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यहां प्रस्तुत है नागा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी।

1. नागा अभिवादन मंत्र : ॐ नमो नारायण

2. नागा का ईश्वर : शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते।

*नागा वस्तए
ु ं : त्रिशल
ू , डमरू, रुद्राक्ष, तलवार, शंख, कंु डल, कमंडल, कड़ा, चिमटा, कमरबंध या कोपीन, चिलम, धन
ु ी
के अलावा भभूत आदि।

3. नागा का कार्य : गरु


ु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करना।

4. नागा दिनचर्या : नागा साधु सब


ु ह चार बजे बिस्तर छोडऩे के बाद नित्य क्रिया व स्नान के बाद श्रंग
ृ ार पहला काम
करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। परू े दिन में एक बार शाम
को भोजन करने के बाद ये फिर से बिस्तर पर चले जाते हैं।

5. सात अखाड़े ही बनाते हैं नागा: संतों के तेरह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े ही नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जन
ू ा,
महानिर्वणी, निरं जनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।

6. नागा इतिहास : सबसे पहले वेद व्यास ने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परं परा शुरू की। उनके बाद शुकदे व ने,
फिर अनेक ऋषि और संतों ने इस परं परा को अपने-अपने तरीके से नया आकार दिया। बाद में शंकराचार्य ने चार मठ
स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। बाद में अखाड़ों की परं परा शरू
ु हुई। पहला अखाड़ा अखंड आह्वान
अखाड़ा’ सन ् 547 ई. में बना।

7. नाथ परं परा : माना जाता है कि नाग, नाथ और नागा परं परा गुरु दत्तात्रेय की परं परा की शाखाएं है । नवनाथ की
परं परा को सिद्धों की बहुत ही महत्वपूर्ण परं परा माना जाता है । गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ साईनाथ बाबा,
गजानन महाराज, कनीफनाथ, बाबा रामदे व, तेजाजी महाराज, चौरं गीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि,
जालन्ध्रीपाव आदि। घुमक्कड़ी नाथों में ज्यादा रही।

8. नागा उपाधियां : चार जगहों पर होने वाले कंु भ में नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं।

इलाहाबाद के कंु भ में उपाधि पाने वाले को नागा,

उज्जैन में खूनी नागा,

हरिद्वार में बर्फानी नागा

तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचडिया नागा कहा जाता है ।
इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कंु भ में नागा बनाया गया है ।

9. उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी,
महं त और सचिव उनके पद होते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है ।

10. कठिन परीक्षा : नागा साधु बनने के लिए लग जाते हैं 12 वर्ष। नागा पंथ में शामिल होने के लिए जरूरी जानकारी
हासिल करने में छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कंु भ मेले में
अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग दे ते हैं और जीवन भर यंू ही रहते हैं।

11. नागाओं की शिक्षा और ‍दीक्षा : नागा साधओ


ु ं को सबसे पहले ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दी जाती है । इस परीक्षा
को पास करने के बाद महापुरुष दीक्षा होती है । बाद की परीक्षा खुद के यज्ञोपवीत और पिंडदान की होती है जिसे
बिजवान कहा जाता है ।

अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है । दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है , लेकिन
श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है । श्रीदिगम्बर नागा की इन्द्री तोड़ दी जाती है ।

12. कहां रहते हैं नागा साधु : नाना साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे
पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं। अखाड़े के आदे शानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते हैं। इसी दौरान किसी गांव
की मेर पर झोपड़ी बनाकर धन
ु ी रमाते हैं।

नागा साधू बनने की प्रक्रिया.

नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है । नागा साधओ
ु ं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग
छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कंु भ मेले में अंतिम प्रण लेने के
बाद वे लंगोट भी त्याग दे ते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य
व्यक्ति को ही प्रवेश दे ता है । पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है , फिर उसे महापरु
ु ष तथा
फिर अवधूत बनाया जाता है । अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा
दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है ।

ऐसे होते हैं 17 श्रंग


ृ ार(नागा साधू)

बातचीत के दौरान नागा संत ने कहा कि शाही स्नान से पहले नागा साधु परू ी तरह सज-धज कर तैयार होते हैं और
फिर अपने ईष्ट की प्रार्थना करते हैं। नागाओं के सत्रह श्रंग
ृ ार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि लंगोट, भभूत,
चंदन, पैरों में लोहे या फिर चांदी का कड़ा, अंगठ
ू ी, पंचकेश, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कंु डल,
हाथों में चिमटा, डमरू या कमंडल, गुथी हुई जटाएं और तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप और
बाहों पर रूद्राक्ष की माला 17 श्रंग
ृ ार में शामिल होते हैं।

