस्य या तिः ३१,
५५. ९ १

५ ९ह|

च्तधिकस्याव्यये दण्डः
१५५
१२९ ९९ | चतुष्मदछ्लतो दोषः ररर, २
च्तेचोपकरणं सेतु १५४९१ ९९ |चत्वारिश्ा वरः पुत्वैः रयः. १५
ग॒ ` चत्वारिंशत्‌ पणो दण्डः १७९. श्र
` , सण द्रव्यं हरेद्यस्तु २६८, ` १५ |चम्भचाभ्मिकभाण्डेषु २९५, ९४
. गर्हभाजनाविकाणाच्च ` र्रप, ९८ |चेद्टाभोजनवाग्रोधे २५७, |
गवत्तं खामिना देयं २७, ९५ |चौरापद्धतं घनमवाप्य =सस,
यतायां संग्रहे दण्डः ` भ ९२ |चौरै्दतं पयनेन ` च्द्‌, . ४`५.

१९०. 10 त ~

` गुरपुना णा शौचं ` ६७, १ ५ |छर्दिमूचएरिबायैः २५, `


-गुरुभि्ेन शस्यन्ते ९९५...९४.। दिनस्य भिन्नयुगे २२४;
` खतचौप्चम्‌ | ` द७द्‌

ज द्‌
जलाग्न्य्न्धनसरदा ९५ टः घ
९०
जातिबरवयं परिमाशं
दण्डस्यादो परिकरः २, ९१
दे
दणडाजिनादिना युक्तम्‌ १११५, ५
जार चौरेत्यभिवदन्‌ ५ र॥ |

.* *९१.७,
ज्ञात्वा तु घातकं सम्धकू ९६
दण्डो हि सुमहत्तेजो १,
्तात्वाऽपराघं देश्ञ्च र दण्डयसुन्मोचयन्‌ दण्डात्‌ ३३५,
ज्योतिर्ञानं तयो तृपां १९२ दमोऽन्तिमः समायान्तु १६१,
त द्श्र स्थानानि दण्डस्य ४६,
तङ़ागोद्यानतौयपैनि २९८ दासाश्रयद्छत्ता च १२८,
तत्‌समुत्योह्िनो कस्य १,५९. ४ दासाः कम्मकराः शिष्याः इद्‌,
तथा धरिममेयानां १8२ १९. दुख्स्यैवतुयो दोषान्‌ १९९,
तथा श्रूजननप्राया २७७) द सत॒ एना ` ५९,
तदपि विविधं पोतं १,९६०;
दुःखेषु श्योणितोत्यादे २२१,
तपखिनान्तु कार्य्याणि १६, ४१, दुःखोत्पादि हे न्रव्यं २९६,
` तर्किः श्थानिकं ल्वा द०७, 0
दूषणेतु करच्छेदः १८२्‌,
+ स्सिखेद
+<
तस्सि्वंद्‌ाप्यमानानां हि ~ देयं चौरं नव्यं =.
तस्य दण्डः कियापेत्ः ९.४) ४२ देश्रं कालच्च विज्ञाय ९९१३,
तं राजा प्रणयन्‌ सम्यक्‌ देणएजातिकुलादौनां १९६,
ति्येग्योनौच गोवन्नं १९.४, १८ देशादिकं च्तिषन्‌ दण्डयः २०९,
तिलांश वि{किरेत्तच ०द्‌ ९९ देहन्नरियविनाण्ैतु २२१,
चिषणो दादश्रयणो २२२ दयुतं समा्वयद्धेव १९०,

