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2015.408506.Rajasthan-Puratan Text
2015.408506.Rajasthan-Puratan Text
९.५ ~ छन्ने ५ प~ प त ॥
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एन्नष्धात प्रणत ब्यप्राता. ९
प्रान सम्पादकं ~ फतर्हात्ह, एम.ए ,डी.लिट्
भन्याङ्क ११७
साद्यायनमूनिग्रणीत
सांख्यायनतन्त्रम् ९-५+ “
0५ छः खर दया
१ = 01, षतत दातत,
ध व । < प्रसीद १
४९९-402
सम्पादको ५ र
गोस्वामिधीलक्मीनारायण-दीक्षितः ५८५ ४ <
४८५५
वरिप्ड-दोयसहायकः, ए , १
सानस्थान प्राच्यविचः प्रतिष्ठान्, जोधपुर म
< 9८
56 ^|
वे 55५४4
शचस्यान-राञ्य-सस्यापित
१९७० ई“
भ्रयमावुत्ति १००० न. मृष्य
एणेरथा पततत प्रथम्रात्ता
शाजल्यान-राभ्य द्रा प्रकान्नित
पामन्यिते अ्रलिलमारततीय तथा विशेषतः राजस्यानदरेीय पृरातनकालीन
संसृत, प्राक्त, श्रप्रंश, हिन्दी, राजस्थानी ग्रादि भापानिष्ड
विविघवाढमय्रकाधिनो विदिष्ट-ग्रगथावली
ग्न सस्फणदक
एतह्हि, एम ९.ॐ.तिदट्.
निदेशक, राजस्थान प्राच्यविदयां प्रतिष्ठान, जोधपुर
(द
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(2१५
130 "-7 €
प
९0 मन्याङ्ग ११४
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सांस्यायनमूनिप्रणोतं
सांख्यायनतन्त्रम्
प्रकाशक
शाजस्यार्न-राग्याश्ानुषाद्
क
प्रधानसम्पादकीय वक्तन्य
१ ज्वरो, १६७० ]
जोधपुर
भूमिका
भारतवेपं एक र्म्रधान देय है? यहां ्रनादिकाल से निगम एवे श्रागम-
सम्मत धर्मकीहौी स्थिति प्रधान रूपमे प्रचित रही,है । भन्तेब्रह्मिणात्मक
वेदो को निगम श्रथवा छन्द नाम से वामन, भटरोजी दौक्षित श्रादि महापण्डितो
ने श्रभिहित किया है- नितरामत्यन्त निश्चयेन वा गच्छन्ति ग्रवगच्यन्ति
(जानन्ति) धर्ममनैनेति निगमच्यन्द ' श्रथति रन्तर श्रयवा निश्वयपूर्वक
किसके द्वारा धर्म कौ जानत हंउसे निगम श्र्थात् छन्द कहते! परा श्रौर
श्रपरा-नामक विद्याप्नो' कौ स्थितिभी इसी म निहित है श्रत इसी निगम
को धमशास्न के श्राचायं मनु ने विद्या एव धर्मे कास्थान माना टै वेदमणि-
हितो धर्मो द्यधमेस्तद्विप्यय ` भ्र्थात् वदविहित काये ही धमं एवे तदितर
काये भ्रमे ह । याज्ञवल्क्य ने भो पुराण, न्याय, मीमासा एव घर्मेशास्वरस्वरूप
श्रद्धे युक्त वद को धमे एव चौदह विद्याग्नो का स्थान वत्तलाया है--
शुर णन्यायमोमासायमेशास्ताङ्खमितरितः !
वेदा स्थानानि विद्याना घर्मस्य च चतुददा ।*
त्रिकालदर्शी महपियो ने सम्पूण शब्दराशि को श्रागम-निगम-मेदसेदो
भागो मे विभक्त किया है! क्यो कि प्रकृतििद्ध नित्यशब्दव्रह्म इन्ही दो भागो
मे विभक्ते है । यद्यपि श्रयो वागेवेद सवम" वाचौमा विर्वा मुवनान्यपिता'*
भ्रादि शरौतसिद्धान्तौ के भ्रनुसार वाक्तत्व से प्रदुभंत होने वाले शब्दप्रपञ्च से
कोई स्थान खाली नही है तयापि स्वर्गनाम से प्रसिद्ध १४ प्रकार वे न्तस के
साय भधानस्प से श्रगिनिवाक् प्रौर इ्रनाक् काही सम्बन्धे है। परथिवी प्रन
मयी है रौर शलोकोपलक्षित सूयं इन्द्रमय है* । पार्थिव एव सौर परग्नि
श्घ्नाद (रन्न खानेवलि) हँश्रौर मध्यपतित चान्द्र सीम इन श्रग्नियोकाश्रतन बन १
रहा दैः । श्रत जवेभ्रनादके उदर मे चला जाता हैतो केवल श्रन्नाद-सत्ताहौ
परत्तैवाद्पायते नादम् ।
१ ष्ट्य दा इदम ~ ्रत्ता चवाज्य । तयदोमय समामस्छति
स्वय सोऽत्तागिनिरेव सं 1" दातपपद्रादयण १०।६।३।द१
श शत्य वा एतप्याम्नेवयिवोपनिपत् 1 , १०।५।११
३ दाद्पपन्राह्णम् १०।५।२।२।
{ »*
प्रादेश" वो श्रागमः वदते हं जिस प्रकार चारोवेदो मे प्रक्ट श्रादे् निगम
कट्! जाता है । श्रागमवादौ इस उद्प्वमुख को परमेदवर अर्त् दिव का पञ्च-
ममल कहते हे नोर वहु ऊर्व्वखघोत दवारा ब्रह्यविद्या चार वेदो म ही चमाप्त नही
होती परन्तु देश, काल श्नोर निमित्तो के परिवक्तंन से युगानुसार सिद्धजनो द्रा
प्रकट होतौ है) इसीलिये माण्ड्कयोपनिपद्ः को अागमप्रकरण ही कहते है ।
भ्रागम का लक्षण वाचस्पतिभिध्ने इष प्रकार कियाद कि जिसतेमोग
भ्रीर मोक्ष दोनो का स्वरूप समम्प जा सके वहं ग्राग्रम है 1 भाचीन वेद-साहित्य
कमकाण्ड द्वारा केवल स्वर्गादि योगसाघनो का स्वर्प समभ्ता है सधवा
ज्ञानकाण्ड द्वारा केवल मोक्ष का स्वहूप भ्रौर उसके साधने वत्तलाता है, परन्त्
“ पञ्चम प्रागमे साहित्य भोग श्रौर मोक्ष को एकवाक्यता करके क्रमपूवेक
स्यवहारसुख श्रौर परमार्थसुख दोनो दे सक्ता है।
तन््~प्रायम
तन्यर वह् विज्ञान ई जो पसे साघनो भ्रौर योगौ का निर्देश करता ह जिनके
दाया मनोबल कौ उति कौ जा सकती है! इन साघनो एव प्रयोगो का उदेश्य
निस्सदेह मोक्ष कौ प्राप्ति है। परन्तु एक जन्म मे सव लोग इस स्थिप्ति पर
नेही पहुंच सक्ते, श्रभ्यास करते-करते उनके भ्रन्दर कुं ॒विरिष्ट दाविति
जागृत हो जातो है जिन्हे सिदि कहते ह । षिदियां कू अरलोकिक शम्यां है `
जिनकाप्रयोगवे ही कर सकते ह जिन्होनि इह प्राप्त किया है । घन्य कोईभौ
व्यक्ति इनका उपयोग नही कर सक्ता । परातञ्जल योगसून में प्रणिमा,
प्रिमा, लघिम्ना ग्रादि भ्राठ सिद्धियां मानी दहै । परन्तु उसके पीधेकेग्रन्योते
चौतीस सिद्धियां मानी हं । हिन्द भौर बौद तन्त्रो के विभिन्न भागमोकेदारा
निदिष्ट विधि एव साधनो का भतृसरण करने से इनमे से कु भ्रयवा अधिक
तिद्धियो का प्राप्त कर लेना सम्भव है। त्का यह उद्धोषहकिजग्तुके
भौतिक साधनो की उन्नति द्वारा जो द घम्मव हो सवत्ता दहै, उसे एके दही
च्यक्रिन भ्रपनो मानसिक ददिन के विकाष हासा सिद्ध कर सक्ता)
तन्त्रो के प्रति सामान्यतया यह् चराम्ति फलो हुई ह कि तन्त्र वेदो से भिनत
हं भ्रौर नमे अनार्यो के स भ्राचरण एव व्यवहारो का दसन होना है। वस्तुत
यह ्नान्तिमात्र है 1 तप बेदबाद्य न दोकर देद-सम्मन ह । हा, इतना प्रवश्य
