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बड़ी बेग़म आचार्य चतुरसेन
बड़ी बेग़म आचार्य चतुरसेन
राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट-िद ली-110006
फोन: 011-23869812, 23865483, फै स: 011-23867791
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e-mail : sales@rajpalpublishing.com
म
बड़ी बेगम
आचाय चाण य
जीमत ू वाहन
कोई शराबी था
बह–बेटे
तेरह वष बाद
ह दी घाटी म
स चा गहना
हाथापाई
वे या क बेटी
नरू
भरू ी
ससुराल का वास
अपरािजत
दवाई के दाम
िसंह–वािहनी
न नाग रक
हिथनी पेट म है
तीन बागी
लौह द ड
तब या अब
टीपू सुलतान
ब लू च पावत
दही क हांडी
आ मदान
दरबार क एक रात
चोरी
जार क अ येि
दिलत कुसुम
बड़ी बेगम
बादशाह क बड़ी लड़क जहाँआरा, शाही ह क म बड़ी बेगम के नाम से िस थी। वह िवदुषी,
बुि मती और पसी ी थी। वह बड़े ेमी वभाव क थी, साथ ही दयालु और उदार थी। बादशाह
ने उसके जेबखच के िलए तीस लाख पये साल िनयत िकये थे तथा उसके पानदान के खच के
िलए सरू त का इलाका दे रखा था, िजसक आमदनी भी तीस लाख पये सालाना थी। इसके
िसवा उसके िपता और बड़े भाई अपनी गज के िलए उसे बहमू य ेम-भट देते रहते थे। उसके पास
धन-र न बहत एकि त हो गया था और वह खबू सज-धजकर ठाठ से रहती थी। वह अंगरू ी शराब
क बहत शौक न थी, जो काबुल, फारस और का मीर से मँगाई जाती थी। वह अपनी िनगरानी म
भी बिढ़या शराब बनवाती-जो अँगरू म गुलाब और मेवाणात डालकर बनायी जाती थी। रात को
वह कभी-कभी नशे म इतनी डूब जाती थी िक उसका खड़ा होना भी स भव न रहता और उसे
उठाकर श या पर-डाला जाता था। शाहजहाँ के शासन-काल म वही तमाम सा ा य पर शासन
करती थी, इससे उसका नाम बड़ी बेगम िस हो गया था। शाही मुहर इसीके ताबे रहती थी।
बड़ी बेगम पालक पर सवार थी, िजसपर एक क मती जरव त का परदा पड़ा था, िजसम
जगह-जगह जवाहरात टंके थे। पालक के चार ओर वाजासरा मोरछल और चंवर डुलाते
पालक का घेरा डाले चल रहे थे। वे िजसे सामने पाते उसीको धकेलकर एक ओर कर देते थे।
बहत-से जािजयाना गुलाम सुनहरे - पहले डं डे हाथ म िलये ज़ोर-ज़ोर से ‘हटो बचो, हटो बचो’
िच लाते जा रहे थे। उनके आगे िभ ती तेजी से दौड़ते हए सड़क पर पानी का िछड़काव करते
जाते थे। मोरछल और चंवर क मठ ू सोने-चाँदी क जड़ाऊ थी। पालक के साथ सैकड़ बांिदयाँ
सुनहरी पा म जलती हई सुग ध िलये चल रही थ । सबसे आगे दो सौ तातारी बांिदयाँ नंगी
तलवार हाथ म िलये, तीर-कमान क धे पर कसे, सीना उभारे , सफ बाँधे चल रही थ और सबके
पीछे एक मनसबदार घुड़सवार रसाले के साथ बढ़ रहा था। यह मनसबदार एक अित सु दर
युवक था। उसका रं ग अ य त गोरा, आँख काली और चमकदार तथा बाल घुंघराले थे। वह
बहमू य र नजिटत पोशाक पहने था–और इतराता हआ-सा अपने रसाले के आगे-आगे चल रहा
था। उसका घोड़ा भी अ य त च चल और बहमू य था। यह तेज वी सु दर मनसबदार नजावत
खाँ था, जो शाहे -बलख का भतीजा और बुखारे का शहज़ादा मशहर था और बादशाह शाहजहाँ
का कृपापा मनसबदार था।
इस समय बहत-से अमीर-उमरा चाँदनी चौक क सैर को िनकले थे। इन अमीर के ठाठ भी
िनराले थे। िक ह के साथ दस-बीस, िक ह के साथ इससे भी अिधक नौकर-चाकर-गुलाम पैदल
दौड़ रहे थे। अमीर घोड़े पर सवार ठुमकते, धीरे -धीरे पान कचरते हए अकड़कर चल रहे थे। कुछ
चलते-चलते ही पेचवान पर अ बरी त बाकू का कश ख च रहे थे। साथ-साथ खवास गंगाजमनी
काम क फश हाथ हाथ िलये दौड़ रहे थे। गुलाम म िकसीके पास पानदान, िकसीके पास
उगालदान, िकसीके पास इ दान। कोई सरदार क जड़ाऊ तलवार िलये चल रहा था और इस
कार अमीर का बोझ ह का कर रहा था। पर तु ये अमीर चाहे िजस शान से जा रहे ह , य ही
बेगम क पालक उनक नज़र म पड़ती उनक सब शान हवा हो जाती। जो जहाँ होता तुर त घोड़े
से उतरकर सड़क के एक कोने म अपने आदिमय सिहत हाथ जोड़कर अदब से खड़ा हो जाता
और पालक क ओर मँुह करके तीन बार कोिनश करता िजसक सच ू ना तुर त बेगम को
पालक के भीतर दे दी जाती।
इस कार सच ू ना देने के िलए जो त ण सरदार पालक के साथ चल रहा था, वह एक
कार से िकशोर वय का था। अभी परू ा ता य उसके मुख पर कट नह हआ था। वह एक
सुकुमार-सु दर, और सजीला िकशोर था। वा तव म यह शहज़ादी क उ तानी का बेटा था
िजसका बचपन शहज़ादी के साथ महल-सरा म बीता था और िजसे यार से शाही हरम म ‘दू हा
भाई’ कहते थे। य िप इसक हैिसयत एक सेवक ही क थी, पर शहज़ादी क कृपा ि से यह
ढीठ हो गया था और अपने को िकसी शहज़ादे से कम न समझता था। उसके सब ठाठ-बाठ भी
शहज़ाद ही के समान थे।
धीरे -धीरे सवारी आगे बढ़ती जा रही थी। इसी समय सामने से एक िह दू सरदार क सवारी
आ गयी। यह िह दू सरदार बू दी का हाड़ा राजा राव छ साल था। इसक अव था छ बीस से
अिधक न होगी। उसका उ वल यामल मुख, मंछ ू क पतली ऐंठी हई रे खा, बड़ी-बड़ी काली
आँख, गठीला शरीर, बाँक छटा देखते ही बनती थी। वह कमर म दो तलवार बाँधे था और उसके
साथ पचास सवार, पैदल िसपाही और नौकर-चाकर-सेवक और मुसािहब चल रहे थे।िद ली म
रहनेवाले दरबारी उमराव से इसक छटा ही िनराली थी। य ही बेगम क सवारी उसक ि म
पड़ी, वह रा ते से एक ओर हटकर घोड़े से उतरकर सड़क के एक कोने म दो सौ कदम के
अ तर से खड़ा हो गया और य ही बेगम क सवारी उसके िनकट आयी, उसने ज़मीन तक
झुककर तीन बार कोिनश क । नक ब ने पुकार लगायी और दू हा भाई ने बेगम को इसक
सचू ना दी। शहज़ादी ने तुर त अपनी सवारी आगे बढ़ना रोक िदया और एक र नजिड़त कमखाब
क थैली म रखकर पान का बीड़ा उसके पास भेजकर कहलाया िक वह भी सवारी के साथ
रहकर उसे रौनक ब श। राव छ साल ने िफर पालक क ओर ख करके सलाम िकया, पान
का बीड़ा आदरपवू क िलया और दो कदम पीछे हटकर खड़ा हो गया।
सवारी आगे बढ़ी और यह िह दू सरदार भी पालक के पीछे -पीछे अपने सवार के साथ
चला। दु हा भाई ने बेगम को इस बात क इ ला दे दी।
जो मनसबदार पालक के साथ-साथ चल रहा था उसक आँख म इस िह दू सरदार को
देखते ही खन ू उतर आया। पर तु इस त ण राजा ने उसक तिनक भी परवाह नह क । अपने
घोड़े को एड़ देकर और चार कदम आगे बढ़ वह पालक के पीछे चलगे लगा।
िकला और शहर के बीच-आज जहाँ िद ली का रे लवे टेशन और क पनी बाग है, वहाँ इस
बेगम ने एक सराय बनवायी थी। यह सराय उस समय भारतवष-भर म े इमारत थी। इसक
सारी इमारत दुमंिज़ली थ और ऊपर बड़े -बड़े आलीशान सुसि जत कमरे बने थे, िजनम देश-देश
के लोग ठहरते और तफरीह करते थे। सराय म नहाने के िलए प के हौज, नल और बड़े -बड़े
बावच खाने बने थे। इस सराय के इ तज़ाम के िलए बेगम ने यो य कमचारी िनयु िकये थे। इस
समय तक भी सराय समच ू ी बनकर तैयार नह हो पायी थी और हज़ार कारीगर-िम ी उसम
िच -िविच काम कर रहे थे।
इस व बेगम क सवारी इसी सराय क ओर जा रही थी। इसक सच ू ना सराय के दारोगा
को भी िमल चुक थी और वहाँ बेगम क अवाई क धम ू धाम मची थी। सब राह-बाट साफ करके
िछड़काव िकया गया था। बहत-से खोजे, दास-दासी अपने-अपने काम म लगे थे। इस समय सराय
का वह भाग जहाँ बेगम तशरीफ़ रखने वाली थ और जहाँ एक खबू सरू त छोटा-सा बगीचा था,
भली भाँित सजाया गया था। बगीचे के बीच संगमरमर क बारहदरी थी, वह बेगम क सवारी
उतरी।
शाम क भीनी सुग ध हवा म भर रही थी। बाग के माली ने सारी बारहदरी को फूल से
सजाया था। हज़रू शहज़ादी आज रात इसी बारहदरी म आराम और तफरीह करना चाहती थ ।
वाजासरा और बांिदय ने मसनद, चाँदनी और गाव तिकये लगा िदये। बेगम मसनद पर लुढ़क
गय । कुछ देर आराम करने पर बेगम ने दू हा भाई को ह म िदया, ‘‘वह िह दू राजा, जो सवारी
के साथ है, उसे ह म दो िक हमारे यहाँ मुक म रहने तक अपने पहरे -चौक रखे और अमीर
नजावत खाँ सराय के बाहरी िह से म अपने िसपािहय सिहत चला जाए!’’
शहज़ादी का ह म दोन उमराव को पहँचा िदया गया। दोन ने भेद-भरी िनगाह से एक-
दूसरे को देखा। तलवार क मठ ू पर दोन का हाथ गया और ण-भर दोन एक-दूसरे को खन ू ी
नज़र से देखने लगे। नजावत खाँ ने बािल त-भर तलवार यान से ख च ली और गु से-भरी
आवाज़ म शेर क तरह गुराकर कहा, ‘‘खुदा क कसम, म यह हरिगज बदा त नह कर सकता
िक एक कािफ़र को मुसलमान के बराबर तबा िदया जाए। म चाहता हँ िक इसी व तेरे दो
टुकड़े करके तेरा गो त कु को िखला दँू।’’
‘‘चाहता तो म भी यही हँ िक इसी व तु हारा सर भु े-सा उड़ा दँू। मगर बेहतर यही है िक
अभी आप जनाब शहज़ादा नजावतअली खाँ बहादुर, चुपचाप अपनी नौकरी ठ डे -ठ डे बजा लाएँ ,
जैसा िक हज़रू शहज़ादी का ह म हआ है और सुबह तक भी आपके यही इरादे और दमखम रहे ,
तो िफर हम दोन को अपने-अपने इरादे परू े करने क बहत गु जाइश है!’’
नजावत खाँ ने इसका कोई जवाब नह िदया। वह गु से से ह ठ चबाता हआ चला गया। राव
छ साल तिनक हटकर अपने घोड़े पर बैठ गया।
चाँदनी रात थी और बारहदरी के बाहरी चमन म शहज़ादी अपनी खास ल िडय के बीच मसनद
पर पड़ी अपनी ि य अंगरू ी शराब पी रही थ । य तो उसके िलए फ़ारस, का मीर और काबुल से
क मती शीराजी और इ त बोल मँगायी जाती थी, पर तु उसक अपने शौक क ि य व तु वह
थी, जो खास उसीक नज़र के सामने अंगरू म गुलाब और बहत-सी मेवे डालकर बनायी जाती
थी। यह अित सुगि धत और वािद होती थी और बेगम जब खुश होती-इस शराब के जाम पर
जाम चढ़ाती थी।
आज वह खुश तो न थी; बहत-सी िच ताएँ उसके मि त क को परे शान कर रही थ –इतनी
बड़ी मुगल स तनत क राजनीित म वह सि य भाग लेती थी, उसीका सरदद थोड़ा न था,
पर तु इस समय तो उसे अपनी ही िच ता ने आ घेरा था। इसीसे मु होने के िलए वह िकले के
भारी वातावरण को छोड़ यहाँ चली आयी थी।
अकबर बादशाह के समय ही से यह द तरू चला आ रहा था िक मुगल बादशाह के
खानदान क शहज़ािदयाँ शादी नह कर पाती थ ; इससे इनके गु ेम होते रहते और मुगल
हरम का वातावरण हमेशा दूिषत रहता था।
पर तु दारा शहज़ादी का िववाह नजावत खाँ से करने क इ छा कट कर चुका था। वह
शहज़ादी को ेम करता था। बहत िदन से ब ख-बुखारा और मुगल खानदान म चख-चख चल
रही थी। वह चाहता था िक यिद दोन खानदान म र ता हो जाए तो यह पुरानी श ुता भी जाती
रहे । पर तु इस शादी म बहत बाधाएँ थ । थम तो बादशाह ही यह शादी करने को राजी नह होते
थे। उ ह उनके साले शाइ ता खाँ ने समझा िदया था िक यिद यह शादी कर दी गयी तो अव य ही
नजावत खाँ को शहज़ाद का तबा देना पड़े गा, जब िक इस समय वे चाकर से अिधक दजा नह
रखते ह। िफर शाहे -बलख के लड़ने के मंसबू े भी अभी थे और इसके राजनीितक कारण बने ही
हए थे।
दूसरी बड़ी बाधा यह थी िक शहज़ादी िह दू राजा बू दी के छ साल को चाहती थी। उन
िदन राजपत ू से मुगल खानदान म र ते होते थे। अभी तक अनेक राजाओं क बेिटयाँ मुगल
हरम म आयी थ , पर तु कोई मुगल शहज़ादी िकसी राजपत ू के घर नह गयी थी। अब तक िकसी
राजपत ू सरदार का खु लमखु ला शादी करके रिनवास म एक शहज़ादी को ले जाना बहत ही
किठन और अ यवहाय था, िफर मुगल अदब-कायदे तो ऐसे थे िक बड़े से बड़े िह दू राजा को
मुगल शहज़ािदय के सामने भी उसी तरह झुकना पड़ता था, जैसे बादशाह के सामने। ऐसी हालत
म इन शािदय से मुगल आब म भी कमी आने को थी। पर तु ीित क कटारी का घाव जब खा
िलया जाता है तो िफर इन सब बात पर िवचार नह िकया जाता। शहज़ादी इस राजपत ू के ेम म
दीवानी थी और यह बात नजावत खाँ और छ साल दोन ही जानते थे, इसीसे वे एक-दूसरे को
खन ू ी आँख से देखते थे।
इसी मामले म एक तीसरा िशगफ ू ा भी था–दू हा भाई, जो शायद अभी बेगम से उ म कुछ
ही कम था, पर तु बेगम क मुह बत का दम भरता था। वह इतना मख ू था िक शहज़ादी के
िवनोद और कृपाओं को यार क नज़र से देखता था। वह सोचा करता था िक बेगम से शादी कर
लेने पर स भव है वही बादशाह बन जाए। कभी-कभी वह डीग भी हाँकता और उसक हँसी भी
बहत होती थी।
एक बार शहज़ादी ने उसे खानज़ादा का िखताब िदया और उसक िज़द से उसे इलम और
शाही मराितब रखने का अिधकार भी िदया तथा उसे शाही िसपहसालार क भाँित पदवी देकर
सवार का सरदार बना िदया था। एक िदन वह बेगम के महल को जा रहा था िक सामने से
महावत खाँ िसपहसालार आते िमल गये। जब वे दोन पास-पास से गुजरे , तो जुलस ू के सैिनक
म झगड़ा हो गया। उधर महावत खाँ ने उसके झ डे को देखा तो अपना इलम तह कर िलया और
िबना झ डे के शाही हज़रू म जा पहँचा। जब बादशाह को इसक सच ू ना िमली, तो उसने इसका
कारण पछ ू ा। महावत खाँ ने कहा, ‘‘हजरू ़ जहाँपनाह, हमारा समय तो बीत चुका। अब तो मरतब
इलम उड़ाते ह।’’ जब बादशाह को सब बात मालम ू हई ं, तो ोध म आकर उ ह ने खानज़ादा
साहब का इलम तुड़वा िदया। खानज़ादा ने शहज़ादी के सामने बहत रोना रोया पर उसका कोई
फल न िनकला। िफर भी वह शहज़ादी का ि य पाषद बना हआ था और शहज़ादी उस सु दर मख ू
को अपनी इ छाओं क पिू त का मा यम बनाये हए थी। वह शहज़ादी के खानगी मामल का
दारोगा अफ़सर था।
दैवयोग ही किहए िक इस समय शहज़ादी के ये तीन चाहने वाले एक ही थान पर हािज़र
थे। तीन ही इस समय शहज़ादी क िवशेष कृपा के इ छुक थे।
बारहदरी समच ू ी संगमरमर क बनी थी। उसका फश काले और सफेद प थर का बना था। दीवार
पर रं ग-िबरं गे प थर क सु दर प चीकारी क गयी थी। थोड़ी ऊँचाई पर कदे-आदम आईने लगे
थे। फश पर नम ईरानी कालीन िबछे थे। उनपर हाथी दाँत के काम का छपरखट था, िजसके ऊपर
जरव त का चंदोवा तना था, िजसम मोितय क झालर टँगी थी। पलंग पर मखमली ग ा, तोशक
और मसनद लगी थ , िजनपर िगहायत नफ स जरदोजी को काम हो रहा था। सामने करीने से
चौिकय पर ढे र के ढे र फूल, इ और अनेक कार क सुग ध तथा ंग ृ ार क व तुएँ रखी हई
थ।
मसनद पर अलसायी देह िलये शहज़ादी अकेली बैठी थी। बाहर नंगी तलवार िलये तातारी
बांिदय का पहरा था। इसी समय हँसते हए दू हा भाई ने आकर सोने के याले म शीराजी पेश क ।
बेगम ने आँख तरे रकर कहा, ‘‘यह या? वह हमारी पस द क चीज़ अंगरू ी शराब कहाँ
है?’’
‘‘हजरत, एक याला इस शीराजी का भी तो पहले नोश फमा कर ईरान के बादशाह को
ममनन ू क िजए िजसने यह क मती शराब बड़े शौक से काबुल के अमलदार के माफत हज़रू क
िखदमत म भेजी है।’’
‘‘यह या हमारी उस िनयामत से बढ़कर है िजसे खास हमारे हक म अंगरू म गुलाब
डालकर और मुक बी अदिबयात िमलाकर तैयार करते ह? तुम तो उस िनयामत को चख चुके हो
दू हा िमयाँ!’’
‘‘हज़रू के तुफैल से, वह नायाब शराब मने पी है। बेशक उसका मुकाबला तो आबेहयात भी
नह कर सकता! मगर हज़रू शहज़ादी, ज़रा उस क ब त शाहे -ईरान का भी तो िदल रिखए।
बड़ी-बड़ी उ मीद बाँधकर उस मरदूद ने यह क मती तोहफा भेजा है।’’
शहज़ादी ने हँसकर कहा, ‘‘शाहे -अ बास ऐसा बादशाह नह है िजसे मरदूद कहा जाए।
बस, हम उसक खाितर बसरोच म मंजरू ़ है! इसके अलावा हम तु ह भी ममनन ू िकया चाहती ह।
इसीसे बखुशी यह याला मंज़रू करती ह!’’
‘‘शु है खुदा का िक शहज़ादी को इस गुलाम का भी इस कदर ख़याल है, म तो एकदम
नाउ मीद हो गया था!’’
‘‘िकस अ म?’’
‘‘जांब शी पाऊँ, तो अज क ँ िक हज़रू शहज़ादी क नज़रे -इनायत इस कमनसीब पर अब
पहले जैसी नह ह।’’
‘‘तो दू हा िमयाँ, अब तुम बड़े भी हो गये, ब चे नह हो! िफर हम तो तुमसे खुश ह!’’
शहज़ादी ने याला खाली िकया और दू हा िमयाँ ने उसे दुबारा भरकर शहज़ादी के आगे
बढ़ाते हए कहा, ‘‘बेअदबी माफ हो बेगम, गुलाम बड़ा हो तो यह ख़ुदा क कार तानी है, कुछ
गुलाम क तकसीर नह ! और अब तो गुलाम को यह समझ भी आ गयी है िक हजरू ़ जो इस
नाचीज पर खुश होने क इनायत करती ह, वह बहत नाकाफ है! जांिनसार यादा क उ मीद
रखता है।’’
शहज़ादी िखलिखलाकर हँस पड़ी। उसने कहा, ‘‘तो बेहतर है... तुम अपने िदल का इजहार
खुलकर करो, हम उसपर गौर करगी।’’
‘‘तो अज करता हँ हज़रू शहज़ादी, िक उस तुक मरदूद नजावत खाँ क आँख मुझे कतई
पस द नह ह, और न वह कािफ़र िह दू राजा मुझे पस द है िजसे आज सवारी के व बीड़ाशाही
इनायत करके और सवारी के साथ रहने का हक देकर सरफराज िकया है। उसने तीसरा याला
शहज़ादी क ओर बढ़ाया।
शहज़ादी ने हँसती हई आँख से उसक ओर देखकर कहा, ‘‘व लाह, तो तुम इन दोन
नापस द आदिमय के साथ िकस तरह पेश आना चाहते हो?’’
‘‘म दोन से दो-दो हाथ करना चाहता हँ। इ क के मैदान म एक-दो-तीन नह रह सकते
शहज़ादी!’’
‘‘बेहतर! तु हारी तजवीज़ हम पस द करती ह और इस अ म उन दोन बदब त को
ज़ री ह म देना चाहती ह। बस, तुम अमीर नजावत खाँ को इसी व हमारे हज़रू म भेज दो और
खुद बइ मीनान आराम करो!’’
शहज़ादी ने मु कराकर दू हे िमयाँ क ओर देखा। दू हा िमयाँ, जो शहज़ादी क िवनोद-
व तु था और अपने को शहज़ादी के ेिमय म समझता था, इस बात से खुश नह हआ। उसने धीरे
से कहा, ‘‘ या हज़रू शहज़ादी को एक याला अंगरू ी शराब का पेश क ँ , िजसक िक हज़रू हद
दज शौक न ह?’’
‘‘यक नन वह याला दू हा िमयाँ तु हारे हाथ से हम नोश फमायगे।’’
दू हा खुश हो गया। उसने याला शहज़ादी को पेश िकया और शहज़ादी ने याला हाथ म
लेकर इशारे ही से उसे कह िदया िक ह म क तामील हो।
िववश दू हा िमयाँ उस आन ददायक सोहबत को छोड़कर उठे और जाकर अमीर नजावत
खाँ को बेगम का ह म सुना िदया। बेगम ने धीरे -धीरे याला खाली िकया और मसनद पर लुढ़क
गयी। इस व वह मौज म थी और अ छे -अ छे िवचार उसके दय को आनि दत कर रहे थे। वह
सोच रही थी, न बर एक खसत हए और न बर दो क आमद है।
इसी समय नजावत खाँ ने आकर शहज़ादी को कोिनश क और दोजानू होकर शहज़ादी के
सामने बैठ गया। य िप यह मुगल द तरू और अदब के िवपरीत था, लेिकन यार-मुह बत के
मामल म अदब का िलहाज चलता नह है।
शहज़ादी ने अमीर को पान देकर कहा, ‘‘अमीर खुशव त, इ मीनान से बैिठए।’’
नजावत खाँ उसी तरह दोजानू बैठा रहा। उसने पान लेकर शहज़ादी को सलाम िकया और
कहा, ‘‘शहज़ादी, अब कब तक म जलता रहँ?’’
‘‘तु ह तकलीफ या है िदलवर?’’
‘‘अब वादा परू ा होना चािहए और शरअ क से इस नाचीज़ को शहज़ादी को यार करने
का हक िमलना चािहए।’’
‘‘ओह, तु हारा मकसद िनकाह से है?’’ शहज़ादी ने एक फूल के गु छे से खेलते हए कहा।
‘‘बेशक, हजरू ़ शहज़ादी और वािलदे-अहद ने मुझसे वादे िकये ह।’’
‘‘लेिकन ये सब तो पुरानी बात ह जानेमन! मुगल शहज़ािदय क शादी नह होती है।’’
‘‘ य नह होती है?’’
‘‘ या आपने नह सुना िक मामू शाइ ता खाँ ने जहाँपनाह को इसक वजह बताते हए
कहा था िक अगर ऐसा हआ तो िजस अमीर से शादी क जाएगी उसे शहज़ाद क बराबरी का
तबा देना पड़े गा?’’
‘‘लेिकन ख़ुदा के फजल से म भी ब ख का शहज़ादा हँ।’’
‘‘तो शहज़ादा साहे ब, हम इससे कब इ कार है? हमारी नज़रे -इनायत पर आप शाक न
ह ।’’
‘‘शाक नह ।’’
‘‘मगर जो बात हो ही नह सकती उसके िलए हम बादशाह सलामत से अज भी कैसे कर
सकती ह’’
‘‘लेिकन शहज़ादी, आप तो स तनत क मािलक ह; जहाँपनाह या आपक बात टाल
सकते ह?’’
‘‘िफर भी एक मनसबदार से िह दु तान के बादशाह क लड़क क शादी गैरमुमिकन
है।’’
‘‘तो िफर गुनाह से फायदा?’’
‘‘ या तमाम िह दु तान के बादशाह क शहज़ादी भी गुनाह कर सकती है?’’
‘‘शहज़ादी, िह दु तान के बादशाह के ऊपर एक दीनो-दुिनया का बादशाह है।’’
‘‘वह आम लोग के िलए है- या यह भी कभी मुमिकन है िक मुगल शहज़ादी एक अदना
मनसबदार क ताउ ल डी बनकर रहे ?’’
‘‘लेिकन शहज़ादी...’’
‘‘बस खामोश, हम ऐसी बात सुनने के आदी नह । बस, हम अपनी खुशी से िजस कदर
इनायत तुम पर कर, उतने ही म आसदू ा रहो।’’
‘‘मगर मेरी भी कुछ वािहशात ह।’’
‘‘ह गी, हम िफलहाल इस अ पर गौर नह कर सकत । तु हारी इ तजा से हमने आज
यहाँ बारहदरी म मुकाम िकया और तुमसे मुलाकात क । हम चाहती ह िक आइ दा अपने इराद
को काबू म रखो।’’
‘‘तो हज़रू , मेरी एक अज है।’’
‘‘अज करो।’’
‘‘मुझे भी अमीर मीरजुमला के साथ दकन भेज दीिजये। तािक अपनी आँख से म वह सब
न देख सकँ ू िजसे देखने का म आदी नह हँ।’’
‘‘तु हारा मकसद या है?’’
‘‘शहज़ादी, वह कािफ़र िह दू राजा, िजसम हजरू ़ खास िदलच पी ले रही ह, म उसे कल
क ल क ँ गा और दकन चला जाऊँगा और िफर आपको मँुह न िदखाऊँगा।’’ नजावत खाँ तेजी
से उठकर चल िदया।
बाहर आकर उसने देखा–खानज़ादा साहे ब सामने हािज़र ह। खानज़ादा ने आगे बढ़कर
कहा, ‘‘आदाब अज है मनसबदार साहे ब, किहए शहज़ादी से शादी तय हो गयी?’’
नजावत खाँ ने घणृ ा और ोध म भरकर कहा, ‘‘मरदूद, नामाकूल, तेरा सर धड़ से
अलहदा क ँ गा।’’
ू देख लेने के बाद।’’ वह हँसता हआ
‘‘बखुशी, मनसबदार साहे ब, मगर शादी का जुलस
एक ओर चला गया और नजावत खाँ ताव-पेच खाता दूसरी ओर।
शहज़ादी कुछ देर फूल के एक गुलद ते को उछालती रही। कुछ देर बाद उसने द तक दी।
चाँदनी खबू चटख रही थी और बेगम अंगरू ी शराब के नशे म म त थी। उसका शरीर
मसनद पर अ त य त पड़ा था। आँख नशे म झम ू रही थ । उसक यारी िव ािसनी बांदी
ह नबानू और खास वाजासरा तम उसक िखदमत म हािज़र थे। इस समय आधी रात बीत
रही थी और ठ डी सुगि धत हवा चल रही थी। उसने एक बार घिू णत ने से इधर-उधर देखा और
तम क ओर ख कर कहा :
‘‘वह िह दू राजा चौक पर मु तैद है न?’’
‘‘जी हाँ ख़ुदाव द!’’
‘‘तो उसे हमारे -ब- हािज़र कर। अपनी मेहरबािनय से हम उसे सरफराज िकया चाहती
ह।’’
तम िसर झुकाकर चला गया। बेगम ने गदन झुकाकर ह नबानू क ओर ितरछी नज़र
से देखा और कहा, ‘‘ या तू उस िह दू राजा क बाबत कुछ जानती है?’’
“िसफ इतना ही िक वह एक दयानतदार और नेक रईस है।’’
‘‘बस?’’
‘‘खबू सरू त और बाँका भी एक ही है।’’
‘‘हरामज़ादी, या तेरी तबीयत उसपर मायल है?’’ बेगम ने उ ेिजत होकर हाथ का
गुलद ता बांदी पर दे मारा।
‘‘बांदी ने ज़मीन तक झुककर बेगम को सलाम िकया और कहा, ‘‘एक याला शीराजी दँू
सरकार?’’
‘‘दे। गुलाब और इ त बोल भी िमला।’’
बांदी ने वािद शराब का याला तैयार कर बेगम के हाथ म िदया।
शराब पीकर बेगम ने कहा, ‘‘तू िकसी ऐसे मुसि बर को जानती है िजसने इस तेरे बांके
िह दू छैला क त वीर बनायी हो?’’
