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त्रित्रिक्रमाची १८ िचने

दत्तगुरुकृपा से मैं सर्वसमर्व तत्पर ।


श्रद्धार्ान को दूँ गा सदै र् आधार ॥
मैं तु म्हारी सहायता कर ूँ गा ननश्‍चित ।
परन्तु मेरे मागव नि-नार्ोों को ही है ज्ञात ॥
मत करना इस नर्षय में सोंदेह निलकुल भी ।
न होने दूँ गा घात तुम्हारा मैं कभी भी ॥
प्रेमल भक्त के जीर्न में ।
नहीों ढूँ ढ़ने िैठता हूँ पाप मैं ॥
हो जाते ही मेरा एक दृनिपात ।
भक्त िन जायेगा पापरनहत ॥
मुझपर नजसका पर्व नर्‍चर्ास ।
उसकी ग़लनतयोों को दु रुस्त कर
ूँ गा खास ॥
सार् ही, सतायेगा जो मेरे भक्तोों को ।
सज़ा अर्‍य ही मैं दूँ गा उसको ॥
मेरे भक्तोों का कोई भी प्रारब्ध ।
िदल दूँ गा, तोड़ दूँ गा या िनाऊूँगा िाूँ ध॥
न आने दे ते हुए जगदों िा के ननयम को िाध ।
दु ख से ननकालकर िाहर, मागव नदखाऊूँगा अगाध ॥
सदै र् मैं तु म्हारा उगता दे र् ।
नहीों ढल जाऊूँगा, सौम्य कर दूँ गा दै र् ॥ १० ॥
पर्व श्रद्धा से मानो मन्नत, िहाओ पसीना, करो भश्क्त परम ।
प्रसन्न होता हूँ तु म्हारी श्रद्धा से, तु म्हारे नलए मैं सर्वकाल सुखधाम ॥
सभी मागों में, मुझे है नप्रय भश्क्त ।
जन्म-जीर्न-मृत्यु तुम्हारा न व्यर्व होगा कुछ भी ॥
शरर्ागत होकर करे गा जो गजर ।
उसके जीर्न में सुख अपरों पार ॥
मेरी भश्क्त करने से, तु म्हें कौन रोकेगा?
कामक्रोध यनद होोंगे भरकर, मेरा नाम मेरे भक्त को तारे गा ॥
प्रेम से जो ले गा मेरा नाम, उसकी सभी कामनाएूँ परी कर ूँ गा ।
समृद्ध कर दूँ गा उसका धाम, शाश्न्त सन्तोष भर दूँ गा ॥
त्रित्रिक्रमाची १८ िचने

मेरे िरर्ोों का नन:सोंदेह ध्यान करने पर ।


सहस्रकोनि सोंकि भाग जायेंगे डरकर ॥
सच्चा भक्त रहता है , दो िरर्ोों में मेरे ।
तीसरा कदम मेरा कुिल दे गा सोंकिोों को तु म्हारे ॥
जहाूँ पर है भश्क्त पर्व श्रद्धा और प्रेम ।
र्हाूँ पर कताव र मैं निनर्क्रम ॥ १८ ॥
अभोंगले खक – डॉ. अननरुद्ध धैयवधर जोशी
ll हरर: ॐ ll ll श्रीराम ll ll अोंिज्ञ ll
॥ नार्सोंनर्ध् ॥

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