स चिपच्तादन्रवन्‌ साच्छम्‌ व ^€
0 बर्याणि हहिसेर्‌ यो यस्य २९५.
तुलाधरिममेयानां ९.४२ ब्रोणेः षोडश्रभिः खारौ ९३५, `
तुलामानप्रतिमानेः ८९,
द दयोरापन्नयोस्तुल्यम्‌ २२३, `
`. तुलामानं प्रतौमानम्‌ ` <€, दयोः पहस्तोदण्डः ` २२३,
तुलाशासनमानानां ९९, १६ दिजान्‌ विहाय यः पर्येत्‌ १४,
णं वा यदिवा काष्ट १४२्‌५ ` ध दिजे भोन्येतु संप्राप्ते ३०७,
तेषामाद्यम्टणादनं इ२५, श दिजोऽगः च्तौणटकत्तिः ४०,
चेविद्य्टपदेवानां ` ० | विनं पटृब्याच्छेण ०८
` त्वग्मेदकः प्रतं दण्डयो ५, | दिनेचभेदिनो यान इष |

` ` त्वग्मदे प्रथमो दण्डो | रश दिनेचभदिनचैव

|
९ दर्ड़वितेैकः।

षः घं
दे छष्णले समते
भप [न्न्‌

२४५ ख |नेगमाद्या भूरिघनाः ९९.९६;


दे कष्णे रूप्यमाघः २४, ९५ न्धायस्छानेष्वधिक्ताः १.०४;

न्धायाऽपेतं यदन्येन १९
ध्‌
धर्ममोपरेश कर्ता च २४ प
चर्म्मोपदेषः दर्पेण २२९. पक्वान्नानां छतान्नाना १५०;
धान्यं द श्यः कुम्भेभ्यः ९२६ परचचछछलको माषः २४,
घान्याप्द्धारौ दशगुणं १२९ `©छ.
3

९२६; श्‌
न पच्चनद्याः प्रदेशेषु २७, श्‌

न किल्विषेणापवदेत्‌ २०९, पश्चुराचे पञ्चराचे ९९प्ट॥।

न जातु ब्राद्यं इन्धात्‌ 8६, १९. पञ्चा गर तस्छभ्यधिकें ९४द्‌ः ०

न दृष्टुं यच पुव्ैषु २५, पगण्डकयोस्तुयः २७,


नदौम्ववेतनस्तारः ९.६; 0. पगानां देग्रते साद्धं रट्‌, रर्‌©

नरौसन्तार्‌ कान्तार- ददः पगोदमानगण्डानां २७,


न भर््तानेव च सुतः ` २२०; पतितस्य घनं इत्वा ५०)
न भिन्नकार्षापयमस्ति शुल्कं ९१५, परगाचेष्वभिनरोद्ः दः ट्‌©

नमातान पिितानस््ौ २०४, 0५


4 पर तन्लारतु ये केचित्‌ | श©

न श्रक्यमन्धोन्यविसद्ध- परदारान्‌ रमन्तस्तु २३८, धस्‌


धम्निणः २५५; १8९ परदारे सवर्णासु 4ज ४

न प्रारौसौ ब्राद्यणस्य ६७, परदेश्ाद्धृत रयं ९४, +


नद्धा या पालदोषेण न्र्‌ परानौ क्ते देषो २२५;
हि
नातश्यन परसाणन

२६९४ परिज्ञेरेन पूव्वैः स्यात्‌ ३०२, ९९


नाथवव्या परु
नाददौत चपः साधुः
९१७.
8९,
१७

१४
परिपूतेषु धान्येषु
परे निहितं लब्ध्वा
र २७ ८

र =€
९९
[९५
नानापौरसमू
दस्तु ९ प्रलद्वयं तत्‌प्रतिः ` १५ रश

. नासयति गुणगन्धान्‌ र्‌ शर्‌ पलालं गोमिने देयं र्‌८५, २०

` नासेद्धव्यः क्रियावादौ | २२९. १७ प्ुवस््राज्नपानादि १४९ ९२


` निनधरम्माविसोधेन ` ०.२ १७ प्ुदस्वा डैपादः ९,
~ निसुक्तो वाऽनियुक्तो वा :₹४९;. ::: | पन्‌ गच्छन्‌ शतं दाप्यः द
` निष्वमस््लौ सारदे. ५ पाणिसु्म्ब दण्डं वा २५५;
: निह्धवे भाषितो दद्यात्‌ २४०; पादकेशांसुककर- र्‌6
नैगमा वैद्यकितवाः १.१ पादोऽघम्नस्य कर्तार १७, ९४
खनौपचम्‌ ।