‘‘जानती हँ ख़ुदाव द।’’
‘‘तो सुबह गु ल के बाद उसे मय त वीर के हािज़र करना, जा भाग।’’
बेगम ने याला िफर उसपर फका और मसनद पर उठं ग गयी। इसी समय तम ने राव
छ साल के साथ आकर सलाम िकया। छ साल ने आगे बढ़कर बेगम को कोिनश क ।
बेगम ने ितरछी नज़र से वाजासरा क ओर देखा। वाजासरा चुपचाप सलाम करके वहाँ
से िखसक गया। अब एकदम एका त पाकर बेगम ने कहा, ‘‘ख़ुदा का शु है, बैठ जाइये।’’
उसने मसनद क ओर इशारा िकया। पर यह त ण राजपत ू एक कदम आगे बढ़कर िठठककर
खड़ा रह गया। उसने कहा, ‘‘शहज़ादी, बेहतर हो मुझे अपनी नौकरी बजाने का ह म हो जाए।’’
‘‘मेरे यारे राजा, यह तुम या कह रहे हो! तु हारी ऐसी ही बात से मेरा िदल टुकड़े -टुकड़े
हो जाता है।’’ शहज़ादी ने अपनी बड़ी-बड़ी आँख उठाकर राजा क ओर देखा और मीठे वर म
कहा, ‘‘आज हम बहत खुश ह और उ मीद है, उस चमेली-सी चटखती चाँदनी का लु फ उठाने म
राव छ साल दरे ग न करगे।’’
त ण राजा अपनी जगह पर ही खड़ा रहा। शहज़ादी क शराब से लाल आँख और भी लाल
हो गय , पर तु उसने मन के गु से को रोककर कहा, ‘‘जानेमन, हमारे पास यहाँ मसनद पर
बैठकर हम सेहत ब शो।’’
‘‘मुझे अफसोस है शहज़ादी, म ऐसा नह कर सकता।’’
‘‘ य नह कर सकते िदलवर?’’
‘‘यह मेरे दीनो-ईमान के िखलाफ है।’’
‘‘लेिकन हमारी खुशी है, हम तु ह िदल से चाहती ह।’’
‘‘म नाचीज़ राजपत ू हजरू ़ शहज़ादी क इस इनायत का हकदार नह हँ।’’
‘‘तो तुम हमारी ह मउदूली क जुरत करते हो?’’
‘‘ह म दीिजए िक म चला जाऊँ।’’
‘‘इस चाँदनी रात म, इस फूल से महकती िफज़ा म यारे राजा, या तुम नह जानते िक
हम िदल से तु ह चाहती ह, तुमसे िदली मुह बत रखती ह? तु ह डर िकस बात का है, जानेमन?
कहो हम वही कर िजसम तु ह खुशी हो।’’
‘‘शहज़ादी, मुझे चले जाने क इजाजत दीिजये और िफर कभी ऐसा क मा जबान पर न
लाइए–म यही चाहता हँ।’’
‘‘और हमारी मोह बत?’’
‘‘उसपर शायद मनसबदार नजावत खाँ का हक है।’’
‘‘ओह, समझ गय । तु ह र क हो सकता है िदलवर, लेिकन हम तु ह चाहती ह, िसफ
तु ह। तुम मेरे िदलवर हो। िजस िदन मने पहली बार झरोखे से तु ह घोड़े पर सवार आते देखा–
िजसक टाप ज़मीन पर नह पड़ती थी और तुम उसपर प थर क मिू त क तरह अचल बैठे थे–
तभी से तु हारी वह मिू त हमारे मन म बस गयी है िदलवर। उस िदन तु ह देख हम अपने को भल ू
गय । तभी से हमारा िदल बेचन ै है। हम तु ह अपने आगोश म बैठाकर खुशहाल होना चाहती ह।
हरच द हमने तु ह बुलाया और तुमने इ कार कर िदया मेरे खतत ू और तोहफे तुमने लौटा िदये।
आज हमने तु ह पाया है। अब हमारे पास आकर बैठो। हम अपने हाथ से तु ह इ लगाएँ , तु ह
यार कर और अपने िदल क आग को बुझाएँ ।’’
‘‘हज़रत बेगम सािहबा, इस व आपक तबीयत नासाज है, म जाता हँ।’’
बेगम शेरनी क तरह गरज उठी।
‘‘तु हारी यह िहमाकत, हमारी आरजू और मुह बत को ठुकराओ! या तुम नह जानते िक
हमारे गु से म पड़कर बड़ी से बड़ी ताकत को दोज़ख क आग म जलना पड़ता है!’’
लेिकन राजा पर इस बात का भी कोई असर नह हआ। उसने बेगम क िकसी बात का
जवाब नह िदया। उसने म तक झुकाकर बेगम का अिभवादन िकया और तेजी से चल िदया
बेगम पैर से कुचली हई नािगन क भाँित फुफकारती हई मसनद पर छटपटाने लगी।
राजा के बाहर आते ही दू हा ने सलाम करके हँसते हए कहा, ‘‘मुबारक राजा साहे ब,
मुबाकर, शहज़ादी का ेम मुबारक।’’ राजा का हाथ तलवार क मठ ू पर गया और दू हा भाई
हँसता हआ भाग गया।
आचाय चाण य
◌ा चीन काल म मनु य से ऊपर और देव से नीचे कुछ जाितयाँ थ , जो साधारणत: देव-
योिन म ही मानी जाती थ । उनम य , ग धव, अ सरा, िक नर, िव ाधर, िस आिद
जाितयाँ प रगिणत थ । िव ाधर के राजा जीमत ू केतु थे। जब वे बहत व ृ हो गये, तो
अपने पु जीमत ू वाहन को रा य दे, वन म जाकर तप करने लगे। पर तु जीमत ू वाहन बड़े
िपतभृ और धमा मा थे। िपता के िबना रा य उ ह न चा, और िस मि य को रा य-भार
स प, वे भी तपोवन म माता-िपता क सेवा म आकर रहने लगे।
वहाँ समय पाकर उनके िम आ ेय ने एक िदन कहा, ‘‘िम , रा य छोड़कर, बहत िदन
तक वन म रहकर तुमने माता-िपता क सेवा क , अब चलकर अपना राजपाट स भालो!’’
पर तु जीमत ू वाहन ने बहत समझाने-बुझाने पर भी िपता क सेवा नह छोड़ी। आ ेय ने यह
भी भय िदखाया िक तु हारा परम श ु मातंग तु हारे रा य पर दाँत रखता है, वह अव य घात
करे गा! इसपर जीमत ू वाहन ने कहा, ‘‘मातंग यिद मेरा रा य चाहता है तो वह म उसे दे दँूगा।
परोपकार के िलए म शरीर भी दे सकता हँ!’’
काला तर म जीमत ू केतु ने पु से कहा, ‘‘पु , बहत िदन तक उपयोग म आने के कारण
सिमधा, कुश, पु प आिद का यहाँ अभाव हो गया है; इसिलए तुम मलय पवत पर जाकर रहने
यो य कोई उ म थान देखो।’’
आ ेय को साथ लेकर जीमत ू वाहन मलय पवत पर गया। मलय पवत पर च दन का सघन
वन था। कह व छ-सुशीतल झरने कल-कल श द करते बह रहे थे। कह पानी क धारा प थर
से टकराकर और चरू -चरू होकर जलकण िछटका रही थी। मधुर मलय पवन च दन क मीठी
सुग ध िलये झरने के जल से शीतल हो बह रहा था। जीमत ू वाहन को वह थल बहत भाया। वह
अपने िम से बात करने लगा–इसी समय उसे सामने कोई आ म नज़र आया, जहाँ से हवन का
धुआँ िनकल रहा था। जीमत ू वाहन ने कहा, ‘‘वह देखो, कोई आ म तीत होता है। व बनाने
के िलया यहाँ के व ृ क छाल सावधानी से उखाड़ी गयी है। उस िनमल झरने क धार के नीचे
पुराने कम डलु िदखाई दे रहे ह। इधर-उधर बटुक क टूटी हई मुंज-मेखलाएँ पड़ी ह। व ृ क
ऊँची शाखाओं पर मोर और तोते सामगान-सा कर रहे ह। चल देख।’’
दोन आगे बढ़े । जीमत ू वाहन ने कहा, ‘‘अहा, वह देखो िम , मुिन लोग बालक के आगे
वेद क या या कर रहे ह। उधर कुछ बालक सिमधा बटोर रहे ह। कुछ बािलकाएँ पौध को स च
रही ह। पास ही कह से वीणा के साथ संगीत क भी विन आ रही है।’’
आ ेय ने कहा, ‘‘िम , वीणा बजाकर कौन गा रहा है!’’
जीमत ू वाहन ने कहा, ‘‘स मुख एक देवालय है-वहाँ स भव है कोई देवांगना हो!’’ दोन
देवालय क ओर बढ़ चले।
मलयिग र पर िस का िनवास था। वह कुलपित िव िम का आ म और गौरी का एक
मि दर था। िस राज क क या मलयवती उ म पित ा करने क इ छा से गौरी के मि दर के
आँगन म वीणा पर देवी क तुित गा रही थी। जीमत ू वाहन अपने िम आ ेय के साथ मि दर के
पास आये, तो देखा िक देवालय म दीप जलाकर एक अनुपम सु दरी देवक या वीणा बजाकर
गा रही है। दोन िछपकर सुनने लगे।
गाना समा करके मलयवती ने सखी से कहा, ‘‘सखी, आज व न म भगवती गौरी ने
मुझे वर िदया िक िव ाधर का च वत राजा शी तु हारा पािण हण करे गा!’’
यह सुनकर आ ेय ने जीमत ू वाहन को वहाँ ले जाकर खड़ा कर िदया और कहा, ‘‘देवी,
भगवती गौरी ने यही वर तु ह िदया है!’’
मलयवती ने ेम और ल जा से जीमत ू वाहन को देखा और अनमनी होकर वहाँ से चलने
लगी। पर उसक सखी चतु रका ने कहा, ‘‘यह एक भ अितिथ है। हम इसका स कार करना
चािहए।’’ उसने जीमत ू वाहन और उसके िम का स कार कर बैठने को कहा।
िस राज िव ावसु क इ छा थी िक वे िव ाधर-कुमार जीमत ू वाहन को ही क यादान कर।
इसिलए जीमत ू वाहन का वहाँ आना सुन उ ह ने अपने पु िम ावसु को उनक खोज म भेजा था।
इधर दोपहर के नान का समय हो चुका था। िव ावसु ने एक तप वी मलयवती को बुलाने भेजा
था। उसने मलयवती के पास जीमत ू वाहन को बैठे देखा। िपता क आ ा सुन मलयवती मि दर से
चली गयी।
मलयवती जीमत ू वाहन के ेम म याकुल हो गयी और चंदनलतागहृ म आकर अपनी सखी
से अपने मन का स ताप कहने लगी। इसी समय जीमत ू वाहन ने अपने माता-िपता के िलए गौरी-
मि दर के िनकट आ म बना िलया और वे माता-िपता के साथ वह आकर रहने लगे। इधर
िस राज के पु िम ावसु ने जीमत ू वाहन से मलयवती के पािण हण क ाथना क । अ त म
माता-िपता क आ ा ले जीमत ू वाहन का िववाह मलयवती से हो गया।
िववाह के दूसरे ही िदन िम ावसु ने सच ू ना दी िक तु हारे श ु मातंग ने तु हारे रा य पर
आ मण कर उसे ह तगत कर िलया है। पर तु तु ह क करने क आव यकता नह , म अभी
िस गण के साथ आकाशगामी िवमान पर चढ़कर जाता हँ और मातंग को मारकर तु हारे रा य
का उ ार करता हँ।
पर तु जीमत ू वाहन ने उ ह यह कहकर रोक िदया िक ‘‘म रा य के िलए र पात नह
चाहता, न मातंग से श ुता रखता हँ। वह रा य का अिभलाषी है, तो रा यभोग करे । पर-पीड़न
मुझसे न होगा।’’
जीमतू वाहन मलयवती को लेकर अपने िपता के आ म म आ रहे । मलय पवत क तलहटी
म समु था। एक िदन वहाँ िम ावसु के साथ जीमत ू वाहन टहलने गये तो बात ही बात म कहने
लगे, ‘‘िम , यहाँ िस ा म म सब सुख तो ह, पर तु प ृ वी पर रहने वाला कोई दु:खी जन नह ,
िजसक म सेवा कर सकँ ू ।’’
बात करते-करते वे पहाड़ पर चढ़ने लगे। कुछ दूरी पर पहाड़ जैसी सफेद व तु देखकर
जीमत ू वाहन ने कहा, ‘‘िम , यह या है?’’
िम ावसु ने कहा, ‘‘यह नाग क हड्िडयाँ ह। यहाँ ग ड़ आकर िन य एक नाग को खाता
है-इसीसे उनक हड्िडय का इतना ढे र एक हो गया है। ग ड़ खाता तो एक ही नाग को था,
पर उसके िलए समु म इतनी उथल-पुथल मचती थी िक बहतेरे नाग मर जाते! इससे नागराज
वासुक को आशंका हो गयी िक ऐसे तो शी ही नाग-कुल का िवनाश हो जाएगा। अब उ ह ने
यह यव था कर दी है िक ितिदन एक नाग ठीक समय पर उसके भोजन को भेज देते ह। यह
ग ड़ ारा खाये हए उ ह नाग क हड्िडय का ढे र है!’’
जीमतू वाहन यह समाचार सुनकर बहत दु:खी हआ और िम ावसु के चले जाने पर भी वह
वह बैठकर नाग के दु:ख क िच ता करने लगा। इसी समय िकसी ी के रोने का श द उसने
सुना। वह कह रही थी, ‘‘शंखचड़ ू , आज तु हारी बारी है। अपनी आँख से तु हारा वध म कैसे
देखँगू ी!’’
जीमत ू वाहन ने िनकट जाकर देखा, एक नाग आगे-आगे चल रहा है। उसके पीछे उसक
व ृ ा माता िवलाप करती जा रही है। एक दास दो लाल व िलये साथ चल रहा है और कह रहा
है, ‘‘शंखचड़ ू ! लो वध का िच यह लाल व ओढ़ लो और इस च ान पर बैठकर ग ड़ क
ती ा करो! पर तु तु हारी माता तो पु -शोक से अधीर हो रही है।’’
दास वह व उसे देकर चला गया। ग ड़ के आने का समय हो गया था। शंखचड़ ू क
माता पछाड़ खाने और रोने लगी। जीमत ू वाहन का दय क णा से भर गया। उसने आगे बढ़कर
कहा, ‘‘माता, शोक मत करो! म तु हारे पु के बदले अपना शरीर अपण क ँ गा। लाओ, यह
लाल व मुझे दे दो!’’
पर तु शंखचड़ ू और उसक माता इस बात पर राजी नह हए और वे जीमत ू वाहन को
ध यवाद दे देव- णाम करने मि दर म चले। इसी बीच मलयवती क माता ने कंचुक के ारा
जीमत ू वाहन के िलए एक जोड़ा लाल मांगिलक व भेजा था। कंचुक यह सुनकर िक
जीमत ू वाहन समु तट पर घम ू ने गये ह, यह वह व लेकर आ गया। व लेकर जीमत ू वाहन ने
कंचुक को िवदा िकया और व अपनी देह पर लपेटकर उस िशला पर जा बैठा। इसी समय
िबजली क भाँित उतरकर ग ड़ ने जीमत ू वाहन को पंजे म उठा िलया और मलय पवत क ऊँची
चोटी पर ले जाकर उसे खाना आर भ िकया।
उधर िव ावसु के ितहार जीमत ू वाहन को ढूंढ़ते इधर आ पहँचे। उ ह िच ता हई िक वह
समु -तट से अभी तक य नह लौटे। अमंगल क आशंका से व ृ माता-िपता का दय काँप
उठा। इसी समय र और माँस से िलपटी जीमत ू वाहन क चड़ ू ामिण वहाँ िगरी। उसे देख
जीमत ू वाहन क माता रोने लगी; पर ितहार ने कहा, ‘‘यह ग ड़ के भोजन का समय है! जान
पड़ता है जो नाग आज उनके भोजन के िनिम गया है, यह उसके िसर क मिण है।’’
शंखचड़ ू जब उस िशला के िनकट आया तब तक तो ग ड़ जीमत ू वाहन को लेकर मलय
क ऊँची चोटी पर जा पहँचा था। शंखचड़ ू रोता हआ उधर आ पहँचा और उसने कहा,
‘‘जीमत ू वाहन ने मेरे बदले ग ड़ को अपना शरीर दे िदया।’’ यह सुनकर सब लोग हाहाकार
करने लगे और रोते-कलपते मलय-िशखर क ओर दौड़ चले, जहाँ ग ड़ जीमत ू वाहन को खा
रहा था।
ग ड़ जीमत ू वाहन के आधे शरीर को खा चुका था। जीमत ू वाहन कह रहा था, ‘‘ग ड़!
खाओ और खाओ! त ृ होकर भोजन करो! अभी मेरे शरीर म माँस है। तुम भख ू े हो!’’
ग ड़ को यह देखकर बड़ा आ य हआ। वे सोचने लगे, ‘‘ऐसा तो कभी नह हआ, जबिक
मने इतने नाग खाये। न यह रोता-चीखता है, न दद से तड़पता है। उ टे आनि दत हो रहा है।’’
उ ह ने कहा, ‘‘महा मा, तू कौन है? तेरे जैसा धैयवान पु ष मने नह देखा।’’
इसी समय दौड़ते हए आकर शंखचड़ ू ने कहा, ‘‘ये नाग नह ह। नाग म हँ। इ ह छोड़ दो।
सवनाश हो गया। मुझे खाओ ग ड़! यह तो िव ाधर जीमत ू वाहन ह।’’
जीमत ू वाहन ने कातर होकर कहा, ‘‘तुम य आये शंखचड़ ू ? य मेरी इ छापिू त म बाधा
दी?’’
ग ड़ ने शंखचड़ ू क बात सुनकर कहा, ‘‘यह तो बड़ा अनथ हो गया! या िव ाधर
जीमतू वाहन ने िवपि म पड़े नाग क र ा के िलए अपना शरीर दान कर िदया है?’’
इसी समय जीमत ू वाहन के माता-िपता िगरते-पड़ते आ पहँचे। उ ह देखकर जीमत ू वाहन ने
कहा, ‘‘शंखचड़ ू , मेरा शरीर अपने दुप े से ढक दो, य िक माता-िपता देखगे तो ाण याग
दगे।’’
जीमत ू वाहन के माता-िपता मलयवती के साथ वह पहँचकर िवलाप करने लगे। पर
जीमत ू वाहन को जीिवत देखकर उ ह कुछ धैय हआ। ग ड़ ने कहा, ‘‘इस महा मा का याग तो
महान है! मने आज से जीव-िहंसा याग दी।’’ पर तु इसी समय ग ड़ का वचन सुन,
जीमत ू वाहन के मँुह पर मु कान आयी और ाण िनकल गये।
सब लोग िवलाप करने लगे। इसपर ग ड़ ने कहा, ‘‘म वग से अमत ृ लाकर जीमत ू वाहन
तथा अ य सब नाग को अभी जीिवत करता हँ।’’ यह कहकर वे आकाश म उड़ गये।
इधर सब लोग मत ू वाहन के मत
ृ जीमत ृ शरीर के दाह का ब ध करने लगे। मलयवती ने
आकाश क ओर मँुह करके रोते हए कहा, ‘‘देवी गौरी तुमने तो वर िदया था िक िव ाधर
च वत राजा मेरे पित ह गे! यह या हआ?’’
इसी समय ग ड़ ने आकाश से अमत ृ क वषा कर दी। जीमत ू वाहन िफर य -के- य
होकर उठ बैठा। सब नाग भी जीिवत हो, जीभ से अमत ृ चाटते हए पहाड़ी से उतरने लगे।
देवी ने जीमत ू वाहन को िव ाधर च वत का पद दान िकया।
कोई शराबी था
दु ला बहत खुश था। बहत ही खुश। वह तहसील का चपरासी है। इसी नौकरी म उसने
अ अपने बाल सफेद िकये ह। जब वह नौकर हआ था, अठारह साल का प ा था; अब वह पचास
के िकनारे पहँच रहा है। बस साल-दो साल क नौकरी है, िफर छु ी। अ दु ला छोटा आदमी है,
महज तहसील का चपरासी। मगर खुदापर त और नेक। रोजे-नमाज़ का पाब द। अपनी नौकरी
के दौरान उसने बड़े -बड़े हािकम क आँख देखी ह, पर कभी एक बार भी चक ू नह क । वह न
कभी र त लेता है, न इनाम मांगता है, न िकसीसे झगड़ता है। बस, अपने काम से काम रखता
है। अब लोग उसे हाजी कहते ह। हािकम उससे खुश रहते ह। खुशिमजाज है, नेक है; नेक का
दामन पकड़े रहता है।
वह गोरे गाँव का रहने वाला है। पर आज तीस साल से वह गोरे गाँव नह गया। नौकरी म
दूर-दूर मारा-मारा िफरा। बेचारा अदना चपरासी, कलील तन वाह। बाल-ब चेदार आदमी। न उसे
छु ी िमली, न ऐसा सुभीता हआ िक गोरे गाँव जाए। गोरे गाँव उसका वतन है, वहाँ वह पैदा हआ है।
बचपन क मिृ तयाँ उसके िदमाग म ताजा ह। अपने जीवन के अठारह उभरते हए वस त उसने
उसी गाँव म यतीत िकये ह। वह बहधा अपने िकशोर जीवन क ख ी-मीठी मिृ तय को, जब-
तब अपनी आँख म संजोता रहा है। देश-परदेश म वह मारा-मारा िफरा। बड़े -बड़े िबगडै़ल हािकम
क आँख देखनी पड़ । भाँित-भाँित के आदिमय से वा ता पड़ा, पर अपने लंगोिटया यार
दलमोड़िसंह को वह नह भल ू ा। चौधरी दलमोड़िसंह! सोने-सा खरा आदमी। वे िदन भी थे जब
दोन दूध-पानी क तरह घुल-िमलकर रहते थे। वह िह दू, यह मुसलमान। वह जम दार, यह
अदना चपरासी, लेिकन िदल दोन के एक। आज तीस साल से भी ऊपर हो गये, अ दु ला ने
चौधरी दलमोड़िसंह को देखा नह है। खत-प र का भला या मौका? पर कभी एक ण को भी
वह न चौधरी दलमोड़िसंह को भल ू ा है, न गोरे गाँव को। दोन क याद आते ही उसे अपनी जवानी
याद आ जाती है, बचपन याद आ जाता है, बीते हए िदन याद आ जाते ह–जो चले गये ह, अब
लौटकर न आएँ गे। कभी नह ! कभी नह !
तीस साल बाद बदलकर िफर वह अपने इलाके म आया है। गोरे गाँव तो सदर से केवल चार ही
कोस पर है। यहाँ आये भी डे ढ़ महीना हो गया, पर गोरे गाँव जाने का मौका नह िमला उसे। साहब
ने छु ी नह दी। घर-िगर ती क खटपट ने भी उसे परे शान रखा। और आज िबना माँगे मुराद
िमल गयी। साहब का इलाका दौरा कल गोरे गाँव म है। उ ह ने अ दु ला को ह म िदया है िक उसे
उनक पेशी म मुकाम पर हािज़र रहना है। उ ह ने उसे अभी से छु ी दे दी है।
ह म सुनकर अ दु ला ने साहब को सलाम िकया। ‘बहत अ छा हज़रू !’ कहकर खुशी-
खुशी कचहरी से िनकलकर वह सहन म आया। बड़ी स त गम थी। िटटार दुपहरी। कभी-कभी
लू के झ के भी आ रहे थे। पर अ दु ला का इधर यान नह था। कचहरी के सहन म एक बहत
पुराना इमली का पेड़ था। उसक छांह म तने से पीठ लगाये अबदु ला बैठा था। वह बहत ख़ुश था।
उसक आँख म एक चमक थी। उसने आकाश पर नज़र डाली और उसके ह ठ से िनकला,
‘‘अलह दुिल लहा या पाक परवर-िदगार, तन ू े आज मेरी मुराद परू ी क । तेरी रहमत बड़ी है। िजस
िदन से बदलकर आया हँ िकतनी बार छु ी माँगी, पर न िमली। लेिकन आज ह मन जा रहा हँ!’’
तीस साल बाद, ज़रा सोिचए तो, परू े तीस साल बाद।
युग बीत गया। नयी दुिनया पुरानी हो गयी। जवानी झुक गयी, याही पर सफेदी फै ल गयी,
जीवन क दुपहरी ढल गयी।
कुल दो-ढाई घ टे का ही रा ता है! अ दु ला के मानस-ने म वह टेढ़ा-मेढ़ा पतला-क चा
रा ता जैसे सामने आ खड़ा हआ। रा ते म आने वाले गाँव, उनके छ पर से उठता हआ धुआँ, घी
पकने क स धी महक, रा ते के िकनारे इठलाता हआ वह पुराना बरगद का पेड़ और प का
कुआँ-जहाँ गाँव क लड़िकयाँ और बहएँ पानी भरने आती ह अपना अलबेला यौवन िबखेरती हई,
बेसुध, भोली और अ हड़। कोई हँस रही है, कोई सािथन को टहोका मारकर चुहल कर रही है।
िकसीने कुएँ म र सी फांसी, िकसीने घड़ा कमर से लगाया। कमर बलखाने लगी, हाय मेरी
दैया!!
अ दु ला क सोयी हई जवानी जैसे जाग उठी। जीवन के भात क ये मिृ तयाँ, जैसे उसके
मन-मानस से िनकल-िनकलकर साकार हो उठ । वह ठहाका मारकर हँस उठा, एक मीठी-सी
हँसी, जैसे अभी-अभी िकसी नयी-नवेली ने उस अ हड़ छोकरे पर नैन का बान चलाया हो। एक
दीघ िन: ास लेकर वह िफर िवचार-सागर म गोते लगाने लगा, जैसे वह गोरे गाँव क बलखाती
हई पगड डी पर चढ़ा चला जा रहा है, अपनी भरी जवानी क चाल म गुनगुनाता हआ। सरू ज िसर
पर चमक रहा है, रे त के टीले धपू म सोने के ढे र क भाँित चमक रहे ह। वह छोटी-सी देहाती
नदी, जो बरसात म गजब ढाती थी, बलखाती सांिपन क तरह िखसक चली जा रही है। दूर-दूर
तक फसल से लदे खेत, और गाँव के पि मी िकनारे पर चौधरी दलमोड़ का ल बा-चौड़ा अहाता
और िबलकुल उससे सटा हआ मकान, अगली तरफ उसक छकिड़या। सामने वह खड़ा चौधरी
दलमोड़ दुबला-पतला, छरहरा बदन, हँसती हई आँख, छोटी-छोटी मँछ ू े , पतले ह ठ। या मजे का
प का यार है! िकतनी बार उसके साथ नदी म डुबिकयाँ लगायी ह, िकतनी बार लाठी के हाथ
िनकाले, िकतनी बार इन जंगल म घम ू े, िकतनी बार उसी बरगद क छाया म पनघट क सैर
क , जब उसका रोम-रोम जवान था, उमंग से भरा हआ। वाह यार दलमोड़िसंह, कहो कैसे हो?
भई, बहत िदन म िमले।
एक बार अ दु ला ने िफर अपने चार ओर देखा। उसके ह ठ पर मु कान फै ल गयी। वह
पेड़ के नीचे से उठा। अपनी कोठरी म गया, अपना झोला और ड डा उठाया और चल िदया।
वह जा रहा था गोरे गाँव, अपने िचर-प रिचत टेढे़-मेढे़ माग पर उ साह और भाव से भरा हआ।
चार ओर के य , गाँव और िच को देखता हआ। तीन-चार कोस का वह क चा माग आज
उसे बहत ल बा लग रहा था। उसे ऐसा तीत हो रहा था जैसे उसे उस माग पर चलते हए तीस
बरस बीत रहे ह। य - य उसके कदम आगे बढ़ रहे थे, अपने लंगोिटया यार दलमोड़ से िमलने
क अधीरता बढ़ती ही जाती थी। उसे याद था–दलमोड़ चौधरी का एक बेटा था, बहत बार उसने
उसे अपनी छाती पर उछाला था, बहत बार उसने कहा था, ‘‘चौधरी, लाट साहब बनेगा यह लड़का
एक िदन! तब तुम ज़रा िसफा रश करके मेरी नौकरी भी लगवा देना। म भैया का अदली बनँग ू ा।’’
इसपर दलमोड़ हँस देता था। अब तो वह लड़का बड़ा हो गया होगा, बाल-ब चेदार हो गया होगा,
उसने कुछ िमठाई खरीदकर उसके िलए बांध ली थी। वह जा रहा था, तीस बरस बाद, अपने गाँव,
गोरे गाँव। अब गाँव म उसका घर कहाँ है? बस, एक चौधरी दलमोड़ ही है। आज रात-भर घुटेगी
उसक चचा दलमोड़ से। बराबर खाट िबछाकर रात-भर सोने न दँूगा; अपनी कहँगा, उसक
सुनँगू ा। िचलम-त बाखू िपयगे दोन मजा रहे गा!
वह आ गया बड़ का पेड़, वही है कुआँ। अ दु ला ज़रा वहाँ िठठका। इस समय वहाँ सुनसान
था। उसने पि म म डूबते हए सरू ज पर नज़र डाली, अ त होते हए सरू ज क पीली-पीली धपू उस
पुराने बरगद के पेड़ क घनी छांह म कुएँ पर िगर रही थी। वह सोचने लगा, ‘अब वह कुआँ भी
मेरी तरह बढ़ ू ा हो गया। वे सब अ हड़ छो रयाँ, िजनक धमा-चौकड़ी कुएँ पर रहती थी, अब बढ़ ू ी
हो चुक ह गी, अपने बाल-ब च म, अपनी िगर ती म फँसी ह गी। हरदंगी लड़िकय का याह हो
गया होगा, वे सब अपनी ससुराल चली गयी ह गी। इसीसे पनघट सन ू ा हो रहा है।’
उसका मन कुछ सन ू ा-सन
ू ा हो गया। सामने गोरे गाँव है। वह दीख रहा है नीम का पेड़, जो
दलमोड़ के अहाते म है। वह तेजी से आगे बढ़ा।
लेिकन यह या? यह दुमंिज़ली प क कोठी िकसक है? यहाँ का तो न शा ही बदला
हआ है। हाँ, हाँ, वही नीम का पेड़ है! वह तिनक आगे बढ़ा। उसने देखा-नीम का पेड़ तो वही है।
लेिकन उसके नीचे जो दो खु नी भस बँधी रहती थ , वे वहाँ नह ह। अब नीम के चौिगद प का
चबत ू रा बन गया है, चबत ू रे पर रे त िबछा है। रे त पर दो अलसेिशयन कु े ब धे ह, एकदम भेिड़ये
जैसे भयानक। उसे देखकर कु े भँक ू ने लगे। अ दु ला ज़रा िठठककर इधर-उधर देखने लगा।
ल बा-चौड़ा अहाता तो वही था, मगर दलमोड़ के छकिड़ये का पता न था। वहाँ तो एक आलीशान
प क कोठी खड़ी थी।
कु का भँक ू ना सुनकर एक पहाड़ी नौकर भीतर से िनकला। िमचिमची आँख से उसने
अ दु ला क ओर देखा। िफर उसने ज़रा लापरवाही से कहा, ‘‘ या है, िकसे देखते हो, य घुसे
चले जा रहे हो?’’
