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काशी शास्त्रार्थ सटिप्पणी @ShastraManthan
काशी शास्त्रार्थ सटिप्पणी @ShastraManthan
काशी शास्त्रार्थ
१६ नवम्बर १८६९ ई०
प्राचीनकाल से ही काशी में प्रततददन शास्त्रसभा का आयोजन होता र्ा।सभा में तवराजमान शास्त्रमहारर्ी पहले
शास्त्रार्थ करते र्े तत्पश्चात् दतिणा ग्रहण करते र्े।नागपञ्चमी के ददन काशी के नागकु आँ पर शास्त्रज्ञों तर्ा छात्रों
में शास्त्रार्थ करने की परम्परा वतथमान में भी है।
वतथमान में भी तववाह के अवसर पर कन्या और वर पि के तवद्वान् परस्पर तवतवधोपयोगी प्रमेयों पर शास्त्रार्थ
करते हैं।अब इस परम्परा का ह्रास होने लगा है।काशी चँदक व्याकरणशास्त्र की अध्ययनस्र्ली तर्ा महर्षथ
पतञ्जतल की कमथस्र्ली होने के कारण शास्त्रतवषयक उहापोह के तलए पुरातनकाल से ही जानी जाती है।
तवद्वानों की क्रीडास्र्ली काशी में वषों से ऐततहातसक शास्त्रार्थ सम्पन्न हुऐ है।कु छेक शास्त्रार्ों को तलतपबद्ध भी
दकया गया है परन्तु अतधकाांश प्रतसद्ध शास्त्रार्ों को तलतपबद्ध ही नहीं दकया गया है।।
'वैयाकरण के शरी महामहोपाध्याय पतडडत दामोदर शास्त्री' तर्ा मैतर्ल तवद्वत्वरे डय 'पतडडत बच्चा झा' के मध्य जो
अद्भुत् शास्त्रार्थ हुआ र्ा उस अतद्वतीय शास्त्रार्थ ने इततहास में स्र्ान पा तलया है। इस गम्भीर शास्त्रार्थ को देखने
के तलए तवद्वानों के अततररक्त हजारों की सांख्या में साधारण जनता भी सतम्मतलत हुई र्ी।
एतदततररक्त काशी के उद्भट् तवद्वान् 'महामहोपाध्याय पतडडत गङ्गाधर शास्त्री' तर्ा वल्लभसम्प्रदाय के प्रतसद्ध
पतडडत प्रज्ञाचिु 'श्रीगट्टलालजी' से गोपालमतन्दर में जो प्रतसद्ध शास्त्रार्थ हुआ वह भी इततहास का तवषय बन
गया है।इस शास्त्रार्थ में पां• गङ्गाधर जी को तवजयश्री प्राप्त हुई र्ी।यह वही गट्टलाल जी हैं तजन्होंने स्वामी
दयानांद को मुांबई में वल्लभ सांप्रदाय की ननांदा करने पर वेदाांत तवषय में शास्त्रार्थ कर परातजत दकया।।
आयथसमाज के सांस्र्ापक स्वामी दयानांद सरस्वती से काशी के अनेक तवद्वानों का शास्त्रार्थ हुआ र्ा।दकन्तु यह एक
ऐततहातसक सत्य है दक दयानांद सरस्वती को प्रत्येक शास्त्रार्थ में पराजय स्वीकार करनी पडी र्ी भले ही
आयथसमाज के अनुयायी इस सत्य को स्वीकार न करें । शास्त्रार्थ में तनःशब्द होने के बाद स्वामी दयानांद पुन:
पैम्फलेट मुदित करवा प्रश्नों के उत्तर दे दफर से शास्त्रार्थ की माांग करते तजसे अनेकों बार शाांत दकया गया।
काशी के 'पांतडत बालशास्त्री' जो अपने वैदष्ु य से बलात् सभी को मोतहत कर लेते र्े इनके सार् दयानांद सरस्वती
का एक ऐततहातसक शास्त्रार्थ हुआ र्ा।इस शास्त्रार्थ में पां• बालशास्त्री जी ने दयानांद सरस्वती के 'दम्भ' को खडड-
खडड दकया र्ा।
इस शास्त्रार्थ में दयानांद सरस्वती ने काशी के सभी तवद्वानों और अपने अनुयातययों के मध्य अपनी पराजय
स्वीकार की र्ी।। बालशास्त्री जी वही वेदार्थ ममथज्ञ र्े जो कमथकाांड और ज्ञानकाांड दोनों में अगाध पाांतडत्य पणथ
र्े।इनकी प्रतसद्ध एततहातसक घटना अतत सुांदर ज्योततष्टोम यज्ञ का आयोजन है।आयोजन के 5 ददनों ऐसा प्रतीत
