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९.५ ~ छन्ने ५ प~ प त ॥
९ # मी | > “
एन्नष्धात प्रणत ब्यप्राता. ९
प्रान सम्पादकं ~ फतर्हात्ह, एम.ए ,डी.लिट्‌

{ रिदेशक, रायस्याने परच्यदियः मतिष्ठान, जोषपुर }

भन्याङ्क ११७

साद्यायनमूनिग्रणीत

सांख्यायनतन्त्रम्‌ ९-५+ “
0५ छः खर दया
१ = 01, षतत दातत,
ध व । < प्रसीद १
४९९-402
सम्पादको ५ र
गोस्वामिधीलक्मीनारायण-दीक्षितः ५८५ ४ <
४८५५
वरिप्ड-दोयसहायकः, ए , १
सानस्थान प्राच्यविचः प्रतिष्ठान्‌, जोधपुर म

< 9८
56 ^|
वे 55५४4
शचस्यान-राञ्य-सस्यापित

£ शंजस्थान प्राच्यतिया धरतिष्ठाने


॥ लोधपुर {राजस्यान)
2५1५8 छशा ^ा. एटऽट
^द्0प्त ्णकए, 0 प्णणषह्‌

१९७० ई“
भ्रयमावुत्ति १००० न. मृष्य
एणेरथा पततत प्रथम्रात्ता
शाजल्यान-राभ्य द्रा प्रकान्नित
पामन्यिते अ्रलिलमारततीय तथा विशेषतः राजस्यानदरेीय पृरातनकालीन
संसृत, प्राक्त, श्रप्रंश, हिन्दी, राजस्थानी ग्रादि भापानिष्ड
विविघवाढमय्रकाधिनो विदिष्ट-ग्रगथावली

ग्न सस्फणदक

एतह्हि, एम ९.ॐ.तिदट्‌.
निदेशक, राजस्थान प्राच्यविदयां प्रतिष्ठान, जोधपुर
(द
<" ~^

(2१५
130 "-7 €

९0 मन्याङ्ग ११४
< }.
सांस्यायनमूनिप्रणोतं

सांख्यायनतन्त्रम्‌

प्रकाशक
शाजस्यार्न-राग्याश्ानुषाद्‌

निदेशक, राजस्थान प्राच्यिव्या प्रतिष्ठान


जोघपुर (राजस्थान)
१६७० ई

वि> प° २०२६ मारतराष्टीय घक्ाम्ड १९६१

पृदक हरिप्रसाद पारोक, छदना प्रे, जोधपुर


प्रधानसम्पादकीय वक्तन्य

ारायण गोस्वामोने ५ हस्तलेखो के


प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन श्रोलक्ष्मोन
तो को पाद-द िप्पणि्यो मे दे दिया है) विद्वान्‌
श्नाधार पर क्ियाहैभ्रौर पान्
म सूप मे प्रस्तुत करने के श्रतिखित न
सम्पादक ने पुस्तक के पाठ को चुद्धत
नो के लिए श्नमि तु साधक ो के लिए भो उपयोगी एव भ्रावश्यक
केवल विद्टा यद्यपि
ोकेखूपमेदे दिया है । यह प्रन्य
सामग्री को भूमिका तया परिकिष्य लिए यह भ्रत्यन्त महत्वपूणे
"वगला ' कौ साधन ा के
श्राकारमे घोटा है, परन्तु स्तुत्य
करे का जो प्रयल कियादै वह
ह । सम्पादकने मन्रोढार को स्पष्ट फे व्यवह ासक्ष का कितना
ोजी कौ त्त्र
है रोर इस प्रकट है कि शरीगोस्वाभ की
मे मिला है1 हसीप्रकार पुस्तकं
ज्ञान श्रपती वैतृक सम्पत्ति के रूप निगमा दि केषिषयमे जो सामग्री
ेत सम्पा दक ने भ्रागम
भूमिका के श्रनतग े इस सबके लिए विद्वान्‌ सम्पादक
है भोरम
्रस्तुत क है वह्‌ भी बडी उपयोगो व्यवहार
शरनेक म्रन्य प्रकाशित हुए है, परस्तु
कौ बधाई देता ह ! तम्तशास्न के है। मेरी इच्छ ाथी कि वह्‌
दर्बो च वन गए
पक्ष की उपेक्षा करने घे वे प्राय तन्त- व्यवह ार मेभी पार्वत,
1 श्रीगोस्वामोजी
कमो इस ग्रन्यमे सदी रहती उन्होने किसी
नके लिए कठिन नदी. था नौर
श्रत इस कमी को दर करना के ्राकारके बढने
भह) षरन्तुफिर भी ग्रन्थ
सोमा तक षसको दूर फिया दूसरे सूप मे तन्त्र
ी नही दी गर! ध्राशा है वह्‌ सब
छे भयस बहुतसी सामग्र मन्यत्र दीजा सक्रेमी।
उपस्थ ित करते हए
ष्यास्त्र के व्यवहारपक्ष को महोदय की भ्रनेक
गया धा, परन्तु सम्पादक
ग्रन्य का मुद्रण प्रारम्भ हो भरनेक विध्न
कटिन ादयो श्रथव ा प्रति ष्ठानया प्रस म उपस्थित
घ्यवितगतत लिएमे
के भ्रक ादनम े भ्रात ातीत विलम्ब हुमा जिसके
बाधाभ्नो के कारण, अरन्य
क्षमाप्रार्थी हं ।
परहिष्ठान बी श्रोर से यर तया साधना प्रेस
प्मन्त मे, मै प्रका शन विभाग ई शरष्यक्ञ म० विनयत्ता
धन्य वाद प्नपि त करता हूंजिन्दोने
पारीक को
क्ते व्यवस्थापक श्रीदरिथिसाद दहै।
के साय इस प्न्य को प्रवात कले म सहयोग दिया
रुचि एव खगन
--फतरहातिह

१ ज्वरो, १६७० ]
जोधपुर
भूमिका
भारतवेपं एक र्म्रधान देय है? यहां ्रनादिकाल से निगम एवे श्रागम-
सम्मत धर्मकीहौी स्थिति प्रधान रूपमे प्रचित रही,है । भन्तेब्रह्मिणात्मक
वेदो को निगम श्रथवा छन्द नाम से वामन, भटरोजी दौक्षित श्रादि महापण्डितो
ने श्रभिहित किया है- नितरामत्यन्त निश्चयेन वा गच्छन्ति ग्रवगच्यन्ति
(जानन्ति) धर्ममनैनेति निगमच्यन्द ' श्रथति रन्तर श्रयवा निश्वयपूर्वक
किसके द्वारा धर्म कौ जानत हंउसे निगम श्र्थात्‌ छन्द कहते! परा श्रौर
श्रपरा-नामक विद्याप्नो' कौ स्थितिभी इसी म निहित है श्रत इसी निगम
को धमशास्न के श्राचायं मनु ने विद्या एव धर्मे कास्थान माना टै वेदमणि-
हितो धर्मो द्यधमेस्तद्विप्यय ` भ्र्थात्‌ वदविहित काये ही धमं एवे तदितर
काये भ्रमे ह । याज्ञवल्क्य ने भो पुराण, न्याय, मीमासा एव घर्मेशास्वरस्वरूप
श्रद्धे युक्त वद को धमे एव चौदह विद्याग्नो का स्थान वत्तलाया है--
शुर णन्यायमोमासायमेशास्ताङ्खमितरितः !
वेदा स्थानानि विद्याना घर्मस्य च चतुददा ।*
त्रिकालदर्शी महपियो ने सम्पूण शब्दराशि को श्रागम-निगम-मेदसेदो
भागो मे विभक्त किया है! क्यो कि प्रकृतििद्ध नित्यशब्दव्रह्म इन्ही दो भागो
मे विभक्ते है । यद्यपि श्रयो वागेवेद सवम" वाचौमा विर्वा मुवनान्यपिता'*
भ्रादि शरौतसिद्धान्तौ के भ्रनुसार वाक्तत्व से प्रदुभंत होने वाले शब्दप्रपञ्च से
कोई स्थान खाली नही है तयापि स्वर्गनाम से प्रसिद्ध १४ प्रकार वे न्तस के
साय भधानस्प से श्रगिनिवाक्‌ प्रौर इ्रनाक्‌ काही सम्बन्धे है। परथिवी प्रन
मयी है रौर शलोकोपलक्षित सूयं इन्द्रमय है* । पार्थिव एव सौर परग्नि
श्घ्नाद (रन्न खानेवलि) हँश्रौर मध्यपतित चान्द्र सीम इन श्रग्नियोकाश्रतन बन १
रहा दैः । श्रत जवेभ्रनादके उदर मे चला जाता हैतो केवल श्रन्नाद-सत्ताहौ

१ ध विद्य वदितप्ये परा चंवापरा च । (१) प्ररा--उपनिपद्विया। (२) पपरा--


कऋगवेदाद्वि 1
२ दतरेयारण्यङ० ३।११६।
३ त्तिरीय दाह्य २।८।६।४॥
४ यथानिगर्भां पृथिवौ ववा द्यौरिद्रोर गभि दातपधव्राह्यण १४५६।७।२*
५ "एष वं सोमो राजा देवानामन यच्वदमा" वि शद्ध
[ २ 1
रह्‌ जाती है, श्रत कौ स्वतन्ता हट जाती है* । इसीलिये वरैलोक्य के लिये
द्यावापृथिवौ' का व्यवहार ही होता है 1 भरत प्रधानत पृथिवीलोक एव सू्य-
लोक हौ रह्‌ जति है 1 दोनो अनिमय ह 1 पाथिवाग्नि गायत्रागिनि है श्रर सौर
है* । वै्ानिक
स्मण्नि साविव्राणिहै। ये दोनो भ्रग्नियां श्वाक्‌' फहूलाती
वाक्‌ वृहती
परिभाषा के श्नु्ार पृथिवो को वाक्‌ श्ननुष्टुष्‌ भ्रीर सूयं की
वृहुती-
-फहलातो £ ।श्रनुष्टुप्‌ वाक्‌ से वचटतप श्रादिरूपा वणेवाक्‌ का तथा
वाक्‌सेम्मभ्रां द्‌ श्रादिरूपा स्वरवाक्‌ का प्रादुर्भाव होता है। 'स्वरोऽक्षरम्‌'
मे'श्रनुसार स्वर श्रक्षर है, प्रविनाी है 1 वणे क्षर'है, विनाशशील ह 1 जिस
प्रकार श्रथमृष्टि मे भौतिक क्षरकूट की अ्रतिष्ठा भ्रक्षरतत्व है उसी प्रकार
भ्रथेब्रह्म की समान
ष्दाद्दे ब्रह्मणि निष्णात प्र ब्रह्माधिगच्छति" वै श्रनुसार
भक्षररूप
धारा म प्रवाहित हाने वाले शब्दब्रह्म मेभी क्षरशूपवर्णे फी प्रतिष्टा
क्षरषूपा
स्वरतत्व ही है। प्रथब्रह्म मे जैसे ध्रमररूप सूयेसत्ता को छोडकर
पृथिवी भ्पने रूप भे प्रतिष्ठित नहौ रह सकती है इसौ प्रकार सूर्यवाटुमूलक
स्वरतत्व फे विना पूथिवीमूलिका वेश्ारि भी स्व-स्वरूप भे प्रतिष्टित नही
त्रयीविद्या ६। सूये
रह सक्तीहै। स्वरमूलक इस सूर्येविद्या का ही नाम
भोर
नही तप रहार, श्रयीविद्या तप रही रै, 'तेपात्रययेव विद्या तपति'*
है,
च्रसौमयाय च्रिगुणाप्मने नम" कामी यही रदस्य ६ । यह बेदतत्व नित्यतत्व
स्वय प्रादुभरुत दै, स्वय ब्रहम के मुख से उद्गौणे दै । दसीलिये महपियोने दते
निगम" एव श्रुति की सज्ञा दौटै।
शमि, मङ्गल, शुक्र, बुघ, पृथिवौ भादि सूयं के उपग्रह! सू्ंफादही
रहा है।
्रवग्यभाग धनि भ्रादिरूप न परिणत हो वर सूयं मै चारो भोर पुम
। पृथिवी-
सूवि्या या भरशमूत पूथिवीलोक सूये के चारों भ्रोर धूम रहा है
लिये महपिर्यो ते
विद्या सूर्येविद्या से भराई ६। दषो रहस्य कौ समभ्राने के
पृथिवीविद्या स्वय
पृथिवोविद्याकानाम मागम" रखा दै ! सूर्येविया कै तरह्‌
ठपरष्हाजा
नित नही है भ्रपितु निगम से भाई ६ ननिगमादागत भ्राम '।
भरागमदास्मोव्त
चका है कि पृथिवौ की वाम्‌ वर्णेवाक्‌ स्वर से भिन्न है! भरत
माना जाता है। वहाँ केवल
प्रपौगो का उदात्तादिस्वरो से विशेष सम्बन्ध नही

परत्तैवाद्पायते नादम्‌ ।
१ ष्ट्य दा इदम ~ ्रत्ता चवाज्य । तयदोमय समामस्छति
स्वय सोऽत्तागिनिरेव सं 1" दातपपद्रादयण १०।६।३।द१
श शत्य वा एतप्याम्नेवयिवोपनिपत्‌ 1 , १०।५।११
३ दाद्पपन्राह्णम्‌ १०।५।२।२।
{ »*
प्रादेश" वो श्रागमः वदते हं जिस प्रकार चारोवेदो मे प्रक्ट श्रादे् निगम
कट्‌! जाता है । श्रागमवादौ इस उद्‌प्वमुख को परमेदवर अर्त्‌ दिव का पञ्च-
ममल कहते हे नोर वहु ऊर्व्वखघोत दवारा ब्रह्यविद्या चार वेदो म ही चमाप्त नही
होती परन्तु देश, काल श्नोर निमित्तो के परिवक्तंन से युगानुसार सिद्धजनो द्रा
प्रकट होतौ है) इसीलिये माण्ड्कयोपनिपद्‌ः को अागमप्रकरण ही कहते है ।
भ्रागम का लक्षण वाचस्पतिभिध्ने इष प्रकार कियाद कि जिसतेमोग
भ्रीर मोक्ष दोनो का स्वरूप समम्प जा सके वहं ग्राग्रम है 1 भाचीन वेद-साहित्य
कमकाण्ड द्वारा केवल स्वर्गादि योगसाघनो का स्वर्प समभ्ता है सधवा
ज्ञानकाण्ड द्वारा केवल मोक्ष का स्वहूप भ्रौर उसके साधने वत्तलाता है, परन्त्‌
“ पञ्चम प्रागमे साहित्य भोग श्रौर मोक्ष को एकवाक्यता करके क्रमपूवेक
स्यवहारसुख श्रौर परमार्थसुख दोनो दे सक्ता है।
तन््~प्रायम
तन्यर वह्‌ विज्ञान ई जो पसे साघनो भ्रौर योगौ का निर्देश करता ह जिनके
दाया मनोबल कौ उति कौ जा सकती है! इन साघनो एव प्रयोगो का उदेश्य
निस्सदेह मोक्ष कौ प्राप्ति है। परन्तु एक जन्म मे सव लोग इस स्थिप्ति पर
नेही पहुंच सक्ते, श्रभ्यास करते-करते उनके भ्रन्दर कुं ॒विरिष्ट दाविति
जागृत हो जातो है जिन्हे सिदि कहते ह । षिदियां कू अरलोकिक शम्यां है `
जिनकाप्रयोगवे ही कर सकते ह जिन्होनि इह प्राप्त किया है । घन्य कोईभौ
व्यक्ति इनका उपयोग नही कर सक्ता । परातञ्जल योगसून में प्रणिमा,
प्रिमा, लघिम्ना ग्रादि भ्राठ सिद्धियां मानी दहै । परन्तु उसके पीधेकेग्रन्योते
चौतीस सिद्धियां मानी हं । हिन्द भौर बौद तन्त्रो के विभिन्न भागमोकेदारा
निदिष्ट विधि एव साधनो का भतृसरण करने से इनमे से कु भ्रयवा अधिक
तिद्धियो का प्राप्त कर लेना सम्भव है। त्का यह उद्धोषहकिजग्तुके
भौतिक साधनो की उन्नति द्वारा जो द घम्मव हो सवत्ता दहै, उसे एके दही
च्यक्रिन भ्रपनो मानसिक ददिन के विकाष हासा सिद्ध कर सक्ता)
तन्त्रो के प्रति सामान्यतया यह्‌ चराम्ति फलो हुई ह कि तन्त्र वेदो से भिनत
हं भ्रौर नमे अनार्यो के स भ्राचरण एव व्यवहारो का दसन होना है। वस्तुत
यह ्नान्तिमात्र है 1 तप बेदबाद्य न दोकर देद-सम्मन ह । हा, इतना प्रवश्य
है कितन्ववेदोकीतरहक्सिमो चणंकेततियेप्रप्रह्यनरी है तनो मे
सर्दस्ताधारणजनो के ˆ लिये साधन का माने प्रस्तुत क्ियागयाहै 1 वेदगौ
करियर सामान्यजनो वे लिये अधिक्‌ परिश्रमस्ाघ्य, व्ययसाध्य एव भ्रतिवन्य-
{ * 1
साध्यते से उन क्रियास्नौ फो यथादिवि सम्प करना चदह्जछाध्य नहीं ई 1
इसीलिये परमकारुणिक मगवान्‌ दिव ने सहजसाधनगम्य तन्त्री का प्रकटी
करण श्रागम'नामसेकयारहं।
, तन्त फो व्युत्पत्ति एवं परिभाषा ५
मारतीय कोशकाये के अनुसार तन्त" शब्द का प्रयोग प्रापम्‌, शिद्धान्त,
शिवमुखोक्तशास्व रादि के अर्थो मे हृघना ह, वामन, मदटरौजौ दीक्षित श्रादि
महावैयाकरण पण्डितो" ने तन्त्र" शब्द कौ न्युत्पति इम प्रकार की हं--^तनौति
स्वंशास्वा्णां सिद्धान्तान्‌ यचत्तन्वम्‌' श्रयोत्‌ जो समस्त शास्तो के स्षिद्धार्तं
श्रथवा निर्णयो का विस्तार करे उसे (तन्त कहते ह 1
प्राचीन श्षास्त्रो मे यद्यपि तन्त्र-शब्द का प्रयोग श्रनेक विषयौ के दापो
के लिये हृश्ा ह जँसे-"कपिलतन्न, वासिष्ठतन्व, जैमिनितन्न, पू्वेतन्त्र, उत्तर
तस्त्र श्रादि'। तथापि इस खन्द का श्रधिक्तर प्रचलन अ्ागमधास्त, निगम
शास्त्र श्रथवा हिवमुखोदगौर्णं यास्व के चियेही हमा है
^ श्रागतं िवववतरेभ्यो गतञ्च गिरिजापुखम्‌ ।
* मतञ्च खामुदेवेस्य तस्मादागममुच्यते 1

(सिहसिद्धान्तसिनषु ¶०-४२६)
> >€ ‰
परागतं शिववकत्राच्च गतदच गिरिजामुे 1
तेनागमारि तन्त्राणि कथितानि वरानने) १२५७॥

यानिकानि धच क्षस्त्रनि कविततान्यागमस्य च 1


तानि तानि भक्ष्यन्ते कोलाचरणहेतवे ।1 १२८1}
(समपाचारतन्ध्र)
निर्गत गिरिजावेषत्राद्‌ पतं च निरिजाभता।
भत घ वासुदेवस्य तस्मा्निणपर उच्यते+
श्रजनादस्तु समन्ताच्च गम्यत इत्यागमः स्मृत. {
सनुते श्रायते नित्य तन्त्रमयं विदुषा: ॥
[ श्रीवत्कारिशर्मालिखित गमिता (दर्गपिप्तदती चौ"
खम्बासर्हृते सीरौजौ बाराणकती) ]
सन्त वी परिभाषा शास्तो मे इस प्रकार प्राप्त है--
4 1 ७ 1
भ्रत्य वामस्य सूक्त तु जपेच्चान्यत्र वा जते!
ब्रह्महत्यादिकं दग्ध्वा विष्णुलोकं स गच्छति ॥
भरथात्‌ इस वामसूक्तके पाठमात्र से ही विष्णुलोक की प्राप्ति प्र्थात्‌
शतद्धिप्योः परम पदम्‌" के श्रनुसार विष्णुषदश्राम्तिरूपी मोक्ष की प्रान्त
होती दै) #
दिरक्त (निघण्टु) मे वामशब्द फा श्रये श्रसस्य' लिखा दै--
शरसे मा. श्रनेमा-, ग्रनेयः, श्रनवद्यः, ग्रनभिशस्ताः, उवेष्यः, सुनीथः, पाक.
वाम वयुनमिति दच्च प्रशस्यनामानि }
यहां वामनाम प्रशस्य का दयोतक है श्रौर्‌ प्ररस्य प्रज्ञावान्‌ ही होते द-य
एष हि प्रननावन्तस्त एव हि प्रशस्या भवन्ति") इसते स्पष्ट टै किमप्रज्ञानान्‌
प्रशस्ययोगीक नामही वाम' है शौर उसयोगोके म्गेकाहौी नाम "वाम-
मागे" ह । इस मामे मे जितेदधियके लिये ही प्रधिकार की व्यवस्थादहैषनकि
इन्द्रियलोलुप प्राणियो के लिये जसा कि भगवान्‌ शद्धुर का कथन दै
वरद्रव्येयु योऽन्वरवे परस्नौयु नयुसक. 1
परापवाद यो मूकः सर्वदा विजितेन्धिषः।
तस्य॑व ब्राह्यणस्पात्र वासे स्यादधिकारिता ।
(मेरतन्त)
श्रथति परद्रध्य, परदारा श्रौर परापवाद से विमुख, सयमी ब्राह्मणौ
वाममार्भ का श्रधिकारी होता है।
श्रप सर्वोत्तमो धर्म ॒शिबोक्तं सवंलिद्धिद ।
जितेश्दिपस्य सुल्तनो नान्यस्यानन्तजन्तुनि. 1
(पुरश्र्य्पिव)
इसी प्रकार मेस्तन्ध्र रादि प्रागमग्रन्ो मे पञ्चमकारो कौ व्पारया इस
प्रकार की गई है-
मथ गतेन म्दोनन्व युद्रा मैथुनमेव च 1
मङारपञ्चरू भहूरपोधिनाों मुक्तिदायकम्‌ ॥
भ्र्यात्‌-मच, मास, मीन, मुद्रा श्रौर मेयुन ये पांच ्राध्यात्मिक मकारही
योगियो को मोक्षदेमे वले)
भ्योमपड्ूजनिष्यन्दसुधापानरतो मवेत्‌ 1
भद्यपानभिदे परोक्तमितरे मद्पएपिनः ॥
प्रह्मरनध्र-सदृच्दलसेजो सवित दता हैर्हे सुषा (अमृत) कहै दै जिषे
| ‰ 1
फलेकुण्डलिनो दयाय योभिजन प्राप्त करते ह इसौ का नाम मचपान है । इसके
भन्तरिक्त पीने वाला मयप कहुलाता दै ।
र्थात्‌~ग्रह्मरध् के सहतलारकमलसूपी पात्र ते जौ ब्रह्माण्ड कौ तृप्त
करने पालो सुधा-पारा वहती है वषयो परीते योग्य मय (मदिर) है।
पुण्यापृम्यपनु हत्वा जनानखद्धन योगवित्‌ ॥
परे तम नयेच्चित्त मासाशो स निगद्यते ॥
भ्र्थात्‌--पूण्य-पापरूपी पशु को ज्ञानरूप -खद्गसे मार करजौ योमौ
भमन कोव्रह्ममे लीन करता है, वदी मासरारी (मासाहारी) है।
भीरमभी-
कामक्रोपौ पञ वुस्पौ बलि दत्वा जप चरेत्‌
> > >
कामकरोधसूलोममोहूपयुरीरिद्स्वा दिवेकातिना !
भास निविद्य परारमसुखद गुञ्जन्ति तेषा बुधा ॥

भरथात्‌-विवेकी पुरुप काम, कोष, लोम भ्रौर मोहरूपी पशुश्रो को विधैक,


शूपो तलवार से काट कर दरे प्राणियोकोभी सुल देने वाले निविषयरप्‌
मास्त काभक्षण करते ह) `
मानेसादीन्दिपगण सयभ्याप्मनि योजयेत्‌ ।
सत मीनाक्षी भवेदेवि इतरे प्रा्णहिस्तको ॥
भन भ्रादि सारी इद्धिमोकोवशमें करके ्राप्मामे लगनेवालो कौदही
भीनासी (मत्स्याहारी ) कहते ह इसते इतर जौवर्हितक ह ।
प्ाद्यतृष्णाजुपुप्तामयविषयव्‌ णामानलज्जाप्रकोपा
व्रह्माग्नादष्टमुदरा परसृडतिजने पच्यमाने सप्र्तात्‌ ।
नित्य सम्भावयेत्तानवहितमनसा दिव्यमावानुरागौ,
योऽसौ ब्रह्माण्डमाण्डे पदुहेतिविमुखो खुल्यो महाप्मा ॥
~ श्र्यात्‌-भाशा-तुप्णादि श्राठ मद्रा्नो को ब्रह्मरूपी अग्निम म्रच्छी तरह
पकातता हुकना दिव्य माव का ज्ननुराभी जो योगौ पञु-हिपा पते पराड.मुख होकर
सावधान मन ते भक्षण करे, वहु महात्मा पुरुप सपार्‌ मे श्रतुष्य होता है ।
या नादी सूक्ष्मरूपा परमपदगता सेदनोया सुपुम्णा,
& सा काम्ताऽलिद्धनार्हा न मनुनरमणो सृष्दरौ गारयः्वित्‌ {
{1 € 1
कुयन्विन््ारेयोगे युगदवनगते मेयुन नैव योनौ,
योगोच्धो विर्बन्धः सुलमयमवने तां परिष्वज्य मत्यम्‌ ॥
म्रधरत्‌-प्रमानन्द को प्रप्त हुई सूक्मरूपथाली सुपुम्णा नाडी है, बहौ
प्रालिद्धन करने योग्य उपभोग्या कान्ता है, न कि मनुप्यल्परा सुन्दरी देश्या ।
सुषुम्णा का सहु्तच टान्त्मेत परव्रह्य के साथ सयोग काहीनाम मधुने है, स्त्री
सम्भोगका नही
भौर भी-
प्यानं देव्याः पदाम्मोजे वजञ्चम परिकीतित्तम्‌।
मर्थात्‌-श्वीदेवी के श्रीचरणो का चिन्तन ही पञ्चम मर्धति मैयुन र ।
सास्यायनतन्य
भ्रस्तुत सारयायनतन्न' तनट्श्ास्व का ही सारपायनमूनिप्रोक्त एक
सथुग्रन्थ है । यद्वि इसी परिगणना शिवदुलोद्यीषे नानायमो स वित ६४
तेन्नोतरेतोनही षी गर्दै, फिर भी यह्‌ सुनिप्रणीत होने कतै कारण उपतन्नो
मे श्रवश्य ही परिगणनीय दहैजैत्रा फि वाराहीततर कै निम्न पयो से पष्ट ~
वौदधोकताःुपतन्त्राति फादिलोरतानि सानि च॥
भ्रदयुतानि च एतानि अंमिनयुरतानि याति षष
य्तिष्ट सपिकक्ष्यव नारदो गनं एव च।
पृलल्यौ नाव सिद्धो यासयत्क्यो मूुगुस्तया
शुम बृहप्पर्धेश दन्ये पे मुनिसततमा ।
एनि प्रनोतान्यन्यानि उपदन्यापति यानि च॥
न॒ सुए्याता तान्यत्र पमंरि(ुषटत्मनि ।
साराप्यारतराप्येव सत्यातान पिसोधत \॥
जैसा पि पूर्व मे कटा जा चुका कि जगत्‌ $ मति साधनो गै
उस्सत्ति के द्वारा जोवु सभवहोसक्तारे उते प्क हौ स्यत श्रपनी
मानक्विक प्पिति के विकास द्वारा सिद्ध कर सप्रता२। दस मामसिक पवित
सौ पटने का उत्तम साधन ६-वाणो द्रारया पधपवा मन दही मन मन्यो
का उच्खारण करना) प्रागम-्रन्यो म पि महष दाद नुदोधेरात

१. परथजो नारदौ विर्या प्वास्यायनमृनि प्रति


उप्रदेययमेणंव उद्नवा.नखष्दरे ॥१५॥
तव॒ देदोङ्टाकषतु देतदादगमं मुदि!
{याह पायते प्रपर पट)
> दान्दवष्यदम--पिगोदवाण्ड, ९८ ~ ५८८॥
# [ १ 1 ~
तक ्रनुमूत एव सुपरीक्षित कद्ध ठेस शब्दे एव शब्दसमूहो का मिर्च किया
गया है जिग्ह "जमन" , हुदयसन्न' अथवा मालामन्त' कहा गया है" । इन
मन्न का निदिचत सख्या मे जय करने से (उच्चारण केसे) मिर्चितेही
म्रपने उदर्यो (मनोरथो) की प्रा्ति हेती है जसा कि निम्नोक्रति से स्पष्ट ईै-
"एक. शब्द" पु्रधूक्त स्वरे चोके च्‌ कामधुग्भवति"!
प्रस्तुत अन्य इसी का एक ज्वलन्त उदाहरण है जितम नारदोपासिता श्री-
वगलासुखीदेवौ कौ पञ्चाद्धोपासना-विधि के साय टेसे विशिष्ट १५ मन्ोके
भ्योग-विधान वतलाये गये ह जिनके द्वारा साधक (उपाक) भरुष्य अत्यन्तं
विस्मयोत्पादक श्रलोकिक दाक्तियो (िद्धियो) को प्रजित कर भ्रषनी समस्त
भ्रभिलापाम्नो को प्राप्त कर सक्ता)
क्रीबगलामुषी
श्रीवयलामु्पी श्रागमग्रन्यो मे वणित दय महाविदयाभ्रोः मे श्र्यतम है ,
जिसे इस तन्व मे वह्यास्तरस्तम्भिनीविद्या, स्तव्धमाया, प्रवृत्तिरोधिनी, पगला,
मन्तजौवसविद्या, प्रायिघ्राभापहारिका एव पट्‌कर्माधारविद्ा के नाम से घभि-
दिते किया गया है
द्यास्नस्तम्मिनो विधा स्तन्धमायामनुस्तया ।
अदृक्तिरोधिनो विद्या कला च कुमारक ।1६॥1
स्नभोवनपिद्या घ प्राचित्राणापहारिका।
पटकरमाधारविधा च ये ते परव्यायचाचका. ॥१०॥
(भ्रयम पटल )
ठेसा प्रतीत होता है कि निगमचास्नोक्त वत्गा'° टी श्रागमशास्त्रो कौ
यगलामूखी है कथोकि सस्कृतभाषा मे जे हिस" शब्द वणेव्यत्यय होने के कारण
गहि मरोर लौकिक भाषा मे 'मतलव' मतवल वन जाता है वसेही निगमको

१. विशप्यणाधिका मन्ता सालामन्वा इति स्मृताः ‡


दयाक्षसाचिका मम्ब्ास्तदवम्बीजसशिवा. । (सिहिदन्त्सिगधु पृष्ठ २६५}
२. कालौ तारा महामिद्या पोडसी मुवनेश्वरौ ।
भैरवी चिनमस्ता च विचा धूमावतौ तया ॥
सरला षिद्धकिदा च मातद्धी कमला्मिका 1
एता दश्च महाविद्या. पिद्धविदयाः प्रकोत्तिताः ॥ {्रणतोषिरु, पृष्ठ-७१७)
३ यदा व॑ दृप्वामुत्डनन्ति भथ साता मोघा अवति 1 तथो एवंष एतच्यचस्मा भत्र वरिचदु
द्विषन्‌ श्तृष्य. त्या वल्मा निखनति तानेव॑तदुस्किरति 11 {शतपथब्राह्मण -३।५१४।३)

1 ४३]
ख. प्रवाद्ध-५५८५; लिपिकाल" श्वौ दताब्दी (वित्रम), पत्र-त्या
५१; माप-३८०५+-\३' से. मी; पकति-९, द्रक्षर ३६९;
दया-सुन्दर, सुवाच्य एव ्रपेश्षाङ्ृते युद्ध प्रति ।
ग. ग्राद्ध-१८३६५; लिपिकाल-स्० १७९६ (विक्म) पनसस्य ४२;
माप-२३०८ १२५ से. मो., परिनि-श२; ब्रघ्षर ३३,
दशा-कुच जीणे, सुवाच्य किन्त श्रनुदध ।
घ॒ म्रन्थाद्खु-१८३६३,लिपिकाल-शस्वी सताव्दी (विन्रम)पत स-या- १२४,
पत्रनि-&, अरनर-१६,
दया-टीक-टीक है, सुवाच्य स्िन्तु अ्रनुद्धपरतिहं।
रा० ्रौरामह्पालु शसरसिग्रह प्रन्धाद्ध-माप-२२'८ १०८, लिपिकार
१६२६ (विक्रम) पनस-या-४६, पत्रि; चनर-८२, दता-जरण,
सुवाच्य एव श्र प्रतिहै।
श्रानार-प्रससन
म राजस्वान प्राच्यविदा प्रतिष्टा, जोधपुर कं निदेछक समादरणोय
उं० फत्टस्िटजौ का विधेष ब्राभासे ह जिनके सप्वराम्ं एव सप्रेरणा त
इस भ्रतिविलम्पवित वरय का सपादन-ब्ायं पूणे कर सका। जयपुर-नवासो
प० श्रीरामृपालुजो शर्मकामो म विटप श्नानार मानताहूं जिष्टोने घ्रान
सप्रटमसेटूढ क्र इनग्रम्य वी प्रति ट्म प्रपि स । साथही मे प्रतिप्टन
के सरयोयो विदत पुस्तकातय-तटायक् धीमती गणेरी धात्र एन प्रि.
लिपिकर्ता श्रीनेयङुमारत्षिहवो मी सादुवादोसेसष्त बरताहजिष्टोग
पद्यानुक्रम वना कर मुम सहयोग दिया । सरस मे चापक विरानो पै सन
प्राना नाहं कि इच प्रन्थम दष्टि-दोप एव्र चित्तचाज्यल्पयय कटी कौर
नुटि रह्‌ गई टो उसका वे समाधान करते टूये 'समादधतु सन्जना.' के भ्रनृतार,
मुभे क्षमा कर।

श शुक्ल एकादशा विदुषामाश्रवो


| वध्र
+. गोस्वामो लक्ष्मोनारायणदीक्षित 7


विषयानुक्रमः

परमाद्धु विषय पृष्ठे" शोक ~

८ श्रयमः पटलः यृष्ठ १-३

(१) पोताम्बरादेवोध्यानम्‌ १ ;
„ (२) मायादि-राक्षसाञ्जेतुकामस्य कातिद्ेयस्य शिवम्भरति ॥
उपोपायजिज्ञासा र १ २-६९
(३) कात्तकेय प्रति जयां श्विवनिगदित ब्रह्मास्रविधा-
वेगसामनुप्रशंसनम्‌ {२ ७१४
(४) नारदस्य सांस्यायनमूनये ब्रह्यास्तरदिवोप्देशः,
तद्विष शतो परकापक्रमश्च # १५-१५
(४) ब्रह्मास्न्विचामभ््ोपासनाफल, मन्त्रलन्धये
+ फुलगरुरमुखार्‌ दोक्षाप्रहधावर्यकत्वज्व २-३ १७१८

२. द्वितीयः पटलः पृष्ठ ३-५

(१) दिभुनापवाम्बराच्पानम्‌ ३ 1
{२) दीक्षाविधिनि्ासा ॥
(१) पृस्तकलिलितभन्त्रजपे ह्‌ानिसम्मवात्‌
कुलगुरमुखादीक्षाद्रहभप्रतिपरदनम्‌ रक ३-६
(४) प्तृगुरुलन्नणाति 1 ७~११
(४) कारणत्रयेण विद्योपलन्धि-, विच्चाया
राजसादिभेदत्रयन्ब ४ १२१५
(६) शविष्यसक्षणानि ४ १८-२२

३. तृतोपः पटलः पृष्ठ ६-द

(१) वाटूमुखमतम्भिनीवगल्‌मुखोष्यानम्‌ ६ १
(२) भ्रमिपेकपिधिजिसासा ६ र
(३) मन््छमिषेचने कालनिर्णयः ६ ५३-६
(४) क्िष्यस्नापन, गायजीजपस्यावश्यकसत्वज्च ६ ६-७
(४) कलश्नककस्यादनविधिः ˆ “ ७ ८-१७५
(६) ऋत्विम्बरणविधिः कलवरामामंनवियिश्च ७८ (एत~र४
` (७) विदामन्ोपदेद्यदिधिः र २५-२
1
२1 साद्यायनतन्मे
वमाद्ध विषय पृष्ठ कतक

४. चतुथः पटलः -११


(१) मेतासनावगदामुखीध्यानम्‌ & १
{रो ब्रह्मास्त्रमन्सन्ध्याजिन्तासा ६ द्‌
(३) मन्यतसतन्ष्यादिषिः ६-१० २-१६
(५) श्निकालोपस्यानम्‌ १०-११ १७-२५
(५) मन्तरेसन्ष्योपस्थानयोरनिवायत्वम्‌ ११ २६-२९

भ पञ्चम्‌. पटलः पृष्ठ ११-१३

(१) भीवगलादेवीध्यानम्‌ १६
(२) एकाक्षरीमहामन्त्रजिक्ञासा ११
(३) एकाक्षर गोजमन्ोद्धार १२ ३-६
६४} शष्यादिकरपडद्धन्यासविधि. १२ ७~१०
(५) पञ्जरन्यासविधिः १२-१३ ११-१५
(€) मानुक्ञाग्यासवियि द १६१५८
(७) वगत्तामु्ीप्यान तज्जपदिधिश्व १२ १६-२्५

पष्ठः पटलः पृष्ठ १४१६


(१) स्तम्भनकोरिणोदगलामुखीष्यानम्‌ [41 ;
(२) एकाक्षरोमहामन्त्रप्रयोगजिकलसा ण
(३) होने कामनानेदेन ब्रण्डतेदा ष ३-६
(४) होमे कामननेदेन स्थम्डिलनेदा ष १०-१६
(५) होम सद्यानेदेन कुष्ड-स्यण्डितिमानानि १५ १२-१५
(६) हयान्त्यादिषद्कर्माणि तत्लक्षणानि च १५ १६-२०
(७) कर्मभेदेनं होमद्रध्याणि तत्सस्याहृतिनिर्थारण घ १६ २०-२७

प्तम्‌. पटत्तः पृष्ठ १६-१८


(९) श्नौवयलाध्यानम्‌ (पोताम्बरधरादेवोघ्यानम्‌) १६
(२) षरटूतरिशदश्षरोवग्लाविद्यामन्छजिनासा ष
(३) पटूवरिशषदक्षसोदिय्यामन्नोदार १६.१५७ ३-७
(४) म्वासवियाप्म १७ ८-६
{५} वगतःभस्ष्यान तदावस्यश्स्वश्द १०-१२
{६} ऋष्यादिकपनम्‌ १७ १३-१४
दिषयानुष्ठमः [३
भमाद्ध विपय ॥ पष्ठ श्लीक
(७) सद्धुत्पपू्दकं मपतद्यामिद्दारः १७ १५
(त) वर्पण-होमदरव्याणि तसप्रफारक्च १७ १६-१७
(€) पृरकश्चरणलक्षणं तरकरणेऽसिद्धिद्च १७ ~ १८१६
(१०) कमेभेदेन सश्ययुतहोमदरम्याणि षन २०-२६

४, श्रष्दमः पदलः पृष्ठ“ १८-२१


+ (श श्षिवा (वगतादेदो) घ्यानम्‌ श्व
{९) वगलामन्त्रराजप्रयोगजिक्ञासा षण
८३) क्मंमेदेन होमद्रग्ययोगा, नानाद्रव्पयोजन- १८२० ~७
प्रकारा मन्त्रयोजने(दिधिस्च
(४) द्रभ्यत्पणेन परकृतकर्मनिराष. २०.२१ २७-२६

६. नवमः पटलः पृष्ठ २१-२३


(१) वगजामलोध्यानम २१
(२) दगलामनोः प्रयोगमूलयस््रनित्तासा २१
(३) यन्णरोद्धार। ३१
(४) यन्घ्े मन्बरतेखनषिधिः २१.२२
(५) कमभदन नानपपुष्ेयेननपूनादिधिः २२-२३

०, दशमः पलः पष्ठ २३२६


(१) पीताम्बरावगलाच्यानम्‌ २१
(८२) सन्त्रलेषनप्रयोयजिजसा ४ २४
४ (३) तेने रूमेभेदेन चल्दनादिदरव्यनिल्पणम्‌ २४.२६

१८. एकादशः पस्लः पृष्ठ २६२६


1 ५
॥ (१) -वयतरदिवीध्यतनम्‌ २६
# (२) पन्तरराजतपेणग्रयोगनिन्तासा २६
† (३) क्मभेरेन गरडादितपंणदेव्पनिरूपणम्‌ २६-२६

८ १२. ह्यदः पटलः पृष्ठ २६२१


{१ चिन्सयीवयलाष्यानेम्‌ २६
् (२) वगलागायप्रीजिनासा २६
भ] साख्यायनतम्वे
श्रमाद्भू विषय पृष्ठ श्तौक
(३) भायत्रोमन्बोद्धारः २६ ३.५
(४) श्चप्यादिक्यनान्ते पुरदचर्या-यास-ध्यानादिनिरुपनम्‌ २६ ६-६
(५) कर्मनेदेन मायद्रोमन्व्र्पोगाः ३०.३१ १०.२६
१२. योदश दट्लः पृष्ठ ३६३४
(१) बगताम्बाघ्यानम ३१ ट
(२) यन्यपूजाजिनास्रा ३१ (1
(३) सपन्पूजािपिः ३२ ३-१३
८५} श्रातप्ामादौ पूमाविचारः ३६ १४-१९
(५) पूना-कारणद्रष्पविचारः ९३ १७ षद
(६) मन्प्षिदिरससश्यनम्‌ ३३-१४ १९-२०

१४ चतुदधाः परल पृष्ठ ३४-३७


(१) यगलाप्यानम्‌ १४ १
(२) कपतार्बाश्दपिनिगाल ३४ २
(३) देरामेदात्‌ सुप्टपितितहारदूजाङयनम्‌ ३४ २.५
(४) सूध्टिरमेय सोनार्टाचनरतिः ६४-३६ ५.१५
(४) प्ररेपारो पष्बपानां पोगाण्दाच्र किना सोरदारामनम्‌ १६ 1 ८८५
(६) सोनापारूते स्वपल्दा^दूजाद्दपयक्ानि साह्दापन
भृरग्ददूराया मतत तमक ४६.३७) २६-३१

१५८. पञ्चदशे परत पृष्ठ ३५८५०

(१) स्तम्ममद्ायदपिरोहत सापराम्‌ १३ 1


(>) पम्डा१्व्ठान्निगा ३३ मे
(3) षर्पिदिषाषनम 3 १६
(ष) दा १ १ययद८दारष्व ररम ष ०-१६
(१) उत्व ररर तवागषदपरम २९५८० ०३३

१५ पषा पटर पृष भ्ल

(१) पवम्मतय ररददाषयपयाप्टातम्‌ र ॥


९२) पग्प्ष्डाराषषयमता भ ५
{३} कर्प्वरभुर्दग्य एएष्डार्रणठोददष्ययड ८८ ३-११
{५} उदात
) ३५
दात ८५
दुएानररसनतषवर््व ५१६ ४.२
५ विषयानुयमः
प्रमाद्धु विषय

(५) बहद्धायुपुख्पस्त्रविेद्ारस्त्मयोगविधिश्व
(६) प्रयोगान्ते सोम(म्पार्चावष्यकत्वम्‌

१७. सप्तदशः पटलः पृष्ठ ४३-४६ १
(१) वगताम्विकाघ्यानम्‌ र
(२) शताक्षरोमहामन्द्रनिकसा ॥
(३) श्वताक्षरोभन्नोद्धारः ४ ३-१०
(४) ऋष्यादि-न्यासविद्या-प्यानानि ४४.४१ ११-१५
(४) जपसख्या-तपणदरव्यादिकथनम्‌ ॥ १६-१७
५ (६) फमभेदाडवनद्रन्याणि तदाहृतिसश्पा-समय-कयनञ्च ४५-४६ १८-२५

१८. भरष्टादश्ः पटलः षष्ठ ४९६

(१) सिह्वास्तमनकारिणोकमलाध्यानम्‌ ४६
(२) शताक्षरीह्वनम्पोगजिनाषा ४६
(३) विपमज्वराद्िविविधक्तेगविनाक्षनावं नानाद्रच्याहृति-
प्रपोगाः ४६.४७
(४) यीकरणादमीप्सितकामनःरेदादनेकविषद्रस्याटूति-
भ्रयोगा ९१६
(५) बहमवादिरोगदामनप्रयोगा. १७-१६
(६) वक्याकर्पणप्रयोषाः २०-२४
(७) शतुरोगहृदरयोगाः २५२७
(४) मारणप्रयोगाः रत

१६. एकोनविंशः पटलः पृष्ठ ४६५३


„ (१) चतुभु जावग्ताध्यानेम्‌ ४६
(२) शताक्षरीमन्नप्रषोगोपत्तहरजिन्नासा ४६
(३) दिपुमारणादिग्रसदङ्ध गुलिकादिदिविध्रयोगा-
स्तत्षिरासविधिशच ४६.५० ३-१५
(४) पृत्तसिकद्यिचारिभ्रयोगा = ‰६१-५२ १६३४
(५) भ्रयोगोपसहारविधि ५३ ३५४३

२०. वक्षः पटलः पृष्ठे ५४-५७


{१} बगलादेवीष्यानम्‌ {41
६] साश्यायनतन््े
च्रमाद्धु विषय इतक

(२) परविद्याभेदनोषायप्ररन ५४
(३) परविद्याभेदिनोमन्नोद्धारस्तदव्यादिकथनन्च ५४ ३-१६१
(४) तन्न्यास व्यान-पुरच्य्यनम्‌ ॥ १२-ण
(५) परविद्यानेदिनीमन््र्य नानाप्रयोग ५५-५६ १६-२६
(६) सिद्धमर्यमाहूषत्म्यवर्णनम्‌ ५ ६-५५७ २६-३४

२१. एकाविक्ष पटल. पृष्ठ १५७-५६


(१) प्ररविद्यामक्षिणोवगलाध्यानम्‌ ५७
(२) भरविदयारयणादिमह्दादचयंकरा नानाश्रयोगा ५७५६ २-२४
(३) प्रयोगोपसहार! ५६ २५
२२ दादश पटल पृष्ठ ५६-६१
(८१) वमलामुौध्यानम्‌ ५६ १ 1

(२) वगरलास्ववियाप्रदन ५६ #:
(३) यगलास्प्रविययाया कम ५६ ३४
(४) कतास्त्रवियामतोद्धार ५६.६६ भप
(५) त्तृप्यादि-न्यास-घ्यान पुरक्चर्थाविधि ६० ६१४
(६) शदूक्षयषदादिनान्मोगा ६१ १८-३०

२३. ्रयोविश्च षट पृष्ठ ६९४


{१} श्रीवग्तादेकीध्यानम्‌ ९२ १
(२) बगलास्वमहामन्वप्रयोगनिजञाता ६२ #:
(३) दाफूतिदि्रदप्रयोग ६२ ३-४
८४} व्यदधिनान्चनग्रपोग य्‌ भ
(५) जिह्वा श्रोत्र प्राण पाद जठराग्नि गोातस्तम्नन
पोमा ६२ ६१
(६) क्षदुनार्याया गमसरावत्रपोम ६२.६३ १२१३
(७) सिपुस्त्रीणा वन्ध्याकरणप्रयोगस्तन्नाश्ननप्रवागरच ६३ १४-१६
(<) रपुलक्ष्मोविनाशकाद्नेङे प्रयोगा ६३६४ १७२७

२४. चतुविन्न पटल पृष्ठ ६४-९६

(१) सस्तम्नरूपाकगताम्बाध्यानम्‌ ६४
(२) वमलामन्नमाचिकात्तक्षणजिनाम्रा ६४
= विवयानुक्रमः [७

पमाद्धु विषय षष्ठ श्लोक


(४) हस्विसालपनिर्माणविधि. ६४.६५ ३-९
(४) मालासस्कररविधि. ६१ १०-१४
(५) भालायः शरुमो पतने पुनस्तस्सस्कारः ६५ ¦ १५-१६
(६) श्ान्त्यादिरूमेभेदान्‌ भालालक्षणानि ६५-९६ {७-१९
८७) पु्तलिकानिर्माणविषिः ६६ २०२३
८८} भ्राणप्रतिष्ठाचंननपबिधिः ६६ २४-२७

२५ पञ्चेरविश्चः पटलः पृष्ठ ६६-७१


(१) कगलादेवोघ्यानम्‌ ६७ १
(२) चतुरक्षरोमहामन्त्रजिज्ञासा ६७
(३) चदुरकषरोमहामग््रोदढारः ६७ ३-७
(४) चतुराम्‌ रो-यास्विदयाकयनम्‌ ६७ ७-१०
(५) चतुर्षरी-ष्यादिकयनप्‌ ६५७ ११
, (६) वगलाचचतुरक्च रीमन्वध्यान पुरडचयौ विधानज्च ६०८-६६ १२-२१
(७) योगिनोलक्षणम्‌ +. रर
(८) लौकिक्यादिव्रिविधपुना तल्लक्षणानि च ६८ २२-२६
(&) योगिना मतता लिगुमाचतुर्थी शना ६९ २७
(१०) घचुरधिभवय्यए गोडदिदेशमेदात्‌ सृष्टघादिनामसद्त-
स्तद्चाविधिस्तत्फलानि च ६९-७० २५४४
(११) मासैनिनरादिकरणे हानिः ७०.७१ ४५४६

२६. पविः पटलः पृष्ठ ७१-७३

(१) वगलदिवोध्यानन्‌ ७१ ष
(२) व्लाचतुरक्षरोमन्वप्रयोणजिन्तात्ना ७१ २
(३) नानाद्रभ्ययोगेन तपेणम्रयोषविषिः ७१-७३ ३-१०

२७. सध्तविश्ञः पटलः पष्ठ ७३७६


९.१) परबह्माधिरेवतावग लाभ्यानम्‌ ७३ १
(र) कग्रला्चतुरक्षसेमन्वहयोमभयोग निलाय ७३ २
(३) कमंमेदाव्‌ कुष्डमेस. स्थाननेद होमदरव्ययोगाश्च ७४.७६ ३-२६

२८. श्रष्टा्िशः पटलः पृष्ठ ७६७


\
(१) स्तम्ननास्स्वरूपिणीदगलाध्यानम्‌ ७६ १ .
\
म] सांख्यायनतग्े ९. +

वमाद्ु विषय श्त्रोकं

(२) स्तम्भविद्ायाः प्रयोग जिज्ञासा ~ ५७६


(३) वगलाद्दयमन््रगस्तिव्णेनम्‌ ४६.७५ ३-१२
(५) बग लाहुदयमन्नोदारस्तम्जपैन वन्ध्यादोप-
कृतििमरोमादिनादनुफलज्च ७७-७य १४.२४

२६. ऊनत्रिशः पटलः पृष्ठ ७८८०


(१) वगलाध्यानम्‌
(२) वयलाहृदययनत्र-प्रयोधजिज्ञासा ल

(३) ७८

(४) स्वर्णादिनि्िते यन्त्रे गलाहूदयमेन््रतेखनप्रमः ७६९


(५) यत्त्रपूनाविधि ७६
(६) यर्नधूजाया क्मनेदान्नानाकुपुमव्रयोगा ७६.८०

३०. लिक्षः पटलः ¶ृष्ठ ८१--३

(१) वगलाघ्यानम्‌ ८१
(१) वगलाष्ाक्षरमन्तरजिज्ञासा ८१
(३) वगलाष्टाक्षरमस्नोडारस्तवृष्यादिन्पासविदाकयनञ्च +; ३-६
(४) मन्त्रभेदेन वगलाध्यान चन्मयपुरदचर्या च हशन्तर्‌ ७-१२
(५) कर्मभनेदाद्‌ वित्वादिविविधवृक्षसूतेषु जपविधानेन
नानाकायसिदडय- ८२.८३ १३-१६

३१. एकव्रिज्ञः परलः पुष्ठ ८३-त्द्‌

८१) भक्तचिन्तामयिवमगलाघ्यानम्‌ णद
(२) वगलाष्टाक्षरोपन्त्रप्रयोगनिलासा से
(३) पुत्तसीश्रयोय 1
(४) भानाद्रव्पयोगेन लिह्वास्तम्मादिदते मस्मनूणं.
अक्षणाचनेके प्रयो. >। ६१
(५) पुर्मदद्धाकयवाना स्वानविकेषेषु निषेपाद्‌-
सिपुमारणादिग्रयोगा. ५४-८५्‌ १२-१
(६) नानावस्तुसयोगजपूपदाषनादिप्रयोगा. पभ-८६ १८३

३२ धिग टलः पृष्ठ ८७-&०


(१) प्रेतात्तसस्यादगलाच्याः नमू से
विषयानुफम [६

"प्रमा विषय ध पृष्ठ श्नोक

(२) वगलास्त्रौपसहारदिद्याजित्तासा >| र्‌


(३) ब्रह्यास्वस्तम्मिनीकालोवि्यामःतरोढार ८७ ३६
(४) विदयामन्तपुरदचर्याविधि ०७८८ १०-१६
(४५) वग लास्तोगरेपसहारक्म (जिद्धास्तम्मनायमिचार-
छान्तप्रयोया } ८८ ६० १७४०

३३. धर्पास्विशच. पटल पृष्ठ ६€०-६४


(१) भोवगतादेबोध्यानम्‌ ६० १
(२) षमत्यस्योपसह्ारयन्वनिज्ञासः ६० २
(३) रपिलानवनीतेनो पतिस्ते कदनीपने समतयन््-
लेणनक्रम ६१ ३५
(४) यन्नस्पाष्टदतेषु त्ाकष्पमालामनोत्तेलननिर्दे ६1 ४
(५) तक्ष्यमालामनोश्ढधार ९१ ६-€
(६) य्ब्रप्राणप्रतिष्ठा पूजादिधि ९२ १०-१२
(७) प्रमिचारशान्तिकसो यन्ब्रधारणप्रपोग ६२ १३-१७
(म) विविधम्याधिविनाश्चनकरस्तामबर्तचवणप्रयोग ध्र १८-२१
(€) माजन तोयपानादनिचारशान्त ९३ म्‌
(१५) धारणयन्तर्पोद्धारस्त््राणप्रतिष्ठापूनाविधीच ६३ २२-२०
(११) विविधङृल््िमरोपारिमाङनावं तदन्त्रधारण-
मार्जन प्रान पानप्रयोया €३-€४५ २६-ग्न
३४ चतुस्त्रि पट पुष्ड &४-ईम १
(१) वगताध्यानम म १
(२) समस्तकम सर्वोपद्रदादिनासश्ननजिज्ञासा्ां
एप्यावेश, व्य) स्तस्मनप्रयोगकयनम्‌ ६४-६५ २-१०
(३) ततर ज्वालामुख्यादिपञचाघ्तप्रमोयविषि ,
लोष्यविजयास्रप्रयोगस्तत्फलकयनन्च ९५-€७ ११ ३३
(४) तद्धवन त्तपणप्रयोगां ६५~ईप ३४ उद
३५ पञ्वत्रि्च पठन १८ ९५-१००
(१) वगलाध्यानेम्‌ [म १
(२) योममेरजिनासम (दयलामन्वनिणं पजिज्ञासर) क्ष २
(३) पटुविश्नदक्षरोविद्याया हेष्यादिविचारे
स्राड्वादन प्रह्ययाभततं जयद्ववयामल
हारिद्रसहितामतानि क्न देव
१० ] सां्यायनतन्तरे
च्रमाद्धु विषयः

(४) फलो साद्यायनमतध्येव श्रापान्यम्‌ ६५


(५) दिदयामग्तर जपायुव मृत्युड्जयमन्यजप-
स्तदफरणेऽसिदिश्च ६
{६} सायायनोक्छवोनसन्नायां पिषरमायाकौगोढारः ६ १०-१२
(७) पोतवासरामते स्यिरयोजलक्षण तेदृद्धारदच ६६ १३-१५
(८) रेफयुक्ताया स्विरमायादिदयाया जपेनेद सवंसिदि ६६ १६-१७
(€) लघुयोढा-महुगयोढादिन्यासदन्त एव विचानष
प्रतिपादनम्‌ ६६ १८-१६
(१०) पौतवासामते वमखाध्याननिर्पणम्‌ २०-२१
(११) सादयायनमते पदिचिमःम्नायोतराम्नायभेदेन
वगरलापूजननिर्देश रम्‌

३६. पट्‌. पटलः एष्ठ १००-१०२


{१} कगलाध्यानम्‌ १००

(२) सपरस्पा सवेकार्मेणनाकश्षनोपापजिनासा १००


(३} मन्त-कवच-मन्तरारमक सवंकामेगनिगदितने नाम
प्रथमो योग १०५ ३-६
(४) धदरकार्मेणनिर्णादानो नाम द्वितोषो योय १००-१०१ द-प
{५} कवच स्तोध-मन््ररमकत भरकयमणनिरयायो
नाएनयोग १०९१ ६-१०
(६) भायत्री-कवच मन्तर-स्तोत्रात्मकं सर्वकार्मण-
नाहानो नाम योग १०१ १११२
(७) तपसा-कालो-छि्मस्तामन्त्रात्मक स्वदोप-
निवारणे नात योग १०६ १२९१३
(५) कवच-बाणारमर सवंदोदनिवारणो नान योग १०१ १४१५
(६) रणस्तम्म-प्राणरक्षा-दिव्यरक्षाक्रारक
शताक्षरौमन्ध-कवब-हुदयःत्मको योग १६-१७
(७) कवच-चतुरक्च रोमन्तरात्मक कवचचर्दरवर्णात्मको
मोग १४२ 1.
(5) एकाक्षरी-वेदाक्षरो ष्रि्नदन्नरोकवचात्मको-
महा्रह्यास्त्रयोग १०२ १६-२५

३५. पञ्चा शा पटल पृष्ठ १०२-१०५


{ १) पोताम्बराघ्यानम्‌ १०१
विषयानुफमः [११

, अमाद्धं विषय पष्ठ श्लोक

(२) रहेस्यजिजासां १०२ #


(३) ब्रह्यास्रयोगफलम शंसनम्‌ १० ३-१६
(४) होमपोग-परपोगङयनम्‌ (प्रपोगोप्हार } १०४-१०५ १७ २३८

(फ) परिश्िष्म्‌ पृष्ठ १०५-११६


श्छष्यादिन्यासष्यानादियुताः
साख्यायनतन्क्रता मन्व १०५-११६

(ख) परिशिष्टम्‌ पृष्ठ ११६११


अखपल्जरकवचस्तोत्रम्‌ ११६- ११८

(ग) परिशिष्टम्‌ पृष्ठ ११८-१२२


वगलामुवौवेलोयविजय नाम कवचम्‌ ११८-१२२्‌

(घ) परिक्षिष्टम्‌ पृष्ठ १२२-१२८


्रोपोतताम्वरारस्नावलीस्तोत्म्‌ १२२-रम
सारपायनतन्तरस्थानास्पद्यानामनुक्रमः १-ष्न
शुद्धिपत्रम्‌
पृष्ठ ॥ पडक्ति भ्यम्‌ शरदम्‌
चनन्व चान्ये
१६
तलतंलेन तिलतेतेन
शातोदरी शातोदरीं
3;
विविेत्‌ ~ विलिखेत्‌
२१
२४ ०वाकूपतिस्तुवा ग्वान्पतिस्तु वा
क्पिसल्यया च्छपिसस्यया
२७
सक्ष्मीवान्‌ लक्ष्मीवान्‌
२७
दाभिधत्तिन गदाभिधातिन

सस्मरेत्‌ १६१ सस्मरेत्‌१५।१*
३५
सकारः
दे लकार
ह ल्ल
डप
गदा
इत
गदा
मनुः*४ मनुः१४
४१ तन्त्रराज मन््रराजण
॥॥.
०जिद्धाभिदानाथं ०जिह्वाभेदनापं
४५
जिहास्तम्म जिह्वास्तम्म
५० खदाहः
सदाहः
भद्‌
भमूष्नि भमू्धनि
भर्‌ ३. प. पुस्तके
३. घ. पुस्तस्के
भर जिहास्तम्भनण
जिद्वास्तम्भन०
९१ लक्षण
लक्षणं
६४
विद्ेणे दिरोपो
६४
६४
त्‌ तु
वन्यस्यता विन्यस्यतां
६७
छन्दोत्र छन्दोऽ
९७
द्वावखदेवताम्‌ हस्प्रावंदेवचाम्‌
६८
६८ (१२॥१ ॥२२।॥
भय्युत भ्रयुव
७र्‌
छ 11६1 11३॥॥

७५
ध्यानपूवंकम्‌ ध्यानपूकम्‌
चकषपणम्‌ घ तपणम्‌
७६
डे
ततत्छत° तत्तत्फत०
ग मण्डलातद्‌र मण्डतात्तद्‌*

~न
२] शुद्धिपयम्‌

ण्ठ " प्रगुडम्‌ धुढम्‌

॥२२॥ 11२३॥
प्‌
२२. न्तद्णाशश च २२. रा० ण्ठद्धाशच
पछ
प (१७१1 1१
१६. रा. तु षण्माष १६. रा. एलोकाद मिद नास्ति
॥1
८, रा. यद्यदण० ८. रा. यददृद्रण०
८६ ५५
परम परम्‌
६१
कृलिमैः कृत्तमः
६२
निदचतम्‌ निर्वितम्‌
६२
विोषोऽय विद्ेपोऽय
र्‌
शवि लिखेद्‌ ष्ठ वितिवेद्‌
६३
चययाकमम्‌ च यथाक्रमम्‌
६३
नार्जयेद्‌ नाष॑येद्‌
६२
१५ १६, १७ १४. १५. १६.
६३
योगोय योगोऽप
६९
प्रयस्वि्ः घतुस्विशः
६७
५ पञ्वध्रिशः
६६
पटूवशः पटुत्रिशः
१००
द्वाविंशः पटुधिक्षः
१०६ पञ्वव्रिशः
वतुसिश.
१०३ मध्यमभागे
१०४
मध्यमाने
बीज ॐ वीच
१०७
जवालामुख्यस° ज्वालामुख्यस्नर
११०
ऋ्ष्यादिण शऋष्यादि०
११० श्रोबृदद्भानुगुल्यस््रर
श्रीदहद्भानुगुख्पस्र०
११० प्राह्ण
प्रह्याणि
११० द्धींद्वौह्^ वगला°
दीह्लो्व वगता
११० ह फट्‌ स्वाहा
ह फट्‌ स्वाहा
षर परविदयामक्िणी
परविष्मामक्षिणी
ष्र्‌
कीलन्काय कीलकाय
५ ,११३ बगलास्वोपसदारण०
०कगलास्वोपसद्यर०
+ ११५ ॐर्‌ धिलायं
ॐ पिखाये
११५ विन्न
११७ दि्नैरना
मन्वख्प मन्बस्पं
ष्प्‌
ज्ञेय केम
` १८
पृष्ठ प्रगु्धम्‌ शदम्‌
१२० कवं फव
१२२ नगात्मने नात्मने
१२३ बीज वीज
१२३ रस्थितिष्वसने स्वितिष्वसने
१२४ भसस्तम्भन सस्तम्भनम्‌
१२५ वान्त वात
षर भ्सुदुलंम सुदुतंम
१२५ भमतीन्धिय मतीन्द्रिय
१२५ १ त्यपि पाड. इत्यपि पाठ.
१२६ इय द्व
१२६ गोप्यतम गोप्यतम
सस्यायनतन्त्रम्‌
॥ धीः॥

