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नहंिी अधययन नन्‍पन्ि ः आठ्वीं कक्ा

यह अपेक्ा है नक िस्वीं कक्ा के अंि िक न्वि्यानथ्णयों में भाषा न्वषयक ननमननलतखि अधययन नन्‍पन्ि न्वकनसि हों ।
न्वि्याथथी –
y धरधरि धरष्य पर आिा र्त पाठ््यसामग्री र अन्य साधहत्य प कर चचावा कर्ते ए द्र्त राचि कर्ते ह ्तथा
आश्य को सम ्ते ए सर छ, शु एरं मािक लेिि ्तथा कद्री्य भार को धलि्ते ह ।
y धहंदी भाषा म धरधभनि प्रकार की सामग्री को प कर ्तथा धरधभनि ो्त से प्रा ्त सूचिा , सरषिण, धट पणी
आधद को प्रस्तु्त कर उपल ि जािकारी का ्यो ्य संकलि, संपादि कर्ते ए लेिि कर्ते ह ।
y प कर अप रधच्त प रखसथध्त्य र घटिा की क पिा कर्ते ए गुट चचावा म सहभागी होकर उसम आए
धरशेष उ रण , राक््य का अपिे िोलचाल ्तथा संभाषण म प्र्योग कर प रचचावा, भाषण आधद म अपिे
धरचार को मौखिक धलखि्त ंग से ्यक््त कर्ते ह ।
y धरधरि संरेदिशील मु धरष्य जैसे- जाध्त, िमवा, रंग, धलंग, रीध्त- रराज के िारे म अपिे धमत्र ,
अध्यापक ्या प ररार से प्र ि पूछ्ते ह ्तथा संिंधि्त धरष्य पर उधच्त श द का प्र्योग कर्ते ए िाराप्रराह
संराद सथाधप्त कर्ते ह एरं लेिि कर्ते ह ।
y धकसी सुिी ई कहािी, धरचार, ्तक, प्रसंग आधद के भारी प्रसंग का अथवा सम ्ते ए आगामी घटिा का
अिुमाि कर्ते ह, धरशेष धिंद को िोजकर उिका संकलि कर्ते ह ।
y प ी ई सामग्री पर धचं्ति कर्ते ए िेह्तर सम के धलए प्र ि पूछ्ते ह ्तथा धकसी प रधच्त अप रधच्त के
साषिातकार हे्तु प्र ि धिधमवा्त कर्ते ह ्तथा धकसी अिु छेद का अिुराद एरं धल ्यं्तरण कर्ते ह ।
y धरधभनि पठि सामधग्र्य म प्र्युक््त उप्योगी आलंका रक श द, महाि धरभूध्त्य के कथि, मुहारर
लोकाेख ्य -कहार्त , प रभाषा , सूत्र आधद को सम ्ते ए सूची ििा्ते ह ्तथा धरधरि ्तकिीकाें का
प्र्योग करके अपिे लेिि को अधिक प्रभारी ििािे का प्र्यास कर्ते ह ।
y धकसी पा ्यरस्तु को प िे के दौराि सम िे के धलए अपिे धकसी सहपाठी ्या धशषिक की मदद लेकर
आलेि, अन्य संदभवा साधहत्य का द्धरभाधषक श द संग्रह, ग्राधफक्स, रडवाआटवा, धपक्टोग्राफ आधद की
सहा्य्ता से श दकोश ्तै्यार कर्ते ह र प्रसार माध्यम म प्रकाधश्त जािकारी की आलंका रक श दारली
का प्रभारपूणवा ्तथा सहज राचि कर्ते ह ।
y अपिे पाठक, धलििे एरं लेिि के उ े ्य को सम कर अपिा म्त प्रभारी ्तरीके से धलि्ते ह ।
y सुिे ए का्यवाक्रम के ्त ्य , मुख्य धिंद , धरररण एरं पठिी्य सामग्री म रधणवा्त आश्य के राक््य एरं मु
का ्ताधकक एरं सुसंगध्त से पुि समरण कर राचि कर्ते ह ्तथा उिपर अपिे मि म िििे राली छधि्य र
धरचार के िारे म धलखि्त ्या ेलधलधप म अधभ ्यख कर्ते ह ।
y भाषा की िारीधक्य ्यरसथा का ्यथार्त रणवाि, उधच्त धरराम, िलाघा्त, ्ताि-अिु्ताि के साथ शु
उ चारण, आरोह-अररोह, ल्य-्ताल को एकाग्र्ता से सुि्ते एरं सुिा्ते ह ्तथा पठि सामग्री म अं्तधिवाधह्त
आश्य, कद्री्य भार अपिे श द म ्यक््त कर्ते ह ।
y धरधभनि अरसर संदभ म कही जा रही दसर की िा्त , सुिे ए संराद, रक््त ्य, भाषण के प्रमुि मु
को पुि प्रस्तु्त कर्ते ह ्तथा उिका उधच्त प्रा प म रृत्तां्त लेिि कर्ते ह ।
y परेिा ्तथा श द संके्त के आिार पर आलंका रक लेिि ्तथा पोसटर, धर ापि म धरधरि ्तरीक र
शैधल्य का प्र्योग कर्ते ह ।
y दैधिक जीरि से अलग धकसी घटिा खसथध्त पर धरधभनि ्तरीके से सृजिातमक ंग से धलि्ते ह ्तथा प्रसार
माध्यम से रा टट्री्य प्रसंग घटिा संिंिी रणवाि सुि्ते र सुिा्ते ह ्तथा भाषा की धभनि्ता का समादर कर्ते ह ।
शासन ननर्णय क्रमांक : अभयास-२११६/(प्र.क्र.4३/१६) एसडी-4 निनांक २5.4.२०१६ के अनुसार समन्वय सनमनि का गठन नकया गया ।
नि. २९.१२.२०१७ को हुई इस सनमनि की बैठक में यह पाठ्यपुसिक ननरा्णररि करने हेिु मानयिा प्रिान की गई ।

नहंिी
सुलभभारिी
आठ्वीं कक्ा

मेरा नाम है &


महाराष्ट्र राजय पाठ्यपुसिक नननम्णिी ्व अभयासक्रम संशोरन मंडळ, पुरे
आपके समाटवाफोि म द्रारा, पुस्तक के प्रथम पृ ठ पर
. . के माध्यम से धडधजटल पाठ््यपुस्तक एरं प्रत्येक पाठ म
अं्तधिवाधह्त . . मंे अध्य्यि-अध्यापि के धलए पाठ से संिंधि्त
उप्युक््त क-श्ा ्य सामग्री उपल ि कराई जाएगी ।
प्रथमा्वृत्ि : २०१8 © महाराष्ट्र राजय पाठ्यपुसिक नननम्णिी ्व अभयासक्रम संशोरन मंडळ, पुरे - 4११००4
इस पुस्तक का सरावाधिकार महाराष्ट्र राज्य पाठ््यपुस्तक धिधमवा्ती र अभ्यासक्रम संशोिि मंडळ के
अिीि सुरधषि्त है। इस पुस्तक का कोई भी भाग महाराष्ट्र राज्य पाठ््यपुस्तक धिधमवा्ती र अभ्यासक्रम
संशोिि मंडळ के संचालक की धलखि्त अिुमध्त के धििा प्रकाधश्त िहीं धक्या जा सक्ता ।

नहंिी भाषा सनमनि नहंिी भाषा अभयासगट


डॉ.हेमचंद्र रैद््य - अध्यषि श्ी संज्य भारद्राज डॉ. आशा री. धमश्ा
डॉ.छा्या पाटील - सदस्य सौ. रंजिा धपंगळे श्ीम्ती मीिा एस. अग्रराल
सौ. रृंदा कुलकणणी श्ीम्ती भार्ती श्ीरास्तर
प्रा.मैिोद्दीि मुल्ा - सदस्य
डॉ. प्रमोद शुक्ल डॉ. शैला ललराणी
डॉ.द्यािंद ध्तरारी - सदस्य डॉ. शोभा िेलिोडे
श्ीम्ती पूधणवामा पांडे्य
श्ी रामधह्त ्यादर - सदस्य डॉ. िंडोपं्त पाटील
डॉ. शुभदा मोघे
श्ी सं्तोष िोत्रे - सदस्य श्ी िन्यकुमार धिराजदार श्ी रामदास काटे
डॉ.सुधिल कुलकणणी - सदस्य श्ीम्ती मा्या कोथळीकर श्ी सुिाकर गारंडे
श्ीम्ती सीमा कांिळे - सदस्य श्ीम्ती शारदा धि्यािी श्ीम्ती गी्ता जोशी
डॉ.अलका पो्तदार - सदस्य - सधचर डॉ. रतिा चौिरी श्ीम्ती अचवािा भुसकुटे
डॉ. री्ता धसंह
श्ी सुमं्त दळरी
प्रकाशक : सौ. शधशकला सरगर
श्ीम्ती रजिी महैसाळकर
श्ी एि. आर. जेरे
श्ी न्व्वेक उ्िम गोसा्वी डॉ. रषावा पुिरटकर
श्ीम्ती धिशा िाहेकर
धि्यंत्रक
पाठ््यपुस्तक धिधमवा्ती मंडळ ननमंनति सिसय
प्रभादेरी, मुंिई-२5 श्ी ्ता.का सू्यवारंशी सौ. संगी्ता सारं्त

संयोजन :
डॉ.अलका पो्तदार, धरशेषाधिकारी धहंदी भाषा, पाठ््यपुस्तक मंडळ, पुणे
सौ. संध्या धरि्य उपासिी, धरष्य सहा्यक धहंदी भाषा, पाठ््यपुस्तक मंडळ, पुणे

मुखपृष्ठ : सौ. पूिम धिखिल पोटे


नितांकन : श्ी राजेश लरळेकर, म्यूरा डफळ

नननम्णनि : अक्रांकन : भाषा धरभाग,पाठ््यपुस्तक मंडळ, पुणे


श्ी सखचि्तािंद आफळे, मुख्य धिधमवाध्त अधिकारी कागज : ७० जीएसएम, क्रीमरोर
श्ी संदीप आजगांरकर, धिधमवाध्त अधिकारी मुद्ररािेश :
मुद्रक :
प्रसिा्वना
नप्रय न्वि्यानथ्णयो,
िुम सब पाँि्वीं से साि्वीं कक्ा की नहंिी सुलभभारिी पाठ्यपुसिक से अच्ी िरह पररनिि हो
और अब आठ्वीं नहंिी सुलभभारिी पढ़ने के नलए उ्सुक होगे । रंग-नबरंगी, अनिआकष्णक यह पुसिक
िुमहारे हाथों में सौंपिे हुए हमें अिी्व हष्ण हो रहा है ।
हमें ज्ाि है नक िुमहें कन्विा, गीि, गजल सुनना-पढ़ना नप्रय लगिा है । कहाननयों की िुननया में
न्विरर करना मनोरंजक लगिा है । िुमहारी इन भा्वनाओं को दृन्‍टगि रखिे हुए इस पाठ्यपुसिक में
कन्विा, गीि, गजल, पि, िोहे, नई कन्विा, ्वैन्वधयपूर्ण कहाननयाँ, लघुकथा, ननबंर, हासय-वयंग्य,
संसमरर, साक्ा्कार, भाषर, सं्वाि, पत आनि सानहन्यक न्वराओं का समा्वेश नकया गया है । ये
न्वराएँ मनोरंजक होने के साथ-साथ ज्ानाज्णन, भाषाई कौशलों / क्मिाओं के न्वकास, रा्‍टट्रीय
भा्वना को सुदृढ़ करने ए्वं िररत ननमा्णर में भी सहायक होंगी । इन रिनाओं के ियन के समय आयु,
रुनि, मनो्वैज्ाननक ए्वं सामानजक सिर का सजगिा से धयान रखा गया है ।
अंिरजाल ए्वं नडनजटल िुननया के प्रभा्व, नई शैनक्क सोि, ्वैज्ाननक दृन्‍ट को समक् रखकर
‘श््वरीय’, ‘संभाषरीय’ ‘पठनीय’, ‘लेखनीय’, ‘मैंने समझा’, ‘कृनि पूर्ण करो’, ‘भाषा नबंिु’ आनि के
माधयम से पाठ्यक्रम को पाठ्यपुसिक में प्रसिुि नकया गया है । िुमहारी कल्पनाशन्‍ि, सृजनशीलिा
को धयान में रखिे हुए ‘स्वयं अधययन’, ‘उपयोनजि लेखन’, ‘मौनलक सृजन’, ‘कल्पना पल्ल्वन’
आनि कृनियों को अनरक वयापक ए्वं रोिक बनाया गया है । इनका सिि अभयास ए्वं उपयोग
अपेनक्ि है । माग्णिश्णक का सहयोग लक्य िक पहुँिाने के माग्ण को सहज और सुगम बना िेिा है । अिः
अधययन अनुभ्व की पूनि्ण हेिु अनभभा्वकों, नशक्कों का सहयोग और माग्णिश्णन िुमहारे नलए ननत्िि
ही सहायक नसि्र होंगे । आपकी नहंिी भाषा और ज्ान में अनभ्वृि्नर के नलए ‘एेप’ ए्वं ‘्‍यू.आर.कोड,’
के माधयम से अनिरर्‍ि दृक-श्ावय सामग्ी उपलब्र कराई जाएगी । अधययन अनुभ्व हेिु इनका
ननत्िि ही उपयोग हो सकेगा ।
आशा ए्वं पूर्ण न्व््वास है नक िुम सब पाठ्यपुसिक का समुनिि उपयोग करिे हुए नहंिी न्वषय
के प्रनि न्वशेष अनभरुनि निखािे हुए आ्मीयिा के साथ इसका स्वागि करोगे ।

(डॉ. सुननल मगर)


पुरे संिालक
निनांक ः 8 अप्रैल २० 8, अषि्य्तृ्ती्या महाराष्ट्र राज्य पाठ््यपुस्तक धिधमवा्ती र
भार्ती्य सौर २8 चैत्र 4० अभ्यासक्रम संशोिि मंडळ पुणे-०4
* अनुक्रमनरका *
पहली इकाई
क्र. पाठ का नाम न्वरा रिनाकार पृ्‍ठ
. हे मा्तृभूधम कधर्ता रामप्रसाद धिधसमल -२
२. रा रस कौि संरादातमक कहािी धरभा रािी -5
. िािूि क््य ि ्ते ह रैचा रक धििंि आचा्यवा हजारीप्रसाद द्धररेदी -8
4. गार-शहर िरगी्त प्रदीप शुक्ल - ०
5. मिुिि साषिातकार अिुराग रमावा -
. जरा ्यार से िोलिा सीि लीजे गजल रमेश दत्त शमावा 4- 5
७. मेरे रजा साहि संसमरण सुजा्ता िजाज - 8
8. पूणवा धरश्ाम हास्य- ्यं ्य कहािी सत्यकाम धरद््यालंकार -२२
. अिमोल राणी दोहे सं्त किीर २ -२4
पद भक््त सूरदास

िूसरी इकाई
क्र. पाठ का नाम न्वरा रिनाकार पृ्‍ठ
. िर्ती का आगि महके िई कधर्ता डॉ. प्रकाश दीधषि्त २5-२
२. दो लघुकथाए लघुकथा ह र जोशी २७-२
. लक हारा र रि एकांकी अरधरंद भटिागर ०-
4. सौहादवा-सौमिस्य ि्ये दोहे जहीर कुरैशी 4- 5
5. िे्ती से आई ्त दीधल्या पत्र पं. जराहरलाल िेह - 8
. अंिा्युग गीध्तिाट््य का अंश डॉ. िमवारीर भार्ती -4
७. सरराज्य मेरा जनमधसद्ि भाषण लोकमान्य िाळ गंगािर धटळक 4२-44
अधिकार है
8. मेरा धरद्रोह मिोरै ाधिक कहािी सू्यवािाला 45-4
. िहीं कुछ इससे ि कर गी्त सुधमत्रािंदि पं्त 5०-5
वयाकरर, रिना न्वभाग ए्वं भा्वाथ्ण 5२-54
पहली इकाई
. िे मता्ृभूनम
- रामप्रसाद ‘बिब्‍मल’

पररचय
हे मा्ृभूवम ! ्ेरे चरणों में शीश निाऊँ ।
मैं भव्‍् भेंि अपनी, ्ेरी शरण में लाऊँ ।। ज म ः १8९७, शाहजहाँपतुर (उ.प्र.)
मृतयु ः१९२७, गोरखपतुर (उ.प्र.)
पररचय ः रामप्रसाद ‘विवसमल’
माथे पे ्ू हो चांदन, छा्ी पे ्ू हो माला; भार् के महान सि्ांत्र्ा सेनानी ही
नहीं िव्‍क उच्च कोवि के
वजह्िा पे गी् ्ू हो मेरा, ्ेरा ही नाम गाऊँ ।। कवि, अनतुिादक, िहुभाषाविद ि
सावहत्यकार भी थे । आपने देश की
आजादी के वलए अपने प्राणों की
वजससे सपू् उपजें, श्ी राम-कृष्ण जैसे; आहुव् दे दी । ‘सरफरोशी की
उस धूल को मैं ्ेरी वनज शीश पे चढ़ाऊँ ।। ्मन्ा...’ आपकी प्रवसद्ध रचना
है । ‘विवसमल’ उपनाम के अव्रर्‍्
आप ‘राम’ और ‘अज्ा्’ के नाम से
माई ! समतुद्र वजसकी पद रज को वनत्य धोकर; भी लेख ि कवि्ाएँ वलख्े थे ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘मन की लहर’,
कर्ा प्रणाम ्तुझको, मैं िे चरण दिाऊँ ।। ‘आतमकथा’ आवद ।

सेिा में ्ेरी मा्ा ! मैं भेदभाि ्जकर;


पद्य संबंधी
िह पतुण्य नाम ्ेरा, प्रव्वदन सतुनूँ-सतुनाऊँ ।।
प्रस्तु् कवि्ा में काांव्कारी
एिां सि्ांत्र्ा सेनानी कवि रामप्रसाद
्ेरे ही काम आऊँ, ्ेरा ही मांत्र गाऊँ । ‘विवसमल’ जी ने मा्ृभूवम के प्रव्
मन और देह ्तुम पर िवलदान मैं जाऊँ ।। अपने प्रेम एिां भव्‍्भाि को व्य्‍्
वक्या है । ्यहाँ आपने मा्ृभूवम की
सेिा करने और देशवह् में वनछािर
हो जाने की लालसा व्य्‍् की है ।

‘मा्ृभूवम की सेिा में जीिन अप्पण करना प्रत्येक मनतुष््य का क््पव्य है,’
कल्पनता पल्लवन इस कथन पर अपने विचार वलखो ।

1
शब्द वतानटिकता
नवतानता झतुकाना रज धूल
शीश वसर बनलदतान प्राणाहुव्, वनछािर
नजि्वता जीभ देि शरीर

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) कृन् पूणथि करो ः ( ) कृन् पूणथि करो ः
मा्ृभूवम की विशेष्ाएँ कवि मा्ृभूवम के प्रव्
अवप्प् करना चाह्ा है
१.
२.
३.
4.
( ) एक शब्द में उत्र नलखो ः
१. कवि की वजह्िा पर इसके गी् हों -
(4) कनव्ता की पंन्‍्यताँ पूणथि करो ः २. मा्ृभूवम के चरण धोने िाला -
सेिा में ्ेरी ------------------; ३. मा्ृभूवम के सपू् -
------------------------ ।। 4. प्रव्वदन सतुनने/सतुनाने ्योग््य नाम -
------------------------ । 5. मा्ृभूवम के चरणों में इसे निाना है -
--------------- िवलदान मैं जाऊँ ।।

ननमन नवरतामनचि्नताें के नताम नलखकर उनकता वता्‍य में प्रयोग करो ः


भतारता नबंदु । ; ? - ? ! ‘ ’ ‘‘ ’’ -

शब्दों के आधतार पर कितानी नलखो ः


उपयोनज् लेखन ग्ांथाल्य, सिपन, पहेली, काँच

मैंने समझता
------------------------------------------------
------------------------------------------------
------------------------------------------------

सवयं अधययन ‘विकास की ओर िढ़्ा हुआ भार् देश’ से सांिांवध् महततिपूण्प का्ययों की
सूची िनाओ ।

2
. वताररस कौन
- बिभा रानी

एक राजा था । उसके चार िेवि्याँ थीं । राजा ने सोचा वक इन चारों पररचय


में से जो सिसे ितुद्वधम्ी होगी, उसे ही अपना राजपाि सौंपेगा । इसका
फैसला कैसे हो? िह सोचने लगा । अां् में उसे एक उपा्य सूझ ग्या । ज म ः १९5९, मधतुिनी (विहार)
उसने एक वदन चारों िेवि्यों को अपने पास ितुला्या । सभी को गेहँू पररचय ः िहुआ्यामी प्रव्भा की
के सौ-सौ दाने वदए और कहा, ‘‘इसे ्तुम अपने पास रखो, पाँच साल धनी विभा रानी वहांदी ि मैवथली की
राष्िट्ी्य स्र की लेखखका हैं । आपने
िाद मैं जि इनहें माँगँूगा ्ि ्तुम सि मतुझे िापस कर देना ।’’ कहानी, गी्, अनतुिाद, लोक
गेहँू के दाने लेकर चारों िहनें अपने-अपने कमरे में लौि आईं । सावहत्य एिां नाि््य लेखन में प्रखर्ा
िड़ी िहन ने उन दानों को खखड़की के िाहर फेंक वद्या । उसने सोचा, से अपनी कलम चलाई है । आप
‘आज से पाँच साल िाद वप्ा जी को गेहँू के इन दानों की ्याद रहेगी समकालीन वफ्‍म, मवहला ि िाल
विष्यों पर लोकगी् और लोक
्‍्या? और जो ्याद भी रहा ्ो ्‍्या हुआ..., भांडार से लेकर दे दूँगी ।’ सावहत्य के क्ेत्र में वनरां्र काम कर
दूसरी िहन ने दानों को चाँदी की एक वडबिी में डालकर उसे रही है ।
मखमल के थैले में िांद करके सतुरक्ा से अपनी सांदूकची में डाल वद्या । प्रमुख कृन्यताँ ः
सोचा, ‘पाँच साल िाद जि वप्ा जी ्ये दाने माँगेंगे, ्ि उनहें िापस कर ‘चल खतुसरो घर अपने’, ‘वमवथला
की लोककथाएँ’, ‘गोनू झा के
दूँगी ।’ वकससे’ (कहानी सांग्ह), ‘अगले-
्ीसरी िहन िस सोच्ी रही वक इसका ्‍्या करँ । चौथी और जनम मोहे विवि्या न कीजो’,
छोिी िहन ्वनक िच्ची थी । शरार्ें करना उसे िहु् पसांद था । उसे (नािक)‘समरथ-CAN’ (द्विभाषी
गेहँू के भतुने दाने भी िहु् पसांद थे । उसने दानों को भतुनिाकर खा डाला वहांदी-अांग्ेजी का अनतुिाद), ‘विल
िेलर की डा्यरी’ आवद ।
और खेल में मग्न हो गई ।
्ीसरी राजकुमारी को इस िा् का ्यकीन था वक वप्ा जी ने उनहें
्यँू ही ्ये दाने नहीं वदए होंगे । जरर इसके पीछे कोई मकसद होगा । पहले गद्य संबंधी
्ो उसने भी अपनी दूसरी िहनों की ्रह ही उनहें सहेजकर रख देने की प्रस्तु् सांिादातमक कहानी के
सोची, लेवकन िह ऐसा न कर सकी । दो-्ीन वदनों ्क िह सोच्ी माध्यम से विभा रानी जी का कहना है
रही, वफर उसने अपने कमरे की खखड़की के पीछेिाली जमीन में िे दाने वक हमें उत्म फल प्राप्त करने के
वलए सम्य और साधनों का सदुप्योग
िो वदए । सम्य पर अांकुर फूिे । पौधे ्ै्यार हुए, दाने वनकले । राजकुमारी करना चावहए । जो ऐसा कर्ा है,
ने ्ै्यार फसल में से दाने वनकाले और वफर से िो वदए । इस ्रह पाँच िही जीिन में सफल हो्ा है ।
िषयों में उसके पास ढेर सारा गेहँू ्ै्यार हो ग्या ।
पाँच साल िाद राजा ने वफर चारों िहनों को ितुला्या और कहा-
‘‘आज से पाँच साल पहले मैंने ्तुम चारों को गेहँू के सौ-सौ दाने वदए थे मौनलक सृजन
और कहा था वक पाँच साल िाद मतुझे िापस करना । कहाँ हैं िे दाने?’’
िड़ी राजकुमारी भांडार घर जाकर गेहँू के दाने ले आई और राजा को अपने आस-पास घवि्
च्तुराई से सांिांवध् घिना
दे वदए । राजा ने पूछा, ‘‘्‍्या ्ये िही दाने हैं जो मैंने ्तुमहें वदए थे ?’’
वलखो ।

