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रामानन्द

बैरागियों के चार सम्प्रदाय में से एक रामानंदी


सम्प्रदाय के संस्थापक

स्वामी जगतगुरु श्री रामानन्दाचार्य जी


मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के महान सन्त थे।
उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के प्रत्येक वर्ग
तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर
भारत में भक्ति का प्रचार किया। यानि उत्तर भारत में
भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंदाचार्य
जी को जाता है। स्वामी जी ने क्षत्रीय रूप में वैष्णव
बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसेे रामानन्दी
सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है।
भारतीय डाक टिकट पर रामानन्दाचार्य का
चित्र।

आरं भिक जीवन


स्वामी रामानन्द का जन्म प्रयागराज में एक ब्राह्मण
परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सुशीला
देवी और पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा था।
आरंभिक काल में हीं उन्होंने कई तरह के अलौकिक
चमत्कार दिखाने शुरू किये। धार्मिक विचारों वाले
उनके माता-पिता ने बालक रामानंद को शिक्षा पाने
के लिए काशी के स्वामी राधवानंद के पास श्रीमठ
भेज दिया। श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने वेद, पुराणों
और दूसरे धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और प्रकांड
विद्वान बन गये।पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में रहते हुए
उन्होंने कठोर साधना की। उनके जन्म दिन को लेकर
कई तरह की भ्रंतियां प्रचलित है लेकिन अधिकांश
विद्वान मानते हैं कि स्वामीजी का जन्म 1199 ईस्वी
में हुआ था।

गुरुशिष्य परम्परा
स्वामी रामानन्द श्रीराम मंत्रराज की परम्परा में 22वें
स्थान पर आते हैं, जैसा की स्वामी अनन्तानन्द के
द्वारा कही गई गुरुपरम्परा (https://sanskritdocu
ments.org/doc_raama/shrIrAmamantrar
AjaparamparAstotram.html) में वर्णित है:

परधाम्नि स्थितो रामःपुण्डरीकायतेक्षणः । सेवया


परया जुष्टो जानक्यै तारकं ददौ ॥ १॥
श्रियः श्रीरपि लोकानां दुखोद्धरणहेतवे । हनूमते ददौ
मन्त्रं सदा रामाङ् घ्रिसेविने ॥ २॥

ततस्तु ब्रह्मणा प्राप्तो मुह्यमानेन मायया । कल्पान्तरे


तु रामो वै ब्रह्मणे दत्तवानिमम् ॥ ३॥

मन्त्रराजजपं कृ त्वा धाता निर्मातृतां गतः ।


त्रयीसारमिमं धातुर्वसिष्ठो लब्धवान् परम् ॥ ४॥

पराशरो वसिष्ठाच्च सर्वसंस्कारसंयुतम् । मन्त्रराजं परं


लब्ध्वा कृ तकृ त्यो बभूव ह ॥ ५॥

पराशरस्य सत्पुत्रो व्यासः सत्यवतीसुतः । पितुः


षडक्षरं लब्ध्वा चक्रे वेदोपबृंहणम् ॥ ६॥

व्यासोऽपि बहुशिष्येषु मन्वानः शुभयोग्यताम् ।


परमहंसवर्य्याय शुकदेवाय दत्तवान् ॥ ७॥
शुकदेवकृ पापात्रो बह्मचर्यव्रतेस्थितः । नरोत्तमस्तु
तच्छिष्यो निर्वाणपदवीं गतः ॥ ८॥

