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तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 1 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तमस के पार
लेखक

श्री राजन स्वामी

प्रकाशक

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ


नकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.
www.spjin.org

सवा%धि'कार सुरधि(त
© २०१४, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्ट

पी.डी.एफ. संस्करण – २०१९

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्राक्कथन

'मा%नुरागी सज्जनवृन्द!

सृष्टि= के प्रारम्भ से ही मनीष्टि@यों में यह जानने की


प्रबल जिजज्ञासा रही है ष्टिक मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ,
देह और गेह को छोड़ने के पश्चात् मुझे कहाँ जाना है?
सधिSदानन्द परब्रह्म कौन हैं , कहाँ हैं, कैसे हैं, तथा
उनकी प्राष्टिV का सा'न क्या है?

इन्हीं ष्टिव@यों को केन्द्र में रखते हुए ष्टिवगत कुछ व@[


पूव% लखनऊ में एक आध्यात्मि_मक शिशष्टिवर का आयोजन
ष्टिकया गया था।

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ (सरसावा) से प'ारे हुए श्री


राजन स्वामी जी का इन्हीं ष्टिव@यों पर प्रवचन हुआ था।
प्रवचन का शुभारम्भ 'म% की ष्टिवशद व्याख्या के साथ

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रारम्भ हुआ, जो श्रोताओं के हृदय को छू गया।

यद्यष्टिप उस सम्पूण% काय% क्रम की DVD तथा MP33


उपलब्' थी, तथाष्टिप ऐसा लगा ष्टिक यष्टिद इस प्रवचन को
लिललिखत रूप में भी उपलब्' कराया जाये , तो जन-
सामान्य के लिलए अधि'क उपयोगी हो सकता है।

इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ज्ञानपीठ के


ष्टिवद्याथs कण% जी ने उस प्रवचन श्रृँखला को लिललिखत रूप
में प्रस्तुत ष्टिकया, जो "तमस के पार" नामक ग्रन्थ के रूप
में आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

आशा है, प्रस्तुत ग्रन्थ आपको रुधिचकर लगेगा तथा


आध्यात्मि_मक तथ्यों को अधित सरल रूप में समझाने में
सहायक हो सकेगा।

प्रमादवश हुई भूल-चूक को (मा करते हुए अपने

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवचारों से हमें अवगत कराने का क= करें , जिजससे बाद


के प्रकाशनों को परिरमाजिज% त ष्टिकया जा सके।

आपका शुभाकां(ी

सद्गरु
ु प्रसाद आय%

भूतपूव% आई.ए.एस. (सेवाष्टिनवृत्त)

पूव% सधिचव, भारत सरकार

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

अनुक्रमशिणका
1 'म% का स्वरूप 7
2 अलंकार व्याख्या 69

3 परब्रह्म कहाँ है? 136

4 परब्रह्म का स्वरूप कैसा है? 217


5 परब्रह्म के सा(ा_कार का माग% क्या 280
है?

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रथम अध्याय

'म% का स्वरूप

यो भूतं च भव्यं च सव‚ यश्चाधि'धितष्ठधित।

स्वय% स्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।

अथव% वेद का. १० सू. ८ मं. १

जो कुछ हुआ है, जो कुछ होगा, जो अपनी सत्ता से


सब पर अधि'ष्टिष्ठत है, जो स्वरूप से आनन्दमय है, उस
सधिSदानन्द परब्रह्म को प्रणाम है।

प्राणा'ार सुन्दरसाथ जी एवं 'म% की स्वर्णिणम राह


पर गमन का प्रयास करने वाले 'म% प्रेमी सज्जनों! अब हम
'म% -चचा% करते हैं ष्टिक 'म% क्या है और हम 'म% को क्यों
ग्रहण करें? क्या आज का ष्टिवज्ञान हमें इतनी सुख -
सुष्टिव'ायें नहीं दे सकता ष्टिक हमें 'म% की शरण लेने की

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 7 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आवश्यकता पड़े?

जब हम मत्मिन्दर में देखते हैं तो भीड़, कुम्भ के मेले


में देखते हैं तो भीड़, मत्मिस्जदों में देखते हैं तो भीड़। इसी
प्रकार हम गुरुद्वारों में लाखों लोगों को देखते हैं। जैन
मत, बौद्ध मत के सम्मेलनों में जब लाखों की भीड़ को
देखते हैं, तो प्रश्न होता है ष्टिक क्या ये सभी लोग 'ार्मिमक
हैं? क्या ष्टिकसी कम% काण्ड ष्टिवशे@ को करना ही 'ार्मिमकता
है? कोई यज्ञ होता है , लाखों लोग उसमें इकट्ठे होते हैं।
कहीं चचा% और स_संग होता है , उसमें भी लाखों लोगों
की भीड़ इकट्ठी होती है। सबकी अलग-अलग वेश-भू@ा
है। ष्टिहन्द ू समाज में एक हजार के लगभग मत हैं।

इनकी भी वेश-भू@ा अलग-अलग है। ष्टिक्रधिश्चयन की


अलग वे@-भू@ा है, जैन और अन्य अलग-अलग मत-
मतान्तरों की अलग वेश -भू@ा है। संसार में अधि'कतर

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

लोग दावा करते हैं ष्टिक मैं 'ार्मिमक हूँ , लेष्टिकन "'म% क्या
है"? यह गहन रहस्य है।

व्यास जी ने कहा है ष्टिक मैं दोनों भुजायें उठाकर


कह रहा हूँ ष्टिक 'म% ही सारे ब्रह्माण्ड को 'ारण करने
वाला है, लेष्टिकन मेरी बात को सुनने वाला कोई भी नहीं
है। मैं कहता हूँ ष्टिक "'म% से ही अथ% होता है , 'म% से ही
काम होता है, 'म% से ही मो( होता है ", लेष्टिकन संसार
मेरी पुकार को सुनने के लिलये राजी नहीं है। 'म% की
आवश्यकता क्यों है ? यह गहन ष्टिव@य है। एक बात हमें
ध्यान में रखनी होगी ष्टिक जब सृष्टि= नहीं थी तब भी 'म%
था, और जब सृष्टि= नहीं रहेगी तब भी 'म% होगा। 'म%
ष्टिकसी पूजा-पद्धधित या कम% काण्ड को नहीं कहते हैं।
ष्टिकसी वे@-भू@ा के 'ारण करने से कोई 'ार्मिमक नहीं हो
सकता।

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

'म% की महानता हमें उस समय समझ में आती है ,


जब मानवता ष्टिवनाश की कगार पर पहुँच जाती है।
सामान्य रूप से तो लोग यही सोचते हैं ष्टिक 'म% की क्या
जरूरत है? यह सभी की भूल है। 'म% से रष्टिहत कोई भी
मानव बन ही नहीं सकता , वह पशुता का शिशकार हो
जायेगा।

कल्पना कीजिजए ष्टिक यष्टिद हर व्यष्टिŽ चोरी करने लगे ,


हर व्यष्टिŽ झूठ बोलने लगे , हर व्यष्टिŽ की 'ीरता समाV
हो जाये, तो क्या यह सृष्टि= रहेगी? जब सृष्टि= नहीं थी तब
भी 'म% था, और जब सृष्टि= नहीं रहेगी तब भी 'म% रहेगा।
स_य अनाष्टिद है , परमा_मा अनाष्टिद है , 'म% अनाष्टिद है।
'म% ष्टिकसी पूजा-पाठ को नहीं कहते।

महाभारत का यद्ध
ु होता है। उसमें अट्ठारह
अ(ौष्टिहणी सेना मारी जाती है। अट्ठारह अ(ौष्टिहणी सेना

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

में सैंतालिलस लाख , तेईस हजार, नौ सौ बीस सैष्टिनक


होते हैं, इतने मारे गये। कौरव प( में तीन बचे -
अश्व_थामा, कृपाचाय% , और कृतवमा%। पाण्डव वग% में श्री
कृष्ण बचे और पाँच पाण्डव बचे, शे@ कोई नहीं बचा।
यष्टिद दय
ु ‘'न मान जाता ष्टिक मैं पाँच गाँव दे दँगू ा, तो यह
भयानक यद्ध
ु नहीं होता।

महाभारत का यद्ध
ु क्यों हुआ ? 'म% की मया%दाओं
के उल्लंघन के कारण। सच बात तो यह है ष्टिक भीष्म
ष्टिपतामह ने 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया। यष्टिद भीष्म
ष्टिपतामह 'म% की मया%दा का पालन करते और कह देते
ष्टिक जुआ ष्टिकसी भी कीमत पर नहीं होगा , पाण्डवों को
वनवास नहीं भेजा जायेगा, तथा द्रोपदी का चीर-हरण
नहीं ष्टिकया जायेगा, और वह खड़े हो जाते। उनके साथ
द्रोणाचाय% खड़े हो जाते , ष्टिवदरु जी, कृपाचाय% जी खड़े हो

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

जाते, तो दय
ु ा”'न क्या कर लेता या 'ृतरा=्र क्या कर
लेते? लेष्टिकन सैंतालिलस लाख, तेईस हजार, नौ सौ बीस
प्राशिणयों की ह_या क्यों हुई ? क्योंष्टिक इन सभी महान
पुरु@ों द्वारा 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया गया।

द्रोणाचाय% ने उल्लघंन ष्टिकया। यष्टिद द्रोणाचाय% कह देते


ष्टिक नहीं, द्रोपदी का चीर-हरण ष्टिकसी भी कीमत पर नहीं
होगा। मैं दोनों प(ों का गुरु हूँ , कोई भी व्यष्टिŽ मेरे रहते
जुआ नहीं खेल सकता। यष्टिद कृपाचाय% जी ने भी ऐसा
ष्टिकया होता, तो सम्भवतः यद्ध
ु रुक सकता था।

कहीं न कहीं योगेश्वर श्री कृष्ण जी भी दो@ी थे ,


क्योंष्टिक योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने एक ओर अजु%न का रथ
हाँका, तो दस
ू री ओर दय
ु ‘'न को अपनी नारायणी सेना
दे दी। आलिखर उस अन्यायी को नारायणी सेना देने की
क्या जरूरत थी? यष्टिद अजु%न को अपना योग -ऐश्वय%

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिदखाकर सम्मोष्टिहत ष्टिकया, उपदेश ष्टिदया, तो वहीं


दय
ु ‘'न को भी क्यों नहीं सम्मोष्टिहत कर लिलया? दय
ु ‘'न
को भी क्यों नहीं ष्टिदखाया ? यष्टिद दय
ु ‘'न इतना ही द=ु
था, तो जब भीष्म ष्टिपतामह को मारने के लिलये अपना
चक्र उठा सकते हैं , तो वही चक्र दय
ु ‘'न को मारने के
लिलये क्यों नहीं उठाया? यष्टिद दय
ु ‘'न को उसी ष्टिदन मार
देते, तो शायद महाभारत का यद्ध
ु नहीं होता।

कुन्ती से भी गुनाह हुआ क्योंष्टिक यष्टिद कुन्ती यह


कह देती ष्टिक कण% मेरा बेटा है , तो शायद महाभारत का
यद्ध
ु नहीं होता। अजु%न कण% के चरणों में लिलपट जाते और
ष्टिकसी भी त्मिस्थधित में महाभारत का यद्ध
ु नहीं होता।

हर महापुरु@ से थोड़ी-थोड़ी भूल हो रही है। कुन्ती


से अलग हो रही है, शल्य से अलग हो रही है, कृपाचाय%
से अलग हो रही है, और 'ृतरा=्र से तो हो ही रही है।

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

'ृतरा=्र तो मूल में थे। उनको पुत्र -मोह ने घेर रखा था।
इन ष्टिवशिश= व्यष्टिŽयों द्वारा 'म% की अवहेलना के कारण
लाखों लोगों का संहार हुआ।

इसी तरह से संसार में चलता रहता है। नये -नये


वाद खड़े होते रहते हैं। चाहे माक्स% वाद हो, चाहे
माओवाद हो, अपनी-अपनी ष्टिवचार'ाराओं को फैलाने
के लिलये लाखों का क_ल कराया गया। जिजहाद के नाम
पर आज भी ऐसा ही हो रहा है। सारे संसार में जो
आतंकवाद फैल रहा है, वह 'म% की मया%दा का
अधितक्रमण है। जिजस ष्टिकसी भी व्यष्टिŽ को 'म% के
वास्तष्टिवक स्वरूप का बो' हो जायेगा, वह ष्टिकसी भी
प्राणी को मन, वाणी, और कम% से पीड़ा नहीं देना
चाहेगा।

जहाँ 'म% है, वहाँ सुख और शात्मिन्त है। 'म% के नाम

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

पर लड़ाई नहीं होनी चाष्टिहये। मत के नाम पर लड़ाई हो


सकती है, ष्टिकसी वाद के नाम पर लड़ाई हो सकती है,
ष्टिकन्तु 'म% में प्राणी को मारने या पीड़ा देने का प्रश्न ही
नहीं होता।

हम ष्टिकसी मत्मिन्दर में जाते हैं। वहाँ कोई ष्टिवकृधित


देखते हैं, तो कहते हैं ष्टिक यह 'म% नहीं है , यह अ'म% है।
प्रश्न यह होता है ष्टिक 'ार्मिमक स्थानों में ष्टिवकृधित क्यों
आई? 'ार्मिमक स्थान, जहाँ पूजा-पाठ होते हैं, जहाँ
परमा_मा की आरा'ना होती है, वहाँ ष्टिवकृधितयाँ क्यों
देखने को ष्टिमलती हैं? सच यह है ष्टिक वहाँ कम% काण्ड भर
होता है, 'म% का पालन नहीं होता। 'म% तो 'ारण करने
की वस्तु है।

यतोऽभ्यद
ु यः ष्टिनःश्रेयसः जिसधिद्धः स 'म% ः।

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

वैशेष्टि@क दश% न १/१/२

'म% ष्टिकसको कहते हैं ? जिजससे प्रजा का कल्याण


हो और अन्ततोग_वा मो( की प्राष्टिV हो, उसको कहते हैं
'म% ।

'म% शास्त्र में 'म% के दस ल(ण बताये गये हैं-

१. 'ृधित ('ैय%)

२. (मा

३. दम (इत्मिन्द्रयों का दमन करना)

४. अस्तेय (चोरी न करना)

५. शौच (आन्तरिरक और बाह्य पष्टिवत्रता)

६. इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह

७. शुद्ध बुधिद्ध

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तमस के पार श्री राजन स्वामी

८. ष्टिवद्या

९. स_य (मन, वाणी, और कम% से स_य का आचरण


करना)

१०. क्रो' न करना

'ृधितः (मा दमोऽस्तेयं शौचं इत्मिन्द्रय ष्टिनग्रहः।

'ीः ष्टिवद्या स_यमक्रो'ो दशकं 'म% ल(णम्।।

मनुस्मृधित ६/९२

'म% के ये ल(ण हैं। यष्टिद ष्टिकसी व्यष्टिŽ में ये ल(ण नहीं


हैं, तो वह 'ार्मिमक नहीं है। अब हम इन दसों ल(णों की
व्याख्या करते हैं-

'ैय%

'ैय%शाली ष्टिकसको कहते हैं? सूरज उगता है लाल

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 17 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रंग का, डू बता है तो लाल रंग का। लेष्टिकन कभी ऐसा


नहीं होता ष्टिक उगते समय ष्टिकसी और रंग का है और
डू बते समय ष्टिकसी और रंग का है।

समः शत्रौ च ष्टिमत्रे च तथा मानपमानयोः।

गीता १२/१८

सुख हो, दख
ु हो, लाभ हो, हाष्टिन हो , जय हो,
पराजय हो, सबमें जो एक सम_व भाव को लिलये रहता है,
वह 'ैय%शाली है। मया%दा पुरु@ोत्तम राम को कहा गया ष्टिक
कल आपका राजधितलक ष्टिकया जायेगा, ष्टिकन्तु सवेरा
होने से पहले ही आदेश दे ष्टिदया गया ष्टिक राजधितलक तो
नहीं होगा, आपको चौदह व@[ के लिलये वन जाना पड़ेगा।

जब राजसिंसहासन देने की बात कही गई थी तो राम


का चेहरा लिखललिखलाया नहीं था, और जब वन जाने की

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 18 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बात कही गई थी तो उनके चेहरे पर जरा भी उदासी


नहीं थी। इसको कहते हैं 'ैय%।

सुख और दख
ु का भोŽा हर प्राणी को होना पड़ता
है। जो व्यष्टिŽ सुखों को पाकर उच्छृङ्खल हो जाते हैं , भूल
जाते हैं उस सव% शष्टिŽमान की सत्ता को, वे 'ैय% से रष्टिहत
कहे जाते हैं, और जो दख
ु ों में अ'ीर हो जाते हैं , वे भी
'ैय% से रष्टिहत कहे जाते हैं। 'ीरता का जिजसमें गुण हो, जो
समझ ले ष्टिक ष्टिदन के बाद राष्टित्र और राष्टित्र के बाद ष्टिदन
का चक्र चलता रहता है, उसको कहते हैं 'ैय%वान्।

(मा

आप देलिखये, पृथ्वी पर पैदा होने वाले अन्न को हम


ग्रहण करते हैं, फल को हम ग्रहण करते हैं और बदले में
हम क्या देते हैं? मल-मूत्र। पृथ्वी ष्टिकतनी (माशील है,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 19 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वृ( ष्टिकतना (माशील है। एक मनुष्य को आप अपशब्द


कह दीजिजये, जिजन्दगी भर याद रखेगा, और वृ( पर हम
प_थर मारते हैं, बदले में वह हमें क्या देता है मीठा फल।
यह (माशीलता मनुष्य को 'ार्मिमक बनाती है। जिजसके
पास (मा का गुण नहीं है , वह कभी भी महान नहीं हो
सकता।

सव% शष्टिŽमान परमा_मा ष्टिकतना (माशील है। व@ा% हो


गई, लाभ हो गया, तो ष्टिकसान कहेगा, ष्टिकतना अच्छा है
परमा_मा। यष्टिद नुकसान हो गया , तो जली-कटी
सुनायेगा, कैसा है परमा_मा, हमारी फसल बबा%द कर
दी। वह परमा_मा सव% शष्टिŽमान है, लेष्टिकन एक भी शब्द
नहीं बोलता ष्टिक मेरे बन्दे ! तू मेरी कृपा से जिजन्दा है और
मुझको ही अपशब्द बोल रहा है, मैं तुम्हारा नाश कर
दँगू ा। पर नहीं, वह दया का सागर है, (मा का सागर है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 20 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जिजस मनुष्य में (मा का गुण है, वही 'ार्मिमक कहलाने का


अधि'कारी है।

दमन

संसार में इत्मिन्द्रयों की उच्छृङ्खलता सारे क=ों का


कारण है। एक व्यष्टिŽ है जो अपनी इत्मिन्द्रयों पर ष्टिनयन्त्रण
नहीं रखता, तो परिरणाम क्या होता है? बहुत अधि'क
दौलत जोड़ता है। पड़ोसी भूखा मर रहा है और उसके
यहाँ छप्पन प्रकार का भोजन बन रहा है, ष्टिफर भी
उसकी तृष्णायें शान्त नहीं हो रही हैं। हम इन आँ खों से
सुन्दर रूप देखकर मोष्टिहत हो रहे हैं। कानों से म'ुर
आवाज सुनकर मोष्टिहत हो रहे हैं। नाजिसका से सुगत्मिन्'
लेकर मोष्टिहत हो रहे हैं। _वचा से कोमल स्पश% पाकर
मोष्टिहत हो रहे हैं। जिजह्वा से @ट् रसों का सेवन करके
मोष्टिहत हो रहे हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 21 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हम सोच रहे हैं ष्टिक हम 'ार्मिमक हैं। ऐसा नहीं है।


हमने तो अपने को काल के गाल में डाल रखा है। मछली
जिजह्वा के वशीभूत होकर अपने जीवन को गवाँ देती है।
हाथी हशिथनी के स्पश% को पाने के लिलये पागल हो जाता
है। हाथी को पकड़ने के लिलये शिशकारी क्या करते हैं?
गड्ढा खोद देते हैं, काले रंग के कागज से एक हशिथनी बना
देते हैं। दरू से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे वहाँ हशिथनी
ही खड़ी है। हाथी उसका आलिंलगन करने के लिलये जाता
है, गड्ढे में ष्टिगर जाता है और शिशकारिरयों के हाथ में अपने
आपको सौंप देता है। यह है स्पश% के वशीभूत होने का
फल।

ष्टिहरण कान के वशीभूत हो जाता है। जब शिशकारी


म'ुर आवाज बजाता है, तो ष्टिहरण अपनी सु'-बु' खो
देता है और पकड़ा जाता है। पतङ्ग रूप पर मारा जाता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 22 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। जहाँ दीपक जला नहीं, अपना सब कुछ छोड़कर उस


पर कूद पड़ता है। एक-एक इत्मिन्द्रय के वशीभूत होने से
ये प्राणी काल के गाल में समा जाते हैं या बन्'न में पड़
जाते हैं। मनुष्य तो पाँचों इत्मिन्द्रयों से पाँचों इत्मिन्द्रयों का
भोग कर रहा है। उपष्टिन@द् में कहा है-

परांधिच खाष्टिन व्यतृण_स्वयम्भूस्तस्मा_पराङ् पश्यधित नान्तरा_मन्।

कधिश्चद्धीरः प्र_यगा_मानयै(दावृत्तच(ुरमृत_वष्टिमच्छन्।।

कठोपष्टिन@द् ४/१

परमा_मा ने पाँच इत्मिन्द्रयाँ बनाई हैं। कोई 'ैय%शाली


पुरु@ ही इन इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@यों की तरफ नहीं भटकता।
अमृत की इच्छा करने वाला कोई 'ीर पुरु@ ही अपने
अन्दर उस शाश्वत स_य को पाना चाहता है। वह बाहर
नहीं भागता , इन पाँच ष्टिव@यों के पीछे । जिजसने इनका

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 23 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

दमन कर लिलया, ष्टिक नहीं ये सब (शिणक है , वही


'ैय%शाली है।

आग में घी डालना शुरु कर दीजिजये या एक चम्मच


पेट्रोल लेकर डालना शुरु कर दीजिजये , आग बुझेगी नहीं?
और बढ़ जाएगी। जिजतना हम भोगते जायेंगे , उतनी ही
तृष्णा बढ़ती जायेगी।

माँस खाने वालों से पूशिछये। एक व्यष्टिŽ मरने लगा,


उसने जिजन्दगी भर माँस खाया था। उससे पूछा, अब
तुम्हारी क्या इच्छा है? उसने कहा, अब तो मैं मरने ही
वाला हूँ, मुझे माँस लिखला दीजिजये। जिजन्दगी भर माँस
खाते रष्टिहये, कभी भी इच्छा पूरी नहीं हो सकती, और
यही तृष्णा चौरासी लाख योष्टिनयों के रूप में दःु ख का
कारण बनती है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 24 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

यष्टिद आपमें इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@यों का दमन करने की


प्रवलित्त नहीं है , तो आप 'ार्मिमक कहलाने के अधि'कारी
नही हैं। चाहे आपकी वेश-भू@ा कैसी हो, चाहे आपने
भगवे वस्त्र 'ारण कर रखे हों, ष्टिवशिभन्न प्रकार के धितलक
लगा रखे हों, मालायें 'ारण कर रखी हों , पूजा-पाठ
करते हों, ग्रन्थों का ज्ञान रखते हों, ये सब कुछ बाह्य
चीजें हो जायेंगी। 'म% के स्वरूप को कोई ष्टिवरला ही
जानता है। 'म% ग्रन्थों का कथन है-

'म% स्य त_वं ष्टिनष्टिहतं गुहायाम्। महाभारत (भीष्म पव% )

'म% का परमत_व गुहा में त्मिस्थत है। गुहा क्या है ?


जिजसमें ब्रह्म का सा(ा_कार होता है। आपने पौराशिणक
रूप से भगवान शिशव का फोटो देखा होगा। भगवान शिशव
को ष्टिकस पर बैठाया गया है? बैल पर। बैल क्या है? 'म%
का प्रतीक है। बैल के चार पैर होते हैं। चार चरणों वाला

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 25 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बैल है और उसके ऊपर भगवान शिशव की सवारी बताई


गई है। शिशव क्या है? कल्याण स्वरूप परमा_मा ही शिशव
है। उनका डमरू और ष्टित्रशूल क्या है ? उनका ष्टित्रशूल
स_व, रज, और तम की ष्टित्रगुणात्मि_मका प्रकृधित है , और
ष्टित्रशूल से बन्'ा हुआ डमरू है जिजससे आवाज ष्टिनकलती
है। पौराशिणक मान्यता है ष्टिक भगवान शिशव के डमरू से
अ=ाध्यायी के चौदह सूत्र ष्टिनकले , जिजससे सारा व्याकरण
बना है। याष्टिन प्रकृधित से पैदा होने वाले इस महत्त_व से
सारा संसार पैदा हुआ है, सारा ज्ञान-ष्टिवज्ञान उससे
ष्टिनकलता है।

यह आलंकारिरक वण% न है। ऐसा न समजिझए ष्टिक आप


तो कारों में घूमते हैं और आपने परमा_मा को बैठा ष्टिदया
एक बैल पर। आज कोई व्यष्टिŽ बैल पर बैठकर घूमे , तो
सब लोग क्या समझेंगे? कोई वनवासी, अनपढ़ आदमी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 26 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

घूम रहा है। परमा_मा बैल पर नहीं बैठता। वह तो 'म%


रूपी बैल पर ष्टिवराजमान है। उसके चार चरण हैं-

श्रुधितः स्मृधितः सदाचारः स्वस्य च ष्टिप्रया_मनः।

एतद् चतुर्मिव'ं प्राहुः सा(ाद् 'म% स्य ल(णम्।।

मनुस्मृधित २/१२

श्रुधित का कथन हो , स्मृधित अथा%त् 'म% शास्त्र का


कथन हो, सदाचार हो, और अन्तरा_मा की आवाज। इन
चारों से परी(ा की जाती है ष्टिक 'म% क्या है।

अ'म% क्या है ? अभी 'म% के दस ल(णों की


व्याख्या चल रही है।

अस्तेय

अस्तेय का अथ% है चोरी न करना। कोई भी सरकार


आती है, तो क्या कहती है ष्टिक हम गरीबी ष्टिमटायेंगे , हम
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 27 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

गरीबी ष्टिमटायेंगे। गरीबी क्यों नहीं ष्टिमटा पाते। इसलिलये


क्योंष्टिक ष्टिमटाने वाला और जिजसकी गरीबी ष्टिमटाने की
बात की जाती है, ये दोनों ही चोर हैं। चाहे अधि'कारी हो,
चाहे नेता हो, चाहे सा'ारण सब्जी बेचने वाला हो, द'

बेचने वाला हो, रिरक्शा चलाने वाला हो, सभी चोरी
करते हैं। योगदश% न का कथन है-

अस्तेयप्रधितष्ठायां सव% र_नोपस्थानम्।

योग दश% न २/३९

यष्टिद मनुष्य चोरी के कम[ का परिर_याग कर दे , तो


सभी र_नों की प्राष्टिV उसको स्वतः ही हो जायेगी। भारत,
पाष्टिकस्तान, और इण्डोनेशिशया का नाम दष्टिु नया के सबसे
भ्र= देशों में आता है। जिजस ष्टिदन इन देशों के लोग चोरी
करना बन्द कर देंगे, उस ष्टिदन इन देशों में कोई भी व्यष्टिŽ

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 28 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गरीब नहीं रहेगा। भारतीय संस्कृधित क्या कहती है?

मातृवत् परदारे@ु परद्रव्ये@ु लोष्ठवत्।

आ_मवत् सव% भूते@ु यः पश्यधित सः पत्मिण्डतः।।

जो परस्त्री को माता के समान देखता है और दस


ू रे
के 'न को ष्टिमट्टी के समान समझता है, ष्टिनधिश्चत रूप से
वही 'ार्मिमक कहलाता है।

शौच

शौच का अशिभप्राय है आन्तरिरक और बाह्य


पष्टिवत्रता। आप शरीर को खूब नहला लीजिजये। यष्टिद मन
पष्टिवत्र नहीं है , तो इसे नहलाने से क्या लाभ? सांई
बुल्लेशाह ने एक बहुत अच्छा पद गाया है-

मक्का गये गल मुष्टिŽ नाहीं, जो सौ-सौ जुम्मे पढ़ आइये।

गंगा गये गल मुष्टिŽ नाहीं, जो सौ-सौ डु बकी लगाइये।


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 29 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

गया गये गल मुष्टिŽ नाहीं, जो सौ-सौ ष्टिपण्ड चढ़ाइये।।

यष्टिद आपका हृदय पष्टिवत्र नहीं है , तो आप मक्का में


जाकर नमाज भी पढ़ लेंगे, तो क्या होगा? गंगा में जाकर
स्नान भी कर लेंगे, तो क्या ष्टिमलेगा? शरीर को शुद्ध कर
सकते हैं, हृदय को नहीं। 'म% शास्त्र में कहा गया है-

अष्टि-गा%त्राशिण शुद्धयत्मिन्त, मनः स_येन शुद्धयधित।

ष्टिवद्यातपोभ्यां भूता_मा, बुधिद्धज्ञा%नेन शुद्धयधित।।

मनुस्मृधित ५/१०६

जल से शरीर शुद्ध होता है। स_य का आचरण करने


से मन शुद्ध होता है। ष्टिवद्या और तप से जीव ष्टिनम% ल होता
है, और ज्ञान द्वारा बुधिद्ध शुद्ध होती है।

यष्टिद आपके अन्तःकरण में परमा_मा का ज्ञान नहीं


है, तो आप नष्टिदयों में स्नान करते ष्टिफरिरये , कभी भी मो(

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 30 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

की प्राष्टिV होने वाली नहीं है। एक धितशिथ घोष्टि@त कर दी


जाती है ष्टिक इस ष्टिदन जो नहा लेगा, सी'े मो( को प्राV
होगा।

यष्टिद स्नान मात्र से मो( प्राV हो जाये , तो वेद-


शास्त्र के अवतरण की क्या आवश्यकता है? ष्टिफर पढ़ने-
लिलखने की क्या जरूरत है? आँ खें बन्द कर ध्यान -
समाधि' लगाने की क्या जरूरत है ? और यष्टिद इसी से
मुष्टिŽ ष्टिमलती है , तो ष्टिफर उसमें रहने वाले सीपों ,
मछलिलयों, घोंघों सबको मुष्टिŽ ष्टिमल जानी चाष्टिहए। ष्टिफर
तो ऋष्टि@-मुष्टिन पागल थे। इस त्मिस्थधित में तो ऋष्टि@ -
मुष्टिनयों की साथ% कता ही नहीं होती। वस्तुतः यह ष्टिवकृधित
है, 'म% नहीं। ज्ञान रूपी गंगा में स्नान ष्टिकये ष्टिबना ष्टिकसी
को भी मुष्टिŽ ष्टिमलने वाली नही है।

ऋते ज्ञानात् न मुष्टिŽः।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 31 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, सा(ा_कार नहीं


होता, तब तक कोई भी भवसागर से पार नहीं हो
सकता, यह वेदान्त का स्प= कथन है। संसार के सभी
'म% ग्रन्थों का आशय यह है ष्टिक 'म% का अत्मिन्तम लक्ष्य है
हृदय की पष्टिवत्रता। जब तक हृदय को पष्टिवत्र नहीं बना
सकते, तब तक ष्टिप्रयतम परब्रह्म आपके हृदय सिंसहासन
पर कभी भी ष्टिवराजमान नहीं हो सकते , चाहे आप ष्टिकतने
भी कम% काण्ड करते रष्टिहये। चाहे आप सौ-सौ मालायें
फेरते रष्टिहए।

सौ माला वाओ गले में, द्वादस करो दस बेर।

जो लों प्रेम न उपजे ष्टिपउ सों, तो लों मन न छोड़े फेर।।

श्री प्राणनाथ वाणी - ष्टिकरन्तन १४/५

सारे संसार में यही चल रहा है। 'ार्मिमक स्थानों पर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 32 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लाखों लोगों की भीड़ ष्टिदखाई देती है , लेष्टिकन सच यह है


ष्टिक क्या उन्होंने ष्टिदल को पष्टिवत्रता के उस चरम पर
पहुँचाया है, जिजस पर परब्रह्म का सिंसहासन बन सके?

यष्टिद आपके हृदय में काम, क्रो', लोभ, मोह, मद,


अहंकार की अष्टि° जल रही है , तो उस कीचड़ में परब्रह्म
के चरण-कमल नहीं पड़ेंगे और यही 'म% का पाँचवा
ल(ण है- शौच अथा%त् आन्तरिरक पष्टिवत्रता।

बारह साल पहले जब कुम्भ लगा था, उसमें यही


हुआ था। गंगा में नहाने के नाम पर नागा महा_माओं में
और पुलिलस में झड़प हो गई थी। पुलिलस वालों ने उन
नागाओं को गोली मारी और उन नागाओं ने पुलिलसवालों
को मार-मारकर गंगा में फेक ष्टिदया था। यह क्या है ?
क्या इसी को 'म% कहते हैं ? आप एक ष्टिदन के बाद भी
तो नहा सकते हैं। लेष्टिकन नहीं, हमें अभी नहाना है। क्या

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 33 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

यह हमारा 'म% कहता है? यह 'म% नहीं कहता, यह मत


कहता है और इसे मनोष्टिवकृधित कहते हैं। यह 'म% का
आदेश नहीं है।

तीथ% ष्टिकसे कहते हैं?

जनाः यैः तरत्मिन्त ताष्टिन तीथा%ष्टिन।

मनुष्य जिजन शुभ कम[ द्वारा भवसागर से पार होता


है, उसको तीथ% कहते हैं। स_य बोलना तीथ% है , तप
करना तीथ% है , स्वाध्याय करना तीथ% है , परमा_मा का
ध्यान करना तीथ% है। आप ष्टिकसी जल में स्नान करने
मात्र को, ष्टिकसी पव% त की परिरक्रमा करने मात्र को, तीथ%
मान लेते हैं, वही सबसे बड़ी भूल है।

इत्मिन्द्रयों का ष्टिनग्रह

शम और दम दोनों अलग-अलग हैं, लेष्टिकन दोनों

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 34 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

एक-दस
ू रे के पूरक हैं। एक व्यष्टिŽ ने ष्टिनण% य ष्टिकया ष्टिक
मुझे ष्टिमठाई नहीं खानी है। उस व्यष्टिŽ ने उस ष्टिमठाई को
कमरे में रख ष्टिदया। दस
ू रे कमरे में बैठा हुआ वह सोच
रहा है ष्टिक उस कमरे में मेरी ष्टिमठाई रखी है , उसे खाऊँ
या न खाऊँ? मैंने तो सबको कह ष्टिदया है ष्टिक मुझे ष्टिमठाई
नहीं खानी है। रात-ष्टिदन उसी के बारे में सोचता रहता
है। परिरणाम क्या होगा? देखेगा ष्टिक जब मकान में कोई
नहीं है, तो शिछपकर खा लेगा, ष्टिफर सबको कह देगा ष्टिक
मैं तो ष्टिमठाई नहीं खाता हूँ।

क्रो' को दबायेंगे, तो दबा हुआ क्रो' एक ष्टिदन


ज्वालामुखी बनकर भड़केगा और फूटेगा, वैसे ही जैसे
पृथ्वी के अन्दर दबी हुई अष्टि° जब ज्वालामुखी का रूप
लेती है तो न जाने ष्टिकतनों को समाV कर देती है। वैसे
ही दबी हुई वासनायें जब उभरती हैं , तो उनका रूप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 35 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बहुत भयानक होता है।

नीधितकारों का कथन है ष्टिक वासनाओं को दबाइये


नहीं। दमन नहीं शमन कीजिजए। इसको कहते हैं इत्मिन्द्रय-
ष्टिनग्रह। यह कैसे होगा? ष्टिववेक और ष्टिवचार से। मनीष्टि@यों
का एक ही कथन है ष्टिक काम का दमन नहीं करो , काम
का शमन करो। काम कहाँ से पैदा होता है, उस पर
ध्यान दीजिजए।

कामस्य बीजः संकल्पः सङ्कल्पादेव जायते।

काम का बीज क्या है? संकल्प। मनुष्य अपने


संकल्पों का बना होता है। जिजसका हृदय अधितशय पष्टिवत्र
है, उसके मन में दर्मिु वचार आते ही नहीं और वह ष्टिकसी
भी ष्टिवकार से ग्रजिसत नहीं हो सकता।

आपने ष्टिमठाई को रखा है। दस


ू रे कमरे में बैठे हैं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 36 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और आपकी ष्टिववेक-शष्टिŽ जाग्रत हो गई ष्टिक इसमें क्या


है? इसमें थोड़ा सा घी पड़ा है , शक्कर पड़ी है, थोड़े से
कुछ और स्वाष्टिद= पदाथ% ष्टिमले हैं, यही तो है। (ण भर के
स्वाद के पीछे मैं अपना व्रत भंग क्यों करूँ ? आपने
ष्टिववेक-शष्टिŽ से अपने ष्टिवचारों को इतना शुद्ध कर लिलया
है ष्टिक आपके सामने ष्टिमठाइयों का ढेर लगा है , लेष्टिकन
आप जिजह्वा पर नहीं रख सकते।

एक हलवाई को देलिखये। वह ष्टिदन भर ष्टिमठाइयों को


बनाता है लेष्टिकन उसकी जिजह्वा ललचाती नहीं है , क्योंष्टिक
उसने ष्टिववेक शष्टिŽ से जान लिलया है ष्टिक इसको बनाते -
बनाते तो मेरी पूरी जिजन्दगी गुजर गई। इससे कभी भी
तृष्णा की पूर्तित होने वाली नहीं है। मनुष्य के साथ यही
भूल होती है। वह सोचता है ष्टिक आज खाकर देख लेता
हूँ, कल नहीं खाऊँगा। कल ष्टिफर सोचता है ष्टिक आज

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 37 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

एक बार और खाकर देख लूँ। परसों ष्टिफर सोचता है ,


आज एक बार ष्टिफर खाकर देख लूँ। यह बेचारा "एक
बार" कभी समाV नहीं हो पाता , क्योंष्टिक वह इत्मिन्द्रय-
ष्टिनग्रह नहीं कर पाता।

इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? मन से।

मन का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? धिचत्त से।

धिचत्त का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? बुधिद्ध से।

बुधिद्ध का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? ज्ञान के प्रकाश से


और ष्टिववेक की शष्टिŽ से।

यष्टिद आपके अन्दर ज्ञान का प्रकाश है , तो बुधिद्ध


धिचत्त से कहेगी ष्टिक हे धिचत्त! तू अच्छे संस्कारों वाला बन।
धिचत्त के बुरे संस्कार अपने आप दब जाएं गे और जैसे
धिचत्त के संस्कार होंगे वैसे ही मन के ष्टिवचार होंगे और मन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 38 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तो इत्मिन्द्रयों का राजा है। जिजसने मन को जीत लिलया ,


उसने इत्मिन्द्रयों को जीत लिलया। ष्टिफर उसको पता ही नहीं
रहता ष्टिक मैं कहाँ हूँ। इसको एक छोटे से दृ=ान्त से
समझाना चाहूँगा, जिजससे स्प= हो जायेगा ष्टिक मन की
पष्टिवत्रता क्या कुछ कराती है। पौराशिणक मान्यता है-

एक बार अजु%न को स्वग% में ले जाया गया। वहाँ


उव% शी ने बहुत अच्छा नृ_य ष्टिकया। राष्टित्र को उव% शी
अजु%न के पास आती है, प्रणय ष्टिनवेदन करती है। अजु%न
कहते हैं ष्टिक हे माता! आपके चरणों में मेरा कोष्टिट -कोष्टिट
प्रणाम है। उव% शी को क्रो' आ गया और कहा ष्टिक अजु%न !
मैं तुमसे प्रणय ष्टिनवेदन करने आई हूँ और तुम मुझे माता
कह रहे हो। अजु%न कहता है ष्टिक हाँ माता ! आप हमारे
कुरुवन्श की माता हैं, इसलिलये मेरी माता हैं। अजु%न से
उव% शी पूछती हैं ष्टिक जब मैं नृ_य कर रही थी , तब तो तू

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 39 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मुझे गौर से देख रहा था। अजु%न बोला ष्टिक माते ! मैं यह
देख रहा था ष्टिक यष्टिद माता कुन्ती भी आपकी तरह
सुन्दर होती, तो मैं भी सुन्दर होता। मैं तो उसी रूप में
आपको देख रहा था। यह है मन की पष्टिवत्रता। यष्टिद
हमारा मन पष्टिवत्र है, तो हम पूण%तया पष्टिवत्र हैं।

आपने अपने मन को जीत लिलया, तो इत्मिन्द्रयों को


जीतने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। एक महा_मा
जी गुजर रहे थे। उन्होंने रास्ते में देखा ष्टिक हलवाई
जलेष्टिबयाँ तल रहा है। मन को काफी मना ष्टिकया ष्टिक रे
मन! तू मत ललचा, लेष्टिकन मन नहीं माना। अन्त में ,
उन्होंने टोकरी में मुँह डाल ष्टिदया। हाथ से भी जलेष्टिबयाँ
नहीं उठाई, बत्मिल्क सी'े अपने मुँह को उस टोकरी में
डाल ष्टिदया। हलवाई को गुस्सा चढ़ा, उसने जो जलेबी
तलने वाला कलछा होता है, उससे महा_मा जी को बहुत

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 40 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मारा। सब लोग कहने लगे ष्टिक भाई! ये ष्टिवरŽ महा_मा


ष्टिदख रहे हैं, तुम्हें इतनी ष्टिनद% यता से नहीं पीटना चाष्टिहये।

महा_मा जी बोले- नहीं-नहीं! हलवाई जी ने तो


बहुत अच्छा ष्टिकया। मुझे जंगल में सा'ना करते -करते
इतने साल हो गये। ष्टिफर भी मेरा मन इस जलेबी के लिलये
इतना पागल हो रहा था। मैंने तो जानबूझकर अपने मुँह
को इस टोकरी में डाला , ताष्टिक इस मन को अपनी
करनी की सजा ष्टिमल जाये।

कल्पना कीजिजये ष्टिक धिचत्त में संस्कार भरा है ष्टिक


जलेबी खाने को ष्टिमलनी चाष्टिहए और वह संस्कार जब
प्रबल हो गया, तो मन के अन्दर वह आग भड़क उठी,
अब जिजह्वा बेचारी क्या करे? यष्टिद मन पर ष्टिववेक -शष्टिŽ
का ष्टिनयन्त्रण है, धिचत्त के अच्छे संस्कार काय% कर रहे हैं ,
तो आप हलवाई के पास ष्टिदन-रात बैठे रष्टिहये, आपके

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 41 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हाथों में जलेबी का टोकरा होगा , ष्टिफर भी आप अपनी


जिजह्वा पर जलेबी नहीं रख सकते। यह है 'म% का ल(ण
इत्मिन्द्रय ष्टिनग्रह।

बुधिद्ध

बुधिद्ध क्या है? संसार में मनुष्य और पशु की वृलित्त में


क्या अन्तर है? पशु भी खाता-पीता और सोता है,
मनुष्य भी खाता-पीता और सोता है। मनुष्य की यही
ष्टिवशे@ता है ष्टिक वह ष्टिववेकपूव%क ष्टिवचार कर सकता है।
मनुष्य यह जान सकता है ष्टिक मैं कौन हूँ ? क्योंष्टिक जब
मनुष्य जन्म लेता है, आँ खें खोलता है , कुछ बड़ा होता
है, ष्टिववेक-शष्टिŽ जाग्रत होती है , तो उसके मन में प्रश्न
होते हैं-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 42 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कुतः आगतोऽत्मिस्म। ष्टिववेक चूड़ामशिण ५१

अथा%त् मैं कहाँ से आया हूँ?

कुत्र गष्टिमष्याष्टिम।

अथा%त् कहाँ जाऊँगा?

को नाम बन्'ः।

मेरे लिलए बन्'न कहाँ से हो गया ष्टिक मैं माता के गभ%


में इतने समय तक पड़ा रहा। न जाने ष्टिकतने जन्मों में मैं
ष्टिकस-ष्टिकस योष्टिन में भटका हूँ ? कभी गाय बना, कभी
बैल बना, कभी हाथी बना, कभी बन्दर बना। मनुष्य
योष्टिन में कभी राजा बना, कभी कँगाल बना, कभी पुरु@
बना, तो कभी स्त्री बना।

आलिखर मैं कौन हूँ ? यह ष्टिवचार पशु-प(ी नहीं


करेंगे, पेड़-पौ'े नहीं करेंगे। यह बुधिद्ध की ष्टिवशे@ता है

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 43 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और बुधिद्ध में भी जिजसकी स_य को ग्रहण करने वाली बुधिद्ध


नहीं है, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक आप 'म% की राह पर नहीं चल
सकते हैं।

जानाष्टिम 'म‚ न चमे प्रवृलित्तः, जानाम्य'म‚ न चमे ष्टिनवृलित्तः।

संस्कार मात्रेण हृष्टिद त्मिस्थतेन, यथा ष्टिनयŽ


ु ोऽत्मिस्म तथा करोष्टिम।।

महाभारत

दय
ु ‘'न कहता है ष्टिक मैं जानता हूँ ष्टिक 'म% ष्टिकसको
कहते हैं और मैं यह भी जानता हूँ ष्टिक अ'म% ष्टिकसको
कहते हैं, लेष्टिकन जब मैं 'म% का आचरण करने का
प्रयास करता हूँ तो मेरी बुधिद्ध उसमें मेरी सहायता नहीं
कर पाती। मेरा मन इतना ष्टिवकृत हो जाता है ष्टिक मैं
चाहकर भी 'म% का आचरण नहीं कर पाता हूँ।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 44 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

एक माँसाहारी से पूशिछए, एक भोग-ष्टिवलास में डू बे


हुए व्यष्टिŽ से पूशिछए , अफीम खाने वाले से पूशिछए ष्टिक
भाई! तू अफीम क्यों खाता है ? कहेगा ष्टिक बहुत बुरी है।
ष्टिफर क्यों खाते हो? तो कहेगा ष्टिक भाई मैं क्या करूँ, मेरे
वश में नहीं है। इसका कारण क्या है ? उसके धिचत्त से
उसकी बुधिद्ध का ष्टिनयन्त्रण हट चुका है। धिचत्त से ष्टिनयन्त्रण
हटते ही मन ष्टिव@यों के अ'ीन हो जाता है और इत्मिन्द्रयाँ
उसका रसपान कर लेती हैं। यही तृष्णा ८४ लाख योष्टिन
में उसको भटकाती रहती है। यह है बुधिद्ध।

ष्टिवद्या

ष्टिवद्या का अशिभप्राय क्या है? आज भारतव@% में ,


गाँव-गाँव में जाइये , मोहल्ले-मोहल्ले में जाइये , तो देखेंगे
ष्टिक हर जगह मत्मिन्दर खड़े हैं , लेष्टिकन ब्रह्मष्टिवद्या के ज्ञान
का प्रसार कहीं नहीं है। कहीं-कहीं लगभग पाँच प्रधितशत

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 45 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ही है। आलिलशान मत्मिन्दर बना है, भŽगण जाएँ गे प्रसाद


चढ़ाएँ गे, उनकी भष्टिŽ पूरी हो गई। भष्टिŽ भी क्या ?
सौदेबाजी। यष्टिद मैंने पचास रुपये की ष्टिमठाई दी है , तो
भगवान को मेरा यह काम करना होगा। यष्टिद नहीं करेंगे ,
तो अगली बार से मैं यह चढ़ाना बन्द कर दँगू ा। यह भष्टिŽ
क्या हुई?

जैसे आष्टिफस में जाकर घूस देते हैं, वैसे ही भगवान


के मत्मिन्दर को भी घूस का स्थान बना रखा है। हमें पाप
करने में डर नहीं लगता , सोचते हैं ष्टिक गंगा स्नान कर
आएँ गे, सारे पाप कट जाएँ गे। यह 'म% का ल(ण नहीं है।

एक बार नारद जी ने देखा ष्टिक गंगा के ष्टिकनारे इतनी


भीड़ लग रही है, क्या होगा? आलिखर बेचारी गंगा इतने
लोगों का पाप कहाँ से 'ोएगी ? इस कलिलयगु में लोग
शराबी हैं, माँसाहारी हैं, दस
ू रे का 'न हरण करते हैं,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 46 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चोरी करते हैं, और ये बेचारी गंगा सबके पाप 'ोते-'ोते


तो खद
ु गन्दगी से भर जाएगी। भागे -भागे गये, गंगा के
पास पहुँचे, पूछा- गंगे! इतने लोगों का पाप तुम 'ो लेती
हो। बताओ इन लोगों का क्या होगा? ये लोग तो शुद्ध हो
जायेंगे और सारा पाप तुम्हारे ऊपर आ जायेगा। गंगा
कहती है ष्टिक मैं अपने पास क्यों रखँू, मैं समुद्र में जाती हूँ
और सारा पाप समुद्र को दे आती हूँ।

नारद जी ष्टिफर दौड़कर गये समुद्र के पास। बोले हे


समुद्र! तुम इन पापों का क्या करते हो? लोग अपने पाप
गंगा में 'ोते हैं , तो वे सारे पाप गंगा तुमको दे देती है।
समुद्र बोला ष्टिक मैं क्यों रखँू अपने पास ? जब सूरज
उगता है, तो उसकी गमs से मेरा पानी भाप बनकर
बादलों के रूप में पहुँच जाता है। ये सारे पाप वहीं पहुँच
जाते हैं। ष्टिफर नारद जी बादलों के पास गये और बोले

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 47 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक तुम क्या करते हो उन पाप का? बादलों ने कहा ष्टिक


मैं अपने पास क्यों रखँू? जिजसके पाप जहाँ से आते हैं, वे
ष्टिफर बरसकर वापस उसी के पास चले जाते हैं।

इसलिलये गंगा नहाने से यष्टिद पाप ष्टिमट जाये , तो तप,


_याग, ज्ञान, सा'ना, एवं 'म% ग्रन्थों का मह_व समाV हो
जाये और सारी सृष्टि= की मया%दा समाV हो जाएगी। यह
ष्टिहन्द ू समाज की भूल है जो यह सोचे बैठा है ष्टिक अमुक
धितशिथ को गंगा में स्नान कर लेंगे, तो ष्टिनश्चय ही हमारे पाप
कट जाएँ गे। ऐसा नहीं है। ब्रह्मज्ञान की अमृत'ारा में
स्नान ष्टिकये ष्टिबना कोई भी व्यष्टिŽ 'ार्मिमक कहलाने का
अधि'कारी नहीं हो सकता, चाहे वह ष्टिदन-रात जाड़े में
ठण्डे पानी में क्यों न डू बा रहे।

अष्टिवद्या के बारे में एक बात और कहना चाहूँगा।


आज ष्टिहन्द ू समाज में लगभग सत्तर लाख महा_मा हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 48 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

इनको तो ज्ञान का संवाहक होना चाष्टिहये। लेष्टिकन इनके


पास स्वयं ब्रह्मष्टिवद्या नहीं है। हर प्राणी , हर मानव
ब्रह्मष्टिवद्या से यŽ
ु हो, स_य-अस_य का ष्टिनण% य करे। इसी
में सबका कल्याण है। ष्टिवद्या ष्टिकसको कहते हैं ? जड़ को
जड़ समझना और चेतन को चेतन समझना, अष्टिन_य को
ष्टिन_य न मानना या ष्टिन_य को अष्टिन_य न मानना, सुख को
दख
ु न मानना और दख
ु को सुख न मानना, यह ष्टिववेक
ही ष्टिवद्या कहलाता है।

अष्टिन_याशुधिचदःु खाना_मसु ष्टिन_यशुधिचसुखा_म ख्याधितरष्टिवद्या।

योगदश% न

अष्टिन_य में ष्टिन_य की भावना करना, जड़ में चेतन


की भावना करना, और सुख में दख
ु की भावना करना
अष्टिवद्या है, और जो इससे मुŽ हो गया, वह ष्टिवद्या का

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 49 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अधि'कारी है। ष्टिवद्या ष्टिकसको कहते हैं?

