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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 1 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

वि रह के प्रकरण

राग सिंसधुड़ा

विकरंतन प्रकरण ३५-४० उस समय उतरे, जब


श्री जी मन्दसौर में सुन्दरसाथ सविहत वि रक्त भेष में
वि राजमान थे और कृपाराम जी उदयपुर का दःु ख भरा
समाचार लेकर आये। सुन्दरसाथ के कष्टों की विन ृत्ति> के
त्तिलये ये छः प्रकरण श्री महामतित जी के धाम हृदय से फूट
पड़े। इन प्रकरणों का श्रद्धापू F क पाठ सुन्दरसाथ को
लौविकक कष्टों से छुटकारा विदलाता है।

ालो वि रह रस भीनों रंग वि रहमां रमाड़तो,

ासना रूदन करे जल धार।

आप ओलखा ी अलगो थयो अमथी,

जे कोई हुती तामसिसयों सिसरदार।।१।।

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

हे प्राण ल्लभ अक्षरातीत! वि रह का खेल देखने


ाली, वि रह के रस में डू बी हुई , हम आत्माएँ रोते हुए
आँ सुओं की धारा बहा रही हैं। प्रमुख तामसी सत्तिखयों में
आप अपनी पहचान देकर ओझल हो गये हैं।

भा ाथF - यद्यविप रोने का कायF जी का है , आत्मा


का नहीं। आत्मा तो मात्र द्रष्टा है , विकन्तु जी के तन
द्वारा आत्मा का नाम त्तिलये जाने से यह बात कही गयी है
विक आपकी आत्मायें रो रही हैं। परमधाम की ाविहदत
(एकविदली) में सरदार (प्रमुख) अथ ा सात्वित् की,
राजसी, और तामसी का भेद नहीं है। ये सारी बातें व्रज,
रास, ए ं जागनी लीला से सम्बत्विन्धत हैं।

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

कलकली कामनी दन वि लखावि या,

वि श्वमां रतितयो हाहाकार।

उदमाद अटपटा अंग थी टालीने,

माननी सहुए मनावि यो हार।।२।।

हे धनी! आपकी दःु खी अँगनाओं के चेहरों पर


विबलख-विबलखकर रोने का करुण दृश्य है। इस समय
सम्पूणF वि श्व में दःु ख फैलने से हाहाकार मचा हुआ है।
आपने अपनी अँगनाओं के हृदय में जो इश्क के बड़ा होने
का भा था, उसे हटाकर हार मन ा ली है।

भा ाथF - "विबलखना" रोने की ह प्रविiया है,


सिजसमें जोर -जोर से सिससविकयाँ आती हैं। अधाjविगनी
अपने विप्रयतम से प्रेम का मान रखती हैं, इसत्तिलये उसे
माविननी कहते हैं।

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पतितव्रता पल अंग थाए नहीं अलविगयो,

न कांई जार ंतितयो वि ना जार।

पावित्रयो विपउ थकी अमें जे अभागणिणयों,

रविहयो अंग दाग लगा न हार।।३।।

इस संसार में पतितव्रता स्त्री एक पल के त्तिलये भी


अपने पतित से अलग होना पसन्द नहीं करती तथा कोई
प्रेविमका भी अपने प्रेमी से अलग नहीं रह पाती, विकन्तु
एक हम ऐसी अभाविगन हैं, जो पतितव्रता कहलाने पर भी
अपने विप्रयतम से दरू (माया में) हैं और अपने प्रेम पर
कलंक लग ा रही हैं।

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

स्या रे ए ा करम करया हता कामनी,

धाम मांहें धणी आगल आधार।

ह े काढ़ो मोहजल थी बूडती कर ग्रही,

कहे महामती मारा भरतार।।४।।

श्री महामतित जी कहते हैं विक हे मेरे विप्रयतम् ! हमने


परमधाम में आपके प्रतित ऐसा कौन सा खोटा कायF विकया
था, सिजसके परिरणाम स् रूप हमें ये दःु ख भरे विदन देखने
पड़ रहे हैं। अब आप भ सागर में डू बती हुई अपनी
अँगनाओं को हाथ पकड़कर विनकात्तिलये।

