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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ

म ह म त नगरी इ दौर रा य म नमदा तट पर सुशो भत थी । वतमान म


ख डहर से ऐसा तीत होता है क कसी समय वशेष वभू तय से
वभू षत थी । जो वतमान म माहे र के नाम से स है । म डन म वह
रहते थे । ऐसा लखा है । म डन म के वषय म व जन एकमत नह ह ।
आचाय शंकर ने अपने द वजय के म म आकाश माग से उतर कर जब
उस नगरी अथात म ह म त नगरी क शोभा को दे खा । तो अ त व मत ए
। उस नगरी क बड़ी बड़ी अ ा लकाएँ व वध र न से सुस त होकर
चमक रही थ । और दशक क आँख को बबस चकाच ध कर रही थ ।
आचाय शंकर आकाश से उतरते ऐसे तीत ए थे । मानो भगवान व णु के
अवतार परशुराम कातवीय को परा जत करने के लये उतरे ह । नमदा का
शीतल जल तथा सुग त कमल के सौरभ से प रपूण वायु आचाय शंकर
क थकावट र करने लगी । आचाय ने वहाँ नद तट पर शव म दर म
थोड़ा व ाम कर न य कृ य समा त कया । तद तर म या के समय म डन
म के घर क ओर चल पड़े । माग म म डन म क दा सयाँ, जो पर र
सं कृ त म वातालाप करती ई नद से जल लेने जा रही थ । उनसे आचाय
शंकर ने पूछा - म डन म का घर कहाँ है ?
आचाय शंकर का दशन कर दा सयाँ भी वभोर हो ग और स वनय उ र
दया -
वतः माण परतः माण क रा ना य गरं गर त ।
ार नीडा तरस री ा जानी ह त म डनप डतौकः ।
फल दं कम फल दोऽजः क रा ना य गरं गर त ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
ार नीडा तरस री ा जानी ह त म डनप डतौकः ।
जगद् ुवं या गद ुवं यात् क रा ना य गरं गर त ।
ार नीडा तरस ा जानी ह त म डनप डतौकः ।
अथात - जस ार पर टं गे पजर के भीतर बैठ मैनाएँ वेद अथात ु त वतः
माण है । अथवा परतः माण । कम का शुभाशुभ फल कम दे ता है ।
अथवा ई र । जगत ुव है । अथवा अ ुव ? इस बात पर वचार कर रही हो
। उसे आप म डन म प डत का घर जा नये ।
दा सय से इस कार वचन सुन आचाय शंकर म डन के घर गये । पर तु उस
समय घर का ार ब द था । माग म दशक लोग उस अ प वय क य तवर का
दशन कर मु ध होने लगे । तथा उनके मुख म डल से कसी वशेष अवतारी
पु ष क अलौ ककता का अनुभव करने लगे ।
तपोम ह नैवतपो नधानं स जै म न स यवतीतनूजम ।
यथा व ध ा वधौ नम य त पादप ा यवनेजय तम ।

उस समय म डन म ा कर रहे थे । तथा अपने तपोवल से मह ष ास,


जै म न दोन मु नय को इस ा व ध म आम त कर उनके पाद प
का अचन आ द कर रहे थे ।
त ा त र ादवतीय यो गवयः समाग य यथाहमेषः ।
ै पायनं जै म नम युभा यां ता यां सहष तन दतोऽभूत ।
यो गराज आचाय शंकर ने आकाश माग से आँगन म उतर कर दोन मु नय
का अ भन दन कया । उन दोन मु न े ने भी उनका सहष अ भन दन
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कया । म डन म वयं कमका ड के बड़े र सक थे । उस समय आकाश
माग से उतरे ए तथा दोन मु नय के साथ शखा सू र हत जब स यासी
को दे खा । तो उनके ोध का ठकाना न रहा । य क कु छ व ान लोग
ा के अवसर पर सं यासी का आना न ष मानते ह । जब क यह शा
व है । आचाय सव शंकर उनक यह अव ा दे ख व मत हो गये ।
म डन म ने ोध भरी से य त शंकर क ओर दे खते ए कहा -
कु तोमु ड ागला मु डी प ा ते पृ ते मया ।
कमाह प ा व माता मु डे याह तथैव ह ।
- कु तो मु डी ? ( हे मु डी ! कहाँ से आये ? ) यहाँ मु डी श द सं यासी के
त अनादर सूचक स बोधन है ।
इस वा य सरा अथ यह भी हो सकता है क कहाँ से मु डत हो ? आचाय
शंकर ने सरे अथ को मन म रखकर कहा - आगलात मु डी अथात गले तक
मु डन है ।
अरे ! म मु डन के वषय म नह पूछता । क तु -
प ा ते पृ यते मया,
म डन म आचाय से कहते ह - म आपके माग के वषय म पूछता ँ क
आप आये कहाँ से ?
तब आचाय शंकर ने मु कु राते ए कहा - कमाह प ाः ? माग से पूछे जाने
पर उसने या उ र दया ?
म डन म ने चढ़कर व माता मु डा (माग ने मुझे उ र दया क तु हारी
माता मु डा है ।)
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आचाय शंकर वामी कहते ह - ब त ठ क, इ याह तथैव ह (तुमने ही माग
से पूछा है । इस लए वह उ र भी तु हारे लए ही होगा । अथात तु हारी माता
मु डा सं यासनी है । हमारी माता नह ।)
आचाय के वचन को सुनकर म डन म ने कहा -
अहो पीता कमु सुरा नैव ेता यतः मर ।
क वं जाना स त णमहंवण भवान रसम् ।
या तुमने सुरा अथात म दरा पी है ? म दरा पीने वाला ही इस कार क बात
करते ह । पीता श द का सरा अथ पीला रंग भी होता है । उसको मन म
रखकर आचाय शंकर ने कहा क सुरा तो ेत होती है । पीली नह ।
म डन म कहते है - वाह ! तुम तो उसके रंग को भी जानते हो !
शंकर वामी कहते ह - म तो के वल उसका रंग ही जानता ँ । ले कन आप
तो उसके रस को भी जानते ह । अतः सुरां न पवेत ( सुरा - म दरा मत पयो )
इस न ष वा य से आप पाप के भागी ह । म नह । य क म के वल रंग
को जानता ँ ।
आचाय पर चढ़ते ए ोध म आकर म डन म कहते ह -
क ां वह स बु े गदभेना प वहाम ।
शखाय ोपवीता यां क ते भारो भ व य त ।
हे बु े ! जब तुम गदहे ारा भी न ढोने यो य क ा ढो रहे हो । तो शखा
और य ोपवीत जनेऊ म कतना भार है । जो तुमने उनको याग दया है ।
आचाय शंकर कहते ह -

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
क ां वहा म बु े तव प ा प भराम ।
शखाय ोपवीता यामं ुतेभारो भ व य त ।
शखां य ोपवीतं चे येत सव भूः वाहे य सु प र य या मानम व त ।
ाणसंघारणाथ यथो काले वमु ो भै माचर मुदरपा ण े । जाबाल 6
हे बु े ! तु हारे पता तो गृह थे । अतः उनके ारा भी ढोने के अयो य
क ा को तो म अव य ढो रहा ँ । पर तु शखा और य ोपवीत तो ु त के
लए महान भार होगा । य क यह ु त सं यासी होने पर शखा और सू के
याग का वधान करती है ।
क च - परी य लोका कम च ा ा णो नवदमायात ( कम से स ा दत
लोक - फल का परी ण कर अथात अ न य अनुभव कर ा ण वैरा य को
ा त हो )
यदहरेव वरजेतदहरेव जेत । जाबाल ख ड 4 ( जस दन वैरा य हो ।
उस दन सं यास हण करे )
चाया ा गृहा ा वना ा ( चया म से गृह ा म से अथवा
वान ा म से सं यास हण करे )
न कमणा न जया धनेन यागैनैके अमृत वमानशुः । महा नारायण
उप नषद 10/5 ( 1 शाखा वाले ऐसा कहते ह - न कम से । न जा से । न
धन से अमृत व ा त होता है । क तु याग से ही ा त होता है )
अथ प र ाड् ववणवासा मु डोऽप र हः । जाबाल 5 आ द ु त वा य म
ान के लए सं यास हण करने का नदश है । य द शखा सू
का व धवत प र याग कर सं यास हण न कया जायगा । तो उ ु त का
नवाह नह हो सके गा । अतः शखा सू ु त के लए भारभूत है । ु त को
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
भार से मु करने के लए सं यास हण करना बु मता है । बु तो तुम
हो । जो ऐसा नह कया है ।
शंकर के वचन को सुन म डन म कहते ह - तुमने य न से गाहप य,
आहवनीय, द णा न इन तीन ौत अ नय को अपने घर से हटा दया है ।
सं यास हण के कारण । अतः तुमको इ ह या पाप लगेगा । वीरहा वा एष
दे वानां योऽ नीनु ासय त, अ नय को र हटा दे ने वाला इ आद
दे व क ह या करने वाला होता है ।
आचाय शंकर म डन को ललकारते ए कहते ह - त व को न जानने
वाला आ मह या को ा त होता है । अस ेव स भव यसद् े त चे े द,
असत है । नह है । य द ऐसा जानता है । तो वह असत ही हो जाता है ।
असूया नाम ते लोका अ ने तमसाऽवृताः ।
ताँ ते े या भग त ये के चाऽ महनो जनाः । । ईशावा योप नषद 3

म डन को ु त माण दे ते ए कहते ह - वे लोक असूय कहे जाते ह ।


यो क घोर अ ान अंधकार से आवृ ह । उन लोक को मरकर वे ही ा त
ह । जो आ म ह यारे लोग ह । अथात अपने आ म व प को नह जानते ।
मृ तय म भी इसी अथ को कहा गया है -
अ यथा स तमा मानं योऽ यथा तप ते ।
क ते न कृ तं पापं चौरेणाऽ मापहा रणा ।
अथात - सत् चत् आन द व प आ मा को जो असत जड़ ःख प
समझता है । उस आ म अपहरण करने वाले चोर ने कौन सा पाप नह कया

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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
म डन ने आचाय पर ोध करते ए कहा - हमारे घर के ारपाल को वं चत
कर चोर क तरह तुम कै से घुस आये ?
म डन को आचाय ने कहा - अरे ! भ ु को बना दये चोर क तरह तुम
अ कै से खा रहे हो ?
इ ा भोगा ह वो दे वा दा य ते य भा वताः ।
तैद ान दायै यो यो भुङ्कते तेन एव सः । भगवदगीता 3/11
यत चारी च प वा वा म भौ ।
तयोर मद वा तु भु वा चा ायणं चरेत ।
जो य त, चारी, दे व को न दे कर वयं अ खाता है । वह चोर है ।
चा ायण त करे ।
व व च मधाः व सं यासः व वा क लः ।
वा भ कामेण वेदोऽयं यो गनां धृतः ।
म डन कहते है - कहाँ वह । कहाँ वह बु । कहाँ वह सं यास । कहाँ
यह क लयुग । वाद अ भोजन क इ ा से तुमने यह यो गय का वेष
धारण कया है ।
शंकर कहते ह -
व वगः व राचारः वा नहो ं व वा क लः ।
म ये मैथनु कामेन वेषोऽयं क मणां घृतः ।
कहाँ वग । और कहाँ राचार । कहाँ अ नहो । और कहाँ क लयुग । मैथनु
क इ ा से ही तुमने यह क मय का वेष धारण कया है ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
म डन कहते ह -
अ ाल बं गवाल बं सं यासं पलपैतक
ृ म।
दे वरा सुतो प प च कलौ वजयेत ।
अथात - अ ाल ब, गवाल ब, सं यास, ा म पतर को मांस प ड, दे वर
से पु क उ प । ये क लयुग म व जत ह ।
आचाय शंकर ने पराशर मृ त का माण दे ते ए कहा - जब तक वण वभाग
है । जब तक वेदो का चार है । तब तक क लयुग म सं यास और अ नहो
का वधान है ।
याव ण वभागोऽ त याव े दः वतते ।
सं यासम न े ं च तावद त कलौ युगे । पराशर मृ त
शंकर ारा शा माण दे ने पर म डन ने ब त सारे वा य योग कया -
क जडो जडता दे दे भो तके न चदा भ न ।
कमभा योऽ स य यचार सतोऽभा यउ यते ।
क षकोऽ स पापेन षतो जायते नरः ।
चोरै पा तः क वं स तु ष वगपी डतः ।
अ ा थतः कमथ वं समायतो गृहे मम ।
तव भा यवशा णुरहम समागतः ।

