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Vireh Ke Prakaran Tika
Vireh Ke Prakaran Tika
वि रह के प्रकरण
राग सिंसधुड़ा
।। प्रकरण ३५ ।।
सुपनमां दख
ु सहया घणां रासमां,
जागतां दख
ु न सेहे ाए लगार।।२।।
हे धनी! आपके वि रह में हमने असहनीय कष्टों का
अनुभ विकया है। अब हम दीन (यतीम, सिजसके पास
कुछ भी न हो) होकर आपसे बारम्बार यह बात कह रही
हैं विक स् प्न के ब्रह्माण्ड व्रज में ५२ विदन तक वि रह का
कष्ट देखा, और उससे भी अतिधक वि रह का कष्ट रास में
अन्तधाFन लीला में देखा, विकन्तु इस जागनी के ब्रह्माण्ड
में जाग्रत हो जाने पर थोड़ा भी वि रह का कष्ट नहीं सहा
जाता।
।। प्रकरण ३६ ।।
कोई भी अन्य व्यविक्त उतारने में समथF नहीं है। जैसे कोई
गुण ान ओझा अपने मन्त्र-बल से जहर को उतार देता
है, उसी प्रकार आप ही तारतम ाणी के रस से हमारे
वि ष को उतारने में समथF हैं। हे प्राण ल्लभ! हमें इसी क्षण
वि ष से रविहत कर दीसिजए, ताविक हम सभी आनन्द में म~
हो जायें।
।। प्रकरण ३७ ।।
ली ली ाध्यो वि ख वि स्तार।
बाल्या ली ली ए मन ए कबुधें,
बार माया में भटकाया है। न जाने क्यों हमसे माया में
नीच कमF कराये गये?
भा ाथF - "करतार" शब्द का प्रयोग यद्यविप अक्षर-
अक्षरातीत के त्तिलये होता है, विकन्तु प्रश्न यह होता है विक
क्या अक्षरातीत भी अपनी आत्माओं से खोटे कमF कर ा
सकते हैं?
प्रयास करे। ैविदक परम्परा में इसे कत्तिलयगु कहा गया है,
सिजसका तात्पयF होता है , अज्ञान रूपी अन्धकार। मन में
अज्ञान या तमोगुण का अन्धकार छा जाने पर ह चञ्चल
हो जाता है, सिजससे भविक्त दरू हो जाती है।
खल
ु ासा में कहा है - " ेदे नारद कहयो मन वि र्ष्याणु
को, जाको सराप्यो प्रजापतित।" कतेब परम्परा में सिजस
प्रकार अजाजील के मन की शविक्त इब्लीश है , उसी
प्रकार ैविदक परम्परा में वि र्ष्याणु के मन का रूप नारद है।
स्तुतः यह ऐतितहासिसक प्रसंग न होकर आलंकारिरक है।
पौराणिणक मान्यता में नारद जी को ब्रह्मा जी के श्राप श
स F त्र भ्रमण करते हुए दशाFया गया है , विकन्तु ज्ञान का
प्रकाश विमलने पर नारद जी को ीणा के साथ आराधना
ए ं ध्यान करते हुए भी विदखाया गया है। तात्पयF यह है
विक मन में अज्ञान या तमोगुण आने पर परमात्मा से द रू
।। प्रकरण ३८ ।।
वि रह थी वि छोडी दख
ु दीधां वि समां,
अहविनस विनस् ासा अंग उठे कटकार।
दख
ु भंजन सहु वि ध विपउजी समरथ,
कहे महामती सुख देंण सिसणगार।।४।।
।। प्रकरण ४०।।