You are on page 1of 193

एवम् इ जत्

नाटक
एवम् इ जत्
बादल सरकार
अनुवाद
तभा अ वाल
ISBN : 978-81-267-2614-1
© तभा अ वाल
पहला सं करण : 1969
सरा सं करण : 1978
तीसरा सं करण : 2014
काशक : राजकमल काशन ा. ल.
1-बी, नेताजी सुभाष माग, द रयागंज
नई द ली-110 002
शाखाएँ : अशोक राजपथ, साइंस कॉलेज के सामने, पटना-800 006
पहली मं ज़ल, दरबारी ब डंग, महा मा गांधी माग, इलाहाबाद-211 001
36 ए, शे स पयर सरणी, कोलकाता-700 017
वेबसाइट : www.rajkamalprakashan.com
ई-मेल : info@rajkamalprakashan.com
आवरण : राजकमल टू डयो
EVAM INDRAJIT
Play by Badal Sarkar
Translated by Pratibha Agrawal
इस पु तक के सवा धकार सुर त ह। काशक क ल खत अनुम त के
बना इसके कसी भी अंश क , फोटोकॉपी एवं रकॉ डग स हत
इले ॉ नक अथवा मशीनी, कसी भी मा यम से अथवा ान के सं हण
एवं पुन योग क णाली ारा, कसी भी प म, पुन पा दत अथवा
संचा रत- सा रत नह कया जा सकता।
‘एवम् इ जत्’ और अनुवादक का व
वतमान दशक म भारतवष म लखे गए नाटक म ‘एवम् इ जत्’
(बां ला) का व श थान है। पछले दन मराठ , गुजराती, क ड़, ह द ,
बां ला, पंजाबी आ द भाषा के नाटक म पर पर आदान- दान होता
रहा है और इसके प रणाम व प ‘तुगलक’, ‘सुनो जनमेजय’, ‘क तूरी
मृग’, ‘शा तता कोट चालू आहे’ ‘सापउतारा’, ‘कांचनरंग’, ‘रजनीग धा’,
‘एवम् इ जत्’, ‘छलावा’ आ द जैसे अनेक नाटक अपनी भाषा-सीमा
का अ त मण करके अ खल भारतीय तर पर प ँच गए ह। ‘एवम्
इ जत्’ का अनुवाद ह द , गुजराती और क ड़ म हो चुका है और
अं ेजी म होने क बात है। ‘एवम् इ जत्’ क इस लोक यता का कारण
उसके क य एवं शैली दोन का वै श है। आज के युवक—और
स भवतः हर युग के युवक—क मह वाकां ा और परवत कु ठा एवं
नराशा का बड़ा ही यथाथ च ण इस नाटक म कया गया है, क तु उससे
भी बड़ी बात इस स य को वीकार करने क है क मृ यु का वरण सम या
का समाधान नह है। यह जानते ए भी क हमारे पास आ था, व ास,
ेम जैसा कोई भी जीने का स बल नह है, हम जीना है; यह ान होते ए
भी क या ा के पूरी होने पर कोई दे वलोक स मुख नह होगा, हम चलते
चलना है य क हमारे सामने पथ है। तीथ नह तीथया ा ही हमारा इ हो
तो भी या आप है जीवन को हम चाहे रीझकर वीकार कर चाहे
खीझकर, उसे वीकार करना ही होगा। वैसे नाटककार बादल सरकार
वयं इस नाटक को आशावाद या नराशावाद कसी भी वर के साथ
समा त करने के प म नह ह। उनका कहना है क जीवन म न आशा का
है और न नराशा का, हमारे सामने जीवन है, हम जीना है, मानसी क
ेरणा और इ का जी वत रहने का वीकार ऐसा ही आवेगर हत वीकार
है, सारी आशा -आकां ा , वषमता - ववशता से लड़-जूझकर
थके ए उस का वीकार है जो जीवन का कोई अथ नह ढूँ ढ़ पाता
है, फर भी सहज ही मरने का नणय भी नह कर पाता य क वह भी
उतना ही त यहीन लगता है। लेखक क इस ा या और प ीकरण से
सहमत आ जा सकता है, ब त र तक म ँ भी। क तु ऐसा लगता है
क नाटक के अ त को सवथा आवेगर हत बनाने क चे ा करने के
बावजूद, उसम कह ह का-सा संकेत आशा का आ ही गया है। तीथ-पथ
पर तीथया ा करने क आकां ा रखनेवाला नाटक का क व, अव य ही
अपने तीथ-पथ को मंगलमय मानता होगा। तीथ तक प ँच पाने क
स भावना के त अ य त शंकालु होते ए भी वह ‘मु - दय, न
भाव से’ उसी पथ पर चलने के अपने ार भक नणय पर अटल रहना
चाहता है।

ी ै े
तीथ नह है केवल या ा
ल य नह है केवल पथ ही
इसी तीथ-पथ पर है चलना
इ यही, ग त यही है।
ये पं याँ कह ब त र ही सही, इतनी र जहाँ हम शायद प ँच ही न
सकगे, काश क एक ीण रेखा का आभास दे ती ह। पथ है इस लए
चलना है, मृ यु का वरण करने क बात भूलकर जीवन को वीकार करना
है, इसे बादल सरकार ने बड़े बलपूवक इस नाटक म कहा है।
नाटक का क य अ य त यथाथवाद और साम यक होते ए भी
उसका श प तीका मक है। लेखक ने बड़ी कुशलतापूवक यथाथ और
क पना का संयोजन कया है। एक ही पा ारा कई भू मका का
नवाह, एक ही अंक म कई य क योजना जो बना कसी मंच-स जा
या उपकरण के ही तुत कए जा सकते ह, अल य पा क उप थ त
(सा ा कार करनेवाले पा ) आ द नाटक म अ त न हत ऐसी थ तयाँ ह
ज ह यथाथवाद शैली म कभी तुत ही नह कया जा सकता। जीवन के
दस-प ह वष के या-कलाप को इस नाटक म समेटा गया है, एक ही
य म व भ पा को व भ प म भी तुत कया गया है। नाटक
के ये त य जहाँ नदशक, अ भनेता एवं दशक क क पना को मु
वचरण के लए पया त े दान करते ह वह ये कह सीमा भी बन जाते
ह। इन थल को एक वशेष भाव-भंगी से तुत करने के अ त र और
कोई चारा नह रह जाता। यही उसक श और यही उसक सीमा भी है।
इसी कारण इस एक से व भ तु तय म कुछ र तक एक पता
आए बना नह रहती।
‘एवम् इ जत्’ का अनुवाद एक बड़ा सुखद और साथ ही तृ तकारी
अनुभव रहा है। आज से ायः तीन साल पहले जब इस नाटक को दे खा तो
ब त ही अ छा लगा था और यह इ छा ई थी क इसे ह द म कया
जाए, क तु बां ला रंगमंच पर इसक सफलता हम लोग पर भी कुछ ऐसी
हावी थी क साहस नह हो पाता था। अतः अनुवाद करने का भी नह
उठता था। उसके बाद इस नाटक को दो बार और दे खा और यह धारणा
ढ़ होती गई क इसे अव य ही तुत करना चा हए। शी ही न भी
तुत कया जाए तो कम-से-कम अनुवाद तो कर ही डाला जाए। इस
नणय ने अनुवाद करने को े रत कया और उसम हाथ लगाया। काम
आगे बढ़ा और पूरे ग ांश का अनुवाद सहज ही हो गया। क तु इसके बाद
सम या आई क वता के अनुवाद क । क वताएँ—‘एवम् इ जत्’ का
अ नवाय अंग ह, उ ह बाद दे कर नाटक का अनुवाद करना नाटक के साथ
अ याय करना था और उन क वता को दयंगम करके उनका सरस
औ ी ोऔ े
और वाहमय अनुवाद करना ता क क य भी प हो और आवृ करने
और सुनने म अ भनेता एवं दशक दोन को आन द मले, चुनौती भरा काय
था। अपनी ा या पका म ीमती अ मता च वत से क वता के मूल
भाव पर गहरी चचा करने के बाद अनुवाद कया। संशोधन और
पुनःसंशोधन के बाद ही क वता को अ तम प दया जा सका। वैसे तो
अपना कृ त व अ छा लगता ही है, यह हम सबक सहज वाभा वक
बलता है, क तु यह कृ त व मुझे वशेष प से अ छा लगा, इस
अतर बलता को वीकार करती ँ। वयं बार-बार पढ़ने पर क वताएँ
मन को और रमाती ह, अपने वाह म बहा ले जाती ह। अव य ही इसम
बादल सरकार के कृ त व का मेरे कृ त व से अ धक योगदान है, फर भी
थोड़ा अंश तो मेरा है ही।
नाटककार बादल सरकार

उनके नाटक एवम् इ जत का


ह द म अनुवाद और मंचायन
पृ भू म
बादल सरकार। एक नाम जो पछले पाँच दशक से भारतीय रंग-
ग त व धय का अ भ अंग रहा है। अपनी मातृभाषा बां ला म सा ह य का
सृजन करनेवाले बादल सरकार का यश केवल मातृभाषा तक सी मत नह
रहा, शी ही वह पूरे भारतवष म छा गया। वे उन व श नाटककार म थे
जनके अ धकांश नाटक ह द म अनू दत ए और बड़ी सं या म अ या य
भारतीय भाषा म भी। यह त य है क बादल सरकार के नाटक के
अनुवाद आमतौर पर मंचन के लए कए गए और उनका काशन मंचन
के बाद ही आ। काला तर म कई नाटक के अं ेज़ी म अनुवाद एवं मंचन
भी ए। यह भी त य है क अ या य भाषा म कए गए अनुवाद म से
अ धकांश अनुवाद ह द अनुवाद से कए गए य क मूल से सीधे
अनुवाद करनेवाले बां ला भाषा के जानकार अनुवादक हर भाषा म
उपल ध नह होते थे। नाटक का क य और श प नदशक को इतना
स भावना भरा और आकषक लगा था क वे अ धक ती ा नह कर
पा रहे थे और ह द के मा यम से अनुवाद करने म उ ह त नक संकोच
नह आ। अनुवादक ने कभी इस बात का उ लेख कया, अ धकतर
नह । मगर एक बात न त है क बीसव सद के सातव दशक से आज
तक पूरे दे श म बादल सरकार के नाटक बराबर खेले जा रहे ह।
बादल सरकार (1925-2011) के नाट् यलेखन का ार भ आ
1956 म और 2003 तक नय मत चालू रहा। इस बीच उ ह ने अट् ठावन
छोटे -बड़े नाटक का सृजन कया। ार भ म अपने दल च और बाद म
शता द के त वावधान म बादल सरकार ने वयं अपने नाटक को तुत
कया, बां ला और ह द के अनेक दल ने, जनम कलक ा के ब पी
और अना मका, मु बई के थएटर यू नट और द ली के अ भयान तथा पुणे
म अमोल पालेकर शा मल ह ज ह ने उनके अनेक नाटक को मंच पर
खेला, खुले म खेला, नाना प म उ ह अपनी क पना म सजाया-सँवारा।
बादल सरकार के नाटक म एवम् इ जत, सारी रात, पगला घोड़ा, बाक
इ तहास, जुलूस, भोमा, क व कहानी, बड़ी बूआजी आ द वशेष लोक य
ए और गत पचास वष से बराबर खेले जा रहे ह।

े ो
बादल सरकार के ार भक नाटक म चुर क वता का योग
कया गया है। म जान-बूझकर योग श द का इ तेमाल कर रही ँ य क
नाटक म यु अ धकांश क वता का कभी -ब- और कभी थोड़ा
भ प म सृजन आ था 1957 से 1959 के उनके ल दन वास के
दौरान। नाटक लखने के समय कभी पूव ल खत क वताएँ के म होती
थ तो कभी संगानुसार बादल दा ारा उस समय लखी नई क वताएँ।
अव य ही यह या पूव नयो जत होती थी अक मात् मन म उठनेवाली
खामखयाली नह । 2009 म बादल सरकार क पचासव ज म त थ के
अवसर पर मने उनक पु तक बासेर ह ज ब ज का अनुवाद कया।
करीब 300 पृ का यह थ अ टू बर 1957 से सत बर 1959 के बीच
उनके दो वष के ल दन वास, जुलाई 1963 से माच 1964 के बीच के
नौ महीन के ांस वास और जुलाई 1964 से मई 1967 के बीच के
तीन साल सप रवार नाइजी रया म बताए दन का लेखा-जोखा है। इनम
ल दन वास का योरा उनके लेखन क से एक ामा णक द तोवज़
है और इनके मा यम से उनके लेखन, उसके व प, क वता के लेखन
के समय उनक मान सक थ त, उनके मन का ऊहापोह, वधा ,
शंका आ द को हम अ धक समझ पाते ह, वे हम अ धक संगत लगती
ह।
बादल बाबू क यह पहली वदे श या ा थी, खच के लए पास म पैसे
सी मत थे, पराए दे श और वातावरण म मन रमने म समय लग रहा था।
इस दौरान उनक फुफेरी बहन मनु (अंजली बसु) और उनके बीच खूब
प ाचार आ। पर प म सारी बात नह कही जा सक । उन अनकही
बात को बादल दा ने डायरी म लखा। कुछ उसके बाद भी बच रह ज ह
उ ह ने क वता म गूँथा। एक ही काल म कोई अभ और भाषा
के इतने भ प इ तेमाल कर सकता है और काला तर म उ ह
खूबसूरती से एक ही सू म परोते चल सकता है, इसका अनुभव मुझे
ह ज ब ज पढ़ने के दौरान आ जो मेरे लए एक नया और व श
अनुभव था। साथ ही काम एक बड़ी चुनौती भी बन गया य क क वता म
कही ग ब त सी बात एक उलझे मन, संवेदनशील उ े लत अ तर तथा प
स तु लत क अ तरंग और नजी बात थ , उ ह उस गहराई तक
प ँचकर आ मसात् करना आसान काम नह था। अनुवाद का पहला
ा प पूरा करने के बाद पढ़ने पर खुद को ही लगा क सब कुछ चु त-
त नह आ है, और मेहनत चा हए। कसी क सहायता आव यक
थी। इस काय म नाट् य शोध सं थान म मेरी सहयोगी डॉ टर बासबी राय ने
मेरी बड़ी सहायता क , करीब बीस बैठक म मने पूरा आलेख उनको
पढ़कर सुनाया, उ ह ने अपे त संशोधन करवाए तब कह जाकर काम
पूरा आ, मन को स तोष आ।

े ( े / ) े ी
बासेर ह ज ब ज (लेखन/संकलन 2006) का अनुवाद मने वासी
क कलम से (2009) नाम से कया। शीषक से बादल दा स तु नह थे
य क बां ला श द ह ज ब ज अं ेजी के ब लग का पयाय है जो य
ही बैठे-बैठे कुछ साथक- नरथक लखते रहने को करता है। ह द म
मुझे इसका समानाथ कोई सरा श द नह मला, फल व प मूल शीषक
से भ शीषक दे ना पड़ा। वैसे मुझे लगा क बादल दा पु तक को
ह ज ब ज का प ज र दे ना चाहते रहे ह गे पर चालीस-पतालीस वष
बाद जब उ ह ने अपने लखे पुराने प , डायरी के पृ और क वता को
एक साथ मलाकर पु तक का प दया, तब उस सारी बखरी साम ी ने
व थत और सु नयो जत प ले लया। पु तक जो तैयार ई वह
ह ज ब ज न रहकर उनके जीवन के एक मह वपूण खंड का अ य त
ईमानदारी से तुत कया गया ामा णक योरा बन गई।

अनुवाद
और यह से शु होती है अनुवादक क परी ा। लेखक ने जतनी
ईमानदारी से और जस तरह अपने आपको पहले अपने एक म के
सामने, फर अपने आपके सामने और अ त म सबके सामने उधेड़कर रख
दया था उसे उसी ईमानदारी और व सनीयता के साथ अनुवादक को
अपनी भाषा के मा यम से एक अ य भाषा-भाषी पाठक वग के सामने
तुत करना था, जो बादल बाबू से उतना प र चत नह था। पु तक मूलतः
प का सं ह है जसम क वताएँ और डायरी के पृ परोए गए ह। पु तक
क साम ी का लेखन दस वष के कालखंड (1957 से 1967 के बीच) म
प , डायरी के पृ और क वता के प म पहले कया जा चुका था
जनक भाषा और अ भ का अपना वै श था। इस साम ी को
उ ह ने 30-35 साल बाद एक सू म परोया। क य एक सू म परो दया
गया पर उनक अ भ क व श ता बरकरार थी जसका अनुवादक
को एक के बाद एक लखे गए प , क वता और डायरी का अनुवाद करते
चलने म नवाह करना था। उसे एक ही पृ म सहज, सरल आम बोलचाल
क भाषा, आ म ववेचन के लए अपे त ग भीर भाषा तथा वचार-
ववेचन और आ मम थन म यु कुछ इस नया और कुछ उस नया
क बात करने के समय यु क जानेवाली भाषा और अ भ का
संगत उपयोग करना था जो वाभा वक और वाहमय लगे। मने अनुवाद
म यथास भव भाषा के तीन प प का इ तेमाल करने का य न
कया। नाटक म बादल बाबू ने आमतौर पर सहज, सरल भाषा और
श दावली का इ तेमाल कया है पर ह ज ब ज म चुर दे शज श द भी
आए ह। उनक जानकारी मुझे नह थी। उस सम या का समाधान
ह रचरण ब ोपा याय के श दकोश और बासबी राय तथा अ य
सहयो गय ने कया।
ी ी ी ो ी ँ
सरी परी ा। पु तक म बड़ी-छोट मलाकर करीब 25 क वताएँ
स म लत ह जनम से अ धकांश ल दन म लखी गई थ । मने जब बादल
दा से कहा क इतनी क वता का अनुवाद कैसे कर पाऊँगी तो उनका
उ र था क इनम से अ धकांश क वता का अनुवाद आप एवम्
इ जत् और सारी रात म कर चुक ह, शेष म से कुछ का कर ली जएगा
और न कर स कएगा तो छोड़ द जएगा। उनक इस बात से प आ क
उपयु दोन नाटक क क वताएँ पहले ही लखी जा चुक थ , उ ह बाद
म नाटक म समा व कया गया था। पर जब ह ज ब ज म क वता को
पढ़ा तो पाया क क वता के मूल व प और बां ला नाटक म यु
व प म अ तर है। ह द पाठक-दशक वग क मान सकता को यान म
रखते ए अनुवाद के समय मने भी कुछ उलट-पुलट कया था।
फल व प ह द नाटक म यु अनुवाद का उपयोग नई पु तक म नह
कया जा सकता था, य क म तो ह ज ब ज का अनुवाद कर रही थी,
एब ग इ जत् या सारा रा र का नह । सारी क वता का अनुवाद
करना पड़ा। कुछ के अनुवाद अ छे बन पड़े, कुछ साधारण रह गए।
उलझी ई मनः थ त को पहले तो समझना और आ मसात् करना ही
क ठन, फर उनका सही वजन के साथ स ेषण और भी ह काय था।
कया, वयं मुझे स तोष है, पाठक क त या क ती ा है।
मने बादल सरकार के कुल दस नाटक और एक बासेर ह ज ब ज
थ का अनुवाद कया। मानुसार एवम् इ जत् (1968), ब लभपुर
क पकथा (1969), राम- याम-ज (1970), पगला घोड़ा (1971),
अबू हसन (1973), सारी रात (1974), बड़ी बूआजी (1974), य द एक
बार फर से (1982), घेरा (1983) और नाटककार क खोज म तीन
च र (2009)। इनम से य द एक बार फर से और घेरा को छोड़कर
सबका मंचन अना मका ने कया। सच पू छए तो अनुवाद कए ही गए थे
अना मका के लए। इन नाटक के नदशक म यामान द जालान (एवं
और पगला घोड़ा), कृ ण कुमार (ब लभपुर), बादल सरकार (राम- याम-
ज ), वमल लाठ (अबू हसन, नाटककार क ), शवकुमार झुनझुनवाला
(सारी रात) और शवकुमार जोशी (बड़ी बूआजी) शा मल थे। अना मका
ने बादल सरकार के बाक इ तहास का भी मंचन कया था जसके
नदे शक शवकुमार झुनझुनवाला थे, अनुवाद ने मच जैन का था।
सबसे पहले चचा एवम् इ जत् के अनुवाद क । बां ला एब ग
इ जत् क रचना ई 1963 म। इसका थम काशन आ जुलाई
1965 म ब पी प का के अंक 22 म और पु तकाकार छपा 1968 म।
म य व लोग के आम जीवन क दै न दन सम या का च ण
करनेवाले नए ढं ग से लखे गए नाटक ने पाठक और नदशक को आकृ
कया। दे श के शीष थ नदशक श भु म ने इसे करने का मानस बनाया

े े ै ो औ
पर कुछ गलतफ़ह मय के चलते वैसा नह हो पाया और इसका पहला
मंचन कया कलक ा के नाट् यदल शौभ नक ने सत बर 1965 म। आम
लोग को तु त ब त अ छ लगी, समी क ने तु त क थूलता के
लए नदशक गो ब द गंगोपा याय क कड़ी आलोचना क और नाटक के
आलेख को पूरा मह व दे ते ए शौभ नक क तु त को एकदम खा रज
कर दया। हम लोग ने भी मु ांगन म नाटक दे खा, ब त अ छा लगा।
अना मका क ओर से इसके मंचन क स भावना पर वचार- वमश
कया जाने लगा। मन म थोड़ा असमंजस था क इस नए नाटक के क य
और श प को ह द का दशक कहाँ तक वीकार कर पाएगा। इस वधा
के नराकरण के लए अना मका के सद य के लए इसका एक दशन
करने को शौभ नक को आमं त कया गया। ी श ायतन के छोटे -से
मंच पर नाटक मूल बां ला म खेला गया। दशक मु ध थे।
त काल करने का नणय ले लया गया और अनुवाद करने का भार
मुझ पर डाला गया। अनुवाद के लए लेखक क अनुम त चा हए। बादल
दा उन दन नाइजी रया म रह रहे थे। खोज-पूछ करने पर पता चला क वे
कलक ा आए ए थे। कसी से फोन न बर पता करके उनसे स पक
कया और शी ही एक दन दन म तीन बजे मलना तय आ। उ ह ने
कहा—मेरा घर र है, आपको आने म असु वधा होगी। आप मेरी बहन के
यहाँ आ जाइए, वे ब बाजार म रहती ह, आपको सु वधा रहेगी। पता
वगैरह नोट कर लया। जानेवाले दन मन म आया—नई जगह नए आदमी
से मलने जाना है कसी को साथ ले लूँ। फर मन ने ही कहा—ऐसी या
बात है सीधा पता है, असु वधा या होगी। म हला होने के कारण
होनेवाले संकोच क बात को मन म ही दबा दया। नधा रत दन नधा रत
समय पर बादल बाबू क बहन के लैट क घंट ट पी। दरवाजा खुला।
सामने सामा य से दखनेवाले एक स जन खड़े थे। लगा मुझे दे खकर
थोड़ा अचकचाए। खैर, नम कार क औपचा रकता नभाते- नभाते वे बोले
—आइए, आइए। अभी घर म और कोई नह है पर मेरी बहन आती ही
ह गी। म च क । घर म कोई नह है तो फर अकेले घर म मुझ म हला को
बुलाया य कैसा आदमी है रे बाबा इधर-उधर नज़र दौड़ाई, खड़क -
दरवाजे सब खुले थे, बगल के घर म लोग रह रहे थे। मन म संकोच लये
बैठ गई। जरा दे र बाद बहन अंजली बसु के प त कानु और वे वयं भी आ
ग । बातचीत ई। बादल दा ने सहष एवम् इ जत् के अनुवाद क
अनुम त द । म खुशी-खुशी लौट आई।
वष बाद एक दन इस पहली मुलाकात क चचा चल पड़ी और मने
अपनी कही तो बादल दा बोले—‘अब मेरा हाल सु नए। फ़ोन पर आपका
गला मुझे कसी पु ष के गले जैसा लगा और मैने नःसंकोच दोपहर म
घरवाल के आने से पहले आपको बुला लया। दरवाजा खोलने पर सामने