पापमेवाश्रयेदस्ान्‌ २५९, प्रतिरूपस्य कर्तारः ९२०


पापोपपापवक्तारः । र [2 =) व
प्रदुयक्तदारस्य ९५८,
पारदास्कि-चौरौ च २२६ प्नष्ट्माधिगतं ब्रं ९२२,
पारयन्तोऽपि ये साच्यं २४९, प्रब्रज्यावसितं गरू २२२,
पास्त्रज्यं गरदैलायः २७१; ॥।
<.
©५.
०` पत्रज्यावसिता यच २७१,
पार्ष्यं दिविध प्रोक्तं ९५8) १५ प्रसुणा विनियुक्तः सन्‌ स्थः
पारुष्यदोषाच तयो रद्‌ र© प्रमापगे प्रागभ्तां २२९.
पारुष्ये सति संरम्भात्‌ २९५; ५: प्रमाण्द्धौने वादे तु ३२९, ,
पालनभयाः समस्तु

4

२९८, परोहिं ए्राखिनां


पाषाणनेगमस्रेणी २६६, ९ प्राखा दरद्‌,
पिताचाय्थः सुन्माता ५७, प्रसद्य दास्या गमने १९०,
पिता-एच-पिवादश् २६२, १ प्रहारो दयमे षट्पञ्चाशत्‌ २५९,
पितुः खसारं मातुच १७९६, १८ पच्तालनाद्ि पङ्कस्य २४य्‌,
पिटट-एचाचाय्य- पाकारस्यावसेत्तारं २९९,
यान्यर्तिजां ३०२, र प्राकारं भेदयेद्‌ यस्तु २९९,
` -पौडयेदयो धनौ कश्चित्‌ २३४, ० प्राजकश्चेद्‌ वेदाततः २२१५,
एचः शिष्यस्तथा भार्य्या २२९; १९ प्राड्विवाकं सदस्यानां २२९.
एमांसं दाहयेत्‌ षापं ९६६, ष्र्‌ प्राणा्यये तु यच स्यात्‌ ३९,
धररप्रधान सद्धेदः २९२, ९९ प्रातिलोम्ये बधः पएंसः ९६९ ¦
पुरुषं हरतो स्तो शरदः प्रापे पतिना भागे ११.०४
पष्येषु हरिते धान्ये ९८, ५„५ प्रायखित्तनु कुर्वाणाः 89

९४६? १ प्रोणितखामिका नारौ १६५,


पू्वमाक्तास्येद्यस्त २२२; फी
एक्‌ एथक्‌ दण्डनोयःः ३88, ४
छ फलपुष्पोपगान्‌ पादपान्‌ २२५,
एषतच्तु श्ररौरस्य रदे९, पलद्धरितष्कादाने ९४७, `
प्रकाप्रमेतत्ताखय्य १०६) ब
प्रकाशरवञ्चकासत्रच शश बधाङ्च्छेदादा विप्र ९६
प्रकाशवञ्चकास्तषां शट बधाद्धस्तु खगेगतं ६8,
प्रकौगेके एन्यः रर; ह॥ बनव्परतौनां स्वेषां र्र्९;.
` प्रछतीनां प्रकोप ` | २६ # दद...
प्र्छन्दोव्यामि्ं ` | [7 | बन्दिग्रहां्तथा वाजि. १२०.
प्रतिकुलेष्ववस्ितान्‌ । रष ४, ८ ८ बलात्‌ सन्दूषयेद्‌ यस्तु १६द्‌