सा ष्टिवद्या या ष्टिवमुŽये।

ष्टिवद्या वह है, जो भवसागर से मुष्टिŽ ष्टिदलाती है।


ष्टिवद्या का ता_पय% यहाँ अथ% कारी ष्टिवद्या से नहीं है। आपने
ऐसी ष्टिवद्या पढ़ ली जिजससे आप हर महीने लाखों रुपये
कमाते हैं, तो ष्टिवद्या का ता_पय% यह नहीं है। यष्टिद आपमें
ष्टिवद्या नहीं है, तो आप 'ार्मिमक नहीं कहला सकते। चाहे
आपने जटायें बढ़ा रखी हों , चाहे आपने भगवे वस्त्र
'ारण कर रखे हों या कोई भी वेश -भू@ा आपने 'ारण
कर रखी हो, ष्टिवद्या के ष्टिबना 'ार्मिमक कहलाने का आपको
कोई अधि'कार नहीं है।

स_य

स_य क्या है? स_य वही है, जो सारे ब्रह्माण्ड को

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 50 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चला रहा है। उस समय की कल्पना कीजिजए, जब पधित-


प_नी एक-दस
ू रे से झूठ बोलने लगें, माँ-बेटे में झूठ का
व्यवहार हो, ष्टिपता-पुत्र आपस में झूठ बोलने लगें , गुरु-
शिशष्य झूठ बोलने लगें, तो क्या होगा? क्या यह दष्टिु नया
चल पायेगी? ष्टिनधिश्चत है ष्टिक ष्टिवनाश शुरु हो जायेगा।

आज लोगों को यह कहने को ष्टिमल जाता है ष्टिक


आज के यगु में झूठ बोले ष्टिबना कोई काम नहीं हो
सकता। यह भ्रात्मिन्त है। जिजस ष्टिदन हर प्राणी मन, वाणी,
और कम% से स_य का आचरण करने लगेगा , उसकी
सारी समस्याओं का समा'ान स्वतः ही हो जायेगा। झूठ
सारी समस्याओं की जड़ है। एक झूठ को शिछपाने के
लिलये न जाने ष्टिकतने झूठ बोलने पड़ते हैं और झूठ की
यह श्रृंखला शुरु हो जाती है। जिजसने मन से , वाणी से,
और कम% से स_य का आचरण ष्टिकया है , वह जीवन में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 51 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कभी भी दःु खी नहीं हो सकता। इसलिलये स_य ही 'म%


का ल(ण है।

एक चोर था, उसने कहीं प्रवचन सुन लिलया ष्टिक


स_य बोलना चाष्टिहये। उसने इस बात की मन में गाँठ
बाँ' ली ष्टिक चाहे कुछ भी हो जाये , मैं स_य ही बोलूँगा।
राजा के दरबार में गया, तो द्वारपालों ने पूछा ष्टिक कौन
हो? कहता है ष्टिक मैं चोर हूँ। द्वारपाल हँसे ष्टिक चोर कहीं
कहता है ष्टिक मैं चोर हूँ। ष्टिफर पूछा ष्टिक क्या करने जा रहे
हो? मैं तो चोरी करने जा रहा हूँ। द्वारपालों ने कहा ष्टिक
इसको जाने दो, यह मजाक कर रहा है। चोर कहीं कहता
है ष्टिक मैं चोरी करने जा रहा हूँ। वह ष्टिनद्व%न्द्व होकर
राजमहल में घूमता ष्टिफरा। महारानी का हार चुरा लाता है
क्योंष्टिक राजा ने भी ष्टिवश्वास कर लिलया। कोई पूछता कौन
हो? सी'े बता देता ष्टिक मैं तो चोर हूँ। इसलिलये ष्टिकसी ने

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 52 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवश्वास ही नहीं ष्टिकया, क्योंष्टिक चोर कभी भी यह नहीं


बतायेगा ष्टिक मैं चोर हूँ और चोरी करने आया हूँ।

अन्त में राजा द्वारा खोज करवाई जाती है। जिजस


सुनार के पास बेचा गया था, वहाँ वह हार ष्टिमलता है।
सुनार कहता है ष्टिक अमुक व्यष्टिŽ हमको यह हार दे गया
था। उसको बुलाया जाता है। राज्यसभा में राजा पूछता
है ष्टिक क्या सचमुच तूने चोरी की है? वह कहता है ष्टिक हाँ
राजन्! मैंने तो पहले ही ष्टिदन कह ष्टिदया था ष्टिक मैं चोर हूँ
और चोरी करने आया हूँ, और अभी भी कह रहा हूँ ष्टिक
मैंने ही महारानी का यह हार चुराया है। राजा हँसने लगा
ष्टिक बहुत अच्छी बात है, भले ही इसमें चोरी का दो@ है ,
लेष्टिकन एक गुण तो है ष्टिक यह स_य बोलता है। इसको
मेरी मन्त्री-परिर@द में शाष्टिमल कर दो। यह है स_य का
बल।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 53 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

महाभारत के यद्ध
ु के पश्चात् जब भीष्म ष्टिपतामह
प्राण-_याग करने लगे, तो यधिु 'ष्टिष्ठर को बुलाया और
कहा ष्टिक यधिु 'ष्टिष्ठर एक तरफ अस_य का समथ% न करने
वाली ग्यारह अ(ौष्टिहणी सेना थी और एक तरफ तुम
केवल सात अ(ौष्टिहणी सेना लेकर खड़े थे , लेष्टिकन
तुम्हारी ष्टिवजय हुई है। क्योंष्टिक-

"यतो 'म% ः ततो जयः।" महाभारत

जहाँ 'म% है, वहीं जय है। इसलिलये कलिलयगु में लोगों


को यह भ्रात्मिन्त नहीं पालनी चाष्टिहये ष्टिक झूठ के बल से
हम आगे बढ़ जायेंगे। आपको स_य आगे बढ़ायेगा।

स_यमेव जयते नानृतं स_येन पन्था ष्टिवततो देवयानः।

मुण्डकोपष्टिन@द ३/१/६

स_य की ष्टिवजय होती है, अस_य की नहीं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 54 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा स_य है। उसको पाने के लिलये स_य का


आचरण करना ही पड़ेगा। इसलिलए श्री जी की वाणी
कहती है-

सांचा री साहेब सांच सों पाईए, सांच को सांच है प्यारा।

ष्टिकरंतन ८/७

वह परब्रह्म स_य है , उसको पाने के लिलये आपको


मन, वाणी, और कम% से स_य का आचरण करना पड़ेगा।

अक्रो'

अक्रो' का अशिभप्राय है क्रो' न करना। आप चाहे


खूब पाठ करते हैं, खूब पूजा करते हैं, आँ खें भी बन्द
करते हैं, ष्टिफर भी यष्टिद क्रो' आता है , तो यह 'म% का
ल(ण नहीं है। 'म% कहता है ष्टिक हमें क्रो' को जीतना

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 55 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

होगा, हमें झूठ को जीतना होगा, हमें ष्टिकसी के 'न को


ष्टिमट्टी के समान समझना होगा।

संसार में लड़ाइयाँ क्यों हो रही हैं ? कल्पना


कीजिजए, यष्टिद तीसरा ष्टिवश्वयद्ध
ु शिछड़ेगा , तो ष्टिकस कारण
शिछड़ेगा? 'म% की मया%दा के उल्लंघन के कारण। प्रथम
ष्टिवश्वयद्ध
ु हुआ , ष्टिद्वतीय ष्टिवश्वयद्ध
ु हुआ , ष्टिकसलिलये? 'म%
की मया%दा के अधितक्रमण से। ष्टिद्वतीय ष्टिवश्वयद्ध
ु में लाखों
प्राणी मारे गये। तृतीय ष्टिवश्वयद्ध
ु में तो पता नहीं ष्टिक कोई
बताने वाला बचेगा या नहीं बचेगा, यह तो सव% शष्टिŽमान
परमा_मा ही जाने। आलिखर मनुष्य की तृष्णा ही मनुष्य के
ष्टिवनाश का कारण बन रही है और यही है 'म% की मया%दा
का उल्लंघन।

सामान्य प्राणी सोच ही नहीं पाता ष्टिक 'म% की


कीमत ष्टिकतनी है? यष्टिद मानवता को कोई सुरधि(त रख

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 56 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रहा है, तो वह है 'म% । 'म% का मतलब यह नहीं है ष्टिक


बड़े-बड़े मत्मिन्दर खड़े हो जायें, बड़ी-बड़ी मत्मिस्जदें खड़ी
हो जायें, बड़े-बड़े ष्टिगरजाघर और गुरुद्वारे खड़े हो जायें।
यह 'म% का ल(ण नहीं है। मनुष्य के हृदय में 'म% हो ,
'म% के ल(ण उसके हृदय में दृष्टि=गोचर हों, और वह 'म%
को आचरण में लाये अथा%त् 'म% के ल(णों का पालन
करे, तब वह 'ार्मिमक कहलाता है। ष्टिकसी भी वेश -भू@ा
से, ष्टिकसी उपासना पद्धधित को अपनाकर , ष्टिकसी मत
ष्टिवशे@ का अनुयायी बनकर, यष्टिद वह कहता है ष्टिक मैं
'ार्मिमक हूँ और शे@ अ'ार्मिमक हैं, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक वह
अन्'ेरे में भटक रहा है।

कल्पना कीजिजए कोई देश ष्टिकसी दस


ू रे देश पर
हमला करता है, ष्टिकसलिलए? उस देश की सम्पदा पर
अधि'कार करने के लिलये, अपने वच% स्व का प्रदश% न करने

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 57 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

के लिलए। लोके@णा (संसार में प्रधितष्ठा की इच्छा ),


ष्टिवत्ते@णा ('न की इच्छा), दारे@णा (सगे-सम्बत्मिन्'यों
का मोह), इन्हीं तृष्णाओं के पीछे संसार में सारी
लड़ाइयाँ होती हैं, चाहे ष्टिकसी राजकुमारी के लिलये लड़ाई
हुई हो, चाहे ष्टिकसी का 'न हड़पने के पीछे लड़ाई हुई
हो, चाहे अपनी प्रधितष्ठा के लिलये लड़ाई हुई हो, चाहे
अपने वच% स्व को साष्टिबत करने के लिलये लड़ाई हुई हो।

मानव के अन्दर का शिछपा हुआ दानव ष्टिनकलता है


और वह भोले-भाले मानवों का रŽपान करता है। दंगे में
क्या होता है? छोटे-छोटे बSों तक को बख्शा नहीं
जाता। लेष्टिकन मानव मानव का ह_यारा क्यों बनता है ?
इसके पीछे तृष्णा काय% कर रही है। कोई ष्टिकसी प्राणी का
खून पीता है, ष्टिकसके लिलये? तृष्णा के लिलये। मनुष्य माँस
क्यों खाता है ? इस जिजह्वा के (शिणक स्वाद के लिलए।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 58 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आज तक ष्टिकसी की यह जिजह्वा तृV नहीं हुई और न कभी


होगी। माँस में कोई स्वाद तो होता नहीं , लेष्टिकन आप
कसाईखाने में जाकर देलिखए ष्टिक जानवरों को ष्टिकस तरह
से मारा जाता है। उनके हृदय से ष्टिनकलते हुए आत% नाद
को परमा_मा के जिसवा और कौन सुन सकता है?

हमारे हाथ में काँटा चुभ जाता है , तो हम पीड़ा से


कराह उठते हैं, उस पर दवा लगाते हैं। और उन मूक
पशुओं का ष्टिनद% यता से गला काटा जाता है। ष्टिफर मनुष्य
उनके माँस को तल-भुनकर ष्टिमच% -मसाले डालकर
खाता है, उनकी हधि·याँ तक चूस लेता है, पेट को कब्र
बना लेता है, ष्टिकसलिलये? इस तृष्णा के पीछे । यह 'म%
नहीं है। यह 'म% के नाम पर एक कलंक है। 'म% की
चौथी कसौटी ही है अन्तरा_मा की सा(ी।

स्वस्य च ष्टिप्रयमा_मनः। मनुस्मृधित २/१२

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 59 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जो हम स्वयं के लिलए दस
ू रों से चाहते हैं , वही
व्यवहार हमें दस
ू रों के प्रधित करना पड़ेगा। यही 'म% का
ल(ण है। यष्टिद हम दस
ू रों से प्रेम चाहते हैं , तो हमें भी
दस
ू रों से प्रेम करना पड़ेगा। दस
ू रों से सम्मान चाहते हैं ,
तो हमें सम्मान की भा@ा सीखनी पड़ेगी। 'म% वह है जो
मन, वाणी, और कम% से सबको स_य की तरफ ले जाता
है। यष्टिद ष्टिकसी प्राणी का ष्टिदल दख
ु ता है, तो वह 'म% नहीं
है।

संसार में आज एक बहुत बड़ी बाढ़ चल गई है। यह


कहना ष्टिक सबका 'म% समाV हो जाये , केवल हमारा 'म%
ही रहे। यह बहुत बड़ी भूल है। पूछा जाये ष्टिक परमा_मा
ष्टिकतने हैं? सबकी आवाज होगी- "एक"। स_य ष्टिकतने
हैं? सब बोलेंगे- "एक"। 'म% ष्टिकतने होंगे ? सब बोलेंगे-
"एक"। जब 'म% एक है, तो दस
ू रों के 'म% को न= करने

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 60 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

का प्रय_न कैसे कर सकते हैं? मत न= हो सकते हैं ,


सम्प्रदाय न= हो सकते हैं, ष्टिकन्तु 'म% नहीं।

सम्प्रदाय क्या है? एक ष्टिवचार'ारा जो ष्टिकसी


महापुरु@ ने दी होती है, उस ष्टिवचार'ारा के अनुयाधिययों
का ही एक समूह खड़ा हो जाता है, जो कालान्तर में
बढ़ता जाता है और एक सम्प्रदाय का रूप ले लेता है।
उस सम्प्रदाय के अनुयाधिययों को मारकर या पैसे देकर
बदला तो जा सकता है, लेष्टिकन 'म% के स्वरूप को न=
नहीं ष्टिकया जा सकता। 'म% शाश्वत है , 'म% अनाष्टिद है ,
'म% स_य का भी स_य है , 'म% ही परमा_मा का स्वरूप
है। इसलिलये 'म% के स्वरूप को कोई ष्टिवरला ही समझता
है ष्टिक 'म% ष्टिकसको कहते हैं।

यहीं से शुरु होती है अध्या_म की मनोहर पगडण्डी,


जिजस पर चले ष्टिबना हमारी आ_म-जाग्रधित नहीं हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 61 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकती। हम कौन हैं? हमारा यह बन्'न कहाँ से हुआ?


यह केवल 'म% पर चलने से मालूम हो सकता है।

सबसे बड़ी भूल तो यही होती है ष्टिक अ'म% को


आजकल 'म% समझा जाता है। आप ष्टिकसी मत्मिन्दर में
चले जाइये, ष्टिकसी पन्थ में चले जाइये , तो आपसे पूछा
जायेगा ष्टिक आपने इस तरह का धितलक क्यों नहीं लगाया
है? आप 'ार्मिमक नहीं हो क्या? आपने गले में माला नहीं
डाली है, इसका मतलब आप 'ार्मिमक नहीं हैं? जो माला
डालेगा, वह ष्टिदखाता ष्टिफरेगा ष्टिक देखो अब मैं 'ार्मिमक बन
गया हूँ। यही तो सबसे बड़ी भूल है। यष्टिद माथा रंगने से
वैकुण्ठ ष्टिमलता है, तो पूरा शरीर रंगने से क्या ष्टिमलेगा?
गले में एक माला डालने से यष्टिद स्वग% या वैकुण्ठ की
प्राष्टिV होती है , तो पूरे शरीर को माला से लाद लेने पर
क्या ष्टिमलेगा? ऐसा ष्टिकस शास्त्र में लिलखा है ? इस वेश-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 62 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

भू@ा का कोई मह_व नहीं है। मह_व तो केवल 'म% के दस


ल(णों का है।

हम अपने को जानें, अपनी आ_मा के उस ष्टिप्रयतम


परब्रह्म को जानें ष्टिक वह कहाँ है , कैसा है? यह माया का
जो बन्'न लगा है, यह कब हटेगा? और इस माया के
इन बन्'नों को हटाने की जो प्रष्टिक्रया अपनाई जाती है ,
वहीं से हमारी आ_मा को अध्या_म की वह सुगत्मिन्'
ष्टिमलनी प्रारम्भ होती है, जिजसका रसास्वादन करके
हमारी आ_मा इस भवसागर से पार होती है और अपने
ष्टिप्रयतम परब्रह्म को पा लेती है।

'म% के वास्तष्टिवक स्वरूप को जानने वाला , चाहे


वह ष्टिहन्द ू हो, मुत्मिस्लम हो, ष्टिक्रधिश्चयन हो, वह कभी राग-
द्वे@ की परिरधि' से नहीं बन्'ेगा। वह जानता है ष्टिक सबका
परमा_मा एक है। स_य सव% दा एक होता है। परमा_मा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 63 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सबके अलग-अलग नहीं हो सकते।

आज संसार में ष्टिकसके लिलए लड़ाइयाँ होती हैं ?


केवल कम% काण्डों के नाम पर लड़ाइयाँ होती हैं। एक बार
वल्लभाचाय% मत में झगड़ा शिछड़ गया। ष्टिव@य यह था ष्टिक
श्री कृष्ण जी ने जो मोरमुकुट पहन रखा है, वह बाँई
तरफ झुका है या दाँई तरफ झुका है। इस पर गोलिलयाँ
चल गई, एक ही पन्थ में न्याया'ीश था अंग्रेज , उसने
जब मुकदमा सुना, तो बहुत हँसा। वह बोला- भाई!
तुम्हारे परमा_मा का मुकुट दाँये झुकता है या बाँये झुकता
है, क्या फक% पड़ता है ? मेरा ष्टिनण% य है ष्टिक यह न दायें
झुकता है न बांये झुकता है, बीच में है और यही मानना
पड़ेगा। यष्टिद परमा_मा का मुकुट दाँये झुक गया तो क्या
नुकसान हो गया, और यष्टिद बाँये झुक गया तो क्या
नुकसान हो गया?

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 64 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मत्मिन्दरों में प्रवेश पर रोक लगाई जाती है ष्टिक यह


अछूत है, इसे अन्दर मत आने दो। यष्टिद आपके भगवान
ष्टिकसी अछूत के मत्मिन्दर में आने से अपष्टिवत्र हो जाते हैं ,
तो दष्टिु नया को पष्टिवत्र कौन करेगा ? साबुन का काम है
मैल ष्टिनकालना। यष्टिद साबुन ही कहने लगे ष्टिक मैं गन्दा हो
जाऊँगा, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक यहाँ अज्ञानता का अन्'कार
छाया हुआ है, यह 'म% नहीं है। इसलिलये ज्ञान के प्रकाश
में हमें 'म% को जानना होगा ष्टिक 'म% क्या है , 'म% के
ल(ण क्या हैं।

'म% को अपनाने पर ही मानव जीवन सुखी हो


सकता है। 'म% का परिर_याग सारी मानवता के ष्टिवनाश की
घण्टी है। न पशु 'म% से रष्टिहत हो सकता है, न मनुष्य हो
सकते हैं, और न देवता हो सकते हैं।

गाय बछड़े को जन्म देेते ही चाटने लगती है। यह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 65 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसका स्वाभाष्टिवक गुण है, उसमें वा_सल्यता है। उसी


तरह से वृ( अपना कत्त%व्य पूरा कर रहे हैं। यहाँ तक ष्टिक
जड़ पदाथ% , सूय%, चन्द्रमा अपना कत्त%व्य पूरा कर रहे हैं।
मनुष्य को चाष्टिहये ष्टिक प्रकृधित के इन पदाथा¸ से शिश(ा
ग्रहण करे। ये जड़ होकर भी हमें कौन सी सौगात दे रहे
हैं? हमारे अन्दर तो चेतना का वह अंश ष्टिवद्यमान है, जो
यष्टिद अपने स्वरूप को जान जाये ष्टिक मैं कौन हूँ , कहाँ से
आया हूँ, इस शरीर और संसार को छोड़ने के पश्चात् मुझे
जाना कहाँ है, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक वह देव_व को प्राV कर
लेगा। उससे भी परे ब्राह्मी अवस्था को प्राV कर लेगा।

"ब्रह्मष्टिवदो ब्रह्मेव भवधित", जैसे अष्टि° में लोहे के


टु कड़े को जब डाला जाता है, तो वह लोहा नहीं रहता
अष्टिपतु अष्टि° के समान दहकने लगता है। 'म% का आचरण
करके मनुष्य अपने हृदय मत्मिन्दर में उस सव% शष्टिŽमान ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 66 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकल गुण ष्टिन'ान, सभी गुणों के स्वामी सधिSदानन्द


परब्रह्म को बसा लेता है, माया से सव% था परे हो जाता है,
और उस मत्मिन्जल पर पहुँच जाता है-

यद् प्रापणीयं त_प्राVम्, यद द्र=व्यं तद् द्र=ंमया।

महाभाष्य

जहाँ पहुँचने पर वह बोलता है ष्टिक जो कुछ मुझे


पाना था मैंने पा लिलया है, जो कुछ मुझे देखना था मैंने
देख लिलया है। अब मुझे कुछ भी नहीं चाष्टिहये। मैं आनन्द
के उस सागर में हूँ, जिजसका एक कण भी इस ब्रह्माण्ड में
आ जाये तो सारा ब्रह्माण्ड कृ_य-कृ_य हो जायेगा।

'म% परम स_य से ष्टिमलाता है , मानव को मानव से


लड़ाता नहीं है। हाँ , सम्प्रदाय लड़ाते हैं, मतवादी
परम्परायें लड़ाती हैं। आज तक 'म% का प्रचार करने के

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 67 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नाम पर, 'म% का लबादा ओढ़कर , न जाने ष्टिकतने


प्राशिणयों की ह_या की गई। शायद गंगा के अन्दर उतना
पानी नहीं होगा, जिजतना 'म% के नाम पर मनुष्य ने मनुष्य
का खून बहाया होगा। एक ष्टिवचार'ारा को दस
ू रे पर
जबरन थोपने की यह प्रवृलित्त 'म% की गरिरमा को कलंष्टिकत
करती है।

आवश्यकता यही है ष्टिक आज के परिरप्रेक्ष्य में हर


मानव समझे ष्टिक 'म% क्या है ? हम कौन हैं? हमारा ष्टिनज
स्वरूप क्या है और जिजसकी उपासना हम करना चाहते
हैं, जिजसके चरणों में बैठकर हम शाश्वत प्रेम को पाना
चाहते हैं, वह परमा_मा कहाँ है? कैसा है?


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 68 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिद्वतीय अध्याय

अलंकार व्याख्या

पूण%मदः पूण%ष्टिमदं पूणा%त् पूण%मद


ु च्यते।

पूण%स्य पूण%मादाय पूण%मेवाशिशष्यते।।

बृहदारण्यक उपष्टिन@द ५/१/१

वह सधिSदानन्द परब्रह्म पूण% है , अनन्त है। उसका


'ाम भी पूण% है। उसी पूण% परब्रह्म से उसका पूण%
(अनन्त) 'ाम सुशोशिभत होता है। उस पूण% में, अनन्त में
अनन्त जोड़ा जाये, अनन्त में अनन्त घटाया जाये , गुणा
ष्टिकया जाये, भाग ष्टिकया जाये, तो उतना ही रहता है। वह
कभी भी कम या अधि'क नहीं होता।

आज जिजन तथ्यों पर सधिSदानन्द परब्रह्म की कृपा


से प्रकाश डाला जायेगा, वह है अलंकार व्याख्या। संसार

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 69 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

में जब ज्ञान का शुद्ध प्रकाश नहीं फैलता , तो


अन्'परम्परायें चल पड़ती हैं। अन्'परम्परा ष्टिकसको
कहते हैं? अज्ञानता के कारण एक लीक चल देना। जैसे
आप कहीं भी गली-मोहल्ले में जाइये , आपको हनुमान
जी का मत्मिन्दर ष्टिदखाई पड़ेगा। लगभग सारा ष्टिहन्द ू समाज
मानता है ष्टिक हनुमान जी बन्दर थे। उनके मुख की
आकृधित बन्दर की बना दी जाती है , और पूँछ लगा दी
जाती है। प्रश्न यह है ष्टिक क्या वाल्मीष्टिक जी ने ऐसा कहा
है? क्या सचमुच हनुमान जी बन्दर हैं?

वाल्मीष्टिक रामायण में सव% त्र वण% न है ष्टिक हनुमान जी


वेद और व्याकरण के प्रकाण्ड ष्टिवद्वान हैं। जब मया%दा
पुरु@ोत्तम राम और लक्ष्मण ऋष्यमूक पव% त पर जाते हैं,
तो हनुमान जी दत
ू का भे@ बनाकर वहाँ आते हैं। सुग्रीव
भेजता है ष्टिक जाकर पता लगाओ ष्टिक ये दोनों राजकुमार

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 70 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कौन हैं? कहीं मुझे मारने के लिलये बालिल ने तो नहीं भेज


रखा है? हनुमान जी की राम से बहुत देर बात होती है।
वे ब्राह्मण के भे@ में आये होते हैं। जब हनुमान जी लौट
जाते हैं, तो राम कहते हैं ष्टिक हनुमान ने इतनी देर तक
मुझसे वाता% की और संस्कृत का एक शब्द भी अशुद्ध
उSारण नहीं ष्टिकया। क्या आज दष्टिु नया में कोई भी बन्दर
है, जो वेद पढ़ता है? कोई यह नहीं सोचने की कोशिशश
करता ष्टिक क्या हनुमान जी बन्दर हो सकते हैं?

वाल्मीष्टिक रामायण में वण% न आता है ष्टिक जब राम


सीता को खोजते-खोजते समुद्र के ष्टिकनारे गए, तो देखा
ष्टिक बालिल सन्ध्या कर रहा है। प्रश्न यह है ष्टिक जब बालिल
सन्ध्या करता है, तो सन्ध्या तो वेद मन्त्रों से होती है।
आज के बन्दरों को ष्टिकसने सन्ध्या करते देखा है?

बालिल क्या पहनता है ? सोने के आभू@ण पहनता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 71 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। उसकी मशिण ष्टिकतनी चमकती है ? वाल्मीष्टिक रामायण


में ष्टिवस्तारपूव%क वण% न है ष्टिक बालिल की प_नी तारा ष्टिवश्व
की सबसे सुन्दर पाँच कन्याओं- द्रौपदी, तारा,
मन्दोदरी, अनसुइया, सीता- में से एक है। ये पाँच ष्टिवश्व
की सव% श्रेष्ठ कन्याएँ मानी जाती हैं। ष्टिवश्व की सव% श्रेष्ठ
कन्या कही जाने वाली तारा की शादी बालिल से होती है।
क्या कोई ष्टिपता अपनी बेटी की शादी एक बन्दर के साथ
करेगा? इसका उत्तर सबको मालूम है।

सबसे बड़ी बात ष्टिक राम और सुग्रीव की ष्टिमत्रता


होती है। हनुमान जी पुरोष्टिहत का काय% करते हैं और
हवन करवाते हैं। आज के बन्दर क्या हवन करके
ष्टिदखाएँ गे? बालिल की मृ_यु के बाद अंगद को "वेद मन्त्रों
से" यव
ु राज घोष्टि@त ष्टिकया जाता है।

बहुत समय बीत जाने के पश्चात् राम लक्ष्मण को

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 72 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

भेजते हैं ष्टिक सुग्रीव ने तो मेरा काम नहीं ष्टिकया। तुम


जाकर उसे शीघ्र वचन पूरा करने का ष्टिनद”श दो। जब
लक्ष्मण जाते हैं, तो सुग्रीव को सोने के पलंग पर शयन
करते हुए देखते हैं। बताइये, आज के बन्दर कहाँ सोने
के पलंग पर शयन करते हैं? उस सुग्रीव की नगरी है
ष्टिकत्मिष्कन्'ा, जिजसमें सात -सात मत्मिन्जल के भवन
सुशोशिभत हैं।

ष्टिहन्द ू समाज पढ़ता है, सब कुछ जानता है, लेष्टिकन


अपनी भूल सु'ारने के लिलए तैयार नहीं है। एक बात कही
जाती है-

बाल समय रष्टिव भ( लिलयो, तब तीनहुं लोक भयो अंधि'यारो।

ताष्टिह सो त्रास भयो जग को, यह संकट काहु से जात न टारो।।

हनुमान चालीसा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 73 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अथा%त् बाल समय में हनुमान जी ने सूय% को ष्टिनगल


लिलया था। सूय% तो पृथ्वी से १३ लाख गुना बड़ा है।
ष्टिकसी का भी शरीर पृथ्वी के बराबर नहीं हो सकता।
पृथ्वी से १३ लाख गुने बड़े सूय% को कैसे कोई ष्टिनगल
सकता है? यह आलंकारिरक वण% न है। जो बातें कही गई
हैं, उसमें अलंकार है।

अलंकार का अथ% क्या होता है ? एक रूपक ष्टिदया


जाता है ष्टिक यह चीज ऐसी है। जैसे कोई बहुत सुन्दर है,
तो कहा जाता है ष्टिक देखो चाँद सा मुखड़ा है। चाँद जड़
और मुख चेतन होता है, लेष्टिकन जैसे चाँद चमक रहा है,
उसी तरह ष्टिकसी का मुख सुन्दरता से चमक रहा हो तो
उसे चाँद की उपमा दी जाती है, वैसे ही आलंकारिरक
कथानकों के रूपक द्वारा एक -एक चीज को समझाया
जाता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 74 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हनुमान जी सूय% ष्टिवद्या में ष्टिनपुण थे। आजकल आप


देख रहे हैं, सोलर से ष्टिकतने बड़े-बड़े काम हो रहे हैं,
पम्प चल रहे हैं, ष्टिवद्युत बनायी जा रही है। हो सकता है,
इसी सूय% ष्टिवद्या के उपयोग से गाष्टिड़याँ भी चल रही हों ,
और मैंने तो कहीं पढ़ा था ष्टिक सम्भावना है ष्टिक सूय% के
ताप से वायय
ु ान भी चलाये जा सकते हैं। जो भी
अन्तरिर( में यान भेजे जाते हैं , उनमें जिजतना प्रकाश
होता है, सब सौर ऊजा% (सूय% के प्रकाश ) से लिलया
जाता है। सूय% का प्रकाश अनेक रोगों कोे न= करता है।
इस सूय% ष्टिवद्या के ष्टिवशे@ज्ञ थे हनुमान जी। जैसे कोई
बSा ष्टिकसी ष्टिकताब को पूरी तरह से रट लेता है, तो
कहते हैं ष्टिक ष्टिकताब चट कर गया। इसी तरह , सूय%
ष्टिवज्ञान से सम्बत्मिन्'त जिजतने रहस्य थे , हनुमान जी ने
बचपन में ही उनका अध्ययन कर लिलया था। इसलिलये

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 75 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कहा जाता है ष्टिक हनुमान जी सूय% को ष्टिनगल गये थे।

ऐसी ही एक और ष्टिकवदन्ती (दन्तकथा) कही


जाती है ष्टिक अगस्_य ऋष्टि@ ने समुद्र को पी लिलया था और
लघुशक
ं ा कर ष्टिदया, जिजससे समुद्र का पानी खारा हो
गया। अगस्_य एक ऋष्टि@ का नाम है , जिजन्होंने समुद्र में
यात्रा करके देश-देशान्तरों में स_य ज्ञान का प्रकाश
ष्टिकया था, इसलिलए आलंकारिरक रूप से कहा जाता है ष्टिक
अगस्_य ऋष्टि@ सारे समुद्र को ही पी गये थे। जैसे ष्टिकताब
को पूण% कण्ठस्थ करने वाले व्यष्टिŽ के लिलये कहा जाता
है ष्टिक वह ष्टिकताब को पी गया है , उसी तरह से समुद्र में
आर-पार यात्रा करने के कारण समुद्र पीने की उपमा दी
गई है।

अभी प्रसंग चल रहा था ष्टिक हनुमान जी बन्दर नहीं


थे, तो क्या थे? हनु का अथ% होता है ठु ·ी। उनकी ठु ·ी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 76 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बड़ी थी, इसलिलये उनका नाम हनुमान पड़ा। उनकी


माता का नाम था अन्जना और ष्टिपता का नाम था पवन।
हनुमान जी केरल के राजकुमार थे। रावण के अ_याचार
से 'म% और संस्कृधित की र(ा के लिलये ऋष्टि@यों के बीच
मन्त्रणा हुई और तब अगस्_य ऋष्टि@ ने हनुमान को दीधि(त
करने का भार लिलया था। वानर एक (ष्टित्रय जाधित का नाम
है। प्राचीनकाल में अपने वग% ष्टिवशे@ को ष्टिकन्हीं -ष्टिकन्हीं
नामों से सम्बोधि'त करने की परम्परा थी।

आप कहेंगे ष्टिक हनुमान जी की पूँछ में आग लगा दी


गई, तो लंका जल गई। प्रश्न यह है ष्टिक सारी लंका को
हनुमान जी ने जला ष्टिदया, तो ष्टिफर सारी लंका को पुनः
बनाने का वण% न रामायण में होना चाष्टिहए था। यह तो
कहीं नहीं लिलखा है। कहा जाता है ष्टिक रावण के महल
सष्टिहत सबके महल जल गये, केवल ष्टिवभी@ण के महल

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 77 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

को छोड़ ष्टिदया था। ठीक है, रावण के महल जल गया,


तो जिजतनी राष्टिनयाँ थीं, जिजतने लोग रहने वाले थे, उनके
लिलये महल बनाने में तो महीनों लग जायेंगे , साल लग
जायेंगे। इसका तो कुछ वण% न होना चाष्टिहये। लेष्टिकन कहीं
कुछ वण% न नहीं है।

यह आलंकारिरक भाव है। जैसे कोई व्यष्टिŽ ष्टिकसी से


घृणा करता है, तो क्या कहता है? इसको देखकर मेरे
तन-बदन में आग लग जाती है। इतना कठोर पहरा है ,
ष्टिफर भी शत्रु का आदमी समुद्र पार करके आ गया और
सीता का पता भी लगा लिलया, रावण के पुत्र अ(य कुमार
कोे भी मार डाला, यह कैसे सम्भव है? यह बात आग
की तरह लंका में फैल गई। इसी को कहते हैं ष्टिक लंका
को जला डाला था। ऐसा न समझें ष्टिक हनुमान जी की
पूँछ थी और वे वैसे ही चला करते थे।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 78 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सात धिचरन्जीवी व्यष्टिŽयों में हनुमान जी आते हैं।


धिचरन्जीवी कैसे हुआ जाता है? शरीर पञ्चभूता_मक होता
है। योगी जब पञ्चभूतों पर ष्टिवजय प्राV कर लेता है , तो
महाप्रलय तक शरीर को संकल्प से रख सकता है।
उसको भूख-प्यास कभी नहीं सताती और उसकी मृ_य ु
भी नहीं होती। सात धिचरंजीवी व्यष्टिŽ हैं - हनुमान जी,
अश्व_थामा, कृपाचाय% , बलिल, ष्टिवभी@ण, व्यास जी, और
परशुराम जी। आज के बन्दरो को कष्टिहये ष्टिक ध्यान -
समाधि' लगायें , क्या वे लगा सकते हैं? हमने तो एक
राजकुमार को, इतने सुन्दर व्यष्टिŽ को, एक बन्दर की
आकृधित दे दी। यष्टिद कोई हमारे माता -ष्टिपता को, हमारे
दादा को, या हमारे ष्टिमत्र को बन्दर कहे , तो क्या हमें
सहन होगा? लेष्टिकन हम तो ऐसा ही करते हैं। क्यों?
क्योंष्टिक स_य ज्ञान का प्रकाश नहीं है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 79 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हमने जटायु को क्या बना ष्टिदया? ष्टिगद्ध बना ष्टिदया।


ऐसी ही ष्टिवकृधितयाँ हैं।

दस
ू री बात, जो लोग शिशकार करते हैं, उनसे पूछा
जाये ष्टिक भाई पशुओं को क्यों मारते हो ? क्यों शिशकार
खेलते हो? तो क्या कहेंगे ष्टिक राम ने भी तो मारीच को
मारा था जो ष्टिहरण के भे@ में आया था, तो हम क्यों न
मारें? यह जनता का रटा-रटाया उत्तर होता है। सच
यह है ष्टिक मया%दा पुरू@ोत्तम राम ने कभी ष्टिहरण को मारा
ही नहीं।

ष्टिवनय पष्टित्रका में वण% न आता है ष्टिक जब राम -


लक्ष्मण कुष्टिटया में रहते थे , तो ष्टिहरण तो उनकी कुष्टिटया
में आकर बैठे रहते थे। ष्टिफर राम ष्टिहरण को क्यों मारेंगे
और वेद-ष्टिवरुद्ध आचरण क्यों करेंगे ? 'म% शास्त्र में राजा
के लिलये शिशकार खेलना वजिज% त है। जैसे जुआ खेलना

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 80 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पाप है, उसी तरह से राजा के लिलये शिशकार खेलना भी


पाप माना गया है। उन हिंहसक पशुओं का व' करने का
ष्टिव'ान है, जो प्रजा को पीड़ा देते हैं। शेर, जंगली भैंसे,
या जंगली सुअर को मार सकते हैं, क्योंष्टिक वह मनुष्यों
के लिलए घातक होते हैं, ष्टिहरण को मारने का ष्टिव'ान
ष्टिकसी भी 'म% शास्त्र में नहीं है। वाल्मीष्टिक रामायण में क्या
लिलखा है-

तV जिजह्वो महादं=्रमहाकायो महाबलः।

ष्टिवचचार दण्डकारण्यम् मांसभ(ो महामृगः।।

वाल्मीर्मिक रामायण अरण्य काण्ड सग श्लोक

यह श्लोक मैंने तो नहीं बनाया। "तV जिजह्वो" अथा%त्


लपलपाती जिजह्वा वाला। क्या ष्टिहरण की जिजह्वा लपलपाती
है? जिजतने माँसाहारी जानवर होते हैं, केवल उनकी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 81 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जिजह्वा लपलपाती है। "महादं=्रो" अथा%त् भयंकर जबड़ों


वाला। जिजतने शाकाहारी प्राणी होते हैं, उनके जबड़े
कोमल एवं पतले होते हैं। माँसाहारी प्राशिणयों के जबड़े
काफी भयंकर होते हैं। याष्टिन मारीच सिंसह के भे@ में आया
था। "महाकायो महाबलः" अथा%त् भयंकर शरीर वाला,
बहुत बल वाला। "मांस भ(ो" शब्द से आशय है माँस
भ(ण करने वाला। ष्टिहरण तो मर जायेगा, लेष्टिकन घास
के अलावा कुछ नहीं खायेगा, अथा%त् कभी भी माँस नहीं
खायेगा। कहने का आशय यह है ष्टिक मारीच बहुत
ष्टिवशालकाय सिंसह के भे@ में आया था। लेष्टिकन आज भी
पूरा ष्टिहन्द ू समाज मानता है ष्टिक मारीच सोने का मृग
बनकर आया था और राम ने उसको मारा था। राम के
पास तो शब्दभेदी बाण की ऐसी कला थी ष्टिक वहीं से
खड़े-खड़े मार देते। उनको पीछा करने की जरूरत ही

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 82 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं थी। हाँ, स_य ज्ञान के अभाव में ऐसा ही कहा जाता
है।

ऐसी ष्टिवकृधितयाँ सब तरफ छायी हुई हैं। सबसे पूछा


जाये ष्टिक परमा_मा ष्टिकतने हैं ? तो सब बोलेंगे- "एक"।
यष्टिद परमा_मा एक है , तो अनेक रूपों की उपासना
क्यों? इसका आलंकारिरक अथ% अलग -अलग है।
वास्तव में स_य को न जानने के कारण ही ये ष्टिवकृधितयाँ
फैल जाती हैं। जब ज्ञान का प्रकाश नहीं होता, तो ये
ष्टिवकृधितयाँ समाज में इतना घुसपैठ कर जाती हैं ष्टिक इन्हें
समाज से ष्टिनकालना बहुत कष्टिठन हो जाता है। ष्टिकसी को
समझाने पर प्रधितकार में वह क्रो' की व@ा% करता है।
कहा जाता है ष्टिक हमारी आस्था पर प्रहार हो रहा है। यह
आस्था नहीं, अनास्था है। यष्टिद हम स_य को बढ़ा नहीं
सकते, तो हमें स_य को ढकने का नैधितक अधि'कार भी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 83 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं है।

भगवान ष्टिवष्णु की चार भुजाओं की कल्पना की


जाती है। इस पर मैं एक छोटा सा दृ=ान्त देना चाहूँगा।
भगवान ष्टिवष्णु की चार भुजायें हैं। शँकर जी के तीन नेत्र
हैं। ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। इसी तरह भगवान शिशव के
भी पाँच मुख माने गये हैं। दगु ा% जी की आठ भुजायें हैं। ये
सब आलंकारिरक वण% न हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है।

इसको एक दृ=ान्त से मैं समझाता हूँ। एक बार


बीरबल ने एक स्वप्न देखा ष्टिक माँ दगु ा% ने उन्हें
सहस्रमुखी होकर दश% न ष्टिदया। सपने में बीरबल पहले तो
हँसे और ष्टिफर रोने लगे। दगु ा% जी ने पूछा - बीरबल!
पहले तो तुम हँसे, ष्टिफर रोने लगे, क्यों? उन्होंने कहा-
हे माते! आपको देखकर बहुत आनन्द हुआ, इसलिलये मैं
हँसा। रोया इसलिलये ष्टिक जब मुझे जुकाम होता है तो मैं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 84 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बहुत परेशान होता हूँ, यष्टिद आपको जुकाम हो जायेगा तो


१००० मुखों से कैसे उसका सामना करेंगी?

जो काम एक मुख कर सकता है, ष्टिफर उसके लिलए


हजार मुख की क्या आवश्यकता है? सब लोग जानते हैं
ष्टिक रावण के दस मुख थे। ष्टिकसलिलये ? खाया जाता है
एक ही मुख से, ष्टिफर दस मुखों की क्या आवश्यकता?
इसलिलये ष्टिक रावण दस ष्टिवद्याओं का पत्मिण्डत था।
सामान्य व्यष्टिŽ एक ष्टिवद्या का पत्मिण्डत होता है। रावण दस
ष्टिवद्याओं का पत्मिण्डत था। इसलिलये कहा जाता है ष्टिक वह
दस मुख वाला था।

अभी एक और गहन रहस्य है। जो 'म% प्रेमी सज्जन


गीता का पाठ करते हैं, उसमें भी यह प्रसंग आता है।
योगेश्वर श्री कृष्ण जी अपने योगबल से अजु%न को ष्टिवराट
स्वरूप ष्टिदखाते हैं। उसमें सी'े ष्टिकरीष्टिटनम , गष्टिदनम,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 85 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चष्टिक्रणं आष्टिद शब्द आये हैं। इसको सामान्य अथा¸ में


पढ़कर कोई भी यही अथ% लेगा ष्टिक जो महाष्टिवराट का
स्वरूप ष्टिदखाया था, उसमें गदा'ारी , मुकुट'ारी,
चतुभ% ज
ु स्वरूप भगवान का स्वरूप था। सच क्या है?
आज यह समी(ा का ष्टिव@य है ष्टिक क्या सचमुच भगवान
की चार भुजायें हैं? आप दो भुजाओं से काम कर सकते
हैं, तो प्रश्न यह है ष्टिक चार भुजाओं की क्या आवश्यकता
है? वस्तुतः यह सारा वण% न आलंकारिरक है। यष्टिद
सधिSदानन्द परब्रह्म की कृपा होगी , तो संसार में स_य
ज्ञान का फैलाव होगा और ये सारी भ्रात्मिन्तयाँ ष्टिमट
जाएँ गी।

चतुभ% ज
ु का आशय क्या है? आपने देखा होगा ष्टिक
भगवान ष्टिवष्णु के चार हाथों में शंख , चक्र, गदा, और
पद्म यानी कमल है। वे बैठते ष्टिकस पर हैं ? गरुड़ पर।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 86 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गरुड़ क्या है? स_य का प्रतीक है। "स_यं ज्ञानं अनन्तं


ब्रह्म" (तैत्तरीय उपष्टिन@द २/१)। ब्रह्म परमा_मा क्या
है? स_य है और वह स_य स्वरूप परमा_मा, स_य रूपी
गरुड़ पर ष्टिवराजमान है। वह सबकी र(ा करता है। र(ा
ष्टिकस तरह से होगी? चार चीजों से र(ा होती है।
इसलिलये उसको चतुभ% ज
ु कहा जाता है।

शंख- स_य ज्ञान का प्रतीक

चक्र- संस्कृधित

गदा- अन्याय का ष्टिवनाश करने वाली शष्टिŽ

पद्म- कमल (सौन्दय% , ऐश्वय% )

स_य स्वरूप परमा_मा इन्हीं चार स्वरूपों द्वारा


सारी सृष्टि= की रचना और पालन करता है। इसी प्रकार
भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने अजु%न को जो ष्टिवराट रूप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 87 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिदखाया, उसमें भी चतुभ% ज


ु स्वरूप का वण% न आता है ,
उसमें भी यही प्रसंग है। योगेश्वर श्री कृष्ण 'म% द्वारा स_य
की र(ा करना चाहते थे। इसलिलये वे इतने स(म थे ष्टिक
ष्टिवराट स्वरूप में उनको भी चतुभ% ज
ु स्वरूप कहा गया।

सच बात तो यह है ष्टिक पूरी गीता को पढ़ जाइये ,


शुरू से लेकर आलिखर तक, यष्टिद उसके गुह्य अथ[ पर
हम ष्टिवचार करें तो कहीं यह जिसद्ध नहीं होता ष्टिक भगवान
श्री कृष्ण सधिSदानन्द परमा_मा हैं। यह जिसद्ध होगा ष्टिक वे
योगेश्वर थे। गीता का अत्मिन्तम श्लोक यही कहता है-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पाथ‘ 'नु'%रः।

तत्र श्रीर्मिवजयो भूधितर्ध्रुु%वा नीधितम% धितम% म।। गीता १८/७८

जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ 'नु'%र अजु%न


है, वहाँ ही ष्टिवजय होगी, यह मेरा ष्टिनधिश्चत मत है, यह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 88 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

संजय कहते हैं।

प्रश्न यह है ष्टिक जब श्री कृष्ण जी को योगेश्वर कहा


जाता है, तो ष्टिफर उन्हें सधिSदानन्द परब्रह्म कैसे कहा
जाता है?

गीता में तीन बोल हैं। एक तरफ ब्राह्मी अवस्था के


बोल हैं। जैसे अष्टि° में लोहे को डाल दीजिजये , तो लोहा
भी अष्टि° की तरह दहकने लगता है। उस समय लोहे को
अष्टि° कह दीजिजये, तो उसमें कोई अन्तर नहीं होता। इसी
कोे उपष्टिन@द में दशा%या गया है-

ब्रह्मष्टिवदो ब्रह्मैव भवधित। मुण्डक उपष्टिन@द ३/२/९

ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म के समान ही होता है। वह


ब्राह्मी अवस्था में कहता है "अहं ब्रह्मात्मिस्म"। इसी को
सूफी मत में कहा गया "अन् अल् हक"। गीता में जब श्री

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 89 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कृष्ण जी कहते हैं-

यस्मा_(रमतीतोऽहम(रादष्टिप चोत्तमः।

अतोऽत्मिस्म लोके वेदे च प्रशिथतः पुरु@ोत्तमः।।

गीता १५/१८

जहाँ "मैं" लेकर ब्राह्मी अवस्था में कहा गया है ,


समझ लीजिजये श्री कृष्ण उस ब्राह्मी अवस्था में कह रहे
हैं। जब वे कहते हैं-

बहुष्टिन मे व्यतीताष्टिन जन्माष्टिन तव चाजु%न। गीता ४/५

हे अजु%न! मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं,


जिजनको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। यहाँ योगेश्वर बोल
रहे हैं। एक भष्टिŽ की बात कही जाती है , जब वे कहते
हैं-

सवा%न् 'मा%न् परिर_यज्य मामेकं शरणं व्रज।


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 90 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

गीता १८/६६

सभी 'म[ को छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा। श्री


कृष्ण जी के कहने का आशय यह है ष्टिक हे अजु%न ! यष्टिद
तू तक%-ष्टिवतक% छोड़कर समप% ण भावना से मुझ पर
समर्मिपत हो जायेगा, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक तुझे परमत_व प्राV
हो जायेगा। योगदश% न का स्प= कथन है-

समाधि'जिसधिद्धः ईश्वर प्रशिण'ानात्। योग दश% न २/४५

जब तक मनुष्य में समप% ण की भावना नहीं आती ,


तब तक उसको समाधि' की प्राष्टिV कभी नहीं होती। यह
समप% ण भावना दशा%ने के लिलये कहा गया है ष्टिक तू सबको
छोड़कर मेरे पर ही आशिश्रत हो जा। लेष्टिकन यह कहीं नहीं
कहा ष्टिक मैं ही परमा_मा हूँ। ब्राह्मी अवस्था में जो कहा
गया, उसका यही भाव है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 91 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसी सन्दभ% में यह बात चल रही थी ष्टिक जो श्री


कृष्ण जी ने ष्टिवराट स्वरूप ष्टिदखाया, वह कैसे ष्टिदखाया?
जिजन लोगों ने ष्टिववेकानन्द के बारे में जाना है , वे अच्छी
तरह से जानते हैं ष्टिक जब ष्टिववेकानन्द रामकृष्ण परमहंस
के पास गए, उस समय उनका नाम था नरेन्द्र। बातचीत
में, ष्टिववेकानन्द जी ने रामकृष्ण परमहंस जी से एक बात
पूछी- गुरुदेव! क्या परमा_मा को देखा जा सकता है?
उन्होंने कहा- हाँ, वैसे ही देखा जा सकता है जैसे मैं
तुमको देख रहा हूँ। लेष्टिकन क्या परमा_मा को देखने के
लिलए कोई रोता है? क्या तुमने ष्टिकसी ऐसे व्यष्टिŽ को
देखा है। ऐसी बातें चल रही थीं।

अचानक रामकृष्ण परमहंस जी ने उनको अपने


हाथों से छू ष्टिदया। ष्टिववेकानन्द समाधि' अवस्था को प्राV
हो गये। उन्होंने देखा ष्टिक सारा ब्रह्माण्ड शून्य में लीन हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 92 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रहा है। जब ष्टिववेकानन्द को यह ष्टिदखा, तो काँप उठे ।


थोड़ी देर में ठाकुर रामकृष्ण परमहंस हँसते हुए नजर
आए और उन्होंने ष्टिववेकानन्द को पुनः सामान्य अवस्था
में कर ष्टिदया। यह तो एक योगी का ऐश्वय% -बल था। उसी
तरह से योगेश्वर श्री कृष्ण ने अजु%न को दोनों सेनाओं के
मध्य में अपने योगबल से उस परमस_य का रसपान
कराया, जिजसके असंख्य नेत्र हैं। अथव% वेद का पुरु@ सूŽ
कहता है-

सहस्र बाहुः पुरु@ः सहस्रा(ः सहस्र पाद्।

उस परमा_मा की सत्ता में असंख्य प्राशिणयों के नेत्र


हैं। परमा_मा का स्वरूप-वण% न दो तरह से होता है। एक
तो ष्टिवराट के रूप में और एक प्राशिणयों के रूप में। जब
ष्टिवराट स्वरूप का वण% न ष्टिकया जाता है, तो यह दशा%या
जाता है ष्टिक असंख्य सूय[ का प्रकाश उसके तेज की

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 93 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बराबरी में कुछ नहीं है। जब प्राणी वग% के दृ=ान्त से


वण% न ष्टिकया जाता है, तो उसकी ज्ञान-शष्टिŽ को दशा%या
जाता है ष्टिक उसकी असंख्य भुजायें हैं। भुजाओं का
मतलब हमारी जैसी भुजायें नहीं, उसमेें अनन्त शष्टिŽ है।
उसके असंख्य नेत्र हैं। हम तो दस ष्टिकलोमीटर तक की
कोई चीज नहीं देख सकते , ष्टिकन्तु परमा_मा की अनन्त
ज्ञान-शष्टिŽ सबको जानती है। अनन्त भुजायें , अनन्त
नेत्र, अनन्त बाँहें, और अनन्त पैर होने का आशय यह है
ष्टिक उसकी सत्ता सव% त्र है। एक अणु -परमाणु भी उससे
खाली नहीं है।

योगेश्वर श्री कृष्ण ने अजु%न को अपने ष्टिदव्य योगैश्वय%


द्वारा इस स्वरूप को दशा%या था। इसका मतलब यह नहीं
है ष्टिक भगवान श्री कृष्ण सधिSदानन्द परमा_मा हैं। तभी
तो उन्होंने अन्त में कहा-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 94 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तमेव शरणं गच्छ सव% भावेन भारत। गीता १८/६२

हे अजु%न! तू उस परमा_मा की शरण में जा। अब


प्रश्न यह होता है ष्टिक जिजन भगवान श्री कृष्ण जी ने
चतुभ% ज
ु स्वरूप ष्टिदखाया, उसमें ष्टिकरीष्टिटनम् , गष्टिदनं,
चष्टिक्रणं आष्टिद शब्दावलिल का प्रयोग ष्टिकया गया है , अथा%त्
शंख, चक्र, गदा, और पद्म ये चार चीजे हैं जिजनके द्वारा
समाज को संगष्टिठत ष्टिकया जाता है।

यज्ञो वै ष्टिवष्णःु ।

शतपथ ब्राह्मण में इसकी व्याख्या की गई है। ष्टिवष्ण ु


का चतुभ% ज
ु स्वरूप वही है, जो गीता में श्री कृष्ण जी का
चतुभ% ज
ु स्वरूप बताया गया है। जैसे ष्टिक मैंने कहा, शंख
क्या है? उद्घो@क शष्टिŽ। यष्टिद आप समाज को स_य की
तरफ ले जाना चाहते हैं, तो स_य का उद्घो@ करना

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 95 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पड़ेगा। चक्र क्या है? उस शष्टिŽ को स्थानान्तरिरत करना


पड़ेगा। यह स्थानान्तरण की प्रष्टिक्रया है। और तीसरी है
गदा अथा%त् योगेश्वर श्री कृष्ण ने कंस, शिशशुपाल जैसे
असुरों का ष्टिवनाश पहले ही कर ष्टिदया था। अ_याचारी
असुरों का ष्टिवनाश करके उन्होंने स_य की र(ा की थी।
यह है गदा। और पद्म यानी ऐश्वय% के सिंसहासन पर
बैठाना। यह है भगवान ष्टिवष्णु के चतुभ% ज
ु स्वरूप और
योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा ष्टिदखाये गये चतुभ% ज
ु स्वरूप का
रहस्य।

आप जिजस गायत्री मन्त्र का जप करते हैं , उस


गायत्री का आजकल फोटो बनाया जाता है। लोगों ने
गायत्री माता कहना शुरु कर ष्टिदया। माता क्यों कहते हैं ?
आलंकारिरक वण% न के रूप में ष्टिकसी भी स्त्रीलिंलग स्वरूप
को मातृशष्टिŽ से संबोधि'त ष्टिकया जाता है। वेद में एक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 96 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मन्त्र आता है-