े ो ी ो ी ी
एक म हला दे खकर तो म महा मुसीबत म क आप या सोचगी। गनीमत
थी क कानु ज द ही आ गया, नह तो ।’ हम दोन खूब हँसे।
1967 क एक दोपहर म बादल सरकार से आ यह नाटक य प रचय
उनके अ तम दन तक बना रहा। उनके दस नाटक का अनुवाद मने
कया, अना मका ने उ ह खेला, उ ह ने राम- याम-ज का नदशन कया,
अना मका और नाट् य शोध सं थान म जब आमं त कया तब वे आए,
सं थान के लए नाट् यपाठ तथा सा ा कार रेकॉड करवाया, अपनी
तु तय को रेकॉड करने क अनुम त द और अपनी छोट -बड़ी बीस से
अ धक ह त ल खत पांडु ल पय को नाट् य शोध सं थान के सं हालय के
लए भट दया। हम सब उनके आभारी ह।
एवम् इ जत् का अनुवाद शु आ। नाटक का क य यथाथवाद और
साम यक है तथा प उसका श प तीका मक है। लेखक ने बड़ी
कुशलतापूवक यथाथ और क पना का संयोजन कया है। एक ही पा
ारा कई भू मका का नवाह, एक ही अंक म एका धक य का
संयोजन जो बना मंच-स जा बदले एक- सरे म सं मण करते रहते ह,
अल य पा क उप थ त सा ा कार करनेवाले (पा ) आ द नाटक म
अ त न हत ऐसी थ तयाँ ह ज ह तुत करने के लए पया त क पना
का उपयोग आव यक होगा। नाटक का या-कलाप 15 वष म फैला है
जसे लेखक ने कुशलतापूवक समेटा है। अमल, वमल, कमल एवम्
इ जत् ( नमल)—सहज, सरल भाषा, रोज़मरा क आम बात, युवाव था
म क जानेवाली चुहलबा जयाँ, व ाथ जीवन क आशा-आकां ाएँ जो
धीरे-धीरे शंकाएँ, वधाएँ, अ न तता म पा त रत होती , थर होती
आगे बढ़ती ह। और इनम सबसे भ इ जत् ( नमल) जो अलग ढं ग
से सोचता है, अलग तरह से वहार करता है तथा प अपने य न म
सफल नह हो पाता, अपना प रचय इ जत् दे ने के बावजूद अलग,
वमल और कमल के साथ नमल होकर ही रह जाता है, इ जत् नह बन
पाता। वाहमयी भाषा और अ भ अनुवादक क कलम भी चल
पड़ी। ार भक छोट -छोट क वता के अनुवाद म भी कोई असु वधा
नह ई पर जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ा, नाटक के पा वय क ए, उनक
बात और भावनाएँ भी प रप व होने लग , लेखक और इ जत् तथा
इ जत और मानसी क बात अ धक ग भीर और ता पयपूण होने लग ।
जैसे-जैसे वे समझ-बूझकर बात कह रहे थे वैसे ही अनुवादक क कलम
को भी समझ-बूझकर हर श द का इ तेमाल करना था। य प नाटक क
क वताएँ उसके का का अ भ अंग थ तथा प अपने आपम भी वे
जीवन के कसी अ तरंग त व क मीमांसा करनेवाली, उनका अनुभव
करानेवाली वतं इकाई भी थ । मुझे उ ह नाटक के एक संवाद क तरह
भी तुत करना था और एक वतं इकाई के प म भी। ये सारी बात
आज इतने वष बाद समझ म आ रही ह, उस समय सहज प से कलम
से नःसृत होती रह ।
क वता का अनुवाद सुखद अनुभव था। यामान द जालान नाटक
का नदशन और लेखक क भू मका म अ भनय करनेवाले थे। मुझे स दे ह
था क नाटक क ल बी-ल बी क वता को मुख थ करके वे मंच पर
स े षत कर पाएँगे। मने यह बात उनसे कही। दो-तीन दन बाद ही उ ह ने
एक ल बी क वता कंठ थ करके फ़ोन पर सुनाई तो लगा क कोई
असु वधा नह होगी, वे क वता का पाठ ब त अ छ तरह कर पाएँगे।
मेरा काम पूरा आ। नाटक का रहसल शु आ।

मंचन
एक दन बादल दा का फ़ोन आया क द ली से प आया है, वहाँ
रामगोपाल बजाज वगैरह नाट् य दल यां क के त वावधान म इ जत् के
ह द अनुवाद का अ भनय शी ही करना चाहते ह, मुझसे अनुवाद और
मंचन क अनुम त माँग रहे ह। अनुवाद रामगोपाल बजाज ने कया है।
नदशन मोहन मह ष का होगा और लेखक क भू मका म अ भनय करगे
ओम शवपुरी। इस बीच बादल सरकार से मेरा अनुब ध ह ता रत हो
चुका था जसके अनुसार अनुवाद पर सवा धकार मेरा था। बादल दा और
म दोन ही वधा म। दे श के नामी अ भनेता नाटक का मंचन करना चाहते
ह, पूरी तैयारी कर चुके ह, उ ह रोकना या उ चत होगा मेरा गत
प रचय सबसे था। पर फर मेरे अनुवाद का या होगा मने ब त सोच-
वचार के बाद बादल दा को सू चत कया क चूँ क वे नाटक क तैयारी
कर चुके ह, वे उसे मं चत कर ल पर न उनका अनुवाद छपेगा न ही और
कोई उस आलेख का अ भनय कर सकेगा। मुझे स तोष रहा क मने अपने
अ धकार के चलते उनक तु त को रोका नह और वैसा करके मेरा भी
कोई नुकसान नह आ। क व भारत भूषण अ वाल और रामगोपाल
बजाज के अनुवाद करने क बात क तु काम शु होने के थोड़े ही दन
बाद भारत जी का नधन हो गया, अतः क वता का अनुवाद छोड़ दया
गया। नदशक का कहना था क संवाद म जो बात कही गई है वही क वता
म दोहराई गई है, अतः क वता को बाद दे ने से नाटक के क य क कोई
त नह ई थी वरन् वह और चु त हो गया था। बाद म कलक ा म मने
उनक तु त दे खी। उस आलेख म क वताएँ छोड़ द गई थ । असल म
करीब तीन साल पहले 2008 म नाट् य शोध सं थान ारा आयो जत
अनुवाद संगो ी म रामगोपाल बजाज ने उस अनुवाद क एक जरॉ स
त सं थान को भट द । मुझे नाटक म क वता का अभाव पहले भी
े ी े ी
खटका था। पछले दन द ली वाला आलेख पढ़कर फर वही अनुभू त
ई। क वता म क य क पुनरावृ क बात सही है पर मुझे तो लगा क
उसके कारण बात और अ छ तरह दयंगम होती थी, क य भी एक और
ऊँचा धरातल ा त करता था। मुझे स तोष है क मने क वता का
अनुवाद कया और उनसे सम वत मेरा अनुवाद छपा। वैसा न होता तो
एवम् इ जत् जैसे सश नाटक से ह द नाट् य जगत् वं चत रह जाता।
मेरे आलेख का पहला मंचन मु बई म स यदे व बे ने अपने थएटर
यू नट के लए कया। उ ह जब आलेख भेजा तो वे परम गद्गद ए—
नाटक और अनुवाद दोन से। मुझे ल बा प लखा। इ जत् के साथ
उ ह ने अद्भुत सा य का अनुभव कया। बाद म जब बादल बाबू ने अपनी
अंगनमंच शैली के लए लखना और उसम ही मंचन करने का नणय कया
तथा भ व य म इ जत् जैसे नाटक लखने या खेलने म अ च दखलाई
तो उससे लोग ब त आहत ए और बादल बाबू पर इ जत् नाटक को
नकारने ( डसओन) का आरोप तक लगाया गया। बे तो इ जत् के साथ
इतना एका म हो गए थे क उ ह ने कहा—इ जत् को नकारकर बादल
बाबू मेरे पूरे अ त व को ही नकार रहे ह। वे ऐसा नह कर सकते।
इ जत् के साथ अनेक लोग ने इसी तरह क एका मता का अनुभव
कया। दे श क अ धकांश भाषा म इसका अनुवाद आ, अं ेजी म
गरीश कनाड ने, क ड़ म ेमा कारंत ने, मराठ म ीका त कुलकण ने
कया। नाटक खूब खेला गया। पाँच पु ष और एक म हला पा वाला
नाटक शौ कया दल के लए मंचन क से भी सु वधाजनक था। बादल
सरकार पूरे दे श म एवम् इ जत् जैसे सश नाटक के समथ लेखक के
प म त त ए। एवम् इ जत् के अनुवाद के मा यम से उ ह पूरे दे श
म प ँचाने का ेय मुझे भी मला। बाद म अ खल भारतीय तर पर जन
चार नाटककार क गणना दे श के शीष थ नाटककार म क जाने लगी, वे
थे—मोहन राकेश (आधे अधूरे), बादल सरकार (एवम् इ जत), वजय
तडु लकर (शांतता कोट चालू आहे) और गरीश कनाड (तुग़लक)।
एवम् इ जत् क तीन ार भक तु तयाँ
अब बात व तार से एवम् इ जत् क तीन ार भक तु तय क ।
बां ला म शौभ नक ने 1963 म ह द म सबसे पहले द ली के या क
दल ने 1967-68 म और बाद म अना मका ने 1968 म तुत कया। इ ह
दे खने का अवसर मुझे मला था। पहले 1969 म का शत एवम् इ जत्
का नदे शक य व जसम नदशक यामान द जालान ने नाटक के
क य एवं श प का व तार से वणन कया है।
ऊपर से पया त प द खते ए भी कोई कृ त कतनी ज टल हो
सकती है और उसके मूल क य क ा या करते ए हम कस तरह एक-
सरे से भ कोण अपना सकते ह, यह त य बादल सरकार के एवम्
इ जत् क तीन तु तय को दे खकर ह तामलकवत् प हो गया।
क य और श प, ये ही दो ब ह जन पर सारे नाटक का पायन नभर
करता है। क य सवथा लेखक का होता है, नदशक उसे यथास भव
आ मसात् करता है, गहरे उतरकर उसका सा ा कार करता है और तब
अपनी क पना के ारा उसे रंग-रं जत करके मंच पर खड़ा करता है। जहाँ
क य का अ धकांश लेखक का होता है, वह श प का अ धकांश नदशक
का होता है। नाट् यकार न त प से एक वशेष शैली म नाटक लखता
है, उसका अपना श प होता है तथा प नदशक को पूरी वतं ता होती है
क वह इ छानुसार इसका अ त मण करे। पहले एवम् इ जत के क य
क बात ल। नाट् यकार का मूल उद्दे य या है य वह आज के जन-
मानस क हलचल को च त भर करना चाहता है या उसके मा यम से
और कुछ भी कहना चाहता है या इ जत् क ‘मृ यु का वरण’ करने
क इ छा मु य बात है जसे वह दशक के सामने रखना चाहता है या मृ यु
का वरण न करके जीवन-पथ पर चलने क मानसी क ेरणा को वह
उससे अ धक मह व दे ना चाहता है या यह पथ सामा य-साधारण पथ
है या तीथ-पथ जस पर चलने क द ा क व ने अपने जीवन के वण-
ात म ा त क थी और जसे वह अपनी जीवन-स या म प ँचकर भी
भुलाना नह चाहता या क व और इ जत् एक ही व के दो
छटके ए प ह इ जत् क नराशा, घुटन और थकान या लेखक
क अपनी नराशा, घुटन और थकान है या जीवन क अ नवाय
प रण त यही है क अमल- वमल-कमल क तरह जीवन क गाड़ी को
ख चता चला जाए और इ जत् क तरह कुछ वशाल वराट करने क
चे ा म सवथा टू टकर आ था, व ास सबको खोकर जीवन को अ वीकार
करने क बात क जाए या क व क तरह पथ के अ त म तीथ नह है फर
भी तीथ-पथ तो है इस स य को वीकार करते ए थ त को वीकार

े े ै ै
करके चलते चलना है नाटक का अ त आशावाद है या नराशावाद या
इन दोन से भ कुछ और ही आशा- नराशाहीन है
ये कुछ साथक ह जो एवम् इ जत् को पढ़कर सामने आते ह
और जसका नदशक- य ने अपने-अपने ढं ग से, अपनी-अपनी क पना
के अनुसार उ र दे ने का य न कया है। वैसे तो इस नाटक क बां ला,
गुजराती और ह द म कई तु तयाँ हो चुक ह, तथा प म शौभ नक
(बां ला : कलक ा), अना मका ( ह द : कोलकाता) और या क ( ह द
: द ली) क तीन तु तय क ही चचा कर रही ँ, य क म इ ह ही दे ख
पाई ँ। सव थम इस नाटक को कोई पचास साल पहले मूल बां ला म
कया गया, नदशक एवं मु य अ भनेता थे गो व द गंगोपा याय। तु त
अ य त भावपूण और ल बे अरसे तक दमाग पर छाई रही, अगले कई
महीन म दो बार और अपने पास ख चने म समथ ई। गो व द बाबू ने
न त प से आशावाद कोण लया था। जीवन क सारी उलझन ,
ख के बाद भी जीवन वीकार करने के लए— कसी उ वल भ व य
का आ ासन न होते ए भी हम चलना है य क सामने पथ पड़ा है—
कने का अथ है मृ यु, जीवन क ग त को बेताला करने क नरथक चे ा।
बड़े भावपूण ढं ग से गो व द बाबू ने अपने कोण को प कया था
य प इस य न म इ जत् क घुटन और मान सक कह खो गया
था, जीवन को वीकार करने या न करने के नणय के बीच कसमसाता,
छटपटाता उसका अ तर कह अपने म ही डू ब गया था, आ मलीन हो गया
था। नाटक के ार भ से ही मंच पर लगी लाल लाइट का अ त म—
इ जत् के जीवन को वीकार करने का नणय कर लेने पर—हरी हो
जाना, इस सू म और ग भीर त य को तुत करने का बड़ा भ ड़ा तरीका
था। फर भी यह वीकार करना पड़ेगा क शौभ नक क यह तु त मन
पर गहरी छाप छोड़ गई थी और सच पू छए तो एवम् इ जत् नाटक और
उसके लेखक बादल सरकार क े ता को अ खल भारतीय तर पर
त त कर गई।
ह द म पहली तु त थी या क, द ली क (1967-68), अनुवाद
क व भारत भूषण अ वाल तथा रामगोपाल बजाज का और नदशन
मोहन मह ष का। उनक म लेखक और इ जत् एक ही व के
दो प थे, इ जत् के मा यम से लेखक अपनी ही बात कहना चाहता
था। और वह बात भी अ य त नराशाभरी, आशा- व ास-आ थाहीन एक
ऐसे क जो अपने के से ख लत हो गया था, जो वल त उ का
क तरह आकाश भेदकर ऊपर उठने म सवथा असमथ सा बत आ, इस
चे ा म जो झुलसकर रह गया, न काश आ न वाला ऐसे जीवन को
लेकर या करना और इसी लए नाटक के अ त म ( नदशक ारा
आरो पत) लेखक इ जत् का गला घ ट दे ता है—मानो सब कुछ से

े ो े े ो ो े े े
ऊबकर, थककर अपने को नःशेष कर दे रहा हो। इस अ त को ले आने के
लए नदशक ने नाटक के अ तम कई पृ को छोड़ दया था, पथ और
चलना, तीथ और तीथपथ उसके लए मह वहीन हो गए थे। मुझे ऐसा लगा
क यह नाटक के क य को ब त अ धक ख चना था ब क प क ँ तो
उसके साथ अ याय करना था। नाटक का अ तम अंश क य क से
अ य त मह वपूण है, उसे बाद दे ने का मतलब शरीर से आ मा को बाद
दे ना है। नाटक से सारी क वता को बाद दे ने के कारण ऐसा म त म
आ। इस भूल के कारण न तो नाटक क मूल आ मा उभरकर आई और
न ही च र (लेखक और इ का) पूरे आवेग और आ त रक श के
साथ सामने आए। ओम शवपुरी जैसे सश अ भनेता और अ या य
कुशल सहयो गय के बावजूद बात बनी नह । कलक ा के दशन म
अव य ही इ क ह या नह करवाई गई थी, तथा प अ त म पया त अंश
को छोड़ दे ने के कारण नाटक तब भी मुंडहीन ही था। अ त अ य त बल
रहा। काला तर म नाटक के कुछे क दशन दशा तर के त वावधान म भी
कए गए।
ह द म सरी तु त अना मका, कोलकाता क थी (1968),
अनुवाद था तभा अ वाल का और नदशन यामान द जालान का।
अव य ही वे नाटक के क य को समझने और पकड़ने क दशा म वशेष
सचे थे। बादल बाबू के साथ कई-कई दन तक वचार- वमश इसके
सा ी ह। उ ह आज के युवामन क घुटन और ही नाटक का मूल
क य लगा—कह भी आशा क ीण रेखा उ ह नह दखी। नाटक क
अ तम क वता म कही गई तीथ और तीथ-पथ क बात जैसे उनके लए
गौण थी या क ँ नग य थी, स सफस क तरह प थर के टु कड़े को पहाड़
क चोट पर प ँचाने क थ चे ा क पीड़ा ही मुख थी। उनके लए
लेखक और इ जत् एक न होते ए भी—Split-Self न होते ए भी—
एक से ही थे, इ जत् क घुटन लेखक क ही घुटन थी। इस के
प रणाम व प च र ांकन बड़ा सश आ, नाटक एक अ य त ग भीर
तर पर त त आ, उसका क य कह मन को झकझोर दे नेवाला आ।
क तु साथ ही बो झल भी। अ य त ववशतापूवक वीकार कया गया
जीवन जया गया तो या, न जया गया तो या मं चत होने के पूव,
पूवा यास के दौरान नाटक का अ त इतना बो झल लगता था क पू छए
मत। ऐसा लगता था जैसे मंच पर खड़े लेखक—इ जत-मानसी ज वत
न ह , अ भश त स सफस क ेता मा ही ह , जी वत लाश ह ।
क तु मंचन तक प ँचते-प ँचते यह घोर नराशा और थता उतनी
ममभेद नह रह गई, जीवन का वीकार जीवन का वीकार बना, मृ यु का
नह । पता नह यह अ तर नदशक क आ त रक ेरणा के कारण आया
या दशक एवं आलोचक क त या के कारण, क तु मेरी म था

ी ी ी ो ो
सही दशा म। य द जीवन म आशा का इतना-सा भी आभास न हो तो
इ जत् का मृ यु का वरण करना ही एकमा संग त हो सकती है।

श प
नाटक एवं तु तय के श प के स ब ध म कुछ कहे बना बात अधूरी रह
जाएगी। लेखक ने यथाथवाद घटना को अयथाथवाद श प के मा यम
से तुत कया है। अतः अनेक थ तय , च र ांकन और बातचीत म जहाँ
अ य त यथाथवाद पुट मलता है वह उ ह पा यत करने म पया त
क पना का योग अ नवाय हो उठता है। नाटक म अनेक य क योजना
है, उ ह यथाथवाद शैली म बार-बार य-प रवतन करके तुत कया
जाए तो अ छा-खासा तमाशा बन जाए। उ ह एक ही य-ब ध पर तुत
करना अ नवाय है, अतः नदशक एवं दशक दोन क क पना सजग हो
उठती है। इसी कार इ जत् को छोड़कर अ य सभी पा एका धक
भू मका का नवाह करते ह। अ य त सामा य थूल प रवतन करके सवथा
भ व तुत करना नाटक क सरी और मूक अ भनय उसक
तीसरी अ नवायता है। तीन नदशक ने इनका सफलतापूवक नवाह
कया। इसम कोई स दे ह नह क शौभ नक क तु त म मूक-अ भनय
वाले अंश सवा धक सजीव एवं भावपूण थे। गो व द बाबू ने कुछ सामा य
चीज, जैसे—झाड़न, ताश आ द मंच पर ली थ , मोहन मह ष ने लेखक के
लखने का साज-सामान पूरा दया था। यामान द जी ने उनको एकदम
बाद दे दया था। यह एक ऐसा नाटक है (शायद—कोई भी नाटक ऐसा
बना लया जा सकता है) जसे इ छानुसार शैली म उपकरण को लेकर या
बाद दे कर तुत कर सकते ह। इस सल सले म अना मका क तु त
वशेष उ लेखनीय थी। इसम नदशक ने कुछ सफल योग कए जनम
सवा धक मह वपूण था पा को मंच पर सवथा अचल करवा दे ना—
Freeze करवा दे ना। इसके प रणाम व प कह जीवन क थरता का
बोध आ, कह हमारी एक पता का बोध आ और कह जीवन क
अनवरत वाह का। इसी कार गोलाकार ग त के ारा उ ह ने आ द-
अ तहीन जीवन, नर तर घूमती ई पृ वी, सतत चलायमान जीवन आ द
त य का व भ संग म बोध करवाया। संगीत और आधु नकतम
पा ा य नृ य क अ तरं जत भं गमा के बीच आज के जीवन म क
जानेवाली ब त-सी अथहीन बात को कहलवाकर उ ह ने हमारे जीवन
और हमारी बात , दोन क थता को बड़े भावपूण ढं ग से मुखर कया
था। साथ ही यह भी सही है क सारी तु त म भाव-भं गमा एवं अंग-
संचालन के े म अ तरंजना थी, जीवन के खोखलेपन को
करनेवाली बनावट हँसी अनेक थल पर ब त अ धक हो गई थी, मूक-
अ भनय क छोट -छोट बारी कय क ओर कम यान दया गया था,
अनेक थल पर पा अनाव यक प से ह ला कर रहे थे। फर भी यह
ो ै े ो े
न संकोच कहा जा सकता है क यामान द ने नाटक को सबसे अ धक
समझा था, साहसपूवक कुछ सफल योग कए थे।
अ भनय क से शौभ नक क तु त म उनका ट म वक अ छा
था, अमल- वमल-कमल और मानसी अ य त सजीव और सहज थे।
लेखक के प म गो व द बाबू अ मट छाप छोड़ गए थे। हाँ, इ म वह
आवेग नह था जो उस भू मका के लए अपे त है। स भवतः इसका
कारण च र ांकन रहा हो। यामान द क तु त म उनके लेखक के
अ त र अ या य भू मकाएँ बल थ — वशेषकर उनक तुलना म अ य
सभी पा बचकाने लग रहे थे। इ अ य धक लाउड था, मानो वह अपनी
बात गले के ज़ोर पर मनवाना चाह रहा हो। अनेक थल पर मानसी का
संघष और आरो पत और बलपूवक लादा गया लग रहा था। अमल-
वमल-कमल और सहज हो सकते थे। या क के कलाकार का तर
सामा यतः अ छा होते ए भी उनम वह श नह थी क वे मन को छू
पाते। ओम शवपुरी जैसे कलाकार भी नाटक क भ ा या के कारण
वशेष भाव नह डाल पाए—कुछे क थल को छोड़कर।
मुझे व ास है क यह नाटक और लोक य होगा तथा अ य कुशल
नदशक अ या य आयाम को तुत कर पाएँगे। क वता को बाद दे कर
इसे तुत करने क भूल नह करनी चा हए। कृ त अपने-आपम बड़ी
सश है। इसे पढ़ने, तुत करने, दे खने सभी म बड़े सुख एवं प रतृ त
का अनुभव होता है, जीवन के गहरे स य से सा ात् होता है।
कुछ और बात व तार से 1968 म अना मका ारा कए गए मंचन क ।
सबसे नदशक यामान द जालान का व जो मु यतः एवम् इ जत्
के क य पर काश डालता है और जसका काशन भी एवम् इ जत् के
ह द अनुवाद के साथ नदशक का व के प म 1969 म का शत
आ था।
बादल सरकार के नाटक के मंचन को दे खकर मन म कह एक
व ोह जागता था। लगता था ये नाटक उ मु ता माँगते ह जो क
इ ह मल नह पा रहा है। और उसी व ोह का फल मेरा एवम्
इ जत् का तुतीकरण था। मंचन के ब धन को तोड़कर हमने
इस नाटक क आ मा को लोग के सामने रखने क को शश क ।
लोग बैठे रहे, दे खते रहे, इससे लगता है क शायद हम कसी हद
तक सफल भी ए। पहले लगता था क आम दशक शायद इसे
झेल न पाए। पर दे खा क ब त से तथाक थत आमदशक ने भी
इसे पस द कया, समझा या नह —यह तो नह मालूम, पर उ ह ने
इसे अनुभव कया ऐसा कुछ अव य लगा।

ी ो े े ँ ँ े ो
म भी नाटक को पहले केवल भाँपता ँ, समझने क को शश
नह करता। ज द से पढ़ता ँ फर आँख ब द कर लेट जाता ँ।
कुछ अटपटे वचार, कई एक व च से खाके चेतना म उभरते ह।
और य द उसके बाद उसे खेलने क ब त इ छा होती है तो उसके
तुतीकरण म जुट जाता ँ। फर भी बार-बार नह पढ़ता। साथी
चुनकर सब एक साथ बैठकर पढ़ते ह, उसे अनुभव करने क ,
समझने क को शश करते ह। फर उसे लेकर खेलने लगते ह। एक
य छोटा-सा कया, कुछ संवाद बोले—एकाध मु ाएँ परख और
पढ़ते रहे। एक खेल-सा हो जाता है हमारे लए। और नाटक जब
तक याद होता है, तब तक हमारे दमाग म उसक एक ह क -
गहरी आकृ त तैयार हो जाती है।
नाटक समझना हम तब शु करते ह जब हम उसका पूरा
रहसल करने लगते ह। तब भी एक मोटे तौर पर ही समझ पाते ह।
यह ज री नह है क आशार हत वीकार के पीछे कोई एक
पहचानी ई भावना हो, मनः थ त (emotion) हो, मसलन—
नराशा या वैरा य। बीतता आ समय और उस समय क
प र थ तयाँ नई मनः थ तय का नमाण करती ह। चार सौ वष
पहले कोई ेम श द को उस अथ म नह लेता था जस अथ म
आज या य क हए क आज से 40 या 50 वष पहले। यौन-
भावनार हत ेम का उस समय कोई माने ही नह था।
नाट् यकार बादल सरकार के इन श द ने सहसा एवम् इ जत्
के रह य को हमारे सामने खोल दया :
जीवन के उस वण ात म
द ा ली थी पद-या ा क
सतत तीथया ा करने क ।
जीवन क स या म प ँचा
मन मेरा यह भूल न जाए
द ा के उस मूलमं को—
तीथ नह , है केवल या ा
ल य नह , है केवल पथ ही
इसी तीथ-पथ पर है चलना
इ यही, गंत यही है।