दण्डविवेकः ।

2" प 4. ~ ष्ट ~
बङ्भिशक्तपर्व्वां या ९८८, २ |भिच्तका वन्दिनश्वव १५६, र्र्‌
बालजिवारणवालानाम्‌ १३६० ९० | भिन्ने पणेतु पञ्चाग्रत्‌ १०, २१
नाघधाऽपकषसाम्यानां ३८, १९ |भिषद्धिथ्या चरन्‌ दाप्यः १०४. १९
बाल्द्धातुरुस्लौणां ५९, १९९ |भ्यं न ताडेदेनं २२९, श
बाड्धग्रौ वा-नेचसकथिः २९९, € |भेदने चेव यन्त्राणां २२४ १8

बाड्भ्यासुत्तरं पशतं । भेषवजखेद्लवण १००, १८


दण्डयः ९७६, २३ म्‌
व्याघ्रादिभिदेतो वापि २८१५ ९, | मध्यद्धौन यद्रो १.४७, श्‌
व्यापादने तु तत्‌कारी ६९, २२ मध्यस्था वच्चयन्येकं २०६, 8

विरासत ब्रह्मणो दृष्ट २८९. ५ |मनुष्यमारणे च्िपं २६, १.8

विप्रपौडाकरं छेदयम्‌ २५०, ६ |मनुष्यद्दारिणो राज्ञा १२५, ९९.


निप्र श्रताद्धं दण्डस्तु २०५, ३ मनुष्याणं पश्ुनाञ्चु २५८,
` विषाभिदां स्रियं चैव ३९४, ९९ |मनुष्यमारण स्तेयं दर्‌ ^५.
निषे तोये ङताशे च २५०; # २९

विद्िताकरणाच्चित्यं रद्०, ९५ |मन्ता दितियच २७१०
` ब्रद्यहत्यासुरापाने ३३६, ९८ |मन्लौषधि बलात्‌ किचित्‌ ११५,
ब्रद्यद्ा च सुरापश्च ४९, 9 |ममायमिति योनब्रूयात्‌ र्दः स
. ब्राद्मणस्यापररिद्ारः ४३, २ |मभ्मघातिनसेतेषां 98, रद्‌
ब्राद्यणस्यापसाघेषु ४७, १२ |मर्य्यादाभेद क्वेव ९१,
` ब्राद्णच्तचियाभ्यान्तु २०१; < | मदापातकयुक्तोऽपि ४६, ९५
ब्राद्ण्च्तचियविश्ां २३७, २ |मदापश्युन्‌ नयतः १२९८, ९९
, ब्राद्यणस्य चतुःषष्टिः 2७, £ | मद्धापश्रूनां हर्णात्‌ ९२९,
` ब्राद्धणान्‌ वाघमानस्तु द्र, १८ |मातरं पितरं जायां २१९; १५.
माता-माटव्वसा-शखश्च- = ९७८, ;श्‌
भ . माद्टस्वसा मादसखौ = १८०;
मक्तावकाशास्दक ८१, मानवाः सद्य णबा र्दः शष
भक्तावकाशदातारः च्‌, मानेन तुलया वापि ८९,
भगिनौ माटसम्बन्ध- ॥ माषकाणि चतु षद्धि १३९, श्द्.
`. भर्तार लङ्घयेद्‌ यातु १७४, र्‌ पादोद्िषादोवा २९,
। भस्नादौनां
मलम्वनल्े २५९,
२५२, % | साषावसादधौ यः पोक्तः ५.
पतेयं = | माषानद्ौ तु मदम दस ९९ `
` भाग्या एतश्च दासच्च माषो विंश्रतिभागस्तु | ३9 2
खतचौपचम्‌। २७७