‘‘भई, म चौधरी से िमलने आया हँ, चौधरी से कहो-अ दु ला आया है!’’
‘‘जाओ, जाओ, यहाँ कोई चौधरी-औधरी नह रहता; गाँव म जाकर पछ ू ो!’’
‘‘यह िकनक कोठी है भाई? चौधरी यह तो... चौधरी दलमोड़...।’’
‘‘अरे जाओ, यह हमारे साहब क कोठी है। देखगे तो िबगड़गे। जाओ, बाहर जाओ; भीतर
आने का ह म नह है!’’
वह अव ा क ि उसपर डालता हआ भीतर घुस गया। अ दु ला खड़ा-खड़ा इधर-उधर
देखने लगा। दोन भेिड़ये कु पर उसक नज़र गयी। वे उसे देखकर अब भी भ क रहे थे।
एक सुवसना सु दरी भीतर से िनकली। शहर म ऐसी िह दु तानी मेम साहब उसने बहत
देखी थ । गोरा-िच ा रं ग; महीन रे शमी साड़ी, िजसम से पेट और नंगी कमर झाँक रही थी;
िलपि टक से रं गे लाल-लाल ह ठ। साथ म दो ब चे गुलाब के फूल क भाँित सु दर और सजे हए।
सु दरी ने कहा, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ य खड़े हो?’’
‘‘म चौधरी दलमोड़िसंह से िमलने आया हँ।’’
‘‘उनसे िमलना है तो वग म जाकर िमलो।’’
‘‘या ख़ुदा, तो या चौधरी...’’ अ दु ला ह ठ -ही-ह ठ म बड़बड़ाया।
सरू ज िछप गया था। अ धेरे ने गाँव को और उस भ य कोठी को तथा अ दु ला के दय को
भी स िलया था। उसने अटकते हए हकलाकर कहा,
‘‘परदेशी आदमी हँ, आज रात यहाँ काटना चाहता हँ।’’
‘‘यह होटल या सराय नह है। चले जाओ यहाँ से!’’
अ दु ला ने एक बार िफर उस नीम के पेड़ को ऊपर से नीचे तक देखा जो अब केवल
अ धकार का ढे र-सा हो रहा था। वह लड़खड़ाते पैर से वहाँ से चल िदया।
मिहला ने इस तरह उसे जाते देखकर कहा : ‘‘कोई शराबी था!’’
बह-बेट े
सुबह दस बजे से पाँच बजे तक अफसर क घुड़िकयाँ और जिू तयाँ खाकर बेमु क-नवाब घर म
घुसे। आते ही बेगम सािहबा क तलाश म इधर-उधर आँख घुमाने लगे। वह उस व कोप-भवन म
थ । बुिढ़या अपनी चारपाई पर पड़ी धड़कते हए कलेजे से यह ती ा कर रही थी िक बेटा तबीयत
का हाल पछ ू े गा और तकलीफ़ देखकर कुछ सहानुभिू त िदखाएगा। इससे इतना लाभ तो ज र
होगा िक बह िक िशकायत का यादा असर न होगा। लेिकन पु महाशय ने छाता खंटू ी पर
टाँगते हए पछ ू ा, ‘‘वह कहाँ है?’’
बुिढ़या ठं डी पड़ गयी। उसने म द वर म कहा, ‘‘अपने कमरे म होगी।’’
यह सुनकर बाबू साहब ने घबराकर कहा, ‘‘ य , तबीयत तो उसक अ छी है?’’
वह माता के उ र को सुनने के िलए खड़े न रहे । झपटते हए अपनी प नी के शयनागार म
घुस आये, जो मँुह िछपाये रजाई म िलपटी पड़ी थी। आपने जाते ही न ज देखी, बाल संवारे और
तबीयत का हाल पछ ू ा। लेिकन मिलका ने जवाब नह िदया। वह िसफ करवट बदलकर लेट गयी।
अब नवाब-बेमु क क समझ म आया िक यह रोग नह है, मान है! भ म बल डालकर बोले,
‘‘हआ या है?’’
महारानी ने मँुह फुलाकर कहा, ‘‘चलो हटो, मेरा सर न खाओ मुझे पड़ी रहने दो। मुझे मर
जाने दो!’’
एक सांस म इतनी बात सुनकर नवाब-बेमु क के माथे पर पसीना आ गया। भला आप ही
याल फरमाइये िक जो आदमी उसे ज़रा पड़ी भी नह रहने दे सकता, वह उसे मरने कैसे दे
सकता है! उ ह ने खुशामद के वर म कहा, ‘‘आिखर बात तो मालम ू हो िक हआ या?’’
बेगम सािहबा ने निकयाकर कहा, ‘‘कुछ बात भी है? य ही मेरी तबीयत परू ी खाने को
चल गयी थी, सो बनाने को कह िदया था। और िदन तो परांठे भी बन जाते थे, मगर आज िज
बाँधकर दाल-भात ही बनाया। इस घर म मेरी ज़रा भी बात नह चलती! अजी, म तो मोल खरीदी
हई बांदी हँ। मेरी तबीयत ही या, और मेरा जी ही या? माँ-बाप ने मुझे हाँक िदया, सो मेरी
तकदीर खुल गयी, जो इस घर म आयी। गहने-कपड़े सब भांड़ म गये, एक बड़े टुकड़े के िलए
ऐसा तरसना पड़ता है।’’ इसके बाद सुबिकय के बढ़ जाने से डायलाग ब द हो गया, िसफ
ऐि टंग रह गयी। वह दोन हाथ से मँुह िछपाकर धम ू धाम से रोने लगी।
घर म घुसते ही पहले तो नवाब-बेमु क ने यह याल िकया था िक शायद भीतर वयं सेवा
दरकार है, इसिलए एक हाथ उनक न ज पर रखा था और दूसरे से अपना कोट उतार रहे थे।
लेिकन रं ग-ढं ग देखकर उस कोट को आधा पहने रहे , बोले नह । ह ठ काटते हए बाहर आये और
गरजते हए व ृ ा को ल य करके बोले, ‘‘तुम लोग म से एकआध ख म हो तो मेरी जान का
वबाल टले। बाहर से थका-मा दा, भख ू ा- यासा घर म आता हँ, तो आग ही लगी िदखती है।’’
व ृ ा चुपचाप पड़ी रही। उसक तबीयत भी अ छी नह थी और वह बह-बेटे से बहत डरती भी
थी। पर तु बािलका ने आँख डबडबाकर कहा, ‘‘भैया, घर म घी नह था।’’
भीतर से गरजती हई मिलकाइन िनकली और बािलका को घुड़ककर कहा, ‘‘घर म कुछ है
थोड़े ही! घी नह था, तो मुझसे य नह कहा? यह सब बहानेबाजी है, असिलयत म जानती हँ।’’
व ृ ा अब भी चुप थी। पु से माँ क यह चु पी सही नह गयी। उसने कड़ककर कहा, ‘‘म
जो बक रहा हँ, वह भी सुना? म कहता हँ िक यह रोज़ क हाय-हाय मुझसे बदा त नह होती!’’
आिखर बुिढ़या क जुबान खुली, उसक आँख से आँसू बहने लगे। उसने काँपते वर म
कहा, ‘‘बेटे, तुम जवान हो गये; घर-बार के हो गये। यह बुिढ़या मैया और कुछ िदन क मेहमान
है। तु ह मुनािसब है िक उसे मनमाने सांस लेने दो। तुमने पया-पैसा और खच-पानी क
िज़ मेदारी तो अपनी बह के सुपुद कर रखी है; म भला कर भी या सकती हँ? गहृ थी म ऐसा हो
ही जाता है। आिखर बह अपनी ही तो है, कोई मेहमान तो नह !’’
सुयो य पु ने ितनककर कहा, ‘‘तु हारे हाथ खचा देकर या ब टाधार क ँ ? पया या
तु हारे हाथ म ठहरता है? पये को पये थोड़े ही समझती हो!’’
व ृ ा ने उसी धीमे वर म कहा, ‘‘अ छी बात है। अब तु ह सुघड़ बह िमल गयी है; पर तु
यह घर इसी बुिढ़या के धल ू -भरे हाथ से बना है। तु हारे िपता िसफ साठ पये लाते थे, तब भी घर
म सब कुछ था। मकान भी घर का था, पड़ोस के दस-पाँच गरीब-मोहताज भी पल जाते थे। तुम
सवा सौ पये कमाते हो। उ ह मरे अभी िसफ तीन साल परू े ही हए ह। तुमने मकान भी बेच िदया
और तन वाह म तु हारा परू ा पड़ता नह ! एक-एक करके तमाम जेवर और िफर बतन तक
बेचने क नीयत आ रही है। अ छा है, तुम मािलक हो; जो जी चाहे करो!’’
उसका गला भर आया और उसे अपने मत ृ पित क याद आ गयी। दय म यह भावना पैदा
हई िक आज उसके इस असहाय जीवन म उसके मरने-जीने क पछ ू ने वाला भी कोई नह है। बाबू
साहब कुछ बोले नह , वह पू रयाँ लाने बाज़ार चले गये। कुछ देर बाद बह, पित के साथ एक ही
थाल म पू रयाँ खा, हँस-हँसकर बोल रही थी। पितदेव गव से स न थे और हँसी म योग दे रहे थे।
आधी रात होने के बाद बािलका ने आवाज़ दी। भैया और भाभी दोन ही च क उठे ।
पु ने पछ ू ा, ‘‘कौन?’’
बािलका ने कहा, ‘‘म हँ भैया! अ मा क तबीयत अ छी नह है, उ ह द त और उि टयाँ हो
रही ह।’’
बाबू साहब उठने लगे, िक तु बह ने बाधा दी और कहा, ‘‘अब रात म उठकर तुम कर या
लोगे! उ ह रात म ऐसा हो ही जाता है। सुबह देखा जायेगा। अनाप-शनाप खा लेती ह; पचता है
नह !’’
एक बार बािलका ने िफर कहा, ‘‘अ मा बहत छटपटा रही ह।’’
बाबू साहब ने बाहर आकर माता क दशा देखी और झुककर हालात पछ ू े । बिू ढ़या ने आँख
खोलकर देखा िक पु खड़ा हआ है। उसने म द वर म कहा, ‘‘लड़क बड़ी खराब है। नह
मानी, तु ह जगा लायी। जाओ सोओ! मुझे तो ऐसा हो ही जाता है। जाओ सो रहो; सवेरे द तर
जाना होगा।’’
सोया हआ पु -भाव जागतृ ् हआ और वह माता क चारपाई के एक कोने पर बैठ गये।
उ ह ने पछ ू ा, ‘‘तबीयत कैसी है? तकलीफ तो यादा नह ?’’
व ृ ा ने कहा, ‘‘मुझे तो ऐसा हो ही जाता है! ज़रा खाने-पीने म गड़बड़ी हई िक पेट म
िवकार आ गया!’’
पु ने डा टर को बुलाने क इ छा कट क , लेिकन व ृ ा ने उ ह कसम देकर कहा,
‘‘डा टर क कोई ज़ रत नह । दो पया मु त म ले जायेगा। मुझे कुछ भी तो नह हआ।’’ िफर
उ ह ने आ ा के वर म कहा, ‘‘तू जाकर सो जा!’’ और वह जाकर सो गये।
ात:काल जब वह उठकर बाहर आये, तो देखा माता का िनज व शरीर पड़ा है और बािलका
उसी क छाती पर सो गयी है।
इन दोन ी-पु ष को हम जानते ह–परू े चटोरे ! पहले प े चाटते थे, अब घर को चाट रहे
ह। आशा है, वे शी ही पर पर एक-दूसरे को चाट जायगे।
तेरह वष बाद
आ मउ कहावत है िक दूसरी प नी पित को अिधक यारी होती है। कदािचत् इसिलए िक उसम
लास और वेदना एक ही ल य-िब दु पर संघात खाती ह। पित क गदहपचीसी
रफूच कर हो जाती है। जीवन क एक असाधारण ठोकर उसे क पना, व न और बाहरी रं ग क
दुिनया से उठाकर भीतरी जगत के स यलोक म पहँचा देती है। वह प नी को ेयसी समझने क
बेवकूफ शायद िफर नह कर सकता। जीवन-संिगनी का स चा अथ टीका और भा य-सिहत
उसक समझ म आ जाता है। खटपट, मान, याजकोप, ऊधम और तमाम चंचल विृ य के
ो ाम थिगत हो जाते ह, और वह सावधान, ग भीर, ि थर, केि त और उ रदािय वपण ू हो
जाता है।
पर तु संगीत म एकसाथ िमलकर बजने वाले िविवध वा जब तक सम पर आकर संघात
नह खाते, तब तक संगीत का समा नह ब धता। िसतार और सारं गी, तबला और हारमोिनयम,
सबके ठाठ जुदा तो ह, पर उ ह वर-लहरी और ताल के साथ िववश होकर िमलकर ही चलना
पड़े गा, तभी तो रसोदय होगा! ठीक उसी कार दा प य म रसोदय तो तभी होता है, जब पित-
प नी जीवन क येक सू म और थल ू ि याओं म एक भत
ू ह ; येक सम पर दोन अिभ न
हो जाय–सर से भी और ताल से भी!
उदय और अमला पित-प नी थे। जीवन क संगीत-लहरी, दोन क दय-वीणा के तार को
कि पत करती थी; पर तु सम पर आकर दोन बेसुरे हो जाते थे। ताल-सुर मेल नह खाते थे।
इससे, सब कुछ ठीक होने पर भी, उस छोटे-से दा प य-संगीत म रसोदय नह हो पाता था, य ?
सो कहता हँ। उदय क आयु 32 साल क थी और अमला क 18 वष। अमला से उदय का याह
हए केवल डे ढ़ वष बीता था। अमला उदय क दूसरी प नी थी।
28 साल क अव था म उदय क थम प नी का अक मात् देहा त हआ। ेमो माद क
मिू छव था म ही जैसे िकसीने उसका सब कुछ अपहरण कर िलया हो। प नी क म ृ यु के बाद
तुर त ही वह उ माद उतर आया, और िफर उसने अपने संसार को िछ न-िभ न, दुगम और
अस पाया। अक मात् और असमय क मनोवेदना उसका अदीघदश जीवन न सह सका; वह
वेदना से िवकल हो हाहाकार करने लगा। पर तु जगत् म अ धकार हो या उजाला, उसम िजतनी
भी चीज़ ह, वे तो रहती ही ह। अमला भी जगत् म थी, वह अ -बल से उदय से आ टकरायी। और
जब दोन पित-प नी हए, तो हठात् जीवन क सारी ही िवचारधारा बदल गयी। वह भी केवल उदय
ही क नह , अमला क भी।
अमला सोचती थी, पित एक ितमा है, उसम बहत-से रं ग भरे हए ह। वह एक झल ू ा है;
अमला जब उसे ा करे गी, वह उसके सहारे लटक जायेगी। अपनी यौवन-भरी ठोकर के आघात
से पग ले-ले झलू ेगी। आशा के हरे -भरे सावन म ेम क रमिझम वष होगी; वह झल
ू ेगी, गाएगी,
हँसेगी और िवहार करे गी। वह एक बार अपने यौवन, जीवन और ी व को पित के अपण करे गी
और वह उसे अपने पौ ष, दप, ेम और आ मापण म लीन करके उसके नारी व को साथक
करे गा।
ये सब बात अमला ठीक इसी भाँित सोचती हो, सो नह । ये तो बड़ी गहरी बात ह। अमला तो
जैसे जीवन-पथ पर उछलती चलती थी; वह तो इस सब बात को ऊपर ही ऊपर सोचती थी। जैसे
भख
ू ा आदमी भख ू तो अनुभव करता है, पर उसके शरीर म जो उ ेग पैदा होता है, िजसके कारण
भखू लगती है, उसे नह समझता; उसी तरह अमला अपने मन क उस उमंग को तो समझती थी,
जो उसके यौवन के भात म पित के मरण से तरं िगत होती थी, पर तु उसके मल ू कारण को
नह ।
िववाह के बाद अमला जब ससुराल आयी, तो उसे ऐसा मालम ू हआ िक िजस व तु के मरण से
उसके मन म इतनी उमंग उठती थ , वह कुछ उतनी ि य, आकषक और उसके उतना िनकट नह
है, िजतना उसे होना चािहए था। वह ण-भर ही म उस अप रिचत घर म अपने को कुछ
अप रिचत-सी देखने लगी। पित को देखकर वह कुछ सहम-सी गयी। उसने देखा, वे कुछ
उ लािसत नह ह। अमला क च चलता और उमंग का उ े क करने क उनक कुछ भी चे ा नह
है। उनक आँख म यार क वह छलछलाती चमक नह ; उनम एक खी िवचारधारा-सी, एक
िव मिृ त-सी है। जैसे अमला को िहफाजत से अपने घर म धरकर वह कुछ िनि त-से हो गये ह।
रह-रहकर अमला के मन म यह आता था िक वह उसके पित नह ह। पित का नाम मन म उदय
होते ही जो रोमांचकारी प रवतन उसके शरीर म होता था, वह उ ह देखकर नह होता।
घर म और भी औरत थी। दो ननद थ -एक िवधवा, एक कँु आरी। एक जेठानी थी, एक सास।
इनके िसवा कुछ िदन तो पास-पड़ोिसन का तांता ब धा रहा। उन सबने बारीक नज़र से अमला
को देखा, जैसे कोई भल ू ी चीज़ पहचानी जा रही हो–चोरी के माल क िशना त हो रही हो। अमला
को यह सब कुछ बहत बुरा लगा। उसे देख-देखकर जो औरत चुपचाप संकेत का एकाध वा य
कहती थ , पास-पड़ोिसन उसक सास को िजन श द म बधाई देती थ , उन सबसे तो खीझकर
अमला रोने लगी। उसने सोचा–जैसे म मोल खरीदा बतन हँ; हर कोई ठोक-बजाकर देखता है िक
ठीक है या नह । मगर इस अि य वातावरण म एक ि य व तु भी थी, उसक कँु आरी छोटी ननद
कु द। वही सबसे पहले पालक म घुस बैठी थी। वही अमला का घंघ ू ट हटाकर हँसी थी। वही
उसका आंचल पकड़ घर म ख च लायी थी। वही िदन-भर अमला के पास रहकर पल-पल म उसे
खाने-पीने, सोने-बैठने को पछ ू रही थी। वह एक यारी-सी िततली थी। अमला ने देखा, जैसे वह
कुछ उसी का ज़रा गोरा एक सं करण है। अभी दो िदन पहले िपता के घर म अमला ऐसी ही तो
थी। जो हो, अमला क सबसे थम घिन ता कु द से हई। कु द का आसरा लेकर अमला उस घर
म रहने लगी। धीरे -धीरे सब कुछ सा य हो गया। सब कुछ सम हो गया। अमला ने सास क
सज ृ न-मिू त को समझ िलया, पित को समझ िलया, पित के सौज य को भी जान िलया। पित-
प नी आशातीत ढं ग से झटपट ही पुराने होने लगे। उनके जीवन म गदहपचीसी के िवनोद, भल ू ,
मान-मनोबल, ठना, िववाद आिद बहत कम आते। अमला ने पित के शु , ग भीर ेम को
पहचान िलया। पित को देखकर लाज से िसकुड़ना ज दी ही समा हो गया। हास-िवनोद का
अ याय बहत कम पढ़ा गया। वह जैसे कुछ महीन म ही गिृ हणी बन गयी। अब वह पित को देखते
ही उनक आव यकताओं का यान करने लगी। वह िदन-भर खटपट म लगी रहती। बातचीत जब
भी दोन क होती, िकसी न िकसी कायवश।
जैसे पाल म झटपट पकाये फल का वाद डाल से टूटे ताज़े फल जैसा न होकर कृि म-सा
होता है, वैसे ही असमय म इस पित-प नी क दािय वपण ू घिन ता ने अमला को अ वाभािवक
ग भीर और अपनी उ और ि थित से कह अिधक कृि म बना िदया। इसका सबसे बड़ा असर
अमला ही पर पड़ा। उसके शरीर और मन, दोन ही का िवकास क गया। पित के घर म रहने
को, उसे अपना मानने को जैसे उसे िववश िकया गया हो। वहाँ क दीवार, कमरे , सामान, िबछौने,
कपड़े –सभी कुछ उसे अप रिचत-से तीत होने लगे। सास, ससुर, देवर और पित भी जैसे उसे
कत यवश ही अपने समझने पड़े ।
उदय क प रि थित कुछ और ही थी। जैसे फाँसी क आ ा पाने पर कोई अपील म छूट जाये,
ठीक उसी भाँित अमला को िफर से प नी- प म पाकर वह केवल संतोष क एक गहरी सांस ले
सके थे। अमला के ारि भक उ लास और नवीन जीवन क ओर उ ह ने ि पात ही नह िकया।
और इसीसे िबना खाद-पानी के पौधे क भाँित, वह मुरझाकर सख ू भी गया। पर तु उदय के िलए
मानो सब एकरस था। अमला क यह प रवितत, फ क मनोविृ जैसे उनके िलए सा य हो गयी।
िफर भी अमला के ित एक उ सुकता, ेम और सहानुभिू तमयी भावना उदय के मन म थी।
अमला को िकसी भाँित कोई तकलीफ न रहने पाए, इस स ब ध म उदय खबू ही सचे थे।
िववाह के डे ढ़ वष बाद अमला ने पु ी सव क । क या अतीव सु दरी, सुमुखी और
आकषक थी। उसके ज म से अमला और उदय दोन ही बहत स न हए। यह न ही-सी ब ची
अपने छोटे-से दूध के समान व छ पालने पर पड़ी चुपचाप अंगठ ू ती, छू देने से हँसती और
ू ा चस
पास जाने पर िनमल ने से देखती रहती। वह अपनी अ ात भाषा म अपने पास आने वाल से
कुछ बातचीत भी िकया करती। देखते-देखते वह बड़ी होने लगी।
न ही क पहली वष-गांठ का िदन था। उदय उन आदिमय म न थे, जो क या-ज म को
पु -ज म से कम समझते ह। उ ह ने बड़ी धम ू धाम से उसक थम वष-गांठ मनायी। िम और
प रजन से घर भर गया। भाँित-भाँित के भोजन और मनोिवनोद के सामान से आग तुक का
वागत िकया गया। अपनी-अपनी भट और ब ची को आशीवाद देकर जब मेहमान िवदा हो गये,
तो उदय बहत-सी सटर-पटर चीज़ न ही के िलए खरीदकर, हँसते हए घर आये। उनक आँख म
हँसी थी और िदल म चुहल। अमला के नववधू होकर घर आने पर भी ऐसी चुहल उदय के मन म
नह उिदत हई थी। अमला उन उ लास-यु आँख को देखती रह गयी; पर तु उदय क ि
अमला क ओर नह थी वह न ही क ओर कुछ देर एकटक देखते रहे । उस गुिड़या क ओर उ ह
पागल क तरह ताकते देख अमला से न रहा गया। उसने पछ ू ा, ‘‘इसे इस तरह य तक रहे
हो?’’
‘‘यह गुिड़या यहाँ आयी कहाँ से?’’
‘‘कह से आयी, तु ह मतलब?’’
‘‘मतलब बहत है! इस गुिड़या को म पहचानता हँ।’’
‘‘तुम?’’
‘‘हाँ, यही वह गुिड़या है! तु हारे पास कहाँ से आयी?’’
‘‘मेरे पास यह बहत िदन से है।’’
‘‘िकतने िदन से?’’
‘‘जब म बहत न ही थी, तब से।’’
‘‘कहाँ से आयी?’’
‘‘एक बहत अ छे आदमी थे, उ ह ने दी थी।’’
‘‘तु ह दी थी-अमला? तुम या कह रही हो?’’
‘‘मुझे याद है, उन िदन म बहत छोटी थी!’’
‘‘तुम?’’
‘‘हाँ, वह मुझे गोद म िखलाते थे। पेट पर उछालते थे। मेला िदखाने ले जाते थे। अ धा घोड़ा
बनते थे। वह बहत अ छे थे।’’
‘‘अमला!’’ उदय उ मत हो रहे थे, उ ह ने कहा, ‘‘कहाँ क बात है यह?’’
‘‘मेरे नाना के घर क ।’’
‘‘तु हारे िपता तो लाहौर म ह?’’
‘‘पर म बचपन म नाना के घर बहत िदन रही थी–वह इंजीिनयर थे, और जंगल म नहर पर
रहते थे।’’
‘‘अमला, तुम मुझे पागल कर दोगी। तो वह अ छे आदमी कौन थे?’’
‘‘यह याद नह ! नाना के पास रहते थे। मेरे िलए िमठाई लाते थे। एक िदन वह यह गुिड़या
लाये थे; िफर नह आये। म िपता जी के यहाँ चली आयी।’’
‘‘ओह, वह न ही-सी नटखट लड़क तुम हो अमला! तब तो तुम बहत ही हँसती थी।’’
उ ह ने अमला के दोन हाथ पकड़कर उसे पास ख च िलया।
अमला अचरज-भरी ि से देखने लगी। उदय ने कहा, ‘‘उन अ छे आदमी को तुमने कभी
याद नह िकया अमला?’’
अमला कुछ-कुछ समझ गयी थी। वह आँख फाड़-फाड़कर पित क आँख म िछपी उस
िव मतृ , िचर-प रिचत ि को पहचानने क चे ा कर रही थी। उसने कि पत वर म कहा,
‘‘तो या सचमुच...’’
‘‘अमला, तुमने तो खबू ढूंढ िलया। म सोचता रहता था िक वह बािलका भी अब बड़ी हो
गयी होगी, अपने घर-बार क होगी। सो तुम बड़ी हो गय । अपने घर-बार क हो गय । तु हारे
खेलने को यह सजीव गुिड़या तु ह िमल गयी, सो तुमने अपनी बचपन क गुिड़या इसे दे डाली।’’
दोन चुपचाप कुछ देर अवस न खडे ़ रहे । तेरह वष पवू क िव मत ृ सी बात वह खबू यान
से याद कर रहे थे। उदय सोच रहे थे-कैसी िविच बात है िक िजस बािलका को मने घुटन पर
िखलाया, वही अब मेरी अधािगनी और जीवन-संिगनी है। अमला सोच रही थी–वाह! यह तो खबू
रही! जब म न ही-सी ब ची थी, तब यह इतने बड़े थे; अब म इनके बराबर हो गयी।
समय और प रि थित ने या घटना उपि थत कर दी; दोन सोचने लगे। दोन क ि
उस बािलका पर पड़ी, जो पालने म अंगठ ू ा चस
ू रही थी। एक बार दोन ने एक-दूसरे को देखा,
और िफर हँस िदये।
इस बार िफर दोन भली-भाँित एक हए। न मालम ू य ? समाज और धम के िवधान, पित-
प नी होने पर भी उ ह उतना िनकट न ला सके थे, िजतना वे अब मधुर, िक तु िव मत ृ और
असम बा य- मिृ त के कारण िनकट आ गये।
ह दी घाटी म
व षािदनॠतचढ़ु थी,चुकलेािकन पानी नह बरसता था। हवा ब द थी। बहत गम और उमस थी। एक पहर
था। कभी-कभी धपू चमक जाती थी। आकाश म बादल छाये हए थे। अरावली
क पहािड़य म, ह दी घाटी क दािहनी ओर एक ऊँची चोटी पर, दो आदमी ज दी-ज दी अपने
शरीर पर हिथयार सजा रहे थे। एक आदमी बिल शरीर, ल बे कद, चौड़ी छाती वाला था। उसक
घनी और काली मँछ ू े ऊपर को चढ़ी हई थ और आँख सुख अंगारे क तरह दहक रही थ । वह
िसर से पैर तक फौलादी िजरह-ब तर से सजा हआ था। इस आदमी क उ कोई चालीस वष क
होगी। उसका बदन ता बे क भाँित दमक रहा था।
दूसरा आदमी भी ल बे कद का था, िक तु वह पहले आदमी क अपे ा दुबला-पतला था।
वह अपनी दाढ़ी को बीच म से चीरकर कान म लपेटे हए था। उसके िसर पर कुसुम रं ग क
पगड़ी बँधी हई थी। उसके शरीर पर भी लोहे के िजरह ब तर थे। एक बहत बड़ी ढाल उसक पीठ
पर थी और दो िसरोिहयाँ उसक कमर म बँधी हई थ । पहला यि अपने िसर पर फौलादी टोप
पहने हए था, पर तु वह ठीक जंचता नह था। दूसरे यि ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘घणीख मा
अ नदाता! आज का िदन हमारे जीवन के िलए बहत मह व का है। यिद आज नह , तो िफर कभी
नह !’’ उसने आगे बढ़कर पहले आदमी के िझलिमले टोप को ठीक तरह से कस िदया, और िफर
एक िवशालकाय भाला उठाकर उस यि के हाथ म दे िदया।
पहले यि ने ममभेिदनी ि से अपने साथी को देखा। उसने मज़बत ू ी से अपनी मु ी म
भाले को पकड़ा और मेघगजना क भाँित ग भीर वर म कहा, ‘‘ठाकरां, तुम ने ठीक कहा-आज
नह तो िफर कभी नह !’’
वह पहला यि मेवाड़ का राणा, िह दू-पित ताप था और दूसरा सरदार वािलयर का
रामिसंह तंवर था। सरदार ने अपनी कमर म दूध क भाँित सफेद पटका बाँधते हए कहा,
‘‘अ नदाता! आज हमारी तलवार अपनी बहत िदन क अिभलाषा परू ी करे गी। आज हम अपनी
वाधीनता के यु म अपने जीवन को सफल करगे, जीतकर या हारकर!’’