सांख्यायनतन्त्रम.
पत्म

११ श्रय प्रथसः पटलः ११

्ीश्चिवाय नघः {+ पोताबरायं नमः ॥*


मध्ये सुघान्धिमथिमण्डपरस्नवेया
सिहासनोपरिगता परिपौतवर्णाम्‌ )
पीताम्बराभरणमात्यविभपितताङ्खी
देवी भजानि धुतमुद्गरवेरिजिह्धाम्‌ ॥१॥
पीञ्चभेद उदाच--र
केलाश (स)शिखरारीन गौरीवामाद्ध सस्थितम्‌ ।
भारतोपत्तिकामो कि-प्लेपस्चयूतमीश्वरम्‌ ।२॥
भ्र्टदिकूपासकोशाष्ट~“विष्नैशाष्टकसेवितम्‌ ।
भैरवाष्टवृततः देव मातृमण्डलवेष्डितम्‌ ।३॥
महापाशुपताक्रान्तः प्रमथैरावृत प्रभुम्‌ ।
नत्वा स्तुत्वा कुमारश्च ^" इद वचनमत्रवीत्‌ ॥४)
चापचर्यासुनिपुणेयुं दचर्यामयङ्करेः ।
नानामायाविना चेव" + जेतुमिच्छामि! रक्षम्‌? ॥५।॥
तस्योपाय च तद्विदा वदं मे करुणाकर ।
ुश्रोऽह्‌ तव शिष्योऽद्‌ पापाप्रोऽदमेव च 1६1
वर उवाच--१४
साघु साघु सहाप्रात्त फरौञचभेदन+ कोविद 1
बरह्मस्विण विदा अवु्हारो*^ ने भवेककलौ ॥७॥
१ भोगणोदावननः ; श. वौ)रवो च्वत.1 रक. पोतादरायनमः; ध.
षास्ठि! ३ग, ज्दिभुव्तिगो। खय क्रौचिभेदन उवाचः ग, क्रोचभेदनोवाव 1
१. °दामाद्ूसत्थितम्‌ १ ६ ख. श्वाल्मीको० ; य. न्वाह्मिकी; घ, वाह्मीक 1
७, घमप.प, परष्टदिनूषालकरसाष्ट० 1 ८ खग. मरवाष्टक्वुे ; ष. भरवाष्टयुव। हम.
महप्पञूषदाका-तम्‌; पर महापाुपक्यकरति। १० कुमारोपि। ११ ख नानामाया-
निनक्चैव ; घ नवनामायाविनजेतु) पदेष, नातुमिच्छामि। १३खप राक्षर;
भ सहला श४्ग इदश्वरोवाच। १५ प.भदेन\ १६कगघ श्तुखहार ८
२] साह्यायनतम्प्र
~~ --~-~~
तद्धिया च प्रवक्ामि त्रिषु लोकषु दुल्वंमाम्‌ । -
पुरो देयः धिरो देयं न देया यस्य कस्यचित्‌ ॥८।
बरह्णास्वस्तम्मिनी विद्या स्तन्धमायामनुस्तया ।
भ्रवृत्तिरोधिनी विद्या बगला च कुमारक {॥६॥
मन्ध्रजीवनविदया च प्राणिप्राणापहारिका ।
पट्कर्माषारविद्या" च ये तेर पय्ययिवाचकाः ॥१०॥
यट्‌्रयोगास्वयो विदा ये वि्यायममूपिताः 1
तिरस्छृताखिला विचा वरिश्वितिमयमेव* च ॥११॥
स्तम्भनेन विना धान्तिदंश्यज्चंव तु तद्विना ।
मोहनाकर्पणन्यैव विद्वेपोच्चाटनन्तया* ॥१२॥
मारण भ्राग्तिर्देमकारण* च कुमारक 1
विद्या च बगलानाम्नौ मुनिगुह्धय सुपावनम्‌ ॥१३॥
विना च स्तम्मिनीविचा ^न विद्या च प्रभासते ।
तस्मादेव महाविधा^ कमलास्तनजीवनम्‌£॥ १४
पद्मजो नारदो विद्या” साख्य(यनमुति भरति
उपदेश कमेणव उक्छवान्मेष्कन्दरे ॥१५।
तेन देवीकटाक्षेण छृतवानागम भुवि +
मुलमंभरोपविद्याद्च ** अन्धमन््रास्च विस्तरात्‌ ॥ १६॥
श्रयोय चोप्रसंहार ^^ तदा राधनतदृगुणम्‌** 1
विस्तरेणोक्तवानसि्मि वक्ष्ये तत्सवंमादरात्‌ ॥ १७॥
स्वमः्रक्षरणी ' विद्या स्वमन्व्रफलदायका१*।
स्वकोत्तिरक्षिणी विद्या शनुसहारकारिका** ॥१८॥
परविद्याचेदन\* च परयन्त्रविदारणम्‌?* ।
परमभ्नप्रयोगेषु सदा विध्वस्तकारकम्‌!^ । १६॥

१, ग. षदुकर्माहिर०। २ खय एते। ३. ख पटुत्रयोगध्या विचा पद्विद्यागभः


भूषिताः ४. म त्रिरात्रिमयमेव। ध. व्रिशक्तिखतु षेव। ५, म. तदेफोवाटनर ॥
६. घ श्रातिपरु० । “~” चि-हान्ंवोऽ्ः ध पुस्तके नास्ठि। ७ ख. तस्मादेता ^
ख.ण्विद्या। ६ न्ख जीवनी 1 १० गष. विद्याच । ११. य. चोपहार। १२ ध
ग्लक्षणम्‌ 1 १३. ख स्वमप्व्ररकष्णी, घ. स्वविद्यारक्षणो 1 १४. व. ग्दायिा"
ग॒ नदायका \ घ न्दाध्िनी। १५. ग. न्कारफ ; ध, न्कारिणो। १६.
घ. व्देदनी। १७. ख घ. न्विदारिणी॥ दन ख. न्दारिका; घ, न्कोटिसी!
द्वितीय. पटलः [३.
~~~

प्रनुष्ठानहुरण + प्रकोक्तिविनाशनम्‌* 1
परापजयङृद्‌* विद्या परेषा ्रमकारणम्‌* ॥२०॥
ये वा विजयभिनच्छन्तिष ये वा जेतु क्षय, कलौ ।
येवा कूरमृगेच्दाणा* क्षयमिच्छन्ति मानवाः ।॥२१
ये(य इ)च्छन्त्याकपंशान्त्यादिर वश्य सम्मोहनादिकम्‌ ।
विदेषोच्चाटन प्रीति तेनोपास्यस्त्वय मनु ६ ।२२॥
सत्छम्भ्रदायविधिना* सदुगुयोरमुखतस्तथा ।
उपदेशक्रमेणंव गृहीत्वा साधयेन्मनुम्‌ ॥२३॥
कुलाचार पमायुक्तः१ १ कुलमार्गेण पुत्रक ।
दीक्षा कुलगृयोर्योगात्‌ मृहोतव्या सुवुद्धिना१* 11२४)
साधये्छुलमागेण तेन मस्व प्रयोजयेत्‌ ।
उपसहारण *३ तेन कत्तव्य करुलयोगिना ॥५२५॥
सौभाग्यचर्यास्मायुक्त ** सदा तपंणपूव्वेकम्‌ !
सदा पूजापमापूक्त ' * चिन्तित भवति घुवम्‌ ({२६॥
ऋषिसिद्धामरेश्चैव विदाधरमहोरगे" ।
यक्षगन्धर्वेनामैश्च पिश्ाचव्रह्मराक्षसः"‹ ।२७।]
परञ्वैन्द्रयेश्च सन्वार पदयो नाशचकरो१* मनुः१८॥1
पिण्डजाण्डजजीवेक्च किम्पुनः क्रीञ्चभेदन १४ ।।२८॥
ति पड्विधागमे साषपायनतनत्रे प्रथमे पटलम्‌२ ° ॥१।।
\\ श्रथ द्वितीयः पटलः ॥
जिह्धाग्रमादाय करेण देवी वामेन शनून्‌ परिपीडयन्तीम्‌** ।
गदाभिघातिन च दक्षिणेन पीताम्बराढयया द्विभुजा नमामि 1॥१॥

“ १, ख. दृण्िणो ) २, ख. ण्विना्नी । ३, घ परापजयिनी । ४, ख. ०कारणो 7


भष ०कारकम्‌! ५ य विललय०। ६. ख. ग. जतुक्षय। ७. घ, द्रमृयर्वैव ।
च, व घ. इकति शाश्तिकर्माणिग येच्छन्ति शान्तिकर्मणि । ६, क ग. भ्निदमतु,;
घ. मिद मनू} १०.घ्‌. तर्रदाप० 1 ११.क.ख समपुक्तो ; १२ घ. सुबुद्धिमान्‌ ।
१३. घ. उयसहरण । १४ म॒ श्तमापृक्तो १ १५. ग समायुक्तः) १९ ग पीप्नाचा०॥
१७, क, ग, भ, नाकश्षकर 1 १८. ग पुनिः; घ. मनु। १९. ग, न्मेदन.; च मदेन ¶
२०, ख. ग. प्रयमपटलम्‌ ; ध. मत्रवर्णन नाम प्रथमः पटलः । ` २१. ग, परिपीडयति ।
४ सायायनरम्े

प्नौचमेर उवाच +--


मस्ते पवेतीनाय नमः पत्रगकक्ण ति
वद दोक्षाविधि तात त्प्तदं स्तस्मनादय.* ।।२॥
ईश्वर उवाचर--
पुस्तके लिचितान्मन्रानवलोक्य जपेत्तु .* 1
स जीवन्नेव चण्डालो मृत.* श्वानो मविष्यति ॥३॥
दोक्षामागं विना मन्न शेव शाक्तञ्च* वंष्णवम्‌ ।
यो जपेत्त दहप्याु देवता च जुगुप्सति ।॥४॥
दीक्षीविधि विना मत्र यो जपेत्कोदिकोय ।
त स सिद्धिमवाप्नोति सिन्बुसंकतवपंवत्‌*॥५॥
तस्मात्सर्वप्रयलेने दीक्षा कुलगुरोमूखत्‌ 1
उपदेशक्रमणेव मन्वसड.प्रहण चरेत्‌ ॥६॥
वेदवेदाद्धपार्त वेदान्तायेपुनिर्चितम्‌ ।
वैदिकाचारसयुक्त कुर्याद्‌ गुरमतेद्धित ॥७॥
गर्भकौलागमासक्त 5 नानाकोलपरायणम्‌ 1
श्रष्टपाशविनिमुं बत कुर्याद्‌ गुरमतन्दिव ९ ॥८॥१*
पुरश्चरणङ्ृप्सिद्धमः््रागमविशारदम्‌ ।
उदततु" चव सहत" समयं सत्यवादिनम्‌ ॥६॥
भ्रस्यानक्ञानपारोण' › नीतिश्ास््ायेकोविदम्‌ ।
श्रोविदयामवयन््रे कुर्याद्‌ गुरुमर्ताद्रत '* ॥१०।।
चक्रदूजसमायुक्न (कतो) "यासविचाविशारदम्‌ {द ) !
गुस्य॑मनाच्च^ › कत्तव्य ^* सतत पिदिकाक्षिमि.** ॥११॥

१. ख ध. क्रोर्चमेदनन, ग प्रौस्यनेदनोदाच। २ ष. स्तमनादिक्म्‌, ष


स्वमनासरपे । ३ ध दद्व्योदाथ! ४ छ उमेच्वय , य गपन्ठिये „+ प अर्वति
य+ ५ गपमून। प दायाक्त+ ८ पधिषो०। द प गुस्षेका-
पाष । € ग न्मनाद्रदठ। १०. द्दोोऽ्य ख पुर्तक नात्ति, प पुस्तके विदेषगे.
ध्वलोक्यतेऽ् (नोक "पया पका भय सम्या जुगुप्डा चेति पञ्चकम्‌ पबुल छोतचमानन्
पष्टपाशा[न्‌)दिवजपन'' ॥ ११ सन प्रास्यान० ; प स्वस्यान०। १२ प. भमव
प्द्तिम्‌1 १३ कप पुरु०, यगु! ४ गक्त्तव्या ‡ क्प कतम्दं। १६
ष॒ चिडिङक्षिण।
द्वितौयः पर्त [५
~~
गुरुयुश्रषयए विद्या पुष्कलेन घनेन वा ।
श्रथ विद्यया विद्या चतुथे नोपलभ्यते १२५
शुभरूषमा गर सम्यक्‌ तोपयेच्छिप्य सन्वहम्‌^ }
प्रसन्नचेतसं दत्त मच्वभूत्तममर्मक, ॥१३॥
स्कत्परं का बहुवं चाय धिध्यद्रव्य गुः स्वयम्‌ ।
गृहीत्वा मन्तमादत्ते विक्रीत तदुदाहृतम्‌ ॥ १४॥
राजस चैव तद्वियाद्‌ सोगद भुवि पुत्रक |
विदयाप्रतिनि्षि विद्या[द्‌| यदत्त“ तामस मतम्‌* ॥१५॥
मोक्षार्थो च गुरं यत्नात्‌ चुरूषेणेव तोषयेत्‌ ।
धुपषेणैव यत्नन्ध*तद्विचात्‌*सवेषिद्धिदमू्‌* 1 १९
नो देयं (या): विद्यया विद्या वित्तकाक्षौ तथेव च।
सच्छिष्याय प्रदातव्य ^“ घनवेहायवज्यकैः ।) १७1
दुरालापसमायुक् दुगंभेनसमघ्वित्म्‌ ।
सर्वेथा वज्जंमेच्छिष्य स्वगुरोर्वाभिपरानिनम्‌^ ^ ॥ १०};
श्रष्टपाशसमायुक्त च्रष्टाचारसमन्विततम्‌ !
सवदा व्जयेच्छिष्य गुरुषेवाविवश्जितम्‌ ११ ।।१६॥१*
नि्मेत्सर निरालम्ब नोतिशास्वविशारदम्‌ ।
नित्यानित्यविवेक् च दिष्यत्वेनोपकत्पयेत्‌ ।२०॥
श्रद्धाचक्तिसमोपेत धनदेहायवल्वितम्‌१४ }
श्रष्टपाक्चविनिमुंक्त श्िष्यत्वेनोपकत्पयेत्‌ ॥२१।।
गुरक्िष्यावुमौ मोदादपरीक्ष्य^* परस्परम्‌ ।
उपदेश ददन्‌ गृह्‌ प्रप्नुात्तौ पि्ाचत्ताम्‌ ॥२२॥
इरिषड्विद्रागमि सास्यापनतन्त्रे द्वितोय पटलम्‌१९॥
१. स. तोययन्छ्‌ ष्ठमन्वहम्‌; ग तोपयेच्दिष्यमन्वहम्‌; ष॒ ठोष्पाभीष्ट-
धिदिदम्‌ । २. ख न्मभेकः{ ३, क.षन्ग. तद्विधा ४. घ. तद्रत्त। ५ घ. पमूतम्‌।
६, ग. यत्लम्प; घ-यलख्ध्वा॥ ८. कू.ग. वद्विद्या; प रखाव्चिं। पप.
सवेठिद्िदा) € म. नोपदेय) १०, घ. प्रदातव्या ११. प गुरषेवाभिमानिनम्‌ ।
१२. प. ध. गुरुतेवाभिमानिनम्‌ 1 १३. पर पुस्तके विश्चेपोऽव दतोकः--
काक काञ्यनासक्त करएालयद्वितम्‌ 1
सर्वदा वजयेच्छिष्य गुरुपेवानिमानिनम्‌'
१४, ख. घ. जदल्वक्म्‌ 1 १९६. ख. ज्दपरोदयः ग. ण्दपराह्त। १६. ख.घ.,
द्विती एट्त. १
६] साद्यायनतन्ये
~~
॥ श्रय तृत्तीयः पटलः 1
„ चलत्कनककुण्डलोल्लसितचार्गण्डस्यलां +
लसत्कनकचम्पकदुतिमदिन्दुविम्बाननाम्‌ ॥
दाहुतविपक्षका कलितलोलजिह्वाञ्चला*
स्मरामि वगलामूलली विमुखवड. मुखस्तम्मिनोम्‌ ॥१॥
ध्रौय्चभेद उधाच-र
पूजाधारणयन्यज्ञ* सवंमन्नविशारद ।
भ्रभिपेकवि्धि तात वद मे करुणाकर ॥२॥
ईश्वर उवाच^--
श्रादिवने का्तिके चव चंत्रमासेम कुमारक ।
कुयुस्तमभिपेकः च मानवाः!" सिद्धिकाक्षिणः^\ ॥३॥
रवौ गुरौ भृगावन्जवासरे"* च कुमारक ।
मन्त्रामिचेक कत्तव्य सतत सिद्धिकाक्षिभिः ॥४॥
रोहिणोश्चवणि षेव पुष्ये? चैव विशाखयोः ।
मनत्राभिपेक कर्तव्य सद्य. १* सिद्धिकर भुवि ॥५॥
एव युददिने^* सम्यक्‌ परवेऽ्धि+ समूपोपिवम्‌ ।
स्नापयेत्पञ्चगव्येन ततश्चामलकेन तु ।६11
तत शिष्य समानीय °देवतासन्निधौ पुन. ।
भ्रयुत भ्रजपेन्मन्त्र गाय नीजपमाचरेत्‌"^ ।॥७॥
देवस्येरानभाचे तु गौमयनोपलेवितम्‌ १६ ।
रद्धवत्त्या लिखे. रक्तपीतसितासिते ॥८॥
१ ग. पुस्तके "चलप्कनकङुण्डलो" इत्यस्मादग्रेतनपदाणो नात्ति। घ चलल्तमक.
कुण्डला लसत्‌० ! २. ध. कलितवंरि०। ३ ख. घ. विमुखवाट्मन । भ५.ख.घ
क्रौस्चभेदन उवाच, म. प्रौञ्खमेदनोवाच } भ कं पुस्तके प्पृजा स्याने “वृज्य" एव
च ख पुस्तके "यन्त्र स्याने "यन्त्र" इति शश्दो स्वः 1 ६. ग. पुस्तके "कोञ्चमेदनोवाच"
तणा च प्टुष्वरोदाच' इत्देवाप प्रपोम सदत दृष्यते ; भरठोऽपर एतच्छन्दपो रेप एव पाठान्तर
ऊहगोयो विद्रद्भिरिति ७ ख.चव्रे। ८. ख वंदयावेतु। & ख म. करततन्यमभिपेक,
घ कत्तव्य चाभिपक। १०. खग मानवे-। ११ खय सिदिकाक्षिभिः। १२
म भृगुकिदीनः ध मूयोडदु + १३ ग. स्वार्घा। घ सपु 1 १४ ग. सद॑ः
१५. प सिदिदिने।+ १६ ग पूकवहनि, प. प्वा्ः। १७ गष समानीत्वा।
१८, घ, गायत्रीं वंदमातरम्‌ । १६. क. ग. शतेपिताम्‌, ख. ०तेपयेत्‌।
तेतोप पटत्त [५
7 ५

पोडशाड.गुलमान, तु लिखेद्‌ विन्दुमनन्यधो 1


ततो (तदु) परि लिखेद्‌ वृत्त"मष्टपध्र सु शोभनम्‌ ॥६॥
प्रियडगुक्वाचतिगोपूमचरणकाटकमापकं 3 1
कुलप्थमुद्गनीवार * कमान्मध्यादि विन्यसेत ॥१०॥
भ्स्थ चैव चतुविशच भरप्येक धान्यमेव च।
भरब्रण स्युलकलश मध्ये सस्याप्य वुदिमान्‌ ॥११॥
श्रष्टपत्तः न्यसेतुवर कलशाष्टकमादरात्‌ ।
क्षालितः वसिति" चुद्ध कलश्च च समपेयत्‌* ॥१२॥
पोढले र्पचारइच धुपा्चनव°विन्यसेत ।
श्रपोवानेन पूरयेत नदौजलमकलमवम्‌ ।*१३॥
नि क्षिपेत्नवभाषण्डपुं नवरल्नान्‌ कुमारक 1
कस्तू रीचन्दनोपेतान्‌ स्नेवमाण्डेषु नि क्षिपेत ।1 १४॥
मध्ये देवी समावाह्य चिन्मयी वगलामुखीम ।
भ्राणस्थापनमार्गेए केरलोक्तविघानत \\१५॥।
वाणी चेव रमा गौरी शवो स्वाहा रतिस्तथा 1
दुर्गा छाया^* सम्यच्य पूर्वा्ष्टकपव्रयो * + ॥१६॥
अचयेत्पूववप्पूत्र केरलोक्तविधानत 1
नेवीननवसस्याकवस्वणव तु वेष्टयत ॥ १७॥
सुगन्धपत्रपुप्पादीन्‌ +* चिन्यतेत्करशान्तरे !
तत्र शिष्य ^> समानीत्वा(य)ऋत्विम्वरणमाचरेत्‌ ।*१८)
वेदवेदागपारीणमष्टौ^° ब्राह्मणमादरात्‌ ।
भ्रावेयचुग्मसयुक्त * *मचयदस्त्रमूपणे ।१६॥
शचाकरुनादिपु मन्तु प्रथम कृलशमाजनम्‌*१।
लक्ष्मीसूकतेन श्रीयुत्त`° द्वितीय कलशन्तथा += ॥२०॥
१ ख न्मनि। रख श्पद्य॥ ३ ग ष धणकादक्मः्दहो$ ४-ष
म्मोवारा। ४ ख प्रत्रपत्र 1 ६ क चास्ति ७ खग घ समचयत ।< घ
परां परि) & च श्चदनोवेत॥ १० च पृष्ठे वाण्यादिशब्दा द्वितया ता दश्यते।
१६ घ पूर्वादष्टकषिद्धय । सुगन्धि पुव >, घ सुगघपुक पुष्पादि) १३
ण क्षिषां\ १४ च न्पारीणानव्टौ! १९ घ गदष्यदयुच्व १६ घ कुर्म
मार्जनम्‌ 1 १७ घ भरीयूक्तं 1 शद घ कुम्ममाजनम्‌ ।
९] साद्यायनतन्प्र
~-~~~~ व
पौदपेणेव भक्तेन तृत्तोय कम्र तया* 1
नारयणानृवाकेने °चतुर्थं दद्रदक्तकंः° ॥२१॥
पच्न्वग्नल्यमयंमेन््रैः* पञ्चम कलश्च तथा ।
पष्ठ चाम्म्यवारेणः ब्रह्मपल्ल्या च ^ सप्तमम्‌ \२२॥
ग्रष्टमे कठचल्त्या* च मार्जयेन्मन्नकोषिद. ।
मध्यमः वकंकलश्च“ मूतमतेण ११ माजयेत्‌ १२३५
एवेञ््व माजन इत्वा नवीनेवंस्वमूपणेः )
श्रलष्त्वा तु दिष्य १२ तमानीय! 3 मण्डपान्तरे ॥२४।।
वामोषू्परि विन्यस्य मूद्ध्‌नि चाघ्राय सादरात्‌ ।
एकंक च पुरश्चर्यामलमन्न कुमारक ॥ *५॥
स हिरष्योदके पूर्वं दद्याच्छिष्याय पृत्रक 1
स्वहूत्कमलमध्यस्था विद्या ज्योतिर्मयो पुनः ॥२६॥ हि
चिप्यस्य हृदयं चैव प्रविशन्तोति भावयेत्‌ ।**
तद्च्ियस्तु"* सभाव्य गुरू यत्नेन तौपयेत्‌ ॥२७॥
एव मन्त्राभिवेकञ्च ^^ कुयद्‌ व्रह्मस्त्रविचया।
सदयः१* धिद्धिमेवेलयु्र पुरथचर्या विना^^ मुवि ॥२८॥
इति षद्षिचागमे१२ सस्वियनतःरे तृतीय पदनम्‌२* ५३५

१. घ दुम्ममार्येनम्‌ + २. प. श्नुवा्येन; ग नुजाकेन, प प्रदानो मणि


३ ष्ट ग भलत तषा; प. कुम्ममार्जनम्‌। ४ प श्व्रह्ममदो०। ५ स. चास्य
चारेण; घ चोरस्य पारे ६ प. म. ब्रहमवल्ल्योच; प ब्र्मवत्या तु ७.
प.ग कृट्वत्त्या; प नृमुवर्त्वा॥ त्प प्रवदाक्टेनच। ६. प, मधघ्पत्ष।
१ परपर पूरष्नयं}) द प पु्तमतेल। परे प तन्िप्य। डप
प्मानीष्ा। ६४ प. पुस्तद्रे्यवितप्र पाट
~ हप्मोग ठव उव्वा तमव्राया पदेपदे}
बष्टक्पोदङर टसा मत्पर च पिमध्वयत्‌ ॥
यिदास्पे मदत्‌ पत्र साप्मान्य परिवध्टयेत्‌ +"
१५. प वरन्दिप्पनु1 १६ ध मन्वानिप्नतिच। १७ प.षवं। एप
पुग्ध्व्यदिना। १९ घ. न्यमरट्स्य। २० प न्दीक्न विद्धिकृतोयषरल !
+
चतुथं; पटलः [ £
~~~ ^+ ~~~

॥ प्रथ चतुरयेः पटल्लः ॥1


पौयूषोदधिमध्यचादविलसद्रलोज्ज्वले मण्डपे,
भीषिहासनमौलिपातितरिपु्ेवासनाध्यासिनीम्‌ 1
स्वरपाभा केरपोडितारिरसना श्राम्यद्गदा वि्रती,
स्वप्ने पदयत्ति तस्य याहि विलय सद्योऽम्बर पर्वापिदः \॥१
कोञ्चमेद(दन) उव(व--
" गद्धाधर नमस्तेऽस्तु मोरोपतिग् नमो नमः}
ब्रह्यास्वमश्व्रसध्या च वद मे करणाकर ॥२॥
ईश्वर उयाघ~-
मन्प्रमध्यापयेत्‌* सम्यक्‌ क्िष्यस्य युरुरादरात्‌ 1
पदारन्ध* तु तन्मन" मन्त्रसन्ध्या समाचरेत्‌" ॥1३॥
तन्मम्त्रसध्या वक्ष्यामि शरजन्मनू समासतः !
मन्म्रसन्ध्याविहीनस्य स्वं तन्निष्फलं भवेत्‌ ॥(४॥
पञ्चाद्गविधिना स्नत्वा मन्त्रस्नानमनन्तरम्‌र +
ततः स्नायादद्धमन्वेमू
लेनैव तु भाजयेत्‌ ।५॥
घौतवस्तर परोधाय स्वगृह्योक्तविधानते. ।
नित्यकमे समाप्याथ भन्धसध्या समाचरेत्‌ (६॥
अड कुमोनैव मुद्रायाः? सूर्येमण्डलग जलम्‌ ।
श्रनयेत्तोयमध्ये तु ध्यानयोगेन बुद्धिमान्‌ ।\८॥४
आवाहनी स्यषपनी च सन्निधानमतः'* परम्‌ ¦
सत्निरोधनमुद्रा च सम्मुखी भार्यनी तथा 1२4
एता मुदाश्च ततो^* दशेयेत्साधकोत्तम. ।
शोधयेदड.कुयेनादौ १* चामृतीकरण ^> त्ः^* 1६!
तज्जल वामचुनुके गृहीत्वा साधकोत्तमः 1
मूलेनैव व्रिधामन्त्य श्रष्टपत्राम्बुजे सिदेत्‌ ।\१०॥

१, भ. यस्त्व! १ २. ग. सोप । ३, त. य. घ. मोरीप्रिय 1 ४, घ, मवरततप्यापयेत्‌ ।


५. ख. भ, तदारभ्य ६. ख, घ. तन्मन्त्रः ७ व, उमादर! = ष- न्मः
परम्‌.॥ ६. ख. मुद्रमाः भकृयोनंव । १०. क. बक्षिव्यानमतः । ग. सधिषपनीदः।
११. ख, सतत । घ. तत्तोये 1 १२, ष. नादा । १३. घ. वामृतो० 1 १४. प. तषा
१० 1 घाद्पायनेठ्

मध्ये एकाक्षरीमन्य वगलानाम्ति पुत्रक ।


वेदसस्यामन्ववर्णान्‌ *सप्तयन्र *क्रमःह्लिखेत्‌ (५११
गमन्त्ययते चाप्टवर्णा'त्लिदेन्मु मनू तथः !
पुमरेकाक्षरं मन्त्रः प्रिसप्तमभिमन्ययेत्‌५ ॥ १२॥
तेन मूठेन सम्मोजयं माजंनक्रमतोर्मक 1
तन्मार्जनविर्थि वक्ष्ये रेहिकामुध्मिकेपु चः ५१३
तरिधा मूद्धनि द्विषा बाह्वौस्तिषा टृत्रानिदे्ोः 1 \
द्विधा पदेषु सम्माज्यं सौम्यकर्मस्वय कमः" ॥१४।
एवञ्च माजन कृत्वा गायन्या वगलाह्वया 1
मर्ध्यत्रयस्व निष्किप्य हृदि सनाव्य देवताम्‌ ।१५॥१
मूलेन मन्ति तोय त्रिवारल्च तरिधा क्षिपेत्त< ।
एवमेव त्रिकालन्व मन्वसन्ध्या समाचरेत्‌ ॥ १६
उपस्थाने चिकालस्य वक्षयेऽह्‌ कौल्चमर्दन ।
उपस्थान चिना सन्ध्या निष्फला?" नात संशयः 11१७॥
गम्भीरा च मदोन्मत्ता स्वर्णकान्तिसमप्रमाम्‌ ॥
चतुभुःजा त्रिनयना कमलासनसस्थिताम्‌ ।: १५५
मुद्गर दक्षिणे पादा वामे लिह्धा च विन्नतोम्‌*' ।
पीताम्बरधरा सोप्या दुढपीनपयोधराम्‌ (1 १६॥।
हिमकुण्डलनूषाद्धी पीतचन््राद्धेशखराम्‌ ।
पोतमूपणभूप।द्गौ स्वणसिहासने स्थिताम्‌ ॥२०॥१५
एव ध्यात्वा तु देवेशी "> भ्रातः सन्ध्या समाचरेत्‌ 1
उपस्थाने प्रवक्ष्यामि मध्याज्ञस्य^ कुमारक ॥ २१॥
दुटस्तम्भनमुप्रविध्नशमन दास्द्ियविद्रावणम्‌,
भभृत्स्तमनकरारण मृगदुखा चेत समाकर्पमम्‌ ।
१. प.देवेषश्या) २ के ष स्तपः ३. घ शन््य्यकरे
सप्त०। ५ ख. वाः( ६ खग. गकभप्वय। घ. मागेप्वय। ७, र्णं ।४
घ. कमात
त. भिः
नष
पुस्तके विदः पाटः
॥& निषयनत इरक्ेषु माजयेत्‌” 1
६. ख. ध विवे भ. पुनः १० घ मिष्फल) ॥ ४
घ. व्खकम्‌ + १२. ध इ्वनयभरो वि्ेषः--
“रल्िदाहना वन्दे दर्वीं व्रैलोक्यसु-्दरीम्‌" 9
१३. ग, देवश्च ! भ. देवे्। १४ घ, मनक
च+
पचमः पटल. [ ११
~~~"
सोमाग्येनिकेतन मम दृशोः कारष्यपूेकषेण+ ,
विष्नोघ वगले हर प्रहिदिनं कलयापि तुभ्यं नमः ।1२२॥
एव मघ्यदिनोपार््थिर कुषः कमं सुपूत्रकर ।
(उपस्वान प्रवक्ष्यामिः" सायाह्वस्य कुमारक ॥२३
मातर्मञ्जय मद्विपक्षवदन जिह्वाञ्चलां कोलय
ब्राह्मी मुद्रय°मुद्रयागु धिषणामघ्रचोरगे्ि स्तम्भय ।
शचृक्चूणंय चूणंयायु गदया गोराङ्जिं पीत्ताम्बरे*,
दिष्नौष वगले हरं प्रतिदिन कल्याशि तुभ्य नमः ॥२४॥
सायमोप।स्थिनकतंग्यमेवमेवः कुमारक ।
विध्नग्रहविनाशाय' °९्व ध्यायेज्जगन्मयोम्‌^१ ।।२५॥
मन्व्रसन्ध्या विना मन्व कोटिकोटि जपन्ति मे*६)
ने भवेन्मोनसिद्धाचं`अरमन््रसिद्धि कुषारकं ।२९॥
त्रिकालमाचरैत्सन्ध्यामृपस्यान तथेव च 1
सहेल च जपेत्तिस्य सिद्धि. पण्मासरतो भवेत्‌ :।२७॥
पूरवोक्तिविधिवत्सध्या कृत्वां चाष्टोत्तर्‌ जपेत्‌ ।
ययवापिस्मरन्‌** वृत्र ततत प्राप्नोति निदिचेतम्‌ ॥२५८॥
सण्ध्यामन्व्ेु सवेषु** अङ्गमेव कुमारक !
न प्रिद्धचस्यद्धहीन + * तस्मात्सन्ध्या समाचरेत्‌ ॥२६॥
इति पड्विद्यागमे सष्थियनतव्रे चतुरं" पटलम्‌ १०।४॥
11 श्रयं पञ्चम्‌. पटलः ॥

पीतवर्णा मदापूर्णां समपीनपयोधराम्‌ ।


चि्तयेद्‌ वगलां देवौ स्तभनस्त्राचिदेवताम्‌ ।1१॥
शोचभेरन उवाच--
नमस्तेऽस्तु जगन्राय भस्मोदूलितविग्रह ।
एकाक्षरोमहामन्वर वगलासख्य महप्रमो "८ ॥२॥
१, त. कारुप्यपूवेक्ष । २. घ. व्पा्ति। ३. ष. षूर॥ ४ प पुस्तके
विशेषः दढ 6
“उपस्थाने चैवमेवत्कततंग्य विधिवन्नर.'" 1
४, "~ वि्‌ नयतोऽशौ वास्ति घ. पुस्तके 1 =
६. ग, पुस्तके नकरस्त । ७. घ. पोताम्बरो । ८. ष, नमोपास्ति। ६, घ. न्मन
भेव + १०. घ. ण्दिनायेव। ११. घ. घ्याप०) १२. न. जपेनतु) £ १३ ष,
म्मौनिसिद्ायै। १४. घ. स्मरेत्‌। १५. ष. पुकेयु। ६६. ख. नव लिदपरत्यय-
होना। १७. प. शप-स्यादिषिरनाम चतुरः पटलः ॥ द घ. वद प्रमो ।
१२ 1 साख्यापनतभ्ये
1
ईष्वर उवाच--
तत्तदेकाक्षरीवीज तत्तन्मन्ेषु जीवनम्‌ ।
उत्तम बीजमुक्त 'च मभ्प्रस्वंसाधनम्‌ ॥३॥
नानामन्तरेु मन्त्र वा वोजाढच ° स्वंिद्धिदम्‌ ।
निर्वीजमेव निर्वर्यं शिवस्य वचन यथा" ॥४।५
तद्रीजोद्धारमनघ* सवंसिदिप्रदायकम्‌ ।
पूजन” च प्रयोग च वक्षयेऽ्ट्‌ तव पुत्रक ॥५॥
सान्त राग्तसमायुक्त चतुरथेस्वरसयुतम्‌ ।
रेफाक्रान्त विन्दुयुक्त ब्रह्मास्तेकाक्षर(रो) मनु ° ॥६॥
ब्रह्मा ऋषिश्च छन्दोय (न्दोऽस्य) गायत्र समुदाहृतम्‌ ।
देवता बगला नामः शक्तिरिचन्मयरूपिणी ॥८७॥
लं बीज हठी च शक्तिश्च ई कोलकमुदाहृतम्‌ ।
न्यासविद्या प्रवक्ष्यामि मन्त्रसिद्धिकर१* नृणाम्‌ ॥८॥
भूशुद्धि भूतगुदधिज्च मातृकाद्वितय न्यसेत्‌ ।
पञ्चाक्षरेण › * विन्यस्य तदिव शृणु प्क ॥६॥
नेश्रवाण पुनः पञ्च नव पञ्चदशाक्षरम्‌ ।
वि"्यसेदगुलोभिश्च पडद्धेषु तथेव च ॥१०॥
वक्षयेऽह पञ्जर न्यासं मत््रसिद्धिकर नृणाम्‌ ।
बगला पूर्वतो रक्षदागनम्या च गदाधरो ॥११॥
पीत्ताम्बरा^* दक्षिणे च स्तम्भिनो चेव नष्हते१।
जिह्वाकीलिन्यतो रक्षेत्‌ ** परिचमे स्व॑तोमयी १५ ।१२।}
वाय्ये च मदोन्मत्ता कोवेरे१९ च चिगूलिनी ।
पाये `° पाताले स्तममातर.१५ ॥ १३॥
ब्रहमास्यदेनते
---
~
१ प बीजयुक्तं । २ ध॒ मत्र सर्वायसापङ्म्‌। १. प बीजाज्य। ४. ष. तषा
५ ध प्रयमशो विद्येव एकाक्षरो क्यता उदार'। ६. घ, ०्मनष। ७, ग योजन।
८ ख मनुम्‌ 1 € खप नाम्नो । १० ख. न्हिदिक्यी) ११. ख. घ मन्वा
क्षरे । १२. घ. फीठाम्बसो) १३. घ नधत । १४. प. चिद्व फौनतो रभो!
१५. ख. सविन्मपो । ग सवतामयि। ष खक्ठोमयि। १६ प. कोय । १५
ख ध. श्देवतेरात्प। १८. प. पातातस्तन्पमातृक,
पचमः पटलः [ १३

उद्धवं रकषेम्महादेवी निहस्तम्भनकारिणी ।


एव दश दिशो रकतेद्‌ बगला सर्वसिद्धिदा ॥१४॥
एव त्यास्विधि इत्वा यत्किल्चिज्जपमाचरेत्‌ ।
पस्य सस्मरणादेव + शनूणा स्तम्मन मवेत्‌ १ १५।१
सवर न्यासविधि एत्वा ब्गलामातृका न्यतेत्‌ ।
तन्मातुकाविधि वक्ष्ये सारात्सारतर तथा ॥१६॥
तारञ्च मातृकावर्ण °बगलाबीजमेव च ।
नमोऽन्तेन च विन्यस्य मातृकास्थानतोऽनष ॥ १७
ध्यानेनभमन्त्रसिद्धिः स्याद्‌ ध्यान सर्वाय साधनम्‌ ।
ध्यान विना भवेन्मूक. सिद्धमन्त्रोऽपि पूत्रक ॥१८॥।
वादी मूकति रङ्धुति क्षितिपतिरवेश्वानर. शोतति,
क्रोधो शातति दुर्जन. सुजतति क्िप्रानुग. खञ्जति ॥
गर्वी खवंति संविच्च जडति त्वद्त्रिणा^ यस्वित *,
श्रीनित्ये बगलामुखि प्रतिदिन कल्याणि तुभ्य नम ॥१६॥
एव ध्यात्वा जपेन्मन्व्र तत्वलक्ष सुबुद्धिमान्‌ 1
गुडोदकेन सन्त्ये तद्‌शाश कुमारक ॥२५॥
त्रिकोणकरण्डे जुहुयादधस्तनिम्नोननते चुभे ।
हयारिकूसुमेनेव सरक्त नाज्यसयूतम्‌ < ॥२१॥
ब्राह्मणान्‌ भोजयेत्पर्चात्‌ तत्वस्रस्या तु युग्मकम्‌ ।
मन्त्रसिद्धि मेवेतुत्र नान्यया दिवमाषित्म्‌ ' " ॥२२॥
वाममागेक्रमेणेव वामामभ्यर्च्यं पुष्पिणीम्‌ । ५
मन्धसिद्धिकर चैतत्‌ * स्वंदा रिपुनाशनम्‌ ((२३॥
प्रम्यपयोगेएु नना्ृत्िमचेटकः
सद्यः स्तम्भनविदया च * बगला चन सञ्चयः (२४
इति पडूविधागमे साद्यायनतेत्त्रे पचम पदलम्‌१ (९५
१.४. न्देव। २.ग.य.सवं\ ३. ख मतुकावखंः। य. मानृकाचरां । ४.
घ. र्पाचेन । ५. प. नषाधक्म्‌ । ६. प. स्वदत्रिख १ प. प्वयत्रिणो | ७. घ यत्रितो।
५. घ. जपेभमृतम्‌ । £ ख घरक्तन्याञ्य० ॥ ग, सरकतमाह्य०, १०. ष. धिव
भाषणम्‌ । ११. घ. चैव! १२. ख. स्तमनङद्रिचा । घ, स्वंममविदयादि। १३. म.
ग्एकाक्षरमत्रकृथनं नामं पञ्चमः पटल. ।
४] साश्यायननन्ते
~-~---~---------------^~-~--~~ ~~~

॥ श्रथ पल्ठः पटलः ५


पाठीननेतरां +परिपूर्णंववधा*पर्चेद्दियस्तम्मनचित्त
ख्पाम्‌ ।
पीताम्वृराढ्चां मिधितास्चनाग सदा मजामि सस्तम्मनकारिणी सदा ॥१॥
शरोल्वमेदन उकाच--
नमस्ते योगिससेव्य नमः काहणिकोत्तम ।
एकाक्षरीमहामन्यश्रयोग * वद शङ्कुर ॥{२॥
ईश्वर उवाच--
उत्तमं कुण्डहोमन्च स्थण्डिलस्चेव मध्यमम्‌*!
स्थण्डितेन विना होम निष्फल मवति प्रुवम्‌ ।३॥
पट्कोण चाष्टकोणल्चे चतुष्कोण कुमारक ।
त्रिविघ स्थण्डिल चैव वक्ष्येऽहं कुरु भ्रादरात्‌ ॥४॥
लक्ष्मी (.) ्ान्तिस्तया पुष्टिविध्नाविघ्ननिवारणैः* ।
चतुरस हुनत्कुण्डे तन्यवित्‌ परिशोधिते ॥५॥
शीकरणसम्मोहे वाणिज्ये द्रव्यसग्रहे।
कीत्तिकामस्तु जुहुयाद्धूगाक्रारे च कुण्डके" ॥1६॥
दशेन्धियस्तमनेतु दिव्येगेन्धैस्तथेव च।
त्रिकोणकुण्डे जृहुयाद्‌ गृुरमाेण वुद्धिमान्‌ ॥७॥
विद्वेपणे तु जृहुयादटततुले कुण्डमध्ये ।
उच्चाटने वु जुहुयात्‌ पट्‌कोगाच्ये तु? कुण्डके ५८॥।
मारणे चाष्टकोणे तु कतत्ततृकर्मानुसारत \* ।
तत्तद्द्रव्येण जूहुयात्त्तदूग्रन्थोक्तमेव च ६॥1
वधयेऽहं स्यण्डिलेर्होम`° षटृकर्मसु*> कुमारक 1
जुहयच्छान्तिवश्यपु स्थण्डिले चतुरसके ।१०।॥१
विद्धेपणे स्तम्भते च जुहुयादष्टकोणके ।
मारणोच्चाटने पृत्र पट्‌कोरोपु विधीयते ॥ ११

१ म.पाटिननेत्रं। चरम्तेनतेर्वा। २. घ. न्यात्रा। ३. ख. ग. वि्धिवाघ्ना।


घ पिदिनी ग घ. न्महामत्र०( ५. घ. स्वद्व मध्यमंतया1 ६. ग.मः
विद्या विघ्न० 4 ७. क. कुण्डते। ८. घ दुष्डमघ्यगे। ६. घ.च) ६, ग तत्तत्कामा
११. ख. घ. स्यद्तिदोम। १२ ख ग. पट्क्मेषु।


चष्ठः षटखः [१५

श्रदिश शतहोमे च * अ्ररिनिद्च सहुछ्के ।
हस्त चायुतहोमेुर द्िहस्त लक्षहोमके 1 १२९
गूणदस्त कोटिहोमे° कुण्ड भिम्नोत्तत सुत" ।
स्थण्डिलस्य चः वयामि ताच्तरिकोक्तस्य चक्षणम्‌ ।१३॥
भरलििहस्तम)त्र च द्विरल्निस्च द्विहस्तयोः९ ।
पतं सहस्रमयुतं लक्षहटोमेष्वय क्रमः \॥१४॥
सर्वत्ैवोन्नतं पु प्रेद स्थण्डिलक्रमम्‌* ।
सक्षण> स्यण्डिलंःः कुण्डे" "नं ज्ञात्वा निस्फलं हुतम्‌ ॥१५॥
चान्तिवश्यस्तम्भनानि विद्रेपोच्चाटन तथा ।
मारणान्तानि श्तन्ति पद्कर्माणि मनीषिणः ॥१६॥
नानायेगेः कृतिमेदच नानावेदकमेव च ।
विषमूततश्योयेषु निरासः) › शान्तिरुच्यते * ॥ १५७।
वद्य जनाना सर्वेषा वात्सत्य हृद्यत्त स्मृतम्‌ ।
स्तम्भन रोधन पुत्र सवकर्मसु निष्फलम्‌+ ॥ १८
मंत्रस्य १४ कलहोत्पत्तिविद्रेषणमुदाहूतम्‌*४ ।
यलवुद्धिभ्मेणोक्तमुच्चाटनमिदम्भुवि 1 १६॥१
श्राणिनां प्राणहरणं मारण समुदाहृतम्‌ ।
परत्पेकमेषा वक्ष्यामि होमयोय सुरनिरिचतम्‌ ॥२०॥
इुवहोम तिमध्वक्तं चुहुयादयुतत्रयम्‌ ।
रोगहन्ता› * प्रहादिभ्यः सद्य. शान्तिकर भवेत्‌ ।२१॥४
सुमन्त-°* कुसुमंराज्य १= कृत बाणायुत तथा ।
जुहयानिशि कलि च कश्य सम्मोहन** भवेत्‌ २२)
विभीतक्समिद्धिर्वा करञ्जर्बीजमेव च।
नेत्रायूतत हनेद्युव स्तम्भन परम मतम्‌ ^“ ॥२३॥
१. च.तु। रष. चायुतहोमेहु! ३. ष.कोट्हिमे। भष. त्या! शग,
प्र ६. ख, दविहस्तकम्‌ । ७. घ. स्वण्डित क्रमात्‌ 1 ५. ल. लक्षणैः €. ख,
स्यद्ति। ध. स्यदिते। २०. ख. कुण्ड) ११. क. घ-निराक्चः। १३. क, ०गुच्यते )
१३, घ, निश्चितम्‌ । १४. ख. मित्रस्य । १५. ख. च्वि चपदा० + १६. ख.
शोगङ्त्वा 4 १७. ख. स्यमन्त । व, शाप्त + १८. घ. राज्यैः १९. घ. मोढनक 1
२०. घ. प्रम्‌ ।
१६) पह्पापनतम्य्र
~~~ ^~ "चच = न~~ ^~

निम्वाकंप्हयोमेन निम्बतेटेन मिध्रितम्‌ 1


ने्ायुतेन विद्रेप मवेत्यापाणयोरपि ॥२४॥
उलूककाकयोः पत्रर्वाणायूतमखण्डिभिः ।
जुदरेयाच्व ततो राघ्रौ भवेदुच्चाटन सुत ॥२५॥
तिलतेलसमायुक्त^ शाह्मलोकुमुमर तथा ।
लक्षमेक हुनेदरात्नौ प्रंतागनौ प्रेतकानने ।॥२६॥
नग्नः प्ेतमुते" मोम प्रत्तकाष्ठेन बुद्धिमान्‌ ।
मृकण्डुसदश १ चैव मारण भवति ध्रुवम्‌ ॥२७॥
ति पद्विद्ामे सर्यायनतन्त्रे पष्ठ परलम्‌* ॥६॥।
1 श्रय सप्तमः पटलः ॥
पौताम्बरधरा देवी पूरंचन्द्रनिमाननाम्‌ 1
वामे जिह्वा गदा चान्य धारयन्ती भजाम्यहम्‌ ॥१॥
परौञघभेदन उवाच--
महापाथुषताक्तान्त नमः पत्नगनूषण ।
पटू्रि शदक्षरी विद्या बगलापाञ्मेव च ^“ ॥२॥
{वर उषएव--
मन्त्रोद्धारः प्रवक्ष्यामि पुरङ्वरणलक्षणम्‌ ।
प्रयोग चोपसहार शान्ति तच्छ.णु पत्रक! * ॥।३॥
तार च वगलागीज बगलःपदपुच्चरेत्‌ ।
मुखीति पदमुच्चार्य सवंशब्द ततोच्चरेत्‌ ।\४॥
दुष्टाना पदमुच्चायं वाच ^° मुख पद१° वदेत्‌ ।
स्तम्भयति पद चोक्त्वा जिह्वा कोलय उच्चरेत्‌** ॥॥१५॥
वुद्धिशब्द ततोच्चायं विनाशय १८ ततो ** वदेत्‌ ।
स्थिरमाया +» ततोच्चायं प्रणव च ततोर्वरेत्‌ ।\६॥
१. च. विलतलेन षणुक्त + २. ग. शात्मिली० । ३. घ. प्रमुख । ४. क. ग्नौमे।
घ भौमेः। ५. घ.प्रोतकष्ठच। ६ छ. मृकण्ड०। घ. मृकरण्डसदश्चे। ७ ध
०एकाक्षरीषटृप्रयोगकयन नाम पष्ठः पटलः ॥ <. ठ. ०्मूपणम्‌ 1 ६.ख, म. पटुत्रिश्दरी-
विधा। १०. ख.वगलाताच मेवद ग. वगलायाश्चमेवद। घ. वगलायाक््व
देवता । ११. घ. साम्म्रतम्ड्णुपृक्क) १२. ख. वचि। १३. ग.पदे। १४. ष
कीलयमुच्चरेत्‌ 1 १५. म॒विनाशयेति। ध. विनाश्य १६. घ. प । १७.
स्तन्बमायां।
सप्तम्‌, परतः [ १७
~^

वद्भिजाया समु्चाप्यं एव मनर समुद्धरेत्‌ ।


पटूधिक्चदक्षर मन्त्र मन्वराजमिद मुवि ।७॥
न्यासविदया प्रवक्ष्यामि सदा सिद्धिकरी पराम्‌ \
चगरलामातुका चादौ कामतार्तीयवाग्भवम्‌ ॥८॥
श्रीमायामातृका चैव वगलापञ्जर न्यसेत्‌ 1
लघुषोढा च विन्यस्य घवेमन्य्रप्वय क्रमः ।६॥
ष्यान यत्नात्प्रवकष्यामि घ्यान सर्वा्सिदधिदम्‌+ 1
भ्रादौ मध्ये तथां चान्ते घ्यान सर्वायंसिद्धिदम्‌ ॥१०६।
चतुभुं जाधरिनयना कमलाघनसस्थिताम्‌ ।
तरिमूल पनिपाच्र च गदा जिह्वा च बिभ्रतीम्‌ ।॥११॥
विम्बोष्ठो कभ्वुकण्ठो च समपीनपयोधराम्‌ ।
पीताम्बरा मदभर्णां ध्यायेद्‌ बरह्यस्व्देवताम्‌ ॥१२॥
नारदो ऋषिरेवात्र वृहतीच्छर्द एव च ।
देवता बगला नाम स्तम्मनास्तभचिन्मयोम्‌* ॥१३॥
ले वीज चैव दहंशक्ति. ईं कीलकमुदाहूतम्‌ }
छ्रूणा स्तम्भनार्ेञ्च जपेऽट्‌* विधिपूर्वकम्‌ । १४
सद्धूल्पपुवेक मस्व कोलचक्रकमेण च ।
पृथ्वीततक्ष जवेन्षन्तर व्यसव्यानसमन्वितम्‌ (११५१
तप्पयत्तदश्याशच हैतुभिश्रेण* वारिणा!
जुहयाद्विल्वकु सुम*तदृदाश च बुद्धिमन्‌ ॥१६॥
ब्राह्मणान्‌ भोजयेष्पश्चात्तदृशश्च घृतप्लुतम्‌ ।
तर्पयेत्‌ तर्पयामीति स्वाहान्त होममाचरेत्‌ ॥१७॥
पूजा धरंकालिको नित्य जपस्तरकृणनेव, च 1
होमो ब्राह्मणशुक्तिश्च पुरइचरणमुच्यते ।)१८॥
पुरश्चर्या^“ विना मद न भसिद्धयति^" भूवले ।
एव स्वाधोनमन्धरण १२ पटूप्रयोगान्‌ समाचरेत्‌ ॥1६॥1
१ ख. उवेकामावेपिदिदम्‌। २ ख. स्तभनास्मे च चिन्मयीं भ घ स्तमनास््
चचिन्मयी 1 ३, म. रे।॥ ४. ध जपेप। ५. देतुसभिश्च 7 €. य विल्वक्सुमै-।
७, घ. तपे! = प. षं उपतपं०) ह ध. होम! १०. ष. पृरदचपो ¢ ११.
ण घात्िदघति। १२. प ादितमन््रसा
ष ] शरस्थापनन्््े
~~-----------------~-- -~

सान्या (न्व्यये) नुहयाच्छालिखकतुराज्यसमन्वितम्‌* ।


गरुणायुत हूते*षीमान्‌ कुण्डे ूर्वोक्तिमादरात्‌ ॥२०॥
वक्षीकरणकायेचु वित्वपत्र घृतप्नुतम्‌* ।
गुणावृत चमलकप्रमाण करौर्चमेदन* ॥२१॥
स्तम्भनेपु* हृनेदधीमान्‌ त्ालक पृतसम्प्नुतम्‌ ।
वदरीफलमाप्र तु गुणायुतमनन्यवीः ॥२२॥
विद्रेपणे च जृहुयात्यवेरिम्बाकंचयुते.९ !
राय्रौ वेदायुत्त धोमान्‌ सद्यो विद्ेपण परम्‌* ॥२३५
राजीलबणसेयुक्त' बाणयूतमनन्यवीः 1
तस्यः चोच्चाटनः शीघ्र ध्रुवक्रुभदियोरपि*" ॥[२४॥
तलतंलेन सयुक्त मापहोम गुणायुतम्‌ ।
प्रेताग्नो प्रेतकाष्ठ+* च जुहुयाप्परेतकानने ।२५॥
भौमवारे निशा१२ नग्नो जुहूयापप्रत उल्मुके** ।
सद्यो मारणमाप्नोति मृकण्डुसटशोऽपि च+ * ।१२६॥
1 इति षद्विद्यागने साख्यायनतन््रे सप्तम पटलम्‌ १५ ॥।
॥ श्रयाष्टमः पटलः ॥
बिम्बोष्ठी चास्वदना समपीनपयोधराम्‌ 1
पानपात्र वेरिजिह्भो घारयन्तो शिवा भजे ॥१॥।
कौञचभेदन उवाच--
तमः कौलागमाचयं वेदवेदाद्धपारग ।
वगलामन्नराजस्य प्रयोग वदे शद्धुर ॥२॥
ईश्वर उवाच--
राजीलवणमादाय मूलमन्त्रेण पुत्रक ।
ग्रस्त कृत्वा साध्यनाम जुहृयादयुत निश्चि ॥३॥
१. ख. ण्कतुमाज्य० । २८सख.गषघ नेद्‌) ३. ख. पृत्प्तुते+ ४
पुस्तके पचमिद नास्ति । ५. व. स्वमनेमु। ष, स्वननेतु। ६. छ. घ निम्बं
सभवे + ७ खगम. मवेत्‌॥ ८ ध, सदच। €. ग उच्चाटन । प. भुच्चादेन।
१० ख ध्वकुर्मा० 1 घ. घुवकर्मा०। ११. ख. प्रेतकाष्ठे। १२. ख, निशी!
म. घ निला। १३. छ. गोल्मुक्ते+ व. दिदमुखे। १४. घ.वा। १४. ध. मः
राजकयनं ताम सन्तम. पटलः॥
अष्टम, पदतः [ १९

नानासेगहर चैव नानामूतनिङृन्तनम्‌ ।


नानाकृत्विमना सञ्च भवेत्सत्य न सशयः ॥४॥
हरिद्राखण्डहोमेन भरयुतेन कुमारक 1
वशोकरणसम्मोह भवेच्छुरभाषणम्‌ ॥५।
तालकेन हृनेद्रा्रौ तेत्रायुतमनन्यषोः 1
नानास्तम्भनमारभेषु सत्यमेतन्न सशयः 1\६॥
खरस्य" रक्तमादाय जात्िकम्मंविरोधिनाम्‌ }
निम्बाकंपप्रमादाय प्रत्येक नाम चालितेत्‌ ॥७॥
प्र्ताण्नौ प्रेतकाष्ठे च नग्ने च प्रेतदिड. मुखे 1
हनेरेतवने घीमानयूत् दवेपकारकम्‌ ॥८॥
श्ननायस्य चितो रात्रौ शवुप्रकृति लिखेत्‌ 1
हृदये नाम भ्रालिख्य* मारयेति ललाटके ॥+६॥
दहयुग्म लिखेद्‌ वाहो अर्वोस्तिस्य* कश्यम्‌ ।
एव च विलिङञेत्सम्यक्‌ सशत्रोेणंमादरात्‌* ॥१०॥
ताडयेद्‌ हृदये*मन्त्री शतमष्टोत्तर जपेत्‌ !
तद्धस्म सग्रहे* धोमान्‌ गोपयेन्नगराद्वहि ° ॥११॥
पुनभौमनिशाकासे मन्तयेनमूलमन्व्रतः ।
भ्रष्टोत्तरसदहसे च शवुमूदध नि "चिनि क्षिपेत्‌ ^+ ॥ १२॥
सश्र: सप्तरात्रोण चियते नात्र सशयः।
उष्ट्राहूढ रिपू" ध्यात्वाग्रस्य दण्डेन ° मन्त्रयेत्‌ "उ ।१३।।
नि.क्षिपेत्सप्तरात्रं तु सप्नधा मन्विति** तथा}
उच्चाटन भवेत्सस्य शिवस्य वचन यथा 11१४
परेतभस्म रवौ१\ म्राह्य वगलामत्रराजतः ।
सहत मन्तयेच्छघ्ो ** रात्रो\= नग्नो न+ € भोमके ॥१५॥
१. य. घ. वाराह) २. ख. नग्नश्च ॥ घ. नानोका। ३, ख. घ. प्रेत
दिद्शल १ ४. भ. घ, मानिष्य! ५, ख. उवोमिंस्मे। घ. उवर्भिस्म । ६, ष,
प्वप्रणो०) घ. शत्रोवंणेमादरत्‌ । ७. ग.च. गदया। ८. ख.ग. घ. सग्रहेद्‌ ।
६. च. रोषये । १०. घ. शवरोन्मूधंनि । ११. व. नि्लिपेत्‌ 1 १२. ख, ग्रस्व-
दण्डेन 1 ध. प्रस्तक्त्वातु। १३. घ, मत्रदितूं। १४. ख. मत्रिते। १५. घ.
तथा। १६. क.वशौ 1 १७.ख. मस्म। पष रत्रो! न्ष. भत्रो। १६.
ख, नस्नोऽद। ग, घ. न्नेन ।
नवम. पर्त [२१

शते सहस्रमुत कार्येलाषवगोरवात्‌ ।


त्तपेणासव *पौप्वा\ प्रयोग शान्तिमाप्नुयात्‌ ।२०॥
न कर्तव्य मुमुक्षव पद्पीदा कदाचन 1
प्राणै कण्ठगतं कुर्यात्‌ पश्चात्‌ सस्कारमाचरेत्‌ ॥२६॥
इति षड्विद्चागमे सदपायनतत्त्े परष्टम पटलम्‌ ॥८॥
॥ श्रयं नवम पटल. ।1
पीताम्बरालइङृतपोतवण शातोदरी* शवंमुलामृता्िताम्‌^ ।
पनस्तनालड्‌ कृतपीतपृष्पा सदा स्मरेय बगलामृखौ हृदि ॥१॥
कोचभेदन उव
नमोऽस्तु मच्रगमकोविदाय श्रीनीलकण्ठाय नमो नमस्ते ।
एतन्मनोर्ेन्बमखण्डतेज्े* प्रयोगमूल वद चन्धनूड ॥२॥
ईश्वर उवाच--
यन््प्रयोग यमानेऽ फलो यन्य्रयोग यमिना च दुलभम्‌ ।
यन्घप्रयोग यतयस्तु कुर्वता< यज्ञादि १-गोविप्रयतदच १"
रक्षणे (1३॥
वि्दु** तिकोण वृत्त च श्रष्टकोण ततोपरि ।
ततोपरि निखेत्यु्र पट्कोण वृत्तमादरात्‌ ॥1४॥
ततोपरि लिचैत्सम्यक्‌ भूपुरद्रयमादरात्‌^* 1
विन्वुमध्ये लिखे च्कोणव्रितये *^ त्रितय १ ¶ धिधा ।*॥
श्रष्टकोणेषु '° वितिलेद गायत्री वगलालयाम्‌ ।
षट्कोणेषु ° सुसलिख्य›£ विद्या वदुत्रिशदक्षरीम्‌ ॥६॥
वृत्तेषु" विलिखत पञ्चाशद्वणंमादरात्‌ 1
भपुरेषु च सलिश्य प्राणस्थापनक मनुम्‌`` ॥७॥