है कितन्ववेदोकीतरहक्सिमो चणंकेततियेप्रप्रह्यनरी है तनो मे
सर्दस्ताधारणजनो के ˆ लिये साधन का माने प्रस्तुत क्ियागयाहै 1 वेदगौ
करियर सामान्यजनो वे लिये अधिक् परिश्रमस्ाघ्य, व्ययसाध्य एव भ्रतिवन्य-
{ * 1
साध्यते से उन क्रियास्नौ फो यथादिवि सम्प करना चदह्जछाध्य नहीं ई 1
इसीलिये परमकारुणिक मगवान् दिव ने सहजसाधनगम्य तन्त्री का प्रकटी
करण श्रागम'नामसेकयारहं।
, तन्त फो व्युत्पत्ति एवं परिभाषा ५
मारतीय कोशकाये के अनुसार तन्त" शब्द का प्रयोग प्रापम्, शिद्धान्त,
शिवमुखोक्तशास्व रादि के अर्थो मे हृघना ह, वामन, मदटरौजौ दीक्षित श्रादि
महावैयाकरण पण्डितो" ने तन्त्र" शब्द कौ न्युत्पति इम प्रकार की हं--^तनौति
स्वंशास्वा्णां सिद्धान्तान् यचत्तन्वम्' श्रयोत् जो समस्त शास्तो के स्षिद्धार्तं
श्रथवा निर्णयो का विस्तार करे उसे (तन्त कहते ह 1
प्राचीन श्षास्त्रो मे यद्यपि तन्त्र-शब्द का प्रयोग श्रनेक विषयौ के दापो
के लिये हृश्ा ह जँसे-"कपिलतन्न, वासिष्ठतन्व, जैमिनितन्न, पू्वेतन्त्र, उत्तर
तस्त्र श्रादि'। तथापि इस खन्द का श्रधिक्तर प्रचलन अ्ागमधास्त, निगम
शास्त्र श्रथवा हिवमुखोदगौर्णं यास्व के चियेही हमा है
^ श्रागतं िवववतरेभ्यो गतञ्च गिरिजापुखम् ।
* मतञ्च खामुदेवेस्य तस्मादागममुच्यते 1
(सिहसिद्धान्तसिनषु ¶०-४२६)
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परागतं शिववकत्राच्च गतदच गिरिजामुे 1
तेनागमारि तन्त्राणि कथितानि वरानने) १२५७॥
५
विषयानुक्रमः
(१) पोताम्बरादेवोध्यानम् १ ;
„ (२) मायादि-राक्षसाञ्जेतुकामस्य कातिद्ेयस्य शिवम्भरति ॥
उपोपायजिज्ञासा र १ २-६९
(३) कात्तकेय प्रति जयां श्विवनिगदित ब्रह्मास्रविधा-
वेगसामनुप्रशंसनम् {२ ७१४
(४) नारदस्य सांस्यायनमूनये ब्रह्यास्तरदिवोप्देशः,
तद्विष शतो परकापक्रमश्च # १५-१५
(४) ब्रह्मास्न्विचामभ््ोपासनाफल, मन्त्रलन्धये
+ फुलगरुरमुखार् दोक्षाप्रहधावर्यकत्वज्व २-३ १७१८
(१) दिभुनापवाम्बराच्पानम् ३ 1
{२) दीक्षाविधिनि्ासा ॥
(१) पृस्तकलिलितभन्त्रजपे ह्ानिसम्मवात्
कुलगुरमुखादीक्षाद्रहभप्रतिपरदनम् रक ३-६
(४) प्तृगुरुलन्नणाति 1 ७~११
(४) कारणत्रयेण विद्योपलन्धि-, विच्चाया
राजसादिभेदत्रयन्ब ४ १२१५
(६) शविष्यसक्षणानि ४ १८-२२
(१) वाटूमुखमतम्भिनीवगल्मुखोष्यानम् ६ १
(२) भ्रमिपेकपिधिजिसासा ६ र
(३) मन््छमिषेचने कालनिर्णयः ६ ५३-६
(४) क्िष्यस्नापन, गायजीजपस्यावश्यकसत्वज्च ६ ६-७
(४) कलश्नककस्यादनविधिः ˆ “ ७ ८-१७५
(६) ऋत्विम्बरणविधिः कलवरामामंनवियिश्च ७८ (एत~र४
` (७) विदामन्ोपदेद्यदिधिः र २५-२
1
२1 साद्यायनतन्मे
वमाद्ध विषय पृष्ठ कतक
(१) भीवगलादेवीध्यानम् १६
(२) एकाक्षरीमहामन्त्रजिक्ञासा ११
(३) एकाक्षर गोजमन्ोद्धार १२ ३-६
६४} शष्यादिकरपडद्धन्यासविधि. १२ ७~१०
(५) पञ्जरन्यासविधिः १२-१३ ११-१५
(€) मानुक्ञाग्यासवियि द १६१५८
(७) वगत्तामु्ीप्यान तज्जपदिधिश्व १२ १६-२्५
(५) बहद्धायुपुख्पस्त्रविेद्ारस्त्मयोगविधिश्व
(६) प्रयोगान्ते सोम(म्पार्चावष्यकत्वम्
॥
१७. सप्तदशः पटलः पृष्ठ ४३-४६ १
(१) वगताम्विकाघ्यानम् र
(२) शताक्षरोमहामन्द्रनिकसा ॥
(३) श्वताक्षरोभन्नोद्धारः ४ ३-१०
(४) ऋष्यादि-न्यासविद्या-प्यानानि ४४.४१ ११-१५
(४) जपसख्या-तपणदरव्यादिकथनम् ॥ १६-१७
५ (६) फमभेदाडवनद्रन्याणि तदाहृतिसश्पा-समय-कयनञ्च ४५-४६ १८-२५
(१) सिह्वास्तमनकारिणोकमलाध्यानम् ४६
(२) शताक्षरीह्वनम्पोगजिनाषा ४६
(३) विपमज्वराद्िविविधक्तेगविनाक्षनावं नानाद्रच्याहृति-
प्रपोगाः ४६.४७
(४) यीकरणादमीप्सितकामनःरेदादनेकविषद्रस्याटूति-
भ्रयोगा ९१६
(५) बहमवादिरोगदामनप्रयोगा. १७-१६
(६) वक्याकर्पणप्रयोषाः २०-२४
(७) शतुरोगहृदरयोगाः २५२७
(४) मारणप्रयोगाः रत
(२) परविद्याभेदनोषायप्ररन ५४
(३) परविद्याभेदिनोमन्नोद्धारस्तदव्यादिकथनन्च ५४ ३-१६१
(४) तन्न्यास व्यान-पुरच्य्यनम् ॥ १२-ण
(५) परविद्यानेदिनीमन््र्य नानाप्रयोग ५५-५६ १६-२६
(६) सिद्धमर्यमाहूषत्म्यवर्णनम् ५ ६-५५७ २६-३४
(२) वगरलास्ववियाप्रदन ५६ #:
(३) यगलास्प्रविययाया कम ५६ ३४
(४) कतास्त्रवियामतोद्धार ५६.६६ भप
(५) त्तृप्यादि-न्यास-घ्यान पुरक्चर्थाविधि ६० ६१४
(६) शदूक्षयषदादिनान्मोगा ६१ १८-३०
(१) सस्तम्नरूपाकगताम्बाध्यानम् ६४
(२) वमलामन्नमाचिकात्तक्षणजिनाम्रा ६४
= विवयानुक्रमः [७
(१) वगलदिवोध्यानन् ७१ ष
(२) व्लाचतुरक्षरोमन्वप्रयोणजिन्तात्ना ७१ २
(३) नानाद्रभ्ययोगेन तपेणम्रयोषविषिः ७१-७३ ३-१०
(३) ७८
(१) वगलाघ्यानम् ८१
(१) वगलाष्ाक्षरमन्तरजिज्ञासा ८१
(३) वगलाष्टाक्षरमस्नोडारस्तवृष्यादिन्पासविदाकयनञ्च +; ३-६
(४) मन्त्रभेदेन वगलाध्यान चन्मयपुरदचर्या च हशन्तर् ७-१२
(५) कर्मभनेदाद् वित्वादिविविधवृक्षसूतेषु जपविधानेन
नानाकायसिदडय- ८२.८३ १३-१६
८१) भक्तचिन्तामयिवमगलाघ्यानम् णद
(२) वगलाष्टाक्षरोपन्त्रप्रयोगनिलासा से
(३) पुत्तसीश्रयोय 1
(४) भानाद्रव्पयोगेन लिह्वास्तम्मादिदते मस्मनूणं.
अक्षणाचनेके प्रयो. >। ६१
(५) पुर्मदद्धाकयवाना स्वानविकेषेषु निषेपाद्-
सिपुमारणादिग्रयोगा. ५४-८५् १२-१
(६) नानावस्तुसयोगजपूपदाषनादिप्रयोगा. पभ-८६ १८३
७५
ध्यानपूवंकम् ध्यानपूकम्
चकषपणम् घ तपणम्
७६
डे
ततत्छत° तत्तत्फत०
ग मण्डलातद्र मण्डतात्तद्*
~न
२] शुद्धिपयम्
॥२२॥ 11२३॥
प्
२२. न्तद्णाशश च २२. रा० ण्ठद्धाशच
पछ
प (१७१1 1१
१६. रा. तु षण्माष १६. रा. एलोकाद मिद नास्ति
॥1
८, रा. यद्यदण० ८. रा. यददृद्रण०
८६ ५५
परम परम्
६१
कृलिमैः कृत्तमः
६२
निदचतम् निर्वितम्
६२
विोषोऽय विद्ेपोऽय
र्
शवि लिखेद् ष्ठ वितिवेद्
६३
चययाकमम् च यथाक्रमम्
६३
नार्जयेद् नाष॑येद्
६२
१५ १६, १७ १४. १५. १६.
६३
योगोय योगोऽप
६९
प्रयस्वि्ः घतुस्विशः
६७
५ पञ्वध्रिशः
६६
पटूवशः पटुत्रिशः
१००
द्वाविंशः पटुधिक्षः
१०६ पञ्वव्रिशः
वतुसिश.