ताप ने कहा, ‘‘िबलकुल ठीक, यही होगा! म आज उस भा यहीन राजपत ू कुल-कलंक
को, िजसने अपनी वंश क आन को नह , राजपत ू -मा के वंश को कलंिकत िकया है, इस
अपराध के िलए द ड दँूगा!’’ वह एक बार िफर अपनी परू ी ऊँचाई तक तनकर खड़ा हो गया और
उसने एक बार अपने उस िवशालकाय भाले को अपने िवशाल भुजद ड पर तौला।
सरदार ने अचानक च ककर कहा, ‘‘अ नदाता! आपक यह मिण तो यह पर रह गयी।’’
यह कहकर उसने प थर क च ान पर पड़ी हई एक देदी यमान मिण उठाकर ताप के दािहने
भुजद ड पर बाँध दी। वह सय ू के समान चमकती हई मिण थी। उसे देख ताप ने हँसकर कहा
‘‘वाह, इस अमू य मिण को तो म भल ू ही गया था! पर तु ठाकरां, सच बात तो यह है िक अब
भलू ने के िलए मेरे पास बहत कम चीज़ रह गयी ह।’’
सरदार ने हाथ जोड़कर िवनीत वर म कहा, ‘‘ वामी, आपका जीवन और आपका यह
भाला जब तक सुरि त है, तब तक आपको संसार क िकसी बहमू य व तु क िच ता करने क
ज़ रत नह । हमारे जीवन क सबसे बहमू य व तु तो हमारी वत ता है! अगर हम उसक
र ा कर सक, तो हम ऐसी छोटी-मोटी मिणय क कोई आव यकता नह रहे गी।’’
राणा ने मु कराकर व ृ सरदार क ओर देखा। सरदार बड़े मनोयोग से वह मिण राणा के
दािहने भुजद ड पर बाँध रहा था। ताप ने मु कराकर कहा, ‘‘िक तु ठाकरां, या सचमुच
आपको इस िकंवद ती म िव ास है िक जो कोई इस चम कारी मिण को पास म रखेगा, वह यु
म अजेय और सुरि त रहे गा!’’
सरदार ने ग भीरता से कहा, ‘‘अ नदाता, बढ़ ू े लोग से यही सुनते आये ह!’’
ताप ने एक बार िफर अपने भाले को िहलाया, ‘‘तब ठीक है, आज इस बात क परी ा हो
जाएगी! पर तु ठाकरां, इस बात का फै सला कैसे होगा िक इस मिण का भाव सबसे अिधक है
या मेरे इस िम का?’’ उसने गवपण ू ि से अपने भाले क तरफ देखा, उसे एक बार िफर
िहलाया। सय ू के उस धु धले काश म, उसक िबजली के समान चमक उसक आँख म क ध
मार गयी। उसने अपने ह ठ को स पुट म कस िलया और एक बार िफर भाले को अपनी मु ी म
कसकर पकड़ा और कहा, ‘‘मेरे यारे सरदार, जब तक यह व मिण मेरे हाथ म है, मुझे िकसी
दूसरी मिण क परवाह नह !’’
पवत क उप यका से सह क ठ- वर का जयघोष सुनाई पड़ा। राणा ने कहा, ‘‘सेना
तैयार दीखती है। अब हम लोग को भी चलना चािहए।’’ वह आगे बढ़ा और बुड्ढा सरदार राणा के
पीछे -पीछे ।
बीस हज़ार राजपत ू यो ा उप यका के समतल मैदान म यहू -ब खड़े थे। घोड़े िहनिहना
रहे थे और यो ाओं क तलवार झनझना रही थ । उस समय धपू कुछ तेज हो गयी थी, बादल फट
गये थे, सुनहरी धपू म यो ाओं के िजरह-ब तर और उनके भाल क नोक िबजली क तरह
चमक रही थ । वे सब लौह-पु ष थे, यु के स चे यवसायी, जो म ृ यु के साथ खेलते थे और
िज ह ने जीवन को िविजत कर िलया था। वे देश और जाित के िपता थे। वे वीर के वंशधर थे और
वयं भी वीर थे। वे अपनी लोहे क छाती क दीवार बनाये िन ल खड़े हए थे। चारण और
ब दीगण कड़खे क ताल पर िव द गा रहे थे। ध से बज रहे थे। घोड़े और िसपाही–सभी उतावले
हो रहे थे।
सेना के अ भाग म एक छोटा-सा ह रयाली का मैदान था। उसम 17 यो ा िसर से पैर तक
श से सजे हए खड़े थे। उनके घोड़े उ ह के पास थे और वे सब भी िजरह-ब तर से सुसि जत
थे। सेवक उनक बागडोर पकड़े हए थे। वे मेवाड़ के चुने हए सरदार थे, जो अपने राणा क ती ा
म खड़े हए थे।
िसंह क भाँित राणा ने उनके बीच पदापण िकया। सह सरदार प ृ वी पर झुक गये। उनक
तलवार खनखना उठ और पीठ पर बंधी हई बड़ी ढाल िहल पड़ । सेना ने महाराणा को देखते ही
व विन से जयघोष िकया। ताप ने एक ऊँचे टीले पर खड़े होकर, अपने सरदार और सेना को
स बोिधत करके कहा, ‘‘मेरे यारे वीर के वंशधरो! आज हम वह काय करने जा रहे ह, िजसे
हमारे पवू ज ने हमेशा िकया है। हम आज मरगे अथवा िवजय ा करगे। हमारा इस यु म कोई
वाथ नह है। हम केवल इसिलए यु कर रहे ह िक हमारी वत ता म ह त ेप हो रहा है। या
यहाँ पर कोई ऐसा राजपत ू है, जो पराया गुलाम बना रहना पस द करे ? उसे मेरी तरफ से छु ी है,
वह अपना ाण लेकर यहाँ से अलग हो जाए। पर तु िजसने ाणी का दूध िपया, उसके िलए
आज जीवन का सबसे बड़ा िदन है! आज उसे अपने जीवन क सबके बड़ी साध परू ी करनी
चािहए।’’
इसके बाद ताप ने एक ललकार उठायी और उ च वर से पुकार-कर कहा, ‘‘वीरो! या
तु हारे पास तलवार ह?’’ राणा ने िफर उसी तेज वी वर म कहा, ‘‘और तु हारी कलाइय म उ ह
मज़बत ू ी से पकड़े रखने के िलए बल है?’’
गुलाबी िदन थे, वस त उमड़ रहा था, कोयल कूक रही थी।
बा दी ने बादशाह के पास आकर कहा, ‘‘चिलए जहाँपनाह, आज मौका है!’’
बादशाह ज दी-ज दी बा दी के पीछे चल िदये। नरू जहाँ नज़र-बाग म सुबह क सुनहरी धपू
म खड़ी गुलाब के फूल को यार कर रही थी। ये गुलाब उसने बसरे , चमन और ईरान से मँगवाये
थे। गुलाब का उसे शौक था। उसे मालम ू न हआ िक बादशाह धीरे से उसके पीछे आकर खड़े हो
गये ह। बा दी ने बादशाह को चुपचाप ऐसे ढं ग से खड़ा कर िदया िक उनके िसर क परछाँही
मिलका के कदम म आ लगी। इसके बाद उसने आगे बढ़कर कोिनश करके मिलका से कहा,
‘‘हज़रू े वाला, ज़रा इस तरफ मुलािहजा फमाइए तो! देिखए शहनशाह का िसर हज़रू के कदम म
है। अब तो आप गु सा थक ू दीिजए!’’
नरू ने पलटकर देखा तो बादशाह के िसर क परछाँही उसके कदम म थी। उसने
मु कराकर यासी आँख से बादशाह क ओर देखा और जहाँगीर ने दौड़कर उसे गाढ़ आिलंगन-
ब कर िलया। दो तड़पते दय िफर एक हो गये, जो लाख साधारण मनु य से कह उ च, उदार
और आ म यागी थे।
नरू जहाँ ने पित से मेल हो जाने क खुशी म ह म िदया िक आठ िदन तक रं गमहल म जलसे ह ,
रोशनी क जाए, नाच-रं ग ह । इन आठ िदन म बादशाह को िजतनी वे चाह शराब पीने क छूट
भी दे दी गयी। बादशाह बाग-बाग हो गये। लाख पये लुटाये गये।
नरू जहाँ ने बाग के तमाम हौज और फ वार को अक-गुलाब से भरवा िदया और ह म िदया
िक कोई उ ह ग दा न करने पाए।
वहाँ क एक संगमरमर क व छ पिटया पर नरू जहाँ रात क ठ डी हवा के थपेड़े खाकर
सो गयी। बा दी और दािसय को उसे जगाने का साहस न हआ। सुबह जब उसक आँख खुली तो
देखा–सामने जो हौज गुलाब-जल से भरा था, उसम िकसीने कुछ ग दगी डाल दी है। ु होकर
बा दी से नरू जहाँ ने कहा, ‘‘यह कैसी िचकनाई है?’’ बा दी ने कहा, ‘‘हजर,
ू ़ यह तो िनहायत
खुशबदू ार है!’’ नरू ने जाकर देखा तो समझ गयी िक गुलाब क िचकनाई ही ओस क भाँित जम
गयी थी। उसने उ म क भाँित उसे अपने व म खबू मल िदया। िफर वह दौड़ी हई बादशाह क
वाबगाह म चली गयी। तातारी बाि दयाँ हट गय । खोजे सतक हो गये। उसने देखा बादशाह
मीठी न द सो रहे थे। नरू जहाँ बादशाह से िलपट गयी। उसने गुलाब क ह का आिव कार िकया
था; वह अपने उ माद-यु यौवन से छलकते हए शरीर को बादशाह के शरीर से रगड़ने लगी।
बादशाह के सभी मनोरथ सफल हए।
बाद म बेगम ने गुलाब क खेती बढ़ायी, और वह इ उन िदन िद ली के बाज़ार म सौ
पये तोला िबका।
वे या क बेटी
दोन के िमलने पर ितब ध था। माँ नह चाहती थी िक मेरी बेटी दय के बाज़ार म िबके। वह
दय को लेकर या करे गी? उसे चािहए- पया- पया!
वही पया आज उसने पाया है। र जू ने दुकान से रकम उड़ा लाकर उसे दी है। आज वह
कािमनी से िमलने आया है। उसने कािमनी के आगे दोन हाथ पसार िदये। कािमनी उठकर आगे
बढ़ी और उसके आिलंगन म आब हो गयी। युवक के हाथ पर रखी हई चार अशिफयाँ धरती पर
िगर गय । र जू ने आ म-िव मत ृ होकर कहा, ‘‘कािमनी, हमारा िमलना किठन है!’’
कािमनी ने आतंिकत वर म कहा, ‘‘किठन तो है, पर तु...’’
‘‘पर तु या?...’’
‘‘तुम उसे सरल कर सकते हो।’’ उसके वर म वेदना थी।
‘‘कैसे?’’ युवक ने कहा।
कािमनी बैठ गयी, युवक भी बैठ गया।
कािमनी ने कहा, ‘‘बाधा या है? कहो!’’
‘‘तु हारी माँ पये माँगती है।’’
‘‘इसम या बड़ी बात है?’’
‘‘ पया म कहाँ से लाऊँ?’’
‘‘ य ? चुरा सकते हो, कुछ चीज़ बेच सकते हो। यह तु हारी घड़ी ही शायद एक महीना
चला दे।’’
युवक को कािमनी के मुख से इन बात को सुनने क आशा न थी। वह अवाक् हो गया।
कािमनी ने उसी िसलिसले म कहा, ‘‘यह तो बहत साधारण है। तुम ज़रा-सा साहस करते ही
पया दे सकते हो, पर पया देने से भी मुझे न पा सकोगे।’’
‘‘यह य ? िफर या बाधा रह गयी?’’
‘‘म वयं इसम बाधा दँूगी’’
‘‘सच? तब या तुम मुझे नह चाहत ?’’
‘‘ ाण से भी बढ़कर। यिद तुम न िमले तो म ाण याग दँूगी।’’
‘‘तब बाधा य दोगी?’’
‘‘तुम मुझे वे या का मू य देकर नह खरीद सकोगे।’’
‘‘वे या का मू य या है?’’
‘‘धन!’’
‘‘िफर?’’
‘‘मुझे तु ह कुछ और देना होगा।’’
‘‘ या– दय?’’ युवक मु कराया। उसने कहा, ‘‘कािमनी, यह दय तु हारा है।’’
कािमनी वैसी ही ग भीर बनी रही। उसने कहा, ‘‘नह , दय नह - दय देकर भी मुझे न पा
सकोगे!’’
‘‘तब या देना होगा?’’ युवक ने हड़बड़ाकर कहा।
‘‘वचन।’’
‘‘वचन?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘ या वह ेम से भी अिधक है?’’
‘‘ ेम तो उसके साथ बँधा हआ है?’’
‘‘वह वचन या है?’’
‘‘यही िक तुम धम से मेरे पित होगे, और म प नी!’’
‘‘र जू ने एक बार आँख फाड़कर कािमनी को देखा, िफर उसने दोन हाथ फै लाकर कहा,
‘‘कािमनी, यह कैसे स भव हो सकता है? मेरा िववाह प का हो गया है। जाित-ब धन बड़े किठन
ह। ओह! यह बहत किठन है।’’
‘‘तब जाओ! तुम मुझे न पा सकोगे। मेरा शरीर और दय दोन ही आ मा क स पि ह।
जो कोई आ मा का अिधकारी होगा, इन चीज़ का भी होगा।’’
‘‘और इनके अिधकारी होने क िविध?’’
‘‘िववाह।’’
युवक सोचने लगा। कािमनी मक ू खड़ी थी। िववाह? या यह स भव हो सकता है? य -
य िवचार क धारा ग भीर होती थी, वह िववाह के अनुकूल हो रहा था। जाित, स पि ,
सामािजक जीवन सब कुछ एक ी के िलए यागना साधारण काम न था। अ तत: उसने िन य
कर िलया। उसने हष फु ल वर म कहा, ‘‘कािमनी, मने सोच िलया है, म तुमसे िववाह
क ँ गा।’’
कािमनी हँस दी। उसक आँख म आँसू आ गये। उसने आगे बढ़कर युवक के चरण छुए और
हाथ आँख पर लगाये। िफर वह उसके चरण छूकर फूट-फूटकर रो उठी।
कािमनी उदास बैठी थी। जो कुछ करना था, तय कर िलया गया था। वह येक ण र जू बाबू के
आने क ती ा कर रही थी। र जू बाबू आये। उसक आँख म भय-शंका-उ ेग था, पर वह
चुपचाप बैठी रही।
र जू बाबू बुिढ़या से मीठी-मीठी बात करने लगे। कािमनी और फूलकर बैठ गयी। र जू ने
कहा, ‘‘आज यह इतनी उदास य बैठी है?’’
कािमनी बीच म ही बोल उठी, ‘‘म आज साड़ी लँग ू ी, तभी खाना खाऊँगी!’’
बुिढ़या ने कहा, ‘‘साड़ी क अ छी कही! एक-से-एक बढ़कर सािड़याँ रखी ह, पर इसको
तो रोज़ नयी चािहए!’’
‘‘म ज़ र लँग ू ी!’’
र जू ने कहा, ‘‘आिखर कैसी साड़ी लोगी, कुछ सुनँ ू भी तो!’’
‘‘म अपनी पस द क लँग ू ी, और िकसीक भी नह !’’
कािमनी मँुह फुला बैठी। र जू बाबू ने हँसकर कहा, ‘‘तब चलो, देखँ ू कैसी साड़ी लेती हो!
मगर मचल न जाना, एक साड़ी िमलेगी!’’
‘‘एक ही तो, मगर मेरी पस द क होगी!’’
‘‘म जरू है!’’ र जू ने नौकर को पुकारकर ताँगा ले आने को कहा। बुिढ़या ने एकाध बार
कुछ टोका, िफर राजी हो गयी। र जू के साथ कािमनी साड़ी खरीदने भेज दी गयी। साथ म
नौकर भी गया।
बाज़ार म एक थान पर ताँगा खड़ा करके नौकर को पान लाने भेज िदया गया। उसके
पानवाले क दुकान क ओर मुड़ते ही ताँगा हवा हो गया। मोटर पहले से तैयार खड़ी थी। ताँगा
छोड़, मोटर म बैठ दोन सीधे मिज ेट के पास पहँचे।
कािमनी ने जाकर कहा, ‘‘मेरी माता मुझसे कुकम कराना चाहती है; न करने पर मारती
तथा धमक देती है। पर म इस नवयुवक से शादी करना चाहती हँ। मुझे माँ से आज़ाद िकया
जाए।’’
मिज ेट ने फोन उठाया और थाना सिकल न बर 4 को ह म िदया िक अमुक वे या को
लेकर अभी इजलास म हािजर ह । कािमनी को ह म हआ, ‘‘कुछ देर यह बैठो!’’
आधे घ टे के प ात् बदहवास व ृ ा वे या कचहरी म घुसी। वह िच लाने लगी–उसपर
व पात हआ है।उसक बेटी उड़ा ली गयी है। दुहाई है!! आिद-आिद।
मिज ेट ने उसके और लड़क के इजहार िलये। वे या के मुचलके करा िलये और कहा,
‘‘खबरदार रहो, इस लड़क क तरफ नज़र क तो बुरा होगा!’’ व ृ ा बेचारी रोती-कलपती चल
दी।
मिज ेट ने युवक से पछ ू ा, ‘‘ या तुम इससे शादी करने को राज़ी हो?’’
युवक ने वीकार िकया। दोन साहसी ेमी अब वत थे।
स◌ू रज डूब रहा था। पि म म लाल-पीले बादल क शोभा बहत भली दीख रही थी। हवा
ठं डी थी। आकाश म दो-चार बादल घम ू रहे थे। दो िदन पहले वषा हई थी, उसक नमी
अभी तक धरती और हवा म थी। अग त का अि तम स ाह बीत रहा था।
िव ानाथ बाबू िख न भाव से बनारस-कट टेशन पर र शे से उतरे । उनका मन बहत
खराब हो रहा था। उदासी के कारण उनका मँुह नीचे क ओर झुका हआ था। उ ह ने चुपचाप
तांगेवाले को पैसे िदये और है डबैग हाथ म लटकाकर सीढ़ी चढ़ गाड़ी म आ बैठे। कुली ने उ ह
पुकारकर है डबैग ले चलने को कहा-वह उ ह ने सुना नह । उ ह िटकट खरीदना है यह भी वह
भलू गये। गाड़ी लेटफाम पर खड़ी थी, ड बे म भीड़ नह थी। एक ओर है डबैग फककर वह बथ
पर उढ़क गये। बहत-सी अशा त करनेवाली बात उनके मन म घम ू रही थ । उ ह ने यह भी नह
देखा िक ड बे म अ धकार था, अत: इ ह ने यह भी नह देखा िक ड बे म और कौन-कौन ह।
इसी समय िकसीने आकर िखड़क के बाहर से उनका हाथ पकड़कर कहा, ‘‘िपता जी,
नम ते।’’
आँख उघाड़कर देखा, हमीद है। ह ठ सख ू े हए और िसर के बाल खे और िबखरे हए। आँख
परे शान।
उ ह ने िज ासा-भरी ि से हमीद को देखकर कहा, ‘‘अब इस व य िदक करते
हो?’’
पर तु हमीद के जवाब देने से पहले ही नू ि नसा बानू ड बे म घुसकर उनसे िबलकुल
सटकर बैठ गयी। नरू को देखकर िव ानाथ चौक ने हए। उ ह ने ड बे के अ य यि य पर
एक ि डाली और हमीद क ओर देखकर कहा–
‘‘इसका या मतलब?’’
हमीद ने कहा, ‘‘आप चुपचाप चल िदये, मुझसे कहा भी नह ?’’
‘‘तो इससे या?’’
‘‘आप जानते ह यहाँ हम लोग आप ही के साये म थे।’’
‘‘तो िफर?’’
इसी बीच नरू ने उनक बांह पकड़कर कहा, ‘‘िपता जी, आप तो कभी नाराज़ नह होते,
िफर इस व इस तरह य बोल रहे ह?’’
िव ानाथ बाबू ने नरू क ओर देखा, वह एक ह क नीली साड़ी पहने थी, माथे पर िस दूर
का टीका था, उसक आँख म भय और अनुनय था।
िव ानाथ कुछ-कुछ मतलब समझ गये। हमीद ने कहा, ‘‘नरू आपके साथ िद ली जा रही है
िपता जी, यह उसका िटकट है!’’ उसने िटकट उनके आगे बढ़ाया।
िव ानाथ को िटकट देखकर याद आयी िक उ ह ने अपना िटकट ही नह िलया है। उ ह ने
कहा, ‘‘िटकट तो मुझे भी लेना था।’’
‘‘म लाता हँ।’’ हमीद दौड़ चला। िव ानाथ ने रोकने को हाथ उठाया सो उठा ही रह गया।
नरू ने कहा, ‘‘िपता जी, आप या बहत नाराज़ ह?’’
िव ानाथ ने कहा, ‘‘लेिकन तुम य पछ ू ती हो?’’
‘‘इसिलए िक म आपक पनाह म हँ। एक बेबस औरत िजसक पनाह म हो उसक
नाराज़गी कैसे देख सकती है?’’ नरू ने धीमे वर म कहा।
िव ानाथ ने देखा, उसक आँख म आँसू छलछला रहे ह और उसके ह ठ कांप रहे ह।
उ ह ने घबराकर कहा, ‘‘यह या बेवकूफ है? लेिकन-लेिकन...’’
‘‘आपको तकलीफ हो तो म नह जाऊँगी। मेरा जो होगा सो हो रहे गा।’’
इस बीच म हमीद िटकट लेकर आ गया। गाड़ी ने भी सीटी दी। य भाव से िव ानाथ ने
पछू ा, ‘‘नरू को कहाँ पहँचाना होगा?’’
‘‘वह आपके पास ही रहे गी िपता जी, बाद म देखा जाएगा।’’
गाड़ी चल दी। हमीद ने दोन हाथ जोड़कर कहा, ‘‘नम ते िपता जी।’’
और िव ानाथ ने ग द क ठ से कहा, ‘‘जीते रहो।’’
गाड़ी क गित तेज़ हई–हमीद लेटफाम पर दोन हाथ जोड़े जड़वत् खड़ा था और िव ानाथ
िखड़क से िसर िनकालकर उसे एकटक देख रहे थे। कौन कह सकता है िक ये िपता-पु नह ,
और दोन का येक र -िब दु पर तर िवरोधी है।
थोड़ी देर म िव ानाथ ने नरू क ओर यान िदया। उ ह ने देखा–उसक आँख से अिवरल
अ ुधारा बह रही है। िव ानाथ या कह, या कर, यह िनणय नह कर सके। उनसे न सा वना
देते बन पड़ा, न वह उस किठनाई और खतरे को य कर सके िजसम वह अपने साथ नरू को
ले जाकर पड़ गये थे। पर तु उनका दय इस असहाय लड़क के आँसू सहन न कर सका। उन
आँसुओ ं म बेबसी, भय, िच ता और न जाने या- या स भा य-अस भा य था–यह िव ानाथ के
सुसं कृत मन से अ ात न रहा। हठात् उ ह ने है डबैग खोलकर िह दी-अं ेज़़ी क कई मैगजीन
तथा दो-तीन पु तक िनकालकर उसके सामने िबखेरते हए कहा, इल टे ड े वीकली म यह
काटून तुमने देखा है? लेडी सािहबा कह रही ह–‘जब तुमने िववाह का ताव िकया था तब मेरे
मँुह म चॉकलेट भरा था। इसीसे बोल न सक । मेरे मौन को तुमने वीकृित समझ िलया। यह
तु हारी मख ू ता है।’
इतना कहकर वीकली का वह प ृ नरू के सामने फै लाकर िव ानाथ िखलिखलाकर हँस
पड़े ।
नरू हँस नह सक , पर तु उसके आँसू थम गये। उसने शू य ि वीकली पर डाली और
प ृ को उलटने-पलटने लगी। िव ानाथ ने यही यथे समझा। उ ह ने अघाकर सांस ली और
सीट पर पीठ का सहारा लेकर बैठ गये।
रे ल दौड़ी जा रही थी।
भूरी
पर आकर देखा–गाड़ी आने म देर थी। पुल के पास लेटफाम पर छ:-सात देहाती
ट◌े शन
ि याँ अपनी गांठ-पोटली िलये बैठी थ । लगभग सभी व ृ ाएँ थ । कुछ जवान थ , पर
उनम और व ृ ाओं म कुछ यादा अ तर नह दीख पड़ता था। उनके व मोटे मैले
और िचथड़े थे, सबके पैर नंगे थे। चेहरे और शरीर पर वेदनाओं के पहाड़ चकनाचरू हए ह, इसके
िच साफ दीख रहे थे।
ात:काल का समय था, पर तु सरू ज िनकलते ही आग उगलने लगा था। गम के िदन का
भाव शीत के दोपहर से कह अिधक गम था। इतनी द र -दीन-हीन होने पर भी वे सब स न
थ , मानो वह दीनता उनम रम गयी थी। वे हँस-हँसकहर अपने घर- ार क बात कर रही थ ,
और िन संकोच होकर उस ग दी ज़मीन पर बैठी थ ।
सबने सलाह करके अपनी-अपनी पोटिलयाँ खोल । उनम रात क बासी रोिटयाँ थ , मोटी-
मोटी रोिटयाँ। िकसीके पास दिलया या दाल के ढं ग क कोई चीज़ थी। येक ने उ ह खाना
ार भ िकया। रोिटयाँ खराब हो चुक थ , उनम बू आ गयी थी। स भव है िक वे रात क न होकर
और एक िदन पहले क ह । पानी का कोई ब ध न था पर तु वे अ य त धैयपवू क उनके छोटे-
छोटे टुकड़े गले से उतार रही थ ।
उन ि य म एक व ृ ा सबसे अिधक बढ़ ू ी थी। उसके मँुह म एक भी दाँत न था और चेहरे
पर अनिगनत झु रयाँ थी, उसक गांठ म साबुत रोटी न थी, रोिटय के टुकड़े थे। वे सख ू कर टूट
गये थे और उनका खाना अ य त ासदायक था। वे शायद जौ-चने के सख ू े हए बासी टुकड़े थे,
वह व ृ ा अभािगनी उ ह चुपचाप नीचे धकेल रही थी।
इस बढ़ ू ी का नाम भरू ी था, वह इन सबक गो ी से अलग थी, िकसी क बातचीत म
सि मिलत न थी। सभी ि याँ उसके टुकड़ को भेद-भरी ि से देखकर मन ही मन मु करा
रही थ । उनक अपे ा उसके टुकड़े घिटया ह, उस मु कराने का यही अथ था। सबके पास तो गेहँ
क रोिटयाँ थ । तब उसके पास थी जौ-चने के रोटी, जो उसक दीनता को कट करती थी।
सबने आँख ही आँख म संकेत करके व ृ ा को बनाने क सलाह कर ली। एक ने मानो
किठनाई से हँसी रोककर कहा–
‘‘भरू ी, कैसी रोटी है तेरी?’’
‘‘जौ-चने क है।’’ व ृ ा ने सहज वभाव से कह िदया और िफर बोली, ‘‘लोगी या?’’
इसपर िफर सबने पर पर ि -िविनमय िकया। हँसी ह ठ क कोर म दबाकर उसी मुखरा
ने कहा–
‘‘हाँ, हाँ, लगी, ला दे।’’
व ृ ा ने दो टुकड़े अ छे -अ छे चुनकर उसके आगे बढ़ा िदये। टुकड़ को लेकर सबने बारी-
बारी उलट-पलटकर देखा। एक ने दूसरी क पीठ म उँ गली चुभा दी, दूसरी ने तीसरी को धकेल
िदया, तीसरी ने चौथी क ओर आँख से संकेत िकया, चौथी ने ह ठ िनकालकर मँुह िबचका िदया।
व ृ ा क ि शायद म द थी, वह यह सब नह देख रही थ । दो टुकड़े उ ह देकर चुपचाप
खा रही थी। सब भाँित टुकड़ का उपहास करके िफर उसी मुखरा ने वे टुकड़े भरू ी के आगे
बढ़कार कहा, ‘‘ले भरू ी, अपनी रोटी स भालकर रख ले।’’
भरू ी ने कहा, ‘‘ य , कैसी है?’’
‘‘बहत ही अ छी है।’’
व ृ ा िफर बोली नह । टुकड़े लेकर चुप हो गयी। इतनी देर म वह शायद समझी िक उसके
टुकड़ का ितर कार िकया गया। उसने अपना ात: भोजन ख म करके बचे हए टुकड़े चुपचाप
अपने उसी चीथड़े म बाँध िलये।
मने देखा क ण रस म क णा का उदय हआ है, सा ात् द र ता क कंकािलनी ये ि याँ
सड़े हए टुकड़े खाने पर भी दूसर क अपने से हीन दशा पर हा य िकये िबना ि थर न रह सक ।
भरू ी जैसी िकतनी ि याँ भारत म ह, और उन ि य जैसी भी। पर तु भरू ी के ित उनका उपहास
तो मनु य- वभाव का स चा व प है। वेदना क अनुभिू त जब मर जाती है और ाणी जब शू य-
म तक हो जाता है, तब उसक अ तरा मा पितत होते-होते इतनी िगर जाती है, िक वह अपनी
दीन दशा को नह देखता। उसे देखकर िकतने लोग क णा दिशत करते ह, यह भी वह नह
जानता। वह केवल और के िछ देखता है, उसपर वह हँसता है। क ण रस जब सख ू जाता है,
तब वह िव ूप प धारण करता है।
ससरु ाल का वास
स सकिवुरालनेकेकहा
भी या कहने ह! धरातल पर वह एक िनराली ही चीज़ है।
भी है िक ‘इस असार संसार म ससुराल ही सार है।’ ससुराल म यिद एक-दो
िदलच प सािलयाँ भी ह तो बहार ही बहार है। ससुराल अमीर हो या गरीब, बिढ़या हो या घिटया–
यह हम दामाद के िवचार का िवषय नह । और हम चाहे जैसे चपरग , फटेहाल, आवारागद ह -
इससे भी कोई बहस नह । ससुराल म तो हम लाट साहब ही बनकर रहगे और ससुराल वाल को
िसर के बल हमारी अदली म खड़ा रहना ही पड़े गा।
हम ससुराल िसफ दो-चार बार ही जाने का मौका िमला था। दो-चार िदन रहकर चले आया
करते थे। ीमती को िवदा करा लाते थे। वे दो-चार िदन ऐसी मौज-बहार म बीतते थे, िक बरस
उसीके सपने दीखा करते थे। हम भी रे शमी कुता और नयी फे ट तथा कामदार जत ू ा पहनकर,
गौरी बाबू क सोने क घड़ी माँगकर ओर उसे कलाई पर बाँधकर तथा उ ह क चाँदी क मठ ू क
छड़ी और चमड़े का सटू केस माँगकर ठाठ से जाते, बात-बात म नखरे करते, पचास बार ‘‘ना’
करने पर ना ता दो उं गिलय से उठाकर खाते, सौ बार कहने पर खाने को उठते, रोज़ गाल पर
‘से टीरे जर’ फेरते, खबू सावधानी से हँसते-और मौका पाकर ड ग भी हाँकते थे। रोज़गार-ध धा
हमारा कुछ था नह , पढ़े -िलखे भी सू म ही ह, पर ससुराल म हम यह सब भलू जाते थे।
िक मत क बात देिखए–ससुराल भी हमको िमली टटपंिू जया। याह से पहले हम ससुराल
के बड़े -बड़े सपने देखा करते थे। गौरी बाबू क ससुराल हम गये ह। या शान का महल है! मोटर
है, नौकर-चाकर ह, दास-दािसयाँ ह, चार सािलयाँ चाँद के टुकड़े ह। सब लोग उ ह ‘राजा जी’
और हम कुंवर जी कहते थे। चलती बार हम भी जोड़ा कपड़ा और नकदी िमलती थी। गौरी बाबू तो
छकड़ा भर लाते थे। हम सोचा करते थे–ससुराल एक िदन िमलेगी हमको भी। यह सोचना तो
स चा हआ। ससुराल िमली और िफर िमली। पर िमली सटरपटर। ससुर जी चालीस पये के लक
थे। िकराये का साधारण मकान था। एक साली थी–वह बहत छोटी थी, साला अवारागद था। सास
अलब ा बड़ी अ छी थी, हम देखते ही बाग-बाग हो जाती थी। िदन भर-खाने-पीने के सरं जाम म
ही जुटी रहती। बोलते हए मँुह से फूल झड़ते थे। िफर भी एक बात क हम िशकायत थी। हमारी
ी सु दर न थी। य जी, इसक िशकायत य न हो? सभी को सौ दय क एक भट जीवन म
िमलती है। मुझे भी िमलनी चािहए थी पर तकदीर का च कर ही कहना चािहए। गौरी बाबू क बह
के सामने मेरी ीमती या चीज है!