3
पहले ्ो राजकुमारी ने ‘हाँ’ कह वद्या । मगर राजा ने वफर कड़ककर
संभतारणीय पूछा, ्ि उसने सच्ची िा् ि्ा दी ।
राजा ने दूसरी राजकुमारी से
‘उत्र भार् की नवद्यों में पूछा - ‘‘्तुमहारे दाने कहॉां हैं ?’’
िारहों मास पानी रह्ा है’
दूसरी राजकुमारी अपनी
इसके कारणों की जानकारी
प्राप्त करके कक्ा में ि्ाओ ।
सांदूकची में से मखमल के
खोलिाली वडबिी उठा लाई,
वजसमें उसने गेहँू के दाने सहेजकर
रखे थे । राजा ने उसे खोलकर
देखा - दाने सड़ गए थे ।
्ीसरी राजकुमारी से पूछा - ‘‘्तुमने ्‍्या वक्या उन दानों का ?’’
श्रवणीय ्ीसरी ने कहा - ‘‘मैं इसका उत्र आपको अभी नहीं दँूगी, ्‍्योंवक
जिाि पाने के वलए आपको ्यहाँ से दूर जाना पड़ेगा और मैं िहाँ आपको
भाषा की वभन््ा का आदर
कर्े हुए कोई लोकगी्
कल ले चलँूगी ।’’
अपने सहपावठ्यों को राजा ने अि चौथी और सिसे छोिी राजकुमारी से पूछा । उसने
सतुनाओ । उसी िेपरिाही से जिाि वद्या-‘‘उन दानों की कोई कीम् है वप्ा जी?
िैसे ्ो ढेरों दाने भांडार में पड़े हैं । आप ्ो जान्े हैं न, मतुझे गेहँू के भतुने
दाने िहु् अचछे लग्े हैं, सो मैं उनहें भतुनिाकर खा गई । आप भी वप्ा
जी, वकन-वकन चक्करों में पड़ जा्े हैं ।’’
सभी के उत्र से राजा को िड़ी वनराशा हुई । चारों में से अि उसे
केिल ्ीसरी िेिी से ही थोड़ी उममीद थी ।
पठनीय
दूसरे वदन ्ीसरी राजकुमारी राजा के पास आई । उसने कहा-
अपने पररसर की वकसी ‘‘चवलए वप्ा जी, आपको मैं वदखाऊँ वक गेहँू के िे दाने कहाँ हैं ?’’
शैवक्क सांसथा की रज् राजा रथ पर सिार हो ग्या । रथ महल, नगर पार करके खे् की
महोतसिी पवत्रका का ्रफ िढ़ चला । राजा ने पूछा, ‘‘आखखर कहाँ रख छोड़े हैं ्तुमने िे सौ
िाचन करो ।
दाने ? इन सौ दानों के वलए ्तुम मतुझे कहाँ-कहाँ के चक्कर लगिाओगी ?’’
्ि ्क रथ एक िड़े-से हरे-भरे खे् के सामने आकर रुक ग्या ।
राजा ने देखा - सामने िहु् िड़े खे् में गेहँू की फसल थी । उसकी
िावल्याँ हिा में झूम रही थीं, जैसे राजा को कोई खतुशी भरा गी् सतुना रही
हों । राजा ने हैरानी से राजकुमारी की ओर देखा । राजकुमारी ने कहा-
लेखनीय ‘‘वप्ा जी, ्ये हैं िे सौ दाने, जो आज लाखों-लाख दानों के रप में
आपके सामने हैं । मैंने उन सौ दानों को िोकर इ्नी अवधक फसल ्ै्यार
मराठी समाचार पत्र ्या की है ।’’
िालपवत्रका के वकसी राजा ने उसे गले लगा वल्या और कहा- ‘‘अि मैं वनख्चां् हो
पररचछेद का वहांदी में ग्या । ्तुम ही मेरे राज्य की सच्ची उत्रावधकारी हो ।’’
अनतुिाद करो ।
44
शब्द वतानटिकता
्ननक = थोड़ा मुितावरे
मकसद = उद्दे््य च्‍कर में प जतानता =दुविधा में पड़ना
खोल = आिरण गले लगतानता = प्यार से वमलना
उममीद =आशा
उत्रतानधकतारी = िाररस

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) उत्र नलखो ः ( ) उनच् घटिनताक्रम लगताकर वता्‍य न्‍र से नलखो ः
१. सभी के उत्र से राजा को िड़ी वनराशा हुई ।
गेहँ के दानों का चारों िहनों ने वक्या- २. रथ एक िड़े-से हरे-भरे खे् के सामने रुक ग्या ।
३. राजा ने हैरानी से राजकुमारी की ओर देखा ।
4. अां् में उसे एक उपा्य सूझ ग्या ।

( ) सिी नवकल्प चुनकर वता्‍य न्‍र से नलखो ः


१. जरर इसके पीछे कोई ------- होगा । (उद्दे््य/हे्तु/मकसद)
२. सो मैं उनहें ------- खा गई । (वभगोकर/भतुनिाकर/पकाकर)
३. ्तुम ही मेरे राज्य की सच्ची ------- हो । (रानी/्यतुिराज्ी/उत्रावधकारी)
4. इसे ्तुम अपने पास रखो, ------- साल िाद मैं इनहें माँगूँगा । (चार/सा्/पाँच)
(4) पररणताम नलखो ः
१. गेहँ के दानों को िोने का पररणाम- २. सभी के उत्र सतुनकर राजा पर हुआ पररणाम-
३. दूसरी राजकुमारी का सांदूकची में दाने रखने का पररणाम- 4. पहली राजकुमारी को कड़ककर पूछने का पररणाम -

भतारता नबंदु रचना के आधार पर विवभन् प्रकार के ्ीन-्ीन िा्‍्य पाठों से ढूँढ़कर वलखो ।

उपयोनज् लेखन

मैंने समझता
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िीरिल की िौद्वधक च्तुराई की कहानी के मतुददों


् का फो्‍डर िनाकर
सवयं अधययन कहानी प्रस्तु् करो ।

5
. नताखून ्‍यों बढ़्े िैं
- आचार्य हजारीप्रसाद द्बििेदी

िच्चे कभी-कभी च्‍कर में डाल देने िाले प्र्न कर िैठ्े हैं ।
पररचय अ्‍पज् वप्ा िड़ा द्यनी्य जीि हो्ा है । मेरी छोिी लड़की ने जि उस
वदन पूछ वल्या वक आदमी के नाखून ्‍्यों िढ़्े हैं, ्ो मैं कुछ सोच ही
ज म ः १९०७, िवल्या (उ.प्र.)
मृतयु ः १९8९ (उ.प्र.) नहीं सका । हर ्ीसरे वदन नाखून िढ़ जा्े हैं । काि दीवजए, िे
पररचय ः द्वििेदी जी वहांदी सावहत्य चतुपचाप दांड सिीकर कर लेंगे; पर वनल्पजज अपराधी की भाँव् छूि्े
के मौवलक वनिांधकार, उतकृष्ि ही वफर जैसे के ्ैसे हो जा्े हैं । आखखर ्ये इ्ने िेह्या ्‍्यों हैं ?
समालोचक एिां साांसकृव्क
विचारधारा के प्रमतुख उपन्यासकार कुछ लाख ही िषयों की िा् है, जि मनतुष््य जांगली था; िनमानतुष
हैं । आपका व्यव्‍्ति िड़ा जैसा । उसे नाखून की जरर् थी । उसकी जीिन रक्ा के वलए नाखून
प्रभािशाली और आपका सिभाि िहु् जररी थे । असल में िही उसके असत्र थे । दाँ् भी थे, पर नाखून
िड़ा सरल और उदार था । आप
वहांदी, अांग्ेजी, सांसकृ् और िाांग्ला के िाद ही उनका सथान था । धीरे-धीरे िह अपने अांग से िाहर की
भाषाओं के विद्िान थे । िस्तुओं का सहारा लेने लगा । उसने हड्वड्यों के भी हवथ्यार िनाए ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘अशोक के फूल’, मनतुष््य धीरे-धीरे और आगे िढ़ा । उसने धा्तु के हवथ्यार िनाए ।
‘क्‍पल्ा’ (वनिांध), ‘िाणभि्ि की
आतमकथा,’ ‘पतुनन्पिा’ (उपन्यास) इव्हास आगे िढ़ा । कभी-कभी मैं हैरान होकर सोच्ा हँ वक मनतुष््य
आवद । आज अपने िच्चों को नाखून न कािने पर डाँि्ा है । िे रोज िढ़्े
हैं । मतुझे ऐसा लग्ा है वक मनतुष््य अि नाखून को नहीं चाह्ा । ्ये
गद्य संबंधी उसकी भ्यांकर पाशिी िृवत् के जीिां् प्र्ीक हैं । मनतुष््य की पशतु्ा को
वज्नी िार भी काि दो, िह मरना नहीं जान्ी ।
प्रस्तु् िैचाररक वनिांध में अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और िाक की अना्यास
आचा्य्प हजारीप्रसाद ने नाखून िढ़ने
को पशतु्ा का वचह्न माना है । घिने िाली िृवत््यों के विष्य में विचार करे ्ो उसे अपनी िास्विक
नाखून पशतु्ा, ितुराइ्यों का प्र्ीक प्रिृवत् पहचानने में िहु् सहा्य्ा वमले । मनतुष््य की नख िढ़ा लेने की
है । आपका कहना है वक वजस ्रह जो सहजा् िृवत् है, िह उसके पशतुति का प्रमाण है । उनहें कािने की
नाखून िढ़ने पर हम उसे काि दे्े हैं,
ठीक उसी ्रह ्यवद वकसी में ितुरी जो प्रिृवत् है, िह उसकी मनतुष््य्ा की वनशानी है ।
आद्ें आ जाएँ ्ो उनहें त्याग देना मेरा मन पूछ्ा है- मनतुष््य वकस ओर िढ़ रहा है ? पशतु्ा की
चावहए । ओर ्या मनतुष््य्ा की ओर ? असत्र िढ़ाने की ओर ्या असत्र कािने की
ओर ? मेरी वनिबोध िावलका ने मानो मनतुष््य जाव् से ही प्र्न वक्या
है- जान्े हो, नाखून ्‍्यों िढ़्े हैं ? ्यह हमारी पशतु्ा के अिशेष हैं ।
मौनलक सृजन
मैं भी पूछ्ा हँ-जान्े हो, ्ये असत्र-शसत्र ्‍्यों िढ़ रहे हैं ? ्ये हमारी
पशतु्ा की वनशानी हैं । सिराज होने के िाद सिभाि्ः ही हमारे ने्ा
सद्गतुणों और दुगतु्पणों में अां्र
वलखो । और विचारशील नागररक सोचने लगे हैं वक इस देश को सच्चे अथ्प मांे

6
सतुखी कैसे िना्या जाए । हमारी परांपरा मवहमाम्यी और सांसकार श्रवणीय
उजजिल हैं ्‍्योंवक अपने आप पर, अपने आप द्िारा लगा्या हुआ
िांधन हमारी सांसकृव् की िहु् िड़ी विशेष्ा है । मानिी्य मू्‍्य िाले शबदों का
चाि्प िनाओ । इन शबदों में से
मनतुष््य पशतु से वकस िा् में वभन् है ! उसमें सां्यम है, दूसरे के वकसी एक शबद से सांिांवध्
सतुख-दुख के प्रव् समिेदना है, श्द्धा है, ्प है, त्याग है । इसीवलए कोई प्रसांग/घिना सतुनो और
मनतुष््य झगड़े-िांिे को अपना आदश्प नहीं मान्ा, गतुससे में आकर सतुनाओ ।
चढ़-दौड़ने िाले अवििेकी को ितुरा समझ्ा है । िचन, मन एिां शरीर
से वकए गए असत्याचरण को गल् मान्ा है ।
ऐसा कोई वदन आ सक्ा है
जि मनतुष््य के नाखूनों का िढ़ना
िांद हो जाएगा । प्रावणशावसत्र्यों का
ऐसा अनतुमान है वक मनतुष््य का
अनाि््यक अांग उसी प्रकार झड़ संभतारणीय
जाएगा, वजस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है । उस वदन मनतुष््य की पशतु्ा विविध सांिेदनशील मतुद्दों/
भी लतुप्त हो जाएगी । शा्यद उस वदन िह मरणासत्रों का प्र्योग भी िांद विष्यों (जैसे-जाव्, धम्प, रांग,
कर देगा । नाखून का िढ़ना मनतुष््य के भी्र की पशतु्ा की वनशानी है वलांग, रीव्-ररिाज) के िारे में
अपने वशक्क से प्र्न पूछो ।
और उसे नहीं िढ़ने देना मनतुष््य की अपनी इचछा है, अपना आदश्प है ।
मनतुष््य मांे जो घृणा है जो अना्यास विना वसखाए आ जा्ी है, िह
पशतुति का द््यो्क है । अपने को सां्य् रखना, दूसरे के मनोभािों का
आदर करना मनतुष््य का सिधम्प है । िच्चे ्यह जानें ्ो अचछा हो वक
अभ्यास और ्प से प्राप्त िस्तुएँ मनतुष््य की मवहमा को सूवच् कर्ी हैं ।
मनतुष््य की चरर्ाथ्प्ा प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को
सिके मांगल के वलए वनःशेष भाि से दे देने में है । नाखूनों का िढ़ना
मनतुष््य की उस अांध सहजा् िृवत् का पररणाम है जो उसके जीिन में
लेखनीय
सफल्ा ले आना चाह्ी है । उसको काि देना उस सिवनधा्परर्,
आतमिांधन का फल है जो उसे चरर्ाथ्प्ा की ओर ले जा्ी है । ‘सतुरक्ा हे्तु शसत्रों की भरमार’
नाखून िढ़्े हैं ्ो िढ़ें, मनतुष््य उनहें िढ़ने नहीं देगा । विष्य के पक्-विपक् में अपने
विचार वलखो ।

पठनीय पाठ््यसामग्ी और अन्य पठन सामग्ी का द्रु् िाचन करके उनमें आए


विचारों पर सहपावठ्यों से चचा्प करो ।

7
शब्द वतानटिकता
वनमतानुर = िांदर की एक प्रजाव् लु = गा्यि
पताशवी = पशतुि् घृणता = नफर्
ननब ध = अज्ान द्यो्क = प्र्ीक
आचरण = ि्ा्पि, व्यिहार चरर्ता्थि्ता = साथ्पक्ा

सूचनतानुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः ( ) प्र्ीक नलखो ः
मनतुष््य में पशतुति से वभन््ा दशा्पने िाली िा्ें नताखूनों कताे बढ़तानता नताखूनों को कताटिनता

( ) उत्र नलखो ः
१. मनतुष््य की चरर्ाथ्प्ा इन दो िा्ों में है ः-
(अ) ------------------------- (आ)-----------------------------
२. मनतुष््य का सिधम्प ्यह है ः
(अ) ------------------------- (आ)-----------------------------
३. मनतुष््य को नाखूनों की जरर् ्ि थी ः
(अ) ------------------------- (आ)-----------------------------
( ) ननमन शब्दों के नलंग पिचतानकर नलखो -
भतारता नबंदु आतमा, व्यव्‍्, िादल, ्ार, नोि, नाखून, पतुस्क, ्वक्या, दही
( ) अ्थि के अनुसतार वता्‍यों के प्रकतार ँढ़कर नलखो ।

उपयोनज् लेखन वकसी मौवलक मराठी विज्ापन का वहांदी में अनतुिाद करो ।

मैंने समझता
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सवयं अधययन शरीर के विवभन् अांगों से सांिांवध् मतुहािरों की अथ्प सवह् सूची िनाओ ।

8
4. गताँव-शिर

- प्रदीप शुक्ल
िदला-िदला-सा मौसम है
िदले-से लग्े हैं सतुर ।
दीदा फाड़े शहर देख्ा
गाँि देख्ा िुकुर-िुकुर । पररचय
व्ल रखने की जगह नहीं है
ज म ः १९६७, लखनऊ (उ.प्र.)
शहर ठसाठस भरे हुए । पररचय ः कवि प्रदीप शतु्‍ल जी को
उधर गाँि में पीपल के हैं वहांदी कवि्ा के प्रव् विशेष श्द्धा
है । आप कवि्ा को एक साधना
सारे पत्े झरे हुए । के रप में देख्े हैं । वहांदी की विविध
मेिट्ो के खांभे के नीचे पत्र-पवत्रकाओं में आपकी रचनाएँ
छप्ी रह्ी हैं ।
रा् गतुजारे परमेसतुर । प्रमुख कृन्यताँ ः ‘अममा रह्ी गाँि
दीदा फाड़े शहर देख्ा में’ (निगी् सांग्ह), ‘गतु्‍लू का
गाँि’ (िालगी् सांग्ह) आवद ।
गाँि देख्ा िुकुर-िुकुर ।
इधर शहर में सारा आलम
आँख खतुली िस दौड़ रहा ।
िहाँ रेवड्यो पर सिेशन पद्य संबंधी
रामदीन है जोह रहा । प्रस्तु् निगी् में कवि प्रदीप
उनकी िा् सतुनी है जिसे शतु्‍ल जी ने गाँि और शहर के दद्प
को दशा्प्या है । ्यहाँ शहरों की
वदल कर्ा है धतुकुर-पतुकुर । भीड़-भाड़, भागम-भाग, गाँि से
सतुरसव््या के दोनों लड़के शहरों की ्रफ पला्यन, गाँिों का
शहरीकरण आवद का िड़े ही मावम्पक
सूर् गए कमाने । ढांग से िण्पन वक्या है ।
गेहँ के खे्ों में लेवकन
वग्‍ली लगीं घमाने ।
लँगड़ाकर चल्ी है गै्या
कल्पनता पल्लवन
सड़कों ने खा डाले खतुर ।
दीदा फाड़े शहर देख्ा ‘भार्ी्य सांसकृव् के दश्पन
गाँि देख्ा िुकुर-िुकुर । देहा्ों में हो्े हैं’ इस ्थ््य पर
अपने विचार वलखो ।

9
शब्द वतानटिकता
दीदता = आँख, दृवष्ि, वनगाह नगल्ली = वगलहरी
परमेसुर = परमे्िर (एक नाम) गैयता = गा्य
आलम = दुवन्या, जग्, जहान घमतानता = धूप खाना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) ्ुलनता करो ः ( ) उनच् जोन यताँ नमलताओ ः
गताँव शिर अ उत्र आ
-------- -------- १. मेिट्ो ------ गाँि
-------- -------- २. पीपल ------ कसिा
-------- -------- शहर

( ) कृन् पूणथि करो ः (4) एक शब्द में उत्र नलखो ः


१. लँगड़ाकर चलने िाली -
१. गाँि का देखना
२. पत्े झरा हुआ िृक् -
२. शहर का देखना ३. िदले-से लग्े हैं -
4. जहाँ व्ल रखने की जगह नहीं है ।

पाठ््यपतुस्क के पाठों से विलोम और समानाथथी शबद ढूँढ़कर उनकी सूची िनाओ और उनका
भतारता नबंदु अलग-अलग िा्‍्यों में प्र्योग करो ।

उपयोनज् लेखन िृक् और पांछी के िीच का सांिाद वलखो ।

मैंने समझता
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्या्ा्या् के वन्यम, साांकेव्क वचह्न एिां हे्‍मेि की आि््यक्ा आवद के