े ँ औ े
ये थ एवम् इ जत् क अ तम पं याँ। और बादल सरकार के
उ मनोभाव को अ भ करने के लए इन श द का चुनाव
वशेषकर मूल तं का, तब भी खटका था आज भी कह क दे ता
है। पर जहाँ उ ह ने यह सब कहकर हम दशा द , वह एक भारी
भी सामने खड़ा कर दया। उस मूलभाव को कैसे कया
जाए अपने अ दर से कैसे अची ही, बना नाम क भावना को
जगाया जाए और अनुभव कर लेने से ही तो काम ख म नह होता
—अनुभव कराना भी तो उद्दे य था। और यही कारण है क हम
बार-बार फसल जाते थे—अब भी फसल जाते ह। कभी मानसी
रो पड़ती है—कभी इ जत। कभी लेखक म ही गु आई जाग
उठती है।
फर सवाल रंगमंच का, दशक का भी तो था तट थ हो जाने से
तो काम नह चल सकता। आधे घंटे बाद ज हाई लेता आ दशक
इधर-उधर य द दे खने लग जाए तो तट थ होकर संवाद या थ तय
कैसे बोली जाएँ इनम रंग तो उभारने ही ह गे।
इ ह सब सम या के बीच रा ता ढूँ ढ़ता आ मेरा तुतीकरण
था। इस अथहीन जीवन क अथहीनता को भुलाकर और इसे
पहचानते ए भी अपने आपको धोखा दे कर कोई रह कैसे सकता है
भला तो या करे वह मर जाए, आ मह या कर ले जैसा क
इ जत् सोचने लगा था। या इस आशा से अपने को धोखा दे क
कभी तो सूरज उगेगा। पर सोचनेवाले संवेदनशील के जीवन
से आशा तो आज ख म हो चुक है। चाँद और सूरज तो कोई पहेली
नह रहे। न वग रहा न नरक। जमीन के अ दर, पाताल के नीचे तो
पाताल है और उसके नीचे फर जमीन। सर के ऊपर हवा है और
फर शू य और फर ऊपर उठते-उठते घूमकर शायद फर वही हवा
और फर वही जमीन। प थर को ढकेलकर पहाड़ क चोट पर ले
जाने क चे ा से पहले ही हम जान गए ह क प थर तो वहाँ टकेगा
नह , लुढ़क ही जाएगा। और य द कह टक ही गया तो भी या
या लेकर जए ऐसा —जो क आज का आदमी है—
अणुगम क अनुपम भट।
तो या करे वह मर जाए
फर मरने से भी या य द न मरने से कुछ है न जीने से, तो
जीओ ही य न शायद
पर नह , शायद वह भी तो नह रहा, इसका खोखलापन भी हम
जान गए ह, हम कोई आ था नह है
खोखला ही शायद सही, शायद है तो, व तो है।
— यामान द जालान
(पु तक से, 1969)
क य के बाद बात श प क
यामान द जालान ने नदशक का दा य व स हाला। पा का चुनाव आ।
इ जत् के लए क याण चैटज , अमल-कमल के लए अमर गु ता,
वमल लाठ और अ रदम तथा मौसी और मानसी के लए चेतना तवारी
चुने गए। लेखक क भू मका उ ह ने अपने लए रखी। नाटक का पाठ शु
आ, साथ ही साथ यामान द का नदशक य संयोजन। वे पहले से ब त
कम तय करते थे। नाटक के पाठ के साथ-साथ नाटक के आलेख, य
संयोजन, च र - च ण आ द पर उनका दमाग काम करता रहता था। वे
अपने को नाटककार का नदशक कहते थे। सबसे पहले नाटककार के
व को गहराई से समझने का य न करते थे। जहाँ कह कसी कार
क वधा होती, वे नाटककार से प ाचार या बातचीत करते, अपनी ओर
से प रवतन नह कर लेते थे। 1966 म ‘लहर के राजहंस’ के मंचन के
समय लेखक मोहन राकेश के साथ प ाचार और बाद म लहर के तृतीय
अंक का पुनलखन इस या के प रणाम थे। बादल सरकार से एवम्
इ जत् म उनक न आशा न नराशा, केवल नॉन होप क थ त को
लेकर कई दन बात । बादल दा के नॉन होप के स ा त क चचा म म
भी शा मल थी। मेरी म इ जत् म न त प से आशा का संकेत है
य क उसम तीथ-पथ पर आगे बढ़ते चलने क बात है। और कसी तीथ
तक ले जानेवाले रा ते का मंगलमय होना सु न त है। मने अपनी बात पूरे
वज़न के साथ कही। वैसे भी बादल बाबू के नाटक म हम आशा के संकेत
सव मलते ह, मरण के वरण के नह तथा प इ जत् के संग म कसी
और के सुझाव पर नॉन होप के थान पर कुछ और के होने को वीकार
करना बादल बाबू के लए कैसे स भव हो सकता था
नाटक म पृ वी क गोलाकार थ त और ग त क चचा क गई है।
यामान द ने उस संकेत को पकड़कर अपने पा क ग त को भी बीच-
बीच म गोलाकार रखा। य प रक पना खा लद चौधरी क थी। उ ह ने
तीका मक मंच बनाया, जसे पूरे नाटक म इ तेमाल कया गया। उ ह ने
उसम एक ऐसा दरवाज़ा बनाया था जससे जाकर घूमकर पा बाहर आ
जाते थे। उस दरवाज़े के ऊपर पृ वी का एक बड़ा गोला बनाया था। सेट के
इसी अंश म दोन ओर ढालू लैट भी दए गए थे, जो पहाड़ क ढालू जगह
जैसे लग रहे थे, जन पर से नाटक म उ ल खत स सफस के प थर
ढकेलकर ऊपर ले जाने और फर उसके लुढ़ककर नीचे आ जानेवाले
संग का प संकेत मलता था। मंच नमाण ह द हाई कूल (अब व ा
म दर) के मंच को म रखकर कया गया था जसक ऊँचाई 18 फ ट
रही होगी। बाद म नाटक को कला म दर के बेसमट म (अब कलाकुंज)
करने का नणय कया गया। उस मंच क ऊँचाई कम थी अतः ऊपर वाले
ी े ो े ो े े े
पृ वी के गोले को बाद दे दया गया। एक दन आने पर जब खा लद दा ने
यह दे खा तो ब त नाराज ए। उनका कहना था क यामान द ने सेट का
सर ही काट दया। ऐसा करने से पहले मुझसे चचा तो क होती, म कुछ
और उपाय करता पर जो होना था, सो तो हो चुका था, उसे लौटाने का
कोई उपाय नह था। खा लद दा अना मका से ब त अस तु ए। एक
सृजनकता के लए उसक सृ का व पीकरण उसके लए कतना
क दायक हो सकता है, इसका अनुभव हम सबने कया। हमने उनसे मा
माँगी और उ ह ने भी हम मा दान करके अगले वष म मेरे ब चे
(1969), ब लभपुर क पकथा (1969), आधे अधूरे (1970), पगला
घोड़ा (1971), ट ल े म (1971) आ द नाटक के लए मंच प रक पत
कए। नाटक के क य को मूतमान और रेखां कत करनेवाली खा लद
चौधरी क मंच प रक पना, मंच के माप के अनुसार प रक पत मंच का
-ब- नमाण, सू मा तसू म आदे श का नदशानुसार पालन उनके मंच
को एक वतं कला मक सृ का प दान करते थे। अना मका उनके
इस अवदान के लए सदा ऋणी रहेगी। इ जत् म आलोक संयोजन
अ नल साहा का था जसने तु त को भावपूण बनाया तो सु स
गायक र व कचलू क संगीत योजना ने तु त के मह वपूण और मा मक
अंश को रेखां कत कया। पूरी तु त क सफलता का ेय नाटककार,
अनुवादक, नदशक, कलाकार , सेट- काश एवं संगीत संयोजक—सभी
का ा य था।
इस तु त ने यामान द को वशेष स मान दान कया। इसे ही के
म रखकर उ ह 1973 म संगीत नाटक अकादमी का नदशक एवाड
(स मान) ा त आ।
इस संग म 1971 म कए गए एवम् इ जत् के एक व श दशन
क चचा के बना बात अधूरी रह जाएगी। यामान द और स यदे व बे
म थे, एक- सरे का ब त स मान करते थे तथा प भीतर ही भीतर एक
तरह क व थ त ता भी उनम रहती थी। सामने वाले को नीचा
दखाकर नह वरन् अपने काम को और अ छा करके तथा अ धक चचा
का वषय बनकर दोन को सुख मलता था। 1970 म बे ने भी इ जत्
का मंचन कया। लेखक थे अमरीश पुरी, मानसी सुलभा दे शपांडे और
इ जत् वयं बे। इन कुशल अ भनेता के कारण तु त भावपूण
ई तथा प बे कह यामान द क तु त को तुलना म े मान रहे थे
और उसम अ भनय करके उसका एक ह सा बनने का सुख भी पाना
चाहते थे। कई वष बाद एक दन उ ह ने यामान द के सामने ताव
रखा-चलो, हम लोग एक योग कर। हम एवम् का एक दशन कर जसम
तु त-संयोजन तु हारा रहेगा, बस इ जत् म और मानसी यामा होगी,
उसे म अपने ढं ग से तैयार क ँ गा। यामान द ने यह चुनौती वकार क ।

े े े ी े े े
1971 म बे कलक ा आए, मेरे पास ही ठहरे। सुबह 9-10 बजे उठते,
चाय-वाय पीकर वे और यामा रहसल करते, शाम को सबके साथ रहसल
होता। 28 अग त, 1971 को तु त का मंचन कला म दर के बेसमट म
ही कया गया। हम सबके लए खासकर म अपनी बात क ँ तो—यह एक
अद्भुत अनुभव था और आज चालीस वष बाद भी याद है। लगता था
मंच पर दो शेर खड़े ह, एक- सरे को अपने े अ भनय ारा पछाड़ने के
लए। यामा ने भी अ छा अ भनय कया। सब मं मु ध दे खते रहे।
बाद म द ली म इसके और दशन ए जनम चेतना ने मानसी और
इ जत् क भू मका म बे ने अ भनय कया।
एवम् इ जत् : दशक क म
आन द बाजार प का, कलक ा, 15.5.1969
क तु आ य म डाला अना मका के एवम् इ जत् ने। या अ भनय,
या य-स जा, हर व तु को दे खकर आ य और आ य। नाट् य- तु त
बां ला के कसी भी नाट् यदल के लए ई या क व तु थी। यामान द
जालान के नदशन म तुत एवम् इ जत् मु कंठ से शंसा के यो य
है। लेखक क भू मका म उनका अ भनय भी दय ाही था।
इ जत् क भू मका म क याण चैटज ने अपने ज टल च र का
च ण गहरी सूझ-बूझ के साथ कया।

प रचय, कलक ा, 5 मई, 1969


कहना गलत न होगा क बां ला नाट् य े मय के नकट ह द थएटर का
अ त व नह के समान रहा है। उसके दो कारण ह। पहला, उ ह ह द
थएटर दे खने का अवसर कम मला करता था। कभी कोई बाहर का दल
आकर शहर म नाटक खेलता तो वह श प के तर पर बंगाल के दशक
को कम ही आक षत करता था। इसके अपवाद न रहते रहे ह , सो नह ।
पृ वी थएटस या उसके समक कसी अ य दल क तु त ने बराबर
कलक ा के दशक को सच कत कया है तथा प उनका कोई थायी
भाव नह पड़ा। सरा कारण, बंगाली लोग ह द दशक से अपने को
े मानते ह। यह केवल नाटक तक सी मत हो, सो नह , अ या य े म
भी यह उ ा सकता दखलाई पड़ती है। इधर थ त म कुछ प रवतन
आया है। इस कथन क पु इस त य से होती है क इस बार बां ला नाट
मंच त ा स म त के नाट् यो सव म ह द थएटर मह वपूण थान ा त
करने म सफल रहा।
पछले वष म अपनी े ह द नाट् य- तु तय के कारण अना मका
नाट् य-दल ने या त अ जत क है। मूलतः ह द दशक के लए खेले जाने
के बावजूद आजकल बंगाली दशक के बीच भी अना मका का नाम
बराबर सुना जाने लगा है। इनका एवम् इ जत् दे खकर बना कसी धा
के कहा जा सकता है क अना मका नाट् यदल बां ला थएटर के थम
ेणी के कसी भी दल के बराबर का थान पाने का अ धकारी है।
आधु नक थएटर का स यक् ान, योजनीय न ा और एका ता ने इ ह
यो य थान पर आसीन कया है।

ब बई
ी ई ो ी
राज थानी म हला मंडल, ब बई ारा ायो जत बड़ला मातु ी सभागार
म कलक ा के नाट् यदल अना मका के कलाकार ारा तुत एवम्
इ जत् क तु त ब त ही भावपूण थी।
नाटककार बादल सरकार ारा मूल बां ला म ल खत नाटक का
ह द म अनुवाद कया है तभा अ वाल ने, ज ह सा ह यक भाषा के
ऊपर अ छा अ धकार है। उनके ारा यु श द क य क अथव ा को
एक ऐसे ऊँचे धरातल पर प ँचा दे ते ह क ोता संवाद के व या मक
सौ दय को बखूबी अनुभव करता है।
क व-नाटककार के च र के पायन म यामान द ने े तमान
था पत कया। भाषा म यु श द के उतार-चढ़ाव और बलाघात आ द
का अ छा ान होने के कारण उनके संवाद अद्भुत भाव छोड़ते ह।
कुछे क थल पर आई नाटक यता को बाद दे दया जाए तो उनके वा चक
अ भनय क दाद दे नी पड़गी, ल बे-ल बे एकालाप भी दशक को बाँधे
रखने म समथ थे।
क याण चैटज ने इ जत् के ज टल च र क बारी कय को बड़ी
सूझ-बूझ के साथ पा यत कया।

टाइ स, ब बई, 12.5.65


थएटर पु , ब बई ारा तुत एवम् इ जत् नाटक, 1960 के दशक म
बादल सरकार ारा लखे नाटक का पुनमू यांकन करने का य न है।
इस स दभ म एवम् इ जत् का उ लेख उ चत है। 1962 म लखे इस
नाटक को कसी बु मान समी क ने पुराना पड़ गया (डेटेड) नाटक क
सं ा द है। सच पू छए तो व तु थ त इससे एकदम उलट है। व तुतः
एवम् इ जत् नाटक ऐसे यौवन से प रपू रत है जो केवल ला स स
(गौरव थ ) म पाया जाता है और जो कभी पुराना नह पड़ता।
एवम् इ जत् म बादल सरकार ने कलक ा के रोज़ पैसजरी
करनेवाल और धनाढ् य लोग के वैष य को रेखां कत कया है। गरीश
कनाड ारा अं ेजी म अनू दत थएटर प ु के आलेख ने नाटककार के
क य और भाषा के सौ दय को बड़ी कुशलतापूवक तुत कया है।
बादल सरकार के एवम् इ जत् को हम नःसंकोच वतमान शता द
के मह वपूण नाटक म से एक कह सकते ह। इसके बाद एक बड़ा
खालीपन दखलाई पड़ता है। वयं बादल सरकार ने बाद म वैसे नाटक
क रचना नह क जो श प के तर पर उनके पहले के नाटक के समान
ह।
— रक भ ाचाय

ऑ ं
टाइ स ऑफ इं डया, 1.7.85
नाट् य दल योग के लए खेले गए अपने पछले नाटक म नदशक
एम.के.रैना ने बादल सरकार के उस पुराने और अनेक बार खेले गए नाटक
एवम् इ जत् को आं गक अ भनय, ग तय , लय और व श शैली के
मा यम से तुत कया। वे आपको साँस लेने, सोचने या कुछ अनुभव
करने का समय तक नह दे ते। यह तु त ऐसी थी मानो आपक
भावना पर ट मरोलर चलाया जा रहा हो। फल व प नाटक के क य
का ता पय ग त और श प के घटाटोप म कह खो जा रहा था। योजना
का म त और प होने क आव यकता है। इस तरह क तु त के
लए और बड़ी जगह क भी आव यकता होती है, ीराम कला के का
तलक पया त नह था।

टे ट्समैन, 2.10.95
बादल सरकार के नाटक एवम् इ जत् को अं ेजी म तुत करने के लए
वशेष साहस क ज रत है य क अब तक मूल बां ला और उसके ह द
अनुवाद क अनेक तु तयाँ हो चुक ह। 1971 म इलाहाबाद म कै पस
थएटर के नाम से था पत छा का नाट् य दल पया त सफलता से काम
कर रहा है। द ली म कोपर नकस माग थत ल टल थएटर प ु के हाल
म तुत नाटक म, नदशक महमूद फ़ा क ने बड़ी कुशलता के साथ
गरीश कनाड ारा अं ेजी म अनू दत आलेख क नाटक यता को बरकरार
रखा। अ तर के आलोड़न और इ जत् के वै क प के साथ
समकालीन वचारधारा का मेल बैठाना क ठन काम है जसे नदशक ने
पया त कुशलता के साथ नबाहा।
नाटक एवम् इ जत् ज टल का एक अद्भुत पटारा है जो
जीवन के उद्दे य, जीवन और मृ यु आ द से स ब धत अनेक उठाता
है और जब पा दानव जैसे हो उठते ह और ोटै ग न ट एक मूल वहीन
सनक । सम या का समाधान नह सुझाया गया है, उलटे उ र पाने के
य न म और भी नए-नए उप थत हो गए ह।
अ भनेता ने नाटक के क य को खासकर वे बात जो ऊपर उभरकर
नह आई ह, उ ह समझकर उनको न ापूवक नभाने का य न कया।
अ न कुमार और आमीर बशीर क लेखक और इ जत् क भू मका
ने वशेष यान आकृ कया।
एल.ट .जी. के हाल क खराब एकू टक के कारण दशक को कोई
असु वधा नह ई य क हाल क पहली पं भी मु कल से भरी थी।
टे ट्समैन, 20.11.89
ी े े
सरकार का नाटक भाषा क सीमा से परे
करीब दो महीने पहले संगीत नाटक अकादमी ारा आयो जत नेह
शता द समारोह म अपने नाटक एवम् इ जत् को ह द म तुत करने
पर बादल सरकार ने आप क थी मानो भाषा नाटक क कला मक
गुणव ा को उ त करती है। यह धारणा कतनी ामक हो सकती है
इसका माण द ली म क गई नाटक क त मल तु त परकोरा
इ जत् से सहज ही ा त हो जाता है। य प यह समी क त मल भाषा
का एक अ र भी नह समझता था तथा प नाटक म न हत नाटक य
स दे श और कथानक क सं ता को हण करने म कोई असु वधा नह
ई।
एका धक नदशक ने बादल सरकार के ट नाटक को रा ते से
उठाकर मंच पर प ँचाया। ऐसी थ त म मंच क साज-स जा ने कोई
वशेष भा वत नह कया। लाभ आ तो यह क व था और आम
आदमी के जीवन का वरोधाभास और मुखर होकर सामने आया।
ह तान, 20.5.2008
युवा-मन क कशमकश एवम् इ जत् म
बहार आट थएटर के 43व थापना दवस पर आयो जत चार दवसीय
नाट् य महो सव श नवार को एवम् इ जत् के मंचन के साथ स प हो
गया। बादल सरकार के मूल बां ला नाटक के ह द पा तरण को अ जत
भाई थएटरवाला ने नद शत कया था। तु त थी बहार कूल ऑफ
ैमे ट स क । साठ के दशक म लखा गया और दे श भर म मं चत यह
नाटक आज भी उतना ही ासं गक है जतना रचना के व था। युवा-मन
का बारीक व ेषण नाटककार ने कया है। युवा क छटपटाहट,
भटकाव, और कशमकश का ऐसा मनो व ेषण नाटक म है क
तु त तैयार अ भनेता क माँग करती है य क कथानक का ज टल
वाह पूरे नाटक म है। इसे खोले बगैर नाटक का सफल मंचन स भव नह
है।
सनडे टडड, नई द ली, 8.1.1970
एक संवेदनशील नाटक
पछले श नवार क शाम को आइफ़ै स हाल, कलक ा के अना मका
नाट् य दल का नाटक एवम् इ जत् दे खने आए दशक से खचाखच भरा
था।
यामान द जालान ने एवम् इ जत् को जस तरह तुत कया है
वह न केवल जीते रहने क थता को च त करता है वरन् क
नराशा और बासीपन को भी उजागर करता है।
मंच- नदश
चूँ क पूरा नाटक एक वशेष शैली म लखा गया है और इसका पया त अंश
मूक-अ भनय एवं तीका मक शैली म ही तुत कया जा सकता है,
अतः चाह तो पूरे नाटक को ही बना कसी उपकरण के तुत कया जा
सकता है। केवल मा बैठने के लए कुछ सीट या थान दे ना अ नवाय
होगा। य द इसके अ धकांश को यथाथवाद शैली म तुत करना चाह तो
न न साम ी क आव यकता होगी—
थम अंक— लखने क मेज-कुस । उस पर कुछ कताब, कुछ
फाइल, थोड़े काग़ज़, कई एक कॉ पयाँ, कलमदान, कलम, घड़ी आ द।
रद्द क टोकरी। अमल- वमल-कमल और इ जत् के हाथ म
आव यकतानुसार कॉपी- कताब। कॉलेज का घंटा। मूँगफली। कुछ फुटकर
पैसे। मानसी के हाथ म एक नई कताब। य द सा ा कार के लए बैठे
ानी-गु णय के लए टे बुल-कुस दे नी हो तो उसका पूरा सामान। चपरासी
को बुलानेवाली छोट घंट । दो पैकेट सगरेट, दो दयासलाई।
तीय अंक— ऑ फस का य। बड़े साहब के लए टे बुल-कुस ।
टे बुल पर टे लीफोन, अ या य सामान। पहले अंक के अ त वाला टे बुल ही
काम दे सकता है। लक के लए चार टे बुल-कुस । उन पर रखने का
सामान—फ़ाइल, र ज टर, काग़ज़, पैड, कलमदान, पानी का गलास,
टाइपराइटर आ द। झाड़न। शॉटहड लेने के लए छोटा पैड व प सल।
अखबार। कार क चाभी का गु छा।
तृतीय अंक— एक जोड़ी ताश। वदे शी हवाई-प । बाल का ड बा।
पा -प रचय
मौसी
:
शा त माँ—आयु 50 वष
लेखक
:
आयु 35 वष
मानसी
:
शा त नारी-प नी, ेयसी या ेरणा; आयु 25-30 के
आसपास।
थम अंक
(टे बुल पर ढे र-सा काग़ज़ फैला है—सामने कुस
पर दशक क ओर पीठ कए लेखक बैठा लख
रहा है। शायद ब त दे र से लख रहा है। मौसी का
वेश। वैसे नाम दे ने के लए मौसी कह दया गया
है—माँ भी हो सकती है, बूआ, चाची, बड़ी द द
इनम से भी कोई हो सकती है। मौसी हैरान आ गई
ह, बेटे का हसाब- कताब कुछ समझ म ही नह
आता। वैसे न समझ म आना ही मौसी लोग का
धम है।)
मौसी
:
यह तेरा या ढं ग है, मेरी तो समझ म ही नह आता।
(लेखक न र)
म पूछती ँ खाना खाएगा या नह हद हो गई, मुझसे
अब और नह होता।
(लेखक न र)
बोलता य नह
लेखक
:
अभी आता ँ।
मौसी
:
यह तो तू तीन बार कह चुका है। म अब और पुकारने
नह आऊँगी, हाँ।
लेखक
:
मौसी, तुम भी तो यह बात तीन बार कह चुक हो
मौसी
:
जो मज आए सो कर। रात- दन लखना, लखना,
लखना। न खाना न पीना, खाली लखे जाना।
भगवान जाने इतना लख- लखकर या होगा
(मौसी बड़बड़ाते ए चली जाती ह। लखना कुछ
दे र पहले ब द हो चुका है। लेखक उसे पढ़ता है,
पढ़ते-पढ़ते उठकर आगे आता है। एक लड़क का
वेश। इसे मानसी नाम दया जा सकता है।)
मानसी
:
पूरा हो गया
लेखक
:
ना।
मानसी
:
या लखा, मुझे नह सुनाओगे
लेखक
:
कुछ नह लखा।
(काग़ज़ फाड़कर फक दे ता है)
मानसी
:
अरे, फाड़ डाला
लेखक
:
कुछ भी तो नह बना। मेरे पास लखने के लए कुछ
भी नह है।
मानसी
:
कुछ नह है
लेखक
:
या लखूँ कसे लेकर लखूँ कतने आद मय को
म पहचानता ँ, कतने लोग क बात मुझे पता ह
मानसी
:
(दशक को दखलाकर) य , इतने सारे लोग तो ह।
इनम से कसी को नह पहचानते कसी क बात
तु ह नह मालूम
लेखक
:
ये लोग हाँ इनम से शायद दो-चार को पहचानता
होऊँ, अपने ही जैसे दो-चार लोग को। पर उ ह लेकर
नाटक नह लखा जा सकता।
मानसी
:
चे ा करके दे खो न
लेखक
:
ब त चे ा कर चुका ँ।
(काग़ज़ के टु कड़े फककर लेखक वापस टे बुल के
पास जाता है। कुछ दे र ककर मानसी लौट जाती
है। अचानक घूमकर लेखक सामने क ओर बढ़
जाता है। े ागृह म ठ क उसी समय दे र से आए
चार स जन अपनी सीट खोज रहे ह। लेखक उ ह
पुकारता है।)
लेखक
:


ज़रा सु नए तो
(दशकगण पहली बार पुकारने से समझ नह पाए
क उ ह ही पुकारा गया है।)
लेखक
:
अरे ओ साहब, सु नए न
. दशक
:
हम कुछ कह रहे ह
लेखक
:
जी हाँ, ज़रा दया करके इधर आइएगा
. दशक
:
टे ज पर
तृ. दशक
:
टे ज पर
लेखक
:
हाँ, आपसे एक ज़ री काम है। कुछ ख़याल न
क जएगा।
(चार टे ज के पास आते ह)
. दशक
:
ऊपर कधर से आऊँ
लेखक
:
ी ी े
यह यह रही सीढ़ , चले आइए।
(चार मंच पर प ँच जाते ह)
लेखक
:
आपका नाम जान सकता ँ
. दशक
:
अमल कुमार बोस।
लेखक
:
आपका
. दशक
:
वमल कुमार घोष।
(लेखक तृतीय दशक क ओर दे खता है)
तृ. दशक
:
कमल कुमार सेन।
लेखक
:
और आप
च. दशक
:
नमल कुमार
लेखक
:
(अचानक चीखकर) नह ।