यिद म यह चाहँ िक मेरी ी परी-सी सु दर हो, वह मुझे ाण से बढ़कर यार करे तो
इसम बेजा या है जी? यही तो म चाहता था। वह पित ता, प र मी, सुशीला और मदृ ु भािषणी थी–
रसक भी थी। पर कृित क िन रता से उसे सौ दय नह िमला था। कृित-सौ दय-िनरी ण
क कुछ-कुछ यो यता मुझम है। िफर या प नी-सौ दय कृित-सौ दय से बाहर है? या म
अपनी ी को फूल से सजाना न चाहता था? पर फूल से सजने यो य उसका मँुह होता तभी तो!
म जानता हँ िक म उसे बहत अिधक यार करता था। म उसके िबना एक ण भी तो नह रह
सकता था। मेरे मन म यास तो थी ही और इस सबके िलए अपराधी थे मेरे ससुर–यह मेरी प क
धारणा थी। उ ह ने बड़ी दौड़-धपू से, य न से मुझे दामाद बनाया था। वे भले आदमी थे, बहत ही
भले–पर अमीर तो न थे! जो सुर अमीर नह , वह सुर ही या? दामाद लोग या उनक
भलमनसी को लेकर चाट! और खास कर उस हालत म जबिक बेटी सु दर भी नह ! हर हालत म
हम ससुराल से बहत-सी िशकायत थ ।
िफर भी आिखर ससुराल ही तो थी। जब भी हम वहाँ पहँच जाते तो वग का-सा मजा आता
था। इ छा होती थी िक सदा ससुराल म रहना हो, तो मजा है।
एक बात हम कहगे िक रहे हम िक मत के धनी। जब जो चाहा होकर रहा। एक ओझा जी
ने हम एक तावीज़ बहत िदन हए िदया था और कहा था, ‘‘ब चा, यह तावीज़ वह असर रखता है
िक जो चाहोगे, पाओगे!’’ वही हआ। ससुराल म सदा रहना चाहा–खट् से िसलिसला बैठ गया।
वह नौकरी िमल गयी, वह भी ससुर साहब के द तर म उ ह क दौड़-धपू और अफसर क
िचरौरी करने से।
िपता जी ने इस बात का िवरोध कर कहा, ‘‘बेटा, र तेदारी म रहना ठीक नह , अपने घर
म नंगे-उघाड़े रहो, कमाओ-खाओ-जैसी खी-सख ू ी िमले! र तेदारी म रहने से कुछ क आन
जाती है!’’
माता जी ने भी कहा, ‘‘मने याह िकया तो या इसिलए िक हम छोड़ ससुराल म जा
बसेगा?’’ यार ने कहा, ‘‘हजरत, सास-घर जमाई कु ा-सो तुम कु ा बनने चले हो!’’
किहए, इन मख ू को, ससुराल-सुख से अनिभ को या कहा जाता! हमने सबक सुनी,
पर क अपने मन क । हमारी ीमती क राय हमसे िमलती थी। बस, िफर या था! एक और एक
यारह। एक िदन, शुभ िदन और शुभ मुहत म हम िखसक चले।
नौकरी बड़ी ही बेढब थी। आधे शहर म िबजली क बि याँ जलानी पड़ती थ और समय पर
बुझानी भी। रात को समय-कुसमय जागना और गली-कूच म पागल कु े क भाँित घम ू ना पड़ता
था। वह नज़ाकत-लताफत तो इस बार पहले ही िदन से चली गयी थी। कभी-कभी तार िबगड़
जाता तो घ ट मगज़ खपाना पड़ता था। ितसपर बाईस पये क तन वाह। आप ही किहए, या
िकया जाए? ससुराल का वास ठहरा। कपड़े -ल े ज़रा ठीक-ठाक से रहने चािहए। सदैव रे शमी
कुता और गौरी बाबू क चाँदी क मठ ू का बत तथा सोने क चेन वाली घड़ी लगाकर आता था।
वह अब हमेशा को तो िमल न सकती थी। सो इस बार थी ही नह । जत ू ा भी वह साढ़े तीन पये
वाला था-िजसे दो वष से घसीट रहा था। काम ग दा और पलीत था। कपड़े एक ही िदन म ग दे
हो जाते थे। उ ह रात को धोना पड़ता था। घर म इस कार धोते-धोते चमड़े क भाँित हो गये थे।
ससुराल म आधी रात को धोबी घाट लगाते बड़ी शम आती थी, पर चारा या था?
दस-पाँच िदन तो खाने-पीने का ऐसा झँझट न रहा। बेचारी सास गम खाना िलये बैठी
रहती, िखलाकर सोती–चाहे आधी रात हो जाती। अलब ा ना ते क इस बार शु ही से पतंग
कट गयी थी। पान को भी कोई नह पछ ू ता था। घर म कोई पान खाता ही न था। इसिलए वहाँ
उसका सरं जाम ही न था। बाज़ार से पैसा फककर अब पान कौन मँगाए! हमने भी उसक ऐसी
परवाह न क । पनवाड़ी से दो ती कर ली थी। उचापत बाँध ली थी, पान, िसगरे ट, सोडा, लैमन,
जब चाहते पाते। तन वाह पर िहसाब देने का वादा था। बहरहाल कोई ऐसा क न था, काम
मजे म चल रहा था।
पहले महीने क तन वाह जो िमली, तो सास ने कहा, ‘‘पहली तन वाह है, इसे माँ के
पास भेज दो। बेचारी खुश हो जाएगी।’’ तन वाह के पये माँ को भेजने पर प िमला, िक ‘‘बेटे
क कमाई पायी, िसर-आँख पर लगायी, खुशी मनायी, िमठाई बंटवायी। अब या िफ है! बेटे
हए सयाने, द र गये िबराने। बेटे, अब बुड्ढे बाप को सुख िमलेगा; तुम फलो-फूलो!’’ प पढ़कर
आन द ही हआ। चलो, माँ को इतना सुख तो िमला!
दूसरे मास क तन वाह माता को भेजने म अड़चन पड़ गयी। कुछ पये तो हलवाई और
पनवाड़ी क उचापत म चले गये। यार ने िमठाइयाँ और पान-िसगरे ट खाये-पीये थे। िफर हम अब
दूध पीने क भी आदत हो गयी थी। जत ू ा अब दाँत िदखाने लगा था, सो एक जत
ू ा भी लेना पड़ा।
एक कोट िसलाना आव यक हआ। टोपी को देखकर िघन होती थी, वह भी नयी ले ली गयी।
गरज, वह दूसरे मास क तन वाह चार िदन म ही फुर हो गयी। महीने-भर के िलए जेब-खच
कुछ न बचा। इससे मन को अशाि त हई। पर या कर सकते थे? पनवाड़ी और हलवाई क
उचापत चल रही थी। उसीका बड़ा आसरा था, य िक अब ससुराल म खाना नह िमलता था।
कभी सास जी का ि◌सर दुखता था और कभी साली के पैर म दद हो जाता था।
घर से िपता ने िलखा, ‘‘बेटे, हम तु हारी तन वाह क बाट मेह क भाँित ताक रहे ह। तु ह
मालम ू है बह के पास न धोती है, न कपड़े । हम लोग तो नंगे-उघाड़े रह सकते ह पर बह को ऐसा
कैसे रख सकते ह! महीना तो बीत गया; तन वाह कब िमलेगी?’’
उ ह या मालम ू था िक तन वाह तो खुद-बुद भी हो चुक है। हमने चुप साधना ही ठीक
समझा।
एक महीना और बीत गया। तन वाह आयी। मगर हलवाई और पनवाड़ी ही उसका बड़ा
भाग ले गये। उनका िबल बढ़ गया था। दो त बढ़ गये थे, और ससुराल से पेट परू नह भर पाता
था। कुछ पये बचे, वह जेब-खच को रखे। अब हम इस बात क भी परवाह न थी िक ससुराल म
कुछ यादा खाितर-तवाजे ह । हम इस त य को ठीक-ठीक समझ गये थे िक रोिटयाँ िमलती ह
यह थोड़ा नह है। होटल म खाओगे, तो आठ पये क ठुकेगी। अब हर समय सास का मँुह चढ़ा
रहता, और सदा ही घी, तेल और आटा-दाल घर म नह रहा है–इसका रोना रोया करती। पर तु
हमने गंग ू ा और बहरा बनना ही मुिनासब समझा। बेशम पर भी हम कमर कसनी पड़ी, और हम
खबू मु तैदी से ठीक समय पर खाना खाने पहँचने लगे, य िक ऐसा अनुभव होने लगा था िक
ज़रा भी देर हई िक कभी स जी नह , कभी रोटी नह ।
एक िदन देखता या हँ िक िपता जी ीमती जी को इ के से उतार रहे ह। इतने िदन बाद
ीमती से िमलन होगा–यह देखकर तो मनमयरू नाच उठा। पर िपता जी क लाल-पीली मुख-
मु ा देख िदल फड़कने लगा। उ ह ने हमारे णाम का भी उ र नह िदया। केवल रात-भर
ठहरकर सुबह चले गये। चलती बार कह गये, ‘‘हम लोग तो मज़दूरी कर खाएँ गे, पर अपनी
औरत को तो अपनी कमाई िखलाओ। हमने तु ह बड़ा िकया, सो इसिलए िक औरत को बढ़ ू े माँ-
बाप पर छोड़ दो, वयं कमा-कमाकर सुसर का घर भरो!’’
‘ससुर का घर भरने’ क एक ही कही! पर तु हम कह-सुन कुछ भी न सके। िपता जी चले
गये।
हमने देखा– ीमती जी क इस बार वैसी आवभागत नह हई, जैसी सदा होती थी। बि क
हमने देखा िक दूसरे िदन से सास जी को कोई रोग का पुराना दौरा पड़ गया और ीमती जी को
चौके-चू हे म जुट जाना पड़ा।
पर तु इससे हम कुछ हािन न हई, बि क बेिफ हई। य िक अब खाने-पीने का ठीक-
िठकाना लग जायेगा, इसक िदल-जमई हो गयी।
दो-चार िदन तो सही-सलामत गुजर गये। पर एक िदन रात को ीमती जी से हमारी झड़प
हो ही गयी। उ ह ने कहा, ‘‘यहाँ इतने िदन से रह रहे हो, ज़रा इसपर िवचार तो करो!’’
इस काम म भी िवचार करने क कुछ गु जाइश है–यह तो हमने अभी सोचा न था। इसिलए
एकाएक कुछ उ र न देकर हम सोच म पड़ गये।
ीमती जी ने ज़रा तेज़ होकर कहा, ‘‘ या सोचने लगे? कुछ सुना मने या कहा? या
िचकने घड़े हो गये हो?’’
मने कहा, ‘‘सुना तो, पर मने तो कभी यह बात सोची ही नह !’’
‘‘यह भी नह देखा, ये लोग तु हारा ितर कार करते ह?’’
‘‘नह तो!’’
‘‘म इनके पेट क बेटी, चार िदन म ही सब समझ गयी और तुम इतने िदन म भी नह
समझे?’’
‘‘पर समझकर भी या क ँ , खाना तो पड़े गा ही।’’
‘‘ य , या अपनी कमाई नह खा सकते थे?’’
‘‘खा तो सकता था!’’
‘‘तुम जानते नह िक मेहमान दो िदन का होता है! तुम खाने-कमाने लगे। खाओ-
कमाओ!’’
‘‘बात तो ठीक कहती हो!’’
‘‘यह भी नह िकया िक घर को खच भेजते। उ ह ने तु ह पाल-पोसकर इतना बड़ा िकया,
अत: वे मुझे भी िखलायगे? इसी बत ू े पर याह िकया था?’’
‘‘पर कुछ बचा ही नह ; भेजता कहाँ से?’’
‘‘ य नह बचा, कहाँ खच िकया? रोटी तो पराये आसरे खाते रहे ।’’
ीमती क बात तीखी और स ची थ । चुभने लग । हमने ु वर म कहा, ‘‘चुप रहो,
सुबह इस िवषय म िवचार करगे।’’
उ ह ने चु पी साध ली। नह कह सकते िक वे रोने लग या सोने। पर हम न द नह आयी।
हमने रात-भर यही सोचा िक सचमुच पराये आसरे रोटी खाते रहे !
सुबह उठते ही हमने अपना िनणय कर िलया। हमने सुर से कहा, ‘‘हमारा इरादा अलग मकान
लेकर रहने का है।’’
सुर कुछ देर सोचकर बोले, ‘‘इसके िलए ऐसी ज दी या है? यह भी घर है, यह रहो!’’
‘‘यह तो ठीक है पर एक िदन क बात तो है नह ।’’
‘‘अलग रहोगे तो खच बढ़े गा। अकेली लड़क रहे गी कैसे? लोग भी या कहगे?’’
‘‘लोग के कहने का या है। जैसे बनेगा गुजारा कर लगे।’’
सास पर मुकदमा पहँचा, उ ह ने फै सला िदया, ‘‘यह रह और अपने वेतन से खच
चलाएँ !’’
यही िनणय हो गया पर तु अपने वेतन से खच चलाएँ कैसे? उसका अिधकांश तो बाबिू गरी
और दो त म खच हो जाता था, ी के आ जाने से भी कुछ मद बढ़ गयी। उसम से दस-पाँच
पये सास जी के प ले पड़ने लगे। धीरे -धीरे अशाि त और कलह ने धर पकड़ा। माँ-बेिटय म
ज़रा-ज़रा-सी बात पर पहले मन-मुटाव हआ, िन य मौन-कोप हआ, िफर खबू धम ू धाम से
वा यु हआ। आये िदन उप व होने लगे। साले साहब को पर िनकल आये, आवाज़ कस-कसकर
कु े का स बोधन ‘जीजा जी’ को देने लगे। साली का मधु-वषण भी अब कुिटल ि म बदल
गया।
उस िदन कोई योहार था। हमने नया सटू िसलवाया था, वह पहना, माँग-प ी से ठीक हए।
एक पान का बीड़ा प नी से माँगा और ज़रा दो त क झाँक म िनकलने क तैयारी क ।
साली ने भीतर घुसते हए ताने-भरी मु कराहट से कहा, ‘‘कहाँ चले नवाब साहब? आज तो
बड़े गहरे ठाठ ह।’’
सुर साहब बैठे ह का गुड़गुड़ा रहे थे। बोले, ‘‘ य नह , बेमु क-नवाब जो ठहरे !’’
सास भी बोल उठ , ‘‘खाने के व तो आ ही जायगे!’’
बुरा तो लगा, पर हम झँझट से घबराते बहत कम ह। हाँ, ीमती जी वह बैठी थ , बोली,
‘‘अ मा, कोई नवाबी करता है तो अपने पर ही करता है। िकसी दूसरे पर नह । तु हारी आँख म
य खटकता है?’’
सास ने गरजकर कहा, ‘‘यह तू हमारी कोख फाड़कर ज मी है, खसम क तरफ हमारे
सामने मँुह फाड़कर बोलती है? अरी अभािगनी, तुम लोग को शम भी नह आती? यह नवाबी
करने को पये लुटाये जाते ह। यह भी खबर है िक खाने को कहाँ से आता है? हमने बेटी दी है
या दुिनया का पेट भरने का ठे का िलया है, जो गोड़े डालकर घर म पड़े ह!’’
सुर जी बोले, ‘‘अ ल तो उसक देखो, िजसने बेटे-बह को दूसर के ार पर डाल िदया।
खुद बेिफ ह... अब इ ह िज़ दगी-भर कमा-कमाकर िखलाते रहो!’’
इसके आगे जो कुछ हआ, वह न कहना ही अ छा है। प रणाम व प ीमती ने भी मुझे
ऐसी-ऐसी सुनाय िक म खड़े -खड़े गड़ गया। उ ह ने बाल नोच डाले, कपड़े फाड़ डाले और कहा,
‘‘ऐसे बेशम क औरत होने क अपे ा रांड-बेवा होती तो अ छा था!’’
मेरी आँख खुल गय । म चुपचाप बाहर आया और सीधा द तर पहँचा। इ तीफा िदया, और
एक दो त से कुछ पये उधार ले, इ का साथ िलये घर आया। आव यक सामान बाँध िलया,
ीमती जी को बैठाया और घर आकर माता-िपता के चरण म णाम िकया। तब से उस नरक पी
ससुराल क ओर अभी तक मँुह नह िकया है।
अपरािजत
चुके थे। म दवाखाना ब द करके भीतर जाने ही वाला था। क पाउ डर लोग चले
न◌ौ बज
गये थे। िसफ मेरे कमरे म रोशनी हो रही थी। इसी समय एक यि आकर सामने
खड़ा हो गया। मने कागज़ पर से िसर उठाकर देखा–कोई 55 वष का अधेड़ आदमी
था। शरीर से मोटा-ताजा, टसर का मैला और भ ा कोट पहन रहा था। िसर पर मारवाड़ी पगड़ी थी।
बगल म दुप ा था। मने कहा, ‘‘आइए,’’ और आदर से कुस पर िबठाकर आने का कारण पछ ू ा।
उसने बड़े ही न श द म कहा, ‘‘महाराज! मेरा आपसे प रचय नह , और न आप मुझे
जानते ह। म...वंश का आदमी हँ। ीमान् रायबहादुर सेठ मेरे बड़े भाई होते ह और बै र टर...साहब
मेरे भतीजे ह। सा ता ु ज म मेरे अपने दो बंगले ह। पाँच सौ माहवार िकराया आता है। म कपड़े क
दलाली करता हँ। हज़ार-प ह सौ पीट लेता हँ-भगवान क दया से सब मौज़ है।’’
मने सोचा, वै के ार पर इतने आ मप रचय क या ज़ रत है। अ त म उसक व ृ ता
का वाह कते ही मने कहा, ‘‘मुझे आप जैसे िति त घराने के स जन से िमलकर बहत
आन द हआ है। रायबहादुर साहब से मेरा बखबू ी प रचय है, वे मेरे िम ह। बड़े आन द क बात है
िक आप ऐसे िति त यि के भाई ह–िजसक स तान मारवाड़ी समाज म भषू ण है। म उन
सबसे प रिचत हँ।’’
ू े ने कहा, ‘‘जी हाँ, भाई साहब तो जयपुर ही म ह। हज़ार आदमी उनके ह म म ह।
बढ़
उनके लड़के-बाले कलक े म बै र टर हो गये ह।’’
मने कहा, ‘‘खैर, अब आप यह फरमाइए िक आज इधर आने का क कैसे िकया? या
मेरे यो य कुछ काम है?’’
उसने कहा, ‘‘इसीिलए तो आया हँ। शहर म आपक बड़ी धाक है। बड़ी शोभा है। आप ब बई
म नये आये ह िफर भी आपका नाम बढ़ रहा है। नाम सुनकर ही म आया हँ। पर महाराज, िस
को साधक पुजवाता है। नयी जगह म कौन जानता है? आपक िव ा और आपक यो यता कौन
जानता है? आप यिद मुझसे दो ती कर, तो ऐसी-ऐसी जगह ले जाकर पुजवा दँू िक जहाँ सोने के
ढे र लगे ह।’’
इस बकवास को सुनकर मेरे मन म उसपर जो आदर-भाव हआ था वह न हो गया। मने
जरा हँसकर कहा, ‘‘आपक इस कृपा के िलए ध यवाद है। आप यिद मुझे सोने के ढे र पर बैठा
दगे तो बेशक म आपसे दो ती क ँ गा लेिकन अभी तो आप कुछ अपने मतलब क बात फरमाइए।
या आपने नयी शादी क है?’’
सचमुच मने यही समझा िक बढ़ ू े ने नयी शादी क है, और दुलि याँ खाकर आया है।
ताकत क दवा चाहता है, पर कहते हए झपता है, इसीसे पहले स ज-बाग िदखाता है।
मेरी बात सुनकर उसने हँसकर कहा, ‘‘नह जी बाबा, हम या याह करगे?’’ िक तु मने
अपनी िहकमत लड़ायी। न ज पकड़कर िसफ अनुमान से सैकड़ झठ ू बात कह देने का तो
ू -मठ
हम लोग को अ यास होता ही है।
मने कहा, ‘‘तब या िपशाब-उशाब म कुछ गड़बड़-शड़बड़ हो गयी है?’’
यह बात भी मने अनुमान से ही कही थी। सच पछ ू ो तो नाड़ी पकड़कर भी म यही
करता; य िक मुझे तजुबा है िक ब बई म िजनक आमदनी दो सौ से ऊपर है, वे इ ह रोग को
लेकर आते ह। पर खेद क बात है, िक मेरा यह अनुमान भी गलत िनकला।
खुराट बोला, ‘‘अजी मुझे कह कुछ नह है!’’
मने सोचा–यह तो बड़ा िवकट रोगी िनकला, िकसी तरह पकड़ म नह आता। कह ऐसा न
हो िक िबना गांठ कटाए ही िखसक जाए।
मने ज़रा नाक-भ िसकोड़कर कहा, ‘‘तो कहो मामला या है?’’
सेठ ने आँख म आँसू भरकर कहा, ‘‘ या क ँ ! मर गया! लुट गया। घर म सब ह। धन म
धन है, अ न म अ न है, बह है, पोते-पोती ह। ऐसे पोती-पोते लाख म िकसके ह? पर हाय! मेरी
तकदीर फूट गयी। मेरा लड़का मर गया।’’
मने अफसोस जािहर करते हए कहा, ‘‘िक तु अब म या कर सकता हँ?’’
वह बोला, ‘‘उसे मरे तो तीन वष हए। वे जो मेरे पोती-पोते ह-हा-हा! आप देखोगे तो खुश
हो जाओगे-जैसे गुलाब के फूल! पर अब उ ह खुजली हो गयी है, हाथ-पाँव सड़ गये ह। पोती रात-
िदन रोती है–बाबा मरी, बाबा मरी! कहो बाबा साला या करे !’’
अब मेरी तस ली हई। मने कहा, ‘‘बस यही बात है? तब दवा ले जाइए। उन लोग को दो-
तीन िदन म अव य फायदा हो जाएगा; आज ही रात को उ ह चैन पड़ जाएगा।’’ इतना कहकर
मने नु खा िलखने को कलम लेने के िलए हाथ बढ़ाया पर उसने बाधा देकर कहा, ‘‘गु ,
आपको एक बार सा ता ु ज जाकर उ ह देखना होगा–आपक फ स म दँूगा, उसका याल न
कर।’’
मने कलम रखकर कहा, ‘‘अ छा, कल म देख लँग ू ा।’’
बढ़ू े ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘तो म दस बजे आपको लेने के िलए आऊँगा।’’
मने कहा, ‘‘आपको हैरान होने क आव यकता नह । म 12 बजे क गाड़ी से वयं ही आ
जाऊँगा। आप टेशन पर िमल जाइएगा।’’
बढ़ ू े ने स न होकर कहा, ‘‘बहत अ छा, बहत अ छा! आप बड़े स जन ह-जैसा सुना
उससे बढ़कर पाया।’’
मने देखा–बात का बतंगड़ हो रहा है। इसिलए कुस से उठकर कहा, ‘‘तो बस यही तै रहा!
1 बजकर 10 िमनट पर जो गाड़ी वहाँ पहँचती है, उसपर मुझे आप टेशन पर िमल जाइए।’’
इतना कह म भीतर चला गया। सेठ भी अपने ल वगैरह स भाल कर चलता बना।
अगले िदन मेरी तबीयत कुछ अ छी न थी। पर तु न जाना ठीक नह था। ठीक समय पर म
सा ता ु ज़ गया। वहाँ जाकर देखा- टेशन पर बढ़ ू े सेठ का िच भी न था। रात होती तो िचराग
लेकर ढूँढ़ता; पर वहाँ तो धपू धक्-धक् धधक रही थी। म जाकर एक बच पर बैठ गया। मन म
बड़ी लािन हई। ोध भी आया, एक बार मन म आया, लौट चल! सामने गाड़ी भी आ रही थी।
िफर िदमाग को ठ डा िकया। िवचारकर यही िन य िकया िक जब आये ह तो चलकर रोिगय को
देख ही लेना चािहए! पर चल कहाँ? मने तो उसका नाम-पता िलख रखा था, वह भी घर ही भल ू
आया था। य िक यह ख़याल था िक सेठ जी टेशन पर िमल ही जाएँ गे।
िनदान टोह लेता हआ म चला। माग म एक पनवाड़ी क दुकान थी। उसपर एक मारवाड़ी
नवयुवक बैठा हआ तमोिलन से िठठोली कर रहा था। मने उसे भांपकर पछ ू ा, ‘‘भाई, यहाँ एक
बढ़ ू ा-सा मारवाड़ी सेठ रहता है?’’
‘‘नाम बताओ–मारवाड़ी सेठ तो कई रहते ह,’’
‘‘नाम तो याद नह रहा, वह मोटा-सा है–बहत बकवादी है, कुछ-कुछ पागल जैसा!’’
युवक ने हँसकर कहा, ‘‘ओहो! समझा, दलाल-दलाल! सीधे चले जाओ, आगे चलकर
जीमने हाथ को मुड़ जाना। पागल जैसा कहने से म समझा।’’ इसके बाद वह तमोिलन से
ेमालाप म जुट गया।
म अपनी चतुराई पर स न होता हआ आगे चला। सड़क पर मुड़कर िफर िकसीसे पछ ू ने
क जुगत सोचने लगा। एक गुजराती छोकरा उधर से जा रहा था। पछ ू ने पर उसने कहा, ‘‘आओ
मेरे साथ!’’ उसके इस इ मीनान के जवाब को सुनकर िनि चतता से उसके पीछे चला।
जब ब ती बहत पीछे छूट गयी और वह लड़का चलता ही गया तो मने उसे रोककर पछ ू ा,
‘‘अरे िकधर जा रहा है? मारवाड़ी या जंगल म घास खोद रहा होगा–या म छी मारता होगा?
बंगले तो सब पीछे छूट गये।’’
छोकरे ने कहा, ‘‘उधर कुछ काम चालू है–साला मारवाड़ी वह होगा।’’
म वापस लौट आया। थक गया था–पसीने से सराबोर हो रहा था। मन म आया-पाजी को दो-
चार गािलयाँ ही देकर जी खुश क ँ ; कैसा हैरान िकया! िफर ठ डा होकर ढूँढ़ना शु िकया। अब
मन ही मन मने सोचा-इन बंगल म िकसी भले आदमी से पता पछ ू ा और नाम न बता सका तो
बड़ी बेवकूफ क बात होगी। लोग कहगे-अ छा जिटलमैन है-िजसको ढूँढ़ता है उसका नाम भी
नह जानता।
िनदान मन म धारणा ढ़ क , िक िजस बंगले म सटर-पटर सामान दीखे, िजसम भ ापन
और बेतरतीबी दीखे, जहाँ पर रं गीन बारज म धोितयाँ सख ू रही ह , जहाँ सामने क र सी पर
ग े और लहंगे टंगे ह –वही अव य उस मारवाड़ी सेठ का मकान होगा।
यही िवचारकर चोर क ि से म एक-एक बंगले को ताकता चला।
एक मकान एक गुजराती स जन पहली मि ़ जल पर खड़े , ब चे को िखला रहे थे। वे एक
सफेदपोश जिटलमैन को उठाईगीर क तरह घर-घर झाँकते देखकर बोले, ‘‘महाशय, िकसे
ढूँढते ह आप?’’
मने ज़रा झपकर कहा, ‘‘एक मारवाड़ी स जन का पता लगाना है, िजसका नाम भल ू गया
हँ। वे महाशय, मल ू जी जेठा माकट म कपड़े क दलाली करते ह। बढ़ ू े और मोटे-से आदमी ह, कुछ
बकवादी भी ह।’’
गुजराती ने हँसकर कहा, ‘‘यह सामने शायद उ ह का बंगला है। भीतर चले जाइए।’’
भीतर जाकर देखा, तो एक कु े ने उ च वर से वागत िकया। उसे छतरी से धमकाकर म
आगे बढ़ा। एक युवक ने सामने से आकर कहा, ‘‘आपको सेठ से िमलना है? बुलाऊँ उसे?’’
मने मन म कहा, ‘ या जाने कौन-सा सेठ है!’ उसे रोककर म बोला, ‘‘ठहरो! तु हारे सेठ
का नाम या है?’’
नाम बताने पर मने पछ ू े -से और पागल-से ह न!’’ युवक ने आ य से मेरी
ू ा, ‘‘वे मोटे-से बढ़
ओर देखकर कहा, ‘‘हाँ, बुलाऊँ या?’’ मने कहा, ‘‘ठहरो! उनके पोते-पोती को खुजली का रोग
भी तो हो रहा है!’’
युवक ने आदर से कहा, ‘‘तो आप डा टर साहब है! आप िवरािजए, म सेठ को अभी बुलाता
हँ। वे भीतर सो रहे ह।’’
मने झँुझलाकर मन म कहा, ‘ऐसी-क -तैसी तेरे सोने क ! हम यहाँ झख मार रहे ह और
वह मजे म सोता है।’
सेठ बाहर आये। नंग-धड़ं ग, िसफ एक धोती पहने थे। छाती ि य जैसी लटक रही थी और
त द नाद के समान थी। कू हे थल-थल कर रहे थे। बाहर िनकलते ही उ ह ने तरह-तरह के
िश ाचार, सलाम, पैगाम, खुशामद शु क । कृपा के िलए अनेक ध यवाद दे डाले। स जनता
पर तो ग -का य क रचना कर डाली। मेरा िमज़ाज़ तो गुनगुना हो ही रहा था। मने कहा–
‘‘आिखर, आपने मारवाड़ीपन िदखा िदया न? जिू तयाँ चटखाते वहाँ बुलाने जाते तो ठीक
था! म वयं आया, तो आपने टेशन पर जाने क ज़ रत ही न समझी, मजे म सो रहे ह।’’
अब सेठ साहब को गु सा आ गया; वह गु सा आया नौकर पर। ‘‘कहाँ है, वह सुअर का
ब चा? पाजी-गधा। मार डालँग ू ा, जान हलाल कर दँूगा। मेरे गु से को जानता नह ? मने उसे
टेशन पर जाने को कह िदया था, वह गया कहाँ?’’ इसके बाद उसने उसे पुकारा, पर वह वहाँ था
ही नह इसके बाद उसने मुझसे कहा, ‘‘साहब, ये ब बई के नौकर बड़े भारी बदमाश ह।’’
मुझे भी ोध आ रहा था, पर मने उससे कहा, ‘‘खैर, आप अपने रोिगय , को बुलाइए, कहाँ
ह?’’