स्तुता मया वरदा वेद माता प्रचोदयन्तां पावमानी ष्टिद्वजानां।

आयःु प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिंत द्रष्टिवणं ब्रह्मवच% सं मह्यम् दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।

अथव% वेद १९/७१/१

अब गायत्री का अथ% क्या है ? गायत्री एक छन्द का


नाम है। गायत्री छन्द में २४ अ(र होते हैं। गायत्री देवी
को बैठाया गया है हँस के ऊपर। उन्हें मातृशष्टिŽ के रूप
में दशा%या गया है, पंचमुखी के रूप में भी दशा%या गया है।
इसी तरह से सरस्वती को हँस के ऊपर बैठाया गया है।
इसका भाव क्या है? हँस के ऊपर ही क्यों बैठाया गया
है, इसका क्या कारण है? हँस क्या करता है, हमेशा
मोती चुगता है, यह सबको मालूम है। हँस का रंग श्वेत
होता है, काला नहीं होता। श्वेत रंग सतोगुण का प्रतीक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 97 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। जब तक रज और तम का परिर_याग करके सतोगुण


की अवस्था में नहीं आते , तब तक आपको ऋतम्भरा
प्रज्ञा प्राV नहीं हो सकती। ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राV ष्टिकये
ष्टिबना, आपके अन्दर स_य ज्ञान भी नहीं अवतरिरत हो
सकता। इसलिलये चाहे सरस्वती का स्वरूप हो, चाहे
गायत्री का स्वरूप हो, चाहे ब्रह्मा जी का स्वरूप हो,
सभी को हँस पर ष्टिवराजमान ष्टिकया गया है। ऐसा न
समजिझये ष्टिक वह सचमुच हँस पर बैठते हैं। बेचारा हँस
ष्टिकतना बोझ उठायेगा? यह सब आलंकारिरक वण% न है।

छन्दसां गायत्री। गीता १०/३५

छन्दों में गायत्री कहा गया है , गीता में। उस गायत्री


मन्त्र में सधिSदानन्द परमा_मा की प्राथ% ना की गई है। यह
न समझें ष्टिक ष्टिकसी देवी -देवता की प्राथ% ना की गई है।
वेद में परमा_मा को छोड़कर और ष्टिकसी की भी भष्टिŽ

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 98 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं की गई है। वेद में स्प= कहा है-

न ष्टिद्वतीयो न तृतीयश्चतुथ‘ नाप्यच्ु यते।

न पंचमो न @ष्ठः सVमो नाप्यच्ु यते।।

अथव% वेद १३/४/१६

परमा_मा दो नहीं, तीन नहीं, चार भी नहीं। पाँच


नहीं, छः नहीं, सात भी नहीं। आज ष्टिहन्द ू समाज में
ष्टिकतने परमा_मा हैं? सबको मालूम हैं। केले का पेड़ घर
के आगे खड़ा है, उसमें भी पानी ष्टिगरा ष्टिदया, म_था टेक
लिलया। पीपल का पेड़ खड़ा है, उसको भी सा=ांग प्रणाम
कर लिलया। ईटं -सीमेंट से चबूतरा बना लिलया, वह क्या
हो गया? कुल देवता या कुल देवी। उसको भी खीर-
पूड़ी लिखला दी। एक शिभ(ुक आता है, जिजसके अन्दर उस
परमा_मा की सा(ात् चेतना तो है, उसको द_ु कार कर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 99 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

भगा देते हैं, चलो भागो, नहीं ष्टिमलेगी शिभ(ा। और जो


चबूतरा बोल नहीं सकता, खा-पी नहीं सकता, उसके
आगे भोजन रख देते हैं। यह कौन सी भष्टिŽ है? कौन सा
'म% है ? ष्टिकस ग्रन्थ में लिलखा है ? ऐसा भ्रम इसलिलये है
क्योंष्टिक स_य का बो' नहीं है।

गायत्री मन्त्र में "भूः भुवः स्वः" का आशय है सत्,


धिचद्, आनन्द। "सष्टिवतुः" का अथ% होता है सृष्टि= को
उ_पन्न करने वाले सूय% आष्टिद प्रकाशकों का भी प्रकाशक।
"वरेण्यम्" का अथ% होता है वरण करने योग्य , ध्यान
करने योग्य। "देवस्य" का अथ% होता है आनन्द स्वरूप।
सत्, धिचत्, आनन्द स्वरूप परमा_मा का जो "भग% ः"
तेजोमयी स्वरूप है, जिजसको अरबी में नूर कहते हैं ,
उसको हम "'ीमष्टिह" अथा%त् 'ारण करें। "धि'यो यो न
प्रचोदयात्" का भाव यह है ष्टिक वह परमा_मा हमारी बुधिद्ध

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 100 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

को उत्तम गुण, कम% , स्वभाव में प्रेरिरत करें।

वेद में तो कहीं पर नहीं लिलखा है ष्टिक गायत्री कोई


देवी है, जिजसको हँस पर बैठाया गया है। यह तो कम
बुधिद्ध वाले लोगों की समझ में आने के लिलये ऐसा ष्टिकया
गया है। होता क्या है? कोई महापुरु@ इस संसार में
आता है और वह ष्टिदखाता है ष्टिक देखो वह चाँद है।
दष्टिु नया को चाँद को नहीं पकड़ना है , उसने अँगुली
उठाकर ष्टिदखाई, तो दष्टिु नया अँगुली को पकड़ लेती है ष्टिक
यही सब कुछ है। हर महापुरु@ ने उस सधिSदानन्द
परमा_मा की भष्टिŽ की है , लेष्टिकन दष्टिु नया परमा_मा की
भष्टिŽ नहीं करती, उन महापुरु@ों की भष्टिŽ करती है। यह
तो प्रधितद्वत्मिन्द्वता हो गई। यष्टिद परमा_मा की जगह कोई
और आ जाये, तो वह परमा_मा से सी'े प्रधितद्वत्मिन्द्वता
खड़ी करता है। वेद कहते हैं-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 101 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

न _वावां अन्यो ष्टिदव्यो न पार्णिथवो न जातो न जष्टिनष्यते।

ऋग्वेद ७/३२/२३

जिजनको भारतीय संस्कृधित पर, अपने ष्टिहन्द_ु व पर


आस्था होती है, वे वेद को अत्मिन्तम प्रमाण मानते हैं। वेद
क्या कहते हैं- हे परमा_मा! तुम्हारे समान "न _वावां
अन्यो" न कोई दस
ू रा था, न है और न कभी होगा।
लेष्टिकन ष्टिहन्द ू समाज कहाँ मानने वाला है? उसके अन्दर
तो अज्ञानता का अन्'कार भरा हुआ है। वह स_य को
स्वीकार करने में रुधिच नहीं ष्टिदखाता। हमने अपनी
कल्पना से सधिSदानन्द परमा_मा के समानान्तर ष्टिकतने
परमा_मा खड़े कर ष्टिदये हैं।

भगवान शिशव का फोटो देलिखये , हमेशा ध्यान में बैठे


रहते हैं। ष्टिकसका ध्यान कर रहे हैं? क्या परमा_मा,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 102 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा का ध्यान करेगा? भगवान शिशव की पूजा क्या


है? हम भगवान शिशव के आदश[ पर चलें। धिचत्र-पूजा की
अपे(ा चरिरत्र की पूजा ज्यादा श्रेयस्कर है। भगवान शिशव
के गुणों को तो कोई नहीं अपनाता ष्टिक भगवान शिशव
संसार से नाता तोड़कर ष्टिहमालय की गुफा में बैठे हैं।
ष्टिदन-रात ध्यान में रहते हैं। उनकी पूजा तो वही है ष्टिक
हम उनके पद-धिचन्हों पर चलें। सांकत्मिल्पक सृष्टि= के
प्रारम्भ में जो भी महान शष्टिŽयाँ प्रकट हुई ं , अवतरिरत
हुई,ं जिजन्होंने ष्टिदन-रात परमा_मा का ध्यान ष्टिकया, यष्टिद
आने वाली पीष्टिढ़याँ उनके पद-धिचन्हों पर चलती तो यही
उनकी सSी पूजा होती। लेष्टिकन व्यवहार में ऐसा नहीं
देखा जाता। हनुमान जी के पुजारी कभी हनुमान जी के
पद-धिचन्हों पर नहीं चलते। हनुमान जी आष्टिद_य
ब्रह्मचारी हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी हैं, योगी हैं, वेदवेत्ता हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 103 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उनके भŽों को भी चाष्टिहये ष्टिक उनके पद -धिचन्हों पर


चलें। तभी तो हनुमान जी के सSे भŽ कहे जायेंगे।

अभी बात गायत्री मन्त्र पर चल रही थी। गायत्री


मन्त्र कहता है ष्टिक एक परमा_मा की भष्टिŽ कीजिजये।
लेष्टिकन जब गायत्री की मूर्तित बन जाती है, धिचत्र बन जाता
है, तो उसी मूर्तित और धिचत्र की पूजा होने लगती है।

शिशव का अथ% है कल्याणकारी। शिशव -स्वरूप जो


कल्याणकारी परमा_मा है, 'म% रूपी बैल पर ष्टिवराजमान
होता है।

उसी तरह से सारी सृष्टि= का र(क ष्टिवष्णु है। ष्टिवष्णु


का अथ% क्या है? जो सत्ता से सव% त्र व्यापक हो, उसको
ष्टिवष्णु कहते हैं। सबकी र(ा करने वाला, अपनी सत्ता से
अण-
ु परमाणु में भी व्यापक रहने वाला परमा_मा चतुभ% ज

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 104 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

स्वरूप है। शंख, चक्र, गदा, पद्म द्वारा 'म% की र(ा


करता है। यानी अस_य का ष्टिवनाश करने वाली शष्टिŽ
द्वारा, ज्ञान के उद्घो@ द्वारा, सदाचार द्वारा, और ऐश्वय%
द्वारा संसार की वह र(ा करता है, इसलिलये उसको
चतुभ% ज
ु स्वरूप कहा गया। गरुड़ रूपी स_य पर
ष्टिवराजमान रहता है, इसलिलये उसको गरुड़ की सवारी
करते हुए ष्टिदखाया गया है।

एक बात और है। महारा=्र में गणेश पूजा बहुत होती


है। एक-एक शहर के अन्दर लोगों की इतनी श्रद्धा है ष्टिक
करोड़ों-अरबों रुपये गुजरात-महारा=्र में गणेश पूजा में
ख_म हो जाते हैं। भोला-भाला समाज गणेश जी की
मूर्तित बनाता है। कुछ ष्टिदन पूजा करेगा , ष्टिफर मूर्तित को
पानी में छोड़ आयेगा। यह कौन सी भष्टिŽ है ? कुछ ष्टिदनों
तक तो म_था टेकते रहे हैं, आरती-पूजा करते रहे हैं,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 105 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिफर उसी के टु कड़े-टु कड़े कर रहे हैं। गणेश ष्टिकसको


कहते हैं, यह समझना होगा। देलिखए, ज्ञान के लोप होने
से ष्टिकस तरह की ष्टिवकृधितयाँ हो जाती हैं। यष्टिद प्रबुद्ध वग%
इस पर ष्टिवचार करेगा तो मालूम होगा ष्टिक समाज को ज्ञान
की ष्टिकतनी आवश्यकता है। वेद में कहा है-

गणानां _वा गणपतिंत हवामहे।

ष्टिप्रयाणां _वां ष्टिप्रयपतिंत हवामहे। यजुव”द २३/१९

गणपधित ष्टिकसको कहते हैं ? गण कहते हैं समूह को।


गणनीय पदाथ[ का जो स्वामी है , अनन्त ब्रह्माण्डों का
जो स्वामी है, वह गणपधित है।

ष्टिप्रयाओं का ष्टिप्रयपधित कौन है ? एक परमा_मा।


गणेश जी का तो ष्टिववाह ही नहीं हुआ था।

ष्टिन'ीनां _वां ष्टिनधि'पतिंत हवामहे। यजुव”द २३/१९

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 106 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिनधि'यों के ष्टिनधि'पधित! हम तुम्हारी स्तुधित करते हैं।

वसो मम अहमजाष्टिन। यजुव”द २३/१९

आप वसु हैं। सबको अपनी सत्ता में वास कराने वाले


हैं।

गभ% 'मा _वमजाजिस गभ% 'म्। यजुव”द २३/१९

आप तो अजन्मा हैं, सबको अपनी सत्ता में 'ारण


करने वाले हैं। कहाँ गणनीय पदाथ[ के स्वामी गणपधित
और कहाँ हाथी के मुख वाले गणेश जी? जिजनकी सवारी
आपको मालूम है। एक चूहे के ऊपर एक ष्टिकलो वजन
रख दीजिजये, तो बेचारा दो कदम भी नहीं चल पायेगा।
वास्तष्टिवकता क्या है?

भगवान शिशव के पुत्रों का नाम है - गणेश और


कार्तितकेय। दोनों योष्टिगराज शिशव के पुत्र हैं। भगवान शिशव

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 107 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

के पुत्र गणेश जी ष्टिवद्या के समुद्र हैं। इतने बुधिद्धमान हैं ष्टिक


उन्होंने एक यान बनाया था, जिजसका नाम ही "मू@क"
था। उस मू@क यान पर बैठकर वे लोक-लोकान्तरों की
यात्रा ष्टिकया करते थे। ऐसा नहीं है ष्टिक यह जो चूहा है ,
उस पर बैठते थे। यह चूहा बेचारा क्या ढोयेगा।

यष्टिद हम भारद्वाज ऋष्टि@ के ष्टिवमानशास्त्र को पढ़ें , तो


पता चलेगा ष्टिक उस समय भी उन्नत दशा में ष्टिवमान ष्टिवद्या
थी। ष्टिवमानों का ष्टिनमा%ण ष्टिकया जाता था , और ऋष्टि@,
महर्मि@, तथा मनी@ीजन उन पर यात्रा ष्टिकया करते थे।

ष्टिहन्द ू समाज से पूशिछए, कहेंगे ष्टिक हम ३३ करोड़


देवी-देवताओं को मानते हैं। कोष्टिट का अथ% क्या होता
है? प्रकार। देवता ष्टिकसको कहते हैं, यह तो कोई
समझता ही नहीं। 'म% ग्रन्थों में कहा गया है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 108 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मातृदेवो भव, ष्टिपतृदेवो भव, अधितशिथ देवो भव, आचाय% देवो भव।

तैत्तरीय उपष्टिन@द प्रथमा वल्ली/एकादशोऽनुवाकः

माता इसलिलये देवता है, क्योंष्टिक उन्होंने जन्म ष्टिदया


है। जब आप बSे होंगे, आप कपड़े गीले करते होंगे, तो
पूरी रात आपकी माँ स्वयं गीले कपड़े पर सोती रही है
और आपको अच्छे कपड़े पर सुलाती रही है। यह माँ की
ममता है, इसलिलये उसको देवता कहा है।ै ष्टिपता देवता है
क्योंष्टिक उसने हमारा पालन -पो@ण ष्टिकया है। अधितशिथ
देवता है क्योंष्टिक उसने 'म‘पदेश देकर अन्'कार से
ष्टिनकाला है। आचाय% देवता है क्योंष्टिक उसने ज्ञान ष्टिदया
है। ये तो प्र_य( चेतन देवता हैं। इनकी तो कोई पूजा
नहीं करता, इनको तो प्रणाम भी नहीं करता। काल्पष्टिनक
कहानी गढ़ ली है ३३ करोड़ देवताओं की।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 109 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

३३ देवता क्या हैं?

अ= वसु - वसु उसे कहते हैं, जिजसमें या जिजनके


द्वारा प्रजा वास करे। पाँच त_व, सूय%, चन्द्र, और न(त्र-
ये आठ वसु कहलाते हैं।

द्वादश आष्टिद_य- व@% के बारह महीने क्योंष्टिक ये


सबकी आयु को हर लेते हैं।

एकादश रूद्र- दस प्राण और ग्यारहवाँ मन।

यज्ञ- यज्ञ क्या है? अभी हम लोग यज्ञ कर रहे हैं।


यह कौन सा यज्ञ है ? ज्ञान यज्ञ। हम लोग इस समय
अपने अन्तःकरण रूपी कुण्ड में ज्ञान यज्ञ की आहुधितयाँ
डाल रहे हैं। यह है यज्ञ। यज्ञ को प्रजापधित कहा गया है ,
क्योंष्टिक इसके द्वारा समाज का ष्टिनमा%ण होता है।

इन्द्र- जिजसको कहते हैं ष्टिवद्युत। अभी ष्टिवद्युत चली

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 110 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जाये, तो क्या होगा? न मैं आपको देख पाऊँगा, न आप


मुझे देख पायेंगे। इन्द्र का अथ% होता है ऐश्वय% । यह ष्टिवद्युत
जो है, सम्पूण% ऐश्वय% का कारण है।

ये तैंतीस जड़ देवता हैं। इन तैंतीस जड़ देवताओं


से परे चौंतीसवाँ उपास्य देव परमा_मा है। कहीं भी नहीं
लिलखा ष्टिक ३३ जड़ देवताओं के पीछे -पीछे भागो।

एकमेव अष्टिद्वतीयं। ऐतरेय ब्राह्मण

उपष्टिन@दों का कथन है ष्टिक परमा_मा एक है। उसके


समान न कोई दस
ू रा था, न है, और न होगा। अनेक देवों
की उपासना न वेद कहते हैं, न उपष्टिन@द कहते हैं, न
दश% न शास्त्र कहते हैं , न गीता कहती है, और न ष्टिकसी
अन्य आ@% ग्रन्थ में इसका प्रमाण है। एक मुत्मिस्लम सब
कुछ करेगा, लेष्टिकन एक अल्लाह को छोड़कर ष्टिकसी अन्य

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 111 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

की भष्टिŽ नहीं करेगा। ष्टिक्रधिश्चयन भी यही करता है। जिसख


भी एक परमा_मा को मानता है, लेष्टिकन सनातनी कहा
जाने वाला पौराशिणक ष्टिहन्द ू समाज सधिSदानन्द परब्रह्म से
ष्टिवमुख हो बैठा है।

रूपक अलंकार की भा@ा को न समझने से वह


काल्पष्टिनक परमा_मा की भावना में जुड़ा हुआ है। स_य
रूपी परमा_मा बहुदेववाद से अलग है। आप अपनी
आँ खों पर पट्टी बाँ' लीजिजये और एक पेड़ पर प_थर
मारिरये। टोकरे के टोकरे प_थर मार दीजिजए। जब शाम को
आप पट्टी खोलेंगे तो ष्टिकतने फल ष्टिगरेंगे , कुछ भी नहीं,
क्योंष्टिक आपका लक्ष्य व्यथ% था। आपने तो समझा ही
नहीं ष्टिक परमा_मा ष्टिकसको कहते हैं।

हमारी भष्टिŽ कैसी होनी चाष्टिहये ? जिजसकी आप


भष्टिŽ कर रहे हैं , उसके बारे में बो' ही नहीं है ष्टिक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 112 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा कौन है, कैसा है, कहाँ है, ष्टिकतने हैं? ष्टिफर
आपका ष्टिनशाना तो व्यथ% चला जायेगा। इसलिलये भŽों
की संख्या तो बहुत ष्टिदखाई देती है, ष्टिकन्तु उसको पाने
वाले ष्टिवरले होते हैं।

यमाचाय% ने नधिचकेता से कहा है - "हे नधिचकेता!


पहले तो यह ज्ञान सुनने को नहीं ष्टिमलता और यष्टिद
सुनाने वाला ष्टिमल जाये तो सुनने वाले नहीं ष्टिमलते। "
अभी आप देख रहे हैं न, चौथाई मण्डप भी नहीं भरा है।
यष्टिद यहाँ नृ_य, संगीत, धिचत्रपट (जिसनेमा) का काय% क्रम
हो जाये, तो ष्टिकतनी भीड़ लगेगी? खड़े होने की जगह
नहीं रहेगी। संसार बाहर की तरफ भागता है। अपने
स्वरूप को जानने वाला, समझने वाला कोई ष्टिवरला ही
होता है।

शुकदेव जी ब्रह्मज्ञान लेने के लिलये जनक जी के

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 113 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पास गये। जनक जी ने उनकी परी(ा लेने के लिलये


द्वारपालों को कह ष्टिदया- "देखो! शुकदेव जी आ रहे हैं,
उनको अन्दर नहीं घुसने देना। तीन ष्टिदन बाहर बैठाये
रखना।" शुकदेव जी राजमहल के दरवाजे के बाहर तीन
ष्टिदन तक बैठे रहे, कोई पानी पूछने वाला नहीं, भोजन के
लिलये पूछने वाला नहीं। अन्त में राजा जनक आते हैं और
स्वागत करके अन्दर ले जाते हैं। यह परी(ा ली जा रही
थी ष्टिक ब्रह्मज्ञान को पाने के लिलये ष्टिकतनी प्यास है।

यहाँ तो आपको जबरन सुनाया जाता है, जबरन


बुलाया जाता है, वह भी हाथ जोड़-जोड़ कर। भाई
साहब! हमारे यहाँ काय% क्रम हो रहा है, चलिलए। कोई
आता है, तो क्या कहता है? एहसान जताता है ष्टिक हम
आपके काय% क्रम में आ गये।

ष्टिबना प्यास के पानी ष्टिदया जाये , तो उसका मह_व

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 114 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकसी को मालूम नहीं होता है। आज के भौधितकवादी यगु


में ष्टिवरले लोगों को धिचन्ता है ष्टिक हमें परमा_मा का ज्ञान
चाष्टिहये। हाँ, कहीं चम_कार हो जाता है , तो उसके पीछे
दष्टिु नया भागी जायेगी। आपको ष्टिवष्टिदत ही है ष्टिक मथुरा में
तेल-शो'क कारखाना है और उसमें बरौनी से तेल
आता है। पाईप लाइन अन्दर ही अन्दर गंगा जी में से
होकर आती है। एक बार पाईप में छे द हो गया, तेल गंगा
के ऊपर बहने लगा, और सूय% की 'ूप से उसमें आग
लग गई, तो बहुत बड़ा जन समूह इकट्ठा हो गया। लोगों
ने स्नान ष्टिकया, दान-पुण्य ष्टिकया ष्टिक देखो! गंगा जी में
आग लग गई है। दष्टिु नया को चम_कार चाष्टिहये। परमा_मा
क्या है? परमा_मा कहाँ है? परमा_मा कैसा है? हम कौन
है? आये कहाँ से है? यह शरीर और संसार को छोड़ने
के पश्चात् हमें जाना कहाँ है? इसको जानने की जिजज्ञासा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 115 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सांसारिरक लोगों के पास नहीं होती है।

पारब्रह्म तो पूरन एक हैं, ए तो अनेक परमेश्वर कहावें।

अनेक पंथ सब जुदे जुदे, और सब कोई शास्त्र बोलावें।।

एक परमा_मा को छोड़कर अनेक के पीछे दष्टिु नया


भागती ष्टिफरती है। एक वृ( है , उसकी जड़ में पानी दे
दीजिजये, तो पूरा वृ( हरा -भरा रहेगा। तने, डालिलयाँ,
फल, फूल सभी हरे रहेंगे। पत्ते-पत्ते पर पानी देते रहेंगे,
तो कभी भी वृ( हरा-भरा नहीं होगा।

बारह साल का बSा भी जानता है ष्टिक परमा_मा


ष्टिकतने हैं? सब कहते हैं ष्टिक परमा_मा एक है , ष्टिफर एक
को छोड़कर अनेक की भष्टिŽ क्यों? पधितव्रता के ष्टिकतने
पधित होते हैं ? सबको मालूम है। योगेश्वर श्री कृष्ण जी
कहते हैं- "हे अजु%न! यष्टिद तू उसको पाना चाहता है, तो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 116 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अनन्य प्रेम द्वारा वह ष्टिमलेगा।"

पुरु@ः स परः पाथ% भक्_या लभ्यस्_वनन्यया।

गीता ८/२२

अनन्य का अथ% क्या होता है ? जिजसमें उसके


जिसवाय कोई दस
ू रा न हो। जब परमा_मा एक है, तो
उसकी जगह हमने प्रधितद्वन्द्वी क्यों खड़ा कर लिलया? गुरु
गोहिंवद सिंसह जी को जब परमा_मा कहा जाने लगा, तो
उन्होंने बहुत कठोर शब्दों में कहा-

जो नर मोहे परमेश्वर उचरहिंह, ते घोर नरक में परहीं।

ष्टिफर भी लोगों ने कहना बन्द नहीं ष्टिकया। आज


आपको तो मालूम ही है ष्टिक गली-गली में ष्टिकसके मत्मिन्दर
बन गये, सांई बाबा के। दष्टिु नया चम_कार देखती है। सांई
बाबा का फोटो लगाकर दष्टिु नया उनको परमा_मा मानती

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 117 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। वह "सबका मालिलक एक" कहते हैं। वह खद


ु नहीं
कहते ष्टिक मैं ही एक परमा_मा हूँ। लेष्टिकन दष्टिु नया सांई
बाबा को परमा_मा मानेगी, और तो और बापूजी को भी
परमा_मा मानकर उनकी भी पूजा होने लगी। कहने का
ता_पय% क्या है? सृष्टि= में यष्टिद कोई महान पुरु@ होता है ,
तो उसके गुणों की पूजा कीजिजए। उसको परमा_मा की
जगह पर मत बैठाइए।

परमा_मा ने सृष्टि= को बनाया है, परमा_मा में अनन्त


गुण हैं। उन गुणों की कुछ छाया महापुरु@ों के अन्दर
आती है। हमें इनके पद-धिचन्हों पर चलना चाष्टिहये ष्टिक
जिजस माग% पर चलकर इन्होंने इस मत्मिन्जल को पाया है ,
हम भी उस मत्मिन्जल को प्राV करें। हम "अहम् ब्रह्मात्मिस्म"
की अवस्था को प्राV कर सकते हैं। हम "अन् अल्
हक" की अवस्था को प्राV कर सकते हैं , लेष्टिकन खद

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 118 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वह नहीं बन सकते। वह तो अपने में एक अकेला है।


परमा_मा के प्रधित प्रेम की ष्टिनष्ठा कम हो जाने से आज
संसार दख
ु ी है। दख
ु ों के मूल में क्या है? तृष्णा! यह क्यों
पैदा होती है? अज्ञानता के कारण।

अभी कुछ आलंकारिरक व्याख्यायें और हैं , जिजनको


मैं सं(ेप में बता देता हूँ। लक्ष्मी जी की सवारी क्या
बताई गई है? उल्ल।ू लक्ष्मी जी को उल्लू पर क्यों बैठाया
जाता है? उल्लू की एक ष्टिवशे@ता यह होती है ष्टिक उसको
ष्टिदन में ष्टिदखाई नहीं पड़ता, रात में ही ष्टिदखाई पड़ता है।
यष्टिद ष्टिकसी व्यष्टिŽ के पास अनावश्यक 'न हो जाता है ,
तो वह भी अपना ष्टिववेक खो देता है अथा%त् ष्टिदन में भी
उसको ष्टिदखाई नहीं पड़ता। अहंकार में वह इतना पागल
हो जाता है ष्टिक मेरे जैसा कोई नहीं।

यष्टिद मनुष्य रात के अन्'ेरे में छत पर खड़ा हो जाये

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 119 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और आकाश की तरफ देखे, तो उसका अहंकार अपने


आप समाV हो जायेगा। आकाश में अपनी पृथ्वी से
लाखों गुना बड़े ष्टिकतने तारे घूम रहे हैं। यह जो सूय% है ,
पृथ्वी से १३ लाख गुना बड़ा है, और हमारा सूय% तो
आकाशगंगा का सबसे छोटा सूय% है। हमारी आकाशगंगा
में इस सूय% जैसे करोड़ों सूय% हैं , और ब्रह्माण्ड में जिजतनी
आकाशगंगाओं का पता चला है, उसमें हमारी
आकाशगंगा (ष्टिनहारिरका) एक छोटी आकाशगंगा है। आप
कल्पना नहीं कर सकते , इस नश्वर ब्रह्माण्ड में ष्टिकतने
सूय% हैं, ष्टिकतनी पृत्मिथ्वयाँ हैं, और हम पृथ्वी के एक छोटे
से देश में रहते हैं। देश के भी एक नगर में रहते हैं। हमारा
क्या वजूद है?

मनुष्य चार ष्टिदन का यौवन पा लेता है, थोड़ा सा


पद पा लेता है, थोड़ा सा 'न पा लेता है, तो वह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 120 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सव% शष्टिŽमान की सत्ता से अपने को ष्टिवमुख कर लेेता है।


ष्टिकतनी बड़ी भूल है? जब प(ी हिंपजड़े से उड़ जाता है,
तो उसका क्या मह_व रह जाता है, कुछ भी नहीं? इस
शरीर को अष्टि° की लपटों के हवाले कर ष्टिदया जाता है।
लेष्टिकन अहंकार में पागल यह प्राणी , यह जीव ष्टिवचार
नहीं कर पाता ष्टिक रे मानव! तू सव% शष्टिŽमान की सत्ता से
ष्टिवमुख होकर अपने जीवन के अनमोल पलों को खो रहा
है। ष्टिकस 'न पर तू इतराता है? यह 'न तो कुछ है ही
नहीं।

कल्पना कीजिजये ष्टिक ष्टिकसी के पास एक ट्रक हीरे हो


जायें। ये हीरे ष्टिकससे बनते हैं? कोयले से। कोयला
ष्टिकससे बनता है, लकड़ी से। आलिखर लकड़ी का काला
कोयला ही तो दबकर अष्टि° के संयोग से हीरा बन जाता
है। उसमें कौन सी ष्टिवशे@ता है? सोना क्या है? ष्टिमट्टी है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 121 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लेष्टिकन जिजसके पास ज्यादा सोना हो, वह अपने को बड़ा


समझता है। ये हीरे, मोती, सोना, चाँदी क्या हैं? ये सब
कुछ ष्टिमट्टी ही तो है। मनुष्य इसी को पाकर खश
ु होता है।
सारा ब्रह्माण्ड तो नश्वर है। सूरज, चाँद, जिसतारे, पृथ्वी,
हमारा शरीर सब कुछ काल के गाल में समा जाने वाले
हैं। इन नश्वर वस्तुओं पर मनुष्य को कभी भी अहंकार
नहीं करना चाष्टिहए।

हाँ, यष्टिद मनुष्य सव% शष्टिŽमान परमा_मा की सत्ता के


बारे में ष्टिवचार करे ष्टिक वह अनाष्टिद है , अखण्ड है, सत्,
धिचद्, आनन्द का स्वरूप है, और मेरा जीव ८४ लाख
योष्टिनयों में भटकता रहा है। मैं उस सधिSदानन्द परमा_मा
को क्यों न प्राV करूँ।

जब मनुष्य के पास अनावश्यक 'न हो जाता है,


तो वह दय
ु ‘'न की तरह अहंकारी हो जाता है। दय
ु ‘'न

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 122 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

की आदत क्या थी? वह भीष्म ष्टिपतामह का भरी सभा में


अपमान करता था। द्रोणाचाय% का अपमान कर देता था,
ष्टिवदरु का कर देता था, श्री कृष्ण जी का भी कर ष्टिदया
था। वह ष्टिकसी को भी सम्माष्टिनत करना नहीं जानता था।
इसलिलए आलंकारिरक रूप में यही कहा जाता है ष्टिक
लक्ष्मी जी पर उसका पूरा अधि'कार था। यानी लक्ष्मी जी
की सवारी उल्लू ष्टिकस प्रकार है? जिजस तरह से उल्लू को
ष्टिदन में ष्टिदखाई नहीं देता , उसी प्रकार जिजस व्यष्टिŽ के
पास ज्यादा 'न आ जाता है, उसका ष्टिववेक न= हो
जाता है, और उसको स_य-अस_य की पहचान नहीं
होती, इसलिलए लक्ष्मी की सवारी उल्लू कही गयी है।

ज्ञान की अधि'ष्ठात्री देवी सरस्वती को हँस पर क्यों


बैठाया गया है? क्योंष्टिक जो हँस की तरह अपने हृदय को
स्वच्छ कर लेगा, सतोगुण से यŽ
ु हो जायेगा , उसके

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 123 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पास ष्टिवद्या का प्रकाश हो जायेगा। हाथों में वीणा क्यों


पकड़ाई गई है? क्योंष्टिक वीणा संगीतमयी भष्टिŽ का
प्रतीक है।

संगीत क्या है? प्राचीनकाल में संगीत परमा_मा की


आरा'ना के लिलये था और आजकल का संगीत
ष्टिवलाजिसता के लिलये है। संगीत जब ष्टिवलाजिसता के लिलये
प्रयोग होने लगता है, तो समझ लीजिजये ष्टिक संसार के
ष्टिवनाश की घड़ी आ गई है। हनुमान जी के साथ-साथ
जो भी महापुरु@ हुए, चाहे वह नारद जी हों, या
सरस्वती जी हों, दोनों के हाथों में वीणा है। यह दशा%ने
के लिलये ष्टिक ज्ञान के साथ-साथ भष्टिŽ का समन्वय होना
चाष्टिहये। भष्टिŽ है तो आपके हृदय में ज्ञान का प्रकाश
होगा, इसीलिलये सरस्वती जी के हाथों में वीणा पकड़ाई
गई है। यह आलंकारिरक रूप से वण% न ष्टिकया गया है,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 124 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वास्तव में ऐसा नहीं है।

अब मैं सं(ेप में दगु ा% जी का आलंकारिरक वण% न कर


देना चाहूँगा। जब दशहरे का _योहार होता है, मोहल्ले-
मोहल्ले में दगु ा% जी की अ=भुजी-दशभुजी प्रधितमायें बनाई
जाती हैं। लोग दगु ा% जी का पाठ करते हैं , यह दशा%ने के
लिलये ष्टिक दगु ा% जी ने मष्टिह@ासुर रा(स का व' ष्टिकया था।
अब प्रश्न यह है ष्टिक मष्टिह@ासुर रा(स कौन है ? "मष्टिह@"
कहते हैं भैंसे को। भैंसे का रंग क्या होता है ? काला।
ष्टिकसी ने सफेद भैंसा तो आज तक देखा नहीं होगा।
जिजस तरह से हँस का रंग सफेद होता है, उसी तरह से
भैंसे का रंग काला होता है। शंकर जी का जो बैल है , वह
भी सफेद है। श्वेत रंग स_य का प्रतीक है। श्वेत रंग शात्मिन्त
का प्रतीक है। उसी तरह से काला भैंसा तमोगुण का
प्रतीक है। तम में अज्ञानता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 125 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मारकण्डेय पुराण में वर्णिणत है ष्टिक जब दगु ा% जी का


मष्टिह@ासुर रा(स से यद्ध
ु हो रहा था, उस समय उसकी
सेना में रŽबीज नामक एक योद्धा था , जिजसका शिशर
कटते ही जिजतनी बूँदे 'रती पर ष्टिगरती थीं, उतने ही नये
रŽबीज पुनः पैदा होकर यद्ध
ु करने लगते थे। उनको
मारने के लिलये दगु ा% जी के तन से काली जी प्रकट हुई।ं
उन्होंने रŽबीज का शिशर काटकर खप्पर में रŽ भरकर
ऊपर ही ऊपर पी लिलया और एक बूँद भी 'रती पर
ष्टिगरने नहीं ष्टिदया। इस प्रकार रŽबीज रा(स का पतन
हुआ।

इसका गुह्य आशय इस प्रकार है - सांसारिरक सुखों


की वासना का बीज ही वह रŽबीज रूपी रा(स है, जो
जीव के धिचत्त में ष्टिवद्यमान होकर उसे बारम्बार जन्म -
मरण के चक्र में भटकने के लिलये ष्टिववश करता है। इसके

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 126 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवनाश के लिलये दैवी सम्पदा (दगु ा%) से प्रकट शष्टिŽ


(काली जी) की भयंकर ज्ञान रूपी तलवार चाष्टिहए, जो
वासना बीज को जड़-मूल से ध्यान रूपी खप्पर में
पीकर न= कर दे। ऐसा होने पर ही भव-रोग का बन्'न
समाV हो सकेगा।

गीता में तीन गुणोें की ष्टिववेचना बहुत अच्छी तरह से


की गई है। सतोगुण की राह पर चलकर मनुष्य
आत्मि_मक-लाभ प्राV कर लेता है , आ_मज्ञानी बनता है,
ब्रह्मज्ञानी बनता है। रजोगुण में आसष्टिŽ में बन्'कर कम%
करता है। तमोगुण से ग्रजिसत होकर अज्ञानता के
अन्'कार में भटकता है और ष्टिवनाश को प्राV होता है।

ऊध्व‚ गच्छत्मिन्त सत्त्वस्था मध्ये धितष्ठत्मिन्त राजसाः।

जघन्यगुणवृलित्तस्था अ'ो गच्छत्मिन्त तामसाः।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 127 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गीता १४/१८

तामजिसक व्यष्टिŽ हमेशा झगड़ालू होगा। वह माँस का


सेवन करेगा। जरा सी बात पर लड़ने -मरने के लिलये
तैयार होगा। मष्टिह@ासुर रा(स है। उसके अ_याचार से
सभी देव वग% पीष्टिड़त हैं। देव वग% ष्टिकसको कहते हैं ? जो
स_य को जानते हैं, स_य को मानते हैं, और स_य का
आचरण करते हैं, वे देवता हैं।

ये स_यम् आचरत्मिन्त ते देवाः अनृतम् मनुष्याः।

जो स_य का आचरण करते हैं, वे देवता हैं। जो झूठ


बोलते हैं, वे मनुष्य हैं, और जो हमेशा झूठ बोलते हैं, वे
असुर हैं। मष्टिह@ासुर तमोगुण का प्रतीक है, अज्ञान का
प्रतीक है। उसको ष्टिकसने मारा? दगु ा% जी ने। मष्टिह@ासुर
के आतंक से सारा देव समूह उस समय त्रस्त हो गया।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 128 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सभी देवताओं की सभा हुई और उसमें मष्टिह@ासुर के


ऊपर ष्टिवचार ष्टिकया गया ष्टिक यह तो ष्टिकसी के मारे नहीं
मर रहा है। इसका ष्टिवनाश कैसे ष्टिकया जाये ? अन्त में
सभी देवों के शरीर से एक तेज ष्टिनकला, जिजसने नारी का
रूप 'ारण कर लिलया। उसको पाव% ती जी ने अपने सिंसह
की सवारी दी। ष्टिवष्णु भगवान ने अपना चक्र ष्टिदया। शंकर
जी ने अपना ष्टित्रशूल ष्टिदया। ब्रह्मा जी ने अपना पाश ष्टिदया।
इसी तरह से सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र
ष्टिदये और उसने मष्टिह@ासुर रा(स का व' कर ष्टिदया। अब
इसको आलंकारिरक रूप से समजिझये।

तमोगुण के धिघर जाने पर ही अज्ञानता होती है।


जब मनुष्य माँस का सेवन कर ले , नशीले पदाथ[ का
सेवन कर ले, तो उसके अन्दर से ष्टिववेक चला जाता है।
वह ष्टिनण% य नहीं कर पाता ष्टिक मैं क्या कर रहा हूँ। तमोगुण

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 129 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रूपी रा(स का व' कौन करेगा? देवता, जो सतोगुण के


प्रतीक हैं।

आपके शरीर में दो सम्पदायें हैं - दैवी और आसुरी।


दो ष्टिवचार हैं- दैवी ष्टिवचार और आसुरी ष्टिवचार। यानी
सतोगुण रूपी देवताओं के शरीर से ष्टिनकली हुई शष्टिŽयों
ने एकष्टित्रत होकर दस भुजाओं वाली दगु ा% का रूप 'ारण
ष्टिकया। दस भुजायें क्या है ? पाँच ज्ञानेत्मिन्द्रयाँ और पाँच
कम”त्मिन्द्रयाँ। पाँच ज्ञानेत्मिन्द्रयों और पाँच कम”त्मिन्द्रयों का
राजा कौन है? मन। जिजसने सतोगुण भावना स्वीकार कर
अपने मन रूपी सिंसह को जीत लिलया, मन पर सवारी
करने लगा, वही अज्ञान रूपी मष्टिह@ासुर रा(स का व'
कर सकता है। इसलिलये दगु ा% जी को सिंसह पर बैठा हुआ
ष्टिदखाया गया है। वह सिंसह क्या है? मन। जिजसने अपने
मन को जीत लिलया, उसने संसार को जीत लिलया, "मन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 130 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जीते जग जीते"। संसार इसका आशय नहीं समझता।

चारों वेदों में कहीं भी "दगु ा%" शब्द नहीं है , लेष्टिकन


एक काल्पष्टिनक आलंकारिरक वण% न को यथाथ% ता का रूप
दे ष्टिदया गया। 'म% ग्रन्थों में शिछपे हुये रहस्यों को
वास्तष्टिवक रूप से न समझने के कारण ये भ्रात्मिन्तयाँ हो
जाती हैं। कहीं अ=भुजी कहा गया। अ=भुजी का अथ%
क्या होता है? जैसे आठ ष्टिदशायें हैं और आठों ष्टिदशाओं
में यष्टिद स_य की सत्ता है, तो उसी सव% शष्टिŽमान या ज्ञान
के प्रकाश की सत्ता को दशा%ने के लिलये अ=भुजी स्वरूप
की कल्पना की गई है। यह सभी रूपक हैं। ष्टिकस तरह से
शिभन्न-शिभन्न देवताओं को ष्टिकसी न ष्टिकसी सवारी पर
बैठाया गया। उसका भी अलग-अलग रूपक है।
वास्तष्टिवकता यह है ष्टिक हम स_य को मानें।

समुद्र का मन्थन करके चौदह र_न ष्टिनकालने की

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 131 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बात आती है। चौदहवाँ र_न अमृत है और उस अमृत से


देवताओं का अमर होना कहा गया है। समुद्र क्या है ?
यह शरीर ही समुद्र है। देवता और असुर , दोनों ष्टिमलकर
समुद्र का मन्थन करते हैं। अथा%त् हमारे अन्दर दो ष्टिवचार
हैं- दैवी और आसुरी।

देवता वासुकी नाग की रस्सी बनाते हैं, मन्दराचल


को पहाड़ बनाते हैं। मन्दराचल क्या है? वह मेरूदण्ड है।
आप जानते हैं ष्टिक आठ चक्रों से यŽ
ु जो सु@ुम्ना है , वह
मेरूदण्ड के अन्दर से गयी है। इसी सु@ुम्ना के आठ
ष्टिबन्द ु आठ चक्र कहलाते हैं। इसको मथानी बनाकर मथा
जाता है। देवता पूँछ की तरफ लगते हैं और असुर मुँह
की तरफ लगते हैं। पूँछ क्या है? ष्टिवनम्रता का प्रतीक है।
सतोगुण मनुष्य में ष्टिवनम्रता देता है और तमोगुण मनुष्य में
अहंकार देता है। मन्थन का क्या अथ% है ? योगरूपी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 132 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अभ्यास के मन्थन से जब आसुरी शष्टिŽयों पर ष्टिवजय


प्राV हो जाती है , समाधि' अवस्था प्राV हो जाती है , तो
अनेक जिसधिद्धयों रूपी उपहारों (र_नों) के साथ अमृत की
प्राष्टिV होती है।

तमेव ष्टिवष्टिद_वाधित मृ_यम


ु ेधित। यजुव”द ३१/१८

उस परमा_मा को जानकर ही मृ_यु के बन्'न से


छूटा जाता है। अमृत क्या है? जो मनुष्य को मरण से
छुटकारा ष्टिदला दे, वह है अमृत। देवों ने अमृत का पान
ष्टिकया, और असुरों ने मष्टिदरा का पान ष्टिकया अथा%त्
अज्ञान का पान ष्टिकया। अज्ञान की मष्टिदरा मनुष्य को
बेसु' कर देती है, भुला देती है ष्टिक वह कौन है। और
अमृत बताता है-

श्रृण्वन्तु ष्टिवश्वे अमृतस्य पुत्राः।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 133 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

श्वेताश्वतर उपष्टिन@द २/५, यजुव”द ११/५

अमृत पुत्र कौन है ? जो अमृत का पान करता है।


वह अमृत क्या है? आ_मज्ञान रूपी अमृत, ब्रह्मज्ञान
रूपी अमृत, जिजसके द्वारा हम जान जायें ष्टिक हम कौन हैं ,
कहाँ से आये हैं, इस शरीर और संसार को छोड़ने के
पश्चात् हमें जाना कहाँ है? हमारी आ_मा का एक अनाष्टिद
ष्टिप्रयतम कौन है, कहाँ है, कैसा है? यह तो रूपक
अलंकार के माध्यम से समुद्र-मन्थन के बारे में मैंने बहुत
सं(ेप में कहा।

आवश्यकता तो यह है ष्टिक हम अपने हृदय मत्मिन्दर


में उस परब्रह्म ष्टिप्रयतम को बसायें। लेष्टिकन इसके पहले
हम यह जानें ष्टिक वह कहाँ है ? कौन है? कैसा है? क्या
इन रूपकों में बैठा है या इन सबसे परे है? इन तथ्यों पर
कल ष्टिवचार होगा। अधि'क से अधि'क संख्या में लोग इन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 134 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बातों को जानें , ताष्टिक अध्या_म की ज्योधित उनके हृदय


में प्रवाष्टिहत हो सके। ध्यान रहे , ष्टिदन बीते जा रहे हैं, रात
बीती जा रही है, हमारी उम्र पल-पल बीती जा रही है।
जो समय बीत गया, ष्टिकसी भी कीमत पर हमें प्राV होने
वाला नहीं है, चाहे हम अरबों रुपये क्यों न खच% कर दें।
इसलिलए यह मानव तन ष्टिमला है, उस परमत_व को
जानने के लिलये। हम जानें ष्टिक वह परमा_मा कहाँ है ,
कैसा है?


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 135 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तृतीय अध्याय

परब्रह्म कहाँ है?

य आ_मदा बलदा यस्य ष्टिवश्व उपासते प्रशिशसं यस्य देवाः।

यस्य छाया अमृतं यस्य मृ_यःु कस्मै देवाय हष्टिव@ा ष्टिव'ेम।।

ऋग्वेद १०/१२२/२

जिजसकी शरणागधित ही अमृ_व प्रदान करने वाली है,


जिजससे दरू होना मृ_यु को ष्टिनमन्त्रण देना है, जो आ_म-
बल को देने वाला है, आ_म-स्वरूप को उजागर करने
वाला है, उस सधिSदानन्द परब्रह्म के चरणों में प्रणाम है।

हर प्राणी उस सधिSदानन्द परब्रह्म को पाना चाहता


है, लेष्टिकन प्रश्न तो यह है ष्टिक वह है कहाँ ? बSे-बSे से
पूशिछए। हर कोई कह देता है- "क्या ष्टिदखाई नहीं
पड़ता? सूरज, चाँद, जिसतारे, पृथ्वी, हमारे शरीर-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 136 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सबके अन्दर वही तो रम रहा है। कण-कण में वही है। "
हर मनी@ी के अन्दर जिजज्ञासा हो सकती है की यष्टिद वह
कण-कण में रम रहा है , सबके अन्दर वही है, तो यह
संसार उसके गुणों के ष्टिवपरीत क्यों है?

यष्टिद वह हर प्राणी के अन्दर बैठा हुआ है , तो हर


प्राणी परमा_मा की तरह सव% ज्ञ क्यों नहीं होता ?
परमा_मा की तरह जन्म-मरण से रष्टिहत क्यों नहीं होता?
परमा_मा की तरह ष्टिनर्मिवकार क्यों नहीं होता ? परमा_मा
की तरह आनन्दमयी क्यों नहीं होता? परमा_मा आनन्द
का सागर है और संसार दख
ु ों के दावानल में जल रहा
है, क्यों? संसार के कण-कण में परब्रह्म ष्टिवराजमान
होकर दृष्टि=गोचर हो रहा है, ष्टिफर भी संसार दख
ु ों की
अष्टि° से त्राष्टिह-त्राष्टिह कर रहा है। ऐसी ष्टिवडम्बना क्यों है?

पहले तो यह जानना होगा ष्टिक परमा_मा है कौन ?

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 137 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कल का ष्टिव@य था परमा_मा ष्टिकतने हैं? एक स्वर से यह


ष्टिनधिश्चत होता है ष्टिक परमा_मा तो एक ही है और सभी
देवी-देवताओं से परे एक अष्टिद्वतीय परमा_मा है, जिजसके
लिलये उपष्टिन@दों ने कहा है-

एकं एव अष्टिद्वतीयं। ऐतरेय ब्राह्मण

वह एक है। उसके समान न कोई दस


ू रा था, न है,
और न कभी हो सकेगा। वह एक कैसे है, पुनः इस तथ्य
पर ष्टिवचार करते हैं।

गीता के पन्द्रहवें अध्याय में तीन पुरु@ों की ष्टिववेचना


है। सोलहवें और सत्रहवें श्लोक में (र पुरु@, अ(र पुरु@,
और अ(रातीत का वण% न ष्टिकया गया है।

द्वाष्टिवमौ पुरु@ौ लोके, (रश्चा(र एव च। गीता १५/१६

इसकी व्याख्या में अधि'कतर ष्टिवद्वानों ने कहा है ष्टिक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 138 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

(र शरीर है। ष्टिकसी ने (र प्रकृधित को माना, ष्टिकसी ने


अ(र जीव को माना। प्रश्न यह खड़ा होता है ष्टिक पुरु@ का
अथ% ही है-

पुरु@ं पुरिरश्य इ_याच(ीरन्। ष्टिनरूŽ १/१३

जो ब्रह्मपुरी में शयन कर रहा हो, जो सव% त्र पूण% हो,


उसको पुरु@ कहते हैं। प्रकृधित शब्द स्त्रीलिंलग होता है।
उसके लिलए पुरु@ शब्द का प्रयोग नहीं ष्टिकया जा सकता।
प्रकृधित लीला कर रही है, यह कहा जायेगा। प्रकृधित लीला
कर रहा है, यह कोई भी नहीं कहेगा। इसलिलये
स्वाभाष्टिवक है ष्टिक (र या अ(र शब्द का प्रयोग प्रकृधित के
लिलये नहीं ष्टिकया जा सकता।

अब यह (र कौन है? अ(र कौन है? और उससे


परे जो उत्तम पुरु@ अ(रातीत है, वह कौन है? जो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 139 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कूटस्थ है, वह अ(र है, और इन दोनों से परे-

उत्तमः पुरु@ः तु अन्यः परमा_मा इधित उदाहृतः।

गीता १५/१७

जो परमा_मा कहलाने की शोभा को प्राV करने


वाला है, वह है एकमात्र उत्तम पुरु@ अ(रातीत।

अब वह उत्तम पुरु@ कौन है? कल का ष्टिव@य था


ष्टिक वह एक है। अब जब वह एक है , तो ये तीन पुरु@
कहाँ से हो गये? एक तो एक ही होना चाष्टिहए। तीन
पुरु@ों की ष्टिववेचना के लिलये हमें एक दृ=ान्त का सहारा
लेना पड़ेगा। छोटा सा दृ=ान्त है, जिजससे सबके मन-
मत्मिस्तष्क में यह बात बैठ जायेगी , क्योंष्टिक दश% न का
ष्टिव@य बहुत गूढ़ होता है, ष्टिबना दृ=ान्त के हर पुरु@
उसको समझने का सामथ्य% नहीं रखता।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 140 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्र'ानमन्त्री को ले लीजिजये। जब वह घर पर रहते


हैं, तो ष्टिकसी बात पर प_नी उनसे नोंक-झोंक कर लेती
है ष्टिक आपने यह काय% नहीं ष्टिकया, आप यह सामान नहीं
लाये। उनका पोता उनके कन्'े पर चढ़कर हँसी भी कर
सकता है। बेचारे प्र'ानमन्त्री कुछ नहीं बोल सकते। न
प_नी को डाँट सकते हैं, न पोते को डाँट सकते हैं,
उल्टा प_नी से कोई झड़प सुनने को ष्टिमल सकती है।
भले ही वह देश के प्र'ानमन्त्री हैं, लेष्टिकन घर में वे ष्टिकसी
के पधित हैं, ष्टिकसी के दादाश्री हैं, तो ष्टिकसी के ष्टिपताश्री हैं।

ष्टिकन्तु जब वे अपने काया%लय में बैठे होते हैं , तो जो


प_नी घर में झगड़ रही थी, वह दरू बैठेगी। प्र'ानमन्त्री के
बगल में भी बैठने का अधि'कार नहीं रखती। जो पोता
कन्'े पर बैठकर उछल-कूद मचा रहा था, उसको भी
बैठने नहीं ष्टिदया जायेगा। वहाँ एक सत्ता का रूप होगा।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 141 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कारण क्या है? एक मया%दा है। दो रूप हो गये। एक प्रेम


और आनन्द का, और एक सत्ता का। एक और रूप है
ष्टिनद्रा का। जब वह सो जाते हैं, तो क्या होता है? ष्टिनद्रा
में सोते हैं , सपने देखने लगते हैं। सपने देखते-देखते
ष्टिकसी भयानक जँगल में पहुँच जाते हैं। उस जँगल में
सामने एक भयानक सिंसह आ जाता है। अभी वह दो
फला‚ग दरू होता है ष्टिक देखते ही इनके प्राण सूख जाते
हैं। उसको छलांग मारने में ष्टिकतनी देर है ? अब वे
घबराकर ष्टिबस्तर से उठ जाते हैं। नींद टू टती है, तो
देखते हैं ष्टिक यहाँ तो शेर है ही नहीं।

पुरु@ तो एक ही है, लीला रूप में अलग -अलग


है- एक प्रेम का स्वरूप, एक सत्ता का स्वरूप, और एक
स्वप्न का अज्ञानमय स्वरूप। इसी तरह से परम पुरु@
कहलाने की शोभा केवल एक को प्राV है और वह है

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 142 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा।

पारब्रह्म तो पूरन एक है, ए तो अनेक परमेस्वर कहावें।

अनेक पंथ शब्द सब जुदे-जुदे, और सब कोई शास्त्र बोलावें।।

ष्टिकरन्तन ६/७

संसार में आज हजारों पन्थ -पैड़े खड़े हो गये हैं।


सबने अपने अलग-अलग इ= बना लिलये हैं। कोई ष्टिकसी
की पूजा कर रहा है, कोई ष्टिकसी की। जिजसे वेद ने एक
अष्टिद्वतीय परमा_मा माना, उस सधिSदानन्द परमा_मा के
बारे में कोई जानता ही नहीं है। उसी
सतिंSदानन्द परमा_मा को सारा ससार इसी सृष्टि= के
कण-कण में माने बैठा है।

तीन पुरु@ों की जब तक ष्टिववेचना नहीं होगी ,


परमा_मा का स्वरूप तब तक यथाथ% में समझ नहीं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 143 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आयेगा। जहाँ स_य है, वहाँ ही चेतनता है, और वहीं


आनन्द हैं। वह सत्, धिचद्, और आनन्द है, और यह
जगत असत्, जड़, और दःु खमयी है। अज्ञानता कहाँ
होगी? माया में। भ्रम कहाँ होगा? माया में। उपष्टिन@दों ने
ब्रह्म के ष्टिव@य में कहा है-

प्रज्ञानं ब्रह्म। ऐतरेयोपष्टिन@द् ५/३/३

ब्रह्म प्रकृ= ज्ञान स्वरूप है।

अज्ञानता ष्टिकसको होती है? जीव को होती है। ब्रह्म


में कभी अज्ञानता नहीं होती। यहाँ ष्टिववेचना चल रही है
ष्टिक (र, अ(र, और उत्तम पुरु@ क्या है? उत्तम पुरु@
अ(रातीत प्रेम और आनन्द का स्वरूप है, सत्, धिचद्,
और आनन्दमयी है। देलिखए, मेरी दो भुजाएँ हैं। एक भुजा
है सत्, और एक भुजा है आनन्द स्वरूप, और यह ष्टिदल

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 144 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है धिचद्घन स्वरूप। धिचद्घन से ही सत् है और धिचद्घन से ही


आनन्द है। यष्टिद मेरे जीव को इस शरीर से ष्टिनकाल ष्टिदया
जाये, तो मेरी दोनों भुजायें ष्टिनरथ% क हो जाएँ गी।
सधिSदानन्द परब्रह्म सत् , धिचद्, और आनन्द का स्वरूप
है। एक तरफ वह आनन्द के स्वरूप में क्रीड़ा करता है ,
तो दस
ू री ओर सत्ता द्वारा असंख्य ब्रह्माण्डों का सृजन
करता है।

आकाश में सूय% है। सूय% पर पृथ्वी की 'ूल नहीं जा


सकती। सूय% में जो भी पदाथ% रहेगा , सूय% के समान ही
होगा। पृथ्वी अलग है, सूय% अलग है। वह दृ=ा होकर देख
रहा है। उसी तरह से जो ष्टिनर्मिवकार परमा_मा है, वह
अ(र और अ(रातीत इस जगत से सव% था परे है।

(र क्या है?