म डन ारा ोध से अहंकार स हत वचन कहे जाने पर आचाय शंकर उस


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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
उस वा य का उ र बड़ी सु दर री त से कौतूहल से दे रहे थे ।
म डन म को ोध पूण वचन बोलते ए जै म न मु न मु कु राते ए दे ख
रहे थे ।
तब भगवान ास ने कहा - हे व स ! तीन कार क ऐषणा का प र याग
करने वाले, तथा आ म त व को जानने वाले, ऐसे सं यासी के त तुम वचन
बोल रहे हो । यह अ न दत आ मा का आचारण नह है । अथात या यह
आचरण तु हारे अनु प है ? ास दे व कहते है -
अ यागतोऽसौ वयमेव व णु र येव म वाऽशु न म य वम ।
इ या वं ा व ध तीतं सु य णीः सा व शष मु न तम ।
यह अ त थ वयं व णु भगवान ह । ऐसा जानकर तुम इ ह शी नम ण दो
। इस कार े बु मान म अ णीय आचाय ास ने व ध को जानने
वाले उन स प डत म डन म को श ा द ।
ास मु न क श ा के अन तर प डत म डन भी शा त मना होकर जल
का आचमन आ द करके ास मु न क आ ा अनुसार शा वत् म डन ने
मह ष शंकर क पूजा कर भ ा के लये नम ण दया ।
आचाय शंकर बोले – हे सौ य ! मुझे साधारण अ क भ ा म कोई आदर
नह है । म ववाद प भ ा लेने क इ ा से आपके पास आया ँ । पर तु
शत यह है क पर र श य प से भ ा दे नी वीकार करनी चा हए ।
अथात जो परा जत होगा । वह सरे का श य बन जायेगा ।
शंकर भगव पाद कहते है -
मम न क चद प ुवमी सतं ु त शरः पथ व तू तम तरा ।
अव हतेन मखे ववधी रतः स भवता भवताप हम ु तः ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
वेदा त माग के व तार के बना मुझे कोई भी न त इ नह है । संसार
पी ताप को शा त करने के लये च मा के समान है । वेदा त क म हमा
अलौ कक है । पर तु मुझे इस बात का खेद है क य आ द म नरत होकर
आपने इसक अवहेलना क है । अब म सभी वा दय को जीतकर इस
वेदा त माग का व तार क ँ गा । अतः तुम भी मेरे इस उ म मत को वीकार
कर लो । अथवा मुझसे ववाद करो । या कहो क म तुमसे परा जत आ ँ ।
य तराज शंकर का यह सारग भत वचन सुनकर इस नवीन पराभव से
व मत हो महा यश वी म डन म अपने गौरव म त होकर बोले -
अ प सह मुखे फ णनामके न व जत व त जातु फण ययम ।
न च वहाय मतं ु तसंमतं मु नमते नपते प रक पते ।
य द सह मुख वाला शेषनाग भी शा ाथ के लये आ जाय । तो भी म यह
नह कह सकता क म हार गया । भला म ु त स मत कम का ड को
छोड़कर क पत ास मत ? अथवा तु हारा मत कभी मान सकता ँ ? मेरे
दय म ब त दन से शा ाथ करने क वल इ ा थी । क तु त न
मलने के कारण ऐसे ही रहा । आज तो वयं वजय महो सव हमारे लए
उप त आ है । शा जो पया त प र म कया गया है । वह आज सफल
हो । य द भूतल पर सुधा वयं उप त हो । तो या उसका याग कया जा
सकता है ? म साधारण नह ँ । म मृ योय योपसेम् मृ यु भी जसके
लये उपसेचन है । इस ु त स यम के वनाशक ई र का भी ख डन
करने वाला ँ । वेदा ती लोग कम फल दाता ई र मानते ह । पर तु मने यह
स कर दया है - फल दाता वयं कम है । इसम ई र क कोई आव यकता
नह ।
हे य तवर ! राजहंस क व न के समान मधुर अपनी वाणी से मेरे साथ
शा ाथ करो । दय के गव पी वन को न करने म कठोर कु ठार के
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
तु य सम त शा के मम को जानने वाली मेरी पटु ता या आपके कान
तक नह प च ँ ी ? जससे आप शा ाथ क भ ा चाहते ह । हे मु न ! य द
आप शा ाथ वषयक वाद दे ने क इ ा कर । तो म भ ा क ँ गा ।
आपका यह कथन अ प है । शा ाथ करने के लये तो म सतत उ त ँ ।
मुझे तो यह चरकाल से इ ा रही है । पर तु म या करता । जब क कोई
शा ाथ करने वाला ही नह मला । ये य तवर ! म शा ाथ के लए बलकु ल
तैयार ँ । ले कन जय पराजय का नणय करेगा कौन ? शा ाथ का यह
नयम है क वाद और तवाद एक सरे के व प का हण करते ह ।
और एक सरे पर वजय ा त करने का य न करते ह । अतः आप बतलाइये
क हम दोन क त ाय या ह गी ? कौन सा माण आपको वीकृ त है ।
इस वषय म आपका या अ भ ाय है ? हम दोन का म य भी न णत
होना चा हये । और यह ववाद कल से आर हो । य क आज म या
कृ य पूण करने ह ।

इस पर शंकर वामी ने मु कु राते ए ववाद क वीकृ त दे द और ास


और जै म न को म य होने क ाथना क ।
वधाय भाया व ष सद यां व धयतां वादकथा सु ध ।
इ ं सर व यवतारता ौ त मप या तमभा षषाताम ।
तब दोन मु नय ास और जै म न ने कहा - हे व त शरोम ण ! म डन क
व षी भाया उभय भारती को म य वीकार कर आप लोग शा ाथ कर ।
वह सा ात सर वती का अवतार है । वह शा ाथ का नणय उ चत री त से
करेगी । म डन म ने इस बात का अनुमोदन कया और कृ त काय म लग
गये ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ

म ने भा य से ा त ौत अ न तु य तीन मु न का व धवत पूजन कया


। भोजन कर लेने के प ात तीन मु नय का स मन से उप नषद् पर कु छ
वचार ए । तद तर तीन मु न घर से बाहर नकले । ास और जै म न तो
अ तधान हो गये और शंकर वामी ने श य स हत नमदा तट पर शव
म दर म वास कया । शंकर वामी ने दै वयोग से गु लोग का लभ दशन
पाया । उनक अमृत तु य कथा अपने सब श य को सुनाते रात बताई ।
ातःकालीन कृ य से नवृ होकर शंकर वामी श य के साथ म डन म
के घर सभा म डप म पधारे । शंकर और म डन दोन ही महा प डत थे ।
सम दे श म दोन क या त ा त थी । दोन के शा वषयक चचा सुनकर
ब त प डत तथा व गण अ धक सं या म आकर उप त ए ।
प डतवर म डन म के वशाल भवन म शा ाथ का आयोजन कया गया
। ब त से व ान तथा प डत लोग उ साह के साथ शा ाथ सभा म डप म
ोता के प म उप त ए । आचाय शंकर और म डन म के आ ह से
उभय भारती { शारदा } ने म य पद को सुशो भत कया ।
प या नयु ा प त दे वता सा सद यभावे सुदती चकाशे ।
तयो ववे ुं ुततारत यं समागता संस द भारतीय ।
अथात् प त के ारा म य बनने के लए आ ह कये जाने पर सु दरी
शारदा दे वी ने वह पद हण कया । उनक शोभा दे खने यो य थी । ऐसा
लगता था । मान दोन व ान के शा ाथ के तारत य का नणय करने के
लए वयं सर वती समा म डप म पधारी हो । यह नारी जा त के लए महान
गौरव क बात थी । इसी कार भारतीय सं कृ त म यो य ना रय का समाज
म स मा नत ान रहा है ।

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
आचाय शंकर क त ा
ै ैकं परमाथस दमलं व प चा मना
शु यपरा मनेव बहला ानावृतं भासते ।
त ाना खल प च नलया वा म व ापर
नवाणं ज नमु म युपगतं मानं ुतमे तकम ।
शंकर ने त ा कया - सत् चत् नमल तथा परमाथ है । जैसे म या
ान से सीप रजत प म भासती है । वैसे ही सत, चद आन द व प
म या अना द अ ान से इस यमान प च प से भा सत होता है । जब
इसे त वम स, अहं ा म आ द उप नषद वा य ारा जीव ै य ान
उ प होता है । तब अना द कारण म या ान स हत यह सम त प च
नवृ हो जाता है । और यह अपने असली च मय व प म त त हो
ज म मरण से र हत होकर मु हो जाता है । यही हमारा स ांत है । इसम
उप नषद माण है । म फर अपने इस कथन को हराता ँ । जीव ै य
{ जीव 1 है } मेरा वषय है । उसम उप नषद वा य माण ह ।
एकमेवा तीयं { छा दो य 6/2/1 } स यं ानमन तं { तैतरेय
2/1/1 } सव ख वदं { छा दो य 3/14/1 } व ानमान दं
{ बृहदार यक 3/9/28 } वद् ैव भव त । वदा ो त परम ।
वाचार णं वकारो नामधेयं मृ तके येव स यम । त को मोहः कः शोकः
एका मनुप यतः इ या द ु तयाँ माण ह ।
आचाय आगे कहते ह -
बाढं जये य द पराजयभागहं यां
सं यासम प र य कषायचैलम ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
शु लं वसीय वसनं यभारतीयं
वादे जयाजयफल तद पका तु ।

जय न त होने पर भी य द म इस ववाद म पराजय का भागी आ । तो हे


य ! इस कषाय व स हत सं यास को छोड़कर ेत व धारण क ँ गा ।
इस ववाद म जय तथा पराजय प फल क नणायक यह उभय भारती हो
। य त े शंकर के ारा इस कार अपनी उदार { जीव ै य } त ा
कये जाने पर गृह े व प म डन म ने भी अपने मत क
त ापक त ा क ।
म डन म क त ा-
वेदा ता न माणं च तवपु ष पदे त स ा ययोगात
पूव भागः माणं पदचयग मते कायव तु यशेषे ।
श दानां कायमा ं त सम धगता श र यु तानां
कम यो मु र ा त दह तनुभतृ ामाऽऽयुषः या समा तेः ।
म डन म ने त ा क - चैत य प के तपादन करने म वेदा त
उप नषद माण नह है । य क काया वत च प स व तु म श का
योग नह है । अथात स व तु के तपादन म वेदा त वा य का ता पय
नह है । जैसे घट पट आ द स व तु के बोधन कराने म शा का ता पय
नह है । क तु वेदा त से पूव भाग कम का ड पद समुदाया मक वा य के
ारा सम त काय व तु के बो धत कराने म माण है । घट मानय { घट ले
आओ } इ या द स श द क श आनय आ द काय मा म सम धगत
है । कम से ही मु अ भगत है । इस लए इस लोक म मनु य को आयु
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
पय त कम का अनु ान करना चा हए ।
आ नाय य याथ वादानथ यमतदथानाम { जै म न सू 1/2/1 } यह
मीमांसा का मु य स ा त है क वेद याग आ द या परक है । जो वेद
भाग याग आ द या को नह करता । वह न फल है । वगकामो यजेत्
वग काम पु ष याग करे । यह व ध है । जो वेद वा य कम का तपादन
नह करते । वे भी अथवाद प से सा ात वा पर रया व ध से ही
स ब त है ।
कु व ेवेह कमा ण ज ज वषे त समाः { ईश }
कम करते ए 100 वष जीने क इ ा करे । इस कार ु त आ द माण
के आधार पर यह स होता है क वेद म का कम म ता पय है । म
नह । म डन कहते ह -
वादे कृ तेऽ म य द मे जया य वयो दता या परीतभावः ।
येयं वयाऽभू दता सा ये जाना त चे सा भ वता बधूम ।
अथात् इस वाद के करने पर य द मेरा पराजय आ । तो आपसे कहे ए से
वपरीत भाव शु ल व गृह ा म को छोड़कर कषाय व को धारण
क ँ गा । जन मेरी प नी उभय भारती को आपने शा ाथ म म य बनाया
है । उसे म वीकार करता ँ ।