रोगी आये–टेढ़े, ितरछे , बदरं ग, काले-कलटू े बालक, पेट िनकला हआ, नाक बहती हई,
खा रश से सड़े हए।
मने कहा, ‘‘यही आपके वग य पु के द तखत ह?’’
बुड्ढा मेरा मजाक समझा नह । वह मेरी यो रय के बल देख रहा था। उसने हाथ जोड़कर
कहा, ‘‘गरीब-परवर, यही ह दो पोती, एक पोता।’’
मने कहा, ‘‘इतनी साधारण बात के िलए आपने मेरा आधा िदन न िकया, इसके िलए तो
आप दवा ले आते तो ठीक था। और भी कोई है या बस?’’
बुड्ढे ने कहा, ‘‘इनक माँ का भी यही हाल है!’’
एक दुगध का पुिल दा धीरे -धीरे सरककर मेरे पास आ बैठा। मने कुस पीछे हटाकर कहा,
‘‘नाड़ी देखने क ज़ रत नह कृपा कर दूर से ही अपनी तकलीफ बयान कर द।’’
उसने अपनी राम-कहानी गायी। िकसी भाँित िप ड छुड़ा म उठ खड़ा हआ। पर तु अभी दो
रोगी और थे, उनका रसोइया-जो एक म कार नाटे कद का ल डा था। वह एक घण ृ ा पद हँसी
हँसता हआ मेरे पास आ बैठा। दूसरा और न जाने कौन था। सबके अ त म सेठ ने भी मेरे आगे
ठ डा-सा हाथ बढ़ाकर कहा, ‘‘गु , ज़रा मेरी भी नाड़ी देखो।’’
म तुनतुनाकर एकदम खड़ा हो गया। घर न हआ, ह पताल हआ। मने कहा, ‘‘आप वहाँ
आकर नाड़ी िदखाइये। अब दवा लेने आप चलते ह, या िकसी को भेजते ह?’’
‘‘म चलता हँ।’’ कहकर बुड्ढा घर म घुस गया। फ स क बुड्ढे से कोई बात ही तय नह हई
थी। उसने पछ ू ा नह , मने कहा नह । िति त यि य से ाय: ऐसा ही यवहार होता है। पर यह
महाशय इतने िति त ह, यह िकसे खबर थी?
थोड़ी देर म उस सड़े हए छोकरे ने दो पये लाकर पीछे से मेरे क धे पर रख िदये। मने
च ककर कहा, ‘‘यह या है?’’
उसने बांह से नाक प छकर कहा, ‘‘ये बाबा ने िदये ह।’’ मने पये फकते हए कहा, ‘‘ये
बाबा के आड़े व म काम आयगे, उ ह को दे आओ।’’
लड़का िबना उ पये उठाकर हँसता हआ भीतर चला गया।
सेठ जी हँसते हए िनकले। बिढ़या पगड़ी और अचकन डाटी थी। कहने लगे, ‘‘आप बड़े
स जन ह। आप तो ध य ह। म तो पहले ही जानता था। अबे उ ल,ू पंिडत जी को णाम कर।’’
मेरे िलए अब बैठना किठन हो गया। म उठकर चुपचाप टेशन क ओर चल िदया। पीछे -
पीछे सेठ िच लाता ही रहा, ‘‘महाराज, मेरा बंगला तो देिखये। यह बगीचा लगाया है। यह
दीवानखाना है। यह िवलायती टाइल का समच ू ा फश िकसके घर म है? महाराज, स र हज़ार
पया इसम मेरा लगा है।’’
मने सुना ही नह । म सीधा टेशन आ पहँचा। बढ़ ू ा भी पीछे -पीछे था। गाड़ी आने म देर थी।
म बच पर बैठा था। सेठ ने कहा, ‘‘हजरू ़ के िलए िटकट थड का लँ ू या इ टर का।’’
मने कहा, ‘‘आप मेरे िलए क न कर, मेरे पास वापसी िटकट सेके ड लास का है।’’
बढ़ू ा अपने िलए एक थड लास का िटकट ले आया, और मेरे पास आकर बोला, ‘‘सरकार,
आप हक म और हािकम ह, राजा बाबू ह। फ ट-सेके ड म बैिठये। हम तो बिनये ह।’’
मने उसे घरू कर कहा, ‘‘बिनया होना तो कोई ऐसी बुरी बात नह , पर असल बात तो यह है
िक आप क जस ू ह।’’
उसने ज़रा तैश म आकर कहा, ‘‘क जस ू होने म या बुराई है?’’
मने कहा, ‘‘उनम सदा ही अ ल क अिधकता रहती है। पैसा कमाना वे जानते ह, खच
करना नह । पैसे से इ ज़त-आब का या स ब ध है, और इ ज़त िकसे कहते ह, यह भी वे नह
जानते।’’
मालम ू ा घाघ इस बार मेरे मतलब को समझ गया था। वह पी गया। गाड़ी आयी
ू होता है, बढ़
और हम लोग अपने-अपने ड ब म बैठ गये।
सेठ ने प ह िदन क दवा बनाने का ह म िदया। शीिशयाँ भी वह साथ नह लाया था। जब
सब दवाइयाँ बन चुक तो उनका ग र अंगोछे म बाँध बगल म दबा चलने लगा। चलती बार कहा,
‘‘अगर मेरे ब च को फायदा हो गया तो देिखये आपको कैसी-कैसी जगह खटवाता हँ।’’
म अब तक उसक सारी िहमाकत देख रहा था। काम म दूसरे रोिगय का कर रहा था, पर
यान वह था। जब वह सीिढ़य तक पहँचा तो मने अ तत: अपना शील भंग िकया और कहा,
‘‘सेठ जी, कुछ दान-दि णा देने का इरादा नह है या?’’
सेठ जी च क पड़े , मानो इस बात का तो कुछ याल ही उ ह न था। बोले, ‘‘हाँ-हाँ, अ छा
इसका चाज या होगा?’’
मने उ ह बैठ जाने को कहकर क पाउ डर से कहा, ‘‘सेठ जी को िबल दो। उसम प चीस
पये फ स और पाँच पये गाड़ी-खच भी जोड़ देना।’’
पचास पये के लगभग िबल देखते ही सेठ जी को सांप संघ ू गया। वे बड़ी देर तक च मा
लगाये िबल को घरू -घरू कर देखते रहे । िफर दवाइयाँ अंगोछे से खोलकर रख द और कहा, ‘‘म
अभी पये लाता हँ।’’
मने कहा, ‘‘कहाँ से लाते हो?’’
‘‘यह िकसीसे ले लँग ू ा, कोई ना-मातबर आदमी नह हँ। कहो तो दस हज़ार ला दँू।’’
मने कहा, ‘‘पर दवाई के दाम तो घर से लेकर चलना चािहए था।’’
‘‘ या कहँ, बड़ी गलती हई, लाना भल ू ही गया।’’
बढ़ू ा िखसक जाने क हड़बड़ी म था। मने उससे कड़ककर कहा, ‘‘बैठो!’’
सेठ सहमकर बैठ गया। उसका चेहरा कैसा-कुछ हो गया। उसे देखते ही मेरा ोध भी उतर
गया। िफर भी मने उससे कहा–
‘‘आप ऐसे िति त खानदान के आदमी, वयं भी लाख क स पि के वामी, हज़ार
पये माहवार कमानेवाले, बढ़ ू े और स हृ थ हो। आपने मुझे तु छ-सी बात के िलए दोपहर म
हैरान िकया, य िप देख रहे हो िक म िकतना थक गया हँ, पाँच घ टे मेरे न हए, परे शान हआ
अलग। टेशन तक न आये। अब ग ड़ बांधकर दवा ले चले। न फ स देने क आपको ज़ रत, न
दवा का दाम देने क । हम लोग शायद भुस खाकर अपने प रवार को पालगे। लाख पये घर म
रखना आप ही के भा य म है। य ? आज आप चार पैसे का सौदा खरीदा हआ बाज़ार म छोड़े
जाते हो। िध कार है आपके धन पर, बुढ़ापे पर, कोठी-बंगले पर। जब आप धन से अपनी मयादा
और ित ा ही नह बचा सकते तो यह और िकस काम आयेगा? आपके िसवा पैसे को कौन
इतना मह व दे सकता है?’’
बढ़ ू ा ढ गी हाथ जोड़कर बोला, ‘‘बस-बस-बस, अब मुझे कायल मत करो गु ! म अधमरा
हो गया। धरती म गड़ गया। सौ घड़े पानी पड़ गया। म अभी पया लाता हँ।’’ इतना कहकर वह
िफर िखसकने लगा।
मने डपटकर कहा, ‘‘ठहरो, आपक बेगरै ती म कोई शक नह । पर इस पगड़ी, सफेद मंछ ू
क बेइ ज़ती और आपके घराने क अ ित ा करने क मेरी िह मत नह । दवाइयाँ ले जाइये।
कल तक पये पहँचा देना।’’
बढ़ ू े ने चाँद छुआ। वह झटपट अंगोछे म दवाई लपेट और पैर छूकर भागा। चलती बार उसने
कहा, ‘‘कल तक पये न आये तो बिनया न कहना–म आज तक बाज़ार म कभी इतना बेइ ज़त
नह हआ था।’’
एक स ाह बीत गया। वह नह आया। य िप मुझे उसके आने क िबलकुल आशा न थी। पर
याल था िक देख-उसके मन म आ म लािन उदय होती है या नह । जब स ाह बीत गया तो मन
म िवचार हआ िक ऐसे आदमी को उसके लु चेपन म सफलता ा करने को अवकाश देकर
अ छा नह िकया। म इस ताक म रहा िक िमले तो पकड़ लँ।ू
एक िदन बाज़ार म वह िमल गया। सामना होते ही कतराकर भागा। पर मने ललकाकर
कहा, ‘‘ य सेठ, वह कल अभी नह हई?’’
कहने लगा, ‘‘कल आऊँगा। ज़ र आऊँगा।’’
मने कहा, ‘‘अ छी बात है, कल ही सही।’’
और भी दस िदन बीत गये। एक रोज़ मने मकान से देखा, वह लपका हआ जा रहा है। मने
नौकर से कहा, ‘‘उस मोटे मारवाड़ी को पकड़ लाओ।’’
वह उसे धकेल-धकालकर ले आया। वह फुफकारता हआ आया। उसने कहा, ‘‘अं ेज़़ी राज
म ध गामु ती नह हो सकती; किहये आप या कहते ह?’’
मने हँसकर कहा, ‘‘कुछ भी नह , आप बैिठये तो सही।’’
सेठ कुस पर बैठ गया। म चुपचाप िलखने म लग गया।
दो िमनट बैठकर कहा, ‘‘साहब, म जाता हँ।’’
मने कहा, ‘‘जाते कहाँ ह, बैिठये।’’
‘‘कोई जबरद ती है? नह बैठते हम।’’
‘‘जबरद ती या है? बैठने म आपका िसर कटता है? ग े दार कुस है। पंखा चल रहा है।’’
‘‘आिखर कोई काम भी हो?’’
‘‘काम कुछ नह ।’’
‘‘म अब जाता हँ।’’ वह उठ खड़ा हआ।
मने नौकर को बुलाकर कहा, ‘‘रािमसंह, सेठ के पीछे खड़े हो जाओ जब सेठ जी उठकर
खड़े ह तो इनके कान पकड़कर कुस पर िबठा दो!’’
रामिसंह पछैया जवान! सेठ साहब ध म से कुस पर बैठ गये, उ ह पसीना आ गया,
रामिसंह उनके पीछे आ खड़ा हआ।
कुछ िमनट बाद सेठ ने जेब से चार पये िनकालकर मेज पर पटक िदये और कहा, ‘‘ये
पये हमारे िहसाब म जमा कर लीिजये, पीछे देखा जायेगा।’’
मने कहा, ‘‘इ ह जेब म ही रिखये। कुछ ज दी थोड़े ही है। आपके पास पये रहे तो भी घर
म ही ह।’’
सेठ साहब हड़बड़ा रहे थे। िसर पर यमदूत खड़ा था। आधा घंटा बीत गया। िबलकुल
स नाटा था। सेठ ने जेब म िफर हाथ डाला। इस बार भीतरी जेब से एक नोट का ग र िनकाला
और उसम से दस-दस के पाँच नोट िनकालकर मेज पर िछतरा िदये। िफर कहा, ‘‘लीिजये बस
दो ती का हक अदा हो गया, मने तो सोचा था िक...खैर, आप पये स भािलये।’’
क पाउ डर ने पये स भालकर रसीद दे दी। कहने लगे, ‘‘ पया ऐसी ही चीज़ है। इसके
सामने मेल-मुलाकात और िलहाज कुछ नह ठहरते। किहये, अब तो खुश? अब तो बाबा, जाने दो।
इस रा स को दूर करो यहाँ से।’’
मने किठनाई से हँसी रोककर कहा, ‘‘सेठ जी, माफ क िजये। िबना तेज़ न तर के फोड़ा
नह िचरता, आप इस बात का याल न करना।’’
इसके बाद बढ़ू े को पान-इलायची िखलाकर िवदा िकया।
इस घटना का युग बीत गया, पर अब भी जब सेठ जी का गुलगुला चेहरा और नोट िगनते
समय क मु ा याद आ जाती है तो तबीयत खुश हो जाती है।
िसंह-वािहनी
के झुरमुट म दो यि
स◌ं था।या दकाूसरीसमय था। एक व ृ
युवती।
धीरे -धीरे बात कर रहे थे। एक युवक
युवक ने कहा-
‘‘ओह जीवन का मू य िकतना है, चलो भाग चल, म इस ख र को भ म िकये देता हँ।’’
‘‘और देश- ेम?’’
‘‘भाड़ म जाये।’’
‘‘वह वीर-भाव?’’
‘‘न हो।’’
‘‘वे बड़े -बड़े या यान?’’
‘‘बकवास थे।’’
‘‘तु ह तो वे थे?’’
‘‘जब था तब था।’’
‘‘अब?’’
‘‘अब म और तुम। चलो, भाग चल।’’
‘‘आज क सभा म?’’
‘‘म नह जाऊँगा।’’
‘‘ य ?’’
‘‘मुझे सच ू ना िमल चुक है िक आज मेरी िगर तारी होगी।’’
‘‘तब वे हज़ार भोले-भाले मनु य?’’
‘‘सब जह नुम म जाएँ ।’’
युवती चुप हई। युवक ने कहा-
‘‘ या सोचती हो?’’
‘‘कुछ नह । कब चलोगे? कहाँ चलोगे?’’
‘‘यह िफर सोचगे। आज रात क गाड़ी से पि म को कह का भी िटकट लेकर चल दो, िफर
शाि त से सोचगे।’’
‘‘अ छी बात है–मुझसे या कहते हो?’’
‘‘रात को 9 बजे तैयार रहना।’’
‘‘और कुछ?’’
‘‘कुछ नह ।’’
‘‘तब जाओ।’’
युवती युवक क ती ा िकये िबना चली गयी।
भीड़ का पार न था। रामनाथ जी का या यान होगा। साढ़े आठ का समय था-पर नौ बज रहे ह।
कहाँ है वह सबल वा धारा का वीर देशभ ? हज़ार दय उसके िलए उ सुक ह। अनेक लाल
पगिड़याँ और पुिलस सुप रटे डे ट सुनहरी झ बे म लौह भषू ण िछपाए उसक ती ा म थे।
सभापित ने ऊबकर कहा, ‘‘महाशय, खेद है िक आज के व ा ी रामनाथ जी का अभी
तक पता नह है, अतएव आज क यह सभा िवसिजत क जाती है।’’
इसी समय एक ओज वी ी-क ठ ने कहा, ‘‘नह ।’’ आकाश चीरकर यह ‘नह ’ जनख
पर छा गया। भीड़ म से एक युवती धीरे -धीरे सभा-मंच क ओर अ सर हई। मंच पर आकर उसने
कहा, ‘‘भाइयो, रामनाथ जी िकसी िवशेष काय म य त ह, उसके थानाप न म अपने ाण और
शरीर को िलये आयी हँ। मुझे दु:ख है िक म उनक तरह या यान नह दे सकती, मगर म अभी
इसी ण मिज ेट क आ ा का िवरोध करती हँ। म अभी िनिद थान पर जाती हँ–आपम से
िजसे चलना हो मेरे साथ चल। िक तु जो केवल या यान सुनने के शौक न ह वे कह से िकराये
पर कोई या याता बुला ल।’’
लोग त ध थे। ी ने ण-भर जनसमुदाय को देखा, साड़ी का काछा कसा और चल दी।
सारा ही जनसमुदाय उसके पीछे चल खड़ा हआ। दो घ टे बाद वह वीर बाला जेल क अंधेरी
कोठरी म ब द थी।
‘‘तुमने यह या िकया?’’
‘‘जो कुछ तु ह करना चािहए था।’’
‘‘मुझसे कहा य नह ?’’
‘‘तुम इस यो य न थे।’’
‘‘अब?’’
‘‘तुम जाओ, म यह तु हारे थान पर हँ।’’
‘‘म जाऊँ?’’
‘‘तब या करोगे?’’
‘‘म कहँ?’’
‘‘अव य।’’
‘‘और तुमसे?’’
‘‘हाँ मुझसे।’’
युवती ज़ोर से हँसी, इस हँसी म अव ा थी। उसने कहा, ‘‘तु हारे याग और वीरता के प
को ही मने यार िकया था; पर उसके भीतर तु हारा वह कायर प है, इसक आशा न थी। जाओ,
चले जाओ, िह दू ी एक ही पु ष को जीवन म यार करती है। मने जो भल ू क है –उसका
ितशोध म क ँ गी। जाओ यारे , जीवन का बहत मू य है।’’
इतना कहकर युवती कोठरी म पीछे को लौट गयी। वाडर ने युवक को बाहर कर िदया।
चार मास बाद युवती ने जेल से लौटकर सुना िक रामनाथ का यश िदि दगंत म या है। वह इस
समय जेल म है। इन चार मास म उसने वीरता क हद कर दी है। वह िकसी तरह न क सक ।
जेल म िमलने गयी। रामनाथ जेल के अ पताल म िवषम वर म भुन रहा था।
‘‘कैसे हो?’’
‘‘ओह तुम आ गय , देखो कैसा अ छा हँ।’’
‘‘मुझे मा करो, मने तु हारा अपमान िकया था!’’
‘‘तुमने मेरे मान क र ा िकस तरह क है, यह कहने क बात नह !’’
‘‘अब?’’
‘‘म म ँ गा नह , आकर िफर क य-पालन क ँ गा! तब ि ये, तुम मेरे थान पर!’’
‘‘पर म या यान नह दे सकती।’’
‘‘उसक ज़ रत नह । तु हारे मौन भाषण म वह बल है िक बड़े -बड़े वाि मय क मयादा
क र ा हो सकती है।’’
‘‘जी कैसा है?’’
‘‘अब और कैसा होगा?’’
‘‘म आशा करती हँ, शी अ छे हो जाओगे!’’
‘‘और बाहर आकर, अपनी िसंह-वािहनी को यु करते, अपनी आँख से देखँग ू ा!’’
‘‘मुझे या आ ा है?’’
‘‘यही िक जब-जब म कायर बनँ,ू अपना यार और दय देकर मुझे वीर बनाये रखना!’’
न नाग रक
जयपुर म थलोट नाम का एक छोटा-सा िठकाना है। इसक वािषक आय लगभग अ सी हज़ार है।
उस समय के ठाकुर का नाम था गोकुलनाथ िसंह।
दीपावली का उ सव था और महाराज को खास तौर से उ सव म सि मिलत होने को
बुलाया गया था। महाराज अपने परू े लवाजमे सिहत िठकाने म पधारने वाले थे। महाराज के
पधारने से उ सव क शोभा ि गुण हो गयी थी। अ य सरदार भी उ सव म आये थे। हाथी, घोड़ा,
रथ, पालक क भरमार थी। शराब के दौर चल रहे थे। वे याएँ न ृ य कर रही थ । दूर-दूर से
नटिनयाँ अपना-अपना करतब िदखाने आयी थ । बड़े -बड़े िफकैत और पहलवान भी अपनी
करतब िदखाने आये थे। महाराज क सवारी आने का समाचार सुनकर ठाकुर साहब उनक
अगवानी को चले। चार कोस उधर ही महाराज क अगवानी क गयी।
िठकाने क दो चीज़ रा य-भर म िस थ –एक तो हिथनी थी, िजसका नाम भीमा था
और दूसरी एक वे या, िजसका नाम राजकुंव र था। दोन चीज़ क बहत शंसा थी और महाराज
वयं उ ह देखने को उ सुक थे। हिथनी म करामात यह थी िक उसके दाँत पर चौक रखकर
राजकंु व र नाचा करती थी।
वही हिथनी और राजकुंव र अपने परू े ंग
ृ ार के साथ ठाकुर साहब के साथ इस समय भी
महाराज क अगवानी के िलए हािजर थी। महाराज ने एक बार एक सुनहरी झल ू और िच -िविच
रं ग से सि जत हिथनी क ओर देखकर मु कराकर कहा, ‘‘ठाकरां, यही वह तु हारी करामाती
हिथनी है? और वह पतु रया कहाँ है?’’
ठाकुर ने िवन वर म तिनक हँसकर कहा, ‘‘अ नदाता, यह हिथनी ीमान क सेवा म
उपि थत है और राजकुंव र भी दरबार क सेवा म यह है!’’ इसके बाद ठाकुर का इशारा पाकर
राजकंु व र िसर से पैर तक जड़ाऊ पेशवाज पहने महाराज के सामने िबजली-सी आ खड़ी हई।
उसने एक बार धरती तक झुककर महाराज का मुजरा िकया और िफर हाथ बा धकर खड़ी हो
गयी।
उस प, यौवन और च चलता के ि कुटे क ओर महाराज देर तक देखते रहे , और िफर
एकाएक हँस िदये। ठाकुर ने कहा, ‘‘अ नदाता, ह म हो, तो राजकुंव र एक चीज़ सुनावे!’’
महाराज ने कहा, ‘‘हाथी के दाँत पर ही इसे नाचना होगा!’’ उसी समय च दन क एक
जड़ाऊ चौक हिथनी के दाँत पर लाकर रखी गयी और राजकुंव र उछलकर उसपर चढ़ गयी।
सािज दे साफे बाँधकर खड़े हए। राजकुंव र ने ठुमक ली, और एक तान फक । लोग म स नाटा
छा गया। कुछ समय को वह समाँ बँधा िक सकते का आलम हो गया। जब संगीत- विन क और
राजकुंव र ने छम से कूदकर महाराज को मुजरा िकया, तो महाराज को एकाएक होश आया।
उ ह ने गले से मोितय क माला उतारकर हँसते-हँसते उसके ऊपर फक दी। राजकुंव र ने िफर
एक बार महाराज को मुजरा िकया और उछलकर चौक पर चढ़ गयी। ठाकुर ने महाराज को
हिथनी पर सवार होने का संकेत िकया। महाराज हिथनी पर सवार हए। सवारी आगे बढ़ी और
राजकुंव र हिथनी के दाँत पर रखी छोटी-सी चौक पर अपनी कलाओं का िव तार करती हई
चली। महाराज हिथनी और राजकुंव र दोन पर मु ध हो गये। उ ह ने उनक उनक भू र-भू र
शंसा क । उ सव के बाद महाराज वापस पधारे ।
दरवाज़ा खुला और दो संतरी भीतर आये। उनके पीछे -पीछे एक ल बे चेहरे का आदमी था। यह एक
ल बा-भरू ा कोट पहने था। उसने िम -भाव से कैिदय से िमलाने को हाथ बढ़ाया और यथासा य
नम आवाज़ म कहा, ‘‘म डा टर हँ।’’ िफर कुछ ककर भलमनसाहत से कहा, ‘‘मुझे ह म है
िक हर तरह से जो कुछ भी मदद आपक हो सके, क ँ ।’’
जनरल शाहनवाज ने एक बार आँख उठाकर उसक ओर देख-भर िलया। लेि टने ट
सहगल िहला-डुला भी नह । लेिकन मेजर जनरल िढ लन ने कहा, ‘‘आप यहाँ कर ही या
सकते ह?’’
‘‘म यही कर सकता हँ, िक आिखरी दम तक आपको कम से कम तकलीफ हो, ऐसी
कोिशश क ँ ।’’
जनरल शाहनवाज ने एकाएक िसर उठाकर कुछ िचढ़कर कहा, ‘‘लेिकन आपको िसफ
हमारी ही इतनी िफ य है और भी तो लोग ह?’’
‘‘लेिकन मुझे यह भेजा गया है।’’ उसने नम से कहा। िफर उसने ज दी से पछ ू ा, ‘‘शायद
आप लोग िसगरे ट पीना पस द करगे।’’
उसने िसगरे ट और िसगार िनकालकर देना चाहा। पर तु शाहनवाज ने इ कार कर िदया।
िढ लन ने मँुह फेर िलया और सहगल ने उधर देखा ही नह ।
एकाएक जनरल शाहनवाज ने खाई से कहा, ‘‘म आपक असिलयत को जानता हँ
जनाब, आप हमारी मदद करने नह आये ह, मने आपको जापानी जनरल के साथ उस िदन
देखा था, जब हम िगर तार िकया गया था।’’
उ ह ने उसक ओर से मँुह फेर िलया और अपनी नज़र लै प क परछाई पर जमा दी। उसके
दोन साथी भी उसक ओर से उदासीन होकर बैठ गये। तीन न जाने िकन-िकन िवचार म डूब
गये।
उस आदमी ने अपने हाथ िहलाये, िसगरे ट जलायी और चुपचाप धुआँ उड़ाता हआ बाहर चला
गया।
ात: क सय ू -िकरण फै ल चुक थ । तीन बागी गहरी न द सोकर अभी उठे ही थे िक संतरी
ने आकर उ ह सै यटू िकया और एक ओर खड़ा हो गया। मेजर िढ लन ने कड़ककर पछ ू ा,
‘‘ या बात है?’’
‘‘सर, जेलर साहब ने आपको सलाम बोला है।’’
‘‘जेलर से कहो, यह आकर मुलाकात कर।’’
संतरी सै यटू करके चला गया। िढ लन ने कहा, ‘‘रै कल।’’
जेलर ने वह पहँचकर उनसे हाथ िमलाया और एक परवाना पढ़कर सुनाते हए कहा,
‘‘चाय-ना ता कर लीिजये–उसके बाद तैयार हो जाइये। आप सबको यारह बजे तक हे ड वाटर
पहँचकर भारत के िलए जहाज़ पकड़ना है। िविशंग गुडलक।’’
लौह द ड
के राजपत
द◌ो बांपोशाक ू बीहड़ जंगल म चुपचाप घोड़े पर सवार चले जा रहे थे। उनम एक क
काली और घोड़ा भी काला ही था; पर तु उसके िसर पर र नजिड़त तुरा, गले
म बहमू य मोितय क माला और कमर म प ने क मठ ू क िसरोही थी। इस यि
क अभी उठती आयु थी। बड़ी-बड़ी आँख, अंगारे क भाँित देदी यमान मुख और उसपर कान तक
तनी हई मँछ ू थ । दूसरा साथी भी सब हिथयार से लैस था। वह एक अ य त चपल मु क
कािठयावाड़ी घोड़े पर सवार था-उसक धज से वीरता टपकती थी। दोन सवार चुपचाप, घोड़ा
दबाये चले जा रहे थे। रात अभी बाक थी। बहत दूर पवू के ि ितज पर पीले काश क एक रे खा-
मा दीख रही थी। रा ता बीहड़ और पहाड़ी था, पग-पग पर घोड़े ठोकर खा रहे थे। तार के ीण
काश म न सवारी को, न घोड़े को माग ठीक-ठीक दीख रहा था पर तु वे िकसी भी किठनाई
क िबना परवाह िकये आगे बढ़ते जा रहे थे। ऐसी स नाटे क रात म ऐसे बीहड़ माग पर चलना
साधारण याि य का काम न था। बड़े -बड़े व ृ काले-काले भत ू -से लग रहे थे और पवत क
गगनचु बी िशखाएँ , उस अ धेरी घाटी म अ धकार िबखेर रही थ ।
अचानक डाकुओं के एक दल ने राह रोककर ललकारा–
‘‘वह खड़े रहो और जो कुछ पास है रख दो!’’
अनुगत राजपत ू ने वामी क ओर देखा और कहा–
‘‘तब या अब?’’
राजकुमार ने म द हा य से कहा–
‘‘तब!’’
यह सुनते ही राजपत ू ने पास क नकदी चुपचाप डाकुओं को दे दी, राजकुमार ने भी सब
र नाभषू ण उतार िदये।
डाकू सरदार ने ककश वर म कहा–
‘‘हिथयार भी धर दो।’’
‘‘हिथयार रख िदये गये।’’
‘‘घोड़े भी दो और कपड़े भी उतारो।’’
चुपचाप दोन घोड़ से उतर पड़े और व उतारकर डाकुओं के आगे डाल िदये।
इसके बाद राजपत ू ने ग भीर भाव से डाकू सरदार से कहा–
‘‘अब जाएँ ?’’