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 145 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

(रः सवा%शिण भूताष्टिन। गीता १५/१६

भूताष्टिन शब्द से बहुत गहरा आशय है। भूत में स्थूल


भूत, सूक्ष्म भूत सभी आ जायेंगे। दृश्य-अदृश्य जिजतने
पदाथ% हैं, सभी इसके अन्दर आ जाएँ गे। भूत नाम प्राणी
का भी आता है। हमारे अन्दर जो चेतना है, वह उस
ष्टिवराट पुरु@ की चेतना का प्रधितष्टिबत्मिम्बत रूप है। वेद के
नासदीय सूत्र में मन्त्र आता है-

न सत् आसीत् न असत् आसीत् तदानीम्।

ऋग्वेद १०/१२९/१

न व्यŽ था और न अव्यŽ था। सूरज , चाँद,


जिसतारों का जो कुछ व्यŽ जगत ष्टिदख रहा है , कभी यह
नहीं था, और जब महाप्रलय होगा, तो यह ष्टिफर से लय
हो जायेगा।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 146 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पहले सं(ेप में बताया जा चुका है ष्टिक हम एक छोटी


सी दष्टिु नया में रह रहे हैं , एक छोटे से पृथ्वी लोक में ,
जिजसमें हम असंख्य सूय% , चाँद आष्टिद न(त्रों को, उपग्रहों
को देखा करते हैं। हम तो अभी तक इस ब्रह्माण्ड का
दसवाँ ष्टिहस्सा भी नहीं जान पाये हैं। ष्टिवज्ञान ने जिजतनी
भी खोजें की हैं , उनके अनुसार ब्रह्माण्ड के ओर-छोर
का पता वैज्ञाष्टिनक आज तक नहीं लगा पाए हैं। ये
ष्टिनहारिरकाएँ (आकाशगंगायें) कहाँ से पैदा हो रही हैं,
इसका उत्तर ष्टिवज्ञान आज तक नहीं खोज पाया है।
जिजतनी आकाशगंगायें हैं , उनमें प्रकाश ही प्रकाश भरा
होता है, जिजससे हमारे सूय% जैसे करोड़ों सूय% पैदा होते हैं
और ष्टिफर उसी में लय हो जाते हैं। एक ब्लैक होल तारे
का नाम आप लोगों ने सुना है। वह ब्लैक होल तारा ऐसा
होता है, जिजसमें हमारे सूय% जैसे हजारों सूय% समाV हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 147 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जाएँ गे। जैसे मेंढक को जब साँप ष्टिनगलता है, तो मेंढक


ष्टिदखता नहीं है। वैसे ही ब्लैकहोल तारा हमारे सूय[ जैसे
हजारों सूय[ को ष्टिनगलने का सामथ्य% रखता है। इसी का
बड़ा रूप है वह महाशून्य, जिजसको शास्त्रीय भा@ा में
प्रकृधित का सूक्ष्मतम स्वरूप कहते हैं। उसी को कहते हैं
ष्टिनराकार।

उस सूक्ष्मतम स्वरूप से असंख्य ष्टिनहारिरकायें पैदा


होती हैं, और उन ष्टिनहारिरकाओं से असंख्य सूरज, चाँद,
जिसतारे पैदा होते हैं, प्रजा की उ_पलित्त होती है , जीवन
चलता है। लेष्टिकन इस संसार में रहने वाले प्राणी यह नहीं
जान पाते ष्टिक प्रकृधित क्या है और उसके परे भी कुछ है?
यह जिजतना कुछ देख रहे हैं, सूरज, चाँद, जिसतारे,
आकाश, महत्त_व, अहंकार, प्रकृधित, यह सारा स्वरूप
परिरवत% नशील है। ष्टिनराकार महामाया से यह सारा साकार

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 148 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जगत बनता है और उसी में ष्टिवलीन होता रहता है।

हर पदाथ% नश्वर है। हम देखते हैं ष्टिक आज हम बSे


हैं, कुछ समय बाद यव
ु क ष्टिदखने लगते हैं, ष्टिफर वृद्ध
ष्टिदखने लगते हैं, और ष्टिफर मृ_यु को प्राV हो जाते हैं।
कोई महल बनाते हैं, तो कुछ समय तक अच्छा लगता
है, ष्टिफर 'ीरे-'ीरे महल जीण% होने लगता है। हर पदाथ%
कम्पनशील है और कम्पनशीलता ही परिरवत% नशीलता
का रूप है। जिजस समय अणओ
ु ं का कम्पन बन्द हो
जायेगा, उस समय महाप्रलय हो जायेगा, और यष्टिद
कम्पन है, तो पदाथ% का रूप बदलता रहता है।

इसलिलए सारी सृष्टि= परिरवत% नशील है और इस


परिरवत% नशीलता को रोका नहीं जा सकता। इसको कहते
हैं "(र"। हर (ण जिजसमें परिरवत% न होता है , उसको
कहते हैं (र पुरु@। आप पृथ्वी लोक से लेकर समस्त

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 149 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिनहारिरकाओं में घूम आइये। आकाश की भी सीमा जहाँ


समाV हो जाती है। अहंकार, महत्त_व, और उसके भी
आगे जहाँ कारण-प्रकृधित का स्वरूप समाV हो जाता है ,
हर जगह परिरवत% नशीलता ष्टिदखाई पड़ेगी। यह कहलाएगा
"(र पुरु@"। इसको संचालिलत करने वाला कौन है?

इसे आप एक दृ=ान्त से समजिझये। जैसे आप यहाँ


पर गहरी ष्टिनद्रा में सो गये और स्वप्न देखने लगे। स्वप्न
में देख रहे हैं ष्टिक मैं ष्टिदल्ली पहुँच गया हूँ और ष्टिकसी दक
ु ान
वाले से सामान खरीद रहा हूँ। कदाधिचत् ष्टिकसी बात पर
कहा-सुनी हो जाती है और वह आपको चाँटा मार देता
है। चाँटा खाकर आपकी नींद टू ट जाती है और आप
सोचते हैं ष्टिक मैं तो यहीं हूँ , ष्टिदल्ली कहाँ से पहुँच गया
था? नींद टू टी तो सपना टू टा और सपना टू टा तो सपने
में जो देख रहे थे, वह सब समाV हो गया।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 150 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसी तरह से अ(र ब्रह्म का मन सृष्टि= का संकल्प


करता है और उसका संकल्प ही सृष्टि= का कारण बनता
है। हमारे सौरमण्डल जैसे असंख्य सौरमण्डल उसके
संकल्प मात्र से पैदा होते हैं। समुद्र में देलिखए असंख्य
पानी के बुलबुले एक साथ पैदा होते हैं और उसी में
डू बते रहते हैं। उसी तरह से ष्टिनराकार प्रकृधित से हमारे
सौरमण्डल जैसे असंख्य सौरमण्डल, असंख्य सूय% और
ष्टिनहारिरकाएँ पल-पल पैदा हो रहे हैं और उसी में डू ब रहे
हैं। यह ब्रह्म के संकल्प मात्र से पैदा होते हैं। हमने तो
परमा_मा को एक बहुत ही छोटी सी चीज बना रखा है।
उसका वह स्वात्मिप्नक मन जो इस स्वप्नमयी संसार की
कल्पना करता है, उसको कहते हैं आष्टिदनारायण।
मनुस्मृधित में इसके बारे में बहुत अच्छी व्याख्या है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 151 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आपो नारा इधित प्रोŽा आपो वै नर सूनवः।

ता यदस्यायनं पूव% तेन नारायणः स्मृतः।।

मनुस्मृधित १/१०

आपः (नार) कहते हैं मोह को , जो प्रकृधित का


सूक्ष्मतम रूप है। उसमें जिजसका अयन अथा%त् ष्टिनवास
होता है, उसको कहते हैं नारायण।

जो परमा_मा का अखण्ड स्वरूप है, वह माया से


सव% था परे है। उसको "तमसः परिर" कहा गया है।

पुरु@ सूŽ का एक मन्त्र बहुत प्रजिसद्ध है-

वेदाहमेतं पुरु@ं महान्तम् आष्टिद_यवण% ः तमसः परस्तात्।

यजुव”द ३१/१८

संसार ष्टिकससे पैदा हुआ है? तमस् से। तमस् कहते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 152 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हैं अज्ञानता के अन्'कार को। इसी को मोह , अज्ञान,


काल, शून्य, और ष्टिनराकार भी कहते हैं।

इसी ष्टिनराकार महामाया से यह जो कुछ व्यŽ जगत्


प्रकट हुआ है, इसमें ष्टिदखने वाले सारे प्राणी महाप्रलय में
उसी में लय को प्राV हो जाते हैं , और अ(र का
सांकत्मिल्पक मन इसको ष्टिक्रयात्मिन्वत करता है। वह
सांकत्मिल्पक मन इस मोहसागर में ष्टिक्रयाशील होने के
कारण नारायण कहलाता है। उसी नारायण के अन्दर
संकल्प होता है "एकोऽहं बहुस्याम्"। इसको भी एक
दृ=ान्त से समजिझये, क्योंष्टिक दृ=ान्तों से ष्टिकसी भी
दाश% ष्टिनक गु_थी को समझना बहुत सरल होता है।

एक कपड़ा बेचने वाला व्यापारी है, जो ष्टिदनभर


कपड़े बेचता है। रात को जब वह सोता है, तो सपने में
भी वह कपड़े बेचना शुरु कर देता है। कपड़े बेचते -बेचते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 153 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अपना ही कपड़ा फाड़ डालता है क्योंष्टिक वह ष्टिदनभर


कपड़ा बेचता रहा है। इसका कारण क्या है? उसके
अन्दर कपड़े फाड़ने का संस्कार है। ष्टिनद्रा में भी उसको
पता नहीं होता। अ(र उसको कहते हैं , जिजसका कभी
ष्टिवनाश न हो, जो कभी लय न होता हो, जो जन्म-मरण
से परे है। इसके लिलए उपष्टिन@द में कथन आया है-

यथोण% नाशिभः सृजते गृह्णते च यथा पृशिथव्यामो@'यः।

सम्भवत्मिन्त यथा सतः पुरु@ा_के शलोमाष्टिन तथाऽ(रात् सम्भवतीह ष्टिवश्वम्।।

मुण्डक उपष्टिन@द १/७

अथा%त् जिजस तरह मकड़ी से जाला बनता है, जैसे


पुरु@ के शरीर से रोंए पैदा होते हैं और पृथ्वी से
औ@धि'याँ पैदा होती हैं, उसी तरह से उस अष्टिवनाशी
अ(र से यह सम्पूण% जगत् पैदा होता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 154 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वह अ(र अपने संकल्प से ष्टिनराकार प्रकृधित के


परमाणओ
ु ं में कम्पन पैदा करता है। परमाणु का सम्बन्'
एटम से न समजिझए। परमाणु का अथ% ही होता है ,
जिजसका और अधि'क ष्टिवभाजन न हो सके। आज तो
एटम से भी सूक्ष्म कणों की खोज हो चुकी है। लगभग
चालीस और सूक्ष्म कणों का पता लग चुका है।

आज तक तो ष्टिवज्ञान को आकाश की संरचना तक


मालूम नहीं हो पाई है। पाँच परमाणओ
ु ं के ष्टिमलने से
आकाश का एक अणु बनता है। आकाश की संरचना
क्या है, यह ष्टिकसी को नहीं मालूम है। हाँ, वायु त_व तक
का ज्ञान है। ष्टिवज्ञान को यहाँ तक ज्ञान है ष्टिक प्रारम्भ में
गैसें थीं और उन गैसों से अष्टि° त_व प्रकट हुआ , जिजससे
ष्टिनहारिरकाओं की रचना हो गई। यहाँ तक तो ष्टिवज्ञान को
जानकारी है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 155 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आकाश से भी सूक्ष्म अहंकार है। अहंकार से सूक्ष्म


महत्त_व है। महत्त_व से सूक्ष्म प्रकृधित है और उसका
सूक्ष्मतम् रूप मोहसागर है जिजसमें अ(र का मन संकल्प
करके नारायण के रूप में प्रकट होता है। उसी के संकल्प
से असंख्य ब्रह्माण्ड बनते हैं, यह ष्टिकसी को नहीं मालूम
है। इसकी गु_थी श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी से
खल
ु ती है। दश% न-शास्त्रों में है। वेदों में है , लेष्टिकन इतने
रहस्यमयी ढंग से है ष्टिक ष्टिबना उस सधिSदानन्द परब्रह्म की
कृपा के उसको नहीं जाना जा सकता।

इस संसार में इतने प्राशिणयों को देखने पर एक प्रश्न


उठता है ष्टिक परमा_मा तो सव% ज्ञ है , ष्टिफर उसके बनाये
हुये प्राशिणयों में इतनी अज्ञानता क्यों है?

आज से साल भर पहले, आज की ही तारीख को


आपने कौन सा भोजन ष्टिकया था आपको नहीं मालूम है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 156 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कल क्या होने वाला है, आपको कुछ भी जानकारी नहीं


है। आप यहाँ बैठे हुये हैं, आपके घर में क्या घटना
घष्टिटत हो रही है, आपको कुछ भी नहीं मालूम। ये स्वप्न
का ब्रह्माण्ड है, नींद का ब्रह्माण्ड है, और परमा_मा सव% ज्ञ
है।

यो सव% ज्ञः सव% ष्टिव'स्यैव मष्टिहमा भुष्टिव।

ष्टिदव्य ब्रह्मपुरे ह्ये@ व्योत्मिम्न आ_मा प्रधितष्टिष्ठतः।।

मुण्डक उपष्टिन@द मु. २/खं. २

उपष्टिन@द् का यह वाक्य सारे रहस्यों से पदा% उठा


देता है। परमा_मा कहाँ है? "ष्टिदव्य ब्रह्मपुर"े शब्द है।
ष्टिदव्य का अथ% क्या है ? ष्टित्रगुणातीत। यह संसार क्या है
मायापुरी। ष्टिनराकार प्रकृधित कारण स्वरूप जिजसको
महामाया कहते हैं, उसी से यह जगत् प्रकट हुआ है,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 157 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और संसार ष्टिकसको यहाँ खोज रहा है? उस सधिSदानन्द


परमा_मा को इस मायावी जगत् में खोज रहा है।

(र, अ(र, और अ(रातीत- तीन पुरु@ों के बारे में


थोड़े में ही सारे तक[ से सबके हृदय पटल पर यह बात
अंष्टिकत करनी है ष्टिक परमा_मा वास्तव में है कहाँ ? इस
जगत् में है या इस जगत से परे है। आपने एक बहु त ही
सुन्दर उष्टिŽ सुनी होगी-

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योधितग% मय, मृ_योमा%ऽमृतं गमयेधित।

शतपथ ब्राह्मण १४/३/१/३०

ऐसा क्यों? इसमें प्राथ% ना की गई है ष्टिक हे परब्रह्म !


मुझे इस अस_य से स_य की तरफ ले चल, अज्ञानता के
अन्'कार से प्रकाश की ओर ले चल, मृ_यु के क= से
अमृ_व की तरफ ले चल। यह जगत् क्या है? असत्,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 158 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अज्ञान का स्वरूप, मृ_यु का स्वरूप। जो भी प्राणी इस


जगत् में जन्म लेता है , मृ_यु पहले से ही उसका
आलिंलगन करने के लिलये तैयार बैठी रहती है। जन्म लेते
ही मौत पीछा करना शुरु कर देती है। चाहे जड़ पदाथ%
हो या चेतन प्राणी हो, सबके साथ ष्टिवनाश जुड़ा हुआ है।

नारायण ष्टिकसे कहते हैं? अभी मैंने आपको दृ=ान्त


ष्टिदया ष्टिक जैसे एक कपड़े का व्यापारी राष्टित्र में सोते समय
भी कपड़ा फाड़ डालता है, उसी तरह से उस अष्टिवनाशी
अनन्त सत्ता वाले अ(र ब्रह्म का मन स्वप्न में प्रकृधित के
अन्दर नारायण के रूप में लीला करता है , और उसी के
संकल्प से, उसी की चेतना द्वारा असंख्य प्राशिणयों का
प्रादभ
ु ा%व होता है।

आपकी नींद टू टी थी और जैसे आपका ही स्वरूप


ष्टिदल्ली में ष्टिकसी दक
ु ानदार से बातें कर रहा था। नींद टू टते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 159 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ही आपका सपना टू ट गया और आपका स्वप्न का शरीर


भी समाV हो जाता है। जो जाग्रत में होता है , वही
स्वरूप बचता है। इसी प्रकार आष्टिदनारायण का वह
स्वरूप जो अ(र के मन का सांकत्मिल्पक स्वरूप होता है ,
तभी तक रहता है जब तक नींद का आवरण, स्वप्न का
आवरण होता है। नींद के हटते ही वह स्वप्न का स्वरूप
समाV हो जाता है और केवल एक अष्टिवनाशी अ(र ब्रह्म
बना रहता है। इस प्रकार जो कूटस्थ है, उसको अ(र
ब्रह्म कहते हैं।

इसके लिलए एक छोटा सा दृ=ान्त देना चाहूँगा,


क्योंष्टिक रामचरिरतमानस घर-घर में पढ़ा जाता है, जिजसमें
तुलसी दास जी ने एक ष्टिवशे@ बात बताई है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 160 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नेधित नेधित जेष्टिह वेद ष्टिनरूपा, ष्टिनजानन्द ष्टिनरुपाधि' अनूपा।

रामचरिरतमानस

वेदों ने जिजस परमा_मा का नेधित-नेधित करके वण% न


ष्टिकया है। वैसे चारों वेदों में "नेधित" शब्द नहीं है , ष्टिकन्तु
उपष्टिन@दों में , ब्राह्मण ग्रन्थों में , दश% न ग्रन्थों में है। सांख्य
शास्त्र में नेधित शब्द आया है। जिजसको ष्टिनजानन्द कहते
हैं, आनन्द का सागर कहते हैं, सभी उपाधि'याँ जहाँ से
लौट आती हैं, जिजसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती,
वही परमा_मा है।

तत्त्व अभ्यासात् नेधित नेधित इधित _यागाद् ष्टिववेक जिसधिद्धः।

सांख्य दश% न ३/७५

इसी प्रकार अधि'कतर उपष्टिन@दों में नेधित शब्द आया


है, लेष्टिकन चारों वेदों में कहीं भी नेधित शब्द नहीं आया है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 161 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हाँ, उपष्टिन@दों के कथनों को देखकर सन्तों ने वेद के


साथ नेधित शब्द जोड़ ष्टिदया है। इसका भाव क्या है ?
परमा_मा के स्वरूप को यष्टिद सूय% के साथ भी जोड़ते हैं ,
तो भी यह वास्तव में नहीं हो सकता , क्योंष्टिक परमा_मा
चेतन स्वरूप है और सूय% का प्रकाश जड़ है। परमा_मा
के सौन्दय% की तुलना यष्टिद चन्द्रमा से करते हैं , तो भी
वास्तष्टिवकता नहीं है क्योंष्टिक वह ष्टित्रगुणातीत स्वरूप है।
संसार में ऐसा कोई भी पदाथ% नहीं है , जिजससे उस
परमा_मा के स्वरूप की व्याख्या की जा सके।

इसलिलये वेद, उपष्टिन@द्, दश% न का कथन है, "न


इधित न इधित" अथा%त् ऐसा नहीं, ऐसा नहीं। अथा%त् हमारा
मन उस परमा_मा के स्वरूप के बारे में व्याख्या नहीं कर
पा रहा है, क्योंष्टिक वह शब्दातीत है। आगे तुलसी दास
जी क्या कहते हैं-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 162 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

शंभु ष्टिवरंधिच ष्टिवष्णु भगवाना, उपजहिंह जासु अंश ते नाना।

रामचरिरतमानस

"नाना" का ता_पय% है असंख्य या अनेक। जिजसके


अंशमात्र से शम्भु अथा%त् शँकर जी, ष्टिवरत्मिन्च अथा%त् ब्रह्मा
जी, और ष्टिवष्णु भगवान उ_पन्न होते हैं, ष्टिकसके अंश से?
अखण्ड ब्रह्म का तो कभी खण्डन हो ही नहीं सकता।
जैसे-एक फूल है, इसका अंश कब होगा? जब इसके
टु कड़े ष्टिकये जाये, तो ही अंश प्राV होगा। जो ब्रह्म
अखण्ड है, अछे द्य है, अभेद है, उसको अंश-अंशी भाव
से नहीं जोड़ा जा सकता। उसके स्वात्मिप्नक मन के
संकल्प से नारायण का जो स्वरूप बनता है, उनकी
चेतना के प्रधितष्टिबत्मिम्बत स्वरूप से ब्रह्मा, ष्टिवष्ण,ु शिशव सभी
प्रकट होते हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 163 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अब पूछा जाये ष्टिक ष्टिहन्द ू समाज आज कहाँ भटक


रहा हैं? ष्टिकसकी भष्टिŽ कर रहा है ? क्या वह
रामचरिरतमानस को भी मान रहा है। जिजतने अवतार होते
हैं, वे सारे ष्टिवष्णु भगवान के ही तो अवतार होते हैं। गीता
में एक श्लोक आता है। वह श्लोक बहुत प्रचलिलत है और
टी. वी. सीरिरयल आष्टिद पर भी बार-बार ष्टिदखाया गया।

यदा यदा ष्टिह 'म% स्य ग्लाष्टिनभ% वधित भारत।

अभ्य_ु थानं अ'म% स्य तदा_मानं सृजाम्यहम्।।

परिरत्राणाय सा'ूनां ष्टिवनाशाय च दष्ु कृताम्।

'म% संस्थापनाथा%य सम्भवाष्टिम यगु े यगु े।। गीता ४/७,८

इसका बाह्य अथ% क्या लगाया जाता है ष्टिक भगवान


श्री कृष्ण कह रहे हैं ष्टिक 'म% की स्थापना के लिलए मैं
यगु -यगु में प्रकट होता हूँ। कौन प्रकट होता है ? महान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 164 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पुरु@ सृष्टि= के कल्याण के लिलये हमेशा यगु -यगु में प्रकट


होते हैं। सधिSदानन्द परब्रह्म कभी माता के गभ% में प्रवेश
नहीं करते। सधिSदानन्द परमा_मा कभी जन्म -मरण के
चक्कर में नहीं पड़ते। उस सधिSदानन्द परब्रह्म का न
ष्टिववाह होता है और न उनके बाल-बSे होते हैं। लेष्टिकन
सभी अवतारों में अधि'कतर ने ष्टिववाह ष्टिकया है और
उनकी सन्तानें भी पैदा हुई हैं।

जो परमा_मा है, वह तो सबका है। वह कभी बूढ़ा


नहीं होता, कभी गभ% में नहीं आता , कभी मृ_यु को प्राV
नहीं होता। जिजतने ष्टिवष्णु भगवान के अवतार हैं , या
जिजतने ष्टिदव्य पुरु@ संसार में सूक्ष्म शरीर से भ्रमण करते
हैं, वे सृष्टि= के कल्याण के लिलए अवतरिरत होते हैं ,
जिजसको कहते हैं "अवतार"। परमा_मा इन सबसे परे है।
ये सारे महापुरु@ ष्टिकससे प्रकट होते हैं? उसी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 165 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आष्टिदनारायण से। लय भी होते हैं तो उसी आष्टिदनारायण


में। और आष्टिदनारायण ष्टिकसका स्वरूप है? अ(र का।

अब प्रश्न यह है ष्टिक अष्टिवनाशी अ(र कहाँ है ? जैसे


मैंने कहा ष्टिक जाग्रत अवस्था में प्र'ानमन्त्री के दो रूप
हैं- चाहे वह काया%लय में हो या घर में। एक में सत्ता का
स्वरूप लीला कर रहा है, एक में प्रेम का। जहाँ वह
आनन्द का स्वरूप लीला कर रहा है वह है अ(रातीत।
उसमें केवल आनन्द ही आनन्द है। जो स_य है , वही
चेतन है, और वही चेतन स्वरूप ही आनन्द का स्वरूप
है, इसलिलये सत् धिचद् आनन्द के ल(ण जिजसमें नहीं है ,
वह परमा_मा नहीं है।

स_य ष्टिकसको कहते हैं? अनाष्टिद काल से जो जैसा


था, अनन्त काल तक वैसा ही रहे, उसके स्वरूप में
कभी ष्टिवकृधित न आये , वह कभी बूढ़ा न हो, कभी मरे

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 166 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं, उसको कहते हैं स_य। जो कभी दख


ु से ग्रजिसत नहीं
हो सकता, वह है परमा_मा, अथा%त् परमा_मा कहलाने
की शोभा केवल अ(रातीत की है, जिजनकी सत्ता का
स्वरूप अ(र ब्रह्म असंख्य ब्रह्माण्डों का सृजन करता है।

अब प्रश्न यह है ष्टिक क्या वह परमा_मा इस जगत् में


है या नहीं?

भाई रे ब्रह्मग्यानी ब्रह्म ष्टिदखलाओ, तुम सकल में सांई देख्या।

ये संसार सकल है सुपना, तो तुम पारब्रह्म क्यों पेख्या।।

ष्टिकरन्तन ३२/१

इसे एक दृ=ान्त से समजिझए। यहाँ जिजतने भी


'म% प्रेमी सज्जन बैठे हैं, मैं उनसे पूछता हूँ ष्टिक आपमें से
ष्टिकतने लोग स्वग% जायेंगे ? तो कुछ लोग हाथ उठा देंगे।
ष्टिकतने लोग वैकुण्ठ जायेंगे? तो इसमें भी कुछ लोग हाथ

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 167 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उठा देंगे। बेहद मण्डल में ष्टिकतने लोग जायेंगे ? इसके


लिलए भी हाथ उठ जायेगा।

ष्टिकन्तु यष्टिद मैं यह प्रश्न करूँ ष्टिक नक% में ष्टिकतने लोग
जायेंगे? तो कोई भी हाथ नहीं उठायेगा। चाहे कोई माँस
खाये, चाहे सारे पाप करे, कुछ भी करे, ष्टिकन्तु नक% में
जाने के लिलये क्यों नहीं तैयार है ? जब सारा जगत् ही
ब्रह्म का रूप है, तो नक% में क्यों नहीं जाना चाहते ? क्या
नक% में ब्रह्म नहीं है ? आलिखर जिजसने सारी सृष्टि=, स्वग%
इ_याष्टिद बनाया हैं , उसने नक% भी बनाया होगा। नक% के
कण-कण में भी तो वही होगा , ष्टिफर उसमें जाने की
इच्छा क्यों नहीं होती?

वैसे तो भारतीय जनमानस को एक भ्रम में डाला


जाता है ष्टिक देखो! यष्टिद तुम नक% में जाओगे , तो तुम्हें
तलवार से काटा जायेगा, अष्टि° में जलाया जायेगा, मगर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 168 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तुम्हें ष्टिनगलेंगे। ये नक% क्या हैं ? जब मनुष्य मर जाता है


या कोई भी प्राणी मरता है, तो उसका सूक्ष्म शरीर होता
है। सूक्ष्म शरीर को न अष्टि° से जलाया जा सकता है और
न तलवार से काटा जा सकता है। नक% की अलग से
कल्पना ही व्यथ% है। जिजतनी योष्टिनयाँ हैं , वे सभी नक% के
ही रूप हैं।

सुअर को देलिखए, उसे ष्टिकतना तड़पा-तड़पाकर


काटा जाता है। क्या नक% उससे ज्यादा क=कारी होगा?
नाली के कीड़े को देलिखए, वह गन्दगी में ही जन्म लेता है
और उसी में मर जाता है। उसे बाहर ष्टिनकालने पर भी
भागकर उसी में जाता हैं , यही तो नक% है। माता के गभ%
में हम भी रहते हैं। गन्दगी में हमारा शरीर भी क= पाता
है। आलिखर यह भी तो कहीं न कहीं क=मयी नक% है।
हमारे शरीर में भी क्या है?

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 169 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बाहर ष्टिनकसो तो आप नहीं, और मांहे नरक के कुण्ड।

ब्रह्म तो यामे न पाईये, ए क्यों कष्टिहए ब्रह्म घर ष्टिपण्ड।।

ष्टिकरन्तन ३४/१४

यष्टिद हमको दस्त लग जाते हैं , तो हमको ऐसा


लगता है ष्टिक हमारे शरीर में ष्टिकतनी गन्दगी भरी है ?
ब्रह्माण्ड में कहीं भी चले जाइये , क्या कहीं ब्रह्म का
अखण्ड स्वरूप है? जिजसके लिलये वेदों ने कहा-

तेजोऽजिस तेजो मधिय 'ेष्टिह। अथव% वेद ७/८९/४

हे परमा_मा! तू तेज स्वरूप है। अभी लगभग चार


बजे हैं और चार घण्टे के बाद घना अन्'कार छा
जायेगा। आठ बजे रात को हम चारों ओर टटोलते ष्टिफरें
ष्टिक सूय% कहाँ है? सूय% कहाँ से ष्टिमलेगा। रात के अन्'ेरे में
क्या सूय% ष्टिमलेगा? और जब सूय% का उजाला फैल जाता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 170 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, तो क्या वहाँ रात ष्टिमल सकती है? जहाँ राष्टित्र है वहाँ
ष्टिदन नहीं, और जहाँ ष्टिदन है वहाँ राष्टित्र नहीं। जहाँ ब्रह्म का
अखण्ड स्वरूप है, वहाँ राष्टित्र का अन्'कार नहीं हो
सकता, वहाँ माया का अन्'कार नहीं हो सकता।

काल आवत कबूं ब्रह्म भवन में, तुम क्यों न ष्टिवचारो सोई।

अखण्ड सांई जो यामें होता, तो भंग ब्रह्माण्ड को न होई।।

ष्टिकरंतन ३२/६

कल एक माता ने प्रश्न ष्टिकया था ष्टिक यष्टिद परमा_मा


हमारे अन्दर बैठा है, तो जब हम बुरा काम करते हैं तो
वह मना क्यों नहीं करता? और यष्टिद वह मना करता है,
तो हम मानते क्यों नहीं?

अब प्रश्न यह है ष्टिक क्या आपके अन्दर परमा_मा


बैठा है? तो इसको आप एक दृ=ान्त से समजिझए। एक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 171 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कसाई है। वह बकरे को काटना चाहता है। जब कसाई


बकरे को काटता है, तो बकरा धिचल्लाता है- मुझे मत
काटो। कसाई के अन्दर भी परमा_मा बैठा है, बकरे के
अन्दर भी परमा_मा बैठा है, और उस तलवार के अन्दर
भी परमा_मा बैठा है जिजससे कसाई बकरे को काटना
चाहता है। बकरे वाला परमा_मा बकरे की करुण आवाज
सुनकर भी उसे बचा नहीं पा रहा है। कसाई वाला
परमा_मा कहता है ष्टिक रे कसाई! तू क्यों काट रहा है ?
वह कसाई कहता है ष्टिक मैं तो अवश्य काटू ँगा।

एक ष्टिवचार'ारा चलती है ष्टिक जब मनुष्य बुरे कम%


करना चाहता है, तो हृदय में भय और लज्जा का अनुभव
होता है। यह शिश(ा परमा_मा की तरफ से है। इसलिलये
सबके हृदय में बैठा हुआ परमा_मा उसको बचाता है ,
लेष्टिकन मनुष्य मानता नहीं। परमा_मा कहे और मनुष्य

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 172 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसकी आज्ञा का उल्लंघन करे? जिजसकी इच्छा मात्र से


करोड़ों लोक-लोकान्तर एक पल में पैदा हो जाते हैं।
एक अदना सा इंसान क्या उस परमा_मा की आज्ञा का
उल्लंघन कर सकता है?

ज्ञान का सागर आपके अन्दर बैठा है, तो ष्टिफर


आपको प्रवचन सुनने की क्या आवश्यकता है?

कोई कहे ये सबे ब्रह्म, तब तो अज्ञान कछुए नाहीं।

तो @ट्शास्त्र हुए काहे को, मोहे ऐसी आवत मन माहीं।।

ष्टिकरंतन २९/६

आपके अन्दर सव% शष्टिŽमान, सारे ज्ञान का सागर


परमा_मा बैठा है और आप शास्त्र पढ़ रहे हैं , वेद पढ़ रहे
हैं, प्रवचन सुन रहे हैं, इसकी क्या आवश्यकता है? जहाँ
सव% ज्ञ परमा_मा है , वहाँ अज्ञानता का प्रश्न हो ही नहीं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 173 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकता। सृष्टि= में यही तो हो रहा है , कण-कण में


अज्ञानता, कण-कण में अन्'कार।

आपका जीव क्या है? बहुत छोटा सा स्वरूप है।


उपष्टिन@दों में कहा गया है ष्टिक बाल की नोक के दस
हजार टु कड़े कर ष्टिदये जायें, तो उससे भी छोटा जीव है।
वह छोटा जीव एक हाथी के अन्दर रहता है, एक व्हेल
मछली के अन्दर रहता है, तो उनका पूरा ष्टिवशालकाय
शरीर चेतन रहता है।

जैसे आपका छः फीट का शरीर है। यष्टिद आप


अपने पैर में काँटा चुभेगा, तो पीड़ा होगी। हाथ में चुभेगा,
तो भी पीड़ा होगी। इसका कारण क्या है? जिजस तरह से
एक कमरे में एक ट्यब
ू लाईट जलती है, तो सारे कमरे में
प्रकाश होता है, उसी तरह से एक सूक्ष्म जीव के रहने
मात्र से पूरा शरीर चेतन रहता है। जब वह जीव ष्टिनकल

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 174 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जाता है, तो उस शरीर को आग में जलाइये , तलवार से


काष्टिटए, वह थोड़ी भी पीड़ा का अनुभव नहीं कर सकता।
मुरदे शरीर को जलाइये, काष्टिटये, क्या अन्तर पड़ता है?

चेतन जीव के ष्टिनकल जाने पर यह सारा शरीर जड़


हो जाता है। यष्टिद वही चेतन परमा_मा सृष्टि= के कण-कण
में व्यापक है , तो सारी सृष्टि= चेतन होनी चाष्टिहए। ष्टिकन्तु
देखने में आता है ष्टिक पृथ्वी बात नहीं करती , आकाश
कुछ बात नहीं करता , वायु नहीं बोलती , जल नहीं
बोलता, अष्टि° नहीं बोलती, ष्टिफर इसका मतलब क्या है?
यह जड़ जगत् है। चेतन ब्रह्म तो कुछ और है। वेद ने
कहा है-

आष्टिद_यवण% ः तमसः परस्तात्। यजुव”द ३१/१८

परब्रह्म तमस् से परे है। पूरे प्रकृधित मण्डल के तीन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 175 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

भाग ष्टिकये जाते हैं- पृथ्वी, अन्तरिर(, और द्युलोक।


द्युलोक का ता_पय% है, जहाँ से आकाशगँगायें प्रकट होती
हैं। जिजस द्युलोक से सूय% आष्टिद को प्रकाश ष्टिमलता है।
उसके परे "स्वः" आनन्दमयी लोक है, जो प्रकृधित से परे
है। ब्रह्म का स्वरूप द्युलोक से परे है , माया में नहीं है।
जब सूय% उगा होता है , तो पृथ्वी पर कहीं भी अन्'कार
नहीं होता, और जब राष्टित्र का अन्'कार होता है, तो सूय%
नहीं होता। दष्टिु नया का ज्ञान अनूठा है। दष्टिु नया क्या
कहती है? सूय% में अन्'ेरा है और अन्'ेरी रात के कण-
कण में सूय% व्यापक है। यह कैसे सम्भव है ? राष्टित्र में ष्टिदन
का अत्मिस्त_व कैसे हो सकता हैं? सामवेद का एक मन्त्र
है। उसका छोटा सा अंश आपको बताता हूँ-

शुक्रं ते अन्यत् यजतं ते अन्यष्टिद्वपुरु@े अह्नी द्यौरिरवाजिस।

सामवेद आ°ेय काण्ड प्र.१/खं.८/मं.३

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 176 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हे परमा_मा! आपका स्वरूप और माया का स्वरूप


वैसे ही है, जैसे ष्टिदन और राष्टित्र। परमा_मा का स्वरूप
ष्टिदन के समान प्रकाशमान है और इस मायावी जगत् का
स्वरूप राष्टित्र के समान अन्'कारमयी है। एक बहुत सरल
सा दृ=ान्त है, जिजससे आपको सारी बात समझ में आ
जायेगी।

मेरे हाथ में एक घड़ी है। यष्टिद घड़ी बनाने वाले को


मैं खोजना चाहूँगा, तो क्या करूँगा? यष्टिद मैं इस घड़ी
को पीटू ँ, आग में गलाऊँ, तो क्या घड़ी को बनाने वाला
ष्टिनकल आयेगा? ष्टिनष्टिमत्त कारण कभी भी उपादान कारण
में व्यापक नहीं हो सकता। एक जिसद्धान्त माष्टिनये -
ष्टिनष्टिमत्त कारण ब्रह्म है। उसने उपादान कारण प्रकृधित से
इस जगत् को बनाया है। प्रकृधित की लीला को देलिखए!
पृथ्वी समय घूम रही है। सभी ग्रह-न(त्र समय पर अपने

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 177 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सारे काय% कर रहे हैं। सारी सृष्टि= का ष्टिनयामक एक है।


इसको देखकर यह पता चलता है ष्टिक परमा_मा की सत्ता
है, लेष्टिकन उसका स्वरूप तो कहीं और है।

एक बहुत अच्छा तक% ष्टिदया जाता है- जैसे धितल में


तेल है, द'
ू में मक्खन है , और फूल में सुगत्मिन्' है ,
लकड़ी में आग है , उसी तरह परमा_मा भी सृष्टि= के
कण-कण में है, लेष्टिकन उसका अनुभव ज्ञान-च(ुओं से
होता है। बड़े-बड़े ष्टिवद्वान इसी तक% को देते हैं।
श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् में भी यह बात लिलखी हुई है।

अब आप इसको समजिझये ष्टिक ष्टिकस तरह से इस


समस्या का समा'ान हो। धितल में तेल तो होता है ,
लेष्टिकन ष्टिदखाई नहीं देता। जब उसको कोल्हू में पेरा
जाता है, तो उसमें से तेल ष्टिनकल आता है। द'
ू में
मक्खन शिछपा रहता है और आँ खों से देखने पर ष्टिदखाई

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 178 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं देता, लेष्टिकन जब द'


ू ष्टिबलोया जाता है तो मक्खन
ष्टिनकल पड़ता है। लकड़ी में अष्टि° शिछपी होती है , लेष्टिकन
ष्टिदखाई नहीं देती। जब लकड़ी को जलाया जाता है , तो
अष्टि° प्रकट हो जाती है। वैसे ही सृष्टि= के कण -कण में
परमा_मा शिछपा होता है, ष्टिकन्तु ष्टिदखाई नहीं देता। जब
ध्यान-समाधि' लगाते हैं , तो परमा_मा नजर आ जाता
है।

मैंने अभी घड़ी का एक दृ=ान्त ष्टिदया। घड़ी को


बनाने वाला कारीगर बहुत होशिशयार है। यह घड़ी की
बनावट देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है, लेष्टिकन
वह घड़ी के अन्दर बैठा नहीं है।

इसी प्रकार, कुम्भकार घड़े को बनाता है। घड़े को


देखकर हम कह सकते हैं ष्टिक कुम्भकार बहुत अच्छा है।
ष्टिनष्टिमत्त कारण कुम्भकार है तथा ष्टिमट्टी उपादान कारण है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 179 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जिजससे कोई वस्तु बनाई जाये, उसको कहते हैं उपादान


कारण। जो प्र_य( बनाने वाला है , वह कहलायेगा
ष्टिनष्टिमत्त कारण। उपादान कारण के अन्दर ष्टिनष्टिमत्त कारण
कभी भी व्यापक नहीं हो सकता। कुम्भकार ष्टिमट्टी से जब
घड़ा बनाता है, तो घड़े के कण-कण में कुम्भकार नहीं
रहेगा। घड़े के कण-कण में उसकी संरचना , उसकी
कला, उसकी बौधिद्धक कुशलता दृष्टि=गोचर होगी।

उसी प्रकार द'


ू में मक्खन की बात आती है। द'

पैदा करने वाली कौन है? गाय। गाय के थन से द'

ष्टिनकलता है। ष्टिनष्टिमत्त कारण हुई गाय। द'
ू के कण-कण
में आप गाय को खोजिजये , तो गाय कहीं नहीं ष्टिमलेगी। द'

से मक्खन ष्टिनकलता है और द'
ू में मक्खन शिछपा होता
है। उसी तरह से इस काय% रूप जगत् में प्रकृधित का
सूक्ष्मतम स्वरूप व्यापक है। आकाश सभी दृश्यमान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 180 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पदाथ[ में व्यापक है , आकाश में अहंकार व्यापक है ,


अहंकार में महत्त_व व्यापक है। महत्त_व में कारण प्रकृधित
व्यापक है। यह सब कुछ तो हो सकता है, लेष्टिकन जड़
प्रकृधित में चेतन परब्रह्म स्वरूप से व्यापक हो , यह कभी
संभव नहीं।

आप एक ष्टिगलास पानी लीजिजये और उसमें एक


चम्मच चीनी घोल दीजिजये। ष्टिफर उसे नीचे से चलिखये ,
ऊपर से चलिखये, बीच से चलिखये, हर जगह उसकी
ष्टिमठास बराबर होगी। उसी तरह से चेतन परमा_मा जड़
प्रकृधित के कण-कण में व्यापक हो जाये , तो सारी प्रकृधित
चेतन ष्टिदखेगी, जैसे एक ट्यूबलाईट के जलने से सारा
क( प्रकाशिशत हो जाता है।

और जिजस तरह से बाल की नोंक के दस हजारवें


भाग से भी छोटा जीव हाथी के अन्दर रहता है तो हाथी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 181 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चेतन रहता है, तथा जब वह ष्टिनकल जाता है तो हाथी


भी जड़ हो जाता है। यष्टिद वही परमा_मा सृष्टि= के कण -
कण में व्यापक होता तो आकाश चेतन होता , पृथ्वी
चेतन होती, वायु चेतन होती, दीवार चेतन होती, लेष्टिकन
ऐसा देखने में कुछ नहीं आता है। परमा_मा चेतन है ,
लेष्टिकन कहीं और , परम'ाम में है , इस प्रकृधित के
अन्'कार में नहीं। अब इन तीनों दृ=ान्तों को समजिझये -

लकड़ी में अष्टि° की बात कही जाती है। वेदान्त


दश% न में एक सूत्र आता है - "दश
ु % वाS" (३/२/२९),
जिजसका आशय यह है ष्टिक जिजस तरह से चन्दन में
सुगत्मिन्' है, नीम में कड़वापन है , लेष्टिकन उसमें जो शिछपी
हुई अष्टि° है, उसका चन्दन की सुगत्मिन्' से और नीम की
कड़वाहट से कोई लेना-देना नहीं होता, वह ष्टिनर्मिवकार
भाव से रहती है। वेदान्त दश% न के उस सूत्र का भाव यह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 182 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है ष्टिक परमा_मा भी प्राणी के जन्म-मरण से रष्टिहत है। वह


हर प्राणी में है, हर पदाथ% में है , लेष्टिकन यह सृष्टि= उ_पन्न
हो या इस सृष्टि= का लय हो , इससे उस परमा_मा का
कोई लेना-देना नहीं है।

पहली बात, लकड़ी में जो अष्टि° है , वह सूक्ष्म रूप


से है। लकड़ी में जल त_व भी है और जल त_व का
कारण है अष्टि°। यानी लकड़ी में जो अष्टि° त_व शिछपा हुआ
है, वह कारण रूप में है। वह कारण रूप प्रकट हो जाता
है, लेष्टिकन जिजस पेड़ की लकड़ी को हम जलाते हैं , उस
पेड़ को लगाने वाला जो ष्टिनष्टिमत्त कारण ष्टिकसान है , क्या
वह लकड़ी में बैठा है ? यह दृ=ान्त परमा_मा पर लागू
नहीं हो सकता, क्योंष्टिक अष्टि° भी जड़ है, लकड़ी भी जड़
है, और अष्टि° से ही जल त_व बना है। जल त_व से
पृथ्वी त_व बना और लकड़ी के अन्दर पाँचों त_व हैं -

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 183 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पृथ्वी, जल, अष्टि°, वाय,ु और आकाश। अष्टि° त_व जो


उसके अन्दर कारण रूप से ष्टिवद्यमान है, वह प्रकट हो
गया। यह कौन सी बड़ी बात है। चेतन ब्रह्म को उसके
ष्टिनष्टिमत्त कारण रूप से हटाकर उपादान कारण में जोड़ना
ष्टिकसी भी तरह से न्यायसंगत नहीं है।

जैसा ष्टिक मैंने पहले कहा ष्टिक द'


ू के अन्दर गाय
नहीं बैठी है , लकड़ी के अन्दर लकड़ी को पैदा करने
वाला ष्टिकसान नहीं बैठा है। इसी प्रकार श्वेताश्वतोरपष्टिन@द्
१/१५ में "धितले@ु तैलं" का उदाहरण बहुत अच्छी तरह
से ष्टिदया गया है। सरसों या धितल जड़ पदाथ% है। जिजस
ष्टिकसान ने धितल का पौ'ा लगाया होगा, वह ष्टिनष्टिमत्त
कारण हुआ। क्या ष्टिनष्टिमत्त कारण ष्टिकसान धितल के अन्दर
बैठा है? चाहे आप उसको जला डालिलये , चाहे उसे
ष्टिकतने ही कोल्हुओं में पेरिरए, क्या वह ष्टिकसान ष्टिनकल

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 184 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पड़ेगा? कभी नहीं। इसलिलये तैलित्तरीयोपष्टिन@द् में लिलखा


है-

तद् सृ=वा तदैव अनुप्राष्टिवशत्। ब्रह्मा व. अनु. ६

उसने सृष्टि= को रचकर सत्ता रूप से उसमें प्रवेश


ष्टिकया।

कोई कहे ये कछुए नाहीं, तो ए भी क्यों बनी आवे।

जो यामें ब्रह्म सत्ता न होती, तो ब्रह्मांड न अ'लिखन रहने पावे।।

ष्टिकरन्तन २९/५

श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी सृष्टि= के सारे


अनसुलझे रहस्यों से पदा% उठाती है ष्टिक परमा_मा कहाँ
है, ब्रह्म के संकल्प से सृष्टि= कैसे पैदा होती है , यह 'ीरे-
'ीरे जब हम समझेंगे, तो सारे रहस्य उजागर होते
जायेंगे। वेद में एक मन्त्र आता है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 185 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चतुष्पाद् भू_वा भोग्यः सव% मादत्त भोजनम्।

अथव% वेद १०/८/२१

ब्रह्म के चतुष्पाद् अथा%त् चार पैर हैं और उसका


चौथा पाद बार-बार सृष्टि= के रूप में प्रकट होता है।

ष्टित्रशिभः पष्टि-द्या%मरोहत पादस्येहाभवत् पुनः।

अथव% वेद १९/६/२

अव्याकृत ष्टिकसको कहते है? जो व्यŽ न हो सके।


मन से जिजसका मनन नहीं हो सकता, धिचत्त से जिजसका
धिचन्तन नहीं हो सकता, बुधिद्ध से जिजसकी ष्टिववेचना नहीं
हो सकती, वह परमा_मा कहलाता है। मन, धिचत्त, बुधिद्ध
से उस परमा_मा को प्राV नहीं ष्टिकया जा सकता। वह
परमा_मा चेतन है और चेतन को चेतन ही प्राV करेगा।
उस अव्याकृत को ही अ(र का मन कहते हैं। वही मन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 186 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मोहसागर में प्रकृधित के सूक्ष्मतम स्वरूप में संकत्मिल्पत


रूप से नारायण का रूप लेता है और उसी नारायण के
संकल्प से असंख्य लोक-लोकान्तरों तथा सृष्टि= के
प्राशिणयों की उ_पलित्त होती है , एवम् सृष्टि= का काय% चलता
है।

अब एक प्रश्न आता है ष्टिक जब परमा_मा स्वयं


ज्ञानमय है, तो उसने प्राशिणयों को अज्ञानता में क्यों
डाला? जन्मते ही प्राणी अज्ञानता के बन्'न में होता है।
एक बात बताइये ष्टिक गौतम बुद्ध को ज्ञान ष्टिकससे ष्टिमला?
महावीर स्वामी को ज्ञान ष्टिकससे ष्टिमला? मन्त्र दृ=ा
ऋष्टि@यों को ज्ञान ष्टिकसने ष्टिदया? आलिखर समाधि'स्थ प्रज्ञा
को प्राV करके समाधि' अवस्था में इन मनीष्टि@यों ने अपने
स्वरूप को जाना।

यष्टिद हर प्राणी के अन्दर वही पहले से बैठा हुआ है,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 187 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तो मनुष्य माँस क्यों खाता है? नशा क्यों करता है? एक


कसाई को देलिखए। जैसे मातायें घर में सब्जी काटती हैं ,
वैसे ही वह न जाने ष्टिकतने ही मुग[ को प्रधितष्टिदन काटता
है। उसको दया नहीं आती। क्या यह सम्भव है ष्टिक
उसके अन्दर बैठा हुआ परमा_मा मना करे और वह माने
नहीं। इसका मतलब यह ष्टिक परमा_मा की सत्ता को वह
सी'े चुनौती दे रहा है? जिजसकी इच्छा मात्र से पृथ्वी
जैसे असंख्य लोक एक पल में लय हो जाते हैं और इस
एक पृथ्वी में रहने वाला एक इंसान उसकी आज्ञा का
बार-बार उल्लंघन करे ष्टिक मैं तुम्हारी बात नहीं मानूँगा
और जानवरों की ह_या करें , यह ष्टिकसी भी कीमत पर
सम्भव नहीं है।

उसके अन्दर से जो प्रेरणा आती है, वह उसके


अच्छे संस्कारों के कारण आती है। जब मनुष्य नशे का

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 188 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सेवन करता है तो वह भूल जाता है ष्टिक मैं ष्टिकतना बुरा


काम कर रहा हूँ, क्योंष्टिक उस समय उसके अच्छे
संस्कार दब जाते हैं और बुरे संस्कार उभर आते हैं ,
इसलिलए गलत ष्टिवचारों के आने के कारण ही वह गलत
काय% करता है। ऐसा नहीं है ष्टिक परमा_मा कह रहा हो
और वह माने नहीं।

यष्टिद परमा_मा वहीं बैठा है , तो उसके अन्दर ज्ञान


का प्रकाश क्यों नहीं कर देता? उसके तो स्मरण मात्र से
हमारा हृदय पष्टिवत्र हो जाता है। जैसे आप ध्यान में बैष्टिठये
और ध्यान से उठने के पश्चात् आप मन में कोई बुरा
ष्टिवचार लाइये। पन्द्रह ष्टिमनट तक आपके हृदय में कोई भी
बुरा ष्टिवचार नहीं आ पायेगा , क्योंष्टिक आपका हृदय
परमा_मा के प्रेम से कुछ (णों के लिलये प्रकाशिशत हो चुका
है। थोड़ी देर बाद प्रयास करेंगे, तो आपके मन में कोई

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 189 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बुरा ष्टिवचार आयेगा। कारण क्या है? यष्टिद ष्टिनर्मिवकार


परमा_मा अखण्ड रूप से आपके अन्दर बैठा है, तो
आपको काम, क्रो', मद, लोभ, मोह, अहंकार क्यों
सताता है? आप तृष्णाओं के पीछे क्यों भागते है ? वही
अन्दर बैठा है, तो ष्टिकसको देखना चाहते हैं? जब सृष्टि=
के कण-कण में वही बैठा है , तो ष्टिकसके दश% न की
आकां(ा है? आप ष्टिकससे ज्ञान लेना चाहते है? सव% ज्ञ
परमा_मा को आप अपने अन्दर ष्टिबठाये हुए हैं और ज्ञान
के लिलये मारे-मारे ष्टिफर रहे हैं। कहते हैं ष्टिक हम अज्ञानी
हैं। ष्टिनर्मिवकार परमा_मा आपके अन्दर बैठा है और आप
ष्टिवकार से ग्रजिसत है, आलिखर क्यों?