( े े
( त धता। चार आ यच कत-से रह जाते ह।
एकदम थर)
लेखक
:
अमल, वमल, कमल और नमल—यह नह हो
सकता। आपका अव य ही कोई सरा नाम है। होना
ही होगा। ठ क-ठ क बताइए, या नाम है आपका
(मंच पर अ धकार हो जाता है। अमल, वमल और
कमल पीछे हटकर खड़े हो जाते ह। मंच के बीच म
चतुथ दशक रह जाता है। अ धकार म लेखक का
कंठ वर सुनाई पड़ता है।)
या नाम है आपका
च. दशक
:
इ जत् राय।
लेखक
:
तब नमल य बताया था

:
डर के मारे।
लेखक
:
डर कस बात का

:
अशा त का। नयम के वपरीत कुछ करने से ही
अशा त पैदा हो जाती है न
लेखक
:
आप या हमेशा ही नमल नाम बतलाते आए ह

:
नह , आज ही, अभी ही पहली बार बतलाया है।
लेखक
:


:
अब उ ई न। उ होने पर आन द से डर लगता है,
सुख से भी डर लगता है। इस उ म शा त क इ छा
होती है।
(इ जत् को अब घने मेघ के अ तराल क
आव यकता है)
लेखक
:
आपक उ या होगी

:
एक सौ वष। दो सौ वष। पता नह । मै कुलेशन के
स ट फकेट के अनुसार पतीस वष।
लेखक
:
ज म- थान

:
कलक ा।


लेखक
:
श ा-द ा

:
कलक ा।
लेखक
:
कम- थान

:
कलक ा।
लेखक
:
ववाह

:
कलक ा।
लेखक
:
मृ यु

:
अभी होनी बाक है।
(कुछ दे र शा त रहती है, फर अ धकार म इ का
वर उभरता है)

:
ना ठ क से तो नह मालूम।
(धीरे-धीरे मंच पर काश होता है पर पूरे पर नह ।
इ जत् और उसके पीछे लाइन से मू त क तरह
अमल, वमल और कमल खड़े ह। उनक शू य-
े ागृह क पीछे क द वार पर थर है।
लेखक दशक क ओर मुड़ता है। एक बार सबक
ओर दे खता है, फर थके ए अ यापक क तरह
एक वर म बोलना शु करता है।)
लेखक
:
1961 क म मशुमारी के अनुसार कलक ा क
जनसं या है—2,92,12,891। इनम से ायः ढाई
तशत लोग ेजुएट या और उ च श त ह।
व भ नाम से ये प र चत ह। ये सभी म य व ह,
य प इनके म य व म पया त अ तर है। ये सब
बु जीवी ह, य प बु ही जी वका का साधन
होती तो इनम से अ धकांश भूख मर गए होते। ये
श त ह—य द ड ी को श ा माना जाए तो ये
सब उ च ेणी के ह य क छोटे लोग से अपना
अलगाव ये अ छ तरह समझते ह। ये ह अमल,
वमल, कमल
(तीन मंच छोड़कर चले जाते ह मानो मु मली
हो)
एवम् इ जत्
(इ जत् एक बार लेखक क ओर दे खता है, फर
अमल आ द के पीछे -पीछे चला जाता है। उसक
म पीड़ा और चाल म ला त है)
स भव है इनके जीवन म नाटक हो। छोटे -छोटे
नाटक, ढे र सारे नाटक। यह भी स भव है क आगामी
युग म कोई श शाली नाटककार इन नाटक क
रचना करे।
(मौसी का वेश)
मौसी
:
तू अब भी खाने आएगा या नह
लेखक
:
नह ।
(मौसी का थान। मानसी का वेश)
मानसी
:
लखा
लेखक
:
नह ।
(मानसी का थान)
लेखक
:
मने कई नाटक लखे ह। म और ब त-से नाटक
लखना
चाहता ँ। पर म खी-पी ड़त जनसाधारण क
कहानी नह जानता। खेत म काम करनेवाले
कसान को भी म नह पहचानता। साँप खेलानेवाले
सँपेरे, स थाल मु खया, मछु ए—इनम से कसी से भी
तो मेरा प रचय नह है। अपने चार ओर म ज ह
दे खता ँ उनम न प है, न रंग, न व तु। ये सब
अनाटक य ह। ये तो अमल, वमल, कमल और
इ जत् ह।
(मंच पर एकदम अ धकार हो जाता है)
म अमल, वमल, कमल और इ जत् ँ।
(अ धकार म समवेत वर फुसफुसाहट के पम
उभरता है)
कंठ वर
:
अमल, वमल, कमल एवम् इ जत्
अमल, वमल, कमल एवम् इ जत्
वमल
:
कमल एवम् इ जत्
एवम् इ जत्
एवम् इ जत्
इ जत्
इ जत्
इ जत्
(तेज़ वा यं म कंठ वर डू ब जाता है। तेज़ रोशनी
हो जाती है—रोशनी जसम कोई भी छाया सौ दय
क सृ न कर रही हो। मंच खाली है। वा यं
जैसे अचानक शु आ था वैसे ही अचानक ब द
हो जाता है। कॉलेज का घंटा बजता है। इ जत्
का वेश। उसके 35 वष के चेहरे पर कोई मेकअप
नह है क तु चाल-ढाल से वह कम उ का लगता
है। पीछे -पीछे अमल का वेश। उसम अ यापक
का-सा गा भीय है। अब से अमल, वमल और
कमल कुछ-कुछ कठपुतली-से चलते ह। भू मका
के अनु प भावभं गमा और कंठ वर है। फर भी
यां कता सी है—हा यकार है फर भी क णा
उ प करती है)
अमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
अमल
:
Everybody continues in it’s state of rest or
of uniform motion in a straight line unless it
is compelled by an external impressed force
to change that state.
(घंटा बजता है। अमल का थान। इ खड़ा
रहता है। वमल का वेश)
वमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
वमल
:
Poetry in a general sense, may be defined to
be the expression of the imagination.
(घंटा बजता है। वमल का थान। कमल का
वेश)
कमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
कमल
:
नब ध-सा ह य के मूल उपादान ह, तक, भाव-भाषा
और वचार क प र छ ता, च तन क शृंखला और
त व तथा त य का उपयु समावेश।
( )
(घंटा। कमल का थान)

:
त व एवं त य का उपयु समावेश। त व एवं त य
का उपयु समावेश। Expression of the
imagination. Expression of the imagination.
State of rest or of uniform motion. State of
rest or of uniform motion. State of rest or of
uniform motion.
(ह ला करते ए अमल, वमल एवं कमल का
वेश। तीन इ को घेरकर खड़े जाते ह। तीन
इस समय त ण ह)
कमल
:
खलाड़ी ही नह है दो रन म आउट हो जाने से या
खलाड़ी ही नह रहा
वमल
:
पर इसका मतलब यह तो नह क ऐसा खेल खेलेगा।
फर सरे टे ट म भी या करके नहाल कया था
कमल
:
दे खो भाई केट है—Game of glorious un-
certainity— य इ

:
हाँ, बलकुल।
अमल
:

ी ोई ी ी ै े
यानी, कुशलता कोई चीज़ ही नह है वाह, तु हारे
कहने से ही।

:
कुछ नह है, यह कसने कहा
वमल
:
जो भी कहो, फुटबाल कह अ धक ए साइ टग है।

:
हाँ, सो ठ क है।
कमल
:
ए साइ टग तो टे सास माका फ़ म भी तो होती है।
तब फर अ छ फ़ म य दे खते हो
वमल
:
अमल, तुमने यूल बनर क कोई फ़ म दे खी है
अमल
:
सबक -सब दे खी है। भाई, कमाल का काम करता है।
चाहे जतना मालन डो क तारीफ करो, यूल बनर
के सामने वह कुछ भी नह है। इ , तुमने दे खी है

:
हाँ, दो दे खी ह।
कमल
:

े े
ध ेरे क मुड़मुंडा।
अमल
:
जी हाँ, मुड़मुंडा। अरे, खोपड़ी ऐसी खोपड़ी है
इस लए मुड़ाकर रखने क ह मत करता है।
वमल
:
पर भाई, खोपड़ी ऐसी खोपड़ी है कहने से तो कुछ
और ही अथ नकलता है।
कमल
:
माने जैसे, आइं टाइन जैसी खोपड़ी।

:
आइं टाइन क योरी पर एक कताब दे ख रहा था।
कुछ भी प ले नह पड़ा।
अमल
:
आइं टाइन ने कहा है क डायमशन तीन नह चार
होते ह।
वमल
:
चौथा डायमशन टाइम बतलाया है न
कमल
:
या पता बाबा : कॉलेज क फ़ ज़ स ही नह पार
पड़ रही है—ऊपर से फोथ डायमशन। अमल,
तु हारी ै टकल बुक सब तैयार हो गई
अमल
:
भैया क कॉपी पड़ी है—नकल मार ँ गा। कब
सब मट करनी है
वमल
:
तेरह तारीख के भीतर-भीतर। मने अभी शु ही नह
क है। इ , तु हारी गाड़ी कहाँ तक प ँची

:
कल शु क है। एक बड़ी अ छ कताब हाथ लग
गई थी सो कोस क कताब दो दन से छू ही नह
पाया।
कमल
:
कौन-सी कताब

:
बनाड शॉ के क लीट लेज़।
अमल
:
बनाड शॉ वाह या चाबुक मारता है तुमने मैन
एंड सुपर मैन पढ़ा है
वमल
:
मने केवल लेज़ लेज़ट पढ़ा है।
कमल
:
हम लोग के मथ बीसी ने भी कुछ इसी ढं ग पर
लखना शु कया था।
अमल
:
अरे हटाओ, कहाँ कौन, कहाँ कौन कहाँ जी. बी.
एस. और कहाँ . ना. बी.
वमल
:
मथ बीसी पॉ ल ट स ढु का दे ते ह।
कमल
:
तो इसम या बुराई है सा ह य मे पॉ ल ट स तो
रहेगी ही, उसका रहना ज री है।
अमल
:
बलकुल नह । सा ह य स यं, शवं, सु दरम् का
तीक है। पॉ ल ट स जैसी ग द चीज से सा ह य
का कोई स ब ध नह हो सकता।
वमल
:
दे खो भाई, ग द चीज श द पर मुझे आप है।
ग दगी भी य द स य हो तो उसे बाद दे कर सा ह य
रचना करना ए के प ज़म है। सा ह य होगा—जीवन
क त छ व, रय ल टक। इ , तु हारा या
ख़याल है

:
मुझे कुछ ठ क से समझ नह आता। यह तो मानता ँ
क सा ह य रय ल टक होना चा हए पर वह जीवन
का न न च होगा, यह भी
कमल
:

( ) े े ो े
(अचानक) अरे, कतना बज गया, जानते हो साढ़े
सात।
अमल
:
माइ गॉड ै टकल बुक तैयार करनी है। चलो,
चलो।
वमल
:
हम लोग का रा ता तो उलट ओर है।
कमल
:
चलो अमल।
(अमल और कमल का थान)
वमल
:
इ , घर नह जाओगे

:
मुझे मुझे कुछ और काम करते ए घर जाना है।
वमल
:
कधर जाना है

:
इधर।
वमल
:
उधर जाना था तो उन लोग के साथ य नह गए

:
उस समय याद नह आया।
वमल
:
ध ेरे क अब अकेले-अकेले जाना होगा।
( वमल का सरी ओर थान। अब तक एक
समान तबले का एक बोल बज रहा था। अब ज़रा
त हो गया। लेखक का वेश)
लेखक
:
अरे इ , तुम अभी तक बैठे हो

:
हाँ।
लेखक
:
या सोच रहे हो

:
कुछ नह ।
लेखक
:
वे लोग आज नह आए

:
आए थे।
लेखक
:
कौन-कौन

:
अमल, वमल और कमल।
लेखक
:
या कया तुम लोग ने

:
ग पे मार ।
लेखक
:
या ग प मार

:
इधर-उधर क , ब त तरह क ।
लेखक
:
केट, सनेमा, फ़ ज़ स, राजनी त, सा ह य

:
हाँ, केट, सनेमा, फ़ ज़ स, राजनी त,
सा ह य। पर तु ह कैसे पता चला
(लेखक उ र नह दे ता। जेब से मूँगफली
नकालकर दे ता है)
लेखक
:
ो ओ
लो, खाओ।

:
या कया जाए, बोलो तो
लेखक
:
कसका या कया जाए

:
पढ़ाई- लखाई और अ छ नह लगती।
लेखक
:
तो फर या करना चाहते हो

:
सो मालूम नह । कभी-कभी मन करता है सब छोड़-
छाड़कर भाग जाऊँ।
लेखक
:
कहाँ

:
पता नह कहाँ। कह ब त र। वहाँ या होगा, यह
भी पता नह —जंगल, म भू म, बरफ का ढे र; कुछ
प ी—पगुइन, आ च; कुछ जानवर—कंगा ,
जगुवार; कुछ मनु य—बे इन, ए कमो, माउरी।
लेखक
:

ी ी ी ो ी ी ई
सीधी-सी बात—सरल भूगोल प रचय—डी.पी.आई.
ारा छठ ेणी के लए नधा रत।

:
भूगोल से बाहर भी एक नया है—वह नया यहाँ
नह है—कह और है—कह ब त र—कह बाहर।
लेखक
:
केट, सनेमा, फ़ ज़ स, राजनी त, सा ह य—इन
सबसे बाहर

:
हाँ, इन सबसे बाहर।
लेखक
:
तो चलो।

:
कहाँ
लेखक
:
तु ह ने कहा न क सब छोड़-छाड़कर भाग जाना
चाहते हो

:
अभी ही
लेखक
:


नह तो फर कब

:
छोड़ो, फालतू क बात मत करो—तुमसे कहकर ही
भूल क ।
लेखक
:
तु हारे पॉकेट म कतने पैसे ह

:
आठ आने ह गे। य
लेखक
:
मेरी पॉकेट म सवा पया है। एक पए बारह आने म
हावड़ा टे शन से जतनी र जा सकते ह, चले
जाएँगे, उसके बाद पदया ा।

:
यह जानता क तुम इस तरह मज़ाक उड़ाओगे तो
तुमसे इन बात क चचा ही नह करता।
लेखक
:
म एकदम सी रयस ँ।
(इ लेखक के मुख क ओर दे खता है। वह
सचमुच सी रयस है। इ वधा म पड़ जाता है)

:
पर माँ
लेखक
:
हाँ, सो तो है। माँ।

:
इसके अलावा परी ा एकदम सर पर है।
लेखक
:
ठ क। परी ा के बाद बात करगे। लो, थोड़ी-सी और
बची ह। (बाक मूँगफली दे कर बाहर नकल जाता है।
इ जत् शू य- से दे खता खड़ा रहता है। नेप य
से मौसी का वर सुनाई पड़ता है—‘इ ’ )

:
आया माँ।
( क तु हलता नह । मौसी का वेश)
मौसी
:
य रे, खाएगा नह म कब तक चौका लये बैठ
र ँ

:
अ छा माँ
मौसी
:
या

:
अ छा म य द माने मुझे य द कह चला जाना
पड़े ।
ौ ी
मौसी
:
तेरी तो सारी बात ऐसी ही अटपट होती ह। चल,
खाना खा ले, रसोई पड़ी-पड़ी ठं डी ई जा रही है।
(मौसी का थान। नेप य से पहले धीरे फर तेज
वर म समवेत संगीत उभरता है। जधर मौसी गई
थ , उधर ही इ का थान)
गाना
:
एक दो तीन
एक दो तीन दो एक तीन (दो बार)
चार पाँच छः
चार पाँच छः पाँच चार छः (दो बार)
सात आठ नौ
सात आठ नौ आठ सात आठ नौ (दो बार)
नौ आठ सात छः पाँच चार तीन दो एक।
(गाने के बीच म लेखक का वेश। गाने क अ तम
पं के वर के साथ वर मलाकर गाते ए
लेखक सामने पाद- द प के पास आकर एक ओर
खड़ा हो जाता है।)
लेखक
:
(गाना कते ही) अनाटक य—एकदम अनाटक य।
इन लोग को लेकर नाटक नह लखा जा सकता—
कभी नह । ऐ अमल, वमल, कमल
(हो-ह ला करते ए तीन आकर लेखक को घेर
लेते ह)
अमल
:
अरे क व या हालचाल है

लेखक
:
अ छा।
वमल
:
नया या लखा, सो बतलाओ।
लेखक
:
कुछ खास नह ।
कमल
:
अरे, छपाते य हो दर डरते हो क हम लोग
नकल कर लगे च ता मत करो, हम लोग वह भी न
कर सकगे, लखने म वतनी क भूल कर बैठगे।
(तीन ज़ोर से हँस पड़ते ह)
लेखक
:
केवल एक छोट -सी क वता लखी है।
अमल
:
दे खो, नकली न। सुनाओ, सुनाओ।
वमल
:
का -काकली शु करो हे क व- शरोम ण।
कमल
:
य द हम लोग क समझ म आ जाए तो फाड़ डालना
और न आए तो कसी मा सक प का को भेज दे ना।

( ी )
(तीन का अट् टहास)
लेखक
:
सुनोगे

लेखक
:
(क वता-पाठ करते ए)
एक दो तीन
एक दो तीन दो एक तीन चार पाँच छः
चार पाँच छ पाँच चार पाँच छः
सात आठ नौ
सात आठ नौ आठ सात आठ नौ।
अमल
:
आगे
लेखक
:
नौ आठ सात छः पाँच चार तीन दो एक।
वमल
:
बोले जाओ—बोले जाओ।
लेखक
:
और तो नह है।
कमल
:
बस इतना ही
लेखक
:
हाँ, बस, इतना ही।
(ज़रा दे र चुप रहने के बाद तीन का अट् टहास)
अमल
:
वाह, ब त अ छ क वता है
वमल
:
अरे भाई, मँजा आ हाथ है क व का
लेखक
:
समझ म आई
कमल
:
ग णत के लास म सुनाने से समझता। क वता है न,
कैसे समझ आएगी
(तीन का अट् टहास)
लेखक
:
एक नाटक लखने का इरादा कर रहा ँ।
अमल
:
अचानक क वता छोड़कर नाटक
लेखक
:
अचानक नह , म काफ दन से सोच रहा ँ।
वमल
:
लख डालो, लख डालो। बीशु दा को पकड़ करके
य द री-यू नयन म लगवा दो तो
कमल
:
बीशु दा बड़े खुचड़हे है। सनत चौधरी—फोथ ईयर
का—पहचानते हो न उसने काफ अ छा नाटक
लखा था—पर बीशु दा को पस द ही नह आया।
बोले— ैमे टक लाइमे स ठ क से नह उभार पाए
हो।
अमल
:
या नाटक लखोगे सामा जक
लेखक
:
सामा जक माने
वमल
:
सामा जक नह जानते तब फर या लखोगे
कमल
:
सामा जक माने—आज के युग का—माने हम लोग
के समय का—
लेखक
:
हाँ, हम लोग को लेकर ही लखूँगा।
अमल
:
लॉट या सोचा है
लेखक
:
लॉट नह है।
वमल
:
ओहो, अ छा थीम बतलाओ न।
लेखक
:
थीम माने यही हम लोग।
कमल
:
अ छा, हम लोग से मतलब
लेखक
:
मतलब माने तुम लोग, इ जत्, म
अमल
:
हम लोग को लेकर नाटक लखोगे तब हो चुका
तु हारा नाटक लखना।
वमल
:
हम लोग के जीवन म नाटक है या
कमल
:

े ी ो ो े
अरे नाटककारजी, हम लोग को लेकर लखा नाटक
तो ी-च र -व जत हो जाएगा।
(तीन का अट् टहास)
अमल
:
झूठ य बोलते हो कमल पास के मकान वाली
तु हारी ना यका
वमल
:
हाँ, म तो भूल ही गया था। कहाँ तक बात बढ़ ,
कमल
कमल
:
अरे, मेरा तो खड़क -का र से ही रचा जा रहा है।
अमल कतना बड़ा छपा तम है, यह खबर है तुम
लोग को पछली पूजा म या आ था, पूछो इससे।
वमल
:
य अमल यह खबर तो हम लोग के कान तक
प ँची ही नह
अमल
:
अरे छोड़ो वह सब
कमल
:
बोलो न राजा बेटा ऐसे य करते हो
(तीन खसककर एक ओर होकर धीरे-धीरे बात
करते ह। लेखक सुनता है, मगर थोड़ी र से।
मानसी एक ओर से वेश करती है और सरी ओर
चली जाती है। तीन गरदन घुमाकर उसे दे खते ह।
ी े े
फर तीन सर-म- सर जुटाकर न जाने या कहते
ह। बात पूरी होने पर हँसी। मानसी का पुनः वेश
—इस बार सरी लड़क क भू मका म है—हाथ
का बैग, चलना- फरना सब भ है। फर वही मूक
अ भनय और त नक और मजा लेते ए ज़ोर क
हँसी। इसके बाद एक और सीधी-साद लड़क के
प म मानसी का वेश। इस बार इ जत् साथ
है। सब चुप रहते ह। म कौतूहल और ई या का
भाव उभरता है। मानसी और इ जत् बात करते
ए चले जाते ह)
अमल
:
दे खा
वमल
:
तभी म क ँ क इ कई दन से बदला-बदला य
लगता है
कमल
:
Sinking Sinking Drinking water. ए क व,
दे खा
लेखक
:
दे खा।
अमल
:
या समझे
लेखक
:
क नाटक ी-च र -व जत नह होगा।
वमल
:
इ को हीरो बना डालो और हम लोग को मरे
सै नक।
कमल
:
हरोइन कौन थी, बता सकते हो
अमल
:
या पता भाई इ तो हम कुछ बताता नह ।
वमल
:
हाँ, बड़ा चु पा लड़का है।
कमल
:
चु पा नह घमंडी है। अपने को ऊँचे तर का समझता
है। म ऐसे लोग क नस-नस पहचानता ँ।
अमल
:
क व, तुम पहचानते हो
लेखक
:
कसे
वमल
:
या आ, मूड आ गया या अरे, अपने नाटक क
हरोइन को
लेखक
:
उसका नाम मानसी है।
कमल
:
यह लो। क व को मालूम है न। इ ने प रचय करवा
दया लगता है।
लेखक
:
ना।
अमल
:
हम ध पा दे रहे हो, क व
लेखक
:
व ास करो, मने उसे पहली बार दे खा है।
वमल
:
अ छा छोड़ो, इ ने तु ह या- या बतलाया नह है,
सो बोलो।
लेखक
:
उसने कुछ नह बतलाया है।
कमल
:
हाँ न। पहली बार दे खा है, इ ने कुछ बतलाया नह
है, बस नाम मानसी है।
लेखक
:

े े े
उसका नाम मुझे नह पता। मेरे मन म आया क
उसका नाम मानसी है, सो कह दया।
अमल
:
बा बा । यह क व कब क वता करता है और कब
व थ रहता है, भगवान जाने
लेखक
:
अ छा, नाटक का नाम या रखा जाए
वमल
:
सबसे पहले नाम ही
कमल
:
नाम पहले ही तो रहता है। तु ह बोलो न, तुमम तो
नामकरण करने का अ छा नैक है।
लेखक
:
म सोचता ँ अमल- वमल-कमल-इ जत् और
मानसी नाम दे ँ ।
अमल
:
ओह, ज द पर अँटेगा ही नह ।
वमल
:
हम लोग को इसम य घसीटते हो हम लोग तो मरे
सै नक ह।
कमल
:
औ े ो ै औ ी
और या इससे तो अ छा है—इ जत् और मानसी
—उठो भाई, जाना नह है
अमल
:
कहाँ
वमल
:
कमल, चाय पलाओगे
कमल
:
पलाऊँगा। चलो।
(तीन का थान)
लेखक
:
इ जत् और मानसी। इ जत् और मानसी।
(दशक को स बो धत करते ए भाषण दे ने क
मु ा म) आप लोग जानते ही ह क इ जत् और
मानसी को लेकर नाना दे श म, नाना युग म अनेक
नाटक लखे गए ह—पौरा णक, ऐ तहा सक,
सामा जक, सुखा त, खा त। न जाने कतने नाम
म, कतने प म समाज के व भ तर म
इ जत् और मानसी आए ह, उ ह ने एक- सरे को
यार कया है न जाने कतने सुख- ख, मलन-
वरह, ई या-अ भमान और कतने ही ज टल
मान सक घात- तघात के बीच इनका नाटक
वक सत आ है इ जत् और मानसी का ेम—
एक चर तन नाटक य उपादान। इ जत्।
(इ जत् का वेश)

:
या आ चीख य रहे हो
( े औ
(लेखक क नाटक य व ृ ता और अ तनाटक य
पुकार के बाद इ का वर जैसे बड़ा बेसुरा-सा
लगा। लेखक फर भी नाटक यता बनाए रखने क
चे ा म है।)
लेखक
:
बोलो इ जत्

:
या बोलूँ
लेखक
:
अपनी कहानी। जो कहानी चर-पुरातन है फर भी
चरनवीन, जो महाभारत के युग से आर भ करके

:
क वता छोड़कर सीधी-सरल भाषा म अपनी बात
कहोगे तुम या जानना चाहते हो
(लेखक का आवेग तब तक काफ र तक शा त
हो चुका है)
लेखक
:
तु हारी और मानसी क कहानी।

:
मानसी मानसी कौन
लेखक
:
जसके साथ तु ह उस दन रा ते म जाते दे खा था।

:
ओ दे खा था पर उसका नाम तो मानसी नह है
उसका नाम है
लेखक
:
उसके नाम क ज रत नह है। मने उसका नाम
मानसी रखा है।

:
तु हारे नाम रखने का या मतलब है उसके माँ-बाप
ने उसका नाम
लेखक
:
माँ-बाप कुछ भी नाम रखा कर, उससे या बनता-
बगड़ता है तुम बतलाओ न