१०३ मध्यमभागे
१०४
मध्यमाने
बीज ॐ वीच
१०७
जवालामुख्यस° ज्वालामुख्यस्नर
११०
ऋ्ष्यादिण शऋष्यादि०
११० श्रोबृदद्भानुगुल्यस््रर
श्रीदहद्भानुगुख्पस्र०
११० प्राह्ण
प्रह्याणि
११० द्धींद्वौह्^ वगला°
दीह्लो्व वगता
११० ह फट् स्वाहा
ह फट् स्वाहा
षर परविदयामक्िणी
परविष्मामक्षिणी
ष्र्
कीलन्काय कीलकाय
५ ,११३ बगलास्वोपसदारण०
०कगलास्वोपसद्यर०
+ ११५ ॐर् धिलायं
ॐ पिखाये
११५ विन्न
११७ दि्नैरना
मन्वख्प मन्बस्पं
ष्प्
ज्ञेय केम
` १८
पृष्ठ प्रगु्धम् शदम्
१२० कवं फव
१२२ नगात्मने नात्मने
१२३ बीज वीज
१२३ रस्थितिष्वसने स्वितिष्वसने
१२४ भसस्तम्भन सस्तम्भनम्
१२५ वान्त वात
षर भ्सुदुलंम सुदुतंम
१२५ भमतीन्धिय मतीन्द्रिय
१२५ १ त्यपि पाड. इत्यपि पाठ.
१२६ इय द्व
१२६ गोप्यतम गोप्यतम
सस्यायनतन्त्रम्
॥ धीः॥
सांख्यायनतन्त्रम.
पत्म
प्रनुष्ठानहुरण + प्रकोक्तिविनाशनम्* 1
परापजयङृद्* विद्या परेषा ्रमकारणम्* ॥२०॥
ये वा विजयभिनच्छन्तिष ये वा जेतु क्षय, कलौ ।
येवा कूरमृगेच्दाणा* क्षयमिच्छन्ति मानवाः ।॥२१
ये(य इ)च्छन्त्याकपंशान्त्यादिर वश्य सम्मोहनादिकम् ।
विदेषोच्चाटन प्रीति तेनोपास्यस्त्वय मनु ६ ।२२॥
सत्छम्भ्रदायविधिना* सदुगुयोरमुखतस्तथा ।
उपदेशक्रमेणंव गृहीत्वा साधयेन्मनुम् ॥२३॥
कुलाचार पमायुक्तः१ १ कुलमार्गेण पुत्रक ।
दीक्षा कुलगृयोर्योगात् मृहोतव्या सुवुद्धिना१* 11२४)
साधये्छुलमागेण तेन मस्व प्रयोजयेत् ।
उपसहारण *३ तेन कत्तव्य करुलयोगिना ॥५२५॥
सौभाग्यचर्यास्मायुक्त ** सदा तपंणपूव्वेकम् !
सदा पूजापमापूक्त ' * चिन्तित भवति घुवम् ({२६॥
ऋषिसिद्धामरेश्चैव विदाधरमहोरगे" ।
यक्षगन्धर्वेनामैश्च पिश्ाचव्रह्मराक्षसः"‹ ।२७।]
परञ्वैन्द्रयेश्च सन्वार पदयो नाशचकरो१* मनुः१८॥1
पिण्डजाण्डजजीवेक्च किम्पुनः क्रीञ्चभेदन १४ ।।२८॥
ति पड्विधागमे साषपायनतनत्रे प्रथमे पटलम्२ ° ॥१।।
\\ श्रथ द्वितीयः पटलः ॥
जिह्धाग्रमादाय करेण देवी वामेन शनून् परिपीडयन्तीम्** ।
गदाभिघातिन च दक्षिणेन पीताम्बराढयया द्विभुजा नमामि 1॥१॥
५
चष्ठः षटखः [१५
न
श्रदिश शतहोमे च * अ्ररिनिद्च सहुछ्के ।
हस्त चायुतहोमेुर द्िहस्त लक्षहोमके 1 १२९
गूणदस्त कोटिहोमे° कुण्ड भिम्नोत्तत सुत" ।
स्थण्डिलस्य चः वयामि ताच्तरिकोक्तस्य चक्षणम् ।१३॥
भरलििहस्तम)त्र च द्विरल्निस्च द्विहस्तयोः९ ।
पतं सहस्रमयुतं लक्षहटोमेष्वय क्रमः \॥१४॥
सर्वत्ैवोन्नतं पु प्रेद स्थण्डिलक्रमम्* ।
सक्षण> स्यण्डिलंःः कुण्डे" "नं ज्ञात्वा निस्फलं हुतम् ॥१५॥
चान्तिवश्यस्तम्भनानि विद्रेपोच्चाटन तथा ।
मारणान्तानि श्तन्ति पद्कर्माणि मनीषिणः ॥१६॥
नानायेगेः कृतिमेदच नानावेदकमेव च ।
विषमूततश्योयेषु निरासः) › शान्तिरुच्यते * ॥ १५७।
वद्य जनाना सर्वेषा वात्सत्य हृद्यत्त स्मृतम् ।
स्तम्भन रोधन पुत्र सवकर्मसु निष्फलम्+ ॥ १८
मंत्रस्य १४ कलहोत्पत्तिविद्रेषणमुदाहूतम्*४ ।
यलवुद्धिभ्मेणोक्तमुच्चाटनमिदम्भुवि 1 १६॥१
श्राणिनां प्राणहरणं मारण समुदाहृतम् ।
परत्पेकमेषा वक्ष्यामि होमयोय सुरनिरिचतम् ॥२०॥
इुवहोम तिमध्वक्तं चुहुयादयुतत्रयम् ।
रोगहन्ता› * प्रहादिभ्यः सद्य. शान्तिकर भवेत् ।२१॥४
सुमन्त-°* कुसुमंराज्य १= कृत बाणायुत तथा ।
जुहयानिशि कलि च कश्य सम्मोहन** भवेत् २२)
विभीतक्समिद्धिर्वा करञ्जर्बीजमेव च।
नेत्रायूतत हनेद्युव स्तम्भन परम मतम् ^“ ॥२३॥
१. च.तु। रष. चायुतहोमेहु! ३. ष.कोट्हिमे। भष. त्या! शग,
प्र ६. ख, दविहस्तकम् । ७. घ. स्वण्डित क्रमात् 1 ५. ल. लक्षणैः €. ख,
स्यद्ति। ध. स्यदिते। २०. ख. कुण्ड) ११. क. घ-निराक्चः। १३. क, ०गुच्यते )
१३, घ, निश्चितम् । १४. ख. मित्रस्य । १५. ख. च्वि चपदा० + १६. ख.
शोगङ्त्वा 4 १७. ख. स्यमन्त । व, शाप्त + १८. घ. राज्यैः १९. घ. मोढनक 1
२०. घ. प्रम् ।
१६) पह्पापनतम्य्र
~~~ ^~ "चच = न~~ ^~
विपत्तिष्ुकपुष्येण पूरवंवससम्यगचंयेत् ।
सद्यो विनारमाप्नोत्ति° मृकण्डुघहशो *> रिपु ॥१६॥
शमन्तकुसुमेनैवः पूरवेवत्पुजयेन्नरः ।
पृवंवज्जायत्तेः लोके वेदशास्मरार्थकोविदेः ।२०॥
प्वाशक्ुसुमेनेव पूवेवस्यूजयेन्नरः 1
सयो मन्दो भवैद्धगमी लमेस्स्व्ञतां सूत ॥२१॥
पूर्ववपुजयेत् पृत्र भरलसोककुसुमेन च ।
ईन्पिता" लमते* कन्या खा तु पुधवततौ भवेत् ॥२२१॥
सुलसीमज्जरी भिश्च पूवेवध्युजयेन्नरः ।
ज्ञानमेषितर्च वैराग्य लभते“ तरर्घ॑रपि^ ॥२३॥
नन्दावत्तेन° सम्पूज्य वातरोग व्यपोहति ।
मल्लिकाकुसुमेनेवे पूजयेऽज्वरशान्तये 1२४॥
कुसुमेश्चम्पकैरव्येः शीतज्वरनिवारणम् ।
भचयेन्जातिकुमुमेमेहरोग ^ विनक्ति ।१२५॥
चन्ये मल्लिकरापुष्येनि दोप › ° लभते ध्रवम् 1
केत्कीकुसूमेनाच्यं द्रव्यवान् जायते ध्रुवम् ॥२९॥
एव च पूजयेद्यन्त्र न जवेनं च होमतः!
भ्रयोगसिद्धिभेचति बगलया प्रसादतः ॥२७१
ति पड्विधायमे सांद्धायनतन्ने नवम पटलम्++ 601
५ श्रथ दशमः वटलः ॥
कम्बुकष्टीसूताग्नोष्टी* * मदविह्वललोचनाम् ।
भजे बगला देवी पोताम्बरधया चुभाम् ॥१॥
फीञचमेदन उवाच--
भ्रष्टमूत्तं महामूर्ते नमस्ते चन्द्रशेखर ।
वदे प्रयोग मत्रस्य^उ क्ेयनक्रममादरात्** (२॥
हषर उयाच~
परवोचत यन्धमालिख्य१ प्राणस्यापनपूर्वेकम् ।
भर्चयेदुपचरेण१९ चन्दनेन विलेपयेत् ।\३।।
१. ध स्थमन्द। २.ग. पुत्रका.) घ. पुत्र वा०। ३. प.रईप्पितंच। ४
लभेत् 1 ५, ण. लम्यते। . ६. प.च परेरपि। ७. ख नन्दावर्तेव् । नन्धाकंश्व।
घ. जदयकतृत 1 ८, घ शरवत् ॥ €. ग, महारोयं। ०. ध. निधिप्त) ११. घ.