१९वीं शती में 'स्वामी तवशुद्धानन्द सरस्वती' जी ने अपने अलौदकक अगाध वैदष्ु य से तवद्यानगरी वाराणसी को
अलांकृत दकया र्ा।महाराज ने अपनी शास्त्रीय शेमुषी तर्ा योगतवद्या के प्रभाव से काशी के इततहास में अपना
नाम अांदकत करवाया है।
इनका जन्म कान्यकु ब्ज ब्राह्मणकु ल में १७२० शाके (१८२०ई•)में हुआ र्ा।इन महायोगी का प्रभाव सावथभौम
र्ा।उत्तर भारत के राजा-महाराजा इनके पाद्पद्मों में लोट-पोट होकर स्वयां को धन्याततधन्य अनुभव करते
र्े।सरस्वती और लक्ष्मी का नैसर्गथक तवरोध इनके समि शान्त हो गया र्ा।
काशीनरे श प्रभु नारायणनसांह इनके अनन्य सेवक र्े।प्रतडडतप्रवर 'दुःखभञ्जन कवीन्ि' इनके मान्य तशष्य र्े।
महायोगी स्वामी तवशुद्धानन्द सरस्वती और दयानन्द सरस्वती का एक ऐततहातसक शास्त्रार्थ हुआ र्ा।तजसका
वणथन करना यहाँ प्रासांतगक भी है और तवद्वानों की रूतच का तवषय भी अतः समासतवतध से उसका उल्लेख करते
हैं।दयानांद सरस्वती ने इस ऐततहातसक शास्त्रार्थ में अपनी पराजय स्वीकार की र्ी।
स्वामी तवशुद्धानन्दजी के जीवन की महती उपलतब्ध र्ी स्वामी दयानन्दजी के सार् शास्त्रार्थ - तवचार में
तवजयश्री का वरण । यह महत्त्वशाली ऐततहातसक शास्त्रार्थ काशी में दुगाथकुडड के समीपस्य राजा अमेठी के '
आनन्दबाग ' में सम्पन्न हुआ र्ा । दयानन्द स्वामीजी का आवास इसी स्र्ान पर र्ा । फलतः शास्त्रार्थ का यही
स्र्ल र्ा ।
समय र्ा १९२६ तव ० सां ० की श्री स्वामी तवशुद्धानन्द सरस्वती कार्तथक शुक्ला द्वादशी मांगलवार , तदनुसार
१८६९ ई ०१६ नवम्बर । ४८ वषीय काशीनरे श महाराजा ईश्वरीप्रसादनारायण नसांह अध्यि के स्र्ान पर अपने
१४ वषीय राजकु मार प्रभुनारायण नसांह के सार् तवराजमान र्े । उनके प्रधान सभापतडडत ताराचरण तकथ रत्न
भट्टाचायथ महाराज के सार् उपतस्र्त र्े । ये तकथ रत्नजी सातहत्य तर्ा न्याय के तवशेष तवद्वान् र्े , अनेक ग्रन्र्ों के
प्रणेता र्े तर्ा महाराजा के धार्मथक कृ त्यों के तवमशथदाता महनीय तवद्वान् र्े ।
काशी की तवद्वन्मडडली की ओर से दो ही प्रतततनतध शास्त्रार्थ के तलए चुने गये र्े - मनीषी योतगराज तवशुद्धानन्द
सरस्वती और पतडडताग्रणी बालशास्त्री । ४५ वषीय स्वामी दयानन्द वेद - तवषय तर्ा वेदों में अतनर्दथष्ट दकसी भी
धार्मथक तसद्धान्त को मानने के तलए तैयार नहीं र्े । उनका आग्रह र्ा दक आजकल तहन्द धमथ में मर्तथपजा , श्राद्ध
आदद धार्मथक मान्यताएँ वेदतवरुद्ध हैं । अतएव वे तनतान्त अग्राह्य है । काशी के पतडडतों के सार् इस शास्त्रार्थ का
तवषय र्ा- मर्तथपजा । उस सभा में काशी के मान्य पतडडतों के सग में काशी की पार्मथक जनता प्रभत सख्या में
उपतस्र्त र्ी । इस शास्त्रार्थ में सतम्मतलत होने वाले चालीस तवद्वानों के नाम वेदवाणी पतत्रका के प्रर्म वषथ (
नवम्बर १९७० , पृ ०१५ ) के अङ्क में ददये गये है वे यर्ार्थ हैं । ये पतडडत उस समय काशी में तनवास कर रहे र्े
। पतडडतों के अततररक्त काशी के प्रख्यात रईस तर्ा कतव भारतेन्दु बाब हररपया अपने अनुज गोकु लचन्िनी के
सार् सभा में उपतस्र्त र्े । काशी के बाहर के कु छ मान्य सन्त र्े । यह तो सब ठीक है , परन्तु जनता की
इसपर महाराज जी ने कहा:- पांतडतों को सभी वेद कां ठस्र् हैं अत: पुस्तकों का क्या प्रयोजन है?