:
या बतलाऊँ
लेखक
:
अपनी और उसक बात। वह तु हारी कौन है

:
बहन है।
लेखक
:
(जरा ककर) बहन

:
हाँ, मौसेरी बहन।
लेखक
:
मौसेरी बहन य

:
य माने उसक माँ मेरी मौसी ह, इस लए।
लेखक
:
नह , नह पर वह तु हारे साथ य

:
घर आई थी, उसे प ँचाने जा रहा था। ऐसे तो बराबर
ही जाता ँ।
लेखक
:
ओ तो फर तो उसका नाम मानसी नह है

:
कह तो चुका ँ क नह ।
लेखक
:
मुझे ऐसा लगा था क तुम दोन आपस म बात कर
रहे थे।

:
ो ी
बात तो कर ही रहा था।
लेखक
:
खूब घ न ता से बात कर रहे थे।

:
(हँसकर) तु ह ऐसा लगा था सो, हो सकता है करता
रहा होऊँ। उससे बात करना मुझे बड़ा अ छा लगता
है। अ सर सीधे रा ते से उसे घर न प ँचाकर।
लेखक
:
अ छा, उससे बात करना अ छा लगता है य

:
अब, इस य का म कैसे उ र ँ सारे दन जैसी
बात होती रहती ह उनसे भ तरह क बात होती ह
—शायद इसी लए।
लेखक
:
केट, राजनी त, सा ह य इनक बात नह

:
ना, केट, राजनी त, सा ह य नह । कम-से-कम हर
समय तो नह ।
लेखक
:
तो फर या बात होती ह

:
ी ो ी ी ँ
ब त-सी बात होती ह। म अपनी बात करता ँ—
अपने प र चत क बात, अपने दो त क बात।
वह वह भी अपने घर क बात, अपनी सहे लय क
बात, कॉलेज क बात करती है।
लेखक
:
और

:
और या तु हारे साथ या बात होती ह
लेखक
:
केट, सनेमा, राजनी त

:
ना हर समय तो नह । और ब त-सी बात भी होती
ह। तु हारे लेखन क बात, लोग क बात, भ व य क
बात—तरह-तरह क इ छा-अ न छा क बात।
लेखक
:
हाँ, वही पगुइन-कंगा , ए कमो क बात

:
हाँ, य नह या म वे बात सबसे कर सकता ँ
लेखक
:
मानसी से कर सकते हो

:
उसका नाम
लेखक
:
मुझे पता है क उसका नाम मानसी नह है। पर म
य द उसे मानसी ही क ँ तो तु ह कोई आप है

:
(हँसकर) नह , कोई आप नह है। वरन् यह नाम
अ छा ही लगता है। उसके असली नाम म इतना
का नह है।
लेखक
:
तब बतलाओ।

:
तुम या जानना चाहते हो
लेखक
:
मुझे जो कुछ बतला सकते हो, वह उसे भी बतला
सकते हो

:
सकता ँ नह , बतला चुका ँ। उससे और भी ब त-
कुछ कहता ँ जो तुमसे नह कह सकता।
लेखक
:
मुझसे नह कह सकते

:
ी ो ी
कह ही नह सकता, यह तो नह , पर कभी कहा नह
यह सच है। कोई खास बात बतलाने लायक है, सो
नह । इधर-उधर क बात। कतने ही वचार- ।
कुछ अ छा लगने क बात, कुछ खराब लगने क
बात। ब त-सी ब त ही साधारण छोट -मोट
घटना क बात।
लेखक
:
मानसी तु हारी म है

:
म हाँ, म कह सकते हो। उसके साथ बात
करना मुझे अ छा लगता है। ब त बार बात करके जी
हलका हो जाता है। यह जो सारा दन चलता रहता
है हर रोज वही का वही (सहसा लेखक क ओर
मुड़कर) अ छा, तु ह कभी नह लगता
लेखक
:
या

:
क यह जो कुछ चल रहा है, इसका कोई अथ नह
है एक वराट च का बस घूम रहा है और घूम रहा
है। और हम लोग भी उसके साथ-साथ च कर काटे
जा रहे ह।
लेखक
:
एक दो-तीन। एक दो तीन दो एक तीन।

:
या कहा
( ो ी ी ो
( क तु तब तक एक-दो-तीन संगीत शु हो चुका
है। अमल का ोफेसर के प म वेश)
अमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
अमल
:
What is the specific gravity of iron

:
Eleven point seven, sir.
(घंट । अमल का थान। वमल का वेश)
वमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
वमल
:
Who was Mazzini

:
One of the founders of modern Italy.

( े )
(घंट । वमल का थान। तुर त कमल का वेश)
कमल
:
रोल न बर थट फोर।

:
यस सर।
कमल
:
भारतीय वैरा य भाव ने ाचीन भारत के सा ह य को
कस प म भा वत कया था

:
ाचीन सा ह य म जो तांश क अ धकता
मलती है, उसका मूल कारण भारतीय अनास ही
तीत होती है। वणन, त वावलोचन और अवा तर
कथाएँ कहानी के व छ द वाह को नर तर बा धत
करती चलती ह।
(कमल इस बीच चला गया है। वा यं म इ का
वर डू ब जाता है। हो-ह ला करते ए अमल का
वेश। अब वह त ण है)
अमल
:
इ , मेरी ा सी दे दे ना, म सनेमा जा रहा ँ।

:
अ छा।
(अमल का थान। वमल का वेश)
वमल
:
इस श नवार को अपने के म के नोट् स दे सकोगे,


:
हाँ, ले लेना।
( वमल का थान। अमल का वेश)
कमल
:
तु हारे पास एक पया है, इ सोमवार को लौटा
ँ गा।

:
आज तो नह है, कल ला ँ गा भाई।
(कमल का थान। मौसी का वेश)
मौसी
:
थाली परोसूँ

:
ज़रा दे र बाद माँ
मौसी
:
अब और कौन-सी बेला होगी, इ खा-पीकर छु
करो, बाबा।
(मौसी का थान। वा -संगीत पुनः ती होता है
— फर नौ आठ सात छः पाँच चार तीन दो एक पर
आकर शेष होता है।)

:
हम सब च कर काट रहे ह, और च कर काटे जा रहे
ह।
मौसी
:
(नेप य से) इ

:
आया माँ।
(इ का थान। मौसी का वेश)
मौसी
:
तुम खाना खाओगे या नह
लेखक
:
नह ।
(मौसी का थान। मानसी का वेश)
मानसी
:
लखना आ, क व
लेखक
:
नह ।
(मानसी का थान)
लेखक
:
एक दो तीन। अमल- वमल-कमल। एवम् इ जत्।
एवं मानसी। घर से कूल- कूल से कॉलेज-कॉलेज से
े ो े औ े े
नया। सब बड़े हो रहे ह और घूम रहे ह। घूम रहे ह
और घूमे जा रहे ह। एक दो तीन दो एक। अमल-
वमल-कमल। एवम् इ जत्।
(अमल- वमल-कमल और इ जत् आकर परी ा
दे ने बैठे ह। टू ल और टे बुल। प और कॉपी।
लेखक अ यापक के प म घूम-घूमकर नगरानी
कर रहा है। घंटा बजता है।)
लेखक
:
Time-up. Stop writing please.
(वे ज द -ज द लखे ही जा रहे ह। लेखक एक-
एक करके सबक कॉ पयाँ छ नता-सा है। वे लोग
बना आवाज के परी ा क चचा करते ए चले
जाते ह—संशय-भय, हताशा का भाव)
लेखक
:
कूल से कॉलेज-कॉलेज और परी ा-परी ा और
पास। फर नया।
(अमल, वमल, कमल और इ जत् का वेश।
लेखक पीछे टे बुल-कुस ठ क करता है)
अमल
:
पास होने के बाद या करोगे
वमल
:
पहले पास तो होऊँ- फर आगे क सोचूँगा।
कमल
:
पास होऊँ चाहे फेल, मुझे नौकरी ढूँ ढ़नी ही है।
बाबूजी इस साल रटायर कर रहे ह।
अमल
:
ढूँ ढ़ने से ही नौकरी मल जाएगी या रोज़ ही
अखबार दे खता ँ, कुछ भी तो काम लायक नह
दखता।
वमल
:
तु ह या च ता है मुझे तो तीन-तीन बहन क
शाद करनी है।
कमल
:
अब तक मजे म रहा। जैसे-जैसे रज ट नकलने का
दन पास आता जा रहा है, वैसे-वैसे मेरे गले से रोट
नह उतरती।
लेखक
:
अमल कुमार बोस।
(अमल खुशी से ची कार कर उठता है। सब उसक
पीठ थपथपाकर बधाई दे ते ह।)
वमल कुमार घोष।
( फर वही पुनरावृ )
कमल कुमार सेन। इ जत् राय।
( येक बार पार प रक बधाई। मौसी का वेश।
सब उनके पैर छू ते ह। मौसी आशीवाद दे कर चली
जाती है। वे चार भी हो-ह ला करते ए चले जाते
ह)
लेखक
:
इस बार नया। इन कु सय पर बड़े-बड़े ानी-गुणी
लोग बैठते ह—परी ा लेते ह—दे खते ह क कौन सा

े ै औ े े
कतने काम का है। और दरवाजे से बाहर उस
ल बी बच पर बैठते ह—अमल, वमल, कमल। एवम्
इ जत्।
(अमल, वमल और कमल घुसकर बच क ओर
बढ़ते ह।)
अभी नह , अभी नह । एक मनट, एक मनट और।
(तीन लौट जाते ह)
भूल गया था। इसके पहले थोड़ा-सा और है। वे
कु सयाँ वहाँ नह ह। बच क बात भी भूल जाइए।
यहाँ पर हरी-हरी घास है—ये सब पेड़ ह। और उधर
उस पेड़ क घनी चोट पर स री रेखा खची है। जो
सूय रोज़ उगता है, वही आज भी उगा था, इस समय
अ त हो रहा है। उधर उस ओर, उन डाल के बीच
एक गहरी स री रेखा।
(इसी बीच इ जत् और मानसी भीतर आए ह। वे
घने पेड़ के नीचे बैठ गए ह। मानसी के हाथ म एक
कताब है। लेखक स री रंग को दे खते-दे खते
चला जाता है)
मानसी
:
तुमने मुझे यह कताब य द उलटे मुझे तु ह दे नी
चा हए थी।

:

मानसी
:
वा रे, तुम पास ए हो सो म ही तो ँ गी

:

ै े े ो े
कह लखा है या क मेरे पास होने पर तु ह उपहार
दे ना होगा, मेरे दे ने से नह चलेगा
मानसी
:
लखा कहाँ होगा। ऐसा ही नयम है।

:
खूब नयम मानती हो न
मानसी
:
(हँसकर) तुम मानने कहाँ दे ते हो

:
मानना अ छा लगता है
मानसी
:
लड़ कय को मानना ही पड़ता है।

:
लड़ कय को—यह बात ब त बार तु हारे मुँह से सुन
चुका ँ। लड़ कय को नयम मानना होता है। पु ष
के न मानने से चल सकता है पर य को मानना ही
होता है।
मानसी
:
मने या कुछ झूठ कहा

:

ी ँ े े ँ
पता नह । म भी मानता ँ, ब तेरे नयम मानता ँ।
पढ़ाई- लखाई करनी चा हए—क । परी ा दे नी
चा हए—द । नौकरी करनी चा हए—क ँ गा। यह
सब नयम-पालन ही तो है। हाँ, यह ठ क है क नयम
न होने पर भी नौकरी तो ज र करता।
मानसी
:


:
कई कारण ह। पहला यह क अपने पैर पर खड़ा हो
सकूँगा। घर के पए से पढ़ना- लखना मुझे कैसा
लगता है, यह म तु ह बतला ही चुका ँ।
मानसी
:
और या कारण है

:
ब त से ह। अ छा, तुम एक बात बतलाओ तो
मानसी
:
या

:
सभी तो मानता ँ। पर या नयम मानना होगा, यह
बात भी माननी होगी
मानसी
:
न मानकर या करोगे

:
नयम से घृणा क ँ गा। कम-से-कम इतना तो बचना
ही चा हए।
मानसी
:
इससे लाभ

:
जस डोरी से म चार ओर जकड़ा आ ँ, उसक
पूजा करने से भी या लाभ
मानसी
:
पूजा करने को कौन कहता है

:
य द यह कहा जाए क डोरी ही नयम है और उसे
मानना उ चत है, तो फर पूजा करने म और बाक
या रहा
मानसी
:
अ छा, तुम या करना चाहते हो, सो तो बताओ।

:
पता नह । इस ब धन को टु कड़े-टु कड़े कर डालना
चाहता ँ। चार ओर से यह जो ऊँची द वार जकड़े
ए है, उसे चूर-चूर कर डालना चाहता ँ।
मानसी
:
ी ी ी ै
अ छा, तु हारी इतनी नाराजगी कस पर है

:
नया पर, चार ओर के लोग पर। तुम लोग जसे
समाज कहती हो न, उस पर और उसक व था
पर। मने तुमसे लीला क चचा क थी न, याद है
मानसी
:
जसके प त को ट .बी. हो गई थी

:
हाँ। काफ दन ए उसके प त क मृ यु हो गई।
उसके ससुरालवाल ने उसे घर से नकाल दया।
मानसी
:


:
कुछ दन तक रखा था। ॉ वडट फंड और इं योरस
का कुछ थोड़ा-सा पया पाना था। बस, तब तक
रखा, फर थोड़ा-ब त जो गहना वगैरह था, सब
छ न-छानकर उसे घर से नकाल दया।
मानसी
:
फर

:
र के र ते के कसी जीजाजी के यहाँ गई थी।
उनक एक छोट -सी कान है। सुना है क ब त से
चोरी के काम म उनक कान और वे लगे रहते ह।

मानसी
:
उस लड़क का या होगा

:
या होगा नह , जो होना था सो हो चुका। कल ही
खबर मली, पर है तीन महीने पुरानी। बतला सकती
हो यह कैसा नयम है
(मानसी न र)
जस टॉपेज से म बस पकड़ता ँ, वह एक दन
एक सात-आठ साल के लड़के ने मुझे पकड़ा, जूता
पॉ लश करेगा। उसक गोद म कोई साल-भर का एक
लड़का था, पॉ लश म सने एक चथड़े से खेल रहा
था।
(मानसी चुप है)
मने पॉ लश नह करवाई, एक पैसा भी नह दया
ब क डाँटकर उसे र हटा दया। य द और तंग
करता तो शायद मार भी बैठता।
मानसी
:
(इ का हाथ पकड़ते ए) पर य

:
पता नह । म नह जानता क कसे मारना चा हए।
उसे नह मारना चा हए, यह समझता ँ, फर भी
शायद उसे मार बैठता। वहाँ नयम का पालन शायद
मुझसे न होता। जस नयम के अनुसार सात साल के
ब चे को पॉ लश करनी पड़े और साथ ही गोद के
भाई क दे खरेख करनी पड़े, उस नयम को म नह
मान सकता।
मानसी
:
क तु यह तो अलग बात है।

:
अलग कैसे है इसी नयम का एक सरा प तु हारे
घर म चलता है। वहाँ के सारे नयम तुम मानती हो
और बोलती हो क मानना होता है।
मानसी
:
(मुलायम वर म) तुम या मुझे डाँटोगे ही

:
(ज़रा दे र चुप रहकर) म तु ह डाँट नह रहा ँ, यह
तुम जानती हो।
(मानसी चुप रहती है)
नह जानत
मानसी
:
जानती ँ।

:
फर इस तरह य बात करती हो
मानसी
:
तु ह ऐसे दे खकर मुझे न जाने य डर लगता है

:
कैसे दे खकर


मानसी
:
यही गु सा करते ए। नयम के ऊपर गु सा करते
ए।

:
(ज़रा-सा हँसकर) इस गु से का कोई मू य नह है।
यह गु सा अ धा है, अ म है। यह तो द वार से माथा
फोड़ने जैसा है।
मानसी
:
तब फर खुद ही य अपने को इस तरह त- व त
करते हो

:
तुमने बाइ बल पढ़ है
मानसी
:
बाइ बल

:
ान-वृ के फल क कहानी जानती हो जस फल
को खाकर एडम और ईव वग युत ए थे
मानसी
:
जानती ँ।

:

ी ो े
म भी य द ान-वृ का फल न खाता तो तु हारे
नयम वाले इस समाज के वग म सुख से रहता
अब तो द वार से सर फोड़ने के सवा और कोई
उपाय ही नह है।
(कुछ दे र दोन चुप रहते ह)
मानसी
:
कभी-कभी सोचती ँ तुम न होते तो मेरा या होता

:

मानसी
:
तुम शायद सुनकर गु सा करोगे। म ब त-कुछ मान
लेती ँ य क तुम हो। तुम न होते तो शायद म भी
गु सा करती।

:
इसका मतलब तो यह आ क म तु हारा नुकसान
कर रहा ँ
मानसी
:
ऐसे य कहते हो फर कभी मत कहना। (इ चुप
रहता है) म तु ह कैसे समझाऊँ तुम नह जानते क
तुम मेरे लए या हो तुम हो इस लए मुझम जैसे
एक श रहती है, जसके सहारे म जी पाती ँ। वह
श न होती तो म न जाने कब क डू ब गई होती।
(इ सुन रहा है) पर मेरा ज़ोर गु सा करके नह
मलता। म गु सा नह करना चाहती। मुझे जीवन
अ छा लगता है, ब त-कुछ मानती ँ य क मानना
ही होता है; फर भी मुझे ोभ नह होता। तुम हो इस

ी ो े े( )
कारण जीवन को बड़े सहज भाव से (हठात् ककर)
म तु ह ठ क-ठ क समझा नह पाऊँगी।

:
बोलती जाओ, क य गई
मानसी
:
नह , म सब बात ठ क से नह बता पाऊँगी। कोई
सरी बात करो।

:
सरी ही बात तो हो रही थ ।
मानसी
:
यह कताब य द मेरी समझ म न आई तो समझा दोगे

(इ मानसी क ओर दे खता रह जाता है) या आ,
जवाब नह दया

:
मुझे जस दन नौकरी मलेगी, उसके सरे दन तुमसे
ववाह क ँ गा।
मानसी
:
ना।

:
तुम दे खना।
मानसी
:
तुम भूल गए क म तु हारी मौसेरी बहन ँ

:
भूल कैसे सकता ँ जतनी बार ववाह क चचा क
है, हर बार तुमने इस बात क याद दलाई है सो कभी
भूल सकता ँ
मानसी
:
और हर बार तुमने कहा है—म इसे नह मानता।

:
सच ही तो कहा है य मानूँ म कुछ नह मानूँगा।
मानसी
:
मुझे भी नह

:
तु ह मानता ँ पर तु हारे नयम को नह ।
मानसी
:
मुझे तुम ब त दन बरदा त नह कर पाओगे।

:
यह एक और बकवास तुम लगाए रहती हो।
मानसी
:

ी ँ
म बलकुल ठ क कहती ँ। म एक ब त साधारण
लड़क ँ।

:
और म एकदम असाधारण।
मानसी
:
या मालूम पर सचमुच, तुम थोड़े असाधारण तो
हो

:
सुनकर खुशी ई।
मानसी
:
ई बलकुल असाधारण नह हो।

:
चलो, तब तो झमेला ही ख म आ।
मानसी
:
या ख म आ

:
एक साधारण लड़का एक साधारण लड़क से याह
करेगा, इसम तो कोई झमेला नह होगा।
मानसी
:
कुछ ख म नह आ है। चलो, घर चलो।

:
नह , म नह जाऊँगा।
मानसी
:
दे र नह हो रही है

:
आ करे।
मानसी
:
हाँ न। तु हारे कारण म हर समय घर म डाँट सुना
क ँ गी न

:
कैसा घर घर जह ुम म जाए।
मानसी
:
लो, फर शु आ। चलो उठो।

:
(उठकर) चलो।
मानसी
:
ऊ बड़ा गु सा दखा रहे हो मानो म इससे डर
जाऊँगी न

:
ो े ो ी ै ँ े ी
चलो, दे र हो रही है। घर म डाँट पड़ेगी।
मानसी
:
नह जाऊँगी।

:
ठ क है, तो फर म बैठा।
मानसी
:
(उठते ए) नह नह । चलो।
(इ मानसी के क धे पर हाथ रख दे ता है। मानसी
हाथ हटा दे ती है।)
या कर रहे हो दे खते नह , यह पाक है।

:
पाक है तो या आ
मानसी
:
(धीरे से) उधर दे खो न, इस पेड़ के नीचे एक आदमी
बैठा है।
(उनके खड़े होने के बाद लेखक अँधेरे म एक ओर
आकर बैठ गया था।)

:
तो उससे या आ
मानसी
:
वह दे खेगा तो

:
दे खे न, खूब अ छ तरह दे खे।
( फर से मानसी के क धे पर हाथ रखता है। मानसी
हाथ हटाकर आगे बढ़ जाती है। हँसते-हँसते इ
भी उसके पीछे -पीछे चला जाता है। लेखक सामने
क ओर आ जाता है।)
लेखक
:
इ जत् और मानसी। घूमते-घूमते वे ब त र
नकल आए ह। ब त र चले आए ह या घूम रहे
ह केवल घूम रहे ह वे ववाह कर सकते ह। फर
वही च कर। एक दो तीन चार तीन दो एक। यह एक
सवाल है। आवतन का सवाल। पूरे सवाल का उ र
शू य है इसी लए कोई पूरी सं या नह लेता। छोट
करके लेता है। उ र होता है जीवन। हर एक
का अलग-अलग तरह का जीवन।
ये पथरीले नयन वगत के
रह चतु दक् पड़े, घूरते
बँधा छ द म
यह अना द का खेल
रहे चलता अन त तक।
बँधा काश-अ धकार के आवतन म
र म व न वह समय-काल क रहे गूँजती।
दवा-रा के खंड-खंड भी
एक सू म ह अनुबं धत।
खो जाएँ अनजान दशा म
भूत-भ व य खोजते अपना ठौर- ठकाना
म य सोचूँ-वतमान तो म ँ।
या मलना है—सू म हसाब लगा, सं या गन

ो े े े
उन को हल करने क चे ा करके
हल जनका है अस भा
या करना है सपन के वायवी त तु से
आगत के आँचल को बुनकर
रा - दवस के मधुर छ द का
ताल कभी भी नह कटे गा।
फर य करते थ सोच
जंजाल जमा य करते मन के दे वालय म
बाँध सको तो बाँधो अपने त्- प दन को
समय-ताल के साथ—
नह कुछ भी हो तब परवाह।
(अमल- वमल-कमल का वेश)
लेखक
:
को, अभी नह , अभी भी समय नह आ है।
(तीन का थान)
बस एक मु त। इस मु त के आवतन को अ वीकार
करो—अथात् पूरे सवाल को अ वीकार करो। एक
मु त—बस वतमान का एक मु त। यही तो जीवन
है। फर भी भोला मन कर पाता नह इसे वीकार
नर तर ढोता ही जाता है, बो झल उन अंक का भार
खोजता
उ र उन का, जनको हल करना ःसा य।
मान लूँ कैसे म यह बात क
उ र द घकाल का शू य।
अ प दन क ही सं या जोड़ रहा म बैठा सब दन
मूक
अभी तो लखने को है शेष
कृ त के पात-पात पर शशु अ र म

ण- ण क , जीवन क भाषा
अभी ब त है शेष।
(क वता-पाठ के साथ-साथ लेखक पर काश कम
होने लगता है। पीछे टे बुल और कु सयाँ, दरवाजे के
बाहर बच। ती काश। क वता-पाठ पूरा करके
लेखक चला गया है। अमल- वमल-कमल और
इ जत् आकर उसी बच पर बैठे ह। कपड़े
टपटाप ह, त नक सतक और कठोर भं गमा। घंट
बजती है। अमल उठकर कमरे म जाता है। चेयर
पर बैठे अ य ानी-गु णय को नम कार करता
है। अनुम त पाकर सामने क कुस पर बैठता है।
मूक का मूक उ र दे ता चलता है। बाहर बच
पर वातालाप चल रहा है।)
वमल
:
कै बनेट म न टर के नाम याद ह
कमल
:
ऊँ ँ, मने वह सब नह दे खा है।
वमल
:
ईयर बुक ले आते तो अ छा होता
कमल
:
या अ छा होता कतना रटते
वमल
:
कतना बजा इ

:


बारह बीस।
कमल
:
यारह बजे से हम लोग को बुलाकर बैठा दया और
बाबू लोग आए बारह बजे इंटर ू लेने।
वमल
:
यह बस दखावा भर है। आदमी तो पहले ही चुना जा
चुका है।
कमल
:
कौन आ होगा अमल के पहले जो गया था, वही
वमल
:
या पता अपने राम नह ह, इतना भर जानते ह।
कमल
:
अमल को गए कतनी दे र ई

:
पाँच मनट ए ह गे।
वमल
:
या- या पूछते ह बाबा
(भीतर अमल उठता है। सामने दरवाजे क ओर
बढ़ता है, पर कुस क डाँट खाकर सरी ओर
बाहर नकल जाता है।)
कमल
:
ब त टे नकल पूछते ह गे
वमल
:
नह । खास नह । असल म सही उ र पर उतना यान
नह दे ते जतना उ र दे ने के ढं ग पर।
कमल
:
हाँ, कोई बात न जानने पर माटली ‘आई ड ट नो’
कह दे ने से चल जाता है।

:
‘आई ड ट नो’ माटली कहना ब त क ठन होता है।
(घंट । वमल भीतर जाता है। ये दोन बच पर
पास-पास बैठते ह। भीतर वमल का वैसा ही
मूका भनय)
कमल
:
गला थोड़ा बैठ रहा है। तु हारे पास ल ग है

:
ना।
(कमल सगरेट नकालता है।)
गला पकड़े है, सगरेट पीओगे
कमल
:
ठ क नह होगा न
( सगरेट रख लेता है।)

