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रामानन्द - विकिपीडिया
रामानन्द - विकिपीडिया
गुरुशिष्य परम्परा
स्वामी रामानन्द श्रीराम मंत्रराज की परम्परा में 22वें
स्थान पर आते हैं, जैसा की स्वामी अनन्तानन्द के
द्वारा कही गई गुरुपरम्परा (https://sanskritdocu
ments.org/doc_raama/shrIrAmamantrar
AjaparamparAstotram.html) में वर्णित है:
रामानन्दी द्वारे
स्वामी रामानंद द्वारा स्थापित रामानंदीसम्प्रदाय या
रामावत संप्रदाय आज वैष्णव संन्यासी/ साधुओं का
सबसे बड़ा धार्मिक जमात है। वैष्णवों के 52 द्वारों में
36 द्वारे के वल रामानंदिय सन्यासियों/वैरागियों के हैं।
यह सभी द्वारे ब्राह्मण कु ल के शिष्यों ने स्थापित किए,
इनमे से एक पीपासेन जी क्षत्रिय थे, सम्प्रदाय की शर्त
अनुसार यह सभी ब्रह्मचारी हो, यह आवश्यक है ।
इस संप्रदाय के संन्यासी/साधु बैरागी भी कहे जाते
हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंदी
सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में
फै ली हैं। लेकिन अयोध्या, चित्रकू ट, नाशिक, हरिद्वार
में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के
पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, दुनिया भर में
फै ले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में
कहें तो काशी का श्रीमठ हीं सगुण और निर्गुण
रामभक्ति परम्परा और रामानन्दी सम्प्रदाय का मूल
आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य
स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज, श्रीमठ के
गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड
विद्वान हैं और संन्यासी जगत में समादृत हैं।
भक्ति-यात्रा
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए
देश भर की यात्राएं की। वे पुरी और दक्षिण भारत के
कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार
किया। राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की
पावन ऊं चाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों
और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया, वे भक्ति मार्ग
के ऐसे सोपान थे जिन्होंने भक्ति साधना को नया
आयाम दिया। उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी
श्रीमठ, काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों
की आस्था का के न्द्र है। स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में
संस्कृ त की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता दी।
उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद
भाष्य पर टीका भी शामिल है। वैष्णवमताब्ज
भास्कर भी उनकी प्रमुख रचना है।
चिन्तनधारा
भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृ ति के विकास
में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक
क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैष्णव भक्ति के
महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग
सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव
हुआ। उन्होंने श्री सीतारामजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित
विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत
तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम
तीव्रता प्रदान की। उन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति
मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के
मूल प्रवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
रामानन्द का समन्वयवाद
स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन समाज में विभिन्न मत-
पंथ संप्रदायों में घोर वैमनस्यता और कटुता को दूर
कर हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का महनीय
कार्य किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम
को आदर्श मानकर रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया।
उनकी शिष्य मंडली में उस काल के महान सन्त
कबीरदास, रैदास, सेननाई जैसे निर्गुणवादी संत थे तो
दूसरे पक्ष में अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार
मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनन्तानन्द,
भावानन्द, सुरसुरानन्द, नरहर्यानन्द जैसे वैष्णव
ब्राह्मण सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे।
गागरौनगढ़ नरेश 'पीपाजी' जैसे क्षत्रिय, सगुणोपासक
भक्त भी उनके शिष्य थे । आचार्य रामानंद के बारे में
प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र का उपदेश उन्होंने पेड़
पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति के लोगों के
कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का
कल्याण हो सके ।
धार्मिक अवदान
मध्ययुगीन धर्म साधना के कें द्र में स्वामी जी की