इसपर दयानन्द स्वामी ने कहा:- दक तबना पुस्तक पवाथपर प्रकरण का तवचार ठीक ठीक कै से हो सकता है पुस्तकें
पतडडतों ने उत्तर ददया:- शास्त्र कां ठस्र् होना स्वाभातवक है। पवाथपर प्रसांगों का ज्ञान भी कां ठस्र् होने पर हो जाता है
अस्तु आप मर्तथपजा का खांडन करते हैं हम लोग उसका मांडन करें गे।
काशीनरे श ने अपने सभापतडडत ताराचरण तकथ रन को आदेश ददया दक शास्त्रार्थ आरम्भ कीतजए । मैं भी वादी
तर्ा प्रततवादी के कर्नों का साराांश समझ कर पिपातशन्य होकर तवचार को सुनने के तलए सावधान बैठा हँ ।
ताराचारण नैयातयक जी:- जो वणाथश्रम में तस्र्त हैं,वह वेदों को प्रमाण मानते ही हैं।
स्वामी दयानांद :~ प्रततमापजन वेद में कहाँ तलखा हुआ है?उत्तर एक ही व्यतक्त एक ही बार दें।
ताराचरण :~ के वल वेद ही प्रमाण हैं और कु छ(स्मृततपुराणेततहासादद) प्रमाण नहीं हैं इसमें क्या प्रमाण है?
स्वामी दयानांद :~ वेद में जो नहीं तमलता है,अप्रमाण ही है,वह कर्मतप प्रमाण नहीं है। ।
ताराचरण :~ ऐसा क्यों? अर्ाथत् जो वेद में न तमले ,परन्तु स्मृततपुराणादद में उतल्लतखत हो,उसे प्रमाण क्यों न
स्वामी दयानांद :~ प्रामाडय तवचार आगे होगा।सम्प्रतत प्रस्तुत वेद तवचार कीतजऐ।
ताराचरण :~ वेद के समान स्मृत्यादद का प्रामाडय भी हमें स्वीकृ त है।पुराणाददकों में प्रततमापजन का तवधान
है।तब प्रततमा पजन शास्त्र से सम्मत तसद्ध हो ही जाता है।
दयानांद स्वामी :~ हम स्मृतत तर्ा पुराण का प्रमाण नही मानते।वेद से अततररक्त प्रमाण नही होते।
ताराचरण :~ वेदतवरूद्ध क्या है? स्मृतत,इततहासादद तो वेदतवरुद्ध नहीं है। तब वेदतवरुद्ध दकसे कहते हैं आप?
बालशास्त्री :~ वेद में अनुक्त वस्तु अप्रमाण है इस कर्न में हेतु क्या है स्वामी जी।?इसका तवचार आरम्भ में करना
चातहऐ
दयानांद स्वामी :~ श्रुततस्मृत्यादद का मल वेद है।मनु,कात्यायन महाभारत आदद इसके प्रमाण हैं। तजस प्रकार
मन्त्राददकों का तर्ा वेदान्तमीमाांसा के सत्रों का मल वेद है, उसी प्रकार प्रततमा पजन का मल वेद में ददखाईऐ।
दयानांद स्वामी:- "यद्वै दकचन मनुरवदत्तद् भेषजम् यह सामवेद में कहा गया है।
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ क्या बारम्बार आप कहते हैं दक वेदान्तसत्रों का मल वेद है। यदद यह बात है तो बताईऐ
स्वीकारा का मुझे सब वेद कडठस्र् नही है और मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता,पुस्तक देख कर कहा जा सकता है.