श्यत्रप्रयोय नाम नवमः पटक. ॥ ` ६२- खग. कम्बुक्ीर 1 १३ पे यत्तस्य + १४. ६.
लेपन 1 १५. घ. ्मादिख्य । १९. धृ. ण्दुपवारश्च । प
त
३४ साल्यायनतस््े
॥ रय दादश; पटलः }}
कोलागमंकसवे्या सदा कौलायुपताम्विकाम् }
मजेऽ्द सवंसिद्धधृधुं बगला चिन्मयी हृदि ॥१॥
पोचमेदन उवाच--
नमस्ते सवे गवितामुरभञ्जन
मायत्री वमलास्या च वद मे करुणाकर ॥२॥
शवर उषठाच--
मन्त्रोद्धारः प्रवक्ष्यामि मन्त्रमाहारम्यमेव च।
पुर*श्चर्याप्रयोग च ॒वेक्षयेऽह तव पुत्रक (1३
बरह्मास्भायपदं चोक्त्वा “विद्महेति पद वरतः ५ ।
स्तम्भनेति पद चोक्त्वा वाणाय तदनन्तरम् ॥॥४॥
धीमहीति पदं चोक्त्वा तक्तः+ शब्द ततो(दो)च्यते* 1
नगलापदमूच्वायं उद्धरेज्च प्रचोदयात् ॥५॥)
गायत्री वमलानाम्नी स्वंसिद्धिश्रदा भुवि}
ब्रह्मा ऋषि्च छन्दोय{स्य) गायत्री स्मुदाहुतम्= ॥६॥
देवत्ता बगलाना्नी चिन्मयी शक्छिरूपिणी ।
ॐ वोज चैव शक्तिही" * कोलक विद्महे पदम् ।७॥
चतुरलंक्ष पुरश्चर््या तदश्च च तप्पंणम् 4
तदशाश हुनेदाज्य तावदुब्राह्धणमोजनम् २!
न्यासघ्यानादिक सवे कुर्यात् "न्मन्तद्मे जवे"? * !
प्रयोगाय वक्ष्यामि गृय॒त्रीवगचाह्धये"९ \६॥
ईद उशाथ~
बिन्दुमध्ये च सम्पूज्य स्यणंत्िद।सनोपरि ।
चिन्मयो वगलादेवी सवंहिद्धिप्रदायिकाम् ॥३॥
घतुभुजां च दमुना गदां जितां च बिभ्रतीम् ।
पीतवर्णा महपूर्णामचेयेभमूलवि्यया +॥५॥
त्रिफोचे पूजयेत् पृत्र वाणीं गौरीं रमो"* क्रमात् ।
तत्तद्योजेन पम्पूण्य तदावाहनपूवंकम्ग ॥५॥
पञ्चास्य पञ्वकौणेषुं वषये तद्ूजनं क्रमात् ।
पूर्वकोणे तु सम्पूज्य भरस्व च वगलामुलीम् ॥६॥
दवितोयकोे सपूज्य श्रस्वराज कुमारकं ।
उत्कामुपीति विच्यात तन्मवेणेव पूजयेत् ॥७॥
तृतीयकोगे सम्पूज्य भ्रस्रजं कुमारक ।
“नाम्नो ज्वालामुखी चव तन्मन्ये
णैवपूजयेत्^* ॥५॥
श्वतु्ंकोगे सम्मूज्य श्रस्पराज कुमारक! * ।
जातवेदमुखीनाम्नीं समन्त्रोणंवपूजयेत् ॥६॥
पञ्चमेषु च कोणेषु भ्रस्यराजं कुमारक ।
वृहृद्धानुमरुखी ख्याता त्रिपु लोकेपु दुभा 1 १०॥०
पञ्चकोगेष्वेवमेतत्पञ्चास्वर < सम्यग्च॑येत् 1
मूलमन्ेण तैनैव पूजायन्त्र कुमारक ॥११॥
तदुपरि सभम्यच्यं दिवपालाप्टकमादरात् ।
वद्वाटन च तच्छक्तिदशायुतपुरस्सरम्£11 १२॥
तदुपरि समम्यच्यं मातूकाष्टकमेव च ।**
तदुपरि समभ्यच्यं विष्तेशाष्टकमेव च (1१३
सादार्चने+चावलस्ब्य सांख्यायनयूनिस्तथा !
उक्तवानागम * चैव सृष्टयः श्रृणु पुत्रक (1६11
सवद्धिसुन्दरी श्यामा सर्वावियवदोमिनीम् ।
नवोढा पुष्पिणी चैव प्रा्यदविपरकन्यकाम् 11७)
इष्णाष्टस्यां चतुरस्य पौणेमास्या कुमारक 1
अथवा भौमवारे च निशाः भूगुजवासरे* ॥।त॥)
सुवासिनो चर" तलेन कुयदिभ्यगन ° तथा ।
तुलिकातत्पमानीघ्वार भरास्तरीरयोदड मखेषु च \६॥
तस्योपरि ततस्तीये ›* श्षमन्तेर्नातिचस्पकैः ।
फूर चैव कस्तूरोमिधित चन्दन तथा ।1१०॥
सरवाद्धि लेपन कु्याल्लक्ष्मीसूक्तेन वुद्धिमान् 1
पय्येद्कोपरिपत्कप्या चन्दनेन विलेपिताम् ॥११
प्ुबाचैरिति'' मत्रेण ुर्यदिक्षिणतोमुलीम् )
उन्मूखेत्यच॑न ^^ कुर्यात् श्रीसूक्तेन कुमारक ॥१२॥
पादो प्रायं ^° तत्कन्या१४ गुप्तेनार्चनमाचरेत् 1
न्यस्त्वा पोढाद्रय चादौ वग्तापञ्जर् त्यततेत् )१३॥
कन्या चैव भ्यसेदेव तत्तदद्धानि ** सरमरेत्^\
गन्धद्वारेति, मत्रेण करर्यात् कस्तूरिलेपनम् ५१४॥
मूलमस्त्रेण चाभ्यच्ये १९ पुष्पमाला समर्चयेत्?“ ।
निवेदयेद् द्रव्यशुद्धि तत्रैव जपमाचरेत् 1१५॥
घत वाऽय सहस वा मश्रराजमिद सुते 1
पुरक्चरणमध्ये घु प्रत्तिमार्गववाप्तरे १६
घ. भूपते
पपत १२. प. दिपूर्नान + .म. प, समभ्ययम् । १४.(४. पन धु
१३. 0
४ गस । १६. ष. पठाक्षसिमनु। १५७. च्छनोः॥ एप. प्रछामप्ठे
१६. ध. पु।
एकोनदिश्च पटसः { ५१
धत्तूरकं च तन्मूष्द्
नि"कारवेल्या फलाङृतिम्"* 1
"पट्मन.दिलाबीजेश्च'\ ति पादद्वयं तया ।॥२७॥
वदरोमूलतो मत्वा प्राणस्थापनक चरेत् 1
मन्मुच्चारयेतपु्र तदन्तः त्रुमुच्चरेत् ॥२८।*
शरोत्रालोगण्डश्न
मघ्ये्िह्वानासास्ययेपसी= ।
"दक्षिणाभिमुखो भुत्वा"<वगलासम्युटदरयम् *° ॥२९॥
ब्रह्मस्यनि तालुदेसे कण्टक्रानकंसस्यया ।
"दक्षिणाभिमुखो भूवा ^^ रोपयेन्नगनवस्तथा१* ॥३०॥
पञ्च प्च करे रोप्य पारे कुक्षौ च पृष्छके।
कण्टकान् सप्तसस्याकान् "मन्ययेत् पूवेवत् श्रमात्`* ।॥३१।१
रोपयेत् पादयूरमे तु प्रत्येक * द्वादशं तथा 1
'मन्पूवं च सरोप्य'*? वदरीकण्टकांस्तया ॥३२।॥
पुता प्रतवस्तेण बद्ध.व। प्रादेशगर्भके* 1
इमशनाग्नो^ ° क्षिपेद् ^< रात्रौ वि दाच्च कुक्कुटम्१५॥ ३३१
१. प्रतः परमयमपोऽदतोज्रयते घ, पृस्तके--
*एकाक्षरीविचय। च पएठाकर्था च विटय” ।
२. पुपणान् † ३. ध. पृस्वस्के निम्नो दृष्यते
मंत्रित जुहयारमवौ धीरे वपि तथेव च 1
खम्ताहान्छान्विमाप्नोति ठमः सूर्योदयं दा ॥
४. घ जात्ती। ४५. ख. कारवेस्य०। प. कारदल्या० । ९, ख. पट्पिषा निडोजश्द।
घ. परदिव निम्बपत्रंश्च। ७, घ. पुस्वङ़े विरोषः पठः--
कटकान्ठो (न्ता)पयेदङ्नेश्राघगेषु पुत्रक ॥
चथ न्वेफष्ठ.॥ ६. इ. ग, ष. पुष्वषपु नात्ति १०. प. पृस्ठके नास्वि) ११.