स चापि परमाचार्यो गङ्गाधराय सूरये । मन्त्राणां परमं


तत्त्वं राममन्त्रं प्रदत्तवान् ॥ ९॥

गङ्गाधरात् सदाचार्यस्ततो रामेश्वरो यतिः ।


द्वारानन्दस्ततो लब्ध्वा परब्रह्मरतोऽभवत् ॥ १०॥

देवानन्दस्तु तच्छिष्यः श्यामानन्दस्ततोऽग्रहीत् ।


तत्सेवया श्रुतानन्दश्चिदानन्दस्ततोऽभवत् ॥ ११॥

पूर्णानन्दस्ततो लब्ध्वा श्रियानन्दाय दत्तवान् ।


हर्यानन्दो महायोगी श्रियानन्दाङ् घ्रिसेवकः ॥ १२॥

हर्यानन्दस्य शिष्यो हि राघवानन्ददेशिकः । यस्य वै


शिष्यतां प्राप्तो रामानन्दः स्वयं हरि ॥ १३॥
स्वामी रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए
सुलभ कर दिया। साथ ही ग्रहस्तो में वर्णसंकरता ना
फै ले, इस हेतु विरक्त संन्यासी के लिए कठोर नियम
भी बनाए। उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन
नाई, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर,
रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को
अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश
महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन्हें अपने
अपने जाति समाज मे, और इनके क्षेत्र में भक्ति का
प्रचार करने का दायित्व सौपा, इनमें कबीर दास और
रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये।
कालांतर में कबीर पंथ, रामानंदीय सम्प्रदाय से अलग
रास्ते पर चल पड़ा । रामानंदीय सम्प्रदाय सगुण
उपासक है और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को मानते है ।
कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की।
इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे
जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के
संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में चारो
ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ
था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने भक्ति करने वालों
के लिए नारा दिया जात-पात पूछे ना कोई-हरि को
भजै सो हरि का होई उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों
मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके
लिए खोल दिया। किन्तु वर्णसंकरता नहीं हो, इसलिये
संन्यासी/वैरागी के लिए कठोर नियम बनाए, उन्होंने
महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान
दिया।

रामानन्दी द्वारे
स्वामी रामानंद द्वारा स्थापित रामानंदी‌सम्प्रदाय या
रामावत संप्रदाय आज वैष्णव संन्यासी/ साधुओं का
सबसे बड़ा धार्मिक जमात है। वैष्णवों के 52 द्वारों में
36 द्वारे के वल रामानंदिय सन्यासियों/वैरागियों के हैं।
यह सभी द्वारे ब्राह्मण कु ल के शिष्यों ने स्थापित किए,
इनमे से एक पीपासेन जी क्षत्रिय थे, सम्प्रदाय की शर्त
अनुसार यह सभी ब्रह्मचारी हो, यह आवश्यक है ।
इस संप्रदाय के संन्यासी/साधु बैरागी भी कहे जाते
हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंदी
सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में
फै ली हैं। लेकिन अयोध्या, चित्रकू ट, नाशिक, हरिद्वार
में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के
पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, दुनिया भर में
फै ले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में
कहें तो काशी का श्रीमठ हीं सगुण और निर्गुण
रामभक्ति परम्परा और रामानन्दी सम्प्रदाय का मूल
आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य
स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज, श्रीमठ के
गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड
विद्वान हैं और संन्यासी जगत में समादृत हैं।
भक्ति-यात्रा
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए
देश भर की यात्राएं की। वे पुरी और दक्षिण भारत के
कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार
किया। राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की
पावन ऊं चाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों
और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया, वे भक्ति मार्ग
के ऐसे सोपान थे जिन्होंने भक्ति साधना को नया
आयाम दिया। उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी
श्रीमठ, काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों
की आस्था का के न्द्र है। स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में
संस्कृ त की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता दी।
उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद
भाष्य पर टीका भी शामिल है। वैष्णवमताब्ज
भास्कर भी उनकी प्रमुख रचना है।
चिन्तनधारा
भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृ ति के विकास
में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक
क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैष्णव भक्ति के
महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग
सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव
हुआ। उन्होंने श्री सीतारामजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित
विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत
तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम
तीव्रता प्रदान की। उन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति
मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के
मूल प्रवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
रामानन्द का समन्वयवाद
स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन समाज में विभिन्न मत-
पंथ संप्रदायों में घोर वैमनस्यता और कटुता को दूर
कर हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का महनीय
कार्य किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम
को आदर्श मानकर रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया।
उनकी शिष्य मंडली में उस काल के महान सन्त
कबीरदास, रैदास, सेननाई जैसे निर्गुणवादी संत थे तो
दूसरे पक्ष में अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार
मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनन्तानन्द,
भावानन्द, सुरसुरानन्द, नरहर्यानन्द जैसे वैष्णव
ब्राह्मण सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे।
गागरौनगढ़ नरेश 'पीपाजी' जैसे क्षत्रिय, सगुणोपासक
भक्त भी उनके शिष्य थे । आचार्य रामानंद के बारे में
प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र का उपदेश उन्होंने पेड़
पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति के लोगों के
कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का
कल्याण हो सके ।

