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Tamas Ke Paar
Tamas Ke Paar
तमस के पार
लेखक
प्रकाशक
सवा%धि'कार सुरधि(त
© २०१४, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्ट
प्राक्कथन
'मा%नुरागी सज्जनवृन्द!
आपका शुभाकां(ी
सद्गरु
ु प्रसाद आय%
अनुक्रमशिणका
1 'म% का स्वरूप 7
2 अलंकार व्याख्या 69
प्रथम अध्याय
'म% का स्वरूप
आवश्यकता पड़े?
लोग दावा करते हैं ष्टिक मैं 'ार्मिमक हूँ , लेष्टिकन "'म% क्या
है"? यह गहन रहस्य है।
महाभारत का यद्ध
ु होता है। उसमें अट्ठारह
अ(ौष्टिहणी सेना मारी जाती है। अट्ठारह अ(ौष्टिहणी सेना
महाभारत का यद्ध
ु क्यों हुआ ? 'म% की मया%दाओं
के उल्लंघन के कारण। सच बात तो यह है ष्टिक भीष्म
ष्टिपतामह ने 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया। यष्टिद भीष्म
ष्टिपतामह 'म% की मया%दा का पालन करते और कह देते
ष्टिक जुआ ष्टिकसी भी कीमत पर नहीं होगा , पाण्डवों को
वनवास नहीं भेजा जायेगा, तथा द्रोपदी का चीर-हरण
नहीं ष्टिकया जायेगा, और वह खड़े हो जाते। उनके साथ
द्रोणाचाय% खड़े हो जाते , ष्टिवदरु जी, कृपाचाय% जी खड़े हो
जाते, तो दय
ु ा”'न क्या कर लेता या 'ृतरा=्र क्या कर
लेते? लेष्टिकन सैंतालिलस लाख, तेईस हजार, नौ सौ बीस
प्राशिणयों की ह_या क्यों हुई ? क्योंष्टिक इन सभी महान
पुरु@ों द्वारा 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया गया।
'ृतरा=्र तो मूल में थे। उनको पुत्र -मोह ने घेर रखा था।
इन ष्टिवशिश= व्यष्टिŽयों द्वारा 'म% की अवहेलना के कारण
लाखों लोगों का संहार हुआ।
यतोऽभ्यद
ु यः ष्टिनःश्रेयसः जिसधिद्धः स 'म% ः।
१. 'ृधित ('ैय%)
२. (मा
६. इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह
७. शुद्ध बुधिद्ध
८. ष्टिवद्या
मनुस्मृधित ६/९२
'ैय%
गीता १२/१८
सुख हो, दख
ु हो, लाभ हो, हाष्टिन हो , जय हो,
पराजय हो, सबमें जो एक सम_व भाव को लिलये रहता है,
वह 'ैय%शाली है। मया%दा पुरु@ोत्तम राम को कहा गया ष्टिक
कल आपका राजधितलक ष्टिकया जायेगा, ष्टिकन्तु सवेरा
होने से पहले ही आदेश दे ष्टिदया गया ष्टिक राजधितलक तो
नहीं होगा, आपको चौदह व@[ के लिलये वन जाना पड़ेगा।
सुख और दख
ु का भोŽा हर प्राणी को होना पड़ता
है। जो व्यष्टिŽ सुखों को पाकर उच्छृङ्खल हो जाते हैं , भूल
जाते हैं उस सव% शष्टिŽमान की सत्ता को, वे 'ैय% से रष्टिहत
कहे जाते हैं, और जो दख
ु ों में अ'ीर हो जाते हैं , वे भी
'ैय% से रष्टिहत कहे जाते हैं। 'ीरता का जिजसमें गुण हो, जो
समझ ले ष्टिक ष्टिदन के बाद राष्टित्र और राष्टित्र के बाद ष्टिदन
का चक्र चलता रहता है, उसको कहते हैं 'ैय%वान्।
(मा
दमन
कधिश्चद्धीरः प्र_यगा_मानयै(दावृत्तच(ुरमृत_वष्टिमच्छन्।।