नागा साधू

सन्यासियों की इस परं परा मे शामील होना बड़ा कठिन होता है और अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप मे स्वीकार
नहीं करते। वर्षो बकायदे परीक्षा ली जाती है जिसमे तप , ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन
तथा निस्ठा आदि प्रमुखता से परखे-दे खे जाते हैं। फिर ये अपना श्रध्या , मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र
लेकर सन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों , संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित
हो जाता है , अपना श्रध्या कर दे ने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से परू ी तरह विरक्त हो जाना , इंद्रियों मे
नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर दे ना होता है कहते हैं की नागा जीवन एक इतर जीवन का
साक्षात ब्यौरा है और निस्सारता , नश्वरता को समझ लेने की एक प्रकट झांकी है । नागा साधुओं के बारे मे ये भी कहा
जाता है की वे परू ी तरह निर्वस्त्र रह कर गफ
ु ाओं , कन्दराओं मे कठोर ताप करते हैं । प्राच्य विद्या सोसाइटी के
अनुसार “नागा साधुओं के अनेक विशिष्ट संस्कारों मे ये भी शामिल है की इनकी कामेन्द्रियन भंग कर दी जाती हैं”।
इस प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधू विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी मानसिक अवस्था उनके अपने तप
बल निर्भर करती है ।

विदे शी नागा साधू

सनातन धर्म योग, ध्यान और समाधि के कारण हमेशा विदे शियों को आकर्षित करता रहा है लेकिन अब बडी तेजी से
विदे शी खासकर यरू ोप की महिलाओं के बीच नागा साधु बनने का आकर्षण बढ़ता जा रहा है ।

उत्तर प्रदे श में इलाहाबाद में गंगा, यमन


ु ा और अदृश्य सरस्वती के संगम पर चल रहे महाकंु भ मेले में विदे शी महिला
नागा साधू आकर्षण के केन्द्र में हैं। यह जानते हुए भी कि नागा बनने के लिए कई कठिन प्रक्रिया और तपस्या से
गुजरना होता है विदे शी महिलाओं ने इसे अपनाया है ।

आमतौर पर अब तक नेपाल से साधू बनने वाली महिलाए ही नागा बनती थी। इसका कारण यह कि नेपाल में
विधवाओं के फिर से विवाह को अच्छा नहीं माना जाता। ऐसा करने वाली महिलाओं को वहां का समाज भी अच्छी
नजरों से भी नहीं दे खता लिहाजा विधवा होने वाली नेपाली महिलाएं पहले तो साधू बनती थीं और बाद में नागा साधु
बनने की कठिन प्रक्रिया से जुड़ जाती थी।
कालांतर मे सन्यासियों के सबसे बड़े जन
ू ा आखाठे मे सन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र और शास्त्र दोनों
मे पारं गत करके संस्थागत रूप प्रदान किया। उद्देश्य यह था की जो शास्त्र से न माने उन्हे शस्त्र से मनाया जाय । ये
नग्ना अवस्था मे रहते थे , इन्हे त्रिशूल , भाला ,तलवार,मल्ल और छापा मार युद्ध मे प्रशिक्षिण दिया जाता था । इस
तरह के भी उल्लेख मिलते हैं की औरं गजेब के खिलाफ युद्ध मे नागा लोगो ने शिवाजी का साथ दिया था नागा साधू
जूना के अखाड़े के संतों द्वारा तीनों योगों- ध्यान योग , क्रिया योग , और मंत्र योग का पालन किया जाता है यही
कारण है की नागा साधू हिमालय के ऊंचे शिखरों पर शन्
ू य से काफी नीचे के तापमान पर भी जीवित रह लेते हैं, इनके
जीवन का मूल मंत्र है आत्मनियंत्रण, चाहे वह भोजन मे हो या फिर विचारों मे

बात 1857 की है । पूरे दे श में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57
के 13 साल पहले 6 जन
ू को मऊ कस्बे में छह अंग्रेज अफसरों के खन
ू से आहुति ले चक
ु ी थी।

एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ठाकुर रणमत सिंह बाघेल ने लगभग तीन
सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर
कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर
कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते
थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500
सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जन
ू को 1958 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर
चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता नागा साधु-
संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा नागा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी
नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बाघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के
नरे शों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की
मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में
क्रांतिकारियों को मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह
गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खन
ू से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो
गया।

महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि
वास्तव में चित्रकूट में हुई क्रांति असफल क्रांति थी। यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो गये थे। साक्ष्यों में जहां
ठाकुर रणमतिसह बाघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी
सिंह बाघेल (भगवान ् सिंह बाघेल ), सहामत खां, लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के
नामों को उल्लेख मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो जाने के कारण
मिलती नहीं है । उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में
राम प्यारे अग्निहोत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह' में मिलता है । इस प्रकार मैं दावे के साथ कह
सकता हु की नागा साधू सनातन के साथ साथ दे श रक्षा के लिए भी अपने प्राणों की आहुति दे ते आये है और समय
आने पर फिर से दे श और धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति दे सकते है ...पर कुछ परु ाव्ग्राही बन्धओ
ु को नागाओ का
यह त्याग और बलिदान क्यों नहीं दिखाई दे ता है ?🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

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