‘‘नह ।’’ डाकू सरदार ने आगे बढ़कर मेघगजना क भाँित कहा।
‘‘अब और तुम या चाहते हो?’’ राजपत ू ने िज ासा से पछ
ू ा।
डाकू सरदार ने ककश वर म कहा-
‘‘देखने म तुम दोन बड़े बांके वीर तीत होते हो। मँछ
ू चढ़ी हई, हिथयार बाँधे हए हो। घोड़े
भी अ छे ह। पर तु वा तव म तुम परू े कायर हो। िबना लड़े -िभड़े चुपचाप अपना सव व हम दे
िदया? तुमपर और तु हारी जवानी पर िध कार है। तुम वा तव म वीर के वेश म नामद हो।’’
राजपत ू ने अपनी ग भीरता नह यागी, वह उसी ग भीर वर म शाि त से बोला–
‘‘अब तो तुम गािलयाँ भी दे चुके। अब कहो तो हम चले जाएँ ।’’
डाकू सरदार त ध रह गया। वह चुपचाप खड़ा कुछ सोचने लगा। यह िनभ क उ र और
अकि पत वर या कायर का हो सकता है? उसने कहा-
‘‘तुमने आपस म या संकेत िकया था–उसका भेद बताओ।’’
राजपत ू ने उसी सहज शा त वर म कहा–
‘‘उससे तु ह या मतलब है? अब और कुछ हमारे पास देने को नह है।’’
‘‘पर वह भेद िबना बताये जाने न पाओगे।’’
राजपत ू ने वामी क ओर देखा। उ ह ने म द मु कान के साथ अनुमित दे दी।
राजपत ू ने कहा–
‘‘ये नागौर के कुंवर अमरिसंह ह, राठौर-पित महाराज गजिसंह के ये पु । महाराज ने
इ ह देश-िन कासन िदया है। अब यह िद लीपित शाहजहाँ के पास आगरे जा रहे ह। वहाँ शहज़ादा
औरं गजेब से यु होने क अफवाह है, उसीम सि मिलत होकर दो-दो हाथ िदखाने क इनक
इ छा है। तुमने बीच म िव न डाल िदया है। तु हारी इस ध ृ ता पर पहले मुझे ोध आ गया था
और मने वामी से पछ ू ा िक तलवार तब िनकाली जाए या अब। वामी ने आ ा दी िक ये पहाड़ी
चहू े -जो समाज से मँुह िछपाकर जंगलो म िहंसक ज तुओ ं क भाँित पड़े रहते ह और पिथक को
असहाय पाकर लटू ते ह–ये हमारी तलवार के पा नह –हमारी राठौरी तलवार तो बादशाह और
शहज़ाद के मुकाबले म िनकलेगी। इन कु को टुकड़ा फक दो और आगे बढ़ो। यही मने
िकया।’’
डाकू-सरदार आगे बढ़ा। उसने घुटन के बल बैठकर अम रसंह का अिभवादन िकया और
अपनी तलवार उसके चरण म रखकर कहा–
‘‘ वािमन्, आपक वीरता और ओज का मुकाबला करने क साम य राजपत ू ाने म िकसक
है, जो कोई आपके सामने वीरता का दावा करे । पर तु महाराज, म भी कुलीन राजपत ू हँ, और
अब आपक रकाब के साथ सेवा म हँ। इससे मेरे सब पाप का ायि हो जाएगा। मेरे साथ पाँच
हज़ार यो ा ह। वे सब ऐसे ह िक जब तक एक बू द भी र उनके शरीर म रहे –खड़े रहगे। वे
सभी आपके पसीने के थान पर ाण दगे। इनके िसवा इस दास के पास असं य धन-र न भी ह।
महाराज, हम शरण म लीिजए।’’
घणृ ा और ितर कार का जो म द हा य अमरिसंह के मँुह पर था, उड़ गया। उनके ने म
आँसू झलक आये। उ ह ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘मने तु ह तु छ समझा था, पर तुम कृत वीर
हो।’’ यह कहकर उसे छाती से लगा िलया और तलवार उसक कमर म बाँधकर कहा–
‘‘यह यहाँ शोभा और यश ा करे गी। तु हारे वीर मेरे सगे से भी अिधक हए।’’
इस छोटी-सी वीर टोली ने आगरे म या- या रं ग िदखाये यह इितहास के पुराने प न म
अभी जीिवत है।
टीपू सल
ु तान
करने और न करने यो य येक उपाय ारा, जो राजनीित म उिचत माने जाते ह, टीपू को
पराजय का मुख देखना पड़ा। उसके वे यरू ोिपयन नौकर िजनके कौशल और वीरता से उसने और
उसके िपता ने िवजय पर िवजय ा क थी, टीपू के िलए काल बन गये। यही नह , उसके वे
सरदार भी िज ह उसने जागीर और तबा िदया था, नमकहराम हो चुके थे।
बंगलौर का पतन हो चुका था और अं ेज़़ी सेना धावा मारती हई रं गप नम क ओर बढ़ी
चली आ रही थी। टीपू ने फल से भरे हए जो ऊँट सुलह क इ छा से कानवािलस के पास भेजे थे,
उ ह उसने ितर कारपवू क लौटा िदया था। अब भी रं गप नम के बचने का कोई माग न रह गया
था।
सि ध हई। टीपू का आधा रा य क पनी, िनजाम और मराठ ने पर पर बाँट िलया। इसके
िसवाय टीपू को तीन सालाना िक त म 3 करोड़ 30 हज़ार पया द ड व प देते रहने का वादा
करना पड़ा और इसक अदायगी तक अपने 10 और 8 साल के दो बेट को िगरवी रखना पड़ा।
महावीर टीपू का दय इस अपमान से फट गया। उस िदन से उसने पलंग और िब तर पर
सोना छोड़ िदया। वह मोटी खादी के एक टुकड़े को ज़मीन पर डालकर सो जाता था।
उसका आधा रा य िछन चुका था और बाक आधा बबाद िकया जा चुका था। अब आव यकता इस
बात क थी िक उसके रा य के तमाम ब दरगाह और समु -तट अं ेज़ी सरकार के हाथ आ जाएँ ।
लाड वेलेजली ने जब वह माँग क तो िफर एक बल यु का वातावरण बन गया। अं ेज़़ी सेनाओं
ने एकाएक टीपू को घेर िलया। िनजाम क परू ी मदद उ ह ा थी और सुलतान के ाय: सभी
दरबारी फोड़ िलये गये थे। लगभग 30 हज़ार सेना ने टीपू पर चढ़ायी क थी, पर नमकहराम
सलाहकार ने टीपू को बताया था िक वह सेना 4-5 हज़ार ही है।
पुिनया जाित का ा ण था; वह सुलतान का म ी और सेनापित था। सुलतान ने उसे
पहले कुछ सेना देकर अं ेज़ पर चढ़ायी करने को भेजा; पर तु वह पहले ही से अं ेज़ी सेना से
िमल चुका था। उसने यु नह िकया, िसफ अं ेज़ी सेना के इद-िगद च कर काटता रहा और
िफर वह अं ेज़ी सेना को धीरे -धीरे राजधानी क ओर बढ़ाते हए ले आया।
सुलतान ने यह सुना तो वयं सेना लेकर लड़ने का इरादा िकया। पर सलाहकार ने उसे
िफर धोखा िदया और वे उसे भटकाकर दूसरी ओर ले गये। इधर जनरल होरे स एक गु माग से
रं गप नम तक पहँच गये। जब सुलतान को इसका पता चला तो उसने आगे बढ़कर गुलशनाबाद
के पास अं ेज़ी सेना को आ रोका।
खबू घमासान यु हआ। थोड़ी ही देर के यु म अं ेज़ी सेना के छ के छूट गये। ठीक
अवसर पाकर सुलतान ने सेनापित कम ीन को सवार सिहत आगे बढ़कर यु करने क
आ ा दी। पर तु शोक, वह भी अं ेज़ी सेना से िमल चुका था। वह थोड़ा आगे बढ़ा और िफर
उलटकर सुलतान क सेना पर ही टूट पड़ा। खेल अं ेज़ के हाथ रहा।
इसी समय टीपू को खबर लगी क ब बई से अं ेज़ क एक सेना सीधी रं गप नम क ओर
बढ़ी चली आ रही है। सुलतान कुछ अफसर को वहाँ छोड़ रं गप नम क र ा के िलए चला। अभी
तक भी उसे पुिनया और कम ीन क नमकहरामी का पता न था।
अं ेज़ी सेना ने रं गप नम पहँचते ही नगर और िकले पर आग बरसाना ार भ कर िदया।
सुलतान ने दोन नमकहराम सेनापितय के अधीन सेना िकले के बाहर भेज दी। वह सेना अं ेज़ी
सेना के दाय-बाय च कर लगाती रही। िसपाही लड़ने क आ ा माँगते थे पर सेनापित आ ा नह
देते थे। सैिनक िनराश हो हाथ मल रहे थे। सरदार भीतर ही भीतर सुलतान को न करने का
सरं जाम कर रहे थे। उसका धान सलाहकार दीवान मीर सािदक उसे ण- ण म गुमराह कर
रहा था। यहाँ तक िक िकले क दीवार के भंग होने तक क खबर उसे नह दी गयी। पुिनया और
कम ीन ने उसके चार ओर नमकहराम मुखिबर और सलाहकार पैदा कर रखे थे। अ त म उसे
इन नमकहराम के िव ासघात का पता लग गया। उसने अपने हाथ से िव ासघाितय क सच ू ी
बनायी और उसे मीर मुईनु ीन के हाथ म देकर कहा िक आज ही रात म इन नमकहराम को
क ल कर देना। पर तु दुभा य क बात देिखए िक जब मुईनु ीन उस सच ू ी को खोलकर पढ़ रहा
था, तो महल के एक फराश ने उसके पीछे से मीर सािदक का नाम सबसे ऊपर पढ़ िलया और
उसे खबर भी दे दी–िजससे वे सब सावधान हो गये।
सुलतान वयं यु के िलए स न हो गया। योितिषय ने कहा, ‘‘आज का िदन दोपहर म सात
घड़ी बाद तक आपके िलए शुभ नह है।’’ उसने इनक सलाह से नान कर हवन-जाप िकया। दो
हाथी –िजनपर काली झल ू पड़ी थ और उनके चार कोन म सोना, चाँदी, मोती और जवाहरात
बंधे थे–एक ा ण को दान िदये। उसने और भी खैरात दी। वह भोजन करने बैठा था िक तभी
उसे सच ू ना िमली िक िव ासघाितय ने सुलतान के िव ासी अनुचर सैयद ग फार को, जो इस
समय िकले का धान र क था, क ल कर डाला है। उसके िलए कौर हराम हो गया। वह
द तरखान छोड़ उठ खड़ा हआ। सैयद ग फार िकले का धान र क था। उसका थान वयं
लेने के िलए वह खास-खास सरदार सिहत पीछे क ओर से िकले म घुस गया।
पर तु िव ासघाितय ने सैयद ग फार को क ल करते ही दीवार पर चढ़ सफेद माल
िदखाकर अं ेज़ी सेना को इशारा कर िदया था और वह टीपू के पहँचने के पहले ही टूटी दीवार
क राह रं गप नम के िकले म घुस आयी थी।
दीवान मीर सािदक ने जब सुना िक सुलतान खुद िकले म सेना एक कर रहा है तो उसने
िकले के फाटक ब द करवा िदये। इससे सुलतान के बाहर आने के सब रा ते ब द हो गये। वह
पहरे दार को दरवाज़ा न खोलने क िहदायत दे ही रहा था िक एक वीर िसपाही ने ललकारकर
कहा, ‘‘कमब त, मलऊन, ख़ुदातस, सुलतान को दु मन के हवाले करके तू जान बचाकर
भागना चाहता है? ले अपनी सजा!’’ उसने उसी दम उसके टुकड़े -टुकड़े कर डाले।
पर तु सुलतान के िलए अब कुछ न रह गया था। िकला श ु के हाथ चला गया था। उसने
मु ी-भर िसपाही इक े िकये और श ुओ ं पर टूट पड़ा-जो टूटी हई दीवार से िटड्डी दल क भाँित
िकले म धंसे चले आ रहे थे। उसने िच लाकर कहा–
‘‘बहादुरो, हर एक को िसफ एक बार ही मरना है।’’
उसने गोिलयाँ चलानी शु क । कई अं ेज़ी अफसर मरकर िगर गये। अ त म एक गोली
उसक छाती म बाय तरफ आकर लगी। पर उसने न ब दूक छोड़ी, न पीछे मुड़ा। इतने म एक
और गोली उसक छाती म दािहनी ओर पार हो गयी। उसका घोड़ा भी मरकर िगर गया। उसक
पगड़ी धरती पर िगर गयी। दु मन उसके नज़दीक आ गये। वह िघर गया। अ त म पैदल, ज मी
सुलतान नंगे िसर ब दूक फक तलवार घुमाने लगा। उसक छाती से खन ू क फुहार िनकल रही
थ।
यह देख उसके कुछ सेवक ने उसे पालक म बैठा िदया और पालक एक मेहराब के नीचे
रख दी गयी। उसे सलाह दी गयी िक अब आप अपने को अं ेज़ क दया पर छोड़ दीिजए। पर
उसने न माना। इतने म कुछ अं ेज़ िसपाही पालक के पास आ गये। एक ने ख चकर उसक
कमर से जड़ाऊ पेटी उतारनी चाही। अभी भी उसके हाथ म तलवार थी। उसने एक ही वार म
उसका घुटना उड़ा िदया। इतने म एक गोली उसक कनपटी म आ लगी और ण-भर म उस वीर
नर क खोपड़ी चरू -चरू हो गयी। अब भी उसके दािहने हाथ का पंजा तलवार के क जे पर कसा
हआ था।
ब लू च पावत
कुछ िदन बाद िपता से बहत खटपट हो जाने से अम रसंह ने भी आगरे आकर बादशाह क
नौकरी कर ली। बादशाह ने अमरिसंह को बड़े आदर और ेम से अपने दरबार म जगह दी, सेना
म अ छा पद िदया और नौमहले का भ य भवन रहने को िदया। कुछ िदन तो अमरिसंह आगरे म
बड़े सुख से रहे , बाद म एक ऐसा उप व खड़ा हो गया िक िजसम उनक जान गयी और उनका
सारा वैभव भी न हो गया। पर तु उनका और ब लज ू ी का नाम हमेशा के िलए अमर हो गया।
हआ यह िक नागौर म जहाँ इनके रा य क सीमा बीकानेर के रा य से िमलती थी, वहाँ
पर दैवयोग से नागौर रा य क ज़मीन के खेत म एक तरबज ू क बेल उगी, पर फल जाकर लगा
दूसरे खेत म, जो बीकानेर रा य क सीमा म था। उस तरबज ू के ऊपर दोन खेतवाल म झगड़ा
हो गया। बीकानेर वाले कहते थे िक हमारे खेत म लगा है, इसिलए फल हमारा है और नागौर
वाले कहते थे िक बेल हमारे खेत क है, इसिलए फल हमारा है। बस, बात ही बात म रार बढ़ गयी
और तलवार चल गय । दोन ओर के दस-बीस आदमी कट मरे । लेिकन बीकानेर वाले यादा थे;
जीत उनक हई और वह फल तोड़कर ले गये। यह खबर बहत चढ़ा-बढ़ाकर आगरे भेजी गयी, इसे
सुनकर अमरिसंह ोध से जल उठे । उनम भला यह ताब कहाँ? झट आगरे से तरबज ू लाने के
िलए फौज भेज दी। जब बीकानेर महाराज ने मामला बहत बढ़ता हआ देखा, तो उ ह ने आगरे
अपने िम मीर सलावत खाँ को सब हाल िलखकर अनुरोध िकया िक वह िकसी तरह बादशाह
सलामत से कह-सुनकर ऐसा ब दोब त करा द िक बखेड़ा आगे न बढ़ने पाए। सलावत खाँ
आगरा दरबार म अ छे पद पर था। उसने अवसर पाकर बादशाह को बीकानेर दरबार के प म
कर िलया।
बादशाह ने यह ह म िदया िक एक काजी घटना- थल पर भेज िदया जाये, जो दोन प
क बात सुनकर उिचत याय-िनपटारा कर दे। वह जो कुछ फै सला करे , दोन प उसे वीकार
कर ल और साथ ही यह ह म िदया िक राव अमरिसंह ने जो सेना भेजी है, वह तुर त ही वापस
लौटा दी जाये।
पर तु अमरिसंह ने बादशाह के इस ह म क अव ा क और जब मीर सलावत खाँ शाही
फरमान लेकर अमरिसंह के पास आया तो अमरिसंह ने बड़ी उ डता से जवाब िदया िक यह
हमारा खानगी मामला है, इसम बादशाह सलामत को दखल देने का कोई अिधकार नह है। मीर
सलावत खाँ ने खबू नमक-िमच लगाकर बादशाह से कहा –िजससे बादशाह ने नाराज़ होकर 5
लाख पया अमरिसंह पर जुमाना कर िदया।
दूसरे िदन जब अमरिसंह शाही दरबार म गये तो मीर सलावत खाँ ने उसने भरे दरबार म
जुमाना तलब िकया। बादशाह का ख बदला हआ था ही। भला अमरिसंह जैसे दबंग सरदार यह
अपमान कहाँ सहन कर सकते थे! बातचीत म दरबार का अदब भंग हो गया, सलावत खाँ ने
अमरिसंह को गंवार कहा। अमरिसंह ने भी त काल कटार िनकालकर सलावत खाँ के कलेजे म
भ क दी। उ ह ने बादशाह पर भी वार करना चाहा, लेिकन बादशाह दरबार से भाग खड़ा हआ।
चार तरफ से दरबारी लोग तलवार ले-लेकर अमरिसंह पर टूट पड़े , पर तु महावीर अमरिसंह
अपनी उसी कटार के बल पर शाही ह लड़ को चीर-फाड़कर बाहर मैदान म िनकल आये, जहाँ
उनका यारा घोड़ा खड़ा था। वे उछलकर अपने घोड़े पर सवार हो गये और बाहर जाने क चे ा
करने लगे, पर तु िकलेदार ने िकले के ार ब द कर िदये और सेना ने चार ओर से अमरिसंह
को घेर िलया। अमरिसंह ने और िह मत क और वे घोड़े को एड़ देकर िकले क बुज पर चढ़ गये।
वहाँ से उ ह ने िव ततृ मैदान क ओर ि फै लायी और पीछे तफ ू ानी सेना को देखा-घोड़े को
थपक दी और कहा–‘‘रख ले बेटा, राजपत ू ी शान को!’’ िफर जो घोड़े को एड़ दी तो वह तीन
फसील को फलांगकर मैदान म आ टूटा। घोड़ा तो वह ठौर रहा और अमरिसंह उठकर भाग गये
और सही-सलामत अपने नौमहले म आकर आने वाली िवपि का सामना करने म जुट गये।
उनके िजतने वीर वहाँ थे, सबने तलवार कस ल और सब मरने-मारने को तैयार हो गये। उधर
ि य ने आव यकता पड़ने पर घी-तेल आिद भ डार म एक कर जौहर करने का सरं जाम कर
िलया। इधर यह हो ही रहा था शाही सेना ने आकर नौमहला घेर िलया और अमरिसंह को
िगर तार करने क माँग क ।
तलवार खटकने वाली ही थी िक अजुन गौड़–जो अमरिसंह का साला था–बादशाह से यह ण
करके आया िक म अमरिसंह को मरा-जीता जैसा बनेगा–दरबार म ला हािजर क ँ गा। उसने
िव ासघात करने का इरादा कर िलया था, इसिलए उसने नौमहले म आकर अपनी बहन–
अम रसंह क रानी को समझाया िक रावजी को दरबार म भेज दो। म बादशाह से सुलह करा दँूगा।
बादशाह से आगरे म रार ठानने म खै रयत नह है! उसने बहत-सी कसम खाय और धम क
दुहाई दी और अ त म राव अमरिसंह उसपर िव ास कर िनह थे िकले क ओर चल िदये। वे
धड़कते कलेजे से घोड़े पर सवार हए और रानी ने खन ू के आँसू भरकर उ ह िवदा िकया।
पर तु अजुन गौड़ ने तो िव ासघात करने क ठान ही ली थी। वह उ ह ल लो-च पो
करके िकले क पौर तक ले आया। रावजी य ही िखड़क म िसर िनकालकर भीतर जाने लगे,
उसने पीछे से तलवार का करारा वार उनक गदन पर िकया और एक ही वार म राव अमरिसंह
का िसर भु ा-सा ज़मीन पर लोटने लगा। अजुन गौड़ ने लपककर िसर उठा िलया और जाकर
बादशाह क सेवा म पेश िकया। उसे आशा थी िक बादशाह उसक इस सेवा से स न होकर उसे
अमरिसंह क जागीर ब श दगे। उसने अपनी वीरता क ड ग बहत बढ़-चढ़कर का पिनक तौर
पर मारी थी पर स य कट हो गया और बादशाह ने ोध म आकर उस िव ासघाती अजुन गौड़
को धरती म िज़ दा गड़वाकर कु से नुचवा डालने क आ ा दे दी, साथ ही अमरिसंह क लाश
को अव ा के तौर पर बुज पर डाल देने का ह म दे िदया।
नौमहले म जब यह दा ण समाचार पहँचा तो हाहाकार मच गया। जो थोड़े -बहत राजपत ू वहाँ थे–
वे रावजी के भतीजे रामिसंह क अ य ता म संगिठत होकर रावजी क लाश को बुज से लाने को
तैयार हए। पर तु यह कुछ साधारण बात न थी। असं य शाही सेना से िघरे िकले से लाश ले आना
सहज काम न था। पर लाश लाकर रानी को सती कराना आव यक था। यह काम मु ी-भर इन
राजपत ू के यो य न था।
अ त म रानी को ब लज ू ी का मरण हआ। उ ह ने चलती बार जो वचन िदया था–उसक
याद िदलाकर रानी ने उसके पास खबर भेजी िक आप ि य ह तो अपने वामी क लाश लाकर
हम सती कराइए!
ब लजू ी उस समय एक घोड़े क परी ा कर रहे थे। यह घोड़ा उसी समय उदयपुर दरबार ने
उनके पास भट- व प भेजा था। यह एक असाधारण जानवर था, िजसपर सवारी लेने यो य कोई
वीर उदयपुर म न था। महाराणा ने िलखा था –जैसे राजपत ू म ब लज ू ी दु ष ह वैसे ही घोड़ म
यह घोड़ा दु ष है, इसीिलए आपके पास भेजा है।
ब लज ू ी ने य ही रानी का स देश सुना, वे तुरंत नंगी पीठ उसी घोड़े पर सवार हो गये।
उ ह ने दो तलवार बाँध । साथ म अपने अनुचर को िलया और जो लोग उदयपुर से घोड़ा लाये थे,
उनसे कहा, ‘‘महाराणा जी क कृपा का बदला चुकाने का अब समय है। उ ह हमारा जुहार
कहना और कहना–घोड़ा जैसा दु ष है वैसे ही दु ष काय म जा रहा है!’’ उ ह ने एड़ लगायी,
असील घोड़ा हवा म उड़ चला। ण-भर म ब लज ू ी िकले क पौर पर थे। हज़ार तलवार-बिछयाँ
और तीर बरस रहे थे, पर तु वे बढ़ते गये। लाश के तम
ू ार लगा िदये और बुज पर जाकर लाश को
उठा िलया और घोड़े पर रखा। ण- ण पर उनके साथी राजपत ू एक-एक करके कम हो रहे थे।
ब लज ू ी के शरीर से भी खन ू क धार बह रही थ । श से उनका शरीर छलनी हो रहा था।
उनके घोड़े क भी वही हालत थी, पर तु अभी वामी क लाश िनरापद नह थी। वे बढ़-बढ़कर
हाथ मार रहे थे। वे कराल काल क भाँित रणांगण म देदी यमान हो रहे थे।
अ त म उ ह ने लाश को रामिसंह को सुपुद करके कहा, ‘‘इसे नौमहले ले जाकर रानी को
दे दो! जब रानी िचता म बैठ जाए और िचता म आग दे दी जाए, तो तोप चला देना–तब म
समझँग ू ा िक कत य-मु हआ!’’
रामिसंह अपने वीर को गांसकर लाश ले नौमहले क ओर बढ़ा। उसक और उसके वीर
क तलवार करामात िदखा रही थ । रा ते म ड-मु ड लुढ़क रहे थे। उधर ब लज ू ी पवत के
समान माग म अड़े थे–उनक ित ा थी िक जब तक नौमहले से तोप का श द न हो जाएगा–वे
मरगे नह , िगरगे भी नह ! उनके चार ओर लाश ही लाश थ ।
अ त म सब काय स प न हो गये। लाश नौमहले पहँच गयी। िचता म आग दे दी गयी।
बाहर तलवार झनझना रही थ , भीतर से लाल लौ उठी और नौमहला धांय-धांय जलने लगा। तोप
का श द हआ। ब लज ू ी क मु ी ढीली हई और तलवार छूट गयी। िफर वे न क भाँित घोड़े से
िगरे और िफर घोड़ा भी वह अमर हआ।
दही क हांडी
स नआकाश
् 1978 का ी म समा हो रहा था। स दुर भात म सय ू धीरे -धीरे ऊपर चढ़ रहा था।
म जहाँ-तहाँ बदली दीख पड़ती थी। मारवाड़ के तापी यो ा जसव तिसंह का
देहा त हो चुका था और उनके वीर पु अजीतिसंह जालौर म पड़े समय क ती ा कर रहे थे।
औरं गजेब का सबू ेदार नािजम कुली जोधपुर का गवनर था। मारवाड़ क िनरीह जा जसवि तसंह
को खोकर जैसे-तैसे मुगल के अ याचार सहन कर रही थी। व ृ और मानवीयता का श ु
औरं गजेब कब म ृ युश या पर िगरे , महाराज अजीतिसंह और दुगादास को कब अिभसि ध ा हो,
जोधपुर का कब उ ार हो–ल ािधक मारवाड़ी जा इसी ती ा म थी।
सोजत गाँव से बाहर मुगल सेना पड़ाव डाले पड़ी थी। यह िसवान के िकले क कुमुक
लेकर जा रही थी िजसका र क मुरिदल खाँ मेवाती था–और िजसे दो मास से राठौर ने घेर रखा
था।
ू ते-झामते गाँव म घुस रहे थे। उनके साथ एक ख चर था। उसपर
दो िसपाही धीरे -धीरे झम
खा -साम ी लदी थी। िजस-िजस क उ ह आव यकता होती थी, उसीको वे गाँव म जहाँ देखते,
िबना संकोच उठाकर ख चर पर डाल देते थे। दोन अपनी भयानक आँख से गाँव के आबाल-
व ृ को घरू ते हए, घनी-काली दाढ़ी पर हाथ फेरते, कमर क तलवार को अनाव यक रीित से
िहलाते हए घमू रहे थे। ब चे और ि याँ भयभीत होकर घर म भाग रही थ । व ृ पु ष उ ह देखते
ही गदन नीची कर लेते थे। युवक चुपचाप दाँत भ चते और ठ डी सांस भरते थे; पर गाँव म एक
भी माई का लाल न था जो उनक लटू पाट और अ याचार का िवरोध करता।
देखते-देखते सरू ज िसर पर चढ़ आया। दोन के शरीर पसीने से भीग गये। एक ने कहा, ‘‘उफ,
गजब क गम है! ज दी करो, िफर, आग बरसने लगेगी। इस क बखत मु क म पानी भी तो
नह बरसता!’’
दूसरे ने कहा, ‘‘ठीक कहते हो, मगर दही? अभी तो दही लेना है।’’
एक व ृ पु ष नंगे बदन अपने घर के ार पर चारपाई पर बैठा 8-9 वष के एक सु दर
बालक से बात कर रहा था। दोन यम-स श यि य को अपनी ही ओर आते देख ब चा भय से
व ृ क छाती म िचपक गया। उसने कि पत वर म कहा, ‘‘बाबा! वे तुक आ रहे ह।’’
‘‘कुछ भय नह है बेटा, तुम भीतर जाओ!’’ इतना कहकर व ृ ने बालक को भीतर भेज
िदया और वयं आगे बढ़कर उनसे पछ ू ने लगा–
‘‘आप लोग िकसे ढूँढ़ रहे ह?’’
‘‘दही चािहए बुड्ढे । दही घर म है?’’
‘‘मेरे यहाँ दही नह होता, म पछ ू कर देखता हँ।’’
‘‘हम लोग खुद देख लगे!’’ यह कहकर दोन उ ड िसपाही ठाकुर के घर म घुसने लगे।
व ृ ने बाधा देकर कहा–
‘‘यह नह हो सकता! वहाँ ि याँ ह, मद कोई घर पर नह है। तुम लोग बाहर ही ठहरो!’’
ू े के मँुह पर घंस
िबना उ र िदये ही एक िसपाही ने ज़ोर से बढ़ ू ा मारा –व ृ धराशायी हआ।
दोन िसपाही भीतर घुस गये और ण-भर म दही क भरी हई हांडी उठाकर अपने रा ते लगे।
ामवासी िच िलिखत-से देखते रह गये।
भस के िलए चारे का बोझ िसर पर लादे ठाकुर ने धीरे -धीरे गली म वेश िकया। गली के छोर पर
मकू -मौन ामवासी उसक ओर ताकने लगे। ठाकुर ने बोझा आंगन म फकते हए कहा, ‘‘हआ
या है, सब लोग बाहर य ह?’’
‘‘वे तुक जबद ती दही क हांडी उठा ले गये ह।’’
‘‘जबद ती?’’
ठाकुर ने ह ठ चबाये और खंटू ी से तलवार उठाकर संतू ली। ठकुरानी ने कहा–
‘‘सोच-समझकर काम करो। वे बादशाह के िसपाही ह, गाँव म हमारे साथ कौन है?’’
‘‘ या यह तलवार काफ नह है?’’ ठाकुर ने लाल-लाल आँख से ठकुरानी को घरू कर
कहा, ‘‘मुझसे माँगकर वे दही ले जा सकते थे! म या मना कर देता? पर जबद ती नह !’’
ठाकुर ने पैर बढ़ाये। ठकुरानी ने पैर पकड़कर कहा, ‘‘इस बालक क ओर तो देखो!’’
ठाकुर ने उलटकर ण-भर अपने 8 वष य पु को देखा-उसके नथुने फूल उठे । वह मु ी म
तलवार क मठ ू पकड़े घर से बाहर हआ। गाँव-भर देख रहा था
दोन िसपाही दो ही खेत जा पाये थे िक ठाकुर ने दोन को धर दबाया। ण-भर ही म एक
को ठाकुर ने टुकड़े -टुकड़े कर िदया और दूसरा घायल होकर भाग गया।
गाँव वाल ने देखा–बाय हाथ म दही क हांडी लटकाये और दािहने हाथ म खन ू क
तलवार िलये ठाकुर धीर गित से गाँव म लौट रहा है। िकसी को कुछ कहने का साहस नह हआ।
ठाकुर ने आँख उठाकर िकसीक ओर देखा भी नह । वह चुपचाप घर म घुस गया। दही क हांडी
उसने आँगन म रख दी। चादर कमर से खोलकर सहन म िबछा दी, ठकुरानी से कहा, ‘‘जो
नकदी और जर-जेवर ह, ले आओ!’’
घर क जमा-पँज ू ी चादर पर आ पड़ी। ठाकुर ने चादर समेटी। पु का हाथ पकड़ा और घर
के बाहर आया।
वह धीरे -धीरे पड़ोसी ा ण के पास पहँचा। जर-माल उसे देकर कहा, ‘‘यह बालक आपके
अधीन है, इसे आप पािलएगा!’’ ा ण ने आँख म आँसू भरकर बालक का हाथ पकड़ िलया।
ठाकुर ने पालागन क और वह िफर अपने घर म घुस गया। उसक आँख म आँसू न थे-आग थी!