सवयं अधययन चाि्पस िनाकर विद््याल्य की दीिारें सतुशोवभ् करो ।

10
5. मधुबन
- अनुराग िमा्य
सतुिह का सम्य था । मैं डाॅ्‍िर रामकुमार िमा्प जी के प्र्याग सिेशन
खसथ् वनिास ‘‘मधतुिन’’ की ओर पूरी रफ्ार से चला जा रहा था ्‍्योंवक
१० िजे उनसे वमलने का सम्य ््य था । पररचय
िैसे ्ो मैंने डाॅ्‍िर साहि को विवभन् उतसिों, सांगोवष्ठ्यों एिां
सममेलनों में देखा था, परां्तु इ्ने वनकि से मतुलाका् करने का ्यह मेरा पररचय ः अनतुराग िमा्प जी ने वहांदी में
पहला अिसर था । मेरे वदमाग में विवभन् विचारों का जिार उठ रहा था- विपतुल लेखन वक्या है । आपकी
कैसे होंगे डाॅ्‍िर साहि, कैसा व्यिहार होगा उस सावहत्य मनीषी का, भाषा धारा प्रिाह, सरल एिां आश्य
आवद । इन ्माम उठ्े और िैठ्े विचारों को वलए मैंने उनके वनिास सांपन् हो्ी है । आप वहांदी के
जाने-माने लेखक हैं ।
सथान ‘मधतुिन’ में प्रिेश वक्या । काफी साहस करके दरिाजे पर लगी
घांिी िजाई । नौकर वनकला और पूछ िैठा, ‘‘्‍्या आप अनतुराग जी
हैं ?’’ मैंने उत्र मेंां वसफ्फ ‘हाँ’ कहा । उसने मतुझे डट्ाइांग रम में विठा्या
और ्यह कह्े हुए चला ग्या वक ‘‘डाॅ्‍िर साहि आ रहे हैं ।’’ इ्ने में
डॉ्‍िर साहि आ गए । ‘‘अनतुराग जी, कैसे आना हुआ ?’’ आ्े ही
उनहोंने पूछा । गद्य संबंधी
मैंने कहा, ‘‘डाॅ्‍िर साहि, कुछ प्रसांग जो आपके जीिन से सांिांवध् प्रस्तु् पाठ में श्ी अनतुराग
हैं और उनसे आपको जो महत्िपूण्प प्रेरणाएँ वमली हों उनहीं की जानकारी िमा्प ने प्रवसद्ध लेखक डॉ.
हे्तु आ्या था ।’’ रामकुमार िमा्प जी का साक्ातकार
डाॅ्‍िर साहि ने िड़ी सरल्ा से कहा, ‘अचछा, ्ो वफर पूवछए ।’ वल्या है । ्यहाँ अनतुराग जी ने
डॉ. िमा्प जी से उनकी काव्य रचना
प्र्न ः डाॅ्‍िर साहि, काव्य-रचना की प्रेरणा आपको कहाँ से की प्रेरणा, लौवकक-पारलौवकक
और कैसे प्राप्त हुई ? इस सांदभ्प में कोई ऐसा प्रसांग ि्ाने का कष्ट करें प्रेम, देश की राजनीव्क खसथव्
वजसने आपके जीिन के अां्रांग पहलतुओं को महतिपूण्प मोड़ वद्या हो। आवद पर प्र्न पूछें हैं । डॉ. िमा्प जी
उत्र ः पहले ्ो मेरे जीिन में समाज की अांध व्यिसथा के प्रव् ने इन प्र्नों के िड़ी िेिाकी से उत्र
वदए हैं ।
विद्रोह अपने आप ही उवद् हुआ । सन १९२१ मांे जि मैं केिल साढ़े
पांद्रह िष्प का था, गाांधीजी के असह्योग आांदोलन में पाररिाररक एिां
सामावजक व्यिधानों से सांघष्प कर्े हुए मैंने भाग वल्या । उस सम्य सकूल
छोड़ने की िा् ्ो सोची भी नहीं जा सक्ी थी मगर मध्य प्रदेश के
अां्ग्प् नरवसांहपतुर में मौलाना शौक् अली साहि आए और िोले, मौनलक सृजन
‘‘गाांधीजी ने कहा है वक अांग्ेजी की ्ालीम गतुलाम िनाने का एक नतुसखा
है ।’’ ्तप्चा् आिाज ्ेज कर्े हुए कहने लगे, ‘‘है कोई माई का ‘कहावन्यों/कवि्ाओं द्िारा
लाल जो कह दे वक मैं कल से सकूल नहीं जाऊँगा ।’’ मैंने अपनी माँ के मनोरांजन ्था ज्ान प्राखप्त
आगे िड़ी ही श्द्धा से सकूल न जाने की घोषणा कर दी । सभी लोग हो्ी है,’ इसपर अपने म्
वलखो ।
सक्े में आ गए । िा् भी अजीि थी वक उन वदनों एक वडपिी कले्‍िर
का लड़का विद्रोह कर जाए । लोगों ने िहु् समझा्या, वप्ा जी की

11
नौकरी की िा् कही परां्तु मैं घर से वनकल पड़ा ्‍्योंवक गाांधीजी का
श्रवणीय आदेश मानना था । इस प्रकार सि्पप्रथम मैंने सत्य एिां देश के वलए विद्रोह
वक्या । ्ि ्क मैं सोलह िष्प का हो चतुका था और राष्टट्ी्य धिज लेकर
्यू-ि््यूि पर सां् किीर के दोहे नगर में प्रभा् फेरी भी वक्या कर्ा था । ्यह िा् सन १९२१ की ही है
सतुनो और सतुनाओ । और इसी सम्य मैंने देशप्रेम पर एक कवि्ा वलखी । ्यही मेरी कवि्ा का
मांगलाचरण था ।
प्र्न ः आप मध्य प्रदेश से उत्र प्रदेश कैसे आए ?
उत्र ः वहांदी प्रेम ने मतुझे मध्य प्रदेश से उत्र प्रदेश आने को प्रेरर्
संभतारणीय वक्या ्‍्योंवक उन वदनाांे नागपतुर वि्िविद््याल्य में वहांदी नहीं थी । सन
१९२5 मांे मैंने इांिर की परीक्ा उत्ीण्प की, ्तप्चा् उच्च वशक्ा हे्तु
‘िेिी िचाओ-िेिी पढ़ाओ’ पर प्र्याग वि्िविद््याल्य में प्रिेश ले वल्या । मैंने इसी वि्िविद््याल्य से
पथनाि््य प्रस्तु् करो । एम.ए. की परीक्ा प्रथम श्ेणी में उत्ीण्प की ।
मैंने देखा वक डाॅ्‍िर साहि के चेहरे पर गांभीर्ा के भाि साफ
प्रव्विांवि् हो रहे हैं। ऐसा प्र्ी् हो रहा था जैसे िे अपने अ्ी् मेेां
खो-से गए हैं । मैंने पतुनः सिाल वक्या ।
प्र्न ः डॉ्‍िर साहि, प्रा्यः ऐसा देखा ग्या है वक कवि्यों एिां
लेखनीय
लेखकों के जीिन में उनका लौवकक प्रेम, पारलौवकक प्रेम में िदल ग्या ।
्‍्या आपके साथ भी ऐसा हुआ है ?
साक्ातकार लेने के वलए उत्र ः अनतुराग जी, प्रेम मनतुष््य की एक प्राकृव्क प्रिृखत् है । सन
वकन-वकन प्र्निाचक शबदों
का प्र्योग हो सक्ा है, सूची १९२६ मांे मेरा वििाह हो ग्या और मैं गृहसथ जीिन में आ ग्या । अि
्ै्यार करो । प्रत्येक शबद से मतुझे साखतिक्ा एिां नैव्क्ा से प्रेम हो ग्या । मैंने इसी सम्य, ्यानी सन
एक-एक प्र्न िनाकर १९३० में ‘‘किीर का रहस्यिाद’’ वलखा । इ्ना अि््य है वक मेरे
वलखो । जीिन के कुछ अनतुभि कवि्ा के माध्यम से प्रेवष् हुए। मतुझे िचपन से
ही अवभन्य का शौक था और प्रा्यः उतसिों के अिसर पर नािकों में भाग
भी वल्या कर्ा था ।
मैंने िा् आगे िढ़ाई और पूछा ।
पठनीय प्र्न ः डॉ्‍िर साहि, देश की राजनीव्क खसथव् के िारे में आपकी
्‍्या रा्य है ?
द्विभाषी शबदकोश पढ़कर
उसके आधार पर वकसी एक
उत्र ः मैं राजनीव् से हमेशा दूर रहा ्‍्योंवक आज की राजनीव् में
पाठ का द्विभाषी शबदकोश खसथर्ा का अभाि है । ्यद््यवप मैं नेहर जी, शासत्री जी, इांवदरा जी एिां
िनाओ । मोरारजी भाई से वमल चतुका हँू और उनसे मेरा पररच्य भी है, परां्तु मैंने
राजनीव् से अपने आपको सदा दूर रखा, मतुझे राजनीव् में कोई रुवच नहीं
है । मैं सावहत्यकार हँू, और सावहत्य वचां्न में वि्िास रख्ा हँ ।
इ्ना कह्े हुए डॉ्‍िर साहि ने घड़ी देखी और िोले, ‘‘अनतुराग
जी, मतुझे साढ़े ग््यारह िजे एक का्य्प से जाना है ।’’ ्तप्चा् उनहोेांने मतुझे
एक कुशल अवभभािक की भाँव् आशीिा्पद दे्े हुए विदा वक्या ।

12
शब्द वतानटिकता
संगो्‍ठी = वकसी विष्य पर विशेषज्ों मुितावरे
का चचा्पसत्र वतार उठनता = विचारों की हलचल
्तालीम = वशक्ा, उपदेश सक्े में आनता = घिराना, अव् भ्यभी् होना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) कतारण नलखो ः
( ) संजताल पूणथि करो ः
१. डॉ्‍िर साहि का राजनीव् से दूर रहने का कारण-
गाांधीजी के असह्योग २. डॉ्‍िर साहि का मध्यप्रदेश से उत्र प्रदेश आने के
आांदोलन में भाग वलए प्रेरर् होने का कारण -

( ) कृन् करो ः
पाठ में प्र्यतु्‍्
रामकुमार जी के भू्पूि्प प्रधानमांवत्र्यों
वििाह जीिन की घिनाएँ १९२5
के नाम वलखो ।
१९३० ------
------
-------
--------

(4) कृन् पूणथि करो ः


गृहसथ जीिन में इनसे प्रेम हुआ

ननमन शब्दों से कृदं्/्द्नध् बनताओ ः


भतारता नबंदु वमलना, ठहरना, इनसान, शौक, देना, कहना, भाि, िैठना, घर, धन
अपने विद््याल्य में आ्योवज् विज्ान प्रदश्पनी के उद्घािन समारोह का प्रमतुख मतुददों
् सवह्
उपयोनज् लेखन िृत्ाां् लेखन करो ।

मैंने समझता
------------------------------------------------
------------------------------------------------
------------------------------------------------

अां्रजाल से डॉ. रामकुमार िमा्प जी से सांिांवध् अन्य सावहवत्यक


सवयं अधययन जानकारर्याँ प्राप्त करो ।

13
. जरता यतार से बोलनता सीख लीजे

- रमेश दत्‍त शमा्य

पररचय िाणी में शहद घोलना सीख लीजे,


जरा प्यार से िोलना सीख लीजे ।
ज म ः १९३९, जलेसर, एिा (उ.प्र)
मृतयुः २०१२
पररचय ः शमा्प जी पचास िषयों से
पत्र-पवत्रकाओं, रेवड्यो और िी.िी.
के माध्यम से िैज्ावनक दृवष्िकोण
का प्रचार-प्रसार कर्े रहे । आपको
विज्ान लेखन में दज्पन से अवधक
चतुप रहने के, ्यारों िड़े फा्यदे हैं,
पतुरसकार वमल चतुके हैं । आप कक्ा जतुिाँ ि्‍् पर खोलना सीख लीजे ।
सा्िीं-आठिीं से ही सथानी्य
मतुशा्यरों में ‘चचा जलेसरी’ के नाम
से वशरक् करने लगे थे ।
कुछ कहने से पहले जरा सोवचए,
ख्यालों को खतुद ्ौलना सीख लीजे ।

पद्य संबंधी ्ू-्ड़ाक हो ्या वफर हो ्ू-्ू मैं-मैं,


प्रस्तु् गजल के शेरों में शमा्प
अपने आपको िोकना सीख लीजे ।
जी ने प्रेम से िोलना, सही सम्य पर
िोलना, िोलने से पहले विचार पिाखे की ्रह फिने से पहले,
करना, आतमवन्यांत्रण रखना,
मधतुरभाषी होना आवद गतुणों को रोशनी के रांग घोलना सीख लीजे ।
अपनाने के वलए प्रेरर् वक्या है ।
आपका मानना है वक हमेशा होंठ किु िचन ्ो सदा िो्े हैं काँिे,
सीकर िैठना उवच् नहीं है ।
आि््यक्ानतुसार आकोश प्रकि मीठी िोली के गतुल रोपना सीख लीजे ।
करना भी जररी है ।
िा् िेिा् कोई चतुभने लगे ्ो,
िदलकर उसे मोड़ना सीख लीजे ।
कल्पनता पल्लवन
्ये वकसने कहा होंठ सीकर के िैठो,
‘िाणी की मधतुर्ा सामने
िाले का मन जी् ले्ी है ।’ जरर् पे मतुँह खोलना सीख लीजे ।
इस ्थ््य पर अपने विचार
वलखाे ।
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शब्द वतानटिकता
बेबता् = विना िा् जुबताँ = जीभ, मतुँह
सीकर = वसलकर रोपनता = िोना

सूचनतानुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः ( ) चुप रिने के चतार ्‍तायदे नलखो ः
१.
कवि ने इन िा्ों को सीख लेने को कहा है २.
३.
4.

(4) कनव्ता की अंन्म चतार पंन्‍्यों कता अ्थि नलखो ।

(5) कनव्ता में आए इस अ्थि के शब्द नलखो ः

( ) उत्र नलखो ः अथ्प शबद


१. काँिे िोने िाले - (१) मधतु ---------
२. चतुभने िाली - (२) कड़िे ---------
३. फिने िाले - (३) विचार ---------
(4) आि््यक्ा ---------

उपसगथि/प्रतयय अलग करके मूल शब्द नलखो ः


भतारता नबंदु भार्ी्य, आसथािान, व्यव्‍्ति, सनेवहल, िेिा्, वनरादर, प्रत्येक, सतु्योग

उपयोनज् लेखन ‘्या्ा्या् की समस्याएँ एिां उपा्य’ विष्य पर वनिांध वलखो ।

मैंने समझता
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सवयं अधययन वहांदी साप्तावहक पवत्रकाएँ/समाचार पत्रों से प्रेरक कथाओं का सांकलन करो ।

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. मेरे रजता सतािब
- सुजा‍ता िजाज

२३ जतुलाई सतुिह-सतुिह ही समाचार वमला, रजा साहि नहीं रहे,


और ्यह सतुन्े ही मानस पिल पर ्यादों की एक क्ार-सी लग गई ।
पररचय वपछले फरिरी की ही िा् है । मैं वद्‍ली पहुँची थी अपनी ‘गणपव्
ज म ः १९58, ज्यपतुर (राजसथान) प्रदश्पनी’ के वलए । सोच रही थी वक रजा साहि शा्यद अपनी वहीलचेअर
पररचय ः ‘सतुजा्ा िजाज जी एक पर मेरी प्रदश्पनी के उद्घािन के अिसर पर आ जाएँ पर उस रा् कुछ
प्रवसद्ध वचत्रकार हैं । आजकल अनहोनी-सी हुई । उस रा् रजा साहि सपने में आए, मतुझे उठा्या, हमने
आप पेररस में रह्ी हैं । आपके वचत्र िा्ें की, शो के वलए मतुझे उनहोंने शतुभकामना दी और कहने लगे, सतुजा्ा
एिां मूव््पकला भार्ी्य रांग में डूिी हुई
रह्ी हैं । आपके वचत्रों एिां मूव््प्याांे एक िार मतुझसे वमलने आ जाओ । अि मैं जाने िाला हँ । इसके िाद ्ो
पर प्राचीन सांसकृव् एिां कला की रुकना मतुख्कल था । मैं पहुँच गई उनसे वमलने । िे असप्ाल में शून्य की
छाप वदखाई पड़्ी है । आपने अपनी ्रह लेिे हुए थे, मैंने उनके हाथों को छुआ । वसफ्फ साांॅस चल रही थी ।
कला में ऐसी दुवन्या का सृजन वक्या अलविदा कहकर लौि आई ।
है, वजसमें सादगी भी है और रांगीनी
भी, खतुशी भी है और गम भी । रजा साहि अपने धम्प के साथ-साथ उ्ने ही वहांदू और ईसाई भी
प्रमुख कृन्यताँ ः सतुजा्ा जी द्िारा थे । उनके सिुवड्यो में गणपव् की मूव््प, कॉस, िाइिल, गी्ा, कुरान,
िनाए गए ‘गणेश जी के वचत्रों पर उनकी माँ का एक फाेिो, गाांधीजी की आतमकथा ि भार् से लाई हुई
आधारर्’ एक पतुस्क प्रकावश् ।
मोगरे की कुछ सूखी मालाएँ, सि एक साथ रखा रह्ा था । िे गणेश को
भी पूज्े थे और हर रवििार को सतुिह चच्प भी जा्े थे ।
एक वदन जहाँगीर आि्प गैलरी में प्रदश्पनी देख्े हुए वकसी ने कहा,
गद्य संबंधी अरे ्यह ्ो एस.एच. रजा हैं । मैं एकदम सािधान हो गई ्‍्योंवक मेरी
प्रस्तु् पाठ में प्रवसद्ध सूची में उनका भी नाम था । मैंने उनके पास जाकर कहा-‘‘रजा साहि,
वचत्रकार सै्यद हैदर रजा के िारे में आपसे िा् करनी है !’’ िे देख्े ही रह गए ! उनहोंने मतुझे इांिरव्यू वद्या,
लेखखका सतुजा्ा िजाज ने अपने िहु् सारी िा्ें हुईं । अचानक मतुझसे पूछने लगे वक आप और ्‍्या-्‍्या
सांसमरण वलखे हैं । ्यहाँ रजा साहि
के सि्पधम्पसमभाि, मानिमात्र से
कर्ी हैं । मैंने कहा, ‘‘मैं कलाकार हँ, पेंि कर्ी हँ ।’’ िे ्तुरां् खड़े हो
प्रेम, ्यतुिा कलाकारों को प्रोतसाहन, गए और कहने लगे, ‘‘चलो ्तुमहारा काम देख्े हैं ।’’
उनकी वजज्ासािृवत्, कृव््यों के मैं सोच में पड़ गई-मेरा काम ्ो पतुणे में है । उनहें ि्ा्या ्ो िे िोले,
प्रव् लगाि आवद गतुणों को दशा्प्या ‘‘चलो पतुणे ।’’ ्ाज होिल के सामने से हमने िै्‍सी ली और सीधे पतुणे
है । इस पाठ में एक सच्चे कलाकार
के दश्पन हो्े हैं । पहुँचे । उनहोंने मेरा काम देखा और वफर कहा- ‘‘आपको पेररस आना
है । आपका भविष््य िहु् उजजिल है ।’’
छोिी-से-छोिी िा् भी उनके वलए महततिपूण्प हुआ कर्ी थी ।
मौनलक सृजन िड़ी ्नम्य्ा और लगन के साथ कर्े थे सि कुछ । पेंविांग विकने के
िाद पैवकंग में भी उनकी रुवच हुआ कर्ी थी । कोई इस काम में मदद
‘कला से प्राप्त आनांद अिण्पनी्य करना चाह्ा ्ो मना कर दे्े थे । वकसी को हाथ नहीं लगाने दे्े थे ।
हो्ा है ।’ इसपर अपने म्
वलखो । िड़े करीने से, धै्य्प के साथ िे पैवकंग कर्े । कह्े थे- ‘‘लड़की ससतुराल

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जा रही है, उसे सँभालकर भेजना है ।’’ जि िे वकसी को पत्र वलख्े ्या
कुछ और वलख्े थे ्ो म् पूवछए, हर शबद, हर पांव्‍् काे नाप-्ौलकर लेखनीय
वलख्े थे । फूल उनहें िहु् प्यारे लग्े थे ।
मतुझे ्याद है २२ अ्‍्ूिर, १९88 को मैं लांदन से पेररस के गारदीनो हस्कला प्रदश्पनी में वकसी
सिेशन पर िट्ेन से पहुँची थी । रजा साहि सिेशन पर मेरा इां्जार कर रहे मान्यिर को अध्यक् के रप में
थे । िट्ेन लेि थी पर िे िहीं डिे रहे । मतुझे मेरे होसिल के कमरे में छोड़कर आमांवत्र् करने के वलए वनमांत्रण
पत्र वलखो ।
ही िे गए ।
एक वदन मैं िीमार होकर अपने कमरे में पड़ी थी । रा् ग््यारह िजे रजा
साहि मेरे वलए दिा, भार्ी्य रेसिाॅ रेंि से खाना पैक करिाकर पहुँच गए ।
मेरे घरिालों को फोन करके कहा-‘‘आप लोग वचां्ा न करें, मैं हँ पेररस में
सतुजा्ा की वचां्ा करने के वलए ।’’
पठनीय
हर िार जि मैं ्या रजा साहि पेंविांग पूरी कर्े ्ो सिसे पहले अां्रजाल से ग्ावफ्‍स, िड्प
एक-दूसरे को वदखा्े थे । दोनों एक-दूसरे के ईमानदार समालोचक थे । आि्प, वप्‍िोग्ाफ सांिांधी
हमने मतुांिई, लांदन, पेररस और न्यू्यॉक्फ में साथ-साथ प्रदश्पवन्याँ कीं पर जानकारी पढ़ो और उनका
प्र्योग कहाँ-कहाँ हो सक्ा है,
कभी कोई वििाद नहीं हुआ । ्यह उनके ्यह ि्ाओ ।
सनेह ि अपनेपन के कारण ही था ।
वहांदी, उदू्प ्ो हमेशा से ही िहु् अचछी
रही है उनकी । अांग्ेजी-फ्ेंच भी िे िहु्
अचछी वलख्े थे । कवि्ाओं से िहु्
प्यार था उनहें । शेर-गजल ि पतुराने वहांदी श्रवणीय
वफ्‍मी गाने िड़े प्यार से सतुन्े थे । एक
दूरदश्पन पर वकसी कलाकार का
डा्यरी रख्े थे अपने पास । हर सतुांदर चीज साक्ातकार सतुनो और कक्ा में
को वलख वल्या कर्े उसमें । मेरी िेिी सतुनाओ ।
हेलेना िहु् खूिसूर् वहांदी िोल्ी थी ्ो उनहें िहु् गि्प हो्ा था । िे
हमेशा उसके साथ शतुद्ध वहांदी में ही िा् कर्े ।
रजा साहि को अचछा खाने का िहु् शौक था पर दाल-चािल,
रोिी-आलू की सबजी में जैसे उनकी जान अिकी रह्ी थी । मैं हफ्े मांे एक
िार भार्ी्य शाकाहारी खाना िनाकर भेज्ी थी उनके वलए, उनके
फ्ाांसीसी दोस्ों के वलए ।
रजा साहि के कुछ पतुराने फ्ाांसीसी दोस्ों को उनके जाने की खिर देने
गई ्ो वफर से एक िार उनकी दीिारों पर रजा साहि की काफी सारी
कृव््याँ देखने का मौका वमल ग्या । मैं हमेशा कह्ी, रजा साहि आप मेरे संभतारणीय
‘एनजल गारवज्यन’ हैं ्ो मतुसकुरा दे्े पर सन २००० के िाद से कह्े,
‘्‍्यों, अि हमारी भूवमका िदल गई है-्तुम मेरी एनजल गावज्प्यन हो । अि वकसी प्रवसद्ध वचत्र के िारे में
मैं नहीं ।’ अपने वमत्रों से चचा्प करो ।

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शब्द वतानटिकता
करीने से = ्रीके से, सलीके से नजज्तासता = उतसतुक्ा
समतालोचक = गतुण-दोष आवद का प्रव्पादन करने िाला अनिोनी = असांभि, न होने िाली

सूचनतानुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) संजताल पूणथि करो ः ( ) सूची ्ैयतार करो ः
१. पाठ में आए विविध देशों के नाम ।
२. पाठ में उव्‍लखख् विविध भाषाएँ ।
रजा साहि की
सिभािग् (4) कृन् पूणथि करो ः
विशेष्ाएँ
खाने की इन चीजों में रजा
साहि की जान अिकी रह्ी
( ) कृन् पूणथि करो ः

दोनों ने वमलकर
वचत्रों की प्रदश्पवन्याँ
्यहाँ की थीं ।

भतारता नबंदु पाठ््यपतुस्क से दस िा्‍्य चतुनकर उनमें से उद्दे््य और विधे्य अलग करके वलखो ।

