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हरे कृ

नाम:- अतुल कृ

मोबाइल नो०:- 9319861300

ईमे ल आईडी :- atulkrishan.bsr1@gmail.com

माला जाप :- 8

अ ाय:- १० भगवान ीकृ का ऐ य

िवषय:- कृ के ऐ य को जानने के मह को िव ार से समझाएं ।

ावना:- इस अ ाय म भगवान ी कृ अपने सखा अजुन को अपनी सृि यों एवं अपने िविभ ऐ य के िवषय
म बता रहे ह। ीभगवान कहते ह ना तो दे वता और ना ही महिष गण ही मेरे उ ि और ऐ या को जानते ह। अतएव
ीकृ उस हर व ु से िभ है िजसकी सृि ई है और जो उ इस प म जान लेता है वह तुरंत ही सारे पापों
से मु हो जाता है। परमे र का ान ा करने के िलए मनु को सम पाप कम से मु होना चािहए जैसा
िक ीम ागवत गीता म कहा गया है िक उ केवल भ के ारा ही भगवान को जाना जा सकता है और िकसी
अ साधना से नहीं। ी भगवान कहते ह िक मे रे भ ों के े िवचार मुझ म वास करते ह । जो ेम पूवक मेरी
सेवा म िनरं तर लगे रहते ह, म उ ान दान करता ं िजनके ारा वह मुझ तक आ सकते ह। म उन पर िवशेष
कृपा करके उनके दय म िनवास करता ँ , िजससे ान के काशमान दीपक के ारा उनके जीवन का अंधकार
दू र हो जाता है । ीभगवान कहते ह िक जैसे ही कृ भावनाभािवत भ भगवान के िवषय म सुनता है वैसे ही
उसका मन भ का चार- सार होने लगता है ।

अतः ाचीन शा ों म भ के ९ कार बताए गए ह िजसे नवधा भ कहते ह।

वणं कीतनं िव ोः रणं पादसेवनम् ।

अचनं व नं दा ंस मा िनवेदनम् ॥ ( ीम ागवत पुराण ७.५.२३)

वण: ई र की लीला, कथा, मह , श , ोत इ ािद को परम ा सिहत अतृ मन से िनरं तर सुनना।

कीतन: ई र के गुण, च र , नाम, परा म आिद का आनंद एवं उ ाह के साथ कीतन करना।

रण: िनरं तर अन भाव से परमे र का रण करना, उनके महा और श का रण कर उस पर मु


होना।

पाद सेवन: ई र के चरणों का आ य लेना और उ ीं को अपना सव समझना।

अचन: मन, वचन और कम ारा पिव साम ी से ई र के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूित को अथवा भगवान के अंश प म ा भ जन, आचाय, ा ण, गु जन, माता-िपता
आिद को परम आदर स ार के साथ पिव भाव से नम ार करना या उनकी सेवा करना।

दा : ई र को ामी और अपने को दास समझकर परम ा के साथ सेवा करना।


स : ई र को ही अपना परम िम समझकर अपना सव उसे समपण कर दे ना तथा स े भाव से अपने पाप
पु का िनवेदन करना।

आ िनवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों म सदा के िलए समपण कर दे ना और कुछ भी अपनी तं स ा
न रखना। यह भ की सबसे उ म अव था मानी गई ह।

अतः इस कार वण (परीि त), कीतन (शुकदे व), रण ( ाद), पादसेवन (ल ी), अचन (पृथुराजा), वंदन
(अ ू र), दा (हनुमान), स (अजुन) और आ िनवेदन (बिल राजा) - इ नवधा भ कहते ह।

अजुन उवाच

परं परं धाम पिव ं परमं भवान् ।

पु षं शा तं िद मािददे वमजं िवभुम् ॥10.12॥

आ ामृषयः सव दे विषनारद था ।

अिसतो दे वलो ासः यं चैव वीिष मे ॥10.13॥

सवमेत तं म े य ां वदिस केशव ।

न िह ते भगव ं िवदु दवा न दानवाः ॥10.14॥

अपने श ों म िव ार भावाथ:- भगवान ीकृ के सामने बैठे ए अजुन ने िक हे ीकृ तुम तो यं परम
हो, परम धाम हो – िजस धाम के अंदर सारा ा थत है. िव म म भी सबसे पिव आप हो, आप शा त हो,
िद पु ष हो, सगुन और िनराकार आिददे व हो, अज ा, आप ही सव ापी, सव श मान िवभु हो। वा व म
अजुन कह रहे ह िक हे कृ आप ही सम परमा ा हो।

