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घर का जोगी जोगङा / काशीनाथ ि िंह

शायद ही मेरी कोई ऐ ी कहानी हो जो भैया को प न्द हो लेिकन ऐ ा िंस्मरण और कथा-ररपोतााज भी शायद ही हो जो उन्हें नाप न्द हो।

यह कहते हुए मुझे गर्ा हो रहा है िक र्े मेरे बङे भाई ही नहीं, कथागुरु भी हैं। मुझमें जो भी थोङा-बहुत कथा-िर्र्ेक है, उन्हीं े अिजात है। अगर मैं कहानी े िंस्मरण की
तरफ गया और िफर िंस्मरण े कथा-ररपोतााज की ओर—तो इ के पीछे कहीं न कहीं र्े भी हैं। उनके ि र्ा और कौन मझ कता है िक मेरे कथकार की कमजोररयों
और उ की रचनात्मक ताकत को ? लम्बे-चौङे मैदान में एक ही स्थान पर खङे रहकर िजन्दगी भर ‘बाएँ-दाएँ’ करते रहने े बेहतर है अपनी म्भार्नाओिं और
क्षमताओिं के िलए नए िक्षितज खोजना और िक ी ऊ र पङे खेत को हरा-भरा बनाना !

मैं उन्हें अपने कानों े पचता रहा हँ िपछले पचा र्र्षों े। र्े जो कहते रहते हैं, उ े कभी िलखते हैं कभी नहीं िलखते। ऐ ा भी हुआ है िक िज बात को न् ’60 े
कहते रहे हों, उ े 90 में जाकर िलखा हो। मैं िज नगर में रहता हँ र्ह मूल रूप े स्मृित और श्रुितपरम्परा का ही नगर है। मुझे कहने में िंकोच नहीं िक मैंने उन्हें कम े
कम पचा है और मझा तो उ े भी कम। लेिकन उन े जो ुनता हँ उनमें े अपने काम की या जरूरत की बातें िगरह बाँध लेता ह।ँ

मुझे अपना पहला िंस्मरण िलखना पङा उनकी ‘र्षििपूिता पर ! ‘पहल’ के िलए ! यानी ’85-’86 के करीब ! कहािनयाँ िलखते-िलखते ऊब- ा रहा था। कहानी े जो
चाहता था, र्ह नहीं हो रहा था मुझ े। और िंस्मरण के िलए िहन्दी में कोई मॉडल नहीं था मेरे ामने ! जो था र्ह रूखा, ूखा बेजान, अनाकर्षा क, मािं -मज्जा हीन,
ऊष्मा रिहत। हड् िडयों के िनजीर् ढाँचे की तरह। ाथ ही िंस्मरण की जगह ािहत्य के माज में उ दिलत जै ी थी िज के िलए ‘पिंगत’ में कोई पत्तल नहीं।

मेरा कथाकार िंस्मरण के शास्त्र को बदल देना चाहता था लेिकन यह उ पर नहीं, उ व्यिि या उन व्यिियों के जीर्न पर िनभार था जो जीने की िनधााररत
शास्त्रीयता को अस्र्ीकार कर रहे थे !

मुझे याद आया भैया का एक पत्र। न् ’65 में बनार छोङने के बाद का पहला पत्र। िदल्ली े। मुििबोध को गुजरे कु छ ही महीने हो रहे थे और उन पर ‘राष्रर्ाणी’ का
एक अिंक आया था। पत्र के अन्त में उन्होंने दो र्ाक्य िलखे थे-‘तुमने ‘राष्रर्ाणी’ के मुििबोध िर्शेर्षािंक में छोटे भाई शरत मुििबोध का िनबिंध पचा ? पच लेना, कौन
जाने कभी तुम्हें भी िलखना पङे तब याद रखना िक गद्य ऐ ा ही हो-बिल्क इ े भी ज़्यादा खुश्क ! मैंने र्ह िंस्मरण पचा था लेिकन ऐ ा कु छ खा नहीं लगा था। इ
िचट्ठी में मेरे मतलब की ि फा एक चीघ थी िक गद्य कै ा हो ? खुश्क यानी गीला न हो, भीगा न हो-कपङे उ े िनचोङ कर, पानी िनथार कर ुखा लो और जब हल्का,
कङकङ हो जाए, उ में चमक आ जाए तब इस्तेमाल करो। राग-िर्राग मुि गद्य ! यह मेरी मझ थी; उनकी क्या थी, नहीं मालूम !

लेिकन ऐ ा बेजान और बेस्र्ाद गद्य िक काम का ? िज में न आकर्षा ण हो न लज़्घत ?


इ का भी उत्तर मुझे उन्हीं की बातों में िमला जो करते रहते थे। अक् र ! भारतेन्दु युगीन गद्य के न्दभा में। गुलेरी जी के न्दभा में। िक िंस्कृ त और पुरानी िहन्दी का
इतना बङा आचाया लेिकन ‘उ ने कहा था’ और ‘कछु आ-धमा’ की भार्षा देखो उनकी। तो ‘हँ मुख-गद्य’ आत्मीयता, िजन्दािदली और मस्ती े राबोर हँ मुख गद्य !
बनार की िमट्टी और आबोहर्ा में ही कु छ ऐ ा है—फक्कङी, अक्खङी, हँ ी-िििोली, व्यिंग्य-िर्नोद, मौज-मस्ती। लेिकन इ िकस्म का गद्य िक ी टक ाल में नहीं,
ङकों पर, फु टपाथों पर, पिं ारी और पनर्ाङी की दुकानों पर, ररक्शों-िेलों पर िमलता है। इफारत भरा पङा है। जरूरत है उ े जीने की, ाधने की। आलोचना की तो
ीमाएँ हैं लेिकन रचनात्मक ािहत्य की कोई ीमा नहीं।

अकादिमक तिंत्र के भीतर कु लीनों के बीच रहनेर्ाले लेखक के िलए मुिश्कल काम, लेिकन एक झरोखा तो खुला ही था मेरी आँखों के आगे। उ े झरोखे े जो पहला चेहरा
नजर आया, र्ह मेरे ही बङे भाई का था !

काशीनाथ

जीयनपुरनामर्र के गुरु हजारीप्र ाद ििर्ेदी ने कबीर के प्र िंग में िलखा था िक प्रितभा जन्म लेने के िलए िक ी कु ल िर्शेर्ष का इन्तघार नहीं करती। र्े यह कहना भूल
गए िक र्ह कभी-कभी इन्तघार भी करती है लेिकन टीले या ऊ र का—र्रना नामर्र को पैदा होने के िलए बनार िजले में एक जीयनपुर ही नहीं था। जीयनपुर को
ऊ र गाँर् बोलते थे उ जमाने में।

इ गाँर् को पा -पङो के धोबी जानते थे िजन्हें रेह की जरूरत पङती थी कपङे धोने के िलए ! िगद्ध भी जानते थे। दैर् भी जानता था। लेिकन जाने क्या था िक जब
आ -पा के ारे गाँर् पानी में डू बकर ‘त्रािह-त्रािह’ कर रहे होते थे, यह गाँर् प्या ा का प्या ा रह जाता था। नाम जीयनपुर और जीर्न का पता नहीं !

हो कता है, जीर्न की चाहत ने ही इ े जीयनपुर नाम िदया हो।

लेिकन यह ‘पुर’ नहीं, ‘पुरर्ा’ था-िक ी गाँर् का पूरक। नामालूम- ी एक छोटी बस्ती !

बचपन में जै े ही इ गाँर् े बाहर िनकलने लायक होने लगते थे, घर में पहला पाि यही पचाया जाता था िक अगर कहीं भटक गए या गुम हो गए, और कोई पूछे कहाँ
घर है ? कहाँ रहते हो ? तो क्या बोलोगे ? और उत्तर रटाया जाता था-‘आर्ाजापुर ! जीयनपुर कहोगे तो कोई नहीं मझेगा !’ आर्ाजापुर रोड के िकनारे। आबादी और
क्षेत्रफल के िह ाब े बङा गाँर्, िाकु रों के कई टोले। कोई ऐ ी जाित नहीं जो न हो। स्कू ल भी, दर्ाखाना भी। ऐ ा गाँर् िज में म्पन्न भी थे, िशिक्षत भी, बाहर नौकरी
करने र्ाले भी।

नामर्र ने इ ी गाँर् में िहन्दी की र्णामाला ीखी थी-‘न’ पर ‘आ’ की मात्रा ‘ना।’ जीयनपुर इ ी आर्ाजपुर े एक मील पूरब था !

आइए, चिलए नामर्र के बचपन के गाँर्।

उत्तर तरफ गाँर् की पूरी बस्ती को नापती हुई पोखर, िज े ‘महदेर्ा’ बोलते थे— इ िलए िक पोखर के पार महादेर् की िपिंडी थी। शायद यह पोखर इ िलए थी िक इ ी
जगह की माटी े गाँर् के घर दुआर बनाए जाते थे। पोखर पूरे गाँर् की थी, िक ी एक की नहीं।
गाँर् के पूरब भीटा था-उत्तर े दिक्खन तक फैला हुआ िज पर एक कतार में ताङ के पेङ थे-इ ीिलए उ े कु छ लोग ताङगाँर् भी बोलते थे। ताङों पर िगद्धों और चीलों
का ब ेरा था ! उ ी पर बैिकर र्े ि र्ान में फें के हुए या मरे हुए डाँगरों का जायजा लेते थे। रास्तों में अक् र उनके उङने और पत्तों के खङखङाने की आर्ाजें आती थीं।
और जाङों में भोर के मय ताङों के बङे-बङे पके फू ल भद्भद् िगरते तो हम उिकर नींद में दौङते और उिा लाते। उनके िलए लूट मची रहती थी। कालू गोंङ तो ताङे भर
उन्हीं के घात में रहते और उन्हीं पर गुजारा करते।

इन्हीं ताङों के बीच में नीम का एक बहुत बङा और गिझन पेङ था िज पर पचैंया (नागपिंचमी) की शाम झूला पङता था। घराने के भी मदा-औरतें इ पर झूलते और
कजली गाते थे। ‘हरी-हरी’ या ‘हरे रामा’ े शुरू होनेर्ाली कजिलयाँ—आज भी कहीं झूला िदखाई पङता है, तो कानों में गूँजने लगती हैं। लङके िदन में या शाम को
झूलते थे और यानी लङिकयाँ, बहुएँ या भािभयाँ रात या भोर में !

इ ी नीम के नीचे अखाङा भी था।

ये ताङ जहाँ खत्म होते थे-र्हीं े पूरब के िलए छौरा जाता था िज के मोङ के पा काली माई का चौरा था। ाल में दो बार गाँर् की औरतें माता माई की पूजा करती थीं
और चचार्े चचाती थीं।

दिक्खनी ीमा पर बार्ङी थी जो भै ों के मिङया लेने के काम आती थी ! िफर उ के बाद पिार जै ा भीटा जो गाँर् और चमटोल के बीच ‘िडर्ाइडर’ था। इ भीटा पर
पीपल का एक अके ला पुराना दरख्त था िज के नीचे बरम बाबा ! चमटोल गाँर् के दिक्खन थी-भीटा े परे !

हमारे हाईस्कू ल की छमाही परीक्षा में ामान्य ज्ञान के प्रश्नपत्र में एक र्ाल पूछा गया था-‘चमटोल गाँर् के दिक्खन ही क्यों होती है ?’ हम उत्तर नहीं दे के थे लेिकन
चाई थी। उ पूरे इलाके में हर गाँर् के दिक्खन चमटोल। मास्टर ने बताया था िक चमारों की बिस्तयाँ गन्दी, बदबूदार और रोगाणुओ िं े भरी होती हैं। हर्ाएँ प्रायः पूरब,
पििम और उत्तर े ही चलती हैं, दिक्खन े नहीं। इ िलए रोग व्यािध े गाँर् की मुिि चमटोल के दिक्खन ब ने में ही हैं ! देर्ी-देर्ताओिं का र्ा भी उ िदशा में नहीं
होता।

पिछछम ऊ र था िज पर डीह बाबा थे। गाँर् के रक्षक ! ामान्य ज्ञान र्ाले प्रश्नपत्र में दू रा प्रश्न भी यही था-‘डीह हमेशा गािंर् के पिछछम ही क्यों होते हैं ?’ उत्तर भी
उ ी तरह के -िक गाँर्ों पर ारे आक्रमण पिश्छम े ही होते रहे हैं। ि कन्दर े लेकर मुगलों तक।

तो यह थी गाँर् की चौगद्दी।

फ लें दो होती थीं-अगहनी और चेती ! जब तक धान नहीं तैयार होते तब तक गाँर् बाजरा, जोन्हरी और ार्ाँ े काम चलाता। उन्हीं के दाने और उन्हीं के भात। धान
की दो ही िकस्में होती थीं- ारो और ि लहट। इनके भात लाल रिंग के होते। मय- मय पर बाजरे और अरहर की खुिद्दयों की िलरट्टयाँ भी बनती रहतीं। जाङों की रात में
भात और िदन में मटर की घुघनी और ईख का र ! ब्जी मौ मी थीं। बर ात में करेम और नई के फू लों के ाग और जाङों में बथुआ और चने के !
गरमी की भोर की शुरुआत होती ि र्ान में महुर्ा बीनने े। दोपहर आम और जामुन के पीछे बगीचे में। रात को जौ की रोिटयाँ बनतीं और अरहर की पिनयल दाल। गेहँ
को ‘ब्राह्मण देर्ता’ कहा जाता था। थोङा बहुत होता भी तो शादी-ब्याह और श्राद्ध के िलए रखा रहता। प्रायः हर घर में एक-एक भैं थी लेिकन जब ब्या ी होती तो
उ का मट्ठा ही िमलता-र्ह भी नपने े, उम्र के िह ाब े ! दधू या दही के दशान िखचङी (मकर िंक्राित) को होते, िचउङा के ाथ। यह ारा कु छ इ िलए िक ि िंचाई
कु एँ या दै र् के भरो े थी।

कहते हैं, कोई घूरी ि िंह थे खङान गाँर् में-उन्नी र्ीं दी के उत्तराद्धा में ! महारानी िर्क्टोररया के राज में िहन्दुस्तानी फौज में ूबेदार ! लम्बे तगङे मजबूत कद-कािी के
जर्ान। बहादुर और िदलेर। अपने रेिजमेंट के ाथ कहीं उत्तर-पूरब में पङे हुए थे ! जिंगली पहाङी घनघोर इलाका। जाङे के िदन थे। ुबह शौच के िलए लोटे में पानी लेकर
िनकले और दूर चले गए छार्नी े ! र्े बैिे ही थे िनपटने के िलए िक एक बाघ ने उन पर आक्रमण कर िदया। उ बाघ ने आतिंक मचा रखा था उ इलाके में। र्े ुन चुके
थे उ के बारे में। चालाक े चालाक िशकारी भी उ े हार मार चुके थे। घूरी के पा कोई हिथयार नहीं था ि र्ा कम्बल और लौटे के ! र्े उ पर कम्बल फें क कर टू ट
पङे। िक ी तरह गरदन मेत जबङे को कम्बल में लपेटा और लोटे े ताबङतोङ शुरू िकया माथे पर। र्े लहलुहान हो गए लेिकन मारते रहे ! धीरे-धीरे र्ह घुराघुरा करने
के बाद ििंडा हो गया।

खबर पहुचँ ी बताािनया रकार के आला अफ रों के पा । उन्होंने जब बाघ की खाल, िचथङा कम्बल और िपचका लोटा देखा तो िर्श्वा हो गया। उन्हीं की ि फाररश
पर इनाम में घूरी को तीन गाँर् िदए गए-पहाङपुर, करजौंङा और जीयनपुर। खङान गाँर् इन गाँर्ों े तीन-चार मील दरू ! कै े म्भर् थी इनकी देख भाल ? करजौंङा
और पहाङपुर में पहले े ब ाहट थी, बिस्तयाँ थीं, लोग थे। इ िह ाब े जीयनपुर िीक लगा उन्हें। यहाँ ि फा िाकु रों के दो घर थे-बाकी नागफनी के जिंगल, झाड-
झिंखाङ ऊ र और रेह। न कहीं तालाब, न पोखर, न नदी-नाला। खुला मैदान और खुली छू ट ! जीयनपुर े करजौङा और पहाङपुर की भी देखरेख की जा कती थी।
मौजूदा जीयनपुर इन्हीं तीनों पररर्ारों का िर्स्तार है।

घूरी के चार बेटे हुए-अयोध्या, मथुरा, िाररका और हरगेन। िफर इन बकी न्तानें हुई िं। िाररका के भी चार बेटे हुए-मकु नी, गोकु ल, रामजग, और रामनाथ। इनमें जब
बँटर्ारा हुआ तो रामनाथ के िहस् े ती बीघे खेत आए। रामनाथ को खेतों े नहीं, ि फा भैं े मतलब था ! ीधे ीदे। अँगूिा टेक ाधु स्र्भार् के आदमी। घर-दुआर
जगह-जायदाद िक काम के ? ुबह- ुबह र्े खूँटे े भैं खोलते और ि र्ान में िनकल जाते ! उनका ारा मय ि र्ान बाग-बगीचों और ताल-तलैयों में ही गुजरता !
इ तरह भैं की ेर्ा करते-करते एक िदन र्े अपनी जर्ानी में ही ुरलोक ि धार गए।

रह गए उनके बेटे- ागर, नागर, बाबूनन्दन और जयराम ! बचपन में ही जयरान के गुजरने के बार्जूद िाकु रों में ब े बङा पररर्ार। छोटे-बङे िमलाकर लगभग बी
दस्य ! ि फा बङा, नहीं, म्मािनत भी। पूरे गाँर् में यही एक घर था िज में खेती बाङी के ि र्ा बाहर े भी हर महीने ोलह रुपए की आय थी। और यह आय थी
प्राइमरी स्कू ल के मास्टर की।

इन्हीं मास्टर का नाम नागर ि िंह था और इन्हीं के बङे बेटे हैं नामर्र !

मास्टर तो दू रे गाँर्ों में भी थे-प्राइमरी के ही नहीं िमडलस्कू ल तक के लेिकन इनकी कु छ अपनी खाि यत थी। ये कभी गाँर् के पचङों झगङों में पङे नहीं-अपने घरानों या
पट्टीदार के हों या छोटी-बङी जाितयों के ! अपने काम े काम। न िक ी की चुगली ुनना और न खाना। नाच तमाशे और हा-हा ह-बू े कोई मतलब नहीं। बछचे चाहे
िज जाित के हों-उन्हें डाँट-डपट के स्कू ल िभजर्ाते रहते थे। पाखिंड, धूताता और झूि े िचच थी उन्हें। हुक्का पीते थे-घर पर भी और स्कू ल में भी। हमेशा छङी या
छाता िलए हुए चलते थे-नाक की ीध में; और ि फा चलते नहीं थे, देखते भी थे। बेहद िनयिमत और अनुशाि त ! कभी नहीं पाया िक स्कू ल खुला हो और र्े घर के काम
िनपटाने में लगे हों। िगरस्ती का काम न र्े करते थे और न कोई करने के िलए उन े कहता था।

लोग उन े डरते भी थे और उनका म्मान भी करते थे।


‘मास्टर’ के एक िमत्र थे िर्द्याथी जी। गाँधीर्ादी और ुराजी ! बाद में िर्धायक हुए कािंग्रे
े ! उन िदनों एक-डेच मील पूरब रहते थे हेतमपुर में। छु रट्टयों में तो र्हाँ जाने
का िनयम ा बना रखा था। शायद उन्हीं की देखा-देखी मारकीन छोङकर खद्दर पहनना शुरू कर िदया था उन्होंने और नौकरी छोङने का मन भी बना िलया था।
जीयनपुर में िशक्षा इन्हीं मास्टर के जररए आई थी !

मास्टर के बङे भाई थे ागर ि िंह ामािजक, व्यर्हार कु शल और हँ मुख। र्ही घर के मािलक थे ! छोटे भाई बाबूनन्दन गाने-बजाने र्ाले घुमन्तू और बैिकबाज थे।
तीन भाई तीन रकम के थे। लेिकन ये तीनों भाई एक-दू रे की बङी इज़्घत करते थे। बथरी में होनेर्ाली औरतों की काँर्-काँर्-झाँर्-झाँर् े र्े अप्रभािर्त रहते थे। उनकी
मान्यता थी िक हम एक खून और एक िंस्कार के हैं लेिकन ये औरतें अलग-अलग घरों े आई हैं, इनके िंस्कार अलग-अलग हैं; िक ये िमट्टी के ात घङे हैं, पा -पा
रहेंगे तो टकराएँगे ही, टकराएँगे तो आर्ाज होगी ही। इन पर कान देने की कोई जरूरत नहीं। उनकी यह मझ उनके व्यर्हार में भी िदखाई पङती। र्े अपने नहीं, दू रे के
बेटो को अपना बेटा मानते।

लेिकन औरतों में यह मझदारी नहीं थी। उनके बेटे ही उनके िलए ब कु छ थे। र्े आप में लङते तो उनकी माँएँ लङ पङतीं। बेटों के पीछे उनके गुट बनते िबगङते रहते !
और उ ी के भरो े र्े अपने बछचों के खाने-पीने, पहनने-ओचने की अलग े व्यर्स्था भी रखती थीं-िनजी।

माँ की िस्थित थोङी अलग थी, इन औरतों के मुकाबले ! उ का मायका नहीं रह गया था। शादी के बाद ही र्हाँ महामारी फैली थी और ारा कु छ खत्म हो गया था।
उ की माँ की बहन का घर ही उ का मायका था जहाँ र्ह कभी नहीं गई ! दू री मुिश्कल यह थी िक बके पित हमेशा खेत-खिलहान में लगे रहते लेिकन उ के पित को
मुदररा ी े ही फु ात न थी। जब कभी िमलती भी थी तो उनकी िदलचस्पी ही न थी ! दुआर पर लेटे-लेटे टाँगें िहलाया करते। जबिक खाने में न र्े कोई क र छोङते, न
उनके बेटे ! उन्हें तो कोई कु छ न बोलता लेिकन औरतें ारा गुस् ा माँ पर िनकालती रहतीं।

ब े बङी बात यह िक उ ने अपने पित की कमाई का ुख भी कभी नहीं जाना। क्योंिक उनकी कमाई एक रकारी खजाने े िनकलती और पररर्ार के रकारी
खजाने में चली जाती।

एक दुख बराबर ालता रहा उ े पित पचा-िलखा और र्ह अपच गँर्ार। र्ह अक् र कहा करती िक अगर उ के गाँर् में स्कू ल रहा होता तो जरूर पचा होता। पचने का
ुख उ ने तब जाना जब उ के बङे बेटे को र्जीफा िमला। उ ी के पै ों में उ ने बकरी खरीदी अपने बछचों के दूध पीने के िलए। र्ह चाहती थी िक उ के बेटे खूब पढें -
बङा आदमी बनें। लेिकन िक ान का घर। काम ही काम। कटाई है, जुताई, हेंगाई है, दँर्ाई है, रोपनी है, बुर्ाई है, ईख छोलाई है, कोल्हुआङ है, मोट-पुर है, दारी है,
िबिनया है, खेतर्ाही है और नहीं तो िदन चच आया है और भैं अभी खूँटे पर ही है-काम े जी न चुराना हो तो काम ही काम है। उ े लगता िक बको काम तभी ूझता
है जब उ का बेटा पचने बैिता है ! और दू रों को लगता िक दू रे लङके बछचे ुबह े खट रहे हैं और यह ुर कापी गोंद रहे हैं। अरे, जो जरूरी है पहले र्ह देखो,
िकताब कहीं भागे थोङे जा रही है ? बीच में माँ के बोलने का मतलब होता- झगङा।

माँ इकहरे बदन की लम्बी, गोरी खूब ूरत और धमाभीरू औरत थी-छोटी े छोटी बात पर मनौती मानने र्ाली ! खुशिदल और हँ मुख। गाने बजाने के हर त्यौहार और
मौके पर हािघर। िक ी की भी अथी जाते देखकर रोना और िक ी भी आँगन में िर्र्ाह का माँङो गङा देखकर गाना उ का स्र्भार् था। रोना इ बात पर िक अब क्या
होगा उ िर्धर्ा का ? या माँ का ? या खानदान का ? गाना इ बात पर िक िकतनी खुश होगी बेटी ? उ के माँ-बाप ? उ के घर र्ाले ? उ े जब-जब ये याद आते
गाती या रोती ! िजन्होंने उ े देखा था और बातें की थीं र्े नामर्र के नामर्र होने का श्रेय माँ को देते हैं। उ ने अपने बेटों की पचाई के िलए अपना गहना-गुररया ारा
कु छ बेच डाला था।

अपने बेटे को लेकर िपता के पने बङे छोटे थे। उनके पनों की ऊँचाई जीयनपुर के टीलों े अिधक न थी। इ े अिधक के बारे में ोच भी नहीं कते थे र्े ! र्े चाहते
थे िक बङके जने (जीर्न भर उनके मुँह े यही ुना कभी नामर्र नहीं) िमडल पा करने के बाद नामाल की रेिनिंग करें और गाँर् के आ -पा िक ी स्कू ल में मास्टर हो
जाएँ। खेती बारी भी ँभालें और पचाएँ भी।
यह नामर्र को स्र्ीकर न हुआ और इ मामले में माँ बेटे के ाथ थी।

िमत्रों, इ लम्बी-लम्बी भूिमका के बाद मैं आपको छची बात यह बताऊँ िक मैंने नामर्र के बचपन का गाँर् जरूर देखा है, उनका बचपन नहीं देखा। र्े मुझ े द ाल
बङे थे। र्े न् 41 में जीयनपुर छोङ गए जब मैं चार-पाँच ाल का था ! बङे भाई के नाम पर मैं ि छा रामजी को जानता था। माँ बताती रही होगी लेिकन मुझे कु छ भी याद
नहीं।

धीरे-धीरे ुनना शुरू िकया उनके बारे में-

िक पचने में बङे तेज थे,

िक इितहा के पचे में िक ी एक ही प्रश्न का उत्तर िलखते रहे थे, इ िलए िमडल में फे ल हो गए।