इस कार यती शङ् कर और व प ने आपस म यह त ा क क


परा जत जीतने वाले के आ म का हण करे । अन तर वजय
म ा पत वाले दोन ने उदार बु वाली उभय भारती को म य पद
पर अ भ ष कर वजय क कामना से शा वाद का आर कया ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ

दोन अपने आव यक कृ य समा त कर शा ाथ करने के लए अपने अपने


न त ान पर आ बैठे । तब उभय भारती ने उनके क ठ म पु पमाला
पहना कर यह घोषणा कर द -
माला यदा म लनभावमुपै त क ठे य या प त य वजयेतर न यः यात ।
उ वा गृहं गतवती गृहकमस ा भ ाशनेऽ प च रतुं गृ हम क र याम ।
अथात् जसके भी क ठ क माला जब म लन हो जायेगी । तब उसी का
न त पराजय समझा जायगा । गृह काय म संल न उभय भारती ने ऐसा
कहकर घर चली गई । य क अपने प त के लए भोजन और सं यासी के
लए भ ा तैयार करनी थी ।

एक सरे पर वजया मक फल म आदर रखने वाले दोन ने ववाद के नणय


के लए वाद का व तार कया । अथात दोन ववाद म लगे रहे । इस
शा ाथ क इतनी स हो गई क ा आ द े दे वता लोग भी अपने
अपने वाहन पर बैठकर सुनने के लए उसी सदन के ऊपर त ए । ा
आ द दे वता क उप त के अन तर दोन म महान शा ाथ आर आ
। बीच बीच म स य लोग उ ह साधुवाद दे कर उ साह बढ़ाने लगे । अपने प
के लए दोन ने सम त वेद क सा ी माण माना । दोन पर र स होते
रहे । दन त दन शा ाथ उ कृ तथा गंभीर होने लगा । इसके सुनने के
लए र र क प डत म डली जुटने लगी । एक सरे को परा जत करने के
लए पूरा य न कर रहे थे । ले कन इस शा ाथ म ाधनीय बात यह थी
क दोन वाद तवाद बड़े ेम भाव से साधु श द का योग कर रहे थे ।
कभी ला त मन नह होते । न उनक वाणी तथा वरा द म श थलता तीत
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
होती । धारावा हक ो र क झड़ी चल रही थी । म य उभय भारती
त दन म या काल म आकर अपने प त को कहती क भोजन का समय
हो गया है । और य त शंकर को कहती - भ ा का समय हो गया है । इसी
कार 5-6 दन बीत गये । शा ाथ म दोन के मुख म डल वक सत थे ।
तथा होठ पर मधुर म द म द मु कान थी । न शरीर म पसीना होता । न क
होता । न वे आकाश क ओर दे खते । अ पतु सावधान मन एक सरे के
का उ र बड़ी ग भता से दे ते । न वे न र होने पर ोध से बा छल का
योग करते थे । अन तर य तराज ने वल ण म डन म के शा कौशल
को दे खकर उनके सब प का ख डन कर दया और व ान के सम उ ह
तभाहीन बना डाला । अथात् शंकर ने म डन म को इस बात पर
न र कर दया क वेदा त वा य भी कम तपादक वा य के समान याग
आ द या को कहते ह । को नह ।

आचाय ने ु त माण से यह स कर दया - वेदा त म माण है, कम


म नह । इस कार स य म े म डन म जब अपने स ा त के समथन
करने म असमथ हो गये । तब वेदा त वा य से स अ ै त अ स करने
म असमथ हो गये । तब वेदा त वा य से स अ ै त स ा त के ख डन
करने क इ ा से म डन म बोले -
भो भो य त मा धपते भव ज वेशयोवा तवमैक यम ।
वशु म यते ह त माणमेव न वयं तीमः ।

व प म डन म कहते है - हे य त े ! आप लोग जीव और क


वा त वक वशु एक पता वीकार करते ह । पर तु इस वषय म हम तो
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कोई भी बल माण नह जानते । अथात कोई माण नह है । नारायण !
व प म डन प डत का अ भ ाय यह है क जैसे माणा तर से अवगत
अथ के बोधक लौ कक वा य वतः माण नह है । वैसे ही घटा द के समान
स ाथ के अनुवादक मा होने से उप नषद भी माण नह है ।
य ा द माण के वषय भूत अथ का ु त से तपादन नह होता । जैसे
भूताथ घटा द य ा द माण के वषय होने के कारण उनका ु त से
तपादन नह होता । वैसे स व तु का भी ु त तपादन नह करती
। ःख हेय है । और सुख उपादे य है । ःख क नवृ और सुख क ा त
येक ाणी चाहता है । वही पु षाथ है । सुख के साधन भूत याग आ द
उपादे य ह । और ःख के साधन भूत हसा सुरापान आ द हेय ह । इसी म
ु त का ता पय है । पर तु हेयोपादे य र हत के तपादन म पु षाथ का
अभाव होने से उप नषद का माण न फल है ।

आचाय सव शंकर दे शके कहते ह - हे व प म डन ! इस वषय म


उप नषद माण ह । उ ालक आ द महान गु लोग ेतके तु आ द मुख
श य परमा मा का आ म प से हण कराते ह ।
स य एषोऽ णमैतदा य मदँ सव त यँ स आ मा त वम स ेतके तो
{ छा दो य उप नषद 6/8/7 } वही स य है । वह आ मा है ।
हे ेतके तु ! त वम स तू अथात तेरा आ मा त व है । तेरा शरीर त व व तु
नह । जैसे जल म डाला गया लवण अथात नमक घुल जाने से गोचर
नह होता । वैसे ही सव ा त होने पर भी गोचर नह होता । न
च षु ा गृ ते प र हत होने से वह च ु से गृहीत नह होता । या व य
कहते ह - अभयं वै जनक ा तोऽ स तदाऽऽ मानमेवावेदहं ा म
त मात सवमभवत ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
हे जनक ! न य है । तू अभय पद को ा त आ है । म ँ । ऐसा अपने
को जान । ऐसा जानने से वह सब आ। वद ैव भव त
वे ा ही होता है । त को मोहः कः शोक एक वमनुप यतः एक व दे खने
वाले को मोह कहाँ । और शोक कहाँ ? इ या द ु त माण, यु और
उदाहरण से जीव क एकता स होती है । ा मभाव स व तु
होने पर भी त वम स अहं ा म इ या द ु त अ त र माण से
अनवगत होने के कारण घटा द के समान य ा द माण का वषय नह है

यथा न च षु ा गृ ते { मु डक 3/1/8 } वह आँख से नह दे खा जा सकता ।
यतो वाचो नवत तेऽ ा य मनसा सह { तै रीय 3/4/1 } अतः य ा द
माण के अ वषय अन धगत अथ को अवगत कराने वाले वेदा त यग
भ म ही माण है ।
हेयोपादे य र हत होने से ा म भाव अपु षाथ भी नह है । य क
हेयोपादे य र हत ा म भाव अवगत होने से ही सब ःख क अ य त
नवृ और परमान द क ा त प पु षाथ स ही है । उपादे य 2 कार
का है - यथा ा त ाम आ द । सरा ा त होने पर भी मवश अ ा त के
समान जानना । जैसे क ठ भूषण एवं हेय भी 2 कार का है - थम
यथा अहीन ावहा रक सपा द । सरा हीन । जैसे पैर के नुपुर आ द भूषण
म सप का म । ा म भाव म थम कार का हेयोपादे य तो य प नह है
। तो भी अ व ा से समारो पत शोक आ द त वम स आ द वेदा त वा य से
उ प त व ान से आ म सा ा कार होने पर नवृ हो जाते ह । और ा त
भी आन द अ ा त इव ा त होता है । य शोका द अ य के समान य
होते ह । अथात न य नवृ शोक आ द क नवृ । और न य ा त
परमान द क ा त पु षाथ है । व प म डन म कहते ह -

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
वेदावसानेषु ह त वमा दवचां स जसा यघमषणा न ।

ं मुखानीव वचां स यो ग ैषां वव ाऽ त कु ह वदथ ।
अथात जैसे वेद म ,ँ फट् आ द मु य वा य जप पाठ करने से पाप नाशक
होते ह । वैसे ही वेदा त म त वम स आ द वा य जप करने से पाप नवतक
होते ह । अतः हे यो गन् ! इन त वम स आ द वा य क जप आ द से
अ त र कसी अथ म वव ा नह है ।
भा यकार सव शंकरदे शक कहते ह - कसी अथ के तीत न होने पर
व ान ने ,ँ फट आ द को जपोपयोगी कहा है । पर तु हे ा ! यहाँ
त वम स के वषय म तो अथ तीत होता है । तो वह जपाथक कै से
होगा ?
म डन म कहते ह - हे य तवर ! कसी अंश म आपका यह कथन ा है ।
पर तु त वम स वा य से जीव ई र का अभेद आपतपः { वना वचार कये }
तीत होता है । व तुतः वह य ा द कम के कता क शंसा के ारा व ध
का अंग ही है । अभेद बोध से तो के वल जीवा मा क न यता कट करता है
। य क आ मा को न य समझने पर पु ष य ा द कम से वू होता है ।
अ यथा नह । अतः वेद का ान का ड कम का ड के स व तु के
लए नह ।

आचाय भगव पाद शंकर दे शके द कहते ह - हे ा ! कम का ड म


आ द यो यूपः आ द य युप है { यूप कहते ह - ण ू ा को यह ायः बाँस या
ख दर वृ क लकड़ी से बनाई जाती है । जसके साथ ब ल दया जाने वाला
पशु, मेघ के समय बाँध दया जाता है । यूप वजय मारक को भी कहा जाता
है } इ या द अनेक वा य उपल होते ह । वे यूप आ द याग के अंग होते ह ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
जैसे यह वा य यूप क आ द य प से शंसा करता आ व ध का अंग है ।
वैसे ही त वम स, अहं ा म इ या द ान का ड के अ तर अभेद वषयक
व ध के अंग कै से हो सकते ह ?