कठोपष्टिन@द् ४/१
मनुस्मृधित २/१२
अस्तेय
शौच
मनुस्मृधित ५/१०६
इत्मिन्द्रयों का ष्टिनग्रह
एक-दस
ू रे के पूरक हैं। एक व्यष्टिŽ ने ष्टिनण% य ष्टिकया ष्टिक
मुझे ष्टिमठाई नहीं खानी है। उस व्यष्टिŽ ने उस ष्टिमठाई को
कमरे में रख ष्टिदया। दस
ू रे कमरे में बैठा हुआ वह सोच
रहा है ष्टिक उस कमरे में मेरी ष्टिमठाई रखी है , उसे खाऊँ
या न खाऊँ? मैंने तो सबको कह ष्टिदया है ष्टिक मुझे ष्टिमठाई
नहीं खानी है। रात-ष्टिदन उसी के बारे में सोचता रहता
है। परिरणाम क्या होगा? देखेगा ष्टिक जब मकान में कोई
नहीं है, तो शिछपकर खा लेगा, ष्टिफर सबको कह देगा ष्टिक
मैं तो ष्टिमठाई नहीं खाता हूँ।
मुझे गौर से देख रहा था। अजु%न बोला ष्टिक माते ! मैं यह
देख रहा था ष्टिक यष्टिद माता कुन्ती भी आपकी तरह
सुन्दर होती, तो मैं भी सुन्दर होता। मैं तो उसी रूप में
आपको देख रहा था। यह है मन की पष्टिवत्रता। यष्टिद
हमारा मन पष्टिवत्र है, तो हम पूण%तया पष्टिवत्र हैं।
बुधिद्ध
कुत्र गष्टिमष्याष्टिम।
को नाम बन्'ः।
महाभारत
दय
ु ‘'न कहता है ष्टिक मैं जानता हूँ ष्टिक 'म% ष्टिकसको
कहते हैं और मैं यह भी जानता हूँ ष्टिक अ'म% ष्टिकसको
कहते हैं, लेष्टिकन जब मैं 'म% का आचरण करने का
प्रयास करता हूँ तो मेरी बुधिद्ध उसमें मेरी सहायता नहीं
कर पाती। मेरा मन इतना ष्टिवकृत हो जाता है ष्टिक मैं
चाहकर भी 'म% का आचरण नहीं कर पाता हूँ।
ष्टिवद्या
योगदश% न
सा ष्टिवद्या या ष्टिवमुŽये।
स_य
महाभारत के यद्ध
ु के पश्चात् जब भीष्म ष्टिपतामह
प्राण-_याग करने लगे, तो यधिु 'ष्टिष्ठर को बुलाया और
कहा ष्टिक यधिु 'ष्टिष्ठर एक तरफ अस_य का समथ% न करने
वाली ग्यारह अ(ौष्टिहणी सेना थी और एक तरफ तुम
केवल सात अ(ौष्टिहणी सेना लेकर खड़े थे , लेष्टिकन
तुम्हारी ष्टिवजय हुई है। क्योंष्टिक-
मुण्डकोपष्टिन@द ३/१/६
ष्टिकरंतन ८/७
अक्रो'
जो हम स्वयं के लिलए दस
ू रों से चाहते हैं , वही
व्यवहार हमें दस
ू रों के प्रधित करना पड़ेगा। यही 'म% का
ल(ण है। यष्टिद हम दस
ू रों से प्रेम चाहते हैं , तो हमें भी
दस
ू रों से प्रेम करना पड़ेगा। दस
ू रों से सम्मान चाहते हैं ,
तो हमें सम्मान की भा@ा सीखनी पड़ेगी। 'म% वह है जो
मन, वाणी, और कम% से सबको स_य की तरफ ले जाता
है। यष्टिद ष्टिकसी प्राणी का ष्टिदल दख
ु ता है, तो वह 'म% नहीं
है।
महाभाष्य
ष्टिद्वतीय अध्याय
अलंकार व्याख्या
हनुमान चालीसा
दस
ू री बात, जो लोग शिशकार करते हैं, उनसे पूछा
जाये ष्टिक भाई पशुओं को क्यों मारते हो ? क्यों शिशकार
खेलते हो? तो क्या कहेंगे ष्टिक राम ने भी तो मारीच को
मारा था जो ष्टिहरण के भे@ में आया था, तो हम क्यों न
मारें? यह जनता का रटा-रटाया उत्तर होता है। सच