स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ जैसी है। उन्होंने
अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी
जीवटता से समाज और संस्कृ ति की रक्षा की। उन्हीं
के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां
सांस्कृ तिक कें द्रों की स्थापना संभव हो सकी। उस
युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागी साधुओं को
अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर
तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान
स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में
वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए। मूल्य ह्रास
की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद
संप्रदाय के सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड
रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं और सर्वत्र
आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं। वैष्णवों के
बावन द्वारों में सर्वाधिक बत्तीस द्वारे इसी संप्रदाय से
जुड़े हैं। रामन्दाचार्य जी स्पष्ट रूप से सगुण उपासक
थे । उनका विशिष्टाद्वेत सिद्धान्त था।
रचना संसार
स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित ग्रन्थों की सूची
निम्नलिखित है:
सन्दर्भ
श्रीरामानन्दसिद्धान्तसारः
रामानन्दमतं श्रौतं विशिष्टाद्वैतनामकम्। अद्वैतं न मतं
श्रौतं श्रौतयौक्तिकबाधतः ।।3 विशिष्टब्रह्मणोरैक्यं
कार्यकरणसंज्ञयोः। मतं च वैदिकं तद्धि
विशिष्ट्याद्वैतसंज्ञकम्।।4. कल्याणगुणधाम दिव्यदेहो
हि राघवः। चिदचिद्दे हवैशिष्ट्याद् विशिष्टं ब्रह्म कथ्यते
।।6 स एवं प्रलये रामः कारणं ब्रह्म कच्थते। स
जगद्रूपतां प्राप्तः कार्यब्रह्मेत्युच्यते।। 7
सच्चिदानन्दरूपो ऽसौ रामो दोषविवर्जितः।
अनन्तास्तस्य रामस्य स्वदेहगुणाः स्मृताः।। 8 अद्भुता
च परा शक्तिर्गुणा ज्ञानबलादयः। श्रीरामस्य श्रुता वेदे
स्वाभाविका न मायिकाः।। 9 श्रीरामो भगवान् स्वामी
समाभ्यधिकवर्जितः। सर्वज्ञो वेदवेद्योऽथ सर्वेषां हि
नियामकः।। 10 जगत्कर्ता विभू रामः
सर्वेषामीश्वरस्तथा। संहारकश्च सर्वस्य विश्वस्य
परिपालकः।। 11 सर्वाराध्यश्च रामो हि
सर्वकर्मफलप्रदः। सर्वस्य जगतोमूलं विध्यादेश्व
विधायकः।। 12 स्वाधीनः परमो भक्त्या भक्ताधीनश्च
राघवः। 13 रामः स्वजनदोषायां न च स्मर्ता कदापि
हि। सन्तोषं परमं याति भक्तसत्कर्मलेशतः ।। 14
स्वयं चाधारशून्योऽपि सर्वाधारः प्रकीर्तितः। सर्वं हि
स्वेच्छया रामो विदधाति दधाति च।। 15 प्रलयान्ते
यदा रामो जगत् सष्टुं समीहते। दधाते नाम रूपं च
तदा चिदचिती खलु ।। 17 तदानीं च
सिसृक्षुश्रीजानकीनाथवाञ्छया। जीवप्रकृ तिवाच्यौ
तद्देहौ विकारमाप्नुतः ।। 18 नित्यं जीवस्वरूपं हि
निर्विकारं मतं बुधैः। 20 ज्ञातारो ज्ञानरूपाश्च जीवाः
सर्वेऽजडा मताः । सर्वे चाणुप्रमाणास्तेऽमर्यादा विभवो
न हि।। 21 उत्क्रान्तिश्च गतिश्वेति जीवस्यात्रगतिस्तथा।
श्रुताः श्रुतौ ततो जीवस्त्वपुरेव विभुर्न हि।। 22
दीपज्योतिरिव ज्ञानं जीवस्य व्यापकं मतम्। हृत्स्थो
जीवोऽखिलं वेत्ति ततो देहसुखादिकम्।। 28 नित्याः
सुखस्वरूपाश्चेश्वरस्यांशाश्च चेतनाः। के चित्कर्मवशाद्
रङ् का भूमिपालास्तथाऽपरे।। 30 जीवाः सर्वे नियम्या
हि नियन्ता जानकीश्वरः। रामभक्तिं विना जीवैर्विश्रामो
न हि लभ्यते।। 32 भक्तिश्च ब्रह्मणः सर्वस्वामिनः
शार्ङ्गधारिणः। रामस्य तैलधारेवानवच्छिन्ना स्मृतिः
स्मृता ।। 33 भक्तिर्भवाम्बुधेः सेतुः कर्मानाङ्गिनी मता।
तस्याश्व साधनं बोध्यं विवेकादिकसप्तकम्।। 34
भिन्ना एव न वाभिन्ना जीवाः सर्वशरिरगाः। ब्रह्मदेहो
मतो जीवो न च ब्रह्म कदापि सः।। 35 यदि हि
सर्वजीवानामैक्यमेव भवेत्तदा। सुखी चैकोऽपरो दुःखी
चेति भेदः कथं भवेत्।। 36 बद्धमुक्तप्रभेदेन जीवा
द्विधा मता बुधैः। खिन्ना प्रारब्धयोगेन बद्धाः संसारिणो
मताः।। 49 भजेत् सद्गुरुं चाथ राघवं करुणानिधिम्।
51 श्रृणुयात्कीर्तयेन्नित्यं जानकीजानकीश्वरौ। 52
भक्तिश्चाथ प्रपत्तिश्च ज्ञानावस्थे हि मुक्तिदे। 104
प्रपत्तिर्न्यासविद्या सा रामायात्मसमर्पणम्।
आनुकू ल्यस्य सङ् कल्पः प्रातिकू ल्यस्य वर्जनम् ।।
105 आर्त्रानां तु मतो न्यासः प्रारब्धस्यापि नाशकः।
108 स्थापितो भाति सीतेशः सीतया च दयार्णवः।
अमोघदर्शनश्वाथामोघा ऽर्चनमतिस्तवः।। 133
अर्चादिहेऽर्चितो लोकै र्दृष्टः स्तुतो नतोऽथवा । दत्ते
रामश्च तेभ्यो हि पुरुषार्थचतुष्टयम्।। 134 राममभ्यर्च्य
दृष्ट्वा च नत्वा स्तुत्वाऽयवा जनः। भवाम्बुधिं स्वयं
तीत्वा स्वकु लं तारयत्यपि।। 135
इन्हें भी देखें
रामानन्दी सम्प्रदाय
बाहरी कड़ियाँ
रामानन्दाचार्य पर हिन्दी ब्लॉग (https://web.ar
chive.org/web/20120224031351/htt
p://www.ramanandacharya.blogspot.c
om/2008_12_01_archive.html)
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अन्तिम परिवर्तन 12:56, 12 दिसम्बर 2023। •
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