।। प्रकरण ३५ ।।

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हांरे ाला रल झलावि यो रामतें रो रावि यो,

जुज े प F तों पाड़या रे पुकार।

रण गडा मांहें रोई कहे कामनी,

धणी वि ना तिधक तिधक आ रे आकार।।१।।

हे मेरे ाला जी! इस खेल में माया ने हमें इतना


दःु खी विकया है और रुलाया है विक हम अलग -अलग
पहाड़ों में जोर -जोर से विबलख रही हैं। दःु खों से तपने
ाले इस रेविगस्तान रूपी संसार में रो-रोकर हम अँगनायें
कह रही हैं विक हे धनी ! आपके विबना इस शरीर को
तिधक्कार है, तिधक्कार है।

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

ेदना वि खम रस लीधां अमें वि रह तणां,

ह े दीन थई कहूं ारं ार।

सुपनमां दख
ु सहया घणां रासमां,
जागतां दख
ु न सेहे ाए लगार।।२।।
हे धनी! आपके वि रह में हमने असहनीय कष्टों का
अनुभ विकया है। अब हम दीन (यतीम, सिजसके पास
कुछ भी न हो) होकर आपसे बारम्बार यह बात कह रही
हैं विक स् प्न के ब्रह्माण्ड व्रज में ५२ विदन तक वि रह का
कष्ट देखा, और उससे भी अतिधक वि रह का कष्ट रास में
अन्तधाFन लीला में देखा, विकन्तु इस जागनी के ब्रह्माण्ड
में जाग्रत हो जाने पर थोड़ा भी वि रह का कष्ट नहीं सहा
जाता।

भा ाथF - व्रज में घर और सम्बन्ध का कुछ भी ज्ञान


नहीं था। रास में सम्बन्ध का बोध तो था , विकन्तु विनज

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घर का नहीं, इसत्तिलये वि रह सहन विकया जा सका।


जागनी ब्रह्माण्ड में सारे रहस्यों का पता चल जाने पर
वि रह का कष्ट असह्य होता है।

दंत तरणां लई तारूणी तलविफयो,

तमें बाहो दाहो दीन दातार।

खमाए नहीं कठण ए ी कसनी,

राखो चरण तले सरण साधार।।३।।

दःु त्तिखयों के हृदय में आनन्द रस का संचार करने


ाले हे विप्रयतम! आपकी अँगनाएं अपने दाँतों में तितनका
दबाकर तड़प रही हैं। आप उनकी वि रहावि~ को बुझाइए।
अब इस प्रकार की कविठन परीक्षा नहीं सही जाती।
शरणागतों के जी न के आधार, हे मेरे धाम धनी! आप
अपनी अँगनाओं को अपने चरणों की छाँ में रत्तिखए।

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भा ाथF - "दाँतों में तितनका दबाना" एक मुहा रा है,


सिजसका अथF होता है विक हम अपनी भूलों पर प्रायति€त
करते हैं। हमारे पास अब आपके प्रतित बोलने के त्तिलये
कोई भी शब्द नहीं है। हम सुख या दःु ख में धनी से
विकतना प्रेम करते हैं, यह हमारे त्तिलये एक बहुत बडी़
कसौटी है।

ह े हारया हारया हूं कहूं ार केटली,

राखो रोतितयो करो विनरमल नार।

कहे महामती मेहेबब


ू मारा धणी,

आ रे अजF रखे हांसीमा उतार।।४।।

श्री महामतित जी कहते हैं विक मेरे प्राण जी न


विप्रयतम! अब मैं इसी बात को विकतनी बार कहूँ विक मैं
हार गई, हार गई। हमारा रोना-धोना बन्द कराकर अपने

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प्रेम-रस से हमें विनमF ल कीसिजए और हाँ ! मेरी इस प्राथF ना