१ ख तत्तपणाम्भ । २. खे घरपीत्वाः ३ ख युपृषतेश्व ४ शभ्रष्टम पदलः।


५ श शातोदरी। ६ य एवमुखामरा०। ७ क,ख ग येतन्मनोयत्रमल्ष्ड-
तक्ष) < ध यमशासन। &६ घ कुवन्‌ । १०. ख ध यज्ञादि। ११ घ श्यततश्व।
१२ षष यिन्दु) ग चिन्दुः। १६ खग ष पुस्तकेष्वयम्षो विदोष--
भ्व दुमधये लिदद्रीज वगलयाद्च पुकक॥
ध्य तद्रीजगमे (मध्य घ } स्थ कुर्यात्‌ सभ्यक्‌ सुबुद्धिमान्‌ ॥
श्थषख,ग प्ीज विषिखेत्‌। १५ घ त्रितेषु 1 १६ घ त्रिधा। १७. घ, भरष्ट,
पत्रेषु 1 १८. षद्कोणके । ६६ ख घ. च सतस्य \ २० प दतेसु\ १ घमू ।
२२] घ्राह्यायनतन्ये
न~~ ~~~ व
रते स्वपदे वा प्रादेश चतुरे 1
लेखिन्या स्वर्णमय्या च लिचेद्भा्मेववासरे ।॥८॥
पूजायत्रमिदे पुत्र पूजनात्‌ सवंसिद्धिदम्‌ ।
पुजाविधि प्रवक्ष्यामि मुनिगुद्य सुपावनम्‌ ॥1६॥
मूलमन्त्रण सम्पूज्य उपचारंश्च पोडदां ।
गुद्धप्रदेदाजा दूर्वा निमंला च सुकोमलाम्‌ ॥१०॥
सग्रहे.क्नालयेत्‌ सम्यक्‌ मव्रराजेन पुत्रक!
मन्वान्ते च नेम र पूर्वः निक्षिपेद्‌ दुवंमादरात्‌* ॥ ११
एवे मभूतसहछ च पूजयेच्च दिने दिने ।
मण्डलाद्रचाधय.* सर्वँ+पच्यते ृत्विमादय ॥१२॥
भूतश्रतपिदाचाया कूरा सेचरभूचरा ॥
पूजनाननादमाप्नोति दिवस्य वचन यथा ॥१३॥
श्रचयेपपूर्व॑वयन्रमूपचारेश्च षोड ।
सग्रहेदरककरसुम° हयारि च सुनिमंलम्‌ ॥१४॥
तेन पूजा प्रकर्तव्या पूववमण्डल सुधी ।
सम्मोहन च वयञ्च द्रव्यलामे भवेदुध्रुवम्‌ ।॥१५॥
विभीतकोद्धव पुष्पमाहरेद्रौमवासरे ।
पूजयेपूर्ववस्युतर नानास्तम्मनक्रमंणि ॥१६॥
निम्बकंकुसुमेनायस यथ्वर वापि१° कुमारक ॥
पूर्ववप्यूजयेन्मन््री\* सद्यो विद्वपण भवेत्‌ ॥१७॥
धततूरकुसुमेनैव पू्ववस्पूनयेप्ूत 1
उच्चाटन भषेत्सप्य नान्यथा शिवमापणम्‌ ॥ १८॥।

विपत्तिष्ुकपुष्येण पूरवंवससम्यगचंयेत्‌ ।
सद्यो विनारमाप्नोत्ति° मृकण्डुघहशो *> रिपु ॥१६॥