हाथ म थी वही नंगी तलवार। उसने ठकुरानी को पुकारा, ‘‘ठकुरानी!’’
ठकुरानी सामने आकर चुपचाप पित के सामने खड़ी हो गयी।
ठाकुर ने कहा, ‘‘बैठ जाओ!’’
वह बैठ गयी।
‘‘डरती हो ठकुरानी?’’
‘‘नह वामी!’’
‘‘तो चलो तुम पहले, म कुछ ठहरकर आता हँ।’’ तलवार हवा म घम ू ी। ठकुरानी का िसर
धरती पर लोट रहा था।
एक-एक करके पाँच ि य के िसर काटकर ठाकुर ने छ पर म आग लगा दी। बैसाख का
सखू ा फूस भभककर जल उठा। धुआँ आकाश म छा गया।
उसके कान ने सुना-सेना आ रही है। बाजे क अ प विन कान म पड़ते ही वह बाहर
आकर बैठ गया।
गाँव-भर नंगी तलवार ले उसके क धे से क धा िभड़ाये खड़ा था। देखते ही देखते दल-
बादल क भाँित शाही सेना ने गाँव पर ह ला बोल िदया। मु ड पर मु ड िगरने लगे। र क नदी
बह गयी। गली लाश से पट गयी। सारे गाँव को उजाड़-जलाकर, खाक करके शाही सेना र क
िनशानी पीछे छोड़ती हई चली गयी। गाँव म एक भी जीिवत मद न बचा था।
आ मदान
ब◌ा रहव सदी क बात है। उस समय उ र भारत म दो बड़े िस राजा थे। एक िद लीपित
प ृ वीराज और दूसरे क नोजािधपित महाराज जयच द। प ृ वीराज छोटे-से राजा थे, पर
महावीर थे। क नोजािधपित बड़े भारी राजा थे। उन िदन बात-बात म राजा आपस म
लड़ा करते थे। लड़कर कट मरना वे अपनी शान समझते थे। उन िदन वीरता का ही बोलबाला
था।
बु देल के परमार राजा महाराजा जयच द के म डलीक राजा थे। उनके यो ा आ हा-
ऊदल बड़े बाँके वीर थे। वे महोबा के रहने वाले थे। उनक वीरता क बड़ी धाक थी। एक बार वे
िद ली आकर जबद ती, प ृ वीराज क बहन बेला को याह ले गये थे–तभी से प ृ वीराज उनपर
खार खाते थे।
ज◌ो धपुर म मुगल ही मुगल िदखाई पड़ते थे। नगरिनवासी घर छोड़-छोड़कर भाग गये थे
और मुगल ने घर पर अिधकार कर िलया था। ात:काल ही से नगर म चहल-पहल
थी। बड़े -बड़े सरदार घोड़ पर चढ़े इधर-उधर दौड़-धपू कर रहे थे। नये-नये अमीर-
उमराव बाहर से आये हए थे। बाज़ार म भीड़ लग रही थी।
यह वह समय था, जब मारवाड़ म मुसलमान का अिधकार हो गया था। िद ली त त पर
तापी औरं गजेब का शासन था। यहाँ नया सबू ेदार बदलकर आया था। उसका दरबार होने वाला
था। इसम सभी राजवग पु ष को बुलाया गया था, पर तु िह दू सरदार को हिथयार लेकर आना
िनिष था।
सड़क और गिलय म ि याँ तथा पु ष जहाँ-तहाँ भीड़ क भीड़ खड़े कानाफूसी कर और
आते-जाते यो ाओं को देख रहे थे।
मुगल पलटन क एक टुकड़ी कायदे से कवायद करती हई िकले क ओर चली गयी। िकला
एक ऊँची दुगम पहाड़ी पर ि थत मज़बत ू प थर का बना था और उसका फाटक अभे था।
दरबार का भवन मुगल से खचाखच भरा था पर तु राठौर सरदार अभी नह आये थे।
उनक ती ा म दरबार क कायवाही अभी थिगत थी। एक सैिनक अफसर ने आकर कहा,
‘‘सरदार लोग बड़ी देर कर रहे ह।’’
उसने पहाड़ी क तलहटी तक फै ली हई टेढ़ी-ितरछी सड़क क ओर देखा। सुनहली धपू म
उसे उनके चमकते हए च चल घोड़े िदखाई िदये। वे सब धीरे -धीरे बात करते बढ़े चले आ रहे थे।
उनम से िकसीके भी शरीर पर हिथयार न थे। उसने उ ह देखकर कहा, ‘‘लो, वे आ रहे ह।’’
उनम कुछ उठते हए युवक थे िजनक अभी रे ख भीजी थ । कुछ व ृ पु ष थे, िजनक
िवशाल दािढ़याँ हवा म फहरा रही थ । वे बात करते और सशंक ि से मुगल से भरे िकले को
देखते हए बढ़ रहे थे। घोड़े सुनहरी साज से सजे हए थे और उनक पोशाक रं ग-िबरं गी थ ।
नगर-िनवासी तलहटी म सड़क के दोन ओर खड़े उं गली उठा-उठा-कर येक के
स ब ध म अपने-अपने मनोगत भाव कट कर रहे थे। एक ने कहा, ‘‘देखो, यह राव करनिसंह
बघेला जा रहे ; िज ह ने रानी माँ क पीठ पर रहकर उनक र ा क थी, जब वे िद ली के घेरे का
भेदन करके चली थ ।’’
दूसरे ने कहा, ‘‘यह ठाकुर ब तावरिसंह पंचोली ह िजनक तलवार पाँच हाथ क होती है।
आज वे िनह थे दु मन के दरबार म जा रहे ह।’’
तीसरे ने िच लाकर अपनी ओर सबको आकिषत करके कहा, ‘‘और उधर देखो उस सफेद
घोड़े पर कानौद के राव राजा तापिसंह ह, िज ह ने उस िदन खाली हाथ नाहर को चीर डाला
था। वाह, या बाँका जवान है! अभी तो रे ख ही भीजी ह।’’
धीरे -धीरे ये लोग आँख से ओट हो गये। ऊपर िकले तक कोई भी अप रिचत नह जा सकता
था।
सयू पर एक बदली का टुकड़ा आ गया। लोग कानाफूसी करते हए उस िकले को ताक रहे
थे। उन रह यमयी दीवार के भीतर या हो रहा है, यह जानना दु सा य था।
एक ने कहा, ‘‘अभी तो और भी सरदार आवगे! मुकु ददास खीची-अरे , देखो वह आ रहे ह!
िसर से पैर तक लाल वेश है। मारवाड़-भर म ऐसा यो ा नह । पर...देखो-देखो, वह बुिढ़या
बेवकूफ िकधर दौड़ी जा रही है? पागल!’’
वह बुिढ़या तीर क भाँित पहाड़ी पर से उतर रही थी; उसके मँुह पर हवाइयाँ उड़ रही थ ।
सामने ही सश िसपािहय के झु ड के साथ मुकु ददास खीची बढ़े चले आ रहे थे। सभी सश
थे। मुकु ददास वयं एक फौलादी ब तर पहने और िसर से पैर तक हिथयार से लदे हए थे।
वह मुकु ददास के घोड़े के आगे िगर गयी। उसके मुख से िनकला ‘‘ठाकरां, वहाँ िकले पर
न जाना; वहाँ खन ू क नदी बह रही है। दगा है, दगा! म आँख देखकर आयी हँ।’’
वह काँप उठी, और दोन हाथ से उसने आँख ब द कर ल । मुकु ददास खीची घोड़े से कूद
पड़े । उ ह ने व ृ ा को हाथ से उठाकर कहा, ‘‘बढ़ ू ी माँ, बात या है? तु हारा अिभ ाय या है?
या िकले म...’’
उसने िसर उठाकर भयभीत वर म कहा, ‘‘महाराज, वहाँ येक सरदार बकरे क भाँित
हलाल िकया जा रहा है। बेचारे वीर करनिसंह बघेला और तापिसंह के िसर धरती म लुढ़क रहे
ह। वहाँ येक माई का लाल धोखे से य ही वह घोड़े से उतरकर ड्योढ़ी पार करता है, मार
डाला जाता है। वे दगाबाज, पाजी, कु े तुक...मने आँख देखा है, महाराज, आँख देखा है।’’
ण-भर को स नाटा छा गया। मुकु ददास का िसर नीचे झुक गया। उ ह ने भराई आवाज़
म कहा, ‘‘उ ह ने बघेला सरदार को मार डाला? और मेरे यारे वीर भतीजे को भी, िजनका कंगन
अभी नह खुला?’’
वे कूदकर घोड़े पर चढ़ गये। ोध से उनका मुख लाल हो गया। उ ह ने ह ठ काटकर
कहा, ‘‘कायरो, पािपयो, ह यारो!’’ उ ह ने आकाश क ओर मँुह उठाया और मु ी बाँधकर कहा,
“सय ू दय से थम ही धल ू म न िमला दँू, तो मेरा नाम मुकु ददास नह !’’
उनके येक िसपाही ने तलवार संत ू ली। मुकु ददास ने शाँत वर म कहा, ‘‘इसक
आव यकता नह है। ठाकरां...मेरे साथ आओ!’’ वे घोड़े से उतर पड़े , और अपने सािथय तथा उस
ी के साथ गहन वन म िवलीन हो गये।
वन के अग य थल पर मुकु ददास ने घोड़ को कवा िदया और राजपत ू को चुपचाप
बैठ जाने क आ ा दी। िफर वह बढ़ ू ी औरत को एक तरफ ले गये और कहा–
‘‘माँ, तुमने मेरे ाण बचाये ह, अब एक उपकार और करो। अभी तुम चुपचाप घर म बैठना।
सं या होने से पहले ही तुम नगर म यह देखना िक कौन मुगल कहाँ ठहरा है। उन मकान पर
िच कर देना और सं या होते ही मुझे इसक सच ू ना देना।’’
वह ी चली गयी, और मुकु ददास ग भीर िच ता म डूब गये।
सं या बीतकर राि हो चली। मुकु ददास िवचिलत भाव से उस व ृ ा क ती ा कर रहे थे।
वह धीरे से आयी और बैठ गयी। वह एकदम थक गयी थी। मुकु ददास ने उसक ग भीर मु ा
देखकर कहा, ‘‘माता, तुम वह काम कर आय ? उनका या हाल है?’’
‘‘वे वहाँ आन द मना रहे ह, दावत उड़ा रहे ह और नाच-रं ग हो रहे ह। अभागे नगर-
िनवािसय से बलपवू क बेगार ली जा रही ह। भले घर क बह-बेिटयाँ सुरि त नह । वे चाहे िजसके
घर म घुसकर उनक लाज लटू रहे ह। ठाकरां, आज क रात कालराि है।’’
वह कुछ ठहर गयी। उसक आँख से आँसू ढुलक पड़े । उ ह दोन हाथ से प छकर उसने
कहा–
‘‘वे िजन-िजन घर म ठहरे ह मने उनपर िच कर िदया है। गिलय म स नाटा छा रहा है।
जो लोग नगर म बचे ह वे सब लोग चुपचाप ार ब द िकये हए ह। शेष घर छोड़कर भाग गये
ह।’’
मुकु ददास क आँख से आग िनकल रही थी। उ ह ने कहा, ‘‘माँ, तुमने बहत काम
िकया, अब तुम थोड़ा िव ाम कर लो। आधी रात बीतने पर मेरा काम ार भ होगा।’’
आधी रात होने पर मुकु ददास ने अपने सब सािथय को चुपचाप तैयार होने का आदेश
िदया। वे वयं भी घोड़े पर सवार हो गये और सब धीरे -धीरे उस ऊबड़-खाबड़ पवत-पथ को पार
करते हए नगर क ओर चले। वह ी भी उनके साथ थी। नगर म वेश करते ही वह क ,
उसने कहा, ‘‘ठाकरां, कुछ और चीज़ तो नह चािहए? यह मेरा घर है।’’
‘‘हाँ, माँ, हम कुछ मज़बत
ू रि सयाँ और सख ू ा फूस चािहए।’’
‘‘फूस तो छ पर से लेना होगा, रि सयाँ म लाती हँ। तुम िसपािहय से कहो, वे छ पर पर
चढ़ जाएँ और उसे उधेड़ ल। कुछ िच ता नह , म गरीब तो हँ, पर िफर बनवा लँग ू ी।’’
वह िबना उ र क ती ा िकये घर के भीतर घुस गयी।
मुकु ददास ने िसपािहय को घोड़ से उतरने का आदेश िदया। वे वयं भी घोड़े से उतर पड़े ।
कुछ ही ण म सबने अपने िसर के साफे खोल डाले और फूस के ग े बाँध िलये। एक-एक र सी
भी सबके हाथ म थी। उ ह ने जत ू े भी उतार िदये और िन शंक नगर म घुस गये। व ृ ा को उ ह ने
छु ी दी।
रात अ धेरी थी। िजन घर पर िच थे उनके ार को उ ह ने खबू कसकर र सी से बाँध
िदया और उनपर सांकल चढ़ा द तािक कोई भी बाहर न िनकल सके। इसके बाद थोड़ा-थोड़ा-सा
फूस ार पर रख िदया। देखते-देखते सम त िचि त ार रि सय से बाँध और फूस से ढांप िदये
गये। िफर मुकु ददास ने संकेत िकया और एकबारगी ही सम त फूस म आग लगा दी गयी।
तदन तर सब राजपत ू अपने-अपने घोड़ पर सवार होकर अलग खड़े हो गये। सबने तलवार संत ू
ली। मुकु ददास ने ग भीर वर म कहा, ‘‘वीरो, इन पितत ह यार म से एक भी न बचने पावे।
जो बाहर िनकले, उसीके दो टुकड़े कर दो। सावधान रहो।’’
देखते ही देखते आग क लपट च ड हो गय । गली-कूचे धुएँ से भर गये। थम धीमा और
िफर च ड ची कार उठ खड़ा हआ। कुछ ही ण म सारा नगर धांय-धांय जलने लगा। फूस क
आग से लकड़ी के पुराने िवशाल दरवाजे़ और दीवार चर-चर करती जल उठ । ित ण आग
च ड होती जाती थी और सब ओर दूर-दूर तक काश फै ल रहा था, िजसम राठौर वीर क
भयानक-काली मिू तयाँ नंगी तलवार िलये चुपचाप खड़ी िदखलाई देती थ ।
मकान से भयानक, क ण ची कार आ रहे थे। मनु य झुलस रहे थे और डकरा रहे थे।
आग क लपट आकाश को छू रही थ , िसपािहय के दय फटे पड़ते थे, पर तु मुकु ददास हाथ म
नंगी तलवार िलये चुपचाप प थर क मिू त क तरह अचल खड़े थे।
रात बीत गयी। सय ू क सुनहरी िकरण उस भ मीभत ू नगर पर पड़कर एक और ही समाँ
िदखा रही थ । एक भी मुगल जीता न बचा था। मुकु ददास और उनके वे िसपाही वहाँ से चले गये
थे और वह व ृ ा आँख फाड़-फाड़कर उन जले कंकाल को देख रही थी, िज ह ने कल ही
अ याचार और क ल के बाज़ार गम िकये थे।
चोरी
पहला य
(नव णय)
‘‘तो अब एक चु मा!’’ (ललचाहट से)
‘‘नह , यह नह होगा।’’ (ललचाहट से)
‘‘बस, एक!’’ ( य ता से)
‘‘नह -नह -नह ।’’ (िछटककर)
‘‘नह -नह -नह -नह !’’ (आतुरता से)
‘‘मने तुमसे कह िदया है!’’ (कोप से)
‘‘तो इसम हज तो बताओ?’’ (ग भीरता से)
‘‘बस, तुम यह बात ही न कहो!’’ (झुंझलाहट से)
‘‘इसम कुछ भी क न होगा।’’ (समझाने के ढं ग से)
‘‘हो या न हो।’’ (नाराज़ी से)
‘‘समय भी कुछ न लगेगा।’’ (अनुनय से)
‘‘लगे चाहे न लगे।’’ (लापरवाही से)
‘‘तुम मेरी इतनी ाथना भी नह मनोगी?’’ (िवनय से)
‘‘नह ।’’ (हठ से)
‘‘बड़ी िन र हो!’’ (हताश वर से)
‘‘अ छा, य ही सही।’’ (मान से)
( िणाक त ध रहकर और घुटन के बल बैठकर)
‘‘देखो, एक! एक म या है? दूसरा माँगू तो...।’’ (बात कट गई)
‘‘तो तुम मुझे खड़ी न रहने दोगे?’’ ( ोध से)
‘‘नह , नह , ऐसा न कहो। देखो...।’’ (आतुरता से)
‘‘लो, म जाती हँ।’’ (जाने का आयोजन)
(खड़े होकर)
‘‘हाय! हाय!! बड़ी िन र हो, बड़ी बेपीर हो।’’ (सांस ख चकर)
(चलते-चलते खड़ी होकर, पीछे िफरकर रस, ेम और िकि चत् हा य से देखना)
‘‘तो तुम तंग य करते हो?’’ ( याज कोप से)
‘‘तुम मुझे मार डालो, ज़हर दे दो, छुरी घंस
ू दो, हाय!’’ (दुख और हताश भाव से)
(िनकट आकर)
‘‘लो, अब य बकोगे, मानो कोई हँसी-खुशी क बात ही कहने को नह रह गयी।’’ (ताने
से)
( िसकारी)
‘‘हाय! हाय!!’’ (िवकलता से)
‘‘यह लो बस, हाय-हाय, बात-बात म हाय-हाय।’’ (सहानुभिू त से)
( िसर िहलाकर)
‘‘हाय! हाय! ओफ्!’’ (मम यथा से)
‘‘अजी, तो मने तु ह या कहा है?’’ (आ ासन से)
‘‘तुम मुझे नह चाहत ? अ छा, अब तुमसे िमलकर क न दँूगा।’’
(दुख और ोभ से)
‘‘हरे ! हरे !! आप ही आप िबगड़ते ह। आिखर कुछ बात भी हो?’’
(नम से)
(प ला पकड़कर)
‘‘इतने नाराज़ य हो गये?’’ (दीनता से)
‘‘बस, छोड़ दो, य झठ ू -मठ
ू का यार िदखाती हो? म इस यो य भी नह था। इतनी-सी
ाथना भी अ वीकार। िसफ एक! ओफ् लो, म चला।’’
(जाने का आयोजन)
(हाथ पकड़कर)
‘‘तो ऐसी ज दी या है? नह , वह नह , म, तु हारे हाथ जोड़ँ –और जो कहो, सो क ँ , पर
वह नह ।’’ (कातरता से)
(हाथ छुड़ाकर)
‘‘ओफ्! हाय! म चला।’’
( थान)
दूसरा द् य
(िम )
‘‘हाय!’’(दु:ख से)
‘‘ य , या हआ?’’ (आ य से)
‘‘ओफ्!’’ (गहरी सांस ख चकर)
‘‘अरे मामला तो कहो?’’ (कौतुक से)
‘‘िनदयी है, िन र है।’’ (िनराश वर म)
‘‘कौन? कौन?’’ (ज दी से)
‘‘वही, हाय, वही।’’ ( याकुलता से)
‘‘ या मार ही डाला?’’ (िद लगी से)
‘‘ऐसा करती, तो अ छा था।’’ (अनुताप से)
‘‘तो अधमरा कर छोड़ा?’’ (ज़रा िद लगी से)
‘‘अब बचँगू ा नह ।’’ (िनराशा से)
‘‘अ छा, हआ या? साफ तो कहो।’’ (सहानुभिू त से)
‘‘नह देती, िनदयी नह देती।’’ (झुंझलाहट से)
‘‘ या? पया, पैसा, हाथी, घोड़ा?’’ (कौतहू ल से)
‘‘अरे एक चु मा, िसफ एक माँगा था।’’ (अनुराग से)
“िसफ एक?’’ (मजाक से)
‘‘हाँ, तु हारी कसम।’’ (उतावली से)
‘‘और नह िदया!’’ (नकली आ य से)
‘‘िबलकुल नह , हाथ नह धरने िदया।’’ (िनराशा से)
‘‘यह तो बड़ी अ ुत बात है! भला तुमने िकस तरह माँगा था?’’ (बनावटी ग भीरता से)
‘‘हर तरह, माँगकर, र रयाकर, िम नत करके, समझाकर, रोकर, झ ककर, पैर
पकड़कर, नाक रगड़कर।’’ (उदासी से)
‘‘अ धेरे म या उजाले म?’’ (िवनोद से)
‘‘उजाले म। अ धेरा होता, तो समझता पहचाना न होगा।’’ (उदासी से)
‘‘हँ।’’ (म न भाव से)
‘‘अब उससे और या आशा क ँ ?’’ (अफसोस से)
‘‘हँ।’’ (ग भीरता से)
‘‘हँ या? या िनराश हो बैठूँ? तुम कुछ मदद न करोगे?’’ (आशा से)
‘‘वही तो, देखो, चु बन के दस हज़ार तरीके होते ह।’’ ( ौढ़ता से)
‘‘दस हज़ार?’’ (आ य से)
‘‘हाँ-हाँ, दस हज़ार, वह भी मोट लठ से। बारीक तो प ास हजार ह।’’ (िन य से)
‘‘प...चा...स...ह...ज़ा...र...??? वाह-वाह!! अरे तो बाबा, सौ-दो सौ तो मुझे बता–म तो
यही दस-पाँच जानता था-उलट-पलटकर आजमा बैठा।’’ (उ सुकता से)
‘‘वही तो। अ छा, तुम एक काम करो।’’ (ग भीरता से)
‘‘काम म पचास कर दँू, पर तरक ब?’’ (उतावली से)
‘‘ठहरो, तुम चु बन चुरा लो।’’ ( थैय से)
‘‘चुरा लँ?ू ’’ (आ य से)
‘‘हाँ, चुरा लो।’’ (िन य से)
‘‘चु बन?’’ (कुछ चिकत भाव से)
‘‘चु बन।’’ ( ढ़ता से)
‘‘म!’’ (अचरज से)
‘‘हाँ-हाँ, तुम।’’ ( ढ़ता से)
‘‘सोते या जागते?’’ (िज ासा से)
‘‘जागते, सोते हए चु बन क चोरी यथ है।’’ (समझाकर)
‘‘सो कैसे दादा? यह चोरी-ठगी कैसे?’’ (घबराकर)
‘‘ऐसे िक मौका पा, ब ी बुझा, चुपके से अ धेरे म दबोच लो और बस गड़प...।’’ (संकेत से)
‘‘बाप रे , अ धेरे म? और जो वह िच ला उठे ?’’ (भय से)
‘‘उसने या भाँग खायी है? बोलो, कर सकोगे?’’ (आशा से)
‘‘म?’’ (घबराकर)
‘‘और नह तो या म?’’ ( यं य से)
‘‘हाँ-हाँ, दादा, यह काम तो तु ह कर दो।’’ (अनुरोध से)
‘‘ऐं, म कर दँू?’’ (आ य से)
‘‘हाँ! हाँ! तु हारा गुन मानँग
ू ा। देखो, तु हारे पैर पड़ँ ।’’ (अनुनय से)
‘‘अरे नह , नह , ऐसा नह ।’’ (घबराकर)
‘‘डरो नह दादा, मेरी सरू त बनाकर...।’’ (ग भीरता से)
‘‘पागल, यह भी कह होता है?’’ (लापरवाही से)
‘‘तु ह मेरी कसम, मेरी जान क कसम।’’ (आ ह से)
‘‘पर यह तो अस भव है!’’ (ि थरता से)
‘‘तुम मुझे मरा ही देखो, जो न जाओ।’’ (आ ह से)
‘‘पर यह होगा कैसे?’’ (िच ता से)
‘‘जैसे बने।’’ ( य ता से)
‘‘म जाऊँ?’’ (स देह से)
‘‘हाँ-हाँ भैया, म बड़े संकट म हँ।’’ (अनुनय से)
‘‘और तु हारा प धरकर?’’ (घबराहट से)
‘‘ह-ब-ह, भगवान तु हारा भला करे ।’’ (िवनय से)
‘‘और चु बन चुरा लँ?ू ’’ (कौतहू ल से)
‘‘बेखटके।’’ (उ सुकता से)
‘‘और तुम?’’ (सोचकर)
‘‘म ार पर खड़ा रहँगा।’’ (िवनोद से)
‘‘िफर?’’ (िव मय से)
‘‘िफर जब तुम चुराकर भागोगे–म रोशनी करके उसके सामने आ जाऊँगा।’’ (गव से)
‘‘सामने जाकर या कहोगे?’’ ( यं य से)
‘‘हाँ, यह तुम बताओ, या कहँ?’’ (ग भीरता से)
‘‘कहना, वह म ही था। कहो, कैसा छकाया?’’ (कुिटलता से)
‘‘उसके बाद?’’ (िज ासा से)
‘‘उसके बाद वह वयं एक चु बन क ाथना करे गी।’’ (ग भीरता से)
‘‘अ छा, तब?’’ (घबराकर)
‘‘तब तुम चु बन लेना।’’ (मु कराकर)
(हँसकर)
‘‘यह म बखबू ी कर सकँ ू गा।’’ (गवपण ू स नता से)
‘‘तो म जाऊँ?’’ (संकोच से)
‘‘हाँ-हाँ, सामने ही कमरे म है।’’ (बेिफ से)
‘‘पर भई...।’’ (संक प-िवक प से)
‘‘बस देखो, नखरे मत करो।’’ (उतावली से)
(ब ी गुल, िम का लपकते हए भीतर जाना)
तीसरा य
(यु म)
‘‘हाय-हाय! या वह तुम थे?’’ (अनुराग से)
‘‘हाँ, हम थे।’’ (मख ू ता से)
(आगे बढ़कर)
‘‘सच?’’ (मधुरता से)
‘‘और नह या झठ ू ?’’ (अकड़कर)
(िनकट आकर)
‘‘बड़े बुरे हो।’’ (लालसा-भरे ने से)
‘‘बुरे ही सही।’’ (गव से)
(और सटकर उ मुख होकर)
‘‘बड़े छिलया हो।’’ (हा यपण ू ह ठ से)
‘‘छिलया ही सही।’’ ( त ध भाव से)
(आिलंगन करके)
‘‘ यारे ! अब ऐसा न करना!’’ (कि पत ह ठो से)
‘‘ज़ र करगे।’’ (दबंगता से)
(मुख के अ य त िनकट ह ठ ले जाकर)
‘‘देख भला।’’ (ने ो मीलन)
‘‘देख लेना।’’ ( स नता से फूलकर)
‘‘नह -नह , यारे !’’ (भावावेश म लु होकर)
‘‘हाँ-हाँ, यही मजा है।’’ (हँसकर)
(आँख खोलकर)
‘‘ या िफर वैसा ही करोगे?’’ (िनराश भाव से)
‘‘ज़ र करगे!’’ ( ढ़ता से)
(मुख से मुख िमलाकर)
‘‘करो िफर?’’ (ने ो मीलन)
(अित साधारण प चु बन)
‘‘झठ ू े !’’ ( ोध से)
‘‘स चे!’’ ( यं य से)
‘‘दु !’’ (धकेलकर)
‘‘यह या? यह या?’’ (घबराकर)
‘‘तुम झठ ू े हो।’’ (आपे से बाहर होकर)
‘‘म!’’ (आ य से)
‘‘तुम नामद हो।’’ (घण ृ ा से)
‘‘म?’’ (रोते हए वर म)
‘‘हाँ, तुम...तुम...तुम!’’ (सिपणी क भाँित फुफकारकर)
‘‘मेरा या अपराध था। तु ह ने कहा था।’’ (अनुनय से)
‘‘भागो यहाँ से क ड़े !’’ (ितर कार से)
‘‘इतना ितर कार न करो।’’ (िवनय से)
(पैर छूता है।)
(ठोकर मारकर)
‘‘भागो, भागो, मुदार, क ड़े , भागो!’’ (लानत के वर म)
‘‘मुझे मा करो!’’ (कातर वर म)
‘‘कोई है? इस आदमी को दूर करो।’’ (तेज़ और गव से)
( थान)
चौथा य
(द पित)
‘‘तुम परू े छिलया हो।’’ ( यं य से)
‘‘ यारी, भगवान ने भी बली को छला था और कृ ण ने राधा को।’’ ( यारी से)
‘‘तुम मेरे भगवान और कृ ण हो यारे !’’ (िवभोर होकर)
‘‘केवल उस छल के कारण?” (कौतहू ल से)
‘‘हाँ, वह छल न था, पु ष व था।’’ (ग भीरता से)
‘‘सच? यह म नह जानता था। या चोरी-छल भी पु ष व होता है?’’ (ग भीरता से)
‘‘हाँ, यारे , संसार म कुछ चीज़ माँगकर िमल जाती ह, कुछ मोल पर, कुछ छल-बल और
लटू से िमलती ह। उनका कोई मू य नह होता, न उ ह माँगने वाले क ड़े पा सकते ह–उ ह वे ही
वीर नर पाते ह जो यथाथ म पु ष ह।’’ (ओज से)
‘‘और वे अनोखी व तुएँ या ह?’’ (तीखे ढं ग से)
‘‘रा य और यार।’’ (मु ध भाव से)
“ि ये, मेरा अपराध न था, मेरे िम का अनुरोध था।’’
(हँसकर)
‘‘अपने उस ण ै िम को बधाई दो–वह आ रहा है, वह जनखा।’’
(ती यं य से)
(िम का वेश)
‘‘तुम छिलया हो।’’ ( ोध से)
‘‘ या सचमुच?’’ (हा य से)
‘‘तुम कुिटल हो।’’ (दाँत पीसकर)
‘‘सचमुच।’’ ( यं य से)
‘‘तुम ल पट हो!’’ (उबलते हए)
‘‘नह यार, तुम झठ ू बोलते हो।’’ (लापरवाही से)
‘‘म तु ह मार डालँग ू ा।’’ ( ोध म होकर)
‘‘नह , ऐसा न करना।’’ ( यं य से)
(युवती आगे बढ़ती है।)
‘‘तुम चाहते या हो?’’ (कठोरता से)
‘‘म इसे मार डालँगू ा।’’ (कठोरता से)
‘‘िकसिलए?’’ ( यं य से)
‘‘पीछे तु ह मालमू हो जाएगा।’’ ( यं य से)
‘‘स भव है, पीछे तु ह बोलने का अवसर न िमले।’’
‘‘हाय! या ी जाित ऐसी है?’’ (वेदना से)
‘‘कैसी है?’’ (ताने से)
‘‘तुम मुझे या समझती थ ?’’ ( ोध से)
‘‘मद और मनु य।’’ ( ोध से)
‘‘ या म मद और मनु य नह !’’ (भय से)
‘‘नह , उस िदन मदानगी देखी, आज मनु य व! चलो यारे , इस अभागे को यह
िबलिबलाने दो।’’
( थान)
जार क अ येि