िक कािदराबाद में कोई र्ाचनालय या लाइब्रेरी थी जहाँ अक् र जाते थे।

ुख / काशीनाथ ि िंह

भोला बाबू को नौकरी े र्ाप आए एक हफ्ता भी नहीं हुआ था िक एक घटना हो गई। र्े कमरे में पङे अखबार पच रहे थे। एक शाम िखङकी े कोई िकरण आई और
उनके गिंजे ि र पर पङ रही। जै े र्ह िक ी नन्हे बछचे की हथेली हो, गरम और गद्देदार। भोला बाबू लेटे े बैि गए। देखा, ूरज पहाङी के पीछे कहीं चला गया है और
र्ह िकरण उनके ि र पर ज्यों की त्यों रखी है। र्े उिे। उन्होंने ामने की दीर्ार पर हाथ रखा। कु छ क्षण पहले ललाई यहाँ भी िहरी थी। हथेली घरा गरम लगी। हाथ र्हाँ
े हटाया और अपने गालों पर रखा। गाल का चाम गदोरी े कोई इिंच-भर अन्दर पङता था। उन्हें दःु ख हुआ। र्े तुरन्त बाहर िनकले। बाहर हरी घा लाल है। चारदीर्ारी
लाल है। र्े तेज कदमों े आगे बचे और चाहरदीर्ारी तक गए। यहाँ े ूरज िदख रहा था-पहािङयों के कु छ ऊपर बादलों के कहीं आ पा ! ताङ और बबूलों के बीच में।
उन्होंने स्र्यिं पर िनगाह डाली-मारकीन का फे द कु ताा गुलाबी हो उिा था। र्े मुस्कराए, ‘‘देखो, दुिनया में क्या-क्या चीघें हैं। िकतनी अछछी-अछछी चीघें।’’

िफर उन्होंने चाहरदीर्ारी के बाहर आँखें घुमाई,िं इधर-उधर, दूर दीखनेर्ाली हररजन-बिस्तयों पर। देखा, झोंपिङयाँ लम्बी हो गई हैं। ुकालू की मङई लम्बी होकर मिन्दर
छू रही है। मिन्दर के पा एक गाय खङी है और पूँछ झटकार रही है। उन्होंने गाय को गौर े देखा र्ह लाल है या छे द ही है ? र्े तय नहीं कर पाए। र्ाह, क्या मघाक़ है
? र्े मुस्करा उिे। ह ा भोला बाबू का ध्यान ूरज पर गया ूरज का गोला छोटा-बङा हो रहा था काँप रहा था। ‘‘िबट्टी की माँ’’, र्े िचल्लाए। कोई जर्ाब न आया।
‘‘िबट्टी की माँ’’, र्े िफर िचल्लाए। ‘‘क्या हुआ ?’’ आँचल े हाथ पोंछती िबट्टी की माँ िनकलीं। ‘‘अरे, इधर आओ।’’ िबट्टी की माँ दौङीं। जाकर भोला के बगल में खङी हो
गई िं। ‘‘ ामने, उधर क्या देखो।’’ र्े ङक पर देखने लगीं। ‘‘ ङक नहीं उधर दूर ताङों के पीछे ।’’

र्े उचकीं और देखने लगीं। िफर भोला बाबू की ओर मुङी और खुश हो उिीं। ‘‘‘िकतना अछछा ?’’ भोला बाबू गदगद हो गए। ‘‘हाँ बहुत अछछा’’, िबट्टी की माँ बोलीं। ‘‘क्या
बहुत अछछा ?’’ भोला बाबू दािहनी ओर घूमे। ‘‘ई िंटों े लदे खछचरों की पाँत। उनके पीछे चलते आदमी।’’ भोला बाबू घोर े हँ पङे। ‘‘औरत की जात। खछचर और गधे
के ि र्ा देख ही क्या कती हो ?’’ ‘‘तो क्या देखने को कहते हो ?’’ ‘‘कु छ नहीं जाकर माँङ प ारों और आटा गूँथो।’’ ‘‘नहीं जरा मुझे भी िदखाइए न’’, उन्होंने हि
िकया। ‘‘क्या िदखाऊँ ? खाक ! इतनी देर े परेशान हँ खछचर िदखाने के िलए ?’’ ‘‘तो क्या है ?’’ िबट्टी की माँ ने घोर िदया। ‘‘ताङो के बीच में देखो। धुँधली-धुँधली
पहािङयाँ है ?’’ ‘‘हैं।’’
‘‘लाल ूरज है ?’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘गोलाई पर पतले भूरे बादलों की लकीरें है ?’’ ‘‘हाँ, हैं।’’ ‘‘तो देखो उ े अछछी तरह देखो।’’ ‘‘उ े क्या देखना ? आप आज देखते हैं। मैं
िघन्दगी भर े देख रही ह।ँ ’’ ‘‘ह’ँ ’ भोला बाबू ने गदा न िहलाई, ‘‘िघन्दगी-भर े देख रही हो।’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘अछछा बङा अछछा कर रही हो। अब एक काम करो िक चलो।
चूल्हा फूँ को।’’ िबट्टी की माँ खङी रहीं। भोला बाबू को देखती रहीं। ‘‘मैं कहता हँ जाओ’’, भोला बाबू चीख उिे। िबट्टी की माँ डरकर चली गई िं। भोला बाबू देखते रहे- ूरज,
बादलों पर उभरते रिंग, रिंगों पर िखिंचती धाररयाँ, पहािङयों के ामनेर्ाले िहस् ों का धुँधलेपन के िबल्कु ल ऊपर-चोटी पर लाल कु हा े का क्षीण होना....। र्े िघन्दगी-भर
तार बाबू रहे-उन्होंने ोचा। पहािङयों के इ िघले में ही रहे। उन े कोई गाँर् नहीं छू टा, क़स्बा नहीं छू टा, शहर नहीं छू टा। लेिकन यह ूरज ! अब तक कहाँ था ? यह
शाम आिखर िकधर थी ?.....आज र्े क्या देख रहे हैं ? उन्होंने अपने पीछे िक ी बछचे के िकलकने की आर्ाघ ुनी ! ‘‘कौन ? नीलू !’’ नीलू कू दता हुआ आया।

‘‘और ब कहाँ हैं ?’’ ‘‘खेल रहे हैं। ‘‘कहाँ ?’’ नीलू ने मकान के पीछे र्ाले मैदान की ओर िंकेत िकया। ‘‘अछछा, जाओ। दौङो तो बको बुला लाओ।’’ नीलू दौङ गया।
भोला बाबू ूरज को देखते रहे, कभी इधर े, कभी उधर े, कभी, उचकर, कभी झुककर। उन्होंने खुश होकर तािलयाँ बजाई िं। उन्हें लगा गोले का ऊपरी ि रा, िज के
एक िकनारे काले बादल की पतली लकीर है, डू ब रहा है। रू ज की िकरणें अब उधर नहीं हैं, न मैदानों में, न हरें खेतों में, न झोपिडयों पर, र्े बादलों के पीछे े ऊपर
आकाश की ओर जा रही हैं, प्रकाश की कई धाराओिं में, कई रिंगों में। ‘‘नीलू !’’ र्े पीछे मुङकर िचल्लाए। कोई नहीं िदखा। ‘‘ बके ब कहाँ गुम हो गए’’, र्े बुदबुदाए।
‘‘अरे ओ, कौन जा रहा है ?’’ ामनेर्ाली ङक े एक ऊँट जा रहा था। उ पर गन्दी कमीघ पहने एक आदमी बैिा था। र्ह िनिित बीङी पी रहा था। ‘‘हम तुम्हीं े
कह रहे हैं।’’ उ ने ि र घुमाकर इधर देखा।

‘घरा ामने ताङों के बीच तो देखों । र्हाँ क्या है ?’’ ऊँटर्ाला उधर देखता हुआ आगे बच गया। ‘‘स् ाले ! भोला बाबू के मुँह े िनकला। ूरज डू ब गया। र्े र्हाँ े हट
आए। आरामकु ी पर चुपचाप बैि गए। उनका मन उदा होने लगा। चाय का प्याला आया। ामने की मेघ पर रख िदया गया। उन्होंने आँखें खोलीं। ामने िबट्टी की माँ
थीं। ‘‘घरा धोती और छङी तो ले आना।’’ ‘‘क्यों ? कहीं जाइएगा ?’’ भोला बाबू नहीं बोले। धोती और छङी आ गई। धोती पहनी और, छङी ली और चले। यह ऐ ी बात
नहीं, जो यों ही छोङ दी जाए-उन्होंने िर्चारा। र्े आज चलेंगे और कहेंगे। ब े कहेंगे। लेिकन ब े पहले माधर् के यहाँ चलेंगे। माधर् मुख्तार जो है। बकु छ मझता है,
बूझता है, िफर उ े लेकर कहीं और। भोला बाबू पकङी के पा े मुङने को हुए िक ामने देखा, बीज-गोदाम है। कहीं े िघलेदार ाहब भी आ गए हैं। और दू रे लोग हैं।
र्े अन्दर गए। ‘‘आइए, आइए तार बाबू। बैििए !’’ िघलेदार ाहब बोले। भोला बाबू ने एक कु ी खींची और बैि गए। उन्होंने बूची आँखों े घूरकर देखा-कई चेहरे नए हैं।
उनके आने े बातों में थोङी बाधा पङी।

‘‘किहए, कु छ परेशान े हैं ?’’ ‘‘परेशान तो क्या लेिकन हँ ही’’, भोला बाबू ने हँ ने की कोिशश की। िफर बातें चल पङीं। िघलेदार ाहब ने कहा िक इ ाल नहर में
खूब मछिलयाँ आई हैं। ‘‘िघलेदार ाहब अगर आपको मछिलयों का शौक हो तो एक काम करें’’, एक आदमी ने कहा। ‘‘क्या ?’’

‘‘आप रात में छलके पर जाल लगर्ा दें।’’

‘‘हाँ ाब, मछिलयाँ रात में चचती हैं’’, दू रे ने मथान िकया। भोला बाबू के िलए यह अछछा मौक़ा था। र्े थोङा आगे उझक आए-तो ‘‘क्यों न जाल शाम को ही लगर्ा
िदया जाए ?’’ ‘‘हाँ, ऐ ा भी कर कते हैं’’, िघलेदार ाहब ने कहा। ‘‘और शाम भी कब ?’’ भोला बाबू आगे बोले, ‘‘जब ूरज डू ब रहा हो।’’

‘‘अरे शाम-र्ाम े कु छ नहीं होता। मछिलयों के चचने के मय आधी रात और िभननु ार ब े अिधक।’’ भोला बाबू िफर कु ी की पीि के हारे हो रहे। बात हाथ में
आकर िफ ल गई-इ का उन्हें दःु ख हुआ। र्े चुप हो गए। इतने लोगों के आगे कहना िीक न होगा-उन्होंने ोचा-अके ले हों तो कहा जाए ! र्े धैया े प्रतीक्षा करने लगे।
लेिकन र्हाँ े िक ी ने टालने का नाम नहीं िलया। ‘‘िघलेदार ाहब !’’ भोला बाबू ने झल्लाकर कहा। ‘‘िघलेदार ाहब ने ि र घुमाया। ‘‘आप े एक जरूरी बात करनी
है !’’ ‘‘मुझ े ?’’ िघलेदार ाहब गम्भीर हो गए, ‘‘अछछा !’’ भोला बाबू उि खङे हुए। भोला बाबू उन्हें मालगोदाम ले गए, एकान्त में । ‘‘िघलेदार ाब !’’ भोला बाबू
बोले, ‘‘अब आप े क्या िछपाना ? और आप तो खुद ही मझदार हैं।’’ ‘‘अरे तार बाबू, कै ी बात कर रहे हैं।’’ भोला बाबू क्षण-भर के िलए रुक गए। िफर कहा, ‘‘आप
तो ऱोज शाम को टहलते हैं।’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘रात गए लौटते हैं। ’

‘‘हाँ।’’ ‘‘आज आपने ूरज देखा होगा।’’ ‘‘हाँ देखा था।’’ भोला बाबू थोङी देर तक िघलेदार ाहब को ललचाई आँखों े ताकते रहे। उन्हें खामोश पाकर बोले, ‘‘आज
का ूरज ऐ ा लाल......ऐ ा खूब ूरत िक आप े क्या कहँ ? ारी धरती लाल हो गई थी िघलेदार ाहब ! आपने देखा था न ?’’ ‘‘यह कोई नई बात नहीं। ऐ ा रोघ हो
रहा है ?’’ भोला बाबू िर्िस्मत हुए। खैर’’, िघलेदार ाहब ने लापरर्ाही े कहा, ‘‘बात क्या है ? र्ह किहए !’’ भोला बाबू चुप हो रहे। उनके उत् ाह को कु छ धक्का
लगा। उन्होंने ि र झुका िलया और चल पङे। ‘‘आिखर बात क्या है ?’’ िघलेदार ाहब ने पूछा। अब आपको क्या बताएँ ाब !’’ उन्होंने धीरे े कहा। र्े ीधे बाघार में
िनकले। बाघार का र्ह िहस् ा खुला पङा है। ङक पर रोशनी हैं- पररिचत-अपररिचत। लेिकन भोला बाबू अपनी राह चले जा रहे हैं। उन्होंने रू ज के बारे में िक ी े नहीं
कहा, जबिक बहुतों े कहना था। र्े दुखी थे। दुःखी इ बात के िलए िक िघलेदार के यहाँ बरब चले गए। िघलेदार को लोग बहुत योग्य और बुिद्धमान कहते थे।, र्े भी
मानने लगे थे। लेिकन आज उ की पोल खुल गई। अगर उन्होंने ूरज न देखा होता, तो एक बात थी। िकन्तु उन्होंने देखा और मघे में देखा है। िफर भी भोला बाबू इ पर
नए ि रे े ोचने के िलए बाध्य थे। और ोचा भी, ‘‘यह ऐ ी बात नहीं, िज े ब मझ लें।’’ इ िर्चार े उन्हें और पीङा होने लगी। लेिकन पचाई े क्या होता है ?
र्ास्तर् में देखा जाए तो पचाई और मझ दो चीघें हैं।....और खा तौर े ऐ ी बातों के िलए उम्र और तजुबाा चािहए। भोला बाबू माधर्र्ाली गली में मुङने को हुए। देखा,
हाथ में बाल्टी िलये दू री गली े माधर् िनकल रहे हैं। र्हाँ कु छ अँधेरा था।’

माधर् !’’ उन्होंने पुकारा।

‘‘बाबू, मैं हँ ोहन।’’ ‘‘अछछा तुम हो खैर कोई बात नहीं।’’ उन्होंने ोहन को बुलाया। ‘‘मुख़्तार ाहब तो दोपहर े ही बाहर हैं’’, ोहन ने बताया। ‘‘कहाँ गए हैं ?’’

‘‘िक ी गाँर् में। कोई मौक़ा देखने।’’ ‘‘अछछा दोपहर े ही गायब हैं ?’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘तब िफर उन्होंने ूरज कहाँ े देखा होगा ?’’ भोला बाबू ने िर्चारा। िफर उन्होंने ोहन
की उम्र और अनुभर् को गौर े देखा। ‘‘तुम शाम को क्या करते हो ?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘छनहर जाता ह।ँ खली मलता ह।ँ ानी लगाता ह।ँ दूध दुहता ह।ँ और...’’ ‘‘ ूरज
देखते हो या नहीं ?’’ ‘‘ ूरज ?’’ ोहन ने िर्स्मय े पूछा। ‘‘तुमने आज ूरज देखा था ?’’ ‘‘कौन ूरज ? ुरजा तेली ?’’ ‘‘नहीं, कोल्ह। बेर्कू छ’’, भोला बाबू खीझ
उिे। ोहन हँ ने लगा, ‘‘बाबू मैं गँर्ार आदमी क्या जानूँ, िक को पूछते हैं ?’’ ‘‘मैं आ पा के ूरज की बात कर रहा ह।ँ ’’ ‘‘हाँ बाबू देखा था।’’ ‘‘कु छ खा तुम्हें लगा
था ?’’ ‘‘मतलब ?’’ ोहन ने दीनता प्रकट की। ‘‘कु छ गोल-गोल, कु छ लाल-लाल’’, भोला बाबू ने ोहन की हायता की। ‘‘तो ?’’

‘‘तो तुम्हारा ि र ! और भैं पालो’’, उन्होंने क्रोध में कहा। र्े लौट पङे। इ बार की रही- ही आशा भी खत्म हो गई। ‘‘आिखर लोग क्या होते जा रहे हैं ?’’ र्े झल्ला
उिे। घर आकर उन्होंने फाटक खोला। अन्दर गए। छङी रखी। और िबस्तर पर िगर पङे ‘हाय ! दुिनया िकतनी बदल गई है’’, उन्होंने बार-बार ोचा। कल शाम होगी। र्े
भी को लोगों को बुलाएँग।े और मझाएँगे िक देखों, दिु नया में चूल्हा, योजना, कचहरी, ऊँट और दधू बकु छ नहीं है। रू ज भी है। पहािडयों के ऊपर होता है। ताङों के
बीच में आता है। िफर काँपता है। और िफर र्ह क्षण भी आता है, जब र्ह पहािडयों के पीछे जाता है। और डू बने के पहले एक मुलायम िकरण तुम्हारे गिंजे ि र पर छोङ
जाता है। अचानक उन्हें याद आया। र्े अपना हाथ ि र पर ले गए। टटोला। र्ह िहस् ा िबल्कु ल िण्डा था। उन्हें दुःख होने लगा, ‘‘लेिकन िकतने लोग हैं, जो कल भी इ े
मझ कें गे ?’’ र्े बेचैन होने लगे।

चर ा / भालचिंद्र जोशी

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दफ्तर े िनकलकर र्ह चौङी भीङ भरी ङक पर आया तो उ का मन िखन्न था। भीङ े बचकर र्ह पैदल चलता हुआ ङक िकनारे की इमारतों को अकारण घूरने
लगा। ङक का रास्ता तय करके र्ह अपने मुहल्ले की गली में दािखल हुआ। कु छे क बूचे शाम होने े पहले ही ओटलों पर आ बैिे हैं। उ ने गरदन झुकाई और आगे बच
गया। आिभजात्य मकानों की एक लिंबी कतार के बीच े गुजरते हुए उ ने ोचा, आज भी के शर् का फोन नहीं आया। हालाँिक के शर् को उ के दफ्तर का फोन निंबर
और घर का पता, दोनों मालूम हैं। के शर् इतनी महत्र्पूणा बात भूल जाए, ऐ ा कभी नहीं हो कता है। गाँर् े चलते हुए उ ने के शर् े कहा था िक िर्ता की दादी की
मौत की खबर उ े तुरतिं करना।

कहीं ऐ ा तो नहीं डोकरी अभी िजिंदा हो? उ ने ोचा और झुँझला गया। अकारण। िफलहाल डोकरी की मौत ही एकमात्र र्जह है जो िर्ता को भोपाल बुला कती है ,
र्नाा तो िर्ता े िमलने के दूर-दूर तक कोई अर् र नहीं हैं। िपछले द -बारह िदनों में कोई ौ बार ोचकर तय िकया गया िक गाँर् अिर्लिंब जाए, लेिकन हुआ यह िक
हर दफा मन मानकर रह जाना पङा। अजीब बेकली थी िक दफ्तर में फोन का बे ब्र इिंतजार रहता। िफर दफ्तर े लौटते मय रास्ते भर ोचते हुए घर आता िक जाते
ही घर पर टेलीग्राम रखा िमलेगा। लेिकन उ के िलए न दफ्तर में फोन आया और न ही घर पर कोई टेलीग्राम। रोज र्ह अपने दो कमरों के मकान का ताला इ ी जख्मी
उम्मीद में खोलता है िक अभी अपने घर के दरर्ाजे की देहरी पर खङा मकान-मािलक शायद उ े कहेगा - 'रुिकए, िकशन बाबू, आपका टेलीग्राम आया है, ले जाइए।'
मगर ऐ ा कु छ भी नहीं होता। मकान-मािलक े दुआ- लाम होती और र्ह कु छ देर जेब में चाबी टटोलने का अिभनय करता। गािलबन र्ह एक छोटी- ी जगह बना रहा
हो, जहाँ मकान मािलक भूल रहे खयाल को उिाकर रख दे, लेिकन मकान-मािलक उ की जािनब नीर मुस्कराहट के ाथ देखता रहता। शुरू के िदनों में में तो र्ह
मकान-मािलक े पूछ भी िलया करता था िक कोई तार र्गैरा तो नहीं आया? पहली दफा इ र्ाल पर मकान-मािलक को अचरज हुआ होगा िक ज्यादातर िकराएदार
िचट्ठी-पत्री का पूछते हैं, टेलीग्राम का नहीं। िफर भला टेलीग्राम का इ तरह इिंतजार कौन करता है? उ ने गौर िकया िक मकान-मािलक उम्र े पहले बाल फे द हो जाने
र्ाला बूचा है, िज े पूरा मोहल्ला गुप्ताजी कहता है। गुप्ताजी ने टेलीग्राम को लेकर उ की अनपेिक्षत प्रतीक्षा के िलए ह ा िजज्ञा ा प्रकट की थी लेिकन र्ह टाल गया
था। उ े लगा, उनके पूछने में कोई चतुराई है। इ बीच जाने क्या हुआ िक गुप्ताजी ने उ े पूछना बिंद कर िदया था। पर अब गुप्ताजी उ के दफ्तर के लौटने के मय
जानबूझकर दरर्ाजे पर खङे रहते हैं। शायद र्े जेब े चाबी टटोलने के उ के अिभनय को मझने लगे हैं और उ के अिभनय करने की युिि का आनिंद उिाते हैं और
िनगाह िमल जाए तो र्े मुस्कराने लगते। कभी र्े बगैर पूछे ही कह देते िक तार नहीं आया है। िफर अजीब- ी रहस्यमय हँ ी हँ ते। बहरहाल इ ी रहस्यमय हँ ी की मार
े बचने के िलए अब उ ने बूचे की ओर देखना भी बिंद कर िदया है। िफर भी उ े अपनी पीि पर बूचे की मुस्कराहट धँ ती लगती है। जै े कोई बेनाम- ी - तीखी चीज
उ की पीि में धीरे-धीरे घोंपी जा रही है।

आज भी ताला खोलकर र्ह भीतर आया तो बूचा मकान-मािलक दरर्ाजे े झाँकता हुआ, थोङा आगे झुक गया। उ ने दरर्ाजा िटका िदया। पलटकर आया और कमरे
के कोने में िबछे पलिंग पर पस्त- ा बैि गया। कु छ पल गुजारने के बाद जूते उतारकर उ ने पलिंग के नीचे िख काए िफर तिकए को पीछे दीर्ार े िटकाकर र्ह अधलेटा
हो गया।

यह मकान महज उ े इ िलए िमला था िक उ ने अपना नाम िकशन शमाा बताया था। हालाँिक र्ह गाँर् े जब चला था तो उ े 'भायजी' (िपताजी) ने कहा था िक
मकान हररजन मोहल्ले में लेना। दुख- ुख में 'अपने लोग' काम आते हैं लेिकन उ ने ज्यादा िकराया देकर र्णो के मुहल्ले में मकान िलया था। र्ह इ भ्रम को तोङना
नहीं चाहता था िक उपनाम बदल लेने े या र्णो के मुहल्ले में मकान लेने े, र्गा बदल जाता है।

अब िपछले कई िदनों े र्ह बहुत आ ानी े गुप्ताजी के घर जाकर उिता-बैिता है। खुद एतमादी के ाथ नाश्ते की प्लेट उिा लेता है। कभी-कभी उनके आग्रह पर
िनिंि होकर खाना भी खा लेता है। कई बार जब मकान-मािलक की बैिक में आरक्षण को लेकर बह होती है तो र्ह भी बेिहचक राजनीित को को ने लग जाता है।
बिल्क अपनी आलोचनाओिं को, स्र्र के आरोह-अर्रोह े आक्रामक बना देता है। र्ह कोई अर् र हाथ े नहीं जाने देता है िज े उ के र्णा होने का प्रमाण प्रकट
होता। ऐ े में कई बार िस्थित बहुत अजीब- ी हो जाती थी। एक बार ऐ ा अर् र आया था। गुप्ताजी के घर िदल्ली े उनके ररश्तेदार आए थे। उनके ाथ खाना-खाते
हुए िफल्मों की बात होने लगी।

- 'आपको मालूम है मेरा खा हीरो कौन है?' गुप्ताजी के लङके ने बहुत उत् ाह े पूछा िफर खुद ही जर्ाब देते हुए बोला, - 'िमथुन चक्रर्ती!'

- 'कोई नई बात नहीं है।' गुप्ताजी का बङा लङका व्यिंग्य े बोला, - 'तेरा ही नहीं, भी भिंळई लोगों को िप्रय हीरो है!'

भी हँ ने लगे छोटा भाई रूि गया। उ े अपमान मह ू हुआ। चूिंिक भिंळई चमारों े भी गई-गुजरी जाित मानी जाती है। िदक्कत की बात तो यह रही िक िकशन को भी
भी के ाथ हँ ना पङा। बेशक र्ह खुलकर ही हँ ा था, लेिकन उ े भीतर-ही-भीतर लगा था जै े हँ ी लहलुहान होकर फशा पर िगर गई है। उ हँ ी की छटपटाहट
उ ने देर तक अनुभर् की थी। अलबत्ता उ ने िस्थित की इ िर्द्रूपता पर कचोट भी अनुभर् की थी िक उ हीरो को दू रे या ती रे दजे का ि द्ध करने के िलए उ े
'अपनी जाित' े जोङ देना पङा था, उ े याद आया, उ हीरो को गाँर् में भिंळई मोहल्ले के ब के ब लोग 'िदलो जान' े चाहते हैं।

- 'आपका िप्रय हीरो कौन- ा है?' अचानक गुप्ताजी के बङे लङके ने पूछा था, जो िकराने की दुकान चलाता था। र्ह रोटी का कौर तोङते हुए रुक गया था। िमथुन
चक्रर्ती को िप्रय हीरो बताना तो बहुत मूखाता होती। र्ह िदलीप कु मार बोलते-बोलते रुक गया। उ ने ोचा, िदल्ली े आए इन भगर्ा बिनयों के ामने एक मु लमान
हीरो का नाम बोलना िीक रहेगा? उ ने पानी का िगला उिाकर पानी िपया और अकारण मुस्कराते हुए बोला था, 'िजतेंद्र!' राधेश्याम तो कु छ नही बोला लेिकन
िदल्ली े आए उनके ररश्तेदार हँ ने लगे थे। उनमें े एक गोरे रिंग की मोटी ी मिहला बोली, 'ये तो चर्न्नी क्ला की प िंद का हीरो है!' कहकर उ े क्षणभर देखा जै े
मन-ही-मन तौलकर देखा और िफर बोली, 'आपको भी प दिं आया तो ये, िजतेंद्र!'
उ के स्र्र में स्पि रूप े िहकारत थी। उ के िलए या िजतेंद्र के िलए या शायद दोनों के िलए। प्रकट में तो र्ह शालीनता े मुस्करा िदया लेिकन मन-ही-मन उबलकर
रह गया। अब अिभनेताओिं में भी र्गा -भेद दािखल हो गया? र्णा िजतेंद्र पै ा कमाकर िंपन्न हुआ लेिकन खराब िफल्मों ने उ का र्गा बदल िदया। अब आदमी कै े
उबरे? कै े आगे बचे? उ े प्रोफे र मुजमेर की बात याद आई िक अब व्यर् ाय का ज्र्ारभाटा ही र्गा तय करेगा। क्या चमुच?