घ. दक्षिणाभिमुखं प्पिष्वा। १२. ष. ग्प्रमनठोरदी। १३. प. रोपदेऽमग्व्रपूदंकम् ।
१५. घ, दाद ‹ १५. घ. म्वा् घमेष्य + १६. ष. गक । १७. प, एमपाने ।
१८. च. निक्षिपेद् 1 १६. प. ठुक्कृटम् 1
र एकोरनवशः पटलः {५९
स
श्ररमयंद' सिपोरद्खे नाडीशूलं भवेद् धुवम् ।
तेनैव दुःखितः शुः पक्षाद् गच्छेद् यमोलयम् 1 २४॥
वक्ष्ये चोपसहारं जौवस्थोऽपि रिप "(वुर्) यथाग।
रवौ राघो बति दत्वा" चानी्वा साघकोत्तमः ॥३५॥
उत्पाट्य कण्टकान्यादी " क्षीरेण क्षालयेत् सुत्त +
तच्छलाका" च^ संक्षाल्य निःक्षिपेत् करूपमध्यगे ३६१
निक्षिपेन् मन्पूवं च एकंकं चोत्तरामुखः€ 1
शस्वकरेनैव * " मल्वेण मन्वयेत् कलशोदकम् ॥\३७१
सहक्तवारं बिधिवन्+ मत्रेण, \ वारिभिः क्रमात् ।
भ्रयोग +° पौडितं १२ तेन मारपेच्छाम्मवेन*२ तु ॥३८॥
स्थापयेत्^\ तेन मंत्रेण मन्प्रसिद्धिस्तु पुत्रक ।
तास्नपात्रे नदीतोये** नदीवेगाग्रवेष्दि्तः१= ॥२६॥
तस्मिश्च मन्धयेत् साध्यं मन्त्रेणेव शतं तथा १९1
विकलं भ्रशयेत्तोय भध्याह्े माननं तया १।४०॥
शिदिनं चाथवा पञ्च ऋपिरसंस्यादिनेषु च*" १ ।
एवं इते पीडितस्य, '्पोडां सूर्योदये यथा२२ ॥४१।।
खहरेच्छान्तिमाप्नोति तमः सूर्योदये यथा”*४।
ने ज्ञात्वा चोपशंहार यः करोति नराघमः ।४२॥।
स॒ जीवन्नेव चाण्डोलो मूतः हवानो भविष्यति १५ ॥
प्रयोगं चोपसंहा रमभ्यसेच्चे कुमारक ॥४३॥
दति यञ्विद्ागमे सोह्पारनतनतर एकोनवि्ः२ ५ पठतः ५।९॥
१.१ दाक्तिवोजष। २. ष.
पततो नामीश्वरो चदच्छीदोजं च ठतो न्यत् ४
३, न्ष. प, भक्षिी; ४. प, माष्वाश्येन। ६. ष, श्परस्यमयुत। ६, धु।
७, घ, ०्मेन् । ६. घ, सदेखधितयान् पुत्र ९. क.ग. निपत्रक। १०. ष प्रस्ते।
११. घ, दिपुविद्यपा। १२. च. मव्स्य । १३. ध" धस्निमत्य । १४. घ. नास्ति ।
५६1 साद्पापनतच्यरे
"^-^ ^~ ~~ ^-^
11 अयादिः पटलः पए
परग्र्ोपसहायी °परगवग्रमेदिनीम्*"।*
परविद्याकपंणं * च प्रयोग वद शुद्धुर 1 १।।
ववर उवाच--
विर्चभेत्तद्धचिमय* षा मकछिदेगलामया"<
एत्व भासमाना" तां वगलां च कुमारक ५२॥
वाडमय चैव वैचिन्य ्रिषु लोकेषु वर्तते ।
तद्गवंहरणायं च विद्यामेतता कुमारक ॥(३॥
मना त जपन्मन्वः^ * मुख तस्यावलोशषयेत् 1
भय च विस्मृतिश्रन्तिस्ततक्षणाद् भवति ध्रुवम् (४५1
प्रानपातर वेरिजिद्धुं गदा बूलेन सवुताम् ।
पीतवर्णा मदापूर्मां चिन्तयेदानन रिपो. ॥५॥
सर तु भाषापतिः साक्षाद् वृहुस्पतिरिव स्वयम् ।
“घ तु जात्येतरो,* " भुत्वा निन्दिढठो भवति ध्रुवम् ॥1६॥
भरस्व्रशस्यमय मन्त्र यो जानाति कुमारक ।
तत्र गत्वा महामन्म जपेहेवोमनन्यघीः१ १ 11७1)
तरिषह्र ध्यासयुक्त तस्य विया कुमारक {
विस्मृतिश्च सवेच्छीघ्र नात्र कार्या विचारणा ॥८॥
भ्रत्यन्तदवय्वेसयुक्तो *ग द्विपता*४ वर्तते" यदि)
तस्य गेहे" * मोमवारे निदि दस्मेने वुद्धिमान् १९६५
१, ध, यदीच्येज्यीवनं भूदि? २, घ परविद्याश्रयोयन्नाम विशति) ३. ष.
प्र्ञापहरणी ॥ ४. घ. न्पमेदनी + >. ख. य. घ. पुस्वकेषु निम्नाणे विदेषः--
एरविद्यःमक्षिशी ता दग्रस ददि भदयत् !
स्कद् (घ, छरेड्चमदन्). उवाच ॥
नमस्ते योगिसरसेग्य योधिराज नमो नमः)
६, घ. ग्कथसीव। ७. घ. भन्दद्तिमय} = ध॒ वन्दक्तिवंगलाह्वया। €, ख.
एतप्पमाषमाना । प. एकत्र भासमानो) १०. घ, च जतेन्मन्रः । ११. ष. प्रचो
जाडघतमो । १९. ध. अपेदभूदि० { १३. ध, ज्यु! १४. ख. द्विदिवो। ष.
द्विष्ठो) ९४ घ. चतय; १६. ष. गहं।
४५८] घा्यायनतन्वे
"~~~.
प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा दिधि कोवेरदिढ.मुखः ।
सहस्रं सप्तयो च नष्टद्रन्यो मवेद् प्रुवम् ॥१०॥
ग्राम चा नगरं वाय नित्य त्वा प्रदक्षिणम् ।
जपेदयूतशस्या तु* तदुग्राम तु* कुमारकं ॥११॥
सस्यादिभिविनश्यन्ति दरव्य* चौरेण नश्यति ।
पशुभिर्रियते पश्र मासादोभाग्यमाप्नुयात् । १२
फलिते पुष्पित चैव शत्रोराराममाधितः।
रवौ रात्रौ निशाकाले नग्नो भूत्वा सुनिश्चयः‹ ॥१३॥
भ्रदक्षिणघ्रय ृत्वाप्ययुत जपमा चरेत् ।
वृक्षो निमूंलमाप्नोति शिवस्य वचन यथा ॥१४॥
एकाक्षरी च बगला साध्याल्य* मध्यदेशतः
चिन्तयेज्जाप्यकालेु" सहस्र" जपमाप्नुयात्€ ॥१५।।
लक्षं जप्त्वा मनोरेव मृत्तिका च कुमारक ।
प्रवाहोपरि नि.क्षिप्य नया उपरि वुद्धिमान् ॥१६॥
स्तम्भयेत्त नदोवेग महदाश्चर्येकारणम् ।
महानद्यमिवमेव कुर्यात्त “ गुरलाघवान्`* (1१७॥।
व्यालव्याघ्रादयदच॑व ये ये क
रमृगादयः ।
त्रिसप्तमन्तरित भस्म मृद्धं
नि क्षेपणमाततः ॥१०॥
वाक्पाणिवदनाक्ष्णा च! * तत्क्षणात् स्तम्भन मवेत् 1
मन््येत् सस्छरृत भस्म मन्त्रेणानेन पूत्रक ॥१६॥
श्रष्टोत्तरशत सम्यक् ष्यानमात्रेण +> बुद्धिमान् !
सर्वाद्गोद्ध
लन कुर्यात् तद्ध॒स्मना?* करमारक ५॥२०॥
वभेवशस्ताभसजन्तर्य वरोरन्युष्क्छ्टनदप्तक्ति ४८
प्रेताद्च^ प्मूताश्च १ऽपिशाचभूच रा.१ "विहारश्च सस्तमयति ध्रुव च*९।२१॥
१. ध. घन्रात्र । गरदा रत्रो। २.खन्ष-क ध ३. ष. । ४.घ. धन।
५. ध. श्वादि! ६ ष णु निरिचतम् ६ ७. ख. सषाघ्वं । प. घाघ्यास्व । ८ ध"
न्कालतु। ६. खूप ०यषमाचरेत् । १०४. कु्यातिद्। ११. प “लाघवात्!
१२.ष.च्ि। १३ ष. ष्यनपूवंसु॥ १९्ख तद्धस्मेन । १५. घ. बीरादि-
१६. घ रेतादव। १७. भूतानि । १८ मूचराश्च + १६.