आचार्यश्री ने स्वतंत्र रूप से रामानन्दी सम्प्रदाय का


प्रवर्तन किया। इस संप्रदाय को 'रामावत' अथवा
बैरागी संप्रदाय भी कहते हैं। इसके 32 ऋषि गोत्री
गृहस्थ अनुयायी, वैष्णव ब्राह्मण हैं। इस सम्प्रदाय के
सन्यासियों को 'बैरागी' कहा जाता है। अन्य कई
समाज जैसे, धन्नावंशी समाज, सेन समाज इत्यादि
रामन्दाचार्य जी के अनुयायी हैं। रामानन्दाचार्य जी ने
बिखरते और नीचे गिरते हुए हिन्दू धर्म को मजबूत
बनाने की भावना से भक्ति मार्ग में जाति-पांति के भेद
को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की शरणागति
का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है। सर्व
प्रपत्तिधरकारिणो मताः कहकर उन्होंने किसी भी
जाति-वर्ण के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं
किया। चर्मकार जाति में जन्मे रैदास और जुलाहे के
घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं।

धार्मिक अवदान
मध्ययुगीन धर्म साधना के कें द्र में स्वामी जी की
स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ जैसी है। उन्होंने
अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी
जीवटता से समाज और संस्कृ ति की रक्षा की। उन्हीं
के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां
सांस्कृ तिक कें द्रों की स्थापना संभव हो सकी। उस
युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागी साधुओं को
अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर
तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान
स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में
वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए। मूल्य ह्रास
की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद
संप्रदाय के सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड
रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं और सर्वत्र
आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं। वैष्णवों के
बावन द्वारों में सर्वाधिक बत्तीस द्वारे इसी संप्रदाय से
जुड़े हैं। रामन्दाचार्य जी स्पष्ट रूप से सगुण उपासक
थे । उनका विशिष्टाद्वेत सिद्धान्त था।

यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि


हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष,
मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक
कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही यौगिक
शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन
मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के
माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया
और हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर
को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम
धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में
वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान
कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्य ने ही प्रारंभ
किया। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा
हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को
एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के
लिए प्रेरित किया था। ऐसे महान संत, परम
विचारक, समन्वयी महात्मा का प्रादुर्भाव तीर्थराज
प्रयाग में एक कान्यकु ब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
जन्मतिथि को लेकर मतभेद होने के बावजूद रामानंद
संप्रदाय में मान्यता है कि आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य
माघ कृ ष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ था। इनके
पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का
नाम सुशीला देवी था। धार्मिक संस्कारों से संपन्न
पिता ने रामानंद को काशी के श्रीमठ में गुरू
राघवानंद के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा.
कु शाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी
शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर
ली। गुरू राघवानंद और माता-पिता के दबाव के
बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और
आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया। ऐसे में
स्वामी रामानंद को रामतारक मंत्र की दीक्षा प्रदान
की। रामानंद ने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट
हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक
साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की।
योगमार्च की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्होंने
अष्टांग योग की साधना पूर्ण की। दीर्घायुष्य प्राप्त
करने के कारण जगद्गुरू राघवानंद ने अपने तेजस्वी
और प्रिय शिष्ट रामानंद को श्रीमठ पीठ की पावन
पीठ पर अभिषिक्त कर दिया। अपने पहले संबोधन में
ही जगदगुरू रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त
कु रीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर
आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत धर्म
रक्षार्थ विराट संगठित शक्ति खड़ा करने के संकल्प
व्यक्त किया। काशी के परम पावन पंचगंगा घाट पर
अवस्थित श्रीमठ, आचार्यपाद के द्वारा प्रवाहित
श्रीराम प्रपत्ति की पावनधारा के मुख्यकें द्र के रूप में
प्रतिष्ठित होकर उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत
प्रवर्तन कर रहा है। आज भी श्रीमठ आचार्यचरण की
परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से
जनमानस को आलोकित कर रहा है। यही वह
दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने
अपने परमप्रतापी शिष्यों के माध्यम से अपनी
अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था।