को आप अ श्य ही स् ीकार कीसिजए। इसे हँसी में टाल
मत दीसिजएगा।

।। प्रकरण ३६ ।।

हांरे ाला बंध पड़या बल हरया तारे फंदड़े ,

बंध वि ना जाए बांतिधयो हार।

हंसिसए रोइए पविड़ए पछताइए,

पण छूटे नहीं जे लागी लार कतार।।१।।

हे ाला जी! आपके द्वारा इस खेल के फन्दे में आने


से हम माया के बन्धनों में फँस गयी हैं। अब हमारी सारी
शविक्त (ज्ञान, प्रेम, वि ेक इत्याविद) क्षीण हो गयी है।
देखने में कोई प्रत्यक्ष बन्धन तो नहीं विदखाई पड़ता ,
लेविकन सभी अँगनाएं पंविक्तबद्ध होकर विकसी न विकसी रूप

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में माया से बँधी हुई हैं। इससे विनकलने के त्तिलये कोई


विकतना भी रोए, हँसे, या प€ाताप करे, लेविकन माया का
बन्धन ऐसा वि कट है विक ह छूटता ही नहीं। इसमें
फँसते जाने ालों की लम्बी पँविक्तयां लगी हुई हैं।

जेहेर चढ़यो हाथ पांउं झटकतितयो,

सर ा अंग साले कोई सके न उतार।

समरथ सुखथाय साथने ततत्तिखण,

गुण ंता गारुडी जेहेर तेहेने तेणी वि धें झार।।२।।

सिजस प्रकार विकसी व्यविक्त के शरीर में जहर फैल


जाने पर उसके सभी अंगों में पीड़ा होने लगती है , तथा
ह अपने हाथों और पैरों को पटकने लगता है , उसी
प्रकार हे धनी! हमारे इन तनों में भी माया का जहर फैल
गया है, सिजससे हम दःु खी हैं। इस माया के जहर को

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कोई भी अन्य व्यविक्त उतारने में समथF नहीं है। जैसे कोई
गुण ान ओझा अपने मन्त्र-बल से जहर को उतार देता
है, उसी प्रकार आप ही तारतम ाणी के रस से हमारे
वि ष को उतारने में समथF हैं। हे प्राण ल्लभ! हमें इसी क्षण
वि ष से रविहत कर दीसिजए, ताविक हम सभी आनन्द में म~
हो जायें।

भा ाथF - "हाथ-पाँ पटकना" एक मुहा रा है,


सिजसका अथF होता है - व्याकुलता प्रकट करना। यहाँ
यह कथन इस सन्दभF में प्रयक्त
ु हुआ है विक सिजस प्रकार
वि ष से व्याकुल व्यविक्त वि ष न उतर पाने पर अपने हाथों
और पैरों को झटकने लगता है , उसी प्रकार माया के
वि ष (काम, iोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्यायाF) से
व्याकुल सुन्दरसाथ प्रायति€त् के रूप में अपने हाथ-पाँ
पटक रहे हैं। बेहद ाणी ३१/१३७ में माया के वि ष को

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उतारने के सम्बन्ध में कहा गया है-

तारतम रस बानी कर, विपलाइये जाको।

जेहेर चढ़या होय सिजमीका, सुख हो े ताको।।

माहें धखे दा ानल दसो विदसा,

ह े बलण ासनाओं थी विन ार।

हुकम मोहथी नजर करो विनरमल,

मूल मुखदाखी वि रह अंग थी वि सार।।३।।

इस संसार की दशों विदशाओं (पू F , पति€म, उ>र,


दतिक्षण, आ~ेय, नैऋत्य, ायव्य, ईशान, ऊपर, और
नीचे) में वि षयों की दा ावि~ जल रही है। इनमें झुलसने
ाली आत्माओं को बचा लीसिजए। हे विप्रयतम! अपने
हुक्म से इनकी दृविष्ट को माया से हटाकर स् च्छ कर
दीसिजए और अपना नूरी सुन्दर स् रूप विदखाकर हृदय से
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वि रह के कष्ट को दरू कर दीसिजए।

भा ाथF - न में एक ृक्ष की अवि~ दस


ू रे ृक्ष तक
पहुँच कर उसे भी जला देती है, वि षय का वि ष भी उसी
प्रकार है। वि षयों का सिजतना ही से न विकया जायेे ,
दा ावि~ की तरह उनकी इच्छा उतनी ही बढ़ती जाती है।
विप्रयतम के मुखारवि न्द के दशF न से ही शात्विन्त विमलती है।
इसके अतितरिरक्त अन्य कोई भी मागF नहीं है।