दुष्कमकरा नर]रच 1
कषय चघ्वेम्।
दादिः पटलः [भ्र
काकपत्रेण सयुक्त+पवित्रगनन्थिमादरत् ।
तेनैव सह सन्तव्यं श्रय्युत साधकोत्तमः 1१०
काकवद् श्रमते शनुमंहीमामरणान्तिकम्> 1
काकोलूकस्य प्लाभ्यभमेकोछृत्वाग सुवुद्धिमान् ॥११॥
कृत्वा पविनुग्रल्यि च तेन सन्तप्यं चादरात्* ।
ग्रयुत बगलामन्तरैः शनुविद्रेपणं भवेत् ॥१२॥४
विड्वराहमजारोमेः« पविनग्रन्थिमादरात् ।
त्ैवेदयुत तेन^ वगलापतुरक्षरः ॥१३॥
भ्रन्न्धेपो* जायते च स शनुरवपिष्यते ।
केद्य च कलशस्य च पविनग्रन्िमादरात्- १११४४
भ्रयुत तपेणेनेव छ रघ्रोर्नाश्न'<”मवेत् ।
उष्टूरोमेण कृत्वा तु पविवरग्रम्रेव च ॥ १५५
तेनायुते तपंणेन मुको भवतति पण्डितः ।
पूवेवद्वाजिरोमेण त्तपेण च कुमारक ।।१६॥
हिक्वारोगो भवेत्तस्य +“ शीघ्र *\ श्रान्तो मविष्यति।
खररक्तेन समिधमित जलत्पंणात्** ॥ १७)
जिह्घास्तभो भवत्येव वाणीपतिक्मोऽपि वा ।
श्वानरवतेन समिश्रमचित युभवारिणा ॥१८॥ १२
भ्रयुत ** तर्पणाप्पुत्र+* उन्मादी जायते रिपुः ।
काकरवतेन सम्मिधमदित शुद्धवारिणा ।{ १६॥
भ्रयुत तर्पगालुत्र काकवद् भ्रमते महीम् ।
उलूकरच्घमिधमवचित धुभवारिणा ॥२०॥
सिषुरन्धरे भ्ठ पय अधुल्ज्छ न उठायः १
मारजारिबालरव्तेन मिधित्ताञ्जलतर्पृण।त् "‹ ॥२१॥
त्चिव उयाच"--
वक्ष्ये होमविधि सम्यक् सावधानेन श्रूयताम् ।
श्रयत पुत्र होम" च पिचुमदफेहुनेत् ।\६॥
भ्रयत्ताच्छनुसदाये भ्नानतभीतो* भवेद् धुवम् ।
करवीराणि रक्तानि"* भ्रयुत चाज्यसयृतम् ॥४॥
हनत् व्रिकोणङ्कण्डे तु प्रयुताद्* रिपुमारणम् ।
विपतिन्दुकबीज च सोवौरद्वसयुतम् ॥५।॥२
प्राममध्ये हुनेन् मन्ौ भगाकारे च कुण्डके ।
तदु्रामे वेदशास्थापि सवं विस्मृतिमाप्नुयात् ॥1६॥
शेपभावापतिप्रद्यः* "स एव जडतामियात्”= ।
वटमूल समाश्रित्य कृत्वा कुण्ड चिक्रोणकम् ॥७॥
तत्फलेन नेद् रात्रो प्रयुत चज्यमिध्रित ।
भापापत्तिसमो विद्रास्तत््षणाद् भ्रान्तिमाप्नुयात् ॥८॥
, मश्वप्यमूलमाधित्य पट्कोणाक़ृतिकुण्डके ।
तत्फल च हुनेद् रात्रीः श्रयुत चाज्यमिधितम् ॥६॥
स्फोटक्त्रणसयुकतो श्रिते यमद्यासनात्*^ * 1
उदुम्बरस्य › मूले तु षट््कोणाकृतिकुण्डके ॥१०॥
कोमल तत्फल सम्यगृत चाज्यमिधितम् ।
जुहुयाद्रजकस्याग्नौ जुहुयादक्षिणामुख ** ॥११॥
ग्राम वा नगर वाय रण राजकुल (तु वा^१२॥
नाडीत्रणसमायुक्तो नानादु सेन पुत्रक ॥१२॥
नियते “न च"१४ सन्देहो नाध्र कार्या विचारणा ।
राजवृक्ष समाध्ित्यं तःमूले च कुमारकं ॥१३॥
॥ श्रयाष्टाविशशतिः पटल ॥
वालभानुप्रतौकाशार नोलकोमलक्ुन्तलाम्* ।
वण्देऽह बगला देवी स्तम्भनास्त्रस्वरूपिणीम् ।॥ १
स्कन्द उदाच--५
विश्वनाथ नमस्तेऽस्तु विरूपाक्ष नमो नमः ।
सुगम" स्तम्भविद्याया प्रयोग वद शद्धुर ।॥२॥
श्रियम उबाच--
वगरलाहूदय मनर गुप्नगुप्ततर°तथा ।
एतच्छुवणमात्रेण म्रसिद्धिमवाप्नुयात् ॥॥३॥
नष्याननचहोमचन जपन चतर्पेणम्।
सकृदुच्वारणान् मन्राज्चिन्तित' * भवति ध्रुवम् ॥४॥
न चामिपेक न च मदोक्षा,
न चात्र" दिक्काल ्तुरचव^^ देवता! ॥
न चापि प्ञ्चेन्धियनिग्रह् च,
सकृत् स्मरस्व वगलाल्यहू"मनुम्! * {५॥
वगलाहूदय मत्र ब्रह्यादीना च दुलभम् १
सञ्कत् स्मरणमात्रेण वाच्दित फलमाप्ुयात ॥६।।१५
ईश्वर उयाघ--
स्पृ सवण चैव चितामस्म सम समम् 1
भ्रकंसोरेण सत्वेन मरहुयेत्* सूक््मदोऽनघः ॥1३॥
भ्रत्न.ष्टमाघ्राः कृत्वा तु पृत्तली पूववत् सुत ।
वदरीकण्टक" चैव सर्वाद्ने तस्य वेपयेत्* ॥1४॥1
भ्रारालस्य माण्डे तु प्रघोमुखो^विनिक्षिपेत् ।
“भ्रद्नारवासरे पूज्या"*पुनस्तवरेव निक्षिपेत् ॥५।॥
एव माततय छत्व "जिह्वास्तम भवेद् रिपोः 1
रवौ राघ्रो च सगृह्यः चिताभस्म समादरात् ॥६॥
वगलाष्टाक्षरोमन श्रयूत्त म्रवेत्'" * सुत ।
खानि पानि चे तद्भस्म दातव्य व॑ंरिणस्तथा१+ ॥७॥
जिह्वा मुख! * च कर्णाक्षिपादादिस्तभने१ग भवेत् ।
तेनेव भयते शनूर्मातान्मण्डलमाघ्रतः** ॥८॥
श्रारनालेन\* तद्भस्म रहस्येन विनिक्षिपेत् *\ ।
तदन्नभक्षणेनेव वुद्धिन्न ोभपि"* जायते ॥६।॥1
तद्भस्म तिततेलेन दियोभ्यद्ध समाचरेत् 1
तेनैव त्तक्षणात् पुन१८ चित्तचाञ्चत्यवान् "£ भवेत् ॥१०॥
तद्भस्म चूर्ण॑मिश्रः * कृष्वा चूल चं वर्णेकम्^*" 1
(तेन श्स्ततक्षणाच्च'९ बुद्धिजाडयो वेद् ध्रुवम् ॥११॥
विप्रचाण्डाख्योः दात्य> (सत्य) प्रेतवस्त्रेण वेष्टयेत् ।
वगलाष्टाक्षरीमनर* मत्रयित्वा सहस्रकम् २५ ॥१२॥
शत्र । १६ रा. चित्त चाञ्चल्पवाम् । २०. रा. मिश्रतु। २६. रा. त्वा ताम्रून-
वर्णम् १ २२. स. छृष्वा स्लणाच्छु ॥ २३. रा चल्य। २४. रा बगला
मन््रौः। २४. रा मवस्त्रक्म्।
एकव्र्तः पटलः {घ
~~~ ~~~
+) श्रय दवात्रश्चत्पदलः ॥
मर्मरादौ तव वोजपूरवेकमय कलौ न्तुम्ल" सौ*ग्लो जपन्],
तात[द्]ध्यानपरय[णु परत्तिदिन गोत्ता (ता) क्षमालाघरः1
साध्याकपेणवइयमायु वले साध्यस्य शोघ्र भवेत्,
भ्ेताद्यासनपूविकरेर विवस्तने तत्परेमभूमो निक्षि ॥१॥1
फ्ोञ्चसेदने उवाच--
नम. परापविडूराय नमस्ते चन्द्रशेखर् ।
बगला चोपस्रहादविद्ा वद सुपरावनो [म् 11२॥
हैष्वह उवाच--
ब्रह्यास्थस्तम्मिनो कालो विया चास्वमुपावने* !