व प म डन म कहते ह - हे भगवन् ! उप नषद् म मनो े युपासीत


{ मन है, ऐसी उपासना कर } अ ं उपा य इ या द वा य कम क
समृ के लए मन, अ तथा आ द या द व तु को मानकर उपासना
का उपदे श दे ते ह । अथात् इनक प से उपासना करनी चा हए । इस
कार उपासना यु कम का फल अ धक होता है । जैसे ये उपासना के
वा य ह ? उसी कार त वम स आ द वा य भी जीव म करने का
उपदे श करते ह । अभेद नही । अतः ये भी वधायक वा य ह ।
आचाय शंकर दे शक कहते ह - हे मनीषी ! यह ठ क नह है । य क जन
वा य का आपने उदाहरण दया है । उनम उपासीत { उपासना करे } इस
कार ल लोट आ द के सूचक पद ह । जससे इन वा य को व ध का
अंग मानना यु है । पर तु त वम स वा य म ल आ द सूचक कोई पद
भी नह है । क तु अ स यावाचक पद वतमान काल का बोध कराता है ।
इस लये उपासना को नह कहता । जससे व ध का अंग हो ।
व प म डन म कहते ह - हे य तवर ! रा स नामक सोम याग म
व ध सूचक लग पद के अभाव म भी त ा पी फल क ा त दे खी
जाती है । अथात त त त हवाय एता रा पय त त ा क कामना
वाला रा स याग करे । जैसे यहाँ व ध क कामना क जाती है ।
वैसे वेद ैव भव त यहाँ पर भी मु पी फल का वणन मलता है ।
इस लये यहाँ भी बुभषू ु वेदनं कु यात व ध क क पना करना यु है
। अथात वह जीव का यान कर उसक उपासना करे ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
आ मा वा अरे { बृहदार यक 2/4/5 } { या व य - हे मै य े ी!
आ मा है } य आ माऽपहतपा ा सोऽ वे ः स व ज ा सत ः
{ यह आ मा पाप र हत है । यह अ वे और वशेष ज ा सत है }
आ मे येवोपासीत आ मानमेव लोकमुपासीत { आ म प लोक क उपासना
करे } वदबृ ैव भगवती इ या द व धय के होने पर वह आ मा कै सी है ?
या है ? इस कार आकां ा होने पर न यः सव ः सवगतो न यतृ तो
न यशु बु मु वभावो व ानमान दं इ या द सब वेदा त वा य
उसके व प को बतलाते ए उपयु होते ह । और क उपासना से
शा से ात और लोक से अ ात मो प फल होगा ।
य द कत व ध म अनु वेश कये वना व तु मा का कथन हो और
हानोपदान र हत हो । तो इससे स त पा वसुम त राजऽसौ ग त { पृ वी
7 प वाली है । यह राजा जाता है } इ या द वा य के समान वेदा त वा य
भी अनथक ही ह गे । क च वेदा त वा य वृ नवृ के बोधक न होने
के कारण शा भी नह हो सकते । य क वृ नवृ परक ही शा
कहा गया है । इसके स ब म भी कहा गया है -
वृ वा नवृ वा न येन कृ तके न वा ।
पुंसां येनोप द येत त ा म भधीयते ।
अथात् न य और कृ तक इनके ारा पु ष को जो वृ का उपदे श करता
है । वह शा कहा जाता है ।
अथात् वेद और मृ त आ द ही शा होते ह । सरी बात - यह र ु है । सप
नह है । इ या द वण से जैसे ा त ोता के भय क ना द नवृ होते ह ।
वैसे व प के वण से संसा र व ा त नवृ नह होती । य क ुत
व प पु ष म यथा पूव सुख ःखा द संसार धम दे खे जाते ह । और
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
म त ो न ध या सत ः { आ मा का मनन और न यासन करने चा हए }
इस कार वण के अन तर मनन और न यासन का ु त म वधान है ।
अथात य द वण मा से च रताथ होता । तो मनन और न यासन का
वधान य होता ? इससे स होता है क के वल वण से फल स नह
होती ।
आचाय शंकर दे शके कहते ह - हे व प ! य द मु उपासना का फल
है । तब तो उपासना प या ज य होने से वग आ द फल के समान
अ न य हो जायेगी । य क य यं तद न यं { जो भाव पदाथ उ प होता
है । वह अव य न होता है } यह नयम है । उपासना भी मान सक या है ।
इसका करना । न करना । व अ यथा करना । के अधीन है । सम त
कम क यही दशा है । पर तु ानं व तुत ं न पु ष त म ान के
अधीन नह है । युत व तु के अधीन है । उसम जानना । न जानना ।
अ यथा जानना । मनु य के अधीन नह है । जैसी व तु होगी । वैसा ही ान
होगा । अ यथा नह । यथा अ न उ ण है । उसको शीतल नह कहा जाता ।
इ या द उदाहण ह । इस लए ान कम के अ तगत नह है ।
आ मा वा अरे ः इ या द ूयमाण ल आ द अ नयो य वषयक होने
से कु ठत हो जाते ह । और ये व धयाँ नह ह । क तु व ध के स श ह ।
अतः वाभा वक वषय क और वृ से वमुखीकरण के लए ह । अथात
वषय क ओर वृ पु ष को वषय से वमुख करना ही इन व धय का
योजन है । अ यथा ीय ते चा य कमा ण त म े परावरे { मु डक
2/2/8 } उस परम त व के दशन करने वाले व ान के सब कम ीण हो
जाते ह । आन दं णो न ा वभे त कु त न { तै रीय 3/1/1 } अभयं
वै जनक ा तोऽ स, हे जनक ! तू अभय पद को ा त आ है ।
तदा तमानमेवावेदहं ा स, उस ानाव ा म अपने ऐसा जाने क म
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
ँ । इ या द ु तयाँ ान के अन तर मो को बतलाती है । य द मो
ान ज य वा अपूव ज य मान । तो ु तयाँ बा धत ह गी । सा ा कार
होने पर तो सव कत ता क हा न और कृ त कृ यता हमारे मत म अलंकार
प है । मनना द सहकृ त वण से सा ा कार होने पर संसा र व का
नवृ ु त मृ त और अनुभव स है । हत शासन से अथात मो प
हत का तपादक होने से वेदा त मु य शा है ।
म डन कहते ह - हे स म ! यह बात है क त वम स आ द वेदा त वा य
उपासना परक नह है । तो न सही । पर तु हे व न ! ये वा य एकता परक
नह है । अ पतु जीव क सा शता परक है । अथात् वह जीव ई र के
स श है ।
तदा व ा पु यपापै वधूय नर नः परगं सा यपुपै त { मु डक 3/1/3 }
ानाव ा म वह व ान पु य पाप र हत हो नर न परम सा य को ा त
होता है । ऐसी ु त भी है । जब भ व तु का अभेद बताया जाता है ।
तो उसका यह अ भ ाय होता है क यह उसके स श है । जैसे सहो
माणवकः यह माणवक नाम वाला सह है । अथात सह के स श है ।
य क यह पु ष सह के समान परा मी तथा नभय है । आ द यो यूपः
अथात आ द य के स श यूप य त है ।

आचाय शंकर कहते ह - य द यह वा य जीव क के साथ समानता का


तपादक है । एकता का नह । तो कस गुण को लेकर ? या चैत य गुण
को लेकर जीव परमे र के स श है ? अथवा सव ता तथा सवश म ा
आ द गुण को लेकर ? य द कहो क चैत य गुण को लेकर समानता है । तब
तो शा आ द का उपदे श थ होगा । य क यह समानता तो लोक स
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
है । उसका कथन के वल अनुवाद मा है । उपदे श नही । य द कहो क
सव ता और सव श म ा आ द गुण को लेकर जीव के स श है । तो
यह भी ठ क नह है । य क थम तो आपके भत का बाध होगा । कारण
क मीमांसक जीवा मा को सव तथा सवश मान नह मानते । सरा य द
सव ता आ द को लेकर जीव परमे र के स श हो जाता है । तो दोन म
समानता होने से भेद ही न रहा । तथा परमे र व प ही आ । य द भेद
मान । तो अन त ई र क क पना करनी पड़ेगी । यह तो महान अ न है ।
अतः एकता मानना यु है ।

म डन कहते ह - हे मु नवर ! जीव भी परमा मा के समान न य है । तथा


आन द आ द गुण का नधान है । ये गुण आ मा म सदा रहते ह । पर तु
अ व ा से आवृ होने के कारण इनक ती त नह होती । य द इस कार
क समानता कह । तो इसम कोई दोष नह है ।
आचाय भा यकार कहते ह - हे व प ! हे ा ! य द यह आप मानते ह
क जीव म परमा मा के स श गुण ह । पर तु वे अ व ा से आवृ ह ।
अ व ा के नवृ ए । वे तीत होने लगते ह । तो फर जीव व तुतः है
। इसके मानने से आपको आ ह य है ? आपने यह वयं वीकार कया है
क जीव अ व ा से आवृ होने के कारण अपने को नह समझता । जब
अ व ा क नवृ हो जाती है । तब वह अपने को सचमुच समझने
लगता है ।
व प म डन कहते ह - अ ा तो इसका यह अ भ ाय आ क चेतन
होने से जीव के तु य है । इस कथन से यह स होगा क यह संसार
चैत य से उ प आ है । ऐसा मानने से अचेतन परमाणु अथवा कृ त से
जगत क उ प मानने वाले वैशे षक तथा सां य का ख डन वतः स
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
हो जाता है ।
आचाय भगव पाद कहते ह - वाह ! वाह ! आपने खूब कही । ऐसी दशा म तो
त वम स के ान पर त वम त वा य होना चा हये । तत { जगत का कारण
- ई र } वम् { जीव } अ त { है } वह तू है । ऐसा योग होगा । तब तो
त वम स म अ स का योग आपके मत से ठ क नह है । आप इस तत पद से
इस जगत के मूल कारण जड़ न होने क स करते ह । वह तो तदै त
{ उसने ई ण कया } इ या द उप नषद वा य से थम ही स है । और
जड़ व क शंका नवृ हो जाती है । तो पुनः धान नरास वषयक शंका
नह करना चा हये ।
{ नोट - तदै त यह वचारणीय है क जगत का मूल त व जड़ है । अथवा
चेतन ? नैया यक और वैशे षक जड़ परमाणु से जगत क उ प मानते ह
। सां य मत म जड़ धान सृ का कृ कारण है । पर तु वेदा त चेतन
को जगत का मूल कारण मानता है । यथा -
{तदै त ब या जायते { छा दो य 6/2/3 } उसने ई ण अथात संक प
कया क - म ब त होऊँ }
य आ द माण से अभेद का वरोध -
म डन म कहते ह - जीव क एकता कथम प स नह हो सकती ।
य क यह एकता य अनुमान तथा ु त इन 3 माण से वा धत है ।
इनम से थम प येक का यह स अनुभव है क म ई र नह
ँ । क तु म अ प जीव उसका दास ँ । यह य माण जीव क
एकता का वरोधी है । इस लये वा यायऽ येत ः इस व ध वा य से
आ त त वम स आ द वचन के वल जपोपयोगी है । ऐसा वीकार करना
चा हए ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
वेदा त भा यकार आचाय शंकर कहते है - य द इ य ारा जीव और
का भेद ात होता । तो अभेद तपादक त वम स आ द वेद वा य का
वरोध न त होता । पर तु य म जीव का भेद ही अगृहीत है । भेद
का व प है । जैसे सूय च मा नह है । मनु य पशु नह है इ या द । भेद
तो अभाव प है । उसके साथ इ य का स ब अयु है । य क
इ याँ अपने अपने गुण तथा गुण यु भाव व तु को हण करती है ।
इस लए भेद प अभाव इ य ारा गृ हत न होने से ई र तथा जीव का
भेद य माण से गृहीत है । यह कथन अयु है । और भेद के य म
अनुपयोगी तथा तयोगी दोन का ान अपे त है ।
अश दम शम पम यम प आ द र हत होने से ई र के साथ इ य
का स ब ही नह है । इससे ई र का य भी नह होता । इससे अभेद
तपादक ु तय के साथ कोई भी वरोध नह है ।
म डन कहते ह - हे य तवर ! वशेषण वशे य भाव स ब को लेकर जीव
के भेद का य ान हो सकता है । यथा - अहमी रा ः { म ई र
से भ ँ } यह पूव जीव भेद का वशेषण है । और ई र वशे य । यहाँ
य प इ य का संयोग स ब नह है । फर भी संयु वशेषण वशे य
भाव का स ब है ही । इस कार हे व न ! भेद गृहीत होने से अभेद का
बाध हो सकता है । इ य और वषय के स ब को स कष कहते ह ।
वना स कष के वषय का ान नह होता । याम मत म स कष 6 कार
के माने गये है - 1 संयोग 2 संयु समवाय 3 संयु समवेत समवाय 4
समवाय 5 समवेत समवाय 6 वशेषण वशे य भाव
आचाय शंकर कहते ह - के वल वशेषणता स कष से कसी भी अभाव का
ान नह हो सकता । य क अ त संग हो जायेगा । वशेषण वशे य भाव
स कष तब लागू हो जन भेदा य आ मा का इ य ारा य हो ।
आ मा तो इ य से अ य है । न च षु ा गृ ते { जो च ु आ द इ य
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
ारा गृ हत नह है } इस लए भेद अनुगहृ ीत है ।
म डन म कहते है - हे य त ! यह यु ठ क नह है । य क भेद का
आ य भूत आ मा का तो इ य से य होता है । याय मत म आ मा
और मन पदाथ है । अतः का संयोग स ब न त ही है ।
आचाय भा यकार भगव पाद शंकर कहते ह - हे योगी ! आ मा को आप या
मानते ह - वभु अथवा अणु ! कसी भी प से आ मा के साथ मन का
संयोग नह हो सकता । य क सावयव का ही संयोग दे खा जाता है ।
आ मा तो अवयवी नह है । य क वभु या अणु दोन अवयव से र हत होते
ह । याय मत म मन भी अणु होने से अवयव र हत है । अतः इनका संयोग
कै से हो सकता है ? मन इ य है । इस स ा त को वीकार कर आपने मन
का भेद के साथ संयोग कहा है । पर तु वेदा त स ा त म मन इ य नह है
। क तु ान कराने म इ य का सहायक मा है । जैसे द पक ने े य
ारा प ान म सहायक मा है ।
इ दये यः परा ाथाः इ ये य परं मनः { कठ ु त 3/10 }
{इ य क अपे ा सू म होने से उनके वषय े ह । वषय से मन उ कृ
है }
मनः ष ानी या ण { भगव ता 15/7 } { मन के साथ 6 इ याँ ह }
इ या द ु तः मृ त माण से यह स होता है क मन इ य नह है ।
क तु उनके साथ वणन मा है । यथा यजमान प चमा इडा भ य त
यजमान ऋ वक न होने पर भी इडा भ ण म पाँचवां कहा गया है ।
व प म डन म कहते ह - हे योगीवय ! य द भेद ान इ य ज य नह
। तो न सही । वह वयं सा ी व प है
{ वेदा त म अभाव अ धकरण प है } फर भी सा ी व प होने से वरोध
होने के कारण जीवा मा और परमा मा अभेद ान कराने म त वम स आ द
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
वा य माण कै से हो सकते ह ?
अचाय सव शंकर दे शक कहते ह - य तथा ु त म कोई भेद नह है ।
य क दोन का वषय { आ य } भ भ है । यथा य माण अ व ा
आ द उपा ध यु जीव तथा मायोपा ध व श ई र म भेद दखलाता है ।
और ु त अ व ा एवं माया प उपा ध र हत शु चैत य व प जीव
का अभेद वणन करती है । इस कार य का वषय औपा धक जीव और
ई र है । और अभेद बोधक ु त का वषय उपा ध र हत शु चैत य व प
यग भ है । 1 आ य होने से वरोध होता है । पर तु भ ा य होने से
दोन म वरोध मान । तो भी कोई वरोध नह । य क पूव वृ माण
बल है । और उ र वृ ु त माण वल है । अतः वल से बल बा धत
होता है । यथा य से तो सूय आ द अ प प रमाण वाले तीत होते ह ।
क तु उ र शा माण से उसका बाध होता है । अथवा जैसे सीपी म पूव
रजत ान उ र शू ान से बा धत है । वैसे ही भेद साधक य माण
अभेद साधक ु त से बा धत है । अप े द याय { यह मीमांसा शा से
स ब त है } से भी ु त य क का बाधक ही है । अतएव अभेद
स ा त स य है । स य है ।
तीय प अभेद का अनुमान से वरोध
न वेवम य यनुमानबाधोऽभेद ुतेः संय मच व तन ।
घटा दवद न पतेन भेदेन यु ोऽयमसव व वात ।