धम ंथों म, सारे ऋिषयों, महा ऋिषयों ने, दे वऋिष नारद, महान अिसत और उनके पु धवल, महा ऋिष ास भी
आपको ही परम मानते ह. (महाभारत के वन पव १२/५०, और भी पव म ६८/५ म इसका वणन है)।

अजुन भगवान ीकृ को यह समझाने का य करा रहे ह िक हे केशव आपने मुझसे जो कुछ भी कहा है उन
सारी बातों पर मुझे पूण िव ास है । दे वतागण और असुरगण भी आपके इस प को नहीं जानते है।

इन सभी बातों के उपरां त अजुन भगवान से िनवेदन करता है की हे भु कृपा करके िव ार पूवक आप मुझे अपने
उन दे वी ऐ य को बताने की कृपा कर िजसके ारा आप इन सम लोगों म ा है।

तदोपरां त भगवान ी कृ कहते ह, हे अजुन! म सभी के दय म थत आ ा ँ तथा संपूण भूतों का आिद, म


और अं त भी म ही ँ ।
म आिद म िव ु, काशों म सूय, मा ित म मरीिच, न ों म चं मा, वेदों म सामवेद, दे वों म ग का राजा इं ,
इं ि यों म मन, सम ो म िशव, य ों तथा रा सों म संपि का दे वता कुबेर, वसुओं म अि , सम पवतों म
मे पवत, सम पुरोिहतों म बृह ित जी, सेनानायकों म काितकेय, सम जलाशयों म समु , सम महिष
भृगु, वाणी म ओंकार, य ों म कीतन, सम अचलो म िहमालय, सम वृ ों म पीपल का वृ , दे विषयों म नारद
मुिन, ग व म िच रथ, िस ों म किपल मुिन, घोड़ों म उ ैः वा, हािथयों म ऐरावत, मनु ों म राजा, श ों म व ,
गौओं म कामधेनु, स ान की उ ि का हेतु कामदे व, सप म सपराज वासुिक, नागों म शेषनाग, जलचरों का
अिधपित व ण, िपतरों म अयमा नामक िपतर, शासन करने वालों म यमराज, दै ों म ाद, गणना करने वालों
का समय, पशुओं म मृगराज िसंह, पि यों म ग ड़, पिव करने वालों म वायु, श धा रयों म ीराम, मछिलयों म
मगर, निदयों म ी भागीरथी गंगाजी ँ ।

हे अजुन! सृि यों का आिद और अं त तथा म भी म ही ँ। म अ रों म अकार, समासों म ं नामक समास, काल
का भी महाकाल, सबका नाश करने वाला मृ ु, यों म कीित ( ी, वाक्, ृित, मेधा, धृित और मा), छं दों म
गाय ी छं द, महीनों म मागशीष, ऋतुओं म वसं त म ँ ।

म छल करने वालों म जूआ, जीतने वालों का िवजय, िन य करने वालों का िन य, सा क पु षों का सा क भाव,
वृ वंिशयों म वासुदेव, पा वों म धन य अथात् तू, मुिनयों म वेद ास, किवयों म शु ाचाय किव दमन करने
वालों का दं ड, जीतने की इ ावालों की नीित, गु रखने यो भावों का र क मौन, ानवानों का त ान म ही
ँ।

अतः अजुन इस ान को जानने की ा आव कता है? म तो यं अपने एक अंश मा से संपूण ांड म ा


होकर इसको हण करता ं ।

उपसंहार:- अतः भगवान के ऐ य को वही जान सकता है जोिक भगवान की भ करता है, वही उसे समझ
सकता है , वही उसे जान सकता है , वही उसे ा कर सकता है , कोई अ उसे ा नहीं कर सकता।

नाम संकीतनं य सव पाप णाशनम् ।

णामो दु ः ख शमनः तं नमािम ह रं परम् ॥

म उन 'ह र' को णाम करता ँ िजनका नाम संकीतन सभी पापों को समा करता है और िज णाम करने
मा से सारे दु ः खों का नाश हो जाता है ।

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हरे कृ

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