े े े े े ो
तुम इसके पहले कतने इंटर ू दे चुके हो

:
पाँच।
कमल
:
तुम अ छे हो। मेरा तो यह चौथा ही है। कसी क
खबर मली

:
हाँ, एक का र ेट लेटर मला है।
कमल
:
(त नक ककर) अगले महीने बाबूजी रटायर कर रहे
ह।
(इ जत् उ र नह दे ता। लेखक का वेश।
मु कुराते ए इ जत् क बगल म बच पर बैठ
जाता है। ज़रा दे र सब चुप रहते ह।)
कमल
:
कतना बजा

:
साढ़े बारह।
कमल
:
आपको कतने बजे बुलाया था
लेखक
:
यारह बजे। मेरा एक और इंटर ू आज ही साढ़े दस
बजे पड़ गया। मने तो इसक आशा ही छोड़ द थी,
पर एक चांस ले लया और या
कमल
:
आपको बुलाया तो नह न
लेखक
:
नह भाई, इसी लए ज़रा ह मत हो रही है।
कमल
:
आप भा यवान ह।
(इसी बीच भीतर मूका भनय समा त करके वमल
सरी ओर चला जाता है। घंट । कमल भीतर जाता
है।)
लेखक
:
सगरेट

:
म नह पीता, थ स।
लेखक
:
( सगरेट जलाता है।) या पूछ रहे ह, कुछ पता
चला

:
ना। उधर से बाहर नकलने को कह रहे ह।

लेखक
:
ऐसा ही यूजअली करते ह। भाई लोग के पास
का टॉक तो कम ही रहता है।

:
आपका पहले वाला इंटर ू कैसा आ
लेखक
:
खूब अ छा नह आ। वहाँ होगा नह । नौकरी अ छ
है।

:
इसी लए इस इंटर ू को छोड़कर उसम गए थे
लेखक
:
हाँ, पर जानते ह, मुझे लगता है क यह पॉ लसी
गलत है। जब नौकरी पाना ही ज री है तब खराब
नौकरी के लए ही पहले इंटर ू दे ना चा हए य क
उसम चांस यादा रहता है।

:
च लए, इस बार तो दोन ही हो गए।
लेखक
:
सो तो लक रहा। नह तो इसी अफ़सोस म तीन रात
न द न आती। मुझे नौकरी क कतनी ज़ रत है,
आप नह जानते।

:
नौकरी क तो सभी को ज रत है।
लेखक
:
सो तो एकदम ठ क है। माने सबको जनरली ज़ रत
होती है पर मुझे प टकुलल है। तो आपको सब बात
खोलकर ही बता ँ । उधार करके मने एक लैट भाड़े
पर ले लया है। कम भाड़े का सु वधाजनक लैट तो
मेरे लए हर समय खाली नह पड़ा रहेगा। इसम और
कुछ चाहे न हो, पानी क कल अलग है।

:
आपक बात पूरी तरह समझ नह पाया
लेखक
:
माने मने याह कर लया है और या बाबूजी राजी
नह थे। इसी महीने नौकरी न मली तो लैट छोड़
दे ना पड़ेगा। मेरी हालत समझ रहे ह उधार ले-लेकर
कतने दन मकान-भाड़ा दे सकता ँ
(कमल का सा ा कार हो चुकता है—वह बाहर
नकल जाता है। इसके बाद अमल- वमल-कमल
तीन लौटकर इंटर ू लेने के लए तीन कु सय पर
बैठते ह। लेखक क बात पूरी होने पर अमल घंट
बजाता है, इ जत् भीतर जाता है। इस बार चार
मूक अ भनय म भाग लेते ह। लेखक कुछ दे र तक
बैठा सगरेट पीता रहता है। फर सगरेट फककर
सामने आ जाता है।)
लेखक
:
अमल रटायर करता है, उसका लड़का अमल नौकरी
करता है। वमल बीमार हो जाता है, उसका लड़का
वमल नौकरी करता है। कमल मर जाता है, उसका

ौ ी ै
लड़का कमल नौकरी करता है। एवम् इ जत्-
इ जत् का लड़का इ जत्। उधर फुटपाथ पर सात
साल का एक लड़का हाथ म काठ का ब स और गोद
म साल-भर के लड़के को लये खड़ा रहता है। उधर
फुटपाथ पर एक लड़क खड़ी रहती है, नाम लीला।
उधर आकाश स री हो उठा है, वहाँ बैठ मानसी
जीवन को यार करना चाहती है। ब त सारे जीवन
को। जाने-अनजाने अ ात-अप र चत काश-
अ धकार। खंड-खंड
टु कड़े अणु-परमाणु और सबको मला दया जाए तो
चख (नागरदोला) का ऊपर-नीचे जाना-आना।
घूम रही है सृ नर तर
आवतन म बँधी चल रही।
अ त- त आकाश
अचेतन-चेतन का स भार
ान-अ ान बीच तार—
बाँधने को आतुर त काल
कर रहा ँ म सतत यास।
मुझे इन लोग क कहानी कहनी ही होगी—इनक
जीवन—
गाथा को मुझे नाटक म बाँधना ही होगा
क तु भाषा तो है ाचीन
कहानी त- व त, बलहीन
रोशनी क रेखा है ीण
सभी कुछ धुँधलाया-सा,
है काश द ा त। समा ध क
जड़ता का यह नागपाश
है घेरे चार ओर
वह पर मुझे जलाकर आग चता क
करना है आलोक।

( े ै )
(इ जत् सा ात् करके जाता है। पुनः घंट )
घंट बज रही है। एक परमाणु और युत हो गया है।
वह एक और परमाणु को आमं त कर रहा है—तीन
परमाणु पर पर पुकार रहे ह। और भी ढे र-ढे र
परमाणु से मलकर बनी यह पृ वी घूम रही है और
च कर काट रही है। और एक पर एक सेकंड, मनट
और घंटे च कर काट रहे ह, काटे ही जा रहे ह।
( फर घंट बजती है। अमल- वमल-कमल धीरज
खो-सा रहे ह।)
घंट बजी है। फर बजेगी। फर भी पृ वी है फर भी
शता द है। हमारी पृ वी, हमारी शता द । चख
जह ुम म जाए। सवाल भी जह ुम म जाएँ। हम ह
अमल- वमल-कमल। एवम् इ जत् एवं म। हम लोग
ह, अभी ह, पृ वी पर ह।
(अमल- वमल-कमल ऊबकर उठ खड़े होते ह।
ज़ोर-ज़ोर से घंट बजाते ह, क तु उनके ऊपर
अँधेरा-सा हो आया है। लेखक पर ती काश पड़
रहा है।)
म वभ , म अनुखं डत ँ
चूर-चूर कण-कण से न मत ज टल इकाई एक
जी रहा, और जीऊँगा
बूढ़ सद आज भी बैठ
सुनने को कुछ गान
खोलकर कान चतु दक्
वंस- ंश पृ वी है फर भी
चली जा रही
अपरा जता अजेय नर तर।
(अचानक काश बुझ जाता है। अँधेरे म यव नका
गरती है। दबे क तु प स म लत वर म
क वता-पाठ चलता है।)
बूढ़ सद आज भी बैठ
सुनने को कुछ गान

खोलकर कान चतु दक्
वंस- ंश पृ वी है फर भी
चली जा रही
अपरा जता अजेय नर तर।।
तीय अंक
(एक ढं ग से चार टे बुल-कु सयाँ लगी ह। एक खाली
चौखट। उसके पीछे एक बड़ी कुस और टे बल,
टे लीफोन। लेखक टे बुल-कुस झाड़ रहा है—झाड़
या रहा है पंख के झाड़न से ज़रा-ज़रा छू ता जा
रहा है, बस। उसके चेहरे या व म कोई प रवतन
नह है। झाड़ना पूरा करके सामने आता है।)
लेखक
:
घर से कूल। कूल से कॉलेज। कॉलेज से नया।
नया एक ऑ फ़स है। इसी ढं ग का एक ऑ फ़स।
यहाँ पर ब त से काम होते ह, बड़े ज री-ज री भी।
यहाँ ब त से लोग काम करते ह। अमल- वमल-
कमल-इ जत्।
(अमल और वमल का वेश)
अमल
:
आठ-बावन वाली े न आज दस मनट लेट आई।
वमल
:
सयालदह म आज ाम क जाने के कारण ै फक
जाम हो गया।
(कमल एवं इ का वेश। अमल- वमल बैठते ह।)
कमल
:
नौ-तेरह क गाड़ी आज भी नह पकड़ पाया।

:

ो ो ी ी ै े
दो बस छोड़नी पड़ी, पैर रखने तक क जगह नह
थी।
(कमल-इ बैठते ह।)
अमल
:
( वमल से) लड़का कैसा है
वमल
:
कुछ अ छा है। (कमल से) लड़क भत ई
कमल
:
कहाँ ई (इ से) कलम मली

:
ना। पॉकेटमारी हो गई।
अमल
:
हरीश
वमल
:
हरीश

:
हरीश
अमल
:
(ज़रा ज़ोर से) हरीश


लेखक
:
क हए।
अमल
:
एक गलास पानी दो।
वमल
:
(ज़ोर से) हरीश
लेखक
:
क हए।
वमल
:
पान ले आओ, और ज़दा भी।
कमल
:
(ज़ोर से) हरीश
लेखक
:
क हए।
कमल
:
दो सगरेट भी—कची।

:
(ज़ोर से) हरीश


लेखक
:
क हए।

:
यह चट् ठ डाक म डाल दे ना।
(लेखक अपनी जगह से हलता नह । ये लोग भी
उसे पैसा या चट् ठ दे ते नह । यहाँ तक क उसक
ओर दे खा तक नह ।)
अमल
:
पॉकेटमार का तो ऐसा उप व शु आ है क बस,
कुछ पूछो मत। उस दन धमत ला क ाम म
मौलाली का टॉपेज छोड़ते ही
वमल
:
हो मयोपैथी दवा करना चाहते हो तो क हाई
भट् टाचाय को दखाओ। हमारे बहनोई को ॉ नक
डस ई थी
कमल
:
तीसरी लास म भत होगी और उसके लए
एडमीशन टे ट। वा वा। अं ेजी, बां ला और ग णत
और उसके ऊपर से कहा क बथ स ट फ़केट
दखलाए बना उ
(अचानक लेखक बड़े रोब से बड़े टे बुल के पास
जाता है। अमल- वमल-कमल और इ त नक
उठकर माथा खुजलाते ए बैठ जाते ह। लेखक के
कुस पर बैठते ही टे लीफोन क घंट बजती है।)
लेखक
:
ै ो ै ो ऑ
हैलो हैलो यस यस ऑडर चालान
डे लवरी फ ट न पसट यस यस बाई।
(‘इन’ से एक के बाद एक कई फ़ाइल लेकर
‘आउट’ म रखता है। फर ‘आउट’ से ‘इन’ म।
अमल जाकर एक फाइल पर सही करवाकर
लौटता है, फर वमल। फर कमल। फर इ ।
फर फोन।)
लेखक
:
हैलो हैलो यस यस ऑडर चालान
डे लवरी फ ट न पसट यस यस बाई।
( फर ‘इन’ से ‘आउट’ म फाइल डालता है।)
अमल
:
हरीश
वमल
:
हरीश
कमल
:
हरीश

:
हरीश
(लेखक भीतर से आकर पुनः पंखवाला झाड़न
लेकर अपने टू ल पर बैठ जाता है। वे सब और
ज़ोर से पुकारते ह।)
अमल
:
हरीश
वमल
:
हरीश
कमल
:
हरीश

:
हरीश
(लेखक उठकर एक-एक करके सबके पास जाता
है।)
लेखक
:
क हए। क हए। क हए। क हए।
अमल
:
वमल बाबू
(लेखक अमल क फ़ाइल वमल को दे ता है।
वमल उसे रखकर लेखक को एक सरी फ़ाइल
दे ता है।)
वमल
:
कमल बाबू
(लेखक वमल क फ़ाइल कमल को दे ता है।)
कमल
:
नमल बाबू
लेखक
:
नमल बाबू तो रटायर कर गए सर
कमल
:
ओ इ जत् बाबू
(लेखक कमल क फ़ाइल इ जत् को दे ता है।)

:
अमल बाबू
अमल
:
वमल बाबू
वमल
:
कमल बाबू
कमल
:
इ जत् बाबू
(इस तरह तीन बार वही बात हराई जाती है। हर
बार पहली बार से अ धक ती ग त से। अ तम
बार लेखक फरक -सा नाचने लगता है। घंट
बजती है। लेखक भीतर जाता है। बड़े साहब का
आदे श लेकर बाहर आता है।)
अमल
:
हरीश
वमल
:


हरीश
कमल
:
हरीश

:
हरीश
लेखक
:
बड़े साहब के लए चाय लाने जा रहा ँ, सर।
अमल
:

वमल
:

कमल
:


:

(लेखक चाय लेने जाने के बजाय घूमकर सामने आ
जाता है।)
लेखक
:
फाइल के बाद चाय। फर फ़ाइल। फर ट फन। फर
फ़ाइल। फर चाय। फ़र फ़ाइल। फर ाम-बस- े न।
े ी े ऑ
इससे भी बड़े ऑ फ़स ह—फ़ाइल, फर ट — फर
फ़ाइल। उसके बाद ह तान— फ़याट— टडड।
अमल
:
हैलो घोष, ओ ड बॉय, आज लब जा रहे हो
वमल
:
न, आज घर जाना होगा। मसेज ने आज अपनी
पुरानी ड् स को पाट दे रखी है।
कमल
:
हैलो राय, ओ ड बॉय, गाड़ी गराज से नकली

:
कुछ पूछो मत। लच लेट जल गई है। टै सी क भी
इतनी बुरी हालत है, सुबह नौकर पूरे 45 मनट
लगाकर लौटा।
(लेखक इस बीच भीतर बड़े साहब के टे बुल पर
बैठता है। इनक बात पूरी होते ही फोन)
लेखक
:
हैलो-हैलो—यस—बोड ऑफ डायरे टस—
कॉ फ़रस—बजट—एनुअल रपोट—यस-यस-यस
बाई। मस मलहो ा।
(मानसी शॉटहड क कॉपी लये आती है।)
मानसी
:
यस सर।
लेखक
:
(टहलते-टहलते)
With reference to above letter in connection
with the above matter, I would request you-I
shall be obliged if-forward us at your earliest
convenience-let the office know
immediately-15th ultimo-25th instant
thanking you, assuring you of our best co-
operation-yours sincerely-
yours sincerely.
(टे लीफ़ोन)
हैलो—यस-यस—बोड ऑफ़ डायरे टस—कॉ फ़रस
—बजट एनुअल रपोट—यस-यस—बाई—दै ट्स
ऑल मस मलहो ा।
(मानसी का थान। लेखक नकलकर सामने
आता है।)
दै ट्स ऑल मस मलहो ा। दै ट्स ऑल लेडीज़ एंड
ज टलमैन।
दै ट्स ऑल।
अमल
:
दै ट्स ऑल।
वमल
:
दै ट्स ऑल।
कमल
:
दै ट्स ऑल।
(सब कोरस म दै ट्स ऑल बोलते ह। इ चुप रहता
है। इ को चुप दे खकर तीन पहले क जाते ह
फर एक साथ ज़ोर से हँस पड़ते ह।)
अमल
:
बक अप, ओ ड बॉय।
वमल
:
चय रओ, ओ ड बॉय।
कमल
:
ऑल द बे ट, ओ ड बॉय।
(एक-एक करके इ क पीठ को थपथपाते ए
तीन चले जाते ह। इ बैठा रह जाता है। लेखक
घूमकर पीछे जाता है और झाड दे ने लगता है। इ
अ यमन क भाव से फ़ाइल दे खता है।)
लेखक
:
कुछ खोज रहे ह, सर

:
आँ हाँ, खोज रहा ँ।
लेखक
:
या

:
कुछ और।
लेखक
:
या

:
आँ नह , कुछ नह कुछ नह । इसके सवा और
कुछ नह है
लेखक
:
मेरी समझ म ही नह आया, सर, क आप या खोज
रहे ह

:
हरीश, कुछ भी तो नह मल रहा है। छोड़ो हटाओ।
कल सुबह यह फाइल अमल बाबू के टे बुल पर रख
दे ना, यह वमल बाबू को दे ना और यह कमल बाबू
को। और इस पर बड़े बाबू का द तखत होगा। म कल
नह भी आ सकता ँ।
लेखक
:
आपक तबीयत खराब है, सर

:
तबीयत हाँ, कल तबीयत खराब हो जा सकती है।
अ छा, म चला।
(इ का थान)
लेखक
:
अमल गया— वमल गया—कमल भी चला गया।
केवल इ जत् बैठा सोच रहा है। इ जत् भी चला
गया। म बैठा सोच रहा ँ म
म बैठा ँ सोच रहा
बस सोच रहा ँ

म ँ खं डत एक उपकथा
एक शू य, जो अभरणीय है।
जीवन मेरा ऐसे ही वलीन हो रहा।
( फर भी अ -चेतना लेकर
आती है य मधुर मुखरता )
चूण ई पृ वी के कण-कण
मले धूल म
ज ह समय का सूप नर तर
फटक रहा है
सार और न सार दे खने
पर या जीवन-बीज छपा
इन धू ल कण म
छोड़ो भी, या करना हमको
है भ व य के बखरे कण को
जोड़-बटोर सृजन करने क
इ छा मन म पनपाने से।
( मट् ट अब यह ब त पुरानी
सूना नभ—है थ क पना
नए सृजन का व दे खना
सभी नरथक।)
म बैठा ँ सोच रहा
अब भी वैसे ही सोच रहा ँ—
मनुज एक खं डत अपूणता।
फर भी मन य बार-बार
है खोज रहा, है सोच रहा
उस पूण मनुज क बात
आज भी

( ौ ी े )
(मौसी का वेश)
मौसी
:
तू यहाँ बैठा है और खोजते-खोजते मेरे ाण नकल
गए।
यहाँ बैठा या कर रहा है
लेखक
:
सोच रहा ँ।
मौसी
:
इतना या सोचता रहता है, म भी तो सुनूँ
लेखक
:
सोचता ँ, हम लोग कौन ह
मौसी
:
इसम सोचने क या बात है तुम लोग तुम लोग हो
और या
लेखक
:
ठ क ही तो है, हम लोग हम लोग ह, यह तो मेरी
अकल म ही नह आया था। पर हम लोग या ह
मौसी
:
लो, इसक बात सुनो। हम लोग या ह तुम लोग
सब हीरे क कनी जैसे लड़के हो। अ छ तरह तुम
लोग ने इ तहान पास कया है, अ छ -अ छ नौकरी
पर लगे हो।

लेखक
:
ठ क कह रही हो, मौसी हीरे क कनी। कनी, माने
टु कड़ा ँ, यहाँ तक तो म भी प ँच पाया था, पर हीरे
क कनी ँ यह खोपड़ी म ही नह घुसता था।
मौसी
:
कस खामखयाली म डू बे रहते हो
लेखक
:
सच, खामखयाली ही तो है। तुमने फटाफट मेरे दो
का जवाब दे दया—अब एक का और दो
तो। पर यह उतना आसान नह है।
मौसी
:
या
लेखक
:
हम लोग य ह
मौसी
:
य ह, माने
लेखक
:
माने यही क हम लोग ह य
मौसी
:
बलैया लूँ वाह रे ह गे य नह तुम लोग के होने
से कसका कलेजा जल रहा है, ज़रा म भी तो सुनूँ

लेखक
:
उ ँ आ नह । यह जवाब लॉ जकल नह आ।
मौसी
:
कौन तेरी लॉ जक का उधार खाए बैठा है जतनी
सब अल णी बात। याह न करने से ही ऐसी फालतू
बात दमाग म आती ह।
लेखक
:
इसके बीच म याह क बात कहाँ से टपक पड़ी
मौसी
:
नह , याह क बात य आएगी आएगी तो यह सब
य , कौन, या क । तू याह य नह करता, इसका
जवाब मुझे दे
लेखक
:
बड़ा क ठन है, मौसी याह य क ँ , यही
सोचते-सोचते तो ाण नकले जा रहे ह।
मौसी
:
लो भला, इसक बात सुनो याह य क ँ सभी
करते ह, फर तू ही य नह करता
लेखक
:
बस, मल गया उ र। सभी करते ह।
छ को य तुम खाँसो य तुम
मधुर-मधुर मुसकाओ य तुम
े े े ई ो
लेते दे ख ज हाई उसको
चुटक तुरत बजाओ य तुम
सब करते ह इसी लए तुम भी करते हो
मौसी
:
लो, यहाँ तो क वता शु हो गई। म चली।
(लेखक रा ता रोक लेता है।)
क वता का सुन नाम दौड़कर भाग तुम य
ऊँचे वर म छे ड़ रे डयो रखत तुम य
और दाल म मुट्ठ भर मचा दे ती य
सब करते ह, इसी लए तुम भी करती हो
मौसी
:
लो, दाल म मुट्ठ -भर मचा मने कब डाला
लेखक
:
समय आ यह दे ख दौड़ते ऑ फ़स य तुम
छु री से काटत सदा तरकारी य तुम
यो दे ती हो तेल सरे के चरखे म
सब करते ह इसी लए तुम भी करती हो
मौसी
:
या पागलपन करते हो, मेरी तो समझ म नह आता।
याह हो जाता तो यह सारा पागलपन दो दन म
रफूच कर हो जाता।
(मौसी का थान)
लेखक
:
औ े
ववाह। ज म, ववाह और मृ यु। ज म के बाद
ववाह, फर मृ यु। ब त दन पहले मने एक बड़ी
सु दर कहानी पढ़ थी—पता नह आप लोग ने पढ़
है या नह । कहानी का अ धकांश तो भूल गया ँ फर
भी । एक राजकुमार था और एक राजकुमारी।
ब त से झंझट-झमेल के बाद-उसके बाद ही तो
असल कहानी शु होती है—दोन सुख से राजपाट
भोगने लगे। राजपाट या घर-गृह थी या भोगने लगे,
ठ क से याद नह । पर हाँ, दोन बड़े सुख से रहने
लगे, यानी इतने अ धक सुख से क उसे लेकर कहानी
और आगे बढ़ नह सक ।
(नेप य से शंख व न। मंच के बीच म मानसी सर
पर साड़ी का प ला रखे सल ज नववधू-सी आकर
खड़ी होती है।)
ववाह। एक पु ष और एक नारी। द पती-ज पती
जायाप त। सीधे-सादे ढं ग से कहने का मतलब हा-
हन। (अमल का वेश—नए ववाह का-सा
संकोच)
अमल
:
ज़रा सुपारी दे ना तो
मानसी
:
आले पर रखी है। ले लो न।
अमल
:
आले पर रखी है, मुझे नह मलेगी।
मानसी
:
अहा, नह मलेगी। इतने दन तक कौन खोजकर
दया करता था, ज़रा सुनूँ
अमल
:
इतने दन कोई मेरा था या
मानसी
:
चुप रहो, कोई सुन लेगा।
अमल
:
सुन लेगा—तो फर चुपचाप कान म बोलूँ—
मानसी
:
या करते हो जाओ, तुम इस कमरे से जाओ। न
जाने कब कौन आ पड़े
(अमल का थान)
लेखक
:
द पती-ज पती-जायाप त—माने इसके बाद प त-
प नी।
(मानसी का घूँघट खसक चुका है— वाभा वक
गृ हणी हो गई है। वमल का वेश। हाथ म
अखबार है—कुस पर बैठकर पढ़ना शु करता
है। मानसी पास आती है।)
मानसी
:
कोई खास खबर है
वमल
:
नह , वही सब
मानसी
:
े ो ी ो
मने सोचा शायद नया म कुछ ब त बड़ी बात हो
गई है
वमल
:
यो, या आ
मानसी
:
कब से अखबार लये बैठे हो, सर तक नह उठाया है
तुमने।
वमल
:
नह —ऐसे ही जरा दे ख रहा था (अखबार रखकर) हाँ
बोलो, या कह रही थ
मानसी
:
खास कुछ नह । आज शाम को या कर रहे हो
वमल
:

मानसी
:
ऐसे ही। ज़रा बाहर नकलने का मन था।
वमल
:
पर आज तो मेरे ऑ फ़स म एक आदमी रटायर कर
रहे ह सो फेयरवेल मी टग है। कहाँ चलना चाह रही

मानसी
:
ओ े ौ
नह , कह नह । दाढ़ नह बनाओगे नौ बजा।
वमल
:
नौ माई गॉड।
( वमल का थान)
लेखक
:
द पती-ज पती-जायाप त माने मयाँ-बीबी।
(कमल का वेश)
मानसी
:
अ छा, तु हारा दमाग ठ क है या नह मु ा को
बुखार था, दे खकर गए थे, फर भी रात दस बजे
लौटने क फुसत मली
कमल
:
बाल ले आया ँ। यह लो।
मानसी
:
हाँ, ले तो आ रहे हो बाल , पर रात दस बजे। पहले
क ले आई ख म नह हो गई कुछ ख़याल था क
मु ा या लेगा
कमल
:
एकदम ख म हो गई थी
मानसी
:
जो ज़रा-ब त बची थी वही जोड़-बटोरकर बना द
थी।
कमल
:
अब कैसा है
मानसी
:
न यानबे है। मुस मी नह लाए
कमल
:
यहाँ का फलवाला चोर है, पए म चार दे ता है। कल
बाजार से ला ँ गा।
मानसी
:
चलो, हाथ-मुँह धोओ। म खाना परोसती ँ।
(दोन का अलग-अलग दशा म थान)
लेखक
:
द पती-ज पती-जायाप त— हा- हन, प त-प नी,
मयाँ-बीबी—अमल- वमल—कमल एवम् इ जत्।
(इ जत् का वेश)
लेखक
:
अरे, इ जत्

:
अरे तुम कतने ता जुब क बात है। तुमसे यहाँ ऐसे
मुलाकात हो जाएगी, सो तो सोचा ही नह था।
(दोन ज़ोर से कर-मदन करते ह।)
लेखक
:
ओ, कतने साल बाद तुमसे भट ई