म डन म कहते ह - हे य तराज ! ु त के साथ य माण के । वरोध


का तो आपने ख डन कर दया । पर तु अनुमान से अभेद बोधक ु त
बा धत है । यथा जीवो न पत भेदवान असव वात घटवत । सव न
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
होने के कारण जीव उसी कार से भ है । जस कार साधारण घट ।
यह अनुमान अभेद ु त का बाधक है । अथात इन अन त जीव का नय ता
। तथा इस अलौ कक सृ का कता अ प जीव से भ अव य कोई
सव ई र होना चा हए । अ यथा यह व ा न हो सके गी । अतः यह
अनुमान जीव तथा ई र भेद स करता है ।

आचाय शंकर कहते ह - हे व न ! इस अनुमान से जीव और ई र म जस


भेद को स कया जाता है । या वह पारमा थक { स य } है । या
का प नक { क पत } ? य द पारमा थक है । तो आपका ा त ठ क नह
है । य क आपके मत म पृ वी आ द पदाथ ई र से भ नह ह । तो
ा त कै से हो सकता है । जब क ा त, प और सा य से भ होता है ।
य द का प नक है । तो हम वेदा ती लोग जगत क का प नक स ा मानते ही
ह । तो उसके स करने म माण क या आव यकता है ? इस
का प नक भेद को लेकर व वा मभाव नय य नयामकभाव आ द जगत
क सब व ा सुचा प से चल सकती है ।

म डन कहते ह - हे दे शके ! जीव और ई र का भेद तो आप अ व ा


पी उपा ध से मानते ह । व तुतः दोन 1 ही ह । पर तु ई र और पृ वी का
भेद तो उपा ध के वना है । अतः ा त बन सकता है ।
आचायपाद कहते ह - हम जीव तथा ई र भेद के समान पृ वी तथा ई र म
भेद भी अ व ा प उपा ध से ही मानते ह । य क जब तक अ व ा है ।
तब तक ही भेद है । अ व ा के नवृ ए कोई भेद नह रहता । इस लये
आपका घट प ा त सवथा असंगत है ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
तृतीय प अभेद ु त का भेद ु त से वरोध

ा सुपणा सयुजा सखाया समाने वृ ं प रष वजाते ।


तयोर यः प पलं वा यन यो अ भचाकशी त ।

व प म डन कहते ह - हे य त ! 2 सखा { समान नाम वाले } सु दर


ग त वाले प ी शरीर पी 1 ही वृ को आ त कये रहते ह । सदा इक ा
रहने वाले उनम 1 तो उसके वा द फल { कम फल को } भोगता है । और
सरा उन फल को न भोगता आ दे खता रहता है । इस म म जीव को
कमफल भो ा और परमे र को येक कम का ा अथात कमफल के
साथ त नक भी स ब न रखने वाला बताया गया है । यह भेद बोधक ु त
अभेद तपादक त वम स आ द ु तय क बा धका है । अथात इससे
स होता है क जीव और परमे र 1 नह । क तु अलग अलग ह ।
आचायपाद कहते ह - हे व प म डन ! यह म जीवा मा और परमा मा
म य माण स भेद का के वल अनुवाद मा है । क तु अ य ु त से
इस भेद ान क न दा कही गई है - यदा ेवैष एत म ुदरम तरं कु तेऽथ
त य भयं भव त { तै 3/7 } मृ योः स मृ युमा ो त य इह नानेव प य त
{ कठ 2/10 } { जब यह इस यग भ म थोड़ा सा भेद करता है ।
उसे ज म मरण प भय ा त होती है । वह मृ यु से मृ यु को ा त होता है ।
जो इस म भेद सा दे खता है } इस लये ा सुपणा इस ु त वा य का
मु य ता पय भेद कथन म नह है । हे व न ! य द ऐसा न हो । तो वाथ म
ता पय न रखने वाले सब अथवाद वा य माण माने जायगे ।

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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ

व प म डन कहते ह - े ं चा प मां व सव े षे ु भारत


{ ीमद भगवद गीता 13/2 } { हे भारत ! शरीर आ द सब े म े भी

मुझे जान } इ या द मृ त स अथ के अवबोधक वा य त वम स आ द


ु त मूलक होने से जैसे माण मानना इ है । वैसे ही य स अथ के
बोधक ा सुपणा वा य य मूलक होने से माण मानना होगा ।
आचाय शंकर दे शके कहते ह - य द वेद के ारा ु त मूलक मृ त अथ
म ु त माण नह होती । तो वेदाथ { जीव को न जानने वाले पामर
लोग ारा नाहमी रः { म ई र नह ँ } इस जीव ई र का भेद ात होने
पर भी य मूलक ा सुपणा यह ु त जीव और ई र के भेद म माण
भूत कै से हो सकती है ? यह म जीव और ई र को कहता है । यह वीकार
कर मने पहले ऐसा कहा है । व तुतः ा सुपणा इस म का यह अथ नह है
। क तु अ तःकरण { बु } है । और जीवा मा है । अथात कमफल भो ा
अ तःकरण { बु } है । और पु ष उससे नता त भ है । स ूण संसार से
र हत है । ऐसा ु त भगवती कहती है । वह के वल सा ी है । इस कार ा
सुपणा यह म बु और जीवा मा के भेद का तपादक है । जीव तथा
ई र के भेद का तपादक नह है ।
व प कहते ह - हे पू य ! य द ु त जीव और ई र को छोड़कर जीव और
बु का तपादन करती है । तो इससे जड़ बु म भो ृ व तपादक यह
म माण प कै से हो सकता ?
आचायपाद कहते ह - हे व न ! आपका यह आ पे यु यु नह है ।
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
य क पैङ् यरह य ा ण म यह अथ लखा है -
तयोर य प पलं व इ त स वमन योअ भचा ।
कशी यन योऽ भप य त तावेतौ स व े ा व त ।
स व { बु } कम फल का भो ा है । और ा े { आ मा } है । यह
ु यथ वेदा त प को ही पु करता है । अतः हमारा अथ ु त तपा दत
और समीचीन है ।
व प कहते ह - इस उ ा ण वा य म भी स व श द का अथ
जीवा मा है । और े श द का अथ परमा मा । इस ा ण म म भी
जीवा मा और परमा मा का हण है । बु और जीवा मा का नह ।
आचाय शंकर भगव पाद कहते ह - हे व न ! इस ा ण म तो लखा
है क - तदे त स वं येन व ं प य यथ योऽयं शारीर उप ा स े ः
तावेतौस व े ौ, अथात् स व वह है । जसके ारा व दे खा जाता है ।
और े वह है । जो शरीर म रहता आ सा ी है । दोन स व और े
ह । इस कार इस म म स व श द बु और े ा जीवा मा को
कहा गया है । क तु जीव और ई र नह । अतः आपका कथन अयु
है ।
म डन म कहते ह - हे योगी ! उ वा य तदे त स वं येन व ं प य त म
स व श द का अथ व और दशन या का करने वाला कहा गया है । वह
जीव है । उसी कार े श द से व ा सव वत ई र कहा गया है ।
अतः मेरा अथ उपयु है ।
आचाय भगव पाद कहते ह - हे मनीषी ! येन व ं प य त इस वा य क
या है प य त । इसम तङ त यय कतृवाचक है । और येन पद म तृ तया
करण अथ को सू चत करती है । इससे तीत होता है क स व दशन का
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कता नह । ब क करण ार है । अथात इसका अथ बु है । जीव नह ।
उ वा य म ा का वशेषण है शारीरः । शारीरः - शरीर म रहने वाला ।
इस लए े कदा प ई र नह हो सकता । क तु शरीर म रहने वाला जीव
हो सकता है ।
व प म डन कहते ह - हे यो गन् ! शारीरः पद का अथ सव ापक
महे र य नह हो सकता ? शारीरः पद का तो यही अथ है क शरीर म रहने
वाला तो ई र शरीर म रहता ही है । अतः शारीरः पद ई र का बोधक है ।
आचाय शंकर दे शक कहते है - सव ापक होने से जब ई र शरीर से बाहर
भी है । तो वह के वल शारीर कै से हो सकता है । जस कार आकाश सव
ापक होने से शरीर म भी रहता है । तो इससे आकाश को शारीर पद से
कोई नह कहता ?
व प म डन कहते है - मान ली जये क ा सुपणा यह म जीव और
ई र को न कहकर बु और जीवा मा का तपादक है । पर तु अचेतन
बु कम फल को भोगती है । यह कथन अयु है । य क भो ा तो चेतन
होता है । जड़ नह । य द यह ा सुपणा म जड़ भो ा को कहे । तो वह
माण कै से हो सकता है ?
आचायपाद कहते ह - य प लोहा वयं दाहक नह । फर भी अ न के
स ब से उसम दाहक श आ जाती है । अथात उसम दाहक व योग
होता है । उसी कार उसम चेतन के वेश करने से अथात चेतन के
आ या सक तादा य स ब से अथवा चेतन त ब बत होने से बु म भी
चेतन के समान भो ृ व श उ प हो जाती है ।
नोट - ा सुपणा इस म पर म डन म का शा ाथ समा त हो गया । अब
वह कठ ु त के आधार पर पुनः शा ाथ आर करते ह -
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
ऋतं पव तौ सुकृत य लोके गुहां व ौ परमे पराध ।
छायातपौ वदो वद त प चा नयो ये च णा चके ताः । कठ ु त 1/3/1
वे ा लोग कहते है - शरीर म बु प गुहा के भीतर कृ ान म
व ए ऋतं कम फल को भोगने वाले छाया और घाम के समान पर र
वल ण 2 त व ह । ज ह ने 3 वार ना चके ता अ न का चयन कया है । वे
प चा न के उपासक लोग भी यही वात कहते ह ।
म डन कहते ह - यह कठ ु त कहती है क जस कार धूप और छाया
पर र भ ह । उसी कार जीव और ई र भी सवथा भ भ है । इस
कार ऋतं पब तौ यह कठ ु त क बा धका है ।