१. छ स्वएमध्यः । २ गरदन । रेष पूर्वा! ४ ष दिगा समन्द


रात्‌ । भ ध ण्दामया । ६ ख सर्द 1 ७, क. सप्रहेश्रङमुम । < प
प्रफत्तम्य ६ घ श्वाय ) १०. घ पूत्रणाय। ११... भ्पूजयन्‌ । एर स
विनाशमायाति ? प नाशमवाप्नोति ६३ ष मृङष्ड० 4
दशमः पटत्त- [ २३
"~~~ ---------------------
~~~ ^-^ ~

शमन्तकुसुमेनैवः पूरवेवत्पुजयेन्नरः ।
पृवंवज्जायत्तेः लोके वेदशास्मरार्थकोविदेः ।२०॥
प्वाशक्ुसुमेनेव पूवेवस्यूजयेन्नरः 1
सयो मन्दो भवैद्धगमी लमेस्स्व्ञतां सूत ॥२१॥
पूर्ववपुजयेत्‌ पृत्र भरलसोककुसुमेन च ।
ईन्पिता" लमते* कन्या खा तु पुधवततौ भवेत्‌ ॥२२१॥
सुलसीमज्जरी भिश्च पूवेवध्युजयेन्नरः ।
ज्ञानमेषितर्च वैराग्य लभते“ तरर्घ॑रपि^ ॥२३॥
नन्दावत्तेन° सम्पूज्य वातरोग व्यपोहति ।
मल्लिकाकुसुमेनेवे पूजयेऽज्वरशान्तये 1२४॥
कुसुमेश्चम्पकैरव्येः शीतज्वरनिवारणम्‌ ।
भचयेन्जातिकुमुमेमेहरोग ^ विनक्ति ।१२५॥
चन्ये मल्लिकरापुष्येनि दोप › ° लभते ध्रवम्‌ 1
केत्कीकुसूमेनाच्यं द्रव्यवान्‌ जायते ध्रुवम्‌ ॥२९॥
एव च पूजयेद्यन्त्र न जवेनं च होमतः!
भ्रयोगसिद्धिभेचति बगलया प्रसादतः ॥२७१
ति पड्विधायमे सांद्धायनतन्ने नवम पटलम्‌++ 601
५ श्रथ दशमः वटलः ॥
कम्बुकष्टीसूताग्नोष्टी* * मदविह्वललोचनाम्‌ ।
भजे बगला देवी पोताम्बरधया चुभाम्‌ ॥१॥
फीञचमेदन उवाच--
भ्रष्टमूत्तं महामूर्ते नमस्ते चन्द्रशेखर ।
वदे प्रयोग मत्रस्य^उ क्ेयनक्रममादरात्‌** (२॥
हषर उयाच~
परवोचत यन्धमालिख्य१ प्राणस्यापनपूर्वेकम्‌ ।
भर्चयेदुपचरेण१९ चन्दनेन विलेपयेत्‌ ।\३।।
१. ध स्थमन्द। २.ग. पुत्रका.) घ. पुत्र वा०। ३. प.रईप्पितंच। ४
लभेत्‌ 1 ५, ण. लम्यते। . ६. प.च परेरपि। ७. ख नन्दावर्तेव्‌ । नन्धाकंश्व।
घ. जदयकतृत 1 ८, घ शरवत्‌ ॥ €. ग, महारोयं। ०. ध. निधिप्त) ११. घ.
श्यत्रप्रयोय नाम नवमः पटक. ॥ ` ६२- खग. कम्बुक्ीर 1 १३ पे यत्तस्य + १४. ६.
लेपन 1 १५. घ. ्मादिख्य । १९. धृ. ण्दुपवारश्च । प

३४ साल्यायनतस््े

बाणागुत जपेद्धीमान्‌ नित्यगुजासमन्वितम्‌ ।


राज्यतिद्धि मंवेत्सत्यमयल्लेन कुमारक ।(४॥
कस्तूरीलेपन कुर्यात्सम्यगचित्तयन्वके 1
निय बाणस्हस' च> न्य।सध्यानसमन्वितम्‌ ॥५॥
मण्डलद्वययोगेन रोगकृत्या ग्रहादयः ।
तत्क्षणान्नाशमायान्तिग तम, सूर्योदये यथा ॥६।)
यूति चाद्धंप्ल ^ नित्य ठेपयेयन्व्रमादरात्‌ ।
जप कू्यल्ू्वंवच्च मास वा मण्डल तु वा 1७॥
वक्शीकर तु सम्मोह्‌ द्रव्यपग्रहमेव च ।
भवत्येव न सन्देहो नात्र कार्या विचारणा ॥*५॥
हरिद्रा्तालक चैव अ्रकक्षीरेण मितम्‌ *१
भिकाल लेपयेत्नित्य त्रिसहस्र जपेदिते ॥६॥
महास्तभनमाप्नोति= करणाक्षिवावपतिस्तुवा^
मण्डलान्नगर१° प्राम रणसम्मोहमेव च १ ॥१०॥
सपंपास्तिकदु्वेश्च ^° दुग्धेवं्वकंसम्मवंः ।
क्षारेण १ मदेयेत्सम्यक्‌ यन्नसेपनमाचरेत्‌ ॥११॥
कृत्वधंमण्डल चैव पट्‌सदल' दिने दिने 1
यिद्वेपण भवेस्सिद्ध क्विवस्य वचन यथा ॥१२॥
घत्ूर तिष्दुक '* वीज तालक्ेन समन्वितम्‌ ।
निम्बपत्रदवेनैव मदंयेत्लेपयेत्त्रिधा ॥१३॥
एव मासप्रयोगेण नगर राममेव च ।
रणे*४ वा राजगेहे" वा शोघ्नमुच्चाटन भवेत्‌ 11१४॥
प्रेतान्न प्रेतभस्म१* च प्रताद्गार सम समम्‌|
श्रकंवखीमय^ क्षीर पत्वेनेव१९ तु मर्दयेत्‌ ॥१५॥
१, क, समयनेन । २. न्तु ३. पञन्मानोत्ति। ४ घ सूर्योदय.) ५
घ तथा। ६. स. भूचिन्तायं फत॥ ७, ष. मर्ृयेत्‌॥ ८. घ. पक्ष्यत्‌1 ६. ब.
कर्णाक्षिवगक्मुतिस्तु । ध. कणी वाडमत्िस्तु ) १० प.नपरे; ११. १.वा। १२.
। ख. स्ंपाल्विङट्वकश्व । य. सपंयास्तरङ्डुवेर्वा 1 घ, सपा त्रिकटुश्यंव । १३. य. धीरेण।
` प. सस्वेन । १४. ष. नितिदक। १५ परणं । १६. प. राजभेद्‌ । १७. ख. भेत
मृ्ि। १८. म. प्रकेवचमदो) घ. भक्व्रमय। १६. क. छलेनैव ॥
दशमः पटः { २४

त्रिकालं लेपनं कुत्‌ प्रीतये होमयु्िना* ।


निं *तुष तु मन्वराजमिमं* जपेत्‌ ॥ १६॥
पक्षान्मारणमाप्नोति नात्र कार्या विषारणा ।
श्रवा निम्बतेलेन तद््ृत्वा तु मारणम्‌ ॥१७॥
तिलतंलेन संयु मर्दयेद्‌ गररमादरात्‌* ।
यन्त्रस्य केपनं कुर्यात्‌ ्रिकातं मूलविद्यया ॥१८॥
सम्तपेदीपशिखया पक्षमेकं कुमारक }
मारणं च भवेन्नित्यं नात्र कार्या विचारणा ॥१६॥
वस्ीक्षीरं\ प्रिकाले तु पूवेवत्तेखनेषु* च ।
तापञ्चरस्प पीडाया पण्मापताद्विपुमारणम्‌ ॥\२०॥
पृ्ेव्तेषनं चैव जपसन्तपंण° तया 1
वरिससप्तदिनमावरेण मारण चोरगौरगः< ॥२१॥
धतूरवसयुक्त मदयेत्सपंपं तथा !
जपतेपनयोः९ ° पुत्र गुल्मरोगी सवेद्रिुः ॥२२॥
निम्बपतदरवं चेव विषकण्टकजं+* तथा ।
विषतिन्दुकजं चेव विविधं च समं समम्‌ ॥२३॥
त्रिकालतेषन\* कुयौत्‌ पदसं *‡ मनू" जपेत्‌ 1
पक्षेण१* द्वाददाहेन१* मारणं चे समं समम्‌**॥२४॥
तिक्त लेपनं करर्यात्‌ पद्खहस्त मनुं जपेत्‌ 1**
महयेदारनालेन मास्वि त्रिफलां तथा ।२५॥
चिकालं लेपने कर्णात्‌" त्रिकालं जपमाचरेत्‌ ।
करपादादिदाहेनः, < भण्डलच्छनुमारणम्‌२* ॥२६॥
१. घ. खन्तयेटोपवहिना { २. ष. ननसे। ३. षः क्रतु०। ४. घ, गनद 1
५, ध, ०रलवमा० । ६. ध. दक्र ! ७. ष. न्तेपनेन ध । 5, स. जपः० । ९,
घ. वैरिकगुषह्ः । ग. चोरग्रौरजैः 4 १०. ख. यवलेपनयोः । घ, बपतेपतया ) ११. य.
सकण्टके। १२. ख. धु. निकाले! १३. क. सदस । १४. प. पादा १५९४
द्रादशाहेषाः। १६. छ. ग. घ. न सयः} १७. पादद्वेपुस्ठकान्तरेषु नत्वि । १५.
प. रत्या) १९. क, करप्चपिर) य. कटपादावि) प. करपरदददनैव । , २०. क.
ग्ठोरसुश्।
२६ ] सर््पायनत्प्र
2
गोमलपमन* दत्वा गुत्मरोगौ भवेद्रिपुः ।
गोमूं छाममूव च मिश्रित पूरव॑वत्तया ॥२७॥
पित्तरोगो* भवेच्छनुरदधंमण्डलमात्ततः +
लेपन छागरक्तेन भरान्ताम्पेत्ति भवेद्‌ धूवम्‌ ॥२८।।
मत्कुणस्य च रक्तेन उन्मादो जायते रिपुः ॥
4 इदिषदूविधागमे शास्यायनतन््रे दशम्र पटलम्‌ ।1१०॥
॥ श्रथकादशः पटलः ॥
नमस्ते वगलादेवोमासवग्रियभामिनीम्‌* ।
मे(भ) जेष्ट स्तम्मनाथे च गदा जिन्वा चे विभतीम्‌ऽ ॥१॥
श्ौञ्चमेदन उवाच--
नमस्ते मौतिसतेग्यर नम. प्र्रमभूपण- ।
तपणेनः प्रयोग चवद मे कषूणाकर ॥२॥
वर उवाच--
पूजयेयन्धराओे च उपचारंश्च पोडशी; ।
तद््रोपरि सन्तप्यं तप्परणस्य विधि श्यगु॥३॥
गुडोदकंस्तपेण च कुरयात्वचायुत तथा ।
शान्तिद्त्य भवेच्छीघ्' नात्र कार्या विचारणा ।1५॥।
द्रवेण" तर्पण कयत्‌ पूर्वंसस्यासु पुरक ।
वध्य सम्मोहन अव भवेततपणयोगतः 11५1
मोहिनीदरवसमिध * › जतेनेष त्‌ तपंणम्‌ 1
नेवावुतत्रमागेन जिद्धास्तम्मनमत्नुपात्‌ ॥1६॥
गतिगभं१९ च वाक्वानिषण गाव भनोत वपाकषिकम्‌ ।
कुष तृष्णा च निद्रार* घ रतमन व नयेद्‌ पूयम्‌ 113॥
निम्बाकंपव्रजद्राविमिधित दूरवारिणा।
पञ्चायुत तपंपेन घो विद्रेपय भवेत्‌ ॥८॥
१, य पोमदे० १ २. ष देव्यसेमो) ३. त प्रा ठदियो। पर. प्राष्ठाद्ति।
प प्रान्तिरोगो। >, प. ग्वि(डि)तेपन ताम दषम पटसः† ४, य शनत ४
वमलादवो दासवद्रिपमोदिनो। ६. दिषनो। ७. प.मोनि०। ८.प, भ्भूष्टो।
६ प दरणस्य। १०, फ.बर प. दम्येय । ११ प, मोदुनोद्वघयृक। २.१,
पिप्तमे\ घ प्ठिम्म। १६. मप. दर्पात्‌ । १४. प. वृष्छानुरौवन्पि।
एकादशः पदलः [ २७
"~~~ 4
व्वाकक्षीरभिध च कान्ता च\ तपंणेन च ।
उच्चाटन भवेच्छत्रोरयुतमयमादरात्‌ 11९9
भतान परेतमस्मः च्रेताङ्गारं च पुत्रक 1
समं षम गरं* ग्राह्य बौवेनेव* त्‌ मिधरितम्‌ ॥१०॥
नेत्रामुतं तपणेन साक्षाद्‌ रिपुविनाशनम्‌ ।
हयारियत्रजद्रावमिधित * मरणं भवेत्‌ ॥११॥
कपुरमिधितत तोय* पचाशच्छतमादरात्‌ ।
नित्य च तपैयेद्‌ धौमान्‌ मासमेकमतन्दितः ॥१२॥
पुराणज्वरमत्यप्रं = पित्तरोगं विनश्यति 1
चन्दनेम्मस्तर्पणेन ताप ङतिमज हरेत्‌ 1१२
कस्तुरैमिधित तोये राज्यलाभो भवेद्‌ धुवम्‌ |£
येस्तु** त्पंणमवेषु"^ श्रयत रविषख्यया १२ ॥ १४॥
कुषेरसदशः धीमान्‌ जायते नात्र सशयः ।
माष्वीप्रव्येण सम्मिश्च "° पूजितं+? शुद्धवारिणा ।॥१५॥
रत्नायूत १५ त्पेणेन लक्मीर्वा ' * जायते धुवम्‌ ।
गोक्षीरतपंगेनव ईप्विता सिद्धिमप्ुयात्‌ ॥१६॥
तक्रेण तर्पणं चैव१* पित्तरोगं व्यपोहति 1
श्रारनालेन संतव्यं जलदोव च ^= शाम्यति 1 १७॥
हेगिद्राम्भस्तपंणेन स्त्रीणामाकपंण भवेत्‌ ।
शमतकुसुमेनेव १६ मिश्रित जलतपणम्‌ ॥१८॥
पुत्रवान्‌ जायते मर्त्यो ^ अयुतेन न सशयः ।
केदलोफलगोक्षौरं छकरा च सम समम्‌ ।१६॥

१. “ख. केराभः) ध. कौशाभः। २. क. उच्चाटनो। ६, ख. प्रेतमूि।


४. घ.चष०। ५, ल, मनिनेव। ६. ध, मगूरप्वयै द्वार० १ ७. क. तोये) =
ग. घ. मृत्यप्र ॥ ६- च. पृस्तकेऽ् चिदेषः पाठः--
^गौदीद्रभ्यस्तपंशोन द्रभ्यलामो भवेद्‌ घ्वम्‌ 1"
१०. ख. म. वैष्टा 1 ष. वैष्टी) ११. ख. तपंखमव्रेछ 1 म, ठपंणमततेषु प. तपए
मात्रेण । १२. घ. छदितश्यया। १३. घ. स्मित । १४.घ. स्वि १५. ख.
तायत 1 घ. तत्वायूतं । १६. ख. ग. घ. सक्ष्मोवान्‌ । १७. ख. घ. प्णेनैकं + १५.
ख. प्र। १६. प, स्यमन्त०। २०, प. मृत्यो 1

२८ ] तरद्यायनततरे
नि
पलाष्टक च प्रत्येक मिधित जलत्पणम्‌ !
मनसिद्धिषिना" सिद्धिभेच््विराग्यमरेव च ॥२०॥
भ्रमक्लानं व्यपोहति नान्यया श्िवभापणम्‌ ।
छागरक्वेन समिश्र चाचित तंलव्प्र॑णात्‌* २१
मुकाञ्च कुर्ते पराल्ान्‌° रिपुखघाननेक्चः* 1
जलेन मिश्चित पुत्र द्योगित्र विङ्वरादजम्‌* ॥२२॥
वेदायुत तपंमेन उन्मादी जायते रिपु" 1
काकरकव्तेन सम्मिश्च तर्पण युद्धवारिणा\ ॥२३॥
जातिश्रष्टो मवेच्तरु" घ भवेन्निन्दको °भुवि ।
उलूकरक्तसमिश्र वारिणा वरपेण तथा ॥२२॥९
वरेन श्ियते शतुरयुवदमन्नमठतः१ ।* °
क्वानरवतेन समिश्च चारिणा तपंणं तथा ॥२५॥
इवानवज्ज्वलते* १ श्तुभियते नात्र चश्वः।
मार्जाररक्व्नम्मिश्च १२ तपंण वारिणा तया ॥२६॥
क्षयरोगी मवेन्तु- पण्मासै्चियते रिपुः ।)*
उष्टरोशोपिव १४ मिश्र ठोये** उन्त्येत्‌ परह्‌›१ ॥२७॥
___---------__
२. घ, ठेन ठपंखम्‌ । ३. प. यलाद्‌ । ष, ०सघानमेकथ्- ।
१. घ. ण्न ॥
६. प. मिष्टवारिणा१ ७. सन्वरिरनिन्दिि। घ्यमप
५, घ. विद्वयाहक्म्‌ ।
पुस्करे विरेषोभ्य पाठ.
शेमायूव * मचेच्छव.नव्रयोगो* न सशय ।
खररक्तेन खमिधर वारिणा तपण ठषा॥
९ ख. शदरयमन्दठः । ग. श्दरवगोगव. )
११. ध. पुष्वके पाददयप्यणरेऽपमपो
दृस्यते
तृणवग्ज्वलडे घत्वं जवर्योगह, ॥
१२. ध. श्छवृष्ठ) १३. ख, पुस्वकेश्समाक्षरमणो
११. ख. जापते । प.ष. जत्पते।
विक्षेप --
° शुजग्ोणिेनेव ववेद पवङे 1
निदि खृश्मानेन्‌ छिद रिपुदिनाशनम्‌" !
१४. प. उष्टृस्य योरिव + १९. ख. ठो्ैः। ष. ठोय! १६. ष, सवप्यं बुद्धिमान्‌ ।
~
१ घ. नेवायुवाद्‌ । २ प नेवनायोे १
ड दारः पटलः { २६

मासेने एतुमरभरं मृकडुसदशोऽपि वा ।


जपसस्या यत्र नोक्ता लक्षमेक्‌ कुपरारक ॥२८॥
दिनसख्या यशर नोक्वा प्लमेव* न सदयः
इति पद्धिद्चा्रमे सश्पापनतन्ये एकदस पटलम्‌, ॥११॥

॥ रय दादश; पटलः }}
कोलागमंकसवे्या सदा कौलायुपताम्विकाम्‌ }
मजेऽ्द सवंसिद्धधृधुं बगला चिन्मयी हृदि ॥१॥
पोचमेदन उवाच--
नमस्ते सवे गवितामुरभञ्जन
मायत्री वमलास्या च वद मे करुणाकर ॥२॥
शवर उषठाच--
मन्त्रोद्धारः प्रवक्ष्यामि मन्त्रमाहारम्यमेव च।
पुर*श्चर्याप्रयोग च ॒वेक्षयेऽह तव पुत्रक (1३
बरह्मास्भायपदं चोक्त्वा “विद्महेति पद वरतः ५ ।
स्तम्भनेति पद चोक्त्वा वाणाय तदनन्तरम्‌ ॥॥४॥
धीमहीति पदं चोक्त्वा तक्तः+ शब्द ततो(दो)च्यते* 1
नगलापदमूच्वायं उद्धरेज्च प्रचोदयात्‌ ॥५॥)
गायत्री वमलानाम्नी स्वंसिद्धिश्रदा भुवि}
ब्रह्मा ऋषि्च छन्दोय{स्य) गायत्री स्मुदाहुतम्‌= ॥६॥
देवत्ता बगलाना्नी चिन्मयी शक्छिरूपिणी ।
ॐ वोज चैव शक्तिही" * कोलक विद्महे पदम्‌ ।७॥
चतुरलंक्ष पुरश्चर््या तदश्च च तप्पंणम्‌ 4
तदशाश हुनेदाज्य तावदुब्राह्धणमोजनम्‌ २!
न्यासघ्यानादिक सवे कुर्यात्‌ "न्मन्तद्मे जवे"? * !
प्रयोगाय वक्ष्यामि गृय॒त्रीवगचाह्धये"९ \६॥

ष, व, पकषष्फ । २. घ, एकादश. प्रदलः; ३. ग, बगताल्य कससाकरम्‌ 1 ४, क्‌.


पुन 1 ५. “~° ख, विग्रहेहि पद कृषा ¶ घ. विगदेवि ठत; पद्म्‌ 1६ य. तत-ठं भ, तष्य ।
५, गप्र. वलोज्चरेत्‌ 4 य, खु. युष्ुदब्हुदम्‌ , श, वगला। १०. “~ ्‌.एकदत
व! ११. ~घ. ठम्भन्त्रराडवत्‌ । १२. खं, °वगलीह्वया 3 प्‌, यश्य कयसद्धपा 4
३०
न प्यायन्ते

तारादि प्रजपेन्मन््र मोक्षार्थी च कुमारक ।


पान्त्यवं च जपेलयु्र धारदावीजपुवंकम्‌> ॥१०॥
सम्मोहनार्े' प्रजपेत्‌ कामराजपुरस्सरम्‌ ।
स्तम्मनार्थप्रजपेच्छप्तिदाहकपू्वेकम्‌* ॥११॥
वाराह शपितवाराह्‌ स्तव्धमायापुरस्वरम्‌ ।
प्रजवेन्पन््रमेतद्धि मारण मवति धुवम्‌ ॥१२॥
वाग्मवादि जपेन्मय्र विचासिद्धिभ विष्यति 1
बालादि प्रजपेन्मन्त्र "कन्यका क्षिप्रमाप्तुयात्‌”« ॥१३॥
वारांहीबीजमध्यस्था" गायत्री लक्षजापनात्‌ ।
भूलाभ (भो) जायते तस्य श्रनायासेन* पुत्रक ॥१४॥
श्रीवीजादि जपेत्‌ पुत्र गायनीर बगलाह्वयाम्‌<।
कुवेरसहशः श्रीमान्‌ जायते नात्र सशयः ॥१५॥
ताक्ष्येवीजादि मतर प्रजपेद्‌ ध्यानपूरवंकम्‌ ।
नानाविपभ्रयोगराडच ग्रहरोगादिनाशनम्‌ ' ° ॥ १६॥
भैरवी +» बौजमाद्य च प्रजपेच्च कुमारक ।
भूतप्रततपिशाचायास्तस्रयोगाद्‌ व्यपोहति ॥ १७॥
जपेदमूतबीजानि!* गायत्री बगलाह्वयाम्‌ ।
तापञ्वरमहाताप "° शमयेत्‌१ क्रौञ्चभेदन ॥१८॥
अपेच्च वायुवोजादि गायत्री वगलाह्वयाम्‌ ।
कषिप्रमुज्चाटने चैव भवेच्छद्रभापणम्‌ ॥१६॥
भ्रगिनिबीजादिगायत्री प्रजपेद्‌ बयललाह्वयाम्‌ ।
महता(दा)तापसयुक्तः ५ पक्ाच्छनुमूंतोभवेत्‌ ॥२०॥
१, घ. मोक्षार ए.चघप्र। ३. ध, तारावाराहुपूरवकम्‌।॥ ४,स.गष,
पुस्तकेष्वेय पाठ -- , ४
स्तम्भगार्थं अपे्ुत्र धगलाबीजपूवंकम्‌ ॥
विद्धपणां प्रजपेदू करद्यपूवंकम्‌ 1
उन्वाटनार्थे' (घ. उच्वाटने) जपेद्ुत्र शक्तिवाराहपुवंकम्‌ +
५ घ. कन्याकाक्षी मवाप्नुयात्‌ ।॥ ६. घ. वाराहीमध्यदोजस्था। ७, ग. भत्यायाेन ।
८. क. ग. घ, गायत्री ~ €. ख. बगलालुया । १०. घ. गलरोगादि०। ११. षः
भैरव । १२. ख. घ. बीजादि। १३. ख तापज्वर महात्पं। घ, ०महावात। १५.
ध. नाशयेत्‌ । १४. घ. सयुक्त 1
षयोदश्ष; पटलः [ ३१
[0 "~~~

मायादि अनपेत पुत्र गायत्री वयलाहुयाम्‌ ।*


इष्टसिद्धि्भवेत्‌ क्षिप्र शिवस्य वचन यथा२ ॥२१॥
मन्त्रराजस्य मायत्री पादायवयवः तथा ।*
गाययी च दिना मन्तन सिद्धधति कलौ युगे ।*२२॥
पुरश्चरणकाते तु गायत्री प्रजपेन्नरः +
मूलवि्या* दशांश च मन््सिद्धि्भवेद्‌ ध्‌.वम्‌ ॥२३॥
त्यक्त्वा तन्मन्वरगायत्री यो जवेन्मन्त्रमादरात्‌ ।
कोटिकोदिनपेनेव "तस्य सिद्धिने जायते" ५२४
जेपसद्या यत्र नोक्ता लक्षमेक कुमारक ॥
दिनसंख्या यत्र नोक्ता पक्षमेक न सशयः ॥२५॥
गायत्री वगल्लानाम्नी वगलायाक्ष्व जीवनम्‌ ।
मघादौ चाय मन्वान्ते जपेद्‌* ध्यानपूरस्सरम्‌ ।२६॥
इति पड्विघागते पराश्पायनतन्त्रे द्वादश पटत्नम्‌ ॥१२।
(१ श्रय च्रयोदशः पटलः ॥
निधाय पाद्‌ हुदि.गमपाणिना,
जिह्वा समुत्पाटनकोपसयुताम्‌ ।
गदाभिघतिन च फालदेञचेण,
भरम्बां भजेऽहं बगला ददन्जे ॥
प्रौञ्चमेदन उवाघ--
श्रीकण्ड श्रीगराघार^* शादलाम्बरमूपण ^) ।
कषान्तवद्‌ ** वद मे पूजां बगदायादच शङ्कुर 1२॥

१. भतः पर ख. ग. घ, पृस्वकरेयु वियः पाठ--


"राजा का राजपुत्रो वा मरणान्तं वक्नीमकेत्‌ ।
महामाया (भ. मादामादादियायक्री प्रजयेद्‌ बगसाहुयाम्‌ ॥*
२. घ, तथा! ३. घ, पादादधावपव । ४. प. पुस्वङ्ष्य विपपः--
मध्रहिदिभेद किम वत्य ववने पथा
५. घ. प, मूतदिद्ठा1 ९. पनमव छिदि्वेद्‌ पवम्‌+ ७. ख, य. जये। ध. जद (
८, प, श्ट्ाद्ः पटसः॥ ६, ख. वातदेये 7 प. फाषदेधं । १०. ष. धीषरापार 1
११, ष. भमूषखम्‌ + १२. प छान्ठवद्‌ 1
१२1 पराह्यायनत्ते
"~~ अ ०१७

ईद उशाथ~
बिन्दुमध्ये च सम्पूज्य स्यणंत्िद।सनोपरि ।
चिन्मयो वगलादेवी सवंहिद्धिप्रदायिकाम्‌ ॥३॥
घतुभुजां च दमुना गदां जितां च बिभ्रतीम्‌ ।
पीतवर्णा महपूर्णामचेयेभमूलवि्यया +॥५॥
त्रिफोचे पूजयेत्‌ पृत्र वाणीं गौरीं रमो"* क्रमात्‌ ।
तत्तद्योजेन पम्पूण्य तदावाहनपूवंकम्‌ग ॥५॥
पञ्चास्य पञ्वकौणेषुं वषये तद्ूजनं क्रमात्‌ ।
पूर्वकोणे तु सम्पूज्य भरस्व च वगलामुलीम्‌ ॥६॥
दवितोयकोे सपूज्य श्रस्वराज कुमारकं ।
उत्कामुपीति विच्यात तन्मवेणेव पूजयेत्‌ ॥७॥
तृतीयकोगे सम्पूज्य भ्रस्रजं कुमारक ।
“नाम्नो ज्वालामुखी चव तन्मन्ये
णैवपूजयेत्‌^* ॥५॥
श्वतु्ंकोगे सम्मूज्य श्रस्पराज कुमारक! * ।
जातवेदमुखीनाम्नीं समन्त्रोणंवपूजयेत्‌ ॥६॥
पञ्चमेषु च कोणेषु भ्रस्यराजं कुमारक ।
वृहृद्धानुमरुखी ख्याता त्रिपु लोकेपु दुभा 1 १०॥०
पञ्चकोगेष्वेवमेतत्पञ्चास्वर < सम्यग्च॑येत्‌ 1
मूलमन्ेण तैनैव पूजायन्त्र कुमारक ॥११॥
तदुपरि सभम्यच्यं दिवपालाप्टकमादरात्‌ ।
वद्वाटन च तच्छक्तिदशायुतपुरस्सरम्‌£11 १२॥
तदुपरि समम्यच्यं मातूकाष्टकमेव च ।**
तदुपरि समभ्यच्यं विष्तेशाष्टकमेव च (1१३

१, ख. ध. मदाूर्खा०। य. महाधूएी 1 २. घ. बारोगौरीरमाः। ३. ष. ठच-


हादनरूदंकम्‌ । ४. प. पञ्वस्त्रान्‌ । ५. “~ विहजयोऽ्यो घ. पुस्तके नास्वठि। €
"~" विहना -तर्गेतोऽशचो नावलोकषयते घ. पुस्तके । ७. ध. पद्यषिद नास्ति । ०. ध. पञ्च
मेषु च कोरोष्वेवमेद पञ्वास्वर ॥ €. ख. तच्क्तिदश्चायुच० । व. वच्छक्तिध्तदायुष +
१०. घ पुस्तके विश्ेषः--
“तदुपरि षमम्यच्यं प्रेरवाष्टकरेव च 1”
त्रोद्षः एतः [२३

'पूनायच्र करमेणेव'* एवभेव कुमारक 1
क्षालग्रामचित्ताया वा वह्भिमण्डलमध्यमे ॥ १४।
कयका९ चायवः पूर पूजयेद्‌ दगलाभ्विकाम्‌>
उत्तम युव॑तीपुज! मध्यम^ वद्धिमण्डले\॥१५॥
प्रधम” च चित्तापूजा क्रम एए, छिवोदितः+ ।
नमोऽतेनैवे नाम्ना च पूजयेच्च कुमारक 1 १६॥
एव च पूजयेत्‌ सम्यक्‌ पुरदचरणके विधौ ।
दन्य यत्तिविघ* प्रोक्त पृजार्या च दिशेपतः 1 १७
गौडी माध्वी चेष्टो च गोढी चंवोत्तमोत्तमा११॥।
स्ागनुकुटमत्स्य ,* च बगलाप्रीतिकारकम्‌ ॥१५॥
धिकाल पूनयेदैवी चिकाल च> जपेन्मनुम्‌ ।
यस्य दशंनमातेण पण्डितेर्वाग्विदा षरे: ।॥१९॥
तस्य^४ प्रला पलानीय^< तमे सूरपोदिये*^ यथा**।
तेजोभेदमनेक च सर्वेशप्रो = कुमारक ॥२०५
वह्धौ यद्वत्‌ भ्रविक्षति^२ तद्रदादय^* चातुरी"! ।
बगला मव्रसिद्धस्य^> हृदये च प्रविदयत्ति ॥२१॥
भरतिवादि** भदेरस्तम्मो**वृहेस्पतिसमोऽपि च ।
भज्ञाकषंणश्चक्तिश्च बगला भूतले स्मरेत्‌" ॥२२॥५
विद्यामक्रषेणार्पे*“ चस एव चन ध सशयः" ।
ब्रह्मचारी गृही वापि वानप्रस्योऽयवा यति- २३७

१, ५ पूजायन्धक्रमे चैव । २. ख. कन्यायां । ३ घ वगलामुक्लीम्‌। ४ ष


उत्तमा ५, ध भध्यमा। ६. घ. यह्धिमण्डदम्‌ १ ७. घ. भवमा। > ख एव
ग, एव (घ. तरय ₹. क. य. विवोदिदा। १०. चश्िविषर ११. कगे न्तमा!
श्र मासि; ३.४. अ। ४. प्र एस्य। १५ प. प्रताप्ते। १६. प पसूयोदयः)
१७. भ. तथा। १८ प. धष्रो} १६. घ. प्रशस्यति1 २० ख. तदटदराक्पद ।
२१. घ, चाहुरम्‌ १ २२. घ, मत्रसिदधिः स्याद्‌ २३. “~ ध. दररदेवे भदरानात्‌ ।
२४. घ, प्रतिवादी । २५. ख. घ. मवेत्‌ श्ठन्बो । २६. ख. स्मदा २७. घः
वक्षानाकपेशाधं 1 २८, घ. तु 1 २९. ख च, पुस्वकद्रयेऽधिकोेऽयसशो दुश्यते-~
उत्नम्प बगलागत्रमुपवात (घ. मुपा} मनन्यवी.
यस्सिवित्‌ दुस्ते (ष क्रियते] कमं पृष्व
(प दिसग)बोजमिवा
कुर.(ष न्वाकूर }/
३४ ] साद्यायनल्र

वगलाम"वरचिद्धस्तु सेव पृज्यो तीश्वर › 1


वगलामघ्रसिद्धश्च यत्र तिष्ठति भूतले ॥२४॥
पञ्चक्तोश्रमाणेन विद्वानेव च मासते ।
न मास्त चान्यविचा न स्मरन्न परामुखो> *॥२१॥
प्रयोग चंव न भवेद्‌ वगलार्चािर * पुरा. ।
ग्रसते* घवंविद्याना बगला यैवः भूतले ॥२९॥
वगलाया विना मन्व त्रिपु लोकेषु दुलंभम्‌ ।
तत्सम्ध्रदायविधिना< साधयेद्‌ वगलामुखीम्‌ ॥२७॥
एवं च बगलामन्त्र मन्वराजमिद मुवि ॥
इति वड्दिद्यापम साह्यायनत-तर धरयो पटलम्‌ " “ ॥१३॥

॥ श्रयः चपुर्दशः पटल ॥


सुधग्धौ रलनप्येङ्क मूके कल्पतरोस्तथा ।
ब्रह्मादिभि परिवृता बगला मावयद्‌ *† हृदि ॥१॥
प्रौल्चभदनं उवाच--
वौर११ विद्रूप विश्व चिदानन्दस्वरूपिणे * ।
वगलार्वानिर्धि चैव वद मे कष्णाकर ॥२॥
ईष्वर उवाद--
(सुष्टि स्विति च सहार”*" पूजा च त्रिविषा कलौ ।
केरले सृष्टिरूपा च गर्भकोलायमकमात्‌ ॥३॥।
भरचन गौडदेयो** च ^ स्वितिमागं^* कुमारक ॥
सारूपा भहदेशे तु" सहारा चनमेव १९ च ॥४॥
गुप्त कौलागम नाम * गोडदेशा्च॑नादिमि *^ 1
कामरूपागम नाम सहारक्रमपूजनम्‌ शभरा
१ घ न्डिद्प्तु। २ ~ ष दं पूज्यो मूनीद्वरः। ३ प °दिदिषश्व।
# घ तस्य वश्वत्‌ परद्मुखो। ६ प न्वापिरञ ६ घ प्य ७ ष प्रस्ते।
प्प ए्व। € ष घ वस्ठम्ब्रदाप०। १० घ श्व्रयोदद्य पटल । ११ ष
भिम्तयद। १२ घ चिद। ११ प स्वरूपक। १४ “~घ पृष्टिस्पिविश्च षहार।
१५ प मोब्देध। १६ पस्य। १७ ख स्थितिम्े। शत -ष्ष प
कामसूपाल्पदेदो तु! १६ प सदारकममेव1 २० घ नाप्ना। २१ षः माब्देणञचन
दिधिः}
खुरः पटसः {३५
"~~~

सादार्चने+चावलस्ब्य सांख्यायनयूनिस्तथा !
उक्तवानागम * चैव सृष्टयः श्रृणु पुत्रक (1६11
सवद्धिसुन्दरी श्यामा सर्वावियवदोमिनीम्‌ ।
नवोढा पुष्पिणी चैव प्रा्यदविपरकन्यकाम्‌ 11७)
इष्णाष्टस्यां चतुरस्य पौणेमास्या कुमारक 1
अथवा भौमवारे च निशाः भूगुजवासरे* ॥।त॥)
सुवासिनो चर" तलेन कुयदिभ्यगन ° तथा ।
तुलिकातत्पमानीघ्वार भरास्तरीरयोदड मखेषु च \६॥
तस्योपरि ततस्तीये ›* श्षमन्तेर्नातिचस्पकैः ।
फूर चैव कस्तूरोमिधित चन्दन तथा ।1१०॥
सरवाद्धि लेपन कु्याल्लक्ष्मीसूक्तेन वुद्धिमान्‌ 1
पय्येद्कोपरिपत्कप्या चन्दनेन विलेपिताम्‌ ॥११
प्ुबाचैरिति'' मत्रेण ुर्यदिक्षिणतोमुलीम्‌ )
उन्मूखेत्यच॑न ^^ कुर्यात्‌ श्रीसूक्तेन कुमारक ॥१२॥
पादो प्रायं ^° तत्कन्या१४ गुप्तेनार्चनमाचरेत्‌ 1
न्यस्त्वा पोढाद्रय चादौ वग्तापञ्जर्‌ त्यततेत्‌ )१३॥
कन्या चैव भ्यसेदेव तत्तदद्धानि ** सरमरेत्‌^\
गन्धद्वारेति, मत्रेण करर्यात्‌ कस्तूरिलेपनम्‌ ५१४॥
मूलमस्त्रेण चाभ्यच्ये १९ पुष्पमाला समर्चयेत्‌?“ ।
निवेदयेद्‌ द्रव्यशुद्धि तत्रैव जपमाचरेत्‌ 1१५॥
घत वाऽय सहस वा मश्रराजमिद सुते 1
पुरक्चरणमध्ये घु प्रत्तिमार्गववाप्तरे १६

२, ग, स्य्यकेद2 प ए़ेदाण्णे) २. प, उ्मागृ्रमे) 3, प, सूषा" +


४, ख. भ. ष, नियो] ५, स. परप. मुगुवाखदे। ६. घ. पुदासितेन। ७, ग.
न्दभ्यगना। . ष्दम्यगक। ८. घ. ण्मनोय। €. ष. °मूखेन। १०. स.
घ. समास्तीपं। ११. घ. प्व दौरिदि। १२. ध. त्मुसे्यन॥ १३ यः
मस्य! २५ त. वाोकन्यं) 1५. घ. तत्र वोगानि। १६. ख. प्‌, पस्ृषेत्‌ )
१७. ख. घ, पुस्तकद्रये विषेषः पठ
धनजयपुर चव पर्चयेन्‌ (ष. माजंपेन्‌) मूलविद्यया ।
१८. च. पन्पदवारेख 1 १६. घ, ठष्यंव 1 २०. ख. य. मपयेव्‌ +
३६ ] साद्यायनतम््र
1 ~~~

्रयवा पौर्णमास्या वा सौमाग्यार्चनमाषरेत्‌ 1


श्रयोगसिद्धिद शस्त" मग्रसिद्धिकर परम्‌ ॥१७॥
एत्ूजा विना पूत्र प्रयोग न भवेत्‌ कलौ ।
तस्मत्‌ सर्वप्रयत्नेन प्रयगादि च मूतते ॥१०॥
सौमग्पार्चां विना पुत्र न मवेज्जपक्रोटिभि. 1
श्रभिमानाष्टक त्यक्त्वा त्यक्त्वा चैवेपणात्रयम्‌ ॥[१६॥
त्यक्त्वा पर्चेन्द्रियासक्ति सोमाग्यार्चंनमाचरेत्‌ ।
मुखदु ख समे * कृत्वा लामालामौ जयाजयौ ॥२०॥
शीतोष्णे" समता कृत्वा सौमाग्याचनमाचरेत्‌
पोढाद्यचन नात्वा य करोत्य्वंन भुवि २९
स प्रतितो भवेत्‌ पुसा रौरव नरक व्रजेत्‌ 1
बाह्याम्यत्तरत * पुत्र श्रमेदज्ञानयोविना ॥२२॥
सौभाग्यार्च॑नकत्े,.णामनन्त *शापमाप्नुयात्‌ ।
सकष्प च विकल्प च प्यक्त्वा विश्रान्तमानस ९ ॥२३॥
कुर्यात्‌ सौ भाग्यसम्दूजा च नो चेद्‌ च्रष्टो सवे्नर ।
जितेन्द्रिय * सुख त्यक्वा कुर्यात्‌ खौमाग्यपूजनम्‌ (२४
सुलापेक्षण यत्‌ कुर्याद्‌ देवतालापमाप्ुयात्‌ ।
स्वस्थादेशवि्धिर चैव न ज्ञात्वा कौञ्चमेदन ॥२५॥
य॒ करोप्यचन चैव स विप्र पतितो भवेत्‌ 1९
स्वपत्नी भ्रातृपत्नी वा गुदमार्यामियापि वा ॥२६॥
श्रचयत पड़तोपेता** साह्यायनमत स्विदम 1
दीक्षालयस्था रजकी कुलालगृहकन्यकामु ॥२७॥
षध पुखां। २ घ स्मो। ३ ष सोहोष्ण। ४ ग ब्रह्माम्य्ठर्त । घ
दाह्याम्य तस्यो ६५ ष ०कठै.णां देववा। ६ घ विभ्ा-तमानस । ७ जिह द्िय ¢
८ घ स्दस्थदेश्वाविवि। € प्रह परख घ पुस्तक्द्रय विखप--
“कल्पते (करोति घ ) चित्तक्षोभे तठ
(घ, प्वत्‌}कयाया कुमारक ¦
प्र-तचित्तो मवेत्‌ षयो {घ सोपि} वाचस्पत्तिसमोऽपि वा ॥
घ पुस्तकेऽस्मादप्यविङोऽयमगो दृश्यते--
° नोत्पादयत्‌ कामनया वेदन च शचेरयो
वेदनः जनयचस्तु ख नर पर्तिो भवेत्‌" ॥
१ घ योवनोपेतां।
पञ्चदशः प्सः [ १७
~~
पुलिन्दकन्यकां चव मृकण्डमततमादिसेत्‌ ।
भरंयेद्‌ ऋपिपत्नो"चपूर्वां लक्षणान्विताम्‌ ॥२८॥
भ्रचंयेद्‌* विधिमाेथ पूजां दूवसिसम्मता> 1
स्वेलक्षणसम्पन्नां पुष्पिणीमचेयेत्ततः* २६॥
मतद्धुमूनिनो्त' च* स्यः सिदधिकरं भूवि ।
इति^ मागेमतं* पुर नास्ति सिद्धिगुं रोधिना ५३०॥
तस्मात्‌ स्े्रयलेनानेयेद्‌" मुवनु्चया २१५
॥ इति पद्विद्यागने सख्यापनतन्त्रे चतुर्दशः पटसः ॥॥१४॥

१ श्रय पञ्चदशः पटलः ॥


पौतवर्णा" मदापूर्णां देढपौनपयोधराम्‌ 1
वन्देऽहं षगलां देवौ स्तम्मनपस्वरस्वर्पिणीम्‌ 1
कोञ्चमेवन उवषाच--
रजराज स व॑र श्रीमान्‌ रजताद्भिनिकेतन ।
प्रञ्चास््रवियां वद मे स्तेमनास्यान्सपावनान्‌ *° ॥२॥
हदवर उषाच--
भ्राचास्वं वगलानाम्नी रणस्तम्मनकारणम्‌ +१ ।
उल्कामृश्ली दवितीय +* च स्तम्भे भुवन्ये ५३
ज्वातामुष्ती तृतीयास्वं स्तम्मनं तरिषु" ° दंवतेः 1
जात्तवेदमृखी चैव चतुरस्त्रं कुमारक ॥४॥
बरह्मविष्णुमहेशलानांस्वंमनंनात्र संशयः 1
वृहद्धानुमुखी चास्त्रं पञ्चमं तु कुमारकं ।1५॥
पुयञ्चतोदिचपयुण्दा कषलिकदिलतं** सूत ॥
सपादक्तोटि त्रिपुर स्तंभनास्मं च उत्तमम्‌ १४ ।६॥

१. घ, ्ंष्यपली 1 र. घ. भवेन) ३, घ. दुर्वापिसिमता ४, घ. पुष्पितां 1


५. प, मातयमूनिनः चोक्तं ६. ख.य.ष. तिद्धि) ७, घ. मावेप्त; घल,
शप्रयत्नेम वा०। म. घ. प्रयलेन अ्येद्‌ । €. ख. सुख । ग. सचे! ध. ख|
१०, ख. स्तमनाख्य सुपावनी । घ, स्मनास्पा" सुपावनी । ११. घ, न्कारएीम्‌ ।
१२. घ. द्वितोपा 1 १३. घ. ऋषि 1 १४. प. काल्तिकोटिक्षठ । १५.८घ. पञ्चमम्‌
प्ञ्चवृशचः पटल [ ३९
न~~ ~~~

सस्कारेण विना मन्त्र साधकस्य प्रमादङ्ृत्‌ 1


सलोकालोकस्तभने च नाम्ना उल्कामुखी + तथा ॥१६॥
मभ्नोद्धार प्रवक्ष्यामि शषरजन्मन्‌ समासत 1
तार चे स्तच्धमाया च शलक्विवाराहुमेद च (२०1
वगलामुखीपद चोक्त्वा बीजत्रय तु घवं च ।
दुष्टाना पदमृच्चायं पूरवबीजश्रय वदेत्‌ ॥२१॥
वाच मुख पद चोकप्वा पूर्ेवीजक्रयः वदेत्‌ ।
स्तम्मयद्धिततय चोक्त्वा "वीजत्रय ततो" वदेत्‌ ॥२२॥
जिह्वा कीलय उच्चयं पुनगोजित्रय वदेत्‌ 1
बृद्धि विनाश्चयोच्चाये पूर्ेदीजत्रप* वदेत्‌ ॥।२३॥
प्रणव बह्िजाया च उत्कामुख्या श्रय मनु 1*
प्रज्वाशादरदटुवचैवाष्टवोजवद्ध सुपावनम्‌ ॥२४)
प्पिश्चाप्यग्निवाराहश्छष्द,* ककुममव च 1
उत्कामुखी देवता च जगप्स्तम्मनकारिणी ॥२५॥
बीज च वगलानोज शक्ति." स्वहम्तमम्वितम्‌ ।
कौलक श्ितवाराह्‌ न्यास पूर्ववदाचरेत्‌ ।२६॥
ध्यान यत्नात्‌ प्रवक्ष्यामि मन्रमेदेर कुमारक ।
विच्यानलसकाश्चा ^ * वीरपेषेण '\ सत्यताम्‌ ॥२७॥
वीराम्नायमहष्देवी १\ स्तम्मना्यं भजाम्यहम्‌ !
एव ध्यात्ना जपेमन्त मनुलक्ष करमारक ॥॥२८॥
श्रपञ्वस्तम्मन कृत्वा स्वविद्या च रकाशयेत्‌ !
तालकेन हुनेत्‌ पुत्र लक्षमेके हृताशचने'* ॥२६॥
मवसिदधिभेवेत्‌ पुत्र तलोक्ये कीत्तिमान्‌ मवेत्‌ 1
तस्याज्ञया जगत्सवं स्थावर जद्घमात्मक्म्‌ ॥३०॥
कुमारक प्रवत्तेन्ते** सर्वास्वरयेकर भुवि ।
चिद्धि चतुिधा"१४ चव एत^मगत्रस्य जापके १३१11
१. घ पोत्कौपली) २ ध पुनवजित्रय।३ घ पुनर्बीजश्रय । ४ ध पुनर्वीजि०॥
४. घ. स्तन्धमायां ध्व वह निजायालोकागुलीमनुः । ६ घ. भवीजयुक्त । ७ प, शटपिश्च {
यज्ञवारादु्न्दः १ ठ ध श्वि! ६. घ. मन्नभेद। १० घ विनया०) ११.घ.
वौरवेरेन । घ वीरायेदोन । १२, घ. विराण्यर्या महादेवी । १६. क .ग. क्षपाद्यन ।
१४. प, भवक्तेव ) १५. स. प. िदिश्चतुविधा ।
५० ] स्यायनतभ्वे
^~ ~~~~~~~~~~----~-~~~~ ~~~

इच्छया वक्तते सवंमराङ्च्येकरमादरात्‌ ।


नदी नदइच *रत्िमानू° सानापादपक्रुलम्‌ ५३२५
भरागच्देत्याज्चया तत्य पुनमंच्छन्वि चादरात्‌ *1
किन्न स्पात्‌ प्रयुक्तानि माहात्म्य पदम मनोः" ॥३३॥
कामयेन्मन्वमेतद्धि ‹कऋचभेदनकोविद ॥
इति वड्दिदयागमे सां्यायनतन्ने यञमदक्षपटलः* १।१५॥
५ भथ शोडश्चः पटलः ॥
बन्पूककुसुमामाकार वृदिनाशनेतत्वराम्‌
वन्देऽह बगला देवी स्तम्भनास्त्रापिदेवताम्‌ ॥१॥
श्रीर्घमेदन उवाषघ--
नमस्ते गिरिजानाथ मन्वकिद्यागमप्रने ।
भ्रघुना चास्पविस्तार वदमे कषणाकर ॥२॥
ईश्वर उवाच--
तार चस्तन्धमाया च प्रासादस् च ततःपरम्‌ ।
पुनलिस्य१* स्तम्धमायां प्रणय ष ततः परम्‌ ॥३॥
वगलामृखिषद चोक्त्वा सवेदुप्टपडं वदेत्‌ !
न(ल?)वार दीर्य बिन्दुना नूपिति तपा परा
बोजपञ्वगमूज्चार्थं याच मूख पद वदेत्‌ ।
स्तमयद पमुच्चा्यं पर्चरोजानि चोर्वरेत्‌ ॥५॥
जिद कौल्य उच्चायं पञ्चगोजानि षोर्यरेत्‌ ।
वुद्धि विनाशयदुग १› पञ्वरीजानि घौञ्चरेत्‌ ।(६॥
वद्िगायाहमद्‌१* पद्टिर्पाप्मक+ मनुम्‌ १५११
जातवेदमुणोमन्पर जगदाप्१रफरम्‌ ॥७॥
प्ररुपल्यकवर्णेन पठोध्य मन्वनायवः 1
प्रपि; पालाग्निर्तु पणिरएन्द उदादतम्‌ ॥८॥
१ प. नदाप्य( २. प. पिष्ठो। १. प. पापप्पुम्यश्पा। ३ प. घादप्त्‌।
भ. प, सिप्र वत्वाषपृष्तपनि। प. पूष्तङ िटेषः~
ङि हैष्द उपदुक्डान) माहात्म्य देद्प्र सनोः।
यद्गोपरदि पृष्यामा कंतोग्राश्पयस्षमः।
६. प, पोपदनमच्न 1 ७. प, न्प्तव्रप्रयोष पर्चदपपटणः) ८. प, माषा। ९१
भ्र प्रह । १०. प. पूनन्त्ति। ११ प. नाप्प्पृष्मव। (२. ण, न्ठमादूषवः।
११. ए, न्रमवो। १२. य. मनुः (१६. पाद्दद प, पृष्ठे गाप्वि।
योर्शः पटलः [ ५१

जातवेदमृक्ती मदेवत्ता, स्रमृदाहूता 1
क बीज द्धी च शक्किरच ह रोलकमुदाहत्‌ ॥६॥
पूवंवल्यासविद्याः च ध्यान वक्ष्यामि पूत्रक।
जातगेदमूली देवी देवताः श्रणकूपिणी ११०॥
भजेऽह स्तम्मनाये च स्तम्भनी विक्वरूपिणोम्‌* }
एव ध्यात्वा जपेन्मन्तर त्रिशत्लक्ष सुपाकनम्‌ ॥ ११४
चमेघुगृवसनो भूत्वा चिन्तितायंप्रद धुवम्‌ ।
गन्पर्वा
श्चंव यक्षाइच गर्डोरगपप्नमान्‌ 1 १२॥
बेतालडाकिनोप्रेतशाकिनीन्नह्यराक्षघान्‌ ।
तऋपिदेवगणाश्चंव पिद्धानन्यादच पुत्रक ॥१३॥
श्रषुना स्तम्भयप्येतत्‌°सत्य शङ्कुरमावणम्‌ ।
तार च स्तन्धमाया च वह्भुिवीज चे पचकम्‌ ॥१४॥।
्रस्फुरद्वितय चैव वौज चैव* वयोदश्च }
उवालामूखो दं चोक्त्वा"? वदेद्बोज त्रयोदश ।१५॥
सर्वकषब्द तत्तोच्चायं दृष्टाना पदमुच्चरेत्‌ 1
बोज ^ त्रयोदशं चोक्त्वा वाच मूख पद वदेत्‌ ॥१६॥
स्तम्भयद्वितय चोक्त्वा पुनर्बाजि** त्रयोदश ।
जिह्वा कीस चोज्वरा्य'* पुनर्वीजि त्रयोदश ॥ १७॥
बुद्धि "विनाश्षय चोक्त्वा^> पुनर्वाज श्रयोदश ।
वद्धिजायासमायुक्त ज्वालामुस्यमय १४ मनुः" ॥१८॥
शतोत्तर भवेद्िशदबीजवद्धो मनुस्त्वयम्‌ +
ह भ्रत्रिद्व ऋवपिरेवात्र^* यायत्रीछन्द उच्यते** ।१९॥
उदलामुखी देवता च स्तम्मनाय विमूतिभि. १
ध्यानं यट्नातु परवक्ष्यामि न्यास पूवंवदाचरेत्‌ ॥२०॥

१. ध. देवीदेवता २. ख. ध. द्धी ३. घ. श्विद्यः) ४, प स्तम्मनो।


५. ध. निकषवरूपिरो ¦ ३. च. मनूनो सभवेद्येतत्‌ } ७ ध. न्यो । ८, च. च उन्नाय |
१. क योज; १०. प. बीजी) ११. श्वीरजां॥ शर. धः युप्पदव। १३० घ,
नाषयपम्म च! ‡४. ख. ज्वलममुश्यास्त्वय । १५. ध, स्तन्धमामात्रिरद^दिजयमा
ज्वालामुसीमनुः 1 १६. घ. गरेवास्य { १७. घ. एव च ।
४२] सा्ायनतन्तर

ध्यान निना मेन्‌ मूकः रिद्धमन्वोऽपि पूरक ।


ज्वालापज्जसटोन्मुका ^कालानलपमप्रमेम्‌ ॥२१॥
चिन्मय स्तमनौ देवी भजेऽह्‌ विधिपूर्वकम्‌ ।
एव ध्यात्वा जयेन्मन्वरमरकेलक्त सुवद्धिमान्‌ ॥२२॥
तपेण च गवा क्षौरैस्तालकेन हुनेत्‌ सदा ।
तर्पण च चतुल्लंश्च लक्षमेकं हुनेत्वदा* ॥२३॥
सहल््ितय चैव श्राह्यणाना सुभोजयेत्‌"‡ ।
व्रिमूत्ि स्तम्भयेन्मत्री पृञ्चतत्वान्यि क्षणात्‌ ॥२४॥
भआदचर्येद महामन नराणा दुत्लंभ मुवि ।
इदानी मन्त्रराज च वृदद्धानुमुखाह्वयम्‌ ॥२५।
मारण स्तमबाणः* च भार्यं च कलो युगे ।
तारं हल्‌ हलौ च उच्चायं हल्‌ हतु हतं च हतः परम्‌ ॥२६॥
ह लृस्तयपपयुच्चरेत्‌ पुत्र हला हली हल्‌. च ततः परम्‌।
ह्लं हलो ह.लृश्ष्च ततश्चोक्त्वा बगलागुखिपद वदेत्‌ ॥२७॥ ^
सर्वशब्द ततोच्चायं दुष्टाना पदमुन्चरेत्‌ ।
वाच मुख पद चोक्त्वा स्तम्भयद्वयमु्वरेत्‌ ।॥२८॥।
प्राद्यवीज पुनश्चोक्प्वा* उद्धरेत्‌ पनरादवत्‌ ५८
जिह्वा फोलय उच्वायं पूर्ववद्‌ वौजमुद्धरेत्‌ ॥२६॥
बुद्धि विनादायोच्च।यं ^पूर्वंबोजानि!* चोच्चरेत्‌*+ ।
वह्भिजायासमायुक्तो वृद्रानुमूखोमनुः ॥३०॥ १९
सविता चच्छपिः स्यातो" गायत्रीष्ठन्दषएवच।
देवता स्तम्भनायं च वृहद्धनुमुखो तया ॥३१।॥

१, प. उवसपूतजटामुक्त ३. प. भ्युत। ३. प, ब्राह्मणान्‌ सुद मोययेव्‌ ।


४. प. दणस्तभ्भनबण । ६. प. दतस्तार्‌ । ६. प्रतः परभवमघो दृष्यते प. पृष्तमे--
शश्राचरीज मनोः वस्या उदरेत्‌ पू्रादरात
७, प, मनो. सस्या ८. प. पुनरादराद्‌। € प. नातव उनच्चाप्यं । ११,१.
पूषडोजं। ११. प. समुग्चरेत्‌ । १२. प. पृस्तङे व्वयमतो दिव.
स्तश्पमाया तारकं ष वद्धिजाया्ठक भुत ।
दृदद्वनुमुखीम पडुप्तरयतदाणदे" ॥
१३ प. छदिददाव।
मप्तदशः परस [ ४३

वीयं च बगरतादीजं श्िमयि कुमारक ¦


षोलके प्रणवं चात्र विनियोगस्ततः" परम्‌९ ॥३२॥
पूवंवर्स्यासरविधां च तन्त्रराजवदाचरेत्‌ ।
ध्यानं यत्नात्‌ प्रवक्ष्यामि मन्रभेदेन पुत्रक ॥३३१।
कालानलनिमां देवी ज्वलल्युज्जश्िरोष्हाम्‌ !
फोधिवाहु समायुक्ता वेरिजि्वासमन्विताम्‌* ॥३४॥
स्तम्भनास्पमयी देवी दुपीनपयोधराम्‌ ।
मदिरामदसगु्ां* वृहद्धानुुखी मजे *।३५॥
एव ्यारवा जवेन्मत्रमकंलक् वुमारक 1
तप्प॑येत्तदशा्च च गुडोदकपसमन्विततम्‌ ।२३६॥
तालकेन हुनेत्तस्य दाश सस्छृतागिनिना |
पराह्यभान्‌ मोजपेत्‌ पक्वात्‌ तदशसिं कुमारक २७१
मन्धान्ते च प्रकतेव्यं सोमाग्यायेनमादरात्‌ ।
सौमाग्यार्ा विनो पृ्र मन्द्रपिदधिनं जायते ।)३८॥
पञ्चास्त्रमन्ध्रसिद्धिहि दिवि देवेषु दु्तंमा* (
$ गोपयेत्‌ स्वंदा पृ्र* प्ता वीर्यवती" भवेत्‌ ।1३६॥
न क्तव्यः प्रयोगोऽस्य'* शपयादि ^° कदाचन ।
यः करोति प्रयोगं च देवताशापमप्नुयात्‌ ॥४४०॥
ति षड्षिद्णपे पताह्पायनत्त््रे धोडशञः पदलः ॥(१६॥

11 प्रथ सम्तदश्चः पटलः ॥

११जिद्धाप्रमादाय "करेण देवी" \ "वामेन शवून्‌ परिपरडयन्तीम्‌^+‡ 1


पीताम्बरा पीनपयोघराइधां * * सदा ^स्मरेऽह बगलाम्बिका" *“* हृदि ॥1१॥
पौवतभेदन उवाद--
चन्द्रचड नमस्तेऽस्तु इन्दिरापतिषूजित 1
दाताक्षरीमहामतरं बगलायाश्च मे पदे ।।२॥
१. घ. विनियोगं च । २, ध. संस्मुतम्‌ । ३. ध. ससन्जिह्वासमन्विताम्‌ । ४, ष.
मदिरामोदप्रृक्ता। ५. घ, भ्जेत्‌1 ६, ध. दुलंमम्‌ 1 ७, घ. पूवा ८.
गोष्ठा वौरथापतिर्‌) 8. ध. न कर्तव्य प्योगस्वि। १०. ख. घ. प्रापद्यपि। ११.
हतः पूभयमंसो घ. पृष्तके--'दरोदरेष्व समर्था 1 १२. प. करद्वयेन । ११, ष,
मुत्पाटयन्विमरिशसियततम्‌ ) १४. ष, पीत । १५. ष. स्मरेयं वगतामूर्ता 1
४४] सरश्यापनेतन्ते

ईध्वर उवष्व--
मन्वोदधार प्रवक्ष्यामि पुरश्चर्याविधि तथा
प्रयोग चौपहार्‌ वक्षयऽ्॒ तव पुरक ॥३॥
स्तन्धमाया च वाग्बीज माया मन्मथमेव च |
श्रीवज^ शक्तिवाराह्‌ "गलामुल्ि चोज्चरेत्‌*+ ११५५१
स्फुरद्वय तथा चोकः्वा सवंशब्द°ततोन्चरेत्‌ 1
दुष्टाना पदमुच्चायं वाच मुख पद वदेत्‌ ॥५॥
स्तम्भयद्यमुज्वायं प्रसफुरद्वयमुच्चरेत्‌ ।
विकटाद्गीपद चोक्त्वा घोरर्पीषद*चदेत्‌ ।१९॥
जिद्धा कौलय उच्चाये* महाशब्द ततोच्रेत्‌
पर्चादुभ्रमकरी चैव बुद्धि नाश्य उज्चरेत्‌ ॥७।।
विरामयपद * चोक्त्वा “सवंशरज्ञामयौति चा* ।
भरज्ञा नाश्चय उच्चा उन्मादीक्रुरर युकम्‌ 115)!
मनोपहरिणी चोक्त्वा स्तममाया^ समुच्चरेत्‌ ।
शक्तिवा राहुबीज च सक्मीवीज! * ततः परम्‌ ॥६॥
कामराज च हल्ला वाग्भवं तदनन्तरम्‌ ।
स्तव्धमोया ततोच्चवायं व्विजायासमन्वितम्‌ ॥१०।
शताक्षरोमहामन्न वगलानएम पावनम्‌ ।
ब्रह्मा ऋषिश्च छन्दोऽस्य गायत्री समुदाहृता ॥११॥
देवत्ता वगलानाम्नी जगत्‌स्तम्भनकारिभी ।
हृ. वोज शक्छिरिस्येव वाग्भवं कीलक तथा ॥१२।८
पूवि न्याछवि्या च वगल्ाप्ज्जसदयः 1
न्यासानुक्तकमेणेव ›› “जपाय्या पच एव "१५ (1 १३४
पीताम्बरधरां सोम्या पोतमूषणमूषिताम्‌ ॥
स्वर्भसिदासनस्था च सूले कल्पतरोरधः१> ॥१४॥।

१ च स्माच। रे. दूनडार बेगतधुखीं 1 ३ प, खवं छन्द घ


धोर्पपद, ५ च. मुच्ये ६. घ. विराण्मयीपदं। ७, ष. उशमदाभरीत्परे ।
ए च. घे. उन्मादकुष\ €-प स्तन्धमाणां! १०. ष. रमाबीन + ११ प, न्यास
मूक्मरक, १२ उषादावाचरेत्‌ सुष्ठो, ५ व. उपदाचन्त्यमेव च ६ १३. ध. °स्य।॥
सप्तदशः धरलः [हि

चैरिजिहामेदानायं ' चुरिका^विघ्नतीं कषिवाम्‌ ।
पानपा यदा प्राक्च घारय^ती मजम्यहुम्‌ 11 १५॥
एव ध्यात्वा जपेन्मःत्रमकेलक्ष क्षपालन। 1
सप्पयद्धेतुभिधेण वारिणा वाय पुरक ॥ १६॥
जातिपचकसमिश्रजसेन * च कुमारक ।
पुजायुत* च सन्तप्यं ह्यचितेन जलेन च ॥ १७}
त्रिमध्वक्त पायसेन“ भ्रयवा पायसाज्ययो 1
चरुणा वा दुनेत्‌ पु्र^ स्त तत्त्तघख्ययः ॥१५॥
तानादेहजरोगार्च इत्रिमग्रहसभवान्‌ ।
यावकादच °प्रयोगाऽ्चम (तुर्यषातुसमुद्धवान्‌"\ ।।१६॥
सद्योनाश्चनमायान्ति मन्वहोेन साक, 1
साज्यपक्तुुताक्त "१ * च शमन्तकुसुमेन ष। ॥२०॥
पट्‌स्हृस्र हमेत्‌ पुत्र स्थण्डिले वाय कुण्डके ।
वक्षीकरः च घमोह्‌ कोत्ति प्रज्ञा मवे प्रुवम्‌ ॥२१॥
तालकरेन इनेत्‌ पूत्र सहसत वपुसस्यया ।
कुण्ड चैव भेगाकारे राजतास्नो '+ कतो निशा ॥२२॥
स्तम्भने च भवेत्‌ पुत्र नात्र कार्या विचारणा ।
श्रकरकेदच पिचुमदश्च ** समिध ^> सम्रेन्तर' 1२३
भरत्येक धिसदछ्त च प्रादेशसमिषा कम १४॥।
मन्य सवं समूज्वायं समिषाद्वयमेव च ॥२४॥
हेद्‌ ध्यानसमायुक्त सद्यो विद्रपण मवेत्‌ 1
विभीतकस्य समिधो प्राह्यास्तु "° तरिपदलकम्‌ ॥२५॥
षट्‌कोणकुण्डे जुहुयाक्निशचायां कृष्णपक्षके }
स्यावयंश्व गिरीश्चैव नदीपादप्सकुलान्‌ ^१ ॥२६))
१ ध च्छेदनं । २ ष कुरिको। ३ ख य षे नाती (त्ति) पदक । ४
घ, बाफ्ठायृत। ५ घ पायसच॥ ६ घं पुस्तकेदस्मास्परमधिकोऽशो दुष्यते--
प्प्ायफलदायक ! उपन्‌ हुनत्ुत्र' ।
७-८ ष पावकाष्व प्रयोगश्च € खग ष राल्प{्य)कातु० । १० ख, शाली
खक्त्‌,० । ग॒साज्यसकतु०। घ ालिक्षक्तुषुताक्तीच। ११ ष रबकषाप्नी। १२
ख पिचुमदृश्? १६ पर समिघा। ६४ ख ग॒ प्रादेशमिष कम । ष प्रादे
समिघाकमात्‌ } १५ क ब्रहास्दु। ग प्रहानु। १६ घ बदीपादपठकुमुमं वथा॥
४६] पाध्यायनतन्दे
^^

क्षणादुल्वाटन वुर्याद्‌ होमस्यास्य प्रभावतः ।


निम्बतेलेन सयु शात्मलीकू सूम तथा ॥२७॥*
जुहयादेवतां*ध्यात्वा” मारणं मवति धुवम्‌ ।
पटुकर्मनिर्माणमिदः सुसिद्ध
शताक्षरीमन्तमदोषदुःखहम्‌ 1
होभेन सस्वम्मनमाषरेद्‌ वुधो-
विद्यासुसिद्ध मृनिगृद्यमादगत्‌ ॥२८॥
॥ इति षद्दिचागने हास्यानतन््रे मप्तदछ* पटसतम्‌+ ॥१७

॥। भ्य प्रष्टादश्चः पटतः॥

नमस्ते जगता* देवो जिह्धास्तमनकारिणोम्‌ ।


भजेष्दं एवूनातांर स्ापकाषक्मानसाम्‌^ ॥ १
होर्वमेदन उवाच--
सम्यमज्ञाने** महेश्रान नित्पनित्यस्वरूपक ११ ।
चन्द्रचूड नमस्तेऽस्तु प्रयोग ददमे प्रमो ॥२॥
दर उवाव--
पट्‌सट्छ हुनेत्‌ पुत्र दुरवाहिममतन्दिठः ।
"सम्यग्‌ विपञ्यर'\* हन्तिं वगलायाः प्रसादतः ॥३॥
कुशेन जुहूपात्तस्य तापृज्वरहर^र प्रम्‌ ।
हनत्‌ तावत्‌ प्वेतद्रका ज्वर्‌ चातुरक हरेत्‌ 1४1
व्रिमध्वकत १* एवेतदूरवां पट्षहस" नेत्‌ घमात्‌ 1
नानाविध यर हृन्ति नायर कार्या पित्रारणा ॥५॥
दपिमिन्र गृदूचोनिः परसगु्तम्मितम्‌*१ 1
जुह्यात्‌ पद्चहसः तु नानामेहनिवार्णम्‌ ॥६॥

१. ध, पुष्ठके स्सोकोप्य नात्वि} र. प. यृ्याद्णतठ + ए. पर प्णपक्‌।


पिद) ६. २ एष्ठदयम। प. स्प्वद्तः। ६. प्टनः। ५.
भ, पदककमाणि
घ दगला। ६. प. पवनादय । ६. घ. मदिरहष्नम । 1१९. प. पद्मन ।
११. भ. निरयानित्यर । १२. ष. षटष्ठापज्दर। द्वेषः छोतम्देर०। १४. १,
त्रिपपुक्डा। ११५. स मिधिवम्‌ ४
प््वारश्चः पटसः [ ४७

सर्षपं लवणोपेततं पूर्वदज्चुहुयान्नरः


नाशयेद्‌ गुर्मरोग*च प्रोपधेन विना महृत्‌ ॥५७॥
पट्सहस्र हनेत्‌ पुत्र शक
राज्यघमन्वितम्‌ ।
प्पित्तोदेकादिसर्वा श्च*' रोगात्ना्यतिग धुदम्‌ ॥८1
शालिसक्तु* घुतोपेत‹वशीकरममुत्तमम्‌ +
लाजालमेभ' पदुरहल लमेदाञ्चितकन्यकाम्‌ १९५
इर्द्राखडटोम * तु पद्सहस » सुवुद्धिमान्‌ 1
यर्भस्तमो मवेनासे सापि वर्या ९ भवेद्‌ धुवम्‌ (१०॥
केतकीदलहोमेन गणिका वर्पमापनुयात्‌ ** 1
हुनेत्‌ पसदलेनेव नेत्ररोग विनश्यति 11१११
मिलकाकु सुमेनेव भ्रधिका च मति्भषेत्‌"+१ ।
जातौफतेन जुहूपादुन्मत्तो जायते रिपुः ॥१२॥
पट्सहस्ल देव्ुुम १ * हकंराज्यस्मन्वितम्‌ ।
बुद्धिग+श्चैव चाञ्चत्य सन्ञनमुन्मत्िस्तया१* ॥१३॥
मरलीकेन१५ क्षुद्रमतिदुंवुंद्धि िद्धवुदधिता*\१
ततक्षणान्नाशमाप्नोत्ति तम. सूर्योदये**यथा 11१४।
मास पुटयुक्त १८ ्रन्येण सममेव च'१६।
श्रुत जुहुयाद्रात्रौ सयो षनपतिमेवेत्‌ । १५1
म॒घ्वाक्त "छागमास च'^* त्रिरदक्त नेत्‌ सृत । .
(मूला जायते" ^ घीघ्र प्रामादिपपिरेव** च ॥१६॥
मौडोद्रव्येण जु णात्‌ सदेत्तं बाणसस्यया 1
इमूादि येमाडच नाश्चमेत्तान्‌"°न चंशय- १७१
[0
गयी पिष

१. ग खुमरोग। २. घ. शस्योद्मवारच एतघो। ६. ०नाश्येद्‌ । ४. ष.ग.


घ. शालिश्क्तु । ३. घ. सितोपेव ६. घ लबहोमात्‌ १ ७. घ, होमस्तु । ८.
क. सदसतः । ६. स. वषया । १०. ष. °मादरात्‌ । {१. ख. वाधि सुममठिभषेत्‌ }
१९. घ देवदुष्प १६. ख. उदय १४. दज्चाटकमतिस्तवा। १५. ख. भिवे
ष. धविदको! १६. ख, मन्दबुद्धिता! प, धिदिदुद्ठिः। १५. ध. सूर्योदये! १८.
ख. पु कुगहुटस्पेव । घ. कुककटसरमूत ! १६. ष. वरिमपुः सहितेन । २०. ष, एागपि.
धितं २१. घं सुलभ च मदेच्‌ । २२, घ. प्रामाि०। २३. कय. ष नारायति ६
भ्ठ हा्यायनत्तश्वे

माष्वोदरवयेण जुहुयात्‌ पट्‌सदेन्ल क्रमेण च ।
ज्वरपेक््यादिरोगांश्च * सद्यो नाशनमाप्नुयात्‌ ॥ १८
पेष्टद्रव्येण जुहृयान्निशास्वष्टसहलकम्‌ !
सग्रहग्रहणी
रोय सद्यो नाशनमान्नुयात्‌ ॥१९॥
भरतेन श्रन्वहो हृत्वा'* धत्नदानपतिरभवेत्‌ ।
पुतन कान्तिमान्‌ भूत्वा" नारीणामात्मदो* भवेत्‌ ॥२०॥
क्षीरेण भ्रमनाशश्च दध्ना तापननाश्चनम्‌* ॥
पञ्चगव्येन जुहुयात्‌ पूववत्‌ पाप नाशयेत्‌*॥२१॥
गोमुग्रोण हृनेन्मन्धो^ षट्‌सहस्न करमेण च€ ।
ताल्तीमचेन ' * जुहुयात्‌ स्त्रीणामाकषंणं भवेत्‌ ॥२२॥
खलू रजेन द्रव्येण पुसामाकपेणं भवेत्‌!
तिलतैलेन जुहुयात्‌ सर्वाकषंगमाप्तुयात्‌ ।२३॥
एरण्डतेलेन जुहुयाद्‌१* वाचाकपंणमाप्नृयात्‌ १२ ।
कस्‌मतंलहोमेन*3 काकरुध्राननेकशः१** ॥२४॥
भ्राकषंण भवेच्ीघ्र खेचराः पक्षिजातयः१९ 1
यवना +° पानहोमेन भग्निमध्याद्विपुः** स्वयम्‌ ॥(२५॥
रोगौ च जायते मासाच्दिवस्य वचन यथा ।
जुहुयादारनालेन पित्तरोगी भवेद्रिपुः ।२६॥
निम्बपत्रद्वेणेव वातरोगौ भवेद्रिपुः ।
मोहिनीपपजद्रावैः १८ दतेप्मरोगी भवेद्रिपुः ॥२७॥

१. गर घ. उवरपैत्यादि० + २. ध. हृत्वाप्रकामो। ३.१. व्दानपरो०। ४.४.

हव्वा॥ ५. नारीणां मन्मयो। ६, तापनिवारणम्‌ 1 ७. ध. पापशान्तये। ८. प.


हनेढीमान्‌ । €. प पुस्तके विपेपः-
'विदार विवशो मावाद्विवुभ्रन्वि भविप्यति!
१०. ख. ठालोमयेन ॥ ध. तालमचेन । ११. प एरण्डतंलहोमेन । १२. ष. गणक्पंए* ।
, . .
१३. स, य. घ. पूस्वकेप्ववः परमयमो दृष्यते विचेपः--
षयववद्धोममाव्तः। जलजानां च होमेन[प. जलजाद्यंव यो मेदा)मवेदाकूपंण सुत ॥
करजतेतहोमेन, 1
१६. ख. पवमां । प.
१४, घ. ाकमृध्ताण्यनेकः । १५. ष. पकषिजा यतः । (
यावताघ्राच्च । १७. ध. पन्निमाप् रिपो. १८ स, मोहिपत्रवतदाव॑ः
एकोनविुः टः [ ४६

भरकेपत्रद्रवेणेव क्षयसेमरो भवेद्धि;


'््वीक्षीरेण सयुकरूमारनालेन पुष्क ॥२८॥
जुहुयात्‌ पटह तु बगत्ताष्यानपूतंकम्‌।
नाडीव्रगसमायुदतो* (:) पण्माहान्स्ियतते रिपू! 11२९॥
गर» च तिलतेल च भारनालयुतेन च 1
श्रमे बा नगरे वाय* वगलाष्यानपूरवंकम्‌ ॥३०॥
'स्फोटब्रणास्व जायन्तेः\ रपोयंजिनमृत्रत,* ।*
तिलेन सयोजय याबनालाघ्नमेव £च 11३१
जुहुयात्‌ पूवंदच्छन्र' "मेण्डलाच्छिसुधो पक.
कपूरमिलित` *च॑व तिततंल इपैत्‌ सुधी." ॥३२॥
मारणे \* मण्डलाच्छमो
+रनात्र कार्या विचारणा "दे
इति षदूदि्ापमे साक्यापरननस्दे प्रष्टारश.पदसः (1१६॥
॥ भयेक्तोनविज्ञः पटल. ॥
चतुभज तरितयनां पीत्तवस्वघरां चुमाम्‌१२}
वम्देऽह्‌ बगला देवौ श्रुस्तमनकारिगीम्‌ ॥१॥
९. सप्ठबिशतिपदोतराद्ध स्वा्णवश्तिपयपू्ाड स्यच स्यानेऽयमपो सम्यत ष. पुस्तके-
सतरः विभोत्रकोदूभूत ठस्य स्वरखहोमतः
जारिभ्रष्टो मवेच्छर्‌ नन्विया शिवेमापितम्‌ ॥
वत्कारिपप्रजदाः कृमभ्ष्टो मवेद्धषुः १
निगुष्डोपत्रजद्रादैऽवंररोगो भवेद्रिपुः ॥
करपाठिपत्रजद्रावैहेमिन दुमारक।
बद्धकोष्डार्च रोगस्य स्वमान विदधति 11
हरीदहो्व होमेन ब्रणरोगी भवेद्वः ॥
२. घ, वष्यक्षीरे समिध ०} ३. प. नदोग्रणपरो मृत्वा । ४. प. भमृर्‌1 ४.
पुस्तके विशेषः--
नपरे दा एमे द रकशर उारयराल पूददज्जुहफाठ्‌ कषात्‌
त मुगदरद्रे भूत्वा पण्माडान्‌ शर्वे दिपुः ४
६. ष. फोटकब्रह्‌। रोगेन । ७. घ. पिपर्यो० { ५. भरतः परमः ख. घ. पुस्तके विष
भ्यते यात्र सन्देहः शिवस्य वचन यषा 1
क. ख. पावनालासमेदव १०. घ. पूर्ववत्पु्र ) ११. ष. ग, चितसय । घ.
न्म भारणम्‌। १२, घ. ग्मिधिवं ! १३. धसू ६४. घ. नियते २४, घ.
ष्छतु 1 १६. प.धिवाम्‌!
५० ] सास्यापनतन्त्र
~~
स्कन्द) उवाघ--
नमस्ते योगिससेन्य नमः* कारणिकोत्तम ।
भ्रयोगं चोपसहारं वद मे सर्वं
मद्धल ५॥२॥
ईश्वर उषाच--
्रत्ताङ्खारमपो* कृत्वा सितवस्त्रेण" बुद्धिमान्‌ 1
शत्य तदन्तरे भस्म वैरिनाम, च सतितेत्‌ ॥३॥
^एकार्णा वगरला देवी*» वेष्टयेत्‌ सम्यगरादरात्‌ ।
छताक्षरी च.सवेष्टघ ईदानादिपु 'वेष्टयेत्‌ ॥\४॥
तद्रस््र* गुलिकीटृत्य'° वेष्टयेत्‌ प्रतरन्जुना ।
भौमवारे समानीय स्थापयेद्‌ वृक्षकोटरे ५4५
वृक्षमूले जपेन्मन्वममूत।ध्यानपूर्वंकम्‌ ।
प्रदारादिषयुक्तः पक्षाच्चनुमूतोभवेत्‌ ॥६॥
भूर्जपत्रे ' लिखेन्नाम^* वगलाबीजमध्यमम्‌ ।
कोटरे स्थापयेत्‌ पुत्र विमीतकत रोस्तथा ॥७॥
जिह्वास्तम्भ मवेच्छतरोः पक्षमात्रेण पचक !
वृहृस्पविसमो वापि वाचस्सतिसमोऽपि वा ।५॥
तालमध्ये लिलेन्नाम वगलावौजमध्यमम्‌!* ।
प्राणप्रतिष्ठा कृत्वाऽथ१४ निदंटैद्‌ "* दीपवद्भिना ॥€॥
जपेत्तत्र सहस्रक धरताक्षरमनुं* \ तया ।
जिद्वास्तेभं मवेच्छीधं**तेपमापापतिः स्वयम्‌ ॥१०॥
प्ेतमाण्डे लिषेत्राम प्रेताङ्गारेण*८ साधकः ॥
प्राणस्यापनक कृत्वा रवौ रात्रो सुबुद्धिमान्‌ ॥११॥
प्रतामौ परेतकष्ठे तु** निदूदेत्‌ पेतकानने ।
नग्नः क्मानमध्ये तु जपेद्‌ दक्षिणदिडःमुखः ५॥१२॥

१,घ. कौञ्वमेदन। २. ष. मा1 इ.स. ग्मयो।प, र ॥ ४, प. प्रत


वस्व घ+ ५.घ. गष, एत्पं। ६. घ. भरि*1 ७. ध, एकभरं व 1८. ष.
मनपडादरोभिर्व हाते दि । €, क. प. तदस्त । १०. प. गुटिङीदत्य । ११.

घ. भूपते
पपत १२. प. दिपूर्नान + .म. प, समभ्ययम्‌ । १४.(४. पन धु
१३. 0
४ गस । १६. ष. पठाक्षसिमनु। १५७. च्छनोः॥ एप. प्रछामप्ठे
१६. ध. पु।
एकोनदिश्च पटसः { ५१

सहस्न ध्यानपूर्वं तु प्रातयमि समासत + ।


एवं कृत्वा तु* सप्ताह ज्वरस्यौ जायते मुवि २।१३॥
मासान्मूद्युवशोः भूत्वा विनश्यति न सशयः
कौसूक्छमाजनेनेव तन्मन्नेणाभिमन्वित्तम्‌ 11 १४८
शतमष्टोत्तर चैव पहन वा कुमारक 1
मत्रितोदकपानेन पुण्य सुखमवाप्नुयात्‌ ।१५॥
चिताभस्म चिताङ्गार चित्ताप्न \ च कुमारक)
मोहिनोपव्रजदरावमेहुपेत्‌ सूक्षमतोऽनघ ॥।१६॥
सम सम्र रिपूच्छिष्ट महयेत्‌ कप्पयेत्‌ पून ।
"वतुरद्ध -ला पुतली"*कुर्यात्‌ घर्वाद्धसयुताम्‌ ॥ ५७
हृदि तन्नाम चालिस्य ललाटे वगरला क्तिचेत्‌
सर्वाद्धे चाग्निवीज च लिखेद्‌ बिन्दु च निदहेत ।1१८।
्रेतवह्धो मेतकापठे मरेतमास सुपुत्रक^
अपे्तत्रायुत पुत्र रिषुगेच्देय मालये + ॥\१६)
स्नह्या" "क्षीरेण सयुक्त "महयेत्‌ शवेतसपपं ** ।
चतुरङ्ग. लपुचल्या लिखेत्‌ शूवंवदचरेत ५२०॥
“स्थापयेनच्चुह्लयवोमगि'? * यमघटकयोगत् ।
तषोपरि दिवारात्रौ भनि सस्थाप्य बुद्धिमान्‌ ॥२१॥१२
वगलावीजमध्यस्थ साध्यनाम च ससिेत्‌ 1
वेष्टयेद्रगलामन्न ईशानादिद्ताक्षरम्‌ ›* ॥२२॥
प्राणप्रतिष्ठा कृत्वा तु षहारकमतोऽचयेत्‌
शताक्षयेके्लीरेस्तु स्नुहीक्षीरेण लपयेत्‌ ११२३११४
१ प समापयेवृ। र षन-तु। ३ कलव न्वे ४८ व कथ च चित्तिमत्म।
६ घ प्रात । ७ ध चतुरपुत्ततींचंक1 त ष चपुव्रक। € षछ.यष्‌
ग्वमासयम्‌ ! १० च स्नुही) ११ प, इदेव्ठपप म्॒दुयेत्‌; २ ष श्चुरत्य^ +
१३. छ घ पृस्तरस्पोऽपमणो विदेष --
भ्रयुठ च दिवारात्रौ एकाक्षरमनु अवेत्‌
मसूरिकाज्वयच्छन्र पक्षान्मरणमःप्नुयात्‌ ए
भ्रकपत्र त्िचेष्ताम भ्रकक्षोरेण बुद्धिमान्‌!
१४. घ ईशान्यादि० 1 १९ ख ग, घ पृस्ठक्पु निम्नांयो विशेष --
शतपेदोषश्शिखया पृत्तलो तां विशय ।
प्रषटोत्त रशवं एत्वा चवशक्षम्पादि स्पयेत्‌ ॥
५२1 घांख्यायनतस्वर

एव कते धप्तरान्ं स शरश्च मृतो भवेत्‌ ।


मसूरिकाजरासक्तः पक्षाद्‌ गच्छेद्‌ यमालयम्‌ ॥२४॥
मन्वरेश्िभ्बपत्रेण एुक्मेक क्म क्रमम्‌ ।
चन्द्रभ्रसादमन्तरेण शौतलाविद्यया तथा ।॥२५॥' ॥
सपर्ण °क्षालयेत्‌ क्षीरैः सदाहः शान्तिमाप्नुयात्‌ 1
तिक्तकोशातकीजातिः तापिच्छी सादरे तथा ॥२६॥

धत्तूरकं च तन्मूष्द्‌
नि"कारवेल्या फलाङृतिम्‌"* 1
"पट्‌मन.दिलाबीजेश्च'\ ति पादद्वयं तया ।॥२७॥
वदरोमूलतो मत्वा प्राणस्थापनक चरेत्‌ 1
मन्मुच्चारयेतपु्र तदन्तः त्रुमुच्चरेत्‌ ॥२८।*
शरोत्रालोगण्डश्न
मघ्ये्िह्वानासास्ययेपसी= ।
"दक्षिणाभिमुखो भुत्वा"<वगलासम्युटदरयम्‌ *° ॥२९॥
ब्रह्मस्यनि तालुदेसे कण्टक्रानकंसस्यया ।
"दक्षिणाभिमुखो भूवा ^^ रोपयेन्नगनवस्तथा१* ॥३०॥
पञ्च प्च करे रोप्य पारे कुक्षौ च पृष्छके।
कण्टकान्‌ सप्तसस्याकान्‌ "मन्ययेत्‌ पूवेवत्‌ श्रमात्‌`* ।॥३१।१
रोपयेत्‌ पादयूरमे तु प्रत्येक * द्वादशं तथा 1
'मन्पूवं च सरोप्य'*? वदरीकण्टकांस्तया ॥३२।॥
पुता प्रतवस्तेण बद्ध.व। प्रादेशगर्भके* 1
इमशनाग्नो^ ° क्षिपेद्‌ ^< रात्रौ वि दाच्च कुक्कुटम्‌१५॥ ३३१
१. प्रतः परमयमपोऽदतोज्रयते घ, पृस्तके--
*एकाक्षरीविचय। च पएठाकर्था च विटय” ।
२. पुपणान्‌ † ३. ध. पृस्वस्के निम्नो दृष्यते
मंत्रित जुहयारमवौ धीरे वपि तथेव च 1
खम्ताहान्छान्विमाप्नोति ठमः सूर्योदयं दा ॥
४. घ जात्ती। ४५. ख. कारवेस्य०। प. कारदल्या० । ९, ख. पट्पिषा निडोजश्द।
घ. परदिव निम्बपत्रंश्च। ७, घ. पुस्वङ़े विरोषः पठः--
कटकान्ठो (न्ता)पयेदङ्नेश्राघगेषु पुत्रक ॥
चथ न्वेफष्ठ.॥ ६. इ. ग, ष. पुष्वषपु नात्ति १०. प. पृस्ठके नास्वि) ११.
घ. दक्षिणाभिमुखं प्पिष्वा। १२. ष. ग्प्रमनठोरदी। १३. प. रोपदेऽमग्व्रपूदंकम्‌ ।
१५. घ, दाद ‹ १५. घ. म्वा्‌ घमेष्य + १६. ष. गक । १७. प, एमपाने ।
१८. च. निक्षिपेद्‌ 1 १६. प. ठुक्कृटम्‌ 1
र एकोरनवशः पटलः {५९

श्ररमयंद' सिपोरद्खे नाडीशूलं भवेद्‌ धुवम्‌ ।
तेनैव दुःखितः शुः पक्षाद्‌ गच्छेद्‌ यमोलयम्‌ 1 २४॥
वक्ष्ये चोपसहारं जौवस्थोऽपि रिप "(वुर्‌) यथाग।
रवौ राघो बति दत्वा" चानी्वा साघकोत्तमः ॥३५॥
उत्पाट्य कण्टकान्यादी " क्षीरेण क्षालयेत्‌ सुत्त +
तच्छलाका" च^ संक्षाल्य निःक्षिपेत्‌ करूपमध्यगे ३६१
निक्षिपेन्‌ मन्पूवं च एकंकं चोत्तरामुखः€ 1
शस्वकरेनैव * " मल्वेण मन्वयेत्‌ कलशोदकम्‌ ॥\३७१
सहक्तवारं बिधिवन्‌+ मत्रेण, \ वारिभिः क्रमात्‌ ।
भ्रयोग +° पौडितं १२ तेन मारपेच्छाम्मवेन*२ तु ॥३८॥
स्थापयेत्‌^\ तेन मंत्रेण मन्प्रसिद्धिस्तु पुत्रक ।
तास्नपात्रे नदीतोये** नदीवेगाग्रवेष्दि्तः१= ॥२६॥
तस्मिश्च मन्धयेत्‌ साध्यं मन्त्रेणेव शतं तथा १९1
विकलं भ्रशयेत्तोय भध्याह्े माननं तया १।४०॥
शिदिनं चाथवा पञ्च ऋपिरसंस्यादिनेषु च*" १ ।
एवं इते पीडितस्य, '्पोडां सूर्योदये यथा२२ ॥४१।।
खहरेच्छान्तिमाप्नोति तमः सूर्योदये यथा”*४।
ने ज्ञात्वा चोपशंहार यः करोति नराघमः ।४२॥।
स॒ जीवन्नेव चाण्डोलो मूतः हवानो भविष्यति १५ ॥
प्रयोगं चोपसंहा रमभ्यसेच्चे कुमारक ॥४३॥
दति यञ्विद्ागमे सोह्पारनतनतर एकोनवि्ः२ ५ पठतः ५।९॥

१. ख. प्ररमर्पद । ध. प्रचये 1 २. ष.पिपु। ३.ष.ण्दा। भूप ददा।


५, ख, नीत्वा सा। घ. दानीत। €, घ, कण्टरान्‌ र्वा ७. ष. वलसटतु। म
घ. घोत्तर गुखम्‌। १०. ख. य. शाभवेनेव । घ. शातुवेशेन । ११. विविना। १२.
घ. मध्रित) १३. ख.घ. प्रयोग । १४. ध्‌. भुदितं ६ १५. घ. शानुवेन । १६.
ध. तयेत्‌ २७. ष. दोप । १८. ष. नदोवेयान्निवेखिततम्‌ ॥ १६. ध, मेवयेत्‌ षल्य
मत्रे शतवारं सदलकम्‌ १ २०. घ. का ॥ २१. ष. पूष्वरे विशेषः पराठः--
देवत शान्तिमानोहि तमःसूर्योदये यथा
२२. ष, तस्यं पीडा 1 २१. ष. शान्तिमाप्नोति निदितम्‌ { २४. षः पुस्तके नास्वि }
२६. ष. भिजायते २६. घ. एकोनविलतिमे 1
५४} प्यादनतम्धे

१ भ्रयः विशः परलः ॥


सर्वावयवशोमाढचा * समपीनपवोधराम्‌ ।
हृदि भावये देवी वला सवंसिद्धिदम्‌ ५१॥
स्कन्दः उधाच--

नमस्ते पार्वेतीनाय नमः पन्नगभूषण ।


करविद्ाभेदन च वगलायारच मै वद 11२॥
ईववर उवाच
मन्दार प्रवक्ष्यामि मन्वरसमेदनाविधिम्‌ ।
प्रयोग चोपरसहार श्णु सदं कुमारक ॥३))
उदरेत्तारमादौ तु स्दन्धमायां तततः परम्‌ 1
श्रौमयि शक्तिवाराह्‌ "वारभवं मन्मथं तथा'* ॥४॥।
वििचेत्ताक्षयेवीजः च वगलामुखी गसपरच्चरेत्‌ ।*
परप्रयोगमुच्चायं ग्रयुग्म (ततः परम्‌” ॥५॥
पूेवन्नवीज च ब््यास्म्रपदमुन्चरेत्‌ ।
रूपिएीपदमुच्चाये परवि्यापद ‹वदेत्‌ ॥\६॥
ग्रसनीति+* पद चोक्त्वा भक्षद्वितयमुच्चरेत्‌*+ ।
पूरवेवन्न वीज च प्रप्रजञापद वदेत्‌ ॥1७॥1
ह्यरिणौत्ति पद चोक्त्वा ज्ञाख्यात्ियुग वदेत्‌" ** 1
पूरव॑वन्नेववीज च स्तस्भनास्वपद वदेत्‌ ।1८॥
रूिणौपदमुच्चायं बुद्धि "वाचायुग वदेत्‌"*३ ।
पञ्चेन्द्रियपद चोक्त्वा ज्ञान भक्षद्य वदेत्‌ ॥६॥
पूर्ववन्नवबीज च बगलामुखि उच्चरेत्‌ 1
ह फट्‌ स्वाद्ध"सपायुकत वगसामयमृत्तमम्‌"** ।१०॥
दातोत्तर मत्रबीजमष्टाविश्षतिरेव च ॥*£
बरह्मा ऋषिश्च छन्दोऽस्य सयत्र समुदाहुतषा ५ ११॥
१, ध न्ोभास्या१ २. क. सवप्वे। ३. घ. करोञ्वभेदन। ४. घ्‌, वाराहं
दारभवं स्मर्‌। ५. ध. सतिखे* । ६ न्युखि॥ ७. ध. वोन्वरेत्‌। मथ
६. घ. ण्प्र्‌। १०. घ. गखतीति । ११. घ. भक्षद्रव०। १२, ष
वलोच्चरेत्‌ 1
रसां भर शयमृर्मक्म्‌ ) १३. घ, विना्ययुमपकम्‌ ॥ = १४. घ. प्वािचद्रवीकप'
भवयूत्तमम्‌ । १४. पदद्रयमिद नास्दि ध. पुश्वके४
शिक्तः एत. [ ५४

प्रविद्याभक्षण्णी च वग्रलम देवता स्वयम्‌ ।


परध भरयोमे वक्ष्यामि मत्स्यस्य कुमार्‌ ॥१२। ।
पाशाद्धु.दोना"तरितः शक्िवीजेन *विन्यसेत्‌ ।
शवत्तद्ागीश्वरोबोजेस्तदवच्छ
बौजतो न्यतेत्‌^ ॥ १३५
चधुषोढा च विन्यस्य क्रमादेव कुतेश्वगे ।
ध्यान यलनात्‌ प्रवक्ष्यामि ्टौञचभेदनकोविद ॥१४॥
सर्वेमन्पमयी देवी एर्वाकरपषंणकोरिणीम्‌ ।
सवेविवामक्षणी *च भगेऽह्‌ विधिपूर्वकम्‌ ।१५॥
एव ध्यात्वा जपेन्मतर लक्षमेकं क्षपाशनः 1
तपयेदासवेनैव तर्दशाश कुमारक ॥१६॥
छागमासेन जुहूयान्‌ मघ्वाज्येन* समन्वितम्‌ 1
खण्डमामलकप्रस्यमयुत* च कुमारक ॥ १७॥
योगिनी वौ रपूजां च ह्याचरेर्च समादरात्‌ ।
मधसिद्धिमेवेत्तत्र नात्र कार्या विचारणा ॥१८॥
प्र्रयोगकातेषु" मन्तरमेत* कुमारक ?
श्वदस्ततरितय जप्त्वा सं छतुरवक्तिष्यते ५१६१
शत्रवश्च पुरदचर्या यत्र कुर्वन्ति पुरर: ।
तत्रायुतं जप कुर्यात्‌ तत्र विध्न प्रजायते ॥२०॥
यत्र कुत्रापि रिषिवस्तपः कुर्वन्ति निर्वलात्‌
तत्रोयुूत जपेन्मन्च ग्रषते** परविद्यया+› ।२१।
भ्रयुत तस्य मन्तरन्तु** भ्रभिमत्य** फल भवेत्‌ ।
द्रव्यामिमानिनो येच येच विद्या्मिमानिनः॥२२॥
सूपाभिमानिनो ये च ये च\* पौवनमानिनः।
यत्र कुत्रापि तिष्ठति मधमेत कुमारकं ॥२३॥

१.१ दाक्तिवोजष। २. ष.
पततो नामीश्वरो चदच्छीदोजं च ठतो न्यत्‌ ४
३, न्ष. प, भक्षिी; ४. प, माष्वाश्येन। ६. ष, श्परस्यमयुत। ६, धु।
७, घ, ०्मेन्‌ । ६. घ, सदेखधितयान्‌ पुत्र ९. क.ग. निपत्रक। १०. ष प्रस्ते।
११. घ, दिपुविद्यपा। १२. च. मव्स्य । १३. ध" धस्निमत्य । १४. घ. नास्ति ।
५६1 साद्पापनतच्यरे
"^-^ ^~ ~~ ^-^

परविवामक्षणास्य› मगर चैवायुत जपेत्‌ ।


श्वेतवे शान्‌> समायाति दग्तशून्यो मवद्विपु" ॥२४॥
सद्यो यौवनहीन> तु* (तम सूर्योदय यथा" ।
रूपवेनि ब्रणयोगी च भवत्यव न सदय (॥२५॥
जात्यामिमानिनो ये च निन्दको भवति प्रुवम्‌'* ।
(तपोऽभिमानिनो ये च" प्रद्गहीनो विजायते ॥२६॥
वंदिक च परिप्यञ्य विपरोतङ्ृत* भवेत्‌ 1
विद्यामिमानिन सर््रे्ययुतत** जपमाचरेत्‌ !+ ॥२७॥
भवेद्धिदयाविह्ोनोऽपि मष्करै"* मवति ध्रुचम्‌ ।
देहामिमानी पुरुपो नष्टदेहो भवेद्‌ ध्रुवम ॥२९॥ १२
दीभेग्यिन समागुक्त ** सर्वं सम्माहन भवेत्‌ ।
एतन्म तस्यं माहासम्य न जार्नान्वि शटरपीस्वरा ॥२६॥
सवे स्व'१* देहज मह्य`^ स्वप्रमावत्‌+* अरकाशिनी ।
योपाभ्याषो*= योगसिद्धो १£ तस्वौ सत्यवादिन (३०॥
मत्रण^* सिद्धोऽत्तिदधोऽपि यन प्रप्यति** पृध्रक ।
परविद्याभदन च मघ्रोपासनतत्यर ॥६१॥
यत्र गत्वा समात्तीन एत"मन्वायूत जपत्‌ ।
योगसिद्धो मनसिद्धस्तपस्वी शतजीविन (त, )२* ।३२॥
महाक्रान्तोर* भवेतो चतिन्दकोऽपि भवेद ध्रुवम्‌ ।
ये यैर तन्मन्त्रं च निप्यमष्टोत्तर जपेत ॥५३३॥
एतद्राज्य सं मसिन"* ्रम्ब।सेवापरो*! मवत्‌ ।
त तत्वमधिको** भूयात्नव दषकरो भवत्‌ ।३४॥
घ नमहणायं। २ ष ष्वेत्केा ।॥ ३ ष श्टीन 1 ४ प च ॥
५ च भवत्य न षयः ६ प प्के नास्ति! ७ ष॒ नल्ठि ठ घ पिणायते।
९ च विपदतकमो१ १० घ सवं प्यवुत्ताज+ ११ ष जपमारुह\ १२
ष सूक्यो) १३ खल घ पृस्तकस्य पाटठोऽय विदोप --
द्रभ्याभिमानी पुष्पो नदद्रभ्योे मवेद्‌ घ्रुवम्‌
१४८ ष पमायुक्त । १५ ख स्व ॥ १६ प मोह १७ व स्वमकाशात
१८ घ योगाम्यसि। १९६ च योग्ठिदधि + २० ध यत्रेख। २१ ध दिष्टि)!
योगक्षिदस्तप
( ॥ समीपत 1
ष्वी च मवि २३ ख ग मदाना पो । ष्‌ पापा
सघ ए पे ष पद्रान्य च जना खवृं। २६ प दश्वा देषा१।

२७ ध ्समाविको।
एलः दरथः [ ५७

नैव सिन्दाकसो मृयाद्‌ दीच्छेये च (च्चेरस्व) जोविठम्‌'* ॥


॥ इति वरश्विचयागरे प्राच्यायनततन्ते विशतिः पटघ्ः ५२१५

11 अयादिः पटलः पए
परग्र्ोपसहायी °परगवग्रमेदिनीम्‌*"।*
परविद्याकपंणं * च प्रयोग वद शुद्धुर 1 १।।
ववर उवाच--
विर्चभेत्तद्धचिमय* षा मकछिदेगलामया"<
एत्व भासमाना" तां वगलां च कुमारक ५२॥
वाडमय चैव वैचिन्य ्रिषु लोकेषु वर्तते ।
तद्गवंहरणायं च विद्यामेतता कुमारक ॥(३॥
मना त जपन्मन्वः^ * मुख तस्यावलोशषयेत्‌ 1
भय च विस्मृतिश्रन्तिस्ततक्षणाद्‌ भवति ध्रुवम्‌ (४५1
प्रानपातर वेरिजिद्धुं गदा बूलेन सवुताम्‌ ।
पीतवर्णा मदापूर्मां चिन्तयेदानन रिपो. ॥५॥
सर तु भाषापतिः साक्षाद्‌ वृहुस्पतिरिव स्वयम्‌ ।
“घ तु जात्येतरो,* " भुत्वा निन्दिढठो भवति ध्रुवम्‌ ॥1६॥
भरस्व्रशस्यमय मन्त्र यो जानाति कुमारक ।
तत्र गत्वा महामन्म जपेहेवोमनन्यघीः१ १ 11७1)
तरिषह्र ध्यासयुक्त तस्य विया कुमारक {
विस्मृतिश्च सवेच्छीघ्र नात्र कार्या विचारणा ॥८॥
भ्रत्यन्तदवय्वेसयुक्तो *ग द्विपता*४ वर्तते" यदि)
तस्य गेहे" * मोमवारे निदि दस्मेने वुद्धिमान्‌ १९६५
१, ध, यदीच्येज्यीवनं भूदि? २, घ परविद्याश्रयोयन्नाम विशति) ३. ष.
प्र्ञापहरणी ॥ ४. घ. न्पमेदनी + >. ख. य. घ. पुस्वकेषु निम्नाणे विदेषः--
एरविद्यःमक्षिशी ता दग्रस ददि भदयत्‌ !
स्कद् (घ, छरेड्चमदन्‌). उवाच ॥
नमस्ते योगिसरसेग्य योधिराज नमो नमः)
६, घ. ग्कथसीव। ७. घ. भन्दद्तिमय} = ध॒ वन्दक्तिवंगलाह्वया। €, ख.
एतप्पमाषमाना । प. एकत्र भासमानो) १०. घ, च जतेन्मन्रः । ११. ष. प्रचो
जाडघतमो । १९. ध. अपेदभूदि० { १३. ध, ज्यु! १४. ख. द्विदिवो। ष.
द्विष्ठो) ९४ घ. चतय; १६. ष. गहं।
४५८] घा्यायनतन्वे
"~~~.
प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा दिधि कोवेरदिढ.मुखः ।
सहस्रं सप्तयो च नष्टद्रन्यो मवेद्‌ प्रुवम्‌ ॥१०॥
ग्राम चा नगरं वाय नित्य त्वा प्रदक्षिणम्‌ ।
जपेदयूतशस्या तु* तदुग्राम तु* कुमारकं ॥११॥
सस्यादिभिविनश्यन्ति दरव्य* चौरेण नश्यति ।
पशुभिर्रियते पश्र मासादोभाग्यमाप्नुयात्‌ । १२
फलिते पुष्पित चैव शत्रोराराममाधितः।
रवौ रात्रौ निशाकाले नग्नो भूत्वा सुनिश्चयः‹ ॥१३॥
भ्रदक्षिणघ्रय ृत्वाप्ययुत जपमा चरेत्‌ ।
वृक्षो निमूंलमाप्नोति शिवस्य वचन यथा ॥१४॥
एकाक्षरी च बगला साध्याल्य* मध्यदेशतः
चिन्तयेज्जाप्यकालेु" सहस्र" जपमाप्नुयात्‌€ ॥१५।।
लक्षं जप्त्वा मनोरेव मृत्तिका च कुमारक ।
प्रवाहोपरि नि.क्षिप्य नया उपरि वुद्धिमान्‌ ॥१६॥
स्तम्भयेत्त नदोवेग महदाश्चर्येकारणम्‌ ।
महानद्यमिवमेव कुर्यात्त “ गुरलाघवान्‌`* (1१७॥।
व्यालव्याघ्रादयदच॑व ये ये क
रमृगादयः ।
त्रिसप्तमन्तरित भस्म मृद्धं
नि क्षेपणमाततः ॥१०॥
वाक्पाणिवदनाक्ष्णा च! * तत्क्षणात्‌ स्तम्भन मवेत्‌ 1
मन््येत्‌ सस्छरृत भस्म मन्त्रेणानेन पूत्रक ॥१६॥
श्रष्टोत्तरशत सम्यक्‌ ष्यानमात्रेण +> बुद्धिमान्‌ !
सर्वाद्गोद्ध
लन कुर्यात्‌ तद्ध॒स्मना?* करमारक ५॥२०॥
वभेवशस्ताभसजन्तर्य वरोरन्युष्क्छ्टनदप्तक्ति ४८
प्रेताद्च^ प्मूताश्च १ऽपिशाचभूच रा.१ "विहारश्च सस्तमयति ध्रुव च*९।२१॥
१. ध. घन्रात्र । गरदा रत्रो। २.खन्ष-क ध ३. ष. । ४.घ. धन।
५. ध. श्वादि! ६ ष णु निरिचतम्‌ ६ ७. ख. सषाघ्वं । प. घाघ्यास्व । ८ ध"
न्कालतु। ६. खूप ०यषमाचरेत्‌ । १०४. कु्यातिद्‌। ११. प “लाघवात्‌!
१२.ष.च्ि। १३ ष. ष्यनपूवंसु॥ १९्ख तद्धस्मेन । १५. घ. बीरादि-
१६. घ रेतादव। १७. भूतानि । १८ मूचराश्च + १६.
दुष्कमकरा नर]रच 1
कषय चघ्वेम्‌।
दादिः पटलः [भ्र

एतन्मन्रवर पुय मनस्सा जपमाचरेत्‌ $


वादाथं चाय वाणिज्य सभाया राजसत्तिघौ 1\२२॥
मत्वा तु रिपवः सर्वे जिह्धस्तमनमराप्तुयात्‌ ।
श्वरमुदिरप मन्व च भ्रयुत प्रजपेत्ततः'१ ।२३॥)
पक्षमात्राद्‌ मवेच्धत्रोचिद्ास्तमगमाम्तुयात्‌ ।
तेतैव श्मियते श्नुरमण्डलाषेन* मानवः ॥२४
दक्षिणामूक्तमन्त्रेण मन्बित जलमादरत्‌ ।
धिका चेव पौत्वा तु मण्डलाच्छान्तिमान्नुयात्‌ (२५॥
ति वर्विश्वागमे स श्यतयनतन्ते शरूविशति- पटलः ॥२११

१ श्रथ वियः पटलः ।


नमस्ते देपदेवेशीं जिद्धास्तम्मनकारिणीम्‌ ।
पानपात्रगदायुच्छा मजेऽह्‌ वगलामुखीम्‌* 11१11
श्छन्द४ उपाच--
वरिपूररि भिलोककञस्विकावेाप्म पस्वियवक ।
वगजास्वर वदास्माकं प्मयि बात्सत्यगौरवात्‌'° ॥२५
दिवर्‌ उवाच--
वगलास्पभिद पुत्रः सुरासुरसुपूजित्म्‌ ।
भरगस्त्यः भोक्तवान्‌ पूवं राम दशरेधि प्रति ॥३॥
तेनोक्तमाञ्जनेयाय तेनोक्त चाजुन प्रति ।
तद्विया च प्रवक्ष्यामि वगलाहुदय `* मनुम्‌ ++ ५२॥
प्रथम वगलाबीज वाराह तदनन्तरम्‌+*
श्म शू स्वतः शक्िति'* 3 कग्रलादौजमुद्धरेत्‌ ॥1५॥
वभलामुिषद चोचस्वा "बात मुखः १* पद वदेत्‌ 1
ग्रसद्रय ४ च उच्चयं खाफीयुग्म^१ तत. परम्‌ 1६॥
१, घ.--श्राप्मुपाच्छन्‌
मुरिश्य तन्मत" प्रजपेत्ततः' ॥
२, रु. न्मद्लावेन। ३. घ. पएरदवियाक्पेए नाम एकर्विघ्तिः.। ४. प. वषा
भ्विकाम्‌। ५, प. फोचभेदन। ६. प. ग्कासज्त 1 ७. घ. मानवास्दल्यगोरवान्‌ ।
८. घ, दर्दर 1 ६, घ. मव १०. प, ववदाद्छनिद। ११. य. मदु ररः
भ. ठतः परम्‌+ १३. ध. वश्च छक्ठिकाराह। १४. प, ममप्रवु। १५.घ.
प्हयुम्मं ) १६. घ. साह्ियुग्म 1
६० ॥ स्वायनतम्ते

भक्षयुग्म ततोच्चायं शोणित पिव-युग्पकम्‌ 1


वगसलामुखि *उच्चयं *वगलानोजमुज्चरेत्‌ 2१1७1
श्वक्ति वाराहमुच्चायं वरमोस्व च समृद्धरेतू"* ।
श्रिचत्वारिचदरणेयुक्त'* वगल्लायाः^ सुपावनम्‌ ॥८॥
दर्वासा° ऋपिरेवाध्र" छन्दोऽनुष्टुप्‌ मवेच्युमम्‌९ 1
देव्ता वगलानाम्नो*°जगद्व्यापकखूपिणी 11६11
ग्लीं'* बीच द्धी च शक्ति्व फट्कार कोलक तथा 1
“मत्रराजेन देव्याश्च ** न्यासविद्या समाचरेत्‌ ॥१०॥
ध्यातमेद^° प्रवक्ष्यामि मन्व्रमेदेन पुश्रक 1
चतुमुंजा त्रिनयना पौनोन्नतपयोधराम्‌ ॥११॥
जिह्वा खद्ध पानपात्रं गदा धारयन्तो पराम्‌१४ ।
पीताम्बरस्य देवी पीतपुष्पे रनङ्कृताम्‌ ॥ १२।।
विम्बोष्ठौ चारुवदना मदापूणितलोचनाम्‌ ।
सरव॑विद्याकविणी च सर्वपरज्ञपहारिणोम्‌ ॥1१३॥।
भज्‌ चास्प्रवमला सर्वाकिषंणकमेसु 1
एव घ्यात्वा जपेन्मःव्र वाणलक्ष कुमारक ॥ १४1
तप्प॑येत्तदृशाश च जपासंमिश्नवारिणा१५ 1
तदश हुनेत्‌ पुत्र तालक चाज्यसयुतम्‌ *१ ॥ १५)
भगाकारे सुकुण्डेऽस्मिन्‌** मुद्रया हस'<वुद्धिमान्‌ ।
वदरोफलमात्र च प्राहुतीश्च कुमारक 11१६।1
बराह्यणान्‌ भोजयेत्‌ परचात्‌ सह शत्तमेव च ‡
योगिनीं पूजयेत्‌ पुत्र द्रव्यदयुदित्तमन्विताम्‌ ।1१७॥
मभ््रसिद्धिभवेत्‌ खयो ' £ देवता च प्रसीदति ।
दिवातये उपेन्मव्रमयुत च सुबुद्धिमान्‌ 1१८)

१. च. बगलामुखी 1 २. घ. घमुज्चायं । ३. ध~ तदृबीज च पुनवंरेत्‌ ॥ ४.


"दश्च चक्तिदाराहं वाण्हच छमुन्चरेत्‌” । ५. ध. ध्रयण्चत्वािपदणं । ६ घ बगला-
& घ एवच; १०. घ. वास्प्रदगता
स्प । ७.घ. दूरवा्ो। ८ प. श्रेवास्य।
११. घ. द्वी । १२ मघररजवदेवा त्र ¢ १३ पः प्यान यत्नात्‌ 1 ६४ चः श्विवाम्‌ ।
‌ । १५ पतु कुष्डे । १८. ष.
१५ घ. देदुः समिध । १६ घ वाल्प्य्चम्
हषीधुदख॥ ष. हषेण । १६ प- दस्य ॥
शदः पटल {९१

शवनुक्षय मवेत्‌ सद्यो नन्यथा छिवमादितम्‌ !


पट्दृस' जमेन्मन्व निशाया, चण्डिकालये ॥\१६॥
जिह्धास्तम्भनमात्नोति वृदस्प्नि्मोऽपि वा
(जपित्वा च" स्रहृन्ने तु मंरवस्य च सत्निघौ 1२०॥
बुद्धि्रषोमवेत्‌ सो बाणोपति्रमोऽपि वा 1
चीरमद्रालपि सूत्रमयत जपमाचरेत्‌ ५1२१
सिद्धिदो जायतते वस्स नान्यया लिवमाषणम्‌ 1२
मातुकसत्निषो मृती अपेद्‌ दशटस्कम्‌> \२२५
सद्यः स्तम्मनमाप्नोति बात्मोकिषदृशोऽ्पि का ।
ध्यानमूरवं"जपेन्मन्वो\ श्रयत च कुमारक ॥२३॥
रूपयोवनवाच्छनुरव्याधिमान्‌ ^मवति ध्रुवम्‌ ।
त्रि्हल*जपेन्मन्त्र चिखदृस्च दिने दिने ।1२४॥।
मण्डलाञ्चतरुसम्मोहं ९ कुदेरसदुकशोऽपि हे ।
देश्वयं नाशमप्नोति करुवेरऽदुशोश्पि वा ॥२५॥1
भिकालमयृतं जप्त्वा ध्यानपूवं सुवुद्धिमान्‌ ।
वगलाध्यानतो मन्व्रमयुत उपमाचरेत्‌ ॥२६11
सर्वाङ्ग" वायुना शतुः शोघ्न गच्छेद्‌ यमा्ञयम्‌^ ^ ॥
पावव॑त्तोन्निघौ स्री जपेदयृतमरादिशन्‌* * ॥२७॥
राघो पूजासमायु्धो नग्नो दक्षिणदिड मुखः 1
प्न्घो भवतति तच्छमरंरवस्य '> छरौञ्चमेदन ॥२८॥
विष्वराजं सममभ्यव्यं रो** तु जपमाचरेत्‌ 1
प्रिसदस्न जपेन्मन्मे कुक्षिरोमी भवेद्िपु ॥२६॥
मण्डलान्नाशसायाति लात कार्या'विचारणा 1
भरयोगान्ते च सत्कार पूजाकाले भ्रम।चरेत्‌ ।३०॥
ईति शोपद्बिद्ःपमे सास्पप्यनतवरे द्ादिशतिः पसः 11
१. ख. जपित्वाष्ट ! घ. उपेत्य २. घ. निवीर्यो काप्ठे चतुर्ना-रदाः धिकः
भाषितम्‌ { ३. ष. अब्टसदश्लकम्‌ । * घ. व्यानत्‌ पूवं" १ ३. ध. जपेन्मव । ६,
घ. न्व्याडितो ८७. ख. त्रिभ्य ध. विषम्यक ष ८, ख. जप्ठेमवं1 €. रग.
छन.घमूह्‌ 1 १५. स. प. वर्द्धं ! ११. य. यमग्र} १२. भ. श्दयुठरस्यया । १३.
च. तन्दवोमेष्टता द्‌] । टर. द. रात्रो!
६२ | पस्यापनतन्तरे
स^ ^~

1 श्रय जयोविश्ञः पटलः ॥


स्वणिहासनासीना सुम्दराद्धीं गुचिस्मिताम्‌ ॥
विम्बोष्ठ चाङ्नयना ध्यायेत्‌ पीनपयोधराम्‌ ॥१॥
कन्व) उवाच--
नमस्ताण्डवसश्द्राय तपित्रयहराय च।
वगलास्त्रमहामन्यैः भ्रयोगान्‌ वद शङ्कुर ॥२॥
शिव उवाच--
त्रिकाल तु समासीनो ध्यानपूर्वं" तु साधकः ।
त्रिसप्त मन्व्यित्वा तु जप पर्चात्‌ समाचरेत्‌ ॥३॥
नित्य च त्रिसहक्त' तु पण्मासख विजितेन्द्रियः ।
वाचासिद्धिर्भवेत्तस्य शापानुग्रहुकारका ५।(४॥
श्रस्वत्थमूले प्रजपेदयत ध्यानपूवंकम्‌ ।
क्षणाद्‌ व्याधिनायये च भवेदेव न सदयः ॥५॥
विभौतकतरोमूंलेश्रयत जपमाचरेत 1
जिह्धास्तम्भनमाप्नोति साक्षादरामीश्वरोऽपिवा ६1)
कपित्यवृक्षमूले*तु प्रजपेदमुत तथा ।
शचोत्रस्तम्भनमाप्नोत्ि सद्यो बधिरता ब्रजेत्‌ ॥७॥
पिचुमदतसोमूं सेऽप्ययुत जपमाचरेत ।
प्राणस्तम्भनमाप्नोत्ति* रोगौ पीनसवान्‌ भवेत्‌ ॥८॥
कदलीमूलमाधित्य भ्रयूत जपमाचरेत्‌ ।
पादस्तम्भो भवेत्‌ सद्यो वातरोगी भवेद्‌ रिपुः ॥६॥
करञ्ञमूलमाधित्याप्ययुत जपमाचरेत्‌ ।
स्तम्भयेञजठराग्नस्तु ग्रन्द्रेषो भवेद्‌ धुवम्‌ ॥१०॥
विषतिन्दुकमूल च समाधित्य मदु जपेत्‌ 1
श्रय॒तास्च< भवेत्‌ पूत्र गात्रस्तम्भनमाप्नुयात्‌ ॥११॥
नया समुद्रगामिन्या नाभिदघ्नजले" " स्थितः" * ।
तप्येद्‌ वगलास्येण ग्रस्त ृत्वारिनाम्‌** च ।\१२॥१
१. च. कौञ्वभेदन॥ २. ध. ईश्वर । देन ष.सु। ध. त्रिषदक्ते । ४.
॥ ०. ष, नदः +
क. ख. ग. न्कारकम्‌ । ६. घ. कपिस्यतद । ७. ष. घ्राएुस्त०
€, ब. नाभिमप्ते जते १ १०. मच नरः ११. ष. तड प्टिनाम।
श्रमोदिशषः वरः [ ६१

दिते दिने सदसतकंवगवाध्यानपूरवेकम्‌ }


गर्भाव मवरेत्तस्य भार्यायाः * धिवभापितम्‌ ॥१२।*
चल्लोपलाश्चमूने तु उपेदयुवसंश्या ।
मन्व्रमध्ये रिपोर्माप परस्तं कत्वा कुमारक ५१४॥
तर्पणं च दिवा कृत्वा राघो रत्रौ जपेन्मनुम्‌ इ
छापि वर्ध्या मवेत्‌ सत्यं नात्र कर्णा विचारणा ,१५।१
एमशाने प्रजपेन्मन्त्रं स्तं कृत्वा तु पूयवत्‌ 1
सयस्तद्ार्णानाक्ञं च भवेदेवं न संक्चयः ११६॥
सून्यागारे उपेदेवमयुते* ष्यानपूवंकम्‌ ९
सक्षमीरनाशियते नूनं" घ क्षभूरवशिष्यते ॥१७॥
जंबी रतदमूते तु भयुतं जपमाचरेत्‌ 1
“भमाद्भलङ्लं सवं मण्डलाप्रा्मप्टुयात्‌ ॥१८॥
शतवार मन्वितं चे शकेरोदकमेव च\ (
रिपूणां चैव दातव्यं जिह्धास्तम्भनमप्नुयात्‌ ॥१९॥
६ ते मन्तं चेव नारिकेलफलोदकंः ।
पाययेद्रातरिर्रिपुभिन्जिह्घास्तेभनमप्नुयात्‌ ॥५२०॥
भागवल्लीदल चैव क्रमुक चूरणेमेव च 1
सदसत मन्वत पुत्र दातव्यं शबर(तर्‌)गां निशि ॥२१॥
ताम्बूलचवंणाच्छसूजिह्वस्तंभन माप्नुयात्‌ 1
चन्दन चेव कस्तुरीघ्ित मन्वयेत्‌ सुत ॥र२ण
पुनङच मन््रयेत्ताञ्नपातरे गुणसदसेन्म्‌ 1
तच्चन्दनलेपनेनः रिपुर्ान्तो*“ भविष्यति ॥{२३॥
दन्तपावनकाष्ठ च मन्यत्‌ तरिषहलकम्‌ 1
सत्काष्ठेन रिपोः" पुत्र दन्तधावनमात्रतः ॥रेगा

१, कच. व. न्यदा; । २. श पृत्तक्ेऽय पाठे विक्तेदः--


उतो (वः) पवाक्षमूच तु भ्रजयेच्व परे दयम्‌ ।
३. घ. रात्रो तुप्र। ४. घ. जयेन्मव्० + ३४. घ. शोप 1 ६, ७. प. पृस्ठके नाल्वि!
८. ध. प्रा्येदर्रि) €, ध. श्वितेवेन। १०. घ, परिभ्रन्तो! ११. च, रिपुः
६] साख्यायनतण््र
[0]

जिह्वां वाणीं च बुद्धि च "मनः पादादिक'* तथा ।


स्तम्भनं च भवेच्छीघ्रं शिवस्य वचर्नं यया ।२५।
परेतवस्व रवौ ग्राह्यं वित्तिकाष्ठं च वेष्टयेत्‌ (
इमान निखनेद्‌ रावो त्रिषहस्र' जपेत्तदा> ।२६॥
शेपभायापतिः साक्षाद्‌ वृहस्वतिरपि स्वयम्‌ ।
जिह्वास्तम्भनमाप्नोत्ति सयो मुकत्वमाप्नुयात्‌ ॥२७॥
इति धद्विच्चाममे सा्ययनतन्परे त्रयोवि्तिः* पटलः ॥२३५
११ श्रथ चतुविश्चः पटलः 11
श्रम्बा पौताम्बराढचामरुणकुसुमगन्धानुलेपा त्रिनेत्रा,
गम्भीरा कम्बुकण्ठी कठिनक्रुचयुगा चारुिम्बाधरोष्ठीम्‌ ।
शब्रोभ्जिह्वासिपत्रः शरधनुसहिता व्यक्तगर्वाधिरूढा९,
देवी सस्तम्मरूपा सूविरलरसनामम्बिकां* तां भजामि ॥१॥
स्कन्द उवाच--
नमस्ते वृषभारूढ नमः पत्तगकद्धुण) * 1
लक्षण वद मे देव वगलामन्त्रमालिका*\ ॥२॥
ईश्वर उवार
भृगुवारे च परगृह्य ** श्रारामस्यनिशां तथा!१२ ।
(ता ुष्का”१* सप्तरात्र तु छ@रृ्वा मेतामनन्वरम्‌*** ॥३॥
भूत्ाविपरित^ * चेव कपिलागोमय तथा ।
पुनरेकाम्तर।दुप्राह्य ^“ भाण्डमध्ये तु नि.क्षिपेत ॥२॥
सविष जलसंयु्तः कुयन्मिलनमेव च ।
हरिद्रा तत्र निक्षिप्य पूजयेदाशरु तत्पमात्‌ ॥५॥
शरुह्वधोपरि च तद्धण्ड रवौ रात्रो च नि.क्षिपेत्‌ ।
ह्िगुण जलसयुक्त "न कु्यम्मिलनमेव च ।६॥
१. च. शुहपिपाछ्ामन। २, घ पुस्ठकस्योऽपं पाठो विदोणो हश्यते-
प्राणप्रतिष्ठा कृत्वा तु पूजा चव तु कार्येत्‌ ।
३. घ. जयन्मनुम्‌ 1 ४, ध॒ बगलास्त्रविवरण नाम नयोविपरति. 1 ५. प, रिवर ।
६. शुक्लगरवादिश्ठं 1 ७. ध. सृविरवस्तना० । ८, घ. नमामि। ९०१.
प्ौर्यभेदम। ६०. गमूषण। ११. ग्जपमालिकाम्‌ । १२. ष, सप्रह्य। १६. प.
प्रारामस्वासि्ं निष्ठि १४. ख. छायातुष्का + च. धायामुक॥१७. छः१५,.य. इत्वातु
पुनरेष कराद्‌
न्तरम्‌ ॥ १६ ख. भूमावपतिवं {घ मूमा(मग) दुपिव ।
श ॥ धः पुनरेकौत्ादपराह्य । १५८. ष जपसयृवतं }
चतुिक्लः पठलः [ ६४

भरश्वत्थेरिन्धतेरेव ज्वाला ष्वा सुवुद्धिमान्‌" 1
तस्या* मुदु भवेत्तावत्पचन सम्यगाचरेत्‌ 11७॥
गोमयस्था> हरिद्रा चक्षालयेद्रारिणार तत्तः1
छायायुष्क च करव्यं हदिद्रापणिमादरात्‌ 115)
तेन कु्यन्मिलिका च अष्टोत्तरर्तं चथा ।
पुष्यस्वीनिमित° सूत्र^ "मन्न: सच्छेदयेत्‌** पुनः ॥९॥1
उल्मालिकां रवौ वारेप्प्यमृतेनैव"” मार्जयेत्‌ ।
भरचेयेऽमुलमध्नेण पोडदरपचारकं. ॥१०॥
निवेदयेत्‌ पयस च शकंराज्यसमन्वितम्‌ ।
सख" प्रजपेदादौ'" पञ्चाशर्णमादसात्‌ ॥ १९1
(्ुकाक्षरीमहामन्वेवंयलानाभ्नि',* पावनैः ।
भरयुत प्रजपेत्‌ पुन मालिकासिद्धिमाम्तुयात्‌ ५॥१२॥
एव च म(लिका दुर्यान्‌ मत्रखिदिमवेक्षता१२॥
हरिद्ावस्वमाच्छाच सिद्धं जपमाचरेत्‌ ॥१३॥
हदिद्रामयपुष्प^ग च हृरिदरमयचन्दनम्‌ ११ 1
समपयेदलड.कृत्य** जप रात्रौ समाचरेत्‌ 1१४॥
देवी भूत्वा जपेदेवीमचयेदधिधिवद्यपा१९ ।
भमादान्‌ मालिक भमो पतित्ता चेत्‌ कुमारक ॥ १५।
पुनः पूजा श्रकतव्या पूरववज्जपमाचरेत्‌ ।
श्रथ चक्षय प्रयोगाश्च मालिकालक्षण तथा 1 १६॥
पञ्चक्विशतिभिमोक्ष.** सगं त्रिशत्तिरेव चः १५
वक्लीकरणष्ठमोहे ' *कला"खद्या सुमालिका"२०।।१७॥ २१
१. प. रणात्‌ प्रयत्नत. \ २ घ, यावन्‌ | ३. च, गौमवय। ४, ध लक्षोयेद्रा०)
५, घ, पुलः॥ ६. ल, पयस्वी । पः स्मरीनिन्ति। ७ घ. सूते। ८,घ.
एककं प्रषपेद्‌ । €. घ, राधो मूलेनैव ठु । १०. ध, च जपेच्ादो । ११. ष. एकाक्षर.
संहा केगलायाद्च 1 १२. प, ऽपरक्षिवा। १३. प. टदद्राबणुुष्य । ५. घ
हाचसंचन्दनम्‌ ) १४५. घ, समव्यं पूजनं इत्वा १६९. ष, ग्या । १७. च.
मोक्षा । १८. घ. धनार्थो त्रिश्देव च 1 १६. य. समोह । २० क. पुस्तके
ऽममरको नास्ति । २१. भरतः पर निम्नांणे पिदेषः प, घ. पुस्तकद्ये--
विदादृमिः स्ठम्मनं वियद्‌ दिना पञ्वमातिकाण।
६९ |] छांद्यापनतप्तरे
~~~
द्िपञ्चसप्तविशद्धि *उच्चाटे चाकंसख्यया ।
ज्वरे* रोगादिपीडायं पच चकं चतुरश ॥\१८॥
पञ्चाशच्छान्तिकमष््यि" बुद्धि च चतुरुत्तरे ।
पञ्वदशाभिचारे* च मालिकाक्रममी (ई]दयाः* ॥१६॥
भृगुवारे च खमृह्य* द्रव्याप्येवानि पुरक
(दर््रापद्धुज वस्तु कपूर मृगनाभि च** 11२०॥
श्रीखण्डरोचनागर-केसर? च समं समम्‌ ।
मरहयेन्‌मु
(दु)पत्ति प्रत्तः सत्येनैव कुमारक ॥२१५॥
तेन कुर्यात्‌ पृत्तली च चतुरङ्घ.लमानतः।
सर्वाद्ग सुन्दरो* * देवी द्विमुजा वगलामुलीम्‌ ॥२२॥
चित्रपौताम्बरघरा*' पोनोन्नतपयोधराम्‌
पौठवर्णा मदावूर्णामदधचन्द्रा च पृत्तलीम्‌ ॥२३॥
प्राणप्रतिष्ठा त्वा तु सस्नाप्य^ > विधिनाभ्मेकम्‌ 1
प्रखण्डतण्डुलेनंव हस्द्रक्षतमेव च ॥२४॥
छरत्वा एकाक्षरोमम्वेरक्षतान्‌ °मृद्धं
निनिक्षिपेत्‌ 1
नित्य चायुतपूजा च कुर्याच्चेव च पुत्रक ।॥२५॥1
देवी सम्यूजयेत्म्यक्‌ जपं कूर्यात्‌ सुबुद्धिमान्‌ ।१*
एव कृत्वा तत््वलक्ष देवो प्रस्यक्षतामियात्‌** ।२६॥
यत्‌ परस्मे** न वक्तव्य न ववतन्य कदाचन ।
एव पूजाविधि त्वा पुरा धुर्वाठसेन च** ॥२७॥
तस्वलक्षप्रमाणेन प्राप्त ्रन्योदिव फलम्‌**८ । ~
„__ ____ इति इति परवियमे
पडविद्ागमे सहपायनततरे
घांहपायनतेत्रे चतुधिशतिः*९
चितिः १९परतःपटलः ५।२४॥
११२५५ _
१. %. पस्दके "दविपज्च' दनः "सष्ठविरश्धि" पम्ड एव दर्ते + प. विदेश षष्ठ.
विराद्धिः । २. प. ज्वर ५ ३. प. °र्मषु 1. ४. च पज्वदद्ययनि०। ४,
०मोदृधम्‌ । ६. प. खप्राह्य। ७. ख. पुर्व निम्नोऽद पाठो विदेषः--
इ्रिद्रापद्ुज वस्तु" चन्दन कूमुमानि च।
कस्तूरी चंवक्पूर "कदरः मूगनानि च>
८. घ. मोरोचनमृ्ोर चष्छर। € ख. श्तुपवि प्रच । प. मदंपेमदिदायुग्ठ 1.१०. ष.
सुषा धसुन्दरी ) १. प. बपला दयधरः वंव। १२.प.-पत्यप्य ! १३.१. एकासदेपतेन।
१४. ध. परददय नास्ि। १४. प प्रत्यक्षम्नुयात्‌ 1 १६. प. यस्मे दस्मं । क)
ूर्वाठमीनिराद्‌.$ १८. प. प्रपोक्ड एदमासुपात्‌ । १९. प मात्रया नाम वतुदिखचि)
~न =
प, च. रक्व॑। 2. प. यीरष्ड चागङ वपा
पञ्चविदः एटषः [ ६७

