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रीति ररवाज ऐसी परं पराएँ या संस्कार हैं जो पीढी दर पीढी मानव जातियों में चले आए हैं । इनका

संबंध
दै तनक चयाा या जीवन की प्रमुख घटनाओँ से होिा है । कभी कभी यो धमा और त्योहार का भी तहस्सा
होिे हैं ।

रीति-ररवाज बनाम अंधश्रद्धा


Jyoti Dehliwal रतववार, 2 नवंबर 2014

अतमिा इं टरव्यू दे ने जाने के तलए घर से तनकली ही थी की एक तबल्ली और वह भी काली तबल्ली ने रास्ता

काट तदया। हो गया अपशकुन! थोड़ी और दू र गई ही थी तक एक सहे ली ने टोक तदया, 'अतमिा कहां जा

रही हो?' और एक अपशकुन! अतमिा कुछ जबाब दे िी इसके पहले ही सहे ली को जोरदार छींक आ

गई। अतमिा एक तमनट के तलए रुकी, शायद सहे ली को दू सरी छींक आ जाए क्ोंतक सम संख्या में छींक

आना शुभ माना जािा है । तकंिु हाय री तकस्मि! सहे ली को दू सरी छींक आई ही नही। अब अतमिा का

ओल्ड माइं ड बोलने लगा तक इिने अपशकुनों के होिे उसे इं टरव्यू दे ने के तलए नही जाना चातहए। लेतकन

समय का मूल्य समझिे हुए वह इं टरव्यू दे ने गई और नौकरी के तलए चुन भी ली गई। अतमिा विामान

समय की पढी-तलखी युविी होने से वो पुरानी मान्यिाओं, रीति-ररवाजों को नजरअंदाज कर पाई।

रीति-ररवाज और तनयम दोनों में फका है । समाज तबना रीति-ररवाजों के चल सकिा है लेतकन तबना तनयमों

के नही चल सकिा। तजन तनयमों को हम भावावेश में पकड़े रहिे है वे ररवाज बन जािे है । जैसे की

रास्ते का तनयम है तक आप बाएं चतलए। तकसी दे श में रास्ते का तनयम हो सकिा है तक आप दाएं चतलए।

यह कोई ररवाज नही है । हम अपनी सुतवधा के तलए तनयम बनािे है । जीवन जीने के तलए तनयमों का

पालन करना जरूरी है लेतकन जब हम इन तनयमों को रीति-ररवाज बना लेिे है और नई पीढी से आशा

करिे है तक वह तबना तकसी िका-तविका के इन पुराने रीति-ररवाजों को माने िो यह संभव नही है ।

जनरे शन गैप
बुजुगों के साथ, मािा-तपिा होने के साथ यह अहं कार जुड़ा रहिा है तक हम सब जानिे है । आज के ये

बच्चें राजी नहीं होंगे तक आप सब जानिे है । पढी-तलखी युवा पीढी चाहिी है तक जो रीति-ररवाज अच्छे

है उनका िो पालन तकया जाए लेतकन जो गलि है उन्हें बदला जाए। बदलाव सं सार का तनयम है । तजसे

आगे बढना है उसे समय के साथ चलना ही होगा। यह जरूरी नही तक हम बड़ों को नजरअंदाज कर

के ही आगे बढे । आज भी हम उन्हीं के अनुभवों से बहुि कुछ सीख सकिे है । वास्तव में बुजुगों का

अनुभव और नई सोच का संगम ही एक आदशश समाज की स्थापना कर सकेगा।

वैज्ञातनक सोच

हम जब भी सोचिे है िो पहले यह पूछिे है तक गीिा क्ा कहिी है ? पुराणों में क्ा है ? समस्या आज

की, शास्त्र कल का! उनका मेल क्या है? गैतलतलओ के सामने सवाल पैदा हुआ तक जमीन चपटी है

तक गोल? बाइबल खोल कर दे ख सकिा था। उसमे जीसस ने तलखा है तक जमीन चपटी है । बाि खत्म

हो जािी। लेतकन उसने खोजा िो पाया तक जमीन गोल है । पुरानी तकिाबे कहिी है तक चां द सूरज से

बड़ा है लेतकन चां द सूरज से छोटा तनकला! जब िक तहं दुस्तान की प्रतिभा शास्त्र के तवपरीि नहीं है ,