‘जहाँ चाह हो्ी है िहाँ राह वनकल आ्ी है’, इस सतुिचन पर आधारर् अससी शबदों ्क
उपयोनज् लेखन कहानी वलखखए ।

मैंने समझता
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सवयं अधययन वकसी गा्यक/गाव्यका की सवचत्र जानकारी वलखो ।

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8. पूणथि नवश्रताम
- सत्रकाम बिद्रालंकार

डाॅ्‍िर ने िाँह पर काला कपड़ा लपेिा और रिड़ की थैली


से हिा फूँककर नाड़ी की गव् देखी वफर िोला, ‘‘कुछ सीरर्यस नहीं है,
दफ्र से छुि्िी लेकर िाहर हो आइए; विश्ाम आपको पूण्प वनरोग कर
देगा । लेवकन, विश्ाम भी पूण्प होना चावहए’’ ्ो पतनी िड़ी प्रसन् हुई ।
पररचय
घर जाकर श्ीम्ी जी से कह वद्या ः ‘‘जतुह की ्ै्यारी कर लो, हम
ज म ः १९३5, लाहौर (अविभावज्
दो वदन पूण्प विश्ाम करेंगे ।’’ भार्)
एक वदन िाद पूवण्पमा भी थी । चाँदनी रा् का मजा जूह पर ही है । पररचय ः आप सफल सांपादक,
एक वदन पहले आधी रा् से ही उनहोंने ्ै्यारी शतुर कर दी । दो िजे का लेखक और कवि हैं । सरल-सतुिोध
भाषा और रोचक िोधगम्य शैली
अलाम्प िेल लग ग्या । सि्यां िह दो से पहले ही उठ िैठी और कुछ नोि आपके लेखन की विशेष्ाएँ
करने लगी । हैं । लेखन व्यािहाररक है । आपने
श्ीम्ी जी ने इन सि कामों की सूची िनाकर मेरे हाथ में दी । व्यव्‍्ति और चररत्र वनमा्पण पर
गैरेज में पहुँचकर श्ीम्ी जी ने मोिर में हिा भरने की वपचकारी, अवधक िल वद्या है ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘सि्ांत्र्ापूि्प चररत्र
ि््यूि िाल, रिड़ सो्‍्यूशन, एक गैलन इांवजन आ्यल आवद-आवद वनमा्पण’, ‘मानवसक शव्‍् के
चीजें और भी वलखी थीं । वदन भर दौड़-धूप करके पा्यधतुनी से वमसत्री चमतकार’, ‘सफल जीिन’
ला्या । सतुिह से शाम हो गई मगर शाम ्क चार में से दो खखड़वक्यों की (लेखसांग्ह), ‘िीर सािरकर’,
चिखवन्याँ भी नहीं कसी गईं । मोिर के वलए जररी सामान ला्े-ला्े ‘िीर वशिाजी’, ‘सरदार पिेल’,
‘महातमा गाांधी’ (जीिन चररत्र)
रा् ्क वदल की धड़कन दुगतुनी हो गई थी । आवद ।
रा् को सोने लगे ्ो श्ीम्ी जी ने आ्िासन दे्े हुए कहा ः
‘‘कल जतुह पर वदन भर विश्ाम लेंगे ्ो थकािि दूर हो जाएगी ।’’
श्ीम्ी जी ने अपने करकमलों से घड़ी की घतुांडी घतुमाकर अलाम्प
लगा वद्या और खतुद िाहर जाकर मोिर का पूरा मतुआ्यना करके ्यह
्स्‍ली कर ली वक सूची में वलखा सि सामान आ ग्या ्या नहीं । सतुिह गद्य संबंधी
पाँच िज्े ही अलाम्प ने शोर मचा्या । प्रस्तु् हास्य-व्यांग््य कहानी
रोशनी हो्े न हो्े जतुह की ्ै्यारी चरम सीमा पर पहुँच गई । सिोि के माध्यम से कहानीकार ने ्यह
को भी आज ही धोखा देना था । िह हर वमनि ितुझने लगा । आधा घांिा समझाने का प्र्यास वक्या है वक
जीिन की आपा-धापी में विश्ाम
उसमें ्ेल भरने, धौंकनी करने में चला ग्या । आखखर चा्य का प्रोग्ाम के पल मतुख्कल से ही वमल्े हैं ।
सथवग् कर वद्या ग्या और हम दत्वचत् हो ्ै्यारी में जतुि गए । जि कभी ऐसे अिसर वमल्े भी हैं
िािरलू जाने से पहले नेपोवल्यन ने भी ऐसी ्ै्यारी न की होगी । ्ो घरेलू उलझनों के कारण हम उन
ऐसी मह् ्योजनाओं के सांपन् करने में हम पव्-पतनी परसपर पलों का आनांद नहीं उठा पा्े ।
सह्योग भािना से काम करने पर वि्िास रख्े हैं । सह्योग भािना

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हमारे जीिन का मूलमांत्र है । सह्योग, मन, िचन, कम्प इन ्ीनों से हो्ा
है । जीिन का ्यह मूलमांत्र, मतुझे भूला न था । श्ीम्ी जी मतुझे मेरे कामों
की ्याद वदलाने लगीं और मैं उनके उपकार के िदले उनकी वचां्ाओं में
हाथ िँिाने लगा । मैंने ्याद वदला्या-‘‘पूवड़्यों के साथ वमचथी का अचार
जरर रख लेना ।’’
मौनलक सृजन श्ीम्ी जी िोली, ‘‘अचार ्ो रख लूँगी पर ्तुम भी समाचार पत्र
रखना न भूल जाना, मैंने अभी पढ़ा नहीं है ।’’ मैं िोला ः ‘‘िह ्ो मैं रख
प्य्पिन सथलों पर सैर करने के लूँगा ही लेवकन ्तुम िह गतुलिांद न भूल जाना जो हम वपछले साल क्मीर
वलए जा्े सम्य िर्ी जाने िाली से लाए थे । जतुह पर िड़ी सद्प हिा चल्ी है ।’’
सािधावन्याेां की सूची िनाओ ।
‘‘गतुलिांद ्ो रख लूँगी लेवकन ्तुम कहीं िेवदांग सूि रखना न भूल
जाना, नहीं ्ो नहाना धरा रह जाएगा ।’’
‘‘और, ्तुम कहीं रिर कैप भूल गई ्ो गजि हो जाएगा ।’’
‘‘िह ्ो रख लूँगी लेवकन कुछ नोि पेपर, वलफाफे भी रख लेना ।
और देखो राइविांग पैड भी न भूल जाना ।’’
‘‘राइविांग पैड का ्‍्या करोगी ?’’
‘‘कई वदन से माँ की वचि्ठी आई पड़ी है । जतुह पर खाली िैठे जिाि
भी दे दूँगी । ्यों ्ो ि्‍् भी नहीं वमल्ा ।’’
‘‘और जरा िे वचि्वठ्याँ भी रख लेना, वजनके जिाि देने हैं,
वचि्वठ्याँ ही रह गईं ्ो जिाि वकसके दोगे ?’’
‘‘और सतुनाे, विजली के विल और िीमा के नोविस आ पड़े हैं
उनका भी भतुग्ान करना है, उनहें भी डाल लेना ।’’
‘‘उस वदन ्तुम धूप का च्मा भूल गए ्ो सर का दद्प चढ़ ग्या
इसवलए कह्ी हँ छ्री भी रख लेना ।’’
‘‘अचछा िािा रख लूँगा और देखा, धूप से िचने की कीम भी रख
लेना । शाम ्क छाले न पड़ जाएँ । िहाँ िहु् करारी धूप पड़्ी है ।’’
श्ीम्ी जी कह्ी ्ो जा रही थीं वक रख लूॅांगी, रख लूँगी, लेवकन
ढूँढ़ रही थीं नेलकिर । कैंची, ब्रश और सि ्ो वमल ग्या था लेवकन
श्रवणीय नेलकिर नहीं वमल रहा था इसवलए िहु् घिराई हुई थीं ।
मैंने कहाः ‘‘जाने दो नेलकिर, िाकी सि चीजें ्ो रख लो ।’’
दूरदश्पन, रेवड्यो, ्यू-ि््यूि पर इधर मैं अपने वलए न्या अखिार और कुछ ऐसी वक्ािें थैले मांे भर
हास्य कवि्ा सतुनो और सतुनाओ ।
रहा था जो िहु् वदनों से समालोचना के वलए आई थीं और सोच्ा था
वक फुरस् से समालोचना कर दँूगा । आखखर ्ीन वक्ािें थैले में झोंक
लीं । कई वदनों से कवि्ा करने की भी धतुन सिार हुई थी । उनकी कई
क्रनें इधर-उधर विखरी पड़ी थीं । उनहें भी जमा वक्या । सोचा, काव्य
प्रेरणा के वलए जतुह से अचछी जगह और कौन-सी वमलेगी ?

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आखखर कई अिैची, कई थैले, कई झोले भरकर हम जतुह पहुँचे ।
पाँच-सा् वमनि ्ो हम सिपनलोक में विचर्े रहे । पठनीय
हम समतुद्र में नहाने को चल पड़े । समतुद्र ्ि पर और लोग भी नहा
रहे थे । एक ऊँची लहर ने आकर हम दोनों को ढँक वल्या । लहर की उस प्रेमचांद की कोई कहानी पढ़ो और
उसका आश्य, अपने शबदों में
थपेड़ से न जाने श्ीम्ी जी के मवस्ष्क में ्‍्या नई सफूव््प आ गई वक व्य्‍् करो ।
उनहोंने मतुझसे पूछा ः ‘‘्तुमहें ्याद है िरामदे की खखड़की को ्तुमने अांदर से
िांद कर वद्या था ्या नहीं ?’’
मैं कह उठा, ‘‘मतुझे ्ो कुछ ्याद नहीं पड़्ा ।’’
‘‘अगर िह िांद नहीं हुई और खतुली ही रह गई ्ो ्‍्या होगा ?’’
कह्े-कह्े श्ीम्ी जी के चेहरे का रांग पीला पड़ ग्या ।
मैंने कहा ‘‘चलो छोड़ो अि इन वचां्ाओं को, जो होना होगा हो
जाएगा ।’’मेरी िा् से ्ो उनकी आँखों में आँसतुओं का समतुद्र ही िह लेखनीय
पड़ा । उनके काँप्े ओठों पर ्यही शबद थे ‘‘अि ्‍्या होगा ?’’
‘‘और अगर खखड़वक्याँ खतुली रह गई होंगी ्ो घर का ्‍्या होगा ?’’ ‘सड़क सतुरक्ा सप्ताह’ के अिसर
्यह सोच उनकी अधीर्ा और भी ज्यादा हो्ी जा रही थी । वजस धड़कन पर ्या्ा्या् के वन्यमों के िैनस्प
का इलाज करने को जतुह पर आ्या था िह दस गतुना िढ़ गई थी । मैंने ्ेजी िनाकर विद््याल्य की दीिारों पर
लगाओ ।
से मोिर चलाई । मोिर का इांवजन धक-धक कर रहा था लेवकन मेरा वदल
उससे भी ज्यादा ्ेज रफ्ार से धड़क रहा था । वजस रफ्ार से हम गए थे,
दूनी रफ्ार से िापस आए । अांदर आकर देखा वक खखड़की की चिखनी
िदस्ूर लगी थी, सि ठीक-ठाक था । मैंने ही िह लगाई थी, लेवकन
लगाकर ्यह भूल ग्या था वक लगाई ्या नहीं और इसका न्ीजा ्यह हुआ
वक पहले ्ो मेरे ही वदल की धड़कन िढ़ी थी, अि श्ीम्ी जी के वदल
की धड़कन भी िढ़ गई । मतुझे ्याद आ रहे थे ‘पूण्प विश्ाम’ और ‘पूण्प संभतारणीय
वनरोग’, साथ ही ्यह वि्िास भी प्‍का हो ग्या था वक वजस शबद के
वकसी दुकानदार और ग्ाहक
साथ ‘पूण्प’ लग जा्ा है, िह ‘पूण्प भ्यािह’ हो जा्ा है । के िीच का सांिाद प्रस्तु्
करो ।

शब्द वतानटिकता
धौंकनी करनता = हिा भरना मुितावरे
झल्लतानता = िहु् विगड़ जाना, झॅतुांझलाना आँखों से ओझल िोनता = गा्यि हो जाना
िता् बँटितानता = सहा्य्ा करना
चेिरे कता रंग पीलता प नता = घिरा जाना
धुन सवतार िोनता = लगन होना

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सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः- ( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः
( ) संजताल पूणथि करो ः जतुह जा्े ि्‍् साथ मांे ली गई िस्तुएँ

गैरेज की सूची में


वलखी हुई चीजें

( ) नलखो ः
प्या्प्यिाची शबद ः
ऐनक रा् अखिार घर
..........,........ ..........,........,........ ..........,........ ..........,........,........
ननमननलशख् समो तारर् नभ ता्थिक निंदी शब्दों के अ्थि नलखो ््ता उन शब्दों कता अलग-अलग पूणथि
भतारता नबंदु वता्‍यों में प्रयोग करताे ः हार, िार, हल, सीना, जिार, सतुमन
कोई साप्तावहक पवत्रका अवन्यवम् रप में प्राप्त होने के विरोध में वशका्य् कर्े हुए सांपादक को
उपयोनज् लेखन वनमन प्रारप में पत्र वलखो ः
पत्र कता प्रतारूप
(औपचताररक पत्र)
वदनाांक ः
प्रव्,
...........
...........
विष्य ः..............
सांदभ्प ः ..............
महोद्य,
विष्य वििेचन ..............................................................
भिदी्य/भिदी्या,
..........................
नाम ः ....................
प्ा ः ....................
....................
ई-मेल आईडी ः ....................

मैंने समझता
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सवयं अधययन प्राचीन काल से आज ्क प्रचवल् सांदेश िहन के साधनों की सवचत्र सूची ्ै्यार करो ।

22
. अनमोल वताणी
- सं‍त किीर
- भक्‍त सूरदास
जैसा भोजन खाइए, ्ैसा ही मन हो्य ।
जैसा पानी पीवज्ये, ्ैसी िानी हो्य । पररचय
सं् कबीर
ऐसी िानी िोवलए, मन का आपा खो्य । ज म ः लगभग १३९8 (उ.प्र.)
मृतयु ः लगभग १5१8 (उ.प्र.)
औरन को शी्ल करै, आपौ शी्ल हो्य । पररचय ः भखतिकालीन वनगतुण्प
काव्यधारा के सां् कवि किीर
मानि्ा एिां सम्ा के प्रिल
ितुरा जो देखन मैं चला, ितुरा न वमवल्या को्य, समथ्पक थे ।
जो वदल खोजा अापना, मतुझसा ितुरा न को्य । प्रमुख कृन्यताँ ः ‘साखी’,
‘सिद, ‘रमैनी’ इन ्ीनों का
(सां् किीर) सांग्ह ‘िीजक’ नामक ग्ांथ मांे
ÍÍ ÍÍ वक्या ग्या है ।
भ्‍् सूरदतास
ज म ः लगभग १4७8, आगरा
(उ.प्र.)
मै्या, किवहां िढ़ैगी चोिी ? मृतयु ः १5६३ से १5९१ के िीच
वक्ी िार मोवहां दूध वप्य् भई, ्यह अजहँ है छोिी ।। पररचय ः सूरदास जी िातस्‍्य
रस के सम्ाि माने जा्े हैं ।
्ू जो कहव् िल की िेनी ज्यौं, ह्िै है लाँिी-मोिी । आपका नाम कृष्णभव्‍् धारा
काँचौ दूध वप्याि् पवच-पवच दे् न माखन-रोिी । को प्रिावह् करने िाले कवि्यों
में सिबोपरर है ।
सूर स्याम वचरजीिौ दोउ भै्या, हरर-हलधर की जोिी ।। प्रमुख कृन्यताँ ः ‘सूरसागर’,
‘सूरसारािली’, ‘सावहत्यलहरी’,
(भ्‍् सूरदास) ‘नल-दम्यां्ी’ आवद ।

पद्य संबंधी
्यहाँ सां् किीरदास ने
अपने दोहों में मनतुष््य को सद्गतुणों
को अपनाकर आगे िढ़ने को
कहा है ।
भ्‍् सूरदास रवच् ्यह
पद ‘सूरसागर’ महाकाव्य से
वल्या ग्या हैं । इसमें श्ीकृष्ण
की िालसतुलभ लीलाओं का
िण्पन वक्या है ।
23
शब्द वतानटिकता
कबनिं = कि पनच-पनच = िार-िार
चोटिी = चतुवि्या, िेणी नचरजीवौ = लांिी आ्यतु
अज ँ = अि ्क दोउ = दोनों
कताँचौ = कच्चा िलधर = िलराम

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) कृन् पूणथि करो ः ( ) आकृन् पूणथि करो ः

ऐसी िाणी िोलनी है वजससे श्ीकृष्ण द्िारा चोिी के सांदभ्प में की गई िा्ें

( ) कनव्ता में इस अ्थि में आए शब्द नलखो (4) ‘भोजन कता प्रभताव’- नटि पणी नलखो ।

१. ठांडा - ..............
२. कोई - ..............
३. िलराम - .............. कल्पनता पल्लवन पानी, िाणी, दूध इन शबदों का
4. म्‍खन - .............. उप्योग कर्े हुए कोई कवि्ा
वलखो ।

पाठों में आए अलग-अलग काल के िा्‍्य ढूँढ़कर उनका अन्य कालों में पररि््पन करो ।
भतारता नबंदु

उपयोनज् लेखन ‘आगे कुआँ पीछे खाई’ कहाि् का अथ्प वलखकर उससे सांिांवध् कोई प्रसांग वलखो ।

मैंने समझता
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‘हाफ मैराथन’ में सफल्ा प्राप्त करने के वलए कौन-कौन-सी ्ै्यारर्याँ


सवयं अधययन करोगे, वलखो ।

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24
दूसरी इकाई
.धर्ी कता आँगन मिके
- डॉ. प्रकाश दीबषि‍त

धर्ी का आँगन महके कम्पज्ान-विज्ान से । पररचय


ऐसी सरर्ा करो प्रिावह् खखले खे् सि धान से ।। ज म ः १९२९, इिािा (उ.प्र.)
मृतयु ः २०१२
पररचय ः आजीिन अध्यापक रहे
अवभलाषाएँ वन् मतुसकाएँ आशाओं की छाँह में, डॉ. दीवक्् जी ‘अच्पना’, ‘मवणप्रभा’,
पैरों की गव् िँधी हुई हो वि्िासों की राह में । ‘ज्ानाज्पन’ आवद पवत्रकाओं के
सांपादक रहें । ‘अमर उजाला’
समाचार पत्र में पत्रकारर्ा भी
की । आपकी रचनाएँ विविध
वश्‍पकला-कुमतुदों की माला िक्सथल का हार हो, पत्र-पवत्रकाओं की शोभा िढ़ा्ी
फूल-फलों से हरी-भरी इस धर्ी का शृांगार हो । रहीं ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘अच्पनाांजवल’,
‘मांगलपथ’, ‘दोहािली’, ‘राष्िट्ी्य
चांद्रलोक ्या मांगल ग्ह पर चढ़ें वकसी भी ्यान से, सिर’ (कवि्ा सांग्ह) आवद ।

वकं्तु न हो सांिांध विनाशक असत्रों का इनसान से ।


पद्य संबंधी
प्रस्तु् नई कवि्ा में कवििर
साँस-साँस जीिनपि ितुनकर प्राणों का ्न ढाँक्ी, डॉ. दीवक्् जी ने कम्प, ज्ान एिां
सदाचार की शतुभ्र शलाका मन सतुांदर्ा आँक्ी । विज्ान की महत्ा सथावप् की
है । आपका कहना है वक हम
ज्ान-विज्ान के िल पर भले ही
प्रव्भा का पैमाना मेधा की ऊँचाई नाप्ा, आसमान को नाप लें परां्तु विनाशक
शसत्रासत्र से मानि्ा काे िचाना भी
मानि्ा का मीिर िन, मन की गहराई माप्ा । आि््यक है । ्यह ्भी सांभि
होगा जि समाज में सदाचार, सनेह
िढ़ेगा ।
आतमा को आिृत् कर दें सनेह प्रभा पररधान से,
करें अच्पना हम सि वमलकर िसतुधा के ज्यगान से । कल्पनता पल्लवन

‘वि्ि शाांव् की माँग
सिा्पवधक प्रासांवगक है’, इस
्थ््य पर अपने विचार वलखो ।
25
२5
शब्द वतानटिकता
शलताकता = सलाई मेधता = ितुद्वध
आँकनता = अांदाजा लगाना, मू्‍्य ि्ाना आवृत् = ढँका, लौिा्या हुआ
पैमतानता = नाप-्ौल, मापदांड वसुधता = धर्ी, अिवन, धरा

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः ( ) कृन् पूणथि करो ः
कनव की अपेक्ताएँ धर्ी का आँगन
इनसे महके

धर्ी का शृांगार
इनसे होगा

( ) उत्र नलखो ः (4) कृन् करो ः


१. मेधा की ऊँचाई नापेगा - मानि अां्ररक् ्यान से ्यहाँ पहुँचा है ।
२. हम सि वमलकर करें -

भतारता नबंदु (अ) ननमननलशख् शब्दों के समतानता्थी शब्द नलखो ््ता उनकता वता्‍यों में प्रयोग करो ः
शरीर, मनतुष््य, पृथ्िी, छा्ी, पथ
(आ) पताठों में आए सभी प्रकतार के सवथिनताम ँढ़कर उनकता अपने वता्‍यों में प्रयोग करो ।

उपयोनज् लेखन ‘छा्े की आतमकथा’ विष्य पर वनिांध वलखो ।

मैंने समझता
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प्राचीन भार्ी्य वश्‍पकला सांिांधी सवचत्र जानकारी सांकवल् करो, विशेष