उ ने मोटी मिहला को देखा जो अपने दाएँ हाथ की ोने की चूिङयों को बाएँ हाथ े पीछे रकाते हुए उ की ओर देखते हुए मुस्करा रही थी। कु चकर रह गया था र्ह।
स् ाली मुटल्ली! आई बङी क्ला की बात करने र्ाली। कम्मर पकङकर िहलाता या इ का घाघरा खँखोरता तो चर्न्नी तो छोङो दुअन्नी क्ला के नीचे टपक पङे। और
भी िजतेंद्र क्ला के ही िगरते। पूरा एक खीङा भर जाता। लेिकन बोला कु छ नहीं। चुपचाप खाना खाता रहा था। अलबत्ता रोटी के कौर को जबङे के नीचे कु छ ज्यादा ही
ताकत े दबा िदया। एक तल्खी थी जो दाँतों में उतर आई थी। उ शाम र्ह खाना खाकर गुप्ताजी के घर े बाहर आया तो उ े लगा था िक उल्टी हो जाएगी लेिकन र्ह
र्ाप िनगल गया। ऐ े मय उ े भाबी और भायजी की याद आती है। र्ह अपनी माँ को भाबी और िपताजी को भायजी कहता है। र्ह खुद ही क्यों? उ के मुहल्ले में हर
कोई अपने माँ-बाप को भाबी और भायजी कहता है। उ ने िर्ता े यह बात एकाध बार कही भी थी िक र्ह जब े हुस्यार हुआ है इ बात के िलए ललाता ही रहा िक
र्ह भी भाबी-भायजी को मम्मी-पापा कह के ।

िर्ता ने उ े चेताया था िक अब तो भूल े भी मत कहना, पूरा मोहल्ला बिल्क पूरा गाँर् तुम्हारे माँ-बाप को मम्मी-पापा कहकर िचचाएगा। एक बार िचङार्नी पङी तो
तुम्हारे माँ-बाप िजिंदगी भर तुम्हें को ेंगे। िंबोधन के िलए पूरा माहौल चािहए। र्ह बोला तो कु छ नहीं था लेिकन उ े लगा िक शायद िर्ता की बात में कहीं कु छ छु पा
हुआ और क्षीण- ा व्यिंग्य है। हालाँिक र्ह इ व्यिंग्य को ताङ नहीं पाया था। लेिकन उ े लगा िक िर्ता शायद यह मझ रही है िक बिं ोधन के चुनार् के बहाने चालाकी
के ाथ उ े र्ह छीना जा रहा है, जो उ के लगे हाथ था, िज े ि फा थोङी- ी एिङयाँ ऊँची करके छु आ जा कता था। लेिकन िर्ता की िहदायत के बाद लगा, जै े
मम्मी-पापा शब्द नहीं, शाख पर लगे फल हैं िजन्हें अब उचककर छु आ भर जा कता है, अपने िलए तोङकर रखे नहीं जा कते हैं। र्ह उ मय तो चुप हो गया लेिकन
मझ गया िक यह इ की जात बोल रही है। िफर भी उ ने भाबी-भायजी को दुखी करना िीक नहीं मझा। उ े याद है।

अपना उपनाम उ ने शहर की िजला कोटा में अजी देकर बदलर्ाया था। यह बी.ए. करने े पहले की बात है। भायजी बहुत गुस् ा हुए थे। कहा था - 'अङनाम बदली िलयो
तो काई जात बी बदली गई?' उ के बाद भायजी गुस् े में बहुत देर तक िचल्लाते रहे थे। भायजी के गुस् े में अस्फु ट िनणा य के ाथ दुख का ार यही िनकला था िक
क्या अङनाम बदल लेने े जात बदल जाएगी? मुझे तो िजिंदगी भर चर ा का काम करना है। मरे हुए ढोरों की खाल ही खींचना है। और िफर क्या खराबी है अपनी जात
में? मैं तो अङनाम नहीं बदलूँगा। िफर इ तरह तो तू हमको भी बदल देगा? कोरट देगी तेरे को बामण, रजपूत माँ-बाप? उ के भायजी देर तक िचल्लाते रहे थे। िफर
आए िदन घर में िकच-िकच होने लगी। इ दातािकछची े बचने के िलए तब र्ह एम.ए. करने भोपाल चला गया था। बी.ए. र्ह अपने नजदीक के शहर के कॉलेज े कर
चुका था। भोपाल में र्ह होस्टल में िनःशुल्क रहता था बाकी खचा के िलए उ ने कु छ ट् यूशन की और कु छ भायजी ने कजाा लेकर पै ा भेजा।

कॉलेज में ही उ की मुलाकात िर्ता े हुई। र्ह भी अपने िडप्टी-कलेक्टर भाई के घर रहकर एम.ए. कर रही थी। उ ी की क्ला में थी। िडप्टी-कलेक्टर भाई के बारे में
उ े गाँर् में ही मालूम पङ गया था। इ तरह र्ह िर्ता के बारे में भी जान गया था िक र्ह उ ी के गाँर् की है। र्ह पचाई में तेज था। उ के नोट् पूरी क्ला में ईष्याा के
कारण थे। प्रोफे र अक र उ की तारीफ करते थे। इ ी े प्रभािर्त होकर िर्ता उ े िमल िलया करती थी। अक र नोट् माँगकर ले जाती थी। कभी कें टीन में
मुलाकात हो जाती थी लेिकन ये मुलाकातें मामूली ही रहीं। एक बार कॉलेज के र्ािर्षा कोत् र् में जब र्ह दिलत पक्ष को लेकर बोला तो उ े प्रथम पुरस्कार िमला। कें टीन में
िर्ता ने उ े बधाई दी और अचरज प्रकट िकया िक र्ह बार्जूद अपर कास्ट होने के , लोअर कास्ट के लोगों के प्रित इतना ि िंपैिथक एटीट् यूड रखता है। िफर भी दोनों
के बीच ि फा एक रस्मी िकस्म की बौिद्धक घिनष्ठता ही रही। र्ह तो यूँ हुआ िक अगले बर अिंतर-िर्श्विर्द्यालयीन र्ाद-िर्र्ाद प्रितयोिगता में िहस् ा लेने दोनों रीर्ा गए।
तब उ ने मिंच पर िर्ता को दिलतों के पक्ष में उनकी ामािजक िस्थित पर बोलते हुए ुना। िर्ता उ के बोलने के बाद मिंच पर गई थी। तब उ े लगा िक उ के खुद
के पा तो महज एक आक्रामक भार्षा है जो तका के घेरे में कमजोर पङती है लेिकन िर्ता के बोलने े, उ की मझ और अध्ययन े र्ह आतिंिकत हो गया। उ ी शाम
र्े दोनों एक होटल में खाना खाने गए। िर्ता के ाथ अथाशास्त्र की जो प्रोफे र रीर्ा गई थी र्ह होटल में ाथ नहीं जा पाई थी या िर्ता प्रोफे र े अनुमित लेकर
ाथ अके ले गई थी, उ ने यह ब नहीं पूछा था। उ ने बधाई दी। र्ह मुस्करा दी थी। िफर बोली थी, 'आपका स्पीच भी अछछा था लेिकन आप राजनीितज्ञों की तरह
बोलते हैं।'

उ ने थोङे अचरज े उ े देखते हुए पूछा, 'मैं मझा नहीं!'


- 'दरअ ल आपकी स्पीच में राजनीितज्ञों की जुबान िमली हुई है। इ िलए आपके बोलने में बॉडी-लैंग्र्ेज, जोश, आक्रामकता और उ तरह की नाटकीयता तो खूब
रहती है िज पर ताली पङे लेिकन कोई िनष्कर्षा िनकल के ऐ े बात नजर नहीं आती है।' कहते हुए र्ह रुककर उ े देखने लगी। िफर उ के चेहरे पर गुस् े की जगह
उत् ुकता िटकी हुई देखकर बोली, 'हम एक पूरी ोशलॉजी को मझे बगैर जो गुस् ा करेंगे र्ो एकतरफा होगा।'

- 'लेिकन आज जब पािटा याँ...!' उ ने कु छ कहना चाहा लेिकन उ की बात काटकर र्ह तत्काल बोली, 'आप राजनीित की बात न करें, इट् जस्ट रिबश! अिधकािंश
राजनीितज्ञ लुछचे हैं, लफिं गे हैं और अपच हैं। अिधकािंश पािटा याँ बेईमान है। ये लोग इितहा के प्रेत इ िलए जगाते रहते हैं िक ये डाउनरोडन माजशास्त्रीय िर्र्ेचन या
अथाशास्त्र की ओर न जाएँ।' कहते-कहते र्ह चुप हो गई।

र्ेटर टेबल पर खाना लगाने लगा।

- 'तुम्हें बहुत हानुभूित है इन े।' र्ह प्रशिं ा-भार् े उ की ओर देखते हुए बोला, 'नहीं, हानुभूित नहीं। मैं च को च की तरह देखना चाहती ह।ँ हानुभूित में
उपकार भार् शािमल रहता है। दरअ ल दिलतों को इ ी े मुि होना चािहए। यू नो आएम एलिजाक टू िद एटीट् यूड। मुझे गाँधीजी िारा हररजनोद्धार जै े शब्द े भी
िचच है - उद्धार? क्यों? क्या पापी हैं, पुण्यर्ान आएँ और िजनका उद्धार करें?' कहकर उ ने जब उ की ओर देखा तो उ को िर्ता के चेहरे पर गर्ा की एक अकङती
छाया नजर आई। िर्ता के चेहरे पर कु छ ऐ ा भार् था जै े ऐ ा ' च' तो दिलत स्र्यिं नहीं जानते। उ के पा च को जान चुके व्यिि की- ी तुिि और त ल्ली थी।
तभी खाना लग गया। र्ह चुप हो गई। दोनों खाना खाने लगे। र्ह ोचने लगा आज नहीं तो कल इ े मालूम हो जाएगा िक र्ह उ के गाँर् का रहने र्ाला है और कौन है?

बह लगभग खत्म हो चुकी थी। बह ही नहीं जै े ारे प्रश्न ही खत्म हो गए हों। दोनों के दरिमयान जै े एक रुका हुआ और बहुप्रतीिक्षत फै ला आ जाने के बाद की
खामोशी थी। उ ने ोचा, कै ा फै ला? दरअ ल फै ला तो उ के भीतर हो गया था, िक िर्ता े ज्यादा देर और दूर तक अपनी जात िछपाई नहीं जा के गी।

- 'आप कु छ कहना चाह रहे थे?' िर्ता ने बे ाख्ता पूछा। जै े उ ने उ की िंर्ादोत् ुक मुद्रा को पहले पहचान िलया हो।

- 'कहना यही चाहता था, िर्ता, जब तुम माज के र्गा भेद को लेकर इतनी 'इनडेप्थ' ोचती हो, तो िफर तुमने अपने नाम के पीछे यह शास्त्री रनेम कै ा लगा रखा
है?'

- 'िीक र्ै े ही लगा रखा है जै े तुमने शमाा लगा रखा है!' िर्ता ने कहा और जोर े हँ ी - इ उम्मीद मे भी िक उ के इ कथन के ाथ उ की भी हँ ी फू ट पङेगी।
लेिकन उ का चेहरा ऐ ा हो आया, जै े अचानक िक ी अदृश्य शिि ने उ के भीतर की ारी हँ ी एकाएक छीन ली हो! उ के चेहरे पर हर्ाइयाँ उङ रही थीं। िर्ता
ने उ की इ अनपेिक्षत मुद्रा को देखकर जै े पूछना चाहा िक उ े एकाएक यह क्या हो गया?

उ े लगा, र्ह बहुप्रतीिक्षत घङी आ गई है - जब उ े फलाँग लगानी है। एक दीर्ार के पार। िफर र्ह िगरकर इ पार रह जाए या उ पार चला जाए। उ ने एक लिंबी
ाँ ली, िफर िर्ता की आँखों में ीधी आँखे डालकर देखते हुए बोला, ' िर्ता' उ ने जब िर्ता िंबोधन िकया तो लगा, जै े फे फङे में भरी ारी ाँ ही इ एक
िंबोधन में डाल दी हो। िफर आगे बोलने के िलए दू री ाँ लेते हुए कहा, - 'मैंने अपने नाम के पीछे शमाा ऐ े ही नहीं लगाया बिल्क कोटा में एिफडेिर्ट देकर लगाया है।'

- 'क्या मतलब?' िर्ता की आँखों में अचरज था।


- 'ऐ ा इ िलए, िर्ता िक भिंळई मोहल्ले में पैदा होने े जो रनेम मुझ े िचपक गया था, मैं उ े तिंग आ चुका था। उ ने मेरा जीना मुहाल कर िदया था, इ िलए मैंने
उ े अपने े नोचकर कोटा के पा बहते नाले में फें क िदया। मैं तुम्हारे गाँर् के मिंगत भिंळई का लङका िक न्या ह।ँ ' कहते-कहते उ के स्र्र की तल्खी धीरे-धीरे मुलायम
होकर दुख के पा िहर गई। इ बीच छोटे-छोटे पलों में एक घमा ान गुजर गया। आकाश को छू ता एक बर्िंडर िनकल गया और र्े दोनों उ के गुजर चुकने के बाद के
न्नाटे में बैिे हैं - धूल और िमट्टी े ने।

- ' ुनो िकशन! ' िंभर्तः र्ह पहली बार उ का नाम लेकर बोली, - 'तुम अपने पुराने रनेम के ाथ या यूँ कहें, अपनी ऑररिजनल आइडेंिटटी के ाथ प्रितष्ठा हाि ल
करो। बार-बार र्हीं जाकर पहचान क्यों तलाश करते हो, जो इन ारी िस्थितयों के िलए िजम्मेदार हैं।' कहकर र्ह कु छ पल रुकी और उ की ओर देखने लगी थी। िफर
िर्ता ने अपना हाथ बचाकर उ के हाथ पर हाथ रख िदया और बहुत कोमल स्र्र में बोली, - 'यह छल है। मेरे ाथ नहीं। खुद अपने ाथ भी। कम- े-कम तुम्हें तो ऐ ी
इछछाओिं और महत्र्ाकािंक्षाओिं का िशकार नहीं बनना चािहए।'

र्ह कु छ नहीं बोला था। खाना र्ह माप्त कर चुका था। और पेपर-नैपिकन े हाथ पोंछ रहा था। र्ह पहले ही खाना खत्म करके , कु ी े टेक लगाए उ े देख रही थी।

कु छ देर तक र्ह ोचती रही और िफर इतना बोली, - 'खैर! छोङो।' इ के बाद उ ने प ा े कु छ नोट िनकाले और लापरर्ाही े उ प्लेट में डाल िदए िज े िबल के
ाथ र्ेटर अभी कु छ देर पहले रख गया था।

र्ह कु ी खींचकर उि गई। दोनों चुपचाप होटल े बाहर आ गए।

इ के बाद पूरे रास्ते र्ह चुप रही। र्ह भी कु छ बोल नहीं पाया।

इ के बाद र्ह कई िदनों तक उ े नहीं िमली। आिखर उ ी ने िहम्मत करके िर्ता को अिंग्रेजी में एक पत्र िलखा। उ ी पत्र में उ ने िंकोच के ाथ प्रेम िनर्ेदन की
पिंिियाँ िलखीं तो तत्काल उ े थोङा भय लगा। अपने भय को ािंत्र्ना देने के िलए उ ने पत्र में यह भी जोङ िदया िक कोई भूल या गलती हुई हो तो क्षमा चाहता ह।ँ

बहुत िदनों तक र्ह पत्र के जर्ाब का इिंतजार करता रहा। कोई जर्ाब नहीं आया। क्ला में भी कोई बात नहीं हो पाई। खुद उ की िहम्मत नहीं हुई बात करने की।
आिखर एक िदन र्ह कें टीन में आई और उ े एक िलफाफा थमाकर चली गई। उ ने जल्दी े िलफाफा खोला। िलखा था, 'पत्र पचकर अछछा लगा। लेिकन यह बात खुद
भी कह कते थे और गलती तो कोई पत्र में है नहीं। ग्रामर की कु छे क गलितयाँ हैं। अगली बार िीक कर लेना।' अपने स्र्भार् के चलते पहले तो उ े यह बात थोङी बुरी
लगी िक पत्र में ग्रामर की गलितयों का उल्लेख िकया गया। लेिकन अगली मुलाकात के बाद यह दुख जाता रहा।

इ के बाद मुलाकातें बचती गई िं। एम.ए. करके र्ह घर र्ाप आ गया था। िर्ता भी गाँर् र्ाप आ गई थी। िफर गाँर् में भी मुलाकातें होने लगीं। के शर् को तो उ ने
पहले ही बता िदया था। के शर् की याद आते ही जै े र्ह अतीत े बाहर आ गया।

के शर् ने तार क्यों नहीं भेजा?

गाँर् में के शर् उ का ब े करीबी दोस्त है। गाँर् में र्ही दोस्त बचा है। शेर्ष तो इधर-उधर नौकरी की तलाश में िनकल गए हैं। के शर् नाम गाँर् के स्कू ल के गुरुजी ने रखा
था। लेिकन र्ह नाम घर और मुहल्ले में कोई नहीं बोल पाया इ िलए जै ा आम होता है, नाम को जुबान पर आ ानी े चचाने के िलऐ के शर् े के ू और के स्या कर
िदया। लेिकन र्ह हमेशा उ े के शर् नाम े पुकारता है।
उ का िबगङा नाम उ ने कम ही पुकारा। इ तरह उ ने यह जता िदया िक उ े भी िकशन कहकर बुलाया जाए। िक न्या या िक नू उ े प दिं नहीं है। अब बहुत कम
लोग उ े के शर् के नाम े पुकारते हैं। के शर् की याद आते ही उ े िफर याद आया िक के शर् ने उ े खबर क्यों नहीं दी?

र्ह उिा और कमीज उतारकर कु ी पर डाल दी। एक डार्ाँडोल मेज पर रखे गै -चूल्हे पर उ ने चाय बनाई और प्याला लेकर बिंद िखङकी के ामने बै ि गया। िखङकी
उ ने जान-बूझकर नहीं खोली। िखङकी खुलते ही उ े गली े गुजरते हुए िक ी-न-िक ी व्यिि े िनरथाक बातचीत में शािमल होना पङेगा।

उ ने चाय का घूँट गले े नीचे उतारा तो जै े घूँट का हारा लेकर र्ह उदा ी के इ ििं डेपन े बच िनकला। इ का मतलब है िक डोकरी अभी िजिंदा है! गाँर् े चलते
हुए उ ने के शर् े कह िदया था िक िर्ता की दादी के मरने की खबर उ े तुरतिं करना। फोन करके । तार भेजकर। दोनों माध्यम े। िर्ता की बीमार दादी को देखने
और िमलने के िलए र्ह उ के घर चाहकर भी नहीं जा पाया था। एक बूची बीमार औरत े िमलने या हालचाल जानने के िलए गाँर् की औरतें जाती हैं। बूचे मदा जाते हैं।
उ की उम्र के युर्कों की र्हाँ एक बार की उपिस्थित भी थोङा खलने र्ाली बात थी, खा कर उ की जाित के लोग तो नहीं जाते हैं।

िर्ता के छोटे भाई े उ की मामूली- ी जान-पहचान है। जो िक ी गली के कोने पर िमलने पर, कब आए? कब तक हो? े आगे नहीं जाती थी। इ ितनके के बराबर
दोस्ती के हारे उ घर कै े जाया जा कता है?

र्ह प्याले को मेज पर रखकर, मेज का कोना खुरचने लगा। िफर उ े लगा िक यह आदत उ े िर्ता े िमली है। र्ह भी बात करते हुए इ ी तरह गोबर लीपी हुई दीर्ार
को लकङी के टु कङे े खुरचती रहती है। उ के जाने के बाद के शर् की माँ देर तक बङबङाती रहती िक इतनी मेहनत े उ ने दीर्ार लीपकर तै यार की थी और यह
छोरी खुरचकर चली गई।

के शर् के िपता गाँर् के इकलौते दजी हैं। इ ी बिलराम दजी के पा गाँर् की औरतों के पोलके , ििंड के िदनों की पूरी आस्तीन की बिंडी, मदों के कमीज और जेब र्ाली
बिनयान े लेकर बछचों के कु रते-पाजामें तक ि लते हैं। बिल काका के यहाँ िर्ता अपनी दादी और माँ के पोलके और बिंडी ि लर्ाने या उधङी ि लाई िीक कराने
आती रहती है। र्ही घर उनके िमलने और बात करने का ििया है। आगे के कमरे में काका ि लाई करते हैं। िपछले कमरे के बाद खपरैल की ढलर्ाँ छत एक ओर दीर्ार पर
िटकी है तथा खुले िहस् े की तरफ कोई दीर्ार नहीं है। ि फा लकङी के खिंभों पर िटकी है। यानी दीर्ार न होने े उ तरफ खुला िहस् ा है और बर ात के िदनों में पानी
की आछट भीतर उ ढलर्ाँ छत के नीचे तक आती है। र्हीं कोने में उनका चूल्हा जलता है उ के बाद खुली जगह है िज े िमट्टी की दीर्ार े घेरकर ुरिक्षत कर िदया
हे। एक बङे आँगन जै ा, इ ी घर े टा हुआ, इ ी ढिंग े बना हुआ बाजू में उ का मकान था। दोनों मकानों के िपछले खुले िहस् े में, बीच में िमट्टी की एक कॉमन
दीर्ार है। उ ी दीर्ार में एक आल्या यानी ताक था, िज की िमट्टी िर्ता ने खुरच दी थी। और आल्या तोङकर दीर्ार में आर-पार बङा ुराख कर िदया था। यह कहते
हुए िक बात करते हुए कम े कम चेहरा तो िदखता रहे। र्ह आगे के कमरे में काका को कपङे थमा देती और काकी े बात करने के बहाने पीछे आ जाती। काकी े बातें
करते हुए र्ह बीच-बीच में उ े भी बात कर लेती। र्ह दीर्ार के दू री तरफ खङा रहता। और िफर कु छ देर बाद काकी ि फा चूल्हा फूँ कते रह जाती और बहुत
स्र्ाभािर्क ढिंग े बातचीत उ के और िर्ता के बीच होने लगती और काकी को पता भी नहीं लगता िक स्र्ाभािर्कता बहुत श्रम े पै दा हुई है। और र्ह अनजाने में
नहीं बिल्क यत्नपूर्ाक र्ाताालाप े बाहर कर दी गई है।

एक दीर्ार के दोनों तरफ खङे होकर दोनों बातें करते। कु छ िदनों बाद यह िस्थित अ ुिर्धाजनक हो गई। बार्जूद आल्या तोङ देने े। यह मुिश्कल आ ान हुई बर ात में
जब दीर्ार का कु छ िहस् ा िगर पङा। दीर्ार िफर े बनाने के िलए पीली पाँढर िमट्टी की जरूरत थी। काकी ने कई बार कोिशश की िक गाँर् के बाहर आम-बैङी े िमट्टी ले
आए लेिकन के शर् ने हर बार यह कहकर रोक िदया िक मैं ले आऊँगा। लेिकन र्ह खुद कभी लाया नहीं, माँ को लाने िदया नहीं। ब इ नाटी दीर्ार पर िर्ता
कु हिनयाँ िटकाए बात करती है या िफर कभी-कभी मौज में आकर उछलकर दीर्ार पर बैि भी जाती है। हालाँिक इ दीर्ार के टू टने के बाद उ का घर निंगा हो गया था।
इ ुिर्धा के बार्जूद िक दोनों अब बहुत करीब खङे होकर, एक-दू रे को देखते हुए बातें कर कते हैं, उ े यह िंकोच और शमा बनी रहती थी िक र्ह उ के घर की
अ िलयत देख रही है। िपछर्ाङे बाँ पर फटी हुई गोदिङयाँ टँगी रहतीं, कभी-कभी गोदिङयों को धोकर बाँ पर डाल िदया जाता िजनमें े पानी टपकता रहता और
तेज दुगंध खुले िपछर्ाङे में फैलती रहती। उ को लगता जै े उ का बाप मरे हुए जानर्रों की खाल खींचकर लाया है र्ह चमार कुिं ड में डालने के बजाए घर लाकर बाँ
पर लटका दी है िज में े पानी टपक रहा है और दुगंध चारों तरफ न फैलकर खा उ दीर्ार की तरफ फैलती है जहाँ र्ह खङा होकर िर्ता े बातें करता है। मरे हुए
जानर्र की खाल- ी उन गीली गोदिङयों की दुगंध चमुच इतनी तेज रहती िक िज े दबाने में िर्ता पर िछङका हुआ र्ह आयाितत परफ्यूम भी नाकाम रहता जो
िनिित ही उ का िडप्टी-कलेक्टर भाई भेजता है। उ को तो िंदेह है िक र्ह परफ्यूम का इस्तेमाल इ ी दगु ंध के कारण करती है। उ े िमलने यहाँ आती तब िर्शेर्ष
रूप े परफ्यूम स्प्रे करके आती है। र्नाा और मौकों पर परफ्यूम इस्तेमाल क्यों नहीं करती है? यह बात अलादी है िक उ ने खुद े यह कभी नहीं पूछा िक इ गाँर् में
और िक अर् र पर र्ह िर्ता के ाथ था?