छल मोटे अमने अतित छे तरया,

थया हैया झांझरा न सेहे ाए मार।

कहे महामती मारा धणी धामना,

राखो रोतितयों सुख देयो ने करार।।४।।


इस ठविगनी माया के लुभा ने छल ने हमें बहुत
अतिधक ठगा है, सिजससे हमारा हृदय छलनी हो गया है।

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अब इसकी मार सही नहीं जाती। श्री महामतित जी कहते


हैं विक हे मेरे धाम के धनी! अब हमारा रोना बन्द कराकर
परमधाम का अखण्ड सुख दीसिजए, सिजससे हमारे हृदय
को सुकून (शात्विन्त) विमल सके।

।। प्रकरण ३७ ।।

केम रे झंपाए अंग ए रे झालाओ,

ली ली ाध्यो वि ख वि स्तार।

जी सिसर जुलम कीधो फरी फरी,

हविठयो हरामी अंग इंद्री वि कार।।१।।

हे धाम धनी! हृदय में उठने ाली वि रह की लपटों


को कैसे बुझायें? माया के वि ष का वि स्तार तो विदन-
पर-विदन बढ़ता ही जा रहा है। अन्तःकरण (मन, तिच>,
बुतिद्ध, तथा अहंकार) ए ं इत्विन्द्रयों के हठी तथा पापी

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वि कारों ने जी के ऊपर बारम्बार अत्याचार विकया है।

भा ाथF - अन्तःकरण तथा इत्विन्द्रयों के विबना जी


कोई भी कायF नहीं कर सकता। इनके अन्दर उत्पन्न होने
ाले वि कारों से ही ह माया के बन्धन में फँस जाता है ,
अन्यथा अपने मूल रूप में ह मात्र द्रष्टा है।

झांप झालाओ ह े उठतितयो अंगथी,

सुख सीतल अंग अंगना ने ठार।

बाल्या ली ली ए मन ए कबुधें,

कमसील काम कां कराव्या करतार।।२।।

हे धनी! आप हमारे हृदय से उठने ाली वि रह की


अवि~ की लपटों को बुझा दीसिजए। अपने प्रेम का शीतल
सुख देकर अँगनाओं के हृदय को पूणF रूप से तृप्त कर
दीसिजए। कुबुतिद्ध ाले इस मन ने हम अँगनाओं को बार-

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

बार माया में भटकाया है। न जाने क्यों हमसे माया में
नीच कमF कराये गये?
भा ाथF - "करतार" शब्द का प्रयोग यद्यविप अक्षर-
अक्षरातीत के त्तिलये होता है, विकन्तु प्रश्न यह होता है विक
क्या अक्षरातीत भी अपनी आत्माओं से खोटे कमF कर ा
सकते हैं?

कदाविप नहीं! इस चौपाई में करतार शब्द सम्बोधन


है। यजु ’द में कहा गया है - "यस्मान्न ऋते किंकचन कमF
iीयते", अथाFत् सिजस मन के विबना कोई भी कायF नहीं
होता। स्पष्ट है सिजस मन को बारम्बार माया में फँसाने
ाला कहा गया है, उसने ही ब्रह्मसृविष्टयों के जी ों से
खोटे कमF कर ाये , सिजसका दाग ब्रह्मसृविष्टयों के नाम के
साथ जुड़ जाता है।

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

गुण पख इंद्री स करी अबलीस ने,

अंगना अंग थाप्यो दई तिधकार।

अथF उपले एम केहे ाइयो ासना,

फरी एणे चने दीधी विफटकार।।३।।

इब्लीश ने हमारी इत्विन्द्रयों (ज्ञानेत्विन्द्रयों तथा


कम’त्विन्द्रयों), पक्ष (जाग्रत, स् प्न्, ए ं सुषुविप्त), ए ं गुणों
(सत् , रज, ए ं तम) को अपने अधीन कर त्तिलया है।
इस इब्लीश की बैठक हमारे विदलों में भी हो गयी है ,
लेविकन दोषी हमें ही ठहराया जा रहा है। यद्यविप बाह्य
अथ” में तो हमें ब्रह्मसृविष्ट कहा जा रहा है , विकन्तु इन
शब्दों की शोभा देकर एक प्रकार से हमें लत्ति•त ही विकया
जा रहा है।