आचाय शंकर दे शक कहते ह - वहार स भेद का तपादन करती ई


यह ु त अभेद तपादक पर ु त का बाध नह करती । सच तो यह है क
त वम स यह अभेद ु त अपूव अथ { जीव क एकता जो लोक म
स है } का बोध कराती है । इस लये वह अ धक बलवती है । इस एक व
तपादक बलवती ु त से भेद ु त बा धत है । ऋतं पब तौ इस ु त का
भेद वणन करने म ता पय नह है । य क भेद तो वना ु त क सहायता के
भी लोक म स है । ु त का ता पय तो अपूव अथ के तपादन म है ।
इस लये आपके ारा उ धृत ऋतं पब तौ यह ु त भेद बोधक नह है ।
क तु लोक स भेद का के वल अनुवाद मा है ।
म डन कहते ह - हे य तवय ! हमारी बु म अभेद ु त से भेद बोधक ु त
अ धक बलवती है । य क { म ई र नह ँ } इस कार य आ द
माण भी उसक पु करते ह । इस लए भेद ु त य ा द माण से
बा धत अथ को कहने वाली अभेद ु त क बा धका है ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
शंकर वामी कहते ह - हे प डतवय ! ु तय म बलव ा कसी अ य माण
से संपा दत नह है । अ यथा उन माण से गताथ हो जाने के कारण ु तय
म बलता ही संपा दत होगी । अथात अपनी माणता या बलव ा म अ य
माण क सहायता लेने का अथ तो यह है क ु त को बल बनाना । या
परतः माण मानना । जब क वेद वतः माण माने गये ह । वेद का ता पय
लोक स अथ { भेद } के तपादन करने म नह है । य क वह तो लोक
स है । युत अ ात अथ { जीव क एकता } के तपादन करने म
ता पय है । जो लोक स नह है । इस कार भेद ु त से अभेद ु त
बल है । अतः जीव क एकता मानना ही ठ क है ।

तै रीय ु त के आधार पर शा ाथ ।
स यं ानमन तं यो वेद न हतं गुहायां परमे ोमन ।
सोऽ ुते सवा कामान सह णा वप ते त । तै रीय 2/1
म डन म कहते ह - जो सत चद आन द व प को परम आकाश
अथात दय के अ दर गुफा म त जानता है । वह सव ा के साथ सब
कामना को भोगता है । इस ु त से यह स होता है क मु म
जीव और अलग अलग रहते ह । अतः भेद स य है ।
आचायपाद कहते ह - इसका यह अथ नह है क ा के साथ सम त
कामना को भोगता है । क तु इसका अ भ ाय है यह है क अ व ा कृ त
आवरण र होने से व प होकर वह एक साथ उन सभी कामना को
भोगता है । जो थम ही उसके अ दर व मान थ । पर तु अ व ा के कारण
अ व ामान सी थ ।
व पाचाय म डन कहते है - आ मा वा अरे ः ोत ो म त ो
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
न द या सत ः । बृहदार यक ु त 2/4/1
या व य - हे मै ये ी ! आ मा है । अतः उसका वण, मनन तथा
न द यासन करना चा हये । इस ु त म जीव को सा ात करने वाला । तथा
परमा मा का सा ात करने के यो य बतलाया गया है । इस लये दोन का भेद
स य है ।
शंकर वामी कहते ह - यहाँ भी व हार स भेद को लेकर कम और कता
का तपादक है । अ यथा अभेद बोधक ु तय के साथ वरोध होगा ।
य क ु तय का सही ता पय अभेद अथात एक व म है । इस लए यहाँ भी
लोक स भेद का अनुवाद मा है ।
अथाप माण को लेकर शा ाथ ।
व पाचाय म डन कहते ह - हे यो गन ! य द जीव क के साथ
एकता हो । तो सबको तीत होनी चा हए - जीव है । पर तु एक व ान
नह होता है । इस लये दोन म अभेद नह । क तु भेद ही है ।
शंकर वामी कहते ह - अ रे े म घट घड़ा ात नह होता । तो इससे यह नह
समझा जाता क अ रे े म घड़ा नह है ? य क काश से अ कार के
नवृ होने पर वह तीत होता है । इसी कार अ व ा के कारण य प
अभेद ान नह होता । फर भी ऐसा नह कहा जा सकता क अभेद नह है
। य क व ा से अ व ा के नवृ हो जाने पर अभेद ात होता है ।
{इस कार ब त दन तक यह शा ाथ होता रहा । दोन वा दय ने अपने
अपने प क स म ब त से तक दये । माण उप त कये । पर तु
अ त म य तवर भगव पाद ने म डन म को सब कार से न र कर
शा ाथ म परा त कर दया । आचाय क इन अकाटय व ढ़ यु य का
सर वती ने अनुमोदन कया । उसने म डन म के हष को खेद मे प रव तत
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कर दया । प त के भावी सं यास हण करने के कारण ख होकर सर वती
ने अपने सा ी होने का माण भी दे दया । जससे स होकर दे वता ने
आकाश से सुग त पु प क वृ क । }
इ ंयत तपतेरनुमो यु मालां च म डनगले म लनामवे य ।
भ ाथमु लतम युवा म तमावाच तं पुन वाच य त दम बा ।
य तराज क यु य का अनुमोदन कर और म डन के गले क माला को
मलीन दे ख उभय भारती ने कहा - आप दोन भ ा के लए च लये । और
शंकर से वह वशेष प से फर बोली - ाचीन काल म अ त ोध वश
वासा ने मुझे शाप दया था । उस शाप क अव ध आपका यह वजय है ।
अब मेरा यह शाप समा त हो गया । इस लये हे य त ! म अपने धाम को
जा रही ँ । इतना कहकर जब उभय भारती शी ता पूवक जाने लगी । तब
आचाय शंकर ने नव गा म ारा उ ह बाँध रखा । य क वे उनको भी
परा त करना चाहते थे । शंकर वामी का सर वती के ऊपर वजय पाना
अपनी सव ता दखला कर त ा ा त करने के लये नह था । क तु
अपने अ ै त स ा त क स के लये था ।
आचाय शंकर सर वती से बोले - म आपको भली भाँ त जानता ँ । आप
शव क सहोदर बहन है । तथा ा क धम प नी ह । इस संसार के
क याणाथ आपने अवतार धारण कया है । इस लये जब तक आपके जाने
म हमारी इ ा न हो । तब तक आप यहाँ वराजमान ह । आचाय के
सारग भत वचन को सुनकर सर वती ने शंकर वामी के अनुकूल होने क
अनुम त दे द । तब मु न आन द से गदगद हो गये । और म डन म के
दयगत भाव को जानने के लए उ सुक ए ।
य त े आचाय शंकर भगव पाद के वेदाथ नणय करने वाले, याय से यु
वचन से म डन म ने जब अपने को शा ाथ म परा त होने का अनुभव
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कया । तब उनका ै ता ह य प शा त हो गया । तो भी उ ह ने स दे ह कर
सभा म यह कहा - हे य त ! मुझे इस समय अपने अ भनव पराजय से
त नक भी ःख नह है । क तु इस बात का खेद अव य है क काल
जै म न मु न के वचन का आपने ख डन कया है । वे तपो न ध वेद के
चार और जगत के हत म रत थे । भला इ ह ने गलत सू क रचना य
क ?
सव शंकर दे शक कहते ह - जै म न के स ांत म कह पर भी अ यास
संशय तथा वपय नह है । यह के वल हमारी अन भ ता है क जससे उनके
अ भ ाय को नह समझ सकते । जै म न का अ भ ाय परमान द व प
पर के तपादन म ही है । पर तु वषय वाह म बहने वाले जन साधारण
को उसक ओर ले जाने के लए पु य कम को करने क व ा क ।
य क न काम पु य कम से अतःकरण क शु होती है । जो ान
क ा त म सहायक है । इससे शु अतःकरण वाले को
ज ासा हो सकती है । इस अ भ ाय को ु त भी करती है -
तमेतं वेदानुवचनेन ा णा व व दष त । य ेन दानेन तपसाऽनाशके न ।
ज ासु वेद के अ ययन, य , दान तथा अनाशक तप से उन को
जानने क इ ा कर ।
व पाचाय म डन म कहते ह - हे य तवय ! तब इस जै म न सू का
या ता पय है ? आ नाय य याथ वादादाथ यमतदथानाम । जै म न सू
1/2/1 ( कम का तपादन करने वाली ु तयाँ ही साथक है । जो वेद भाग
य आ द या के लए नह है । वह नरथक है } इस सू से स
होता है क स ूण वेद सा ात व पर रा से कम का वणन करता है । न क
का ।