र्ह मरे हुए जानर्रों की खाल खींचने की छु री भी िर्ता के आने पर भीतर कमरे में रख आता, लेिकन इ िंपूणा दृश्य के स्क्रीन पर कोई एक ुराख हो तो र्ह थेगला
लगा दे। यहाँ तो अनिगनत ुराख हैं।

छोटे भाई-बहन जो िपछर्ाङे का दरर्ाजा खोलकर दू री ओर के खिलहानों की तरफ टट्टी बैिने नहीं जा पाते हैं, र्े िपछर्ाङे के इ ी िहस् े में टट्टी बैि लेते हैं। िज े भाबी
घर का ारा काम िनबटाने के बाद टीन के पुराने िडब्बे े बने खापरे े िनकालकर फें क आती है। ऐ ी िस्थितयाँ रोज बनती हैं। कभी रात को बछचा अँधेरे में डर के
कारण बाहर खिलहानों की तरफ नहीं जाता। कभी ब े छोटा भाई जोर े टट्टी लगने पर जल्दी में र्हीं बै ि जाता है। काम में व्यस्त भाबी इतना भर करती िक गूँ के इन
ढेरों पर, िज े झल्लाहट में र्ह 'कु यङा' कहती है, राख डाल देती है। हालाँिक राख डाल देने े टट्टी ाफ िदखाई नहीं देती लेिकन राख डालने की इ लोकिप्रय िर्िध
को गाँर् में हर कोई जानता है। राख के ऐ े कु यङे को देखकर कोई भी बेिहचक कह कता है िक इ के नीचे गू का ढेर है।

िर्ता के आने की िंभार्ना पर र्ह उन कु यङों पर घर में रखी बाँ की टोपिलयाँ औ िंधी रख देता। कई बार कु यङों की िंख्या ज्यादा होती तो र्ह भाबी की आँख
बचाकर खापरे े गूँ के कु यङे ाफ करके पीछे फें क आता। भाबी देख लेती तो िनिय ही उ े अचरज होता िक उ े यह ब करने की क्या जरूरत है? िक बात की
िचिंता है और िक बात की लाज? और िक े? िफर क्या बताता र्ह?

दीर्ार े िटककर र्ह िर्ता े बात करता तब भी उ े हमेशा इ बात का अिंदेशा रहता िक िर्ता दीर्ार के पार ये औ िंधी पङी टोपिलयों को न देखे, जो िक
नामुमिकन था। लेिकन ऐ ा अर् र एक बार भी नहीं आया िक उ ने इ औ िंधी पङी टोपिलयों के बारे में कु छ पूछा हो। र्ह बात करते हुए जरूर इ िचिंता में रहता िक
िर्ता ब अब अचरज प्रकट करके पूछने ही र्ाली है। उ का आधा ध्यान िर्ता पर रहता तो आधा ध्यान टोपिलयों के नीचे गू के कु यङों पर। इ ी भटकार् में र्ह कई
बार िर्ता की ड्रे या बुिंदे या चूिङयों की तारीफ करना भूल जाता। जब र्ह खुद कहकर इ तरफ ध्यान आकिर्षात करती तो र्ह शिमंदा हो जाता और जरूरत े
ज्यादा तारीफ पर उतार्ला हो जाता। शुरू में तो र्ह िर्ता के आने े पहले ही िपछर्ाङे में पङी ऐ ी तमाम आपित्तजनक और शमा देने र्ाली चीजें और ामान हटा
देता था लेिकन ऐ ा र्ह बार-बार नहीं कर पाया। उ ने िफर भाबी के लुगङे का पदाा बनाकर दीर्ार के पा टाँग िदया िज े हटाकर र्ह तो दीर्ार के पा आ जाता
लेिकन िर्ता पदे के पार नहीं देख पाती है अलबत्ता के शर् को यह नागर्ार गुजरा था। उ ने कहा भी िक अके ले इ दीर्ार के िगरने े काम नहीं चलेगा। एक दीर्ार जो
तेरे भीतर है, िज े इ लुगङे के पदे े ढाँक रहा है, िगरना चािहए। बात च थी इ िलए आ ानी े अमल में नहीं लाई जा कती थी। र्ह टाल गया। अब होता यह िक
दीर्ार के दू री तरफ िर्ता, इ तरफ र्ह खुद और उ के पीछे परदा। लेिकन िमलने का यह अर् र कभी-कभार ही आता था। अब कोई रोज-रोज तो िर्ता की माँ
या दादी पोलके या बिंडी ि लर्ाती नहीं थी। पोलके या बिंडी की ि लाई उधङती भी कम ही थी, जो उधङती उ में भी िर्ता का कौशल शािमल रहता था।

इ ी बीच उ की नौकरी लग गई। नौकरी यानी कृ िर्ष िर्भाग में मामूली ी क्लकी। घर में तो ऐ ी खुशी माई िक उ े भाबी-भायजी की इ खुशी की रक्षा के िलए ही
नौकरी पर जाना जरूरी लगा। िफर नौकरी के िलए कोई ज्यादा दूर भी नहीं जाना था। गाँर् े मुिश्कल े चार घिंटे की यात्रा थी। िर्ता की स्मृितयाँ, थोङा- ा ामान
और कपङे-लत्ते एक पुराने बै ग में भरकर र्ह शहर आ गया। शहर आने े पहले र्ह िर्ता को िमला था। र्ह दीर्ार के दू री तरफ खङी चुपचाप अपने हेयर-िक्लप े
गोबर लीपी दीर्ार को खुरच रही थी। र्ह उदा थी। उ ने उ े मझाया िक र्ह कोई ज्यादा दरू नहीं जा रहा है। अक र गाँर् आता रहेगा। िर्ता ने चुपचाप गरदन
िहलाई। िफर र्ह धीरे-धीरे बोलने लगी। तब उ े मालूम हुआ िक िर्ता की उदा ी की र्जह ि फा उ का शहर जाना ही नहीं है। र्ह इ िलए भी उदा है िक उ की
दादी बीमार है और उ े बीमार दादी को छोङकर भाई के पा भोपाल जाना है। पी.ए . ी. की तै यारी के िलए कोिचिंग-क्ला में एडिमशन ले िलया है। उ की जाने की
इछछा िबल्कु ल नहीं थी लेिकन पररर्ार का और खा कर िडप्टी-कलेक्टर भाई का दबार् था। उ े जाना पङेगा। र्ह जाने की बात पर िफर उदा हो गई। उ े अचरज
हुआ! अस् ी बर की बीमार स्त्री े इतनी मोह-माया िक रोने की हद तक उदा है। उ के शहर जाने की या उ के दूर जाने के दुख को भी इ दुख ने पीछे धके ल िदया।
उ का अचरज भी स्र्ाभािर्क था। गाँर् में इ उम्र के बीमार का लोग इलाज नहीं कराते हैं, उ के हाथों दान-पुण्य शुरू करा देते हैं। गाँर् में इ उम्र के बीमार व्यिि का
उपचार पै ों का अपव्यय माना जाता है। ऐ े बीमार के िलए कोई दुखी नहीं होता है। गरीब हुआ तो िचिंितत हो जाएगा। िक तेरहर्ीं की पिंगत के िलए पै ों का इिंतजाम
करना है और िंपन्न हुआ तो खुश हो जाता है िक पूरे गाँर् को िजमाकर धाक जमाने का अर् र आया। िफर भी उ ने अपना अचरज प्रकट नहीं िकया। िर्ता ही बताने
लगी िक उ े ब े ज्यादा लाङ-प्यार दादी े ही िमला है। यूँ मझो िक माँ ने नहीं, दादी ने पाल-पो कर बङा िकया है। िफर र्ह दादी की बारे में बोलती रही, बताती
रही। र्ह कु चता रहा। कल उ े शहर जाना है और यह दादी-पुराण लेकर बैिी है। उ े दादी े ईष्याा होने लगी। ऐ े नाजुक मय में यह बीमार बुिचया उनके बीच आ गई
थी। उ की िखन्नता े बेखबर र्ह िफर दीर्ार खुरचने लगी थी।
शहर लौटते मय उ ने ब -स्टैंड पर के शर् े कहा था िक िर्ता की दादी के मरने की खबर उ े तुरतिं करना। दादी के मरते ही र्ह भोपाल े हर-हालत में र्ाप
आएगी। र्ह इ बार बात का कोई िनकाल लगाना चाहता है। िर्ता र्ाप भोपाल चली गई तो मुिश्कल हो जाएगी और दीर्ार िफर ऊँची मत बनाना। र्ह गाँर् े इतनी
दूर नहीं जा रहा है िक दीर्ार िफर े ऊँची कर देने का कारण मझ में आने लगे। ऐ ा कहकर र्ो हँ ने लगा था। र्ह जानता था िक उ के िर्ता े िमलने-जुलने को
लेकर के शर् कोई खा खुश नहीं है। हालाँिक के शर् ने कभी अपना एतराज जािहर भी नहीं िकया लेिकन र्ह उ की चुप्पी में छु पा एतराज मझता है। र्ह कभी भी इ
चचाा को गिंभीरता की ओर नहीं जाने देता है। उ े मालूम है िक गिंभीरता के रास्ते में के शर् को अपने एतराज जािहर करने के ज्यादा अर् र हैं। र्ह ऐ ा मौका नहीं आने
देता था इ िलए आज भी र्ह इतना कहकर हँ ने लगा। उ े लगता है उ की हँ ी चचाा के गिंभीर रास्ते बिंद कर देती है। जब र्ह ब पर चचा और ब चलने लगी तो
के शर् ने उ का हाथ पकङकर ि फा इतना कहा, 'यह तुम्हारी खुशफहमी है िक हँ ी हमेशा तुम्हारी मददगार होगी। मेरे ाथ बात करते हुए जो हँ ी तुम्हारी मदद करती
है, देखना, िज रास्ते पर तुम जा रहे हो, र्हाँ दख
ु के दरर्ाजे यही हँ ी खोलेगी।'

तभी ब चल पङी थी। उ ने जािहर िकया जै े आिखरी बात र्ह ुन नहीं पाया। के शर् हँ पङा था।

इन तमाम बातों के बार्जूद उ को लगता है िक के शर् उ े खबर जरूर करेगा। के शर् उ े अ हमत है, नाराज नहीं। के शर् की अ हमित में भय शािमल है। इ भय
को र्ह भी मझता है लेिकन याद नहीं रखना चाहता है। भय की गिरी बनाकर ि र पर नहीं रखना चाहता है।

उ ने उिकर दरर्ाजे को हल्का- ा खोल िदया जै े तार या टेलीफोन न आए तो खबर खुद ही हर्ा पर र्ार होकर दरर्ाजे की ँकरी दरार े भीतर आ जाएगी। उ े
मालूम था िक फोन तो के शर् गाँर् के बिनये की दुकान े कर देगा लेिकन टेलीग्राम के िलए उ े पा के कस्बे में तार-घर तक जाना पङेगा।

पा का कस्बा मानपुर कौन दूर है? चला जाएगा। पैरों में कोई मेहदँ ी नहीं लगी है िक िमट जाएगी। उ ने हल्के े रोर्ष को जगह देकर के शर् के उपकार की जगी तिंग की।
उ े मझ में नहीं आ रहा है िक र्ह िक पर गुस् ा करे? के शर् पर गुस् े की कोई र्जह नहीं है। के शर् तो तभी खबर करेगा जब दादी मरेगी। अब उ े दादी पर गुस् ा
आने लगा। िफर लगा, दादी मृत्यु के आगे िर्र्श है। मृत्यु पर गुस् ा करने पर उ े डर लगने लगा। उ े लगा मृत्यु ब्राह्मणों की तरफदारी करती है। अकारण दादी का मय
बचा रही है। उ े लगा, जरूर िर्ता अपनी दादी के िलए प्राथाना कर रही होगी। बाकी घर के लोग तो दान-पुण्य कर रहे होंगे, प्राथाना नहीं। दान-पुण्य े मुत्यु आने का
रास्ता ुगम होता है। उम्र नहीं बचती है। यह जरूर िर्ता की प्राथाना का अ र ही है। प्रेम करने र्ालों की प्राथाना में अ र होता है। इतना िनश्छल मन और िक का हो
कता है? ऐ े ही लोग प्राथाना को बहुत ऊपर या दूर तक भेजने की ताकत और हजता रखते हैं।

र्ह ोचकर आश्वस्त हुआ और िफर पलिंग पर जाकर लेट गया। खाना र्ह रात को बनाएगा। इतने िदनों में उ ने घर पर खाना बनाने की व्यर्स्था कर ली थी। जबिक र्ह
गाँर् े आया था तो ोचा था िक यह नौकरी कोई ज्यादा मय तक नहीं करूँगा। शहर आने में यह बात भी ुिर्धाजनक लग रही थी िक र्ह पी.ए . ी. की तैयारी कर
लेगा। िक ी कोिचिंग-क्ला में प्रर्ेश ले लेगा। इ बर तो र्ह फामा नहीं भर रहा है। लेिकन इ बर तैयारी करके अगली बार एग्जाम जरूर देगा। उ ने तय िकया िक
यिद र्ह पी.ए . ी. कर लेता है तो कहीं भी िडप्टी-कलेक्टर हो जाएगा। िर्ता के बङे भाई की तरह। के शर् तो कई बार उ े मजाक में कह चुका है िक तेरी और
िर्ता के भाई की हेला-आटी ि फा इ िलए है िक र्ह िडप्टी-कलेक्टर है। र्ह उ की बात काट देता िक दुश्मनी जै ी कोई बात नहीं है। र्ह तो ोचता है िक भिंळई
मोहल्ले े बामण- ेरी तक, यही एक नौकरी उ का हाथ पकङकर, बगैर िक ी अर्रोध के ले जा कती है। हालाँिक मन के िक ी कोने में यह बात थी िक एक भोला
भ्रम र्ह अर े े पो रहा है। िर्ता के भाई की िडप्टी-कलेक्टरी उ े हमेशा आर लगाती है। हमेशा चुनौती देती है। लेिकन इधर जब उ ने खाने की व्यर्स्था घर पर
की तो उ े लगा इ े थोङा पै ा जरूर बचेगा लेिकन मय ज्यादा खचा होगा। लेिकन क्या िकया जाए? यिद नौकरी करते हुए थोङा पै ा भी घर नहीं भेज पाया तो माँ-
बाप दुखी हो जाएँगे। उ े के शर् ने भी याद िदलाया था। मोहल्ले र्ाले तो ऐ ी बात का रास्ता ही देखते हैं। आते-जाते भाबी-भायजी को टोला मारेंगे। र्ह कहना चाहता था
िक ऐ े उलाहनों और तानों की र्ह परर्ाह नहीं करता है। लेिकन र्ह बोल नहीं पाया। र्ह जानता है, भाबी-भायजी परर्ाह करते हैं और भाबी-भायजी तो ऐ े िख ाणे
पङेंगे जै े गाँर् की बीच हतई पर धोती का कस्टा खुल गया हो। इ तरह न चाहते हुए भी र्ह इ मामूली ी अनचाही नौकरी की व्यस्तता में फँ ने लगा है। िफर भी
उ के भीतर यह भोली- ी उम्मीद है िक व्यस्तताएँ और परेशािनयाँ क्षिणक हैं और र्ह अपनी तयशुदा राह पर चल देगा। ोच के इ रास्ते में भी जो िचिंता और तका के
दरर्ाजे हैं, र्ह उ तरफ पीि करके बैिना चाहता है। र्ह पलिंग पर उि बैिा और हँ ने लगा। हालाँिक के शर् यहाँ नहीं है। शायद यह हँ ी खुद उ के िलए है।

कमरे में अँधेरा फैला है। इ ी अँधेरे में उ की हँ ी घुली हुई है। उ ने पलिंग पर बैिे-बैिे ही हाथ बचाकर ट् यूब-लाईट जला दी। पलक झपकते ही रोशनी कमरे का अँधेरा
िनगल गई। ाथ ही उ की हँ ी भी।
र्ह पलिंग े नीचे उतरा और रोटी बनाने के िलए टीन के िडब्बे े आटा िनकालने लगा। ुबह लौकी खरीदी थी लेिकन ब्जी बनाने का िर्चार छोङ िदया। रोटी को
अचार के ाथ खा लेने का िनणाय लेकर उ े थोङी राहत िमली। अब रात के खाने े र्ह जल्दी िनबट जाएगा। कल तो र्ह शाम के िलए रोिटयाँ ुबह ही बनाकर दफ्तर
जाएगा तािक लौटने पर एक काम कम हो जाए।

लेिकन यिद कल दफ्तर में के शर् का फोन आ गया तो? िफर तो शाम होने े पहले ही गाँर् चल देगा। रोटी यूँ ही रखी रह जाएगी। उ ने कल ुबह ज्यादा रोिटयाँ बनाने
का िनणा य िनरस्त कर िदया। खाना खाकर उ ने ोचा, चौक तक घूमकर आए। िफर यह िर्चार भी छोङ िदया। यिद बाहर जाते ही अभी यहाँ तार आ जाएगा, तब?
शहरों में तो शाम को या रात को भी तार िर्तररत होते हैं। र्ह र्ाप कु ी पर बैि गया। ररकामा क्या करें? उ ने ोचा, अगले महीने र्ह िकश्तों पर एक रेिडयो जरूर ले
आएगा। मय कट जाया करेगा। उ ने उिकर दरर्ाजा बिंद िकया और ोचा िनरात े पलिंग पर लेटकर िर्ता े बात की जाए। अके ले में, िर्ता की अनुपिस्थित में
र्ह िजतनी बातें िर्ता े कर लेता था कभी िर्ता के ामने आने पर भी नहीं कर पाता है। ऐ ा, गाँर् में भी कई बार हुआ है। उ े बातें करते हुए एक िकस्म का
िं ोच हमेशा आङे आ जाता, जबिक अपने मुहल्ले की लङिकयों े र्ह बेिझझक बातें कर लेता है। मजाक कर लेता है। उ े लगता है उनके बीच एक अके ली र्ह िमट्टी

की दीर्ार नहीं है।

र्ह बहुत देर तक ोचता रहा िक नींद ने उ े दबोचा और पनों में धके ल िदया। जै ा िक र्ह तय करके ोया था िक िर्ता के ाथ बहुत ारा र्ि गुजारेगा, ऐ ा
कु छ नहीं हुआ। उ ने पी.ए . ी. के फामा भर िदए बिल्क अगले ही पल र्ह परीक्षा हॉल में बैिा है। घबराया- ा। एकाएक होने जा रही परीक्षा में कु छ भी तैयारी करके नही
आया है। परीक्षा हॉल में चलते हुए पिंखों के बार्जूद र्ह प ीने े तर-ब-तर है। परीक्षा हॉल में घूमते हुए प्राध्यापक को देखकर र्ह हतप्रभ रह गया। िर्ता का िडप्टी-
कलेक्टर भाई है। और उ के हाथ में कागजों को रोल िकया हुआ पुिलिंदा है। िफर उ े एकाएक लगा िक कागजों का रोल नहीं, उ के हाथ में खाल खींचने की छु री है।

घबराहट में र्ह उि बै िा। टेबल के नीचे कोने में मटके े पानी िनकालकर िपया, रस् ी पर टँगे पिंचे को खींचकर उ ने प ीना पोंछा। ूती, लाल पिंचा जब उ ने र्ाप
रस् ी पर टाँगा तो उ की चड् डी-बिनयान भी अँधेरे में गाची परछाई की तरह डोलने लगे। उ ने घङी देखी। भोर का पना था।

ुबह जब तैयार होकर र्ह दफ्तर जाने लगा तो रात के पने की थकान उ पर थी। र्ह ताला लगाकर गली में पलटा तो गुप्ताजी के मकान की ओर देखा। र्ह दरर्ाजे
पर नजर नहीं आए। र्ह तेजी े गली पार कर गया। र्ह अकारण मकान-मािलक को िक ी िंदेह में नहीं डालना चाहता है। बूचा नकी है। इ मकान े िनकाल देगा तो
िफर कहीं िक ी और मुहल्ले में जगह खोजनी होगी जो एक मुिश्कल काम है। ऐ े व्यस्त मय में र्ह टाइम खोटी नहीं करना चाहता है। मकान खोजने में जाित को लेकर
मकान-मािलक के िजन प्रश्नों े गुजरना पङता है र्ह अलग े एक तनार् झेलने र्ाला काम है। यह मय अभी ऐ े तनार् को नहीं ौंपना चाहता है। दफ्तर पहुचँ कर र्ह
कु ी पर बैि गया। दफ्तर के लोगों े मामूली- ा पररचय हुआ था। उन्हीं े दुआ- लाम होने लगी। नौकरी पर आए अभी उ े िदन ही िकतने हुए हैं? कोई काम उ े अभी
तक बताया नहीं गया है। र्ह पूरे िदना लगभग फालतू रहता था। आज भी यही उम्मीद कर रहा था लेिकन आज उ की टेबल पर काम आया। बिल्क उ े काम मझाया
गया। बीज के िलए िक ानों के जो आर्ेदन आए थे उ की मरी बनाने का काम उ े ौंपा गया। र्ह बहुत रुिच लेकर काम मझने लगा। उ े लगा, फोन के इिंतजार
और मय काटने के िलए यह काम भी बुरा नहीं है।

शाम हो गई लेिकन फोन नहीं आया। बहुत हताशा के ाथ र्ह उिा और हकिमायों े औपचाररक िर्दाई लेने लगा। तभी पा के कमरे में बैिने र्ाली लेखापाल िम ेज
राय को चलते-चलते जै े कु छ याद आया। र्ह िििककर बोली, ' ुबह आपको कोई पूछ रहा था।'

- 'कौन? कब आया था? आपको कब िमला?' उ ने आतुरता े कई र्ाल िकए और िम ेज रार् का लगभग रास्ता रोककर खङा हो गया।

- 'कोई आया नहीं था, ि फा फोन आया था।' र्ह अपना हैंड-बैग खोलकर रूमाल िनकालते हुए बोली।

- 'फोन आया था?' अचरज और आर्ेश में लगभग उ की चीख िनकल गई, 'मुझे िक ी ने बताया क्यों नहीं? और िफर मैं तो यहीं था। कब आया फोन?' र्ह अपने पर
िनयिंत्रण रखने की नाकाम कोिशश करता हुआ बोला।
- 'भई, फोन ुबह आया था। लगभग द बजे। आप आए नहीं थे। िफर मैं भूल गई।' र्ह आर्ेश में थर-थर काँपती हुई उ की देह को अचरज े देखते हुए बोली, 'और
िफर फोन करने र्ाले ने ि फा आपका नाम पूछा। यह ुनते ही िक आप नहीं आए फोन रख िदया।' िम ेज रार् ने फाई- ी दी।

'थारी गोर खोदूँ! तुख पाटो आर् ऽ ! थारी माय ख बैङी प का र्ािंदरा लइ जाय, रािंड!' र्ह गुस् े में मन-ही-मन अपने गाँर् की और खा कर अपने मुहल्ले की झगङालू
औरतों की भाँित गािलयाँ देने लगा। िफर कु चते-कलपते हुए छु ट्टी की अजी िलखकर दी और घर की ओर चल िदया। गुस् ा के शर् पर भी कम नहीं आ रहा है। स् ाला...
दजी...! दो रूपट्टी लेकर कोई ामने खङा हो गया होगा तो उ का पेंट या पजामा रफू करने रुक गया होगा। मेरी 'तयमल' को, मेरे धीरज को स् ाला दो रूपए की ि लाई
करने के र्ास्ते उधेङकर रख देगा। इ ी 'माजने' का है। र्नाा क्या दुबारा फोन नहीं कर कता था। गुस् े का रेला के शर् की तरफ रलकने लगा। ुबह फोन िमल जाता तो
छु ट्टी लेकर उ ी मय गाँर् चल देता। अब यिद घर जाकर बैग तै यार करके ब -स्टैंड जाऊँगा तब तक आिखरी ब भी िनकल चुकी होगी। िफर भी र्ह तेज-तेज कदमों
,े लगभग दौङते हुए घर पहुचँ ा। ताला खोलकर घर में दािखल हुआ ही था िक मकान-मािलक पुकार लगाता हुआ आया िक 'तुम्हारा तार आया है।' र्ह बैग तलाश करके
अपने कपङे उ में रखने ही र्ाला था तार का नाम ुनकर िििक गया। अब उ े पक्का यकीन हो गया िक बात र्ही है। ुबह भी फोन िनिय ही के शर् ने िकया होगा और
कोई तो तार करने े रहा। और िक बात के िलए? नाते-ररश्तेदारों में तो मरने के बाद तार करने की जगता और आधुिनकता आई नहीं है और िफर खबर करेंगे भी तो
र्हाँ गाँर् में करेंगे। यहाँ कोई खबर नहीं करेगा। अन नु े फोन के बार्जूद उ की खुशी के पिंख कटे नहीं थे। र्ह पलटकर दरर्ाजे तक आ गया। उ ने देखा मकान मािलक
के चेहरे पर आज कोई मुस्कान नहीं है।

- 'तुम्हारा तार है! कोई मर गया है।' कहते हुए बूचा इ उम्मीद में खङा रह गया िक अभी इ रो देने र्ाले लङके को ािंत्र्ना और बुजुगा िदला े की जरूरत पङेगी। हाथ
में तार लेने के बाद उ ने तार पचा। 'शी इज नो मोर' ब इतना िलखा था। जो उ के िलए पयाा प्त है। न चाहते हुए भी उ के रोम-रोम े प्र न्नता के फव्र्ारे छू टना चाहते
हैं िज े र्ह जबरन दबा रहा है और इ नाकाम कोिशश में खुशी रर -रर कर उ की आँखों े बाहर आ रही है। चेहरे पर खुशी दबाने के बार्जूद मुस्कान बार-बार
िफ लकर चेहरे पर फैल रही है। बूचा अचरज े उ े देख रहा है। उ ने जल्दी े बूचे को िर्दा िकया र्नाा उ े लगा िक र्ह अभी खुशी के मारे घर में नाचने लगेगा और
बूचा मुहल्ले में तरह-तरह की बातें करेगा।