इसपर तवशुद्धानांद जी ने कहा:- दक जो कां ठस्र् नहीं है तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उद्यत हुए हो?
अब स्वामी दयानांद स्वामी तवशुद्धानन्द को कहते हैं -" यदद आपको सब उपतस्र्त है तो धमथ का लिण बताईऐ।"
स्वामी तवशुद्धानांद:- वेदप्रततपाद्य: प्रयोजनवदर्ो धमथ इतत। वेदप्रततपाद्य फलसतहत अर्थ ही धमथ कहलाता है।
स्वामी दयानन्द:- यह आपका सांस्कृ त है इसका क्या प्रमाण है कु छ श्रुतत स्मृतत कतहए
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ "चोदनालिणोऽर्ो धमथः" मेरा कर्न इस जैतमनी सत्र पर आधाररत है।
स्वामी दयानांद :~ धमथ के दश लिण हैं। मनु ने तलखा है- "धृततःिमा दमोऽस्तेयः•••••••••
दयानन्द स्वामी क्रुद्ध होकर तवशुद्धानन्द जी की ओर मुडकर बोले -" आप बताओ स्वामी धमथ में कौन श्रुतत है?यह
चोदना नाम प्रेरणा का है वहाां भी श्रुतत वा स्मृतत कहना चातहए।।
बालशास्त्री जी भी धमथ लिण की चचाथ में सतम्मतलत होने के उद्धृत होने को र्े उन्होंने कहा: हाां हमने सभी
धमथशास्त्र देखा है।
पांतडत:- अच्छा यदद है तो कहाां पर है और दफर उसका खडडन दकस प्रकार करते हो?
स्वामी दयानांद:- "प्रततमा पजन का वेद में कहीं तवधान नहीं है।सामवेद के के वल एक मन्त्र में प्रततमा का तनदेश
ब्रह्मलोकपरक होने की बात कहने पर बालशास्त्री ने आपतत्त उठाई- "आप जैसा तात्पयथ समझ रहे हैं वैसा
तात्पयाथर्थ नही तनकलता।
आपके ददए शब्द में अन्वावतथन शब्द आया है।इसका अर्थ है-"अनु=अनुलक्ष्यीकृ त्य आवतथनम्"।
अर्ाथत् जब ब्रह्मलोक में उपिव हो तो उसके तलए शातन्त करनी चातहऐ। कहाँ? इस मत्यथलोक में ही तो।
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ देवता मन्त्रात्मक होते हैं। इन्िादद देवता तत्तत् मन्त्रस्वरूप ही हैं,उनका देह नही होता तब
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ प्रतीकोपासना होती है।वेद की सहस्रातधक शाखाऐं हैं उन्हीं दकसी में यह यह रहस्योद्घाटन
हुआ है।
अच्छा ये बताईऐ वेद अपौरुषेय हैं तब इनका प्रवतथक कौन है?
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ दकस प्रकार के ईश्वर में वेद रहते हैं "तनत्य ज्ञान तवतशष्ट ईश्वर में ?" "योगतसद्ध क्लेशादद
दयानन्द स्वामी:- "पाषाणादद ब्रह्मेत्युपासीत" इत्यादद वचन तो वेदों में नहीं है दफर क्यों इसका ग्रहण हो।
इसपर सभी कहने लगे दक एक और तो जड मन के उपासना पद्धतत में सहायक होने का अनुमोदन कर रहे हैं दकन्तु
दसरी और शातलग्राम का तनषेध शास्त्रमलक होने पर भी।
दयानांद स्वामी :~ पुराणों मे ही म्लेच्छभाषा अध्ययन का तनषेध है। वेद में कहाँ है बताईऐ?