च . ध
। ष्युः
पर
भिच प्रा्यथैलोरर्न्वा ६२, ६ | यस्तु दोषवती कन्यां श्५्‌
मिथः सष्कातकरुणम्‌ २६९६, ९९ |यस्तुपूल्वनिविष्टस्य ` २१द्‌,
भि्याभियोगिनो ये स्यः २५९. १९ |यस्तु सञ्चारकस्तच १५१,
सुख्यानाश्चैव सनानां १४५, 8 |चः साच्छे खावितोऽन्येन्यः इद्‌, `
मूल्यमादाय यौ विद्वान्‌ १९१४, १९ | यः साहस कारयति ७५, |
मूल्याङमागो हौयते ११३, ९७ | यद्धतान्युषज्ुतानि ९४८,
म्टचम्भमणिसूचायः १०२, रर |यर्िद्धियनिरोधेन ददद्‌
ग्टताङ्गलम्मविक्रेतुः ` १००, ९३ |या तु कन्धा परवुर्यात्‌ स्तौ ९८्द, `
ग्टद्धाण्डासनखर््वाश्ि १४०, ९२ |यानस्यैव हि जन्तोश्च २२8,
मोदात्‌ प्रमादात्‌ यावानवध्यस्य वधे ई,
संदर्षात्‌ २०४, १९| युक्तरूपं व्रवन्‌ सभ्यः १८,
मौण्ड्य प्राणान्तिके दण्डे १६३, १९१ |युक्तियुक्तश्च यो न्यात्‌ २६७,
येन काय्येस्य लाभेन २४२,

येन केनचिदङ्गेन २५५ »
यतर नोक्तो दमः पर्नैः २९४,
क 8९ ९५ | येन त्रौतन्तु मूल्येन
र| ये चाक्ुलौना राज्यं
३२८,
२९५,
यच वञ्जेयते राजा ५५, २९ |ये त्वरखचरास्तेषां १,
यच विप्रो न विद्यान्‌ स्थात्‌ ९४६, ९० |येन दोषेण भ्ू्रस्य २७१
यच सभ्यजनः सव्वेः ९६, ४९ | चे नियुक्तास्तु कार्येषु १०६,
यच स्यात्‌ परिद्धाराथे २९४, २२ |येनयेनपरं द्रोहं शद्‌.
यत््वसत्‌सङ्गितेसङ्गैः १९०, ९६ |योऽकामां दूषयेत्‌ कन्यां १८द्‌
यचापवर्स॑ते युग्यं २५ = |योऽदन्तादायिनौ दस्तात ८8,
यदा काण्येवग्राद्राजा १४, > |योऽरुच्न्‌ वलिमादत्ते ५, .
यंदि न प्रगचेन्नाजा ४, र| यो ग्रामदेश्रसङ्कानां २६७, .
यदिख्नव कुरुते ३२७, ८९ |यो मन्येताजितोऽसलीति ३५२, .
यस्य कार्यस्य सिद्धाधं ३३०, २० |यो सावन्निहृवीताथे १९,
यस्य दृश्येत सप्ताद्धा ३४७, ५ |योयोवर्णोऽवद्धौयते २६०, |
यस योौऽभिद्ितो दण्डः ५०, ५० |योज्लेभादधमो जाद्या ३०२
` यख्य कुरुते ९४, ।

द |लावान
।यस्य स्तेनः पुरे नास्ति ` दरे, । ||
(द

` यस्याभियोगं कुरते ३३२, ` ध


यस्त रलं घटं वरूमात्‌ । २५० > | सरागाह्लोभात्‌ भयादपि ३७; -
२७८ दण्डविवेकः |

प्यः ध्मः पं
राजक्रौडासु ये सक्ताः २९५, वशो दोषं समासाद्य ९८६, २
साजग्रहृद्टद्दौतो वा २८०, वशेसङ्करदो षश्च ६२, १४
राजधर्म्मान्‌ तधम्भांश्च २६३, वश्राएच्रासु चैवं स्यात्‌ २१
२९९,
साजनि प्रहरेद्‌ यस्तु रप्र८, वसतां दिगुणः प्रोक्तः व ९
सजभिशैतदण्डार्तु १९१, वसानस्त्लौन्‌ पान्‌ दाप्यः ९१) र्‌
शर7जप्वस्तितान्‌ धर्म्मान्‌ २७२, &~
¬