उ ने जल्दी-जल्दी कपङे मेटे और बैग तैयार करके ब स्टैंड तक लगभग दौङता आया। जै े िक उ े शक था। ब िनकल चुकी थी। र्ह थके कदमों े र्ाप घर
आया। ताला खोलकर भीतर आया और बै ग कु ी पर रखकर पलिंग पर बैि गया। अब इत्मीनान े बैिने पर जब उ ने ोचा तो उ े उपनी खुशी पर लज्जा भी आई। र्ह
मृत्यु पर प्र न्नता प्रकट कर रहा है। उ ने ि र झुका िलया। हालाँिक यहाँ इ शमा को कौन देखने र्ाला है? िफर उ ने खुद को मझाया िक बूचे-आङे की मौत का क्या
शोक? बुिचया बहुत बीमार थी। तकलीफ े छु टकारा िमला। िर्ता के िपता दीनानाथ शास्त्री खुद भी गाँर् में िक ी की मौत पर घर तक बैिने जाते हैं तो इ ी तरह
मझाते हैं। मृत्यु तो एक तरह े छु टकारा है। पुरानी और जजार देह े। पुराना और जजार मकान छोङने जै ा। हम लोग इधर शोक मना रहे हैं, उधर आत्मा नया चोला
धारण कर रही है। आत्मा पुराना चोला छोङकर, नया चोला धारण करती है। यह तो जै े कायािंतरण है। तुम व्यथा शोक मना रहे हो। आत्मा को देह छोङते हुए कोई शोक
नहीं था। इतनी उमर तो न ीब र्ालों को िमलती है। ईश्वर का आभार मानो, भरा-पूरा पररर्ार, नाती-पोते छोङकर गया, जाने र्ाला... र्गै रह... र्गैरह जाने िकतनी बातें
होती है, मझाने के िलए। बामणदाजी दीनानाथ शास्त्री तो इ के ि द्धहस्त हैं। हालाँिक िगने-चुने घर हैं जहाँ बामणदाजी जाते हैं। कु छे क अहीरों, और कु छे क राजपूतों के
घर जाते हैं। बाकी छोटी जात के िक ानों के घर इ तरह गमी में या कथा-पूजा के िलए उनका बेटा हररप्र ाद जाता है। चमार टोले और भिंळई मुहल्ले की तरफ तो मुँह
करके बामणदाजी पानी भी नहीं पीते हैं। भिंळई लोगों का तो खैर अलग े पिंिडत है लेिकन चमार टोले में भी बामणदाजी अपने लङके को पूजा-पाि के िलए नहीं भेजते हैं।
चमार अपने आप को भिंळई े ऊपर मझते हैं इ िलए र्े भिंळई लोगों के पिंिडत को नहीं बुलाते हैं।

चमार टोले में बामणदाजी के छोटे भाई जो कु छे क ाल पहले ही बामणदाजी े जमीन-जायदाद में िहस् ा लेकर अलग हो गए थे, पूजा-पाि के िलए आते हैं लेिकन ऐ ा
भी नहीं है िक र्े कोई चमारों को अपने ामने पाट पर बैिकर पूजा करने देते हैं या कराते हैं। पहले िक ी र्णा मजदूर को भेजकर एक कमरे को गोबर े िलपाते हैं। िफर
दूर एक कोने में चमार दिंपित्त नहा धोकर बैि जाता है। चमार दिंपित्त अपने ामने पला के पत्तों का दोना रख लेता है। और तािंबे के एक लोटे में पानी और पूजा का
ामान। दूर दू रे कोने में बामणदाजी के छोटे भाई पिंिडत ि रजू महाराज बैिते हैं। र्े ाथ में अपने छोटे बेटे को लाते हैं जो िीक उनके ामने बैिकर पूजा की िर्िध पूरी
करता है। यानी परात में रखे गणेशजी पर जल चचाना हो या कुिं कू -चार्ल चचाना हो, चमार दिंपित्त की ओर े ि रजू महाराज का बेटा जल चचाता है या कुिं कू -चार्ल
चचाता है। दूर कोने में बैिे चमार दिंपित्त हाथ जोङ लेते या िफर अपने ामने दोने में जल चचाने की िर्िध दोहराते हैं। चमार दिंपित्त न तो महाराजजी को छू कता है और
न ही पा में फटक कता है। पूजा में जो ि क्कों की चचोत्री रहती है उ े भी ि रजू महाराज अलग रखते है। और गिंगा जल े धोकर घर लाते हैं। इ तरह चमार दिंपित
की इ पूजा की िर्िध में ि फा दशा क की- ी उपिस्थित रहती या िफर दूर कोने में बैिकर ि रजू महाराज के लङके िारा की जा रही पूजा िर्िध को ामने रखे दोने में
दोहराते रहने का काम रहता है। र्े इ ी में प्र न्न रहते हैं। र्े इ ी को पूजा-पाि मानते हैं। न तो भगर्ान को छू कर पूजा कर पाते हैं और पिंिडत को छू ना तो दूर, ामने भी
नहीं बैि कते हैं। ऐ ा हर चमार को करना होता है। क्योंिक यही उ के भाग्य में िलखा है। 'पूरबला जनम' के पाप हैं जो उ े इ तरह िदन देखने पङ रहे हैं। ऐ ा उ े
पिंिडतजी मझाते हैं। उनके बाप-दादों को भी यही मझाया था। ऐ ा बर ों े होता आया है। आज भी हो रहा है। भिंळई लोगों के भाग तो अभी चमारों जै े भी नहीं जागे
हैं। उनके घर तो कोई ब्राह्मण इ तरह दरू बै िकर भी पूजा कराने नहीं आता है। ोचता हुआ र्ह आटे े भरे टीन के किं रे पर रखी इितहा की िकताब को उिाकर उ
पर लगा आटा झाङने लगा। यह िकताब र्ह पी.ए . ी. की तैयारी के िलए लाया है। एक बार गाँर् े र्ाप आ जाऊँ िफर पचाई की तैयारी जोरों े करूँगा। ऐ ा ोचते
हुए िकताब उ ने र्ाप किं रे पर पटक दी। अब उ का अपराध-बोध थोङा कम हुआ। अपनी प्र न्नता के पक्ष में तका और िनरथाक स्मृितयाँ जुटाकर उ के मन का
िंकोच थोङा जाता रहा।

अब कििन काम है, रात िबताना। र्ह जानता है, िकतनी भी कोिशश कर ले रात को नींद नहीं आएगी। एक बार तो उ का मन हुआ कोने की कलाली े थोङी शराब ले
आए। नींद जल्दी आ जाएगी। िफर ोचा यिद नशे में ुबह नींद जल्दी न खुली तो? उ ने मिदरापान का िर्चार त्याग िदया। ुबह तो हर हाल में उ े पहली ब पकङनी
है।

उ े खुद याद नहीं रहा िक रात िकतनी देर तक र्ह कमरे के चक्कर काटता रहा िफर ोया! ुबह नींद ब के जाने े काफी पहले खुली। तैयार होकर र्ह ब -स्टैंड
पहुचँ ा तो देखा, ब अब उ की आँखों के ामने है। इतनी ुबह भी ब -स्टैंड पर दुकानें खुल गई हैं। खा कर चाय की दुकानें। अल ाए और उनींदे े मैले-कु चैले लङके
चाय के भगोने धो रहे हैं। कोने की गै -भट्टी पर फे द बालों र्ाला बूचा चाय उबाल रहा है। दो कु त्ते पा ही मँडरा रहे हैं। एक फे द कु रता-पाजामे र्ाला आदमी छींट के
कपङे का झोला टाँगे बेंच पर बैिा चाय की चुिस्कयाँ ले रहा है। एक िक ान ढीली- ी पगङी बाँधे बूचे को भट्टी पर चाय का पतीला िहलाते हुए देख रहा है। र्ह शायद चाय
पी चुका है। तभी ब ने हॉना िदया। ुबह की खामोशी में हॉना इतनी तेज आर्ाज में बजा िक अल ाया- ा कु त्ता और ढीली पगङी र्ाला िक ान एक ाथ चौंक गए।
िक ान धीरे े उि खङा हुआ।

िज मय र्ह गाँर् जाने र्ाली ङक पर ब े उतरा तो मुिश्कल े द बजे थे। ब चली गई तब उ ने गाँर् जाने र्ाली ङक पर नजर डाली। दूर एक बै लगाङी जा
रही है। ब े इ जगह उतरने र्ाला र्ह अके ला था। चुपचाप रास्ते पर उतर गया। थोङी दूर जाने पर देखा, आम के पेङ के नीचे, चरर्ाहे ताश खेल रहे हैं। र्ह
िििककर देखने लगा। र्े खेल में मस्त हैं। उ ने देखा पै े िक ी के पा नहीं हैं। र्े लोग बगै र पै े के ताश खेल रहे हैं। र्ह तुरतिं आगे बच गया। उ े मालूम है बगैर रुपए-
पै े के खेल में हारने र्ालों को खङा करके बाकी जीतने र्ाले तीन-चार बार जोर े भिंळई... भिंळई... भिंळई... कहते हैं। यह खेल र्ह बचपन े देख रहा है। हारने र्ाला भी
जानता है िक भिंळई कह भर देने े उ की जात नहीं बदलेगी। लेिकन कोई ऐ ा न कह पाए इ कारण भी जी-जान े जीत के िलए खेलते हैं। बेईमानी तक करते हैं।
हार-जीत के िलए लङाई-झगङे तक होते हैं िक कोई उ को भिंळई न बोल पाए। िकतनी अजीब बात थी िक हारनेर्ाला इ िंबोधन के अपमान को रुपए-पै े की हार े
भी बङा मानता है। एक जाित का िंबोधन हारने र्ाले के िलए एक बङी जा की तरह है।

गाँर् के करीब जब र्ह तलार्-बैङी े नीचे उतर रहा था उ ने देखा, तालाब का पानी िबल्कु ल ूख गया है। बैङी े नीचे उतरते ही गाँर् के बाहर फैले टपरे शुरू हो जाते
हैं। यहाँ े गाँर् के िलए दो रास्ते हैं। बाई िंओर के अधा र्ृत्ताकार रास्ते े पहले आिदर्ाि यों के कु छ टपरे पङते हैं िफर राजपूतों के मकान हैं। िफर र्ही रास्ता दाई िंओर
पलटता है। तो बामण- ेरी आ जाती है। आगे जाने पर हतई और िफर मिंिदर के पा गाँर् का दू रा ि रा जहाँ नाले के पा पनघिटया कु आँ है। इ ी तरह दाई िंओर े
जाने पर ब े पहले भिंळई मुहल्ला िफर चमार मुहल्ला िफर कािछयों के मकान। कु छ अहीरों के और बाई िंओर घूमते ही िफर बामण- ेरी आ जाती है। बामण- ेरी की
ओर न पलटते हुए दाई िंओर चले जाओ तो िफर र्ही हतई र्ाला रास्ता िमल जाता है।

िीक इ ी जगह पर जहाँ े दो रास्ते अलग होते हैं। गाँर् के इ िकनारे पर एक कु आँ है। जो गाँर् में िक ी मय रहनेर्ाले महाजन पररर्ार का था। िजनका खिंडहर हो
रहा मकान अभी भी है, िज में कु त्ते और ूअरों ने अस्थाई िनर्ा बना िलया है। इ कु एँ में कभी पानी था जो राजपूतों के काम आता था। हालाँिक भिंळई मुहल्ले के
ज्यादा नजदीक था लेिकन महाजनों के कु एँ में तो र्े मरने की इछछा के लए भी नहीं झाँक कते थे। इ िलए बाई िंओर े िफर राजपूतों के िलए स्र्तः ही उपयोगी हो गया।
अब तो िपछले दो बर ों े ूखे ने इ कु एँ पर कब्जा जमा रखा है।

पहले तो उ ने ोचा िक बाई िंओर र्ाले रास्ते े चला जाए जहाँ े बामण- ेरी होता हुआ आिखर में उ का मुहल्ला आ जाएगा। लेिकन उधर े जाने में एतराज उिेगा।
ब्राह्मणों को ही नहीं, बाकी गाँर् र्ालों को भी एतराज होगा िक िबना कारण भिंळई का छोरा बामण- ेरी े क्यों िनकला? कोई भी बामण दो बात ुनाकर माजना उतार
देगा और एक बार इज्जत गई तो िजिंदगी भर गाँर् में ऐ ी िक ी घटना पर लोग उ ी का उदाहरण देंगे। मन मारकर र्ह दू रे रास्ते े घर की ओर चल िदया।

भाबी घर के छान की झाङ़ू िनकाल रही है। भायजी घर नहीं है। चार छोटे भाई-बहन भाबी के आ -पा दौङ रहे हैं। उ ने भाबी का उघङा पेट देखा। उभरा हुआ है।
उ का मन गुस् े और शमा े भर गया। उ के बाप को और कोई काम नहीं जै े। जब चाहे चच बैिता है। भाबी तो जै े कु त्ते, िबिल्लयों की तरह बछचे पैदा कर रही है।
और एक भाई, एक बहन अभी घर में है। बिल्क कहें भाबी की गोद में ही है। स् ाला बछचा गोद े नीचे उतरा नहीं िक अगला बछचा गोद में तैयार। कै ी औरत है यह? किं डे
थापने और बछचे पैदा करने में कोई फका नहीं मझती है। िफर अ ली दुश्मन तो बाप है। दारू पीकर आएगा और ऊपर चच जाएगा तो कै े उतार पाए भला। भाबी हाथ
की झाङ़ू नीचे रखकर खुशी और अचरज े उ े देखने लगी।

- 'इत्ती जल्दी र्ाप आयो, पछो पाँय? अ ो काई करत?' भाबी ने उ के हाथ े बैग लेकर खूँटी पर टाँग िदया।

- 'हओ, ...अभी थोङा िदन छु ट्टी छे !' उ ने टालते हुए कहा, 'चलो, अछछो हुयो!' भाबी खुश होकर बोली िफर पलटते हुए पूछा, 'चाय लाऊँ?' और जर्ाब की प्रतीक्षा
िकए बगैर पीछे एक-ढाली में चाय बनाने चली गई। र्ह भी भाबी के पीछे एक ढाली में आया तो देखा, छत के आङे को टेका देने के िलए लकङी की मोटी बल्ली का खिंभा
लगाया है। िज पर कील िोक कर एक तस्र्ीर लटका दी है िमथुन चक्रर्ती की। तस्र्ीर िज फ्रेम में लगी है र्ह टू टे हुए आईने की है। टू टा हुआ शीशा फें ककर खाली
फ्रेम में िमथुन चक्रर्ती की तस्र्ीर िक ी अखबार े काटकर िचपका दी गई है। र्ह आगे बचा और गुस् े में तस्र्ीर उतारी और पीछे का दरर्ाजा खोलकर बाहर रूखङे
पर फें क दी। दरर्ाजा बिंद करके र्ाप लौटने लगा तो उ ने के शर् के घर की ओर देखा। र्ह पीछे दीर्ार के पा आकर पङो में के शर् के घर झाँकने लगा। कोई नजर
नहीं आया तो उ ने जोर े आर्ाज लगाई, 'के शर्-ओ-के शर्...!' कोई प्रत्युत्तर नहीं आया तो र्ह भाबी े पूछने के िलए पलटा तो भाबी ने चूल्हे को फूँ क मारते हुए
जानकारी दी, के स्या तो नाई के छोरे के ाथ महुए के पत्ते लेने गया है। पत्तलें बनानी हैं। तूझे शायद मालूम नहीं। बामणदाजी की डोकरी खुटी गई! चार गाँर् की पिंगत है।
खूब पत्तलें लगेंगी। र्ह कु छ नहीं बोला। चाय पीकर र्ह िफर आगे मुख्य दरर्ाजे की तरफ न जाते हुए इ ी िपछर्ाङे का दरर्ाजा खोलकर बाहर खिलहानों की ओर
िनकल गया। उ े मालूम था, के शर् महुए के पत्ते लेने िक जिंगल की तरफ गया होगा। घाट के ऊपर पटेल के खेत के पा महुए के बहुत ारे पेङ हैं।

उ ने देखा, के शर् पेङ पर चचा है और पेङ के ऊपर े पत्ते नीचे फें क रहा है, कालू नाई का लङका राजू, नीचे खङा पत्ते इकट्ठा कर रहा है। पहले के शर् ने उ े दूर े
देखा और कु रााटी मारकर खुशी े िचल्लाया िफर राजू ने देखा तो उ ने आर्ाज देकर बुलाया। र्ह करीब पहुचँ ा तब तक के शर् नीचे उतर आया था। पहले तो उ ने भी
चाहा िक पत्ते मेटने में मदद कर दे लेिकन िफर िझझककर रुक गया। िफर राजू े पूछा, 'पला के पत्ते क्यों नहीं लाया! गाँर् के पा बहुत िमल जाते। आजकल तो
पत्तलें पला के पत्तों की भी बनाते हैं!'

राजू हँ ने लगा। उ की हँ ी में अजीब- ा व्यिंग्य था। बोला, 'चार िदन शहर क्या हो आया। गाँर् की रीत भूल गया। तुझे मालूम तो है ना, पिंगत िक के यहाँ है?' कहकर
र्ह कु छ क्षण रुका िफर खुद ही जर्ाब िदया, 'बामणदाजी के घर। चार गाँर् की पिंगत है, लायण देंगे। पहले ही बोल िदया िक बामण के घर की पिंगत में पला के पत्ते की
पत्तल नहीं चलेगी।' कहकर र्ह पत्तों को टाट के बोरे में भरने लगा। के शर् ने राजू के पा एक ही थैला देखा तो पूछने लगा िक इतने ारे पत्ते एक ही थैले में कै े जाएँगे,
घर े दो थैले लाना चािहए था। इ बात पर राजू ि र िहलाकर बङबङाने लगा। िफर उ ने बताया िक घर पर थैले तो दो हैं लेिकन कल थैला बद्रीभाई ले गए थे। ुकला
लाने के िलए। कहने लगे, ढोर भूखे हैं। िकर ाण के िलए ढोर तो देर्ता हैं। र्ो जो थैला ले गए, आज तक र्ाप नहीं िकया। घर पर डोकरा अलग गुस् ा कर रहा है िक र्े
लोग िकर ाणी करते हैं तो क्या हम भिंळईपणा करते हैं? आगे के शर् ने उ की बङबङाहट नही ुनी। र्ह चौंककर उ को देखने लगा। हालाँिक इ तरह जाित को लेकर
की गई िटप्पिणयों का गाँर् में कोई बुरा नहीं मानता है। यह गाँर् की बोली में घुली-िमली चीज है लेिकन के शर् यह भी जानता है िक िकशन को ऐ ी बातें जल्दी िचपक
जाती हैं। जै े िक ी ने डार् लगा िदया हो। गरम-गरम िचमटा चोटा िदया हो! उ का ध्यान बँटाने के िलए के शर् उ के करीब आ गया। उ ने िकशन के किं धे पर हाथ धरा
और लाङ में आकर उ की कमर में हाथ डाल िदया। राजू ने थै ले का मुँह बाँधा और पीि पर रख चल िदया। दोनों ने उ को चलते रहने का िंकेत िकया िक चलते रहो,
हम लोग आराम े आएँगे।

ह ा उ को याद आया।

- 'के शर् तूने बु ह दफ्तर में फोन िकया। िफर बाद में क्यों नहीं िकया?' र्ह चलते-चलते िििक गया।

- 'मुझे लगा तू इतने में मझ जाएगा। घङी-घङी बिनए की दुकान पर जाने े क्या मतलब?' के शर् ने उ के किं धे को हल्के े धक्का देकर चलते रहने का िंकेत िकया।
दोनों िफर चलने लगे। र्ह ि फा ि र िहलाकर रह गया। िफर चलते हुए र्ह रुका और नीचे झुककर उ ने महुआ का फू ल उिाकर मुँह में रख िलया। फू ल की िमिा
जुबान े िफ लकर गले की तरफ रेंग गई। उ ने के शर् के किं धे पर िफर े हाथ धर िदया। िज के हाथों में अभी भी महुए का पत्ता है।
- 'डोकरी कल कब मरी?' ह ा उ ने के शर् े पूछा।

- 'तुझे िक ने कहा िक कल मरी?' के शर् ने ि र को थोङा ितरछा करके उ की ओर देखते हुए पूछा।

- 'तेरा फोन और तार कल ही तो आया!' उ ने के शर् के किं धे े हाथ हटाते हुए जर्ाब िदया।

- 'फोन े क्या होता है? डोकरी तो तेरे जाते ही िनपट गई थी। और िर्ता उ ी िदन दाह- िंस्कार े पहले आ गई थी। कल तो तेरहर्ीं है।' के शर् पाट स्र्र में बोला,
- 'र्नाा पत्तल-दोने बनाने के िलए इतने िदन पहले पत्ते लेने आ जाते?'

- 'क्या?' र्ह ह ा चीख पङा, 'तूने मुझो इतने िदनों बाद खबर की? तू जानता है मैंने एक-एक िदन कै े काटा है? िक तरह तेरे फोन का, तेरे तार का रास्ता देखा
है? मैं तो तभी आ जाता!' आर्ेश में र्ह चलते-चलते रुक गया। के शर् दो कदम आगे चलकर रुक गया। िफर बहुत इत्मीनान े उ की तरफ देखते हुए बोला, 'जल्दी
आकर तू यहाँ क्या उखाङ लेता?'

- 'िमलता उ े और क्या?' अब उ के स्र्र में कु चन आ गई थी।

- 'कै े िमलता? तू इ गाँर् में नर्ादा है क्या? अभी राजू ने क्या गलत कहा िक चार िदन शहर में रहा तो गाँर् की रीत भूल गया।' के शर् थोङे रोर्ष में उलाहने के स्र्र में
बोला, 'तुझे मालूम तो है ना िक घर में ोग है?' िफर खुद ही जर्ाब िदया, 'पिंिडत दीनानाथ शास्त्री के घर। पूरे गाँर् को ोग मनाने का हुकुम है। उ के घर े तो द ा
तक कोई औरत घर के बाहर क्या, बैिक में भी नहीं आ कती है। िमलना तो दूर, देखना मुिश्कल है। गाँर् में रेिडयो-टेप ब बिंद है। उनके घर के आगे तो िचिङया भी
चहचहाकर नहीं िनकल कती है।'

- 'लेिकन खबर तो करता!' र्ह िफर उ ी टेक पर आ गया।

- 'इ ीिलए नहीं की। आि-द िदन गाँर् में फालतू पङा रहता। उधर नई नौकरी े इतनी छु ट्टी िमलती क्या?' िफर र्ह ह ा मुस्कराने लगा और बोला, 'धेला का चर ा
और उ के िलए तू ौ रुपए की भैं मारेगा?'

- 'मैं कहाँ नौकरी छोङ रहा हँ?' उ ने प्रितर्ाद िकया िफर बोला, 'और तू िर्ता को चर ा मत बोल।'

- 'क्यों उ की देह पर चमङे की जगह प्लािस्टक है क्या?' के शर् हँ कर बोला।

- 'कम- े-कम धेले का चर ा मत बोल।' उ ने िफर प्रितर्ाद िकया।

- 'धेले का नहीं तो िफर िकतना? तू ही बता दे?' के शर् उ की आँखों में झाँकते हुए बोला।
- 'स् ाले दजी... धेले-कौङी े भी आगे ोचेगा?' थोङे गुस् े के बाद र्ह मुग्ध भार् े बोला, 'अनमोल है र्ह!'

- 'क्या अनमोल है उ में?' के शर् मुँह िबचकाकर बोला।

- 'बामण का चमङा है। यही अनमोल है।' अब उ के चेहरे े मुग्धभार् नदारद था और उ की बोली में थोर के काँटे जै ा पैनापन आ गया था। र्ह रुक गया। के शर् ने
देखा, उ के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान है। तत्काल र्ह हज भी हो गया। बोला, 'कु छ जुगाङ कर, िमला दे उ े!' के शर् पलटकर रुक गया था। उ की ओर
देखते हुए बोला, 'आज बारहर्ाँ है। शायद तेरहर्ीं तक कभी उ को घर े िनकलने का मौका िमल जाए!' कहकर िबना यह देखे िक र्ह आ रहा है या नहीं, के शर्
पलटकर चल िदया। कु छ देर र्ह चुपचाप खङा रहा िफर र्ह भी उ के पीछे -पीछे चल िदया। के शर् की बात बहुत व्यार्हाररक और उिचत थी लेिकन भार्ुकता ऐ ी बातों
के पा कहाँ िहरती है?

घर तक दोनों चुपचाप आए। घर के िनकट आकर के शर् घर में दािखल होने े पहले उ की ओर पलटकर बोला, 'शाम तक उ का रास्ता देख मैं उ को खबर भेजने की
जुगत करता ह।ँ शाम को िमलेंगे।' कहकर र्ह अपने घर में चला गया। र्ह घर के भीतर आया। पीछे की एक ढाली में जहाँ कोने में चूल्हा है और दू रे कोने में एक खिटया
िबछी है िज पर गोदङी पङी है, उ ने गोदङी को लपेटकर एक ओर रका िदया और निंगी खिटया पर लेट गया।

पता नहीं के शर् उ े कै े खबर करेगा? और र्ह कब आएगी? भाबी की पुकार पर उ की िनिंद्रा टू टी। रोटी खाने के िलए बुला रही है। टीन के पतीले े दाल िनकालकर
कटोरी में डाली और टीन की तश्तरी में रोटी रख दी। बहुत अिनछछा े खाकर र्ह उिा। इ ी बीच भाबी ने उ े बात करने की कोिशश की िज े र्ह ब हुक िं ारा देकर
नु ता रहा। भाबी कु छ देर तक अपनी कमर पर हाथ धरकर उ े देखती रही िफर तिनक रोर्ष और व्यस्तता के ाथ आगे कमरे में चली गई। र्ह र्ाप निंगी खिटया पर
आकर ो गया। इ बार नींद ने मुरव्र्त नहीं की।

अँधेरा होने को आया तब उ की नींद खुली। र्ह घबराकर उिा। उ े खुद पर गुस् ा भी आया। कै े ो गया भला र्ह? र्ह आकर चली तो नहीं गई? लेिकन र्ह आती
तो दीर्ार के दू री तरफ े हमेशा की भाँित कोई बतान बजाती। इ का मतलब है िक र्ह नहीं आई। र्ह उिकर दीर्ार तक आया और के शर् को आर्ाज लगाई। के शर्
आगे के कमरे े िनकलकर िपछर्ाङे आ गया। उ के पूछने े पहले ही इनकार में गरदन िहलाने लगा। बोला, 'कोई जुगत नहीं बैिी। रात को राजू के ाथ जाऊँगा।
ामने पङी तो इशारा कर दूँगा।' कहकर उ ने लोटा उिाकर पानी भरा और उ े बोला, 'चल, टट्टी बैिने चलते हैं, र्हीं बैङी पर बातें करेंगे। उ ने ि र िहलाया और
पा पङे टीन के टामलोट में पानी भरकर हाथ में थामा और िपछर्ाङे के दरर्ाजे े बाहर आ गया।'

उ को के शर् का ाथ हमेशा अछछा लगता है। दोनों ने ाथ ही बी.ए. िकया था। िफर के शर् ने पचाई छोङ दी। और उ ने एम.ए. िकया। दोस्ती पर जुङार् की ऐ ी
ि लाई लगी िक कोई भी राँपी इ े काट नहीं पाई। उ ने के शर् े कई बार कहा िक पी.ए . ी. करे तो िडप्टी-कलेक्टर आराम े बन जाए। र्ह पचाई में उ े भी तेज
था।

ह ा चलते हुए उ ने के शर् े कहा, 'मैं ोचता हँ िपछर्ाङे इतना लिंबा-चौङा िहस् ा खाली है। र्हाँ एक छोटा- ा लेरीन-रूम बना िलया जाए।' िफर एतराज में के शर्
का मुँह खुलता देख तुरतिं बोल उिा, अब तू िफर े मेरे शहर जाने को मत को ना। यार, हम लोग शहरी चोंचलों के नाम पर कब तक हर ुिर्धा े परहेज पालते रहेंगे?'
के शर् ने क्षण भर उ की ओर देखा िफर मुस्करा कर बोला, 'अपने बाप े पूछ लेना। हाँ कर दे तो मुझे भला क्या एतराज होगा?'