तस्यास्नत्स्मरणादेव 5वगता शान्तिमाप्नुयात् ३५1
तद्धिया च प्रवक्ष्यामि सन्तौ९तच्छणु "° पप्मुख 1
उच्चरेष्छक्िवाराह वाराहे** ठदनन्तरम् ॥1४।1
पाग्दोज च ततो (यो) च्वायं मुकेक्षी** तठः परम् ।
महामाया" तततो {योच्चार्यं घौवोज तदनन्तरम् ॥५।॥
फालीशन्ददय१* घोक्ना (पत्वा) महारासोषद ^ * वदेत् ।
एहि शब्दद्वय चोक्छा कालरात्रो (भि) पद वदेत् ।।६॥
स्फुरद्रय घमुच्चाम्ये प्रस्फुरद्वितय'* लिखेत्१* ॥७॥1
स्तमनास्पपद चोक्टवा शमनीरदमुच्चरेत् 1
हं फट् स्वाहा-हमायुक्ते सनव्रमेवे घमुद्धरेत् ^~ ८11
प्चाशदूद्घ्वमत्रस्प१८ वर्ण्रपिभूपितम्*“ 1
ब्रह्मास्वस्तमिनोकालौमन्तमेतन्न स्य. ॥1६॥
पलाक्षमूलमाधित्य लक्षभनेक जपे[त्]स्मयः१* 1
तत्पयेत्तद्धाशचेन** कूंरमिधिते जततं.*२ )१०))
१, रा.मत्ति! २ सा. ३ रल्डे( #र/ ग्परयलु। ५ र
भेक्ाम्या्ठन० + ६ रा चमन्ा। ७ सा. दास्यम) =. वस्य स्परएमरषण)
€ क. श्रावं} १०. रनचब्यणु। षष्-रा हृदुार। १२. रा. मुवनेश । १३,
श. मम मापा । १५. रा. कालि०। १५ रा. महाङलिर ८ १६ रा सद्कगेहुदप।
१७, रा. ददेत् १ १८. र घमुम्देत् ; ३६. यं म्स; २०. श. मदन
शिमूपिन.। २१. रा. उवे । २२. ्ठदट्णस्य ब) २१. स. जलम् ।
न्द | पास्यायनतम्ये
~~~~~~-~~~---~~~^~^ ~
॥ श्रथ चरयस्त्िश्ञत्परल ॥
पीनेत्तञ् जटाकलापविलपद्भ लेन्दुच्ेखर।म्,१२
बिभ्राणा शितशान्तकरम्भमुकुटा १३ (ट)ेव्रयालड. कृताम ।
शब्दव्रह्ममयी तरिल्लोकजननीं श्रक्ि परा लाम्भवोम,
देवोश्रीवगला सुरासुरवरेरभ्यचिता भावयेत्** ॥१॥
प्रौञ्चमेदन उव।च--
ईश्वर उवाच--
कपिलानवनीतं च कदलोपन्रमध्यतः› ।
त्िपृत्वा* मयं सिखेत्तत्र कृतवा पूजा च ापकः ५३४
‰^षटुकोणं चाष्टकोणं च वृत्त मूपुरमेव च ।
पट्कोणकणिकायां व (च)पद् बोजानि मनोलि खिद् ॥४॥
शिष्टाक्षरामि कोणेषु ब्रह्य्लस्तम्मिनीमनुः ।
भ्रष्टन्ने लिखेन्पेत्र ताक्षयंमालामनुस्तथा ॥५।५
कोऽयंस्ताकषयंमनुदचेत्ि वक्षयेऽह् मन्थनायकम् 1
8 भ्राचयवणं समुच्चाय्ये ताक्षयेबोज ततः परम् ((६॥
ॐ नमो पदमुच्चाय्ये पञ्चाद् भगवते पदम् ।
ता्ष्यंवीज पक्षिराजायोक्त्वा तायं तततः परम् {॥७॥
सवेशब्दं उतो (यो) च्चा अभिचारपद वदेत् 1
ध्वक्षकाय प्रद क्षोमों हं फट् स्वाङ्ा-समणिकितिम् ॥८॥ 8
त्यस्य मालामन्वश्च द्वातिशद्रणेसयुतम् ।
भष्टप्ते वेदवेदवर्णान् पूर्वादितो लिखेत् *&१\*
ईश्वर उवाच
त्व वद महादेव यदि पुत्रोऽस्मि ठै बद
रहस्यातिरहस्यं च कथ्यते ष्णु पुन ॥३॥
्रमत्याना च दुष्टाना दूपहाना दुराट्धनाम् ।
सुरप्रदादिजपतीना सेन्यानमवि पुत्रक 11४॥1
फररप्रहदिनाश्चाय षदेशान्त्ययेमेव च 1
पररासिचारशान्त्ययं रक्ताय च विशेषनः ॥४॥
शरपमृह्युविनाशयं रोग्ान्त्वथेमेव च 1
परसेनाविनाश्ाय स्वसेनारक्षणाय च \1६॥}
धार्म च प्रां च विजयायं च पण्मुद् ।
वेतालाश्ष्च विनाशा मेरवादिप्रशान्तये 11७1
खसस्तविपनिर्नाये मुष्टिङुक्षिविघादपि 1
कषस्वास्ववागवनि चहारस्त्रादिनने प
शस्थास्पस्वम्मते पप्र तदच्छवि(व)विषावयि।
स्तन्दीकरणनिनाशि(्णाये) यृतकोत्वापनेऽपि च ॥६॥
देशोषद्रवनाश्ाये राषटरमद्गे समागते ।
कोटिङत्याविनायायं स्वेष्टरक्षणकर्मणि १०)
हृतनष्टपणष्टादिव्।खगकमनेयनातिपु ।
पत्रपुप्पफनं शालाजदाह्वकष्लौ
रनोरके ॥ १९1
महाविपे तैजहे तु विष्मू्रविजरहृवे
उद््ान्तधुतिनाश्ये वटङृत्यादिनःचने । १२
जलङ्कत्पाविनाद्ा्े स्यलङ्कद्फाविनाश्चने ।
वृक्षङृव्यानाचनार्ये रन्यङृत्यादिषावकी
(पि) ११२५
महिश््रपदनिनि विरू डानारनेऽपि च
मेरूडना्ना्थे च रिकपविशरभेरवे ॥१४॥
षस्यस्तमे दाना मन्प्रमण्डतरेगहूत् ॥
इप्तव्रहास्वयोगोऽयं सर्वंघा चलति धकम् ॥१६॥
प्रमोघमू्युनाशचाय समष््ववेकमाय (प्)दि 1
त भ्रयोगमहापोग ग्यृणु खावदहितो मव 11१६५
१०४ साहपरायनतनत्े
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परिशिष्टम्-(क)
ऋपव्पादि.यासच्वानाद्ियुताः
1 सांस्यायनतन्त्रगता मन्त्राः ।४
१. एकाश्रीवगलाप्न््ः--
ह्वी ¦
~ ३ श्रस्य श्रीवगलामुप्येकाक्षरी महामन्त्रस्य ब्रह्म ऋपिगयित्रीदन्द
श्रीवगलामुखी देवता लं वीज, द्धौ यक्ति, ई" कौलक्त श्रीवगलामुग्ीदेवताम्बा-
प्रसादसिद्र
यथे जपे विनियोन ।
चष्यादिन्यासः -- गरहयपेये नम॒ रिरि, गायगीदन्दसे नमो मुस,
श्रीवगलामुपरीदेवतायै नमो हृदि लं वौाय नमो गुद्धे, हौ यक्ते नम. पादयोः,
रे कीलकाय नम स्वद्भं। >
फरग्याप्त.-ञ द्वं प्रद्गुषठाभ्या नम, ॐ द्वी तर्जनीम्या स्वाहा,
ॐ हतं मध्यमाम्या वधद् ॐ दृते अननामिकाम्या हुम्, ॐ ह्ली कनिष्ठिकाम्या
वौपद्, ॐ हलः करतल करपृष्ठाम्या फट् ।
हृदयादिन्या्त.-> ल्ल हृदयाय नम , द्वी धिरमे स्वाहा, ॐ ह्लूं
क्षिषायै वपद्, ॐ हले कवचाय हुम्, ॐ द्धीनेतरयपाय गपट्, ॐ ह्वः भरखाय फट् ।
प्यानम्-- वादी भूकति र इति क्षित्िपतिर्वेद बानरः धीतति,
क्तोधी शान्तति दजन सुननति किग्रानुगः खञ्जति ।
गर्गी खर्वति सर्बविच्च जडति त्वचयन्त्रिरा यन्तितः,
श्रीनित्यै वगलामूसि प्रतिदिन कल्याणि तुम्य नमः ॥
[पञ्चमः पटल -- पृठ- १२, १३]
२. श्वोव्फपत्यटपिशदक्षरोवियामन््ः-ॐ> दी वगनामूति सरवदृष्टाना
पाच मुप प्रद स्तम्भय जिह्वां कीलय वुद्धि विनाधय द्वौ ॐ स्वाहा 1
ॐ ग्रस्य ध्रीवयलानु रीपटु्रिरदक्षरीविद्ामहामन्रय श्रीनारदग्छपिः,
वृहतीधन ,* श्रीवगलामुसौदेवता,
4 ले बीज, दं पक्ति, ६ पीलवर, श्रीबगता-
भुसीदेवताभ्रसादसिडपये जपे विनियाग. ।
~ =-= ५
१ स क्यभ्यद + र. (पतृषडुरपुन्" प्यत्र ह्यते + द" ^ (षयन्यत्र ॥
पिदयम् {क} पै
91
१० श्रष्टाविशत्ुत्तरंफदयताक्षर श्रोवसामुखोपरगिदःनेदनमन्ध्रः १ --
ह्वी भ्रीदह्धौ श्लौ एं क्ली हुं श्री" वगलामुभि पदप्रयोग ग्रस ग्रस ॐ