®> वाक्‌ धिक्‌ धनं वधश्चैव २०, र्‌
सराजयान्‌ासनारोढ रद्‌९, वाकूपारुष्यादिना नौचः २९६, ९५
राजागुरुयंमख्ेव ९९; वाग्दण्डं प्रथमं कुर्यात्‌ ` ६३, १.४

राजानो मन्तिणच्छेव दः वाग्दण्ड धिण्दशडचैव ६२, रर


राजा भवत्यनेनास्तु १८, वाग्दण्डस्ताडन्चव २२०, €.

राजा लवध्या निधिं दद्यात्‌ २८९, वानस्पत्यं मूलफलं | ४.६५ ६

राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि €२, वासः कौ पोयवज्ज॑च्च १.8०; ९९


राज्ञः कोषापदन्तु्च ३१
9 [क प
वासांसि फलके सक्छ ९१्द्‌ न््‌9,
१ २९७; विकरौणौते पर्स्यखं ३२९, &.

साक्ञाऽन्यायेन यो दण्डः ७, विवाद्‌्विषये क्रापि ५१९,


राक्ता संस्थाप्यते योऽथः १००, छनत्तखाध्यायवान्‌ स्तेय ६७, श्‌
` शक्ता सचिङ्धं निर्व्वास्याः १०८, ङवलं सेवतेयातु १७४, 8
सान्ञोऽनिषटप्रवक्तारं २९३, वेश्यादिमवने यश्य २७०; १५.

रातौ चरन्तौ गौः २८४, वैश्यं वा चचियं वापि १७४,


१२
सरेषु रच्ताधिकछ्लतान्‌ सद, वैश्यः सव्वैखदण्डः स्यात्‌ ९,६९; १२
`रेषु रच्ताधिकछछताः १२०, वेश्यसु च्वि याच्तेपे १२्‌
(। कि
२०४५)

रेतःसेकः खयोनिषु १८१, वैश्यगामौ द्विजो दण्डयः १९०) रर्‌


वैश्यमाच्तारयन्‌ मूत्र र्‌णभ, १७
स्स्‌
वेश्यद्धत्ताव विक्रेयम्‌
(>| ५

२९९, । कि

लब्धे च चौरे यदिच ८६, वश्यश्चेत्‌ च्तच्ियां गुप्तं


ॐ कः ५ =
१६७, श.8.
` सेकसंव्यवद्ाराथं २, व्यवद्धारान्‌ दिदृच्ुसतु ९९४. १४3।

` लेकेऽस्िन्‌ दाववत्तयौ २९२,


लेाभदंषाहदिकं त्यक्ता (श
लेभात्‌ सख॑ दण्डऽस्तु दण्द, ` श्र्तो यमो चयन्‌खामौ रद्‌ ४.
प्रतघन्वन्तरा वापौ २९९०.
` वक्तव्येऽथेन तिषन्तं ददर ` | श्तं ब्राद्यणमाकर्ब ` २०४५; श
` वक्ताऽध्यत्तो पः शास्ता १२, ` ८ ।श्तं स्त्रौदुषणे दद्यात्‌ २९०, (
सचौपचम्‌ । .. | ३७९