- 'दुिनया बदल रही है के शर्, छोटी हो रही है।' उ ने उ की मुस्कराहट पर कु चते हुए कहा।
- 'िकधर बदल गई है भाई? मेरा बाप कल भी दजी था, आज भी है। तेरा बाप कल भी चर ा का काम करता था, आज भी करता है।' के शर् ने हँ कर कहा। कु छ क्षण चुप
रहकर िकशन की ओर बगैर देखे िफर कहा, 'तुझे याद है िकशन एक बार गाँर् में बीमारी फैली थी। भिंळई मुहल्ले े लेकर चमार टोले और िफर अहीर मुहल्ले तक गई थी।
लेिकन बामण- ेरी और राजपूत मुहल्ले बचे रह गए थे। इ बार लगता है बीमारी उधर के मुहल्ले े अिंदर आई है।' कहकर र्ह हँ ने लगा िफर अँधेरे में पानी के डबरे े
बचते हुए आगे बचा और बोला, 'बामणदाजी का घर तो छोङ, र्ह तो बङा घर है लेिकन रामे र दादाजी मिंिदर के पुजारी न होते तो भीख माँगने की नौबत थी। न गाँर् में
घर न जिंगल में खेत। उनकी औलाद को भी नहाने के िलए ाबुन चािहए।'

- 'यार तू ाबुन में े कु छ ज्यादा ही झाग िनकाल रहा है।' र्ह हँ कर बोला।

- 'लेिकन तू ये बता' चलते हुए र्ह टामलोट को इ हाथ े उ हाथ में लेते हुए बोला, 'तुझे ये अचरज नहीं होता िक इ गाँर् में ाबुन िमलने लगा है? इ बात का
अचरज नहीं होता िक गणेश उत् र् पर भु ार्ल े रािंडें बुलाने के िलए न के र्ल जर्ान छोरे बिल्क कई बूचे भी इनकार कर गए थे िक ये राँडें पुराने गानों पर पुरानी चाल
े नाचती हैं। नीमा जै ा नहीं नाचती हैं।'

बैङी आ गई थी। के शर् उभरी हुई चट्टानों पर ऐ ी जगह बैि गया जहाँ े िकशन उ े धुँधला- ा नजर आता लेिकन आर्ाज ाफ ुनाई देती रहे। निंगे िदखने का िंकोच
भी न रहे और बातों की ुिर्धा रहे।

- 'बीमाररयाँ घर देखकर नहीं आती हैं। अब इ भ्रम में मत रहना।' उ ने चट्टान के पीछे े ऊँची आर्ाज में कहा, 'मोट, रेहट को पुराना कहकर डीजल पिंप आए िफर र्ो
भी पुराने पङे और िबजली पिंप आए तो डीजल पिंप कचरे में चले गए। अब िबजली कब तक िटकती है देखना? नहीं तो भूखे मरने की नौबत है! क्या करोगे तब?'

- 'के क खाकर िदन काटेंगे!' के शर् उधर े हँ कर बोला। दोनों हँ ने लगे।

रात के करीब पहुचँ चुकी शाम के अँधेरे में दोनों की हँ ी चट्टानों े फू टती हुई लग रही है। कु छ देर चुप रहकर र्ह गरदन घुमाकर के शर् की ओर अँधेरे में घूरता हुआ
बोला, 'रात को कब जाएगा बामणदाजी के घर?'

- 'तू धीरज रख। मैंने राजू को बोल रखा है। मेरे बगैर नहीं जाएगा।' के शर् की आर्ाज आई।

- 'तू जानता है िकतने िदन हो गए। उ को देखा भी नहीं।' उ ने उदा आर्ाज में कहा।

कु छ देर चुप्पी रही। िफर जब के शर् बोला तो उ की आर्ाज एकदम बदली हुई थी।

- 'िकशन कभी-कभी मुझे बहुत डर लगता है! पता नहीं क्या होगा?'

- 'क्या होगा? क्या कर लेंगे र्ो लोग?' अँधेरे का लाभ उिाकर बहुत ाह के ाथ बोला।
कु छ देर तक खामोशी रही। उ े के शर् के पोंद धोने की आर्ाज ाफ नु ाई दे रही थी। कु छ देर बाद र्ह पाजामे का नाङा बाँधते हुए उ के पा आ गया। तब तक र्ह भी
िनर्ृत्त होकर उि खङा हुआ था। कु छ देर तक के शर् खङा उ े घूरता रहा िफर बोला, - 'तेरा बाप भी ऐ ी फाई े जानर्रों की खाल नहीं खींचता होगा। ऐ ी फाई े
तेरी खाल खींचकर र्े लोग, तेरे बाप के हाथ में दे देंगे।' कहकर कु छ क्षण र्ह रुका रहा िफर चल पङा।

- 'तुझे मालूम है देश आजाद हुए िकतने ाल हो गए हैं?' र्ह व्यिंग्य े बोला।

- 'मालूम है, ती ाल े ज्यादा हो गए।' के शर् भी र्ै े ही व्यिंग्य े बोला, 'लेिकन उधर िदल्ली में आजाद हुआ है, इधर अपने गाँर् में नहीं।' िफर उ े मझाते हुए ऐ े
बोला जै े धमका रहा हो, 'िमची की ऐ ी धूणी देंगे िक तेरा ये इश्क का भूत घङेक में उतर जाएगा। जामली का पाँच आकड् या बङर्ा दाजी भी भूत नहीं उतार पाए। ऐ ा
शिताया उतारेंगे।' कहकर र्ह हँ ने लगा।

र्ह कु छ नहीं बोला। झुँझलाकर पैर की िोकर े जमीन पर पङे पत्थर को दूर उछालने की कोिशश की। पत्थर थोङी दूर लुचककर रह गया। िफर जै े के शर् उ के
नजदीक आकर उ े मझाने र्ाले ढिंग े, बुजुगों की तरह बोला, 'िकशन! छोटो दग्गङ गाँड पोछण्यो!' िफर लोकोिि का िर्स्तार करते हुए बोला, 'लोगों की िनगाहों में
छोटे पत्थर की ब यही बखत है। पोंछकर फें क िदया।' कहते हुए उ ने अपना पैर डबरे में पङने े बचाया लेिकन खुद को िखन्नता के रुखङे पर िगरने े नहीं बचा
पाया। दोनों चुप हो गए।

चाँद दूर महुए के पेङों के पीछे े िनकलकर अब बैङी के ऊपर आ गया। बैङी पर पूरे चाँद की रोशनी फैल गई। दोनों नीचे उतरने लगे। नीचे रास्ते के पहले दाई िंढलान पर
बैल का कटा हुआ ि र पङा है। िनिित ही इ बैल की खाल उतरी हुई देह का िपिंजर भी कहीं पङा होगा उ े मालूम है, खाल खींचने े पहले जानर्र का ि र काटकर
अलग कर देते हैं। बैल का मुहँ खुला हुआ है। दाँत बाहर नजर आ रहे हैं। उ ने पलटकर के शर् े कहा, 'इ बैल को देख, खुला मुहँ कै ा लगता है? जै े हँ रहा हो।
जानर्र हँ ते हैं क्या?'

- 'नहीं यार, मरते मय ददा या चीख के मारे मुँह खुला रह गया होगा।' के शर् ने एक नजर बैल के कटे हुए ि र पर डाली और कहा।

- 'तो क्या पीङा की बचत में चेहरा हँ ता हुआ हो जाता है?' अचरज े उ ने कहा और चुप हो गया। के शर् ने भी कोई जर्ाब नहीं िदया। बैङी े नीचे उतरते ही, गाँर् के
रास्ते पर दोनों ओर रुखङों की कतार शुरू हो जाती है। गाँर् के अिधकतर लोगों के घर का गोबर-पूँजा और कचरा र्े अपने-अपने रुखङों पर डालते हैं। बाद में यही
कचरा खाद की तरह खेतों में चला जाता है। इन्हीं रुखङों के िकनारों पर कु छ औरतें टट्टी बै ि रही थीं, जो इन दोनों को देखते ही खङी हो गई। इन दोनों ने भी उन औरतों
की ओर नहीं देखा और न औरतों ने इनकी ओर नजरें उिाई। यह गाँर् का अिलिखत और अघोिर्षत कायदा है। दोनों खामोशी े इतने िनस्पृह होकर चलते रहे जै े
औरतों की र्हाँ उपिस्थित की उन्हें खबर ही न हो। ऐ ी तल्लीनता और िनस्पृहता बताना भी जरूरी है। र्े दोनों िनकले जब तक औरतें अपने-अपने लोटे को घूरती रहीं।
उन दोनों के थोङा आगे िनकलते ही औरतें िफर नीचे बैि गई िं।

िफर घर तक दोनों चुपचाप आए। िपछर्ाङे े घर में दािखल होकर र्ह कोने में रखे तपेले े पानी िनकालकर राख े हाथ धोने लगा। िफर पैरों पर पानी डालकर र्ह
भीतर कमरे में आया तो देखा, भायजी खिटया पर बैिा है और हाथ में एल्युिमिनयम का मैला- ा िगला है िज में िनिित ही महुए की शराब है। र्ह िफर उ कमरे े
िनकलकर िपछर्ाङे आ गया। चूल्हा लगभग ििं डा पङा है। यानी भाबी खाना देर े बनाएगी। उ ने टीन के पतीलों और तश्तररयों को देखा तो तय िकया िक अगली बार
शहर े स्टील के कु छ ढिंग के बरतन ले आएगा। िफर र्ह खुद ही बुझ रहे चूल्हे को लकङी े खखोङने लगा और चाय बनाने के िलए पतीली में पानी डाला। तभी भाबी
भीतर आ गई। भाबी ने उ के हाथ े पतीली लेकर उ े िझङकने लगी िक, क्या मुझे नहीं कह कता था? र्ह कु छ नहीं बोला, र्हाँ े उिकर िफर े खिटया पर आ
बैिा। भाबी ने चाय बनाकर दी तो चाय पीते हुए उ ने ोचा िक भाबी के िलए अगली बार एकाध लुगङा ले आएगा।

चाय पीकर र्ह उिा और उ ी िपछर्ाङे के िहस् े में आ गया। िबखरे कु यङों े बचते हुए र्ह दीर्ार के करीब आकर दू री तरफ के शर् के घर में झाँकने लगा। के शर्
िपछर्ाङे ही था। अपनी भाबी े चाय बनाने के िलए गरज कर रहा है। उ की भाबी उ े चाय की अपेक्षा दूध पीने का आग्रह कर रही है।
- 'चाय पीकर क्यों कलेजा जलाता है? दूध पी ले।' कहकर के शर् की भाबी पतीली धोने खुले में आ गई। के शर् भी उ के पीछे आया और उ को देखकर दीर्ार के करीब
आ गया।

- 'दूध ही बनाऊँगी उ में बोर और िर्टा डाल दूँगी, बदन को ताकत िमलेगी।' के शर् की भाबी ने इकतरफा िनणा य के ाथ लालच भी िदया। उ े बोर और िर्टा पर
आिया नहीं हुआ। िनमाङी में और के िलए न का उछचारण है। जै े चाय और दूध के िलए चाय न दूध इ ी तजा पर उ की भाबी बोनािर्टा को बोर न िर्टा और िफर बोर
और िर्टा के िंशोधन तक ले आई थी।

उ ने तो के शर् के किं धे पर हाथ मारा िक आिखर बोनािर्टा इ टपरे में दािखल हो ही गया। के शर् हँ ने लगा। उ की हँ ी जै े हँ ी। के शर् की भाबी ने दूध का कप
लाकर के शर् को थमा िदया। यह गाँर् का एक अघोिर्षत और अिलिखत िशिाचार है, जो जातीय ूत्रों े िमलता है। के शर् की भाबी ने उ े की पूछने की जरूरत भी
नहीं मझी। के शर् ने हाथ में कप ले िलया। लेिकन दूध पीने की अपेक्षा उ े दीर्ार पर रख िदया। के शर् अपनी भाबी की तरह मुरव्र्त नहीं तोङ पाया। - 'तू घर ही रहना।
मैं अभी आकर बताता ह।ँ ' कहकर के शर् ने कप उिा िलया। र्ह र्ाप पलट गया। के शर् पलटकर भीतर चला गया। र्ह भी पलटकर भीतर जाने लगा तो बेखयाली में
उ का पैर राख ढँके गूँ के कु यङे पर पङ ही गया। झल्लाकर र्ह र्हीं खङा हो गया। िफर लँगङाता हुआ र्ह पीछे दरर्ाजे के पा रखे मटके े पानी िनकालकर पैर पर
डालने लगा। ाथ ही पैर को पत्थर पर रगङता भी जा रहा था। पैर धोकर र्ह ार्धानी े भीतर आया।

भाबी खाना बनाने की तैयारी कर रही है। र्ह खिटया पर लेट गया। पता नहीं िकतनी देर इ तरह लेटा रहा जब भाबी ने उ े खाने के िलए उिाया। तब उ े मालूम हुआ
र्ह लेटे-लेटे एक झपकी ले चुका है। भाबी ने काँच की एक बोतल में घा लेट भरकर ढक्कन में छे द करके एक बत्ती खों दी थी। र्ही जल रही है।

दाल-रोटी और प्याज के टु कङे। ऐ ा नहीं िक खाने में स्र्ाद नहीं है लेिकन उ का मन उचट रहा है। जल्दी े खाना खाकर उिा िफर खिटया पर आकर बैि गया। पता
नहीं कब के शर् आर्ाज दे ! उ ने ोचा खिटया इ ढलर्ाँ छत े बाहर िनकालकर िपछर्ाङे की खुली चार-दीर्ारी में डाल दे र्हाँ े के शर् की आर्ाज ाफ ुनाई दे
जाएगी। िफर उ े अपनी ना मझी पर हँ ी आई। िपछर्ाङे में और इ ढलर्ाँ छत र्ाले बगैर दरर्ाजे के िहस् े में दूरी ही िकतनी है? यहाँ भी आ ानी े आर्ाज ुनाई
दे जाएगी।

भाबी और बछचों ने खाना खाया और भीतर चले गए। भायजी अभी खाना खाने की िस्थित में नहीं थे। र्ह पीछे अके ला रह गया। इतनी देर हो गई अभी तक आया नहीं?
उ े के शर् पर गुस् ा आने लगा। स् ाला पायङा कहीं दारू पीने न बैि गया हो। िक ी ने हाथ पकङा िक बैि, 'नाख ले' जरा ी तो 'नाखने' बैि गया होगा। र्ह कु चने
लगा। तभी दीर्ार के पा आहट हुई। र्ह दौङकर दीर्ार के करीब पहुचँ ा। के शर् था। उ ने धीरे े कहा, - 'डोकरी को लेकर डोकरा पटेलदाजी के घर गया है। जल्दी े
बात कर ले।' इतना कहकर आगे के कमरे में चला गया। र्ह धीरे े चलती हुई दीर्ार के करीब आई। चाँद की रोशनी में उ ने देखा, बगैर िबिंिदया और श्रृिंगार के ादी- ी
ूती ाङी में उ का लार्ण्य चाँदनी का मोहताज नहीं था। उ े मालूम है िक गमी के घर में िस्त्रयाँ श्रृिंगार नहीं करती हैं। िबिंिदया नहीं लगाती हैं और ाधारण ाङी
पहनती हैं। लेिकन यह अिनर्ायाता िर्र्ािहत िस्त्रयों के िलए है। िर्ता को यह ब करने की क्या जरूरत है? हालाँिक उ के पतले और गोरे हाथ चूिङयों के बगैर भी
बहुत मोहक लग रहे हैं। एक हाथ उ ने दीर्ार पर रख िदया। लिंबे बालों को खींचकर उ ने जूङे की शक्ल में बाँध िलया था। हीरे की एक लौंग उ की नाक पर चमक रहीं
है। उ की बङी-बङी आँखों में डर तो नहीं लेिकन एक िकस्म की जल्दी और आकु लता है। उ के गोरे चेहरे े दुख का पीलापन अब झरने लगा है।

िर्ता ने हाथ दीर्ार पर रखा है। जहाँ पहले ही चाँदनी रखी थी। िर्ता का हाथ जै े अब चाँदनी पर रखा था। लेिकन चाँदनी िर्ता के हाथ पर है। उ ने अपना हाथ
िर्ता के हाथ पर धर िदया।

उ ने जब दीर्ार पर अपना हाथ रखा तो लगा, दीर्ार की छाबन गीले और गमा हाथ में बदल गई है। बे ाख्ता उ ने अपना हाथ खींच िलया। पलभर के िलए बे ाख्ता
खींच िलए हाथ को लेकर उ े लगा, जै े िदमाग के बजाए स्र्यिं हाथ ने िनणाय ले िलया हो, र्हाँ े हटने का। िदमाग िारा ोचे जाने े पहले हाथ िारा स्र्यिं हटने का
ोचना याद करते हुए र्ह बचपन के उ गोशे में चला गया, जहाँ ब्राह्मण ेरी की ुिंदर और जी-धजी लङिकयाँ ि र पर जर्ारे िलए नदी में खमाने के िलए मूह में जा
रहीं थीं। र्े गणगौर पूजा के िदन थे। गणगौर की पूजा के िदनों में जर्ारे बोने के बाद पूिणामा को कुँ आरी लङिकयाँ उन्हें नदी के पानी में ि राने के िलए जाया करती हैं।
उन जाती हुई लङिकयों के पीछे तमाशाई बछचों के झुडिं में र्ह भी शािमल था। पता नहीं क्या था उनके पा िक उनके झुडिं े एक आलौिकक- ी गिंध पीछे छू टती जा रही
थी, जो पीछे चल रहे भिंळई मुहल्ले के बछचों को खींचती जा रही थी। उ े लगा, र्ह उनके ब्राह्मण होने की गन्ध है। रिंग-िबरिंगे रेशमी कपङों में िलपटी ब्राह्मण-लङिकयों की
देह े ऐ ी गिंध हमेशा फैलती रहती है। बौरा देने र्ाली गिंध, भरमाने र्ाली गिंध। जो उन लङिकयों के ब्राह्मण होने के कारण ही उ े खींचती रहती है। ब्राह्मण-लङिकयों को
देखकर र्ह अक र ोचता था, इन लङिकयों को कौन बनाता है? यिद इन्हें भगर्ान बनाता है तो भिंळई लङिकयों को कौन बनाता है? अचानक जाने क्या हुआ िक एक
लङकी उ की तरफ देखकर मुस्काई तो र्ह मन्त्र मुग्ध- ा उ के पीछे लगभग हाथ भर की दूरी पर चलने लगा। चलते हुए जै े उ ने ैकङों फू लों के भीतर अपनी नाक
उतार दी हो। पूरे शरीर को पार करती र्ह बेकाबू इछछा उ के हाथ में उतर आई िक र्ह उ े छू दे और, उ ने हाथ भर का फा ला तेजी े पूरा करते हुए उ के हाथ को
छू िदया।

ब छू ना भर था िक र्ह चीखी और िफर तो तहोबाल मच गया। उ के ाथ की लङकी ने इतनी बेकदरी े दुत्कारा, जै े िक लोग गीदे हुए कु त्तों को दुतकारते हैं।

उ के बाद र्ह लङिकयों के झुिंड े ही नहीं, गणगौर के िलए नदी िकनारे आई भीङ े ही अलग हो गया था। लङिकयाँ नदी में जर्ारे खमा रही थीं और र्ह उ र्ेगर्ती
नदी के बहते पानी को िकनारे े टकराता देखता रहा था।

बाद इ के दू रे िदन स्कू ल में ब्राह्मण ेरी के लङकों ने उ को जमकर पीटा था। उ िदन की िपटाई ही थी िक उ ने उ के भीतर ऐ ा भय भर िदया था िक र्ह ब्राह्मण
लङकी की तो छोिङए, उ के घर की दीर्ार की छाँह तक को छू ने में डरने लगा था। या कहें, बामणों की 'छार्ळी भी नहीं दाबी' बिल्क उ छाया े डरने लगा, यों तो
कॉलेज में, एकाध दफा ऐ ा क्षण उपिस्थत भी हुआ िक र्ह िर्ता के हाथ को छू दे, लेिकन तुरतिं उ के भीतर र्ह पुरानी और भूली हुई दुत्कार जाने कहाँ े उिकर
गूज
ँ गई थी।

अभी भी, िर्ता के हाथ पर िर् र-भूले में रख िदए गए अपने हाथ के ाथ र्हीं अनुगूँज िफर े शरीर के कतरे-कतरे में गूज
ँ उिी।

- 'बहुत मुिश्कल े मय िनकालकर आई हँ ! चाँदनी की तह पर उ का चेहरा थरथरा रहा है।

- 'मैं मुिश्कल े तो नहीं लेिकन दूर े आया ह।ँ ' र्ह धीरे े बोला, - 'दादी की मौत का जानकर बङा दुख हुआ !'

- 'ओ हाँ...!' र्ह इ तरह चौंकी जै े उ े याद आया हो िक उनके बीच यह औपचररकता तो बाकी थी। - 'बहुत याद आती है !' अनाया र्ह बोली।

- 'िक की?' र्ह चौंक पङा।

र्ह चुप रही। र्ह मझ नहीं पाया िक यह बात उ ने दादी के बारे में कही या उ को कह रही है।

- 'और ुनाओ, पचाई शुरू कर दी?' र्ह औपचाररक िजज्ञा ा े ह ा पूछने लगी।
- 'नहीं अभी शुरू नहीं की है। मैं अगली बार फॉमा भरूँगा।' उ ने उ िजज्ञा ा की उँगली पकङकर आगे बचते हुए कहा,

- 'तुम ुनाओ, फॉमा तो भर िदया होगा। पचाई शुरू की या नहीं?'

- 'फॉमा तो भर िदया है, ब , पचाई शुरू नहीं की है। िकताबें जरूर खरीद ली हैं। र्ै े ुना है इ बार ि लेब थोङा कम कर िदया है। बहुत- ा को ा िंिक्षप्त िकया है।'
र्ह उ ी तरह भटकी हुई आर्ाज में खुरदरी दीर्ार को घूरते हुए बोली।

- 'यह तो अछछी बात है !' र्ह उ को खुश करने के िलए मुस्कराते हुए बोला।

- 'हाँ अछछा तो है। िजतने भिंळई मरे, उतनी छीत टली !' र्ह खोए हुए स्र्र में बोली, र्ह कते में आ गया। उ ने देखा, िर्ता के चेहरे पर यह खबर कहीं नहीं थी िक
र्ह क्या बोल गई है। उ के मन में यह िर्चार िफर मजबूत होने लगा िक, र्णों के ि फा िर्चार बदलते हैं, िंस्कार नहीं। कु छ चीजें तो इनके खून में घुल-िमल गई हैं।

- 'क्या करते हो र्हाँ िदनभर !' र्ह अचानक ि र उिाकर उ की ओर देखने लगी।

- 'तुमको याद करता हँ िदन-रात।' र्ह हँ कर बोला, हालाँिक यह च है लेिकन उ की हँ ी ने उ े मजाक की तरफ मोङ िदया।

- 'रात को ोते नहीं हो?' िर्ता के चेहरे पर मुस्कान आते-आते रह गई।

- ' ोते हुए तो तुम े िमलता ह।ँ कल भी पने में आई थीं !'

र्ह उ की नेल-पॉिलश पर उँगली िफराता हुआ बोला। उ की उँगली हल्के े काँपी।

- 'क्या था पना?' उ के चेहरे पर एक ििंडी उत् ुकता थी। र्ह चुप हो गया। िफर उ की नेल-पॉिलश को हलाना बिंद करते हुए बोला, - 'बहुत भयानक पना था !
मुझे खुद पर अचरज हो रहा था। मैं पने में भी अचरज में था।'

- 'अछछा ! क्या हुआ पने में, बताओ?' उ के स्र्र का ििंडापन िपघला। उ ने बता िदया।

क्षणभर के िलए जै े र्ह िस्थर हो गई। िफर हँ पङी।

- 'तुम पी.ए . ी. में इितहा लेकर बैि रहे हो ना?' र्ह हँ ते हुए बोली, - 'यही तुम्हें तिंग कर रहा है।'
- 'तो तुम बचाओ मुझे इितहा े!' र्ह मुस्कराकर बोला।

- ' च पूछा जाए तो मैं ही बचा कती हँ तुम्हें!' िर्ता भी अजीब अथापूणा ढिंग े मुस्कराकर बोली।

िफर ह ा जै े र्ह चौंक गई, 'मैं चलूँ। बहुत मय हो गया। घर पर मेरी खोज शुरू हो जाएगी।'

- 'लेिकन इतनी जल्दी?' र्ह िकिं िचत घबराहट में बोला, 'बङी मुिश्कल े तो तुम आई हो। तुम्हें क्या पता तुम े िमलने के िलए िकतने जतन करने पङते हैं? अब मैं तो
तुम्हारे घर नहीं आ कता ह।ँ तुम तो रुको कु छ देर...!'

- 'क्यों नहीं आ कते?' उ की बङी-बङी आँखें और फैल गई िं!