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
सव शंकर दे शके कहते ह - ु त का ता पय तो अ ै त के तपादन
म ही है । पर तु पर रा से आ म ान उ प करने वाले कम म भी ु त का
यान है । इस कार यह सू कम के करण म है । अतः उसका अथ कम
परक मानना चा हए । पर तु व ा का करण तथा वषय इससे भ है
। इस लए इस सू के अ भ ाय वेदा त वा य नरथक नह हो सकते ।
म डन कहते ह -
ननु स दा मपरताऽ भमता य द कृ नवेद नचय य मुनेः ।
फलदातृतामपु ष य वद त कथं नराह परमे रम प ।
-जब सम त वेद का स दान द के तपादन म ता पय है । तब
परमे र से भ कम ही फलदाता है । इस स ा त का तपादन मु न ने
ई र का नराकरण कर कै से कया ?
आचाय शंकर भगव पाद कहते ह - हे व प ! येक कम कसी कता
ारा होता है । जग काय ई रकृ तृ कं काय वात, यथा मकान कसी कारीगर
से बनाया जाता है । तथा जगद प काय भी कसी वशेष कता ारा होना
चा हये । वह कता सव ई र है । यह अनुमान आगम वचन के वना ई र
को स करता है । ु तयाँ के वल अनुमान का अनुवाद मा करती है । यह
वैशे षक का मत है । पर तु यह शु क अनुमान ई र स म पया त नह
है । { वेद को न जानने वाला उस बृहद औप नषद को नह जान
सकता } यह ु त वचन ई र को वेद के न जानने वाल के लए अगोचर
सू चत करता है । ऐसी दशा म अनुमान ई र को कै से स कर सकता है ?
इसी भाव को अपने मन म रखकर मु न जै म न ने ई र परक अनुमान का
तथा ई र से जगत के उदय उ त आ द होते ह । इन सब वैशे षक स ा त
का सैकड़ अकाटय यु य से ख डन कया है । आशय यह है क जै म न
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
मु न ु त स ई ष का अलाप ख डन नह करते । क तु ता कक स मत
ु त हीन अनुमान का ही ख डन करते ह । इसी तरह मेरी समझ म
उप नषद रह य से जै म न का स ा त लेशमा भी व नह है । जै म न
के इस गूढा भ ाय को न जानकर व ान लोग उ ह अनी रवाद बतलाते ह ।
व पाचाय म डन कहते ह - या इतने से ही त व वे ा म े मु न
नरी रवाद स हो सकते ह ? या कह पर भी उ लू से क पत
अ कार दन म सूय के काश को म लन कर सकता है ? कभी नह ।
इसी कार अ व ान से क पत म या दोष जै म न मु न को अनी रवाद
नह बना सकता । इस कार जै म न मु न के अ भ ाय को य तवर शंकर
वामी ारा तपा दत कये जाने पर शारदा म डन म तथा सब
सभासद अ त स ए । पर तु शंकर के कथन से मीमांसा के आशय को
समझ लेने पर भी म डन के मन म फर भी कु छ संदेह बना रहा । य क
उनक लगभग स ूण आयु इसी काय म तीत ई थी । सहसा वे सं कार
कै से र होते ? न र होने पर भी पूण व ास नह हो रहा था । इस लये
मान सक शंका को नवृ करने के लए मु न के वचन ही उनके अ भ ाय
को जानने के लए म डन म ने मु न जै म न का मरण कया । जससे
मु न शी म डन म के समीप कट ए ।

मु न जै म न कहते ह - सुनो हे सुमते ! भा यकार शंकर के वचन म संदेह


मत कर । मेरे सू का जो अ भ ाय उ ह ने कहा है । वह इससे भ नह है
। ये य तराज के वल मेरे ही अ भ ाय को नह जानते । ब क ु त और
सम त शा का अ भ ाय भी जानते ह । भूत भ व यत तथा वतमान को
जतना ये जानते ह । उतना अ य कोई भी नह जानता । मेरे गु वेद ास
ने उप नषद् का ता पय - च प एक रस म है । ऐसा नणय कया है ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
मने उ ह से ान ा त कया है । भला एक भी सू उनके इस स ा त के
वपरीत म कै से कह सकता ँ ।

मु न जै म न म डन म को स बो धत करते ए कहते ह -
हे यश वी ! मेरे वचन से संदेह याग दो । इस रह य को सुनो । संसार म
नम न पु ष के उ ाराथ शरीर धारण करने वाले आचाय शंकर को तुम
शव समझ ।
आ े स वमु नः सतां वतर त ानं तीय युगे
द ौ ापुरनामके तु सुम त ासः कलौ शङ् करः ।
इ येवं ु टमी रतोऽ य म हमा शैवे पुराणे यत-
त य वं सुमते मते ववतरेः संसारवा ध तरेः ।।
अथात सतयुग म क पल मु न ने व ान को ान दया । ते ायुग म द ा ये
ने । ापर म सुम त ास ने । और इस क ल म आचाय शंकर ने । इनक
म हमा शव पुराण म व णत है । हे सुमते ! तुम इनके मत म व होकर
संसार समु को पार कर ।
म डन म को सभा म इस कार ान दे कर तपोमु न जै म न आचाय
शंकर को मन ही मन आल न कर अ तधान हो गये ।
या क के सभा म मुख म डन ने आचाय शंकर को णाम कर कहा -
व दतोऽ त सं त भवा गतः कृ त नर तसम ता तशयः ।
अवबोधमा वपुर यबुधो रणाय के वलमुपासतनुः ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
हे भगवन ! अब मने आपको जान लया । आप संसार के कारण भूत ह ।
सम त वशेष से र हत ह । ान मा व प होते भी आपने अ ा नय के
उ ाराथ यह वपु धारण कया है । व तुतः आप शरीर र हत ह ।
हे य त राजे ! आ मा वा इदमेक एवा आसीत, वा इदम आसीत,
सदे व सो येदम आसीत, एकमेवा तीयम इस कार उप नषद जस एक
अ तीय का तपादन करते ह । उसका त वम स वा य आयुध है ।
और आप उसके तपालक ह । य द ऐसा न होता । तो वह पथ
बौ के लाप पी अ कू प म गरकर न जाने कब का लय पा चुका
होता ।
बु ोऽहं व ा द त कृ तम तः व मपरं
यथा मूढ़ं व े कलय त तथा मोहवशगाः ।
वमु म ये ते क त च दहलोका तरग त
हस येता दा सा तव ग लतमायाः परगुरोः ।।
ायः दे खा जाता है क म व से जागा आ ँ । यह वचार कर कोई मूढ़
व के भीतर एक सरे व को दे खता है । यही दशा कु छ अ य
भ क है । जो मोह के वशीभूत होकर लोका तर गमन वैकु ठ ा त को
मु मानते ह । माया एवं मोह से र हत आप परम गु के दास ऐसे लोग पर
हंसते ह । लोका तर ा त मा को मु मानना हा या द है ।
हे परमगुरो ! अ व ा पी रा सी ने अ खल व के अ धप त ई र को
नगल डाला था । आपने उसके पेट को फाड़कर उसम से ई र को नकाल
बाहर कया है । हनुमान ने रा सय से घरी सीता का के वल उ ार कया ।
तो इतने से वे लोक म पू य हो गये । तो उससे भी आपक म हमा कतनी
अ धक होनी चा हए । हे जगत क पीड़ा को न करने वाले ! तु हारी इस
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
कार क अ च य म हमा को न जानकर मने आपके सम जो अनु चत
बाते क ह । हे कृ पासागर ! उन सबको आप मा कर द ।
अ मत तभाशाली क पल, कणाद, गौतम आ द ऋ ष लोग भी जस ु त
के अथ का नणय करने म मो हत असमथ रहे । उसे भला परम शव के
अंश भूत वना आपके और कौन समथ हो सकता है । अ प बु ट काकार
क ट का का चार बल सप के समान है । उनके काटने से ु तयां
जजर हो गई ह । य द वे आपके वचन पी सुधा के सचन से जी वत न ह ।
तो आ मा म व ास रखने वाले व ान लोग कै से वहार कर सकते ह ?
कम पी य पर चढ़कर म तप, शा , घर, ी, पु , भृ य तथा धन आ द
म अ भमान रखकर संसार प कू प म गरा आ था । उससे आपने मेरा
उ ार कर लया । पूव ज मा जत अन त पु य के भाव से मने आपके
दशन का सौभा य ा त कया । तथा शा ाथ कया । अ यथा यह सब कै से
हो सकता था ? इस लए म अपने पु , ी, घर, धन, गृह ा म, कत कम
इन सबको छोड़कर आपके चरण क शरण आता ँ । कृ पया त व का उपदे श
क जये । म आपका ककर ँ । इस कार बु मान म डन म ने वनीत
तथा मधुर श द से आचाय शंकर का वणन कया । जते य शंकर ने
म डन पर दया करते उनक ी क ओर दे खा । आचाय के आशय को
समझकर वह बोली ।

उभय भारती कहती ह - हे यती ! म आपके अ भ ाय को समझती ँ ।


मने इस भावी घटना को अपने बचपन काल म ही एक तप वी के ारा जान
लया था । एक समय म अपनी माता के पास बैठ थी । तब एक का तमान
तप वी वहाँ पर आये ।

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
माता ने उनका आ त य कर लेने पर उनसे पूछा - हे काल महा मन ! म
इस पु ी के भा य के वषय म कु छ पूछना चाहती ँ । इसक आयु य कतनी
होगी ? कतने पु तथा कै से प त को यह ा त करेगी ? धन धा य स
होकर यह कतने य करेगी ?
ण भर आँखे मूंदकर उन तप वी ने कहा - हे दे वी ! भूतल पर वै दक माग के
उ हो जाने पर वयं दे व { ा } वेद माग के उ ार के लए म डन
प डत के प म अवत रत ह गे । जस कार पावती ने शंकर क , ल मी ने
व णु को ा त कया । उसी कार तु हारी क या भी अपने अनु प म डन
को प त प म पाकर सम त य को करेगी । और पु के साथ ब त दन
तक स रहेगी । अन तर इस लोक म मत ारा न ए उप नषद्
स ांत को र करने के लए वयं आ द दे व महादे व नर प लेकर अपने
चरण से इस भूतल को अलंकृत करगे । उस य त वेषधारी शंकर के साथ
तु हारी क या के प त का शा ाथ होगा । जसम इसका प त परा त होकर
गृह ा म का याग कर संसार को शरण दे ने वाले उन य त क शरण म
जायेगा ।
इतना कहकर वे तप वी चले गये । हे व न् ! वे सभी वचन उनके स य ए
ह । तो यह वचन कै से म या होगा ? पर तु हे व न ! अब तक तुमने प डत
म े मेरे प त को पूरी तरह से नह जीता है । य क म उनक अधा गनी ँ
। और उसे तुमने अभी तक नह जीता है । इस लए मुझे जीतकर आप इ ह
अपना श य बनाइये । य प तुम इस जगत के मूल कारण हो । सववे ा
परम पु ष हो । फर भी तु हारे साथ शा ाथ करने के लए मेरा मन
उ कु ठत हो रहा है ।
शंकर वामी - यह तु हारा वचन अनु चत है । य क यश वी पु ष म हला
के साथ वाद ववाद नह करते ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
उभय भारती - हे भगवन ! अपने मत का ख डन करने के लए जो चे ा
करता हो । चाहे वह ी हो या पु ष । उसके जीतने का अव य य न करना
चा हए । य द अपने प क र ा करना अभी हो । इस लए गाग { गाग
ऋ ष वच नु क क या थी । इस लए उसका नाम गाग आ था { महाभारत
शा त पव अ याय 320 } के साथ मह ष या व य ने शा ाथ कया । तथा
सुलभा ने धम वज नाम वाले राजा जनक के साथ वाद ववाद कया । या
ी से शा ाथ करने पर भी वे यश वी न ए ?
इस लए यु यु उभय भारती के वचन को सुनकर ु त पी न दय से
पूण समु के समान आचाय सव शंकर दे शक ने सर वती उभय भारती
के साथ शा ाथ करना वीकार कया ।