{1 भ्रय पञ्चर्विज्णः पटलः ॥


समामि वगा देवी क्षतुवाकृस्तम्मरूपिणोम्‌ }
भजेद्‌ विधिपूर्वं च जय देहि रिपून्‌ दह ५१५
श्कन्व^ उषार--

नमः केलाश्चनायायः नमस्ते मृनितेवितः ।


चतुरक्षरीमहामन्व वगलायाश्व मे वद 1२५
ह्वर उवाच--
सप्तकोदिमहामन्वै मेन्त्रराजमिम* भ्यणु।
षटुप्रयोगैः स्तमन च सवकर्मोत्तमोत्तमम्‌ \॥३॥
यदे शवरूभयोत्पन्न " तदानीमेव पूत्रक 1
भयुत्त च जपेन्मन्त्र वगरलाचतुरक्षरम्‌* ॥\४
मन्वोद्धार प्रवक्ष्यामि स्यासघ्यानादिक तपा ।
प्रयोग चोपसरहार वक्षयेऽह्‌ तवे युवक ॥५॥।
वेदादि विलिखेत्‌ पुवं पाशबीज. ततः परम्‌ ।
स्तन्धमाया तततोच्चायं भकुश वोजमेव च ॥६ा॥
पतुरक्चरी च वलां स्वमन्वोत्तमोत्तमाम्‌ ।
श्यासविदया अवक्ष्यामि मन्रमेदेन पुत्रक ७}
पाधा कुशान्तरितशक्तिरमा च तद्र
ततद्वग्न्यसेन्मदनवीजमयो वराहम्‌ ।
वागोष्वरीं च वगलाल्यसुबोज राज,
व्यस्तता करयुगे हदयादिकेषु ॥५॥
च्रतुरव॑णाचमिके" मन्वे<मातृकावीजपूरंकम्‌ ।
प्रत्येक च भ्यतेत्‌ पत्र मन्त्रसिद्धिमवाप्तुयात्‌ ॥६॥
श्थवा वगलामन्व सरवेरङ्ग -लिभिरन्यसेत्‌१* ।
ततो जपेन्मस्रराज वगलाचतुरक्षरम्‌ ** ५॥१०॥
ब्रह्मा ऋषि दन्दो त्र गायत्री घमुदाहूतम्‌ ।
देवता वगलानाम्नौ ध्यान वक्ष्ये कुमारक ॥११॥
१, घ. कौञ्वभेदन ( २. घ. कंलखदाखाय। ३. ध. मोनिबेवित। ५, घ.
पतुररीमहाभरन । ४, प. णमिद। ६ घ. मय प्राप्ठ 1 ७, घ. वर्ना उतुरषरीं ४
८- घ. घ. चतुवणाम्मक 2 ६. ख, प. मत १०. प, पर्गुचीपु न्यदत्तपा $ ११.
ध, ऽघतुरहरीम्‌ 1
६८ ] घास्फयनतस्ते
~
कुटिलालकषंयु्ा* मदापूगितलोचनाम्‌ 1
मदि रामोदवदना ्रवालपदृशाषराम्‌* ॥१२॥
सुव्णशंलसुप्रस्यकठिनस्तनमण्डलामू> ॥
दक्लिणावत्तसन्नामिसृक्षममव्यमसयुताम्‌ ॥१३।४

रम्भोरपादपन्ना तां पीतवस्तरस्मावृताम्‌ ।


एवे ध्यात्वा महादेवी कुपन्जिवभतद्धितः ॥१४॥
वेदलक्ष जपं कुर्यात्‌ पवंताग्र कुमारक ।
"भिक्षाशिनः फलाश्ञीनो** मौनी भूत्वा समाहितः ॥१५॥
तप्पेण च दिवा कुर्याद्‌ रात्रौ वा प्रजपेन्मनुम्‌ ।
एव कुर्यात्‌ पुरश्चर्यां देवौ प्रतयक्षमाप्नुयात्‌ ५ १६॥
रात्रौ होमं च कर्तव्यं दिवः ब्राह्मणभोजनम्‌ ।
हचि वस्वसयुक्त' हृरिद्ावणं घन्दनम्‌ ॥ १७१४
हरिद्रा चाक्षमाला च'* द पव्णेदेवताम्‌ ।
स्मरेच्च जपकाले तु सर्वसिद्धिकर नृणाम्‌ ॥१८॥1
मूकपुष्पसमिश्चमचितेन जलेन वा 1
तेण तदश च देवताग्रदंनिनि.क्षिपेत्‌ ॥ १९१
भ्ाज्येन मिश्चितं चैव दाकंरापायदं नेत्‌ 1
पूर्णाहुत्यन्तमनघ^ ब्राह्मणान्‌ भोजयेत्‌ ततः।। २०॥
योगिनी पूजयेत्‌ पश्चाद्‌ द्रव्ययुद्धिषठमन्वितः।
मन्त्रसिद्धिभवेत्तस्य नात्र कार्या विचारणा ॥२९१॥
श्रादौ मास्वररूपिणी* कुरु तदा सद्रशजार योगिनी,
नानालक्षणसयुता कुचमरा प्रौढा नवोढा तयो ।
स्ता (स्ता) ताम्यजनमूषयेस्च सहिता सच्चन्दनं ° लपिता,
पूजागारमूपानयेद्रहसि सा^ ्र्यैर्च गुद्धचा रह" १॥र२॥

१. ष, कटितोनक्घयृ्ठां ४ २. प. श्पदयमू्‌ ) १६. प. युक्णंक्लद०1 ४१,


मिक्षाप्षी च कफवाशीच।
५. घ. हद्द्रिया क्षमा माला। ६. ख. मनप । प, मनना॥
७. ख, भासकर०॥ घ. भापर 1 ८. ध. घम्जाठ्। ९. सङ्चन्दनं। १०.
तां ध. षद्‌ ११. उ.प. चठ)
पर्खदिद्यः पटलः [ ६६

लीक्तिके" चैव गुप्ताय सौमग्वार्चा कुमारक +*


"मन्यरत्िद्धिक्रं वक्ष्ये गोपनं कुर सवदा" ॥२३॥
श्ङ्गमयेण संयुक्त सोकिका्च॑नमेव च ।
चतुरगुलसंयुक्ता* गुप्तपुजा कुमारृक (1२४।।४
सौमाग्यार्चाविधिदचेव रपञ्वाङ्खोपासनं मुवि ।
मोपिद्मुच्िव्ययुक्त°लौफिका्च॑नमे च ॥ २५१०
योपिच्चुदिदरव्यपूजा पञ्चमोयुतमादरात्‌ ।
एतत्सौमाग्यपूजा च मुनिगृद्यमूपासनम्‌ः ॥२६॥
विन्दुपाघ्रयुता पूजा निमुणा योगिनां मतम्‌?“ }
एतच्चतुिघा पर्या!" देश्चनामाेनाविषिः)* ॥२७॥
वक्षयेऽं * ° विधिवल्यु् न देयं यस्य कस्यधित्‌ 1
सृष्टिः स्थित्िवच संहारं जीवन्मुक्तपदं ** तया ॥२८॥
एतदर्वाविधिर्नामिसकेत मुनिमिः*‡ सह 1
सृष्टिश्च गीढदेेपु+ ९ स्थितिः केरलदेशके ॥1२६॥
संहयार्वा कामरूपे "कुश्पाञ्चालयोः परम्‌*५* ।
पीठोपरि समावेश्य र्भकोलागमक्रमात्‌ १८ ॥॥३०॥1
भर्चन*< गौडदेशोयं ^“ सृष्टिपूजाकमस्त्वयम्‌ 1
पूरवोष्ठलक्षणोपेतां मृदुपय्यं दकः" तथा १३१
शयनीक्ृत्य कन्या१* च स्थित्यचक्रिममादरात्‌*> {
केरले तु स्थित्तिश्वैव खिदढघसिद्धिकसे** तथा ॥३२्‌॥
कौलसारं च तन्नाम सवंमन्पोत्तमोत्तमम्‌ ।
पूरवोक्तिलक्षणोपेत्तास्तिष्ठम्ति कन्यका मुवि 1३३।
१, घः लोक्रिकी । २. भरत. परं निम्नाथोऽय व. पृस्तक एव दश्यते--
रवं त्रिविधप्रूजो व भुनिगृह्य सुपावनं ॥
एककस्य च पूजाया लक्षणा कथ्यते सुतं ॥
३. पादय ष, पुस्तके नास्ति 1 ४. घ. चतुरद्धसमायुक्ठा ॥ ५. दलोकोऽयं ग, पुस्तके
नास्ति । ६ ष. घ, विधि चैव! ७. ध. योपिवुदुद्धि} ¢. भ्रतः पर निम्नो ष.
पुस्वकं एवाऽवन्नोपत्ते-- ति
योपिच्च.दिद्रन्यप्‌जा सुगुष्वाचेनमादरात्‌ 1
९ ष. भुनिगुन्त भपावनम्‌ ¶ १०. ध. मता! ११. थ. चर्व । १२. य्‌. श्यामाकं ३
१३. प. द्‌) १४. घ्‌. ग्युवतं पद । १४५, घ. योनिमिः। १६. ध. देवे तु 0
1 घे,
कौलिकारवो (वा, चार) तस्वराष्‌ ॥ १८, व. भर्गकोलायम०। १६. क. मोषं । ध.
अर्चना २०. ध. मोडदेशीय! २१. फ. मृत्यु । २२. भध, एयनीहृतकन्या 1
२३. घ. स्थित्य्चामच्यं ० २४, ख. थ सच दिद्दक्र ॥
७० ] षाष्यायनतश््रे
4
कामरूपास्यदेदच तु संहाराह्यपूजनम्‌ ।
ूर्वोक्तलक्षणोपेता कृत्व।म्यञ्जनमादरात्‌ 11३४॥
बिन्दुमात्रं! गृहीत्वा तु कृत्वा मुक्त्यचंनं°भूवि 1
वुरुपाञ्चालदेशोयमनिशं °पूजनं तथा ॥३५॥
कौलसारपर* नाम चागमं नवि" दुर्लभम्‌
सम्यक्‌ पूजाविधिश््च॑व उपसहूतमानसः* ॥२६॥1
पञ्चमी चव कत्तव्या सौख्याय तस्य पुत्रक ।
पानं चैव समापसेनः* जपध्यानखमन्वितः ॥ ३७॥
देवो भूत्वा स्वयं पुत्र पञ्चमी च समाचरेत्‌ ।
स हारार्चनयोरेवमूपसं
हत्य पूजनम्‌ 1३८1]
सम्पूजयेत्‌<पञ्चमी चव सौर्यां तस्य साधकः ।
श्रादौ मघ्ये तथा चान्ते विन्दुपा्रा्ंमेव›* च ॥३६॥
शरच॑येत्‌ पञ्चमी कुर्याद्‌ ग्रहणे चद्रमूर्थ्ययोः 1
कुरपाञ्व.लदेदोऽय'^ निग्गुंणाच्वाविधिस्तया ॥(४०॥
एतदर्च्वाविधिश्चैव दुर्लं भो"* विधिशद्धरेः१> ।
गौडदेशा्चंन पुमा श्चान्तिपुष्टिकर्‌१* सदा ।॥४१॥
एवमेव विधिः पूत्र घर्वेश्वयेभ्रदायकः ।
कामख्पाचेन पुसा मारणविप्रयोगदा** [४२
कुस्पाञ्चालदेशाच्चां छवे्तिद्धिप्रदा षदा +^
एतदरच्चाविधि चेव य. कराति सवुद्धिमान्‌ ।(४३॥
जीवम्मुक्तः स एवात स सिद्धो नात संशयः।
नारीनिन्दा न कर्तव्या स्वपादस्तां न ^" सस्पृरेत्‌** ॥॥४४॥
नारी हृप्ट्वा मानसेन वन्दन च समाचरेत्‌ ।
स्वप्रियामर्च्चयेत्‌ पुव प्रिया पञ्चमिका चरेत्‌ ॥४५।।१*
१. घ, दिषदुपात्र + २. गुष्ठाचन। ३.ष- ष्देयोतु भनिश्य। ४, प. ्सास्वर।॥
भ्यस््वोमयोदेते।
४. प.धुचि । ६, ख. जपषहूत० । प. उपसपेदत्यघापकः। ७, ध. स्यासं
दिनदुप्रत्यथं०। १०१
८. घ, यहपराचनयोय च उप० 1 €, पूजयत्‌ १ १०. प.
घु। १२. घ. दुस्तंभम्‌ । १३. प. नुवि पय्युत॥ ण्य. पुष्टिकरि वधा । १.
एादि
रणादित्ररोगदम्‌। वि
घ. मारखरदिप्रयायदरत्‌ ८ . प्तक नाध्ठि।
१६. पदयुग्म घ. पृषत
५ र. सवपादोताच। १८. प. स्पृरोत्‌। १६. श्तोकोय नारस्वि प. पुस्तके ।
पद्दिश्च पटल [५१

स्व्रियाविन्दुषातर* च गृहोत्वा साघकोत्तम »।


अषह्यनाच॑न त्वा विष्दुपान तथैव च ५४६]
उन्मादो च मवेत्‌ पुत्र मृत श्वानो भदिष्यति ।
॥1 इति पटविद्यागते पाह्यायनतस्त्र पञ्चविशति > पटल ।॥। २५॥
14 श्रय षड्विन्न पटल. ॥
जात्तवेदमये* देवि* जगञ्जननकादिणि९ 1
जय पीताम्बरघरे° "वगलायं नमो नम. ॥१॥
स्कष्द€उवाच--
नमस्ते सिद्धसपतेव्य सिडपियाघरा्िते ।
चगरलाचतुरक्र्मा प्रपोगर वद शद्धुर ।२॥
किव +" उवाच--
श्रयोगर तपण पैव › वक्षयऽह तव पुरक 1
तर्यंण देवततावास तवंण यत्रसिदधिदम्‌१* ॥३॥
तपण मन्यसस्कार सवं तत्तपणाद मवेत्‌
सपण द्रभ्ययोग च तत "> सिद्धिनं सशयः ॥४।।
धून कलशे चैव क।शमण्डलवजित्तम्‌१* {
गृहीत्वा क्षालयेत्‌ सम्यङ्‌ पूजयन्मूनमन्धत ** ॥५॥
तज्जल च समानीय पूजयेत भुसमाहित ।
भ्रापो वा इति म^तेण मन्वयेत्तज्येल पुन ।६॥
उपचारे पोडशमि धूजयेत्‌ कुम्भमादरति !
तत्पविक्रण सयृक्त तप्पंणस्यामुपतेने च ।७॥१
तेनोक्तविधिना सम्यक पूजन तदुदाहूतम्‌ ।
काकोनूकच्चदेनेव ^९ पिर प्रन्थिमादरात्‌ ।५॥
तत्पविश्रण सयुक्त तपणस्यायुतेन,* च ।
वे्ररोमी मवेच्छनुदिवान्धो जाये ध्रुवम्‌ ॥६॥
१, ध स्वस्िया०। २, ख स्ाषकोत्तमं । ३. घ, पूजाप्रकरण नाम०। ४३,
६७ घ पुस्तके द्वितीयात पाठ ॥ < घ" बेगलाम्ब नमाम्यहम्‌ ) € शछरौचिमदन
१५ घ श्वर ११ घं त्पणाख्यप्रयोग्रच। १२ ध, मतसिद्धिद। १३ धर
ठच्च । १४ घ कालमण्डत०। १५ ध मूलविचया! १६ घः कारोतृकुचदाम्पो
छ} १७ व पपएनायृतेनि च!
७२] साष्यापनत्न्तर
--^~-~~~~---~--~~~~~-~--~~~

काकपत्रेण सयुक्त+पवित्रगनन्थिमादरत्‌ ।
तेनैव सह सन्तव्यं श्रय्युत साधकोत्तमः 1१०
काकवद्‌ श्रमते शनुमंहीमामरणान्तिकम्‌> 1
काकोलूकस्य प्लाभ्यभमेकोछृत्वाग सुवुद्धिमान्‌ ॥११॥
कृत्वा पविनुग्रल्यि च तेन सन्तप्यं चादरात्‌* ।
ग्रयुत बगलामन्तरैः शनुविद्रेपणं भवेत्‌ ॥१२॥४
विड्वराहमजारोमेः« पविनग्रन्थिमादरात्‌ ।
त्ैवेदयुत तेन^ वगलापतुरक्षरः ॥१३॥
भ्रन्न्धेपो* जायते च स शनुरवपिष्यते ।
केद्य च कलशस्य च पविनग्रन्िमादरात्‌- १११४४
भ्रयुत तपेणेनेव छ रघ्रोर्नाश्न'<”मवेत्‌ ।
उष्टूरोमेण कृत्वा तु पविवरग्रम्रेव च ॥ १५५
तेनायुते तपंणेन मुको भवतति पण्डितः ।
पूवेवद्वाजिरोमेण त्तपेण च कुमारक ।।१६॥
हिक्वारोगो भवेत्तस्य +“ शीघ्र *\ श्रान्तो मविष्यति।
खररक्तेन समिधमित जलत्पंणात्‌** ॥ १७)
जिह्घास्तभो भवत्येव वाणीपतिक्मोऽपि वा ।
श्वानरवतेन समिश्रमचित युभवारिणा ॥१८॥ १२
भ्रयुत ** तर्पणाप्पुत्र+* उन्मादी जायते रिपुः ।
काकरवतेन सम्मिधमदित शुद्धवारिणा ।{ १६॥
भ्रयुत तर्पगालुत्र काकवद्‌ भ्रमते महीम्‌ ।
उलूकरच्घमिधमवचित धुभवारिणा ॥२०॥
सिषुरन्धरे भ्ठ पय अधुल्ज्छ न उठायः १
मारजारिबालरव्तेन मिधित्ताञ्जलतर्पृण।त्‌ "‹ ॥२१॥

१.४. कुत्वा तु 1 २. प. ०पराठरंणान्विकम्‌ । ३. प, एकोकृव्य तु 1 ४ प.


बुद्धिमान्‌ । ५. च. गृघ्वाराहये्लोमिः। ६. घ. चंव। ७. ख. भरव्यद्रपो 1 प,
अन्तदरंपो। ८, घ. माचरेत्‌ ॥ €. घ, स्वथक्त्या० । १०. ध. मदेच्छीघ्र 1 ११.
ध. रिदुर्‌। १२- च. गुदवादिरा १ १३. प. पुष्ठकेक्य दलोको नास्ति! ६४. षः
श्रयुात्‌ १५. प. ठर्षयेत्‌ पुत्र । १६. घ. मिधित जत्ततपंणम्‌ ।
सप्तारकतः परः | ५३

भ्रान्तचित्तो भवेच्छतरुरयुताच्च न सशयः ।


विडूवराहस्य * रक्तेन मिधित्त.जलत्तपणम्‌ ॥२२॥
उन्मादो च भवेच्छघ्रुरगुतादेव पूरक ।
लुल।यरक्तसम्मिश्र
जतेनैव तु तपृणम्‌ ॥२३॥
भयुतादरिगवं तु"* रूकत्वे कुरुते नृणाम्‌ ।
भुजङ्खरक्तसमिश्चजलेनेव तु तपंणम्‌* ।1२९॥
शद्रूणां मरणा पृच्र भयूतास्च न सशयः 1
छागरक्तेन पमिश्नमचितेन जलेन च ॥२५६॥
तपणेनायुतेनैव ब्रणरोगी भवेद्धिपुः ।
शदकस्य तु रकन (मिध्चितेने जलेन च" ।२६॥
क्षयरोगो “भवेन्मर्योभ््ययुवाच्चा\ न घश्चयः}
मल्करुणस्य च "रक्तन मिधितेन जलेन च ।२७॥
" श्रयुतात्तस्य शताश्च भ्वेन्मरणमुत्तमम्‌ ।
मेपस्य पुच्छरक्न 'भिधितेन जलेन च ॥२८॥
प्रयुताज्ज्वररोगी* च जायते ततक्षणाद्धिपु. ।
द्रव्येमैव च खमिभमवितं जलठपंणम्‌?* ५२६॥
भयूताच्चिन्तित कायं भवत्येव न सशयः ।
एतत्तपेणयोग च सिद्धात्‌ सिद्धतर सुत ॥३०।४
न वक्तव्यं न वक्तन्यं त वक्तन्य कदाचन ॥1
इति वडदिद्यागमे सांख्यायनतश्रे वड्श्षः+ १ पटः ॥२६॥
११ श्रय सप्तदिश्लः फटलः ४
नानालङ्ुरलोमाढ्या नस्नारायणव्रियाम्‌ 1
वन्देऽहं बगला देवीं परबरह्य षिदेवतताम्‌ ॥१॥
स्कन्द १२ उदग्च--
बन्दे पाञुपताध्यक्च १२भानन्दविग्रहु ।
वद होम्रयोगं च वग्लाचतुरक्षरंः ॥२॥
१, ध. विद्वरादेए । _ २. ष. °परयुतान्दंव । ३, घ भयुदक्षिख पञ्च १ ४.
ध, सपात्‌ । ५. घ. मिधित जवत्पणम्‌ ! ६- घ. भवेच्छतुरयुतात्‌ । ७. घ. भिधितं
जसवशणम्‌ ‡ ८,प. मिधिव जलतपंणम्‌ ) ६. घ. भयुदाच्वमेरोणी 1 १०, प, पुस्तके
पाठोऽय विदेषः-- नररतेन उमिथमविति जनक्पणम्‌ {
११, घ. चतुरक्षरीदपेण प्रयोगं नाम पड्िशति । १२. घ. फ्तोर्चमेदने ।
७४ | स्यायनत्णये
~

त्चिव उयाच"--
वक्ष्ये होमविधि सम्यक्‌ सावधानेन श्रूयताम्‌ ।
श्रयत पुत्र होम" च पिचुमदफेहुनेत्‌ ।\६॥
भ्रयत्ताच्छनुसदाये भ्नानतभीतो* भवेद्‌ धुवम्‌ ।
करवीराणि रक्तानि"* भ्रयुत चाज्यसयृतम्‌ ॥४॥
हनत्‌ व्रिकोणङ्कण्डे तु प्रयुताद्‌* रिपुमारणम्‌ ।
विपतिन्दुकबीज च सोवौरद्वसयुतम्‌ ॥५।॥२
प्राममध्ये हुनेन्‌ मन्ौ भगाकारे च कुण्डके ।
तदु्रामे वेदशास्थापि सवं विस्मृतिमाप्नुयात्‌ ॥1६॥
शेपभावापतिप्रद्यः* "स एव जडतामियात्‌”= ।
वटमूल समाश्रित्य कृत्वा कुण्ड चिक्रोणकम्‌ ॥७॥
तत्फलेन नेद्‌ रात्रो प्रयुत चज्यमिध्रित ।
भापापत्तिसमो विद्रास्तत््षणाद्‌ भ्रान्तिमाप्नुयात्‌ ॥८॥
, मश्वप्यमूलमाधित्य पट्कोणाक़ृतिकुण्डके ।
तत्फल च हुनेद्‌ रात्रीः श्रयुत चाज्यमिधितम्‌ ॥६॥
स्फोटक्त्रणसयुकतो श्रिते यमद्यासनात्‌*^ * 1
उदुम्बरस्य › मूले तु षट्‌्कोणाकृतिकुण्डके ॥१०॥
कोमल तत्फल सम्यगृत चाज्यमिधितम्‌ ।
जुहुयाद्रजकस्याग्नौ जुहुयादक्षिणामुख ** ॥११॥
ग्राम वा नगर वाय रण राजकुल (तु वा^१२॥
नाडीत्रणसमायुक्तो नानादु सेन पुत्रक ॥१२॥
नियते “न च"१४ सन्देहो नाध्र कार्या विचारणा ।
राजवृक्ष समाध्ित्यं तःमूले च कुमारकं ॥१३॥

१. ध. ईदवर। २. होमाच्‌ । ३. घ. स्नान्तचित्तो।॥ ४. प. हयारिरक्त-


कुसूमैः। ५ घ. तत्क्षणाद्‌ । ६ ख वष. पुस्तके विश्चेषोऽय पाठ --
॥ श्रुत जुहूयानमवी तत््षणाद्विपुमारणम्‌ ॥
पलादागीचमयुच तिलतंलेन सयुतम्‌ 1
७ ध श्प्रष्या। ८. घ उवं विस्मृतिमाप्नुयात्‌। € ध. पुत्र 1 १० घ, मारक

भवति प्रवम्‌ ११. घ भरदुम्बरस्य। र ष नमनो दक्षिणदिद्ुल । १३ ष.


तथा । १४ घन्नात्र।
सप्तर्वि्; पटलः 18 1

हस्तमात्रं मगाक्रारं कुण्डं कुर्याद्‌ विचक्षणः 1


तत्फलं निम्बतेचेन मिधितें निरि बुद्धिमान्‌ ।९४॥
नैायुतं इनेद्‌ मान्‌ ग्राम-वा नगरं तथा ।
स्फोटकरत्रणसंयूक्तो इस्तपादादि क्रन्त ॥१६॥
पर्यायात्‌ च्चियते चेव, नात्र कार्यां विचारणा ।
सर्येपं लवणं चव तिलतैलेन भिश्तिठम्‌ ॥ १६॥
श्रयुतं जुहयान्मन््ी ज्वररोगो मवेद्विुः ।
पिचनुमदस्य* तैेन भिधितं लवण तया ॥१७॥।
हनेस्च°पूर्ववत्‌ कुण्डे ्रयुत प्रेतपावके
कुष्ठरोगी भवेच्छत्र्ियते तेने निदिचतम्‌ ॥१८॥

शमीमूते हुनेत्पुतर शरणु वस्यामि त्त्फन्म्‌** ।


तित्तेसेन सभ्मिश्र^ तत्फलं निति पुप्रक ॥१६॥४
जुहयान्नःक्षणात्‌ पुत्र “णु वकष्पामि'^ तत्फलम्‌ ।
वातरोगी भवेच्छनूश्िपते नात्र सशयः १२०॥
परपामामगंस्य वीजं तु तित्तेतेन भिधरि्म्‌ ।
शमोमूले हुनेवयुव श्रयुतं ध्यानपूवंकम्‌ ॥२१॥
त्स्याः खवुमार्याशचे, तदगृहं तत्र योदितः।
कर्ध्याः स्वयो भवेयुश्च सदयमेव शिवोदितम्‌ )२२॥
शषमोमूलं चमाभिष्य {शताद्‌ च पमातः^ ।
तिलतंलेन समिश्रं जुहयादयुत तथा ५२३१
्रेताग्नौ रजकाग्नौ वा पूर्वो व्चंव कुण्डके 1
वैरिस्त्रीणां मवेत्‌ सद्यः वद्र +" निर्तरम्‌ ^° ॥२४॥
तिलतेसेन संमिश्वं शलाटु^° शत्मलौभवम्‌** {
पूवंवस्च हुमेत्‌ पु मेहरोगी`* मवेद्रिपुः ॥२५॥

१. ध. क्र; २. पे, पिनुमदेन । ३, प. नेतु ) ४. ख. ग. घ, पमाकृ


तु कुण्डके । ५... -सयुक्त'1 ६. ध. दक्ष्यामि श्यृणु ६ ७. प. -प्ममेतच्‌ । ८. घ.
छादुनलस्य च माघतः।! ६. प.खयो1 १०. च. वा यद्रक्तं । ११. घ, सुनिरिषत्रम्‌ )
१२, ष. ससूव । १३. प. ०मवेत्‌ । १४. च. महदरोगी
७६ | पस्यायनतन्व
---------------------------------------------
~
एव होमप्रयोग च रत्र कुर्यात्‌ कुमारक ।
श्रयोग चोपसहार सल्युत्राथापि नो वदेत्‌ * ॥२६॥*
इति पड्विद्याने साख्यायनतत्रे सप्तविशति > पटल ॥२७॥

॥ श्रयाष्टाविशशतिः पटल ॥
वालभानुप्रतौकाशार नोलकोमलक्ुन्तलाम्‌* ।
वण्देऽह बगला देवी स्तम्भनास्त्रस्वरूपिणीम्‌ ।॥ १
स्कन्द उदाच--५
विश्वनाथ नमस्तेऽस्तु विरूपाक्ष नमो नमः ।
सुगम" स्तम्भविद्याया प्रयोग वद शद्धुर ।॥२॥
श्रियम उबाच--
वगरलाहूदय मनर गुप्नगुप्ततर°तथा ।
एतच्छुवणमात्रेण म्रसिद्धिमवाप्नुयात्‌ ॥॥३॥
नष्याननचहोमचन जपन चतर्पेणम्‌।
सकृदुच्वारणान्‌ मन्राज्चिन्तित' * भवति ध्रुवम्‌ ॥४॥
न चामिपेक न च मदोक्षा,
न चात्र" दिक्काल ्तुरचव^^ देवता! ॥
न चापि प्ञ्चेन्धियनिग्रह्‌ च,
सकृत्‌ स्मरस्व वगलाल्यहू"मनुम्‌! * {५॥
वगलाहूदय मत्र ब्रह्यादीना च दुलभम्‌ १
सञ्कत्‌ स्मरणमात्रेण वाच्दित फलमाप्ुयात ॥६।।१५

१, घ पृप्तकेऽयथशे विदो --प्रयोश्दी प्रयोगान्ते पूजा दुर्याद्‌ भ्रयलत ।


९ ध पुस्तके प्लोकोऽप विदापो लम्यते--
एव य कुठे पुत्र प्रयोग स्िद्धिमानुयात ॥
पूजा विना ङ्व कम प्रयोग निध्पल भवेत्‌ ॥२७॥
& ध दतुरक्रोहोमकूपन नाम चम्ठविरुतिः। ४ प. दालमावन 2 ५ घ चकुण्डताम ।
६ घ क्रौञ्वमदन। ७ घ सुभग} ८ ष ईश्वर । £ ष गृप्तात०।
१० घ वस्य चिन्विद। ११ ष नचापि। १२ ख दिकषटालक्रमश्च। घ. दिक्षा.
च देवतशश्व। १४ प श्ड्न्मनुः। १५ प््यादमिद ख ग, पुस्त
सकष 1 १६
कदरप-धिक्‌ दृश्यते
--
खवारवान्‌ मवेत्‌ पद्ध वादो मूरुप्वमाप्ुपात्‌ ।
इष्टावि्टः पडलः [ ५७
^-^ ^-^

दरिद्रोऽपि मवेच्छीमान्‌ स्तम्ीभवति+ पण्डितः 1


चतुरो मुष्करदचेव* कीक्निमान्‌ तिन्दफो भवेत्‌ ।,७1)
कवीदवरोऽपि चोन्मादी मोगासक्तोऽपि रोगवान्‌ ।
रोपवान्‌* क्षयरोगी स्यात्‌* कुलजो ^ निन्दको भवेत्‌ ॥६॥
मानो तचुततरश्चेव°नैष्ठिको अष्टता व्रजेत्‌ ।
एतद्विना कलो पुर सुकृतकीतिकारणम्‌= ॥९।१
गणद्च वर्तते पुसां तस्योत्पत्तेकारणम्‌ः 1
वगलाहुदेय मत्र सकृदावत्तयेत्तु यः ॥१०॥
तस्योल्ववघनमातरेण नेष्टः स्यात्पद्मजोऽपि वा 1
वगलाहूदय मभरमूपासनपरस्य च ॥११॥
करोत्नि यस्य^* सन्तोप तस्य सिद्धिेवेद्‌ ध्रुवम्‌ 1
येन केनाप्युपायेन न्मत्र येन "+ जायते ॥१२॥
सन्तोष जनयेत्‌ तस्य ^* चिन्तित फलमप्नुयात्‌ ।
तन्मन्योदारमतुल “तत्वतः स्वविघानत *१* ॥१३॥
वक्ष्येह तव सर्वञ्च १४ क्रज्चभेदन तच्छृणु ।
पाशषबीज ततोच्चायं "४ स्तन्धमाया ततोच्चरेत्‌ "९ 1१४॥)
शरङुशं बोजगुल्वायं भूवे(वा) राह्‌ तयोच्चरेत्‌ ।
वाराहं वारव चैवे कामराज त्तत परम्‌ ॥१५५
श्रोबीज भुवनेशी च "वगलामुलिषद वदेत्‌*** ।
भ्रविशयद्रय चोक्त्वा पालवीजमतोच्चरेत्‌ ॥१६॥
स्तन्धमाया ततोच्चाये += मद्धु.श बीजगुच्चरेत्‌ 1
ब्रह्यास्त्ररूपिणी चोक्त्वः एदिुग्मं तततोच्चरेत्‌ ॥ १७॥
पष्छचीजमततोच्चपयं ** स्तन्धमया ततोच्चरेत्‌ \
दकु वौजमुच्चयं मम शब्द तततोच्चरेत्‌ 11 १८॥
१, क, स्तत्तीऽ। ख ध, स्तम्धो मवति २. थ, पुष्कर । इ. ध. उन्मादो
४, यर, रवान्‌ । ष, सत्वदन्‌ 1 ९, ष. च! ६. ध. कुक्नवन्‌ 1 ७. ध, षञ्ज.
विहीनस्तु) मख घ, सूक कोरि । ६. स. ग, तस्यौपाघनर । प. तरस्य नारन०
१०. ध. तस्य १९१. घ, यस्य १२ ष. धवः १३. प. वदाराष्नलक्षणाम्‌+
१४. ष, सवंत । २५. ध. समुच्वधयें 1 १६. ए, घपरुज्यरेद्‌ । १७. प, बगनागुचि
उञ्चरेत्‌ । १८. प. प्मुजच्चायं । , १६. घ. पापबीजन समुन्वायं ।
७८] साद्यापनतश््रे
1
हदये "तु समूच्चारयः* श्रावाहययुग वदेत्‌ 1
सान्निध्य कुर्युग्म च पुनर्वोजितय वदेत्‌ ॥ १६॥
ममेव हूदयेत्युक््वा बिर तिष्ठदरय वदेत्‌ {*
शुनर्वीजत्रय चोक्त्वा" हु फट्‌ स्वाह्‌ाषमन्वित.* ॥२०॥
प्रश्ीततिवणेखयुो« "वगलताहदय मनुः,९।*
वन्ध्यामून्माजेयेदद्ध =वगलाहदयेन च ॥२१।।
वन्ध्या पुत्रवत चैव वण्माघाद्‌ भवति ध्रुवम्‌ ।
वगलाहूदयेनैव त्रिसप्तमभिमन्त्रितम्‌ ।॥२२॥
“पय. पिबति वा सा स्त्रो" £ वन्ध्या*" पुत्रवतौ भवेत्‌ ।
छृतरिमेषु च रोगेपु नानामयसमुद्‌ मवे** ॥॥२३॥
त्रिसप्तममतित तोय सद्यो नैमेत्यमातनोत्‌ ।
नित्यमष्टोत्तगशत ' * वेगलाहूदय मनुम्‌ ।(२४॥
चिन्तित च भवेत्‌ पूर नात्र कार्या विचारणा।
इति पडदिद्टा्मे साद्यायनत्र भ्ष्टाविशति +> पटल ॥॥२५॥
॥। श्यथोनति शः पटलः ॥
नमस्ते देवदेवेश नम. स्वणंविभूषगे ।
प्रानपात्रयूते देवि वयले त्वा नतोऽस्म्यहम्‌ ॥१॥
स्ृर्द १४ उवाच-
भरष्टमूत्तं नमस्तुभ्य भानन्दगणस्तागर)* ।
वगलाहदय यस्व प्रयोग वद दाद्धुर ।२॥
दश्वर उवाच-- +
विन्दुधिकोणपट्‌ कोणवृत्ते्पविभूपितम्‌ ।
षट्कोण चैव वृत्त च भरपुरद्यसयुततभू्‌ ५।३॥
१, पदमुष्बायं । २. निम्नांणोध्य प पुस्तरू एव हश्यते विग --
पापबीज तठोज्चाय स्वम्पमययां ददोर्चरेद्‌ 1
३. प पद.तरीजमुत्वायं। ४. ष. स्वाहृतिं उण्दर्त्‌। प ण्मवरोऽप। ६.१
मुनिगुष्य सूपावनम्‌। ७ प पृष्ठ एवयमधो विरेष --
पुवदेपप्तिसेदेयनदेख हृद्यमनु\
ध॒ दन्भ्याया माजयेदेक। € ध. पिबेदुखयश्मदवु। १०१. घापि। न ;॥ 1
अतर दय! १२. ष. *पष्टोतर जध्वा। १ ष हश्यद्रोय नमम भटाडितहि.।
शश्च. कौञ्यमेदन ॥ १५. मानण्ध्युखह्ागर। १६ प मच।
एकोरनद्त पटल { ७९
~~ ~^

मध्य तिखेन्महामनव वालाहूदय तथा 1


व्रिकोगेयु लिखेद्‌ दौज वगलाख्य सुपावनम्‌ (।४॥
पट्‌कोगे वा लिङे"मन्तर पदुविश्द्ेकारकम्‌ ।
शताक्षरीमहामन्त्रमा्वृत्त लिखेत्‌ क्रमात ॥१५॥
तस्योपरि च सदेष्टय वगलावीजमादरात्‌^°
तस्योपरि विलिघेद्यस्त् श्वरे वा रोप्यपश्रकेः* 11६।॥*
लिखिभ्वा गुमलग्े तु स्पष्टरेवाश्च* सलिदेत्‌ ।
स्पष्टयोजानि छक्िष्य पूजयेदकंवासरे 1(७॥
"दस्र प्रजपेनमन्त दुरगाहृदयमादरात्‌'\ ।
योगिनी पूजयेत्तथ धूपदीपाचंनादिभि ॥(९॥
कौलार्चनविधानेन मन््रसिदिभवेद्‌° घ्रुवम्‌ +
सुरत्लं॑ पूजये्यन्त्र 'हयारिकुपुमं शुने "< ॥६॥
इष्टसिद्धिभेवेत्तस्य भुत जपमादरात्‌ ।
मल्लिकाकरुसुमेनव ह्यष्टोत्तरशत जपेत्‌ ॥१०॥
वगरलाहूदयनैवे द्येवेज्ज्य रशान्तये )
"मत्लिकक्रुसुमेनेव ह्यण्टोत्तरशत जपेत्‌" * ॥११॥
वगलाहृदयनैव भष्टादशषशते तया 1
भ्रभर न्त! वेदलास्त्राणां व्यास्याता मवति ध्रुवम्‌ ।१२॥
१ षष पूस्तकद्वय पादद्रयस्थाने निम्नासो लम्यते--
तदुपरि च एवेष्टध पञ्चाक्षद्रणुमादरात्‌ ।
ठस्योपि च वेष्ट वव्रलाबोजमादरात्‌ ॥
तस्योपरि च षटकोणो वयल बतुरक्षरी।
कोणे कोणे लिखेभन्व प्र्यक च कुमारक ॥
२ खघ एवष) ३ प स्वणरोप्यादिकास्के। ४ परप्यापरे तिभ्नाणो दृष्यते.
$विक्‌ ख ष पुस्वक्युगे--
श्््म्यो च चवुदश्यी नवम्यो मौमवाबरेण
उत्तराभिमुखो मूर्वा रेद्धभ्या स्वखुजादयः३ (१
५ ध स्पष्ररेलसु ६ प--
भ्रजेपेद्‌ बगलयाह्च घदछ्र हदय मनु 1
७ ध सिदमत्रो सवेद ८ घ हेपारेश्च सुनरुद्धिमान्‌। ३ ख श्कुपूमेष्ववे। ध
श्फुमूमेिम्पेः) १० छ घ -- स्यम ठकुसुमेनव ह्चयच्छनमादरात्‌ 1 ११ पे परधूतान्‌ +

2. च कृष्णाष्टम्यां 2 घ मथवा कोिमादिने । 3 देमतास्शे ?


८०] सांष्यायनतात्रे
1 निं
वकुलं; पूुगयेधतरं पत्रवान्‌ जायते नरः ।
"पलाशकुसुरर्वे्यव्रराज" कुमारक ॥१३॥
वियासिद्धिभेपेत्‌ पुत्र पुवसख्याक्रमात्तुतः ।
पद्मपु्ेण सम्पूज्य पूर्ववदप्रमादरात्‌> 1१९)
कुवेरसनो भूता "लभते मुवि सपद.ण* ।
नन्यावत्तयंन्य
राज परनयेत्‌ एवंवत्‌ सृत ५१५॥
ध्ैलोरय 'वशमप्नोति पूजायादच प्रमावतः« ।
चम्पकेनेव सम्मूज्य पू्वेवद्धिजितेन्धिपः ॥१६॥
तस्व ददोनमात्रेण वादिना स्तम्भन भवेत्‌ ।
विल्वपेण सम्पूज्य पूवंसख्यासु वुद्धिमान्‌ ॥१७॥
्रव्यलाभे*भवेत्तस्य तत्क्षणादेव पत्रक ।*
श्रशोकपुप्पे. सम्पूज्य पूर्ेवद्विजितेन्दियः ॥ १८॥
शरष्ठराज्य मवेतयुन चनायातेन साधकः ।
केतकीकुसुमेनैव ूरववस्पूजयेत्सृत । १९॥
निघान^ लभते तस्य शिवस्य वचन यथा।
पीतवर्णेन पुष्पेण (निर्मन्येन सुगन्धिना" ॥२०॥1
श्र्चयेदगुत मत्री पोडशेरपचारकेः ।
वाचा" क्षिद्धि्मकेत्तस्य देवीरूपो न संशयः १२९॥
तस्य दर्दानमात्रेण सवंसिद्धिमवाप्नुयात्‌ ।
यजेततद्गलाय््र ^° मूनिगुह्य सुपावनम्‌ ॥२२॥
प्रकाक्चयेन्न ^> कस्यापि देवताशापमाप्ुयात्‌ 1
इति षड्विद्यागमे साहयायनततरे एकोनत्रिंशः +> पटलः ११२९५

१. ध. पालायपुप्पशचपूञ्य. मवराज \ २, पूर्व्या पुत्रक । ३ घ. पूववत्‌ कच


भेदन । ४. घ. मोदितो भुवि षपर्दः। ५. च वशपायाति यावज्जीव न सथ्पः॥
९, ध. द्रव्यलाभो । ७ च. पुस्तक एव निम्नः इलोको हश्यते विदेष.--
पुलसीमजरीभिस्तु पुवंवत्पूजयेघ्नरः ।
राजलामो भवेत्‌ सद्य भ्रयतनादेव पुत्रक ॥
८, ख. विधान । €- घ, निर्गर्षर्वा सुगन्धिनिः६ १००. वान्ा। ११. प. च.
एहदगलामन । १२. घ. नदेय यस्य। १३. घ, दपययतप्रकाशन नाय दुषोनत्रि्ः।
प्ि्ः रष [ ५८१
= ^

५ श्रय निशः पटल" ॥


नमस्ते देवदेवेदि पुत्पोत्रप्रवद्धिनी(नि) 1
स्तस्भनां भजेऽह्‌ स्वा पौतमात्यानुतेपलाम्‌* ।1१॥
स्कन्दं ' उयाच--

नमस्ते सदैसरवेश पुराणयुरुयोत्तम 1


वेलाष्टाक्षरमत्र > वदमे करण्यकर ।।२॥
क्षिक उयाच--
चैदाददि "विलिखेत्‌ पके पाक्चवीजमनन्तरम्‌ 1
स्तम्भमाया, ततोच्चाये श्रद्धुः.श वोजमेव च” ॥३॥
द्भ फट्‌ स्वाहा'^-समायुक्त मन््रमष्टाक्षर< तथा ।
ब्रह्मा कपिश्च छ्दोऽस्य"* भायत्री समुदाहुता ॥(४॥
देवता वेशलानाम्नी चिन्मयो विष्वरूपिणो*! 1
ॐ वीज ह्‌.ली शक्तिश्च क्रो कीलकमुदाहुतम्‌ ॥५॥
ग्यासुविद्या च वगलामश््रराजवदाचरेत्‌ १ ° ।
ष्यान चैव प्रवक्ष्यामि मच्यभेदेन पुत्रक ॥६॥
युबती च मदोद्रिकता^* पौताम्बरधरा शिवाम्‌ ।
पीतमूपणभूपामी समपौीनपयोघराम्‌ ॥७॥
मदिरामोदवदना प्रवालसहयाधराम्‌ ।
पानपात्र च युद्धि च^" बिभ्रती वला स्मरेत्‌ ॥८॥
एव घ्यात्वा जपेत्‌ पत्र)" वग्रत्ष्टाक्षरोमनुम्‌ ।
ध्यानेनैव *\ जप कुर्याद्‌ ध्यायेदादन्तयोस्तया १० ६॥
श्र्योकमूले निवसन्‌ मधुरारपप्तयुत्म्‌"*= ।
हृरिद्रामाक्िकाभमिदच वणेलक्ष जपेमनुम्‌ 31१०॥
१ पीतमात्यावूलपनाम्‌। २ घ रा फञ्चभदन। ३ घ ष दा बगवाष्ा्षयै.
मधर ( ४. ख.घ दारदप्वर) ५ ख शर्तिरदीतु। ६. क. च रा, स्तन्वमाया। ७,
य वीनशुष्वरेके) ८ छ, व्यलाच; € क मवमटक्षसे १०. र दन्दोऽषे
११. ^~ प्रयमश ख. पुस्तके नास्ति । रा. च्वीजरूपिणौ। दर ख ष दगला०। १३.
घ. घ. मदोन्मत्ता । रा योना च मदोतमत्ती ! १४ षरा वरिविह्धौ पानपान (। १६.
ध रा.मधर। १६ रा ध्यायघ्तेद। १७. ख भ्पराम्‌ । षत्व ष या प्रणोकपुलमाधित्प
हुरिदराम्बस््रपू्वम्‌ ।
८२ साष्यायनतन्त्रे
~~~
अष्टायुते तर्पण च हितुखभ्मि्रकारिणा । ्
तदृशो हुनेत्‌ पुर श्रतेन" “च सम मधु" ॥ ११
योगिनी पूजयेत्‌ पञ्चाद्‌ गर्भकोलागमकमात्‌ (मैः)
ब्राह्मणान्‌ भोजयेत्‌ परचाच्छत >"वाष्टशत तु वा* ॥१२।५

एतन्मस्य माहात्म्य दिवो जानाति नान्यया ।


वित्वमूले जपेन्प्रग्रमयुत ध्यानपुवेकम्‌ ॥ १३॥
स््मीवान्‌ जायतते पृ ददिदस्तु* न ख्यः ।
श्रश्वत्थमूते पजवेदयुत पूरव॑वश्नरः (१४॥
श्रृनत च प्ास्पराणा^ व्याल्याता मदति धुवम्‌ }
शमीमूले जवेन्मध्रमयुत पूंवन्नरः +" ॥१५॥
भनष्टराज्य स्मेद्ु्' * थनायातेन निरिवदम्‌ १२ ।
वदरोमूलेमाधरित्य प्रयुत पूवंवञ्जपेत्‌°> 11 १६९॥१४
वशीकरशम्मोदही “जाय (वेते नात्र सश्च. १४॥
उदम्बरतेरोमूले१ पूर्ववज्जपमाचरेत्‌ ॥१७।१*
कुवेरसदृश धीमान्‌ जायते नात्र खशयः ।
कदलीमूलमाधिप्य पूकंवज्जपमाचरेत्‌ < ॥१८।।१४

१. घ प्राभ्येन। रा. तप्फ़ल। २ रा. कुमुम मघु।३.प, रो.पुषपतं। ४, रा.वातु


तदठकम्‌ । ५. स ध, रा पृष्ठेषु विषः पाठो दृश्यते
च रा, घ्यानोक्ता बतः देवो चमंद्द्यनोभवेन्‌।
ख. ईमदर्थने भवे देवि नान्यया िवमापितम्‌ ।
६. श. प. दस्दरऽदि१ ७. घ. ध्यानपूवेकम्‌ + ८. ख ध. प्रधूत्तानि) श, पथूं।
६. ख घ. शस्व! रा वेदथास्थाणः1 १०. छ. जपेप्रर-+ ११. प. भवेत्‌
स्यो। १२. ख. र.पुत्रक १३. रा. ण्छठरः १५. दतोकोऽप तास्ति ध. पृद्तके ।
हश रा स्वभावेनंव जायते १६ प. भरोदुम्बर० । १७ पर पत्वङे रसोकोऽय नस्ति
१८. च रा. भुत पृदेवत्‌ जपेत्‌ । १६. ध. प्वके पयभरदो नास्ति ॥
एषहत्रिज्ञ टस, [म
^-^

श्रयोगदीनि सर्वाणि सवेसिद्धिभेवेत्युतत'* ।१९॥।


॥ इति धद्विध्यागमे साद्यापनतन्त्र वरिदस्पटल्तः ॥(३०॥

11 श्रथ एकत्रिंशः पटलः ॥


तिरादुस्वरूपिणी देवीं पिविधेनन्ददाधिनीम्‌ ।
भजेद्‌ बगला देवी भक्तचिन्तामणि शुभाम्‌ ॥१॥
फौञ्चमेदन उवाच--
चेन््रोपे्रमहेन्रादिसनुतः* सवंमद्गला(ल) ।
व गलाष्टाक्षरीमन्त्र(न्ष) प्रयोगान्‌* वद शद्धुर ॥२।

१. षे. पूस्तके एतव्यस्वानेऽयमश्चः सदुर्लम्यते--


श्रफोणादोनि सर्वाणि पृववत्कारयेत्‌ सुधीः 1
एततकमेरंव पुत्र बमलाष्टाक्तरोविधि, 1
सक्षेपेन मया प्रोक्तः किमन्पच्छ)तुमिन्डति ॥
भस्य निस्नातो पुस्तक एव दृश्यते--
श्रुताल्तमते मोग वाच्छति धिता इव।
पीवन समाधिद्य भरु पूर्वचज्जपेत्‌ ॥१६१५
निक्षेप लमत पुत्र प्रयुतान्मा्ठमात्रतः ।
जेंबीरतरमाधिश्य प्रयुतं पूवंदजजवेत्‌ ॥२०॥
राजा चेव यथो भूत्वा स्स्व दोयते घ्म ।
उयानवनमाध्रिरय धयूत पुदेवभ्जपेत ।२१॥
यय वापि स्मरेत्‌ पुत्रठ तं प्राप्नोति निष्विच्िम्‌ )
पुष्पवाटघां जपेम्मत्रमयुत पूववत्‌ सृत ॥॥२२॥
-राजक्ताभो भवेत्तस्य नात्र कार्या विकरण! 1
नदीक्तोदे जपेरमेत्र मयुतं पूर्ववन्नरः ।(२३॥
पुत्रकान्‌ आयत्ते लोके षनात्यादितयुचः ।
एत्रम्म्री जपेरमघर ततत्फेलमवानुयात्‌ ॥२४॥
एषदेषठाक्षरोमव घरवंमव्रोत्तमो्ठमम्‌ +
भ्रयोयादोनि सर्वाणि खवंसिद्धिभवे्युत ॥२१॥
९. श्रष्टाक्षरोप्रयोगे नामं भि्यत्परलः ।
३: २० नमस्ते सोकजननो(नि) म्या्तकात्मीकिवदते १
श्वम्ब(म्भ) सास्यस्वह्यिष्ये वगते ता नमाम्यहम्‌ ॥
४, रा० इन्योपे्धमदे्धादिषन्तुष्ट । ६. रा, पपोष]
८४ ] सल्यियनहन्यं
~~~ ~^

ईश्वर उयाघ--
स्पृ सवण चैव चितामस्म सम समम्‌ 1
भ्रकंसोरेण सत्वेन मरहुयेत्‌* सूक््मदोऽनघः ॥1३॥
भ्रत्न.ष्टमाघ्राः कृत्वा तु पृत्तली पूववत्‌ सुत ।
वदरीकण्टक" चैव सर्वाद्ने तस्य वेपयेत्‌* ॥1४॥1
भ्रारालस्य माण्डे तु प्रघोमुखो^विनिक्षिपेत्‌ ।
“भ्रद्नारवासरे पूज्या"*पुनस्तवरेव निक्षिपेत्‌ ॥५।॥
एव माततय छत्व "जिह्वास्तम भवेद्‌ रिपोः 1
रवौ राघ्रो च सगृह्यः चिताभस्म समादरात्‌ ॥६॥
वगलाष्टाक्षरोमन श्रयूत्त म्रवेत्‌'" * सुत ।
खानि पानि चे तद्भस्म दातव्य व॑ंरिणस्तथा१+ ॥७॥
जिह्वा मुख! * च कर्णाक्षिपादादिस्तभने१ग भवेत्‌ ।
तेनेव भयते शनूर्मातान्मण्डलमाघ्रतः** ॥८॥
श्रारनालेन\* तद्भस्म रहस्येन विनिक्षिपेत्‌ *\ ।
तदन्नभक्षणेनेव वुद्धिन्न ोभपि"* जायते ॥६।॥1
तद्भस्म तिततेलेन दियोभ्यद्ध समाचरेत्‌ 1
तेनैव त्तक्षणात्‌ पुन१८ चित्तचाञ्चत्यवान्‌ "£ भवेत्‌ ॥१०॥
तद्भस्म चूर्ण॑मिश्रः * कृष्वा चूल चं वर्णेकम्‌^*" 1
(तेन श्स्ततक्षणाच्च'९ बुद्धिजाडयो वेद्‌ ध्रुवम्‌ ॥११॥
विप्रचाण्डाख्योः दात्य> (सत्य) प्रेतवस्त्रेण वेष्टयेत्‌ ।
वगलाष्टाक्षरीमनर* मत्रयित्वा सहस्रकम्‌ २५ ॥१२॥

१. रा. मर्दय। २ रा. सूक्ष्मतो युखम्‌ ¦ दे. प.मात्र) ४. दा, गकण्टकान्‌ ॥


५, रा. निक्षिपेत्‌ ॥ ६. रा धवोमाये८ ७. “~! रा. यङ्खारवारे सम्यूज्य 1 <. द
कत्र स्ठम्भो भवेद्‌ प्रवम्‌! ६ रा सग्राह्य। १०. रा. मन्वयेततयुठ। ११ वैस्ि
था 1 १२, रा मदि-+ १३. रा. कर्णादि०। ४ रा. एवरमण्डले नात पथ्यः!
१४ रा.भारनलनिच। १६-राव निक्षियेत्‌ ॥ १७. रा. वुदधिन्नष्टोऽनि 1 १८. र,