उ े िर्ता के प्रश्न पर अचरज हुआ। इ प्रश्न के जर्ाब में उ के िलए अपमान िछपा है। िर्ता जानती है िक र्ह क्यों नहीं आ कता है।

- 'क्यों नहीं आ कते?' उ ने प्रश्न दोहराया िफर बोली, 'तुम्हें आना चािहए।'

ँ ल गया था। मजाक का हारा लेकर बोला, 'आ जाऊँगा लेिकन खाली हाथ नहीं लौटू ँगा।'
अब तक र्ह भ

िर्ता के चेहरे पर तनार् दरक गया र्ह भी मुस्कराकर बोली, 'हमारे घर े आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा है।' र्ह ह ा िर्ता को ध्यान े देखने लगा। उ के
स्र्र में दपा नहीं था और चेहरा भी देर्ताओिं की मूितायों की भाँित िनिर्ा कार है। जहाँ े कु छ भी पचना अ िंभर् है। र्हाँ ि फा मनचाहे अथा िनकालने की मोहलत है। िफर
र्ह मुस्कराई और बोली, 'अिधकार के िलए ब े पहले याचना को खाररज करना पङता है। र्नाा दूररयाँ अनिंत लगती हैं।'

- 'तो मैं आज आऊँ?' उ ने याचना को खाररज करने का मन बनाया तो िंदेह को र्ाल में उतार िदया।

- 'आज नहीं कल! कल तक मेहमानों की भीङ खत्म हो जाएगी।' अब िर्ता को चेहरा आमिंत्रण देती गिंभीरता े भरा लगा। र्ह चुप रहा तो र्ह िफर बोली, 'यह मत
मझो िक मेरा यहाँ आना भी कोई आ ान है। लेिकन मुिश्कलें बताना भी मुझे उपकार जताने की तरह लगता है। भय और खतरा कम-ज्यादा करके मत देखो। यह दोनों
जगह है।' कहकर र्ह चुप हो गई।

- 'तो मैं कल आऊँगा।' उ ने अपनी िहचक को िनणा य की तरह ुनाया। लेिकन आर्ाज ने आशिंका को पकङे रखा।

- 'तुम िचिंता मत करो।' िर्ता ने उ की आशिंका को दुत्कारा। ह ा र्ह हँ ने लगी ऐ ा कमाल र्ह नहीं िदखा पाया। र्ह चुप रहा तो िर्ता बोली, 'कल तेरहर्ीं की
पिंगत द या ग्यारह बजे तक िनबट जाएगी। तुम तब आना। मैं छत पर रहगँ ी। तब तक भी ो जाते हैं।' उ ने इ बार बहुत ार्धानी े बात नु ी और चेहरा पचा
लेिकन इ बार भी उ े अ फलता हाथ लगी। र्ह मझ नहीं पाया िक यह आश्वा न है या चू ना भर। िर्ता की हँ ी उ े हमेशा भ्रिमत करती है। िफर भी उ ने तय
िकया िक र्ह इ हँ ी की चुनौती स्र्ीकार करेगा और जाएगा।

उ ने देखा, िर्ता का चेहरा िफर भार्हीन है। कु छ देर पहले की हँ ी भी उ के चेहरे े उखङ गई है। र्हाँ हँ ी नहीं है तो कोई दुख या िखन्नता भी नहीं है।

तभी कोई आहट हुई।

- 'मैं चलती ह।ँ कल रात आना!' कहकर र्ह, पीछे के दरर्ाजे े यह-जा, र्ह-जा। र्ह दीर्ार के पा चुपचाप खङा रह गया। चाँदनी र्ह दीर्ार पर ही छोङ गई थी। अब
उ का हाथ खुरदरी दीर्ार पर रखा है। खाली-खाली ा। चाँदनी अब उ के हाथ पर है। चाँदनी को िक ी के जाने े कोई फका नहीं पङता लेिकन उ का हाथ र्ै ा नहीं
दमक रहा है। जै ा िर्ता का हाथ दमक रहा था। तभी चाँदनी में के शर् प्रकट हुआ। एकाएक।

- 'गई क्या? डोकरी आने र्ाली है।' कहते हुए यह देखकर र्ह आश्वस्त हो गया िक र्ह चली गई है।

र्ह दीर्ार े हटकर एक-ढाली में आकर खङा हो गया। िफर खिटया पर बगैर कपङे बदले लेट गया। र्ह जानता है। िकतनी भी कोिशश कर ले, नींद नहीं आएगी। नींद की
कोिशश में र्ह उिकर टहलने लगा। िफर ह ा र्ह रुक गया और खिटया के पा की दीर्ार के ताक में रखी महुए के शराब की मटमैली- ी बोतल िनकाल लाया। चूल्हे
के पा े एक कप उिाकर उ ने एक कप शराब पी और बोतल र्ाप रख दी। जब र्ह खिटया पर लेटा तो उ े लगा िक महुए की तरलता ने उ का काम आ ान कर
िदया?

ुबह जब नींद खुली तो धूप खिटया पर चचने की कोिशश में थी। भाबी ने उ े उिाया भी नहीं था। नौकरी-पेशा बेटे के प्रित इ तरह का लाङ अक र जताया जाता है।
र्ह काफी देर तक अल ाया- ा लेटा रहा। भाबी ने बताया िक पतीले में पानी िनकाल िदया है चाहे तो नहा ले। उ ने छु टके को कहा िक टामलोट में पानी भर दे र्ह टट्टी
जाएगा।

बैङी े लौटकर आया तो उ ने राख े हाथ धोए। भाबी े कहा िक बैग े उ के कपङे िनकाल दे। र्ह नहाएगा। नहाकर कपङे बदले और र्ह िनरुद्देश्य- ा बाहर िनकल
पङा। मुहल्ले में भी पररिचतों के घर े िमलकर र्ाप लौटा तो दो बज रहे थे। खाना खाकर र्ह के शर् को आर्ाज देने दीर्ार के करीब चला आया।

के शर् नहीं िमला तो र्ह अके ला ही गाँर् े बाहर िनकल आया। इतनी तेज दोपहरी में र्ह कहाँ जाएगा, उ े खुद नहीं मालूम है। र्ह महुए के जिंगल में िनकल आया। यहाँ
चारों तरफ छाया है। र्ह पेङ े नीचे िगरे हुए पत्तों पर बैि गया। एक अजीब- ी थकान र्ह मह ू कर रहा है। बहुत ही पररिचत- ी मादक और मीिी खुशबू पेङों े उतर
रही है। अधलेटा हुआ तो उ की आँखें बिंद हो गई। काफी देर तक र्ह लेटा रहा िफर उिा और थके कदमों े घर की ओर चल िदया।

घर आकर िफर खिटया पर लेट गया। करर्ट लेकर भाबी े कहा िक चाय िपएगा। भाबी ने चाय बनाई तो उ ने उिकर हाथ-मुँह धोया और चाय पीने लगा।

हालाँिक िर्ता के जाने के बाद उ ने ोचा था िक कल िर्ता के आमिंत्रण में औपचाररक त ल्ली थी या चुनौती? या िफर महज मजाक? लेिकन र्हाँ जाने की बेचैनी
अब उ के भीतर इतनी ज्यादा है िक िक ी भी आशिंका और तका उ े दबा नहीं कता है।

शाम हो रही है। उ े रात की प्रतीक्षा है।


पूरा गाँर् बामणदाजी के घर जीमने के िलए इकट्ठा हो रहा है। दोपहर े पिंगतें जीम रही हैं। रात तक क्रम जारी रहेगा। र्ह खिटया पर िफर े लेट गया। उ ने लाख ि र
पटका। करर्टें बदलीं। िमन्नतें कीं लेिकन रात अपने मय पर ही आई। रात ग्यारह बजे तक पिंगतें खत्म हो गई लेिकन िर्ता के घर में जाग है। र्ह बारह बजे के बाद
घर े िनकला। अब गाँर् में न्नाटा है। उ े खुद अपने घर े तो कोई िदक्कत नहीं है। र्ह िपछर्ाङे का िकर्ाङ खोलकर बाहर आ गया। आज पता नहीं क्यों मन में
आतुरता, उत् ुकता और रोमािंच के ाथ िंशय भी है। बामण- ेरी में पैर रखा तो िदल जोर े धङकने लगा। िकर्ाङ की कुिं डी भीतर े खुली है। उ ने िनःशब्द भीतर पैर
रखा। अजीब- ी ि हरन दौङी भीतर। अँधेरे में भी उ े मालूम है िक ऊपर जाने की ीिचयाँ िकधर हैं। िर्ता ने कई बार घर का भूगोल बताया है। र्ह धीरे-धीरे आगे
बचा। ीिचयों पर जूिी पत्तलों का ढेर है। शायद बामण पररर्ार की औरतों की पिंगत छत पर बैिी होगी। ऐ ा आम होता है। िफर पत्तलें इकट्ठी करके इधर बाहर छत की
आिखरी ीची पर डाल दी होंगी।

र्ह कोने में खङी है, छत पर बनी छोटी- ी, लगभग तीन फीट ऊँची पेरापेट दीर्ार के पा । र्ह थोङा करीब गया तो हतप्रभ रह गया। र्ह लाल ाङी पहने हुए है। माथे
पर िबिंिदया। पैरों में पाजेब। हाथों में ढेर ारी चूिङयाँ। उ े लगा छत पर चाँद की नहीं, उ ी के ौंदया की चाँदनी िबखरी है। आज उ के गोरे चेहरे पर एक मोहक और
मादक गुलाबी आभा है। उ े लगा जै े र्ह िफर महुए के जिंगल में आ गया है।

र्ह उ दीर्ार पर हाथ टेककर जोर-जोर े ाँ ें लेने लगा। छत पर चारों तरफ जूिन फैली है। िज जगह र्े लोग खङे हैं। अपेक्षाकृ त कम है लेिकन िफर भी चार्ल,
दाल और िमिाई की जूिन फैली हुई है। फाई तो ुबह ही होगी। िर्ता ने आगे बचकर उ के हाथ पर अपना हाथ रख िदया। र्ह पलटा तो उ का चेहरा उ के चेहरे
के बेहद करीब हो गया। उ की ाँ ें उ के चेहरे पर लपट ी टकरा रही हैं।

बाहर दरू -दरू तक रात की ाँय- ाँय है। िफर उ े लगा रात की नहीं शायद उ के भीतर की ाँय- ाँय है, जो खून में खलल पैदा होने े उि रही है।

छत के दाएँ िहस् े में आँगन के पेङ की छाँह है। िज े अँधेरा नीला हो आया है। उ ने एक लपक- ी अनुभर् की और िर्ता को अपनी िगरफ्त में ले िलया। और धीरे-
धीरे छत पर िगरती पेङ की छाँह में ले आया। छाँह के नीचे आते ही उ े लगा, जै े पूरे िं ार की आँखों े ओझल कर िलया है। यह छाँह की र्जह थी या खुद िर्ता के
व्यर्हार की िक र्ह खुद को अिधक ुरिक्षत और ाह ी की तरह अनुभर् करने लगा। र्ह तेजी े अपना दािहना हाथ िनकालकर उ के ब्लाऊज के बटनों को खोलने
को उद्धत हुआ तो हाथ ाङी में उलझ गया। उ े यह ोचकर झुँझलाहट- ी अनुभर् हुई िक बाहर े लङकी के देह े रल ढिंग े िलपटी लगने र्ाली दो-चार मीटर की
ाङी दरअ ल िकतनी-िकतनी पतों और तहों में उलझी हुई रहती है। उ े यकायक िर्ता की देह को िनरार्ृत्त करना मुिश्कल लगा।

पलभर के भीतर यह भी लगा िक उ में भ्य और ुिंदर लङिकयों को ाह के ाथ िनरार्ृत्त करने की ूझबूझ नहीं है। और िर्ता उ की इ अ फलता पर मन में
उपहा कर रही होगी। 'रुको!' िर्ता ने कहा तो र्ह डर- ा गया। जै े र्ह आग्रह नही आदेश हो। िफर हुआ यह िक िर्ता ने क्षण भर में बाएँ हाथ े ाङी का कोई
ि रा और पल्लू कु छ ऐ ी युिि े इधर-उधर िकया िक उ के उरोज िीक ामने आ गए। भीतर की धक-धक अचानक दोगुनी हो गई। उँगिलयों के पोरों तक में जै े
उ के भय की ूचना पहुचँ रही है। उ ने माका िकया िक उ नीले अँधेरे को चाँदनी थोङा-थोङा पारदशी बना रही है। उ ी में उ ने देखना चाहा िक िर्ता की आँखों में
आमिंत्रण की तीव्रता कहाँ तक है, पर र्हाँ उ की मुँदी पलकों के भीतर झाँकने की कोई हिलयत नहीं है। बिल्क उ की मुँदी आँखों का यह अथा था िक जै े र्ह उ े
पता-दर-पता िनशिंक होकर खोलने का मौका उपलब्ध करा रही है।

उ ने ब्लाऊज के बटन खोलने की ोची, पर र्हाँ बटन नहीं, कु छ और ही था, िज े खोलने में उ े िदक्कत आ रही है। शायद उल्टी- ुल्टी िदशा के हुक हैं, जो भूल
भूलैया का खेल रचकर उ में पराजय की फीिलिंग पैदा कर रहे हैं। अचानक उ के हाथों की व्यस्त उँगिलयों को िर्ता की उँगिलयों के गमा पोरों ने टोका। अपनी भीतर
एक आिभजात्य स्त्री के रहस्य को न मझ पाने की अनगचता चुभने लगी।

क्षण भर बाद ही उ ने पाया िक िर्ता ने जादू की तरह उ की उँगिलयों का उपयोग िकया और अब िपस् ी गेहँ के आटे के पींड के रिंग की त्र्चा र्ाले र्क्ष उ के ामने
हैं, िज के बीच भूरे अँधेरे के दो गोल धब्बे हैं। उ ने ज्यों ही अपना थरथराया दायाँ हाथ र्हाँ रखा - िर्ता का मुँह खुल गया। जै े उ ने बाहर रात की ििंडी हर्ा को
भीतर लेना चाहा हो। आँखों पर ढँ की पलकें आधी खुल आई हैं। उ ने उ े खींचकर अपनी ुिर्धा के िलए थोङा ितरछा िकया तो चेहरा पेङ की छाँह े बाहर िनकलकर
चाँदनी में आ गया। र्ह चेहरे की तरफ देखता हुआ िििक- ा गया, गोरे रिंग के चेहरे को घने और काले बालों के ओरा ने घेरकर उ े बहुत अलौिकक और अप्रितम बना
िदया है। त्र्चा चाँदनी ोखकर जै े और गौरर्णी हो गई हो।

उ े लगा, छत पर चाँदनी े नहीं, जै े िर्ता की देह े रोशनी फैली है। जै े स्र्प्नलोक का दरर्ाजा धीरे-धीरे खुल रहा हो।

उ ने ोचा, चमुच ब्राह्मण-त्र्चा ही अ ली त्र्चा है। अकल्पनीय, और यह अलौिकक, परिंपरा े रिक्षत और र्िजात देह उ की देह में िपघल रही है। उ े लगा, र्ह
एक पिर्त्रता को कु चलते हुए अपनी कई पीिचयों को पिर्त्र कर रहा है। ार रहा है।

उ ने एक बनैली लपक के ाथ उ के होंिों पर अपने होंि रख िदए। रखते ही नािभ के नीचे े गमा पानी की एक लकीर िबजली की ी गित े कौंधती हुई पूरे शरीर में
फैल गई, धीरे-धीरे र्ह शरीर े उिकर होंिों में ि मट आई। र्ह िर्ता के होंिों को बेतरह चूमने लगा। चूमते हुए उ े लगा जै े र्ह उ का चुिंबन नहीं ले रहा है, बिल्क
उ की अभी तक की उम्र की पिर्त्रता को ोखकर अपने भीतर जमा कर रहा है-उ के ालों की भी नहीं, शतािब्दयों े िंिचत पिर्त्रता को, जो उ की त्र्चा के रेशे-
रेशे में जमा थी।

र्ह और तेजी े होंिों का इस्तेमाल इ तरह कर रहा है, गािलबन उ की देह ही नहीं, उ के देह के नीचे उ के घर और जमीन के नीचे पाताल तक पहुचँ ी पिर्त्रता को
उलीचकर अपने अिंदर कर लेगा। इ ी बीच अचानक उ े लगा िक र्ह भीतर े इतना अिधक भर आया है िक र्ह उलीचा हुआ अपनी तरलता के ाथ बाहर उफनने
र्ाला है। उ की ाँ फू ल आई और र्ह िर्ता की बगल में ढु लक आया। िर्ता ने बाएँ हाथ े उ की पीि पर उँगिलयों की भार्षा में ऐ ी कु छ इबारत िलखी, िज का
अथा था िक उ में अभी ऐ ा कु छ है, अथाात जो होंिों े उलीचने के िलए शेर्ष और प्रतीिक्षत है। िफर शाइस्तगी े िर्ता का हाथ उ की पीि े रकते हुए देह के नीचे
जाने लगा।

र्ह तृिप्त के िकनारे लेटा हुआ था और भीतर की र्ेगर्ती बाच िकनारों को छू कर मिंथर हो गई थी। तभी अचानक जाने ऐ ा क्या हुआ िक िर्ता ने अपनी देह की मुद्रा
बदली और िपिंडिलयों े कु छ इ तरह हरकत की िक उ की ाङी का िहस् ा अलग हुआ और उ ने पाया, उ की शेर्ष देह िबल्कु ल िनर्ास्त्र है। बाद उ के गोरे और
कोमल हाथ अचानक उ की देह में ृिि के ुख का छोर तलाशते हुए उ ओर जाने लगे, जहाँ े गमा लहर उिने के बाद एक गुजर चुका न्नाटा भर शेर्ष था। िफर
िर्ता के होंि एक बेकली े जै े उ के शरीर के चप्पे-चप्पे की तफ्तीश कर रहे हों।

उ ने िर्ता के र्क्ष े हाथ उिाकर कमर की तरफ नािभ े काफी नीचे रखा तो िबजली की गित े िर्ता ने उ के हाथ को झटककर दूर कर िदया। उ के ऐ े हाथ
झटकते ही यक-ब-यक उ के तमाम रोओिं की जङों के भीतर े एक दुत्कार ी उिी। जो बचपन की उ दुत्कार की तरह ही है जो उ ने नदी में जर्ारे ि राने जाने
र्ाली लङकी के स्पशा पर अनुभर् की थी। उ े लगा जै े िर्ता ने उ े उ की ब्राह्मणी पिर्त्रता े धके लकर बाहर कर िदया हो। र्ह मझ नहीं पा रहा है िक एकाएक
िर्ता के भीतर क्या जाग गया था? जाने कै ा-कै ा तो भी भय भीतर िघरा और उ ने पाया िक िकनारों पर उफनती नदी एकाएक रेत की नदी हो गई है। बाहर छत की
चाँदनी फीकी पजमुदाा लगने लगी। उ ने आँखें मूँद लीं, जै े अब िर्ता की तरफ देखने का हौं ला हाथ े िफ ल गया है और उ के आिभजात्य ने बहुत चालाकी े
कु चल िदया है। उ के भीतर एक िहकारत और गुस् ा एकत्र होने लगा। उ े लगा, उ के भीतर गुजर रहे इ अप्रत्यािशत क्षणों को शायद िर्ता ने भाँप िलया है और
करर्ट बदलकर अब उ ने उ की पूरी देह को ढाँप िलया, उ की देह पर झुकी िर्ता की आँखों में अ ीम अनुराग है। गोया र्े आँखें पूछ रही हों िक अचानक तुम्हें क्या
हो गया था? िफर िर्ता ने बहुत आिहस्ता े बगल े उ का हाथ खींचकर अपने र्क्ष पर धर िदया। तब उ े लगा, िर्ता की ब्राह्मणी पिर्त्रता ने नहीं, बिल्क एक
दग्ध और प्रतीिक्षत कािमनी ने उ की अनगच दैिहक मझ को दुत्कारा था।

िर्ता के होंि उ के होंि पर इ तरह और इतनी तत्परता े आ जुङे जै े र्े उ के िारा पी गई पिर्त्रता को िफर े अपने अिंदर ोखकर उ े खाली कर देगी। लेिकन,
उ की काया का कररश्मा ही कु छ अलग था िक उ में तह े ऊपर उिने का ाह भर आया।
अब की बार जब िर्ता ने उ को अपनी ओर खींचा तो उ के होंिों को अपने होंि के भीतर लेते हुए उ े ऐ ी फीिलिंग हुई जै े र्ह िक ी िनिर्षद्ध की किोर लक्ष्मण
रेखाओिं को तोङकर उ के भीतर दािखल हो गया हो। उ े िर्ता की देह में पुरानी पररिचत ब्राह्मण गिंध आने लगी, िज े र्ह प ीने की गिंध े कु चलने की कोिशश कर
रहा है। र्ह उ े आपादमस्तक चूम रहा है और उ के थूक की जूिन िर्ता की मूची देह पर फैलने लगी।

बाद इ के उ के खून में एक तट को तोङती- ी लहर उिती अनुभर् की। िफर तट टू टा और चट्टानें चटकीं और जै े गुनगुनी नदी का स्त्रोत फू ट पङा हो। िर्ता की
ाँ ों का अिंधङ उ नदी का अिंधङ बन गया।

िर्ता के कपङे अस्त-व्यस्त हैं। छत पर बर ती चाँदनी में खून े भीगी उ की ाङी का ढरका हुआ पल्ला उधङी हुई रिरिंिजत खाल की तरह फैला हुआ है। उ े
पहली बार मूिछछा त- ी पङी िर्ता को देखकर एक त ल्ली हुई जै े उ ने ब्राह्मणी पिर्त्रता के कर्च को उ की देह े छीलकर हमेशा-हमेशा के िलए अलग कर िदया
हो।

र्ह थके कदमों े ीिचयों की ओर बच गया। कु छ ीिचयाँ ही उतरा था िक ीिचयों पर रखी पत्तलों पर पैर िफ ला। तमाम पत्तलों की जूिन में िलथङता, िफ लता
नीचे आँगन में जाकर िगरा। उ ने खुद पर िनगाह डाली। ारे कपङे जूिन े तर-ब-तर हैं। कमीज े दाल टपककर फशा पर िगर रही है। उ ने अपनी कमीज उतार दी।
उ का काला निंगा िजस्म आँगन में चाँद की रोशनी में अिंजन की काली लाट की तरह खङा है।

ह ा दाएँ िकनारे का कमरा खुला और िर्ता का िडप्टी-कलेक्टर भाई बाहर आया। पीछे के कमरे े िर्ता के िपता बामणदाजी की घबराई आर्ाज आई, 'क्या
हुआ? कौन है?'

तब तक उ ने अपनी देह पर आ िगरी जूिी पत्तलों को उिाकर एक तरफ ढेर लगाना शुरू कर िदया। िडप्टी कलेक्टर ने एक नजर उ े देखा िफर भीतर की ओर गरदन
घुमाकर जोर े कहा, 'कु छ नहीं हुआ। मिंगत भिंळई का छोरा है। जूिन उिाने आया है। आप ो जाइए।'

- 'अरे, तो उ े कहो ुबह आ जाए। जूिन िक ी दू रे को थोङे ही देंगे।' बामणदाजी की आर्ाज एक अजीब- ी लापरर्ाही में डू बती हुई मिंद पङ गई।

उ े लगा जै े उ ने कमीज नहीं उतारी है। इ चाँदनी भरे आँगन में उ की खींची हुई खाल उ के हाथ में झूल रही है। पीङा के अितरेक में उ ने चीखना चाहा लेिकन
चीख नहीं िनकली मुँह खुला-का-खुला रह गया।

तभी िडप्टी-कलेक्टर भाई अपने नाइट गाउन की रिस् याँ क ते हुए उ के करीब आया और आिया े देखने लगा और बोला, 'हँ क्यों रहा है?' र्ह कु छ नहीं बोला।
यह ुनकर र्ह जूिन े लथपथ पत्तलों को र्हीं छोङकर ीधा खङा हो गया। और खुद एतमादी के ाथ लिंबे-लिंबे डग भरता हुआ उनके घर के अहाते े बाहर िनकल
गया।

अब उ की इछछा खूब जोर े िहाका लगाने की हुई। र्ह कहना चाहता था िक अब जूिन को लेने के िलए र्ह लौटेगा नही! बामण ेरी को पार करते हए उ े लगा, जूिी
पत्तलें घर के आँगन में छू टी हुई हैं और जूिी देह छत पर। दूर िनकल जाने के बाद उ ने मुङकर बामणदाजी के घर की ओर देखा। पजमुदाा चाँदनी में र्ह बेरौनक लग रहा
है। छत के पीछे ि र झुकाए पेङ खङा है, जो अपनी छाँह को बचाकर िर्ता की तरफ करने की कोिशश में लगा है। उ े त ल्ली हुई िक ििंडी चाँदनी के बाद ि फा गूँगा
पेङ ही तो है, जो गर्ाह बना रह कता है।

ङक / रामदरश िमश्र

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भरा-भरा करती हुई एक जीप दुकान के ामने रुकी।

'ओ चायर्ाले, चार कप चाय बनाना,' - कह कर एक आदमी तीन आदिमयों के ाथ दुकान के आगे पङी खाट पर बैि गया और र्े आप में बनती हुई इ ङक के बारे
में बातचीत करने लगे।

चायर्ाले ने कोयले के चूल्हे पर खौलते पानी को पतीली में डाल कर अिंदाज े उ में चाय, चीनी और दूध िमला िदया और काँपते हाथों े आँखें नीची िकए चार कप
चाय ितपाई पर रख आया।

'अरे हो हो, क्या र्ािहयात चाय बनाई है इ बुड्ढे ने,' कह कर उ आदमी ने झटके े प्याला िहत चाय नीचे लुचका दी। शेर्ष तीनों आदिमयों ने उ की हाँ में हाँ
िमलाई, लेिकन चाय ुङकते रहे।

अब जा कर चायर्ाले ने आँख उिाई और क्रोध े बङबङाते उ आदमी ने भी चायर्ाले को देखा और आश्चया े बोल उिा -

'अरे, आप मास्टर ाहब।'

और मास्टर चिंद्रभान पािंडे ने देखा िक र्ह आदमी और कोई नहीं, उ के इलाके के एमएलए जिंगबहादरु यादर् हैं। उनकी आँखें शमा े झुक गई और
िं झुकी हुई आँखें पोर-
पोर फटी हुई खादी की धोती के बङे-बङे ुराखों में उलझ गई िं।

यादर् जी ने एक िहाका लगाया - 'अछछा मास्टर जी, आपने अब यह धिंधा भी शुरू कर िदया। िीक है आदमी को कु छ-न-कु छ करते रहना चािहए। पै ा बङी चीज है। मेरे
लायक कोई ेर्ा हो तो किहएगा, मास्टर जी।' िफर एक िहाका लगाया और ाथ के लोगों ने भी िहाके का अनु रण िकया। एक ने खुशामद के तौर पर कहा, 'अरे यादर्
जी, आपकी बदौलत जब इ इलाके में ङक आ रही है, तो न जाने िकतने लोगों का पेट पलेगा।'

यादर् जी ने पाँच रुपए का एक नोट िनकाला और मास्टर ाहब की ओर बचा िदया।

'मेरे पा खुले रुपए और पै े नहीं हैं।' मास्टर जी ने कहा।

'अरे तो रिखए न, कौन आप े पै े र्ाप माँग रहा है?'