अर्ाथत् म्लेच्छ भाषा न बोलें न अपशब्द कहें - यही वैददक वाक्य का प्रमाण है।महाभाष्य प्रर्म आतह्यक में भी
इसका उल्लेख है।
तवशुद्धानन्द जी ने अर्थतवस्तार दकया।
दयानांद स्वामी ने दकसी तवषय पर प्रमाण खोजने हेतु काशीनरे श से वेद की पुस्तक लाने को कहा।
दयानांद स्वामी:- पुराण शब्द ब्राह्मण का तवशेषण है अर्ाथत पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं।
दयानांद स्वामी ने कहा'- नवीन ब्राह्मण नहीं है,परां तु ऐसी शांका न हो इसतलए यह तवशेषण कहा गया है।।
स्वामी तवशुद्धानन्द :~इततहास शब्द का व्यवधान होने से कै से तवशेषण होगा? वेद में सािात् रूप से भी 'पुराण'
आपने यहाां 'पुराणातन' को 'ब्राह्मणातन' का तवशेषण ही माना है,स्वतन्त्र तवशेष्यपद नहीं,मध्य में व्यवधान होने से
यह दरान्वय है।अतएव यह तवशेषण नही हो सकता।
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ इस वाक्य में सब शब्द तवशेषणपद हैं,तवशेष्य पद के अभाव में वहाां व्यवधान नहीं है।
दयानांद स्वामी :~ "ऋग्वेदां तवजानातत••••••इततहासपुराणः। इस छान्दोग्य श्रुतत में भी पुराण तवशेषण ही है।
स्वामी तवशुद्धानन्द :~ आपने जो कहा यह पाठ शुद्ध नहीं है, पाठ है " इततहासः पुराणम्"।
पुतलङ्ग 'इततहास' शब्द का तवशेषण होने पर 'पुराण' को भी 'पुराणः' पुतल्लङ्ग ही होना चातहऐ 'पुराणम्' नहीं।
सभी सभासदों ने तवशुद्धानन्द जी की बात का समर्थन करते हुऐ कहा - "यह पाठ साधु नहीं है"।
अर्ाथत् 'इततहासपुराणः' यही पाठ है। यदद 'इततहासः पुराणम्' तनकल आवे तो मेरी पराजय।
"पतञ्जतल के महाभाष्य में एक स्र्ान पर पररहास में ही कल्म सांज्ञा कही गयी है।परन्तु यह प्रकृ त सांज्ञा नहीं है।"
प्रकृ त तवचार है पुराणों के वेदतवरूद्धता तो इसी पर तवचार कीतजऐ न।अन्य चचाथ की आवश्यकता ही क्या?
इस पर अचानक माध्वाचायथ जी ने शतपर्ब्राह्मण के अश्वमेध प्रकरण का वह अांश ददखलाया तजसका अतन्तम अांश
है-
'पुराणां वेदः' इस पाठ को देखकर दयानांद स्वामी ग्रन्र् का पन्ना अपने हार् में लेकर उलट-पुलट कर बहुत देर तक
देखते हुए मौन होकर लौटा ददऐ।
स्वामी दयानांद सरस्वती ने अपनी पराजय स्वीकार की। सभी पतडडत लोग जय जयकार कर अपने स्र्ानों में जाने
को तैयार हुए।
यह ऐततहातसक शास्त्रार्थ यहीं पणथ हो गया।।।।
1'- *युतधतिर मीमाांसक ने "व्याकरण महाभाष्य" की भतमका में काशी के पांतडतों का "कल्म सांज्ञा" तवषय में उत्तर
न देना कहा है दकन्तु शास्त्रार्थ के "दयानन्द तनवाथण शताब्दी" सांस्करण मे सांज्ञा के तवषय में ककां तचत चचाथ का भाग
जोड तदुपराांत माध्वाचायथ जी का पत्र लाया जाना तलखा है। ऐसी तस्र्तत में एक ही छोटी सांस्र्ा के भीतर दकतना
तवरोधाभास है आप देख सकते हैं।सुतवधानुसार शास्त्रार्थ के अांश जोडना घटाना ऐसा करते हुए समाजी अनेकों
बार पकडे गए हैं। सत्य तो यह है दक कल्म सांज्ञा बता अप्रकृ त तवषय की चचाथ करने का बाध पांतडतो द्वारा दकया
गया र्ा। युतधतिर मीमाांसक द्वारा ऐसी अनेक कल्पनाएां घर बैठ कर की गई है।
2:- दयानांद तनवाथण शताब्दी सांस्करण में "तभन्न पाठ तनकलने पर 5 िण में दयानांद द्वारा उत्तर देना कहा है" दकन्तु