शत्र । १६ रा. चित्त चाञ्चल्पवाम्‌ । २०. रा. मिश्रतु। २६. रा. त्वा ताम्रून-
वर्णम्‌ १ २२. स. छृष्वा स्लणाच्छु ॥ २३. रा चल्य। २४. रा बगला
मन््रौः। २४. रा मवस्त्रक्म्‌।
एकव्र्तः पटलः {घ
~~~ ~~~

रवौ ररौ शवुगेहै * ईशान्ये नैव(चेव) निक्षिपेत्‌ ।


मण्डलातद्गू (तमु }हस्योऽपि› भ्मियते नाते सशयः ॥१३॥
कटक पुरपक्षश्य* त्रिसदहल तु मन्यत्‌ ।
निक्िपेच्छरुखदने नित्य कलि }हमपप्नुयात्‌ ॥1 १४५
क्ञकोसूक्दल चेव “भोम वा रविव।सरे* 1
स॒भ्रहत्‌ प्रेतवस्तरेण वेष्टयेद्‌ रविवारे ॥ १५५
निक्षिपेद्‌ रविवारे तु दिपु(पोरगेहे तु" वुद्धिमान्‌ !
ग्र(ग्‌)हेविद्रेपण* सदयो जायते नार सशय. 11१६॥
स्प) मण्डुकयोः शत्यं प्रेतरज्वा तु वेष्टयेत्‌
निक्षिपेच्छनरुसदने स घप्र] रवश्गष्यति 11१७॥
सा्जारबालरोमाञ्च(यि)5 रवो रात्रो च सप्रहेत्‌ !
परेतवस्तरे रवौ ग्राह्य धिचनिर्रात्यमेद च ॥१८॥
रवो राधो च सग्राह्य नरास्थि च षम षमम्‌ 1
चूण(णी) हृतः तु तत्सवं मश्त्रयेदयुत तथा । १६॥
पूषयेच्युत्रूसदने तस्य सचारयो(ग) -स्यले ।
'तद्धूरवासते शशरुमू को"^* भवति तःक्षात्‌ १२०५1
तज्चुणे' देवतागारे भृगुवारे च धूपयेत्‌ ।
*पलायत्ते च्‌ तनमत्री" +) क्षिवस्य वचन यथां ॥२१॥
गजोश्ववृषमोतूकमहिषोरगकरुकङरटम्‌ १२ ॥
तथ्चूणं पूषयोगेन सवं तृणजलादिकम्‌ ॥२२॥
भ्यते सप्तरा्ेण स्वेदजाण्डजर्पिज(ड) जा.१२ ।
एत्चूणे वृक्षमूले धूषयेच्च** कुमारक ॥२२॥
फलित पुष्पित वाय स्युलवुक्षमवाति वा 1
सप्ताहात्‌ भुप्कत्ता** याति स्िद्धियोगः कुमारकः ॥२४॥

१. रा.गृहे+ २. रा-मण्डततु ्रदस्तोपि 3 इर कवक) ४. रा. प्रर


पुष्टिष्च । १, रा, मोपवारस्य वासरे । ६ रा.सु 1७ रा. भ्गृह०। ६ रौ मार्जारे.
सोमदादंच। ६, सा. शूं इत्वा । १०. रा. शूषदासने शश्व मूको । ११. रा.
प्रतायकतो दनं प्ति! पैर सा च्कुकुटाः) ३. रा दवेठजोष्चोब्जापिच। १४,
रौ. श्तु \ १५. रो. समाह्च्ुष्कति।
८६ | साख्पायनतन्ये
"~~~

मृगाणा' चंव शूरा खाने पाने प्रयत्नत 1


बुद्धिनाशो मवेश्छनू (त्रो)स्तिदिन भक्षणात्‌*सूत ॥२५॥
प्रजाः बुद्धि च्िय चंव रेदं हरते* नृणाम्‌ ।
एतनच्वुंप्रयोग* च ऋषीणामपि दुरर्लं मम्‌\ ॥२६॥
चिताभस्म रवौ रात्रौ सग्रहेच्च* तदर्भेक 1
शरयूत म^तरयित्वा तु रिपृपूध्नि विनिक्षिपेत्‌ ॥ २७१
काकवद्‌ मते शनुमंहि (ही) मामरणान्तिकम्‌ ।
शशिलामामलक भरस्य" = सहल सग्रहेद्‌ दुष. ॥२५॥।
शश्रकंवारे तु सघ्याया'< मतरेणेकेन मन्मयत्‌]** ।
मनित्त “निक्षिपेद्‌ दूरे(दारे) १" दक्षिणाभिमुकेन च ॥२६॥
नित्य चैव सदस तु निक्षिपेद्‌ दशवासरे१२।
उच्चाटन भवेच्छव्ोनग्यिथा शिवमाषणम्‌ ।३०॥
धततूरपत्रमादाय सहस्र मग^्ययच्निदि ।
प्रेतवस्यण एवेष्टय भौमे शनुनिकेतने ॥३१॥
निक्षिपेद्‌ द्वारदेशे तु मूको मवति तद्विपु ।
त^मा्गे सचरेद्‌ यस्तु तप्र्वऽप्यरिम्दिरे! > ॥३२॥
वरवाल च रोम च'१* प्रतरज्जुस्तथेव च ।
मःत्रयदयुत\* मच्र^ \ निक्षिपेच्छनु मदिरे ॥३३॥
पक्षाद्‌ वा मायोनेन्‌ “त पतरर्वानधवं सदा'१* ।
श्यते नात्र*? सन्देहो नात्र कारयां विषारणा ॥३४॥
एतच्च वगलामन्प्रयोग१६ मुवि दुत्तेमम*" ।
गुरुपुत्राय दण्ठव्य^? न दवाद्‌^* यस्य कस्यचित्‌ ॥३५।।
इति भो २2 साहयायनतम्य प्ष्टाक्षरीप्रपोय नाम *४ पुषव्रिदापटत ।

१ रा पितृणा र रा मक्ष्यत्‌। ३२ प्रतं। ४ या दनठे। ५. स,


प्रयोग । ई दलम. ७ रा षद्हेव। 5 रा णटादूपूलेपरत्य ) € र प्रव
काटापितश्यायां। १० रा ्तबदेत्‌ ए ११ ष. विनिवि। २ द, *वायम्‌ 1
१३ सा ण्प्यतिम दधो । ४ रा. सष्दालक्रोमाणि। १५ १६ प ण्दृतमण ।
१८ रष्नष। १६. सा श्प्रयोगो। २० र,
१७ रा वुद्धिनाएनपृवक्न्‌ ॥
दुर्लभम । २१ य दाढम्यो। रर रादेपो। २६४ र प्रोपरदिघापमे। रेभ
रा नास्ति।
वशत्रश्ः पटल [ 5७
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+) श्रय दवात्रश्चत्पदलः ॥
मर्मरादौ तव वोजपूरवेकमय कलौ न्तुम्ल" सौ*ग्लो जपन्‌],
तात[द्‌]ध्यानपरय[णु परत्तिदिन गोत्ता (ता) क्षमालाघरः1
साध्याकपेणवइयमायु वले साध्यस्य शोघ्र भवेत्‌,
भ्ेताद्यासनपूविकरेर विवस्तने तत्परेमभूमो निक्षि ॥१॥1
फ्ोञ्चसेदने उवाच--
नम. परापविडूराय नमस्ते चन्द्रशेखर्‌ ।
बगला चोपस्रहादविद्ा वद सुपरावनो [म्‌ 11२॥
हैष्वह उवाच--
ब्रह्यास्थस्तम्मिनो कालो विया चास्वमुपावने* !
तस्यास्नत्स्मरणादेव 5वगता शान्तिमाप्नुयात्‌ ३५1
तद्धिया च प्रवक्ष्यामि सन्तौ९तच्छणु "° पप्मुख 1
उच्चरेष्छक्िवाराह वाराहे** ठदनन्तरम्‌ ॥1४।1
पाग्दोज च ततो (यो) च्वायं मुकेक्षी** तठः परम्‌ ।
महामाया" तततो {योच्चार्यं घौवोज तदनन्तरम्‌ ॥५।॥
फालीशन्ददय१* घोक्ना (पत्वा) महारासोषद ^ * वदेत्‌ ।
एहि शब्दद्वय चोक्छा कालरात्रो (भि) पद वदेत्‌ ।।६॥
स्फुरद्रय घमुच्चाम्ये प्रस्फुरद्वितय'* लिखेत्‌१* ॥७॥1
स्तमनास्पपद चोक्टवा शमनीरदमुच्चरेत्‌ 1
हं फट्‌ स्वाहा-हमायुक्ते सनव्रमेवे घमुद्धरेत्‌ ^~ ८11
प्चाशदूद्‌घ्वमत्रस्प१८ वर्ण्रपिभूपितम्‌*“ 1
ब्रह्मास्वस्तमिनोकालौमन्तमेतन्न स्य. ॥1६॥
पलाक्षमूलमाधित्य लक्षभनेक जपे[त्‌]स्मयः१* 1
तत्पयेत्तद्धाशचेन** कूंरमिधिते जततं.*२ )१०))
१, रा.मत्ति! २ सा. ३ रल्डे( #र/ ग्परयलु। ५ र
भेक्ाम्या्ठन० + ६ रा चमन्ा। ७ सा. दास्यम) =. वस्य स्परएमरषण)
€ क. श्रावं} १०. रनचब्यणु। षष्-रा हृदुार। १२. रा. मुवनेश । १३,
श. मम मापा । १५. रा. कालि०। १५ रा. महाङलिर ८ १६ रा सद्कगेहुदप।
१७, रा. ददेत्‌ १ १८. र घमुम्देत्‌ ; ३६. यं म्स; २०. श. मदन
शिमूपिन.। २१. रा. उवे । २२. ्ठदट्णस्य ब) २१. स. जलम्‌ ।
न्द | पास्यायनतम्ये
~~~~~~-~~~---~~~^~^ ~

पलाशपृष्वेजुंहुयाच्चतुरसे च कुण्डले (के) ।


न्राह्यणान्‌ मोजयेत्‌ पुत्र*सहल शत्तदेव वा 1११
मन्नषिद्धिमवाप्लोतति देवता च प्रसीदति ।
ब्रह्मा ऋषिश्च छन्दोऽ (स्य) गायत्रो समुदाहूम्‌* ॥१२॥
देवता कालिका नामः स्तमनास्वविभेदिकी* ।
ध्यानं यत्नात्‌ परवक्ष्यामि मन्धरमेदेन पूत्रक ।॥१३॥1
काली करालवदनां कलाधरधरां* शिवाम्‌ 1
स्तम्भनास्वकसहारी ज्ञानमुद्रासमन्विताम्‌ " ॥ १४॥
वीणापूस्तक्षयुक्ता कालरात्रि नमाम्यहम्‌ ।
बगलास्त्रोपसरहारोदेवता ° विश्वतोमुखीम्‌< ।।१५॥
भजेऽह्‌ कालिका देवौ जगद्वशक रा शिवाम्‌ ।
एव ध्यात्वा तु मन्यन प्रजपेच्युद्धि (दढ) *“ मानः १६)
वक्ष्येऽह्‌ घोपततहारक्रमं लोकोपकारकम्‌ ११ ।
जम्बौरफलमादाय मन््येच्छतमादरात्‌ 11 १७॥
भक्षयेत्‌ प्रातरत्याय निद्रान्ते च कुमारक ।
एव चाकंदिन छृ्वा जि ह्ुास्तम्मादिङृल्िमम्‌ ॥ १७॥
सद्यो नर्मा(मं) ल्यमाप्नोति तमः सूर्योदये यथ। ।
रवौ दवेतववा१२ ग्राह्य मन्येच्छतमादरात्‌ ॥१६॥
प्रात.कात्े भक्षयित्वा व्रिसहस् मनुं जपेत्‌ 1
याच "> मुख पद चव "जिह बुदधीद्ियाणि च'१* ।२०॥
स्तम्भित मन््रथोगेन तत्सवं सान्तिमपप्नूयात्‌ ।
तास्रपात्रे समादाय नदोजतमकहमपम्‌१* ॥२१॥
छ्तवार मन्प्यित्वा प्राशेच्छान्तिमाननुषात्‌११॥
मोमूवर चैव सगृ्य मन्वयेच्धतमादरात्‌ ॥२२॥
१, सा. पचत्‌ । रे रा. षुदाहूवः। ३ दा नाम्नी। ४, शाः स्तम्मना-
स्वकमेदिनी। ५ र. क्ताधारषसर॥
१४
६, रा. स्तमनास्तकवदयरि दंटेह भदक्ानिकमम्‌
स्वभनास्वोपसंहारि सानमुद्रामन्वितम्‌ (ताम्‌) ।
७. श. अताष्नोपवहारि दि्ववो | =, रा. देवतामूषखी । _ ६. ग. जादटयवप्यकदी।
वादा।
१०. रा. श्छ्िदि। ११ रा. कौतोपकारक्म्‌ । १२. रा. देवदता । १३. श पण्नाद।
ं नाप्वि। १६. सा.
१४. रा. जिहुषद्दपादिकयन्यपि । एय" य. ध्लोकादधमिद
दायः पर्ल { ९९

एवं कृत्वा जपेन्मन्वं *उन्माद^शास्तिमन्नुयात्‌ ।


मन््येदारनालं च प्रातः प्राठः पिवेन्नरः ५२३
मण्डलञ्वररोगं च ना्यमप्नोति निररिचत्तम्‌ ।
श्वष्टोत्तरं मन्त्रयित्वा धारोलनंदः* पिवेन्नरः 1२४॥
गभेस्तमनदोषच मण्डलाच्छान्तिमाप्नुयात्‌* ।
भस्म च मन्त्रयेतू* प्रातः त्रिसप्त तिशतेन" वा ॥1२५॥
तक्रेण* सहितं पत्वा तरिषहल्त दिने दिने ।
वगरलामव्रयोगेन एतेल्मायपमुद्धवः^ २६
ाशयेदागु तत्ववं तुलराषिमिवानक्तः ।
यक्षवूष< समानीता १ मघ्रवेच्छतमादरात्‌ ॥२७॥
धूपयेततेन सर्वाद्न दशराधर कुमारक !
यक्षपपो्धूव^ + चैव श्रयोग चैव ^> छृत्मिमम्‌ ॥२०॥
ततक्षणान्ताशमाप्नोति नाच कर्य विचारणा 1
रवौ ब्राह्मी समादाय छायागुष्क समाचरेत्‌ १* ॥२६॥1
मन्ब्रयेत्‌ भिसदल' तु मक्षयेत्‌ प्रातरेव च !
एतदा जपेन्नत्य त्रिपद कुमारर ॥३०॥
चगलस्प्रहृत१* यद्यत्‌ प्रयोग दुत्लेभम्‌ भुवि ।
तस्स नाश्चमाप्नोति मास मण्डलमत्रतः ।३१।।
बराह्णोरष समादाय मतपेच्डनषा पृः 1
शकंराचदित्त पीत्वा सहस्र जपरसाचरेत्‌ ३२॥
नान्कल्िमदोप च वगलामन्धतः१ कृतम्‌ 1
भमद्धत्यो [द्‌} भव नाव °* भततते यदि १“ दुलंमम्‌ (३३1

१. रा. पु पण्पादं! २. रा. उन्मादः! ३" ख पष्टोत्तरथ्व मन्वरबररोष्णद


४. रा. मण्डसान्नामार | ५, रा, मवयन्‌ । ६. रा, सप्ठमेव। ७. रा, मन्व ।
८, रा. यचद्ररमुद्धवम्‌ । €. श दुक्षधूषं। १०. रा. मानाय । ११. रा, वूकपू-
पोद्धव॥ १२, रा.नाय। १३. रा. उमाहरेत्‌ । १५. रा. दध्रवाविह्व 2 १५
सा, यमेवा पन्विव) १६ शा. दध) १७, राज्यततु1\
९० | घाद्यायनतश्त्र
~~~ --~-~--~--~----------~~----~~~~-~~~

मण्डलाघ्ताश्माप्नोति तम सूर्योदये यथा।


एतद्वि साम्प्रदाय' गुरूक्तान्‌रलन्वमन्त्रवान्‌ ॥३े४॥
लक्षमेक जपेनमन्धौ प्रयोग नाशमाप्नुयात्‌ ।
शक्तश्च स्वय पुत्र कर्ते ब्राह्मणामपिः* ॥२३५॥
द्विगुणा नपमाप्नोति तमः सूर्योदये यथा ।
एतद्धि्यां सम्प्रदाय वये ब्राह्मणानपि ॥३६।४
द्विगुण जपमव्रेण स्वंशान्तिमवाप्नुयात्‌ ।
एतद्धि विना पत्र क्तौ च बगलामुखि (सी) ॥३७॥
प्रयोगक्लाम्तिनि ९भवे[नू्‌] सत्रपन्वौपधादिमि 1
सप्तकोटिमहामच्रयोगेषु च पुत्रक ॥३८॥
एतद्धि् पुरश्चर्यां नाशयेदाशु°निश्चयम्‌ ॥
नम क्रीक्पलिकदेव्ये कालराये नमो नम ॥३६॥*
उपसहाररूपिण्ये देव्ये निप्य नमो नम्‌ १* ।1४०॥
एति सोपडविद्यागमे सस्यायनतत्रे श्रयोगतहार नाम११ दवाप्रिश्परल ॥

॥ श्रथ चरयस्त्िश्ञत्परल ॥
पीनेत्तञ् जटाकलापविलपद्भ लेन्दुच्ेखर।म्‌,१२
बिभ्राणा शितशान्तकरम्भमुकुटा १३ (ट)ेव्रयालड. कृताम ।
शब्दव्रह्ममयी तरिल्लोकजननीं श्रक्ि परा लाम्भवोम,
देवोश्रीवगला सुरासुरवरेरभ्यचिता भावयेत्‌** ॥१॥
प्रौञ्चमेदन उव।च--

नम शिवाय साम्बाय ब्रह्यणेऽन.तमूत्तये ।


वदमे चोपसरहार यन लोकोपकारकम्‌ 11२॥

रा समादाय) २ रा गुर्तो । ३ दा च्यव । ४७ घरा ताग्येष्ण। प्रापयेद्राः


५ रा पथमिद नास्वि$# ई घर्छमाठन।
ह्यणानपि ।
१० रा पयाढमिद नस्ति ११
© ध निश्चय । & य प्र्ाटभिदं नास्ि। १४ घ स्रीकाता
र्‌ौ नाप्त्ययमशः॥ शर्‌ रा ण्द्बलिदु० 1 ६३ रा सि्त०।॥
्रहास््वोसुरनशं रम्यचिदामा्रय ॥
वयस्िः पटलः { ९१
~~~

ईश्वर उवाच--
कपिलानवनीतं च कदलोपन्रमध्यतः› ।
त्िपृत्वा* मयं सिखेत्तत्र कृतवा पूजा च ापकः ५३४
‰^षटुकोणं चाष्टकोणं च वृत्त मूपुरमेव च ।
पट्कोणकणिकायां व (च)पद्‌ बोजानि मनोलि खिद्‌ ॥४॥
शिष्टाक्षरामि कोणेषु ब्रह्य्लस्तम्मिनीमनुः ।
भ्रष्टन्ने लिखेन्पेत्र ताक्षयंमालामनुस्तथा ॥५।५
कोऽयंस्ताकषयंमनुदचेत्ि वक्षयेऽह्‌ मन्थनायकम्‌ 1
8 भ्राचयवणं समुच्चाय्ये ताक्षयेबोज ततः परम्‌ ((६॥
ॐ नमो पदमुच्चाय्ये पञ्चाद्‌ भगवते पदम्‌ ।
ता्ष्यंवीज पक्षिराजायोक्त्वा तायं तततः परम्‌ {॥७॥
सवेशब्दं उतो (यो) च्चा अभिचारपद वदेत्‌ 1
ध्वक्षकाय प्रद क्षोमों हं फट्‌ स्वाङ्ा-समणिकितिम्‌ ॥८॥ 8
त्यस्य मालामन्वश्च द्वातिशद्रणेसयुतम्‌ ।
भष्टप्ते वेदवेदवर्णान्‌ पूर्वादितो लिखेत्‌ *&१\*

१. रा. क्दलोपरंके वषा । २-३, ध. लि यत्र ५४, रा, यश््रपध्ये।


~^ नान्वगेता्स्पाने राग पुर्तङे निस्तार एवोपतम्बठे--
पट्ोणमध्ये दितिखेदुब्रह्यास्म्रस्तमिनीमनु"
प्ष्टपतरे लिखेन्मन्त्रं ताक्येमालामदु्वपा॥
8-8 चिह.नान्तये विस्थान रा० पुप्तके निम्नाद्धतः पाम्मेदो दृश्यते
परम्पदं समुज्वषपं वदुवंस्वरपूर्दकम्‌ ॥४।1
बिन्दुना भूवि पुत्र क्यं एश्क्षरी वषा ॥
न्छङारबीजयुज्चायं यवो ततः परम 1
ॐ तमो पदमुज्चापं ततो मय्वते पदम्‌ ।
पिदा न्यायं पमिकरपद वदेद्‌ +
स्व्यं पद चोक्त्वा हु रट्‌ स्वादामन्वत्रम्‌ ॥६॥
सतरः क्षो नमो भगवहे पक्षिराज प्रभिवारादिषकतकृटितमष्ददषाय हं द्‌ स्वाहा ॥
४. ९लोकेस्याप्व रा० पुष्ठके तिभ्नोऽय पाठेदः--
मालामत तादवंदिदचा वद्विशदरंदुमुवा श
परप्दपत्र सिन्निरा द्दिखक्रनेस तु 19
६२] साद्यायनतश््े
म~~~ ~~~ ---~--~-~~~~------~^^^~~~~^~

प्राणत्रतिष्ठा यव्रस्य' ध्रायवृत्ते लिपेत्‌ मुत ।


तदुपरि लिखेद्‌ वर्णानि प्र्वाराल्लिपिषयुतान्‌ °॥ १०॥
पराशाद्ु.शं च विलितेद्‌ भूपुरेषु यथाक्रमम्‌।
धरष्टकोगे लिवेद्‌ वरणान्‌* वच्नान्ते वम फट्‌ तथा ॥११॥
एवं लिदित्वा यत्रं च पूजयेन्मानदेनतु ।
एव कृत्वा तु तत्सवं नवनीत कुमारक ॥१२॥*
भक्षयेद्‌ वदरीमात्र साय प्रातस्तु बुद्धिमान्‌ ।
देवतावेशमतुल मन्यन्धादिकृत्िमेः१ ॥ १३॥
शत्यदाख्मय ^तत्र प्रयोगं वगलाश्च पत्‌** ।
नाशयेर्मण्डलतदेव जि [व) स्य वचन यथा ॥१४॥
एतद्यन् हृदि ध्यायेद्‌ दु.खकाते सुबुद्धिमान्‌
दशरात्राद्‌ भ्यपोहतु(ति) दारुणौरपि^कृलिमंः< ॥१५॥
रौप्य वा स्वर्णपट वा लिखेद्‌ यनमिम बुधघः+* ।
पूजयेद्‌ रक्तुष्पेण * पोडदा हपचारकेः ॥ १६॥
कष्टे वा वाहमूले वा शिखाया वा क्रुमारक।
बधयित्वा वानिचार नाशमप्नात्ि निश्चतम्‌ १२ ॥१७॥
मागरवल्लीदलतेनेव ^> एतदत्र कुमारक ।
चूर्णेन विलिवेत्‌ सम्यक्‌ पूरं ताम्बूलचर्देणम्‌ ॥१५॥
एव कुर्यात्‌ प्रातरेव तद्वत्‌ स्मय समाचरेत्‌ ।
मासत्रय^* चरेदेव छृस्विम हरते नृणाम्‌ ॥।१६॥ १५
कुर्यात्‌ कृत्निमरोगेण पौडिताय कुमारक ।
तत्काथंसोरव चेव लाघव चावलोक्येत ।\२०॥११
पक्ष वाथ त्रिसप्ताहू!* माप्त वा मण्डल रतथा)
यथा व्याधित्रियुक्त° च तावत्काल कुमारक ॥२१॥
१. रा. मन्वतु। २-रा. व्वेणं। ३ र. व्दणोतयुवन्‌ । ४ रा. वख ॥ ५
दलोकोय स, पुम्तके नस्ति। ६. रा कत्चिन-। ७, ^~" रा. यञ्च दपलापोप.

मात्रतः। 5. सा. दाद्णानवि। ६. रा, इृत्तिमान्‌। १०. पा. वु्षः। ११.


शा. सतपु्सतु 1 १२.१२. निश्चयात्‌ ॥ १३. च न्चंव॥ १४. रा. माहमात्र।
१५. स. पुस्तके परं विशोषोऽय श्लोको दृश्यते--
स्तम्भनास््ोवहार मन्तेण च कुमारक ॥
भर्जनं वि्वपत्रोणमारोह्ादव रोहम्‌ ॥१७॥
१६ रा." लोक्षयन्‌ ) १७ त्रष्प्वाय। १८. रा. ॐयाषिविमुर्च ।
प्र््िक्णः पठतः [९३
"~~~

श्रतेन(नया) विया पुत्र माजन मुनिदमतम्‌* ॥


भ्रथवा मन्वत तोय स्यः कृत्निमनासलनम्‌ )२२॥
भुगुर वृत्तयुग्म च तन्मध्ये च कुमारक ।
पञ्चकोण लिखेत्‌ सम्यक्‌ तन्मध्ये चन्द्रमण्डलम्‌ ॥२३॥
इृनरमध्ये" लिखेद्‌ विवा कल्विमष्नी" च कालिकम्‌
मनुरेव लिखेत्‌ षम्यक्‌ स्यष्टव्णेन\ स्युतम्‌ २४॥
पञ्चक्ोभे* लिेम्मन्त्र*पञ्च ब्रह्माख्यमेव च ।
भ्रा्यप्रे लिखेन्मम्व ° प्राणस्यापनके त्तथा २५५
द्वितीये विलिखेत्‌ सम्यक्‌ पञ्चाशदर्णेमादरात्‌ )\
पाशादुः.शवि लिखेद्‌ भूषुरेषु चपथाक्रमप्‌ ॥1२६॥
एतवन्प्र त्तिसेद्‌ भुय कपरी (स्त्या) करोडचभेदन ।
्पे* प्राणान्‌ * भरूतिष्ठान्य पञ ब्रह्ममनुं जपेत्‌ ॥२७॥
धिसदस्र सहल वा त्रिश्चत शतमेव च ।
ब्राह्मणान्‌ भोजयेत्‌ १६चद्‌ वित्तशाठ्घ न कारयेत्‌ ।\२८॥
तद्यध्रधारणादेव कृलिमादिरनेरचः१ १ ॥
सक्षणाघ्ताशमाप्नोति जोवेद्‌१* वर्प्त तथा ।।२९॥
एचन्पर^> हृदि घ्यात्वा मानसेनेव पूजयेत्‌ ।
त्रिसप्तदिनमात्रेण नानाकृतििमनाश्चनम्‌ 1॥३०॥
सास्नपात्रे जल ग्राह्य श्रीसूकनैव मन्यत्‌ ।
हात वद्धेशत्त वाय विरप्तमय पुक्‌ ॥२१॥
सुलसीमञ्जरोमिश्च नार्जयेद्‌ रोगपीडितः" ।
प्रारोहारवरोहेण ऋचान्ते मान तया । ३२५
विकालमेककाल वा मार्जयेद्‌ घ्यानपूवंस्म्‌
विमोचय) च यद्रोग नाश्मप्नोत्ति निदिवितम्‌ ॥॥३३॥
शौशूक्तेनेव जिह्यं मजंेत्‌ तुलप्तीदलः 1
धिशवप्त+\ भ्राततरृत्वाय जिह्ुास्त[भनयान्तिकृत्‌ ॥३४।॥
१. र. मुनिषरस्वम्‌ ॥ २. स सोवे-। ३. रा बन्रमप्दे॥ ४. रा. कृत्विमपने।
५, र. पष्टदगेठ। द. रा. पन्वर्गेदा! ७. ग्म्मवंः 7 € प पक्रण
१०. पाख । ११. न्लेष्वः) १२. प,उपेद्‌। १३. रा. एवंयव। १५ रपम
द्ेभ्वि\ १६. डुधिमोप (प) \ १७. र, त्रिष 1
६] साद्यायनतन्व
1, ~+ ~~~

गोक्षीर प्रातरप्याय श्रीसूक्तेनैव मव्रयत्‌ ।


दशवार' ध्यानपूवं तरक्ोर प्राश्चयनर."* ॥३५॥
कोटिस्यस्थापन चव माजयुन्मूलविद्यया ।
प्तल्यादिभ्रयोग च नाशमाप्नोति निरिचतम्‌ ॥३६॥
ताञ्चपान जल रुद्ध मत्रयदक्स्यया ।
तज्जलप्राश्चनदेव वुद्धिभ्र चोर विनश्यति ॥३७॥
उष्णोदक तःज्परत्र विसप्तमभिमशत्रयत)
नगनूले च ह्रोग ना्चमःप्नोति पृ्रक ।३८॥
इति भीषदविद्यागने> स्तमनासतरो एसहारभ नाम पर्याह्निगत्पटल ।
॥ प्रय चतुर््तिश्ञ पटल ॥
विश्वेश्वरी विश्ववन्या विश्वानन्द स्वरूपिणी ।
पोतवस्त्रादिष^तुष्टा* पोतद्रूमनिवातिनो ५।१।॥ १
प्रौञचमेदतन उवाच
विश्वाराध्य भवानीश विश्वोत्पत्तिविधायकभ ।
्रूहि मे इप्या तात सकलगमकोविद'= ॥२॥
ईष्वर उवा्--
समस्तकम्मणाः ध्वस्चे सरवोपद्रवनाशने ।
जातिस्तम्मे मन स्तम्भे क्रूरकमनिव।रणे' ° ॥३॥
श्मष्टदेतालशमने सवभरवनशने+' 1
मातृ.णा क्ान्तिजनक स्तम्भन जलरक्षघाम्‌ ।1४॥1
न्देवदानवर्दप्यारोन्‌
(रि) मने रमना ने" १२ ।
समस्तोपद्रवध्वते पूतनादिवि दशने ' ° ॥५॥

१ रा पूवधर्नीर प्रयत्तर वष्र 1 र रा वुद्धिन्रातो) ३ दा पुस्तके


काठ ॥ ४ रा उपसहारभ्रयोग। ५ रह पोतवस्वरापर।
न्साद्पायनत त्र द्व्यधिके
६ ख पृष्तके-- ॥
दश्वरो विश्वया च विध्वान तररूग्णी ।
पीववस्तुदय वृष्ट पोत हूदयनिवागिनीम ॥
७ ख न्युखाकरष्यरा ज्डुमारक+ < खस पदयादढमिदनास्ति। ९ ए समस्तो०॥
११ रा सदमयविनािीं। १२ घ देवदानददत्या-
१० ख प्रकृत्यानिवास्ये।
दमनो$व विनात्ते । दरे ख पूडनादिविार्रे 1
चुतः पटलः [५५
~~~ ^~

कृपटादिविनाशारथे* प्राप्ते प्राणस्य सद्धुटे ।


विशत्मनुधिना्चे पटव्रिद्रोगनाशञने*॥६॥
सूचिप्रयोगविध्वदे महाशस्यास्वदातते।
गतिस्तम्पे* मतिस्तम्मे* सूर्य्याग्निस्तम्मनेषु" च्‌ ॥७॥
नेनारेगविनालायं नानावलेशनिवारथे !
र्णे राजकुले शन्तौ° प्रयोगनाशनेऽि च ॥त्या
परप्रयोगरदिष्वते परह्ृत्यानिवारये ।
कृत्यावेशस्तम्भनोश्य> प्रयोग पण्मुखाचर्‌°164
भ्रनेन योगव्येण स्ेदोषनिवारणम्‌ |
श्रृणु षण्मुख तद्योग सवेयोगोत्तमोत्तमम्‌ 11१०
"पीतावरणन्रुपी च पौतवस्त्रदरयान्वित ^" ।
पौतयज्नोपवीत्तरतु महापीताश्च (सोने * स्वित.** 1११
ज्वालामुख्यभिष बाण त्रिशतं प्रजपेत्‌ सुतत'१*॥
हदिद्राक्षम्ि पीतः+" सवेकायं जपादिकम्‌ ।१२॥
वडवानलनामानं बाएामादौ जपेच्छतम्‌ ।
उत्कामुष्यभिघ १* वाणु द्विशतं प्रजपेत्‌ सुत ॥ १३५
उवलामुख्यभिकं वाणा त्रिशतत प्रजपेत्‌ नर.११।
जातवेदमुलीबाण 'वेदसल्याश्तत'`*सुत ॥१॥
वृदद्भानुमुखीवणं जपेत्‌ १ञवशत सुत ।
"य एकाद" महुाविदा कुत्लुकादिसमन्विताम्‌ १६ ॥ ११॥
नेधलक्ष जपेम्मव्य करूरकर्मादिनाशने*" ।
हरिद्रा" षरेद्धो (ढो)म काम्य गोरवमिनच्छति १६५
१ ख भूरप्रह्विनाएाये) २. छ. विनष्ट विनाधाचं। ३ छ, पटुत्रिणदूवाणु०।
४, घ. मणिस्तम्पे। ४, ख, रतिस्तम्मे। ९, खं न््ठभ्मनेभवि। ७. घ. पथो
८ ख, एत्फविष०॥ ८, घु, पभ्युदादरः। रा. पण्युखाचरेत्‌ 1
९, ५" प रोदाभग्खभूप ढया पोठकस्त्रहृणन्विठः।
१९. स. महारोदरष्युनि 6 १२. ख. सु १३. ~ परयमशो ष. रा. पष्दषयो न्ति!
१४. ल, हरिद्रे गणिन! ( १५. प. उत्कागुखामिषे ' १६. ख. मू । रावः ४
१५. घ. छदम्ते खष्मरेत्‌ । १०८. उ एकयो 1 १६. प. वुमाक्दिण + २०.
करकरमेणन 1 रा. कुकर्मादिग । २१. छ. दृष्द्रिय।
पर्ास्वश्चः पटलः [ ६७

उस्कामुखीद्वितीयास्तरं "स्तम्भनं भुवनचयेः, ।


ज्वालामुलोतृतोयास्तरं स्तम्भनं ऋपिदेदततैः ॥२८॥
जातवेदमुखीबाणो ब्रह्मविष्ण्वादिरल्षणे* ।
(स्वकमेस्तम्मने च" चतु प्रजयेत्‌ सुवं ॥२६॥
वृह्भानुमुखीवाणं* पञ्वमं* परिकोत्तितम्‌*।
पट्‌पज्चकोटिचामुण्डा कालीकोटिशवं सुत ॥३०॥
सपादरोटित्रिएुरा पञ्चाश्चत्लोटिमेरवाः !
नार्हा यातुधानः पूतना: कोटिचेटकाः" २९४
सरमप्तस्तम्भनें पुत्र पञ्चमेन प्रजायते ।
हस्ते सम्पाद्यत 'पञ्चास्त्रं शासनास्व<" स्मरेनमूते 1३२॥
सं कत्पमुलमगी " स्यान्नात्र कयां विचारणा 1
परैलोष्यविजयाल्यं च स्मरेद्वेन्धमुत्तमम्‌ ॥३३॥
यथोक्कुण्डेषु हुनेद्‌ वेदिकायां विशेपतः ।
चुर्स्यां कटा प्रत्तानो पञ्वक्षयाने हुनेदेपि ॥३४॥
चत्वरे एरवंकार्याथं होमयेदुकमारगेतः ।
'सकूचं सक्सुवौ चैव तद्धदिव (विश्व इति कमात्‌"\ १ ॥३१५॥
प्रणि (णी)ता प्रोक्षणोपात्रमाज्यस्याली च पण्मुख*२ 1
सकलं १३ पूणेषात्र च श्रद्चर्येण योगतः" ›* (1 ३६॥
क्रभात्‌ सवे तु सम्पाय होमं कुत्‌ प्रयत्नतः* ।
^कूरकर्माणि तहयनति'" ^ ताके नेत्‌ सुत ॥+३५॥
पोतपष्पेच जुहुयात्‌ क्रूरकमेविनाश्चने* 1
चफुस्त्पणयोयेन क्रूरविध्ननिवारगम्‌**८ ।1दद]
१, "~ ष. त्रितेकोष्तम्मने ०्येत्‌ । २. ब्रह्मदियः०। ३. स. शव॑कमंएयंस्वम्मे ।
रा. घवकर्माणि स्ठभ्मे च ४. ख, ष्वाएः) ५ ब. पएन्वमः। ६. ष. पि
कोितः। ७. व. श्टपुतनाः। रा, श्यूठना-॥ 5. ख. उषां! €. ^~ व. वप्रं
प्रापितस्य । १०. ख. कस्रसुलमामो+ रा, सेकत्पमुखिमोभः। ११. ~ ष. ~
सभिष्कुधा पकभुचो च स्विश्मववर्ठि च श्रमात्‌ । १२. ख. उन्धुदाः १३. स. कत
१४. ख. प्र्रवयो तु जापकः 1 रा. व्रहावायेएा योगकः । ६१. ष, प्रयोगवित्‌ । १६.स. रा.
ष्रकर्मासिनिनचि ॥ १५७. ख. कूटह्ृत्वियनापने 4 १८. “~” छ. -पैठेन तपयेदेवं कूर
प्रहुनिवारणम्‌ 1 रा. प्ररे व्णया देबोर1
९५ 1 क्ाट्पायनतन्न

इति सक्षपतः पूवं" किमन्यः श्रातुमिच्यस्ि।


इति भोपड्विदयागने खहियायनतने चतुष्लिक्त्वटल 3 (३५५
॥ श्रये पञ्चत्िज्ञः पटल.॥!
योपिदाक्पं णाता" फुल्लचम्पकषम्निमाम्‌* ।
दुष्टस्नम्भनमासक्ना* वगला स्तम्मिनी मजे ॥१॥
कोञ्चनेदन उवाच--
नमस्ते सदंसर्वे कू रदूतिसननिभर ।
योगिन्‌" सर्वादिसवेज्न वौजनेद वद प्रमो ॥२॥
ईदवर उवाच--
ग्रथात सम्प्रवक्ष्यामि वगलामन्वनिणंयम्‌ ।
पटव्रश्षदज्षरी विद्या च्िषुरे चैव तिष्ठति।९ ॥३॥
सारयायनमते देन्या१* नारावण११ पि स्मृत.१२॥
शायत्रौदन्द उदिष्ट देवता वगलाह्वया'१२ ॥४॥
सास्यायनमते देवि बामाच।रविधिमेत ।
ब्रह्मयामव्तम्मध्य। ब्रह्मा चास्य षि स्मृत ॥५।१४
प्यायत्री छद ्रादिष्ट देवता संव कोत्तिता'१५॥।
“जयद्रवास्ययामले तु**‹ छऋषिर्नारद एव हि ॥६॥
छष्दादिन पूप्रवत्‌ स्यादिति सक्षपठो मतम्‌ ।
हादिद्रसहिताया तु पन्पिर्नारायणो मत्त ॥1७॥
भरनुष्टुपय"्द भ्टपात +* देवना वगता ।
साख्यायनमत देवो(वि)कछो जागत्ति "= केवलम्‌ ॥८॥
मूष्युज्जयजप ऊषा तनो विद्धा जपेन्‌ युत्त < 1
मृप्युज्जय विना देयो 'वगला महि बिदपति'** 1६1
१ ल. प्रोश्ठ। २ ख क्िपियच्‌। > ख द्वाप्रितति(एकत्रि्तन)पटत ॥।१२ ॥
५ ख तमचेम्यष०) ६ स श्स्वम्ननासकां॥ ७ रा श्वर
घ च्छ्य +
घवल ० द खयोपी। € "~स त्रिदाच परिच्ष्ठिता। रा न्व निष्ठि ।
१० सदेवो+ ११ ष नदरदोऽप्य। षरे ख मत 1 १३ “~स --प्रनुष्टुगदर
कौ{तिता। १४ प्रचमिदप पृष्ठे नात्ति ।
प्माद्या देवता वगलाह्वपा ए रा देवता संव
१६ ख अवदयास्ययामते। रा जयदवयामने
१५ प पुस्तके नास्वि पवादउनिदम्‌।
तु) १७ ख व्िष्टुपृचद खमाद्यत्त। १८ प जरति! १६ छ नुष्ी\ २
न च पुत्तङ नास्वि।
प्रपत्विंः पटः [ ६९
~^

(पिच्छन्दन्रिठयक मतमेदात्‌ प्रदत्तम्‌ ।


बीजसनता प्रवक्ष्यामि" साल्यायनमुखोद्धुवाम्‌२॥१०।१
ध्विवयवीज ° व्यु रतिदिन्दुखमन्वितम्‌ ।
"वद्धि लिवान्तराते तु"* भूबोज योजयेत्‌(पेत्‌) सुत* ॥११॥।
स्थिरमाया इति प्रो्ा विचा ववेकाक्षसी शुमा 1
प्रनया विद्या देवि किन्न सिद्धघति भूतले ५१२
पीतबाह्वामते पुत्र * स्थिरमाया शृणु प्रिये ।
"स्थिरमायाठमागुक्ते स्थिर बौजमितोरिवम्‌*= ॥१३॥
तदुद्धार श्यरणु प्राज्ञ< गगनाद्ध'* समुद्ररेत्‌ ।
स्थिरबोज समुदधूत्य रतिविन्दुखम{वतम्‌ *› ॥ १४५
स्थिरमाया द्वितीया तु इन्दस्ते चन्भरूपिदम्‌^* 1
षयं शप्ता" *२ महाविदया कीलिता १४ स्तम्मिता शिवे,* ॥ १५॥
रेफयोगरान्मदैशानि १° निदशम्ता^* फलदायिनो 1
रेफयुक्ता जपेद्विया 'फलसिद्धिने सशय१८ ॥१६॥
रेफ़दीना जपेद्धिया कोटिज।प्य*६ न सिद्धघति ।
-तस्माप्रेफेण सुक्क २० स्थिरदा*“ परमेदवरि ५ १७॥
सजपेच्‌ "च ठतः पृथः *° सस्य सिद्धिमेविष्यति 1
सघुषोढा महापोढा पञ्जर न्पाष्ठमेव हि ॥१८॥
वगलामातुकान्यास* "कुल्लुका च विचिन्त्य वे^४ 1
वेत्वादिकाम राजान्तः" न्यासमूपयुल्जय* * जपेत्‌ ॥१९॥
१, “~ विन्दृष्पोऽथो च. पुस्तके मास्ति । २, प. सपद्धवात्‌। ३, त. जीवर
योने ५. ख. वहिनलंवा* ) रा, वहिनःछि०। ५. ख शिवे, ६. ष, तविप) ७.
खे. देवि ८, स्थिरर्पातुदा मायास्विदमययादु दा मठा।
रार स्थिरक्पा तु मामाया स्पिरमादा समायतु।
९. ख. प्रत्ने, १०. ष. रा. पगनाणं। ११. ख. नविभूपिहम्‌। १२, ष. ह्विपं
देवि विष्यदव.दम्‌पिठा। १३. प. रा. ष्मघमा। ४. षरा, फत्ता) (१ प,
शा.सुव1 १६. प. रा पदासेद। १७ प. रा. नित्यमाद्‌। {८ प. रेष्दोना
न खथयेत्‌\ १६. ल. ग्यप्ये) २०. सख. तस्नाद्रफ तु संयोज्य । रा, हस्मद्रोक्तु
युक्त । २१. ख. स्थिरः २२. ख, प्रयतो देदि। रा. यपे ददः पुव + २३.
द, मातृक म्यस्य) २५, प. रा. छङदार्दधवं ठदा। २६. प. त्वादि + २६.
पर दा, ष्यस्य।
१०० ] सादपायनत्ये
4 ~~~

ततो वै प्रजपेदिचा खदा जाप्रस्वरूपिणीम्‌ ।


पीतवाचामते देविर पन्चप्रेतगठा! स्मरेत्‌ ॥२०॥
चतुुजा वा द्विमुजा पोत्ताणंवनिवाचिनोम्‌ ।
सुवाणेवत्रमासीना मगिमण्डपमध्यनाम्‌ ।२१॥
साख्यायनमते देवि * संम्मरेद्‌ यलतः शिवे“ ।
सुन्दर्याः पदिचमाम्नाये बगला परितिष्ठति ॥२२॥
ीकाल्यामु (उ) त्तदम्नाये वगला पूज्यत बुव ।
इति पद्विदयायने घारयायनतन्भ्ो पज्दश्रिश^पटल्त * 1 ३५॥
1 क्षय षट्‌ व्रश्च पटलः ॥
योगिनीकोटिसदिता पौताहारोपचन्वलाम्‌ = ।
बगला परमा वन्दे < परब्रह्मस्वरूपिणीम्‌ ॥१॥
प्रीचभेदन उवाच #
चिदानन्दघनावाघ^ * ष्वरमन्य च मा वद'११।
सव्वतिोत परेशान (सर्वभूतहिते र" *२।।२॥
दध्वर्‌ उवाच~
श्रथ “स्कन्द प्रवक्ष्यामि! ** वेकर्माणि नाश्नम्‌,४।
कि केन (ताम प्राप्त"१४ङ केन शान्तिकारणम्‌ "+ ॥३॥
कारण तत्र केन स्यात्‌ तत्छवं कथ्यते श्पृणु ।
प्रादौ मन्त्र जपेत्‌ पुर वरिसहलमददतः ॥॥४॥।
ततः कवचमान्नम्ब्य "° पुनम्मेग् जपेत्‌ ठया*२॥
पटुश्विशद्रारमावस्यं^£ पुरदचरणमुच्यते ॥५।॥
घर्वकर्माणि निनचिर" योगरोऽ्य परिकीत्तिठः 1
श्रनुलोमविलोमेन द्वितीयो योग ईरितः ॥ ६:
१. प.रा-पुत्र। २. ध.मत।। ३. ष. रा. ए्चरेत्‌। ,४ ध.रा.पुवर। ५ ष.
रा. सुत। ६. ख. परिनिष्ठिवा।
६ या. परितिष्ठकाम्‌ 1 ७, ख. तरित्रि्च (दानिश)
पटलः। ८. घ. पीताहारोवि० ! रा. पोतद्रोर ! £ ष, रा. देवीं। १०. ख,
ग्वतध्वानिन्‌ । ११. ख. वारमन्पमहश्वर । स. ारमन्य च म वद ॥ २. स. घवं-
मतहिवाम्बर । १३. छ वण्ु् मध्यम १५. ख. उर्दकर्मणिगाशनम्‌ ॥ १५
पम वभ्प्रप्ं। १६. ख. °ङारकम्‌ । १७. „ घ. रा. न्मारम्य। एष षः,
1
४५ 9४ १६. घ. रा. पड्विरदणमादृत्वा ॥ २०. ख सवेकमंणनिनरि
__ ~ द ~न ९
क. 80१8४ 7
९ +न
त्रिशः परल (9 4^ [ १०६

धिशतं च शतं चापि प्रषटोत्तरसहतम्‌ ।


भ्रष्टोत्तस्तं वापि कवचं पूवंवद्‌ मेत्‌" 11७1
धुद्रकमं णि*निनि योगोऽयं परिकोत्तितः1
धरनुलोमविलोमेन योगो चसुविधः स्मृतः ॥८॥ (6
पटुत्रिषद्वारमावद्यं भवेदेवं विधिः सुत" । थ्‌ह
कवचं प्रपठेदादो मध्ये स्तोधं तु उच्चरेत्‌" * ।€॥1 44 ष
°
धर
शतावत्तेनमात्रेण शूरकर्मणनाशनम्‌९ । & षि
भ्रतुलोमविलोमेन द्वितोयो योग ईरितः ॥१०॥ &्
गायत्रो कवचं पुत्र मन्त्रं स्तोत्रं पुनणए्व सा। श्र
प्रण्प्प
१.,००१
दद्विधद्ारमावत्यं पट्‌िश्वावत्तने चरेत्‌ 1११॥ श्
शतेन क्रमयोगेन सवकम विन्नम्‌ \ +
तारायां कालिकया च 'द्ितनायाभेवभेव वु" ॥१२॥
पनुकरमेण^ सवत्र कुरयादावत्तनं वुषः ।
मन्धमात्रकायमेत्त्‌<स्वंदोपनिवारणम्‌** ११३॥
कवचं प्रथमं, * बाणः कवचं च द्वितोयकम्‌*२ ।
कचं च तुतोयं^> स्यात्‌ कवचं च घतुर्ंकम्‌ \* ॥1 १२४॥
कवं पञ्चमं २ बाणः कवचं प्रपठेत्‌ छती १५८
श्रनुलोमविदोमेन दिकोयो योग ईरितः १५१
रणस्तम्मे “सवेकर्मा्ताते मृत्युस्तम्भने"**
श्राणिरक्षादिग्परलादेष्यो रक्षणक्मंणि'*< ॥१६॥
योगोऽयं कथितः पुष वगरलामन्यर ईरितः^* }
पा्ाक्षरीं जवेदादौ कवचं हृदयं तया ॥१७॥

१. घ, ९. भवेत्‌ । २.. स. सुद्रकर्मारि । ३, ख. मवेदेकं पुनस्वपा 1 रा. भवेदेष


४. ख. पुनष्चतत्‌॥ ५.प. रा. कूर्मा ६. स. खवंक्मंणनायनम्‌। ५७,
घ. दा. किन्मयाचेदषएवव) ८. प. मनुक्नेख। ६. घ, मन्यान्ने०) १०. स.
जविनावनम्‌ । ११. उ. रञ्वमोो। २. स. दिलोयकः ' ३. ख. वृतोय.। २४,
ख. पतूरयशः। १४. ख. रा. पल्वमो। १६. ध. रा. ठठः) ७, स, मन.स्वम्मे
सदृकमरणगाने । १८ "~ ष.
मुस्पस्तप्म प्ठ॒रकषादिम्पर्सणक््मणि ॥
१६. स. कात्पादो भन्ध्रयोपठः + दः. कत्दादो० ए ह
१०२] साष्यायनततन््े

कवच वेदवणं च कवच चश््वर्णेकम्‌ ॥
सनेन कमयागेन योम क्मगनाशन ^ ॥१८॥
“एकाक्षरी जपदादो'> कवच प्रपद्‌ यत.* 1
वेदाक्षरो जपदादो कवच प्रपठेत्तया ॥१६॥
वेदाक्षरै* ततो जाप्य कवच तदन^तरम्‌ ।
पटुत्निशदक्षरी जाप्य कवच तदनन्तरम्‌ ॥२०॥
वेदाक्षरीमनुपुर * कवच प्रथम तथा ।
"कवच च द्वितीय स्पात्‌ कवच च तृतीयक ** ॥२१॥
कवच च चतुथं स्यात्‌ कवच पञ्चमस्तथा'= ।
कवच हृदयः वाच कवच शत्तवणकम्‌ ॥२२॥
“कवचात्‌ कोलन योग त्रलोव्रयरक्षराकर*** ।
श्रनेन कमयोगेन त्लोक्यस्तम्भन भवेत्‌, * ॥२३॥
दुष्रादिपदसस्तम्म समुद्रस्तम्भनेऽपि!* च।
"महाविचयास्तम्भन च सप्य ब्रह्यस््रस्तम्भनम'* ।२४॥
“महापायुपतादोना स्तम्भने”१* मृष्युपातने ।
महात्रह्यास्नयोगो हि" * गोपनीय प्रषप्नत ॥२५॥
इति पडविद्यागमे साल्यापनत व॒ ईंदवरपण्वुखसवदे महादिन्यप्रमोग
कथन नाम!१ १ पटप्रि्चप्यरत १४।
॥ अथ पच्चव्रिश पटलः ॥
पीतवणक्षमासीना पोतगनजनानुलेपनाम्‌ ।
पोतोपदाररषिका भजे पोताम्बरा पराम्‌ ॥१॥।
क्रौञ्चभदन उवाच
स्वामिन्‌ सिद्धगु(ग)णाव्यक्ष समस्तमणपारा 1
रहस्य सूचित पूवं कित्र मह्य प्रदर्शितम्‌ ॥२॥
------ख पप्र षद्वणक ॥ २ षरा म स केगक्म्सि चनन । ३ पष भयेदासौ क्वच
या! ५ घ बद्षरो। ६ ख पञ्वकचध्वारिशन्मनु । रा चम्वारिि मनुपुर
ध ध विह नस्वाषद्ररो घ. प्तक नाच्वि॥ & ख हृद्या। १० ल--
४ कव चारकोलयन मनु प्रात्र चोक्यरक्षरु ।
१२ घ रस्तम्भनेति। १३ भयमशो नाष्विल पुस्तके १४
११ ख क्षणात ॥ नेष १६ घर पि) १६ घ रा नस्ययम्च । १७
ष्ठ महापानुपता
नु सत्रा दिषात
प्ल
ख चलूस्विरतत (तरित्रिश्त) २
चतूह्मः पटलः {१०३
~~~

ईश्वर उवाच
त्व वद महादेव यदि पुत्रोऽस्मि ठै बद
रहस्यातिरहस्यं च कथ्यते ष्णु पुन ॥३॥
्रमत्याना च दुष्टाना दूपहाना दुराट्धनाम्‌ ।
सुरप्रदादिजपतीना सेन्यानमवि पुत्रक 11४॥1
फररप्रहदिनाश्चाय षदेशान्त्ययेमेव च 1
पररासिचारशान्त्ययं रक्ताय च विशेषनः ॥४॥
शरपमृह्युविनाशयं रोग्ान्त्वथेमेव च 1
परसेनाविनाश्ाय स्वसेनारक्षणाय च \1६॥}
धार्म च प्रां च विजयायं च पण्मुद् ।
वेतालाश्ष्च विनाशा मेरवादिप्रशान्तये 11७1
खसस्तविपनिर्नाये मुष्टिङुक्षिविघादपि 1
कषस्वास्ववागवनि चहारस्त्रादिनने प
शस्थास्पस्वम्मते पप्र तदच्छवि(व)विषावयि।
स्तन्दीकरणनिनाशि(्णाये) यृतकोत्वापनेऽपि च ॥६॥
देशोषद्रवनाश्ाये राषटरमद्गे समागते ।
कोटिङत्याविनायायं स्वेष्टरक्षणकर्मणि १०)
हृतनष्टपणष्टादिव्‌।खगकमनेयनातिपु ।
पत्रपुप्पफनं शालाजदाह्वकष्लौ
रनोरके ॥ १९1
महाविपे तैजहे तु विष्मू्रविजरहृवे
उद्‌्ान्तधुतिनाश्ये वटङृत्यादिनःचने । १२
जलङ्कत्पाविनाद्ा्े स्यलङ्कद्फाविनाश्चने ।
वृक्षङृव्यानाचनार्ये रन्यङृत्यादिषावकी
(पि) ११२५
महिश््रपदनिनि विरू डानारनेऽपि च
मेरूडना्ना्थे च रिकपविशरभेरवे ॥१४॥
षस्यस्तमे दाना मन्प्रमण्डतरेगहूत्‌ ॥
इप्तव्रहास्वयोगोऽयं सर्वंघा चलति धकम्‌ ॥१६॥
प्रमोघमू्युनाशचाय समष््ववेकमाय (प्)दि 1
त भ्रयोगमहापोग ग्यृणु खावदहितो मव 11१६५
१०४ साहपरायनतनत्े
0 -~~^~~~~--~-~-~~~-~-
^^

कुण्डे वा स्यण्डिते वेद्या चत्वरे पितृकानमे !