यह है ष्टिक मया%दा पुरू@ोत्तम राम ने कभी ष्टिहरण को मारा
ही नहीं।
नहीं थी। हाँ, स_य ज्ञान के अभाव में ऐसा ही कहा जाता
है।
नहीं है।
चतुभ% ज
ु का आशय क्या है? आपने देखा होगा ष्टिक
भगवान ष्टिवष्णु के चार हाथों में शंख , चक्र, गदा, और
पद्म यानी कमल है। वे बैठते ष्टिकस पर हैं ? गरुड़ पर।
चक्र- संस्कृधित
यस्मा_(रमतीतोऽहम(रादष्टिप चोत्तमः।
गीता १५/१८
गीता १८/६६
यज्ञो वै ष्टिवष्णःु ।
आयःु प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिंत द्रष्टिवणं ब्रह्मवच% सं मह्यम् दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।
ऋग्वेद ७/३२/२३
मातृदेवो भव, ष्टिपतृदेवो भव, अधितशिथ देवो भव, आचाय% देवो भव।
परमा_मा कौन है, कैसा है, कहाँ है, ष्टिकतने हैं? ष्टिफर
आपका ष्टिनशाना तो व्यथ% चला जायेगा। इसलिलये भŽों
की संख्या तो बहुत ष्टिदखाई देती है, ष्टिकन्तु उसको पाने
वाले ष्टिवरले होते हैं।
गीता ८/२२
गीता १४/१८
तृतीय अध्याय
ऋग्वेद १०/१२२/२
सबके अन्दर वही तो रम रहा है। कण-कण में वही है। "
हर मनी@ी के अन्दर जिजज्ञासा हो सकती है की यष्टिद वह
कण-कण में रम रहा है , सबके अन्दर वही है, तो यह
संसार उसके गुणों के ष्टिवपरीत क्यों है?
गीता १५/१७
परमा_मा।
ष्टिकरन्तन ६/७
(र क्या है?
ऋग्वेद १०/१२९/१
मनुस्मृधित १/१०
यजुव”द ३१/१८
रामचरिरतमानस
रामचरिरतमानस
ष्टिकरन्तन ३२/१
ष्टिकन्तु यष्टिद मैं यह प्रश्न करूँ ष्टिक नक% में ष्टिकतने लोग
जायेंगे? तो कोई भी हाथ नहीं उठायेगा। चाहे कोई माँस
खाये, चाहे सारे पाप करे, कुछ भी करे, ष्टिकन्तु नक% में
जाने के लिलये क्यों नहीं तैयार है ? जब सारा जगत् ही
ब्रह्म का रूप है, तो नक% में क्यों नहीं जाना चाहते ? क्या
नक% में ब्रह्म नहीं है ? आलिखर जिजसने सारी सृष्टि=, स्वग%
इ_याष्टिद बनाया हैं , उसने नक% भी बनाया होगा। नक% के
कण-कण में भी तो वही होगा , ष्टिफर उसमें जाने की
इच्छा क्यों नहीं होती?
ष्टिकरन्तन ३४/१४
है, तो क्या वहाँ रात ष्टिमल सकती है? जहाँ राष्टित्र है वहाँ
ष्टिदन नहीं, और जहाँ ष्टिदन है वहाँ राष्टित्र नहीं। जहाँ ब्रह्म का
अखण्ड स्वरूप है, वहाँ राष्टित्र का अन्'कार नहीं हो
सकता, वहाँ माया का अन्'कार नहीं हो सकता।
काल आवत कबूं ब्रह्म भवन में, तुम क्यों न ष्टिवचारो सोई।
ष्टिकरंतन ३२/६
ष्टिकरंतन २९/६
ष्टिकरन्तन २९/५
काल आवत कबूं ब्रह्म भवन में, तुम क्यों न ष्टिवचारो सोई।
ष्टिकरंतन ३२/६
ष्टिकरंतन ३२/१०
भयाष्टिदन्द्रश्च वायश्च
ु मृ_यःु 'ावधित पंचमः।।
ऋग्वेद ९/११३/७
ऋग्वेद १०/११३/११
प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा 201 / 371
तमस के पार श्री राजन स्वामी
बुरे कम% करें, पापों में लिलV रहें, यह कैसे सम्भव है?