:
हाँ, सात साल ए ह गे।
लेखक
:
इतने दन तुम कहाँ थे भोपाल म ही।

:
नह । (भोपाल क नौकरी तो साल भर बाद ही छू ट
गई) उसके बाद ब त जगह घूमता रहा। ब बई,
जाल धर, मेरठ, उदयपुर—बदली वाली नौकरी मल
गई है, यहाँ से वहाँ च कर काट रहा ँ।
लेखक
:
यही तो तुम चाहते थे।

:
यही चाहता था पता नह ।
लेखक
:
वाह वह पगुइन, कंगा , ए कमो—सब भूल गए

:
ओ सरल भूगोल प रचय तु ह अभी तक याद है
लेखक
:
य , तु ह भूल गया

:
नह , भूला तो नह ँ, पर लगता है अब बदल
गई है। उस दन पॉकेट म एक पया बारह आने क
पूँजी लेकर हावड़ा छोड़-दे ता तो कैसा लगता, पता
नह । आज लगता है, भूगोल से बाहर पृ वी नह है,
कम-से-कम इस दे श म तो नह ही।
लेखक
:
वदे श म

:
वदे श तो गया नह , वहाँ क बात कैसे क ँ मलाया
क एक नौकरी के लए इंटर ू दया था पर मली
नह ।
लेखक
:
मलने से जाते

:
हाँ, य नह
लेखक
:
लगता है, अभी शाद नह क है

:
समय ही कहाँ मला और तुमने
लेखक
:
बस, एक-सी ही ग त है।

:
और सबका या हालचाल है
लेखक
:
सब माने

:
अमल- वमल-कमल।
लेखक
:
सब ठ क ही ह, नौकरी कर रहे ह, गृह थी चला रहे
ह।

:
तु हारी बात से तो नह लगता क सब ठ क ह
लेखक
:
नह ठ क ही ह। पर मुझे उनसे कोई ई या नह है।
तु ह होती है

:
या जाने पता नह ।
लेखक
:
मानसी का या हालचाल है

:
मानसी अरे हाँ, तुम तो उसे मानसी ही कहते हो
न। ठ क है।
लेखक
:
कहाँ है

:
(हँसकर) माने, जानना चाहते हो न क शाद क है
या नह नह , नह क । हजारीबाग म एक कूल म
नौकरी करती है।
लेखक
:
(ज़रा दे र ककर) बस, और कोई समाचार नह है

:
और या समाचार जानना चाहते हो
लेखक
:
तुम जो भी बतलाना चाहो।

:
(हँसकर) सचमुच और कोई समाचार नह है। बतलाने
लायक नया म कुछ घटता ही कहाँ है। म नौकरी
करता ँ—वह नौकरी करती है। म चट् ठ लखता ँ
—वह जवाब दे ती है। साल म एक बार मुलाकात
होती है। हम दोन लान करके छु लेकर कलक ा
म भट करते ह। बस, इतना ही तो समाचार है।
लेखक
:
तुम लोग ववाह करोगे

:
नह ही क ँ गा, ऐसा तो तय नह कया है पर हाँ
अभी तक कया नह है, यह सच है।
लेखक
:
ववाह कर य नह डालते

:
पता नह । म इसका कोई कारण नह बतला सकता।
स भव था पास होने के बाद बना कुछ सोचे- वचारे
एक दन कर लेता तो कर लेता। तब तो सोचता-
वचारता नह था। वहाँ उसी मैदान म बैठकर न जाने
कतनी बात क ह, लान कया है और ऐसे ही एक
दन तक करते-करते न जाने या कैसे हो गया क
(मानसी का वेश। आकर पास बैठ जाती है—इ
भी उसके पास बैठता है। लेखक एक कोने म अँधेरे
म चला जाता है।)
मानसी
:
इ , मुझसे नह होगा।

:
या नह होगा
मानसी
:
तुम य इस तरह जद कर रहे हो मुझे कुछ समय
दो।

:
समय-समय-समय। आज छः महीने से बस तुम एक
ही बात कह रही हो—समय दो।
मानसी
:
म या क ँ , तु ह बतलाओ। तु हारे जतना साहस
मुझम नह है।

:
साहस मत कहो। कहो क इ छा नह है।
मानसी
:
इ छा होने से या सब कुछ कया जा सकता है

:
सब कुछ क बात म नह जानता, पर हाँ, ववाह
कया जा सकता है, इतना जानता ँ।
मानसी
:
मद लोग जो कुछ

:
बस-बस, मुझे पता है। यही न क मद जो कुछ कर
सकते ह औरत नह कर पात । औरत खाली सोच
सकती ह, मान सकती ह और समय चाह सकती ह।
मानसी
:
य बेकार गु सा होते हो

:
( ककर) नह , गु सा नह हो रहा ँ कल म
भोपाल चला जा रहा ँ, इसी लए आज इस बारे म
जानना चाहता था।
मानसी
:
भोपाल चले जाने से ही सब-कुछ शेष हो जाएगा

:
( ककर) पता नह ।
मानसी
:


:
मुझे कुछ पता नह मानसी, सच कहता ँ।
मानसी
:
(धीरे से) तब फर पहले पता कर लो। पहले भोपाल
जाकर दे खो क या होता है

:
अब कौन गु सा हो रहा है
मानसी
:
यह गु सा नह है इ । म ब त सोच-समझकर कह
रही ँ— ज दगी ब च का खलवाड़ नह है।

( े ै ी ी
(इ दे खता रह जाता है। अ धकार। मानसी चली
जाती है। पुनः लेखक पर काश पड़ता है। इ
उठकर पास आता है।)

:
हम दोन जीवन को लेकर ब च का खलवाड़ नह
कर सके। ब त सोच- वचार कया। ब त हसाब-
कताब कया। अभी भी करता रहता ँ। लगता है,
सचमुच कह जीवन ब च का खलवाड़ ही न हो
उठे । जीवन-महामू यवान जीवन। अखबार पढ़ते हो
लेखक
:
हाँ, बीच-बीच म।

:
न जाने कब एक खबर पढ़ थी। अमरीका के सारे
अणु-अ और कुछ नह , वच का खलवाड़ भर
ह। कह भूल से आण वक यु न शु हो जाए
इसी लए वच म ब त तरह के ऑटोमै टक
इंटर ल कग स टम रखे गए ह—वैसे ही जैसे रेल के
सगनल म होते ह। मान लो, कभी भूल से कुछे क
एटम और हाइ ोजन बम के गरने से सारी पृ वी न
हो जाए तो सोच सकते हो
लेखक
:
तुम कहना या चाहते हो

:
खास कुछ नह । इसी मू यवान जीवन क बात जसे
लेकर इतनी ववेचना, इतना हसाब- कताब होता
रहता है।
लेखक
:
मतलब यह क तुम तो ववाह करना चाहते हो पर
मानसी ही मन से नह तय कर पा रही है

:
नह , ऐसी बात नह है, कम-से-कम फलहाल तो
नह । हर समय या कोई एटम बम क बात सोच
सकता है। रात म तार -भरे आकाश क ओर य द
नहारो और कताब म पढ़े यो तष शा क बात
य द सोचो तो सारे सौर-जगत् म इस छोट -सी पृ वी
का कुछ मह व लगता है क ड़े-मकोड़ जैसे इन
मनु य का कोई मू य है फर भी यही बात य द हर
समय सोची जाए तो या ज दा रहा जा सकता है
लेखक
:
फर भी तो तुम सोचते रहते हो

:
या क ँ , सोचे बना रहा नह जाता। फर अपने
जीवन को ब त वराट बनाकर भी म सोचता ँ। म
भूल जाता ँ क महाकाल के नकट मेरा जीवन या
है एक पल मा ही तो। म यह भी भूल जाता ँ इस
अ खल व ांड म मेरा अ त व धूल के एक
कण से अ धक मह वहीन है। वरन् म सोचता ँ क
इस नया म मेरे जीवन क तरह मू यवान और कुछ
है ही नह ।
लेखक
:
इस तरह भूलना भी कृ त का वरदान समझो
मनु य इसी ह थयार के भरोसे बच पाता है।

:
यह ह थयार पूरा नह पड़ता। ान-वृ का फल। यह
तार भरा आकाश सब गोलमाल कर दे ता है, सब
गोलमाल कर दे ता है।
तुम, म, मानसी, कमल, वमल, अमल
(वा संगीत म इ का वर डू ब जाता है। सारे मंच
पर अ धकार हो जाता है। काश का एक पुंज
लेखक एवं इ के ऊपर पड़ता है और सरी ीण
रेखा पीछे खड़ी मानसी के ऊपर। सरी ओर ह के
से काश म अमल, वमल और कमल क छाया-
मू तयाँ। वा संगीत एक ग भीर क वता पाठ के
वर म प रणत होता है।)
कंठ वर
:
धरती मलती है सागर म
औ’ सागर जा र तज म लीन हो रहा
उस व तीण सौय-मंडल म
इस पृ वी का तु छ ठकाना
कहाँ खो गया पृ वी का अ त व—दो ण का यह
जीवन
या है —एक वलास मा
इस सतत उ छ रत जीवनधारा
और काल क अन त ग त का।
(जीवन का इ तहास, णक
आक मक संयोजन भर तो है।
धरती का यह अथहीन नव- प दन
केवल दान कुछे क ण का ही तो।
उस अन त गणना म म ँ
मा धूल के कण-सा
सं ाहीन, तु छ, साधारण।
ठ क यु ध र ने समझा था
ी े ो
बक पी उन धमराज के को
जीवन का मम वही था।)
जीवन क इस सतत वा हत
उ छल धारा क ग त को
है मृ यु कर रही बेताला—
यह कहना कतनी बड़ी भूल है
एक मृ यु या कर सकती है
खर ाणधारा को बा धत
( फर भी मानव मूढ़
सोचता इसी तरह है।
मानव के इ तहास थम
नह लखी है गई
और कोई घटना व मयकर इससे।)
( त धता। एकदम अँधेरा हो जाता ह—केवल
मानसी पर पड़नेवाला काश थोड़ा और ती हो
जाता है)
मानसी
:
फर भी म ँ क ट अधम-बेशम।
तु चतु दक् फैले जीवन त तु-जाल।
व मृत कर बैठा म गहरी ज टल सम या गूढ़ त व
आलोचन सबकुछ।
क तु अन त घोषणा करता
उ त ाणश से भरकर
तु छ धूल कण के मु त क ।
(मानसी पर पड़नेवाला काश बुझ जाता है। फर
धीरे-धीरे काश होता है तो मंच पर बीच म पाद-
द प के पास लेखक अकेला दखलाई पड़ता है।)
लेखक
:
ाण का उ त अ धकार। पर कसके ाण
इ जत्, मानसी, म और कौन अमल- वमल-
कमल।
(अमल का वेश)
अमल
:
अरे क व, या हालचाल है
लेखक
:
ठ क।
अमल
:
अभी भी लखते- वखते हो या छोड़ दया
लेखक
:
बीच-बीच म लख लेता ँ।
अमल
:
तु हारा वह नाटक पूरा आ
लेखक
:
ना। तु हारा या हालचाल है
अमल
:
अ छा नह है भाई।
लेखक
:
य , या आ
अमल
:
अरे, इस ए. बी. सी. क पनी म नौकरी करके तो
ज दगी ही बरबाद हो गई। (सी नयर अ स टट क
पो ट पर काम करते छह साल हो गए) —छह साल
का अनुभव मुझे और अ स टट मैनेजर क पो ट पर
ले आए बाहर से कसी एक म ासी को।
लेखक
:
अ छा
अमल
:
बस, पूछो मत। (आजकल म ा सय का ही
बोलबाला है। बंगाली बंगा लय के हाथ मरगे। मने
ही भूल क , उस समय पी. आर. यू. क पनी का
ऑफर नह लया। सोचा, यहाँ भी तो मोशन आ
जा रहा है य फालतू म इधर उधर) सच क व,
जीवन से वर हो गई।
लेखक
:
घर म सब लोग मजे म ह
अमल
:
मजे म या ह ऐसी हालत म कहाँ तक चैन से रहा
जा सकता है। (छः साल हो गए—सी नयर अ स टट
के सी नयर अ स टट) अ छा भाई चलूँ, ज़रा ज द
है।
(अमल का थान। वमल का वेश)
वमल
:
अरे क व, या हालचाल है
लेखक
:
ठ क।
वमल
:
अभी भी लखते- वखते हो या छोड़ दया
लेखक
:
बीच-बीच म लखता ँ।
वमल
:
तु हारा नाटक पूरा आ
लेखक
:
ना। तु हारा या हालचाल है
वमल
:
ठ क ही है। हम लोग के फम को हैवी इंजी नय रग म
अ छा कॉ ै ट मला है। राँची ांसफर हो गया है,
कल जा रहा ँ।
लेखक
:
फै मली को ले जा रहे हो
वमल
:

ँ ै औ ै ी े ो ी
हाँ, वाटर दया है। और फै मली माने तो खाली
मसेज। लड़के को ला माट नयर म भत करा दया
है। राँची म कौन जाने कैसा कूल मले
लेखक
:
तो मतलब अ छे ही हो
वमल
:
हाँ, चलता है और या अ छा भाई, चलूँ। ज़रा यू
माकट जाना है—कुछ ला ट मनट शॉ पग करनी है।
तुम उधर जाओगे या तो चलो, ल ट दे सकता ँ।
लेखक
:
नह भाई, मुझे अभी नह जाना है।
वमल
:
अ छा भाई, सो लांग।
( वमल का थान। कमल का वेश)
कमल
:
अरे क व, या हालचाल है
लेखक
:
ठ क।
कमल
:
अभी भी लखते- वखते हो
लेखक
:
ना।
कमल
:
हाँ भाई, इतने झमेल म ऐसी हॉबी बनाए रखना बड़ा
मु कल होता है म भी तो माउथ आगन बजाया
करता था पर कहाँ चालू रख सका (खराब होकर
पड़ा है, ठ क भी नह करवा पाया। कैसी महँगाई है।)
हाँ, तुमने इं योरस करवाया है
लेखक
:
ना।
कमल
:
कहते या हो नह भाई, यह तो ठ क बात नह है।
एक स यो रट तो चा हए। ज़ दगी के बारे म कौन
या कह सकता है इं योरस करवा डालो—कम-से-
कम दस हजार का—
लेखक
:
कसके लए इं योरस करवाऊँ
कमल
:
य , याह नह कया तुमने
लेखक
:
ना।
कमल
:

ै े े ी ै औ े
खैर, पर करने म या दे र लगती है और फर करते
साथ बाल-ब चे। यादा उ म बीमा करवाने से
ी मयम रेट ब त बढ़ जाता है। ( फर अपनी बुढ़ौती
म भी तो कुछ सहारा चा हए) कतने का करवाओगे,
बता दो, म सब इ तजाम करवा ँ गा।
लेखक
:
तुमने या नौकरी छोड़ द
कमल
:
दमाग़ खराब आ है आजकल के ज़माने म कोई
नौकरी छोड़ता है पर हाँ, एक बज़नेस क चे ा म
ँ। (य द सब हसाब- कताब ठ क बैठ गया तो
नौकरी-वौकरी, बीमा क दलाली-फलाली सब छोड़
ँ गा।) अ छा, ऐसा कोई फाइन सयर तु हारी नगाह
म जो करीब 25 हजार पए लगा सके बड़ी अ छ
क म है फॉट परसट ॉ फ़ट गारंट ड। म सारा
हसाब फैलाकर बता दे सकता ँ।
लेखक
:
ऐसा कोई मेरी जानकारी म तो नह ।
कमल
:
च ता मत करो, कोई-न-कोई मलेगा ही। ऐसी सोना
उगलनेवाली क म है क पया लगानेवाल क कमी
न होगी। अ छा भाई, चलूँ। हाँ, तुम इं योरस क बात
सी रयसली सोच दे खो।
(कमल का थान)
लेखक
:
(क वता) क तु अन त घोषणा करता


उ त ाणश से भरकर
तु छ धूल कण के मु त क ।
ये सब छोटे -छोटे कण ह—इनक दै न दन जीवन क
अनेक छोट -मोट घोषणा का इ तहास मेरा नाटक
है। अमल- वमल-कमल। एवम् इ जत्
(इ का वेश)
तु हारी कौन-सी अन त घोषणा है, इ जत्

:
घोषणा, माने
लेखक
:
कुछ नह । हाँ, मानसी से भट ई

:
नह , ई नह है पर होगी। उसी मैदान म।
(इ पीछे चला जाता है।)
लेखक
:
उस मैदान म। उसी घने पेड़ के नीचे।
बीते दन क अन गन बात
तृण त -त म गुँथी ई ह।
जीवन म आगमन
थम यौवन का
गुपचुप मन क बात
उस कोने म रमी ई ह।
इ जत् और मानसी। वे फर से वहाँ बैठगे, बात
करगे।

ी े े
दन पर दन बीते जाते ह
मास-वष क रगड़ खा-खा
बात पुरानी पड़ जाती है
वही बात फर- फर आती है।
फर भी आओ, उस कोने म
हरी-हरी वा पर बैठ
इधर-उधर क बात करते
हम-तुम दोन कुछ ण काट।
(मानसी आकर इ जत् क बगल म बैठ जाती है।
बातचीत शु होती है। लेखक हट जाता है।)

:
लगता है, अब ब त दन तक तुमसे मुलाकात न
होगी।
मानसी
:


:
शायद बाहर चला जाऊँ।
मानसी
:
बाहर माने बाहर ही तो हो।

:
और र।
मानसी
:

कहाँ

:
ल दन।
मानसी
:
ल दन कोई नौकरी मली है

:
नह , नौकरी तो नह मली है, पर अपने-आपको इस
वाह म छोड़ दे ने लायक पया जुट गया है। एक
इंजी नय रग कोस म एडमीशन ले लया है। पासपोट
वगैरह भी तैयार हो गया है। वहाँ प ँचकर कोई
नौकरी खोज लूँगा।
मानसी
:
न मली तो

:
मल जाएगी।
मानसी
:
नह ही मली तो

:
कुछ-न-कुछ तो मलेगा ही। अकेले पेट क कतनी
च ता
मानसी
:
े ो े
इस तरह तुम कब तक बहते रहोगे

:
जब तक स भव होगा।
मानसी
:
तु ह यह सब अ छा लगता है

:
उ ँ।
मानसी
:
तब

:
तब या
मानसी
:
कह एक जगह टककर रहते य नह

:
टककर रहने से ही अ छा लगने लगेगा
मानसी
:
पता नह ।

:

े ी ी ो ो
मुझे भी नह पता। मानसी—सच पूछो तो अ छा
श द का कोई अथ ही नह होता। अ छा लगने का
ही नह उठता।
मानसी
:
(त नक ककर) इ

:
बोलो।
मानसी
:
मुझसे शाद हो जाती तो तुम थर होकर बैठ पाते

:
पता नह । आज तो कुछ भी नह कह सकता। एक
ज़माना था जब इस स ब ध म कुछ कहने क थ त
म था
मानसी
:
तु ह मेरे ऊपर गु सा नह आता

:
ना। पहले आता था पर अब नह । और फर याह
करने से या होता, यह कौन जानता है। स भव था,
हमारी यह म ता समा त ही हो जाती।
मानसी
:
और यह भी तो हो सकता था क इससे भी घ न
एक सरी मै ी का स ब ध बन जाता

:
पता नह मानसी, कुछ पता नह । मने इस स ब ध म
ब त सोचा है, मन-ही-मन न जाने कतनी उधेड़-बुन
क है, पर सारी बात का उ र कहाँ दे पाया ँ अब
तो न जाने कैसी ला त घेरे ले रही है ब त-सा
तक- वतक भी अ छा नह लगता। कुछ करने का
मन भी नह करता। केवल ला त और ला त।
बस, मन करता है सो र ँ। (ज़रा दे र मौन रहता है।)
मानसी
:
चलो, थोड़ा घूम।

:
चलो।
(दोन उठकर चले जाते ह। थके कदम लेखक का
वेश)
ला त- ला त—म ब त ला त ँ।
थ य ही रहने दो।
मटती घनी मूक छाया म
मुझे अभी केवल सोने दो।
या करना है बात का अ बार लगाकर
और बताओ या मलना है
बीज तक के यूँ फैलाकर
म ववेक से ऊब गया ँ
आज ब त ही ला त आ ँ।
सूने नजन क छाया म
मुझे अकेला सोने दो बस।
( ात मुझे इस धरा गभ म

ी ी े
छपा अभी भी जाने या- या
पर मेरी स धान-साधना, ला त ई है।
धरती क जड़ता का बोझा।
अभी और है
पर मेरी य न करने क
श आज तो ला त ई है।
मृ यु तीर पर
जीवन क आशा म बैठ
सतत ती ा, ला त ई है।)
जाओ, अपने साथ ले
तक ववेक सभी ले जाओ।
सोने दो मुझको
छाया के घोर-गभीर लोक म
मुझको सोने दो—म ब त ला त ँ।
तृतीय अंक
(एक टे बुल के तीन ओर बैठे अमल, वमल और
कमल ताश खेल रहे ह। तीन अपनी-अपनी बात
कहकर प े चलते और तीन प के बाद हाथ
जीतकर ताश समेटते ह।)
अमल
:
1947 क 15 अग त को भारत वाधीन आ।
वमल
:
टश सा ा यवाद के पंज से हम मु ए।
कमल
:
अब हम एक वाधीन- वावल बी समाज का नमाण
करने के लए तुत होना है।
अमल
:
पूँजीवाद व था को न होना ही होगा।
वमल
:
फ़ा स म संसार को वनाश के पथ पर ले जाता है।
कमल
:
क यू न म मनु य के वातं य-बोध को न कर दे ता
है।
अमल
:

ो े ी े
डमो े सी के ारा ज द कुछ करना स भव नह
होता।
वमल
:
ड टे टर शप हर दे श, हर युग म अ भशाप रही है।
कमल
:
आम जनता हर व था म ख पाएगी।
अमल
:
सारे दे श म अ व था और अ याय का सा ा य है।
वमल
:
इस सरकार के कए कुछ भी न होगा।
कमल
:
गद्द पर बैठकर सब एक से हो जाते ह। यहाँ तो सब
धान बाईस पसेरी।
अमल
:
राजनी त ग द चीज़ है।
वमल
:
अपनी तो न कारखाने म तूती क आवाज़ है। मेरा
हाल या पूछते हो
कमल
:
म ज दा बचूँगा तब न बाप-दादा का नाम चलेगा
अमल
:
मोशन नह आ।
वमल
:
वॉटर एकदम रद्द है।
कमल
:
रोजगार का तार ही नह बैठा।
अमल
:
घर म बीमार ह।
वमल
:
मु ा इ तहान म फेल हो गया।
कमल
:
बाबूजी गुजर गए।
अमल
:
जतने सब ह
वमल
:
छः- छः- छः
कमल
:
ध ेरे क
अमल
:
वमल
वमल
:
कमल
कमल
:
अमल
अमल
:
वमल
वमल
:
कमल
कमल
:
अमल
(नेप य से घोषणा—एवम् इ जत्)
(लेखक का वेश)
अमल
:
अरे क व, या हालचाल है
वमल
:
अरे क व, या हालचाल है
कमल
:
अरे क व, या हालचाल है
लेखक
:
कल इ जत् क चट् ठ मली।
अमल
:
अ छा। या लखा है
वमल
:
वह तो वलायत गया था न
कमल
:
अभी लौटा नह
लेखक
:
परी ा म पास हो गया है।
अमल
:
वाह यह तो अ छ खबर है।
वमल
:
बस, लौटते ही नौकरी मल जाएगी। इंजी नय रग
लाइन बड़ी अ छ है।
कमल
:
अभी भी अपने यहाँ वदे शी ड ी क बड़ी इ ज़त है।


लेखक
:
या लखा है, सुनोगे
अमल
:
हाँ, सुनाओ।
वमल
:
चट् ठ ल बी है
कमल
:
होने दो न।
(लेखक प पढ़ना शु करता है। ये तीन ताश
खेलने लगते ह। इस बार बातचीत नह , केवल तीन
हाथ का खेल)
लेखक
:
कलक ा-भोपाल-ब बई-जल धर-मेरठ-उदयपुर-
कलक ा-ल दन। सारा अतीत रथ के प हए क तरह
घूमता गया है। फर भी ठ क प हए क तरह नह । हर
नया च कर पुराने को छोड़कर अलग च कर बना है।
यही े जेडी रही है। जानने क सबसे बड़ी े जेडी रही
है। कुछ पकड़ता ँ, फर सब शेष हो जाता है और
फक दे ता ँ। फर कुछ नया पकड़ता ँ।
फर भी यह आशा कसी तरह नह टू टती क कभी-
न-कभी कुछ-न-कुछ अस भव अ या शत घटकर
रहेगा ही। ( फर भी हर समय यह लगता है जैसे इतना
ही सब कुछ नह है। ऐसा लगता है जैसे कभी) कुछ
ऐसा अव य घ टत होगा जसके ती आलोक म
अतीत का सब कुछ धुँधला जाएगा। कैसा भोला व
है—न द टू ट जाने पर भी सपने क खुमारी और नशा
नह जाता।
( ी े ो
(इस बीच इ आकर लेखक क बगल म खड़ा हो
जाता है। अमल- वमल-कमल पूववत् ताश खेले
जा रहे ह।)