एक तक% है जिजस पर धिचन्तन ष्टिकया जा सकता है


ष्टिक परमा_मा तो है लेष्टिकन वह ष्टिदव्य -च(ुओं से देखा
जायेगा। हृदय में होते हुए भी वह परे है। परे का ता_पय%

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 190 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रकृधित से परे है।

आष्टिद_यवण% ः तमसः परस्तात्। यजुव”द ३१/१८

वह तमस् से परे है। हमें प्रकृधित से परेे जाना पड़ेगा।


प्रकृधित के अन्दर जो कुछ है, वह आपके शरीर में भी है।
आपका शरीर प्रकृधित के काय% जगत का एक छोटा सा
रूप है।

प्रकृधित में पाँच त_व हैं , तो पाँच त_व का आपका


शरीर है, अहंकार है, महत्त_व है। यह सब आपके शरीर
के अन्दर है, और जो यह जीव है, उसी नारायण की
चेतना का प्रधितष्टिबत्मिम्बत रूप है। जो कुछ (र जगत् में है ,
वह आपके शरीर में भी है। इससे परे अ(र है, उससे परे
जो अ(रातीत है, वह आपके शरीर में नहीं है। राष्टित्र के
घने अन्'कार में सूय% का एक कण नहीं आ सकता ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 191 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकरण नहीं आ सकती। यष्टिद सूय% की एक ष्टिकरण आ


जायेगी, तो प्रकाश छा जायेगा। उसी तरह से हमारे हृदय
में अ(रातीत परमा_मा नहीं है।

अब प्रश्न यह खड़ा होता है ष्टिक हृदय में परमा_मा


नहीं है, तो ध्यान कहाँ करें? सभी ग्रन्थों का सार यही है
और श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी में भी कहा है ष्टिक
हृदय में उसका सा(ा_कार होता है। कारण क्या है ?
इसको एक दृ=ान्त से समजिझए। आकाश में सूय% चमक
रहा है। यष्टिद आप उसके सामने दप% ण रख देंगे, तो उसमें
भी सूय% चमकने लगता है। आकाश वाले सूय% में और
दप% ण वाले सूय% में क्या अन्तर है ? क्या दप% ण वाला सूय%
काला ष्टिदखता है? नहीं। जैसा आकाश वाला सूरज है,
वैसा ही आपके दप% ण में भी ष्टिदखाई पड़ेगा। उसी तरह से
आ_मा के अन्तःकरण में उसकी शोभा दृष्टि=गोचर होती

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 192 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। परमा_मा तो माया से सव% था ही परे है।

काल आवत कबूं ब्रह्म भवन में, तुम क्यों न ष्टिवचारो सोई।

अखंड सांई जो यामें होता, तो भंग ब्रह्मांड को न होई।।

ष्टिकरंतन ३२/६

जहाँ परमा_मा है, क्या वहाँ मृ_यु पहुँच सकती है?


नहीं। वेद कहते हैं-

तमेव ष्टिवष्टिद_वाधित मृ_यम


ु ेधित। यजुव”द ३१/१८

उसको जानकर, उसका सा(ा_कार करके जीव


मृ_यु के बन्'न से छूट जाता है। जब पहले से ही हमारे
अन्दर परमा_मा रम रहा है, तो मृ_यु क्यों आती है ? वह
परमा_मा उसे मृ_यु से क्यों नहीं बचा लेता? स्प= है ष्टिक
परमा_मा का स्वरूप इस मायावी जगत् से सव% था परे है
और संसार इसी जगत् के अन्दर उसको खोज रहा है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 193 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जब तक हम इस जगत् से परे नहीं जायेंगे , तब तक उस


परमा_मा के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। इसीलिलये
तो कहा है-

कई दरवाजे खोजे कबीरे, बैकंु ठ सुन्य सब देख्या।

आलिखर जाए के प्रेम पुकारया, तब जाए पाया अलेखा।।

ष्टिकरंतन ३२/१०

यह वैकुण्ठ क्या है? पौराशिणक मान्यता के अनुसार


वैकुण्ठ एक सुखमयी लोक है जहाँ सभी प्राणी आनन्द में
ष्टिवहार करते हैं, और यह सबको मालूम है ष्टिक इस
वैकुण्ठ से परे ष्टिनराकार ही वो मण्डल है जिजसे शून्य कहा
है। जब तक हम इस दृश्य-अदृश्य जगत् से परे नहीं
जायेंगे, जहाँ चेतना ही चेतना है, जहाँ प्रेम ही प्रेम है,
तब तक ब्रह्म के स्वरूप के बारे में कोई नहीं जान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 194 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकता। उपष्टिन@द् का एक कथन है , जो कठोपष्टिन@द्


और मुण्डकोपष्टिन@द् में भी है , ष्टिक जो ब्रह्म का 'ाम है
वहाँ सूय% भी नहीं चमकता है।

न तत्र सूय‘ भाधित न चन्द्र तारकं।

कठोपष्टिन@द पंचमीवल्ली श्लोक १५

वहाँ पर न सूय% है , न चन्द्रमा है, और न तारों का


प्रकाश है।

न इमा ष्टिवद्युतो भांधित कुतोऽयमष्टि°ः।

कठोपष्टिन@द वल्ली ५ श्लोक १५

यह ष्टिवद्युत भी नहीं चमकती है, तो अष्टि° कहाँ?

तमेव भान्तमनुभाधित सव% म्। कठोपष्टिन@द ५/१५

उस ब्रह्म के प्रकाश से ही वहाँ सब कुछ प्रकाशिशत

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 195 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

होता है। उसकी ही चमक से सब कुछ चमकता है।


ता_पय% क्या है ? हम जिजस दष्टिु नया में रह रहे हैं , यह
सूरज, चाँद, जिसतारों की दष्टिु नया है। यहाँ सूय% का प्रकाश
है, ष्टिवद्युत का प्रकाश है, अष्टि° का प्रकाश है , लेष्टिकन
परमा_मा का प्रकाश नहीं है। ष्टिकन्तु वहाँ तो प्रेम का
स्वरूप है, हर वस्तु चेतन है, हर वस्तु ष्टित्रगुणातीत है।
हम सत्, रज, और तम की ष्टित्रगुणात्मि_मका माया के जगत्
में रहकर यहाँ के कण-कण में परमा_मा को खोजने का
प्रयास करते हैं, और यह सबसे बड़ी भूल है।

जैसे अभी मैंने एक दृ=ान्त ष्टिदया था ष्टिक घड़ी को


बनाने वाला घड़ी के अन्दर नहीं बैठा है , वैसे ही ष्टिनष्टिमत्त
कारण ब्रह्म, उपादान कारण माया या उससे बने हुये
व्यŽ जगत् में कभी भी व्यापक नहीं हो सकता। आपके
मन में संशय अवश्य हो सकता है ष्टिक जब परमा_मा नहीं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 196 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, तो इसको चला कौन रहा है? यह बात सच है ष्टिक


अण-
ु अणु में, परमाण-
ु परमाणु में उसकी सत्ता समाई
हुई है। यष्टिद उसकी सत्ता न हो, तो ब्रह्माण्ड एक पल के
लिलए भी अत्मिस्त_व में नहीं रह सकता। उसकी सत्ता से ही
सब कुछ चलता है। उपष्टिन@दों ने इसको सरल रूप में
प्रस्तुत ष्टिकया है-

भयादस्य अष्टि°ः तपधित भयात्तपधित सूय%ः।

भयाष्टिदन्द्रश्च वायश्च
ु मृ_यःु 'ावधित पंचमः।।

कठोपष्टिन@द @ष्ठी वल्ली श्लोक ३

उसी परमा_मा के भय अथा%त् सत्ता से अष्टि° तपती


है, सूय% तपता है, चन्द्रमा आष्टिद न(त्र अपने -अपने काय%
में लगे हैं। उसी के भय से मृ_यु भी ष्टिक्रयाशील है। अथा%त्
कोई भी ऐसा अणु या परमाणु नहीं है, जो यह कह सके

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 197 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक मैं परमा_मा की सत्ता से परे हूँ। परमा_मा की सत्ता


अलग है और स्वरूप अलग है।

सूय% का प्रकाश पृथ्वी पर आता है। वह कीचड़ पर


भी पड़ेगा, लेष्टिकन सूय% के अन्दर कीचड़ नहीं रहेगा। सूय%
के अन्दर यष्टिद कीचड़ को डाला जाये , तो वह भी दहकते
हुए सूय% में परिरशिणत हो जायेगा। अष्टि° में लोहे को डालेंगे ,
तो लोहा भी अष्टि° के सा'म्य% को प्राV कर लेगा। यही तो
आ'ुष्टिनक वेदात्मिन्तयों की भ्रात्मिन्त है। आष्टिद शंकराचाय% के
अनुयायी कहते हैं, "अहम् ब्रह्मात्मिस्म, तत् _वमजिस",
अथा%त् मैं ब्रह्म हूँ और तुम भी वही हो।

अहम् ब्रह्मात्मिस्म का ता_पय% क्या है ? मैं उस ब्रह्म से


यŽ
ु हूँ , यह नहीं ष्टिक मैं अनाष्टिद ब्रह्म हूँ। यष्टिद आप
सा(ात् ब्रह्म हैं , तो आपको क्रो' क्यों आता है ?
परमा_मा ने तो असंख्य न(त्र बनाये हैं और आप यष्टिद

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 198 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अपने आपको ब्रह्म मानते हैं , तब भी आप ष्टिमट्टी का एक


कण भी नहीं बना सकते। आप ब्रह्म हैं , तो आप मरते
क्यों है? आप दस
ू रों को जिजन्दा क्यों नहीं करते?

जो सृष्टि= का कता% है, पालनकता% है, ष्टिवनाशकता% है,


वह परमा_मा है। मनुष्य ब्रह्म को जानकर ब्रह्म के तदोगत
होता है। ब्रह्म की तरह ष्टिनर्मिवकार अवस्था को प्राV कर
सकता है, लेष्टिकन अनाष्टिद ब्रह्म के सभी गुण उसमें नहीं
आ सकते।

यष्टिद ब्रह्म का अखण्ड स्वरूप इस माया के संसार में


होता, तो सारा संसार ही ब्रह्म का स्वरूप होता। इसलिलए
वेदात्मिन्तयों ने जो "सव‚ खत्मिल्वदं ब्रह्म" कह ष्टिदया ष्टिक सारा
संसार ही ब्रह्म का रूप है , यह भ्रात्मिन्त है। यष्टिद सारा
जगत् ही ब्रह्म का रूप है, तो इस सृष्टि= में इतना पाप क्यों
हो रहा है? चोरी, डकैती, न जाने ष्टिकतने पापमयी कम%

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 199 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हो रहे हैं। आलिखर परमा_मा कहाँ बैठा है? ष्टिकतने प्राणी


करुण क्रन्दन कर रहे हैं। क्या परमा_मा का हृदय
पसीजता नहीं है ? ष्टिकतने प्राशिणयों की ह_या होती है ?
उसको देखने वालों का ष्टिदल दहल जाता है। परमा_मा
को तो दया का सागर कहा जाता है, प्रेम का सागर कहा
जाता है। उसकी दया और करुणा कहाँ चली जाती है ?
क्या वह बहरा हो गया है?

यह जीव की कम% भूष्टिम है। यह द्वैत का ब्रह्माण्ड है ,


प्रकृधित का मण्डल है, और इस प्रकृधित के मण्डल में जीव
जन्म लेता है, मरता है, वासनाओं से ग्रजिसत होकर ८४
लाख योष्टिनयों में भटकता है। शुभ -अशुभ कम[ के कारण
वह कभी सुखी होता है, तो कभी दःु खी होता है। इन
सारे द्वन्दों से परे है परमा_मा। पृथ्वी पर ष्टिदन होता है ,
पृथ्वी पर राष्टित्र होती है। इसको प्रकाश देने वाला सूय% है ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 200 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जो आकाश में है। पृथ्वी के 'ूल और कीचड़ से उसको


कोई भी लेना-देना नहीं है , इसको कहते हैं "कूटस्थो
अ(र उच्यते"। इसलिलए परमा_मा का स्वरूप ष्टिनर्मिवकार
है, चेतन है, अनन्त प्रेम और आनन्द की राशिश है।
इसलिलए वेद के मन्त्र में सरल तरीके से कहा गया है-

यत्र ज्योधितरजस्र यत्मिस्मन्लोके स्वर्मिहतम्।

तत्मिस्मन्मां 'ेष्टिह पावनामृतेलोके अधि(त इन्द्रायेन्दो परिरस्रव।।

ऋग्वेद ९/११३/७

हे परब्रह्म! जहाँ अनन्त आनन्द है, मुझे वहाँ ले


चल।

यत्र आनन्दाः च मोदा च मुदः प्रमुद आसते।

कामस्य यत्राVाः कामास्तत्र माममृतं कृ 'ीन्द्रायेन्दो परिरस्रव।।

ऋग्वेद १०/११३/११
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 201 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

जहाँ आनन्द ही आनन्द है, प्रेम ही प्रेम है। मुझे


वहाँ ले चल, जहाँ सम्पूण% कामनायें पूण%ता को प्राV होती
हैं।

इस मायावी जगत् में यह घट नहीं सकता। सन्तों ने


अपने-अपने पदों में दस
ू रे रूप में इसी को परिरभाष्टि@त
ष्टिकया है ष्टिक रे हँस! तू वहाँ ही चल, जहाँ सूय% का प्रकाश
नहीं। जहाँ ष्टिबना सूय% के प्रकाश हो, ष्टिबना बादल के व@ा%
हो, ष्टिबना पञ्चभौधितक तन के आनन्द की सृष्टि= हो, मुझे
वहाँ चलना है।

जब हम ष्टित्रगुणा_मक जगत् से परे चलेंगे, तभी हमें


ब्रह्म का सा(ा_कार हो सकता है। यष्टिद सृष्टि= के कण -
कण में परमा_मा होता, तो सारी सृष्टि= में कहीं भी ध्यान
लगाते, तुरन्त परमा_मा का सा(ा_कार हो जाता। कोई
भी अज्ञानी नहीं होता , कोई दःु खी नहीं होता , कोई

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 202 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवकारग्रस्त नहीं होता , और बार-बार अलग-अलग


समाधि'यों की आवश्यकता नहीं पड़ती। यष्टिद सृष्टि= के
कण-कण में परमा_मा होता, तो आप यष्टिद दीवार का भी
ध्यान करते, तो उसी परमा_मा के चैतन्य स्वरूप के
दश% न हो जाते।

परमा_मा अनन्त सूय[ से भी अधि'क प्रकाशमान है।


करोड़ों, अरबों, खरबों सूया¸ का प्रकाश भी कभी उसकी
समानता नहीं कर सकता। ब्रह्म में अनन्त प्रकाश है ,
जबष्टिक एक सूय% के प्रकाश को तो हम देख नहीं पाते।
यहाँ हम एक तक% दे सकते हैं ष्टिक जब कारण शरीर और
सूक्ष्म शरीर से पुरु@ प्रकट होते हैं, तो उनका प्रकाशमयी
स्वरूप ष्टिदखता है ष्टिकन्तु इस पञ्चभूता_मक शरीर में तो
प्रकाश ष्टिदखता नहीं? यह बात सच है ष्टिक कारण शरीर
और सूक्ष्म शरीर का जो प्रकाशमयी शरीर (स्वरूप)

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 203 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

होता है, वह भी ष्टित्रगुणा_मक होता है और उसको इन


नैनों से देखा जा सकता है। परमा_मा ष्टित्रगुणातीत है और
उस ष्टित्रगुणातीत परमा_मा को देखने के लिलए ष्टित्रगुणातीत
चैतन्य दृष्टि= की आवश्यकता होती है।

वह परमा_मा कहाँ है? अथव% वेद में केन सूŽ है


और उसी से बना है केनोपष्टिन@द। उसमें ब्रह्मपुरी का
वण% न ष्टिकया गया है। उसका आशय सं(ेप में मैं बताता
हूँ- ब्रह्म के यशोरूप तेज से वह धिघरी हुई है और उस
ब्रह्मपुरी में वह ब्रह्म ष्टिवराजमान है। उपष्टिन@दों ने इसी को
दस
ू रे शब्दों में कहा-

ष्टिहरण्यमये परे कोशे ष्टिवरजं ब्रह्म ष्टिनष्कलं।

तत् शुभ्रं ज्योधित@ां ज्योधित यत् आ_मष्टिवदो ष्टिवदःु ।।

मुण्डक उपष्टिन@द मु.२/खं.२(९-४१)

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 204 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिहरण्य कोश में ष्टिनर्मिवकार ब्रह्म ष्टिवराजमान है , वह


ज्योधितयों का भी ज्योधित है , जिजसको आ_मज्ञानी देखते
हैं। अब प्रश्न यह है ष्टिक क्या हमारे अन्दर ब्रह्मपुरी है ?
ब्रह्म ब्रह्मपुरी में ष्टिवद्यमान है। ब्रह्मपुरी को तो सूक्ष्म माना
गया है। कुछ ऐसे प्राणी हैं, जिजनमें आठ चक्र और नौ द्वार
नहीं हैं। इसी सूŽ में आता है-

अ=ाचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या।

अथव% वेद का. १० सू. २ मन्त्र ३१

अयोध्या का अथ% भी यही है। जिजसको यद्ध


ु में जीता
न जा सके वही अयोध्या है, वही अपराजिजता है। माया में
उ_पन्न होने वाला जीव उस ष्टिदव्य ब्रह्मपुरी में प्रवेश नहीं
कर पाता। इसीलिलये वह माया के कण-कण में परमा_मा
को देखने का प्रयास करता है। इस सूŽ में यह बताया

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 205 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गया है ष्टिक जो उस ब्रह्मपुरी को जान लेता है , वह मृ_यु


के बन्'न से मुŽ हो जाता है। यष्टिद आपके अन्दर ब्रह्म
बैठा है, तो बSा-बSा भी कह देगा ष्टिक हमारे अन्दर ब्रह्म
बैठा है।

प्रह्लाद की कहानी तो कही ही जाती है। प्रह्लाद से


ष्टिहरण्यकश्यप ने पूछा- "तुम्हारा परमा_मा कहाँ है?"
प्रह्लाद ने कहा- "हे ष्टिपताश्री! वह मेरे अन्दर है, तुम्हारे
अन्दर है, इस खम्भे के अन्दर है।" बात तो सही है,
परन्तु वह सत्ता से सबमें है। लेष्टिकन ष्टिहरणकश्यप के
अन्दर बैठा हुआ परमा_मा ष्टिहरण्यकश्यप को सद्बधिु द्ध नहीं
दे सकता, तो वह कैसा परमा_मा है? जिजसका स्मरण
मात्र ज्ञान के च(ु खोल देता है, ष्टिदव्य ज्ञान राशिश में डु बो
देता है, ष्टिनर्मिवकारिरता के सागर में डु बो देता है , वह
परमा_मा हमारे हृदय मत्मिन्दर में बैठा हो और ष्टिफर भी हम

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 206 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बुरे कम% करें, पापों में लिलV रहें, यह कैसे सम्भव है?

परमा_मा की बात कही जाती है ष्टिक वह


"ष्टिहरण्यकोश" में है। ष्टिहरण्य का अथ% होता है -
ज्योधितम% य कोश। बताइये, चींटी के अन्दर क्या आठ
चक्र और नौ द्वार हैं ? चींटी से भी सूक्ष्म जीव है अमीबा
आष्टिद। क्या उनके अन्दर आठ चक्र, नौ द्वार हैं? सप% के
अन्दर क्या आठ चक्र और नौ द्वार हैं ? क्या परमा_मा
केवल मनुष्य से बन्'ा हुआ है?

पुण्डरीकं नवद्वारं ष्टित्रशिभगु%णेशिभरावृतम्।

तत्मिस्मन् यद् य(मा_मन्वत् तद् वै ब्रह्म ष्टिवदो ष्टिवदःु ।

अथव% वेद १०/८/४३

शब्दों का अथ% कोई भी कर लेगा ष्टिक जो हृदय -


कमल है, उसको पुण्डरीक कहते हैं। इस शरीर में नौ

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 207 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

द्वार हैं और इसमें परमा_मा ष्टिवद्यमान हैं। लेष्टिकन तारतम


वाणी की दृष्टि= से देखते हैं, तो कुछ नये ही रहस्य खल
ु ते
हैं।

ष्टिनष्टिमत्त कारण यानी मूल कारण। जैसे चूल्हा जल


रहा हो, तवा भी गरम हो, आटा भी गुँथा हो, लेष्टिकन
रोटी बेलने वाला न हो, तो रोटी नहीं पकेगी। कोई चेतन
प्राणी जाकर रोष्टिटयों को बेलेगा , तवे पर रखेगा, तभी
रोष्टिटयाँ बन सकेंगी। कुम्भकार ष्टिमट्टी से घड़े बनाता है।
यष्टिद बनाने वाला कुम्भकार न हो, ष्टिमट्टी पड़ी हो, चाक
पड़ा हो, तो भी घड़ा नहीं बन सकता। अतः रोटी बेलने
वाला और कुम्भकार हो गये ष्टिनष्टिमत्त कारण।

जिजस सा'न से कोई वस्तु बनाई जाती है, उसको


उपादान कारण कहते हैं। जैसे द'
ू से मक्खन ष्टिनकलता
है, तो द'
ू हो गया उपादान कारण और गाय हो गई

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 208 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिनष्टिमत्त कारण। यष्टिद गाय न हो , तो द'


ू पैदा ही न हो।
इसी प्रकार, यह सारी व्याख्या आपको बताई गई ष्टिक
ष्टिनष्टिमत्त कारण कभी भी उपादान कारण के अन्दर कण-
कण में व्यापक नहीं हो सकता।

यह व्यापक का जिसद्धान्त कहाँ से चला है? जीव


अल्पज्ञ है, एकदेशी है, क्योंष्टिक वह अणु मात्र है, बहुत ही
सूक्ष्म है। मैंने श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् का उदाहरण देकर
बताया ष्टिक जैसे बाल की नोंक के दस हजार टु कड़े ष्टिकये
जायें, तो उससे भी छोटा जीव होता है। स्वाभाष्टिवक है
ष्टिक वह एकदेशी होगा। माया से आवृत्त है , ष्टिवकारों से
भरा है, इसलिलए सव% ज्ञता का गुण इसमें नहीं हो सकता।
यहाँ लखनऊ में बैठकर वह यह नहीं जान सकता ष्टिक
कलकत्ता की अमुक सड़क पर कौन से नम्बर की गाड़ी
जा रही है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 209 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लेष्टिकन जिजस परमा_मा की सत्ता में अनन्त प्राणी


वास करते हैं, सबके कम[ की देखभाल, उनके शुभ-
अशुभ कम[ के अनुसार उनके सुख -दःु ख की व्यवस्था
करना, उनको मुष्टिŽ का आनन्द प्रदान करना , उनको
ज्ञान देना, सव% शष्टिŽमान परमा_मा के अलावा अन्य
ष्टिकसी के लिलए सम्भव नहीं है। इसलिलये परमा_मा को
सव% ज्ञ होना आवश्यक है। वह सव% व्यापक तो है , लेष्टिकन
ष्टिकस प्रकार से, यह समझना होगा। परमा_मा अल्पज्ञ
नहीं है। परमा_मा ष्टित्रगुणातीत है , सव% ज्ञ भी है , लेष्टिकन
सव% व्यापकता में दो तरह की ष्टिवचार'ारा माननी पड़ेगी।
एक है सत्ता से सव% व्यापक होना, और एक है स्वरूप से
सव% व्यापक होना।

जैसे मैंने इसके पहले दृ=ान्त ष्टिदया ष्टिक एक ष्टिगलास


पानी में यष्टिद शक्कर घोल देते हैं और कहीं से भी चखते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 210 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हैं, तो शक्कर की ष्टिमठास ऊपर, नीचे, या बीच में समान


रूप से अनुभव में आती है। शब% त में चीनी की ष्टिमठास है,
अथा%त् चीनी की लीला सव% त्र हो रही है। इसी प्रकार ,
फूल में सुगत्मिन्' सव% त्र व्यापक है। फूल की पँखड़
ु ी हो या
उसका पराग हो, सबमें सुगत्मिन्' आएगी। आम का पेड़ है ,
उसकी पत्ती में भी आम की महक आयेगी, उसकी छाल
में भी आयेगी, फल में भी आयेगी, फूल में भी आयेगी।

उसी तरह, लीला रूप में परमा_मा ष्टिनज'ाम


(ष्टित्रगुणाातीत 'ाम) में व्यापक है और सत्ता रूप से इस
मायावी जगत् में व्यापक है। इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई भी
पदाथ% नहीं है , जिजससे परमा_मा की सत्ता का अनुभव न
होता हो। ऋष्टि@यों ने उसे अपने ष्टिदव्य-च(ुओं से देखा
है। चाहे सूय% उगता है, चन्द्रमा उगता है, अनन्त ब्रह्माण्ड
बनते हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 211 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बड़े-बड़े नात्मिस्तक से भी पूशिछए ष्टिक ये आँ खें कैसे


बन गई?
ं इस आँ ख में ष्टिकतनी बड़ी कारीगरी है। आप
सोते रहते हैं और शरीर में ष्टिवधिचत्र ष्टिक्रयाएँ होती रहती हैं।
आपके हृदय की 'ड़कन चलती रहती है। आपका खून
प्रधितष्टिदन साफ होता रहता है। कौन सा कारीगर है,
अलौष्टिकक फूलों को रंगने वाला? कौन सा कारीगर है,
अनेक प्रकार की वनस्पधितयों को, वृ(ों को, और पशुओं
को जन्म देने वाला? इसी प्रकार कोई अनन्त सत्ता है,
जो सारी सृष्टि= का संचालन कर रही है। जिजस तरह से
ष्टिमट्टी के घड़े से कुम्भकार की कारीगरी ष्टिदखती है, उसी
तरह से सृष्टि= के प्र_येक पदाथ% से परमा_मा की कारीगरी
ष्टिदखती है, अथा%त् उसकी सत्ता कण-कण में व्यापक है।

ष्टिकन्तु यष्टिद परमा_मा का ष्टिनज स्वरूप यहाँ पर


होता, तो सारा ब्रह्माण्ड उसके जैसा होता। अष्टि° में लोहा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 212 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

डाल दीजिजए, पहले तो लोहा दहकेगा, ष्टिफर अष्टि° के


समान ष्टिदखाई देने लगेगा। यह जगत् यष्टिद ब्रह्म के रूप में
है, तो सारा जगत् ब्रह्मरूप हो जाएगा, ष्टिफर कोई दःु खी
और लूला-लंगड़ा नहीं रहेगा। सृष्टि= में क्या हो रहा है ?
कोई भूखा मर रहा है, कोई लूला है, कोई लंगड़ा है,
कोई अन्'ा है, कोई कोढ़ी है। श्मशान में जाइये ,
अस्पताल में जाइये दःु ख ही दःु ख, संसार में कहीं भी
जाइए चारों तरफ दःु ख ही दःु ख है , सुख कहीं नहीं है।
कष्टिपल जी ने सांख्य शास्त्र में कहा है-

कुत्राष्टिप कोऽष्टिप सुखी नात्मिस्त। सांख्य दश% न ६/७

कोई भी, कहीं भी, इस सृष्टि= में सुखी नहीं है।

सुखी कौन है? जिजसने उस आनन्द के सागर


परमा_मा को अपने हृदय में आ_मसात् कर लिलया ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 213 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

एकमात्र वही सुखी है , अन्यथा सृष्टि= में हर प्राणी दःु खी


है।

परमा_मा को सव% व्यापक क्यों कहा गया? सव% ज्ञता


को जिसद्ध करने के लिलए। जो सव% त्र होगा वही सव% व्यापक
होगा, और जो सव% व्यापक होगा वही सव% ज्ञ होगा। जैसे मैं
यहाँ बैठा हूँ, तो यहाँ बैठे-बैठे कोलकाता की ष्टिकसी
सड़क से गुजरती हुई गाड़ी का नम्बर नहीं बता सकता।
लेष्टिकन जो वहाँ होगा, वह देखकर बता सकता है।
इसलिलए मनीष्टि@यों का यह धिचन्तन है ष्टिक परमा_मा को
सव% व्यापक कहना पड़ेगा, तभी वह सव% ज्ञ जिसद्ध हो
सकेगा।

सव% ज्ञता जिसद्ध करने के लिलए उसको अखण्ड जिसद्ध


करना पड़ेगा। अखण्ड जिसद्ध करने के लिलए यह तक%
बनाना पड़ा ष्टिक जो वस्तु सूक्ष्म से सूक्ष्म हो , वही

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 214 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अखण्ड रह सकती है,ै जैसे पाँच त_व हैं। सबसे पहले


पृथ्वी त_व का ष्टिवनाश होगा, उसके बाद जल त_व का,
ष्टिफर अष्टि° त_व का, ष्टिफर वायु त_व का, ष्टिफर आकाश
त_व का। उसके पश्चात् अहंकार का लय होगा, ष्टिफर
महत्त_व का लय होगा, और ष्टिफर कारण प्रकृधित का लय
होगा। मनीष्टि@यों का धिचन्तन यह कहता है ष्टिक यष्टिद हम
ब्रह्म को प्रकृधित से भी सूक्ष्म मानें , तो महाप्रलय के बाद
भी वह परमा_मा अखण्ड बना रहेगा, क्योंष्टिक वह प्रकृधित
से भी सूक्ष्म है।

बस यह ष्टिवचार'ारा काय% करती है और यहाँ से


ष्टिनराकारवाद का जन्म होता है। सव% ज्ञ जिसद्ध करने के
लिलए सव% व्यापक कहना अष्टिनवाय% है , और अखण्ड जिसद्ध
करने के लिलए सूक्ष्म से सूक्ष्म कहना अष्टिनवाय% है , क्योंष्टिक
सूक्ष्म वस्तु ही ष्टिवनाश को प्राV नहीं हो पाती, स्थूल का

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 215 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवनाश स्वाभाष्टिवक होता है।

अब आगे प्रकाश डाला जायेगा ष्टिक वह साकार है


या ष्टिनराकार या दोनों से शिभन्न है ? कहाँ है? कैसा है?
यह एक गु_थी है, क्योंष्टिक संसार के बड़े से बड़े मनी@ी
इसी में भटकते हैं ष्टिक हम परमा_मा को कहाँ मानें ? कैसा
मानें? साकार में मानें या ष्टिनराकार में। यष्टिद साकार
मानते हैं तो भ्रात्मिन्तयाँ पैदा होती हैं , और यष्टिद ष्टिनराकार
मानते हैं तो कुछ जिजज्ञासायें पैदा होती हैं। साकार क्यों
माना जाये या ष्टिनराकार क्यों माना जाये , यह समझाएगी
श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी।


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 216 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चतुथ% अध्याय

परब्रह्म का स्वरूप कैसा है?

अकामो 'ीरो अमृतः स्वयं भू रसेन तृVो न कु तश्चनोनः।

तमेव ष्टिवद्वान न ष्टिबभाय मृ_योरा_मानं 'ीरमजरं य वु ानम्।।

अथव% वेद १०/८/४४

वह परब्रह्म सम्पूण% कामनाओं से पूण% है , 'ीर है,


अमृत स्वरूप है, आनन्द रस से परिरपूण% है, और प्र_येक
दृष्टि= से अनन्त सामथ्य% वाला है। उसी 'ीर अथा%त्
सव% दा शुद्ध स्वरूप वाले , अजर, और ष्टिन_य तरूण रहने
वाले परब्रह्म को जानकर ष्टिवद्वान पुरु@ मृ_य ु से नहीं डरते
हैं।

अब प्रश्न यह है ष्टिक परमा_मा कहाँ है ? कैसा है?


यही दो प्रश्न हैं, जो सृष्टि= के अनाष्टिद काल से चले आ रहे

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 217 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हैं, तथा मनीष्टि@यों व ऋष्टि@-मुष्टिनयों का ष्टिव@य रहे हैं।

'म% और त_व पर मनन करने वालों ने इसके ष्टिव@य


पर काफी मनन ष्टिकया है। परमा_मा कैसा है, इस ष्टिव@य
पर चार प्रकार की ष्टिवचार'ारायें प्रचलिलत हैं। पहली
ष्टिवचार'ारा कहती है ष्टिक परमा_मा ष्टिबल्कुल साकार है।
दस
ू री ष्टिवचार'ारा कहती है ष्टिक परमा_मा ष्टिबल्कुल
ष्टिनराकार है, साकार है ही नहीं, साकार तो अज्ञानता है।
तीसरी ष्टिवचार'ारा कहती है ष्टिक परमा_मा है तो
ष्टिनराकार, लेष्टिकन भŽों के कल्याण के लिलए आवश्यकता
पड़ने पर साकार में परिरवर्तितत हो जाया करता है। चौथी
ष्टिवचार'ारा कहती है ष्टिक न तो वह साकार है , न
ष्टिनराकार है, दोनों से शिभन्न है। अब इसी की समी(ा के
इद% -ष्टिगद% आज का सारा ष्टिव@य रहेगा ष्टिक परमा_मा का
स्वरूप वास्तव में कैसा है? एक उपष्टिन@द का कथन है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 218 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

यो देवो अ°ौ यो अप्सु य भूवनमष्टिववेश।

य औ@'ी@ु वनस्पधित@ु तस्मै देवाय नमो नमः।।

इसका अथ% यह है ष्टिक जो आनन्द स्वरूप परमा_मा


अष्टि° में है, जल में है, औ@धि'यों में है, वनस्पधितयों में है,
उस सव% व्यापक परमा_मा को प्रणाम है। अब प्रश्न यह है
ष्टिक क्या परमा_मा अष्टि° में है ? जल में है ? औ@धि'यों
और वनस्पधितयों में है ? परमा_मा की सत्ता, उसकी
कृपा, इन सारी वस्तुओं में है। यह कोई इन्कार नहीं कर
सकता। लेष्टिकन परमा_मा का स्वरूप जो वेद ने कहा है
ष्टिक "तमसः परस्तात्", उसे तमस् से परे ही मानना
पड़ेगा, प्रकृधित के अन्दर नहीं।

पृष्ठात् पृशिथव्या अहम् अन्तरिर(म् आरूहम् अन्तरिर(ात् ष्टिदवम् आरूहम्।

ष्टिदवो नाकस्य पृष्ठात् स्वः ज्योधितगा%म् अहम्।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 219 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अथव% वेद १/१४/३

मैं पृथ्वी से अन्तरिर( को जाऊँ , अन्तरिर( से


द्युलोक को जाऊँ, और द्युलोक से सुखमयी माग% द्वारा
आनन्दमयी 'ाम को प्राV हो जाऊँ। इसी मन्त्र से ब्रह्म
का स्वरूप, ब्रह्म का 'ाम, और उसको पाने का माग%
ष्टिनधिश्चत होता है। इसी मन्त्र की व्याख्या में तीनों रहस्य
स्प= होते हैं।

क्या ब्रह्म साकार है ? साकार ष्टिकसको कहते हैं?


साकार का ता_पय% है , आकार सष्टिहत अथा%त् जिजसके
अवयव हों। ष्टिनराकार ष्टिकसको कहते हैं? जिजसमें अवयव
न हों। हाथ, पैर, गोलाकार, ष्टित्रभुज, ष्टिकसी भी तरह की
आकृधित न बनती हो, उसे ष्टिनराकार कहते हैं। जो भी
पञ्चभूता_मक पदाथ% होता है , प्रायः वह साकार रूप
'ारण करता है, यानी अष्टि°, जल, और पृथ्वी त_व से

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 220 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बना प्र_येक पदाथ% साकार कहलाता है।

वायु ष्टिनराकार है। वायु की कोई आकृधित नहीं है।


आकाश की कोई आकृधित नहीं है , लेष्टिकन रूप है।
आकृधित और रूप में अन्तर होता है। हवा क्या है ?
परमाणओ
ु ं का एक ऐसा समूह है, जिजसकी कोई आकृधित
नहीं है, लेष्टिकन ष्टिदव्य-दृष्टि= से वायु त_व को देखा जाता
है। ष्टिदव्य-दृष्टि= से आकाश त_व को भी देखा जाता है।
पृथ्वी त_व का रंग होता है पीला, जल त_व का रंग होता
है श्वेत, अष्टि° त_व का रंग होता है लाल, वायु त_व का
रंग होता है हरा, और आकाश त_व का रंग होता है
काला, लेष्टिकन यह योष्टिगयों द्वारा जाना जाने वाला ष्टिव@य
है।

सामान्य बुधिद्ध वाला प्राणी यही कहेगा ष्टिक आकाश


का कोई भी रूप नहीं है। सामान्य दृष्टि= से सोचने पर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 221 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कोई भी प्राणी यही कहेगा ष्टिक अणु का कोई रूप नहीं,


परमाणु का कोई रूप नहीं, क्योंष्टिक वह आँ खों से ष्टिदखाई
नहीं देते। ष्टिवद्युत तारों में बह रही है , क्या उसको आँ खों
से देखा जा सकता है? लेष्टिकन हम तार को छूते हैं तो
हमें करंट लगता है और हम मानते हैं इसका कोई रूप
तो है। जिजसका अत्मिस्त_व है, उसका रूप अवश्य है, भले
ही उसकी अनुभूधित करने का सामथ्य% हमारे अन्दर हो
या न हो। जब कोई व्यष्टिŽ मरता है , तो उसके शरीर से
जीव बाहर ष्टिनकलता है, लेष्टिकन वह आँ खों से ष्टिदखाई
नहीं देता। तब तो हम यही मानेंगे ष्टिक जीव का रूप होता
ही नहीं। जीव का रूप अलग है, मन का रूप अलग है,
धिचत्त का रूप अलग है, बुधिद्ध का रूप अलग है, अहंकार
का रूप अलग है। समाधि' अवस्था में इन सारे पदाथ[
का सा(ा_कार होता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 222 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जो समाधि' अवस्था को प्राV होते हैं , वे देखते हैं


ष्टिक तारों की ज्योधित जैसा मन का रूप है। चन्द्रमा की
ज्योधित जैसा धिचत्त का रूप है। अलग -अलग रंग की
ज्योधितयों का अलग -अलग रूप होता है, जिजसमें
अन्तःकरण (मन, धिचत्त, बुधिद्ध, अहंकार) का दश% न होता
है। जब सोलह सूय[ के प्रकाश के बराबर का प्रकाश
दसवें द्वार में ष्टिदखाई देने लगे , तब यह मानना चाष्टिहए ष्टिक
हमने जीव के स्वरूप को देखा है। सामान्य योगी समझ
लेगा ष्टिक हमने परमा_मा का दश% न कर लिलया है, जो बहुत
बड़ी भ्रात्मिन्त है। परमा_मा का दश% न तो परम गुहा में गये
ष्टिबना कभी भी नहीं होगा। वेदान्त दश% न में लिलखा है-

गुहां प्रष्टिव=ावा_मन्नौ ष्टिह तद्दश% नात्।

वेदान्त दश% न १/२/११

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 223 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अथा%त् परमगुहा में ब्रह्म का दश% न होता है।

साकार मानने वालों की मान्यता क्या है ? या तो वे


परमा_मा को आष्टिदनारायण के रूप में मानेंगे या सदाशिशव
के रूप में मानेंगे। कोई ष्टिवष्णु भगवान के रूप में मानेगा ,
कोई शिशव के रूप में मानेगा, कोई राम को मानेगा, तो
कोई श्री कृष्ण को मानेगा। अलग-अलग इ= हैं, अलग-
अलग पूजा पद्धधित है।

उनकी मान्यता यह है ष्टिक परमा_मा सगुण है। सगुण


का आशय साकार नहीं, बत्मिल्क यह है ष्टिक उसमें गुण
ष्टिवद्यमान हैं। दीपक में प्रकाश का गुण है। पृथ्वी में गन्'
का गुण है। चेतन में जड़ के गुण नहीं हैं और जड़ में
चेतन के गुण नहीं। दीवार मुझसे बोल नहीं सकती ,
क्योंष्टिक वह जड़ है। मैं चेतन हूँ , इसलिलए मैं बोल सकता
हूँ, लेष्टिकन मैं जड़ नहीं हो सकता जब तक मेरे अन्दर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 224 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जीव है। चेतन में जड़ का गुण नहीं होता और जड़ में
चेतन का गुण नहीं होता। इसलिलए संसार का प्र_येक
पदाथ% सगुण है और प्र_येक पदाथ% ष्टिनगु%ण है। साकार को
सगुण कहना और ष्टिनराकार को ष्टिनगु%ण कहना बहुत बड़ी
भूल है।

रूप को ष्टिनराकार कहना और ष्टिनराकार को रूप


कहना भी उधिचत नहीं है। जैसे ट्यूबलाईट जल रही है ,
चारों तरफ प्रकाश है। क्या इसको रूप नहीं कह सकते ?
प्रकाश रूपवान होता है, लेष्टिकन साथ ही ष्टिनराकार होता
है। प्रकाश का पुञ्ज जैसी वस्तु में जायेगा , वैसी ही
आकृधित वहाँ ष्टिदखाई देने लगेगी। जैसे पानी को ष्टिगलास में
डालेंगे, तो पानी ष्टिगलास जैसी आकृधित 'ारण कर लेता
है। वैसे ही प्रकाश गोलाकार वस्तु में डाला जाये , तो
वैसी ही आकृधित 'ारण कर लेगा। प्रकाश की कोई ष्टिवशे@

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 225 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सीमा नहीं है।

ॐ को भी जब हम दशा%ते हैं, तो उसे चारों ओर


प्रकाश से धिघरा हुआ दशा%ते हैं। ॐ को अन्'ेरे में प्रदर्णिशत
नहीं कर सकते। हर वस्तु प्रकाशमयी है। जीव का प्रकाश
अलग है, परमाणओ
ु ं का प्रकाश अलग है, अणओ
ु ं का
अलग प्रकाश है।

अणओ
ु ं के ष्टिमलने से वायु त_व बनता है। वायु त_व
में अनेक गैसें ष्टिमली रहती हैं। डाॅक्टर लोगों के पास
जाइये, तो वहाँ आक्सीजन द्रव्य आपको ष्टिमल जायेगा,
काब% न-डाई-आक्साईड का द्रव्य आपको ष्टिमल जायेगा।
अनेक गैसों को द्रष्टिवत रूप में ष्टिदखाया जा सकता है।
वायु त_व ष्टिकससे बनता है? आकाश से। आकाश त_व
ष्टिकससे बनता है? अहंकार से। अहंकार ष्टिकससे बनता
है? महत्त_व से। महत्त_व ष्टिकससे प्रकट होता है? कारण

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 226 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रकृधित से। परमाणओ


ु ं का यह ष्टिमलन स्थूलता लाता
जाता है। रूप प्रकट होते जाते हैं। ष्टिनराकार माया से
साकार जगत् प्रकट होता है। साकार जगत् लय को प्राV
करके ष्टिनराकार माया में ष्टिवलीन हो जाता है। ष्टिनराकार से
साकार जगत की उ_पलित्त होती है और साकार जगत् का
ष्टिनराकार में ष्टिवलय होता है। दोनों एक-दस
ू रे में परिरवर्तितत
होते रहते हैं।

इसका अशिभप्राय है ष्टिक परमा_मा न तो साकार है ,


न ष्टिनराकार। ष्टिकस प्रकार से ? हमारा यह तन
पञ्चभूता_मक है। इसको भूख-प्यास लग सकती है। हो
सकता है ष्टिक योगबल से हम भूख को भी जीत लें। बीस
साल, पSीस साल, सौ साल तक हमें भोजन करने की
आवश्यकता न पड़े, क्योंष्टिक योगदश% न का सूत्र है-

कण्ठकूपे (ुत्मि_पपासाष्टिनवृलित्तः। योग दश% न ३/३६

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 227 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कण्ठ कूप में संयम अथा%त् 'ारणा , ध्यान, व


समाधि' करने से भूख-प्यास से ष्टिनवृलित्त हो जाती है। एक
पुस्तक है, योगी की आ_मकथा (Autobiography of of
a Yogi)। उसमें एक योष्टिगनी का वण% न है , जिजसने
लगभग ३६ (छत्तीस) साल तक न भोजन ष्टिकया और न
ही जल ग्रहण ष्टिकया। यह एक आश्चय% जनक बात लगती
है, जबष्टिक योग द्वारा यह सम्भव है। योग द्वारा ष्टिकतनी ही
जिसधिद्धयाँ पाई जा सकती हैं, लेष्टिकन इसका मतलब यह
नहीं ष्टिक ब्रह्म-सा(ा_कार कर लिलया। शरीर जन्मा है, तो
वह मृृ_यु और बुढ़ापे को भी प्राV होगा। इस संसार में
परमाणओ
ु ं के मेल से जिजस वस्तु का ष्टिनमा%ण होता है,
एक न एक ष्टिदन उसका ष्टिवनाश अवश्य होता है। ष्टिनराकार
प्रकृधित से साकार जगत् बनता है, इसलिलए इस जगत् का
भी नाश अवश्य होगा। सूय% चमक रहा है , कुछ समय

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 228 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बाद यह सूय% भी नहीं रहेगा, न यह चन्द्रमा रहेगा, न यह


पृथ्वी रहेगी, न यह ष्टिनहारिरका रहेगी, न ही कोई न(त्र
रहेगा।

शून्य थें जैसे जल बतासा, सो शून्य मांझ समायी।

जिजस तरह से जल के अन्दर असंख्य पानी के


बुलबुले उठते हैं और थोड़ी देर बाद उसी में डू ब जाया
करते हैं, वैसे ही ष्टिनराकार माया से पानी के बुलबुलों के
समान असंख्य लोक उ_पन्न होते हैं और उसी में डू ब
जाते हैं। संसार में जो भी महापुरु@ उ_पन्न होते हैं , उन्हें
परमा_मा की संज्ञा नहीं दी जा सकती। महापुरु@ कहा
जा सकता हैं, अवतार कहा जा सकता है, लेष्टिकन
परमा_मा तो महापुरु@ और अवतार दोनों से परे है। वह
साकार और ष्टिनराकार दोनों से परे है। ष्टिनराकार
ष्टित्रगुणा_मक होता है। साकार भी ष्टित्रगुणा_मक होता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 229 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकन्तु परमा_मा साकार तथा ष्टिनराकार दोनों से शिभन्न है।


जहाँ सत्, रज, तम है, वहाँ तक तो प्रकृधित अथा%त् माया
है।

रामचरिरतमानस में तुलसी दास जी ने बहुत सरल


शब्दों में कहा है-

गो गोचर जहं लष्टिग जाई, सो सब माया जानहुं भाई।

रामचरिरत मानस

मन एवं इत्मिन्द्रयों की पहुँच जहाँ तक होती है , वहाँ


तक माया है। उपष्टिन@दों ने क्या कहा है-

न तत्र च(ुः गच्छधित न वाक् गच्छधित नो मनो न ष्टिवद्मो न ष्टिवजानीमो।

केनोपष्टिन@द् १/४

परमा_मा जहाँ है, वहाँ नेत्रों की दृष्टि= नहीं जाती ,


वाणी नहीं जाती, मन नहीं जाता। मन से हम मनन कर
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 230 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकते हैं, लेष्टिकन माया का, परमा_मा का नहीं। धिचत्त से


धिचन्तन कर सकते हैं, प्रकृधित का। बुधिद्ध से ष्टिववेचना कर
सकते हैं प्रकृधित की , परमा_मा की नहीं, क्योंष्टिक वह
परमा_मा अलौष्टिकक स्वरूप वाला है। हमने सूरज की
ज्योधित देखी है , चन्द्रमा की चाँदनी देखी है, तारों की
ज्योधित देखी है, ष्टिवद्युत की चमक देखी है, परमा_मा को
तो देखा नहीं।

ष्टिफर परमा_मा को हम ष्टिकस रूप में माने ? यहाँ


मनुष्य की बुधिद्ध कुत्मिण्ठत हो जाती है , और सव% व्यापक
और सव% ज्ञ जिसद्ध करने के प्रयास में अपनी बुधिद्ध के सहारे
यह मान लिलया जाता है ष्टिक परमा_मा रूप से रष्टिहत है।
परमा_मा रूप से रष्टिहत हो, यह कभी सम्भव नहीं है।
परमा_मा का रूप तो है, लेष्टिकन वह पञ्चभूता_मक नहीं
है, ष्टित्रगुणा_मक नहीं है। इस ब्रह्माण्ड में जो भी रूप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 231 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिदखाई पड़ते हैं, उनसे केवल दृ=ान्त ष्टिदया जाता है।


जैसे कहा जाता है-

वेदाहमेतं पुरू@ं महान्तम् आष्टिद_यवण‚ तमसः परस्तात्।

यजुव”द ३१/१८

आष्टिद_य का अथ% होता है - अखण्ड स्वरूप, सूय%।


सूय% के समान जो प्रकाशवान हो , जिजसका स्वरूप
अखण्ड हो, जिजसका स्वरूप कभी न= न हो, ऐसे स्वरूप
वाला ही परमा_मा है।

कहा जा रहा है ष्टिक इस सूय% में तो बड़े -बड़े गड्ढे हो


गये हैं। सूय% का स्वरूप एक ष्टिदन समाV हो जायेगा। एक
ष्टिदन यह सूय% ठण्डा हो जायेगा। हमारी पृथ्वी भी तो कभी
आग का एक गोला रही होगी, लेष्टिकन आज यह ठण्डी
है, इसमें बफ% जमी हुई है। सूय% का भी ऐसा ही हाल हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 232 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकता है। लकड़ी जलाई जाती है, तो जलने के बाद


क्या बचता है? राख। संसार में जिजतने भी दृश्यमान
पदाथ% हैं , उनमें ष्टिबजली की चमक बहुत तेजोमयी होती
है। थोड़ी देर के लिलए प्रकाश उ_पन्न हो जाता है , लेष्टिकन
बाद में ष्टिबजली का पता नहीं चलता।

परमा_मा की ज्योधित की तुलना ष्टिवद्युत की चमक से


नहीं की जा सकती। सूय% से उसकी तुलना नहीं की जा
सकती। चन्द्रमा से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
अष्टि° के प्रकाश से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
वह अनन्त प्रकाश वाला है। उसको अन्'ेरा तो कह ही
नहीं सकते। इसलिलये वेद ने कहा है-

शुक्रज्योधितश्च धिचत्रज्योधितश्च स_यज्योधितश्च ज्योधितष्मांश्च।

शुक्रश्चऽऋतपाश्चा_यंहा।। यजुव”द १७/८०

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 233 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वह कैसी ज्योधित है - शुक्र ज्योधित अथा%त् नूरी


ज्योधित। अरबी में जिजसको नूर कहते हैं , संस्कृत में
उसको शुक्र कहते हैं। धिचत्र ज्योधितः अथा%त् अ-त
ु ज्योधित
है। स_य ज्योधितः अथा%त् अखण्ड ज्योधित है, ऐसी ज्योधित
जो अनाष्टिदकाल से हो। सूय%, चन्द्रमा, और ष्टिवद्युत की
ज्योधित नहीं, यह सब तो नश्वर हैं। कुछ समय के लिलए
इनका अत्मिस्त_व है और कुछ समय के पश्चात् ये काल के
गाल में समा जायेंगे। परमा_मा के स्वरूप को कभी भी
इनसे तुलना_मक दृष्टि= से नहीं देखा जा सकता।

जैसा ष्टिक मैंने अभी कहा ष्टिक चार प्रकार की


ष्टिवचार'ारायें हैं। एक वग% परमा_मा को केवल साकार
मानता है। यह दशा%ने के लिलये ष्टिक परमा_मा "स_यं ज्ञानं
अनन्तं ब्रह्म" प्रकृ= ज्ञान स्वरूप है , अनन्त है, प्रेम का
सागर है, दया का सागर है, ज्ञान का सागर है, सब पर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 234 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

करुणा की व@ा% करता है, तो कोई न कोई रूप तो होगा,


जिजस रूप से वह हमसे प्रेम करता है। क्योंष्टिक हर ग्रन्थ
का कथन है ष्टिक परमा_मा हमारे हृदय मत्मिन्दर में प्राV
होता है। जब उसका रूप ही नहीं होगा, तो उसे हम कैसे
अपने हृदय में बसायेंगे। सूरदास ने यही बात कही है ष्टिक
जो ष्टिनराकार है, वह अव्यŽ है , उसका कोई रूप नहीं,
ष्टिफर लीला रूप में हम उसको अपने ष्टिदल में कैसे
बसायें?