सवयं अधययन कलाकृव््यों की सूची िनाओ ।

26
. दो लघुक्ताएँ
- हरर जोशी
नींव
िहुमांवजला इमार् की दीिार नींि से उठ रही थी । ठेकेदार न्या
था । भ्यभी्-सा िह एक ्गारी सीमेंि और पाँच ्गारी रे् के मसाले
से ईंिों की जतुड़ाई करिा रहा था । अगले वदन अवधकारी महोद्य आए । पररचय
उनहोंने काम के प्रव् घोर असां्ोष व्य्‍् वक्या । महोद्य िोले-‘‘ऐसा
काम करना हो ्ो कहीं और जाइए ।’’ ज म ः १९4३, खूवड़्या (म.प्र.)
अगले वदन सशांवक् न्ये ठेकेदार ने एक ्गारी सीमेंि और ्ीन पररचय ः सेिावनिृत् प्राध्यापक हरर
जोशी जी की सावहवत्यक रचनाएँ
्गारी रे् के मसाले से ईंिों की जतुड़ाई की । सांिांवध् अवधकारी आए । वहांदी की लगभग सभी प्रव्वष्ठ् पत्र/
उनहोंने नींि की दीिार पर एक वनगाह डाली और गरम हो गए । इस िार पवत्रकाओं में प्रकावश् हो्ी रही हैं ।
ठेकेदार को अांव्म चे्ािनी दी, ‘्यवद कल ्क काम में प्या्पप्त सतुधार आपको ‘गो्यनका सारसि् सममान’,
नहीं वक्या ग्या ्ो काम िांद करिा वद्या जाएगा ।’ ‘िागी्िरी सममान’ प्राप्त हुए हैं ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘पांखतुरर्या’,‘्यांत्र्यतुग’,
जि न्ये ठेकदे ार की समझ में िा् नहीं आई ्ो उसने एक अनतुभिी ‘अखाड़ों का देश’, ‘भार् का राग-
ठेकदे ार से इस समस्या पर उसकी सलाह चाही । अनतुभिी ठेकदे ार ने अमेररका के रांग’ आवद ।
ि्ा्या वक ्ये महोद्य रर्ि् चाह्े हैं । इसीवलए काम में कमी ि्ा रहे
हैं । न्या ठेकदे ार ईमानदार था । िह रर्ि् देन-े लेने को अपराध समझ्ा
था । उसने भ्रष्ि अवधकारी को पाठ पढ़ाने का वन्च्य कर वल्या । गद्य संबंधी
अगले वदन अवधकारी महोद्य वनरीक्ण करने आए । ठेकदे ार ने उनहें
्यहाँ दो लघतुकथाएँ दी गई हैं ।
रुप्यों से भरा वलफाफा पकड़ा प्रथम लघतुकथा में जोशी जी ने ि्ा्या
वद्या । अवधकारी प्रसन् होकर है वक हमें ितुरे काम का फल ितुरा ही
जैसे ही जाने लगे िैसे ही एकाएक वमलेगा अ्ः ितुरे काम नहीं करने
िहाँ उच्च अवधकारी आ गए । चावहए ।
दूसरी लघतुकथा में आपने
अवधकारी महोद्य रर्ि् ले्े हुए समझा्या है वक कठोर्ा की अपेक्ा
रँगे हाथों पकड़े गए । विनम््ा अवधक महततिपूण्प है ।
िस्तु्ः रा् में ही ईमानदार ‘घमांडी’ का वसर हमेशा नीचा हो्ा
है । अ्ः हमें घमांड नहीं करना
ठेकदे ार ने अवधकारी महोद्य के खखलाफ उच्च अवधकारी के पास चावहए ।
वशका्य् कर दी थी । उच्च अवधकारी ईमानदार थे । उनहोंने कहा-‘‘कुछ
एक भ्रष्ि अवधकारी्यों के कारण ही पूरा प्रशासन िदनाम हो्ा है ।’’
उनहोंने भ्रष्ि अवधकारी को दांड वदलिाने का वनण्प्य ले वल्या । सच ही
मौनलक सृजन
कहा है- ‘ितुरे काम का ितुरा न्ीजा ।’ ठेकदे ार और उच्च अवधकारी की
ईमानदारी का समाचार चारों ्रफ फैल ग्या । उनका साि्पजवनक समारोह ‘विनम््ा सारे सद्गतुणों की
में सममान वक्या ग्या । नींि है’ विष्य पर अपने मन के
Í Í Í भाि वलखो ।

27
संभतारणीय जीभ कता वचथिसव
पांव्‍्िद्ध और एकजतुि रहने के कारण दाँ् िहु् दुससाहसी हो
‘इांद्रधनतुष के सा् रांग, रहें हमेशा
सांग-सांग’ इस कथन के आधार गए थे । एक वदन िे गि्प मांे चूर होकर वजह्िा से िोले, ‘‘हम ित्ीस
पर कहानी िनाकर अपने घवनष्ठ वमत्र हैं, एक-से-एक मजिू् । ्ू ठहरी अकेली, चाहें ्ो ्तुझे
सहपावठ्यों के सामने प्रस्तु् िाहर ही न वनकलने दें ।’’ वजह्िा ने पहली िार ऐसा कलतुवष् विचार
करो ।
सतुना था । िह हँसकर िोली, ‘‘ऊपर से एकदम सफेद और सिचछ हो
पर मन से िड़े कपिी हो ।’’
‘‘ऊपर से सिचछ और अांदर से काले घोवष् करने िाली जीभ !
िाचाल्ा छोड़, अपनी औका् में रह । हम ्तुझे चिा सक्े हैं । ्यह
म् भूल वक ्ू हमारी कृपा पर ही राज कर रही है’’, दाँ्ों ने
श्रवणीय वकिवकिाकर कहा । जीभ ने नम््ा िनाए रखी वकं्तु उत्र वद्या,
वकसी समारोह का िण्पन ‘‘दूसरों को चिा जाने की ललक रखने
उवच् विराम, िलाघा्, िाले िहु् ज्‍दी िूि्े भी हैं । सामनेिाले
्ान-अनतु्ान के साथ ्ो और ज्‍दी वगर जा्े हैं । ्तुम लोग
‘एकाग््ा’ से सतुनो और अिसरिादी हो, मनतुष््य का साथ ्भी ्क
्यथाि् सतुनाओ ।
दे्े हो, जि ्क िह जिान रह्ा है ।
िृद्धािसथा में उसे असहा्य छोड़कर चल
दे्े हो ।’’
शव्‍्शाली दाँ् भी आखखर अपनी हार ्‍्यों मानने लगे ? िोले,
पठनीय ‘‘हमारी जड़ें िहु् गहरी हांै । हमारे कड़े और नतुकीलेपन के कारण िड़े-
श्मवनष्ठा का महतति ि्ाने
िड़े हमसे थरा्प्े हैं ।’’
िाला कोई वनिांध पढ़ो । वजह्िा ने वििेकपूण्प उत्र वद्या, ‘‘्तुमहारे नतुकीले ्या कड़ेपन का
का्य्पक्ेत्र मतुँह के भी्र ्क सीवम् है । विनम््ा से कह्ी हँ वक मतुझमें
पूरी दुवन्या को प्रभावि् करने और झतुकाने की क्म्ा है ।’’
दाँ्ों ने पतुनः धमकी दी, ‘‘हम सि वमलकर ्तुझे घेरे खड़े हैं । कि
्क हमसे िचेगी ?’’ जीभ ने दाँ्ों के घमांड को चूर कर्े हुए चे्ािनी
लेखनीय दी, ‘‘डॉ्‍िर को ितुलाऊँ ? दां् वचवकतसक एक-एक को िाहर कर
देगा । मतुझे ्ो छुएगा भी नहीं और ्तुम सि िाहर वदखाई दोगे ।’’
वकसी समारोह के मतुख्य विांदुओं, घमांडी दाँ् अि वनरुत्र थे । उनहें कवि्ा की ्यह पांव्‍् ्याद आ
एिां मतुद्दों को पढ़ो । इनका पतुनः गई, ‘वकसी को पसांद नहीं सख्ी ि्यान में, ्भी ्ो दी नहीं हड्डी
समरण करके वलखो । जिान मेंां ।’ घमांडी दाँ्ों ने आखखर जीभ का लोहा मान वल्या ।

२8
28
शब्द वतानटिकता
्गतारी = िड़ा ्सला, घमेला मुितावरता
कलुनर् = अपवित्र, दूवष् लोिता मताननता = श्ेष्ठ्ा काे सिीकर करना
ललक = लालसा, ्ीव्र इचछा रँगे िता् पक नता = अपराध कर्े हुए प्रत्यक्
अवसरवतादी = सिाथथी, म्लिी पकड़ना
बयतान = चचा्प, आिाज, कथन

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) संजताल पूणथि करो ः ( ) उत्र नलखो ः
१. जीभ द्िारा दी गई चे्ािनी

दाँ्ों की विशेष्ाएँ
२. पांव्‍्िद्ध और एकजतुि रहने के कारण
दाँ्ों में आ्या गल् पररि््पन

( ) नवधतानों के सतामने चौखटि में सिी R अ्वता गल् S (4) उनच् जोन यताँ नमलताओ ः
नचि्न लगताओ ः अ उत्र अता
१. वजह्िा ने अवििेक पूण्प उत्र वद्या । १. िहुमांवजला १. ईमानदार
२. दाँ् घमांडी थे । २. अवधकारी २. इमार्
३. सभी अपरावध्यों को वन्यमानतुसार सजा नहीं हुई । ३. न्या ठेकेदार ३. भ्रष्ि
4. ठेकेदार पतुराना था । 4. साि्पजवनक समारोह 4. अनतुभिी
5. सममान
भतारता नबंदु ननमननलशख् शब्दों के आधतार पर मुितावरे नलखकर उनकता अपने वता्‍यों में प्रयोग करो ।
नाक दाँ् गला मतुँह

उपयोनज् लेखन ‘जल के अपव्य्य की रोकथाम’ सांिांधी वचत्रकला प्रदश्पनी का आकष्पक विज्ापन ्ै्यार करो ।

मैंने समझता
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सवयं अधययन वकसी ग्ामीण और शहरी व्यव्‍् की वदनच्या्प की ्तुलनातमक जानकारी


प्राप्त करके आपस में चचा्प करो ।

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. लक ितारता और वन
- अरबिंद भटनागर

पतात्र
पररचय १. लकड़हारा २. एक ग्ामीण व्यखति के रप में भगिान ३. लकड़हारे
की पतनी 4. एक हरा-भरा पेड़ ।
पररचय ः अरविांद भिनागर जी पिलता दृ्य
एकाांकीकार के रप में प्रवसद्ध हैं । (एक लक ितारता टििल्ता हुआ मंच पर आ्ता िै । लक ितारे के
प्या्पिरण परररक्ण के वलए िृक्ारोपण
एिां िृक् सांिध्पन की आि््यक्ा पर िता् में कल्िता ी िै । वि पे के पतास आकर रुक जता्ता िै।)
हमेशा आपने िल वद्या है । लक ितारता ः (पे को देखकर) चलो, आज इसी पेड़ को कािें । इससे
आज की रोिी का इां्जाम हो जाएगा । (पे की डताल
कताटिने के नलए कल्िता ी चलता्ता िै पर कल्िता ी िता् से
्टिकर नदी में नगर जता्ी िै ।)
लक ितारता ः (नचंन्् एवं दुखी सवर में) हे भगिान ! मेरी कु्‍हाड़ी...
पानी गहरा है, ्ैरना आ्ा नहीं । कैसे कािँूगा, ्‍्या
िेचँूगा ? आज िच्चे ्‍्या खाएँगे ? (इसी बीच भगवतान
ग्तामीण वयश कता वेश धतारण कर मंच पर आ्े िैं ।)
ग्तामीण ः िड़े दुखी लग रहे हो । ्‍्या हुआ?
गद्य संबंधी लक ितारता ः (दुख भरे शब्दों में) ्‍्या कहँ भाई, अचानक मेरी कु्‍हाड़ी
प्रस्तु् एकाांकी में लेखक ने
नदी के गहरे पानी में वगर पड़ी । मेरा ्ो सि कुछ चला
मेहन्, ईमानदारी एिां छोिे पररिार ग्या ।
का महतति समझा्या है । आपका ग्तामीण ः हाँ भाई, ्तुमहारा कहना ्ो ठीक है ।
कहना है वक पेड़-पौधों से हिा, लक ितारता ः भाई, ्तुम मेरी मदद कर सको ्ो िड़ा उपकार होगा ।
पानी, फल वमल्े हैं । अ्ः हमें
पेड़-पौधों, िनों का सांरक्ण करना ग्तामीण ः ठीक है... ्तुम दुखी म् होओ । मैं कोवशश कर्ा हँू ।
चावहए । (यि किकर ग्तामीण नदी में कफूदता और एक चताँदी की कल्िता ी
ननकतालकर बतािर आयता ।) अरे भाई, ्तुम वक्ने भाग््यिान
हो । लो, ्तुमहारी चाँदी की कु्‍हाड़ी ।
लक ितारता ः नहीं भाई, ्यह कु्‍हाड़ी मेरी नहीं है ।
ग्तामीण ः ठीक है । एक िार वफर कोवशश कर्ा हँू । (नदी में न्‍र
कफूद्ता िै और सोने की कल्िता ी ननकतालकर बतािर आ्ता िै ।)
मौनलक सृजन लक ितारता ः (आ्चयथि से) ्‍्या कु्‍हाड़ी वमल गई भाई !
ग्तामीण ः हाँ, वमल गई । लो ्यह सोने की कु्‍हाड़ी ।
‘प्रकृव् हमारी गतुरु’ विष्य पर लक ितारता ः नहीं भाई, मैं ्ो िहु् गरीि हँू । ्यह सोने की कु्‍हाड़ी ्ो
अपने विचार वलखो ।
30
मेरी है ही नहीं । (दुखी िोकर) खैर, जाने दो भाई, ्तुमने मेरे
वलए िहु् कष्ट उठाए ।
ग्तामीण ः (बीच मंे िी) नहीं भाई नहीं । इसमांे कष्ट की ्‍्या िा् है ।
मतुसीि् के सम्य एक दूसरे के काम आना ्ो हमारा धम्प
है । मैं एक िार वफर कोवशश कर्ा हँू । (ग्तामीण नदी में श्रवणीय
कफूदकर लोिे की कल्िता ी ननकताल्ता िै ।) विवभन् अिसरों पर शाला
ग्तामीण ः लो भाई, इस िार ्ो ्यह लोहा ही हाथ लगा है । में खेले जाने िाले नािकों
लक ितारता ः (अपनी लोिे की कल्िता ी देखकर खुश िो उठ्ता िै ।) के सांिाद ध्यान दे्े हुए
सतुनो ।
्तुमहारा ्यह उपकार मैं जीिन भर नहीं भूलँूगा । भगिान
्तुतुमहें सतुखी रखे ।
ग्तामीण ः एक िा् मेरी समझ में नहीं आई ।
लक ितारता ः (िता् जो कर) िह ्‍्या ?
ग्तामीण ः मैंने ्तुमहें पहले चाँदी की कु्‍हाड़ी दी, वफर सोने की दी,
्तुमने नहीं ली । ऐसा ्‍्यों ?
लक ितारता ः दूसरे की चीज को अपनी कहना ठीक नहीं है । मेहन्
और ईमानदारी से मतुझे जो भी वमल्ा है, िही मेरा धन
है । (ग्तामीण चलता जता्ता िै और भगवतान के रूप में मंच पर
न्‍र से आ्ता िै ।)
भगवतान ः धन्य हो भाई, मैं ्तुमहारी ईमानदारी से िहु् प्रसन् हँू
लेवकन एक श््प पर । ्तुम हरे-भरे पेड़ों को नहीं कािोगे,
न ही लालच मांे पड़कर जरर् से अवधक सूखी लकड़ी
कािोगे ।
लक ितारता ः मतुझे श््प मांजूर है । (परदा वगर्ा है । )
दसरता दृ्य
(मंच पर लक ितारता सो रिता िै । मंच के पी्े से उसकी पतनी
आवताज दे्ी िै ।)
पतनी ः अरे, रामू के िापू, घोड़े िेचकर सो रहे हो । ्‍्या आज
लकड़ी कािने नहीं जाना है ?
लक ितारता ः जा्ा हँू भागिान । (अपनी कल्िता ी उठताकर जंगल की
्र्‍ जता्ता िै । मन-िी-मन सोच्ता िै ।) संभतारणीय
वजधर देखो, दूर ्क जांगल का प्ा नहीं । जो थे, िे कि्े
वकसी भार्ी्य लोककथा
जा रहे हैं और उनकी जगह खड़े हो रहे हैं सीमेंि के जांगल । की विशेष्ाओं के िारे में
(अचतानक उसे चोटि लग्ी िै, वि चीख उठ्ता िै, न्‍र एक अपने सहपावठ्यों के साथ
पे की ्ताँव में बैठ जता्ता िै ।) अहा ! वक्नी ठांडी छा्या चचा्प करो ।
है । सारी थकान दूर हो गई । (िरे-भरे पे के नीचे से

31
उठकर अपनी कल्िता ी सँभताल्ता िै ।) चलो ्यही सही, इसे
ही साफ करें (कल्िता ी चलताने की मुद्ता में िता् उठता्ता िै ।)
पे ः अरे ! अरे ! ्यह ्‍्या कर रहे हो ?
लक ितारता ः (चौंककर) कौन ? (आस-पतास नजर दौ ता्ता िै ।)
पे ः अरे भाई, ्यह ्ो मैं हँू ।
लक ितारता ः (डरकर) कौन... भू ... ् !
पठनीय पे ः डरो नहीं भाई, मैं ्ो पेड़ हँ... पेड़ हँ ।
लक ितारता ः (आ्चयथि से) पेड़ ! ्‍्या ्तुम िोल भी सक्े हो ।
विवभन् विधाओं से प्राप्त
सूचनाओं, सिवेक्णों, विपपवण्याेां पे ः भाई, मतुझमें भी प्राण हैं । ्तुम मतुझ िेकसूर पर ्‍्यों िार कर
को पढ़कर उनका सांकलन करो । रहे हो ?
लक ितारता ः ्ो ्‍्या करँ ? चार-चार िच्चों को पालना पड़्ा है ।
्यही एक रास्ा है रोजी-रोिी का ।
पे ः अरे भाई, अवधक िच्चे होने के कारण पररिार में दुख ्ो
आएगा ही, पर ्तुम वक्ने िदल गए हाे ! ्तुम ्यह भी भूल
गए वक मैं ही ्तुमहांे जीने के वलए शतुद्ध हिा, पानी और
भोजन, सभी कुछ दे्ा हँू ।
लक ितारता ः ्यह ्ो ्तुमहारा काम है । इसमें उपकार की ्‍्या िा् है ।
पे ः मैंने कि कहा उपकार है भाई । पर ्यह ्ो ्तुम अचछी ्रह
जान्े हो वक विना हिा के मनतुष््य वजांदा नहीं रह सक्ा ।
उसे साँस लेने के वलए शतुद्ध हिा ्ो चावहए ही और हिा
को शतुद्ध करने का काम मैं ही कर्ा हँू ।
लक ितारता ः ठीक है पर मेरे सामने भी ्ो समस्या है ।
पे ः ्यवद ्तुम हमें काि्े रहे, ्ो ्ये िेचारे िन्य पशतु कहाँ
जाएँगे ? ्‍्या ्तुम अपने सिाथ्प के वलए उनका घर उजाड़
दोगे ?
लक ितारता ः ्ो वफर ्‍्या मैं अपना घर उजाड़ दँू ?
पे ः मेरा म्लि ्यह नहीं है । ्यवद ्तुम इसी ्रह हमें काि्े
रहे, ्ो अचछी िषा्प कैसे आएगी और एक वदन...
लेखनीय लक ितारता ः ्तुमहारी िा् ्ो ठीक है पर अि ्तुमहीं ि्ाओ, मैं ्‍्या
करँ ?
वकसी वलखख् सामग्ी के पे ः कम-से-कम अपने हाथों अपने ही पैरों पर कु्‍हाड़ी ्ो
उद्दे््य और उसके दृवष्िकोण म् मारो । कभी हरा-भरा पेड़ म् कािो । उनहें अपने
के मतुद्दाेां को समझकर उसे िच्चों के समान पालो, ्ावक चारों ओर हरर्याली छाई
प्रभािपूण्प शबदों में वलखो ।
रहे ! (लकड़हारा हामी भर्ा है । उसी सम्य परदा
वगर्ा है ।)

32
शब्द वतानटिकता
श्थि = िाजी घताे े बेचकर सोनता = वनख्चां् होकर सोना
बनल = आहुव्, भेंि, चढ़ािा अपने पैरों पर कल्िता ी मतारनता = खतुद अपना नतुकसान
मुितावरे करना
ितामी भरनता = सिीकार करना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) संजताल पूणथि करो ः ( ) संक्ेप में उत्र नलखो ः
१. पेड़ द्िारा वद्या ग्या सांदेश -
२. भगिान की श््प -
कु्‍हाड़ी पानी में वगरने के ३. पेड़ों के उप्योग -
कारण खड़ी हुई समस्याएँ 4. पेड़ों की किाई के दुष्पररणाम -

( ) कृन् पूणथि करो ः


पाठ में प्र्यतु्‍् धा्तुओं के नाम
(4) ननमन वृत् में नदए संज्ता ््ता नवशेरण शब्दों को ्ताँटिकर ्तानलकता में उनच् स्तानों पर उनके भेद सनि् नलखो ः
संज्ता भेद नवशेरण भेद
नदी, पहाड़ी, --------- --------- --------- ---------
सी्ा, िह लकड़हारा, --------- --------- --------- ---------
पानी, चार वकलो, --------- --------- --------- ---------
गरीिी, ईमानदारी, गांगा, --------- --------- --------- ---------
--------- --------- --------- ---------
पालक, दस, चाँदी --------- --------- --------- ---------
कोई, सभा, --------- --------- --------- ---------
धनी --------- --------- --------- ---------
--------- --------- --------- ---------
भतारता नबंदु पाठ में प्र्यतु्‍् कारक विभव्‍््याँ ढूँढ़कर उनका िा्‍्यों में प्र्योग करो ।

उपयोनज् लेखन वकसी मराठी वनमांत्रण पवत्रका का रोमन (अांग्ेजी) में वलप्यां्रण करो ।

मैंने समझता
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वकसानों के सामने आने िाली समस्याओं की जानकारी प्राप्त करके उन समस्याओं को दूर करने हे्तु
सवयं अधययन चचा्प करो ।
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4. सौितादथि-सौमनसय
- जहीर कुरैशी

िो छोिा, मैं हँ िड़ा, ्ये िा्ें वनमू्पल,


पररचय उड़कर वसर पर िैठ्ी, वनज पैरों की धूल ।

ज म ः १९5०, गतुना (म.प्र.) नफर् ठांडी आग है, इसमें जलना छोड़,


पररचय ः आपकी रचनाएँ,
अांग्ेजी, गतुजरा्ी, मराठी, पांजािी
िूिे वदल को प्यार से, जोड़ सके ्ो जोड़ ।
आवद भाषाओं में अनूवद् हो
चतुकी हैं । आपको ‘इनकापबोरेिेड पौधे ने िाँिे नहीं, नाम पूछकर फूल,
सममान’, ‘गोपाल वसांह नेपाली हमने ही खोले िहु्, सिारथ के इसकूल ।
सममान’ प्राप्त हुए हैं ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘एक िुकड़ा
धूप’, ‘लेखनी के सिपन’, धम्प अलग, भाषा अलग, वफर भी हम सि एक,
‘चाँदनी का दुख’, ‘भीड़ में सिसे विविध रांग कर्े नहीं, हमको कभी अनेक ।
अलग’, ‘पेड़ ्नकर भी नहीं
िूिा’ (गजल सांग्ह) आवद । जो भी कर्ा प्यार िो, पा ले्ा है प्यार,
प्यार नकद का काम है, रह्ा नहीं उधार ।

पद्य संबंधी जरवे-जरवे मांे खतुदा, कण-कण में भगिान,


प्रस्तु् दोहों में जहीर लेवकन ‘जरवे’ को कभी, अलग न ‘कण’ से मान ।
कुरैशी जी ने छोिे-िड़े के भेद
वमिाने, नफर्, सिाथ्प आवद इसीवलए हम प्यार की, कर्े साज-समहार,
छोड़ने के वलए प्रेरर् वक्या है ।
आपका मानना है वक अनेक्ा नफर् से नफर् िढ़े, िढ़े प्यार से प्यार ।
में एक्ा ही अपने देश की शान
है । अ्ः हमें वमल-जतुलकर भाँव्-भाँव् के फूल हैं, फल िवग्या की शान,
रहना चावहए ।
फल िवग्या लग्ी रही, मतुझको वहांदुस्ान ।

हम सि वजसके नाम पर, लड़्े हैं हर िार,


कल्पनता पल्लवन उसने सपने में कहा, लड़ना है िेकार !