पुराने रीति-ररवाजों से दीमक की िरह तचपकी हुई है िब िक डातवान, एतडसन, न्यूटन, डॉ. एतपजे अब्दु ल

कलाम पै दा नही होंगे। हमें पुराने रीति-ररवाजों से मुक्त होना होगा। नई वैज्ञातनक सोच पैदा करनी होगी।

असल में हमारे तदल में ईश्वर और तदमाग में तवज्ञानं रहना चातहए।

समस्या के डर से उत्पन्न धातमशकिा

इं सान ढे रों समस्याओं से तघरा हुआ है । जब इं सान अपनी समस्याओं से तनजाि पाने में खुद को असमथा

महसूस करिा है िब वह सोचिा है तक 'मनौिी मां गने ' या 'कबुला करने ' में क्ा हजा है ? 'हे भगवान, मेरे

बेटे को नौकरी लगवा दे , ये टें डर मुझे ही तमले, मैं बस ये स्पधाा जीि लूं, 101 रु. का प्रसाद बाटू ं गी, पां च

सोमवार करू
ं गी आतद। आतिरकार ईश्वर को हम क्ा समझिे है जो हम ईश्वर को ररश्वि दे कर उससे

ढे र सारे काम करवाना चाहिे है ? ईश्वर के सामने अपने तकसी भी काम के तलए नाररयल फोड़ना ररश्वि

का ही एक रूप है । ईश्वर ररश्वि से नहीं,प्यार से , श्रद्धा से अपने भक्तों की सुध लेिे है । हम ईश्वर के आगे
नाररयल फोड़ सकिे है लेतकन तबना तकसी स्वाथा के! एक बाि मेरी आज िक समझ में नही ं आई तक

जब हम कहिे है तक हम सब उस परमतपिा ईश्वर की संिान है िब हम उससे डरिे क्यों है ? क्या

बच्ों को अपने ही तपिा से डरना चातहए?

सहज कृत्य

जीवन के सहज काया जो पु राने समय के तहसाब से उतचि हो सकिे थे उन्हीं कायों को नई पीढी पागलों

की भां ति पकड़कर बैठ जािी है । जैसे हमारी बुजुगा मतहलाएं कहिी है की गुंथा हुआ आटा (भीगा हुआ

आटा ) राि को बचाकर नहीं रखना चातहए अपशगुन होिा है । अब शगुन अपशगुन का िो मुझे नहीं

पिा। लेतकन मेरे तवचार से पुराने समय में तिज न होने के कारण राि का गुंथा हुआ आटा दू सरे तदन

सुबह िक खराब हो जािा था और पहले के लोग ठं डी रोटी खा लेिे थे। अि: गुंथा हुआ आटा राि को

बचाकर रखने का सवाल ही नहीं होिा था। अब तिज होने से आटा खराब होने का डर नही है और

विामान समय में कोई भी बासी रोटी खाना नही चाहिा। यतद ऐसे हालाि में बचा हुआ आटा तिज में

रखा जािा है िो क्ा हम गलि है ?

काम को प्राधान्यिा

घंटा-घतड़याल बजाने , िंत्र-मंत्र का पाठ करने और धातमाक दु कानें खुलवाने में हमारा समाज सैकड़ों वर्षों

से आगे रहा है । पर आतिरकार उससे हमे हातसल क्ा हुआ? दु तनया में वहीं कौम कायम रह सकिी है

तजसके पास जीने का सलीका, काम करने का हुनर और साफ मजबूि इरादा हो। पातकस्तान िो कट्टर

मजहबी रीति-ररवाजों वाला दे श है , पर क्ा वह चचा और उपर वाले को नकारने वाले रूस से आगे है ?

िुदा के बन्ों वाली हुकूमि वाला िातलबानी शासन क्ा अफ़गातनयों को अमेररकी कहर से बचा पाया?

हमे भी आगे बढना है िो रीति-ररवाजों से ज्यादा काम को प्राधान्य दे ना होगा। तकसी ने ठीक ही कहा है ,

"मि समझना ये रीति-ररवाज िुम्हारा पथ रोक लेगी,

िुम चले िो दीप क्या सूरज हजारों चल पड़ें गे!"


https://www.jyotidehliwal.com/2014/11/blog-post.html

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