इस ष्टिवचार'ारा के मनीष्टि@यों ने परमा_मा के साकार


रूप की कल्पना की। ष्टिकसी ने कृष्ण भष्टिŽ में अपने को
लगाया, ष्टिकसी ने राम भष्टिŽ में लगाया, ष्टिकसी ने हनुमान
जी की भष्टिŽ की, तो ष्टिकसी ने परमा_मा की शष्टिŽ को
देवी मानकर भष्टिŽ की , ष्टिकसी ने सदाशिशव के रूप में
भष्टिŽ की , तो ष्टिकसी ने अन्य रूप में माना। यहाँ से

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 235 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

साकार की भष्टिŽ शुरु होती है।

रामकृष्ण परमहंस ध्यान कर रहे थे। अचानक


वेदान्त के प्रकाण्ड ष्टिवद्वान और योगी तोतापुरी जी आ
गये। उन्होंने कहा- "देखो रामकृष्ण! जैसी मैं तुम्हें दी(ा
देता हूँ, वैसे ही तुम्हें 'ारणा-ध्यान करना पड़ेगा। दोनों
भौंहों के बीच में मन एकाग्र करो।" रामकृष्ण जी जैसे ही
ध्यान करते, काली जी ष्टिदखाई देने लगतीं, क्योंष्टिक
जीवनभर तो उन्होंने काली की पूजा की थी, आरा'ना
की थी। अन्त में तोतापुरी जी ने ऊबकर उनके माथे में
शीशा चुभा ष्टिदया और कहा- "जहाँ मैंने शीशा 'ँसाया
है, वहीं देखते रहो।"

रामकृष्ण परमहंस के अन्दर अटू ट ष्टिनष्ठा थी,


उनका हृदय भी ष्टिनम% ल था। ष्टिफर उसी जगह मन को
एकाग्र करने लगे , तो उनका मन एकाग्र हो गया और

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 236 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिनराकार की अनुभूधित कर ली। इस पर भी ष्टिवचार'ारा


चल पड़ी।

ष्टिववेकानन्द जी के साष्टिह_य का अवलोकन कीजिजए,


यही ष्टिवचार'ारा ष्टिमलेगी ष्टिक परमा_मा साकार भी है और
ष्टिनराकार भी है। अथा%त् रामकृष्ण जी को तोतापुरी जी
द्वारा ष्टिनराकार की समाधि' का अनुभव हुआ , तो वह
ष्टिनराकार कहा जायेगा। इसके साथ ही उन्होंने रा'ाकृष्ण
की भी उपासना की। साकार रूप में अपने इ= को माना।
काली जी की उन्होंने ष्टिवशे@ रूप से सा'ना की, तो
उन्होंने कहा ष्टिक काली जी ही परमा_मा हैं , अथा%त् हम
जिजस रूप में भी मानें , है तो वह ष्टिनराकार लेष्टिकन साकार
रूप में भी प्रकट हो जाता है। इसी से सम्बत्मिन्'त कथन
रामचरिरत मानस में स्प= कहा गया है-

ष्टिबनु पग चलत सुनत ष्टिबनु काना।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 237 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पैर नहीं हैं, लेष्टिकन चलता है। कान नहीं हैं , लेष्टिकन
सुनता है।

कर ष्टिबनु कम% करै ष्टिव' नाना।

हाथ नहीं हैं, लेष्टिकन सारे काम करता है।

आनन रष्टिहत सकल रस भोगी।

मुख नहीं है, ष्टिकन्तु सभी रसों का भोŽा है।

ष्टिबनु वाणी वŽा बड़ योगी।

और ष्टिबना वाणी के सबसे बड़ा योगी है।

इसी को दस
ू रे रूप में श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् में कहा है-

अपाशिणपादो जवनो ग्रहीता पश्य_यच(ुः चश्रृण


ृ ो_यकण% ः।

स वेलित्त ष्टिवद्यं न च तस्यात्मिस्तवेत्ता तमाहुग्र%यं पुरु@ं महान्तं।।

श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् ३/१९

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 238 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वह महानतम् अथा%त् सबसे महान पुरु@ है। वह


सबको जानता है, लेष्टिकन उसको कोई नहीं जानता।
उसके हाथ, पैर, मुख, इत्मिन्द्रयाँ नहीं हैं। इसका ता_पय%
यह है ष्टिक परमा_मा ष्टिनराकार है , लेष्टिकन इसका दस
ू रा
भाव भी है। परमा_मा का स्वरूप नहीं है , ऐसा वेद में
कहीं नहीं लिलखा, उपष्टिन@द् में कहीं नहीं लिलखा। उसको
तो ज्योधितयों का ज्योधित कहा गया है। वेद के एक मन्त्र में
कहा गया है-

सः परिर अगात् शुक्रम्। यजुव”द ४०/८

परमा_मा शरीर से रष्टिहत है। लेष्टिकन कैसे शरीर से ?


वह ष्टित्रगुणा_मक शरीर वाला नहीं है।

सः परिरअगात् शुक्रम् अव्रणम्। यजुव”द ४०/८

शुक्रम् का ता_पय% क्या होता है ? तेजोमयी स्वरूप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 239 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

या नूरी स्वरूप। उसे ही गायत्री मन्त्र में भग% ः कहा गया


है। चाहे भग% ः कष्टिहए, चाहे शुक्रम् कष्टिहए, चाहे अरबी में
नूर कष्टिहए, भाव एक ही है।

नस-नाड़ी से रष्टिहत, "अस्नाष्टिवरम्" अथा%त्


स्नायओ
ु ं से रष्टिहत है। परमा_मा में स्नाय ु नहीं है।
"शुद्धम्" शुद्ध का अथ% होता है ष्टित्रगुणातीत और
"अपापष्टिवद्धम्" अथा%त् पाप से रष्टिहत ष्टिनष्पाप है।

यह ष्टित्रगुणा_मक शरीर कभी भी ष्टिनर्मिवकार अवस्था


को प्राV नहीं हो सकता। काम , क्रो', मद, लोभ,
अहंकार इसमें बने ही रहते हैं। जिजतने भी अवतारों को
देखेंगे, तो माया के ष्टिवकार ष्टिकसी न ष्टिकसी अवतार में हो
सकते हैं। परशुराम जी को अवतार माना जाता है।
आलिखर परशुराम जी ने भी तो पृथ्वी को २१ बार
(ष्टित्रय-ष्टिवहीन कर ष्टिदया था। वैसे तो पुराणों में यह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 240 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लिलखा है, लेष्टिकन यह सम्भव नहीं है ष्टिक (ष्टित्रयों के खून


से कई तालाब भर ष्टिदये जायें। यह तो बढ़ा-चढ़ाकर कही
हुई बाते हैं। हर अवतार के साथ कुछ न कुछ ष्टिवकृधित है,
लेष्टिकन परमा_मा ष्टिनर्मिवकार है।

परमा_मा कभी दःु ख-द्वन्दों से मोष्टिहत नहीं होता ,


कभी शोक के वशीभूत नहीं होता, कभी बुढ़ापे के अ'ीन
नहीं होता। जो परमा_मा का अखण्ड स्वरूप है , उस
स्वरूप को हम कभी भी अज्ञानता के बन्'न में नहीं बाँ'
सकते। इस मन्त्र में जो कहा गया है ष्टिक "अपापष्टिवद्धम्"
अथा%त् पाप से रष्टिहत है। कष्टिवः अथा%त् क्रान्तदशs। कष्टिवः
मनी@ी, परिरभूः, और स्वयंभू। परिरभूः का ता_पय% है
सव% त्र। जिजसकी सत्ता सव% त्र हो। स्वयंभू अथा%त् उसको
ष्टिकसी ने पैदा नहीं ष्टिकया है। जो परमा_मा है , वह
पञ्चभौधितक तन से सव% था रष्टिहत है। यही इसका भाव है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 241 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

इसका मतलब यह नहीं ष्टिक परमा_मा का कोई रूप ही


नहीं है।

परमा_मा को अनन्त सूय[ से भी अधि'क प्रकाशमान


कहा गया है। गायत्री मन्त्र को जब पढ़ते हैं , तब क्या
कहते हैं-

त_सष्टिवतुव%रण्े यम् भगा” देवस्य। यजुव”द ३६/३

"भग% ः" का अथ% है, जो उस परमा_मा का तेजोमयी


स्वरूप है। जो "वरेण्यम् भग% ः" है, वही शुक्र है , वही
तेजोमयी ज्योधित है।

रूधिचरजिस रोचोऽजिस। अथव% वेद ७/८९/४

तेजोऽजिस तेजो मधिय 'ेष्टिह। अथव% वेद १७/१/२१

हे परमा_मा! तू कात्मिन्तमान है, तू मनोहर है, तू


दश% नीय है। उस परमा_मा की कात्मिन्त को कैसा कहा गया

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 242 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है? ष्टिवद्युत की तरह। इस संसार में ष्टिवद्युत की चमक


बहुत आक@% क एवं तेजोमयी होती है, इसलिलये यह
दृृ=ान्त ष्टिदया गया है ष्टिक परमा_मा का स्वरूप भी वैसा है।
लेष्टिकन कैसा? साकार और ष्टिनराकार से परे।

पहली बात तो यह है ष्टिक जो ष्टिनराकार, साकार में


बदलता है, यह माया का स्वरूप है। जो परमा_मा का
स्वरूप है, वह अखण्ड है, एकरस है। परमा_मा का
स्वरूप परिरवत% नशील नहीं होता, क्योंष्टिक जहाँ परिरवत% न
है, वहीं ष्टिवकृधित है। जैसे कोई फल कुछ ष्टिदनों के बाद
बड़ा हो जाता है, ष्टिफर पक जाता है, और पुनः ष्टिगर
जाता है। जहाँ परिरवत% न है, वहाँ ष्टिवनाश है। जहाँ
एकरसता है, अखण्डता है, वहीं परमा_मा का स्वरूप है।
स_य में कभी भी परिरवत% न नहीं होता। सूय% पूव% में उदय
होता है, तो कोई यह नहीं कह सकता ष्टिक पधिश्चम में उदय

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 243 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

होता है। यह शाश्वत स_य है। उसी तरह से परमा_मा का


स्वरूप एक अरब या एक खरब व@% पहले जैसा था ,
अनन्त व@[ पहले जैसा था, अनन्त व@[ के बाद भी वैसा
ही रहेगा।

इसलिलए परमा_मा के स्वरूप में परिरवत% न नहीं ष्टिकया


जा सकता। यह मानना ष्टिक ष्टिनराकार परमा_मा अपने
भŽों के कल्याण के लिलये साकार में प्रकट हो जाता है
और वही साकार परमा_मा ष्टिफर ष्टिनराकार में बदल जाता
है, स_य का लोप करना है। यह कथन वेद -शास्त्र की
मया%दा के ष्टिवपरीत है। अव्यŽ प्रकृधित से व्यŽ साकार
का रूप यह जगत् प्रकट होता है। हमारा पञ्चभूता_मक
तन प्रकट होता है, ष्टिफर मृ_यु के पश्चात् अपने पञ्चभूतों में
लय को प्राV हो जाता है। परमा_मा अनाष्टिद काल से
जैसा है, अनन्त काल तक वैसा ही रहेगा।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 244 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

साकार और ष्टिनराकार की जहाँ तक बात है, सब


इस मायावी जगत की बात है। सब कुछ इस
पञ्चभूता_मक ब्रह्माण्ड की बात है, जिजसमें एक-दस
ू रे में
परिरवत% न होता है। सूय%, चाँद, जिसतारों का संसार माया
से ही उ_पन्न होता है और ष्टिफर उसी में लय को प्राV हो
जाता है। जब परमा_मा के लिलये इस तरह की बातें की
जाती हैं, तब हम इतना मान सकते हैं ष्टिक भावुकता में
यह सारी बातें कही जाती हैं।

मू'% ज्योधितष्टि@ जिसद्ध दश% नम्। योग दश% न ३/३२

मू'ा% में समाधि'स्थ होने से जिसद्ध पुरु@ों का


सा(ा_कार होता है। कदाधिचत् ऐसी कल्पना की जाये ष्टिक
कोई भŽ है और वह ध्यान-समाधि' में बैठा है। ष्टिकसी
महापुरु@ के रूप में ष्टिकसी जिसद्ध पुरु@ ने कोई अलौष्टिकक
काय% करके ष्टिदखा ष्टिदया, तो वह क्या मानेगा ष्टिक सा(ात्

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 245 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा ही यहाँ आकर यह अलौष्टिकक काय% कर गये।


एक मान्यता चल पड़ती है ष्टिक ष्टिनराकार परमा_मा ने
साकार रूप 'ारण करके हमारे लिलए काय% कर ष्टिदया।
जैसे- प्रहलाद को बचाने के लिलए ष्टिनराकार परमा_मा ने
या ष्टिवष्णु भगवान ने नृसिंसह अवतार में प्रकट होकर ही
यह काय% कर ष्टिदया है। या ष्टिकसी का जो भी काय% जिसद्ध
होता है, तो वह यही कहता है ष्टिक परमा_मा का तो कोई
रूप नहीं है , लेष्टिकन उसने रूप 'ारण करके हमारा यह
काय% पूरा कर ष्टिदया है। ये सारी ष्टिवचार'ारायें मन -बुधिद्ध
के 'रातल पर परमा_मा के स्वरूप को दशा%ने का प्रयास
करती हैं, लेष्टिकन स_य कुछ और ही होता है।

परमा_मा का स्वरूप क्या है? शुद्ध ष्टित्रगुणातीत है ,


न वह साकार है और न ष्टिनराकार। साकार और ष्टिनराकार
तो प्रकृधित के स्वरूप हैं। इसके बन्'न में परमा_मा को

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 246 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

कभी भी नहीं बाँ'ा जा सकता।

प्रश्न यह है ष्टिक परमा_मा का वह स्वरूप कैसा है ?


दश% न की जहाँ बात आती है, तो एक ष्टिवचार'ारा तो यह
कहती है ष्टिक परमा_मा को देखा नहीं जा सकता। यष्टिद
परमा_मा को देखा नहीं जा सकता , तो दश% न शब्द
सम्भव नहीं था। वेद स्प= कहते हैं-

वेनः तत् पश्यत् परमं गुहां यद् यत्र ष्टिवश्वं भव_येक रूपम्।

अथव% वेद २/१/१

जीव के शुद्ध स्वरूप को "वेन" कहते हैं और उसी


को हँस कहते हैं। उस अवस्था में परमगुहा में उस ब्रह्म
का दश% न होता है। दश% न ष्टिकससे होता है? दश% न आ_म-
च(ुओं से होता है। जो ष्टिवचार'ारा चल पड़ती है, तो
उसमें कहा जाता है ष्टिक दश% न ज्ञान से होता है। ज्ञान तो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 247 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पढ़ने से भी हो जाता है। आ_म-च(ुओं से उसका दश% न


होता है। इन आँ खों से परमा_मा को नहीं देखा जा
सकता। आँ ख जिजससे देखती है, वह परमा_मा है, आँ ख
जिजसको देखती है, वह परमा_मा नहीं है। कान जिजसकी
शष्टिŽ से सुनते हैं, वह परमा_मा है। कान जिजसको सुनते
है, वह परमा_मा की आवाज नहीं है। इस सम्बन्' में
केनोपष्टिन@द का कथन है-

यत् वाचा न वत्मिद्त, येन वाग्भ्यद


ु ते।

अथा%त् वाणी से जिजसका वण% न नहीं हो पाता, ष्टिकन्तु


जिजसकी शष्टिŽ से वाणी व्यŽ होती है, वह ब्रह्म है।

मन से जिजसका ध्यान करते हैं, वाणी से जिजसको


बोलते हैं, धिचत्त से जिजसका धिचन्तन करते हैं , वह
परमा_मा का स्वरूप नहीं है। इसलिलए जब हम अध्या_म

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 248 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

के (ेत्र में प्रवेश करते हैं , तो यह बातें हमें ध्यान रखनी


होंगी ष्टिक जो सधिSदानन्द परमा_मा है, उसको हम प्रकृधित
के बन्'नों में न बाँ'ें। जो प्रकृधित का स्वरूप है , उसके
स्वरूप से हम परमा_मा के स्वरूप की तुलना नहीं कर
सकते। साकार, साकार है। ष्टिनराकार, ष्टिनराकार है।
ष्टिनराकार माया इस साकार जगत को प्रकट करती है,
लेष्टिकन उसमें परमा_मा का संकल्प होता है। वेद के
अनेक मन्त्रों में उसको स्प= करके दशा%ने का प्रयास
ष्टिकया गया है, लेष्टिकन तारतम वाणी के प्रकाश में यह
रहस्य ष्टिवष्टिदत होता है ष्टिक वास्तव में परमा_मा का स्वरूप
कैसा है और हम उसे ष्टिकस रूप में मानें?

सृष्टि= में देलिखए, ष्टिहमालय पव% त की बफÎली चोष्टिटयों


का सौन्दय% , फूलों का सौन्दय% ष्टिकतना मनमोहक होता
है। अनेक सुन्दर पुरु@ों का भी सौन्दय% देखने को ष्टिमलता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 249 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। इस ष्टिवधिचत्र सृष्टि= में अनेक प्रकार के सौन्दय% की


कल्पना की जाती है। क्या इनको बनाने वाला स्वयं रूप
से रष्टिहत है? जब अणु का रूप हो सकता है, परमाणु का
रूप हो सकता है, जीव का रूप हो सकता है, तो क्या
परमा_मा का रूप नहीं हो सकता ? हाँ, जैसे-तारों में
बहती हुई ष्टिवद्युत 'ारा को ष्टिकसी सामान्य व्यष्टिŽ द्वारा
अपनी आँ खों से नहीं देखा जा सकता , लेष्टिकन जो
ष्टिवद्युत 'ारा बह रही है, जिजसमें इलेक्ट्रानों का प्रवाह चल
रहा है, उसको एक वैज्ञाष्टिनक तो देख सकता है ष्टिक
उसमें ष्टिकस तरह से कौन -कौन सी तरंगें प्रवाष्टिहत हो
रही हैं। एक सामान्य व्यष्टिŽ द्वारा मरने वाले व्यष्टिŽ के
जीव को देखना सम्भव नहीं है। मन से हम सोचते हैं ,
लेष्टिकन मन को देखा नहीं जा सकता। समाधि' अवस्था में
देखा जाता है ष्टिक मन का यह रूप है , धिचत्त का यह रूप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 250 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, बुधिद्ध का यह रूप है , मोहत्त_व का यह रूप है,


अहंकार का यह रूप है, और प्रकृधित की सूक्ष्मता को भी
देखा जा सकता है। उसी तरह से उस आत्मि_मक दृष्टि=
द्वारा उस सधिSदानन्द परब्रह्म को भी देखा जा सकता है
जो ष्टित्रगुणातीत है, शुद्ध स्वरूप है , जिजसके लिलए वेदों ने
"वरेण्यम् भग% ः, शुक्र ज्योधितः, आष्टिद_य वण% ः" कह ष्टिदया।
ऐसा स्वरूप कभी भी ष्टिवनाश के अन्दर नहीं आता।

जिजन्होंने मू'ा% में समाधि'स्थ होकर भगवान शिशव का


ध्यान ष्टिकया, तो शँकर जी का दश% न हो जायेगा। ष्टिकसी
ने हनुमान जी का दश% न ष्टिकया। ष्टिकसी ने मया%दा
पुरु@ोत्तम राम का दश% न ष्टिकया। उन भŽों ने यह मान
लिलया ष्टिक हमने सधिSदानन्द परमा_मा का दश% न कर
लिलया। यह भ्रात्मिन्त है। उन्होंने उन महापुरु@ों का दश% न
ष्टिकया, जो इस संसार में भ्रमण ष्टिकया करते हैं, संसार को

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 251 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अपने अलौष्टिकक काय[ से कृ_य -कृ_य करते रहते हैं।


उनका सा(ा_कार महापुरु@ों का सा(ा_कार है, परमा_मा
का सा(ा_कार नहीं है।

परमा_मा का अलौष्टिकक स्वरूप इतना तेजोमयी,


इतना प्रकाशमयी, इतना आनन्दमयी है ष्टिक उसके बारे
में मन और बुधिद्ध के 'रातल पर कुछ भी सोचा नहीं जा
सकता। अध्या_म का (ेत्र इतना गहन होता है ष्टिक उसके
बारे में अन्तरा_मा की सा(ी के ष्टिबना, वेद की सा(ी के
ष्टिबना, या जो प्र_य( अनुभूधित है उसके ष्टिबना , कुछ भी
नहीं कहा जा सकता। इसलिलए हमें ज्ञान की झोली को
हमेशा खाली रखना चाष्टिहए। हम एक सामान्य ज्ञान को
लेकर चलते हैं। सारे जीवन में मनुष्य को ज्ञान सागर की
एक बूँद भी ष्टिमल जाये , तो यही उसके जीवन की सबसे
बड़ी उपलत्मिब्' है। केनोपष्टिन@द् के ऋष्टि@ ने इस बारे में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 252 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

साव'ान ष्टिकया है ष्टिक जब हम अध्या_म के (ेत्र में कदम


रखते हैं, तो हम अपनी पूण%ता की अनुभूधित न करें ,
क्योंष्टिक ऐसा करना बहुत बड़ी भूल है।

सो तेता ही बोलिलया, जो जहां लो गया चल।

अपने अपने मुख से, बयां करी मंजिजल।।

जिजसने साकारवादी पद्धधित को अपनाया और अपने


इ= का दश% न कर लिलया, तो मान लिलया ष्टिक बस परमा_मा
यही है। जिजसने शून्य समाधि' लगाई। शून्य समाधि' का
मतलब, जिजसमें शून्य ही शून्य ष्टिदखे , जिजसमें प्रकाश भी
न ष्टिदखे, केवल एक शून्यवाद का अनुभव हो। उन लोगों
ने मान लिलया ष्टिक बस परमा_मा ष्टिनराकार है। भावुक
ष्टिवचार'ारा के वशीभूत होकर ष्टिनराकार मानने वालों ने
यह भी मान लिलया ष्टिक परमा_मा अपने भŽों के कल्याण

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 253 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

के लिलये साकार रूप 'ारण कर प्रकट हो जाता है, यह


तीसरी ष्टिवचार'ारा हो गई। लेष्टिकन यष्टिद हम तारतम वाणी
के प्रकाश में देखें , तो यही लगता है ष्टिक परमा_मा न
साकार है, न ष्टिनराकार है, और न ष्टिनराकार से साकार में
प्रकट होता है। हाँ, ष्टिनराकार-साकार का सम्बन्' इस
मायावी जगत से है। आपके अन्दर जो चेतन जीव है,
उसका ष्टिनज स्वरूप है।

नैनं शिछन्दत्मिन्त शस्त्राशिण, नैनं दहधित पावकः।

गीता २/२३

आलिखर उसका कोई रूप तो है जिजसको अष्टि° से


जलाया नहीं जा सकता, सूय% का तेज भी जिजस जीव को
जला नहीं सकता, ष्टिकसी तलवार से जिजसको काटा नहीं
जा सकता, ष्टिबना रूप के यह कैसे सम्भव है? यह जरूर

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 254 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है ष्टिक उस रूप को इन आँ खों से देखा नहीं जा सकता।


हाँ, समाधि' अवस्था में देखा जा सकता है। आपका
कारण शरीर है, वह सबको तो ष्टिदखाई नहीं पड़ता।
ष्टिवशे@ अवस्था में उस कारण शरीर के प्रकाशमय रूप
को देखा जा सकता है, सूक्ष्म शरीर के प्रकाशमय रूप
को देखा जा सकता है। उसी तरह से अन्तदृ%ष्टि= द्वारा
परमा_मा के उस ष्टित्रगुणातीत स्वरूप को देखा जा सकता
है। वहाँ मन-बुधिद्ध की लीला नहीं है।

सारी ष्टिवकृधितयाँ तब शुरु होती हैं , जब मन और


बुधिद्ध से सोचकर उस परमा_मा के स्वरूप का ष्टिन'ा%रण
होता है। मैं यह नहीं कहता ष्टिक मन और बुधिद्ध का प्रयोग
न कीजिजए। मन और बुधिद्ध द्वारा स_य को जानने का
प्रयास ष्टिकया जा सकता है, लेष्टिकन अत्मिन्तम ष्टिनण% य नहीं
लिलया जा सकता है। इसलिलए कठोपष्टिन@द् में यमाचाय% जी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 255 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ने कहा-

न ए@ा तक”ण मधितरापनेया। कठोपष्टिन@द् २/९

हे नधिचकेता! यह तक% द्वारा भी नहीं पाया जा


सकता है।

तक% तो करना चाष्टिहए, लेष्टिकन कुतक% नहीं करना


चाष्टिहए। तक% स_य को जानने की जिजज्ञासा से ष्टिकया गया
एक प्रयास है, लेष्टिकन अन्तदृ%ष्टि= द्वारा उस परमस_य को
देखा जा सकता है, जिजसकी ष्टिववेचना इस ब्रह्मवाणी द्वारा
की गई है, जो वेदों में , उपष्टिन@दों में , दश% न शास्त्रों में
ष्टिनष्टिहत है, लेष्टिकन सामान्य बुधिद्ध द्वारा उस रहस्य को
कभी नहीं पहचाना जा सकता।

अध्या_म का (ेत्र बहुत गहन होता है, लेष्टिकन आज


त्मिस्थधित दस
ू री है। मानव अपने जीष्टिवका उपाज% न के लिलए

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 256 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

व्यस्त है। उसकी उम्र ष्टिकतनी है। छोटी सी तो उम्र है।


कल्पना कीजिजए कोई व्यष्टिŽ ६ घण्टे सोता है। उसकी
उम्र यष्टिद ८० साल है , तो २० साल तो उसने सोने में
गँवा ष्टिदया। २० साल उसने बचपन से यौवन में प्रवेश
करने में खेलने -कूदने में गँवा ष्टिदया। ४० साल तो यह
हो गये। गृहस्थ जीवन में यष्टिद फँसता है , तो परिरवार की
जीष्टिवका उपाज% न के लिलए ३० साल गँवा ष्टिदये , ष्टिकतनी
उम्र शे@ बची? और जब खोजने चलता है ष्टिक हमें भी
परमा_मा ष्टिमले, तो कहता है कहाँ है परमा_मा? कैसा है
परमा_मा? एक ष्टिहन्द ू समाज में ही एक हजार पन्थ हैं ,
वह ष्टिकस पन्थ में जाये ? जिजस भी पन्थ में जायेगा, तो
वहाँ के लोग कहेंगे ष्टिक केवल हमारा पन्थ सSा है , बाकी
सारे झूठे हैं। यष्टिद तुमने हमारा पन्थ ग्रहण नहीं ष्टिकया, तो
तुम्हें कभी भी परमा_मा नहीं ष्टिमलेगा। यष्टिद तुमने हमारे

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 257 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गुरु महाराज को नहीं अपनाया , तो तुम्हें कोई भी स_य


की राह ष्टिदखलाने वाला नहीं ष्टिमलेगा।

एक सामान्य प्राणी कहाँ जाये ? कहाँ भटके?


इसलिलए मनुष्य को भँवरे की तरह पराग से सम्बन्'
रखना चाष्टिहए। जिजस तरह से भँवरा अनेक फूलों से पराग
चूसता है। वह यह नहीं कहता ष्टिक मुझे केवल केवड़े का
ही पराग चाष्टिहए या केवल गुलाब का ही पराग चाष्टिहए या
कमल का ही पराग चाष्टिहए। उसे जहाँ से भी पराग
ष्टिमलता है, वहाँ से लेता है। उसी तरह से हमारे
अन्तःकरण में यही भावना होनी चाष्टिहए ष्टिक हमें परमा_मा
के बारे में जानना है ष्टिक वह परमा_मा कहाँ है ? परमा_मा
कैसा है? परमा_मा कौन है और परमा_मा को पाने का
माग% कौन सा है ? हम कौन हैं? हम आये कहाँ से है?
इस शरीर और संसार को छोड़ने के पश्चात् मेरी गधित क्या

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 258 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

होगी? इन्हीं तथ्यों पर यष्टिद हम अपने जीवन को केत्मिन्द्रत


कर पाते हैं, तो अध्या_म की श्रेष्ठ मत्मिन्जल प्राV कर
सकते हैं।

जैसे ष्टिक परमा_मा को सव% ज्ञ जिसद्ध करने के लिलए


सव% व्यापक कहना पड़ा। परमा_मा को अखण्ड जिसद्ध
करने के लिलए सूक्ष्म से सूक्ष्म कहना पड़ा। यहाँ से
ष्टिनराकार की ष्टिवचार'ारा जन्म लेती है। परमा_मा
अलौष्टिकक गुणों का सागर है। "स_यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म"
कहकर मनीष्टि@यों ने इसे दशा%या है। प्रेम का सागर
कहकर इसे दशा%या है। इन गुणों का प्रकटीकरण ष्टिकसी
तन में हो सकता है। इसलिलए साकारवाद की मान्यता
यहाँ से चली। ष्टिनराकारवाद, साकारवाद अपनी बुधिद्धजन्य
ष्टिवचार'ारायें हैं। स_य एक होता है और उस स_य को
ऋतम्भरा प्रज्ञा द्वारा परब्रह्म की कृपा के प्रकाश में हम

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 259 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जान सकते हैं ष्टिक परमा_मा का स्वरूप वास्तव में कैसा


होता है? इसको जानने के लिलए आवश्यक है ष्टिक हम
सम्प्रदायवाद की परिरधि' से अपने को अलग करें।

साम्प्रदाधियक संकीण% ता मनुष्य को कभी भी स_य


का माग% प्राV नहीं करा सकती। यह तो हमारी अन्तरा_मा
की आवाज होनी चाष्टिहए ष्टिक स_य क्या है ? हमें अ=
प्रमाणों से स_य -अस_य की परी(ा करनी चाष्टिहए ष्टिक
क्या स_य है और क्या अस_य है? संसार में अनेक
मनी@ी हुए हैं। हर मनी@ी की ष्टिवचार'ारा का सम्मान
करते हुए नीर-(ीर का ष्टिववेक करना चाष्टिहए। हँस वही
है, जो द'
ू से पानी को अलग कर सकता है। वैसे ही
यष्टिद हमारी ष्टिववेक-दृष्टि= जाग्रत है, तो हम मत-मतान्तरों
के बीच से स_य को खोजने का प्रयास कर सकते हैं।
वास्तव में सSाई क्या है? भीड़ के पीछे हमें नहीं चलना

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 260 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चाष्टिहये। यष्टिद हमने भीड़ देखी, चकाचौं' देखी, तो हम


स_य को नहीं प्राV कर सकते।

इसलिलए यजुव”द अध्याय ४० में कहा गया है-

ष्टिहरण्येन पात्रेण स_यस्य अष्टिपष्टिहतं मुखम्।

तत्त्वम्पू@न्नपावृणु स_य'म्मा%य दृ=ये।।

बृहदारण्यकोपष्टिन@द् ५/१५/१

सोने के बत% न में स_य ढका पड़ा है। हे परमा_मा! तू


उसके ढक्कन को खोल दे, जिजससे मुझे स_य प्राV हो
जाये। यह संसार क्या है? सोने का बत% न है। इसकी
चकाचौं' से हमारी बुधिद्ध कुत्मिण्ठत हो जाती है। हम स_य
का ष्टिनण% य नहीं कर पाते और हमें वह परमतत्त्व पूण%तः
प्राV नहीं हो पाता।

अभी थोड़ा प्रकाश डालने का प्रयास ष्टिकया गया है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 261 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उस सधिSदानन्द परब्रह्म के अखण्ड स्वरूप के बारे में


एक बात और चलती है। परमा_मा प्रकाशमयी है, तो
कैसा है? यह ष्टिवचार'ारा सबके मन में हो सकती है।
जब दोपहर का सूरज उगा हुआ हो, तो उस समय आप
सूय% के तरफ न देखें , केवल चारों तरफ देखें तो चारों
तरफ आपको प्रकाश ही प्रकाश ष्टिदखाई पड़ेगा, 'ूप ही
'ूप लिखली हुई ष्टिदखाई देगी। जो 'ूप ष्टिदख रही है, उसकी
लम्बाई-चौड़ाई नहीं मापी जा सकती।

कल्पना कीजिजए ष्टिक आप एक चींटी से पूछते हैं ष्टिक


कन्याकुमारी से कश्मीर तक 'ूप या प्रकाश का क्या
आकार है, वह क्या बतायेगी? उसकी बुधिद्ध की एक
सीमा है। उसी तरह, जो परमा_मा अनन्त प्रकाश वाला
है, उसकी एक सीमा ष्टिवशे@ में आकृधित नहीं बनाई जा
सकती। इसलिलए जिजन मनीष्टि@यों ने परमा_मा के अनन्त

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 262 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तेज को समाधि' अवस्था में थोड़ा अनुभव भी ष्टिकया, तो


जिज'र उनकी दृष्टि= गई वहाँ अनन्त प्रकाश ही प्रकाश
ष्टिदखा। इसलिलए उन्होंने कहा ष्टिक परमा_मा क्या है ?
प्रकाश स्वरूप है, लेष्टिकन ष्टिनराकार है। ष्टिनराकार अथा%त्
आकार से रष्टिहत।

वह अलौष्टिकक प्रकाश न गोलाकार ष्टिदख रहा है, न


लम्बाकार ष्टिदख रहा है, न ष्टित्रभुज की तरह ष्टिदख रहा है,
न ष्टिकसी मानवीय आकृधित में बन रहा है। इसलिलए वे
ष्टिनराकार कहने के लिलए मजबूर हो गये। ष्टिकन्तु यह ध्यान
रहे ष्टिक प्रकाश भी रूप या कोई न कोई आकृधित रखता
है। आकाश में सूय% चमक रहा है। यष्टिद हम सूय% को न
देखें और केवल प्रकाश को ही देखें , तो क्या कहेंगे ष्टिक
प्रकाश है, लेष्टिकन आकार से रष्टिहत है। यष्टिद हम सूय% को
देख लेते हैं, तो क्या कहेंगे ष्टिक सूय% गोलाकार है , चन्द्रमा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 263 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गोलाकार है। उसी तरह से जो परम'ाम है, प्रकृधित से


परे है।

ष्टिदव्ये ब्रह्मपुरे ष्टिह ए@ व्योत्मिम्न आ_मा प्रधितष्टिष्ठतः।

मुण्डक उपष्टिन@द २/२/७/३९

ष्टिदव्य ब्रह्मपुर में वह परब्रह्म है और वह परब्रह्म


अनन्त प्रेम का सागर है, अनन्त करुणा का सागर है,
अनन्त ज्ञान का सागर है। उसके हृदय में प्रेम का सागर
लहराता है। उस सव% शष्टिŽमान सधिSदानन्द परमा_मा को
हमने एक मानवीय दृष्टि=कोण से देखा है। यही कारण है
ष्टिक हम परमा_मा से ष्टिगले -शिशकवे करते हैं। परमा_मा से
भौधितक सुखों की उपलत्मिब्' चाहते हैं। परमा_मा को
ष्टिमठाई का एक पैकेट देकर हम अपनी आवश्यकताओं
की पूर्तित कराना चाहते हैं। हमारा प्रेम स्वाथ% मयी प्रेम बन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 264 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गया है, वह ष्टिनर्मिवकार प्रेम नहीं रहा।

एक राजा था। उसके राजमहल में नृ_य हो रहा था।


एक नत% की ने अच्छा नृ_य ष्टिकया। राजा सोचने लगा ष्टिक
यह नत% की इतना अच्छा नृ_य ष्टिदखा रही है। यष्टिद यह
चाहेगी तो मैं इसको महारानी बना लूँगा, और मेरी भी
इच्छा है ष्टिक मैं इसको महारानी बना लूँ क्योंष्टिक यह
मुझसे बहुत प्रेम भाव रखती है। राजा ने कहा- "तुम्हारी
जो इच्छा हो, माँग लो।" राजा तो सोच रहा था ष्टिक यह
कह देगी ष्टिक आप मुझे महारानी बना लीजिजए। लेष्टिकन
उसका उत्तर था- "महाराज! यष्टिद आप मुझ पर प्रसन्न
हैं, तो मेरा प्रेमी जो आपकी कैद में १२ व@% से है ,
उसको छोड़ दीजिजए।" राजा जिसर पकड़कर बैठ गया ष्टिक
मैं तो सोचता था ष्टिक यह मुझको चाहती है , लेष्टिकन यह
मुझको नहीं चाहती। यह तो इतना अच्छा नृ_य अपने

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 265 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

प्रेमी को कैद से छुड़ाने के लिलए कर रही थी। हम भी तो


ऐसे ही करते हैं। हमारा प्रेम परमा_मा से कम है और
लौष्टिकक सुखों के लिलए ज्यादा है।

एक नौकर होता है। मालिलक को इस बात से कोई


लेना-देना नहीं है ष्टिक नौकर के घर रोटी बनी है या
नहीं। वह काम करे और जिजतना ष्टिन'ा%रिरत उसका 'न है,
वह ले जाये। बस इतना ही प्रेम हम नौकर से करते हैं।
परमा_मा के साथ भी हम वैसा ही व्यवहार करते हैं। यष्टिद
परमा_मा ने (भगवान ने) हमारी प्राथ% ना सुनी, तो हम
परमा_मा के नाम पर दान-दधि(णा कर सकते हैं, कुछ
पूजा-पाठ करवा सकते हैं। यष्टिद हमारी माँग पूरी नहीं हुई
या हमारा काय% परमा_मा ने पूरा नहीं ष्टिकया, तो हम क्या
सोचते हैं ष्टिक हमें क्या देने की जरूरत है। हम खशिु शयाँ
ष्टिकसके लिलए माँगते हैं? कोई चाहेगा, हमारी नौकरी लग

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 266 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जाए, कोई चाहेगा हमें बेटा ष्टिमल जाए , कोई चाहेगा


हमारा व्यापार बढ़ जाए। लेष्टिकन यष्टिद परमा_मा सा(ात्
प्रकट हो जाए, तो कोई कहेगा ष्टिक हमारा पड़ोसी हमें
बड़ा तंग करता है, आप उसका नाश कर दीजिजए।
परमा_मा ऐसा नहीं है। यष्टिद ऐसा होने लगे तो लोग यह
भी कहना शुरु कर देंगे ष्टिक परमा_मा मुझे बुखार है , आप
मेरे घर में झाड़ू लगा दीजिजए।

परमा_मा को मानवीय दृष्टि= से देखना स_य को


कलंष्टिकत करना है। वह तेजों का तेज है , सौन्दय% का
सागर है। वेद के एक मन्त्र में कहा गया है-

उद्वयं तमसः परिर रोष्टिहन्तो नाकम् उत्तमम्।

दैवं ष्टिदष्टिवत्रा सूय‚ अगन्म्ज्योधितः उत्तमम्।।

अथव% वेद ७/५३/७

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 267 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हे परब्रह्म! इस तमस (पञ्चभूता_मक जगत) से परे


होकर अनन्त ज्योधितम% यी सूय% के समान प्रकाशमान
आपको हम प्राV करें। आनन्दमयी 'ाम में हमने उस
प्रकाशमयी अनन्त ज्योधित वाले आपको प्राV ष्टिकया है।

इसलिलए परमा_मा का जो स्वरूप है, आवश्यक है


ष्टिक हम उसको साकार से शिभन्न देखें , ष्टिनराकार से शिभन्न
देखें।

नमस्ते प्राण ष्टिवद्युते, नमस्ते प्राण व@% ते।

अथव% वेद ११/४/२

ष्टिवद्युत के तुल्य कात्मिन्त वाले उस परमा_मा को


प्रणाम है। आनन्द की व@ा% करने वाले उस परमा_मा को
प्रणाम है।

जो दश% नीय है, कात्मिन्तमान है, मनोहर है, उसको

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 268 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रूप से रष्टिहत नहीं कहा जा सकता। हमें साम्प्रदाधियक


ष्टिवचार'ाराओं से कुछ अलग रहने का अभ्यास करना
चाष्टिहए। अन्तरा_मा की सा(ी को स्वीकार करना होगा।
परमा_मा का स्वरूप ऐसा है, जिजसको ष्टिदव्यदृष्टि= से देखा
जा सकता है। उससे ज्यादा कोई सुन्दर रूप न है और
न कभी हो सकेगा। हमारी बुधिद्ध तो एक सीमा ष्टिवशे@ तक
काय% कर रही है। हमारी बुधिद्ध ने पञ्चभूता_मक तनों को
देखा है, सूरज-चाँद की ज्योधितयों को देखा है। इसलिलये
उसी बुधिद्ध से हम सोच लेते हैं ष्टिक बस परमा_मा तो
इतना ही है।

एक कँु आ है। उसमें एक मेंढक कहीं से उछल-कूद


करते हुए ष्टिगर जाये। कल्पना कीजिजए आगे क्या होगा?
आगे की पीढ़ी में उस मेंढक के जिजतने भी बSे पैदा होंगे ,
वे क्या सोचेंगे ष्टिक इस कँु ए के आगे कुछ नहीं है। कँु ए में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 269 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जो मेंढक ष्टिगरा है, वह तो जानता है ष्टिक मैं बाहर से


आया हूँ, लेष्टिकन कँु ए से बाहर वह स्वयं भी नहीं ष्टिनकल
सकता और अपने आने वाले बSों को भी वह यह नहीं
बता पाता ष्टिक इसके आगे या इस कँु ए के बाहर भी कुछ
है। इसका परिरणाम क्या होगा? सभी समझेंगे ष्टिक सारी
सृष्टि= इस कँु ए में ही समाई हुई है।

वैसे ही यष्टिद इस तथ्य को अध्या_म पर घष्टिटत


ष्टिकया जाये, तो ष्टिनधिश्चत होगा ष्टिक एक आष्टिदनारायण का
स्वरूप ही महामाया के अन्दर प्रकट होता है। उससे
प्रकट होने वाले प्राणी ष्टिनराकार के पद” को पार नहीं कर
पाते हैं और उसी को परमा_मा का स्वरूप मान लेते हैं।
ष्टिवद्वत जगत् में दो ही ष्टिवचार'ारायें चलती हैं , साकार या
ष्टिनराकार। ष्टिनराकार का साकार में प्रकट होना या साकार
का ष्टिनराकार में ष्टिवलय होना। ये दोनों ष्टिवचार'ारायें मन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 270 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तथा बुधिद्ध के 'रातल पर कही जा रही हैं। वास्तष्टिवक


स_य अलग है। इसलिलए वेद ने बार-बार उसी परमा_मा
के स्वरूप को दशा%ने के लिलए तरह-तरह के मन्त्रों द्वारा
उस परमा_मा की स्तुधित की है। वेद में कहा गया है-

वृ@ा ह्यजिस भानुना द्युमन्तं _वा हवामहे।

ऋग्वेद ८/६५/४

आनन्द की व@ा% करने वाले , सूय% के समान


प्रकाशमान, हे परब्रह्म! हम तुम्हारी स्तुधित करते हैं।

जो प्रकाश का स्वरूप है, उसको रूप से रष्टिहत नहीं


कहा जा सकता। आवश्यकता यही है ष्टिक हम उस
प्रकाशमयी परमा_मा को नस-नाड़ी वाला कोई स्वरूप
न समझें, भूख-प्यास से ग्रजिसत कोई तन न समझें। यष्टिद
हम ष्टिनराकार और साकार की परिरधि' से परे देखते हैं ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 271 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तब पता चलेगा ष्टिक परमा_मा का स्वरूप कैसा है।

यही त्मिस्थधित योग में देखी जाती है। कोई भी योगी


यह नहीं कह सकता ष्टिक परमा_मा अन्'ेरे को कहते हैं।
हर महापुरु@ के चारों ओर आभामण्डल रहता है। ष्टिकसी
भी महापुरु@ का जब धिचत्र बनाते हैं, तो उसके चारों ओर
आभामण्डल दशा%या जाता है, क्यों? गायत्री मन्त्र
लिललिखए, ॐ लिललिखए, उसके चारों ओर प्रकाश दशा%या
जाता है।

हद से परे बेहद है, बेहद के परे अ(र है, और उस


अ(र से परे है वह अ(रातीत। उस अ(रातीत के
स्वरूप के बारे में इस सामान्य बुधिद्ध से यष्टिद हम यह सोच
लें ष्टिक परमा_मा ऐसा ही है , तो यह बहुत बड़ी भ्रात्मिन्त है।
हमने महापुरु@ों का जीवन चरिरत्र देखा। चाहे वह मया%दा
पुरु@ोत्तम श्री राम का जीवन चरिरत्र हो, हनुमान जी का

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 272 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जीवन चरिरत्र हो, योगेश्वर श्री कृष्ण जी का जीवन चरिरत्र


हो, अथवा भगवान शिशव का जीवन चरिरत्र हो। परमा_मा
को इस सीमा के बन्'न में नहीं बाँ'ा जा सकता।

परमा_मा ने इस सृष्टि= को बनाया है। जब सृष्टि= नहीं


थी, तब भी वह परमा_मा था। जब मनुष्य और यह सृष्टि=
लय को प्राV हो जायेगी, तब भी वह परमा_मा रहेगा। इस
सृष्टि= में पैदा होने वाला मनुष्य महापुरु@ का स्वरूप हो
सकता है, ष्टिकन्तु सधिSदानन्द परमा_मा नहीं बन सकता।
हाँ, उसको जानकर, उसको आ_मस्थ करके, उसको
अपने हृदय मत्मिन्दर में बसाकर तदोगत हो सकता है ,
उसके जैसा ष्टिनर्मिवकार हो सकता है, उसकी तरह
प्रेममयी राह पर चल सकता है, लेष्टिकन जो सा(ात्
अनाष्टिद अष्टिद्वतीय शोभा वाला परब्रह्म है, उसकी समानता
करने का अधि'कार ष्टिकसी के भी पास नहीं है। इसलिलए

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 273 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अध्या_म यही कहता है ष्टिक हम उस सधिSदानन्द


परमा_मा को पाने की राह पर चलें , लेष्टिकन अपनी झोली
को हमेशा खाली समझें, पूण%ता का भाव न लें। पूण% तो
एकमात्र वही परमा_मा है। यह जरूर तुलसीदास जी ने
कहा है-

जानत तुमष्टिह तमहिंह हो जाई।

हे परब्रह्म! तुम्हें जानने वाला तुम्हारे जैसा ही हो


जाता है। इसका ता_पय% यह नहीं है ष्टिक वह सा(ात्
परमा_मा हो जाता है। जानने से पहले तो ऐसा नहीं था,
उसको जानकर ही तो ऐसा हुआ है। जैसे अष्टि° और लोहे
का सम्पक% होता है, तो लोहा भी अष्टि° के समान दहकने
लगता है। उसी तरह से ब्रह्म का सा(ा_कार करके उसके
तदोगत हुआ जाता है, उसको कहते हैं "अहं ब्रह्मात्मिस्म"।
लेष्टिकन जो सधिSदानन्द परमा_मा है, वह सभी द्वन्द्वों से

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 274 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परे है, क्लेश-कम% की वासना से रष्टिहत है , जन्म-मरण


की प्रवृलित्त से रष्टिहत है , सुख-दख
ु की परिरधि' से परे है ,
साकार और ष्टिनराकार की परिरधि'यों से परे है।

उस परमा_मा के ष्टित्रगुणातीत स्वरूप को दशा%ने के


लिलए अनेक प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है , ष्टिकन्तु
ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है ष्टिक परमा_मा रूप से
रष्टिहत है। ष्टिनराकार, नक%, दगु ा%, नेधित- ये चारों शब्द वेदों
में कहीं भी नहीं हैं। हाँ , इनके भावों की व्याख्या हम
अपनी-अपनी मान्यताओं के आ'ार पर करते हैं। कोई
परमा_मा को साकार मान लेता है, कोई ष्टिनराकार मान
लेता है, कोई ष्टिनराकार से साकार में परिरवर्तितत रूप
मानता है, और कोई साकार से ष्टिनराकार में परिरवर्तितत
रूप मानता है। लेष्टिकन परमा_मा परिरवत% न से रष्टिहत है,
जन्म से रष्टिहत है, मरण से रष्टिहत है, नस-नाड़ी से रष्टिहत

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 275 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है। आज वह जैसा है, अनन्त काल पूव% वैसा ही था,


और अनन्त काल पय% न्त ऐसा ही रहेगा।

उस परमा_मा के स्वरूप के ष्टिव@य में हम अपनी


मानवीय बुधिद्ध द्वारा कुछ भी नहीं कह सकते हैं। परमा_मा
का स्वरूप क्या है, इसको जानने के लिलए हमें तारतम
वाणी के अन्दर प्रवेश करना होगा। वह तारतम वाणी जो
महामधित जी के 'ाम हृदय से प्रकट हुई। उसके द्वारा
दशा%या गया है ष्टिक वेद में परमा_मा के उस स्वरूप को
ष्टिकस प्रकार व्यŽ ष्टिकया गया है। परमा_मा के स्वरूप ,
'ाम के बारे में जिजसको और अधि'क जानना हो , वे
स_याञ्जलिल ग्रन्थ का धिचन्तन -मनन करें। उसमें वेदों ,
उपष्टिन@दों, और दश% नों के प्रमाणों से ष्टिवस्तारपूव%क
समझाया गया है। अधि'क गहराई से जानने के लिलए श्री
प्राणनाथ जी की तारतम वाणी का अनुसरण करें।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 276 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अध्या_म कहता है ष्टिक हम अपने हृदय को ष्टिवशाल


बनायें, संकीण% ताओं से न भरें। सागर का हृदय ष्टिकतना
ष्टिवशाल होता है। न जाने ष्टिकतने गन्दे नाले उसमें ष्टिगरते
हैं, लेष्टिकन वह सबको अपने में समा लेता है। जिजस तरह
से हँस केवल मोती चुगता है, द'
ू में से केवल द'
ू को
ग्रहण करके पानी को छोड़ देता है, उसी तरह से
साम्प्रदाधियक मत-मतान्तरों में रहते हुये भी हम स_य को
जानने और पाने का प्रयास करें। अपनी जिजज्ञासा को
बनाये रखें। इसलिलए वेदान्त का पहला सूत्र है-

अथातो ब्रह्म जिजज्ञासा। वेदान्त दश% न १/१/१

अथा%त् ब्रह्म जिजज्ञासा का ष्टिव@य है।

रूष्टिढ़वाष्टिदता हमें स_य तक नहीं ले जाएगी , लेष्टिकन


खोज की प्रवृलित्त हमें स_य तक ले जाती है। इसलिलए

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 277 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ब्रह्मवाणी में कहा है-

खोज बड़ी संसार, रे तुम खोजो रे सा'ो।

ष्टिकरंतन ६/१

यष्टिद हमारे अन्दर स_य को जानने की जिजज्ञासा है ,


यष्टिद हमारा हृदय शुद्ध है और हम उस ष्टिप्रयतम परब्रह्म
को पाना चाहते हैं, तो न हम साकार में उलझें और न
ष्टिनराकार में उलझें। सबसे परे उस सधिSदानन्द परब्रह्म के
ष्टित्रगुणातीत स्वरूप का धिचन्तन करें, जिजसको जानने के
बाद कुछ भी जानना शे@ नहीं रह जाता, जिजसको देखने
के बाद कुछ देखना शे@ नहीं रह जाता, और जिजसको
पाने के बाद कुछ भी पाना शे@ नहीं रह जाता।

आगे का ष्टिव@य होगा ष्टिक हम उस परमा_मा को


ष्टिकस तरह से पायें? माला से जप करें या तप करें या

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 278 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ध्यान करें। ध्यान करें तो ष्टिकस तरह से करें ? ध्यान की


कौन-कौन सी पद्धधितयाँ हैं? कौन सी पद्धधित द्वारा उस
परमा_मा का सा(ा_कार होता है, इन ष्टिव@यों का आगे
वण% न होगा।


प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 279 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पंचम अध्याय

परब्रह्म के सा(ा_कार का माग% क्या है?

प्राणाय नमो यस्य सव‚ इदं वशे।

यो भूतः सव% स्य ईश्वरो यत्मिस्मन् सव‚ प्रधितष्टिष्ठतम्।।

उस सधिSदानन्द परब्रह्म के चरणों में प्रणाम है ,


जिजसकी सत्ता के वशीभूत असंख्य ब्रह्माण्ड हैं। संसार के
समस्त प्राणी जिजसकी कृपा-कटा( से जीवन प्राV करते
हैं।

आज का मुख्य ष्टिव@य यह है ष्टिक जिजस सधिSदानन्द


परब्रह्म के 'ाम, स्वरूप के सम्बन्' में गत दो ष्टिदवसों से
व्याख्यान चल रहा है, उसको पाने का माग% क्या है ?
संसार में अनेक पद्धधितयाँ प्रचलिलत हैं। कोई पद्धधित शरीर
के आ'ार पर होती है, कोई मन और बुधिद्ध के आ'ार

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 280 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पर होती है, कोई पद्धधित जीव के शुद्ध स्वरूप पर


आ'ारिरत होती है, तो कोई आ_म-दृष्टि= से होती है।
सभी सा'ना पद्धधितयाँ इन्हीं के इद% -ष्टिगद% घूमती हैं।

यह शरीर क्या है?

