You are on page 1of 2

स्वदे शी 

का अर्थ है - 'अपने दे श का' अथवा 'अपने दे श में निर्मित'। वहृ द अर्थ में किसी भौगोलिक क्षेत्र में जन्मी,
निर्मित या कल्पित वस्तुओं, नीतियों, विचारों को स्वदे शी कहते हैं। वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से
स्वदे शी आन्दोलन को बहुत बल मिला, यह 1911 तक चला और गाँधी जी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी
सफल अन्दोलनों में से एक था। अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर
तिलक और लाला लाजपत राय स्वदे शी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे।] आगे चलकर यही स्वदे शी
आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्द ु बन गया। उन्होंने इसे "स्वराज की आत्मा"
कहा।

स्वदे शी आन्दोलन की शुरुआत बंगाल विभाजन के विरोध में हुई थी और इस आन्दोलन की औपचारिक शुरुआत
कलकत्ता के टाउन हॉल में 7 अगस्त ,1905 को एक बैठक में की गयी थी|इसका विचार सर्वप्रथम कृष्ण कुमार
मित्र  के पत्र संजीवनी में 1905 ई. में प्रस्तत
ु किया गया था| इस आन्दोलन में स्वदे शी नेताओं ने भारतीयों से
अपील की कि वे सरकारी सेवाओं,स्कूलों,न्यायालयों और विदे शी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदे शी वस्तओ
ु ं को
भा प्रोत्साहित करें व राष्ट्रीय कोलेजों व स्कूलों की स्थापना के द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा को प्रोत्साहित करें |अतः ये
केवल राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं था बल्कि आर्थिक आन्दोलन भी था|

स्वदे शी आन्दोलन को अपार सफलता प्राप्त हुई थी| बंगाल में जमींदारों तक ने इस आन्दोलन में भाग लिया था|
महिलाओं व छात्रों ने पिकेटिंग में भाग लिया |छात्रों ने विदे शी कागज से बनी पुस्तकों का बहिष्कार किया| बाल
गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,बिपिन चन्द्र पाल और अरविन्द घोष जैसे अनेक नेताओं को जेल में बंद कर
दिया गया | अनेक भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी और जिन छात्रों ने आन्दोलन में भाग लिया था उन्हें स्कूलों
व कालेजों में प्रवेश करने रोक दिया गया | आन्दोलन के दौरान ‘वन्दे मातरम’  को गाने का मतलब दे शद्रोह था|
यह प्रथम अवसर था जब दे श में निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को ध्यान में रखा गया |स्वदे शी आन्दोलन का सबसे
महत्वपूर्ण पहलू  आत्म-विश्वास या आत्मशक्ति (रविंद्रनाथ टै गोर के अनुसार) पर बल दे ना था| बंगाल केमिकल
स्वदे शी स्टोर्स(आचार्य पी.सी.राय द्वारा खोली गयी),लक्ष्मी कॉटन मिल,मोहिनी मिल और नेशनल टै नरी जैसे
अनेक भारतीय उद्योगों को इसी समय खोला गया|

अंग्रेजों से लड़ाई में न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात लोगों ने प्राणों की आहुति दी है . छोटे -बड़े अनगिनत क्रांतिकारियों

की शहादत ने आज़ादी की लड़ाई में अपना-अपना कीमती योगदान दिया है . ऐसे ही एक शहीद को महाराष्ट्र में तो

पूरा सम्मान हासिल है लेकिन शेष भारत में उन्हें ज़्यादा लोग नहीं पहचानते. हम बात कर रहे हैं महज़ 22 साल की

उम्र में स्वदे शी आंदोलन में अपनी जान दे चुके बाबू गेनू सैद की.

बाबू गेनू का जन्म 1902 में पुणे जिले के गांव महालुंगे पड़वल में हुआ. घनघोर गरीबी में पले -बढ़े बाबू गेनू के पिता

का उनके बचपन में ही दे हांत हो गया था. मां कपड़ा मिल में मजदरू ी करने लगीं. जब बाबू गेनू बड़े हो रहे थे उस
वक़्त दे श में अंग्रेजों की मुखालफत ज़ोरों पर थी. बाबू गेनू भी आंदोलन में हिस्सा लेने लगे. साइमन कमीशन के

विरोध में जुलूस भी निकाला. 1930 में हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह में भी हिस्सा लियाऔर . दो बार जेल गए.

वो घटना जिसमें उनकी शहादत हुई

उन दिनों स्वदे शी चीज़ें इस्तेमाल करने का आंदोलन उफान पर था. विदे शी माल का दे शभर में बहिष्कार हो रहा था.

12 दिसंबर 1930.मुंबई के कालबादे वी इलाके में एक गोदाम था. आंदोलनकारियों को ख़बर मिली कि वहां से विदे शी

माल लेकर दो ट्रक मंब


ु ई की ही कोर्ट मार्के ट जाएंगे. इस काम को रोकने की ज़िम्मेदारी बाबू गेनू और उनके दल

‘तानाजी पथक’ के सर आ गई. हनुमान रोड पर इसे रोकने का इरादा बना. भनक पाते ही वहां भीड़ भी इकठ्ठा हो

गई.

अंग्रेज़ अफसर फ्रेज़र को भी इसकी भनक लग गई. उसने भारी तादाद में पुलिस बुला ली. सारे क्रांतिकारी ट्रक के

रास्ते में खड़े हो गए. पुलिस उन्हें खींच-खींच कर दरू करती रही. क्रांतिकारी फिर आते रहे . आख़िरकार फ्रेज़र चिढ़

गया. ट्रक के आगे तनकर खड़े बाबू गेनू को उसने परे हटाना चाहा. वो नहीं हटे तो उसने ट्रक ड्राइवर से कहा ट्रक

चला दो. कोई मरता है तो मर जाने दो. ड्राइवर की हिम्मत नहीं हुई. गुस्से में उफनते अंग्रेज़ अफसर ने उसे

स्टीयरिंग से धक्का दे कर हटा दिया और खुद स्टीयरिंग संभाल ली. बाबू गेनू सीना तानकर खड़े रहे . फ्रेज़र ने ट्रक

चला दिया. ट्रक बाबू गेनू को कुचलता हुआ गुज़र गया. सड़क ख़ून से तरबतर हो गई.

इस घटना ने मुंबई में हाहाकार मचा दिया. बाबू गेनू को तब तक कोई नहीं जानता था, उसके बाद हर एक की
ज़ुबान पर उनका नाम चढ़ गया. उनके अंतिम संस्कार में भारी जनसमूह उमड़ा. कन्है या लाल मुंशी, लीलावती मुंशी,
जमनादास मेहता जैसे बड़े-बड़े नेता भी आए. कस्तूरबा गांधी उनके घर गईं और उनकी मां को सांत्वना दी. जहां
उनकी मौत हुई उस जगह का नाम गेनू स्ट्रीट रख दिया गया. उनके गांव में उनकी मूर्ति लगा दी गई.

You might also like