‘भार् की विविध्ा मांे एक्ा वक्ना अचछा हो अगर, जलें दीप से दीप,
है’, इसे सपष्ि करो ।
्ये सांभि ्ि हो सके, आएँ दीप समीप ।।

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शब्द वतानटिकता
ननमूथिल = विना जड़ की, वनरथ्पक समितार = सँभाल, सतुरवक््
सवतार् = सिाथ्प जरताथि = अत्यां् छोिा कण
सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः
( ) कृन् पूणथि करो ः ( ) कनव्ता मंे इस अ्थि में प्रयु्‍् शब्द नलखो ः
१. इन िा्ों में अलग होकर १. दीपक = -----------
भी हम सि एक हैं - २. पतुष्प = -----------
३. व्रसकार = -----------
4. प्रेम = -----------
२. िवग्या की शान -

( ) कनव्ता में प्रयु्‍् नवलोम शब्दों की जोन यताँ नलखो ।

भतारता नबंदु पाठों में आए अव्य्यों को पहचानो और उनके भेद ि्ाकर उनका अलग-अलग िा्‍्यों में प्र्योग करो ।

शतालेय बैंड प्क के नलए आव्यक सतामग्ी खरीदने िे्ु अपने नव यतालय के प्रताचतायथि से
उपयोनज् लेखन नवद्यता्थी प्रन्नननध के नता्े अनुमन् मताँग्े हुए ननमन प्रतारूप में पत्र नलखो ः
वदनाांक ः
प्रव्,
................
................
विष्य ः ..................................................
सांदभ्प ः ..................................................
महोद्य,
विष्य वििेचन
..............................................................
..............................................................
..............................................................
.............................................................।
आपका/आपकी आज्ाकारी,
.............................
(विद््याथथी प्रव्वनवध)
कक्ा ः .............

मैंने समझता
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------------------------------------------------

सवयं अधययन ‘नफर् से नफर् िढ़्ी है और सनेह से सनेह िढ़्ा है’, इस ्थ््य से सांिांवध् अपने विचार वलखो ।

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35
5. खे्ी से आई ्ब्दीनलयताँ
- पं. जिाहरलाल नेहरू

वप्र्य िेिी इांवदरा,


अपने वपछले ख् में मैंने कामों के अलग-अलग वकए जाने का
कुछ हल ि्ला्या था । विलकुल शतुर में जि आदमी वसफ्फ वशकार
पररचय पर गतुजर-िसर कर्ा था, काम िांॅिे हुए न थे । हरेक आदमी वशकार
कर्ा था और मतुख्कल से खाने भर को पा्ा था । सिसे पहले मदयों
ज म ः १88९, इलाहािाद (उ.प्र.) और और्ों के िीच मांांे काम िांॅिना शतुर हुआ होगा; मद्प वशकार कर्ा
मृतयु ः २७ मई १९६4(नई वद्‍ली) होगा और और् घर में रहकर िच्चों और पाल्ू जानिरों की वनगरानी
पररचय ः सि्ांत्र भार् के प्रथम
प्रधानमांत्री पां. जिाहरलाल नेहर कर्ी होगी ।
वचां्क, ि्‍्ा, लेखक अौर जि आदवम्यों ने खे्ी करना सीखा ्ो िहु्-सी नई-नई िा्ें
विचारक थे । नेहर जी ने आधतुवनक वनकलीं । पहली िा् ्यह हुई वक काम कई वहससों में िांॅि गए ।
भार् के वनमा्पण में महत्िपूण्प
भूवमका अदा की । आपने विज्ान कुछ लोग वशकार खेल्े और कुछ खे्ी कर्े और हल चला्े ।
और प्रौद््योवगकी के विकास को ज्यों-ज्यों वदन गतुजर्े गए आदवम्यों ने न्ये-न्ये पेशे सीखे और उनमें
प्रोतसावह् वक्या । पक्के हो गए ।
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘एक आतमकथा’,
खे्ी करने का दूसरा अचछा न्ीजा ्यह हुआ वक गाांॅि
‘दुवन्या के इव्हास का सथूल
दश्पन’, ‘भार् की खोज’, ‘वप्ा के
और कसिे िने । लोग इनमें आिाद होने लगे । खे्ी के पहले लोग
पत्र पतुत्री के नाम’, आवद । इधर-उधर घूम्े-वफर्े थे और वशकार कर्े थे । उनके वलए एक
जगह रहना जररी नहीं था । वशकार हरेक जगह वमल जा्ा था । इसके
वसिा उनहें गा्यों, िकरर्यों और अपने दूसरे जानिरों की िजह से
इधर-उधर घूमना पड़्ा था । इन जानिरों के चराने के वलए चरागाहों
की जरर् थी । एक जगह कुछ वदनों ्क चरने के िाद जमीन में
गद्य संबंधी जानिरों के वलए काफी घास पैदा नहीं हो्ी थी और सारी जाव् को
प्रस्तु् पत्र पां. जिाहरलाल दूसरी जगह जाना पड़्ा था ।
नेहर ने अपनी पतुत्री इांवदरा को वलखा जि लोगों को खे्ी करना आ ग्या ्ो उनका जमीन के पास
है । इस पत्र में आवदम अिसथा से रहना जररी हो ग्या । जमीन को जो्-िोकर िे छोड़ नहीं सक्े थे ।
आगे िढ़कर खे्ी के माध्यम से हुए
मानिी्य सभ्य्ा के कवमक विकास उनहें साल भर ्क लगा्ार खे्ी का काम लगा ही रह्ा था और इस
को ि्ा्या ग्या है । ्यहाँ नेहर जी ने ्रह गाांॅि और शहर िन गए ।
अमीर-गरीि के मानदांड एिां िच् दूसरी िड़ी िा् जो खे्ी से पैदा हुई िह ्यह थी वक आदमी की
प्रणाली को सतुांदर ढांग से समझा्या
है । वजांदगी ज्यादा आराम से किने लगी । खे्ी से जमीन में अनाज पैदा
करना, सारे वदन वशकार खेलने से कहीं ज्यादा आसान था । इसके
वसिा जमीन में अनाज भी इ्ना पैदा हो्ा था वज्ना िे एकदम खा

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नहीं सक्े थे, इसे िे सतुरवक्् रख्े थे । एक और मजे की िा् सतुनाे । जि पठनीय
आदमी वनपि वशकारी था ्ो िह कुछ जमा न कर सक्ा था ्या कर भी सक्ा
था ्ो िहु् कम, वकसी ्रह पेि भर ले्ा था । उसके पास िैंक न थे, जहाांॅ िह िालिीर पतुरसकार प्राप्त
िच्चों की कहावन्याँ पढ़ो ।
अपने रुप्ये ि दूसरी चीजें रख सक्ा । उसे ्ो अपना पेि भरने के वलए रोज
वशकार खेलना पड़्ा था । खे्ी से उसे एक फसल मांे जरर् से ज्यादा वमल
जा्ा था । अव्रर्‍् खाने को िह जमा कर दे्ा था । इस ्रह लोगों ने
अव्रर्‍् अनाज जमा करना शतुर वक्या । लोगों के पास अव्रर्‍् अनाज
इसवलए हो जा्ा था वक िह उससे कुछ ज्यादा मेहन् कर्े थे वज्ना वसफ्फ
पेि भरने के वलए जररी था । ्तुमहें लेखनीय
मालूम है वक आज-कल िैंक खतुले हुए
हैं जहाांॅ लोग रुप्ये जमा कर्े हैं और िन महोतसि जैसी घिना,
चेक वलखकर वनकाल सक्े हैं । ्यह प्रसांग की क्‍पना कर्े
रुप्या कहाांॅ से आ्ा है? अगर ्तुम गौर सम्य विशेष उद्धरणों,
िा्‍्यों का प्र्योग करके
करो ्ो ्तुमहें मालूम होगा वक ्यह आठ से दस िा्‍्य वलखो।
अव्रर्‍् रुप्या है, ्यानी ऐसा रुप्या
वजसे लोगों को एक िारगी खच्प करने की जरर् नहीं है । इसे िे िैंक में रख्े
हैं । िही लोग मालदार हैं वजनके पास िहु्-सा अव्रर्‍् रुप्या है और वजनके
पास कुछ नहीं िे गरीि हैं । आगे ्तुमहें मालूम होगा वक ्यह अव्रर्‍् रुप्या
आ्ा कहाँ से है । इसका सिि ्यह नहीं है वक आदमी दूसरे से ज्यादा काम
कर्ा है और ज्यादा कमा्ा है िख्‍क आज-कल जो आदमी विलकुल काम संभतारणीय
नहीं कर्ा उसके पास ्ो िच् हो्ी है और जो पसीना िहा्ा है उसे खाली ‘ज्य जिान, ज्य वकसान’
हाथ रहना पड़्ा है । वक्ना ितुरा इां्जाम है । िहु् से लोग समझ्े हैं वक इसी नारे पर अपने विचार कक्ा
ितुरे इां्जाम के कारण दुवन्या मांे आज-कल इ्ने गरीि आदमी हैं । अभी शा्यद में प्रस्तु् करो ।
्तुम ्यह िा् समझ न सको इसवलए इसमें वसर न खपाओ । थोड़े वदनों में ्तुम
इसे समझने लगोगी ।
इस िति ्ो ्तुमहें इ्ना ही जानना प्या्पप्त है वक खे्ी से आदमी को उससे
ज्यादा खाना वमलने लगा वज्ना िह खा नहीं सक्ा था, ्यह जमा कर वल्या
जा्ा था। उस जमाने मांे न रुप्ये थे, न िैंक। वजनके पास िहु्-सी गा्यें, भेड़ें,
ऊँि ्या अनाज हो्ा था, िे ही अमीर कहला्े थे।
श्रवणीय
्तुमहारा वप्ा, रेवड्यो/दूरदश्पन पर जैविक
जिाहरलाल नेहर खे्ी के िारे में जानकारी
सतुनो और सतुनाओ ।

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शब्द वतानटिकता
कसबता = गाँि से िड़ी और शहर से मुितावरे
छोिी िस्ी खताली िता् रिनता = पास में कुछ न होना
चरतागताि = जानिरों के चरने की नसर खपतानता = िहु् ितुद्वध लगाना
जगह पसीनता बितानता = कड़ी मेहन् करना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः ( ) कतारण नलखो ः
मनतुष््य द्िारा खे्ी करने पर हुए लाभ अ. अनाज सतुरवक्् रखना प्रारांभ हुआ -------
ि. मनतुष््य को रोज वशकार खेलना पड़्ा -------
क. दुवन्या में गरीि आदमी हैं -------
ड. लोग िैंक में रुप्ये रख्े -------
(4) कृन् पूणथि करो ः
उस जमाने में उसे अमीर कहा जा्ा था वजसके पास... थे
( ) उनच् जतानकतारी नलखो ः-
१. काम का विभाजन इनमें हुआ

( ) शब्द समूि के नलए एक शब्द नलखो ः


भतारता नबंदु
क. जानिरों को चराने की जगह = -------
ख. वजनके पास िहु् से अव्रर्‍् रुप्ये हैं = -------
( ) वता्‍य शुद्ध करके नलखो ः मौनलक सृजन
क. िड़े दुखी लग रहे हो ्‍्या हुआ
ख. अरे रामू के िापू घोड़े िेचकर सो रहे हो कृवष क्ेत्र में वकए गए न्ये-न्ये
ग. ्तुमहारे दाने कहा है प्र्योगों से होने िाले लाभ वलखो ।

उपयोनज् लेखन ‘्ांिाकू सेिन के दुष्पररणाम’ विष्य पर लगभग सौ शबदों में वनिांध वलखो ।

मैंने समझता
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सवयं अधययन पारांपररक ्था आधतुवनक कृवष प्रौद््योवगकी का ्तुलनातमक चाि्प िनाओ ।

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. अंधतायुग
- डॉ. धम्यिीर भार‍ती

युयुतसु ः हाे्ी होगी िवधकों की मतुव्‍्


प्रभतु के मरण से
वकं्तु रक्ा कैसे होगी अांधे ्यतुग में
मानि भविष््य की पररचय
प्रभतु के इस का्यर मरण के िाद ? ज म ः १९२६, इलाहािाद (उ.प्र.)
मृतयु ः १९९७, मतुांिई (महाराष्िट्)
पररचय ः भार्ी जी आधतुवनक वहांदी
अ्वत्तामता ः का्यर मरण ? सावहत्य के प्रमतुख लेखक, कवि
मेरा था शत्रतु िह नािककार और सामावजक विचारक
लेवकन कहँगा मैं थे । आपको १९७२ में पद्मश्ी से
सममावन् वक्या ग्या ।
वदव्य शाांव् छाई थी प्रमुख कृन्यताँ ः ‘सिग्प और पृथ्िी’,
उसके सिण्प मस्क पर ! ‘चाँद और िूिे हुए लोग’, ‘िांद गली
का आखखरी मकान’, ‘ठांडा लोहा’,
‘सा्गी्’, ‘कनतुवप्र्या’, ‘सपना
वृद्ध ः िोले अिसान के क्णों में प्रभतु - अभी भी’, ‘गतुनाहों का देि्ा’,
‘‘मरण नहीं है ओ व्याध ! ‘सूरज का सा्िाँ घोड़ा’, ‘ग््यारह
सपनों का देश’, ‘प््यां्ी’,
मात्र रपाां्रण है ्यह ‘अांधा्यतुग’ आवद ।
सिका दाव्यति वल्या मैंने अपने ऊपर
अपना दाव्यति सौंप जा्ा हँ मैं सिको
अि ्क मानि भविष््य को मैं वजला्ा था
लेवकन इस अांधे ्यतुग में मेरा एक अांश
वनवष्क्य रहेगा, आतमघा्ी रहेगा
और विगवल् रहेगा
सांज्य, ्यतु्यतुतसतु, अ्ितथामा की भाँव्
्‍्योंवक इनका दाव्यति वल्या है मैंने !’’

िोले िे -
‘‘लेवकन शेष मेरा दाव्यति लेंगे
िाकी सभी ....

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मेरा दाव्यति िह वसथ् रहेगा
पद्य संबंधी हर मानि मन के उस िृत् में
वजसके सहारे िह
प्रस्तु् अांश डॉ. धम्पिीर
भार्ी के ‘अांधा्यतुग’ गीव्नाि््य से सभी पररवसथव््यों का अव्कमण कर्े हुए
वल्या ग्या है । इसमें ्यतुद्ध के नू्न वनमा्पण करेगा वपछले धिांसों पर !
पररप्रेक््य में आधतुवनक जीिन की
विभीवषका का वचत्रण वक्या ग्या म्या्पदा्यतु्‍् आचरण में
है । अांधा्यतुग में ्यतुद्ध ्था उसके वन् नू्न सृजन में
िाद की समस्याओं और मानिी्य वनभ्प्य्ा के
महततिाकाांक्ा को प्रस्तु् वक्या
ग्या है । ्यह दृ््य काव्य है । इसका साहस के
कथानक महाभार् ्यतुद्ध के समाखप्त मम्ा के
काल से शतुरु हो्ा है ।
रस के
्यहाँ प्रसांग उस सम्य का है
जि श्ीकृष्ण की जीिन्यात्रा समाप्त क्ण में
हो गई है । डॉ. भार्ी जी िृद्ध के जीवि् और सवक्य हो उठूँगा मैं िार-िार !’’
मतुख से कह्े हैं वक श्ीकृष्ण ने
अपना सांपूण्प उत्रदाव्यति पृथ्िी के
हर प्राणी को सौंप वद्या है । सभी को अ्वत्तामता ः उसके इस न्ये अथ्प में
अपने म्या्पदा्यतु्‍् आचरण, सृजन, ्‍्या हर छोिे-से-छोिा व्यव्‍्
साहस-वनभ्प्य्ा एिां ममतिपूण्प
व्यिहार करने होंगे । मानि-जीिन विकृ्, अद्ध्पिि्पर, आतमघा्ी, अनासथाम्य
उसके ही हाथों में है । िह चाहे ्ो अपने जीिन की साथ्पक्ा पा जाएगा ?
उसे नष्ि कर दे अथिा जीिन प्रदान
करें ।
वृद्ध ः वन्च्य ही !
िे हैं भविष््य
वकं्तु हाथ में ्तुमहारे हैं ।
वजस क्ण चाहो उनको नष्ि करो
वजस क्ण चाहो उनको जीिन दो, जीिन लो ।
कल्पनता पल्लवन

‘मनतुष््य का भविष््य उसके हाथों


में है’ अपने विचार वलखो ।

40
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शब्द वतानटिकता
वनधक = िध करने िाला सृजन = वनमा्पण
कतायर = डरपोक बबथिर = असभ्य, वहांसक
धवंस = विनाश आतमघता्ी = आतमहत्या करने िाला

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) कृन् करो ः ( ) संजताल पूणथि करो ः
१. िृद्ध ने इनका
दाव्यति वल्या है
अ्ितथामा के
२. अांधे ्यतुग में प्रभतु
अनतुसार न्ये अथ्प
का एक अांश
में व्यव्‍्
( ) उत्र नलखो ः
कवि्ा में प्र्यतु्‍् पात्र

भतारता नबंदु पाठों में आए मतुहािराांे का अथ्प वलखकर उनका अपने सि्ांत्र िा्‍्यों में प्र्योग करो ः

उपयोनज् लेखन वनमनवलखख् मतुद्दों के आधार पर कहानी वलखकर उसे उवच् शीष्पक दो ।

एक गाँि दजथी की प्रव्वदन हाथी का दुकान से दजथी का हाथी काे


दुकान होकर नदी पर नहाने जाना केला खखलाना

एक वदन दजथी को दजथी द्िारा हाथी पररणाम शीष्पक


मजाक सूझना को सतुई चतुभाना

मैंने समझता
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सवयं अधययन ‘कम्प ही पूजा है’, विष्य पर अपने विचार सौ शबदों में वलखो ।

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. सवरता य मेरता ज मनसद्ध अनधकतार िै
-लोकमानर िाळ गंगाधर बटळक

मैं ्यद््यवप शरीर से िूढ़ा,


पररचय वकं्तु उतसाह मांे जिान हँू । मैं
्यतुिािसथा के इस विशेषावधकार
ज म ः १85६, दापोली, रतनावगरर
(महाराष्िट्) को छोड़ना नहीं चाह्ा । अपनी
मृतयु ः १९२०, मतुांिई (महाराष्िट्) विचार शखति को सिल िनाने से
पररचय ः िाळ गांगाधर विळक जी इनकार करना, ्यह सिीकार
एक वशक्क, सामावजक का्य्पक्ा्प
एिां प्रवसद्ध िकील थे । आप देश करने के समान होगा वक मतुझे इस
के पहले ऐसे सि्ांत्र्ा सेनानी रहे , प्रस्ाि पर िोलने का कोई
वजनहोंने पूण्प सिराज की माँग करके अवधकार नहीं है ।
अांग्ेजों के मन में खौफ पैदा कर अि मैं जो कुछ िोलने जा रहा हँू, िह वचर ्यतुिा है । शरीर
वद्या था । जनसमाज ने आपको
‘लोकमान्य’ की उपावध दी । िूढ़ा-जज्पर हो सक्ा है और नष्ट भी हो सक्ा है, परां्तु आतमा अमर
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘गी्ा रहस्य’, है । उसी प्रकार, हमारी होमरल गव्विवध्यों में भले ही सतुस्ी वदखाई
‘िेदकाल का वनण्प्य’, आ्ययों का दे, उसके पीछे वछपी भािना अमर एिां अविनाशी है । िही हमें सि्ांत्र्ा
मूल वनिास सथान’, ‘िेदों का काल
वनण्प्य और िेदाांग ज्योव्ष’ आवद।
वदलाएगी । आतमा ही परमातमा है और मन को ्ि ्क शाांव् नहीं
वमलेगी, जि ्क िह ई्िर से एकाकार न हो जाए । सिराज्य मेरा
जनमवसद्ध अवधकार है । जि ्क िह मेरे भी्र जाग्् है, मैं िूढ़ा नहीं
गद्य संबंधी हँू । कोई हवथ्यार इस भािना को काि नहीं सक्ा, कोई आग इसे
जला नहीं सक्ी, कोई जल इसे वभगो नहीं सक्ा, कोई हिा इसे
प्रस्तु् भाषण में विळक जी ने
‘सिराज्य के अवधकार’ को आतमा सतुखा नहीं सक्ी ।
की ्रह अजर-अमर ि्ा्या है । मैं उससे भी आगे िढ़कर कहँूगा वक कोई सी.आई.डी. पतुवलस
्यहाँ विळक जी ने राजनीव्, धम्प, इसे पकड़ नहीं सक्ी । मैं इसी वसद्धाां् की घोषणा पतुवलस अधीक्क,
सिशासन आवद का विस्ृ् वििेचन
वक्या है । प्रस्तु् पाठ से सिराज्य के
जो मेरे सामने िैठे हैं, के सामने भी कर्ा हँू, कले्‍िर के सामने भी,
प्रव् विळक जी की अिूि वजनहें इस सभा में आमांवत्र् वक्या ग्या था और आशतुवलवप लेखक, जो
प्रव्िद्ध्ा वदखाई पड़्ी है । हमारे भाषणों के नोि्स लेने में व्यस् हैं, के सामने भी । हम सिशासन
चाह्े हैं और हमें वमलना ही चावहए । वजस विज्ान की पररणव्
सिशासन में हो्ी है, िही राजनीव् विज्ान है, न वक िह, वजसकी
मौनलक सृजन
पररणव् दास्ा में हो । राजनीव् का विज्ान इस देश के ‘िेद’ हैं ।
विळक जी द्िारा सांपावद्/ आपके पास एक आतमा है और मैं केिल उसे जगाना चाह्ा
प्रकावश् ‘केसरी’ समाचार हँू । मैं उस परदे काे हिा देना चाह्ा हँू, वजसे अज्ानी, कुचकी और
पत्र की जानकारी सांक्ेप में सिाथथी लोगों ने आपकी आँखों पर डाल वद्या है । राजनीव् के,
वलखो ।
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विज्ान के दो भाग हैं-पहला दैिी और दूसरा राक्सी । एक राष्टट् की श्रवणीय
दास्ा दूसरे भाग में आ्ी है । राजनीव्-विज्ान के राक्सी भाग का
कोई नैव्क औवचत्य नहीं हो सक्ा । एक राष्टट् जो उसे उवच् ठहरा्ा राष्िट्ी्य त्योहारों पर आ्योवज्
है, ई्िर की दृखष्ट में पाप का भागी है । का्य्पकम में ि्‍्ाओं द्िारा
कुछ लोगों में उस िा् को ि्ाने का साहस हो्ा है, जो उनके वदए गए ि्‍्व्य सतुनो और
वलए हावनकारक है और कुछ लोगों में ्यह साहस नहीं हो्ा । लोगों मतुख्य मतुद्दे सतुनाओ ।
को इस वसद्धाां् के ज्ान से अिग् करना चाह्ा हँू वक राजनीव् और
धम्प, वशक्ा का एक अांग हैं । धावम्पक और राजनीव्क वशक्ाएँ वभन्
नहीं हैं, ्यद््यवप विदेशी शासन के कारण िे ऐसे प्र्ी् हो्ी हैं ।
राजनीव् के विज्ान में सभी दश्पन समाए हैं ।
इांग्लैंड भार् की सहा्य्ा से िेख्‍ज्यम जैसे छोिे से देश को संभतारणीय
सांरक्ण देने का प्र्यास कर रहा है, वफर िह कैसे कह सक्ा है वक हमें
सिशासन नहीं वमलना चावहए ? जो हममें दोष देख्े हैं, िे लोभी भार्ी्य सि्ांत्र्ा सांग्ाम के
प्रवसद्ध घोषिा्‍्यों की सूची
प्रकृव् के लोग हैं परां्तु ऐसे भी लोग हैं, जो परम कृपालतु ई्िर में भी िनाकर उनपर गतुि में चचा्प
दोष देख्े हैं । हमें वकसी िा् की परिाह वकए विना अपने राष्टट् की करो ।
आतमा की रक्ा करने के वलए कठोर प्र्यास करने चावहए । अपने उस
जनमवसद्ध अवधकार की रक्ा में ही हमारे देश का वह् वछपा हुआ है ।
काांग्ेस ने सिशासन का ्यह प्रस्ाि पास कर वद्या है ।
प्राां्ी्य सममेलन काांग्ेस की ही देन है, जो उसके आदेशों का
पालन कर्ा है । इस प्रस्ाि को लागू कराने हे्तु का्य्प करने के वलए
हम कृ्सांक्‍प हैं, चाहे ऐसे प्र्यास हमें मरुभूवम में ही ले जाएँ, चाहे लेखनीय
हमें अज्ा्िास में रहना पड़े, चाहे हमें वक्ने ही कष्ट उठाने पड़ें ्या
अां् में चाहे जान ही गँिानी पड़े । श्ीरामचांद्र ने ऐसा वक्या था । उस राष्िट्प्रेम की भािना से
प्रस्ाि को केिल ्ावल्याँ िजाकर पास न कराएँ, िख्‍क इस प्रव्ज्ा ओ्-प्रो् चार पांव्‍््यों
की कवि्ा वलखो ।
के साथ कराएँ वक आप उसके वलए काम करेंगे । हम सभी सांभि
सांिैधावनक और विवधसमम् ्रीकों से सिशासन की प्राखप्त के वलए
का्य्प करेंगे ।
जॉज्प ने खतुलकर सिीकार वक्या है वक भार् के सह्योग के विना
इांग्लैंड अि चल नहीं सक्ा है । पाँच हजार िष्प पतुराने एक राष्टट् के िारे
मांे सारी धारणाएँ िदलनी होंगी । फ्ाांसीसी रणभूवम में भार्ी्य सैवनकों
ने वब्रविश सैवनकों की जान िचाकर अपनी िहादुरी का पररच्य वद्या पठनीय
है । हमें उनहें ि्ा देना चावहए वक हम ्ीस करोड़ भार्ी्य साम्ाज्य के सतुभद्राकुमारी चौहान की
वलए अपनी जान भी देने को ्ै्यार हैं । ‘झाँसी की रानी’ कवि्ा
पढ़ो ।