शरीरमाद्यं खलु 'म% सा'नम्।

शरीर उस सधिSदानन्द परब्रह्म को पाने का एक


सा'न है। यष्टिद यह शरीर भोगों में लिलV हो गया तो इस
जीव को चौरासी लाख योष्टिनयों का नक% भोगना पड़ता है,
और यष्टिद इसी शरीर से सधिSदानन्द परब्रह्म को पाने का
प्रयास ष्टिकया जाता है तो उसके अन्दर बैठी हुई चेतना
शाश्वत आनन्द में ष्टिवहार करती है। शरीर के आ'ार पर
जो भष्टिŽ की जाती है, उसके अलग-अलग रूप हैं। कोई
मत्मिन्दर में परिरक्रमा करता है , तो कोई काबे की परिरक्रमा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 281 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

करता है। सभी मतों में ष्टिकसी न ष्टिकसी रूप से परिरक्रमा


की यह प्रष्टिक्रया जुड़ी हुई है, जो पैरों से चलकर की
जाती है।

दस
ू रा स्तर होता है बुधिद्ध के 'रातल पर , मन के
आ'ार पर होने वाली सा'ना। इसमें जप और यज्ञ आष्टिद
है। जप योग, तप योग, मन्त्र योग, नाद योग, सभी इसी
परम्परा के अन्तग% त आते हैं। हठ योग भी इसी के
अन्तग% त आता है। जप का ता_पय% यह है ष्टिक हम
परमा_मा के नाम को ष्टिकसी न ष्टिकसी रूप में जपते हैं।
इसके लिलये माला की प्रष्टिक्रया प्रायः अधि'कतर पन्थों में
अपनायी जाती है। ष्टिहन्द ू 'म% के अधि'कतर सम्प्रदायों में
माला फेरने की परम्परा है। मुत्मिस्लम जन भी माला का
प्रयोग करते हैं, जिजसे तस्वीह कहते हैं। इसी तरह से
बौद्ध मत में भी यह प्रष्टिक्रया चलती है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 282 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जप का अथ% क्या है ? मन, बुधिद्ध के 'रातल पर


परमा_मा के नाम का जप ष्टिकया जाता है, चाहे वह ष्टिकसी
नाम को मानता हो। कोई "हक" का जप करता है, कोई
"ॐ" का जप करता है, कोई गायत्री मन्त्र का जप करता
है, तो कोई अलग-अलग साम्प्रदाधियक मन्त्रों का जप
करते हैं। यह मान्यता है ष्टिक जप करने से हमारी वैसी ही
भावना हो जाती है। लेष्टिकन यह ध्यान रहे, योगदश% न में
कहा है-

तत् जपः तदथ% भावनम्। योग दश% न १/२८

जप कैसा होना चाष्टिहए? अथ% की भावना से होना


चाष्टिहए। आप शक्कर-शक्कर कहेंगे, तो क्या आपका मुँह
मीठा हो जायेगा? एक कैसेट या सी.डी. में मन्त्र टेप कर
दीजिजए और सौ साल तक उससे आवाज ष्टिनकलती रहे
तो क्या वह कैसेट या सी.डी. परमहंस हो जायेगी? कभी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 283 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं, जबष्टिक आवाज तो ष्टिनकल रही है।

जप तीन तरह के होते हैं- मानजिसक, वाधिचक,


उपांशु। मानजिसक अथा%त् मन में, वाधिचक अथा%त्
बोलकर, और उपांश अथा%त् होठों में बुदबुदाकर। तीनों
प्रकार के जप द्वारा सा'ना की जाती है। इससे जिसधिद्धयाँ
ष्टिमलती हैं। योगदश% न में लिलखा है , मन्त्र से , तप से, एवं
औ@धि'यों से जिसधिद्ध प्राV होती है। जिसधिद्ध का ता_पय% क्या
है? जो लक्ष्य हम प्राV करना चाहते हैं , वह प्राV हो
जाये। जिसधिद्ध को प्राV करने वाले को जिसद्ध कहते हैं।

लेष्टिकन यह कहीं नहीं लिलखा है ष्टिक जप से परमा_मा


का सा(ा_कार होता है। जप से एक लाभ यह होता है
ष्टिक हमारे मन में इ= का भाव अखण्ड रूप से बस जाता
है। मन एकाग्र होता है और हम कुछ इत्मिच्छत शष्टिŽयों को
प्राV कर लेते हैं। सूय% की 'ूप फैली हुई है , ष्टिनरथ% क है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 284 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

इस 'ूप को आधितशी शीशे से एक जगह इकट्ठा कर ष्टिदया


जाये, तो आग जैसी धिचन्गारी ष्टिनकलने लगती है और
ज्वाला भड़क उठती है।

खेत में घास लगी हुई है। उसमें बकरी भी आती है


और चर जाती है। यष्टिद सारी घास को इकट्ठा करके
रस्सी बट दी जाये, तो उस रस्सी से मतवाले हाथी को
भी बाँ'ा जा सकता है। यानी जीव के साथ जो शष्टिŽ
जुड़ी हुई है, वह अन्तःकरण और इत्मिन्द्रयों के माध्यम से
ष्टिव@यों में व्यथ% हो रही है। उस शष्टिŽ को एकष्टित्रत करना
है।

योग का लक्ष्य यह है ष्टिक हमारी जो चेतना है ,


उसको हम जीव कहें, हँस कहें, या आ_मा कहें, उसका
ष्टिमलन उस सव% शष्टिŽमान परमा_मा से होना चाष्टिहए। बीच
में बा'ायें डालती हैं जिसधिद्धयाँ। जैसे , मन्त्र के जप से जो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 285 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जिसधिद्ध ष्टिमलती है, उसका संसार में प्रदश% न करने पर क्या


ष्टिमलता है? चारों तरफ प्रधितष्ठा। आ_म -त_व को प्राV
करने वाला कोई भी योगी कभी भी प्रधितष्ठा को गले नहीं
लगाना चाहेगा, क्योंष्टिक प्रधितष्ठा ष्टिव@ के समान है।

आ_म-कल्याण चाहने वाले को अपमान को अमृत


मानना चाष्टिहए और सम्मान को ष्टिव@ के समान समझना
चाष्टिहए, क्योंष्टिक लोके@णा हमारे और परमा_मा के बीच में
बहुत बड़ा पदा% है। जप से थोड़ी सी जिसधिद्ध प्राV हो जाती
है, लेष्टिकन यह जीवन का परम लक्ष्य नहीं है। जप की
ऐसी ही प्रष्टिक्रया चल रही है और वह भी अथ% की भावना
से नहीं। समाज में एक लकीर चल पड़ती है ष्टिक हमें इस
मन्त्र का इतनी बार जप करना है।

मन एकाग्र करने से इतनी शष्टिŽ ष्टिमलती है ष्टिक


ष्टिवदेश वालों ने भी इसका प्रयोग ष्टिकया है। आप यष्टिद

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 286 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अपने मन को ष्टिकसी ष्टिबन्द ु पर तीन घण्टे या उससे


अधि'क एकाग्र कर लेते हैं , तो अपने संकल्प से कुछ भी
कर सकते हैं। ष्टिवदेश में एक व्यष्टिŽ ने घड़ी की सुइयों को
उल्टा चलाकर ष्टिदखा ष्टिदया था। इसी प्रष्टिक्रया से ष्टिकसी
को सम्मोष्टिहत भी ष्टिकया जाता है। योग का उद्देश्य यह
नहीं होता ष्टिक वह संसार में जिसधिद्ध - प्रदश% न करे या
सम्मोहन का प्रयोग करे। इन सबसे परमा_मा का ष्टिमलन
नहीं हो सकता।

गायत्री मन्त्र के जप की भी प्रष्टिक्रया है। मन्त्र में कहा


गया है ष्टिक उस परमा_मा के तेजोमयी , आनन्दमयी
स्वरूप को हम 'ारण करें। 'ारणा से ध्यान होगा, ध्यान
से समाधि' होगी , और समाधि' से परमा_मा का
सा(ा_कार होता है। मन्त्र में ज्ञान ष्टिनष्टिहत होता है। उस
ज्ञान का उपयोग न करके एक परम्परा चला दी जाती है

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 287 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक हमें यह काय% करना है। जैसे ष्टिहन्द ू समाज में


महामृ_यंज
ु य मन्त्र का बहुत प्रचलन है। बीमार हो, संकट
पड़ जाये तो क्या कहते हैं, महामृ_यंज
ु य मन्त्र का जप
कर लो, भगवान शिशव बचा लेंगे। उस मन्त्र में तो कहा
गया है-

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिंन्' पुष्टि=व'% नम्।

यजुव”द ३/६०

त्रयम्बकं ष्टिकसको कहते हैं? जिजसमें सृष्टि= की


उ_पलित्त, पालन, और संहार करने का गुण हो, उसको
त्रयम्बकं कहते हैं। उस मंत्र में ज्ञान ष्टिनष्टिहत है। उस ज्ञान
को आचरण में लाने के लिलए वेद में कहा गया है। वेद ,
उपष्टिन@द्, दश% न कभी कम% काण्ड की बातें नहीं करते ष्टिक
माला लेकर जप कीजिजए। वेदों, उपष्टिन@दों, एवं दश% न

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 288 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

शास्त्रों का उपदेश है ष्टिक जिजसका हम मानजिसक जप कर


रहे हैं, उसमें अथ% की भावना हो।

एक ष्टिहन्द ू परमा_मा का ष्टिकसी नाम से जप करता


है। एक मुत्मिस्लम अरबी भा@ा में नाम लेकर परमा_मा को
पुकारता है। एक ष्टिक्रधिश्चयन चाहे अँग्रेजी भा@ा में जप करे
या ष्टिकसी अन्य भा@ा में, आलिखर परमा_मा तो सबका है।
अनुभूधित तो अपने -अपने स्तर पर होगी। परमा_मा
ष्टिकसी चौपाई से, ष्टिकसी मन्त्र से, ष्टिकसी श्लोक से, ष्टिकसी
शब्द से बन्'ा हुआ नहीं है , वह सबका है। हमारी पृथ्वी
जैसी असंख्य पृत्मिथ्वयाँ उसकी सृष्टि= में हैं। क्या वह ष्टिकसी
भा@ा के बन्'न में रहेगा ष्टिक इसी मन्त्र से जो जप करेगा,
मैं उसी को ष्टिमलूँगा ? लेष्टिकन हाँ, यह ध्यान रहे ष्टिक
परमा_मा वाणी से परे है। सृष्टि= में कोई भी प्राणी ष्टिकसी
भी शब्द से उस परमा_मा को पुकारता है, तो यष्टिद

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 289 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसका अन्तःकरण शुद्ध होगा तो उसको कुछ जिसधिद्धयाँ


प्राV हो जायेंगी। जप योग की बस इतनी सी उपलत्मिब्'
है।

इसी के अन्तग% त मन्त्र योग भी आता है। मन्त्र योग


में उस परमा_मा के मन्त्र का धिचन्तन करते हुये जप की
प्रष्टिक्रया है। थोड़ा बहुत उससे 'ारणा, ध्यान भी जुड़
जाता है, इसी को कहते हैं "भावातीत ध्यान"। यह
पद्धधित महेश योगी ने चलायी और संसार के अनेक देशों
में सम्पन्न बुधिद्धजीवी वग% भी इसको अपनाता है।

तप योग क्या है? तप से क्या होता है?

ऋतं तपः, दमः तपः, स_यं तपः, स्वाध्याय तपः, ब्रह्मचय‚ तपः।

आजकल तप की उल्टी व्याख्या की जाती है। कोई


'ूप में नंगे शरीर बैठ जाता है और चारों तरफ आग

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 290 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सुलगा लेता है। क्या कहेगा, मैं तपस्या कर रहा हूँ। कोई
एक हाथ ऊपर खड़ा कर देगा, कोई दोनों पाँव से कई-
कई व@% खड़ा रहेगा, और क्या कहेगा ष्टिक मैं तप कर रहा
हूँ। यह तप नहीं है। यह तो शरीर को पीड़ा देना है। अपने
हृदय को पीड़ा देना है। अपने हृदय को पीड़ा देने को
तपस्या नहीं कहते। तप का अथ% है शम। अपने
मनोष्टिवकारों का शमन करना। सांसारिरक भोग की इच्छा
से ष्टिबल्कुल अलग हो जाना, यह है तप। दमन तप है।
इत्मिन्द्रयों को ष्टिव@यों में न जाने देना तप है , यथाथ% स_य
का पालन करना ही तप है।

अनुद्वेगकरं वाक्यं स_यं ष्टिप्रयं ष्टिहतं च यत्।

गीता १७/१५

वाणी का तप है- हम ऐसी वाणी बोलें, जिजससे

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 291 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकसी के हृदय को पीड़ा न हो। शरीर का तप है - शुभ


कम% करना। मन का तप है - मन को ष्टिव@यों में न जाने
देना। मन का तप, वाणी का तप, शरीर का तप अलग-
अलग हैं, क्योंष्टिक ष्टिकसी भी शास्त्र में नहीं लिलखा है ष्टिक
शीतल-बफÎले जल में खड़े रहना तप है। यह तो शरीर
को पीड़ा देना है, जो तामजिसक काय% है।

सूरदास जी के मन में ष्टिवकार पैदा हुआ, तो उन्होंने


अपनी आँ खें फोड़ डालीं। आँ खों ने क्या ष्टिबगाड़ा था ?
इन्हीं आँ खों से तो उन्होंने अपने इ= का भी दश% न ष्टिकया
था। इन्हीं आँ खों से तो हम माता को देखते हैं , ष्टिपता को
देखते हैं, गुरु को भी देखते हैं। बेचारी आँ ख का दो@
क्या है? आँ ख को ष्टिनयत्मिन्त्रत करने वाला है मन। मन को
ष्टिनयत्मिन्त्रत करने वाला है धिचत्त। धिचत्त को ष्टिनयत्मिन्त्रत करने
वाली है बुधिद्ध, और बुधिद्ध को ष्टिनयत्मिन्त्रत करने वाला है

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 292 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अहम्।

गाय मर जायेगी लेष्टिकन माँस नहीं खायेगी। वह जब


भी खाएगी तो घास ही खाएगी, क्योंष्टिक उसके जीव के
अहंकार में यह संस्कार भरा है ष्टिक मैं गाय हूँ और गाय
को घास ही खाना है। एक शेर मर सकता है, लेष्टिकन
कभी घास नहीं खा सकता क्योंष्टिक उसके अहम् में यह
बात गूँज रही है ष्टिक मैं शेर हूँ और मुझे माँस ही खाना है।
जिजसका अहंकार जैसा होता है, उसकी बुधिद्ध वैसी ही
होती है। जैसी बुधिद्ध होती है, धिचत्त के संस्कार भी वैसे ही
होते हैं, मन में वैसी ही ष्टिवचार'ारा होती है, और इत्मिन्द्रयाँ
भी वैसे ही काय% करती हैं।

जैसे गाय के धिचत्त में घास खाने के संस्कार हैं , शेर


में माँस खाने के संस्कार हैं, और यह संस्कार इसी जन्म
तक सीष्टिमत हैं। कदाधिचत् गाय का जीव अगली योष्टिन में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 293 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

शेरनी के अन्दर आ जाये, तो पैतृक रूप से उसके धिचत्त


में माँस खाने का संस्कार आ जायेगा। यष्टिद शेरनी के बSे
को जन्म लेते ही द'
ू ष्टिपलाया जाये, तो माँस खाने का
संस्कार उसके अन्दर नहीं आयेगा। वह सामने रखे हुए
माँस को देखकर भी माँस नहीं खायेगा। इसलिलए धिचत्त के
संस्कारों के आ'ार पर मन संकल्प-ष्टिवकल्प करता है।
मन के संकल्प-ष्टिवकल्प के आ'ार पर इत्मिन्द्रयों में ष्टिवकार
होता है। इत्मिन्द्रयाँ या तो ष्टिव@य-भोग की तरफ उन्मुख
होती है या ष्टिव@यों से हट जाती हैं। इनको ष्टिनयत्मिन्त्रत
करने का सा'न है- ज्ञान का प्रकाश, बुधिद्ध की
ष्टिनम% लता, और आहार-ष्टिवहार की शुद्धता। योग में इन्हीं
चीजों पर ध्यान ष्टिदया जाता है।

तप का उद्देश्य होता है, हम तपायें। तपाने का


मतलब यह नहीं ष्टिक आग में तपायें। लोगों ने क्या समझ

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 294 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लिलया ष्टिक चारों तरफ आग सुलगा लो , तो इसको क्या


कहेंगे, पञ्चाष्टि° तप। यह पञ्चाष्टि° तप नहीं है।

ऋतं ष्टिपबन्तौ सुकतस्य लोके गुहांप्रष्टिव=ौ परमे पराद्ध”।

छायातपौ ब्रह्मष्टिवदो वदत्मिन्त, पंचा°यो ये च ष्टित्रणाधिचकेताः।।

कठोपष्टिन@द तृतीय वल्ली१

पञ्चाष्टि° ष्टिवद्या तो सम_व योग से सम्बत्मिन्'त है। पाँच


अग्रगण्य भूष्टिमकाओं में हम कैसे परमा_मा का ध्यान करें।
यह पञ्चाष्टि° ष्टिवद्या योग से सम्बत्मिन्'त है, न ष्टिक पाँच जगह
आग सुलगा लेना। यष्टिद आग सुलगा लेने से तपस्या
होती है, तो जिजतने चूल्हा जलाने वाले हैं, सारे तपस्वी
हो जायें। ष्टिफर क्या आवश्कता है जँगल में जाने की ?
शरीर को पीड़ा देना तप नहीं है।

तप योग से बस आपका अन्तःकरण ष्टिनम% ल हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 295 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकता है, लेष्टिकन परमा_मा का सा(ा_कार तब भी नहीं


होगा। आपका अन्तःकरण ष्टिनम% ल है लेष्टिकन उसमें
ष्टिप्रयतम की छष्टिव नहीं बसी , तो लाभ नहीं है। हाँ , यह
सब भूष्टिमकायें हैं। महल बनाते हैं तो नींव खोदी जाती है ,
नींव में ष्टिगट्टी भरी जाती है , तरह-तरह की प्रष्टिक्रया
अपनाई जाती है। उसी तरह से यह नींव है। चाहे मन्त्र
योग हो या तप योग।

आगे हम हठ योग के ष्टिव@य पर चलते हैं। हठ योग


के अन्तग% त नाद योग आता है। तरह-तरह की मुद्राओं
का सा'न ष्टिकया जाता है। नेती, 'ौधित, बस्ती, त्राटक,
कपालभाधित आष्टिद ष्टिक्रयाएँ की जाती हैं। इनसे भी तरह-
तरह की जिसधिद्धयाँ प्राV होती हैं। हठयोग द्वारा शरीर का
शुधिद्धकरण होता है। आजकल "योग" शब्द को "योगा" में
परिरवर्तितत कर ष्टिदया गया है। कोई व्यष्टिŽ जब योगा कहता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 296 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, तो वह यह दशा%ता है ष्टिक वह बहुत अच्छी अँग्रेजी


जानता है और बहुत समझदार है। योग का अथ% क्या है?

संयोगः योगः इधित उŽः जीवा_म परमा_मनः।

चेतना का उस सधिSदानन्द परब्रह्म से ष्टिमलन ही


योग है। योग की एक दस
ू री परिरभा@ा पतञ्जलिल देते हैं-

योगधिश्चत्तवृलित्त ष्टिनरो'ः योग दश% न १/२

धिचत्त की वृलित्तयों का ष्टिनरो' ही योग है। तब दृ=ा की


अपने स्वरूप में त्मिस्थधित होती है। धिचत्त की वृलित्तयाँ क्या
हैं?

धिचत्त में जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार ष्टिवद्यमान होते


हैं। जैसे, सी.डी. के अन्दर पूरी ष्टिपक्चर (चलधिचत्र) भरी
होती है। जब उसको चलाया जाता है, तो पद” पर दृश्य
बनना शुरु हो जाता है। उसी तरह , हमारे धिचत्त में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 297 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार हैं। ष्टिकतनी योष्टिनयों में हम


पशु के रूप में रहे, ष्टिकतने जन्मों में हम प(ी योष्टिन में रहे ,
ष्टिकतने जन्मों में हम मनुष्य की योष्टिन में रहे। सारे जन्मों
का दृश्य धिचत्त के संस्कारों में समाष्टिहत होता है।

धिचत्त के संस्कारों में समाधि'स्थ होकर कोई भी


योगी जान सकता है ष्टिक मैं ष्टिकतने जन्मों में क्या रहा ?
गौतम बुद्ध को जब बुद्ध_व प्राV हुआ , तो उन्होंने अपने
पाँच सौ से ज्यादा जन्मों की कहानी जान ली ष्टिक मैं
ष्टिकस-ष्टिकस जन्म में क्या था। इसी तरह से महावीर
स्वामी को बो' हुआ था। जिजतने भी बड़े -बड़े योगेश्वर
हुये हैं, सभी ने यह जाना था ष्टिक मैं ष्टिकस-ष्टिकस जन्म में
क्या-क्या था, लेष्टिकन यह परमा_मा का दश% न नहीं है।
जिसधिद्ध-ष्टिवभूधितयों को प्राV कर लेना परमा_मा के
सा(ा_कार से कोशों दरू ले जाता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 298 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जैसा ष्टिक मैंने कहा ष्टिक सूय% के प्रकाश को जब एक


जगह केत्मिन्द्रत कर ष्टिदया जाता है, तो उससे ष्टिकतनी
चम_कारिरक ष्टिक्रयाएँ होती हैं- भोजन बना सकते हैं,
पानी गरम कर सकते हैं, अष्टि° की लपटें ष्टिनकाल सकते
हैं। ऐसे सूय% की 'ूप चाहे जिजतनी भी पड़े , लेष्टिकन इससे
कोई काय% नहीं ष्टिकया जा सकता। हमारे जीव की भी
शष्टिŽ जब अ'ोगधित की तरफ मुड़ती है, संसार के ष्टिव@यों
की तरफ मुड़ती है, तो मनुष्य उस समय जान ही नहीं
पाता ष्टिक मैं हूँ क्या?

एक ऐसे प्राणी की कल्पना कीजिजए जो भूखा और


नंगा है, फुटपाथ पर सो रहा है। बेचारे के पास प्रचुर
कपड़ा भी नहीं है। एक व्यष्टिŽ है , जो कसाईखाने में पड़ा
है। पशुओं की गद% न काट रहा है, माँस खा रहा है, शराब
पी रहा है, सो रहा है। एक व्यष्टिŽ है, जो अफीम खा रहा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 299 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, नशे में पड़ा है। उसे कुछ पता नहीं है। एक व्यष्टिŽ
ऐसा भी है, जो गुफा में बैठा है , आ_मद्र=ा होकर देख
रहा है। संसार उसके सामने स्वप्न के समान है। चाहे
हीरे-मोती के महल हों, उसको मोह नहीं है। वह देखता
है ष्टिक ये हीरे-मोती के महल सब नश्वर हैं। मैं इन्हें लेकर
क्या करूँगा? उसके लिलए स्वग% और वैकुण्ठ के सुख भी
नश्वर हैं। उनसे घृणा करता है। इसका कारण क्या है?
उसने चेतन त_व को देखा है। वह भौधितक पदाथ[ में
फँसने वाला नहीं है। इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@य उसको फँसा नहीं
सकते, क्योंष्टिक वह इनसे परे हो चुका है। वह आ_मदशs
है।

एक बार जिसकन्दर ने अपनी सेना के साथ भारत पर


आक्रमण ष्टिकया। एक महा_मा जी लेटे हुए थे। जिसकन्दर
के सैष्टिनकों ने आकर कहा- "महा_मा जी! उठो! देखते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 300 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं, ष्टिवश्वष्टिवजयी जिसकन्दर आ रहा है। उठकर उसका


अशिभवादन करो।" वह महा_मा जी वैसे ही लेटे रहे।
दस
ू रा सैष्टिनक आया। ष्टिफर इस सैष्टिनक ने वही बोला। इस
तरह बार-बार सैष्टिनक आते रहे, लेष्टिकन वह चुपचाप लेटे
रहे और मुस्कुराते हुए सुनते रहे। इतने में जिसकन्दर आ
गया। जिसकन्दर ने आवाज लगाई- "महा_मा जी! तुम्हें
ष्टिदखाई नहीं पड़ रहा, मैं ष्टिवश्वष्टिवजयी जिसकन्दर हूँ। क्या
तुम उठकर मेरा अशिभवादन नहीं कर सकते , नंग-'ड़ंग
रास्ते में पड़े हो?"

महा_मा जी ने लेटे-लेटे ही उत्तर ष्टिदया-


"जिसकन्दर! तुम काम, क्रो', लोभ, मोह, और मद के
आ'ीन हो। और जिजस काम, क्रो', लोभ, मोह के तुम
अ'ीन हो, मैंने उसको अपने चरणों के नीचे दबा रखा
है, अपने वश में कर रखा है। जब तुम मेरे दासों के भी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 301 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

दास हो, तो तुम्हारा अशिभवादन मैं करूँ ष्टिक मेरा


अशिभवादन तुम करोगे?" जिसकन्दर ने जिसर नीचा कर
लिलया। उस महा_मा के पास कोई कपड़ा नहीं था। उसने
अपनी कमर में मूँज लपेटा हुआ था, और दस
ू री तरफ
जिसकन्दर था जिजसने हीरे-मोती के आभू@ण 'ारण ष्टिकये
हुये थे, ष्टिवश्वष्टिवजयी का तमगा लगाए था, लेष्टिकन क्या
हुआ? एक आ_मदशs के सामने उसको नतमस्तक होना
पड़ा।

भतृ%हरिर ने यही कहा है - "'ैय%म् यस्य ष्टिपता।" 'ैय%


जिजसका ष्टिपता हो, (मा माता और शात्मिन्त प_नी हो ,
ष्टिदशायें जिजसके वस्त्र हों , हाथों का तष्टिकया हो, वृ(ों से
ष्टिगरे हुये फल ही जिजसका भोजन हो, नष्टिदयों का जल ही
जिजसका पेय हो, ऐसे व्यष्टिŽ को संसार में ष्टिकसी का भी
भय नहीं होता। भय कौन करता है ? जिजसको लोके@णा,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 302 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिवत्तेष्णा, और दारे@णा में आसष्टिŽ होती है। वह ही


ष्टिकसी से भयभीत हो सकता है। जिजसको सधिSदानन्द
परमा_मा से प्रेम है, वह ष्टिकसी से क्यों भयभीत हो, चाहे
कोई चक्रवतs सम्राट ही क्यों न हो?

अब प्रश्न यह है ष्टिक परमा_मा को पाने के लिलए कौन


से सा'न का प्रयोग ष्टिकया जाये ? पहले जिजस हठ योग
की बात चल रही थी, उस हठ योग से जिसधिद्धयाँ पायी
जाती हैं और उन जिसधिद्धयों के सहारे मनुष्य तरह -तरह
के चम_कार ष्टिदखाता है। राज योग के ष्टिवभूधितपाद में भी
यही बात कही गई है। यष्टिद आप नाशिभचक्र में ध्यान करते
हैं, तो यहीं समाधि' में बैठे - बैठे आप सम्पूण%
तारामण्डलों को देख सकते हैं।

संयम क्या है? 'ारणा, ध्यान, और समाधि' का


ष्टिमला हुआ रूप संयम कहलाता है। यष्टिद चन्द्रमा में ध्यान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 303 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

(संयम) करते हैं, तो ष्टिप्रयदशs होते हैं। सूय% नाड़ी में


ध्यान करते हैं, तो उसका अलग लाभ है, आप सभी
भुवनों का अनुभव कर सकते है। यष्टिद आपने प्राणायाम
से अपने शरीर को हल्का कर लिलया और रुई जैसी
वस्तुओं में आप ध्यान करेंगे , तो संकल्प से आपका
शरीर भी हल्का हो जायेगा तथा आप प(ी की तरह
आकाश में उड़ने लगेंगे। यह कोई बड़ी बात नहीं है।
लेष्टिकन यष्टिद आप प(ी की तरह आकाश में उड़ने लगे ,
तो दष्टिु नया क्या कहेगी ष्टिक देखो! ष्टिकतने बड़े जिसद्ध पुरू@
जा रहे हैं। श्री प्राणनाथ जी की वाणी में एक चौपाई
आती है-

आगम भाखो मन की परखो, सूझे चौदे भवन।

मृतक को जीष्टिवत करो, पर घर की न होवे गम।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 304 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आगम भाखना अथा%त् भष्टिवष्य की बातें जानना। यह


कोई बड़ी बात नहीं है। जो भष्टिवष्य की बातें जान जाता
है, दष्टिु नया उसे भगवान मानकर पूजती है। लेष्टिकन यह
क्या है? यह योग की प्राथष्टिमक क(ा है। हाँ, दष्टिु नया तो
आप को भगवान मानकर पूजेगी, परमा_मा मानकर
पूजेगी। यह दष्टिु नया ऐसा करती है, अपने स्वाथ% के लिलए।

एक महा_मा जी ने खूब तपस्या की। उनको उनके


इ= देव ने दश% न ष्टिदया और पूछा, क्या चाहते हो? उस
सज्जन ने कहा, आप ऐसा वर दीजिजए ष्टिक जिजसको चाहूँ
जिजन्दा कर दँ।ू उन्होंने कहा, ऐसा तो नहीं हो सकता
क्योंष्टिक प्रकृधित का ष्टिनयम टू ट जायेगा। लेष्टिकन हाँ , आप
अपनी जिजतनी भी उम्र ष्टिकसी व्यष्टिŽ को देंगे , वह व्यष्टिŽ
उतने समय के लिलए जिजन्दा हो जायेगा।

महा_मा जी ने ऐसा करना शुरु कर ष्टिदया। दया

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 305 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आती गई, पता चला ष्टिक कहीं कोई मर गया है और घर


वाले रो रहे हैं, तो अपनी उम्र का कुछ ष्टिहस्सा दे ष्टिदया।
अपनी उम्र का ष्टिहस्सा देते -देते कुछ लोग जिजन्दा तो हो
गये, लेष्टिकन उनकी उम्र समाV हो गई। वे खद
ु मर गये
थे, लेष्टिकन उनकी कुष्टिटया के बाहर मरे हुए लोगों को
लिलए लोग लाइन लगाये खड़े थे। उन्हें बताया गया ष्टिक
महा_मा जी तो खद
ु मर चुके हैं, वह ष्टिकसी को कैसे
जिजन्दा करेंगे? भीड़ कह रही थी ष्टिक हमें यह नहीं सुनना
है, हमें तो जिजन मरे हुये लोगों को हम लाये हुये हैं ,
उनको जिजन्दा करवाना है, हमारा नम्बर आना ही
चाष्टिहए। यह दष्टिु नया का मानजिसक स्तर है।

आपने जिसधिद्ध प्राV कर ली भष्टिवष्य बताने वाली ष्टिक


भष्टिवष्य में क्या होने वाला है। ष्टिकसी के घर चोरी हो गई
और आपने बता ष्टिदया ष्टिक अमुक व्यष्टिŽ चोरी करके

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 306 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सामान ले गया है, तो परिरणाम क्या होगा? उस चोर का


प्रहार ष्टिकस पर होगा? आप पर। जिजसका स्वाथ% पूरा
होगा, वह आपको पूजेगा, और जिजसका स्वाथ% पूरा नहीं
होगा, वह आपको दश्ु मन की तरह मानेगा। इसलिलए योग
का प्रयोग केवल परमा_मा के सा(ा_कार के लिलए होना
चाष्टिहए, अपनी आ_मा के सा(ा_कार के लिलए होना
चाष्टिहए।

यष्टिद आपने भष्टिवष्य की बातें बतानी शुरु कर दीं, तो


संसार योग को चम_कार के रूप में लेने लगेगा और जो
उसका वास्तष्टिवक लक्ष्य है, परमा_मा का ष्टिमलन, जिजसके
बराबर कोई आनन्द नहीं है , जिजसके बराबर कोई लक्ष्य
नहीं है , उससे हम भटक जायेंगे। जैसे कोई व्यष्टिŽ हीरों
को छोड़कर काँच के टु कड़ों को अपनाकर उसी में
आनत्मिन्दत होता है, उसी तरह से आ_म-सा(ा_कार

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 307 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और परमा_मा के सा(ा_कार को छोड़कर संसार में


अपनी इच्छा पूरी कराने के लिलए जिसधिद्ध का प्रदश% न ष्टिकया
जाता है। यह मनीष्टि@यों द्वारा वजिज% त है। महर्मि@ पतञ्जलिल ने
ष्टिवभूधितयों का वण% न करते हुए भी मना कर ष्टिदया ष्टिक
जिजन्हें आ_म -सा(ा_कार करना हो, परमा_मा का
सा(ा_कार करना हो, वह इन ष्टिवभूधितयों के चक्कर में न
पड़ें।

श्री प्राणनाथ जी की वाणी का कथन है-

आगम भाखो

भष्टिवष्य की बातें जान लो। भष्टिवष्य की बातें जानने


के लिलए क्या ष्टिकया जाता है? जिजसने अपनी सु@ुम्ना
(आन्तरिरक) प्रवाष्टिहत कर ली, वह ष्टित्रकालदशs हो जाता
है। भूत, भष्टिवष्य, वत% मान- तीनों की बातें जान जाता है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 308 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

यह कुछ भी कष्टिठन नहीं है। योग में समाधि' द्वारा जब


आप चौथी भूष्टिमका में प्रवेश करेंगे , तो दसवें द्वार में
आपकी सु@ुम्ना प्रवाष्टिहत हो जाएगी। आप संकल्प मात्र
से सब कुछ जान सकते हैं ष्टिक अतीत में क्या हुआ था,
वत% मान में क्या हो रहा है और भष्टिवष्य में क्या होगा।

मन की परखो,

दस
ू रों के मन की बातों को जान लेना। इसको एक
दृ=ान्त से समजिझए। यहाँ एक रेधिडयो स्टेशन है और पूरे
देश में एक लाख रेधिडयो बज रहे हैं। यहाँ से जो कु छ
भेजा जाता है, बोला जाता है, पूरे देश के रेधिडयो उसको
ग्रहण कर लेते हैं। यहाँ तक ष्टिक लन्दन में भी जो बोला
जाता है, पूरी दष्टिु नया के रेधिडयो में वह आवाज आती है ,
यह कैसे सम्भव है? रेधिडयो से रष्टिहत लोगों को सुनाई
नहीं देता। जहाँ रेधिडयो बज रहा होता है , उसकी सुई

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 309 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मीटर पर जब लगायी जाती है, तो उस रेधिडयो से


आवाज आने लगती है। यष्टिद आज इतना चम_कार है ,
तो जो अपने मन को जीत लेता है और उसे ष्टिनर्मिवकार
अवस्था में पहुँचा देता है, वह संकल्प मात्र से दस
ू रों की
ष्टिवचार तरंगों को पकड़ सकता है। जिजसका हृदय
ष्टिनर्मिवकार होता है, सम्प्रज्ञात योग से जिजसका मन ष्टिवचारों
से रष्टिहत हो चुका है, वह संकल्प मात्र से हजार
ष्टिकलोमीटर दरू बैठे हुए ष्टिकसी भी व्यष्टिŽ के मन की बात
को जान जाता है। इसको कहते हैं- दस
ू रों के मन की
बात को जान जाना।

सूझे चौदे भवन।

समाधि' में बैठकर योगी चौदह लोक के दृश्यों को


देख सकता है। यहाँ बैठे-बैठे योगी देख सकता है ष्टिक
रूस के अमुक शहर की अमुक सड़क पर कौन सी गाड़ी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 310 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकतने नम्बर की जा रही है, जबष्टिक शरीर उसका कहाँ


है, ष्टिहन्दस्ु तान में। कहाँ क्या हो रहा है? सब कुछ देख
सकता है। सारे ब्रह्माण्ड के दृश्यों को देख सकता है।
जैसे अभी मैंने कहा-

नाशिभचक्रे कायव्यूहज्ञानम्। योग दश% न ३/२९

ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, उसका सूक्ष्म रूप इस शरीर


में है। जिजस प्रकार नाशिभ चक्र में संयम करके सम्पूण%
शरीर का ज्ञान प्राV ष्टिकया जा सकता है , उसी तरह से
शरीर में एक-एक ष्टिबन्द ु पर ध्यान करके, एक-एक नाड़ी
में ध्यान करके हम सम्पूण% ब्रह्माण्ड के ष्टिव@य में जान
सकते हैं।

भुवनज्ञानं सूय” संयमात्। योग दश% न ३/२६

सूय% में संयम करके सारे ब्रह्माण्ड का दृश्य देखा जा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 311 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकता है।

मू'%ज्योधितष्टि@ जिसद्धदश% नम्। योग दश% न ३/३२

प्र_येक व्यष्टिŽ अपने इ= की भष्टिŽ करता है। यष्टिद


कोई राम का भŽ है, और मू'ा% में उसने राम के धिचत्र का
संकल्प ष्टिकया, तथा राम का संयम ('ारणा, ध्यान)
करने लगा, तो राम का दश% न कर सकता है। लेष्टिकन
इसका यह मतलब नहीं ष्टिक उसने सव% शष्टिŽमान , सकल
गुण ष्टिन'ान, सधिSदानन्द अ(रातीत परमा_मा का दश% न
कर लिलया है। हनुमान जी का दश% न हो सकता है,
भगवान शिशव का दश% न हो सकता है, योगेश्वर श्री कृष्ण
का दश% न हो सकता है। जिजतने ऋष्टि@ -मुष्टिन, जिसद्ध-
महापुरु@ हैं, मू'ा% में समाधि'स्थ होने पर उनको प्र_य(
देखा जा सकता है, लेष्टिकन ये परमा_मा नहीं हैं। यहाँ ही
बड़े-बड़े योगी रुक जाते हैं, सोचते हैं ष्टिक हमने जीवन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 312 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

के लक्ष्य को पा लिलया। जिसधिद्ध-ष्टिवभूधितयों में जो फँस


जाते हैं, वे अध्या_म के सSे पथ से भटके हुए माने जाते
हैं।

मृतक को जीष्टिवत करो, पर घर की न होवे गम।

मरे हुए को जिजन्दा करने के लिलए क्या करना पड़ता


है? दो ही रास्ते हैं- या तो अपनी उम्र दीजिजए, या अपने
संकल्प बल से उस जीव को पुनः उस शरीर में प्रवेश
कराइये। वैसे यह प्रकृधित के ष्टिनयमों का उल्लंघन है। ऐसा
प्रायः योगी नहीं करते। कदाधिचत् कभी -कभी ष्टिवशे@
परिरत्मिस्थधितयों में उनको ऐसा करना पड़ जाता है। लेष्टिकन
यष्टिद आप ष्टिकसी मरे हुए को जिजन्दा कर देंगे , तो दष्टिु नया
क्या मानेगी ष्टिक आप सा(ात् परमा_मा हैं। आप
ष्टिकसको-ष्टिकसको जिजन्दा करेंगे? एक को जिजन्दा करेंगे,
तो दस
ू रा कहेगा ष्टिक आपने उसको जिजन्दा ष्टिकया, आप

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 313 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मेरे घरवाले को जिजन्दा क्यों नहीं करेंगे ? आप उसको


जिजन्दा नहीं करेंगे , तो वह आपका वैरी बन जाएगा। यह
माया का संसार है।

एक पुस्तक है "योगी की आ_मकथा", जो स्वामी


योगानन्द जी ने लिलखी है। स्वामी योगानन्द जी लाष्टिहड़ी
महाशय जी के शिशष्य यŽ
ु े श्वर जी के शिशष्य थे, और
लाष्टिहड़ी महाशय जी के गुरु थे महावतार बाबा। महावतार
बाबा के जीवन से जुड़ी हुई एक सSी घटना है। वे
ष्टिहमालय में ष्टिवचरण कर रहे थे। योगबल से वे आज भी
यव
ु ावस्था में हैं। उनके पास एक व्यष्टिŽ आकर बोला -
"महाराज जी! मुझे दी(ा दे दीजिजए।" महावतार बाबा ने
कहा- "नहीं! तू इसके योग्य नहीं है , मैं तुझे दी(ा नहीं
दँगू ा।" उसने कहा- "महाराज जी! यष्टिद आप मुझे अपना
शिशष्य नहीं बनायेंगे , तो मैं पहाड़ी से कूद जाऊँगा।" तो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 314 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उन्होंने भी कह ष्टिदया- "जा, कूद जा, मैं तुझे दी(ा नहीं


देता।" वह श्रद्धा से पूण% था। तुरन्त उसने पहाड़ी से
छलांग लगा दी। शरीर टु कड़े-टु कड़े हो गया।

महावतार बाबा ने शिशष्यों से कहा- "यह तो पागल


है, इसने तो अनथ% कर ष्टिदया। जाकर इसकी सारी
हधि·याँ इकट्ठी कर लो और जैसी थीं वैसे ही सटा दो।"
शिशष्यों ने सारी हधि·याँ सटा दीं। ष्टिफर महावतार बाबा ने
कहा- "उठ खड़ा हो जा, क्यों सो रहा है। " और वह
उठकर खड़ा हो गया और ष्टिफर दी(ा दे दी। यह तो
ष्टिहमालय की गुफाओं की गोपनीय बात है।

यष्टिद जन -सामान्य में ऐसा कर ष्टिदया जाये , तो


दष्टिु नया कहेगी ष्टिक परमा_मा को तो हमने नहीं देखा ,
हमारे परमा_मा तो अब यही हैं। वह लाख समझाएँ गे ष्टिक
मैं परमा_मा का भŽ हूँ , मेरी भष्टिŽ मत करो , उस

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 315 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा की भष्टिŽ करो। दष्टिु नया कहेगी ष्टिक नहीं , हमें


परमा_मा से लेना-देना नहीं है , हमें तो आपसे लेना-
देना है। हमारे घर में भी यष्टिद कोई मर जाये , तो आप
उसे दोबारा जिजन्दा कर दीजिजएगा। इसी स्वाथ% के लिलए
दष्टिु नया पीछे लगेगी, न ष्टिक परमा_मा को जानने के लिलए।
परमा_मा बहुत कम लोगों को ष्टिप्रय होता है। दष्टिु नया माया
के अन्'कार में भटक गई है। श्री प्राणनाथ जी की वाणी
में एक कीत% न है-

रे हो दष्टिु नयां बावरी, खोवत जनम गंवार।

मदमाती माया की छाकी, सुनत नाहीं पुकार।।

यह भी एक प्रकार की माया है। हम अपने संकल्प-


बल से प्रकृधित की शष्टिŽयों को वश में कर लेते हैं और
उसको उल्टा करके ष्टिदखाते हैं। हम क्या कहते हैं ष्टिक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 316 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हमने चम_कार ष्टिदखा ष्टिदया। उस सव% शष्टिŽमान परमा_मा


के चम_कार को देलिखए। एक हवाई जहाज को चलाने के
लिलए ष्टिकतने ई'
ं न की आवश्यकता पड़ती है। परमा_मा के
बनाये हुए ग्रह-न(त्र आकाश में आक@% ण शष्टिŽ से अपने
आप घूम रहे हैं, ष्टिबना ष्टिकसी तेल के। यह कपड़े का टेन्ट
लगा है। थम्भ हटा दीजिजए, तो यह कपड़ा भी ठहरा हुआ
नहीं रह सकता।

सूय% को आकाश में ष्टिकसने थामा है ? पृथ्वी को


ष्टिकसने थामा है? चन्द्रमा को ष्टिकसने थामा है? आकाश
में असंख्य न(त्र ष्टिबना ष्टिकसी थम्भे के घूम रहे हैं। हम तो
कपड़े का एक टेन्ट भी खड़ा नहीं कर सकते। इससे बड़ा
चम_कार और क्या होगा?

असंख्य प्राणी, असंख्य वनस्पधितयाँ, असंख्य


प्रकार के रूप-रंग सव% शष्टिŽमान की सत्ता में ष्टिक्रयाशील

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 317 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हैं। हम उसकी सत्ता को चुनौती देकर, थोड़े से चम_कार


ष्टिदखाकर, गौरवात्मिन्वत हो जाते हैं ष्टिक देखो भाई ! मैं तो
आकाश में उड़ लेता हूँ, मैं तो मुद” को जिजन्दा कर सकता
हूँ, मैं तो तुम्हारे मन की बात जान सकता हूँ। यह कौन
सी बड़ी उपलत्मिब्' है?

एक बार स्वामी रामतीथ% हरिरद्वार की तरफ घूम रहे


थे, ऋष्टि@केश की पहाष्टिड़यों में। उन्हें नदी के उस पार
जाना था। एक महा_मा ष्टिमले। उन्होंने देखा ष्टिक रामतीथ%
जी नौका में जाने के लिलए प्रती(ा कर रहे हैं। महा_मा जी
रामतीथ% जी को जानते थे , कहने लगे- "रामतीथ% ! मैंने
तो तुम्हारी बहुत प्रजिसधिद्ध सुनी थी। तुम वेदान्त के इतने
बड़े ष्टिवद्वान हो और नौका में जाने के लिलए बाट देख रहे
हो। क्या तुम खड़ाऊँ पहनकर ऐसे ही गंगा जी को पार
नहीं कर सकते। देखो, मैं तो खड़ाऊँ पहनकर इस गंगा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 318 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

को पार कर जाता हूँ।"

स्वामी रामतीथ% हँसने लगे , बोले- "महा_मा जी!


इस त्मिस्थधित को पाने के लिलए आपको ष्टिकतने व@% सा'ना
करनी पड़ी थी?" उन्होंने कहा- "बारह व@% ।" स्वामी
रामतीथ% बोले - "इससे अच्छा तो मैं हूँ और आपसे
अच्छा तो यह सा'ारण गृहस्थ आदमी है, जो खेती
करता है, व्यवसाय करता है, प_नी और बSों का
पालन-पो@ण करता है। दो पैसे नाव वाले को देगा और
नाव में बैठकर गंगा को पार कर लेगा। आपकी बारह
साल की तपस्या का मूल्य केवल दो पैसे है, क्योंष्टिक
आप इससे दष्टिु नया की नदी तो पार कर सकते हैं, लेष्टिकन
भवसागर को पार नहीं कर सकते। " महा_मा का जिसर
नीचा हो गया। लेष्टिकन जब दष्टिु नया देखेगी ष्टिक महा_मा जी
खड़ाऊँ पहनकर नदी पार कर रहे हैं, तो क्या सोचेगी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 319 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक ष्टिकतने जिसद्ध महापुरु@ हैं। उपष्टिन@द् कहते हैं-

श्रवणाय अष्टिप बहुशिभय‘ न लभ्यो, श्रृण्वन्तो अष्टिप बहवो य न ष्टिवदःु ।

कठोपष्टिन@द् ष्टिद्वतीय वल्ली श्लोक ७

पहले तो यह ब्रह्मज्ञान सुनने को नहीं ष्टिमलता।सुनते


हुये भी इसको बहुत नहीं जानते। इसको कहने वाला
और सुनने वाला कोई दल
ु % भ ही होता है। अभी भागवत
की कथा हो जाये, रास-ष्टिवलास से सम्बत्मिन्'त कुछ
भजन प्रदर्णिशत ष्टिकये जायें, दो-चार लोग खड़े होकर
नाचने लग जायें, तो सारी भीड़ खड़ी होकर नाचने
लगेगी और यहाँ बैठने की भी जगह नहीं ष्टिमलेगी। लेष्टिकन
यह पता नहीं ष्टिक परमा_मा कौन है ? परमा_मा कहाँ है?
परमा_मा कैसा है? यह सुनने वालों की संख्या बहुत कम
है क्योंष्टिक यह संसार बर्मिहमुखी है। कोई ष्टिवरला ही होता

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 320 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

है, जो अन्तः में प्रवेश करना चाहता है और अपने


स्वरूप को जानना चाहता है।

अपनी १८ व@% की आयु में जिजनसे मैंने योग ष्टिवद्या


सीखी थी, उन्होंने एक बालक की सSी घटना बताई।
उस बालक ने उन स्वामी जी से योग की प्राथष्टिमक क(ा
सीख ली थी, नाजिसका के अग्र भाग पर देखना। देखते -
देखते उसके मन में एकाग्रता प्राV हो गई और उसको
जिसधिद्ध ष्टिमल गई। वह भष्टिवष्य की सारी बातें बताने लगा।
अब वह योष्टिगराज के नाम से प्रजिसद्ध हो गया ष्टिक यह
योष्टिगराज सारी बात बता देते हैं। जनता इतनी इकट्ठी
होने लगी ष्टिक फुटकर रुपये ष्टिगनने वाला कोई नहीं
ष्टिमलता था। लाखों रुपये बरसने लगे। उसके नाम से
बड़ी-बड़ी 'म% शालाएँ बनने लगीं। कुछ ष्टिदनों के पश्चात्
वह अपने गुरुदेव से ष्टिमला। उसने गुरुदेव को प्रणाम

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 321 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिकया, तो उन्होंने पूछा, कौन? वह बोला, गुरूदेव! मैं


आपका वही शिशष्य हूँ, आप मुझे नहीं पहचानते हैं?