ह्वी श्री द्धी म्नौ रे क्तो हक्षी ब्रह्मास्तल्पिणि परप्िचाग्रसिनि भक्षय
भक्षय घ्य्ह्टीध्रीद्टी म्नौ रँ ज्सौ क्षौ परपरनाहारिणि प्रजा भ्रगय
भरण्य अ ह्ली शौ हो र्म्नाणए क्ली हँ क्षी म्तम्मनाबन्पिशि वुद्धि
नाश्य नादाय पच्चंन्द्िपनान भक्ष भक्त च्द्धीश्रीह्ीग्लौए कतीह
बगलामुखि ह फट् स्वाहा ।२
ॐ म्रस्य श्रीपरविद्याभेदिनीवगलाम"त्रस्य धीप्रहणा कपि गायतरीद्युनद,
परविद्माभक्षिखौ नरीवगलामूसी देवता र्शर वीज, द्धा शकि ता कीलक,
श्रीयगलादेवीप्रसादसिष्िद्रारा परविद्याभेदनार्थे जये विनियोग ।
ऋष्यादिन्यास --श्रीवह्यपंय नम शिरसि, मायनीदन्दने नमो मूचै,
परविद्याभक्षिणीश्रीवगलामुखीदेवताये नमा हृदये, ग्रा पीजाय नमा गृह्य, ही
शक्तये लम पादयो, करो कीलकाय नम सद्धिं ।
करन्याप्त -ग्रांह्धी कनो भ्रद्गृष्ठाम्या नम, वद वदतजनीम्या स्वाहा,
वाग्वादिनि मघ्यमाम्या वषट्, स्वाहा श्रनामिकामभ्या दु, ए वलौ सौकनिष्ठिकाम्या
वौपद्, ह्वीकरतलकरपृषठाम्या फट् ।
हुदादिन्यास यां हीक्रो हृदयाय नम, वद वर शिरये स्वाहा,
वाम्बादिनि शिखायै वपद् स्वाटा कवचाय द, ए क्ली मौ ननप्रयाय यीष्द्, ती
श्रलायाष्् 1
ध्यानम्--सपमन्प्रमयौ देवी सवकिपं
णकारिणीम् ।
सर्वंविद्याभक्षिरी च भज विधिपूर्वकम् ॥
[विद्य पटल -पृष्ठ-५४-५५ |
११. त्रिचत्वार््ञदक्षरो वगलास्वरमन््र -ञ् धी ह म्नौ द्वी
यूम प्रस ग्रस खाहि सहि नक्ष भक्ष योणितत पिव पिव
वगलामुखि मम ५
बगलामुखि ह्ली म्लनी हु "फट् स्वाहा" ।
त दस्त वसोर मत्र ्तविशोत्तरगता्षर एव भवति । २ ^्षोहटुष
बली ्ी' तथा ध्यु एव बह्म इति पाठनदो व्दचिदयेते ॥
३ पचध पुस्तकेतु“ श्ब्दस्णोर्योयो नावतोक्यते, न चंता एर स्याह गम्दय्यवहुवरत्त-
मि ताच्ददयी श्ल्याबस्यको साभ्या वरसल्यानुपूरकप्वाव् ४ राक् पुस्तके "फट्-
स्वाहा" स्याने हां स्वाहा" इति दृश्यते । अप्र धुस्तकेऽप्यय म प्रो द्विचत्वर्रिरवभराह्म+
व मुहोतः किन्त्वक्ौ शध्यादिन्यापसे *रद् कौतक मिति प्र्हृएपवसनाधुरेव प्रतीयते ।
परितति्टर् (क) १९३
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परिशिष्टम् (ख)
॥ य वच््रपञ्ञरक्वचस्तानम् ॥।
> ४.८
परिशिष्टम् (ग)
॥ श्रय वगलामुलीत्रेलोवयविजय नाम कवचम् ।४
घीभैरव उवाच--
पपरु देवि प्रवक्ष्यामि स्वरदस्य च कामदम् 1
श्रूत्वा गुप्तम गोप्य कुरु गुत् सुरेरवरि.॥१।)
कवच वगलामुख्या सक्लेष्ट्रद कलौ ।
यत्सर्वं च पर गुह्य गुप्त च शरजगमन ॥२।1
प्रैलोक्यविजयं नाम कवचेश मनोरमम् ।
मन्सगर्भं मन्नरल्प सकवमिद्धिविनायकम् ।२॥।
रहस्य परम ज्ञय साक्षादमूतरूपिणम् ।
ब्रह्मविद्यामय वम दुर्लभ प्राणिना कलौ ष
पूंमेकोनपश्चाणदरणेमन्तमयुतम् 1
त्वदुक्त्या वच्मि देवेदिं गोपनीय स्वयोनिवत् ॥५।१
~न
परिशिष्टम् (घ)
॥ श्रय, श्रोपोताम्बरारत्नावलोस्तोच्रम् ॥+
॥ श्रीगणेशाय नम" {1 श्रीपीताम्बरायै नम" (1
श्रोद्धारद्रयसम्पुटान्तरपुट मायास्थिराद्रन्दित,
तम्मध्ये वगलामुखीति विमल सम्बोधन स्वं च ।
दृष्टानामथ वाचमायु च मुख^सस्तम्भयेतयक्षर,
जिह्वा कीलय कीलयेति चर लिखेद् बुद्धि तथा नाराय 11१॥
्रह्मस्त्र सकलाथ सिद्धिजनक पटूत्ि्दरणारमक-
म्भरोक्त पद्म्ुवा हि्ताय जमता यन्नार्दाप्रे पुसा ।
परिशिष्टम् (घ) १२
१1
° ये-जानन्ति जपन्ति सन्ततमनिध्यायन्ति गायन्ति वा,
ते वन्दा विवुेश्चरन्नि शुवने सिद्धाचिता. सिद्धये" ॥३७।
स्वाहादाक्तिस्णासने तव ऋपिः श्रीनारदो देवता,
नित्या श्रीवगलामुखी निगदिता छन्दो भवेत् तिष्टुभम् ।
मरीज तु स्थिरमायया विरचित नानाविधस्तम्मभने,२
प्रोक्त प्ममुवाऽसिलाह्तिविनियोगोऽप्यच्युताकारता ॥३५॥
हय सर्वंसुरेदवरेश्च -छपिमिरदुष्राप्यमेवादुयुत, र
स्तोत्र गोप्यतम स्वभाग्यवरात प्राप्न" पटिष्यन्ति पे ।
सुव््या देवगुरु “धनेन धनद” जित्वा चिरघ्खीविता,
पण्मासात् सुलसागरे दिवसमाक्रीडा करिष्यन्ति ते ।१३६॥
देवी स्वप्नगमता स्वयैव लिखित मह्य ददावद्युत,
दिव्यास्त्र पुरत पटस्व विमल सिन्दुरवणं करं. !
रोमाच्चाद्धुितहपं
माप्य नुलितेर्गं ° पठन्त नर-
प्रा्गोऽह् परमोदयप्रदमिद ज्ञान कवीन्द्रादिदम्=॥४०॥
प्राना श्रौवगनामुखीवदनन स्वप्ने सुविद्य( मया,
पटुतरिशद्धिरिमे. सुवणं निचयं सद्रीजरतनावलौ ।
येषा कण्ठगता विभाति जगतीपीडे प्रयोगक्षमा,
वद्याकपंणमोहमारणविधौ स्तम्भे तथोच्चाटने ।1४१॥
चलत्कनककुण्डलोदसितचारगण्डस्थलाम्,
लसत्कनकचम्पकयुतिविराजिचद्राननाम् 1
गदाहुतविपक्षका कलितलोलजिह्लाच्रला,
स्मरामि वगलामूखी विभु्ववाडमु खस्तम्निनीम्* ॥४२॥।
भ्रा -1
पुष्ठाद्ु पच्याद्धु
पृष्ठद् धाद
मक्षदेद् बदरोमात्र ईर मनतात जगमग" ५७ ॥1
मगाज्ारे सुदष्डेऽस्मिन् ६० मनोष्दाह्सिं चोक्त्वा 11; ६
मनेऽह् रू लिका देनी ८८ परन्वजोवनविदाद ॥, १५
भवे-द् चास्वदगला ६० म-तरान्ते च प्रकतंव्य ४१ 1}
भजेष्टूस्तम्ननभंच ॥1 मगवमध्याप्येत् सम्यक् ६ 1
भदद्रिागिहीनोऽपि ५६ मन्र्स्त व्रिसटन्यतु पै ३०
भमुज^शोएितेनेव २६ मन्व्पन्निम्दपतेय ५२ २५
भूनप्ररपिदाचाचाः २२ मन्वदाउस्प नपतो ३१ र्र्
भूरर्पविपरित चव ॥31 मण्दरसनप्य विनामन्व ११ २६
भूपुर् गृत्तयुमवच ६३ मन्व्रहिदिमवाप्नोति 1 १२
भूपे लिखमनाम ५० मगवहिटिभेवेत् धिप्र १ ०
भृषुदि भृतु १२ म^वसिरनरेत् पुष १६ ३
भृगवे चष्गृ्य ६४ मप्रनिदिभउेत् षणो ६ 91
भृगुवषरे च सगृ ६६ मन्दो वव रोउपूक्ण्यम १1 1
भैष्पो योगमय ३० म पं॑जुटृउानमवो ४२ टि
भोमवार् निषनम्नो १५ मम्रता सिदपोऽविद्पोपि १६ २१
धमचाने ४२२1२ २८ मन्शोदधार प्रवद्मापि २६ |,
परष्टर।जय वमेहुक षर भववोशृधार ध्यप्पयमि ६६
पवातविर) मवस्थच ७9३ मन्बोरप्ार् प्रब्द १४
मन्थोटार प्रजद्पानमि ५५४
म मण१द् प स्वद्यााम १४
मष्दलम्बष्नेगप षश भनेर एवदयनि ॥ 60