चु्या सकटया(इाकटचा}वा देवि होतव्य सर्वकमेणि ॥ १७॥
शुमक्षादियोगे वु परणोममादरे|व्‌]घुत }
स्वस्तिवाचनेमाताद् द्विजाना वरण चरेत्‌ ॥१८॥
वगलास्न मध्यमागे करे निष्टुरवधनम्‌ 1
पय्वास्त्र दक्षक्षि) णा च मूलास्त्र" होमकर्मणि ॥१६॥
नं लोक्यविजयास्व्र' च स्मरेदस्प्रे मुत्तमम्‌ ।
निष्ठुराञ्चालयेदेव दोप्कास्त्र प्रयोजयेत्‌॥२०॥
पूवेभागे तु पञ्चास्त्रमुत्तरे मुण्डमृत्तमम्‌ ।
महोग्रविजय दक्षे विजयास्न प्रयोजितम्‌ ॥२१॥
हिलाकर चदला तूर्य तया पञ्वाद्ध.-ली प्रिया ।
पिचमे कीत्तिता विचा वघद्वयपुरस्छरम्‌ ॥ २२
श्रादो गणपति पूज्ये द्वारपूजादिसयृतम्‌ ।
विश्राणा वरण कत्वा वगलादीपम।चरेत्‌ ॥२३॥
मण्डले वपलादोषो(प )कवचे मूलदोपकः ।
पोताशा (शौ) पोतवस्व्राढया (चः) पीतयज्ञोपवीक्तवान्‌ ॥।२४॥
पीताशनी पीतभक्षौ पीतशग्यापरायण, ।
हरिद्रक्षेण मणिना सर्वे कायं जपादिकम्‌ ॥२५।॥
हरद्रामि, मुरकाभि, रोचनापृतमिधितैः ।
विस्वप्रसूनजु हुयात्‌ सर्वोपवातनिवारणम्‌ ॥२६॥
श्रयवा पीतपुप्पस्तु हरिद्रामधुथो जनम्‌ ।
हर्द्या दरिद्राणि नदयस्त्येव न सशयः 11 २७॥
क्रमेन पोच (व)येण सर्वोप्वातनिनारणम्‌ ।
पोताभरगनूषाडय (डव ) पोवक्ाचान्रिकाद्त्‌ ५२८५
शतम-टोत्तरशत धरित च सहस्रकम्‌ ।
त्रिहल पञ्च तथा दि्गिव्त्यादिरेव च ॥२६॥
पञ्चविशच्च पञ्चाशत्‌ षटल् लक्षमानक्म्‌ ॥
लक्षोपरि महेशानि न होमोऽस्ति महीतले ॥३०॥1
सु्द्यां कालिकया च वैदिके कोटिमात्रकम्‌ ।
होमस्य तु दशायेन तपण मज्जेन तथा ॥३१॥
पुञ्चव्रिशत्परलः १०४

सुरया तर्पण पु ततेन मार्ज्जनमाचरेत्‌


प्रभिपेको विप्रभोज्य सराङ्गयोग प्रसिद्धचतिं ।।३२॥
नात. परतरो योगो विद्ते वि मण्डले ।
सर्वेकम्मंविनाशा्थं विपनाया्थेमदुमुतम्‌ ।१३३॥१
गोपनीय गोपनीय गोपनीय प्रयत्नत. ।
रहस्यातिरहस्य च रदस्यातिरहस्यकमू 11३४॥
इति सक्षेपत- परोक्त तोपयेदकिणादिना ।
भयोगस्योपसहार (र ) कत्तव्य सिद्धिमिच्छता ।२३५॥
इति पड्विद्यापमे साख्यायनसत्र
पॐचत्रिएत्‌ (चतुत्विशव्‌) पलत १।३४१।
१०६ चारयवनतन्धरे
^ ~~^^~^~~~^ ~^ ~^“ ^^

परिशिष्टम्‌-(क)
ऋपव्पादि.यासच्वानाद्ियुताः

1 सांस्यायनतन्त्रगता मन्त्राः ।४

१. एकाश्रीवगलाप्न््ः--
ह्वी ¦
~ ३ श्रस्य श्रीवगलामुप्येकाक्षरी महामन्त्रस्य ब्रह्म ऋपिगयित्रीदन्द
श्रीवगलामुखी देवता लं वीज, द्धौ यक्ति, ई" कौलक्त श्रीवगलामुग्ीदेवताम्बा-
प्रसादसिद्र
यथे जपे विनियोन ।
चष्यादिन्यासः -- गरहयपेये नम॒ रिरि, गायगीदन्दसे नमो मुस,
श्रीवगलामुपरीदेवतायै नमो हृदि लं वौाय नमो गुद्धे, हौ यक्ते नम. पादयोः,
रे कीलकाय नम स्वद्भं। >
फरग्याप्त.-ञ द्वं प्रद्गुषठाभ्या नम, ॐ द्वी तर्जनीम्या स्वाहा,
ॐ हतं मध्यमाम्या वधद्‌ ॐ दृते अननामिकाम्या हुम्‌, ॐ ह्ली कनिष्ठिकाम्या
वौपद्‌, ॐ हलः करतल करपृष्ठाम्या फट्‌ ।
हृदयादिन्या्त.-> ल्ल हृदयाय नम , द्वी धिरमे स्वाहा, ॐ ह्लूं
क्षिषायै वपद्‌, ॐ हले कवचाय हुम्‌, ॐ द्धीनेतरयपाय गपट्‌, ॐ ह्वः भरखाय फट्‌ ।
प्यानम्‌-- वादी भूकति र इति क्षित्िपतिर्वेद बानरः धीतति,
क्तोधी शान्तति दजन सुननति किग्रानुगः खञ्जति ।
गर्गी खर्वति सर्बविच्च जडति त्वचयन्त्रिरा यन्तितः,
श्रीनित्यै वगलामूसि प्रतिदिन कल्याणि तुम्य नमः ॥
[पञ्चमः पटल -- पृठ- १२, १३]
२. श्वोव्फपत्यटपिशदक्षरोवियामन््ः-ॐ> दी वगनामूति सरवदृष्टाना
पाच मुप प्रद स्तम्भय जिह्वां कीलय वुद्धि विनाधय द्वौ ॐ स्वाहा 1
ॐ ग्रस्य ध्रीवयलानु रीपटु्रिरदक्षरीविद्ामहामन्रय श्रीनारदग्छपिः,
वृहतीधन ,* श्रीवगलामुसौदेवता,
4 ले बीज, दं पक्ति, ६ पीलवर, श्रीबगता-
भुसीदेवताभ्रसादसिडपये जपे विनियाग. ।
~ =-= ५
१ स क्यभ्यद + र. (पतृषडुरपुन्" प्यत्र ह्यते + द" ^ (षयन्यत्र ॥
पिदयम्‌ {क} पै
91

कऋबयादिन्यावः --श्रीनारदयेये नमः निरि, पृतीदछन्दसे नमो मुखे,


श्रोवगलामुखीदेवताये नमो हृदये, वें वीजाय नमो गुह्ये, दहैशक्तये नमः पादयोः,
द कीलकाय नमः सर्वादे ।
करयासः-- ॐ ह श्रद्‌गुष्ाभ्यां नमः, ॐ हौ वगलामुि तर्जनोम्या
स्वाहा, ॐ धी सर्वदरषटाना मध्यमाया वपद्‌, ॐ द्धी वाच मूख पदं स्तम्भये
प्रनानिका््यां ह ॐ द्वौ जिह्वा कौलय कनिषठिकाम्या वोपद्‌, ॐ ह्धी बुद्धि
विनाश्य द्धी ॐ स्वाहा करततकरपृष्ठभ्या फट्‌ 1
हदयादिन्यास्ः-ॐ ह्ली हृदयाय नम, ॐ द्धी वगलामुखि श्चिरते
स्वाहा, 2 द्धौ सर्वदुष्रना शिखायै वषद्‌, ॐ हभ वाच मुख पदे स्तम्भय
कवचाय ह, द्धौ जिह्वा कीलय नेप्र्याय दौपट्‌, ॐ छवी बुद्धि विनादराब
श्री इ स्वाहा प्रह्लय फट्‌ 1
ध्यानम्‌
--चतुभुजा त्रिलन्‌ा कमलासनसस्थिताम्‌ 1
त्रिशूल परलपात्र च गदा जिह्व च विश्रतीम्‌ {1
बिम्बोष्ठी केभ्बुकण्ठौ च समपीनपयोधयाम्‌ }
पोताम्बरा मदाधूणीं भ्यायेद्‌ ब्रह्माखदेवताम्‌ ॥1
[सप्तम. पटलः---पृष्ठ-१९-१७]
३. भोव्गलामुखोगायत्रीमन्धः--> द्धी ब्रह्याज्ञाय विद्महे स्तम्भन
णाय घीमहि त्तो वमल प्रचोदयात्‌ 1
ठ प्रस्थ धीवगलागायतोमन्नस्य ब्रह्मा "पिः, गायत्रीचन्द" ब्रह्याख-
अगलदिवता, % वीज, ही ^ शक्तिः, विद्महे कीलक, श्रीकला मुलीदेवताप्रसाद-
सिद्धये जपे विनियोगः \
ऋष्यादिन्यासः--शरोब्रहमपेये नमः शिरसि, गायत्रो्न्दसे नमो मूते,
श्रीबरह्मप्कवगलामुखीदेवते नमो हृद्ये, > वीजाय नमो गुध, दी सक्ते नमः
पदयोः, विद्महे फीलकाय नमः सर्वाद्खि {
कारन्धासः--5ॐ ह ब्रह्यालाय विदे अडगृषठाम्यां नमः, स्तम्भनवाणाय
घोमहि तर्जनीम्या स्वादा, तन्नो बगला प्रचोदयात्‌ मध्यमाम्या वयद्‌, ॐ> द्वी
श्रह्माखराय विषहे मरनामिकास्या ह्‌, स्तम्भनवाणायधोमहि कनिषठिकाम्यां बौषद्‌,
तद्म बगसर प्रवोदयात्‌ करवलकरपृष्ठास्या द्‌ ।

१, "टव" श्य पाडः १


१० साख्यप्यनतन्े

हृदयादिन्यासः-ॐ ह ब्रह्माद्धाय विद्महे हृदयाय नमः, स्तम्भनवासाय
घीमदि दिते स्वाहा, तन्नो वगला प्रचोदयात्‌ धिखायं वयद्‌, ॐ ह्वी ब्रहुल्ञाय
विद्महे कवचाय हुम्‌, स्तम्भनवाणाय धीमहि नेग्रव्रयाय वौपद्‌, तन्नो वगला
प्रचोदयात्‌ श्रस्नाय फट्‌ ।
ध्यान पूर्ववत्‌ \
{दादग. पटल.-पृ्ठ-२६ ]
४ पच्रपश्चाद्मरक्षरो वगलामुतोपञ्चाखमनन.- ॐ द्धी हु ग्नौ वगला-
मृखिदह्वां ह्वी हत्‌ सर्वदुष्टाना हलं ल्ली ह्वः वाच मुख प्रद स्तम्भय स्तम्भय
ह्वः द्धौ ट्ते जिह्वा कोलयट्वूं ह्वी ह्वा बुद्धि विनादाय रग्नौहह्ली ख
स्वाहा 1,
ॐ श्रस्य धरीवगलामुखीपच्वाल्लमहामन्नस्य वमि्ठऋपिः, पडक्तिरदन्द ,
रणस्तम्भनकारिणी वगनामुखौ देवता, लं वीज, द्धी शक्ति, र कीलक श्रीवगस"-
मुखीदेवताम्वाप्रसादसिद्धधरथे जपे विनियोग ।
ऋष्यादिन्पासः--श्रीनारदश्पये नम. सिरसि श्रौवगलामुखीदेवतायं नमो
हदये, ते बीजाय नमो मुछ, दै शक्तये नम पादयो ई कौलकाय नम सर्वा ।
करन्यातः-ॐ ह्वी अड्गुषठाम्या नम , ॐ द्वी वयलामुखि तजनीम्या
स्वाहा, ॐ द्वी सरवदृष्टाना मध्यमान्या वपट्‌, ॐ द्धी वाच मुष पद स्तम्भय
श्रनामिकाम्या हुम्‌, ॐ ह्वी जिह्वा कोलय कनिष्ठकराम्या वौपद्‌, ॐ ह्वी वुदि
विनायय ह्वी ॐ स्वाहा करततकरपृष्ठान्या फट्‌ । एव हृदपादिन्यास" |
ध्यानन्‌-पताम्बरथरा देवौ दिसदस्रमुतान्विताम्‌ ।
सान्द्रजिह्वा गदा चास्मर घारयन्तौ दावा भजेत्‌ 7
[परवद पटलः --पृ् ३८-३६]
५. ्ष्टपश्चश्षदक्षर उत्कामृस्यखमन्प्र - > द्री म्तौ वगलामुनि उ ही
स्तौ सवेदुष्टाना ॐ हीं म्तौ वाच मुग्र पद ॐ द्व र्वो स्तम्भय स्तम्भय ॐ घ्वी
म्तौ जिह्वा कीलय ॐ द्धी म्नौ वुद्धि विनाशय म द्धी म्नो ह्वी स्वाहा ।*
पर्दा मो सग्ताुलि द्वाद्धोत्नः स्वदनं घं तौ ए. गव ४ पदं
स्पम्ब्यद्ध द्धं द्धं निहा रतयन्त द्व र स्नि्ण्दाप्ताप् म्नो
ह्वी ८ स्वाहा एत्पेडदिधो मश्रोऽप्यन्यप्र हृस्यत ॥
ग्डो वच पुष्पम पी भ्तौ स्तम्मप
र "द्धी म्ल गमतामुलि सददुानां = द्धा
भ्ल कडि नारव नाश्य *> एप्त)
स्तम्नय र पो प्तो विद्वो सनव कोलय > द्धो
स्वाहा" दृत्यपि भम्ननेदो स्पते ।
, परिरिष्टम्‌ (क) १०९
~+~^^^^~^ ~~~

ॐ श्रस्य ध्रीउल्कामुख्यसखमन्यस्य श्रीम्निवराह+ ऋषि ककुप्‌ छन्दः,


श्रीउल्कामूखी दैवता, ह्वी चीज, स्वाहा शक्तिः, म्तौ कीलक, जगर्स्तम्भनकारिणी
्रीरत्कामुसीदेवताम्वाप्रसादसिदधघथे जपेविनियोगः ।
ऋष्यादिन्याप्तः-श्रीवराहपंये नमः शिरसि, भअनुषुष्डन्दसे नमो पचे,
श्रीउल्कामुखीदेवताय नमो हृदि, घ्वी वीजाय नमो गुष्, स्वादादक्तये नमः
पादयोः, रनौ कौलकाय नयः सचद्धिं 1
मूलमननवत्करपडद्धन्यासाः ।
घ्यानम्‌--विलयनलसकाशा वीरा वेदसमन्यिताम्‌ ।
िराण्मेयी महदेव स्तम्मनाथं भजाम्यहम्‌ ॥
[ण्छदय. पटतः--ए४.२९]
६. पटटिवरणात्मक. भ्रीजातवेदमुख्यखमन्ब्र.-२४ ह्वी रसौ ह्वी ॐ वयला-
मुखि म्वदु्टाना ॐ ह्वी षौ ल्ली ॐ वाच मुख पद स्तम्भय स्तम्भय ॐ द्धी
हसौ ह्वी ख जिह्वा कोलय ॐ ह्वी टपौ ह्वी ॐ वुद्धि नाशय नाथय ॐ ह्ली ट्सौँ
8५ स्वाहा 13
ॐ प्रस्य श्रीजातवेदमुख्यखमन्य्रस्य श्रीकालाग्निरद्र ऋषिः, पक्तिदखन्दः,
श्रीजात्तवेदमुखी देवता, ॐ वीज, ह्ली* शक्ति, हं कीलकमु, मम श्रीजातवेद-
मुखीदेवताम्वाप्र्तादसि द्वघर्येजपे विनियोगः 1
ऋप्याङिरयातः-- प्रीकालाग्निखपंये नमः शिरति, पक्तिन्छन्दसे नमो
मवे, भीजातवैदमुखदेवतायं नमो हृदये, ॐ बीजाय नमो गुद्धे, ही धक्तये
नमः पादयोः, हंकीलकाय नम. सर्वङ्धिं ।
भूलमन्वत्करपडङ्गन्यासाः--
ध्यानमृ-- जातयेदमुखी देवी देवता प्राणरूपिणीम्‌ ।
भजेऽहं स्तम्भनाथं च स्तभिनीः विदवरूपिणीम्‌ ॥
[पोडशः पटतः-पृ६-४०.४१]

१, "यक्तवाराह्‌ इर्यवि पाठ \ २, “धनृष्टुए्‌" इस्यभ्य +


३, सम्प्रोऽय पध्ानुषारेण घु प्पणटिवसस्मषो जायते हिम्टवम्दव निम्नोदृठसेत्या इष्यते
षटटिवणं.--
^ द्धो ह दों वगसगमुलि सवंदुष्टानां ४ द्री हां पलो = बाच पृषं पदं स्तम्मपे
स्तम्भय ॐ द्धाहो द जिद्वा रतप रूछ्ी षह २ यदि नारयमाश्यू ह
ली स्वहा ॥
४. श्ट इत्यपि पाठः॥ ४. चिन्मयोनिति पठः ९8चित्‌ ।
११० सांस्पायनतनतर
^^ ^^~^^^^~^~^^~~^^^~~-~^^^^~~~ ^-^ ^

७ विज्ोत्तरशनवर्शात्मको ज्वालामुख्यदपन्व - द्धी रँ रीषरं


रौ प्रस्फुर प्रस्फुर वगलामृणि! अ्न्ह्वीरं री हरर प्रफुर प्रस्फुर
सर्वुष्टाना ॐ ह्ली राँरौरू ररौ प्रसर प्रस्छुर वाच मृव प्रद स्तम्भय
स्तम्भयस्न्ह्लीररीषरं रौ प्रस्फुर प्रस्फुर जिह्वा कौल्य कौलयस्ल्ती
रारीरूरेरोौ प्रस्फुर प्रस्फुर बुद्धि विनादाय विनायय ज्छह्लीरारीरू
रेः रौ प्रम्फुर प्रस्फुर स्वाहा ।*
उ प्रस्य श्रीज्यालामुप्यन्नम.नस्य श्रौय्रति ऋ पगयितो छन्द , घोज्वाला-
मूखी देवता, ॐ वोज द्वी शक्तिः, ह कौल श्रौज्वालामुखीदेवनाम्वाप्रसाव-
सिद्धचर्थे जपे विनियोग ।
ऋष्यादिन्पातत श्री ग्रतिक्छपये नमः विरि, गायनीद्धन्मे नमौ मृष,
धरीज्वालामुखीदेवताय नमो हृदि, ॐ व्रीजाय नमो गुह्य, हो यक्तये नेम वादयो ,
हंकौलकाय नम. सर्वाद्ध ।
मुलमस्त्रवत्करषउङ्घन्यात्ता
ध्यानम्‌-ज्वलत्य्मासनापुक्ता कालनलघमध्रमम्‌ 1
चिन्मयी स्तम्भिनी देवी भजेऽह्‌ विधिपूर्वकम ।1
[पाडल पटल --पृष्ट-४१]
८. धडुत्तरशताधिकवणत्मकः श्रोवृहदधानृमुख्यत्नमन्य --ॐ ल्वा ह्ली
हत्त ह्ील्न.ल्वाह्ली हन्‌ लवे ह्ली ह्न ॐ वगलामूृधि ॐहो ल्ल
हत्‌ हते ह्लौ रः हनौ द्वी सन्‌ १ ल्ल ॐ मदाना, वाच मूख पद
स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्ला हीट ने तौ ह हाल्लीट्त्‌ त्वं ब्लोल्लः
ॐ जिह्वा कीलय ॐ ह्वौ ह्वीटन स्न क्ती ह्व ब्ाह्लीत्यल्तलौलल =
बुद्धि नाधव > ह्वाती स्त हं ह्ीन्न लनां ह्ीह्न्‌ टवं ज्ञान ॐ
ॐ स्वाहा ।
ष एतत्पदस्थाने याल्वनृ्तिः पव सूत्रे वर्तते किम्वस्य प्रहायनमत्रे एकाक्षरपरा स्गद
तस्तत्पदमेवान स्पृदौतेम \
२ दमेदु "वह्िगेन च पञ्चक इति दरनतत्वदग रेरररेरेः इति ठीनानि प्राह्यासि
हिनतुषयं कोजानगमन्यन्नापि य्यवहारारत्रापि स्वछतः वोद्पूह्यणनि ,
३ चायम मन्व्ुस्तरशतवरणासनकोभय दर्ये मषा हवीं ह
ह्वल हः क्गतायुलि २ ्वाह्ती्वःंह्वाद्ह्न लातत
हद हत्या दाच मुपप न्मम स्वनमय च्ताह्ोदःहल्ोल्ल
द्रहः ल. निहाकन ज तोह्न हं तह्न ल
वराहः इड नाष्य = तादलील-नत्रोढत्नत्राद्वीत्रः
द्वी हव. स्मह
परिक्ि्टम्‌ (क) ११६
^^ ^^ ^+
ॐ प्रस्य धीवृहेद्धानुमुख्यस्नमन्नस्य श्रीसवितां ऋषिः, गायनी छन्दः,
शरौवृहद्ानुमखी देव्ता, ज्वी वीज, द्धो शक्तिः, ॐ कोलक, श्रोवृहद्ानुमुखी-
देवताम्बाप्रसपदसिद्धव्थं जपे विनियोयः । ,
चप्पादिन्याप्तः--श्री सविल्यृपये नमः शिरसि, गायग्रीन्दमे नमो मुषे,
शरीवृदेद्रानुमुखीदेवताये नमो हृदये, ह्वी वीजाय नमो गुदे, द्री शक्तये
नम. पादयोः, 2; कीलकाय नमः सर्वाद्िं 1
मूलमन्य वशकरपडद्ुन्यासाः ।
ध्यानम्‌--कालानलनिभा देवी ज्वलत्वुञ्लदिरोरुहाम्‌ ।
कोटिवाहुस्मायुक्ता वंरिजिह्धाप्रमन्विताम्‌ ॥ १॥
स्तम्भनास्त्रमयी देदी दृढपीनपयोषराम्‌ ॥
मदिरामदसथुक्ता वृहद्भानुमुखी भजे ॥२॥ ४
[सदशः पटलः- पृष्ट-४२-४३]
& शीवगलामुलीशताक्षसेमहाभन्नः--द्वी एही वली श्री ्म्तौह्धी
बगलामुखि स्फर स्फुर सवदुष्टाना वाच मुख पद स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर
विकटां घोररूपि जिह्वा कीलय महाभमकरि वुद्धि नाश्य विराण्मयि,
सर्ेप्र्ामयि प्रज्ञा नादाय उन्मादीकुरर कुर मनोपहारिणि ह्वी म्नौ श्रीं
परली द्धी ए ह्वी स्वाहा ॥
ॐ श्रस्य श्रीवगलामुखीशतेाक्षरमहामन्तरस्य श्ोब्रह्या ऋपिः, गायप्रीदन्दः,
जगरस्तम्भनकारिणी श्रीवगलामुखी देवता, ह्वी वीज, ही धक्तिः, ए कीलक,
जगततस्तम्भनकारिरी श्रीवगलामुखीदेवताम्बाप्रसादसिढ़पर्ये जपे विनियोगः ।
मूलमन्त्रवत्करेपड द्गन्यासाः }

ध्पानम्‌- पीताम्दरधरा सम्या पीतरूपणएश्रुपिताग्‌


स्वरं सिहासनस्या च मूते कत्सतरोरषः ॥१।।
वैरिजिह्वाभेदनायं चुरिकां*विभती श्विवाम्‌ ।
पानपा यदा पार पारयन्ती भजाम्यद्‌ ॥२॥
(खपदराः परसः- ९८-४४-४५)

१, विरामय' दृष्यदि पाः . 'उम्मारं कुषः इति सटोऽदि देर्प्वे । ३. शसू


पतिं पाठोऽम्यत्र ॥
११२ सांखयायनतन्व्े
^^“ ^~---^~^-^^~~~~^^~^
~^ ^^

१० श्रष्टाविशत्ुत्तरंफदयताक्षर श्रोवसामुखोपरगिदःनेदनमन्ध्रः १ --
ह्वी भ्रीदह्धौ श्लौ एं क्ली हुं श्री" वगलामुभि पदप्रयोग ग्रस ग्रस ॐ
ह्वी श्री द्धी म्नौ रे क्तो हक्षी ब्रह्मास्तल्पिणि परप्िचाग्रसिनि भक्षय
भक्षय घ्य्ह्टीध्रीद्टी म्नौ रँ ज्सौ क्षौ परपरनाहारिणि प्रजा भ्रगय
भरण्य अ ह्ली शौ हो र्म्नाणए क्ली हँ क्षी म्तम्मनाबन्पिशि वुद्धि
नाश्य नादाय पच्चंन्द्िपनान भक्ष भक्त च्द्धीश्रीह्ीग्लौए कतीह
बगलामुखि ह फट्‌ स्वाहा ।२
ॐ म्रस्य श्रीपरविद्याभेदिनीवगलाम"त्रस्य धीप्रहणा कपि गायतरीद्युनद,
परविद्माभक्षिखौ नरीवगलामूसी देवता र्शर वीज, द्धा शकि ता कीलक,
श्रीयगलादेवीप्रसादसिष्िद्रारा परविद्याभेदनार्थे जये विनियोग ।
ऋष्यादिन्यास --श्रीवह्यपंय नम शिरसि, मायनीदन्दने नमो मूचै,
परविद्याभक्षिणीश्रीवगलामुखीदेवताये नमा हृदये, ग्रा पीजाय नमा गृह्य, ही
शक्तये लम पादयो, करो कीलकाय नम सद्धिं ।
करन्याप्त -ग्रांह्धी कनो भ्रद्गृष्ठाम्या नम, वद वदतजनीम्या स्वाहा,
वाग्वादिनि मघ्यमाम्या वषट्‌, स्वाहा श्रनामिकामभ्या दु, ए वलौ सौकनिष्ठिकाम्या
वौपद्‌, ह्वीकरतलकरपृषठाम्या फट्‌ ।
हुदादिन्यास यां हीक्रो हृदयाय नम, वद वर शिरये स्वाहा,
वाम्बादिनि शिखायै वपद्‌ स्वाटा कवचाय द, ए क्ली मौ ननप्रयाय यीष्द्‌, ती
श्रलायाष््‌ 1
ध्यानम्‌--सपमन्प्रमयौ देवी सवकिपं
णकारिणीम्‌ ।
सर्वंविद्याभक्षिरी च भज विधिपूर्वकम्‌ ॥
[विद्य पटल -पृष्ठ-५४-५५ |
११. त्रिचत्वार््ञदक्षरो वगलास्वरमन््र -ञ् धी ह म्नौ द्वी
यूम प्रस ग्रस खाहि सहि नक्ष भक्ष योणितत पिव पिव
वगलामुखि मम ५
बगलामुखि ह्ली म्लनी हु "फट्‌ स्वाहा" ।
त दस्त वसोर मत्र ्तविशोत्तरगता्षर एव भवति । २ ^्षोहटुष
बली ्ी' तथा ध्यु एव बह्म इति पाठनदो व्दचिदयेते ॥
३ पचध पुस्तकेतु“ श्ब्दस्णोर्योयो नावतोक्यते, न चंता एर स्याह गम्दय्यवहुवरत्त-
मि ताच्ददयी श्ल्याबस्यको साभ्या वरसल्यानुपूरकप्वाव्‌ ४ राक्‌ पुस्तके "फट्‌-
स्वाहा" स्याने हां स्वाहा" इति दृश्यते । अप्र धुस्तकेऽप्यय म प्रो द्विचत्वर्रिरवभराह्म+
व मुहोतः किन्त्वक्ौ शध्यादिन्यापसे *रद्‌ कौतक मिति प्र्हृएपवसनाधुरेव प्रतीयते ।
परितति्टर्‌ (क) १९३
= ^^ ^^ "^^

ॐ अस्य श्रीवगलास्वमन्यस्य शोदुर्वाप्ना छपि , भ्रनुष्टुप्‌ छन्द , अ्रस्न-


रूपिणौश्रीवगलामुखी देवत्ता, ग्लौ वीज, ह्वी शक्ति, फट्‌ कीलक श्रम्रस्न-
रूपिखीवमलाम्या प्रसादसिद्धवर्थे जपे विनियोम ।
चष्यादिन्यास.--श्रौदुर्वारसे पये नम॒ शिरि, अनुष्ुष्दन्दसे नमो
मुव, प्रस्नरूपिण्यं श्रीवयलारेवतये नमो हदये, ग्लौ वीजाय नमो गुह्य, ही
शक्तये नमः पादयो , एद्‌ कोलक्राय नम सर्वाद्ध 1
करन्याप्त -ॐ> द्धी अ्रड्गुष्ठास्या नम , वगलामुखि तर्ज॑नीभ्या स्वाहा,
सदेदु्टाना मध्यमाम्या वपदू, वाच मुख पद स्तम्भय ग्रनामिकाम्या ह, जिह्वा
कीलय कनिष्ठिकाम्या वौपट, बुद्धि विनादाय छली ॐ स्वाहा करतलफरपृष्ठाम्या
कट्‌ ।
हृदयादिन्यास --ॐ ह्ली हृदयाय नम, वगलामुदि शिरसे स्वाहा,
स्वप्ना धिखाये वद्‌ वाच मुख प्रद स्तम्भय कवचाय ह, जिह्वा कौतेय
नेच्नयाय वौयट, वुद्धि विनाशय हती ॐ स्वादा ग्रस्य फट्‌ 1
घ्यातमृ--
चतुय जात्रिनयना पौनोततपयोधराम्‌ 1
जिह्वा सद्ध पानपात बदा धारयन्ती परामु" 11१।+
पीताम्बरधरा देवौ पौतपुष्पेरलङ्ृतान्‌ 1
विम्बोधी चार्वदना मदाच णितलोचनाम्‌ ॥२॥
सर्वविद्याकर्पिणी च सर्यप्रत्ापदारिणीम्‌ ।
भजेऽहु चास्मरवगला सर्वाकिर्परावममु 11३71
[द्वाविश पटल -पृ९-५६-९०]}
१२, धीवगलाचतुरक्षरमन्व --ॐ> भ्रा ह्वी को 1 ॐ प्रस्य ध्रीवगला-
घतुर्षसीममपरस्य श्रीब्रह्मा ऋषि , गायगी्न्द , श्रीवगना देव्ता, छवी बीज,
भ्रां एक्तिः, करो कौलकं श्रीवगलामुीदेवताम्वाभ्रसादषिदधचरये जपे विनियोग ।
गहप्यादिन्यास्त -श्रीब्रह्यपेये नम पिरसि, मायप्रीख्दसे नमो मुते,
श्रीवमसादेववायै नमो हदये, छठी घीजाय नमो गुह्य बा शक्तये मम" वादयो",
धरो कलाय नमः सर्वाद्धं ।
करन्यास -ञ छवा भदूमृष्ठाम्या गम, ॐ द्धी चर्जनोभ्या स्वाहा,
ॐ हसू मध्यमास्या वपद्‌, ॐ लं भ्रनामिक्ाम्याष्रु ॐ दीं कनिपिराम्या
चौपट, ॐ द भरस्प्राय कट्‌ ।

१ “~ पशापल्य व विभ्रतः तदा घ "वरो धारयन्तो वियद्‌ इति रञतेमे शित्‌?


११४ स्ाद्यायनतन्त्रे

हृदयादिन्या्तः- ह्ला हृदयाय नम , ॐ ह्वी कषिरसे स्वा, ॐ लू
द्धाय वयद्‌, ॐ चे कवचाय हु, ॐ हं नेतत्रयाय वौषट्‌, ज्ञः भरस््ाय
पट्‌ |
ध्यानम्‌--कुटिनालकसयुक्ता मदाघ्‌ खितलोचनाम्‌ ।
मदिरामोदवदना प्रवालसदृशाधराम्‌ ।1१॥
सुवणंशेलसुप्रस्यकणिनस्तनमण्डलाम्‌१ ।
दक्षिणावत्तसन्नाभिसूक्ष्ममध्यमसयुताम्‌ ॥(२॥
रम्भोस्पादपद्मा ता पौतवद्धसमावनाम्‌ ।
[पृच्रविश- पटलः-- १७-६७-६८]
१३. श्रशीत्यक्षरात्मकः श्नीवगलाहुदयमन्त अ भ्राल्ली को म्लौञ
हषे ग्लीश्री हवी वगलामुखि प्रावे्तव भ्रावेयन्रा द्धी को ब्रह्माखरूपिणि
एहि एहिख्रा ह्ली को मम हदये श्रावाहय ्रावाहय सन्निविर कुरुकुरु प्रा ह्वी
क्रो मम हृदये चिर तिष्ठ निष्टभ्राह्वीक्रो हँफट्‌ स्वाहा ।
शस्य मनस्य कष्यादिन्यास-ध्यानादयो नैवोल्लिखिताः पुस्तके 1
[ब्रष्टावि्ः पटलः-पृ्ट-७७-७८ |
१४. धौबगलाटक्षरारमको मन्ध्रः-भ्च्म्राह्ती कोह फट्‌ स्वाहा।
ॐ श्रस्य श्रीवगलाषटक्षरात्मकमन्तस्य श्रीत्रह्या ऋपिः, गायनीन्दः,
श्रीवगलामुली देवता, ॐ वीज, छी शक्ति, कोः बोलक शरौवगलदेवता-
म्वाप्रस्ादसिद्धघर्थे जपे विनियोगः 1
श्हप्यादिन्पासः--श्र प्रहापंये नम रसि, गायमीदछन्द्से नमो मुपे,
श्रीवगलामुसरीदेवतायै नमो हृदि, ॐ वीजाय नमो गुह्ये, दी शक्तये नमः
पादयोः, को कीतक्राय नम सवद्धि।
फरन्पातः--ॐ टला भ्रडगु्ठाम्या नम , ॐ हली तजंनीम्या स्वाहा,
४ ट्लूं मध्यमाभ्यां पट्‌, > हतं अनामिकाभ्या ह, ॐ टलौ कनिषठिाम्या
यौपद्‌, ॐ ह्व॒ करतलकरृछाम्या फट्‌
हृदयादिन्यास - ॐ स्ल। हूदयाय नम ,ॐ ह्वा शिरसे स्वाहा, द्तू
क्षिलायै वपद्‌, ॐ हले कवचाय हू, ॐ द्वो नैयययाय वोपद्‌, ॐ हतः
प्स्पराय फट्‌ ।
"~~-----------~~ पि रि रौ = ५ ५ 7 पि १
(. पुवएंतेलदिससतृर पत्यपि प्वचिव्‌ । २, यचचपोद गतर नैव सूथित हम्स्वनेन विनयं
तम्‌
भरघ्र एकोनापोत्यभरारम्क स्यारत्‌ एवात्र स्व ३ "तौ हति गक्िवाराहुरो"
घस्याने रान पूरके वेदाराहनोन द. इति पत्ते । इ. (सिघरायपोति पाटोऽन्यवं ।
परिच्िष्म्‌ (क) ११५

ध्यानसरू--युवती, च मदोद्रिक्तार पीताम्दरधरा छिवाम्‌ ।
पीतभूपणमूपाद्धी समपीनपयोधरामु ॥१॥
मदिरामोदवदनेा प्रचालशदशाधराम्‌ 1
भानपात्र च शुद्धि च विभ्रती बगला स्मरेत्‌ ।1२॥
[विशः षटलःपृष्ठ-८१]
१५. एकोनषष्िक्णत्मिकः घोबगलोपसहारवियाभन्त्रः-ग्नं ह एे'
ही" श्री कालि कालि महाकालि एहि एहि कालरात्रि प्रावैसय श्रावेशय महामोह
महामोहे स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर स्तभनास्शमनि हुंफट्‌ स्वाहा ।*
ॐ शमस्य श्रौवगलास्त्रोपसस्रवियामन्वस्य श्रीब्रह्मा ऋषिः, गायत्री्न्द.)
स्तमनास्वविभेदिनी श्रोकालिका देवता, 7 वीजं, फट्‌ शक्ति, स्वाहा कीलक
श्रौवगलाप्रसादतिदिद्टार ब्रह्यास्त्रोपसदारा्थे जपे विनियोग. 1
ऋष्यादिन्यासः शरव्ये नम॒ दिरसि, गायत्री्न्दसे नेमो मुत,
स्तम्भनास्त्रविभेदिनीधीकालिकादेवताये नमो हृद्ये, फ्री वीजाय नमो गृह्ये,
फट्शक्तये नमः पादयोः, स्वाहा कीलकाय नमः सवदि 1
करन्यासः --अॐ चां ग्र्गृष्ठाम्या नमः, ॐ की तजनीस्या स्वाहा, ॐ
कु मध्यमाभ्यां वयद्‌, ॐ कं ्रनामिकाम्या हँ, ॐ कौं कनि्धिकाम्या चौपद्‌, ॐ
कः करतत्तकरगृष्ाम्या एद्‌ ।
हृदयादिन्यास.
-ॐ> करां हूदयाय नम, ॐ करी दिम्ते स्वाहा, ॐ कू
रिखायै वपद्‌, ॐ कं कवचाय ह, ॐ ऋ नेत्रचयाय वौपद्‌, ॐ करः श्रखाय्‌ फट्‌ ।
ध्यानम्‌--काली करालवदना कलाधरधरा शिवाम्‌ ।
स्तम्भनास्तरंकसदहारी ज्ानमुद्रासमन्विताम्‌ ।\१॥
वीखापुस्तकस्युक्ता कालरात्रि नमाम्यहम्‌ ।
वगलाललोपसदासीदेवता विश्वतोमुलीम्‌ ॥।२।
भजेऽह्‌ कालिका देवो जगद्रशकरा विवाभ्‌ ।
[द्ातिततः पटनः-पृष्ट--०७-८९]

हू. सोदना" भित्यन्यत्र 1 २, "मदोमत्ता' मित्यपि पाठेः ५ ३. चवरिनिद्धां पावपवः


इति पाय.पि दश्यते । ४, शो इत्यन्य । ४, एष मररस्तु दर पृत्तर्पुतपत्रोदार-
स्यकयः १ पूरस्छकस्यतततु त्िपश्वागदर्णात्मर एष मनो जायते "कालिः पडान्ते
प्रपवेशप प्रावे्यः धति षद्दयदिर्टाद्‌ {
११६ सास्थायनतन्ये
न ^^

१६. दात्रि्चद्रणत्सरुस्ताक्ष्यमालामन्नः१-ॐ क्षी नमो भगवते क्षी


पक्षिराजाय सर्वाभिचारध्वसकाय क्षीमो फट्‌ स्वाहा ।
[वगलोत्कौलनविधिः] -
प्रणव पूरवमुचचायं क्रुचंयुग्म समुच्चरेत्‌ ।
कामत्रय वागभव च लज्जापट्‌क समृच्चरेत्‌ ॥1१॥
करीकाराष्टकमुच्चायं वगलादापमूच्चरेत्‌ ।
उत्कीलनपददरन्ध॒भ्नग्निजाया समुद्धरेत्‌ ॥२॥
शापोद्धारप्रकारोऽय तन्नराने प्रकोत्तितः ।
उत्कोलिता ब्रह्मविद्या मन्मेनानेन सिद्धयति ॥३॥
स्पष्टायंः-ख्न्हुहु कलोक्तीवलीएेह्णीद्धी हीह्ीह्ठीद्धो कङकी ष्टी
क्ीकीकी क्री क्री वगलायापमुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा ॥
ऋ४-८

परिशिष्टम्‌ (ख)
॥ य वच््रपञ्ञरक्वचस्तानम्‌ ॥।

ध्यात्वा मनसा सम्पूज्य मुद्राः प्रदश्यं पञ्र न्यसेत्‌--


किव उवाच--
प्र तत्प्रवक्ष्यामि देव्या पापप्ररादनमू ।
य प्रविद्य ने वाधन्ते वाण॑रपि नरा युवि॥१।॥
छठ ह श्वी श्रीमत्पीताम्बरा देवी वगता वुद्धिवद्धिनी॥
पातु मामनिशा साक्षात्‌ सहल्ाकंयुतचुतिः ॥1२।।
दिखादिपादप्येन्त वज्रपञ्जरघारिणी ।
श्रीब्रह्याख्चविद्या या पीताम्बरविभूषिता ३11
वगला मामवत्वतर मूद्धंभाग महे्वरो 1
कामाङ्ध.शा कला पातु वगला श्राखरदोधिनी ।(४]

१, प्य मन्त्र पुस्तके द्ातरसक्षर एवोदधोवितः किन्तदाररगत््स्या्षर एव समति स चपरि


्रद्ितत एव ॥ रा० पुश्तके चय एव मतः षड्विद्याक्षर एव स्वीहृतोऽत्ति पया--
ॐ कीं ॐ नमो ममक पिर जाय पनिचारयष्वततकाय ट षट्‌ स्वाह"
परिशिष्टम्‌ (ख) ११५

पीताम्बरा सहखा्ली ललाटे कामिता्ेदा !
ष््ठे्धीभौ भोः [मे]पातु पीठाम्बरसुवारिएी १।५॥
करयो वयुगपदतिरत्नपरपूजिता 1
च्््े ही श्री पाह वगता नासिका मे गखाकरा ॥६॥
पीतपुष्पं पीतश्च : पूजिता वेददायिनी ।
अन्हे ही श्रौ पातु बगला ब्रह्यविप्ण्वादिनेदिता 1\७॥॥
* पीताम्बरा प्रसन्नास्या नेतरयोवुगपदुभ्रुवोः
स्ट ही श्रौ पातु वगला बलदा पौतव्लयृर्‌ (1८
श्रधरोष्ठौ तथा दरतानु जिह्वा च मुखगा मम ।
स्ट ी श्री पातु बगला पीतताम्बरसुधारिएी 11६॥
^ गले हस्ते तथा वाहौ युगपद द्विदा सताम्‌ 1
ए टी श्री पातु बगला पीतवस्रावृता धना ॥१०॥
जद्धाया च तथा चोरौ गुल्फयोश्चातिवेगिनी 1
भ्रनुक्तमपि यत्‌स्थान स्वक्केदनखलोम मे 11१११
भर्मरा तथास्थीनि सन्धयश्चाति मे परा ।
सोक्षव उचाव -~
इव्येतद्ररद मोप्य कलावपि विशेषत. ।।१२॥
पञ्जर वयलादेच्या दीपंदारिद्रयनायनम्‌ ।
पञ्चरय पटेन्ध्तया स विघतंनामिभूयते । १३
भ्रव्याहुतयतिश्चापि ब्र्यविष्ण्वादित्तपूरे ।
स्वर्गे मर्ये च पाताले नारयस्त कदाचन ।*१४५१
भ्रवाघन्ते नरं व्याघ्राः पद्धरस्य कदाचन ।
श्रतो भक्तैः कौलिकंश्च स्वराय सदेव हि ॥१५॥
पठनीय प्रयजेनें सवनिर्यंविनादनम्‌ ।
मदादाख्रिपदामन स्रवंमाङ्खल्यवर्दनम्‌ ।५१६॥
विद्याविनयशस्सौख्य महासिद्धिकर परम्‌ ।
दं ब्रह्यार्वियग्याः प्रद्र साधु मोितम्‌ ११५७१
पठेत्‌ स्मरेद्‌ ध्यानसस्वः स जीकान्मरसः नर, ॥
य॒ पञ्मर प्रविश्यैव मन्य जपति वे मुवि ॥१८॥
3. साहगयनननतरं
~^“. ^“^-^

कोलिकौ वा फौशिष़ठो वा व्यास्वद्‌ विचरेद्‌ यदि ।


चन््मूरय्रमुभूत्वा वसेत्‌ कल्पायुत दिवि ॥१६॥
मूत उवाच-
इति कयितमदोप श्रेयपामादिपीज,
भपदतदुरितप्तः ध्वस्तमोहान्यकारम्‌ ।
स्मरणमतिरयेन प्रातरेवात्र मर्त्यो,
यदि विद्यति सदा य. पञ्जर पण्डित स्यात्‌ ॥२०॥
इति श्रोपरमरटस्पातिरहृस्त्रे श्रीपोताम्बराया.
ष्जरं सभ्दरम्‌ ॥
घोप्रसन्नास्तु ।। धौवगलामुखी भरीयता मिति पोष सुदि १३,
घ्वतु १६२२ लिखित काश्या दुर्या इद पुस्तकम्‌ ।!

> ४.८

परिशिष्टम्‌ (ग)
॥ श्रय वगलामुलीत्रेलोवयविजय नाम कवचम्‌ ।४
घीभैरव उवाच--
पपरु देवि प्रवक्ष्यामि स्वरदस्य च कामदम्‌ 1
श्रूत्वा गुप्तम गोप्य कुरु गुत् सुरेरवरि.॥१।)
कवच वगलामुख्या सक्लेष्ट्रद कलौ ।
यत्सर्वं च पर गुह्य गुप्त च शरजगमन ॥२।1
प्रैलोक्यविजयं नाम कवचेश मनोरमम्‌ ।
मन्सगर्भं मन्नरल्प सकवमिद्धिविनायकम्‌ ।२॥।
रहस्य परम ज्ञय साक्षादमूतरूपिणम्‌ ।
ब्रह्मविद्यामय वम दुर्लभ प्राणिना कलौ ष
पूंमेकोनपश्चाणदरणेमन्तमयुतम्‌ 1
त्वदुक्त्या वच्मि देवेदिं गोपनीय स्वयोनिवत्‌ ॥५।१

भगवन्‌ करुणासागर विदवनाय सुरेद्वर 1


च ॥६।।
कर्मेणा मन्ता वाच्यन वच्म्यम्निमुवोऽपि
पानिय (ग) ॥;.3
=
भरव उवत्व-
पैलोक्यनिजयाल्यस्य कवचस्यास्य पावेत्ति
मन्व्रगर्भस्य मु (सु?) क्तस्य ऋपिदेवस्तु भैरव" 1७ा।
उष्णिनत्‌ छन्द समास्यात्त दवी स्ती {वः} वगलामुखी 1
ीज क्ली थो च शक्ति. स्यात्‌ स्वाहा क्यैलकमुच्यते (\॥
विनियोगः समास्यातस्विवयफलसपधने 4
देवो ध्यात्वा पठेम मन्वरगभं सुरेडत्ररि ॥६।।
पिना ध्यानेन ने सिद्धिः सत्य जानोहि पारेति ।
चन्द्रोद्धासितमूद्धेजा सिपुरसा मुण्डाक्षमालाकरा,
यला पौत्तसमूज्छला मघुमदारक्ता जटाजूटिनीम्‌ ।
शबुस्तम्मनकारिणौ दाश्निमुखो पीताम्बरो दासिता,
्रतस्या चगलामुखी भेगयतती कारप्यरूपा भजे 11 १०॥
ॐ क्ली मम निरक्ि पतु देवो टलो वगरतामुखी ।
ॐ वली पातु मे भात्ते देवी स्तम्भनकारिणी ।1११॥
्ध्भेदुह भ्रुयौ पातु वगला क्नेशदारिणी 1
उक्ष पातुमे नेतरे नरसिही सुमद्धुरी ११२॥
उट श्रौ पातुमे जदो म्रा इ मुवनेश्वरी 1
्ध्क्योसर मेध्रूतीपातुदहंउङञ्च्छ मुखेश्वरी ॥१३१
ञ्४द्धी की ह्वी सदाव्यनन्मे नासा ऋ जूं सरस्वती)
ञ््ही हांँमे मुखपातुद्ध्‌ एए चिप्नमस्तका ॥१४॥
उ्श्री म धरौ पातुप्ो भ्रौ दकिणकसिका।
ञ्ह ह. गे दत्द्‌ षतु अ मे रद्कापिरा 1२९
स्भ्क्री धी रसनः पातुरुखम घ चरत्मिका !
क्छ सौ मेह्नौ पातुड चयं च जानकी 1१६
ख्यो श्री (खली) मे गत पातु अट ठ भयर्वरी {
च्फ्ह्ी स्कघौ सदाव्यामे ड ढ ण चेव ठोतला 11१७1
च्छ मेिजीपातुत्त यद वरदशिनो।
ख वली सौ मे स्तनो पवुध न प ररमेश्ररौ ११८
१२५ साश्यायनत-तरे
"^-^... ~~~.

् चरू क्तो मे रश वक्ष फव म गयवािनी।


कल्यपरातु मे ङुक्षिमय र वनिन लभा ॥१६॥
श्री ह. पातुमे पार्श्वो त व लम्बोदरप्रसू 1
£& करौ ह. पतु म नाभि ण पण्मुखपा्तिनी ॥२०॥1
ए सौ षतुमे पृष्ठस दह्‌ हाटकरूपिणी।
£ क्ली ए पातुमेरिदननठ् क्ष हुतव्वरूपिणी ।२१॥
वेली ह, मे कटि पातु पच्रारादणंमातुका ।
& ए बली पातुमे गुह्यम भ्रा क गुह्केदवरी ॥२२॥
श्री अरू सदाव्यान्ने इ ई ख रगगामिनी ।
£& ज्‌ स पातुमे जात्रुउऊग गणवत्लभा ॥२३।
श्री द्धी पातुमेजद्धक्छ छ, घ चमहारिणी।
६£ श्री स पातुमेगृत्फोलु नृ, ड च च कालिका ॥२४॥
एही पातुमेस्न्वीएषए्‌ छज जगतुप्रिया।
ञ््श्री क्ली पतुमे पादोश्रो प्रौ भेज भगादरी ॥२५1
द्धी मे सववपु पानु भ्रभ्र ही त्िपुरेदवरी ।
श्री पूर्वे सदाव्यामाश्र म्रा ट ठ दिसलामुखी ।1२६॥
च्द्धी याम्या सदाव्यामाद्रडदढणाच तारिणी ।
ञ्जी माप़ातरुवारुप्याई तयद च सेङ्वरी ५२७)
च््यमा पानु क्ैवेर्याउधनय पितरेषिला।
सश्र पातु चैशाम्याज फ व ैन्दवेदवरी ॥२८॥
क्छ्श्रीमापातु चाम्ेव्यानहमभमयच योनिनी।
£ रे मापातु न्त्या छ र रजिश्चरी सदा ॥२६॥
च्छ्श्राम। पातु वायव्या (वृ ल लम्वितकेदिनी ।
ॐ प्रभाते च मा पातु लु. व वागीऽ्वरी सदा ॥३०॥
ॐ मध्यातो च मा पतुएदया शद्धुरवल्तना।
क्छ्ह्धीक्लीश्चौ पातुम साय ठे पश्रावरी सदा ३९)
द्धी निदादौ च मा पातु प्रो स्ामरलामिनी ।
बली निशोय चमा पानु भ्रौ ह हरिदरेपरी ॥र२॥
परिशिष्‌ (य) १२१
पी पि 198

वली ब्राह्मे मा मृह्तऽव्याद छ त्िपुरमुन्दरी 1


विस्मारित च यत्‌स्थान वजित कवचेन तु ॥३३।
छी स्मे सकल पातु अ ध क्ली वगचामूखी)
इतीद फकच गुह्य मन्वाक्षरमय परम्‌ ॥\३४॥
पलोक्यविजय नाम सवंवणंमय स्मृतम्‌ 1
शरप्रकार्यमदातव्य न श्रोतन्यमवाचकम्‌ (३५
दुर्जनायावुलीनप्य दौक्षादीनाय पाति ।
न दातव्य न दाततन्यमित्यान्ञा परमेश्वरि ॥३६॥
परदीित्त उपाध्यायविदहन शक्तिभक्तिमानर्‌ ।
कवचस्यास्य पठनाद्‌ साषको दोक्षितो भवेत्‌ ।1२७॥
कवन्नेदमिद मोप्य सिद्धवियामय परम्‌ 1
ब्रह्यवि्यामयमिद यथाभीष्टफलभ्रदमु ।\३८॥1
न कस्य थित चैतत्‌ ्रैलोग्यविजयेदवरी 1
यस्य स्मरणमानेण दैवी सद्यो वश्ोभषेत्‌ 1३६॥
पठनाद्धारएाच्चास्य कवचेशस्य साधक ।
फलौ विचरते वीरो मथा द्धी वगलागुखो ॥४०।।
म मन्म स्मरन्मन्मी सप्राम प्रविशद्‌ पथा 1
नि. पठेत्‌ कवचेशम्तु युयुत्सु साधकोकत्तम ॥५१॥१
शून फालसमानान्‌ तु चित्वा स्वगृहमेप्यति
मून धृत्वा तु केवच मन्वगभं तु साधकः (॥४२॥
प्रह्यायानमरानू सर्वान सहसा बरामानयेत्‌ ।
धुत्वा भरे तु कवच साधकस्य महेश्वरि ।१४३।।
वशमायान्ति सहसा रम्मायप्डरसः गणा ॥
उत्पादेषू च घोरेषु भयेषु विविथेयु च 1॥४५॥}
रोगेषु स्वचेध च मन्यन पठेन्नर ।
कर्मणा मनद्ा काचा तद्भय उान्तिमेप्यति ॥४१॥
शदेव्या वमलःमुस्याः कवचे मया स्यृचम्‌ ।
चरैलोक्यदिजय नाम पु्रपोत्रपनप्रदमु ॥\४६॥
ऋएदर्तास्मेवत््यास्तकष्मौमोयविवर्दनम्‌ 1
फन्ध्या धारयते कुकौ पुव परयति नान्यथा 1४911
तिरे पंटयायनतम्े
^~

मृतवप्ता च विभृत्याथ कवच वगते सदा ।


दीरघाधुर्व्याधिहीनस्तु तदुत्रसतु भविप्यति ॥४८॥
इतीद वगनामुरया. कवचे सुदत्तं मम्‌।
प्रैलोक्यविजय नाम न॑ देव यस्य कस्यचित्‌ ।४६॥
श्रबुलीनाय मूढाय भक्तिहीनाय देहिन ।
सोभयुक्ताय देवेशि न दातव्य कदाचन ।\५०॥
दिप्याय भक्तियुक्ताय गुरुभक्तिपराय च 1
लोभदन्तविहीनाय कवचे प्रदीयताम्‌ ॥५१॥
श्रभक्तम्यो विपूत्रेम्यो दत्या कुष्टी भवेन्नरः 1
फल गृह्‌ न चाभरोत्ि प्र च नरक त्रजेत्‌ ॥५२॥
दीपमुज्ज्वाल्य मूतेन पटेदर्मेवमूत्तमम्‌ 1
्राप्ते कन्याकंवारे च राजा तदुगृहमेप्यति ।५३॥
मण्डलेशो महेशानि सत्य सत्य न सशयः 1
द तु कवचेश तु मया दिव्य नगात्मने ॥॥५४॥।
पूजनात्‌ पटनाच्चास्य चतुव्वं्गफलप्रदम्‌ ।
गोप्य गुप्ततर देवि गोपनीय स्वयोनिवत्‌ ।५५।॥
इति खयाभते उमामरै्वरसवादे बगलामुखी ्रलोकेपविजय नाम बरं सम्पूणं
श्रोजगदम्बापंणमसतु । मिति भाषटूष्णा ५ सवत्‌ १६२२ हव वुर्गाषाः

~न

परिशिष्टम्‌ (घ)
॥ श्रय, श्रोपोताम्बरारत्नावलोस्तोच्रम्‌ ॥+
॥ श्रीगणेशाय नम" {1 श्रीपीताम्बरायै नम" (1
श्रोद्धारद्रयसम्पुटान्तरपुट मायास्थिराद्रन्दित,
तम्मध्ये वगलामुखीति विमल सम्बोधन स्वं च ।
दृष्टानामथ वाचमायु च मुख^सस्तम्भयेतयक्षर,
जिह्वा कीलय कीलयेति चर लिखेद्‌ बुद्धि तथा नाराय 11१॥
्रह्मस्त्र सकलाथ सिद्धिजनक पटूत्ि्दरणारमक-
म्भरोक्त पद्म्ुवा हि्ताय जमता यन्नार्दाप्रे पुसा ।
परिशिष्टम्‌ (घ) १२

जीवन्मुक्तपदे विभान्ति सुधियो येषा मृडे भासते,


निर्न्रामृतसागरेनदुकिरणाहाराश्चफोरास्तु ते 11२१1
प्रोमित्यादिस्वरूपं " जपति तव शिवे घन्दतन्मात्रमरभा-२
वाचौ यस्मात्‌ परायप्रकटितेपटवो वखंखूपा निसेयु. ।
परहमायैः पश्चतववे; परिवृतमनघ चित्वोषाधिमस्य,
दुय योगयुक्तं कयमपि मनसा योगिभिगरं मा्‌ ।\३॥
ल्ली बीज हदि यस्य" माति विमल लक्ष्मीः स्िगर तद्पृहे,
ध्यं वस्य कलेदरेऽपि विवे, दोर्षयुपो भतत ।
कल्पान्तेष्वपि वृिमेप्ति विमत्ता दटरशरवल्ली प्रा,*
शौर्य स्पयमुपतति तस्य पुरतस्रस्यन्ति वादीकश्वसा. ।1४॥
वु वारिषिमुयततो जनकजानायोऽपि पौताम्बरे !
त्वा ध्यात्वाऽ्णवतोपणे कृतमतिः सेतु प्रचक्रे द्रुतम्‌ ।
जित्वा राबशभुग्रशत्रुमबलानू बन्दीनु विमुच्याऽमरान्‌,
करसि लोकमुखोदया व्यरचयत्‌ कत्पस्यिरामम्बिके ।(५॥१
शर्व खव॑ति रद्ध षितिषतिम्‌ कायते वक्पिति-
वह्निं शौतति दुजंन. सुजनते पुष्पायते वासुकि 1
श्रीनिये वदे तदरररप्दयन्ीङृताऽ यन्दरितपः,
के के तो निपतन्ति ^क्स्तमुकुटाश्न््राकतुल्या प्रपि 1 ६॥
सायण्याभृतशूस्ति तव कृपापाद्खं निमग्ना नस
१ब्रह्येशादिदियीशषुम्दमपि ते जानन्ति गुश्जोपमम्‌ ।
भेषा वेतसिं सस्यिताऽसि गते । ते विश्वरकषाक्षमम,
भ्रारश्य दढयन्ति सत्वरतर विनं रविसीहृताः ॥७॥॥
प्मुख्यत्व समुेति सदि तवाऽ्पाङ्घावक्तोके नर,
किं तच्ित्रमरहो स्वय प्रभवते सृषटिस्यित्तिष्वसने!
यश्चित्ते त्व "भाति मामक इति"? १ त्वदूर्शन यस्य वा,
क्ष र्वा द्यणिमादयोऽप्यत्नितदामाराषमन्ते प्नूवमु ॥८॥
क्षौरना१२ वल्लदायिनी जलनिधौ "पोतस्थितौ नाचिका”१२
तति** धनङुञ्जगद्वरमिरिन्मान्वादिभीतेप्वपि१४ ।
हू. स. पीसित्यप्य । २. शपथे । ३, तपता 2४, भ 1 ४, हृद्ये दि। ६. भजते
उः ततिः1 ८, ०्येत्िष्यतोे। €. पद्वु! १०. शह्यगादिरिमोसपूतमदि।
११. स. म्तिमातु कुरते ॥ १२, प्वि्नाना \ १३. पोदस्यतरना यतिः ) १४. स्व शरर्ख ।
११५. = सत्वेष्वपि
१२४ साङ्यायनतन्ने
नीती तीती 1

प्वा पीताम्बरघारिएी “परश्िवा चनद्राद्दंच्‌डा गदा-'१


हस्ता वामकरेः प्रणोपरसनामुन्मौलयन्ती भजे ।६॥
स्वैच्छ* ये प्रणमन्ति पादयुगल पीताम्बरे | तावक,
ते वाच्छाधिकमर्थमाप्य सकला सिद्धि भजन्ते पुन ।
यद्यत्कत्तुमुरीकरोति वगते । त्वत्साधकोऽनायुनाः,
तप्सञ्ञतमिवेक्षते तव दृपाऽभद्धावलोके क्षणात्‌ ॥१०॥
वाणी* सूक्तिसुघारसद्रवमयौ सालङ्कृतिन्तन्मूखे,
दापानुग्रहकारिणी कविजनानन्दैकक्षवद्धिनी ।
ग्याकतु क्षमते विज्लालमतिमास्त्वत्सेवको वाडमय,६
कि चिन यदि सुष्टिमागु रचते ब्रह्याण्डकोटधायते° ॥ ११॥
देवि 1 त्वद्ूक्तट्टया तुहिनगि रिमुखा पर्वता पासुतुत्या
ज्वालामालाश्च चेश््रामृतकरसदयया पृप्पना यान्ति नागा }
मूकत्व वावपतीब्द्रा सरसि समतुलामाश्रयन्ते समुद्रा
राजानो रद्भुभाव रणभुवि रिपवो विद्रवन्ते विरश्ञाः ॥ १२॥
लेख्य» तावकमन्त्रवीजममल दुष्ौसस्तम्भन,
वद्याकपंणमारसणप्रमयनप्रक्षोभणोच्वाटने ।
व्यक्तं व्मिवापर्‌ यदि मखे जागत्ति तस्याग्रत ,
पादान्त परिसच्वरन्ति रिपवोये सप्द्रीपेश्वरा ॥१३॥
नानारलविभ्रूषितामलमसिद्धीपे सुवासागरे,
कल्पानोकहुकाननान्तरगता या रतलवेदी परा।
तताकारितपद्रप्रेतकमये सहासने सस्थिता,
ध्यायेऽह्‌ करुणाकरा हरिहुराराध्यामशेपा्यंदाम्‌ ।\१४॥
चाम्देवी वदने वक्षव्यविरत नेत्र च लक्ष्मी करे
दान दीनरपालुता च हृदये वीरत्वमाजौ सरदा।
व्वद्भुक्तध्य भवाध्थिपारतरणे तच्वोदधो जायते,
तैनेद नलिनीदलोपरि जलाक्रार जगद्‌ भासते ॥ १५१
चव्वतकाच्चनतुल्यपीतवसना चन्द्रावतस्ौज्ञ्वला,
केयूराङ्धदहारकुण्डलधरा भक्तोदयायोदयताम्‌ 1
_------------
ह. परचमूष्द्रिवरोयद्गदा । २ पामकरेखा । ३ शाशुर्तना०। ४ स्पृष्ट ।
५ पुक्ति०। ६ अधुना! ७ न्कोटघालये । < द्रा
यरिशििम्‌ (य) २१५
^^^^^“^^^

त्वा ध्यायामि चतुमुं जा त्रिनयनामुग्रारिजिह्ध करे,


कपेन्तीमहमम्द पाहि वगते ! त्रास स्वमेवासि मे ॥१६॥
मातस्ते महिमानमूग्रमधिक प्रोक्त स्वय मानवं
वाक्य सन्दरियते, श्रमेण यदि वा शक्त्या गुखाम्भोनिषेः !
नमे निर्येपतया ुरैरदिदितःप्र"तस्य प्रलये,
* त्स्मात्‌ सवगता स्वमेव सदसदरूपा षदा गीयते ॥१७॥
खञ्च ताल्यंसमोयम२ प्रकुरते तं च खज्ाधिकं,
वान्त स्तम्भयते जलाग्निमने याऽ्वयक्तयक्तिः यिवे)}
दौज बगतेति मेऽस्तु रसनालग्न सदेवामल,
यदुशरह्यादिभुदृलंभ भुवि नरैः सतुपराक्तने सभ्यते» ।(१८॥१
स्तम्भत्वे पवनोऽपि* याति भेवत्ती९ भक्तस्य पीताम्बरे ।
क्कि चित्रे यदि वारिधि स्थलपद मेरुस्तु मापोपमापर ।
कल्पानोकदकामवेनुप्रमूख रलेरलिन्दस्थितं~
वज्छिर्थापिकदानमायु कुस्ते दीनेष्वदीनेष्वपि ॥१६॥
भाग्यायस्य मखे षिमाति विमला विद्या विदोपाधिका,
पट्त्रिशद्धिरयोदिता बहुमुखं वीजैस्तु सवर्दा ।
त सरे प्रणमन्ति मानवममौ^ सेन्द्रा" सुरा भूसुराः,
शक्रान्ताशेषमहोदयं स्वकलनाक्न सत्रिलोकालयम्‌** ॥२०॥
यत्कित्रिदृडेवने विभाति विमल रतन महानन्दन.११
याया वृत्तिरुदारता जनयते यद्यत्र सुन्दरम्‌ ।
यप्किञ्धिद्गवनेऽयवा नु*२ महता शब्देन या कौच्यते,१ >
तत्सवं तव रूपमेव वगते । ससारपारप्रदे ॥२१॥
जाग्रसपूंकृषामृतोचभरिते श्रोमक्तटाक्षेक्षसे,
सर्वाधेप्रतिपादकव्रतधरे ये ये निमग्ना नराः ।
तेषा माग्यमतीन्धिय निगदित ब्र्मदेयो न क्षमा
ये सद्धुल्पपिकल्पमात्ररचना. प्राणात्यये हतवः २२५
हस्ते सगृ चाप > *शरधरनिकरेयंत्किरात महाजी,
पार्वौ ब्रह्माखविाम्यस्नपदुमतिद्रद्रयुदधे तुतोप ।
१. ख. घद्धिपते' शस्यपि पाठः । २. (ताल्यंजयोचत' इति राढ । ३. "वाप›वचित्‌ ।
#. सतपराहपेरतभ्यतेः इति प्यठः 9 ४. परमोऽपि। ६. पठनो । ७ रत्नरनेक. स्ते. ।
८, न्मु ६. कान्तागेष० । १०. स्वङलनाश्मम्त्या० ) ११. महुपनन्ददम्‌ ५ १२ ऽए.
१३ कमतते १ अ. सितयरर । र
१२५ सायायनतन्प्र
"^^^^^^^^^^~~^^^~~^^^~^~~^^~^^^~~ ^^^~ ^^^ ^

तत्सर्वं देववृन्देरथ रियूनिवहुर्वीधित सिदढतोकँ-


धयं । शौयं च सर्व॑ तव वरजनित भाति पौताम्बरेऽन ।\२३॥
पर्ता पौतजटाघरा त्रिनयना पीताशुकोल्लासिनी,
हैमाभाङ्गरुचि छथाद्ुमुकुटा सच्चम्पकस्रग्युतामु ।
हस्तंमदुगरव चवेरिरसना सविभ्रतीमादरात्‌,
दीप्राद्धी बगलामुखी त्रिजगता मस्तम्भिनीं चिन्तये ॥२५॥
कणलिम्वितलोलकुण्डलयुगा दवेतेन्दुमीलि°करं ,
केूराद्धदपायामुदुगरगदावजादिकरानर्‌ विभ्रतीमू ।
देवी पीतविभूयणामरिवुलध्वसो्ता ये नरा
ध्यायन्त्यादु लभन्ति सिद्धिमतुता तेवालिगा प्यु कथम्‌ ॥२५॥
सक्ध्वा मातरदोपकान्तिभरितानन्दभ कृपावौक्षण,
वर्पीयानपि मोहितु प्रभवति कीवृन्दमृन्मीलितुम्‌ !
कि त्चितमनेकधा भ्रमयते दृष्टया व्रिलाकौमिमा,
मूर्न्दुस्तनधारिणीमपि वलात्‌ कन्दपदर्पाधिक ४ ॥२६॥
यन्त्र जँनमनकदु खदामन पीताम्बरे । तावक
मो द्धारदयसम्पुटेन पुटित शिष्टेस्तथावेष्टितम्‌ ।
तद्वाह्ये स्थिरमाययाष्टपुटित पाञचाड्‌ वुदाद्यावृत,
येषा चेतसि “भाग्यतो निवसत ते विइवसगंक्षमा *‹ ॥२७॥
करपरागुरुचन्दनेमूं गमदैगो रोचनाकेशरं-
स्त्वत्पादाम्बुजमर्चयन्ति वगतते। येप्रत्यह्‌ मानवा ।
ते लब्ध्वा श्रियमयभूतामपि चिर भोगाश्च जुक्त्वाऽ्वनौ,
सायुज्यालपमाविशन्ति परमानन्दोऽस्ति यव्राधिक ॥२८॥
सब्ध्वा पादयुये रति तव शिवे क्षुद्रोऽपि देवेन्द्ता-
मासाद्यामरसुन्दरीमभिरमलं्भोगिं दिवि क्रीडति ।
ये हित्वा तव भक्तिमन्यभजनानन्दादिचर ते नरा
श्रष्टा धर्मपराडमुखा अमधियो भार वहन्ते भुवि ॥२९।१
यामाराध्य हते हरत्वमभजद्‌ विष्णुस्तु विश्वात्मता,
चके सृष्टिमजोऽम्यवोचदखिल वैदादिसद्वाड्मयम्‌ ।
ध्यात्वा ध्वान्तमद्चेषमागु हस्ते सूर्योऽपि पीताम्बरे 1
तीद्र ताप्रमपाकरोति रजनीनायोऽपि चूडाधितः ॥३०।१

द स्वष। २ खमस्त । ३ पतिर ॥। ७४ सततं नभरित दिव्य । ५. नदर्पाधिकामू ।



९ ९.० सस्विताऽक्षि गते ते विश्वरकतक्षशरा
बुद्ध नाय कौलयाञु! रसनामदघ्र घों स्तम्भय,
दुष्टान्‌ द्रावय मारयारिनिवहाच्‌ दासाश्चिर पालय ¦
हस्य ये बगलामुखी परदमति लन्ध्वा परप्यन्ति ते,
यन्नारूढमिवारिवृन्दमखिल कततुं समर्था सदा (*३१॥
ध्यात्वा त्वा वगन्ते । पुरा गिरियुतता चक्रे दिव स्व वर,
परोक्त नापंयित्तु शिवेन गदिता सक्तत्पनामग्नौ तदा ।
श्यक्ताग्निगंलित्तावचि गिरिसुता त्यक्तवा म्तस्तन्मुखात्‌,
तस्मात्‌ त्व वगलामूली निगदिता नित्या पररा योगि ॥२२॥
भनागेन्रदवसिद्धेमुनिवरनिवहेानवे रा्सेनदर-
दिक्पालेदिक्करीन््ं दिनकरप्रमृखं सदु्रहैस्तारकावं ॥
ब्रह्मायं स्थूनसूष््मेरविदितमूदिना त्व पररा चोन्मनी त्व,
नित्या पौत्ताम्बरा त्व रिपुभयशमनी भक्तिचिन्तासनस्या* ।३३॥
*शाम्भद्गुर मानतो्यतमतिनटिधोत्सव
ताण्डवे,
चक्रे चन्द्रमयूलकम्पनकरा नीराजन्रा* पादयो 1
'हेमाम्भोजदलेजंटाजल मरेरानन्दित्मोलिभि ९,
पूजा प्रत्महमातनोनि नचयनच्‌ स्वं्हस्ततालादिसि ॥३४
या दध्नो चतुराननोऽपि वदने वितारविन्दस्थिता,
या वक्ष स्थल्स्थिता हरिरजामाल्तिङ्गघ पीताम्बरम्‌ ।
मदेहार्ध॑म्‌
रीचकार पुरजित्‌१ “ सोन्दयेसाराधिका,
पट्चक्राक्षररूपिणी मज सदे !देवी जगत्पालिकाम्‌' ! ।(३५॥
हस्ते भाति गदा सदात्ति्चमनी रतावली त्वद्जे,
पे तूषुरमीश्रमौलिमखिभिर्नीराजित१२राजते ¦
ताटङ्क श्रवसे कुचोपटि सदा 3 कस्तूरिकलिषन,
कादमीरद्रवमद्ध राग्सधिकय पीतच्छवि१४ तन्वते ।(३६॥
श्मकारद्रमसम्पुटन पुटितां 'विद्यागमे सस्थित्ा/*४
पट्चक्राक्षरवीज्ताररचिता पटुक्रिणदरणात्मिकाम्‌१९ 1