ष्टिफर उसने अपनी दद% भरी कहानी सुनायी- "मेरी


जिसधिद्ध के कारण लाखों लोग मेरे पास आये। उन्होंने बहु त
सारा चढ़ावा चढ़ाया, लेष्टिकन मुझे गाँजा पीने की बुरी लत
लग गई। जब मैं गाँजा पीने लगा, तो मैंने सा'ना छोड़
दी, और सा'ना छोड़ने से मेरी जिसधिद्ध चली गई। जब मैंने
भष्टिवष्य की बातें बताना बन्द कर ष्टिदया , तो मेरे पास
चढ़ावा आना भी बन्द हो गया। फलतः पहले मेरे पास
लाखों रुपये रहते थे , ष्टिकन्तु अब मुझे कोई शिभ(ा भी
देना पसन्द नहीं करता। यह मेरी कहानी है। " यह माया
का संसार है। इसलिलए जिसधिद्ध-ष्टिवभूधितयों को कभी भी
अत्मिन्तम लक्ष्य नहीं समझना चाष्टिहए। मनुष्य को चाष्टिहए
ष्टिक वह अपने अहंकार का परिर_याग करे।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 322 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

समाधि'जिसधिद्धः ईश्वर प्रशिण'ानात्। योग दश% न २/४५

समाधि' में सफलता तभी प्राV हो सकती है , जब


परमा_मा पर सव% स्व समप% ण कर ष्टिदया जाये। ष्टिक्रया योग
का प्रचलन काफी चलता रहा है, आज भी है। चाहे
लाष्टिहड़ी महाशय हों, चाहे महावतार बाबा हों, सभी इसी
ष्टिक्रया योग के अनुयायी कहे जा सकते हैं।

तपः स्वाध्याय ईश्वर प्रशिण'ान ष्टिक्रयायोगः।

यह ष्टिक्रयायोग है। "तप" अथा%त् मन को इत्मिन्द्रयों के


ष्टिव@यों में न जाने देना ही वास्तष्टिवक तप है। "स्वाध्याय"
अथा%त् 'म% ग्रन्थों का स्वाध्याय और आ_म-धिचन्तन ही
जीवन को उ_कृ= माग% पर ले जाता है। जिजन्होंने समप% ण
की भा@ा सीख ली ष्टिक हे परमा_मा, केवल तू है, मेरा
कुछ भी नहीं है। मैं के आत्मिस्त_व को जिजसने हटा ष्टिदया ,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 323 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

उसने समाधि' के परम लक्ष्य को प्राV कर लिलया। यही मैं


सबसे बड़ा बन्'न है। ज्ञानी को अपने ज्ञान की "मैं",
तपस्वी को अपने तप की "मैं", तथा योगी को अपने
योग की "मैं" खा जाती है। जो शरीर के बन्'नों से परे
हो गया ष्टिक मेरा यह शरीर है ही नहीं, न मैं हूँ और न मेरा
कुछ है। जिजसने इस तथ्य को आ_मसात् कर लिलया, वही
व्यष्टिŽ समाधि' का अधि'कारी होता है और वही उस
परमत_व तक पहुँच पाता है।

समाधि' कई तरह की होती है। योग दश% न में भी दो


तरह की समाधि' बताई गई है - सम्प्रज्ञात और
असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात के चार भेद होते हैं- ष्टिवचार, ष्टिवतक%,


आनन्द, और अत्मिस्मता। आप समाधि' लगाते हैं। ऊँची-
ऊँची समाधि'याँ लगाकर यष्टिद आप अत्मिस्मता तक भी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 324 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

पहुँचते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं ष्टिक आपने


परमा_मा को पा लिलया। हर समाधि' के दो-दो भेद हैं-
सष्टिवचार और ष्टिनर्मिवचार। इसी क्रम में ष्टिवतक% आष्टिद को भी
समझना चाष्टिहए। सम्प्रज्ञात समाधि' को सबीज समाधि'
भी कहते हैं, जिजसमें प्रकृधित का अंश आपके साथ जुड़ा
रहेगा। यहाँ से शुरु होती है- शून्यवाद की सा'ना। आप
समाधि' में होते-होते शून्य स्वरूप हो गये।

जो ष्टिवपश्यना योग की प्रष्टिक्रया है, वह आपको


शून्यवाद तक ले जाएगी। ष्टिवपश्यना में क्या होता है ?
इसका वास्तष्टिवक अथ% है, ष्टिवशे@ ज्ञान दृष्टि= से देखना, मैं
कौन हूँ? स्वांसों के सहारे यह सा'ना की जाती है। मन
को ष्टिवचारों से शून्य ष्टिकया जाता है, ष्टिफर शून्य समाधि' में
चेतना त्मिस्थत हो जाती है। योग का परम लक्ष्य यही मान
लिलया जाता है, लेष्टिकन यह भी भूल है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 325 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सम्प्रज्ञात समाधि' (सबीज समाधि') से जो संस्कार


पैदा होते हैं, उससे ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राV होती है।
"ऋतम्भरा" यानी यथाथ% स_य को ग्रहण करने वाली
बुधिद्ध। जब तक हमारे अन्दर रजोगुण और तमोगुण का
संस्कार है, तब तक हमारे हृदय में शुद्ध ज्ञान का प्रकाश
नहीं हो सकता। शुद्ध-सात्मि_वक बुधिद्ध जो यथाथ% स_य को
ग्रहण कर सकती है, वह ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है, जो
समाधि' से प्राV होती है और इससे जो संस्कार प्राV होते
हैं, उन्हें कहते हैं प्रसंख्यान, अथा%त् स्वयं को शरीर और
संसार से पृथक् अनुभव करना। इससे भी आगे गहराई में
जब आप जायेंगे, तो एक अवस्था प्राV होगी वैराग्य की।
ष्टिकन्तु यह सब ष्टिमथ्यामयी है, यह संसार कुछ भी नहीं
है, और उस अवस्था में आपकी चेतना प्रकृधित को अपने
से अलग रूप में देखती है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 326 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मैंने कल कहा था ष्टिक आकाश का भी रूप है ,


अहंकार का भी रूप है, महत्त_व का भी रूप है, प्रकृधित
का भी रूप है, लेष्टिकन ये आँ खों से ष्टिदखाई नहीं दे
सकते। योगी समाधि' अवस्था में इन त_वों का
सा(ा_कार करता है। वह मन को देखता है, धिचत्त को
देखता है, बुधिद्ध को देखता है। बुधिद्ध भी प्रकाशमयी
ष्टिदखाई देगी। तमोगुणी बुधिद्ध कालिलमा से भरी हुई ष्टिदखाई
देगी, रजोगुणी बुधिद्ध लालिलमा से भरी हुई ष्टिदखाई देगी,
शुद्ध सात्मि_वक बुधिद्ध चमकते हुये तारे की तरह ष्टिदखाई
देगी। बुधिद्ध एक द्रव्य है , मन एक द्रव्य है। समाधि'
अवस्था में इनका दश% न होता है। जिजन्होंने इन गहन
रहस्यों को नहीं समझा, जब उन्हें प्रकाश ष्टिदखाई ष्टिदया,
तो समझ लिलया की हमने तो परमा_मा को देख लिलया है।
यह सबसे बड़ी भ्रात्मिन्त है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 327 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

दशवें द्वार में जीव का प्रकाश ष्टिदखाई देता है।


सोलह सूय[ के तेज के बराबर यष्टिद तेज ष्टिदखाई देता है ,
तो यह न समझ लीजिजए ष्टिक हमने परमा_मा को देख
लिलया है, क्योंष्टिक यह तो जीव का प्रकाश है। उस
सव% शष्टिŽमान सधिSदानन्द परमा_मा का स्वरूप तो अनन्त
तेज वाला है।

उस सव% शष्टिŽमान सधिSदानन्द परमा_मा को पाने के


लिलए ष्टिवहंगम योग की प्रष्टिक्रया अपनाई जाती है।
कम% काण्ड के जो भी सा'न हैं, चाहे आप माला का जप
कीजिजए, पूजा-पाठ कीजिजए, हवन कीजिजए, यह सब कुछ
मन और इत्मिन्द्रयों द्वारा होने वाले हैं। ध्यान की प्रष्टिक्रया में
अलग-अलग प्रकार की जिसधिद्धयाँ प्राV होती हैं। शून्य
समाधि' वास्तष्टिवक समाधि' नहीं है , क्योंष्टिक यह जड़
समाधि' है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 328 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

राजा रणजीत सिंसह के जमाने में एक हठयोगी थे।


उन्होंने जमीन में गड्ढा खद
ु वाया और अपने शरीर को
बक्से में बन्द कर ष्टिदया। दशवें द्वार में अपनी प्राणवाय ु
को चढ़ा ष्टिदया। उस अवस्था में दशवें द्वार में प्राण -
अपान त्मिस्थत हो जाते हैं, तो शरीर की सारी ष्टिक्रयाएँ बन्द
हो जाती हैं। न भूख लगेगी, न प्यास लगेगी, न श्वाँस
लेंगे, न श्वाँस छोड़ेंगे। और उन्होंने अपने को उस बक्से
में बन्द करवाकर ष्टिमट्टी से ढकवा ष्टिदया। ऊपर चने की
खेती करवा दी, और रणजीत सिंसह से कह ष्टिदया ष्टिक जब
चने की फसल कट जाये तब खोदकर मुझे ष्टिनकालकर
मेरे शरीर की मालिलश करवा देना, मैं ष्टिफर चेतन अवस्था
में आ जाऊँगा। ऐसा ही ष्टिकया गया। चने की फसल
काटी गई और उस योगी को ष्टिनकाला गया। चारों तरफ
जय-जयकार हुई ष्टिक ये ष्टिकतने महान योगी हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 329 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तीन महीने गड्ढे के अन्दर बन्द रह गये। न खाया, न


पीया, न ही श्वाँस ली। दष्टिु नया ने क्या समझा ष्टिक योगेश्वर
ने परमा_मा का दश% न जरुर ष्टिकया होगा। लेष्टिकन ब्रजोली
ष्टिक्रया जिसद्ध करने के लिलए , कुछ ष्टिदनों के बाद , ष्टिकसी
कँु वारी कन्या पर उनकी बुरी दृष्टि= हो गई और उसका
अपहरण करके ले गये, चारों तरफ गन्दा मुँह हो गया।
यानी तीन महीने जमीन के अन्दर जड़ समाधि' लगाने पर
भी उनको बुद्ध_व प्राV नहीं हुआ , ज्ञान का प्रकाश नहीं
हुआ ष्टिक मैं कर क्या रहा हूँ ? इसका ता_पय% क्या है ?
जड़ समाधि' वैसे ही है जैसे आप ष्टिनद्रा में सो जाते हैं।
सामान्य जनता तो समझेगी ष्टिक देखो ये ५ ष्टिदन से
समाधि' में हैं और कुछ खाया -ष्टिपया भी नहीं है , ष्टिन_य
ष्टिक्रया भी नहीं की है। इनसे बड़ा योष्टिगराज कौन होगा?
लेष्टिकन इससे ष्टिमलने वाला कुछ नहीं है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 330 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आगम भाखो मन की परखो, सूझे चौदे भवन।

मृतक की जीष्टिवत करो, पर घर की न होवे गम।।

ष्टिकरंतन १४/१०

भले ही कोई भष्टिवष्य की तथा दस


ू रों के मन की
सारी बातें जान जाये , सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान रखने लगे ,
एवं मरे हुए को भी जीष्टिवत करने लगे, ष्टिकन्तु यह
आवश्यक नहीं ष्टिक उसे यह पहचान हो गयी हो ष्टिक मैं
कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? इस शरीर और संसार को
छोड़ने के पश्चात् मुझे जाना कहाँ है?

योग दश% न में परमा_मा के सा(ा_कार का कहीं पर


कोई सूत्र नहीं है। यह कहा गया है ष्टिक जब ष्टिनबsज
समाधि' की प्राष्टिV होती है , तो धिचत्त के सारे संस्कार दग्'
हो जाते हैं। जैसे चना लीजिजए और उसे गरम बालू में भुन

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 331 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

दीजिजए, त_पश्चात् उसको ष्टिमट्टी में दबा दीजिजए, तो क्या


अँकुर ष्टिनकलेगा? कभी नहीं, क्योंष्टिक उसमें चेतना नहीं
रह गई है। वैसे ही धिचत्त के संस्कारों के कारण ही जीव
का पुनज% न्म होता है। धिचत्त में जन्म -जन्मातरों की जो
वासना है, वही वासना उस जीव को दस
ू री योष्टिन में
प्रवेश करने के लिलए मजबूर करती है।

जैसे ष्टिकसी मनुष्य में माँस खाने की तृष्णा है और


मरने पर भी यष्टिद वह तृष्णा बनी रही , तो वह तृष्णा
उसको शेर, गीदड़, या ष्टिकसी न ष्टिकसी माँसाहारी प्राणी
की योष्टिन में ले जायेगी , जहाँ से वह अपनी वासना की
तृष्टिV कर सके। लेष्टिकन यष्टिद धिचत्त में संस्कार ही नहीं हैं ,
भोग के सारे संस्कार समाV हो गये हैं , तो परिरणाम क्या
होगा? उसका जन्म नहीं हो पायेगा।

योग दश% न यहाँ तक ले जाता है। आपको प्रकृधित से

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 332 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परे कर देगा। याष्टिन ष्टिनबsज समाधि' में आपको उस


मत्मिन्जल पर ले जाएगी, जहाँ पर स्वग% के सुख हों, एक
या दो नहीं अष्टिपतु करोड़ों -अरबों स्वग% के सुख हों ,
वैकुण्ठ के सुख हों, ष्टिफर भी आपका मोह उसमें नहीं
होगा। आपकी आसष्टिŽ उन सुखों में नहीं रहेगी। इसको
कहते हैं कैवल्य अवस्था, यानी प्रकृधित से परे की वह
अवस्था जिजसमें चेतना को कभी कोई भी भोग की
आसष्टिŽ मोष्टिहत नहीं कर सकती। यह परमा_मा दश% न की
अवस्था नहीं है। आपने धिचत्त को ष्टिनर्मिवकार तो कर
लिलया। जब तक महाप्रलय नहीं होगा, तब तक आपका
पुनज% न्म नहीं होगा। आप ब्रह्माण्ड में इच्छानुसार ष्टिवचरण
कर सकते हैं, लेष्टिकन परमा_मा का दश% न यह भी नहीं
हुआ।

गुहां प्रष्टिव=ौ आ_मनौ ष्टिह तत् दश% नात्।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 333 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

वेदान्त दश% न १/२/११

परमगुहा में उस ब्रह्म का दश% न होता है।

वेनः तत् पश्यत् परमं गुहां यद् यत्र ष्टिवश्वं भव_येकनीडम्।

त्रीशिण पदाष्टिन ष्टिनष्टिहता गुहास्य यस्ताष्टिन वेद स ष्टिपतुः ष्टिपतासत।

अथव% वेद २/१/१,२

उस परमगुहा में उस अष्टिवनाशी ब्रह्म का दश% न होता


है, जिजसकी कृपा-अमृत का रसपान उस चेतना को
करने के लिलए ष्टिमलता है। कैवल्य में यह अनुभव होता है
ष्टिक मैं हूँ। कैवल्य की अवस्था में जब आप पहुँच जायेंगे ,
तो यह भान रहेगा ष्टिक मैं हूँ , लेष्टिकन जब तक यह "मैं"
नहीं ष्टिमटेगी , तब तक आपको परमा_मा के दश% न का
अधि'कार भी नहीं ष्टिमल सकता। एक बीज से अँकुर तब
तक नहीं ष्टिनकलता है, जब तक उसको ष्टिमट्टी में न ष्टिमला

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 334 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिदया जाये। कोई भी बीज यष्टिद पृथ्वी के ऊपर रहेगा, तो


सूख जायेगा। वैसे ही कोई ष्टिकतना ही बड़ा योगी हो,
ष्टिकतना ही बड़ा तपस्वी हो, जब तक उसके अन्दर से
अहम् समाV नहीं होगा, तब तक उसे परमा_मा के दश% न
का अधि'कार प्राV नहीं होगा और वह एकादश द्वार में
प्रवेश नहीं कर पायेगा।

सन्त मत में एक बहुत अच्छी बात कही जाती है।


सन्त कबीर जी ने एक दोहे में सारा योग दश% न लिलख
ष्टिदया। उसी तरह से वेद ने एक मन्त्र में सारा योग दश% न
लिलख ष्टिदया। लेष्टिकन यह त_वज्ञान मनीष्टि@यों ने शिछपाए
रखा ष्टिक जो पात्र हो उसी को यह ष्टिदया जाये। कुपात्र
व्यष्टिŽ इसका दरु
ु पयोग कर सकता है। कबीर जी ने क्या
कहा है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 335 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नव द्वारा संसार का, दसवा योगी तार।

एकादश लिखड़की खल
ु ी, अग्र महल सुख सार।।

इसमें सारा योग दश% न आ गया। संसार में शरीर में


नौ द्वार हैं। दसवें द्वार तक योगी की पहुँच होती है। योगी
जानता है ष्टिक मेरा दसवाँ द्वार क्या है ? सामान्य प्राणी
नहीं जानता। लेष्टिकन यष्टिद वह एकादश द्वार में पहुँच गया,
तो उसको ब्रह्म का दश% न हो जाएगा। यह एकादश द्वार
क्या है? इसको कहते हैं परमगुहा। इस अवस्था में
प्रकृधित का कोई भी नामोष्टिनशान नहीं होता।

दसवें द्वार में समाधि'स्थ होने वाला योगी अपनी


सु@ुम्ना को प्रवाष्टिहत करके ष्टित्रकालदशs हो सकता है। वह
शरीर से बाहर ष्टिनकलकर ब्रह्माण्ड में एक ष्टिमनट में
अमेरिरका जैसे ष्टिकतने देशों में जा सकता है और वापस

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 336 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

आकर शरीर में पुनः प्रष्टिव= हो जाएगा। सूक्ष्म शरीर से


सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर सकता है। ष्टिकसी भी न(त्र
पर जा सकता है। दष्टिु नया में योष्टिगराज बनकर पूजा जा
सकता है। सब कुछ हो सकता है, लेष्टिकन ब्रह्म का दश% न
तब भी प्राV नहीं होगा , और गहराई में पहुँचता है तो
कैवल्य की अवस्था में पहुँच जाएगा। वह ष्टिनर्मिवकार बना
रहेगा। महाप्रलय तक उसका जन्म नहीं होगा। वह
योगेश्वर के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता रहेगा ,
लेष्टिकन प्रकृधित से परे वह नहीं जा पायेगा। वेद ने कहा
है-

पृष्ठात् पृशिथव्या अहम् अन्तरिर(म् आरूहम् अन्तरिर(ात् ष्टिदवं आरूहम्।

ष्टिदवो नाकस्य पृष्ठात् स्वः ज्योधितगा%म् अहम्।।

अथव% वेद ४/१४/३

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 337 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मैं पृथ्वी से अन्तरिर( को जाऊँ , अन्तरिर( से


द्युलोक को जाऊँ, और द्युलोक से मैं उस आनन्दमयी
ज्योधित को प्राV हो जाऊँ। इसमें सारा रहस्य दे ष्टिदया है।
यह द्युलोक क्या है? दसवाँ द्वार ही द्युलोक है, और
इससे परे है एकादश द्वार जिजसको कठोपष्टिन@द् में सी'े
शब्दों में कहा है-

पूरम् एकादश द्वारम् अजस्यावक्र चेतसः।

अनुष्ठाय न शोचधित ष्टिवमुŽश्च ष्टिवमुच्यते।।

कठोपष्टिन@द् पंचमी वल्ली श्लोक १

जिजसको सन्त वाणी में एकादश द्वार कहा गया है ,


उपष्टिन@द् में भी उसको एकादश द्वार कहा है। लेष्टिकन इस
रहस्य को जानने वाले कोई ष्टिवरले होते हैं, जिजन पर
सधिSदानन्द परमा_मा की कृपा होती है, केवल वे ही

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 338 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

समझ पाते हैं। शे@ संसार अज्ञानतापूण% जिसधिद्धयों के


प्रदश% न में ही लग जाते हैं। ष्टिकतने जन्म जिसधिद्धयों को प्राV
करके संसार को वशीभूत करने में लग जाते हैं , पर
वैराग्य प्राV नहीं होता। ष्टिकन्तु वैराग्य क्या है ? सारा
संसार हमारे चरणों में आ जाये , ष्टिफर भी हमें अशिभमान न
हो ष्टिक मैं ष्टिकतना बड़ा योगी हूँ।

आप ष्टिकसी योगी, महा_मा के पास जाइये। आप


उसे केवल प्रणाम न कीजिजए, ष्टिफर देलिखए क्या होगा?
उनको बुरा लगेगा ष्टिक तुमने मुझे प्रणाम नहीं ष्टिकया। तुझे
मालूम नहीं ष्टिक मैं ष्टिकतना बड़ा महा_मा हूँ ? आप ष्टिकसी
ब्रह्मज्ञानी के पास जाइये। आप दस गालिलयाँ दीजिजए,
उसको दःु ख नहीं होगा। आप उसके चरणों में लेट
जाइए, उसको तब भी खश
ु ी नहीं होगी ष्टिक यह मेरे चरणों
में सा=ांग लेटा है, क्योंष्टिक वह तो आ_मदशs है। वह देख

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 339 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रहा है ष्टिक यह तो चेतना है।

बुद्ध के पूव% जन्म की एक कहानी है। बुद्ध जिजस


जन्म में थे , उसके एक हजार पूव% के उनके जन्म की
कहानी है। बुद्ध के उस जन्म में वहाँ एक योगेश्वर आये
थे। जनता उनके स्वागत के लिलए खड़ी थी। पंष्टिŽबद्ध
होकर सारे लोग खड़े थे। उनके आते ही एक-एक व्यष्टिŽ
ने उनके चरणों में शीश झुकाया। बुद्ध ने भी उस महान
योष्टिगराज के चरणों में शिशर झुकाया , लेष्टिकन जब उस
महान योष्टिगराज की नजर बुद्ध के चेहरे पर पड़ी, तो वे
योष्टिगराज बुद्ध के चरणों में लेट गये। बुद्ध हड़बड़ा गये ष्टिक
महाराज, मैंने तो अपने कल्याणाथ% आपके चरणों में शीश
झुकाया था। आप मेरे चरणों में क्यों लेट रहे हैं ? वह
योष्टिगराज बोले ष्टिक देखो इस समय मैं बुद्ध हूँ , लेष्टिकन मैं
ष्टिदव्य दृष्टि= से देख रहा हूँ ष्टिक अब से हजार जन्मों के बाद

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 340 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

तुम भी इसी अवस्था को प्राV होने वाले हो। उस समय


के लिलए मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक हो रहा हूँ। यह
सब कुछ ष्टिदख जाता है, लेष्टिकन यह अत्मिन्तम लक्ष्य नहीं
है। अत्मिन्तम लक्ष्य है आ_म दृष्टि= से उस परमा_मा को
देखना। कबीर जी ने क्या कह ष्टिदया-

तन शिथर मन शिथर पवन शिथर, सुरधित ष्टिनरधित शिथर होए।

कहें कबीर ता पलक की, कल्प न पावे कोए।।

पल भर के लिलए तन शिथर अथा%त् शरीर त्मिस्थर हो


जाये। मन शिथर अथा%त् मन त्मिस्थर हो जाये। पवन शिथर
अथा%त् प्राण त्मिस्थर हो जाये। सुरधित और ष्टिनरधित भी त्मिस्थर
हो जाये। सुरधित क्या है ? अन्दर की चेतना की जो
धिचत्तवृलित्त है , चेतना की जो धिचद्शष्टिŽ है , वह सुरधित
कहलाती है। वह ब्रह्माण्ड में सव% त्र भ्रमण करती है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 341 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

रा'ा स्वामी, सSा सौदा, 'न-'न सतगुरु आष्टिद


के मतों में ब्रह्माण्डीय शब्दों की सा'ना कराई जाती है।
दोनों भौंहों के बीच में ध्यान करने से ष्टिनरञ्जन शब्द की
अनुभूधित होती है। उसके ऊपर ष्टित्रकुटी में ध्यान करेंगे ,
जहाँ इड़ा, हिंपगला, सु@ुम्ना नाष्टिड़याँ ष्टिमली हैं, वहाँ ॐ
शब्द की अनुभूधित होती है। उसके ऊपर जायेंगे , तो
"सोऽहम्" शब्द की अनुभूधित होती है, वह भी भ्रमर गुफा
में। उसके पश्चात् आगे जायेंगे, तो "शष्टिŽ" शब्द का
अनुभव होगा, और दशवें द्वार में "ररं" शब्द का अनुभव
होगा। दसवें द्वार में जाकर अधि'कतर लोग रुक जाते हैं।

हजारों में कोई ष्टिवरला होता है , जो दसवें द्वार के


आगे गमन करेगा, सु@ुम्ना प्रवाह से आगे बढ़ेगा, अपने
अहंकार की समाष्टिV करके समाधि' अवस्था को प्राV
होगा। परम गुहा (एकादश द्वार) में प्रवेश करेगा और

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 342 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अ(र ब्रह्म की चतुष्पाद ष्टिवभूधित का दश% न करेगा। यह


सा'ना करने वाला लाखों में कोई एक होता है।

आप ष्टिहन्द ू समाज की त्मिस्थधित देलिखए। ष्टिहन्द ू समाज


में लगभग अस्सी करोड़ की संख्या होगी , दस
ू रे पन्थों
को छोड़कर। अस्सी करोड़ में से चालीस करोड़ लोग,
मेरे अनुसार, देवी-देवताओं की, जड़ पदाथ[ की पूजा
करने वाले हैं। शे@ चालीस करोड़ में केवल बीस करोड़
ध्यान करने वाले होंगे। और शे@ बचे बीस करोड़ शायद
नात्मिस्तक हों। जो बीस करोड़ ध्यान करने वाले हैं , उनमें
से उन्नीस करोड़ पन्चानवे लाख लोग शून्यवाद की
सा'ना और जिसधिद्ध-ष्टिवभूधितयों से जुड़े होंगे। जिसफ% पाँच
लाख लोगों को पता होगा ष्टिक यष्टिद इस ष्टिनराकार -शून्य
मण्डल से परे जायेंगे, तो ब्रह्म का दश% न होगा। पाँच लाख
में यष्टिद ५० भी उसके परे जाते हैं, तो समझ लेना चाष्टिहए

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 343 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक बहुत अच्छी त्मिस्थधित है।

वैसे तो भŽों की मण्डली बहुत देखने को ष्टिमलेगी।


कुम्भ में चले जाइये , तो लगेगा ष्टिक सारी दष्टिु नया ष्टिकतनी
भŽ है परमा_मा की। उसका ध्येय होगा, पानी में डु बकी
लगाओ और मुष्टिŽ पा जाओ। लेष्टिकन ध्यान रहे, ज्ञान की
गंगा में स्नान ष्टिकये ष्टिबना कभी भी मुष्टिŽ नहीं ष्टिमल
सकती- "ऋते ज्ञानात् न मुष्टिŽ"।

लेष्टिकन यह सा'ना की जो प्रष्टिक्रया है, अ(रातीत


के दश% न की प्रष्टिक्रया नहीं है। यह अ(र ब्रह्म के चतुष्पाद
ष्टिवभूधित के दश% न की प्रष्टिक्रया है। इससे अव्याकृत का
सा(ा_कार होगा, सबलिलक का सा(ा_कार होगा, केवल
का सा(ा_कार हो सकता है, और स_स्वरूप का भी
सा(ा_कार हो सकता है। अ(र की पञ्चवासनायें - कबीर
जी, सनकाष्टिदक, ष्टिवष्णु भगवान, शँकर जी, शुकदेव

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 344 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

जी- ने इस प्रष्टिक्रया को अपनाकर प्रकृधित से अपने को


परे ष्टिकया और अ(र की चतुष्पाद ष्टिवभूधित का सा(ा_कार
ष्टिकया। ये इस ब्रह्माण्ड के पञ्चर_न हैं। लेष्टिकन वह
सधिSदानन्द परमा_मा, जिजसको अ(रातीत कहते हैं,
जिजसको उपष्टिन@दों में कहा-

अप्राणो ह्यमानो शुभ्रो ष्टिह अ(रात् परतः परः।

मुण्डकोपष्टिन@द् १/२/४

उस अ(रातीत के सा(ा_कार के लिलए प्रेम का माग%


अपनाना पड़ेगा।

शुकदेव जी राजा जनक के दरबार में पहुँचते हैं।


जनक को देखा ष्टिक वे सिंसहासन पर बैठकर नृ_य देख रहे
हैं। शुकदेव जी के मन में आया ष्टिक जो नृ_य -गान के
आनन्द में मस्त है, वह मुझे क्या ब्रह्मज्ञान देगा? जनक

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 345 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

समझ गये। उन्होंने योग-ऐश्वय% से अपने महल में अष्टि°


प्रकट कर दी, जिजससे सब कुछ जलने लगा। यह देखकर
शुकदेव जी भागे ष्टिक मैं तो अपना कमण्डल छोड़ आया
हूँ। जनक हँसने लगे ष्टिक शुकदेव ! मेरा महल जल रहा है
और मैं सिंसहासन पर बैठा हूँ , ष्टिकन्तु तुम तो ष्टिवरŽ हो।
एक कद्द ू के कमण्डल के लिलए इतना मोह है ष्टिक तुम भागे
जा रहे हो। यह तो देखो ष्टिक मैं क्यों नहीं भाग रहा हूँ ? मैं
यहीं बैठा हूँ।

शुकदेव जी इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी थे, ष्टिफर भी उनको


यह बो' तो है ष्टिक यह मेरा शरीर है। जनक का शरीर
अष्टि° में है , लेष्टिकन उनको कोई बो' नहीं ष्टिक मैं अष्टि° में
जल रहा हूँ। वे शरीर के भाव से परे हैं, संसार के भाव से
परे हैं। सिंसहासन पर बैठे हैं, लेष्टिकन उनके अन्दर यह
भाव नहीं है ष्टिक मैं सिंसहासन पर बैठा हूँ। उनको लगता है

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 346 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

ष्टिक यह सब झूठा है। यह मेरा राज-पाट झूठा है। मेरा


शरीर झूठा है। उस अवस्था में जनक पहुँच गये हैं।
लेष्टिकन यह अहम् ही है, जिजसको बड़ा से बड़ा तपस्वी
मार नहीं पाता, केवल प्रेम द्वारा ही इसको समाV ष्टिकया
जा सकता है। योगेश्वर श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-

पुरु@ः सः पर पाथ% भक्_या लभ्यः तु अनन्या।

गीता ८/२२

हे अजु%न! उस परमा_मा को अनन्य परा प्रेम द्वारा


पाया जाता है।

प्रेम और परा प्रेम में अन्तर है। क्या है प्रेम ? क्या


सांसारिरक आसष्टिŽ को प्रेम कहते हैं ? वह कौन-सी
प्रष्टिक्रया है, कहाँ पर है वह स्थान जहाँ परमा_मा का
दश% न होता है? जब हम योग की प्रष्टिक्रया पर चलते हैं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 347 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और जब तक हमें पता नहीं होता ष्टिक परमा_मा कहाँ है ,


तब तक हमारी सारी उपासना पद्धधित ष्टिनरथ% क हो जाती
है। जैसे, आम का पेड़ फलों से लदा हुआ है। आप एक
टोकरा प_थर इकट्ठा कर लें। आँ खों पर पट्टी बाँ'कर
उस पर प_थर मारते रहें, क्या होगा? ष्टिकतने फल
ष्टिगरेंगे? जब सारे प_थर ख_म हो जायें, हम अपनी आँ खों
से पट्टी खोलें, तो ष्टिदखाई देगा ष्टिक एक भी आम का फल
नहीं ष्टिगरा, क्योंष्टिक हमारा ष्टिनशाना ही चूक रहा था।

हमारे घर के आगे तुलसी का पौ'ा है। हम आँ खें


बन्द करके समाधि' लगाते रहें। हे तुलसी के पौ'े , तेरे
अन्दर से सधिSदानन्द परमा_मा प्रकट होना चाष्टिहए।
ध्यान में तुलसी के पौ'े को देख रहे हैं , तो क्या
ष्टिदखेगा? हम परमा_मा को नहीं देख सकते। हमने घर के
आगे एक सीमेन्ट का चबूतरा बना ष्टिदया और ध्यान में

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 348 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बैठकर देख रहे हैं ष्टिक यह चबूतरा परमा_मा का स्वरूप


है, इससे परमा_मा ष्टिनकलेगा? इस प्रकार ध्यान में
चबूतरा ही नजर आयेगा, परमा_मा नहीं।

वेदान्त का कथन है ष्टिक ष्टिकसी अना_म वस्तु पर


'ारणा नहीं करनी चाष्टिहए। जड़ का ध्यान करने से बुधिद्ध
में जड़ता के ल(ण आने लगते हैं। वैसे चेतन जीव के
संयोग से बुधिद्ध चेतन ही रहती है, लेष्टिकन जड़_व का दो@
आने लगता है। इसलिलए वेदान्त का कथन है ष्टिक 'ारणा,
ध्यान केवल परमा_मा का ही करना चाष्टिहए और जब
तक आपको पता ही नहीं है ष्टिक परमा_मा कहाँ है , तब
तक की गई सारी 'ारणा, ध्यान, समाधि' ष्टिनष्फल हो
जाती है। बड़े-बड़े योगेश्वरों को देखा जाता है ष्टिक वे सारी
जिजन्दगी जिसधिद्धयाँ बटोरने में लगे रहते हैं। आकाश में
उड़ने लगे, मुद” को जिजन्दा करने लगे , ष्टित्रकालदशs हो

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 349 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

गये, कहाँ से कहाँ की बात जानने लगे , इसी में सारी उम्र
गुजर जाया करती है। एक जन्म में सा(ा_कार नहीं हुआ,
तो ष्टिफर दस
ू रे जन्म में प्रवेश कर जाते हैं। इन्हीं को गीता
में कहा है-

अनेक जन्म संजिसधिद्धः ततो याधित परां गधितम्ं।

गीता ७/४५

अनेक जन्मों में सा'ना करता हुआ , कोई ष्टिवरला


ही उस परमा_मा को प्राV कर पाता है और वह भी
ष्टिकसको प्राV करता है ? अ(र ब्रह्म की चतुष्पाद ष्टिवभूधित
को, अ(रातीत को नहीं।

शुकदेव जैसा ष्टिनर्मिवकार तो सृष्टि= में कोई भी नहीं है।


शंकर जी जैसा योष्टिगराज कौन होगा, जो संसार को
ठोकर मारकर ष्टिदन-रात समाधि' में बैठे रहे। माहेश्वर तन्त्र

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 350 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

में भगवान शिशव कहते हैं ष्टिक हे उमा ! परमा_मा कौन है,
इसको जानने के लिलए मैंने पाँच हजार ष्टिदव्य व@[ की
समाधि' लगाई। उस समाधि' में मैंने ईश्वर से जो ज्ञान
सुना, वही ज्ञान मैं तुमको सुना रहा हूँ , और मैं उसी
परमा_मा का ध्यान करने का प्रयास करता हूँ। आप
कल्पना कीजिजए उस अ(रातीत की ज्ञान 'ारा को
भगवान शिशव समाधि' में सुनकर ध्यान करने का प्रयास
कर रहे हैं। वह दावे से नहीं कहते ष्टिक उन्होंने अ(रातीत
का दश% न कर लिलया। उनसे बड़ा योष्टिगराज तो इस समय
कलिलयगु में कोई होगा नहीं।

सनकाष्टिदक को लीजिजए। पाँच साल की उम्र में चारों


भाई- सनक, सनंदन, सन_कुमार, सनातन- परमा_मा
को जानने के लिलए ष्टिनकल पड़े हैं। शुकदेव और
सनकाष्टिदक को यह पता नहीं है ष्टिक पुरु@ ष्टिकसको कहते

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 351 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हैं और स्त्री ष्टिकसको कहते हैं। वह चेतना को देख रहे हैं।


इतनी ऊँची अवस्था में पहुँचने के बाद भी इनका ध्यान
अव्याकृत, सबलिलक, केवल, स_स्वरूप से आगे अ(र
और अ(रातीत तक नहीं पहुँच सकता, क्योंष्टिक उसके
लिलए प्रेम चाष्टिहए।

प्रेम को पंथ कराल महा, तलवार की 'ार पे 'ावन है।

तलवार की 'ार पर दौड़ना सरल हो सकता है,


ष्टिकन्तु प्रेम की राह पर चलना कष्टिठन है। प्रेम क्या है?
प्रेम में "मैं" नहीं, "तू" होता है। भष्टिŽ करने वाला यह
सोचता है ष्टिक मैं भष्टिŽ कर रहा हूँ या कर रही हूँ। सा'ना
करने वाला सोचता है ष्टिक मैं परमा_मा का ध्यान कर रहा
हूँ। प्रेम में "मैं" होता ही नहीं है। ऋग्वेद का एक मन्त्र
कहता है-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 352 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

यद°े स्याम अहं _वं _वं वा घा स्यामहम् स्यस्ु ते स_या इहाशिश@ः।

ऋग्वेद ८/४५/२३

हे परमा_मा! जो तू है वह मैं हो जाऊँ और जो मैं हूँ


वह तू हो जाये। इस बात को संसार का कोई भी भŽ या
कोई भी योगी स्वीकार नहीं करेगा। जो तू है वह मैं हो
जाऊँ, यह कैसे सम्भव है? यह जिसफ% प्रेम में कहा जा
सकता है, सा'ना में नहीं , भष्टिŽ में नहीं। क्या कोई
कहेगा, हे भगवान! तू मेरी जगह नीचे आकर बैठ जा
और मैं तेरी जगह सिंसहासन पर बैठ जाऊँ। ष्टिकसी भी
कीमत पर नहीं कहेगा।

एक बार भगवान श्री कृष्ण के पेट में बहुत दद% होने


लगा और उन्होंने कहा ष्टिक यह दद% तभी ष्टिमटेगा जब कोई
अपने चरणों की 'ूलिल देगा। रूक्मणी से कहा गया तो वह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 353 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बोली, मैं नरक में जाऊँगी यष्टिद मैं अपने पधित को अपनी
चरण 'ूलिल दँगू ी। श्री कृष्ण भगवान तड़पते रहे , लेष्टिकन
ष्टिकसी ने भी उन्हें अपने चरणों की 'ूलिल नहीं दी। नारद
जी चारों तरफ खोजते -खोजते थक गये। तब अन्त में
श्री कृष्ण ने नारद से कहा ष्टिक तुम व्रज में जाओ , और
रा'ा व गोष्टिपयों से कहना ष्टिक कन्हैया के पेट में दद% हो
रहा है, और यह तभी ठीक होगा जब कोई अपने चरणों
की 'ूलिल देगा। रा'ा ने कहा ष्टिकतनी चाष्टिहए? एक पैर की
या दोनों पैरों की, और 'ूलिल दे दी।

नारद जी जिसर पकड़कर बैठ गये ष्टिक मैं सोच रह था


ष्टिक मैं अपने भगवान को यष्टिद अपने चरणों की 'ूलिल दे दँ,ू
तो ष्टिकतना बड़ा पाप लग जाएगा। ये गोष्टिपयाँ तो पागल
हैं, जो देने के लिलये उतावली हो रही हैं। क्योंष्टिक जहाँ प्रेम
होता है, वहाँ सत्ता नहीं होती, कोई चाहत नहीं होती।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 354 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

क्योंष्टिक प्रेम कहता है "तू", सा'ना कहती है "मैं"। जहाँ


मैं का बन्'न नहीं रहेगा , प्रेम वहाँ से शुरु होता है।
इसलिलए कम% काण्ड तो शरीर, मन, बुधिद्ध के 'रातल पर
शुरु होते हैं। इसके बाद शुरु होती है बौधिद्धक प्रष्टिक्रया ,
जिजसको ज्ञान योग कहते हैं।

ज्ञानयोग द्वारा मनुष्य 'म% ग्रन्थों का ष्टिवद्वान बन


जाता है और बुधिद्ध में उस ज्ञान को ग्रहण करके यह सोच
लेता है ष्टिक मैंने परमा_मा को प्राV कर लिलया। जैसे
वेदान्त दश% न पढ़कर कोई भी अपने नाम के आगे
परमहंस शब्द लिलख लेता है, सोचता है ष्टिक मैंने परमा_मा
के दश% न कर लिलये हैं। लेष्टिकन वह तो शब्दों का ज्ञान है।
ज्ञान स_य को दशा%ता है, स_य को प्राV नहीं कराता।
प्रेम स_य को प्राV कराता है।

ज्ञान और प्रेम एक ही प(ी के दो पँख हैं। यष्टिद ज्ञान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 355 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

नहीं तो प्रेम अ'ूरा है। जैसे , ष्टिकसी को यह बो' न हो


ष्टिक परमा_मा कहाँ और कैसा है , तो वह ष्टिकसका ध्यान
करेगा? इसलिलए ष्टिबना ज्ञान के प्रेम अ'ूरा है और ष्टिबना
प्रेम के ज्ञान अ'ूरा है।

जब आपको बो' रहेगा ही नहीं ष्टिक परमा_मा कौन


है, तो आप ष्टिकसी का भी ध्यान कर सकते हैं। हनुमान
जी के दश% न के लिलए आप आँ खें बन्द करके कई-कई
ष्टिदन ध्यान लगा सकते हैं। भगवान राम के लिलए, भगवान
श्री कृष्ण के दश% न के लिलए, भगवान शिशव के दश% न के
लिलए। कोई ष्टिकसी प्रधितमा का ध्यान कर सकता है, कोई
ष्टिकसी फोटो का ध्यान कर सकता है। लेष्टिकन जिजसे
अनन्त सूय[ से भी अधि'क प्रकाशमान उस सधिSदानन्द
परब्रह्म के 'ाम को जानना है ष्टिक वह कहाँ है, वह तो ऐसे
ध्यान नहीं करेगा।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 356 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

हद पार बेहद है, बेहद पार अ(र।

अ(र पार वतन है, जाष्टिगए इन घर।।

प्रकाश हिंहदस्ु तानी ३१/१६५

जिजन्होंने उस सधिSदानन्द परब्रह्म को जान लिलया है


वे जानते हैं ष्टिक हमें प्रकृधित से परे होना है। ये चतुद%श
लोक अ=ावरण यŽ
ु हैं, जिजसको गीता में कहा है-

भूष्टिमः आपः अष्टिनलः खं मनो बुधिद्धः एव च।

अहंकारं इतीयम् में शिभन्ना प्रकत्मिष्तः अ='ा।।

गीता ७/८

पञ्चभूत और मन, बुधिद्ध, अहंकार से यŽ


ु यह
अ=ावरण वाला ब्रह्माण्ड है। इसके परे है अहंकार,
मोहत्त_व जो प्रकृधित का सूक्ष्मतम स्वरूप है, उसको पार
करके उसकी चेतना अव्याकृत अथा%त् बेहद में प्रवेश
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 357 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

करती है। सबलिलक, केवल, और स_स्वरूप से होते हुए


बेहद को पार करके उस अ(र से भी परे अ(रातीत के
'ाम में प्रवेश करती है। जिजसके लिलए वेद ने कहा-

यत्र ज्योधितः अजस्र यत्मिस्मन् लोके स्वर्मिहतम्।

ऋग्वेद ९/११३/७

जहाँ अनन्त ज्योधित है, जहाँ आनन्द ही आनन्द है,


हे परमा_मा! मुझे वहाँ ले चल, जिजसके लिलए गीता कहती
है-

न तद् भासयते सूय‘ न शशांको न पावकः।

यद् ग_वा न ष्टिनवत% न्ते तद् 'ाम परमं मम।।

गीता १५/६

जहाँ सूय% नहीं, चन्द्रमा नहीं, वायु नहीं, वहाँ मेरा


परम'ाम है, और उस परम'ाम का सा(ा_कार जीवन
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 358 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी

का सव‘परिर लक्ष्य होना चाष्टिहए। हम प्रकृधित से परे होकर


ही ब्रह्म का सा(ा_कार कर सकते हैं।

जो दसवें द्वार में जाएगा , उसको भी ब्रह्म का


सा(ा_कार नहीं होगा। ष्टित्रकुटी में , भृकुटी में, भ्रमर गुफा
में, या ष्टिकसी भी नाड़ी में, आठ चक्रों के ऊपर आप
'ारणा, ध्यान, समाधि' करते रहेंगे , तो भी आपको
परमा_मा का सा(ा_कार नहीं होगा। आपने मूला'ार चक्र
को जाग्रत कर लिलया, आज्ञा चक्र को जाग्रत कर लिलया,
दसवें द्वार में त्मिस्थत आठवें चक्र को जाग्रत कर लिलया ,
आपको जिसधिद्धयाँ तो ष्टिमल जायेंगी, लेष्टिकन परमा_मा का
सा(ा_कार नहीं होगा। इसलिलए इससे परे एकादश द्वार,
जिजसको एकादश लिखड़की भी कहा गया है, में ध्यान
करने का ष्टिव'ान है।

एक कल्प में चार अरब बत्तीस करोड़ व@% होते हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 359 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

चार अरब बत्तीस करोड़ व@% तक आप जप, तप, पूजा-


पाठ करते रहेंगे, तो भी परमा_मा का दश% न यानी अ(र
ब्रह्म की चतुष्पाद ष्टिवभूधित का दश% न नहीं हो सकता।
लेष्टिकन पलक झपकने के बराबर भी यष्टिद आपका शरीर
त्मिस्थर हो जाये, मन त्मिस्थर हो जाये, प्राण त्मिस्थर हो जाये,
सुरधित और ष्टिनरधित ग्यारवहीं लिखड़की में प्रवेश कर जाये ,
तो उतने में आपको अ(र की चतुष्पाद् ष्टिवभूधित -
अव्याकृत, सबलिलक, केवल, स_स्वरूप- का दश% न हो
जाएगा। ष्टिकन्तु यह भी अ(रातीत का दश% न नहीं है।
अ(रातीत के सा(ा_कार के लिलए आपको अपने हृदय
मत्मिन्दर में त्मिस्थत आ_मा के 'ाम हृदय में उस ष्टिप्रयतम को
बसाना होगा, क्योंष्टिक-

ऊपर तले अस% न कह्या, अस% कह्या मोष्टिमन कलूब।

श्रृंगार २३/७६

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 360 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

परमा_मा कहाँ है? आ_मा के अन्दर अन्तया%मी रूप


से त्मिस्थत है। इसलिलए संसार के समस्त द्वन्द्वों से परे
होकर उस लक्ष्य को ष्टिन'ा%रिरत करना पड़ेगा। इसको एक
दृ=ान्त से समजिझए, तो बात सरलता से समझ में आ
जाएगी। जब ष्टिमसाइल छोड़नी होती है, तो क्या ष्टिकया
जाता है? ष्टिमसाइल अलग त्मिस्थत की जाती है, कम्प्यट
ू र
पर उसका पैमाना बनाया जाता है ष्टिक ष्टिकतनी दरू ी पर
हमें ष्टिमसाइल ष्टिगरानी है और ष्टिकस ष्टिदशा में ष्टिगरानी है।
उसका एक बटन होता है, जो दबाते ही ष्टिमसाइल उस
जगह पर पहुँच जाती है। उसी तरह, जैसे मैंने ष्टिवभूधित
पाद का एक थोड़ा-सा अंश बताया ष्टिक यष्टिद आप नाशिभ
चक्र में ध्यान करते हैं , समाधि' करते हैं , तो प्रकृधित में
जिजतने तारा चक्रों का समूह है जो बड़ी-बड़ी दरू बीनों से
देखने में नहीं आता है , वह आपको ध्यान में आ_म-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 361 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

च(ुओं से ष्टिदखाई दे जाएगा।

भुवनज्ञानं सूय” संयमात्। योग दश% न ३/२६

सूय% नाड़ी में संयम करने से सारे ब्रहाण्ड का दृश्य


नजर आ सकता है। उसी तरह से चन्द्र नाड़ी में संयम
करने से मनुष्य ष्टिप्रयदशs हो सकता है। जिजसको लक्ष्य
लेकर जहाॅँ-जहाॅँ ध्यान करेंगे, उसी के अनुसार प्रभाव
ष्टिदखेगा। आज्ञा चक्र में ध्यान करेंगे , तो बुधिद्ध का प्रकाश
होगा। दसवें चक्र में ध्यान करेंगे या आठवें चक्र में ध्यान
करेंगे, तो उसका अलग-अलग प्रभाव होगा। चूँष्टिक
ब्रह्माण्ड का सारा संधि(V रूप इस शरीर के अन्दर है।
जैसा ध्यान करेंगे, जिजसको लक्ष्य लेकर ध्यान करेंगे,
वैसा ही समाधि' में दृष्टि=गोचर होगा। यष्टिद आपको बो' है
ष्टिक परमा_मा अ(र से परे हैं और आपने मा'ुय% भावना
से ध्यान ष्टिकया, तो सफलता अवश्य ष्टिमलती है।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 362 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

मा'ुय% भावना का ता_पय% क्या है ? सबके मन में


भावना क्या होती है? शरीरजन्य भावना। पुरु@ वग% क्या
सोचेगा? हम तो परमा_मा के दास हैं और बहनें सोचेंगी
ष्टिक हम तो दाजिसयाँ हैं। यष्टिद कोई स्वयं परमा_मा को
सखा मानेगा, तो भी इसमें समप% ण की भावना नहीं हो
सकती, क्योंष्टिक समप% ण की पराकाष्ठा होती है मा'ुय%
भावना में, जिजसमें आ_मा और परमा_मा उस रूप में हो
जाते हैं जैसे सागर और उसकी लहर। उसी बात को वेद
के इस मन्त्र में दशा%या गया है-

यद°े स्याम अहं _वं _वं वा घा स्यामहम् स्यस्ु ते स_या इहाशिश@ः।

ऋग्वेद ८/४५/२३

अथा%त् जो मैं हूँ वह तू हो जाए और जो तू है वह मैं


हो जाऊँ। इसको एक दृ=ान्त से समजिझए-

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 363 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

क्या मया%दा पुरु@ोत्तम राम के सिंसहासन पर कभी


हनुमान जी बैठ सकते हैं? हनुमान जी का जीवन राम
जी के लिलए समर्मिपत है, लेष्टिकन राम जी के सिंसहासन पर
हनुमान जी नहीं बैठ सकते। उस जगह पर लक्ष्मण भी
नहीं बैठ सकते, राम के सखा सुग्रीव भी नहीं बैठ सकते ,
लेष्टिकन सीता जी को अधि'कार है, क्योंष्टिक सीता उनकी
अ'ा‚ष्टिगनी है। आप उस मा'ुय% भावना में डू ब जाइए ष्टिक
जो तू है, वह मैं हूँ। सागर और उसकी लहरों में क्या भेद
होता है? सूय% और उसकी ष्टिकरणों में क्या भेद होता है ?
हाथ और उसकी अँगुलिलयों में क्या भेद होता है? चन्द्रमा
और चाँदनी में क्या भेद होता है?

यष्टिद उस भावना से भाष्टिवत होकर हमने मा'ुय%


भावना अपना ली ष्टिक हे ष्टिप्रयतम! जो तू है मैं वही हूँ, तो
ष्टिनधिश्चत रूप से सारा संसार ष्टिमट जाएगा। उस भावना से

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 364 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

भाष्टिवत होकर यष्टिद हम अपनी आ_मा के 'ाम-हृदय में


उस ष्टिप्रयतम परब्रह्म की छष्टिव को बसाते हैं , तो यहीं
बैठे-बैठे ऐसा लगेगा ष्टिक जिजस परम'ाम के कण-कण में
परब्रह्म का स्वरूप है , असंख्य सूय[ से अधि'क
प्रकाशमान वह परब्रह्म मेरी आ_मा के हृदय में वैसे ही
दृष्टि=गोचर हो रहा है जैसे आकाश में उगता हुआ सूरज
एक दप% ण के अन्दर प्रधितष्टिबत्मिम्बत होता है।

ष्टिप्रयतम परब्रह्म के सा(ा_कार की यही प्रष्टिक्रया है।


इसमें हठयोग की कोई भी प्रष्टिक्रया नहीं चल सकती।
राजयोग की कोई प्रष्टिक्रया नहीं चल सकती। ज्ञानयोग ,
मन्त्रयोग, तपयोग भी यहाँ नहीं चल पायेगा। यहाँ मा'ुय%
भावना का ष्टिवशुद्ध प्रेम है , जिजसमें ष्टिप्रया -ष्टिप्रयतम का
सम्बन्' होता है। अनन्य प्रेम का ता_पय% क्या है ?
आमतौर पर एक बात कही जाती है ष्टिक पन्थ तो सभी हैं

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 365 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

और सभी एक ही मत्मिन्जल पर जाएँ गे। कबीर जी ने एक


बात कही है-

नष्टिदया एक घाट बहुतेर।े

इस बात को तो सभी याद रखते हैं। इसके आगे


क्या कहा है, यह कोई नहीं सोचता।

नष्टिदया एक घाट बहुतेर,े कहे कबीर वचन के फेरे।

कबीर जी कहते हैं ष्टिक बात उल्टी है। नष्टिदयाँ अनेक


हैं, लेष्टिकन घाट एक है। शब्दों का बाह्य अथ% क्या होगा?
लोग इसका क्या अथ% लगाते हैं। जिजस तरह से ष्टिकसी
मत्मिन्जल पर जाने के लिलए अनेक रास्ते हो सकते हैं। एक
ही नदी पर कई घाट बने होते हैं और ष्टिकसी भी घाट पर
से हम नदी के उस पार जा सकते हैं। उसी तरह से
ष्टिकसी भी रास्ते पर चलकर हम परमा_मा का दश% न पा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 366 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

सकते हैं। वास्तव में यह बात नहीं है।

इस लखनऊ शहर में गोमती नदी बहती है। गोमती


नदी पर, मैं समझता हूँ , कई पुल बने होंगे। ष्टिनशातगँज
के पुल को आप पार करें, तो आप ष्टिनशातगँज ही जाएँ गे।
उससे पाँच ष्टिकलोमीटर दरू जो पुल बना होगा, उसको
पार करने पर ष्टिकसी और स्थान पर जायेंगे। एक ही नदी
पर पचास-पचास ष्टिकलोमीटर की दरू ी पर जिजतने घाट
होंगे, तो इनसे एक जगह ही नहीं जाया जायेगा, बत्मिल्क
अलग-अलग घाटों से अलग-अलग स्थानों पर जायेंगे।

वाराणसी का नाम वाराणसी कैसे पड़ा? काशी में


दो नष्टिदयाँ बहती हैं- वरुणा और गंगा। गंगा के ष्टिकनारे
अस्सी घाट है। वरुणा और अस्सी घाट के बीच में
वाराणसी नगर त्मिस्थत है। गंगा एक ही है। अश्वमे' घाट से
गंगा जी को पार करेंगे, तो कोई और स्थान आयेगा,

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 367 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

अस्सी घाट से गंगा जी को पार करेंगे, तो कोई और


स्थान आयेगा। एक ही मत्मिन्जल पर जाने के लिलए कई
घाट कभी भी नहीं हो सकते।

आपको यहाँ से कानपुर जाना है। कानपुर लखनऊ


की दधि(ण-पधिश्चम ष्टिदशा में है। यष्टिद आप उत्तर ष्टिदशा में
चलना शुरु कर देंगे , तो आप नेपाल पहुँच जाएँ गे। यष्टिद
दधि(ण की तरफ चलना शुरु कर देंगे , तो चेन्नई और
बेंगलूर पहुँच जाएँ गे। पूव% की तरफ चलना शुरु कर देंगे ,
तो गुवाहाटी पहुँच जाएँ गे। कानपुर तब भी नहीं आयेगा।
परमा_मा एक है और परमा_मा को पाने का माग% भी एक
ही होता है। स_य एक है, स_य को पाने का माग% एक ही
होता है। उस स_य को आप शरीर के कम% काण्डों से
कभी भी नहीं पा सकते , चाहे आप पूजा-पाठ करते
रष्टिहये, परिरक्रमा करते रष्टिहए, उछल-कूद करते रष्टिहए।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 368 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

बुधिद्ध के 'रातल पर कुछ भी करिरए, माला का जप करते


रष्टिहए, सब कुछ करते रष्टिहए। आपके मन में पष्टिवत्रता तो
आ सकती है, जिसधिद्ध-ष्टिवभूधितयाँ आपका दामन पकड़
सकती हैं, आप संसार में प्रजिसद्ध हो सकते हैं , लेष्टिकन
आप परमा_मा का दश% न नहीं पा सकते।

राजयोग से, जपयोग से, नादयोग से, मन्त्रयोग से


आप जिसधिद्धयाँ प्राV कर सकते हैं , लेष्टिकन आप परमा_मा
का दश% न नहीं कर सकते। यष्टिद आप राजयोग की प्रष्टिक्रया
को अपनाते हैं, तो असंख्य ब्रह्माण्ड जिजस महाशून्य में
लीन होते हैं, वहाँ तक पहुँच सकते हैं, कैवल्य की
अवस्था को प्राV कर सकते हैं , महाप्रलय तक जन्म-
मरण के चक्र से मुŽ हो सकते हैं , लेष्टिकन तब भी बेहद
में प्रवेश नहीं हो सकता। यष्टिद आपने ष्टिवहंगम योग की
प्रष्टिक्रया अपना ली, प्रकृधित के गुह्य रहस्यों को जान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 369 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

लिलया, ष्टिनराकार-शून्य-महामाया प्रकृधित से अपने को


परे कर लिलया, तो आप अव्याकृत, सबलिलक, केवल,
और स_स्वरूप का सा(ा_कार कर सकते हैं।

यष्टिद आपको तारतम ज्ञान द्वारा पता चल गया ष्टिक


कौन है परमा_मा? कहाँ है परमा_मा? कैसा है
परमा_मा? और अपने आपको ष्टिमटा ष्टिदया, मैं (खद
ु ी) के
बन्'न से अपने को अलग कर ष्टिदया, प्रेम-मा'ुय% भाव में
आप डू ब गये, अपनी आ_मा के 'ाम-हृदय में उसी
परब्रह्म को खोजने लगे , तो जैसे मैंने ष्टिमसाइल का
दृ=ान्त ष्टिदया था ष्टिक ष्टिकस जगह है परमा_मा , कहाँ है
परमा_मा, उसको लक्ष्य में लेकर आपकी आ_मा इस
अ=ावरण यŽ
ु ब्रह्माण्ड से परे, इस प्रकृधित से परे, बेहद
से परे, अ(र से परे, उस परम'ाम में ष्टिवद्यमान परब्रह्म
के अखण्ड एवं अनन्त सूय[ से भी अधि'क प्रकाशमान

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 370 / 371


तमस के पार श्री राजन स्वामी

स्वरूप को यष्टिद देखना चाहती है , तो उसका दश% न


आ_मा के 'ाम-हृदय में अवश्य होगा।

यही प्रेम ल(णा भष्टिŽ है , जिजसमें शरीर नहीं, मन


नहीं, अहंकार नहीं, जीव भाव नहीं, बुधिद्ध नहीं, केवल
आ_मा अपने प्राणवल्लभ को देखती है।

।। इधित पूण%म्।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 371 / 371

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