रामानंदाचार्य पीठ का पवित्र कें द्र सारे देश में फै ले


रामानंद संप्रदाय का मुख्यालय है। श्रीमठ में
अवस्थित रामानंदाचार्च की चरणपादुका दुनियाभर में
बिखरे रामानंदी संतों, तपस्वियों एवं अनुयायियों की
श्रद्धा का अन्यतम बिंदु है। यह परम सौभाग्य और
संतोष का विषय है कि श्रीमठ के वर्तमान पीठासीन
आचार्य स्वामी रामनरेशाचार्यजी भी स्वामी
रामानंदाचार्य की प्रतिमूर्ति जान पड़ते हैं। उनकी
कल्पनाएं, उनका ज्ञान, उनकी वग्मिता और सबसे
अच्छी उनकी उदारता और संयोजन चेतना ऐसी है
कि यह विश्वास किया जाता है कि स्वामी रामानंद का
व्यक्तित्व कै सा रहा होगा। वर्तमान जगद्गुरू
रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी
महाराज के सत्प्रयासों का नतीजा है कि श्रीमठ से
कभी अलग हो चुकी रामस्नेही आदि प्रभृति परंपराएं
वैष्णव के सूत्र में बंधकर श्रीमठ से एकरूपता
स्थापित कर रही है। कई परंपरावादी मठ मंदिरों की
इकाईयां श्रीमठ में विलीन हो रही हैं। तीर्थराज प्रयाग
के दारागंज स्थित आद्य जगद्गुरू रामनंदाचार्य का
प्राकट्यधाम भी इनकी प्रेरणा से फिर भव्य स्वरूप में
प्रकट हुआ है। स्वामी रामानंद को रामोपासना के
इतिहास में एक युगप्रवर्तक आचार्य माना जाता है।
उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत दर्शन और
प्रपतिसिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय
का संगठन किया। श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के
स्थान पर रामतारक अथवा षड्क्षर राममंत्र को
सांप्रदायिक दीक्षा का बीजमंत्र बाह्य सदाचार की
अपेक्षा साधना में आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर
दिया, असमानता का भाव मिटाकर वैष्णव मंत्र में
समानता का समर्थन किया। नवधा से परा और
प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया। साथ-साथ सिद्धांतों के
प्रचार में परंपरापोषित संस्कृ त भाषा की अपेक्षा हिंदी
अथवा जनभाषा को प्रधानता दी। स्वामी रामानंद ने
प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र
आनंद भाष्य की रचना की। तत्व एवं आचारबोध की
दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल,
श्रीरामार्चनापद्धति, जैसी अनेक कालजयी मौलिक
ग्रंथों की रचना की। स्वामी रामानंद के द्वारा दी गई
देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी संप्रदायों
के वैष्णवों के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर
दिया। भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर
विरोधी सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों के
अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके पूर्व
किसी संप्रदाय प्रवर्तक को प्राप्त न हो सकी। महाराष्ट्र
के नाथपंथियों ने ज्ञानदेव के पिता विट्ठल पंत के गुरू
के रूप में उन्हें पूजा, अद्वैत मतावलंबियों ने ज्योतिर्मठ
के ब्रह्मचारी के रूप में उन्हें अपनाया. बाबरीपंथ के
संतों ने अपने संप्रदाय के प्रवर्तक मानकर उनकी
वंदना की और कबीर के गुरू तो वे थे ही, इसलिए
रामानन्दी सम्प्रदाय से पूर्ण रूप से भिन्न होने के बाद
भी कबीरपंथियों में उनका आदर स्वाभाविक है।
स्वामी-रामानंद के व्यक्तित्व की इस व्यपाकता का
रहस्य, उनकी उदार एवं सारग्राही प्रवृति और
समन्वयकारी विचारधारा में निहित है। निश्चय हीं
उनके विराट व्यक्तित्व एवं व्यापक महत्ता के अनुरूप
कतिपय आर्षग्रंथ एवं संत-साहित्य में उल्लेखित
उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरशः प्रमाणित
होता है।
रामनन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले

रचना संसार
स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित ग्रन्थों की सूची
निम्नलिखित है:

(1) वैष्णवमताब्ज भास्कर: (संस्कृ त),


(2) श्रीरामार्चनपद्धतिः (संस्कृ त),
(3) ब्रह्म सूत्र आनन्दभाष्य (संस्कृ त),
(4) उपनिषद् आनन्दभाष्य (संस्कृ त),
(5) श्रीमद् भगवदगीता आनन्दभाष्य (संस्कृ त),

सन्दर्भ
श्रीरामानन्दसिद्धान्तसारः
रामानन्दमतं श्रौतं विशिष्टाद्वैतनामकम्। अद्वैतं न मतं
श्रौतं श्रौतयौक्तिकबाधतः ।।3 विशिष्टब्रह्मणोरैक्यं
कार्यकरणसंज्ञयोः। मतं च वैदिकं तद्धि
विशिष्ट्याद्वैतसंज्ञकम्।।4. कल्याणगुणधाम दिव्यदेहो
हि राघवः। चिदचि‌द्दे हवैशिष्ट्याद् विशिष्टं ब्रह्म कथ्यते
।।6 स एवं प्रलये रामः कारणं ब्रह्म कच्थते। स
जगद्रूपतां प्राप्तः कार्यब्रह्मेत्युच्यते।। 7
सच्चिदानन्दरूपो ऽसौ रामो दोषविवर्जितः।
अनन्तास्तस्य रामस्य स्वदेहगुणाः स्मृताः।। 8 अ‌द्भुता
च परा शक्तिर्गुणा ज्ञानबलादयः। श्रीरामस्य श्रुता वेदे
स्वाभाविका न मायिकाः।। 9 श्रीरामो भगवान् स्वामी
समाभ्यधिकवर्जितः। सर्वज्ञो वेदवेद्योऽथ सर्वेषां हि
नियामकः।। 10 जगत्कर्ता विभू रामः
सर्वेषामीश्वरस्तथा। संहारकश्च सर्वस्य विश्वस्य
परिपालकः।। 11 सर्वाराध्यश्च रामो हि
सर्वकर्मफलप्रदः। सर्वस्य जगतोमूलं विध्यादेश्व
विधायकः।। 12 स्वाधीनः परमो भक्त्या भक्ताधीनश्च
राघवः। 13 रामः स्वजनदोषायां न च स्मर्ता कदापि
हि। सन्तोषं परमं याति भक्तसत्कर्मलेशतः ।। 14
स्वयं चाधारशून्योऽपि सर्वाधारः प्रकीर्तितः। सर्वं हि
स्वेच्छया रामो विदधाति दधाति च।। 15 प्रलयान्ते
यदा रामो जगत् सष्टुं समीहते। दधाते नाम रूपं च
तदा चिदचिती खलु ।। 17 तदानीं च
सिसृक्षुश्रीजानकीनाथवाञ्छया। जीवप्रकृ तिवाच्यौ
तद्देहौ विकारमाप्नुतः ।। 18 नित्यं जीवस्वरूपं हि
निर्विकारं मतं बुधैः। 20 ज्ञातारो ज्ञानरूपाश्च जीवाः
सर्वेऽजडा मताः । सर्वे चाणुप्रमाणास्तेऽमर्यादा विभवो
न हि।। 21 उत्क्रान्तिश्च गतिश्वेति जीवस्यात्रगतिस्तथा।
श्रुताः श्रुतौ ततो जीवस्त्वपुरेव विभुर्न हि।। 22