भा ाथF - कतेब परम्परा में "इब्लीश" का अथF होता


है, ह शविक्त जो रूह को अल्लाह तआला से दरू करने का

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प्रयास करे। ैविदक परम्परा में इसे कत्तिलयगु कहा गया है,
सिजसका तात्पयF होता है , अज्ञान रूपी अन्धकार। मन में
अज्ञान या तमोगुण का अन्धकार छा जाने पर ह चञ्चल
हो जाता है, सिजससे भविक्त दरू हो जाती है।

खल
ु ासा में कहा है - " ेदे नारद कहयो मन वि र्ष्याणु
को, जाको सराप्यो प्रजापतित।" कतेब परम्परा में सिजस
प्रकार अजाजील के मन की शविक्त इब्लीश है , उसी
प्रकार ैविदक परम्परा में वि र्ष्याणु के मन का रूप नारद है।
स्तुतः यह ऐतितहासिसक प्रसंग न होकर आलंकारिरक है।
पौराणिणक मान्यता में नारद जी को ब्रह्मा जी के श्राप श
स F त्र भ्रमण करते हुए दशाFया गया है , विकन्तु ज्ञान का
प्रकाश विमलने पर नारद जी को ीणा के साथ आराधना
ए ं ध्यान करते हुए भी विदखाया गया है। तात्पयF यह है
विक मन में अज्ञान या तमोगुण आने पर परमात्मा से द रू

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कर देता है, तथा ज्ञान और सात्वित् कता आने पर


परमात्मा की ओर ले जाता है। "मनः ए मनुर्ष्यायाणां
बन्धन मोक्ष कारणम्।"

कतेब परम्परा में नमाज के समय इब्लीश के डर से


तल ार रखने की बात नादानी है। इब्लीश अथाFत् मन के
अन्दर के तमोगुण को हटाना ही इब्लीश को मारना है।
इब्लीश को देहधारी (नारद आविद) मानना अनुतिचत है।

मांहेले माएने जोपे ज्यारे जोइए,

त्यारे दीधी तारूणी तन तछकार।

कलकली महामती कहे हो कंथजी,

ए ा स्या रे दोष अंगनाओं ना आधार।।४।।


अन्दर के भा ों से यविद देखा जाये तो यह स्पष्ट
होता है विक आपने हम अँगनाओं को इस माया में भेजकर

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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

शरीर काटने जैसी पीड़ादायक सजा दी है। विबलखती हु ई


महामतित जी कह रही हैं विक हे प्राणाधार विप्रयतम ! इसमें
हम अँगनाओं का क्या अपराध है?

द्रष्टव्य- अक्षरातीत कभी भी विकसी प्रकार की पीड़ा


नहीं दे सकते। पीड़ादायक सजा पाने की बात के ल
प्रेममयी उलाहने के रूप में कही गयी है।

।। प्रकरण ३८ ।।

हांरे ाला कांरे आप्या दख


ु अमने अनघटतां,
ब्राध लगाडी वि ध वि ध ना वि कार।

वि मुख कीधां रस दई वि रह अ ला,

साथ सनमुख मांहें थया रे तिधकार।।१।।

हे मेरे विप्रयतम! आपने हमें माया में कभी न समाप्त


होने ाला दःु ख क्यों दे विदया? हमारे विदल में वि षय-
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वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

वि कारों के अविमट रोग भी लगा विदये। अपनी शोभा ए ं


श्रृंगार के दीदार से दरू हटाकर उलटा वि रह के ही
दःु खदायी रस में डु बो विदया। इस प्रकार सुन्दरसाथ के
बीच में मुझे लत्ति•त होना पड़ रहा है।

