श्रद्धार्ान को दूँ गा सदै र् आधार ॥ मैं तु म्हारी सहायता कर ूँ गा ननश्चित । परन्तु मेरे मागव नि-नार्ोों को ही है ज्ञात ॥ मत करना इस नर्षय में सोंदेह निलकुल भी । न होने दूँ गा घात तुम्हारा मैं कभी भी ॥ प्रेमल भक्त के जीर्न में । नहीों ढूँ ढ़ने िैठता हूँ पाप मैं ॥ हो जाते ही मेरा एक दृनिपात । भक्त िन जायेगा पापरनहत ॥ मुझपर नजसका पर्व नर्चर्ास । उसकी ग़लनतयोों को दु रुस्त कर ूँ गा खास ॥ सार् ही, सतायेगा जो मेरे भक्तोों को । सज़ा अर्य ही मैं दूँ गा उसको ॥ मेरे भक्तोों का कोई भी प्रारब्ध । िदल दूँ गा, तोड़ दूँ गा या िनाऊूँगा िाूँ ध॥ न आने दे ते हुए जगदों िा के ननयम को िाध । दु ख से ननकालकर िाहर, मागव नदखाऊूँगा अगाध ॥ सदै र् मैं तु म्हारा उगता दे र् । नहीों ढल जाऊूँगा, सौम्य कर दूँ गा दै र् ॥ १० ॥ पर्व श्रद्धा से मानो मन्नत, िहाओ पसीना, करो भश्क्त परम । प्रसन्न होता हूँ तु म्हारी श्रद्धा से, तु म्हारे नलए मैं सर्वकाल सुखधाम ॥ सभी मागों में, मुझे है नप्रय भश्क्त । जन्म-जीर्न-मृत्यु तुम्हारा न व्यर्व होगा कुछ भी ॥ शरर्ागत होकर करे गा जो गजर । उसके जीर्न में सुख अपरों पार ॥ मेरी भश्क्त करने से, तु म्हें कौन रोकेगा? कामक्रोध यनद होोंगे भरकर, मेरा नाम मेरे भक्त को तारे गा ॥ प्रेम से जो ले गा मेरा नाम, उसकी सभी कामनाएूँ परी कर ूँ गा । समृद्ध कर दूँ गा उसका धाम, शाश्न्त सन्तोष भर दूँ गा ॥ त्रित्रिक्रमाची १८ िचने
मेरे िरर्ोों का नन:सोंदेह ध्यान करने पर ।
सहस्रकोनि सोंकि भाग जायेंगे डरकर ॥ सच्चा भक्त रहता है , दो िरर्ोों में मेरे । तीसरा कदम मेरा कुिल दे गा सोंकिोों को तु म्हारे ॥ जहाूँ पर है भश्क्त पर्व श्रद्धा और प्रेम । र्हाूँ पर कताव र मैं निनर्क्रम ॥ १८ ॥ अभोंगले खक – डॉ. अननरुद्ध धैयवधर जोशी ll हरर: ॐ ll ll श्रीराम ll ll अोंिज्ञ ll ॥ नार्सोंनर्ध् ॥