:
जो कुछ मलने लायक था, सब पा चुका ँ। और अब
यह कटु स य अनुभव हो रहा है क यह सारा पाना
कतना थ रहा है और मलेगा और मलने पर उसे
समेटने के लए चार हाथ नकल आएँगे—यह आशा
भी कतनी थ है। अतीत और भ व य आज भी
र सी के दो छोर ह— वपरीत ह सो भी इस लए क
अभी व का अ त व बचा है, नह तो भ व य को
मोड़-माड़कर सहज ही अतीत क गोद म डाल दया
जा सकता है। वतमान भी एक धू मल अनजाने
भ व य क ओर मुँह बाए दे खता अ न द -सा ही न
रहकर एक दन एक सीमाब सु न द ब बन जा
सकता है। कहने का मतलब—मृ यु का वरण कर
सकता है।
(मानसी ज़रा दे र पहले आ चुक है।)
मानसी
:
मृ यु का वरण

:
हाँ, मृ यु का वरण। वा तव म मृ यु म बड़ा सुख है। न
जाने कतने लोग मरकर सुख म ह सारे आगामी
भ व य को गत अतीत के साथ एकाकार करके परम
सुखी ह। मुझे भी तो एक-न-एक दन इसी तरह मरना
ही होगा। तो फर अभी ही य न मर जाऊँ
मानसी
:
ऐसा मत कहो। तुम जी वत रहो

:
जी वत रहने के लए मनु य को व ास क ज रत है
—भगवान पर व ास। भा य पर व ास। काम पर
व ास। मनु य पर व ास। व ोह पर व ास।
अपने ऊपर व ास ेम पर व ास। इनम से आज
कौन-सा व ास मुझम बचा है, बता सकती हो
मानसी
:
जीवन पर व ास है न

:
जीवन जहाँ वराट के उ र नह मलते वहाँ
छोट -छोट अथहीन सम या म उलझे रहना।
कुछे क अथहीन दखावा और झूठ जसक कोई
आव यकता ही नह थी। फर भी करना होगा—यही
जीवन है, मनु य जीवन। और म करोड़ -करोड़
मनु य म से एक ँ। मेरे जीवन का म या करोड़ -
करोड़ लोग के जीवन का म या है।
मानसी
:
तुम करना या चाहते हो या करोगे

:
या क ँ गा थककर चूर होकर सो र ँगा या सब
हँसकर उड़ा ँ गा शायद हँसकर उड़ा दे ना ही ठ क
होगा। जीवन है ही एक ऐसी हा यकर व तु क हँसी
रोकने का कोई अथ नह है।
(इ जत् अचानक अट् टहास कर उठता है।
मानसी और लेखक अलग–अलग दशा म चले
जाते ह। अमल- वमल-कमल बना कुछ समझे-
बूझे अट् टहास शु कर दे ते ह। लेखक पुनः वेश
े े ै ो
करके पाद- द प के पास आता है। दोन हाथ
उठाकर दशक को रोकने क चे ा करता है मानो
वे ही हँस रहे ह । अमल- वमल-कमल का थान,
इनक हँसी क आवाज धीरे-धीरे वलीन हो जाती
है।)
लेखक
:
आप लोग इस तरह हँ सए मत, म आपके हाथ
जोड़ता ँ, अब शा त हो जाइए। सच, मुझसे नाटक
नह बन पा रहा है। पर, म कतनी चे ा कर रहा ँ,
यह तो आप दे ख ही रहे ह। अमल- वमल-कमल का
नाटक और इ जत्
(मौसी का वेश)
मौसी
:
खाना नह खाओगे
लेखक
:
ना।
(मौसी का थान। मानसी का वेश)
मानसी
:
खाना नह खाओगे
लेखक
:
(दोन हाथ से मुँह ढककर) तुम भी
मानसी
:
नह , भूल हो गई। तुम लखोगे नह
लेखक
:
कैसे लखूँ इ जत् लौट नह रहा है। तीन साल म
उसने मुझे तीन च ट् ठयाँ लखी ह, हर एक म एक ही
बात।
मानसी
:
या
लेखक
:
यही क वह च कर काट रहा है, घूम रहा है, घूम रहा
है, पर मरता नह । न जाने कतने अटपटे व दमाग
म घूमते रहते ह, पर कसी तरह मरते नह । बोलो, जो
जीवन को वा त वक प म दे खता है और व
समझता है, उसे लेकर नाटक कैसे लखा जाए
मानसी
:
उसी को लेकर तो नाटक हो सकता है।
लेखक
:
नह , नह । जतनी बार म उसे घटनाच म ले आता
ँ, वह उससे बाहर छटक पड़ता है। कहता है—यह
वा त वक घटना नह है। जतनी बार उससे कोई बात
कहलवाना चाहता ँ, वह उस बात क प र ध से
बाहर जा खड़ा होता है। कहता है—यह वा त वक
बात नह है। उसने ब त-कुछ जान लया है, ज रत
से यादा जान लया है।
मानसी
:
फर भी वह व दे खता है।
लेखक
:
ो ो
एक-न-एक दन तो व का अ त होगा
मानसी
:
हाँ, सो जानती ँ।
लेखक
:
तब
मानसी
:
होने दो अ त।
लेखक
:
उसके बाद
मानसी
:
तब तो फर व के तनके के सहारे तैर नह
सकेगा
लेखक
:
तब फर डू ब जाएगा
मानसी
:
डू ब जाएगा तो डू बने दो। शायद डू बकर ही वह धरती
का ठोस आधार पा सकेगा। शायद वह से जीवन क
शु आत हो।
लेखक
:
तुमने कैसे जाना


मानसी
:
मने मने या जाना, कुछ भी नह । म तो बेवकूफ
ँ, म कुछ भी नह जानती। म तो केवल व ास
करना जानती ँ।
(मानसी का थान)
लेखक
:
व ास पाताल का व ास
(इ का वेश)

:
(क वता)
आ तक क द नता लये म तैर रहा ँ।
तृण के ऊपर डाल भार सारे जीवन का, तैर रहा ँ।
कोहरे क साद साँस ने
छपा लया है कूल- कनारा।
इस वास म जाना मने एक त य है
मेघ के उस पार
वण से मं डत दखता राजपाट
औ’ तारा के पार डू बते-उतराते वग क छाया
सब है म या।
तुमसे वनय—
सा वना झूठ दे ना छोड़ो
मन से र नकाल फक दो
आ था औ’ व ास युग का।
( वयं डू बकर दे खो कतने गहरे म है
धरती का तल।

मानव है चल
और साथ ही याशील है।
नह चूकता डू ब लगाकर
जा पातालपुरी तक प ँचा
पाने को अ धकार
डोर शासन क अपने हाथ लेने)
लेखक
:
इ जत्

:
बोलो।
लेखक
:
तुम लौट आए

:
हाँ।
लेखक
:
कब आए

:
ब त दन हो गए।
लेखक
:
हो कहाँ

:
कलक ा म।
लेखक
:
या करते हो

:
नौकरी।
लेखक
:
याह कया

:
हाँ।
लेखक
:
मतलब, अ त म मानसी कसी तरह याह के लए
राजी हो ही गई।

:
ना।
लेखक
:


:

ीऔ े ै
कसी और से याह कया है।
लेखक
:
कसी सरी से

:
हाँ।
लेखक
:
वह कौन है

:
एक औरत।
लेखक
:
नाम

:
मानसी।
लेखक
:
यह कैसे स भव हो सकता है

:
नया म ऐसे ही होता है। न जाने कतनी मानसी
आती ह और चली जाती ह उ ह म से कसी एक के
साथ ववाह होता है। फर जाने कतनी मानसी आती
ह और फर चली जाती ह मानसी क बहन मानसी।

ी े ी ी ी
मानसी क सहेली मानसी। मानसी क लड़क
मानसी।
लेखक
:
वैसे ही जैसे अमल- वमल-कमल

:
हाँ, वैसे ही जैसे अमल- वमल-कमल एवम् इ जत्।
(मानसी का वेश। सर पर आँचल है।)
आओ तुमसे प रचय करवा ँ । मेरी प नी मानसी और
ये मेरे पुराने म , लेखक।
लेखक
:
नम कार।
मानसी
:
नम कार। आप या लखते ह
लेखक
:
जब जो लख जाए
मानसी
:
आजकल या लख रहे ह
लेखक
:
एक नाटक लखने क चे ा कर रहा ँ।
मानसी
:
े ँ े
मुझे सुनाएँगे
लेखक
:
ज र। पूरा हो जाने द जए, फर सुनाऊँगा।
मानसी
:
अभी कतना बाक है
लेखक
:
यादा नह । बस आजकल म लखना शु क ँ गा।
मानसी
:
अभी आपने शु ही नह कया है
लेखक
:
कहाँ कर पाया
मानसी
:
आपने कहा न क पूरा होने म अ धक बाक नह है।
लेखक
:
इस नाटक के आर भ और अ त म अ धक अ तर
नह है। नाटक वृ ाकार है।
मानसी
:
आपक बात समझ म नह आ रही ह।

:
समझोगी कैसे मानसी बात या समझने के लए
होती ह
मानसी
:
वाह, बात समझ म आने के लए ही तो कही जाती
है।

:
वह पहले कही जाती थ । अब केवल अ यासवश ही
कही जाती ह।
मानसी
:
हटाओ भी। सब फालतू क बात ह।

:
फालतू क ह, यही तो म भी कह रहा ँ, वह दे खो
(अमल- वमल-कमल का वेश। मंच क सरी ओर
खड़े वे बात करते ह।)
मानसी
:
वे कौन ह
लेखक
:
वे अमल- वमल-कमल ह।
अमल
:
धनतं -राजतं -गणतं ।
वमल
:
सा ा यवाद-नाजीवाद-मा सवाद।
कमल
:
अथनी त-टडर- टे टमट।
वमल
:
रपोट- म नट् स-बजट।
कमल
:
मी टग-कमेट -कॉ स।
अमल
:
स यता- श ा-सं कृ त।
वमल
:
सा ह य-दशन-इ तहास।
कमल
:
- नवाण-भूमा।
अमल
:
राजकपूर-माला स हा- व जत्।
वमल
:
उ ीगर-कृ णन्- मलखा सह।
कमल
:
हेम त कुमार-एस.डी. बमन-लता मंगेशकर।
अमल
:
डॉ टर-हो मयोपैथ-क वराज।
वमल
:
ाम-बस- े न।
कमल
:
नरम-कूड़ा-म छर।
अमल
:
बेटा-बेट -प नी।
वमल
:
मा टर- ाइवर-बावरची।
कमल
:
साली-भानजा-ससुर।
मानसी
:
वे या कह रहे ह

:
बात कर रहे ह, बात

( ै े
(अमल- वमल-कमल हाथ-पैर हलाते नःश द बात
करते चले जाते ह।)
मानसी
:
या बात

:
मुझे नह पता। लेखक से पूछो।
मानसी
:
(लेखक से) अ छा, इसके सवा या और कोई बात
नह ह
लेखक
:
लगता तो है क ह। ज र ह।
(सामने आकर दशक से पूछता है।)
इसके अलावा या बात नह ह (दशक न र)
नह ह ( फर नीरव) तब फर म कसे लेकर नाटक
लखूँ इन सब बात को लेकर ऐसे नाटक म कौन
अ भनय करेगा कौन दे खेगा
(इ और मानसी जाने लगते ह।)
इ जत् जाना मत।
(मानसी चली जाती है। इ लौट पड़ता है।)
पहले बताकर जाओ।

:
या
लेखक
:
ी ँ ै
मानसी कहाँ है

:
अभी ही तो गई है।
लेखक
:
यह मानसी नह । वह जो हज़ारीबाग म रहती थी। वह
कहाँ है

:
हज़ारीबाग म है।
लेखक
:
उसे चट् ठ नह लखते

:
लखता ँ।
लेखक
:
उससे भट होती है।

:
बीच-बीच म होती है।
लेखक
:
कहाँ

:
उसी मैदान म—घने पेड़ के नीचे।
लेखक
:
बात करते हो

:
हाँ, करता ँ।
लेखक
:
या बात करते हो

:
जो सदा से करता आया ँ—अपनी बात, उसक
बात।
लेखक
:
वे बात भी या अमल- वमल-कमल क बात क
तरह ही होती ह
(इ न र रहता है।)
बोलो इ जत्
(इ तब भी उ र नह दे ता—केवल पीछे के उस
मैदान म चला जाता है, उसी पेड़ के नीचे। वहाँ
हज़ारीबाग वाली मानसी है।)
मानसी
:
बोलो।

:
या बोलूँ
मानसी
:
वही जो कह रहे थे।

:
या कह रहा था
मानसी
:
तु हारे घर-प रवार क बात।

:
अरे हाँ, मेरी ी घर क दे खभाल करती है। म नौकरी
करता ँ। मेरी ी सनेमा जाती है, म उसके साथ
जाता ँ। मेरी ी पीहर जाती है। म होटल म खा
लेता ँ। वह लौटकर आ जाती है—म बाज़ार करता
ँ।
मानसी
:
यह सब या कह रहे हो

:
य , मेरे घर-प रवार क बात तु ह तो सुनना चाह
रही थ
मानसी
:
ये सब बात म बलकुल नह सुनना चाह रही थी।

:
तब फर या सुनना चाहती हो
मानसी
:
तु हारी बात।

:
मेरी बात म म एक रेल-लाइन पकड़कर चल रहा
ँ—सीधी रेल-लाइन है। पीछे मुड़कर दे खता ँ तो र
एक ब पर लोहे क दोन लाइन मल गई दखती
ह। सामने दे खता ँ तो वही र एक ब पर दोन
लाइन मल गई ह। म जतना ही आगे बढ़ता जाता ँ,
वह ब उतना ही खसकता जाता है। जो पीछे , है
वही सामने भी। अतीत और भ व य म कोई अ तर ही
नह , जो अतीत म है, वही भ व य म भी।
मानसी
:
फर

:
सोचता था चाहे पीछे , चाहे सामने से कोई गाड़ी
आएगी।
मानसी
:
गाड़ी आती तो या करते

:
कूदकर र हट जाता या दौड़ने लगता या कौन जाने
दब ही जाता कुछ तो होता। पर नह वह कैसे

ो े ो ै ी
होता मुझे मालूम हो गया है, उस लाइन पर गाड़ी
नह चलती। इसी लए सोचता ँ
(चुप हो जाता है।)
मानसी
:
या सोचते हो

:
सोचता ,ँ अब चलना ब द कर ँ । चलने से कोई
लाभ नह है। न होगा तो उसी लाइन पर लेट र ँगा।
मानसी
:
(ज़रा ककर) ऐसा नह होता इ ।

:

मानसी
:
सामने जब पथ है तब चलना ही होगा।

:
ब त तो चल चुका ँ।
मानसी
:
और भी चलना होगा, इ

:
म थक गया ँ।

मानसी
:
फर भी चलना होगा।

:
य य य यही एक रा ता है, म चला चल
रहा ँ, चला चल रहा ँ, चला चल रहा ँ, फर भी
न कृ त
मानसी
:
नह न कृ त नह है इ ।
लेखक
:
(क वता)
नह , नह है न कृ त।
भीगा मन औ’ ु धत दोपहर
खं डत दन।
नजन न ाहीन रा ह।
म ँ
शेष अभी ँ—जा त् भी ँ
सब है मरण
अभी तो जीवन ब त शेष है।
(रहा अभी तक जो वह अब भी
र- र—ब र- र तक रहना
सब तो मेरा ही है और यही म।
फर भी न कृ त नह ।)
ला त र हो शा त मलेगी
इस आशा म र- र म उड़ता जाता
े े
ऊपर उठते, उठकर गरते
थके पंख पर डाले भार
( ण- ण के कण-कण ह बखरे
और समय क सावभौमता
मानो खं डत चूर-चूर हो।)
मुझे नर तर घुमा रहा है
च का काम-काज का भारी
गु -ग भीर चर-चूँ करता।
झूठ बात के खाली गु बारे म
भरता फूँक-फूँककर हवा। हाय, पर
फर भी न कृ त नह ।
(तुमसे है अ ात नह कुछ।
तुम प र चत हो उन बात से
सब बात से
जो नज संग मधुर झंकृ त का रव ले आत ।
और काश, नशा ले आत ।
व छ रँगे व के नीचे सड़ा-गला जो उसे ढाँकत ।
तुमसे है अ ात नह यह स य क
जो कुछ है सम
वह जीण पुरातन धागे म गूँथे फूल का हार
क जसके फूल शी ही झर जाएँगे।)
तुमको है यह ात
क मेरे जीवन का अवसान नह
म ँ मृत अपने ही।
फर भी य तुम बात एक ही
बार-बार कहते क
चलो तुम, और चलो तुम, और चलो

े ी ी
या न मलेगी न कृ त अब भी

:
पर य
मानसी
:
पथ जब है, तब चलना ही होगा।

:
य चलना होगा पथ के उस पार या है म
कस लए चलूँ
मानसी
:
सब कस लए चलते ह

:
सब
(सामने क ओर से अमल का वेश। लेखक से भट
होती है।)
लेखक
:
अरे अमल, कहाँ चले भाई
अमल
:
परी ा दे ने जा रहा ँ।
लेखक
:
परी ा इस उ म
अमल
:
इं ट ट् यूट ऑफ़ बेटरमैन शप क परी ा। पछले
साल भी द थी पर पास नह हो सका। (एक बार
और चे ा करके दे खूँ। करेसपांडस कोस लया है।)
लेखक
:
यह परी ा दे ने से लाभ या है
अमल
:
लाभ, है भाई है। इस इं ट ट् यूट क एसो सएट
मे बर शप मल जाने से कोई मोशन नह रोक
सकता। (मैनेजर क पो ट तक प ँचने म कोई
असु वधा नह होगी) चलूँ भाई, दे र हो जाएगी।
(अमल का थान। वमल का वेश)
लेखक
:
अरे वमल कहाँ चले
वमल
:
सीमट के पर मट के सल सले म जा रहा ँ (तगादा
न करने से तो वहाँ फ़ाइल हलेगी नह ।)
लेखक
:
सीमट या होगी
वमल
:
मकान बनवा रहा ँ। (सी.आई.ट . क म म एक
ज़मीन ली है। रज़व दाम है साढ़े छः हजार और
नीलामी पर चढ़कर हो गया नौ हज़ार आठ सौ
ो ै ी ओ
पचास। या दाम हो गया है ज़मीन का अब बताओ
क मकान बनाने को पैसा कहाँ से लाऊँ ) गवनमट
लोन, इं योरस लोन, ए लाइज़ े डट लोन सब ले-दे
करके भी दो मं जल से यादा नह बना पा रहा ँ।
लेखक
:
तो फर अभी बनवाया ही य
वमल
:
और या करता बोलो (आजकल पए क कोई
क मत है ) एक मकान हो तो बुढ़ौती म कम-से-कम
रहने का ठौर- ठकाना तो रहता है। ( फर बाल-ब च
क बात भी तो सोचनी पड़ती है।) चलूँ भाई, दे र हो
रही है।
( वमल का थान। कमल का वेश)
लेखक
:
अरे कमल कहाँ चले भाई
कमल
:
ज़रा यामल के ऑ फ़स जा रहा ँ। उसने कसी एक
फ़ाइन सयर का जुगाड़ कया है। दे खूँ, य द समझा
सका तो
लेखक
:
या समझाओगे
कमल
:
एक बड़े अ छे बज़नेस क क म है—फुल ूफ
क म है। (इ पोट लाइसस मल जाएगा, एसे ब लग

ोई े ी ो ी ै
म कोई परेशानी नह होगी। बड़ा अ छा माकट है।
बाज़ार म माल प ँच ही नह पाएगा—सब बु ड इन
एडवांस) बस खाली पूँजी के लए ही क है। (हमने
और यामल ने मलकर उधार का इ तज़ाम कया है,
उसम पूरा नह पड़ रहा है) फ़ ट न परसट सूद पर
भी पया नह मल रहा है।
लेखक
:
तो इस समय यह रोज़गार ही मत उठाओ।
कमल
:
न उठाऊँ तो खाऊँगा या नौकरी तो ऐसी ही है।
भगवान क दया से छः ब चे ह। (लड़क के
टायफॉयड म एक हज़ार पए गल गए। बचले
लड़के को कूल म मोशन नह मला—एक साल
क फ स का नुकसान हो गया। इस तरह कब तक
चलेगा ) चलूँ दे र हो रही है।
(कमल और लेखक दोन का थान)

:
और सब। यही और सब ह। यही अमल- वमल-कमल
ह।
मानसी
:
फर भी तो वे चल रहे ह।

:
वे सुखी ह, मानसी उनके सामने कुछ है—ल य है,
आशा है, व है।
मानसी
:
े ै
तु हारे पास नह है

:
ना, कुछ नह है।
मानसी
:
कभी था भी नह

:
था, कभी था य नह म खुद था, मने मान लया
था क मुझे कुछ करना है। या यह म नह जानता
था पर पर कुछ वराट कुछ वशाल। म व दे खा
करता था मानो एक वल त उ का क तरह म
दशा को भेदकर ऊपर आया ँ—आकाश के इस
कोने से उस कोने तक म बस ऊपर ही उठता जा रहा
ँ तब तक जब तक क उ का क अ न जलकर
न शेष न हो जाए। और आकाश म ण-भर के लए
आँख को झुलसा दे नेवाली एक वाला मा शेष रह
जाती है।
मानसी
:
जलकर भ म हो गए

:
कहाँ मानसी काश ही नह आ। आकाश म
वाला ही नह रही। म दग त भेदकर आकाश म
ऊपर उठ ही नह पाया।
मानसी
:


:
मुझम वह मता नह है, कभी भी नह थी। मने
केवल मता का व दे खा। म एक अ य त
साधारण ँ। जब तक इसे वीकार नह कर
पाया तब तक व म था। आज वीकार करता ँ।
मानसी
:
इ जत्

:
ना-ना मानसी मुझे इ जत् मत कहो, म इ जत्
नह ँ। म नमल ँ। अमल, वमल, कमल और
नमल। म अमल, वमल, कमल और नमल ँ।
(बोलते-बोलते ाकुल-सा इ सामने आ जाता
है। लेखक आकर पीछे खड़ा होता है। मानसी बैठ
रहती है।)
लेखक
:
इ जत्

:
आप शायद भूल कर रहे ह। मेरा नाम नमल कुमार
राय है।
लेखक
:
मुझे पहचान नह रहे हो, इ जत्

:
कौन तुम लेखक

लेखक
:
म अपना नाटक पूरा नह कर पा रहा ँ, इ

:
पूरा करके या होगा उसका अ त नह है। उसका
आ द-अ त सब एक ही है।
लेखक
:
फर भी लखना तो होगा

:
तु ह लखना है, तुम लखो। मेरा कुछ भी नह है—म
नमल ँ।
लेखक
:
तु हारा कुछ नह मोशन, मकान, बज़नेस क म
कुछ भी नह फर तुम नमल कैसे होगे

:
पर पर म तो एक साधारण ँ।
लेखक
:
फर भी तुम नमल नह हो। म भी साधारण ँ
फर भी नमल नह ँ। हम और तुम नमल नह हो
सकते।

:
तब फर हम लोग कसके सहारे जएँगे

लेखक
:
पथ के। हम लोग के लए केवल पथ है, हम लोग
चलगे। लखने के लए मेरे पास कुछ नह है, फर भी
लखूँगा। बोलने के लए तु हारे पास कुछ नह है फर
भी बोलोगे। मानसी के पास जीने के लए कोई
आधार नह है फर भी वह ज दा रहेगी। हम लोग
के लए पथ है, हम लोग चलगे।

:
दे वराज जू पटर के अ भशाप से स सफस क
ेता मा एक बड़ा भारी प थर ठे लते-ठे लते पहाड़ क
चोट तक ले जाती है, पर चोट पर प ँचते ही तुर त
प थर नीचे लुढ़क जाता है। वह फर ठे ल-ठे ल ले
जाता है, प थर फर गर पड़ता है।
लेखक
:
दे वराज जू पटर के अ भशाप से स सफस क
ेता मा ह। हम भी जानते ह क वह प थर लुढ़क
जाएगा। जब ठे ल-ठे लकर ऊपर ले जाते ह तब जानते
ह क इस मेहनत का कोई अथ नह है, पहाड़ क उस
चोट का भी कोई मतलब नह है।

:
इतना सब जानते ए भी ठे लना होगा
लेखक
:
हाँ, सब कुछ जानते ए भी ठे लना होगा। हम कोई
आशा नह है य क भ व य के बारे म हम जानते ह।
हम लोग का अतीत और भ व य एकाकार हो गया
है। हम जान चुके ह क जो हमारे पीछे था, वही हमारे
सामने भी है।

:
फर भी ज दा रहना होगा
लेखक
:
हाँ, फर भी ज दा रहना होगा। फर भी चलते जाना
होगा। हम लोग के लए तीथ नह है, केवल
तीथया ा।
(मानसी आकर लेखक और इ जत् के बीच म
खड़ी हो गई है। तीन क सामने है, त नक
ऊपर। लगता है, मानो े ागृह क द वार पार कर,
हवा और आकाश का े पार करके कह ब त
र चली गई है वहाँ, जहाँ पथ क दोन रेखाएँ एक
ब पर मल गई ह। चार ओर अ धकार म एक
काश-पुंज उ ह आलो कत कए है। र से वर
सुनाई पड़ता है।)
इसी लए तो इस पथ का म
अ त नह पाता ँ।
नह कह आ ास क
या ा के पूरी होने पर कोई
दे वलोक स मुख होगा
या क नेह- पश से अपने
पथ- म कोई र करेगा।
इसी लए यह या ा अब है अथहीन
उद्दे यहीन-सी।
तो भी सोच क ँ य
हो, ऐसी ही होनी है तो
इ छा केवल थ सब पड़े रह
उत अतल गत म।
शोक सभी म जाऊँ भूल।
ी े
जीवन के उस वण- ात म
मु - दय न भाव से
द ा ली थी पदया ा क
सतत तीथया ा करने क ।
जीवन क स या म प ँचा
मन मेरा यह भूल न जाए
द ा के उस मूल मं को—
तीथ नह , है केवल या ा
ल य नह , है केवल पथ ही
इसी तीथ पथ पर है चलना
इ यही, ग त यही है।

You might also like