भा ाथF - माया से संयोग होने के कारण जी को ही


वि षय-वि कारों के रोग लगते हैं , आत्मा को नहीं। यह
अक्षरातीत की नहीं, बत्विल्क माया की लीला कही
जायेगी। चौपाई में लाक्षणिणक ए ं उलाहना देने की भाषा
प्रयोग में लायी गयी है, इसत्तिलए ऐसा प्रतीत हो रहा है।

अनेक रामत बीजी हती अतित घणी,

सुपने अग्राह ठे ले संसार।

उघड़ी आं ख विदन उगते एणे छले,

जागतां जनम रूडा खोया आ ार।।२।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 23 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

हे धनी! परमधाम में तो बहुत अतिधक सुन्दर दस


ू री
रामतें भी थीं, लेविकन आपने हमें इस न रहने योग्य झूठे
संसार में धकेल विदया (भेज विदया)। तारतम ज्ञान के
उजाले में जब हम अपनी आँ खें खोलकर जाग्रत हुए , तो
यह स्पष्ट हुआ विक इस जागनी ब्रह्माण्ड में आने का
सुन्दर अ सर (सुन्दर जन्म) हमने खो विदया।

सनमुख तमसूं वि रह रस तम तणो,

कां न कीधां जाली बाली अंगार।

त्राविह त्राविह ए ातों थासे घेर साथमां,

सेहेसूं केम दाग जे लाग्या आकार।।३।।

हे धनी! परमधाम के मूल विमला ा में तो मैं आपके


सामने ही बैठी हुई हूँ, लेविकन इस संसार में मैं आपके
वि रह के रस में तड़प रही हूँ। आपने हाँ ही मुझे वि रह

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 24 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

की अवि~ में जलाकर अँगारा क्यों नहीं बना विदया ? अब


इस संसार में दःु खों से बचने के त्तिलए मैं जो त्राविह -त्राविह
की पुकार कर रही हूँ, यह सारी बातें परमधाम में
सुन्दरसाथ के बीच में होंगी। यहीं के तन के माध्यम से
मेरे ऊपर गुनाहों का जो दाग लगा है, उसे मैं परमधाम में
सुन्दरसाथ के बीच में कैसे सहन करूँगी?

वि रह थी वि छोडी दख
ु दीधां वि समां,
अहविनस विनस् ासा अंग उठे कटकार।

दख
ु भंजन सहु वि ध विपउजी समरथ,
कहे महामती सुख देंण सिसणगार।।४।।

मेरे विप्रयतम! आपने अपने वि रह से भी अलग करके


इस माया ी संसार का कविठन दःु ख विदया, सिजसकी आहों
से विदन-रात हमारे हृदय के टु कड़े-टु कड़े हो रहे हैं।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 25 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

आप तो सभी प्रकार के दःु खों को विमटाने में हर प्रकार से


समथF हैं। श्री महामतित जी कहते हैं विक हे धनी ! आप
अपने श्रृंगार का सुख हमें दीसिजए , अथाFत् हमारे धाम
हृदय में अपने नख से णिशख तक के श्रृंगार सविहत
वि राजमान हो जाइए।

भा ाथF - पू F की चौपाइयों में वि रह के कष्टों का


णF न विकया गया है और इस चौपाई में वि रह से भी
हटाकर लौविकक कष्टों के भोगने का णF न विकया गया है।
कलस किंहदस्ु तानी में कहा गया है- "एता सुख तेरे वि रह
में, तो सुख होसी कैसा वि हार।" यद्यविप वि रह का कष्ट
सहा जा सकता है, क्योंविक उसमें पल-पल विप्रयतम की
सातिन्नध्यता का अहसास होता है, विकन्तु धनी के वि रह
से रविहत होकर माया का कष्ट सहना बहुत ही दःु खमयी
है। सिजस प्रकार दःु ख में कलेजे के टु कड़े -टु कड़े होने की

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 26 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