शंकर वामी तथा उभय भारती का शा ाथ


एक सरे को जीतने के लए उ सुक शंकर और सर वती म वह शा ाथ
ार आ । जसम बु क चतुरता से श द क झड़ी लग रही थी । इन
दोन के व च पद व यास और यु य से भरे कथन को सुनकर लोग ने
न तो शेषनाग को ही कु छ गना । न सूय को । न बृह त को । न शु ाचाय
को । संसार म सर क तो बात ही या है । स या व दन आ द म न त
काल को छोड़कर । न दन म और न रात म ही यह शा ाथ का । इस
कार शा ाथ करते इन दोन व श व ान म 17 दवस बीत गये ।
शारदा ने अना द स सम त वेद और सम त शा मे यती द शंकर को
अ ये समझकर अपने मन म झट से वचार कया । अ य त बा याव ा म
ही इ ह ने स यास हण कया है । े नयम से कभी हीन नह ए ह ।
अतः कामशा म इनक बु वेश नह कर सकती । इस लये म इसी
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
शा के ारा इ ह जीतूगँ ी ।
उभय भारती कहती ह - काम क कलाएँ कतनी है ? उनका व प कै सा है ?
कस ान पर वे नवास करती है ? शु ल प या कृ ण प उनक त
कहाँ कहाँ रहती है ? युवती म तथा पु ष म इन कला का नवास कस
कार से है ?
इस कार ब त वचार करने पर भी य त शंकर कु छ नह बोले । य क उन
कला के वषय म कु छ न क ँ । तो अ प बनता ँ । य द उ र दे ता ँ ।
तो मेरा य त धम का नाश होता है ।
कामशा को भली भाँ त जानते भी सव शंकर दे शके सं या सय के
नयम र ाथ कामशा अन भ क तरह उभय भारती { शारदा } से बोले -
आप मुझे इस वषय म एक मास क अव ध द जए ( कह कह 6 मास क
अव ध लखी पाई जाती है ) वाद लोग अव ध दे ने क था को मानते ह । हे
सु दरी ! उसके प ात तुम कामशा म अपनी नपुणता छोड़ दे गी ।
एवम तु ! इस कार उभय भारती ने वीकार कर लया ।
तब योगीराज आचाय शंकर दे शके अपने व ान श य के साथ योगबल
से आकाश म मण करने लगे । उ ह ने कसी ान पर वग से गरे
दे वता के समान लाप करती युवती य से घरे खी म य से यु
कसी मृतक राजा को दे खा । रात म शकार करने उस जंगल म आये थे ।
उस मृतक अम क राजा को दे ख य त शंकर अपने श य सन दन
{ प पाद } से बोले - जसके घर म सौ दय तथा सौभा य के आ यभूत सौ
से अ धक सु द रयाँ नवास करती है । वही यह अम क राजा है ।
व य कायं त ममं परासोनृप य रा येऽ य सुतं नवे य ।
योगानुभावा पुनर युपैतमु ु क ठते मानसम मद यम ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
हे सन दन ! सव ता के नवाहराथ मेरा मन इस मृत राजा के शरीर म वेश
कर तथा सहासन पर इसके पु को बैठाकर योग के भाव से फर लौट
आने के लए उ कु ठत हो रहा है ।
इस कार कहने पर उन य त वर आचाय शंकर से सन दन बड़े ही शा त से
बोले - हे सव ! आपको कोई वषय अ ात नह । तथा प यह य त के लए
उ चत नह है ।
आचाय शंकर प पाद के वचन को सुनकर बृह त के समान बोले - आपके
वचन अ य त शंसनीय ह । तो भी हे सो य ! म परमाथ वचन कहता ँ ।
उसे सावधान होकर सुनो -
संक प एवा खलकाममूलं स एव मे ना त सम य व णोः ।
त मूलहानौ भवपाशनाशः कतुः सदा या वदोष ेः ।
अ वचाय य तु वपुर ह म य भम यते जडम तः सु ढम ।
तमबु त वम धकृ य व ध तषेधश म खलं सफलम ।
-संक प ही सब इ ा का मूल है । वह कृ ण के समान मुझम नह है ।
संसार के पदाथ म सदै व दोष रखने वाला पु ष य द कसी काय का
कता भी हो । तो भी उसे काम के मूल संक प के नवृ होने पर संसार
ब न नह होता । जो जड़ बु पु ष वना वचार के आ म शरीर आ द म
ढ़ अहं अ भमान करता है । त व को न जानने वाले उस पु ष को अ धकृ त
कर सम त व ध नषेध शा साथक होता है ।
अथात - सवकामो यजेत, न सुरां पवेत इ या द व ध नषेध शा अ व ान
को ही आ त कर वृ होता है । त माद व ाव षया णेव य ाद न
माणा न शा ा ण च { सू शाङ् कर भा यम 1 सू } म भी वणन है ।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
वेदा त महा वा य से उ प बु वाला पु ष चाया द आ महीन,
ा णा द वण र हत, मनु य वा द जा तहीन ान मा , अज एक रस आ मा
को अपना ही व प जानकर वेद के अ यु म उपदे श अथात वेदा त
उपदे श म रमण करने वाला वह व ान व ध नषेध का दास नह बनता ।
त को व धः को नषेधः । ऐसी ु त भी है ।
घट आ द मृ का से उ प ए ह । जैसे ये मृ का से भ नह ह । अथात
इनक मृ का से भ स ा नह ह । वैसे ही परमा मा से उ प आ यह
जगत भी परमा मा के वना काल म नह है । अथात् इसक पृथक स ा
नह है । म या है ।
वाचाऽर णं वकारो नामधेयं मृ के येव स यम् { घट आ द काय वाणी
कथन मा है । स य तो के वल मृ का ही है । } यह ु त क उदघोषणा है ।
क पत क अ ध ान से पृथक स ा नह होती । इस वषय म
तदन य वमार णश दा द यः { सू म 2/1/14 } इस सू का शांकर
भा यम् भी दे खा जाये ।
यह स ूण जगत म या है । इस कार दय म अनुसंधान करने वाला पु ष
कम फल से कसी कार भी ल त नह होता । जस कार व काल म
कये गये पु य पाप जागने पर म या बु से न होने के कारण कदा चद प
शुभाशुभ फल के लए नह होते । चाहे वह सौ अ मेध य करे । अथवा
चाहे अग णत ा ण क ह या करे । तो भी परमाथ त व को जानने वाला
पु ष सुकृत और कृ त से ल त नह होता । यह का ववचन है ।

आचाय शंकर अपने य श य सन दन अथात प पाद पर अनु ह करते ए


कहते ह - हे सो य ! त व वत पु ष वृत के श ु इ के समान न तो पाप से
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
अवन त को ा त होता है । और न जनक के समान पु य से बढ़ता है । वह
पाप कम मने य कया । तथा पु य कम य नह कया । इस कार वह
ताप को ा त नह होता ।
त सुकृत कृ ते वधुनुत एवं ह वाव न तप त कमहं साधु नाकरवं कमहं
पापमकरवम { उपरो ोक का व ु त के अनुसार है } ।
इस लये हे सो य ! इस शरीर से कामशा का प रशीलन करने पर भी वह
मेरे लए दोष कृ त नह होगा । तो भी श ण पु ष के माग का प रपालन
करने के लए म सरे के शरीर को ा त कर य न क ँ गा ।
य तराज शंकर ऐसा कहकर गम पवत शखर पर चढ़कर फर बोले - हे
श यो ! यह दे खो ! यह सु दर गुफा दखाई दे रही है । जसके आगे एक
समतल शला पड़ी है । उसके नकट ही व जल वाली, फल वाले वृ से
शो भत यह तलाई शोभा दे रही है । आप लोग यह पर रहकर मेरे इस शरीर
क सावधानी से र ा कर । जब तक इस अम क राजा के शरीर म व
होकर कामकला का अनुभव क ँ ।
इस कार श य वग को समझा कर आचायपाद ने उस गुफा म अपने शरीर
को छोड़कर के वल ल शरीर से यु हो बल योग साम य से राजा
अम क के शरीर म वेश कया ।
{ आ तवा हक ल शरीर, जो एक शरीर को छोड़कर सरे शरीर म वेश
करता है - 5 ाने य, 5 कम य, 5 ाण, मन तथा बु इस कार 17
त व का होता है । }
उन एका बु यो गराज शंकर ने अपने शरीर के अंगु से आर कर
दशम ार तक अपने ाण वायु को ले जाकर र से बाहर आकर
अम क राजा के मृत शरीर म अंगु पय त र से धीरे धीरे वेश कया
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
। इस आशय का ीकरण योग सू म इस कार है -
ब कारणशै थ या चारसंवेना च य परशरीरावेशः । योगसू 3/38
शरीर ब न प है । इसका कारण धमाधम है । इनक श थलता समा ध
बल से होती है । और च के गमनागमन क नाड़ी के ान से योगी लोग
च को अपनी इ ा से सरे शरीर म वृ कर सकते ह ।

मृत राजा अम क का दय दे श हलने लगा । उसने धीरे धीरे आँख खोल


द । और पूव क तरह उठ खड़ा आ । पर तु इस बीच के मम को कोई भी
नह जान सका । इस कार राजा को जी वत दे ख राज रा नयाँ, म ी आ द
अत स ए।
तद तर राजा अम क म ी और पुरो हत के साथ शा व हत मांग लक
कृ य समा त कर भ गज पर बैठ राजधानी को गया । नगर म जाकर राजा
अम क ने अपने यजन को सा वना द । अ य राजा लोग भी उसका
शासन आदर से मानने लगे । उसने अपने अनुकूल म य के साथ पृ वी का
इस कार पालन कया । जस कार दे वराज इ वग का पालन करते ह ।
राजा ने म य तथा राजक य कमचा रय के साथ रा य का भलीभाँ त
नरी ण कर जा को संतु कया ।
सीमावत राजा लोग भी सहष अनुकूल वहार करने लगे । इस कार राजा
क काय कु शलता दे ख म ीगण को यह संदेह उ प आ क राजा मृ यु को
ा त हो जा के भा य से फर जी वत आ । ले कन यह राजा पहले क
तरह तीत नह होता । युत अनेक द गुण स होने से अपूव तीत
हो रहा है । यया त के समान याचक को यह धन दे ता है । अथ को जानने
वाला यह राजा दे व गु बृह त के समान बोलता है । अजुन के समान श ु
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
राजा को जीतता है । और शंकर के समान सभी को जानता है ।
सवन के { य म सोम रस को नकालना } अन तर राजा चार ओर फै लने
वाले दान पौ ष शौय धैय आ द अ य लभ आदश गुण के ारा यह राजा
सा ात परम पु ष परमा मा के समान तीत होता है । उनके भाव से वृ
अपनी अनुकूल ऋतु के बना ही फू ल के भार से लद गये है । गाय अ धक
ध दे ती है । पृ वी पर अभी वृ होने से अ क वृ होती है । सारी जा
अपने व हत काय म रत है । और कहाँ तक वणन कया जाये ? आज इस
रा य के भाव से सब दोष से यु यह क लकाल भी ते ा युग को
अ त मण कर वतमान है । अथात इस क ल म ते ा से भी अ धक धम का
आचरण हो रहा । इससे ात होता है क कोई ऐ यवान पु ष राजा के
शरीर म वेश कर पृ वी का पालन कर रहा है । यह पु ष गुण का समु है ।
हम ऐसा उपाय करना चा हए । जससे यह अपने पूव य शरीर को फर
ा त न कर । ऐसा न य कर उ ह ने अपने सेवक को यह आ ा द क
जहाँ भी मृतक शरीर ा त हो । उसे अ त शी जला दया जाय ।
राजा ने अपने बु कौशल से आ त रक तथा बा प र तय पर पूण
पसे नय ण कर रा य पूण शा त ा पत क । राजा के लए यह उ चत
है क जा क स ता के लए उ चत व ा करे । अब राजा ने अपने
व त म य को रा य भार स पकर च ता र हत हो वयं अ तःपुर म
वेश कया । वला सनी सु दर रम णय से वा सायन कामशा का
भलीभाँ त अनुभव कया । इस कार करते ए ब त दवस बीत गये ।
सरी ओर आचायपाद के श यगण दे ह क र ा करते च ता करने लगे क
कृ पालु गु दे व अभी तक नह लौटे । जब क एक मास से पाँच छः दन
अ धक हो चले ह । हम लोग या कर ? कहाँ ढूँ ढ ? कहाँ जाय ? वे कहाँ रहते
ह ? ऐसा जानकर हम कौन बताएगा । हम समु से लेकर चार ओर भूतल म
खोजकर उ ह जानने म कै से समथ हो सकते ह । कारण वे अ य शरीर म
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661
भगव पाद आचाय शंकर और म डन म के बीच शा ाथ
छपे ए ह । अ य म को इस कार च ता करते दे ख प पाद बोले -
अ न व णचेताः समा ाय य नं ।
ापम यवापु न व ण चताः ।
हे म ! या आप लोग नह जानते क उ साही य न करने से
ा य अथ को अव य ा त कर लेता है । व न से बार बार ता ड़त कये
जाने पर भी उ साह भरे दे वता ने लभ सुधा को ा त कर लया ।

आ द शंकर वै दक व ा सं ान
रभाष: 9044016661

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