दीपज्योतिरिव ज्ञानं जीवस्य व्यापकं मतम्। हृत्स्थो
जीवोऽखिलं वेत्ति ततो देहसुखादिकम्।। 28 नित्याः
सुखस्वरूपाश्चेश्वरस्यांशाश्च चेतनाः। के चित्कर्मवशाद्
रङ् का भूमिपालास्तथाऽपरे।। 30 जीवाः सर्वे नियम्या
हि नियन्ता जानकीश्वरः। रामभक्तिं विना जीवैर्विश्रामो
न हि लभ्यते।। 32 भक्तिश्च ब्रह्मणः सर्वस्वामिनः
शार्ङ्गधारिणः। रामस्य तैलधारेवानवच्छिन्ना स्मृतिः
स्मृता ।। 33 भक्तिर्भवाम्बुधेः सेतुः कर्मानाङ्गिनी मता।
तस्याश्व साधनं बोध्यं विवेकादिकसप्तकम्।। 34
भिन्ना एव न वाभिन्ना जीवाः सर्वशरिरगाः। ब्रह्मदेहो
मतो जीवो न च ब्रह्म कदापि सः।। 35 यदि हि
सर्वजीवानामैक्यमेव भवेत्तदा। सुखी चैकोऽपरो दुःखी
चेति भेदः कथं भवेत्।। 36 बद्धमुक्तप्रभेदेन जीवा
द्विधा मता बुधैः। खिन्ना प्रारब्धयोगेन बद्धाः संसारिणो
मताः।। 49 भजेत् सद्‌गुरुं चाथ राघवं करुणानिधिम्।
51 श्रृणुयात्कीर्तयेन्नित्यं जानकीजानकीश्वरौ। 52
भक्तिश्चाथ प्रपत्तिश्च ज्ञानावस्थे हि मुक्तिदे। 104
प्रपत्तिर्न्यासविद्या सा रामायात्मसमर्पणम्।
आनुकू ल्यस्य सङ् कल्पः प्रातिकू ल्यस्य वर्जनम् ।।
105 आर्त्रानां तु मतो न्यासः प्रारब्धस्यापि नाशकः।
108 स्थापितो भाति सीतेशः सीतया च दयार्णवः।
अमोघदर्शनश्वाथामोघा ऽर्चनमतिस्तवः।। 133
अर्चादिहेऽर्चितो लोकै र्दृष्टः स्तुतो नतोऽथवा । दत्ते
रामश्च तेभ्यो हि पुरुषार्थचतुष्टयम्।। 134 राममभ्यर्च्य
दृष्ट्वा च नत्वा स्तुत्वाऽयवा जनः। भवाम्बुधिं स्वयं
तीत्वा स्वकु लं तारयत्यपि।। 135

इन्हें भी देखें
रामानन्दी सम्प्रदाय

बाहरी कड़ियाँ
रामानन्दाचार्य पर हिन्दी ब्लॉग (https://web.ar
chive.org/web/20120224031351/htt
p://www.ramanandacharya.blogspot.c
om/2008_12_01_archive.html)

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title=रामानन्द&oldid=6019153" से प्राप्त
अन्तिम परिवर्तन 12:56, 12 दिसम्बर 2023। •
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