बात की जाती है, उसी प्रकार यहाँ हृदय (विदल) के


टु कड़े-टु कड़े होने का प्रसंग है।
।। प्रकरण ३९ ।।

हांरे ाला अविगन उठे अंग ए रे अमारड़े,

वि मुख वि प्रीत कमर कसी हणिथयार।

स् ाद चढ़या स् ाम द्रोही संग्रामें,

वि कट बंका कीधा अमें आसाधार।।१।।

हे मेरे धनी! हमारे हृदय में प्रायति€त की यह अवि~


जल रही है विक हमने आपसे वि मुख होकर अपना प्रेम
खो विदया है, तथा काम, iोध आविद माया ी वि कारों के
हणिथयार लेकर आपसे लड़ने के त्तिलये तैयार हो गये हैं। हे
विप्रयतम! आपसे द्रोह रूपी यद्ध
ु का हमें चस्का (स् ाद)
लग गया है। इस प्रकार हमने बहुत ही भयंकर ए ं उल्टा

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 27 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

काम विकया है।

भा ाथF - इस चौपाई में प्रायति€त की अवि~ के जलने


का प्रसंग है न विक वि रह की, क्योंविक वि रह से ही प्रेम
प्रकट होता है ए ं विप्रयतम का दीदार होता है, जबविक
इस चौपाई में स् यं को धनी से वि मुख ए ं प्रेम से रविहत
कहा गया है। विनसबत की अ हेलना करके माया में
डू बना ही धाम धनी से द्रोह करना है।

कुकरम कसा जुध कई करावि यां,

पलीत अबलीस अम मांहें बेसार।

जागतां विदन कई देखतां अमने छे तरया,

खरा ने खराब ए खलक खआ


ु र।।२।।
हे धाम धनी! इस नीच इब्लीश को हमारे अन्दर
बैठाकर आपने हमसे कई अनुतिचत यद्ध
ु ए ं खोटे कमF

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 28 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

कर ाये हैं। ज्ञान के उजाले में जाग्रत हो जाने पर भी इस


इब्लीश ने हमें कई बार ठगा है। विनति€त रूप से यह सभी
प्राणिणयों को पथभ्रष्ट ए ं तितरस्कृत करने ाला है।

भा ाथF - धनी हमें माया से विनकालना चाहते हैं


और हम वि षयों में फँसकर माया के अधीन हो जाते हैं।
उस समय हमारे हृदय में धनी का प्रेम नहीं रह जाता।
इसी प्रविiया को धनी से यद्ध
ु करना कहते हैं। ाणी का
ज्ञान होने पर भी यविद हमारे हृदय में विप्रयतम के प्रतित प्रेम
नहीं है , तो यह मन रूपी इब्लीश हमें माया में भटका
सकता है।

ओलखी तमने अमें जुध कीधां तमसूं,

मन तिचत बुध मोह ग्रही अहंकार।


ए वि मुख ातों मोटे मेले ंचासे,

मलसे जुथ जहां बारे हजार।।३।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 29 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

मेरे प्राण ल्लभ! ज्ञान दृविष्ट से आपकी पहचान कर


लेने के बाद भी मैंने आपसे यद्ध
ु विकया, क्योंविक मेरे मन,
तिच>, बुतिद्ध मोह ए ं अहंकार से ग्रसिसत थे। यहाँ की बारह
हजार ब्रह्मसृविष्ट जब अपने मूल तनों में जाग्रत होंगी , तो
हमारे द्वारा विकये हुए इन उल्टे कामों की चचाF सबके
सम्मुख होगी।

कहे महामती हूं गांऊं मोहोरे थई,

पण वि मुख वि धो ीती सहु मांहें नर नार।

धाम मांहें धणी अमें ऊंचूं केम जोईसूं,

पोहोंचसे प ाड़ा परआतम मोंझार।।४।।

श्री महामतित जी कहते हैं विक ये सारी बातें मैं


आगे ान बनकर ही कह रही हूँ, विकन्तु इस माया में
उल्टी राह तो सब सुन्दरसाथ ने अपना रखी है। हे धनी!

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 30 / 31


वि रह के प्रकरण - टीका श्री राजन स् ामी

सबसे तिचन्तनीय बात तो यह है विक परआतम में जाग्रत


होने के बाद यहाँ का सारा प्रसंग जब हाँ र्णिणत विकया
जायेगा, तो हम आपके सामने आँ खें विमलाकर कैसे
देखेंगे?

।। प्रकरण ४०।।

प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसा ा 31 / 31

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