च टः घं
शताङं दापयेच्छद्म्‌ ३५०, २ |सश्धिच्छिदः पान्थमुषः १२९, 9
शपथा दिस्ण्याप्नौ ९२, २० |सन्धिच्छिदो इतं दाप्याः १२४, <
शस्यं च्देचगतं पराङ्णः १२२, १७ |सथ्िंचित्वातु ये चौय्धं १२७, १६
शसं दिजातिभिर्ग्राह्यं <€, 8 |सच्धिच्छेत्ताऽ्नेकविधं १२७, २
प्रारौरस्ववसेधादिः ५६, ९९ | सन्नानां दिगुणो दण्डः २८४, €
शाल्मले फलके च्छो १९२, ६ |सपणश्वेदिवादः स्यात्‌ २५२; १६
सुचिना सत्यवन्धेन १२ २, |सपालः ए्रतदण्डाद्धः २८०, 8
| खुल्वा दब्यात्‌ सेवमाने ९३, 9 |सभांवान प्रवे ९७, १४
। सपलत्वस्थानं परिद्रन्‌ ९३, ७ |सभासदां प्रसिद्ध यत्‌ ४९१, १९.
शुल््स्थानमनाक्रामन्‌ <३, १८ |सभ्यदोषात्त यन्न ३३८, २२
न्तु घातयेद्राजा ९७४, २ |सभ्यानांये विधेयासुः १५, २
श्रून्रायां च्तचियाञ्जातं २९७, ११५ | समजातिगुणानाच्च २९०, &
ग्द्रो गुप्तसगुप्तवा ९७२, २ |समदिगुणसादखं २४द्‌, €
श्रोधनाङ्गान्विता सानौ २२१, १३ |समवे द्िजातौनां २०४, ९९
शान्तान्‌ च्तुघार्तान्‌ समित्‌ एव्पकुश्पदने- ४३, 9
५ टथिनन्‌ = २१०८, २२ |सथुत्‌खजेत्‌ रानमागे २९७, १२
खवयित्वा तथाजन्येभ्यः २४७, २ |समूलश्रस्यनाणेतु २८५. ७
खतं देशश्च जातिच्च २०७, € | समूषस्थाः परडन्ताश्वेत्‌ ५२, ११
तिस्मृतिविरुडच्च १८, समेग्येवं परस्तोषु १४२...
शयन्ते यानि तीर्थानि २४५० ८ समे विषमं यच ९०, १७
खोलियः ओओोवियं साधुं ३०५, १७ |सम्बत्स
राभि स्तस्य ९९१, १८
खपाकपग्ुचाण्डाल- २९७, द्‌ |सम्भूय कुव्वेतां सव्वं €७, २९
` आमिच्च खादयेनाजा १७३, १८ |सम्भूयैकमतं छल्वा २९९, र.
श सम्यकूदण्डयनं राज्ञः ~
सव्न॑तो धम्मषडमागो ध; ६९.
1 | २९२. | 4 सव्वेखन्तु हरन्‌ राजा = ६१, ७
। स ` | स्वका पवौणाश्च २६७, १५ `
सकामायान्तु कन्यायां १९८३, १० |सव्व नानपदायेन २९७, ५
सकामां दूषमागस्तु ९८९, १७ |सन्नषमेव वर्णानां रद्द, द
सचिहिमपि पापन्तु ३९, ९५ | सराजायुरुषो दण्डः ` ३; 4
स चेत्त्‌ पथि संरुद्धः रर, २।स सम्यक्‌पालितो दद्यात्‌ ९०७, १६ < ॥
सलयाऽसद्यान्यधातलोतैः २९० २ |सदसा कामधेद्‌ यस्त॒ ९६५, १४
= द श्डविवेकः ।
प्र +
। षुः

सहसा क्रियते कम्म २९३, शर्‌ स्थावरे विक्रयाघाने २8९.
सं षटृशतं बरेच॒ २७०, ७ स्लेह्ादच्लानता वापि
श कत्‌

२२७,
सदस ब्राह्यणो दण्डयः ९९७, ९९ स्यात्‌ साहसं लन्वयवत्‌ ५०.