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शब्द वतानटिकता
जजथिर = कमजोर मरुभूनम = िांजर भूवम, अनतुपजाऊ भूवम
िोमरूल = एक ऐव्हावसक आांदोलन संवैधताननक = सांविधान के अनतुसार
अताशुनलनप = सांके् वलवप (शॉि्पहैंड) अवग् करनता = पररवच् कराना ्या ि्ाना
नैन्क = नीव् सांिांधी मुितावरता
औनचतय = उप्यतु्‍््ा, उवच् होने की अिसथा आँखों से परदता िटितानता = िास्विक्ा से अिग्
कृ्संकल्प = वजसने प्‍का सांक्‍प वक्या हो कराना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) नवधतानों को पढ़कर गल् नवधतानों को सिी करके नलखो ः
१. विळक जी ने कहा है वक, िे ्यद््यवप शरीर से जिान है वकं्तु उतसाह में िूढ़े हैं ।
२. प्राां्ी्य सममेलन अांग्ेजों की देन है ।
(4) कृन् पूणथि करो ः
( ) नटि पणी नलखो ः
१. लोकमान्य विळक जनमवसद्ध अवधकार की विशेष्ाएँ
२. होमरल
१.
( ) उत्र नलखो ः २.
१. लोकमान्य विळक जी द्िारा वद्या ग्या नारा ः
३.
4.

भतारता नबंदु पाँच-पाँच सहा्यक और प्रेरणाथ्पक वक्याओं का अपने सि्ांत्र िा्‍्यों में प्र्योग करो ।

उपयोनज् लेखन अपने विद््याल्य में आ्योवज् ‘सिचछ्ा अवभ्यान’ का िृत्ाां् वलखो । िृत्ाां् में सथल,
काल, घिना का उ्‍लेख आि््यक है ।

मैंने समझता
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पाठ में प्र्यतु्‍् उद्धरण, सतुिचन, मतुहािरे, कहाि्ें, आलांकाररक शबद


सवयं अधययन आवद की सूची िनाकर अपने लेखन प्र्योग हे्तु सांकलन करो ।

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8. मेरता नवद्ताेि
- सूर्यिाला

वकिाड़ धीरे-से सरकाकर दिे पाँि घर में दाखखल होने की कोवशश


कर्ा हँ पर कोने में िैठे वप्ा जी की वनगाहें मतुझे दिोच ले्ी हैं-
‘वकधर गए थे ?’ पररचय
‘लॉॅनडट्ी में कपड़े देने ।’
ज म ः १९4३, िाराणसी (उ.प्र.)
‘्तुमहारे कपड़े ्‍्या रोज लाॅनडट्ी में धतुल्े हैं ?’ पररचय ः समकालीन व्यांग््य एिां
‘रोज कि जा्े हैं ?’ कथा सावहत्य में अपनी विवशष्ि
‘िकिास म् करो ! वदन भर सड़कों पर मिरग््ी कर्े वफर्े हो, भूवमका और महतति रखने िाली
अपने कपड़े खतुद नहीं धो सक्े ?’ सू्य्पिाला जी ने अभी ्क १5० से
अवधक कहावन्याँ, उपन्यास और
‘हँऽऽ !’ मैं गतुन्ा्ा हुआ ढीठ-सा अांदर आ जा्ा हँ । मन ्ो कर्ा हास्य-व्यांग््य सांिवध् रचनाओं
है वक उनपर जिािों के ्ीर चलाऊँ पर जान्ा हँ-पररणाम िही होगा, का लेखन का्य्प वक्या है ।
उनका दहाड़ना-गरजना, मेरा कई-कई घांिों के वलए घर से गा्यि हो आपको ‘वप्र्यदवश्पनी पतुरसकार’,
जाना और हफ्ों हम वप्ा-पतुत्र का एक-दूसरे की नजरों से िचना, ‘घन््यामदास सराफ पतुरसकार’,
‘व्यांग््य श्ी’ आवद अनेक पतुरसकार,
सामना पड़ने पर मेरा वढठाई से गतुजर जाना, माँ का रोना-धोना और सममान प्राप्त हुए हैं ।
पूि्प कमयों को दोष दे्े हुए लगा्ार विसूर्े चले जाना । प्रमुख कृन्यताँ ः ‘मेरे सांवध पत्र’,
ठीक-ठीक ्याद नहीं आ्ा वक ्यह वसलवसला कि से और कैसे ‘अवग्नपाखी’, ‘्यावमनी-कथा’,
‘इ्‍कीस कहावन्याँ’ आवद ।
शतुर हुआ । मैंने ्ो अपने आपको जि से जाना, ऐसा ही विद्राेही, उद्दांड
और ढीठ । िचपन मेरे वलए विलकुल एक शहद के प्याले जैसा ही था
वजसे होंठों से लगा्े-लगा्े ही वप्ा की महततिाकाांक्ा का जहर उस
प्याले मांे घतुल ग्या था । गद्य संबंधी
अभी भी िह वदन ्याद आ्ा है, जि माँ ने िाल सँिारे, वक्ािों का
न्या िैग मेरे कंधों पर लिका, मतुझे वप्ा जी के साथ साइवकल पर विठाकर प्रस्तु् कहानी में सू्य्पिाला
सकूल भेजा था । वप्ा जी ्माम दौड़-धूप कर मतुझे कॉनिेंि में दाखखल जी ने िालमन की लालसाओं,
वप्ा की महततिाकाांक्ाओं एिां
करा पाने में सफल हो गए थे । अपेक्ाओं का मनोिैज्ावनक
मैं अांग्ेजी माध्यम से पढ़ने लगा । घर मांे पूरी ्ौर से वहांदी िा्ािरण, वि्लेषण प्रस्तु् वक्या है । इस पाठ
्‍लास के वजन िच्चों के घरेलू माहौल भी अांग्ेवज्य् से ्यतु्‍् थे, उनपर में आपने ि्ा्या है वक वकस ्रह
ही वशवक्काएँ भी शािाशी के िोकरे उछाल्ीं ्‍्योंवक िे छोिी उम् में ही वप्ा की आकाांक्ाओं से दिकर
िालक-िावलकाओं की लालसाएँ
धाराप्रिाह अांग्ेजी िोल्े । कक्ा में उनहीं लड़कों का दिदिा रह्ा । दम ्ोड़ दे्ी हैं । पररणामसिरप
माँ मतुझे अचछी ्रह पढ़ा सक्ी थीं पर अांग्ेजी माध्यम होने की िच्चे विद्राेही िन जा्े हैं और जि
िजह से लाचार थीं । अ्ः सारी मेहन् वप्ा जी ही कर्े । मेरी इचछा ्क उनहें समझ आ्ी है ्ि ्क
नहीं रह्ी थी उनसे पढ़ने की । मगर माँ की िा् नहीं िाल सक्ा काफी देर हो चतुकी हो्ी है । अ्ः
हमें इन वसथव््यों से िचना चावहए ।
था । ऑवफस से आने के साथ ही सारी वक्ाि-कॉवप्यों सवह् मतुझे

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घेरकर पढ़ाना-रिाना शतुर कर दे्े । शा्यद उनकी मेहन् के ही िल पर
मौनलक सृजन मैं आठिीं कक्ा ्क पहुँचा हँ ।
एक िार पूरी ्‍लास वपकवनक पर जा रही थी । वप्ा जी ने मना
अपने जीिन में वप्ा की वक्या । मेरे वजद करने पर माँ और वप्ा जी में भी वझक-वझक होने लगी ।
महततिपूण्प भूवमका को मैं अड़ा ही रहा । पररणामसिरप पहले समझा्या, धमका्या और डाँिा
अधोरेखख् कर्े हुए कृ्ज््ा ग्या और सिसे आखखर में दो चाँिे लगाकर नाला्यक करार वद्या ग्या ।
ज्ापन करने िाला पत्र वलखो । मैं िड़ा कोवध् हुआ ।
कभी ‘डोनेशन’ ्या सालाना जलसे आवद के वलए चांदे िगैरह की
छपी पवच्प्याँ ला्ा ्ो वप्ा जी झ्‍ला पड़्े ।
एक-दो रुप्ये दे्े भी ्ो मैं अड़ जा्ा वक
िाकी लड़के दस-दस, िीस-िीस रुप्ये ला्े
हैं, मैं ्‍्यों एक-दो ही ले जाऊँ ? मैंने इस िारे
में माँ से िा् की पर माँ भी इसे वफजूल खचा्प
मान्ी थीं ।
रमन की ‘िष्पगाँठ’ की िा् ्ो मैं कभी
भूल ही नहीं सक्ा । सिसे पहले उसने मतुझे
ही ि्ा्या था वक अगले महीने उसकी िष्पगाँठ
है । मैं अांदर-िाहर एकदम खतुशी से वकलक्ा
घर पहुॅांचा था । मैं शा्यद रमन से भी ज्यादा िेसब्री से उसकी िष्पगाँठ का
इां्जार कर रहा था; ्‍्योंवक रमन ने अपनी िष्पगाँठ की ्ै्यारर्यों का जो
वचत्र खींचा था, उसने मतुझे पूरे एक महीने से िेचैन कर रखा था ।
लेवकन उस वदन वप्ा जी ने मतुझे एकदम डपि वद्या-‘‘नहीं जाना
है ।’’ मैंने जोर-जोर से लड़ना, वजद मचाना और रोना-वच्‍लाना शतुर
श्रवणीय कर वद्या । गतुससे मांे वप्ा जी ने एक भरपूर थपपड़ गालों पर जड़ वद्या ।
गाल पर लाल वनशान उभर आए । उस वदन पहली िार माँ ने मेरे गालों
रेवड्यो, दूरदश्पन, ्यू ि््यूि से शौ्य्प पर उँगवल्याँ फेर रो पड़ी थीं और वप्ा जी से लड़ पड़ी थीं । वप्ा जी को
कथा/गी् सतुनो और सतुनाओ । भी शा्यद पछ्ािा हुआ था । माँ ने मेरा मतुँह धतुला्या, गाल पर दिा लगाई
और िाजार से विसकुि का एक वडबिा मँगाकर वप्ा जी के साथ रमन के
घर वभजिा वद्या ।
रमन के पापा दरिाजे पर ही वमल गए थे । खूि खतुश होकर उनहोंने
रमन को ितुला्या । वफर उनकी दृवष्ि गालों पर पड़ी । वप्ा जी ज्‍दी से
िोले, ‘‘आ्े-आ्े सीवढ़्यों से वगर ग्या ... पर मैंने कहा, ‘‘्तुमहारे
दोस् का जनमवदन है, जरर जाओ ।’’
मेरा वदमाग गतुससे से पागल हो ग्या । मन वक्या, जोर से चीख पड़ूँ ।
रमन के पापा के सामने ही-वक ्ये झूठे, म्‍कार और वनद्प्यी हैं, मतुझे

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पीिकर लाए हैं और ्यहाँ झूठ िोल रहे हैं । िोला कुछ नहीं, िस गतुससे से
उनहें घूर्ा रमन की उँगली पकड़े अांदर चला ग्या ।
अांदर जाकर ्ो मतुझे लगा वक मैं लाल परी के जादुई देश मांे आ ग्या
हँ । ढेर-के-ढेर झूल्े रांग-विरांगे गतुबिारे, ररिांस, प्रेजेंि्स, िट्ॉवफ्याँ-
गतुलदस्े-सा सजजा, उ्‍लास से हमेशा हँस्े-से उसके मममी-डैडी ।
घर लौिकर मैंने पहला प्र्न माँ से ्यही वक्या-‘्तुम और वप्ा जी मेरा
जनमवदन ्‍्यों नहीं मना्े ?’
उत्र में वप्ा जी की वझड़की ने उसके प्रव् उपेक्ा ि आकोश को
और भी िढ़ा वद्या । शा्यद धीरे-धीरे इसी उपेक्ा और आकोश का
सथान विद्राेह लेने लगा । अनजाने में मेरे अांदर वप्ा जी का एक शत्रतु पैदा
हो ग्या, जो हर सम्य वप्ा जी को ्ांग करने, दुखी करने और उनसे अपने
प्रव् वकए गए अन्या्यों के विरुद्ध िदला लेने की सकीमें िना्ा । चूँवक
वप्ा जी और पढ़ाई एक-दूसरे के प्या्प्यिाची िन गए थे, अ्ः पढ़ाई से
भी मतुझे उ्नी ही वचढ़ हो गई थी वज्नी वप्ा जी से । संभतारणीय
घर में छोिी िहन शालू और उससे छोिे मांिू के आगमन के साथ ही
्ांगहाली और भी िढ़ गई थी, शा्यद इसी िजह से मैं ज्यादा विद्राेही हो ‘भार् की सांपक्फ भाषा वहांदी
ग्या था । अि िा्-िा् पर वपिना एक आम िा् हो गई थी । है’, इस कथन पर विचार कर्े
धीरे-धीरे वपिने का डर भी वदमाग से काफूर हो ग्या और मैं दुससाहसी हो हुए अपना म् प्रस्तु् करो ।
वप्ा जी के हाथ उठा्े ही घर से भाग खड़ा हो्ा ।
िस पढ़ाई वपछड़्ी गई । फसि्प आने ला्यक शा्यद नहीं था पर
सामान्य लड़कों से अचछे नांिर ्ो मैं आसानी से ला सक्ा था । पढ़ाई
से ्ो मतुझे शत्रतु्ा हो गई थी । वप्ा जी से िदला लेने के वलए अपना
कैरर्यर चौपि करने ्क में मतुझे एक मजा वमल्ा, लग्ा वप्ा जी को
नीचा वदखाने का इससे अचछा उपा्य दूसरा नहीं हो सक्ा ।
मतुझे ्याद है वक पाँचिीं कक्ा में सा्िीं पोजीशन लाने के िाद छठी
कक्ा मांे मैं मेहन् करके थड्प अा्या था सोचा था, वपछले साल से अचछे
नांिर लाने पर वप्ा जी खतुश होंगे पर िे ररपोि्प देख्े ही खीझे थे-‘चाहे
वक्ना भी घोलकर वपला दूँ, पर ्ू रहेगा थड्प -का-थड्प ही ।’ मेरा मन
अपमान से व्लवमला ग्या । सोचा, चीखकर कहँ-‘अगले साल मैं फेल
होऊँगा फेल ।’
अ्‍सर पेपर देकर लौिने पर इम्हान का िोझ िलने की खतुशी
में उमांग्ा से घर लौि्ा ्ो िैठक में ही वप्ा जी वमल्े-‘‘कैसा वक्या
पेपर ?’’ मैं खतुश होकर कह्ा, ‘अचछा’ पर वप्ा जी के होंठ विदक
जा्े, ‘‘कह ्ो ऐसे रहे हो जैसे फसि्प ही आओगे ।’’
खीझकर पेपर देकर लौिने पर ्ो खास ्ौर से उनका सामना करने

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से क्रा्ा, वचढ़्ा और माँ के सामने भतुन-भतुनाकर अपना आिेश व्य्‍्
कर्ा । शालू मतुझे िच्ची लग्ी थी; पर जि से थोड़ी िड़ी होने के साथ
उसने वप्ा जी-माँ का कहना मानना, उनसे डरना शतुर कर वद्या है, मतुझे
उस चमची से वचढ़ हो गई है । ननहे मांिू को गोद मांे लेकर उछालने-खेलाने
की ्िी्य् हो्ी है पर वप्ा जी उसे प्यार कर्े हैं, ्यह सोचकर ही मतुझे
उसे रो्े रहने देने में शाांव् वमल्ी है ।
पठनीय इस महीने पैसे की ज्यादा परेशानी है-िेरीकॉि की कड़क कॉलरिाली
ितु्शि्प जरर वसलिाऊँगा, मेरे पास घड़ी ्‍्यों नहीं है ? विना घड़ी के
वकसी अां्ररक् ्यात्री की परीक्ा नहीं दूँगा, साइवकल पां्‍चर हो गई ्ो िस नहीं, ऑिोरर्‍शा से
अां्ररक् ्यात्रा का अनतुभि पढ़ो वकरा्या देकर घर लौिूँगा, वहपपी कि िाल किाऊँगा, माथे पर फुलाकर
और चचा्प करो । सँिारँगा ... कर लें, जो कर सक्े हों मेरा । हँ ऽऽ ......
कई िार मन कर्ा है-कोवशश करके एक िार फसि्प आ ही जाऊँ,
लेवकन ्भी अांदर से कोई चीख्ा है-नहीं, ्यह ्ो वप्ा जी की जी् हो
जाएगी । िे इसे अपनी ही उपलवबध समझेंगे; और ... और खतुश भी ्ो
होंगे, मेरा उनकी खतुशी से ्‍्या िास्ा ? अि उनका और कुछ िश नहीं
चल्ा ्ो माँ को सतुनाकर दहाड़्े हैं- ‘‘ठीक है, म् पढ़े-वलखे । करे
सारे वदन मिरग््ी । मैं भी इस इम्हान के िाद वकसी कुली-किाड़ी के
काम पर लगा दे्ा हँ ।’’
्यही देख लीवजए, अभी नतु्‍कड़ की दुकान पर कुछ खरीदने आ्या
ही था वक अचानक वप्ा जी सड़क से गतुजर्े दीखे । जान्ा हँ, घर पर
पहुँचकर खूि गरजेंगे-दहाड़ेंगे । लेवकन िाहरी दरिाजे पर आकर सन् रह
लेखनीय जा्ा हँ । वप्ा जी को लगा वक उनके िेिे का भविष््य िरिाद हो ग्या है
्यह सोचकर िे गवल्यारे में खड़े-खड़े दीिार से कोहवन्याँ विकाए वन्शबद
ननमननलशख् जगिों पर जतानता का्र रो रहे हैं । मैं सन्ािे में खखांचा अिाक खड़ा रह जा्ा हँ । वप्ा जी
िो ्ो ्ुमितारता संपक नकस भतारता का ऐसा िेहद वनराश, आकुल-व्याकुल रप मेैांने इसके पहले कभी नहीं
से िोगता नलखो ः देखा था । वजांदगी में पहली िार मैंने अपने वप्ा को इ्ना वििश, इ्ना
चांडीगढ़ ------ व्यवथ् और इ्ना िेिस देखा ्ो ्‍्या वप्ा जी पहले भी कभी ऐसी ही
अहमदािाद ------ अिश मजिूरर्यों के िीच रोए होंगे-मतुझे लेकर ?
पतुरी ------ अि मतुझे अपने वकए पर पछ्ािा हुआ । वप्ा जी की दशा देखकर
रामे्िरम ------ मैं मन-ही-मन दुखी हुआ । माँ से वमलकर मैंने सि कुछ ि्ा्या । आज
श्ीनगर ------
पेररस ------
माँ की खतुशी का पारािार न था । उसने मतुझे गले लगा्या । उसकी आँखों
िोवक्यो ------ से आँसू झरने लगे । िे दुख के नहीं खतुवश्यों के थे । मेरी आँखों के
ब्रावजल ------ विद्रोही अांगारे ितुझने लगे हैं-मेरे अपने ही आँसतुओं की धार से । मैं वनःशबद
िीवजांग ------ कह रहा हँ-वप्ा जी ! मैं सांवध चाह्ा हॅां । हाँ, मैं सांवध चाह्ा हँ ।
इजराइल ------ मैंने आपको गल् समझा, मतुझे क्मा कर दीवजए ।