'नहीं, मैं आप े र्ै े भी पै े लेने का अिधकारी नहीं ह।ँ आपने तो चाय पी ही नहीं।'
'अरे तो चाय के पै े कौन दे रहा है गुरूजी। इ े गुरु दिक्षणा मझ लीिजए। रख लीिजए, काम आएगा।'

पािंडे जी ितलिमला गए। हाथ में पाँच रुपए का नोट पकङे ममााहत े रह गए। उनके मन में क्रोध का एक बर्िंडर उिा। आँखों में िहकारत भर र्े यादर् जी की ओर बचे और
पाँच का नोट उनकी ओर फें क कर िचल्लाए - 'यादर् जी, ये अपने रुपए लेते जाइए, मैं भीख नहीं माँगता।'

लेिकन यादर् जी जीप में बैि चुके थे। मुस्करा कर पािंडे जी और उनके िारा फें के गए रुपए को देखा। जीप भरा-भरा करके स्टाटा हुई और उ की धूल भरी हर्ा में नाचता
हुआ नोट थोङी दूर जा िगरा।

कु छ देर तक नोट धूल-भरी हर्ा में छटपटाता रहा और िफर शािंत हो गया। पािंडे जी उ े देखते रहे, िफर धीरे-धीरे आगे बचे और धूल झाङ कर नोट उिा िलया। आिखर
िकया क्या जाए।

गोरे बदन, चौङे माथे, श्र्ेत के शर्ाले पािंडे जी खादी की एक जीण-शीणा धोती पहने और उ ी का आधा भाग निंगे शरीर पर डाले हुए अपनी झोंपङी के आगे पङी बेंच पर
बैिे-बैिे उदा हो चले थे। उनके चिंदन चिचात ललाट की ि कु ङन भरी रेखाओिं में यादर् जी की जीप े उङी हुई धूप मा गई थी। ोच रहे थे -

यादर् उ े अपमािनत कर गया। र्ह पहले ही कहता रहा िक यह काम उ े नहीं होगा। र्ह ब्राह्मण, पुराना कािंग्रे ी, स्कू ल का िशक्षक। क्या बुचौती में छोटी जाितयों के
लोगों की तरह चाय-पकौङी और ुरती बेचना ही उ की तकदीर में रह गया था। उ ने िकतना मना िकया लेिकन अपनी िंतान के आगे िक का र्श चलता है। रमेश
िजद कर बैिा और कु छ लोगों ने उ की हाँ-में-हाँ िमला दी।

'परा...' पािंडे जी उदा हो आए। हाथ लगा कर देखा खादी की धोती चूतङ पर िफर फट गई थी। धोती क्या है। जै े चीथङों का जोङ। खादी उ े बेपदा करके छोङेगी। अब
र्ह क्या करे? इ ी धोती को र्ह इधर े उधर और उधर े इधर करके पहनता रहता है। भी जगह े तो यह फट चुकी है। अब इधर े उधर करने की भी तो जगह
नहीं बची। रमेश कहता है - 'छोिङए, खादी-र्ादी िपताजी। िमल की धोती मजबूत और स्ती होती है। र्ह इ तरह जगह-बेजगह धोखा नहीं देती।'

र्ह कब े ुन रहा है रमेश की बात को और ोचता है, िीक ही तो कहता है रमेश। लेिकन अब क्या बदलना? अब तो िजिंदगी बीत चली, इ बुचौती में क्या िनयम भिंग
करना? ...लेिकन र्ह कहाँ े खरीदे खादी की धोती। एक मोटी धोती भी तेरह-चौदह रुपए े कम में नहीं आती, िफर उ के ाथ कु रता-टोपी, चादर-तौिलया भी तो
लगे हुए हैं। इतने में तो िमल के मोटे कपङों के कई कई ेट आ जाएँगे और चलेंगे भी ज्यादा। ...िफर भी जी नहीं मानता। जब जीना ही िकतने िदन है। ...लेिकन जी के
मानने न मानने का ही र्ाल तो नहीं है। उ े स्कू ल े ररटायर हुए पाँच र्र्षा हो गए, खेत के नाम पर तीन बीघे खेत - र्ो भी बाचग्रस्त कछार के खेत। छह- ात आदिमयों
का गुजर- ब र कै े होगा। महेश तो पच-िलख कर पररर्ार िहत बाहर चला गया नौकरी करने। उ का अपना ही गुजर-ब र मुिश्कल े होता है। छोटा लङका रमेश
बहुत ढके लने पर भी आिर्ीं पार नहीं कर का। िलपट गया खेती-बारी में। उ के तीन बछचे हैं, दोनों जून भरपेट खाना तो िमलता नहीं, ये खादी के कपङे कहाँ े आएँ?

दुकान के ामने की ङक े लोग आ जा रहे थे। पािंडे जी ने झोंपङी के पीछे जा कर धोती इधर उधर करने की बहुत कोिशश की लेिकन अब उन्हें कोई गुिंजाइश नहीं
दीखी। उ े क्रोध हो आया िक इ ुरी धोती को फाङ-फू ङ कर फें क दे और निंगा हो जाए। ...अरे निंगा तो हो ही गया है। चाय की दुकान खोल कर निंगा हुआ है? हर
पररिचत आदमी एक व्यिंग्यमयी दृिि े उ े देखता है और अजब-अजब र्ाल करता है और ित पर यह यादर् का बछचा उ े इतना अपमािनत कर गया। उ े इतना
क्रोध आया िक इ यादर् के बछचे को िफर एक बार बेंच पर खङा करके उ के चूतङ पर बेंत लगाए, लेिकन अब तो र्ह एमएलए हो गया है, छात्र नहीं रहा। र्ह अपना
क्रोध अपने भीतर ही दबाए ुलगने लगा। लेिकन उ े एक बात े बङी राहत िमली िक उ ने इ एमएलए के बछचे को स्कू ल में कई बार बेंच पर खङा कर बेंत े पीटा है।
अब भी उ के चूतङ पर बेंत के िनशान होंगे। धीरे-धीरे स्कू ल के िदन उ के ामने रक आए। तब कौन जानता था िक यह जिंगली आगे चल कर जिंगबहादुर यादर्,
एमएलए बन जाएगा। क्ला में ब े बोदा लङका यही था। इ े हर रोज मार िपटती थी। कई बार तो इ ने लङकों के चाकू , दार्ात, पेंि लें चुरा ली थीं और उ ने इ े
बेंच पर खङा करके बहुत पीटा था। एक बार तो इ ने गािंधी जी की त र्ीर दू रे लङके की िकताब े फाङ ली थी और उ पर पेशाब कर िदया था। िफर तो उ ने इ े
स्कू ल े ही िनकाल िदया था। बाद में लोगों के कहने- नु ने पर र्ाप ले िलया था... अब र्ह बङा नेता बन गया है। पता नहीं, इ देश में कै े इतने बङे-बङे चमत्कार हो
जाते हैं। ...उ े लगता है िक लोग कहाँ े कहाँ पहुचँ गए और र्ह खादी की फटी धोती पकङे हुए बैिा है।
शाम को रमेश आया और दोनों आदमी दक
ु ान उिा कर घर ले गए।

'मुझ े यह नहीं होगा, रमेश।' पािंडे जी थके -थके े बोले।

'क्यों िपताजी?'

'लोग मुझे बहुत छोटी नजर े देख रहे थे आज। मैं लोगों की िनगाह नहीं झेल पा रहा था।'

'हाँ िपताजी, भूख े भारी लोगों की िनगाहें ही होती हैं न। तो िीक है, हम लोगों की िनगाहें क्यों झेलें, भूख ही झेलें।'

बीच में एक चुप्पी प र गई।

'बैिने को तो मैं बैिता, देखता - कौन ाला मेरा अपमान करता है, लेिकन िफर खेती-बारी चौपट हो जाएगी।'

पािंडे जी कु छ नहीं बोले।

'कु छ िमला, बाबू जी?'

'हाँ, दो रुपए कमाई के और पाँच रुपए गुरु-दिक्षणा के ।'

'गुरु-दिक्षणा कै ी?'

पािंडे जी ने यादर् की कहानी ुना दी।

'अरे तो इ में इतना आहत होने की कौन- ी बात है, बाबू जी। ौ हम लोगों े खाता है, पाँच दे ही गया तो क्या हो गया?'

पािंडे जी ने रमेश को मार खाई हुई दृिि े देखा। रमेश हँ रहा था।
रात को पािंडे जी लेटे तो बङी बेचैनी अनुभर् कर रहे थे। र्े अपने े ही पूछ रहे थे - क्यों भाई आदशा र्ादी कािंग्रे ी, तपे हुए िशक्षक, नशाखोरी के दुश्मन। तुम्हारी यही
पररणित होनी थी। िजन्हें तुमने जीर्न-भर ज्ञान िपलाया, क्या उन्हें अब चाय-पकौङी िखलाओ-िपलाओगे? िजनके ामने नशे के िर्रुद्ध बोलते रहे, उन्हीं के िलए ुरती
तौलोगे? नहीं-नहीं, यह नहीं होगा।

र्ह कब े ोच रहा था िक काश, इ िपछङे हुए कछार में एक ङक आती। लेिकन ारी-की- ारी रकारें तो ोई हुई हैं इ कछार की ओर े आँख फे र कर। ङकें
तो दुिनया में िकतनी हैं लेिकन अपने जर्ार में ङक आने का और उ पर यात्रा करने का ुख कु छ और ही होगा। िकतना प्यारा होगा निदयों-नालों, खिंदकों-खाइयों के
ऊपर े भागती ङक का यात्री होने का। िकतनी ुिर्धाएँ बच जाएँगी। लेिकन तब उ ने कहाँ ोचा था िक ङक के आने का कोई और मतलब भी हो कता है।

और जब कछची ङक पक्की ङक बनने लगी तो रमेश ने कहा, 'बाबू जी, कछची ङक पक्की ङक बन रही है - यह बहुत अछछा हुआ। अपना एक खेत ङक के
िकनारे ही है और उ ी के पा ब अड् डा भी बननेर्ाला है। हम क्यों न र्हाँ कोई दुकान खोल दें? शुरू में चाय की दुकान खोली जाए और कु छ ुरती की गाँिें र्हाँ रख
दी जाएँ। रास्ता तो चालू है ही, अब ङक बन रही है, र्ह और चालू हो जाएगी और बहुत े मजदूर काम पर लगेंगे।'

'अछछा, देखा जाएगा।' टालने की गरज े पािंडे जी ने कहा।

'देखा नहीं जाएगा, अभी शायद िक ी के िदमाग में यह चीज आई नहीं है, बाद में तो भी भरभरा कर दुकानें खोल देंगे। हमें ब े पहले अपनी दुकान जमा लेनी चािहए।'

एक चुप्पी छाई रही।

'इ बुचौती में आपको खेती-बारी के काम करने पङते हैं, इ े अछछा होगा िक आप दुकान पर बैिें। आराम े आपके िदन भी कट जाएँगे और चार पै े की आमदनी भी
हो जाएगी।'

'क्या कहते हो - अब मैं दुकानदारी करूँगा?' र्ह तैश में उिा था तो उ की धोती फट गई थी।

और जब रोज-रोज रमेश के िर्चार उ के िदमाग े टकराने लगे तो एक िदन दुखी मन े स्र्ीकृ ित दे दी। बनती हुई ङक के पा र्ाले खेत में एक झोंपङी पङ गई, कु छ
ुरती के पत्ते तथा चाय के ामान रख िदए गए। र्ह आज पहली बार दुकान पर बैिा था।

लेिकन नहीं, र्ह कल दुकान पर नहीं जाएगा। उ का रोम-रोम पररताप े ुलग रहा है, गरीब हुआ तो क्या - इ बुचौती में अपनी आबरू बेचेगा। करर्ट ली तो धोती
िफर परा े बोल गई। अब निंगा हो कर घर तो रह कता है लेिकन क्या दुकान पर भी जाएगा इ ी रूप में?

ुबह हुई तो रमेश दुकान का ामान िलए हािजर हो गया। पािंडे जी अधनिंगे लेटे रहे।

'बाबू जी, दुकान नहीं जाइएगा?'


पािंडे जी की इछछा तो हुई िक कह दें - नहीं जाऊँगा। लेिकन कह नहीं के । ददा -भरी आर्ाज में बोले, 'निंगा ही जाऊँ क्या?'

ामान नीचे रखते हुए रमेश भारी मन े बोला, 'अब क्या कहा जाए। कु छ रुपए इकट्ठे हो जाएँ तो आपके िलए खादी की एक धोती ला दूँ। खादी भी िकतनी महँगी हो गई।'

पािंडे जी ने देखा िक रमेश के बछचे फटे-पुराने नेकर पहने उ के ामने े स्कू ल चले गए। उन्हें एक चोट- ी लगी - क्या र्ह इतनी महँगी खादी की धोती पहन कर बछचों
को निंगा रखेगा? आज तक तो उ ने यही िकया। उ े क्यों नहीं मालूम हुआ िक खादी-खादी में भेद होता है। एक खादी उ की है, एक यादर् जी की। यादर् ही खादी
पहनने का हकदार है क्योंिक उ के शरीर पर खादी का िर्का हुआ है और र्ह? र्ह नहीं, उ के शरीर पर तो खादी फटती ही चली गई है।

रमेश ामान िलए अिंदर जा रहा था िक पािंडे जी ने पुकारा

'रमेश!'

'हाँ, बाबू जी।'

'तुम्हारे पा एक के अलार्ा कोई ाबुत धोती है?'

'हाँ, है बाबू जी।'

'लाना तो बेटे।'

रमेश ने व्यथा, आश्चया और प्र न्नतािमिश्रत आँखों े िपता को देखा। िपता ने दू री ओर मुँह फे र िलया था।

और कु छ देर बाद पािंडे जी रमेश की धोती पहन कर रमेश के पीछे -पीछे दुकान की ओर चले जा रहे थे।

इन् ािनयत / करतारि िंह दग्ु गल / कीिता के र

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बलौच ि पाही िमल्टरी के रक में मुगों की तरह लद गये थे। उनका ामान र्ैपन-कै ररयर में ुबह भेज िदया गया था। हर फौजी के पा ि फा अपनी-अपनी बन्दूक थी।
मय ही कु छ ऐ ा था िक बन्दक
ू ों पर िंगीनें हर मय चची रहती थीं।
बलौच फौिघयों की इ टु कङी का रदार एक रमजान खान नाम का जमादार था, िज े भी 'मौलर्ी जी, मौलर्ी जी' कहते थे। चलती लारी में जमादार नमािंज पचने के
िलए खङे हो जाते। फ ादों में लाशों के ढेर के आगे मुस् ला िबछाकर लोगों ने नमािंज के मय उन्हें नमाज पचते देखा था। एक ि पाही उनकी दायीं तरफ बन्दूक लेकर
खङा होता और एक ि पाही उनकी बायीं तरफ। देश िर्भाजन के बाद अमृत र क्षेत्र े मु लमानों को िनकाल-िनकालकर र्े पािकस्तान भेजते। जली हुई मिस्जदों के
ामने लारी रुकर्ाकर ये रोने लगते।

और अब उनका काम खत्म हो चुका था। कोई भी मु लमान ऐ ा नहीं रह गया था िज े मौलर्ी ने पािकस्तान की स्र्गा - ी जमीन पर न िभजर्ा िदया हो। जो अपने
घरबार छोङने के िलए तैयार नहीं थे, उन्हें मौलर्ीजी इस्लामी राज्य के ुन्दर िचत्र िदखाते और कोई भी उनका कहना टाल न पाता।

और आज अब लारी चलने लगी तो मौलर्ीजी को अचानक खयाल आया भगर्ान तो भी का एक है। अमृत र के हररमिन्दर की नींर् एक मु लमान फकीर ने रखी थी,
गुरु नानक को अहले- ुन्नत भी अपना पीर मानते हैं और मौलर्ीजी ने दूर गुरुिारे के चमकते हुए ुनहरे कलशों को देखकर ि र झुका िदया।

लारी चली तो ििंडी हर्ा के पहले झोंके ाथ ही मौलर्ीजी की आिंखें मुिंदने लगीं। मौलर्ाजी की आिंखें मुिंदीं तो फ ादों के र्ीभत् दृश्य उनकी आिंखों के ामने उभरने लगे।
िक तरह मु लमानों ने िहन्द-ू ि खों के टु कङे-टु कङे िकये थे और िक तरह िहन्द-ू ि खों ने मु लमानों े िगन-िगनकर बदले िलये थे। कोई कहतापहले िहन्दूओ िं ने की
थी, कोई कहता मु लमानों ने की थी...।

जमादार रमजान खान ऐ े ही खयालों में खोया हुआ था िक ङक े एक खौंफनाक चीख के बाद रक में ि पािहयों के हिं ने की आर्ािंज आयी। पूछने पर पता चला िक
ाइिकल पर जा रहे नौजर्ान ि ख के पा े जब लारी गुजरी तो लारी के एक ि पाही ने अपनी िंगीन े उ के गले को छलनी कर िदया। र्ह ि ख ाइिकल े
उछलकर नाली में िगर पङा जै े कोई मेंढक उछलकर िगरता है। इ ी घटना पर ि पाही हिं रहे थे। जमादार भी ि ख को मारने की इ तरकीब पर हिं ने लगा। उ ने
ोचा चलो एक ि खङा और कम हुआ। और अपनी डायरी में दुश्मन के जानी नुक ान के ब्यौरे में उ ने एक नम्बर और बचा िलया।

रक े हिं ी अभी थमी नहीं थी िक ङक े िफर एक भयानक चीख ुनाई दी। इ बार आर्ािंज िक ी औरत की थी। और लारी में कहकहों की आर्ािंज और ऊिंची हो
गयी। दधू बेचकर गािंर् जा रही िक ी ग्र्ािलन को इ बार िनशाना बनाया गया था। िंगीन की नोक ग्र्ािलन की चोटी मेंंिं जाकर लगी थी और उ के बालों की लट
िंगीन के ाथ कट कर आ गयी थी और ग्र्ािलन का बतान एक तरफ िगर गया था और ग्र्ािलन दू री तरफ ढेर हो गयी थी। िफर बलौची ि पाही बारी-बारी े बालों की
लट की चुमने लगे थे। जब भी ने अरमान पूरे कर िलये तो जमादार ने बालों की लट लेकर अपनी डायरी में रख ली। कािफरों के मुल्क की यह िनशानी भी अछछी रहेगी,
उ ने मन-ही-मन ोचा।

ुबह की ििंडी-ििंडी हर्ा चल रही थी। अमृत र शहर के बाहर ङक पर कोई इक्का-दुक्का ही आ-जा रहा था। बलौच फौंिजयों ने पािकस्तान की शान में गीत गाने
प्रारम्भ कर िदये पािकस्तान आ मान में चमकता एक तारा हैपािकस्तान दिु नया में इन ाफ का एक नमूना होगा पािकस्तान गरीबों और अनाथों का हारा
होगापािकस्तान में कोई जािलम होगा, न कोई मिंजलूम...।

इ ी तरह गाते-गाते एक ि पाही रक में ड्राइर्र के दािहने आकर बैि गया, दू रा जमादार े इजािंजत लेकर उनके बायीं और बै ि गया। और िंगीनों को उन्होंने बाहर
िनकालकर रख िलया जै े कोई िशकारी की घात में बैिा हुआ हो।

ङक पर िफर एक औरत निंजर आयी, गले में गातरे र्ाली कृ पाण, कोई ि ख निंजर आ रही थी। ड्राइर्र ने धीरे- े रक को उ के पा े िनकाला और उ के दायीं ओर
बैिे बलौच ि पाही ने उ गोल-मटोल गुरु की भििन को जै े नेजे पर उछाल िदया हो। ुन ान ङक पर िफर एक चीख ुनाई दी। रक में िफर कहकहे उिे। ड्राइर्र ने
िफर रक को तेज कर िलया।
और जहािं जाकर र्ह औ िंधी िगरी, दूर तक ि पाही एिङयािं उिाकर उ े तङफते हुए देखते रहे।

िफर उ के म्बन्ध में बातें होने लगीं। कोई कहता गुरुिारे े आ रही थी तो दू रा कहता गुरुिारे जा रही थी। कु छ का खयाल था िक खा-पीकर मोटी हो रहीथी।

और जमादार को मझ नहीं आ रहा था िक र्ह अपनी डायरी में दुश्मनों के जानी नुक ान के िह ाब में एक औरत िलखे या एक औरत और एक बछचा। कोई एक मील
बाद एक बूचा डक के िकनारे बैिा पेशाब कर रहा था। लारी िफर ङक छोङकर कछचे रास्ते पर आ गयी। इ बार जमादार के बायीं ओर बैिे ि पाही ने बूचे की पीि में
िंगीन को गाच िदया। बूचा गेंद- ा लुचकता खाई में िगर गया। िफर एक चीख की आर्ािंज और िफर कहकहे। लारी िफर तेज हो गयी।

जमादार रमजान खान ने ोचा जाते-जाते ये अछछे िशकार िमल गये। र्ह बार-बार डायरी खोलता और अपने िह ाब को अप-टू -डेट करता।

शहर े जै -े जै े र्े दरू होते जा रहे थे, र्ै े-र्ै े खतरा कम होता जा रहा था। बलौच ि पािहयों के हौ ले बचते जा रहे थे और उन्हें इ नए खेल में मजा आ रहा था।

हर्ा े बातें करता िमल्टरी का रक जै े उङता जा रहा था। ामने ीमा पर पािकस्तानी झिंडा िदखाई देने लगा था। बलौच ि पािहयों ने झिंडे को देखते ही'पािकस्तान
िजन्दाबाद' के पािंच नारे लगाये और िफर कोई नगमा गाने लगे।

झिंडा जरूर निंजर आने लगा था, पर रहद अभी लगभग तीन मील दूर थी।

थोङा ही आगे जाकर बलौच ि पािहयों ने देखा िक तीन ि ख ङक पर जा रहे थे, दो-दो दायीं ओर तथा एक बायीं और। तीनों में कोई पचा -पचा कदमों का अन्तर
था।

ड्राइर्र के पा अगली ीट पर बैिे बलौच ि पािहयों ने आिंखों-आिंखों े कोई योजना बनायी। और जब ारा नक्शा इशारों-इशारों े भी की मझ में आ गया तो
तीनों मुस्करा पचे।

िफर ड्राइर्र ने रक को दायीं और कछचे रास्ते पर डाल िदया। अगले ही क्षण एक नौजर्ान ि ख िंगीन की नोक े िबिंध गया। रक तेज हो गया। नौजर्ान की चीख
नु कर उ ी ओर जा रही औरत ने हैरानी और घबराहट े पीछे मुङकर देखा। रक उ मय तक उ के ि र पर पहुचिं चुका था और तेजी े बाहर आती गिं ीन उ की
छाती में गच गयी। रक और तेज हो गया। अब बायीं ओर जा रहे बूचे की बारी थी। बूचा जै े ऊिंचा ुनता हो, उ े कु छ भी ुनाई नहीं िदया था। ड्राइर्र बङे ाह े रक
को ङक पर ले आया और िफर बायीं ओर कछचे रास्ते पर डाल िदया और पूरी रिंफ्तार के ाथ रक को बूढे क़े पा े िनकाला। बूचा भूखा-प्या ा कोई शरणाथी लग
रहा था। गिं ीन की नोंक चुभते ही उछला और पिहये के आगे जा िगरा। उ की खोपङी रक के भारी पिहयों के नीचे कु चल गयी। ड्राइर्र ने रक को और तेज कर िदया।

ामने िदख रहा पािकस्तान का धमा , च और न्याय का प्रतीक चािंद-तारे र्ाला झिंडा लहरा रहा था। ड्राइर्र ने रक को और तेज कर िदया। अपने देश े आ रही प्यार-
भरी तेज हर्ाएिं जै े बलौच ि पािहयों का स्र्ागत कर रही थीं और एक नशे में बलौच ि पाही 'अल्लाह ह अकबर' और 'पािकस्तान िजन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे।

ि पाही नारे लगाते जा रहे थे, ड्राइर्र रक की रिंफ्तार को बचाता जा रहा था। तभी ड्राइर्र ने देखा िक अचानक एक जिंगली िबल्ली कू द कर ङक के बीच में आ गयी।
ड्राइर्र ने िबल्ली को देखा, जमादार ने भी िबल्ली को देखा। "इन ािनयत का तकाजा..." इ तरह हुक्म उ के मुिंह में ही था िक ड्राइर्र ने खुद ही रक को एक तरफ
करते हुए िबल्ली को बचाने की कोिशश की। िबल्ली तो बच गयी, पर इतनी तेज जा रहे रक कर हैंडल मुङा तो िफर म्भाल न का। रक कछचे रास्ते पर आ गया, िफर
कछचे रास्ते े उतर कर एक पेङ े टकराकर उलट गया। रक ने एक करर्ट ली, िफर दू री।

पछची िमली-जुली चीखें िनकलीं। और िफर जै े भी के गले पकङ िलए गयें हों, एकदम न्नाटा छा गया। इिंजन के पेरोल े रक को आग लग गयी। ङक पर कोई भी
िहिंदुस्तानी नहीं था जो बलौच ि पािहयों की मदद के िलए पहुचिं ता।

दूर िदख रहा पािकस्तान का झिंडा र्ै े ही लहरा रहा था। घबराहट में ङक के िकनारे कीकर के पेङ पर िबल्ली चच गयी थी और र्हीं े का/टों में े आ/खें फाडे घल रहे
रक को देख रही थी और हैरानी हो रही थी।

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