सहासनमभिपरश् २२१. ९ खदेश्र पण्याच्छलागं ` २०६,


संक्रमद्धनयष्टौनां ३९१ ४९| सदेप्रपरे तु शतं ९९,
संसगेले प्रचिदेच् ८०, ध© खटेप्रघातिनौयै खयः १२१,
साचिलेख्यानुमानेन ६८, खल्पेऽपराघे वाग्दण्डं
ग्ट्०
६द, `
साक्िणोऽधिसमुदिद्धान्‌ २४९, प स्वसौन्न दद्यात्‌ ग्रामस्तु षद) ध

साच्तौ साच्छंनचेदुत्रूयात्‌ ३४९, भ खामात्याः प्राड्विवेकाश्च, ३५,


स्ट शतं सुवर्णानां २६, < खामी समं दमं दाप्यः दर्प +
साह सन्धायवर्ज्नांनि ३२, ४: खेरिरव्राद्यणम वेश्या १ ए्ठस्य

साहसं पञ्चघ्रा पोत्तं ६१, ४९(|


५ £
संसग॑लेपए चिच
(3

सादपेषु य रवोक्तः १४३ 8

~ सोताद्रवयाप्रहरेतु १४६, | २
१. ५ ।
सुवणेरनतादौनां ९४४, १९, इतः सन्दे यच
सुवं ग्रातमेकन्तु ६8, #1 न्ता मन्ल्ोपदेष्टा च
, छवगैसप्रतितमो २७, षश दरेट्िन्दयाद्दहेदापि
सूचकार्पास(िन्वानां १४८, र्‌ हस्तप्राघायलगुडः
` सेतुभेदकरवा ३९, १. दस्ताङ्गिलिङ्गनयनं छ
=
सोत्‌से घ-वप्प्राकारं २७७) ४. स्त्य रथ दन्तुख १७
सौवरेर्माषकैः संख्या २९, ९ दिरण्यरलनकोौ रयं ९९
स्तेनसाहसिकोदत्त २३२१, द हौने कभ्भणि पञ्चाप्रत्‌
्तियं स्पुरोददे्ये यः १५६, ९ हौ नमध्यो त्तमानाञ्
` स्त्रयरत्तिकामो वा ७०, ॐ दौनभध्योत्तमत्ेन `
९९
` स्तौ निमेधे शतं दण्ड्या ९१७, ~ च्भेनादधो होनमूल्यं र्द
| ९०
-. स््रौषसौ वच्वन्तौह ९१९, इर कासन्चैव
‡|ध स्तौनालेन्मत्तद्धानां ९०, 8 इतं पनं यो ब्रं
स्त्रोहर्तालोदशयने १२५, | र्र्‌| हेमसुक्ताप्रवालाद्यं श
` स्थानासेधः कालक्षतः ददर, ।
~
द्ण्डविवेकस्य शुद्धिपचम्‌ ।
शः पं अभ्रुदध ष्णं
१५. त श्ट ५ नृणां ध च्छं
१७ „. १९ .. तत्‌ .. चत्‌
९२ । १० ५ विसम्बाद्‌ ५५ विसंवादः
२० त र सम्नाद्‌ाच् छ संवाद्‌ाच
२० व; २१ ध विसम्नाद्‌ात्‌ = विसंवादात्‌
२४ ६. क सामरथ ,. साम्ये
| ठं. `, २ ., द्वाविंशत्‌ „+ दाचित्‌
(५ 4९... ३२ .. यस्यापकरणं ,. `यस्योपकरणं
| ५८ .. ९ .. किञ्चिदेव .. किष्िरेवतु
१६१ ध १ £ प्रकार्णपप्दारिदष्डः. . अभिगमदण्डः
१७४ द १२ क वा वाऽपि
१९० ... ८ .. वच््यामार .. वच्छयमाष्‌
२३९१ . .. २१ १ शास्याद्‌ाद्हरण .. शास्योद्‌षरण

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` 26, 41. 82611812112812 : & 34411150 {18.01116 {९४ 01 11918
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