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शब्द वतानटिकता
नकलकनता = खतुशी मांे वच्‍लाना अवताक ख ता रिनता = अचांवभ् हो जाना
डपटिनता = डाँिना कता्‍फूर िोनता = गा्यि हो जाना
मटिरग््ी = मौज मांे घूमना नीचता नदखतानता = अपमावन् करना
पतारतावतार = सीमा न्लनमलता जतानता = गतुससा होना
मुितावरे चौपटि करनता = िरिाद करना
अतापे से बतािर िोनता = िहु् कोवध् होना पतारतावतार न रिनता = सीमा न रहना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) एक शब्द में उत्र नलखो ः ( ) संक्ेप में नलखो ः
१. िेिे की मा्ृभाषा ः १. रमन के ‘जनमवदन’ पर न जाने देने के िाद लड़के
२. िेिे की वशक्ा की माध्यम भाषा ः द्िारा वक्या ग्या विद्रोह ः
२. नतु्‍कड़ की दुकान से घर लौिने पर िेिे द्िारा
( ) कतारण नलखो ः देखा दृ््य ः
१. अांग्ेवज्य् िाले पररिारों के िच्चों का दिदिा रह्ा था - (4) ऐसे प्र्न बनताओ नजनके उत्र ननमन शब्द िों ः
२. वप्ा जी झ्‍ला पड़्े थे - साइवकल, िेसब्री, छपी पवच्प्याँ, पारािार
३. लड़के की माँ उसे पढ़ा नहीं पा्ी थी -
(5) संजताल पूणथि करो ः

लाल परी के जादुई देश की विशेष्ाएँ

पाठों में आए हुए उपसग्प और प्रत्य्यिाले शबद ढूँढ़ो ्था उनके उपसग्प/प्रत्य्य
भतारता नबंदु
अलग करके मूल शबद वलखो ।
ननमन मुद्दों के आधतार पर नवज्तापन नलखो ः
उपयोनज् लेखन
सथल/जगह, सांपक्फ, पतुस्क मेला, वदनाांक, सम्य

मैंने समझता
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अब्राहम वलांकन द्िारा प्रधानाध्यापक को वलखे हुए पत्र का चाि्प


सवयं अधययन
िनाकर कक्ा में लगाओ ।

49
4९
. निीं क् इससे बढ़कर
- सुबमत्ानंदन पं‍त

पररचय प्रसि िेदना सह जि जननी


हृद्य सिपन वनज मू््प िनाकर
ज म ः १९००, कौसानी, अ्‍मोड़ा,
(उत्राखांड) स्न्यदान दे उसे पाल्ी,
मृतयु ः १९७७ पग-पग नि वशशतु पर न्योछािर
पररचय ः ‘पां्’ जी को प्रकृव् से नहीं प्राथ्पना इससे सतुांदर !
िहु् लगाि था । प्रकृव् सौंद्य्प के
अनतुपम वच्ेरे ्था कोमल भािनाओं शी्-्ाप में जूझ प्रकृव् से
के कवि के रप में आपकी पहचान िहा सिेद, भू-रज कर उि्पर,
है । आप िचपन से सतुांदर रचनाएँ
वक्या कर्े थे । आपको ‘भार्ी्य
शस्य ््यामला िना धरा को
ज्ानपीठ’, ‘सोवि्य् लैंड नेहर जि भांडार कृषक दे्े भर
पतुरसकार’, ‘सावहत्य अकादमी नहीं प्राथ्पना इससे शतुभकर !
पतुरसकार’ और ‘पद्मभूषण’ सममान
से अलांकृ् वक्या ग्या । कलाकार-कवि िण्प-िण्प को
प्रमुख कृन्यताँ ः ‘िीणा’, ‘प्‍लि’, भाि ्ूवल से रच सममोहन
‘गतुांजन’, ‘मानसी’, ‘िाणी’,
‘सत्यकाम’ आवद ।
जि अरप को न्या रप दे
भर्े कृव् में जीिन सपांदन
नहीं प्राथ्पना इससे वप्र्य्र !
पद्य संबंधी
प्रस्तु् गी् में कवि सत्य-वनष्ठ, जन-भू प्रेमी जि
सतुवमत्रानांदन पां् जी ने माँ, कृषक, मानि जीिन के मांगल वह्
कलाकार, कवि, िवलदानी पतुरुष कर दे्े उतसग्प प्राण वनज
एिां लोक के महतति को सथावप्
वक्या है । आपका मानना है वक
भू-रज को कर शोवण् रांवज्
उपरो्‍् सभी व्यव्‍्, समाज, देश नहीं प्राथ्पना इससे िढ़कर !
के वह् में सदैि ्तपर रह्े हैं ।
अ्ः इनकी पूजा से िढ़कर दूसरी चख-चख जीिन मधतुरस प्रव्क्ण ण
कोई पूजा नहीं है । विपतुल मनोिैभि कर सांवच्,
जन मधतुकर अनतुभूव् द्रवि् जि
कर्े भि मधतु छत्र विवनवम्प्
कल्पनता पल्लवन नहीं प्राथ्पना इससे शतुवच्र !

‘मनःशाांव् के वलए वचां्न-मनन
आि््यक है’ इसपर अपने
विचार वलखो ।
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शब्द वतानटिकता
जननी = माँ सममोिन = मोवह् करना
सवेद = पसीना सपंदन = कंपन
भू-रज = वमि्िी उतसगथि = िवलदान
उवथिर = उपजाऊ शोनण् रंनज् = र्‍् से भीगा हुआ
शसय = नई कोमल घास नवनननमथि् = िना्या हुआ
्यतामलता = साँिली, हरी-भरी शुनच्र = अवधक पवित्र
कृरक = वकसान मुितावरता
्ूनल = कूँची, ्ूवलका यो्तावर करनता = िारी जाना, समवप्प् करना

सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-


( ) संजताल पूणथि करो ः ( ) कृन् करो ः
--------

गी् की १. धर्ी को उपजाऊ २.अनाज के भांडारों


विशेष्ाएँ िनाने िाला को भरने िाला

(4) कनव्ता में उनल्लशख् मतानव के नवनभ रूप नलखोः


१. -----------
( ) अंन्म चतार पंन्‍्यों कता अ्थि नलखो । २. -----------
३. -----------
4. -----------
ननमन शब्दों के नलंग ््ता वचन बदलकर वता्‍यों में प्रयोग करो ः
भतारता नबंदु वलांग - कवि, मा्ा, भाई, लेखक
िचन - दुकान, प्राथ्पना, अनतुभूव्, कपड़ा, ने्ा

उपयोनज् लेखन ‘सड़क दुघ्पिनाएँ ः कारण एिां उपा्य’ वनिांध वलखो ।

मैंने समझता
------------------------------------------------
------------------------------------------------
------------------------------------------------

‘राष्िट्सां् ्तुकडो जी के सि्पधम्पसमभाि’ पर आधारर् गी् पढ़ो और


सवयं अधययन इसपर आधारर् चाि्प िनाओ ।

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वयताकरण नवभताग
शब्द भेद

( ) नवकतारी शब्द और उनके भेद ( ) अनवकतारी शब्द(अवयय)

संज्ता सवथिनताम नवशेरण नक्रयता


जाव्िाचक पतुरुषिाचक गतुणिाचक सकम्पक वक्याविशेषण अव्य्य
व्यव्‍्िाचक वन्च्यिाचक पररमाणिाचक अकम्पक सांिांधसूचक अव्य्य
अवन्च्यिाचक १.वनख्च् २.अवनख्च् समतुच्च्यिोधक अव्य्य
भाििाचक वनजिाचक सांख्यािाचक सां्यतु्‍् विसम्यावदिोधक अव्य्य
१. वनख्च् २. अवनख्च्
द्रव्यिाचक प्र्निाचक साि्पनावमक प्रेरणाथ्पक
समूहिाचक सांिांधिाचक - सहा्यक

(4) वता्‍य के प्रकतार


सामान्य

ि््पमान काल अपूण्प रचनता की दृन्‍टि से अ्थि की दृन्‍टि से


पूण्प १. साधारण १. विधानाथ्पक
२. वनषेधाथ्पक
( ) सामान्य २. वमश् ३. प्र्नाथ्पक
वक्या के काल ३. सां्यतु्‍् 4. आज्ाथ्पक
भू्काल अपूण्प 5. विसम्यावदिोधक
६. सांदेशसूचक
पूण्प
सामान्य (5) मुितावरों/किताव्ों कता प्रयोग/चयन करनता
भविष््य काल अपूण्प ( ) वता्‍य शु धीकरण
( ) सितायक नक्रयता पिचताननता
पूण्प (8) प्रेरणता्थिक नक्रयता पिचताननता
( ) कतारक
( ) नवरतामनचि्न
( ) वणथिनवच्ेद

शब्द संपदता - (पाँचिीं से आठिीं ्क)


शबदों के वलांग, िचन, विलोमाथ्पक, समानाथथी, प्या्प्यिाची, शबद ्यतुग्म, अनेक शबदों के वलए एक शबद, समोच्चारर्
मराठी-वहांदी वभन्ाथ्पक शबद, कवठन शबदों के अथ्प, उपसग्प-प्रत्य्य पहचानना/अलग करना, कृदां्-्द्वध् िनाना, मूल शबद
अलग करना ।

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उपयोनज् लेखन (रचनता नवभताग)
पत्रलेखन
अपने विचारों, भािों को शबदों के द्िारा वलखख् रप में अपेवक्् व्यखति ्क पहँतुचा देने िाला साधन है पत्र ! हम सभी
‘पत्रलेखन’ से पररवच् हैं ही । आजकल हम नई-नई ्कनीक को अपना रहे हैं । पत्रलेखन में भी आधतुवनक ्ांत्रज्ान/्कनीक का
उप्योग करना सम्य की माँग है । आने िाले सम्य में आपको ई-मेल भेजने के ्रीके से भी अिग् होना है । अ्ः इस िष्प से पत्र
के न्ये प्रारप के अनतुरप ई-मेल की पद्धव् अपनाना अपेवक्् है ।
* पत्र लेखन के मु य दो प्रकतार िैं, औपचताररक और अनौपचताररक ।
ग य आकलन (प्र्न नननमथिन्)
— वदए गए पररचछेद (गद््याांश) को पढ़कर उसी के आधार पर पाँच प्र्नों की वनवम्पव् करनी है । प्र्नों के उत्र एक िा्‍्य में हों
ऐसे ही प्र्न िनाए जाएँ । — प्र्न के उत्र वलखना अपेवक्् नहीं है ।
* प्र्न ऐसे िों ः —
्ै्यार प्र्न साथ्पक एिां प्र्न के प्रारप मांे हो । — प्र्न रचना और प्र्नों के उत्र वदए गए गद््याांश पर आधारर्
हो । — रवच् प्र्न के अां् में प्र्नवचह्न लगाना आि््यक है । — प्र्न समूचे पररचछेद पर आधारर् हों ।
मनतुष््य को अपने जीिन की आि््यक्ाएँ पूण्प करने के वलए िहु् कुछ श्म करना पड़्ा है । इस श्म से थके
हुए मन और मवस्ष्क को विश्ाम की आि््यक्ा हो्ी है, शरीर पर भी इस श्म का प्रभाि पड़्ा है । इसवलए िह
भी विश्ाम माँग्ा है वकं्तु ्यवद मनतुष््य आलसी की भाँव् सीधा चारपाई पर लेि जाए ्ो इससे िह थकान भले ही उ्ार
ले, परां्तु िह न्या उतसाह नहीं पा सक्ा जो उसे अगले वदन वफर से काम करने की शव्‍् प्रदान कर सके । ्यह ्भी
हो सक्ा है जि वदन भर के काम से थके मन को हँस-खेलकर िहला वल्या जाए । आकष्पक गी् सतुनकर ्या सांतुदर
दृ््य देखकर वदन भर पढ़ने अथिा सोचने से वदमाग पर जाे प्रभाि पड़ा हो, उसे वनकालकर मवस्ष्क को उस वचां्ा से
दूर कर देना चावहए । इसका पररणाम ्यह होगा वक मनतुष््य पतुनः विष्य पर नई शव्‍् से सोच-विचार कर सकेगा ।
प्र्नः
१.
२.
३.
4.
5.
वृत्तां् लेखन ः िृत्ाां् का अथ्प है- घिी हुई घिना का वििरण/रपि/अहिाल लेखन । ्यह रचना की एक विधा
है । िृत्ाां् लेखन एक कला है, वजसमें भाषा का कुशल्ापूि्पक प्र्योग करना हो्ा है । ्यह वकसी घिना, समारोह का विस्ृ्
िण्पन है जो वकसी को जानकारी देने हे्तु वलखा हो्ा है । इसे ररपो्ा्पज, इव्िृत्, अहिाल आवद नामों से भी जाना जा्ा
है । वृत्तां् लेखन के नलए धयतान रखने योग्य बता्ें ः — िृत्ाां् में घवि् घिना का ही िण्पन करना है । — घिना, काल, सथल
का उ्‍लेख अपेवक्् हो्ा है । साथ-ही-साथ घिना जैसी घवि् हुई उसी कम से प्रभािी और प्रिाही भाषा में िवण्प् हो ।
— आश्यपूण्प, उवच् ्था आि््यक िा्ों को ही िृत्ाां् में शावमल करें । — िृत्ाां् का समापन उवच् पद्धव् से हो ।

कितानी लेखन ः कहानी सतुनना-सतुनाना आिाल िृद्धों के वलए रुवच और आनांद का विष्य हो्ा है । कहानी लेखन विद््यावथ्प्यों
की क्‍पनाशखति, निवनवम्पव् ि सृजनशील्ा को प्रेरणा दे्ा है ।
कितानी लेखन में ननमन बता्ों की ओर नवशेर धयतान दें ः — शीष्पक, कहानी के मतुद्दों का विस्ार और कहानी से प्राप्त सीख/प्रेरणा/
सांदेश ्ये कहानी लेखन के अांग हैं । कहानी भू्काल में वलखी जाए । कहानी के सांिाद प्रसांगानतुकूल ि््पमान ्या भविष््यकाल में हो
सक्े हैं । सांिाद अि्रण वचह्न में वलखना अपेवक्् है । — कहानी लेखन की शबद सीमा सौ शबदों ्क हो । — कहानी का शीष्पक
वलखना आि््यक हो्ा है । शीष्पक छोिा, आकष्पक, अथ्पपूण्प और सारगवभ्प् होना चावहए । — कहानी में कालानतुकम, घिनाकम
और प्रिाह होना आि््यक है । — घिनाएँ शृांखलािद्ध होनी चावहए । — कहानी लेखन में आि््यक विरामवचह्नों का प्र्योग करना
न भूलें । — कहानी लेखन कर्े सम्य अनतुचछेद िनाएँ । — कहानी का विस्ार करने के वलए उवच् मतुहािरे, कहाि्ें, सतुिचन,
प्या्प्यिाची शबद आवद का प्र्योग करें ।
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नवज्तापन ः ि््पमान ्यतुग सपधा्प का है और विज्ापन इस ्यतुग का महत्िपूण्प अांग है । आज सांगणक ्था सूचना प्रौद््योवगकी के ्यतुग
में, अां्रजाल (इांिरनेि) एिां भ्रमणधिवन (मोिाइल) काांव् के काल में विज्ापन का क्ेत्र विस्ृ् हो्ा जा रहा है । विज्ापनों के कारण
वकसी िस्तु, समारोह, वशविर आवद के िारे में जानकारी आकष्पक ढांग से समाज ्क पहँच तु जा्ी है । लोगों के मन में रुवच वनमा्पण
करना, ध्यान आकवष्प् करना विज्ापन का मतुख्य उद्दे््य हो्ा है ।
नवज्तापन लेखन कर्े समय ननमन मु ों की ओर धयतान दें ः — कम-से-कम शबदों में अवधकावधक आश्य व्यति हो ।

— नाम सपष्ट और आकष्पक ढांग से अांवक् हो । — विष्य के अनतुरप रोचक शैली हो । आलांकाररक, काव्यम्य, प्रभािी शबदों का
उप्योग कर्े हुए विज्ापन अवधक आकष्पक िनाएँ । — वकसी में उतपाद सांिांधी विज्ापन में उतपाद की गतुणित्ा महत्िपूण्प हो्ी है ।
अनुवताद लेखन ः एक भाषा का आश्य दूसरी भाषा में वलखख् रप में व्य्‍् करना ही अनतुिाद कहला्ा है । अनतुिाद कर्े
सम्य वलवप और लेखन पद्धव् में अां्र आ सक्ा है परां्तु आश्य, मूलभाि को जैसे वक िैसे रखना पड़्ा है ।
अनतुिाद ः शबद, िा्‍्य और पररचछेद का करना है ।
ननबंध लेखन ः वनिांध लेखन एक कला है । वनिांध का शाखबदक अथ्प हो्ा है ‘सतुगवठ् अथिा ‘सतुव्यिखसथ् रप में िँधा
हुआ’ । साधारण गद््य रचना की अपेक्ा वनिांध में रोचक्ा और सजीि्ा पाई जा्ी है । वनिांध गद््य में वलखी हुई रचना हो्ी है,
वजसका आकार सीवम् हो्ा है । उसमें वकसी विष्य का प्रव्पादन अवधक सि्ांत्र्ापूि्पक और विशेष अपनेपन और सजीि्ा के
साथ वक्या जा्ा है । एकसूत्र्ा, व्यखतिति का प्रव्विांि, आतमी्य्ा, कलातमक्ा वनिांध के ्त्ि माने जा्े हैं । इन ्त्िों के
आधार पर वनिांध की रचना की जा्ी है । िण्पनातमक, विचारातमक आतमकथनपरक, चररत्रातमक ्था क्‍पनाप्रधान ्ये वनिांध के
पाँच प्रमतुख भेद हैं ।

भतावता्थि - पताठ्यपुस्क पृ्‍ठ क्र. पिली इकताई, पताठ क्र . दोिे और पद-
सं् कबीर, भ्‍् सूरदतास

दोिे ः किीर दास जी कह्े हैं वक जैसा भोजन करोगे िैसा ही मन होगा । ्यवद इमानदारी की कमाई
खाओगे ्ो व्यिहार भी इमानदारी िाला ही होगा । िेइमानी के भोजन करने से मन में भी िेइमानी आएगी ।
उसी ्रह जैसा पानी पीओगे िैसी भाषा भी होगी ।
मन के अहांकार को वमिाकर, ऐसे मीठे और नम् िचन िोलो, वजससे दूसरे लोग सतुखी हों और सि्यां भी
सतुखी हो ।
जि मैं इस दुवन्या में ितुराई खोजने वनकला ्ो मतुझसे कोई ितुरा नहीं वमला । पर वफर जि मैंने अपने मन में
झाँककर देखा ्ो पा्या वक दुवन्या में मतुझसे ितुरा और कोई नहीं हैं ।
पद ः िालक कृष्ण माँ ्यशोदा से कह्े हैं वक मै्या मेरी चोिी कि िढ़ेगी ? वक्ना सम्य मतुझे दूध पी्े
हो ग्या पर ्यह चोिी आज भी छोिी ही िनी हुई है । ्ू ्ो ्यह कह्ी है वक दाऊ भै्या की चोिी के समान ्यह
लांिी और मोिी हो जाएगी और कंघी कर्े, गूँथ्े ्था सनान करा्े सम्य ्यह नावगन के समान भूवम ्क
लोिने (लिकने) लगेगी । ्ू मतुझे िार-िार कच्चा दूध वपला्ी है, माखन-रोिी नहीं दे्ी है । सूरदास जी
कह्े हैं वक दोनों भाई वचरांजीिी हों और हरर-हलधर की जोड़ी िनी रहे ।

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नशक्कों के नलए मतागथिदशथिक बता्ें ........

अधययन अनुभव प्रनक्रयता प्रतारंभ करने से पिले पताठ्यपुस्क में दी गई सूचनताओं, नदशता ननददेशों
को भली-भताँन् आतमसता् कर लें । भतारताई कौशल के नवकतास के नलए पताठ्यवस्ु ‘श्रवणीय’,
‘संभतारणीय’, ‘पठनीय’, एवं ‘लेखनीय’ में दी गई िै । पताठों पर आधतारर् कृन्यताँ ‘सूचनता के अनुसतार
कृन्यताँ करो’ में आई िैं । पद्य में ‘कल्पनता पल्लवन’, गद्य में ‘मौनलक सृजन’ के अन्रर्‍् ‘सवयं
अधययन’ एवं ‘उपयोनज् लेखन’ नवद्यतान्थियों के भताव/नवचतार नव्व, कल्पनता लोक एवं रचनतातमक्ता
के नवकतास ््ता सवयंस्‍फू्थि लेखन िे्ु नदए गए िैं । ‘मैंने समझता’ में नवद्यतान्थियों ने पताठ पढ़ने के बताद
्‍यता आकलन नकयता िै, इसे नलखने के नलए प्रोतसतानि् करनता िै । इस बता् कता नवशेर धयतान रखता गयता
िै नक प्रतयेक पताठ के अ्ंगथि् दी गई कृन्यताें, उपक्रमों एवं सवताधयतायों के मताधयम से भतारता नवरयक
क्म्ताओं कता समयक नवकतास िो, अ्ः आप इसकी ओर नवशेर धयतान दें ।
‘भतारता नबंदु’ (भतारता अधययन) वयताकरण की दृन्‍टि से मिततवपूणथि िै । उपरो्‍् सभी कृन्यों कता
स्् अभयतास करतानता अपेनक्् िै । वयताकरण पतारंपररक रूप से निीं पढ़तानता िै । सीधे पररभतारता न
ब्ताकर कृन्यों और उदतािरणों द्वतारता वयताकरण घटिकों की संकल्पनता ्क नवद्यतान्थियों को पहुँचताने
कता उत्रदतानयतव आपके सबल कंधों पर िै । ‘पूरक पठन’ सतामग्ी किीं-न-किीं भतारताई कौशलों के
नवकतास को िी पोनर् कर्े हुए नवद्यतान्थियों की रुनच एवं पठन संसकृन् को बढ़तावता दे्ी िै । अ्ः पूरक
पठन कता अधययन आव्यक रूप से करवताएँ ।
आव्यक्तानुसतार पताठ्ये्र कृन्यों, भतारताई खेलों, संदभभों, प्रसंगों कता समतावेश भी अपेनक््
िै । पताठों के मताधयम से नैन्क, सतामतानजक, संवैधताननक मूल्यों, जीवन कौशलों, केंद्ीय ्ततवों के
नवकतास के अवसर भी नवद्यतान्थियों को प्रदतान करें । क्म्ता नवधतान एवं पताठ्यपुस्क में अं्ननथिनि् सभी
क्म्ताओं/कौशलों, संदभभों एवं सवताधयतायों कता स्् मूल्यमतापन अपेनक्् िै । नवद्यता्थी कृन्शील,
सवयंअधययनशील, गन्शील बने । ज्तानरचनता में वि सवयंस्‍फू्थि भताव से रुनच ले सके, इसकता आप
स्् धयतान रखंेगे, ऐसी अपेक्ता िै ।
पूणथि नव्वतास िै नक आप सभी इस पुस्क कता सिरथि सवताग् करेंगे ।

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