"इततहासपुराणः" इत्येवमेव पाठः इतत।चोचेत् मत्पराजयः, अन्यर्ा युष्माकां पराजय इतत तलख्यताम्" यह तो
उसमें भी उपतस्र्त है। पाठ तभन्न आ गया तो पराजय हो गई,5 िण का क्या प्रयोजन? सत्य यह है दक स्वामी
दयानांद ने कोई उत्तर नहीं ददया यही बात तवरजानन्द प्रेस से प्रकातशत सत्यार्थ प्रकाश के अनुवाद में तलखी गई है
दक स्वामी दयानांद ने वहाां पर कोई उत्तर नहीं ददया अतपतु कु छ ददनों बाद पैम्फलेट छपवाए।(प्रमाण फोटो)
3:- तनवाथण शताब्दी एवां अन्य सांस्करणों में एक प्रलाप यह भी है दक "दयानांद 6 बार काशी आए र्े दकन्तु कोई
शास्त्रार्थ के तलए सामने नहीं आया" सत्य यह है दक दयानांद स्वामी को अपनी पराजय का अत्यांत दुख र्ा इस
कारण वह दकसी भी प्रकार से इसकी िततपर्तथ चाहते र्े,वह चाहते दक पुन: बालशास्त्री आदद से वाद तवतांडा आदद
करके स्वयां का सम्मान बचाएां। इस कारण ही १९३७ में जब स्वामी दयानन्द कनथल आल्ट के सार् काशी आए तो
राजा तशवप्रसाद जी ने उनसे प्रश्न पछ तलतखत वाताथ की माांग की।र्ीबो साहब ने इस तवषय में दयानांद को
परातजत घोतषत दकया है(फोटो प्रमाण)।। राजा साहब की बातों का दो बार के भ्रमोच्छेदन नामक पत्र व्यवहार में
उत्तर न दे पाने के कारण राजा तशवप्रसाद के तलए नेत्र फट गए हैं, श्वान के समान,पागल, लकडपना, बतधर आदद
शब्द प्रयोग दकए, एवां राजा जी से शास्त्रचचाथ के स्र्ान पर तवशुद्धानांद और बालशास्त्री जी से शास्त्रार्थ की तजद
करने लगे। कु ल तमलाकर प्रयोजन यही र्ा दक अपना बीता सम्मान वापस लाया जा सके दकन्तु काशी के पतडडतो
ने सफल नहीं होने ददया।ऐसा भी नहीं है दक वाद बढ़ाने का प्रयास नहीं हुआ "दयानांद पराभतत" "दुजथनमुखमदथन"
,"अबोध तनवारण"(अांतबकादत्त व्यास से तभन्न) आदद ग्रांर् पांतडतों ने तलखे। भारतेंद ु हररश्चांि जी ने भी दषण मतलका
तलख शास्त्रार्थ की माांग की। अत: एक बार परातजत होने के उपराांत भी बार बार बहाने बनाकर हार तछपाने का
वषों से कोई मर्तथ पजा तसद्ध नहीं कर पाया,काशी में पांतडतो की पराजय हुई" जैसी गप्पें लगाना प्रारां भ दकया।
100 वषों में अनेक बार आचायों से यह शास्त्रार्थ में परातजत हो चुके हैं,अनेकों पुस्तकों में इनके खांडन उपलब्ध हैं,
तजनका प्रत्युत्तर अभी तक नहीं आया। ऐसी तस्र्तत में लालतबहारी तमश्र जी ने पतत्रका छपवा आयथ समातजयों में
तवतररत की एवां उनसे इस तवषय में प्रमाण माांगे। कोई भी प्रमाण नहीं उपलब्ध करा सका।
आयथ समातजयों ने जगह जगह जाकर शास्त्रार्थ करने का तनश्चय भी दकया र्ा करपात्री जी उन ददनों काशी में र्े
आयथ समातजयों की तवज्ञतप्त का जब उन्हें पता लगा तो उन्होंने चुनौती स्वीकार कर कहा दक हम तो काशी में ही हैं
हमसे शास्त्रार्थ करने आइए।कोई भी आयथ समाजी शास्त्रार्थ के स्र्ल में नहीं आया अतपतु उन्होंने अपने ही समह के
भीतर प्रचाररत करने के तलए धतथता से " हमे करपात्री जी की चुनौती स्वीकार है" नामक तवज्ञतप्त छपवाई, दकन्तु
भय से शास्त्रार्थ करने नहीं आ सके ,इसका उत्तर सनातनी पि की और से ददए जाने पर भी आयथ समातजयों ने कु छ
उत्तर नहीं ददया। अत: यह ऊांठ के तववाह में गधों के गान के समान "तवजय शताब्दी" मनाना सभ्य व्यतक्तयों का
।।इतत तशवम्।।