चतुथ% अध्याय
जीव है। चेतन में जड़ का गुण नहीं होता और जड़ में
चेतन का गुण नहीं होता। इसलिलए संसार का प्र_येक
पदाथ% सगुण है और प्र_येक पदाथ% ष्टिनगु%ण है। साकार को
सगुण कहना और ष्टिनराकार को ष्टिनगु%ण कहना बहुत बड़ी
भूल है।
अणओ
ु ं के ष्टिमलने से वायु त_व बनता है। वायु त_व
में अनेक गैसें ष्टिमली रहती हैं। डाॅक्टर लोगों के पास
जाइये, तो वहाँ आक्सीजन द्रव्य आपको ष्टिमल जायेगा,
काब% न-डाई-आक्साईड का द्रव्य आपको ष्टिमल जायेगा।
अनेक गैसों को द्रष्टिवत रूप में ष्टिदखाया जा सकता है।
वायु त_व ष्टिकससे बनता है? आकाश से। आकाश त_व
ष्टिकससे बनता है? अहंकार से। अहंकार ष्टिकससे बनता
है? महत्त_व से। महत्त_व ष्टिकससे प्रकट होता है? कारण
रामचरिरत मानस
केनोपष्टिन@द् १/४
यजुव”द ३१/१८
पैर नहीं हैं, लेष्टिकन चलता है। कान नहीं हैं , लेष्टिकन
सुनता है।
इसी को दस
ू रे रूप में श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् में कहा है-
श्वेताश्वतरोपष्टिन@द् ३/१९
वेनः तत् पश्यत् परमं गुहां यद् यत्र ष्टिवश्वं भव_येक रूपम्।
गीता २/२३
ने कहा-
बृहदारण्यकोपष्टिन@द् ५/१५/१
ऋग्वेद ८/६५/४
ष्टिकरंतन ६/१
पंचम अध्याय
दस
ू रा स्तर होता है बुधिद्ध के 'रातल पर , मन के
आ'ार पर होने वाली सा'ना। इसमें जप और यज्ञ आष्टिद
है। जप योग, तप योग, मन्त्र योग, नाद योग, सभी इसी
परम्परा के अन्तग% त आते हैं। हठ योग भी इसी के
अन्तग% त आता है। जप का ता_पय% यह है ष्टिक हम
परमा_मा के नाम को ष्टिकसी न ष्टिकसी रूप में जपते हैं।
इसके लिलये माला की प्रष्टिक्रया प्रायः अधि'कतर पन्थों में
अपनायी जाती है। ष्टिहन्द ू 'म% के अधि'कतर सम्प्रदायों में
माला फेरने की परम्परा है। मुत्मिस्लम जन भी माला का
प्रयोग करते हैं, जिजसे तस्वीह कहते हैं। इसी तरह से
बौद्ध मत में भी यह प्रष्टिक्रया चलती है।
यजुव”द ३/६०
ऋतं तपः, दमः तपः, स_यं तपः, स्वाध्याय तपः, ब्रह्मचय‚ तपः।
सुलगा लेता है। क्या कहेगा, मैं तपस्या कर रहा हूँ। कोई
एक हाथ ऊपर खड़ा कर देगा, कोई दोनों पाँव से कई-
कई व@% खड़ा रहेगा, और क्या कहेगा ष्टिक मैं तप कर रहा
हूँ। यह तप नहीं है। यह तो शरीर को पीड़ा देना है। अपने
हृदय को पीड़ा देना है। अपने हृदय को पीड़ा देने को
तपस्या नहीं कहते। तप का अथ% है शम। अपने
मनोष्टिवकारों का शमन करना। सांसारिरक भोग की इच्छा
से ष्टिबल्कुल अलग हो जाना, यह है तप। दमन तप है।
इत्मिन्द्रयों को ष्टिव@यों में न जाने देना तप है , यथाथ% स_य
का पालन करना ही तप है।
गीता १७/१५
अहम्।
है, नशे में पड़ा है। उसे कुछ पता नहीं है। एक व्यष्टिŽ
ऐसा भी है, जो गुफा में बैठा है , आ_मद्र=ा होकर देख
रहा है। संसार उसके सामने स्वप्न के समान है। चाहे
हीरे-मोती के महल हों, उसको मोह नहीं है। वह देखता
है ष्टिक ये हीरे-मोती के महल सब नश्वर हैं। मैं इन्हें लेकर
क्या करूँगा? उसके लिलए स्वग% और वैकुण्ठ के सुख भी
नश्वर हैं। उनसे घृणा करता है। इसका कारण क्या है?