१. स.कोसयाटि । २. स्यक्त्यार ! ३, मगे्देवसथेमुवि० । ४ भक्त }


५, नगुरयनतःपरमत्पिनस्योत्छये 9 ६, ०कम्पनविवा )"नोराजन 1 = हैप्यम्मोजनन्रे० 1
६. चन्विता सपनि । १५. पदमिह 1 ११० जगदरवादिलव्‌ ) १२. भनोदजन ।
1३ ससद; ४ पोता छदि ११२ विद्ानसस्वे सिता । १६. घत्त्ववयाप्मिकान्‌ ।
१२५ न
~ [वी
हाष्यायनतनते
(“^ ^^^^~~^~^~^~^~-~~^~~^^~~“ ^~

१1
° ये-जानन्ति जपन्ति सन्ततमनिध्यायन्ति गायन्ति वा,
ते वन्दा विवुेश्चरन्नि शुवने सिद्धाचिता. सिद्धये" ॥३७।
स्वाहादाक्तिस्णासने तव ऋपिः श्रीनारदो देवता,
नित्या श्रीवगलामुखी निगदिता छन्दो भवेत्‌ तिष्टुभम्‌ ।
मरीज तु स्थिरमायया विरचित नानाविधस्तम्मभने,२
प्रोक्त प्ममुवाऽसिलाह्तिविनियोगोऽप्यच्युताकारता ॥३५॥
हय सर्वंसुरेदवरेश्च -छपिमिरदुष्राप्यमेवादुयुत, र
स्तोत्र गोप्यतम स्वभाग्यवरात प्राप्न" पटिष्यन्ति पे ।
सुव््या देवगुरु “धनेन धनद” जित्वा चिरघ्खीविता,
पण्मासात्‌ सुलसागरे दिवसमाक्रीडा करिष्यन्ति ते ।१३६॥
देवी स्वप्नगमता स्वयैव लिखित मह्य ददावद्युत,
दिव्यास्त्र पुरत पटस्व विमल सिन्दुरवणं करं. !
रोमाच्चाद्धुितहपं
माप्य नुलितेर्गं ° पठन्त नर-
प्रा्गोऽह्‌ परमोदयप्रदमिद ज्ञान कवीन्द्रादिदम्‌=॥४०॥
प्राना श्रौवगनामुखीवदनन स्वप्ने सुविद्य( मया,
पटुतरिशद्धिरिमे. सुवणं निचयं सद्रीजरतनावलौ ।
येषा कण्ठगता विभाति जगतीपीडे प्रयोगक्षमा,
वद्याकपंणमोहमारणविधौ स्तम्भे तथोच्चाटने ।1४१॥
चलत्कनककुण्डलोदसितचारगण्डस्थलाम्‌,
लसत्कनकचम्पकयुतिविराजिचद्राननाम्‌ 1
गदाहुतविपक्षका कलितलोलजिह्लाच्रला,
स्मरामि वगलामूखी विभु्ववाडमु खस्तम्निनीम्‌* ॥४२॥।

११ ्ीपीनाम्बरारत्ताउलोस्तो्रम्‌ सम्पूणर्‌ ॥१*


स्वत्‌ १८६९० स्के १७६५ भ्रावादमासि युक्लपक्े ५ मरवा्रे तिदित ब्रह्मचारि.
कारिनायेन ।१ भोगद्धाविशवेश्दराम्या नम ॥।
॥=-॥-8)

१. खं पाय एकचत्वारिशन्छलोकादनन्तर विद्यते । २, नानाविधि० । ३. ०प्यत्तत्कारकः ॥


् निष्य। ५. स्त्या ६ घनेर्धनपति । ७, सल्तिते० । ८. कवोन््राचितम्‌ ।
१ ख. श्तोकोऽव नात्ति । १०. इति भरोनारशोक्तं पीताम्बरादेदीस्तकरायस्स्तोवम्‌ ।
सांस्यायनतन्तरस्थानाम ॐ ऋ» गा
1 ५ 81, ऽय्तप 14८८2
पद्यानासनुक्रमः वाण | 11.10
1299 -4(00 094
षष्ठाद्धु पदयगु

भ्र भयुताज्चिन्हित क्यं ७३-३०


पभग्निबोजादिगायपीं ३०-२० अयूतच्छत्रसहीरो ७४-४
शटकुरोनव मुद्राया. €-७ श्रयताञ्ञ्वररोगी च ७१-२९
भद्ध. बोचगुर्चायं ७७-१५ भ्रयुतात्तस्य शत्रोऽच ७३२८
अद्धग्यणु समुष्त ६६-रड श्रयुतादरिगवं तु ७३-र१
पङ्गष्ठमातर) दत्वा ०४४ भ्रयुतारलमते मोग ८३-१६
भ्रषोराद्च पाशुपतो ९६-२६ पयुत च दिवारात्रौ ५१-दि०
भरत्यन्तंश्वय्यंसयुक्तो ५७-९ धरयत जुदरणण.म्रो ७४-दि०
प्रपवां पौतपुष्॑सतु १०४-२७ प्रयुत चुहुयान्मन्री ७५१४
प्रपवा पौरणमाप्यो चा इ३६-१७ अयुत तषंणाद्युद ५२-१९, २०
भयव वमरलामन्ध् ६७-१० प्युत त्ंणोनेव ७२-१५
भष ्कनद प्रवद्पानि १००-३ धवुठ स्य मन्नु ५१-२२
भध।तः सम्प्रवक्ष्यामि ६८-३ प्रपुण मन्प्रपित्वा तु ८६-२५७
प्रधम चरिलापूजा ३३-१६ परात्नहुप्तमावः च १५-१४
प्रधुना स्तेम्भयत्यतत ४१-१४ पक्पत्‌चक्वणेन ४०-८
प्रनायक््य चितो त्रो १६-९ अकपक्रद्रदेणंव ४६-२०८
सनुकमेण एवं १०११३ पर्पने तिवेःनाम ५१-दि०
भनुष्टुपष्द भास्पात ६८-८ भकारे तु सभ्यःया ५६२९
अनेन क्रमयोगेन १०१-१२ परेन केले चेव ७१-५
पनेन (नय) विचयः पुत्र ६३-२२ भ्रचन भोददेशोयं ६९-३१
परनेन्‌ योवयेल १०४२८ भव॑न गोडदेदो च ३४-४
नेन योषवय्यंस ६५-१० पर्वयेत्‌ पञ्चमीं कुर्याद्‌ ७९-४०
पम्प्यपत्रौ चाष्टवर्णान्‌ १९-१२ भरचपत्पूवत्पु् ७-१५७
पम्द्मवएं घमुच्चायं ६१ -दि* पर्चवेतपकंवयन्धर २२१४
प्घ्रदरेषो बायते च ७२१४ भचयेन्‌ पदरष्ोपेतौ १६-२७
प्रन्नेन प्रष्दहो ष्वा ४८-२* प्रघयेदगूठ म^ठो ८०-२
पम्पयोगसमारम्म ६६-२य भ्रयेद्‌ वदिधिमाेरा ३९-२६
परपमूप्युविनाश्चापं १०३६ पद्ध मदा दण्ड ३८-१६
भपामागप्य बौज तु ७५२१ धलोक्न युद्रमवि ४७-१४
प्रमात्यानां च दृष्टानां १० धछविबखंखयुस्मे ७=-२१
परमोपमूर्यूनाद्ाय १०३-१६ प्रशोकूमे निवसन्‌ ८१-१४
प्या पोताम्दराढयो वर्णन दज प्ररमवंडं रिरोरङ्गे ५२-३४
#, स्यायनतन््र

प्मधरुतानां च प्ास्त्राणां ८२-११ ई द्रादिपदसस्तम्म १,२-२४
श्रष्वप्वूनमाधिप्य ७४-९ दृए्निदिमवेत्तश्य ७६-१०
प्रश्वप्यमत्‌ प्रज्वेद्‌ ६२-५
प्रश्वप्यरि घनरेव ६५-७ ॥

भरष्टशो्तेपु विलिेद २१-६ उच्वाटनावं जपघुव ३०-टि०


प्रष्टदिकेपानकोशाष्ट० १-३ उम कृष्ठटोमनव १४-३
परष्टपे "यक्ेष्पुत्र ७-१२ उत्पाट कषप्टका वादो ५३-३६
प्रषपाठषमानुवत ५-१६ उदरत्तारमष्लीतु ५४-४
प्रमत्ते नमरत्तुम्य ७८२ उ"मादो च भवेच्न्‌, ७२-९)
श्रष्मूत महपपृत्ते २३-६ उपचार पोश्शमि ७१-३
शर्टुम कठवश्त्या च ८२३ उपस्यान चवमेतत ११९१-०
भ्र्म्या च चतुदश्यां ७६-दटिर उपस्थान त्रिकालस्य १०-१७
भ्र्वेतालशमने ६४-४ उलूककाकयो पत्रं १६-२१५
प्रषठुत्र तपण च ८२-११ उस्कामुली द्विोयाप््र € ~र
ष्ठोतरश्त षम्यक ५८-२० उप्लघ्य बगलामव्र ३३-दटि०
भ्रस्प्ररस्वमयम न ५७-७ उष्णोदक ताश्रपातरे ६भ-र३८

भ्रा -1

ध्ाकपण भवच्छोध्र ४८-२५ ऊध्वं रक्षमहदेदी १३-१४


प्रागच्डेर्याज्ञपा तस्य ४०-३३
भ्राग्यन मिधितचव ६८-२५ क
प्रात्मायं च पराय च १०३-७ च्छपिच्ट्‌ दत्रिनयक ६६-१०
भादी गरएापति पूज्य ६०४-२३ चऋपिश्चाप्यग्निवाराहं ३६-२५
पादो भास्वरह्पिणी बुर तद। ६८-रर ऋपिखिदामरक्च॑व ३-२७
प्रायवीज पुनश्चोक्वा -४९-२६
॥१
भ्रायदोज मनो ष्या भरष्ट
श्राद्यास्त्र वगलानाम्नो ३७-२
एकाक्षरोपटाम वरै ६५-१२
एक उरीविद्िया च ५२-टि*
प्रारनालस्यभाण्डेतु ठ
एकाक्षरो च वगता ५८-१५
श्रारनालन तद्धत्म ८४-६
एकक्षरी जवेदादौ १०२-१६
प्रवाहिनो स्वपनो च €-प
एकाएगं बगलां देवीं ५०-४
भ्रार्चयद महाम व्र ४२-२५
एतभ्चणप्रयोय च <६-९६
प्मा्िवने कतके चव ६-३
एतप्पूनां विना पूवर इद-१८
` एतदबविषिर्नाम ६६-२९

च्छया वते खवं ४०~३२ एतदन्वाविधिस्वंव ७०-४द


प्रोत १०५३५ एतदष्टाक्षरीमव्र ८३ टि०.-२५
इति उक्षेपत
एवदयश्त्र विद भूवं ६३-२७
द द्रमध्य लिखेद्‌ विद्य ३२
पद्य मुक्रमः

एतधन्धरः हदि ध्यात्वा ६४-३५* भ्रौ
एतथन्तर हृदि व्यधयेद्‌ ६२१५ ॐ नमो पदमु्चाथ्यं ६१-७, दि
एतद्वाज्य स मतेन ५६
एतद्विचापुररचर्था ६०-३६ क
एतन्मन््रवर्‌ पुत्र ५६-२र कण्टक पृरपक्षत्य एन
एतनम्स्य माहास्यं <२~ २ कण्टकान्तोपयेदकं ५२-दि०
एता मुद्राह्च ततो ६-& कण्ठे वा बषहुमूले वा ६२१७
एरण्डतंलन जुहृयाद्‌ ४८-र४ कदलोमूलम।धित्य ६२-६
एषमेव विधिः पुत्र ७०-४२ कन्यकां चायदापूव्र ३३-१५
एव कुर्यात्‌ प्रात्तरेव ६२-१६ क्यौ चैवे न्यसेदेव ३५-१४
एवं एत्वा जपेःमन्व' ०८६२३ कपटादिविनाकषये ६५-६
एव इते सव्तरात्र ५२-र४ कपिर्यटृक्षपूते घु ६२-४
एवं च पृरयेदयन्व २२३-२७ कपिलानदनोत व ६१-१९
एव च पूजयेत्‌ सम्यक्‌ ३३१७ कप्‌रमिधित तोय २७-१२
एव च मार्जनं कृत्वा १०१६५ कम्बुकृण्ठो सूताश्नोष्टो २६-१
एवं च मार्जने ठृतेवा ८-२४ करञ्जमूलमाध्नित्या० ६२१०
एव च मालिक वुरयान्‌ ६५-१३ करोति यस्य एर्तोप ७७-१२
एव व्रिविष्पूजा ध ६९६० करपासपप्रजद्रावैः ४६.दि०
एव ष्याप्वा जपेत्‌ पुत्र ८१-६ कल्पते चित्तषक्षोम ३६-दि०
एवं ष्यप्र जपेरपश्र ५५१६ कव्य कखन पोप; ९०२२१
एव घ्यालरा जपेर्मन्त्रः ११-२० क्वच च चतुर्थः स्यात्‌ १०२-२२
एव ध्यात्वा जपेनमन्ध्र ४३-३६ कवच पञ्चम बाणः १०१-१५
„ एवं घ्यात्वा जपेन्मन् ४४-१६ कवच प्रपम बाणाः १०११
एव ध्प्स्वा तु देवशीं १०.२१ कवच वेदवणं च १०२-१८
एवं प्याप्तवि्धि ष्वा १३-१५ कथोक्वरोऽपि सोमादो ७६-८
एष भूतस॒दत्त च २२-१२ कृस्तूरोमिधित तोयं २७-१४
एव मध्यदिनोपात्व ११-२३ कप्तूरीलेरन कुर्यात्‌ २४-५
एव सण्वाभिषेकजच ए~र काकपषेण सपुष्त ७२-१०
एवं मासव्रय ष्वा ८४-द६ काक्वदभ्रमते शत्रुः ७२-११
„एवे मासप्रपोगेण २४१४ काकवदृश्नमते शत्र,० ८६२८
, एव यः कुस्ते पृत्र ७६-दि* ४ काकोनूर्दन चैव ८५-१९
एवं रोगसमायुत्रतो २०-२७ कामराजे च हृष्वेखां ४४८-१०
एषं लिद्िष्वा यन च &र्-ष्र कापररूपाख्यदेय तु ७०३४
एव दुक्रदने सम्यक्‌ ६६ कामुक काञ्चनावतं ५-दि०
एव होमप्रयोग च ७६-२६ कारण त्त्र केन स्वात्‌ १००-४
एदि-शम्ददय चोदस्। ८७-६ कालानचनिर्मा देवी दे-द३४
॥1 साश्वायनतर्पे

£ क(लीशन्ददय वोध्वा ८७६ कदरप्रयोजनेः पुत्र २०-१८


कातीं करावददनां ८८४
कि तस्य जपयुव्रताना ४० दि ख
कुटिलावजघयुक्तवा ६८-१२ खरस्य रस्तमादाय १६-५
कुण्डे दा स्थण्डिले वेया १०४-१७ खरबात च रोम व ६६-३३
कुदेरसद्शः श्रोमान्‌ २०-२० खञूरञेन द्रव्येण ४८-२३
बुवेरसटषः श्रीमान्‌ ८२-१८ खाने पानि चतद्धष्म {६-१६
वुवेरट्ण श्रीमान २अ-१५
कुबेरघदणे नूष्वा ८०११ ग
कुमारक प्रवर्प.ते ३६-३१ गरङ्गाषर नमस्तेऽस्तु ६-र
मुर्पान्चालदेशा्वा ७०-४३ गज।ट्ववपनोदरुर ८५२
गुर्याति कत्त्रिमसेगेण ६२-२० पतिवनं द वाक्यानि २९-७
कुर्यत्‌ सौभाग्यदठम्पूजो ३६-२४ पष्क पु रिव शे ५६-२३
मुतावारपमायु3 ३-रभ गम्भीरं ष मदोगप्रतौ १०-१८
भेन बुद्रयात्त्य ४६-८ यर च तित्तेतं च ४६-३०
सुमुमेद्वम्यकंरन्य २६-२५ गमकौतायमाप्तक्त ४-८
श्‌रप्रहुविनाताय १०३-५ प्प्तभनदोप च ८६-२५
कृवा एकानपोमभ्वं ६६-२५ ायत्रोष्ठद पाटिष्टं ६८-६
कत्व।पमष्दत घव २४-१२ गायत्रो बगसानाम्नो २६६
ष्वा पवित्ररफ्रष उ ७२.१२ यायश्रो बगसानाम्नौ ३१-२६
एृष्एाष्टम्या चनुर्स्यं १६-८ शपतो क्वदं पु १०११६
गेठशषोदलटोमन »४०-११ गुढोदकेत्तवण ब २६-४
वलापरिघरासोन १.२ गुएएव वत्ति एषा ७५०७-१
कोऽदत्त धपमनुःचति ६१-६ गुखष्ठ शोटिटोमे १५-१३
कामत तष्पकषएम्पक ७४१६ गुप्त शोतायम नामं षप
कटिप्यत्यारन धव ६४-६६ | गुस्ततिप्वादुभो मोहद० ५-रर्‌
इपैतप्ारपर नाम ७०-३६ गुष्दुधुपया दिच्ा ५१२
कतमारव 1 ताम ६६-३३ प्र एदा पनाम २०-१६
कपत तकं वु सन्यास ६०७-३3 भोर प्राहरत्वःय (६४३५
कोलप्यमम्सर्तं ९९-द६ सोषनोप भोपनोण १०३६-३४
कोताचनदिपानत7 ५६-६ भापत्‌ पदः पूव ५१-४९
सपादुष्यादटन वर्या ज ~२3 पोपयस्द। हृष्टं ष ५१५-६
शपरोणे भवस्य, २८-३७ एोपदे उजन दषवा २९-५५
छदरोषो भव मर्या ५१-२७ सोपूञरण (नेन्भनत्रो ष्र्‌
क्ोरेय भमनाप्स्य ४८-२१ भौरोष्दषत्पगोत ५०६१
भुद्क्मति निनाय १०१८ गोषद द्‌ ४०१०
" पचयारुमः
अपेच्च व।युबीजादि ३०-१६
शोडो माध्वी चेष्ट च ३३-म जयेत्तत्र सहं कं ५०-१०
प्रसनीति षदं चोकसवा ५४-७ अपेदमृतवीजानि ३०-१५८
प्राममघ्ये टनेनमन््ौ ७४-६
जम्बीरतष्मूले तु ६३-१०
ग्रामं वा नरं वच ५८११
जलङृत्याविनाप्चाथे १०३-१३
ग्राम वा नमर व्य ७४-ष्र्‌
० जातवेदमये देवि ७१-ष
ग्लो बीलं दहं च पवितस्व ६०-१ जातवेदमुखौीबाणो ६७-२९
च जातवेदमूघी मत्र ४१-६
चक्नपूनासमाुकत (वतो) *-११ जातिपवन्समिघ्र० ४५१७
सतुर्षयी च वगता ६७-५ जातिन्नष्टो भवेच्छत्रुः २८२४

चतुयंकोरे सम्पूज्य १२-६ ज।घ्यामिमानिनो ये च ५६-२६


जिह्वाप्रमादाय करेण देदीं ३-१
चतुमुजां च द्विमुनां ररम
जिद्धप्रमादाय करेण देवीं ४३-१
चतुभुंजां विनयन १७-११
चतुभुजाः त्रिनयन ४९-१ जिह्वा मुख च करणाति तथ~
चतुमुजांवा द्विभुजा १००-२१ जिद्धा्तम्भनम।प्नोति ६१-२०
चतुल्तक्ष पुरश्चर्यां २९-न जिद्ध!ध्तमो भवस्येव ७२-१८
जिह्ास्तम्म भवेच्त्ो. ५०-८
चतुष्वंपरिमके भन्त्रो ६७-€
चत्वरे एवंकार्पयं ६७-३१ जिद कीलय उच्चयं ३८-११
चन्द्रचूड नमत्तेऽप्तु ४३-र जिद्धा कील उच्चयं ३६२३
जिद्धौ कौलय उन्चायं ४०-६
च्दोपेनद्रमहेणदादि ८३-र२
जिह्व शोय उच्चाये ४४-७
चर्मवुगूवसनो भूद्वा »४१-१२
पलस्वनककुण्डलोल्लपिति°
६-१ जिद्धौ खन्ध पानपान ६ ०-~१२
च।पवर्यामुनिपृणं १-५ जिह्वा वाणी च बुद्धि च ६४-२५
चिताभस्म चिताङ्ख'र ५१-१६ जीवन्धुक्नः स एवात्र ७०४४
व्वितामस्म रवौ रात्रौ ८६-२७ जुदयात्तसकषणात्‌ पत्र ७५२०
वितिवस्तर रवौ प्राह्यं २०२१
जुहयप्त्‌ पूववच्छश्र, ४९३२
जुत्‌ पदषहल तु ४६-२६
{वित्रपोत।म्बरवरां ६६-२३
विदानन्दधनावाक्ठ ६१००-२
घ्रात्वा ४५२
जुहुयाद्वता

विन्य स्तभनीं देवी ४२-२द


ज्वालागुदी तृतीयास्त्र ३७४
चुह्धयोपरि च तद्वण्ड ६४-६ उवालाघ्रुलो देवता च ४१-२०
ज्वालामुद्यभिष बाण ६५१४

€८-७ त
छ्दादिकर पूर्ववत्‌ स्याद्‌
छयायमादेन जुहवान्‌ ५५-१७ तक्रेण तपण चव २ -१७
ज तकण सदिद भेष्वा ५६-२६
भ्द्रं देवतागारे ०५२१
ज्पसख्या यत्र नोएता ३१.२१

६ साख्यायनदभ्वे

ठञ्जल च सखमानीय ७१-६ तलतेकेन सयुक्त १८-२९


वञ्जल वामवुलुके ६-१५ उस्मात्घवे्रपलेन ४-६
तरो नागौष्वयो ठद्दच्‌ ५५-दि० तस्मात खवंप्ररप्नेना° ३७.३१
ततोपरि लितेपसम्पक्‌ २१-१ तत्मिन्व मनवयेत्‌ सर्य ४३४०
तो पलरमूलं तु ६३-टि° तस्य दथनमत्रेरा २८०-!५, २२
ततो वे प्रजपेद्िचा १००-२० त्य प्रत्ता पवानोप ३३-२०
ततः कवेचम।लम्ग्य १००-५ तस्योपरि च षट्‌शोरो ७६दि०
ततः दिष्य समानीय ६-७ वेप्योपरि च सवेध्टप ७६-६
तप्डारिपएव्रजद्रावं. ४६-दि० तस्योपरि ततस्तीयं ३५-१.
व्षखान्नाचमानोति ६६-२६ तस्योपाय चतद्रिय} १-६
ठत्देका्षरीगीज १२-३ तस्पोत्तपनमात्रे ७८७-११
तदवित्रे युक्त ७१-६ ताडयेद टये मन्वी १६११
त्ययो तत्र उक्त्वा पटि० तम्बुदचदणाच्दत्‌, ६२-२२
कत्फतेन इनद रात्रो ७४-८ दाञ्चरात्रं जत प्रषः ९२-११
तत्रस्वाः पवरुभायाश्चि ७१५-ररं तापनं जत पुरः ६४-३७
त्वतभप्रमाणेन ६६-२८ तार व एप्रलधयोज १६-४
ठत्व वद मट्‌।दव १०२३-३ तारञ्व मातृकव्णं १३-१५
वदृटारं रयु प्क्च ६६-१४ तार च वितिपेत्‌ पूरं ३८-८
दुष्प द्वेष्ट्प ७६दि० तेर घस्वन्धमापां फ ४०-रे
तदुपरि समम्यन्य ३२१९. ९३, तारादि प्रजपे.प.प ३०१
तद्स्म मूर्णमिध ८५-११ तहदबोजादिम्वः १०-१६
तप्म ठिलतेनन ८४१ तापत्य मातामरग्वत्व ६१-६
ठद्बोगोद्ारमनप १२५ ह्ालरेन नेत्य ४२-१७
हधव्रपास्यदेव ६१-२६ त सर्बन्ुनेक्‌ पड *४-२२
तटवर गुतिद्ोदत्य ५०-४
तातन ट्नदभो १९-६
वद्िए व प्रवध्यापि २-८
कापर नेतत १८-१७५
तामध्य विपभानम २०६
श्रिय ख प्रियदरामि ८७-
तिवतषमादुषठ १६-२६
तन्मन्दपतप्द वध्रामि ह~
विक 2ेन मिप ५६ -र्थ
ठनमानिद। ष्व दे ६५-१
भन पृण २५
तदेतत ०३-२६
मु्सोमञ्बरामिष्य २१२१४
ठत ष पर) धीर भरर
गुममोमस्यद[रस्व ६१-३२
हप्पणं पिदा वुर्पाद्‌ ६८१९
नुक्पोणरबपो(न्द्तु ८०६१
तद्या {दिवा ष्वा ९३१३
द्गद्डन्दनद ६नु र्ट
तपतं मन्वर्डाद्‌ ७१-
ए१२्१ ये षभ्दरन्र ६२८
पप्पदेषादृष्यया ब ६०११६
धर १२।१ पय ६५२२
वपदेददुय ब १०-१९
पदानुत्रमः

६५९ दतेनदरयप्तंभनेतु १४-७ .


सेन पुर्यान्माविका च
दहयुग्म तिेद्‌ बाहौ १६१०
* तेन देवोक्टाक्षेण २-१६
सेन पजा प्रकतष्या २२-१५ डने दिने घनंकं ६३-१३
दोक्षामामें दिना मन्व्रः ४-४
तेन मूलेन सम्माज्यं १०-१३
दीक्षार्विपि विना मन्व ४-५
तेन शयुष्तव्णानच्च ८४-१६
दुरालापषमायु्तं भ~
वेनापुत तपेन ७२-१६
५६-४ दुर्वासा ऋपिरेदात ६०-६
तेनोवतमाल्जनेयाय
दुष्टष्तम्मनमुप्रविध्नशमनं ११२२
तेनोक्तत्रिधिना सम्यक्‌ ७१-८
दुष्टानां पदपुर्वायं १६-५
स्पवहवा पञ्चे्दियासवरिति ३६-२०
३१.२४ दू्बादोम च्रिप्वक्त १५२१
सरस्व तम्म्वयायश्रो
देवता शालिका नाम ८८-१३
श्विकाल तु क्षमासोनो ६२-र
देवता बगलान।म्नौ २६-७
त्रिकाल पूजपेदवो ३३-१६
देवता वगलानाम्नी ८१५
„ त्रिकालं तेषन कुर्यात्‌ २५-१६,२५१२५१२६
देवता बप्लानाभ्नो ४४-१२
श्विालमपुत जप्त्वा ६१-२६
देवता शान्तिमाप्नोति *५३-द
त्रिकालमाचरेत्सन्ष्यो ११-२७
देवदानवदैत्यारीन्‌ ६४-५
त्रिकातमेकरालं वा ६१३-३३
देवस्येशानभणेे तु ६-८
प्रिसोएकुष्डे जुहूया० १३२१
विङोणे पूजयेत्‌ पूव ˆ ३२-५ देवी भूवा जपेदेवीं ६५१५
देवीं सम्पूजयेत्सम्यक्‌ ६६-२६
„ धिदिन चापवा पर्य ५३-४१ देवो भूत्वा स्वय पुत्र ७०-रेषः
त्रिधा मूदधनिद्विषा बाहो १०१४
देशोपद्रवनाशषा्ें (०३-१०
त्रिपुरारे प्रिलोकज्ञः ५६-र
दोभाग्पिन समायुक्तः ५६-रश
श्रिमभ्वषतं पायसेन ४५-१५
द्रवेण पण कुर्यत्‌ २६-५
्रपष्ववत प्वेतदररा ४६-५
दरथ्याभिमानी पृषष्पो ५६-टि°
रिदा च दठ चपि १०१-७ ८०
७त्-रे् द्रभ्यलाभ भवेत्तस्य
न्रिसप्तमनविव बोय
द्विगुणां जपमरप्रेण ०३७
त्रिसदस' घ्यानमूव्त =*७-न
द्विमुख जपमाप्नोति ६०१६
प्रिसहतर दल वा= ६३२० द्ितीपकोख सपूञ्य ३२-७
त्रैलोड्य वक्तमाप्नोति ५०१६
८६२१ द्वितीये विलिखेत्‌ घम्यक्‌ ६२-२६
प्रेलोकययिजय नाम द्विप्ज्वसप्तवि्चद्धि ६९
प्रलोषयविययास्ल च १०४२५
द्विशत मन्वत चैव ६३-२०
द ५

दल्िणामूतिमन्रेण ५६-२५ धनजयपुर चव ३४-दटि०
दधिपिध गुदधवोनिः ४६-६ २६-द
धोमदोति षद चोक्त्वा
= दण्वषादनकाष्ठ च ६३.२४
पूषयेच्छनुदने क
दरिद्रोऽपि भवेच्चोमान्‌ ७६७
21 साव्यायगतर

पूप्येरोन सर्वाघं ०८६-रण ममस्ठे योविषेव्य ५७-टि०


धौठवस्परपरीषाय €-६ नमस्ते योमिपसेव्य १४५४-२
धत्तगकुमूपेनव २२१२८ नमस्ते योपितेव्य ५०-र
वत्ुरक च तभूरध्नि ५२-२७ नमस्ते लोकजननी ८३-टिर
धत्त.रद्रवसतयुक्त २५२२ नमस्ते वथरलादेवो २६-१
घत्त.रपश्रमादाय ८६-३१ नमस्ते इपनाल्ढ ६४-२
धत्त.र तिन्दुक बीज २४-१३ नमस्ते सवदे २६-२
ष्यानेमेद प्रवक्ष्यामि ६०-११ नमस्ते सर्वस्वे ८१-२
ध्यानेन मव्रषिद्धि"स्याद १३१८ नमस्ते सवंसर्वेश ६०-र
ध्यान यत्नात्य्रवक्ष्यामि १७-१० नमस्ते हिदससेन्य ७१-२
ध्याने यत्नात प्रवक्ष्यामि ३८-१५ नमस्तेऽस्तु जगन्नाथ ११२
ध्यान यत्नात्‌ प्रवक्ष्यामि ६६-२५ नमानि वयल देवीं ६७-१
ध्यान विना भवेग्मूक *५३-२१ नमोऽतु मव्रापमकोविदाय २१२
ध्रवाचेरिति मन्वण ३५-१२ मागवल्लीदतेनेव €२-१८
५ नौगवत्लोीदल चैव ६३-२१
न नाति धरठये योगी १०५-३३
न कतव्य मूमुक्षश्च २१-२६ नानाह्हिप्विमदोप च॒ <६-३३
नगरे वाय प्रानिवा ४६टि० नानदेहजसेगाश्च ४५-१६
मग्न प्रमुखे मौने १६-२७ नान।म्वरेपु मन्व वा {१२-३
न चाभ्िकन च मन्व्रदोक्षा ७६-५ नानारोगविनाश्चायं ६५-प
नद्या समुद्रपामिष्यां ६२-ष्र्‌ नातारोगहर चैव १६-४
नेध्याननचटहोमच ७६-४ नानारोय इच्िमेश्न १५-१७
नन्धावत्तेन सम्पूज्य २६०४ नानालब्दुारथोभ।ढ्ां ७३-१
नमः कँलाशनाथायं ६७-रे नारदो ऋपिरेवा् {७-१३
नम कौलागमाचाय १८२ नारी दृष्टवा मानसेन ७०-४५
नम पपवबिदुराय ८9-र नाश्वदागु तस्षवं ८€-२७
मम द्विवाय साम्बाय इ०-र्‌ निक्िपेप्प्तरातव्रतु १€-ष्ष
नमस्ते गिरिजानाव ४०-र्‌ नि द्िवेन्नवमाण्डेषु ७-१४
तमह्ते जगर्ता देवी ४६१ निक्षि मरवूकं च ६३-२७
ममस्ताण्डवस्दराप ६२२ निक्षिषेद द्वारदेे तु ८६-३२्‌
नमस्ते देवदेवेशः ७८-१ निक्षिपेद्‌ रविवारे तु ८५-१६
तरमध्ते देवदेवि ८१-१ निक्षेप लभते पुत्र ८३-टि०-२०
नमस्ते देवदेवेशो ५६-१ तप्य च निनदन्ते तु ६२-४
तमत्ते परावतीनाथ ५४-२ निप्य वैव षट तु ८६-३०
नमस्ते पावत्तीनाव ४२ निधान लभते तस्य ८०-२५
नमस्ते मोलिवपेन्य २९-२ तिषाय पाद हदि वामपाणिना ३१-१
॥ साष्वायनतन्र
पष्ठाद्धु प््याञ्ु पृष्ठा पया
पाराडवुशान्तरितिदक्ति० ६७ ८ पूजाधारणयव्रल ६ २
पाशाडवुतेनातरित ५५ १३ पूजायन्र मेसैव ३३ १४
पिच्ुभदत्रोमपूल ६२ न पूजाववदनिद पुत्र २२ €
पित्तरोगी मवेष्ट्‌, २६ म्य पति चाद्धपत्त निध्य २४ ७
पीतपुषवश्च जुदयात ६७ रन पृवेभाये तु पचान १४ २९
पोतयन्ञोपवीतस्तु ६५ ११ पृदवत्पूनयत्तत्र २३ २२
पीतनेणंसमा्ठोनौ १०२ १ पृदवनवबीजनच ५४६ १०
पीतवर्णा मदापूर्णा ३७ पृवंवरयासविद्याच ४३ ३३.
पीतवर्ण मदापूर्णं ११ १ पूवे याषविद्यां च ५१ १५
पोतवासामते पुत्र ६€ १३ एूववल्ले पन चव २५ २१
पीताम्बरधरां देवी १६ १ पू्वोितविधिवष्डष्य। १७ र्म
पोताम्बरधरा सौम्या ४४ १४ पूवो्ति यम्वमालिष्य २३ ३
पीताम्बरं दक्षिएोच १२ १२ पूर्वोश्तां "यापविद्यांच ४४ १३
पोताम्बरालडकृतपीतवर्ण २१ १ पेष्टोदरव्येण जुहूयान ४८ १६
पोतोवरणमूषौ च ६५ ११ पौष्पेएंव सूक्तेन ८ २
पौतताशनी पीतभक्षी १०४ २५ प्रजपेद्‌ बमलाय।ऽव ७९ दि
पीताश्चो पीतवासौच ६६ २२ प्रजां बुद्धिधियचंव ५६ २६
पौनोत्तुङ्गजटाकलापवितषद.० ६० १ प्रणव बह्मिजप्यं च ६६ रभ
पोयृपोदविमन्पचार्विलपद.० € १ प्रणता प्रोक्ष्णोषात्र ६७ ३६
पृत्तघीं प्र तवस्त्रण ५२ ३१ प्रतिवादि भवेपस्तम्नो ३३ २३
पुत्रवान्‌ जागते मर्षणे ९७ १६ भ्रप्यक विसे च ४५ रष
पुश्रयान जाते लोके ८३ २४ प्रथम वयलाबोज ५६ ५
पृष्रोदेय्तिरोदेय ७६ टर प्रदिक्षणत्रयद्प्वा ५८ १०,१५
पुन पूजाप्रक्तन्या ६ १६ प्रपञ्वस्तम्मनऱेष्वा = २६
पुनभोमनिशाकाते १६ १२ प्योय्चातनि भवेन ६० ३०
पुनश्च मनतरयत्ताघ्नर ९३ २३ भ्रयोगादोनि सर्वाणि ८३ १६द०
पुरश्चरएकलतु ३१ २३ प्रगोयषेवन भवेद्‌ ३४ २६९
पुरक्वरणङकृस्तिद° ४ ह प्रयोग चोपषटहर २ १७
पूर्व्यां विनामव्र १७ १६ भ्रयोगतपण चव ७१ ४
पुराणञ्वरमध्यप्र २७ १३ भरस्य षव चतृर्ति ७ १६
पूलिश्दक््यक) चव ३७ २८ ्रह्ान्तानपारं ४ १०
पुष्ववाटभ। जपेनपत्र ८३ टि०-२२ प्रसफुशद्विठयचव ४१ १५
पुप्तके लिष्ठित्तामत्रन्‌ ४ ३ प्रारश्रतिष्ठाड्ष्वातु ५१ ३
पूजयच^मराज च २६ ३ प्ारपरविष्याङ्त्वाषु = ६४ टि“
३ तेकालिको निष्यं
पूजा १७ शण भ्रारुप्रतिष्ठो ष्वा तु ६६ २
= १६
दचानुष्रमः
पृष्ठा पाद्धु
पृष्ठङ्ख पष्ाद्ध ३
वि दत्रिरोखषटकोण ७८
प्राणप्रदिष्ठां पत्रस्य €२ १० ६१ टि*
१५ २० दिषदुना सूपितं पुन्न
भ्रखिना प्राखहरस ६६ २७
प २० दि दुपात्रयुता पजा
प्रात काले भक्षयिस्वा ३२ ३
१५ १२ दि दुमध्ये च सम्पूज्य
प्रदिश धवहोमेच २१ दिर
५९६ टि किन्दुमध्ये लिखेदेज
प्रालुणन्छत्रमुदिस्य ७० ३५
७ १५ विदुमात्रगृहोत्वातु
प्रियङगुशषलिमोपरूम _ १५ २३
१६ १५ विभोवज्षमिद्धि
प्रेतमस्म रवो ग्राह्य दिभीतकोद्धूव पुष्प २२ १६
५० १९
प्रेवभ १३ लिदेष्राम शिम्दोष्ठीं कम्ठरकण्ठींच
१७ १२
६४ २६
प्रत्वस्प्र रवौ ग्रा १८ १
५१ १६ बिम्बोष्ठं चार्वदनां
प्रिव रो प्रतकाप्ठे बिम्बोष्ठी बाख्वदनां ६० १४
“ ५० १२
प्रतागनो बेतदाष्ठतु दोज च बगलारेज
३९६ २६
१६ ४६ ३१
प्रवाग्नौ श्रहकाष्ठच बोज च बगलाबोज
७६ २४
्तार्नी रजकष्णो च बोजरज्चकमूुच्चायं
४० ५
= ४० ३
्वाद्गारमषी (पीीष्ष्वो ६१ २१
९७ १० | बुदिभ्न सो मेत षयो
भरताश्च प्रतभ्मच १६ ६
२४ १५ | बुद्िशब्द ठतोच्वाय
प्रवाकच प्रवमस्म च बुदि विनाक्तणोच्चायं ४२ ३०
ह ४१९ एन
फ | वु विनाशय चोका
। दृद्ानुगुलोबणण ९९ षभ
पिव पुष्पित चैव ५८ १३ ६७ ३.
८५ २४ | दहद्धरेमखोबाण
फलित पुष्पित दाव दरह्मविष्णुमदेणानां ७ ५
५ भ्र ३०
बरहयस्पाने तपलुदेश
1 ७
५१ २२ ग्द्या ऋषिश्च द दोया(न्दोऽप्य)१२
अगतायोजमधघ्यत्य ब्रह्मा ऋषिश्च छन्दोय
६७ ११
३४ २४ ८७ इ
अपलामत्रिदिस्तु | ब्ह्याप्त्रस्ठम्मिनौ क्ली
५९ ६ ९
दगलामृद्धिपद चोवत्वा २
४० दरह्म ध्वस्ठम्मिनी विचा
बगलामुखिपद चोक्त्वा २१ ब्रह्यप््ायपद चोवप्वा
२९ ४
३६ १७
इणलामुखोपद चोबत्वा ६०
+ २७ ब्र ह्यणान्‌ मोजयेदश्चत
बमलाया विना मन्त
| वरह्रान्‌भोञ्यत्श्चात १३ रर
४ ४
वदरोङष्टक चैव बर द्धणान्‌ मोजयेप्श्चात्‌ १७ १७
४२ स्थ
बदरीपूलठो भत्वा ब्रह्योरष खमादप्य
८६ ३२
६६ २०
वन्वन विषुरश्चेव म
४० १
पम्टूकङ्ुमानासा ४ |

अाणादूव जपेडीमन्‌ सकषवु्न ठञोश्वाप ६० ७
७६ १ |
्ालमानुरचोकाा दल एष
२१९ ४ | मस्येत्‌ परादष्प्वाव
ददु त्िेखच्च द
१२ सांघ्यायनतन््

पुष्ठाद्ु पच्याद्धु
पृष्ठद् धाद
मक्षदेद्‌ बदरोमात्र ईर मनतात जगमग" ५७ ॥1
मगाज्ारे सुदष्डेऽस्मिन्‌ ६० मनोष्दाह्सिं चोक्त्वा 11; ६
मनेऽह्‌ रू लिका देनी ८८ परन्वजोवनविदाद ॥, १५
भवे-द्‌ चास्वदगला ६० म-तरान्ते च प्रकतंव्य ४१ 1}
भजेष्टूस्तम्ननभंच ॥1 मगवमध्याप्येत्‌ सम्यक्‌ ६ 1
भदद्रिागिहीनोऽपि ५६ मन्र्स्त व्रिसटन्यतु पै ३०
भमुज^शोएितेनेव २६ मन्व्पन्निम्दपतेय ५२ २५
भूनप्ररपिदाचाचाः २२ मन्वदाउस्प नपतो ३१ र्र्‌
भूरर्पविपरित चव ॥31 मण्दरसनप्य विनामन्व ११ २६
भूपुर्‌ गृत्तयुमवच ६३ मन्व्रहिदिमवाप्नोति 1 १२
भूपे लिखमनाम ५० मगवहिटिभेवेत्‌ धिप्र १ ०
भृषुदि भृतु १२ म^वसिरनरेत्‌ पुष १६ ३
भृगवे चष्गृ्य ६४ मप्रनिदिभउेत्‌ षणो ६ 91
भृगुवषरे च सगृ ६६ मन्दो वव रोउपूक्ण्यम १1 1
भैष्पो योगमय ३० म पं॑जुटृउानमवो ४२ टि
भोमवार्‌ निषनम्नो १५ मम्रता सिदपोऽविद्पोपि १६ २१
धमचाने ४२२1२ २८ मन्शोदधार प्रवद्मापि २६ |,
परष्टर।जय वमेहुक षर भववोशृधार ध्यप्पयमि ६६
पवातविर) मवस्थच ७9३ मन्बोरप्ार्‌ प्रब्द १४
मन्थोटार प्रजद्पानमि ५५४
म मण१द्‌ प स्वद्यााम १४
मष्दलम्बष्नेगप षश भनेर एवदयनि ॥ 60

सष्दुनदप्योन्न च मनदपग्नप दद।२ष्व २५


मभ्नाष्पुश्पन्मदु ६१ मभ टुदपाटुशया ध.
स्टेव नपम्‌ ८५१ १० मिती पष्द्च्यया ५१
मष्डवाननसप्प ८ ९१ {८ श्षाबुरुपनव् ॥7।

मष्टग बगवाधेगे भ्न पटा्रारनो भवतो चन्‌ १६


9. ३3 14111 १९
८[६१,५)१५११1 । म, दा सवात्र 1
मपू ुपयमण्म्यि ६६ महारा ण्त्दोन १०६
मष्दाष्तप्राप्मानद् [ (14/15. १०॥
मष्दे एदादपमन्् 1) मट्ारतचनमाप्योष्‌ २५

मध्ये देदो मरदद्ष् (1 311 १०१


प्ये {न्प पटमन [1३ मा0न्वय म{दद्पग्दन ११
मथ्पे दुषा्पिमसिनर््रर (; माप्दोदग = 1 3
पधानुक्मः १३

पष्ठाद्धु पद्ाद्ध पृष्ठाद्धु पच्ा्भु


मानौ लघुतरश्च॑व ` ७७ € योषिनीकोदटिनहिता १०० १
मायादि ्रजपेत्‌ पु ३१ २१ योगिनीं पूजयेत्‌ पश्चात्‌ ६८५ २१
मश चषष्टकषोतेतु ष्ठ ६ योगिनो पूजयेत्‌ पश्वाद्‌ ८२ १३
भारण॒ भ्रानिद्धेग २ १३ योमिनौ वीरपूजी च ५५ शत
मारण मण्डलाच्दवो ४६ ३४ योमोऽय कपितः पत्र १०१ १७५
मारणस्तमबालं च ४२ २६ योपिच्चुदधिदेव्यवूना ६९ २९०
मार्नारवालरोमाञ्व ८५ एद योधिडाकपंणापक्ता =
मालामम्त्र ताश्षयंविद्या ६१ ट्र यः करोश्यर्चेन चव ३६ २६
भासानमृष्ुवशो भूत्वा ५१ श्थ ॥
मातन एधुमरण २९ रम भ
मास सपटसदुष्तं ४७ १५ रजते स्वथेष्ट्वा २२ ५
मुदणर दक्षिणे पाश्च १० १९ रणस्तम्पे सवकर्म १०१ १६
मूच वस्ते ज्ञान २८ रर रत्नविहना वन्दे १० टि
मूलपनव्ेण चाम्यच्यं ३५ १५ रत्नायुत तरेणेन २७ १६
मूनमन्वेणा सम्पूज्य प्रे १० म्मोह्पद्पद्यातां ६० १४
पलेन मन्त्रित तोय १० १६ रवौ गुरौ भुषावन्द ५ ४
मृगाणां चेव शत्रणां ८६ २५ रवौराघ्रौचनिषक्षिप्य २० २५
मृध्युल्जयजप कृत्वा कष्ट €. रवो रात्रौ चसप्रद्य ८५ १६
म्रप्प कलदोतप्त्ति १५ १६ गवौ रानौच स्रलिख्प ३० २३२
भोक्षार्घो वगु यलत्‌ ५ १६ स्वौ रात्रो शवरगेदे स्थ १३
मोहिनोद्रवषमिधं . २६ ६ राजराजः सर्वं श्रीमान्‌ ३७ २
प्रियते न च सन्देहो ७४ १३ राजलामो भवेत्तस्य ८३ ६०२३
[परते नापर सन्देहः ४६ टि राजघ घव तदिद्‌ ५ १५
[श्रिते सप्तरात्रणा ५५ २३ राजार्चव ययोनूत्ा ८३ ६०२१
राजावा रजपुत्रोवा ३१ टि
बू रष्जोलक्मादश्य १५ ३
यत्‌ परस्मे न वक्तभ्य ६६ २७ रपजोलवणसमुक्त ८ ४
यथ्रकुत्रापिस्पिवि ५१५ २१ रात्रौ पूजासमायु्तो ६१ २८
पत्र गद्दासमःसोनः ५६९ ३२ राव्रीहोम चकरसव्पि ६५ १७५
यथोत्तबुण्डषु नेद, €७ ३४ रिपुरन्धो मवेत्‌ पूत्र ७२ २१
यदा शघ्रुमयोप्पक्त ६७ ४ सूपयोवनवान्दनु० ६१ २४
यत्वपरपागं पमसाष्ने क्लो र १ सूपामिमानिनोपेच ५५ २३
५८६ ७ रूपिएुवदनुच्चषदं , ५४ €
युवहो च मदोद्रि्छं
ये (व दोन्वव्यक्वेन््फदि ३ २२ रेफयोमानमहेानि ६९ १६
६ २१ रेफदीन। अपेद ६€ १५
येवा विजयनिन्दन्ति
7
१४ छाष्यायनग्

पृष्ठद्धुः प्याङ्ध पथ्टाद्धु प्याद्ध


रोगी च जापते मासाव्‌ १ २६ वडवान्नामानं ६५ १३
रोपयेत्‌ पादयुमेतु भरर ञ्‌ वनेचरप्स्तामसनन्तवश्च 4 २१
रोहिणीश्रवशो चव ६ ॥ वन्दे पागुवान्यत ७३ =
रोप्येवास्वर्णपटवा ६२ १६ वन्ध्या पृतवतोचव ७८ ९२२
वेश्च मल्लिकपुपनं २३ २६

वत्नोपलाशमूते तु ६३ १४

लक्षं जप्त्वा मनोरेवं भ्त १६ वशोकरतु सम्मोह २४ [1


सक्षमेक जवेनमन्त्री ३१५ वशोकरणक्रयेनु १७ २१
सक््मोवान्‌ जायते पुत्र प्र्‌ 3; वशोकरणसम्मोहे १४ ६
सक्ष्मौः शान्तस्तथा पृष्टिः १४ वथीक्रणसम्मोहो र्‌ १७
छषुपोढा च विन्यस्य ५५ १४ वश्य जनानां वपा १५ १८६
लाटा्चंन चविलम्न्य ३५ १ वद्धिनायासमायुक्त 1 ७
लिद्ित्वा शुभलग्ने तु ७४६ वद्धिजाय। षमुन्चाय्यं १७ ७
लौकिके चव गुप्ताज ६६ २३ वह्तिगोजेन सवेष्टप २० २३
ले वौजवचंबरह्‌ शितः १७ ४ द्धौ यद्रत्‌ प्रविशति ३३ ए
सेंबोजह्ौ च द्ाकितश्च १२ बाक्पािवदनाक्ष्णा च ४ १६
वाग्डोजंचवतो ८७ ५
च वारमवादि जपेमन्व बे० १३
कुल. पूजयेदयन्धरं ८9 वाङ्मय चेव वेचिश्य ५७ ४
वक्ष्ये होमविधि सम्यक्‌ ७४ याच पएुख पर चोक्वा ३६. र्र्‌
वक्षपेऽह्‌ चौपसहार ५३ वाणी चेव रमा ग्रौरो ७ १६
वषयेऽह चोपततट।रं 1 वादो मुक्ति रद्धुठि क्षितिपतिः १३ १९

वक्ष्येह तक्र सवञ्चं ७७ दाममागंतरमेखंव १३ २३


धक्ष्ये पञ्जर म्यासं १२ दामरोहूपरि विग्य्य (~ २५
वे्येऽह्‌ विधिदत्षुजर ६६ वाय्ये च मदोमत्ता १२ १३
वद्ेऽह्‌ स्पण्डिलर्होम १४ वाराह शक्तिवाराह ३० १२
वगरलामातृक््यास ६६ वाराहु बगलादोज्‌ ३ १२
वारादीगोजमधघ्यध्या १०५ १४
वगलाष्टाक्षरीमन च

वगल।स््रहेत यद्यत्‌ ६ विड्वराहमजारोमः ७२ १३


वाश्वं मध्यमे १०४ विघ्नराज समम्यच्यं ६१ २६
वगलास्त्रमिद प्र ५६ दिदार विवशो भावाद्‌ ॥; दिर

वगलाहूदथेनैव ७६ १११२ दिद्यामार्पंरायं च ३३ २३


यगलाहूदय मत्र ४६ ३,६ विद्याष्पे मेत्‌ पूवर ५ टि

. घयाकंक्षीरमिध च २३ & व्चिासिद्धिमेषेत्‌ एुव ८० ष

वद्मोक्षीरं तरिलत ॥. २० विद्धषले च चृहयान १८ २३


पुसः = १४
पृष्यङ् पचाद्धः पृष्ठा पद्याद्ध
विद्धेपरोतु जुक्‌ ष्ट प शतमष्टोत्तर चेव ५१ १५
विद्रेपणे स्तस्मने च ४ ११ छरपष्टोत्तश्छत १०४ २६
विना च स्तेम्मिनीविया २ १४ एतवःर मन्व्रवित्वा त्क २२
विप्रचाण्दा्योः क्यं „^ < १२ एतवार मन्वितच ६३ १६

विमोतकतरो्मूते ६२ ६ शताक् तेमहेामन्त ४४ ११


विराद्ष्वकूपिरों देवे ५३ £ एतवर्तनमान्रश १०१ १०
विर।मय पद वोक्ध्वा ४४ < तोत्तर मवेध्धिाद्‌ ५१ १९१
विलिवेत्ताक्षय॑वोयं च ५४ ५ छतोक्तर्‌ मव्रबीज ५४ ११

प्विशद्भिः स्तम्भन च ६५ द° श्व त्रिवक्पु्र ९६ १७


विश्वनाय नमस्तेऽस्तु ७६ २ दत वाऽथ सहल दा ३५ १६
विश्वमरेद्धरबितमय ५9 २ छत सहस्रमयु २० २५८
~ विर्वारास्य भवानी ६४ २ सश्रवश्च पूरश्चर्था ५५ २०
विष्वेध्वरी विश्ववश्या श्म शवुक्तय मवेत्‌ सो ६१.१६
२२ १६ सत्रूरौ मारण पूतन ७३ २५
विपिन्दुकपुष्पेण
विपतिन्ुकमूल च ६२ १६ पमन्कुमुमेनेव २३ २०
वीणापुस्ठकसयुश्ता क्म १५ छमोध्रुणे नेषु ५६ १६
वीरद्द्पवि्वेय ˆ ४ ए छमोमूत समाधित्य ७५ २३
वीराम्नायमहादेव ३९६ २५ एयनीकृत्य कम्पो च ६९ ३२
षषमूते जपेम्मभ्वर ५० ६ छत्यदा्मय ठर ६२ १४
र ७ पस्तास्नष्ठमते पुत्र १०३ १
वृरोपु विलिखत
येतालदाकिनोप्रेव ४ ११ शाकूनादिपु मश्रेपु ७ २०
वेदलक्ष जप मुरयत्‌ ६८ १५ श्षन्निवश्यस्तस्मनानि १५ १६
बेदवेदाङ्गपारक्न क ७ श,म्ताच (स्त्यप]नुहुषाच्ानि १७ २९
वेददेदीगपारीलर ७ १६ शाल्िष्ठषतुं चुपोपेत ४७ ६
१०२ २० श्विवदोजर वह्‌नियुक् ६६ ११
वैदभ्ये वतौ जप्यः
वेदाक्षरोमनुपुर १०२ २१ सष्टाक्षशणि कोरेषु ६१ ५
दसद. विलिदेत्‌ पूवं ८ दे शिष्यस्य हृदय चव <= २७
वेदादि वितिचेत्‌ दृव ६७ ६ सोतोन्णो छमठा कृता १६ ११
येदागूत ठप॑णेन २८ २३ शुभष्छ्रादियोने तु १०४ शद
वेदिक च प्रित्पञ्य ५६ २७ शुशधृपया गुर षम्य १३
वंप्जिद्धामेदाना्ं ६ १५ यन्या जवेरेव ६२ १४
ध्यालम्याघ्रःदयश्चैव ५९ शष पोषमापापविप्रष्पः छथ ७
द्रणगन्निष्वेषत्र र दथ शोषभापापठिः साक्षाद. ६४ २५
दमशे प्रजपेन्यस् ९३- १६
र २1
दिद दरदहुस्यध्यं 49 स श्दाभितिऽमोपेव ५ २१
१६ सा्यायनट््र

पृष्ठषद्ु |पृष्टादुः ¶च।ड


श्रीकण्ठ धोगराषार ३१ २ धो नँम्थिमाप्नोति . न्म १६
भरीणण्डोचन।गर ६६ २१ सो यौवनहोन वु ५६ २५
श्रीदीजे भुवनेशी च ७७ १६ षयः स्तम्मनमाप्नोति ६ २३
भरीवीजादि पेत एव २ १५ उन्तवेदीषदिक्षया २५ १
धीभायामातृका चव १७ € सेवेद्‌ पशिखथा ५१ टि
भोमसुषतरतव जिह्वां ६३ ३४ सतोप जनवेततस्य ४७ १३
श्रेष्ठराञ्य भवेतपुज ८० १६ सध्यामवरेयु सर्वेषु ११९ रह
सोतालीगण्डञ्चमध्ये ५२ २६ स परतितोभवतप्सा ३६ २२
कवानवज्ञ्वलते शतु २८ २६ सपर्णाक्षालयेत क्षीरः ५२ २६
सकादक्रोटित्रिषुरा ६७ ११.
प सप्तकोटिमदामवे ६७ ४
पटूक्रोएवुण्डे जुह्यान्‌ ४५ २६ सम सम रिपूच्िष्ट ५१ १५
पटृकोणमध्ये वित्खिद. € टि० समस्तकम्मंणा ष्व ६४ ३
पटूकोण चाष्टकोरज्च १४ ४ समस्तविषनिनसि १०३ <
पटक्षोण वाष्टकोराच ६१ ४ सनस्तस्तम्भन पूव ९७ १२
षटकोणे वा लिसे.मनन ७६ ५ छम्धूजयेत्‌ पञ्चमी चेव ७० ३६
परत्रिशद्वारमाव््यं १०१ € सम्मोहनाधं प्रजपेत्‌ ३० ११
पट्पञ्चक्रोटिचामुण्डा ३७ ६ सम्यश्ञान महेयान ४६ २
पटप्रयोगास्त्रयो विद्या २ ११ सपमण्डूकयो पत्य ८५ १७
पट्‌सदत्त देवकुपुषर ४७ १३ स्वकर्माणि निनि १०० ६
पटूपरल हूनेत पृत्र ४५ २१ सवत्रंवोकत पुत्र १५ १५
पटृसदस्र नेत पुत्र ४६ ३ स्वं न्यासविधिष्त्वा १३ १६
पट्पहस् ह्नेप्पुत्र ४७ 5 सवमव्रमयो दवौ ५५ १५
पोडशादगुनमाततु ७ ६ सवंशम्र ततोच्चार्यं £:
पौडशंरुपच,रंश्व ७ १३ सवशब्द ततोग्बायं ४१ १६
स्वशब्द तठोच्चाय षे रष
स सर्वाह्धमुर्दरी श्यामा ३१५ ७
स कत्पमुखभागी स्यात्‌ ६७ ३३ सर्वाद्ध दायुनाशनु ६१ २७
सद्ुह्पपूवक मस्र १७ १५ सर्वादधं लेपन दुर्पात्‌ ६५ ११
सग्रहष्ष लयत सम्यक २२ ११ सर्वावियवशोमण्ढयां ५४ १
श्व जीवप्नेव चाण्डालः ५३ ५३ स्केस्वरेदेजमद्य ५६ १
सचारवन्‌ भवेत पञ्च." ७६ टि सपंवास्विरदूवश्य २४ १६
समु मापापतिः षष्षाद, ५७ ६ सयपत्कव्णवचंद 5४ इ
पष्पम्प्रदायविधिना ३ २३ खरप लवणोपेते ४७ ७
सद्यो नादानमादाभ्ति ४५ २० खवित्पचद्रपिः ध्यष्ो ४२ ३६
यानुना १५

पृष्ठाद्धं पच्च ~ पृष्ठ प्राद्र


सविषं जलसंयुवते ६ ५ सदरेच्च न्विमीप्नोधि ५३ ४२
स श्रधुः घम्तरागेण १९ १३ सदारार्वाकामल्षे ~ ६६ ३०
स्यस्ते दानाच्च १० १५ स्तन्धमध्यां च वाग्बीज ड ४
धस्यादिभिविनश्यन्वि ४८ १२ स्वन््रमायां ततोच्चायं ७७ १७
सदस प्यानपूवं तु ५१ १३ प्तन्यमाया तार्कच ४२ टि
सदत अ्रजवेनमन्त्र ७६ ८ स्तज्पीकरणनिर्ना्ये १०३ €
सहल द्वितय वव ४२ २४ स्तनमदयश्ु्वाये ४४ ६
सहक्षवारं विधिवन्‌ ५२ ३८ स्ठम्भद्विघय चोक्त्वा ४१ १५
सदिरण्योदके पूवं ८ २६ स्तम्भनं जपेदुत्र ˆ ३० टि
प्ाए्यध्यनमते देवि ६८ स्वमनास्वरद जोत ५७ ४
छाह्यायनमते देवि १०० रर्‌ स्तम्भ्नाप्व्रमयीः दवीं ४२३ ३६
साहपायनमठे देव्या -६< ४ स्तप्मनेन विनः णान्वि र १२
प्ाधयेलुलमगेख ३ २५ स्तभ्मनेषु हृनेदीमान्‌ १७ रम
घराधुषठापु महाप्र्च १ ७ स्तम्मन च भवेत्‌ पतर ४५ ३१
घान्व यम्तसमायुतव १२ ६ स्तमन च म्वेच्छो्र १९ १५
स्ापमोपास्पि कत्तन्य ११ २५ स्ठम्भयेत्तं नकोवग ५५ 1७
सिद्धिदो जायते वत्स ६१ २२ स्तम्मित मन्त्रयोवेन ८८ २१
सुखधेक्षेए यत्‌ दुर्याद्‌ ३६ २५ हषपयेच्व कपल तु २० २४
सुगन्धपत्रपष्पादोन ७ ष्व स्य।प्येन्चुद्घपधोभाये ५१ २१
मकान रत्तप्यद्धे १४ स्पाप्येत्‌ ठेन म्व रे ४६
सुष्दयौ कालिकया १०४ ३१ स्विरमाया दवि प्रोषना ६६ १२
एमप्तुसुषेराज्य १५ रर प्विरमापाद्वितीयांतु ६९ १५
सुरया तपंणं पुत्र १२५ र प्ुह्य' क्षीरेण युश ४६ २०
सुवणंेलमु्ल्य ६म १३ प्फुरद्रय तथां चोक्त्वा भ्य ५
सुवासिन च तेतेन २५ £ स्फुष्टय सपरुर्बाय्यं ६७ ७
सुवाखिनी ब्रह्मणाक्चि ६६ १६ स्फोटक्व्रणषपुर्चो. ७४ १०
† सूचिप्रयोगविष्वे ६५ ७ श्फोटव्रणाश्च जायम्े ४६ ३९
मूष्टिप्रिफतिचष्हार %* ३ स्वप्रिया बिन्ुपराव चं ७१ ४६
घोभप्यचर्याह्ठमायुबतत ३ २६ स्वमन्तराक्षरणो विया २ १८
सोमयाचनकतृनणा ३६ २३ स्वणंषिहाखनठोना ६९ १
सौमाग्यार्चादिवि््वंद ९६ २५ श्वत्पदचा बहत चाय १ १४
षोमःगयार्चा दिना पुत्र ३६ १९ स्वानिन्‌ त्िद्धग्रलाष्यक्ष १० २९
धसेरेन भया प्ोतु ५३ दिर
सजर्‌ च तठःपु्र ६६ १६ द [१
खर्करेख दिना मल ३८ १९ इरिद्षद्धज द्वु ६६१ ६०
प्स्यायनतन्वे
षप
पृष्ठा प)
पृष्टायूः पदाद्‌ ७५ ८
६५ ४ हनैज्व पर्ववत्‌ दुष्ड ४
हषदरिमयदुष्त च ७४
६८ १८ हनत्‌ त्रिोणवृष्डेतु २५
४५
द्द चा्षमाष्ाव १२ हुनद्ष्यानघमःवुत्वः
६५
हष्रासषमणि पौव १० टुदु स्वाह्‌,पमाुत्
८१
४७ १०३ ११
दृश्दरिसब्दोम तु हूनष्य्ररष्दि
१९ ५ ७८ १६
दृरिद्रणष्डदोतन
$. £ हदये तु षमुच्वायं १८
५१
द्ष्दरितालक घव २६ हदि श््राम चासिष्य २०
१०४ १०
ह्द्िमिः मुष्वतानिः १८ हेषकृण्टतभूष ड्ग रर
२७ १०४
हृगिद्राम्नष्ठपणेन
६६ १४ देलक चदा तूर्ण २७
५२
दृष्द्होममागरेण द° हु-लष्ठषपयुन्वरेत्‌ पुव €
४६ वाय ६८
हगौठकश्व होमेन १४ द्ौद्ी द च ठतोऽ १९
७५ व ३5
हष्तमाप्र भवार ८ ठं दो ्तस्व त्व
्या ४४ #
हप्णिति पद चोश्ध १७
७२
द्धिवारोो भवेततप्य

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