उसने चेतन त_व को देखा है। वह भौधितक पदाथ[ में
फँसने वाला नहीं है। इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@य उसको फँसा नहीं
सकते, क्योंष्टिक वह इनसे परे हो चुका है। वह आ_मदशs
है।
आगम भाखो
मन की परखो,
दस
ू रों के मन की बातों को जान लेना। इसको एक
दृ=ान्त से समजिझए। यहाँ एक रेधिडयो स्टेशन है और पूरे
देश में एक लाख रेधिडयो बज रहे हैं। यहाँ से जो कु छ
भेजा जाता है, बोला जाता है, पूरे देश के रेधिडयो उसको
ग्रहण कर लेते हैं। यहाँ तक ष्टिक लन्दन में भी जो बोला
जाता है, पूरी दष्टिु नया के रेधिडयो में वह आवाज आती है ,
यह कैसे सम्भव है? रेधिडयो से रष्टिहत लोगों को सुनाई
नहीं देता। जहाँ रेधिडयो बज रहा होता है , उसकी सुई
सकता है।
ष्टिकरंतन १४/१०
एकादश लिखड़की खल
ु ी, अग्र महल सुख सार।।
मुण्डकोपष्टिन@द् १/२/४
गीता ८/२२
गये, कहाँ से कहाँ की बात जानने लगे , इसी में सारी उम्र
गुजर जाया करती है। एक जन्म में सा(ा_कार नहीं हुआ,
तो ष्टिफर दस
ू रे जन्म में प्रवेश कर जाते हैं। इन्हीं को गीता
में कहा है-
गीता ७/४५
में भगवान शिशव कहते हैं ष्टिक हे उमा ! परमा_मा कौन है,
इसको जानने के लिलए मैंने पाँच हजार ष्टिदव्य व@[ की
समाधि' लगाई। उस समाधि' में मैंने ईश्वर से जो ज्ञान
सुना, वही ज्ञान मैं तुमको सुना रहा हूँ , और मैं उसी
परमा_मा का ध्यान करने का प्रयास करता हूँ। आप
कल्पना कीजिजए उस अ(रातीत की ज्ञान 'ारा को
भगवान शिशव समाधि' में सुनकर ध्यान करने का प्रयास
कर रहे हैं। वह दावे से नहीं कहते ष्टिक उन्होंने अ(रातीत
का दश% न कर लिलया। उनसे बड़ा योष्टिगराज तो इस समय
कलिलयगु में कोई होगा नहीं।
ऋग्वेद ८/४५/२३
बोली, मैं नरक में जाऊँगी यष्टिद मैं अपने पधित को अपनी
चरण 'ूलिल दँगू ी। श्री कृष्ण भगवान तड़पते रहे , लेष्टिकन
ष्टिकसी ने भी उन्हें अपने चरणों की 'ूलिल नहीं दी। नारद
जी चारों तरफ खोजते -खोजते थक गये। तब अन्त में
श्री कृष्ण ने नारद से कहा ष्टिक तुम व्रज में जाओ , और
रा'ा व गोष्टिपयों से कहना ष्टिक कन्हैया के पेट में दद% हो
रहा है, और यह तभी ठीक होगा जब कोई अपने चरणों
की 'ूलिल देगा। रा'ा ने कहा ष्टिकतनी चाष्टिहए? एक पैर की
या दोनों पैरों की, और 'ूलिल दे दी।
गीता ७/८
ऋग्वेद ९/११३/७
गीता १५/६
श्रृंगार २३/७६
ऋग्वेद ८/४५/२३
।। इधित पूण%म्।।